आधी अधूरी प्रेम कहानी

लौक डाउन का दूसरा चरण देश में चल रहा था. नर्मदा नदी पुल पर बने जिस चैक पोस्ट पर मेरी ड्यूटी जिला प्रशासन ने लगाई थी,वह दो जिलों की सीमाओं को जोड़ती थी. मेरे साथ ड्यूटी पर पुलिस के हबलदार,एक पटवारी ,गाव का कोटवार और मैं निरीह मास्टर.आठ आठ घण्टे की तीन शिफ्ट में लगी ड्यूटी में हमारा समय सुबह 6 बजे से लेकर दोपहर के 2 बजे तक रहता.आठ घंटे की इस ड्यूटी में जिले से बाहर आने जाने वाले लोगों की एंट्री करनी पड़ती थी. यदि कोई कोरोना संक्रमण से प्रभावित क्षेत्रों से जिले की सीमा में प्रवेश करता,तो तहसीलदार को इसकी सूचना दी जाती और यैसे लोगों की जांच कर उन्हें कोरेन्टाईन में रखा जाता. म‌ई महिने की पहली तारीख को मैं ड्यूटी के लिए सुबह 6 बजे ककरा घाट पर बनी चैक पोस्ट पर पहुंच गया था.
नर्मदा नदी के किनारे एक खेत पर एक किसानअपनी मूंग की फसल में पानी दे रहा था . काम करते हुए उसकी नजर नदी की ओर ग‌ई ,तो उसे नदी में कोई भारी सी चीज बहती हुई किनारे की तरफ आती दिखाई दी. थोड़ा करीब जाने पर किसान ने एक दूसरे से लिपटे युवक युवतियों को देखा तो चैक पोस्ट की ओर जोर से आवाज लगाई
” मुंशी जी दौड़ कर आइए ,ये नदी में देखिए लड़का लड़की बहते हुये किनारे लग गये हैं”
मेरे साथ ड्यूटी कर रहे पुलिस थाना के हबलदार बैनीसिंह ने आवाज सुनकर पुल से नीचे की तरफ दौड़ लगा दी. सूचना मिलने पर पुलिस टीम भी मौक़े पर आ ग‌ई . आस पास के लोगों की भीड़ नदी किनारे इकट्ठी हो गई, मुझसे भी रह नहीं गया . तो मैं भी नदी के घाट परपहुंच गया . सबने मिलकर आपस में एक दूसरे से लिपटे दोनों लड़का-लड़की के शव को नदी से निकाल कर किनारे पर कर दिया . जैसे ही उनके चेहरे  पर मेरी नजर गई तो मैं दंग रह ग‌या.

दरअसल नर्मदा नदी में मिले ये दोनों शव दो साल पहले मेरे स्कूल में पढ़ने वाले सौरभ और नेहा के ही थे ,जो दिन पहले ही रात में घर से भागे थे. गाव में जवान लड़का, लड़की के भागने की खबर फैलते ही लोग तरह-तरह की बातें करने लगे थे. नेहा के मां वाप का तो‌‌ रो रोकर बुरा हाल था. गांव में जाति बिरादरी में उनकी इज्जत मुंह दिखाने लायक नहीं बची थी. हालांकि दो साल से चल रहे दोनों के प्रेम प्रसंग चर्चा का विषय बन गये थे.पुलिस लाशों के पंचनामा और अन्य कागजी कार्रवाई में जुटी थी और मेरे स्मृति पटल पर स्कूल के दिनों की यादें के एक एक पन्ने खुलते जा रहे थे.

सौरभ और नेहा स्कूल की पढ़ाई के दौरान ही एक दूसरे को पसंद करने लगे थे. सौरभ बारहवीं जमात में और नेहा दसवीं जमात में पढते थे. स्कूल में शनिवार के दिन बालसभा में जीवन कौशल शिक्षा के अंतर्गत किशोर अवस्था पर डिस्कशन चल रहा था. जब सौरभ ने विंदास अंदाज़ में बोलना शुरू किया तो सब देखते ही रह गये.  सौरभ ने जब बताया कि किशोर अवस्था में लड़के लड़कियों में जो शारीरिक परिवर्तन होते हैं, उसमें गुप्तांगों के आकार बढ़ने के साथ बाल उग आते हैं.लड़को के लिंग में कड़ा पन आने लगता हैऔर लड़कियों के वक्ष में उभार आने लगते हैं .लड़का-लड़की एक दूसरे के प्रति आकर्षित होने लगते हैं.  हमारे बुजुर्ग शिक्षक जो दसवीं जमात के विज्ञान का जनन वाला पाठ पढ़ाने में संकोच करते हैं ,वे बालसभा छोड़ कर चले गये. लड़को को सौरभ के द्वारा बताई जा रही बातों में मजा आ रहा था, तो क्लास की लड़कियों के शर्म के मारे सिर झुके जा रहे थे.  17साल की  नेहा को सौरभ की बातें सुनकर गुदगुदी हो रही थी, लेकिन जब उसका बोलने का नंबर आया तो उसने भी खडे होकर बता दिया-
“लड़कियों को भी किशोरावस्था में पीरियड आने लगते है”
सौरभ और नेहा के इन विंदास बोल ने उन्हें स्कूल का आयडियल बना दिया था.

सौरभ स्कूल की पढ़ाई के साथ ही सभी प्रकार के फंक्शन में भाग लेता और नेहा उसके अंदाज की दीवानी हो गई.स्कूल में पढ़ाई के दौरान नेहा और सौरभ एक दूसरे से मन ही मन प्यार कर बैठे. दोनों के बीच का यह प्यार इजहार के साथ जब परवान चढ़ा तो मेल मुलाकातें बढ़ने लगी और दोनों ने एक दूजे के साथ जीने मरने की कसमें खा ली . इसी साल सौरभ कालेज की पढ़ाई के लिए सागर चला गया तो नेहा का  स्कूल में मन ही नहीं लगता.मोबाइल फोन के जरिए सौरभ और नेहा  आपस में बात करने लगे. सौरभ जब भी गांव आता तो लुक छिपकर नेहा से मिलता और पढ़ाई पूरी होते ही शादी करने का बादा करता  .

कोरोना वायरस को फैलने से रोकने के लिये लगे लौक डाउन के तीन दिन पहले कालेज की छुट्टियां होने पर सौरभ सागर से गांव आ गया था . गांव वालों की नजरों से बचकर नेहा और सौरभ जब आपस में मिलते तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता. नेहा सौरभ से कहती-” अब तुम्हारे बिना गांव में मेरा दिल नहीं लगता”
सौरभ नेहा को अपनी बाहों में भरकर दिलासा देता,” सब्र करो नेहा , मेरी पढ़ाई खत्म होते ही हम शादी कर लेंगे”. नेहा सौरभ के बालों में हाथ घुमाते हुए कहती-
” लेकिन सौरभ घर वालों को कैसे मनायेंगे” .
सौरभ नेहा के माथे पर चुंबन देते हुए कहता-
“नेहा घर वालों को भी मना लेंगे,आखिर हम एक ही जाति बिरादरी के हैं”
सौरभ के सीने से लिपटते हुए नेहा कहती

” सौरभ यदि हमारी शादी नहीं हुई तो मैं तुम्हारे बिना जी नहीं पाऊंगी”.
सौरभ ने उसके ओंठों को चूमते हुए आश्वस्त किया
“नेहा हमार प्यार सच्चा है हम साथ जियेंगे, साथ मरेंगे”
साथ जीने मरने की कसमें खाने वाले नेहा और सौरभ को एक दिन आपस में बात करते नेहा के पिता  ने देख लिया तो परिवार में बबाल मच गया .घर वालों ने समाज में अपनी इज्जत का वास्ता देकर नेहा को डरा धमकाकर समझाने की कोशिश की. नेहा ने घर वालों से साफ कह दिया कि वह तो सौरभ से ही शादी करेंगी.सौरभ के दादाजी को जब इसका पता चला तो दादाजी आग बबूला हो गये.कहने लगे” आज के लडंका लड़कियों में शर्म नाम की कोई चीज ही नहीं है.ये शादी हरगिज नहीं होगी.जिस लड़की में लाज शरम ही नहीं है, उसे हम घर की बहू नहीं बना सकते.”
सौरभ को जब दादाजी के इस निर्णय का पता चला तो वह भी ‌तिलमिला कर‌रह गया.

अब घर परिवार का पहरा  नेहा और सौरभ पर गहराने लगा था. एक दूजे के प्यार में पागल दोनों प्रेमी घर पर रहकर तड़पने लगे .और एक रात उन्होंने बिना सोचे समझे घर से भाग जाने का फैसला कर लिया.  योजना के मुताबिक वे अपने घरों से रात के दो बजे  मोटर साइकिल पर सवार होकर गांव से निकल तो गये, लेकिन लौक डाउन में जगह-जगह पुलिस की निगरानी से इलाके से दूर न जा सके.

दूसरे दिन सुबह  जब नेहा घर के कमरे में नहीं मिली तो घर वालों के होश उड़ गए .  सौरभ के वारे में जानकारी मिलने पर पता चला कि वह भी घर से गायब है,तो उन्हें यह समझ आ गया कि दोनों एक साथ घर से गायब हुए हैं. गांव में समाज के मुखिया और पंचो ने बैठक कर यह तय किया कि पहले आस पास के रिश्तेदारों के यहां उनकी खोज बीन कर ली जाए , फिर पुलिस को सूचना दी जाए. शाम तक जब दोनों का कोई पता नहीं चला ,तो घर वालों ने पुलिस थाना मे गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज करा दी.

अपने वेटे की तलाश में जुटे सौरभ के पिता ने तीसरे दिन की सुबह अपने मोबाइल  पर आये सौरभ के मेसेज को देखा तो उन्हें कुछ आशा की किरण दिखाई दी. मैसेज बाक्स को खोलकर वे मैसेज पढ़ने लगे . मैसेज में सौरभ ने लिखा था
” मेरे प्यारे मम्मी पापा,
हमारी वजह से आपको बहुत दुःख हुआ है, इसलिए हम हमेशा के लिए आपसे दूर जा रहे हैं.   नर्मदा नदी के ककरा घाट के किनारे मोटर साइकिल ,और मोबाइल रखे हैं.इन्हे ले जाना अलविदा”.

तुम्हारा अभागा वेटा
सौरभ

उधर नेहा के भाई के मोबाइल के वाट्स ऐप पर नेहा ने गुड बाय का मैसेज  सेंड किया था. जब दोनों के घर वाले मैसेज में बताई गई जगह पर पहुंचे तो वहां  मोटरसाइकिल खड़ी थी . उसके पास दो मोबाइल, गमछा, चुनरी और जूते चप्पल रखे थे. पुलिस की मौजूदगी में वह सामान जप्त कर नदी के किनारे और नदी में भी तलाशी की गई, लेकिन नेहा और सौरभ का दूर दूर तक कोई पता नहीं था.
घर वाले और पुलिस टीम दोनों की तलाशी में रात दिन जुटे हुए थे ,तभी म‌ई की एक तारीख को सुबह सुबह दोनों के शव नदी में उतराते मिले थे.

” मास्साब यै लोग इंदौर से आ रहे हैं ,इनकी एंट्री करो” पटवारी की आवाज सुनकर मैने देखा एक कार चैक पोस्ट पर जांच के लिए खड़ी थी . यादों के सफर से मैं वापस आ गया था . झटपट कार का नंबर नोट कर मुंह और नाक पर मास्क चढाकर उसमें सवार लोगों के नाम पता नोट कर लिए थे . कार के जाते ही हाथों पर सेनेटाइजर छिड़क कर हाथों को अच्छी तरह रगड़ कर अपने काम में लग गया.
उधर पोस्ट मार्टम के बाद सौरभ और‌ नेहा के शव को गांव में अपने अपने घर लाया गया और उनके अंतिम संस्कार में पूरा गांव उमड़ पड़ा था.  अस्सी साल की उमर पार कर चुके सौरभ के दादाजी पश्चाताप की आग में जल रहे थे.अपनी झूठी शान की खातिर युवाओं के सपनों को चूर चूर कर जबरदस्ती समाज के कायदे कानून थोपने के अपने निर्णय से दुःख भी हो रहा था.

मुझे भी सौरभ और नेहा की इस अधूरी प्रेम कहानी ने दुखी कर दिया था.  स्कूल की बालसभा में बच्चों को किशोरावस्था में समझ और धैर्य से काम ‌लेने और सोच समझकर निर्णय लेने की शिक्षा देने के बावजूद भी जवानी के‌ जोश में होश खो देकर अपनी जीवन लीला खत्म करने वाले इस प्रेमी जोड़े के निर्णय पर वार अफसोस भी हो रहा था. मुझे लग रहा था कि  काम धंधा जमाकर पहले सौरभ अपने पैरों पर खड़ा होता  और‌ लौक डाउन खत्म होते ही नेहा के साथ  कानूनी तौर पर शादी करता तो शायद ये प्रेम कहानी आधी अधूरी न रहती.

बहू- जब दीपक के स्वार्थ को हराया उसकी पत्नी ने

बहू शब्द सुनते ही मन में सब से पहला विचार यही आता है कि बहू तो सदा पराई होती है. लेकिन मेरी शोभा भाभी से मिल कर हर व्यक्ति यही कहने लगता है कि बहू हो तो ऐसी. शोभा भाभी ने न केवल बहू का, बल्कि बेटे का भी फर्ज निभाया. 15 साल पहले जब उन्होंने दीपक भैया के साथ फेरे ले कर यह वादा किया था कि वे उन के परिवार का ध्यान रखेंगी व उन के सुखदुख में उन का साथ देंगी, तब से वह वचन उन्होंने सदैव निभाया.

जब बाबूजी दीपक भैया के लिए शोभा भाभी को पसंद कर के आए थे तब बूआजी ने कहा था, ‘‘बड़े शहर की लड़की है भैयाजी, बातें भी बड़ीबड़ी करेगी. हमारे छोटे शहर में रह नहीं पाएगी.’’

तब बाबूजी ने मुसकरा कर कहा था, ‘‘दीदी, मुझे लड़की की सादगी भा गई. देखना, वह हमारे परिवार में खुशीखुशी अपनी जगह बना लेगी.’’

बाबूजी की यह बात सच साबित हुई और शोभा भाभी कब हमारे परिवार का हिस्सा बन गईं, पता ही नहीं चला. भाभी हमारे परिवार की जान थीं. उन के बिना त्योहार, विवाह आदि फीके लगते थे. भैया सदैव काम में व्यस्त रहते थे, इसलिए घर के काम के साथसाथ घर के बाहर के काम जैसे बिजली का बिल जमा करना, बाबूजी की दवा आदि लाना सब भाभी ही किया करती थीं.

मां के देहांत के बाद उन्होंने मुझे कभी मां की कमी महसूस नहीं होने दी. इसी बीच राहुल के जन्म ने घर में खुशियों का माहौल बना दिया. सारा दिन बाबूजी उसी के साथ खेलते रहते. मेरे दोनों बच्चे अपनी मामी के इस नन्हे तोहफे से बेहद खुश थे. वे स्कूल से आते ही राहुल से मिलने की जिद करते थे. मैं जब भी अपने पति दिनेश के साथ अपने मायके जाती तो भाभी न दिन देखतीं न रात, बस सेवा में लग जातीं. इतना लाड़ तो मां भी नहीं करती थीं.

एक दिन बाबूजी का फोन आया और उन्होंने कहा, ‘‘शालिनी, दिनेश को ले कर फौरन चली आ बेटी, शोभा को तेरी जरूरत है.’’

मैं ने तुरंत दिनेश को दुकान से बुलवाया और हम दोनों घर के लिए निकल पड़े. मैं सारा रास्ता परेशान थी कि आखिर बाबूजी ने इस समय हमें क्यों बुलाया और भाभी को मेरी जरूरत है, ऐसा क्यों कहा  मन में सवाल ले कर जैसे ही घर पहुंची तो देखा कि बाहर टैक्सी खड़ी थी और दरवाजे पर 2 बड़े सूटकेस रखे थे. कुछ समझ नहीं आया कि क्या हो रहा है. अंदर जाते ही देखा कि बाबूजी परेशान बैठे थे और भाभी चुपचाप मूर्ति बन कर खड़ी थीं.

भैया गुस्से में आए और बोले, ‘‘उफ, तो अब अपनी वकालत करने के लिए शोभा ने आप लोगों को बुला लिया.’’

भैया के ये बोल दिल में तीर की तरह लगे. तभी दिनेश बोले, ‘‘क्या हुआ भैया आप सब इतने परेशान क्यों हैं ’’

इतना सुनते ही भाभी फूटफूट कर रोने लगीं.

भैया ने गुस्से में कहा, ‘‘कुछ नहीं दिनेश, मैं ने अपने जीवन में एक महत्त्वपूर्ण फैसला लिया है जिस से बाबूजी सहमत नहीं हैं. मैं विदेश जाना चाहता हूं, वहां बहुत अच्छी नौकरी मिल रही है, रहने को मकान व गाड़ी भी.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छी बात है भैया,’’ दिनेश ने कहा.

दिनेश कुछ और कह पाते, तभी भैया बोले, ‘‘मेरी बात अभी पूरी नहीं हुई दिनेश, मैं अब अपना जीवन अपनी पसंद से जीना चाहता हूं, अपनी पसंद के जीवनसाथी के साथ.’’

यह सुनते ही मैं और दिनेश हैरानी से भैया को देखने लगे. भैया ऐसा सोच भी कैसे सकते थे. भैया अपने दफ्तर में काम करने वाली नीला के साथ घर बसाना चाहते थे.

‘‘शोभा मेरी पसंद कभी थी ही नहीं. बाबूजी के डर के कारण मुझे यह विवाह करना पड़ा. परंतु कब तक मैं इन की खुशी के लिए अपनी इच्छाएं दबाता रहूंगा ’’

मैं बाबूजी के पैरों पर गिर कर रोती हुई बोली, ‘‘बाबूजी, आप भैया से कुछ कहते क्यों नहीं  इन से कहिए ऐसा न करें, रोकिए इन्हें बाबूजी, रोक लीजिए.’’

चारों ओर सन्नाटा छा गया, काफी सोच कर बाबूजी ने भैया से कहा, ‘‘दीपक, यह अच्छी बात है कि तुम जीवन में सफलता प्राप्त कर रहे हो पर अपनी सफलता में तुम शोभा को शामिल नहीं कर रहे हो, यह गलत है. मत भूलो कि तुम आज जहां हो वहां पहुंचने में शोभा ने तुम्हारा भरपूर साथ दिया. उस के प्यार और विश्वास का यह इनाम मत दो उसे, वह मर जाएगी,’’ कहते हुए बाबूजी की आंखों में आंसू आ गए.

भैया का जवाब तब भी वही था और वे हम सब को छोड़ कर अपनी अलग

दुनिया बसाने चले गए.

बाबूजी सदा यही कहते थे कि वक्त और दुनिया किसी के लिए नहीं रुकती, इस बात का आभास भैया के जाने के बाद हुआ. सगेसंबंधी कुछ दिन तक घर आते रहे दुख व्यक्त करने, फिर उन्होंने भी आना बंद कर दिया.

जैसेजैसे बात फैलती गई वैसेवैसे लोगों का व्यवहार हमारे प्रति बदलता गया. फिर एक दिन बूआजी आईं और जैसे ही भाभी उन के पांव छूने लगीं वैसे ही उन्होंने चिल्ला कर कहा, ‘‘हट बेशर्म, अब आशीर्वाद ले कर क्या करेगी  हमारा बेटा तो तेरी वजह से हमें छोड़ कर चला गया. बूढ़े बाप का सहारा छीन कर चैन नहीं मिला तुझे  अब क्या जान लेगी हमारी  मैं तो कहती हूं भैया इसे इस के मायके भिजवा दो, दीपक वापस चला आएगा.’’

बाबूजी तुरंत बोले, ‘‘बस दीदी, बहुत हुआ. अब मैं एक भी शब्द नहीं सुनूंगा. शोभा इस घर की बहू नहीं, बेटी है. दीपक हमें इस की वजह से नहीं अपने स्वार्थ के लिए छोड़ कर गया है. मैं इसे कहीं नहीं भेजूंगा, यह मेरी बेटी है और मेरे पास ही रहेगी.’’

बूआजी ने फिर कहा, ‘‘कहना बहुत आसान है भैयाजी, पर जवान बहू और छोटे से पोते को कब तक अपने पास रखोगे  आप तो कुछ कमाते भी नहीं, फिर इन्हें कैसे पालोगे  मेरी सलाह मानो इन दोनों को वापस भिजवा दो. क्या पता शोभा में ऐसा क्या दोष है, जो दीपक इसे अपने साथ रखना ही नहीं चाहता.’’

यह सुनते ही बाबूजी को गुस्सा आ गया और उन्होंने बूआजी को अपने घर से चले जाने को कहा. बूआजी तो चली गईं पर उन की कही बात बाबूजी को चैन से बैठने नहीं दे रही थी. उन्होंने भाभी को अपने पास बैठाया और कहा, ‘‘बस शोभा, अब रो कर अपने आने वाले जीवन को नहीं जी सकतीं. तुझे बहादुर बनना पड़ेगा बेटा. अपने लिए, अपने बच्चे के लिए तुझे इस समाज से लड़ना पड़ेगा.

तेरी कोई गलती नहीं है. दीपक के हिस्से तेरी जैसी सुशील लड़की का प्यार नहीं है.

तू चिंता न कर बेटा, मैं हूं न तेरे साथ और हमेशा रहूंगा.’’

वक्त के साथ भाभी ने अपनेआप को संभाल लिया. उन्होंने कालेज में नौकरी कर ली और शाम को घर पर भी बच्चों को पढ़ाने लगीं. समाज की उंगलियां भाभी पर उठती रहीं, पर उन्होंने हौसला नहीं छोड़ा. राहुल को स्कूल में डालते वक्त थोड़ी परेशानी हुई पर भाभी ने सब कुछ संभालते हुए सारे घर की जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठा ली.

भाभी ने यह साबित कर दिया कि अगर औरत ठान ले तो वह अकेले पूरे समाज से लड़ सकती है. इस बीच भैया की कोई खबर नहीं आई. उन्होंने कभी अपने परिवार की खोजखबर नहीं ली. सालों बीत गए भाभी अकेली परिवार चलाती रहीं, पर भैया की ओर से कोई मदद नहीं आई.

एक दिन भाभी का कालेज से फोन आया, ‘‘दीदी, घर पर ही हो न शाम को

आप से कुछ बातें करनी हैं.’’

‘‘हांहां भाभी, मैं घर पर ही हूं आप आ जाओ.’’

शाम 6 बजे भाभी मेरे घर पहुंचीं. थोड़ी परेशान लग रही थीं. चाय पीने के बाद मैं ने उन से पूछा, ‘‘क्या बात है भाभी कुछ परेशान लग रही हो  घर पर सब ठीक है ’’

थोड़ा हिचकते हुए भाभी बोलीं, ‘‘दीदी, आप के भैया का खत आया है.’’

मैं अपने कानों पर विश्वास नहीं कर पा रही थी. बोली, ‘‘इतने सालों बाद याद आई उन को अपने परिवार की या फिर नई बीवी ने बाहर निकाल दिया उन को ’’

‘‘ऐसा न कहो दीदी, आखिर वे आप के भाई हैं.’’

भाभी की बात सुन कर एहसास हुआ कि आज भी भाभी के दिल के किसी कोने में भैया हैं. मैं ने आगे बढ़ कर पूछा, ‘‘भाभी, क्या लिखा है भैया ने ’’

भाभी थोड़ा सोच कर बोलीं, ‘‘दीदी, वे चाहते हैं कि बाबूजी मकान बेच कर उन के साथ चल कर विदेश में रहें.’’

‘‘क्या कहा  बाबूजी मकान बेच दें  भाभी, बाबूजी ऐसा कभी नहीं करेंगे और अगर वे ऐसा करना भी चाहेंगे तो मैं उन्हें कभी ऐसा करने नहीं दूंगी. भाभी, आप जवाब दे दीजिए कि ऐसा कभी नहीं होगा. वह मकान बाबूजी के लिए सब कुछ है, मैं उसे कभी बिकने नहीं दूंगी. वह मकान आप का और राहुल का सहारा है. भैया को एहसास है कि अगर वह मकान नहीं होगा तो आप लोग कहां जाएंगे  आप के बारे में तो नहीं पर राहुल के बारे में तो सोचते. आखिर वह उन का बेटा है.’’

मेरी बातें सुन कर भाभी चुप हो गईं और गंभीरता से कुछ सोचने लगीं. उन्होंने यह बात अभी बाबूजी से छिपा रखी थी. हमें समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या करें, तभी दिनेश आ गए और हमें परेशान देख कर सारी बात पूछी. बात सुन कर दिनेश ने भाभी से कहा, ‘‘भाभी, आप को यह बात बाबूजी को बता देनी चाहिए. दीपक भैया के इरादे कुछ ठीक नहीं लग रहे.’’

यह सुनते ही भाभी डर गईं. फिर हम तीनों तुरंत घर के लिए निकल पड़े. घर जा कर

भाभी ने सारी बात विस्तार से बाबूजी को बता दी. बाबूजी कुछ विचार करने लगे. उन के चेहरे से लग रहा था कि भैया ऐसा करेंगे उन्हें इस बात की उम्मीद थी. उन्होंने दिनेश से पूछा, ‘‘दिनेश, तुम बताओ कि हमें क्या करना चाहिए ’’

दिनेश ने कहा, ‘‘दीपक आप के बेटे हैं तो जाहिर सी बात है कि इस मकान पर उन का अधिकार बनता है. पर यदि आप अपने रहते यह मकान भाभी या राहुल के नाम कर देते हैं तो फिर भैया चाह कर भी कुछ नहीं कर सकेंगे.’’

दिनेश की यह बात सुन कर बाबूजी ने तुरंत फैसला ले लिया कि वे अपना मकान भाभी के नाम कर देंगे. मैं ने बाबूजी के इस फैसले को मंजूरी दे दी और उन्हें विश्वास दिलाया कि वे सही कर रहे हैं.

ठीक 10 दिन बाद भैया घर आ पहुंचे और आ कर अपना हक मांगने लगे. भाभी पर इलजाम लगाने लगे कि उन्होंने बाबूजी के बुढ़ापे का फायदा उठाया है और धोखे से मकान अपने नाम करवा लिया है.

भैया की कड़वी बातें सुन कर बाबूजी को गुस्सा आ गया. वे भैया को थप्पड़ मारते हुए बोले, ‘‘नालायक कोई तो अच्छा काम किया होता. शोभा को छोड़ कर तू ने पहली गलती की और अब इतनी घटिया बात कहते हुए तुझे जरा सी भी लज्जा नहीं आई. उस ने मेरा फायदा नहीं उठाया, बल्कि मुझे सहारा दिया. चाहती तो वह भी मुझे छोड़ कर जा सकती

थी, अपनी अलग दुनिया बसा सकती थी पर उस ने वे जिम्मेदारियां निभाईं जो तेरी थीं.

तुझे अपना बेटा कहते हुए मुझे अफसोस होता है.’’

भाभी तभी बीच में बोलीं, ‘‘दीपक, आप बाबूजी को और दुख मत दीजिए, हम सब की भलाई इसी में है कि आप यहां से चले जाएं.’’

भाभी का आत्मविश्वास देख कर भैया दंग रह गए और चुपचाप लौट गए. भाभी घर की बहू से अब हमारे घर का बेटा बन गई थीं.

विकराल शून्य- निशा की कौनसी बीमारी से बेखबर था सोम?

‘‘कैसी विडंबना है, हम पराए लोगों को तो धन्यवाद कहते हैं लेकिन उन को नहीं, जो करीब होते हैं, मांबाप, भाईबहन, पत्नी या पति,’’ अजय ने कहा.

‘‘उस की जरूरत भी क्या है? अपनों में इन औपचारिक शब्दों का क्या मतलब? अपनों में धन्यवाद की तलवार अपनत्व को काटती है, पराया बना देती है,’’ मैं ने अजय को जवाब दिया.

‘‘यहीं तो हम भूल कर जाते हैं, सोम. अपनों के बीच भी एक बारीक सी रेखा होती है, जिस के पार नहीं जाना चाहिए, न किसी को आने देना चाहिए. माना अपना इनसान जो भी हमारे लिए करता है वह हमारे अधिकार या उस के कर्तव्य की श्रेणी में आता है, फिर भी उस ने किया तो है न. जो मांबाप ने कर दिया उसी को अगर वे न करते या न कर पाते तो सोचो हमारा क्या होता?’’ अजय बोला.

अजय की गहरी बातें वास्तव में अपने में बहुत कुछ समाए रखती हैं. जब भी उस के पास बैठता हूं, बहुत कुछ नया ही सीख कर जाता हूं.

बड़े गौर से मैं अजय की बातें सुनता था जो अजय कहता था, गलत या फिजूल उस में तो कुछ भी नहीं होता था. सत्य है हमारा तो रोमरोम किसी न किसी का आभारी है. अकेला इनसान संपूर्ण कहां है? क्या पहचान है एक अकेले इनसान की? जन्म से ले कर बुढ़ापे तक मनुष्य किसी न किसी पर आश्रित ही तो रहता है न.

‘‘मेरी पत्नी सुबह से शाम तक बहुत कुछ करती है मेरे लिए, सुबह की चाय से ले कर रात के खाने तक, मेरे कपड़े, मेरा कमरा, मेरी व्यक्तिगत चीजों का खयाल, यहां तक कि मेरा मूड जरा सा भी खराब हो तो बारबार मनाना या किसी तरह मुझे हंसाना,’’ मैं अजय से बोला.

‘‘वही सब अगर वह न करे तो जीवन कैसा हो जाए, समझ सकते हो न. मैं ऐसे कई लोगों को जानता हूं जिन की बीवियां तिनका भी उठा कर इधरउधर नहीं करतीं. पति ही घर भी संभालता है और दफ्तर भी. पत्नी को धन्यवाद कहने में कैसी शर्म, यदि उस से कुछ मिला है तुम्हें? इस से आपस का स्नेह, आपस की ऊष्मा बढ़ती है, घटती नहीं,’’ अजय ने कहा.

सच ही कहा अजय ने. इनसान इतना तो समझदार है ही कि बेमन से किया कोई भी प्रयास झट से पहचान जाता है. हम भी तो पहचान जाते हैं न, जब कोई भावहीन शब्द हम पर बरसाता है.

उस दिन देर तक हम साथसाथ बैठे रहे. अपनी जीवनशैली और उस के तामझाम को निभाने के लिए ही मैं इस पार्टी में आया था, जहां सहसा अजय से मुलाकात हो गई थी. हमारी कंपनी के ही एक डाइरेक्टर ने पार्टी दी थी, जिस में मैं हाजिर हुए बिना नहीं रह सकता था. इसे व्यावसायिक मजबूरी कह लो या तहजीब का तकाजा, निभाना जरूरी था.

12 घंटे की नौकरी और छुट्टी पर भी कोई न कोई आयोजन, कैसे घर के लिए जरा सा समय निकालूं? निशा पहले तो शिकायत करती रही लेकिन अब उस ने कुछ भी कहनासुनना छोड़ दिया है. समूल सुखसुविधाओं के बावजूद वह खुश नजर नहीं आती. सुबह की चाय और रात की रोटी बस यही उस की जिम्मेदारी है. मेरा नाश्ता और दोपहर का खाना कंपनी के मैस में ही होता है. आखिर क्या कमी है हमारे घर में जो वह खुश नजर नहीं आती? दिन भर वह अकेली होती है, न कोई रोकटोक, न सासससुर का मुंह देखना, पूरी आजादी है निशा को. फिर भी हमारे बीच कुछ है, जो कम होता जा रहा है. कुछ ऐसा है जो पहले था अब नहीं है.

सुबह की चाय और अखबार वह मेरे पास छोड़ जाती है. जब नहा कर आता हूं, मेरे कपड़े पलंग पर मिलते हैं. उस के बाद यंत्रवत सा मेरा तैयार होना और चले जाना. जातेजाते एक मशीनी सा हाथ हिला कर बायबाय कर देना.

मैं पिछले कुछ समय से महसूस कर रहा हूं, अब निशा चुप रहती है. हां, कभी माथे पर शिकन हो तो पूछ लेती है, ‘‘क्या हुआ? क्या आफिस में कोई समस्या है?’’

‘‘नहीं,’’ जरा सा उत्तर होता है मेरा.

आज शनिवार की छुट्टी थी लेकिन पार्टी थी, सो यहां आना पड़ा. निशा साथ नहीं आती, उसे पसंद नहीं. एक छत के नीचे रहते हैं हम, फिर भी लगता है कोसों की दूरी है.

मैं पार्टी से लौट कर घर आया, चाबी लगा कर घर खोला. चुप्पी थी घर में. शायद निशा कहीं गई होगी. पानी अपने हाथ से पीना खला. चाय की इच्छा नहीं थी. बीच वाले कमरे में टीवी देखने बैठ गया. नजर बारबार मुख्य

द्वार की ओर उठने लगी. कहां रह गई यह लड़की? चिंता होने लगी मुझे. उठ कर बैडरूम में आया और निशा की अलमारी खोली. ऊपर वाले खाने में कुछ उपहार पड़े थे. जिज्ञासावश उठा लिए. समयसमय पर मैं ने ही उसे दिए थे. मेरा ही नाम लिखा था उन पर. स्तब्ध रह गया मैं. निशा ने उन्हें खोला तक नहीं था. महंगी साडि़यां, कुछ गहने. हजारों का सामान अनछुआ पड़ा था. क्षण भर को तो अपना अपमान लगा यह मुझे, लेकिन दूसरे ही क्षण लगा मेरी बेरुखी का इस से बड़ा प्रमाण और क्या होगा?

उपहार देने के बाद मैं ने उन्हें कब याद रखा. साड़ी सिर्फ दुकान में देखी थी, उसे निशा के तन पर देखना याद ही नहीं रहा. कान के बुंदे और गले का जड़ाऊ हार मैं ने निशा के तन पर सजा देखने की इच्छा कब जाहिर की? वक्त ही नहीं दे पाता हूं पत्नी को, जिस की भरपाई गहनों और कपड़ों से करता रहा था. जरा भी प्यार समाया होता इस सामान में तो मेरे मन में भी सजीसंवरी निशा देखने की इच्छा होती. मेरा प्यार और स्नेह ऊष्मारहित है. तभी तो न मुझे याद रहा और न ही निशा ने इन्हें खोल कर देखने की इच्छा महसूस की होगी. सब से पुराना तोहफा 4 महीनों पुराना है, जो निशा के जन्मदिन का उपहार था. मतलब यह कि पिछले 4 महीनों से यह सामान लावारिस की तरह उस की अलमारी में पड़ा है, जिसे खोल कर देखने तक की जरूरत निशा ने नहीं समझी.

यह तो मुझे समझ में आ गया कि निशा को गहनों और कपड़ों की भूख नहीं है और न ही वह मुझ से कोई उम्मीद करती है.

2 साल का वैवाहिक जीवन और साथ बिताया समय इतना कम, इतना गिनाचुना कि कुछ भी संजो नहीं पा रहा हूं, जिसे याद कर मैं यह विश्वास कर पाऊं कि हमारा वैवाहिक जीवन सुखमय है.

निशा की पूरी अलमारी देखी मैं ने. लाकर में वे सभी रुपए भी वैसे के वैसे ही पड़े थे. उस ने उन्हें भी हाथ नहीं लगाया था.

शाम के 6 बज गए. निशा लौटी नहीं थी. 3 घंटे से मैं घर पर बैठा उस का इंतजार कर रहा हूं. कहां ढूंढू उसे? इस अजनबी शहर में उस की जानपहचान भी तो कहीं नहीं है. कुछ समय पहले ही तो इस शहर में ट्रांसफर हुआ है.

करीब 7 बजे बाहर का दरवाजा खुला.

बैडरूम के दरवाजे की ओट से ही मैं ने देखा, निशा ही थी. साथ था कोई पुरुष, जो सहारा दे रहा था निशा को.

‘‘बस, अब आप आराम कीजिए,’’

सोफे पर बैठा कर उस ने कुछ दवाइयां मेज पर रख दी थीं. वह दरवाजा बंद कर के चला गया और मैं जड़वत सा वहीं खड़ा रह गया. तो क्या निशा बीमार है? इतनी बीमार कि कोई पड़ोसी उस की सहायता कर रहा है और मुझे पता तक नहीं. शर्म आने लगी मुझे.

आंखें बंद कर चुपचाप सोफे से टेक लगाए बैठी थी निशा. उस की सांस बहुत तेज चल रही थी. मानो कहीं से भाग कर आई हो. मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी पास जाने की. शब्द कहां हैं मेरे पास जिन से बात शुरू करूंगा. पैसों का ढेर लगाता रहा निशा के सामने, लेकिन यह नहीं समझ पाया, रुपयापैसा किसी रिश्ते की जगह नहीं ले सकता.

‘‘क्या हुआ निशा?’’ पास आ कर मैं ने उस के माथे पर हाथ रखा. तेज बुखार था, जिस वजह से उस की आंखों से पानी भी बह रहा था. जबान खिंच गई मेरी. आत्मग्लानि का बोझ इतना था कि लग रहा था कि आजीवन आंखें न उठा पाऊंगा.

किसी गहरी खाई में जैसे मेरी चेतना धंसने लगी. अच्छी नौकरी, अच्छी तनख्वाह के साथ मेरा घर, मेरी गृहस्थी कहीं उजड़ने तो नहीं लगी? हंसतीखेलती यह लड़की ऐसी कब थी, जब मेरे साथ नहीं जुड़ी थी. मेरी ही इच्छा थी कि मुझे नौकरी वाली लड़की नहीं चाहिए. वैसी हो जो घर संभाले और मुझे संभाले. इस ने तो मुझे संभाला लेकिन क्या मैं इसे संभाल पाया?

‘‘आप कब आए?’’ कमजोर स्वर ने मुझे चौंकाया. अधखुली आंखों से मुझे देख रही थी निशा.

निशा का हाथ कस कर अपने हाथ में पकड़ लिया मैं ने. क्या उत्तर दूं, मैं कब आया.

‘‘चाय पिएंगे?’’ उठने का प्रयास किया निशा ने.

‘‘कब से बीमार हो?’’ मैं ने उठने से उसे रोक लिया.

‘‘कुछ दिन हो गए.’’

‘‘तुम्हारी सांस क्यों फूल रही है?’’

‘‘ऐसी हालत में कुछ औरतों को सांस की तकलीफ हो जाती है.’’

‘‘कैसी हालत?’’ मेरा प्रश्न विचित्र सा भाव ले आया निशा के चेहरे पर. वह मुसकराने लगी. ऐसी मुसकराहट, जो मुझे आरपार तक चीरती गई.

फिर रो पड़ी निशा. रोना और मुसकराना साथसाथ ऐसा दयनीय चित्र प्रस्तुत करने लगा मानो निशा पूर्णत: हार गई हो. जीवन में कुछ भी शेष नहीं बचा. डर लगने लगा मुझे. हांफतेहांफते निशा का रोना और हंसना ऐसा चित्र उभार रहा था मानो उसे अब मुझ से

कोई भी आशा नहीं रही. अपना हाथ खींच लिया निशा ने.

तभी द्वार घंटी बजी और विषय वहीं थम गया. मैं ही दरवाजा खोलने गया. सामने वही पुरुष खड़ा था, मेरी तरफ कुछ कागज बढ़ाता हुआ.

‘‘अच्छा हुआ, आप आ गए. आप की पत्नी की रिपोर्ट्स मेरी गाड़ी में ही छूट गई थीं. दवा समय से देते रहिए. इन की सांस बहुत फूल रही थी इसलिए मैं ही छोड़ने चला आया था.’’

अवाक था मैं. निशा को 4 महीने का गर्भ था और मुझे पता तक नहीं. कुछ घर छोड़ कर एक क्लीनिक था, जिस के डाक्टर साहब मेरे सामने खड़े थे. उन्होंने 1-2 कुशल स्त्री विशेषज्ञ डाक्टरों का पता मुझे दिया और जल्दी ही जरूरी टैस्ट करवा लेने को कह कर चले गए. जमीन निकल गई मेरे पैरों तले से. कैसा नाता है मेरा निशा से? वह कुछ सुनाना चाहती है तो मेरे पास सुनने का समय नहीं. तो फिर शादी क्यों की मैं ने, अगर पत्नी का सुखदुख भी नहीं पूछ सकता मैं.

चुपचाप आ कर बैठ गया मैं निशा के पास. मैं पिता बनने जा रहा हूं, यह सत्य अभीअभी पता चला है मुझे और मैं खुश भी नहीं हो पा रहा. कैसे आंखें मिलाऊं मैं निशा से? पिछले कुछ महीनों से कंपनी में इतना ज्यादा काम है कि सांस भी लेने की फुरसत नहीं है मुझे. निशा दिन प्रतिदिन कमजोर होती जा रही थी और मैं ने एक बार भी पूछा नहीं, उसे क्या तकलीफ है.

निशा के विरोध के बावजूद मैं उसे उठा कर बिस्तर पर ले आया. देर तक ठंडे पानी की पट्टियां रखता रहा. करीब आधी रात को उस का बुखार उतरा. दूध और डबलरोटी ही खा कर गुजारा करना पड़ा उस रात, जबकि यह सत्य है, 2 साल के साथ में निशा ने कभी मुझे अच्छा खाना खिलाए बिना नहीं सुलाया.

सुबह मैं उठा तो निशा रसोई में व्यस्त थी. मैं लपक कर उस के पास गया. कुछ कह पाता, तब तक तटस्थ सी निशा ने सामने इशारा किया. चाय ट्रे में सजी थी.

‘‘यह क्या कर रही हो तुम? तुम तो बीमार हो,’’ मैं ने कहा.

‘‘बीमार तो मैं पिछले कई दिनों से हूं. आज नई बात क्या है?’’

‘‘देखो निशा, तुम ने एक बार भी मुझे नहीं बताया,’’ मैं ने कहा.

‘‘बताया था मैं ने लेकिन आप ने सुना ही नहीं. सोम, आप ने कहा था, मुझे इस घर में रोटीकपड़ा मिलता है न, क्या कमी है, जो बहाने बना कर आप को घर पर रोकना चाहती हूं. आप इतनी बड़ी कंपनी में काम करते हैं. क्या आप को और कोई काम नहीं है, जो हर पल पत्नी के बिस्तर में घुसे रहें? क्या मुझे आप की जरूरत सिर्फ बिस्तर में होती है? क्या मेरी वासना इतनी तीव्र है कि मैं चाहती हूं, आप दिनरात मेरे साथ वही सब करते रहें?’’ निशा बोलती चली गई.

काटो तो खून नहीं रहा मेरे शरीर में.

‘‘आप मुझे रोटीकपड़ा देते हैं, यह सच

है. लेकिन बदले में इतना बड़ा अपमान भी करें, क्या जरूरी है? सोम, आप भूल गए, पत्नी का भी मानसम्मान होता है. रोटीकपड़ा तो मेरे पिता के घर पर भी मिलता था मुझे. 2 रोटी तो कमा भी सकती हूं. क्या शादी का मतलब यह होता है कि पति को पत्नी का अपमान करने का अधिकार मिल जाता है?’’ निशा बिफर पड़ी.

याद आया, ऐसा ही हुआ था एक दिन. मैं ने ऐसा ही कहा था. इतनी ओछी बात पता नहीं कैसे मेरे मुंह से निकल गई थी. सच है, उस के बाद निशा ने मुझ से कुछ भी कहना छोड़ दिया था. जिस खबर पर मुझे खुश होना चाहिए था उसे बिना सुने ही मैं ने इतना सब कह दिया था, जो एक पत्नी की गरिमा पर प्रहार का ही काम करता.

निशा को बांहों में ले कर मैं रो पड़ा. कितनी कमजोर हो गई है निशा, मैं देख ही नहीं पाया. कैसे माफी मांगूं अपने कहे की. लाखों रुपए हर महीने कमाने वाला मैं इतना कंगाल हूं कि न अपने बच्चे के आने की खबर का स्वागत कर पाया और न ही शब्द ही जुटा पा रहा हूं कि पत्नी से माफी मांग सकूं.

पत्नी के मन में पति के लिए एक सम्मानजनक स्थान होता है, जिसे शायद मैं खो चुका हूं. लाख हवा में उड़ता रहूं, आना तो जमीन पर ही था मुझे, जहां निशा ने सदा शीतल छाया सा सुख दिया है मुझे.

मेरे हाथ हटा दिए निशा ने. उस के होंठों पर एक कड़वी सी मुसकराहट थी.

‘‘ऐसा क्या हुआ है मुझे, जो आप को रोना आ गया. आप रोटीकपड़ा देते हैं मुझे, बदले में संतान पाना तो आप का अधिकार है न. डाक्टर ने कहा है, कुछ औरतों को गर्भावस्था में सांस की तकलीफ हो जाती है. ठीक हो जाऊंगी मैं. आप की और घर की देखभाल में कोई कमी नहीं आएगी,’’ निशा ने कहा.

‘‘निशा, मुझ से गलती हो गई. मुझे माफ कर दो. पता नहीं क्यों मेरे मुंह से

वह सब निकल गया,’’ मैं निशा के आगे गिड़गिड़ाया.

‘‘सच ही आया होगा न जबान पर, इस में माफी मांगने की क्या जरूरत है? मैं जैसी हूं वैसी ही बताया आप ने.’’

‘‘तुम वैसी नहीं हो, निशा. तुम तो संसार की सब से अच्छी पत्नी हो. तुम्हारे बिना मेरा जीना मुश्किल हो जाएगा. अगर मैं अपनी कंपनी का सब से अच्छा अधिकारी हूं तो उस के पीछे तुम्हारी ही मेहनत और देखभाल है. यह सच है, मैं तुम्हें समय नहीं दे पाता लेकिन यह सच नहीं कि मैं तुम से प्यार नहीं करता. तुम्हें गहनों, कपड़ों की चाह होती तो मेरे दिए तोहफे यों ही नहीं पड़े होते अलमारी में. तुम मुझ से सिर्फ जरा सा समय, जरा सा प्यार चाहती हो, जो मैं नहीं दे पाता. मैं क्या करूं, निशा, शायद आज संसार का सब से बड़ा कंगाल भी मैं ही हूं, जिस की पत्नी खाली हाथ है, कुछ नहीं है जिस के पास. क्षमा कर दो मुझे. मैं तुम्हारी देखभाल नहीं कर पाया.’’ मैं रोने लगा था.

मुझे रोते देख कर निशा भी रोने लगी थी. रोने से उस की सांस फूलने लगी थी. निशा को कस कर छाती से लगा लिया मैं ने. इस पल निशा ने विरोध नहीं किया. मैं जानता हूं, मेरी निशा मुझ से ज्यादा नाराज नहीं रह पाएगी. मुझे अपना घर बचाने के लिए कुछ करना होगा. घर और बाहर में एक उचित तालमेल बनाना होगा, हर रिश्ते को उचित सम्मान देना होगा, वरना वह दिन दूर नहीं जब मेरे बैंक खातों में तो हर पल शून्य का इजाफा होगा ही, वहीं शून्य अपने विकराल रूप में मेरे जीवन में भी स्थापित हो जाएगा.

दुनिया गोल है

‘‘हैलो…मां, कैसी हो?’’

‘‘अरे कुछ न पूछ बेटी, 4 दिनों से कांताबाई नहीं आ रही है. काम करकर के कमर टेढ़ी हो गई है. घुटनों का दर्द भी उभर आया है.’’

‘‘जितना जरूरी है उतना ही किया करो, मां.’’

‘‘उतना ही करती हूं, बेटी. खैर, छोड़, तू तो ठीक है?’’

‘‘हां मां. परसों विभा मौसी की पोती की मंगनी थी, शगुन में खूब अच्छा सोने का सैट आया है. मौसी ने भी बहुत अच्छा लेनादेना किया है. 2 दिनों से बारिश का मौसम हो रहा है. सोच रही हूं आज दालबाटी बना लूं.’’

‘‘भैया से बात हुई? उन का आने का कोई प्रोग्राम है?’’

‘‘हां, पिछले हफ्ते फोन आया था. अभी तो नहीं आ रहे.’’

‘‘रीनू से बात होती होगी, कैसी है वह? मैं तो सोचती ही रह जाती हूं कि उस से बात करूंगी पर फिर तुझ से ही समाचार मिल जाते हैं.’’

‘‘वह ठीक है, मां? अच्छा अब फोन रखती हूं, कालेज के लिए तैयार होना है.’’ मां से हमेशा मेरी इसी तरह की बातें होती हैं. ज्यादातर वक्त तो वे ही बोलती हैं क्योंकि मेरे पास तो बताने के लिए कुछ होता नहीं है. पहले फोन बंद करते वक्त अकसर मेरे दिमाग में यही बात उठती थी कि मां की दुनिया कितनी छोटी है. खानापीना, लेनदेन, बाई, रिश्तेदार और पड़ोसी बस, इन्हीं के इर्दगिर्द उन की दुनिया घूमती रहती है. देश में कितना कुछ हो रहा है. कितने स्ंिटग औपरेशन हो रहे है, चुनावों में कैसीकैसी पैंतरेबाजी चल रही हैं, घरेलू हिंसा, यौनशोषण कितना बढ़ गया है, इन सब से उन्हें कोई सरोकार नहीं है. जबकि यहां पत्रपत्रिकाएं, जर्नल्स सबकुछ पढ़ कर हर वक्त खुद को अपडेट रखना पड़ता है. एक तो मेरा विषय राजनीति विज्ञान है जिस में विद्यार्थियों को हर समय नवीनतम तथ्य उपलब्ध करवाने होते हैं, दूसरे, बुद्धिजीवियों की मीटिंग में कब किस विषय पर बहस छिड़ जाए, इस वजह से भी खुद को हमेशा अपडेट रखना पड़ता है और जब इंसान बड़े मुद्दों में उलझ जाता है तो बाकी सबकुछ उसे तुच्छ, नगण्य लगने लगता है.

मैं मां की बातों को भुला कर फिर से अपनी दुनिया में खो जाती. रीनू से बात किए वाकई काफी वक्त बीत गया है. वह भी तो अपने काम में बहुत व्यस्त रहती है. दूसरे, अमेरिका और इंडिया में टाइमिंग का इतना अंतर है कि जब मैं फ्री होती हूं, बात करने का मूड होता है तब वह सो रही होती है या किसी जरूरी काम में फंसी होती है. पर आज रात मैं उस से जरूर बात करूंगी, उस की छुट्टी भी है. यही सोच कर मैं ने उस दिन उसे रात में स्काइप पर कौल किया था. काफी दिनों बाद बेटी की सूरत देखते ही मैं द्रवित हो उठी थी, ‘कितनी दुबली हो गई है तू? चेहरा भीकैसा पीलापीला नजर आ रहा है? तबीयत तो ठीक है तेरी?’

‘हां मौम, मैं बिलकुल ठीक हूं, एक प्रोजैक्ट में बिजी हूं. रही दुबला होने की बात, तो हर इंडियन मां को अपनी संतान हमेशा कमजोर ही नजर आती है. नानी भी तो जब भी आप से मिलती हैं, अरे बिट्टी, तू कितनी कमजोर हो गई है, कह कर लिपटा लेती हैं आप को. फिर नसीहतें आरंभ, दूध पिया कर, बादाम खाया कर…’

‘अच्छा छोड़ वह सब. यह वैक्यूमक्लीनर की आवाज आ रही है? मेड काम कर रही है?’ मेरी नजरें अब रीनू से हट कर उस के इर्दगिर्द दौड़ने लगी थीं.

‘यहां कहां मेड मौम? सबकुछ खुद ही करना पड़ता है. रोजर, मेरा रूममेट सफाई कर रहा है.’

‘क्या? तू एक लड़के के साथ रह रही है? कब से?’ मेरी चीख निकल गई थी. ‘कम औन मौम. आप इतना ओवररिऐक्ट क्यों कर रही हैं. यहां यह सब आम है. यही कोई 6-7 महीनों से हम साथ हैं.’ ‘साथ मतलब क्या? रीनू, हमारे लिए यह सब आम नहीं है. हमारी संस्कृति, हमारे संस्कार इन सब की अनुमति नहीं देते. तुम्हारे नानानानी और दादादादी को ये सब पता चला तो तूफान उठ खड़ा होगा.’

‘फिलहाल तो आप बिना बात तूफान खड़ा कर रही हैं मौम, यह तो शुक्र है वैक्यूमक्लीनर की आवाज में रोजर कुछ सुन नहीं पा रहा है वरना उसे कितना बुरा लगता.’ ‘तुम्हें रोजर को बुरा लगने की फिक्र है और मुझ पर जो बीत रही है उस की जरा भी परवा नहीं?’

‘मौम प्लीज, आप बिना वजह बात का बतंगड़ बना रही हैं. मैं ने आप को बताया न, यहां ये सब आम बात है. दरअसल, आप की दुनिया बहुत छोटी है. इंसान चांद पर घर बसाने की सोच रहा है और आप की सोच अभी तक हमारा परिवार, हमारे संस्कार इन्हीं पर टिकी हुई है. एक बार अपनी दुनिया से बाहर निकल कर जरा बाहर की दुनिया देखिए, खुद ब खुद समझ जाएंगी. रोजर इधर ही आ रहा है मौम. बेहतर होगा हम इस टौपिक को यहीं समाप्त कर दें.’ ‘सिर्फ टौपिक ही क्यों, सबकुछ समाप्त कर दो.’ गुस्से में मैं ने संपर्कविच्छेद कर दिया था. मेरे गुस्से से न केवल स्टूडैंट्स बल्कि घर वाले भी खौफ खाते हैं. यह तापमापी के पारे की तरह पल में चढ़ता है तो समझानेबुझाने या क्षमायाचना करने पर पल में उतर भी जाता है. देर तक उस के शब्द मेरे कानों में गूंजते रहे थे. मैं ने सिर झटक दिया था, मानो ऐसा कर के मैं सबकुछ एक झटके में दिमाग से बाहर फेंक दूंगी और सोने का प्रयास करने लगी थी. बहुत दिनों तक मेरा न रीनू से बात करने का मन हुआ था, न मां से. यह सोच कर दुख भी होता कि मैं रीनू का गुस्सा मां पर क्यों निकाल रही हूं. फिर मैं ने मां से बात की थी पर रीनू की बात  गोल कर गई थी. मांबाबा को आजकल वैसे भी कम सुनाई देने लगा है, इसलिए भी मैं उन्हें बताने से हिचक रही थी. पता नहीं, आधीअधूरी बात सुन कर वे जाने क्या मतलब निकाल लें जबकि मामला इतना गंभीर हो ही न? सासससुर देशाटन पर गए हुए थे.

चलो, एक तरह से अच्छा ही है. वे लौटेंगे, तब तक तो शायद वेणु भी लौट आएं. फिर वे अपनेआप संभाल लेंगे. वेणु की कमी मुझे इस वक्त बेहतर खटक रही थी. काश, वे इस वक्त मुझे संभालते, समझाते मेरे पास होते. वेणु और मेरी लवमैरिज थी. साथसाथ पढ़ते प्रेम के अंकुर फूटे और जल्द ही प्यार का पौधा पल्लवित हो उठा था. दक्षिण भारतीय वेणु आगे जा कर आर्मी में चले गए और मैं एक कालेज में शिक्षिका हो गई. हम दोनों जानते थे कि हमारे कट्टरपंथी परिवार इस बेमेल विवाह के लिए कभी राजी नहीं होंगे, इसलिए हम ने कोर्टमैरिज कर ली थी. जब वेणु मुझे दुलहन के जोड़े में अपने घर ले गए तो थोड़ी नाराजगी दिखाने के बाद वे लोग जल्दी ही मान गए थे. और फिर दक्षिण भारतीय तरीके से हमारा विवाह संपन्न हुआ था. पर मेरे मांबाबा को यह बात बेहद नागवार गुजरी थी. वे शादी में शरीक नहीं हुए थे. मैं उन से गुस्सा थी लेकिन वेणु ने हिम्मत नहीं हारी, मनाने के प्रयास जारी रखे. आखिर रीनू के जन्म के बाद मांबाबा पिघले और उन्होंने हमें दिल से अपना लिया. उस वक्त मैं बच्चों की तरह किलक उठी थी. मां से लिपट कर ढेरों फरमाइशें कर डाली थीं. तब से वेणु और रीनू उन के लिए मुझ से भी बढ़ कर हो गए थे. ऐसी शिकायत कर के मैं अकसर उन से बच्चों की भांति रूठ जाया करती थी. और सभी इसे मेरी जलन कह कर खूब आनंद उठाते थे. वेणु को नौर्थईस्ट में पोस्ंिटग मिली तो मैं रीनू को ले कर उन के साथ रहने आ गई थी. पर छोटी सी बच्ची के साथ उस असुरक्षित इलाके में रहना हर वक्त खतरे से खेलते रहना था. रीनू का खयाल कर के मैं हमेशा के लिए अपने सासससुर के पास रहने आ गई थी. मैं ने वापस कालेज में पढ़ाना आरंभ कर दिया था.

वेणु छुट्टियों में आते रहते थे. जिंदगी एक बंधेबंधाए ढर्रे पर चलने लगी थी. रीनू पढ़ने के लिए विदेश चली गई और फिर वहीं अच्छी सी नौकरी भी करने लग गई. दिल तो बहुत रोया पर बदलते जमाने और उस की खुशी का खयाल कर मन को समझा लिया. पर अब, अब तो पानी सिर से ऊपर बढ़ गया है. इधर, कुछ समय से वेणु की पोस्ंिटग भी काफी सीनियर पोजीशन पर हिमालय की तराई वाले इलाके में हो गई थी. वहां पड़ोसी देश से छिटपुट लड़ाई चल रही थी और आएदिन छोटीबड़ी मुठभेड़ की खबरें आती रहती थीं. मुझे हर वक्त सिर पर तलवार  लटकती प्रतीत होती थी, जाने कब कैसा अप्रिय समाचार आ जाए. वेणु की बहुत दिनों से कोई खबर न थी. पर यह अच्छी बात थी क्योंकि सेना में ऐसा माना जाता है कि जब तक किसी के बारे में कोई खबर न मिले, समझ लेना चाहिए सब सकु शल है. मैं भी यही सोच कर वेणु के सकुशल लौट आने का इंतजार कर रही थी. वेणु की यादों के साथ रीनू के दिए घाव ताजा हो गए थे. जीवनसाथी तो मैं ने भी अपनी मनमरजी से चुना था. पर उस के साथ रही तो शादी के बाद ही थी. लेकिन यहां तो बिलकुल ही उलट मामला है. फिर मैं ने और वेणु ने शादी के बाद भी सब को मनाने के प्रयास जारी रखे थे. सब की घुड़कियां, धमकियां झेलीं, ताने सुने पर आखिर सब को मना कर रहे. और इस जैनरेशन को देखो, पता है मां गुस्सा है, नाराज है पर मानमनौवल का एक फोन तक नहीं. काश, वेणु यहां होते. खैर, बहुत इंतजार के बाद एक दिन रीनू का फोन आया था. पर बस, औपचारिक वार्त्तालाप-आप कैसी हैं? दादादादी कब आएंगे? पापा ठीक होंगे. और फोन रख दिया था. ऐंठ में मैं ने भी कुछ नहीं कहासुना.

हमारे फोनकौल्स न केवल सीमित बल्कि बेहद औपचारिक भी हो गए थे. मां जरूर थोड़े दिनों में फोन कर मेरे हाल जानती रहतीं. वेणु और सासससुर की अनुपस्थिति ने उन्हें मेरे प्रति ज्यादा चिंतित बना दिया था. वे मुझे धीरज और विश्वास देने का प्रयास करतीं. उन का आग्रह था, मैं अकेली न रहूं और उन के पास रहने चली जाऊं. मैं ने उन से कहा कि मैं तो छुट्टियों में हमेशा ही आती हूं. अभी सासससुर भी नहीं हैं तो वे मेरे पास आ जाएं. पर उन्होंने इतनी लंबी यात्रा करने में असमर्थता जता कर मेरा प्रस्ताव सिरे से खारिज कर दिया. उन के अनुसार, वे छुट्टियों में मेरा इंतजार करेंगी और मैं थोड़ी लंबी छुट्टियां प्लान कर सकूं तो अच्छा होगा.

‘कोई खास वजह, मां?’

‘अरे नहीं, खास क्या होगी? बस ऐसे ही तेरे साथ रहने को दिल कर रहा था. क्या पता कितना जीना और शेष है? अब तबीयत ठीक नहीं रहती. तेरे भैयाभाभी को भी इसी दौरान रहने को बुला लिया है. सब साथ रहेंगे, खाएंगे, पीएंगे तो अच्छा लगेगा.’ पहली बार मां की दुनिया अलग नहीं, थोड़ी अपनी सी महसूस हुई. उन का दर्द अपना दर्द लगा. ‘हां मां, ज्यादा छुट्टियां ले कर आने का प्रयास करूंगी. कांता बाई से मुझे भी मालिश करवानी है. आजकल मुझे भी आर्थ्राइटिस की प्रौब्लम हो गई है. आप के हाथ की मक्का की रोटी और सरसों का साग खाने का भी बहुत मन हो रहा है. गोभी, गाजर वाला अचार भी डाल कर रखना मां.’ प्रत्युत्तर में उधर चुप्पी छाई रही तो मैं समझ गई कि भावनाओं के आवेग ने हमेशा की तरह मां का गला अवरुद्ध कर दिया है.

‘जल्द मिलते हैं, मां’, मां की भावनाओं का सम्मान करते हुए मैं ने तुरंत फोन रख दिया था. अगले सप्ताह एक लंबी छुट्टी अरेंज कर जल्दी ही उन्हें अपने आने की सूचना भी दे दी. स्टेशन पर मांबाबा दोनों को मुझे लेने आया देख मैं हैरत में पड़ गई थी क्योंकि उन के गिरते स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए मैं ने उन्हें सख्त हिदायत दे रखी थी कि वे कभी भी मुझे लेनेछोड़ने आने की औपचारिकता में नहीं पड़ेंगे. बेमन से ही सही, वे मेरी हिदायत की पालना करते भी थे. पर आज अचानक…वो भी दोनों…जरा सा भी कुछ असामान्य देख इंसान का दिमाग हमेशा उलटी ही दिशा में सोचने लगता है. मेरे शक की सूई भी उलटी ही दिशा में घूमने लगी. अवश्य ही वेणु को ले कर कोई बुरी खबर है. मेरा दिल तेजी से धड़कने लगा.

‘वेणु की कोई खबर, बेटी? ठीक है न वह?’

मैं ने राहत की सांस ली, ‘आप को तो मालूम ही है मां, कोई खबर नहीं, मतलब सब कुशल ही होगा.’

‘एक बहुत अच्छी खबर है. मैं एक प्यारे से गुड्डे की परनानी और तू नानी बन गई है.’ मां की नजरें मेरे चेहरे पर जमी थीं, जहां एक के बाद एक रंग आजा रहे थे. मैं कुछ समझ नहीं पा रही थी, मां किस की बात कर रही हैं.

‘हमारी रीनू ने 2 दिन पहले एक बेटे को जन्म दिया है. वह यहीं है घर पर, हमारे पास.’

‘क्या?’ आश्चर्य से मेरा मुंह खुला का खुला रह गया था. ‘उस ने तुझे यह तो बता ही दिया था कि वह रोजर नाम के किसी लड़के के साथ रह रही थी.’

‘हां, पर यह सब नहीं बताया था.’

‘उस की हिम्मत ही नहीं पड़ी बेटी, तेरे गुस्से से वह घबरा गई थी. फिर उसे यह भी खयाल था कि तू अभी बिलकुल अकेली रह रही है. वेणु भी इतने खतरनाक मोरचे पर तैनात हैं तो तू वैसे ही बहुत परेशान होगी.’

‘पर मां, उसे मुझे तो बताना था,’ मेरी आंखों के सम्मुख उस का पीला, दुबला चेहरा घूम गया.

‘वह तुझे बताना चाहती थी पर तभी सब गड़बड़ा गया. रोजर इतनी जल्दी बच्चे के लिए तैयार नहीं था. वह अबौर्शन करवाना चाहता था पर रीनू उस के लिए तैयार नहीं हुई. विवाद बढ़ा और रोजर घर छोड़ कर चला गया.’

‘ओह,’ मैं ने सिर थाम लिया. ‘रीनू बहुत हताश और परेशान हो गई थी पर तुझे और दुखी नहीं करना चाहती थी. इसलिए सारा गम अकेले ही पीती रही. एक दिन उस की बहुत याद आ रही थी तो उस का हालचाल जानने के लिए मैं ने ऐसे ही उसे फोन कर दिया. मैं फोन पर ही उसे दुलार रही थी कि सहानुभूति पा कर वह फूट पड़ी और सब उगल दिया. ‘हम ने उसे भरोसा दिलाया कि तुझे नहीं बताएंगे पर वह तुरंत हमारे पास इंडिया आ जाए और यहीं बच्चे को जन्म दे. उस ने हमारी बात मानी और आ गई. कल उसे अस्पताल से घर ले आए हैं. अभी तेरे भैयाभाभी उस के पास हैं. तेरे आने की खबर से वह काफी बेचैन है. तुम दोनों आमनेसामने हो, इस से पहले तुम दोनों को सबकुछ बता देना आवश्यक था.

‘उम्र और अनुभव ने हमें बहुतकुछ सिखा दिया है बेटी. हम कितने ही आधुनिक क्यों न हो जाएं, अपनी अगली और पिछली पीढि़यों से हमारा टकराव स्वाभाविक है. ऐसे हर टकराव का मुकाबला हमें संयम और विश्वास से करना होगा. अपने बच्चों के साथ यदि हम ही खड़े नहीं होंगे तो औरों को उंगलियां उठाने का मौका मिलना स्वाभाविक है. हम अलगअलग पीढि़यों की दुनिया कितनी भी अलगअलग क्यों न हो, आ कर मिलती तो एक ही जगह है क्योंकि यह दुनिया गोल है. हम घूमफिर कर फिर वहीं आ खड़े होते हैं जहां से कभी आगे बढ़े थे. यह समय गुस्सा करने का नहीं, समझदारी से काम लेने का है. ‘आज की तारीख में हमारे लिए सब से बड़ी खुशी की बात यह है कि हमारी बेटी हमारे पास सकुशल है और उस के साथसाथ यह बच्चा भी अब हमारी जिम्मेदारी है. रीनू का आत्मविश्वास लौटा लाने के लिए उसे यह विश्वास दिलाना बेहद जरूरी है.’

घर आ चुका था. मैं ने भाग कर पहले रीनू को, फिर नन्हे से नाती को सीने से लगा लिया. रीनू आश्वस्त हुई, फिर खुलने लगी, ‘इस की आंखें बिलकुल पापा जैसी हैं न मौम…मौम, मुझे आप के हाथ का पायसम और उत्तपम खाना है,’ वह बच्चों की तरह किलक रही थी. ‘नानू, नानी, मौम आप सब को एक बात बतानी थी. कल रात दिल नहीं माना तो मैं ने रोजर को गुड्डू का फोटो भेज दिया, उस का जवाब आया है. वह शर्मिंदा है, जल्द आएगा.’ मां मुझे देख कर मुसकरा रही थीं.

शायद कुछ नया मिलेगा: क्या खुद को बदल पाया विजय

विजय अपने किसी जानपहचान वाले की तारीफ करते हुए कह रहा था, ‘‘बड़े दिलदार इंसान हैं हमारे ये भाईसाहब. राजा हैं राजा. बहुत बड़े दिल के मालिक हैं. जेब में चाहे 50 रुपए ही हों, खर्चा 500 का कर देते हैं. मेहमाननवाजी में कभी कोई कमी नहीं करते. बड़े शाही स्वभाव के हैं.’’

मैं समझ नहीं पा रहा था. वह उन के जिस गुण की तारीफ कर रहा था क्या वह वास्तव में तारीफ के लायक था. कहीं वही पुराना अंदाज ही तो नहीं दिखा रहा विजय?

‘‘अभी कुछ दिन पहले ही इन के बेटे की शादी हुई है. इन्होंने दिल खोल कर खर्चा किया. औफिस में सब को खूब शराब पिलाई. खाने पर खूब खर्चा किया. सभी वाहवाह करते हैं.’’

‘‘जी,’’ बढ़ कर हाथ मिला लिया मैं ने, ‘‘आप किस जगह काम करते हैं, क्या करते हैं, मतलब आप अपना ही कारोबार करते हैं या किसी नौकरी में हैं?’’

‘‘इन का अकाउंट्स का काम है, साहब. डी पी मेहता का नाम सुना होगा आप ने. वह इन्हीं की फर्म है.’’

एक लौ फर्म का नाम बताया मुझे विजय ने. उस व्यक्ति को देख कर ऐसा नहीं लगा मुझे कि वह इतनी बड़ी लौ फर्म का मालिक होगा. एक मुसकान का आदानप्रदान हुआ और वे साहब विदा ले कर चले गए. विजय के साथ अंदर आ गया मैं. विजय मेरा साढ़ू भाई है.

‘‘आइए, जीजाजी,’’ सौम्या मेरी आवाज सुनते ही चली आई थी. दीवाली का तोहफा ले कर गया था मैं.

‘‘दीदी ने क्या भेजा है, इस बार मठरी और बेसन की बर्फी तो नहीं बनाई होगी. दीदी के हाथ में दर्द था न.’’

‘‘बनाई है बाबा, और आधे से ज्यादा काम मुझ से कराया है तुम्हारी दीदी ने. अब यह मत कहना सब दीदी ने बनाया है. सारी मेहनत मेरी है इस बार. बेसन में कलछी भी मैं ने घुमाई है और मैदे में मोयन डाल उसे भी मैं ने ही मला है.’’

मैं ने जरा सा बल डाला माथे पर, सच बताया तो बड़ीबड़ी आंखें और भी बड़ी कर लीं सौम्या ने. मेरे हाथ से डब्बा झपट लिया, ‘‘क्या सच में?’’

सौम्या का सिर थपक दिया मैं ने, ‘‘जीती रहो. और सुनाओ, कैसी हो?’’

‘अच्छी हूं’ जैसी अभिव्यक्ति उभर आई सौम्या के गले लगने में. सौम्या का माथा चूमा मैं ने. मेरी छोटी बहन जैसी है सौम्या, मेरी बेटी जैसी.

‘‘और सुनाइए, आप कैसे हैं? इस बार बहुत देर बाद मुलाकात हुई है. फोन पर बात होती है तब भी कभी बाथरूम में होते हैं, कभी पता नहीं कहां होते हैं आप?’’ विजय से पूछा. मैं ने कोई उत्तर नहीं दिया. बस, मुसकराभर दिया. अभी जो बाहर किसी की तारीफ में इतने पुल बांध रहा था. मेरे सामने, अब चुप था.

सौम्या झट से चाय बना लाई और प्लेट में इडलीसांभर.

‘‘भई वाह, तुम्हारे हाथ के इडलीसांभर का जवाब नहीं.’’

‘‘तुम्हारे मायके वाले पहले हलवाई का काम करते थे क्या? तुम दोनों बहनों को हर पल इन्हीं कामों की ही लगी रहती है. बाजार में क्या नहीं मिलता. सोहन हलवाई के पास अच्छी से अच्छी मिठाई मिलती है. 200 रुपए किलो से शुरू होती है 1000 रुपए किलो तक जो चाहो ले लो. पैसा खर्च करो, क्या नहीं मिलता.’’

सदा की तरह का रवैया था विजय का इस बार भी. उस ने इस बार भी जता दिया था, हमारा परिवार कंजूस है. हम रुपयापैसा खर्च करने में पीछे हटते हैं.

‘‘सोहन हलवाई की मिठाई में मेरी बहन के हाथ का प्यार नहीं है न, जिस की कीमत उस की 1000 रुपए किलो मिठाई से कहीं ज्यादा है.’’

‘‘अपनीअपनी सोच है, विजयजी. मैं आप की सोच को गलत नहीं कहता. आप मेरी सोच का सम्मान कीजिए. अगर इन बहनों को 1000 रुपए किलो वाली चीज 400 रुपए खर्च कर के घर में मिल जाती है तो 600 रुपए भी तो हमारा ही बचता है न. मेरी पत्नी अपने कपडे़ खुद डिजाइन करती है. जो सूट बाजार में 2000 का आता है उसे वह 700 रुपए में बना लेती है, 1300 रुपए किस के बचते हैं, मेरे ही घर के न. मुझे इतनी सुरक्षा अवश्य रहती है कि समय पर मुझे जो चाहिए, इस की दीदी अवश्य हाजिर कर देगी.

‘‘तभी झट से निकाल देगी न जब उस के पास होगा, होगा तभी जब वह अपनी मेहनत से बचाएगी. हमें इतनी मेहनती जीवनसाथी मिली है, आप को इस बात का सम्मान करना चाहिए. जेब में 100 रुपया हो और इंसान 50 का खर्चा करे, इस में समझदारी है या जेब में 50 रुपया हो और इंसान 500 का खर्च करे, इस में समझदारी है? क्या ऐसा इंसान हर पल कर्ज में नहीं डूबा रहेगा? ये जो साहब अभी गए जिन की आप तारीफ कर रहे थे, क्या सच में डी पी मेहता लौ फर्म वाले ही हैं?’’

‘‘कौन, जीजाजी?’’ सौम्या का प्रश्न था.

‘अभी जो गए वे डीपी मेहता लौ फर्म में अकाउंट्स का काम देखते हैं. संयोग से ये भी मेहता ही हैं.’’

हंसी आने लगी मुझे विजय की बुद्धि पर. हमें कंजूस कहने के लिए बेचारे ने अकाउटैंट को मालिक बना दिया था. सिर्फ यही समझाने के लिए कि देखिए, दिलदार आदमी क्या होता है, 50 जेब में और खर्चा 500 का करता है.’’

‘‘पिछले दिनों इन के बेटे ने भाग कर चुपचाप मंदिर में शादी कर ली. तो क्या करते मेहता साहब? कैसे बताते सब को कि बेटे ने शादी कर ली है. सब को मिठाई बांट दी और औफिस में सब को खिलापिला दिया. इन की जेब में तो कभी पैसे रहते ही नहीं. सदा किसी न किसी की उधारी ही चलती है. इन की तुलना हमारे परिवार से करने की क्या तुक?’’

क्रोध आने लगा था, सौम्या को, ‘‘पीठ पीछे आप गाली भी इसी आदमी को देते हैं कि जब देखो उधार ही मांगता रहता है फिर जीजाजी के सामने उसी को बढ़ाचढ़ा कर बताने का क्या मतलब? मेहताजी खर्च ही कर पाते तो इज्जत से अपने दोनों बच्चों की शादी न कर लेते. बेटी ने भी लड़का पसंद कर रखा था और बेटे ने भी लड़की कब से समझबूझ रखी थी. मातापिता क्या अंधे थे जो कुछ नजर नहीं आता था. वे %

मम्मी जी के बेटे जी: क्या पति को सास से दूर कर पाई जूही

प्रतिभा ने अपनी ससुराल फोन किया. 3 बार घंटी बजने के बाद वहां उस के पति शरद ने रिसीवर उठाया और हौले से कहा, ‘‘हैलो?’’ शरद की आवाज सुन कर प्रतिभा मुसकराई. उस ने चाहा कि वह शरद से कहे कि मम्मीजी के बेटेजी.

मगर यह बात उस के होंठों से बाहर निकलतेनिकलते रह गई. वह सांस रोके असमंजस में रिसीवर थामे रही. उधर से शरद ने दोबारा कहा, ‘‘हैलो?’’ प्रतिभा शरद के बारबार ‘हैलो’ कहते सुनने से रोमांचित होने लगी, पर उस ने शरद की ‘हैलो’ का कोई जवाब नहीं दिया. सांसों की ध्वनि टैलीफोन पर गूंजती रही. फिर शरद ने थोड़ी प्रतीक्षा के बाद झल्लाते हुए कहा, ‘‘हैलो, बोलिए?’’ किंतु प्रतिभा ने फिर भी उत्तर नहीं दिया, उलटे, वह हंसने को बेताब हो रही थी, इसीलिए उस ने रिसीवर रख दिया. रिसीवर रखने के बाद उस की हंसी फूट पड़ी. हंसतेहंसते वह पास बैठी अपनी बेटी जूही के कंधे झक झोरने लगी. जूही को मम्मी की हंसी पर आश्चर्य हुआ. इसीलिए उस ने पूछा, ‘‘मम्मी, किस बात पर इतनी हंसी आ रही है? टैलीफोन पर ऐसी क्या बात हो गई?’’ ‘‘टैलीफोन पर कोई बात ही कहां हुई,’’ प्रतिभा ने उत्तर दिया. ‘‘तो फिर आप को इतनी हंसी क्यों आ रही है? पापा पर?’’ जूही चौंकी. ‘‘हां.’’

‘‘उन्होंने ऐसा क्या किया?’’ ‘‘यह सम झाना मुश्किल है.’’ ‘‘मगर कुछ तो बतलाइए, मम्मी, प्लीज?’’ ‘‘वे आएंगे तब बतलाऊंगी, जूही,’’ प्रतिभा ने पीछा छुड़ाने के लिए बेटी जूही से कह दिया. किचन में जा कर प्रतिभा खाना बनाने लगी, मगर उस की हंसी फिर भी रुक नहीं रही थी. उसे रहरह कर इसी बात पर आश्चर्य हो रहा था कि शरद भी कैसा व्यक्ति है जो 2 बच्चों का बाप बन गया, मगर अपनी मां का आंचल अभी भी छोड़ नहीं पाया. बातबात पर मम्मीमम्मी की रट लगाता रहता है. अपने पापा के प्रति तो शरद को इतना लगाव नहीं रहा, मगर मम्मी तो जैसे उस के रोमरोम में बसी हैं.

कदमकदम पर मम्मी उसे याद आती रहती हैं. विवाह के कुछ वर्षों बाद उस ने जब पापामम्मी से अलग होने का सु झाव दिया था तो शरद की पहली प्रतिक्रिया यही हुई थी, ‘मम्मी को अलग कैसे छोड़ सकते हैं.’ इस पर चकित होते हुए प्रतिभा ने शरद से पूछा था, ‘क्यों नहीं छोड़ सकते हो? तुम कोई दूध पीते बच्चे हो जो मम्मी से अलग नहीं रह सकते?’ ‘तुम्हें कैसे सम झाऊं, प्रतिभा. यह मामला दूसरी तरह का है,’ तब शरद ने बहुत ही भावुक हो कर उत्तर दिया था. ‘क्या मतलब? कुछ सम झाओ न?’ ‘बात यह है कि यह भावनाओं का मामला है. भावनात्मक लगाव के कारण ही मम्मी से अलग होना मु झे…’ भावावेश में शरद अपनी बात पूरी नहीं कर पाया था, क्योंकि उस स्थिति को व्यक्त करने लायक शब्द उसे सू झे नहीं थे. उस ने अपने हावभाव से मम्मी से विछोह की पीड़ादायक स्थिति अभिव्यक्त कर दी थी.

अपने पति की इस बात को प्रतिभा सम झ गई थी, इसीलिए उस ने दोटूक शब्दों में पूछा था, ‘भावनाएं क्या केवल तुम्हारे ही पास हैं? मेरा हृदय क्या भावनाशून्य है?’ ‘क्या मतलब?’ ‘मतलब यही कि मु झे अपने मम्मीपापा से लगाव नहीं है क्या?’ ‘किस ने कहा कि लगाव नहीं है?’ ‘तो फिर तुम ने यह क्यों नहीं सोचा कि मैं अपने मम्मीपापा को छोड़ कर यहां, दूसरे नगर में, इस नए परिवार में कैसे आ गई?’ लेकिन प्रतिभा की इस बात का शरद कोई उत्तर नहीं दे पाया था. वह मुंहबाए देखता रहा था. ‘अपने मम्मीपापा से तुम्हारा यह विछोह तो नाममात्र का है,’ प्रतिभा फिर बोली थी, ‘क्योंकि हम तो इसी नगर में अपना अलग चूल्हा कायम करेंगे. हम कोई दूसरे नगर में नहीं बसेंगे, उन के पास ही रहेंगे. यहां जगह की कमी नहीं होती तो हम अलग होने का विचार भी नहीं करते. मजबूरी में ही यह विचार कर रहे हैं.’

इस मजबूरी का तो शरद भी कायल था, क्योंकि 2 कमरे एवं एक किचन वाले इस घर में विवाह के बाद वह खुद को बंधाबंधा सा महसूस करता था. अभी तक वह मांबाप, भाईबहन के साथ रहता आया था, मगर उसे यह घर छोटा कभी महसूस नहीं हुआ था. पर विवाह के बाद उसे महसूस होने लगा था कि घर जैसे पहले से छोटा हो गया है, इसीलिए इस से बड़े घर की कामना उस ने की थी. प्रतिभा ने उस की इस कामना की पूर्ति के लिए अलग होने की बात सु झाई थी, किंतु यह सु झाव शरद को पसंद नहीं था, क्योंकि अपनी मम्मी से अलग होने की कल्पना मात्र से ही वह सिहर उठा था. इसीलिए इस विकल्प को वह टालता रहा था. शरद के पापा ने ही शरद की पीड़ा सम झते हुए सु झाव दिया था, ‘‘भैया, कोई बड़ा घर ढूंढ़ो. ढाई कमरे में अब गुजरबसर संभव नहीं है.’ तब शरद और उस का छोटा भाई हेमंत बड़ा मकान ढूंढ़ने निकले थे,

किंतु बहुत भटकने के बाद भी उन्हें कम किराए वाला बड़ा मकान नहीं मिला था. जो मिले थे उन का किराया भी बहुत अधिक था और पेशगी में बड़ी रकम की मांग भी थी. उन की और भी कई शर्तें थीं, इसीलिए उन्होंने यह प्रयास त्याग दिया था. वे मन मसोस कर रह गए थे. इसी दौरान 2 कमरे एवं एक किचन वाले एक फ्लैट की सहज प्राप्ति का मौका आ गया था. हुआ यों था कि शहर से बाहर पूर्वी क्षेत्र में शरद के एक सहयोगी ने वह फ्लैट खरीदा था. वह उस में रहने भी लगा था, किंतु तबादला हो जाने से उसे जाना पड़ रहा था. वह चाहता था कि उस फ्लैट में कोई ऐसा किराएदार आ जाए जो जरूरत होने पर फ्लैट खाली कर दे, दुखी न करे. उसे शरद की मकान की परेशानी पता थी, इसीलिए उस ने शरद से कहा कि वह यदि चाहे तो उस के फ्लैट में आ जाए. अभी 3 वर्ष तक उस के यहां लौटने की कोई संभावना नहीं है. लिहाजा, इन 3 वर्षों तक वह यहां रह सकता है. इस बीच वह अ%2

हरी लाल चूड़ियां: क्या थी बाल विधवा सुकुमारी की चाह

मेरी कामवाली बाई सुन्दरी हफ्ते में एकाध दिन तो काम से गायब ही रहती थी, मगर एक अच्छी बात उसमें थी कि जिस दिन वह नहीं आती थी, उस दिन अपनी बेटी या बहू को काम करने के लिए भेज देती थी. मेरा परिवार मेरठ शहर में नया आया था. पति सिंचाई विभाग में अधिकारी थे. सरकारी नौकरी थी. दो-तीन साल में ट्रांस्फर होता ही रहता था. पहले तो वे अकेले ही आए थे, फिर जब रहने के लिए ठीक-ठाक घर किराए पर मिल गया, तो मुझे और दोनों बच्चों को भी ले आए. बच्चे अभी छोटे थे. माधवी दो साल की थी और राहुल पांचवे साल में चल रहा था. दोनों बच्चों के साथ नए घर में सामान एडजेस्ट करना मुश्किल टास्क था. फिर झाड़ू-पोछा, बर्तन-खाना मेरे अकेले के बस की बात न थी. इसलिए नौकरानी की जरूरत तो थी ही. कई दिनों की खोजबीन के बाद पीछे की मलिन बस्ती से यह सुन्दरी मिली थी.

सुन्दरी नाम की ही सुन्दरी थी, रंग ऐसा कि छांव में खड़ी हो तो नजर ही न आए. हां, सज-संवर कर खूब रहती थी. माथे पर बड़ी सी लाल बिन्दी, लाल चटख सिंदूर से पूरी भरी हुई मांग, दोनों हाथों में दर्जन-दर्जन भर चूड़ियां, गले में लंबा सा मंगलसूत्र, पांव में बिछिया, पायल पूरे सोलह सिंगार के साथ काम पर आती थी. हम तो चाह कर भी सुहाग का पूरा श्रृंगार नहीं कर पाते थे. बस बिन्दी भर लगा ली. यही बहुत था.

सुन्दरी स्वभाव की नरम थी और काम में तेज. ऐसी ही उसकी बहू और बेटी भी थीं. सुन्दरी छुट्टी करती तो उसकी बेटी सुकुमारी ही ज्यादा आती थी. सुकुमारी सांवले रंग की भरी-भरी सी लड़की थी. उम्र यही कोई सत्रह-अट्ठारह बरस की होगी. सुन्दरी जितनी सजधज के साथ आती थी, उसकी बेटी सुकुमारी उतनी ही साधारण वेशभूषा में रहती थी. हल्के रंग का सलवार-कुरता, सीने पर ठीक से ओढ़ा हुआ दुपट्टा, तेल लगे बालों की कस की गुंथी हुई लंबी चोटी और श्रृंगार के नाम पर आंखों में काजल तक नहीं. सुन्दरी जितनी बकर-बकर करती थी, उसके उलट उसकी बेटी बड़े शांत स्वभाव की थी. चुपचाप पूरे घर का काम चटपट निपटा देती थी.

मैं नोटिस करती थी कि अक्सर झाड़ू-पोछा करते वक्त सुकुमारी मेरी ड्रेसिंग टेबल के शीशे के सामने चंद सेकेंड रुक कर अपने को जरूर निहारती थी. मैं उसे देखकर मन ही मन मुस्कुरा देती थी. जवान लड़की थी, मन में भविष्य के रंगीन सपने डोलते होंगे. हर लड़की के मन में इस उम्र में सपनों की तरंगें डोलती हैं. ड्रेसिंग टेबल के कोने में रखे चूड़ीदान में लटकी रंग-बिरंगी चूड़ियों की तरफ भी सुकुमारी का विशेष आकर्षण दिखता था. कभी-कभी मैं सोचती कि सुन्दरी खुद तो इतनी साज-संवार के साथ रहती थी, उसकी बहू भी पूरा श्रृंगार करके आती थी, मगर बेटी के कान में सस्ती सी बाली तक नहीं डाली थी उसने.

एक दिन मैं कमरे में पलंग पर बैठी अपनी बेटी माधवी के साथ खेल रही थी. सुकुमारी फर्श पर पोछा लगा रही थी. पोछा लगाते हुए जब वह ड्रेसिंग टेबल के सामने पहुंची तो चूड़ीदान की चूड़ियों में उसकी नजर अटक गई. मैंने हौले से उसे पुकारा, ‘सुकुमारी…’

वह अचकचा कर खड़ी हो गई, ‘जी, मेमसाब…’

‘जरा वह ड्रॉर खोलना… देखो उसमें एक डिब्बा है… निकाल कर दो…’ मैंने ड्रेसिंग टेबल की ड्रॉर की तरफ इशारा करके कहा.

वह जल्दी से डिब्बा निकाल लायी. मैंने डिब्बा उसके हाथ में रख दिया. नई चूड़ियों का डिब्बा था. मंहगी लाख की चूड़ियां थीं, हरी-लाल जड़ाऊं चूड़ियां. मैंने सोचा पहनती तो हूं नहीं, उसे ही दे दूं. जब से खरीदी हैं, यूं ही डिब्बे में बंद पड़ी हैं.

सुकुमारी ने पहले तो डिब्बा लेने में आनाकानी की, मगर मेरे इसरार पर उसने रख लिया. जाते वक्त बड़ी प्यारी मुस्कान मुझ पर और बच्चों पर डाल कर गयी. मेरे दिल को खुशी हुई. किसी के होंठों पर मुस्कान लाने की खुशी और तसल्ली.

दूसरे दिन उसकी मां सुन्दरी आयी तो उसके हाथ में चूड़ियों का वही डिब्बा था. आते ही बोली, ‘मेमसाब, ये लीजिए अपनी चूड़ियों का डिब्बा…’

मैंने हैरानी जताते हुए कहा, ‘पर ये तो मैंने कल सुकुमारी को दिया था…’

‘मेमसाब, आप ये श्रृंगार की चीजें उसको कभी मत दीजिएगा, वह बाल-विधवा है, श्रृंगार करना उसके लिए पाप है. हमारे में विधवा इन्हें छू भी ले तो नरक में जाती है…’ कह कर वह डिब्बा ड्रेसिंग टेबल पर पटकर कर अपने काम में लग गयी. मैं जड़वत् खड़ी कभी डिब्बे को निहारती तो कभी सुन्दरी को… बहुत सारे सवाल मन में घुमड़ रहे थे… उन सब पर सुन्दरी एक जवाब ठोंक कर चल दी, ‘मेमसाब, उसे जीवनभर ऐसे ही रहना है बिना श्रृंगार के… आप इत्ता मत सोचो… ये उसकी तकदीर में लिखा है… ’

और मैं सोचती रह गई, ‘उम्र ही क्या है उसकी? क्यों मार दिये उसके सपने? क्यों खत्म कर दी उसकी जिन्दगी? किसने लिखी है उसकी तकदीर…?’

अतीत के झरोखे

राधा और अविनाश न्यूयौर्क एअरपोर्ट से ज्योंही बाहर निकले आकाश उन से लिपट गया. इतने दिनों के बाद बेटे को देख कर दोनों की आंखें भर आईं. तभी उन के सामने एक गाड़ी आ कर रुकी. आकाश ने उन का सामान डिक्की में रखा और उन दोनों को बैठने को कह आगे जा बैठा. जूही ने पीछे मुड़ कर अपनी मोहिनी मुसकान बिखेरते हुए उन दोनों का आंखों से ही अभिवादन किया तो राधा को ऐसा लगा मानों कोई परी धरती पर उतर आई हो.

राधा ने मन ही मन बेटे के पसंद की दाद दी. करीब घंटे भर की ड्राइव के बाद गाड़ी एक अपार्टमैंट के सामने रुकी. उतरते ही जूही का उन दोनों का पैर छू कर प्रणाम करना राधा का मन मोह गया. बड़े प्यार से उन्होंने जूही को गले लगा लिया. आकाश का 1 कमरे का घर अच्छा ही लगा उन्हें. जूही और आकाश दोनों मिल कर सामान अंदर ले आए. जब वे दोनों फ्रैश हो गए, तो जूही चाय बना लाई.

चाय पीते हुए राधा जूही को निहारती रहीं. लंच कर अविनाश और राधा सो गए.

‘‘उठिए न मम्मी… आप के उठने का इंतजार कर के जूही चली गई.’’

उठने की इच्छा न होते हुए भी राधा को उठना पड़ा. फिर बड़े दुलार से बेटे का माथा सहलाती हुई बोलीं, ‘‘अरे, चिंता क्यों कर रहा है? मुझे और तेरे पापा को तेरी जूही बहुत पसंद है… सब कुछ अपने जैसा ही तो है उस में… अमेरिका में भी तुम ने अपनी बिरादरी की लड़की ढूंढ़ी यही क्या कम है हमारे लिए? अब जल्दी से उस के परिवार वालों से मिलवा दे. जब यहीं पर शादी करनी है, तो फिर इंतजार क्यों?’’

राधा की बातों से आकाश उत्साहित हो उठा. बोला, ‘‘उस के परिवार में केवल उस के पापा हैं. अपनी मां को तो वह बचपन में ही खो चुकी है. उस के पापा ने फिर शादी नहीं की. जूही को उस की नानी ने ही पाला है. उस के पापा चाहते हैं कि शादी के बाद हम उन्हीं के साथ रहें. लेकिन मैं ने इनकार कर दिया. जिस घर में हम शिफ्ट करने वाले हैं वह उसी एरिया में है. कल चल कर देख लीजिएगा.’’

बेटे की बातों से राधा भावविभोर हो रही थीं. उन के अमेरिका आने से पहले आकाश की पसंद को ले कर सभी ने उन्हें कितना भड़काया था. आकाश तो वैसा ही है… कहीं कोई बदलाव नहीं है उस में… दूसरों की खुशी देख कर लोग जलते भी तो हैं. ऐसे भी आकाश स्कूल से ले कर इंजीनियरिंग करने तक टौप ही तो करता रहा था. आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका आ रहा था तो भी लोगों को कितनी जलन हुई थी. शादी के बाद जूही को ले कर जब इंडिया जाऊंगी तो उस के रूपरंग को देख कर सभी ईर्ष्या करेंगे, ऐसा सोचते ही राधा मुसकरा उठीं.

‘‘क्या सोच कर मुसकरा रही हैं मां?’’ आकाश के पूछने पर राधा वर्तमान में लौट आईं.

‘‘कुछ भी तो नहीं रे… सब कुछ ठीक हो जाए तो सियाटल से अनीता और आदित्य भी आ जाएंगे… सारा इंतजाम कर के मैं आई ही हूं,’’ राधा बोलीं.

आकाश ने फोन पर ही जूही को बता दिया कि वह मम्मी को बहुत पसंद है. दूसरे दिन सवेरे ही जूही पहुंच गई. देखते ही राधा ने उसे गले लगा लिया. फिर उस के घर के बारे में पूछने लगीं.

जूही भी उन से कुछ खुल गई. उस ने उन से पूछा, ‘‘आकाश की तरह क्या मैं भी आप दोनों को मम्मीपापा कह सकती हूं?’’

राधा खुशी से बोलीं, ‘‘क्यों नहीं? अब आकाश से तुम अलग थोड़े ही हो,’’ कुछ ही दिनों की बात है जब तुम भी पूरी तरह से हमारी हो जाओगी.’’

राधा की बात पर जूही ने शरमा कर सिर झुका लिया.

‘‘अच्छा तो मम्मीजी आप लोग पापा और नानी से मिलने कब चल रहे हैं? वे दोनों आप से मिलने के लिए उत्सुक हैं.’’

फिर अगले दिन का करार ले कर ही जूही मानी.

दूसरे दिन सुबह से ही राधा को जूही के घर जाने के लिए जरूरत से ज्यादा उत्साहित देख कर अविनाश उन से छेड़खानी कर रहे थे. इसी बीच जूही गाड़ी ले कर आ गई.

तैयार हो कर राधा और अविनाश कमरे से बाहर निकले. ‘एक युवा बेटे की मां भी इस उम्र में इतनी कमनीय हो सकती है?’ सोच जूही मुसकरा उठी.

रास्ते में सड़क के दोनों ओर की प्राकृतिक सुंदरता देख कर राधा मुग्ध हो उठीं कि सच में अमेरिका परियों और फूलों का देश है.

1 घंटे के बाद फूलों से सजे एक बड़े से घर के सामने गाड़ी रुकी तो उतरते ही एक बड़ी उम्र की संभ्रांत महिला ने सौम्य मुसकान के साथ उन का स्वागत किया, जो जूही की नानी थीं. लिविंगरूम में जूही के पापा अविनाश के पास आ कर बैठ गए. राधा की ओर मुड़े ही थे कि वे चौंक  गए और उन के अभिवादन में उठे हाथ हवा में झूल गए. उधर राधा के जुड़े हाथ भी उन की गोद में गिर गए, जिसे अविनाश के सिवा और कोई न देख सका. राधा के चेहरे पर स्तब्धता थी. सारी खुशियां काफूर हो गई थीं. उन की महीनों की चहचहाट पर अचानक चुप्पी का कुहरा छा गया था. वे असहज हो कर सिर को इधरउधर घुमाते हुए अपनी हथेलियों को मसल रही थीं.

जूही की नानी ही बोले जा रही थीं.

माहौल गरम हो गया था जिसे सहज बनाने का अविनाश अपनी ओर से पूरा प्रयास कर रहे थे.

लंच के समय भी अनमनी सी राधा को देख कर आकाश और जूही हैरान थे कि अचानक इन्हें क्या हो गया?

आखिर जूही की नानी ने राधा को टोक ही दिया, ‘‘क्या बात है राधाजी, क्या मैं और आशीष आप को पसंद नहीं आए? हमें देखते ही चुप हो गईं… छोडि़ए, आप को हमारी जूही तो पसंद है न?’’

यह सुनते ही राधा सकुचा तो गईं, लेकिन बड़े ही रूखे शब्दों में कहा, ‘‘ऐसी कोई बात नहीं है… अचानक सिरदर्द होने लगा.’’

‘‘कुछ भी कहिए, लेकिन अमेरिका में जन्म लेने के बावजूद जूही की परवरिश बेमिसाल है. इस का सारा श्रेय आप लोगों को जाता है. जूही हम दोनों को बहुत पसंद है… शायद इंडिया में भी हम आकाश के लिए ऐसी लड़की नहीं ढूंढ़ पाते… क्यों राधा ठीक कहा न मैं ने?’’

राधा ने उन की बातें अनसुनी कर दीं.

अविनाश की बातों से आशीष थोड़ा मुखर हो उठे. बोले, ‘‘तो अब बताइए कि कैसे आगे का कार्यक्रम रखा जाए?’’

जवाब में राधा ने कहा, ‘‘हम आप को सूचित कर देंगे… अब हम चलना चाहेंगे. आकाश, उठो और टैक्सी बुलाओ… मुझे मानहट्टन होते हुए जाना है… क्यों न हम नीति से मिलते चलें. मामामामी के आने से वह भी बड़ी उत्साहित है. इन सब बातों के लिए जूही को तकलीफ देना ठीक नहीं है.’’

राधा की बातों से सभी चौंक गए.

‘‘इस में तकलीफ जैसी कोई बात नहीं है,’’ आशीषजी बोले, ‘‘अविनाशजी, अगर आप की इजाजत हो तो 2 मिनट मैं अकेले में आप की पत्नीजी से कुछ बातें करना चाहूंगा… जूही जब मात्र 10 साल की थी तभी उस की मां गुजर गईं. अपने कुछ किए गलत कामों का प्रायश्चित्त करने के लिए सभी के आग्रह करने के बावजूद मैं ने दूसरी शादी नहीं की… मैं ने अकेले ही मांबाप दोनों का प्यार, संस्कार दे कर उसे पाला है… जब तक मैं राधाजी की सहमति से पूर्ण संतुष्ट नहीं हो जाता इस रिश्ते के लिए स्वयं को कैसे तैयार कर पाऊंगा?

जवाब में अविनाश का हंसना ही सहमति दे गया. फिर आशीषजी और राधा को छोड़ कर बाकी सभी बाहर निकल गए.

आशीष राधा के समक्ष जा कर खड़े हो गए और फिर भर आए गले से बोले, ‘‘राधा, तुम से छल करने वाला, तुम्हें रुसवा करने वाला तुम्हारे सामाने खड़ा है… जो भी सजा दोगी मुझे मंजूर होगी… मेरी बेटी का कोई कुसूर नहीं है इस में… तुम से मेरी यही प्रार्थना है कि जूही और आकाश को कभी अलग नहीं करना वरना दोनों टूट जाएंगे. एकदूसरे के बगैर वे जी नहीं पाएंगे… सभी की खुशियां अब तुम्हारे हाथ में हैं. जूही ही तुम लोगों को छोड़ने जाएगी. इतनी ही देर में उस का चेहरा उदास हो कर कुम्हला गया है,’’ कह कर आशीष बाहर निकल आए और फिर जूही को इन सब के साथ जाने को कहा तो जूही और आकाश के मुरझाए चेहरे खिल उठे.

पूरा रास्ता राधा आंखें बंद किए चुप रहीं. लौटने के बाद भी वे अनमनी सी लेट गईं, जबकि बाहर से आ कर बिना चेंज किए बैड पर जाना उन्हें कतई पसंद नहीं था.

अविनाश लिविंग रूम में बैठ कर टीवी देखते रहे. शाम हो गई थी. राधा उठ गई थीं. बोलीं, ‘‘सुनिए मैं सामने ही घूम रही हूं. आकाश आ जाए तो आप भी आ जाइएगा,’’ और फिर चप्पलें पहनते हुए सीढि़यां उतर गईं.

बच्चों के पार्क में रखी बैंच पर जा बैठीं. आंखें बंद करते ही 32 साल से बंद अतीत चलचित्र की तरह आंखों के आगे घूम गया…

बड़ी ही धूमधाम से राधा की मंगनी आशीष के साथ हुई थी. किसी फंक्शन में आशीष ने उन्हें देखा था और फिर उस की नजरों में बस गई थीं. मंगनी होने के बाद वे आशीष से कुछ ज्यादा ही खुल गई थीं. तब मोबाइल का जमाना नहीं था. सब के सो जाने के बाद धीरे से वे फोन को उठा कर अपने कमरे में ले जाती. और फिर शुरू होता प्यार भरी बातों का सिलसिला जो देर रात तक चलता. 2 महीने बाद ही शादी का मुहूर्त्त निकला था. इसी बीच अचानक आशीष को किसी प्रोजैक्ट वर्क के सिलसिले में 6 महीने के लिए न्यूयौर्क जाना पड़ा.

शादी नवंबर तक के लिए टल गई. वे मन मसोस कर रह गईं. लेकिन आशीष उज्ज्वल भविष्य के सपनों को आंखों में लिए अमेरिका के लिए रवाना हो गया. फिर राधा अपनी एम.एससी. की परीक्षा की तैयारी में लग गईं. आशीष फिर कभी नहीं लौटा. अमेरिका जाने पर आशीष एक गुजराती परिवार में पेइंगगैस्ट बन कर रहने लगे. अमेरिका उन्हें इतना भाया कि वह वहां से न लौटने का निश्चय कर किसी कीमत पर वहां रहने का जुगाड़ बैठाता रहा. यहां तक कि अपनी कंपनी की नौकरी भी छोड़ दी. सब से सरल उपाय यही था कि वह वहां की किसी नागरिकता प्राप्त लड़की से ब्याह कर ले. फिर आशीष ने उसी गुजराती परिवार की इकलौती लड़की से शादी कर ली. उस के इस धोखे से राधा टूट गई थी. उन्हें ब्याह नाम से चिढ़ सी हो गई थी. फिर कुछ महीने बाद अविनाश के घर से आए रिश्ते के लिए न नहीं की. सब कुछ भुला अविनाश की पत्नी बन गईं. समय के साथ 2 बच्चों की मां भी बन गईं. दोनों बच्चों की अच्छी परवरिश की. पढ़नेलिखने में ही नहीं, बल्कि सारी गतिविधियों में दोनों बड़े काबिल निकले. बी.टैक करते ही बेटी की शादी सुयोग्य पात्र से कर दी. बेटी यहीं सियाट्टल में है. दोनों मल्टीनैशनल कंपनी में कार्यरत हैं. बड़े अरमान के साथ बेटे की शादी का सपना आंखों में लिए यहां आई थीं.

टैनिस टूरनामैंट में आकाश और जूही पार्टनर बने और विजयी हुए. ऐसे ही मिलतेजुलते दोनों एकदूसरे को पसंद करने लगे. आकाश ने फेसबुक पर मां यानी राधा से जूही का परिचय करा दिया था. राधा को जूही में कोई कमी नजर नहीं आई. सलिए उन के रिश्ते पर अपनी स्वीकृति की मुहर लगा दी. अब तक के जीवन में सभी प्रमुख निर्णय राधा ही लेती आई थीं, तो अविनाश को क्यों ऐतराज होता? राधा की खुशी ही उन के लिए सर्वोपरि थी. चूंकि जूही की मां नहीं थी और उसे नानी ने ही पाला था और वे इंडिया आने में लाचार थे, इसलिए निर्णय यही हुआ था कि अगर सब कुछ ठीकठाक हुआ तो वहीं शादी कर देंगे. इस निर्णय से उन की बेटी और दामाद दोनों बहुत खुश हुए. जूही के पिता के परिवार के बारे में उन्होंने ज्यादा छानबीन नहीं की और यहीं धोखा खा गईं. कितना सुंदर सब कुछ हो रहा था कि इस मोड़ पर वे आशीष से टकरा गईं और बंद स्मृतियों के कपाट खुल कर उन्हें विचलित कर गए… बेटे से भी नहीं कह सकतीं कि इस स्वार्थी, धोखेबाज की बेटी के साथ रिश्ता न जोड़ो… सिर से पैर तक उस के प्यार में डूबा हुआ है. वह भी क्यों मानने लगा अपनी मां की बात. दर्द से फटते माथे को दोनों हाथों से थाम वे सिसक उठीं.

तभी अचानक कंधों पर किसी का स्पर्श पा कर मुड़ीं तो पीछे अविनाश को खड़ा पाया.

राधा के हाथों को सहलाते हुए वे उन की बगल में बैठ गए और बड़े सधे स्वर में कहने लगे, ‘‘राधा, अंदर से तुम इतनी कमजोर हो, मैं ने कभी सोचा न था. इतनी छोटी बात को दिल से लगाए बैठी हो. कुछ सुना था और कुछ अनुमान लगा लिया. अरे, आशीष ने तुम्हारे साथ जो किया वह कोई नई बात थोड़े है. यह देश उसे सपनों की मंजिल लगा. जूही की सुंदरता से साफ पता चलता है कि उस की मां कितनी सुंदर रही होगी… वीजा, फिर नागरिकता, रहने को घर, सुंदर पत्नी, सारी सुखसुविधाएं जब उसे इतनी सहजता से मिल गईं तो वह क्या पागल था कि देश लौट आता सिर्फ इसलिए कि उस की मंगनी हुई है? फिर जीवन में सब कुछ होना पहले से ही निर्धारित रहता है तुम्हारी ही तो ऐसी सोच है. तुम्हें मेरी बनना था तो ये महाशय तुम्हें कैसे ले जाते? माना कि बहुत सारी सुखसुविधाएं तुम्हें नहीं दे पाया लेकिन मन में संचित सारे प्यार को अब तक उड़ेलता रहा हूं. अचानक कल से मम्मी को हो क्या गया है, पापा? आकाश का यह पूछना मुझे पसोपेश में डाल गया है. हो सकता है वह सब कुछ समझ भी रहा हो. इतना नासमझ भी तो नहीं है.’’

राधा की आंखों से बहते आंसुओं ने अविनाश को आगे और कुछ नहीं कहने दिया. कुछ देर बाद आंचल से अपने आंसुओं को पोंछती हुई राधा ने कहा, ‘‘मैं कल से सोच रही हूं कि अगर जूही का जैनेटिक्स भी अपने बाप जैसा हुआ तो यह हमारे बेटे को हम से छीन लेगी… कितनी निर्ममता से आशीष अपनों को भूल गया था… उसे देखने के लिए मांबाप की आंखें सारी उम्र तरसती रह गईं और वह घरजमाई बन कर रह गया. इस की बेटी ने कहीं मेरे सीधेसादे बेटे को घरजमाई बना लिया तो हम भी बेटे को देखने को तरसते रह जाएंगे.’’

राधा की बातें सुन कर अविनाश को हंसी आ गई. तभी आकाश भी उन दोनों को खोजते हुए वहां आ गया. सकुचाई हुई मम्मी और हंसते हुए पापा को देख कर प्रश्न भरी आंखों से उन्हें देखा. अविनाश अपनेआप को अब रोक नहीं सके और सारी बात बता दी.

इतना सुनना था कि आकाश छोटे बच्चे की तरह राधा से लिपट गया. बोला, ‘‘मम्मी, आप के लिए जूही तो क्या पूरी दुनिया को छोड़ सकता हूं… इतना ही जाना है आप ने अपने बेटे को? फिर आप दोनों को भी मेरे साथ ही रहना है… आप दोनों के लिए ही तो इतना बड़ा घर लिया है… ऐसे भी इंडिया में है ही कौन आप दोनों का…. एक घर ही तो है? आराम से अब मेरे पास रहें. बीचबीच में दीदी से भी मिलते रहें.’’

आकाश की बातों से राधा के सारे गिलेशिकवे दूर हो गए और फिर से 2 हफ्ते बाद ही बड़ी धूमधाम के साथ आकाश और जूही शादी के बंधन में बंध कर हनीमून के लिए स्विट्जरलैंड चले गए.

1 महीने बाद आने का वादा ले कर बेटी, दामाद एवं नाती सियाट्टल चले गए तो अविनाश ने भी हंसते हुए राधा से कहा, ‘‘क्यों न हम भी हनीमून मना लें… हमारी शादी के बाद तो हमारे साथ हमारे पूरे परिवार ने भी हनीमून मनाया था… याद तो होगा तुम्हें… तुम से मिलने को भी हम तरस कर रह जाते थे. अब बेटे ने विदेश में अवसर दिया है तो हम क्यों चूकें और फिर अभी हम इतने बूढ़े भी तो नहीं हुए हैं.’’

अविनाश की बातें सुन राधा मुसकरा दीं और फिर शरमा कर अविनाश से लिपटते हुए अपनी सहमति जता दी.

थोड़ी सी बेवफाई: ऐसा क्या देखा था सरोज ने प्रिया के घर

कपड़ेसुखातेसुखाते सरोज ने एक नजर सामने वाले घर की छत पर भी डाली. उस घर में भी अकसर उसी वक्त कपड़े सुखाए जाते थे. हालांकि उस घर में रहने वाली महिला से सरोज की अधिक जानपहचान नहीं थी, फिर भी कपड़े सुखातेसुखाते रोजाना होने वाले वार्त्तालाप से ही आपसी दुखसुख की बातें हो जाती थीं. बातों ही बातों में सरोज को पता चला कि उस महिला का नाम प्रिया है और उस के पति का नाम प्रकाश. प्रकाशजी एक बैंक औफिसर थे तथा घर के पास ही एक बैंक में कार्यरत थे. प्रकाश एवं प्रिया की एक छोटी बेटी थी- पाखी. छोटा सा खुशहाल परिवार था. छुट्टी के दिन वे अकसर घूमने जाते थे.

प्रकाशजी बहुत ही सुंदर एवं हंसमुख स्वभाव के थे, यह सरोज को भी नजर आता था पर प्रिया स्वयं भी सदा उन की तारीफों के पुल बांधा करती थी. ‘‘देखिए न भाभीजी, आज ये फिर मेरे लिए नई साड़ी ले आए. मैं ने तो मना किया था, पर माने ही नहीं. मेरा बहुत खयाल रखते हैं ये,’’ एक दिन प्रिया ने बड़े ही गर्व से बताया.

‘‘अच्छी बात है… सच में तुम्हें इतना हैंडसम, काबिल और प्यार करने वाला पति मिला है,’’ कह सरोज ने मन ही मन सोचा, काश दुनिया में सभी विवाहित जोड़े इसी प्रकार खुश रहते तो कितना अच्छा होता. एक आदर्श पतिपत्नी हैं दोनों. सरोज और प्रिया की बातचीत का मुद्दा अकसर उन का घरपरिवार ही हुआ करता था, जिस में भी प्रिया की 80 फीसदी बातें प्रकाशजी की प्रशंसा और प्यार से जुड़ी होती थीं.

एक दिन प्रिया ने सरोज से कहा, ‘‘भाभीजी, मेरे पापा की तबीयत बहुत खराब है. अब मुझे कुछ दिन उन के पास जाना होगा. मन तो नहीं मानता कि प्रकाश को अकेले छोड़ कर जाऊं, पर क्या करूं मजबूरी है. प्लीज, आप थोड़ा इन का ध्यान रखिएगा. खानेपीने की व्यवस्था तो बैंक में ही हो जाएगी… उस की मुझे कोई चिंता नहीं है, पर हमारा घर सारा दिन सूना रहेगा… आप आतेजाते एक नजर इधर भी डाल लिया करना.’’ ‘‘ठीक है, तुम बेफिक्र हो कर जाओ,’’ सरोज ने कहा और फिर प्रिया के जाने के बाद वह एक पड़ोसिन की जिम्मेदारी निभाते हुए आतेजाते एक नजर उन के घर पर भी डाल लेती थी.

इन दिनों प्रकाशजी को बैंक में वर्कलोड ज्यादा था, इसलिए वे काम में काफी व्यस्त रहते थे. सरोज से उन की मुलाकात नहीं हो पाती थी. प्रिया को गए 15 दिन से ऊपर हो गए थे, परंतु वह अभी तक लौटी नहीं थी. प्रकाशजी भी दिखाई नहीं देते थे. सरोज को चिंता होने लगी थी कि कहीं उस के पिताजी की तबीयत ज्यादा खराब तो नहीं हो गई… पूछे तो किस से… रात के 11 बजे थे. सरोज अपने घर के मेन गेट पर ताला लगाने के लिए बाहर आई तो

सामने वाले घर के आगे प्रकाशजी की गाड़ी रुकती दिखी. गाड़ी का दरवाजा खुला और उस में से एक महिला भी प्रकाशजी के साथ उतरी.

‘‘अरे लगता है प्रिया आ गई,’’ सरोज चहकी और आवाज देने ही वाली थी कि उस महिला की वेशभूषा और शारीरिक गठन देख कर रुक गई.

‘नहींनहीं यह प्रिया नहीं लगती. प्रिया कभी जींसटौप नहीं पहनती और न ही वह इतनी दुबलीपतली है. बालों का स्टाइल भी प्रिया से बिलकुल अलग है. यह प्रिया नहीं कोई और है,’ सोच कर सरोज दरवाजे की ओट में

छिप कर खड़ी हो गई. उस ने देखा कि प्रकाशजी ने उस महिला को घर के अंदर चलने का इशारा किया और फिर दोनों घर के अंदर चले गए.

हो सकता है यह प्रकाशजी के बैंक की सहकर्मचारी हो. किसी काम की वजह से आई हो, सरोज ने सोचा, ‘पर रात के 11 बजे ऐसा क्या काम है. कहीं कोई गड़बड़ तो नहीं,’ सरोज को बड़ा अटपटा सा लग रहा था. इसी सोच में उसे सारी रात नींद नहीं आई. सिर भारी होने के कारण वह अगले दिन सुबह जल्दी उठ गई ताकि चाय बना कर पी सके. ‘बाहर से अखबार ले आती हूं. 6 बजे तक आ ही जाता है,’ सोच कर सरोज बाहर बरामदे में निकली तो प्रकाशजी को उसी महिला के साथ घर से बाहर निकल गाड़ी की ओर बढ़ते देखा.

अचानक प्रकाशजी की नजरें सरोज की नजरों से मिली और तत्क्षण ही झुक भी गईं मानो उन की कोई चोरी पकड़ी गई हो. वे चुपचाप गाड़ी में बैठ गए, साथ में वह महिला भी. शायद वे उसे छोड़ने जा रहे थे. सरोज का भ्रम सही था.

‘बाप रे, कितना बहुरुपिया है यह आदमी… दिखाने को तो अपनी पत्नी से इतना प्रेम करता है और उस के पीछे से यह गुल खिला रहा है,’ सरोज मन ही मन बुदबुदाई.

सरोज मन ही मन सोचने लगी कि पूरी रात यह औरत प्रकाशजी के साथ घर में अकेली थी… सच इस दुनिया में किसी पर भरोसा नहीं किया जा सकता. अरे, इस से अच्छे तो वे पति हैं, जो भले ही अपनी बीवियों से रातदिन लड़ते रहते हों, पर दिल से प्रेम करते हैं. ये सब सोचतेसोचते सरोज अंदर आ गई. अखबार ला कर मेज पर पटक दिया. अब न तो उस की रुचि अखबार पढ़ने में रही थी और न ही चाय पीने की इच्छा रही थी. वह चादर ओढ़ कर पलंग पर लेट गई और फिर प्रिया के बारे में सोचने लगी…

कितनी मासूम है प्रिया. बेचारी जातेजाते भी अपने पति की चिंता कर रही थी कि इतने दिन अकेले कैसे रहेंगे… पर यहां तो अलग ही मंजर है. लगता है प्रकाशजी तो इसी दिन का इंतजार कर रहे थे. आने दो प्रिया को… यदि इन बाबूजी की पोल न खोली तो मेरा नाम भी सरोज नहीं. जब प्रिया इन्हें आड़े हाथों लेगी तब पता चलेगा बच्चू को. सारी मौजमस्ती भूल जाएंगे जनाब. ऐसे पतियों को तो सबक सिखाना ही चाहिए. पत्नियों की तो जरा सी भी गलती इन्हें बरदाश्त नहीं होती. स्वयं चाहे कुछ भी करें… अरे वाह, यह भी कोई

बात हुई मर्द जात की… यह तो सरासर अन्याय है पत्नियों के साथ. यह विश्वासघात है. उन्हें इस का फल मिलना ही चाहिए, सोचतेसोचते सरोज को फिर नींद आ गई.

रविवार का दिन था. सरोज ने बालों में शैंपू किया था तथा साथ ही कुछ कपड़े भी धो लिए थे. वह बाल खुले छोड़ कर छत पर गई ताकि धूप में बाल भी सूख जाएं तथा कपड़े भी. आदतन उस की नजर फिर सामने वाली छत पर पड़ी. आज वहां भी कपड़े सूख रहे थे, ‘यानी प्रिया आ गई है. मुझे उस से मिल कर आना चाहिए. जा कर उस के पिताजी का हालचाल भी पूछ लूं तथा उस के पीछे से उस के पति ने जो कारनामा किया है उस की भी जानकारी बातों ही बातों में उसे दे दूं ताकि वह आगे से सतर्क रहे,’ यह सोच कर सरोज प्रिया के घर चल दी.

सरोज को प्रिया बाहर ही मिल गई. नया सलवारकुरता पहन रखा था तथा हाथ में हैंडबैग था. लगता था कहीं जाने की तैयारी है. ‘‘प्रिया कब आई तुम?

कैसे हैं तुम्हारे पापा?’’ सरोज ने पूछा.

‘‘आज सुबह ही. पापा की तबीयत ठीक है, इसलिए चली आई. स्कूल भी तो मिस हो रहा था पाखी का. इधर इन के फोन पर फोन आ रहे थे कि जल्दी आओ… जल्दी आओ… तुम्हारे बिना मन नहीं लग रहा. सच भाभीजी, ये तो मेरे बिना रह ही नहीं सकते. इसीलिए तो चली आई वरना कुछ दिन और रह लेती.’’

तभी प्रकाशजी भी आ गए. पाखी उन की गोद में थी और प्रकाशजी उसे बारबार चूम रहे थे. पाखी भी पापापापा कह कर उन से लिपट रही थी. ‘‘हैलो पाखी, कैसी हो? जानती हो मैं ने तुम्हें बहुत मिस किया,’’ सरोज ने प्रकाशजी की ओर देखते हुए पाखी से कहा तो प्रकाशजी ने नजरें झुका लीं और फिर संकोचवश नजरें उठा कर सरोज की ओर देखा मानो अपना अपराध स्वीकार कर रहे हों.

‘‘अरे प्रिया, तुम्हारे प्रकाशजी तो तुम्हारे दीवाने हैं… तुम्हारे बिना ऐसे हो गए थे जैसे प्राण बिना तन. एक दिन तो मुझ से कहने लगे ‘‘भाभीजी, जब बैंक से घर आता हूं तो सूनासूना घर काटने को दौड़ता है. सच, पत्नी, बच्चों के बिना घर घर नहीं लगता.’’ प्रिया के चेहरे पर मुसकराहट दौड़ गई. उस ने शरमा कर प्रकाशजी की ओर देखा.

सरोज फिर बोली, ‘‘अरे, मैं ने भी बेवक्त तुम लोगों को किन बातों में उलझा दिया… शायद तुम लोग कहीं जा रहे हो… बहुत दिन हो गए प्रकाशजी को अकेले बोर होते हुए.’’ ‘‘हां मूवी देखने जा रहे हैं… लौटते समय किसी रैस्टोरैंट में पिज्जा खाएंगे. प्रिया और पाखी को बहुत पसंद है,’’ प्रकाशजी ने गाड़ी का दरवाजा खोलते हुए कहा. उन की आंखों में सरोज के प्रति कृतज्ञता झलक रही थी.

प्रिया और पाखी गाड़ी में बैठ गईं तथा प्रकाशजी ने गाड़ी स्टार्ट कर दी. आज तो सरोज प्रिया को बिना कुछ कहे घर लौट आई थी, पर अब उस ने यह निर्णय भी ले लिया था कि वह प्रिया को उस दिन के बारे में कभी कुछ नहीं बताएगी, क्योंकि उस ने महसूस किया कि यदि वह ऐसा करेगी तो यह प्रकाशजी के लिए तो अपमानजनक होगा ही, प्रिया को भी उस से आघात ही पहुंचेगा.

सरोज को लगा कि यदि प्रकाशजी की इस तनिक सी बेवफाई पर परदा ही पड़ा रहने दिया जाए तो उचित होगा. इस तरह कम से कम पतिपत्नी में प्यार का भ्रम बना रहने से एक खुशहाल परिवार तो आबाद रहेगा और शायद भविष्य में प्रकाशजी को भी अपनी भूल व नादानी समझ आ जाए और वे फिर कभी ऐसा न करें, क्योंकि कई बार अपराधी को दंड देने के बजाय माफ करना ज्यादा लाभकारी सिद्ध होता है.

गूंगी गूंज- क्यों मीनो की गुनाहगार बन गई मां?

“रिमझिम के तराने ले के आई बरसात, याद आई किसी से वो पहली मुलाकात,” जब
भी मैं यह गाना सुनती हूं, तो मन बहुत विचलित हो जाता है, क्योंकि याद
आती है, पहली नहीं, पर आखिरी मुलाकात उस के साथ.

आज फिर एक तूफानी शाम है. मुझे सख्त नफरत है वर्षा  से. वैसे तो यह भुलाए
न भूलने वाली बात है, फिर भी जबजब वर्षा होती है तो मुझे तड़पा जाती है.

मुझे याद आती है मूक मीनो की, जो न तो मेरे जीवन में रही और न ही इस
संसार में. उसे तकदीर ने सब नैमतों से महरूम रखा था. जिन चीजों को हम
बिलकुल सामान्य मानते हैं, वह मीनो के लिए बहुत अहमियत रखती थीं. वह मुंह
से तो कुछ नहीं बोल सकती थी, पर उस के नयन उस के विचार प्रकट कर देते थे.

कहते हैं, गूंगे की मां ही समझे गूंगे की बात. बहुतकुछ समझती थी, पर मैं
अपनी कुछ मजबूरियों के कारण मीनो को न चाह कर भी नाराज कर देती थी.

बारिश की पहली बूंद पड़ती और वह भाग कर बाहर चली जाती और खामोशी से आकाश
की ओर देखती, फिर नीचे पांव के पास बहते पानी को, जिस में बहती जाती थी
सूखें पत्तों की नावें. ताली मार कर खिलखिला कर हंस पड़ती थी वह.

बादलों को देखते ही मेरे मन में एक अजीब सी उथलपुथल हो जाती है और एक
तूफान सा उमड़ जाता है जो मुझे विचलित कर जाता है और मैं चिल्ला उठती हूं
मीनो, मीनो…

मीनो जन्म से ही मानसिक रूप से अविकसित घोषित हुई थी. डाक्टरों की सलाह
से बहुत जगह ले गई, पर कहीं उस के पूर्ण विकास की आशा नजर नहीं आई.

मीनो की अपनी ही दुनिया थी, सब से अलग, सब से पृथक. सब सांसारिक सुखों से
क्या, वह तो शारीरिक व मानसिक सुख से भी वंचित थी. शायद इसीलिए वह कभीकभी
आंतरिक भय से प्रचंड रूप से उत्तेजित हो जाती थी. सब को उस का भय था और
उसे भय था अनजान दुनिया का, पर जब वह मेरे पास होती तो हमेशा सौम्य, बहुत
शांत व मुसकराती रहती.

बहुत कोशिश की थी उस रोज कि मुझे गुस्सा न आए, पर 6 वर्षों की सहनशीलता
ने मानसिक दबावों के आगे घुटने टेक दिए थे और क्रोध सब्र का बांध तोड़ता
हुआ उमड़ पड़ा था. क्या करती मैं? सहनशीलता की भी अपनी सीमाएं होती हैं.

एक तरफ मीनो, जिस ने सारी उम्र मानसिक रूप से 3 साल का ही रहना था और
दूसरी ओर गोद में सुम्मी. दोनों ही बच्चे, दोनों ही अपनी आवश्यकताओं के
लिए मुझ पर निर्भर.

उस दिन एहसास हुआ था मुझे कि कितना सहारा मिलता है एक संयुक्त परिवार से.
कितने ही हाथ होते हैं आप का हाथ बंटाने को और इकाई परिवार में
स्वतंत्रता के नाम पर होती है आत्मनिर्भरता या निर्भर होना पड़ता है
मनमानी करती नौकरानी पर. नौकर मैं रख नहीं सकती थी, क्योंकि मेरी 2
बेटियां थीं और कोई उन पर बुरी नजर नहीं डालेगा, इस की कोई गारंटी नहीं
थी.

आएदिन अखबारों में ऐसी खबरें छपती रहती हैं. मीनो के साथसाथ मेरा भी
परिवार सिकुड़ कर बहुत सीमित हो गया था. संजीव, मीनो, सुम्मी और मैं.
कभीकभी तो संजीव भी अपने को उपक्षित महसूस करते थे. हमारी कलह को देख कर
कई लोगों ने मुझे सलाह दी कि मीनो को मैं पागलखाने में दाखिल करा दूं और
अपना ध्यान अपने पति और दूसरी बच्ची पर पूरी तरह दूं, पर कैसे करती मैं
मीनो को अपने से दूर. उस का संसार तो मैं ही थी और मैं नहीं चाहती थी कि
उसे कोई तकलीफ हो, पर अनचाहे ही सब तकलीफों से छुटकारा दिला दिया मैं ने.

उस दिन मेरा और संजीव का बहुत झगड़ा हुआ था. फुटबाल का ‘विश्व कप’ का
फाइनल मैच था. मैं ने संजीव से सुम्मी को संभालने को कहा, तो उस ने मना
तो नहीं किया, पर बुरी तरह बोलना शुरू कर दिया.

यह देख मुझे बहुत गुस्सा आया और मैं ने भी उलटेसीधे जवाब दे दिए. फुटबाल
मैच में तो शायद ब्राजील जीता था, परंतु उस मौखिक युद्ध में हम दोनों ही
पराजित हुए थे. दोनों भूखे ही लेट गए और रातभर करवटें बदलते रहे.

सुबह भी संजीव नाराज थे. वे कुछ बोले या खाए बिना दफ्तर चले गए. जैसेतैसे
बच्चों को कुछ खिलापिला कर मैं भी अपनी पीठ सीधी करने के लिए लेट गई.
हलकीहलकी ठंडक थी. मैं कंबल ले कर लेटी ही थी कि मीनो, जो खिलौने से खेल
रही थी, मेरे पास आ गई. मैं ने हाथ बाहर निकाल उसे अपने पास लिटाना चाहा,
पर मीनो बाहर बारिश देखना चाहती थी.

मैं ने 2-3 बार मना किया, मुझे डर था कि कहीं मेरी ऊंची आवाज सुन कर
सुम्मी न जाग जाए. उस समय मैं कुछ भी करने के मूड में नहीं थी. मैं ने एक
बार फिर मीनो को गले लगाने के लिए बांह आगे की और उस ने मुझे कलाई पर काट
लिया.

गुस्से में मैं ने जोर से उस के मुंह पर एक तमाचा मार दिया और चिल्लाई,
‘‘जानवर कहीं की. कुत्ते भी तुम से ज्यादा वफादार होते हैं. पता नहीं
कितने साल तेरे लिए इस तरह काटने हैं मैं ने अपनी जिंदगी के.’’

कहते हैं, दिन में एक बार जबान पर सरस्वती जरूर बैठती है. उस दिन दुर्गा
क्यों नहीं बैठी मेरी काली जबान पर. अपनी तलवार से तो काट लेती यह जबान.

थप्पड़ खाते ही मीनो स्तब्ध रह गई. न रोई, न चिल्लाई. चुपचाप मेरी ओर बिना
देखे ही बाहर निकल गई मेरे कमरे से और मुंह फेर कर मैं भी फूटफूट कर रोई
थी अपनी फूटी किस्मत पर कि कब मुक्ति मिलेगी आजीवन कारावास से, जिस में
बंदी थी मेरी कुंठाएं. किस जुर्म की सजा काट रही हैं हम मांबेटी?

एहसास हुआ एक खामोशी का, जो सिर्फ आतंरिक नहीं थी, बाह्य भी थी. मीनो
बहुत खामोश थी. अपनी आंखें पोंछती मैं ने मीनो को आवाज दी. वह नहीं आई,
जैसे पहले दौड़ कर आती थी. रूठ कर जरूर खिलौने पर निकाल रही होगी अपना
गुस्सा.

मैं उस के कमरे में गई. वहां का खालीपन मुझे दुत्कार रहा था. उदासीन बटन
वाली आंखों वाला पिंचू बंदर जमीन पर मूक पड़ा मानो कुछ कहने को तत्पर था,
पर वह भी तो मीनो की तरह मूक व मौन था.

घबराहट के कारण मेरे पांव मानो जकड़ गए थे. आवाज भी घुट गई थी. अचानक अपने
पालतू कुत्ते भीरू की कूंकूं सुन मुझे होश सा आया. भीरू खुले दरवाजे की
ओर जा कूंकूं करता, फिर मेरी ओर आता. उस के बाल कुछ भीगे से लगे.

यह देख मैं किसी अनजानी आशंका से भयभीत हो गई. कितने ही विचार गुजर गए
पलछिन में. बच्चे उठाने वाला गिरोह, तेज रफ्तार से जाती मोटर कार का मीनो
को मारना.

भीरू ने फिर कूंकूं की तो मैं उस के पीछे यंत्रवत चलने लगी. ठंडक के
बावजूद सब पेड़पौधे पानी की फुहारों में झूम रहे थे. मेरा मजाक उड़ा रहे
थे. मानव जीवन पा कर भी मेरी स्थिति उन से ज्यादा दयनीय थी.

भीरू भागता हुआ सड़क पर निकल गया और कालोनी के पार्क में घुस गया. मैं उस
के पीछेपीछे दौड़ी. भीरू बैंच के पास रुका. बैंच के नीचे मीनो सिकुड़ कर
लेटी हुई थी. मैं ने उसे उठाना चाहा, पर वह और भी सिकुड़ गई. उस ने कस कर
बैंच का सिरा पकड़ लिया. मैं बहुत झुक नहीं सकती. हैरानपरेशान मैं इधरउधर
देख रही थी, तभी संजीव को अपनी ओर आते देखा.

संजीव ने घर फोन किया, लेकिन घंटी बजती रही, इसलिए परेशान हो कर दफ्तर से
घर आया था. खुले दरवाजे व सुम्मी को अकेला देख बहुत परेशान था कि मिसेज
मेहरा ने संजीव को मेरा पार्क की तरफ भागने का बताया. वे भी अपना दरवाजा
बंद कर आ रही थीं.

संजीव ने झुक कर मीनो को बुलाया तो वह चुपचाप बाहर घिसट कर आ गई. मीनो को
इस प्रव्यादेश का जिंदगी में सब से बड़ा व पहला धक्का लगा था. पर मैं खुश
थी कि कोई और बड़ा हादसा नहीं हुआ और मीनो सुरक्षित मिल गई.

घर आ कर भी वह वैसे ही संजीव से चिपटी रही. संजीव ने ही उस के कपड़े बदले
और कहा, ‘‘इस का शरीर तो तप रहा है. शायद, इसे बुखार है,” मैं ने जैसे ही
हाथ लगाना चाहा, मीनो फिर संजीव से लिपट गई और सहमी हुई अपनी बड़ीबड़ी
आंखों से मुझे देखने लगी.

मैं ने उसे प्यार से पुचकारा, “आ जा बेटी, मैं नही मारूंगी,” पर उस के
दिमाग में डर घर कर गया था. वह मेरे पास नहीं आई.

”ठंड लग गई है. गरम दूध के साथ क्रोसीन दवा दे देती हूं,“ मैं ने मायूस
आवाज में कहा.

“सिर्फ दूध दे दो. सुबह तक बुखार नहीं उतरा, तो डाक्टर से पूछ कर दवा दे
देंगे,” संजीव का सुझाव था.

मैं मान गई और दूध ले आई. थोड़ा सा दूध पी मीनो संजीव की गोद में ही सो
गई. अनमने मन से हम ने खाना खाया. सुबह का तूफान थम गया था. शांति थी हम
दोनों के बीच.

संजीव ने प्यार भरे लहजे से पूछा, “उतरा सुबह का गुस्सा?”

उस का यह पूछना था और मैं रो पड़ी.

“पगली सब ठीक हो जाएगा?” संजीव ने प्यार से सहलाया. मेरी रुलाई और फूटी.
मन पर एक पत्थर का बोझ जो था मीनो को तमाचा मारने का.

मीनो सुबह उठी तो सहज थी. मेरे उठाने पर गले भी लगी. मैं खुश थी कि मुझे
माफ कर वह सबकुछ भूल गई है. मुझे क्या पता था कि उस की माफी ही मेरी सजा
थी.

मीनो को बुखार था, इसलिए हम उसे डाक्टर के पास ले गए. डाक्टर ने सांत्वना
दी कि जल्दी ही वह ठीक हो जाएगी, पर मानो मीनो ने न ठीक होने की जिद पकड़
ली हो. 4 दिन बाद बुखार टूटा और मीनो शांति से सो गई- हमेशाहमेशा के लिए,
चिरनिद्रा में. मुक्त कर गई मुझे जिंदगीभर के बंधनों से. और अब जब भी
बारिश होती है, तो मुझे उलाहना सा दे जाती है और ले आती है मीनो का एक
मूक संदेश, ”मां तुम आजाद हो मेरी सेवा से. मैं तुम्हारी कर्जदार नहीं
बनना चाहती थी. सब ऋणों से मुक्त हूं मैं.

‘‘मीनो मुझे मुक्त कर इस सजा से. यादों के साथ घुटघुट कर जीनेमरने की सजा.”

लेखिका- नीलमणि भाटिया

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