शायद- भाग 2: क्या हुआ था सुवीरा के साथ

‘बेटे के लिए तो रचरच कर नाश्ता तैयार करतीं, लेकिन मैं अपनी पसंद का कुछ भी खाना चाहती तो बुरा सा मुंह बना लेतीं. उन की इस उपेक्षा और डांटफटकार से बचपन से ही मेरे मन में एक भावना घर कर गई कि अगर इतनी ही अकर्मण्य हूं मैं तो इन सब को अपनी काहिली दिखा कर रहूंगी.

‘सच मानो गिरीश, मां की तल्ख तेजाबी बहस के बीच भी मैं सफलता के सोपान चढ़ती चली गई. बाबूजी ने कई बार लड़खड़ाती जबान के इशारे से अम्मां को समझाया था कि थोड़ी जिम्मेदारी का एहसास सोहन को भी करवाएं, पर अम्मां बाबूजी की कही सुनते ही त्राहित्राहि मचा देतीं. घर का हर काम उन की ही मरजी से होता था, वरना वे घर की ईंट से ईंट बजा कर रख देती थीं.

‘एक रात बाबूजी फैक्टरी से लौटते समय सड़क दुर्घटना में बुरी तरह जख्मी हो गए थे. शरीर के आधे हिस्से को लकवा मार गया था. अच्छेभले तंदरुस्त बाबूजी एक ही झटके में बिस्तर के हो कर रह गए. धीरेधीरे व्यापार ठप पड़ने लगा. सोहन की परवरिश सही तरीके से की गई होती तो वह व्यापार संभाल भी लेता. खानापीना, मौजमस्ती, यही उस की दिनचर्या थी. सीधा खड़ा होने के लिए भी उसे बैसाखी की जरूरत पड़ती थी तो वह कारोबार क्या संभालता?

‘व्यापार के सिलसिले में मेरा अनुभव शून्य से बढ़ कर कुछ भी नहीं था. जमीन पर मजबूती से खड़े रहने के लिए मुझे भी बाबूजी के पार्टनरों, भागीदारों का सहयोग चाहिए था, पर अम्मां को न जाने क्या सूझी कि वह फोन पर ही सब को बरगलाने लगीं. शायद उन्हें यह गलतफहमी हो गई थी कि उन की बेटी उन के पति का कारोबार चला कर पूरी धनसंपदा हथिया लेगी और उन्हें और उन के बेटे को दरदर की ठोकरें खाने पर मजबूर कर देगी.

‘धीरेधीरे बाबूजी के सभी पार्टनर हाथ खींचते गए. मेरी दिनरात की मेहनत भी व्यापार को आगे बढ़ाने में सफल नहीं हो सकी. हार कर व्यापार बंद करना पड़ा. बहुत रोए थे बाबूजी उस दिन. उन की आंखों के सामने ही उन की खूनपसीने से सजाई बगिया उजड़ गई थी. लेकिन अम्मां की आंखों में न विस्मय था न पश्चात्ताप बल्कि मन ही मन उन्होंने दूसरी योजना बना डाली थी. और एक दिन बेहोशी की हालत में पति से अंगूठा लगवा कर पूरा मकान और बैंक बैलेंस सोहन के नाम करवा कर ही उन्होंने चैन की सांस ली थी.

‘कालिज की पढ़ाई, ट्यूशन, बाबूजी की तीमारदारी में कंटीली बाढ़ की तरह जीवन उलझता चला गया. जितनी आमद होती, अम्मां और सोहन उस रकम पर यों टूटते जैसे कबूतरों के झुंड दानों पर टूटते हैं.’

कहतेकहते सिसक उठी थी सुवीरा. होंठों पर हाथ रख कर गिरीश ने उस के मुंह पर चुप्पी की मोहर लगा दी थी. 2 दिन तक प्रसव पीड़ा से छटपटाने के बाद आपरेशन से जुड़वां बेटों को जन्म देने में कितनी पीड़ा सुवीरा की शिथिल काया ने बरदाश्त की थी, यह तो गिरीश ही जानते थे.

दिन बीतते गए. सोहन की आवारा- गर्दी देख सुवीरा का मन दुखी होता था. सोचती इस के साथ पूरा जीवन पड़ा है, कमाएगा नहीं तो अपनी गृहस्थी कैसे चलाएगा? कई धंधे खुलवा दिए थे सुवीरा और गिरीश ने पर सोहन महीने दो महीने में सबकुछ उड़ा कर घर बैठ जाता. उस पर अम्मां उस की तारीफ करते नहीं अघातीं.

एक दिन अचानक खबर मिली कि सोहन का ब्याह तय हो गया. जिस धीरेंद्र की लड़की के साथ शादी तय हुई है वह गिरीश के अच्छे दोस्त थे. सुवीरा यह नहीं समझ पा रही है कि अम्मां ने कैसे उन्हें विश्वास में लिया कि वह अपनी बेटी सोहन के साथ ब्याहने को तैयार हो गए.

सगाई से एक दिन पहले ही सुवीरा अम्मां के पास चली गई थी. दोनों पक्षों से उस का रिश्ता था. गिरीश ने भी पूरा सहयोग दिया था. सुवीरा ने घर सजाने से ले कर सब के नाश्ते आदि का इंतजाम किया पर अम्मां ने बड़ी खूबसूरती से सारा श्रेय खुद ओढ़ लिया. उस का मन किया, ठहाका लगा कर हंसे. आत्मप्रशंसा में तो अम्मां का जवाब नहीं.

ब्याह के कार्ड बंटने शुरू हो गए. आस और उम्मीद की डोर से बंधी सुवीरा सोच रही थी कि शायद इस बार अम्मां खुद आ कर बेटी को न्योता देंगी लेकिन अम्मां को न आना था न वह आईं. हां, निमंत्रण डाक से जरूर आ गया था. गिरीश ने पत्नी के सामने भूमिका बांध कर रिश्तों के महत्त्व को समझाया था, ‘सोहन का ब्याह है, सुवीरा, चलना है.’

गुस्से से सुवीरा का चेहरा तमतमा गया था, ‘सगाई पर बिना निमंत्रण के चली गई तो क्या अब भी चली जाऊंगी?’

‘ये आया तो है निमंत्रण,’ गिरीश ने टेबल पर रखा गुलाबी लिफाफा पत्नी को पकड़ाया तो स्वर प्रकंपित हो उठा था सुवीरा का, ‘डाक से…’

‘छोटीछोटी बातों को क्यों दिल से लगाती हो? रिश्ते कच्चे धागों से बंधे होते हैं. टूट जाएं तो जोड़ने मुश्किल हो जाते हैं.’

जोर से खिलखिला दी सुवीरा उस समय. भाई के विवाह में शामिल होने की इच्छा अब भी दिल के किसी कोने में दबी हुई थी. मन में ढेर सारी उमंगें लिए दोनों बेटों और पति के साथ जनवासे पहुंची तो मेहमानों की आवभगत में उलझी अम्मां को यह भी ध्यान नहीं रहा कि बेटीदामाद आए हैं.

मित्रों, परिजनों की भीड़ में अपना मनोरंजन खुद ही करने लगे थे गिरीश और सुवीरा. पार्टी जोरशोर से चल रही थी. हंसीठट्ठे का माहौल था. अचानक तारिणी देवी की चिल्लाहट सुन कर दोनों का ध्यान उस ओर चला गया.

विक्रम को पकड़े अम्मां कह रही थीं, ‘भीम की तरह 40 पूरियां खा गया, ऊपर से कीमती गिलास भी तोड़ दिया.’

दौड़तीभागती सुवीरा जब तक मूल कारण तक पहुंचती, अम्मां जोर से चीखने लगी थीं. सहमीसकुची सुवीरा इतना ही कह पाई थी, ‘गलती से गिर गया होगा अम्मां. जानबूझ कर नहीं किया होगा.’

अचानक गिरीश की आंखों से चिंगारियां बरसने लगीं. बिना कुछ खाए ही जनवासे से लौट आए थे और सास को सुना भी दिया था, ‘सोहन की ससुराल से आए सामान की तो आप को चिंता है लेकिन बेटीदामाद और उन के बच्चों की आवभगत की जरा भी चिंता नहीं है.’

घर लौटने के बाद भी फोन घुमा कर चोट खाए घायल सिंह की तरह ऐसी पटखनी दी थी सास तारिणी देवी को कि तिलमिला कर रह गई थीं, ‘अम्मां, मेरे बेटे ने आप की 40 पूरियां खाई हैं या 50, आप चिंता मत करना…मुझ में इतना दम है कि आप के उस खर्च की भरपाई कर सकूं.’

वह रात सुवीरा ने जाग कर काटी. पीहर के हर सुखदुख में सहभागिता दिखाते उन के पति का इस तरह अपमान क्यों किया अम्मां ने? आत्मविश्लेषण किया…उसे ही नहीं जाना चाहिए था भाई के ब्याह में. हो सकता है अम्मां बेटीदामाद को बुलाना ही न चाहती हों. डाक के जरिए न्योता भेज कर महज औपचारिकता निभाई हो.

विक्रम और विनय अब जवानी की दहलीज पर कदम रख चुके थे. मान- अपमान की भाषा भी खूब समझने लगे थे. मां को धूर्तता का उपहार देने वाले लोगों से बच्चों को कतई हमदर्दी नहीं थी. कितनी बार मनोबल और संयम टूटे.  गिरीश की बांहों का सहारा न मिला होता तो सुवीरा कब की टूट चुकी होती.

एक साथी की तलाश- भाग 2: कैसी जिंदगी जी रही थी श्यामला

‘यह क्या कर रही हो तुम श्यामला, छोटी सी बात को तूल दे रही हो?’ उस की ऐसी शक्ल देख कर वे थोड़े पसीज गए थे, ‘सब ठीक हो जाएगा.’ वे धीरे से उस को कंधों से पकड़ कर बोले.

‘क्या ठीक हो जाएगा’, उस ने हाथ झटक दिए थे, ‘मैं अब यहां नहीं रह सकती. घर में रखे सामान की तरह आप की बंदिशें किसी समय मेरी जान ले लेंगी. मेरे तन के साथसाथ मेरे मनमस्तिष्क पर भी बंदिशें लगा दी हैं आप ने. मैं आप से अलग कहीं जाना तो दूर की बात है, आप से अलग सोच तक भी नहीं सकती लेकिन अब मुझ से नहीं हो पाएगा यह सब.’

तो अब क्या करना चाहती हो,’ वे व्यंग्य से बोले.‘मैं यहां से जाना चाहती हूं आज ही,  अपना घर संभालो. आप जब औफिस से आओगे तो मैं नहीं मिलूंगी,’

‘तुम्हें जो करना है करो, जब सोच लिया तो मुझ से क्यों कह रही हो,’ कह कर मधुप दनदनाते हुए औफिस चले गए. वे हमेशा की तरह जानते थे कि श्यामला ऐसा कभी नहीं कर सकती, इतनी हिम्मत नहीं थी श्यामला के अंदर कि वह इतना बड़ा कदम उठा पाती.

लेकिन अपनी पत्नी को शायद वे पूरी तरह नहीं जानते थे. उस दिन उन की सोच गलत साबित हुई. बिना स्पंदन व जीवंतता के रिश्ते आखिर कब तक टिकते. जब वे औफिस से लौटे तो श्यामला जा चुकी थी. घर में सिर्फ बिरुवा था.

‘श्यामला कहां है?’ उन्होंने बिरुवा से पूछा.‘मालकिन तो चली गईं साहब, कह रही थीं, पुणे जा रही हूं हमेशा के लिए.’वे भौचक्के रह गए.

‘ऐसा क्या हुआ साहब, मालकिन क्यों चली गईं?’‘कुछ नहीं बिरुवा.’ क्या समझाते बिरुवा को वे.

थोड़े दिन उस के लौट आने का इंतजार किया. फिर फोन करने की कोशिश की. श्यामला ने फोन नहीं उठाया. मिलने की कोशिश की, श्यामला ने मिलने से इनकार कर दिया. धीरेधीरे उन दोनों के बीच की दरार बढ़तीबढ़ती खाई बन गई. दोनों 2 किनारों पर खड़े रह गए. मनाने की उन की आदत थी नहीं जो मना लाते. नौकरी की व्यस्तता में एक के बाद एक दिन व्यतीत होता रहा. एक दिन सब ठीक हो जाएगा, श्यामला लौट आएगी, यह उम्मीद धीरेधीरे धुंधली पड़ती गई. उस समय श्यामला की उम्र 41 साल थी और वे स्वयं 45 साल के थे. तब से एकाकी जीवन, नौकरी और बिरुवा के सहारे काट दिया उन्होंने. बच्चों के भविष्य की चिंता ने श्यामला को किसी तरह बांध रखा था उन से. उन के कैरियर का रास्ता पकड़ने के बाद वह रुक नहीं पाई. इतना मजबूत नहीं था शायद उन का और श्यामला का रिश्ता.

श्यामला को रोकने में उन का अहं आड़े आया था. लेकिन बिरुवा को उन्होंने घर से कभी जाने नहीं दिया. उस का गांव में परिवार था पर वह मुश्किल से ही गांव जा पाता था. उन के साथ बिरुवा ने भी अपनी जिंदगी तनहा बिता दी थी. बच्चों ने अपनी उम्र के अनुसार मां को बहुतकुछ समझाने की कोशिश भी की पर श्यामला पर बच्चों के कहने का भी कोई असर नहीं पड़ा. वे इतने बड़े भी नहीं थे कि कुछ ठोस कदम उठा पाते. थकहार कर वे चुप हो गए. कुछ छुट्टियां मां के पास, कुछ छुट्टियां पिता के पास बिता कर वापस चले जाते.

श्यामला के मातापिता ने भी शुरू में काफी समझाया उस को. लेकिन श्यामला तो जैसे पत्थर सी हो चुकी थी. कुछ भी सुनने को तैयार न थी. हार कर उन्होंने घर का एक कमराकिचन उसे रहने के लिए दे दिया. कुछ पैसा उस के नाम बैंक में जमा कर दिया. बच्चों का खर्चा तो बच्चों के पिता उठा ही रहे थे.

बेटों की इंजीनियरिंग पूरी हुई तो वे नौकरियों पर आ गए. आजकल एक बेटा मुंबई व एक जयपुर में कार्यरत था. बेटों की नौकरी लगने पर वे जबरदस्ती मां को अपने साथ ले गए. वे कई बार सोचते, श्यामला उन के साथ अकेलापन महसूस करती थी, तो क्या अब नहीं करती होगी. ऐसा तो नहीं था कि उन्हें श्यामला या बच्चों से प्यार नहीं था. पर चुप रहना या शौकविहीन होना उन का स्वभाव था. अपना प्यार वे शब्दों से या हावभाव से ज्यादा व्यक्त नहीं कर पाते थे. लेकिन वे संवेदनहीन तो नहीं थे. प्यार तो अपने परिवार से वे भी करते थे. उन के दुख से चोट तो उन को भी लगती थी. श्यामला के अलग चले जाने पर भी उस के सुखदुख की चिंता तो उन्हें तब भी सताती थी.

दोनों बेटों ने प्रेम विवाह किए. दोनों के विवाह एक ही दिन श्यामला के मायके में ही संपन्न हुए. हालांकि बच्चों ने उन के पास आ कर उन्हें सबकुछ बता कर उन की राय मान कर उन्हें पूरी इज्जत बख्शी पर उन के पास हां बोलने के सिवा चारा भी क्या था. बिना मां के वे अपने पास से बच्चों का विवाह करते भी कैसे. उन्होंने सहर्ष हामी भर दी. जो भी उन से आर्थिक मदद बन पड़ी, उन्होंने बच्चों की शादी में की. और 2 दिन के लिए जा कर शादी में परायों की तरह शरीक हो गए.

जब से श्यामला बच्चों के साथ रहने लगी थी, वे उस की तरफ से कुछ निश्ंिचत हो गए थे. बेटों ने उन्हें भी कई बार अपने पास बुलाया. पर पता नहीं उन के कदम कभी क्यों नहीं बढ़ पाए. उन्हें हमेशा लगा कि यदि उन्होंने बच्चों के पास जाना शुरू कर दिया तो कहीं श्यामला वहां से भी चली न जाए. वे उसे फिर से इस उम्र में घर से बेघर नहीं करना चाहते थे.

बच्चे शुरूशुरू में कभीकभार उन के पास आ जाते थे. फिर धीरेधीरे वे भी अपने परिवार में व्यस्त हो गए. वैसे भी मां ही तो सेतु होती है बच्चों को बांधने के लिए. वह तो उन्हीं के पास थी. मधुर सोचते उन के स्वभाव में यदि निर्जीवता थी तो श्यामला तो जैसे पत्थर हो गई थी. क्या कभी श्यामला को इतने सालों का साथ, उन का संसर्ग, स्पर्श नहीं याद आया होगा. ऐसी ही अनेक बातें सोचतेसोचते न जाने कब नींद ने उन्हें आ घेरा.

अतीत में भटकते मधुप को बहुत देर से नींद आई थी. सुबह उठे, तो सिर बहुत भारी था. नित्यकर्म से निबट कर मधुप बाहर बैठ गए. बिरुवा वहीं नाश्ता दे गया.

‘‘साहब,’’ बिरुवा झिझकता हुआ बोला, ‘‘एक बार मालकिन को मना लाने की कोशिश कीजिए, हम भी कब तक रहेंगे, अपने बालबच्चों, परिवार के पास जाना चाहते हैं. आप कैसे अकेले रहेंगे. अगर हो सके तो आप ही मालकिन के पास चले जाइए.’’

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खुशियों की दस्तक- भाग 1: क्या कौस्तुभ और प्रिया की खुशी वापस लौटी

जिंदगी के लमहे किस पल क्या रंग लेंगे, इस की किसी को खबर  नहीं होती. चंद घंटों पहले तक कौस्तुभ की जिंदगी कितनी सुहानी थी. पर इस समय तो हर तरफ सिवा अंधेरे के कुछ भी नहीं था. प्रतिभाशाली, आकर्षक और शालीन नौजवान कौस्तुभ को जो देखता था, तारीफ किए बिना नहीं रह पाता था. एम. एससी. कैमिस्ट्री में गोल्ड मैडलिस्ट कौस्तुभ पी. एच.डी करने के  साथ ही आई.ए.एस. की तैयारी भी कर रहा था. भविष्य के ऊंचे सपने थे उस के, मगर एक हादसे ने सब कुछ बदल कर रख दिया. आज सुबह की ही तो बात थी कितना खुश था वह. 9 बजे से पहले ही लैब पहुंच गया था. गौतम सर सामने खड़े थे. उन्हीं के अंडर में वह पीएच.डी. कर रहा था. अभिवादन करते हुए उस ने कहा, ‘‘सर, आज मुझे जल्दी निकलना होगा. सोच रहा हूं, अपने प्रैक्टिकल्स पहले निबटा लूं.’’

‘‘जरूर कौस्तुभ, मैं क्लास लेने जा रहा हूं पर तुम अपना काम कर लो. मेरी सहायता की तो यों भी तुम्हें कोई जरूरत नहीं पड़ती. लेकिन मैं यह जानना जरूर चाहूंगा कि जा कहां रहे हो, कोई खास प्लान?’’ प्रोफैसर गौतम उम्र में ज्यादा बड़े नहीं थे. विद्यार्थियों के साथ दोस्तों सा व्यवहार करते थे और उन्हें पता था कि आज कौस्तुभ अपनी गर्लफ्रैंड नैना को ले कर घूमने जाने वाला है, जहां वह उसे शादी के लिए प्रपोज भी करेगा. कौस्तुभ की मुसकराहट में प्रोफैसर गौतम के सवाल का जवाब छिपा था. उन के जाते ही  कौस्तुभ ने नैना को फोन लगाया, ‘‘माई डियर नैना, तैयार हो न? आज एक खास बात करनी है तुम से…’’

‘‘आई नो कौस्तुभ. शायद वही बात, जिस का मुझे महीनों से इंतजार था और यह तुम भी जानते हो.’’ ‘‘हां, आज हमारी पहली मुलाकात की वर्षगांठ है. आज का यह दिन हमेशा के लिए यादगार बना दूंगा मैं.’’ लीड कानों में लगाए, बातें करतेकरते कौस्तुभ प्रैक्टिकल्स की तैयारी भी कर रहा था. उस ने परखनली में सल्फ्यूरिक ऐसिड डाला और दूसरी में वन फोर्थ पानी भर लिया. बातें करतेकरते ही कौस्तुभ ने सोडियम मैटल्स निकाल कर अलग कर लिए. इस वक्त कौस्तुभ की आंखों  के आगे सिर्फ नैना का मुसकराता चेहरा घूम रहा था और दिल में उमंगों का ज्वार हिलोरें भर रहा था.

नैना कह रही थी, ‘‘कौस्तुभ, तुम नहीं जानते, कितनी बेसब्री से मैं उस पल का इंतजार कर रही हूं, जो हमारी जिंदगी में आने वाला है. आई लव यू …’’ ‘‘आई लव यू टू…’’ कहतेकहते कौस्तुभ ने सोडियम मैटल्स परखनली में डाले, मगर भूलवश दूसरी के बजाय उस ने इन्हें पहली वाली परखनली में डाल दिया. अचानक एक धमाका हुआ और पूरा लैब कौस्तुभ की चीखों से गूंजने लगा. आननफानन लैब का स्टाफ और बगल के कमरे से 2-4 लड़के दौड़े आए. उन में से एक ने कौस्तुभ की हालत देखी, तो हड़बड़ाहट में पास रखी पानी की बोतल उस के चेहरे पर उड़ेल दी. कौस्तुभ के चेहरे से इस तरह धुआं निकलने लगा जैसे किसी ने जलते तवे पर ठंडा पानी डाल दिया हो. कौस्तुभ और भी जोर से चीखें मारने लगा.

तुरंत कौस्तुभ को अस्पताल पहुंचाया गया. उस के घर वालों को सूचना दे दी गई. इस बीच कौस्तुभ बेहोश हो चुका था. जब वह होश में आया तो सामने ही उस की गर्लफ्रैंड नैना  उस की मां के साथ खड़ी थी. पर वह नैना को देख नहीं पा रहा था. हादसे ने न सिर्फ उस का अधिकांश चेहरा, बल्कि एक आंख भी बेकार कर दी थी. दूसरी आंख भी अभी खुल नहीं सकती थी, पट्टियां जो बंधी थीं. वह नैना को छूना चाहता था, महसूस करना चाहता था, मगर आज नैना उस से बिलकुल दूर छिटक कर खड़ी थी. उस की हिम्मत नहीं हो रही थी कि वह कौस्तुभ के करीब आए. कौस्तुभ 6 महीनों तक अस्पताल, डाक्टर, दवाओं, पट्टियों और औपरेशन वगैरह में ही उलझा रहा. नैना एकदो दफा उस से मिलने आई पर दूर रह कर  ही वापस चली गई. कौस्तुभ की पढ़ाई, स्कौलरशिप और भविष्य के सपने सब अंधेरों में खो गए. लेकिन इतनी तकलीफों के बावजूद कौस्तुभ ने स्वयं को पूरी तरह टूटने नहीं दिया था. किसी न किसी तरह हिम्मत कर सब कुछ सहता रहा, इस सोच के साथ कि सब ठीक हो जाएगा. मगर ऐसा हुआ नहीं. न तो लौट कर नैना उस की जिंदगी में आई और न ही उस का चेहरा पहले की तरह हो सका. अब तक के अभिभावक उस पर लाखों रुपए खर्च कर चुके थे. पर अपना चेहरा देख कर वह स्वयं भी डर जाता था.

घर आ कर एक दिन जब कौस्तुभ ने नैना को फोन कर बुलाना चाहा, तो वह साफ मुकर गई और स्पष्ट शब्दों में बोली, ‘‘देखो कौस्तुभ, वास्तविकता समझने का प्रयास करो. मेरे मांबाप अब कतई मेरी शादी तुम से नहीं होने देंगे, क्योंकि तुम्हारे साथ मेरा कोई भविष्य नहीं. और मैं स्वयं भी तुम से शादी करना नहीं चाहती क्योंकि अब मैं तुम्हें प्यार नहीं कर पाऊंगी. सौरी कौस्तुभ, मुझे माफ कर दो.’’ कौस्तुभ कुछ कह नहीं सका, मगर उस दिन वह पूरी तरह टूट गया था. उसे लगा जैसे उस की दुनिया अब पूरी तरह लुट चुकी है और कुछ भी शेष नहीं. मगर कहते हैं न कि हर किसी के लिए कोई न कोई होता जरूर है. एक दिन सुबह मां ने उसे उठाते हुए कहा, ‘‘बेटे, आज डाक्टर अंकुर से तुम्हारा अपौइंटमैंट फिक्स कराया है. उन के यहां हर तरह की नई मैडिकल सुविधाएं उपलब्ध हैं. शायद तेरी जिंदगी फिर से लौटा दे वह.’’कौस्तुभ ने एक लंबी सांस ली और तैयार होने लगा. उसे तो अब कहीं भी उम्मीद नजर नहीं आती थी, पर मां का दिल भी नहीं तोड़ सकता था.

कौस्तुभ अपने पिता के साथ डाक्टर के यहां पहुंचा और रिसैप्शन में बैठ कर अपनी बारी का इंतजार करने लगा. तभी उस के बगल में एक लड़की, जिस का नाम प्रिया था, आ कर बैठ गई. साफ दिख रहा था कि उस का चेहरा भी तेजाब से जला हुआ है. फिर भी उस ने बहुत ही करीने से अपने बाल संवारे थे और आंखों पर काला चश्मा लगा रखा था. उस ने सूट पूरी बाजू का पहन रखा था और दुपट्टे से गले तक का हिस्सा कवर्ड था. लेकिन उस के चेहरे पर आत्मविश्वास झलक रहा था. न चाहते हुए भी कौस्तुभ ने उस से पूछ ही लिया, ‘‘क्या आप भी ऐसिड से जल गई थीं?’’उस ने कौस्तुभ की तरफ देखा फिर गौगल्स हटाती हुई बोली, ‘‘जली नहीं जला दी गई थी उस शख्स के द्वारा, जो मुझे बहुत प्यार करता था.’’ कहतेकहते उस लड़की की आंखें एक अनकहे दर्द से भर गईं, लेकिन वह आगे बोली, ‘‘वह मजे में जी रहा है और मैं हौस्पिटल्स के चक्कर लगाती पलपल मर रही हूं. मेरी शादी किसी और से हो रही है, यह खबर वह सह नहीं सका और मुझ पर तेजाब फेंक कर भाग गया. एक पल भी नहीं लगा उसे यह सब करने में और मैं सारी जिंदगी के लिए…

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सुबह की किरण- भाग 1: क्या पूरी हुई प्रीति और समीर की कहानी

‘‘आओ, तुम यहां बैठ जाओ,’’ समीर ने प्रीति को अपने बगल में खड़ा देखा तो अपनी सीट से उठते हुए कहा.

‘‘नहीं, तुम बैठो, मुझे अगले स्टैंड पर उतरना है.’’

‘‘तुम बैठो, तुम्हें खड़ा होने में तकलीफ हो रही है,’’ उस ने फिर आग्रह किया तो प्रीति उस की सीट पर बैठ गई.

बस में खचाखच भीड़ थी. तिल भर भी पैर रखने की जगह नहीं थी. प्रीति का एक पैर जन्मजात खराब था. इसलिए थोड़ा लंगड़ा कर चलती थी. नीलम ठीक उस के पीछे खड़ी थी. मुसकराती हुई बोली, ‘‘चलो तुम्हारी तकलीफ समझने वाला कोई तो मिला.’’

अगले स्टैंड पर दोनों सहेलियां उतर गईं. समीर भी उन के पीछेपीछे उतरा.

‘‘तुम्हारी सहेली के साथ मैं ने अन्याय किया,’’ वह प्रीति को देखते हुए मुसकरा कर बोला, ‘‘लेकिन क्या करूं, सीट एक थी और तुम दो.’’

‘‘कोई बात नहीं, अगली बार तुम मुझे लिफ्ट दे देना,’’ नीलम भी मुसकराते हुए बोली तो समीर ने पूछा, ‘‘वैसे, तुम दोनों यहां कहां रहती हो?’’

‘‘बगल में ही, गौरव गर्ल्स होस्टल में,’’ नीलम ने बताया.

‘‘अच्छा है, अब तो हमारा इसी स्टैंड से कालेज आनाजाना होता रहेगा. मैं भी थोड़ी दूर पर ही रहता हूं. मेरे बाबूजी एक कंपनी में जौब करते हैं और यहीं उन्होंने एक अपार्टमैंट खरीदा हुआ है.’’

समीर, प्रीति और नीलम एक ही कालेज में थे. आज कालेज में उन का पहला दिन था.

प्रीति आगरा की रहने वाली थी और नीलम लखनऊ की. दोनों गौरव गर्ल्स होस्टल में एक रूम में रहती थीं. प्रीति के पिताजी एक अच्छे ओहदे वाली सर्विस में थे, किंतु असमय उन का देहांत हो गया था जिस के कारण उस की मां को अनुकंपा के आधार पर उसी औफिस में क्लर्क की नौकरी मिल गई थी.

प्रीति के बाबूजी बहुत पहले अपना गांव छोड़ कर आगरा में आ गए थे और यहीं उन्होंने एक छोटा सा मकान बना लिया था. गांव की जमीन और मकान उन्होंने बेच दिया था. प्रीति की मां चाहती थीं कि वह आईएएस की तैयारी करे ताकि एक ऊंची पोस्ट पर जा कर अपनी विकलांगता के दर्द को भुला सके, इसलिए उन्होंने उसे दिल्ली में एमए करने के लिए भेजा था. प्रीति को शुरू से ही साइकोलौजी में गहरी रुचि थी और बीए में भी उस का यह फेवरेट सब्जैक्ट था इसलिए उस ने इसी सब्जैक्ट से एमए करने का विचार किया. प्रीति को शुरू से ही कुछ सीखने और अधिकाधिक ज्ञानार्जन करने की इच्छा थी. वह साइकोलौजी में शोध कार्य करना चाहती थी और भविष्य में किसी कालेज में लैक्चरर बनने की ख्वाहिश पाले हुए थी.

नीलम एक बड़े बिजनैसमैन की बेटी थी. उस के पिताजी चाहते थे कि उन की बेटी दिल्ली के किसी कालेज से एमए कर ले और उस की सोसायटी मौडर्न हो जाए क्योंकि आजकल बिजनैसमैन के लड़के भी एक पढ़ीलिखी और मौडर्न लड़की को शादी के लिए प्रेफर करते थे. इसलिए उस ने दिल्ली के इसी कालेज में ऐडमिशन ले लिया था और ईजी सब्जैक्ट होने के कारण साइकोलौजी से एमए करना चाहती थी. समीर के पिताजी उसे आईएएस बनाना चाहते थे और समीर भी इस के लिए इच्छुक था, इसलिए वह भी साइकोलौजी से एमए करने के लिए कालेज में ऐडमिशन लिए हुए था.

प्रीति एक साधारण परिवार की थी और स्वभाव से भी बहुत ही सरल, इसलिए उस की वेशभूषा और पोशाकें भी साधारण थीं. पर वह सुंदर व स्मार्ट थी. उसे बनावशृंगार और मेकअप पसंद नहीं था किंतु दूसरी ओर नीलम सुंदर और छरहरे बदन की गोरी लड़की थी और अपने शरीर की सुंदरता पर उस का सब से ज्यादा ध्यान था. वह मेकअप करती और प्रतिदिन नईनई ड्रैस पहनती. कालेज में जहां प्रीति अपनी किताबों में उलझी रहती वहीं नीलम अपनी सहेलियों के साथ गपें मारती और मस्ती करती.

एक दिन प्रीति लंच के समय कालेज की लाइब्रेरी में कुछ किताबों से कुछ नोट्स तैयार कर रही थी. तभी नीलम उस के पास आई और बोली, ‘‘अरे पढ़ाकू, यह लंच का समय है और तुम किताबों से माथापच्ची कर रही हो जैसे रिसर्च कर रही हो. चलो चल कर कैफेटेरिया में चाय पीते हैं.’’

‘‘तुम जाओ, मैं थोड़ी देर बाद आऊंगी,’’ प्रीति ने कहा तो नीलम चली गई.

तभी उस ने महसूस किया कि उस के पीछे कोई खड़ा है. उस ने पलट कर पीछे की ओर देखा तो समीर था.

बस में मिलने के बाद समीर आज पहली बार उस के पास आ कर खड़ा हुआ था. क्लास में कभीकभी उस की ओर देख लिया करता था, किंतु बात नहीं करता था.

‘‘प्रीति सभी लोग कैफेटेरिया में चाय पी रहे हैं और तुम यहां बैठ कर नोट्स बना रही हो? अभी तो परीक्षा होने में काफी देर है. चलो, चाय पीते हैं.’’

‘‘बाद में आऊंगी समीर, थोड़े से नोट्स बनाने बाकी हैं, पूरा कर लेती हूं.’’

‘‘अब बंद भी करो,’’ समीर ने उस की नोटबुक को समेटते हुए कहा.

‘‘अच्छा चलो,’’ प्रीति भी किताबों को नोटबुक के साथ हाथ में उठाते हुए उठ खड़ी हुई.

जब समीर और प्रीति कैफेटेरिया में पहुंचे तो वहां पहले से ही नीलम अपनी कुछ क्लासमेट्स के साथ बैठ कर चाय पी रही थी. अगलबगल और भी कई लड़केलड़कियां थीं.

‘‘आ गई पढ़ाकू,’’ सविता ने उस को देखते हुए चुटकी ली.

‘‘मैं ने कहा, तो मेरे साथ नहीं आई. अब समीर के एक बार कहने पर आ गई. हां भई, उस दिन बस में उठ कर अपनी सीट जो तुम्हें औफर की थी. अब उस का कुछ खयाल तो रखना ही पड़ेगा न.’’ नीलम की बात सुन कर उस की सहेलियां हंसने लगीं.

समीर कुछ झेंप सा गया. बात आईगई हो गई किंतु इस के बाद प्रीति और समीर अकसर आपस में मिलते. प्रीति को साइकोलौजी के कई टौपिक्स पर बहुत ही अच्छी पकड़ थी. उस ने साइकोलौजी में कई जानेमाने लेखकों की पुस्तकों का अध्ययन किया था. जब कभी क्लास में कोई लैक्चरर आता तो उस विषय के ऐसे गंभीर प्रश्नों को उठाती कि सभी उस की ओर ताकने लगते.

समीर को उस के पढ़ने में काफी मदद मिलती. समय के साथसाथ उन के बीच आपसी लगाव बढ़ रहा था. उन के बीच का गहराता संबंध कालेज में चर्चा का विषय था. कुछ साथी उस पर चुटकियां लेने से नहीं चूकते.

‘लंगड़ी ने समीर को अपने रूपजाल में फंसा लिया है,’ कोई कहता तो कोई उन दोनों की ओर इशारा करते हुए अपने मित्र के कान में कुछ फुसफुसाता, जिस का एक ही मतलब होता था कि उन दोनों के बीच कुछ पक रहा है. अब वह किसकिस को जवाब देता. इसलिए चुप रहता.

वैसे भी समीर अपने कैरियर के प्रति सीरियस था. उसे आईएएस की तैयारी करनी थी जिस में साइकोलौजी को मुख्य विषय रखना था. वह इस विषय के बारे में अधिकाधिक जानकारी प्राप्त कर लेना चाहता था. उधर प्रीति को इसी विषय के किसी टौपिक पर रिसर्च करना था. इसलिए दोनों के अपनेअपने इंटरैस्ट थे. किंतु लगातार एकदूसरे के साथ संपर्क में रहने के कारण उन के अंदर प्रेम का भी अंकुरण होने लगा था जिस को दोनों महसूस तो करते किंतु इस की आपस में कभी चर्चा नहीं करते.

ऐसे ही कब 2 वर्ष गुजर गए उन्हें पता ही नहीं चला. दोनों ने एमए फर्स्ट डिवीजन से पास कर लिया. फिर समीर ने आईएएस की तैयारी के लिए दिल्ली में ही एक कोचिंग जौइन कर ली और प्रीति एक प्रोफैसर के अंडर पीएचडी करने लगी.

पानी मिलता रिश्ता- भाग 1: क्या परिवार को मना पाई दीप्ति

दीप्ति को एकाएक लगा मानों उस ने जो सुना वह उस के कानों का भ्रम था. भ्रम भी छोटामोटा नहीं बल्कि होश उड़ा देने वाला. इतना बड़ा भ्रम होना कोई छोटी बात नहीं. वह बेहद सदमे में थी. उस के वजूद की जड़ें हिल गईं. कुछ ही पल पहले जो पंख आसमान नाप रहे थे, अचानक जैसे किसी ने तीखे धारदार हथियार से चाक कर डाले और अब वह पंखविहीन गोते खाती पतंग सरीखी पथरीली जमीन की तरफ गिर रही है.
वह तय नहीं कर पा रही थी कि इसे कुदरत का खेल कहा जाए या खुद उस की नासमझी… मगर सच तो अजगर की तरह मुंह फाड़े उस के सामने खड़ा था और वह थी कि भय से आंखें चौड़ी किए अपने ऊपर झुके हुए कदम को घूर रही थी.

कदम चौहान… हां, यही तो वह नाम था जिस ने उसे गलतफहमी का शिकार बनाया. नहींनहीं नाम नहीं उपनाम कहना अधिक सही है. और फिर उस की कदकाठी भी तो उस के उपनाम से मेल खा रही थी. ऐसे में कोई भी धोखा खा सकता है. वह तो फिर भी एक कमउम्र नासमझ लड़की थी जिसे दुनिया अभी एक कटोरी जितनी ही बड़ी दिखती थी.

“घर से बाहर जा रही हो. बहुत से लोग आएंगे जिंदगी में. हमें तुम्हारी पसंद पर कोई ऐतराज भी नहीं होगा बशर्ते कि लड़का पानी मिलता हो,” पहली पोस्टिंग पर झीलों की नगरी उदयपुर जाती दीप्ति को मां ने नसीहत दी थी. दीप्ति ने अचरज से मां की तरफ देखा मानों ‘पानी मिलता’ का मतलब पूछ रही हो.

“पानी मिलता यानी जिस के साथ बैठ कर पानी पीया जा सके. किसी ऐसीवैसी जातबिरादरी में मत फंस जाना,” मां ने अपने कहे की व्याख्या की.

इस के साथ ही ‘ऐसीवैसी जातबिरादरी’ की परिभाषा जानने की उत्कंठा भी अब दीप्ति की आंखों में दिखाई देने लगी. मां इसे भी स्पष्ट करती इस से पहले ही पापा ने उस का बैग उठा कर अपने कंधे पर टांग लिया,”अब चल भी. ट्रेन तेरे इंतजार में रुकी नहीं रहेगी,” कहते हुए पापा उस का सामान औटो में रखने लगे.

खनिज विभाग के मुख्यालय में उसे जौइन करवा कर पापा वापस लौट गए थे. अभी हालफिलहाल उस के रहने की व्यवस्था सरकारी गैस्टहाउस में हो गई थी लेकिन यह अस्थाई थी. जल्दी ही उसे अपने लिए दूसरी व्यवस्था करनी होगी. सहकर्मियों के प्रयासों से दीप्ति की यह समस्या भी सुलझ गई. उसे अपने औफिस के पास ही मीरा मार्ग पर किराए का कमरा मिल गया.

शुरू के कुछ महीने तो उसे स्टाफ से परिचित होने और अपनी डैस्क का काम समझने में ही बीत गए. इस बीच मांपापा भी उदयपुर आतेजाते रहे. मां अकसर उस से स्टाफ के लोगों की जानकारी लेती रहती थी. मसलन, जिस के साथ दीप्ति उठतीबैठती है वह किस जातबिरादरी का है या फिर कहीं उस का मेलजोल किसी ऐसे व्यक्ति के साथ तो नहीं बढ़ रहा जिस के साथ घनिष्ठता भविष्य में किसी सामाजिक परेशानी का कारण बने वगैरहवगैरह…

अनजान शहर में कोई जरा सी भी मदद कर दे तो वह अपने लिए एक विशेष स्थान बना लेता है. कदम भी ऐसा ही व्यक्ति था जिस ने इस नई जगह पर दीप्ति की मदद की थी. हुआ यों कि किराए का कमरा तो दीप्ति को उस के साथियों ने दिला दिया था मगर वह कमरा फर्निश्ड नहीं था. जिंदगी को आसान बनाने वाला सामान तो उसे चाहिए ही था. कदम ने इस काम में उस की मदद की थी. चूंकि वह उदयपुर का स्थाई निवासी था इसलिए बेहतर जानता था कि दीप्ति के काम का कौन सा सामान उसे कहां सब से अधिक किफायती दर पर मिल सकता है. इसी प्रयास में दीप्ति का कई बार कदम के साथ इधरउधर आनाजाना भी हुआ.

कई बार शाम को देर होने पर दोनों ने फतहसागर झील के किनारे डोसा बाईट रेस्तरां में साथसाथ साउथ इंडियन फ़ूड का जायका भी चखा था. सिर्फ इतना ही नहीं, अनजाने ही कदम ने दीप्ति को शहर से परिचित करवाने की जिम्मेदारी भी ले ली थी. कभी सिटी पैलेस तो कभी गुलाबबाग की पगडंडियां दोनों ने साथसाथ नापी थी. 1-2 बार कदम उसे फतहसागर झील के भीतर बने नेहरू गार्डन की सैर करवाने भी ले गया था और नेहरू गार्डन ही क्यों, वह तो उसे सहेलियों की बाड़ी और चेतक मैमोरियल भी घुमा लाया था. सुखाड़िया सर्किल पर दोनों ने कितनी ही बार चाट और गोलगप्पों का मजा लिया था. कहना न होगा कि दोनों को ही एकदूसरे का साथ सुहाने लगा था.

अनजान शहर में कदम के रूप में उसे एक ऐसा साथी मिल गया था जो दोस्त, मार्गदर्शक, प्रेमी वगैरह अनेक भूमिकाएं अकेला ही निभा रहा था. दीप्ति उस के साथ खुद को सुरक्षित महसूस करती थी.

यह कहना बिलकुल गलत होगा कि उन दोनों को साथ देख कर स्टाफ की आंखें उन्हें अनदेखा कर देती थीं क्योंकि न तो समाज में अभी इतना बदलाव आया है और न ही एकसाथ सब की आंखें खराब हुई थीं. तो जाहिर सी बात है कि दीप्ति और कदम का साथ भी बहुत सी गौसिप में मुख्य विषय हुआ करता था लेकिन दीप्ति इन सब से बेपरवाह अपनी धुन में मस्त रहती थी. उस की मां ने उसे प्रेम करने की आजादी जो दे रखी थी.

इस बीच कई बार दीप्ति को नवल की जाति को ले कर खयाल भी आया लेकिन उस के उपनाम ‘चौहान’ ने उसे शंका से बाहर निकाल लिया. कदम की हाइट 6 फीट से कम नहीं थी. उस के भारी चेहरे पर ऊपर की तरफ उठी हुई नुकीली मूंछें उस के राठौड़ी ठसके को जीवंत कर देती थी. बातबात में जब कदम दीप्ति को ‘हुकुम’ कहता तो उस की पलकें बेशक लाज से झुक जातीं लेकिन उस का माथा गरूर से तन जाता था. यह नजाकत और नफासत ही तो राजपूतों की असल पहचान है.

दीप्ति को अपने पापा के दोस्त कर्नल हेमसिंह शेखावत याद आ जाते जिन के साथ पापा क्लब जाते हैं. मां कितनी कायल थी शेखावत अंकल के रुआब की. हर समय उन की जबान पर शेखावत अंकल की तारीफें ही होती थीं. शायद मन ही मन वे दीप्ति के लिए भी ऐसे ही किसी जीवनसाथी की कल्पना करती होंगी. कदम के साथ कुछ समय बिताने के बाद दीप्ति को लगने लगा था कि वह मां के सपने को साकार करने के करीब पहुंच गई है.

यानी मां के शब्दों में कहें तो कदम उन के लिए ‘पानी मिलता’ रिश्ता था और खुद उस के लिए मन मिलता…
बस फिर क्या था, दीप्ति ने अपनी आंखों को सपने देखने की छूट दे दी. अपने पंखों को आसमान नापने की आजादी भी. जमीन पर दीप्ति अपने सपनों के साथ उड़ती कदम के साथ भविष्य की कल्पनाओं में डुबकियां लगा रही थी. ‘पहली बार फतहसागर की पाल पर भुनी हुई मक्का खातेखाते जब उस ने धीरे से कदम का हाथ छू लिया था तब कैसे सिहर गया था कदम,’ याद करते ही दीप्ति अकेले में मुसकराने लगती है.

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एक साथी की तलाश- भाग 1: कैसी जिंदगी जी रही थी श्यामला

शाम गहरा रही थी. सर्दी बढ़ रही थी. पर मधुप बाहर कुरसी पर बैठे  शून्य में टकटकी लगाए न जाने क्या सोच रहे थे. सूरज डूबने को था. डूबते सूरज की रक्तिम रश्मियों की लालिमा में रंगे बादलों के छितरे हुए टुकड़े नीले आकाश में तैर रहे थे.

उन की स्मृति में भी अच्छीबुरी यादों के टुकड़े कुछ इसी प्रकार तैर रहे थे. 2 दिन पहले ही वे रिटायर हुए थे. 35 सालों की आपाधापी व भागदौड़ के बाद का आराम या विराम, पता नहीं, पर अब, अब क्या…’ विदाई समारोह के बाद घर आते हुए वे यही सोच रहे थे. जीवन की धारा अब रास्ता बदल कर जिस रास्ते पर बहने वाली थी, उस में वे अकेले कैसे तैरेंगे.

‘‘साहब, सर्दी बढ़ रही है, अंदर चलिए’’, बिरुवा कह रहा था.

‘‘हूं,’’ अपनेआप में खोए मधुप चौंक गए, ‘‘हां चलो.’’ और वे उठ खड़े हुए.

‘‘इस वर्ष सर्दी बहुत पड़ रही है साहब,’’ बिरुवा कुरसी उठा कर उन के साथ चलते हुए बोला, ‘‘ओस भी बहुत पड़ती है. सुबह सब भीगाभीगा रहता है, जैसे रातभर बारिश हुई हो,’’ बिरुवा बोलते जा रहा था.

मधुप अंदर आ गए. बिरुवा उन के अकेलेपन का साथी था. अकेलेपन का दुख उन्हें मिला था पर भुगता बिरुवा ने भी था. खाली घर में बिरुवा कई बार अकेला ही बातें करता रहता. उन की आवश्यकता से अधिक चुप रहने की आदत थी. उन की तरफ से कोई प्रतिक्रिया न पा कर, बड़बड़ाता हुआ वह स्वयं ही खिसिया कर चुप हो जाता.

पर श्यामला खिसिया कर चुप न होती थी, बल्कि झल्ला जाती थी, ‘मैं क्या दीवारों से बातें कर रही हूं. हूं हां भी नहीं बोल पाते, चेहरे पर कोई भाव ही नहीं रहते, किस से बातें करूं,’ कह कर कभीकभी उस की आंखों में आंसू आ जाते.

उन की आवश्यकता से अधिक चुप रहने की आदत श्यामला के लिए इस कदर परेशानी का सबब बन गई थी कि वह दुखी हो जाती थी. उन की संवेदनहीनता, स्पंदनहीनता की ठंडक बर्फ की तरह उस के पूरे व्यक्तित्व को झुलसा रही थी. नाराजगी में तो मधुप और भी अभेद हो जाते थे. मधुप ने कमरे में आ कर टीवी चला दिया.

तभी बिरुवा गरम सूप ले कर आ गया, ‘‘साहब, सूप पी लीजिए.’’

बिरुवा के हाथ से ले कर वे सूप पीने लगे. बिरुवा वहीं जमीन पर बैठ गया. कुछ बोलने के लिए वह हिम्मत जुटा रहा था, फिर किसी तरह बोला, ‘‘साहब, घर वाले बहुत बुला रहे हैं, कहते हैं अब घर आ कर आराम करो, बहुत कर लिया कामधाम, दोनों बेटे कमाने लगे हैं. अब जरूरत नहीं है काम करने की.’’

मधुप कुछ बोल न पाए, छन्न से दिल के अंदर कुछ टूट कर बिखर गया. बिरुवा का भी कोई है जो उसे बुला रहा है. 2 बेटे हैं जो उसे आराम देना चाहते हैं. उस के बुढ़ापे की और अशक्त होती उम्र की फिक्रहै उन्हें. लेकिन सबकुछ होते हुए भी यह सुख उन के नसीब में नहीं है.

बिरुवा के बिना रहने की वे कल्पना भी नहीं कर पाते. अकेले में इस घर की दीवारों से भी उन्हें डर लगता है, जैसे कोनों से बहुत सारे साए निकल कर उन्हें निगल जाएंगे. उन्हें अपनी यादों से भी डर लगता है और अकेले में यादें बहुत सताती हैं.

‘सारा दिन आप व्यस्त रहते हैं, रात को भी देर से आते हैं, मैं सारा दिन अकेले घर में बोर हो जाती हूं,’ श्यामला कहती थी.

‘तो, और औरतें क्या करती हैं और क्या करती थीं, बोर होना तो एक बहाना भर होता है काम से भागने का. घर में सौ काम होते हैं करने को.’

‘पर घर के काम में कितना मन लगाऊं. घर के काम तो मैं कर ही लेती हूं. आप कहो तो बच्चों के स्कूल में एप्लीकेशन दे दूं नौकरी के लिए, कुछ ही घंटों की तो बात होती है, दोपहर में बच्चों के साथ घर आ जाया करूंगी,’ श्यामला ने अनुनय किया.

‘कोई जरूरत नहीं. कोई कमी है तुम्हें?’ अपना निर्णय सुना कर जो मधुप चुप हुए तो कुछ नहीं बोले. उन से कुछ बोलना या उन को मनाना टेढ़ी खीर था. हार कर श्यामला चुप हो गई, जबरदस्ती भी करे तो किस के साथ, और मनाए भी तो किस को.

‘नौवल्टी में अच्छी पिक्चर लगी है, चलिए न किसी दिन देख आएं, कहीं भी तो नहीं जाते हैं हम?’

‘मुझे टाइम नहीं, और वैसे भी, 3 घंटे हौल में मैं नहीं बैठ सकता.’

‘तो फिर आप कहें तो मैं किसी सहेली के साथ हो आऊं?’

‘कोई जरूरत नहीं भीड़ में जाने की, सीडी ला कर घर पर देख लो.’

‘सीडी में हौल जैसा मजा कहां

आता है?’

लेकिन अपना निर्णय सुना कर चुप्पी साधने की उन की आदत थी. श्यामला थोड़ी देर बोलती रही, फिर चुप हो गई. तब नहीं सोच पाते थे मधुप, कि पौधे को भी पल्लवित होने के लिए धूप, छांव, पानी व हवा सभी चीजों की जरूरत होती है. किसी एक चीज के भी न होने पर पौधा मर जाता है. फिर, श्यामला तो इंसान थी, उसे भी खुश रहने के लिए हर तरह के मानवीय भावों की जरूरत थी. वह उन का एक ही रूप देखती थी, आखिर कैसे खुश रह पाती वह.

‘थोड़े दिन पूना हो आऊं मां के

पास, भैयाभाभी भी आए हैं आजकल, मुलाकात हो जाएगी.’

‘कैसे जाओगी इस समय?’ मधुप आश्चर्य से बोले, ‘किस के साथ जाओगी?’

‘अरे, अकेले जाने में क्या हुआ, 2 बच्चों के साथ सभी जाते हैं.’

‘जो जाते हैं, उन्हें जाने दो, पर मैं तुम लोगों को अकेले नहीं भेज सकता.’

फिर श्यामला लाख तर्क करती, मिन्नतें करती. पर मधुप के मुंह पर जैसे टेप लग जाता. ऐसी अनेक बातों से शायद श्यामला का अंतर्मन विरोध करता रहा होगा. पहली बार विरोध की चिनगारी कब सुलगी और कब भड़की, याद नहीं पड़ता मधुप को.

‘‘साहब, खाना लगा दूं?’’ बिरुवा कह रहा था.

‘‘भूख नहीं है बिरुवा, अभी तो सूप पिया.’’

‘‘थोड़ा सा खा लीजिए साहब, आप रात का खाना अकसर छोड़ने लगे हैं.’’

‘‘ठीक है, थोड़ा सा यहीं ला दे,’’ मधुप बाथरूम से हाथ धो कर बैठ गए.

इस एकरस दिनचर्या से वे दो ही दिन में घबरा गए थे, तो श्यामला कैसे बिताती पूरी जिंदगी. वे बिलकुल भी शौकीन तबीयत के नहीं थे. न उन्हें संगीत का शौक था, न किताबें पढ़ने का, न पिक्चरों का, न घूमने का, न बातें करने का. श्यामला की जीवंतता, मधुप की निर्जीवता से अकसर घबरा जाती. कई बार चिढ़ कर कहती, ‘ठूंठ के साथ आखिर कैसे जिंदगी बिताई जा सकती है.’

उन्होंने चौंक कर श्यामला की तरफ देखा, एक हफ्ते बाद सीधेसीधे श्यामला का चेहरा देखा था उन्होंने. एक हफ्ते में जैसे उस की उम्र 7 साल बढ़ गई थी. रोतेरोते आंखें लाल, और चारों तरफ कालेस्याह घेरे.

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मजबूरियां- भाग 1: प्रकाश को क्या मिला निशा का प्यार

‘‘अब सिर दर्द कैसा है आप का?’’ थोड़ी देर बड़े प्रेम से सिर दबाने के बाद ज्योति ने प्रकाश से पूछा.

‘‘तुम्हारे हाथों में जादू है, ज्योति,’’ प्रकाश उस की आंखों में आंखें डाल कर मुसकराया, ‘‘दर्द उड़नछू हो गया. अब मैं खुद को बिलकुल तरोताजा महसूस कर रहा हूं, पर यह कमाल हर बार तुम कैसे कर देती हो?’’ प्रकाश ने पूछा.

‘‘कौन सा कमाल?’’ ज्योति बोली.

‘‘मेरे थकेहारे शरीर और दिलोदिमाग में जीवन के प्रति उमंग और उत्साह भरने का कमाल,’’ प्रकाश ने जवाब दिया.

‘‘मैं कोई कमाल नहीं करती जनाब, उलटा मैं जब आप के साथ होती हूं तब मेरी जीवन बगिया के फूल खिल उठते हैं,’’ ज्योति ने कहा.

‘‘और जरूर उन्हीं खूबसूरत फूलों की शानदार महक मु झे यों मस्त और तरोताजा कर जाती है, डार्लिंग,’’ अपनी गरदन घुमा कर प्रकाश ने एक छोटा चुंबन ज्योति के गुलाबी होंठों पर अंकित कर दिया.

‘‘बड़ी जल्दी शरारत सू झने लगी है, साहब,’’ कहते हुए ज्योति के गोरे गाल शर्म से गुलाबी हो उठे.

‘‘तुम कितनी सुंदर हो,’’ अपना मुंह उस के कान के पास ला कर प्रकाश ने कोमल स्वर में कहा, ‘‘एक बात मु झे अभी भी बहुत हैरान कर जाती है.’’

‘‘कौन सी बात?’’ ज्योति ने पूछा.

‘‘हमारी जानपहचान अब 5 साल पुरानी हो गई है. सैकड़ों बार मैं तुम्हें प्रेम कर चुका हूं. पर अब भी मेरा छोटा सा चुंबन तुम्हारे रोमरोम को पुलकित कर जाता है. यही बात मु झे हैरान करती है.’’

‘‘है न कमाल की बात. अब जवाब दो कि जादूगर मैं हुई कि आप?’’ ज्योति शरारती अदा से मुसकराई तो प्रकाश ने इस बार एक लंबा चुंबन उस के होंठों पर अंकित कर दिया.

अपनी सांसें व्यवस्थित करने के बाद प्रकाश ने मुसकराते हुए जवाब दिया, ‘‘जादूगरनी तो तुम हो ही ज्योति. पहली मुलाकात के दिन से ही तुम्हारा जादू मेरे सिर चढ़चढ़ कर बोलने लगा था.’’

‘‘याद है आप को हमारी वह पहली मुलाकात?’’ ज्योति ने पूछा.

‘‘बिलकुल याद है, मीठे खरबूजे चुनने में तुम ने मेरी खुद आगे बढ़ कर मदद की थी,’’ प्रकाश बोला.

‘‘और मैं ने जब अपने खरीदे खरबूजे प्लास्टिक के थैले में डाले तो थैला ही फट गया और थैले में रखे आलूप्याज भी चारों तरफ बिखर गए थे. कितनी चुस्ती दिखाई थी आप ने उन्हें समेटने में. भला 3-4 आलूप्याज निकालने को खरबूजे वाले के ठेले के नीचे घुसने की क्या जरूरत थी आप को?’’ पुराना दृश्य याद कर के ज्योति खिलखिला कर हंस पड़ी.

‘‘अरे, अगर ठेले के नीचे न घुसता तो कील में अटक कर मेरी कमीज न फटती. अगर कमीज न फटती तो तुम अफसोस प्रकट करने की मु झ से ढेरों बातें न करतीं. तब हमारा आपस में न परिचय होता, न हम साथसाथ थोड़ी देर पैदल चलते. उस 15 मिनट के साथसाथ चलने में ही तो हमारे दिलों में एकदूसरे के लिए प्रेम का बीज पड़ा था, मैडम. इसलिए मेरा ठेले के नीचे घुसना बड़ा जरूरी था. यदि मैं ऐसा न करता तो दुनिया की सब से खूबसूरत, सब से प्यारी सर्वगुणसंपन्न युवती के प्यार से वंचित रह जाता या नहीं?’’ प्रकाश का बोलने का नाटकीय अंदाज ज्योति को हंसाहंसा कर उस के पेट में बल डाल गया.

‘‘तुम से उस दिन मिल कर पहली नजर में ही मु झे ऐसा लगा था जैसे मु झे अपने सपनों का राजकुमार मिल गया हो,’’  प्रकाश की गोद में सिर रख कर लेटते हुए ज्योति ने भावुक स्वर में कहा.

‘‘और जब बाद में तुम्हें यह मालूम चल गया कि तुम्हारे सपनों का राजकुमार शादीशुदा है, 2 बच्चों का पिता है तब तुम ने उस की तसवीर को अपने दिल से क्यों नहीं निकाल फेंका?’’ प्रकाश ने पूछा.

‘‘बुद्धू, इतने सोचविचार में ‘प्रेम’ कहां पड़ता है. प्रेम को अंधा कहा जाता है, जनाब. जिस से हो गया, हो गया. जिस से नहीं, तो नहीं. कोई जोरजबरदस्ती नहीं चलती प्रेम में.’’

‘‘ठीक कहती हो तुम, निशा के साथ मेरी शादी हुए 18 साल से ज्यादा समय बीत चुका है. हमारे बीच प्रेम का अंकुर कभी जड़ ही नहीं पकड़ सका. एकदूसरे के दिलों में जगह नहीं बना पाए

कभी हम. तुम्हारे मेरे साथ संबंधों  की जानकारी होने के बाद उस से मेरे संबंध बहुत बिगड़ गए हैं, ज्योति,’’ प्रकाश बोला.

‘‘मेरे कारण आप उन से मत उल झा करें, प्लीज. मैं कभी नहीं चाहूंगी कि मैं आप के जीवन में समस्याएं पैदा करूं. मेरा प्रेम आप की सुखशांति और खुशियों के अलावा और कुछ भी नहीं मांगता,’’ कहते हुए ज्योति की आंखों में आंसू  िझलमिला उठे.

‘‘तुम कुछ मांगती नहीं. और मैं जो तुम्हें देना चाहता हूं वह दे नहीं सकता. अपनी मजबूरियां देख कर कभीकभी मु झे लगता है, मैं ने तुम से प्रेमसंबंध जोड़ कर तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया है,’’  कहता हुआ प्रकाश उदास हो उठा.

‘‘बिलकुल गलत,’’ ज्योति फौरन हंस कर बोली, ‘‘तुम्हारा प्रेम मेरे लिए अनमोल है. प्रेम से मिलने वाला सुख सात फेरों का मुहताज नहीं होता. बस, मु झे तुम्हारे होंठों पर हंसी नजर आती रहे तो मैं अपने जीवन से, अपने हालात से कभी शादी न करने के अपने फैसले से, तुम्हारे प्रेम से पूरी तरह संतुष्ट हूं.’’

‘‘आई लव यू टू, ज्योति,’’ प्रकाश ने उस की आंखों को चूम कर कहा.

‘‘आई लव यू, प्रकाश,’’ ज्योति उस के कान में फुसफुसा उठी.

‘‘तुम मु झ से कभी दूर न होना, प्लीज,’’ प्रकाश बोला.

‘‘यह कभी नहीं होगा,’’ यह कह कर ज्योति प्रकाश की आगोश में समा गई थी.

निशा ने शयनकक्ष में घुसते ही प्रकाश से  झगड़ने के अंदाज में पूछा, ‘‘लंच के बाद औफिस से कहां गए थे आप?’’

‘‘क्यों जानना चाहती हो?’’ प्रकाश ने भावहीन लहजे में उलटा सवाल किया.

‘‘तुम्हारी पत्नी होने के नाते मु झे यह सवाल पूछने का अधिकार है.’’

‘पत्नी के अधिकार तुम कभी नहीं भूलीं और अपने कर्तव्यों के बारे में कभी प्रेम से सोचा ही नहीं तुम ने,’ प्रकाश बहुत धीमे स्वर में बुदबुदाया.

‘‘मुंह ही मुंह में क्या बड़बड़ा रहे हो, अगर गालियां देनी हैं तो सामने जोर से दो,’’ निशा चिढ़ उठी.

‘‘मैं गाली नहीं दे रहा हूं तुम्हें,’’ प्रकाश ने गहरी सांस छोड़ कर कहा.

‘‘कहां गए थे आप लंच के बाद?’’ निशा ने अपना सवाल दोहराया.

‘‘तुम्हें अच्छी तरह पता है मैं कहां गया था,’’ प्रकाश बोला.

‘‘उसी चुड़ैल ज्योति के पास?’’ निशा ने विषैले अंदाज में पूछा.

शायद- भाग 1: क्या हुआ था सुवीरा के साथ

पदचाप और दरवाजे के हर खटके पर सुवीरा की तेजहीन आंखों में चमक लौट आती थी. दूर तक भटकती निगाहें किसी को देखतीं और फिर पलकें बंद हो जातीं. सिरहाने बैठे गिरीशजी से उन की बहू सीमा ने एक बार फिर जिद करते हुए कहा था,  ‘‘पापा, आप समझने की कोशिश क्यों नहीं कर रहे? जब तक नानीजी और सोहन मामा यहां नहीं आएंगे, मां के प्राण यों ही अधर में लटके रहेंगे. इन की यह पीड़ा अब मुझ से देखी नहीं जाती,’’ कहतेकहते सीमा सिसक उठी थी.

बरसों पहले का वह दृश्य गिरीशजी की आंखों के सामने सजीव हो उठा जब मां और भाई के प्रति आत्मीयता दर्शाती पत्नी को हर बार बदले में अपमान और तिरस्कार के दंश सहते उन्होंने ऐसी कसम दिलवा दी थी जिस की सुवीरा ने कभी कल्पना भी नहीं की थी.

‘‘आज के बाद अगर इन लोगों से कोई रिश्ता रखोगी तो तुम मेरा मरा मुंह देखोगी.’’

बरसों पुराना बीता हुआ वह लम्हा धुल-पुंछ कर उन के सामने आ गया था. अतीत के गर्भ में बसी उन यादों को भुला पाना इतना सहज नहीं था. वैसे भी उन रिश्तों को कैसे झुठलाया जा सकता था जो उन के जीवन से गहरे जुड़े थे.

आंखें बंद कीं तो मन न जाने कब आमेर क्लार्क होटल की लौबी में जा पहुंचा और सामने आ कर खड़ी हो गई सुंदर, सुशील सुवीरा. एकदम अनजान जगह में किसी आत्मीय जन का होना मरुस्थल में झील के समान लगा था उन्हें. मंदमंद हास्य से युक्त, उस प्रभावशाली व्यक्तित्व को बहुत देर तक निहारते रहे थे. फिर धीरे से बोले, ‘आप का प्रस्तुतिकरण सर्वश्रेष्ठ था.’

‘धन्यवाद,’ प्रत्युत्तर में सुवीरा बोली तो गिरीश अपलक उसे देखते ही रह गए थे. इस पहली भेंट में ही सुवीरा उन के हृदय की साम्राज्ञी बन गई थी. फिर तो उसी के दायरे में बंधे, उस के इर्दगिर्द घूमते हुए हर पल उस की छोटीछोटी गतिविधियों का अवलोकन करते हुए इतना तो वह समझ ही गए थे कि उन का यह आकर्षण एकतरफा नहीं था. सुवीरा भी उन्हें दिल की अतल गहराइयों से चाहने लगी थी, पर कह नहीं पा रही थी. अपने चारों तरफ सुवीरा ने कर्तव्यनिष्ठा की ऐसी सीमा बांध रखी थी जिसे तोड़ना तो दूर लांघना भी उस के लिए मुश्किल था.

लगभग 1 माह बाद दफ्तर के काम से गिरीश दिल्ली पहुंचे तो सीधे सुवीरा से मिलने उस के घर चले गए थे. बातोंबातों में उन्होंने अपने प्रेम प्रसंग की चर्चा सुवीरा की मां से की तो अलाव सी सुलग उठी थीं वह.

‘बड़ी सतीसावित्री बनी फिरती थी. यही गुल खिलाने थे?’ मां के शब्दों से सहमीसकुची सुवीरा कभी उन का चेहरा देखती तो कभी गिरीश के चेहरे के भावों को पढ़ने का प्रयास करती पर अम्मां शांत नहीं हुई थीं.

अगले दिन कोर्टमैरिज के बाद सुवीरा हठ कर के अम्मांबाबूजी के पास आशीर्वाद लेने पहुंची तो अपनी कुटिल दृष्टि बिखेरती अम्मां ने ऐसा गर्जन किया कि रोनेरोने को हो उठी थी सुवीरा.

‘अपनी बिरादरी में लड़कों की कोई कमी थी जो दूसरी जाति के लड़के से ब्याह कर के आ गई?’

‘फोन तो किया था तुम्हें, अम्मां… अभी भी तुम्हारा आशीर्वाद ही तो लेने आए हैं हम,’ सुवीरा के सधे हुए आग्रह को तिरस्कार की पैनी धार से काटती हुई अम्मां ने हुंकार लगाई.

‘तू क्या समझती है, तू चली जाएगी तो हम जी नहीं पाएंगे…भूखे मरेंगे? डंके की चोट पर जिएंगे…लेकिन याद रखना, जिस तरह तू ने इस कुल का अपमान किया है, हम आशीर्वाद तो क्या कोई रिश्ता भी नहीं रखना चाहते तुझ से.’

व्यावहारिकता के धरातल पर खड़े गिरीश, सास के इस अनर्गल प्रलाप का अर्थ भली प्रकार समझ गए थे. नौकरीपेशा लड़की देहरी लांघ गई तो रोटीपानी भी नसीब नहीं होगा इन्हें. झूठे दंभ की आड़ में जातीयता का रोना तो बेवजह अम्मां रोए जा रही थीं.

बिना कुछ कहेसुने, कांपते कदमों से सुवीरा सीधे बाबूजी के कमरे में चली गई थी. वह बरसों से पक्षाघात से पीडि़त थे. ब्याहता बेटी देख कर उन की आंखों से आंसुओं की अविरल धारा फूट पड़ी थी. सुवीरा भी उन के सीने से लग कर बड़ी देर तक सिसकती रही थी. रुंधे स्वर से वह इतना ही कह पाई थी, ‘बाबूजी, अम्मां चाहे मुझ से कोई रिश्ता रखें या न रखें, पर मैं जब तक जिंदा रहूंगी, मायके के हर सुखदुख में सहभागिता ही दिखाऊंगी, ये मेरा वादा है आप से.’

बेटी की संवेदनाओं का मतलब समझ रहे थे दीनदयालजी. आशीर्वाद- स्वरूप सिर पर हाथ फेरा तो अम्मां बिफर उठी थीं, ‘हम किसी का एहसान नहीं लेंगे. जरूरत पड़ी तो किसी आश्रम में चाहे रह लें लेकिन तेरे आगे हाथ नहीं फैलाएंगे.’

अम्मां चाहे कितना चीखती- चिल्लाती रहीं, सुवीरा महीने की हर पहली तारीख को नोटों से भरा लिफाफा अम्मां के पास जरूर पहुंचा आती थी और बदले में बटोर लाती थी अपमान, तिरस्कार के कठोर, कड़वे अपदंश. गिरीश ने कभी अम्मां के व्यवहार का विश्लेषण करना भी चाहा तो बड़ी सहजता से टाल जाती सुवीरा, पर मन ही मन दुखी बहुत होती थी.

‘जो कुछ कहना था, मुझे कहतीं. दामाद के सामने अनापशनाप कहने की क्या जरूरत थी?’ ऐसे में अपंग पिता का प्यार और पति का सौहार्द ठंडे फाहे सा काम करता.

दौड़भाग करते कब सुबह होती, कब शाम, पता ही नहीं चलता था. गिरीश ने कई बार रोकना चाहा तो सुवीरा हंस  कर कहती, ‘समझने की कोशिश करो, गिरीश. मेरे ऊपर अम्मां, बीमार पिता और सोहन का दायित्व है. जब तक सोहन अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो जाता, मुझे नौकरी करनी ही पड़ेगी.’

‘सुवीरा, मैं ने अपने मातापिता को कभी नहीं देखा. अनाथालय में पलाबढ़ा लेकिन इतना जानता हूं कि सात फेरे लेने के बाद पतिपत्नी का हर सुखदुख साझा होता है. उसी अधिकार से पूछ रहा हूं, क्या तुम्हारे कुछ दायित्व मैं नहीं बांट सकता?’

गिरीश के प्रेम से सराबोर कोमल शब्द जब सुवीरा के ऊपर भीनी फुहार बन कर बरसते तो उस का मन करता कि पति के मादक प्रणयालिंगन से निकल कर, भाग कर सारे खिड़कीझरोखे खोल दे और कहे, देखो, गिरीश मुझे कितना प्यार करते हैं.

2 बरस बाद सुवीरा ने जुड़वां बेटों को जन्म दिया. गिरीश खुद ससुराल सूचना देने गए पर कोई नहीं आया था. बाबूजी तो वैसे ही बिस्तर पर थे पर मां और सोहन…इतने समय बाद संतान के सुख से तृप्त बेटी के सुखद संसार को देखने इस बार भी नहीं आए थे. मन ही मन कलपती रही थी सुवीरा.

गिरीश ने जरा सी आत्मीयता दर्शायी तो पानी से भरे पात्र की तरह छलक उठी थी सुवीरा, ‘क्या कुसूर किया था मैं ने? उस घर को सजाया, संवारा अपने स्नेह से सींचा, पर मेरे अस्तित्व को ही नकार दिया. कम से कम इतना तो देखते कि बेटी कहां है, किस हाल में है. मात्र यही कुसूर है न मेरा कि मैं ने प्रेम विवाह किया है.’

इतना सुनते ही गिरीश के चेहरे पर दर्द का दरिया लरज उठा था. बोले, ‘इस समय तुम्हारा ज्यादा बोलना ठीक नहीं है. आराम करो.’

सुवीरा चुप नहीं हुई. प्याज के छिलकों की तरह परत दर परत बरसों से सहेजी संवेदनाएं सारी सीमाएं तोड़ कर बाहर निकलने लगीं.

‘मैं उस समय 5 साल की बच्ची ही तो थी जब अम्मां दुधमुंहे सोहन को मेरे हवाले छोड़ पड़ोस की औरतों के बीच गप मारने में मशगूल हो जाती थीं. लौट कर आतीं तो किसी थानेदार की तरह ढेरों प्रश्न कर डालतीं.

नाराजगी- भाग 2: बहू को स्वीकार क्यों नहीं करना चाहती थी आशा

दोनों अपनी बात पर अड़े हुए थे. संध्या का नाम सुनते ही आशा फोन काट देतीं.शाम को सुमित ने मम्मी को फोन मिलाया.‘‘हैलो मम्मी, क्या कर रही हो?’’‘‘कुछ नहीं. अब करने को रह ही क्या गया है बेटा?’’ आशा बु झी हुई आवाज में बोलीं.‘‘आप के मुंह से ऐसे निराशाजनक शब्द अच्छे नहीं लगते. आप ने जीवन में इतना संघर्ष किया है, आप हमेशा मेरी आदर्श रही हैं.’’‘‘तो तुम ही बताओ मैं क्या कहूं?’’‘‘आप मेरी बात क्यों नहीं सम झती हैं? शादी मु झे करनी है. मैं अपना भलाबुरा खुद सोच सकता हूं.’’‘‘तुम्हें भी तो मेरी बात सम झ में नहीं आती. मैं तो इतना जानती हूं कि संध्या तुम्हारे लायक नहीं है.’’‘‘आप उस से मिली ही कहां हो जो आप ने उस के बारे में ऐसी राय बना ली? एक बार मिल तो लीजिए. वह बहू के रूप में आप को कभी शिकायत का अवसर नहीं देगी.’’‘

‘जिस के कारण शादी से पहले मांबेटे में इतनी तकरार हो रही हो उस से मैं और क्या अपेक्षा कर सकती हूं. तुम्हें कुछ नहीं दिख रहा लेकिन मु झे सबकुछ दिखाई दे रहा है कि आगे चल कर इस रिश्ते का अंजाम क्या होगा?’’‘‘प्लीज मम्मी, यह बात मु झ पर छोड़ दें. आप को अपने बेटे पर विश्वास होना चाहिए. मैं हमेशा से आप का बेटा था और रहूंगा. जिंदगी में पहली बार मैं ने अपनी पसंद आप के सामने व्यक्त की है.’’‘‘वह मेरी अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं है. तुम इस बात को छोड़ क्यों नहीं  देते बेटे.’’‘‘नहीं मम्मी, मैं संध्या को ही अपना जीवनसाथी बनाना चाहता हूं. मु झे उस के साथ ही जिंदगी बितानी है. मैं जानता हूं मु झे इस से अच्छी और कोई नहीं मिल सकती.’’

आशा में अब और बात सुनने का सब्र नहीं था. उस ने फोन कट कर दिया. सुमित प्यार और ममता की 2 नावों पर सवार हो कर परेशान हो गया था. वह इस द्वंद्व से जल्दी छुटकारा पाना चाहता था. उस ने कुछ सोच कर कागजपेन उठाया और मम्मी के नाम चिट्ठी लिखने लगा.‘मम्मी, ‘आप मु झे नहीं सम झना चाहतीं, तो कोई बात नहीं पर यह पत्र जरूर पढ़ लीजिएगा. पता नहीं क्यों संध्या में मु झे आप की जवानी की छवि दिखाई देती है.‘आप ने जिस तरीके से जिंदगी बिताई है वह मु झे याद है. उस समय मैं बहुत छोटा था और यह बात नहीं सम झ सकता था लेकिन अब वे सब बातें मेरी सम झ में आ रही हैं. परिवार की बंदिशों के कारण आप की जिंदगी घर और मु झ तक सिमट कर रह गई थी.

आप का एकमात्र सहारा मैं ही तो था जिस के कारण आप को नौकरी करनी पड़ रही थी और लोगों के ताने सुनने पड़ते थे. यह बात मु झे बहुत बाद में सम झ  में आई.‘जब मैं थोड़ा बड़ा हुआ तो मु झे लगता मेरी मम्मी इतनी सुंदर हैं फिर भी वे इतनी साधारण बन कर क्यों रहती हैं? पता नहीं, उस समय आप ने अपनी भावनाओं को कैसे काबू में किया होगा और कैसे अपनी जवानी बिताई होगी? समाज का डर और मेरे कारण आप  ने अपनेआप को बहुत संकुचित कर  लिया था. संध्या बहुत अच्छी है. वह मु झे पसंद है. मैं उसे एक और आशा नहीं बनने देना चाहता.

मैं उस के जीवन में फिर से खुशी लाना चाहता हूं. जो कसर आप के जीवन में रह गई थी मैं उसे दूर करना चाहता हूं. हो सके आप मेरी बात पर जरूर ध्यान दें.‘आप का बेटा, सुमित.’पत्र लिखने के बाद सुमित ने उसे पढ़ा और फिर पोस्ट कर दिया. आशा ने वह पत्र पढ़ा तो उन के दिमाग ने काम करना बंद कर दिया. उन्होंने तो कभी ऐसा सोचा तक न था जो कुछ सुमित के दिमाग में चल रहा था. उसे याद आ रहा था कि सुमित की दादी जरा सा किसी से बात करने पर उन्हें कितना जलील करती थीं. किसी तरह सुमित से लिपट कर वे अपना दर्द कम करने की कोशिश करती थीं.आज पत्र पढ़ कर रोरो कर उन की आंखें सूज गई थीं. उन्हें अच्छा लगा कि उन का बेटा आज भी उन के बारे में इतना सबकुछ सोचता है. बहुत सोच कर उन्होंने सुमित को फोन मिलाया.

‘‘हैलो बेटा.’’उस ने पूछा, ‘‘कैसी हो मम्मी?’’मां की आंसुओं में डूबी आवाज सुन कर वह सम झ गया कि उस की चिट्ठी मम्मी को मिल गई है.‘‘बेटा. मैं मुंबई आ रही हूं तुम से मिलने…’’ इतना कहतेकहते उन  की आवाज भर्रा गई और उन्होंने फोन रख दिया. यह सुन कर सुमित की खुशी का ठिकाना न रहा. उस ने यह बात संध्या को बताई तो वह भी खुश हो गई. एक हफ्ते बाद वे मुंबई पहुंच गई. आशा ने संध्या से मुलाकात की. दोनों के चेहरे देख कर उस का मन अंदर से दुखी था. उम्र की रेखाएं संध्या के चेहरे पर स्पष्ट दिखाई दे रही थीं और उस के मुकाबले सुमित एकदम मासूम सा लग रहा था. दिल पर पत्थर रख कर आशा ने शादी की इजाजत दे दी.

यह जान कर संध्या के परिवार के सभी लोग बहुत खुश थे. उस के बड़े भैया अशोक ने संध्या से पहले भी कहा था कि संध्या तू कब तक ऐसी जिंदगी काटेगी. कोई अच्छा सा लड़का देख कर शादी कर ले. अर्श की खातिर तब उस ने दूसरी शादी करने का खयाल भी अपने जेहन में नहीं आने दिया था. इधर सुमित की बातों और व्यवहार से वह बहुत प्रभावित हो गई थी. आशा की स्वीकृति मिलने पर उस ने शादी के लिए हां कर दी.संध्या की मम्मी सीमा ने जब यह बात सुनी तो उन्हें भी बड़ा संतोष हुआ, बोलीं, ‘‘संध्या, तुम ने समय रहते बहुत अच्छा निर्णय लिया है.’’‘‘मम्मी, मेरा दिल तो अभी भी घबरा रहा है.’’‘‘तुम खुश हो कर नए जीवन में प्रवेश करो बेटा. अभी कुछ समय अर्श को मेरे पास रहने दो.’’ ‘‘यह क्या कह रही हो मम्मी?’’‘‘मैं ठीक कह रही हूं बेटा. तुम्हारी दूसरी शादी है, सुमित की नहीं. उस के भी कुछ अरमान होंगे. पहले उन्हें पूरा कर लो, उस के बाद बेटे को अपने साथ ले जाना.’’ बहुत ही सादे तरीके से संध्या और सुमित की शादी संपन्न हो गई थी. आशा एक हफ्ते मुंबई में रह कर वापस लौट गई थीं.

अभी उन के रिटायरमैंट में 4 महीने का समय बाकी था. संध्या ने उन से अनुरोध किया था, ‘मम्मीजी, आप यहीं रुक जाइए.’ तो उन्होंने कहा था कि वे 4 महीने बाद आ जाएंगी जब तक वे लोग भी अच्छे से व्यवस्थित हो जाएंगे. वे अभी तक इस रिश्ते को मन से स्वीकार नहीं कर पाई थीं. इकलौते बेटे की खातिर उन्होंने उस की इच्छा का मान रख लिया था. 4 महीने यों ही बीत गए थे. सुमित बहुत खुश था और संध्या भी. वह शाम को रोज अर्श से मिलने चली जाती और देर तक अपनी मम्मी व बेटे से बातें करती. अर्श मम्मी को मिस करता था. सुमित के जोर देने पर वह कुछ दिनों के लिए मम्मी के पास आ गई थी ताकि अर्श को पूरा समय दे सके.रिटायरमैंट के बाद आशा के मुंबई आ जाने से संध्या की घर की जिम्मेदारियां कम हो गई थीं. उस ने अपना घर पूरी तरह से आशा पर छोड़ दिया था.

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