अब मैं समझ गई हूं- भाग 1: क्या रिमू के परिवार को समझा पाया अमन

आज हमारे विवाह की 5वीं वर्षगांठ थी. वैवाहिक जीवन के ये 10 वर्ष मेरे लिए किसी चुनौती से कम न थे क्योंकि इन सालों में अपने वैवाहिक जीवन को सफल बनाने के लिए मैं ने कसर नहीं छोड़ी थी. खुशी इस बात की भी थी कि मैं अपनी पत्नी को भी अपने रंग में ढालने में सफल हो गया था.

इन चंद वर्षों में मैं यह भी समझ गया था कि बचपन में बच्चों को दिए गए संस्कारों को बदलना कितना मुशकिल होता है. आप को बता दूं कि रिमू यानी मेरी पत्नी रीमा मेरी बचपन की मित्र थी. उस से विवाह होना मेरे लिए बहुत बड़ी खुशी की बात थी. जिस से आप प्यार करते हो उसी को अपनी पत्नी के रूप में प्राप्त करना जीवन की बहुत बड़ी उपलब्धि तो कहा ही जा सकता है.

रीमा मेरा पहला प्यार थी. जब हम एकदूसरे को टूट कर चाहने लगे थे तब हमें स्वयं ही पता नहीं था कि हमारे प्यार का भविष्य क्या होगा परंतु फिर भी चांदनी रात के दूधिया उजाले में एकदूसरे का हाथ थामे हम दोनों घंटों बैठे रहते थे. रीमा की कोयल स्वरूप मधुर वाणी से झरते हुए शब्दरूपी फूलों जैसी उस की बातें मेरा मन मोह  लेती थीं.

तब मैं ग्रेजुएशन कर रहा था, जब रीमा का परिवार हमारे पड़ोस में रहने आया था. उस का घर मेरे घर से 10 कदम की दूरी पर ही था. उस दिन मैं जब कालेज से लौटा तो अपने घर से कुछ दूरी पर सामान से लदा ट्रक खड़ा देख कर चौंक गया था. तेज कदमों से अंदर जा कर मां से पूछा, ‘‘मां, यह सामान किस का है? कौन आया है रहने?’’

‘‘मुझे क्या पता किस का है? तू भी फालतू की बातों में अपना दिमाग खराब मत कर, खाना तैयार है चुपचाप खा ले.’’

कह कर मां अपने काम में व्यस्त हो गई. पर मेरा मन तो न जाने क्यों उस ट्रक में ही उलझ था. सो, मैं अपने कमरे की खिड़की से झंकने लगा. तभी वहां एक कार आ कर रुकी और उस में से पतिपत्नी और 2 बेटियां उतरी थीं. बड़ी बेटी लगभग 20 और छोटी 15 वर्ष की रही होगी.

गोरीचिट्टी, लंबी उस कमसिन नवयुवती को देख कर मैं ने मन ही मन कहा, ‘लगता है कुदरत ने इसे बड़ी ही फुरसत में बनाया है. क्या बला की खूबसूरती पाई है.’

उस के बारे में सोच कर ही मेरा मन सौसौ फुट ऊपर की छलांग लगाने लगा था. उस के बाद तो मेरा युवामन न पढ़ने में लगता और न ही अन्य किसी काम में. खैर, जिंदगी तो जीनी ही थी. अब मैं अकसर अपने कमरे की उस खिड़की पर बैठने लगा था, बस, उस की एक झलक पाने के लिए. कभी तो झलक मिल जाती थी पर कभी पूरे दिन में एक बार भी नहीं.

लगभग एक माह बाद जब मैं अपने कालेज की लाइब्रेरी से बाहर आ रहा था तो अचानक लाइब्रेरी के अंदर आते उसे देखा.  बस, लगा मानो जीवन सफल हो गया. सहसा अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ. एक बार फिर उसे घूर कर देखा और आश्वस्त होते ही मैं ने वापस अपने कदम लाइब्रेरी की ओर मोड़ दिए थे. अंदर जा कर उस की बगल की सीट पर बैठ गया था. कुछ देर तक अगलबगल झंकने के बाद मैं ने अपना हाथ उस की ओर बढ़ा दिया था.

‘‘हैलो, माईसैल्फ अमन जैन, स्टूडैंट औफ बीएससी थर्ड ईयर.’’

‘‘हैलो, आई एम रीमा गुप्ता, स्टूडैंट औफ बीएस फर्स्ट ईयर. अभी कल ही मेरा एडमिशन हुआ है.’’

उस ने मुझे अपना परिचय देते सकुचाते हुए कहा था, ‘‘पापा के ट्रांसफर के कारण मेरा एडमिशन कुछ लेट हुआ है. क्या आप नोट्स वगैरह बनाने में मेरी कुछ मदद कर देंगे?’’

‘‘व्हाई नौट, एनीटाइम. वैसे मेरा घर तुम्हारे घर के नजदीक ही है,’’ मैं ने दो कदम आगे रह कर कहा था और इस तरह हमारी प्रथम मुलाकात हुई थी.

नोट्स के आदानप्रदान के साथ ही हम कब एकदूसरे को दिल दे बैठे थे, हमें ही पता नहीं चला था. ग्रेजुएशन के बाद मैं राज्य प्रशासनिक सेवा की तैयारी करने लगा था और वह पोस्ट ग्रेजुएशन की. उस से मिलना तपती धूप में एसी की ठंडी हवा का एहसास कराता था.

2 वर्ष की कड़ी मेहनत के बाद मेरा चयन जिला खाद्य अधिकारी के पद के लिए हो गया था. जिस दिन मुझे अपने चयन की सूचना मिली, मैं बहुत खुश था और शाम का इंतजार था क्योंकि हम दोनों पास के पार्क में लगभग रोज ही मिलते थे.

उस दिन भी मैं नियत समय पर पहुंच गया था. पर आज मेरी रिमू नहीं आई थी. लगभग एक घंटे तक इंतजार करने के बाद मैं मायूस हो उठा और वापस जाने के लिए कदम बढ़ाए ही थे कि अचानक सामने से मुझे वह आती दिखाई दी.

‘‘अरे आज इतनी लेट क्यों? और यह मेरा गुलाब मुरझया हुआ क्यों है?’’ मेरे इतना कहते ही वह मुझ से लिपट गई थी.

‘‘अमन, हम अब इतने आगे आ गए हैं कि अब तुम्हारे बिना जीना मुश्किल है. मेरे घर वाले शादी की बातें कर रहे हैं. क्या तुम मुझे अपनाओगे?’’ रिमू ने बिना किसी लागलपेट के मेरे सामने शादी का प्रस्ताव रख दिया था और मैं हतप्रभ सा उसे देखता ही रह गया था.

‘‘हांहां, क्यों नहीं, मैं कब तुम्हारे बिना रह पाऊंगा,’’ कह कर मैं ने उसे अपने सीने से लगा लिया था.

उस के बाद मेरा सर्विस जौइन करना और रिमू के पापा का ट्रांसफर पास के ही शहर में होना, सबकुछ इतनी जल्दी में हुआ कि कुछ सोचनेविचारने का समय ही नहीं मिला. मैं और रिमू फोन के माध्यम से एकदूसरे से टच में अवश्य थे. मैं ने भी अपनी पत्नी के रूप में सिर्फ रिमू की ही कल्पना की थी.

नौकरी जौइन करने के बाद जब पहली बार मैं घर आया तो मां ने मेरे विवाह की बात की. मैं अपनी मां से प्रारंभ से ही प्रत्येक बात शेयर करता रहा था, सो मां से अपने दिल की बात कह डाली.

‘‘मां, मैं और किसी से विवाह नहीं कर पाऊंगा और जो भी करूंगा आप की अनुमति से ही करूंगा.’’

‘‘कौन लोग हैं वे और क्या करते हैं. किस जाति और धर्म के हैं?’’ मां ने कुछ अनमने से स्वर में पूछा था.

जब मैं ने उन्हें अपने पड़ोसी की याद दिलाई तो वे बोलीं, ‘‘अच्छा, वह गुप्ता परिवार की बात कर रहे हो. तुम उन की बड़ी बेटी को… मैं ने देखा है क्या… उस के परिवार वाले तैयार हैं?’’

‘‘अपने परिवार वालों को रिमू स्वयं संभालेगी मां. आप तो अपनी बात कीजिए.’’

‘‘तुम्हें तो पता है कि तुम्हारे पापा और मेरे लिए केवल तुम्हारी पसंद ही माने रखती है. इस के अलावा और कुछ नहीं. हमें तुम पर पूरा भरोसा है कि तुम्हारा चयन गलत नहीं होगा?’’ मां की बातें सुन कर मैं प्यार से अभिभूत हो उन के गले लग गया था.

छितराया प्रतिबिंब- भाग 4: क्या हुआ था मलय के साथ

मगर फिर भी इतने दिन होने को आए, मैं कहां हूं, उसे यह भी नहीं पता. 10 दिन पर मां को पता चला तो हो सकता है कि अब उसे पता चला हो लेकिन ये 10 दिन क्या उसे मेरी जरा भी परवा नहीं, बस खर्चे को पैसे उपलब्ध हो गए तो मेरी जरूरत ही नहीं? यही हैं उस के शादी के आदर्श?

भोर के 3 बजे अचानक एक एसएमएस की आवाज से हलकी सी तंद्रा उचट गई. औफिस से 15 दिन की छुट्टी ले कर आया था और बता कर भी कि मैं कहां जा रहा हूं लेकिन इतनी रात गए मुझे मेरे छुट्टी समाप्त होने की सूचना देंगे और जबकि अब भी 2 दिन बाकी हैं. एक क्षण को लगा कि मेरे किसी दोस्त ने अपनी नींद छोड़ कर कोई नौनवेज जोक मारा हो.

अनिच्छा के बावजूद मैं ने एसएमएस चैक किया. मुझ से लेटे हुए यह पढ़ा नहीं गया, मैं उठ बैठा. अपने चारों ओर रजाई को खींच कर ऐसे बैठा जैसे प्रतीति की बांहें मुझे अपने आगोश में बहुत दिनों बाद खींच रही हों.

‘‘प्रिय, और कितनी परीक्षा लोगे? अपनी तकलीफ सहने की शक्ति मैं ने जितनी बढ़ा ली है तुम में भी तकलीफ देने की क्षमता उतनी ही बढ़ती गई है. एक तुम्हारे भरोसे मैं अपनी पिछली सारी दुनिया त्याग कर तुम्हारे पास आ गई और तुम पता नहीं कौन से मन की भूलभुलैया में गुम हो कर मुझे और कुक्कू को छोड़ कर ही चल दिए. तुम कैसे कर सके ये सबकुछ? कुक्कू और मैं तुम्हारे हैं, मगर तुम तो बस खुद के ही हो कर रह गए. मैं जानती हूं कि तुम्हारी जिंदगी का पिछला इतिहास तुम्हें विचलित करता है लेकिन यह नहीं समझते कि इतिहास वर्तमान में हमेशा नहीं आता.’’

एसएमएस समाप्त नहीं हुआ था लेकिन प्रतीति के फोन से आया था. मैं इन बातों का गहराई से मंथन करता कि दूसरा एसएमएस आया. सोचा न जाने किस का हो, लेकिन मन यह सोच कर व्याकुल होने लगा कि न जाने प्रतीति आगे क्या कहना चाह रही होगी.

मैं ने मोबाइल अपनी आंखों के सामने रखा, प्रतीति ने आगे लिखा था, ‘‘तुम ने पुरानी प्रतिच्छवियों का रंग वर्तमान के जीते इंसानों के जीवन में इस तरह घोल दिया है कि सारी छवियां मिलजुल कर एकसार हो गई हैं और सब की पहचान ही विकृत हो गई है. तुम्हारे मन का पुराना संताप और विद्रोह मुझ से अपना प्रतिशोध ढूंढ़ने की कोशिश करता है, क्योंकि तुम्हारे आसपास मैं ही एक ऐसी हूं जो तुम्हारी होते हुए भी तुम्हारा अंश नहीं हूं जिस पर तुम अपना हक जता कर अपना गुस्सा मिटा सको. आज कुछ कड़वा सच बोल लेने दो, मलय, और सहा नहीं जाता.

‘‘तुम्हारे मातापिता ने, जैसा कि तुम चिढ़तेकुढ़ते वक्त कहा करते थे, जो भी जीवन जिया उसे इतिहास में दफन करो. उस असामंजस्य का प्रतिकार तुम मेरे साथ प्रतिशोध ले कर क्यों करना चाहते हो? तुम्हारे प्रति मेरे प्रेम को विद्रोह की घुटन में क्यों बदलने पर तुले हुए हो? प्रकृति के नियम से कुछ बातें मां और पत्नी होने के नाते हर स्त्री में समान होती हैं लेकिन इस का मतलब यह नहीं कि किसी और का कर्मफल कोई और भुगते. प्रिय होने के कारण जो कदम तुम अपनी मां के लिए नहीं उठा पाए, पराए घर से आई होने के कारण वह प्रतिशोध तुम ने मुझ से लेने की ठानी. तब तुम टूटे हुए से घर में जुड़ेजुडे़ से थे और अब जुड़े हुए घर को तोड़ने पर आमादा हो.

‘‘समय की इच्छा थी कि हम एक हों और अब यह तुम्हारी इच्छा पर निर्भर करता है कि हम आगे भी एक रहें. तुम्हें बेहद चाह कर टूट जाने के कगार पर खड़ी हूं. तुम्हारी बेटी को अपने पापा की, तुम्हारी बीवी को अपने पति की जरूरत है और तुम्हें कोई हक नहीं बनता कि तुम उस का सहारा और प्यार छीन लो.’’

टैक्स्ट पढ़तेपढ़ते मेरी आंखें बोझिल हो गई थीं, आंक रहा था मैं प्रतीति ज्यादा समझदार थी या मैं ज्यादा नासमझ. शायद अहंकार की वजह से मैं ने उसे कभी भाव नहीं देना चाहा. लेकिन आज जब मैं अपने अंतर्मन के साथ बिलकुल अकेला हूं, आसपास के वातावरण में स्वयं को सिद्ध करने की कोई जल्दबाजी नहीं है तो लगता है प्रतीति को मेरी नहीं बल्कि मुझे प्रतीति की जरूरत है. मेरे ठिगने अहंकार, आक्रोश और भावनात्मक प्रतिशोध की सुलगी हुई ज्वाला में प्रतीति के बरसते छींटों की जरूरत है.

मैं ने तत्काल फ्लाइट पकड़ी, एअरपोर्ट से घर पहुंचतेपहुंचते सुबह के 8 बज गए थे. मैं खुली खिड़की से घर के अंदर सब देख सकता था. कुक्कू स्कूल के लिए तैयार हो रही थी, दोनों बेहद बुझीबुझी सी अपना काम कर रही थीं. तैयार हो कर कुक्कू निकलने वाली थी, प्रतीति ने मेरी उपस्थिति से अनजान मुख्यद्वार खोला. मैं अचरज में था. मुझे देख कर उस के मुख पर जरा भी अचरज नहीं आया. जैसे कि उसे अपनी पैरवी पर बेहद यकीन हो.

उस ने मेरे हाथ से बैग लिया और भटक गए बच्चे के घर वापस आ जाने पर सब से पहले उसे सुरक्षित घर के अंदर ले जाने के एहसास से भरी हुई मुझे वह अंदर ले गई.

कुक्कू के शिकायती लहजे को भांप कर प्रतीति ने उस से कहा, ‘‘बेटी, आज खुशीखुशी स्कूल जाओ, वापस आ कर बातें करना, पापा को आराम करने दो.’’

कुक्कू के जाने के बाद घर में सन्नाटा छाने लगा. मैं जो हमेशा डराने में विश्वास करता था, आज खुद डर रहा था.

प्रतीति ने बैग उठा कर अंदर किया और बाथरूम की बालटी में पानी भरने लगी. मैं कुरसी पर चुप बैठा था, डरा वैसा ही जैसा कभी प्रतीति को मैं डरा देखता था. जाने कब मैं क्या बोल पड़ूं. क्या इलजाम लगा कर बच्ची के सामने उसे अपमानित करूं. मेरे पीछे आ कर खड़ी हो गई वह, मेरे सिर को सहलाते हुए कहा, ‘‘बाल रूखे लग रहे हैं, तेल लगा देती हूं.’’

मैं चुपचाप बैठा रहा.

प्रतीति ने बालों में तेल लगाते हुए कहा, ‘‘आज औफिस जाओगे? छुट्टियां तो कल खत्म होंगी.’’

मैं अवाक्, ‘‘तुम्हें कैसे पता?’’

‘‘क्यों न पता हो? मेरा पति कहीं चला जाए और मैं दफ्तर में खबर भी न लूं.’’

‘‘फिर तुम…’’

‘‘कुछ न कहो. तुम ने अपने हिसाब से सब को चलाने की कोशिश कर के देख ली. यह स्वाभाविक था कि मैं तुम्हारी खोजपरख करती. आगे की सोचो, मलय, पीछे का पीछा छोड़ो.’’

‘‘मैं थक चुका हूं.’’

‘‘तुम क्यों इतना चिंतित हो? सारी चिंता मुझ पर छोड़ो और तुम निश्ंिचत हो जाओ. जैसे कुक्कू मेरी जान है वैसे ही तुम मेरे सबकुछ हो. किस से खफा, किस की गलती? जो तुम हो वही तो हम हैं. तुम से अलग तो कुछ भी नहीं. अगर तुम्हें मेरी कुछ आदतें बुरी लगती हैं तो सरल उपाय है कि उन की लिस्ट बना कर मुझे दे दो, मैं ईमानदारी से उन्हें छोड़ने की पहल करूंगी. मगर स्थितियों को इतना गंभीर न बनाओ.’’

जरा चुहल करने का मन हुआ, कहा, ‘‘ईमानदारी से मुझे तो न छोड़ दोगी?’’

‘तुम्हें तो नहीं, हां तुम्हारी एक आदत छुड़ा कर ही दम लूंगी.’

‘‘तुम्हारी नकारात्मक सोच, और मनमुताबिक न होने को शत्रु भाव से ग्रहण करना, जिस की जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि. बुरा सोचोगे तो हर इंसान बुरा ही नजर आएगा. सब कुछ स्वीकार कर लो तो जीवन प्रेममय बन जाता है वरना कुक्कू के साथ भी वही इतिहास दोहराया जाएगा.’’

‘‘प्रतीति…’’ कह कर मैं ने उसे बाहुपाश में भर लिया.

सचाई को महसूस कराती गहरी गरम सांसें एकदूसरे में विलीन हो रही थीं. मैं ने प्रतीति को सीने से लगा कर उस का माथा चूम लिया. जिस खुशी की खोज में वादियों में भटक आया वह खुशी मेरे लिए मेरे घर में बैठी मेरा इंतजार कर रही थी.

जीवन की मुसकान- भाग 2: क्या थी रश्मि की कहानी

उसे सुंदरम का कहा याद आने लगा, ‘रश्मि, मैं तुम्हारी हर खुशी का खयाल रखूंगा. लेकिन मेरी प्यारी रश्मि, कर्तव्य के आगे मैं तुम्हें भी भूल जाऊंगा.’

उसे अपने स्वर भी सुनाई दिए, ‘सुंदरम, क्या दुनिया में तुम्हीं अकेले डाक्टर हो? हर समय तुम मरीज को नहीं देखने जाओगे तो दूसरा डाक्टर ही उसे देख लेगा.’

‘रश्मि, अगर ऐसे ही हर डाक्टर सोचने लगे तो फिर मरीज को कौन देखेगा?’

‘मैं कुछ नहीं जानती, सुंदरम. क्या तुम्हें मरीज मेरी जिंदगी से भी प्यारे हैं? क्या मरीजों में ही जान है, मुझ में नहीं? इस तरह तो तुम मुझे भी मरीज बना दोगे, सुंदरम. क्या तुम्हें मेरी बिलकुल परवा नहीं है?’

अजीब कशमकश में पड़ा सुंदरम उस की आंखों के आगे फिर तैर आया, ‘मुझे रुलाओ नहीं, रश्मि. क्या तुम समझती हो, मुझे तुम्हारी परवा नहीं रहती? सच पूछो तो रश्मि, मुझे हरदम तुम्हारा ही खयाल रहता है. कई बार इच्छा होती है कि सबकुछ छोड़ कर तुम्हारे पास ही आ कर बैठ जाऊं, चाहे दुनिया में कुछ भी क्यों न हो जाए.

‘लेकिन क्या करूं, रश्मि. जब भी किसी मरीज के बारे में सुनता या उसे देखता हूं तो मेरी आंखों के आगे मां का तड़पता शरीर तैर जाता है और मैं रह नहीं पाता. मुझे लगता है, 14 साल पहले की स्थिति उपस्थित होने जा रही है. उस समय किसी डाक्टर की गलती ने मेरी मां के प्राण लिए थे और आज मैं मरीज को न देखने जा कर उस के प्राण ले रहा हूं. और उस के घर वाले उसी तरह मरीज की असमय मृत्यु से पागल हुए जा रहे हैं, मुझ को कोस रहे हैं, जिस तरह मैं ने व मेरे घर वालों ने डाक्टर को समय पर न आने से मां की असमय मृत्यु हो जाने पर कोसा था.’

‘रश्मि, मैं जितना भी बन सकता है, तुम्हारे पास ही रहने की कोशिश करता हूं. 24 घंटों में काफी समय तब भी निकल आता है, तुम्हारे पास बैठने का, तुम्हारे साथ रहने का. मेरे अलग होने पर तुम अविनाश से ही खेल लिया करो या टेप ही चला लिया करो. तुम टेप सुन कर भी अपने नजदीक मेरे होने की कल्पना कर सकती हो.’

‘ऊंह, केवल इन्हीं बातों के सहारे जिंदगी नहीं बिताई जा सकती, सुंदरम. नहीं, बिलकुल नहीं.’

‘रश्मि, मुझे समझने की कोशिश करो. मेरे दिल की गहराई में डूब कर मुझे पहचानने की कोशिश करो. मुझे तुम्हारे सहारे की जरूरत है, रश्मि. मुझे तुम्हारे प्यार की जरूरत है, रश्मि. उस प्यार की, उस सहारे की जो कर्तव्य पथ पर बढ़ते मेरे कदमों को सही दिशा प्रदान करे. तुम क्या जानो, रश्मि, तुम जब प्रसन्न हो, जब तुम्हारा चेहरा मुसकराता है तो मेरे मन में कैसे अपूर्व उत्साह की रेखा खिंच जाती है.

‘और जब तुम उदास होती हो, तुम नहीं जानतीं, रश्मि, मेरा मन कैसीकैसी दशाओं में घूम उठता है. मरीज को देखते वक्त, कैसी मजबूती से, दिल को पत्थर बना कर तुम्हें भूलने की कोशिश करता हूं. और मरीज को देखने के तुरंत बाद तुम्हारी छवि फिर सामने आ जाती है और उस समय मैं तुरंत वापस दौड़ पड़ता हूं, तुम्हारे पास आने के लिए, तुम्हारे सामीप्य के लिए…

‘रश्मि, जीवन में मुझे दो ही चीजें तो प्रिय हैं-कर्तव्य और तुम. तुम्हारी हर खुशी मैं अपनी खुशी समझता हूं, रश्मि. और मेरी खुशी को यदि तुम अपनी खुशी समझने लगो तो…तो शायद कोई समस्या न रहे. रश्मि, मुझे समझो, मुझे पहचानो. मैं हमेशा तुम्हारा मुसकराता चेहरा देखना चाहता हूं. रश्मि, मेरे कदमों के साथ अपने कदम मिलाने की कोशिश तो करो. मुझे अपने कंधों का सहारा दो, रश्मि.’

और रश्मि के आगे घूम गया सुंदरम का तेजी से हावभाव बदलता चेहरा. चलचित्र की भांति उस के आगे कई चित्र खिंच गए. मां की असमय मृत्यु की करुणापूर्ण याद समेटे, आज का बलिष्ठ, प्यारा सुंदर, जो मां को याद आते ही बच्चा बन जाता है, पत्नी के आगे बिलख उठता है. रो उठता है. वह सुंदरम, जो कर्तव्य पथ पर अपने कदम जमाने के लिए पत्नी का सहारा चाहता है, उस की मुसकराहट देख कर मरीज को देखने जाना चाहता है और लौटने पर उस की वही मुसकराहट देख कर आनंदलोक में विचरण करना चाहता है लेकिन वह करे तो क्या करे? वह नहीं समझ पाती कि सुंदरम सही है या वह. इस बात की गहराई में वह नहीं डूब पाती. उस का मन इस समस्या का ऐसा कोई हल नहीं खोज पाता, जो दोनों को आत्मसंतोष प्रदान करे. सुंदरम की मां डाक्टर की असावधानी के कारण ही असमय मृत्यु की गोद से समा गई थीं और उसी समय सुंदरम का किया गया प्रण ही कि ‘मैं डाक्टर बन कर किसी को भी असमय मरने नहीं दूंगा,’ उसे डाक्टर बना सका था. इस बात को वह जानती थी.

किंतु वह नहीं चाहती कि इसी कारण सुंदरम उस की बिलकुल ही उपेक्षा कर बैठे. कुछ खास अवसरों पर तो उसे उस का खयाल रखना ही चाहिए. उस समय वह किसी अपने दोस्त डाक्टर को ही फोन कर के मरीज के पास क्यों न भेज दे?

रश्मि ने एक गहरी सांस ली. खयालों में घूमती उस की पलकें एकदम फिर पूरी खुल गईं और फिर उसे लगा, वही अंधेरा दूरदूर तक फैला हुआ है. वह समझ नहीं पा रही थी कि इस अंधेरे के बीच से कौन सी राह निकाले?

अंधेरे की चादर में लिपटी उस की आंखें दूरदूर तक अंधेरे को भेदने का प्रयास करती हुई खयालों में घूमती चली गईं. उसे कब नींद ने अपने आगोश में ले लिया, उसे खुद पता न चला. अगले दिन कौलबैल एक बार फिर घनघनाई. और इस बार न केवल बजी ही, बल्कि बजती ही चली गई. इस के साथ ही दरवाजे पर भी जोरों की थाप पड़ने लगी. और यह थाप ऐसी थी जो रश्मि को पांव से ले कर सिर तक झकझोर गई. उस के चेहरे की भावभंगिमा भयंकर हो गई और शरीर कांपने सा लगा. माथे की सलवटें जरूरत से ज्यादा गहरी हो गईं और दांत आपस में ही पिसने लगे. पति का मधुर सामीप्य उसे फिर दूर होता प्रतीत हुआ और भावावेश में उस की मुट्ठियां भिंचने लगीं. उस का एकएक अंग हरकत करने लगा और वह अपने को बहुत व्यथित तथा क्रोधित महसूस करने लगी.

वह चोट खाई नागिन की तरह उठी. आज तो वह कुछ कर के ही रहेगी. मरीज को सुना कर ही रहेगी और इस तरह सुनाएगी कि कम से कम यह मरीज तो फिर आने का नाम ही नहीं लेगा. अपना ही राज समझ रखा है. ‘उफ, कैसे दरवाजा पीट रहा है, जैसे अपने घर का हो? क्या इस तरह तंग करना उचित है? वह भी आधी रात को? खुद तो परेशान है ही, दूसरों को बेमतलब तंग करना कहां की शराफत है?’ वह बुदबुदाई और मरीज के व्यवहार पर अंदर ही अंदर तिलमिला गई.

‘‘मैं देखती हूं,’’ दरवाजे की ओर बढ़ते हुए सुंदरम को रोकते हुए रश्मि बोली.

‘‘ठीक है,’’ सुंदरम ने कहा, ‘‘देखो, तब तक मैं कपड़े पहन लेता हूं.’’

रश्मि दरवाजा खोलते हुए जोर से बोली, ‘‘कौन है?’’

‘‘मैं हूं, दीदी,’’ बाहर से उस के भाई सूरज की घबराई हुई सी आवाज आई.

स्नेह छाया: असली मां से मिलकर क्या हुआ रिंदू के साथ

बीए फाइनल की परीक्षा देकर दिल्ली के एक पीजी होस्टल से थकीमांदी घर झारखंड के रांची में पहुंची. सोचा था जीभर कर सोऊंगी और अपनी पसंद की हर चीज मां से बनवा कर खाऊंगी. सो खुशीखुशी बहुत सारी कल्पनाएं करती हुई घर लौटी थी.

घर पहुंचने पर दरवाजे पर बक्का मिल गए. फूलों की क्यारियों को सींचते हुए उन्होंने स्नेहभरी आंखों से मुझे देखा और ‘मुनिया’ कह कर पुकारा. बचपन रांची में गुजरा था और आज भी तब के जमाने का अच्छा सा बड़ा घर हमारा था. बक्का कब से हमारे यहां है, मैं भूल चुकी थी.

बक्का का वैसे असली नाम तो अच्छाभला रामवृक्ष था, पर इस बड़े नाम को न बोल कर मैं उन्हें बक्का कह कर ही पुकारती थी. फिर तो रामवृक्ष अच्छेखासे नाम के होते हुए भी सब के लिए बक्का बन कर रह गए. उन्होंने कभी एतराज भी नहीं किया. शायद अपनी इस मुनिया की हर बात उन्हें प्यारी थी. मां के होते हुए भी इन्हीं बक्का ने मुझे पालपोस कर बड़ा किया. ऐसा क्यों? यह बात में बताऊंगी.

‘‘बहूजी, मुनिया आ गई.’’ बक्का ने खुशीखुशी से झूमते हुए मां को आवाज दी.

मैं ने बक्का को नमस्ते की. उन्होंने आशीर्वाद देते हुए कहा, ‘जीती रहो, बेटी, इस बार तुम कुछ दुबली हो गर्ई हो.’

मैं जब भी कुछ दिनों बाद बक्का से मिलती हूं, उन्हें पहले से दुबली और कमजोर ही दिखाई देती हूं.

‘‘हां, बक्का, तुम्हारी बनाई चाय जो मुझे नहीं मिलती. वह मिले तो अभी फिर मोटी हो जाऊं.’’  मैं ने हंस कर बक्का को छेड़ा.

‘‘धत, हम को चिढ़ाए बगैर नहीं मानेगी.’’ कहते हुए बक्का खुशी से खिल उठे और रसोईघर में जा कर उन्होंने कनहाई की नाक में दम करना शुरू कर दिया, ताकि उन की लाडली को जल्दी चाय मिल सके.

मैं दौड़ कर मां के कमरे में जा कर उन से लिपट गई. मां ने मुझे अपने पास खींच लिया और प्यार से मेरे बालों में हाथ फेरती हुई बोली, ‘‘पहले यह बता ङ्क्षरदू कि तेरे एक्जाम कैसे हुए?’’

‘‘अच्छे हुए, मां 90′ से तो ज्यादा आ ही जाएंगे’’ मैं ने विश्वासपूर्वक जवाब दिया.

फिर चाय आ गई, साथ ही कनहाई ने सूजी का हलवा, गरी की बरफी और गरमागरम पकौड़े भी मेरे सामने सजा दिए.

खातेखाते मैं ने पूछा, ‘‘मां, पिताजी कब तक वापस आ रहे हैं?’’

‘‘तेरे पिताजी काम के सिलसिले में अकसर बाहर जाते रहते हैं.’’ मेरी बात का जवाब देते हुए मां ने कहा, ‘‘कल ही वह वापस आ रहे है. उन के साथ सर्वजीत भी आ रहा है.’’

‘‘सर्वजीत? यह सर्वजीत कौन है और वह यहां क्यों आ रहा है?’’ मैं यह सब पूछतेपूछते रह गई, क्योंकि इसी समय मुझे अचानक याद आ गया कि पिताजी ने अपने पिछली बार फोन पर कहा था.

‘‘रिंदू, तुम्हारी परीक्षा समाप्त हो जाए तब इस विषय में तुम से बात करूंगा यही सोचा था. पर सर्वजीत के घरवाले जल्दी कर रहे हैं, इसलिए तुम्हें बता रहा हूं. सर्वजीत ने तीन साल पहले एम.डी. पास की थी. अब तो उस की प्रैक्टिस भी जम गई है. उस का परिवार आज के परिवारों को देखते हुए बड़ा है. 3 बहनें और अकेला भाई सर्वजीत. बेटी, मैं लडक़े को देख कर उस के साथ तुम्हारे संबंध का विचार मन ही मन कर बैठा हूं. उस के घरवालों से सिर्फ यही कहा है कि लडक़ी एमवीए की परीक्षा दे ले, तब इस बारे में कुछ विचार करेंगे. मेरी पसंद तुम्हारी भी पसंद हो, यह जरूरी नहीं है. तुम इस बारे में सोचने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र हो. पर सर्वजीत को तुम जरूर पसंद करोगी, ऐसा मेरा विश्वास है. उसे देख कर तुम चाहो तो मेरा विचार बदल भी सकती हो.’

उन की बात सुन कर मैं सोचती रही थी कि सर्वजीत में ऐसी क्या खूबी है कि मैं हां कर दूंगी, पर पिताजी मेेे साथ जोरजबरदस्ती कभी नहीं करेंगे, इस का मुझे भरोसा था.

पिताजी शाम की गाड़ी से घर आए. साथ में सर्वजीत भी था.

‘‘ङ्क्षरदू यह सर्वजीत है.’’ फिर उस की तरफ मुंह कर बोले, ‘‘यह मेरी बेटी ङ्क्षरदू है.’’

इस तरह पिताजी ने हम दोनों का परिचय कराया. मेरी ओर देख कर वह मुसकराया. मुझे उस का चेहरा खिलाखिला सा लगा.

‘‘अरे ङ्क्षरदू, सर्वजीत को चाय तो पिलाओ,’’ कहते हुए पिताजी अंदर चले गए.

सर्वजीत को देखते ही मां ने उसे पसंद कर लिया. उस के सहज आचरण, हंसमुख स्वभाव और आकर्षक व्यक्तित्व ने सब का मन ही तो मोह लिया था. वह इतना भला, स्मार्ट और हंसमुख था कि मैं भी उस के आकर्षण में बंधती चली गई.

वह चारपांच दिन हमारे घर रुका? जाने वाले दिन वह मुझ से एकांत में मिला और बोला, ‘‘ङ्क्षरदू, क्या मैं तुम्हें पसंद हूं?’’

मैं ने संकोचवश कोई उत्तर नहीं दिया. मुझे चुप देख उस ने कहा, ‘‘तुम्हारी इस चुप्पी को मैं इनकार समझूं या स्वीकृति.’’

वह जवाब के लिए मेरी ओर देखने लगा. मैं फिर भी न बोली तो उस ने फिर कहा, ‘‘अच्छा रिंदू, एक कागज पर हां या ना लिख कर मुझे किसी समय दे देना.’’ बोल कर वह वापस चला गया.

मैं तो पहली दृष्टि में ही उसे स्वीकार कर चुकी थी फिर ना कैसे कहती? ‘हां’ कहना चाहती थी, पर शर्म से कुछ बोल नहीं पाई.

मुझे बक्का ने क्यों पाला, इस की एक लंबी कहानी है. जब मैं पांच महीने की थी तभी मेरी मां पिताजी को छोड़ कर अपने एक लंगोटिया दोस्त विक्रांत के साथ चली गई थी. उस ने पिताजी के प्यार के अलावा अपनी दुधमुंही बच्ची की ममता का भी गला घोंट दिया था. पिताजी ने सहमति से तलाक के कागजों पर हस्तांक्षर कर दिए थे. मेरी कस्टडी मांगी थी जिस पर मेरी असली मां ने तुरंत हां भर दी थी.

पिताजी तब निरीह और बेसहारा से हो गए. इस दुॢदन में बक्का पिताजी के साथ ही थे..उन्होंने हर तरह से हमें सहारा दिया. घर भी संभालते थे और मुझ जैसी छोटी बच्ची की पूरी देखभाल भी करते थे.

धीरेधीरे दो साल का लंबा समय बीत गया. पिताजी को अपना एकाकी जीवन खलने लगा. ऐसे में चमकदार आंखों में उल्लास और होंठों पर रहरह कर फूट पडऩे वाली मुसकान लिए उन्हें एक टूर में अंजनी मिली. पूरी बात जान कर भी वह पिताजी की तरफ ङ्क्षखचती गई और पिताजी ने उसे विवाह को कहा, वह मिलने घर आई और न जाने क्यों मैं तब उन की गोद में चड़ गई और जब तक वह गई नहीं, मैं गोद से उतरी नहीं उन्होंने मुझे बड़े प्यार से खाना अपने हाथ से खिलाया था. फिर विवाह हो गया. उसे वहां अच्छी नौकरी मिल गई और वह रांची जैसे वैंक्वड शहर से छुटकारा पाई थी. पिताजी का अकेलापन दूर हो गया. वही अंजनी अब मेरी मां हैं. जब वह ब्याह कर इस घर में आई थी तब मैं ढाई साल की थी.

तब तक मां के प्यार की पूॢत बक्का कर रहे थे. अब नई मां ने आ कर पूरी जिम्मेदारी संभाल ली थी. बक्का और पिताजी यह देखकर चकित थे कि नईनई ब्याह कर आई इस लडक़ी ने अपनी सौत की संतान को अपने प्यार व दुलार से किस तरह अपना लिया है. मुझे जन्म देने वाली मां पिताजी के मित्र विक्रांत के साथ लिवरपूल (इंगलैंड) रहने लगी थी.

हमारा जवाब जाने पर सर्वजीत के घर से भी हां हो गई थी. उस के घर के लोग भी झारखंड के ही थे. वे आकर हां कर गए थे.

इस के बाद सर्वजीत का एक छोटा सा पार्सल आया. उस में एक हीरे की अंगूठी व एक राइङ्क्षटग पैड था. अंगूठी की बात तो समझ में आई, पर यह राइङ्क्षटग पैड किस लिए? यह जिज्ञासा उस का पत्र पढ़ कर शांत हुई. उस ने लिखा था : ङ्क्षरदू, अपनी तरफ से अंगूठी भेज रहा हूं. लिखना, तुम्हें पसंद आई या नहीं. ट्रेन में तुम्हारी स्वीकृति का छोटा सा ‘कागजी लड्डू’ मिला था. राइङ्क्षटग पैड इसलिए भेज रहा हूं ताकि तुम्हें आगे से लिखने के लिए कागज की कमी महसूस न हो और अपनी बात कहने के लिए कागजी लड्डïू प्रयोग न करना पड़े. अब जी खोल कर लिखा करना.’

हुआ यह था कि जब मैं औरों के साथ सर्वजीत को पहुंचाने स्टेशन गई थी तो एक छोटे से कागज पर सिर्फ ‘हां’ लिख कर मैं साथ लेती गई थी. अनजाने में उस छोटे से कागज को रास्ते भर गोलगोल मोड़ती रही थी और जब ट्रेन चली तो मैं ने उसे सर्वजीत के हाथ में रख दिया था. मोबाइल के जमाने में पत्र से हां कहना सर्वजीप को बहुत भाया.

दोनों ओर से खूब चैङ्क्षटग हुई, सर्वजीत के घरवालों ने शादी एक महीने के अंदर करने की जिद की और मैं ब्याह कर उस के घर आ गई.

ससुराल आने पर पता चला कि सर्वजीत की 3 बहनों की शादी पहले ही हो गर्ई थी. अब उस घर की बहू बनकर मैं सर्वजीत व उस के मातापिता के परिवार में शामिल हो गई.

कुछ दिनों बाद मैं सर्वजीत के साथ अपने मातापिता से मिलने आई. सब बहुत खुश थे. अपनी मुनिया और दामाद की खातिर में लगे थे. इसी समय अचानक मुंबई से मेरी असल मां फोन आया कि वह रांची आ रही है.

पिताजी उसे पा कर परेशान हो गए. बक्का अलग परेशान थे. मुझे पता चला तो मैं भी अजीब से ऊहापोह में फंस गई.

बिना कुछ कहे ही सब के चेहरे से लग रहा था. मानो सभी कह रहे हों कि उसे यहां आने की क्या जरूरत आ पड़ी. वह हमारे लिए तो कब की मरखप गई थी.

बक्का की घबराहट तो देखते ही बनती थी. उन्हें डर था कि  सर्वजीत और उस के घर वालों को जब असली मां के लिवरपूल चले जानेकी बात का पता चलेगा तो उस की मुनिया की ङ्क्षजदगी नष्ट हो जाएगी. बक्का को मेरे अनिष्ट की बात स्वप्न में भी दुख देती थी.

माताजी, पिताजी और मुझे पास बैठा कर सर्वजीत ने बात शुरू ही की थी कि उसे बक्का का खयाल आ गया. बक्का हमारे परिवार के हर दुखसुख के भागीदार थे. एक मामूली नौकर से कब वह परिवार के सदस्य हो गए थे यह पता ही नहीं चला. हम से ज्यादा हमारी ङ्क्षचता में घुलते थे बक्का. सर्वजीत उन्हें खोज कर पकड़ लाया और पास बैठने को कहा.

हमें संकोच में देख कर उस ने कहा, ‘‘आप लोग इतने परेशान क्यों हैं? मुझे सब मालूम है कि ङ्क्षरदू को जन्म देने वाली मां आ रही है. मुझे आज से काफी साल पहले ही सारी बातों की जानकारी मिल गई थी. सच पूछिए तो स्वयं विक्रांतजी ने ही फोन कर के इस घटना की खबर मुझे दी थी और आग्रह किया था कि जब मैं अपनी बहन की सहेली की शादी में कानपुर जाऊं  तो ङ्क्षरदू को भी देख लूं. उस शादी में आप भी आएंगे, इस की जानकारी भी आप की पहली पत्नी ने ही दी थी. वह शादी आप के घनिष्ठ दोस्त के बेटे से हो रही थी. वहीं मैं गया. आप सब को देखा, पर किसी पर जाहिर नहीं होने दिया. रिदू की सुंदरता और आप लोगों को परिवार मुझे भी भा गया. आप की पहली पत्नी ने मुझे बारबार यही लिखा था कि उन की गलतियों की सजा उन की मासूम बच्ची को नहीं मिलनी चाहिए. मेरी अपनी मान्यता भी यही है कि निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए.’’

सर्वजीत इतना बोल कर चुप हो गया. यह हमें बाद में पता चला कि  पिताजी को सर्वजीत पहली बार जब कानपुर में मिला था,  तभी उन्होंने उस सब कुछ बता दिया था. उन के संकोच को ताड़ कर सर्वजीत ने उन्हें समझाया था और आश्वासन दिया था कि इस विषय में वह घरवालों को कुछ नहीं बताएगा.

मैं दुविधा में थी. एक ओर जन्म देने वाली उस मां को देखने की उत्सुकता थी जो एकदम निष्ठुर हो कर मुझे छोड़ गई थी और दूसरी ओर अपना पालनपोषण करने वाली स्नेहमयी मां का खयाल था, जो एकदम गुमसुम बैठी हुई थी.

इस के दूसरे दिन श्रीमती विक्रांत अर्थात मुझे जन्म देने वाली मां आई. एयरपोर्ट जा कर पिताजी उन्हें घर लाए. वह बहुत थकी, बीमार और उदास लग रही थीं.

सर्वजीत ने पूरे माहौल को अपनी सौम्य मुसकान और सहज आचरण से बोझिल नहीं होने दिया. इस के लिए मैं उस की तहेदिल से आभारी हूं.

मेरी जन्मदात्री मेरी वर्तमान मां से पहली बार मिलीं. दोनों के आपसी व्यवहार को देख कर ऐसा लग रहा था कि किसी को किसी से कोई शिकवाशिकायत नहीं है.

दोनों की बातें रात देर तक होती रहीं. बाद में मां ने हमें बताया, ‘‘लिवरपूल से तो वह काफी पहले आ गई थीं. मुंबई के टाटा कैंसर हस्पताल में थीं. वहीं से आ रही हैं. उन्हें छाती का कैसर हो गया था. उन का एक स्तन निकाल दिया गया. कितनी ही बार कीमोथेरापी हुई. हरसेपटिन भी दी गई पर अब अंत सा आ गया है. वह अपने जीवन से हताश हो चुकी हैं. ङ्क्षजदगी को थोड़ी सी जो मुहलत मिली है, उस में वह अपने सब अपराधों और गलतियों के लिए क्षमा मांगने आई हैं.’’

कई साल पहले विक्रांत एक कार दुर्घटना में इंग्लैंड में गुजर गए थे. तब सब कुछ बेचकर वह मुंबई आ कर अकेली रह रही थीं, तभी इस जानलेवा रोग ने उन्हें दबोच लिया.

मुझे पास बुला कर उन्होंने प्यार करना चाहा, पर मैं काठ बनी वहीं बैठी रही. उस मां के लिए मैं प्यार कहां से लाऊं जिस ने अपनी रंगीन तबीयत के लिए मुझ दुधमुुंही को बिलखता छोड़ दिया था.

अकेले में सर्वजीत ने मुझे बहुतेरा समझाया, पर मैं उन के पास जाने से कतराती रही, प्यार करना तो दूर की बात थी.

मेरी नई मां ने प्यार से समाझाया, ‘‘ङ्क्षरदू, तुम्हारी मां अब नहीं बचेगी. एक बार प्यार कर लो. उन्हें शांति मिल जाएगी, वरना मरते दम तक उन के मन में दुख रहेगा.’’

मैं चुप रही. मन बारबार यही कहता था, ‘मां, तुम ने मुझे प्यार की शीतल छाया दी है. उस के बदले में यदि कुछ चाहती हो तो कुछ और आज्ञा करो, पर उस निष्ठुर मां के लिए स्नेह नहीं मांगो.’

फिर बक्का ने दुलारते हुए समझाया, ‘‘मुनिया, अब तुम भी माफ कर दो. आखिर वह तुम्हारी मां हैं. जब बुरा वक्त आने वाला होता है तो दुर्बुद्धि आ ही जाती है. अच्छे से अच्छा आदमी भी भटक जाता है.’’

बक्का अपनी वे अनसोई रातें भूल चुके थे जो उन्होंने मुझे रातरात भर कंधे पर उठाए गुजारी थीं. वह  अपने उन कष्ट के क्षणों को भी भूल गए थे जब मैं बीमार पडऩे पर मां के लिए बिलखती रहती थी और वह रातरात भर जाग कर मुझे चुप कराते रहते थे. तब उन्हें मां पर क्रोध आता था, पर अब उस हृदयहीन मां के उन गुनाहों को भुला कर वह उस का पक्ष ले रहे थे.

पिताजी ने मुझे बुला कर अपने पास बिठा लिया, पर उन्होंने कहा कुछ भी नहीं. बस, मेरे बालों पर धीरेधीरे अपना हाथ फेरते रहे वह बिना कहे ही सब कुछ कह गए. और मेरे व्यथित व्याकुल मन ने सब समझ लिया. जब इतना सब कुछ सह कर पिताजी ने उन्हें माफ कर दिया है तो मेरी भी कटुता समाप्त होने लगी.

अंतत: मैं मां के पलंग के पास जा कर उन का हाथ थाम कर बैठ गर्ई और रोती रही. उन की आंखों से भी आंसू बह निकले. रोतेरोते वह बोलीं, ‘‘ङ्क्षरदू, मेरी बच्ची, मेरे जीवन से तुम्हें सबक लेना चाहिए. तुम ने मुझे क्षमा कर दिया. इस से मेरे मन को तो शांति मिलेगी ही, साथ ही तुम भी सुखी रहोगी. सर्वजीत के रूप में अनमोल हीरा तेरे पास है. मेरे लिए इस से बढ़ कर खुशी दूसरी नहीं है.’’

एक महीने बाद मां नहीं रही. मरने से पहले उन्होंने अपनी सारी चलअचल संपत्ति सर्वजीत के नाम कर दी.

बक्का आज भी हमारे साथ रहते हैं और अपनी मुनिया की देखभाल करते रहते हैं. पिताजी और मां सुखी हैं. घर के ड्राइंगरूम में असली मां की तसवीर लगी है. किसी के पूछने पर छोटी मां उसे अपनी बड़ी बहन की तसवीर बतला कर मौन हो जाती हैं.

आगाज- भाग 1: क्या हुआ था नव्या के साथ

शिकागो में एक बड़ी कंपनी में ब्रांच मैनेजर के पद पर कार्यरत नव्या अपने स्टूडियो अपार्टमैंट में बीन बैग पर एक मुलायम कंबल में दुबकी टीवी पर अपना

पसंदीदा टौक शो देख रही थी कि तभी बैल बजी. उस ने अलसाते हुए उठ कर दरवाजा खोला.

उस के सामने दुनिया के 8वें अजूबे के रूप में उस का एक जूनियर

सेल्स ऐग्जिक्यूटिव हाथों में सुर्ख ट्यूलिप्स का एक बुके लिए खड़ा था. ‘‘हाय नैवेद्य, तुम यहां? तुम्हें मेरे घर का पता किस ने दिया?’’ नव्या के स्वर में तनिक तुर्शी घुल आई थी.

वह अपनी व्यक्तिगत और प्रोफैशनल लाइफ अलगअलग रखने में विश्वास रखती थी. अपने जूनियर ट्रेनी को अपने दरवाजे पर यों शाम के वक्त

देख वह तनिक खीज सी गई, लेकिन अगले ही क्षण अपनी इरिटेशन को छिपाते हुए वह अपने स्वर को भरसक सामान्य बना उस से बोली, ‘‘आओ… आओ…

भीतर आओ.’’

‘‘थैंक्यू नव्या,’’ कहते हुए नैवेद्य उस के ठंडे लहजे से तनिक हिचकिचाते हुए कमरे में घुसा.

‘‘बैठोबैठो. बताओ कैसे आना हुआ?’’ उस की

असहजता भांपते हुए नव्या ने इस बार तनिक नर्मी से पूछा.

उस के सामान्य लहजे से नैवेद्य की अचकचाहट खत्म हुई और वह उस की ओर अपने हाथों में थामा

हुआ बुके बढ़ाता हुआ अपने चिरपरिचित हाजिरजवाब अंदाज में एक नर्वस सी मुसकान देते हुए बोला, ‘‘यह तुम्हारे लिए नव्या.’’

‘‘मेरे लिए? अरे भई किस

खुशी में? मैं कुछ समझी नहीं.’’

‘‘बताऊंगा नव्या, बहुत लंबी कहानी है.’’

‘‘व्हाट? लंबी कहानी है, अरे भई, यह सस्पेंस तो क्त्रिएट करो मत. बता डालो जो भी

है,’’ लेकिन नैवेद्य इतनी जल्दी मन की बात जुबान पर लाने में हिचक  रहा था.

तभी नव्या का कोई जरूरी फोन आ गया और वह उसे अटैंड करने अपार्टमैंट में

लगे पार्टीशन के पार चली गई.

नैवेद्य अपने खयालों की दुनिया में खो गया…

वह और नव्या एक ही कंपनी में सेल्स विभाग में थे. नव्या उस की ब्रांच मैनेजर थी और

वह उस के मातहत एक सेल्स ऐग्जिक्यूटिव. उन दोनों का साथ लगभग 1 साल पुराना था.

नैवेद्य अपनी नौकरी की शुरुआत से उस के प्रति एक तीव्र खिंचाव महसूस करता आ रहा था. जब भी वह उस के साथ होता, उस से बातें करना, उस के इर्दगिर्द रहना बेहद अच्छा लगता. औफिस में उस की उपस्थिति मात्र से वह मानो खिल जाता. पहली नजर में उस से प्यार तो नहीं हुआ था, लेकिन हां पहली बार में ही उस से नजरें मिलाने पर न जाने क्यों उस के हृदय की धड़कन तेज हो आईं. वक्त

के साथ उस का सौम्य, सलोना, संजीदा चेहरा दिल की गहराइयों में उतरता गया.

पिछले सप्ताह ही कंपनी की सेल्स ट्रेनिंग कौन्फ्रैंस खत्म हुई थी. उस में उस के साथ

कुछ दिनों तक निरंतर रहने का मौका मिला. नव्या ने ही उस के ग्रुप की ट्रेनिंग ली थी.

ट्रेनिंग खत्म होतेहोते वह पूरी तरह से नव्या के प्यार में डूब चुका था. इतना

कि शाम को ट्रेनिंग से घर लौटता, तो एक अबूझ से खालीपन की अनुभूति से भर जाता. उस का दिल उस के बस में नहीं रहा था. उस का मन करता कि नव्या हर

समय उस की आंखों के सामने रहे. जबजब वह उस के पास होता, मन में जद्दोजहद चलती रहती कि वह उस के प्रति अपनी फीलिंग का उस से खुलासा कर दे,

लेकिन औफिस में नव्या का उस के समेत सभी ट्रेनीज के प्रति उस का पूरी तरह से प्रोफैशनल रवैया देख उस की उस से इस मुद्दे पर कुछ कहने की हिम्मत नहीं

होती.

मगर उस दिन सेल्स ट्रेनिंग कौन्फ्रैंस के आखिरी दिन कुछ ऐसा हुआ कि वह उस से

अपने प्यार का इजहार करने आज उस के घर तक चला आया.

उस दिन

दोपहर लंच होने से पहले ही कौन्फ्रैंस औपचारिक रूप से खत्म हो गई

थी और औफिस कैंटीन में सब हलकेफुलके माहौल में एकसाथ लंच करने लगे.

लंच करते वक्त

एक साथी ट्रेनी ने अपनी शादी का कार्ड नव्या और सभी ट्रेनीज को दिया.

उस की शादी से बातों का रुख मैरिज, प्यार, मुहब्बत, अफेयर की ओर मुड़ गया.

उस दिन

नव्या भी खासे रिलैक्स्ड मूड में

थी और सब के साथ हंसतेमुसकराते हुए बातें कर रही थी.

उसी चर्चा के दौरान नव्या ने एक साथी ट्रेनी से पूछा, ‘‘तुम्हारी शादी नहीं

हुई अभी तक?’’

‘‘नहीं नव्या. अभी तक मैं उस खास की तलाश में हूं, जिस के साथ पूरी जिंदगी बिता सकूं.’’

‘‘ओह, अभी तक तुम्हें कोई भी लड़की ऐसी

नहीं मिली, जिस ने तुम्हारे दिल के तारों को छुआ हो?’’

‘‘नव्या, बहुत पहले जब मैं बस 17-18 साल का था, एक लड़की को अपना बनाने की शिद्दत से

तमन्ना हुई थी, लेकिन तभी मुझे पता चला कि उस का औलरेडी कोई बौयफ्रैंड है. बस तब जो मेरा दिल टूटा, तो आज तक नहीं जुड़ पाया. आज तक टूटा दिल ले

कर घूम रहा हूं.’’

‘‘ओह, अभी तक… वैरी सैड.’’

तभी अचानक नव्या ने अभी के साथ बैठे उस से भी अपना प्रश्न कर डाला, ’’और भइ नैवेद्य, तुम भी तो

कुछ अपनी सुनाओ? तुम

अभी तक सिंगल हो या किसी के साथ

कमिटमैंट में?’’

‘‘नव्या मुझे लड़की तो मिल गई है, लेकिन उस से अपने प्यार का इजहार करने

की हिम्मत नहीं होती मेरी.’’

‘‘क्यों, कोई हिटलर है क्या, जो तुम उस से इतना डरते हो?’’

‘‘नहीं, हिटलर तो नहीं है वह. मेरा लगभग रोजाना ही उस से

काफी मिलनाजुलना होता रहता है, पर पता नहीं क्यों उस से कभी मन की बात कह ही नहीं पाया. इस स्थिति में मुझे क्या करना चाहिए, तुम ही बताओ.’’

उस की

ये बातें सुन वह हो हो कर जोर से हंस पड़ी.

उसे यों हंसता देख कर उस की हिम्मत बढ़ी और वह उस से पूछ बैठा, ‘‘बताओ न नव्या. मैं भी अपने इस एकतरफा

प्यार से बेहद परेशान हो गया हूं.’’

‘‘अरे भई, मेरा तो मानना है, जो डर गया, वह मर गया. तो आज ही उस से अपनी फींिलग शेयर कर डालो और हां, अगर

लड़की पट जाए तो मुझे मिठाई खिलाना मत भूलना.’’

‘‘नहींनहीं, बिलकुल नहीं. थैंक यू सो मच नव्या,’’ और नव्या ने फिर से खिलखिलाते हुए उसे जवाब

दिया, ‘‘मोस्ट वैलकम नैवेद्य, माई प्लेजर.’’

बस उसी दिन उस ने मन ही मन सोच लिया कि वह आज ही उस के घर जाएगा और उस से अपने मन की बात

शेयर करेगा और इसीलिए वह अभी नव्या के घर पर था.

तभी नव्या फोन पर अपनी बातचीत खत्म कर उस के पास आ गई.

‘‘हां नैवेद्य, तुम मुझे कुछ बताने वाले

थे.’’

नव्या की इस बात पर वह बेहद नर्वस महसूस कर रहा था कि तभी जेहन में उसी के उस दोपहर को हुए शब्द गूंजे कि जो डर गया, वह मर गया और बहुत हिम्मत जुटा कर तनिक घबराते हुए वह बोला, ‘‘नव्या… नव्या मुझे तुम से प्यार हो गया है.’’

‘‘क्या…क्या… क्या बोला तुम ने? तुम्हें मुझ से प्यार हो गया है.

व्हाट रबिश,’’ और यह कहते हुए वह जोर से खिलखिला उठी. ‘‘सीरियसली? आर यू किडिंग?’’

सालते क्षण: दिनेश भाई के साथ क्यों थी मां

पुराने सालते क्षण जीवनभर के लिए रह जाते हैं, खासकर तब, जब ऐसे पारिवारिक रिश्ते हों जो उन क्षणों को घटाने की जगह एक ऐसा क्षण और जोड़ दें जो ताउम्र कचोटता रहे. ऐसे ही सड़ेगले रिश्तों के पसोपेश की उधेड़बुन है यह कहानी 5 वर्षों के निर्वासन के बाद मैं फिर यहां आया हूं. सोचा था, यहां कभी नहीं आऊंगा लेकिन प्राचीन सालते क्षणों को नए परिवेश में देखने के मोह का मैं संवरण न कर पाया था. जीवन के हर निर्वासित क्षण में भी इस मोह की स्मृति मेरे मन के भीतर बनी रही थी और मैं इसी के उतारचढ़ाव संग घटताबढ़ता रहा था. फिर भी आज तक मैं यह न जान पाया कि यह मोह क्यों और किस के प्रति है? हां, एक नन्ही सी अनुभूति मेरे मन के भीतर अवश्य है जो मु झे बारबार यहां आने के लिए बाध्य करती रही है. यह अनुभूति मां के प्रति भी हो सकती है और अमृतसर की इस धरती के प्रति भी जिस की मिट्टी में लोटपोट कर मैं बढ़ा हुआ.

इसे ले कर मैं कभी एक मन नहीं हो पाया था. यदि हो भी पाता तो भी मु झे बारबार यहां आना पड़ता. बस से मैं बड़ी बदहवासी में उतरा. बदहवासी यहां आने की कि वे क्षण जिन के लिए मैं यहां आया हूं, अपने परिवेश में यदि ज्यों के त्यों हुए तो जो निरर्थकता मन के भीतर आएगी, उस का सामना कैसे कर पाऊंगा? बाद में हाथ में पकड़े ब्रीफकेस में सहेज कर रखी नोटों की गड्डी से मु झे बल मिलता है. थोड़ी देर के लिए मैं इस एहसास से मुक्त हो जाता हूं कि अब मैं मां का निखट्टू पुत्र नहीं हूं. निखट्टू मेरा उपनाम है. इस के साथ ही मु झे याद हो आते हैं मेरे दूसरे उपनाम भी. सीधा और भोला होने के वश रखा गया ‘भलोल’ उपनाम. सदा नाक बहती रहने के वश रखा ‘दोमुंही’ उपनाम. इन उपनामों से बारबार चिढ़ाने से मेरा जो रुदन निकलता तो मां से ले कर छोटे भाई तक को गली में लड़ती कौशल्या की आवाज का आभास होता था. 9वीं में मेरे कौशल्या उपनाम की बड़ी चर्चा थी.

मेरे मन में यह प्रश्न उस समय भी था और आज भी है कि अगर मैं भलोल हूं या मेरी नाक बहती है तो इस में मैं कहां दोषी हूं? और यह भी कि, मेरी दुर्दशा करने वाले मेरे अपने कहां हुए? अब सोचता हूं मेरा इन के साथ केवल रोटीकपड़े तक का संबंध रहा है. वह भी इस घर में पैदा हुआ हूं शायद इसलिए. मु झे पता ही नहीं चला कि कब संगम सिनेमा से गुजर कर पिंगलबाड़े तक पहुंच गया था. पिंगलबाड़े से मुड़ने पर पहले तहसील आती है. छुट्टी के रोज भी यहां भीड़ रहती है. जमघट लगा रहता है. मुकदमे ही मुकदमे. मुकदमे अपनों पर जमीनों के लिए. कत्लों के मुकदमे. तारतार होते रिश्ते. बेहिसाब दुश्मनी, कोई अंत नहीं. मैं जल्दी से आगे बढ़ जाता हूं. आगे वह क्रिकेट ग्राउंड आता है जिस पर मैं बचपन में अपने साथियों संग क्रिकेट खेला करता था. मां कहती, क्रिकेट ने मेरी पढ़ाई ले ली.

मैं कैसे कहता कि बड़े भाई की नईनई शादी, एक ही कमरे में परदे लगा कर उन के सोने का बंदोबस्त, रातभर चारपाई की चरमराहट, परदे के पीछे के दृश्यों की परिकल्पनाओं ने मु झे पढ़ने नहीं दिया था. पढ़ने के लिए मैं मौडल टाउन चाचाजी के पास और चालीस कुओं पर भी जाता पर परदे के पीछे की परिकल्पनाएं मेरा पीछा नहीं छोड़ती थीं. धीरेधीरे मैं पढ़ने में खंडित होता गया था. परीक्षा परिणाम आया तो मैं फेल था. पढ़ने के लिए जब फिर दाखिला भरा तो बड़े भाई का मत बड़ा साफ था, ‘तुम्हें अब की बार याद रखना होगा. व्यक्ति कारखाने में पैसा तब लगाता है जब उसे लाभ दिखाई दे.’ विडंबना देखें, जब यही बात राजू भाई ने इन्हें कही थी तो सब के सम झाने और मनाने पर भी पढ़ाई छोड़ दी थी. राजू भाई केवल यही चाहते थे कि कुक्कु का चक्कर छोड़ कर अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे. आज वही शब्द कहने से वे बिलकुल नहीं हिचकचाए थे. राजू भाई ठीक कहते थे, जिस बात का विरोध आज हम अपनी जान दे कर करते हैं, कोई समय आता है हम परिस्थितियों द्वारा इतने असहाय होते हैं कि उसी बात को बिना शर्त स्वीकार कर लेते हैं. उस समय उन की यह बात सम झ में नहीं आई थी.

आज समझ में आती है. मैं ने भी पढ़ाई छोड़ दी थी. इसलिए नहीं कि मु झे उन की बात सम झ में आ गई थी, बल्कि इसलिए कि बड़े भाई के शब्द मु झ से सहन नहीं हुए थे. बड़े भाई को भी शायद राजू भाई के यही शब्द सहन नहीं हुए होंगे. हम दोनों एकदूसरे की बात सहन कर लेते तो शायद हालात दूसरे होते. देखता हूं क्रिकेट ग्राउंड भी अब वहां नहीं है. सोचा था, जब मैं वहां पहुंचूंगा तो बच्चे पहले की तरह खेलते मिलेंगे. उन को खेलते देख मैं अपने बचपन के दिनों को याद कर लूंगा. वहां एक सुंदर बंगला हुआ करता था. और भी कई सुंदर बंगले बन गए थे. मैं किसी को कुछ कह नहीं सकता था. बच्चों के उल्लास तो आएदिन खत्म किए जाते हैं. बड़े भारी मन से मैं अपनी गली की ओर बढ़ता हूं. गली के मोड़ तक आतेआते मेरे पांव ढीले पड़ जाते हैं. आगे बढ़ने की इच्छा नहीं होती. गली के लोग मु झे निखट्टू नाम से जानते हैं. मु झे देखते ही आग की तरह यह खबर फैल जाएगी. न जाने समय के कौन से क्षणों में मेरा नाम निखट्टू पड़ा.

इस नाम से पीछा छुड़ाने के लिए मैंने मोटर मैकेनिकी, कुलीगीरी, रिक्शा चलाने से ले कर होटल में बरतन मांजने तक के काम किए. पर इस निखट्टू नाम से पीछा नहीं छूटा, चाहे तन के सुंदर कपड़े और नोटों से भरा ब्रीफकेस मु झे एहसास दिलाता है कि अब मैं मां का निखट्टू पुत्र नहीं रहा हूं. जानता हूं मैं मन की हीनभावना से छला गया हूं. यही भावना मु झे बल देती है. गली में झांक कर देखता हूं कि जिस बात की अपेक्षा थी वैसा कुछ नहीं था. गली में मु झे कोई दिखाई नहीं दिया था. सबकुछ बदल गया था. महाजनों का घर और बड़ा हो गया था. पहले हौजरी की एक मशीन हुआ करती थी, अब बहुत सी मशीनें लग गई हैं. गली भी पक्की हो गई है. मंसो की भैंसों के कारण जहां गंदगी फैली रहती थी, मु झे गली में कहीं भैंस दिखाई नहीं दी थी. घर के समीप पहुंचा तो मैं चकरा गया. हमारा घर कहां गया? उस की जगह खूबसूरत दोमंजिला मकान खड़ा था. मैं ने इधरउधर देखा कि कोई पहचान वाला मिले तो पूछूं कि दिनेश साहनी का घर यही है? एकाएक ऊपर लिखे ‘साहनी विला’ पर मेरी नजर पड़ी. दरवाजे पर एक ओर बड़े भाई के नाम की तख्ती भी दिखाई दे गई. भाई के नाम के नीचे लगी घंटी दबाने पर किसी अंजान महिला ने दरवाजा खोला. वह कपड़ों से नौकरानी लग रही थी. मु झे देख कर शायद वह यह पूछती कि आप को किस से मिलना है कि इतने में ‘‘कौन है?’’ कहती हुई मां दरवाजे तक चली आईं. मु झे देख कर आश्चर्य के भाव उन के चेहरे पर आए, फिर सामान्य हो गईं. मुख से निखट्टू निकलतेनिकलते रह गया पर निकला नहीं.

मां को देख कर नौकरानी सी लगने वाली भीतर चली गई. मां ने दरवाजा पूरा खोल दिया. मैं उस को प्रणाम करने के बाद बड़े अनमने भाव से भीतर चला आया. कदम रखते ही आंखें चुंधिया गईं. पूरे कमरे में ईरानी कालीन, एक ओर बड़ी सी डाइनिंग टेबल, दरवाजे के पास चमकदार फ्रिज, एक तरफ सोफा व बैड, गद्देदार कुरसियां और टीवी. टीवी के पीछे वाली दीवार पर मोतियों से बनाई गई एक औरत की आकृति फ्रेम की गई थी. मैं आगे नहीं बढ़ पाया. न ही मां ने मु झे बढ़ने के लिए कहा. बैठने के लिए भी नहीं कहा. मैं ने महसूस किया कि मु झे बैठाने से ज्यादा उस को यह बताने की चिंता है कि सारा सामान जिसे देख कर हैरान हूं, कहां से और कैसे आया है? मां बोली, ‘‘ये सारा सामान दिनेश ने फौरेन से मंगवाया है. यह ईरानी कालीन अभी पिछले महीने ही आया है. टीवी और फ्रिज बहुत पहले आ गया था.

पूरे 10 लाख रुपए लगे हैं.’’ मैं ने महसूस किया, मेरे ब्रीफकेस में पड़ी रकम एकदम छोटी है. जो रकम मां ने बताई थी, उस से दोगुनी छोटी. इन 5 वर्षों में जो क्षण मु झे सालते रहे हैं वे और बड़े हो गए हैं. जाने कहां से पीड़ा की एक तीखी अनुभूति भीतर से उठी और भीतर तक चीरती चली गई. पीड़ा इसलिए कि निखट्टू उपनाम से मुक्ति पाने की जो इच्छा ले कर यहां आया था, वह जाती रही. बैठक और ड्योढ़ी मिला कर ड्राइंगरूम में इतनी कीमत की चीजें हैं तो भीतर के कमरों में जाने क्याक्या देखने को मिले. मां ने बताया, ‘‘अपनी पत्नी के सारे गहने बेच कर जिस होटल में तुम बरतन मांजते थे उसी होटल को खरीद लिया था. यह उसी की करामात है कि हमें कोई कमी नहीं है.’’ ऐसे कहा जैसे अब भी उसी होटल में बरतन मांजता होऊं. ‘‘गांव की जमीन उस ने छेड़ी तक नहीं. कहता था जिस में सब हिस्सेदार हों उस में वह कुछ नहीं करेगा.’’ मां को भय हुआ कि कहीं मैं होटल में अपने हिस्से का दावा न करने लगूं. इसलिए साफ बात करना ठीक सम झी. मैं कहने को हुआ कि इस मकान में भी तो मेरा हिस्सा है, पर चुप रहा. बाद में मां ने महसूस किया कि उन्होंने मु झे बैठने को नहीं कहा. ‘‘बूट उतार कर सोफे पर बैठ जाओ.’’ यह सुन कर मैं संकुचित हो उठा कि उस का अपना बेटा, अपने भाई की ईरानी कालीन पर बूट पहन कर बैठ नहीं सकता.

कालीन पर तो बूट पहन कर ही बैठा जाता है. मैं ने यह भी महसूस किया कि घर छोड़ते समय जिस तरह मु झे ले कर मां भावशून्य थी उस में और वृद्धि हो गई है. न मैं बैठा और न ही मैं ने बूट उतारे. कहा, ‘‘चलूंगा मां. देखने आया था कि शायद तुम्हें मेरा अभाव खटकता हो. पर नहीं, यहां सबकुछ उलट है. तुम्हें मेरा अभाव नहीं था बल्कि मु झे तुम्हारा अभाव था. कितना विलक्षण है कि बेटे को मां का अभाव है पर मां को नहीं.’’ वहां से निकलने के बाद भी पीछे से मां की आवाज आती रही, ‘‘कुछ खातेपीते जाओ. भाई से नहीं मिलोगे? होटल नहीं देखोगे?’’ मु झे मां की आवाज किसी कुएं से आती सुनाई दी. मां, दिनेश भाई के साथ इसलिए है कि दोनों एक ही वृत्ति के हैं. बेईमान और धोखेबाज. मैं ने तो यह महसूस किया कि अब तक के सालते क्षणों में कुछ और क्षण समावेश कर गए हैं. और यह भी कि क्षण यदि खुद में बदल भी जाएं तो निरथर्कता और बढ़ जाती है जो आदमी को जीवनभर सालती है.

दिल वर्सेस दौलत- भाग 1: क्या पूरा हुआ लाली और अबीर का प्यार

‘‘किस का फोन था, पापा?’’

‘‘लाली की मम्मी का. उन्होंने कहा कि किसी वजह से तेरा और लाली का रिश्ता नहीं हो पाएगा.’’

‘‘रिश्ता नहीं हो पाएगा? यह क्या मजाक है? मैं और लाली अपने रिश्ते में बहुत आगे बढ़ चुके हैं. नहीं, नहीं, आप को कोई गलतफहमी हुई होगी. लाली मेरे साथ ऐसा कैसे कर सकती है? आप ने ठीक से तो सुना था, पापा?’’

‘‘अरे भाई, मैं गलत क्यों बोलने लगा. लाली की मां ने साफसाफ मु झ से कहा, ‘‘आप अपने बेटे के लिए कोई और लड़की ढूंढ़ लें. हम अबीर से लाली की शादी नहीं करा पाएंगे.’’

पापा की ये बातें सुन अबीर का कलेजा छलनी हो आया. उस का हृदय खून के आंसू रो रहा था. उफ, कितने सपने देखे थे उस ने लाली और अपने रिश्ते को ले कर. कुछ नहीं बचा, एक ही  झटके में सब खत्म हो गया, भरे हृदय के साथ लंबी सांस लेते हुए उस ने यह सोचा.

हृदय में चल रहा भीषण  झं झावात आंखों में आंसू बन उमड़नेघुमड़ने लगा. उस ने अपना लैपटौप खोल लिया कि शायद व्यस्तता उस के इस दर्द का इलाज बन जाए लेकिन लैपटौप की स्क्रीन पर चमक रहे शब्द भी उस की आंखों में घिर आए खारे समंदर में गड्डमड्ड हो आए.  झट से उस ने लैपटौप बंद कर दिया और खुद पलंग पर ढह गया.

लाली उस के कुंआरे मनआंगन में पहले प्यार की प्रथम मधुर अनुभूति बन कर उतरी थी. 30 साल के अपने जीवन में उसे याद नहीं कि किसी लड़की ने उस के हृदय के तारों को इतनी शिद्दत से छुआ हो. लाली उस के जीवन में मात्र 5-6 माह के लिए ही तो आई थी, लेकिन इन चंद महीनों की अवधि में ही उस के संपूर्ण वजूद पर वह अपना कब्जा कर बैठी थी, इस हद तक कि उस के भावुक, संवेदनशील मन ने अपने भावी जीवन के कोरे कैनवास को आद्योपांत उस से सा झा कर लिया. मन ही मन उस ने उसे अपने आगत जीवन के हर क्षण में शामिल कर लिया. लेकिन शायद होनी को यह मंजूर नहीं था. लाली के बारे में सोचतेसोचते कब वह उस के साथ बिताए सुखद दिनों की भूलभुलैया में अटकनेभटकने लगा, उसे तनिक भी एहसास नहीं हुआ.

शुरू से वह एक बेहद पढ़ाकू किस्म का लड़का था जिस की जिंदगी किताबों से शुरू होती और किताबों पर ही खत्म. उस की मां लेखिका थीं. उन की कहानियां विभिन्न पत्रपत्रिकाओं में छपती रहतीं. पिता को भी पढ़नेलिखने का बेहद शौक था. वे एक सरकारी प्रतिष्ठान में वरिष्ठ वैज्ञानिक थे. घर में हर कदम पर किताबें दिखतीं. पुस्तक प्रेम उसे नैसर्गिक विरासत के रूप में मिला. यह शौक उम्र के बढ़तेबढ़ते परवान चढ़ता गया. किशोरावस्था की उम्र में कदम रखतेरखते जब आम किशोर हार्मोंस के प्रभाव में लड़कियों की ओर आकर्षित होते हैं,  उन्हें उन से बातें करना, चैट करना, दोस्ती करना पसंद आता है, तब वह किताबों की मदमाती दुनिया में डूबा रहता.

बचपन से वह बेहद कुशाग्र था. हर कक्षा में प्रथम आता और यह सिलसिला उस की शिक्षा खत्म होने तक कायम रहा. पीएचडी पूरी करने के बाद एक वर्ष उस ने एक प्राइवेट कालेज में नौकरी की. तभी यूनिवर्सिटी में लैक्चरर्स की भरती हुई और उस के विलक्षण अकादमिक रिकौर्ड के चलते उसे वहीं लैक्चरर के पद पर नियुक्ति मिल गई. नौकरी लगने के साथसाथ घर में उस के रिश्ते की बात चलने लगी.

वह अपने मातापिता की इकलौती संतान था. सो, मां ने उस से उस की ड्रीमगर्ल के बारे में पूछताछ की. जवाब में उस ने जो कहा वह बेहद चौंकाने वाला था.

मां, मु झे कोई प्रोफैशनल लड़की नहीं चाहिए. बस, सीधीसादी, अच्छी पढ़ीलिखी और सम झदार नौनवर्किंग लड़की चाहिए, जिस का मानसिक स्तर मु झ से मिले. जो जिंदगी का एकएक लमहा मेरे साथ शेयर कर सके. शाम को घर आऊं तो उस से बातें कर मेरी थकान दूर हो सके.

मां उस की चाहत के अनुरूप उस के सपनों की शहजादी की तलाश में कमर कस कर जुट गई. शीघ्र ही किसी जानपहचान वाले के माध्यम से ऐसी लड़की मिल भी गई.

उस का नाम था लाली. मनोविज्ञान में पोस्ट ग्रेजुएशन की हुई थी. संदली रंग और बेहद आकर्षक, कंटीले नैननक्श थे उस के. फूलों से लदीफंदी डौलनुमा थी वह. उस की मोहक शख्सियत हर किसी को पहली नजर में भा गई.

उस के मातापिता दोनों शहर के बेहद नामी डाक्टर थे. पूरी जिंदगी अपने काम के चलते बेहद व्यस्त रहे. इकलौती बेटी लाली पर भी पूरा ध्यान नहीं दे पाए. लाली नानी, दादी और आयाओं के भरोसे पलीबढ़ी. ताजिंदगी मातापिता के सान्निध्य के लिए तरसती रही. मां को ताउम्र व्यस्त देखा तो खुद एक गृहिणी के तौर पर पति के साथ अपनी जिंदगी का एकएक लमहा भरपूर एंजौय करना चाहती थी.

विवाह योग्य उम्र होने पर उस के मातापिता उस की इच्छानुसार ऐसे लड़के की तलाश कर रहे थे जो उन की बेटी को अपना पूरापूरा समय दे सके, कंपेनियनशिप दे सके. तभी उन के समक्ष अबीर का प्रस्ताव आया. उसे एक उच्चशिक्षित पर घरेलू लड़की की ख्वाहिश थी. आजकल अधिकतर लड़के वर्किंग गर्ल को प्राथमिकता देने लगे थे. अबीर जैसे नौनवर्किंग गर्ल की चाहत रखने वाले लड़कों की कमी थी. सो, अपने और अबीर के मातापिता के आर्थिक स्तर में बहुत अंतर होने के बावजूद उन्होंने अबीर के साथ लाली के रिश्ते की बात छेड़ दी.

संयोगवश उन्हीं दिनों अबीर के मातापिता और दादी एक घनिष्ठ पारिवारिक मित्र की बेटी के विवाह में शामिल होने लाली के शहर पहुंचे. सो, अबीर और उस के घर वाले एक बार लाली के घर भी हो आए. लाली अबीर और उस के परिवार को बेहद पसंद आई. लाली और उस के परिवार वालों को भी अबीर अच्छा लगा.

दोनों के रिश्ते की बात आगे बढ़ी. अबीर और लाली फोन पर बातचीत करने लगे. फिर कुछ दिन चैटिंग की. अबीर एक बेहद सम झदार, मैच्योर और संवेदनशील लड़का था. लाली को बेहद पसंद आया. दोनों में घनिष्ठता बढ़ी. दोनों को एकदूसरे से बातें करना बेहद अच्छा लगता. फोन पर रात को दोनों घंटों बतियाते. एकदूसरे को अपने अनुकूल पा कर दोनों कभीकभार वीकैंड पर मिलने भी लगे. एकदूसरे को विवाह से पहले अच्छी तरह जाननेसम झने के उद्देश्य से अबीर  शुक्रवार की शाम फ्लाइट से उस के शहर पहुंच जाता. दोनों शहर के टूरिस्ट स्पौट्स की सैर करतेकराते वीकैंड साथसाथ मनाने लगे. एकदूसरे को गिफ्ट्स का आदानप्रदान भी करने लगे.

दिन बीतने के साथ दोनों के मन में एकदूसरे के लिए चाहत का बिरवा फूट चुका था. सो, दोनों की तरफ से ग्रीन सिगनल पा कर लाली के मातापिता अबीर का घरबार देखने व उन के रोके की तारीख तय करने अबीर के घर पहुंचे. अबीर का घर, रहनसहन, जीवनशैली देख कर मानो आसमान से गिरे वे.

अबीर का घर, जीवनस्तर उस के पिता की सरकारी नौकरी के अनुरूप था. लाली के रईस और अतिसंपन्न मातापिता की अमीरी की बू मारते रहनसहन से कहीं बहुत कमतर था. उन के 2 बैडरूम के फ्लैट में ससुराल आने पर उन की बेटी शादी के बाद कहां रहेगी, वे दोनों इस सोच में पड़ गए. एक बैडरूम अबीर के मातापिता का था, दूसरा बैडरूम उस की दादी का था.

अबीर की दादी की घरभर में तूती बोलती. वे काफी दबंग व्यक्तित्व की थीं. बेटाबहू उन को बेहद मान देते. उन की तुलना में अबीर की मां का व्यक्तित्व उन्हें तनिक दबा हुआ प्रतीत हुआ.

अबीर के घर सुबह से शाम तक एक पूरा दिन बिता कर उन्होंने पाया कि उन के घर में दादी की मरजी के बिना पत्ता तक नहीं हिलता. उन की सीमित आय वाले घर में उन्हें बातबात पर अबीर के मातापिता के मितव्ययी रवैए का परिचय मिला.

छितराया प्रतिबिंब- भाग 3: क्या हुआ था मलय के साथ

ऐसा लगता था कि वह मुझे ही आदेश दे रही हो, अप्रत्यक्ष रूप से. बेहद चिढ़ होती है मुझे जब पत्नी पति को सीख दे. यही गलती मेरी मां ने कर के पिताजी को जिद्दी और असंतोषी बना दिया था, घर में अशांति की जड़ है पत्नी का स्वयं को ज्यादा समझना. और अब यही काम मेरी पत्नी कर रही थी. मेरी यह चिढ़ इतनी बढ़ गई थी कि अब प्रतीति की हर बात पर मैं बोल पड़ता. प्रतीति कहती, आओ कुक्कू, दूध पीओ. इधर आओ, ड्रैस बदल दूं, कापी निकालो, होमवर्क करना है, आदि.

मैं झल्ला पड़ता, ‘दिमाग नहीं है, बेवकूफ कहीं की. दिख नहीं रहा वह खेल रही है मेरे साथ, अभी कोई होमवर्क नहीं.’
‘दूध तो पीने दो?’
‘क्यों? तुम कहोगी तो हुक्म बजाना ही पड़ेगा? कोई जबरदस्ती है क्या? नहीं पीएगी अभी दूध, उस की जब मरजी होगी तभी पीएगी.’
उदासी और आश्चर्य से भर उठती प्रतीति. कहती, ‘4 साल की बच्ची की कभी दूध पीने की मरजी होगी भी.’
मैं बोलता, ‘नहीं होगी तो नहीं पीएगी, तुम बीच में मत बोलो.’
प्रतीति मारे हताशा के झल्ला पड़ती, ‘बीच में तो तुम पड़ रहे हो. मुझे समझने दो न उस की जरूरतों को.’
‘कोई जरूरत नहीं है तीसरे को बीच में बोलने की, जब मैं अपनी बेटी के साथ हूं, समझीं.’

प्रतीति अवाक् हो कर मेरा मुंह ताकती और मैं झल्ला कर उसे और नीचा दिखाने की, उस पर गुस्सा उतारने की कोशिश करता ताकि वह मेरी ओर देखती न रहे. उस का मेरी ओर इस तरह एकटक देखना मेरे गलत होने का एहसास दिलाता था और मुझे मेरा गलत साबित होना कतई पसंद नहीं था. मैं ने कमर कस ली कि उसे किसी भी कीमत पर इतना नहीं बढ़ने दूंगा कि वह मुझे समझाना शुरू करे.

मैं ने प्रतीति को हर बात पर डराना, दबाना शुरू कर दिया ताकि वह सहीगलत कुछ भी मुझे बता कर मेरी गलतियों का एहसास न करा पाए. धीरेधीरे मैं ने उस में ऐसे एहसास भर दिए कि अगर उस ने कभी भी किसी बात पर अपनी नापसंदगी जाहिर की तो उसे हमेशा के लिए यह घर छोड़ना होगा और यह नुसखा कारगर साबित हुआ. हो क्यों न, कितनी ही पढ़ीलिखी और समझदार भारतीय औरत हो, हर हाल में निभाने वाली मानसिकता उसे कई बार न बरदाश्त हो सकने वाली चीजों को बरदाश्त करने का हौसला दे देती है, प्रतीति की भी यह शक्ति कम मगर सहनशक्ति दिनोंदिन बढ़ती जा रही थी. शारीरिक तौर पर वह ड्यूटी के लिहाज से शायद मुझे खुश रखती थी और ज्यादा अंत:स्थ तक प्रवेश करने की मैं भी जहमत नहीं उठाता था.

दिन गुजरते जा रहे थे, कुक्कू बड़ी होती जा रही थी.

ज्योंज्यों मेरा आधिपत्य बढ़ता जा रहा था, प्रतीति अपनेआप में सिमटती जा रही थी. हमारा रिश्ता सिकुड़ता जा रहा था. कुक्कू अचंभित, हैरान दोराहे पर चलती जा रही थी.

मैं कुक्कू को अकसर पढ़ाने बैठता और कुक्कू की गलतियों के लिए मुझे उस की मां को सुनाने का अच्छा मौका मिलता. प्रतीति चुपचाप सुनती रहती और मैं बेटी के सामने खराब हो जाने के डर से प्रतीति पर उलटेसीधे इलजाम लगाना शुरू करता ताकि कुक्कू अपनी मां को बुरा समझे. इन सब से मैं क्या पाता था या मेरी कौन सी चाहत पूरी होती थी, मैं खुद भी नहीं समझ पाता. हां, इतना अवश्य था कि मेरा भूखा पुरातन ‘मैं’ थोड़ा सांस लेता, पुष्ट होता, संतुष्ट होता. बचपन में मैं रात के साढ़े 3 बजे से भोर 5 बजे तक यही सोचता रहता कि मांपिताजी दोनों साथसाथ एक ही घर में रहते ही क्यों हैं? सोचता, ये अगर अलगअलग हो जाएं तो मैं मां के साथ रहूंगा और तीनों भाइयों को पिताजी के साथ भेज दूंगा. लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं. जिंदगी हिचकोले खाती चलती रही, साथ वह सिलसिला भी.

मगर अब मैं पूरी क्षमता में हूं कि पुरानी गलतियों को सुधार लूं. अब न तो मैं घर में किसी औरत को हायतौबा मचाने दूंगा और न ही घर में अशांति का महाभारत छिड़ने दूंगा. रोजरोज के क्लेश से बेहतर है अलगाव…अलगाव… अलगाव.

प्रतीति शारीरिक और मानसिक भाषा द्वारा कितनी ही समझाने की कोशिश करती, मुझे लगता वह मुझे उल्लू बना रही है, मुझे धोखा दे कर अपनी बात मनवाने की कोशिश कर रही है. मैं जिद से भर उठता, न मानने की जिद से, उसे नीचा दिखाने की जिद से, बातबात पर उस की गलतियां ढूंढ़ कर उस को गलत साबित करने की जिद से, जो शायद हमारे संसार में नहीं था. उस पुरानी कहानी को काल्पनिक रूप से हमारे संसार पर प्रतिबिंबित कर बचपन की उन बिसूरती यादों को सही करने की जिद से, भर उठता था मैं.

छठी में पढ़ने वाली कुक्कू का रिजल्ट आया था. कक्षा में प्रथम आने वाली कुक्कू किसी तरह पास हो कर 7वीं में पहुंची थी, मैं उस का रिपोर्टकार्ड देख कर अपनेआप को रोक नहीं पाया, घर में मेरे काफी देर बवाल मचाने के बाद जब प्रतीति से रहा नहीं गया तो वह मुझ से उलझ ही पड़ी. प्रतीति अपनेआप में बड़बड़ाती हुई कहने लगी, ‘दूभर कर दिया है जीना. कहीं अकेले बैठ कर सोचो कि शादी के बाद मेरे सारे सपनों को कैसे तुम ने हथौड़े मारमार कर तोड़ा, कहीं चैन की सांस नहीं लेने दी. हमेशा मुझ पर गलत तोहमतें लगाईं और मैं ने कभी उन का सही तरीके से विरोध तक नहीं किया. सब उलटेसीधे इलजामों को अपने दिल में दबा कर घुटती रही, लेकिन कर्तव्य से कभी मैं ने मुंह नहीं फेरा. काउंसिलिंग की बात से चिढ़ होती है, लेकिन खुद सोचो कि हम पर…’

मैं उसी वक्त अपनी पैकिंग में लग गया. दरअसल, मैं ने कितनी ही गलतसही बातें उसे सुनाई हों लेकिन वह कभी भी अपनी जबान नहीं खोलती थी. आज पहली बार था जो मुझे बेहद नागवार गुजरा था. मुझे तैयार होता देख मांबेटी सकते में थीं. कुक्कू अब मुझ से काफी सहमी रहती और इस के लिए मैं पूरी तरह से प्रतीति को दोषी समझता था. पता नहीं क्यों कभी नहीं लगा कि मैं जो इतना उग्र हो जाता हूं उस का बच्ची पर कुछ तो असर होता होगा. कुक्कू किनारे खड़ी हो कर सुबकती हुई अनुनय करने लगी कि मैं न जाऊं.

प्रतीति के लिए यद्यपि ज्यादा मेरे करीब आना मुमकिन नहीं था फिर भी शारीरिक भाषा प्रखर करते हुए राह रोक कर खड़ी हो गई. मैं अपना बैग ले कर लगभग उसे धक्का देते हुए बाहर निकल गया.

आज सुबह से ही मेघों का बोलबाला कुछ ज्यादा था. कुहरे ने स्वस्थ, साफ आसमान को इस कदर ढक लिया था कि अगले कुछ पल बड़े असमंजस भरे थे. मैं बड़ा बेचैन था. मैं ने मोबाइल उठा लिया. सोचा, शहर में ही किसी परिचित को फोन लगाऊं. फिर मां को ही फोन घुमा दिया. मांपिताजी अभी भी उसी पुश्तैनी मकान में रह रहे हैं.

मां ने मेरा फोन पाते ही चिंतित स्वर में पूछा, ‘‘क्या हुआ, मलय? 10 दिनों से रोज तुम्हारे घर फोन कर रही हूं. प्रतीति एक ही बात कह रही है कि तू औफिस के काम से बाहर गया है, इधर तुझे फोन लगाती हूं तो बंद रहता है या उठाता नहीं.’’

‘‘मैं घर से भाग आया हूं और कभी वापस नहीं जाऊंगा.’’

‘‘क्या? यह क्या बोल रहा है तू? कहां है तू?’’

‘‘गंगटोक, यह बात प्रतीति को बताने की जरूरत नहीं, उसे पता नहीं कि मैं कहां हूं.’’

‘‘लेकिन हुआ क्या? वह तो कितनी अच्छी लड़की है.’’

‘‘खबरदार जो गैर लड़की के लिए सिफारिश की तो, बेटा मैं तुम्हारा हूं, तुम मेरी ओर से बोलोगी, बस.’’

‘‘अरे, उस की गलती तो बता?’’

‘‘तुम्हें मैं क्या बताऊं, तुम रहती हो यहां, जो बताऊं? यह मेरा घर है, यहां सबकुछ मेरे अनुसार होगा. मेरी अनुमति के बिना एक पत्ता नहीं हिलेगा.’’

‘‘तू यह क्या कह रहा है? है तो तेरा ही सबकुछ, लेकिन शादी ऐसे निभती है क्या? पति को चाहिए कि पत्नी को वह उतना ही हक और सम्मान दे जितना वह पत्नी से चाहता है.’’

‘‘फिर तुम शुरू हो गईं ज्ञान बघारने. फोन रखो, मैं कहता हूं, फोन रखो.’’

फोन मैं ने काट दिया था और मैं अब किसी से बात नहीं करना चाहता था. बचपन में मेरे मांपिताजी जब अपनी मनमानी करते थे तो तब कोई सिखाने नहीं आया, अब मैं अपने हिसाब से क्यों नहीं चलूं.

मैं बहुत उद्विग्न महसूस कर रहा था. प्रतीति शांत और निश्चिंत कैसे थी? यह सच है कि छोटीछोटी बातों के लिए भी मैं उसे बुराभला कह जाता था, वह शांत रहती थी, यहां तक कि बेटी को हिदायत भी दे डालता था कि उस की मां अहंकारी, पागल और बहुत बुरी है. अगर वह अपनी मां से बातें करेगी तो मुझे खो देगी, प्रतीति मेरी ओर स्थिर दृष्टि से देखती हुई अपनी जगह खड़ी रहती थी. उस का यह शांत रूप मुझे और आक्रामक करता था, मैं अपनी तौहीन देख गालीगलौज पर उतर आता था यहां तक कि उसे मारने तक दौड़ता था. फिर वह शांत हो इतना ही कहती, ‘मुझ से जो गलतियां हुईं उस के लिए माफ करो.’ मैं झल्ला कर बात खत्म करता.

जीवन की मुसकान- भाग 1: क्या थी रश्मि की कहानी

कौलबैल की आवाज सुनते ही रश्मि के दिल पर एक घूंसा सा लगा. उसे लगा, आग का कोई बड़ा सा गोला उस के ऊपर आ गया है और वह उस में झुलसती जा रही है.

पति की बांहों में सिमटी वह छुईमुई सी हुई पागल होना चाहती थी कि सहसा कौलबैल ने उसे झकझोर कर रख दिया. कौलबैल के बीच की दूरी ऐसी थी, जिस ने कर्तव्य में डूबे पति को एकदम बिस्तर से उठा दिया. रश्मि मन ही मन झुंझला उठी.

‘‘डाक्टर, डाक्टर, हमारे यहां मरीज की हालत बहुत खराब है,’’ बाहर से आवाज आई.

रश्मि बुदबुदाई, ‘ये मरीज भी एकदम दुष्ट हैं. न समय देखते हैं, न कुछ… अपनी ही परवा होती है सब को. दूसरों को देखते तक नहीं, मरमरा जाएं तो…’

‘‘शी…’’ उस के पति डाक्टर सुंदरम ने उस को झकझोरा, ‘‘धीरे बोलो. ऐसा बोलना क्या तुम्हें शोभा देता है?’’

रश्मि खामोश सी, पलभर पति को घूरती रही, ‘‘मत जाइए, हमारी खुशियों के वास्ते आज तो रहम कीजिए. मना कर दीजिए.’’

‘‘पागल तो नहीं हो गई हो, रश्मि? मरीज न जाने किस अवस्था में है. उसे मेरी जरूरत है. विलंब न जाने क्या गुल खिलाए? मुझे जाने दो.’’

‘‘नहीं, आज नहीं जाने दूंगी. रोजरोज ऐसे ही करते हो. कभी तो मेरी भी सुना करो.’’

‘‘कर्तव्य की पुकार के आगे हर आवाज धीमी पड़ जाती है, रश्मि. यह नश्वर शरीर दूसरों की सेवा के लिए ही तो बना है. जीवन में क्या धरा है, केवल आत्मसंतोष ही तो, जो मुझे मरीजों को देख, उन्हें संतुष्ट कर के मिल जाता है.’’

‘‘कर्तव्य, कर्तव्य, कर्तव्य,’’ रश्मि खीझी, ‘‘क्या तुम्हीं रह गए हो कर्तव्य पूरा करने वाले? मरीज दूसरे डाक्टर को भी तो बुला सकता है. तुम मना कर सकते हो.’’

‘‘ऐसे ही सब डाक्टर सोचने लगें तो मरीज को कौन देखेगा?’’ सुंदरम ने मुसकरा कर कहा, ‘‘हटो आगे से…हटो, रश्मि.’’

‘‘नहीं, नहीं,’’ रश्मि सिर को झटक कर एक ओर हट गई. उस की आंखों में आंसू थे.

डाक्टर सुंदरम शीघ्रता से बाहर निकल गए. रश्मि की आंखों तले अंधेरा सा छाया था. वह उठ कर खिड़की से बाहर देखने लगी. हां, अंधेरा है, दूरदूर तक अंधेरा है. सारा नगर सो रहा है और वह जागी है. आसपास पत्तों के खड़कने की भी आवाज नहीं है और उस की आंखों की पुतलियां न जाने किस दिशा में बारबार फिर रही हैं, आंखों में विवशता का पानी है. लाचार है. आंखों में पानी का गहरा नीला सागर है. होंठों पर न जाने कैसे झाग निकल कर बाहर टपक रहे हैं. किंतु यहां उस की इस दशा को देखने वाला कौन है? परखने वाला कौन है?

रश्मि ध्यान से कमरे की एकएक चीज अंधेरे में आंखें फाड़फाड़ कर देखने लगी. पलंग पर एक तरफ उस का 2 वर्ष का बेटा अविनाश सोया पड़ा है. कमरे में सुखसुविधा की सारी चीजें उपलब्ध हैं. रेडियो, फ्रिज, टेपरिकौर्डर और न जाने क्याक्या. किंतु इन सब के बीच वह सुख कहां है जिस की किसी भी पत्नी को चाह होती है, जरूरत होती है? वह सुख उस से क्यों छीना जाता है, लगभग हर रोज? उस की आंखों की पुतलियां एक बार फिर अविरल हो चलीं. उस की आंखें घूमती गईं. कुछ न भूलने वाली बातें, कुछ हमेशा याद रखने वाली बातें.

आज बड़ी मुश्किल से पति के पास कुछ अधिक देर बैठने का मौका मिला था. उस ने आज पूरे चाव से अपना शृंगार किया था, ताकि मरीजों से अलग बैठा सुंदरम उस में खो सके. खाने की मेज पर सुंदरम बोला था, ‘रश्मि, आज कितनी अच्छी लग रही हो, इच्छा होती है, तुम इसी तरह बैठी रहो और मैं भी इसी तरह बैठा तुम्हें देखता रहूं?’ और वह खुशी से झूम उठी. मस्ती के उन क्षणों को सोते वक्त वह और भी मधुर बनाना चाहती थी कि मरीज ने आ कर किसी लुटेरे की भांति उस के सुख को छिन्नभिन्न कर दिया और वह मुट्ठियां भींच बैठी थी. कर्तव्य के आगे सुंदरम के लिए कोई भी महत्त्व नहीं रखता. वह शीघ्रता से ओवरकोट पहन कर बाहर निकल गया था.

रश्मि को ध्यान आया, यह सब आज की बात नहीं है. उस के सुख पर ऐसा हमला शादी के तुरंत बाद ही होने लगा था. सुहागरात की उन मधुर घडि़यों में तो शायद मरीजों को उस पर तरस आ गया था. उस रात कोई कौलबैल नहीं घनघनाई थी. उस की सुखभरी जिंदगी का शादी के बाद वह शायद पहला व अंतिम दिन था, जब रात बिना किसी बाहरी हलचल के बीती थी. किंतु उस के अगले ही दिन उस के सपनों का सजाया कार्यक्रम छिन्नभिन्न हो गया था और जिंदगी अस्तव्यस्त. सुंदरम अपने मरीजों के प्रति इतना वफादार था कि उस के आगे खानापीना ही नहीं, बल्कि पत्नी भी महत्त्वहीन हो जाती थी. कौलबैल बजी नहीं कि वह मरीज को देखने निकल जाता. इस तरह रश्मि का जीवन एक अजीब प्रतीक्षा और अस्तव्यस्त ढंग से बीतने लगा था. जीने का न कोई ढंग था, न नियम. था तो केवल मरीजों को देखने का नियम, हर समय जब भी मालूम पड़े कि मरीज बीमार है. और घर में खाना कभी 12 बजे खाया जा रहा है, तो कभी 1 बजे, कभी 2, 3 या 4 बजे, कभी बिलकुल ही नहीं. रात का भी यही हाल था.

रश्मि प्रतीक्षा करती रहती कि कब सुंदरम आए, वह उस के साथ भोजन करे, बातें करे. लेकिन अस्पताल से देर से लौटने के बाद भी यह हाल था कि ऊपर से मरीज आ गए तो फिर बाहर. रात के 2 बजे कौलबैल बज उठे तो परवा नहीं, अफसोस नहीं. बस, कर्तव्य एक डाक्टर का एक मरीज के प्रति ही याद रहता. रश्मि को यह बिलकुल पसंद नहीं था. चौबीस घंटों में वह बहुत कम समय पति को अपने नजदीक पाती थी. वह चाहती थी, सुंदरम एक निश्चित कार्यक्रम बना ले, इतने से इतने बजे तक ही मरीजों को देखना है, उस के बाद नहीं. बाकी समय उसे वह अपने पास बिठाना चाहती थी.

पति का मूड भी बात करने का होता कि मरीज आ धमकता और सारा मजा किरकिरा. सब बातें बंद, मरीज पहले. घूमने का प्रोग्राम भी मरीज के कारण रुक जाता. उसे लगता है, रात कभी 2 बजे से शुरू होती है, कभी 3 बजे से. यह भी कोई जिंदगी है. लेकिन सुंदरम कहता कि मरीज को देखने का कोई समय नहीं होता. मरीज की हालत तो अनायास ही बिगड़ती है और यह मालूम पड़ते ही डाक्टर को उस की जांच करनी चाहिए. मरीजों को देखने के लिए बनाए कार्यक्रम के अनुसार चलने पर वह कार्यक्रम किसी भी मरीज की जान ले सकता है. जब मरीज बीमार है तभी डाक्टर के लिए उसे देखने का समय होता है. देखने का कोई निश्चित समय नहीं तय किया जा सकता.

आगाज- भाग 2: क्या हुआ था नव्या के साथ

नव्या के यों हंसने से नैवेद्य को लगा वह फिर से अपना कौन्फिडैंस खोने लगा, लेकिन अगले ही क्षण अपनी पूरी हिम्मत बटोर बोल पड़ा, ‘‘नव्या, मैं मजाक नहीं कर रहा. मैं बहुत सीरियसली कह रहा हूं. मुझे वाकई में

तुम से प्यार हो गया है.’’

‘‘कम औन किड्डो. ग्रो अप. यह प्यारव्यार कुछ नहीं. तुम्हें मुझ पर क्रश हो गया है, और कुछ नहीं. यह क्रश का बुखार कुछ ही दिन

रहता है. इस का पारा जैसे चढ़ता है, वैसे ही उतर भी जाता है,’’ नव्या ने मंदमंद मुसकराते हुए उस से कहा.

‘‘ओह नव्या, यह क्रश नहीं, डैम इट, प्यार है

प्यार. पिछले वीक की सेल्स कौन्फ्रैंस के बाद से मैं तुम्हें दिल दे बैठा हूं. सोतेजागते, उठतेबैठते मुझे तुम ही तुम दिखती हो. मेरी फीलिंग का मजाक तो कम से कम

मत उड़ाओ.’’

इस पर नव्या बोली, ‘‘मैं तुम्हारा मजाक नहीं उड़ा रही किड, लेकिन मेरी और  तुम्हारी दुनिया में जमीनआसमान का अंतर है.’’

‘‘अंतर, कैसा

अंतर?’’

‘‘यह तुम्हारा ऐप्पल का आईफोन और वाच, नाइके के जूते, प्रीमियम ब्रैंड के कपड़े और परफ्यूम बताते हैं तुम्हारी बैकग्राउंड बेहद रिच है. मुझे देखो, यह

मेरा ऐंड्रौइड फोन, जरूरत भर सामान के साथ यह मेरा छोटा सा स्टूडियो अपार्टमैंट. मेरी बैकग्राउंड तुम से बहुत कमतर है बच्चे. मेरे पापा एक रिकशा चलाने वाले हैं.

बोलो एक रिक्कशा चलाने वाले की बेटी के साथ इनवौल्व होना पसंद करोगे?’’

‘‘ओह नव्या, सब से पहले तो मुझे यह किड कहना बंद करो. और हां मुझे इस

बात से बिलकुल कोई फर्क नहीं पड़ता?’’

‘‘ओह, तुम्हारी क्या उम्र है, नैवेद्य?’’

‘‘मैं पूरे 25 साल का हूं.’’

‘‘मैं पूरे 30 की हूं. तुम से पूरे 5 साल

बड़ी.’’

‘‘तो क्या हुआ? प्यार में ये बातें माने

नहीं रखतीं.’’

‘‘रखती हैं नैवेद्य, मेरीतुम्हारी दुनिया

2 पोल्स हैं. मेरातुम्हारा कोई मेल नहीं.’’

‘‘मैं तुम्हें कैसे

विश्वास दिलाऊं कि मैं तुम्हें दिलोजान से चाहने लगा हूं.’’

‘‘नहींनहीं, मैं कभी अपने से कम उम्र इंसान को अपनी जिंदगी में शामिल नहीं कर सकती.’’

‘‘ओह

नव्या, प्लीज, ये दकियानूसी बातें करना बंद करो. अच्छा चलो मेरा प्यार कबूल करना नहीं चाहती, तो न सही. मेरी दोस्ती ही ऐक्सैप्ट कर लो यार. चलो, यह

ट्यूलिप्स तुम्हारीमेरी दोस्ती के नाम.’’

‘‘ओके, बहुत प्यारे ट्यूलिप्स हैं,’’ नव्या ने उन्हें हाथ से सहलाते हुए कहा, ‘‘ओके डन, औनली फ्रैंडशिप, नो प्यारव्यार

ओके?’’

‘‘ठीक है भई, ठीक है.’’

दोनों को बातचीत करतेकरते रात के

10 बजने को आए. यह देख कर नव्या

ने उस से कहा, ‘‘नैवेद्य 10 बजने वाले हैं. घर

नहीं जाना?’’

‘‘तुम्हें छोड़ कर घर जाने का मन ही नहीं कर रहा. यार भूख लग रही है डिनर ही करवा दो.’’

‘‘नैवेद्य, अब मेरा तो खाना बनाने का मन ही

नहीं कर रहा. चलो रेस्तरां चलते हैं.’’

‘‘अरे नव्या, मैं बाहर का खाना अवौइड करता हूं. और हां बाई द वे, मैं बहुत अच्छा कुक भी हूं. क्या आज मैं तुम्हें अपने

हाथों से खाना बना कर खिला सकता हूं? इजाजत है तुम्हारी किचन में घुसने की? बोलो तुम्हें क्या खाना है?’’

‘‘अरे नैवेद्य, तुम मेरी किचन में क्या बनाओगे?

अब इतनी देर से मेरा तो किचन में पैर रखने तक का मन नहीं कर रहा.’’

‘‘औल द बेटर. चलो तुम्हें पकौड़े पसंद हैं?’’

‘‘बेहद. प्याज के पकौड़े मेरे पसंदीदा

हैं. क्या तुम पकौड़े बना लेते हो?’’

‘‘मैडम, बस आप मुझे पकौड़े बनाने की सारी चीजें दे दीजिए, बेसन, प्याज, अदरक, हरीमिर्च और बस तसल्ली से बाहर बैठ

जाइए. और हां, मुझे मसालादानी भी चाहिए.’’

नव्या ने उसे बेसन और मसालदानी थमाई. फिर प्याज, अदरक और हरीमिर्च

प्लैटफौर्म पर रख कर बोली, ‘‘चलो,

मैं ये सब धो कर काट देती हूं.’’

‘‘नहीं मैडम, मुझे अपनी किचन में कोई नहीं चाहिए. किचन में बस मैं और मेरी तनहाई. यहां किसी तीसरे की गुंजाइश नहीं,’’

कहते हुए उस ने नव्या के हाथ से चाकू छीना और उसे कंधों से थाम लगभग धकेलते हुए ओपन किचन के प्लेटफौर्म की दूसरी ओर एक स्टूल पर बैठा दिया और

फिर उस से कहा, ‘‘आप बस यहां बैठिए और मुझ से बातें कीजिए. अगले 1 घंटे तक किचन में आप की नो ऐंट्री है.’’

लगभग आधे घंटे में पकौड़े बन गए.

गरमगरम पकौड़े एक प्लेट में रख कर नैवेद्य ने प्लेट नव्या को थमाई, ‘‘चलो नव्या, ऐंजौय दी…’’

खातेखाते रात के 12 बजने को आए.

नैवेद्य ने नव्या से

विदा ली. उस रात नैवेद्य को सी औफ कर के वह नैवेद्य के बारे में ही सोचती रही.

उस का खयाल करते ही उस का मासूम सा चेहरा आंखों के सामने आ गया और

कानों में उस के शब्द गूंजने लगे कि मुझे तुम से प्यार हो गया है. उस के चेहरे पर बरबस एक उदास मुसकराहट तिर आई और वह मन ही मन में बुदबुदाई कि

नैवेद्य, तुम्हें मेरी असलियत नहीं मालूम. मैं जिस दिन तुम्हें अपनी वास्तविकता बता दूंगी उसी दिन तुम मेरी दुनिया से दूर चले जाओगे, दूर बहुत दूर.

उस की आंखें

नम हो आईं कि तभी नींद का एक झोंका आया और कुछ ही देर में वह नींद के आगोश में गुम हो गई.

अगली सुबह वह उठी तो उस ने अपना फोन चैक किया. फोन

पर नैवेद्य का मैसेज आया था, ‘गुड मौर्निंग लव. गुड डे,’ साथ में एक हार्ट की सुर्ख इमोजी भी थी.

नैवेद्य का यह मैसेज पढ़ कर उस के मन में गुदगुदी हुई. यह

एहसास मन को बेहद भला लगा कि कोई तो है इस दुनिया में जो उसे चाहने लगा है, उसे पसंद करने लगा है.

दिन यों ही कैसे घर के कामों, कुकिंग, सफाई में बीत

गया, उसे पता ही नहीं चला.

शाम हो आई थी. वह कंबल में सिकुड़ी टीवी देख रही थी कि तभी अचानक फोन पर नैवेद्य का मैसेज फ्लैश हुआ. स्क्रीन पर हार्ट की

बहुत सारी सुर्ख इमोजी लगातार आए जा रही थीं. उन्हें देख वह बरबस मुसकरा उठी कि तभी अचानक उस के घर की घंटी बजी.

उस ने दरवाजा खोला. एक बार फिर

अपने हाथों में सुर्ख ट्यूलिप्स का बेहद खूबसूरत बुके थामे नैवेद्य उस के सामने खड़ा था.

‘‘गुड मौर्निंग माई लव. यह उस स्वीट सी लड़की के लिए, जिस ने मेरा

दिल चुरा लिया है.’’

जवाब में नव्या ने उसे एक उदास दृष्टि से देखा, जिसे लक्ष्य कर नैवेद्य ने उस से कहा, ‘‘क्या हुआ नव्या, कोई परेशानी?’’

‘‘नहींनहीं,

कुछ नहीं. भीतर आओ, बैठो.’’

तभी नैवेद्य अपने चिरपरिचित अंदाज में चहका, ‘‘आज घर में रहने का बिलकुल मन नहीं है. आज मौसम बहुत सुहाना हो रहा

है… आज रिवर वौक चलते हैं. तुम्हारे घर के पास भी है. कल ही मेरा एक दोस्त इस के बारे में बता रहा था कि बहुत बढि़या जगह है.’’

‘‘ठीक है नैवेद्य, वहीं

चलते हैं. मुझे तो वहां जाना बहुत अच्छा लगता है. मैं तो कई बार शाम को जौगिंग के लिए वहां जाती हूं. वहां कहींकहीं घास पर कुरसियां भी पड़ी हैं. किसी शांत

कोने में बैठ कर अपने मन की बातें भी कर लेंगे. मैं आज अपने बारे में तुम्हें सबकुछ साफसाफ बताना चाहती हूं.’’

‘‘मैं तुम्हारे पास्ट के बारे में कुछ नहीं जानना चाहता. कितनी बार कह चुका हूं कि मुझे उस से कोई मतलब नहीं.’’

‘‘पर मैं तो तुम्हें सबकुछ बताना चाहती हूं. ठीक है, तुम बैठो मैं तैयार हो कर आती हूं.’’

‘ ‘ओके यार, देर मत करना.’’

‘‘हांहां, बस अभी आई.’’

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