अमेरिका जैसा मैंने देखा: बेटे-बहू के साथ कैसा था शीतल का सफर

अमेरिका पहुंचने के 2 महीने बाद ही बेटी श्वेता ने जब अपनी मां शीतल को फोन पर उस के नानी बनने का समाचार सुनाया तो शीतल की आंखों से खुशी और पश्चात्ताप के मिश्रित आंसू बह निकले. शीतल को याद आने लगा कि शादी के 4 वर्ष बीत जाने के बाद भी श्वेता का परिवार नहीं बढ़ा तो उस के समझाने पर, श्वेता की योजना सुन कर कि अभी वे थोड़ा और व्यवस्थित हो जाएं तब इस पर विचार करेंगे, उस ने व्यर्थ ही उस को कितना लंबाचौड़ा भाषण सुना दिया था. उस समय दामाद विनोद के, कंपनी की ओर से, अमेरिका जाने की बात चल रही थी. अब उस को एहसास हो रहा है कि पहले वाला जमाना तो है नहीं, अब तो मांबाप अपनेआप को बच्चे की परवरिश के लिए हर तरह से सक्षम पाते हैं, तभी बच्चा चाहते हैं.

4-5 महीने बाद श्वेता ने मां शीतल से फोन पर कहा, ‘‘ममा, आप अपना पासपोर्ट बनवा लीजिए, आप को यहां आना है.’’

‘‘क्यों क्या बात हो गई? तेरी डिलीवरी के लिए तेरी सास आ रही हैं न?’’

‘‘हां, पहले आ रही थीं लेकिन डाक्टर ने उन्हें इतनी दूर फ्लाइट से यात्रा करने के लिए मना कर दिया है, इसलिए अब वे नहीं आ सकतीं.’’

‘‘ठीक है, देखते हैं. तू परेशान मत होना.’’ फोन पर बेटी ने यह अप्रत्याशित सूचना दी तो वह सोच में पड़ गई, लेकिन उस ने मन ही मन तय किया कि वह अमेरिका अवश्य जाएगी.

पासपोर्ट बनने के बाद वीजा के लिए सारे डौक्युमैंट्स तैयार किए गए. श्वेता ने फोन पर शीतल को समझाया कि अमेरिका का वीजा मिलना बहुत ही कठिन होता है, साक्षात्कार के समय एक भी डौक्युमैंट कम होने पर या पूछे गए एक भी प्रश्न का उत्तर संतोषजनक न मिलने पर साक्षातकर्ता वीजा निरस्त करने में तनिक भी संकोच नहीं करता. उस के बाद वह कोई भी तर्क सुनना पसंद नहीं करता. अमेरिका घूमने जाने वालों को, वहां अधिक से अधिक 6 महीने ही रहने की अनुमति मिलती है, इसलिए उन की बातों से उन को यह नहीं लगना चाहिए कि वे वहीं बसने जा रहे हैं, लेकिन उन की कल्पना के विपरीत जब साक्षातकर्ता ने 2-3 प्रश्न पूछने के बाद ही मुसकरा कर वीजा की अनुमति दे दी तो उन के आश्चर्य का ठिकाना न रहा. सारे डौक्युमैंट्स धरे के धरे रह गए. बाहर प्रतीक्षा कर रहे अपने बेटे को जब उन्होंने हाथ हिला कर उस की जिज्ञासा पर विराम लगाया तो उस ने उन का ऐसे अभिनंदन किया, जैसे वे कोई मुकदमा जीत कर आए हों.

अंत में शीतल का अपने पति के साथ अमेरिका जाने का दिन भी आ गया. वे पहली बार वहां जा रहे थे. सीधी फ्लाइट नहीं थी, इसलिए बेटे ने पूछा, ‘‘यदि आप लोगों को यात्रा करने में तनिक भी असुविधा लग रही है तो व्हीलचेयर की सुविधा ले सकते हैं? पूरा समय आप लोग एक गाइड के संरक्षण में रहेंगे?’’

 ‘‘नहीं, इस की आवश्यकता नहीं है,’’ उन्होंने उत्तर दिया.

मुंबई से 9 घंटे की उड़ान के बाद वे लंदन के हीथ्रो हवाईअड्डे पर पहुंचे. वहां से अमेरिका के एक राज्य टेक्सास के लिए दूसरे विमान से जाना था. अब फिर उन को 9 घंटे की यात्रा करनी थी. उन लोगों ने एक बात का अनुभव किया कि घरेलू विमान से यात्रा करते समय जो झटके लगते हैं, वो इस में बिलकुल नहीं लग रहे थे. उड़ान मंथर गति से निर्बाध अपनी मंजिल की ओर अग्रसर थी.

टेक्सास हवाईअड्डे के बाहर श्वेता अपने पति विनोद के साथ उन की प्रतीक्षा कर रही थी. बेटी पर निगाह पड़ते ही शीतल को एहसास हुआ कि औरत मातृत्व के रूप में सब से अधिक गरिमा से परिपूर्ण लगती है, वह बहुत सुंदर लग रही थी.

उस का चेहरा कांति से दमक रहा था. उस का मन अपनी बेटी के लिए गर्व से भर उठा. भावातिरेक में उस ने उस को गले लगा लिया. वहां से वे लोग कार से डेलस, उन के घर पहुंचे, जो कि लगभग 40 किलोमीटर दूर था. शाम हो गई थी.

बेटी ने घर पहुंचने के लगभग 1 घंटे बाद कहा, ‘‘मेरी क्लास है, यहां डिलीवरी के पहले बच्चे की होने वाली मां को जन्म के बाद बच्चे की कैसे देखभाल की जाए, समझाया जाता है. आप लोग आराम कीजिए, मैं क्लास अटैंड कर के आती हूं.’’

रास्ते की थकान होने के कारण  हम दोनों जल्दी ही गहरी नींद में सो गए. जब जोरजोर से दरवाजा खटखटाने की आवाज हुई तो वह जल्दी से उठ कर दरवाजा खोलने के लिए भागी. उस को याद आया कि बेटी ने जातेजाते चौकस हो कर सोने के लिए कहा था, जिस से कि वे दरवाजा खोल सकें, क्योंकि वहां दरवाजे की घंटी नहीं होती है.

अंदर आते हुए श्वेता बड़बड़ा रही थी, ‘‘अरे ममा, यहां पर जरा सी आवाज होते ही पड़ोसी अपनेअपने दरवाजों को खोल कर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने लगते हैं.’’ जब उस ने बताया कि लगभग आधे घंटे से वह बाहर खड़ी थी तो उस को बड़ी ग्लानि हुई.

लेकिन तुरंत ही वह अपनी मां को सांत्वना देती हुई बोली, ‘‘कोई बात नहीं, जेट लैग (अमेरिका में जब रात होती है, तब भारत में दिन होता है इसलिए शरीर को वहां के क्रियाकलापों के अनुसार ढालने में समय लगता है, उसी को जेट लैग कहते हैं) में ऐसी ही नींद आती है.’’ आगे उस ने अपनी बात को जारी रखते हुए बताया, ‘‘यहां पर आप की किसी भी गतिविधि से यदि पड़ोसी को असुविधा होती है तो वे पुलिस को बुलाने में जरा भी संकोच नहीं करते. यहां तक कि ऊपरी फ्लोर में रहने वालों के छोटे बच्चों के भागनेदौड़ने की आवाज के लिए भी निचले फ्लोर में रहने वाले एतराज कर सकते हैं, यहां का कानून बहुत सख्त है.’’

श्वेता के साथ जब कभी शीतल बाजार जाती तो भारत के विपरीत वह देखती कि सड़क पार करते समय पैदल यात्री की सुविधा के लिए ट्रैफिक रुक जाता था. कहीं पर भी कितनी भी भीड़ क्यों न हो, कोई किसी से टकराता नहीं था. हमेशा एक दूरी निश्चित रहती थी, चाहे वह आम लोगों में हो या यातायात के साधनों में हो. किसी भी मौल में या किसी भी सार्वजनिक स्थल पर अजनबी भी मुसकरा कर हैलो अवश्य कहते हैं. गर्भवती स्त्रियों के साथ उन का बड़ा सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार होता है.

घरों में कामवाली मेड के अभाव में सभी गृहकार्य और बाजार के कार्य स्वयं करने के कारण भारत में जो उन से सुविधा मिलने से अधिक जो मानसिक यंत्रणा को भोगना पड़ता है, वह न होने से जीवन सुचारु रूप से चलता है. गृहकार्य को सुविधाजनक बनाने के लिए बहुत सारे उपकरण भी घरों में उपलब्ध होते हैं. वातानुकूलित घर होने के कारण निवासियों की ऊर्जा का हृस नहीं होता. सड़क पर टै्रफिक जाम न होने के कारण समय बहुत बचता है और उस से उत्पन्न मानसिक तनाव नहीं होता. वहां पर इंडियन स्टोर्स के नाम से बहुत सारी दुकानें खुली हैं, जहां लगभग सभी भारतीय खा- पदार्थ और चाट आदि मिलती हैं. वहां जा कर लगता ही नहीं कि हम भारत में नहीं हैं.

श्वेता की ससुराल में गर्भकाल के 7वें या 9वें महीने में बहू की गोदभराई की रस्म होती है. शीतल के वहां पहुंचने की प्रतीक्षा हो रही थी, इसलिए 9वें महीने में समारोह के आयोजन का विचार किया गया. जिन को बुलाना था उन को उन की  ईमेल आईडी पर निमंत्रण भेजा गया. उन लोगों ने अपनी उपस्थिति के लिए हां या न में लिखने के साथ यह भी लिखा कि वे कितने लोग आएंगे, साथ में अपना बजट लिख कर यह भी पूछा कि उपहार में क्या चाहिए. अमेरिका में अजन्मे बच्चे के लिंग के बारे में पहले से ही डाक्टर बता देते हैं, इसलिए उपहार भी उसी के अनुकूल दिए जाते हैं. उस को यह देख कर आश्चर्य हुआ कि अपने बच्चे के प्रयोग में आई हुई कीमती वस्तुओं को भी वहां के लोग उपहार में देने और लेने में तनिक भी संकोच नहीं करते. इस से समय और पैसे की बहुत बचत हो जाती है.

समारोह में जितने भी लोग आए थे, लगभग सभी भारतीय पारंपरिक वेशभूषा में सुसज्जित हो कर आए थे और हिंदी में बात कर रहे थे. उन की जिज्ञासा को उस की बेटी ने यह कह कर शांत किया कि हमेशा मजबूरी में पाश्चात्य कपड़े पहन कर और अंगरेजी बोल कर सब ऊब जाते हैं, इसलिए समारोहों में ऐसा कर के अपने भारतीय होने के सुखद एहसास को वे खोना नहीं चाहते. उस ने सोचा कि यह कैसी विडंबना है कि भारत में भारतीय पाश्चात्य सभ्यता को अपना कर खुश होते हैं.

वहां पर सभी कार्य स्वयं करने होते हैं, इसलिए जितने भी मेहमान आए थे, सब ने मिलजुल कर सभी कार्य किए और कार्यक्रम समाप्त होने के बाद सब पूरे हौल को साफ कर के सारा कूड़ा तक कूड़ेदान में डाल कर आए. और तो और, बचा हुआ खा- पदार्थ भी जिन को जितना चाहिए था, सब ने मिल कर बांट लिया.

अंत में श्वेता के डिलीवरी का दिन भी आ गया. विनोद उस को डाक्टर को दिखाने के लिए अस्पताल ले कर गए तो वहां से उन का फोन आया कि उसे आज ही भरती करना पड़ेगा. सुन कर शीतल के मन में खुशी और चिंता के मिश्रित भाव उमड़ने लगे. अस्पताल गई तो बेटी को हलके दर्द में ही कराहते देख कर उस ने कहा, ‘‘बेटा, अभी से घबरा रही है, अभी तो बहुत दर्द सहना पड़ेगा.’’ उसे अपना समय याद आ गया था. आगे की तकलीफ कैसी झेलेगी, यह सोच कर उस का मन व्याकुल हो गया. इतने में डाक्टर विजिट पर आ गईं. उस ने शीतल का परिचय श्वेता से पाना चाहा तो उस के बताने पर मुसकरा कर ‘हैलो’ कह कर उस ने उस का स्वागत किया और बेटी व दामाद से आगे की प्रक्रिया के बारे में बातचीत करने लगी. उस के बाद डाक्टर ने श्वेता को एक इंजैक्शन दिया और सोने के लिए कह कर चली गई.

जब डाक्टर ने बेटी को सोने के लिए कहा तो उसे आश्चर्य हुआ कि दर्द में कोई कैसे सो सकता है? जिस का समाधान बेटी ने किया कि जो इंजैक्शन दिया है उस से दर्द का अनुभव नहीं होगा. उस के मन में जो दुश्चिंता थी कि कैसे वह अपनी बेटी को दर्द में तड़पते देख पाएगी, लुप्त हो चुकी थी और उस ने राहत की सांस ली. विज्ञान के नए आविष्कार को मन ही मन धन्यवाद दिया. बेटी ने कहा, ‘‘ममा, आप भी सो जाइए.’’ डाक्टर बारबार आ कर श्वेता को संभाल रही थी तो उस को वहां अपनी उपस्थिति का कोई औचित्य भी नहीं लगा, इसलिए वेटिंगरूम में जा कर सो गई. वहां की व्यवस्था से संतुष्ट होने और अपने थके होने के कारण शीतल तुरंत ही गहरी नींद में सो गई.

सुबह 5 बजे के लगभग विनोद ने उसे जगाया और कहा, ‘‘औपरेशन करना पड़ेगा, चलिए.’’ अपनी नींद को कोसती हुई औपरेशन के नाम से कुछ घबराई हुई बेटी के पास गई तो उस ने देखा कि वह औपरेशन थिएटर में जाने के लिए तैयार हो रही है. शीतल को देख कर वह मुसकराने लगी तो उस ने सोचा कि बेकार ही वह उस की हिम्मत पर शक कर रही थी. मन ही मन उस को अपनी बेटी पर गर्व हो रहा था.

औपरेशन थिएटर में विनोद भी श्वेता के साथ पूरे समय रहे. उन्होंने वहां सारी प्रक्रिया की फोटो भी खींची जो देख कर वह आश्चर्यचकित रह गई, जैसे कोई खेल हो रहा है. भारत में तो उस ने ऐसा कभी देखासुना भी नहीं था. वहां पर मां को प्रसव के लिए मानसिक रूप से इतना तैयार कर देते हैं कि परिवार वालों को चिंता करने की या उसे संभालने की आवश्यकता ही नहीं होती. आधे घंटे में ही दामाद बच्चे को गोद में ले कर बाहर आ गए. चांद सी बच्ची की नानी बन कर शीतल फूली नहीं समा रही थी. उस ने देखा बच्चे की दैनिक क्रियाकलापों को सुचारु रूप से करने की पूरी जानकारी नर्स दामाद को दे रही थी. उस की तो किसी भी कार्य में दखलंदाजी की आवश्यकता ही नहीं महसूस की जा रही थी. वह तो पूरा समय केवल मूकदर्शक बनी बैठी रही.

उस ने सोचा, तभी बेटी ने वीजा के साक्षात्कार के समय भूल कर भी बेटी की डिलीवरी के लिए जा रहे हैं, ऐसा न कहने के लिए समझाया था. उस ने चैन की सांस ली कि उस की यह चिंता भी कि कैसे वह मां और बच्चे को संभालेगी, उस को तो कुछ पता ही नहीं है, निरर्थक निकली. घर आ कर बेटी ने बच्चे को संभाल कर पूरी तरह साबित भी कर दिया.

वहां पर बच्चे को अस्पताल से ले जाने के लिए कारसीट का होना अति आवश्यक है, उस के बिना बच्चे को डिस्चार्ज ही नहीं करते. इसलिए उस की भी व्यवस्था कर के उसे नियमानुसार कार की पिछली सीट पर स्थापित किया गया. अस्पताल की साफसफाई और रखरखाव किसी फाइवस्टार होटल से कम नहीं था. डाक्टर और नर्स सभी कमरे में मुसकराते हुए प्रवेश करते थे और उस को ‘हैलो’ कहना नहीं भूलते थे, जो उस की उपस्थितिमात्र को महत्त्वपूर्ण बना देता था. जिस दिन डिस्चार्ज होना था, उस दिन उन सब ने श्वेता को काफी देर बैठ कर बच्चे से संबंधित बातें समझाईं. उस के लिए ये सारी प्रक्रिया किसी सपने से कम नहीं थी.

घर आने के बाद, भारत के विपरीत, मिलने आने वालों के असमय और बिना सूचित किए न आने से बच्चे के किसी भी कार्यकलाप में विघ्न नहीं पड़ता था. बच्चे के कमरे में भी बिना अनुमति के कोई प्रवेश नहीं करता था. बच्चे को दूर से ही देखने की कोशिश करते थे और गोद में उठाने से पहले हाथ अवश्य धोते थे, जिस से उस को किसी भी संक्रमण से बचाया जा सके. वह विस्मित सी सब देखती रहती थी. बेटी से पर्याप्त बातचीत करने का समय मिल जाता था.

बातों ही बातों में उस ने बताया कि वहां पर एकल मातृत्व के कारण और एक उम्र के बाद मांबाप और बच्चों के बीच में मानसिक, शारीरिक व आर्थिक जुड़ाव न होने के चलते अवसाद की समस्या भारत की तुलना में बहुत अधिक है. लेकिन अब वे बहुतकुछ भारतीय संस्कृति से प्रभावित हो कर उसे अपना रहे हैं. दूसरी ओर भारतीय उन की अच्छी बातों को न सीख कर, बुराइयों का अनुकरण कर के गर्त में जा रहे हैं. वहां दूसरी गंभीर समस्या मोटापे को ले कर है क्योंकि वहां अधिकतर डब्बाबंद खा- पदार्थों का अत्यधिक सेवन किया जाता है. इस का भी असर भारत की नई पीढ़ी में देखा जा सकता है.

अमेरिका में 6 महीने कब बीत गए, शीतल को पता ही नहीं चला. वहां के सुखद एहसासों और यादों के साथ भारत लौटने के बाद, एक कसक उस को हमेशा सालती रहती है कि यदि हर भारतीय वहां की बुरी बातों के स्थान पर अच्छी बातों को अपना ले और युवापीढ़ी को उन के बौद्धिक स्तर के अनुसार नौकरी व वेतन मिले तो कोई भी अपनों को छोड़ कर अमेरिका पलायन का विचार भी मन में न लाए.

सीलन: उमा बचपन की सहेली से क्यों अलग हो गई?

बचपन से ही वह हमेशा नकाब में रहती थी. स्कूल के किसी बच्चे ने कभी उस का चेहरा नहीं देखा था. हां, मछलियों सी उस की आंखें अकसर चमकती रहती थीं. कभी शरारत से भरी हुई, तो कभी एकदम शांत और मासूम. लेकिन कभीकभी उन आंखों में एक डर भी दिखाई देता था. हम दोनों साथसाथ पढ़ते थे. पढ़ाई में वह बेहद अव्वल थी. जोड़घटाव तो जैसे उस की जबां पर रहता था. मुझे अक्षर ज्ञान में मजा आता था. कहानियां, कविताएं पसंद आती थीं, जबकि गणित के समीकरण, विज्ञान, ये सब उस के पसंदीदा सब्जैक्ट थे.

वह थोड़ी संकोची, किसी नदी सी शांत और मैं एकदम बातूनी. दूर से ही मेरी आवाज उसे सुनाई दे जाती थी, बिलकुल किसी समुद्र की तरह. स्कूल में अकसर ही उसे ले कर कानाफूसी होती थी. हालांकि उस कानाफूसी का हिस्सा मैं कभी नहीं बनता था, लेकिन दोस्तों के मजाक का पात्र जरूर बन जाता था. मैं रिया के परिवार के बारे में कुछ नहीं जानता था. वैसे भी बचपन की दोस्ती घरपरिवार सब से परे होती है. बचपन से ही मुझे उस का नकाब बेहद पसंद था, तब तो मैं नकाब का मतलब भी नहीं जानता था. शक्लसूरत उस की अच्छी थी, फिर भी मुझे वह नकाब में ज्यादा अच्छी लगती थी.

बड़ी क्लास में पहुंचते ही हम दोनों के स्कूल अलग हो गए. उस का दाखिला शहर के एक गर्ल्स स्कूल में हो गया, जबकि मेरा दाखिला लड़कों के स्कूल में करवा दिया गया. अब हम धीरेधीरे अपनीअपनी दिलचस्पी के काम के साथ ही पढ़ाई में भी बिजी हो गए थे, लेकिन हमारी दोस्ती बरकरार रही. पढ़ाईलिखाई से वक्त निकाल कर हम अब भी मिलते थे. वह जब तक मेरे साथ रहती, खुश रहती, खिली रहती. लेकिन उस की आंखों में हर वक्त एक डर दिखता था. मुझे कभी उस डर की वजह समझ नहीं आई. अकसर मुझे उस के परिवार के बारे में जानने की इच्छा होती. मैं उस से पूछता भी, लेकिन वह हंस कर टाल जाती.

हालांकि अब मुझे समझ आने लगा था कि नकाब की वजह कोई धर्म नहीं था, फिर ऐसा क्या था, जो उसे अपना चेहरा छिपाने को मजबूर करता था? मैं अकसर ऐसे सवालों में उलझ जाता. कालेज में भी मेरे अलावा उस की सिर्फ एक ही सहेली थी उमा, जो बचपन से उस के साथ थी. मेरे मन में उसे और उस के परिवार को करीब से जानने के कीड़े ने कुलबुलाना शुरू कर दिया था. शायद दिल के किसी कोने में प्यार के बीज ने भी जन्म ले लिया था. मैं हर मुलाकात में उस के परिवार के बारे में पूछना चाहता था, लेकिन उस की खिलखिलाहट में सब भूल जाता था. अकसर मैं अपनी कहानियों और कविताओं की काल्पनिक दुनिया उस के साथ ही बनाता और सजाता गया.

बड़े होने के साथ ही हम दोनों की मुलाकात में भी कमी आने लगी. वहीं मेरी दोस्ती का दायरा भी बढ़ा. कई नए दोस्त जिंदगी में आए. उन्हें मेरी और रिया की दोस्ती की खबर हुई. एक दिन उन्होंने मुझे उस से दूर रहने की नसीहत दे डाली. मैं ने उन्हें बहुत फटकारा. लेकिन उन के लांछन ने मुझे सकते में डाल दिया था. वे चिल्ला रहे थे, ‘जिस के लिए तू हम से लड़ रहा है. देखना, एक दिन वह तुझे ही दुत्कार कर चली जाएगी. गंदी नाली का कीड़ा है वह.’ मैं कसमसाया सा उन्हें अपने तरीके से लताड़ रहा था. पहली बार उस के लिए दोस्तों से लड़ाई की थी. मैं बचपन से ही अकेला रहा था. मातापिता के पास समय नहीं होता था, जो मेरे साथ बिता सकें. उमा और रिया के अलावा किसी से कोई दोस्ती नहीं. पहली बार किसी से दोस्ती हुई और

वह भी टूट गई. मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था. वह एक सर्द दोपहर थी. सूरज की गरमाहट कम पड़ रही थी. कई महीनों बाद हमारी मुलाकात हुई थी. उस दोपहर रिया के घर जाने की जिद मेरे सिर पर सवार थी. कहीं न कहीं दोस्तों की बातें दिल में चुभी हुई थीं.

मैं ने उस से कहा, ‘‘मुझे तुम्हारे मातापिता से मिलना है.’’

‘‘पिता का तो मुझे पता नहीं, लेकिन मेरी बहुत सी मांएं हैं. उन से मिलना है, तो चलो.’’ मैं ने हैरानी से उस के चेहरे की ओर देखा. वह मुसकराते हुए स्कूटी की ओर बढ़ी. मैं भी उस के साथ बढ़ा. उस ने फिर से अपने खूबसूरत चेहरे को बुरके से ढक लिया. शाम ढलने लगी थी. अंधेरा फैल रहा था. मैं स्कूटी पर उस के पीछे बैठ गया. मेन सड़क से होती हुई स्कूटी आगे बढ़ने लगी. उस रोज मेरे दिल की रफ्तार स्कूटी से भी ज्यादा तेज थी. अब स्कूटी बदनाम बस्ती की गलियों में हिचकोले खा रही थी.

मैं ने हड़बड़ा कर पूछा, ‘‘रास्ता भूल गई हो क्या?’’

उस ने कहा, ‘‘मैं बिलकुल सही रास्ते पर हूं.’’ उस ने वहीं एक घर के किनारे स्कूटी खड़ी कर दी. मेरे लिए वह एक बड़ा झटका था. रिया मेरा हाथ पकड़ कर तकरीबन खींचते हुए एक घर के अंदर ले गई. अब मैं सीढि़यां चढ़ रहा था. हर मंजिल पर औरतें भरी पड़ी थीं, वे भी भद्दे से मेकअप और कपड़ों में सजीधजी. अब तक फिल्मों में जैसा देखता आया था, उस से एकदम अलग… बिना किसी चकाचौंध के… हर तरफ अंधेरा, सीलन और बेहद संकरी सीढि़यां. हर मंजिल से अजीब सी बदबू आ रही थी. जाने कितनी मंजिल पार कर हम लोग सब से ऊपर वाली मंजिल पर पहुंचे. वहां भी कमोबेश वही हालत थी. हर तरफ सीलन और बदबू. बाहर से देखने पर एकदम छोटा सा कमरा, जहां लोगों के होने का अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता था. ज्यों ही मैं कमरे के अंदर पहुंचा, वहां ढेर सारी औरतें थीं. ऐसा लग रहा था, मानो वे सब एक ही परिवार की हों.

मुझे रिया के साथ देख कर उन में से कुछ की त्योरियां चढ़ गईं, लेकिन साथ वालियों को शायद रिया ने मेरे बारे में बता रखा था, उन्होंने उन के कान में कुछ कहा और फिर सब सामान्य हो गईं.

एकसाथ हंसनाबोलना, रहना… उन्हें देख कर ऐसा नहीं लग रहा था कि मैं किसी ऐसी जगह पर आ गया हूं, जो अच्छे घर के लोगों के लिए बैन है. वहां छोटेछोटे बच्चे भी थे. वे अपने बच्चों के साथ खेल रही थीं, उन से तोतली बोली में बातें कर रही थीं. घर का माहौल देख कर घबराहट और डर थोड़ा कम हुआ और मैं सहज हो गया. मेरे अंदर का लेखक जागा. उन्हें और जानने की जिज्ञासा से धीरेधीरे मैं ने उन से बातें करना शुरू कीं.

‘‘यहां कैसे आना हुआ?’’

‘‘बस आ गई… मजबूरी थी.’’

‘‘क्या मजबूरी थी?’’

‘‘घर की मजबूरी थी. अपना, अपने बच्चों का, परिवार का पेट पालना था.’’

‘‘क्या घर पर सभी जानते हैं?’’

‘‘नहीं, घर पर तो कोई नहीं जानता. सब यह जानते हैं कि मैं दिल्ली में रहती हूं, नौकरी करती हूं. कहां रहती हूं, क्या करती हूं, ये कोई भी नहीं जानता.’’

मैं ने एक और औरत को बुलाया, जिस की उम्र 45 साल के आसपास रही होगी.

मेरा पहला सवाल वही था, ‘‘कैसे आना हुआ?’’

‘‘मजबूरी.’’

‘‘कैसी?’’

‘‘घर में ससुर नहीं, पति नहीं, सिर्फ बच्चे और सास. तो रोजीरोटी के लिए किसी न किसी को तो घर से बाहर निकलना ही होता.’’

‘‘अब?’’

‘‘अब तो मैं बहुत बीमार रहती हूं. बच्चेदानी खराब हो गई है. सरकारी अस्पताल में इलाज के लिए गई. डाक्टर का कहना है कि खून चाहिए, वह भी परिवार के किसी सदस्य का. अब कहां से लाएं खून?’’

‘‘क्या परिवार में वापस जाने का मन नहीं करता?’’

‘‘परिवार वाले अब मुझे अपनाएंगे नहीं. वैसे भी जब जिंदगीभर यहां कमायाखाया, तो अब क्यों जाएं वापस?’’

यह सुन कर मैं चुप हो गया… अकसर बाहर से चीजें जैसी दिखती हैं, वैसी होती नहीं हैं. उन लोगों से बातें कर के एहसास हो रहा था कि उन का यहां होना उन की कितनी बड़ी मजबूरी है. रिया दूर से ये सब देख रही थी. मेरे चेहरे के हर भावों से वह वाकिफ थी. उस के चेहरे पर मुसकान तैर रही थी. मैं ने एक और औरत को बुलाया, जो उम्र के आखिरी पड़ाव पर थी. मैं ने कहा, ‘‘आप को यहां कोई परेशानी तो नहीं है?’’

उस ने मेरी ओर देखा और फिर कुछ सोचते हुए बोली, ‘‘जब तक जवान थी, यहां भीड़ हुआ करती थी. पैसों की कोई कमी नहीं थी. लेकिन अब कोई पूछने वाला नहीं है. अब तो ऐसा होता है कि नीचे से ही दलाल ग्राहकों को भड़का कर, डराधमका कर दूसरी जगह ले जाते हैं. बस ऐसे ही गुजरबसर चल रही है. ‘‘आएदिन यहां किसी न किसी की हत्या हो जाती है या फिर किसी औरत के चेहरे पर ब्लेड मार दिया जाता है. ‘‘अब लगता है कि काश, हमारा भी घर होता. अपना परिवार होता. कम से कम जिंदगी के आखिरी दिन सुकून से तो गुजर पाते,’’ छलछलाई आंखों से चंद बूंदें उस के गालों पर लुढ़क आईं और वह न जाने किस सोच में खो गई.मुझे अचानक वह ककनू पक्षी सी लगने लगी. ऐसा लगने लगा कि मैं ककनू पक्षियों की दुनिया में आ गया हूं. मुझे घबराहट सी होने लगी. धीरेधीरे उस के हाथों की जगह बड़ेबड़े पंख उग आए. ऐसा लगा, मानो इन पंखों से थोड़ी ही देर में आग की लपटें निकलेंगी और वह उसी में जल कर राख हो जाएंगी. क्या मैं ऐसी जगह से आने वाली लड़की को अपना हमसफर बना सकता हूं? दिमाग ऐसे ही सवालों के जाल में फंस गया था.

अचानक ही मुझे बुरके में से झांकतीचमकती सी रिया की उदास डरी हुई आंखें दिखीं. मुझे अपने मातापिता  की भागदौड़ भरी जिंदगी दिख रही थी, जिन के पास मुझ से बात करने का वक्त नहीं था और साथ ही, वे दोस्त भी दिखे, जो अब भी कह रहे थे, ‘निकल जा इस दलदल से, वह तुम्हारी कभी नहीं होगी.’ मेरा वहां दम घुटने लगा. मैं वहां से बाहर भागा. बाहर आते ही रिया की अलमस्त सुबह सी चमकती हंसी ने हर सोच पर ब्रेक लगा दिया. मैं दूर से ही उसे खिलखिलाते देख रहा था. उफ, इतने दमघोंटू माहौल में भी कोई खुश रह सकता है भला क्या?

मुसकान : भाग 2- क्यों टूट गए उनके सपने

लेखिका- निर्मला कपिला

राजकुमार को एंबुलेंस में डाला गया तो सभी उन के साथ जाना चाहते थे पर सुनील नहीं माना. सुनील, अनिल और मुसकान साथ गए.

पटियाला पहुंच कर जल्दी ही सारे टेस्ट हो गए. डाक्टर ने रात को ही उन की बाईपास सर्जरी करने को कहा. 2 बोतल खून का भी प्रबंध करना था, जिस के लिए सुनील और अनिल अपना खून का सैंपल मैच करने के लिए दे आए थे. बेशक दोनों डाक्टर थे पर मुसकान बहुत घबराई हुई थी. लोगों को बीमारी में देखना और बात है पर अपनों के लिए जो दर्द, घबराहट होती है, यह मुसकान आज जान पाई.

सुनील उसे ढाढ़स बंधा रहा था. उसे यह सोच कर दुख हो रहा था कि उस के सपनों की राजकुमारी, जिस ने जीवन में दुख का एक क्षण नहीं देखा, आज इतना बड़ा दुख…वह भी उस रात में जिस में इस समय उस की बांहों में लिपटी सुहागरात की सेज पर बैठी होती.

‘‘मुसकान, मैं हूं न तुम्हारे साथ. मेरे होते तुम चिंता क्यों करती हो.’’

‘‘मुझे आप के लिए दुख हो रहा है कि मेरे पापा के कारण आप को अपनी खुशी छोड़नी पड़ी,’’ मुसकान की आंखों में आंसू आ गए.

‘‘पगली, यह हमारे बीच में मेरे-तुम्हारे कहां से आ गया. यह मेरे भी पापा हैं. कल को मुझ पर या घर के किसी दूसरे सदस्य पर कोई मुसीबत आ जाए तो क्या तुम साथ नहीं दोगी?’’

‘‘मेरी तो जान भी हाजिर है.’’

‘‘मुझे जान नहीं, बस, मुसकान चाहिए,’’ कहते हुए सुनील ने उस का हाथ अपने हाथों में ले कर दबाया.

सुनील को डाक्टर ने बुलाया था. अनिल बाजार सामान लेने गया हुआ था. मुसकान पापा के पास बैठ गई. पूरे एक घंटे बाद सुनील आया तो उदास और थकाथका सा था.

‘‘क्या खून दे कर आए हैं?’’ मुसकान घबरा गई.

‘‘हां,’’ जैसे कहीं दूर से उस ने जवाब दिया हो.

‘‘आप थोड़ी देर कमरे में जा कर आराम कर लें, अभी भैया भी आ जाएंगे. मैं पापा के पास बैठती हूं.’’

मुसकान के मन में चिंता होने लगी. सुनील को क्या हो गया. शायद थकावट और परेशानी है और ऊपर से खून भी देना पड़ा. चलो, थोड़ा आराम कर लेंगे तो ठीक हो जाएंगे.

उधर सुनील पर तो जैसे पहाड़ टूट पड़ा था. किसे बताए, क्या बताए. मुसकान का क्या होगा. फिर डाक्टर परमिंदर सिंह का चेहरा उस की आंखों के सामने घूमने लगा और उन के कहे शब्द दिमाग में गूंजने लगे :

‘‘सुनील बेटा, तुम  मेरे छात्र रह चुके हो, मेरे बेटे जैसे हो. कैसे कहूं, क्या बताऊं मैं 2 घंटे से परेशान हूं.’’

‘‘सर, मैं बहुत स्ट्रांग हूं, कुछ भी सुन सकता हूं, आप निश्ंिचत हो कर बताइए,’’ सुनील सोच भी नहीं सकता था, वह क्या सुनने जा रहा है.

‘‘तुम एच.आई.वी. पौजिटिव हो. जांच के लिए भेजे गए तुम्हारे ब्लड से पता चला है.’’

‘‘क्या? सर, यह कैसे हो सकता है? आप तो मुझे जानते हैं. कितना सादा और संयमित जीवन रहा है मेरा.’’

‘‘बेटा, मैं जानता हूं और तुम डाक्टर हो, जानते हो कि देह व्यापार और नशेबाजों के मुकाबले में डाक्टर को एड्स से अधिक खतरा है. खुदगर्ज, निकम्मे व भ्रष्ट लोगों की वजह से अनजाने में ही मेडिकल स्टाफ इस बीमारी की गिरफ्त में आ जाता है. सिरिंजों, दस्तानों की रिसाइक्ंिलग, हमारी लापरवाही, अस्पतालों में आवश्यक साधनों की कमी जैसे कितने ही कारण हैं. लोग ब्लड डोनेट करते हैं, समाज सेवा के लिए मगर उसी सेट और सूई को दोबारा इस्तेमाल किया जाए तो क्या होगा? शायद वही सूई पहले किसी एड्स के मरीज को लगी हो.’’

‘‘सर, मुझे अपनी चिंता नहीं है. मैं मुसकान से क्या कहूंगा? वह तो जीते जी मर जाएगी,’’ सुनील की आवाज कहीं दूर से आती लगी.

‘‘बेटा, हौसला रखो. अभी किसी से कुछ मत कहो. आज पापा का आपरेशन हो जाने दो. 15 दिन तो अभी यहीं लग जाएंगे. घर जा कर मांबाप की सलाह से अगला कदम उठाना. जीवन को एक चुनौती की तरह लो. सकारात्मक सोच से हर समस्या का हल मिल जाता है. मुसकान से मैं बात करूंगा पर अभी नहीं.’’

‘‘सर, उसे अभी कुछ मत बताइए, मुझे सोचने दीजिए,’’ कह कर सुनील अपने कमरे में आ गया था.

पर वह क्या सोच सकता है? एड्स. क्या मुसकान सुन सकेगी? नहीं, वह सह नहीं सकेगी. मैं उसे तलाक दे दूंगा, कहीं दूर चला जाऊंगा, नहीं…नहीं…वह तो अपनी जान दे देगी…नहीं…इस से अच्छा वह मर जाएगा पर मांबाप सह नहीं पाएंगे. नहीं…विपदा का हल मौत नहीं. सर ने ठीक कहा था कि सब को एक न एक दिन मरना है पर मरने से पहले जीना सीखना चाहिए.

अचानक उसे ध्यान आया, आपरेशन का टाइम होने वाला है. मुसकान परेशान हो रही होगी…कम से कम जब तक पापा ठीक नहीं होते, मैं उस का ध्यान रख सकता हूं…इतने दिन कुछ सोच भी सकूंगा.

वह जल्दी कमरा बंद कर के वार्ड में आ गया.

‘‘अब कैसी तबीयत है?’’ उसे देखते ही मुसकान पूछ बैठी.

‘‘मैं ठीक हूं. मुसकान, तुम थोड़ी स्ट्रांग बनो. मैं तुम्हें परेशान देख कर बीमार हो जाता हूं.’’

12 बजे राजकुमार को आपरेशन के लिए ले गए. वह तीनों आपरेशन थियेटर के बाहर बैठ गए. मुसकान को सुनील की खामोशी खल रही थी पर समय की नजाकत को देखते हुए चुप थी. शायद पापा के कारण ही सुनील परेशान हों.

आपरेशन सफल रहा. अगले दिन घर से भी सब लोग आ गए थे. मां ने दोनों को गेस्ट रूम में आराम करने को भेज दिया.

कमरे में जाते ही सुनील लेट गया.

‘‘मुसकान, तुम भी थोेड़ी देर सो लो, रात भर जागती रही हो. मुझे भी नींद आ रही है,’’ कहते हुए वह मुंह फेर कर लेट गया. मुसकान भी लेट गई.

शादी के बाद पहली बार दोनों अकेले एक ही कमरे में थे. इस घड़ी में सुनील का दिल जैसे अंदर से कोई चीर रहा हो. उस का जी चाह रहा था कि मुसकान को बांहों में भर ले पर नहीं, वह उसे और सपने नहीं दिखाएगा. वह उस की जिंदगी बरबाद नहीं होने देगा.

मुसकान मायूस सी किसी हसरत के इंतजार में लेट गई. कुछ कहना चाह कर भी कह नहीं पा रही थी. सुनील पास हो कर भी दूर क्यों है? शायद कई दिनों से भागदौड़ में ढंग से सो नहीं पाया. पर दिल इस पर यकीन करने को तैयार नहीं था. उस ने सोचा, सुनील थोड़ी देर सो ले तब तक मैं वार्ड में चलती हूं. जैसे ही वह दरवाजा बंद करने लगी कि सुनील उस का नाम ले कर चीख सा पड़ा.

‘‘क्या हुआ,’’ वह घबराई सी आई तो देखा कि सुनील का माथा पसीने से भीगा हुआ था.

‘‘एक गिलास पानी देना.’’

उस ने पानी दिया और उसे बेड पर लिटा दिया.

‘‘कहीं मत जाओ, मुसकान. मैं ने अभीअभी सपना देखा है. एक लालपरी बारबार मुझे दिखाई देती है. मैं उसे छूने के लिए आगे बढ़ता हूं पर छू नहीं पाता, एक पहाड़ आगे आ जाता है. वह उस के पीछे चली जाती है. मैं उस पहाड़ पर चढ़ने की कोशिश करता हूं तो नीचे गिर जाता हूं,’’ इतना कह कर सुनील मुसकान का हाथ जोर से पकड़ लेता है.

‘‘कैसी बहकीबहकी बातें कर रहे हो? सपने भी क्या सच होते हैं? चलो, चुपचाप सो जाओ. तुम्हारी लालपरी तुम्हारे पास बैठी है.’’

वह धीरेधीरे उस के माथे को सहलाने लगी. सुनील ने आंखें बंद कर लीं. थोड़ी देर बाद मुसकान ने सोचा, वह सो गया है. वह चुपके से उठी और वार्ड की तरफ चल पड़ी. वह उसे डिस्टर्ब नहीं करना चाहती थी.

आगे पढ़ें- कुछ देर के लिए वहां…

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मुसकान : भाग 1- क्यों टूट गए उनके सपने

लेखिका- निर्मला कपिला

आज आसमान से कोई परी उतरती तो वह भी मुसकान को देख कर शरमा जाती, क्योंकि मुसकान आज परियों की रानी लग रही है. नजाकत से धीरेधीरे पांव रखती शादी के मंडप की ओर बढ़ रही मुसकान लाल सुर्ख जरी पर मोतियों से जड़ा लहंगाचोली पहने जेवरों से लदी, चूड़ा, कलीरे और पांव में झांजर डाले हुए है. उस के भाई उस के ऊपर झांवर तान कर चल रहे हैं. झांवर भी गोटे और घुंघरुओं से सजी है. उस का सगा भाई अनिल उस के आगेआगे रास्ते में फूल बिछाते हुए चल रहा है.

शादी के मंडप की शानोशौकत देखते ही बनती है. सामने स्टेज पर सुनील दूल्हा बना बैठा है. वहां मौजूद सभी एकटक मुसकान को आते हुए देख रहे हैं जो अपने को आज दुनिया की सब से खुशनसीब लड़की समझ रही है. आज मुसकान अपने सपनों के राजकुमार की होने जा रही है. सुनील के पिता सुंदरलालजी जिस फैक्टरी में लेखा अधिकारी हैं उसी में मुसकान के पिता राजकुमार सहायक हैं.

दोनों परिवार 20 साल से इकट्ठे रह रहे हैं. दोनों के घरों के बीच में दीवार न होती तो एक ही परिवार था. राजकुमार के 2 बच्चे थे, जबकि सुंदरलाल का इकलौता बेटा सुनील था. यह छोटा सा परिवार हर तरह से खुशहाल था. सुंदरलाल, मुसकान को अपनी बेटी की तरह मानते थे. तीनों बच्चे साथसाथ खेले, बढ़े और पढ़े.

मुसकान, अनिल से 5 वर्ष छोटी थी. सुनील और मुसकान हमउम्र थे. दोनों पढ़ने में होशियार थे. जैसेजैसे बड़े होते गए उन में प्यार बढ़ता गया. मन एक हो गए, सपने एक हो गए और लक्ष्य भी एक, दोनों डाक्टर बनेंगे.

राजकुमार की हैसियत मुसकान को डाक्टरी कराने जितनी नहीं थी मगर सुनील के मांबाप ने मन ही मन मुसकान को अपनी बहू बनाने का निश्चय कर लिया था इसलिए उन्होंने यथासंभव सहायता का आश्वासन दे कर मुसकान को डाक्टर बनाने का फैसला कर लिया था. अनिल भी इंजीनियरिंग कर के नौकरी पर लग गया. वह भी चाहता था कि मुसकान डाक्टर बने.

सुनील को एम.बी.बी.एस. में दाखिला मिल गया. मुसकान अभी 12वीं में थी. जब सुनील पढ़ने के लिए पटियाला चला गया तब दोनों को लगा कि वे एकदूसरे के बिना जी नहीं सकेंगे. मुसकान को लगता कि उस का कुछ कहीं खो गया है पर वह चेहरे पर खुशी का आवरण ओढ़े रही ताकि मन की पीड़ा को कोई दूसरा भांप न ले. दाखिले के 7 दिन बाद सुनील पटियाला से आया तो सीधा मुसकान के पास ही गया.

‘लगता है 7 दिन नहीं सात जन्म बाद मिल रहा हूं. मुसकान, मैं तुम्हें बहुत मिस करता हूं.’

मुसकान कुछ कह न पाई पर उस के आंसू सबकुछ कह गए थे.

‘मुसकान, आंसू कमजोर लोगों की निशानी है. हमें तो स्ट्रांग बनना है, कुछ कर दिखाना है, तभी तो हमारा सपना साकार होगा,’ सुनील ने उसे हौसला दिया.

अब दोनों ही अपना कैरियर बनाने में जुट गए. सुनील जब भी घर आता मुसकान के लिए किताबें, नोट्स ले कर आता. वह चाहता था कि मुसकान को भी उस के ही कालिज में दाखिला मिल जाए. मुसकान उसे पाने के लिए कुछ भी कर सकती थी. सुनील मुसकान की पढ़ाई की इतनी चिंता करता कि फोन पर उसे समझाता रहता कि कौन सा विषय कैसे पढ़ना है, टाइम मैनेज कैसे करना है.

सुनील एक हफ्ते की छुट्टी ले कर घर आया और मुसकान से टेस्ट की तैयारी करवाई. दोनों ने दिनरात एक किया. अगर लक्ष्य अटल हो, प्रयास सबल हो तो विजय निश्चित होती है. मुसकान को भी पटियाला में ही प्रवेश मिल गया. मुसकान को दाखिल करवाने दोनों के ही मांबाप गए थे. वापसी से पहले सुनील की मां ने मुसकान से कहा था, ‘बेटा, हमें उम्मीद है तुम दोनों अपने परिवार की मर्यादा का ध्यान रखोगे तो हम सब तुम्हारे साथ हैं.’

‘मां, जितना प्यार मुझे मेरे मांबाप ने दिया है उस से अधिक आप लोगों ने दिया है. मैं आप से वादा करती हूं कि मेरा जीवन इस परिवार और प्यार के लिए समर्पित है,’ मुसकान मम्मी के गले लग गई.

दोनों ने बड़ी मेहनत की और अपने मांबाप की आशाओं पर फूल चढ़ाए. सुनील ने एम.डी. की और उसे पटियाला में ही नौकरी मिल गई. दोनों के मांबाप चाहते थे अब सुनील व मुसकान की शादी हो जानी चाहिए पर दोनों ने फैसला किया था कि जब मुसकान भी एम.डी. हो जाए उस के बाद ही वे शादी करेंगे.

आज उन की मेहनत और सच्चे प्यार का पुरस्कार शादी के रूप में मिला था. सुनील हाथ में जयमाला लिए मंडप की ओर आती मुसकान को देख रहा था.

मुसकान की विदाई एक तरह से अनोखी ही थी. न किसी के चेहरे पर उदासी न आंखों में आंसू. सभी लोग शादी के मंडप से निकले और गाडि़यों में बैठ कर जहां से चले थे वहीं वापस आ गए. दुलहन के रूप में मुसकान सुनील के घर चली गई. दोनों घरों के बीच एक दीवार ही तो थी. जब सब के दिल एक थे तो मायका क्या और ससुराल क्या.

आज सुनील से भी अपनी खुशी छिपाए नहीं छिप रही थी. आज वह अपनी लाल परी को छुएगा.

‘‘मां, हमें जल्दी फारिग करो, हम थक गए हैं,’’ सुनील बेसब्री से बोला.

‘‘बस, बेटा, 10 मिनट और लगेंगे. मुसकान कपड़े बदल ले.’’

मम्मी मुसकान को एक कमरे में ले गईं और एक बड़ा सा पैकेट दे कर बोलीं, ‘‘बेटा, यह सुनील ने अपनी पसंद से तुम्हारे लिए खरीदा है आज रात के लिए.’’

मम्मी के जाने के बाद मुसकान ने कमरा अंदर से बंद किया और जैसे ही उस ने पैकेट खोला, वह उसे देख कर हैरान रह गई. पैकेट में सुर्ख रंग का जरी, मोतियों की कढ़ाई से कढ़ा  हुआ कुरता, हैवी दुपट्टा पटियाला सलवार, परांदा आदि निकला था. उस ने तो बचपन से ही पैंटजींस पहनी थी. कपड़ों की तरफ दोनों ने पहले कभी ध्यान ही नहीं दिया था. सुनील ने भी कभी उस के कपड़ों पर कोई टिप्पणी नहीं की थी.

वह बड़े सलीके से तैयार हुई. अपने केशों में परांदी, सग्गीफूल लगाया, मैच करती लिपस्टिक लगाई, माथे पर मांग टीका लटक रहा था, फिर दुपट्टा पिनअप कर के जैसे ही शीशे के सामने खड़ी हुई सामने पंजाबी दुलहन के रूप में खुद को देख मुसकान हैरान रह गई. सुनील की पसंद पर उसे नाज हो आया और दिल धड़क उठा रात के उस क्षण के लिए जब उस का राजकुमार उसे अपनी बांहों में भर कर उस की कुंआरी देहगंध से रात को सराबोर करेगा.

किसी ने दरवाजा खटखटाया. मुसकान ने दरवाजा खोला तो सामने मम्मी और मां घबराई सी खड़ी थीं.

‘‘बेटी, तुम्हारे पापा की तबीयत खराब हो गई थी. सुनील और अनिल उन्हें अस्पताल ले कर गए हैं. पर घबराने की बात नहीं है, अभी आते होंगे,’’ कह कर मां और मम्मी दोनों उस के पास बैठ गईं.

मुसकान एकदम घबरा गई. अभी 1 घंटा पहले तो पापा ठीक थे, हंसखेल रहे थे. उस ने जल्दी से मोबाइल उठाया, ‘‘सुनील, कैसे हैं पापा, क्या हुआ उन्हें?’’

‘‘मुसकान, देखो घबराना नहीं,’’ सुनील बोला, ‘‘मेरे होते हुए चिंता मत करो. पापा को हलका हार्ट अटैक पड़ा है. हमें इन्हें ले कर पटियाला जाना होगा. तुम जरूरी सामान और कपड़े ले कर डैडी के साथ यहीं आ जाओ. तुम भी साथ चलोगी. मेरे वाला पैकेट अभी संभाल कर रख लो.’’

‘‘मम्मी, सुनील ने मुझे अस्पताल बुलाया है. पापा को पटियाला ले कर जाना पड़ेगा,’’ और फिर जितनी हसरत से उस ने सुनील वाले कपड़े पहने थे, उतने ही दुखी मन से उन्हें उतार दिया. हलके रंग का सूट पहना और यह सोच कर कि इस लाल सूट को तो वह सुहागरात को ही पहनेगी उसे बड़े प्यार से उसी तरह अलमारी में रख दिया.

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तितली: सियाली के चेहरे पर क्यों थी मुस्कान

रविवार के दिन की शुरुआत भी मम्मीपापा के  झगड़े की कड़वी आवाजों से हुई. सियाली अभी अपने कमरे में सो ही रही थी कि चिकचिक सुन कर उस ने चादर सिर तक ओढ़ ली, इस से आवाज पहले से कम तो हुई, पर अब भी उस के कानों से टकरा रही थी.

सियाली मन ही मन कुढ़ कर रह गई. पास पड़े मोबाइल को टटोल कर उस में ईयरफोन लगा कर उन्हें कानों में कस कर ठूंस लिया और आवाज को बहुत तेज कर दिया.

18 साल की सियाली के लिए यह कोई नई बात नहीं थी. उस के मांबाप आएदिन ही  झगड़ते रहते थे, जिस की सीधी वजह थी उन दोनों के संबंधों में खटास का होना… ऐसी खटास, जो एक बार जिंदगी में आ जाए, तो आपसी रिश्तों का खात्मा ही कर देती है.

सियाली के मांबाप प्रकाश और निहारिका के संबंधों में यह खटास कोई एक दिन में नहीं आई, बल्कि यह तो  एक मिडिल क्लास परिवार के कामकाजी जोड़े के आपसी तालमेल बिगड़ने के चलते धीरेधीरे आई एक आम समस्या थी.

सियाली के पिता प्रकाश अपनी पत्नी निहारिका पर शक करते थे. उन का शक करना भी एकदम जायज था, क्योंकि निहारिका का अपने औफिस के एक साथी के साथ संबंध चल रहा था. जितना शक गहरा हुआ, उतना ही प्रकाश की नाराजगी बढ़ती गई और निहारिका का नाजायज रिश्ता भी उसी हिसाब से  बढ़ता गया.

‘‘जब दोनों साथ नहीं रह सकते, तो तलाक क्यों नहीं दे देते… एकदूसरे को,’’ सियाली बिस्तर से उठते हुए  झुं झलाते  हुए बोली.

सियाली जब तक अपने कमरे से बाहर आई, तब तक वे दोनों काफी हद तक शांत हो चुके थे. शायद वे किसी फैसले तक पहुंच गए थे.

‘‘तो ठीक है, मैं कल ही वकील से बात कर लेता हूं, पर सियाली को अपने साथ कौन रखेगा?’’ प्रकाश ने निहारिका की ओर घूरते हुए पूछा.

‘‘मैं सम झती हूं… सियाली को तुम मु झ से बेहतर संभाल सकते हो,’’ निहारिका ने कहा, तो उस की इस बात पर प्रकाश भड़क सा गया, ‘‘हां, तुम तो सियाली को मेरे पल्ले बांधना ही चाहती हो, ताकि तुम अपने उस औफिस वाले के साथ गुलछर्रे उड़ा सको और मैं एक जवान लड़की के चारों तरफ एक गार्ड बन कर घूमता रहूं.’’

प्रकाश की इस बात पर निहारिका ने भी तेवर दिखाते हुए कहा, ‘‘मर्दों के समाज में क्या सारी जिम्मेदारी एक मां की ही होती है?’’

निहारिका ने गहरी सांस ली और कुछ देर रुक कर बोली, ‘‘हां, वैसे सियाली कभीकभी मेरे पास भी आ सकती है…  1-2 दिन मेरे साथ रहेगी तो मु झे भी एतराज नहीं होगा,’’ निहारिका ने मानो फैसला सुना दिया था.

सियाली कभी मां की तरफ देख रही थी, तो कभी पिता की तरफ, उस से कुछ कहते न बना, पर वह इतना सम झ गई थी कि मांबाप ने अपनाअपना रास्ता अलग कर लिया है और उस का वजूद एक पैंडुलम से ज्यादा नहीं है जो उन दोनों के बीच एक सिरे से दूसरे सिरे तक डोल रही है.

शाम को जब सियाली कालेज से लौटी, तो घर में एक अलग सी शांति थी. पापा सोफे में धंसे हुए चाय पी रहे थे, जो उन्होंने खुद ही बनाई थी. उन के चेहरे पर कई महीनों से बनी रहने वाली तनाव की शिकन गायब थी.

सियाली को देख कर उन्होंने मुसकराने की कोशिश की और बोले, ‘‘देख ले… तेरे लिए चाय बची होगी… लेले और मेरे पास बैठ कर पी.’’

सियाली पापा के पास आ कर बैठी, तो पापा ने अपनी सफाई में काफीकुछ कहना शुरू किया, ‘‘मैं बुरा आदमी नहीं हूं, पर तेरी मम्मी ने भी तो गलत किया था. उस के काम ही ऐसे थे कि मु झे उसे देख कर गुस्सा आ ही जाता था और फिर तेरी मां ने भी तो रिश्तों को बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी.’’

पापा की बातें सुन कर सियाली से भी नहीं रहा गया और वह बोली, ‘‘मैं नहीं जानती कि आप दोनों में से कौन सही है और कौन गलत है, पर इतना जरूर जानती हूं कि शरीर में अगर नासूर हो जाए, तो आपरेशन ही सही रास्ता और ठीक इलाज होता है.’’

बापबेटी ने कई दिनों के बाद आज खुल कर बात की थी. पापा की बातों में मां के प्रति नफरत और गुस्सा ही छलक रहा था, जिसे सियाली चुपचाप सुनती रही थी.

अगले दिन ही सियाली के मोबाइल पर मां का फोन आया और उन्होंने सियाली को अपना पता देते हुए शाम को उसे अपने फ्लैट पर आने को कहा, जिसे सियाली ने खुशीखुशी मान भी लिया था और शाम को मां के पास जाने की सूचना भी उस ने अपने पापा को दे दी, जिस पर पापा को भी कोई एतराज नहीं हुआ.

शाम को सियाली मां के दिए पते पर पहुंच गई. पता नहीं क्या सोच कर उस ने लाल गुलाब का एक बुके खरीद लिया था और वह फ्लैट नंबर 111 में पहुंच गई.

सियाली ने डोरबैल बजाई. दरवाजा मां ने ही खोला था. अब चौंकने की बारी सियाली की थी. मां गहरे लाल रंग की साड़ी में बहुत खूबसूरत लग रही थीं. उन की मांग में भरा हुआ सिंदूर और माथे पर बिंदी… सियाली को याद नहीं कि उस ने मां को कब इतनी अच्छी तरह से सिंगार किए हुए देखा था. हमेशा सादा वेश में ही रहती थीं मां और टोकने पर दलील देती थीं, ‘अरे, हम कोई ब्राह्मणठाकुर तो हैं नहीं, जो हमेशा सिंगार ओढ़े रहें… हम पिछड़ी जाति वालों के लिए साधारण रहना ही अच्छा है.’

तो फिर आज मां को ये क्या हो गया? बहरहाल, सियाली ने मां को बुके दे दिया. मां ने बड़े प्यार से कोने में रखी एक मेज पर उसे सजा दिया.

‘‘अरे, अंदर आने को नहीं कहोगी सियाली से,’’ मां के पीछे से आवाज आई.

सियाली ने आवाज की दिशा में नजर उठाई, तो देखा कि सफेद कुरतापाजामा पहने हुए एक आदमी खड़ा हुआ मुसकरा रहा था.

सियाली उसे पहचान गई. वह मां का औफिस का साथी देशवीर था. मां उसे पहले भी घर ला चुकी थीं.

मां ने बहुत खुशीखुशी देशवीर से सियाली का परिचय कराया, जिस  पर सियाली ने कहा, ‘‘जानती हूं मां… पहले भी आप इन से मु झ को मिलवा चुकी हो.’’

‘‘पर, पहले जब मिलवाया था तब ये सिर्फ मेरे अच्छे दोस्त थे, लेकिन आज मेरे सबकुछ हैं. हम लोग फिलहाल तो लिवइन में रह रहे हैं और तलाक का फैसला होते ही शादी भी कर लेंगे.’’

सियाली मुसकरा कर रह गई थी. सब ने एकसाथ खाना खाया. डाइनिंग टेबल पर भी माहौल सुखद ही था. मां के चेहरे की चमक देखते ही बनती थी.

सियाली रात को मां के साथ ही सो गई और सुबह वहीं से कालेज के लिए निकल गई. चलते समय मां ने उसे 2,000 रुपए देते हुए कहा, ‘‘रख ले, घर जा कर पिज्जा और्डर कर देना.’’

कल से ले कर आज तक मां ने सियाली के सामने एक आदर्श मां होने के कई उदाहरण पेश किए थे, पर सियाली को यह सब नहीं भा रहा था. फिलहाल तो वह अपनी जिंदगी खुल कर जीना चाहती थी, इसलिए मां के दिए गए पैसों से वह उसी दिन अपने दोस्तों के साथ पार्टी करने चली गई.

‘‘सियाली, आज तू यह किस खुशी में पार्टी दे रही है?’’ महक ने पूछा.

‘‘बस यों सम झो कि आजादी की पार्टी है,’’ कह कर सियाली मुसकरा दी थी.

सच तो यह था कि मांबाप के अलगाव के बाद सियाली भी बहुत रिलैक्स महसूस कर रही थी. रोजरोज की टोकाटाकी से अब उसे छुटकारा मिल चुका था और वह अपनी जिंदगी अपनी शर्तों पर जीना चाहती थी, इसीलिए उस ने अपने दोस्तों से अपनी एक इच्छा बताई, ‘‘यार, मैं एक डांस ग्रुप जौइन करना चाहती हूं, ताकि मैं अपने

जज्बातों को डांस द्वारा दुनिया के सामने पेश कर सकूं.’’

इस पर उस के दोस्तों ने उसे और भी कई रास्ते बताए, जिन से वह अपनेआप को दुनिया के सामने पेश कर सकती थी, जैसे ड्राइंग, सिंगिंग, मिट्टी के बरतन बनाना, पर सियाली तो मौजमस्ती के लिए डांस ग्रुप जौइन करना चाहती थी, इसलिए उसे बाकी के औप्शन अच्छे  नहीं लगे.

सियाली ने अपने शहर के डांस ग्रुप इंटरनैट पर खंगाले, तो ‘डिवाइन डांसर’ नामक एक डांस ग्रुप ठीक लगा, जिस में 4 मैंबर लड़के थे और एक लड़की थी.

सियाली ने तुरंत ही वह ग्रुप जौइन कर लिया और अगले दिन से ही डांस प्रैक्टिस के लिए जाने लगी और इस नई चीज का मजा भी लेने लगी.

इस समय सियाली से ज्यादा खुश कोई नहीं था. वह तानाशाह हो चुकी थी. न मांबाप का डर और न ही कोई टोकने वाला. वह जब चाहती घर जाती और अगर नहीं भी जाती तो भी कोई पूछने वाला नहीं था. उस के मांबाप का तलाक क्या हुआ, सियाली तो एक ऐसी चिडि़या हो गई, जो कहीं भी उड़ान भरने के लिए आजाद थी.

एक दिन सियाली का फोन बज उठा. यह पापा का फोन था, ‘सियाली, तुम कई दिन से घर नहीं आई, क्या बात है? कहां हो तुम?’

‘‘पापा, मैं ठीक हूं और डांस सीख रही हूं.’’

‘पर तुम ने बताया नहीं कि तुम डांस सीख रही हो…’

‘‘जरूरी नहीं कि मैं आप लोगों को सब बातें बताऊं… आप लोग अपनी जिंदगी अपने ढंग से जी रहे हैं, इसलिए मैं भी अब अपने हिसाब से ही  जिऊंगी,’’ इतना कह कर सियाली ने फोन काट दिया था, पर उस का मन एक अजीब सी खटास से भर गया था.

डांस ग्रुप के सभी सदस्यों से सियाली की अच्छी दोस्ती हो गई थी, पर पराग नाम के लड़के से उस की कुछ ज्यादा ही पटने लगी थी.

पराग स्मार्ट था और पैसे वाला भी. वह सियाली को गाड़ी में घुमाता और खिलातापिलाता. उस की संगत में सियाली को भी सिक्योरिटी का अहसास होता था.

एक दिन पराग और सियाली एक रैस्टोरैंट में गए. पराग ने अपने लिए एक बीयर मंगवाई और सियाली से पूछा, ‘‘तुम तो कोल्ड ड्रिंक लोगी न सियाली?’’

‘‘खुद तो बीयर पीओगे और मु झे बच्चों वाली ड्रिंक… मैं भी बीयर पीऊंगी,’’ कहते हुए सियाली के चेहरे पर  एक अजीब सी शोखी उतर आई थी.

सियाली की इस अदा पर पराग भी मुसकराए बिना न रह सका और उस ने एक और बीयर और्डर कर दी.

सियाली ने बीयर से शुरुआत जरूर की थी, पर उस का यह शौक धीरेधीरे ह्विस्की तक पहुंच गया था.

अगले दिन डांस क्लास में जब वे दोनों मिले, तो पराग ने एक सुर्ख गुलाब सियाली की ओर बढ़ा दिया और बोला, ‘‘सियाली, मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं और तुम से शादी करना चाहता हूं.’’

यह सुन कर ग्रुप के सभी लड़केलड़कियां तालियां बजाने लगे.

सियाली ने भी मुसकरा कर पराग के हाथ से गुलाब ले लिया और कुछ सोचने के बाद बोली, ‘‘लेकिन, मैं शादी जैसी किसी बेहूदा चीज के बंधन में नहीं बंधना चाहती. शादी एक सामाजिक तरीका है 2 लोगों को एकदूसरे के प्रति ईमानदारी दिखाते हुए जिंदगी बिताने का, पर क्या हम ईमानदार रह पाते हैं?’’ सियाली के मुंह से ऐसी बड़ीबड़ी बातें सुन कर डांस ग्रुप के लड़केलड़कियां शांत से हो गए थे.

सियाली ने थोड़ा रुक कर कहना शुरू किया, ‘‘मैं ने अपने मांबाप को उन की शादीशुदा जिंदगी में हमेशा लड़ते ही देखा है, जिस का खात्मा तलाक के रूप में हुआ और अब मेरी मां अपने प्रेमी के साथ लिवइन में रह रही हैं और पहले से कहीं ज्यादा खुश हैं.’’

पराग यह बात सुन कर तपाक से बोला, ‘‘मैं भी तुम्हारे साथ लिवइन में रहने को तैयार हूं,’’ तो सियाली ने इसे  झट से स्वीकार कर लिया.

कुछ दिन बाद ही पराग और सियाली लिवइन में रहने लगे, जहां वे जी भर कर जिंदगी का मजा ले रहे थे. पराग के पास पैसे की कोई कमी नहीं थी.

कुछ दिनों के बाद उन के डांस ग्रुप की गायत्री नाम की एक लड़की ने सियाली से एक दिन पूछ ही लिया, ‘‘सियाली, तुम्हारी तो अभी उम्र बहुत कम है… और इतनी जल्दी किसी के साथ लिवइन में रहना… कुछ अजीब सा नहीं लगता तुम्हें…’’

सियाली के चेहरे पर एक मीठी सी मुसकराहट आई और चेहरे पर कई रंग आतेजाते गए, फिर उस ने अपनेआप को संभालते हुए कहा, ‘‘जब मेरे मांबाप ने सिर्फ अपनी जिंदगी के बारे में सोचा और मेरी परवाह नहीं की, तो मैं अपने बारे में क्यों न सोचूं… और गायत्री, जिंदगी मस्ती करने के लिए बनी है, इसे न किसी रिश्ते में बांधने की जरूरत है और न ही रोरो कर गुजारने की…

‘‘मैं आज पराग के साथ लिवइन में हूं, और कल मन भरने के बाद किसी और के साथ रहूंगी और परसों किसी और के साथ, उम्र का तो सोचो ही मत… बस मस्ती करो.’’

सियाली यह कहते हुए वहां से  चली गई, जबकि गायत्री अवाक सी खड़ी रह गई.

तितली कभी किसी एक फूल पर नहीं बैठती… वह कभी एक फूल पर, तो कभी दूसरे फूल पर, और तभी तो  इतनी चंचल होती है और इतनी खुश रहती है… रंगबिरंगी तितली, जिंदगी से भरपूर तितली.

मजाक : खुशबू तो ऐसा ख्वाब थी जिस के लिए क्या कहें

दिल्ली से बैंगलुरु का सफर लंबा तो था ही, लेकिन जयंत की बेसब्री भी हद पार कर रही थी. 3 साल बाद खुशबू से मिलने का वक्त जो नजदीक आ रहा था. मुहब्बत में अगर कामयाबी मिल जाए तो इनसान को दुनिया जीत लेने का अहसास होने लगता है.

ट्रेन सरपट भाग रही थी लेकिन जयंत को उस की रफ्तार बैलगाड़ी सी धीमी लग रही थी. रात के 9 बज रहे थे. उस ने एक पत्रिका निकाल कर अपना ध्यान उस में बांटना चाहा लेकिन बेजान काले हर्फ और कागज खुशबू की कल्पना की क्या बराबरी करते?

खुशबू तो ऐसा ख्वाब थी, जिसे पूरा करने में जयंत ने खुद को झोंक दिया था. उस की हर शर्त, हर हिदायत को आज उस ने पूरा कर दिया था. अब फैसला खुशबू का था.

जयंत ने मोबाइल फोन निकाला. खुशबू का नंबर डायल किया लेकिन फिर अचानक फोन काट दिया. उसे याद आया कि खुशबू ने यही तो कहा था, ‘जब सच में कुछ बन जाओ तब मुहब्बत को पाने की बात करना. उस से पहले नहीं. मैं तब तक तुम्हारा इंतजार करूंगी.’

मोबाइल फोन वापस जेब के हवाले कर जयंत अपनी बर्थ पर लेट गया. सुख के इन लमहों को वह खुशबू की यादों में जीना चाहता था.

5 साल पहले जब जयंत दिल्ली आया था तो वह कुछ बनने के सपने साथ लाया था लेकिन दिल्ली की फिजाओं में उसे खुशबू क्या मिली, जिंदगी की दशा और दिशा ही बदल गई.

जयंत ने मुखर्जी नगर, दिल्ली के एक नामी इंस्टीट्यूट में प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी के लिए दाखिला लिया तो वहां पढ़ाने वाली मैडम खुशबू का जादू पहली नजर में ही प्यार में बदल गया.

भरापूरा बदन और बेहद खूबसूरत. झील सी आंखें. घुंघराले लंबे बाल. बदन का हर अंग ऐसा कि सामने वाला देखता ही रह जाए.

जयंत ने खुशबू से बातचीत शुरू करने की कोशिश की. क्लास में वह अकसर मुश्किल सवाल रखता पर खुशबू की सब्जैक्ट पर गजब की पकड़ थी. जयंत उसे कभी अटका नहीं पाया. लेकिन उस में भी बहुत खूबियां थीं इसलिए खुशबू उसे स्पैशल समझने लगी.

उस दिन क्लास जल्दी खत्म हो गई. खुशबू ने जयंत को रुकने का इशारा किया. थोड़ी देर बाद वे दोनों एक कौफी हाउस में थे और वहां कहीअनकही बहुत सी बातें हो गईं. नजदीकियां बढ़ने लगीं तो समय पंख लगा कर उड़ने लगा.

एक दिन मौका देख कर जयंत ने खुशबू को प्रपोज भी कर दिया, लेकिन खुशबू ने वैसा जवाब नहीं दिया जैसी जयंत को उम्मीद थी.

खुशबू की बहन की शादी थी. उस ने जयंत को न्योता दिया तो जयंत भला ऐसा मौका क्यों छोड़ता? काफी अच्छा आयोजन था लेकिन जयंत को इस सब में ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी.

दकियानूसी रस्में रातभर चलने वाली थीं, इसलिए जयंत मेहमानों के रुकने वाले हाल में जा कर सो गया. लोगों की आवाजें वहां भी आ रही थीं. सब बाहर मंडप में थे.

रात में अचानक किसी की छुअन की गरमाहट से जयंत की नींद खुली. हाल की लाइट बंद थी, लेकिन अपनी चादर में लड़की की छुअन वह अंधेरे में भी पहचान गया था.

खुशबू इस तरह उस के साथ… ऐसा सोचना भी मुश्किल था. लेकिन अपने प्यार को इतना करीब पा कर कौन मर्द अपनेआप पर कंट्रोल रख सकता है?

चंद लमहों में वे दोनों एकदूसरे में समा जाने को बेताब होने लगे. खुशबू के चुंबनों ने जयंत को मदहोश कर दिया. अपने करीब खुशबू को पा कर उसे जैसे जन्नत मिल गई.

तूफान थमा तो खुशबू वापस शादी की रस्मों में शामिल हो गई और जयंत उस की खुशबू में डूबा रहा.

कुछ दिन बाद ऐसा ही एक और वाकिआ हुआ. तेज बारिश थी. मंडी हाउस से गुजरते समय जयंत ने खुशबू को रोड पर खड़ा पाया.

जयंत ने फौरन उस के नजदीक पहुंच कर अपनी मोटरसाइकिल रोकी. दोनों उस पर सवार हो इंडिया गेट की ओर निकल गए.

खुशबू को रोमांचक जिंदगी पसंद थी इसलिए वह इस मौके का लुत्फ उठाना चाहती थी. बारिश का मजा रोमांच में बदल रहा था. प्यार में सराबोर वे घंटों सड़कों पर घूमते रहे.

जयंत और खुशबू की कहानी ऐसे ही आगे बढ़ती रही कि तभी अचानक इस कहानी में एक मोड़ आया. खुशबू ने जयंत को ग्रैंड होटल में बुलाया. डिनर की यह पार्टी अब तक की सब पार्टियों से अलग थी. खुशबू की खूबसूरती आज जानलेवा महसूस हो रही थी.

‘आज तुम्हारे लिए स्पैशल ट्रीट जयंत,’ मुसकरा कर खुशबू ने कहा.

‘किस खुशी में?’ जयंत ने पूछा.

‘मुझे नई नौकरी मिल गई… बैंगलुरु में असिस्टैंट प्रोफैसर की.’

जयंत का दिल टूट गया था. खुशबू को सरकारी नौकरी मिल गई थी, इस का मतलब उस की जुदाई भी था.

जयंत ने दुखी लहजे में खुशबू को उस की जुदाई का दर्द कह सुनाया.

खुशबू ने मुसकराते हुए कहा, ‘वादा करो तुम पहले कंपीटिशन पास करोगे, नौकरी मिलने के बाद ही मुझ से मिलने आओगे… उस से पहले नहीं… न मुझे फोन करोगे और न ही चैट…

‘मैं तुम्हारी टीचर रही हूं इसलिए मुझे यह गिफ्ट दोगे. फिर हम शादी करेंगे… एक नई जिंदगी… एक नई प्रेम कहानी… मैं तुम्हारा इंतजार करूंगी.

‘3 साल का समय… बस, तुम्हारी यादों के सहारे निकालूंगी.’

अचानक से सबकुछ खत्म हो गया. धीरेधीरे समय बीतने लगा. जयंत ने अपना वादा तोड़ खुशबू को फोन भी किए लेकिन उस ने मीठी झिड़की से उसे पढ़ाई पर ध्यान देने को कहा.

जयंत को भी यह बात चुभ गई. अब पूरा समय वह अपनी पढ़ाई पर देने लगा. प्यार में बड़ी ताकत होती है इसलिए मुहब्बत की कशिश इनसान से कोई भी काम करा लेती है.

जयंत को भारतीय सर्वेक्षण विभाग में अच्छी नौकरी मिल गई. अब खुशबू को पाने में कोई रुकावट नहीं बची थी. जयंत ने अपना वादा पूरा कर लिया था.

अचानक ट्रेन रुकी तो जयंत की नींद खुली. सुबह होने को थी. बैंगलुरु अभी दूर था. जयंत दोबारा आंखें मूंदे हसीन सपनों में खो गया.

टे्रन जब बैंगलुरु पहुंची, तब तक शाम हो चुकी थी. जयंत ने खुशबू को फोन मिलाया लेकिन फोन किसी अनजान ने उठाया. वह नंबर खुशबू का नहीं था. उस का नंबर अब बदल चुका था. दूसरे दिन वह मालूम करता हुआ खुशबू के कालेज पहुंचा.

लाल गुलाब और खुशबू के लिए गिफ्ट से भरे बैग जयंत के हाथों में लदे थे. वैसे भी जयंत को खुशबू को उपहार देने में बड़ा सुकून मिलता था. अपनी पौकेटमनी बचाबचा कर वह उस के लिए छोटेछोटे गिफ्ट लाता था जिन्हें पा कर खुशबू बहुत खुश होती थी.

खुशी से लबरेज जयंत कालेज गया. खुशबू के रूम में पहुंचा तो जयंत को देख वह उछल पड़ी. मिठाई का डब्बा आगे कर जयंत ने उसे खुशखबरी सुनाई.

खुशबू ने एक टुकड़ा मुंह में रखा और जयंत को शुभकामनाएं दीं.

जयंत में सब्र कहां था. उस ने आगे बढ़ उस का हाथ थामा और चुंबन रसीद कर दिया.

‘‘प्लीज जयंत… यह सब नहीं… प्लीज रुक जाओ,’’ अचानक खुशबू ने सख्त लहजे में जयंत को टोकते हुए रोका.

‘‘लेकिन यार, अब तो मैं ने अपना वादा पूरा कर दिया… तुम से मेरी शादी…’’ निराश जयंत ने पूछा.

‘‘सौरी जयंत… प्लीज… मैं ने शादी कर ली है. अब वे सब बातें तुम भूल जाओ..’’

‘‘क्या? भूल जाऊं… मतलब?’’ जयंत उसे घूरते हुए बोला.

‘‘हां, मुझे भूलना होगा,’’ मुसकराते हुए खुशबू बोली, ‘‘वे सब मजाक की बातें थीं… 3 साल पहले कही गई

बातें… क्या अब इतने दिन बाद… तुम्हें तो मुझ से भी अच्छी लड़कियां मिलेंगी…’’ मुसकराते हुए खुशबू बोली.

जयंत उलटे पैर लौट पड़ा. लाल गुलाब उस के भारी कदमों के नीचे कुचल रहे थे. मजाक की बातें शायद 3 साल में खत्म हो जाती हैं… माने खो देती हैं… जयंत समझने की नाकाम कोशिश करने लगा.

आई इन्वाइटेड ट्रबल

शादी से पहले लगभग हर लड़की अपने भावी जीवन के बारे में कुछ सपने देखती है. उन सपनों में दुख नाम मात्र को भी नहीं होते. मैं भी उन्हीं लड़कियों में से एक थी.

शादी से पहले जब मैं ये सपने देखती तो उन में एक सपना मु?ो बारबार आता और वह

था मेरे भावी पति के पास एक एसयूवी का होना, जिस में 7 जने बैठ सकें. ऐसा सपना देखते

समय आंखों के सामने वही फिल्मी दृश्य आते, जिन में नायक और नायिका तथा 2 लड़के और

3 लड़कियां एक कार में मस्ती करते या गाते हुए जा रहे होते या नायिका स्वयं कार चला रही होती. मन के एक कोने में स्वयं कार चलाने की इच्छा भी दबी हुई थी.

संयोग से जिस व्यक्ति से मेरा रिश्ता तय हुआ उस का वेतन अच्छा था. मेरी बड़ी बहन खुशी से बोली, ‘‘अब मेरी बहन गहनों से लदी रहेगी.’’

मैं ने मन ही मन कहा कि क्या दकियानूसी बात कर दी. गहने लादने से क्या लाभ. यह क्यों नहीं कहती कि एसयूवी में घूमूंगी.

शादी के बाद पहली ही रात पति ने बड़े उत्साह से बताया कि उन की बुक कराई मारुति की आई-10 कार शीघ्र ही आने वाली है. मेरा सारा उत्साह ठंडा हो गया और सपने टूटने लगे.

मेरी चिरकाल से संजोई इच्छा को जान कर पति ने तसल्ली दी कि दोनों की अगली पदोन्नति पर एसयूवी भी आ जाएगी. सपने फिर से शुरू हो गए.

मै हर समय यही सोचती रहती कि कौन सी कार लेनी ठीक रहेगी, कौन सा रंग अच्छा होगा इत्यादिइत्यादि. जब किसी महिला को एसयूवी भी चलाते देखती तो उसे बहुत स्मार्ट मानती. कभी किसी ऐसी महिला से परिचय कराया जाता, जो पुराने फैशन की और सादी सी लगती तो मैं नाक सिकोड़ लेती पर मु?ो जैसे ही पता चलता कि वह एसयूवी भी चलाती है तो उस के प्रति मेरे विचार तुरंत बदल जाते. मु?ो वह बड़ी बोल्ड, आधुनिक व स्मार्ट नजर आती. सोचने लगती, वह दिन कब आएगा जब मैं भी ऐसी महिलाओं की श्रेणी में

आ जाऊंगी.

एक बार किसी विशेष स्थान पर टैक्सी कर के जाना पड़ा. रास्ते में एक  लड़की कार चला कर जा रही थी. मु?ो ऐसा लगा मानो वह आधुनिक व स्वतंत्र हो और मु?ो एकदम फूहड़ और परतंत्र सम?ा रही हो. उसे क्या पता, थोड़े समय पश्चात मैं भी उस की तरह कार चलाऊंगी.

आखिर कुछ वर्षों की प्रतीक्षा के बाद वह दिन भी आया जब हम ने एसयूवी खरीदी. पर इस खुशी के साथ मन में एक कसक थी. हमारी सारी जमापूंजी उस में लग गईर् थी. आई-10 तो बेचनी ही पड़ी, साथ ही कुछ रुपए भी उधार लेने पड़े. हमारे वर्ग के दूसरे लोग तो बड़े खुश नजर आते थे. क्या उन के दिलों में भी ऐसी कोई कसक थी?

मैं ने एसयूवी भी चलानी शुरू कर दी. अब जब भी 4 महिलाओं के बीच होती, घुमाफिरा कर बात इस बिंदु पर ले आती कि मैं भी एसयूवी चलाती हूं और किसी को भी छोड़ दूंगी हालांकि अभी स्टेयरिंग व्हील के आगे बैठने पर दिल इतने जोर से धड़कता था कि इंजन की आवाज उस के आगे मंद लगती.

एक दिन मैं मुख्य सड़क पर एसयूवी चला रही थी. एक बस मेरे आगे थी और एक पीछे. मेरे हौर्न बजाने पर अगली बस ने बड़ी तमीज से मु?ो आगे जाने की राह दे दी. पिछली आदरपूर्वक धीमी हो गई. मैं साथ बैठे पति से बोली, ‘‘लोग यों ही दिल्ली के बस चालकों को बदनाम करते हैं कि अंधाधुंध गाड़ी चलाते हैं. देखो न कैसे सलीके वाले चालक हैं.’’

 

पति से रहा न गया और बोले, ‘‘देवीजी, आप की कार के बाहर मैं ने 2 बड़े डैंटों के निशान लगे देखे हैं. आखिर उन्हें भी तो अपनी जान व नौकरी प्यारी. ये आप ने पिछले सप्ताह ही मारे थे. डैंटरपैंटर 3 हजार का ऐस्टीमेट दे रहा है. ये लोग ठुकी गाड़ी को ठीक कर आप की पहली ठुकाई का इंश्योरैंस नहीं देना चाहते.

एक बार मैं अकेली कहीं कार चला कर जा रही थी. चौराहे पर लालबत्ती थी और मैं सब से आगे थी. पता नहीं, किस सोच में थी कि अचानक अपने पीछे कारों की लाइन की पोंपों सुन कर चौंक गई. हरी बत्ती हो चुकी थी और मैं ने ध्यान ही नहीं दिया था. आगे बढ़ी तो एक टैक्सी वाला फर्र से पास से गुस्से से बकता हुआ निकल गया कि मैडम, तुसीं तो स्कूटी ले लो.

सुबह बच्चों को स्कूल छोड़ने जाती व दोपहर को उन्हें वापस लाती तो अधिक ध्यान इसी ओर रहता कि कोई जानपहचान का मिल जाए तो देख ले कि मैं भी भारीभरकम कार चला लेती हूं. सुबह जाते समय कोई पड़ोसी न देख रहा होता तो लगता क्या सुस्त लोग हैं, अभी तक बिस्तरों पर पसरे हुए हैं.

एक बार हरीश बाबू शाम को मिलने आए तो बोले, ‘‘भाई साहब, दोहरी बधाई हो, एक तो एसयूवी खरीदने की, दूसरी भाभीजी के कार चलाना सीख लेने की. इतनी पावरफुल गाड़ी संभालना आसान नहीं है.’’

‘‘भई, जल्द ही तीसरी मुबारक भी देने आओगे… मेरे साइकिल खरीदने की नौबत जल्द ही आने वाली है क्योंकि तुम्हारी भाभी तो एसयूवी छोड़ती ही नहीं.’’

मेरा छोटा भाई विदेश से आया तो अगले ही दिन बड़े चाव व शान से अपना मोबाइल कैमरा दिखाते हुए बोला, ‘‘दीदी, चलिए आपका वीडियो बना लूं. किंतु इस के लिए आप को थोड़ा ऐक्शन में होना पड़ेगा.’’

‘‘अरे, यहां ऐक्शन की क्या कमी है,’’ मैं शान से बोली, ‘‘चलो, मैं एसयूवी चलाती हूं, तुम वीडियो बना लेना.’’

भाई ने अचकचा कर देखा. उस समय अपनी धुन में मस्त मैं ने सोचा कि इतनी जल्दी एसयूवी चलानी सीख ली है, शायद इसीलिए हैरान हो रहा है. थोड़ी देर बाद मैं एक भड़कीला टौप व जींस पहन तैयार हो कर उंगली में चाबी का गुच्छा घुमाती हुई आ गई तो उस बेचारे के लिए वीडियो खींचने के अलावा और कोई चारा न रहा.

ओहो, कार को भी आज ही नखरा

दिखाना था. नई कार और ?ाटक?ाटक कर चले, वह भी वीडियो खिंचवाने के समय. खैर,

जैसेतैसे एक सुंदर मोड़ से धीरेधीरे एसयूवी चलाती हुई, मुसकराती हुई, कैमरे के आगे से निकली तो ऐसा लग रहा था जैसे किसी फिल्म की शूटिंग हो रही हो और मेरा पुराना सपना साकार हो गया हो.

मु?ो एसयूवी कंट्रोल करना आता है, इस प्रचार के लिए रिश्तेदारों से भी मिलने जाती. महिला क्लब जाना होता तो रास्ते में

6-7 सहेलियों को लेती जाती. कोई घर मिलने आता तो उसे मैट्रो स्टेशन तक एसयूवी में छोड़ने जरूर जाती.

एक दिन पतिदेव ने हिसाब लगा कर बताया कि डीजल के खर्चे के कारण घर का बजट डगमगाने लगा है और सुना है डीजल अभी और महंगा होने वाला है. बात तो बिलकुल ठीक थी, पर मेरी सहेलियों को क्या पता था. कहीं आनाजाना होता तो औपचारिकता को ताक में रख कर कह देतीं, ‘‘भई मनीषा, जाते समय हमें भी घर से लेती जाना.’’

 

अब तो आन का प्रश्न था, ले जाना पड़ता. वैसे भी अब मेरे पास सब से ज्यादा

गौसिप होतीं क्योंकि जब मेरे पास चाबी होती तो 6-7 नईपुरानी फ्रैंड्स अपनी कार छोड़ कर साथ चलने को तैयार हो जातीं.

20 मील की दूरी पर रहते एक दूर के रिश्तेदार के यहां शादी पर गए तो उन्होंने शिकायत की, ‘‘एसयूवी तुम्हारे पास है, फिर भी तुम कल दोपहर महिला संगीत पर नहीं पहुंचीं, कितनी बुरी बात है. हम तो सोच रहे थे कि तुम पीहू (होने वाली ब्राइड) को लहंगे सहित एसयूवी में तो लाओगी तो वह खिल उठेगी.’’

अब तो कार अधिक चलाने से पीठ अधिक दुखने लगती है. मुसीबत लगती है कि सुबह सारे काम छोड़ कर पूरी सोसायटी के बच्चों को स्कूल छोड़ने जाओ और दोपहर को आराम के समय उन्हें लेने जाओ. डीजल की महंगाई देखते हुए स्कूल बस ही ठीक रहेगी और मेरा सिरदर्द भी दूर होगा. बच्चों को भी मजा आता क्योंकि उन की कैब में एयरकंडीशनर तो था नहीं.

मेरी मौसी मेरे पास आईं तो बीमार पड़ गईं. अकसर डाक्टर के पास जाने को मु?ो ही एसयूवी के साथ हाजिर होना पड़ता क्योंकि उन के साथ उन की आया और मेरा मौसेरा भाई भी होता और फिर भला एसयूवी किसलिए सीखी थी. यदि ऐसे समय किसी की सेवा न कर सकी तो एसयूवी होेने का फायदा ही क्या. उबेर न ले लेते वे.

 

एक दिन सुबह पतिदेव ने फरमाया, ‘‘आज शाम किसी को जल्दी मिलने जाना है.

दफ्तर की बस से आते देर लग जाएगी, तुम एसयूवी ले कर शाम को दफ्तर पहुंच जाना.’’

वहां मेरी गाड़ी को पार्किंग ही नहीं मिली और पूरे 20 मिनट मैं इधरउधर भीड़ में उसे चलाती रही. छोटी गाडि़यां आराम से निकल भी रही थीं और पार्क भी हो रही थीं.

पैट्रोल और महंगा हो गया है. कहीं जाना हो तो पहला विचार यह आता है कि दूरी कितनी है, कितने का पैट्रोल फुंकेगा. क्या जाना इतना जरूरी है.

अब रिश्तेदार मिलने आते हैं 1-2 नहीं 4-5 आ जाते हैं. जब वे लौटने लगते हैं तो मुझे कहना पड़ता, ‘‘चलिए, मैट्रो स्टेशन तक मैं भी आप के साथ चलती हूं. मेरी भी सैर हो जाएगी. (चाहे धूप ही चमक रही हो.)’’

हालत यह है कि हम तो खाली पेट चल सकते हैं, पर एसयूवी को खाली पेट लाख धक्के मारिए, वहीं अड़ी रहेगी, गुर्राती रहेगी.

उस दिन दोपहर के भोजन पर 5-6 मेहमान आए. उन के जाने तक थक कर चूर हो चुकी थी, पर बच्चों की छुट्टी का समय हो रहा था, उन्हें लाना था. भरी दोपहरी में कार चला रही थी.

2-4 डैंट पड़ जाने के कारण उस में कुछ न कुछ खराबी का खटका भी लगा रहता है. कितनी सुखी थी मैं, जब मु?ो एसयूवी चलानी नहीं आती थी और आई-10 ही ठीक थी.

तभी तेजी से एक उबेर गुजरी, जिस में एक महिला बैठी थी. मु?ो लगा, क्या रानियों की तरह ठाट से पीछे बैठी है. न कार की खराबी का खटका, न पैट्रोल की सूई का ध्यान. मु?ो अब वह महिला अधिक आधुनिक, शांत व स्मार्ट लग रही थी.

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