सीलन- भाग 1: दकियानूसी सोच से छटपटाती नवेली

नवेली ने जैसे ही फोन नीचे रखा, उस का दिल धकधक कर रहा था. मोहित की हर बात उसे दूसरी दुनिया की तरफ खींच रही थी. नवेली को विश्वास नहीं हो रहा था कि मोहित जैसा हैंडसम और इतना अच्छा लड़का उस के लिए दीवाना हो सकता है.

नवेली खुशी में गुनगुना रही थी कि तभी उस के पापा अनिल बोले, “नवी, क्या बात हुई?”

नवेली इतराते हुए बोली,  “कुछ खास नहीं. बस यों ही.”

तभी नवेली की मम्मी राशि बोली, “अरे नवी, अपनी आदत के अनुसार अपना तन, मन और धन मत न्यौछावर कर देना. थोड़ा सोचसमझ कर फैसला लेना.”

नवेली झुंझलाते हुए बोली, “मम्मी, मोहित से आप की पसंद से ही शादी कर रही हूं. अब भी दिक्कत है?”

राशि साड़ी का पल्ला ठीक करते हुए बोली, “नवी, तुम्हें कोई दिक्कत ना हो, इसलिए बोलती हूं.”

नवेली 22 वर्ष की सुंदर युवती थी. अपने मातापिता की वह इकलौती बेटी है. नवेली के मम्मीपापा बहुत ही लिबरल विचारों के हैं. उन्होंने अपनी बेटी पर कभी कोई रोकाटोकी नहीं की थी. नवेली के मम्मीपापा

अपनी अपनी दुनिया में व्यस्त थे. नवेली के छोटे कपड़ों पर उन्हें कोई दिक्कत नहीं थी और ना ही उन्हें नवेली के बोयफ्रैंड्स पर कोई एतराज होता था. नवेली को अपने मम्मीपापा, मम्मीपापा कम फ्रैंड्स ज्यादा लगते थे.

नवेली को अंदर से खालीपन लगता था. नवेली को एक भरापूरा परिवार चाहिए था, पर उस की जिंदगी में थी ढेर सारी फ्रीडम और अकेलापन. एक के बाद एक बोयफ्रैंड्स नवेली की जिंदगी में आते गए, मगर हर लड़के को नवेली के विचार बेहद बचकाने और भावुक लगते थे. उस के सभी बोयफ्रैंड्स नवेली की तरफ आकर्षित थे. मगर प्यार से उन्हें कोई सरोकार न था. आज की युवा पीढ़ी की तरह उन के लिए भी प्यार का मतलब था घूमनाफिरना, पार्टी  और सैक्स करना. हर लड़का कमिटमेंट से दूर भागता था.

नवेली की जिंदगी में सबकुछ था, पर नहीं था तो बस एक ठहराव.

उसी प्यार भरे ठहराव की तलाश में जब नवेली ने 22 वर्ष की उम्र में ही शादी करने की इच्छा जताई, तो

पहले तो राशि और अनिल ने ध्यान ही नहीं दिया था. मगर जब एक रोज नवेली ने खुले शब्दों में अपने मम्मीपापा से यह बात कही, तो अनिल ने शादी की वैबसाइट पर नवेली का प्रोफाइल डाल दिया था. एक हफ्ते में ही नवेली के प्रोफाइल पर 10 से भी अधिक प्रपोजल आ गए थे. हमेशा की तरह फैसला नवेली के हाथों में था.

नवेली सभी प्रोफाइल्स को चेक कर रही थी. कहीं पर हाइट कम थी, तो कहीं पर परिवार ही अधूरा था. तभी नवेली की निगाह एक प्रोफाइल पर रुक गई. खिलता हुआ गोरा रंग, ऊंचा लंबा कद, एथेलेटिक बदन, गहरी काली आंखें और बेहद प्यारी मुसकान. नाम था मोहित और वह दिल्ली में रहता था. एनुअल इनकम 70 लाख रुपए के आसपास थी.

नवेली ने अपने पापा को मोहित के बारे में बताया और फिर दोनों परिवार ने एकदूसरे के बारे में जानकारी एकत्रित कर ली थी.

नवेली के पापा की संपन्नता और नवेली का भोलापन मोहित के परिवार को भा गया था, तो वहीं मोहित की

इनकम, पढ़ाई और उस का भरापूरा परिवार नवेली को पसंद आ गया था.

मोहित के परिवार में उस के मम्मीपापा के अलावा उस की छोटी बहन शिप्रा भी थी. मगर मोहित के सभी

रिश्तेदार आसपास ही रहते थे, पूरा परिवार एक गुलदस्ते की तरह एकसाथ प्यार में बंधा हुआ था.

मोहित की बातों से नवेली को लगता, शायद उस की तलाश खत्म हो गई है. मोहित को सैक्स से अधिक वैल्यूज में इंटरैस्ट था. दोनों की फोन पर घंटों बातें होती थीं.

मोहित का परिवार जुलाई की एक अलसायी हुई दोपहर में नवेली से मिलने आया था. मोहित के पापा नवेली को बेहद सुलझे हुए लगे, तो उस की मम्मी कल्पना भी उसे बेहद ममतामयी लगी.

नवेली ने अपनी मम्मी को कभी अस्तपस्त नहीं देखा था. वह हमेशा टिपटौप रहती थीं, वही हाल उस के पापा अनिल का भी था. अकसर लोग नवेली को उन की बेटी नहीं छोटी बहन मानते थे. इस कारण नवेली को अंदर से बेहद कोफ्त होती थी. उसे मम्मीपापा जैसे दिखने वाले मम्मीपापा चाहिए थे. आज नवेली को लग रहा था कि उस का सपना शायद पूरा हो जाएगा.

नवेली ने बेहद सोचसमझ कर सफेट कुरता और पलाजो पहना था, सफेद जमीन पर लाल और हरे फूल उस कुरते के साथसाथ नवेली को भी ताजगी दे रहे थे. अपने सुनहले घुंघराले बाल उस ने यों ही खुले छोड़ दिए थे. चांदी के झुमके, आंखों में काजल और होंठों पर न्यूड लिपस्टिक सबकुछ बेहद ही मनोरम प्रतीत हो रहा था. वहीं मोहित नीली शर्ट और काली पैंट में बहुत हैंडसम लग रहा था. मोहित ने शायद आज शेव भी नहीं की थी. छोटीछोटी दाढ़ी के बाल नवेली को अपनी तरफ खींच रहे थे.

मोहित नवेली को अपने काम के बारे में बता रहा था. मोहित कह रहा था, “नवेली, मैं चाहता हूं कि तुम रानियों की तरह रहो. पैसा कमा कर लाने की जिम्मेदारी मेरी है और घरपरिवार को मैनेज करना तुम्हारी.”

नवेली आंखें बड़ीबड़ी करते हुए बोली, “तुम्हें क्या हाउसवाइफ चाहिए?”

मोहित शरारत से मुसकराते हुए बोला, “मुझे बस तुम चाहिए. तुम को मैं एक नए सांचे में ढाल लूंगा.

“मेरे विचार थोड़े पिताजी जैसे जरूर हैं, पर तुम्हें बेहद सिक्योर रखूंगा.”

नवेली की आंखों में आश्चर्य था. वह कभी भी मोहित जैसे लड़के से नहीं मिली थी.

मोहित आगे बोला, “मुझे तुम जैसी सभ्य लड़कियां पसंद हैं. मैं उन लड़कियों को नापसंद करता हूं, जो छोटेछोटे कपड़े पहन कर दूसरे लोगों को सैक्सुअली एक्साइट करती हैं.”

नवेली बोली, “मोहित, मैं तो शॉर्ट  पहनती हूं.”

मोहित बोला, “बाद में भी पहनना, मगर बस मेरे लिए.”

नवेली को लगा कि मोहित  उस को ले कर कितना संजीदा है… और लड़कों की तरह नहीं है वो.

नवेली को मोहित कुछ अलग सा लगा, मगर इस से पहले वो कुछ और समझ पाती, उस की और मोहित की मंगनी हो गई थी.

जैसे कि आमतौर पर होता है, मंगनी के बाद दिन सोना और रात चांदी हो जाती है, मगर मोहित आम लड़कों की तरह रातदिन फोन नहीं करता था. जब भी मोहित फोन करता, वो तब नवेली को दूसरी ही दुनिया में ले जाता था.

मोहित कुछ बातों में बेहद रिजिड था, इसलिए नवेली चाह कर भी मोहित से अपने अतीत की कोई भी बात नहीं बता पाती थी. मन ही मन नवेली को लगने लगा था कि वो हर स्तर पर मोहित से उन्नीस ही है. रंग, रूप, आचार, व्यवहार, हर स्तर पर मोहित उस से बीस ही है.

एक मुलाकात ऐसी भी- भाग 4: निशि का क्या था फैसला

दोस्ती होना तो लाजिमी ही था न. देखो, तुम्हारी और मिसेज सक्सेना की दोस्ती तो चंद घंटों में ही हो गई, जबकि हम तो पूरे 15 दिन साथ रहे थे. इसी दौरान एक बार मेरी तबीयत भी बिगड़ गई थी तो सक्सेना साहब ने ही मुझे संभाला था और वे सारी बातें यहां आने पर मैं ने तुम को बताई थीं.

‘‘हांहां, मुझे सब याद है,’’ मैं कुछ खोईखोई सी बोली.

‘‘उन्हीं दिनों हम दोनों, एकदूसरे के बेहद करीब आ गए थे. दोस्ती के उन्हीं लम्हों में हम ने आपस में एक वचन लिया कि समय आने पर मिशिका और पार्थ की शादी कर देंगे. आज पार्थ आई.ए.एस. हो गया है. मगर दोस्ती में किए गए वादे में कहीं कोई कमी नहीं आई है. सक्सेनाजी के पास तो अब कितने अच्छेअच्छे आफर आ रहे होंगे जबकि यह जानते हैं कि मैं ने तो जिंदगी भर शोहरत और इज्जत के अलावा कुछ नहीं कमाया. मेरे पास अपनी मिशिका को उन्हें सौंपने के अलावा और कुछ देने को नहीं है.’’

सक्सेना साहब ने जज साहब का हाथ अपने हाथों में ले लिया था और भावविह्वल हो कर बोले, ‘‘ऐसीवैसी कोई बात मत कीजिए जज साहब, नहीं तो मैं उठ कर चला जाऊंगा. जिंदगी में सबकुछ मिल जाता है, मगर दोस्ती, अच्छे लोग, अच्छा परिवार बहुत कम लोगों को मिल पाता है और हम लोग उन्हीं में से एक हैं कि हमें आप मिले हैं.’’

‘‘सुन रही हो निशि. तुम जाति- बिरादरी की बातें करती रहती हो, क्या इन से अच्छा तुम्हें मिशिका के लिए कुछ मिल पाएगा. अच्छे लोग, अच्छे रिश्ते, अच्छे परिवार इन सब से बढ़ कर न धर्म है न जाति है और न ही कुछ और. आज मैं ने बिना तुम्हारी इच्छा जाने इस रिश्ते को हां कर दी है क्योंकि मैं जानता हूं कि मैं सही काम कर रहा हूं और अदालत में आएदिन परिवारों के टूटनेबिखरने के मामले मैं ने सुने और निबटाए हैं, उन में रिश्ते टूटने की वजह यह शायद ही हो कि उन की जाति अलग थी या धर्म. मुझे माफ करना निशि, तुम्हारी बेसिरपैर की बातों के लिए मैं इतना अच्छा रिश्ता नहीं ठुकरा सकता. अच्छा लड़का सोच कर ही पार्थ से मिशिका की शादी की बात खुद तुम्हारे दिमाग में आए इस के लिए ही वह मुलाकात करवाई गई और अब यह पार्टी भी रखी गई ताकि इस ड्रामे का सुखद अंत कर दिया जाए.’’

पत्नी को काफी कुछ कह कर अंत में जज साहब ने उन का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘मेरे खयाल से अब तुम्हें भी समझ जाना चाहिए कि तुम्हारी सोच बहुत संकीर्ण थी. वक्त और जमाने से हट कर थी. तुम्हारे भैया तुम्हारी बात सुन कर अपनी बेटी का जीवन बिगाड़ सकते हैं, पर मैं नहीं.’’

सभी अपनीअपनी बात कह चुके थे. मिशिका और पार्थ भी अपनी स्वीकृति दे चुके थे. अब मेरी बारी थी सो मैं ने भी हाथ जोड़ कर इस रिश्ते को अपनी स्वीकृति दे दी. मिसेज सक्सेना ने उठ कर मुझे गले लगाते हुए कहा, ‘‘बधाई हो निशिजी. सबकुछ कितनी जल्दी हो गया न. अभीअभी तो हम दोस्त बने थे और अभीअभी समधिनें. उन्होंने अपने गले में पहना एक जड़ाऊ हार उतार कर तुरंत मिशिका को पहनाते हुए कहा, ‘‘आज से तुम्हारी एक नहीं, दोदो मांएं हैं.’’

सबकुछ बहुत अच्छा लग रहा था मगर दिल में कहीं एक डर और चिंता थी, जो मुझे खुल कर खुश नहीं होने दे रही थी. क्या करूंगी, कैसे जाऊंगी भैयाभाभी के सामने. यह सोचसोच कर ही मेरी जान सूखी जा रही थी. सभी थक कर सो गए थे, मगर मेरे मन का डर और अपराधभाव मुझे सोने ही नहीं दे रहा था.

अगली सुबह काफी देर से आंखें खुल पाईं. पता नहीं कितने बजे नींद आई थी. घड़ी पर नजर पड़ी तो पूरे 10 बज रहे थे. जज साहब के कोर्ट जाने की बात दिमाग में आते ही मैं तेजी से उठी कि भाभी ने चाय के प्याले के साथ कमरे में प्रवेश किया और हंसती हुई बोलीं, ‘‘क्या निशि, इतनी बड़ी खुशखबरी है और तुम सो रही हो अब तक?’’

जिस बात के लिए मैं अब तक इतनी परेशान थी, वह इतनी आसानी से सुलझ जाएगी, मैं ने सोचा भी न था. मुझे तो अपनी आंखों पर भरोसा ही नहीं हो रहा था.

मुझे हैरान देख भाभी बोलीं, ‘‘सुबहसुबह ही ननदोईजी का फोन आ गया और फोन पर उन्होंने जब रिश्ता तय होने की बात बताई तो हम से रहा नहीं गया और आप की खुशी में खुशी मनाने चले आए. अपने जीजाजी को देखने के लिए अंतरा भी बेचैन हो रही है, शाम को वह भी यहीं आएगी. सक्सेना परिवार को भी बुला लिया है, आज का डिनर मामामामी की तरफ से शहर के सब से अच्छे होटल में…’’ भाभी बोले जा रही थीं.

मैं हैरत में पड़ी भाभी का चेहरा पढ़ने में लगी थी. मगर वहां स्नेह व प्यार के अलावा और कुछ भी नहीं था. मेरे इतना बड़ा दुख देने के बावजूद भाभी का यह व्यवहार…कुछ समझ में नहीं आया तो मैं भाभी से लिपट कर जोरजोर से रो पड़ी.

‘‘भाभी, मैं इस लायक कहां कि आप मुझे इतना प्यार दें. मैं ने आप लोगों को अपनी गलत सोच की वजह से इतना दुख पहुंचाया, मैं तो आप को अपना मुंह भी दिखाने की हिम्मत नहीं कर पा रही थी. मैं कितनी बुरी हूं भाभी, कितनी बुरी…’’ मेरा रुदन तेज हुआ जा रहा था और भाभी मेरी पीठ सहलाए जा रही थीं.

‘‘मत रो निशि, मत रो. अब वह भी तुम्हारा हम से अगाध प्रेम ही तो था, वरना किसी को क्या पड़ी है, अच्छा हो या बुरा हो. तुम्हें गलत लगा, इसीलिए तुम ने रोका और हमें तुम्हारी बात सही लगी इसीलिए हम ने उसे मान लिया.’’

‘‘तुम्हारी भाभी बिलकुल सही कह रही हैं निशि. जो हो गया उसे भूल जा, और दिल खोल कर आने वाली खुशियों का इंतजार कर.’’ तभी कमरे में जज साहब के संग भैया आतेआते बोले, ‘‘मेरे मन का बोझ इतनी सहजता से उतर जाएगा, सोचा नहीं था,’’ मैं ने कृतज्ञता से जज साहब को देखा जिन्होंने अपनी समझदारी से इतनी बड़ी खुशी मुझे दे दी थी. उन्होंने मेरी आंखें पढ़ लीं और मुसकरा दिए.

‘‘मगर अभी तो अंतरा का दुख है मेरे सामने. वह तो बहुत नाराज है अपनी बूआ से. उसे कैसे वापस पा सकूंगी मैं?’’

‘‘अरे, अपने बच्चे छोटेछोटे हैं. ज्यादा देर तक अपने बड़ों से नाराज नहीं रहते. मैं ने उसे समझाया है निशि, उस के मन में तुम्हारे लिए कोई गुस्सा नहीं है.’’ भैया बोले तो साथसाथ भाभी भी बोल पड़ीं, ‘‘और अभी सुबहसुबह ही तो फूफाजी से उस की ढेरों बातें हुई हैं और फूफाजी ने उस से वादा किया है कि अब चाहे उस की बूआ कुछ भी कहें, वह अपनी अंतरा की शादी उसी के संग कराएंगे जिसे वह पसंद करती है. पहले चर्च में अंतरा की उस ईसाई लड़के से शादी होगी, फिर मिशिका की मंडप के नीचे. बच्चे जितनी जल्दी गुस्सा हो जाते हैं, उतनी ही जल्दी मान भी जाते हैं निशि.’’

भाभी अपनी बात कह चुकीं तो मैं ने खुश हो कर तुरंत कहा, ‘‘और अब सब से पहले तैयार हो कर हम लोग वहां चलेंगे. मुझे भी तो अपने दूसरे दामाद को शाम के डिनर के लिए आमंत्रित करना है. उन से भी तो माफी मांगनी है, इस बुरी बूआ को.’’

एक मुलाकात ऐसी भी- भाग 3: निशि का क्या था फैसला

मेरे स्वभाव से परिचित जज साहब ने इस बात को जरा भी तूल नहीं दिया. सामान्य भाव से बोले, ‘‘अरे, निशि, जिस रास्ते जाना नहीं, उस बारे में क्या सोचना. जब हम मिशिका के लिए लड़का ढूंढ़ने निकलेंगे तो देखना लड़कों की कोई कमी नहीं आएगी. अभी तो हमारी बेटी का इंजीनियरिंग का ही एक साल बचा है फिर उसे एमबीए भी करना है. अभी कई साल हैं उस की शादी में.’’

मैं ने भी सोचा कि जज साहब सही तो कह रहे हैं. अपनी जाति में भी लड़कों की कोई कमी थोड़े ही है. अभी ऐसी जल्दी भी क्या है. अंतरा की तरह मिशिका का किसी गैर जाति में अफेयर थोड़े ही है, जो मैं इस विषय में सोचूं.

देखते ही देखते हफ्ता निकल गया. पार्टी का दिन भी आ गया. लौन में ही पार्टी का इंतजाम किया था. पहली बार मिशिका ने पार्टी का जिम्मा अपने सिर पर लिया था. बोली, ‘‘ममा, अभी परीक्षा की कोई टेंशन नहीं है, इस बार मैं देखूंगी सारा इंतजाम.’’

सुन कर पहली बार एहसास हुआ कि बेटी बड़ी हो गई है. पार्थ का खयाल एक बार फिर दिमाग में आ गया. मगर मेरी मजबूरी थी कि मैं चाह कर भी यह रिश्ता नहीं कर सकती थी. मुझे इस समय अपनी भतीजी के गुस्से में कहे शब्द याद आ रहे थे.

घर में मेहमान आने शुरू हो गए थे. मैं ने अपनी सोच को दरकिनार करने की कोशिश की और मेहमानों की आवभगत में लग गई. जज साहब के कुछ करीबी जल्दी ही आ गए थे. अत: वह उन्हें पीने व पिलाने में व्यस्त हो गए. मैं और मिशिका मेहमानों के स्वागत में लगे थे. बेटी पर बारबार नजरें जा कर ठहर जातीं क्योंकि आज वाकई वह बहुत सुंदर लग रही थी. अचानक दिल में खयाल आया कि अगर आज की पार्टी में पार्थ उसे देख ले और पसंद कर ले या उस की मम्मी ही मिशिका को अपने बेटे के लिए मांग लें तो…

अचानक ही वह परिवार आंखों के सामने आ गया. श्रीमती सक्सेना अपने पति व दोनों बेटों के साथ चेहरे पर मुसकान लिए आती दिखाई दीं. समर्थ को तो उस दिन मौल में ही देख लिया था पर पार्थ तो उस से भी चार कदम आगे था. यह लड़का इतना हैंडसम होगा यह तो मैं ने सोचा भी नहीं था. उस पर आईएएस भी. मुझे फिर लगा कि मेरी चाहत मेरी सोच पर हावी हो गई है. फिर से मेरी चाहत जोर पकड़ने लगी कि यह लड़का तो बस, मेरा दामाद हो जाए. तभी नजदीक आ कर दोनों भाइयों ने मेरे और जज साहब के पैर छुए. मन कहीं अंदर तक उन्हें अपना मान गया.

सक्सेना दंपती तो हम बड़ों के ग्रुप में शामिल हो गए और दोनों भाई, मिशिका के फें्रड्स गु्रप में.

पार्टी खूब मजेदार चली. खाना खाने के बाद सभी लोग एकएक कर जाने लगे थे. मगर सक्सेना परिवार अभी जमा हुआ था. मुझे भी उन के जाने की कहां जल्दी थी. मिशिका पार्थ के संग खड़ी कितनी अच्छी लग रही थी. मन में सचमुच ही बहुत मलाल था कि वे कायस्थ हैं.

अब तक करीब सभी मेहमान जा चुके थे. रात के 11 बज चुके थे. 30 अक्तूबर की रात, शरीर में ठंडीठंडी हवा की सिहरन सी हो उठी थी कि मिसेज सक्सेना ने, ‘‘एक कप कौफी हो जाए फिर हम भी चलेंगे,’’ कह कर अभी थोड़ा और रुकने का संकेत दिया.

‘‘अरे, क्यों नहीं, क्यों नहीं,’’ कहते हुए वेटर को 4 कप कौफी लाने का आर्डर दे दिया.

मिशिका दोनों भाइयों को अभीअभी अंदर ले गई थी. शायद अपना शानदार कमरा दिखा रही हो. लड़कियों को अपना कमरा दिखाने का बहुत क्रेज होता है.

कौफी आ गई थी. हम चारों हंसी मजाक के साथ कौफी का मजा ले रहे थे कि वह हो गया, जो मेरी सोच में तो निरंतर चल रहा था मगर हकीकत में उस का कोई अनुमान नहीं था.

सक्सेना साहब ने विनम्रता से अपने दोनों हाथ जोड़ते हुए कहा, ‘‘अगर आप लोग हमें दे सकें तो अपनी मिशिका को हमारे पार्थ के लिए दे दीजिए.’’ उन के कहने के साथ ही मिसेज सक्सेना ने भी अपने दोनों हाथ जोड़ दिए.

मैं तो स्तब्ध, भौचक्की, किंकर्तव्य- विमूढ़ सी रह गई. जज साहब ने मेरी तरफ देखा. दोचार पल यों ही खामोशी में निकल गए फिर जज साहब ने कहा, ‘‘हमें यह रिश्ता मंजूर है. पार्थ हमें भी बहुत पसंद आया है और फिर आप से अच्छा और कौन मिलेगा हमें.’’

जज साहब की हां सुन कर मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि इस स्थिति में अब मैं क्या करूं? न हां करने की स्थिति में थी और न ही ना करने की. फिर कुछ सोचती सी बोली, ‘‘अरे, मिशिका से भी तो पूछना होगा न…उस की भी राय जानना जरूरी है. आप को तो पता ही है कि आजकल के बच्चे…’’

मुझे लगा कि चलो, इस बहाने कुछ तो वक्त मिलेगा सोचने का. फिर कुछ सोच कर मना कर देंगे. सही बताऊं तो भैयाभाभी, अंतरा किसी का भी सामना करने की मुझ में हिम्मत नहीं थी.

मेरी इस बात को सुन कर मिसेज सक्सेना के साथ जज साहब और सक्सेना साहब दोनों हंस पड़े. इस के पहले कि मैं कुछ कह पाती, मिसेज सक्सेना अपनी हंसी रोकती हुई बोलीं, ‘‘अच्छा, पहले यह तो बताइए, आप तो राजी हैं न…’’

‘‘मैं…मैं तो…हां, और क्या. मुझे तो बहुत खुशी होगी आप से जुड़ कर,’’ मैं इस के अलावा और क्या कह सकती थी. जब जज साहब ने इस की स्वीकृति दे दी. ‘‘मगर मिशिका…’’ मैं ने फिर इस से बचने की कोशिश की.

‘‘अरे, निशिजी, मुझे तो बस, आप की ही इजाजत चाहिए थी. बाकी सब की इजाजत तो पहले से ही है,’’ इस बार सक्सेना साहब ने जिस अंदाज में कहा, मेरा चौंकना लाजिमी था. असमंजस में पड़ी बोली, ‘‘मतलब?’’

‘‘अरे, निशि, तुम्हारी और मिसेज सक्सेना की मुलाकात मौल में इसीलिए तो कराई थी कि आप दोनों में दोस्ती हो जाए, वरना तो मैं भी जा सकता था उस दिन. मैं ने तो कोर्ट में व्यस्त होने का बहाना किया था. हम लोग काफी दिनों से योजना बना रहे थे कि तुम दोनों को कैसे मिलाया जाए. सो इत्तफाक से मिशिका की गेटटूगेदर निकल आई. हालांकि मौल में मिलवाना मुश्किल था, लेकिन बच्चों ने सब मैनेज कर लिया.’’

जज साहब बोलते जा रहे थे और मैं आंखें फाड़े उन्हें सुने जा रही थी.

‘‘निशि, जब मौल से लौट कर तुम ने पार्थ के बारे में अपनी चाहत बताई तो मुझे लगा कि हमारा तीर निशाने पर लगा है. प्रकट में मैं ने तुम्हारी बात को तूल नहीं दिया था.

‘‘निशि, तुम्हें याद होगा कि 4 साल पहले मैं जब एक सेमिनार में अमेरिका गया था तो वहां उस में सक्सेना साहब भी मिले थे. भारत से जो खास लोग उस सेमिनार में भेजे गए थे, उन को एक ही होटल में ठहराया गया था और सक्सेना साहब का कमरा मेरे बगल में ही था.’’

एक मुलाकात ऐसी भी- भाग 2: निशि का क्या था फैसला

पार्थ के बारे में जान कर मुझे सबकुछ अच्छा लगा था, लेकिन एक अड़चन थी कि वे कायस्थ थे, हमारी तरह ब्राह्मण नहीं थे जो मेरे लिए तो जमीं और आसमान को मिलाने वाली बात थी. अपनी इकलौती बेटी की गैर जाति में शादी करना मेरी सोच में कहीं दूरदूर तक नहीं था. एक तरह से तो मैं इस तरह के विवाह के बिलकुल खिलाफ थी.

मेरा मानना था कि अपनी जाति, अपने धर्म के लोगों के बीच ही शादीब्याह जैसे रिश्ते करने चाहिए ताकि दोनों एकदूसरे से, परिवारों से, आपसी समझ और तालमेल बैठा सकें और सुखी संसार बसा सकें. मुझे हमेशा से ही यह अनुभव होता था कि इस के विपरीत शादियां कभी सुखद और सफल नहीं होतीं. शुरूशुरू में तो सब ठीकठाक चलता है, पर कुछ समय बाद कहीं तलाक होता है, तो कहीं जबरदस्ती रिश्तों को ढोया जाता है. यहां तक कि अपने परिवारों में होने वाली कई इस तरह की शादियों में मैं ने अपना पूरा विरोध जाहिर किया था.

ऐसा नहीं है कि जातिबिरादरी में शादियां कर के किसी तरह की टेंशन नहीं होती है या इस तरह की शादियां टूटती नहीं हैं, फिर भी काफी हद तक इन झमेलों से बचा जा सकता है और मेरे अनुभवों ने मुझे यही सिखाया है कि जब एक हाथ की पांचों उंगलियां बराबर नहीं होतीं तो यह तो समाज की सोच है जो न कभी एक हुई है और न ही होगी.

इन सभी बातों में जज साहब और मेरे विचार एक से नहीं हैं तो औरों की क्या कहूं. कई बार उन्होंने अपनी बातों से मुझे भी समझाने की कोशिश की है, मगर मैं कभी इतने बड़े दिल की हो नहीं पाई.

पिछले साल मैं ने अपना यह विरोध अपने भैया पर थोप दिया था. जब उन्होंने बताया कि वह अंतरा यानी मेरी भतीजी की शादी एक ईसाई लड़के से तय कर रहे हैं. दोनों एकदूसरे को जहां बहुत चाहते हैं, वहीं लड़का और उस का परिवार सबकुछ बहुत बढि़या है. हम लोगों को बच्चों की खुशी के अलावा और क्या चाहिए.

तब भैया की बात सुन कर मैं ने बवंडर मचा दिया था. ‘आप ने तो भैया हद ही कर दी. बच्चों की जिदें क्या यों ही आंखें मूंद कर पूरी की जाती हैं? ईसाई लड़के से विवाह करोगे अपनी अंतरा का? चार दिन भी नहीं निभा पाएगी वह इस अलग जाति और धर्म के लड़के के संग… और फिर कर लो जो आप की मर्जी हो, मैं तो इस गलत शादी में आने से रही.’ मेरी बातों के आक्रोश ने भैया को भयभीत कर दिया और उन्होंने यह कह कर उस रिश्ते को टाल दिया कि इकलौती छोटी बहन ही शादी में शरीक नहीं होगी तो दुनिया क्या कहेगी?

उस दिन के बाद से अंतरा न अपने पापा से बात कर रही है और न मुझ से. एक दिन गुस्से में आ कर वह अपनी भड़ास निकाल गई थी, ‘‘बूआ, आप ने मेरा प्यार, मेरी जिंदगी मुझ से छीन ली. हम सब ने हमेशा आप को इतना प्यारसम्मान और स्नेह दिया, उस का यह सिला दिया आप ने. कल को आप को अपनी मिशिका की ऐसे ही किसी लड़के से शादी करनी पड़ी तब मैं देखूंगी कि कैसे आप जाति और धर्म का भेदभाव कर उस का दिल तोड़ पाती हैं.’’

उस की आंखों में भरे हुए आंसू और अपने लिए नफरत, आज भी मुझे विचलित कर देते हैं. मुझे इस बात का एहसास बाद में हुआ कि वह उस लड़के के प्यार में इतनी दीवानी है कि उस के बिना किसी और से शादी नहीं करेगी. कभीकभी खुद पर भी बहुत गुस्सा आता है कि मैं ने इस कदर क्यों अपनी इच्छा, अपने विचार भैया पर थोपे, फिर सोचती हूं तो लगता है कि आखिर मैं ने गलत ही क्या किया. वह मेरे अपने थे, अगर अपनों को उन की गलती का एहसास करा दिया तो क्या गलत किया? अंतरा मेरी कोई दुश्मन थोड़े ही थी. खुद भैया को भी पता था कि मैं अंतरा से कितना प्यार करती हूं, पर मुझे उस समय जो सही लगा मैं ने वही किया. अब वही बातें मेरे जेहन में आ रही थीं.

मैकडोनाल्ड की उस मुलाकात ने थोड़े ही समय में दोनों मांओं के बीच एक दोस्ती का सा रिश्ता बना दिया था. अपने- अपने मोबाइल नंबर और अतेपते दे कर हम ने विदा ली थी.

रास्ते भर मैं मिशिका से अपनी इस नई बनी दोस्त की बातें करती रही और वह भी अपनी तरहतरह की बातें मुझे बताती रही. उस के दोस्त की मम्मी के संग मैं आज सारे दिन रही और बोर नहीं हुई, इस से मेरी बेटी बहुत संतुष्ट थी. बोली, ‘‘ममा, आज आप बोर नहीं हुईं. नहीं तो पिछली बार की तरह मुझे सारे रास्ते आप के भाषण सुनने पड़ते. चलो, आगे से जब भी ऐसी कोई पार्टी होगी तो मैं आंटी से कहूंगी कि वह भी आप को कंपनी देने आ जाएं. तब तो ठीक रहेगा न मम्मी. मुझे भी टेंशन नहीं रहेगी कि ममा इतनी देर क्या करेंगी.’’ उस की बात सुन कर मैं मुसकरा पड़ी थी.

घर आने के बाद तरोताजा हो कर मैं बैठी ही थी कि मेरा मोबाइल बज उठा. नंबर देखा तो आज की बनी फें्रड मिसेज सक्सेना का ही था. तुरंत रिसीव किया. ‘‘आप घर पहुंच गईं क्या, मुझे तो आप की बड़ी याद आ रही है. सोच रही हूं कि जल्दी ही किसी रोज गाजियाबाद आ कर आप से मिलूं. आप से मिल कर बातें कर के बहुत अच्छा लगा.’’

‘‘हां, मैं भी बस, आप के बारे में ही सोच रही थी. कभीकभी किसी से अचानक मिलने पर भी ऐसा नहीं लगता कि हम जिंदगी में पहली बार मिले हैं.’’ मैं ने भी उन की बात का जवाब उन्हीं के अंदाज में दे दिया.

थोड़ी देर तक इसी तरह इधरउधर की बातें होती रहीं. फिर पता नहीं मुझे क्या हुआ कि उन्हें अपने घर अगले सप्ताह होने वाली पार्टी के लिए आमंत्रित कर दिया. मौल में श्रीमती सक्सेना से इसीलिए पार्टी में आने को नहीं कहा था कि जज साहब से पूछ कर कहूंगी पर अब जब उन्होंने यह बताया कि मसूरी से इस रविवार को 5 दिन के लिए पार्थ भी आ रहा है, तो बस, उसे देखने की इच्छा दिल में जाग उठी और बोल बैठी, ‘‘अरे, तो आप सब लोग इस रविवार को हमारे घर आइए न. एक छोटी सी पार्टी रखी है. जज साहब को अच्छा लगेगा.’’

वह भी तुरंत तैयार हो गईं. जैसे आने के लिए बिलकुल तैयार बैठी हों.

शाम को जज साहब कोर्ट से लौटे तो चाय के दौरान मैं ने सबकुछ उन्हें बता दिया और अपने दिल की चाहत भी कह बैठी, ‘‘इतना अच्छा लड़का है. आईएएस है. परिवार भी समझदार और हैसियत वाला है. कायस्थ हैं, क्या ही अच्छा होता कि हमारी तरह वह भी ब्राह्मण होते तो हाथ जोड़ कर उन से मिशिका के लिए उन का पार्थ मांग लेती.’’

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उम्मीदें: तसलीमा का क्या था फैसला

भारत से पाकिस्तान जाने वाली अंतिम समझौता एक्सप्रेस टे्रन जैसे ही प्लेटफार्म पर आ कर लगी, तसलीमा को लगा कि उस का दिल बैठता जा रहा है.

उस ने अपने दोनों हाथों से उन 3 औरतों को और भी कस कर पकड़ लिया जिन के जीने की एकमात्र उम्मीद तसलीमा थी और अब न चाहते हुए भी उन औरतों को इन के हाल पर छोड़ कर उसे जाना पड़ रहा था, दूर, बहुत दूर, सरहद के पार, अपनी ससुराल.

तसलीमा का शौहर अनवर हर 3 महीने बाद ढेर सारे रुपयों और सामान के साथ उसे पाकिस्तान से भारत भेज देता ताकि वह मायके में अपने बड़े होने का फर्ज निभा सके. बीमार अब्बू के इलाज के साथ ही अम्मी की गृहस्थी, दोनों बहनों की पढ़ाई, और भी जाने क्याक्या जिम्मेदारियां तसलीमा ने अपने पति के सहयोग से उठा रखी हैं पर अब इस परिवार का क्या होगा?

तसलीमा के दोनों भाई तारिक और तुगलक जब से एक आतंकवादी गिरोह के सदस्य बने हैं तब से अब्बू भी बीमार रहने लगे. उन का सारा कारोबार ही ठप पड़ गया. ऊपर से थाने के बारबार बुलावे ने तो जैसे उन्हें तोड़ ही दिया. बुरे समय में रिश्तेदारों ने भी मुंह फेर लिया. अकेले अब्बू क्याक्या संभालें, एक दिन ऐसा आ गया कि घर में रोटी के लाले पड़ गए.

ऐसे में बड़ी बेटी होने के नाते तसलीमा को ही घर की बागडोर संभालनी थी. वह तो उसे अनवर जैसा शौहर मिला वरना कैसे कर पाती वह अपने मायके के लिए इतना कुछ.

तसलीमा सोचने लगी कि अब जो वह गई तो जाने फिर कब आना हो पाए. कई दिनों की दौड़धूप के बाद तो किसी तरह उस के अब्बू सरहद पार जाने वाली इस आखिरी ट्रेन में उस के लिए एक टिकट जुटा पाए थे.

कमसिन कपोलों पर चिंता की रेखाएं लिए तसलीमा दाएं हाथ से अम्मी को सहला रही थी और उस का बायां हाथ अपनी दोनों छोटी बहनों पर था.

तसलीमा ने छिपी नजरों से अब्बू को देखा जो बारबार अपनी आंखें पोंछ रहे थे और साथ ही नन्हे असलम को गोद में खिला रहे थे. उन्हें देख कर उस के मन में एक हूक सी उठी. बेचारे अब्बू की अभी उम्र ही क्या है. समय की मार ने तो जैसे उन्हें समय से पहले ही बूढ़ा बना दिया है.

नन्हे असलम के साथ बिलकुल बच्चा बन जाते हैं. तभी तो वह जब भी अपने नाना के घर हिंदुस्तान आता है, उन से ही चिपका रहता है.

लगता है, जैसे नाती को गले लगा कर वह अपने 2-2 जवान बेटों का गम भूलने की कोशिश करते हैं पर हाय रे औलाद का गम, आज तक कोई भूला है जो वह भूल पाते?

तसलीमा ने अपने ही मन से पूछा, ‘क्या खुद वह भूल पाई है अपने दो जवान भाइयों को खोने का गम?’

ससुराल में इतनी खुशहाली और मोहब्बत के बीच भी कभीकभी उस का दिल अपने दोनों छोटे भाइयों के लिए क्या रो नहीं पड़ता? अनवर की मजबूत बांहों में समा कर भी क्या उस की आंखें अपने भाइयों के लिए भीग नहीं जातीं? अगर वह अपने भाइयों को भूल सकी होती तो अनवर के छोटे भाइयों में तारिक और तुगलक को ढूंढ़ती ही क्यों?

‘‘दीदी, देखो, अम्मी को क्या हो गया?’’

तबस्सुम की चीख से तसलीमा चौंक उठी.

खयालों में खोई तसलीमा को पता ही नहीं चला कि कब उस की अम्मी उस की बांहों से फिसल कर वहीं पर लुढ़क गईं.

‘‘यह क्या हो गया, जीजी. अम्मी का दिल तो इतना कमजोर नहीं है,’’ सब से छोटी तरन्नुम अम्मी को सहारा देने के बजाय खुद जोर से सिसकते हुए बोली.

अब तक तसलीमा के अब्बू भी असलम को गोद में लिए ही ‘क्या हुआ, क्या हुआ’ कहते हुए उन के पास आ गए.

तसलीमा ने देखा कि तीनों की जिज्ञासा भरी नजरें उसी पर टिकी हैं जैसे इन लोगों के सभी सवालों का जवाब, सारी मुश्किलों का हल उसी के पास है. उस के मन में आ रहा था कि वह  खूब चिल्लाचिल्ला कर रोए ताकि उस की आवाज दूर तक पहुंचे… बहुत दूर, नेताओं के कानों तक.

पर तसलीमा जानती है कि वह ऐसा नहीं कर सकती क्योंकि अगर वह जरा सा भी रोई तो उस के अब्बू का परिवार जो पहले से ही टूटा हुआ है और टूट जाएगा. आखिर वही तो है इन सब के उम्मीद की धुरी. अब जबकि कुछ ही मिनटों में वह इन्हें छोड़ कर दूसरे मुल्क के लिए रवाना होने वाली है, उन्हें किसी भी तरह की तकलीफ नहीं देना चाहती थी.

समझौता एक्सप्रेस जब भी प्लेटफार्म छोड़ती है, दूसरी ट्रेन की अपेक्षा लोगों को कुछ ज्यादा ही रुला जाती है. यही इस गाड़ी की विशेषता है. आखिर सरहद पार जाने वाले अपनों का गम कुछ ज्यादा ही होता है, पर आज तो यहां मातम जैसा माहौल है.

कहीं कोई सिसकियों में अपने गम का इजहार कर रहा है तो कोई दिल के दर्द को मुसकान में छिपा कर सामने वाले को दिलासा दे रहा है. आज यहां कोसने वालों की भी कमी नहीं दिखती. कोई नेताओं को कोस रहा है तो कोई आतंकवादियों को, जो सारी फसाद की जड़ हैं.

तसलीमा किसे कोसे? उसे तो किसी को कोसने की आदत ही नहीं है. सहसा उसे लगा कि काश, वह औरत के बजाय पुरुष होती तो अपने परिवार को इस तरह मझधार में छोड़ कर तो न जाती.

मन जितना अशांत हो रहा था स्वर को उतना ही शांत बनाते हुए तसलीमा बोली, ‘‘अम्मी को कुछ नहीं हुआ है, वह अभी ठीक हो जाएंगी. तरन्नुम, रोना बंद कर और जा कर अम्मी के लिए जरा ठंडा पानी ले आ और अब्बू, आप मेरा टिकट कैंसल करवा दो. मैं आप लोगों को इस हालात में छोड़ कर पाकिस्तान हरगिज नहीं जाऊंगी.’’

टिकट कैंसल करने की बात सुनते ही अम्मी को जैसे करंट छू गया हो, वह धीरे से बोलीं, ‘‘कुछ नहीं हुआ मुझे. बस, जरा चक्कर आ गया था. तू फिक्र न कर लीमो, अब मैं बिलकुल ठीक हूं.’’

इतने में तरन्नुम ठंडा पानी ले आई. एक घूंट गले से उतार कर अम्मी फिर बोलीं, ‘‘कलेजे पर पत्थर रख कर तेरा रिश्ता तय किया था मैं ने. लेदे कर एक ही तो सुख रह गया है जिंदगी में कि बेटी ससुराल में खुशहाल है, वह तो मत छीन. अरे, ओ लीमो के अब्बू, मेरी लीमो को ले जा कर गाड़ी में बैठा दीजिए. आ बेटा, तुझे सीने से लगा कर कलेजा ठंडा कर लूं,’’ इतना कह कर अम्मी अब्बू की गोद से नन्हे असलम को ले कर पागलों की तरह चूमने लगीं.

शायद नन्हे असलम को भी इतनी देर में विदाई की घंटी सुनाई पड़ने लगी. वह रोंआसा हो कर इन चुंबनों का अर्थ समझने की कोशिश करने लगा.

इतने में तीनों बहनें एकदूसरे से विदा लेने लगीं.

तबस्सुम धीरे से तसलीमा के कान में बोली, ‘‘दीदी, आप बिलकुल फिक्र न करो, आज से घर की सारी जिम्मेदारी मेरी है, मैं अम्मी और तरन्नुम को यहां संभाल लेती हूं, आप निश्ंिचत हो कर जाओ.’’

तसलीमा ने डबडबाई आंखों से तबस्सुम को देखा. उसे यकीन नहीं हो रहा था कि उस की चुलबुली बहन आज कितनी बड़ी हो गई है. सच, जिम्मेदारी उठाने के लिए उम्र नहीं, शायद परिस्थितियां ही जिम्मेदार होती हैं.

असलम को गोद में ले कर तसलीमा चुपचाप अब्बू और कुली के पीछे चल दी. वह जानती थी कि अब अगर आगे उस ने कुछ कहने की कोशिश की या पीछे मुड़ कर देखा तो बस, सारी कयामत यहीं बरपा हो जाएगी.

जब तक गाड़ी प्लेटफार्म पर खड़ी रही, अब्बू ने अपनेआप को सामान सजाने में व्यस्त रखा और तसलीमा ने अपने आंसुओं को रोकने में. पर गाड़ी की सीटी बजते ही उसे लगा कि अब बस, कयामत ही आ जाएगी.

जैसेजैसे अब्बू पीछे छूटने लगे, वह प्लेटफार्म भी पीछे छूटने लगा जहां की एक बेंच पर उस की अम्मी बहनों को साथ लिए बैठी हैं, वह शहर पीछे छूटने लगा जहां वह नाजों पली, वह वतन पीछे छूटने लगा जिसे तसलीमा परदेस जा कर और ज्यादा चाहने लगी थी.

तसलीमा को लगा कि गाड़ी की बढ़ती रफ्तार के साथ उस के आंसुओं की रफ्तार भी बढ़ रही है. अपने आंसुओं की बहती धारा में उसे ध्यान ही नहीं रहा कि कब नन्हा असलम सुबकने लगा. भला अपनी मां को इस तरह रोता देख कौन बच्चा चुप रहेगा?

‘‘बच्चे को इधर दे दो, बहन. जरा घुमा लाऊं तो इस का मन बहल जाएगा. आ मुन्ना, आ जा,’’ कह कर किसी ने असलम को उस की गोद से उठा लिया. वह थी कि बस, दुपट्टे में चेहरा छिपा कर रोए जा रही थी. उस ने यह भी नहीं देखा कि उस के बच्चे को कौन ले जा रहा है.

आखिर जब शरीर में न तो रोने की शक्ति बची और न आंखों में कोई आंसू बचा तो तसलीमा ने धीरे से चेहरा उठा कर चारों तरफ देखा. उस डब्बे में हर उम्र की महिलाएं मौजूद थीं. पर किसी की गोद में उस का असलम नहीं था और न ही आसपास कहीं दिखाई दे रहा था. मां का दिल तड़प उठा. अब वह क्या करे? कहां ढूंढ़े अपने जिगर के टुकड़े को?

इतने में एक नीले बुरके वाली युवती अपनी गोद में असलम को लिए उसी के पास आ कर बैठ गई. तसलीमा ने लपक कर अपने बच्चे को गोद में ले लिया और बोली, ‘‘आप को इस तरह मेरा बच्चा नहीं ले कर जाना चाहिए था. घबराहट के मारे मेरी तो जान ही निकल गई थी.’’

‘‘बहन, क्या करती, बच्चा इतनी बुरी तरह से रो रहा था और आप को कोई होश ही नहीं था. ऐसे में मुझे जो ठीक लगा मैं ने किया. थोड़ा घुमाते ही बच्चा सो गया. गुस्ताखी माफ करें,’’ युवती ने मीठी आवाज में कहा.

शायद यह उस के मधुर व्यवहार का ही अंजाम था कि तसलीमा को सहसा ही अपने गलत व्यवहार का एहसास हुआ. वाकई असलम नींद में भी हिचकियां ले रहा था.

‘‘बहन, माफी तो मुझे मांगनी चाहिए कि तुम ने मेरा उपकार किया और मैं एहसान मानने के बदले नाराजगी जता रही हूं,’’ थोड़ा रुक कर तसलीमा फिर बोली, ‘‘दरअसल, इन हालात में मायका छोड़ कर मुझे जाना पड़ेगा, यह सोचा नहीं था.’’

‘‘ससुराल तो जाना ही पड़ता है बहन, यही तो औरत की जिंदगी है कि जाओ तो मुश्किल, न जाओ तो मुश्किल,’’ नीले बुरके वाली युवती बोली, साथ ही उस का मुसकराता चेहरा कुछ फीका पड़ गया.

‘‘हां, यह तो है,’’ तसलीमा बोली, ‘‘पहले जब भी ससुराल जाती थी तो मायके वालों से दोबारा मिलने की उम्मीद तो रहती थी, मगर इस बार…’’ इतना कहतेकहते तसलीमा को लगा कि उस का गला फिर से रुंध रहा है.

फिर उस ने बात बदलने के लिए पूछा, ‘‘आप अकेली हैं?’’

‘‘हां, अकेली ही समझो. जिस का दामन पकड़ कर यहां परदेस चली आई थी, वह तो अपना हुआ नहीं, तब किस के सहारे यहां रहती. इसलिए अब वापस पाकिस्तान लौट रही हूं. वहां रावलपिंडी के पास गांव है, वैसे मेरा नाम नजमा है और तुम्हारा?’’

‘‘तसलीमा.’’

तसलीमा सोचने लगी कि इनसान भी क्या चीज है. हालात के हाथों बिलकुल खिलौना. किसी और जगह मुलाकात होती तो हम दो अजनबी महिलाओं की तरह दुआसलाम कर के अलग हो जाते पर यहां…यहां दोनों ही बेताब हैं एकदूसरे से अपनेअपने दर्द को कहने और सुनने के लिए, जबकि दोनों ही जानती हैं कि कोई किसी का गम कम नहीं कर सकता पर कहनेसुनने से शायद तकलीफ थोड़ा कम हो और फिर समय भी तो गुजारना है. इसी अंदाज से तसलीमा बोली, ‘‘क्या आप के शौहर ने आप को छोड़ दिया है?’’

‘‘नहीं, मैं ने ही उसे छोड़ दिया,’’ नजमा ने एक गहरी सांस खींचते हुए कहा, ‘‘सच्ची मुसलमान हूं, कैसे रहती उस काफिर के साथ जो अपने लालची इरादों को मजहब की चादर में ढकने की नापाक कोशिश कर रहा था.’’

तसलीमा गौर से नजमा को देख रही थी, शायद उस के दर्द को समझने की कोशिश कर रही थी.

इतने में नजमा फिर बोली, ‘‘जब पाकिस्तान से हम चले थे तो उस ने मुझ से कहा था कि हिंदुस्तान में उसे बहुत अच्छा काम मिला है और वहां हम अपनी मुहब्बत की दुनिया बसाएंगे, पर यहां आ कर पता चला कि वह किसी नापाक इरादे से भारत भेजा गया है जिस के बदले उसे इतने पैसे दिए जाएंगे कि ऐशोआराम की जिंदगी उस के कदमों पर होगी.

‘‘मुझ से मुहब्बत सिर्फ नाटक था ताकि यहां किसी को उस के नापाक इरादों पर शक न हो. मजहब और मुहब्बत के नाम पर इतना बड़ा धोखा. फिर भी मैं ने उसे दलदल से बाहर निकालने की कोशिश की थी. कभी मुहब्बत का वास्ता दे कर तो कभी आने वाली औलाद का वास्ता दे कर, पर आज तक कोई दलदल से बाहर निकला है जो वह निकलता. हार कर खुद ही निकल आई मैं उस की जिंदगी से. आखिर मुझे अपनी औलाद को एक नेकदिल इनसान जो बनाना है.’’

तसलीमा ने देखा कि अपने दर्द का बयान करते हुए भी नजमा के होंठों पर आत्मविश्वास की मुसकान है, आंखों में उम्मीदें हैं. उस ने दर्द का यह रूप पहले कभी नहीं देखा था.

क्या नजमा का दर्द उस के दर्द से कम है? नहीं तो? फिर भी वह मुसकरा रही है, अपना ही नहीं दूसरों का भी गम बांट रही है, अंधेरी राहों में उम्मीदों का चिराग जला रही है. वह ऐसा क्यों नहीं कर सकती? फिर उस के पास तो अनवर जैसा शौहर भी है जो उस के एक इशारे पर सारी दुनिया उस के कदमों पर रख दे. क्या सोचेंगे उस के ससुराल वाले जब उस की सूजी आंखों को देखेंगे. कितना दुखी होगा अनवर उसे दुखी देख कर.

नहीं, अब वह नहीं रोएगी. उस ने खिड़की से बाहर देखा. जिन खेत-खलिहानों को पीछे छूटते देख कर उस की आंखें बारबार भीग रही थीं, अब उन्हीं को वह मुग्ध आंखों से निहार रही थी. कौन कहता है कि इन रास्तों से दोबारा नहीं लौटना है? कौन कहता है सरहद पार जाने वाली ये आखिरी गाड़ी है? वह लौटेगी, जरूर लौटेगी, इन्हीं रास्तों से लौटेगी, इसी गाड़ी में लौटेगी, जब दुनिया नहीं रुकती है तो उस पर चलने वाले कैसे रुक सकते हैं?

तसलीमा ने असलम को सीने से लगा लिया और नजमा की तरफ देख कर प्यार से मुसकरा दी. अब दोनों की ही आंखें चमक रही थीं, दर्द के आंसू से नहीं बल्कि उम्मीद की किरण से.

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