बड़बोला: विपुल से आखिर क्यों परेशान थे लोग

अजादी: राधिका नीरज से शादी क्यों नहीं करना चाहती थी?

फैमिली कोर्ट की सीढि़यां उतरते हुए पीछे से आती हुई आवाज सुन कर वह ठिठक कर वहीं रुक गई. उस ने पीछे मुड़ कर देखा. वहां होते कोलाहल के बीच लोगों की भीड़ को चीरता हुआ नीरज उस की तरफ तेज कदमों से चला आ रहा था. ‘‘थैंक्स राधिका,’’ उस के नजदीक पहुंच नीरज ने अपने मुंह से जब आभार के दो शब्द निकाले तो राधिका का चेहरा एक अनचाही पीड़ा के दर्द से तन गया. उस ने नीरज के चेहरे पर नजर डाली. उस की आंखों में उसे मुक्ति की चमक दिखाई दे रही थी. अभी चंद मिनटों पहले ही तो एक साइन कर वह एक रिश्ते के भार को टेबल पर रखे कागज पर छोड़ आगे बढ़ गई थी.

‘‘थैंक्स राधिका टू डू फेवर. मु?ो तो डर था कि कहीं तुम सभी के सामने सचाई जाहिर कर मु?ो जीने लायक भी न छोड़ोगी,’’ राधिका को चुप पा कर नीरज ने आगे कहा. राधिका ने एक बार फिर ध्यान से नीरज के चेहरे को देखा और बिना कुछ कहे आगे बढ़ गई. फैमिली कोर्ट के बाहर से रिकशा ले कर वह सीधे औफिस ही पहुंच गई. उस के मन में था कि औफिस के कामों में अपने को व्यस्त रख कर मन में उठ रही टीस को वह कम कर पाएगी. लेकिन वहां पहुंच कर भी उस का मन किसी भी काम में नहीं लगा. उस ने घड़ी पर नजर डाली. एक बज रहा था. औफिस में आए उसे अभी एक घंटा ही हुआ था. अपनी तबीयत ठीक न होने का बहाना कर उस ने हाफडे लीव को फुल डे सिकलीव में कन्वर्ट करवा लिया और औफिस से निकल कर सीधे घर जाने के लिए रिकशा पकड़ लिया.

सोसाइटी कंपाउंड में प्रवेश कर उस ने लिफ्ट का बटन दबाया, पर सहसा याद आया कि आज सुबह से बिजली बंद है और शाम 5 बजे के बाद ही सप्लाई वापस चालू होगी. बु?ो मन से वह सीढि़यां चढ़ कर तीसरी मंजिल पर आई. फ्लैट नंबर सी-302 का ताला खोल कर अंदर से दरवाजा बंद कर वह सीधे जा कर बिस्तर पर पसर गई. कुछ देर पहले बरस कर थम चुकी बारिश की वजह से वातावरण में ठंडक छा गई थी. लेकिन उस का मन अंदर से एक आग की तपिश से जला जा रहा था. नेहा अपने बौस के साथ बिजनैस टूर पर गई हुई थी और कल सुबह से पहले नहीं आने वाली थी वरना मन में उठ रही टीस उस के संग बांट कर अपने को कुछ हलका कर लेती. बैडरूम में उसे घबराहट होने लगी, तो वह उठ कर हौल में आ कर सोफे पर सिर टिका कर बैठ गई. उस की आंखों के आगे जिंदगी के पिछले 4 साल घूमने लगे…

‘चलो अच्छा ही है 2 दोस्तों के बच्चे अब शादी की गांठ से बंध जाएंगे तो दोस्ती अब रिश्तेदारी में बदल कर और पक्की हो जाएगी,’ राधिका के नीरज से शादी के लिए हां कहते ही जैसे पूरे घर में खुशियां छा गई थीं. राधिका के पिता ने अपने दोस्त का मुंह मीठा करवाया और गले से लगा लिया.

राधिका ने अपने सामने बैठे नीरज को चोरीछिपे नजरें उठा कर देखा. वह शरमाता हुआ नीची नजरें किए हुए चुपचाप बैठा था. न्यूजर्सी से अपनी पढ़ाई पूरी कर अभी कुछ महीने पहले ही आया नीरज शायद यहां के माहौल में अपनेआप को फिर से पूरी तरह से एडजस्ट नहीं कर पाया. यही सोच कर राधिका उस वक्त उस के चेहरे के भाव नहीं पढ़ पाई. अपने पापा के दोस्त दीनानाथजी को वह बचपन से जानती थी लेकिन नीरज से उस की मुलाकात इस रिश्ते की नींव बनने से पहले कभीकभी ही हुई थी. 12वीं पास करने के बाद नीरज 5 साल के लिए स्टूडैंट वीजा पर न्यूजर्सी चला गया था और जब वापस आया तो पहली ही मुलाकात में चंद घंटों की बातों के बाद उन की शादी का फैसला हो गया.

‘‘नीरज, मैं तुम्हें पसंद तो हूं न?’’ बगीचे में नीरज का हाथ थाम कर चलती राधिका ने पूछा. ‘‘हां. लेकिन क्यों ऐसा पूछ रही हो?’’ उस की बात का जवाब देते हुए नीरज ने पूछा. ‘बस ऐसे ही. अगले महीने हमारी शादी होने वाली है. पर तुम्हारे चेहरे पर कोई उत्साह न देख कर मु?ो डर सा लगता है. कहीं तुम ने किसी दबाव में आ कर तो इस शादी के लिए हां नहीं की न?’ पास ही लगी बैंच पर बैठते हुए राधिका ने नीरज को देखा.

‘वैल. अपना बिजनैस सैट करने की थोड़ी टैंशन है. इसी उल?ान में रहता हूं कि कहीं शादी का यह फैसला जल्दी तो नहीं ले लिया,’ कहते हुए नीरज ने अपनी पैंट की जेब से रूमाल निकाला और माथे पर उभर आई पसीने की बूंदों को पोंछ डाला.‘इस में टैंशन लेने वाली बात ही क्या है? शादी तो समय पर हो ही जानी चाहिए. वैसे भी, जीने के लिए पैसा नहीं, अपने लोगों के पास होने की जरूरत होती है,’ कहती हुई राधिका ने नीरज के कंधे पर अपना सिर टिका दिया.

डर सा बना रहता है,’ नीरज ने अपने हाथ में अभी भी रूमाल पकड़ रखा था.‘छोड़ो भी अब यह डर और कोई रोमांटिक बात करो न मु?ा से,’ कहती हुई राधिका ने आसपास नजर दौड़ाई. बगीचे में अधिकांश जोड़े अपनी ही मस्ती में खोए हुए थे. सहसा राधिका नीरज के और करीब आ गई और उस के हाथ की उंगलियां उस की छाती पर हरकत करने लगीं.

‘यह क्या हरकत है राधिका?’ कहते हुए नीरज ने एक ?ाटके से राधिका को अपने से दूर कर दिया और अपनी जगह से खड़ा हो गया. राधिका के लिए नीरज का यह व्यवहार अप्रत्याशित था. वह नीरज की इस हरकत से सहम गई. तभी दरवाजे की घंटी बज उठी. राधिका अपनी यादों से बाहर निकल कर खड़ी हुई और दरवाजा खोला. ‘‘नेहा प्रधान हैं?’’

दरवाजे पर कूरियर वाला खड़ा था. ‘‘जी, इस वक्त वह घर पर नहीं है. लाइए मैं साइन कर देती हूं,’’ राधिका ने पैकेट लेने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया. पैकेट दे कर कूरियर वाला चला गया. दरवाजा बंद करती हुई राधिका ने पैकेट को देख कर उस के अंदर कोई पुस्तक होने का अंदाजा लगाया. नेहा अकसर कोई न कोई पुस्तक मंगाती रहती थी. उस ने पैकेट टेबल पर रख दिया और वापस सोफे पर बैठ गई.

4 वर्षों का साथ आज यों ही एक ?ाटके में तो नहीं टूट गया था. उस के पीछे की भूमिका तो शायद शादी के पहले से ही बन चुकी थी. पर नीरज का मौन राधिका की जिंदगी भी दांव पर लगा गया. नीरज के बारे में और सोचते हुए उस का चेहरा तन गया. ‘नीरज,  तुम्हारे मन में आखिर चल क्या रहा है? हमारी शादी हुए एक महीने से ज्यादा हो गया और 10 दिनों के अच्छेखासे हनीमून के बाद भी तुम्हारे चेहरे पर नईनई शादी वाली खुशी नदारद सी है. बात क्या है? मु?ा से तो खुल कर कहो,’ पूरे हनीमून के दौरान राधिका ने महसूस किया कि नीरज हमेशा उस से एक सीमित अंतर बना कर रह रहा है. रात के हसीन पल भी उसे रोमांचित नहीं कर पा रहे थे. वह, बस, शादी के बाद की रातों को एक जिम्मेदारी मान कर जैसेतैसे निभा ही रहा था. हनीमून से लौट कर आने के बाद राधिका के चेहरे पर अतृप्ति के भाव छाए हुए थे.

‘कुछ नहीं राधिका. मु?ो लगता है हम ने शादी करने में जल्दबाजी कर दी है,’ राधिका की बात सुन कर नीरज इतना ही बोल पाया. ‘जनाब, अब ये सब बातें सोचने का समय बीत चुका है. बेहतर होगा हम मिल कर अपनी शादी का जश्न पूरे मन से मनाएं,’ राधिका ने नीरज की बात सुन कर कहा.

‘तुम नहीं सम?ा पाओगी राधिका और मैं तुम्हें अपनी समस्या सम?ा भी नहीं पाऊंगा,’ कह कर नीरज राधिका की प्रतिक्रिया की परवा किए बिना ही कमरे से बाहर चला गया. अकेले बैठी हुई राधिका का मन बारबार पिछली बातों में जा कर अटक रहा था. लाइट भी नहीं थी जो टीवी औन कर अपना मन बहला पाती. तभी उस के मन में कुछ कौंधा और उस ने नेहा के नाम से अभी आया पैकेट खोल लिया. उस के हाथों में किसी नवोदित लेखक की पुस्तक थी. पुस्तक के कवर पर एक स्त्री की एक पुरुष के साथ हाथों में हाथ डाले हुए मनमोहक छवि थी और उस के ऊपर पुस्तक का शीर्षक छपा हुआ था- ‘उस के हिस्से का प्यार’. कहानियों की इस पुस्तक की विषय सूची पर नजर डालते हुए उस ने एक के बाद एक कुछ कहानियां पढ़नी शुरू कर दीं. बच्चे के यौन उत्पीड़न और फिर उस को ले कर वैवाहिक जीवन में आने वाली समस्या को ले कर लिखी गई एक कहानी पढ़ कर वह फिर से नीरज की यादों में खो गई.

उस दिन नीरज बेहद खुश था. वह घर खाने पर अपने किसी विदेशी दोस्त को ले कर आया था. ‘राधिका, 2 दिनों पहले मैं अपने जिस दोस्त की बात कर रहा था वह यह माइक है. न्यूजर्सी में हम दोनों रूममेट थे और साथ ही पढ़ते थे,’ नीरज ने राधिका को माइक का परिचय देते हुए कहा.

राधिका ने अपने पति की बाजू में खड़े उस श्वेतवर्णी स्निग्ध त्वचा वाले लंबे व छरहरे युवक पर नजर डाली. राधिका को पहली ही नजर में नीरज का यह दोस्त बिलकुल पसंद नहीं आया. उस का क्लीनशेव्ड नाजुक चेहरा और उस पर सिर पर थोड़े लंबे बालों को बांध कर बनाई गई छोटी सी चोटी देख कर राधिका को आश्चर्य हो रहा था कि ऐसा लड़का नीरज का दोस्त कैसे हो सकता है. नीरज तो खुद अपने पहनावे और लुक को ले कर काफी कौन्शियस रहता है. उस वक्त इस बात को नजरअंदाज कर वह इस बात पर ज्यादा कुछ न सोचते हुए खाना बनाने में जुट गई.

उसी रात नीरज ने जब राधिका से सीधेसीधे तलाक लेने की बात छेड़ी तो राधिका के पैरोंतले जमीन खिसक गई. ‘लेकिन बात क्या हुई नीरज? न हमारे बीच कोई ?ागड़ा है न कोई परेशानी. सबकुछ तो बराबर चल रहा है. कहीं तुम्हारा किसी के संग अफेयर तो…’ रिश्तों को बांधे रखने की दुहाई देते हुए सहसा उस का मन एक आशंका से भर गया.

‘अफेयर ही सम?ा लो. अब तुम से मैं आगे कुछ और नहीं छिपाऊंगा,’ कहते हुए नीरज चुप हो गया. राधिका ने नीरज के चेहरे को देखते हुए उस की आंखों में अजीब सी मदहोशी महसूस की. ‘तुम कहना क्या चाहते हो नीरज?’ राधिका नीरज की अधूरी छोड़ी बात पूरी सुनना चाहती थी. उस के बाद नीरज ने जो कुछ उस से कहा, उन में से आधी बात तो वह ठीक से सुन ही नहीं पाई.

‘तुम्हारे संग मेरी शादी मेरे लिए एक जुआ ही थी. मैं अपनी सारी जिंदगी इसी तरह कशमकश में गुजार देता पर अब यह कुछ नामुमकिन सा लगता है राधिका. बेहतर होगा हम अपनेअपने रास्ते अलगअलग ही तय करें,’ नीरज से शादी टूटने से पहले कहे गए आखिरी वाक्य उस के दिमाग में बारबार कौंधने लगे.

राधिका ने कमरे की लाइट बंद कर दी और चुपचाप लेट कर सारी रात अपनी बरबादी पर आंसू बहाती रही.अब एक ही घर में नीरज के साथ रहते हुए वह अपनेआप को एक अजनबी महसूस कर रही थी. अपने मन की बात राधिका को जता कर जैसे नीरज के मन का भार हलका हो चुका था लेकिन राधिका जैसे मन पर एक अनचाहा भार ले कर जी रही थी. जब उस के मन का भार असहनीय हो गया तो वह नीरज के घर की दहलीज छोड़ कर अपने पिता के घर आ गई.

फिर जो हुआ वह आज के दिन में परिणत हो कर उस के सामने खड़ा था. कानूनी तौर पर वह भले ही नीरज से अलग हो चुकी थी लेकिन नीरज की सचाई और उस के द्वारा दी गई अनचाही पीड़ा अब भी उस के मन के कोने में कैद थी जिसे वह चाह कर भी किसी से बयान नहीं कर सकती थी. घर में बैठेबैठे अकेले घुटन होने से वह घर लौक कर बाहर निकल गई और एमजी रोड पर स्थित मौल में दिल बहलाने के लिए चक्कर लगाने लगी.

रात देर से नींद आने की वजह से सुबह उस की नींद देर से ही खुली. वैसे भी आज उस का वीकली औफ होने से औफिस जाने का कोई ?ां?ाट न था. उस ने उठ कर समाचार सुनने के लिए टीवी औन ही किया था कि डोरबेल बज उठी.

‘‘हाय राधिका. हाऊ आर यू?’’ दरवाजा खोलते ही नेहा राधिका से लिपट गई. ‘‘मैं ठीक हूं. तेरा टूर कैसा रहा?’’ राधिका के चेहरे पर एक फीकी सी मुसकान तैर गई. ‘‘बौस के साथ टूर हमेशा ही मजेदार रहता है. वैसे भी अब जिंदगी ऐसे मोड़ तक पहुंच गई है जहां से वापस लौटना संभव ही नहीं. यह टूर तो एक बहाना होता है एकांत पाने का,’’ कहती हुई नेहा सोफे पर पसर गई.

राधिका ने रिमोट उठा कर चुपचाप न्यूज चैनल शुरू कर दिया. ‘‘सुन, कल तेरी आखिरी सुनवाई थी न फैमिली कोर्ट में. क्या फैसला आया?’’ नेहा ने राधिका को अपने पास खींचते हुए उस से पूछा.

‘‘फैसला तो पहले से ही तय था. बस, साइन ही करने तो जाना था,’’ राधिका ने बु?ोमन से जवाब दिया. ‘‘लेकिन तू ने अभी तक नहीं बताया कि आखिर ऐसा क्या हुआ जो तू ने नीरज से अलग होने का फैसला ले लिया?’’ पिछले एक साल से साथ रहने के बावजूद राधिका ने अपनी जिंदगी का एक अधूरा सच नेहा से अब तक छिपाए रखा था.

‘भारत की न्याय प्रणाली में एक ऐतिहासिक फैसला सैक्शन 377 के तहत अब गे और लैस्बियन संबंध वैध.’ तभी टीवी स्क्रीन पर आती ब्रैकिंग न्यूज देख कर राधिका असहज हो गई.

‘‘स्ट्रैंज,’’ नेहा ने न्यूज पर अपनी छोटी सी प्रतिक्रिया जताते हुए राधिका से फिर से पूछा, ‘‘तू ने बताया नहीं राधिका? कुछ कारण तो रहा होगा न?’’

‘‘बस, सम?ा ले कल उसे एक अनचाहे रिश्ते से कानूनीतौर पर मुक्ति मिली और आज उस मुक्ति की खुशी मनाने का मौका भी उसी कानून ने उसे दे दिया,’’ राधिका की नजरें अभी भी टीवी स्क्रीन पर जमी हुई थीं. लेकिन नेहा उस की नम हो चुकी आंखों में तैर रही खामोशी को पढ़ चुकी थी.

अनकहा रिश्ता: क्या अनकहा ही रहा ?

महेश कुमारजी को अपनी पत्नी के देहांत के बाद अपने बेटे बासु के साथ शहर आना पड़ा, क्योंकि पत्नी के जाने के बाद वे एकदम अकेले हो गए थे.

अब बेटा ही था, जिस के साथ वो रह सकते थे, और उन की इस उम्र में सही से देखभाल हो सकती थी. उन के बेटे ने शहर आ कर महेशजी को उन का कमरा और बालकनी दिखाई और कहा, “पापा, आप कुछ समय यहां बालकनी में सुकून के साथ बैठ सकते हैं, अखबार पढ़ सकते हैं, आप का मन लगा रहेगा. और देखो पापा, मन तो आप को लगाना ही पड़ेगा.”

महेशजी भी अपना मन लगाने की पूरी कोशिश करते, लेकिन बुढ़ापे का एकाकीपन उन्हें खाए जाता था. आसपास कोई बोलने वाला भी नहीं था. बेटा और बहू अपने काम में लगे रहते, कभीकभार पोते के साथ मन बहला लिया करते,
लेकिन वह भी अकसर स्कूल की पढ़ाई में लगा रहता था.

महेशजी की बालकनी के सामने वाले फ्लैट में भी शायद कोई नहीं रहता था, क्योंकि अकसर वो बंद ही रहती.

कुछ समय बाद उन के सामने वाली बालकनी में कोई रहने आ गया. उस में एक सभ्य व संभ्रांत महिला दिखाई दी, जो लगभग उन्हीं की उम्र की थी.

उन संभ्रांत महिला ने अपनी कामवाली को कुछ समझाया, कुछ पौधे लगवाए, कपड़ों के सुखाने के लिए रस्सी बधंवाई और एक आरामकुरसी और एक छोटा सी मेज लगवा दी. इस तरह वो वीरान सी दिखने वाली बालकनी अब सजीव हो उठी. किसी के होने का एहसास देने लगी.

महेशजी और उन संभ्रांत महिला का आपस में गरदन के इशारे से अभिवादन हुआ, क्योंकि दोनों बालकनी में दूरी ज्यादा थी, इसलिए इशारे से ही बातें हो सकती थीं, और यों भी तेज बोल कर बातें यहां शहरों में कहां हो पाती हैं. यहां तो हर इनसान अपनेआप में मगन है, आसपास की किसी को कोई खबर ही नहीं है.

अब तो महेशजी को अपनी बालकनी अच्छी लगने लगी. वे अब आराम से बैठ कर अखबार पढ़ते.

सामने वाली बालकनी में छाई हुई वीरानी अब वसंत का रूप ले चुकी थी, तुलसी का पौधा उन की आस्था को दर्शाता तो मनी प्लांट की बेल व छोटे फूलों के पौधे जिंदगी की सजीवता को दिखाते.

वैसे भी स्त्रियों को वरदान मिला है कि वे चाहे जहां घर बसा सकती हैं, उसे स्वर्ग का द्वार बना सकती हैं, वसंत ला सकती हैं, वीरानियां को बदल कर बगिया खिला सकती हैं. स्त्रियां घर के आसपास एक सकारात्मक ऊर्जा का निर्माण करती हैं.

बस इस तरह उन दोनों का रोज आंखों से व गरदन के इशारे से आपस में अभिवादन होने लगा. संवाद कभी न होता. महेशजी अब फिर से जिंदगी को जीने लगे थे.

वे उन महिला को कभी वहां सब्जी साफ करते देखते, कभी पौधों में पानी देते हुए देखते, कभी अचार सुखाते, तो कभी स्वेटर बुनते, दोनों का आपस में कभी संवाद नहीं होता. बस एक एहसास होता है कि उन के आसपास भी कोई है…

उन महिला की एक प्यारी सी पोती भी थी, जिस से वो कभीकभी इशारों में ही महेशजी को नमस्ते करवाती, जिस से उन्हें और अपनापन महसूस होता.

बस इस तरह दोनों में एक प्यारा सा “अनकहा रिश्ता” बन गया.

यों ही कई महीने गुजर गए. एक दिन महेशजी ने देखा कि उन महिला ने न ही उस दिन दीप जलाया और न ही पौधौ को पानी दिया. बस, आ कर आरामकुरसी पर ऐसे ही बैठ गईं. महेशजी को लगा कि शायद तबीयत खराब है. उन्होंने इशारों से पूछा, “क्या हुआ…?”

उन्होंने भी इशारे से जवाब दिया, “सब ठीक है”, लेकिन दोचार दिन में उन महिला का बालकनी में आना भी कम होता गया.

कुछ दिन पश्चात, अब कई दिनों से वे महिला महेशजी को दिखाई नहीं दे रही थी, उन्हें लगा कि शायद कहीं बाहर गई होंगी, लेकिन जब कई दिन हुए वे नहीं दिखाई दी और उन के लगाए पौधे सूखने लगे, उन की लगाई मनीप्लांट की बेल सूखने लगी, तो वे चिंतित हो उठे, उन का मन बेचैन हो उठा.

लेकिन पूछें तो किस से पूछें? महेशजी को बहुत चिंता हुई, उन का अब मन किसी भी काम में नहीं लगता.

फिर एक दिन वही कामवाली बालकनी में दिखाई दी, जो पहले दिन उन महिला के साथ आई थी. वह आई और बालकनी की सफाई करने लगी. महेशजी से रहा नहीं गया, तो उन्होंने इशारे से पूछा कि, “वे कहां हैं?”

उस ने भी इशारों से हाथ ऊपर कर के जवाब दिया कि, “वे अब नहीं रहीं.”

महेशजी का दिल धक से रह गया. उन्होंने उस अकेली पड़ी आरामकुरसी की तरफ देखा और फिर एक बार वो अपनेआप को अकेला महसूस करने लगे.
उन का वो प्यारा सा “अनकहा रिश्ता” अनकहा ही रह गया…

शरणागत: कैसे तबाह हो गई डा. अमन की जिंदगी- भाग 3

एक दिन डा. अमन ने नीरा को समझाया, ‘‘खुदगर्ज लोगों के लिए क्यों अपने तन और मन को कष्ट दे रही हैं, जो एक दुर्घटना की खबर सुन कर आप से दूर हो गए. अच्छा हुआ ऐसे खुदगर्ज लोगों से आप का रिश्ता पक्का न हुआ.’’

इस के बाद नीरा अमन को अपना मित्र समझने लगी. वह अमन के आने का बेसब्री से इंतजार करती. अब वह अमन को अपने नजदीक पाने लगी थी. अमन अपने फुरसत के लमहे नीरा के कमरे में बिताता. राजनीति, सामाजिक समस्याओं, फिल्मों, युवा पीढ़ी आदि के बारे में खुल कर बहस होती. अमन का ऐसे रोजरोज बेझिझक आना और बातें करना नीरा के दिल पर लगी चोट को कम करने लगा था.

प्लस्तर खुलने में अब कुछ ही दिन बचे थे. नीरा के घर सूचना भेज दी गई थी. अमन जब नीरा के कमरे में गया तो वह एकाएक अमन से पूछने लगी, ‘‘क्या आप मुझे कोई छोटीमोटी नौकरी दिलवा सकते हैं?’’

अमन ने कारण पूछा तो वह बोली, ‘‘मैं अब घर नहीं जाऊंगी.’’

अमन यह सुन कर हैरान रह गया. अमन ने बहुत समझाया कि छोटीछोटी बातों पर घर नहीं छोड़ देते हैं, पर नीरा ने एक न सुनी.

वह बोली, ‘‘डा. अमन, मैं सिर्फ आप पर भरोसा करती हूं, आप को अपना समझती हूं. आप मेरे लिए कुछ कर सकते हैं? मैं इस समय आप की शरण में आई हूं.’’

अमन गहरी उलझन में पड़ गया. फिर कुछ सोच कर बोला, ‘‘आप का बीए का रिजल्ट तो अभी आया नहीं है. हां, कुछ ट्यूशन मिल सकती है, परंतु तुम रहोगी कहां?’’

यह सुन कर नीरा बेबसी से रो पड़ी. घर जाना नहीं चाहती थी और कोई ठौरठिकाना था नहीं. अमन उसे प्यार से समझाने लगा पर वह जिद पर अड़ गई. बोली, ‘‘मैं तो आप की शरण में हूं. आप मुझे अपना लो नहीं तो आत्महत्या का रास्ता तो खुला ही है,’’ और वह अमन के पैरों में झुक गई.

अमन बहुत बड़ी दुविधा में पड़ गया. उस ने नीरा को दिलासा दे कर पलंग पर बैठाया और फिर तेजी से बाहर निकल डा. जावेद के कमरे में पहुंच गया. वह उन्हें अपना बड़ा भाई व मार्गदर्शक मानता था. अमन ने अपनी सारी उलझन उन्हें कह सुनाई.

सब सुन कर डा. जावेद गंभीर हो गए. बोले, ‘‘मेरे विचार से तुम नीरा और उस के पारिवारिक झगड़े से दूर ही रहो. नीरा अभी नासमझ है. बहुत गुस्से में है, इसलिए ऐसा कह रही है. जब और कोई सहारा न मिलेगा तो खुद ही घर लौट जाएगी. अपनी सगाई न हो पाने का गुस्सा अपने परिवार पर निकाल रही है.’’

डा. जावेद की बातें उस के सिर के ऊपर से निकल रही थीं. अत: वह वहां से चुपचाप चला आया.

अमन सोच रहा था कि लड़की बेबस है, दुखी है. बड़ी उम्मीद से उस की शरण में आई है. अब वह उसे कैसे ठुकरा दे? इसी उधेड़बुन में वह अपने घर पहुंच गया.

अमन को देख मां और पिता खुश हो गए. मां जल्दी से चाय बना लाई. अमन गुमसुम सा अपनी बात कहने के लिए मौका ढूंढ़ रहा था.

पिता ने उस का चेहरा देख कर पूछा, ‘‘कुछ परेशान से लग रहे हो?’’

बस अमन को मौका मिला गया. उस ने सारी बात उन्हें बता दी. मातापिता हैरानपरेशान उसे देखते रह गए. थोड़ी देर कमरे में सन्नाटा छाया रहा. फिर पिताजी ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, ‘‘ऐसा फैसला तुम कैसे ले सकते हो? अपने सगे मातापिता को ठुकरा कर आने वाली दूसरे धर्म वाली से विवाह? यह कैसे मुमकिन है? माना हम गरीब हैं पर हमारा भी कोई मानसम्मान है या नहीं?’’

मां तो आंसू भरी आंखों से अमन को देखती ही रह गईं. उन के इस योग्य बेटे ने कैसा बिच्छू सा डंक मार दिया था. 1 घंटे तक इस मामले पर बहस होती रही पर दोनों पक्ष अपनीअपनी बात पर अडिग रहे.

पिता गुस्से में उठ कर जाने लगे तो अमन भी उठ खड़ा हुआ. बोला, ‘‘मैं नहीं मानता आप के रूढि़वादी समाज को, आडंबर और पाखंडभरी परंपराओं को… मैं तो इतना जानता हूं कि एक दुखी, बेबस लड़की भरोसा कर के मेरी शरण में आई है. शरणागत की रक्षा करना मेरा फर्ज है,’’ कहता हुआ वह बार निकल गया.

अस्पताल पहुंच कर अमन ने अपने खास 2-3 मित्रों को बुला कर उन्हें बताया कि वह नीरा से शादी करने जा रहा है. शादी कोर्ट में होगी.

यह सुन कर सारे मित्र सकते में आ गए. उन्होंने भी अमन को समझाना चाहा तो वह गुस्से में बोला, ‘‘तुम सब ने मेरा साथ देना है बस. मैं उपदेश सुनने के मूड में नहीं हूं.’’

‘विनाश काले विपरीत बुद्धि,’ कह कर सब चुप हो गए. अमन अस्पताल से मिलने वाले क्वार्टर के लिए आवेदन करने चला गया. इस समय उस के दिमाग में एक ही बात चल रही थी कि नीरा उस की शरण में आई है. उसे उस की रक्षा करनी है.

नीरा का प्लस्तर खुल गया था. छड़ी की मदद से चलने का अभ्यास कर रही थी. धीरेधीरे बिना छड़ी के चलने लगी. 4 दिन बाद अस्पताल से छुट्टी होनी थी. अमन ने 2 दिन बाद ही अपने मित्रों के साथ जा कर कोर्ट में नीरा से शादी कर ली. फिर मित्रों के साथ जा कर घर का कुछ सामान भी खरीद लिया. क्वार्टर तो मिल ही गया था. नीरा अमन के साथ जा कर अपने और अमन के लिए कुछ कपड़े, परदे वगैरा खरीद लाई. दोनों ने छोटी सी गृहस्थी जमा ली.

डिस्चार्ज की तारीख को नीरा के पिता उसे लेने आए, परंतु जब उन्हें नीरा की अमन के साथ शादी की सूचना मिली तो उन के पैरों तले की जमीन खिसक गई. मारे गुस्से के वे अस्पताल के प्रबंध अधिकारी और डाक्टरों पर बरसने लगे. वह पुलिस को बुलाने की धमकी देने लगे. ये सब सुन कर अमन और नीरा अस्पताल आ पहुंचे. नीरा को देख पिता आगबबूला हो गए. नीरा पिता के सामने तन कर खड़ी हो गई. बोली, ‘‘आप पहले मुझ से बात करिए. मैं और अमन दोनों बालिग हैं… किसी पर तोहमत न लगाइए. हम ने अपनी इच्छा से शादी की है.’’

नीरा के पिता यह सुन कर हैरान रह गए. फिर पैर पटकते हुए वहां से चले गए. उधर जब अमन के घर यह खबर पहुंची तो मातापिता दोनों टूट गए. पिता तो सदमे के कारण बुरी तरह डिप्रैशन में चले गए. मां के आंसू न थम रहे थे. डाक्टर ने बताया कि मानसिक चोट लगी है. इस माहौल से दूर ले जाएं. तब शायद तबीयत में कुछ सुधार आ जाए. दोनों बहनों ने अपनी बचत से मांपिताजी का हरिद्वार जाने और रहने का इंतजाम कर दिया.

आगे पढ़ें- 2 महीने में ही नीरा अपनी…

भटकते मन को दिशा मिल गई- भाग 3

‘‘और हां पापा बेफिक्र रहिए, मैं कभी कोई ऐसा काम नहीं करूंगी, जिस से आप की प्रतिष्ठा पर आंच आए. जौय हमेशा से मेरा सब से अच्छा दोस्त रहा है और भविष्य में भी रहेगा. उस के साथ दोस्ती के अलावा मेरा और कोई रिश्ता नहीं. मैं आप को भरोसा दिलाती हूं, इस रिश्ते में कभी किसी भी हालत में कोई और ऐंगल नहीं आने वाला,’’ यह कहते हुए वह वहां से चली गई.

बहू के मुंह से दोटूक बातें सुन कर यश के पिता का खून खौल गया. वह उसे सुनासुना कर पत्नी के सामने खूब चिल्लाए, समाज में घोर बदनामी का डर दिखाया, लेकिन चारुल अपने फैसले से टस से मस नहीं हुई. उस ने ससुर से स्पष्ट कह दिया, ‘‘अब मेरा काम ही मेरी पूजा है. आप मु?ो किसी भी हालत में अमेरिका जाने से नहीं रोक सकते.’’

सास तो शुरू से बहू के बाहर जा कर काम करने के सख्त खिलाफ थीं. इसलिए उन्होंने भी बहू के पराए मर्द के साथ विदेश जाने की बात पर खूब जहर उगला.

जो सासससुर कभी चारुल की बड़ाई करते नहीं अघाते थे, उन्होंने ही उसे आज बेटे की मौत के बाद बिना किसी दोष के कटघरे में खड़ा करने में 1 मिनट नहीं लगाया, यह सोचसोच कर चारुल का हृदय छलनी हो गया.

उस रात चारुल बेहद बेचैन रही. रातभर उसे यश के सपने आते रहे. सपने में पति को अपने इर्दगिर्द देखने के बाद नींद खुलने पर वास्तविकता का एहसास बेहद पीड़ादायी था.

भोर हो आई थी कि तभी अचानक चारुल की आंख खुली. जेहन में अभीअभी देखा गया सपना तरोताजा था.  चारुल ने सपने में मृत पति को अपनी मृत्यु से पहले उसे कहे गए अल्फाज दोहराते हुए देखा ‘‘चारुल, मेरे जाने के बाद अपने ढंग से खुशीखुशी जीना. किसी के भी दवाब में मत आना.  तुम्हें सुकून से जिंदगी बिताते देखना मेरी जिंदगी की आखिरी तमन्ना है. तुम्हें सुखी देखूंगा तो मेरी रूह को बहुत सुकून मिलेगा.’’

भटकते मन को दिशा मिल गई थी. सुबहसवेरे उठ कर उसने हमेशा की तरह सासससुर के पैर छूए और उन्हें चाय नाश्ता दे औफिस आ गई.

उस दिन के बाद सासससुर ने उस से बात करना बंद कर दिया था. वह उन के कमरे में जाती तो वे दोनों मुंह फेर लेते, लेकिन वह हमेशा की तरह उन की सेवा करती रही. उन का खानपान, दवाई, देखभाल पहले की तरह ही करती रही.

अब उस का मन शांत था. जब भी तनिक सी बेचैनी फील करती, आंखें मूंद लेती और यश की बातें याद करती कि उसे अब वही करना है जो उसे खुशी दे. परेशानी के इस आलम में उस की स्कूल के जमाने की कुछ सहेलियों ने उस का बहुत साथ दिया. जब भी वह मायूस होती वे उसे हौसला बंधातीं कि अब उस का फोकस बस उस की अपनी खुशी होनी चाहिए. उस ने पिछले कुछ बरस उस घर के प्रति पूरी शिद्दत से अपनी ड्यूटी निभाई है. दिनरात पति की बीमारी, घर के डूबते व्यापार को उठाने और वृद्ध सासससुर के प्रति अपनी जिम्मेदारियां निभाने में अपनेआप को जीवट से ?ांका है.

इतने बरसों से यश की बीमारी के चलते कोई सोशल फंक्शन या शादीब्याह अटेंड नहीं किया. अब उसे चैन की सांस लेने का पूरापूरा हक है.

इसलिए सासससुर के प्रतिरोध के बावजूद भी वह किसी भी प्रकार की अपराध भावना के बिना अमेरिका यात्रा पर आ गई. टीवी मद्धम आवाज में चालू था कि तभी दरवाजे पर खटखट की आवाज हुई. वह अतीत के गलियारों से वर्तमान में लौट आई.

अलसाते हुए क्विल्ट से बाहर निकल कर उस ने दरवाजा खोला. सामने जौय खड़ा था.

‘‘चारुल, यार मैं तो पार्क से लौट कर पूरे

2 घंटे गहरी नींद में सोया. चलो अब थोड़ा न्यूयौर्क की नाइट लाइफ ऐक्सप्लोर करते हैं. यहां आ कर किसी बार में नहीं गए तो क्या देखा यार?’’

‘‘जौय प्लीज, तुम अकेले ही चले जाओ, बार जाने की मेरी कतई इच्छा नहीं. तुम्हें तो पता है, मैं अपने ड्रिंक्स बिलकुल एंजौय नहीं करती. तो मैं वहां जा कर तुम्हारी शक्ल देखने के अलावा आखिर करूंगी क्या?’’

‘‘अरे, मैं अकेला कहीं नहीं जाने वाला. चलो मैं ठीक आधे घंटे में आता हूं. तुम तैयार हो जाओ.’’

‘‘ओह जौय प्लीज, मेरी बात मानो.’’

‘‘नहीं, तुम्हें आज मेरे साथ चलना ही होगा. चिल करना यार थोड़ा. यह पूरा वीक इतना हेक्टिक गया है, थोड़ा रिलैक्स करना तो बनता है न, मैं ने एक बहुत डीसेंट बार चुना है. तुम्हें बहुत अच्छा लगेगा.’’

‘‘उफ तुम नहीं मानोगे.’’

आधे घंटे बाद जौय और चारुल न्यूयौर्क के एक हैपिनिंग बार में थे. मद्धम रंगीन रौशनी और मधुर संगीत के बीच हाथों में हाथ थामे महिला और पुरुष डांस फ्लोर पर ?ाम रहे थे.’’

वहां मौजूद लोगों में से एक लड़की डांस फ्लोर पर डांस करने लगी. नशे में मदमस्त उस ने थोड़ी देर तो डांस किया और फिर अपनी पहनी हुए जैकेट उतार कर जमीन पर फेंक दी. समां नशीला हो चुका था. लड़की को देख कर चारों ओर से कैट काल्स उठ रही थीं. इस माहौल में चारुल अकेली जौय के साथ कुछ असहज महसूस करने लगी थी कि तभी उस ने जौय से कहा, ‘‘जौय, चलो, रात के 2 बजने आए, होटल चलते हैं.’’

‘‘बैठो न यार, अभी तो रीयल पार्टी शुरू हुई है, चारुल,’’ यह कहते हुए उस ने उस के हाथों पर अपने हाथ रख दिए. उसे लगा था, बीतते हुए लम्हों के साथ उस के हाथों का दवाब उस के हाथों पर बढ़ता ही जा रहा था.

तभी चारुल एक ?ाटके से उठी और खिन्न मन से क्लब से बाहर आ गई. जौय उसे रोकतेरोकते उस के पीछे आया, लेकिन वह अगले ही क्षण एक कैब में बैठ कर होटल के लिए रवाना हो गई.

आज क्लब में जो कुछ हुआ, उस से चारुल अच्छा फील नहीं कर रही थी. उस के हाथों पर अपना हाथ रख जिन गहरी, भेदती, सीने में उतरती आंखों से जौय ने उसे देखा, वह उसे कतई अच्छा नहीं लगा. उस की छटी इंद्रिय कह रही थी, जौय उसे गलत वे में मूक आमंत्रण दे रहा था.

कपड़े बदल वह बिस्तर पर आ गई, लेकिन आज नींद उस की आंखों से कोसों दूर थी. अंतर्मन में जौय की शख्सियत के आज के रूप को ले कर गहन चिंतन जारी था. इस मुद्दे पर बेहद गंभीरता से सोच वह अपने लैपटौप पर एक ईमेल टाइप करने लगी.

उस ने अपने मातहत एक विश्वासपात्र कर्मचारी मोहा की अगले ही दिन की न्यूयौर्क की टिकट बनवाई और उसे भेज दी. साथ ही उसे इन्फौर्म कर दिया कि अब से वह उस की पर्सनल सैक्रेटरी रहेगी. शहर के बाहर हर टूर पर उस के साथ रहेगी. इस मेल की कौपी उस ने जौय को भेज दी.

उस की असहजता गायब हो चुकी थी. मन ही मन उस ने सोचा, ‘किसी को यह हक नहीं कि मेरी खुशियों में रोड़े अटकाए.’

उस ने एक लंबी सांस ली और सुकून से आंखें मूंद लीं.

अंतर्द्वंद्व: आखिर क्यूं सीमा एक पिंजरे में कैद थी- भाग 2

‘‘खूबसूरत और प्रतिभाशाली बीवी की प्रशंसा हर शौहर को करनी चाहिए,’’ सतीशजी ने मुसकराते हुए कहा तो किसी पराए मर्द की ऐसी बातें सुन कर सीमा सकुचा गई.

सतीशजी के यह कहने के बाद रमेशजी एक नजर सीमा पर डाली. सतीश सही कह रहे थे. सीमा वास्तव में खूबसूरत थी. उजला रंग, तीखे नैननक्श और सांचे में ढला हुआ बदन, वह ढलती उम्र में भी बहुत खूबसूरत लग रही थी. मगर कुछ सामाजिक दायरों का लिहाज होने के कारण वे उस समय उस की प्रशंसा तो नहीं कर सके पर वे मन ही मन सीमा की खूबसूरती के कायल जरूर हो गए. सतीशजी के बारबार कहने पर सीमा ने अपनी बनाई हुई कुछ पेंटिंग्स रमेशजी को दिखाईं.

‘‘कमाल है. आप के हाथों में तो जादू है. काफी खूबसूरत पेंटिग्स हैं. शायद मेरी वाली से भी अधिक. आप को तो फिर से पेंटिंग्स बनाना शुरू कर देना चाहिए.’’

‘‘यही तो मैं कहता हूं,’’ सतीश ने रमेशजी की बात का समर्थन करते हुए कहा.

 

हालांकि सीमा बहुत शर्मीले स्वभाव

की थी परंतु रमेशजी के खुले

और मिलनसार व्यक्तित्व को देख कर उस की ?ि?ाक थोड़ी कम हो गई थी. इस पर रमेशजी और अपने पति सतीश से मिली प्रशंसा ने उस का मनोबल भी बढ़ा दिया और उस ने मन ही मन सोचा कि मु?ो फिर से अपनी कला को प्रज्ज्वलित करना चाहिए.

वह बोली, ‘‘आप ठीक कहते हैं मु?ो फिर से पेंटिंग्स बनाना शुरू कर देना चाहिए. वैसे भी इन दिनों पारिवारिक जिम्मेदारियां कम होने के कारण अकेलापन भी अधिक महसूस होता है. पेंटिंग्स बनाने से थोड़ा वक्त भी कट जाएगा.’’

और एक दिन सीमा ने फिर से पेंटिंग्स बनाने का मन बना कर ब्रश, रंगों और कैनवस की दुनिया में प्रवेश किया.

जब पेंटिंग्स तैयार हो गईं तो वह स्वयं हैरान थी कि  उस की कला अभी तक मरी नहीं थी क्योंकि पेंटिंग्स बहुत खूबसूरत बनी थीं. सतीश को पेंटिंग्स दिखाती हुई सीमा ने कहा, ‘‘रमेश बाबू की प्रेरणा से ही मैं अपनी इस कला को पुनर्जीवित कर पाई हूं. इसलिए इन पेंटिंग्स की तारीफ पाने के असली हकदार तो वही हैं.’’

सतीशजी भी सीमा की कला की दाद दिए बिना नहीं रह सके और इसी खुशी में उन्होंने तुरंत रमेशजी को फोन मिलाया.

‘‘सर आप के प्रोत्साहन से मेरी पत्नी ने फिर से पेंटिंग्स बनाना शुरू कर दिया है और बहुत ही सुंदर पेंटिंग्स बनाई हैं. आप ही उस की प्रेरणा के स्रोत हैं. यह सब आप के प्रोत्साहन से ही संभव हुआ है. आज सीमा बहुत खुश है. वह आप को धन्यवाद देना चाहती है. लीजिए सीमा आप से बात करेगी,’’ कह कर उन्होंने फोन सीमा को पकड़ा दिया.

चूंकि सीमा संकोची स्वभाव की थी. अत: उस ने इशारे से बात करने के लिए मना किया परंतु सतीश के पुन: आग्रह करने पर उस ने फोन हाथ में लिया और धीरे से कहा, ‘‘आप ने मु?ो फिर से पेंटिंग्स करने के लिए प्रोत्साहित किया उस के लिए मैं आभारी हूं.’’

‘‘इस में आभार कैसा. मैं नहीं कहता तो कोई और कहता क्योंकि आप में योग्यता है और वह एक न एक दिन तो बाहर आनी ही थी.’’

अब तो सीमा की दबी कला ने फिर से जोर मारना शुरू कर दिया और वह तन्मयता से अपनी इस कला को उभारने में जुट गई. शीघ्र ही उस ने 10-12 सुंदर पेंटिंग्स और बना लीं.

 

दोपहर का वक्त था. सीमा खाना खा कर आराम

करने ही जा रही थी कि तभी फोन की घंटी बजी.

‘‘हैलो सीमाजी, मैं रमेश बोल रहा हूं,’’ सीमा के हेलो बोलते ही उधर से आवाज आई.

‘‘नमस्ते सर,’’ इस तरह अचानक रमेशजी का फोन आया देख सीमा हैरान थी. हालांकि रमेशजी जब घर आए थे तो सतीश ने उन्हें सीमा का नंबर दिया था परंतु वे इस तरह उसे फोन करेंगे उस ने नहीं सोचा था.

रमेशजी बोले, ‘‘सीमाजी, हमारे शहर में एक कला प्रदर्शनी लग रही है. मैं चाहता हूं कि आप की पेंटिंग्स भी उस प्रदर्शनी में लगाई जाएं. मेरे खयाल से काफी अच्छा रिस्पौंस आएगा.’’

रमेश बाबू की बात सुन कर सीमा घबरा गई और बोली, ‘‘नहींनहीं मैं अभी उस प्रदर्शनी में पेंटिंग्स नहीं लगा सकती. अभी मेरी कला इतनी उत्कृष्ट नहीं हुई है कि मैं उस की प्रदर्शनी करूं.’’

सीमा की बात सुन कर रमेश बोले, ‘‘हीरे की कदर स्वयं हीरा नहीं जानता. मेरे कहने से तुम उस प्रदर्शनी में हिसा लो. यह प्रदर्शनी तुम्हारी कला के लिए एक नए आयाम खोल देगी. तुम एक अच्छी कलाकार तो हो परंतु तुम्हारे अंदर आत्मविश्वास की कमी है. इस प्रदर्शनी में अपने चित्रों का प्रदर्शन कर के तुम अपना आत्मविश्वास बढ़ा सकती हो. यह तुम्हारे लिए बहुत अच्छा मौका है.’’

‘‘मगर इतनी पेंटिंग्स को प्रदर्शनीस्थल तक पहुंचाना भी बहुत कठिन कार्य है. मेरे पति बहुत व्यस्त रहते हैं. शायद वे इस काम के लिए समय नहीं निकाल पाएं,’’ सीमा ने प्रदर्शनी में न जाने का एक और सटीक बहाना सोचा.

‘‘आप उस बात की चिंता मत करो. मैं अपनी पेंटिंग्स भी उस प्रदर्शनी में लगा रहा हूं. मैं अपनी पेंटिंग्स के साथ आप की पेंटिंग्स भी ले जाऊंगा और यदि आप जाना चाहेंती तो आप को भी अपने साथ ले जाऊंगा. मेरे खयाल से आप को प्रदर्शनी में हिस्सा जरूर लेना चाहिए.’’

अब सीमा के पास कोई बहाना नहीं बचा था. प्रदर्शनी का दिन आ पहुंचा. सीमा और रमेश बाबू अपनीअपनी पेंटिंग्स समेत प्रदर्शनीस्थल पर पहुंच गए और जैसाकि अपेक्षित था सीमा की पेंटिंग्स को बहुत अच्छा रिस्पौंस मिला.

यह देख कर सीमा फूली न समाई और घर आ कर सतीश से बोली, ‘‘यदि रमेशजी आग्रह न करते तो मैं कभी इस प्रदर्शनी में नहीं जाती. उन के कारण ही आज मु?ो इतनी प्रसिद्धि हासिल हुई है.’’

सतीशजी तो पहले ही रमेशजी के कायल थे. इस घटना के बाद और हो गए और इस के बाद रमेशजी, सतीश और सीमा के मिलनेजुलने का सिलसिला चल निकला.

दिखावा: अम्मा से आखिर क्यूं परेशान थे सब- भाग 1

दादीकी चिता में चाचा ने आग दी. ताऊ अपने 2 बच्चों के साथ अमेरिका जा कर बस गए थे. चिता धूधू कर जल उठी. गंगा के किनारे की तेज हवा ने आग में घी का काम किया. चिता की प्रचंड अग्नि ने सर्दी के उस मौसम में भी पास खड़े लोगों को काफी गरमाहट का अनुभव करा दिया.

करीब 50-60 लोगों की भीड़ में मैं भी शामिल था. मैं ने बड़े ही कुतूहल से दादी के अस्पताल जाने से ले कर उन के इलाज और उन के मरने तक की घटनाओं के अलावा उन्हें श्मशान घाट तक ले जाने में बरती गई तमाम पुरातनवादी रूढि़यों को देखा था, उन्हें सम?ाने का प्रयास किया था, पर मेरी सम?ा में यह नहीं आया था कि नियमों का पालन क्यों आवश्यक था या इन के न मानने से क्या नुकसान हो जाने वाला था? मैं ने पहली बार इस तरह की मौत को नजदीकी से देखा था.

अम्मांजी के 3 दामादों में मैं सब से छोटा दामाद हूं. अम्मांजी की शवयात्रा में शामिल होना मेरे लिए इस तरह का पहला अनुभव था.

10 दिसंबर की सुबह नहाते समय दादीजी स्नानगृह में ही गिर गई थीं. काफी खून निकला था. उन्हें तुरंत अस्पताल ले जाया गया था. डाक्टर का कहना था कि दिमाग की नस फट गईर् है.

मु?ा से जो करते बना, मैं ने किया. मेरी पत्नी तो अपनी दादी की सेवा के लिए रातदिन अस्पताल में ही रही. असल में वे मेरी दादी नहीं, मेरी पत्नी की दादी थी. मेरी पत्नी की मां थी. जल्दी मृत्यु होने के बाद दादी ने उस की देखभाल की थी. मेरी पत्नी के पिता कुछ साल पहले ही गुजरे थे. इसीलिए पूरे घर में मेरी और मेरी पत्नी की दादी से खूब बनती थी.

मेरी 2 बड़ी सालियां चाचा की बेटियां व अम्मांजी की एकमात्र बहू चाची बेटियों के अपने पूरे बच्चों सहित दोपहर को अस्पताल पहुंचती थीं. शाम तक पूरी टीम दादी के पास बैठने के बजाय बाहर मटरगश्ती ज्यादा करती थी. मैं जब भी कभी वहां पहुंचता अपनी चचेरी सालियों को कभी चाय तो कभी कौफी पीते हुए, तो कभी बाहर सड़क पर टहलते हुए पाता था. एक बार पूछा तो कहने लगीं, ‘‘यहां सर्दी काफी है. बच्चों को ठंड न लग जाए, इसलिए धूप का सेवन बेहद जरूरी है.’’

मैं सवाल करता, ‘‘फिर आप लोग बच्चों को यहां क्यों ला रहे हैं? कुछ लोग घर ठहर जाया करें. कुछ रात में आ जाया करें.’’

एक छूटती ही बोली थी, ‘‘मेरे बच्चे मेरे साथ ही आएंगे. मैं उन्हें किसी के भरोसे छोड़ कर क्यों आऊं? रात में बच्चों को यहां सुलाना ठीक नहीं, क्योंकि बच्चों को इन्फैक्शन हो जाता है. घर ही सब से सुरक्षित जगह है. मैं स्वयं इन्फैक्शन के डर से नहीं आना चाहती पर क्या करूं, मां कहती हैं तो आना पड़ता है. नहीं आऊंगी तो लोग क्या कहेंगे (गोया वह रिश्तेदारों के तानों के डर से यहां आ रही थीं) दूसरे दादी भी तो दीप्ति को ही मानती हैं, अब दीप्ति ही उन्हें देखे.’’

मैं इस जवाब से निरुत्तर हो गया था. वे दोनों बहनें व दीप्ति की चाची इस जवाब से प्रसन्न नजरा आ रही थीं. मैं सोचने लगा, ‘शायद मैं ही बेवकूफ हूं जो यहां पड़ा हूं.’

मगर तुरंत दूसरा विचार मन में आ गया, ‘दीदी हैं. सेवा करने में क्या हरज है. सब नालायक सही पर मैं तो नालायक नहीं.’ इन्हीं दादी की वजह से मेरी दीप्ति से शादी हो गई थी. चाचाताऊ तो उस की शादी में इंटरैस्ट ही नहीं ले रहे थे. मेरी शादी पर दादी ने ही बढ़चढ़ कर हम दोनों के प्रेम विवाह पर मुहर लगाई थी. चाचाचाचियां तो दीप्ति को किसी टीचर से बांध देना चाहते थे. मैं दक्षिणी भारतीय था और दादी  ने न जाति पूछी, न मेरे घरवालों के बारे में पूछा. उन्हें दीप्ति पर पूरा भरोसा था.

जब से दादी बूढ़ी होने लगी थीं, दीप्ति ही उन का सारा काम करती थी. काम यह उन का बचपन से करती आई थी पर मेरे साथ एमबीए करने के बाद उसी एनएनसी में काम करने के बाद भी उन के छोटेछोटे काम दीप्ति के हवाले थे. दीप्ति और मैं दोनों अनाथ से थे. मु?ो भी दादी ने वही प्यार दिया जो मु?ो कभी किसी से नहीं मिला इसलिए रातदिन उन की अस्पताल में सेवा करते हुए हम दोनों को खुशी ही हुई, दादी भला बो?ा कैसे हो सकती है? चाचाओंचाचियों की वे जानें.

मुझे माफ कर दो- भाग 2

मगर उस दिन रश्मि को उस पर संदेह हो गया. उस ने टीचर से उस की शिकायत

कर दी और फिर टीचर ने उस के बैग की तलाशी ली, तो कवर में छिपाए रुपए चमक उठे. उस दिन उस की बहुत बेइज्जती हुई क्योंकि मैडम ने उस की पीठ पर एक कागज में बड़ेबड़े अक्षरों से लिख कर ‘मैं चोर हूं’ टांग दिया. उस दिन वह बहुत जलील हुई और सिसकसिसक कर खूब रोई थी. उस दिन उस ने मन ही मन निश्चय किया कि अब कभी ऐसा नहीं करेगी, परंतु घर आतेआते उस की सोच बदल चुकी थी. घर में उस ने मां से बताया कि रश्मि ने उसे ?ाठमूठ फंसाया. पहले तो उन्होंने रश्मि को खूब खरीखोटी कहा और फिर से मंदिर में ले जा कर कान पकड़ कर पुजारी के सामने माफी मांगने को कहा और उन्हें दक्षिणा में रुपए दिलवा कर बोली, ‘‘भगवान उस की गलती को माफ कर दें.’’

अब तो उस का हौसला पहले से अधिक बढ़ गया था. पाप के प्रायश्चित्त का बड़ा ही सरल सा तरीका था. उस ने रोधो कर दूसरे स्कूल में ऐडमिशन ले लिया था और अपनी चोरी के काम से लोगों को शिकार बनाती रही.

कुछ दिनों तक सजल उस से नाराज रहे. उसे डांटतेफटकारते, ताने देते और आंखें तरेरते. फिर धीरेधीरे नौर्मल हो गए.

दूसरों का सामान उठाना नीरा की आदत में शुमार हो गया था. वह जहां भी जाती मौका मिलते ही चुपचाप कुछ भी उठा कर अपने पर्स के हवाले कर लेती.

नीरा को अपने गलत काम का एहसास था, पर वह इतना

ही जानती थी कि वह पाप कर रही है इसलिए इस के निवारण के लिए व्रत, उपवास, कीर्तन, सुंदरकांड का पाठ आदि कर के अपने पाप और अपराध के लिए क्षमायाचना कर के पापमोचन कर लेती थी.

नीरा ने धार्मिक गुरुओं के प्रवचनों और धार्मिक पुस्तकों में पढ़ा और सुना

था कि किस सत्यनारायण भगवान की कथा सुनने से व्यक्ति के सारे पाप धुल हो जाते हैं. इसी कारण उस के घर मे धार्मिक आयोजन जैसे

कथा, कीर्तन, सुंदरकांड जबतब आयोजित होते ही रहते थे.

किसी शौप से सेल्समैन की निगाह बचा कर नीरा कई बार साड़ी जैसी चीज भी अपने बैग में रख कर ले आई थी. कौस्मैटिक तो वह अधिकतर चुरा कर ही ले आया करती. दूसरों की ड्रैसिंगटेबल से छोटी सी आइटम उठाने में उसे जरा भी देर नहीं लगती. होटल से चम्मच, नैपकिन और टौवेल चुराना तो वह जैसे अपना अधिकार ही सम?ाती थी.

एक दिन होटल के चम्मच देखते ही सजल पहचान कर उन पर चिल्ला पड़े, ‘‘तुम्हारी चोरी की आदत नहीं छूटेगी. किसी दिन खुद भी मुसीबत में फंसेगी और मु?ो भी फंसाएंगी. खबरदार आइंदा मैं ने घर में इस तरह की चोरी की कोई चीज देखी तो बहुत बुरा परिणाम तुम्हें भुगतना पड़ेगा.’’

जल्दीजल्दी पति का ट्रांसफर नीरा के लिए सोने में सुहागा जैसा ही था. उस के द्वारा आयोजित धार्मिक आयोजनों के कारण वह सब की निगाहों में सीधीसादी पूजापाठ करने वाली धार्मिक महिला ही सम?ा जाती थी. वैसे तो वह पढ़ीलिखी फैशनेबल स्मार्ट महिला थी. किसी तरह का कोई भी अभाव नहीं था. पति अफसर थे और वह स्वयं भी खुशमिजाज और मिलनसार महिला थी. मंदिर जाना, घंटों पूजापाठ करना, माला जपना आदि के कारण उस के कंधों पर धार्मिक आवरण पड़ा हुआ था.

नीरा के धार्मिक चोले के कारण उस के कुकृत्य पर धर्म का परदा पड़ा हुआ था. शादी का उत्सव जैसे आयोजनों में वह जाने के लिए बहुत उत्सुक रहा करती थी क्योंकि वहां भीड़भाड़ में अपने मकसद में वह आसानी से कामयाब हो जाती थी. वह अपनी जेठानी के माइके में उस के भाई की शादी में गई हुई थी. वहां पर बाथरूम में किसी की सोने की चेन रखी हुई मिली. इतनी आसानी से इतनी भारी चेन पा कर उस की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. लेकिन मन ही मन घबरा भी रही थी.

चेन खो जाने पर घर में खूब हंगामा मचा, सब के साथ यहांवहां वह भी तलाशने का दिखावा करने का नाटक करती रही थी. फिर वह मौका देख कर वहां से निकल पड़ी थी.

जब नीरा घर पहुंची तो घबराहट के मारे पसीनापसीना हो रही थी. घर के अंदर घुसते ही पहले अपना पर्स अलमारी के अंदर रखा, फिर जल्दीजल्दी अपने पूजाघर में भगवान के सामने हाथ जोड़ कर खड़ी हो गई.

सजल ने नीरा के घबराए चेहरे को देख कर पूछा, ‘‘इतनी नर्वस क्यों दिखाई पड़ रही हो? कुछ गड़बड़ कर के आई हो क्या.’’

‘‘आप तो हर समय मेरे पीछे ही पड़े रहते हैं,’’ कह नीरा ने फ्रिज से पानी की बोतल निकाली और एक सांस में पूरी खाली कर दी.

नीरा मन ही मन भगवान को मना रही थी कि हे भगवान मु?ो माफ कर देना. वह 101 का प्रसाद मंदिर में चढ़ाएगी. फिर भी उस के मन को तसल्ली नहीं हो पा रही थी. आखिर इतना लंबा हाथ जो मारा था. मन ही मन निश्चय किया कि इस संडे को पंडितजी को बुला कर ग्रहशांति की पूजा करवा देगी.

सजल ने नीरा को पूजा की तैयारी करते देखा, तो नाराज हो कर बोले, ‘‘एक दिन छुट्टी का होता है, तो यह तुम्हारा कोई न कोई पूजापाठ का स्वांग शुरू हो जाता है. मैं तो तंग हो गया हूं, तुम्हारी इस फालतू की ढोंगबाजी से. घर मे चैन से बैठना मुश्किल कर दिया है

तुम ने.’’

नीरा पति को भला अपनी करतूत कैसे बता सकती थी. वह कैसे कहती कि इस बार उस ने बहुत बड़ा हाथ मारा है इसलिए पंडितजी को दक्षिणा भी बड़ी देनी होगी. वह मन ही मन विजयी मुद्रा में अपने पापमोचन के लिए शांति पाठ की तैयारियों में जुट गई थी.

सजल पत्नी की इस हेराफेरी और चोरी की आदत से अनजान था क्योंकि वे पिछली घटना को भूल चुके थे.

सजल के ट्रांसफर के और्डर आने वाले थे, यह बात वे पत्नी को बता चुके थे. उन्हें बुलंदशहर पसंद नहीं था, इसलिए वे ट्रांसफर रुकवाने की कोशिश में लगे थे, जबकि नीरा

पति से जल्दी से जल्दी नई जगह जौइन करने के लिए कहती.

एक दिन शाम को 6 बजे थे. सजल अपने ड्राइंगरूम में बैठ कर न्यूज की हैडलाइन देख रहे थे. तभी उन की कौलबैल बज उठी. उन्होंने दरवाजा खोला तो स्मार्ट से सज्जन व्यक्ति दरवाजे पर खड़े थे.

‘‘क्या यह नीराजी का घर है?’’ उन्होंने पूछा.

‘‘हां… हां…’’ आप बैठिए, मैं उन्हें अभी अंदर से बुलाता हूं.

‘‘क्षमा कीजिएगा… आप…’’

‘‘मैं सजल, नीरा का पति.’’

‘‘ओके.’’

तूफान की वह रात- भाग 3

वह तो अपने वेतन के 20,000 रुपयों को एकसाथ घर भेजने पर उतारू था. उन्होंने उसे समझाया कि अब तो उसे यहीं रहना है. इसलिए जरूरी सामान और कपड़े खरीद लो. और इस प्रकार उसे जूतेकपड़े आदि के साथ ब्रशमंजन से ले कर शेविंगकिट्स तक की खरीदारी कराई, जिस में उस के 8,000 रुपए निकल गए थे.

वह उस से हंस कर बोले, “यह मुंबई पैसों की नगरी है. यहां सारा खेल पैसों का ही है. अभी अपने पास 2,000 रुपए रखो और बाकी 10,000 रुपए घर भेज दो.”

शर्माजी के एकाउंट की मारफत वह मां के पास 10,000 रुपए भिजवा कर निश्चिंत हो पाया था. लगे हाथ उन्होंने उस का वहीं उसी बैंक में एकाउंट भी खुलवा दिया था.

नवंबर में वह यहां मुंबई आया था. जहाज का यह समुद्री जीवन अजीब था. चारो तरफ समुद्र की ठाठें मारती खारे पानी की लहरें और बजरे का बंद जीवन. दिनभर किसी जहाज में काम करो और फिर शाम को बजरे में बंद हो जाओ. हजारोंलाखों लोगों का जीवन इसी समुद्र के भरोसे चलता है. विशालकाय व्यापारिक जहाजों से ले कर सैकड़ों छोटीबड़ी नौकाएं अपने मछुआरों के संग जाल या महाजाल बिछाए मछली पकड़ती व्यस्त रहती हैं. ऐसे में वह कोई अनोखा तो नहीं, जो यहां रह नहीं पाए. उसे अभी मौजमस्ती की क्या जरूरत. उसे तो अभी अपने परिवार के अभावों के जाल काटना है. यहां खानेपीने की समस्या नहीं. ठेकेदार की तरफ से सभी के लिए यहां निःशुल्क भोजन की भी व्यवस्था है. पंकज शर्मा ने उसे अपना छोटा मोबाइल दे दिया था, जिस से वक्तजरूरत मां या भाईबहन से बात कर लिया करता था.

जिस जहाज पर पंकज शर्मा तैनात थे, उसी पर उस का काम चल रहा था. उस जहाज पर उसे ले कर कुल 24 लोग थे. शाम को वह वापस बजरे पर आ जाते, जहां उन की रिहाइश थी.

बजरा एक सपाट डेक वाली नौका को कहते  हैं, जो सिर्फ पानी की सतह पर तैरती रहती है.  कुछ बजरों में उसे चलाने के लिए इंजन भी लगा रहता है. लेकिन आमतौर पर बिना इंजन वाले इन बजरों को जहाजों द्वारा खींच कर ही इधरउधर लाया या ले जाया जाता है. इस समय ओएनजीसी के औयल रिंग प्लेटफार्म पर कुछ काम चल रहा था. शाम में सभी ‘राजहंस’ नामक इस बजरे पर चले जाते और वहां के लगभग ढाई सौ छोटेबड़े दड़बेनुमा केबिनों में समा जाते. वहीं खानापीना, नहानाधोना वगैरह होता और अगले दिन के लिए सो जाना होता था. यहां से बहुत जरूरी होने पर ही लोग मुंबई समुद्र तट  का रुख करते थे. क्योंकि आनेजाने में ही दिनभर लग जाता था. आमतौर पर महीनेपखवाड़े ही कोई उधर जाता था.

विगत दिनों का वह मनहूस दिन उस के सामने दृश्यमान सा खड़ा था, जब वह पंकज शर्मा के साथ बजरे पर शाम को वापस लौटा था. समुद्र किसी कुपित बाघ की भांति दहाड़ रहा था. पंकज शर्मा पिछले 18 साल से यहां इसी समुद्री तल पर काम करते आए थे. उन्होंने समुद्र के विविध रंग बदलते तेवरों को देखा ही नहीं, झेला भी था. “अरे, कुछ नहीं,” वह बेफिक्री से बोले थे, “तूफान आतेजाते रहते हैं. मनुष्य को अपना काम करते रहना चाहिए.”

“फिर भी सर, इस बार खतरा कुछ ज्यादा ही दिख रहा है,” उन का सहायक मनीश पाटिल सशंकित शब्दों में बोला, “चारों तरफ से वार्निंग की खबरें आ रही हैं. सभी छोटेबड़े जहाज किनारों की ओर चले गए हैं. हमें रिस्क नहीं लेना चाहिए.”

“अब जो होगा, कल ही होगा न,” वह निश्चिंत भाव से बोले, “अब आराम से खाना खाओ और सो जाओ. कल सुबह देखा जाएगा.”

“एक कोरोना से कम तबाह थे क्या, जो ये तूफान आया है,” शिवजी वानखेड़े बोला, “पूरे मुंबई में लौकडाउन लगा है. और यहां ये हाल है कि क्या होगा, क्या पता…”

“इसलिए तो मैं कहता हूं कि हम सुरक्षित जगह में आइसोलेटेड हैं, क्वारंटीन हैं.”

“आप भी सर, गंभीर बातों को हंसी में उड़ा देते हैं,” मनीश पाटिल के यह बोलने पर वह हंसते हुए बोले, “सोच लो, आज से हजार साल पहले जब वास्को-डि-गामा समुद्री मार्ग से आया होगा तो क्या हाल होगा… अभी तो ढेर सारी सुविधाएं हैं, सुरक्षा के इंतजाम भी हैं. अरे, हम जहाजियों का जीवन ही खतरों से खेलने के लिए बना है.”

खैर, रात 9 बजे तक सभी खापी कर अपनेअपने केबिनों में सोने चले गए. वह यों ही डेक पर टहलने जाने का विचार कर ही रहा था, मगर हवा काफी तेज थी. समुद्री लहरें जैसे हर किसी को लपकने के लिए आसमान चूमना चाह रही थीं. वह अपने केबिन में जा कर लेटा रहा. बजरा और दिनों की अपेक्षा आज कुछ ज्यादा ही हिचकोले खा रहा था. चूंकि समुद्री जीवन जीने के अभ्यस्त लोग इसे देखने के आदी हैं, उन्हें बजरे के हिलनेडुलने से विशेष फर्क नहीं पड़ना था.

अचानक तीखी आवाज से बजते सायरन को सुन कर वह चौंक पड़ा. सभी को लाइफ जैकेट पहनने और तैयार रहने को कहा जा रहा था. फोन, पर्स आदि जरूरी सामान के साथ वह लाइफ जैकेट पहने औफिस की ओर आया. वहां वरिष्ठ अधिकारियों के साथ पंकज शर्मा भी गंभीर मुद्रा में लाइफ जैकेट पहने खड़े थे. वे बोले, “सचमुच हम ने तूफान की गंभीरता समझने में भूल की. मगर अब तो बचाव का रास्ता ढूंढ़ना ही एकमात्र उपाय है. बजरे के लंगर टूटते जा रहे हैं. 8 में से 3 टूट चुके हैं और अन्य भी कमजोर पड़ रहे हैं. हमें डर है कि लंगर से मुक्त होते ही यह अनियंत्रित बजरा हिलतेडुलते, तूफान की लहरों के साथ बहते औयल रिंग के प्लेटफार्म से न जा टकराए. प्लेटफार्म पर तेल और गैस की पाइपलाइनें हैं, जो टकराने पर फट कर विस्फोट कर सकती हैं. ऐसे में बचने की सारी संभावना खत्म हो जाएगी.

वे सभी लोग नौसेना अधिकारियों, तटरक्षकों, अपनेअपने मुख्यालयों में हाहाकार भरा त्राहिमाम संदेश फोन से, रेडियो द्वारा और व्हाट्सएप से भी भेज रहे थे. उधर तूफान क्षणप्रतिक्षण विकराल हुआ जाता था. कमजोर पड़ते लंगरों के टूटने के साथ बजरे का हिलनाडुलना बेतरह बढ़ता जाता था. और अंततः वही हुआ, जिस की आशंका थी.  लंगरविहीन बजरा अनियंत्रित हो औयल रिंग के प्लेटफार्म की तरफ बढ़ने लगा, जिसे देख सभी का कलेजा मुंह को आने लगा था.

औयल रिंग प्लेटफार्म के पास क्रूर लहरों ने बजरे को पटक सा दिया था. उस से बजरा जोर से टकराया जरूर, मगर कोई विस्फोट नहीं हुआ. लेकिन इस टक्कर से बजरे की पेंदी में एक छेद हो गया था, जिस से उस में पानी भरना आरंभ हो गया था. मतलब, एक मुसीबत से बचे, तो दूसरी मुसीबत में घिर गए थे. रबर के राफ्ट निकाले जाने लगे. उन्हें तैयार कर नीचे समुद्र में डाल दिया गया. मगर थोड़ी ही देर बाद देखा कि राफ्ट किसी नुकीली चीज से पंक्चर हो गया था और उस में बैठे लोग समुद्री लहरों के बीच लापता हो चुके हैं.

“घबराना नहीं राजन, हिम्मत रखना,” पंकज शर्मा जैसे उस के बहाने खुद को दिलासा दे रहे थे, हौसला बढ़ा रहे थे. कह रहे थे, “नौसेना का जहाज अब पहुंचने ही वाला है. अब हम सभी बच जाएंगे.”

सचमुच नौसेना का जहाज ज्यादा दूर नहीं, दोचार मील के अंदर ही रहा होगा. मगर भयंकर तूफान और गहन अंधकार के बीच कम विजिबिलिटी की वजह से कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. वहां से लगातार संदेश आ रहे थे, ‘थोड़ा इंतजार करो, क्योंकि खराब विजिबिलिटी की वजह से नजदीक आने पर नेवी शिप की बजरे से टक्कर हो सकती है.’

और इसी इंतजार के बीच बजरा पानी में तेजी से धंसता चला जा रहा था. लगभग आधे से अधिक बजरे के पानी में समाने पर ही सभी एकएक कर कूदने लगे. जो तैरना नहीं जानते थे, वे कूदने में ज्यादा  झिझक रहे थे. हालांकि उन्हें यहां आने पर लाइफ जैकेट पहन कर तैरने का प्रशिक्षण दिया गया था. कुछ कूदे भी. मगर जो भयवश नहीं कूद पाए, उन्होंने बजरे के साथ ही जल समाधि ले ली.

तैराकी में उस की सदैव रुचि रही थी. गांव के समीप बहने वाली बूढ़ी गंडक हो अथवा मामा के गांव के किनारे बहने वाली बागमती, वह नहाने के बहाने काफी देर तक तैराकी करता, करतब दिखाता रहता था. यहां तक कि बाढ़ के दिनों में भी उसे कभी डर नहीं लगा. मगर नदी में तैरना एक बात है और अनंत समुद्र में तूफान का मुकाबला करना बिलकुल दूसरी बात है. वह भी आधी रात के इस गहन अंधेरे में, जब एक हाथ को दूसरा हाथ नहीं सूझ रहा हो, तैरना असंभव को संभव बनाने जैसा है. समुद्र के  नमकीन, खारे पानी से आंखों में जलन हो रही थी. तूफानी लहरें शरीर को कभी हवा में उछालती, तो कभी गहरे पानी में खींच ले जाती थी.

मगर मनुष्य की जिजीविषा भी तो बड़ी है. वह इसी की बदौलत प्रकृति से, समय और समाज से संघर्ष करता है. हार होती है. मगर कभीकभी वह जीत भी जाता है. और जो जीतता है, वो इतिहास रचता है. यथार्थ तो यही है कि वह इतिहास रचने के लिए संघर्ष नहीं करता, बल्कि खुद को बचाने के लिए संघर्ष करता है. आने वाला समय उसे विजेता घोषित कर देता है.

यह सब तो बाद की बात है, अभी तो वह खुद को बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है, ताकि वह भविष्य में अपनी मां को, अपने छोटे भाईबहन को पालपोस सके, उन्हें सही शिक्षा दिलवा सके. यही तो उस के जीवन का मकसद है. उसे और क्या चाहिए?

उस के इर्दगिर्द अनेक लोग तैर रहे हैं, डूब या उतरा रहे  हैं. लाइफ जैकेट उन्हें डूबने नहीं दे रहा. उन के लाइफ जैकेट में लगी बत्ती जल रही है, जिस से उन के अस्तित्व का पता चल रहा है. जो तैरना नहीं जानते, वे जोरजोर से हाथपैर चलाते हुए खुद को थकाए दे रहे हैं. उन के भय और लाचारगी की कोई सीमा नहीं थी. और तो और यहां सभी को अपनी जान के लाले पड़े थे. इस अथाह समुद्र में मौत से लड़ते लोगों को कोई पहचान कर भी क्या कर पाता.

इसी तरह तैरते चारेक घंटे के बाद नौसेना का जहाज दिखा तो जैसे आशा की किरण फूटी. पूर्व दिशा में भी लालिमा दिखने लगी थी. सूर्योदय होने को था. सभी उस जहाज की दिशा की ओर तैरने लगे.

मगर, यह क्या…? देखते ही देखते आसमान कालेकाले बादलों से भर गया था और उसी के साथ पुनः अंधकार छा गया था. मूसलाधार वर्षा होने लगी थी. आशा की जो एक धूमिल किरण थी, वह भी धुंधली पड़ने लगी थी. समुद्री लहरें पुनः काल के समान अट्टहास करते सभी को कभी आकाश की ओर उछालती, तो कभी गरदन दबा खारे पानी के भीतर खींच ले जाती थी.

प्रकृति के इस रौद्र खेल को खेलने को वे अभिशप्त से थे. समय का ध्यान कहां था? कौन समय का ध्यान रख पाया है?

अचानक आकाश में बादल छंटे, ऊपर सूर्य मुसकराया तो सब ने देखा कि ठीक बगल में नौसेना का जहाज खड़ा है. जहाज में बैठे नौसैनिक चिल्लाते हुए निर्देश दे रहे थे. वे हर संभावित व्यक्ति की तरफ रोप लैडर (रस्सी की सीढ़ियां) फेंक उसे पकड़ने के लिए इशारे कर रहे थे. कोई जैसे ही उसे पकड़ता, वह उसे खींच जहाज के अंदर कर लेते. न जाने कहां से अचानक उस में इतनी ताकत आ गई थी कि अंततः उस ने एक रोप लैडर को पकड़ लिया था.

अब वह नौसेना के जहाज में था. उस का रोआंरोआं  अभी तक कांप रहा था. भय और आशंकाएं जैसे पीछा नहीं छोड़ रही थीं.  नौसैनिक वहीं डेक पर उसे लिटा उस का प्राथमिक उपचार कर रहे थे. लेकिन उस की चेतना उसी तरह ऊपरनीचे हो रही थी, जैसे कि वह लहरों के द्वारा ऊपरनीचे उछाला जा रहा हो. डेक पर सैकड़ों लोग पड़े थे. उन में कौन जिंदा है और कौन मर गया, कहना मुश्किल था. फिर भी नौसैनिक भागदौड़ करते मेडिकल ट्रीटमेंट दे रहे थे. उन का एक दूसरा दल अभी भी समुद्र में निगाहें टिकाए देख रहा था कि  शायद कहीं कोई भूलाभटका दिख जाए. इसलिए नेवी शिप से बंधे रोप लैडर अभी तक पानी में तैर रहे थे.

अगले दिन वह चैतन्य हुआ, तो खुद को आर्मी अस्पताल में पाया. बजरे में फंसे अनेक लोग उस वार्ड में भरती थे.

“यह सौभाग्य की बात है कि आप ठीक हैं,” एक डाक्टर कह रहा था, “आप मेरे सामने थोड़ा चलनेफिरने का प्रयास करें.”

वह उठा और कुछ कदम चल कर वापस अपने बेड पर आ गया.

दोपहर को उसे भोजन कराने के बाद एक नौसैनिक अधिकारी उस के पास आया और बोला, “मुझे आप का सहयोग चाहिए. आशा है, आप ‘ना’ नहीं करेंगे.”

जिन लोगों की वजह से वह जिंदा है, उन का सहयोग कर खुशी ही मिलेगी. मगर अभी तो वह खुद अशक्त है. वह किसी की क्या मदद कर सकता है.

“बस कुछ नहीं. कुछ लोगों की शिनाख्त करनी है,” नौसैनिक अधिकारी कह रहा था, “डेड बौडी विकृत सी हो गई हैं. आप उन्हें पहचान सकें तो बेहतर है, ताकि उन के घर खबर भिजवाई जा सके.”

“ओह, तो यह काम है,” उस ने विचार किया “अब जब वह बच गया है, तो बचाने वाले का सहयोग करना उस का फर्ज बनता है.”

आर्मी अस्पताल के बाहर खुले में अनेक शव सफेद चादरों में लिपटे पड़े थे. उन्हें देखना यंत्रणादायक था. मगर एक शव के पास आते ही वह चित्कार भर कर रो पड़ा. वह पंकज शर्मा का शव था. वह वहां से दौड़ कर भागा और खुले में लोट गया. उस के पीछे जब वह सैन्य अधिकारी आया, तो उस ने उस से फोन मांग कर पहले शिपिंग कंपनी में फोन कर उन्हें इस की जानकारी दी. फिर गांव में आलोक को फोन कर जानकारी देने लगा था.

और इस के बाद तो जैसे गांव से फोन पर फोन आने लगे थे. पंकज शर्मा के भैया नारायण चाह रहे थे कि पंकज का शव गांव आए और वहीं उस की अंत्येष्टि हो. शीघ्र ही शिपिंग कंपनी का मैनेजर भी आ गया और उस से जानकारी लेने लगा था. अब वह उन के शव को उन के गांव भिजवाने की तैयारी में लग गया था.

“उन के शव के साथ तुम जाओगे,” मैनेजर उस से कह रहा था, “अभी तुम्हें भी आराम की जरूरत है. और यह तुम्हें अपने घर पर ही मिल सकता  है. एकाध माह वहीं घर पर अपने लोगों के बीच रहोगे तो इस त्रासदी को भूलने में तुम को सुविधा रहेगी. इस के बाद तुम सुविधानुसार आ जाना.”

अचानक उसे लगा कि पंकज शर्मा उस के पास खड़े कह रहे हैं, “देखा, मैं ने कहा था ना कि हम बच जाएंगे. देखो, हम बच कर वापस गांव आ गए हैं.”

अचानक फिर उस के सामने एक और दृश्य उभरा. सफेद चादरों में लिपटे कुछ शव उस की ओर देख रहे थे. उन्हीं के बीच जा कर पंकज शर्मा पुनः लेट गए थे. वह चीख मार कर उठा. बगल में लेटा हुआ उस का भाई सकते में था और पूछ रहा था, “क्या हुआ भैया, कोई खराब सपना देखा क्या?”

“हां रे, बहुत खराब सपना था.”

सुदूर पूर्व में सूर्योदय हो रहा था. अंदर से मां आ रही थी. वह मां से लिपट कर

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें