जो भी प्रकृति दे दे – भाग – 3

‘मैं बदल लूंगी, आप जाइए, सोम. और घर की चाबी भी लौटा दीजिए.’’

सोम का चेहरा सफेद पड़ गया, शायद अपमान से. यह क्या हो गया है निशा को? क्या निशा स्वयं को उन के सामीप्य में असुरक्षित मानने लगी है? क्या उन्हें जानवर समझने लगी है?

एक सुबह जबरन सोम ने ही पहल कर ली और रास्ता रोक बात करनी चाही.

‘‘निशा, क्या हो गया है तुम्हें?’’

‘‘भविष्य में आप खुश रहें उस के लिए हमारी दोस्ती का समाप्त हो जाना ही अच्छा है.’’

‘‘सब के लिए खुशी का अर्थ एक जैसा नहीं होता निशा, मैं निभाने में विश्वास रखता हूं.’’

तभी दफ्तर में एक फोन आया और लोगों ने चर्चा शुरू कर दी कि बांद्रा शाखा के प्रबंधक विकास शर्मा की पत्नी और दोनों बच्चे एक दुर्घटना में चल बसे.

सकते में रह गए दोनों. विश्वास नहीं आया सोम को. निशा के पैरों तले जमीन ही खिसकने लगी, वह धम से वहीं बैठ गई.

सोम के पास विकास की बहन का फोन नंबर था. वहां पूछताछ की तो पता चला इस घटना को 2 दिन हो गए हैं.

भारी कदमों से निशा के पास आए सोम जो दीवार से टेक लगाए चुपचाप बैठी थी. आफिस के सहयोगी आगेपीछे घिर आए थे.

हाथ बढ़ा कर सोम ने निशा को पुकारा. बदहवास सी निशा कभी चारों तरफ देखती और कभी सोम के बढ़े हुए हाथों को. उस का बच्चा भी चला गया… एक आस थी कि शायद बड़ा हो कर वह अपनी मां से मिलने आएगा.

भावावेश में सोम से लिपट निशा चीखचीख कर रोने लगी. इतने लोगों में एक सोम ही अपने लगे थे उसे.

विकास दिल्ली वापस आ चुका था. पता चला तो दोस्ती का हक अदा करने सोम चले गए उस के यहां.

‘‘पता नहीं हमारे ही साथ ऐसा क्यों हो गया?’’ विकास ने उन के गले लग रोते हुए कहा.

वक्त की नजाकत देख सोम चुप ही बने रहे. उठने लगे तो विकास ने कह दिया, ‘‘निशा से कहना कि वह वापस चली आए… मैं उस के पास गया था. फोन भी किया था लेकिन उस ने कोई जवाब नहीं दिया,’’ विकास रोरो कर सोम को सुना रहा था.

उठ पड़े सोम. क्या कहते… जिस इनसान को अपनी पत्नी का रिसता घाव कभी नजर नहीं आया वह अपने घाव के लिए वही मरहम चाहता है जिसे मात्र बेकार कपड़ा समझ फेंक दिया था.

‘‘निशा तुम्हारी बात मानती है, तुम कहोगे तो इनकार नहीं करेगी सोम, तुम बात करना उस से…’’

‘‘वह मुझ से नाराज है,’’ सोम बोले, ‘‘बात भी नहीं करती मुझ से और फिर मैं कौन हूं उस का. देखो विकास, तुम ने अपना परिवार खोया है इसलिए इस वक्त मैं कुछ कड़वा कहना नहीं चाहता पर क्षमा करना मुझे, मैं तुम्हारीं कोई भी मदद नहीं कर सकता.’’

सोम आफिस पहुंचे तो पता चला कि निशा ने तबादला करा लिया. कार्यालय में यह बात आग की तरह फैल गई. निशा छुट्टी पर थी इसलिए वही उस का निर्देश ले कर घर पर गए. निर्देश पा कर निशा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई.

‘‘तबीयत कैसी है, निशा? घाव तो भर गया है न?’’

‘‘पता नहीं सोम, क्या भर गया और क्या छूट गया.’’

धीरे से हाथ पकड़ लिया सोम ने. ठंडी शिला सी लगी उन्हें निशा. मानो जीवन का कोई भी अंश शेष न हो. ठंडे हाथ को दोनों हाथों में कस कर बांध लिया सोम ने और विकास के बारे में क्या बात करें यही सोचने लगे.

‘‘मैं क्या करूं सोम? कहां जाऊँ? विकास वापस ले जाने आया था.’’

‘‘आज भी उस इनसान से प्यार करती हो तो जरूर लौट जाओ.’’

‘‘हूं तो मैं आज भी बंजर औरत, आज भी मेरा मूल्य बस वही है न जो 2 साल पहले विकास के लिए था…तब मैं मनु की मां थी…अब तो मां भी नहीं रही.’’

‘‘क्या मेरे पास नहीं आ सकतीं तुम?’’ निशा के समूल काया को मजबूत बंधन में बांध सोम ने फिर पूछा, ‘‘पीछे मुड़ कर क्यों देखती हो तुम…अब कौन सा धागा तुम्हें खींच रहा है?’’

किसी तरह सोम के हाथों को निशा ने हटाना चाहा तो टोक दिया सोम ने, ‘‘क्या नए सिरे से जीवन शुरू नहीं कर सकती हो तुम? सोचती होगी तुम कि मां नहीं बन सकती और जो मां बन पाई थी क्या वह काल से बच पाई? संतान का कैसा मोह? मैं भी कभी पिता था, तुम भी कभी मां थीं, विकास तो 2 बच्चों का पिता था… आज हम तीनों खाली हाथ हैं…’’

‘‘सोम, आप समझने की कोशिश करें.’’

‘‘बस निशा, अब कुछ भी समझना शेष नहीं बचा,’’ सस्नेह निशा का माथा चूम सोम ने पूर्ण आश्वासन की पुष्टि की.

‘‘देखो, तुम मेरी बच्ची बनना और मैं तुम्हारा बच्चा. हम प्रकृति से टक्कर नहीं ले सकते. हमें उसी में जीना है. तुम मेरी सब से अच्छी दोस्त हो और मैं तुम्हें खो नहीं सकता.’’

सोम को ऐसा लगा मानो निशा का विरोध कम हो गया है. उस की आंखें हर्षातिरेक से भर आईं. उस ने पूरी ताकत से निशा को अपने आगोश में भींच लिया. कल क्या होगा वह नहीं जानते परंतु आज उन्हें प्रकृति से जो भी मिला है उसे पूरी ईमानदारी और निष्ठा से स्वीकारने और निभाने की हिम्मत उन में है. आखिर इनसान को उसी में जीना पड़ता है जो भी प्रकृति दे.

दिखावा: अम्मा से आखिर क्यूं परेशान थे सब- भाग 2

दादी की इकलौती बची बहू ने तो शायद अपनी सास को न छूने का प्रण कर रखा था. घर से चलती तो कम से कम भारी साड़ी पहन कर. साथ में मेलखाता हुआ ब्लाउज. इस के ऊपर रूज, लिपस्टिक का मेकअप. अस्पताल में जा कर पुन: एक बार अपना मेकअप शीशे में देखना न भूलती ताकि राह में कोई गड़गड़ हुई हो तो ठीक की जा सके. उस उम्र में भी चाची का ठसका देखने वाला था. वह तो मु?ा तक से फ्लर्ट कर लिया करती थी.

मैं ने उस से एक दिन कह ही दिया, ‘‘चाची, आप का यह शृंगार यहां शोभा नहीं देता.’’

वह तपाक से बोली, ‘‘तुम क्या जानो. बहुत सारे डाक्टर यहां आते हैं. कुछेक उन के व दामादों के मित्र भी हैं. वे मित्र भी दादी को देखने आते ही हैं. मु?ो सादे कपड़ों में देखेंगे तो क्या कहेंगे. कितनी बेइज्जती होगी तुम्हारे चाचा की एक बड़े व्यापारी की पत्नी के नाते मु?ो यह सब पहनना पड़ता है. घर की इज्जत का सवाल जो है.’’

दादा के एकमात्र सुपुत्र और हमारे यहां मौजूद एक ही अदद चाचा साहब को तो बिजनैस से ही फुरसत नहीं मिलती थी. हां, रोज रात एक बार जरूर इधर से हो जाते थे. रात में ठहरने के नाम पर दुकान के नौकर को बैठा जाते थे, जो आधा सोता तो आधा ऊंघता था. रात में ग्लूकोस आदि चढ़ाते समय दादी के हाथ को पकड़े रहना पड़ता था क्योंकि अकसर वे हाथ को ?ाटक देती थीं. इसलिए रात में दीप्ति और मैं बारीबारी सोते व जागते थे.

घर में करीब 7वें रोज महामृत्युंजय का पाठ प्रारंभ हो गया था, दादी को मोक्ष दिलाने के लिए. साथ ही एक पंडित की नियुक्ति अस्पताल में अम्मांजी को भागवत पढ़ कर सुनाते के लिए कर दी गई थी. वह 1 घंटे के पूरे 200 रुपए लेता था. दादी के स्वस्थ रहते कोई उन्हें एक छोटा किस्सा भी नहीं सुनाता था, पर अब भागवत सुनाई जा रही थी. जब तक दादी ठीक थीं, किसी को उन की चिंता तक न थी, कोई खाने को नहीं पूछता था, लावारिस सी घर के कोने में पड़ी रहती थीं.

जब सुनता था तो इच्छा होती थी दादी को अपने पास ले आऊं पर दादी नहीं आतीं. कह देती थीं, ‘‘बेटा, कुछ ही दिन रह गए है. यहीं गुजार लेने दो.’’

करीब 8वें दिन सुबह दादी का अस्पताल में देहांत हो गया. चाचाचाची, मेरी चचेरी सालियां व उन के पति आ गए थे. उस दिन बच्चे घर ही पर रहने दिए गए.

आते ही सब दादी के शरीर से लिपट गए. (ऐसे वे मेरे सामने पहले कभी नहीं लिपटे थे). थोड़ी ही देर में पूरा कमरा दहाड़ें मार कर रोने की आवाजों से गूंज उठा. यों लगा जैसे एकसाथ कई लोग कत्ल कर दिए गए हों. 5 मिनट में ही सब शांत भी हो गए. किसी के चेहरे को देख कर नहीं लग रहा था कि उस की आंखों से आंसू का एक कतरा भी बहा हो. पूरा सीन मेरी आंखों के सामने नाटक के रिहर्सल की तरह निकल गया. मेरे अपने मातापिता जिंदा थे और दोनों ही मेरी तरह अकेले संतान थे. किसी को मरने के समय देखने का यह पहला मौका था.

दादी के शव को स्ट्रेचर पर डालने के वक्त चूंकि चाचा अकेले थे, मैं ने सोचा दादीको उठाने में मदद कर दूं. अभी हाथ बढ़ाया ही था कि बड़ी साली बोल उठी, ‘‘दिनेश, तुम हाथ न लगाना. तुम तो दामाद हो, तुम्हारा हाथ लग गया तो अम्मां को नर्क जाना होगा,’’ इस बहाने पति को भी हाथ लगाने से बचा लिया.

दादी के मरने तक तो मैं सेवा करता रहा. उस समय किसी को याद नहीं आया कि मैं घर का दामाद हूं. पर यह चूंकि दादी को मोक्ष मिलने की बात थी, अतएव मैं अपना हाथ लगा कर उन के मोक्ष के रास्ते का द्वार बंद नहीं करना चाहता था.

दादी को उठाना चाचाके अकेले के बस की बात नहीं थी. वे खुद 65 के थे. दादी 89 की थीं. फिर भी भाई साहब, मेरी श्रीमतीजी व भाभीजी दादी को उठा कर स्ट्रेचर पर लाने लगे. स्ट्रेचर मेरी दोनों सालियों ने पकड़ रखी थी. इस से पहले कि शव स्टे्रचर पर आ पाता, वह फर्श पर जा गिरा.

जमीन पर से किसी तरह फिर अर्दली की हैल्प से शव उठा कर स्ट्रेचर पर डाल लिया गया.

लाश घर पर ले जाई गई. आननफानन में रैफ्रीजरेटड ग्लास कौफिन गया था. करीब

20 किलोग्राम गुलाब के फूल, इतने ही मखाने मंगवा लिए गए थे. एक प्रतिष्ठित व्यवसायी की मां की शवयात्रा थी. उन की सारी प्रतिष्ठा दांव पर लगी थी. कहीं कोई यह न कह दे, लड़के ने मां के लिए कुछ खर्च नहीं किया.

मेरा पत्ता चूंकि पहले ही कट गया था, इसलिए मैं ऐसी जगह बैठ गया था, जहां से समस्त क्रियाकलाप देखे जा सकें. मु?ो तो वैसे भी सब दामाद सम?ाते थे.

औरतें जत्थों में चली आ रही थीं. जैसे ही वे लाश के करीब आतीं, सब की सब एक सुर में दहाड़ मार कर रो पड़ती थीं. क्या गजब का सामंजस्य था. कुछ ही क्षणों में  फिर शांति छा जाती थी. पहले आई औरतें पीछे हट कर एक ओर खिसक जाती थीं, जहां वे आपस में मृतक अर्थात दादी के बारे में हर तरह की चर्चा प्रारंभ कर देती थीं. भले ही दादी के जीतेजी कभी कानी आंख भी वे सब इधर नहीं ?ांकी होंगी, पर अब कालोनी की तमाम स्त्रियों का हुजूम था.

थोड़ी देर बाद आवाजें आईं, ‘‘नाती कहां है. बुलवाओ, पैर तो छू लें. दादी को मोक्ष मिल जाएगा.’’

मैं किंकर्त्तव्यविमूढ़ था. मेरे छूने मात्र से दादी को नर्क मिल सकता था, पर मेरे लड़के के छूने से नहीं. जब वे बीमार थीं तो कोई उन्हें हाथ नहीं लगा रहा था.

मेरी दोनों सालियां व बहू अपनेअपने लड़कों को शव की तरफ हांकने लगीं. अंतत: सभी दादी के मृत शरीर का चरणस्पर्श कर चुके थे.

मैं ने सोचा, अच्छा हुआ मेरे दोनों साढू भाईर् नहीं आए वरना मेरी तरह तमाशा बनते व मूर्ति की तरह कोनों में बैठे होते.

एक फोटोग्राफर भी था. लाश पर कफन डाला जाने वाला ही था कि भाई साहब की निगाह शायद अम्मां के गले व हाथ की कलाई पर चली गई. सोने का हार व कंगन थे. कम से कम 4 तोला सोना. भाई साहब ने लपक कर निकाल लिया, गोया कोई ले कर भागने वाला था.

शव ऐंबुलैंस पर रखकर सभी लोग घाट की तरफ रवाना हो गए. घाट पर लकड़ी की चिता भी तैयार हो गईर् थी. लाश को चिता पर रखने से पहले नदी का गोता भी लगवाना था. पर अभी भाई साहब की खोपड़ी नहीं घुटी थी. तुरंत ही एक नाई भाई साहब के बाल मूंडने लगा. मुंडन संस्कार के बाद भाई साहब के तन पर श्वेत ?ाना वस्त्र था. सर्द हवा के कारण भाई साहब की कंपकंपी छूट चली थी.

दिल्लगी: क्या था कमल-कल्पना का रिश्ता- भाग 3

वह कब गहरी नींद सो गया, कल्पना को पता ही नहीं चला. भीतरबाहर से थकीहारी कल्पना भी शीघ्र ही सो जाना चाहती थी, पर नींद तो मानो उस की आंखों से कोसों दूर थी. बंद पलकों में बजाय नींद के अतीत की भूलीबिसरी स्मृतियां उमड़घुमड़ रही थीं.

कल्पना एक मध्यवर्गीय परिवार की इकलौती लड़की थी. उस के पिता कृष्णगोपाल की खिलौनों की एक दुकान थी. उन के पड़ोसी घनश्यामलाल कमल के सगे मामा थे. घनश्यामलाल के शहर में दूध के डेरों बूथ थे और बहुत अच्छा काम था. वे काफी पढ़ेलिखे थे इसलिए उस के पिता व घनश्याम घर से बाहर पड़े तख्तों पर घंटों देश की राजनीति और समाज पर चर्चा करते थे.

कल्पना कमल को बचपन से जानती थी. हर साल गरमी की छुट्टियां नैनीताल में बिताने की गरज से कमल का परिवार घनश्यामलाल के यहां आ कर ठहरता था. दोनों घरों में आंगन एक ही था. वह, कमल और उस के 2 अन्य भाईबहन एकसाथ आंखमिचौली खेला करते थे. वह उन के साथ ही खाने भी बैठ जाती और प्राय: रात तो उन के उस बड़े पलंग पर भी जा पहुंचती, जिस पर कमल और उस के छोटे भाईबहन सोते थे. वह बिना किसी संकोच के उन के बीच जा लेटती थी.

कुछ वर्ष बाद कमल ने कल्पना के साथ ही कालेज जीवन में पदार्पण किया था. चूंकि कमल के मामामामी बेऔलाद थे, इसलिए उन्होंने कमल को बजाय होस्टल के अपने पास ही रहने के लिए राजी कर लिया था. दोनों साथसाथ कालेज जाते, साथसाथ ही घर लौटते. उस के पिता और कमल के मामाजी के बीच गहरी आत्मीयता होने के कारण कालेज या घर में उन दोनों के मिलनेजुलने पर कोई रोकटोक नहीं थी.

कल्पना के मन में यह धारण बचपन से ही बैठ गई थी कि कमल पर अन्य लोगों की अपेक्षा उस का कुछ विशेष अधिकार है. उस विशेषाधिकार की भावना से कमल पर वह खूब रोब जमाती थी और उस पर ज्यादती भी करती थी. वह सहनशील बन कर उस की प्रत्येक इच्छा व आज्ञा का पालन करता और जब कभी ऐसा न करता तो कल्पना उसे जो भी सजा देती उसे वह सहर्ष स्वीकार कर लेता था.

प्राय: कल्पना की मां उस के पिता से दबे स्वर में कहती थी, ‘‘देखो, दोनों की जोड़ी कितनी अच्छी लगती है पर…’’

कल्पना तब सम?ादार हो गई थी. मां की इस बात ने उस के मन में कमल के प्रति उस की धारणा को और भी मजबूत कर दिया था. उसे पूरा विश्वास था कि कमल ही उस का जीवनसाथी बनेगा और उसे स्वयं फिर इस संबंध पर कोई आपत्ति नहीं थी. हां वह मां के ‘पर…’ को नहीं सम?ा पाई थी.

बीए की परीक्षा खत्म होते ही कमल अपने मामामामी, उस के मातापिता व उस से विदा लेकर अपने घर चला गया था. चलते वक्त वह उस से यह वादा कर गया था कि शीघ्र ही परिवार सहित लौटेगा. कमल के चले जाने के बाद पहली बार उसे महसूस हुआ था मानो कमल के बिना नैनीलाल की प्रत्येक वस्तु व स्थान का आकर्षण फीका पड़ गया है. अपनेआप को भी वह अस्तित्वहीन सम?ाने लगी थी.

तीसरे दिन उसे कमल का पत्र मिला था. पत्र पढ़तेपढ़ते उस के चेहरे की उदासी बढ़ती चली गई थी. कमल ने लिखा था कि मां की तबीयत खराब होने के कारण उस का परिवार इस साल नैनीताल नहीं जा सकेगा. उस ने वादा पूरा न कर सकने पर खेद प्रकट किया था.

उस के बाद वह रोती हुई घर आ गई. अगले ही दिन उसे पता चला कि कमल और उस के मातापिता कमल की दादी के देहांत के कारण बाजपुर चले गए हैं. कमल फिर नहीं लौटा. उस के मैसेज पहले की तरह आते रहे. कल्पना को मालूम था कि उस का एडवैंचर कमल के मोबाइल में कैद है इसलिए वह भी सामान्य बना रही.

कुछ दिन बाद उस के मांबाप राजीव को ढूंढ़ कर लाए तो उस ने शादी को तुरंत हां कर दी और कमल को आमंत्रण भी भेज दिया. कमल ने मैसेज भी किया कि वह आएगा और तोहफे में एक मोेबाइल दे जाएगा. पर शादी पर वह नहीं आया तो कल्पना को हरदम एक अनजाना भय लगा रहता कहीं कमल उस का भंडाफोड़ न कर दे. आज उस का आना, इस तरह बेतकल्लुफी से मिलना उस पर भारी पड़ रहा था.

मगर कल्पना पर तो मानो कोई भूत सवार ही गया था. कमल की बातों का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था. उस ने कमल को अनेक उलटीसीधी बातें कह डाली थीं. बेचारा कमल हार कर चुप हो गया था. खून के आंसू रोता उस का मन चाह रहा था कि कहीं एकांत में पहुंच कर मन की भड़ास निकाल ले. मगर पुरुष होने के कारण वह ऐसा नहीं कर सका था. कल्पना ने दृढ़ निश्चय कर लिया था कि वह कमल को दिखा देगी कि नारी का स्वाभिमान कितनी बड़ी चीज होती है.

राजीव ने वकालत पास करने के बाद अपनी प्रैक्टिस शुरू कर दी थी. दोनों ही पक्षों के आधुनिक विचार होने के कारण उन का विवाह बेहद साधारण ढंग से हुआ था. विवाह के दौरान वह खामोशी की प्रस्तर प्रतिमा बनी रही थी. उस ने कोई भी आपत्ति नहीं की थी. उलटा कमल को ईर्ष्या की आग में जलाने के लिए उस ने उसे शादी का कार्ड भी भेजा था पर कमल नहीं आया था. उस का पत्र आया था. उस ने लिखा था:

‘‘कल्पना,

‘‘तुम्हारे विवाह में सम्मिलित होने पर मु?ो बेहद प्रसन्नता होती, पर अकस्मात ही हृदयरोग से ग्रस्त मां का निधन हो जाने के कारण मैं पहुंचने में असमर्थ हूं. आशा है मेरी विवशता सम?ाते हुए मेरे न आने को अन्यथा न ले कर क्षमा करोगी. मेरी शुभकामनाएं हमेशा तुम्हारे साथ रहेंगी.

‘‘-कमल’’

पत्र में पिछली किसी बात का उल्लेख न देख कर सहसा तब उस ने ठंडे दिल से सोचा था, कहीं वास्तव में वह कमल के प्रति गलतफहमी की शिकार तो नहीं है. संभव है, कमल अपनी जगह पर सही हो. उस ने सचमुच में ही कभी उसे मित्र से ज्यादा अहमियत न दी हो. मन में जागे इन विचारों ने उस के दिल से कमल के प्रति समाई पूरी घृणा दूर कर दी थी. इस के बाद तो उसे कमल से कोई शिकवाशिकायत नहीं रह गई थी. तब उस ने औपचारिकता के नाते कमल को शोक भरा पत्र भी लिख दिया था.

राजीव की समीपता में 1 वर्ष कब बीत गया, कल्पना को कभी इस का एहसास तक नहीं हुआ.

पन्नों पर फैली पीड़ा

रात थी कि बीतने का नाम ही नहीं ले रही थी. सफलता और असफलता की आशानिराशा के बीच सब के मन में एक तूफान चल रहा था. औपरेशन थिएटर का टिमटिम करता बल्ब कभी आशंकाओं को बढ़ा देता तो कभी दिलासा देता प्रतीत होता. नर्सों के पैरों की आहट दिल की धड़कनें तेज करने लगती. नवीन बेचैनी से इधर से उधर टहल रहा था. हौस्पिटल के इस तल पर सन्नाटा था. नवीन कुछ गंभीर मरीजों के रिश्तेदारों के उदास चेहरों पर नजर दौड़ाता, फिर सामने बैठी अपनी मां को ध्यान से देखता और अंदाजा लगाता कि क्या मां वास्तव में परेशान हैं.

अंदर आई.सी.यू. में नवीन की पत्नी सुजाता जीवन और मृत्यु के बीच संघर्ष कर रही थी. नवीन पूरे यकीन के साथ सोच रहा था कि अभी डाक्टर आ कर कहेगा, सुजाता ठीक है.

कल कितनी चोटें आई थीं सुजाता को. नवीन, सुजाता और उन के दोनों बच्चे दिव्यांशु और दिव्या पिकनिक से लौट रहे थे. कार नवीन ही चला रहा था. सामने से आ रहे ट्रक ने सुजाता की तरफ की खिड़की में जोरदार टक्कर मारी. नवीन और पीछे बैठे बच्चे तो बच गए, लेकिन सुजाता को गंभीर चोटें आईं. उस का सिर भी फट गया था. कार भी बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गई थी. नवीन किसी से लिफ्ट ले कर घायल सुजाता और बच्चों को ले कर यहां पहुंच गया था.

नवीन ने फोन पर अपने दोनों भाइयों विनय और नीरज को खबर दे दी थी. वे उस के यहां पहुंचने से पहले ही मां के साथ पहुंच चुके थे. विनय की यहां कुछ डाक्टरों से जानपहचान थी, इसलिए इलाज शुरू करने में कोई दिक्कत नहीं आई थी.

नवीन ने सुजाता के लिए अपने दोनों भाइयों की बेचैनी भी देखी. उसे लगा, बस मां को ही इतने सालों में सुजाता से लगाव नहीं हो पाया. वह अपनी जीवनसंगिनी को याद करते हुए थका सा जैसे ही कुरसी पर बैठा तो लगा जैसे सुजाता उस के सामने मुसकराती हुई साकार खड़ी हो गई है. झट से आंखें बंद कर लीं ताकि कहीं उस का चेहरा आंखों के आगे से गायब न हो जाए. नवीन ने आंखें बंद कीं तो पिछली स्मृतियां दृष्टिपटल पर उभर आईं…

20 साल पहले नवीन और सुजाता एक ही कालेज में पढ़ते थे. दोनों की दोस्ती कब प्यार में बदल गई, उन्हें पता ही नहीं चला. पढ़ाई खत्म करने के बाद जब दोनों की अच्छी नौकरी भी लग गई तो उन्होंने विवाह करने का फैसला किया.

सुजाता के मातापिता से मिल कर नवीन को बहुत अच्छा लगा था. वे इस विवाह के लिए तैयार थे, लेकिन असली समस्या नवीन को अपनी मां वसुधा से होने वाली थी. वह जानता था कि उस की पुरातनपंथी मां एक विजातीय लड़की से उस का विवाह कभी नहीं होने देंगी. उस के दोनों भाई सुजाता से मिल चुके थे और दोनों से सुजाता की अच्छी दोस्ती भी हो गई थी. जब नवीन ने घर में सुजाता के बारे में बताया तो वसुधा ने तूफान खड़ा कर दिया. नवीन के पिताजी नहीं थे.

वसुधा चिल्लाने लगीं, ‘क्या इतने मेहनत से तुम तीनों को पालपोस कर इसी दिन के लिए बड़ा किया है कि एक विजातीय लड़की बहू बन कर इस घर में आए? यह कभी नहीं हो सकता.’

कुछ दिनों तक घर में सन्नाटा छाया रहा. नवीन मां को मनाने की कोशिश करता रहा, लेकिन जब वे तैयार नहीं हुईं, तो उन्होंने कोर्ट मैरिज कर ली.

नवीन को याद आ रहा था वह दिन जब वह पहली बार सुजाता को ले कर घर पहुंचा तो मां ने कितनी क्रोधित नजरों से उसे देखा था और अपने कमरे में जा कर दरवाजा बंद कर लिया था. घंटों बाद निकली थीं और जब वे निकलीं, सुजाता अपने दोनों देवरों से पूछपूछ कर खाना तैयार कर चुकी थी. यह था ससुराल में सुजाता का पहला दिन.

नीरज ने जबरदस्ती वसुधा को खाना खिलाया था. नवीन मूकदर्शक बना रहा था. रात को सुजाता सोने आई तो उस के चेहरे पर अपमान और थकान के मिलेजुले भाव देख कर नवीन का दिल भर आया था और फिर उस ने उसे अपनी बांहों में समेट लिया था.

नवीन और सुजाता दोनों ने वसुधा के साथ समय बिताने के लिए औफिस से छुट्टियां ले ली थीं. वे दिन भर वसुधा का मूड ठीक करने की कोशिश करते, मगर कामयाब न हो पाते.

जब सुजाता गर्भवती हुई तो वसुधा ने एलान कर दिया, ‘मुझ से कोई उम्मीद न करना, नौकरी छोड़ो और अपनी घरगृहस्थी संभालो.’

यह सुजाता ही थी, जिस ने सिर्फ मां को खुश करने के लिए नौकरी छोड़ दी थी. माथे की त्योरियां कम तो हुईं, लेकिन खत्म नहीं.

दिव्यांशु का जन्म हुआ तो विनय की नौकरी भी लग गई. वसुधा दिनरात कहती, ‘इस बर अपनी जाति की बहू लाऊंगी तो मन को कुछ ठंडक मिलेगी.’

सुजाता अपमानित सा महसूस करती. नवीन देखता, सुजाता मां को एक भी अपशब्द न कहती. वसुधा ने खूब खोजबीन कर के अपने मन की नीता से विनय का विवाह कर दिया. नीता को वसुधा ने पहले दिन से ही सिर पर बैठा लिया. सुजाता शांत देखती रहती. नीता भी नौकरीपेशा थी. छुट्टियां खत्म होने पर वह औफिस के लिए तैयार होने लगी तो वसुधा ने उस की भरपूर मदद की. सुजाता इस भेदभाव को देख कर हैरान खड़ी रह जाती.

कुछ दिनों बाद नीरज ने भी नौकरी लगते ही सुधा से प्रेमविवाह कर लिया. लेकिन सुधा भी वसुधा की जातिधर्म की कसौटी पर खरी उतरती थी, इसलिए वे सुधा से भी खुश थीं. इतने सालों में नवीन ने कभी मां को सुजाता से ठीक तरह से बात करते नहीं देखा था.

दिव्या हुई तो नवीन ने सुजाता को यह सोच कर उस के मायके रहने भेज दिया कि कम से कम उसे वहां शांति और आराम तो मिलेगा. नवीन रोज औफिस से सुजाता और बच्चों को देखने चला जाता और डिनर कर के ही लौटता था.

घर आ कर देखता मां रसोई में व्यस्त होतीं. वसुधा जोड़ों के दर्द की मरीज थीं, काम अब उन से होता नहीं था. नीता और सुधा शाम को ही लौटती थीं, आ कर कहतीं, ‘सुजाता भाभी के बिना सब अस्तव्यस्त हो जाता है.’

सुन कर नवीन खुश हो जाता कि कोई तो उस की कद्र करता है.

फिर विनय और नीरज अलग अलग मकान ले लिए, क्योंकि यह मकान अब सब के बढ़ते परिवार के लिए छोटा पड़ने लगा था. वसुधा ने बहुत कहा कि दूसरी मंजिल बनवा लेते हैं, लेकिन सब अलग घर बसाना चाहते थे.

विनय और नीरज चले गए तो वसुधा कुछ दिन बहुत उदास रहीं. दिव्यांशु और दिव्या को वसुधा प्यार करतीं, लेकिन सुजाता से तब भी एक दूरी बनाए रखतीं. सुजाता उन से बात करने के सौ बहाने ढूंढ़ती, मगर वसुधा हां, हूं में ही जवाब देतीं.

बच्चे स्कूल चले जाते तो घर में सन्नाटा फैल जाता. बच्चों को स्कूल भेज कर पार्क में सुबह की सैर करना सुजाता का नियम बन गया. पदोन्नति के साथसाथ नवीन की व्यस्तता बढ़ गई थी. सुजाता को हमेशा ही पढ़नेलिखने का शौक रहा. फुरसत मिलते ही वह अपनी कल्पनाओं की दुनिया में व्यस्त रहने लगी. उस के विचार, उस के सपने उसे लेखन की दुनिया में ले आए और दुख में तो कल्पना ही इंसान के लिए मां की गोद है. सुबह की सैर करतेकरते वह पता नहीं क्याक्या सोच कर लेखन सामग्री जुटा लेती.

पार्क से लौटते हुए कितने विचार, कितने शब्द सुजाता के दिमाग में आते, लेकिन अकसर वह जिस तरह सोचती, एकाग्रता के अभाव में उस तरह लिख न पाती, पन्ने फाड़ती जाती, वसुधा कभी उस के कमरे में न झांकतीं, बस उन्हें कूड़े की टोकरी में फटे हुए पन्नों का ढेर दिखता तो शुरू हो जातीं, ‘पता नहीं, क्या बकवास किस्म का काम करती रहती है. बस, पन्ने फाड़ती रहती है, कोई ढंग का काम तो आता नहीं.’

सुजाता कोई तर्क नहीं दे पाती, मगर उस का लेखन कार्य चलता रहा.

अब सुजाता ने गंभीरता से लिखना शुरू कर दिया था. इस समय उस के सामने था, सालों से मिलता आ रहा वसुधा से तानों का सिलसिला, अविश्वास और टूटता हौसला, क्योंकि वह खेदसहित रचनाओं के लौटने का दौर था. लौटी हुई कहानी उसे बेचैन कर देती.

उस की लौटी हुई रचनाओं को देख कर वसुधा के ताने बढ़ जाते, ‘समय भी खराब किया और लो अब रख लो अपने पास, लिखने में नहीं, बच्चों की पढ़ाई पर ध्यान दो.’

सुजाता को रोना आ जाता. सोचती, अब वह नहीं लिखेगी, तभी दिल कहता कि न घबराना है, न हारना है. मेहनत का फल जरूर मिलता है और वह फिर लिखने बैठ जाती. धीरेधीरे उस की कहानियां छपने लगीं.

सुजाता को नवीन का पूरा सहयोग था. वह लिख रही होती तो नवीन कभी उसे डिस्टर्ब न करता, बच्चे भी शांति से अपना काम करते रहते. अब सुजाता को नाम, यश, महत्त्व, पैसा मिलने लगा. उसे कुछ पुरस्कार भी मिले, वह वसुधा के पैर छूती तो वे तुनक कर चली जातीं. सुजाता अपने शहर के लिए सम्मानित हस्ती हो चुकी थी. उसे कई शैक्षणिक, सांस्कृतिक समारोहों में विशेष अतिथि की हैसियत से बुलाया जाने लगा. वसुधा की सहेलियां, पड़ोसिनें सब उन से सुजाता के गुणों की वाहवाह करतीं.

‘‘नवीनजी, आप की पत्नी अब खतरे से बाहर हैं,’’ डाक्टर की आवाज नवीन को वर्तमान में खींच लाई.

वह खड़ा हो गया, ‘‘कैसी है सुजाता?’’

‘‘चोटें बहुत हैं, बहुत ध्यान रखना पड़ेगा, थोड़ी देर में उन्हें होश आ जाएगा, तब आप चाहें तो उन से मिल सकते हैं.’’

मां के साथ सुजाता को देखने नवीन आई.सी.यू. में गया. सुजाता अभी बेहोश थी. नवीन ने थोड़ी देर बाद मां से कहा, ‘‘मां, आप थक गई होंगी, घर जा कर थोड़ा आराम कर लो, बाद में जब नीरज घर आए तो उस के साथ आ जाना.’’

वसुधा घर आ गईं, नहाने के बाद सब के लिए खाना बनाया, बच्चे नीता के पास थे. वे सब हौस्पिटल आ गए. विनय और नीरज तो नवीन के पास ही थे. सारा काम हो गया तो वसुधा को खाली घर काटने को दौड़ने लगा. पहले वे इधरउधर देखती घूमती रहीं, फिर पता नहीं उन के मन में क्या आया कि ऊपर सुजाता के कमरे की सीढि़यां चढ़ने लगीं.

साफसुथरे कमरे में एक ओर सुजाता के पढ़नेलिखने की मेज पर रखे सामान को वे ध्यान से देखने लगीं. अब तक प्रकाशित 2 कहानी संग्रह, 4 उपन्यास और बहुत सारे लेख जैसे सुजाता के अस्तित्व का बखान कर रहे थे. सुजाता की डायरी के पन्ने पलटे तो बैड पर बैठ कर पढ़ती चली गईं.

एक जगह लिखा था, ‘‘मांजी के साथ 2 बातें करने के लिए तरस जाती हूं मैं. कोमल, कांतिमय देहयष्टि, मांजी के माथे पर चंदन का टीका बहुत अच्छा लगता है मुझे. मम्मीपापा तो अब रहे नहीं, मन करता है मांजी की गोद में सिर रख कर लेट जाऊं और वे मेरे सिर पर अपना हाथ रख दें, क्या ऐसा कभी होगा?’’

एक पन्ने पर लिखा था, ‘‘आज फिर कहानी वापस आ गई. नवीन और बच्चे तो व्यस्त रहते हैं, काश, मैं मांजी से अपने मन की उधेड़बुन बांट पाती, मांजी इस समय मेरे खत्म हो चले नैतिक बल को सहारा देतीं, मुझे उन के स्नेह के 2 बोलों की जरूरत है, लेकिन मिल रहे हैं ताने.’’

एक जगह लिखा था, ‘‘अगर मांजी समझ जातीं कि लेखन थोड़ा कठिन और विचित्र होता है, तो मेरे मन को थोड़ी शांति मिल जाती और मैं और अच्छा लिख पाती.’’

आगे लिखा था, ‘‘कभीकभी मेरा दिल मांजी के व्यंग्यबाणों की चोट सह नहीं पाता,

मैं घायल हो जाती हूं, जी में आता है उन से पूछूं, मेरा विजातीय होना क्यों खलता है कि मेरे द्वारा दिए गए आदरसम्मान व सेवा तक को नकार दिया जाता है? नवीन भी अपनी मां के स्वभाव से दुखी हो जाते हैं, पर कुछ कह नहीं सकते. उन का कहना है कि मां ने तीनों को बहुत मेहनत से पढ़ायालिखाया है, बहुत संघर्ष किया है पिताजी के बाद. कहते हैं, मां से कुछ नहीं कह सकता. बस तुम ही समझौता कर लो. मैं उन के स्वभाव पर सिर्फ शर्मिंदा हो सकता हूं, अपमान की पीड़ा का अथाह सागर कभीकभी मेरी आंखों के रास्ते आंसू बन कर बह निकलता है.’’

एक जगह लिखा था, ‘‘मेरी एक भी कहानी मांजी ने नहीं पढ़ी, कितना अच्छा होता जिस कहानी के लिए मुझे पहला पुरस्कार मिला, वह मांजी ने भी पढ़ी होती.’’

वसुधा के स्वभाव से दुखी सुजाता के इतने सालों के मन की व्यथा जैसे पन्नों पर बिखरी पड़ी थी.

वसुधा ने कुछ और पन्ने पलटे, लिखा था, ‘‘हर त्योहार पर नीता और सुधा के साथ मांजी का अलग व्यवहार होता है, मेरे साथ अलग, कई रस्मों में, कई आयोजनों में मैं कोने में खड़ी रह जाती हूं आज भी. मां की दृष्टि में तो क्षमा होती है और मन में वात्सल्य.’’

पढ़तेपढ़ते वसुधा की आंखें झमाझम बरसने लगीं, उन का मन आत्मग्लानि से भर उठा. फिर सोचने लगीं कि हम औरतें ही औरतों की दुश्मन क्यों बन जाती हैं? कैसे वे इतनी क्रूर और असंवेदनशील हो उठीं? यह क्या कर बैठीं वे? अपने बेटेबहू के जीवन में अशांति का कारण वे स्वयं बनीं? नहीं, वे अपनी बहू की प्रतिभा को बिखरने नहीं देंगी. आज यह मुकदमा उन के

मन की अदालत में आया और उन्हें फैसला सुनाना है. भूल जाएंगी वे जातपांत को, याद रखेंगी सिर्फ अपनी होनहार बहू के गुणों और मधुर स्वभाव को.

वसुधा के दिल में स्नेह, उदारता का सैलाब सा उमड़ पड़ा. बरसों से जमे जातिधर्म, के भेदभाव का कुहासा स्नेह की गरमी से छंटने लगा.

हम तुम कुछ और बनेंगे

बगल के कमरे से अब फुसफुसाहट सुनाई दे रही थी. कुछ देर पहले तक उन की आवाजें लगभग स्पष्ट आ रही थीं. बात कुछ ऐसी भी नहीं थी. फिर दोनों इतने ठहाके क्योंकर लगा रहे? जाने क्या चल रहा है दोनों के बीच. वार्त्तालाप और ठहाकों का सामंजस्य उस की सोच के परे जा रहा था. उफ, तीर से चुभ रहे हैं, बिलकुल निशाना बैठा कर नश्तर चुभो रही है उन की हंसी. रमण का मन किया कि वह कोने वाले कमरे में चला जाए और दरवाजा बंद कर तेज संगीत चला दुनिया की सारी आवाजों से खुद को काट ले. परंतु एक कीड़ा था जो कुलबुला रहा था, काट रहा था, हृदय क्षतविक्षत कर भेद रहा था, पर कदमों में बेडि़यां भी उसी ने डाल रखी थीं. वह कीड़ा बारबार विवश कर रहा था कि वह ध्यान से सुने कि बगल के कमरे से क्या आवाजें आ रही हैं:

‘‘जीवन की बगिया महकेगी, लहकेगी, चहकेगी,

खुशियों की कलियां झूमेंगी,

झूलेंगी, फूलेंगी,

जीवन की बगिया…’’ काजल इन पंक्तियों को गुनगुना रही थी.

‘रोहन को अब सीटियां बजाने की क्या जरूरत है इस पर? बेशर्म कहीं का,’ सोफे पर अधलेटे रमण ने सोचा. उस का सर्वांग सुलग रहा था. अब जाने उस ने क्या कहा जो काजल को इतनी हंसी आ रही है. रमण अनुमान लगाने की कोशिश कर ही रहा था कि रोहन के ठहाकों ने उस के सब्र के पैमाने को छलका ही दिया. रमण ने कुशन को गुस्से से पटका और सोफे से उठ खड़ा हुआ.

‘‘क्या हो रहा है ये सब? कितनी देर से तुम दोनों की खीखी सुन रहा हूं. आदमी अपने घर में भी कुछ पल चैनसुकून से नहीं रह सकता है,’’ रमण के गुस्से ने मानो खौलते दूध में नीबू निचोड़ दिया.

रोहन, सौरीसौरी बोलता हुआ उठ कर चला गया. पर काजल अभी भी कुछ गुनगुना रही थी. रोहन के जाने के बाद काजल का गुनगुनाना उस की रूह को मानो ठंडक पहुंचाने लगा. उस ने भरपूर नजरों से काजल को देखा. 7वां महीना लग गया है. इतनी खूबसूरत उस ने अपनी ब्याहता को पहले कभी नहीं देखा था. गालों पर एक हलकी सी ललाई और गोलाई प्रत्यक्ष परिलक्षित थी. रंगत निखर कर एक सुनहरी आभा से मानो आलोकित हो दिल को रूहानी सुकून पहुंचा रही थी. सदा की दुबलीपतली छरहरी काजल आज अंग भर जाने के पश्चात अपूर्व व्यक्तित्व की स्वामिनी लग रही थी.

कोई स्त्री गर्भावस्था में ही शायद सर्वाधिक रूपवती होती है. रोमरोम से छलकती मातृत्व से परिपूर्ण सुंदरता अतुलनीय है. रमण अपने दोनों चक्षुओं सहित सभी ज्ञानेंद्रियों से अपनी ही बीवी के इस अद्भुत नवरूप का रसास्वादन कर ही रहा था कि रोहन फिर आ गया और रमण हकीकत की विकृत सचाई से आंखें चुराता हुआ झट कमरे से निकल गया.

रोहन के हाथ में विभिन्न फलों को काट कर बनाया गया फ्रूट सलाद था.

इस बार रमण सच में कोने वाले कमरे में चला गया और तेज संगीत बजा वहीं पलंग पर लेट गया. म्यूजिक भले ही कानफोड़ू हो गया, परंतु उस कमरे से आती फुसफुसाहट को रोकने में अभी भी असमर्थ ही था. रोहन की 1-1 सीटी इस संगीत को मध्यम किए जा रही थी, साथ ही साथ बीचबीच में काजल की दबीदबी खिलखिलाहट भी. ऐसा लग रहा था कि दोनों कर्ण मार्ग से प्रवेश कर उस के मानस को क्षतविक्षत कर के ही दम लेंगे.

इसी बीच स्मृति कपाट पर विगत की दस्तक शुरू हो गई. इस नवआगंतुक ने मानो उस की सुधबुध को ही हर लिया. बगल के कमरे की फुसफुसाहट, तेज संगीत और अब स्मृतियों की थाप. इस स्वर मिश्रण ने उसे आभास दिला दिया कि शायद जहन्नुम यही है.

सच इन दिनों उसे आभास होने लगा है कि वह मानो जहन्नुम की अग्नि में झुलस रहा हो. जिस उत्कंठा से उस ने इस खुशी को पाने की तमन्ना की थी, वह इस अग्नि कुंड से हो कर निकलेगी, यह उस के लिए कल्पनातीत थी.

‘कुछ महीने पहले तक सब कितना मधुर था,’ रमण ने सोचा, ‘पर कैसे कहा जाए कि मधुर था तब तो कुछ और ही शूल चुभ रहे थे,’ चेतना की बखिया उधड़ने लगीं.

विवाह के 10 वर्ष होने को थे. शुरू के वर्षों में नौकरी, कैरियर, पदोन्नति और घर की जिम्मेदारियों के चलते रमण और काजल परिवार बढ़ाने की अपनी योजना को टालते रहे. आदर्श जोड़ी रही है दोनों की. कितना दबाव था सब का कि उन के बच्चे होने चाहिए. काजल के मातापिता, रमण के मातापिता, नातेरिश्तेदार यहां तक कि दोस्त भी टोकने लगे थे. रमण के सासससुर उस की शादी की 7वीं वर्षगांठ परआए थे.

‘‘तुम लोगों ने बड़ा ही अच्छा आयोजन किया अपनी 7वीं वर्षगांठ पर. इस से पहले तो तुम लोग वर्षगांठ मनाने के ही विरुद्ध होते थे. बहुत खुशी हो रही है.’’

रमण के ससुरजी ने ऐसा कहा तो काजल झट से बोल पड़ी, ‘‘हां पापा, इस बार बात ही कुछ ऐसी थी. मेरे देवर ने अपनी पढ़ाई बहुत हद तक पूरी कर ली है. अपने आगे की पढ़ाई का खर्च अब वह खुद वहन कर सकता है. मेरा देवर डाक्टर बन गया, हमारी तपस्या सफल हुई. वर्षगांठ तो बस एक बहाना है अपनी खुशियों को सैलिब्रेट करने का.’’

‘‘बहनजी, अब आप ही रमण और काजल को समझाएं कि ये जल्दी से हमें खुशखबरी सुनाएं. मेरी तो आंखें तरस गई हैं कि कोई शिशु मेरे आंगन में खेले. ऐसा न हो कि कहीं देर हो जाए,’’ रमण की मां ने अपनी समधिन से कहा.

‘‘हां बहनजी, आप सही कह रही हैं. हर चीज का एक वक्त होता है, जो सही वक्त पर पूरी हो जानी चाहिए. हम भी तो बूढ़े हो चले हैं,’’ रमण की सास ने कहा.

कुछ ही महीनों में काजल को यह भान होने लगा कि कहीं तो कुछ गड़बड़ है. फिर शुरू हुआ जांचरिपोर्ट का अंतहीन सिलसिला. जब तक चाह नहीं थी तब तक इतनी बेसब्री और संवेदनाएं भी जाग्रत नहीं थीं. अब जब असफलता और अनचाहे परिणाम मिलने लगे तो दोनों की बच्चे के प्रति उत्कंठा भी उतनी ही तीव्र हो गई. घर के बुजुर्गों की आशंकाएं मूर्त हो रही थीं. रमण की प्रजनन क्षमता ही संदेह के दायरे में आ गई थी. किसी ने कभी सोचा भी नहीं था कि हर तरह से स्वस्थ दिखने वाले और स्वस्थ जीवनशैली जीने वाले रमण को यह समस्या होगी.

‘‘अब जब विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है, तो हर चीज का समाधान है. हम किसी अच्छे क्लिनिक या अस्पताल से बात करने की सोच रहे हैं, जहां से शुक्राणु ले कर मेरे गर्भ में निषेचित किया जाएगा,’’ पूरे परिवार के सामने काजल ने रमण के हाथ को थामे हुए रहस्योद्घाटन किया.

‘‘आप कहीं और जाने की क्यों सोच रहे हैं? मेरे ही हौस्पिटल में कृत्रिम शुक्राणु निषेचन का अच्छा डिपार्टमैंट है. मैं संबंधित डाक्टर से बात कर लूंगा. सब अच्छी तरह निष्पादित हो जाएगा,’’ रोहन ने कहा.

फिर तो दोनों के मातापिता सिर जोड़े इस समस्या के निदान में जुट गए. वहीं काजल और रमण ने बालकनी से नीचे पार्क में खेलते छोटे बच्चों को देख ख्वाबों का एक लिहाफ बुन लिया.

उन दिनों काजल उस का हाथ मानो एक क्षण को भी नहीं छोड़ती थी. रमण को उस ने यह एहसास ही नहीं होने दिया कि कमी उस में है. दोनों ने इस आती रुकावट को पार करने हेतु जमीनआसमान एक कर दिया. दोनों दो शरीर एक जान हो गए थे.

‘‘लेकिन…पर…’’ अपनी सास की बनतीबिगड़ती माथे की लकीरों को काजल भांप रही थी.

‘‘उस तरीके से जन्मा बच्चा क्या पूरी तरह स्वस्थ होगा?’’ रमण के पिताजी ने पूछा था.

‘‘फिर जाने किस कुल या गोत्र का होगा वह?’’ रमण की सास ने बुझी वाणी में कहा.

‘‘देर तक एक लंबी चुप्पी छाई रही. जब चुप्पी के नुकीले नख रक्तवाहिनियों से खून टपकाने की हद तक पहुंच गए तो रमण ने ही चुप्पी तोड़ी, हमारे पास और कोई रास्ता नहीं है. हम चाहते तो किसी को कुछ नहीं बताते पर आप सब को जानने का हक है.’’

‘‘एक रास्ता है. यदि घर का ही कोई स्वस्थ पुरुष अपने शुक्राणु दान करे इस हेतु तो वह अनजाना कुलपरिवार की भांति नहीं रहेगा,’’ काजल के पिताजी ने कहा.

‘‘आप सब निश्चिंत रहें, बहुत लोग इस विधि से बच्चे प्राप्त कर रहे हैं. हर नए आविष्कार को संशय और अविश्वास की दृष्टि से देखा ही जाता है. मैं खुद ध्यान रखूंगा कि सब अच्छे से संपन्न हो,’’ रोहन के इस आश्वासन ने उन्हें फौरी तौर पर थोड़ी राहत दे दी.

आखिर वर्षों बाद वह दिन आया जब काजल के गर्भवती होने की डाक्टर ने पुष्टि की. काजल ने अपनी नौकरी से अनिश्चितकालीन छुट्टी ले ली. एक बच्चे की आहट से परिवार में हर्ष की लहर दौड़ गई. आंगन में घुटनों के बल चलते शिशु की कल्पना से ओतप्रोत हरेक सदस्य अपनी तरह से खुशियां जाहिर कर रहा था. अचानक घर में काजल सब से महत्त्वपूर्ण हो गई. आखिर क्यों न होती? आती खुशियों को तो उसी ने अपने में सहेज रखा था.

रमण देखता उस की प्रिया उस से ज्यादा उस के मातापिता के साथ वक्त गुजार रही है. आजकल उस के सासससुर भी जल्दीजल्दी आते. रमण भी एक विजयी भाव से हर जाते पल को महसूस कर रहा था. पापापापा सुनने को बेचैन उस के दिल को कुछ ही दिनों में सुकून जो मिलने वाला था.

सब ठीक चल रहा था. डाक्टर हर चैकअप के बाद संतुष्टि जाहिर करते. माह दर माह बीत रहे थे. इस दौरान रमण महसूस कर रहा था कि आजकल रोहन भी कुछ ज्यादा ही जल्दीजल्दी आने लगा है. जल्दी आना तो तब भी चलता, आखिर उस का भी घर है, ऊपर से डाक्टर. सब को उस की जरूरत रहती. कभी मां को, कभी पिताजी को. बूढ़े जो हो चले थे. पर देखता जब रोहन आता, वह काजल की कुछ अधिक ही देखभाल करता. यह बात रमण को अब चुभने लगी थी. शक का बुलबुला उस के मानस में आकार पाने लगा था कि कहीं यह वीर्यदान रोहन ने तो नहीं किया है?

हालांकि उस के पास इस बात का कोई सुबूत नहीं था पर जब कमी खुद में होती है तो शायद ऐसे विचार उठने स्वाभाविक हैं.

रोहन को देखते ही उसे अपनी कमी और बड़ेबड़े स्पष्ट अक्षरों में परिलक्षित होने लगती. रोहन का काजल के साथ वक्त गुजारना उसे बड़ा ही नागवार गुजरता. धीरेधीरे उसे महसूस हो रहा था कि जब तक वह कुछ करने की सोचता है काजल के लिए, रोहन तब तक वह कर गुजरता है. रोहन सहित घर के सभी सदस्य जब आपस में हंसीमजाक कर रहे होते, रमण कोई न कोई बहाना बना वहां से खिसक लेता. धीरेधीरे रमण अपने पलकपांवड़े समेटने लगा जो बिछा रखे थे नव अंकुरण के लिए. एक अजीब सी विरक्ति हो चली उसे जिंदगी से. रमण खुद को बिलकुल अनचाहा सा महसूस कर रहा था. काजल बुलाती रह जाती. वह उस के पास नहीं जाता.

रोहन और काजल की घनिष्ठता उसे बेहद नागवार गुजर रही थी. रमण सोचता, ‘यदि बच्चे का पिता रोहन ही है तो मैं क्यों दालभात में मूसलचंद बनूं?’

इस सोच ने उस की दुनिया पलट दी थी. वह अपना ज्यादा वक्त दफ्तर में गुजारता. कभीकभी तो टूअर का बहाना कर कईकई दिनों तक घर भी नहीं आता था. गर्भावस्था के आखिर के दिन बड़े ही तकलीफदेह थे. काजल को बैठानाउठाना सब रोहन करता. रिश्ते बेहद उलझ गए थे. सिरा अदृश्य था और उलझनों का मकड़जाल पूरे शबाब पर. रमण को याद आता, जब उस की शादी हुई थी तब रोहन छोटा ही था. काजल को भाभी मां कहता था. काजल कितनी फिक्रमंद रहती थी उस की पढ़ाई के लिए.

‘छि: सब गडमड हो गया… इस से अच्छा बेऔलाद रहता.’ बेसिरपैर के खयालात रमण के सहभागी बन उस की मतिभ्रष्ट किए जा रहे थे. तभी रोहन की आवाज आई, ‘‘भैया जल्दी आइए भाभी की तबीयत खराब हो रही है. हौस्पिटल ले जाना होगा तुरंत.’’

‘‘तुम ले जाओ… मैं भला जा कर क्या करूंगा. कोई डाक्टर तो हूं नहीं. मुझे आज ही 15 दिनों के लिए हैदराबाद जाना है,’’ रमण ने उचटती हुई आवाज में कहा.

काजल को लग रहा था कि रमण की यह उदासीनता उस के अपराधभाव के कारण है कि वह होने वाले बच्चे का जैविक पिता नहीं है. डाक्टर ने पहले ही काजल को सचेत कर दिया था कि बहुत से पिता इस तरह का व्यवहार करते हैं और नकारात्मक रवैया अपनाते हैं. उस ने जानबूझ कर बखेड़ा नहीं खड़ा किया.

करीब 10 दिनों के बाद काजल भरी गोद वापस आई. इस बीच रमण एक बार भी हौस्पिटल नहीं गया. 15वें दिन वापस आया था.

मां से उसे पता चला. पहले दिन तो बच्चे को छुआ भी नहीं. काजल से बेहतर उस के मनोभावों को कौन समझता पर उस ने भी शायद अब वही रुख इख्तियार कर लिया था जो रमण ने. उस दिन उसी कोने वाले कमरे में तेज संगीत को चीरती एक मधुर सी रुनझुन संगीतमय लहरी रमण को बेचैन किए जा रही थी.

‘हां, यह तो बच्चे की आवाज है,’ रमण ने कानफोड़ू म्यूजिक औफ किया और ध्यानमग्न हो शिशु की स्वरलहरियों को सुनने लगा. जाने लड़का है या लड़की? उफ कोई चुप क्यों नहीं करा रहा. मन उद्वेलित होने लगा. एक क्षण को चुप्पी छाई फिर रुदन…

रमण कमरे में चहलकदमी करने लगा. अब तो लग रहा था जैसे बच्चे का कंठ सूख रहा हो. इस आरोहअवरोह ने शीत शिला को धीमी आंच पर पिघलाना आरंभ कर दिया. मां भी न जाने क्यों उन्हें छोड़ कर चली गईं. अभी कुछ दिन तो रहना चाहिए था.

इसी बीच उस का मोबाइल बजने लगा. जाने कौन है. नया नंबर है… सोचते उस ने कान से लगाया.

‘‘भैया, मैं रोहन बोल रहा हूं, प्लीज, फोन मत काटिएगा. मैं आज सुबह ही सिडनी, आस्ट्रेलिया आ गया हूं. यहां के एक अस्पताल में मुझे काम मिल गया है. साथ ही मैं कुछ कोर्स भी करूंगा. आप और भाभी मां ने जीवन में मेरे लिए बहुत कुछ किया है. भैया, पिछले कुछ महीनों में भाभी मां बेहद मानसिक संत्रास से गुजरी हैं. आप की बेरुखी उन्हें जीने नहीं दे रही. छोटा मुंह बड़ी बात हो जाएगी पर मैं कहना चाहूंगा कि आप ने भाभी मां को उस वक्त छोड़ दिया जब उन को सर्वाधिक आप की जरूरत थी,’’ इतना कह रोहन फूटफूट कर रोने लगा. एक लंबी सी चुप्पी पसरी रही कुछ क्षण रिसीवर के दोनों तरफ…

‘‘कितना बड़ा और समझदार हो गया है रोहन. मैं ने ही खुद को अदृश्य उलझनों और विकारों में कैद कर लिया था.’’

रमण शायद कुछ और भी कहता कि तभी रोहन बोल पड़ा, ‘‘भैया बच्चे क्यों रो रहे हैं? मुझे उन के रोने की आवाजें आ रही हैं.’’

‘‘बच्चे क्या जुड़वा हैं?’’ रमण उछल पड़ा और दौड़ पड़ा उन की तरफ. 2 नर्मनर्म गुलाबी रुई के फाहे हाथपैर फेंकते समवेत स्वर में आसमान सिर पर उठाए थे.

‘‘धन्यवाद रोहन, धन्यवाद भाई. घर जल्दीजल्दी आते रहना,’’ कह उस ने यह सोचते हुए बच्चों को छाती से लगा लिया कि क्या फर्क पड़ता है कि बच्चे रोहन के स्पर्म से पैदा हुए हैं या किसी और के. अब ये बच्चे उस के हैं. वही उन का पिता है. रोहन के होते तो शायद वह उन्हें छोड़ कर नहीं जाता. यह तसल्ली कम नही है.

तुम आज भी पवित्र हो– भाग 3

नमन किसी तरह उसे उस खौफ से बाहर निकालना चाह रहा था. लेकिन जो डर क्षितिजा के ऊपर हावी हो गया था वह निकलने का नाम ही नहीं ले रहा था. यह सोच कर ही वह सहम जाती कि अगर उस के बौस ने कहीं उस का वह न्यूड वीडियो वायरल कर दिया तो? कहीं उसी वीडियों को ले कर वह उसे ब्लैकमेल करने लगा तो वह क्या करेगी? उस के मन की ये सारी बातें नमन अच्छी तरह समझ रहा था.

क्षितिजा के दिलोदिमाग से हमेशा के लिए वह खौफ निकल जाए और वह नमन से शादी कर अपनी जिंदगी उस के साथ खुशी से बिता सके, इस के लिए नमन ने अपने मन में ही एक फैसला लिया. पहले तो उस ने अपनी पहले वाली जौब छोड़ क्षितिजा की ही कंपनी में नौकरी जौइन कर ली और फिर उस के बौस नरेश का भरोसा जीता. अब नरेश अपनी कंपनी के लिए जो भी फैसला लेता उस में नमन की राय जरूर शामिल होती थी.

नमन की बातें और उस का व्यवहार नरेश को इतना अच्छा लगने लगा कि उसे वह अपना सच्चा दोस्त नजर आने लगा. अपनी जिंदगी से जुड़ी हर बात वह उसे बताने लगा और नमन को अपने घर भी ले जाता. उस के साथ और उस की बातों से इतना तो समझ में आ गया नमन को कि नरेश एक नंबर का ऐयाश किस्म का इंसान है और क्षितिजा से पहले भी उस ने कई लड़कियों का इसी प्रकार शोषण किया है.

लेकिन सब इस डर से चुप रह गईं कि कहीं वह उन का आपत्तिजनक वीडियो वायरल न का दे. उस की गंदी हरकतों को जानने के बाद उस की पत्नी उसे छोड़ कर जा चुकी थी. लेकिन इस बात का उसे कोई मलाल नहीं था, बल्कि वह तो खुश था कि अब उसे कोई रोकनेटोकने वाला नहीं है. अपनी योजना के अनुसार जब नमन ने बताया कि आज उस का जन्म दिन है और इसलिए वह नरेश को एक छोटी सी पार्टी देना चाहता है और उस ने विदेशी शराब और लड़की का भी इंतजाम किया है तो सुन कर नरेश के मुंह में पानी आ गया. नमन बोला, पर एक  शर्त है सर और वह यह कि पार्टी आप के घर पर ही होगी, क्योंकि…’’

नमन की पूरी बात सुने बिना ही नरेश ने उस बात के लिए हामी भर दी. ‘‘अब शराब ही पिलाते रहोगे या लड़की के भी दर्शन करवाओगे नमन?’’ नरेश ने बेसब्री से पूछा. ‘‘हां सर, वह बस आती ही होगी. आप और लीजिए न,’’ कह कर नमन ने फिर नरेश का गिलास शराब से भर दिया.

नशा तो चढ़ ही चुका था नरेश के सिर. अत: कहने लगा, ‘‘अब जन्मदिन तुम्हारा है और विदेशी शराब और शबाब की पार्टी तुम मुझे दे रह हो? अरे, उपहार तो मुझे तुम्हें देना चाहिए नमन?’’ नरेश को नमन ने घूर कर देखा और फिर मन ही मन बोला कि ‘सारे उपहार तो आज मैं उसे दूंगा. मेरी क्षितिजा को तूने छूने की कोशिश की थी न? अब मैं बताऊंगा तुझे कि किसी लड़की का फायदा उठाना किसे कहते हैं. पर बोला, ‘‘हां सर, सही कर रहे हैं आप. वैसे उपहार तो लूंगा ही मैं आप से,’’ कह कर नमन ने फिर उस का गिलास शराब से भर दिया, ‘‘वैसे सर, उस लड़की का नाम क्या था? हां क्षितिजा, क्या किया था आप ने उस के साथ?’’ क्षितिजा का नाम सुनते ही नरेश ने अचकचा कर नमन को देखा. बोला, ‘‘तु… तुम्हें कैसे पता उस लड़की के बारे में और मैं ने क्या…’’ ‘ ‘अरे सर, अभी तो आप ने बताया कि उस लड़की के साथ आप ने यहीं इसी घर में क्याक्या किया था,’’ नमन ने अंधेरे में पहला तीर छोड़ा. समझ गया नमन कि अब नरेश पर नशा चढ़ चुका है और अब वह जो चाहे उस के साथ कर सकता है… जो चाहे उस के मुंह से उगलवा सकता है.

‘‘अच्छा, शराब से भरे गिलास को एक बार में ही गटकते हुए बोला, ‘बड़ी नमकीन थी, पर साली थी बहुत तेज…हाथ ही नहीं लगाने देती थी अपने शरीर को कभी. लेकिन मैं भी कहां कम था. पा ही लिया उस के शरीर को… अरे, तूने भी नमन किस की याद दिला दी यार. फिर उस का शरीर पाने को मन मचल उठा. वैसे एक बात समझ नहीं आती कि औरतें मर्दों से इतना बिदकती क्यों हैं? अरे, वे भोगने की वस्तु ही तो हैं और अगर हम उन के शरीर को नहीं भोगेंगे तो भला और कौन…’’ कह कर वह मुंह फाड़ कर हंसने लगा.

नमन खून का घूंट पी कर रह गया. नशे में ही वह बोल गया कि उस ने आज तक किसी भी लड़की का वीडियो नहीं बनाया… उन्हें डराने की खातिर झूठ बोला ताकि वे अपना मुंह बंद रखें. ‘ओह तो यह बात है. इस का मतलब इस ने क्षितिजा का भी कोई वीडियो नहीं बनाया होगा? मन ही मन सोच नमन खुश हो उठा.

नरेश अब तक इतना पी चुका था कि बैठने के काबिल भी नहीं रहा, फिर भी नमन उसे पिलाए जा रहा था  और वह नशे में बस ‘लड़की को बुलाओ न नमन, लड़की को बुलाओ,’ की रट लगाए था. फिर उस के मुंह से वह भी निकलना बंद हो गया. थोड़ी देर में वह वहीं जमीन पर लुढ़क गया और गिलास उस के हाथ से छूट गया. ‘लगता है साला मर गया,’ उस की नाक के सामने अपनी उंगली लगाते हुए नमन ने सोचा फिर सारे सुबूत मिटा कर वहां से चलता बना.

अगले दिन नरेश, टीवी और अखबारों की खबर बन गया कि फंला कंपनी का बौस अपने ही घर में मृत पाया गया और उस की मौत ज्यादा शराब पीने की वजह से हुई है. पुलिस की तहकीकात, मैडिकल रिपोर्ट और उस की पत्नी की गवाही से यही साबित हुआ कि ज्यादा शराब पीना ही नरेश की मौत का कारण बना. क्षितिजा के साथ उस के मातापिता भी यह खबर सुन कर बहुत खुश हुए.

लेकिन नमन सामने से क्षितिजा के चेहरे की खुशी को देखना चाहता था. ‘‘क्षितिजा अब तो तुम खुश हो न?’’ प्यार से उसे अपनी बांहों में भरते हुए नमन ने पूछा तो उस ने हौले से मुसकराते हुए हां में जवाब दिया.

नमन उत्साह से भर कर फिर कहने लगा, ‘‘क्षितिजा, एक और बात बताऊं तुम्हें? उस ने तुम्हारा कोई वीडियो नहीं बनाया था, बल्कि उस ने किसी भी लड़की का कोई वीडियो नहीं बनाया था. उस ने तो सिर्फ तुम्हें डराने के लिए ऐसा बोला था ताकि तुम किसी के भी सामने अपना मुंह न खोल सको.’’ ‘‘पर तुम्हें ये सब कैसे पता नमन?’’ आश्चर्यचकित हो कर जब उस की आंखों में आंखें डाल कर क्षितिजा ने पूछा तो वह सकपका गया? फिर उसे चूमते हुए बोला कि उसे किसी तरह पता चल गया.

मगर क्षितिजा को समझते देर नहीं लगी कि नरेश की मौत के पीछे कौन है और क्यों? ‘उस की मौत जैसे भी हुई हो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता, पर जो भी हुआ बहुत अच्छा हुआ, क्योंकि उस कमीने को यही सजा मिलनी चाहिए थी, वरना न जाने वह और कितनी मासूम लड़कियों की जिंदगियां तबाह कर डालता,’ सोच कर क्षितिजा नमन की ओर देख मुसकराई तो नमन भी सुकून की एक लंबी सांस भरते हुए प्यार से क्षितिजा को निहारने लगा.

शरणागत: कैसे तबाह हो गई डा. अमन की जिंदगी- भाग 4

2 महीने में ही नीरा अपनी दिनचर्या से ऊब गई. उसे अपने कालेज के लुभावने दिनों की याद आने लगी. कभी खाना बनाने का भी मूड न करता. कभी दालसब्जी कच्ची रह जाती, कभी रोटी जल जाती. उस ने अमन के सामने आगे पढ़ाई करने का प्रस्ताव रखा जिसे उस ने तुरंत मान लिया और घर के कामकाज के लिए एक नौकरानी का इंतजाम कर दिया.

अमन की सादगी का फायदा उठाते हुए नीरा ने अपने परिवार से भी मोबाइल के जरीए टूटे रिश्ते जोड़ लिए. अब वह कभीकभी कालेज के बाद अपने मायके भी जाने लगी. अमन इन सब बातों से बेखबर था. वह जीजान से नीरा को खुश रखने की कोशिश करता.

कुछ समय बाद अमन को लगा कि नीरा में बहुत बदलाव आ गया है. वह कालेज से आ कर या तो लैपटौप पर चैट करती है या फिर मोबाइल पर धीरेधीरे बातें करती रहती है. अमन कब आया, कब गया, खाना खाया या नहीं उसे इस बात का कोई ध्यान नहीं रहता. उस ने सबकुछ नौकरानी पर छोड़ दिया था.

अमन अंदर ही अंदर घुटने लगा. उस ने पाया कि आजकल नीरा बातबात में किसी राहुल नाम के प्रोफैसर का जिक्र करती है जैसे कितना अच्छा पढ़ाते हैं, बहुत बड़े स्कौलर हैं, देखने में भी बहुत स्मार्ट हैं आदिआदि.

अमन ने कहा, ‘‘भई, ऐसे सभी गुणों से पूर्ण व्यक्ति से हम भी मिलना चाहेंगे. कभी उन्हें घर बुलाओ.’’

यह सुन कर नीरा कुछ सकपका सी गई. समय बीतता गया. नीरा की लापरवाहियां बढ़ती ही जा रही थीं. कभी कपड़े धुले न होते, तो कभी घर अस्तव्यस्त होता. अमन ने दबे स्वर में आगाह भी किया. पर नीरा ने कोई ध्यान न दिया.

नीरा रात को भी कभी सिरदर्द, तो कभी थका होने का बहाना कर जल्दी सो जाती. अमन की नींदें गायब होने लगीं. उसे ऐसा लगने लगा कि वह ठगा गया है. अपनी शरण में आई लड़की का मान रखने के लिए उस ने अपने घरबार, मांबाप, बहनों सब को छोड़ दिया पर उसे क्या मिला? यही सोचतेसोचते पूरी रात करवटें लेते बीत जाती.

वैसे तो अमन के जीवन में चिंताओं और तनाव के बादल हमेशा के लिए छा गए थे, परंतु एक दिन तो ऐसा तूफान आया कि उस के जीवन का सारा सुखचैन उड़ा ले गया.

एक दिन डा. जावेद के साथ अमन एक होटल में गया. होटल में कौफी का और्डर दे कर वे बैठे ही थे कि अचानक हौल के कोने में बैठे एक जोड़े पर अमन की निगाह रुक गई. एक गोरा सुंदर सा युवक अपनी महिला साथी के हाथों को पकड़े बैठा था. कभी बातें करता तो कभी ठहाके लगाता.

अचानक उस युवक ने उस युवती के हाथों को चूम लिया. युवती जोर से खिलखिला कर हंस पड़ी. उस के हंसते ही सारे राज खुल गए. दरअसल युवती और कोई नहीं नीरा ही थी. ध्यान से देखा तो उस की साड़ी भी पहचान में आ गई. यही साड़ी तो आज कालेज जाते समय नीरा पहन कर गई थी.

अमन का चेहरा सफेद पड़ गया. यह देख कर डा. जावेद ने भी पलट कर उधर देखा, वे भी नीरा को पहचान गए. होटल में कुछ अनहोनी न हो जाए, इसलिए वे गुस्से में कांपते अमन को लगभग खींचते हुए होटल से बाहर ले आए. लड़खड़ाती टांगों से किसी तरह अमन कार में बैठ गया. गुस्से से वह अभी तक कांप रहा था.

डा. जावेद उसे अपने घर ले आए. अमन के दिल पर गहरी चोट लगी थी. वह डा. जावेद से आंखें नहीं मिला पा रहा था. जब वह थोड़ा नौर्मल हुआ तो डा. जावेद ने बड़े भाई की तरह उस की पीठ पर हाथ फेरते हुए समझाया, ‘‘अमन, नीरा से मैं खुद बात करूंगा. उस ने ऐसा क्यों किया, सब कुछ पूछूंगा. अमन लव मैरिज में दोनों ओर से पूर्ण समर्पण होना जरूरी होता है. 1 महीने में तुम नीरा को कितना जान पाए? और नीरा तुम्हें कितना जान पाई? बस यहीं पर तुम अपने जीवन की सब से बड़ी भूल कर बैठे. मैं ने तुम्हें आगाह भी किया था पर तब तुम पर शरणागत का मान रखने, रक्षा करने का भूत सवार था.’’

अमन लज्जित सा उठ खड़ा हुआ. डा. जावेद अमन को उस के घर तक पहुंचा आए.

अमन बड़ी बेचैनी से नीरा का इंतजार करने लगा. वह अंदर ही अंदर सुलग रहा था. उस ने सोच लिया कि आज नीरा से आरपार की बात करेगा. बहुत धोखा दे चुकी है.

नीरा रोज की तरह दोपहर बाद घर आई. अमन को घर में देख हैरान हो गई. बोली, ‘‘अरे, आज बहुत थक गई. तुम खाना खा लेना. मैं नहा कर आती हूं.’’

अमन के सब्र का बांध टूट गया. उस ने नीरा से दोटूक पूछा, ‘‘तुम आज कालेज के बाद कहीं गई थी?’’

नीरा सफेद झूठ बोल गई, ‘‘अरे, आज तो सभी प्रोफैसर आए थे. एक के बाद एक लैक्चर होते रहे.’’

अमन का क्रोध बढ़ता जा रहा था. नीरा उठ कर जाने लगी तो अमन ने उस का हाथ पकड़ लिया. पूछा, ‘‘होटल आकाशदीप में कौन बैठा था तुम या तुम्हारी कोई हमशक्ल?’’

यह सुन कर नीरा घबरा गई. बौखला कर चिल्लाने लगी, ‘‘अच्छा तुम मेरी जासूसी भी करने लगे हो? तुम्हारी सोच इतनी ओछी है, मैं सोच भी नहीं सकती थी. प्रोफैसर के साथ कौफी पीने चली गई तो कौन सा आसमान गिर गया?’’

‘‘अच्छा, कौफी पीतेपीते प्रोफैसर हाथ चूमने लगते हैं?’’ अमन बोला.

चोरी पकड़ी जाने पर नीरा गुस्से में चीजें उठाउठा कर पटकने लगी. वह चिल्लाते चिल्लाते बोली, ‘‘मैं ने भी कितने संकीर्ण विचारों वाले व्यक्ति से शादी कर ली… वास्तव में तुम मेरे योग्य नहीं हो. मैं ने जल्दबाजी में गलत व्यक्ति को चुन लिया,’’ कह झटके से उठी और अपने कुछ कपड़े एक बैग में डाल खट से दरवाजा खोल बाहर निकल गई.

अमन कुछ देर तक तो बुत बना बैठा रहा, फिर अचानक उसे होश आया तो बाइक उठा कर नीरा को देखने निकल गया.

नीरा की बातें अमन के दिमाग पर ऐसे लग रही थीं जैसे कोई हथौड़ों से वार कर रहा हो. वह बाइक चला रहा था पर उस का ध्यान कहीं और था. अयोग्य व्यक्ति, संकीर्ण विचारों वाला, जासूसी करना, छोटी सोच यही बातें उस के दिमाग से टकरा रही थीं. तभी उस की बाइक सामने से तेजी से आ रही कार से जा टकराई और वह छिटक कर दूर जा गिरा. उस के बाद क्या हुआ उसे नहीं पता. अब अस्पताल में होश आया.

अचानक किसी आवाज से अमन की तंद्रा टूटी तो उस ने देखा सामने उस की बहन और डा. जावेद खड़े थे. डा. जावेद ने उसे तसल्ली देते हुए कहा, ‘‘अमन, गनीमत है इतना बड़ा ऐक्सिडैंट होने पर भी तुम खतरे से बाहर हो… अब तुम नीरा के बारे में सोच कर परेशान न होना. अगर उसे अपनी गलती का एहसास हो गया तो वह माफी मांग कर लौट आएगी और अगर ऐसा नहीं करती तो समझ लो वह तुम्हारे योग्य ही नहीं है. तुम उसे उस के हाल पर छोड़ दो. बस जल्दी ठीक हो जाओ.’’

बहन ने भी डा. जावेद के सुर में सुर मिलाया. बोली, ‘‘हां अमन, अभी तो तुम्हें घर भी ठीक करवाना है, क्लीनिक भी खोलना है.’’

यह सुन कर अमन तेज दर्द में भी मुसकरा दिया.

करना पड़ता है: धर्म ने किया दानिश और याशिका को दूर- भाग 2

‘‘यशिका, तुम्हारे पापा का औफिस कहां है?’’

‘‘क्यों आंटी? आप उन से मिलना चाहती हैं?’’

‘‘नहीं, ऐसे ही पूछ रही हूं.’’

‘‘एन. मौल के पीछे वाली रोड पर उन का औफिस है, कभी वहां जाते हैं, कभी घर में ही जो औफिस बना रखा है, वहां लोग आतेजाते रहते हैं.’’

अगले दिन नौशीन ने औफिस से छुट्टी ली. यशिका के पिता ललित के औफिस पहुंचीं, बाहर रखी एक चेयर पर बैठ गईं.

वहां काम करने वाले सुनील ने उन के पास जा कर आने का कारण पूछा तो नौशीन ने कहा, ‘‘ललितजी से मिलना है, जरूरी काम है, मु?ो उन की हेल्प चाहिए.’’

शिंदे ने जाकर ललित को बताया तो उन्होंने कहा, ‘‘अरे यार, इसे टरकाओ, अभी मु?ो बहुत लोगों से मिलना है.’’

‘‘बोला साहब. कह रही है आज आप नहीं मिल पाए तो कल फिर आएगी.’’

‘‘हां, ठीक है, बाद में देखेगें.’’

उस दिन नौशीन ललित से नहीं मिल पाईं, फिर वे घर जा कर अपना औफिस का काम करती रहीं. अब वह मन ही मन बहुत कुछ ठान चुकी थीं. अगले दिन वे फिर उन के औफिस पहुंचीं. इस बार ललित ने उन्हें अंदर बुला ही लिया. करीब 50 साल की बेहद स्मार्ट, स्टाइलिश नौशीन जैसे ही उन्हें ‘हैलो सर’ बोलती हुई अंदर आई, वे अचानक पता नहीं क्यों खड़े हो गए, फिर धम्म से अपना सिर हिलाते हुए उन्हें भी बैठने का इशारा किया. नौशीन के पास से आती कीमती परफ्यूम की खुशबू को उन्होंने गहरी सांस ले कर अपने अंदर उतारा.

नौशीन ने बेहद सभ्य तरीके से अपना परिचय देते हुए कहा, ‘‘मैं नीलकंठ वैली में फ्लैट लेना चाहती हूं, पर वहां का बिल्डर मुसलिम्स को कोई भी फ्लैट नहीं बेच रहा है. यह गलत बात है न? क्या हम इंसान नहीं?

‘‘क्या हम यहां के नागरिक नहीं? यह भेदभाव क्या अच्छा लगता है? और कोई भी

उसे इस बात के लिए टोक भी नहीं रहा. आप

की बहुत तारीफ सुनी है, इसीलिए आप के पास चली आई.’’

ललित तो नौशीन के बात करने के ढंग में, उस की पर्सनैलिटी के जादू के असर में बैठे थे, बोले, ‘‘मैं देखता हूं क्या हो सकता है. आप अपना फोन नंबर लिखवा दीजिए. मैं जल्द ही आप से बात करूंगा.’’

नौशीन ललित के औफिस से क्या उठी, ललित का दिल जैसे नौशीन के साथ उड़ चला. वे खुद बहुत गुड लुकिंग, स्मार्ट इंसान थे. नौशीन का परिचय जान कर खुश हुए थे. अकेली अपने बेटे के साथ रहती हैं, जौब करती हैं, वे नौशीन से इस पहली मुलाकात में ही बहुत इंप्रैस्ड हो गए थे. जल्द ही उन्होंने शिंदे को कह कर बिल्डर को फोन लगवाया, उन्हें एक फ्लैट नौशीन की इच्छानुसार बुक करने के लिए कहा, फिर उन्होंने नौशीन को फोन किया, ‘‘बिल्डर से बात हो गई है, अब आप उस एरिया में जो फ्लैट चाहें, बुक कर सकती हैं.’’

 

नौशीन ने शुक्रिया कहते हुए बड़े अपनेपन से कहा, ‘‘आप ने तो कमाल कर

दिया. आप तो बिलकुल वैसे ही अच्छे इंसान निकले जैसा सुना था. अब आप थोड़ा सा भी टाइम निकाल कर मेरे घर चाय पर जरूर आइए. इतना तो आप को करना पड़ेगा.’’

ललित बड़े धर्मसंकट में पड़े. एक मुसलिम के घर चाय पीने जाएंगे? उफ, आज तक तो किसी मुसलिम के घर पैर नहीं रखा, चायपानी पीना तो दूर की बात है.

नौशीन की मीठी सी आवाज फिर सुनाई दी, ‘‘ओह, सम?ा. आप शायद हमारे घर न आना चाहें, कोई बात नहीं.’’

‘‘अरे, नहींनहीं, संडे को आता हूं, आप की भी छुट्टी होगी.’’

नौशीन ने अब दानिश और यशिका को अपने पास बैठा कर ये सब बता दिया तो दोनों हंसते हुए उन से लिपट गए.

दानिश ने कहा, ‘‘मम्मी, आप क्याक्या सोच लेती हैं. यह क्या कर रही हैं?’’

‘‘करना पड़ता है बेटा, अपने बच्चों को खुशियां देने के लिए कुछ कदम उठाने जरूरी होते हैं. वे हमारे घर आएं, तुम से मिलें, यहां थोड़ा टाइम बिताएं, तो उन के पूर्वाग्रह कुछ दूर होंगे. अब यशिका, तुम इस संडे को यहां मत आना. इस संडे तुम्हारे पापा हमारे मेहमान होंगे, मेरे होने वाले समधी पहली बार आ रहे हैं,’’ कहते कहते नौशीन ने प्यार से दोनों को गले लगा लिया.

संडे शाम 5 बजे शोल्डर कट बाल, छोटी सी बिंदी, डार्क ब्लू कलर की प्लेन शिफौन साड़ी, स्टाइलिश ब्लाउज, अपने सदाबहार परफ्यूम की खुशबू बिखेरते नौशीन ने जब डोरबैल बजने पर अपने फ्लैट का दरवाजा खोला तो ब्लैक टीशर्ट और जींस पहने ललित ने उन्हें बुके देते हुए मुसकरा कर कहा, ‘‘यह आप के लिए.’’

नौशीन ने ‘‘अरे, वाह, थैंक यू’’ कहते हुए फूल लिविंगरूम के एक कोने में रखे वास में लगा दिए, फिर दानिश को आवाज दे कर उन से मिलवाने के लिए बुलाया. दानिश ने आ कर उन्हें नमस्ते करते हुए उन के पांव छू कर उन्हें प्रणाम किया. ललित तो जैसे मंत्रमुग्ध से सुंदर से सोफे पर बैठ कर लिविंग रूम का इंटीरियर देखते हुए मन ही मन तारीफ कर रहे थे. नौशीन ने वहीं बैठते हुए कहा, ‘‘आप का आना बहुत अच्छा लगा, मु?ो तो लग ही नहीं रहा था कि आप हमारे घर आएंगे.’’

‘‘अरे, क्यों नहीं लग रहा था?’’

नौशीन ने जरा उदास होते हुए कहा, ‘‘कई कारण हैं. आप तो सब जानते ही हैं कि आजकल क्या माहौल है. क्या ही कहा जाए. वह तो आप जैसे खुली सोच वाले

लोग कभी मिल जाएं तो मिल कर खुशी होती है, बस हमारा देश, समाज आप जैसों की दरियादिली पर ही चल रहा है.’’

ललित जानते थे कि नौशीन जैसा कह रही है, वैसा बिलकुल नहीं है. वे भी वैसे ही हैं, जैसों के कारण नफरतें बढ़ती जा रही हैं पर क्या कहते. सामने बैठी महिला और उस के बेटे की सभ्यता ने मन मोह लिया था.

नौशीन ने कहा, ‘‘दानिश, आप लोग बातें करो, मैं चाय लाती हूं.’’

जब तक नौशीन किचन में रही, दानिश से हुई बातों ने ललित का मन खुश कर दिया. इतना विचारवान लड़का, इतने मैनर्स, इतनी नौलेज. यशिका इकलौती संतान थी, दानिश से बातें करते हुए उन्हें लगा कि जैसे एक जमाना हो गया है उन्हें ऐसे किसी लड़के से बातें किए.

एकांत कमजोर पल- भाग 3

बड़ी बेगम ने भूमिका बांधी, ‘‘जब तुम्हारे अब्बू दूसरी बीवी ले आए थे तो मैं भी उन्हें छोड़ना चाहती थी पर सामने तुम दोनों बच्चे थे.’’

‘‘आप की बात अलग थी मैं खुद को और अपनी बच्ची को संभाल सकती हूं. उस की गलती की सजा उसे मिलना ही चाहिए, सनोबर बोली.’’

‘‘उस की गलती की सजा उस के साथसाथ तुम्हारी बेटी को भी मिलेगी या तो उस का बाप छिनेगा या मां और अगर तुम दोनों ने दूसरी शादी कर ली तो इस का क्या होगा?’’

‘‘अम्मी एक शादी से दिल नहीं भरा जो दूसरी करूंगी? रह गया पिता तो ऐसे पिता के होने से ना होना भला,’’ सनोबर के मन की सारी कड़वाहट होंठों पर आ गई.

बड़ी बेगम जानती थीं इस का गुस्सा निकलना अच्छा है. उन्होंने बहस नहीं की.

बोलीं, ‘‘ठीक है तुम को लगता है तुम अकेली ही अच्छी परवरिश कर सकती हो तो ठीक है, पर मैं चाहती हूं कि तुम तलाक की अर्जी 6 महीने बाद दो. कुछ वक्त दो फिर जो तुम्हारा फैसला होगा मैं मानूंगी.’’

‘‘नो वे अम्मी मैं 6 दिन भी न दूं. जबजब मुझे याद आता है साहिल और बाई… घिन आती है उस के नाम से. कोई इतना गिर सकता है?’’

बड़ी बेगम ने दुनिया देखी थी. अपने पति को बहुतों के साथ देखा था. उन्होंने अपने अनुभव का निचोड़ बताया, ‘‘वह एक वक्ती हरकत थी. उस का कोई अफेयर नहीं था. जब एक औरत और एक मर्द अकेले हों तो दोनों के बीच तनहाई में एक कमजोर पल आ सकता है.’’

मैं भी तो औफिस में अकेली मर्दों के साथ घंटों काम करती हूं. मेरे साथ तो कभी ऐसा नहीं हुआ. आत्मसंयम और मर्यादा ही इंसान होने की पहचान हैं वरना जानवर और आदमी में क्या फर्क है?’’

‘‘मैं ने अब तक तुम से कुछ नहीं कहा पर बहुत सोच कर तुम से समय देने को कह रही हूं. आगे तुम्हारी जो मरजी.’’

‘‘ठीक है आप कहतीं हैं तो मान लेती हूं पर मेरे फैसले पर कोई असर नहीं पड़ेगा.’’

सनोबर यह सोच कर मान गई कि उसे भी तो कुछ काम निबटाने हैं. प्रौपर्टी के पेपर अपने नाम करवाना और सेविंग्स में नौमिनी बदलना आदि. फिर अभी औफिस का भी प्रैशर है. रात को रोज की तरह साहिल ने फोन किया तो सनोबर ने उठा लिया.

साहिल खुशी और अचंभे के मिलेजुले स्वर में बोला, ‘‘सनोबर मुझे माफ कर दो, वापस आ जाओ.’’

सनोबर ने तटस्थ स्वर में कहा, ‘‘मुझे तुम से मिलना है.’’

साहिल बोला, ‘‘हां, हां… जब कहो.’’

सनोबर बोली, ‘‘कल औफिस के बाद घर पर.’’ और फोन रख दिया.

औफिस के बाद सनोबर घर पहुंची. साहिल उस की प्रतिक्षा कर रहा था. घर भी उस ने कुछ ठीक किया था. साहिल ने सनोबर का हाथ पकड़ना चाहा तो उस ने झिड़क दिया और दूर बैठ गई.

‘‘साहिल मैं कोई तमाशा नहीं करना चाहती. शांति से सब तय करना चाहती हूं. मेरातुम्हारा जौइंट अकाउंट बंद करना है. इंश्योरैंस पौलिसीज में नौमिनी हटाना है. इस फ्लैट में तुम्हारा जो पैसा लगा वह तुम ले लो. मैं इसे अपने नाम करवाना चाहती हूं. मुझे तुम से कोई पैसा नहीं चाहिए, मैं काजी के यहां खुला (औरत की ओर से निकाह तोड़ना) की अर्जी देने जा रही हूं.’’

थोड़ी देर के लिए साहिल चुप रहा फिर बोला, ‘‘सनोबर, मेरा जो कुछ है सब तुम्हारा और हमारी बेटी का है. तुम सब ले लो मुझे मेरी सनोबर दे दो. मुझे एक बार माफ कर दो. मेरी गलती की इतनी बड़ी सजा न दो. अगर तुम मेरी जिंदगी में नहीं तो मैं यह जिंदगी ही खत्म कर दूंगा,’’ सनोबर जानती थी साहिल भावुक है पर इतना ज्यादा है यह नहीं जानती थी. वह उठ कर चली गई.

अब बस औफिस जाने और मन लगा कर काम करने में और बेटी के साथ उस का समय बीतने लगा. बड़ी बेगम के कहने पर और बेटी की जिद पर वह राजी हुई कि साहिल सप्ताह में एक बार बेटी से मिल सकता है. उसे बाहर ले जा सकता है. वह नहीं चाहती थी कि उस की बेटी को उस के पिता की असलियत पता चले. इस आयु में यदि उसे पिता के घिनौने कारनामे का पता चलेगा तो वह जाने क्या प्रतिक्रिया करे. साहिल सप्ताह में 2 घंटे के लिए बेटी को घुमाने ले जाता, गिफ्ट दिलाता और सनोबर की पसंद का भी कुछ बेटी के साथ भेजता पर सनोबर आंख उठा कर भी न देखती.

तभी सनोबर की पदोन्नति हुई साथ ही मुख्यालय में तबादला भी. सनोबर को न चाह कर भी दिल्ली जाना पड़ा. बेटी को नानी के पास छोड़ना पड़ा. स्कूल का सैशन समाप्त होने में अभी 2 महीने थे. बड़ी बेगम ने आश्वासन दिया, ‘‘मैं संभाल लूंगी तुम जाओ मगर हर वीकैंड पर आ जाना.’’

मुख्यालय में उस के कुछ पूर्व साथी भी थे, सब ने स्वागत किया. एक प्रोजैक्ट में उस को समीर के साथ रखा गया. समीर भी सनोबर का पुराना साथी था और उस पर फिदा भी था.

समीर और सनोबर साथसाथ काम करते हुए काफी समय एकदूसरे के साथ बिताते. सनोबर ने साहिल और अपने बारे में समीर को नहीं बताया. जिस प्रोजैकट पर दोनों काम कर रहे थे उस में क्लाइंट की लोकेशन पर भी जाना होता था. दोनों साथसाथ जाते, होटल में रहते और काम पूरा कर के आते. घंटों अकेले एकसाथ काम करते. आज भी दोनों सुबह की फ्लाइट से गए थे. दिन भर काम कर के रात को होटल पहुंचे. समीर बोला, ‘‘फ्रैश हो लो फिर खाना खाने नीचे डाइनिंगरूम में चलते हैं.’’

सनोबर बोली, ‘‘तुम जाओ. मैं अपने रूम में ही कुछ मंगवा लूंगी.’’

समीर बोला, ‘‘ठीक है मेरा भी कुछ और्डर कर देना, साथ ही खा लेंगे.’’

सनोबर को समीर चाहता भी था, उस का आदर भी करता था. सनोबर के हैड औफिस आने के बाद समीर ने कभी अपने पुराने प्यार को प्रकट नहीं किया. वह अपनी पत्नी और बच्चों में खुश था.

समीर सनोबर के कमरे में आ गया. खाना आने की प्रतीक्षा में दोनों काम से जुड़ी बातें ही करते रहे. समीर की पत्नी का फोन भी आया. समीर की और उस की पत्नी की बातों से लग रहा था दोनों सुखी व संतुष्ट हैं.

समीर ने साहिल के बारे में पूछा तो सनोबर बात टाल गई. फिर खाना आया, दोनों खाना खातेखाते पुराने दिनों की बातें करने लगे.

समीर ने सनोबर से पूछा, ‘‘अच्छा एक बात बताओ यदि तुम साहिल से शादी न करतीं तो क्या मुझ से शादी करतीं?’’

सनोबर झिझकी फिर बोली, ‘‘शायद हां.’’

समीर ने मजाकिया अंदाज में कहा, ‘‘अरे पहले बताती तो मैं उस को गोली मार देता,’’ बात आईगई हो गई. दोनों ने खाना खाया फिर समीर अपने कमरे में चला गया.

सनोबर सोचने लगी समीर अच्छा दोस्त हैं. फिर जाने क्यों साहिल याद आ गया. वह काफी थकी थी. कुछ ही देर में सो गई. अगले दिन भी दोनों बहुत व्यस्त रहे.

‘‘आज भी खाना कमरे में मंगवाते हैं ठीक है?’’ समीर ने पूछा तो सनोबर बोली, ‘‘हां, ठीक है.’’

फिर समीर फ्रैश हो कर सनोबर के कमरे में आ गया. खाना और्डर कर के दोनों बातें करने लगे. सनोबर को खाते समय खाना सरक गया वह खांसने लगी. समीर ने उसे जल्दी से पानी निकाल कर दिया. पानी पी कर ठीक हुई. खाने के बाद समीर ने चाय बना कर सनोबर की दी तो दोनों का हाथ एकदूसरे से टकराया. दोनों चुपचाप धीरेधीरे चाय पीने लगे.

एक अजीब सा सन्नाटा छा गया. दोनों पासपास बैठे थे. एक अजीब सी चाह सनोबर ने अपने मन में महसूस की जैसे वह समीर के सीने से लग के रोना चाहती हो. फिर उस ने देखा समीर की निगाहें भी उस के ऊपर टिकी हैं. शायद वह भी सनोबर को अपनी बांहों में जकड़ना चाहता है. तभी उसे लगा कहीं यही वह एकांत कमजोर पल तो नहीं है जिस के बारे में अम्मी कह रही थी. वह संभल गई और उठ कर इधरउधर कुछ रखनेउठाने लगी. समीर से बोली, ‘‘अच्छा, कल मिलते हैं.’’

समीर भी उठते हुए बोला, ‘‘हां देर हो गई, गुड नाईट.’’

अगले दिन दोनों वापस आ गए. सनोबर अपनी अम्मी के पास चली गई. अम्मी उसे बताने लगीं कि उस की बेटी खाने में नखरा करती है. साहिल बेटी का बहुत ध्यान रखता है. अपने साथ ले जाता है, बराबर फोन करता है. अम्मी साहिल की प्रशंसा किए जा रही थीं.

सनोबर ने साहिल को फोन किया, ‘‘मैं तुम से मिलना चाहती हूं अभी.’’ वह साहिल से मिलने चल पड़ी. साहिल पलकें बिछाए उस की राह ताक रहा था. घर लगता था साहिल ने ही साफ किया था. बैडरूम पर नजर गई तो बदलाबदला लग रहा था. साहिल बहुत प्यार से बोला, ‘‘अब तो वापस आ जाओ, मुझे माफ कर दो.’’

सनोबर एकांत कमजोर पल क्या होता है यह जान चुकी थी. उस ने साहिल को माफ कर दिया. साहिल ने सनोबर का हाथ पकड़ा और दोनों एकदूसरे के बहुत पास आ गए.

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