यही दस्तूर है: समीर ने क्या किया था मां के साथ

कालिज से लौट कर गरिमा ने जैसे ही अपने फ्लैट का दरवाजा खोला सामने के फ्लैट से रोहित निकल कर आ गए.

‘‘आप का पत्र कोरियर से आया है,’’ एक लिफाफा उस की तरफ बढ़ाते हुए रोहित ने कहा.

‘‘ओह…आइए न,’’ पत्र थाम कर गरिमा अंदर आ गई. रोहित भी अंदर आ गए.

‘‘पत्र विदेशी है. बेटे का ही होगा?’’ रोहित की बात पर गरिमा ने पलट कर उन्हें देखा. मानो कोई चुभती हुई बात उन के मुंह से निकल गई हो.

फिर वह खुद को संभालते हुए बोली, ‘‘आप बैठिए, मैं कौफी बनाती हूं.’’

‘‘पर खत तो पढ़ लीजिए.’’

‘‘कोई जल्दी नहीं है, पहले कौफी बना लूं.’’

रोहित को आश्चर्य नहीं हुआ यह देख कर कि बेटे का पत्र पढ़ने की उसे कोई जल्दी नहीं है. इतने दिन से गरिमा को देख रहे हैं. इतना तो जानते हैं कि यह विदेशी पत्र उसे विचलित कर गया है. कुछ तो है मांबेटे के बीच पर वह कभी पूछने का साहस नहीं कर पाए हैं.

गरिमा के बारे में सिर्र्फ इतना जानते हैं कि 30 वर्ष पूर्व गरिमा के पति नहीं रहे थे. तब वह मात्र 20 वर्ष की थी. समीर गोद में आ गया था. अपना पूरा यौवन उस ने बेटे को बड़ा करने में लगा दिया था. मांबाप ने एकाध जगह बात पक्की की पर बेटे के साथ उसे अपनाने वाला कोई उचित वर न मिला. भैयाभाभी उस से विशेष मतलब नहीं रखते. मां को अस्थमा का अकसर दौरा पड़ता था, इस के बावजूद वह समीर को अपने पास रखने को तैयार थीं. पर गरिमा ने खुद को बच्चे से अलग नहीं किया. मांपिताजी के पास रह कर उस ने बी.एड. किया और एक स्कूल में पढ़ाने लगी. 5 वर्ष पूर्व इस फ्लैट में आई है. बेटे को कभी आते नहीं देखा. बस, इतना पता है कि वह विदेश में है.

‘‘कौफी…’’ गरिमा की आवाज पर रोहित की तंद्रा टूटी. प्याला हाथ में ले कर गरिमा भी वहीं बैठ गई.

‘‘गरिमा, मैं ने आप से एक प्रश्न किया था, आप ने जवाब नहीं दिया?’’

अचानक पूछे गए इस प्रश्न पर गरिमा चौंक पड़ी. हां, रोहित ने 2 दिन पूर्व उन के सामने एक बात रखी थी. अपनी बोझिल पलकों को उठा कर उस ने रोहित की तरफ देखा. यह आदमी उन्हें अपनी पत्नी बनाना चाहता है.

बचे हुए जीवन के दिनों को हंसीखुशी से जी लेने का उस का भी दिल करता है. बेटे के कृत्य के लिए वह खुद को दोषी क्यों ठहराए. मगर इन 5-6 वर्षों में वह समीर के कुसूर को भूल नहीं पाई  है, उसे माफ नहीं कर पाई है.

रोहित के जाने के बाद उस ने समीर का पत्र खोला, लिखा था, ‘‘जानता हूं अभी तक नाराज हो. कुछ तो है जो अभिशाप बन कर हमारे बीच पसर गया है. शिखा 2 बार मां बनतेबनते रह गई. मां, जानता हूं तुम्हारा दिल दुखाया है, उसी की सजा मिल रही है. क्या मुझे क्षमा नहीं करोगी?’’

समीर के पत्र ने उस के जख्मों को फिर हरा कर दिया. शैल्फ पर रखी तसवीर पर उस की नजर अटक गई. लाख चाह कर भी वह इस तसवीर को हटा नहीं पाई है. आखिर है तो मां ही. तसवीर में समीर मां की गरदन में बांहें डाले था. उसे देखते हुए वह अतीत में खो गई.पति के समय का ही एक माली था नंदू. माली कम सेवक ज्यादा. पति की बस दुर्घटना में मृत्यु हो गई  थी. नंदू ने काम छोड़ने से मना कर दिया था, ‘बचपन से खिलाया है रवि भैया को, उन के न रहने पर तो मेरी जिम्मेदारी और बढ़ जाती है. मैं यहीं रहूंगा.’

रवि की मृत्यु के बाद आफिस का फ्लैट भी चला गया था. वह मां के पास रह कर बी.एड. करने लगी तो नंदू ने ही समीर को संभाला. फिर नौकरी लगने पर वह नंदू और समीर को ले कर दूसरे शहर आ गई.

समीर बड़ा हो गया और नंदू बूढ़ा. एक दिन वह गांव गया तो कई दिनों तक नहीं लौटा. उस की पत्नी की मृत्यु पहले ही हो चुकी थी. गांव से लौटा तो 17-18 वर्ष की एक सांवलीसलोनी सी पोती भी उस के साथ थी, ‘बहूजी, इस के 4 भाईबहन हैं. गांव में कुछ सीख नहीं पाती. पढ़ना चाहती है, सो अपने साथ ले आया हूं. आप की छत्रछाया में कुछ गुण ढंग सीख लेगी.’

ज्योति नाम था उस का. 8वीं तक पढ़ी थी. 9वीं में एक स्कूल में नाम लिखवा दिया उस का. फिर तो हिरनी सी कुलांचें भरती कटोरी जैसी आंखों वाली वह छरहरी काया पूरे घर पर शासन कर बैठी. घर का सारा काम उस ने अपने ऊपर ले लिया. समीर इंजीनियरिंग कर रहा था. उस के पास जाने में वह थोड़ी झेंपती थी. लेकिन यह संकोच भी टूट गया जब उसे पढ़ाई में विज्ञान एवं गणित कठिन लगने लगे तब गरिमा ने ही समीर से कहा कि वह ज्योति की मदद कर दिया करे.

समीर की महत्त्वाकांक्षा काफी ऊंची थी. उस की इच्छा विदेश जा कर पढ़ने की थी. जहां भी कुछ अवसर मिलता वह फौरन आवेदन कर देता. पासपोर्र्ट उस ने बनवा रखा था. मां अकेली कैसे रहेगी, पूछने पर कहता, ‘मैं तुम्हें भी जल्दी ही बुला लूंगा. यहां इंडिया में अपना है ही कौन.’

पर गरिमा ने निश्चय कर लिया था कि वह अपना देश नहीं छोड़ेगी. उसे लगता कि ऐसी पढ़ाई से क्या फायदा जब बच्चे पढ़ते इंडिया में हैं और बसने विदेश चले जाते हैं. पर बेटे की महत्त्वाकांक्षा के सामने वह मौन हो जाती.

ज्योति ने समीर से पढ़ना शुरू किया तो दोनों एकदूसरे से काफी खुल गए. गरिमा इसे दोनों की नोकझोंक समझती रही. समीर ज्योति की बड़ीबड़ी आंखों में खो गया. प्रेम की यह पींग काफी ऊंची उड़ान ले बैठी. इतनी ऊंची कि झूला टूट कर गिर गया.

उस दिन वाशिंगटन से समीर के नाम एक पत्र आया था कि वह फैलोशिप के लिए चुन लिया गया है. इधर घर में एक जबरदस्त विस्फोट हुआ जब नंदू उस के सामने बिलख उठा, ‘बहूजी, मैं तो बरबाद हो गया. ज्योति ने तो मुझे मुंह दिखाने लायक नहीं रखा. मैं क्या करूं. कहां ले कर जाऊं इस कलंक को.’

ज्योति के मुंह से समीर का नाम सुनते ही वह सुलग उठी. उसे यह बात सच लगी कि हर व्यक्ति के अंदर एक जानवर होता है जो मौका पड़ते ही जाग जाता है. समीर के अंदर का जानवर भी जाग उठा था. समीर ने मां के विश्वास के सीने में छुरा घोंपा था.

दोषी तो ज्योति भी थी. उस ने समीर को इतने पास आने ही क्यों दिया कि अपनी अस्मत ही गंवा बैठी. गरिमा का जी चाहा कि वह जोरजोर से चीखे, रोए. पर कैसी लाचार हो गई थी वह. कहीं कोई सुन न ले, इस डर से मुंह से सिसकी भी न निकाली.

2 दिन तक गरिमा घर में पड़ी रही. क्या करे, कुछ समझ में नहीं आ रहा था. उधर समीर जो घर से गया तो 2 दिन तक लौटा ही नहीं. तीसरे दिन जरा सी आंख लगी ही थी कि आहट पर खुल गई. दरवाजा खुला छोड़ कर कोई बाहर गया था. ‘कौन है…’ वह बड़बड़ाते हुए उठी. देखा तो कमरे से समीर के कपड़े, अटैची सब गायब थे. एक पत्र जरूर मिला. लिखा था, ‘टिकट के पैसे नहीं हैं. कुछ रुपए और आप का हार लिए जा रहा हूं. हो सके तो क्षमा कर दीजिएगा.’

अरे, बेशर्म, क्षमा हार की मांग रहा है, पर जो कुकर्म किया है उस की क्षमा उसे कैसे मिलेगी. ज्योति की तरफ देख कर वह बिलख उठी थी. चाह कर भी वह उस के साथ न्याय नहीं कर पा रही थी. कौन अपनाएगा इसे. सबकुछ तितरबितर हो गया. क्या सोचा था, क्या हो गया. आंखों से आंसुओं की झड़ी भी सूख चली. बुद्घि, विवेक सबकुछ मानो किसी ने छीन लिया हो.

और एक दिन नंदू भी लड़की को ले कर कहीं चला गया. तब से अकेली है. पुराना मकान छोड़ कर नई कालोनी में यह फ्लैट ले लिया था, ताकि समीर को उस का पता न लग सके. पर जाने कहां से उस ने पता कर ही लिया है. पत्र भेजता है. पत्रों में उसे बुलाने का ही आग्रह होता है. शादी कर ली है….पर वह तो उसे आज तक क्षमा नहीं कर पाई है.

डोर बेल बजने पर वह अतीत से बाहर आई. बाई थी. उसे तो समय का ध्यान ही नहीं रहा कि रात के 8 बज चुके हैं. बाई ने उसे अंधेरे में बैठा देख कर पूछा, ‘‘क्या बात है, बहूजी. तबीयत तो ठीक है न. यह अंधेरा क्यों?’’

‘‘यों ही आंख लग गई थी.’’

‘‘खाना क्या बनाऊं, बहूजी.’’

‘‘मेरे लिए कुछ नहीं बनाना. तेरा जो खाने का दिल करे बना ले.’’

‘‘पर आप….’’

‘‘मैं कुछ नहीं लूंगी.’’

‘‘तो फिर कौफी, दूध…कुछ तो ले लीजिए.’’

‘‘ठीक है दूध दे जाना कमरे में,’’ कहती हुई गरिमा अपने कमरे में चली गई.

समीर का पत्र एक बार फिर पढ़ा उस ने. बहू की फोटो भेजी थी समीर ने. एक बार देख कर उस ने तसवीर को अलमारी में रख दिया. सोचती रही, क्या करे. रोहित भी जवाब मांग रहे हैं. मां- पिताजी अब रहे नहीं. अपना कहने वाला कोई नहीं है. मां की अस्थमा की बीमारी उसे भी हो गई है. ऐसे में रोहित ही उस की देखभाल करते हैं. जब वह यहां आई थी तब रोहित से कटती रहती थी पर आमने- सामने रहने से कभीकभार की मुलाकात से परिचय गहरा हो गया. यही परिचय अब अच्छी मित्रता में बदल चुका है.

रोहित का व्यक्तित्व बहुत मोहक है. कम बोलना, पर जो बोलना सोचसमझ कर. 2 बच्चे हैं, बेटा पत्नी के साथ बंगलौर में है. बेटी कनाडा में है. 2 साल पहले पति के साथ आई थी. उसे बहुत पसंद करती है. जाने से पहले उस का हाथ अपने हाथ में ले कर अपने पिता से बोली थी, ‘‘जाने के बाद अब यह सोच कर तसल्ली होगी कि अब आप अकेले नहीं हैं.’’

वह चौंकी थी कि रोहित पर उस का क्या अधिकार है. कहीं रोहित ने ही तो बेटी से कुछ नहीं कहा. उन के बेटे से भी वह मिल चुकी है. जब भी आता है, उस के पैर छूता है. रोहित के प्रस्ताव में, लगता है दोनों बच्चों की सहमति भी छिपी है. रोहित के शब्द उस के कानों में गूंजने लगे, ‘गरिमाजी, मेरा और आप का रास्ता एक ही है तो क्यों न मंजिल तक साथ ही चलें. मुझ से शादी करेंगी?’

वह कोई निर्णय नहीं ले पा रही थी. आज समीर के पत्र ने उसे झकझोर दिया था. उस ने कभी भी बेटे को कोसा नहीं है. आखिर क्यों कोसे? अब वह किसी का पति है. आखिर उस की पत्नी का क्या दोष? वह मां बनना चाहती है तो इस में वह क्या सहयोग कर सकती है सिवा इस के कि उसे अपनी शुभकामना दे. आखिर उस ने बहू शिखा को पत्र लिखने का निश्चय कर लिया.

दूसरे दिन उस ने शिखा को पत्र लिखा, ‘‘बेटी, हम दोनों एकदूसरे से अब तक नहीं मिले हैं, पर हमारे बीच आत्मीय दूरी नहीं है. तुम मेरी बहू हो और मैं तुम्हारी सास. तुम मां बनो और मैं दादी यह हृदय से कामना करती हूं. तुम्हारी मां.’’

पत्र मोड़ कर लिफाफे में रखते हुए गरिमा सोच रही थी कि उसे रोहित का प्रस्ताव अब मान लेना चाहिए. जीवन के बाकी दिन खुद के लिए भी तो जी लें.

सुख का पैमाना: मां-बेटी की कहानी

बाजार से लौटते ही सब्जी का थैला पटक कर सुधा बेटी प्रज्ञा के कमरे की ओर बढ़ गई थी. गुस्से से उस का रोमरोम सुलग रहा था. प्रज्ञा फोन पर अपनी किसी सहेली से बात कर रही थी. खुशी उस की आवाज से टपक रही थी. ‘‘मेरे विशेष योग्यता में 4 नंबर कम रह गए हैं, इस का मुझे अफसोस नहीं है. मुझे खुशी है राजश्री सभी विषयों में अच्छे अंकों से पास हो गई है. पता है, राजश्री के रिजल्ट की उस से ज्यादा बधाइयां तो मुझे मिल रही थीं…’’ मां को अपने कमरे के दरवाजे पर खड़ा देख प्रज्ञा ने सकपका कर फोन बंद कर दिया था.

‘‘हां, तो इस में गलत क्या है ममा? देखिए न, इस प्रयोग से सारी लड़कियां अच्छे अंकों से पास हो गई हैं.’’

‘‘तेरा रिजल्ट तो गिर गया न?’’

‘‘4 नंबर कमज्यादा होना रिजल्ट उठना या गिरना नहीं होता ममा. और वैसे भी इस का राजश्री की मदद से कोई लेनादेना नहीं है.’’

‘‘तो मतलब मेरी देखरेख में कमी रह गई?’’

‘‘क्या ममा, आप बात को कहां से कहां ले जा रही हैं? आप जैसी केयरिंग मौम तो कोई हो ही नहीं सकती.’’

‘‘बसबस, रहने दे. एक तो मना करने के बावजूद तू अपनी दरियादिली दिखाने से बाज नहीं आती, दूसरे मुझ से बातें भी छिपाने लगी है,’’ हमेशा की तरह सुधा का गुस्सा पिघल कर बेबसी में तबदील होने लगा था और प्रज्ञा हमेशा की तरह अब भी संयम बनाए हुए थी.

उस ने सोचा, ‘जिस बात को बताने से सामने वाले को दुख हो रहा हो, उसे न बताना ही अच्छा है.’

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सुधा के लिए बेटी की ऐसी हरकतें और बातें कोई अजूबा नहीं थीं. प्रज्ञा बचपन से ही ऐसी थी. कभी अपने लिए कुल्फी मांग कर, भूखी नजरों से ताकती भिखारिन को पकड़ा देती तो कभी अपना टिफिन किसी को खिला कर खुद भूखी घर लौट आती. सुधा समझ ही नहीं पाती थी कि इन सब के लिए उसे बेटी की पीठ थपथपानी चाहिए या उसे जमाने के अनुसार चलने की सीख देनी चाहिए. अकसर वह अकेले में पति के सामने अपना दुखड़ा ले कर बैठ जाती, ‘मुझे तो लगता है हमारे यहां कोई सतीसाध्वी अवतरित हुई है, जिसे अपने अलावा सारे जमाने की चिंता है.’

‘हर इंसान का सुख का अपना पैमाना होता है सुधा. दुनिया के सारे लोग पैसा या नाम कमा कर ही सुखी हों, यह जरूरी तो नहीं. हमारी बेटी दूसरों को सुखी देख कर सुखी होती है. आज के मतलबपरस्त समाज में यह अव्यावहारिक जरूर

लगता है.’

‘मुझे उस की बहुत चिंता रहती है. उसे तो कोई भी आसानी से उल्लू बना कर अपना उल्लू सीधा कर सकता है.’

पति के असामयिक निधन के बाद तो सुधा बेटी को ले कर और भी फिक्रमंद हो गई थी. कालेज के अंतिम वर्ष में पहुंच चुकी प्रज्ञा की शादी की चिंता उसे बेचैन करने लगी थी. दूसरों पर सबकुछ लुटा देने वाली इस लड़की के लिए तो कोई दौलतमंद, अच्छे घर का लड़का ही ठीक रहेगा. ऐसे में बड़ी ननद प्रज्ञा के लिए एक अति संपन्न घराने का रिश्ता ले कर आई तो सुधा की मानो मन की मुराद पूरी हो गई.

‘‘अपनी प्रज्ञा के लिए दीया ले कर निकलोगी तो भी इस से अच्छा घरवर नहीं मिलेगा. खानदानी रईस हैं. लड़के के पिता तुम्हारे ननदोई को बहुत मानते हैं. यदि ये आगे बढ़ कर कहेंगे तो वे लोग कभी मना नहीं कर पाएंगे. वैसे हमारी प्रज्ञा सुंदर तो है ही और अब तो पढ़ाई भी पूरी हो गई है. भैया नहीं रहे तो क्या हुआ, प्रज्ञा हम सब की जिम्मेदारी है. तभी तो जानकारी मिलते ही मैं सब से पहले तुम्हें बताने चली आई.’’

सुधा ननद का उपकार मानते नहीं थक रही थी, ‘‘दीदी, मैं एक बार प्रज्ञा से बात कर आप को जल्द से जल्द सूचित करती हूं.’’

ननद को रवाना करने के बाद सुधा ने बेचैनी में बरामदे के बीसियों चक्कर लगा डाले थे पर प्रज्ञा का कहीं अतापता नहीं था. फोन भी नहीं लग रहा था. स्कूटी रुकने की आवाज आई तो सुधा की जान में जान आई.

‘‘कहां रह गईर् थी तू? घंटों से बाहर चहलकदमी कर रही हूं.’’

‘‘मैं ने आप को बताया तो था कालेज के बाद मेघना के साथ कुछ काम से जाऊंगी,’’ प्रज्ञा अंदर आ कर कपड़े बदलने लगी थी. लेकिन सुधा को चैन कहां था. वह पीछेपीछे आ पहुंची.

‘‘हां, पर इतनी देर लग जाएगी, यह कहां बताया था? खैर, वह सब छोड़. तेरी बूआ आई थीं तेरे लिए बहुत अच्छा रिश्ता ले कर.’’

प्रज्ञा के कपड़े बदलते हाथ थम से गए थे. सुधा खुशी से लड़के, परिवार और उस के बिजनैस के बारे में बताए जा रही थी.

‘‘ममा, खाना खाएं बहुत भूख लगी है,’’ प्रज्ञा ने टोका तो सुधा चुप हो गई. खाने के दौरान भी सुधा रिश्ते की ही बात करती रही. लेकिन प्रज्ञा ने कोई उत्साह नहीं दिखाया. खाना खा कर वह थकावट का बहाना बना कर जल्द ही सोने चली गई. सुधा हैरान उसे देखती रह गई थी. ‘यह लड़की है या मूर्ति? लड़कियां अपने रिश्ते की बात को ले कर कितनी उत्साहित हो जाती हैं. और इसे देखो, खुद के बारे में तो न सोचने की मानो इस ने कसम खा ली है.’’

सवेरे उठते ही सुधा की फिर वही रात वाली बातें शुरू हो गई थीं.

‘‘ममा, मैं अभी कुछ साल नौकरी कर के अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती हूं. उस के बाद ही शादी के बारे में फैसला लूंगी,’’ प्रज्ञा ने अपनी बात रखते हुए इस एकतरफा बातचीत को विराम लगाना चाहा. पर कल से संयम बरत रही सुधा का धैर्य जवाब दे गया.

‘‘इतने अमीर परिवार की बहू बनने के बाद तुझे नौकरी कर के अपने पैरों पर खड़ी होने की जरूरत कहां रह जाएगी? यह तो हमारा समय है कि दीदी को तेरा खयाल आ गया…’’ सुधा को अपनी बात बीच में ही रोक देनी पड़ी क्योंकि प्रज्ञा के मोबाइल पर किसी का फोन आ गया था और वह किसी से बात करने में बिजी हो गईर् थी.

‘‘तू चिंता मत कर. क्लास के बाद मैं चलूंगी तेरे साथ रिपोर्ट्स लेने. जरूरत हुई तो दूसरे डाक्टर को दिखा देंगे. तब तक जो दवाएं चल रही हैं, आंटी को देती रहना. सब ठीक हो जाएगा.’’

मोबाइल पर बात को खत्म कर के प्रज्ञा ने सुधा से कहा, ‘‘ममा, मुझे जल्दी निकलना होगा, मेघना की मम्मी की तबीयत ठीक नहीं है. कल उन की खांसी और कफ ज्यादा बढ़ गया. कफ में खून भी आने लगा तो कुछ टैस्ट करवाने पड़े. उस के पापा लंबे टूर पर बाहर हैं. वह बेचारी घबरा रही थी, तो मैं साथ हो ली. वहां भीड़ होेने के कारण ही कल टाइम ज्यादा लग गया था. अभी भी बेचारी फोन पर रो रही थी कि पूरी रात मां खांसती रहीं. मांबेटी दोनों ही पूरी रात जागती रही हैं.’’ तैयार होतेहोते प्रज्ञा ने अपनी बात पूरी की और मां को बोलने का मौका दिए बिना ही स्कूटी ले कर निकल गई.

बेटी के लिए फिक्रमंद सुधा पति की तसवीर के आगे जा कर खड़ी हो गई. उस की आंखों से आंसू बह रहे थे. चिंतित और दुखी होने पर अकसर सुधा ऐसा ही किया करती थी. इस से कुछ पलों के लिए ही सही, उसे यह संतोष मिल जाता था कि वह अकेली नहीं है. उस के सुखदुख में कोई और भी उस के साथ है. सुधा को लगा तसवीर न केवल उस के दर्द को समझ रही है बल्कि उसे दिलासा भी दे रही है, ‘अपनी बेटी को समझने का प्रयास करो सुधा. मैं ने बताया तो था कि सुख को मापने का उस का पैमाना अलग है.’

कुछकुछ सुकून पाती सुधा घर के कामों में लग गई. प्रज्ञा को उस दिन लौटने में फिर रात हो गई थी. अगला सूर्योदय सुधा की जिंदगी में नया सवेरा ले कर आता था. आश्चर्यजनक रूप से प्रज्ञा ने शादी के लिए सहमति दे दी थी. सुधा को जानने की जिज्ञासा तो थी पर ज्यादा टटोलने से कहीं बेटी का मन न पलट जाए, इस आशंका से उस ने कुछ न पूछना ही ठीक समझा.

ननद को फोन कर उस ने प्रज्ञा की सहमति की सूचना दे दी. फिर तो आननफानन सारी औपचारिकताएं पूरी की जाने लगीं. सगाई का दिन भी तय हो गया. मां का उल्लास देख प्रज्ञा ने खुशी के साथसाथ चिंता भी जाहिर की थी, ‘‘काम का इतना तनाव मत लो ममा, आप बीमार हो जाओगी. आप कहो तो मेरी शौपिंग का काम मैं मेघना के साथ जा कर निबटा लूं.’’

‘‘नेकी और पूछपूछ,’’ सुधा ने सहर्ष अनुमति दे दी थी. तय हुआ कि मेघना को घर बुला लिया जाएगा और सुधा के टैंट वाले के यहां से लौटते ही दोनों सहेलियां शौपिंग के लिए निकल जाएंगी. घर में ज्वैलरी आदि रखी होने के कारण सुधा इन दिनों घर सूना नहीं छोड़ना चाहती थी.

अगले दिन सुधा समय से घर लौट आई थी. चाबी डाल कर दरवाजा खोलते ही उसे एहसास हो गया था कि मेघना आ चुकी है. दोनों बातों में बिजी थीं. रसोई में चाय चढ़ाने जाते वह प्रज्ञा के कमरे के आगे से गुजरी तो अंदर धीमे आवाज में चल रही बातचीत ने उस के कान खड़े कर दिए.

‘‘प्रज्ञा, अन्यथा मत लेना. पर मुझे अभी भी यकीन नहीं हो रहा है कि तू पैसे के लालच में किसी और से शादी कर रही है? मैं तो समझती थी कि तू और प्रतीक…’’

सुधा को लगा उस के पैरों के नीचे से जमीन खिसक जाएगी. वह कान लगा कर दरवाजे की ओट में खड़ी हो गई.

‘‘कल प्रतीक मिला था…’’ मेघना की आवाज फिर सुनाई दी.

‘‘अच्छा, कहां? क्या कर रहा था? सुना, उस की नौकरी लग गई?’’ प्रज्ञा के स्वर की तड़प ने सुधा के साथसाथ मेघना को भी चौंका दिया था.

‘‘उस के बारे में जानने की इतनी तड़प क्यों? अभी तो तू कह रही थी तुम दोनों के बीच ऐसा कुछ नहीं है. मुझ से सच मत छिपा प्रज्ञा. जो कुछ मैं तेरी आंखों में देख रही हूं, वही मुझे प्रतीक की आंखों में भी दिखा था. मैं ने उसे तेरी सगाई की बात बताई तो उसे यकीन नहीं हुआ. कहने लगा कि मैं मजाक कर रही हूं. फिर थोड़ी देर बाद मैं ने उसे ढूंढ़ा तो वह फंक्शन से जा चुका था. मेरा शक अब यकीन में बदलता जा रहा है. उस से

2 दिनों पहले तक तो तू बराबर मां के टैस्ट वगैरह करवाने में मेरे साथ थी. तूने कभी कोई जिक्र ही नहीं किया. या शायद मैं ही इतनी बौखलाई हुई थी कि तुम्हारी मन की स्थिति से अनजान बनी रही.’’

‘‘आंटी अब कैसी हैं?’’ इतनी देर बाद प्रज्ञा का स्वर सुनाई दिया था. सुधा को लगा वह शायद बात का रुख पलटने का प्रयास कर रही थी.

‘‘मां की तबीयत में काफी सुधार है. मुझे सुकून है कि मैं समय रहते उन का अच्छे से अच्छा इलाज करवा सकी. तुम्हारे साथ रहने से मुझे मानसिक संबल मिला. वरना उन की बिगड़ी हालत देख कर एकबारगी तो मैं उम्मीद ही छोड़ बैठी थी. उन दिनों मुझे न कपड़ों का होश था, न खाने का, न सोने का. बस, एक ही बात चौबीसों घंटे सिर पर सवार रहती थी, किसी तरह मां जी जाए,’’ भावुक मेघना का गला भर आया तो प्रज्ञा ने उस के हाथ थाम लिए थे.

‘‘तुम्हारी इसी मातृभक्ति ने तो मुझे इस सगाई के लिए प्रेरित किया है. तुम्हें मां के लिए रोते, कलपते, भागते, दौड़ते देख मुझे एहसास हुआ कि सहजसुलभ उपलब्ध वस्तु की हम अहमियत ही नहीं समझते. उसे खो देने का एहसास ही क्यों हमें उस की अहमियत का एहसास कराता है?

‘‘हम समय रहते उस की परवा क्यों नहीं करते? बस, मैं ने तय कर लिया कि मैं मां की खुशी के लिए सबकुछ करूंगी. हां मेघना, मैं यह शादी ममा की खुशी के लिए कर रही हूं. यह जानते हुए भी कि मैं समीर के साथ कभी खुश नहीं रह पाऊंगी. उस से 2 मुलाकातों में ही मुझे समझ आ गया है कि पैसे के पीछे भागने वाले इस इंसान की नजर में मैं जिंदगीभर एक उपभोग की वस्तु मात्र बन कर रह जाऊंगी. जबकि प्रतीक पर मुझे खुद से ज्यादा यकीन है. वह सैल्फमेड इंसान मेरी मजबूरी समझ कर मुझे माफ जरूर कर देगा.’’

‘‘मुझे अब जिंदगीभर यह संतोष रहेगा कि मैं मां की खुशी का सबब बनी. उस मां की जो आजतक मेरे ही लिए सोचती रहीं. और मैं कितनी नादान थी सारी दुनिया की परवा करती रही और अपनी परवा करने वाली की ओर लापरवाह बनी रही.’’

सुधा में इस से आगे सुनने का साहस नहीं रहा था. वह लड़खड़ाते कदमों से जा कर बिस्तर पर लेट गई.

‘‘अरे ममा, आप कब आईं, बताया ही नहीं?’’ प्रज्ञा ने मां को कमरे में लेटा देखा तो पूछा.

‘‘बस, अभी आई ही हूं. अब तुम लोग बाजार हो आओ,’’ सुधा ने किसी तरह खुद को संभालते हुए उठने का प्रयास किया.

‘‘क्या हुआ? आप की तबीयत ठीक नहीं लग रही है,’’ प्रज्ञा घबराई सी मां का माथा, नब्ज आदि टटोलने लगी, ‘‘मैं डाक्टर को बुलाती हूं.’’

‘‘अरे नहीं, जरा सी थकान है, अभी ठीक हो जाऊंगी, तुम लोग जाओ.’’

‘‘मैं इसीलिए आप से कहती थी काम का ज्यादा तनाव मत लो,’’ प्रज्ञा मां के पांव सहलाने लगी.

‘‘प्रज्ञा, तू अब जा, देख मेघना भी आ गई है.’’

‘‘कोई बात नहीं आंटी, मैं तो फिर आ जाऊंगी.’’ मेघना जाने लगी तो सुधा ने उसे छोड़ कर आने का इशारा किया. दोनों के निकल जाने के बाद सुधा गहरी सोच में डूब गई थी.

‘एक पल को भी इस से मेरा दर्द सहन नहीं हो रहा. और मैं इसे

जिंदगीभर का दर्द देने वाली थी. प्रज्ञा को जानतेसमझते हुए भी मैं ने कैसे सोच लिया कि पैसा इस लड़की को खुश रख पाएगा? यदि प्रज्ञा समीर के साथ नाखुश रहेगी तो मैं कैसे खुश रह पाऊंगी? प्रज्ञा की शादी अब वहीं होगी जहां वह सुखी रहे.’ एक दृढ़ निश्चय के साथ उठ कर सुधा पति की तसवीर के सामने खड़ी हो गई. उसे लगा तसवीर अचानक मुसकराने लगी है, मानो, कह रही है, ‘आखिर बेटी ने तुम्हारे सुख का पैमाना बदल ही दिया.’

मैं ने जरा देर में जाना

‘‘सुबहसे बारिश लगी है. औफिस जाते हुए मु?ो कार से सत्संग भवन तक छोड़ दो न,’’ अनुरोध के स्वर में एकता ने अपने पति प्रतीक से कहा तो उस के माथे पर बल पड़ गए.

‘‘सत्संग? तुम कब से सत्संग और प्रवचन के लिए जाने लगीं? जिस एकता को मैं 2 साल से जानता हूं वह तो जिम जाती है, सहेलियों के साथ किट्टी पार्टी करती है और मेरे जैसे रूखे

पति की प्रेमिका बन कर उस की सारी थकान दूर कर देती है. सत्संग में कब से रुचि लेने लगीं? घर पर बोर होती हो तो मेरे साथ औफिस चल कर पुराना काम संभाल सकती हो, मु?ो खुशी होगी. इन चक्करों में पड़ना छोड़ दो, यार,’’ एकता के गाल को हौले से खींचते हुए प्रतीक मुसकरा दिया, ‘‘अब मैं चलता हूं. शाम को मसाला चाय के साथ गोभी के पकौड़े खाऊंगा तुम्हारे हाथ के बने,’’ अपने होंठों को गोल कर हवा में चुंबन उछालता हुआ प्रतीक फरती से दरवाजा खोल बाहर निकल गया.

एकता ने मैसेज कर अपनी सहेली रुपाली को बता दिया कि वह आज सत्संग में नहीं आएगी. बु?ो मन से कपड़े बदलकर बैड पर बैठे हुए वह एक पत्रिका के पन्ने उलटने लगी और साथ ही अपने पिछले दिनों को भी. 2 वर्ष पूर्व प्रतीक को पति के रूप में पा कर जैसे उस का कोई स्वप्न साकार हो गया था. प्रतीक गुरुग्राम की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में मैनेजर था और एकता वहां रिसैप्शनिस्ट. प्रतीक दिखने में साधारण किंतु अपने भीतर असीम प्रतिभा व अनेक गुण समेटे था.

एकता गौर वर्ण की नीली आंखों वाली आकर्षक युवती थी. जब कंपनी की ओर से एकता को प्रतीक का पीए बनाया गया तो दोनों को पहली नजर में इश्क सा कुछ लगा. एकदूसरे को जानने के बाद वे और करीब आ गए. बाद में दोनों के परिवारों की सहमति से विवाह भी हो गया.

प्रतीक जैसे सुल?ो व्यक्ति को पा कर एकता का जीवन सार्थक हो गया था. एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार में पलीबढ़ी एकता के पिता की पूर्वी दिल्ली के लक्ष्मीनगर में परचून की दुकान थी. परिवार में एकता के अतिरिक्त मातापिता और भाई व भाभी थे. ग्रैजुएशन के बाद एकता ने औफिस मैनेजमैंट में डिप्लोमा कर गुरुग्राम की कंपनी में काम करना शुरू किया था.

प्रतीक एक मध्यवर्गीय परिवार से जुड़ा था, जिस में एक भाई प्रतीक से बड़ा और एक छोटा था. बहन इकलौती व उम्र में सब से बड़ी थी. प्रतीक का बड़ा भाई शेयर बेचने वाली एक छोटी सी कंपनी में अकाउंटैंट था और छोटा बैंक अधिकारी था. मातापिता अब इस दुनिया में नहीं थे. विवाह से पहले प्रतीक दिल्ली के पटेल नगर में बने अपने पुश्तैनी घर में रहता था. बाद में गुरुग्राम में 2 कमरों का मकान किराए पर ले कर रहने लगा था.

विवाह के बाद स्वयं को एक संपन्न पति की पत्नी के रूप में पा कर एकता जितनी प्रसन्न थी उतनी ही वह प्रतीक के इस गुण के कारण कि वह संबंधों के बीच अपने पद व रुपएपैसों को कभी भी नहीं आने देता. निर्धन हो या धनी सभी का वह समान रूप से सम्मान करता था.

एकता का सोचना था कि प्रतीक विवाह के बाद उसे नौकरी पर जाने के लिए मना कर देगा क्योंकि मैनेजर की पत्नी का उस के अधीनस्थ कर्मचारियों के साथ काम करना शायद प्रतीक को अच्छा नहीं लगेगा, लेकिन प्रतीक ने ऐसा नहीं किया. दफ्तर में एकता के प्रति उस का व्यवहार पूर्ववत था.

विवाह के 1 वर्ष बाद जीवन में नए मेहमान के आने की आहट हुई. अभी प्रैगनैंसी को 3 माह ही हुए थे कि एकता का ब्लड प्रैशर हाई रहने लगा. अपने स्वास्थ्य को देखते हुए एकता ने नौकरी छोड़ दी. घर पर काम करने के लिए फुल टाइम मेड थी, इसलिए उस का अधिकतर समय फेसबुक और व्हाट्सऐप पर बीतने लगा. प्रतीक उस की तबीयत में खास सुधार न दिखने पर डाक्टर से संपर्क के लिए जोर डालता रहा, लेकिन एकता किसी व्हाट्सऐप गु्रप में बताए देशी नुसखे आजमाती रही.

जब उस की तबीयत दिनबदिन बिगड़ने लगी तो प्रतीक अस्पताल ले गया. डाक्टर की देखरेख में स्वास्थ्य कुछ सुधरा, लेकिन समय से पहले डिलिवरी हो गई और बच्चे की जान चली गई. प्रतीक उसे अकेलेपन से जू?ाते देख वापस काम पर चलने को कहता लेकिन एकता तैयार न हुई.

पड़ोस में रहने वाली रुपाली ने एकता को सोसायटी की महिलाओं के गु्रप में शामिल कर लिया. वे सभी पढ़ीलिखी थीं. एकदूसरे का बर्थडे मनाने, किट्टी आयोजित करने और घूमनेफिरने के अलावा वे शंभूनाथ नामक पंडितजी के सत्संग में भी सम्मिलित हुआ करती थीं. पुराणों की कथा सुनाते हुए शंभूनाथजी मानसिक शांति की खोज के मार्ग बताते थे. सब से सुविधाजनक रास्ता उन के अनुसार विभिन्न अवसरों पर सुपात्र को दान देने का था. दान देने के इतने लाभ वे गिनवा देते थे कि एकता की तरह अन्य श्रोताओं को भी लगने लगा था कि थोड़ेबहुत रुपएपैसे शंभूनाथजी को दे देने से जीवन सफल हो जाएगा.

एक दिन प्रवचन सुनाते हुए शंभूनाथजी ने अनजाने में होने वाले पापों के दुष्परिणाम की बात की. सुन कर एकता सोच में पड़ गई. अंत में उस ने निष्कर्ष निकाला कि उसके नवजात की मृत्यु का कारण संभवत: उस से अज्ञानतावश हुआ कोई पाप होगा. पंडित शंभूनाथ की कुछ अन्य बातों ने भी उस पर जादू सा असर किया और उन के द्वारा दिखाए मार्ग पर चलना उसे सही लगने लगा.

आज प्रतीक का शुष्क प्रश्न कि वह कब से सत्संग में जाने लगी, उसे अरुचिकर लग रहा

था. सोच रही थी कि प्रतीक तो उस की प्रत्येक बात का समर्थन करता है, आज न जाने क्यों सत्संग जाने की बात पर वह अन्यमनस्क हो उठा. शाम को प्रतीक के लौटने तक वह इसी उधेड़बुन में रही.

रात का खाना खा कर बिस्तर पर लेटे हुए दोनों विचारमग्न थे कि प्रतीक बोल उठा, ‘‘अलमारी में पुराने कपड़ों का ढेर लग गया है. सोच रहा हूं मेड को दे देंगे.’’

‘‘हां, बहुत से कपड़े खरीद तो लिए हैं मैं ने, लेकिन पहनने का मौका नहीं मिला. नएनए पहन लेती हूं हर जगह. कल ही दे दूंगी. अच्छा सुनो, इस बात से याद आया कि कुछ पैसे चाहिए मु?ो. कल सत्संग भवन में हमारे गु्रप की ओर से दान दिया जाएगा.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘पंडितजी ने कहा था कि दान देने से न सिर्फ इस जीवन में बल्कि अगले जन्म में भी कष्ट पास नहीं फटकते.’’

‘‘देखो एकता, तुम अपने पर कितना भी खर्च करो मु?ो ऐतराज नहीं, ऐतराज तो छोड़ो बल्कि मैं तो चाहता हूं कि तुम मौजमस्ती करो और खूब खुश रहो. तुम्हारा यों पंडितजी की बातों में आ कर व्यर्थ पैसे लुटा देना सही नहीं लग रहा मु?ो तो.’’

‘‘गु्रप में फ्रैंड्स को क्या जवाब दूंगी?’’ मुंह बनाते हुए एकता ने पूछा.

‘‘मेरे विचार से तुम्हें उन लोगों को भी सही दिशा दिखानी चाहिए.’’

प्रतीक की इस बात को सुन एकता निरुत्तर हो गई.

गु्रप की महिलाएं रुपयेपैसे के अतिरिक्त फल, अनाज व मिठाई भी पंडितजी को दिया

करती थीं, लेकिन एकता मन मसोस कर रह जाती. एकता के बारबार कहने पर भी प्रतीक का दान देने की बात पर नानुकुर करना उसे रास नहीं आ रहा था. आर्थिक स्तर पर अपने से निम्न संबंधियों से प्रतीक का मैत्रीपूर्ण व्यवहार रखना, मेड को पुराने कपड़े, खाना व कंबल आदि देने को कहना तथा ड्राइवर के बेटे की पुस्तकें खरीदना एकता को असमंजस में डाल रहा था. दूसरों की मदद को सदैव तत्पर प्रतीक दानपुण्य के नाम से क्यों बिफर उठता है, इस प्रश्न का उत्तर उसे नहीं मिल पा रहा था.

शंभूनाथजी ने वट्सऐप ग्रुप बना लिया था. उस पर वे विभिन्न अवसरों, तीजत्योहारों आदि पर दान देने के मैसेज डालने लगे थे. प्रत्येक मैसेज के साथ दान की महत्ता बताई जाती. सुख, शांति व पापों से मुक्ति इन सभी के लिए दानदक्षिणा को अपनी दिनचर्या में सम्मिलित करना बताया जाता.

गु्रप की सभी महिलाओं के बीच होड़ सी लग जाती कि कौन शंभूनाथजी को अधिक से अधिक दान दे कर न केवल स्वयं को बल्कि परिवार को भी पापों से मुक्ति दिलवाने का महान प्रयास कर रहा है? एकता भी इस से अछूती न रही. प्रतीक से किसी न किसी बहाने पैसे मांग कर वह पंडितजी को दे देती थी. मन ही मन इस के लिए वह अपने को दोषी भी नहीं मानती थी क्योंकि उस का विचार था कि इस से प्रतीक पर भी कष्ट नहीं आएंगे. सत्संग में विभिन्न कथाएं सुनकर वह भयभीत हो जाती कि विपरीत भाग्य होने पर किसी व्यक्ति को कैसेकैसे कष्ट ?ोलने पड़ते हैं. मन ही मन वह उन सखियों का धन्यवाद करती जिन के कारण वह पंडितजी के संपर्क में आई थी वरना नर्क में जाने से कौन रोकता उसे.

उस दिन प्रतीक औफिस से लौटा तो चेहरे की आभा देखते ही एकता सम?ा गई कि कोई प्रसन्नता का समाचार सुनने को मिलेगा. यह सच भी था. प्रतीक को कंपनी की ओर से प्रमोशन मिली थी. शाम की चाय पीकर प्रतीक एकता को घर से दूर कुछ दिनों पहले बने एक फाइवस्टार होटल में ले गया.

कैंडल लाइट डिनर में एकदूसरे की उपस्थिति को आत्मसात करते हुए दोनों भविष्य के नए सपने बुन रहे थे. प्रतीक ने बताया कि अब वह एक आलीशान फ्लैट खरीदने का मन बना चुका है.

खुशी से एकता का अंगअंग मुसकराने लगा. खाने के बाद प्रतीक डिजर्ट मंगवाने के लिए मैन्यू देखने लगा तो एकता ने मोबाइल पर मैसेज पढ़ने शुरू कर दिए. सत्संग गु्रप में आज शंभूनाथजी ने जिस विषय पर पोस्ट डाली थी वह था कि किस प्रकार खुशियों को कभीकभी बुरी नजर लग जाती है और काम बनतेबनते बिगड़ने लगते हैं.

ऐसे में कुछ रुपए या सामान द्वारा नजर उतार कर दान कर देना चाहिए. इस से नजर का बुरा असर उस वस्तु के साथ दानपात्र के पास चला जाता है. गु्रप में कई महिलाओं ने अपने अनुभव बांटे थे कि कैसे जीवन में कुछ अच्छा होते ही अचानक उन के साथ अप्रिय घटना घट गई.

‘‘उफ, कब से आ रहा है बुखार. टेस्ट की रिपोर्ट कब तक मिलेगी,’’ प्रतीक की आवाज कानों में पड़ी तो एकता ने अपना मोबाइल पर्स में रख दिया. प्रतीक के मोबाइल पर बड़ी बहन प्रियंका ने कौल किया था, उस से ही बात हो रही थी प्रतीक की. प्रियंका आर्थिक रूप से बहुत संपन्न नहीं थी, लेकिन वह या उस का पति मुकेश अपनी स्थिति सुधारने के लिए कोई प्रयास भी करते तो वह केवल परिचितों से पैसे मांगने तक ही सीमित था.

पेशे से इलैक्ट्रिक इंजीनियर मुकेश की कुछ वर्षों पहले नौकरी चली गई थी. वह उस समय बिजली का सामान बेचने का व्यवसाय शुरू करना चाहता था, जिस में प्रतीक ने आर्थिक रूप से मदद कर व्यवसाय शुरू करवा दिया था. कुछ समय तक सब ठीक रहा, लेकिन मुकेश बाद में कहने लगा कि इस बिजनैस में खास कमाई नहीं हो रही और अब एक अंतराल के बाद नौकरी लगना भी मुश्किल है.

ऐसे में प्रियंका बारबार अपने को दयनीय स्थिति में बता कर पैसों की मांग करने लगती थी. प्रतीक के बड़े भाई की आमदनी अधिक नहीं थी और छोटे की तुलना में भी प्रतीक की सैलरी ही अधिक थी तो सारी आशाएं प्रतीक पर आ कर टिक जाती थीं. प्रतीक यथासंभव मदद भी करता रहता था.

आज प्रियंका का फोन आया तो एकता की सांस ठहर गई. वह सम?ा गई थी कि कोई नई मांग की होगी प्रियंका दीदी ने. उसे पंडितजी का मैसेज याद आ रहा था कि खुशियों को कभीकभी बुरी नजर लग जाती है. कुछ देर पहले वह फ्लैट लेने की योजना बनाते हुए कितनी खुश थी. अब प्रियंका की आर्थिक मदद करनी पड़ेगी तो पता नहीं प्रतीक फ्लैट लेने की बात कब तक के लिए टाल देगा.

उस ने घर पहुंच कर नजर उतार कुछ रुपए शंभूनाथजी को देने का मन बना लिया क्योंकि भोगविलास से दूर भक्ति में लीन साधारण जीवन जीने वाला उन जैसा व्यक्ति ही ऐसे दान का पात्र हो सकता है. शंभूनाथजी दान का पैसा कल्याण में ही लगा रहे होंगे इस बात पर पूरा भरोसा था उसे. प्रतीक को प्रियंका से बात करते देख एकता ने प्रतीक की पसंदीदा पान फ्लेवर की आइसक्रीम मंगवा ली.

‘‘दीदी ने की थी कौल?’’ आइसक्रीम का स्पून मुंह में रखते हुए एकता ने पूछा.

‘‘हां, घर चल कर बात करेंगे,’’ प्रतीक जैसे किसी निर्णय पर पहुंचने का प्रयास कर रहा था.

आइसक्रीम के स्वाद और विचारों में डूबे हुए अचानक एकता का ध्यान सामने वाली टेबल पर चला गया. उसे अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ कि वहां शंभूनाथजी विभिन्न व्यंजनों का आनंद ले रहे थे. सत्संग के दौरान दिखने वाले रूप से विपरीत वे धोतीकुरते के स्थान पर जींस और टीशर्ट पहने थे, चेहरे पर प्रवचन देते समय खिली हुई मंदमंद मुसकान जोरदार ठहाकों में बदली हुई थी. अपने को संयासी बताने वाले शंभूनाथजी के पास वाली कुरसी पर एक महिला उन से सट कर बैठी थी.

तभी वेटर ने महिला के सामने प्लेट में सजा केक रख दिया. शंभूनाथजी ने महिला का हाथ पकड़ कर केक कटवाया और हौले से ‘हैप्पी बर्थडे’ जैसा कुछ कहा. जब अपने हाथ से केक का टुकड़ा उठा कर शंभूनाथजी ने महिला के मुंह में डाला तो एकता की आंखें फटी की फटी रह गईं. उत्साह और अनुराग शंभूनाथ व महिला पर तारी था.

‘तो यह है कल्याणकारी काम जिस पर शंभूनाथजी दान का रूपयापैसा खर्च करते हैं.’ सोच कर एकता सकते में आ गई.

 

घर लौटने पर प्रतीक ने फोन के बारे में बताया. एकता का संदेह सच

निकला. प्रियंका ने इस बार बताया था कि मुकेश की अस्वस्थता के कारण वे मकान का किराया नहीं दे सके. मकान मालिक परेशान कर रहा है, माह का सारा वेतन दवाई में खर्च हो गया.

‘‘तो कितने पैसे भेजने पड़ेंगे उन लोगों को?’’ एकता न रानी सूरत बना कर पूछा.

‘‘बहुत हुआ बस. अब नहीं,’’ प्रतीक छूटते ही बोला.

‘‘मतलब इस बार आप कुछ पैसे नहीं…’’

‘‘हां, बहुत मदद की है मैंने दीदी, जीजाजी की. ये लोग स्वयं पर बेचारे का ठप्पा लगवा कर उस का फायदा उठा रहे हैं,’’ एकता की बात पूरी होने से पहले ही प्रतीक बोल उठा, ‘‘बुरे वक्त में किसी से मदद मांगना अलग बात है, लेकिन दूसरों की कमाई पर नजर रख अपने को असहाय दिखाते हुए दूसरों से पैसे ऐंठना और बात. पता है तुम्हें पिछले साल जब मैं औफिशियल टूर पर अहमदाबाद गया तो था प्रियंका के घर रुका था 1 दिन के लिए.’’

‘‘हां, याद है.’’ छोटा सा उत्तर दे कर एकता आगे की बात जानने के लिए टकटकी लगाए प्रतीक को देख रही थी.

‘‘मेरे वहां जाने से कुछ दिन पहले ही अपने बेटे कार्तिक की फीस और बुक्स खरीदने के बहाने पैसे मांगे थे मु?ा से उन लोगों ने, वहां जा कर देखा तो कार्तिक के लिए एक नामी ब्रैंड का महंगा मोबाइल फोन खरीदा हुआ था. मैं ने ऐतराज जताया तो प्रियंका दीदी बोलीं कि यह तो इसे गाने की एक प्रतियोगिता जीतने पर मिला है. मुकेश जीजाजी ने कार भी तभी खरीदी थी. क्या जरूरत थी कार लेने की जब फीस तक देने को पैसे नहीं थे उन के पास? मन ही मन मु?ो बहुत गुस्सा आया. मैं सम?ा गया कि इन्हें अपने सुखद जीवन के लिए जो पैसा चाहिए उसे ये दोनों इमोशनल ब्लैकमेल कर हासिल कर रहे हैं. उसी दिन मैं ने फैसला कर लिया कि रिश्तों को केवल सम्मान दूंगा भविष्य में.’’

‘‘आप ने यह मु?ो पहले क्यों नहीं बताया?’’

‘‘मैं सही समय की प्रतीक्षा में था.’’

‘‘मतलब?’’

‘‘देखो एकता मैं कुछ दिनों से देख रहा हूं कि तुम सत्संग में जाती हो. मैं जानता हूं कि वहां धर्म, कर्म के नाम से डराया जाता है. समयसमय पर दान का महत्त्व बता रुपएपैसे ऐंठने का चक्रव्यूह रचा जाता है. खूनपसीने की कमाई क्या निठल्ले लोगों पर उड़ानी चाहिए? फिर वह चाहे मेरी बहन हो या कोई साधू बाबा.’’

प्रतीक की बात सुन एकता किसी अपराधी की तरह स्पष्टीकरण देते हुए बोली, ‘‘मैं तो इसलिए दान देने की बात कहा करती थी कि सुना था इस से भला होता है.’’

‘‘कैसा भला? क्या उसी डर से दूर कर देना भला कहा जाएगा है जो डर जबरदस्ती पहले मन में बैठाया जाता है.’’

एकता सब ध्यान से सुन रही थी.

‘‘सोनेचांदी की वस्तुओं के दान से पाप धुल जाते हैं, रुपएपैसे व अन्य सामान का समयसमय पर दान किया जाए तो स्वर्ग मिलता है, ग्रहण लगे तो दान करो ताकि उस के बुरे प्रभावों से बचा जा सके, परिवार में जन्म हो तो भविष्य में सुख के लिए और मृत्यु हो तो अगले जन्म में शांति व समृद्धि के लिए दान पर खर्च करो. सत्संग में ऐसा ही कुछ बताया जाता होगा न,’’ प्रतीक ने पूछा तो एकता ने हां में सिर हिला दिया.

‘‘तो बताओ किसने देखा है स्वर्ग. क्या ऐसा नहीं लगता कि स्वर्गनर्क की अवधारणा ही व्यक्तिको डराए रखने के लिए की गई है, अगले जन्म की कल्पना कर के सुख पाने की इच्छा से इस जन्म की गाढ़ी कमाई लुटा देना कहां की सम?ादारी है? ग्रह, नक्षत्रों, सूर्य और चंद्रग्रहण का बुरा प्रभाव कैसे होगा जबकि ये केवल खगोलीय घटनाएं है? ये बेमतलब के डर मन में बैठाये गए हैं कि नहीं? तुम से एक और सवाल करता हूं कि यदि दान देने से पाप दूर हो जाते हैं तो इस का मतलब यह हुआ कि जितना जी चाहे बुरे कर्म करते रहो और पाप से बचने के लिए दान देते रहो, यह क्या सही तरीका है जीने का?’’

‘‘नहीं, यह रास्ता तो अनाचार को बढ़ा कर व्यक्ति को गलत दिशा में ले जा सकता है,’’ एकता के सामने सच की परतें खुल रही थीं.

‘‘मैं देखता हूं कि लोग पटरी पर धूप और ठंड में सामान बेचने वालों से पैसेपैसे का मोलभाव करते हैं, नौकरों को मेहनत के बदले तनख्वाह देने से पहले सौ बार सोचते हैं कि कहीं ज्यादा तो नहीं दे रहे. पसीने से लथपथ रिकशे वाले से छोटी सी रकम का सौदा करते हैं और वही लोग दानपुण्य संबंधी लच्छेदार बातों में फंस कर बेवजह धन लुटा देते हैं.’’

शंभूनाथ का होटल में बदला हुआ रूप देख कर एकता का मन पहले ही खिन्न था. इन सब बातों को सम?ाते हुए वह बोल उठी, ‘‘विलासिता का जीवन जीने की चाह में दूसरों को बेवकूफ बनाते हैं कुछ लोग. दान देना तो सचमुच निठल्लेपन को बढ़ाना ही है. किसी हृष्टपुष्ट को बिना मेहनत के क्यों दिया जाए? इस से हमारा तो नहीं बल्कि उस का जीवन सुखद हो जाएगा. देना ही है तो किसी शरीर से लाचार को, अनाथाश्रम या गरीब के बच्चे की पढ़ाई के लिए देना चाहिए और मैं ऐसा ही करूंगी अब.’’

प्रतीक मुसकरा उठा, ‘‘वाह, तुम कितनी जल्दी सम?ाती हो कि मैं कहना क्या चाह रहा हूं, इसलिए ही तो इतना प्यार करता हूं तुम्हें. जो अभी तुम ने कहा वही तो दीदी, जीजाजी को अब पैसे न भेजने का कारण है. जब वे लोग मुश्किल में थे मैं ने हर तरह से सहायता की. अब उन को गुजारे के लिए नहीं अपनी जिंदगी मजे से बिताने के लिए पैसे चाहिए. जहां धर्म में डर का जाल बिछा कर पैसे निकलवाए जाते हैं, वहां दीदी, जीजाजी अपनी बेचारगी का बहाना बना मु?ो बेवकूफ बना रहे हैं. मैं दान या मदद के नाम पर निकम्मेपन को बढ़ावा नहीं दूंगा, कभी नहीं.’’

‘‘सोच रही हूं व्हाट्सऐप के सत्संग गु्रप में जो फ्रैड्स हैं आज उन सब से बात करूं ताकि वे भी उस सचाई को जान सकें जिसे मैं ने जरा देर में जाना है,’’ प्रतीक की ओर मुसकरा कर देखने के बाद एकता अपना मोबाइल ले कर सखियों को कौल करने चल दी.

यह कैसा प्यार: क्या दूर हुई शिवानी की नफरत

आज मैं ने वह सब देखा जिसे देखने की मैं कल्पना भी नहीं कर सकती थी. कालिज से घर लौटते समय मुझे डैडी अपनी कार में एक बेहद खूबसूरत औरत के साथ बैठे दिखाई दिए. जिस अंदाज में वह औरत डैडी से बात कर रही थी, उसे देख कर कोई भी अंदाजा लगा सकता था कि वह डैडी के बेहद करीब थी.

10 साल पहले जब मेरी मां की मृत्यु हुई थी तब सारे रिश्तेदारों ने डैडी को दूसरा विवाह करने की सलाह दी थी लेकिन डैडी ने सख्ती से मना करते हुए कहा था कि मैं अपनी बेटी शिवानी के लिए दूसरी मां किसी भी सूरत में नहीं लाऊंगा और डैडी अपने वादे पर अब तक कायम रहे थे, लेकिन आज अचानक ऐसा क्या हो गया, जो वह एक औरत के करीब हो कर मेरे वजूद को उपेक्षा की गरम सलाखों से भेद रहे थे.

मुझे अच्छी तरह  से याद है कि मम्मी और डैडी के बीच कभी नहीं बनी थी. मम्मी के खानदान के मुकाबले में डैडी के खानदान की हैसियत कम थी, इसलिए मम्मी बातबात पर अपनी अमीरी के किस्से बयान कर के डैडी को मानसिक पीड़ा पहुंचाया करती थीं. मेरी समझ में आज तक यह बात नहीं आई कि जब डैडी और मम्मी के विचार आपस में मिलते नहीं थे तब डैडी ने उन्हें अपनी जीवनसंगिनी क्यों बनाया था.

कालिज से घर आते ही काकी मां ने मुझ से चाय के लिए पूछा तो मैं उन्हें मना कर अपने कमरे मेें आ गई और अपने आंसुओं से तकिए को भिगोने लगी.

5 बजे के आसपास डैडी का फोन आया तो मैं अपने गुस्से पर जबरन काबू पाते हुए बोली, ‘‘डैडी, इस वक्त आप कहां हैं?’’

‘‘बेटे, इस वक्त मैं अपनी कार ड्राइव कर रहा हूं,’’ डैडी बडे़ प्यार से बोले.

‘‘आप के साथ कोई और भी है?’’ मैं ने शक भरे अंदाज में पूछा.

‘‘अरे, तुम्हें कैसे पता चला कि इस समय मेरे साथ कोई और भी है. क्या तुम्हें फोन पर किसी की खुशबू आ गई?’’ डैडी हंसते हुए बोले.

‘‘हां, मैं आप की इकलौती बेटी हूं, इसलिए मुझे आप के बारे में सब पता चल जाता है. बताइए, कौन है आप के साथ?’’

‘‘देखा तुम ने अरुणिमा, मेरी बेटी मेरे बारे मेें हर खबर रखती है.’’

मुझे समझते देर नहीं लगी कि डैडी के साथ कार में बैठी औरत का नाम अरुणिमा है.

‘‘जनाब, यहां आप गलत फरमा रहे हैं,’’ डैडी के मोबाइल से मुझे एक औरत की खनकती आवाज सुनाई दी, ‘‘अब वह आप की नहीं, मेरी भी बेटी है.’’

उस औरत का यह जुमला जहरीले तीर की तरह मेरे सीने में लगा. एकाएक मेरे दिमाग की नसें तनने लगीं और मेरा जी चाहा कि मैं सारी दुनिया को आग लगा दूं.

‘‘शिवानी बेटे, तुम लाइन पर तो हो न?’’ मुझे डैडी का बेफिक्री से भरा स्वर सुनाई दिया.

‘‘हां,’’ मैं बेजान स्वर में बोली, ‘‘डैडी, यह सब क्या हो रहा है? आप के साथ कौन है?’’

‘‘बेटे, मैं तुम्हें घर आ कर सब बताता हूं,’’ इसी के साथ डैडी ने फोन काट दिया और मैं सोचती रह गई कि यह अरुणिमा कौन है? यह डैडी के जीवन में कब और कैसे आ गई?

डैडी और अरुणिमा के बारे में सोचतेसोचते कब मेरी आंख लग गई, मुझे पता ही नहीं चला.

7 बजे शाम को काकी मां ने मुझे उठाया और चिंतित स्वर में बोलीं, ‘‘बेटी शिवानी, क्या बात है? आज तुम ने चाय नहीं पी. तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘काकी मां, मेरी तबीयत ठीक है. डैडी आ गए?’’ मैं ने पूछा.

‘‘हां, और वह तुम्हें बुला रहे हैं. उन्होंने कहा है कि तुम अच्छी तरह से तैयार हो कर आना,’’ इतना कह      कर काकी मां कमरे से बाहर निकल गईं.

थोड़ी देर बाद मैं ड्राइंगरूम में आई तो मुझे सोफे पर वही औरत बैठी दिखाई दी जिसे आज मैं ने डैडी के साथ उन की कार में देखा था.

‘‘अरु, यह है मेरी बेटी, शिवानी,’’ डैडी उस औरत से मेरा परिचय कराते हुए बोले.

न चाहते हुए भी मेरे हाथ नमस्कार करने की मुद्रा में जुड़ गए.

‘‘जीती रहो,’’ वह खुद ही उठ कर मेरे करीब आ गईं और फिर मेरा चेहरा अपने हाथों में ले कर उन्होंने मेरे माथे पर एक प्यारा चुंबन अंकित कर दिया.

‘‘अगर मेरी कोई बेटी होती तो वह बिलकुल तुम्हारे जैसी होती. सच में तुम बहुत प्यारी हो.’’

‘‘अरु, यह भी तो तुम्हारी बेटी है,’’ डैडी हंसते हुए बोले.

डैडी के ये शब्द पिघले सीसे की तरह मेरे कानों में उतरते चले गए. मेरा जी चाहा कि मैं अपने कमरे में जाऊं और खूब फूटफूट कर रोऊं. आखिर डैडी ने मेरे विश्वास का खून जो किया था.

‘‘बेटी, तुम करती क्या हो?’’  अरुणिमाजी ने मुझे अपने साथ बैठाते हुए पूछा.

उस वक्त मेरी हालत बड़ी अजीब सी थी. जिस औरत से मुझे नफरत करनी चाहिए थी वह औरत मेरे वजूद पर अपने आप छाती जा रही थी.

मैं उन्हें अपनी पढ़ाई के बारे में बताने लगी. हम दोनों के बीच बहुत देर तक बातें हुईं.

‘‘काकी मां, देखो तो कौन आया है?’’ डैडी ने काकी मां को आवाज दी.

‘‘मैं जानती हूं, कौन आया है,’’ काकी मां ने वहां चाय की ट्राली के साथ कदम रखा.

‘‘अरे, काकी मां आप,’’  अरुणिमा उन्हें देखते ही खड़ी हो गईं.

चाय की ट्राली मेज पर रख कर काकी मां उन की तरफ बढ़ीं. फिर दोनों प्यार से गले मिलीं तो मैं दोनों को उलझन भरी निगाहों से देखने लगी.

अरुणिमा का इस घर से पूर्व में गहरा संबंध था, यह बात तो मैं समझ गई थी, लेकिन कोई सिरा मेरे हाथों में नहीं आ रहा था.

‘‘काकी मां, आप इन्हें जानती हैं?’’ मैं ने हैरत भरे स्वर में काकी मां से पूछा.

काकी मां के बोलने से पहले ही डैडी बोल पड़े, ‘‘बेटी, अरुणिमाजी का इस घर से गहरा संबंध रहा है. हम दोनों एक ही स्कूल और एक ही कालिज में पढ़े हैं.’’

तभी अरुणिमाजी ने डैडी को इशारा किया तो डैडी ने फौरन अपनी बात पलटी और सब को चाय पीने के लिए कहने लगे.

अब मेरी समझ में कुछकुछ आने लगा था कि मम्मीडैडी के बीच ऐसा क्या था जो वे एकदूसरे से बात करना तो दूर, देखना तक पसंद नहीं करते थे. निसंदेह डैडी शादी से पहले इसी अरुणिमाजी से प्यार करते थे.

चाय पीने के दौरान मैं ने अरुणिमाजी से काफी बातें कीं. वह बहुत जहीन थीं. वह हर विषय पर खुल कर बोल सकती थीं. उन की नालेज को देख कर मेरी उन के प्रति कुछ देर पहले जमी नफरत की बर्फ तेजी से पिघलने लगी.

उन की बातों से मुझे यह भी पता चला कि वह एक प्रोफेसर थीं. कुछ साल पहले उन के पति का देहांत हो गया था. उन का अपना कहने को इकलौता बेटा नितिन था, जो बिजनेस के सिलसिले में कुछ दिनों के लिए लंदन गया हुआ था.

रात का डिनर करने के बाद जब अरुणिमा गईं तो मैं अपने कमरे में आ गई. मैं ने कहीं पढ़ा था कि कुछ औरतों की भृकुटियों में संसार भर की राजनीति की लिपि होती है, जब उन की पलकें झुक जाती हैं तो न जाने कितने सिंहासन उठ जाते हैं और जब उन की पलकें उठती हैं तो न जाने कितने राजवंश गौरव से गिर जाते हैं.

अरुणिमाजी भी शायद उन्हीं औरतों में एक थीं, तभी डैडी ने दूसरी शादी न करने की जो कसम खाई थी, उसे आज वह तोड़ने के लिए हरगिज तैयार नहीं होते. मैं बिलकुल नहीं चाहती कि इस उम्र में डैडी अरुणिमाजी से शादी कर के दीनदुनिया की नजरों में उपहास का पात्र बनें.

सुबह टेलीफोन की घंटी से मेरी आंख खुली. मैं ने फोन उठाया तो मुझे अरुणिमाजी की मधुर आवाज सुनाई दी. ‘‘स्वीट बेबी, मैं ने तुम्हें डिस्टर्ब तो नहीं किया?’’

‘‘नहीं, आंटीजी,’’ मैं जरा संभल कर बोली, ‘‘आज मेरे कालिज की छुट्टी थी, इसलिए मैं देर तक सोने का मजा लेना चाह रही थी.’’

‘‘इस का मतलब मैं ने तुम्हारी नींद में खलल डाला. सौरी, बेटे.’’

‘‘नहीं, आंटीजी, ऐसी कोई बात नहीं है. कहिए, कैसे याद किया?’’

‘‘आज तुम्हारी छुट्टी है. तुम मेरे घर आ जाओ. हम खूब बातें करेंगे. सच कहूं तो बेटे, कल तुम से बात कर के बहुत अच्छा लगा था.’’

‘‘लेकिन आंटी, डैडी की इजाजत के बिना…’’ मैं ने अपना वाक्य जानबूझ कर अधूरा छोड़ दिया.

‘‘तुम्हारे डैडी से मैं बात कर लूंगी,’’ वह बडे़ हक से बोली, ‘‘वह मना नहीं करेंगे.’’

उस पल जेहन में एक ही सवाल परेशान कर रहा था कि जिस से मुझे बेहद नफरत होनी चाहिए, मैं धीरेधीरे उस के करीब क्यों होती जा रही हूं?

1 घंटे बाद मैं अरुणिमाजी के सामने थी.

उन्होंने पहले तो मुझे गले लगाया, फिर बड़े प्यार से सोफे पर बैठाया. इस के बाद वह मेरे लिए नाश्ता बना कर लाईं. नाश्ते के दौरान मैं ने उन से पूछा, ‘‘आंटी, मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि आप से मिले हुए मुझे अभी सिर्फ 1 दिन हुआ है. सच कहूं तो मैं कल से सिर्फ आप के बारे में ही सोचे जा रही हूं. अगर आप मुझे पहले मिल जातीं तो कितना अच्छा होता,’’ यह कह कर मैं उन के घर को देखने लगी.

उन का सलीका और हुनर ड्राइंग रूम से बैडरूम तक हर जगह दिखाई दे रहा था. हर चीज करीने से रखी हुई थी. उन का घर इतना साफसुथरा और खूबसूरत था कि वह मुझे मुहब्बतों का आईना जान पड़ा.

उन के सलीके और हुनर को देख कर मेरे दिल में एक हूक सी उठ रही थी. मैं सोच रही थी कि काश, उन के जैसी मेरी मां होतीं. तभी मेरी आंखों के सामने मेरी मम्मी का चेहरा घूम गया. मेरी मम्मी एक मगरूर औरत थीं, उन्होंने अपनी जिंदगी का ज्यादातर वक्त डैडी से लड़ते हुए बिताया था.

मेरी मम्मी ने बेशक मेरे डैडी के शरीर पर कब्जा कर लिया था, लेकिन वह उन के दिल में जगह नहीं बना पाई थीं, जोकि एक स्त्री अपने पति के दिल में बनाती है.

अब अरुणिमाजी की जिंदगी एक खुली किताब की तरह मेरे सामने आ गई थी. उन के दिल के किसी कोने में मेरे डैडी के लिए जगह जरूर थी. लेकिन उन्होंने डैडी से शादी क्यों नहीं की थी, यह बात मेरी समझ से बाहर थी.

शाम होते ही डैडी मुझे लेने आ गए. रास्ते में मैं ने उन से पूछा, ‘‘डैडी, अगर आप बुरा न मानें तो मैं आप से एक बात पूछ सकती हूं?’’

डैडी ने बड़ी हैरानी से मुझे देखा, फिर आहत भाव से बोले, ‘‘बेटे, मैं ने आज तक  तुम्हारी किसी बात का बुरा माना है, जो आज तुम ऐसी बात कह रही हो. तुम जो पूछना चाहती हो पूछ सकती हो. मैं तुम्हारी किसी बात का बुरा नहीं मानूंगा.’’

‘‘आप अरुणिमाजी से प्यार करते हैं न?’’ मैं ने बिना किसी भूमिका के कहा.

डैडी पहले काफी देर तक चुप रहे फिर एक गहरी सांस छोड़ते हुए बोले, ‘‘यह सच है कि एक वक्त था जब हम दोनों एकदूसरे को हद से ज्यादा चाहते थे और हमेशा के लिए एकदूसरे का होने का फैसला कर चुके थे.’’

‘‘ऐसी बात थी तो आप ने एकदूसरे से शादी क्यों नहीं की?’’

‘‘क्योंकि तुम्हारे दादा ने मुझे अरुणिमा से शादी करने से मना किया था. तब मैं ने अपने मांबाप की मर्जी के बिना घर से भाग कर अरुणिमा से शादी करने का फैसला किया, लेकिन उस वक्त अरुणिमा ने मेरा साथ नहीं दिया था. तब उस का यही कहना था कि हमारे मांबाप के हम पर बहुत एहसान हैं, हमें उन के एहसानों का सिला उन के अरमानों का खून कर के नहीं देना चाहिए. उन की खुशियों के लिए हमें अपने प्यार का बलिदान करना पडे़गा.

‘‘मैं ने तब अरुणिमा को काफी समझाया, लेकिन वह नहीं मानी. इसलिए हमें एकदूसरे की जिंदगी से दूर जाना पड़ा. कुछ दिन पहले वह मुझे एक पार्टी में नहीं मिलती तो मैं उसे तुम्हारी मम्मी कभी नहीं बना पाता. आज की तारीख में उस का एक ही लड़का है, जिसे अरुणिमा के तुम्हारी मम्मी बनने से कोई एतराज नहीं है.’’

‘‘लेकिन डैडी, मुझे एतराज है,’’ मैं कड़े स्वर में बोली.

‘‘क्यों?’’ डैडी की भवें तन उठीं.

‘‘क्योंकि मैं नहीं चाहती कि आप की जगहंसाई हो.’’

‘‘मुझे किसी की परवा नहीं है,’’ डैडी सख्ती से बोले, ‘‘तुम्हें मेरा कहा मानना ही होगा. तुम अपने को दिमागी तौर पर तैयार कर लो. कुछ ही दिनों        में वह तुम्हारी मम्मी बनने जा रही है.’’

उस वक्त मुझे अपने डैडी एक इनसान न लग कर एक हैवान लगे थे, जो दूसरों की इच्छाओं को अपने नुकीले नाखूनों से नोंचनोंच कर तारतार कर देता है.

2 दिन पहले ही अरुणिमाजी का इकलौता बेटा नितिन लंदन से वापस लौटा तो उन्होंने उस से सब से पहले मुझे मिलाया. नितिन के बारे में मैं केवल इतना ही कहूंगी कि वह मेरे सपनों का राजकुमार है. मैं ने अपने जीवन साथी की जो कल्पना की थी वह हूबहू नितिन जैसा ही था.

कितनी अजीब बात है, जिस बाप को शादी की उम्र की दहलीज पर खड़ी अपनी औलाद के हाथ पीले करने के बारे में सोचना चाहिए वह बाप अपने स्वार्थ के लिए अपनी औलाद की खुशियों का खून कर के अपने सिर पर सेहरा बांधने की सोच रहा है.

आज अरुणिमाजी खरीदारी के लिए मुझे अपने साथ ले गई थीं. मैं उन के साथ नहीं जाना चाहती थी, लेकिन डैडी के कहने पर मुझे उन के साथ जाना पड़ा.

शौपिंग के दौरान जब अरुणिमाजी ने एक नई नवेली दुलहन के कपड़े और जेवर खरीदे, तो मुझे उन से भी नफरत होने लगी थी.

मैं ने मन ही मन निश्चय कर अपनी डायरी में लिख दिया कि जिस दिन डैडी अपने माथे पर सेहरा बांधेंगे, उसी दिन इस घर से मेरी अर्थी उठेगी.

आज मुझे अपने नसीब पर रोना आ रहा है और हंसना भी. रोना इस बात पर आ रहा है कि जो मैं ने सोचा था वह हुआ नहीं और जो मैं ने नहीं सोचा था वह हो गया.

यह बात मुझे पता चल गई थी कि डैडी को अरुणिमा आंटी को मेरी मां बनाने का फैसला आगे आने वाले दिन 28 नवंबर को करना था और यह विवाह बहुत सादगी से गिनेचुने लोगों के बीच ही होना था.

28 नवंबर को सुबह होते ही मैं ने खुदकुशी करने की पूरी तैयारी कर ली थी. मैं ने सोच लिया था कि डैडी जैसे ही अरुणिमा आंटी के साथ सात फेरे लेंगे, वैसे ही मैं अपने कमरे में आ कर पंखे से लटक कर फांसी लगा लूंगी.

दोपहर को जब मैं अपने कमरे में मायूस बैठी थी तभी काकी मां ने कुछ सामान के साथ वहां कदम रखा और धीमे स्वर में बोलीं, ‘‘ये कपड़े तुम्हारे डैडी की पसंद के हैं, जोकि उन्होंने अरुणिमा बेटी से खरीदवाए थे. उन्होंने कहा है कि तुम जल्दी से ये कपड़े पहन कर नीचे आ जाओ.’’

मैं काकी मां से कुछ पूछ पाती उस से पहले वह कमरे से बाहर निकल गईं और कुछ लड़कियां मेरे कमरे में आ कर मुझे संवारने लगीं.

थोड़ी देर बाद मैं ने ड्राइंगरूम में कदम रखा तो वहां काफी मेहमान बैठे थे. मेहमानों की गहमागहमी देख कर मेरी समझ में कुछ नहीं आया.

मैं सोफे पर बैठी ही थी कि वहां अरुणिमाजी आ गईं. उन के साथ नितिन नहीं आया था.

‘‘शिशिर, हमें इजाजत है?’’ उन्होंने डैडी से पूछा.

‘‘हां, हां, क्यों नहीं, यह रही तुम्हारी अमानत. इसे संभाल कर रखिएगा,’’  डैडी भावुक स्वर में बोले.

तभी वहां नितिन ने कदम रखा, जो दूल्हा बना हुआ था.

मेरा सिर घूम गया. मैं ने उलझन भरी निगाहों से डैडी की तरफ देखा तो वह मेरे करीब आ कर बोले, ‘‘मैं ने तुम से कहा था न कि मैं अरुणिमा आंटी को तुम्हारी मम्मी बनाऊंगा. आज से अरुणिमा आंटी तुम्हारी मम्मी हैं. इन्हें हमेशा खुश रखना.’’

एकाएक मेरी रुलाई फूट पड़ी. मैं डैडी के गले लग गई और फूटफूट कर रोने लगी.

इस के बाद पवित्र अग्नि के सात फेरे ले कर मैं नितिन की हमसफर और अरुणिमाजी की बेटी बन गई.

संकल्प: क्या था कविता का प्लान

उसशनिवार की शाम मुंबई में रहने वाली मेरी पुरानी सहेली शिखा अचानक मेरे घर आई, तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा. अपनी सास की बीमारी के चलते वह मेरी शादी में शामिल होने दिल्ली नहीं आ सकी थी. इस कारण मेरे पति मोहित उस दिन पहली बार शिखा से मिले.

जब तक मैं चायनाश्ता तैयार कर के लाई, तब तक वे दोनों एकदूसरे से काफी खुल गए थे. मोहित के चेहरे पर छाई खुशी व पसंदगी के भाव बता रहे थे कि वे शिखा के व्यक्तित्व से काफी प्रभावित हैं.

मैं ने नोट किया कि पिछले 6 सालों में वह काफी बदल गई है. वार्त्तालाप करते हुए वह बारबार अच्छी अंगरेजी बोल रही थी. उस के कीमती सैट की महक से मेरा ड्राइंगरूम भर गया था. 2 बेटों की मम्मी होने के बावजूद वह नीली जींस और लाल टौप में सैक्सी और स्मार्ट लग रही थी.

मेरे 5 साल के बेटे मयंक के लिए शिखा रिमोट कंट्रोल से चलने वाली कार लाईर् थी. अपनी शिखा मौसी के गाल पर आभार प्रकट करने वाली बहुत सारी पुच्चियां कर वह कार से खेलने में मस्त हो गया.

मेरे बनाए पकौड़ों के स्वाद की तारीफ करने के बाद शिखा बोली, ‘‘मेरे घर में 3 नौकर काम करते हैं. जो थोड़ाबहुत किचन का काम मैं शादी होने से पहले करना जानती थी अब वह भी भूल गई हूं.’’

‘‘जब नौकर घर में हैं तो तुझे काम करने की जरूरत ही क्या है? तू तो खूब ऐश कर,’’ मैं ने हंसते हुए जवाब दिया.

‘‘ऐश तो मैं वाकई बहुत कर रही हूं, कविता. किसी चीज की कोई कमी नहीं है मेरी जिंदगी में. आधी से ज्यादा दुनिया घूम चुकी हूं और अगले महीने हम चीन घूमने जा रहे हैं.’’

‘‘अमीर होने का मेरी नजरों में सब से बड़ा फायदा यही है कि बंदा जब चाहे देशविदेश भ्रमण करने निकल सकता है. कहांकहां घूम आए हो तुम दोनों?’’ मैं ने उत्साहित लहजे में पूछा.

‘‘अपने देश के लगभग सारे हिल स्टेशन हम ने देख लिए हैं. यूरोप घूमने 3 साल पहले गए थे. उस से पिछले साल केन्या में सफारी का मजा लिया था.’’

मेरा कोई सपना है तो वह देशविदेश में खूब घूमने का. तभी पूरी दिलचस्पी दिखाते हुए उस के देशविदेश भ्रमण के अनुभव मैं ने काफी देर तक सुने.

‘‘मुझे यह तो बता कि तुम दोनों कहांकहां घूमे हो?’’ काफी देर तक अपनी सुनाने के बाद शिखा को हमारे बारे में कुछ पूछने का खयाल आया.

समस्या यह पैदा हुई कि हमारे पास बताने को ज्यादा कुछ नहीं था और इस बात ने मेरे अंदर अजीब सी बेचैनी पैदा कर दी.

‘‘हम हनीमून मनाने शिमला गए थे. उस शानदार और यादगार ट्रिप के बाद कहीं घूमने जाने का कार्यक्रम चाह कर भी नहीं बना सके हैं,’’ मैं ने यों तो मुसकराते हुए जवाब दिया, पर न चाहते हुए भी मेरी आवाज में उदासी के भाव उभर आए थे.

‘‘अरे, उस हनीमून ट्रिप के अलावा पिछले 6 सालोें में क्या तुम सचमुच कहीं और घूम कर नहीं आए हो?’’ शिखा हैरान हो उठी.

‘‘नहीं यार,’’ मैं ने गहरी सांस खींच कर सफाई दी, ‘‘शादी के बाद से कोई न कोई बड़ा खर्चा हमारे सिर पर हमेशा खड़ा रहा है. पहले ननद की शादी की. छोटे देवर की इंजीनियरिंग की पढ़ाई इसी साल पूरी हुई है. पिछले 2 सालों से इस फ्लैट की किस्त हर महीने चुकानी पड़ती है. यों तो हम दोनों कमा रहे हैं, पर कहीं घूमने जाने के लिए बचत हो ही नहीं पाती है.’’

मुझे हर साल कहीं न कहीं घुमा कर लाने के लिए शिखा मोहित को प्रेरित करने लगी, पर मैं ने अपने मन को दुखी न करने के इरादे से वार्त्तालाप में हिस्सा लेना बंद कर दिया.

शिखा के साथ हंसनाबोलना मोहित को खूब अच्छा लगा. वह करीब 2 घंटे हमारे साथ रही और फिर लौटते हुए शिखा मुझ से बोली, ‘‘जब भी मौका लगेगा, मैं अपने पति को मोहित से मिलाने जरूर लाऊंगी. सच कविता तेरी शादी बहुत हंसमुख और दिल के अच्छे इंसान के साथ हुईर् है.’’

मोहित को छेड़ने के लिए मैं ने मजाकिया लहजे में जवाब दिया, ‘‘तेरा साथ इन्हें कुछ ज्यादा ही पसंद आया है, वरना ये इतने ज्यादा हंसमुख नहीं हैं. ये अपनी छोटी साली के साथ भी इतना ज्यादा समय नहीं गुजारते हैं जितना तेरे साथ गुजारा है.’’

‘‘मैं छोटी नहीं बल्कि बड़ी साली हूं, इसलिए मुझे पूरा सम्मान देते हुए मेरा ज्यादा खयाल रखा है. मेरे साथ खूब मजेदार गपशप करने के लिए थैंकयू, मोहित,’’ शिखा ने मुड़

कर पीछे आ रहे मोहित से बड़ी गर्मजोशी से

हाथ मिलाया.

न जाने क्यों शिखा की ‘बड़ी साली’ वाली बात मेरे मन को चुभ गई. वह मुझ से साल भर बड़ी है, पर अब मैं उस से काफी ज्यादा बड़ी लगने लगी हूं, इस एहसास ने मेरा मन एकाएक खिन्न कर दिया.

अपनी कार के पास पहुंच कर शिखा संजीदा लहजे में बोली, ‘‘कविता, तू कुछ ज्यादा मोटी हो गई है. मैं जानती हूं कि तुझे चौकलेट और आइसक्रीम बहुत पसंद हैं, पर अब कुछ समय के लिए उन्हें खाना बंद कर दे.’’

‘‘यार, इन दोनों चीजों को खाना कम तो कर सकती हूं, पर बिलकुल बंद करना मुश्किल है,’’ मैं ने नकली हंसी हंसते हुए जवाब दिया.

‘‘देख, अगर तू ऐसे ही फूलती चली गई, तो मोहित की जिंदगी में कोई दूसरी औरत आ जाएगी.’’

‘‘मैं कितनी भी मोटी हो जाऊं, पर ये मुझे छोड़ कर किसी की तरफ कभी नहीं देखेंगे,’’ मैं ने प्यार से मोहित का हाथ पकड़ कर कुछ तीखे लहजे में जवाब दिया.

‘‘सहेली, यों आंखें मूंद कर जीना बंद कर,’’ शिखा गंभीर हो कर मुझे समझने लगी, ‘‘पत्नियों के लिए अपने व्यक्तित्व को आकर्षक बनाए रखने में लापरवाही करना उन के सुखी दांपत्य जीवन के लिए खतरा बन सकता है. मेरी तरह सुंदर और फिट दिखने की कोशिश तुझे भी दिल से करनी चाहिए.’’

‘‘कमर में दर्द रहने की वजह से इस का वजन कुछ बढ़ गया है, पर यह ‘मोटो’ मुझे अभी भी बहुत सुंदर लगती है,’’ मोहित ने मेरी तरफदारी करने की कोशिश जरूर करी, पर उन का मेरे लिए ‘मोटो’ शब्द का प्रयोग करना मुझे अच्छा नहीं लगा.

‘‘तुम सचमुच बहुत समझदार और दिल

के अच्छे इंसान हो,’’ मोहित की फिर से तारीफ करने के बाद वह मुझ से गले मिली और कार में बैठ गई.

शिखा के जाने के बाद मैं ने मोहित को बुझ हुआ सा देखा. मेरे लिए उन के  मनोभावों को समझना मुश्किल नहीं था. शिखा ने जातेजाते मेरी तुलना अपने साथ कर के मोहित का मूड खराब कर दिया था.

डिनर करते हुए भी हमारे बीच अजीब सी दूरी और खिंचाव बना रहा. मैं ने उन की सुखसुविधा का खयाल रखने में कभी कोई कमी नहीं रखी, पर आज उन का मुंह फुला कर घूमना मुझे मेरी अपनी नजरों में गिराने की कोशिश करने जैसा था. यह बात मेरे मन को बहुत दुखी कर रही थी.

उस रात मेरे मन में मोहित के साथ अपने दांपत्य संबंधों की मजबूती को ले कर असुरक्षा का भाव पहली बार उठा. हमारे यौन संबंधों में अब पहले जैसा जोश नहीं रहा है, यह एहसास मेरे मन को और ज्यादा परेशान कर रहा था.

वे सोने से पहले नहाने के लिए जब बाथरूम में जा रहे थे, तो मैं ने उन्हें रोक कर भावुक लहजे से पूछ ही लिया, ‘‘आज बहुत देर से यों उदास हो कर क्यों घूम रहे हो?’’

‘‘मैं ठीक हूं,’’ मुझ से नजरें चुराते हुए उन्होंने बुझे से लहजे में जवाब दिया.

‘‘क्या अपने मन की बात मुझ से नहीं कहोगे?’’ मैं एकदम से रोंआसी हो उठी.

‘‘हम अमीर न होने के कारण अभावों से भरी जिंदगी जी रहे हैं, इस कारण क्या तुम मन ही मन दुखी रहती हो?’’ उन की आवाज में मौजूद पीड़ा के भाव मुझे अंदर तक हिला गए.

‘‘ऐसा अजीब सवाल क्यों पूछ रहे हो?’’ मैं ने उन से उलटा सवाल किया.

‘‘शिखा जब अपनी देशविदेश की यात्राओं के विवरण तुम्हें सुना रही थी, तब मैं ने तुम्हारी आंखों में गहरे अफसोस के भाव साफ देखे थे. अपने खूब घूमने के सपनों को पूरा न कर पाने का तुम्हें क्या बहुत दुख है?’’

‘‘बच्चों जैसी बात मत करो,’’ मैं ने उन्हें प्यार से डपट दिया, ‘‘मैं पहले तुम्हारी सारी जिम्मेदारियों को पूरा करने के महत्त्व को समझती हूं और अपने हालात से पूरी तरह सुखी और संतुष्ट हूं, माई डियर हस्बैंड.’’

‘‘तुम सच बोल रही हो?’’ उन की आंखों में कुछ राहत के भाव उभरे.

‘‘मैं बिलकुल सच बोल रही हूं. आई एम वैरी हैप्पी विद यू,’’ मैं भावविभोर हो उन से लिपट गई.

‘‘मैं वादा करता हूं कि तुम्हें एक बार पूरे यूरोप की सैर जरूर कराऊंगा,’’ उन्होंने मेरे माथे को चूमा और फिर जोशीली आवाज में बोले, ‘‘हम कल ही बैंक में एक अकाउंट खोलेंगे. उस में जो रकम जमा होगी, वह सिर्फ तुम्हारे घूमने के शौक को पूरा करने के काम आएगी.’’

‘‘तुम सचमुच बहुत अच्छे हो,’’ उन के गाल पर प्यार भरा चुंबन अंकित करने के बाद मैं ने उन्हें बाथरूम में जाने की इजाजत दे दी.

पलंग पर लेट कर मैं अपने मानोभावों को समझने की कोशिश में लग गई.  मोहित शिखा के साथ मेरे रंगरूप की तुलना कर के शाम से दुखी हो रहे हैं, मेरा यह अंदाजा पूरी तरह से गलत निकला था.

सुंदर स्त्री का साथ सब पुरुष चाहते हैं और मैं ने मोहित की आंखों में भी आज खूबसूरत और स्मार्ट शिखा के लिए प्रशंसा के भाव कई बार साफ देखे थे. मेरी जिम्मेदारी बनती थी कि मोहित को एक खूबसूरत व आकर्षक जीवनसाथी का साथ हमेशा मिले.

मयंक के होने के बाद से अपने रंगरूप व फिगर का ढंग से रखरखाव न कर पाने के लिए मैं ने खुद को दोषी माना और फौरन इस कमी को दूर करने का फैसला मन ही मन कर लिया.

मैं जिंदगी की चुनौतियों के सामने हार मानने वालों में से नहीं हूं. अपने जीवन में कई महत्त्वपूर्ण कार्यों को मैं ने अकेले अपने बलबूते पर पूरा किया था.

मैं ने अपनी एमए की पढ़ाई बच्चों को ट्यूशन पढ़ा कर पूरी करी थी. अपने लिए मोहित का रिश्ता मैरिज साइट पर जा कर खुद ढूंढ़ा था. शादी के बाद मुझे जल्दी समझ में आ गया था कि अगर मैं ने नौकरी नहीं करी तो हमें हमेशा आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ेगा. घर के कामकाज में उलझे रह कर पढ़ाई करना कठिन था, पर मैं ने लगन और मेहनत के बल पर बीएड की डिगरी हासिल करी थी.

उसी जोशीले जलबे के साथ अपने दांपत्य संबंधों में जोश और खुशियां भरने का संकल्प मैं ने उसी पल कर लिया. हम शिखा की तरह अमीर नहीं थे, पर हमें आपस में साथ रहने को बहुत समय मिलता था. मैं ने फैसला किया कि अपने दांपत्य जीवन में हंसीखुशी और मौजमस्ती बढ़ाने के लिए मैं अब से इस समय का सदुपयोग बखूबी करूंगी.

मोहित ने मेरी खुशियों की खातिर नया अकाउंट खोलने का फैसला किया. इसी तर्ज पर 3 महीने बाद आ रही शादी की सालगिरह पर मैं ने खुद को ज्यादा फिट, आकर्षक और सुंदर बना कर उन्हें खास उपहार देने का पक्का मन बना लिया.

मैं ने उसी वक्त उठ कर सुबह 5 बजे का अलार्म लगाया. सुबह जल्दी उठ कर पार्क में घूमने जाने का मेरा पक्का इरादा था. मेरी कमर का दर्द अब मेरा वजन कम करने में कोई रुकावट खड़ी नहीं कर सकेगा. वैसे डाक्टर का कहना भी यही था कि नियमित रूप से व्यायाम करने से ही दर्द जड़ से जाएगा.

वे नहा कर बाहर आए तो खुल कर मुसकरा रहे थे. मुझे उन की आंखों में जी भर कर प्यार करने वाले भाव दिखे, तो मेरे दिल की धड़कनें एकदम से बढ़ गईं.

मुझे लगा कि स्मार्ट और सैक्सी शिखा के साथ गुजारा वक्त टौनिक की तरह काम करते हुए मोहित को रोमांटिक बना रहा है, पर यह विचार मुझे परेशान नहीं कर सका. जल्द ही मैं खुद उन्हें ऐसा टौनिक भरपूर मात्रा में पिलाया करूंगी, अपने इस संकल्प को फिर से दोहरा कर मैं उन की मजबूत बांहों के घेरे में कैद हो गई. मन में एक डर था कि कहीं शिखा की बात सही न निकले. कोई मोहित को ले न उड़े.

3 माह बाद शिखा अचानक पहले की तरह बिना बताए आ धमकी. इन दिनों में मैं ने अपना वजन 3 किलोग्राम कम कर लिया था. बदन चुस्त हो गया था. मार्क्स ऐंड स्पैंसर से सेल में कुछ अपने लायक ड्रैसें भी ले आई थी जो लेटैस्ट डिजाइन की तो न थीं पर पहले वाले बहनजी रूप से मुझे बदलने लायक तो थी हीं. मेरा बेटा मयंक अब गंभीर हो कर पढ़ने लगा था और मोहित का रुख और ज्यादा प्यारा हो गया था. जब वह आई तो मैं ने देखा कि वह पहले की तरह चुस्त तो थी पर चेहरे पर उदासी की परत बिखरी थी.

बनावटी ठहाके से उस ने मोहित को पुकारा. ‘‘हाय जीजू कहां हो… देखो तो बड़ी साली आई है.’’

मोहित तुरंत कमरे से निकले पर इस बार वह गर्भजोशी नहीं थी जो पिछली बार शिखा के साथ 2 घंटे बाद हुई थी. उन्होंने हंस कर स्वागत किया और कहा, ‘‘सालीजी, यह क्या हुआ? इतने दिनों से कोई मैसेज नहीं, कोई हाय नहीं, कोई तुम्हारी सलोनी तसवीर नहीं.’’

मैं ने पूछा, ‘‘चीन कैसा रहा? रोज कोविड की वजह से चीन के बंद होने की खबरें आ रही थीं.’’

शिखा ने कहा, ‘‘अरे कहां का चीन? हम जा ही नहीं पाए. मेरे पति तो  आजकल भाइयों के विवाह में बुरी तरह फंस गए हैं. कहीं आनाजाना हो ही नहीं पा रहा. मैं दिल्ली उन्हीं के साथ आई हूं, एनसीएलएटी में इन की अपील है. अकेले आने की सोच रहे थे पर 3 वकीलों से कौंन्फ्रैंस तय हो गई.

‘‘उन के मन पर हरदम बोझ रहता है. वजन बढ़ने लगा है. बहुत टैंस रहते हैं. अब कंपनी के कामों के सिलसिले में बाहर जाना बंद सा हो गया है. जब हालत सुधरेंगे तब देखेंगे. मेरी छोड़ अपनी सुना कविता. स्मार्ट लग रही है. वजन भी कम हो गया है. लगता है जीजू कुछ ज्यादा खयाल रख रहे हैं.’’

वह 2 घंटे रुकी पर पिछली बार की तरह ठहाके नहीं लगा पा रही थी. चलते हुए बोली, ‘‘जो हाथ में है उसी को ऐंजौय कर कविता. मेरी अपनी फिलौसफी इन के मुकदमों ने बदल दी है,’’ फिर मयंक के लिए चौकलेट का डब्बा देते हुए बोली, ‘‘मयंक ट्यूशन से आए तो देना न भूलना.’’

उस के जाने के बाद मुझे एहसास हुआ कि मैं कितनी खुश हूं. बेकार में कंपीटिशन करने लगी थी. हरेक के जीवन में उतारचढ़ाव आते हैं. दूसरों को ऊंचे जाते देख अपनी हार नहीं माननी चाहिए, अपना काम अपनी गति से करते रहना चाहिए वरना दुख कब पिछले दरवाजे से घुस जाए. पता नहीं.

अब मेरा डर गायब हो गया था. मैं ने मोहित की एक जोर की पप्पी ली और बरतन समेटने लगी. मोहित सोच रहे थे कि अचानक यह बारिश क्यों और कैसे हुई?

हम साथ-साथ हैं: क्या परिवार को मना पाए राजेशजी

‘‘क्या बात है, पापा, आजकल आप अलग ही मूड में रहते हैं. कुछ न कुछ गुनगुनाते रहते हैं. पहले तो आप को इस रूप में कभी नहीं देखा. इस का कोई तो कारण होगा,’’ कुनिका के इस सवाल पर कुछ पल मौन रहे. फिर ‘‘हां, कुछ तो होगा ही’’ कह राजेशजी चाय का घूंट भरते हुए अखबार ले कर बैठ गए.

इकलौती लाड़ली कुनिका कब चुप रहने वाली थी, ‘‘कोई ऐसावैसा काम न कर बैठना, पापा. अपनी उम्र और हमारी इज्जत का ध्यान रखना.’’

क्या यह उन की वही नन्ही बिटिया है जिसे पत्नी के गुजर जाने के बाद मातापिता दोनों का लाड़ दिया. तब बेटी और नौकरी बस 2 ही तो लक्ष्य रह गए थे. पर जब 19 वर्षीया कुनिका, असगर के साथ भाग गई थी तब भी बिना किसी शिकायत और अपशब्द के बेटी की इच्छा को पूरी तरह मान देने की बात, अखबारों में अपील कर के प्रसारित करवा दी. 4 दिन बाद कुनिका, असगर को छोड़ वापस आ गई थी और अपने इस गलत चुनाव के लिए पछताई भी थी.

तब शर्मिंदगी से बचने व बेटी के भविष्य के लिए उन्होंने अपना तबादला भोपाल करा लिया. अब समय का प्रवाह, उन्हें 65 बसंत के पार ले आया था. जीवन यों ही चल रहा था कि पिछले 1 वर्ष से पार्क में सैर करते हुए रेनूजी से परिचय हुआ. उन की सादगी, शालीनता, बातचीत में मधुरता देख उन के प्रति एक अलग सा मोह उत्पन्न हो रहा था. रेनूजी, यहां छोटे बेटेबहू के साथ रह रही थीं. बड़ा बेटा परिवार सहित अमेरिका में रह रहा था.

‘‘अपने बारे में कुछ सोचती हैं कभी?’’ एक दिन बातों ही बातों में राजेशजी ने कहा.

‘‘अपने बारे में अब सोचने को रहा ही क्या है? हाथपांव चलते जीवन बीत जाए,’’ कहते हुए रेनूजी का चेहरा उदास हो उठा था.

कुछ दिनों बाद, राजेशजी ने जीवनभर का साथ निभाने का प्रस्ताव रेनूजी के समक्ष रख दिया, ‘‘क्या आप मेरे साथ बाकी का जीवन बिताना चाहेंगी? अकेलेपन से हमें मुक्ति मिल जाएगी.’’

‘‘इस उम्र में यह मेरा परिवार, आप का परिवार, समाज, हम…’’ शब्द गले में ही अटक गए थे.

‘‘एक विधवा या विधुर को जीवन बसाने की तमन्ना करना क्या गुनाह है? हम ने अपने कर्तव्य पूरे कर लिए हैं. अब कुछ अपने लिए तलाश लें तो भला गलत क्या है? तुम्हारी स्वीकृति हम दोनों को एक नया जीवन देगी.’’

‘‘हां, यह सच है कि अकेलापन, मन को पीडि़त करता है. पर जीवन तो बीत ही गया, अब कितना बचा है जो…’’ कंपित स्वर था रेनूजी का, ‘‘अब मैं चलती हूं,’’ तेजी से वे चली गईं.

इधर, 10-12 दिनों से वे घर से नहीं निकलीं. उस दिन माला, रोहन से कह रही थी, ‘‘आजकल मम्मी घूमने नहीं जातीं. गुमसुम बैठी रहती हैं. मातम जैसा बनाए रखती हैं चेहरे पर.’’

‘‘कोई बात नहीं. अपनेआप ठीक हो जाएगा मूड. तुम टाइम से तैयार हो जाना. लंच पर रमेश के घर जाना है.’’

बेटे के इस उत्तर पर, रेनूजी की आंखें भर आईं. न जाने क्या सोच कर राजेशजी को मोबाइल पर नंबर लगा दिया. उधर से राजेशजी का मरियल स्वर सुन वे घबरा गईं, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘कुछ नहीं, 8 दिनों से तबीयत थोड़ी खराब चल रही है. बेटीदामाद लंदन गए हुए हैं. 2-4 दिनों में ठीक हो जाऊंगा,’’ और हलकी सी हंसी हंस दिए वे.

उस दिन 2 घंटे बाद, रेनूजी दूध, फल आदि ले राजेशजी के घर पहुंच गईं. तब राजेशजी के चेहरे की खुशी व तृप्ति, रेनूजी को अपने अस्तित्व की महत्ता दर्शा गई. आज का दिन उन की ‘स्वीकृति’ बन गया.

2 हफ्तों बाद, एकदूसरे को माला पहना, जीवनसाथी बन, रेनूजी के चेहरे पर संतोष के साथसाथ दुश्चिंता केभाव भी स्पष्ट थे. दोनों परिवारों के बच्चों से सामना करने का संकोच गहराता जा रहा था.

‘‘मुझे तो घबराहट व बेचैनी हो रही है कि बच्चे क्या कहेंगे? आसपास के लोग क्या कहेंगे? पांवों में आगे बढ़ने की ताकत जैसे खत्म हो रही है.’’

‘‘सब ठीक होगा. मैं हूं न तुम्हारे साथ. हर स्वीकृति कुछ समय लेती है. अब हमारे कदम रुकेंगे नहीं पहले मेरे घर चलो.’’

छोटी बिंदी और मांग में सिंदूरभरी महिला को पापा के साथ दरवाजे पर खड़ा देख कुनिका के अचकचा कर देखने पर परिचय कराते हुए राजेशजी बोले, ‘‘बेटी, ये तुम्हारी मां हैं. हम ने आज ही विवाह किया है. और…’’

‘‘यह क्या तमाशा है, पापा? शादी क्या कोई खेल है जो एकदूसरे को माला पहनाई और बन गए…’’

‘‘पहले पूरी बात तो सुनो, अगले माह कोर्टमैरिज भी होगी,’’ बीच में ही राजेशजी ने जवाब दे डाला.

‘‘कुछ भी हो, यह औरत मेरी मां नहीं हो सकती. इस घर में यह नहीं रह सकती,’’ वह उंगली तानते हुए बोली.

‘‘पर यह घर तो मेरा है और अभी मैं जिंदा हूं. इसलिए तुम इन्हें रोक नहीं सकतीं.’’

तभी रेनूजी ने आगे बढ़ते हुए कहा, ‘‘सुनो तो, बेटी.’’

‘‘मैं आप की बेटी नहीं हूं. मत करिएयह नाटक,’’ कुनिका पैर पटकती अंदर चली गई.

‘‘आओ रेनू, तुम भीतर आओ,’’ रेनूजी का उतरा चेहरा देख, राजेशजी ने समझाते हुए कहा, ‘‘हमारे इस फैसले को ये लोग धीरेधीरे अपनाएंगे. थोड़ा सब्र करो, सब ठीक हो जाएगा.’’

चाय बनाने के लिए रेनूजी के रसोई में घुसते ही, कुनिका ‘हुंह’ के साथ लपक कर बाहर निकल आई. पीछेपीछे राजेशजी भी वहीं पहुंच गए.

‘‘मेरे बच्चे भी न जाने क्याकुछ कहेंगे, कैसा व्यवहार करेंगे,’’ उन के पास जाने की सोच कर ही दिल बैठा जा रहा है,’’ चाय कपों में उड़ेलते हुएरेनूजी कह रही थीं, ‘‘मैं ने रोहन को बता दिया है मैसेज कर के. बस, अब बच्चों को एहसास दिलाना है कि हम उन के हैं, वे हमारे हैं. हम अलग रहेंगे पर सुखदुख में साथ होंगे. कोशिश होगी कि हम उन पर बंधन या बोझ न बनें और उन की खुशी…’’

तभी कुनिका की दर्दभरी चीख सुन सीढि़यों की तरफ से आती आवाज पर दोनों उस ओर लपके. वह कहीं जाने के लिए निकली ही थी कि ऊंची एड़ी की सैंडिल का बैलेंस बिगड़ने से 4 सीढि़यों से नीचे आ गिरी. रेनूजी व राजेशजी ने सहारा दिया और उस के कक्ष में बैड पर लिटा दिया. पहले तो दर्दनिवारक दवा लगाई फिर रेनूजी जल्दी से हलदी वाला गरम दूध ले आईं. कुनिका का पांव देख रेनूजी समझ गईं कि मोच आई है. राजेशजी से मैडिकल बौक्स ले कर उस में से पेनकिलर गोली दी. साथ ही, पांव में क्रेपबैंडेज भी बांध दिया.

‘‘परेशान न हो, कुनिका. कुछ ही घंटों में यह ठीक हो जाएगा,’’ कहते हुए रेनूजी ने पतली चादर उस के पैरों पर डाल उस के माथे पर हाथ फेर दिया.

धीरेधीरे दर्द कम होता गया. अब कुनिका आंखें बंद किए सोच रही थी, ‘सच में ही इस औरत ने पलक झपकते ही यह स्थिति सहज ही संभाल ली. अकेले पापा तो कितने नर्वस हो जाते.’ कुछ बीती घटनाओं को याद करते हुए वह सोचने लगी, ‘पापा वर्षों से अकेलेपन में जीते आए हैं. अब उन्हें मनपसंद साथी मिला है तो मैं क्यों चिढ़ रही हूं?

‘‘बेटी, अब कैसा लग रहा है?’’ माथे पर रेनूजी का गुनगुना स्पर्श, मन को ठंडक दे गया.

‘‘मैं ठीक हूं, आप परेशान न हों,’’ एक हलकी मुसकान के साथ कुनिका का जवाब पा रेनूजी का मन हलका हो गया.

अगले दिन रेनूजी अपने द्वार की घंटी बजा, राजेशजी के साथ दरवाजा खुलने की प्रतीक्षा में खड़ी थीं. दरवाजा खुला, माला ने दोनों को एक पल देखा और बिना कुछ कहे भीतर की ओर बढ़ गई. सामने लौबी में रोहन चाय पी रहा था. वह न तो बोला, न उस ने उठने का प्रयास किया और न इन लोगों से बैठने को कहा. राजेशजी स्वयं ही आगे बढ़ कर बोले, ‘‘हैलो बेटे, मैं राजेश हूं. तुम्हारी मां का जीवनसाथी. हम जानते हैं कि हमारा यह नया रिश्ता तुम्हें अच्छा नहीं लग रहा पर तुम्हें अब अपनी मां की चिंता करने की जरूरत नहीं होगी. हम दोनों…’’

‘‘बेकार की बातें न करें. हमारे बच्चे, समाज, आसपास के लोगों के बारे में कुछ तो सोचा होता. इतनी उम्र निकल गई और अब शादी रचाने की इच्छा जागृत हो गई आप लोगों की. क्या हसरत रह गई है अब इस उम्र में? मेरी मां तो ऐसा स्वप्न में भी नहीं सोच सकती थीं. यह सब आप का फैलाया जाल है. क्या इस वृद्धावस्था में यह शोभा देता है? आखिर, कैसे हम अपने रिश्तेदारों में गरदन उठा पाएंगे?’’ क्रोध और तनाववश रोहन का चेहरा विदू्रप हो उठा था.

तभी रेनूजी सामने आ गईं, ‘‘कौन से रिश्तेदारों की बात कर रहा है. जब मैं 2 छोटे बच्चों के साथ मुसीबतों से जूझ रही थी तब तो कोई अपना सगा सामने नहीं आया. तुम्हारे पापा की मृत्यु के साथ जैसे मेरा अस्तित्व भी समाप्त हो गया था. पर मैं जिंदा थी. सच पूछो तो मुझे स्वयं पर गर्व है कि मैं ने अपना कर्तव्य पूरी तरह निभाया, तुम बच्चों को ऊंचाई तक पहुंचाया.’’

तभी पास रखी कुरसी खींच, उस पर बैठते हुए राजेशजी बोले, ‘‘तुम्हारा कहना कि हमारी उम्र बढ़ गई है, तभी तो यह रिश्ता हसरतों का नहीं, साथ रहने व संतुष्टि पाने का है. बेटे, एक बार हमारी भावना, संवेदना पर गौर करना, सोचना और हमें अपना लेना. हम तो तुम्हारे हैं ही, तुम भी हमारे हो जाना. तुम्हारा छोटा सा साथ, हमें ऊर्जा व खुशी से लबालब रखेगा. अब हम चलते हैं.’’

उसी शाम कुनिका को भी फोन कर दिया, ‘‘आज गौरव भी भारत आ जाएगा. परसों रविवार की सुबह तुम लोग, साकेत वाले फ्लैट पर आ जाना. और हां, रेनूजी का परिवार भी निमंत्रित है. तुम सब की प्रतीक्षा होगी हमें.’’ फोन डिसकनैक्ट करने ही वाले थे कि उधर से आवाज आई, ‘‘पापा, हम जरूर आएंगे. बायबाय.’’ राजेशजी के चेहरे पर मुसकराहट छा गई.

वर्षों पूर्व छुटी एक ही रूम में सोने की आदत, अपनाने में असहजता व कुछ अजीब सा लग रहा था राजेशजी व रेनूजी को. फिर भी बातें करतेकरते एक सुकून के साथ कब वे दोनों नींद की आगोश में समा गए, पता ही न लगा. गहरी नींद में सोई हुई रेनूजी, अलार्म की घंटी पर, हलकी सी चीख के साथ जाग पड़ीं, ‘‘क्या हुआ? कौन है?’’

‘‘अरे, कोई नहीं. यह तो घड़ी का अलार्म बजा है.’’

‘‘अभी तो शायद 4 या साढ़े 4 ही बजे होंगे और यह अलार्म?’’

‘‘हां, मैं इतनी जल्दी उठता हूं, फिर फ्रैश हो कर सैर करने के लिए निकल जाता हूं. तुम चलोगी?’’ राजेशजी के पूछने पर, ‘‘अरे नहीं, मैं आधी रात के बाद तो सो पाई हूं कि…’’ परेशानी युक्त स्वर में जवाब आया.

‘‘क्यों? क्या तुम्हें नींद न आने की समस्या है?’’

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है. असल में नई जगह पर नींद थोड़ी कठिनाई से आ पाती है.’’

जीवन में कई ऐसी बातें होती हैं जिन पर गौर नहीं किया जाता, खास महत्त्व नहीं दिया जाता. और फिर अचानक ही वे महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं, जैसे कि राजेशजी को चटपटी सब्जी, एकदम खौलती हुई चाय, मीठे के नाम पर बूंदी के लड्डू बहुत पसंद हैं. इस के विपरीत रेनूजी को सादा, हलके मसाले की सब्जी और बूंदी के लड्डू की तो गंध भी पसंद नहीं आती. पर अब वे दोनों ही एकदूसरे की पसंद पर ध्यान देने लगे हैं, एकदूसरे की खुशी का ध्यान पहले करते हैं.

रविवार की दोपहर, राजेशजी व रेनूजी के घर में दोनों परिवारों के बच्चे एकदूसरे से परिचित हो रहे थे. रोहन और माला चुपचुप थे पर कुनिका और गौरव बातों में पहल कर रहे थे. तभी राजेशजी की आवाज पर सब चुप हो गए.

‘‘बच्चों, हम कुछ कहना चाहते हैं. हमारी इस शादी से किसी के परिवार पर भी आर्थिक स्तर पर कोई दबाव नहीं होगा. प्रौपर्टी बंट जाएगी या ऐसी ही कुछ और समस्या का सामना होगा, ऐसा कुछ भी नहीं होगा. हम दोनों ने कोर्ट में ऐफिडेविट बनवा कर निश्चय किया है कि हम पतिपत्नी बन कर एकदूसरे की चलअचल संपत्ति पर हक नहीं रखेंगे. अपनी इच्छा से अपनी संपत्ति गिफ्ट करने की स्वतंत्रता होगी. अपनीअपनी पैंशन अपनी इच्छा से खर्च करने की मरजी होगी. खास बात यह कि तुम्हारी मां अपनी पैंशन को हमारे घर के खर्च पर नहीं लगाएंगी. यह खर्च मैं वहन करूंगा. आर्थिक सहायता नहीं, पर भावनात्मक या कभी साथ की जरूरत हुई तो हम बच्चों की राह देखेंगे. हम तो तुम्हारे हैं ही, बस, तुम्हें अपना बनता हुआ देखना चाहेंगे. और भी कुछ जिज्ञासा हो तो आप पूछ सकते हैं,’’ इतना कह राजेशजी, प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा में चुप हो गए.

‘‘हम आप के साथ हैं, आप की खुशी में हम भी खुश हैं,’’ दोनों परिवारों के सदस्यों ने समवेत स्वर में कहा. तभी राजेशजी ने रेनूजी का हाथ धीरे से थामते हुए कहा, ‘‘शेष जीवन, कटेगा नहीं, व्यतीत होगा.’’

प्यार को प्यार से जीत लो: शालिनी ने मां को कैसे मनाया

सुबह की हलकी धूप में बैठी मित्रा  नई आई पत्रिका के पन्ने पलट रही थीं कि तभी शालिनी की तेज आवाज ने उन्हें चौंका दिया.

‘‘ममा…ममा…आप कहां हो?’’

‘‘ऊपर छत पर हूं. यहीं आ जाओ.’’

सुमित्रा की तेज आवाज सुनते ही शालिनी 2-2 सीढि़यां फांदती उन के पास जा पहुंची. सामने पड़ी कुरसी खींच कर बैठते हुए बोली, ‘‘ममा, मैं आप को कब से ढूंढ़ रही हूं और आप यहां बैठी हैं.’’

शालिनी की अधीरता देख सुमित्रा को हंसी आ गई. इस लड़की को देख कर कौन कहेगा कि यह पतलीदुबली लड़की एक डाक्टर है और एक दिन में कईकई लेबर केस निबटा लेती है.

‘‘बोलो, तुम्हें कहना क्या है?’’

पता नहीं क्या हुआ कि शालिनी एकदम चुप हो गई. उस के स्वभाव के विपरीत उस का आचरण देख सुमित्रा अचंभित थीं. वे समझ नहीं पा रही थीं कि कौन सी ऐसी बात है जिसे बोलने के लिए इस वाचाल लड़की को हिम्मत जुटानी पड़ रही है. थोड़ी देर की चुप्पी के बाद शालिनी ने खुद ही बातें शुरू कीं.

‘‘ममा, मैं आप का दिल नहीं दुखाना चाहती थी, लेकिन क्या करूं… आप को धोखे में भी नहीं रख सकती. इसलिए आप को बता रही हूं कि मैं ने और अतुल ने इसी महीने शादी करने का फैसला कर लिया है.’’

बेटी की बातें सुन कर सुमित्रा बुरी तरह चौंक गईं, मानो अचानक ही कोई दहकता अंगारा उन के पांव तले आ गया हो.

‘‘क्या…क्या कह रही हो तुम. यह कैसा मजाक है?’’

‘‘नहीं ममा…आई एम नौट जोकिंग. आई एम सीरियस.’’

‘‘शादीब्याह को क्या तुम ने गुड्डेगुडि़यों का खेल समझ रखा है जिस से चाहोगी जब चाहोगी झट से जयमाला डलवा दूंगी. सच पूछो तो इस में तुम्हारी भी क्या गलती है. समीर ने मेरे मना करने के बावजूद तुम्हारी हर गलतसही मांगों को पूरा कर के तुम्हें इतना स्वार्थी और उद्दंड बना दिया है कि आज तुम्हेें मातापिता की भावनाओं का भी खयाल नहीं रहा.’’

‘‘ममा, हर बात के लिए आप पापा को दोष मत दीजिए. यह मेरा और अतुल का फैसला है. कंपनी अतुल को अगले महीने अमेरिका की अपनी एक शाखा में नियुक्त कर रही है. उस ने मेरे पासपोर्ट और दूसरे कागजात की भी व्यवस्था कर रखी है, इसीलिए हम दोनों इस महीने में शादी करना चाहते हैं.’’

‘‘जब तुम ने सारे फैसले खुद ही कर रखे हैं तो अब पूछना कैसा?’’ गुस्से से तिलमिला कर सुमित्रा बोलीं, ‘‘सूचना देने के लिए धन्यवाद. जाओ, जो दिल चाहे वही करो.’’

सुमित्रा एकटक अपनी जाती हुई बेटी को देखती रहीं. उस की परवरिश में कहां कमी रह गई कि उस की इकलौती संतान, उस की अपनी ही बेटी ने अपने जीवन के इतने अहम फैसले में अपने मातापिता से सलाह तक लेने की जरूरत नहीं समझी. शालिनी की शादी उन के जीवन का सब से बड़ा सपना था. पर आज जब शादी होने का समय आया तो वे एक मूकदर्शक मात्र बन कर रह गई थीं.

बेटी से मिली अवहेलना की दारुण पीड़ा को झेलना उन के लिए दुष्कर था.

ऐसा नहीं था कि सुमित्रा को अतुल पसंद नहीं था. वह कई बार शालिनी के साथ घर आया था. एक मल्टीनैशनल कंपनी में ऊंचे ओहदे पर काम कर रहा था. संस्कारी और सौम्य स्वभाव का लड़का था. विजातीय होते हुए भी अतुल, सुमित्रा को दिल से स्वीकार होता, अगर मातापिता की उपेक्षा न कर के शालिनी अपनी शादी का फैसला उन्हें अपने विश्वास में ले कर करती.

शाम को आफिस से लौटने के बाद समीर को जब सारी बातें मालूम हुईं तो बेटी के इस अप्रत्याशित फैसले ने उन्हें भी थोड़ी देर के लिए किंकर्तव्यविमूढ़ बना दिया. पर हमेशा की तरह थोड़ी देर बाद ही बेटी की गलती सुधारने में जुट गए.

समीर ने शालिनी को बुला कर उस से पूछताछ शुरू कर दी.

‘‘इस शादी के लिए क्या अतुल के मातापिता तैयार हैं?’’

‘‘नहीं, पापा, वे दोनों पूरी तरह हमारी शादी के खिलाफ हैं. हफ्ते भर से अतुल उन्हें मनाने में जुटा है फिर भी उस के मातापिता तैयार नहीं हो रहे हैं. उन का कहना है कि उन्हें अपने बेटे के लिए एक विजातीय डाक्टर बहू नहीं, एक सजातीय सीधीसादी घरेलू लड़की चाहिए.’’

‘‘तुम चिंता मत करो, मैं शीघ्र ही अतुल के मातापिता से मिल कर उन्हें समझाबुझा कर तुम दोनों की शादी करवाने की पूरी कोशिश करता हूं.’’

‘‘नहीं, पापा, आप बात नहीं करेंगे. मेरे कारण वे आप के सम्मान को ठेस पहुंचाएं, यह मुझे मंजूर नहीं होगा.’’

‘‘वे अतुल के मातापिता हैं, उन का इस शादी के लिए तैयार होना बहुत जरूरी है, वरना तुम दोनों सारी जिंदगी सुकून से नहीं जी पाओगे.’’

‘‘माई फुट, वे मानें या न मानें… शादी तो हर हाल में अतुल मुझ से ही करेगा. वे मानेंगे तो ठीक, वरना हम दोनों कोर्ट में शादी कर लेंगे.’’

‘‘बेटा, थोड़ा सब्र से काम लो. अतुल उन की इकलौती संतान है, वह उन्हें मना ही लेगा.’’

‘‘नहीं…पापा…मैं अब और ज्यादा इंतजार नहीं कर सकती. मैं तो आज ही अतुल से शादी पक्की करने के लिए बात करूंगी.’’

‘‘जिंदगी के फैसले इस तरह जल्दबाजी में नहीं लिए जाते. इस शादी से सिर्फ तुम्हारा और अतुल का रिश्ता ही नहीं जुड़ेगा, तुम्हारे न चाहने पर भी, ढेर सारे रिश्ते खुद ब खुद तुम से आ जुड़ेंगे… जिन से तुम इनकार नहीं कर सकतीं.’’

‘‘पापा, कौन मुझे इंडिया में रहना है जो इन रिश्तेनातों को निभाने के लिए परेशान रहूं.’’

‘‘अभी तुम्हारी समझ में नहीं आ रहा है, जब दूर जाओगी तो अपनों की और रिश्तेनातों की अहमियत समझ में आएगी. एक बात और समझ लो कि तुम्हारे इस तीखे तेवर से उन के इस विश्वास को और भी बल मिलेगा कि ज्यादा पढ़ीलिखी लड़की उन लोगों का सम्मान नहीं करेगी. उन के इस भ्रम को तोड़ने के लिए तुम्हें झुकना होगा. बड़ों के सामने झुकने में तुम्हारी तौहीन नहीं होगी, बल्कि खुद झुक कर ही तुम उन्हें झुका सकती हो. उन का प्यार और सम्मान पा सकती हो.’’

बिना कोई जवाब दिए चुपचाप शालिनी वहां से उठ कर बाहर आ गई और अपनी कार ले डा. सुधा वर्मा के घर की तरफ चल दी. डा. सुधा वर्मा उस की सीनियर और गाइड ही नहीं, अंतरंग सहेली जैसी थीं. जब वह सुधा वर्मा के पास पहुंची तब और दिनों की अपेक्षा ज्यादा आपरेशन होने के कारण वे काफी व्यस्त थीं. शालिनी पर नजर पड़ते ही काफी खुश हो गईं.

‘‘अच्छा हुआ जो तुम आ गईं. तुम जरा वार्ड नं. 13 में 113 नंबर बैड पर ऐडमिट डिप्रैशन के एक मरीज की जांच कर लो. सुबह जब मैं राउंड पर गई थी तब तो ठीक थी, अभी थोड़ी देर पहले से उस की परेशानी कुछ ज्यादा ही बढ़ गई है.’’

शालिनी वार्ड नं. 13 की तरफ चल पड़ी. उस वार्ड में एक प्रौढ़ महिला ऐडमिट थी. भरेभरे शरीर और बड़ीबड़ी आंखों वाली उस आकर्षक महिला के चेहरे पर गहरी विषाद की लकीरें छाई हुई थीं, जैसे कोई गहरी वेदना उसे साल रही थी. उस संभ्रांत महिला के साथ आई महिला ने बताया कि 2 दिन से उन की यही स्थिति है. इन 2 दिनों में इन्होंने अन्न का एक दाना भी नहीं खाया है.’’

‘‘इस तरह की स्थिति क्या इन की पहले भी कभी हुई है?’’ शालिनी ने पूछा.

‘‘नहीं…नहीं…डाक्टरनी साहिबा. पहले इन की इस तरह की स्थिति कभी नहीं हुई. वह तो 4 दिन पहले इन की अपने इकलौते बेटे से किसी बात पर जम कर बहस हुई और वह इन्हें छोड़ कर मुंबई चला गया. 2 दिन तक तो इन्होंने किसी तरह अपने को संभाला, लेकिन जब बेटे का कोई फोन नहीं आया तो इन की स्थिति बिगड़ने लगी और हमें यहां लाना पड़ा.’’

शालिनी ने पहले नर्स को जरूरी इंजेक्शन तैयार करने की हिदायत दी फिर खुद भी उस महिला की नब्ज देखने लगी. महिला बेहोशी जैसी स्थिति में भी कुछ बड़बड़ाए जा रही थी, ‘मैं ने पालपोस कर बड़ा किया, इतना प्यार दिया और तू है कि मुझे ही जलाए दे रहा है. क्या तेरा सारा फर्ज उस कल आई लड़की के लिए ही है. बूढ़े मातापिता के प्रति तेरा कोई फर्ज नहीं है…और ऊपर से जलीकटी सुनाता है. जा, चला जा मेरी नजरों के सामने से. इस बीमार मां को जितना दुख दिया है उस से दोगुना दुख तू पाएगा. मैं यह सोचूंगी कि मैं ने अपना दूध अपने बेटे को नहीं एक संपोले को पिलाया है.’

शालिनी को यह समझने में देर नहीं लगी कि बेटे के किसी आचरण ने मां को गहरा सदमा दिया था. जब उस औरत की स्थिति थोड़ी सामान्य हुई और वह सो गई, तो शालिनी ने सुधा दीदी के पास जा कर उन्हें अब तक की स्थिति की रिपोर्ट थमा दी और सीधे आ कर कार में बैठ गई. कार में बैठने के साथ ही उस औरत का अशांत और पीडि़त चेहरा शालिनी की आंखों के सामने बारबार घूम रहा था. बेटे के कठोर आघात ने मां के दिल में कैसी कटुता भर दी थी कि बेहोशी की हालत में भी उसे कोस रही थी. शालिनी को एक ही बात बारबार दंश दे रही थी कि क्या वह खुद भी अतुल के साथ मिल कर कुछकुछ वैसा ही अपराध नहीं कर बैठी थी.

पहली बार शालिनी को अपने पापा की बातों की गहराई समझ में आई थी. अपने सुनहरे भविष्य की अटारी पर बैठी अपने जिस सपने को वह मुग्धभाव से निहार रही थी अचानक ही वह जमीन पर गिर कर चकनाचूर हो गया. अपनी स्वार्थी सोच पर लगाम देने के लिए शालिनी ने अतुल के घर की तरफ अपनी कार मोड़ ली.

वहां पहुंच कर बड़े ही आत्मविश्वास के साथ वह अंदर आ गई. सामने ही अतुल की मम्मी गायत्री देवी पाइप से पौधों को पानी दे रही थीं. उसे गेट खोल कर अंदर आते देख हाथ का पाइप एक तरफ रखते हुए बोलीं, ‘‘तुम…तुम यहां क्या करने आई हो? तुम्हें मालूम नहीं कि अतुल घर पर नहीं है. वह एक हफ्ते के लिए बाहर गया हुआ है.’’

‘‘मुझे मालूम है आंटी, पर मैं अतुल से नहीं आप से बात करने आई हूं.’’

‘‘आई हो तो मुझ से उम्मीद मत रखना. मैं आसानी से अपने फैसले नहीं बदलती. मेरा एक ही जवाब है, अगर अतुल तुम से शादी करेगा तो अपने मातापिता को खो देगा.’’

‘‘आप निश्ंिचत रहिए आंटी, मैं आप को अपना फैसला बदलने के लिए मजबूर करने नहीं आई हूं. अगर आप सोचती हैं कि मेरे साथ अतुल की शादी होने से आप का नाम खराब होगा तो कहीं न कहीं आप की सोच सही ही होगी. आप हमारी बड़ी हैं, अतुल की मां हैं, सच मानिए आंटी, मैं आप की बहुत इज्जत करती हूं. आप का अतुल पर पहला हक है. मैं उसे आप से कभी अलग करने की बात सोच भी नहीं सकती. जब तक आप नहीं चाहेंगी, आप आशीर्वाद नहीं देंगी, तब तक हम दोनों कभी शादी नहीं करेंगे, यह आप से मेरा वादा है.’’

‘‘और मेरा आशीर्वाद तुम्हें कभी मिलेगा नहीं.’’

‘‘तो ठीक है, आंटी. आज और अभी से मैं अपने सारे संबंध अतुल के साथ तोड़ती हूं.’’

इतना बोल वह तेजी से मुड़ कर अपनी कार में आ बैठी. जिंदगी में पहली बार उस ने किसी के साथ इतनी झुक कर बातें की थीं, फिर भी उसे अपना मन काफी हलका लग रहा था, जैसे किसी अपराधबोध का बोझ उतर गया हो.

यह सत्य है कि अतुल के बिना जीना शालिनी के लिए आसान नहीं था, फिर भी अपने भौतिक सुखों के लिए किसी से उस की प्रिय वस्तु छीन लेने के बदले बिना किसी अपेक्षा के अपनी सब से प्रिय वस्तु किसी को समर्पित कर देने में उसे बेहद सुख और संतोष का अनुभव हो रहा था. घर आ कर जैसे ही उस ने अपना फैसला मां को बताया, शालिनी का उदास और क्लांत चेहरा देख उन का सारा गुस्सा फौरन तिरोहित हो गया.

‘‘अरे, वे लोग मेरी बेटी के साथ ऐसा कैसे कर सकते हैं? तू चिंता मत कर, मैं गायत्री से बात करूंगी.’’

‘‘नहीं, ममा…आप कोई बात नहीं करेंगी.’’

‘‘अरे, कैसे नहीं करूंगी, मां हूं. लोग अपने बच्चों के लिए क्या नहीं करते…’’

‘‘ममा, प्लीज,’’ वह मां की बात बीच में ही काट कर अपने कमरे में चली गई.

अपने वादे के अनुसार उस दिन से शालिनी ने न अतुल से कोई बात की और न ही उस का कोई फोन रिसीव किया.

करीब एक हफ्ते बाद…एक दिन जब शालिनी अस्पताल से लौटी तो मां ने झट से उस के सामने एक गुलाबी रंग की जरी की बार्डर वाली साड़ी ला कर रख दी और बोलीं, ‘‘जल्दी से तैयार हो जा. एक जगह सगाई में जाना है.’’

‘‘नहीं, ममा, मेरा मन नहीं है.’’

‘‘कभी तो अपनी ममा का दिल रख लिया कर.’’

अपनी मां के प्यार भरे अनुरोध को शालिनी टाल न सकी. मन न होते हुए भी साड़ी ले कर तैयार होने लगी. जल्दी ही तैयार हो कर ड्राइंगरूम में आ बैठी. उस की ममा अभी तैयार नहीं हुई थीं. वह यों ही बैठेबैठे टीवी के चैनल बदलने लगी. तभी दरवाजे पर घंटी बजी शालिनी ने बढ़ कर दरवाजा खोला तो भौचक रह गई. दरवाजे पर कई अजनबी चेहरों के साथ अतुल की मां गायत्री देवी खड़ी थीं. उसे भौचक और घबराई हुई देख कर वे बोलीं, ‘‘अंदर आने के लिए भी नहीं कहोगी.’’

‘‘हां, आइए न,’’ कह कर वह दरवाजे से हट कर खड़ी हो गई.

‘‘तुम्हारी ममा कहां हैं, उन्हें बुलाओ.’’

‘‘प्लीज आंटी, आप मेरी ममा से कुछ मत कहिए. वे पहले से ही मेरे कारण बहुत परेशान हैं.’’

‘‘नहीं…नहीं…मुझे तुम से कोई बात नहीं करनी. बुलाओ अपनी ममा को.’’

तभी शालिनी को अपने पीछे से अपनी मां की आवाज सुनाई दी, ‘‘अरे, गायत्री बहन, आप आ गईं पर अतुल को कहां छोड़ आईं.’’

‘‘भला अपनी ही सगाई में वह खुद कैसे नहीं आएगा. अपनी पसंद की अंगूठी लेने गया है.’’

फिर शालिनी की तरफ मुखातिब हो कर गायत्रीजी बोलीं, ‘‘ऐसे क्या देख रही हो बेटा, तुम्हें अपने बड़ों की खुशियों का खयाल है तो क्या बड़े अपने बच्चों की खुशियों का खयाल नहीं रखेंगे. उस दिन तुम्हारी सौम्यता, मेरे प्रति तुम्हारा निस्वार्थ प्रेम और उस से भी बढ़ कर तुम्हारे द्वारा झुक कर सम्मान का भाव प्रकट करने से मुझे लगा, तुम से अच्छी बहू मुझे नहीं मिल सकती. जब तुम्हारी मां ने पहल की तो मैं ने भी देर नहीं की. पहले चाहे मैं ने तुम्हें कितना भी भलाबुरा कहा हो पर आज सच्चे और साफ दिल से कहती हूं, तुम मुझे दिल से पसंद हो. मेरे बेटे की पसंद खराब हो ही नहीं सकती.’’

शालिनी शरमा कर उन के पैरों पर झुक आई तो उसे बीच में ही थाम कर गायत्रीजी ने उसे गले से लगा लिया.

पथरीली मुस्कान: क्या गौरी की जिंदगी में लौटी खुशी

तरक्की: श्वेता को क्या तोहफा मिला था

श्वेता एक सीधीसादी लड़की थी. कम बोलना, बेवजह किसी को फालतू मुंह न लगाना उस की आदत में ही शामिल था. दफ्तर के मालिक मनोहर साहब जब भी उसे बुलाते, वह नजरें झुकाए हाजिर हो जाती.

‘‘श्वेता…’’

‘‘जी सर.’’

‘‘तुम काम खत्म हो जाने पर फुरसत में मेरे पास आना.’’

‘‘जी सर,’’ कहते हुए श्वेता दरवाजा खोलती और बाहर अपने केबिन की तरफ बढ़ जाती. उस ने कभी भी मनोहर साहब की तरफ ध्यान से देखा भी नहीं था कि उन की आंखों में उस के लिए कुछ है.

अगले महीने तरक्की होनी थी. पूरे दफ्तर में मार्च के इस महीने का सब को इंतजार रहता था.

मनोहर साहब अपने दफ्तर में बैठे श्वेता के बारे में ही सोच रहे थे कि शायद 2 साल के बाद वह उन से गुजारिश करेगी. पिछले साल भी उन्होंने उस की तरक्की नहीं की थी और न ही तनख्वाह बढ़ाई थी, जबकि उस का काम बढि़या था.

इस बार मनोहर साहब को उम्मीद थी कि श्वेता के कहने पर वे उस की तरक्की कर उसे अपने करीब लाएंगे, जिस से वे अपने मन की बात कह सकेंगे, पर श्वेता की तरफ से कोई संकेत न मिलने की वजह से वे काफी परेशान थे. आननफानन उन्होंने मेज पर रखी घंटी जोर से दबाई.

‘‘जी साहब,’’ कहता हुआ चपरासी विपिन हाजिर हो गया.

‘‘विपिन, देखना श्वेता क्या कर रही है? अगर वह खाली हो तो उसे मेरे पास भेज दो.’’

मनोहर साहब ने बोल तो दिया, पर वे समझ नहीं पा रहे थे कि उस से क्या कहेंगे, कैसे बात करेंगे. वे अपनी सोच में गुम थे कि तभी श्वेता भीतर आई.

मनोहर साहब उस के गदराए बदन को देखते हुए हड़बड़ा कर बोले, ‘‘अरे, बैठो, तुम खड़ी क्यों हो?’’

‘‘जी सर,’’ कहते हुए श्वेता कुरसी पर बैठ गई.

मनोहर साहब बोले, ‘‘देखो श्वेता, तुम काबिल और समझदार लड़की हो. तुम इतनी पढ़ाईलिखाई कर के टाइप राइटर पर उंगलियां घिसती रहो, यह मैं नहीं चाहता.

‘‘मैं तुम्हें अपनी सैक्रेटरी बनाना चाहता हूं.’’

‘‘क्या,’’ इस शब्द के साथ श्वेता का मुंह खुला का खुला रह गया. वह अपने भीतर इतनी खुशी महसूस कर रही थी कि मनोहर साहब के चेहरे पर उभरे भावों को देख नहीं पा रही थी.

‘‘ठीक है सर. कब से काम संभालना है?’’ यह पूछते हुए श्वेता के चेहरे पर बिखरी खुशी की लाली उस की खूबसूरती में निखार ला रही थी, जिस का मजा उस के मनोहर साहब भरपूर उठा रहे थे.

‘‘कल से ही तुम यह काम संभाल लो,’’ यह कहते हुए मनोहर साहब को ध्यान भी नहीं रहा कि अभी इस महीने में 5 दिन बाकी हैं, उस के बाद पहली तारीख आएगी.

मनोहर साहब के ‘कल से’ जवाब के बदले में श्वेता ने कहा, ‘‘ठीक है सर…’’ और जाने के लिए कुरसी छोड़ कर खड़ी हो गई, पर सर की आज्ञा का इंतजार था.

थोड़ी देर बाद मनोहर साहब बोल पड़े, ‘‘ठीक है, तुम जाओ.’’

श्वेता को मानो इसी बात का इंतजार था. वह अपनी इस खुशी को अपने परिवार में बांटना चाहती थी. वह अपना पर्स टटोलते हुए अपने केबिन में पहुंची और वहां सभी कागज वगैरह ठीक कर के घर के लिए चल पड़ी.

श्वेता अपने परिवार के पसंद की खाने की चीजें ले कर घर पहुंची. रास्ते में उस के जेहन में वे पल घूम रहे थे, जब 3 साल पहले उस के पिताजी की मौत हो गई थी. एक साल तक मां ही परिवार की गाड़ी चलाती रही थीं.

श्वेता ने बीए पास करते ही नौकरी शुरू कर दी थी, ताकि उस की दोनों छोटी बहनें पढ़ सकें. एक छोटा भाई सागर था, जो अभी तीसरी क्लास में था.

श्वेता के 12वीं के इम्तिहान के बाद ही सागर का जन्म हुआ था. तीनों बहनों का लाड़ला था सागर, पर पिता का प्यार उसे नहीं मिल सका था.

श्वेता को अपनी सोच में गुम हुए पता न चला कि घर आ चुका था.

‘‘रोको भैया, रोको, मुझे यहीं उतरना है,’’ कहते हुए श्वेता ने पैकेट संभाले हुए आटोरिकशा का पैसा चुकता किया और घर की सीढि़यों पर चढ़ते ही घंटी बजाई.

छोटी बहन संगीता ने दरवाजा खोला. सब से छोटी बहन सरोज भी उस के साथ थी. दीदी के हाथों में पैकेट देख कर दोनों बहनें हैरान थीं.

अभी वे कुछ कहतीं, उस से पहले श्वेता बोल पड़ी, ‘‘लो सरोज, आज हम सब बाहर का खाना खाएंगे.’’

इस के बाद वे तीनों भीतर आ कर मां के पास बैठ गईं.

मां भी श्वेता कोे देख रही थीं, तभी वह बोली, ‘‘मां, आज मैं बहुत खुश हूं. अब आप को चिंता नहीं करनी पड़ेगी. आप खुले हाथों से खर्च कर सकती हैं. अब मुझे 10,000 रुपए तनख्वाह मिला करेगी.’’

श्वेता की बातें सुन कर मां और ज्यादा हैरान हो गईं.

श्वेता ने आगे कहा, ‘‘मैं अपनी बहनों को इंजीनियर और डाक्टर बनाऊंगी. अब इन की पढ़ाई नहीं रुकेगी,’’ कहते हुए श्वेता के चेहरे पर ऐसे भाव आ गए जो पिता की मौत के बाद कालेज छोड़ते हुए आए थे.

श्वेता की तरक्की से पूरा दफ्तर हैरान था. काम्या तो इस बात से हैरान थी कि श्वेता ने कैसे मनोहर साहब से अपनी तरक्की करवा ली. अगर उसे पता होता कि ‘मनोहर साहब’ भी मैनेजर जैसे हैं, तो वह अपना ब्रह्मपाश मनोहर सर पर ही चलाती. वह फालतू ही मैनेजर के चक्कर में पड़ गई. उसे अपनेआप पर गुस्सा आ रहा था.

काम्या चालबाज लड़की थी. उस ने आते ही मैनेजर को अपने मायाजाल में फांस कर अपनी तरक्की करा ली थी, पर यह सब दफ्तर का कोई मुलाजिम नहीं जानता था. वह वहां सामान्य ही रहती थी, भले ही अपनी पूरी रात मैनेजर के साथ बिताती थी.

एक दिन काम्या ने श्वेता से कह दिया कि बहुत लंबा तीर मारा है तुम ने सीधीसादी बन कर, पर श्वेता उस का मतलब न समझ पाई.

4 महीने बीत चुके थे. एक दिन किसी समारोह में श्वेता भी मनोहर साहब के साथ गई. साहब बहुत खुश नजर आ रहे थे. दफ्तर का ही कार्यक्रम था. श्वेता से उन की खुशी छुपी नहीं रही. उस ने पूछ ही लिया, ‘‘सर, आज कोई खास बात है क्या?’’

‘‘हां श्वेता, तुम्हारे लिए खुशखबरी है,’’ कहते हुए वे मुसकराने लगे.

‘‘मेरे लिए क्या…’’ हैरान श्वेता देखती रह गई.

समारोह खत्म होने पर ‘तुम साथ चलना’ कहते हुए श्वेता का जवाब जाने बिना मनोहर साहब दूसरी तरफ चले गए. पर वह विचलित हो गई कि आखिर क्या बात होगी?

समारोह तकरीबन 4 बजे खत्म हुआ और साहब के साथ गाड़ी में चल पड़ी, वह राज जानने जो उस के साहब को खुश किए था और उसे भी कोई खुशी मिलने वाली थी. एक फ्लैट के सामने गाड़ी रुकी और साहब ताला खोलने लगे.

अंदर हाल में दीवान बिछा था, सोफे भी रखे थे. ऐसा लग रहा था कि यहां कोई रहता है. सभी चीजें साफसुथरी लग रही थीं.

‘‘बैठो,’’ मनोहर साहब ने कहा तो वह भी बैठ गई और साहब की तरफ देखने लगी.

‘‘देखो श्वेता, तुम बहुत ही समझदार लड़की हो. अब मैं जो भी कहने जा रहा हूं, उसे ध्यान से सुनना और समझना. अगर तुम्हें मेरी बातें या मैं बुरा लगूं तो तुम मेरा दफ्तर छोड़ कर आराम से जा सकती हो. अब मेरी बातें बड़े ही ध्यान से सुनो…’’

श्वेता मनोहर साहब की बातें समझ नहीं पा रही थी कि वे क्या कहना चाहते हैं और उस से क्या चाहते हैं. कानों में मनोहर साहब की आवाज पड़ी, ‘‘सुनो श्वेता, मैं तुम से पतिपत्नी का रिश्ता बनाना चाहता हूं. तुम मुझे अच्छी लगती हो. तुम में वे सारे गुण मौजूद हैं, जो एक पत्नी में होने चाहिए. मेरा एक 3 साल का बेटा है, उसे मां की जरूरत है. अगर तुम मेरी बात मान लोगी तो यहां जिंदगीभर राज करोगी. सोचसमझ कर मुझे अभी आधे घंटे में बताओ. तब तक मैं कुछ चायकौफी का इंतजाम करता हूं,’’ कहते हुए वे कमरे से बाहर जा चुके थे.

श्वेता क्या करे, इनकार की गुंजाइश बिलकुल नहीं थी. दूसरी नौकरी तलाशने तक घर तबाह हो जाएगा, हां कहती है तो बिना जन्म दिए मां का ओहदा मिल जाएगा. तरक्की के इतने सारे अनचाहे उपहारों को वह संभाल पाएगी. उस ने अपनेआप से सवाल किया.

‘‘लो, चाय ले लो,’’ कहते हुए वे उस के करीब बैठ चुके थे और उस की पीठ पर हाथ फेरने लगे. उस ने विरोध भी नहीं किया. उसे अपनी बहनों को डाक्टर और इंजीनियर जो बनाना था.

शरीर की हलचल पर काबू न रखते हुए वह मनोहर साहब की गोद में लुढ़क गई. आखिर उसे भी तो कुछ देना था साहब को, उन की इतनी मेहरबानियों की कीमत.

थोड़े देर में वे दोनों एकदूसरे में डूब गए. श्वेता को कुछ भी बुरा नहीं लग रहा था.

मनोहर साहब की पत्नी मर चुकी थी. वे किसी ऐसी लड़की की तलाश में थे, जो उस के बच्चे को अपना कर उसे प्यार दे सके. श्वेता में उसे ये गुण नजर आए, वरना उस की औकात ही क्या थी.

3 हफ्ते में दोनों की शादी हो गई. शादी में पूरा दफ्तर मौजूद था. सभी मनोहर साहब की तारीफ कर रहे थे कि चलो रिश्ता बनाया तो निभाया भी, वरना आजकल कौन ऐसा करता है.

काम्या भीतर ही भीतर हाथ मल रही थी और पछता रही थी. उस से रहा नहीं गया. श्वेता के कान में शब्दों की लडि़यां उंड़ेल दीं. ‘‘श्वेता, लंबा हाथ मारा है, नौकर से मालकिन बन बैठी.’’

श्वेता के चेहरे पर हलकी सी दर्द भरी मुसकान रेंग गई. वह खुद नहीं समझ पा रही थी कि ‘लंबा हाथ मारा है’ या ‘लुट गई है’.

‘‘मम्मी, गुड इवनिंग,’’ यह आवाज एक मासूम बच्चे सौरभ की थी, जो बहुत ही प्यारा था. मनोहर साहब उस का हाथ पकड़े खड़े थे. शायद मांबेटे का एकदूसरे से परिचय कराने के लिए, पर बिना कुछ पूछे श्वेता ने सौरभ को उठा कर अपने सीने से लगा लिया, क्योंकि उसे अपनी तरक्की से कोई गिला नहीं था. उसे तरक्की में मिले तोहफों से यह तोहफा अनमोल था.

लेखिका- डा. पुष्पा सिंह विसेन

जुआरी: बड़े भैया की वसीयत में क्या लिखा था

‘जिंदगी क्या इतनी सी होती है?’ बड़े भैया अपने बिस्तर पर करवटें बदलते हुए सोच रहे थे और बचपन से अब तक के तमाम मौसम उन की धुंधली नजर में तैरने लगे. अंत में उन की नजर आ कर उन कुछ करोड़ रुपयों पर ठहर गई जो उन्होंने ताउम्र दांत से पकड़ कर जमा किए थे.

कितने बड़े परिवार में उन्होंने जन्म लिया था. बड़ी बहन कपड़े पहना कर बाल संवारती थी, बीच की बहन टिफिन थमाती थी. जूते पहन कर जब वह बाहर निकलते तो छोटा भाई साइकिल पकड़ कर खड़ा मिलता था.

‘भैया, मैं भी बैठ जाऊं?’ साइकिल बड़े भाई को थमाते हुए छोटा विनम्र स्वर में पूछता.

‘चल, तू भी क्या याद रखेगा…’ रौब से यह कहते हुए साइकिल का हैंडल पकड़ कर अपना बस्ता छोटे भाई को पकड़ा देते फिर पीठ पर एक धौल मारते हुए कहते, ‘चल, फटाफट बैठ.’

छोटा साइकिल की आगे की राड पर मुसकराता हुआ बैठता. तीसरा जब तक आता उन की साइकिल चल पड़ी होती.

अगले दिन साइकिल पर बैठने का नंबर जब तीसरे भाई का आता तो दूसरे को पैदल ही स्कूल जाना पड़ता. इस तरह तीनों भाई भागतेदौड़ते कब स्कूल से कालिज पहुंच गए पता ही नहीं चला.

कितनी तेज रफ्तार होती है जिंदगी की. कालिज में आने के बाद उन की जिंदगी में बैथिनी क्या आई, वह अपने ही खून से अलग होते चले गए. बैथिनी का भाई सैमसन उन के साथ कालिज में पढ़ता था. ईसाई धर्म वाले इस परिवार का उन के ब्राह्मण परिवार से भला क्या और कैसा मेल हो सकता था. पढ़ाई पूरी होतेहोते तो बैथिनी के साथ उन की मुहब्बत की पींगें आसमान को छूने लगीं. सैमसन का नेवी में चुनाव हो गया तो उन का आर्मी में. वह जब कभी भी अपने प्रेम का खुलासा करना चाहते उन का ब्राह्मण होना आडे़ आ जाता और उन की बैथिनी इस ब्राह्मण घर की दहलीज नहीं लांघने पाती. पिताजी असमय ही काल का ग्रास बन गए और वह आर्मी की अपनी टे्रनिंग में व्यस्त हो गए.

फौज की नौकरी में वह जब कभी छुट्टी ले कर घर आते उन के लिए रिश्तों की लाइन लग जाती और वह बड़े मन से लड़कियां देखने जाते. कभी मां के साथ तो कभी बड़ी बहनों और उन के पतियों के साथ.

पिताजी ने काफी नाम कमाया था, सो बहुत से उच्चवर्गीय परिवार इस परिवार से रिश्ता जोड़ना चाहते थे पर उन के मन की बात किसे मालूम थी कि वह चुपचाप बैथिनी को अपनी हमसफर बना चुके थे. वह मां के जीतेजी उन की नजर में सुपुत्र बने रहे और कपटी आवरण ओढ़ लड़कियां देखने का नाटक करते रहे. वैसे भी पिताजी की मृत्यु के बाद घर में उन से कुछ पूछनेकहने वाला कौन था. 4 बड़ी बेटियों के बाद उन का जन्म हुआ था. उन के बाद 3 छोटे भाई और सब से छोटी एक और बहन भी थी. सो वह अपने ‘बड़ेपन’ को कैश करना बचपन से ही सीख गए थे. चारों बड़ी बहनों का विवाह तो पिताजी ही कर गए थे. अब बारी उन की थी, सो मां की चिंता आंसुओं में ढलती रहती पर न उन्हें कोई लड़की पसंद आनी थी और न ही आई.

छोटे भाइयों को भी अपने राम जैसे भाई का सच पता नहीं था, तभी तो भारतीय संस्कृति व परिवार की डोर थामे वे देख रहे थे कि उन का बड़ा भाई सेहरा बांधे तो उन का भी नंबर आए.

वह जानते थे कि जिस ईसाई लड़की को उन्होंने अपनी पत्नी बनाया है उस का राज एक न एक दिन खुल ही जाएगा, अत: कुछ इस तरह का इंतजाम कर लेना चाहिए कि घर में बड़े होने की प्रतिष्ठा भी बनी रहे और उन की इस गलती को ले कर घर व रिश्तेदारी में कोई बवाल भी न खड़ा हो.

इस के लिए उन्होंने पहले तो सेना की नौकरी से इस्तीफा दिया फिर बैथिनी को ले कर इंगलैंड पहुंच गए. हां, अपने विदेश जाने से पहले वह एक बड़ा काम कर गए थे. उन्होंने इस बीच, सब से छोटी बहन का ब्याह कर दिया था. अब 3 भाई कतार में थे कि बड़े भैया ब्याह करें तो उन का नंबर आए. 70 साल की मां की आंखों में बड़े के ब्याह को ले कर इतने सपने भरे थे कि वह पलकें झपकाना भी भूल जातीं. आखिर इंतजार का यह सिलसिला तब टूटा जब उन से छोटे ने अपना जीवनसाथी चुन कर विवाह कर लिया. मां को  इस प्रकार चूल्हा फूंकते हुए भी तो जवान बेटा नहीं देख सकता था. वह भी तब जब बड़ा भाई विदेश चला गया हो.

घर में आई पहली बहू को मां इतना लाड़दुलार कभी नहीं दे पाईं जितना उन्होंने बड़े की बहू के लिए अपनी झोली में समेट कर रखा था. उस बीच बड़े के गुपचुप ब्याह की खबर हवा में तैरती हुई मां के पास न जाने कितनी बार पहुंची लेकिन वह तो बड़े के खिलाफ कुछ भी सुनने के लिए तैयार नहीं थीं. बहू दिशा यह सोच कर कि वह अपना फर्ज पूरा कर रही है, अपने में मग्न रहने का प्रयास करती. मां से बडे़ की अच्छाई सुनतेसुनते जब उस के कान पक जाते तो उन की उम्र का लिहाज कर वह खुद ही वहां से हट जाती थी. संस्कारी, सुशिक्षित परिवार की होने के कारण दिशा बेकार की बातों पर चुप्पी साध लेना ही उचित समझती.

वह जब भी विदेश से आते, मां उन के विवाह का ही राग अलापती रहतीं, जबकि कई बार अनेक माध्यमों से उन के कान में बडे़ बेटे के विवाह की बात आ चुकी थी. बाकी सब चुप ही रहते. वही गरदन हिलाहिला कर मां के प्यार को कैश करते रहते. अपने मुंह से उन्होंने ब्याह की बात कभी न कही, न स्वीकारी और पिताजी के बाद तो साहस किस का था जो उन से कोई कुछ पूछाताछी करता. बडे़ भाई के रूप में वह महानता की ऐसी विभूति थे जिस में कोई बुराई हो ही नहीं सकती.

धीरेधीरे सब भाइयों ने विवाह कर लिया. कब तक कौन किस की बाट देखता? सब अपनीअपनी गृहस्थी में व्यस्तत्रस्त थे तो मां की आंखों में बड़े के ब्याह के सपने थे, जबकि वह विदेश में अपनी प्रेयसी पत्नी के साथ मस्त थे. वह जब भी हिंदुस्तान आते तो अकेले. दिखावा इतना करते कि हर भाई को यही लगता कि बडे़ भैया बस, केवल उसी के हैं पर भीतर से निर्विकार वे सब को नचा कर  फिर से उड़ जाते. जब भी उन के हिंदुस्तान आने की खबर आती, सब के मन उड़ने लगते, आंखें सपने बुनतीं, हर एक को लगता इस बार बड़े भैया जरूर उसे विदेश ले जाने की बात करेंगे. आखिर यही तो होता है. परिवार का एक सदस्य विदेश क्या जाता है मानो सब की लाटरी निकल आती है.

लेकिन उन्होंने किसी भी भाई की उंगली इस मजबूती से नहीं पकड़ी कि वह उन के साथ हवाई जहाज में बैठ सके. शायद उन्हें भीतर से कोई डर था कि घर के किसी भी सदस्य को स्पांसर करने से कहीं उन की पोलपट्टी न खुल जाए. गर्ज यह कि वह अपनी प्रिय बैथिनी के चारों ओर ताउम्र घूमते रहे. जब घूमतेघूमते थक जाते तो कुछ दिनों के लिए भारत चले आते थे.

मां की मौत के बाद ही वह बैथिनी को ले कर घर की दहलीज लांघ सके थे. पर अब फायदा भी क्या था? सब के घर अलगअलग थे, सब की अपनी सोच थी और सब के मन में विदेश का आकर्षण, जो बड़े भैया को देखते ही लाखों दीपों की शक्ल में उजास फैलाने लगता.

वर्ष गुजरते रहे और परिवार की दूसरी पीढ़ी की आंखों में विदेश ताऊ के पास जा कर पैसा कमाने के स्वप्न फीके पड़ते रहे. भारत में उन्होंने अपना ‘एन आर आई’ अकाउंट खुलवा रखा था सो जब भी आते बैंक में जा कर रौब झाड़ते. उन के व्यवहार से भी उन के डालर और पौंड्स की महक उठती रहती.

इंगलैंड में भी उन का अच्छाखासा बैंक बैलेंस था. औलाद कोई हुई नहीं. जब तक काम किया, उस के बाद एक उम्र तक आतेआते उन्हें देश की याद सताने लगी. बैथिनी को भारत नहीं आना था और उन्हें विदेश में नहीं रहना था, सो जीवन की गोधूलि बेला में वह एक बार भाई के बेटे के विवाह में विदेश से देश क्या आए वापस न जाने की ठान ली.

भाइयों के पेट में प्रश्नों का दर्द पीड़ा देने लगा. जिस औरत के साथ बड़े भाई ने पूरा जीवन बिता दिया उसे इस उम्र में कैसे छोड़ सकते हैं? अब वह भाइयों के पास ही रहने लगे थे और क्रमश: वह और बैथिनी एकदूसरे से दूर हो गए थे.

अब परिवार के युवा वर्ग की आशा निराशा में बदल चुकी थी. बस, अब तो यह था कि जो उन की सेवा करता रहे, उसी को लड्डू मिल जाए. पर वह तो जरूरत से ज्यादा ही समझदार थे.  अपने हाथों में भरे हुए लड्डुओं की खुशबू जहां रहते वहां हवा में बिखेर देते और जब तक लड्डू किसी को मिलें उन्हें समेट कर वह वहां से दूसरे भाई के पास चल देते.

अब कुछ सालों से उन का स्वास्थ्य साथ नहीं दे रहा था, सो उन्हें एक भाई के पास जम कर रहना ही पड़ा. शायद वह समझ नहीं पा रहे थे या मानने को तैयार नहीं थे कि उन्हें अपने शरीर को छोड़ कर जाना होगा. एक ‘एन आर आई’ की अकड़ में वह रहते… ‘एन आर आई’ होने के भ्रम में वह बरसों तक इसी खौफ में सांसें गिनते रहे कि कोई उन्हें लूट लेगा. बैथिनी को कितनीकितनी बार उन की बीमारी की खबर दी गई पर उस का रटारटाया उत्तर रहता, ‘उस को ही यहां पर आना होगा, मैं तो भारत में आने से रही.’ सो न वह गए और न बैथिनी आई.

आज वह पलंग पर लेटेलेटे अपने जीवन को गोभी के पत्तों की तरह उतरता देख रहे हैं. उन्हें आज परत दर परत खुलता जीवन जैसे नंगा हो कर खुले आकाश के नीचे बिखेर रहा है और उन के हाथ में पकड़े लड्डू चूरचूर हो रहे हैं पर उन की बंद मुट्ठी किसी को उस में से एक कण भी देने के लिए तैयार नहीं है.

यों तो हमसब ही शून्य में अपने ऊपर आरोपित तामझामों का लबादा ओढ़े खडे़ हैं, सब ही तो भीतर से नंगे, अपनेआप को झूठे आवरणों में छिपाए हुए हैं. कोई पाने के लालच में सराबोर तो कोई खोने के भय से भयभीत. जिंदगी के माने कुछ भी हो सकते हैं.

बडे़ भैया अब गए, तब गए, इसी ऊहापोह में कई दिन तक छटपटाते रहे पर उन की मुट्ठियां न खुलीं. ‘एन आर आई’ के तमगे को लिपटाए एक शख्स अकेलेपन के जंगल से गुजरता हुआ बंद मुट््ठियों को सीने से लगाए एक दिन अचानक ही शांत हो गया. फिर बैथिनी को बताया गया. फोन पर सुन कर बैथिनी बोली, ‘‘जितनी जल्दी हो सके मुझे डैथ सर्टिफिकेट भेज देना,’’ इतना कह कर फोन पटक दिया गया. भली मानस उस की मिट्टी तो सिमट जाने देती.

खैर, अब बडे़ भैया की अटैचियां खुलने की बारी थी. शायद उन में ही कहीं लड्डू छिपा कर रख गए हों. सभी भाई, भतीजे, बहुएं, बड़े भैया के सामान के चारों ओर उत्सुक दृष्टि व धड़कते दिल से गोल घेरे में बैठेखडे़ थे.

‘‘लो, यह रही वसीयत,’’ एक पैक लिफाफे को खोलते हुए छोटा भाई चिल्लाया.

‘‘लाओ, मुझे दो,’’ बीच वाले ने छोटे के हाथ से लगभग छीन कर पढ़ना शुरू किया…आखिर में लिखा था, ‘मेरी सारी चल और अचल संपत्ति मेरी पत्नी बैथिनी को मिलेगी और इंगलैंड व भारत का सब अकाउंट मैं पहले ही उस के नाम कर चुका हूं.’

अब सभी भाई व उन के बच्चे एक- दूसरे की ओर चोर नजरों से देख कर हारे हुए जुआरियों की भांति पस्त हो कर सोफों में धंस गए थे और शून्य में वहीं बडे़ भैया की ठहाकेदार हंसी गूंजने लगी थी.

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