अनोखा हनीमून- भाग 3: मिस्टर माथुर और सिया का क्या रिश्ता था

कुछ कहते न बना वीरेन और नमिता से, वे दोनों अपना सा मुंह ले कर मिस्टर माथुर के घर से निकल आए.माथुर दंपती ने जब अनाथालय से बच्ची को गोद लिया था, तब उन की उम्र 55 साल के आसपास थी, एक बच्ची को गोद लेने की सब से बड़ी वजह थी कि मिस्टर माथुर के भतीजों की नजर उन की संपत्ति पर थी और माथुर दंपती के निःसंतान होने के नाते उन के भतीजे उन की दौलत को जल्दी से जल्दी हासिल कर लेना चाहते थे.

मिस्टर माथुर ने बच्ची को गोद लेने के बाद उस का नाम ‘सिया‘ रखा और उसे खूब प्यारदुलार दिया. उन्होंने सिया के थोड़ा समझदार होते ही उसे ये बात बता दी थी कि सिया के असली मांबाप वे नहीं हैं, बल्कि कोई और हैं और वे लोग उसे अनाथालय से लाए हैं.

इस बात को सिया ने बहुत ही सहजता से लिया और वह माथुर दंपती से ही अपने असली मांबाप की तरह प्यार करती रही.आज माथुर दंपती के इस प्रकार के रूखे व्यवहार से नमिता बुरी तरह टूट गई थी. वह होटल में आ कर फूटफूट कर रोने लगी. वीरेन ने उसे हिम्मत दी, “तुम परेशान मत हो नमिता… मैं माथुर साहब से एक बार और मिल कर उन से प्रार्थना करूंगा, उन के सामने अपनी झोली फैलाऊंगा. हो सकता है कि उन्हें दया आ जाए और वे हमारी बेटी से हमें मिलने दें,” वीरेन ने कहा.

अगले दिन वीरेन एक बार फिर मिस्टर माथुर के सामने खड़ा था. उसे देखते ही मिस्टर माथुर अपना गुस्सा कंट्रोल करते हुए बोले, “अरे भाई, क्यों बारबार चले आते हो हमें डिस्टर्ब करने…? क्या कोई और काम नहीं है तुम्हारे पास? हम तुम्हें अपनी बेटी से नहीं मिलवाना चाहते… अब जाओ यहां से?”

एक बार फिर वीरेन अपना सा मुंह ले कर वापस आ गया था.वीरेन को बारबार सिया से मिलने के लिए परेशान और मिस्टर माथुर के रूखे व्यवहार को देख कर मिस्टर माथुर की पत्नी ने उन से कहा, “आप उन लोगों को सिया से मिला क्यों नहीं देते?”

“आज को तुम बेटी को मिलाने को कह रही हो, कल को उसे उन लोगों के साथ जाने को कहोगी… और क्या पता कि ये लोग भला उस के असली मांबाप हैं भी या नहीं,” मिस्टर माथुर ने अपनी पत्नी से कहा.

“वैसे, अपनी सिया की शक्ल उस युवक से काफी हद तक मिलती तो है,” मिसेज माथुर ने कहा, तो मिस्टर माथुर ने भी अपनी आंखें कुछ इस अंदाज में सिकोड़ीं, जैसे वे वीरेन और सिया की शक्लें मिलाने का प्रयास कर रहे हों और कुछ देर बाद वे भी मिसेज माथुर की बात से संतुष्ट ही दिखे.

“अब यहां रुके रहने से क्या फायदा वीरेन? हम ने जो गलत काम किया है, उस की सजा हमें इस रूप में मिल रही है कि हम अपनी बेटी के इतने करीब आ कर भी उस से नहीं मिल पाएंगे,” नमिता ने दुखी स्वर में कहा.

“हां नमिता… पर, एक बार मुझे और कोशिश करने दो. हो सकता है कि उन का मन पसीज जाए… और फिर तुम ने ही तो एक बार किसी कवि की चंद पंक्तियां सुनाई थीं न… ‘फैसला होने से पहले मैं भला क्यों हार मानूं… जग अभी जीता नहीं है… मैं अभी हारा नहीं हूं’,” वीरेन ने कहा.

“तो फिर मैं भी तुम्हारे साथ हूं,” नमिता ने भी दृढ़ता से कहा.एक बार फिर से वीरेन और नमिता माथुर दंपती के सामने बैठे हुए थे. मिस्टर माथुर का लहजा भी थोड़ा नरम लग रहा था.

“तो वीरेनजी, हम आप को आप की बेटी से मिलने तो देंगे, पर हम ये कैसे मान लें कि आप ही सिया के असली मांबाप हैं?”“जी, मैं किसी भी तरह के टैस्ट के लिए तैयार हूं,” वीरेन का स्वर अचानक से चहक उठा था.

“तो फिर ठीक है, आप लोग अपना डीएनए टेस्ट करवा लाइए और आज मैं आप लोगों को सिया से मिलवा देता हूं.”मिसेज माथुर अपने साथ सिया को ले कर आईं, 15 साल की सिया कितनी भोली लग रही थी, उस के चेहरे पर वीरेन की झलक साफ नजर आ रही थी.नमिता ने दौड़ कर सिया को अपनी बांहों में भर लिया और उसे चूमने लगी. वीरेन तो सिर्फ सिया को निहारे जा रहा था. उन का इस तरह से अपनी बेटी से मिलना देख कर माथुर दंपती की आंखें भी भर आई थीं.

कुछ दिनों बाद डीएनए टेस्ट की रिपोर्ट से यह साफ हो गया था कि सिया ही नमिता और वीरेन की बेटी है.

“देखो गलती हर एक से होती है, पर अपनी गलती का अहसास हो जाए तो वह गलती नहीं कहलाती… सिया तुम्हारी ही बेटी है, ये तो टैस्ट से साबित हो गया है, पर अब कानूनन हम ही उस के उस के मांबाप हैं और हम अपनी बेटी को अब किसी को गोद नहीं देंगे… तुम लोगों को भी नहीं…

“पर, मैं तुम दोनों से सब से पहले तो ये गुजारिश करूंगा कि तुम दोनों शादी कर लो और आगे का जीवन प्यार से बिताओ.‘‘

मिस्टर माथुर की ये बात सुन कर नमिता के गालों पर अचानक शर्म की लाली घूम गई थी. साथ ही साथ ये भी कहूंगा कि तुम दोनों अपनी सारी संपत्ति सिया के नाम करो, तभी मुझे ये लगेगा कि तुम लोगों का अपनी बेटी के प्रति यह प्रेम कहीं  क्षणभंगुर तो नहीं…, कहीं यह कोई दिखावा तो नहीं है, जैसे वक्तीतौर का प्यार होता है…” मिस्टर माथुर ने मुसकराते हुए कहा.

मिस्टर माथुर की किसी भी बात से वीरेन और नमिता को कोई गुरेज नहीं था. वीरेन ने नमिता की तरफ प्रश्नवाचक नजरों से देखा, नमिता खामोश थी, पर उस की मुसकराती हुई खामोशी ने वीरेन को जवाब दे दिया था.

“माथुर साहब, आप ने हमें हमारी बेटी से मिलने की अनुमति दे कर हम पर बहुत बड़ा अहसान किया है, भले ही हम सिया को दुनिया में लाने का माध्यम बने हैं, पर उस को मांबाप का प्यार तो आप लोगों ने ही दिया है… सिया आप की बेटी बन कर ही रहेगी… इसी में हम लोगों की खुशी है,” वीरेन ने कहा.

“और हम लोगों की खुशी तुम दोनों को दूल्हादुलहन के रूप में देखने की है… अब जल्दी करो शादी तुम लोग…” मिसेज माथुर ने मुसकराते हुए कहा. कमरे में सभी के चेहरे पर मुसकराहट दौड़ गई थी.

नमिता और वीरेन दोनों ने एक मंदिर में एकदूसरे को जयमाल पहना कर शादी कर ली. दोनों बहुत सुंदर लग रहे थे. सिया अपने वीडियो कैमरे से वीरेन और नमिता को शूट कर रही थी, जो उस के जैविक मातापिता थे.

वीरेन और नमिता ने आगे बढ़ कर माथुर दंपती के पैर छू कर आशीर्वाद लिया.“माथुर साहब, आप ने मेरी इतनी बातें मानीं, इस के लिए आप का शुक्रिया, पर, मैं अब एक निवेदन और करना चाहता हूं कि आप दोनों और सिया हमारे साथ शिमला चलें, जहां हम सब मानसिक रूप से रिलेक्स कर सकें,” वीरेन ने कहा.

“अरे भाई, शिमला तो लोग हनीमून मनाने जाते हैं… हम लोग तो बूढ़े हो चुके हैं.” हंसते हुए मिस्टर माथुर ने कहा.

‘‘माथुर साहब, उम्र तो सिर्फ एक नंबर है… और फिर हम भी हनीमून ही तो मनाने जा रहें हैं, जिस में आप लोग हमारे साथ होंगे और हमारी बेटी सिया भी हमारे साथ होगी… होगा न यह एक एक अनोखा हनीमून.”माथुर दंपती ने मुसकरा कर हामी भर ली.

कुछ दिनों बाद माथुर दंपती, सिया और नमिता और वीरेन शिमला में अपना अनोखा हनीमून मना रहे थे और सिया अपने वीडियो कैमरे में नजारे कैद कर रही थी.

 

घोंसले के पंछी- भाग 3: क्या मिल पाए आदित्य और ऋचा

अंकिता ने जब शिवम को बताया कि उस की मम्मी को उस के प्रेम के बारे में सब पता चल गया है तो वह घबरा गया.

‘‘इस में घबराने की क्या बात है? मम्मी ने तुम्हारे डैडी का फोन नंबर व पता मांगा है. वह तुम्हारे घर वालों से हमारी शादी की बात करना चाहती हैं.’’

‘‘अरे मर गए, क्या तुम्हारे पापा को भी पता है?’’ उस के माथे पर पसीने की बूंदें छलक आईं.

‘‘जरूर पता होगा. मम्मी ने बताया होगा उन को. परंतु तुम इतना परेशान क्यों हो रहे हो? हम एकदूसरे से प्रेम करते हैं, शादी करने में क्या हरज है? कभी न कभी करते ही, कल के बजाय आज सही,’’ अंकिता बहुत धैर्य से यह सब कह रही थी.

‘‘अरे, तुम नहीं समझतीं. यह कोई शादी की उम्र है. मेरे डैडी जूतों से मेरी खोपड़ी गंजी कर देंगे. शादी तो दूर की बात है,’’ वह हाथ मलते हुए बोला.

‘‘अच्छा,’’ अंकिता की अक्ल ठिकाने आ रही थी. वह समझने का प्रयास कर रही थी. बोली, ‘‘तुम मुझ से प्रेम कर सकते हो तो शादी क्यों नहीं. प्रेम मांबाप से पूछ कर तो किया नहीं था. अगर वे हमारी शादी के लिए तैयार नहीं होते, तो शादी भी उन से बिना पूछे कर लो. आखिर हम बालिग हैं.’’

‘‘क्या बकवास कर रही हो, शादी कैसे कर सकते हैं?’’ वह झल्ला कर बोला, ‘‘अभी तो हम पढ़ रहे हैं. मांबाप से पूछे बगैर हम इतना बड़ा कदम कैसे उठा सकते हैं?’’

‘‘अच्छा, मांबाप से पूछे बगैर तुम जवान कुंआरी लड़की को बरगला सकते हो. उस को झूठे प्रेमजाल में फंसा सकते हो. शादी का झांसा दे कर उस की इज्जत लूट सकते हो. यह सब करने के लिए तुम बालिग हो परंतु शादी करने के लिए नहीं,’’ वह रोंआसी हो गई.

उसे मम्मी की बातें याद आ गईं. सच कहा था उन्होंने कि इस उम्र में लड़कियां अकसर बहक जाती हैं. लड़के उन को बरगला कर, झूठे सपनों की दुनिया में ले जा कर उन की इज्जत से खिलवाड़ करते हैं. शिवम भी तो उस के साथ यही कर रहा था. समय रहते उस की मम्मी ने उसे सचेत कर दिया था. वह बच गई. अगर थोड़ी देर होती तो एक न एक दिन शिवम उस की इज्जत जरूर लूट लेता. कहां तक अपने को बचाती. वह तो उस के लिए पागल थी.

शिवम इधरउधर ताक रहा था. अंकिता ने एक प्रयास और किया, ‘‘तुम अपने घर का पता और फोन नंबर दो. तुम्हारे मम्मीडैडी से पूछ तो लें कि वे इस रिश्ते के लिए राजी हैं या नहीं.’’

‘‘क्या शादीशादी की रट लगा रखी है,’’ वह दांत पीस कर बोला, ‘‘हम कालेज में पढ़ने के लिए आए हैं, शादी करने के लिए नहीं.’’

‘‘नहीं, प्यार करने के लिए…’’ अंकिता ने उस की नकल की. वह भी दांत पीस कर बोली, ‘‘तो चलो, नाचेगाएं और खुशियां मनाएं,’’ अब उस की आवाज में तल्खी आ गई थी, ‘‘कमीने कहीं के, तुम्हारे जैसे लड़कों की वजह से ही न जाने कितनी लड़कियां अपनी इज्जत बरबाद करती हैं. मैं ही

बेवकूफ थी, जो तुम्हारे फंदे में फंस गई. थू है तुम पर.. भाड़ में जाओ. सब कुछ खत्म हो गया. अब कभी मेरे सामने मत पड़ना. गैरत हो तो अपना काला मुंह ले कर मेरे सामने से चले जाओ.’’

उस दिन शाम को अंकिता जल्दी घर पहुंच गई. बहुत दिनों बाद ऐसा हुआ था. ऋचा और आदित्य ने भेदभरी नजरों से एकदूसरे की तरफ देखा. अंकिता चुपचाप अपने कमरे में चली गई थी. आदित्य ने ऋचा को इशारा किया. वह पीछेपीछे अंकिता के कमरे में पहुंची. आदित्य भी बाहर आ कर खड़े हो गए थे.

‘‘आज बहुत जल्दी आ गईं बेटी,’’ ऋचा अंकिता से पूछ रही थी.

‘‘हां मम्मी, आज मैं अपने मन का बोझ उतार कर आई हूं. बहुत हलका महसूस कर रही हूं,’’ फिर उस ने एकएक बात मम्मी को बता दी.

मम्मी ने उसे गले से लगा लिया. उसे पुचकारते हुए बोलीं, ‘‘बेटी, मुझे तुम पर गर्व है. तुम्हारी जैसी बेटी हर मांबाप को मिले.’’

‘‘मम्मी यह सब आप की समझदारी की वजह से हुआ है. समय रहते आप ने

मुझे संभाल लिया. मैं आप की बात समझ गई और पतन के गर्त में जाने से बच गई. आप थोड़ा सी देर और करतीं तो मेरी बरबादी हो चुकी होती. मैं आप से वादा करती हूं कि मन लगा कर पढ़ाई करूंगी. आप की नसीहत और मार्गदर्शन से एक अच्छी बेटी बन कर दिखाऊंगी.’’

‘‘हां बेटी, तुम्हारे सिवा हमारा और कौन है? तुम चली जातीं तो हमारे जीवन में क्या बचता?’’

‘‘मम्मी, ऐसा क्यों कह रही हैं? मैं आप के साथ हूं और भैयाभाभी भी तो हैं.’’

ऋचा ने अफसोस से कहा, ‘‘वे अब हमारे कहां रहे? हम ने एकदूसरे को नहीं समझा और वे हम से दूर हो गए.’’

‘‘ऐसा नहीं है मम्मी, वे पहले भी हमारे थे और आज भी हमारे हैं.’’

‘‘ये क्या कह रही हो तुम?’’

‘‘मम्मी, मैं आप को राज की बात बताती हूं. भैया और भाभी से मैं रोज बात करती हूं. भाभी खुद फोन करती हैं. मैं ने उन्हें देखा नहीं है परंतु वे बातें बहुत प्यारी करती हैं. वे हम सब को देखना चाहती हैं. भैया तो एक दिन भी बिना मुझ से बात किए नहीं रह सकते. वे और भाभी यहां आना चाहते हैं लेकिन डैडी से डरते हैं, इसीलिए नहीं आते. मम्मी, आप एक बार…सिर्फ एक बार उन से कह दो कि आप ने उन्हें माफ किया, वे दौड़ते हुए आएंगे.’’

‘‘सच…’’ ऋचा ने उसे अपने सीने से लगा लिया, ‘‘बेटी, आज तू ने मुझे दोगुनी खुशी दी है,’’ वह खुशी से विह्वल हुई जा रही थी.

‘‘हां, मम्मी, आप उन्हें फोन तो करो,’’ अंकिता चहक रही थी, ‘‘मैं भाभी से मिलना चाहती हूं.’’

‘‘अभी करती हूं. पहले उन को बता दूं. सुन कर वे भी खुशी से पागल हो जाएंगे. हम लोगों ने न जाने कितनी बार उन को बुलाने के बारे में सोचा. बस हठधर्मिता में पड़े रहे. बेटे के सामने झुकना नहीं चाहते थे परंतु आज हम बेटे के लिए और उस की खुशी के लिए छोटे बन जाएंगे. उसे फोन करेंगे.’’

वह बाहर जाने के लिए मुड़ी. कमरे के बाहर खड़े आदित्य अपनी आंखों से आंसू पोंछ रहे थे. आज उन्हें खोई हुई खुशी मिल रही थी. बेटी भी वापस अंधेरी गलियों में भटकने से बच गई थी. वह सहीसलामत घर लौट आई थी. बेटा भी मिल गया था. आज उन की हठधर्मिता टूट गई थी. उन्हें अपनी गलती का एहसास हो चुका था.

ऋचा ने आदित्य को बाहर खड़े देखा. वे समझ गईं कि अब कुछ कहने की जरूरत नहीं थी. वे सब सुन चुके थे. उन के पास जा कर भरे गले से बोली, ‘‘चलिए, बेटे को फोन कर दें और बहू के स्वागत की तैयारी

करें. आज हमें दोगुनी खुशी मिल रही है.

ऐसा लग रहा है, जैसे घोंसले के पंछी वापस आ गए हैं. अब हमारा आशियाना वीरान

नहीं रहेगा.’’

‘‘हां, ऋचा,’’ आदित्य ने उसे बांहों के घेरे में लेते हुए कहा, ‘‘घोंसले के पंछी घोंसले में ही रहते हैं, डाल पर नहीं. प्रतीक को वापस आना ही था. हमारी बगिया के फूल यों ही हंसतेमुसकराते रहें. उन की सुगंध चारों ओर फैले और वे अपनी महक से सब के जीवन को गुलजार कर दे.

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रूपमती: क्या हुआ था उसके साथ

सप्ताहभर की मूसलाधार बारिश के बाद आज बादलों के कतरे नीले आसमान में तैरने लगे थे. कुनकुनी धूप से छत नहा उठी थी. सड़क पर जगहजगह गड्ढे पड़ गए थे और बरसाती पानी से नाले लबालब भर गए थे.

वातावरण में नमी इस कदर थी कि गीले वस्त्र सूखने का नाम न लेते. कमरों के भीतर तक नमी पैठ गई थी. सीलन की अजीब सी गंध बेचैन कर रही थी. ऐसी गंध मुझे नापसंद थी. उपयुक्त समय जान कर मैं ने ढेर सारे कपड़े छत पर फैला दिए. पहाड़ी से ले कर समूचा कसबा चांदी सी चमकदार धूप से नहा उठा था. पेड़पौधों पर कुदरती गहरा हरा रंग चढ़ चुका था.

मुझे ज्ञात नहीं कब हमारे पूर्वज यहां आ कर बस गए. पहाड़ी की तलहटी में बसा यह कसबा लाजवाब है. कसबे से सट कर नदी बहती है. दूसरी तरफ हरेभरे जंगल बरबस नजरें खींच लेते हैं. मेरा बचपन इसी कसबे में बीता. विवाह के बाद अपने पति रामबहादुर के साथ अलग मकान में रहने लगी. कुछ ही दूरी पर मेरा मायका है. मांबाप, भाईबहन सभी हैं. अब हम 3 जने हैं. हम दोनों और हमारा 4 साल का बेटा दीपक. पड़ोसी मुझे धन्नो के नाम से जानते हैं.

मैं ने इतमीनान से सांस ली, फिर चारों तरफ नजर दौड़ाई. ठीक सामने खंडहर की ओर देखा तो एक अजीब सिहरन बदन में कौंध गई. खंडहर के मलबे से झांकते मटमैले पत्थरों से मुझे सहानुभूति सी होने लगी. पत्थर खालिस पत्थर ही नहीं थे बल्कि मूकदृष्टा और राजदार थे एक दर्द भरी कहानी के. मैं जिस की धुरी में प्रत्यक्ष मात्र बन कर रह गई थी. मेरी आंखों के आगे वह कहानी बादल के टुकड़े की तरह फैलती चली गई.

खंडहर में कभी दोमंजिला मकान हुआ करता था. पत्थरों का मकान था लेकिन इस में बाहर से सीमेंट की मोटी तह चढ़ी थी. मकान की सीढि़यां सड़क से सटी थीं और उस का प्लास्टर कई जगहों से नदारद था. पत्थरों से रेत तक भुरभुरा कर उतर गई थी. दीवार के पत्थर बिना मसूड़े के भद्दे दांतों जैसे दिखाई देते थे. ऐसा लगता था कि मकान अब गिरा कि तब गिरा. इस की अघोषित मालकिन रूपमती जीवट की थी. वह सुबहसवेरे अपने दैनिक काम निबटा कर लकड़ी के तख्तों वाले छज्जे पर बैठ जाती. वहीं से आनेजाने वालों पर अपनी नजर गड़ाए रहती. इधर मैं थी और सड़क के उस पार रूपमती. दोनों मकानों के बीच में यदि कोई था तो वह थी 15 फुट चौड़ी पक्की सड़क.

लोग कहा करते कि भरी जवानी में वह सचमुच की रूपमती थी. गोरीचिट्टी, सेब जैसे लाल गाल, मोटीमोटी आंखें, नितंबों तक झूलते हुए बाल और मदमस्त करने वाली चाल. रूपमती को देख कर मनचलों के होश फाख्ता हो जाते. दिनभर तितली बनी फिरती थी वह. तभी तो नदी पार गांव के बिरजू की आंखें जो उस पर अटकीं, शादी के बाद ही हटीं.

बिरजू था तो हट्टाकट्टा लेकिन एक सड़क हादसे में रूपमती को भरपूर जवानी में अकेला छोड़ गया. उस की बसीबसाई दुनिया में भूचाल आ गया. छोटा बच्चा गोद में था. पेट की आग से व्याकुल हो गई थी रूपमती. कमाई का कोई जरिया न था. हार मान कर उस ने जिस्म को भूखे दरिंदों के आगे डाल दिया.

दलदल इतना गहरा कि वह कभी बाहर निकल ही नहीं पाई. मजबूरन वह एक नई रूपमती बन गई. उस के स्वभाव और व्यवहार में निरंतर बदलाव आता चला गया. कितने ही इज्जतदार उस के आगे नतमस्तक हो गए. और तो और, कुछ वरदी वाले भी रूपमती के घर पर हाजिरी देने से नहीं चूकते. मजाल क्या थी कि कसबे में कोई उस से उलझे या आंखें डाल कर बतियाए. वरदी वाले रूपमती की पैरवी में आगे आते. जुर्रत करने वालों को थाने ले जाने में वह कोरकसर न छोड़ती.

रूपमती का लड़का था, मनोहर. दुबलापतला और डरपोक. अबोध अवस्था तक घर में रहा और जब वह समझदार हुआ तो हालात से घबरा गया. प्रताड़ना और अपमान से आहत एक दिन उस ने घर ही छोड़ दिया. रूपमती लोगों के सामने झूठे को ही आंसू बहाती रही. दरअसल, रूपमती यही चाहती थी, खुली आजादी.

रात गहराती और रूपमती सजधज कर छज्जे पर बैठ जाती. ग्राहक आने लगते, एक के बाद एक. वे उस ऊबड़खाबड़, उधड़ी हुई सीढि़यों पर चपलता से चढ़तेउतरते.

दिन में वे लोग कभी इस तरफ नहीं निकलते जिन्हें समाज का डर होता. किसी को रूपमती देख लेती तो उसे झक मार कर बतियाना पड़ता. कौन जाने कब रूपमती दुखती रग पर हाथ रख दे. डर बला ही ऐसी है लेकिन अंधेरे में समाज की किसे परवा? मुझे यह सब देखसुन कर उबकाई सी होने लगती. इस माहौल से ऊब गई थी मैं.

2-3 साल बीते. मनोहर यदाकदा घर आने लगा. जब आता उस दिन रूपमती के घर की सीढि़यां सूनी पड़ी रहतीं. शायद मनोहर ने दुनिया देख ली थी. उस की बातों से रूपमती आपा खो देती और मारपीट पर आमादा हो जाती. मनोहर उसी दिन चला जाता. वह शहर में गुजारे भर का पैसा कमाने लगा था. जाते वक्त कभी कुछ रुपए मां के सिरहाने रख देता. वैसे रूपमती को उस के पैसों की जरूरत नहीं थी. बहुत रुपया कमा चुकी थी वह. ऐसे धंधे में हानि का प्रश्न ही नहीं था.

इस तरह कई वसंत आए, कई गए. लेकिन रूपमती के लिए दिन, महीने, साल घाटे के साबित होने लगे. वह 50 की उम्र पार कर गई थी. धंधे की आंच ठंडी पड़ गई थी. शरीर थुलथुला हो गया था, चेहरे पर झुर्रियां गहरा गई थीं. छोटेबड़े रूपमती को ताई कह कर पुकारने लगे थे. रूपमती को इस में कुछ भी अजीब नहीं लगता. वक्त हालात से साक्षात्कार करा ही देता है.

शायद उसे भी एहसास होने लगा था. समय रहते ही रूपमती ने कमाई का नया जरिया ढूंढ़ लिया. लोग कहने लगे कि उस पर कोई देवी आती है. देवी सच बताती है. मुसीबतों से त्रस्त अंधविश्वासी उस के घर आते. किसी का लड़का बीमार है, किसी पर प्रेत की छाया है तो किसी पर जादूटोना. रूपमती झूमझूम कर देवी को बुलाती और उपाय बताती.

रूपमती की बातों पर यकीन करने वाले बहुत होते. औरतमर्द, सभी तबके के. आमदनी अच्छी हो जाती. दिन निकलने से ले कर देर रात तक उस पर कथित देवी सवार रहती. कमरे से धूप, अगरबत्ती की महक उठउठ कर आसपास तक महसूस होती.
उस का व्यवहार भी अब विरोधाभासी हो चला था. कभी कर्कश बैन बोलती, कभी बड़े लाड़ से मुझ से बतियाती. मैं हैरान रह जाती.

कभीकभार रूपमती कसबे से बाहर चली जाती और कुछ दिनों के बाद लौटती. अब लोगों की रूपमती में कोई खास दिलचस्पी नहीं रह गई थी.
एक दिन वह अपने साथ एक तलाकशुदा औरत को ले आई. शांता नाम की यह औरत थी भी बला की सुंदर. नैननक्श इतने कटीले कि बरबस नजरें खींच लें. चालचलन उस का भी ठीक न था. रूपमती को उस के लिए ग्राहक ढूंढ़ने में ज्यादा मशक्कत नहीं हुई. रूपमती के पुराने दिन लौट आए. दोनों की दुकान एक ही छत के नीचे चल पड़ी, अगले भाग में रूपमती और पिछले भाग में शांता. निचले हिस्से में रूपमती ने लोहे का बड़ा सा ताला लगा दिया था.

पलक झपकते ही मेरे जैसे पड़ोसियों के अशांति भरे दिन लौट आए. एक तरफ रूपमती की अजीबोगरीब आवाजें, दूसरी तरफ रात घिरते ही लोगों का देर रात तक आनाजाना और उन की फुसफुसाहटें.

उस दिन रातभर ओस गिरती रही. रूपमती के मकान की छत पर टिन की चादरें पड़ी थीं. सुबह होते ही मकान की छत से ओस बूंदों की शक्ल में नीचे गिरने लगी थी. रूपमती रोज की तरह छज्जे पर आ कर बैठ गई.

मैं भी नहा कर छत पर गई. हवा में ठंडक थी. सूरज पहाड़ी के ऊपर चढ़ आया था. मैं बाल काढ़तेकाढ़ते छत की मुंडेर तक गई. सड़क पर लोग आजा रहे थे. मैं सड़क की ओर घूमी. मेरी नजर सड़क पर जा रहे युवक पर पड़ी और उस युवक का पीछा करने लगी. सामान्य सी बात थी लेकिन रूपमती को तुरुप का पत्ता हाथ लग गया था. रूपमती स्वभाववश मेरी गतिविधियों पर नजर गड़ाए थी. ऐसा सुअवसर भला वह हाथ से क्यों जाने देती. रूपमती बिना विलंब किए बरस पड़ी, ‘ब्याहता हो कर शर्म नहीं आती तुझे, लौंडे को ऐसे क्या घूरघूर कर देख रही है?’

मैं सकपका गई थी. हाथ जहां के तहां रुक गए. मुझे उस का इस तरह टोकना नागवार लगा, सो ऊंचे स्वर में बोली, ‘देखना क्या जुर्म है? अरे आंख मेरी है, जहां जी करे देखूंगी, तुझे क्यों आग लगती है?’

करारा प्रत्युत्तर मिला तो रूपमती एक क्षण के लिए अवाक् रह गई थी. उसी क्षण रूपमती के माथे पर बल पड़ गए. आंखें अंगारे बरसाने लगीं, ‘चकलाघर खोल दे. फिर जो जी में आए कर. मुझे क्या करना.’

‘जरा जबान संभाल कर बोल, पाखंडी. यहां तेरा चकलाघर कम है क्या. तेरी तरह गिरी हुई नहीं हूं मैं, समझी,’ मैं ने अपनी बात कमतर न होने दी.

रूपमती के मर्म में चोट लगी. वह हाथ मटकाते हुए चीखी, ‘हांहां, तू तो बड़ी सती सावित्री है.’

उस समय मेरे जी में आया कि ईंट मार कर रूपमती का सिर फोड़ दूं. फिर यही सोच कर चुप हो गई कि वाहियात औरत के मुंह लगने से क्या लाभ. आसमान पर थूका मुंह पर ही आता है.

मैं ने यह भी सुना था कि रूपमती टोटके करना भी जानती है, न जाने कब क्या उलटासीधा कर दे? हंसतीखेलती गृहस्थी है, कहीं इस चुड़ैल की नजर लग गई तो…मैं चुपचाप हथियार डाल बैठ गई.

रूपमती को कसबे की विभिन्न गतिविधियों के रिकौर्ड रखने में दिलचस्पी थी. इधरउधर ताकाझांकी करना, दूसरों पर कटाक्ष करना और दूसरों को बिना पूछे सीख देना, दिनभर यही करती थी वह. ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’, रूपमती के लिए यह कहावत ठीक थी. रूपमती बहुत समय तक बड़बड़ाती रही. मैं छत पर रह न पाई और खुले बाल ही जीने से उतर गई.

मैं मन ही मन झुंझलाती रही. रामबहादुर बड़ा हठीला था, मेरे लाख कहने पर भी उस ने मकान नहीं बदला. बहुत पीछे पड़ती तो यही कहता, ‘पगला गई है क्या? ठेकेदार भला आदमी है, कभी किराए के लिए तंग नहीं करता. फिर 800 रुपए में 2 कमरे कौन देगा?’

मकान भी पक्का, छत भी पक्की. मकान का मालिक सरकारी ठेकेदार है जो शहर में रहता है. इस मकान में 2 कमरे हैं हमारे पास. पिछले हिस्से में ठेकेदार का गोदाम है जिस में सीमेंट, कुदालें, फावड़े, सब्बल आदि औजार भरे पड़े हैं. रामबहादुर मेहनती होने के साथ ठेकेदार का विश्वासपात्र मुंशी है. मजदूरों को इकट्ठा करना, राशन खरीदना और मजदूरों को काम पर ले जाना उस की ड्यूटी थी.

मैं दिनभर अकेली रहती सिलाईबुनाई का शौक था. पासपड़ोस से सूट सिलने को मिल जाते. कभीकभी मायके चली जाती. वैसे मैं अपने पति की विवशता को भलीभांति समझती थी लेकिन इस औरत से पीछा कैसे छूटे, समझ से परे था. रामबहादुर ठीकठाक कमाता लेकिन उसे नशे की लत भी थी. जब कभी रूपमती दिखाई पड़ जाती तो उसे सांप सूंघ जाता. यह औरत न होती तो यहां सब ठीक था. रूपमती को देखते ही उस के हाड़ के भीतर कंपकंपी होने लगती. सुबह देखो तब, शाम को देखो तब, उस का ही थोबड़ा आंखों के सामने आ जाता.

एक दिन रूपमती ने एक युवती पर ही फब्ती कस दी थी. वह मिनी स्कर्ट और ऊंची एड़ी की सैंडल पहने थी. उसे जाते देख रूपमती ने बुरा सा मुंह बनाया. हाथ के साथ आंखें मटकाते हुए वह ऊपर से ही बोली, ‘हायहाय, क्या अकेले इसी को जवानी चढ़ी है. फैशन देखो तो फिल्म स्टार भी झक मारें.’

रूपमती को कौन समझाता कि जवानी में फैशन न करें तो कब करें? उसे टोकने की हिम्मत कोई नहीं जुटा पाता. न औरत न मर्द. औरतें क्या कहतीं जब मर्द चूडि़यां पहन कर बैठ गए थे.
यह खंडहर जब तक आबाद था, रूपमती उस में बरसों रही. मकान दीनदयाल नाम के व्यवसायी का था. वह आज भी मिठाई की दुकान चलाता है. नकली मिठाई के धंधे में पिछले साल सजा भी काट चुका है. उस ने कई बार रूपमती को प्रलोभन दिया कि वह मकान ठीक कर उसे ही देगा लेकिन वह टस से मस नहीं हुई. किराया देना भी कई साल पहले बंद हो गया था. एक तरह से रूपमती का मकान पर कब्जा बरकरार रहा. मकान की हालत दयनीय होती जा रही थी. दीवारें कई जगहों से फूल कर एक ओर झुकने लगी थीं और टिन की छत ने भी भीतर झांकना शुरू कर दिया था. लेकिन रूपमती इन सब से बेफिक्र थी.

इस मकान में जो भी रहा, फलताफूलता रहा. जिस ने इसे बनाया, देखते ही देखते वह धनी हो गया. जब मकान दीनदयाल के नाम हुआ तो उस ने एक अलग कोठी खड़ी कर ली. उस ने यह मकान रूपमती के परिवार को किराए पर दे दिया. रूपमती भी मालामाल हो गई लेकिन यह मकान सेठ की गलफांस बन गया.

सबकुछ होते हुए भी सेठ को हरदम पुलिस का खौफ रहता. जब वह तकाजे के लिए आता, रूपमती उसे खदेड़ देती और गला फाड़फाड़ कर चिल्लाती, ‘‘रांड़ औरत हूं, इसलिए तू धमक जाता है इधर. अरे, देखती हूं कौन मर्द का बच्चा मुझ से मकान खाली करवाता है.’’

खाली समय में रूपमती छज्जे पर बैठ जाती थी. आनेजाने वालों को बैठेबैठे बिना पूछे नसीहतें दे डालती. कुछ लोग उस के गालीपुराण के डर से बतियाते तो कुछ देवी प्रकोप से. कभी उस की खूबसूरती खींचती थी लेकिन धीरेधीरे वह आंखों की किरकिरी बन गई.

रातरात तक रूपमती की किलकारियां, कभी विद्रूप सी हंसी सुनाई देती. रूपमती की किलकारी से दीपू घबरा जाता. रात घिरते ही वह मेरे वक्ष से चिपक कर पूछने लगता, ‘मां, ताई क्यों चिल्लाईं?’

मैं उसे लाड़ से समझाती, ‘बेटा, ताई पर देवी आई है.’

‘देवी ऐसे चिल्लाती है, मम्मी?’ बच्चा जिज्ञासा से पूछता.

मैं भला क्या समझाती? लेकिन मेरा समझदार पति अलग राय रखता. जब नशा टूटने को होता तब वह मुझे समझाता, ‘मूर्ख है तू. ऐसी वाहियात औरत पर ही देवी क्यों आती है? तू तो भली औरत है, तुझ पर क्यों नहीं आती देवी, बोल? अरे धूर्त है धूर्त, एक नंबर की पाखंडी.’

मैं घबरा जाती और कहती, ‘देवी कुपित हो जाएगी, ऐसी बात मुंह से न निकालो. देवी ही तो बुलवाती है उस से.’

रामबहादुर ठठा कर हंस देता और मेरा शरीर पत्ते सा कांप जाता. आंखों में भय के बेतरतीब डोरे फैल जाते. मैं मतिभ्रष्ट पति की ओर से हजारों बार देवी से हाथ जोड़ कर क्षमा मांग चुकी थी. क्या करती, धर्मभीरु स्वभाव की जो थी.

एक दिन पड़ोस की औरतों ने बताया कि कुछ लोग रूपमती को ले कर गुस्से में थे. कोई उसे खदेड़ने की बात कह रहा था तो कोई सामाजिक बहिष्कार करने की. तब मुझे रोज की इस चखचख, शोरशराबे से छुटकारा मिलने की उम्मीद जगी.

वह अमावस की रात थी, घुप अंधेरा था. आधी रात तक रूपमती पर कथित देवी सवार रही. रुकरुक कर चीखनेचिल्लाने की आवाजें बाहर सुनाई दे रही थीं. इतने शोरशराबे में न मैं सो पा रही थी न दीपू, जबकि थकामांदा रामबहादुर खर्राटे ले रहा था.

अगली सुबह मैं ने सुना कि रूपमती लापता है. कई दिनों तक वापस नहीं आई. रूपमती को ले कर लोगों के बीच कानाफूसी होने लगी. फिर एक दिन मैं ने देखा, रूपमती के घर के नीचे लोगों की भीड़ थी. पुलिस आई थी. ताला खोला गया. सामान यथावत था. 2 पलंग, पुराना टैलीविजन, खस्ताहाल फ्रिज, टेबलफैन और एक कोने में सिंदूर पुती देवीदेवताओं की तसवीरें. रसोई के बरतन, स्टोव सभी मौजूद थे. जो नहीं था, वह थी रूपमती. कमरे में मारपीट के चिह्न भी कहीं नजर नहीं आए जिस से लगे कि रूपमती के साथ कुछ बुरा घटित हुआ हो. तहकीकात के बाद पुलिस चली गई. भीड़ भी धीरेधीरे खिसक गई. कुछ दिन रहने के बाद शांता भी उस मकान को छोड़ कर कहीं चली गई.

पुलिस को रूपमती का सुराग न मिला. अफवाहों का बाजार गर्म था. कोई कहता, ‘रूपमती ने साध्वी का रूप धारण कर लिया है.’ कोई कहता, ‘रूपमती ने आत्महत्या कर ली है, किसी ने उस की हत्या कर के लाश नदी में डुबो दी है.’ जितने मुंह उतनी बातें.

रूपमती को गुम हुए 10 महीने बीत गए थे. मनोहर मां को ढूंढ़ता फिरता रहा. एक बार जब वह इधर आया तब मुझ से भी मिला. मां के बारे में पूछा. मैं ने असमर्थता जताई तो वह निराश हो कर चला गया. एक दिन पुलिस थाने से उसे खबर मिली कि उस की मां शहर के सरकारी अस्पताल में बीमार हालत में है. वह दौड़ादौड़ा अस्पताल गया लेकिन वहां हाथ कुछ नहीं आया. खबर पुरानी थी. वह अस्पताल के स्टाफ से मिला. डाक्टरों के आगे गिड़गिड़ाया. तब कहीं जा कर रिपोर्ट निकलवाई गई. फाइलों से पता चला कि उस की मां ‘एड्स’ नामक लाइलाज बीमारी से पीडि़त थी. अंत समय में उस के पास कोई अपना न था. आखिरकार एक दिन वह हाड़मांस का पिंजरा छोड़ गई. उस के बाद लावारिस लाश समझ कर रूपमती की अंत्येष्टि कर दी गई.

रूपमती फिर कभी मकान में नहीं लौटी. दूसरों का भविष्य बताने वाली अपने भविष्य से अनभिज्ञ रही. कसबे वाले चैन की बंसी बजाने लगे थे. कभीकभी मुझे लगता जैसे मैं किसी एकांत जगह में आ गई हूं.

उधर, मनोहर को मां की मौत का दुख था. जिस दिन आया तो मां की बचीखुची धरोहर को कमरे से बाहर निकालते हुए दहाड़ें मारमार कर रोया. उस की आंखें रोरो कर सूज गई थीं.

मां की संवेदनहीनता भले ही मनोहर के साथ रही हो, किंतु कहीं न कहीं रूपमती के हृदय में ममता का स्थान अवश्य ही रहा होगा. मैं सोचती रही.

मनोहर ने फिर कसबे की ओर मुंह नहीं किया. जहां उसे कदमकदम पर संत्रास मिला, दुत्कार मिली, ऐसे स्थान पर जा कर वह अपने जख्मों को क्यों हरा करता?
समय अपनी रफ्तार से आगे दौड़ा. अषाढ़ के महीने में मूसलाधार बरसात हुई. ऐसी बरसात कि मजबूत चट्टानें खिसक गईं, नदी ने मुहाने बदल दिए. और तो और, वह मकान भी ढह गया जिस में कभी रूपमती का बसेरा था.

आज भी मकान के खंडहर को देख कर रूपमती की अभिशप्त कहानी मेरे जेहन में सिहरन पैदा कर देती है. ऐसा प्रतीत होता है मानो रूपमती खंडहर से बाहर आ कर ललकार रही है उस समाज को, विधि के विधान को जिस ने एक औरत को ही इस अपराध का समूचा उत्तरदायी मानते हुए सजाएमौत मुकर्रर की और पुरुष प्रधान समाज को बाइज्जत बरी. तब मेरे हृदय में रूपमती के लिए सहानुभूति और करुणा के भाव उभरने लगे.

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घोंसले के पंछी- भाग 2: क्या मिल पाए आदित्य और ऋचा

प्रतीक हंसा, ‘‘मम्मी, यह मेरा आज का फैसला नहीं है. पिछले 3 सालों से हम दोनों का यही फैसला है. अब यह बदलने वाला नहीं. आप अपने बारे में बताएं. आप हमारी शादी करवाएंगे या हम स्वयं कर लें.’’

किसी ने प्रतीक की बात का जवाब नहीं दिया. वे अचंभित, भौचक और ठगे से बैठे थे. वे सभ्य समाज के लोग थे. लड़ाईझगड़ा कर नहीं सकते थे. बातों के माध्यम से मामले को सुलझाने की कोशिश की परंतु वे दोनों न तो प्रतीक को मना पाए, न प्रतीक के निर्णय से सहमत हो पाए. प्रतीक अगले दिन बेंगलूरु चला गया. बाद में पता चला, उस ने न्यायालय के माध्यम से अपनी प्रेमिका से शादी कर ली थी.

वे दोनों जानते थे कि प्रतीक ने भले अपनी मरजी से शादी की थी. परंतु वह उन के मन से दूर नहीं हुआ था. बस उन का अपना हठ था. उस हठ के चलते अभी तक बेटे से संपर्क नहीं किया था. बेटे ने पहले एकदो बार फोन किया था. आदित्य और ऋचा ने उस से बात की थी, हालचाल भी पूछा परंतु उस को दिल्ली आने के लिए कभी नहीं कहा. फिर बेटे ने उन को फोन करना बंद कर दिया.

अब शायद वह हठ टूटने वाला था. अंकिता के साथ वह पहले वाली गलती नहीं दोहराना चाहते थे.

आदित्य ने शांत भाव से कहा, ‘‘ऋचा, हमें बहुत समझदारी से काम लेना होगा. लड़की का मामला है. प्रेम के मामले में लड़कियां बहुत नासमझी और भावुकता से काम लेती हैं. अगर उन्हें लगता है कि मांबाप उन के प्रेम का विरोध कर रहे हैं, तो बहुत गलत कदम उठा लेती हैं. या तो वे घर से भाग जाती हैं या आत्महत्या कर लेती हैं. हमें ध्यान रखना है कि अंकिता ऐसा कोई कदम न उठा ले.’’

ऋचा बेचैन हो गई, ‘‘क्या करें हम?’’

‘‘कुछ करने की आवश्यकता नहीं है, बस उस से बात करो. उस की सारी बातें ध्यान से सुनो. उस के मन को समझने का प्रयास करो. शायद हम उस की मदद कर सकें. अगर वह समझ गई तो बहकने से बच जाएगी. उस के पैर गलत रास्ते पर नहीं पड़ेंगे. ये रास्ते बहुत चिकने होते हैं. फिसलने में देर नहीं लगती.’’

‘‘ठीक है,’’ ऋचा ने आश्वस्त हो कर कहा.

ऋचा ने देर नहीं की. जल्दी ही मौका निकाला. अंकिता से बात की. वह अपने कमरे में थी. ऋचा ने कमरे में घुसते ही पूछा, ‘‘बेटा, क्या कर रही हो?’’

अंकिता हड़बड़ा कर खड़ी हो गई. वह बिस्तर पर लेटी मोबाइल पर किसी से बातें कर रही थी. अंकिता के चेहरे के भाव बता रहे थे, जैसे वह चोरी करते हुए पकड़ी गई थी. ऋचा सब समझ गई, परंतु उस ने धैर्य से कहा, ‘‘बेटा, तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है?’’

अंकिता बी.ए. के दूसरे साल में थी.

‘‘ठीकठाक चल रही है,’’ अंकिता ने अपने को संभालते हुए कहा. उस की आंखें फर्श की तरफ थीं.

वह मां की तरफ देखने का साहस नहीं जुटा पा रही थी.

अंकिता जिन मनोभावों से गुजर रही थी, ऋचा समझ सकती थी. उस ने बेटी को पलंग पर बैठाते हुए कहा, ‘‘बैठो और मेरी बात ध्यान से सुनो.’’

वह भी बेटी के साथ पलंग पर एक किनारे बैठ गई. उसे लग रहा था किसी लागलपेट की जरूरत नहीं, मुझे सीधे मुद्दे पर आना होगा.

अंकिता का हृदय तेजी से धड़क रहा था. पता नहीं क्या होने वाला था? मम्मी क्या कहेंगी उस से? उस की कुछ समझ में नहीं आ रहा था परंतु उस के मन में अपराधबोध था. मम्मी ने उसे फोन करते हुए देख लिया था.

ऋचा ने सीधे वार किया, ‘‘बेटी, मैं तुम्हारी मनोदशा समझ रही हूं. मैं तुम्हारी मां हूं. इस उम्र में सब को प्रेम होता है,’’ प्रेम शब्द पर ऋचा ने अधिक जोर दिया, ‘‘तुम्हारे साथ कुछ नया नहीं हो रहा है. परंतु बेटी, इस उम्र में लड़कियां अकसर बहक जाती हैं. लड़के उन को बरगला कर, झूठे सपनों की दुनिया में ले जा कर उन की इज्जत से खिलवाड़ करते हैं. बाद में लड़कियों के पास बदनामी के सिवा कुछ नहीं बचता. वे बदनामी का दाग ले कर जीती हैं और मन ही मन घुलती रहती हैं.’’

अंकिता का दिल और जोर से धड़क उठा.

‘‘बेटी, अगर तुम्हारे साथ ऐसा कुछ हो रहा है, तो हमें बताओ. हम नहीं चाहते तुम्हारे कदम गलत रास्ते पर पड़ें. तुम नासमझी में कुछ ऐसा न कर बैठो, जो तुम्हारी बदनामी का सबब बने. अभी तुम्हारी पढ़ाई की उम्र है लेकिन यदि तुम्हारे साथ प्रेम जैसा कोई चक्कर है, तो हम शादी के बारे में भी सोच सकते हैं. तुम खुल कर बताओ, क्या वह लड़का तुम्हारे साथ शादी करना चाहता है? वह तुम को ले कर गंभीर है या बस खिलवाड़ करना चाहता है.’’

अंकिता सोचने लगी पर उस के मन में दुविधा और शंका के बादल मंडरा रहे थे.

बताए या न बताए. मम्मी उस के मन की बात जान गई हैं. कहां तक छिपाएगी? नहीं बताएगी तो उस पर प्रतिबंध लगेंगे. उस ने आगे आने वाली मुसीबतों के बारे में सोचा. उसे लगा कि मां जब इतने प्यार और सहानुभूति से पूछ रही हैं, तो उन को सब कुछ बता देना ही उचित होगा.

अंकिता खुल गई और धीरेधीरे उस ने मम्मी को सारी बातें बता दीं. गनीमत थी कि अभी तक अंकिता ने अपना कौमार्य बचा कर रखा था. लड़के ने कोशिश बहुत की थी, परंतु वह उस के साथ होटल जाने को तैयार नहीं हुई. डर गई थी, इसलिए बच गई. मम्मी ने इतमीनान की गहरी सांस ली और बेटी को सांत्वना दी कि वह सब कुछ ठीक कर देंगी. अगर लड़का तथा उस के घर वाले राजी हुए तो इसी साल उस की शादी कर देंगे.

अंकिता ने बताया था कि वह अपने साथ पढ़ने वाले एक लड़के के साथ प्यार करती है. उस के घरपरिवार के बारे में वह बहुत कम जानती है. वे दोनों बस प्यार के सुनहरे सपने देख रहे हैं. बिना पंखों के हवा में उड़ रहे थे. भविष्य के बारे में अनजान थे. प्रेम की परिणति क्या होगी, इस के बारे में सोचा तक नहीं था. वे बस एकदूसरे के प्रति आसक्त थे. यह शारीरिक आकर्षण था, जिस के कारण लड़कियां अवांछित विपदाओं का शिकार होती हैं.

ऋचा ने आदित्य को सब कुछ बताया. मामला सचमुच गंभीर था. अंकिता अभी नासमझ थी. उस के विचारों में परिपक्वता नहीं थी. उस की उम्र अभी 20 साल थी. वह लड़का भी इतनी ही उम्र का होगा. दोनों का कोई भविष्य नहीं था. वे दोनों बरबादी की तरफ बढ़ रहे थे. उन्हें संभालना होगा.

स्थिति गंभीर थी. ऋचा और आदित्य का चिंतित होना स्वाभाविक था. परंतु ऋचा और आदित्य को कुछ नहीं करना पड़ा. मामला अपनेआप सुलझ गया. संयोग उन का साथ दे रहा था. समय रहते अंकिता को अक्ल आ गई थी. उस की मम्मी की बातों का उस पर ठीक असर हुआ था.

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घोंसले के पंछी- भाग 1: क्या मिल पाए आदित्य और ऋचा

आदित्य गुमसुम से खड़े थे. पत्नी की बात पर उन्हें विश्वास नहीं हुआ. वे शब्दों पर जोर देते हुए बोले, ‘‘क्या तुम सच कह रही हो ऋचा?’’

‘‘पहले मुझे विश्वास नहीं था लेकिन मैं एक नारी हूं, जिस उम्र से अंकिता गुजर रही है उस उम्र से मैं भी गुजर चुकी हूं. उस के रंगढंग देख कर मैं समझ गई हूं कि दाल में कुछ काला है.’’

आदित्य की आंखों में एक सवाल था, ‘वह कैसे?’

ऋचा उन की आंखों की भाषा समझ गई. बोली, ‘‘सुबह घर से जल्दी निकलती है, शाम को देर से घर आती है. पूछने पर बताया कि टाइपिंग क्लास जौइन कर ली है. इस की उसे जरूरत नहीं है. उस ने इस बारे में हम से पूछा भी नहीं था. घर में भी अकेले रहना पसंद करती है, गुमसुम सी रहती है. जब देखो, अपना मोबाइल लिए कमरे में बंद रहती है.’’

‘‘उस से बात की?’’

‘‘अभी नहीं, पहले आप को बताना उचित समझा. लड़की का मामला है. जल्दबाजी में मामला बिगड़ सकता है. एक लड़का हम खो चुके हैं, अब लड़की को खो देने का मतलब है पूरे संसार को खो देना.’’

आदित्य विचारों के समुद्र में गोता लगाने लगे. यह कैसी हवा चली है. बच्चे अपने मांबाप के साए से दूर होते जा रहे हैं. वयस्क होते ही प्यार की डगर पर चल पड़ते हैं, फिर मांबाप की मरजी के बगैर शादी कर लेते हैं. जैसे चिडि़या का बच्चा पंख निकलते ही अपने जन्मदाता से दूर चला जाता है, अपने घोंसले में कभी लौट कर नहीं आता, उसी प्रकार आज की पीढ़ी के लड़के तथा लड़कियां युवा होने से पहले ही प्यार के संसार में डूब जाते हैं. अपनी मरजी से शादी करते हैं और अपना घर बसा कर मांबाप से दूर चले जाते हैं.

आदित्य और ऋचा के एकलौते पुत्र ने भी यही किया था. आज वे दोनों अपने बेटे से दूर थे और बेटा उन की खोजखबर नहीं लेता था. इस में गलती किस की थी? आदित्य की, उन की पत्नी की या उन के बेटे की कहना मुश्किल था.

आदित्य ने पहले ध्यान नहीं दिया था, इस के बारे में सोचा तक नहीं था परंतु आज जब उन की एकलौती बेटी भी किसी के प्यार में रंग चुकी है, किसी के सपनों में खोई है, तो वे विगत और आगत का विश्लेषण करने पर विवश हैं.

प्रतीक एम.बी.ए. कर चुका था. बेंगलूरु की एक बड़ी कंपनी में मैनेजर था. एम.बी.ए. करते समय ही उस का एक लड़की से प्रेम हुआ था. तब तक उस ने घर में बताया नहीं था. नौकरी मिलते ही मांबाप को अपने प्रेम से अवगत कराया. आदित्य और ऋचा को अच्छा नहीं लगा. वह उन का एकलौता बेटा था. उन के अपने सपने थे. हालांकि वे आधुनिक थे, नए जमाने के चलन से भी वाकिफ थे परंतु भारतीय मानसिकता बड़ी जटिल होती है.

हम पढ़लिख कर आधुनिक बनने का ढोंग करते हैं, नए जमाने की हर चीज अपना लेते हैं, परंतु हमारी मानसिकता कभी नहीं बदलती. हमारे बच्चे किसी के प्रेम में पड़ें, वे प्रेमविवाह करना चाहें, हम इसे बरदाश्त नहीं कर पाते. अपनी जवानी में हम भी वही करते हैं या करना चाहते हैं परंतु हमारे बच्चे जब वही सब करने लगते हैं, तो सहन नहीं कर पाते हैं. उस का विरोध करते हैं.

प्रतीक उन का एकलौता बेटा था. वे धूमधाम से उस की शादी करना चाहते थे. वे उसे कामधेनु गाय समझते थे. उस की शादी में अच्छा दहेज मिलता. इसी उम्मीद में अपने एक रिश्तेदार से उस की शादी की बात भी कर रखी थी. मामला एक तरह से पक्का था. मांबाप यहीं पर गलती कर जाते हैं. अपने जवान बच्चों के बारे में अपनी मरजी से निर्णय ले लेते हैं. उन को इस से अवगत नहीं कराते. बच्चों की भावनाओं का उन्हें खयाल नहीं रहता. वे अपने बच्चों को एक जड़ वस्तु समझते हैं, जो बिना चूंचपड़ किए उन की हर बात मान लेंगे. परंतु जब बच्चे समझदार हो जाते हैं तब वे अपने जीवन के बारे में वे खुद निर्णय लेना पसंद करते हैं. वे अपना जीवन अपने तौर पर जीना चाहते हैं.

जब प्रतीक ने अपने प्यार के बारे में उन्हें बताया तो उन के कान खड़े हुए. चौंकना लाजिमी था. बेटे पर वे अपना अधिकार समझते थे. आदित्य और ऋचा ने पहले एकदूसरे की तरफ देखा, फिर प्रतीक की तरफ. वह एक हफ्ते की छुट्टी ले कर आया था. मांबाप से अपनी शादी के बारे में बात करने के लिए. प्रेम उस ने अवश्य किया था परंतु वह उन की सहमति से शादी करना चाहता था. अगर वे मान जाते तो ठीक था, अगर नहीं तब भी उस ने तय कर रखा था कि अपनी पसंद की लड़की से ही शादी करेगा. जिस को प्यार किया था, उसे धोखा नहीं देगा. मांबाप माने या न मानें.

ऋचा ने ही बात का सिरा पकड़ा था, ‘‘परंतु बेटे, हम ने तो तुम्हारी शादी के बारे में कुछ और ही सोच रखा है.’’

‘‘अब वह बेकार है. मैं ने अपनी पसंद की लड़की देख ली है. वह मेरे अनुरूप है.

हम दोनों ने एकसाथ एम.बी.ए. किया था. अब साथ ही नौकरी भी कर रहे हैं, साथ ही जीवन व्यतीत करेंगे.’’

‘‘परंतु हमारे सपने…’’ ऋचा ने प्रतिवाद करने की कोशिश की परंतु प्रतीक की दृढ़ता के सामने वह कमजोर पड़ गईं. ऋचा की आवाज में कोई दम नहीं था. उसे लगा, वह हार जाएगी.

‘‘मम्मी, आप समझने की कोशिश कीजिए. बच्चे ही मांबाप का सपना होते हैं. अगर मैं खुश हूं तो आप के सपने साकार हो जाएंगे, वरना सब बेकार है.’’

‘‘बेकार तो वैसे भी सब कुछ हो चुका है. मैं बंसलजी को क्या मुंह दिखाऊंगा?’’ आदित्य ने पहली बार मुंह खोला, ‘‘उन के साथसाथ सारे नातेरिश्तेदार हैं. वे भी अलगथलग पड़ जाएंगे.’’

‘‘कोई किसी से अलग नहीं होता. आप धूमधाम से शादी आयोजित करें. रिश्तेदार 2 दिन बातें बनाएंगे, फिर भूल जाएंगे. प्रेमविवाह अब असामान्य नहीं रहे,’’ प्रतीक ने बहुत धैर्य से अपनी बात कही.

‘‘बेटे, तुम नहीं समझोगे. हम वैश्य हैं और हमारे समाज ने इस मामले में आधुनिकता की चादर नहीं ओढ़ी है. कितने लोग तुम्हारे लिए भागदौड़ कर रहे हैं. अपनी बेटी का विवाह तुम्हारे साथ करना चाहते हैं. जिस दिन पता चलेगा कि तुम ने गैर जाति की लड़की से शादी कर ली है, वे हमें समाज से बहिष्कृत कर देंगे. तुम्हारी छोटी बहन की शादी में तमाम अड़चनें आएंगी.’’

‘‘उस का भी प्रेमविवाह कर देना,’’ प्रतीक ने सहजता से कह दिया. परंतु आदित्य और ऋचा के लिए यह सब इतना सहज नहीं था.

‘‘बेटे, एक बार तुम अपने निर्णय पर पुनर्विचार करो. शायद तुम्हारा निश्चय डगमगा जाए. हम उस से सुंदर लड़की तुम्हारे लिए ढूंढ़ कर लाएंगे.’’

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अनोखा हनीमून- भाग 1: मिस्टर माथुर और सिया का क्या रिश्ता था

‘‘पर, क्या तुम्हें अब भी लगता है कि मैं ने तुम को धोखा दिया है और प्यार का नाटक कर के तुम्हारा बलात्कार किया है,‘‘ वीरेन की इस बात पर नमिता सिर्फ सिर झुकाए बैठी रही. उस की आंखों में बहुतकुछ उमड़ आया था, जिसे रोकने की कोशिश नाकाम हो रही थी.

नमिता के मौन की चुभन को अब वीरेन महसूस कर सकता था. उन दोनों के बीच अब दो कौफी के मग आ चुके थे, जिन्हें होठों से लगाना या न लगाना महज एक बहाना सा लग रहा था, एकदूसरे के साथ कुछ समय और गुजारने का.

‘‘तो इस का मतलब यह है कि तुम सिर्फ मुझे ही दोषी मानती हो… पर, मैं ने तुम्हारे साथ कोई जबरदस्ती नहीं की… हमारे बीच जो भी हुआ, वो दो दिलों का प्यार था और जवान होते शरीरों की जरूरत… और फिर संबंध बनाने से कभी तुम ने भी तो मना नहीं किया.‘‘

वीरेन की इस बात से नमिता को चोट पहुंची थी, तिलमिलाहट की रेखा नमिता के चेहरे पर साफ देखी जा सकती थी.

पर, अचानक से एक अर्थपूर्ण मुसकराहट नमिता के होठों पर फैल गई.

‘‘उस समय तुम 20 साल के रहे होगे और मैं 16 साल की थी… उम्र के प्रेम में जोश तो बहुत होता है, पर परिपक्वता कम होती है और किए प्रेम की परिणिति क्या होगी, यह अकसर पता नहीं होता…

‘‘वैसे, सभी मर्द कितने स्वार्थी होते हैं… दुनिया को अपने अनुसार चलाना चाहते हैं और कुछ इस तरह से कि कहीं उन का दामन दागदार न हो जाए.‘‘

‘‘मतलब क्या है तुम्हारा?‘‘ वीरेन ने पूछा.‘‘आज से 16 साल पहले तुम ने प्रेम की आड़ ले कर मेरे साथ जिस्मानी संबंध बनाए, उस का परिणाम मैं आज तक भुगत ही तो रही हूं.‘‘‘थोड़ा साफसाफ कहो,‘‘ वीरेन भी चिहुंकने लगा था.

‘‘बस यही कि मेरे बच्चा ठहर जाने की बात मां को जल्द ही पता चल गई थी. वे तुरंत ही मेरा बच्चा गिराने अस्पताल ले कर गईं…”पर… पर, डाक्टर ने कहा कि समय अधिक हो गया है, इसलिए बच्चा गिरवाने में मेरी जान को भी खतरा हो सकता है,‘‘ दो आंसू नमिता की आंखों से टपक गए थे.

‘‘हालांकि पापा तो यही चाहते थे कि मुझे मर ही जाने दिया जाए, कम से कम मेरा चरित्र और उन की इज्जत दोनों नीलाम होने से बच जाएंगे… लेकिन, मां मुझे ले कर मेरठ से दिल्ली चली आईं और बाकी का समय हम ने उस अनजाने शहर में एक फ्लैट में बिताया, जब तक कि मैं ने एक लड़की को जन्म नहीं दे दिया,‘‘ कह कर नमिता चुप हो गई थी.

उस ने बोलना बंद किया.‘‘कोई बात नहीं नमिता, जो हुआ उसे भूल जाओ… अब मैं अपनी बेटी को अपनाने को तैयार हूं… कहां है मेरी बेटी?‘‘‘‘मुझे नहीं पता… पैदा होते ही उसे मेरा भाई किसी अनाथालय में छोड़ आया था,‘‘ नमिता ने बताया.

‘‘पर क्यों…? मेरी बेटी को एक अनाथालय में छोड़ आने का क्या मतलब था?‘‘‘‘तो फिर एक नाजायज औलाद को कौन पालता…? और फिर, हम लोगों से क्या कहते कि हमारे किराएदार ने ही हमारे साथ धोखा किया.‘‘‘‘पर, मैं ने कोई धोखा नहीं किया नमिता.‘‘

‘‘एक लड़की के शरीर से खिलवाड़ करना और फिर जब वह पेट से हो जाए तो उस को बिना सहारा दिए छोड़ कर भाग जाना धोखा नहीं तो और क्या कहलाता है वीरेन?‘‘

‘‘देखो, जहां से तुम देख रही हो, वह तसवीर का सिर्फ एक पक्ष है, बल्कि दूसरा पक्ष यह भी है कि तुम्हारे भाई और पापा मेरे कमरे में आए और मुझे बहुत मारा, मेरा सब सामान बिखेर दिया और मुझे लगा कि मेरी जान को भी खतरा हो सकता है, तब मैं तुम्हारा मकान छोड़ कर भाग गया…

“यकीन मानो, उस के बाद मैं ने अपने दोस्तों के द्वारा हर तरीके से तुम्हारा पता लगाने की कोशिश की, पर तुम्हारा कुछ पता नहीं चल सका.‘‘

‘‘हां वीरेन… पता चलता भी कैसे, पापा ने मुझे घर में घुसने ही नहीं दिया… मैं तो आत्महत्या ही कर लेती, पर मां के सहयोग से ही मैं दूसरी जगह रह कर पढ़ाई कर पाई और आज अपनी मेहनत से तुम्हारी बौस बन कर तुम्हारे सामने बैठी हूं.‘‘

नमिता के शब्द वीरेन को चुभ तो गए थे, पर मैं ने प्रतिउत्तर देना सही नहीं समझा.‘‘खैर, तुम बताओ, तुम्हारी शादी…? बीवीबच्चे…? सब ठीक तो होंगे न,‘‘ नमिता के स्वर में कुछ व्यंग्य सा था, इसलिए अब वीरेन को जवाब देना जरूरी लगा.

‘‘नहीं नमिता… तुम स्त्रियों के मन के अलावा हम पुरुषों के मन में भी भाव रहते हैं… हम लोगों को भी सहीगलत, ग्लानि और प्रायश्चित्त जैसे शब्दों का मतलब पता होता है…

“तुम्हारे घर से निकाले जाने के बाद मैं पढ़ाई पूरी कर के राजस्थान चला गया. वहां मैं प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने लगा… मेरे मन में भी अपराधबोध था, जिस के कारण मैं ने आजीवन कुंवारा रहने का प्रण लिया… ‘‘

मेरे ‘कुंवारे‘ शब्द के प्रयोग पर नमिता की पलकें उठीं और मेरे चेहरे पर जम गईं.‘‘मेरा मतलब है… अविवाहित… मैं अब भी अविवाहित हूं.‘‘‘‘और मैं भी…‘‘ नमिता ने कहा.

उन दोनों की बातों का सफर लंबा होता देख वीरेन ने और दो कौफी का और्डर दे दिया.

‘‘पर, मेरी बेटी अनाथालय में है, यह बात मेरे पूरे व्यक्तित्व को ही कचोटे डाल रही है… मैं अपनी बेटी से मिलने के बाद उसे अपने साथ रखूंगा… मैं उसे अपना नाम दूंगा.‘‘‘पर, कहां ढूंढ़ोगे उसे?‘‘

‘‘अपने भाई का मोबाइल नंबर दो मुझे… मैं उस से पूछूंगा कि उस ने मेरी बेटी को किस अनाथालय में दिया है?‘‘ वीरेन ने कहा.‘‘वैसे, इस सवाल का जवाब तुम्हें कभी नहीं मिल पाएगा… क्योंकि इस बात का जवाब देने के लिए मेरा भाई अब इस दुनिया में नहीं है. एक सड़क हादसे में उस की मौत हो गई थी.‘‘

‘‘ओह्ह, आई एम सौरी,‘‘ मेरे चेहरे पर दुख और हताशा के भाव उभर आए.‘‘हम शायद अपनी बेटी से कभी नहीं मिल पाएंगे?‘‘‘‘नहीं नमिता… भला जो भूल हम ने की है, उस का खमियाजा हमारी बेटी क्यों भुगते… मैं अपनी बेटी को कैसे भी खोज निकालूंगा.’’

‘‘मैं भी इस खोज में तुम्हारा पूरा साथ दूंगी.‘‘नमिता का साथ मिल जाने से वीरेन का मन खुशी से झूम उठा था. शायद ये उन दोनों की गलती का प्रायश्चित्त करने का एक तरीका था.

अपनी नाजायज बेटी को ढूंढ़ने के लिए वीरेन ने जो प्लान बनाया, उस के अनुसार उन्हें दिल्ली जाना था और उस अस्पताल में पहुंचना था, जहां नमिता ने बेटी को जन्म दिया था.

वीरेन के हिसाब से उस अस्पताल के सब से निकट वाले अनाथालय में ही नमिता के भाई ने बेटी को दिया होगावीरेन की छुट्टी को पास कराने के लिए एप्लीकेशन पर नमिता के ही हस्ताक्षर होने थे, इसलिए छुट्टी मिलने या न मिलने का कोई अंदेशा नहीं था… नमिता को अपने अधिकारी से जरूर परमिशन लेनी थी.

वीरेन और नमिता उस की पर्सनल गाड़ी से ही दिल्ली के लिए रवाना हो लिए थे.वीरेन के नथुनों में नमिता के ‘डियोड्रेंट‘ की खुशबू समा गई. नमिता के बाल उस के कंधों पर झूल रहे थे, निश्चित रूप से समय बीतने के साथ नमिता के रूप में और भी निखार आ गया था.

‘‘नमिता कितनी सुंदर है… कोई भी पुरुष नमिता को बिना देर किए पसंद कर लेगा, पर… ‘‘ वीरेन सोच रहा था.‘‘अगर जिंदगी में ‘इफ‘, ‘बट‘, ‘लेकिन’, ‘किंतु’, ‘परंतु’ नहीं होता, तो कितनी सुहानी होती जिंदगी… है न,‘‘ नमिता ने कहा, पर मुझे उस की इस बात का मतलब समझ नहीं आया.

नमिता की कार सड़क पर दौड़ रही थी. नमिता अपने साथ एक छोटा सा बैग लाई थी, जिसे उस ने अपने साथ ही रखा हुआ था.नमिता ‘व्हाट्सएप मैसेज‘ चेक कर रही थी.

वीरेन को याद आया कि पहले नमिता अकसर हरिवंशराय बच्चन की एक कविता अकसर गुनगुनाया करती थी, ‘जो बीत गई सो बात गई‘.

हाय हैंडसम- भाग 2: क्या हुआ था गौरी के साथ

सोशलसाइट पर फेक आईडी बना कर लोग लोगों को ब्लैकमेल करते हैं, पर हम ऐसे नहीं हैं. हम सीधीसादी लड़की हैं. पैसे की भी हमारे पास कमी नहीं है. मम्मीपापा दोनों बिजनैस में हैं. हम उन की इकलौती, वह भी लाड़ली, संतान हैं. बहुत प्यार करते हैं मम्मीपापा हमें. पर क्या करें हम आप को प्यार करने लगे. आप का प्रोफाइल फोटो देख कर हमारा दिल हमारे काबू में नहीं रहा. आप के मन में हमें ले कर जो भी भ्रम हैं, वह हम मिल कर दूर कर लेंगे. हैंडसम, हमें इग्नोर मत करना वरना हमारा नन्हा सा, मासूम सा दिल टूट जाएगा.’

मैं ने उस से पीछा छुड़ाने की गरज से कह दिया, ‘अच्छा ठीक है. मैं अगले सप्ताह औफिस के काम से दिल्ली जाते वक्त तुम से मिल लूंगा.’ इतना सुनते ही वह खुशी से उछल पड़ी और बोली, ‘‘हैंडसम, आना जरूर, धोखा मत देना.’’

‘ठीक है, इस बीच तुम भी मुझे फोन मत करना, मैं खुद तुम्हें फोन कर लूंगा.’

‘ठीक है, हमे मंजूर है, नहीं करेंगे हम आप को फोन.’

‘हां, मैं ने भी कह दिया तो जरूर आऊंगा.’

मैं ने गौरी से कह तो दिया लेकिन मेरे जेहन में उस की बातें उथलपुथल मचाने लगीं. कभी सोचता, मैं कहां फंस गया, कभी अपने मन में उस की काल्पनिक तसवीर बनाने लगता, वह ऐसी दिखती होगी, वह वैसी दिखती होगी. एक बार मन में आया, मैं घर में पत्नी को बता दूं. फिर सोचा, पत्नी ने मेरी बातों पर यकीन नहीं किया तो… फालतू में बात का बतंगड़ बन जाएगा. घर में हंगामा खड़ा हो जाएगा. नहीं, मैं पत्नी को नहीं बताऊंगा. मुझे नहीं लगता कि वह लड़की गलत हो. वह भटक गई है, उस से मिल कर मुझे उस को समझना होगा, वरना उलटेसीधे हाथों में पड़ कर वह अपना जीवन बरबाद कर सकती है.

एक दिन जब मैं ने उस को फोन कर के बताया कि मैं कल सुबह 11 बजे तक उस के पास पहुंच जाऊंगा, मुझे मिल जाना, तो वह खुशी से जैसे पागल हो गई. कई बार एक सांस में, ‘आई लव यू… आई लव यू सो मच…’ बोलती चली गई. मैं ने बिना किसी प्रतिक्रिया के फोन डिसकनैक्ट कर दिया.

रात को औफिस के ड्राइवर का फोन आया, ‘सर, सुबह को कितने बजे गाड़ी ले कर आऊं?’

मैं ने सोचा, अगर ड्राइवर के साथ मैं गौरी से मिलूंगा तो ड्राइवर औफिस में सब को बता देगा और फिर यह बात घर तक भी पहुंच जाएगी. इसलिए मैं ने ड्राइवर से झठ बोला. मैं ने कहा, ‘मैं तो मुरादाबाद में ही हूं. रात को यहीं रुकना पड़ेगा. ऐसा करो, तुम कल दोपहर को 12 बजे तक यहां आ जाना, हम यहीं से दिल्ली चलेंगे.’

‘ठीक है सर,’ कह कर ड्राइवर ने फोन काट दिया.

अगले दिन सुबह मैं बस में बैठ कर जा रहा था. मन किसी अनजाने भय से भयांकित था. सोच रहा था, पता नहीं क्या होगा? मेरे साथ कहीं कुछ गलत न हो जाए. अगर ऐसा कुछ हो गया तो पत्नी और बच्चों को कैसे समझऊंगा? मैं तो कहीं भी मुंह दिखाने लायक नहीं रह जाऊंगा, मेरी इज्जत का ढिंढोरा बीच बाजार पिट जाएगा? एक मन कह रहा था, मैं गौरी से न मिलूं, तो एक मन कह रहा था, मिल लो, मिलने से स्थिति साफ हो जाएगी. यही सब सोचते हुए मैं मुरादाबाद पहुंच गया. कपूर कंपनी चौराहे पर बस रुकी. मैं बस से उतरा ही था, गौरी मेरे सामने आ कर बोली, ‘हाय हैंडसम.’ मैं उसे देख कर सकपका गया.

‘जनाब, पूरे 9 बजे से यहां खड़ी आप का इंतजार कर रही हूं,’ उस ने जताया.

मैं ने बस, उस से इतना ही कहा, ‘तुम ने मुझे पहचान लिया?’

‘हां तो, इस में चौंकने की क्या बात है. बौडीशौडी तो बिलकुल फोटो जैसी है. बस, सिर के बाल ही तो थोड़े सफेद हुए हैं.’

मैं खामोश ही रहा.

‘हम चलें?’ उस ने सड़क किनारे खड़ी अपनी लाल रंग की बड़ी कार की तरफ इशारा कर के कहा.

‘हम कार से चलेंगे?’

‘हां कार भी हमारी, रैस्त्रां भी हमारा और लस्सी भी हमारी होगी, आप हमारे मेहमान जो हो.’

मैं उस की कार में बैठ गया. कार वही चला रही थी. हम मुरादाबाद से करीब 7 किलोमीटर दूर बिजनौर रोड पर एक रैस्टोरैंट में आ कर बैठ गए. उस ने 2 कुल्हड़ वाली लस्सी और 2 सैंडविच का और्डर दे दिया. वहां बैठे लोग मुझे और उस को अजीब निगाहों से घूरने लगे. मुझे अजीब लगा, तो मैं ने अपने हावभाव ऐसे कर लिए जैसे मैं उस का कोई रिश्तेदार हूं. वह बहुत उतावली हो रही थी. टेप रिकौर्डर की तरह पटरपटर बोले जा रही थी. वह क्या बोल रही थी, मैं कुछ सुन नहीं पा रहा था क्योंकि मेरा दिलोदिमाग उस की बातों में नहीं लग रहा था. मैं, बस, उसे देखे जा रहा था. फिर उस ने अपने दोनों हाथों की हथेलियों में अपने दोनों गालों को रोका और कुहनियों को मेज पर टिका कर हसरत से मुझे ऐसे देखने लगी जैसे कोई अनोखी चीज देख रही हो. फिर मुसकराने लगी.

मैं ने कहा, ‘अरे, ऐसे क्यों देख रही हो मुझे?’

वह उसी तरह मुसकराते हुए बोली, ‘एक बात बोलूं हैंडसम, मेरे दिल ने आप को चाह कर कोई गलती नहीं की. आप तो कल्पना से भी अधिक स्मार्ट और हैंडसम हैं. दिन में 10 बार देखते हैं आप की तसवीर को.’

‘अच्छा, ऐसा क्या है उस तसवीर में?’ मेरे कहते ही वह अपने महंगे मोबाइल फोन पर मेरा फेसबुक अकाउंट खोल कर मेरी डीपी को मुझे दिखाते हुए बोली, ‘‘हमारी निगाहों से देखिए अपनी इस तसवीर को. कैसे अपने दोनों हाथों को ऊपर कर के मंदमंद मुसकरा रहे हैं. इसी मुसकराहट ने हमारी जान ले ली.’’

मैं कभी अपनी फोटो देख रहा था, तो कभी उस को.

‘आप की लस्सी गरम हो रही है, पीजिए इसे,’ उस ने अधिकार से कहा.

मैं ने लस्सी का कुल्हड़ उठाया और एक घूंट भर कर कहा, ‘गौरी, तुम ने कहा था तुम मुझ से मिलना चाहती हो, तो मैं तुम से मिल लिया. तुम ने यह भी कहा था मिलने के बाद मैं जो कहूंगा, तुम उस को मानोगी?’

‘तो कहिए न, हम आप की बात सुनेंगे भी और मानेंगे भी,’ वह तपाक से बोली.

मैं ने कहा, ‘अब तुम न तो मुझे कभी फोन करोगी और न ही फेसबुक पर मुझे कोई मैसेज करोगी.’

‘आप से प्यार तो करूंगी या वह भी नहीं करूंगी. सुनिए हैंडसम, हम आप को अब न फोन करेंगे, न आप से फेसबुक पर चैट करेंगे लेकिन एक शर्त पर, एक बार, बस, एक बार आप हम से मुसकरा कर आई लव यू कह दीजिए.’

मैं ने मन में सोचा, यह लड़की बहुत जिद्दी है. ऐसे मानने वाली नहीं है. इस के लिए कुछनकुछ तो करना ही पड़ेगा. मैं ने कहा, ‘ठीक है, मैं तुम से सचमुच प्यार करने लगूंगा, तुम्हें आई लव यू भी बोलूंगा, लेकिन तब जब तुम अच्छे से अपनी पढ़ाई करोगी और फर्स्ट डिवीजन से अपनी इंटर की परीक्षा पास कर लोगी. उस से पहले, न तुम मुझे फोन करोगी और न ही मुझ से चैट करोगी.’

‘ओके हैंडसम, हमें आप की शर्त मंजूर है. अब हम खूब जम कर पढ़ाई करेंगे. हालांकि, यह सब करना हमारे लिए मुश्किल हो जाएगा क्योंकि जो शर्त आप ने हमारे सामने रखी है वह हमारे लिए किसी सजा से कम नहीं है. फिर भी हम इस सजा को आप की मोहब्बत का तोहफा समझ कर स्वीकार कर लेते हैं, पर आप हमें भूल मत जाना.’

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अनोखा हनीमून- भाग 2: मिस्टर माथुर और सिया का क्या रिश्ता था

वीरेन ने तुरंत ही गूगल के द्वारा उस कविता को सर्च किया और नमिता के व्हाट्सएप पर भेज दिया.नमिता मैसेज देख कर मुसकराई और उसे पूरे ध्यान से पढ़ने लगी. कुछ देर बाद मैं ने अपने मोबाइल पर भी नमिता का एक मैसेज देखा, जो कि एक पुरानी फिल्म का गीत था, ‘दुनिया में हम आए हैं तो जीना ही पड़ेगा… जीवन है अगर जहर तो पीना ही पड़ेगा’.‘‘

उस के द्वारा इस तरह से एक गंभीर मैसेज भेजने के बाद और कोई मैसेज भेजने की वीरेन की हिम्मत नहीं हुई.नमिता खिड़की से बाहर देख रही थी. बाहर अंधेरे के अलावा सिर्फ बहुमंजिला इमारतों की जगमगाहट ही दिखती थी. हालांकि एसी औन था, फिर भी पसीने की चमक मैं नमिता के माथे पर देख सकता था.

‘‘तुम्हारा ब्लड प्रेशर बढ़ा हुआ है क्या?‘‘ वीरेन ने पूछ ही लिया.‘‘नहीं. दरअसल, इस से पहले जब तुम साथ में थे, तो उस के बाद मेरे जीवन में एक भूचाल आया था और अब फिर से मैं तुम से मिल रही हूं… ऊपर वाला ही जाने कि अब क्या होगा,‘‘ नमिता के चेहरे पर फीकी मुसकराहट थी.

नमिता को अच्छी तरह पता था कि पीला कलर वीरेन को बहुत पसंद है… और आज उस ने पीली कलर की साड़ी पहनी थी.बीचबीच में वीरेन की नजर अपनेआप नमिता के चेहरे पर चली जाती थी.

‘‘मेरी वजह से नमिता कितना परेशान रही होगी. और न जाने कैसे उस ने अपने मांबाप के अत्याचारों और तानों को सहा होगा,‘‘ यह सोच कर वीरेन को गहरा अफसोस हो रहा था.गाड़ी हाईवे पर दौड़ रही थी. बाहर ढाबों और रैस्टोरैंट की कतार देख कर वीरेन ने कहा, ‘‘चलो, खाना खा लेते हैं.‘‘

वीरेन ने अपने लिए दाल फ्राई और चपाती मंगाई, जबकि नमिता ने सिर्फ सलाद और्डर किया… और धीरेधीरे खाने लगी.

वापस कार में बैठते ही नमिता ने कानों में हैडफोन लगा लिया था और कोई संगीत सुनने लगी. वीरेन समझ गया कि नमिता अब और ज्यादा बातें नहीं  करना चाहती है. लिहाजा, वीरेन भी अपने मोबाइल पर उंगलियों को सरकाने लगा.

कार सड़क पर मानो फिसल रही थी. बाहर रात गहरा रही थी. शहर पीछे छूटते जा रहे थे और नमिता का सिर वीरेन के कंधे पर आ गया था. उसे नींद आ गई थी. उस का मासूम सा चेहरा नींद में कितना खूबसूरत लग रहा था.

नमिता का वीरेन के कंधे पर सिर रख लेना उस के लिए सुखद अहसास से कम नहीं था.कुछ देर बाद ही नमिता जाग गई थी. वीरेन ने भी अपने उड़ते विचारों को थाम लिया था.वे दिल्ली पहुंच गए थे, और वे वहां से कैब ले कर नमिता के फ्लैट की तरफ चल दिए.

‘अमनचैन अपार्टमैंट्स‘ में ही नमिता आ कर रुकी थी और वहीं से कुछ ही दूरी पर एक नर्सिंगहोम था, जहां पर नमिता ने बेटी को जन्म दिया था. यहां पहुंच कर उन्हें सब से पास का अनाथालय ढूंढ़ना था, जिस के लिए वीरेन ने तकनीक की मदद ली और गूगल मैप की सहायता से उसे अनाथालय ढूंढ़ने में कोई परेशानी नहीं हुई. उन्होंने अनाथालय में जा कर वहां के मैनेजर से मुलाकात की.

‘‘जी कहिए… आप कितना डोनेशन देने आए हैं सर,‘‘ गंजे सिर वाले मैनेजर ने पूछा.‘‘डोनेशन…? हम तो एक बच्चे को ढूंढ़ने आए हैं, जिसे आज से 15 साल पहले आप के ही अनाथालय में कोई आ कर दे गया था.‘‘

मैनेजर ने आंखें सिकोड़ीं, मानो वो बिना बताए ही सबकुछ समझने की कोशिश कर रहा था.‘‘अरे साहब, कोई जरूरी नहीं कि वह बच्चा अब भी यहां हो या उसे कोई आ कर गोद ले गया हो… इतने साल पुरानी बात आप आज क्यों पूछ रहे हैं… हालांकि मुझे इस बात से कोई लेनादेना नहीं है… पर, अब पुराने रिकौर्ड भी इधरउधर हो गए हैं… और फिर हम किसी अजनबी को अपनी कोई जानकारी भला दे भी क्यों?‘‘ मैनेजर ने अपनी हथेली खुजाते हुए कहा.

नमिता अपने बच्चे को देखने के लिए अधीर हो रही थी. उस ने अपने पर्स से सौ के नोट की एक गड्डी निकाली और मैनेजर की ओर बढ़ाई.

‘‘जी, ये लीजिए डोनेशन… और इस की रसीद भी हमें आप मत दीजिए. उसे आप ही रख लीजिएगा… बस आज से 15 साल पहले 10 अगस्त को एक लड़की को कोई आप के यहां दे गया था. आप हमें उस बच्ची से मिलवा दीजिए… हम उसे गोद लेना चाहते हैं.‘‘

नोटों की गड्डी को जेब के हवाले करते हुए मैनेजर ने अपना सिर रजिस्टर में झुका लिया और कुछ ढूंढ़ने का उपक्रम करने लगा.‘‘जी, आप जिस बच्ची की बात कर रही हैं… वह कहां है… देखता हूं…‘‘

कुछ देर बाद मैनेजर ने उन लोगों को बताया कि 10 अगस्त के दिन एक लड़की को कोई छोड़ तो गया था, पर अब वह लड़की उन के अनाथालय में नहीं है.‘‘तो कहां है मेरी बेटी?‘‘ किसी अनिष्ट की आशंका से डर गई थी नमिता.

‘‘जी, घबराइए नहीं. आप की बेटी जहां भी है, सुरक्षित है. आप की बेटी को कोई निःसंतान दंपती आ कर गोद ले गए थे.‘‘‘‘कौन दंपती? कहां हैं वो? आप हमें उन का पता दीजिए… हम अपनी बेटी उन से जा कर मांग लेंगे,‘‘ वीरेन ने कहा.

‘‘जी नहीं सर… उस दंपती ने पूरी कानूनी कार्यवाही कर के उस बच्ची को गोद लिया है… अब कोई भी उन से बच्ची को छीन नहीं सकता है,‘‘ मैनेजर ने कहा.

‘‘पर, आप हमें बता तो सकते हैं न कि किस ने उसे गोद लिया है… हम एक बार अपनी बेटी से मिल तो लें,‘‘ नमिता परेशान हो उठी थी.

‘‘मैं चाह कर भी उन लोगों की पहचान आप को नहीं बता सकता हूं… ये हमारे नियमों के खिलाफ है,‘‘ मैनेजर ने कहा.

अब बारी वीरेन की थी. उस ने भी मैनेजर को पैसे पकड़ाए, तो कुछ ही देर में उस ने उस दंपती का पूरा पता एक कागज पर लिख कर मेरी ओर बढ़ा दिया.

ये बरेली के सिविल लाइंस में रहने वाले मिस्टर राजीव माथुर का पता था.‘‘अब हमें वापस चलना चाहिए,‘‘ वीरेन ने नमिता से कहा.‘‘नहीं, मैं अपनी बेटी से जरूर मिलूंगी और अपने साथ ले कर आऊंगी,‘‘ नमिता ने कहा, तो वह उस के चेहरे पर कठोरता का भाव साफ देख सकता था.

वीरेन के समझाने पर भी नमिता नहीं मानी, तो वे बरेली की तरफ चल दिए और वहां पहुंच कर दिए गए पते को खोजते हुए राजीव माथुर के घर के सामने खड़े हुए थे. वह एक सामान्य परिवार था. उन का घर देख कर तो ऐसा ही लग रहा था.

राजीव माथुर के घर की घंटी बजाई, तो उन के नौकर ने दरवाजा खोला. सामने ही मिस्टर माथुर थे. मिस्टर माथुर की उम्र कोई 70 साल के आसपास होगी, पर उन्हें व्हीलचेयर पर बैठा देख वीरेन को एक झटका सा जरूर लगा, मिस्टर माथुर के साथ ही उन की पत्नी भी खड़ी थीं. उन दोनों को देख कर नमिता और वीरेन के चेहरे पर कई प्रश्नचिह्न आए.

पर, फिर भी उन्होंने एक महिला को देख कर उन्हें ड्राइंगरूम में बिठाया और अपने नौकर को 2 कप चाय बनाने को कहा.

‘‘जी, दरअसल, हम लोग दिल्ली से आए हैं और आप लोग जिस अनाथालय से एक लड़की को गोद ले कर आए थे… वो दरअसल में हमारी बेटी है,‘‘ नमिता ने एक ही सांस में मानो सबकुछ कह डाला था और बाकी का अनकहा मिस्टर माथुर बखूबी समझ गए थे.

‘तो आज इतने सालों के बाद मांबाप का प्यार जाग उठा है… अब आप लोग मुझ से क्या चाहते हैं?‘‘‘देखिए, मैं जानता हूं कि आप ने कागजी कार्यवाही पूरी करने के बाद ही हमारी बेटी को गोद लिया है… पर, फिर भी…‘‘ वह आगे कुछ कह न पाया, तो मिस्टर माथुर ने वीरेन की मदद की.

‘‘पर, फिर भी… क्या… बेहिचक कहिए…‘‘‘‘दरअसल, हम हमारी बेटी को वापस चाहते हैं.‘‘वीरेन भी हिम्मत कर के अपनी बात कह गया था.

कुछ देर चुप रहने के बाद मिस्टर माथुर ने बोलना शुरू किया, ‘‘देखिए, यह तो संभव नहीं है. आज का युवा मजे करता है, जब फिर बच्चे पैदा होते हैं,  फिर अनाथालय में छोड़ देता है और फिर एक दिन अचानक उन का प्यार जाग पड़ता है और वे औलाद को ढूंढ़ने चल पड़ते हैं.

‘‘आप जैसे लोगों की वजह से ही अनाथालयों में बच्चों की भीड़ लगी रहती है और कई नवजात बच्चे कूड़े के ढेर में पड़े हुए मिलते हैं… और मुझे लग रहा है कि आप दोनों अब भी अविविवाहित हैं?‘‘ मिस्टर माथुर का पारा बढ़ने लगा था. उन की अनुभवशाली आंखें काफीकुछ समझ गई थीं.

कुछ देर खामोशी छाई रही, फिर मिस्टर माथुर ने अपनेआप को संयत करते हुए कहा, ‘‘खैर जो भी हो, अब वह हमारी बेटी है और वह हमारे ही पास रहेगी… अगर आप चाय पीने में दिलचस्पी रखते हों तो पी सकतें हैं, नहीं तो आप लोग जा सकते हैं.‘‘

मेहनत रंग लाई: क्या शर्मिंदगी को गर्व में बदल पाया दिवाकर

ठाणे के विधायक दिवाकर की कार में ड्राइवर के अलावा पिछली सीट पर दिवाकर उन की पत्नी मालिनी थीं. पीछे वाली कार में उन के दोनों युवा बच्चे पर्व और सुरभि और दिवाकर का सहायक विकास थे. आज दिवाकर को एक स्कूल का उद्घाटन करने जाना था.

दिवाकर का अपने क्षेत्र में बड़ा नाम था. पर्व और सुरभि अकसर उन के साथ ऐसे उद्घाटनों में जा कर बोर होते थे, इसलिए बहुत कम ही जाते थे. पर कारमेल स्कूल की काफी चर्चा हो रही थी, काफी बड़ा स्कूल बना था, सो आज फिर दोनों बच्चे आ ही गए. वैसे, उद्घाटन तो किसी न किसी जगह का दिवाकर करते ही रहते थे. पर स्कूल का उद्घाटन पहली बार करने गए थे.

विकास ने भाषण तैयार कर लिया था. मीडिया थी ही वहां. मालिनी भी उन के साथ कम ही आती थी, पर आज बच्चे उसे भी जबरदस्ती ले आए थे. वैसे भी स्कूल की प्रबंध कमेटी ने दिवाकर को सपरिवार आने के लिए बारबार आग्रह किया था. विकास का भी यही कहना था ‘सर, ऐसे संपर्क बढ़ेंगे तो पार्टी के लिए ठीक रहेगा. टीचर्स होंगे, अभिभावक होंगे, आप का सपरिवार जाना काफी प्रभाव डालेगा.’

कार से उतरते ही दिवाकर और बाकी सब का स्वागत जोरशोर से हुआ. स्कूल की पिं्रसिपल विभा पारिख, मैनेजर सुदीप राठी और प्रबंधन समिति के अन्य सदस्य सब का स्वागत करते हुए उन्हें गेट पर लगे लाल रिबन तक ले गए. दिवाकर ने उसे काटा तो तालियों की आवाज से एक उत्साहपूर्ण माहौल बन गया. दिवाकर स्टेज पर चले गए. दर्शकों की पंक्ति में सब से आगे रखे गए सोफे पर मालिनी विकास और बच्चों के साथ बैठ गई.

विभा पारिख ने दिवाकर को सपरिवार आने के लिए धन्यवाद देते हुए एक बुके दे कर उन का अभिनंदन किया. फिर उन्होंने अपने स्कूल के बारे में काफीकुछ बताया. अभिभावकगण बड़ी संख्या में थे. स्कूल की बिल्ंिडग वाकई बहुत शानदार थी. कैमरों की लाइट चमकती रही. दिवाकर से भी दो शब्द बोलने का आग्रह किया गया.

दिवाकर माइक पर खड़े हुए. शिक्षा के महत्त्व शिक्षा के विकास, नए बने स्कूल की तारीफ कर के भाषण खत्म कर ही रहे थे कि एक मीडियाकर्मी ने पूछ लिया, ‘‘सर, आप ने शिक्षा के संदर्भ में बहुत अच्छी बातें कहीं, आप प्लीज अपनी शिक्षा के बारे में भी आज बताना पसंद करेंगे?’’

शर्मिंदगी का एक साया दिवाकर के चेहरे पर आ कर लहराया. उन की नजरें मालिनी और अपने बच्चों से मिलीं तो उन की आंखों में भी अपने लिए शर्मिंदगी सी दिखी. नपेतुले, सपाट शब्दों में उन्होंने कहा, ‘‘अपने बारे में फिर कभी बात करूंगा, आज इस नए स्कूल के लिए, इस के सुनहरे भविष्य के लिए मैं शुभकामनाएं देता हूं. बच्चे यहां ज्ञान अर्जित करें, सफलता पाएं.’’

तालियों की गड़गड़ाहट से सभा समाप्त हुई पर शर्मिंदगी का जो एक कांटा आज दिवाकर के गले में अटका था, लौटते समय कुछ बोल ही नहीं पाए, चुप ही रहे. मालिनी को घर छोड़ा और विकास के साथ अपने औफिस निकल गए. विकास दिवाकर के साथ सालों से काम कर रहा था. दोनों के बीच आत्मीय संबंध थे. दिवाकर के तनाव का पूरा अंदाजा विकास को था. वह सम झ रहा था कि अपनी शिक्षा पर उसे सवाल दिवाकर को शर्मिंदा कर गए हैं. पूरे रास्ते दिवाकर गंभीर विचारों में डूबे रहे, विकास भी चुप ही रहा.

औफिस पहुंचते ही विकास ने उन के लिए जब कौफी मंगवाई इतनी देर में वे पहली बार हलके से मुसकराए. कहा, ‘‘तुम्हें सब पता है, मु झे कब क्या चाहिए,’’ विकास भी हंस दिया, ‘‘चलो सर, आप ने कम से कम कुछ बोला तो. आप इतने परेशान न हों. खोदखोद कर सवाल पूछना मीडिया का काम ही है. और यह पहली बार तो हुआ नहीं है. पर आज आप इतने सीरियस क्यों हो गए? एक ठंडी सांस ली दिवाकर ने. ‘‘बहुत कुछ सोच रहा था, विकास मु झे तुम्हारी हैल्प चाहिए.’’

‘‘हुक्म दीजिए सर.’’‘‘तुम तो जानते हो, बहुत गरीबी में पलाबढ़ा हूं. गांव से काम की तलाश में यहां आया था और अपने ही प्रदेश के यहां के विधायक के लिए काम करता था. उन की मृत्यु के बाद बड़ी मेहनत से यहां पहुंचा हूं. आज लोगों की नजरों में अपने लिए उस समय एक उपहास सा देखा तो बड़ा दुख हुआ. अपने परिवार की नजरों में भी अपने लिए एक शर्मिंदगी सी देखी, तो मन बड़ा आहत हुआ. सच तो यही है कि इतने बड़े स्कूल के उद्घाटन में जा कर स्वयं कम शिक्षित रह कर शिक्षा के महत्त्व और विकास पर बड़ीबड़ी बातें करना खुद को ही एक खोखलेपन से भरता चला जाता है. आज मैं ने सोच लिया है कि मैं किसी दूसरे राज्य से पत्राचार के जरिए आगे पढ़ाई करूंगा. यहां किसी को बताऊंगा ही नहीं, मालिनी और बच्चों तक को नहीं.’’

विकास को जैसे एक करंट लगा, ‘‘सर, यह क्या कह रहे हैं? यह तो बहुत ज्यादा मुश्किल है, असंभव सा है.’’‘‘कुछ भी असंभव नहीं है. मैं आगे पढ़ूंगा, तुम इस में मेरी मदद करोगे और किसी को भी इस बात की खबर नहीं होनी चाहिए.’’

‘‘सर, कैसे होगा? पढ़ाई कहां होगी? बुक्स, कालेज?’’‘‘आज तुम यही सब पता करो. मु झे अगर अपने क्षेत्र में सिर उठा कर लोगों से शिक्षा के महत्त्व पर बात करनी है तो उस से पहले मु झे स्वयं को सुशिक्षित करना होगा. जाओ फौरन काम शुरू कर दो.’’

विकास ‘हां’ में सिर हिलाता हुआ उन के रूम से निकल गया, दिवाकर से मिलने कुछ और लोग आए हुए थे. वे उन के साथ व्यस्त हो गए. वे सब चले गए तो दिवाकर कुछ पेपर्स देख रहे थे. विकास उत्साहपूर्वक अंदर आया. उसे देखते ही बोले, ‘‘क्या पता किया? बैठो.’’

‘‘सर सब हो जाएगा, आप सिक्किम मणिपाल यूनिवर्सिटी से अपना फौर्म भर दें. इस की परीक्षाओं के कई सैंटर हैं. आप भोपाल चुन लें. वहां औनलाइन परीक्षाएं होती हैं. वहां आप को कोई पहचानेगा भी नहीं. आप अपना कोर्स, अपने विषय बता दें. मैं और भी डिटेल्स देख लूंगा.’’

‘‘वाह, शाबाश, कहते हुए दिवाकर अपनी चेयर से उठे और विकास का कंधा थपथपाते हुए उसे गले लगा लिया, ‘‘आओ, अभी फाइनल कर लेते हैं. ध्यान रखना, तुम्हारे अलावा यह सब किसी को पता नहीं चलना चाहिए.’’

‘‘निश्चित रहिए, सर.’’

विकास को दिवाकर ने हमेशा अपना छोटा भाई ही सम झा था. उस की पत्नी और एक बच्चा ठाणे में ही रहते थे. दिवाकर विकास का हर तरह से खयाल रखते थे तो विकास भी दिवाकर का बहुत निष्ठावान सहायक था. एक विधायक और एक सहायक के साथसाथ दोनों दोस्त, भाई जैसा व्यवहार भी रखते थे. दोनों ने बैठ कर औनलाइन बहुतकुछ देखा, विषय चुने और सिक्किम मणिपाल यूनिवर्सिटी में पत्राचार से ग्रेजुएशन करने के लिए फौर्म भर दिया गया. सब ठीक रहा, औफिस में ही बुक्स भी आ गईं.

दिवाकर ने नई बुक्स को हाथ में ले कर बच्चे की तरह सहलाया, आंखें भीग गईं, उन्हें कभी पढ़ने का शौक था पर साधन नहीं थे. फिर कुछ नया करने की चाह उन्हें मुंबई ले आई थी. अब उन के सामने एक नई राह थी, शिक्षा की राह, जिस पर उन्होंने अपने कदम उत्साहपूर्वक बढ़ा दिए थे. व्यस्त वे पहले भी रहते थे. सो, मालिनी और बच्चों को उन्हें व्यस्त देखने की आदत थी ही. अब वे औफिस में बैठ कर पढ़ने भी लगे थे. कभी पढ़ते कभी नोट्स बनाते. उन्हें अपने जीवन में आए इस मोड़ पर बड़ा आनंद आ रहा था. जीवन एक नई उमंग, उत्साह से भर उठा था. विकास उन के इस मिशन में हर पल उन के साथ था. उन की सेहत का, उन के खानेपीने का पूरा खयाल रखता था.

परीक्षाओं का समय आया तो वह दिवाकर के साथ भोपाल भी गया. परीक्षाकाल में दोनों होटल में ही रहे. अब परीक्षाफल के इंतजार में दिवाकर बेचैन होते तो विकास हंस पड़ता. अपने क्षेत्र की समस्याओं के साथ जब दिवाकर अपनी पढ़ाई भी विकास के साथ डिस्कस करने लगे, तो विकास मुसकराता हुआ उन का उत्साह देखता रहता. दिवाकर का जब रिजल्ट आया तो वे उस समय घर में ही थे. विकास रिजल्ट देखने के बाद उन के घर पहुंच गया. मिठाई का डब्बा मालिनी को देते हुए बोला, ‘‘मैडम, मुंह मीठा कीजिए.’’

दिवाकर भी वहीं बैठे थे, बोले, ‘‘क्या हुआ भई?’’

‘‘एक दोस्त का रिजल्ट निकला है सर, वह पास हो गया,’’ कहतेकहते विकास ने उन की तरफ जिस तरह से देखा, दिवाकर उत्साहपूर्वक खड़े हो गए. विकास को  झटके से गले लगा लिया. मालिनी हैरान हुई, ‘‘अरे, विकास, यह कौन सा दोस्त है तुम्हारा?’’

‘‘है एक पढ़ रहा है आजकल मैडम, बहुत मेहनती है.’’

‘‘बढि़या, इस उम्र में? क्या पढ़ रहा है?’’

‘‘ग्रेजुएशन किया है, और शिक्षा प्राप्त करने की तो कोई उम्र नहीं होती है न.’’

‘‘हां, यह भी ठीक है.’’

दिवाकर ने कहा, ‘‘तुम रुको, मैं तैयार होता हूं मु झे भी जाना है कुछ जरूरी काम है. घर से निकलते ही दिवाकर ने कहा, ‘‘थैक्यू विकास.’’

‘‘आप को बधाई हो सर, आप की मेहनत, लगन रंग लाई है.’’

‘‘चलो, अब, एमए भी करूंगा.’’

‘‘क्या?’’ विकास चौंका.

‘‘हां, चलो, औफिस, पौलिटिकल साइंस में अब एमए करूंगा. देखो, क्या, कैसे करना है सब.’’

विकास उन का मुंह देखता रह गया. फिर एमए का फौर्म भी भर दिया गया और फिर अपनी बाकी व्यस्तताओं के साथसाथ रातदिन से अपनी पढ़ाई का थोड़ाथोड़ा समय निकाल कर एमए की परीक्षाएं भी दे दीं. इस बार पढ़ाई ज्यादा की गई थी क्योंकि दिवाकर को और पढ़ना था, शिक्षा प्राप्त करने का नशा गहराता जो जा रहा था. आगे एमफिल करने के लिए एमए में 55 प्रतिशत अंक प्राप्त करने जरूरी थे. कहीं समय की कमी से पढ़ाई प्रभावित न हो, इस के लिए दिवाकर ने अपने आराम, नींद के घंटे कम कर दिए थे. पार्टी के कामों के बाद बेकार की गप्पों, निरर्थक बातों में बीतने वाला समय वहां से जल्दी उठ कर औफिस में बैठ कर खुद को किताबों में डुबो कर बिताया था. खूब नोट्स बना बना कर पढ़ाई की गई थी.

एमए में 60 प्रतिशत अंक पा कर दिवाकर की खुशी का ठिकाना न रहा. विकास को ले कर ‘कोर्टयार्ड’ गए. एक कोने में चल रहे गजलों के लाइव प्रोग्राम का आनंद लेते हुए विकास को शानदार दावत दी. उन के चेहरे की खुशी देखने लायक थी. विकास ने कहा, ‘‘सर, अब बस न? और तो नहीं पढ़ना है न?’’

दिवाकर हंस पड़े कहा, ‘‘एमफिल.’’

विकास कुछ न बोला, सिर्फ मुसकरा दिया. थोड़ी देर बाद कहा, ‘‘लगता है आप सुरभि और पर्व से भी ज्यादा शिक्षा हासिल कर लेंगे.’’

‘‘उन्हें तो मु झे बहुत पढ़ाना है ताकि उन्हें किसी भी उम्र में जा कर कम पढ़ने का अफसोस कभी न हो. अब तुम एमफिल के डिटेल्स देख लो.’’

‘‘ठीक है, सर.’’

दिवाकर के जीवन का एक सार्थक उद्देश्य था अब, मन ही मन उस पल का शुक्रिया अदा करते जब कारमेल के उद्घाटन के लिए गए थे और अपनी कम शिक्षा पर शर्मिंदगी हुई थी. अब किताबों के साहित्य में जीवन जैसे एक नई दिशा की तरफ बढ़ता जा रहा था. दिवाकर की छवि एक मेहनती और सहृदय नेता की थी. अब जब वे सुशिक्षित होते जा रहे थे कई बातें और स्पष्ट होती जा रही थीं. अपना समय शिक्षा के प्रचारप्रसार में लगाने लगे थे.

विकास ने आ कर उन्हें आगे की जानकारी देते हुए कहा, ‘‘सर, आप इग्नू से एमफिल के लिए फौर्म भर दें. पर इस में ऐडमिशन के लिए लिखित परीक्षा होगी. फिर इंटरव्यू होगा. तब एडमिशन होगा. काफी तैयारी करनी पड़ेगी. सर, पत्राचार से 18 महीने का कोर्स है.’’

पलभर सोचते रहे दिवाकर, फिर बोले, ‘‘हां, काफी समय निकालना पड़ेगा, लिखित परीक्षा, इंटरव्यू. हां, ठीक है. भर दो मेरा फौर्म.’’

विकास उन्हें गर्वभरी नजरों से देखता रहा. फिर दोनों अपनेअपने काम में व्यस्त हो गए. दिवाकर देर रात तक औफिस में बैठ कर पढ़ते. बहुत व्यस्त पहले भी रहते थे. अब बहुत रात होने लगी तो मालिनी ने टोका भी, ‘‘आजकल कुछ ज्यादा ही देर से आ रहे हो? पहले तो इतनी रात कभी नहीं हुई,’’ बच्चों ने भी संडे को कहा, ‘‘पापा पहले तो संडे को आराम करते थे, अब संडे को भी औफिस?’’

सब को देख कर मुसकराते हुए दिवाकर ने जवाब दिया, ‘‘एक प्रोजैक्ट पर काम कर रहा हूं.’’

‘‘कितना टाइम लगेगा?’’

‘‘लगभग 2 साल, शायद बीचबीच में दिल्ली भी जाना पड़े.’’

सब ने पार्टी का काम सम झ कर ही संतोष कर लिया. दिवाकर को कोई बुरी आदत तो थी नहीं, हमेशा घरगृहस्थी के प्रति भी जिम्मेदार रहे थे. सब ने इसे राजनीतिक व्यस्तता सम झ कर यह विषय यहीं रोक दिया.

दिवाकर ने लिखित परीक्षा भी पास कर ली, दिल्ली जा कर इंटरव्यू भी दे आए. विकास हर कदम पर उन के साथ था. उन का चयन हो गया. दिवाकर एमफिल की पढ़ाई में जुट गए. जहां कभी कुछ अटकते, विकास गूगल पर खोजबीन कर उन की मदद करता. इग्नू में कुछ संपर्क निकाल कर विकास कुछ प्रोफैसर्स के फोन नंबर भी ले आया था. उन्होंने यथासंभव दिवाकर की मदद करने का आश्वासन भी दिया था और वे मदद कर भी रहे थे. और एमफिल भी हो गया. अपनी डिग्री हाथ में लेने पर दिवाकर की आंखों से आंसू बह निकले. विकास की आंखें भी भीग गईं. गर्व हुआ इतने मेहनती नेता का सहयोगी है वह. ठाणे लौटते हुए घर जाने से पहले उन्होंने सब के लिए उपहार लिए. एक बड़ी धनराशि लिफाफे में रख कर विकास को देते हुए कहा, ‘‘जो तुम ने मेरे लिए किया, उस का मूल्य हो ही नहीं सकता. वह अनमोल है. यह सिर्फ तुम्हारे और तुम्हारे परिवार के लिए मेरा खुशी का उपहार है.’’

विकास हंसता हुआ बोला, ‘‘सर, आप ने कई सालों से किसी स्कूल का उद्घाटन नहीं किया, मना कर दिया. 2 दिनों बाद ही एक नए स्कूल के उद्घाटन के लिए बारबार आग्रह किया जा रहा है, चलें? मजा आएगा इस बार.’’

‘‘देखते हैं.’’

‘‘सौरी सर, मैं ने आप की तरफ से हां कर दी है, आप की सफलता के लिए मैं सुनिश्चित था. अब की बार मीडिया को जो पूछना हो, पूछ ले, मजा आएगा.’’

खुल कर हंस पड़े दिवाकर, ‘‘अच्छा ठीक है.’’

घर आ कर सब को उपहार दिए, उन्हें बातबात पर मुसकराता, हंसता, चहकता देख मालिनी और बच्चे हैरान थे. दिवाकर ने कहा, ‘‘प्रोजैक्ट पूरा हो गया.’’

‘‘अब तो बता दो, कौन सा प्रोजैक्ट?’’

‘नीलकंठ हाइट्स’ में बने अपने बंगले के गार्डन में बने  झूले पर बैठते हुए दिवाकर बोले, ‘‘2 दिनों बाद एक स्कूल का उद्घाटन करूंगा, वहीं बताऊंगा. तीनों साथ चलना,’’ मालिनी और बच्चों ने एकदूसरे पर नजर डाली, जाने की बात पर संकोच हुआ, मालिनी ने कह ही दिया, ‘‘तुम ही चले जाना हम क्या करेंगे.’’

‘‘हां, पापा, हमें भी अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘इस बार अच्छा लगेगा, इस की गारंटी देता हूं,’’ तय समय पर सब नए स्कूल की बिल्ंिडग की तरफ चल दिए. वही तरीके, वही स्वागत, वही मीडिया, जब उन्हें 2 शब्द कहने के लिए मंच पर बुलाया गया, इस बार कदमों का आत्मविश्वास देखते ही बनता था. पूरे व्यक्तित्व में कुछ खास नजर आ रहा था. स्कूल, शिक्षा का महत्त्व बता कर बात खत्म की.

आज फिर उन की शिक्षा के बारे में भी पूछ लिया गया तो जवाब देने से पहले वे मुसकराए. विकास से नजरें मिलीं तो वह हंस दिया. फिर उन्होंने मालिनी और बच्चों पर नजर डालते हुए कहा, ‘‘मैं ने एमफिल किया है,’’ मालिनी और बच्चों के चेहरे का रंग उड़ गया, स्टेज पर खड़े हो कर दिवाकर इतना बड़ा  झूठ बोल रहे हैं. यह मीडिया उन की क्या गत बनाएगा, कितना अपमान होगा.

दिवाकर कह रहे थे, ‘‘कुछ साल पहले मु झे शिक्षा का महत्त्व सम झ आया. मैं ने पढ़ना शुरू किया तो पढ़ता चला गया. शिक्षा प्राप्त करने में जो आनंद मिला, वह सब सुखों से बढ़ कर लगने लगा. पहले बीए, फिर राजनीति विज्ञान में एमए और 2 दिन पहले ही दिल्ली के इग्नू से एमफिल की डिग्री ले कर लौटा हूं. पढ़ाई हो गई. अब अपने क्षेत्र, देश के विकास, कल्याण पर ध्यान देना है. बच्चे को समुचित शिक्षा मिले, इस पर काम करना है.’’

तालियों की गड़गड़ाहट से स्कूल का प्रांगण गूंज उठा था. उन की नजरें मालिनी और बच्चों की नजरों से मिलीं, तीनों के आंसू बहे चले जा रहे थे. गर्वमिश्रित खुशी के आंसू. विकास तो तालियां बजाते हुए खड़ा ही हो गया था. कई लोग वाहवाह कर उठे थे. समाज को आज ऐसे ही मेहनती नेता की तो तलाश थी. दिवाकर के दिल को मालिनी, बच्चों और वहां उपस्थित लोगों के दिलों में अपने लिए जो भाव दिखे, उन्हें महसूस कर असीम शांति मिली थी. सालों की मेहनत रंग लाई थी. आज किसी की नजरों में अपने लिए अपमान, शर्मिंदगी का नामोनिशान नहीं था. अब वे शिक्षा, किताबों और ज्ञान की दुनिया की सैर से जो लौटे थे, तनमन पुलकित हो उठा था.

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