करना पड़ता है: धर्म ने किया दानिश और याशिका को दूर- भाग 3

नौशीन ट्रे ले कर आईं तो दानिश ने उन के हाथ से आदतन ट्रे ले ली और ललित को स्नैक्स की प्लेट खुद अपने हाथों से लगा कर हंसते हुए बोला, ‘‘अंकल, मम्मी के हाथ के पनीर के पकौड़े खा कर देखिए… और यह खीर. मम्मी ने आज आप के लिए ही बनाई है और ये कुकीज मैं ने बेक किए हैं.’’

‘‘सच? अरे, पनीर के पकौड़े और खीर मु?ो बहुत पसंद है और दानिश तुम ने ककीज बनाए हैं? तुम कुकिंग जानते हो?’’

‘‘हां अंकल, मम्मी कहती हैं कि ये सब काम सब को आने चाहिए, जब भी फ्री होता हूं, मम्मी को कुछ बना कर खिलाता हूं्.’’

ललित को लग रहा था कि इस मांबेटे की इतनी सुंदर दुनिया में वे कैसे आ बैठे हैं. उन्होंने बड़े स्वाद ले कर नाश्ता किया, बहुत तारीफ की. वे कहां जानते थे कि यशिका ने बताया था कि पापा को खुश करना हो तो पनीर के पकौड़े और खीर खिला दो, बस. पापा

को लाइफ में यही 2 चीजें सब से प्यारी हैं. वे सब इस बात पर बहुत हंसे थे और कुकीज तो वह खुद सुबह बना कर गई थी जिन्हें खा कर ललित के मुंह से निकल ही गया, ‘‘मेरी बेटी भी ऐसे ही कुकीज बनाती है.’’

थोड़ी देर बाद वे जाने के लिए खड़े हुए तो दानिश ने कहा, ‘‘अंकल, मैं आप को छोड़ आऊं?’’

‘‘नहीं बेटा, नीचे ड्राइवर है, शिंदे भी है.’’

‘‘आइए, हमारा छोटा सा घर तो देख लीजिए,’’ कहतेकहते नौशीन उन्हें अपना 2 कमरे का फ्लैट दिखाने लगीं तो ललित को याद आया, ‘‘अरे, आप का घर तो बहुत सुंदर है, फिर भी नया खरीदना चाहती हैं?’’

‘‘हां, एक फ्लैट ले कर इन्वैस्ट करना चाह रही थी.’’

‘‘आराम से आप का काम हो जाएगा, चिंता मत करना, मैं देख लूंगा, रेट भी सही लगवा दूंगा,’’ ललित का बस नहीं चल रहा था कि नौशीन के लिए क्या न कर दें. पूरा फ्लैट इतना सुंदर, व्यवस्थित था कि वे 1-1 चीज निहारते रह गए. उन के मन में चोर आ गया था जो नौशीन से टच में रहने के लिए उन्होंने यों ही कह दिया, ‘‘मैं इधर अकसर आता हूं, कभी फ्री रहूंगा, आ जाऊंगा मिलने, आप दोनों से मिल कर बहुत अच्छा लगा.’’

दानिश और नौशीन ने उन्हें फिर आने के लिए कह कर विदा दी और ललित चले गए नौशीन को दिल में समाए. वे चरित्रहीन इंसान नहीं थे पर थे तो पुरुष ही न. नौशीन का साथ उन्हें बहुत भला लगा था. दानिश भी उन्हें बहुत पसंद आया था. सोच रहे थे ऐसा लड़का यशिका के लिए मिल जाए तो कितना अच्छा हो. पर दानिश दूसरी जाति का था, यहां तो कुछ नहीं हो सकता था पर वे इस बात पर हैरान थे कि जब तक वे नौशीन के घर रहे, एक बार भी उन्हें जाति के अंतर का खयाल नहीं आया.

 

कुछ दिन और बीते. एक बार नौशीन ने आम हालचाल

के लिए उन्हें फोन किया. उन्होंने भी नौशीन से कई बार फोन पर हालचाल ले लिए थे. नौशीन दानिश और यशिका के साथ इस प्रोजैक्ट पर बात करते हुए खूब हंसतीं. तीनों को इस बात में मजा आ रहा था.

एक दिन यशिका ने अपने मम्मीपापा के साथ डिनर करते हुए जानबू?ा कर बात छेड़ी, ‘‘पापा, आप सचमुच आजकल के जमाने में भी जातबिरादरी के बाहर मेरी शादी नहीं करेंगे? अगर मु?ो किसी और जाति का अच्छा लड़का पसंद आ जाए तो क्या होगा?’’

धर्म और जाति के दलदल में फंसा मन भला इतनी आसानी से कैसे यह बात चुपचाप सुन लेता. थोड़ा गुस्से से ललित की आवाज जरा तेज हुई, ‘‘हम ने तुम्हें हमेशा सारी छूट दी है, किसी चीज के लिए कभी टोका नहीं. बस शादी तुम्हारी हम ही करेंगे. हम अपनी बिरादरी में लड़का ढूंढ़ रहे हैं.’’

यशिका ने मां को देखा. उन्होंने हमेशा की तरह उसे चुप रहने के लिए कहा तो यशिका गुस्से में पैर पटकती हुई जाने लगी. रुकी, फिर मां से कहा, ‘‘आप तो हमेशा खुद भी चुप रहना और मु?ो भी यही सिखाना. आप को और आता भी क्या है.’’

उस की मां गीता देहात में पलीबढ़ी, कम पढ़ीलिखी, दबू, धार्मिक कार्यों में जीवन बिताने वाली महिला थीं जिस के लिए पति का आदेश सर्वोपरि होता है. ललित को अचानक नौशीन याद आ गईं. सोचने लगे कि वह गीता से कितनी अलग है. उन्होंने अपने रूम में जा कर नौशीन को फोन मिला दिया. यों ही उन से बातें करना उन्हें अच्छा लगा, फिर उन्हें ऐसे ही डिनर पर इन्वाइट किया. थोड़ी नानुकुर के बाद नौशीन मान गईं.

ऐसा फिर 3-4 बार और भी हुआ. वे नौशीन के घर भी आए. बाहर भी मिले. सबकुछ मर्यादा

में था, कोई आपत्तिजनक बात भी नहीं हुई पर ललित ने अपने घर में किसी से नौशीन से मिलनाजुलना बताया भी नहीं जबकि दानिश

और यशिका को 1-1 प्रोग्राम पता रहता था.

कुछ महीने बीते कि यशिका ने घर में बम फोड़ दिया, ‘‘मैं एक मुसलिम लड़के से शादी करना चाहती हूं, पापा.’’

दहाड़ गूंजी, ‘‘दिमाग खराब हो गया है? सोचा भी कैसे? यह हो ही नहीं सकता.’’

‘‘पापा, यह तो होगा. उसी से शादी करूंगी.’’

गीता देवी उस पर खूब चिल्लाईं, बहुत डांटा पर यशिका अपनी जिद पर डटी रही. 3 दिन

घर में खूब घमासान हुआ. एक तूफान उठा रहा जिस में हिंदूमुसलिम ये 2 ही शब्द गूंजते रहे. यशिका ने जा कर दानिश और नौशीन को अपने घर के हालात बताए.

नौशीन ने ठंडे दिमाग से सब सुना, फिर कहा, ‘‘चलो, अब प्रोजैक्ट को खत्म करने का टाइम आ गया है. इस संडे को सब क्लीयर कर देते हैं.’’

फिर बैठ कर संडे की प्लानिंग की गई. नौशीन ने ललित को फोन किया, ‘‘बहुत दिन हो गए. चलिए, संडे को डिनर साथ करते हैं. फ्री हैं?’’

‘‘हांहां, बिलकुल फ्री हूं. मिलते हैं.’’

‘‘ठाणे चलते हैं, अर्बन तड़का. कभी गए हैं वहां?’’

‘‘न.’’

‘‘आप अपनी कार रहने देना. मैं अपनी कार से आप को लेने आप के औफिस के बाहर आ जाऊंगी. अच्छी आउटिंग हो जाएगी.’’

सब तय हो चुका था. कार में नौशीन के बराबर में बैठ कर ललित अलग ही दुनिया में

जा पहुंचे थे जहां जाति की कोई दीवार नहीं थी,

न कोई धर्म का जाल. पता नहीं नौशीन से मिल कर वे सबकुछ कैसे भूल जाते हैं, यही सोचते

हुए मुसकराते हुए उन्होंने नौशीन से कहा, ‘‘आप की कंपनी मु?ो अच्छी लगती है, मैं सब भूल

जाता हूं.’’

नौशीन मुसकरा दी, कहा, ‘‘मु?ो भी एक दोस्त के रूप में आप का मिलना अच्छा लगा.’’

‘अर्बन तड़का’ पहुंच कर नौशीन ने कहा, ‘‘मैं और दानिश यहां अकसर आते हैं.’’

‘‘फिर आप ही और्डर दीजिए, आप को आइडिया होगा कि यहां क्या अच्छा है.’’

नौशीन ने वेटर को पहले 2 मौकटेल लाने के लिए कहा. इतने में ही तय प्रोग्राम के अनुसार वहां यशिका और दानिश ने ऐंट्री ली. यशिका उन्हें देख चहकी, ‘‘अरे पापा. आप. हेलो आंटी, अरे, वाह, आंटी. पापा. आप लोग यहां? कैसे?’’

ललित का चेहरा देखने वाला था. वे कुछ बोल ही नहीं पाए. तभी दानिश ने उन के पैर छूए तो यशिका चौंकी, ‘‘अरे दानिश तुम मेरे पापा को जानते हो?’’

‘‘और क्या. अंकल तो हमारे घर आ चुके हैं.’’

‘‘पापा, यह क्या है? मेरे लिए इतने नियम और आप आंटी और दानिश के घर भी जा चुके हैं? पापा, वैरी बैड.’’

नौशीन ने भोलेपन से पूछा, ‘‘क्या हुआ यशिका, मैं सम?ा नहीं?’’

ललित ने यशिका के कुछ बोलने से पहले ही जवाब दिया जिस से नौशीन को यशिका की कोई बात सुन कर बुरा न लग जाए, ‘‘ऐसे ही इस का और मेरा कुछ न कुछ ?ागड़ा चलता रहता है.’’

‘‘पापा, यही है दानिश. आप का होने वाला दामाद,’’ कह कर यशिका हंस कर ललित से लिपट गई.

ललित अब न कुछ कह पाए, न कर पाए, बस ?ोंपी सी हंसी हंसते हुए कहा, ‘‘अरे वाह, यह तो बहुत खुशी की बात है. दानिश तो मु?ो भी पसंद है.’’

‘‘पर पापा…’’

ललित ने बेटी को आंखों से चुप रहने का इशारा किया तो नौशीन और दानिश ने अपनी हंसी मुश्किल से रोकी.

नौशीन ने बहुत प्यार से पूछा, ‘‘ललितजी, फिर यह रिश्ता आप को मंजूर है? मु?ो तो बहुत ही खुशी होगी कि आप की बेटी हमारे घर आए.’’

‘‘हांहां, बिलकुल मंजूर है.’’

‘‘चलो, फिर आज सैलिब्रेट करते हैं, अब तुम अपने मम्मी और पापा के साथ हमारे घर जल्द ही आओ, बहुत कुछ करना है,’’ नौशीन की आवाज में आज अलग ही उत्साह था.

ललित की हालत सब से अजीब थी, उन्होंने इस स्थिति की कभी कल्पना भी नहीं की थी. सब ने खायापीया. गीता को यशिका ने वीडियो कौल कर के दानिश से ‘हेलो’ कहलवाया और कहा, ‘‘बाकी विस्फोट आ कर करती हूं.’’

सब हंसने लगे. लौटते समय सब कार में साथ ही बैठे, अब दानिश कार चला रहा था.

उस की बगल वाली सीट पर नौशीन बैठी थी, पीछे बैठेबैठे ललित अभी भी चोर नजरों से नौशीन को देख रहे थे. यशिका दानिश को निहार रही थी. नौशीन राहत की सांस ले रही थीं.

तभी मोबाइल पर पीछे बैठी यशिका ने मैसेज भेजा, ‘‘थैंक यू, आंटी. आप ने हमारे लिए बहुत कुछ किया.’’

‘‘करना पड़ता है,’’ उस ने रिप्लाई किया. नौशीन यही सोच रही थीं. हां, करना पड़ता है, अपने बच्चों की खुशियां धर्म, जाति की भेंट न चढ़ जाएं, इस के लिए सचमुच कभीकभी बहुत कुछ करना पड़ता है.

नौशीन जैसी महिला जीवन में दोस्त, रिश्तेदार बन कर रह पाएगी, इस की खुशी महसूस कर ललित उत्साहित थे, सोच रहे थे, नौशीन जैसी दोस्त के लिए, दानिश जैसे दामाद के लिए, अपनी बेटी के चमकते चेहरे की इस खुशी के लिए धर्म, जाति को किनारे करना ही पड़ता है, करना पड़ता है. करना ही चाहिए.

दिखावा: अम्मा से आखिर क्यूं परेशान थे सब- भाग 3

लाश को नहला कर चिता पर रख दिया गया. अब इंतजार था महापात्र का, जिस से मुखाग्नि दी जा सके. उधर महापात्र लाश पर पड़ी दूसरी लाशों के हिसाबकिताब में बिजी था. सब से पूरे पैसे लेने के बाद ही वह हमारी तरफ आया. मंत्रोच्चार के साथ ही भाई साहब द्वारा अग्नि देने के बाद चिता जल उठी. इस अग्नि को घर से बड़ा ही सहेज कर लाया गया था.

तभी मेरी निगाह दूर ढेर पर चली गई. वहां लकड़ी की अरयियों का अंबार लगा था. मालूम पड़ा सब फिर बाजार में बेच दी जाएंगी, चारपाई आदि बनाने के काम आ जाएंगी. पास ही लाशों पर उतारी गईर् चादरों का ढेर था. इन को भी बाजार में अच्छे दामों पर बेचा जाना था.

अगले दिन घर के सभी बड़े चिता की राख को हंडिया में भरने के लिए श्मशान पहुंचे ताकि उसे वाराणसी, इलाहाबाद, गया व पुरी जैसे स्थानों पर पवित्र नदियों में विसर्जित किया जा सके.

इस कलश को ले कर भाई साहब को ही जाना था. जैसा मैं ने सुना है, भाई साहब एक बार भी दादी के जीवित रहते उन्हें साथ ले कर कहीं भी नहीं गए थे. वैसे हनीमून मनाने अपनी बीवी के साथकश्मीर से कन्याकुमारी तक जा चुके थे. उन का कहना था कि मां के लिए इतना न किया तो लोग क्या कहेगे. उन्हें बारबार लोगों के कहे जाने का डर खाए जा रहा था.

अंत में नहाने का नंबर आया. बिना नहाए घर में घुसने से घर अपवित्र हो जाने का डर था. मैं तो साफ नकार गया,  ‘‘जाड़ा काफी है. घर जा कर गरम पानी से नहाऊंगा. दादी तो चली ही गईं.’’

खैर, मु?ो छोड़ सभी लोग कांपतेठिठुरते नदी में नहाए. घर लौटने तक इन लोगों के दांतों का किटकिटाना बंद नहीं हुआ. कुछेक की तो नाक भी बहने लगी क्योंकि नाक सुड़कने की आवाजें कभीकभार आ जाती थीं.

घर पर अभी पंडितों के कई चोंचले होने बाकी थे. 10वीं एकादशी… तेरहवीं. पंडितों को दान, नातेदारों, महल्ले वालों को भोजन, हजारों का खर्च था.

श्रीमती को छोड़ कर मैं तो वापस आ गया. लौटने पर पत्नी ने बताया कि दादी के इलाज से ले कर उन की तेरहवीं तक करीब 2 लाख रुपए खर्च हुए. भाईसाहब की हर जगह धाक जम गई थी. पंडितों ने एक प्रकार से अम्मां के स्वर्ग जाने का सर्टिफिकेट दे दिया था. साथ ही अगले साल श्राद्ध भी करवाने को बोल गए थे. फोटोग्राफर को भी रुपए दिए गए थे.

करीब महीनेभर के दौरे में सब लोग होटलों में ठहरे थे. खाने, आनेजाने व किराए आदि में भी खूब रुपए खर्च हुए. पंडितों को खुश करने में भी खर्च हुआ. इतने खर्च के बावजूद भाई साहब का चेहरा प्रसन्नता से खिला हुआ था. मां के क्रियाकर्म में इतने पैसे नष्ट कर उन्होंने समाज में अपने लिए काफी जगह जो बना ली थी.

असली क्लाईमैक्स 7 दिन बाद शुरू हुआ जब दादी की अलमारी, कपड़ों की जांच की गई तो एक अलमारी में कागजों के नीचे लिफाफा मिला जो शायद 7-8 साल पुराना था. यह एक वसीयत थी. सब के सामने अलमारी खोली गई तो मेरी पत्नी के चाचा उसे छिपा न सके. वसीयत को सब के सामने पढ़ना उन की मजबूरी थी क्योंकि सब सोच रहे थे दादी बिना वसीयत के मरी होंगी और जिस के हाथ जो आएगा, वह उस का होगा.

दादी ने वसीयत में साफ लिखा था कि जो भी कुछ उन का है वह दीप्ति को मिलेगा और इस में उन का पुश्तैनी मकान जो गांव में है, लौकरों में रखे गहने, पहने गहने शामिल हैं. वसीयत सुन कर सब के मुंह फक रह गए.

मेरी सालियां एक स्वर में बोलीं, ‘‘अच्छा अब पता चला कि दीप्ति दादी की इतनी सेवा क्यों कर रही थी. उसे मालूम था मेवा ते उसे ही मिलने वाला है.’’

दीप्ति ने कुछ नहीं कहा और दूर से मु?ो इशारा कर दिया कि मैं कुछ न बोलूं.

घर आ कर दीप्ति ने एक बैग पकड़ाया जिस पर ढेरों धूल जमा थी. वह बोली, ‘‘दादी को

बीच में एक दिन अस्पताल में होश आया था. उन्होंने जिद की कि यह बैग शायद उन के पुराने गंदे कपड़ों में कहीं है. मैं ले कर आऊं. मैं ने बहुत मना किया पर दादी जिद पर अड़ी रहीं. बैग ले कर आई तो मेरे हाथ पर हाथ रख कर बोलीं कि बेटा यह मेरी तरफ से तुम दोनों के लिए है. किसी को खबर भी न लगने देना. मु?ो नहीं मालूम जो मैं ने लिखा है वह तुम ने मिलेगा. मैं ने यह बैग खोला तक नहीं और घर पर ले आई. अब वे चली गईं तो देखें क्या है उस में.’’

बैग में करीब 5 किलोग्राम सोने के जेवर थे. पुराने डिजाइन में थे. चाचियों की नजर से कब कैसे बच गया यह बैग पता नहीं. शायद इसीलिए कि दादी ने उसे उस अलमारी में रखा जिस में पुराने कपड़े थे. उन कपड़ों में बहुत बदबू थी. शायद दादी ने जानबू?ा कर पेशाब वाले कपड़े भी वहां ठूसे थे ताकि कोई चाचाचाची हाथ न लगाए. पिछले दिन भी किसी ने अलमारी नहीं खोली थी.

हम दोनों को पैसे का कोई लगाव न था. यह तो दादी का प्यार था जिस के लिए दीप्ति ने रातदिन उन की सेवा की और उस की सेवाभावना देख कर मैं ने भी एक बार उसे नहीं टोका. दादी ही हमारी शादी का सब से बड़ा संवल थीं. पैसा बड़ी चीज है पर प्यार तो उस से भी बड़ा है न.

अंतर्द्वंद्व: आखिर क्यूं सीमा एक पिंजरे में कैद थी- भाग 3

सबकुछ ठीकठाक चल रहा था कि इसी बीच एक दिन रमेशजी ने ऐसी बात की जिस से सीमा को लगा की रमेशजी उसे काफी पसंद करने लगे हैं और उन्हें उस का सान्निध्य बहुत पसंद आता है. अब वे यदाकदा बिना काम फोन भी कर लिया करते थे.

हालांकि फोन पर बातचीत का विषय चित्रकला ही होता था परंतु उसी के बीच वे अप्रत्यक्ष रूप से सीमा की खूबसूरती और सुघड़ता की प्रशंसाभर कर दिया करती थे.

शुरूशुरू में तो सीमा को यह सब बड़ा अजीब लगता था परंतु वह रमेशजी की इज्जत भी करती थी तथा मन ही मन उन के व्यक्तित्व से भी प्रभावित थी इसलिए अब उसे उन की इन सब बातों में कोई बुराई नजर नहीं आती थी बल्कि उसे ऐसा महसूस होता था कि उस के अकेलेपन के अभिशाप को मिटाने के लिए ही कुदरत ने रमेशजी को एक माध्यम बना कर भेजा है. फिर अपनी खूबसूरती की तारीफ सुनना किसे अच्छा नहीं लगता और वह भी इस ढलती उम्र में. इसलिए सीमा जोकि पहले से ही रमेशजी से प्रभावित थी धीरेधीरे उन्हें और भी अधिक पसंद करने लगी.

दोपहर का समय था कि अचानक घंटी बजी. सीमा ने देखा दरवाजे पर रमेशजी थे. दोपहर के समय इस तरह रमेशजी का आना सीमा को अटपटा तो लगा परंतु बुरा नहीं क्योंकि अब तक वह भी उन से काफी खुल चुकी थी.

‘‘अच्छा हुआ जो आप आ गए. बैठ कर गपशप करेंगे तथा आप से कला की बारीकियां भी सीख लूंगी,’’ उस ने दरवाजा खोलते हुए कहा.

कुछ देर औपचारिक बातचीत करने के बाद रमेशजी ने सीमा की आंखों में आंखें डालते हुए कहा, ‘‘सीमा तुम मु?ो बहुत अच्छी लगती हो. क्या मैं भी तुम्हें अच्छा लगता हूं?’’

रमेशजी की यह बात सुन कर सीमा एक बार तो सकपका गई. उसे यह रमेशजी द्वारा किया गया प्रश्न बड़ा अटपटा लग रहा था जो उम्र के इस पड़ाव पर उस से इस तरह प्रणय निवेदन कर रहे थे परंतु तत्क्षण ही एक नवयौवना की तरह शरमा गई और अपनी नजरें नीचे ?ाका कर बैठ गई, कुछ बोली नहीं.

‘‘तुम्हारी चुप्पी का क्या अर्थ सम?ां?’’ रमेश बाबू बोले.

इस पर सीमा धीरे से बोली, ‘‘आप अच्छे हैं तो सभी को अच्छे ही लगेंगे.’’

‘‘मैं सभी की बात नहीं कर रहा. मैं केवल तुम्हारी पसंद या नापसंद पूछ रहा हूं. बोलो, क्या मैं तुम्हें पसंद हूं?’’

‘‘रमेश बाबू, अब पसंद या नापसंद करने की उम्र निकल गई है. काश आप ने यह प्रश्न वर्षों पूर्व किया होता तो मैं इस का उत्तर दे सकती थी. अब ये बातें करने का क्या लाभ?’’

‘‘मु?ो तुम्हारा उत्तर हां या न में चाहिए. क्या तुम मु?ो पसंद करती हो? यदि करती हो तो मु?ो बता दो और यदि नहीं तो भी. मैं तो अपने दिल से मजबूर हूं क्योंकि इन दिनों मैं ने महसूस किया है कि मैं तुम्हें चाहने लगा हूं.’’

‘‘रमेश आप मु?ो चाहें यह मेरे लिए खुशी की बात है, गर्व की बात है परंतु इस चाहत का अंजाम भी सोचा है आप ने?’’

‘‘प्यार सोचसम?ा कर नहीं किया जाता. यह तो बस हो जाता है. मैं ने भी आज तक केवल सुना ही था परंतु अब इसे प्रत्यक्ष रूप

में घटित होते हुए देख रहा हूं वह भी स्वयं के साथ. जानती हो युवावस्था में मु?ो कभी कोई ऐसी लड़की नहीं मिली जिसे देख कर मन ने चाहा हो कि मैं उस से अपने प्रेम का इजहार करू. तुम्हें देख कर न जाने क्यों ऐसा महसूस होता है कि हमारा तुम्हारा जन्मजन्म का साथ है. मु?ो तुम से मिलना, तुम से बातें करना, तुम्हें देखना अच्छा लगता है. मेरे खयाल से तुम्हारे साथ भी ऐसा हो रहा होगा. यदि नहीं तो भी कह देना मैं इस विषय में फिर कभी बात नहीं करूंगा. ठीक है मैं अभी निकलता हूं. कल फिर फोन करूंगा ताकि मु?ो तुम्हारी हां या न का पता चल जाए.’’

रमेश तो चले गए परंतु सीमा के दिल में हलचल मचा कर छोड़ गए. उसे यह बात बहुत अजीब भी लग रही थी कि प्रौढ़ावस्था में भी कोई उस से प्यार का इजहार कर रहा है. सच पूछो तो उसे अच्छा भी लग रहा था क्योंकि  युवावस्था में उस ने भी किसी से इस तरह प्यार का इजहार नहीं किया था. वह जबजब किसी कथाकहानी या फिल्मों में यह देखती थी तो अकसर यही सोचती थी ऐसा किन लोगों के साथ होता है परंतु उस ने यह सपने में भी नहीं सोचा था कि यह सब उस के साथ जीवन के उस मोड़ पर होगा जब वह चाह कर भी उस का प्रतिउत्तर नहीं दे पाएगी.

रमेश ने उस के दिल के एक कोने में अपनी जगह तो बना ली थी परंतु वह एक अच्छे इंसान और पथप्रदर्शक के रूप में. आज उन्हें एक प्रेमी के रूप में देख कर वह आश्चर्यचकित थी परंतु कुछ चाहत का एहसास उस के मन में भी हो रहा था.

सीमा ने स्वयं को दर्पण में देखा और सोचा, ‘क्या मैं सचमुच अभी भी इतनी सुंदर लगती हूं कि कोई मु?ा पर आसक्त हो जाए और उस का मन स्वाभिमान से भर गया. वह कल्पना के सागर में हिलोरें खाने लगी. युवावस्था में उस ने जिस सुंदर युवक की एक प्रेमी के रूप में कल्पना की थी, आज रमेश बाबू के रूप में वह साकार होती नजर आ रही थी. उसे लगा कि सचमुच वे दोनों एकदूसरे के लिए बने हैं जो कुदरत की भूल के कारण अभी तक मिल नहीं पाए.

 

तभी उसे सतीश का खयाल आया और वह घबरा गई कि यह मु?ो क्या हो गया है.

इतने वर्षों तक मैं ने अपने पत्नी धर्म का निर्वाह किया है और अब इस उम्र में यह आशिकी. नहींनहीं यह ठीक नहीं है. मैं सतीश के साथ बेवफाई नहीं कर सकती. मैं रमेशजी को साफ मना कर दूंगी कि वे मेरे घर न आयाजाया करें. यही सब सोचतेसोचते सीमा की आंख लग गई.

सीमा जब सुबह सो कर उठी तो रात वाली उथलपुथल अभी भी उस के मन में थी. जैसेजैसे दिन बीत रहा था, उस की धड़कन बढ़ती जा रही थी. क्या कहूंगी. कैसे कहूंगी. उन्हें कैसा लगेगा. यह सोचसोच कर वह परेशान हो रही थी कि तभी फोन की घंटी बजी. फोन रमेश का ही था.

‘‘हैलो,’’ सीमा ने धीरे से कहा. न जाने क्यों आज उस के हैलो बोलने में परिवर्तन आ गया था.

‘‘कैसी हो?’’

‘‘अच्छी हूं.’’

‘‘मेरी याद आई?’’

सीमा चुप रही और मन ही मन बोली कि आप को कैसे भूल सकती हूं.

रमेश बोले, ‘‘जानती हो तुम्हारा यही संकोची स्वभाव, यही शर्मीलापन मु?ो सब से अच्छा लगता है. क्या सतीशजी को भी यह पसंद है?’’

‘‘पता नहीं, उन्होंने कभी ऐसा कहा नहीं.’’

‘‘कहना चाहिए. यदि कुछ अच्छा लगे और मन को पसंद आए तो अवश्य कहना चाहिए. इस से कहने वाला और सुनने वाला दोनों ही प्रसन्न रहते हैं.’’

रमेशजी की बात सुन कर सीमा मुसकराए बिना न रह सकी और फिर बोली, ‘‘सभी आप के जैसे नहीं हो सकते.’’

‘‘इस का अर्थ मैं तुम्हें पसंद हूं.’’

‘‘यह तो मैं ने नहीं कहा.’’

‘‘हर बात कहने की जरूरत नहीं होती. कुछ बातें अनकही हो कर भी कही जाती हैं. कह कर रमेशजी ने फोन रख दिया और सीमा भी फोन रख कर सोफे पर धम से बैठ गई.

मुझे माफ कर दो- भाग 3

उच्च मध्य परिवारों की तरह संपन्न सा ड्राइंगरूम में बिछा मोटा कालीन, दीवार पर शोभा बढ़ातीं आकर्षक पेंटिंग्स, काफी कीमती सोफा, साइड टेबल पर कलात्मक राधाकष्ण की सुंदर चमचमाती पीतल की मूर्ति, वहां पर रहने वालों की सुरुचि और संपन्नता को दशा रही थी.

 

चारों ओर नजरें घुमाकर देखने के बाद श्री ज्वैलर्स के यहां से आया मैनेजर रजत

थोड़ा सकपका सा उठा परंतु अपनी ड्यूटी के कारण मजबूर था.

‘‘सर, मैं श्री ज्वैलर्स के यहां से आया हूं,’’ कुछ भी बोलने में उस की जबान तालू से चिपकी सी जा रही थी.

सजल ने गिलास में पानी दे कर कहा, ‘‘बिना संकोच बोलिए, वैसे शायद आप गलत जगह आ गए हैं. मेरी गोल्ड या सिल्वर में इन्वैस्टमैंट की रुचि नहीं है. सर, आप की पत्नी नीराजी 3 नवंबर को मेरे शोरूम में एक महिला के संग आई थीं और गलती से शायद डायमंड की रिंग अपनी उंगली में पहन कर आ गई हैं. सर, सीसीटीवी में हम लोगों ने रिकौर्डिंग देखने के बाद आधार कार्ड से आप का पता निकाला, तब मैं यहां आ पाया हूं. सर मेरे यहां तो एक लाख के ऊपर की चीजों पर तुरंत थाने में एफआईआर की जाती है, लेकिन इस केस में हम लोगों ने पहले एक बार कोशिश कर लेने के विचार से आप के घर आए हैं.’’

सजल पत्नी नीरा की छोटीछोटी चीजों

की चोरी कर लेने की आदत से परिचित थे, इस वजह से वे कई बार उन्हें खूब अच्छी तरह डांटफटकार और लताड़ भी चुके थे, परंतु इतनी बड़ी चीज इसलिए

उन का चेहरा तमतमा उठा था.

मैनेजर ने नीरा का उंगली में अंगूठी पहन कर दुकान से बाहर हाथ छिपा कर निकलने वाला वीडियो उन के फोन पर फौरवर्ड कर दिया. सामने प्रूफ देख कर सजल का सिर पत्नी की करतूत के कारण शर्म से ?ाक गया.

‘‘तुम श्री ज्वैलर्स के यहां गई थी?’’

‘‘एक दिन रश्मि मु?ो ले गईर् थी.’’

‘‘वहां से डायमंड रिंग पहन कर आ गई थी तो लौटाने क्यों

नहीं गई.’’

‘‘मैं ने रश्मि

को लौटाने के लिए दे दी थी.’’

‘तुम सरासर ?ाठ बोल रही हो. तुम ने अंगूठी वहां से चुराई है.’’

‘‘आप की निगाहों में तो मैं हमेशा से चोर हूं,’’ यह कहते हुए अपने आखिरी अस्त्र का इस्तेमाल करते हुए नीरा ने जोरजोर से रोनाधोना शुरू कर दिया.

मगर आज सजल इस समय अपने

अपमान की ज्वाला से सुलग रहे थे. आंसू देख कर भी उन का दिल तिल भर भी नहीं पिघला. तड़प कर चीख पड़े, ‘‘बदतमीज, कमीनी औरत चोरी और सीना जोरी, तुम मेरी आंखों में धूल ?ोंकती रही और मैं तेरे पूजापाठ वाले नाटक पर विश्वास करता रहा. धार्मिक कर्मकांड की आड़ में तुम्हारा शातिर दिमाग चोरी जैसे घिनौने काम में लगा हुआ था. अब भुगतो अपने बुरे कर्म का बुरा नतीजा.’’

‘‘सच मानिए, मैं अंगूठी गलती से पहन कर आ गई थी, फिर रश्मि को दे दी थी.’’

‘‘फिर ?ाठ बोल रही हो. यह देख ले, कैसे हाथ छिपा कर चुपके से बाहर निकल रही है,’’ उन्होंने गुस्से में अपना मोबाइल नीरा की तरफ फेंक दिया और फिर तमक कर उठे और सामान को इधरउधर फेंकते हुए उस की अलमारी का लौकर खोल कर उस में से 1-1 सामान निकाल कर फेंकने लगे.

‘‘यह मोटी चेन तुम्हारे पास कहां से आई? बताओ कहां से चुरा कर लाई और ये ?ामकी तो मैं ने खरीद कर नहीं दिए थे आदिआदि…’’

तभी उन्हें पीछे की तरफ एक डब्बी दिखाई पड़ी. उस को खोलते ही चीख पड़े,

‘‘देख ?ाठी औरत यह रही वह अंगूठी, जिसे तुम बारबार रश्मि को दे दी थी, कह रही थी,’’ सजल गुस्से में अपना आपा खो बैठे थे. वे क्रोध के मारे थरथर कांप रहे थे.

सजल अंगूठी ले कर गिरतेपड़ते से मैनेजर के पास पहुंचे और बोले, ‘‘यह रही आप की अंगूठी… मेरी बीवी चोर है… अब आप जाए…’’ वे अपना होश खो बैठे थे, अपमान और शर्म के कारण सम?ा नहीं पा रहे थे कि वे क्या कर रहे हैं.

‘मैं ने तुम्हारी हर ख्वाहिश को पूरी करने के लिए कोशिश करता रहा लेकिन तुम्हारी नजर और निशाना तो कहीं और था. अब मैं तुम्हें एक क्षण भी बरदाश्त नहीं कर सकता.’’

नीरा अपनी चोरी पकड़े जाने के कारण सहम उठी थी. वह सिसकती हुई उठी, ‘‘मु?ो माफ कर दो,’’ कहते हुए पति के पैरों को पकड़ लिया.

मगर आज सजल ने मन ही मन एक कड़ा फैसला ले लिया. उन्होंने पत्नी के बढ़े हाथों को जोर से ?ाटक दिया और अपने फैसले पर अडिग रहते हुए सीधे तलाक के लिए वकील से मिलने के लिए चल पड़े थे.

वह जानते थे कि तलाक लेने में वर्षों लग जाएंगे पर एक चोर वाली पत्नी के साथ रहने से यह अच्छा ही है.

लाल साया: भाग-3

‘‘क्या करते हैं इस के पिता?‘‘

‘‘खेतों में मजदूरी करते हैं. बहुत नेक इनसान हैं दोनों. ये उन की इकलौती संतान है.”

‘‘आप उन से बात कराइए.”

‘‘आप मजदूर परिवार से बहू लाएंगी?”

‘‘इतनी योग्य बहू मिल रही है, तो क्यों नहीं?”

‘‘बीबीजी, एक बार विशेष से तो पूछ लीजिए.”

‘‘वो देखिए भाभी, डांस कर के सीधे विशेष के पास खड़ी है. कैसे दोनों हंसहंस कर बातेें कर रहे हैं. आप को पूछने की जरूरत लग रही है क्या?” मुसकरा कर विमला देवी ने पूछा.

रजनी के लिए आए इस प्रस्ताव से छुटकी की शादी की खुशी दुगुनी हो गई. विशेष ने मौका देख रजनी को किनारे बुलाया और बोला, ‘‘मुझे तुम्हें कुछ बताना है.‘‘

‘‘अब जो भी बताना, शादी के बाद ही बताना,” कहती हुई रजनी मंडप में जा कर छुटकी के पास बैठ गई.

दो दिन के आगेपीछे दोनों सहेलियां एक ही शहर में विदा हो कर आ गईं. गाड़ी से उतर कर रजनी अपनी कोठी को देख कर खुद ही अपने भाग पर विश्वास नहीं कर पा रही थी. धीरेधीरे रजनी अपने इस नए घर में रचनेबसने लगी. परंतु उसे जाने क्यों किसी तीसरे के होने का एहसास लगातार होता. विशेष भी सपने में लगातार किसी से माफी मांगता रहता. कभीकभी अचानक वह डर कर उठ जाता. पूछने पर वह कहता, ‘‘कुछ नहीं, सो जाओ.‘‘

एक दिन उसे आंगन में एक लड़की लाल सूट में दिखाई दी. जब रजनी उस के पीछे भागी, तो वह आंगन से पीछे की बगिया की ओर चली गई. रजनी उस के पीछेपीछे वहां पहुंची तो उसे लगा कि वह लाल साया उस घड़े वाली मूर्ति में समा गया है.

यह देख रजनी बुरी तरह डर गई. सास से कहा, तो उन्होंने कहा, ‘‘तुम्हारा भ्रम है बहू.‘‘

कई दिनों से रजनी देख रही थी कि विशेष के फोन पर किसी उमेश का फोन बारबार आ रहा था. परंतु वह उठा नहीं रहा था. पर उस फोन के बाद विशेष बहुत विचलित हो जाता था. रजनी समझ नहीं पा रही थी कि समस्या क्या है. पूछने पर विशेष टाल दे रहा था.

रजनी ने इस समस्या की तह में जाने का फैसला किया. रसोई में जा कर वह बोली, ‘‘महेश भैया चाय बन गई क्या?‘‘

‘‘हां, हां, बस बनी ही समझो बहूरानी. आज आप जल्दी जाग गए.‘‘

‘‘हां, अच्छा यह बताइए कि आप के भैया के दोस्त कौनकौन हैं?‘‘

‘‘काहे?‘‘

‘‘ऐसे ही, कोई आता ही नहीं है ना, इसीलिए पूछा. कोई काम नहीं था. जाने दीजिए.‘‘

‘‘बहूरानी, भैया के ज्यादा दोस्त नहीं हैं. घर पर तो केवल दो ही दोस्त देखे हैं हम ने. एक उदय और एक उमेश. बहुत समय पहले आए रहे,” चाय पकड़ता हुआ महेश बोला. पता नहीं, क्या सोच कर उस ने रिचा का नाम नहीं लिया.

दिन में रजनी अपनी सहेली छुटकी के घर चली गई. वहां लंच पर आए उस के पति सबइंस्पेक्टर विजय से भी मुलाकात हो गई.

‘‘जीजाजी, आप की थोड़ी मदद चाहिए थी.”

‘‘अरे साली साहिबा, आप आदेश दीजिए.”

‘‘मुझे लगता है कि मेरे पति को कोई परेशान कर रहा है.”

‘‘कौन…?”

‘‘यह मैं नहीं जानती, पर मुझे दो पर शक है.‘‘

‘‘अच्छा, किस पर…?‘‘

‘‘एक मेरे पति का दोस्त है उमेश, उस पर और एक आत्मा है.”

‘‘आत्मा…? पागल हुई है क्या रजनी तू?” छुटकी हड़बड़ा कर बोली.

‘‘एक मिनट छुटकी, उसे अपनी बात कहने दो.”

कमरे में मौन पसर गया.
‘‘तो साली साहिबा, आप को वह आत्मा कभी दिखाई दी क्या?”

‘‘जी, आज सपने में आ कर मुझसे मुक्ति दिलाने की प्रार्थना कर रही थी. न्याय दिलाने की गुहार लगा रही थी.”

‘‘सपने में…?”

‘‘हां, आज सपने में आई थी. वैसे दो बार घर के आंगन में लाल सूट पहन कर घूमते हुए देखा है मैं ने उसे. पर उस के पीछे जाने पर वह बगीचे में लगी मूर्ति में समा जाती है.‘‘

अपने पर्स में से रजनी ने एक कागज का टुकड़ा निकाला, ‘‘यह उमेश का नंबर है. मैं आप की सुविधा के लिए ले आई थी.”

‘‘यह आप ने बहुत अच्छा किया. आप मुझे विशेष का नंबर भी दे दीजिए. मुझे थोड़ा समय दीजिएगा. मैं इस रहस्य को सुलझाने की कोशिश करता हूं. आप का एरिया मेरे थाने में ही आता है.”

हफ्ता भी नहीं बीता था कि सुबहसुबह विनय रजनी के घर आ गए.

‘‘अरे रजनी देखो तो सही, तुम्हारी सहेली के पति आए हैं,” स्वयं को संयत रखते हुए विशेष ने पत्नी को आवाज दी और विनय को बैठक में ले आया.

‘‘मुझे आप से कुछ बात करनी थी?”

‘‘मुझ से…?‘‘ आश्चर्य और घबराहट दोनों थी विशेष की आवाज में.

‘‘आप को कोई ब्लैकमेल कर रहा है?‘‘ विजय ने सीधेसीधे पूछा.

‘‘ज्ज ज जी म म मेरा मतलब है क्या?” विशेष बुरी तरह घबरा गया.

‘‘देखिए विशेष, हम रिश्तेदार हैं. मेरी हमदर्दी आप के साथ है. मैं एक ब्लैकमेल के केस को हल करने की जांच में लगा हुआ हूं. उसी सिलसिले में आप का नंबर भी मिला. उमेश एक ब्लैकमेलर है. उसे तो खैर हम पकड़ ही लेंगे, परंतु वह आप को बारबार फोन क्यों कर रहा है. यही जानने के लिए मैं आया हूं,‘‘ विजय शांत स्वर में बोले.

विशेष सिर पकड़ कर सोफे पर बैठ गया. उस के नेत्र बरस रहे थे. पत्नी और मां भी आ गए थे. रजनी का हाथ पकड़ कर वह बोला, ‘‘रजनी ये ही वो बात है, जो मैं शादी से पहले तुम्हें बताना चाहता था, पर तब तुम ने सुना नहीं. बाद में इसे बताने, ना बताने का कोई अर्थ नहीं था. तुम्हारे पूछने पर भी नहीं बताया.

‘‘काश, वह काली रात मेरे जीवन में ना आई होती. उस रात हम छत पर पार्टी कर रहे थे. मैं पीता नहीं हूं. परंतु दोस्तों ने मुझे बहुत पिला दी थी. शायद इसीलिए मुझे चढ़ गई थी. मुझे कुछ होश नहीं था. दोस्तों ने बताया कि नशे में मैं ने रिचा को छत से धक्का दे दिया था. वह सिर के बल गिर कर मर गई.

‘‘मुझे तो होश नहीं था. उन दोनों ने ही रिचा की लाश को ठिकाने लगाया और इस राज को अपने तक सीमित रखने का वादा कर चले गए. पिताजी ने दोनों को पच्चीसपच्चीस लाख रुपए दिए थे. थोड़े समय बाद उमेश पिताजी को ब्लैकमेल करने लगा. एक दिन पिताजी को बहुत गुस्सा आ गया. उसी में हार्ट अटैक से उन की मृत्यु हो गई. दस महीने वह शांत रहा और अब फिर से वह मुझे फोन कर रहा है. मैं जवाब नहीं दे रहा. जानता हूं कि एक बार दे दूंगा तो इस का कोई अंत नहीं होगा. कोई रास्ता भी नहीं सूझ रहा. ऊपर से मुझे और रजनी को रिचा लाल सूट में आंगन में घूमती दिखाई देती है. उस दिन उस ने यही लाल सूट पहना था,” विशेष ने विजय की ओर देखा.

‘‘रास्ता तो एक ही है विशेष, आप को आत्मसमर्पण करना होगा,” विजय बोले.

‘‘लेकिन जीजाजी, ये तो वो दोस्त कह रहे हैं न कि धक्का विशेष ने दे दिया था. क्या पता, उन में से ही किसी ने दिया हो?‘‘

‘‘हां, यह संभव है, पर जब तक सिद्ध नहीं होता, तब तक तो…”

‘‘क्या हम उस लाश की फौरेंसिक जांच नहीं करा सकते? उस से तो पता चल जाएगा ना?” रजनी ने पूछा.

‘‘हां, उस से पता चल जाएगा. और यह मैं करा भी दूंगा. फिलहाल तो आप को समर्पण करना होगा. मेरा एक दोस्त है, बहुत अच्छा वकील है. मैं उस से बात कर लूंगा. वह आप का केस लड़ेगा. उदय और उमेश को पकड़ने के लिए दो टीमें जा चुकी हैं.”

फौरेंसिंक टीम ने कंकाल को जब निकाला तो उस के नीचे एक रिवौल्वर भी दबी मिली. और जब रिपोर्ट आई, तो सब चकित रह गए. रिपोर्ट हूबहू वही कह रही थी, जो उदय ने कोर्ट में बयान दिया था. रिचा की मौत गिरने से नहीं गोली लगने से हुई थी. रिवौल्वर पर उमेश के फिंगरप्रिंट्स भी मिले थे.

मजिस्ट्रेट के सामने इकबालिया स्टेटमैंट में उदय ने बयान दिया, ‘‘उस रात उमेश ने रिचा के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा था, जिसे उस ने मना कर दिया. गुस्से में उमेश ने गोली चला दी और वो रिचा के सिर के पार हो गई. विशेष नशे में धुत्त पड़ा था. उदय डर कर चिल्लाने लगा, तो उस ने उसे शांत कराया और समझाया कि जो हो गया, वह हो गया. विशेष के पिता बहुत अमीर हैं. हम रिचा को गिरा कर कहेंगे कि विशेष ने नशे में उसे धक्का दे कर मार डाला और इस राज के बदले उन से पैसे वसूल लेंगे. और यही हुआ. अंकल ने बिना मांगे हमें पच्चीस-पच्चीस लाख रुपए दे दिए. उस के बाद का मुझे कुछ पता नहीं. हम ने एकदूसरे से कोई संपर्क नहीं किया.”

फौरेंसिक रिपोर्ट और चश्मदीद की गवाही के आधार पर विशेष को कोर्ट ने बाइज्जत बरी कर दिया.

पत्नी व मां के साथ कोर्ट से बाहर आ कर इंस्पेक्टर विजय से हाथ मिलाते हुए विशेष बोला, ‘‘आप ने और रजनी ने मिल कर मुझे जेल से ही नहीं, बल्कि लाल साए के आतंक से भी मुक्त करा दिया है. इतने समय बाद आज मैं सुकून से सो सकूंगा.”

लाल साए का राज अब राज नहीं था. वह असल में उमेश ही था, जो खिड़की से लाल ओढ़नी में घुस कर झलक दिखा कर भाग जाता था. उदय के साथ मिल कर उस ने यह नाटक इन फालतू बातों में विश्वास करने वाले परिवार को पैसे देते रहने के लिए रचा था.

रजनी ने पहले ही दिन पैरों के निशान से भांप लिया था कि वे मर्द के निशान हैं किसी आत्मावात्मा के नहीं.

कुछ हट कर

एक सुबह कविता सो कर उठी और फ्रैश हुई. तभी अचानक उस की नजर कैलेंडर पर पड़ी तो वह जरा ठिठकी, ओह, कुछ ही दिनों में वह 42 साल की हो जाएगी. बस यही ठंडी सी सांस उस के मुंह से निकली. किचन में चाय बनाते हुए मन अजीब सा हुआ कि क्या सच में काफी उम्र हो रही है? चाय ले जा कर मेज पर रखी और फिर विनय का बाथरूम से निकलने का इंतजार करने लगी. लगा इतने सालों से वह बस इंतजार ही तो कर रही है…

आजकल कई दिनों से मन में फैली अजीब सी उदासीनता कविता से सहन नहीं होती. उसे अपने जीवन में शांत झील का ठहराव नहीं, बल्कि समुद्र की तूफानी लहरों का उफान चाहिए, कुछ तो खट्टामीठा स्वाद हो जीवन का.

दोनों बच्चे अभिजीत और अनन्या बड़े हो गए हैं, दोनों ने अपनीअपनी डगर ले ली है. ‘लगता है, अब किसी को मेरी जरूरत नहीं है, कैसे ढोऊं अब उद्देश्यहीन जीवन का भार?’ आजकल कविता बस ऐसी ही बातें सोचती रहती. उसे अपनी मनोदशा स्वयं समझ नहीं आती. जितना सोचती उतना ही अपने बनाए

हुए भ्रमजाल में उलझती जाती. आज जब बच्चे उस के स्नेह की छांव को छोड़ कर अपने क्षितिज की तलाश में बढ़ चले हैं, तो वह नितांत अकेली खड़ी महसूस करती है, निराधार, अर्थहीन.

‘‘अरे, तुम्हारी चाय ठंडी हो रही है, कविता,’’ विनय की आवाज से कविता की

तंद्रा भंग हुई.

‘‘क्या सोच रही थी, तबीयत तो ठीक है न?’’ पूछतेपूछते विनय ने चाय के साथ पेपर उठा लिया तो कविता और अनमनी हो गई, सोचा, बस पेपर पढ़ कर औफिस चले जाएंगे, बच्चे भी कालेज चले जाएंगे, तीनों शाम तक ही लौटेंगे. बस, उस का वही बोरिंग रूटीन शुरू हो जाएगा. मेड से काम करवाएगी, नहाधो कर थोड़ी देर टीवी देखेगी, कोई पत्रिका पढ़ेगी और फिर शाम होतेहोते सब के आने का इंतजार शुरू हो जाएगा.

कविता सोचती वह पोस्ट ग्रैजुएट है. विवाह के बाद विनय और उस के सासससुर उस के नौकरी करने के पक्षधर नहीं थे, उस ने भी घरगृहस्थी खुशीखुशी संभाल ली थी. सब ठीक था, बस, इन कुछ सालों में कुछ कमी सी लगती है. वह अपने रूटीन से बोर हो रही है, आजकल उस का कुछ हट कर, कुछ नया करने को जी चाहता है. इन्हीं खयालों में डूबे उस ने दिन भर के काम निबटाए, शाम को सोसायटी के गार्डन में सैर करने गई. यह अब भी उस की दिनचर्या का सब से प्रिय काम था.

कविता आधा घंटा सैर करती, फिर गार्डन से क्लबहाउस के टैरेस पर जाने का जो रास्ता है, वहां जा कर थोड़ी देर घूमती. टैरेस से नीचे बना स्विमिंगपूल दिखता, उस में हाथपैर मारते छोटेछोटे बच्चे उसे बहुत अच्छे लगते. शाम को ज्यादातर बच्चे ही दिखते थे, टीनएजर्स कभीकभी ही दिखते थे. पूल का नीलापन जैसे आसमान का आईना लगता. वह नीलापन कविता को आकर्षित करता. वह खड़ीखड़ी कभी आसमान को देखती तो कभी स्विमिंगपूल के नीलेपन को.

क्लब हाउस का पास तो कविता के पास था ही. अत: एक दिन वह ऐसे ही टहलतेटहलते पूल के पास पहुंच गई और फिर किनारे पर रखी चेयर पर बैठ गई. स्विमिंग पूल से पानी की हलकीहलकी आवाजें आ रही थीं, अत: पानी में जाने की तीव्र इच्छा उस पर हावी हुई. ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ था. उस के अंदर जैसे किसी ने कहा, कुछ हट कर करना है न तो स्विमिंग क्यों नहीं? दिल किया वह अभी इसी समय अपने इस एहसास को किसी के साथ बांटे. पूल में उतरने और तैरने के खयाल से ही वह उत्साहित हो गई. हां, यह ठीक रहेगा, वह हमेशा स्विमिंग से डरती है, पानी से उसे डर लगता है, जब भी जुहू या और किसी बीच पर जाती है, हमेशा पानी से दूर टहलती है.

2 साल पहले जब चारों गोआ घूमने गए थे, उसे बहुत मजा आया था. लेकिन वह लहरों के बीच जाने से कतराती रही थी. पिछले साल फिर जब उस ने विनय से गोआ चलने के लिए कहा तो अभिजीत और अनन्या दोनों ने ही कहा, ‘‘मम्मी, आप को गोआ जा कर करना क्या है? आप को दूरदूर किनारे ही तो घूमना है. उस के लिए तो यहीं मुंबई में ही जुहू बीच पर चली जाया करो.’’

कविता क्या करे, उसे लहरों के अंदर घबराहट सी होती और यह घबराहट उसे पहले नहीं होती थी. वह तो 10 साल पहले जब विनय की पोस्टिंग नईनई ठाणे में हुई थी तो वे घर के पास ही स्थित ‘टिकुजीनिवाड़ी वाटर पार्क’ में गए थे. वहां पहुंच कर कविता बहुत उत्साहित थी. यह किसी वाटरपार्क का उस का पहला अनुभव था. वहीं एक स्लाइड से नीचे आते हुए उस का संतुलन बिगड़ गया और वह सिर के बल पानी में गिर गई और घबराहट में स्वयं को संभाल नहीं पाई.

विनय ने ही उसे सहारा दे कर खड़ा किया. वे कुछ क्षण जब उसे अपनी सांस रुकती हुई लगी थी, उसे अब तक याद थे.

और आज जब कुछ नया करने की इच्छा है, तो वह क्यों न पानी में उतर जाए, वह मन ही मन संतुष्ट हुई, हां, स्विमिंग ठीक रहेगी और विनय और बच्चों को अभी नहीं बताऊंगी वरना इस उम्र में यह शौक देख कर वे तीनों हंसने लगेंगे. यह मैं अपने लिए करूंगी, कई सालों में बहुत दिनों बाद, जो मैं चाहती हूं वह करूंगी न कि वह जो सब सोचते हैं. उस ने अभी से अपने को युवा सा महसूस किया. पानी के किनारे बैठेबैठे अपनी योजना को आकार दिया. फिर उत्साहित कदमों से रिसैप्शन पर गई और पूछा, ‘‘लेडीज कोच है?’’

‘‘इस समय बस बच्चों के लिए ही एक कोच आता है, लेडीज के लिए बैच गरमियों में शुरू होगा,’’ रिसैप्शनिस्ट बोली.

अभी तो नवंबर है, कविता को अपना उत्साह काफूर होता लगा. लेकिन बस पल भर के लिए. फिर उस का उत्साह यह सोचते ही लौट आया कि वह खुद अपने बलबूते स्विमिंग सीखने की कोशिश करेगी.

घर आ कर कविता मन ही मन प्लानिंग करती रही. विनय ने हमेशा की तरह टीवी देखा, लैपटौप पर काम किया, बच्चे भी अपनेअपने क्रियाकलापों में व्यस्त थे. किसी ने उस के उत्साह पर ध्यान नहीं दिया. वह भी चुपचाप क्या करना है, कैसे करना है, सोचती रही.

अगले दिन तीनों के जाने के बाद कविता स्विमसूट खरीदने मार्केट गई. उसे बड़ा अजीब लग रहा था. उस ने शरीर को ज्यादा से ज्यादा ढकने वाला स्विमसूट खरीदा, ट्रायलरूम में पहन कर देखा और मन ही मन संतुष्ट हुई. सैर से अभी फिगर ठीक ही थी. वह खुश हुई. अगले 8-10 दिन वह पूल के किनारे बैठ जाती, बच्चों को देखती, कैसे वे पानी में पैर मारते हैं, कैसे बांहें चलाते हैं, किस तरह उन के पैर उन्हें आगे धकेलते हैं और कैसे यह सब वे सांस खींच कर हवा को अपने अंदर भरते हैं. उस ने गहरी सांस ली और रोक ली. उसे निराशा हुई. लगा, नहीं कर पाएगी. नहीं, वह हारेगी नहीं, उसे कुछ नया, कुछ अलग करना है. रात को जब वह सोने के लिए लेटी तो उस के सामने बस वह पल था जब वह पूल के पानी को अपने चारों ओर महसूस कर सकेगी.

10 दिन बाद वह पूल की ओर बढ़ी तो मन में कुछ डर भी था तो कुछ जोश भी. यह पल उसे उस समय की याद दिला गया जब सुहागरात पर दुलहन बनी उसे फूलों से सजे बैडरूम में ले जाया जा रहा था. वहां विनय इंतजार में थे, यहां पूल. मन ही मन इस तुलना पर उसे हंसी आ गई. वह चेंजिंगरूम में गई, सनस्क्रीन लोशन लगाया और फिर घुटनों तक के शौर्ट्स के ऊपर स्विमसूट पहन लिया. शरीर का काफी हिस्सा ढक गया था. खाली स्विमसूट पहनने से उसे संकोच हो रहा था. अब वह सहज थी, केशों को सूखा रखने के लिए उस ने कैप लगाई और शरीर पर तौलिया लपेट लिया.

11 बज रहे थे, यह क्लबहाउस में स्विमिंग का लेडीज टाइम था. बस एक लड़की स्विमिंग कर रही थी. कविता पूल के किनारे बने खुले शावर की ओर बढ़ी. वह जानती थी पूल में उतरने से पहले शावर लेना नियम है. उस ने तौलिया हटा दिया, शावर के ठंडे पानी की तेज बौछार से पल भर को उस की सांसें जैसे रुक सी गईं.

कविता पूल के कम पानी वाले किनारे खड़ी हो कर फिल्मों में पूल में उतरने के दृश्य याद करने लगी. वह इस पल का क्या खूब आनंद उठा रही है, यह सोच कर उस के होंठों पर मुसकान आ गई. उसे लाइफगार्ड किनारे बैठा नजर आया तो वह थोड़ा निश्चिंत हो गई. अब जो भी करना था अपने बलबूते करना था. पानी ठंडा था, उस ने याद किया, कैसे बच्चों का कोच बच्चों को सिखाता था, नीचे जाओ, सांस रोको, ठंड नहीं लगेगी. उस ने ऐसा ही किया. रौड पकड़ी, पानी में चेहरा डाला और पैर चलाने की कोशिश की. बस थोड़ी देर ही कर पाई. बाहर निकली, थोड़ी निराश थी, कैसे करेगी वह यह.

घर पहुंचते ही थोड़ी देर लेट गई. अगला1 हफ्ता वह बस पानी में पैर चलाती रही. थक जाती तो पानी के अंदर डुबकी लगा कर आंखें खुली रखने की कोशिश करती. क्लोरीनयुक्त पानी से आंखें लाल हो जातीं. वह खुद को समझाती कि इस की आदत भी हो जाएगी. फिर अपनी पीठ उठा लेती जैसे पीठ के बल तैर रही हो.

शाम की सैर के बाद कविता पूल के किनारे चेयर पर जरूर बैठती, अपने कान बच्चों के कोच के 1-1 शब्द पर लगाए रखती और अगले दिन वैसा ही करने की कोशिश करती. उसे इस खेल में विचित्र आनंद आने लगा था.

एक दिन कविता ने सोचा, वह रौड को नहीं छुएगी. उस ने पूल की दीवार से टांग टिकाई, मुंह में खूब हवा भरी और एक रबड़रिंग को पकड़ कर खुद को आगे धकेला. उस ने रबड़रिंग को छोड़ने की कोशिश की तो वह डूबने लगी. वह घबरा गई. लगा वह मर रही है, डूब रही है. फिर वह पानी के ऊपर आ गई. उस ने फिर स्टील की रौड को पकड़ लिया. उसे लगा वह अभी तैयार नहीं है.

20वें दिन जब वह कम पानी वाले पूल की चौड़ाई नाप रही थी, तो लाइफगार्ड, जो उसे रोज कोशिश करते देख रहा था, ने पूछा, ‘‘मैडम आप की लंबाई कितनी है?’’

‘‘5 फुट 5 इंच.’’

वह मुसकराया, ‘‘आप 4 फुट गहरे पानी में हैं, आप नहीं डूबेंगी. डूबने भी लगेंगी तो फौरन आप के पैर तली पर लग जाएंगे और आप ऊपर होंगी, आप को तो रिंग की भी जरूरत नहीं है.’’

कविता को लगा उस की बात में दम है. अत: उस ने फिर तैरने की कोशिश की और अब 1 घंटे में वह कई बार पूल की चौड़ाई में तैर चुकी थी.

हफ्ते में 1 दिन क्लबहाउस बंद रहता था, वह आराम करती, संडे को भी स्विमिंग के लिए नहीं जाती थी, क्योंकि विनय और बच्चे घर में होते थे. उस दिन संडे था. रात को वह जब सोने के लिए लेटी तो उसे अपने अंदर इच्छाओं की बंद मुट्ठी खुलती महसूस हुई, उस का शरीर जैसे खिल गया था. कुछ अलग करने के जोश से मन खुश था.

 

उस ने विनय के सीने पर हाथ रखा, तो विनय को कुछ अलग सा महसूस हुआ. उस ने करवट ले कर कविता की कमर पर हाथ रखा, फिर उस के शरीर पर हाथ फेरा तो चौंका. कविता के शरीर में नया कसाव था. बोला, ‘‘अरे, बहुत बढि़या फिगर लग रही है, क्या करती हो आजकल?’’

‘‘कुछ नहीं, बस आजकल मछली बनी हुई हूं,’’ कविता खुल कर हंसी.

विनय ने उसे हैरानी से देखा, एक पल विनय को लगा, आज उस ने पहले वाली कविता को देखा है, जो अपनी कातिल मुसकराहटों, घातक अदाओं और उत्तेजक देह से उस के होश उड़ा देती थी. आजकल तो कविता बस उस के घर की स्वामिनी और उस के बच्चों की मां थी. उधर कविता विनय की उधेड़बुन से बिलकुल अनजान थी.

विनय ने कहा, ‘‘बहुत चेंज लग रहा है तुम में, बताओ न, क्या चक्कर है?’’

कविता ने उसे स्विमिंग के बारे में सब बताया तो वह हैरान रह गया और फिर उसे बांहों में भर लिया. कविता वह जिन इच्छाओं को समझ रही थी कि हमेशा के लिए मर गई हैं, उन के जागने के आनंद में डूब गई. आखिरी बार वह कब भावनाओं के इस सागर में डूबी थी, याद करने लगी.

अगले दिन फिर उस ने गहरी सांस ली, खुद को आगे धकेला, उस के नीचे पूल की टाइल्स चमक रही थीं. शांत पानी उसे अपने चारों ओर लिपटता सा लगा. पूरे शरीर में हलकापन महसूस हुआ. मन में एक जीत की भावना तैर गई. उस ने कुछ अपने बोरिंग रूटीन से हट कर कर लिया है. परमसंतोष के इस पल की बराबरी नहीं है. जब उसे महसूस हुआ कि वह स्विमिंग कर सकती है. स्विमिंग का 1-1 प्रयास कविता के हिमशिला बने मनमस्तिष्क को पिघलाता जा रहा था. तेज हुए रक्तप्रवाह ने शिथिल पड़ी धमनियों को फिर से थरथरा दिया था. मन के समस्त पूर्वाग्रह न जाने कहां हवा हो चले थे और कई दिन पुराने कुछ नया कर गुजरने के तूफानी उद्वेग उन की जगह लेते जा रहे थे. उसे पता चल गया था उम्र बिलकुल भी माने नहीं रखती है, माने रखता है तो भीतर समाया उत्साह और हर पल जीने की इच्छा, जो हर दिन को आनंदमयी दिन में बदलने की चाह रखती हो.

शरणागत: कैसे तबाह हो गई डा. अमन की जिंदगी

शरणागत: कैसे तबाह हो गई डा. अमन की जिंदगी- भाग 1

आईसीयू में लेटे अमन को जब होश आया तो उसे तेज दर्द का एहसास हुआ. कमजोरी की वजह से कांपती आवाज में बोला, ‘‘मैं कहां हूं?’’

पास खड़ी नर्स ने कहा, ‘‘डा. अमन, आप अस्पताल में हैं. अब आप ठीक हैं. आप का ऐक्सिडैंट हो गया था,’’ कह कर नर्स तुरंत सीनियर डाक्टर को बुलाने चली गई.

खबर पाते ही सीनियर डाक्टर आए और डा. अमन की जांच करने लगे. जांच के बाद बोले, ‘‘डा. अमन गनीमत है जो इतने बड़े ऐक्सिडैंट के बाद भी ठीक हैं. हां, एक टांग में फ्रैक्चर हो गया है. कुछ जख्म हैं. आप जल्दी ठीक हो जाएंगे. घबराने की कोई बात नहीं.’’

डाक्टर के चले जाने के बाद नर्स ने डा. अमन को बताया कि उन के परिवार वालों को सूचित कर दिया गया है. वे आते ही होंगे. फिर नर्स पास ही रखे स्टूल पर बैठ गई. अमन गहरी सोच में पड़ गया कि अपनी जान बच जाने की खुशी मनाए या अपने जीवन की बरबादी का शोक मनाए?

कमजोरी के कारण उस ने अपनी आंखें मूंद लीं. एक डाक्टर होने के नाते वह यह अच्छी तरह समझता था कि इस हालत में दिमाग और दिल के लिए कोई चिंता या सोच उस की सेहत पर गलत असर डाल सकती है पर वह क्या करे. वह भी तो एक इंसान है. उस के सीने में भी एक बेटे, एक भाई और पति का दिल धड़कता है. इन यादों और बातों से कहां और कैसे दूर जाए?

आज उसे मालूम चला कि एक डाक्टर हो कर मरीज को हिदायत देना कितना आसान होता है पर एक सामान्य मरीज बन कर उस का पालन करना कितना कठिन.

डा. अमन के दिलोदिमाग पर अतीत के बादल गरजने लगे… डा. अमन को याद आया अपना वह पुराना जर्जर मकान जहां वह अपने मातापिता और 2 बहनों के साथ रहता था. उस के पिता सरकारी क्लर्क थे. वे रोज सवेरे 9 बजे अपनी पुरानी साइकिल पर दफ्तर जाते और शाम को 6 बजे थकेहारे लौटते.

उस की मां बहुत ही सीधीसादी महिला थीं. उस ने उन्हें हमेशा घर के कामों में ही व्यस्त देखा, कभी आराम नहीं करती थीं. वे तीनों भाईबहन पढ़नेलिखने में होशियार थे. जैसे ही बहनों की पढ़ाई खत्म हुई उन की शादी कर दी गई. पिताजी का आधे से ज्यादा फंड बहनों की शादी में खर्च हो गया. उस के पिता की इच्छा

थी कि वे अपने बेटे को डाक्टर बनाएं. इस इच्छा के कारण उन्होंने अपने सारे सुख और आराम त्याग दिए.

वे न तो जर्जर मकान को ही ठीक करवा पाए और न ही स्कूटर या कार ले पाए. बरसात में जब जगहजगह से छत से पानी टपकने लगता तो मां जगहजगह बरतन रखने लगतीं. ये सब देख कर उस का मन बहुत दुखता था. वह सोचता कि क्या करना ऐसी पढ़ाई को जो मांबाप का सुखचैन ही छीन ले पर जब वह डाक्टरी की पढ़ाई कर रहा था तब पिता के चेहरे पर एक अलग खुशी दिखाई देती. उसे देख उसे बड़ा दिलासा मिलता था.

तभी दरवाजा खुलने की आवाज उसे वर्तमान में लौटा लाई. उस के मातापिता और बहनें आई थीं. पिता छड़ी टेकते हुए आ रहे थे. मां को बहनें पकड़े थीं. उस का मन घबराने लगा. सोचने लगा कि मैं कपूत उन के किसी काम न आया. मगर वे आज भी उस के बुरे समय में उस के साथ खड़े थे. जिसे सब से पहले यहां पहुंचना चाहिए था उस का कोसों दूर तक पता न था.

काश वह एक पक्षी होता, चुपके से उड़ जाता या कहीं छिप जाता. अपने मातापिता का सामना करने की उस की हिम्मत नहीं हो रही थी. उस ने आंखें बंद कर लीं. मां का रोना, बहनों का दिलासा देना, पिता का कुदरत से गुहार लगाना सब उस के कानों में पिघले सीसे की तरह पड़ रहा था.

तभी नर्स ने आ कर सब को मरीज की खराब हालत का हवाला देते हुए बाहर जाने को कहा. मातापिता ने अमन के सिर पर हाथ फेरा तो उसे ऐसे लगा मानो ठंडी वादियों की हवा उसे सहला रही हो. धीरेधीरे सब बाहर चले गए.

अमन फिर अतीत के टूटे तार जोड़ने लगा…

जैसे ही अमन को डाक्टर की डिग्री मिली घर में खुशी की लहर दौड़ गई. मातापिता खुशी से फूले नहीं समा रहे थे. बहनें भी खुशी से बावली हुई जा रही थीं. 2 दिन बाद ही इन खुशियों को दोगुना करते हुए एक और खबर मिली. शहर के नामी अस्पताल ने उसे इंटरव्यू के लिए बुलाया था. 2 सप्ताह बाद अमन की उस में नौकरी लग गई. उस के पिता की बहुत इच्छा थी

कि वह अपना क्लीनिक भी खोले. उस ने पिता की इच्छा पर अपनी हामी की मुहर लगा दी. वह अस्पताल में बड़े जोश से काम करने लगा.

अभी अमन की नौकरी लगे 1 साल भी नहीं हुआ था कि अचानक उस की जिंदगी में एक ऐसा तूफान आया कि उस ने उस के जीवन की दिशा ही बदल दी.

दोपहर के लंच के बाद अमन डा. जावेद के साथ बातचीत कर रहा था. डा. जावेद सीनियर, अनुभवी और शालीन स्वभाव के थे. वे अमन की मेहनत और लगन से प्रभावित हो कर उसे छोटे भाई की तरह मानने लगे थे.

उसी समय एक घायल लड़की को अस्पताल लाया गया. वह कालेज से आ रही थी कि उस की साइकिल का बैलेंस बिगड़ गया और वह बुरी तरह जख्मी हो गई. डा. जावेद, अमन और अन्य डाक्टर उस के इलाज में जुट गए. उसे काफी चोटें आई थीं. एक टांग में फ्रैक्चर भी हो गया था. लड़की के मातापिता बहुत घबराए हुए थे. उन्हें दिलासा दे कर बाहर वेटिंग हौल में बैठने को कहा. लड़की के इलाज का जिम्मा डा. अमन को सौंपा गया.

लड़की बेहोश थी. उस के होश में आने का वहीं बैठ कर इंतजार करने लगा. लड़की बहुत सुंदर थी. तीखे नैननक्श, गोरा रंग, लंबे बाल. उस के होश में आने पर उस के मातापिता को बुलाया गया. बातोंबातों में पता चला कि लड़की का नाम नीरा है. बीए फाइनल का आखिरी पेपर दे कर लौट रही थी. सहेली के साथ बातें करती आ रही थी. तभी ऐक्सिडैंट हो गया.

आगे पढ़ें- अमन ने उन्हें धीरज बंधाते हुए…

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें