Stories : खौफ – क्या था स्कूल टीचर अवनि और प्रिंसिपल मि. दास के रिश्ते का सच

Stories : प्रिंसिपल दास की नजरें आजकल अक्सर ही अवनि पर टिकी रहती थीं. अवनि स्कूल में नई आई थी और दूसरे टीचर्स से काफी अलग थी. लंबी, छरहरी, गोरी, घुंघराले बालों और आत्मविश्वास से भरपूर चाल वाली अवनि की उम्र 30- 32 साल से अधिक की नहीं थी. उधर 48 साल की उम्र में भी मिस्टर दास अकेले थे. बीवी का 10 साल पहले देहांत हो गया था. तब से वे स्कूल के कामों में खुद को व्यस्त रखते थे. मगर जब से स्कूल में टीचर के रूप में अवनि आई है उन के दिल में हलचल मची हुई है. वैसे अवनि विवाहिता है पर कहते हैं न कि दिल पर किसी का जोर नहीं चलता. प्रिंसिपल दास का दिल भी अवनि को देख बेकाबू रहता था.

” अवनि बैठो,” प्रिंसिपल दास ने अवनि को अपने केबिन में बुलाया था.

उन की नजरें अवनि के बालों में लगे गुलाब पर टिकी हुई थीं. अवनि के बालों में रोज एक छोटा सा गुलाब लगा होता था जो अलगअलग रंग का होता था. प्रिंसिपल दास ने आज पूछ ही लिया,” आप के बालों में रोज गुलाब कौन लगाता है?”

“कोई भी लगाता हो सर वह महत्वपूर्ण नहीं. महत्वपूर्ण यह है कि आप की नजरें मेरे गुलाब पर रहती हैं. जरा अपनी मंशा तो जाहिर कीजिए,”
शरारत से मुस्कुराते हुए अवनि ने पूछा तो प्रिंसिपल दास झेंप गए.

हकलाते हुए बोले,” नहीं ऐसा नहीं. दरअसल मेरी नजरें तो… आप पर ही रहती हैं.”

अवनि ने अचरज से प्रिंसिपल दास की तरफ देखा फिर मीठी मुस्कान के साथ बोली,” यह बात तो मुझे पता थी जनाब बस आप के मुंह से सुनना चाहती थी. वैसे मानना पड़ेगा आप हैं काफी दिलचस्प.”

“थैंक्स,” अवनि के कमेंट पर प्रिंसिपल दास थोड़े शरमा गए थे.

पानी का गिलास बढ़ाते हुए बोले,” आप के लिए क्या मंगाऊं चाय या कॉफी?”

“नहीं नहीं पानी ही ठीक है. आज तो आप की बातों ने ही चायकॉफ़ी का सारा काम कर दिया,” कहते हुए अवनि हंस पड़ी.

ऐसी ही दोचार छोटीमोटी मुलाकातों के बाद आखिर प्रिंसिपल दास ने एक दिन हिम्मत कर के कह ही दिया,” आप मुझे बहुत अच्छी लगती हो. वैसे मैं जानता हूं एक विवाहित स्त्री से मेरा ऐसी बातें कहना उचित नहीं पर बस एक बार कह देना चाहता था.”

“मिस्टर दास हर बात जुबां से कहनी जरूरी तो नहीं होती. वैसे भी आप की नजरें यह बात कितनी ही दफा कह चुकी हैं.”

“तो क्या आप भी नजरों की भाषा पढ़ लेती हैं?”

“बिल्कुल. मैं हर भाषा पढ़ लेती हूं.”

“आप के पति भी आप से बहुत प्यार करते होंगे न,” प्रिंसिपल ने उस के चेहरे पर निगाहें टिकाते हुए पूछा.

“देखिए मैं यह नहीं कहूंगी कि वह प्यार नहीं करते. प्यार तो करते हैं पर बहुत बोरिंग इंसान हैं. न कहीं घूमने जाना, न रोमांटिक बातें करना और न हंसनाखिलखिलाना. वैरी बोरिंग. घर में पति के अलावा केवल सास हैं जो बीमार हैं. ससुर हैं नहीं. पूरे दिन घर में बोर हो जाती थी इसलिए स्कूल जॉइन कर लिया. मुझे घूमनाफिरना, दिलचस्प बातें करना, दुनिया की खुशियों को अपनी बाहों में समेट लेना यह सब बहुत पसंद है. आप जैसे लोग भी पसंद हैं जिन के अंदर कुछ अट्रैक्शन हो. मेरे पति में कोई अट्रैक्शन नहीं है.”

प्रिंसिपल दास को अवनि की बातें सुन कर गुदगुदी हो रही थी. अवनि जैसी महिला उन्हें अट्रैक्टिव कह रही थी और क्या चाहिए था. उन्हें दिल कर रहा था अपनी महबूबा यानी अवनि को बाहों में भर लें पर कैसे? कोई पृष्ठभूमि तो बनानी पड़ेगी.

मिस्टर दास ने इस का भी उपाय निकाल लिया.

“अवनि क्यों न आप की क्लास के बच्चों को ले कर हम पिकनिक पर चलें. स्पोर्ट्स डे के दौरान आप की क्लास के बच्चों ने बेहतरीन परफॉर्मेंस दी. उन के रिजल्ट भी काफी अच्छे आए हैं.”

“ग्रेट आइडिया सर. बताइए न कब चलना है और कहां जाना है?” खुश हो कर अवनि ने कहा.

अवनि क्लास 7 की क्लास टीचर थी. अगले संडे ही कक्षा 7 के बच्चों को शहर के सब से खूबसूरत पार्क में ले जाया गया. पूरे दिन बच्चे एक तरफ खेलते रहे और पार्क के दूसरे कोने में मिस्टर दास अवनि के साथ रोमांस की पींगे बढ़ाने में व्यस्त रहे.

अब तो अक्सर बहाने ढूंढे जाने लगे. प्रिंसिपल और अवनि कभी कोई मीटिंग अटैंड करने बाहर निकल जाते तो कभी किसी सेलिब्रेशन के नाम पर, कभी स्कूल के दूसरे बच्चे और टीचर की शामिल होते तो कभी दोनों अकेले ही जाने का प्रोग्राम बना लेते. प्रिंसिपल को हर समय अवनि का साथ पसंद था तो अवनि को इस बहाने घूमनाफिरना, खानापीना और मस्ती मारना. दोनों ही एकदूसरे की इच्छा पूरी कर अपना मतलब निकाल रहे थे. ऐसे ही वक्त गुजरता रहा. उन का यह अवैध रिश्ता वैध रास्तों से आगे बढ़ता रहा.

अब तो अवनि अक्सर अपने हाथ का बना खाना और पकवान आदि प्रिंसिपल के लिए ले कर आती. सब की नजरें बचा कर दोनों एकदूसरे में खो जाते. पर कहते हैं न इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपता. धीरेधीरे स्टाफ रूम में दूसरे टीचर इन के रिश्ते पर कानाफूसी करने लगे. मगर अवनि इन बातों के लिए तैयार थी. वह बड़ी कुशलता से इन बातों को अफवाह बता कर आगे बढ़ जाती.

एक दिन अवनि स्कूल आई तो उसे खबर मिली कि साधारण टीचर के रूप में हाल ही में आई मिस श्वेता गुलाटी को प्रमोशन दे कर क्लास 10th की क्लास टीचर बना दिया गया है. इस बात से हर कोई अचंभित था. स्कूल के सब से सीनियर क्लास की क्लास टीचर बनना और वह भी इतने कम दिनों में, किसी को भी सहजता से कुबूल नहीं हो रहा था. अवनि तो बौखला ही गई.

वह पहले से ही यह बात गौर कर रही थी कि प्रिंसिपल दास आजकल श्वेता गुलाटी पर काफी मेहरबान रहने लगे हैं. 20 साल की श्वेता काफी खूबसूरत थी जैसे अभीअभी किसी कमसिन कली ने पंखुड़ियां खोली हों. वह जब इंग्लिश में गिटिरपिटिर करती तो दूसरे टीचर इनफीरियरिटी कंपलेक्स से ग्रस्त हो जाते. उस पर श्वेता के कपड़े भी काफी बोल्ड होते. कभी ऑफशोल्डर्ड ड्रेस तो कभी स्लीवलैस, कभी बैकलेस तो कभी शौर्ट स्कर्ट. वैसे तो उस की अदाओं के दीवाने स्कूल के ज्यादातर पुरुष थे मगर सब से ज्यादा पावरफुल प्रिंसिपल दास ही थे. सो श्वेता उन के केबिन के आसपास मंडराने लगी थी.

अवनि गुस्से में आगबबूला हो कर प्रिंसिपल के केबिन में पहुंची पर वे वहां नहीं थे. पूछने पर पता चला कि वे मिस गुलाटी के साथ लाइब्रेरी में हैं. अवनि का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया. उस ने बैग उठाया और बिना किसी को इन्फॉर्म किए घर चली आई. बाद में उस के मोबाइल पर प्रिंसिपल का फोन आया तो अवनि ने फोन उठाया ही नहीं.

अगले दिन भी वह स्कूल नहीं पहुंची तो प्रिंसिपल ने उसे मैसेज किया,’ मैं तुम्हारे घर के सामने कार ले कर पहुँच रहा हूं. मुझ से नाराज हो तो भी एक बार हमें बात करनी चाहिए. आज हम बाहर ही लंच करेंगे. मैं 20 -25 मिनट में पहुंच जाऊँगा, तैयार रहना. ‘

अवनि तैयार हो कर बाहर निकली. तब तक प्रिंसिपल की कार पहुंच चुकी थी. वह कार में पीछे जा कर बैठ गई. दोनों शहर से दूर एक रेस्टोरेंट पहुंचे. कोने की एक खाली सीट पर बैठते हुए प्रिंसिपल ने बात शुरू की,” अब आप कुछ बताएंगी इस नाराज़गी की वजह क्या है?”

“वजह भी बतानी पड़ेगी? आप इतने नादान तो नहीं.”

“ओके बाबा मैं ने श्वेता को प्रमोशन दी इसी बात पर नाराज़ हो न?” प्रिंसिपल ने अपनी गलती मानी.

“मैं जान सकती हूं उस में ऐसे कौन से सुर्खाब के पंख लगे हैं जो मुझ में नहीं?” गुस्से में अवनि ने कहा.

“ऐसा कुछ नहीं है डार्लिंग…..मैं… ”

“डोंट टेल मी डार्लिंग. अब तो नई डार्लिंग मिल गई है जनाब को.”

“अरे ऐसी बात नहीं अवनि. ऐसा क्यों कह रही हो?”

“सच ही कह रही हूं. जरूर उस ने खुश कर दिया होगा आप को. तभी तो इतने कम समय में…, ” अवनि ने सीधा इल्जाम लगा दिया था.

“जुबान संभाल कर बात करो अवनि. मैं ऐसा नहीं कि हर किसी को इसी नजर से देखूं. खबरदार जो ऐसी बातें कीं. मैं प्रिंसिपल हूं, मेरे पास ऑथोरिटी है. जो मुझे काबिल लगेगा उसे प्रमोशन दूंगा. इस में तुम्हें बीच में आने का कोई हक नहीं.” प्रिंसिपल ने भी तेवर में कहा.

“हक तो वैसे भी कुछ डिसाइड नहीं हुए हैं मेरे. अब बता देना कि मैं कहां फेंक दी जाऊंगी? अब मेरी जरुरत तो रही नहीं आप को ”

“शट अप अवनि कैसी बातें कर रही हो? ”

“बातें ही नहीं काम भी करूंगी. आप खुद को सीनियर मोस्ट मत समझो. आप के ऊपर भी मैनेजमेंट है. मैं मैनेजमेंट से आप की शिकायत करूंगी.”

“अच्छा तो इतनी सी बात के लिए तुम मुझे धमकी दे रही हो? अवनि मेरे प्यार का यही बदला दोगी? ठीक है मैं भी देख लूंगा. तुम्हारे भी तो अमीर पति हैं न जिन्हें धोखा दे रही हो. मेरे पास भी बहुत से सबूत हैं अवनि जिन्हें तुम्हारे पति को दिखा दूं तो अभी हाथ में तलाक के कागजात मिल जाएंगे,” प्रिंसिपल ने धमकी दी.

“तो मिस्टर दास आप भी सावधान रहना. मेरे साथ आप की बहुत सी तस्वीरें, मैसेज और चैटिंग हैं जिन्हें मैनेजमेंट को दिखा कर अभी आप को नौकरी से निकलवा सकती हूं. आप को लूज करेक्टर साबित कर इज्जत पानी में मिला सकती हूं. पर मैं ऐसा करूंगी नहीं. मैं ने भी प्यार किया है आप को. भले ही आज कोई और पसंद आ गई हो.”

“ऐसा नहीं है अवनि. श्वेता पसंद नहीं आई बल्कि मेरे छोटे भाई की फ्रेंड है और फिर काबिल भी है. नॉलेज अच्छी है उस की. अगर तुम्हें बुरा लगा तो सॉरी पर मेरा मकसद तुम्हें हर्ट करना नहीं था,” प्रिंसिपल की आवाज नर्म पड़ गई थी.

“इट्स ओके सर. शायद मैं ने भी कुछ ज्यादा ही कह दिया आप को,”

अवनि ने भी झगड़ा बढ़ाना उचित नहीं समझा. झगड़ा बढ़ता इस से पहले ही दोनों ने पैचअप कर लिया. दोनों ही जानते थे कि उन के हाथ में एकदूसरे की कमजोर कड़ी है. नुकसान दोनों का ही होना था. बात आई गई हो गई. दोनों फिर से एकदूसरे के रोमांस में डूबते चले गए.

मगर इस बार दोनों की ही तरफ से सावधानी बरती जा रही थी. मिल कर तस्वीरें और सेल्फी लेने की परंपरा बंद कर दी गई. दोनों घूमने भी जाते तो साथ में तस्वीरें कम से कम लेते. चैटिंग के बजाय व्हाट्सएप कॉल करते और मैसेज करना भी बंद कर दिया गया. दोनों को ही डर था कि सामने वाला कभी भी उस की पोल पट्टी खोल कर उसे नंगा कर सकता है. उन के बीच पतिपत्नी का रिश्ता तो था नहीं जो हक के साथ रोमांस करें. यहां रोमांस भी छिपछिप कर करना था और एकदूसरे पर कोई हक भी नहीं था.

अवनि ने अपने मोबाइल ‘में से वे सारी तसवीरें निकाल कर लैपटॉप में एक जगह इकट्ठी कर लीं जिन तस्वीरों में दोनों एकदूसरे के बहुत करीब नजर आ रहे थे. यही नहीं सारी चैटिंग और मैसेज भी एक जगह स्टोर कर के रख लिए. वह कभी भी मौके पर चौका मारने के लिए तैयार थी. उसे पता था कि प्रिंसिपल भी ऐसा ही कुछ कर सकता है. इसलिए वह इस रिश्ते को खत्म कर उस की नाराजगी भी बढ़ाना नहीं चाहती थी.

अब उन के बीच जो रोमांस था उस में मजा तो था पर एकदूसरे से ही खौफ भी था. प्यार के साथ डर की यह भावना दोनों के लिए ही नई थी. मगर अब यही खौफ उन की जिंदगी का हिस्सा बन चूका था. दोनों ही एकदूसरे को प्यार भरी नजरों से देखते थे पर दोनों के दिमाग का एक हिस्सा समझ रहा था कि एक शख्स मेरी तबाही की वजह बन सकता है.

Interesting Hindi Stories : बेटी के लिए – क्या वर ढूंढ पाए शिवचरण और उनकी पत्नी

Interesting Hindi Stories : शिवचरण अग्रवाल बाजार से लौटते ही कुरसी पर पसर गए. मलीन चेहरा, शिथिल शरीर देख पत्नी माया ने घबरा कर माथा छुआ, ‘‘क्या हुआ… क्या तबीयत खराब लग रही है. भलेचंगे बाजार गए थे…अचानक से यों…’’

कुछ देर मौन रख वह बोले, ‘‘लौटते हुए अजय की दुकान पर उस का हालचाल पूछने चला गया था. वहां उस ने जो बताया उसे सुन कर मन खट्टा हो गया.’’

‘‘ऐसा क्या बता दिया अजय ने जो आप की यह हालत हो गई?’’ माया ने पंखा झलते हुए पूछा.

‘‘वह बता रहा था कि कुछ दिन पहले उस की दुकान पर समधीजी का एक रिश्तेदार आया था…उसे यह पता नहीं था कि अजय मेरा भांजा है. बातोंबातों में मेरा जिक्र आ गया तो वह कहने लगा, ‘अरे, उन्हें तो मैं जानता हूं…बड़े चालाक और घटिया किस्म के इनसान हैं… दरअसल, मेरे एक दूर के जीजाजी के घर उन की लड़की ब्याही है…जीजाजी बता रहे थे कि शादी में जो तय हुआ था उसे तो दबा ही लिया, साथ ही बाद में लड़की के गहनेकपडे़ भी दाब लेने की पूरी कोशिश की…क्या जमाना आ गया है लड़की वाले भी चालू हो गए…’ रिश्तेदारी का मामला था सो अजय कुछ नहीं बोला मगर वह बेहद दुखी था…उसे तो पता ही है कि मैं ने मीनू की शादी में कैसे दिल खोल कर खर्च किया है, जो कुछ तय था उस से बढ़चढ़ कर ही दिया, फिर भी मीनू के ससुर मेरे बारे में ऐसी बातें उड़ाते फिरते हैं… लानत है….’’

तभी उन की छोटी बेटी मधु कालिज से वापस आ गई. उन की उतरी सूरत देख उस का मूड खराब न हो अत: दोनों ने खुद को संयत कर किसी दूसरे काम में उलझा लिया.

आज का मामला कोई नया नहीं था. साल भर ही हुआ था मीनू की शादी को मगर आएदिन कुछ न कुछ फेरबदल के साथ ऐसे मामले दोहराए जाते पर शिवचरण चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहे थे…इन हालात के लिए वह स्वयं को ही दोषी मानते थे.

आज शिवचरण की आंखों के सामने बारबार वह दृश्य घूम रहा था जब कपूर साहब ने उन से अपने बड़े बेटे के लिए मीनू का हाथ मांगा था.

रजत कपूर उन के नजदीकी दोस्त एवं पड़ोसी दीनदयाल गुप्ता के बिजनेस पार्टनर थे. बेहद सरल, सहृदय और जिंदादिल. दीनदयाल के घर शिवचरण की उन से आएदिन मुलाकातें होती रहीं. जैसे वह थे वैसा ही उन का परिवार था. 2 बेटों में बड़ा बेटा कंप्यूटर इंजीनियर था और छोटा एम.बी.ए. पूरा कर अपने पिता का बिजनेस में हाथ बंटा रहा था. एक ऐसा हंसताखेलता परिवार था जिस में अपनी लड़की दे कर कोई भी पिता अपनी जिंदगी को सफल मानता. ऐसे परिवार से खुद रिश्ता आया था मीनू के लिए.

कपूर साहब भी अपने बड़े बेटे के लिए देखेभाले परिवार की लड़की चाह रहे थे और उन की नजर मीनू पर जा पड़ी. उन्होंने बड़ी विनम्रता से निवेदन किया था, ‘शिवचरण भाईसाहब, बेटी जैसे अब तक आप के घर रह रही है वैसे ही आगे हमारे घर रहेगी. बस, तन के कपड़ों में विदा कर दीजिए, मेरे घर में बेटी नहीं है, उसे ही बेटी समझ कर दुलार करूंगा.’

इतना अपनापन से भरा निवेदन सुन कर शिवचरण गद्गद हो उठे थे. कितनी धुकधुक रहती है पिता के मन में जब वह अपनी प्यारी बेटी को पराए हाथों में सौंपता है. मन आशंकाओं से भरा रहता है. रातदिन यही चिंता लगी रहती है कि पता नहीं बेटी सुखी रहेगी या नहीं, मानसम्मान मिलेगा या नहीं…मगर इस आग्रह में सबकुछ कितना पारदर्शी… शीशे की तरह साफ था.

शिवचरण ने जब इस बात पर अपनी पत्नी के साथ बैठ कर विचार किया तो धीरेधीरे कुछ प्रश्न मुखरित हो उठे. मसलन, ‘परिवार और लड़का तो वाकई लाखों में एक है मगर… हम वैश्य और वह पंजाबी…घर वालों को कैसे राजी करेंगे…’

यह सचमुच एक गंभीर समस्या थी. शिवचरण का भरापूरा कुटुंब था जिस में इस रिश्ते का जिक्र करने का मतलब था सांप की पूंछ पर पैर रखना. वैसे तो सभी तथाकथित पढे़लिखे समकालीन भद्रजन थे मगर जब किसी के शादीब्याह की बात आती तो एकएक पुरातन रीतिरिवाज खोजखोज कर निकाले जाते. मसलन, जाति, गोत्र, जन्मपत्री, मांगलिक-अमांगलिक…और यहां तो बात विजातीय रिश्ते की थी.

बेटी के सुखद भविष्य के लिए शिवचरण ने तो एक बार सब को दरकिनार करने की सोच भी ली थी मगर माया नहीं मानी.

‘शादीब्याह के मसले पर घरपरिवार को साथ ले कर चलना ही पड़ता है. अगर अभी नजरअंदाज कर दिया तो सारी उम्र ताने सुनते रहेंगे…तुम्हें कोई कुछ न बोले मगर मैं तो घर की बड़ी बहू हूं. तुम्हारी अम्मां मुझे नहीं बख्शेंगी.’

और अम्मां से पूछने पर जो कुछ सुनने को मिला वह अप्रत्याशित नहीं था.

‘क्या हमारी बिरादरी में कोई अच्छा लड़का नहीं मिला जो दूसरी बिरादरी का देखने चल दिया.’

‘नहीं, अम्मां, खुद ही रिश्ता आया था. बेहद भले लोग हैं. कोई दानदहेज भी नहीं लेंगे.’

‘तो क्या पैसे बचाने को ब्याह रहा है वहां? तेरे पास न हों तो मुझ से ले लेना…अरे, बेटी के ब्याह पर तो खर्च होता ही है…और मीनू घर की बड़ी लड़की है, अगर उसे वहां ब्याह दिया तो सब यही समझेंगे कि लड़की तेज होगी, खुद से पसंद कर ब्याह कर बैठी. फिर छोटी को कहीं ब्याहना भी मुश्किल हो जाएगा.’

अम्मां ने तिवारीजी को भी बुलवा लिया. लंबा तिलक लगाए वह आए तो अम्मां ने खुद ही उन के पांव नहीं छुए, सब से छुआए. 4 कचौड़ी, 6 पूरी और 2 रसगुल्लों का नाश्ता करने के बाद समस्या पर विचार कर के वह बोले, ‘यजमान, यह आप की मरजी है कि आप विवाह कहां करें पर आप ने जाति के बाहर विवाह किया तो मैं आप के घर में पैर नहीं रखूंगा. आखिर सनातन प्रथा है यह जाति की. आप जैसे नए लोग तोड़ते हैं तभी तो तलाक होते हैं. न कुंडली मिली, न अपनी जाति का, न घर के रीतिरिवाज का पता. आप सोच भी कैसे सकते हैं.’

अम्मां और तिवारीजी के आगे शिवचरण के सभी तर्क विफल हो गए और उन्हें इस रिश्ते को भारी मन से मना करना पड़ा. दीनदयाल ने यह बात विफल होती देख वहां अपनी भतीजी की बात चला दी और आज वह कपूर साहब के घर बेहद सुखी थी.

जब शिवचरण मीनू के लिए सजातीय वर खोजने निकले तो उन्हें एहसास हुआ कि दूल्हामंडी में से एक अदद दूल्हा खरीदना कितना कठिन कार्य था. जो लड़का अच्छा लगता उस के दाम आसमान को छूते और जिस का दाम कम था वह मीनू के लायक नहीं था. कपूर साहब के रिश्ते पर चर्चा के समय जिन सगेसंबंधियों ने मीनू के लिए सुयोग्य वर खोज लाने और हर तरह का सहयोग देने की बात की थी इस

समय वे सभी पल्ला झाड़ कहीं गायब हो गए थे.

भागदौड़ कर के अंत में एक जगह बात पक्की हुई. रिश्ता तय होते समय लड़के के मातापिता का रवैया ऐसा था जैसे लड़की पसंद कर उन्होंने लड़की वालों पर एहसान किया है. उस समय शिवचरण को कपूर साहब का नम्र निवेदन बहुत याद आ रहा था. उस दिन जो उन के कंधे झुके तो आज तक सीधे नहीं हुए थे.

अतीत की यादों में खोए शिवचरण को तब झटका लगा जब पत्नी ने आ कर कहा कि दीनदयाल भाई साहब आए थे और आप के लिए एक निमंत्रण कार्ड दे गए हैं.

उस दिन दीनदयाल के घर एक पारिवारिक समारोह में शिवचरण की मुलाकात उन के बड़े भाई से हो गई जो अब कपूर साहब के समधी थे. उन की बात चलने पर वह गद्गद हो कर बोले, ‘‘बस, क्या कहें, हमारी बिटिया को तो बहुत अच्छा घरवर मिल गया. ऐसे सज्जन लोग कहां मिलते हैं आजकल…उसे हाथों पर उठा कर रखते हैं…बेटी ससुराल में खुश हो, एक बाप को और क्या चाहिए भला…’’ शिवचरण के चेहरे पर एक दर्द भरी मुसकान तैर आई.

घर आ कर मन और अधिक अपराधबोध से ग्रसित हो गया. वह खुद पर बेहद नाराज थे. बारबार स्वयं को कोस रहे थे कि क्यों मैं उस समय जातिवाद की ओछी मानसिकता से उबर नहीं पाया…क्यों सगेसंबंधियों और बिरादरी की कहावत से डर गया…अपनी बेटी का भला देखना मेरी अपनी जिम्मेदारी थी, बिरादरी की नहीं. दीनदयाल भी तो हमारी जाति के ही हैं. उन्हें तो कोई फर्क नहीं पड़ा वहां रिश्ता करने से…उन का मानसम्मान उसी तरह बरकरार है…सच तो यह है कि आज के भागदौड़ भरे जीवन में किसी के पास इतना समय नहीं कि रुक कर किसी दूसरे के बारे में सोचे…‘लोग क्या कहेंगे’ जैसी बातें पुरानी हो चुकी हैं. जो इन्हें छोड़ आगे नहीं बढ़ते, आगे चल कर वे मेरी ही तरह रोते हैं.

शिवचरण अखबार पढ़ रहे थे तभी दीनदयाल उन से मिलने आए तो बातोंबातों में वह अपनी व्यथा कह बैठे, ‘‘क्या बताऊं भाईजी, कपूर साहब जैसा समधी खोने का दर्द अभी तक दिल में है…एक विचार आया है मन में…अगर उन के छोटे बेटे के लिए मधु का रिश्ता ले कर जाऊं तो…जब वह आए थे तो मैं ने इनकार कर दिया था, न जाने अब मेरे जाने पर कैसा बरताव करेंगे, यही सोच कर दिल घबरा रहा है.’’

‘‘नहीं, भाई साहब, उन्हें मैं अच्छी तरह जानता हूं, दिल में किसी के लिए मैल नहीं रखते…वह तो खुशीखुशी आप का रिश्ता स्वीकारते मगर आप ने यह फैसला लेने में जरा सी देर कर दी. अभी 2 दिन पहले ही उन के छोटे बेटे का रिश्ता तय हुआ है.’’

एक बार फिर शिवचरण खुद को पराजित महसूस कर रहे थे.

वह अपनी गलती का प्रायश्चित्त करना चाह रहे थे मगर उन्हें मौका न मिला. सच ही है, कुछ भूलें ऐसी होती हैं जिन को भुगतना ही पड़ता है.

‘‘फोन की घंटी बज रही थी. शिवचरण ने फोन उठाया, ‘‘हैलो.’’

‘‘नमस्ते, मामाजी,’’ दूसरी ओर से अजय की आवाज आई, ‘‘वह जो आप ने मधु के लिए वैवाहिक विज्ञापन देने को कहा था, उसी का मैटर कनफर्म करने को फोन किया है…पढ़ता हूं…कोई सुधार करना हो तो बताइए :

‘‘अग्रवाल, उच्च शिक्षित, 23, 5 फुट 4 इंच, गृहकार्य दक्ष, संस्कारी कन्या हेतु सजातीय वर चाहिए.’’

‘‘बाकी सब ठीक है, अजय. बस, ‘अग्रवाल’ लिखना जरूरी नहीं और ‘सजातीय’ शब्द की जगह लिखो, ‘जातिधर्म बंधन नहीं.’’’

‘‘मगर मामाजी, क्या आप ने सगेसंबंधियों से इस बारे में…’’

‘‘सगेसंबंधी जाएं भाड़ में….’’ शिवचरण फोन पर चीख पडे़.

‘‘और मामीजी…’’

‘‘तेरी मामी जाए चूल्हे में…अब मैं वही करूंगा जो मेरी बेटी के लिए सही होगा.’’

शिवचरण ने फोन रख दिया…फोन रख कर उन्हें लगा जैसे आज वह खुल कर सांस ले पा रहे हैं और अपने चारों तरफ लिपटे धूल भरे मकड़जाल को उन्होंने उतार फेंक दिया.

Latest Hindi Stories : सीप में बंद मोती

Latest Hindi Stories : फोटो में अरुणा के सौंदर्य को देख कर आलोक बहुत खुश था. लेकिन शादी के बाद अरुणा के सांवले रंग को देख कर उस के भीतर हीनभावना घर कर गई. जब उसी सांवलीसलोनी अरुणा के गुणों का दूधिया उजाला फूटने लगा तो उस की आंखें चौंधिया सी गईं.

टन…टन…दफ्तर की घड़ी ने साढ़े 4 बजने की सूचना दी तो सब एकएक कर के उठने लगे. आलोक ने जैसे यह आवाज सुनी ही नहीं.

‘‘चलना नहीं है क्या, यार?’’ नरेश ने पीठ में एक धौल मारी तो वह चौंक गया, ‘‘5 बज गए क्या?’’

‘‘कमाल है,’’ नरेश बोला, ‘‘घर में नई ब्याही बीवी बैठी  है और पति को यह भी पता नहीं कि 5 कब बज गए. अरे मियां, तुम्हारे तो आजकल वे दिन हैं जब लगता है घड़ी की सुइयां खिसक ही नहीं रहीं और कमबख्त  5 बजने को ही नहीं आ रहे, पर एक तुम हो कि…’’

नरेश के व्यंग्य से आलोक के सीने में एक चोट सी लगी. फिर वह स्वयं को संभाल कर बोला, ‘‘मेरा कुछ काम अधूरा पड़ा है, उसे पूरा करना  है. तुम चलो.’’

नरेश चल पड़ा. आलोक गहरी सांस ले कर कुरसी से टिक गया और सोचने लगा. वह नरेश को कैसे बताता कि नईनवेली बीवी है तभी तो वह यहां बैठा है. उस  के अंदर की उमंग जैसे मर सी गई है. पिताजी को भी न जाने क्या सूझी कि उस के गले में ऐसी नकेल डाल दी जिसे न वह उतार सकता है और न खुश हो कर पहन सकता है. वह तो विवाह करना ही नहीं चाहता था. अकेले रहने का आदी हो गया था…विवाह की इच्छा ही नहीं होती थी.

उस ने कई शौक पाले हुए थे. शास्त्रीय संगीत  के महान गायकों के  कैसटों का  अनुपम खजाना था उस के पास जिन्हें सुनतेसुनते वह न जाने कहां खो जाता था. इस के अलावा अच्छा साहित्य पढ़ना, शहर में आयोजित सभी चित्रकला प्रदर्शनियां देखना, कवि सम्मेलनों आदि में भाग लेना उस के प्रिय शौक थे और इन सब में व्यस्त रह कर उस ने विवाह के बारे  में कभी सोचा भी न था.

ऐसे में पिताजी का पत्र आया था,  ‘आलोक, तुम्हारे लिए एक लड़की देखी है. अच्छे खानदान की, प्रथम श्रेणी में  एम.ए. है. मेरे मित्र की बेटी है. फोटो साथ भेज रहा हूं. मैं तो उन्हें हां कर चुका हूं. तुम्हारी स्वीकृ ति का इंतजार है.’

अनमना सा हो कर उस ने फोटो उठाया और गौर से देखने लगा था. तीखे नाकनक्श की एक आकर्षक मुखाकृति थी. बड़ीबड़ी भावप्रवण आंखें जैसे उस के सारे वजूद पर छा गई थीं और जाने किस रौ में उस ने वापसी डाक से ही पिताजी को अपनी स्वीकृति  भेज  दी थी.

पिताजी ने 1 माह बाद ही विवाह की तारीख नियत कर दी थी. उस के दोस्त  नरेश, विपिन आदि हैरान थे और उसे सलाह दे रहे थे  कि सिर्फ फोटो देख कर ही वह विवाह को कैसे राजी हो गया. कम से कम एक बार लड़की से रूबरू तो हो लेता. पर जवाब में वह हंस कर बोला था, ‘फोटो तो मैं ने देख ही लिया है. अब पिताजी लंगड़ीलूली बहू तो चुनेंगे नहीं.’

पर कितना गलत सोचा था उस ने. विवाह की प्रथम रात्रि को ही उस ने अरुणा के चेहरे पर  प्रथम दृष्टि डाली तो सन्न रह गया था. अरुणा की रंगत काफी सांवली थी. फिर तो वे बड़ीबड़ी भावप्रवण आंखें, जिन में वह अकसर कल्पना में डूबा रहता था, वे तीखे नाकनक्श जो धार की तरह सीधे उस के हृदय में उतर जाते थे, सब जैसे कपूर से  उड़ गए थे और रह गया था अरुणा का सांवला रंग.

अरुणा से तो उस ने कुछ नहीं कहा, पर सुबह पिताजी से लड़ पड़ा था, ‘कैसी लड़की देखी है आप ने मेरे लिए? आप पर भरोसा कर  के मैं ने बिना देखे ही विवाह के लिए हां कर दी थी और आप ने…’

‘क्यों, क्या कमी है लड़की में? लंगड़ीलूली है क्या?’ पिताजी टेढ़ी  नजरों से उसे देख कर बोले थे.

‘आप ने तो बस, जानवरों की तरह सिर्फ हाथपैरों की सलामती का ही ध्यान रखा. यह नहीं देखा कि उस का रंग कितना काला है.’

‘बेटे,’ पिताजी समझाते हुए बोले थे, ‘अरुणा अच्छे घर की सुशील लड़की है.

प्रथम श्रेणी में एम.ए. है. चाहो तो नौकरी करवा लेना. रंग का सांवला होना कोई बहुत बड़ी कमी नहीं है. और फिर अरुणा सांवली अवश्य है, पर काली नहीं.’

पिताजी और मां दोनों ने उसे अपने- अपने ढंग से समझाया था पर उस का आक्रोश कम न हुआ था. अरुणा के कानों में भी शायद इस वार्तालाप के  अंश पड़ गए थे. रात को वह धीमे स्वर में बोली थी, ‘शायद यह विवाह आप की इच्छा के विरुद्ध हुआ है…’

वह खामोश रहा था. 15 दिन बाद ही वह काम पर वापस आ गया था. अरुणा भी उस के साथ थी. कानपुर आ कर अरुणा ने उस की अस्तव्यस्त गृहस्थी को सुचारु रूप से समेट लिया था.

‘‘साहब, घर नहीं जाना क्या?’’

चपरासी दीनानाथ का स्वर कान में पड़ा तो उस की विचारतंद्रा टूटी. 6 बज चुके थे. वह उठ खड़ा हुआ . घर जाने का भी जैसे कोई उत्साह नहीं था उस के अंदर. उसे आए 15 दिन हो गए हैं. अभी तक उस के दोस्तों ने अरुणा को नहीं देखा है. जब भी वे घर आने की बात करते हैं वह कोई  न कोई बहाना बना कर टाल जाता है.

आखिर वह करे भी क्या? नरेश की बीवी सोनिया कितनी सुंदर है और आकर्षक भी. और विपिन की पत्नी कौन सी कम है. राजेश की पत्नी लीना भी कितनी गोरी और सुंदर है. अरुणा तो इन सब के सामने कुछ भी नहीं. उस के दोस्त तो पत्नियों को बगल में सजावटी वस्तु की तरह लिए घूमते हैं. एक वह है कि दिन के समय भी अरुणा को साथ ले कर बाहर नहीं निकलता. न जाने कैसी हीन ग्रंथि पनप रही है उस के अंदर. कैसी बेमेल जोड़ी है उन की.

घर पहुंचा तो अरुणा ने बाहर कुरसियां निकाली हुई थीं. तुरंत ही वह चाय और पोहा बना कर ले आई. वह खामोश चाय की चुसकियां ले रहा था. अरुणा उस के मन का हाल काफी हद तक समझ रही थी. उस ने छोटे से घर को तो अपने कुशल हाथों और कल्पनाशक्ति से सजा  रखा था पर पति के मन की थाह वह नहीं ले पा सकी थी.

छोटे से बगीचे से फूलपत्तियां तोड़ कर वह रोज पुष्पसज्जा करती. कई बार तो आलोक भी सजे हुए सुंदर से घर को देख कर हैरान रह जाता. तारीफ के बोल  उस के मुंह से निकलने को ही होते पर वह उन्हें अंदर ही घुटक लेता.

पाक कला में निपुण अरुणा रोज नएनए व्यंजन बनाती. उस की तो भूख जैसे दोगुनी हो गई थी. नहाने जाता तो स्नानघर में कपड़े, तौलिया, साबुन सब करीने से सजे मिलते. यह सब देख कर  मन ही  मन अरुणा के प्रति प्यार और स्नेह के अंकुर से फूटने लगते, पर फिर उसी क्षण वही पुरानी कटुता उमड़ कर सामने आ जाती और वह सोचता, ये काम तो कोई नौकर भी कर सकता है.

एक दिन वह दफ्तर से आ कर बैठा ही था कि नरेश, विवेक, राजेश सजीधजी  पत्नियों के साथ उस के घर आ धमके. नरेश बोला, ‘‘आज पकड़े गए, जनाब.’’

उन सब के चेहरे देख कर एक बार तो आलोक सन्न सा रह गया. क्या सोचेंगे ये सब अरुणा को देख कर? क्या यही रूप की रानी थी, जिसे अब तक उस ने छिपा कर रखा हुआ था? पर मन के भाव छिपा कर वह चेहरे पर मुसकान ले आया और बोला, ‘‘आओआओ, यार, धन्यवाद जो तुम सब इकट्ठे आए.’’

‘‘आज तो खासतौर से भाभीजी से मिलने आए हैं,’’ विवेक  बोला और फिर सब बैठक में आ गए. सुघड़ता और कलात्मकता से सजी बैठक में आ कर सभी नजरें घुमा कर सजावट देखने लगे. राजेश बोला, ‘‘अरे वाह, तेरे घर का तो कायाकल्प हो गया है, यार.’’

तभी अंदर से अरुणा मुसकराती हुई आई और सब को नमस्ते कर के बोली, ‘‘बैठिए, मैं आप लोगों के लिए चाय लाती हूं.’’

‘‘आप भी क्या सोचती होंगी कि आप के पति के कैसे दोस्त हैं जो अब तक मिलने भी नहीं आए पर इस में हमारा कुसूर नहीं है. आलोक ही बहाने बनाबना कर हमें आने से रोकता रहा.’’

‘‘अरुणा, तुम्हारी पुष्पसज्जा तो गजब की है,’’ सोनिया प्रंशासात्मक स्वर में बोली, ‘‘हमारे बगीचे में भी फूल हैं पर   मुझे सजाने का तरीका ही नहीं आता. तुम सिखा देना मुझे.’’

‘‘इस में सिखाने जैसी तो कोई बात ही नहीं,’’ अरुणा संकुचित हो उठी. वह रसोई में चाय बनाने चली गई.  कुछ ही देर में प्लेटों में गरमागरम ब्रेडरोल और गुलाबजामुन ले आई.

‘‘आप इनसान हैं या मशीन?’’ विवेक हंसते हुए बोला, ‘‘कितनी जल्दी सबकुछ तैयार कर लिया.’’

‘‘अब आप लोग गरमागरम खाइए मैं ब्रेडरोल तलती जा रही हूं.’’

1 घंटे बाद जब सब जाने लगे तो नरेश आलोक को कोहनी मार कर बोला, ‘‘वाकई यार, तू ने बड़ी सुघड़ और अच्छी बीवी पाई है.’’

आलोक समझ नहीं पाया, नरेश सच बोल रहा है या मजाक कर रहा है. जाते समय सब आलोक और अरुणा को आमंत्रित करने लगे  तो आलोक बोला, ‘‘दिन तय मत करो, यार, जब फुरसत होगी आ जाएंगे और फिर  खाना खा कर ही आएंगे.’’

‘‘फिर तो तुम्हें फीकी मूंग की दाल और रोटी ही मिलेगी,’’ विवेक हंसता हुआ बोला, ‘‘हमारी पत्नी का तो लगभग रोज का यही घिसापिटा मीनू है.’’

‘‘और कहीं हमारे यहां खिचड़ी  ही न बनी हो. सोनिया जब भी थकी होती है खिचड़ी ही बनाती है. वैसे अकसर यह थकी ही रहती है,’’ नरेश टेढ़ी नजरों से सोनिया को देख कर बोला.

सब चले गए तो अरुणा बिखरा घर सहेजने लगी और आलोक आरामकुरसी पर पसर गया. उस ने कनखियों से अरुणा को देखा, क्या सचमुच उसे  सुघड़ और बहुत अच्छी पत्नी मिली है? क्या सचमुच उस के दोस्तों को उस के जीवन पर रश्क है? उस के मन में अंतर्द्वंद्व सा चल रहा था. उसे अरुणा पर दया सी आई. 2 माह होने को हैं. उस ने अरुणा को कहीं घुमाया भी नहीं है. कभी घूमने निकलते भी हैं तो रात को.

एक दिन शाम को आलोक दफ्तर  से आया तो बोला, ‘‘अरुणा, झटपट तैयार हो जाओ, आज नरेश के घर चलते हैं.’’

अरुणा ने हैरानी से उसे देखा और फिर खामोशी से तैयार होने चल पड़ी.  थोड़ी देर में ही वह तैयार हो कर आ गई. जब वे नरेश के घर पहुंचे तो अंदर से जोरजोेर से आती आवाज से चौंक कर दरवाजे पर ही रुक गए. नरेश चीख रहा था, ‘‘यह घर है या नरक, मेरे जरूरी कागज तक तुम संभाल कर नहीं रख सकतीं. मुन्ने ने सब फाड़ दिए हैं. कैसी जाहिल औरत हो, कौन तुम्हें पढ़ीलिखी कहेगा?’’

‘‘जाहिल हो तुम,’’ सोनिया का तीखा स्वर गूंजा, ‘‘मैं तुम्हारी नौकरानी नहीं हूं जो तुम्हारा बिखरा सामान ही सारा दिन सहेजती रहूं.’’

बाहर खड़े अरुणा और आलोक संकुचित से हो उठे. ऐसे हालात में वे कैसे अंदर जाएं, समझ नहीं पा रहे थे. फिर आलोक ने  गला खंखार कर दरवाजे पर लगी घंटी बजाई. दरवाजा सोनिया ने खोला. बिखरे बाल, मटमैली सी सलवटों वाली साड़ी और  मेकअपविहीन चेहरे  में वह काफी फूहड़ और भद्दी लग रही थी. आलोक ने हैरानी से सोनिया को देखा. सोनिया संभल कर बोली, ‘‘आइए… आइए, आलोकजी,’’ और वह अरुणा का हाथ थाम कर अंदर ले आई.

उन्हें सामने देख नरेश झेंप सा गया और वह सोफे पर बिखरे कागजों  को समेट कर बोला, ‘‘आओ…आओ, आलोक, आज कैसे रास्ता भूल गए?’’

आलोक और अरुणा सोफे पर बैठ गए. आलोक ने नजरें घुमा कर देखा, सारी बैठक अस्तव्यस्त थी. बच्चों के खिलौने, पत्रिकाएं, अखबार, कपड़े इधरउधर पड़े थे. हालांकि नरेश के घर आलोक पहले भी आता था, पर अरुणा के आने के बाद वह पहली बार यहां आया था. इन 2 माह में ही अरुणा  के कारण व्यवस्थित रूप से सजेधजे घर में रहने से उसे नरेश का घर बड़ा ही बिखरा और अस्तव्यस्त लग रहा  था.

अनजाने ही वह सोनिया और अरुणा की तुलना करने लगा. सोनिया नरेश से किस तरह जबान लड़ा रही थी. घर भी कितना गंदा रखा हुआ है. स्वयं भी किस कदर फूहड़ सी बनी हुई है. क्या फायदा ऐसे मेकअप और लीपापोती का जिस के उतरते ही औरत कलईर् उतरे बरतन सी बेरंग, बेरौनक नजर आए.

इस  के विपरीत अरुणा कितनी सभ्य और सुसंस्कृत है. उस के साथ कितनी शालीनता से बात करती है. अपने सांवले रंग पर फबने वाले हलके रंग के कपड़े कितने सलीके से पहन कर जैसे हमेशा तैयार सी रहती है. घर भी कितना साफ रखती है. लोग जब उस के घर की तारीफ करते हैं तब गर्व से उस का सीना  भी फूल जाता है.

तभी सोनिया चाय और एक प्लेट में भुजिया लाई तो नरेश बोला, ‘‘अरे, आलोक और उस की पत्नी पहली बार घर आए हैं, कुछ खातिर करो.’’

‘‘अब घर में तो कुछ है नहीं. आप झटपट जा कर बाजार  से ले आओ.’’

‘‘नहीं…नहीं,’’ आलोक बोला, ‘‘इस समय कुछ खाने की इच्छा भी नहीं है,’’ मन ही मन वह सोच रहा था, अरुणा मेहमानों के सामने हमेशा कोई न कोई घर की बनी हुई चीज अवश्य रखती है. जो खाता है, तारीफ किए बिना नहीं रहता. कुछ देर बैठ कर आलोक और अरुणा ने उन से विदा ली. बाहर आ कर आलोक बोला, ‘‘रास्ते में विवेक का घर भी पड़ता है. जरा उस के यहां भी हाजिरी लगा लें.’’

चलतेचलते उस ने अरुणा का हाथ अपने हाथों में ले लिया. अरुणा हैरानी से उसे देखने लगी. सदा उस की उपेक्षा करने वाले पति का यह अप्रत्याशित व्यवहार उस की समझ में नहीं आया.

विवेक के घर जब वे पहुंचे तो दरवाजा खटखटाने पर तौलिए से हाथ पोंछता विवेक रसोई  से निकला और उन्हें  देख कर शर्मिंदा सा हो कर बोला, ‘‘अरे वाह, आज तो जाने सूरज कहां से निकला जो तुम  लोग हमारे घर आए हो.’’

विवेक  के घर का भी वही हाल था.  बैठक इस तरह से अस्तव्यस्त थी  जैसे  अभी तूफान आ कर गुजरा हो. विवेक पत्रिकाएं समेटता हुआ बोला, ‘‘आप लोग बैठो, मैं चाय बनाता हूं. नीलम तो लेडीज क्लब गई हुईर् है.’’

पत्नी क्लब में पति रसोई में. आलोक को मन ही मन हंसी आ गई. तभी अरुणा खड़े हो कर बोली, ‘‘आप बैठिए भाई साहब, मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ कह कर अरुणा रसोई में चली गई.

तभी विवेक का 1 साल का बेटा भी उठ कर रोने लगा. विवेक उसे हिलाडुला कर चुप कराने का प्रयास करने लगा.

कुछ ही देर में अरुणा ट्रे में चाय और दूध की बोतल ले आई और बोली, ‘‘आप लोग चाय पीजिए, मैं मुन्ने  को दूध पिलाती हूं,’’ और विवेक के न न करते भी उस ने मुन्ने को अपनी गोद में लिटा लिया और बोतल से दूध पिलाने लगी. विवेक धीमे स्वर में आलोक से बोला, ‘‘यार, बीवी हो तो तुम्हारे जैसी, दूसरों  का घर भी कितनी अच्छी तरह संभाल लिया. एक हमारी मेम साहब हैं, अपना घर भी नहीं संभाल सकतीं. घर आओ तो पता चलता है किट्टी पार्टी  में गई हैं या क्लब में. मुन्ना आया के भरोसे रहता है.’’

उस दिन आलोक देर रात तक सो नहीं सका. वह सोच में निमग्न था. उसे तो अपनी पत्नी के सांवले रंग पर शिकायत थी पर यहां तो उस के दोस्तों को अपनी गोरीचिट्टी बीवियों से हर बात पर शिकायत है.

इतवार के दिन सभी दोस्तों ने आलोक की शादी की खुशी में पिकनिक का आयोजन  किया था. विवेक, राजेश, नरेश, विपिन सभी शरीक थे इस पिकनिक में.

खानेपीने का सामान आलोक के दोस्त लाए थे. आलोक को उन्होंने कुछ भी लाने से मना कर दिया था, पर फिर भी अरुणा ने मसालेदार छोले बना लिए  थे. सभी छोलों को  चटकारे लेले कर खा रहे थे. आलोक हैरानी से देख रहा था कि अरुणा ही सब के आकर्षण का केंद्र बनी हुई थी. सोनिया उस से बुनाई डालना सीख रही थी तो नीलम उस  के घने लंबे बालों का राज पूछ रही थी. राजेश की पत्नी लीना उस से मसालेदार छोले बनाने की विधि पूछ रही थी. तभी विवेक बोला, ‘‘अरुणा भाभी, चाय तो आप के हाथ की ही पिएंगे. उस दिन आप की बनाई चाय का स्वाद अभी तक जबान पर है.’’

लीना, सोनिया, नीलम आदि ताश खेलने लगीं और अरुणा स्टोव जला कर चाय बनाने लगी. विवेक भी उस का हाथ बंटाने लगा. चाय की चुसकियों के साथ एक बार फिर  अरुणा की तारीफ शुरू हो गई. चाय खत्म होते ही विवेक बोला, ‘‘अब अरुणा भाभी एक गाना सुनाएंगी.’’

‘‘मैं…मैं…यह आप क्या कह रहे हैं, भाई साहब?’’

‘‘ठीक कह रहा हूं,’’ विवेक बोला, ‘‘आप बेध्यानी में चाय बनाते समय गुनगुना रही थीं. मैं ने पीछे से सुन लिया था. अब कोईर् बहाना नहीं चलेगा. आप को गाना ही पड़ेगा.’’

‘‘हां…हां…’’ सब समवेत स्वर में बोले. मजबूरन अरुणा को गाने के लिए हां भरनी पड़ी. उस ने एक गाना गाना शुरू कर दिया. झील का खामोश किनारा उस की मीठी आवाज से गूंज उठा. सभी मंत्रमुग्ध से उस का गाना सुन रहे थे. आलोक भी हैरान था. अरुणा इतना अच्छा गा लेती है, उस ने कभी सोचा भी नहीं था. बड़े ही मीठे स्वर में वह गा रही थी. गाना खत्म हुआ तो सब ने तालियां बजाईं. अरुणा संकुचित हो उठी. आलोक गहराई से अरुणा को देख रहा था.

उसे लगा अरुणा इतनी सांवली नहीं  है जितनी वह सोचता है. उस की आंखें काफी बड़ी और भावपूर्ण हैं. गठा हुआ बदन, सदा मुसकराते से होंठ एक खास किस्म की शालीनता से भरा हुआ व्यक्तित्च. वह तो सब से अलग है. उस की आंखों पर अब तक जाने कौन सा परदा पड़ा हुआ था जिस के आरपार वह देख नहीं पा रहा था. उस की गहराई में तो गया ही नहीं था जहां अरुणा अपने इस रूपगुण के साथ मौजूद थी, सीप में बंद मोती की तरह.

एक उस के सांवले रंग की ही आड़ ले कर बाकी सभी गुणों को वह अब तक नजरअंदाज करता रहा था. अगर गोरा रंग ही खुशी और सुखमय वैवाहिक जीवन का आधार होता तो उस के दोस्त शायद खुशियों के सैलाब में डूबे होते, पर ऐसा कहां है?

पिकनिक के बाद थकेहारे शाम को वे  घर लौटे तो आलोक क ो अपेक्षाकृत प्रसन्न और मुखर देख कर अरुणा विस्मित सी थी. घर में खामोशी की चादर ओढ़ने  वाला आलोक  आज खुल कर बोल रहा था. कुछ हिम्मत कर के अरुणा बोली, ‘‘क्या बात है? आज आप काफी प्रसन्न नजर आ रहे हैं.’’

Famous Hindi Stories : लूडो की बाजी – जब एक खेल बना दो परिवारों के बीच लड़ाई की वजह

Famous Hindi Stories :  सुबीर और अनु लूडो खेल रहे थे. सुबीर की लाल गोटियां थीं और अनु की नीली. पर पता नहीं क्या बात थी कि सुबीर की गोटियां बारबार अनु की गोटियों से पिट रही थीं. जैसे ही कोई लाल गोटी जरा सा आगे बढ़ती, नीली गोटी झट से आ कर उसे काट देती. जब लगातार 5वीं बार ऐसा हुआ तो सुबीर चिढ़ गया, ‘‘तू हेराफेरी कर रहा है,’’ वह अनु से बोला.

‘‘वाह, मैं क्या कर रहा हूं…तुझे ठीक से खेलना ही नहीं आता, तभी तो हार रहा है. ले बच्चू, यह गई तेरी एक और गोटी,’’ अनु ताली बजाता हुआ बोला.

सुबीर का धैर्य अब समाप्त हो गया. लाख कोशिश करने पर भी उस की आंखों में आंसू आ ही गए.

‘‘रोंदू, रोंदू,’’ अनु उसे अंगूठा दिखाता हुआ बोला, ‘‘यह ले, मेरी दूसरी गोटी भी पार हो गई. यह ले, अब फिर से आ गए 6.’’

सुबीर उठ कर खड़ा हो गया, ‘‘मैं नहीं खेलता तेरे साथ, तू हेराफेरी करता है.’’

जीतती बाजी का ऐसा अंत होते देख कर अनु को भी क्रोध आ गया. उस ने सुबीर को एक घूंसा दे मारा.

अब घूंसा खा कर चुप रहने वाला सुबीर भी नहीं था. सो हो गई दोनों की जम कर हाथापाई. सुबीर ने अनु के बाल नोचे तो अनु ने उस की कमीज फाड़ दी. दोनों गुत्थमगुत्था होते हुए कोने में पड़ी हुई मेज से जा टकराए. सुबीर की तो पीठ थी मेज की ओर, सो उसे अधिक चोट नहीं आई, पर अनु का सिर मेज के नुकीले कोने पर जा लगा. उस के सिर में घाव हो गया और खून बहने लगा. खून देखते ही अनु चीखने लगा, ‘‘मां, मां, सुबीर मुझे मार रहा है.’’

खून देख कर अनु की मां घबरा गईं, ‘‘क्या हुआ मेरे बच्चे?’’

‘‘मां, सुबीर ने मेरी लूडो फाड़ दी और मुझे मारा भी है. मां, सिर में बहुत दर्द हो रहा है,’’ अनु सिसकता हुआ बोला.

यह सब सुन कर अनु की मां सुबीर पर बरस पड़ीं, ‘‘जंगली कहीं का…मांबाप ने घर पर कुछ नहीं सिखाया क्या? खबरदार, इस ओर दोबारा कदम रखा तो…’’

सुबीर को बहुत गुस्सा आया कि अपने बेटे को तो कुछ कहा नहीं और मुझे डांट दिया. वह गुस्से से बोला, ‘‘आप का बेटा जंगली है. आप भी जंगली हैं. सारी कालोनी वाले कहते हैं कि आप झगड़ालू हैं.’’

‘‘बड़ों से बात करने तक की तमीज नहीं तुझे,’’ अनु की मां अपनी निंदा सुन कर चीखीं और उन्होंने सुबीर के गाल पर एक तमाचा दे मारा.

गाल पर हाथ रख कर सुबीर सीधा अपनी मां के पास गया. उस ने खूब बढ़ाचढ़ा कर सारा किस्सा सुनाया. सुन कर सुबीर की मां को भी क्रोध आ गया. उन्होंने भी अपने बेटे से कह दिया, ‘‘ऐसे लोगों के घर जाने की कोई आवश्यकता नहीं है.’’

इस के बाद दोनों घरों की बोलचाल बंद हो गई.

वार्षिक परीक्षाएं आने वाली थीं, सो सुबीर और अनु ने सारा समय पढ़नेलिखने में लगा दिया. पर इस के बाद जब छुट्टियां आरंभ हुईं तो दोनों ऊबने लगे. अनु अपनी मां के साथ लूडो खेलने का प्रयत्न करता, पर वैसा मजा ही नहीं आता था जो सुबीर के साथ खेलने में आता था.

सुबीर अपने पिताजी के साथ क्रिकेट खेलता तो उसे भी बिलकुल आनंद नहीं आता था. वे स्वयं ही जानबूझ कर जल्दी ‘आउट’ हो जाते, परंतु सुबीर का शतक अवश्य बनवा देते.

सुबीर और अनु दोनों ही अब पछताने लगे कि नाहक बात बढ़ाई. एक दिन अनु ने देखा कि सुबीर दोनों घरों के बीच बनी बाड़ के पास बैठ कर कंचे खेल रहा है. अनु भी चुपचाप अपने कंचे ले कर अपनी बाड़ के पास बैठ कर खेलने लगा. कुछ देर दोनों चुपचाप खेलते रहे. फिर अनु ने देखा सुबीर का एक कंचा उस के बगीचे में आ गया है. उस ने कंचा उठा कर सुबीर को देते हुए कहा, ‘‘यह तुम्हारा है.’’

सुबीर भी बात करने का बहाना ढूंढ़ रहा था, तपाक से बोला, ‘‘कंचे खेलोगे?’’

अनु ने एक क्षण इधरउधर देखा. मैदान साफ पा कर वह बाड़ में से निकल कर सुबीर के बगीचे में पहुंच गया. थोड़ी देर बाद जब सुबीर की मां ने पुकारा तो वह चुपचाप वहां से खिसक कर अपने बगीचे में आ गया.

यह तरीका दोनों को ठीक लगा. अब जब भी अवसर मिलता, दोनों एकसाथ खेलते. मित्र के साथ खेलने का आनंद ही कुछ और होता है. अब बस, एक ही परेशानी थी कि उन्हें डरडर कर खेलना पड़ता था.

‘‘कितना अच्छा हो यदि हमारे माता- पिता भी फिर से मित्र बन जाएं,’’ एक दिन अनु बोला.

‘‘पर यह कैसे संभव होगा, समझ में नहीं आता. मैं तो अपने मातापिता के सामने तेरा नाम लेने से भी डरता हूं,’’ सुबीर उदास हो कर बोला.

एक दिन सुबह का समय था. सुबीर घर पर अकेला था. वह एक पुस्तक ले कर पेड़ पर चढ़ गया और पढ़ने लगा.

अचानक ‘धड़ाम’ की आवाज हुई. अनु ने आवाज सुनी तो वह तेजी से बाहर भागा. उस ने देखा कि सुबीर जमीन पर पड़ा कराह रहा है. वह तेजी से उस के पास गया और उसे खड़ा करने का प्रयत्न करने लगा.

‘‘अनु, मेरी पीठ में जोर की चोट लगी है. बहुत दर्द हो रहा है,’’ सुबीर दर्द से परेशान हो कर बोला.

अनु ने एक क्षण इधरउधर देखा, फिर जल्दी से बोला, ‘‘तुम हिलना मत, मैं सहायता के लिए अभी किसी को बुला कर लाता हूं.’’

अनु सीधा अपनी मां के पास गया और बोला, ‘‘मां, जल्दी चलो, सुबीर को बहुत चोट लगी है. उस की मां भी घर पर नहीं हैं…उसे बहुत दर्द हो रहा है.’’

अनु की मां सुबीर को गोद में उठा कर अंदर ले गईं. फिर उस की टांगों और बांहों की खरोंचों को साफ कर उन पर दवा लगा दी. अभी वे उस की पीठ पर मरहम लगा ही रही थीं कि सुबीर की मां बाजार से लौट आईं.

सुबीर के इर्दगिर्द कई लोगों को देख कर वे घबरा गईं. अनु उन को देखते ही बोला, ‘‘चाचीजी, सुबीर को बहुत दर्द हो रहा है, इसे जल्दी से अस्पताल ले चलिए,’’ उस की आंखों में आंसू तैर रहे थे.

सुबीर की मां अनु के सिर पर प्यार से हाथ फेरती हुई बोलीं, ‘‘अरे, बेटा, रोते नहीं…सुबीर दोचार दिन में बिलकुल ठीक हो जाएगा. तुम इसे देखने आया करोगे न?’’

अनु की आंखों में चमक आ गई. वह उत्सुकता से मां की ओर देखने लगा.

‘‘हां, यह अवश्य आएगा. अनु पास रहेगा तो सुबीर भी अपना दर्द भूल जाएगा,’’ अनु की मां बोलीं.

सुबीर की मां अनु की मां की बात सुन कर बहुत प्रसन्न हुईं. फिर बोलीं, ‘‘आप ने सुबीर की इतनी देखभाल की. उस के लिए बहुतबहुत धन्यवाद.’’

‘‘सुबीर भी तो मेरा ही बेटा है…जैसा अनु वैसा सुबीर. अपने बेटे के लिए कुछ करने के लिए धन्यवाद कैसा,’’ अनु की मां ने उत्तर दिया. थोड़ी देर बाद अनु और सुबीर जब अकेले रह गए तो अनु बोला, ‘‘तू पुस्तक पढ़तापढ़ता सो गया था क्या, एकदम से गिर कैसे गया?’’

‘‘जानबूझ कर गिरा था.’’

‘‘क्या?’’ अनु की आंखें आश्चर्य से फैल गईं, ‘‘जानता है, हड्डीपसली भी टूट सकती थी.’’

‘‘जानता हूं,’’ सुबीर गंभीरता से बोला, ‘‘पर मुझे उस का भी दुख न होता. अब हम सब फिर से मित्र बन गए हैं. तेरी मां ने मुझे कितना प्यार किया…’’

‘‘और तेरी मां ने मुझे…अब हम कभी झगड़ा नहीं करेंगे,’’ अनु भी गंभीर हो कर बोला.

‘‘हां, और क्या…खेल में हारजीत तो लगी ही रहती है. वास्तव में जीतने का मजा आता ही हारने के बाद है,’’ सुबीर बोला.

अनु को अब हंसी आ गई, ‘‘बड़ी बुद्धिमानी की बातें कर रहा है. अब कभी हारने पर रोएगा तो नहीं?’’

‘‘नहीं,’’ सुबीर भी हंसने लगा, ‘‘और न ही जीतने पर तुम्हें चिढ़ाऊंगा.’’

दोनों मित्र एक बार फिर मिल कर लूडो खेलने लगे.

Stories : कर्मफल – क्या हुआ था मुनीम के साथ

Stories :  गांव की एक कच्ची सड़क पर धूल उड़ाती सूरज की गाड़ी ईंटभट्ठे पर पहुंची. मुनीम उसे दफ्तर में ले आया. कुछ समय तक सूरज ने फाइलें देखीं, फिर मुनीम उसे भट्ठे का मुआयना कराने लगा, ताकि वह भट्ठे के काम को समझ सके और सभी मजदूर भी अपने छोटे ठाकुर से परिचित हो जाएं.

चलतेचलते सूरज और मुनीम एक ओर गए, जहां कई औरतें मिट्टी गूंधने में मसरूफ थीं. सूरज की नजर खूबसूरत चेहरे, गदराए जिस्म, नशीली आंखों और संतरे की फांकों जैसे होंठों वाली एक लड़की पर जा टिकी.

‘‘मुनीमजी, हम पहली बार मिट्टी में गुलाब खिला हुआ देख रहे हैं,’’ सूरज ने उस लड़की के बदन का बारीकी से मुआयना करते हुए कहा.

‘‘हुजूर, यहां हर रोज आप को ऐसे ही गुलाब खिले मिलेंगे…’’ मुनीम ने भी चुटकी ली.

‘‘मुनीमजी, उस लड़की को कितनी तनख्वाह मिलती है?’’ सूरज ने पूछा.

‘‘हुजूर, वह तनख्वाह पर नहीं,

60 रुपए की दिहाड़ी पर काम करती है,’’ मुनीम ने बताया.

‘‘बस, 60 रुपए हर रोज… आप इतनी कम दिहाड़ी दे कर उस के हुस्न की तौहीन कर रहे हैं,’’ सूरज ने शिकायती अंदाज में कहा.

‘‘सभी मजदूरों की दिहाड़ी दीवाली पर बढ़ाई जाती है. पिछली दीवाली पर उस की दिहाड़ी 50 रुपए से 60 रुपए हो गई थी. अगली दीवाली पर 70 रुपए कर देंगे,’’ मुनीम ने कहा.

‘‘वह लड़की कितने दिनों से यहां काम कर रही है?’’ सूरज ने पूछा.

‘‘हुजूर, तकरीबन 3 साल से,’’ मुनीम ने जवाब दिया.

‘‘3 साल में हर मजदूर को तरक्की मिल जाती है, पर अब तक उस लड़की की तरक्की क्यों नहीं हुई?’’ सूरज ने नाराजगी जताई.

‘‘हुजूर, दीवाली पर उस का प्रमोशन कर देंगे,’’ मुनीम तुरंत बोला.

अगले पड़ाव पर काम में मसरूफ दूसरी लड़कियों पर नजर डालते हुए सूरज बोला, ‘‘मुनीमजी, ईंटों का यह बगीचा खूबसूरत फूलों से भरा पड़ा है.’’

‘‘हुजूर, यह बगीचा आप का ही है. मैं तो सिर्फ माली हूं. इस बगीचे का जो फूल आप के मन को भाया करे, तो गुलाम को हुक्म कर दें. उसे आप की सेवा के लिए हाजिर कर दिया जाएगा,’’ मुनीम बेहिचक बोला.

पहले तो सूरज ने तीखी नजरों से मुनीम को देखा, फिर एक आजाद कहकहा मार कर बोला, ‘‘आप का बड़ा पारखी दिमाग है. इतनी सी देर में आप हमारी इच्छाओं से वाकिफ हो गए.’’

सूरज के मुंह से अपनी तारीफ सुन कर मुनीम के चेहरे पर मुसकान उभर आई.

सूरज बोला, ‘‘मुनीमजी, हम सब से पहले उस लड़की का प्रमोशन करना चाहते हैं, जिस की मदमस्त जवानी ने हमारे अंदर हलचल सी मचा दी है.’’

अगले दिन मुनीम ने उस लड़की को सूरज की हवेली में पहुंचा दिया.

‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’ सूरज ने मुसकराते हुए पूछा.

‘‘सुमन…’’ उस लड़की ने शरमाते हुए अपना नाम बताया.

‘‘सुमन का मतलब जानती हो?’’ सूरज ने उस की तरफ बारीकी से नजर डालते हुए पूछा.

‘‘फूल…’’ सुमन बोली.

‘‘तुम भी फूल जैसी कोमल, खूबसूरत और महक वाली हो. तुम्हारे रूप के मुताबिक ही तुम्हारा काम होना चाहिए, इसीलिए तुम्हारे काम में बदलाव कर के तुम्हें तरक्की दे दी है. अब तुम भट्ठे पर काम करने के बजाय यहां का काम देखोगी,’’ सूरज ने उस को बताया.

सुमन अपने काम में मसरूफ हो गई और कुछ ही देर में सूरज के लिए कौफी बना लाई. कौफी का प्याला मेज पर रखने के लिए वह झुकी, तो उस के उभार बाहर झांकने लगे.

सुमन जैसे ही सीधी हुई, सूरज ने आ कर उसे अपनी बांहों के घेरे में ले लिया.

‘‘छोटे ठाकुर, यह क्या कर रहे हैं आप? मैं गांव की लड़की हूं और यह सब नहीं करती,’’ सुमन सूरज की पकड़ से निकलने की कोशिश करने लगी.

सूरज ने बांहों का घेरा कस लिया और बोला, ‘‘शहर में यह सब आम बात है. तुम्हारी जवानी उफनती नदी की तरह है. मैं तुम्हारी जवानी के समंदर में डूब जाना चाहता हूं.’’

अगले ही पल सूरज की उंगलियां सुमन की छाती पर रेंगने लगीं.

‘‘ऐसा मत करो. गुदगुदी होती है,’’ सुमन ने एक अनोखी सी आह भरी. जब सूरज की छुअन से सुमन को मजा आने लगा, तो उस ने खुद को सूरज के हवाले कर दिया.

सूरज सुमन को बिस्तर पर ले गया. अगले ही पल एकएक कर के सुमन की देह से सारे कपड़े अलग होते चले गए. 2 जवान देहों के टकराने से उठा तूफान तब थमा, जब दोनों जिस्म थक कर निढाल पड़ गए.

मुनीम की मदद से सूरज की इन हरकतों को बढ़ावा मिलता रहा.

एक दिन मुनीम के पैरों के नीचे की जमीन ही खिसक गई, जब सूरज की नजर उस की जवान बेटी पर रुकी. वह किसी काम के सिलसिले में मुनीम के पास आई थी.

‘‘मुनीमजी, इस भट्ठे पर हम पहली बार इस लड़की को देख रहे हैं. अब तक उसे कहां छिपा कर रखा था?’’ सूरज ने बेहिचक पूछा.

‘‘छोटे ठाकुर, यह मेरी बेटी पुष्पा है,’’ मुनीम के चेहरे का रंग उतर गया.

‘‘मुनीमजी, पुष्पा हो या सुमन, एक ही बात है. दोनों का मतलब एक ही होता है… फूल. और तुम यह बात अच्छी तरह जानते हो कि हम खूबसूरत फूलों के बहुत शौकीन हैं. जो फूल हमें अच्छा लगता है, उसे सूंघते जरूर हैं,’’ सूरज ने कहा.

मुनीम का दिल धक से रह गया. उस ने एक बार फिर से याद कराया, ‘‘छोटे ठाकुर, पुष्पा मेरी बेटी है.’’

‘‘सुमन भी किसी की बेटी थी,’’ सूरज ने ताना कसा.

मुनीम को वहां से खिसकने में देर न लगी. लेकिन उस के कानों में सूरज के बोलने की आवाज आती रही, ‘‘मुनीमजी, मेरी बातों की टैंशन मत लेना. आज मुझे शराब कुछ ज्यादा चढ़ गई है, इसलिए जबान काबू में नहीं है.’’

मुनीम तेज कदमों से अपनी बेटी के साथ दफ्तर से बाहर निकल आया.

एक दिन अनहोनी घटना घट गई. उस दिन मुनीम ईंटभट्ठे से घर लौटा, तो चौंक पड़ा. मुनीम ने सूरज को घर से बाहर निकलते देखा.

मुनीम के चेहरे पर चिंता के भाव उभर आए. उस के कदम घर में घुसने के लिए तेजी से बढ़े.

पुष्पा दीवार से टेक लगाए बैठी सुबक रही थी. यह नागवार नजारा देख कर मुनीम गश खा कर कटे पेड़ की तरह धड़ाम से फर्श पर गिर पड़ा.

लेखक- अंसारी एम. जाकिर

Storytelling : कामयाब

Storytelling :  हमेशा जिंदादिल और खुशमिजाज रमा को अंदर आ कर चुपचाप बैठे देख चित्रा से रहा नहीं गया, पूछ बैठी, ‘‘क्या बात है, रमा…?’’

‘‘अभिनव की वजह से परेशान हूं.’’

‘‘क्या हुआ है अभिनव को?’’

‘‘वह डिपे्रशन का शिकार होता जा रहा है.’’

‘‘पर क्यों और कैसे?’’

‘‘उसे किसी ने बता दिया है कि अगले 2 वर्ष उस के लिए अच्छे नहीं रहेंगे.’’

‘‘भला कोई भी पंडित या ज्योतिषी यह सब इतने विश्वास से कैसे कह सकता है. सब बेकार की बातें हैं, मन का भ्रम है.’’

‘‘यही तो मैं उस से कहती हूं पर वह मानता ही नहीं. कहता है, अगर यह सब सच नहीं होता तो आर्थिक मंदी अभी ही क्यों आती… कहां तो वह सोच रहा था कि कुछ महीने बाद दूसरी कंपनी ज्वाइन कर लेगा, अनुभव के आधार पर अच्छी पोस्ट और पैकेज मिल जाएगा पर अब दूसरी कंपनी ज्वाइन करना तो दूर, इसी कंपनी में सिर पर तलवार लटकी रहती है कि कहीं छटनी न हो जाए.’’

‘‘यह तो जीवन की अस्थायी अवस्था है जिस से कभी न कभी सब को गुजरना पड़ता है, फिर इस में इतनी हताशा और निराशा क्यों? हताश और निराश व्यक्ति कभी सफल नहीं हो सकता. जीवन में सकारात्मक ऊर्जा लाने के लिए सोच भी सकारात्मक होनी चाहिए.’’

‘‘मैं और अभिजीत तो उसे समझासमझा कर हार गए,’’ रमा बोली, ‘‘तेरे पास एक आस ले कर आई हूं, तुझे मानता भी बहुत है…हो सकता है तेरी बात मान कर शायद मन में पाली गं्रथि को निकाल बाहर फेंके.’’

‘‘तू चिंता मत कर,’’ चित्रा बोली, ‘‘सब ठीक हो जाएगा… मैं सोचती हूं कि कैसे क्या कर सकती हूं.’’

घर आने पर रमा द्वारा कही बातें चित्रा ने विकास को बताईं तो वह बोले, ‘‘आजकल के बच्चे जराजरा सी बात को दिल से लगा बैठते हैं. इस में दोष बच्चों का भी नहीं है, दरअसल आजकल मीडिया या पत्रपत्रिकाएं भी इन अंधविश्वासों को बढ़ाने में पीछे नहीं हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो विभिन्न चैनलों पर गुरुमंत्र, आप के तारे, तेज तारे, ग्रहनक्षत्र जैसे कार्यक्रम प्रसारित न होते तथा पत्रपत्रिकाओं के कालम ज्योतिषीय घटनाओं तथा उन का विभिन्न राशियों पर प्रभाव से भरे नहीं रहते.’’

विकास तो अपनी बात कह कर अपने काम में लग गए पर चित्रा का किसी काम में मन नहीं लग रहा था. बारबार रमा की बातें उस के दिलोदिमाग में घूम रही थीं. वह सोच नहीं पा रही थी कि अपनी अभिन्न सखी की समस्या का समाधान कैसे करे. बच्चों के दिमाग में एक बात घुस जाती है तो उसे निकालना इतना आसान नहीं होता.

उन की मित्रता आज की नहीं 25 वर्ष पुरानी थी. चित्रा को वह दिन याद आया जब वह इस कालोनी में लिए अपने नए घर में आई थी. एक अच्छे पड़ोसी की तरह रमा ने चायनाश्ते से ले कर खाने तक का इंतजाम कर के उस का काम आसान कर दिया था. उस के मना करने पर बोली, ‘दीदी, अब तो हमें सदा साथसाथ रहना है. यह बात अक्षरश: सही है कि एक अच्छा पड़ोसी सब रिश्तों से बढ़ कर है. मैं तो बस इस नए रिश्ते को एक आकार देने की कोशिश कर रही हूं.’

और सच, रमा के व्यवहार के कारण कुछ ही समय में उस से चित्रा की गहरी आत्मीयता कायम हो गई. उस के बच्चे शिवम और सुहासिनी तो रमा के आगेपीछे घूमते रहते थे और वह भी उन की हर इच्छा पूरी करती. यहां तक कि उस के स्कूल से लौट कर आने तक वह उन्हें अपने पास ही रखती.

रमा के कारण वह बच्चों की तरफ से निश्ंिचत हो गई थी वरना इस घर में शिफ्ट करने से पहले उसे यही लगता था कि कहीं इस नई जगह में उस की नौकरी की वजह से बच्चों को परेशानी न हो.

विवाह के 11 वर्ष बाद जब रमा गर्भवती हुई तो उस की खुशी की सीमा न रही. सब से पहले यह खुशखबरी चित्रा को देते हुए उस की आंखों में आंसू आ गए. बोली, ‘दीदी, न जाने कितने प्रयत्नों के बाद मेरे जीवन में यह खुशनुमा पल आया है. हर तरह का इलाज करा लिया, डाक्टर भी कुछ समझ नहीं पा रहे थे क्योंकि हर जांच सामान्य ही निकलती… हम निराश हो गए थे. मेरी सास तो इन पर दूसरे विवाह के लिए जोर डालने लगी थीं पर इन्होंने किसी की बात नहीं मानी. इन का कहना था कि अगर बच्चे का सुख जीवन में लिखा है तो हो जाएगा, नहीं तो हम दोनों ऐसे ही ठीक हैं. वह जो नाराज हो कर गईं, तो दोबारा लौट कर नहीं आईं.’

आंख के आंसू पोंछ कर वह दोबारा बोली, ‘दीदी, आप विश्वास नहीं करेंगी, कहने को तो यह पढ़ेलिखे लोगों की कालोनी है पर मैं इन सब के लिए अशुभ हो चली थी. किसी के घर बच्चा होता या कोई शुभ काम होता तो मुझे बुलाते ही नहीं थे. एक आप ही हैं जिन्होंने अपने बच्चों के साथ मुझे समय गुजारने दिया. मैं कृतज्ञ हूं आप की. शायद शिवम और सुहासिनी के कारण ही मुझे यह तोहफा मिलने जा रहा है. अगर वे दोनों मेरी जिंदगी में नहीं आते तो शायद मैं इस खुशी से वंचित ही रहती.’

उस के बाद तो रमा का सारा समय अपने बच्चे के बारे में सोचने में ही बीतता. अगर कुछ ऐसावैसा महसूस होता तो वह चित्रा से शेयर करती और डाक्टर की हर सलाह मानती.

धीरेधीरे वह समय भी आ गया जब रमा को लेबर पेन शुरू हुआ तो अभिजीत ने उस का ही दरवाजा खटखटाया था. यहां तक कि पूरे समय साथ रहने के कारण नर्स ने भी सब से पहले अभिनव को चित्रा की ही गोदी में डाला था. वह भी जबतब अभिनव को यह कहते हुए उस की गोद में डाल जाती, ‘दीदी, मुझ से यह संभाला ही नहीं जाता, जब देखो तब रोता रहता है, कहीं इस के पेट में तो दर्द नहीं हो रहा है या बहुत शैतान हो गया है. अब आप ही संभालिए. या तो यह दूध ही नहीं पीता है, थोड़ाबहुत पीता है तो वह भी उलट देता है, अब क्या करूं?’

हर समस्या का समाधान पा कर रमा संतुष्ट हो जाती. शिवम और सुहासिनी को तो मानो कोई खिलौना मिल गया, स्कूल से आ कर जब तक वे उस से मिल नहीं लेते तब तक खाना ही नहीं खाते थे. वह भी उन्हें देखते ही ऐसे उछलता मानो उन का ही इंतजार कर रहा हो. कभी वे अपने हाथों से उसे दूध पिलाते तो कभी उसे प्रैम में बिठा कर पार्क में घुमाने ले जाते. रमा भी शिवम और सुहासिनी के हाथों उसे सौंप कर निश्ंिचत हो जाती.

धीरेधीरे रमा का बेटा चित्रा से इतना हिलमिल गया कि अगर रमा उसे किसी बात पर डांटती तो मौसीमौसी कहते हुए उस के पास आ कर मां की ढेरों शिकायत कर डालता और वह भी उस की मासूमियत पर निहाल हो जाती. उस का यह प्यार और विश्वास अभी तक कायम था. शायद यही कारण था कि अपनी हर छोटीबड़ी खुशी वह उस के साथ शेयर करना नहीं भूलता था.

पर पिछले कुछ महीनों से वह उस में आए परिवर्तन को नोटिस तो कर रही थी पर यह सोच कर ध्यान नहीं दिया कि शायद काम की वजह से वह उस से मिलने नहीं आ पाता होगा. वैसे भी एक निश्चित उम्र के बाद बच्चे अपनी ही दुनिया में रम जाते हैं तथा अपनी समस्याओं के हल स्वयं ही खोजने लगते हैं, इस में कुछ गलत भी नहीं है पर रमा की बातें सुन कर आश्चर्यचकित रह गई. इतने जहीन और मेरीटोरियस स्टूडेंट के दिलोदिमाग में यह फितूर कहां से समा गया?

बेटी सुहासिनी की डिलीवरी के कारण 1 महीने घर से बाहर रहने के चलते ऐसा पहली बार हुआ था कि वह रमा और अभिनव से इतने लंबे समय तक मिल नहीं पाई थी. एक दिन अभिनव से बात करने के इरादे से उस के घर गई पर जो अभिनव उसे देखते ही बातों का पिटारा खोल कर बैठ जाता था, उसे देख कर नमस्ते कर अंदर चला गया, उस के मन की बात मन में ही रह गई.

वह अभिनव में आए इस परिवर्तन को देख कर दंग रह गई. चेहरे पर बेतरतीब बढ़े बालों ने उसे अलग ही लुक दे दिया था. पुराना अभिनव जहां आशाओं से ओतप्रोत जिंदादिल युवक था वहीं यह एक हताश, निराश युवक लग रहा था जिस के लिए जिंदगी बोझ बन चली थी.

समझ में नहीं आ रहा था कि हमेशा हंसता, खिलखिलाता रहने वाला तथा दूसरों को अपनी बातों से हंसाते रहने वाला लड़का अचानक इतना चुप कैसे हो गया. औरों से बात न करे तो ठीक पर उस से, जिसे वह मौसी कह कर न सिर्फ बुलाता था बल्कि मान भी देता था, से भी मुंह चुराना उस के मन में चलती उथलपुथल का अंदेशा तो दे ही गया था. पर वह भी क्या करती. उस की चुप्पी ने उसे विवश कर दिया था. रमा को दिलासा दे कर दुखी मन से वह लौट आई.

उस के बाद के कुछ दिन बेहद व्यस्तता में बीते. स्कूल में समयसमय पर किसी नामी हस्ती को बुला कर विविध विषयों पर व्याख्यान आयोजित होते रहते थे जिस से बच्चों का सर्वांगीण विकास हो सके. इस बार का विषय था ‘व्यक्तित्व को आकर्षक और खूबसूरत कैसे बनाएं.’ विचार व्यक्त करने के लिए एक जानीमानी हस्ती आ रही थी.

आयोजन को सफल बनाने की जिम्मेदारी मुख्याध्यापिका ने चित्रा को सौंप दी. हाल को सुनियोजित करना, नाश्तापानी की व्यवस्था के साथ हर क्लास को इस आयोजन की जानकारी देना, सब उसे ही संभालना था. यह सब वह सदा करती आई थी पर इस बार न जाने क्यों वह असहज महसूस कर रही थी. ज्यादा सोचने की आदत उस की कभी नहीं रही. जिस काम को करना होता था, उसे पूरा करने के लिए पूरे मनोयोग से जुट जाती थी और पूरा कर के ही दम लेती थी पर इस बार स्वयं में वैसी एकाग्रता नहीं ला पा रही थी. शायद अभिनव और रमा उस के दिलोदिमाग में ऐसे छा गए थे कि  वह चाह कर भी न उन की समस्या का समाधान कर पा रही थी और न ही इस बात को दिलोदिमाग से निकाल पा रही थी.

आखिर वह दिन आ ही गया. नीरा कौशल ने अपना व्याख्यान शुरू किया. व्यक्तित्व की खूबसूरती न केवल सुंदरता बल्कि चालढाल, वेशभूषा, वाक्शैली के साथ मानसिक विकास तथा उस की अवस्था पर भी निर्भर होती है. चालढाल, वेशभूषा और वाक्शैली के द्वारा व्यक्ति अपने बाहरी आवरण को खूबसूरत और आकर्षक बना सकता है पर सच कहें तो व्यक्ति के व्यक्तित्व का सौंदर्य उस का मस्तिष्क है. अगर मस्तिष्क स्वस्थ नहीं है, सोच सकारात्मक नहीं है तो ऊपरी विकास सतही ही होगा. ऐसा व्यक्ति सदा कुंठित रहेगा तथा उस की कुंठा बातबात पर निकलेगी. या तो वह जीवन से निराश हो कर बैठ जाएगा या स्वयं को श्रेष्ठ दिखाने के लिए कभी वह किसी का अनादर करेगा तो कभी अपशब्द बोलेगा. ऐसा व्यक्ति चाहे कितने ही आकर्षक शरीर का मालिक क्यों न हो पर कभी खूबसूरत नहीं हो सकता, क्योंकि उस के चेहरे पर संतुष्टि नहीं, सदा असंतुष्टि ही झलकेगी और यह असंतुष्टि उस के अच्छेभले चेहरे को कुरूप बना देगी.

मान लीजिए, किसी व्यक्ति के मन में यह विचार आ गया कि उस का समय ठीक नहीं है तो वह चाहे कितने ही प्रयत्न कर ले सफल नहीं हो पाएगा. वह अपनी सफलता की कामना के लिए कभी मंदिर, मसजिद दौड़ेगा तो कभी किसी पंडित या पुजारी से अपनी जन्मकुंडली जंचवाएगा.

मेरे कहने का अर्थ है कि वह प्रयत्न तो कर रहा है पर उस की ऊर्जा अपने काम के प्रति नहीं, अपने मन के उस भ्रम के लिए है…जिस के तहत उस ने मान रखा है कि वह सफल नहीं हो सकता.

अब इस तसवीर का दूसरा पहलू देखिए. ऐसे समय अगर उसे कोई ग्रहनक्षत्रों का हवाला देते हुए हीरा, पन्ना, पुखराज आदि रत्नों की अंगूठी या लाकेट पहनने के लिए दे दे तथा उसे सफलता मिलने लगे तो स्वाभाविक रूप से उसे लगेगा कि यह सफलता उसे अंगूठी या लाकेट पहनने के कारण मिली पर ऐसा कुछ भी नहीं होता.

वस्तुत: यह सफलता उसे उस अंगूठी या लाकेट पहनने के कारण नहीं मिली बल्कि उस की सोच का नजरिया बदलने के कारण मिली है. वास्तव में उस की जो मानसिक ऊर्जा अन्य कामों में लगती थी अब उस के काम में लगने लगी. उस का एक्शन, उस की परफारमेंस में गुणात्मक परिवर्तन ला देता है. उस की अच्छी परफारमेंस से उसे सफलता मिलने लगती है. सफलता उस के आत्मविश्वास को बढ़ा देती है तथा बढ़ा आत्मविश्वास उस के पूरे व्यक्तित्व को ही बदल डालता है जिस के कारण हमेशा बुझाबुझा रहने वाला उस का चेहरा अब अनोखे आत्मविश्वास से भर जाता है और वह जीवन के हर क्षेत्र में सफल होता जाता है. अगर वह अंगूठी या लाकेट पहनने के बावजूद अपनी सोच में परिवर्तन नहीं ला पाता तो वह कभी सफल नहीं हो पाएगा.

इस के आगे व्याख्याता नीरा कौशल ने क्या कहा, कुछ नहीं पता…एकाएक चित्रा के मन में एक योजना आकार लेने लगी. न जाने उसे ऐसा क्यों लगने लगा कि उसे एक ऐसा सूत्र मिल गया है जिस के सहारे वह अपने मन में चलते द्वंद्व से मुक्ति पा सकती है, एक नई दिशा दे सकती है जो शायद किसी के काम आ जाए.

दूसरे दिन वह रमा के पास गई तथा बिना किसी लागलपेट के उस ने अपने मन की बात कह दी. उस की बात सुन कर वह बोली, ‘‘लेकिन अभिजीत इन बातों को बिलकुल नहीं मानने वाले. वह तो वैसे ही कहते रहते हैं. न जाने क्या फितूर समा गया है इस लड़के के दिमाग में… काम की हर जगह पूछ है, काम अच्छा करेगा तो सफलता तो स्वयं मिलती जाएगी.’’

‘‘मैं भी कहां मानती हूं इन सब बातों को. पर अभिनव के मन का फितूर तो निकालना ही होगा. बस, इसी के लिए एक छोटा सा प्रयास करना चाहती हूं.’’

‘‘तो क्या करना होगा?’’

‘‘मेरी जानपहचान के एक पंडित हैं, मैं उन को बुला लेती हूं. तुम बस अभिनव और उस की कुंडली ले कर आ जाना. बाकी मैं संभाल लूंगी.’’

नियत समय पर रमा अभिनव के साथ आ गई. पंडित ने उस की कुंडली देख कर कहा, ‘‘कुंडली तो बहुत अच्छी है, इस कुंडली का जाचक बहुत यशस्वी तथा उच्चप्रतिष्ठित होगा. हां, मंगल ग्रह अवश्य कुछ रुकावट डाल रहा है पर परेशान होने की बात नहीं है. इस का भी समाधान है. खर्च के रूप में 501 रुपए लगेंगे. सब ठीक हो जाएगा. आप ऐसा करें, इस बच्चे के हाथ से मुझे 501 का दान करा दें.’’

प्रयोग चल निकला. एक दिन रमा बोली, ‘‘चित्रा, तुम्हारी योजना कामयाब रही. अभिनव में आश्चर्यजनक परिवर्तन आ गया. जहां कुछ समय पूर्व हमेशा निराशा में डूबा बुझीबुझी बातें करता रहता था, अब वही संतुष्ट लगने लगा है. अभी कल ही कह रहा था कि ममा, विपिन सर कह रहे थे कि तुम्हें डिवीजन का हैड बना रहा हूं, अगर काम अच्छा किया तो शीघ्र प्रमोशन मिल जाएगा.’’

रमा के चेहरे पर छाई संतुष्टि जहां चित्रा को सुकून पहुंचा रही थी वहीं इस बात का एहसास भी करा रही थी, कि व्यक्ति की खुशी और दुख उस की मानसिक अवस्था पर निर्भर होते हैं. ग्रहनक्षत्रों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता. अब वह उस से कुछ छिपाना नहीं चाहती थी. आखिर मन का बोझ वह कब तक मन में छिपाए रहती.

‘‘रमा, मैं ने तुझ से एक बात छिपाई पर क्या करती, इस के अलावा मेरे पास कोई अन्य उपाय नहीं था,’’ मन कड़ा कर के चित्रा ने कहा.

‘‘क्या कह रही है तू…कौन सी बात छिपाई, मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है.’’

‘‘दरअसल उस दिन तथाकथित पंडित ने जो तेरे और अभिनव के सामने कहा, वह मेरे निर्देश पर कहा था. वह कुंडली बांचने वाला पंडित नहीं बल्कि मेरे स्कूल का ही एक अध्यापक था, जिसे सारी बातें बता कर, मैं ने मदद मांगी थी तथा वह भी सारी घटना का पता लगने पर मेरा साथ देने को तैयार हो गया था,’’ चित्रा ने रमा को सब सचसच बता कर झूठ के लिए क्षमा मांग ली और अंदर से ला कर उस के दिए 501 रुपए उसे लौटा दिए.

‘‘मैं नहीं जानती झूठसच क्या है. बस, इतना जानती हूं कि तू ने जो किया अभिनव की भलाई के लिए किया. वही किसी की बातों में आ कर भटक गया था. तू ने तो उसे राह दिखाई है फिर यह ग्लानि और दुख कैसा?’’

‘‘जो कार्य एक भूलेभटके इनसान को सही राह दिखा दे वह रास्ता कभी गलत हो ही नहीं सकता. दूसरे चाहे जो भी कहें या मानें पर मैं ऐसा ही मानती हूं और तुझे विश्वास दिलाती हूं कि यह बात एक न एक दिन अभिनव को भी बता दूंगी, जिस से कि वह कभी भविष्य में ऐसे किसी चक्कर में न पड़े,’’ रमा ने उस की बातें सुन कर उसे गले से लगाते हुए कहा.

रमा की बात सुन कर चित्रा के दिल से एक भारी बोझ उठ गया. दुखसुख, सफलताअसफलता तो हर इनसान के हिस्से में आते हैं पर जो जीवन में आए कठिन समय को हिम्मत से झेल लेता है वही सफल हो पाता है. भले ही सही रास्ता दिखाने के लिए उसे झूठ का सहारा लेना पड़ा पर उसे इस बात की संतुष्टि थी कि वह अपने मकसद में कामयाब रही.

Stories : जीत गया भई जीत गया

Stories :  ‘‘आइए स्वामीजी, इधर आसन ग्रहण कीजिए,’’ अशोक ने गेरुए वस्त्रधारी तांत्रिक अवधूतानंद का स्वागतसत्कार करते हुए अपने जीजा की ओर देखा और बोला, ‘‘भाई साहब, यह स्वामीजी हैं और इन को प्रणाम कर आशीर्वाद लीजिए. आप की सभी समस्याओं का समाधान इन की मुट्ठी में कैद है.’’

‘‘प्रणाम, महाराज. अशोक के मुख से आप के चमत्कारों की महिमा सुन कर ही मैं आश्वस्त हो गया था कि आप ही चुनाव रूपी भवसागर में हिचकोले खाती मेरी नैया को पार लगा सकते हैं. आप की जयजयकार हो…आप…’’

‘‘ठीक है, ठीक है,’’ महाराज ने नशे में डूबी सुर्ख आंखों से नेताजी की ओर देखा और बोले, ‘‘बात आगे बढ़ाओ, हमारा समय बहुत कीमती है…’’

‘‘महाराज, कृपा कीजिए, किसी तरह चुनाव जीत जाऊं…मैं आप की झोली मोतियों से भर दूंगा.’’

‘‘देखो, चुनाव के बाद की बात बाद में, पहले अनुष्ठान की बात करो. अशोक ने तुम्हारी जन्मकुंडली हमें दिखाई थी… फिलहाल तुम्हारे सितारे गर्दिश में हैं. संभावना 50 प्रतिशत तक की है, लेकिन अगर तुम 5 लाख खर्च करने को तैयार हो तो हमारी तंत्र विद्या से 50 का आंकड़ा 100 में तबदील हो जाएगा. सारी विरोधी शक्तियां निष्क्रिय एवं शिथिल होती चली जाएंगी और हमारा डंडा और तुम्हारा झंडा आसमान की बुलंदियों को छूता चला जाएगा.’’

‘‘महाराज, मैं धन्य हो गया, लेकिन चुनाव में पहले ही बहुत खर्चा हो रहा है… अभी अगर आप ढाई लाख में कृपा करें तो…’’

‘‘असंभव,’’ महाराज ने सुर्ख नेत्रों से अशोक को घूरा, ‘‘क्यों बच्चा, तुम तो कह रहे थे कि सारी बात तय हो चुकी है, फिर…’’

‘‘आप चिंता न करें महाराज, मेरे जीजाजी थोड़े कंजूस हैं. मुट्ठी खोलते हुए इन्हें घबराहट सी होने लगती है,’’ कहते हुए अशोक ने गुस्से से जीजा की ओर देखा, ‘‘यह तो महाराज की अपार कृपा है कि यहां तक आने को राजी हो गए, वरना कितने नेता, अभिनेता दिनरात इन के डेरे के इर्दगिर्द मंडराते रहते हैं. अब निकालिए 5 लाख की तुच्छ धनराशि…महाराज के चरणों में उसे अर्पित कर चैन की बांसुरी बजाइए…परसों समाधि से उठने के बाद महाराज ने कहा था कि आप सिर्फ चुनाव ही नहीं जीतेंगे, अपितु मंत्रीपद को भी सुशोभित करेेंगे लेकिन उस के लिए अलग से 5 लाख खर्च करने होंगे.’’

‘‘नहीं, अभी नहीं,’’ महाराज ने मंदमंद मुसकराते हुए कहा, ‘‘हम लोभीलालची नहीं, मस्तमौला फकीर हैं, अभी सिर्फ 5 लाख से ही अनुष्ठान आरंभ करेंगे… नेताजी, आप का शुभ नाम?’’

‘‘जी…सूरज प्रकाश.’’

‘‘वाह, खूब…बहुत खूब…पूरब दिशा की लालिमा आप के समूचे व्यक्तित्व की परिक्रमा करती प्रतीत हो रही है. इसी क्षण से चुनाव संपन्न होने तक आप को बस, पूरब दिशा की ओर ही देखते रहना है. प्रात: सूर्योदय के समय सूर्य नमस्कार कर जल अर्पित करें. याद रहे, जब भी घर से बाहर निकलें, सूर्य के दर्शन अवश्य करें…इस के बाद ही कदम आगे बढ़ाएं.’’

‘‘महाराज, सूर्य तो स्थिर नहीं रहते. सुबह सामने वाले दरवाजे की ओर होते हैं तो दोपहर को बगीचे की तरफ नजर आते हैं और शाम को पिछली तरफ चले जाते हैं…वह तो हमेशा घूमते ही रहते हैं, ऐसे में…’’

‘‘अरे, मूर्ख,’’ महाराज तनिक क्रोध में बोले, ‘‘सूर्य एक ही स्थान पर स्थिर हैं. घूम तो हमारी पृथ्वी रही है, इसी कारण लोगों को दिशाभ्रम हो जाता है. अब जैसा हम ने बताया है, बिलकुल वैसा ही कर.’’

फिर उन्होंने खिड़की के बाहर नजरें घुमाते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे राजनीतिक भविष्य का सूर्योदय होने का समय क्षणप्रतिक्षण निकट आता जा रहा है. तुम 5 लाख अशोक के हवाले करो और हमारी तंत्र विद्या का चमत्कार देखने की प्रतीक्षा करो,’’ इतना कह कर अशोक को कुछ संकेत कर के महाराज उठ खड़े हुए.

नेताजी ने फौरन 5 लाख रुपए की गड्डियां ला कर अशोक के हवाले कर दीं. महाराज जातेजाते नेताजी की विशाल कोठी पर नजरें डालते हुए बोले, ‘‘वत्स, तुम्हारी विजयपताका दिनरात इस अट्टालिका पर लहराएगी. जाओ, अब तनमनधन से अपनी समस्त शक्ति चुनाव रूपी हवनकुंड में झोंक दो. तुम अपना काम करो, हम अपना अनुष्ठान करेंगे. जिस दिन मंत्रीपद की शपथ ग्रहण करने जाओगे, उस से पहले ही दूसरी किस्त के रूप में 5 लाख रुपए की धनराशि पहले हमें भेंट कर देना, वरना…’’

‘‘अरे, महाराज, बस, आप कृपा कीजिए…मैं बखूबी समझ गया…मंत्रीपद मिलने के बाद मैं 5 क्या 10-15 लाख आप के चरणों पर न्योछावर कर दूंगा.’’

अगले दिन से ही सूरज उर्फ सूरज प्रकाश उर्फ नेताजी की मानो दिनचर्या ही बदल गई. प्रात: उठते ही सूर्य नमस्कार कर जल अर्पित करते. फिर दिन में जितनी बार भी घर से बाहर निकलते, सूर्य के दर्शन कर के ही कदम आगे बढ़ाते. कभी सामने वाले दरवाजे से बाहर निकलते, कभी बगीचे के पेड़ों के बीचोंबीच ताकझांक करते दिखाई देते तो कभी पीछे वाली खिड़की से सूर्य को प्रणाम कर के वहीं से बाहर कूद जाते. इस तरह चुनावी भागदौड़ और व्यस्तता के बीच 15-20 दिन कैसे गुजर गए, पता ही न चला. शहर में डंडों, झंडों, झंडियों और लाउडस्पीकरों की चिल्लपौं का नजारा देखते ही बनता था.

हर रोज रात के समय अशोक नेताजी की मक्खनबाजी करने पहुंच जाता और 5-7 हजार और झटक लेता. एक दिन नेताजी शंकित मन से पूछ ही बैठे, ‘‘क्यों साले साहब, तुम्हें पूरी उम्मीद है न कि हम चुनाव जीत जाएंगे…कहीं ऐसा न हो…’’

‘‘जीजाजी, शुभशुभ बोलिए, महाराज आप की समस्त बाधाएं दूर करने के लिए दिनरात तंत्रमंत्र की समस्त दैवी शक्तियों का आह्वान कर रहे हैं. जब महाराज की सिद्ध शक्तियां अपना चमत्कार दिखाएंगी तो आप स्वयं यकीन नहीं कर पाएंगे कि आप ने निकटतम प्रतिद्वंद्वी को इतने अधिक वोटों से कैसे पराजित किया. फिर आप की पार्टी तो राष्ट्रीय स्तर की है, तमाम छोटेबड़े नेता और कार्यकर्ता गलीगली कूचेकूचे में पूरे जोशोखरोश के साथ चुनावी दंगल की कमान संभाले हुए हैं.’’

जिस दिन चुनावी जंग का परिणाम घोषित होना था, सुबह से ही नेताजी का दिल धकधक कर रहा था. दोपहर को अशोक के कहने पर वह मतगणना स्थल पर गए और पार्टी के छोटेमोटे नेताओं का आश्वासन पा कर लौट आए कि जीत निश्चित है. इस के बाद नेताजी कोठी की ऊपरी मंजिल के अपने कमरे में आराम करने के लिए चले गए. लेटते ही उन की आंख लग गई.

शाम 5 बजे के लगभग ढोलढमाकों का कानफोड़ू शोरशराबा सुन कर नेताजी आंखें मलते हुए उठ बैठे. सहसा उन के कानों में स्वर गूंजे… ‘‘जीत गया भई जीत गया…सूरज वाला…’’

‘वाह, सूरज प्रकाश जीत गया… खूब…बहुत खूब…’ अपनी जीत की खुशी से आश्वस्त नेताजी ने दरवाजा खोल कर जैसे ही सामने सड़क से गुजरते जुलूस को देखा तो सिर चकराने लगा, दिल बैठने लगा. उन्होंने मुश्किल से खुद को संभाला और पास से गुजर रहे नौकर को पुकारा, ‘‘अरे जीतू, यह किस का जुलूस है, कौन जीता है?’’

‘‘बाबूजी, निर्दलीय चंद्र प्रकाश चुनाव जीत गया है, वह भी पूरे 8 हजार वोटों से. उगता सूरज उसी का तो चुनाव चिह्न है. बड़े अफसोस की बात है, आप चुनाव हार गए,’’ जीतू ने हमदर्दी जताई, ‘‘आप की हार के गम में सभी गमगीन हैं, नीचे देखिए, कोठी में मातम सा छाया हुआ है.’’

‘‘अरे, मूर्ख, इतना बड़ा हादसा हो गया और मुझे किसी ने कुछ बताया ही नहीं,’’ हैरानपरेशान नेताजी बुझीबुझी आंखों से जुलूस गुजरने के बाद की उड़ती धूल को सहन नहीं कर पा रहे थे, ऊंची आवाज में बोले, ‘‘अशोक कहां है?’’

तभी उन का मुनीम रामगोपाल बरामदे में आ पहुंचा और बोला, ‘‘सेठजी, वह तो तांत्रिक के संग किसी होटल में गुलछर्रे उड़ा रहा होगा…5 लाख में से बचीखुची रकम का बंटवारा भी तो अभी करना होगा.’’

‘‘ओह, तुम्हें तो सब मालूम है… इस कमीने अशोक पर भरोसा कर के चुनाव पर तो 25-30 लाख खर्च हुए ही, ऊपर से तांत्रिक के चक्कर में 5 लाख की और चपत लग गई.’’

‘‘सेठजी, आप को कितनी बार समझाया कि इस अशोक को ज्यादा मुंह मत लगाइए, लेकिन आप नहीं माने. कहते हैं न कि ‘सारी खुदाई एक तरफ जोरू का भाई एक तरफ’.’’

‘जीत गया भई जीत गया… सूरज वाला जीत गया, जीत गया भई…’ जुलूस अब पिछली सड़क से गुजर रहा था. नेताजी ने थकीहारी आवाज में रामगोपाल से पूछा, ‘‘एक बात समझ में नहीं आई, सूर्य की परिक्रमा हम करते रहे, परंतु जीत गया चंद्र प्रकाश और वह भी ‘सूरज’ चुनाव चिह्न के सहारे…क्या मतगणना अधिकारियों के इस अन्याय के खिलाफ किसी कोर्ट में गुहार लगाई जा सकती है?’’

‘‘किसी योग्य वकील से सलाहमशविरा कर लीजिए,’’ रामगोपाल बुदबुदाया, ‘लगता है, सदमा गहरा है, सेठजी की मति मारी गई है.’

लेखक- मनोज चुग

Sachi Kahaniyan : गंध मादन

Sachi Kahaniyan : हम लोग राजधानी एक्सप्रेस से दिल्ली लगभग 10 बजे सुबह पहुंचे. हम ने सुबह ट्रेन में ही नाश्ता कर लिया था. हम 3 थे, मैं, मेरा दोस्त केयूर और अर्चिता. तीनों को दिल्ली में अलगअलग काम थे. मुझे इंगलैंड जाने के लिए वीजा बनवाना था, केयूर को एक मल्टीनेशनल कंपनी में इंटरव्यू देना था और अर्चिता को जे.एन.यू. में एडमिशन के लिए आवेदन करना था.

अर्चिता के चाचा डाक्टर थे और सफदरजंग इनक्लेव में रहते थे, इसलिए उस का वहीं ठहरने का कार्यक्रम था.

कर्नल के.के. सिंह की पत्नी वहीं एक कालिज में लेक्चरर थीं. कर्नल सिंह मेरे चाचा ब्रिगेडियर सिन्हा के जिगरी दोस्त थे. दोनों ने एकसाथ कालिज की पढ़ाई की थी. मेरे चाचा इस समय लद्दाख में तैनात थे.

मैं कर्नल के.के. सिंह को बचपन से जानता हूं. पटना मेरे चाचा के यहां वह अकसर आते थे और कई दिनों तक ठहरते थे. मैं जब मेडिकल कालिज में पढ़ता था तो अपने चाचा के यहां अकसर जाता था. मेरी छुट्टियां लगभग वहीं बीतती थीं. इसलिए मैं कर्नल साहब को बहुत नजदीक से जानता था. पहले भी दिल्ली आने पर कई बार उन के यहां ठहरा था.

स्टेशन पर उतर कर हम ने प्लान बनाया कि अर्चिता को प्रीपेड टैक्सी में बिठा कर सफदरजंग भेज देंगे और फिर आटोरिकशा पकड़ कर हम कर्नल साहब के यहां चले जाएंगे. उन से फोन पर बात हो चुकी थी.

लेकिन जब हम अपना सामान ले कर गाड़ी से प्लेटफार्म पर उतरे तो देखा कि कर्नल साहब हाथ हिलाते हुए हम लोगों की ओर आ रहे हैं.

हम लोगों ने उन्हें नमस्कार किया फिर मैं ने केयूर और अर्चिता का उन से परिचय कराया और कहा, ‘‘अंकल, हम लोग तो आ ही जाते. आप इतनी दूर क्यों आए?’’

‘‘वौट नानसेंस, आज संडे है, कोई काम नहीं है. केवल दोपहर को क्लब जाना है, मीटिंग है. तब तक एकदम फ्री हूं. इसी बहाने सैर हो गई.’’

कर्नल के.के. सिंह ने केयूर और अर्चिता को गंभीर हो कर गौर से देखा, फिर मुसकराए और बोले, ‘‘एक्सिलेंट, स्मार्ट हैंडसम बौय, ब्यूटीफुल गर्ल.’’

उस के बाद कर्नल सिंह ने आगे बढ़ कर सब इंतजाम टेकओवर कर लिया. तुरंत कुली बुलवाया, अपनी कार में सामान रखवाया, कुली को भुगतान किया. हम लोगों ने जब इस का विरोध किया तो हमें डांटते हुए बोले, ‘‘कम आन, गेट इन. मेरा भतीजा है, पेमेंट करेगा?’’ कौन कहां बैठेगा? इस पर वह बोले, ‘‘शमीक, तुम शादीशुदा हो इसलिए आगे बैठोगे, और तुम दोनों पीछे.’’

जब अर्चिता ने कहा कि उसे नजदीक ही तो जाना है, टैक्सी ले लेगी तो उन्होंने चेहरे पर गंभीर भाव लाते हुए उसे कार के अंदर बैठा कर कार स्टार्ट करते हुए कहा, ‘‘नो, मैं कभी अलाउ नहीं कर सकता, मेरी जिंदगी का सिद्धांत है और मैं उसे कभी तोड़ नहीं सकता.’’

अर्चिता ने पूछा, ‘‘कैसा सिद्धांत सर?’’

कर्नल साहब गाड़ी निकालते हुए हंस कर बोले, ‘‘मैं कभी भी खूबसूरत, स्मार्ट लड़की को अकेले नहीं जाने देता.’’

अर्चिता के चाचा के घर पहुंच कर हम ने बाहर से ही विदा मांगी तो उस ने औपचारिकतावश कहा, ‘‘आइए, चाय पी कर जाइए, चाचाचाची से भी मिल लीजिएगा.’’

मैं ने कहा, ‘‘फिर कभी, अब देर हो गई है.’’

लेकिन तब तक कर्नल साहब गाड़ी से उतर कर, शीशा चढ़ा कर गाड़ी लाक कर के तैयार हो गए थे, ‘‘हांहां, चलो, एक कप चाय हो जाए और तुम्हारे चाचाचाची से भी मिल लेंगे. उन्हें भी तसल्ली हो जाएगी कि हम जैसे भले आदमियों ने उन की इतनी खूबसूरत भतीजी को सही- सलामत घर तक पहुंचा दिया है.’’

मैं तो उन को मुंहबाए खड़ा देखता रह गया. तब तक वे अर्चिता के साथ आगे बढ़ गए. कर्नल साहब, अर्चिता के चाचाचाची से बेहद गरमजोशी से मिले. चाय पीतेपीते उन्होंने उन दोनों पर भी पूरी तरह कब्जा कर लिया था. तरहतरह के किस्से सुनाते रहे और केयूर की तारीफ करते रहे. मैं आश्चर्य से सबकुछ सुनता रहा. जिस शख्स से वह आज पहली बार मिले हैं उस के बारे में यों बात कर रहे थे मानो बचपन से जानते हों. फिर अर्चिता की तारीफ करते हुए उन्होंने चाचाचाची को समझा दिया कि वह उन की भतीजी के लिए एवन लड़का लाएंगे, नो तिलक, नो दहेज, सबकुछ मुझ पर छोड़ दीजिए.

‘‘लेकिन अर्चिता के पिता फौजी से इस की शादी नहीं करना चाहते.’’

‘‘डोंट वरी सर, सिविल में भी फौजी किस्म के बहुत लड़के हैं. मैं सब ठीक कर दूंगा.’’

लगभग 12 बजे हम लोग वहां से निकले तो उन्होंने रास्ते में केयूर से पूछा, ‘‘यार, क्या नाम है तुम्हारा? भूल गया.’’

‘‘केयूर.’’

‘‘हां, केयूर, कहो तो बात करूं? लड़की के बारे में क्या खयाल है?’’

‘‘नहीं अंकल, ऐसी कोई बात नहीं है?’’

‘‘अरे, बेवकूफ, हाथ पकड़ ले, नहीं तो जिंदगी भर मेरी तरह पछताएगा.’’

‘‘आप की तरह?’’

‘‘हां, ऐसी परी जिंदगी में दोबारा नहीं मिलती.’’

केयूर शरमा गया, ‘‘ऐसी कोई बात नहीं है अंकल, केवल मामूली सी जानपहचान है.’’

‘‘मैं आंखें देख कर दिल की आवाज सुन लेता हूं बरखुरदार. जिंदगी भर फौज में लेफ्टराइट किया है और इश्क किया है, इस के अलावा कुछ नहीं,’’ फिर कर्नल सिंह गुनगुनाने लगे, ‘चांदी जैसा रंग है तेरा, सोने जैसे बाल. इक तू ही धनवान है गोरी, बाकी सब कंगाल.’

कर्नल सिंह की बातों और शायरी के बीच रास्ता कैसे कट गया पता ही नहीं चला. पता तो तब चला जब कार अपनी मंजिल पर पहुंच कर रुकी.

कर्नल साहब का घर छोटा था लेकिन बहुत ही आरामदेह और साफ- सुथरा था. घर के आगेपीछे 2 छोटेछोटे लौन थे. अंदर 2 बड़ेबड़े बेडरूम थे. ऊपरी मंजिल में भी कुछ निर्माण हुआ था जो अधूरा पड़ा था. कर्नल साहब की पत्नी बरामदे में बैठी अखबार पढ़ रही थीं. हम लोग भी वहीं बैठ गए.

आंटी चाय ले आईं. चाय पी कर कर्नल साहब ने अपना मकान और लौन हमें दिखाया. आंटी किचन में चली गईं. उन के लौन में मैं ने एक खास बात मार्क की कि वहां फूल का एक भी पौधा नहीं था. सामने वाले छोटे लौन के बीच में गोल्फ के लिए एक ‘होल’ था जिस में वह ‘पट’ की प्रैक्टिस करते थे.

मैं ने उत्सुकतावश पूछा, ‘‘अंकल, जाड़े की शुरुआत है, लेकिन आप के लौन में फूल का एक भी पौधा नहीं है. क्या आप को फूलों का शौक नहीं है?’’

कर्नल साहब ने संक्षिप्त जवाब दिया, ‘‘पहले था, अब नहीं है.’’

मैं ने उत्सुकतावश पूछा कि अंकल, आप ने आर्मी क्यों छोड़ दी? आप तो मेजर जनरल या लेफ्टिनेंट जनरल हो जाते.

कर्नल साहब ने कहा, ‘‘क्या करता? घर के बहुत सारे झंझट थे. मातापिता की मौत हो गई. 2 बेटियों की शादी करनी थी. वाइफ यहां अकेली पड़ गई,’’ फिर उन्होंने सरगोशी के अंदाज से कहा, ‘‘थोड़ा चेस्ट पेन भी होने लगा था. आर्मी में हर साल मेडिकल चेकअप होता है न? वेरी थारो.’’

‘‘अब फ्री हैं. दोनों बेटियों की शादी कर दी. दोनों अमेरिका में हैं. हम दोनों यहां अकेले हैं. नौकरचाकर का भी झंझट नहीं है. केवल सुबह एक पार्टटाइम सरर्वेंट आती है.’’

केयूर ने अचानक पूछा, ‘‘अंकल, फौजी अफसर हो कर आप को शायरी में इतना शौक कैसे है?’’

कर्नल साहब ने जोरदार ठहाका लगाया, ‘‘तुम सिविलियंस को गलतफहमी है कि फौजी केवल लेफ्टराइट करते हैं और दारू पीते हैं. फौजी शेरओशायरी, साहित्य के बहुत शौकीन होते हैं. मैं जब 5वीं बटालियन में तैनात था तो हमारी ब्रिगेड के मेजर पंजाबी थे, जिन्हें शायरी का बहुत शौक था. मेस में शाम को एकदो पैग व्हिस्की अंदर गई नहीं कि उन्होंने शायरी शुरू कर दी. 3-4 पेग पीने के बाद तो वह घंटों, शेर, गजल, नज्म सुनाते रहते थे और अंत में वह एक ही नज्म पढ़ते थे, ‘फिर कब आओगे बीमार हो कर?’

आंटी आईं तो अचानक कर्नल साहब ने कहा, ‘‘जानती हो केतकी, इस की जो गर्लफैं्रड है, शी इज वंडरफुल. इन की शादी करा दो, वरना जे.एन.यू. में एडमिशन हो जाने के बाद उस के पीछे लड़कों की लाइन लग जाएगी. बाद में पछताओगे बरखुरदार,’’ उन्होंने केयूर की ओर इशारा किया.

केयूर शरमा कर बोला, ‘‘नहीं आंटी, ऐसी कोई बात नहीं है, अंकल तो यों ही…’’

आंटी ने मुसकरा कर कर्नल साहब की पीठ पर एक चपत लगाई, ‘‘ये तो रोज पछताते हैं.’’

‘‘अरे, केतकी, तुम अर्चिता को देखना. शी विल बीट आल द फिल्म स्टार्स. अगर 30 साल पहले मुझे मिली होती तो मैं दौड़ कर उस से शादी कर लेता.’’

‘‘30 साल पहले तो वह पैदा ही नहीं हुई थी जनाब,’’ आंटी ने हंसते हुए कहा.

कर्नल साहब ने लंबी सांस ली, ‘‘न जाने खूबसूरत लड़कियां हमेशा देर से क्यों पैदा होती हैं.’’

‘‘अरे, बाबा, तुम लोगों को खाना नहीं खाना है? मैं तो चली, मुझे महिला क्लब की मीटिंग में जाना है. खाना खा कर थोड़ा आराम करूंगी फिर 3 बजे जाऊंगी. 5 बजे तक वापस आ जाऊंगी.’’

‘‘चलिए, हम लोग भी नहा लेते हैं,’’ और आंटी के साथ हम अंदर आ गए.

कर्नल साहब लौन में बैठ कर अखबार पढ़ने लगे. मैं उन के बाथरूम में चला गया. केयूर ड्राइंगरूम से लगे गेस्ट बाथरूम में चला गया. नहा कर हम निकले तो आंटी ने डाइनिंग स्पेस की ओर इशारा किया, ‘‘तुम दोनों बैठो, मैं तुरंत लंच लगाती हूं.’’

लंच खाते समय आंटी ने कर्नल साहब से कहा, ‘‘तुम अपनी चाभी ले लो. हो सकता है मुझे आने में देर हो जाए. तुम्हें भी तो क्लब जाना है न?’’

आंटी ने हम से कहा, ‘‘तुम दोनों बगल वाले मेरे रूम में आराम करो. सब ठीकठाक कर दिया है. कहीं बाहर जाना है तो मैं अपनी ‘स्पेयर की’ दे देती हूं.’’

केयूर ने उठते हुए कहा, ‘‘आंटी, मुझे कनाट प्लेस जाना है. सोचता हूं इंटरव्यू की जगह देख आऊं. दिल्ली दूसरी बार आया हूं, 1-2 परिचितों से मिलना भी है. मैं 7 बजे तक आऊंगा.’’

कर्नल साहब ने ठहाका लगाया, ‘‘अरे, मैडम, अपनी जवानी भूल गई. क्या नाम है उस का? अ…… हां, अर्चिता, उस से भी तो मिलने जाना है. साफसाफ कैसे कहे बेचारा?’’

मैं भी उठते हुए बोला, ‘‘आंटी मैं भी एम्स तक जाऊंगा. कुछ दोस्तों से मिलना है. मैं भी 7 बजे तक आ जाऊंगा.’’

‘‘ओ.के. ब्यौज इंज्वाय योर सेल्फ. लेकिन 7 बजे तक जरूर आ जाना. वी विल हैव ड्रिंक्स टूगेदर, सेलीबे्रट करना है.’’

कर्नल साहब जल्दी लौटने की बात कहते हुए गेट तक आए. मैं ने फिर उत्सुकतावश कैक्टस और क्रोटन के पौधों को देखते हुए पूछा, ‘‘अंकल, क्या आंटी को भी फूलों का शौक नहीं है.’’

कर्नल साहब ने कहा, ‘‘उसे तो फूलों से बहुत प्यार है, लेकिन मैं लगाने नहीं देता.’’

‘‘क्यों अंकल?’’

कर्नल साहब ने आंखों से गोपनीयता का इशारा किया और फिर उन के मुंह से यह शेर फूटा, ‘‘मैं वो गुलशन गजिदा हूं कि तनहाई के मौसम में, नहीं होते अगर कांटे तो डंसती है कली मुझ को.’’

शाम को वापस आतेआते मुझे साढ़े 7 बज गए थे. केयूर भी कुछ देर पहले ही आया था. कर्नल साहब तैयार हो कर ड्राइंगरूम में बैठे थे. उन के सामने मेज पर 3 कट ग्लास, डिकैंटर में व्हिस्की और प्लेट में स्नैक्स थे. केयूर एक ओर बैठा टीवी देख रहा था.

मेरे आते ही उन्होंने केयूर को अपने पास बुलाया और हम दोनों को बैठने को कहा, ‘‘आओ भाई, जल्दी करो. मैं क्लब से कबाब, फिश और चिप्स लाया हूं. मेरे क्लब जैसा कबाब पूरी दिल्ली में कहीं नहीं मिलेगा.’’

आंटी किचेन में एप्रन पहने खाना बना रही थीं, आकर बोलीं, ‘‘चिकन बना रही हूं, 1 घंटे में खाना तैयार हो जाएगा.’’

कर्नल साहब ने इतनी तैयारी की थी, इतना उत्साहित थे और इतना अपनापन था कि मैं उन्हें निराश नहीं कर सका.

आंटी ने प्लेट में कुछ और खाने का सामान ला कर दिया. केयूर ने कहा, ‘‘सर, कल 10 बजे मुझे इंटरव्यू में भी जाना है.’’

कर्नल साहब ने कबाब का एक टुकड़ा उठाते हुए कहा, ‘‘कोई बात नहीं, मैं 5 बजे उठा दूंगा.’’

हमारे खानेपीने के दौरान आंटी हाथ में कोल्ड ड्रिंक ले कर आईं और कुरसी खींच कर बैठ गईं. पसीना पोंछते हुए बोलीं, ‘‘इसीलिए तो हम ने अपनाअपना बेड अलग कर लिया है. मैं गेस्टरूम में शिफ्ट कर गई हूं.’’

कर्नल साहब ने कृत्रिम गंभीर मुद्रा बना कर कहा, ‘‘देखा यारों, बुढ़ापे में बीवी भी साथ छोड़ देती है.’’

आंटी हंस कर बोलीं, ‘‘बात यह है कि ये रोज शाम को 9 बजे तक खाना खा कर कुछ देर टेलीविजन देखते हैं फिर 10 बजतेबजते खर्राटा मारने लगते हैं. मेरा काम 10 बजे के बाद शुरू होता है, क्लास की तैयारी, पेपर्स करेक्ट करना, सवाल सेट करना और इन कामों में ही मुझे 12 बज जाते हैं. फिर यह उठते हैं 5 बजे सुबह. जौगिंग के लिए कपड़े बदलते हैं, खटरपटर करते हैं, बाथरूम जाते हैं, मेरी नींद में खलल पड़ता है.’’

कर्नल साहब बोले, ‘‘कितना कहता हूं कि तुम भी जौगिंग पर चलो, नहीं तो कम से कम सुबह की सैर ही किया करो स्लिमट्रिम हो जाओगी. लेकिन यह मानने वाली नहीं हैं. देखते हो, इन का पेट कितना निकल आया है.’’

आंटी उठ कर बोलीं, ‘‘बेटा, 12 बजे रात तक काम करने के बाद सुबह 5 बजे उठ कर सैर पर जाना क्या संभव है. फिर घुटने में दर्द रहता है इसलिए भी ज्यादा चल नहीं सकती.’’

कर्नल साहब ने कहा, ‘‘मेरे साथ गोल्फ खेलो, सब ठीक हो जाएगा.’’

आंटी बोलीं, ‘‘तुम्हारी तरह फुरसत कहां कि बनठन कर, सेंट लगा कर क्लब जाओ, मौज करो.’’

आंटी कर्नल साहब के बालों में उंगलियां फंसा कर उन्हें बिखराते हुए किचेन की ओर चली गईं.

कर्नल साहब ने कहा, ‘‘देखा, मेरे जैसे ब्रिलियंट हार्ड वर्किंग आफिसर को यह कहती हैं मैं कुछ नहीं करता? अब सेंट कहां यारों, नो सेंट, नो फ्लावर.’’

हमें याद आया, ‘‘हां अंकल, ये फूलों का राज क्या है?’’

‘‘ओह,’’ कर्नल साहब मुसकराए और बोले, ‘‘कम आन यंग मैन, बाटम्स. अब याद आने से बहुत तकलीफ होती है. इसीलिए कहता हूं कि…क्या नाम है उस का?’’

‘‘अर्चिता.’’

‘‘हां, अर्चिता को छोड़ना मत. बिलकुल उसी की तरह, फूलों की सुगंध वाली परी. जवानी याद आ जाती है… इसीलिए अब फूल के पौधे नहीं लगाता हूं, न घर में फूलों के गुलदस्ते रखता हूं.’’

कर्नल साहब कुछ देर अतीत में खोए रहे फिर उन्होंने मुसकरा कर कहा, ‘‘जानते हो, मैं हाकी बहुत अच्छी खेलता था. मैं ने नेशनल टीम रिप्रेजेंट की है. उन दिनों हाकी बहुत लोकप्रिय खेल था और हाकी के खिलाड़ी नेशनल स्टार होते थे, आजकल के क्रिकेटर्स की तरह. लड़कियां फिदा रहती थीं. जहां जाता था लड़कियां, एक से एक खूबसूरत, दौड़ी आती थीं. 3 साल की पीस पोस्टिंग थी. क्या दिन थे. देखो, ये मेरी ट्राफियां हैं और वह मेरी फोटो.’’

उन्होंने मेटल पीस और उस की बगल में शीशे की अलमारी की ओर इशारा किया. उस पर उन की यूनिफार्म में फोटो रखी थी. वाकई कर्नल साहब बहुत ही स्मार्ट और खूबसूरत थे.

‘‘जब भी मेरा मैच होता था, वह जरूर देखने आती थी. वह हसीनों में सब से हसीन थी, बिलकुल किसी परी जैसी चलती थी तो लगता था हवा में तैरती हुई आ रही है. देखती थी तो लगता था बोलने की जरूरत नहीं, आंखें ही सबकुछ कह देंगी. गालिब का वह शेर है न :

‘‘क्या हुस्न का अफसाना महफूज हो लफ्जों में,

आंखें ही कहें उस को, आंखों ने जो देखा है.’’

‘‘उस की पर्सनाल्टी को कोई बयान नहीं कर सकता. देख लिया तो समझो दिमाग पर नकशा बन गया. मरते दम तक याद रहा. वह क्या नाम है, अर्चिता? वह भी कुछ उसी की तरह है. लंबी गरदन के ऊपर चेहरा हमेशा लगता था मानो एक गुलाब है, जो अभीअभी खिला है, ओस की बूंदों के साथ. जब भी उसे देखता था मुझे 2 ही फूल याद आते थे, एक गुलाब और दूसरा सूरजमुखी. हमेशा ताजा गुलाब सा चेहरा और जब किसी की ओर मुड़ कर देखती थी तो लगता था सूरजमुखी का फूल झुक गया है. उसे देखने के बाद दिल में यही खयाल आता था, ‘‘अब तो यह तमन्ना है किसी को भी न देखूं, सूरत जो दिखा दी है तो ले जाओ नजर भी.’’

आंटी हलके से लंगड़ाती हुई आईं और कुरसी खींच कर बैठ गईं.

कर्नल साहब ने कहा, ‘‘मैं इन दोनों को अपनी जवानी के किस्से सुना रहा था, जब मैं हाकी खेलता था.’’

आंटी के चेहरे पर खुशी की आभा फैल गई. वह हंस कर बोलीं, ‘‘जवानी में तो इन्हें हर महीने एक लड़की से इश्क होता था. वह तो मैं ने पकड़ कर इन्हें बांध लिया तब बंद हुआ.’’

तभी किचेन के अंदर से कुकर की सीटी की आवाज आई. आंटी ने कहा, ‘‘खाना लगाती हूं. बस, 15 मिनट.’’

कर्नल साहब ने कहा, ‘‘प्रोफेसर की बेटी थी, पढ़ने में तेज थी. मैं तो हमेशा एवरेज स्टूडेंट रहा. जानते हो, उस की सब से बड़ी खूबी थी कि उस के बदन से हमेशा फूलों की सुगंध आती थी. वह न सेंट लगाती थी न इत्र, हलकी लिपस्टिक के अलावा कोई मेकअप भी नहीं करती थी. पाउडर से उसे नफरत थी, फिर भी हमेशा उस के बदन से सुगंध आती थी.’’

‘‘कैसी सुगंध अंकल?’’

‘‘कौन सा फूल है जो सब से अधिक सुगंध वाला है? हां, याद आया, चंपा.’’

‘‘हांहां, मेरे घर में एक पेड़ है. पूरा कंपाउंड उस के फूलों की सुगंध से भर जाता है, अगलबगल के लोग शाम को आते हैं, उस की महक लेने.’’

‘‘हां, चंपा का फूल पूरी दुनिया में सब से अधिक सुगंध वाला फूल है. उस के बदन से हमेशा चंपा के फूलों की महक आती थी.’’

इतना कह कर कर्नल सिंह खामोश हो गए. हम अपनेअपने खयालों में डूबे रहे. फिर मैं ने पूछा, ‘‘फिर क्या हुआ अंकल?’’

आंटी बगल से प्लेट, ग्लास ले कर गुजरीं. चिकन, प्याज और सब्जी की सुगंध आई. कर्नल साहब बोले, ‘‘बस, खो दिया, पर केयूर, तुम मत खोना. पूरी जिंदगी याद आती रहेगी.’’ वह उठ गए, ‘‘चलो, आंटी की मदद करो, किचेन से खाना ले आओ.’’

खाना खाने के बाद आंटी हम दोनों को अपने बेडरूम में ले गईं. हम लोगों का सामान वहां रखा था. दोनों बेडों पर साफसुथरी चादरें बिछी थीं. हलकी ठंड थी इसलिए खिड़कियां बंद थीं. आंटी ने मुझे बाथरूम दिखाया. सुबह 7 बजे चाय, ओ.के. गुडनाइट.

आंटी चली गईं. हम लोग हाथमुंह धो कर कपड़े बदलने लगे. बगल की मेज पर 1 फोटो रखा था, अति सुंदर तन्वंगी. गौर से देखा, तब पहचाना, वही नाकनक्श और आंखें, आंटी का ही फोटो था, उन की जवानी के दिनों का. हम दोनों ने एकदूसरे को देखा, ‘‘आंटी का फोटो है, विश्वास नहीं होता. इतनी स्मार्ट, खूबसूरत. इनसान उम्र के साथ कितना बदल जाता है?’’

दिन भर के थके हुए हम दोनों अपने बिस्तर में जा कर चादर ओढ़ कर लेटे ही थे कि तकिए पर सिर रखते ही दोनों झटके से उठ कर बैठ गए और आश्चर्य से एकदूसरे की ओर देखने लगे. अरे, यह क्या? अचानक एहसास हुआ कि पूरे कमरे में चंपा के फूलों की सुगंध फैली थी. हम दोनों को ही कर्नल अंकल की चंपा के फूलों की खुशबू वाली लड़की का खयाल आ गया. पर उन्होंने तो अभी कहा था कि बस…खो दिया. नहीं…उन्होंने उसे पा लिया था.

Hindi Kahani : अब क्या करूं मैं

Hindi Kahani : ‘‘भाभी, शीशे पर क्या गुस्सा निकाल रही हो, जो हो रहा है उसे होने दो. मैं तो कई साल पहले से ही जानती थी. आज का यह दिन तुम्हें न देखना पड़े इसीलिए तो सदा टोकती रही हूं कि अपना व्यवहार इतना भी हलका न बनाओ…’’

‘‘मेरा व्यवहार हलका है?’’ सदा की तरह भाभी ने आंखें तरेरीं, ‘‘तू होगी हलकी…तेरा सारा खानदान होगा हलका…’’

भैया और भतीजा पास ही खड़े थे. मेरी आंखें उन से मिलीं. शरम आ रही थी उन्हें अपनी पत्नी और मां के व्यवहार पर. आज बरसों बाद मैं मायके आई हूं. नाराज थी भाभीभाई से, ऐसा कहना उचित नहीं होगा, मैं तो बस, भाभी के व्यवहार से तंग आ कर मायके को त्याग चुकी थी.

भाभी का ओछा व्यवहार और ऊपर से भैया का चुपचाप सब सुनते रहना जब तक सहा गया सहती रही और जब लगा अब नहीं सह सकती, पीठ दिखा दी. उम्र के इस पड़ाव पर, जब मैं भी सास बन चुकी हूं और भाभी भी दादीनानी, बच्चों की तरह उन का लड़ पड़ना अभी गया नहीं है. आज भी उन में परिपक्वता नहीं आई.

‘‘मेरे खानदान को छोड़ो भाभी, तुम्हारामेरा खानदान अलगअलग कहां है, जो खानदान पर उतर आई हो. आधी उम्र मैं इस खानदान की बेटी रही हूं, मेरा खानदान तो यह भी है, जो आज तुम्हारा है. हमारी उम्र इस तरह लड़ने की नहीं रही जो हम ऊलजलूल बकते रहें. आज सवाल हमारे बच्चों का है कि हमारे व्यवहार से उन का अनिष्ट हो, ऐसा नहीं होना चाहिए.’’

‘‘अरे, मेरी बेटी का सर्वनाश तो तेरे कारण हो रहा है चंदा, तेरी ही ससुराल के हैं न उस के ससुराल वाले…तू ही उस का पैर वहां लगने नहीं देती.’’

‘‘मेरी ससुराल में जब बेटी का रिश्ता किया था तब क्या मुझ से पूछा था तुम ने, भाभी? भैया, आप ने भी जरूरी नहीं समझा मुझे बताना कि लड़का कितना पढ़ालिखा है, कोई बुरी आदत तो  नहीं. भला मुझ से बेहतर कौन बताता आप को जिस के सामने वह पलाबढ़ा है… तब तो मैं आप को दुश्मन नजर आती थी कि कहीं रिश्ता ही न तुड़वा दूं.

‘‘मुझे तो पता ही तब चला था जब मेरी चचिया सास ने शादी का कार्ड हाथ में थमा दिया था. क्या कहती मैं तब अपनी ससुराल में कि आने वाली मेरी सगी भतीजी है, जिस की मां और बाप ने मुझे एक बार पूछा तक नहीं.’’

गला भर आया मेरा, ‘‘जानती हो भाभी, मेरी चचिया सास ने भी इसी अनबन का फायदा उठाया और अपना खोटा सिक्का चला लिया. अब जो हो रहा है उस में मेरा दोष क्यों निकाल रही हो. तुम्हारी बच्ची वहां सुखी नहीं है तो उस में मैं क्या करूं? न मैं कल किसी गिनती में थी न ही मैं आज किसी गिनती में हूं.’’

‘‘उसी का बदला ले रही है न चंदा, तू चाहती है कि मेरी बेटी तेरी जूती के नीचे रहे…’’

‘‘मेरा घर तो उस के घर से 50 किलोमीटर दूर है भाभी. भला मेरी जूती के नीचे वह कैसे रह सकती है? सच तो यह है कि जो कलह तुम सदा यहां डालती रही हो उसी को अपनी बच्ची के संस्कारों में गूंथ कर तुम ने साथ बांध दिया है. एक तो सोना उस पर सुहागा. पति अच्छा होता तो पत्नी की आदतों पर परदा डालता रहता…जिस तरह भैया डालते रहे हैं लेकिन वहां वह भी तो सहारा नहीं है… शराबी, चरित्रहीन पति, पत्नी को नंगा करने में लगा रहता है और पत्नी, पति के परदे तारतार करने से नहीं चूकती. उस पर आग में घी का काम तुम करती हो.

‘‘बेटी का घर बसाना चाहती हो तो कम से कम अब तो जागो और बेटी को समझाओ कि समझदारी से काम ले. घर में रुपएपैसे की कमी नहीं है. लड़का अच्छा नहीं, लेकिन सासससुर तो लड़की को सिरआंखों पर रखते हैं. पति को समझाए, उसे सुधारने का प्रयास करे.’’

‘‘कैसे समझाए उसे मेरी बेटी? उस के तो 10-10 हजार चक्कर हैं. कईकई दिन वह घर ही नहीं आता. ऊपर से तू भी उसी को दोष देती है.’’

‘‘तो क्या करूं मैं? कोई बीच का रास्ता निकालना होगा न हमें. कम से कम घर तो संभाल ले तुम्हारी बेटी…सासससुर इज्जतमान देते हैं तो उन्हीं का मान रख कर घर में सुखशांति बनाने की कोशिश करे. मेरे दोष देने या न देने का कोई अर्थ नहीं है भैया, मैं कब उस के घर जाती हूं. तुम ने इतना प्यार ही कहां छोड़ा है कि वह बूआ के घर आना चाहे या मैं ही उसे अपने घर बुलाऊं…तुम्हारे परिवार से दूर ही रहने में मैं अपना भला समझती हूं.’’

मन भर आया मेरा और मैं अतीत में विचरण करने लगी. यही वह घरआंगन है जहां मैं और भैया दिनभर धमाचौकड़ी मचाते थे. अच्छा संस्कारी परिवार था हमारा मगर भाभी के आते ही सब बिखर गया. छोटे दिलोदिमाग की भाभी की जबान गज भर लंबी थी. कुदरत ने शायद लंबी जबान दे कर ही बुद्धि और विवेक की भरपाई करने का प्रयास कर दिया था, जिस का भाभी जम कर इस्तेमाल करती थीं. अवाक् रह जाते थे हम सब. बच्चों की तरह लड़ पड़ती थीं मुझ से. समझ में नहीं आता था कि भाभी का दिमाग इस दिशा में जाता है तो जाता कैसे है.

एक पढ़ालिखा सभ्य इनसान किसी दूसरे पर सीधासीधा आरोप लगाने से पहले हजार बार सोचता है कि बरसों का रिश्ता कहीं टूट ही न जाए, लेकिन भाभी तो अपनी जरा सी चीज आगेपीछे होने पर भी झट से मुझ पर आरोप लगा देती थीं कि मैं ने अपनी आंखों से देखा है.

स्तब्ध रह जाती थी मैं. कैसी बातें करती हैं भाभी. पहलेपहल तो सब मुझे शक से देखते रहे थे फिर धीरेधीरे समझ गए कि यह सब भाभी के ही दिमाग की उपज है.

भैया से 4-5 साल छोटी हूं मैं और मांबाप की लाड़ली, समझदार बेटी जो भाभी के आते ही चोर, चुगलखोर और पता नहीं क्याक्या बन गई थी.

‘यह क्या हो गया है तुम्हें चंदा, तुम भाभी से झगड़ा क्यों करती हो? उस का सामान भी उठा ले जाती हो और पैसे भी निकाल लेती हो. तुम तो ऐसी नहीं थीं. क्या भाभी से तालमेल बिठाना नहीं चाहती हो? तुम्हें भी तो एक दिन ससुराल जाना है और अगर तुम्हारी ननद भी ऐसा ही करे तुम्हारे साथ तो कैसा लगेगा तुम्हें?’ भैया ने अकेले में ले जा कर एक दिन पूछा था.

मेरे तो पैरों के नीचे से जमीन ही निकल गई थी. यह क्या कह रहे हैं भैया. तब समझ में आया भैया के खिंचे- खिंचे रहने का कारण.

‘मैं ने भाभी के पैसे निकाल लिए? नहीं तो भैया, जरूरत होगी तो आप से या पिताजी से मांग लूंगी. भाभी के पैसे चुराऊंगी क्यों मैं?’

‘तुम ने अपनी भाभी के 300 रुपए नहीं निकाल लिए? और वह शिकायत कर रही है कि उस का भारी दुपट्टा और सुनहरी वाली सैंडल भी…’

‘भैया, भारी दुपट्टा मेरे किस काम का और भाभी के पैर का नाप मेरे पैर में कहां आता है? कैसी बेसिरपैर की बातें करते हो तुम, जरा सोचो, दुलहन का सामान मेरे किस काम का?’

‘वह कहती है कि तुम उस का सामान चुरा कर अपने लिए संभाल रही हो.’

असमंजस में पड़ गई थी मैं. क्या हमारे इतने बुरे दिन आ गए हैं कि मैं अपनी भाभी का सामान चुरा कर अपना दहेज सहेजूंगी.

पता नहीं कैसे मां ने भी हमारी बातें सुन लीं और हक्कीबक्की सी भीतर चली आईं.

‘क्या यह सच है, चंदा? तू ने अपनी भाभी का सामान चुराया है?’

काटो तो खून नहीं रहा था मुझ में. क्या मां की भी मति मारी गई है? उस पर भाभी का यह भी कहना कि मैं ने अपनी आंखों से देखा है.

ऐसी खाई खोद दी थी भाभी ने घर के सदस्यों के बीच जिसे पाटना सब के बस से बाहर था.

हर पल वह किसी न किसी पर कोई न कोई लांछन लगाती रहतीं जिस पर हमारा परिवार हर पल अपनी ईमानदारी ही प्रमाणित करने में लगा रहता था. लगता, हम सब चोर हैं जो बस, भाभी के ही सामान पर नजर गड़ाए रहते हैं.

‘कहीं की रानीमहारानी है क्या यह लड़की?’ गुस्से में बोल पड़े थे पिताजी, ‘जब देखो, किसी न किसी को चोर बना देती है. हम भूखेनंगे हैं क्या जो इसी के सामान पर हमारी नजरें रहें. बेटा, इस ने हमारा जीना हराम कर दिया है. क्या करें हम, कहां जाएं, हमारा तो बुढ़ापा ही खराब हो गया है इस के आने से.’

2-3 साल बीततेबीतते मेरी शादी हो गई थी और मांपिताजी ताऊजी के पास रहने चले गए थे. उन्होंने अपने  प्राण भी वहीं छोड़े थे और मेरा मायका भी इसी दुख में छूट गया था.

भाई का घर बसा रहे इस प्रयास में सारे बंधन तोड़ दिए थे मैं ने. भाभी के बच्चे बहुत छोटे थे तब, जब मैं ने आखिरी बार मायका देखा था. भैया कभी शहर से बाहर जाते तो मुझ से मिलते जाते जिस से थोड़ीबहुत खबर मिलती रहती थी वरना मैं ने तो मायके की ओर से कभी के हाथ झाड़ लिए थे.

बेटे की शादी पर भी मैं यह सोच कर नहीं आई कि क्या पता भाभी इस बार कौन सी चोरी का इल्जाम लगा दें. मैं ने अपनी बेटी की शादी में सिर्फ भैया को बुलाया था जिस पर भाभी ने यह आरोप लगाया था कि भैया ने भाभी का सोने का हार ही मुझे दे दिया है.

एक दिन मैं ने भैया से फोन पर पूछा था कि भाभी का कौन सा हार उन्होंने मुझे दिया है तो रो पड़े थे वह, ‘जीवन नर्क हो गया है मेरा चंदा, मैं क्या करूं ऐसी औरत का…न जीती है न जीने देती है…जी चाहता है इसे मार दूं और खुद फांसी पर लटक जाऊं.’

भाई की हालत पर तरस आ रहा था मुझे. रिश्तों के बिना इनसान का कोई अस्तित्व नहीं और जब यही रिश्ते गले की फांस बनने लगें तो कोई कैसे इन रिश्तों का निर्वाह करे. प्रकृति कैसेकैसे जीवों का निर्माण कर देती है जो सदा दूसरों को पीड़ा दे कर ही खुश होते हैं. जब तक 2 घरों में आग न लगा लें उन्हें चैन ही नहीं आता.

‘‘चंदा, तू कभी मेरा भला नहीं होने देगी. अगर मुझे पता होता तो मैं कभी तेरी ससुराल में लड़की न देती.’’

भाभी के ये शब्द कानों में पड़े तो  मेरी तंद्रा टूटी.

भैया और भतीजा मेरे समीप चले आए थे. क्या उत्तर था मेरे पास भाभी के आरोपों का.

‘‘बूआ, आइए, आपऊपर चलिए, सफर की थकावट होगी. हाथमुंह धो कर कुछ खा लीजिए,’’ भतीजे ने मेरी बांह पकड़ी और भैया ने भी इशारे से साथ जाने को कहा. भाभी का विलाप वैसा ही चलता रहा.

अनमनी सी मैं ऊपर चली आई और पीछेपीछे भाभी का रुदन कानों में पड़ता रहा. तभी सिर पर पल्लू लिए सामने चली आई एक प्यारी सी बच्ची.

‘‘यह आप की बहू है, बूआ,’’ भतीजे ने कहा, ‘‘पूजा, बूआ को प्रणाम करो.’’

‘‘जीती रहो,’’ आशीर्वाद दे कर मन भर आया मेरा. रक्त में लहर सी दौड़ने लगी. मेरे भाई का बच्चा है न यह, इस की शादी में आती तो क्या बहू के लिए कोई गहना न लाती.

गले की माला उतार बहू के गले में पहनाने लगी तो भतीजे ने मेरा हाथ रोक दिया, ‘‘बूआ, आप इस घर की बेटी हैं, आप को हम ने दिया ही क्या है जो आप से ले लें.’’

‘‘बेटा, अधिकार तो दे सकते हो न, जिस का हनन बरसों पहले भाभी ने सब को अपमानित कर के किया था. टूटे रिश्तों को तुम जोड़ पाओ तो मैं समझूंगी आज भी कोई घर ऐसा है जिसे मैं अपना मायका कह सकती हूं.’’

यह कह कर मैं रो पड़ी थी तो भतीजे ने अपना हाथ पीछे कर लिया था. माला बहू के गले में पहना कर मैं ने उस का माथा चूम लिया. बड़ी प्यारी लगी मुझे पूजा. झट से मेरे लिए नाश्ता परोस लाई. उसी पल मुझे समझ में आ गया कि भैयाभाभी नीचे अलग रहते हैं और बहूबेटा ऊपर अलग हैं.

‘‘बूआ, पूजा का भी मां ने वही हाल किया था जो आप का हुआ. जो भी मां से छू भर जाता है उसी पर मां कोई न कोई आरोप लगा देती हैं. किसी दूसरे के मानसम्मान की मां को कोई चिंता नहीं. हैरान हूं मैं कि कोई इतना सब कैसे और क्यों करता है. आज कोई भी मां के पास जाना नहीं चाहता है. अपनी ईमानदारी पूजा भी कब तक प्रमाणित करती. इस की मां ने ही इसे 50 तोला सोना दिया है और मां ने इस पर भी अपनी अंगूठी उठा लेने का आरोप लगा दिया…और सब से बड़ी बात जिन चीजों के खो जाने के आरोप मां लगाती हैं वह चीजें वास्तव में होती ही नहीं हैं. मां एक काल्पनिक चीज गढ़ लेती हैं जो न कभी मां के पास मिलती है न ही उस के पास मिलती है जिस पर मां आरोप लगाती हैं.’’

याद आया मुझे, जब पहली बार भाभी ने मुझ पर आरोप लगाया था. भारी दुपट्टा और सुनहरी सैंडल का, ये दोनों चीजें कभी मिली ही नहीं थीं.

‘‘मां का ध्येय मात्र दूसरे को अपमानित करना होता है इसलिए वह अपनी कोई भी चीज खो जाने का बहाना करती रहती हैं… मैं क्या करूं बूआ, वह समझती ही नहीं.

‘‘और यही सब मां ने निशा को भी सिखा दिया है. मैं मानता हूं कि उस का पति पहले थोड़ा बिगड़ा हुआ था, अब शादी के बाद काफी संभल गया है, लेकिन निशा बातबेबात हर पल मां जैसा व्यवहार ससुराल में करती रहती है, जिस पर उस का पति तिलमिलाता रहता है. उस पर, उस की मां पर अपना कोई न कोई सामान चुरा लेने का आरोप निशा लगाती रहती है. अब आप ही बताओ, घर में शांति कैसे रहेगी…अपनी इज्जत तो सब को प्यारी है न बूआ.’’

‘‘अपनी मां को किसी डाक्टर को दिखाओ. कहीं कोई मनोवैज्ञानिक कारण ही न हो.’’

‘‘हर बेटी अपनी मां के चरित्र का आईना होती है. जो मां ने नानी से सीखा वही निशा में रोपा. बीमार होते हैं ऐसे लोग, जो जहां जाते हैं असंतोष और आक्रोश फैलाते हैं. आप ने हमें छोड़ दिया, दादादादी ने भी ताऊजी के पास ही रहना ठीक समझा. धीरेधीरे सब दूर हो गए. पूजा भी साथ नहीं रहना चाहती. निशा का पति भी अब उसे साथ नहीं रखना चाहता.

‘‘बूआ, मैं ने इसीलिए आप को बुलाया था कि इस टूटी डोर का एक सिरा पकड़ कर अपनी मां के किए का कुछ प्रायश्चित्त कर सकूं.’’

मेरी गोद में सिर छिपा कर रोने लगा मेरा भतीजा.

‘‘हर बेटी यही चाहती है कि उस का मायका रसताबसता रहे, फलताफूलता रहे क्योंकि मायका उसे बड़ा प्यारा होता है. वहां से मिले शगुन के 5 रुपए भी बेटी को लाखों के बराबर लगते हैं. चाहे बेटी अपने घर करोड़पति ही क्यों न हो… तुम सब को मेरी उम्र भी लग जाए… मेरे मुंह से हर समय यही निकलता है.’’

उस मर्म को मैं सहज ही महसूस कर सकती हूं जो आज भैया का है, उन के बेटे का है. क्या करते भैया भी. जिस का हाथ पकड़ा था उस का परदा तो रखना ही था. यह अलग बात है कि उसी ने पूरे घर, हर रिश्ते को नंगा कर दिया. हर रिश्ता दोनों तरफ से निभाना पड़ता है. अकेला इनसान कब तक अपने हिस्से का दायित्व निभाता रहेगा. एक रिश्ते का पूर्ण रूप तभी सामने आता है जब दोनों तरफ से निभाया जाए. अकेले की तूती ज्यादा देर तक नहीं बज सकती.

रो रहा था मेरा भतीजा. उस का मन तो हलका हो गया होगा लेकिन मेरे मन का बोझ यह सोच कर बढ़ने लगा था कि कैसे मैं अपनी चचिया सास के घर जा कर भतीजी की वकालत कर पाऊंगी. कैसे उसे समझा पाऊंगी कि वह अपनी बहू को माफ कर दें. सत्य तो यही है न कि आज तक मैं खुद भी अपनी भाभी को क्षमा नहीं कर पाई हूं.

‘‘बूआ, आप सिर्फ एक बार कोशिश कर के देखिए. मैं नहीं चाहता कि निशा का घर उजड़ जाए. मैं हाथ जोड़ता हूं आप के सामने, आप एक बार निशा के पति को समझाइए और मैं भी निशा को समझाऊंगा.’’

‘‘मैं जाऊंगी, बेटा, निशा मेरी भी तो बच्ची है. मैं कोशिश करूंगी पर तुम हाथ मत जोड़ो.’’

घर का माहौल बोझिल था फिर भी भैया ने मुझे नेग दे कर विदा किया.

भाभी सदा की तरह आज भी बाहर नहीं आईं. कुछ लोग अपने कर्मों की जिम्मेदारी कभी लेना ही नहीं चाहते. वापस लौट आई मैं. मेरा परिवार मुझे वापस पा कर बहुत खुश था.

Best Story : टूटते जुड़ते सपनों का दर्द

Best Story : कालेज की लंबी गोष्ठी ने प्रिंसिपल गौरा को बेहद थका डाला था. मौसम भी थोड़ा गरम हो चला था, इसलिए शाम के समय भी हवा में तरावट का अभाव था. उन्होंने जल्दीजल्दी जरूरी फाइलों पर हस्ताक्षर किए और हिंदी की प्रोफेसर के साथ बाहर आईं. अनुराधा की गाड़ी नहीं आई थी, सो उन्हें भी अपनी गाड़ी में साथ ले लिया. घर आने पर अनुराधा ने बहुत आग्रह किया कि चाय पी कर ही वे जाएं, लेकिन एक तो गोष्ठी की गंभीर चर्चाओं पर बहस की थकान, दूसरे मन की खिन्नता ने वह आमंत्रण स्वीकार नहीं किया. वे एकदम अपने कमरे में जाना चाह रही थीं.

सुबह से ही मन खिन्न हो उठा था. अगर यह अति आवश्यक गोष्ठी नहीं होती तो वे कालेज जाती भी नहीं. आज की सुबह आंखों में तैर उठी. कितनी खुश थीं सुबह उठ कर. सिरहाने की लंबी खिड़की खोलते ही सिंदूरी रंग का गोला दूर उठता हुआ रोज नजर आता. आज भी वे उस रंग के नाजुक गाढ़ेपन को देख कर मुग्ध हो उठी थीं. तभी पड़ोस में रहने वाली अनुराधा के नौकर ने बंद लिफाफा ला कर दिया, जो कल शाम की डाक से आया था और भूल से उन के यहां डाकिया दे गया था.

उसी मुदित भाव से लिफाफा खोला. छोटी बहन पूर्वा का पत्र था उस में. गोल तकिए पर सिर टेक कर आराम से पढ़ने लगीं, लेकिन पढ़तेपढ़ते उन का मन पत्ते सा कांपने लगा और चेहरे से जैसे किसी ने बूंदबूंद खुशी निचोड़ ली थी. ऐसा लगा कि वे ऊंची चट्टान से लुढ़क कर खाई में गिर कर लहूलुहान हो गई हैं. जैसे कोई दर्द का नुकीला पंजा है जो धीरेधीरे उन की ओर खौफनाक तरीके से बढ़ता आ रहा है. उन की आंखों से मन का दर्द पानी बन कर बह निकला.

दरवाजे की घंटी बजी. दुर्गा आ गई थी काम करने. गौरा ने पलकों में दर्द समेट लिया और कालेज जाने की तैयारी में लग गईं. मन उजाड़ रास्तों पर दौड़ रहा था, पागल सा. आंखें खुली थीं, पर दृष्टि के सामने काली परछाइयां झूल रही थीं. कितनी कठिनाई से पूरा दिन गुजारा था उन्होंने. हंसीं भी, बोलीं भी, कई मुखौटे उतारतीचढ़ाती भी रहीं, परंतु भीतर का कोलाहल बराबर उन्हें बेरहमी से गरम रेत पर पछाड़ता रहा. क्या पूर्वा का जीवन संवारने की चेष्टा व्यर्थ गई? क्या उन के हाथों कोई अपराध हुआ है, जिस की सजा पूरी जिंदगी पूर्वा को झेलनी होगी?

अपने कमरे में आ कर वे बिस्तर पर निढाल हो कर पड़ गईं. मैले कपड़ों की खुली बिखरी गठरी की तरह जाने कितने दृश्य आंखों में तैरने लगे. विचारों का काफिला धूल भरे रास्तों में भटकने लगा.

3 भाइयों के बाद उन का जन्म हुआ था. सभी बड़े खुश हुए थे. कस्तूरी काकी और सोना बूआ बताती रहती थीं कि 7 दिन तक गीत गाए गए थे और छोटेबड़े सभी में लड्डू बांटे गए थे. बाबा ने नाम दिया, गौरा. सोचा होगा कि बेटी के बाद और लड़के होंगे. इसी पुत्र लालसा के चक्कर में 2 बहनें और हो गईं. तब न गीत गाए गए और न लड्डू ही बांटे गए.

कहते हैं न कि जब लोग अपनी स्वार्थ लिप्सा की पूर्ति मनचाहे ढंग से प्राप्त नहीं कर पाते हैं तब घर के द्वारदेहरी भी रुष्ट हो जाते हैं. वहां यदि अपनी संतान में बेटाबेटी का भेद कर के निराशा, कुंठा, निरादर और घृणा को बो दिया जाए तो घर एक सन्नाटा भरा खंडहर मात्र रह जाता है.

उस भरेपूरे घर में धीरेधीरे कष्टों के दायरे बढ़ने प्रारंभ होने लगे. बड़े भाई छुट्टी के दिन अपने साथियों के साथ नदी स्नान के लिए गए थे. तैरने की शर्त लगी. उन्हें नदी की तेज लहरें अपने चक्रवात में घेर कर ले डूबीं. लौट कर आई थी उन की फूली हुई लाश. घर भर में कुहराम मच गया था. मां और बाबूजी पागल हो उठे. बाबा की आंखें सूखे कुएं की तरह अंधेरों से अट गईं.

धीमेधीमे शब्दों में कहा जाने लगा कि तीनों लड़कियां भाई की मौत का कारण बनी हैं. न तीनों नागिनें पैदा होतीं और न हट्टाकट्टा भाई मौत का ग्रास बनता. समय ने सभी के घावों को पूरना शुरू ही किया था कि बीच वाले भाई हीरा के मोतीझरा निकला. वह ऐसा बिगड़ा कि दवाओं और डाक्टरों की सारी मेहनत पर पानी फेरता रहा.

मौत फिर दबेपांव आई और चुपचाप अपना काम कर गई. इस बार के हाहाकार ने आकाश तक हिला दिया. पिता एकदम टूट गए. 20 वर्ष आगे का बुढ़ापा एक रात में ही उन पर छा गया था. बाबा खाट से चिपक गए थे. मां चीखचीख कर अधमरी हो उठीं और बिना किसी लाजहिचक के जोरजोर से घोषणा करने लगीं कि मेरी तो लड़कियां ही साक्षात मौत बन कर पूरा कुनबा खत्म करने आई हैं. इन का तो मुंह देखना भी पाप है.

महल्ला, पड़ोस, रिश्तेदार सभी परिवार के सदस्यों के साथ तीनों बहनों को भरपूर कोसने लगे. अपने ही घर में तीनों किसी एकांत कोने में पड़ी रहतीं, अपमानित और दुत्कारी हुईं. न कोई प्यार से बोलता, न कोई आंसू पोंछता. तीनों की इच्छाएं मर कर काठ हो गईं. लाख सोचने पर भी वे यह समझ नहीं पाईं कि भाइयों की मृत्यु से उन का क्या संबंध है, वे मनहूस क्यों हैं.

तीसरा भाई बचपन से जिद्दी व दंगली किस्म का था. अब अकेला होने पर वह और बेलगाम हो गया था. सभी उसी को दुलारते रहते. उस की हर जिद पूरी होती और सभी गलतियां माफ कर दी जातीं. नतीजा यह हुआ कि वह स्कूल में नियमित नहीं गया. उलटेसीधे दोस्त बन गए. घर से बाहर सुबह से शाम तक व्यर्थ में घूमता, भटकता रहता. ऐसे ही गलत भटकाव में वह नशे का भयंकर आदी हो गया. न ढंग से खाता, न नींद भर सो पाता था. मातापिता से खूब जेबखर्च मिलता. कोई सख्ती से रोकनेटोकने वाला नहीं था. एक दिन कमरे में जो सोया तो सुबह उठा ही नहीं. उस के चारों ओर नशीली गोलियों और नशीले पाउडरों की रंग- बिरंगी शीशियां फैली पड़ी थीं और वह मुंह से निकले नीले झाग के साथ मौत की गोद में सो रहा था.

उस की ऐसी घिनौनी मौत को देख कर तो जैसे सभी गूंगेबहरे से हो उठे थे. पूरे पड़ोस में उस घर की बरबादी पर हाहाकार मच गया था. कहां तक चीखतेरोते? आंसुओं का समंदर भीतर के पहाड़ जैसे दुख ने सोख लिया था. घर भर में फैले सन्नाटे के बीच वे तीनों बहनें अपराधियों की तरह खुद को सब की नजरों से छिपाए रहती थीं. उचित देखभाल और स्नेह के अभाव में तीनों ही हर क्षण भयभीत रहतीं. अब तो उन्हें अपनी छाया से भी भय लगने लगा था. दिन भर उन्हें गालियां दे कर कोसा जाता और बातबात पर पिटाई की जाती.

जानवर की तरह उन्हें घर के कामों में जुटा दिया गया था. वे उस घर की बेटियां नहीं, जैसे खरीदी हुई गुलाम थीं, जिन्हें आधा पेट भोजन, मोटाझोटा कपड़ा और अपशब्द इनाम में मिलते थे. पढ़ाई छूट गई थी. गौरा तो किसी तरह 10वीं पास कर चुकी थी लेकिन छोटी चित्रा और पूर्वा अधिक नहीं पढ़ पाईं. जब भी सगी मां द्वारा वे दोनों जानवरों की तरह पीटी जातीं, तब भयभीत सी कांपती हुई दोनों बड़ी बहन के गले लग कर घंटों घुटीघुटी आवाज में रोती रहती थीं.

कुछ भीतरी दुख से, कुछ रातदिन रोने से पिता की आंखें कतई बैठ गई थीं. वे पूरी तरह से अंधे हो गए थे. मां को तो पहले ही रतौंधी थी. शाम हुई नहीं कि सुबह होने तक उन्हें कुछ दिखाई नहीं देता था. बाबा का स्नेह उन बहनों को चोरीचोरी मिल जाया करता था लेकिन शीघ्र ही उन की भी मृत्यु हो गई थी.

पिता की नौकरी गई तो घर खर्च का प्रश्न आया. तब बड़ी होने के नाते गौरा अपना सारा भय और अपनी सारी हिचक,  लज्जा भुला कर ट्यूशन करने लगी थी. साथ ही प्राइवेट पढ़ना शुरू कर दिया. बहनों को फिर से स्कूल में दाखिला दिलाया. तीनों बहनों में हिम्मत आई, आत्मसम्मान जागा.

तीनों मांबाबूजी की मन लगा कर सेवा करतीं और घरबाहर के काम के साथसाथ पढ़ाई चलती रही. वे ही मनहूस बेटियां अब मां और बाबूजी की आंखों की ज्योति बन उठी थीं, सभी की प्रशंसा की पात्र. महल्ले और रिश्तेदारी में उन के उदाहरण दिए जाने लगे. घर में हंसीखुशी की ताजगी लौट आई. इस ताजगी को पैदा करने में और बहनों को ऊंची शिक्षा दिलाने में वे कब अपने तनमन की ताजगी खो बैठीं, यह कहां जान सकी थीं? विवाह की उम्र बहुत पीछे छूट गई थी. छोटेबड़े स्कूलों का सफर करतेकरते इस कालेज की प्रिंसिपल बन गईं. घर में गौरा दीदी और कालेज में प्रिंसिपल डा. गौरा हो गई थीं. छोटी दोनों बहनों की शादियां उन्होंने बड़े मन से कीं. बेटियों की तरह विदा किया.

चित्रा के जब लगातार 5 लड़कियां हुईं, तब उस को ससुराल वालों से इतने ताने मिले, ऐसीऐसी यातनाएं मिलीं कि एक बार फिर उस का मन आहत हो उठा. बहुत समझाया उन लोगों को. दामाद, जो अच्छाखासा पढ़ालिखा, समझदार और अच्छी नौकरी वाला था, उसे भी भलेबुरे का ज्ञान कराया, परंतु सब व्यर्थ रहा.

चित्रा की ससुराल के पड़ोस में ही सुखराम पटवारी की लड़की सत्या की शादी हुई थी. उस ने आ कर बताया था, ‘बेकार इन पत्थरों के ढोकों से सिर फोड़ती हो, दीदी. उन पर क्या असर होने वाला है? हां, जब भी तुम्हारे खत जाते हैं या उन्हें समाज, संसार की बातें समझाती हो, तब और भी जलीकटी सुनाती हैं चित्रा की सास और जेठानी. जिस दामाद को भोलाभाला समझती हो, वह पढ़ालिखा पशु है. मारपीट करता है. हर समय विधवा ननद तानों से चित्रा को छलनी करती रहती है. चित्रा तो सूख कर हड्डियों का ढांचा भर रह गई है. बुखार, खांसी हमेशा बनी रहती है. ऊपर से धोबिया लदान, छकड़ा भर काम.’’

वे कांप उठी थीं सत्या से सारी बातें सुन कर. उस के लिए उन का मन भीगभीग उठा था. बचपन में मां से दुत्कारी जाने पर वे उसे गोदी में छिपा लेती थीं. उन की विवशता भीतर ही भीतर हाहाकार मचाए रहती थी.

एक दिन बुरी खबर आ ही गई कि क्षयरोग के कारण चित्रा चल बसी है. शुरू से ही अपमान से धुनी देह को क्षय के कीटाणु चाट गए अथवा ससुराल के लोग उस की असामयिक मौत के जिम्मेदार रहे? प्रश्नों से घिर उठीं वे हमेशा की तरह.

और इधर आज महीनों बाद मिला यह पूर्वा का पत्र. क्या बदल पाईं वे बहनों का जीवन? सोचा था कि जो कुछ उन्हें नहीं मिला वह सबकुछ बहनों के आंचल में बांध कर उन के सुखीसंपन्न जीवन को देखेगी. कितनी प्रसन्न होगी जीवन की इस उतरती धूप की गहरी छांव में. अपनी सारी महत्त्वाकांक्षाएं और मेहनत से कमाई पाईपाई उन पर न्योछावर कर दी थी. हृदय की ममता से उन्हें सराबोर कर के अपने कर्तव्यों का एकएक चरण पूरा किया परंतु…

पंखे की हवा से जैसे पूर्वा के पत्र का एकएक अक्षर उन के सामने गरम रेत के बगलों की तरह उड़ रहा था या कि जैसे पूर्वा ही सामने बैठ कर हमेशा की तरह आंसुओं में डूबी भाषा बोल रही थी. किसे सुनाएं वे मन की व्यथा? पत्र का एक- एक शब्द जैसे लावा बन कर भीतर तक झुलसाए जा रहा था :

‘दीदी, मैं रह गई थी बंजर धरती सी सूनीसपाट. कितने वर्ष काटे मैं ने ‘बंजर’ शब्द का अपमान सहते हुए और आप भी क्या कम चिंतित और बेचैन रही थीं मेरी मानसिकता देखसुन कर? फिर भी मैं अपनेआप को तब सराहने लगी थी जब आप के बारबार समझाने पर मेरे पति और ससुराल के सदस्य किसी बच्चे को गोद लेने के लिए इस शर्त पर तैयार हो गए थे कि एकदम खोजबीन कर के तुरंत जन्मा बच्चा ही लिया जाएगा और आप ने वह दुरूह कार्य भी संपन्न कराया था.

‘‘फूल सा कोमल सुंदर बच्चा पा कर सभी निहाल हो उठे थे. सास ने नाम दिया, नवजीत. ससुर प्यार से उसे पुकारते, निर्मल. बच्चे की कच्ची दूधिया निश्छल हंसी में हम सभी निहाल हो उठे. आप भी कितनी निश्ंिचत और संतुष्ट हो उठीं, लेकिन दीदी, पूत के पांव पालने में दिखने शुरू हो गए थे. मैं ने आप को कभी कुछ नहीं बताया था. सदैव उस की प्रशंसा ही लिखतीसुनाती रही. आज स्वयं को रोक नहीं पा रही हूं, सुनिए, यह शुरू से ही बेहद हठी और जिद्दी रहा. कहना न मानना, झूठ बोलना और बड़ों के साथ अशिष्ट व्यवहार करना आदि. स्कूल में मंदबुद्धि बालक माना गया.

‘क्या आप समझती हैं कि हमसब चुप रहे? नहीं दीदी, लाड़प्यार से, डराधमका कर, अच्छीअच्छी कहानियां सुना कर और पूरी जिम्मेदारी से उस पर नजर रख कर भी उस के स्वभाव को रत्ती भर नहीं बदल सके. आगे चल कर तो कपटछल से बातें करना, झूठ बोलना, धोखा देना और चोरी करना उस की पहचान हो गई. पेशेवर चोरों की तरह वह शातिर हो गया. स्कूल से भागना, सड़क पर कंचे खेलना, उधार ले कर चीजें खाना, मारनापीटना, अभद्र भाषा बोलना आदि उस की आदत हो गई. सभी परेशान हो गए. शक्लसूरत से कैसा मनोहारी, लेकिन व्यवहार में एकदम राक्षसी प्रवृत्ति वाला.

‘उम्र बढ़ने के साथसाथ उस की आवारागर्दी और उच्छृंखलता भी बढ़ने लगी. दीदी, अब वह घर से जेवर, रुपया और अपने पिता की सोने की चेन वाली घड़ी ले कर भाग गया है. 2 दिन हो चुके हैं. गलत दोस्तों के बीच क्या नहीं सीखा उस ने? जुए से ले कर नशापानी तक. सब बहुत दुखी हैं. कैसे करते पुलिस में खबर? अपनी ही बदनामी है. स्कूल से भी उस का नाम काट दिया गया था. हम क्या रपट लिखाएंगे, किसी स्कूटर की चोरी में उस की पहले से ही तलाश हो रही है.

‘दीदी, यह कैसा पुत्र लिया हम ने? इस से अच्छा तो बांझपन का दुख ही था. यों सांससांस में शर्मनाक टीसें तो नहीं उठतीं. संतानहीन रह कर इस दोहरेतिहरे बोझ तले तो न पिसती हम लोगों की जिंदगी. पढ़ेलिखे, सुरुचिपूर्ण, सुसंस्कृत परिवार के वातावरण में उस बालक के भीतर बहता लहू क्यों स्वच्छ, सुसंस्कृत नहीं हुआ, दीदी? हमारी महकती बगिया में कहां से यह धतूरे का पौधा पनप उठा? लज्जा और अपमान से सभी का सुखचैन समाप्त हो गया है. गौरा दीदी, आप के द्वारा रोपा गया सुनहरा स्वप्न इतना विषकंटक कैसे हो उठा कि जीवन पूर्णरूप से अपाहिज हो उठा है. परंतु इस में आप का भी क्या दोष?’

पत्र का अक्षरअक्षर हथौड़ा बन कर सुबह से उन पर चोट कर रहा था. टूटबिखर तो जाने कब की वे चुकी थीं, परंतु पूर्वा के खत ने तो जैसे उन के समूचे अस्तित्व को क्षतविक्षत कर डाला था. वे सोचने लगीं कि कहां कसर रह गई भला? इन बहनों को सुख देने की चाह में उन्होंने खुद को झोंक दिया. अपने लिए कभी क्षण भर को भी नहीं सोचा.

क्या लिख दें पूर्वा को कि सभी की झोली में खुशियों के फूल नहीं झरा करते पगली. ठीक है कि इस बालक को तुम्हारी सूनी, बंजर कोख की खुशी मान कर लिया था, एक तरह से उधार लिया सुख. एक बार जी तो धड़का था कि न जाने यह कैसी धरती का अंकुर होगा? जाने क्या इतिहास होगा इस का? लेकिन तसल्ली भरे विश्वास ने इन शंकालु प्रश्नों को एकदम हवा दे दी थी कि तुम्हारे यहां का सुरुचिपूर्ण, सौंदर्यबोध और सभ्यशिष्ट वातावरण इस के भीतर नए संस्कार भरने में सहायक होगा. पर हुआ क्या?

लेकिन पूर्वा, इस तरह हताश होने से काम नहीं चलेगा. इस तरह से तो वह और भी बागी, अपराधी बनेगा. अभी तो कच्ची कलम है. धीरज से खाद, पानी दे कर और बारबार कटनीछंटनी कर के क्या माली उसी कमजोर पौधे को जमीन बदलबदल कर अपने परीक्षण में सफल नहीं हो जाता? रख कर तो देखो धैर्य. बुराई काट कर ही उस में नया आदमी पैदा करना है तुम्हें. टूटे को जोड़ना ही पड़ता है. यही सार्थक भी है.

यह सोचते ही उन में एक नई शक्ति सी आ गई और वे पूर्वा को पत्र लिखने बैठ गईं.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें