करना पड़ता है: धर्म ने किया दानिश और याशिका को दूर- भाग 1

‘क्यासोच रही हो मम्मी?’’

नौशीन ने एक ठंडी सांस ले कर कहा, ‘‘सोचने को तो अब बहुत कुछ है, बेटा. तुम ने तो बहुत गलत जगह दिल लगा लिया,’’ कहतेकहते वे अपने बेटे दानिश को देख कर परेशानी में भी मुसकरा दी जो उन का स्वभाव था.

दानिश गंभीर रहा, आजकल परेशान तो मांबेटा दोनों ही थे. दानिश को अपनी सहकर्मी यशिका से मुहब्बत हो गई थी और अब वह उस से शादी करना चाहता था. मुलुंड, मुंबई में नौशीन और दानिश, ये 2 ही थे घर में.

नौशीन के पति अब इस दुनिया में नहीं थे. नौशीन ने अपने बेटे की बहुत अच्छी परवरिश अकेले ही की थी. वे खुद भी एक अच्छी कंपनी में कार्यरत थीं. मांबेटा अब दोस्तों की तरह थे. दानिश ने जब पहली बार यशिका से उन्हें मिलवाया, वे उस से मिल कर खुश ही हुईं थीं. वैसे भी आजकल मांएं बच्चों की पसंद में अपनी सहमति खुशीखुशी दे देती हैं और नौशीन तो महानगर में ही पलीबढ़ी, खुली सोच वाली महिला थीं. उन का मायका, ससुराल सब मुंबई में ही थे पर नौशीन उन सब की पुरातनपंथी सोच से अलग थलग रहने में ही सुकून पातीं.

आज शनिवार था. नौशीन और दानिश की औफिस की छुट्टी थी. शाम के 5 बजे थे. डोरबैल हुई तो नौशीन ने दानिश से कहा, ‘‘जाओ, दरवाजा तुम ही खोलो. तुम्हारे लिए ही कोई आया होगा.’’

यह मांबेटे का खेल था कि दोनों कोशिश करते कि दरवाजा उसे न खोलना पड़े. सब्जी, दूध वाला आता तो दानिश हंसता, ‘‘जाओ, आप के लिए ही कोई आया है.’’

 

यह यशिका के आने का ही टाइम था. दोनों जानते थे. वह अकसर शनिवार की शाम

आती. कभी तीनों डिनर पर निकल जाते, कभी मूवी देखने चले जाते, कभी घर पर ही तीनों अच्छा हंसीमजाक कर टाइम पास करते. देखने में एकदम परफैक्ट फैमिली पिक्चर लगती पर अभी कहां. अभी तो इस मुहब्बत के सामने जाति की दीवार ऐसे खड़ी थी जिसे हटाने के लिए रोज नए मंसूबे बनते, धराशायी होते.

यशिका ही थी. आते ही उस ने हाथ सैनिटाइज किए, अपना बैग एक तरफ पटका, नौशीन के गले मिली और दानिश को ‘हाय’ कहते हुए नौशीन के पास बैठ गई. पहले आम हालचाल हुए फिर यशिका ने जोश से पूछा, ‘‘आंटी, आज तो बड़ी मुश्किल से घर से निकली. पापा पता नहीं क्यों आज फ्री थे. आज उन की कोई राजनीति वाली बैठक नहीं थी. घर में ही मु?ो पकड़ कर पूछने लगे कि शादी के बारे में क्या सोचा है. मैं ने कहा कि जब सोचूंगी, आप को ही बताउंगी तो बोले कि मु?ो बस इतना ही कहना है कि लड़का अपनी जाति का हो, बस यह ध्यान रखना. मैं ने सोचा, आज मौका मिला है तो मैं भी उन्हें कुछ हिंट दे देती हूं, मैं ने कहा कि पापा, किसी को पसंद करना अपने हाथ में थोड़े ही होता है. देखो, कौन पसंद आता है. कास्ट का क्या है, इंसान अच्छा होना चाहिए, बस, आंटी, पापा को जैसे करंट लगा. बोले कि ये सब फिल्मी बातें मत करो मु?ा से. जातबिरादरी से बाहर किसी को पसंद करने की सोचना भी मत.

‘‘तुम्हारा भी नुकसान होगा, उस लड़के का भी. इस धमकी पर मु?ो गुस्सा तो बहुत आया, पर चुप रह गई और मेरी मम्मी. क्या कहूं उन्हें. पापा की हर गलत बात को चुपचाप सहती हैं, कभी उन्हें किसी भी गलत बात का विरोध करते नहीं देखा और घरों में मांएं कम से कम अपने बच्चों के लिए तो खड़ी हो जाती हैं और मेरे घर में तो मेरी मम्मी ने मु?ो ही इस बात पर आंख दिखाई. आंटी, आप ही कुछ करो.’’

नौशीन हंस पड़ीं, ‘‘वाह, इश्क तुम लोग फरमाओ, समाधान मैं ढूंढूं. तुम्हारे नेता कट्टर पापा से मैं निबटूं?’’

दानिश ने कहा, ‘‘मां हो मेरी. कुछ तो आप को करना ही पड़ेगा. हमें नहीं पता, पर आप ही देखो, मम्मी, कैसे क्या करना है.’’

दोनों बच्चों को स्पेस देते हुए नौशीन ‘अभी आती हूं’ कह कर अपने रूम में चली गईं. दानिश की पसंद यशिका उन्हें भी पसंद थी. वे चाहती थीं कि जल्दी से उन की शादी हो जाए. पर यशिका के पापा कट्टर हिंदू थे, जो किसी भी तरह एक मुसलिम लड़के से अपनी बेटी का विवाह हरगिज न होने देते. लोकल न्यूजपेपर में उन की गतिविधियां नौशीन अच्छी तरह पढ़ चुकी थीं पर कुछ तो करना पड़ेगा. उन्होंने बैठेबैठे बहुत सोचा कि वे कैसे उन्हें इस विवाह के लिए मना सकती हैं, वे बहुत सुंदर, स्मार्ट और होशियार थीं. इस समस्या को सुल?ाने का समाधान उन्हें जब सू?ा तो मन ही मन खुद को शाबाशी दे बैठीं. खयाल ही ऐसा आया था कि उन्हें अपने आइडिया पर रोमांच भी हुआ और हंसी भी आई.

नौशीन लिविंग रूम में आईं, बच्चों को अपने आइडिया के बारे में अभी नहीं बताना चाहती थीं. धीरेधीरे आराम से हर कदम सोच कर आगे बढ़ाना चाहती थीं. दोनों टीवी पर कोई शो देख रहे थे, नौशीन ने पूछा,

तूफान की वह रात- भाग 2

बाहर ही चौकी रखी थी. गरमियों में आमतौर पर बिहार में चौकीखाट वगैरह रात में पुरुषोंबच्चों के सोने के लिए निकाल दिए जाते हैं. वह वहीं आराम से बैठ गया. मां उस पर ताड़ के पत्तों से पंखे की तरह झलने लगी.

नहाने के बाद मां ने उसे चाय का गिलास और घर के बने नमकीन की तश्तरी उस के आगे धर दी थी. दोनों छोटे भाईबहन भी वहीं आ कर बैठ गए थे. उस ने जल्दीजल्दी चाय पी और नमकीन खत्म कर बोला, “शर्माजी के घर हो कर आता हूं. तुम इंतजार करना. जल्दी ही लौट आऊंगा.”

रात लगभग 9 बजे अर्थी उठी और वह भी सभी के साथ श्मशान घाट तक गया. दाह संस्कार के बीच वह जैसे शून्य में खोया सा था कि तभी आलोक आ कर उस से बोला, “राजू भाई, यह अचानक क्या हो गया?”

“क्या कहूं आलोक,” वह फफकफफक कर रो पड़ा, “मृत्यु नजदीक थी. कुछ को मुक्ति मिल गई. कुछ हमारे जैसे लोग भारतीय नौसेना की वजह से बच गए.”

“अब जो होना था, हो ही गया,” आलोक उसे सांत्वना देते हुए कहने लगा, “कुछकुछ जानकारी हमें भी हुई है. तुम बहुत थके हो और परेशान भी रहे. अब घर लौट जाओ. यहां हम कई लोग हैं देखने के लिए.”

उस के मन में वापस लौटने की इच्छा थी, मगर वह संकोचवश उठ नहीं रहा था. भारी मन लिए वह वहां से उठा और घर चला आया.

एक बार पुनः स्नान कर वह ताजातरीन हुआ और बेमन से खाना वगैरह खा कर बाहर बिछी चौकी पर लेट गया. छोटा भाई आ कर पैर दबाने लगा. उस ने उसे मना किया, तो वह मनुहार भरे स्वर में बोला, “इसी बहाने तुम्हारे पास हूं भैया. यहां मां और दीदी कितना रोती हैं.”

“क्योंक्यों, क्या बात हुई?” वह उठ कर बैठ गया, “फिर तुम तो घर पर ही हो.”

“मगर, मैं क्या कर सकता हूं. मैं तो बहुत छोटा हूं,” वह सुबकता हुआ बोला, “एक तो तुम इतनी दूर चले गए. उस पर ये तूफान वाला हादसा हुआ तो हम बहुत डर गए.”

“डरने की कोई बात नहीं. मैं हूं ना. अब बाहर नहीं जाता तो घर के खर्चे कैसे चलते?” वह उसे समझाते हुए बोला, “अब तुम जाओ. रात बहुत हो गई है इसलिए जा कर सो जाओ. मुझे भी नींद आ रही है. कल ढेर सारी बातें करूंगा.”

“नहीं, मैं तुम्हारे साथ ही सोऊंगा.”

“ठीक है, सो जा,” उस ने उसे अपने बगल में सुलाते हुए कहा.

अब वह सोने का प्रयास करने लगा था, मगर नींद अब आंखों से कोसों दूर थी. ऊपर आसमान तारों से सजा था, जिसे वह निहार रहा था. वह उन में कहीं पंकज शर्मा को खोज रहा था शायद, कि उसे अपने दिवंगत पिता की याद आ गई.

विगत वर्ष जब उस के पिता का देहांत हुआ था तो इसी प्रकार के भयावह शून्य को देख कर घबराया था. उन के अंतिम क्रिया संपन्न होने के बाद समस्या यह थी कि अब रोजमर्रा के खर्चे कैसे चलेंगे. तिस पर बिरादरी वालों ने श्राद्ध के नाम से अलग शाहीखर्च करा उस के घर को कर्ज में डुबा गए थे. उस की भी उसे भरपाई करनी थी. थोड़ी सी खेती थी. दरअसल, उसी पर सभी की दृष्टि लगी थी. मगर मां उसे किसी भी कीमत पर बेचने को तैयार नहीं थी. बहुत

उस ने भागदौड़ की. उस ने 3 साल पहले ही आईटीआई से वेल्डर का सर्टिफिकेट हासिल कर लिया था. मगर सरकारी तो दूर, कोई प्राइवेट नौकरी भी उसे नहीं मिल रही थी. वह वहीं समस्तीपुर में एक ग्रिल बनाने वाली दुकान में बतौर वेल्डर लग गया था कि घर बैठने से अच्छा है कि कुछ किया जाए. इस से काम में हाथ भी साफ रहता और परिपक्वता भी आती.

उन्हीं दिनों पंकज शर्मा छठ त्योहार के अवसर पर घर आए थे. वह मुंबई में किसी शिपिंग कंपनी में मैरीन इंजीनियर के अच्छे पद परथे. एक दिन वह किसी काम के सिलसिले में उन के छोटे भाई आलोक से मिलने गया, तो उस से भेंट हो गई. वह उस के घर का हालचाल पूछने लगे, तो जैसे दिल का दर्द बाहर उमड़ आया, “आप से कुछ छुपा तो है नहीं. दानेदाने तक के लिए मोहताज थे हम. तभी मैं समस्तीपुर में उस ग्रिल बनाने वाली दुकान पर जाने लगा. इस लौकडाउन में तो हमारी क्या, सभी की हालत खराब रही. वे बस कुछ खानेपीने भर को दे देते हैं. छोटे भाई को अगले साल बारहवीं की परीक्षा देनी है. पता नहीं, वह पैसों के चलते फार्म भर पाएगा कि नहीं. वह इसीलिए विक्षिप्त सा हो रहा है. छोटी बहन को भी दसवीं की परीक्षा देनी है. उस की पढ़ाई में कुछ खर्च तो होता नहीं, मगर भोजनपानी तो चाहिए ही चाहिए ना. उधर हमारी थोड़ी सी बची जमीन पर गिद्धदृष्टि लगाए बैठे हैं. वो कैसे बचेगी, और बड़ी बात यह कि हम कैसे बचें, समझ नहीं पाता हूं.

“आप तो मुंबई में अच्छे पद पर हैं. वहां कुछ जुगाड़ हो पाता मेरा तो बहुत अच्छा रहता. मुमकिन हो तो आप अपनी शिपिंग कंपनी में  ही मुझे रखवा लें.”

“अरे, मैं भी तो उस कंपनी में मुलाजिम ही हूं,” कहते हुए वह जोरों से हंसे थे, “मैं वहां क्या कर सकता हूं…?”

थोड़ी देर ठहर कर कुछ याद करते हुए से वह बोले, “तुम ने वेल्डिंग ट्रेड से आईटीआई पास किया है ना. कैसा काम है तुम्हारा?”

“अब मैं अपने मुंह से अपनी प्रशंसा क्या करूं. मैं जिस दुकान में काम करता हूं, उन्हीं से पूछ लीजिएगा. इस फिनिशिंग से काम करता हूं कि सभी मेरी वेल्डिंग की प्रशंसा करते हैं.”

“मैं जिस जहाज पर काम करता हूं, उस के कैप्टन ने मुझ से किसी अच्छे वेल्डर के बारे में बात की थी. मगर भाई, सागर में जहाज की नौकरी रहेगी. पता नहीं, तुम्हें पसंद आए या नहीं? वैसे, पैसे अच्छे मिलेंगे. संभवतः 20,000 रुपए महीने के दें.”

उस ने उन के पैर पकड़ लिए थे, “मुझे मंजूर है, समुद्र के जहाज पर रहना. कम से कम मेरी मां तो ठीक से रहेगी. भाईबहन थोड़ी पढ़ाई तो कर पाएंगे. आप मुझे साथ ले चलिए.”

और इस प्रकार वह पंकज शर्मा के साथ मुंबई आ गया था. वहां पहले उसे शिपिंग कंपनी के तकनीकी विभाग में रखा गया. फिर वह जहाजों पर ही काम करने लगा था. कैसा नीरस जीवन था यहां का. समुद्र तट से सैकड़ों मील दूर स्थित जहाजों में टूटफूट होती रहती थी और उस के साथ ही मरम्मत का काम भी चलता था. चूंकि जहाज लोहेइस्पात के ही बने  होते हैं. और इस के लिए कुशल तकनीशियनों की जरूरत पड़ती ही थी. शीघ्र ही उस ने अपने काम से सभी का दिल जीत लिया था.

पंकज शर्मा का जीवन तो समुद्र में खड़े जहाजों के बीच ही गुजरता था. फिर भी उन्होंने मुंबई के उपनगर अंधेरी में एक कमरा ले रखा था. वेतन मिलते ही वह वहां जाते और कुछ आवश्यक खरीदारी के साथ घर पैसा भेज देते थे. अगले माह जब वेतन मिला, तो वह उसे भी साथ ले गए.

पछतावा-भाग 2: क्यूं परेशान थी सुधा

तन्वी दीदी के इस रवैए से हैरान थी. आखिर दीदी को उस फ्लैट में रहने वालों से क्या लेनादेना है, इतनी दिलचस्पी क्यों है. दीदी जैसे लोग ही सच्चीझूठी बातों में मिर्चमसाला लगा कर अफवाहें फैलाते हैं. दीदी का तो यह नया रूप देखने को मिल रहा था उस को. वह सोचने लगी कि अपने घर पर ध्यान देने के बदले दूसरों के घर में ताकझांक करना क्या दीदी को शोभा देता है…तन्वी अपने विचारों में खोई हुई थी कि तभी सुधा उस के पास आई और बोली, “तन्वी, नाश्ते के लिए शक्करपारे बना लेते हैं. चाय के साथ अच्छे लगते है खाने में.”

“हां दीदी, सही कह रही हो. तुम मुझे सब सामान दे दो. में शक्करपारे बनाने की तैयारी करती हूं.”

सुधा सब सामान तन्वी को दे रही थी, तभी किचन में पिंटू आया और बोला, “मम्मी, वह तोंदू का फ़ोन आया है, मैं ने फ़ोन होल्ड पर रखा है. जल्दी चलो बात करने.”

आटा गूंधतेगूंधते तन्वी पलटी और बोली, “ये तोंदू कौन है?”

“अरे, वही टकलू अंकल. उसी को तोंदू कहते हैं हम,” पिंटू ने कहा, “मम्मी, तुम जल्दी आओ,” यह कह कर वह चला गया.

 

तन्वी ने सुधा से पूछा, “दीदी, ये तोंदू, टकलू किस के नाम रखे हैं तुम ने?”

इस पर सुधा ने हंसते हुए कहा, “वही बुद्धूचरण, पाठक अंकल, रसिक बलमा.” और जोरजोर से वह हंसने लगी.

उस की बातें सुन कर तन्वी को भी हंसी आ गई. फिर वह बोली, “क्या दीदी, तुम ने अपने बौयफ्रेंड के क्याक्या फनी नाम रखे हैं.” यह सुनकर सुधा खिलखिला कर हंसने लगी और बोली, “आती हूं बात कर के.”

तन्वी अपने बेटे आयुष और बेटी पूर्वी से बात करना चाहती थी लेकिन टाइम ही नहीं मिल पा रहा था. पूरे दिन वह दीदी के साथ किचन में हाथ बंटाती थी, फिर कोई नाश्ता बनाना हो तो दीदी उस पर छोड़ कर चली जातीं और आधा घंटा, पौने घंटे के बाद आती. कभीकभी नहीं आती और सोफे पर आराम करती रहती.

वह अभी मोबाइल पर नंबर डायल कर रही थी, तभी उस ने देखा दीदी ने धीरे से पिंटू से कुछ कहा और पिंटू चप्पल पहन कर तेजी से घर से बाहर चला गया. दसबारह मिनट बाद वह वापस आया और दीदी को इशारे से कुछ कहा. जवाब में दीदी ने सिर हिलाया और ओके कहा.

दीदी के घर का माहौल तन्वी को अजीब लग रहा था. क्या खिचड़ी पक रही थी, उस की समझ के बाहर था. सच पूछो तो वह जानना भी नहीं चाहती थी. इतने दिनों से वह जो कुछ भी देख व सुन रही थी, जो कोई भी देखता या सुनता वह यही कहता कि दीदी के घर का माहौल बहुत ख़राब है, किसी चीज में अनुशासन नहीं था.

तन्वी आयुष को फ़ोन लगा रही थी लेकिन लग नहीं रहा था. शायद नैटवर्क की प्रौब्लम होगी, थोड़ी देर बाद फ़ोन लगाऊंगी, यह सोच कर तन्वी ने मोबाइल टेबल पर रख दिया. उस ने दीदी की तरफ देखा, वे अभी भी पाठक अंकल से बात करने में व्यस्त थीं. काफी देर तक उन की बातें चलती रहीं. पाठक अंकल से एकडेढ़ घंटा बात करने के बाद फाइनली दीदी ने बाय कहा. और तन्वी की तरफ देख कर मुसकरा दी.

तन्वी ने सुधा से पूछ लिया, “दीदी, इतनी देर तक क्याक्या बातें करती हो? चलो, थोड़ी तो रोमैंटिक बातें होती होंगी, मान लिया लेकिन और कौन सी बातें करते हो आप लोग? आप तो सुबह से ले कर रात के सोने तक बात करती हो. हर घंटे तुम चैटिंग करती हो. पूरे दिन में 5 से 6 बार फ़ोन पर बात होती है, इसीलिए पूछ रही हूं.”

इस पर सुधा बोली, “अरे, तू नहीं जानती इस बुद्धूचरण को, पता नहीं किसी और औरत से चक्कर न चला ले, इसलिए पूरे दिन इसी बहाने उस पर निगरानी रखती हूं. उस से घर की सब बातें पूछती रहती हूं. उस से उस की दिनभर की दिनचर्या का पता चल जाता है. वे भी मुझ से छोटी से छोटी बातें शेयर करते हैं- कितना बैंक बैलेंस है, उन की बहन को राखी पर क्या गिफ्ट दिया, वे कहां जाने वाले हैं, कब आएंगे… सब बातें मुझे मालूम होती हैं, यहां तक कि वे मुझ से सलाह भी लेते हैं.

“मैं ने अपनी उंगलियों पर उन को नचा रखा है. मैं फ़ोन करूं और वे फ़ोन न उठाएं, इतनी मजाल नहीं है उन की. इसीलिए उन की पलपल की खबर रखती हूं. वह कहते हैं न, बंदर बूढ़ा हो जाए तो क्या, गुलाटी खाना नहीं भूलता. उन को लगता है, मैं उन की कितनी परवा करती हूं, उन से कितना प्रेम करती हूं…”

“लेकिन यह तो एक दिखावा है तुम्हारा, है न दीदी?”   तन्वी तपाक से बोली.

“हूँ,” और सुधा ने सहमति में अपना सिर हिलाया.

तन्वी ने फिर पूछा, “उन की फैमिली नहीं है क्या?”

“उन की फैमिली है,” सुधा ने जवाब दिया, “2 बच्चे हैं, दोनों विदेश में रहते हैं. उन की वाइफ वेल एडुकेटेड हैं और दिखने में भी बहुत सूंदर हैं…”

सुधा पाठक अंकल के बारे में बता रही थी, तभी निशा कमरे में अपने मोबाइल का चार्जर ढूंढती हुई आ गई. उस को देखते ही सुधा ने निशा से पूछा, “अरे, तूने लिस्ट बना ली है न, तुझे बर्थडे पर क्याक्या चाहिए. थोड़ा महंगा ही पसंद किया है न, तूने? और सुन, पाठक अंकल को फ़ोन कर के लिस्ट का सामान लिखवा दे. या फिर व्हाट्सऐप पर लिस्ट भेज दे.”

इस पर निशा ने कहा, “यह आप जानें, कितनी बार मुझे बोल चुकी हो. मैं ने लिस्ट बना ली है, पाठक अंकल को ही फ़ोन करने जा रही थी. तभी पता चला मोबाइल में चार्जिंग ही नहीं है. मैं फ़ोन चार्ज होते ही उन को कौल कर लूंगी. तुम उस की चिंता मत करो.”

“हां, वह तो सब ठीक है लेकिन थोड़ी चिकनीचुपड़ी बातें करना उन से. थोड़ी लच्छेदार समझ, गईं न,” सुधा ने निशा से कहा.

निशा ने कहा, “हां मम्मी, सब मालूम है मुझे, कैसे बात करनी है उन से. हर बार तो बताती हो यह बोलना, वह बोलना. कोई पहली बार थोड़ी न लिस्ट दे रही हूं.

निशा और सुधा की बातें चल ही रही थीं, तभी सुधा के फ़ोन की रिंगटोन बज उठी. सुधा ने फ़ोन उठाया और बोली, “समीर, 5 मिनट रुको न, प्लीज, मैं थोड़ा बिज़ी हूं. आई कौल यू लैटर.” यह कह कर सुधा ने फ़ोन रख दिया. उस ने निशा को कुछ समझाया. फिर निशा चली गई. फिर सुधा ने समीर से करीब 45 मिनट बात की. बात करतेकरते बीच में हंस भी रही थी.

तन्वी सोच रही थी की यह भी कोई बौय फ्रैंड ही होगा दीदी का. तभी तो दूसरे कमरे में जा कर बात कर रही हैं, वह भी इतनी देर से.

समीर से बात कर के सुधा फिर से तन्वी के पास आ कर बैठ गई. बहुत खुश लग रही थी. तन्वी से रहा नहीं गया और उस ने सुधा से पूछ लिया, “समीर भी आप का बौयफ्रैंड है, दीदी?”

“हां रे, मुझ पर जान छिड़कता है. तुझे पता है, वह मेरे लिए ब्रैंडेड हैंडबैग ला रहा है. मुझ से पूछ रहा था कि किस कलर का लाऊं. और भी बहुत सारे गिफ्ट ला रहा है मेरे लिए. मैं ने उस से एक ब्रैंडेड टीशर्ट भी मंगवाई है जिस पर हार्ट बना हुआ हो. वह बोला ले कर आऊंगा,” ये बातें सुधा इतराइतरा कर बता रही थी जैसे उस ने कोई महान काम किया हो, जिस के लिए उस को पुरस्कार मिल रहा हो.

“कौन है ये समीर और क्या करता है?” तन्वी ने पूछा.

“हमारी ही बिल्डिंग में रहता है. मैनेजर की पोस्ट पर काम करता है. उस की सैलरी भी बहुत अच्छी है, दिल खोल कर खर्च करता है. मेरे बिना वह रह नहीं सकता,” सुधा ने कहा.

तन्वी ने पूछा, “विवाहित है या अविवाहित?”

 

इस पर सुधा ने कहा, “विवाहित है. उस के 2 बच्चे भी हैं. मेरे से दसग्यारह साल छोटा है.

 

“उस की वाइफ जौब करती है या हाउसवाइफ है?” तन्वी ने पूछा.

सुधा ने कहा, “वह हाउसवाइफ है, काव्या नाम है उस का. पढ़ीलिखी है. और तो और, सूंदर भी बहुत है, बहुत मौडर्न है.

तन्वी बोली, “अजीब इत्तफाक है न, दीदी. आप के दोनों बौयफ्रैंड की वाइफ पढ़ीलिखी और सुंदर हैं. समीर तुम से दसग्यारह साल छोटा है. उस की उम्र करीब 34 वर्ष है. जवान लड़का है. भले ही उस की शादी हो गई हो लेकिन उस में मैच्योरिटी की कमी है. इस उम्र के लड़के घूमनाफिरना और मौजमस्ती में विश्वास रखते हैं. ताज्जुब तो मुझे पाठक अंकल पर हो रहा है. उन की तकरीबन 35 साल की गृहस्थी है. अच्छा भरापूरा परिवार है. उन की पत्नी भी सूंदर और पढीलिखी हैं. आप दिखने में एकदम साधारण हो. उन की उम्र भी बड़ी है. जिंदगी का काफी अनुभव रहा होगा. काफी मईच्योर भी होंगे. फिर उन को तुम जैसी साधारण दिखने वाली लड़की से अफेयर करने की जरूरत क्यों पड़ी.

“जाहिर सी बात है कि उन की पत्नी सुशील और कुशल गृहिणी होंगी. अच्छी पत्नी न हो, तो इतनी लंबी शादी टिकना नामुमकिन है. मैं तुम से दावे के साथ कह सकती हूं कि पाठक अंकल की जिंदगी में आने वाली तुम पहली औरत नहीं हो. आप से पहले भी उन के कई अफेयर रहे होंगे. तभी तो सिर्फ दोतीन मुलाकातों में ही तुम्हारा अफेयर हो गया. जैसे वे तुम्हारे पहले बौयफ्रैंड नहीं हैं क्योंकि इस के पहले भी तुम्हारे कई बौयफ्रैंड रह चुके है, वैसे ही तुम उन की पहली प्रेमिका नहीं हो सकतीं.”

“यह तू क्या कह रही है?”   सुधा ने तमक के कहा.

इस पर तन्वी बोली, “मैं सही कह रही हूं, दीदी. दोनों की सुंदर पढ़ीलिखी पत्नी होने के बावजूद वर्षों से उन्होंने तुम्हारे साथ चक्कर चला रखा है, अपनी वाइफ को धोखा दे रहे हैं. समीर और पाठक अंकल चरित्रहीन पुरुष हैं या यों कहूं, ठरकी हैं, तो गलत नहीं होगा.”

“इस से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता है क्योंकि न तो मुझे उन दोनों से प्रेम है और न ही मुझे शादी करनी है. इतना तो मैं भी जानती हूं की उन पर विश्वास नहीं किया जा सकता. मुझे तो सिर्फ गिफ्ट और पैसों से मतलब है, इस से जयादा कुछ नहीं. मूवी देखने को मिल जाती है, बड़ेबड़े होटलों में डिनर, लंच करने को मिलता है, ब्रैंडेड कपड़े और जो चाहो वह मिल जाता है. मुझे ऐसी ही ऐशोआराम की जिंदगी चाहिए थी.

“इतना ही नहीं, मुझे जितने पैसे चाहिए, मेरे अकाउंट में आ जाते हैं, यहां तक कि जब मैं मम्मीपापा से मिलने आती हूं तो कैब के किराए से ले कर आनेजाने का टिकट भी अंकल कर के देते हैं. मैं सिर्फ एक बार बोलती हूं और सब काम हो जाता है. मेरी चिकनीचुपड़ी बातों में पाठक अंकल आ जाते हैं. थोड़ी झूठी तारीफ कर देती हूं, बस. तारीफ सुन कर वे सातवें आसमान पर पहुंच जाते हैं. मैं उन को आसानी से मूर्ख बना देती हूं. और मेरा काम हो जाता है. उन को लगता है कि सचमुच वे महान इंसान हैं,” यह सब कह कर सुधा हंसने लगी.

तन्वी और सुधा बातें कर रहे थे, तभी डोरबेल बजी. सुधा ने उठ कर दरवाजा खोला, सामने खड़ी लेडी ने जोरजोर से चिल्लाना शुरू किया, “यह सिखाया है तुम ने अपने बच्चों को कि किसी के भी साथ मारपीट करो. और बड़ों के साथ बदतमीजी से बात करो. उन की इंसल्ट करो.” वह औरत लगातार बोले जा रही थी.

सुधा और तन्वी को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था. तभी सुधा ने चिल्ला कर कहा, “एक मिनट चुप हो जाओ तुम. कौन हो तुम और मेरे यहां आ कर झगड़ा क्यों कर रही हो?”

इस पर वह महिला बोली, “ज्यादा अनजान बनने का नाटक मत करो. अपने बच्चों की करतूतें नहीं जानती हो क्या? यहां सब जानते हैं, सब के साथ वे झगड़ा करते हैं. अभी मेरे बच्चे के साथ मारपीट की है. उसे साइकिल से धक्का दे दिया. वह नीचे गिर गया. और उस के सिर से खून बहने लगा. मेरे पति उस को डाक्टर के पास ले कर गए हैं. तुम अपने बच्चों को संभालो, वरना अच्छा नहीं होगा. अगली बार उन्होंने ऐसा किया तो मैं उन की हड्डीपसली तोड़ दूंगी.”   सुधा गुस्से में बोली, “तुम्हारे बच्चे ने ही कुछ किया होगा. मेरे बच्चे ऐसे नहीं हैं. तुम झूठ बोल रही हो. हम लोग बहुत अच्छे घर से हैं, तुम्हारी तरह नहीं हैं.”

वह महिला गुस्से से आगबबूला हो गई, “हमारी तरह नहीं हो, इस का क्या मतलब है तुम्हारा? तू कैसी औरत है, पूरी सोसायटी जानती है. ज्यादा सतीसावित्री होने का ढोंग मत कर. और तेरे बच्चे कितनी बिगड़ैल औलादें हैं, पूरी दुनिया जानती है. तेरी जो शानोशौकत है, उस का पूरा राज भी मुझ को पता है, इसलिए मेरे मुंह लगने की गलती मत करना वरना पछताएगी.”

इतना सुनते ही सुधा अपना आपा खो बैठी. उस ने उस महिला को जोर से धक्का दिया. इस पर उस महिला ने सुधा के मुंह पर जोर से एक थप्पड़ मारा. और बाल पकड़ कर दीवार की तरफ धक्का दिया और जोर से एक लात मारी. सुधा और वह महिला लगातार मारामारी कर रही थीं. दोनों में से कोई भी रुकने का नाम नहीं ले रहा था. बिल्डिंग के बाकी लोग इन को रोकने के बजाय लड़ाई का मजा ले रहे थे. और, उस महिला को और सुधा को उकसा रहे थे. उन में से एक आंटी बोल रही थीं, ‘मार और मार. इस ने और इस के बच्चों ने नाटक मचा रखा है.’ तन्वी को समझ नहीं आ रहा था कि इन की लड़ाई कैसे रोके. बीचबचाव करते हुए यदि उस को एकाध थप्पड़ या लात पड़ गई तो? उन के बीच घमासान चालू था. उस ने वहीं खड़ी एक महिला को मदद के लिए इशारा किया. और बड़ी मुश्किल से उन का झगड़ा रोका.

जातेजाते वह महिला सुधा से बोली, “तेरे को तो मैं देख लूंगी. तेरे को इतनी आसानी से छोडूंगी नहीं मैं. तेरे घर मैं तेरे बच्चों की शिकायत ले कर आई थी. और तूने मेरे साथ मारपीट की. तेरी ईंट से ईंट बजा दूंगी. वह औरत सुधा को धमकी दे कर चली गई.

सुधा और तन्वी घर में आ गए. सुधा कुछ लंगड़ा कर चल रही थी. उस औरत ने लात जोर से मारी थी. उस को लंगड़ाता देख कर तन्वी बोली, “क्या हुआ, दीदी?”

सुधा ने कहा, “अरे, उस औरत ने लात बहुत जोर से मारी थी. इसलिए थोड़ा चलने में दिक्कत हो रही है, बस.”

वह औरत बहुत हट्टीकट्टी थी. लात तो जोर से ही पड़ी होगी. यह सोच कर न चाहते हुए भी तन्वी अपनी हंसी रोक न पाई. और हंस पड़ी. उस ने सुधा से कहा, “दीदी, यह लड़ाईझगड़ा, मारपीट करना क्या आप को शोभा देता है? आप के बच्चे आप का ही अनुसरण करेंगे.”

इतने में पिंटू और निशा घर पर आ गए. “कहां रह गए थे तुम लोग?” सुधा ने बच्चों से पूछा.

पिंटू बोला, “हम तो घर ही आ रहे थे लेकिन जब आप को उन आंटी के साथ मारपीट करते देखा तो हम लोग डर कर भाग गए. कहीं वे आंटी हमारी भी पिटाई न कर दें.”

“ऐसे डरने की जरूरत नहीं है. अगली बार वह झगड़ा करे तो उस की जम कर पिटाई करना. मैं देख लूंगी वह क्या करती है. अभी तुम हाथपैर धो कर कपड़े बदल लो,” सुधा बोली.

बच्चों ने स्वीकृति में सिर हिलाया और चले गए. अब तन्वी ने सुधा से कहा, “दीदी, यह क्या उलटासीधा पाठ बच्चों को सिखा रही हो? उन्हें लड़ाईझगड़ा करने से रोकने के बदले आप उन्हें उकसा रही हो. और वैसे भी, उन की हमेशा, चाहे स्कूल हो या तुम्हारी सोसायटी, शिकायतें आती ही रहती हैं. अभी तो वे बच्चे हैं लेकिन यह यदि उन की आदत ही बन गई तो बड़े होने के बाद भी उन का लड़ाईझगड़ा करना चालू रहेगा.”

इस पर सुधा बोली, “यह अपना ज्ञान अपने पास रख. मुझे मालूम है बच्चों की परवरिश कैसे करना है और उन को क्या सिखाना है और क्या नहीं.”

तन्वी सोचने लगी, अंधे के आगे रोना और अपने नैन खोना. इन को कुछ भी समझाना बेकार ही होगा. उस ने चुप रहना उचित समझा.

तन्वी को सुधा के घर पर अच्छा नहीं लग रहा था. उन के घर का वातावरण भी उसे ठीक नहीं लग रहा था. वह तो सुधा के पास यह सोच कर आई थी कि कुछ दिन दीदी के साथ रहेगी तो थोड़ा चेंज हो जाएगा. और फिर बच्चे भी घर पर नहीं थे. उस ने सोचा कि अब उसे अपने घर चले जाना चाहिए. वैसे भी, जब से वह आई है, दीदी औपचारिकता ही अपना रही है, अपनेपन का तो कोई नामोनिशान ही नजर नहीं आ रहा. उस को काम में बिजी कर देती है और फिर मोबाइल पर घंटों समीर, पाठक अंकल और न जाने किसकिस से बातें करती रहती है. और तो और, सुबह दूधब्रेड लेने जाती है तो किसी बाइक वाले पर फ़िदा हो गई. पता नहीं और कितने गुल खिलाएगी.

तन्वी ने अपना पहले वाला टिकट रद्द कर दिया. उस के हिसाब से उसे और 8 दिन रुकना पड़ता. वह जल्दी से जल्दी दीदी के घर से जाना चाहती थी. इसलिए अगले दिन के लिए टिकट बुक करने लगी. लेकिन अगले दिन का टिकट उपलब्ध नहीं था. इसलिए उस ने परसों का टिकट बुक कर लिया. और यह बताने के लिए वह सुधा के पास जा रही थी, तभी निशा ने सुधा को आवाज लगाई और कहा, “मम्मी, आप के लिए फ़ोन है.”

“किस का फ़ोन है?” सुधा ने बाथरूम के अंदर से ही पूछा.

“समीर अंकल का,” निशा ने कहा. इतने में मोबाइल पर गेम खेलते हुए पिंटू ने हंसते हुए कहा, “समीर हवा का झोंका” तो  निशा भी हंसने लगी. दोनों ने एकदूसरे के हाथ पर हाथ मारा और फिर और जोरजोर से हंसने लगे.

तन्वी खड़े रह कर यह सब चुपचाप देख रही थी. दीदी तो अब समीर से बात करेंगी, यह सोच कर वह अपने कमरे में जाने लगी. फिर उस को खयाल आया कि कल मार्केट भी जा कर बच्चों के लिए गिफ्ट लेने हैं, पैकिंग भी करनी है. दीदी को टिकट के बारे में बताना भी जरूरी है. उस को सामने देख कर दीदी समीर से जल्दी बात कर के भी फ़ोन रख सकती हैं, नहीं तो डेढ़दो घंटे करेंगी.

सुधा समीर से बात कर रही थी. तन्वी को उन की बातें सुनने में कोई रुचि नहीं थी. बेमन से वहां बैठी थी वह. तभी सुधा ने समीर से जो कुछ कहा वह सुन कर तन्वी चौँक गई. वह समीर से कह रही थी कि अभी हम मार्केट गए थे, व हां मैं ने तुम्हारी पत्नी काव्या को किसी अनजान आदमी से बातें करते देखा. उस के साथ हंसहंस कर बातें कर रही थी. हम ने साड़ी शौपिंग कर ली लेकिन फिर भी वह वहीं खड़े रह कर बातें करती रही. मेरी बहन भी साथ में थी, इसलिए ज्यादा देर मैं रुक न सकी. वे दोनों क्या बातें कर रहे थे, इस का पता नहीं चल सका. हम लोग घर आए, तब तक वह वहीं थी. अभी घर आई है कि नहीं, यह पता नहीं. जरूर उस का बौयफ्रैंड ही होगा. वह तो आज मैं ने इत्तफाक से देख लिया. पता नहीं और कितनी बार मिली होगी उस से.

मीठी परी: भाग 1- सिम्मी और ऐनी में से किसे पवन ने अपनाया

प्रकृति की अद्भुत देन नर और मादा न होते तो इस संसार का विकल्प कुछ और ही होता. स्त्रीपुरुष की देन के साथ कितना कुछ जुड़ा है- दिमाग की सोचविचार, भाषा, भंगिमा, प्रेम प्रदर्शन, दिशा, सहमति, समर्पण, उत्पत्ति, आनंद आदि. जन्मदात्री स्त्री का तो हृदय परिवर्तन ही हो जाता है जब वह अपने शरीर से उपजे नन्हे शरीर को पहली बार छूती है. पनपती है एक अनुभूति ममता.

रमा ने अपने दोनों बेटों नयन और पवन को पति के सहयोग से जो दिशा दी, उस का परिणाम सामने है. बड़ा बेटा नयन सेना में है. फिलहाल असम में तैनात है. छोटा बेटा पवन इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर विदेश में नौकरी करने के लिए जाने की तैयारी में है.

पिता दोनों को देखते हैं तो गर्व से फूले नहीं समाते, अपने जवान बेटों पर. और अब तो एक और खुशखबरी है, बिग्रेडियर बक्शी की बेटी संजना का नयन से शादी का प्रस्ताव. न कहने की कोई गुंजाइश नहीं. दोनों ओर से हां होते ही रस्मोरिवाज, लेनदेन का सिलसिला चलता रहा. शादी 6 महीने बाद होनी तय हुई.

नयन की शादी घर की पहली शादी थी, सो वे पतिपत्नी तैयारी की योजना में लग गए, होने वाली बहू के लिए गहनेकपड़ों के अलावा देनेलेने के लिए गिफ्ट्स, अतिथियों की लिस्ट, बाजेगाजे, पार्टी का प्रबंध आदि.

अचानक काला साया एक रात नयन के पिता को ले चला. औफिस से थोड़ा पहले घर आ, रमा को थोड़ा थका बता, आराम करने लेटे. जबरदस्ती चाय के साथ हलका नाश्ता करा रमा उन के माथे पर हलका स्पर्श दे, सहलाती रही जब तक वे सो नहीं गए. कंधे तक चादर ओढ़ा, थोड़ी देर उन के पास बैठी रही, फिर शाम का खाना बनाने के लिए उठ गई. दोनों बेटे भी घर आ कर पिता के आराम में बाधा न डालने की सोच, दबेपांव जा उन्हें सोता देख लौट आए.

नयन के कहने पर कि उन्हें आराम करने दें, रमा ने थोड़ा सा बच्चों के साथ खा लिया और कमरे में लौटी. पति को सोते में न जगाया जाए, यह सोच वह दूसरी चादर ले, पास चुपचाप लेट गई. बारबार उठ, बिस्तर के दूसरे कोने में दूसरी ओर लेटे पति को रात की मद्धिम लाइट में शांत सोते देख उन के अच्छे स्वास्थ्य की कामना करती रही. जब नींद ही नहीं आ रही तो उठा जाए, सोच कर रमा रसोई में जा कर अपने और पति के लिए चाय बना लाई.

धीरे से पति को आवाज दी, फिर हिलाया. माथा, मुंह, बांहें छू कर जो समझी, तो चीख मार बच्चों को आवाज दी. पता नहीं कब उस के पति इस दुनिया से चले गए थे. डाक्टर ने उन की मृत्यु का कारण घातक हार्टअटैक बताया जो कई घंटे पहले आ चुका था. बेटों ने खुद को, मां को संभालते हुए सब को सूचना दी व पड़ोसियों की सहायता से पिता के दाहसंस्कार की तैयारी व बाकी के प्रबंध में लग गए.

रमा के मायके से भाईभाभी ने पहुंच, उसे संभाला. नयन की होने वाली ससुराल वालों व और सब के आने पर शाम जब क्रियाकर्म करवा लौटे तो रुदन की दिल हिलाने वाली आवाजों से घर का कोनाकोना रो रहा था. रमा को कौन समझाए. बेटे की होने वाली शादी की कहां तो वह खुशीखुशी पति के साथ मिल सब तैयारियां कर रही थी और आज उन के बिना कोने में बैठी कितनी उदास व निरीह सी बैठी थी. शादी अब पति की बरसी होने तक टाल दी गई थी.

संजना के पिता ब्रिगेडियर बक्शी के प्रयत्न से नयन की 6 महीने की अपातकालीन छुट्टी का प्रबंध कर दिया गया था ताकि वह अपनी मां के पास रह, उसे इस दुख से उबार सके. समझदार रमा ने इस नियति की मार से उबरने का प्रयास कर अब अकेले ही अपनी हिम्मत जुटा, बच्चों के प्रति अपनी ममता व कर्तव्य को जानते हुए व्यस्त रहती. बेटे उस का पूरा ध्यान रखते.

अभी 2 महीने ही बीते थे कि पवन को सूचना मिली कि उसे यूनाइटेड किंगडम की एक अच्छी कंपनी में तुरंत जौब करने का औफर है. बच्चों के भविष्य को समझते हुए रमा ने हां कह उसे तुरंत जाने की तैयारी करने को कहा. पवन अपने बड़े भाई नयन की होने वाली पत्नी यानी अपनी भाभी संजना से मिलने गया, लंदन जाने के बाद इतनी जल्दी भाई की शादी पर आना हो पाए या नहीं. मां का मन चिंतित व उदास हुआ यह सोच कर कि बच्चा इतनी दूर जा रहा है, फिर मैं उसे देख भी पाऊंगी. पति की अकस्मात मृत्यु से ऐसे विचार आना स्वाभाविक थे. उस के जाने के दिन रमा के आंसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे.

खुले विचारों वाले पवन को लंदन पहुंच कर अच्छा लगा. कंपनी की तरफ से छोटा सा सुंदर अपार्टमैंट मिला और कार की भी सुविधा थी. उस ने अपने साथ काम करने वाले सहयोगियों से जल्दी दोस्ती गांठ ली, विशेषकर लड़कियों से. फुर्तीला, काम में अच्छा, व्यवहार में विनम्र, अच्छे कपड़े पहनने का शौकीन पवन जहां जाता, अपनी जगह स्वयं बना लेता.

वहां लोग फ्राइडे शाम को कुछ ज्यादा ही रिलैक्स्ड रहते हैं. पब पीने वालों से भरे होते और सड़कें मस्त जोड़ों से. कौन पत्नी है और कौन गर्लफ्रैंड क्या जानना, बस बांहों में बांहें डाले मौजमस्ती करते जीवन का भरपूर आनंद उठाते कितने ही जोड़े दिखते. पवन भी पब में शुक्रवार की शाम बिताता और वहां एक लड़की को कोने में अकेली आंखें नीचे किए बैठी बियर पीते देखता.

एक शुक्रवार को पवन से रहा नहीं गया. अपना बियरभरा गिलास लिए उस के पास की दूसरी कुरसी पर लगभग बैठता हुआ पूछ बैठा, ‘‘डू यू माइंड इफ आई…’’ पलकें उठा, उस की ओर देखते, वह बोली, ‘‘इट्स ओके.’’

बस 10 मिनट ही लगे पवन को उस लड़की के बारे में जानने में. पिछले महीने ही 2 वर्षों से साथ रहते बौयफ्रैंड से ब्रेकअप हुआ था. कारण, अपनी बीमार मां को साथ लाना. ‘‘सौरी टू नो दैट.’’ कहा तो ऐनी ने आंखें उठा देखा जिस में छिपा दर्द साफ झलक रहा था. ऐनी ने उस के बारे में कुछ नहीं पूछा. यह सिलसिला केवल शुक्रवार मिलने से अब रोज मिलने पर आ गया.

पवन ने एक इतवार ऐनी को बाहर लंच पर बुलाया और बाद में कौफी के लिए घर ले आया. अपार्टमैंट में चीजें बिखरी पड़ी थीं, अकेला रहता था, कौन देखने आने वाला है. इंडिया में घर को ठीकठाक रखना तो नौकर का काम होता था. अब यह कौफी का नया दौर चला तो हर शनिवार वह घर व रसोई ठीक कर लेता.

3 बार के बाद ऐनी ने कहा कि अगली बार लंच वह बना कर लाएगी. चीज से बने पकवान और रोस्टेड चिकन दोनों ने भरपूर आनंद ले खाया. टीवी पर मूवी देखी. शाम की कौफी बाहर गैलरी में बैठ पी. ठंडी हवा का आनंद लिया और अब रात घिर आई थी. न तो ऐनी का घर जाने का मन था और न ही पवन उसे जाने देना चाहता था. एक ही बार रुकने को कहा तो ऐनी ने दोनों हाथों से उस का चेहरा पकड़, आंखों में झांकते कहा, ‘ठीक है’. पवन को जैसे आंखों ही आंखों में ऐनी की इजाजत मिल गई.

हमेशा की तरह मां अपने बेटे से बात कर उस की खबर लेती रहती. पर इस बार सामने पड़ा फोन बजता रहा, पवन ने नहीं उठाया. वह मां को नई खबर नहीं देना चाहता था.

अगले हफ्ते ऐनी अपना सामान ला पवन के साथ रहने आ गई. अंधा क्या मांगे, दो आंखें. बिखरा सामान ठिकाने लग गया. सुबह का नाश्ता दोनों इकट्ठे बैठ कर खाते. शनिवार पब जाने और बाहर खाना खा कर आने का रूटीन बन गया. इतवार घर में रह मस्ती होती और अब पवन ने भी कुछकुछ पकाना सीख लिया था. शाम की कौफी बनाना अब उस की जिम्मेदारी थी.

अब पवन मां को स्वयं फोन कर थोड़ी सी बातें कर लेता, लेकिन अभी तक ऐनी की कोई चर्चा नहीं की. मां की बारबार शादी की बात वह यह कह कर टाल जाता कि अभी वह और अच्छी नौकरी की तलाश में है.

मां उसे कुछ समय के लिए वापस घर बुला रही थी. पिता की बरसी करनी थी और फिर एक महीने बाद नयन की संजना से शादी थी. रमा की भाभी उस के पास रहने व सहारा देने आ गईं. कहा जाता है कि सब काम समय पर होते चलते हैं. बस, जाने वाला ही चला जाता है. सब के प्रयत्न से शादी अच्छी हो गई. पर रमा बारबार होती गीली आंखों के आंसुओं को अंदर ही रोके रही, शगुन का काम था.

कुछ दिन मायके और ससुराल रह संजना नयन के साथ असम चली गई. नयन मां को अकेला छोड़ कर नहीं जाना चाहता था पर मां ने सब यादों को समेटे अपने घर में ही रहना तय किया. संजना कभीकभी फोन कर देवर का हाल जानती रहती थी.

उधर, ऐनी व पवन के बीच सब ठीक चल रहा था, कभी छुट्टियां ले दोनों कहीं घूम आते. देखतेदेखते 10 महीने बीत गए. मां ने इस बार पवन को खुशखबरी देते संजना के गर्भवती होने की बात बताई.

आगे पढ़ें- ऐनी यह सब सोचते हुए परेशान थी. वह…

लेखिका- वीना त्रेहन

एकांत कमजोर पल- भाग 1

वकील साहब का हंसताखेलता परिवार था. उन की पत्नी सीधीसाधी घरेलू महिला थी. वकील साहब दिलफेंक थे यह वे जानती थीं पर एक दिन सौतन ले आएंगे वह ऐसा सोचा भी नहीं था. उस दिन वे बहुत रोईं.

वकील साहब ने समझाया, ‘‘बेगम, तुम तो घर की रानी हो. इस बेचारी को एक कमरा दे दो, पड़ी रहेगी. तुम्हारे घर के काम में हाथ बटाएगी.’’

वे रोती रहीं, ‘‘मेरे होते तुम ने दूसरा निकाह क्यों किया?’’

वकील साहब बातों के धनी थे. फुसलाते हुए बोले, ‘‘बेगम, माफ कर दो. गलती हो गई. अब जो तुम कहोगी वही होगा. बस इस को घर में रहने दो.’’

बेगम का दिल कर रहा था कि अपने बच्चे लें और मायके चली जाएं. वकील साहब की सूरत कभी न देखें. पर मायके जाएं तो किस के भरोसे? पिता हैं नहीं, भाइयों पर मां ही बोझ है. उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि शादी के 14 साल बाद 40 साल की उम्र में वकील साहब यह गुल खिलाएंगे. बसाबसाया घर उजड़ गया.

वकील साहब ने नीचे अपने औफिस के बगल वाले कमरे में अपनी दूसरी बीवी का सामान रखवा दिया और ऊपर अपनी बड़ी बेगम के पास आ गए जैसे कुछ हुआ ही नहीं. बड़ी बेगम का दिल टूट गया. इतने जतन से पाईपाई बचा कर मकान बनवाया था. सोचा भी न था कि गृहस्थी किसी के साथ साझा करनी पड़ेगी.

दिन गुजरे, हफ्ते गुजरे. बड़ी बेगम रोधो कर चुप हो गईं. पहले वकील साहब एक दिन ऊपर खाना खाते और एक दिन नीचे. फिर धीरेधीरे ऊपर आना बंद हो गया. उन की नई बीवी में चाह इतनी बढ़ी कि वकालत पर ध्यान कम देने लगे. आमदनी घटने लगी और परिवार बढ़ने लगा. छोटी बेगम के हर साल एक बच्चा हो जाता. अत: खर्चा बड़ी बेगम को कम देने लगे.

बड़ी बेगम ने हालत से समझौता कर लिया था. हाईस्कूल पास थीं, इसलिए महल्ले के ही एक स्कूल में पढ़ाने लगीं. बच्चों की छोटीमोटी जरूरतें पूरी करतीं. शाम को घर पर ही ट्यूशन पढ़ातीं जिस से अपने बच्चों की ट्यूशन की फीस देतीं. अब उन का एक ही लक्ष्य था अपने बेटेबेटी को खूब पढ़ाना और उन्हें उन के पैरों पर खड़ा करना. पति और सौतन के साथ रहने का उन का निर्णय केवल बच्चों की अच्छी परवरिश के लिए ही था. वे जानती थीं कि बच्चों के लिए मांपिता दोनों आवश्यक हैं.

अब सारे घर पर छोटी बेगम का राज था. बड़ी बेगम और उन के बच्चे एक कमरे में रहते थे जहां कभी किसी विशेष कारण से वकील साहब बुलाए जाने पर आते.

इस तरह समय बीतता गया और फिर एक दिन वकील साहब अपनी 5 बेटियों और छोटी बेगम को छोड़ कर चल बसे. छोटी बेगम ने जैसेतैसे बेटियों की शादी कर दी. मकान भी बेच दिया.

बड़ी बेगम की बेटी सनोबर की एक अच्छी कंपनी में जौब लग गई थी. देखने में सुंदर भी थी पर शादी के नाम से भड़कती थी. वह अपनी मां का अतीत देख चुकी थी अत: शादी नहीं करना चाहती थी. बड़ी बेगम के बहुत समझाने पर वह शादी के लिए राजी हो गई. साहिल अच्छा लड़का था, परिवार का ही था.

सनोबर ने शादी के लिए हां तो कर दी पर अपनी शर्तें निकाहनामे में रखने को कहा.

साहिल ने कहा, ‘‘मुझे तुम्हारी हर शर्त मंजूर है.’’

सनोबर ने बात साफ की, ‘‘ऐसे कह देने से नहीं, निकाहनामे में लिखना होगा की मेरे रहते तुम दूसरी शादी नहीं करोगे और अगर कभी हम अलग हों और हमारे बच्चे हों तो वे मेरे साथ रहेंगे.’’

सनोबर को साहिल बचपन से जानता था. उस के दिल का डर समझता था. बोला, ‘‘सनोबर निकाहनामे में यह भी लिख देंगे और भी जो तुम कहो. अब तो मुझ से शादी करोगी?’’

सनोबर मान गई और दोनों की शादी हो गई. दोनों की अच्छी जौब, अच्छा प्लैट, एक प्यारी बेटी थी. कुल मिला कर खुशहाल जीवन था सनोबर का. शादी के 12 साल कैसे बीत गए पता ही नहीं चला.

सनोबर का प्रमोशन होने वाला था. अत: वह औफिस पर ज्यादा ध्यान दे रही थी. घर बाई ने ही संभाल रखा था. बेटी भी बड़ी हो गईर् थी. वह अपना सब काम खुद ही कर लेती थी. सनोबर उस को भी पढ़ाने का समय नहीं दे पाती. अत: ट्यूशन लगा दिया था. सनोबर का सारा ध्यान औफिस के काम पर था. घर की ओर से वह निश्चिंत थी. बाई ने सब संभाल लिया था.

औफिस के काम से सनोबर 2 दिनों के लिए बाहर गई थी. आज उसे रात को आना था पर उस का काम सुबह ही हो गया तो वह दिन में ही फ्लाइट से आ गई. इस समय बेटी स्कूल में होगी, पति औफिस में और बाई तो 5 बजे आएगी. वह अपनी चाबी से दरवाजा खोल कर अंदर आई तो देखा लाईट जल रही है. बैडरूम

से कुछ आवाज आई तो वह दबे पैर बैडरूम तक गई तो देख कर अवाक रह गई. साहिल और बाई एक साथ…

वह वापस ड्राइंगरूम में आ गई. साहिल दौड़ता हुआ आया और बाई दबे पैर खिसक ली.

साहिल सनोबर को सफाई देने लगा, ‘‘मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं था. मेरी तबीयत खराब थी तो वह सिर दबाने लगी और मैं बहक गया. उस ने भी मना नहीं किया.’’

वह और भी जाने क्याक्या कहता रहा. सनोबर बुत बनी बैठी रही. वह माफी मांगता रहा.

सनोबर धीरे से उठी और अपने और अपनी बच्ची के कुछ कपड़े बैग में डालने लगी. बच्ची आई तो उसे ले कर अपनी अम्मी के पास चली गई. साहिल उसे रोकता रहा, माफी मांगता रहा पर सनोबर को कुछ सुनाई नहीं दे रहा था.

अमेरिकन बहू- भाग 2: समाज को भाने लगी विदेशी मीरा

कारण स्पष्ट था. भारत में ही राहुल की पीढ़ी की लड़कियों में अब उन्हें भारतीयता के लक्षण कम दिखाईर् पड़ने लगे थे. विशेषकर जिस आर्थिक व सामाजिक वर्ग के वे थे उस में लड़कियों के अभिभावक लड़कों और लड़कियों में कोई अंतर तो मानते नहीं थे. इसलिए यदि नई पीढ़ी के लड़के बहुत उन्मुक्त व्यवहार और खुली सोच के सांचे में ढल गए थे तो लड़कियां किसी भी तरह से किसी भी क्षेत्र में उन से पीछे रहने को तैयार नहीं थीं.

लड़के हो या लड़कियां, जींस अब पूरी नई पीढ़ी की यूनिफौर्म बन चुकी थी और लड़कियां इंजीनियरिंग, मैनेजमैंट, एकौउंटैंसी, मैडिसिन आदि किसी भी प्रोफैशनल पढ़ाई के क्षेत्र से ले कर खेलकूद आदि में भी उतनी ही प्रतिभा का परिचय दे रही थीं जितने लड़के.

उन के अनेक परिचितों और मित्रों की बेटियां उन के बेटी की तरह ही विदेशों में ऊंची शिक्षा ले कर, अकेले रह कर, बड़ीबड़ी नौकरियां कर रही थीं. इसलिए कुमार साहब के मन में अपनी होने वाली बहू को ले कर कोई विशेष पूर्वाग्रह नहीं था. जिस दिन राहुल आईआईटी से बीटेक करने के बाद अमेरिका के एक कालेज में एमबीए करने के लिए एक सशक्त छात्रवृत्ति पा कर अपनी मां के चेहरे को आंसुओं से भिगो कर और गर्व से मांबाप दोनों की उदास आंखों में चमक भर के गया था उसी दिन से कुमार साहब को आभास हो गया था कि अब तो राहुल की भैंस गई पानी में.

पढ़ाई पूरी करने के बाद अमेरिका में ही किसी ऊंची तनख्वाह वाली नौकरी पाने के बाद राहुल वहीं का हो कर रह जाएगा, इस की पूरीपूरी संभावना थी. पर कुमार का दृष्टिकोण इस मामले में बड़ा उदार था ‘राहुल जहां रहे खुश रहे, उन्हें और क्या चाहिए.’ रहा सवाल उस का किसी अमेरिकन या चीनी, जरमन या कोरियन लड़की के प्रेमपाश में बंध कर उस से विवाह करने का, तो देरसवेर राहुल का ग्रीनकार्ड से अमेरिकी नागरिकता की तरफ छलांग लगाना लगभग निश्चित सा दिख रहा था.

जब कोविड के दिनों में उस का वापस भारत आना असंभव सा लगने लगा था और तब जब स्वयं भारत में ही लड़केलड़कियां सभी आधे अमेरिकन बन चुके थे तो फिर क्या फर्क पड़़ता था यदि राहुल भी किसी अमेरिकन लड़की को उन की बहू बनाना चाहे. आखिर उन्हें भी तो किसी ऐसी बहू की तलाश नहीं थी जो सासूमां के पैर दबातेदबाते रात को सोए और सुबहसवेरे आ कर उन का चरणस्पर्श करे.

राहुल के साथ जो अमेरिका में सहज हो कर रह सके, उस के जीवन के हर कार्यकलाप में जो पूरी तरह से उस का साथ निभा सके, वह लड़की भारतीय मूल की हो या न हो, जब उस की भारत में आ कर रहने की संभावना ही बहुत कम हो तो क्या फर्क पड़ता है.

 

पर सुजाता का दृष्टिकोण बहुत सी गुत्थियों में उल?ा हुआ था. उन की सासूजी ने आरंभिक प्यारदुलार के बाद उन्हें एक कुशल गृहिणी बनाने के लिए न जाने कितनी छोटेछोटे नुस्खे दिए थे. कुमार के पसंद की खाने की कितनी ही डिशेज उन्होंने अपनी सासूजी से ही सीखी थीं. होली, दीवाली आदि त्यौहार मूलरूप से तो लगभग सभी लोग एक ढंग से ही मनाते हैं पर उस के लिए भी हर परिवार के कुछ विशेष तौरतरीके होते हैं. हरेक में कुछ विशेष व्यंजन बनते हैं. एक छोटी सी चीज गु?िया को ही ले लो. होली में आमतौर पर सभी घरों में गु?िया बनती है पर उस के अंदर अलग और विशेष पहचान बना लेता है.

यह तो कुमार की नौकरी की मजबूरियां थीं जिन के चलते सासूजी उन के साथसाथ शहरशहर घूमने के लिए तैयार नहीं हुईं, पर जब भी संभव हो सका सुजाता ने कुमार परिवार के सारे विशिष्ट तौरतरीके अपनी सासूजी से खुशी से सीखे. वास्तव में इतना कुछ विशेष अंतरविवाह के बाद महसूस भी नहीं हुआ था. एक नए परिवार में आ कर भी सुजाता का व्यवहार उस उच्च मध्यवर्गीय परिवार के लिए था जिस से उन्हें विवाह होने तक विदेशी तौरतरीकों और भारतीय तौरतरीकों की एक अद्भुत गंगाजमुनी विरासत में मिली थी.

एक निहायत पारंपरिक तरीके से तलाशने के बाद एक संभ्रांत परिवार के इंजीनियर लड़के से विवाह हो जाने के बाद उन्हें ससुराल में आ कर सब कुछ पहले जैसा ही लगा था. ससुराल के  तौरतरीके, अंधविश्वासी परंपराएं, आस्थाएं बिलकुल वही थे जो

उन्हें अपने मायके में विरासत में मिले थे.

अपने इकलौते बेटे राहुल को भी इंजीनियरिंग कालेज में प्रवेश मिल जाने के बाद उन्हें विश्वास हो गया था कि उन के परिवार की अगली पीढ़ी की धारा भी उसी दिशा में अविरल बहती रहेगी जिसे उन्होंने अपने और अपनों की सहज दिशा मान कर कभी कुछ हट कर सोचा ही नहीं था. पर कुमार, उन्हें यह सम?ाने से कभी चूकते नहीं थे कि राहुल से उन्हें परिवार की सभी अंधविश्वास भरी परंपराओं का पालन करने की उम्मीद रखनी नहीं चाहिए. अभी तक तो उस का बचपन था, पर अब बड़ा हो कर वह बहुत कुछ अपने मन की करना चाहेगा. उस की पसंदनापसंद के ऊपर उन दोनों का हौबी होना सरासर गलत होगा. सुजाता भी पढ़ीलिखी, आधुनिक विचारधारा वाली मां थी और कुमार साहब से उस की कोई असहमति नहीं थी. पर राहुलके विवाह की बात मन में आते ही उस के विचार एकदम परंपरावादी हो जाते थे. बस, एक ही अभिलाषा उस की थी, बहू अपनी पसंद की लाए.

कुमार इस बात पर उस का मजाक उड़ाने से बाज नहीं आते थे. मौका मिलते ही कहते थे कि पता नहीं क्यों तुम महिलाओं की इच्छा बनी रहती है कि अपने पति ही नहीं, अपने बेटे के ऊपर भी पूरा कब्जा बना रहे. अरे, अपनी जीवनसंगिनी को ले कर खुद उसी को सारे सपने बुनने दो न. जैसी भी चाहेगा लाएगा, जीवन तो उन दोनों को साथ बिताना है. हमारा साथ कौन सा सदा बना रहेगा. उन की बातों से सहमत हो कर भी उस का मन सदा बना रहेगा और उन की बातों से सहमत हो कर भी उस का मन एक अनजान डर से घबराया रहता था.

इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने तक भी राहुल ने जब किसी विदेशी लड़की की तरफ ?ाकाव होने का कोई संकेत नहीं दिया तो उन्हें महसूस होने लगा था कि खतरा लगभग टल गया था. पर उस के बाद एमबीए करने के लिए अमेरिका जाने के बाद से उन के ऊपर यह भय पूरी तरह से हौबी हो गया था कि अब राहुल उन के हाथ से गया.

दिल्लगी: क्या था कमल-कल्पना का रिश्ता- भाग 1

हाथमुंहधो कर राजीव कल्पना के साथ खाना खाने बैठा ही था कि मेड बीना ने भीतर आ कर कहा, ‘‘साहब, बाहर एक साहब खड़े हैं, वे अपनेआप को मेमसाहब का परिचित बताते हैं.’’

‘‘अरे, तो उन्हें सम्मानपूर्वक अपने साथ क्यों नहीं ले आई? भला यह भी कोई पूछने की बात थी?’’ राजीव ने प्लेट में सब्जी डालते हुए हाथ रोक कर कहा. इस के साथ ही उस ने कल्पना की ओर देखा.

कल्पना चौंक उठी. अचानक उस के शरीर में कंपकपाहट सी दौड़ गई. उस ने कल्पना की ओर देखा.

कल्पना चौंक उठी. अचानक उस के शरीर में कंपकंपाहट सी दौड़ गई. उस ने सोचा, बिना सूचित किए एकाएक यह कौन आ टपका.

‘‘हैलो,’’ आगंतुक को यह कहते ही कल्पना हैरान रह गई. सामने खड़े जने के आने की तो उसे स्वप्न में भी आशा नहीं थी. उसे आगंतुक के ‘हैलो’ का जवाब देने का भी खयाल नहीं रहा.

मंदमंद मुसकराता राजीव कल्पना के चेहरे पर आतेजाते भावों को ध्यान से देख रहा था. उस के लिए आगंतुक का सिर्फ इतना ही परिचय काफी था कि वह कल्पना का परिचित है. उस ने सोफे से उठ कर उत्साहपूर्वक आगे बढ़ कर आगंतुक से हाथ मिलाया और उसे अपने निकट ही सोफे पर स्थान देते हुए आत्मीयता से बोला, ‘‘आइए, वैलकम.’’

‘‘थैंक्यू,’’ आगंतुक ने बे?ि?ाक बैठते हुए कहा.

कल्पना अब भी उसे विस्फारित नेत्रों से देखे जा रही थी.

वह उत्साह भरे स्वर में बोला, ‘‘कल्पना, यह क्या बजाय हमारा इंट्रोडक्शन कराने के तुम मु?ो इस तरह देख रही हो जैसे मैं  कोई भूत हूं.’’

कल्पना ने तुरंत संभल कर मुसकराने की कोशिश करते हुए राजीव से कहा, ‘‘राजीव, इन से मिलो, ये हैं मेरे बचपन के साथी व कालेज के क्लीग कमल.’’

‘‘बहुत खुशी हुई आप से मिल कर,’’ राजीव ने हंस कर कमल से कहा.

‘‘और ये हैं मेरे हसबैंड एडवोकेट राजीव,’’ कल्पना ने कमल से कहा.

‘‘जानता हूं,’’ कमल ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘आप इन्हें जानते हैं, लेकिन वे कैसे?’’ कल्पना का दिल तेजी से धड़क उठा और चेहरा पीला पड़ गया.

‘‘वाह, यह भी खूब रही,’’ कमल ने हंस कर कहा, ‘‘भूल गईं. तुम ने अपनी शादी का जो इनवाइट मु?ो भेजा था उस पर इन का नाम भी छपा था.’’

‘‘ओह, यह तो मैं भूल ही गई,’’ कल्पना ने चैन की सांस ली.

‘‘मैं यह भी बखूबी जानता हूं कि भूल जाना तुम्हारी पुरानी आदत है,’’ कमल ने कहा तो कल्पना ने चौंक कर उन की तरफ देखा. लेकिन वह मुसकराते हुए आगे बोला, ‘‘चाय में चीनी या सब्जी में नमकमिर्च डालना भूल जाने पर तुम आंटी से डांट खायाकरती थी. क्लास में जो पढ़ाया जाता था वह तुम सहेलियों के साथ गपशप में भूल जाती थी और फिर बाद में घर आ कर मेरा भेजा चाट जाया करती थी.’’

 

कल्पना को कमल का हासपरिहास बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा

था. उस का कहा प्रत्येक शब्द उसे भीतर तक बींधता चला जा रहा था. पर प्रत्यक्ष में वह राजीव के सामने अपने चेहरे के भावों पर नियंत्रण पाने की असफल चेष्टा कर रही थी. उस के जीवन में परीक्षा की यह घड़ी भी आएगी, ऐसा तो उस ने कभी सोचा भी नहीं था.

‘‘कल्पना, लगता है कमल तुम्हारी आदतों से भलीभांति परिचित हैं, क्या इसीलिए तुम इन्हें लंच का न्योता देना भी भूल गई हो,’’ राजीव ने हंस कर कहा, ‘‘अब तुम बचपन के दोस्त हो तो यहीं रहोगे. तुम्हारा बैग कहा है?’’

कमल ने कहा, ‘‘वह अभी बाहर कार में है. मैं भुगतान कर के ले कर आता हूं.’’

दोनों न जाने क्यों कमल को छेड़ने पर तुल गए थे.

कल्पना अपनी भूल पर अत्यधिक लज्जित हो उठी. इस के साथ ही वह मन ही मन राजीव पर भी ?ां?ाला उठी कि मेरी जान पर बनी है और ये इसे घर में ठहरा रहे हैं. इन्हें छेड़छाड़ की सू?ा रही है. अपनी ?ां?ालाहट, भय और ?ोंप का मिलाजुला एहसास मिटाने की गरज से ही वह उन के पास से चुपचाप उठ कर कमल के लिए प्लेट आदि लेने रसोई में चली गई.

‘‘कंपनी के एक काम से दिल्ली आया था. अचानक याद आया कि कल्पना भी तो दिल्ली में ही रहती है. यह याद आते ही यहां चला आया.’’ कमल कुछ जोर से बोला और फिर वह टैक्सी का भुगतान करने चला गया.

टेबल पर प्लेट रखते हुए राजीव से कहे कमल के ये शब्द सुने तो कल्पना सहसा ठिठक कर रुक गई. उस का भयभीत दिल और भी तेजी से धड़कने लगा. वह बुरी तरह विचलित हो उठी, कमल को यहां आने की क्या जरूरत थी. उसे दिल्ली में ठहरने के लिए एक से बढ़ कर एक सुंदर स्थान मिल जाता. क्या बिगाड़ा है मैं ने कमल का, जो वह मेरे शांत जीवन में तूफान लाने आ पहुंचा है.

कितनी कोशिशों के बाद मैं इसे भुलाने में सफल हो सकी थी. अब फिर उसी पीड़ा भरी स्थिति से दोबारा गुजरना पड़ेगा. कमल के सामने राजीव को कभी भी मेरे पूर्व संबंधों का आभास हो सकता है. तब क्या राजीव के दिल में मेरा वही स्थान रह सकेगा, जो आज है? मेरा सुखमय दांपत्य जीवन क्या अब विषैले अतीत से सुरक्षित रह सकेगा?

तभी कल्पना ने राजीव का स्वर सुना. कमल आ चुका था. वह कह रहा था, ‘‘बहुत अच्छा किया आप ने. चलिए, इसी बहाने आप से मिलने का मौका प्राप्त हो गया वरना क्या पता हमारी मुलाकात कभी होती भी या नहीं. लेकिन आप मैरिज के समय कल्पना के यहां दिखाई क्यों नहीं दिए?’’

‘‘जी हां, आप लोगों का विवाह जून में हुआ था और मैं उन दिनों कालेज बंद होने के कारण अपने घर बाजपुर गया हुआ था. कल्पना ने मु?ो शदी का इनवाइट भी भेजा था, लेकिन अकस्मात दिल का दौरा पड़ने से मां का निधन हो जाने के कारण मैं विवाह में शरीक नहीं हो सका,’’ कमल ने जवाब में कहा.

‘‘क्षमा कीजिए, यह जिक्र छेड़ कर मैं ने बेकार आप का दिल दुखाया,’’ राजीव ने खेद भरे स्वर में कहा.

‘‘कोई बात नहीं, मेरे विचार में तो मर जाने वालों की याद में आंसू बहाना भावुकता के सिवा और कुछ नहीं,’’ कमल ने पहले की सहजता से कहा.

‘‘डाइनिंगटेबल पर चलिए. खाना ठंडा हो रहा है,’’ कल्पना ने आ कर उन की बातों का सिलसिला तोड़ दिया.

कल्पना देखते ही राजीव के होंठों पर फिर शरारत भरी मुसकराहट उभर आई.

‘‘भई वाह, खाना बनाने के मामले में तो अब तुम बहुत होशियार हो गई हो. लगता है, यह सब राजीव की ही करामात है,’’ मटर पुलाव का पहला कौर खाते ही कमल ने कहा.

‘‘नहीं भाई, मैं वकील हूं. कोई खानसामा नहीं,’’ राजीव ने हंस कर कहा.

सुन कर कमल तो हंसा ही, भयभीत और अपराधबोध से घिरी कल्पना भी एक पल के लिए सबकुछ भूल कर हंस पड़ी पर दूसरे ही क्षण वह फिर गंभीर हो गई मानो उस ने हंस करकोई अपराध कर दिया हो.

पहला कौर खाते ही कमल किसी भी चीज की तारीफ करना नहीं भूला था. कल्पना को आज भी याद है अच्छा खाना मिलने पर तारीफ के पुल बांध देना उस की पुरानी आदत है. विचारों में खोई कल्पना से थैंक्स कहते भी नहीं बन पड़ा.

Holi 2023: अगर वह उसे माफ कर दे

अंतर्द्वंद्व: आखिर क्यूं सीमा एक पिंजरे में कैद थी- भाग 1

सीमाऔर सतीश ने ज्यों ही औफिस में प्रवेश किया, वे उस की साजसज्जा देख कर हैरान रह गए. एक वकील का औफिस और इतना खूबसूरत. इस की तो उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी. सारे दिन अपराधियों की संगति और ?ाठफरेबों का सहारा ले कर रोजीरोटी कमाने वाले एक वकील का औफिस इतना कलात्मक भी हो सकता है, सचमुच हतप्रभ कर देने वाली बात थी.

औफिस में सभी दीवारों पर सुंदर कलात्मक कलाकृतियां सुसज्जित थीं. सामने वाली दीवार पर एक बड़े शीशे के पीछे बहुत ही सुंदर मौडर्न आर्ट टगी थी. औफिस कंप्यूटर, एअरकंडीशनर आदि आधुनिक उपकरणों से भी परिपूर्र्ण था. कुल मिला कर औफिस का वातावरण बहुत ही खुशनुमा और जिंदादिल था.

सीमा और सतीश औफिस की खूबसूरती में ही डूबे हुए थे कि तभी रमेशजी ने प्रवेश किया. उन की उम्र लगभग 60-65 वर्ष की रही होगी परंतु चेहरे और कपड़ों से वे 50-55 के ही नजर आ रहे थे. काली पैंट और सफेद शर्ट में बहुत ही सभ्य, आकर्षक और खूबसूरत लग रहे थे. उन के आकर्षक व्यक्तित्व को देख कर सीमा और सतीश पहली नजर में ही उन से प्रभावित हुए बिना न रह सके.

‘‘कमाल है आप ने अपने औफिस की सजावट बहुत खूबसूरती से कर रखी है. एक वकील से हमें ऐसी उम्मीद नहीं थी,’’ सतीश ने हंसते हुए कहा. हालांकि उस का यह रमेशजी से पहला ही परिचय था फिर भी अपने बातूनी स्वभाव और रमेशजी के हमउम्र होने का उस ने यहां पूरापूरा फायदा उठाया और अपने मन की बात उन से प्रथम मुलाकात और प्रथम वार्त्तालाप में ही कह दी.

सतीश की बात सुन कर सीमा भी मुसकराई और बोली, ‘‘हांहां बहुत ही सुंदर पेंटिंग्स हैं. काफी कीमती भी होंगी. आप ये कहां से लाए?’’

सीमा की बात सुन कर रमेशजी मुसकराने लगे और बोले, ‘‘अरे पेंटिंग्स तो मुफ्त की ही हैं क्योंकि इन्हें बनाने वाला कलाकार अपना ही है.’’

‘‘अरे वाह इतनी सुंदर पेंटिंग्स और वे भी मुफ्त में. माना कि कलाकार अपना ही है फिर भी उस की कला की तो दाद देनी ही पड़ेगी. जब कभी उन से मिलेंगे तो उन की प्रशंसा अवश्य करेंगे,’’ सतीश ने कहा.

 

सतीश की बात सुन कर रमेशजी फिर मुसकराए और बोले, ‘‘फिर देरी

किस बात की. कीजिए प्रशंसा क्योंकि वह अदना सा कलाकार आप के सामने ही है.

सतीश और सीमा के आश्चर्य का ठिकाना न रहा यानी ये सब पेंटिंग्स वकील बाबू ने बनाई हैं.

‘‘अचंभे की बात है साहब. फिर तो आप को वकालत छोड़ कर यही काम करना चाहिए था. कहां यह ?ाठफरेब का धंधा और कहां एक कलाकार का जीवन. दोनों का कोई मेल ही नहीं है.’’

रमेशजी को भी सतीश की बातें भा रही थीं शायद. कोई बहुत दिनों बाद उन से इतनी आत्मीयता से बात कर रहा था वरना लोग तो बहुत आते थे परंतु अपने मतलब की बात कर चले जाते थे. उन के निजी जीवन और उन की पसंदनापसंद का खयाल किसी को भी नहीं था.

वे बोले, ‘‘सतीशजी यह पेट बड़ा पापी होता है और कभीकभी पेट भरने के लिए अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं का गला घोंटना पड़ता है. आप तो जानते ही हैं कि कलाकारों को अकसर अपना पेट काटना पड़ता है. अत: अपनी तथा अपने परिवार की गुजरबसर करने के लिए मु?ो पेंटिंग्स बनाना छोड़ कर वकालत का काम शुरू करना पड़ा. फिर भी मैं समय मिलने पर अपना यह शौक पूरा करता हूं.’’

‘‘मेरी पत्नी सीमा भी बहुत सुंदर पेंटिंग्स बनाती है,’’ सतीश ने कहा.

‘‘अब कहां बनाती हूं. मैं ने तो पेंटिंग्स बनाना कब का छोड़ दिया है,’’ सीमा ने सतीश की बात को काटते हुए कहा. उसे सतीश का इस तरह किसी गैर के सामने अपनी पत्नी की प्रशंसा करना कुछ सुखद पर अजीब सा लग रहा था. सतीश सीमा के मामले में ज्यादा पजैसिव हैं.

‘‘क्यों छोड़ दिया. यह तो अच्छा शौक है. आप को पेंटिंग्स बनाना जारी रखना चाहिए था,’’ रमेशजी ने सीमा की ओर मुंह कर के कहा.

सीमा को उन के पूछने का ढंग बड़ा ही अच्छा लगा. फिर उस ने उत्तर दिया, ‘‘गृहस्थी की जिम्मेदारियां निभातेनिभाते स्त्रियों को अपनी शौक ताक पर रखने ही पड़ते हैं. यही मेरे साथ हुआ. बच्चों का पालनपोषण करने में इतनी मशगूल हो गई कि मु?ो स्वयं की कोई खबर ही नहीं रही.’’

‘‘अब तो आप के बच्चे बड़े हो गए होंगे,’’ रमेशजी ने एक नजर सीमा पर डालते हुए कहा.

हालांकि सीमा उम्र में अधिक बड़ी नजर नहीं आ रही थी फिर भी सतीशजी की उम्र को देख कर उस की उम्र का अंदाजा लगाया जा सकता था कि वह भी लगभग 50 के आसपास तो अवश्य होगी.

‘‘हां बच्चे तो काफी बड़े हो गए हैं और दोनों ही होस्टल में रहते हैं. इंजीनियरिंग कर रहे हैं. कभीकभार ही घर आते हैं. मगर अब पेंटिंग्स बनाने की इच्छा नहीं होती. मु?ो यह भी लगता है अब मैं कभी पेंटिंग्स नहीं बना पाऊंगी. वैसे भी मैं कोई महान कलाकार तो हूं नहीं. यों ही बस थोड़ेबहुत रंग भर लेती थी कैनवास पर,’’ सीमा ने रमेश बाबू से कहा जैसे चाहती हो कि वे उसे फिर से पेंटिंग्स बनाने का आग्रह न करें.

‘‘अजी साहब बहुत सुंदर पेंटिग्स बनाती है. मैं तो इसे कहकह कर थक गया. शायद आप के कहने से ही यह मान जाए. आप एक दिन हमारे घर आइए और देखिए कि इस का हाथ कितना सधा हुआ है,’’ सतीश का यह बदला सा व्यवहार सीमा को नया लग रहा था. क्या कोविड-19 के बाद अपनों की फिक्र अब ज्यादा होने लगी है?

‘‘अवश्य आऊंगा,’’ रमेशजी ने मुसकराते हुए कहा और फिर वे सतीशजी की फाइल देखने में व्यस्त हो गए.

घर पहुंच कर सतीश और सीमा अपनीअपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गए और भूल ही गए कि वे रमेशजी को घर आने का न्योता दे आए हैं.

संयोग की बात थी कि एक दिन बाद ही रमेशजी को उन्हीं के घर की तरफ एक और क्लाइंट से मिलने आना था सो आतेआते उन्होंने सोचा क्यों न फिर ना एक मुलाकात सतीश और सीमाजी से भी कर ली जाए. वे दोनों ही उन के मन को भा गए थे. अत: उन्होंने सतीशजी को फोन मिलाया.

संयोग से सतीशजी घर पर ही थे और उन्होंने रमेशजी के घर आने का स्वागत किया.

‘‘आप ने क्याक्या पेंटिंग्स बनाई हैं क्या मु?ो दिखाएंगे?’’ रमेशजी ने सीमा से कहा.

‘‘कुछ खास नहीं. इन की तो आदत मेरी प्रशंसा नहीं करने की है पर आप की पेंटिंग्स देख कर कुछ बदल से गए हैं,’’ सीमा ने सकुचाते हुए कहा.

जो भी प्रकृति दे दे – भाग 1

कभीकभी निशा को ऐसा लगता है कि शायद वही पागल है जिसे रिश्तों को निभाने का शौक है जबकि हर कोई रिश्ते को झटक कर अलग हट जाता है. उस का मानना है कि किसी भी रिश्ते को बनाने में सदियों का समय लग जाता है और तोड़ने में एक पल भी नहीं लगता. जिस तरह विकास ने उस के अपने संबंधों को सिरे से नकार दिया है वह भी क्यों नहीं आपसी संबंधों को झटक कर अलग हट जाती.

निशा को तरस आता है स्वयं पर कि प्रकृति ने उस की ही रचना ऐसी क्यों कर दी जो उस के आसपास से मेल नहीं खाती. वह भी दूसरों की तरह बहाव में क्यों नहीं बह पाती कि जीवन आसान हो जाए.

‘‘क्या बात है निशा, आज घर नहीं चलना है क्या?’’ सोम के प्रश्न ने निशा को चौंकाया भी और जगाया भी. गरदन हिला कर उठ बैठी निशा.

‘‘मुझे कुछ देर लगेगी सोम, आप जाइए.’’

‘‘हां, तुम्हें डाक्टर द्वारा लगाई पेट पर की थैली बदलनी है न, तो जाओ, बदलो. मुझे अभी थोड़ा काम है. साथसाथ ही निकलते हैं,’’ सोम उस का कंधा थपक कर चले गए.

कुछ देर बाद दोनों साथ निकले तो निशा की खामोशी को तोड़ने के लिए सोम कहने लगे, ‘‘निशा, यह तो किसी के साथ भी हो सकता है. शरीर में उपजी किसी भी बीमारी पर इनसान का कोई बस तो नहीं है न, यह तो विज्ञान की बड़ी कृपा है जो तुम जिंदा हो और इस समय मेरे साथ हो…’’

‘‘यह जीना भी किस काम का है, सोम?’’

‘‘ऐसा क्यों सोचती हो. अरे, जीवन तो कुदरत की अमूल्य भेंट है और जब तक हो सके इस से प्यार करो. तरस मत खाओ खुद पर…तुम अपने को देखो, बीमार हुई भी तो इलाज करा पाने में तुम सक्षम थीं. एक वह भी तो हैं जो बिना इलाज ही मर जाते हैं… कम से कम तुम उन से तो अच्छी हो न.’’

सोम की बातों का गहरा अर्थ अकसर निशा को जीवन की ओर मोड़ देता है.

‘‘आज लगता है किसी और ही चिंता में हो.’’

सोम ने पूछा तो सहसा निशा बोल पड़ी, ‘‘मौत को बेहद करीब से देखा है इसलिए जीवन यों खो देना अब मूर्खता लगता है. मेरे दोनों भाई आपस में बात नहीं करते. अनिमा से उन्हें समझाने को कहा तो उस ने बुरी तरह झिड़क दिया. वह कहती है कि सड़े हुए रिश्तों में से मात्र बदबू निकलती है. शरीर का जो हिस्सा सड़ जाए उसे तो भी काट दिया जाता है न. सोम, क्या इतना आसान है नजदीकी रिश्तों को काट कर फेंक देना?

‘‘विकास मुझ से मिलता नहीं और न ही मेरे बेटे को मुझ से मिलने देता है, तो भी वह मेरा बेटा है. इस सच से तो कोई इनकार नहीं कर सकता न कि मेरे बच्चे में मेरा खून है और वह मेरे ही शरीर से उपजा है. तो कैसे मैं अपना रिश्ता काट दूं. क्या इतना आसान है रिश्ता काट देना…वह मेरे सामने से निकल जाए और मुझे पहचाने भी न तो क्या हाल होगा मेरा, आप जानते हैं न…’’

‘‘मैं जानता हूं निशा, इसलिए यही चाहता हूं कि वह कभी तुम्हारे सामने से न गुजरे. मुझे डर है, वह तुम्हें शायद न पहचाने…तुम सह न पाओ इस से तो अच्छा है न कि वह तुम्हारे सामने कभी न आए…और इसी को कहते हैं सड़ा हुआ रिश्ता सिर्फ बदबू देता है, जो तुम्हें तड़पा दे, तुम्हें रुला दे वह खुशबू तो नहीं है न…गलत क्या कहा अनिमा ने, जरा सोचो. क्यों उस रास्ते से गुजरा जाए जहां से मात्र पीड़ा ही मिलने की आशा हो.’’

चुप रह गई निशा. शब्दों के माहिर सोम नपीतुली भाषा में उसे बता गए थे कि उस का बेटा मनु शायद अब उसे न पहचाने. जब निशा ने विकास का घर छोड़ा था तब मनु 2 साल का था. साल भर का ही था मनु जब उस के शरीर में रोग उभर आया था, मल त्यागने में रक्तस्राव होने लगता था. पूरी जांच कराने पर यह सच सामने आया था कि मलाशय का काफी भाग सड़ गया है.

आपरेशन हुआ, वह बच तो गई मगर कलौस्टोमी का सहारा लेना पड़ा. एक कृत्रिम रास्ता उस के पेट से निकाला गया जिस से मल बाहर आ सके और प्राकृतिक रास्ता, जख्म पूरी तरह भर जाने तक के लिए बंद कर दिया गया. जख्म पूरी तरह कब तक भरेगा, वह प्राकृतिक रास्ते से मल कब त्याग सकेगी, इस की कोई भी समय सीमा नहीं थी.

अब एक पेटी उस के पेट पर सदा के लिए बंध गई थी जिस के सहारे एक थैली में थोड़ाथोड़ा मल हर समय भरता रहता. दिन में 2-3 बार वह थैली बदल लेती.

आपरेशन के समय गर्भाशय भी सड़ा पाया गया था जिस का निकालना आवश्यक था. एक ही झटके में निशा आधीअधूरी औरत रह गई थी. कल तक वह एक बसीबसाई गृहस्थी की मालकिन थी जो आज घर में पड़ी बेकार वस्तु बन गई थी.

आपरेशन के 4 महीने भी नहीं बीते थे कि विकास और उस की मां का व्यवहार बदलने लगा था. शायद उस का आधाअधूरा शरीर उन की सहनशीलता से परे था. परिवार आगे नहीं बढ़ पाएगा, एक कारण यह भी था विकास की मां की नाराजगी का.

‘‘विकास की उम्र के लड़के तो अभी कुंआरे घूम रहे हैं और मेरी बहू ने तो शादी के 2 साल बाद ही सुख के सारे द्वार बंद कर दिए…मेरे बेटे का तो सत्यानाश हो गया. किस जन्म का बदला लिया है निशा ने हम से…’’

अपनी सास के शब्दों पर निशा हैरान रह जाती थी. उस ने क्या बदला लेना था, वह तो खुद मौत के मुंह से निकल कर आई थी. क्या निशा ने चाहा था कि वह आधीअधूरी रह जाए और उस के शरीर के साथ यह थैली सदा के लिए लग जाए. उस का रसोई में जाना भी नकार दिया था विकास ने, यह कह कर कि मां को घिन आती है तुम्हारे हाथ से… और मुझे भी.

थैली उस के शरीर पर थी तो क्या वह अछूत हो गई थी. मल तो हर पल हर मनुष्य के शरीर में होता है, तो क्या सब अछूत हैं? थैली तो उस का शरीर ही है अब, उसी के सहारे तो वह जी रही है. अनपढ़ इनसान की भाषा बोलने लग गया था विकास भी.

जीवन भर के लिए विकास ने जो हाथ पकड़ा था वह मुसीबत का जरा सा आवेग भी सह नहीं पाया था. उसी के सामने मां उस के दूसरे विवाह की चर्चा करने लगी थी.

एक दिन उस के सामने कागज बिछा दिए थे विकास ने. सोम भी पास ही थे. एक सोम ही थे जो विकास को समझाना चाहते थे.

‘‘रहने दीजिए सोम, हमारे रिश्ते में अब सुधार के कोई आसार नजर नहीं आते. मेरा क्या भरोसा कब मरूं या कब बीमारी से नाता छूटे… विकास को क्यों परेशान करूं. वह क्यों मेरी मौत का इंतजार करें. आप बारबार विकास पर जोर मत डालें.’’

और कागज के उस टुकड़े पर उस का उम्र भर का नाता समाप्त हो गया था.

‘‘अब क्या सोच रही हो निशा? कल डाक्टर के पास जाना है.’’

‘‘कब तक मेरी चिंता करते रहेंगे?’’

‘‘जब तक तुम अच्छी नहीं हो जातीं. दोस्त हूं इसलिए तुम्हारे सुखद जीवन तक या श्मशान तक जो भी निश्चित हो, अंतिम समय तक मैं तुम्हारा साथ छोड़ना नहीं चाहता.’’

‘‘जानते हैं न, विकास क्याक्या कहता है मुझे आप के बारे में. कल भी फोन पर धमका रहा था.’’

‘‘उस का क्या है, वह तो बेचारा है. जो स्वयं नहीं जानता कि उसे क्या चाहिए. दूसरी शादी कर ली है…और अब तो दूसरी संतान भी आने वाली है… अब तुम पर उस का भला क्या अधिकार है जो तलाक के बाद भी तुम्हारी चिंता है उसे. मजे की बात तो यह है कि तुम्हारा स्वस्थ हो जाना उस के गले से नीचे नहीं उतर रहा है.

part-2

‘‘सच पूछो तो मुझे विकास पर तरस आने लगा है. मैं ने तो अपना सब एक हादसे में खो दिया. जिसे कुदरत की मार समझ मैं ने समझौता कर लिया लेकिन विकास ने तो अपने हाथों से अपना घर जला लिया.’’

कहतेकहते न जाने कितना कुछ कह गए सोम. अपना सबकुछ खो देने के बाद जीवन के नए ही अर्थ उन के सामने भी चले आए हैं.

दूसरे दिन जांच में और भी सुधार नजर आया. डाक्टर ने बताया कि इस की पूरी आशा है कि निशा का एक और छोटा सा आपरेशन कर प्राकृतिक मल द्वार खोल दिया जाए और पेट पर लगी थैली से उस को छुटकारा मिल जाए. डाक्टर के मुंह से यह सुन कर निशा की आंखें झिलमिला उठी थीं.

‘‘देखा…मैं ने कहा था न कि एक दिन तुम नातीपोतों के साथ खेलोगी.’’

बस रोतेराते निशा इतना ही पूछ पाई थी, ‘‘खाली गोद में नातीपोते?’’

‘‘भरोसा रखो निशा, जीवन कभी ठहरता नहीं, सिर्फ इनसान की सोच ठहर जाती है. आने वाला कल अच्छा होगा, ऐसा सपना तो तुम देख ही सकती हो.’’

निशा पूरी तरह स्वस्थ हो गई. पेट पर बंधी थैली से उसे मुक्ति मिल गई. अब ढीलेढाले कपड़े ही उस का परिधान रह गए थे. उस दिन जब घर लौटने पर सोम ने सुंदर साड़ी भेंट में दी तो उस की आंखें भर आईं.

विकास नहीं आए जबकि फोन पर मैं ने उन्हें बताया था कि मेरा आपरेशन होने वाला है.

‘‘विकास के बेटी हुई है और गायत्री अस्पताल में है. मैं ने तुम्हारे बारे में विकास से बात की थी और वह मनु को लाना भी चाहता था. लेकिन मां नहीं मानीं तो मैं ने भी यह सोच कर जिद नहीं की कि अस्पताल में बच्चे को लाना वैसे भी स्वास्थ्य की दृष्टि से अच्छा नहीं होता.’’

क्या कहती निशा. विकास का परिवार पूर्ण है तो वह क्यों उस के पास आता, अधूरी तो वह है, शायद इसीलिए सब को जोड़ कर या सब से जुड़ कर पूरा होने का प्रयास करती रहती है.

निशा की तड़प पलपल देखते रहते सोम. विकास का इंतजार, मनु की चाह. एक मां के लिए जिंदा संतान को सदा के लिए त्याग देना कितना जानलेवा है?

‘‘क्यों झूठी आस में जीती हो निशा,’’ सोम बोले, ‘‘सपने देखना अच्छी बात है, लेकिन इस सच को भी मान लो कि तुम्हारे पास कोई नहीं लौटेगा.’’

एक सुबह सोम की दी हुई साड़ी पहन निशा कार्यालय पहुंची तो सोम की आंखों में मीठी सी चमक उभर आई. कुछ कहा नहीं लेकिन ऐसा बहुत कुछ था जो बिना कहे ही कह दिया था सोम ने.

‘‘आज मेरी दिवंगत पत्नी विभा और गुड्डी का जन्मदिन है. आज शाम की चाय मेरे साथ पिओगी?’’ यह बताते समय सोम की आंखें झिलमिला रही थीं.

सोम उस शाम निशा को अपने घर ले आए थे. औरत के बिना घर कैसा श्मशान सा लगता है, वह साफ देख रही थी. विभा थी तो यही घर कितना सुंदर था.

‘‘घर में सब है निशा, आज अपने हाथ से कुछ भी बना कर खिला दो.’’

चाय का कप और डबलरोटी के टुकड़े ही सामने थे जिन्हें सेक निशा ने परोस दिया था. सहसा निशा के पेट को देख सोम चौंक से गए.

‘‘निशा, तुम्हें कोई तकलीफ है क्या, यह कपड़ों पर खून कैसा?’’

सोम के हाथ निशा के शरीर पर थे. पेटी की वजह से पेट पर गहरे घाव बन चुके थे. थैली वाली जगह खून से लथपथ थी.

‘‘आज आप के साथ आ गई, पेट पर की पट्टी नहीं बदल पाई इसीलिए. आप परेशान न हों. पट््टी बदलने का सामान मेरे बैग में है, मैं ने आज साड़ी पहनी है. शायद उस की वजह से ऐसा हो गया होगा.’’

सोम झट से बैग उठा लाए और मेज पर पलट दिया. पट्टी का पूरा सामान सामने था और साथ थी वही पुरानी पेटी और थैली.

सोम अपने हाथों से उस के घाव साफ करने लगे तो वह मना न कर पाई.

पहली बार किसी पुरुष के हाथ उस के पेट पर थे. उस के हाथ भी सोम ने हटा दिए थे.

‘‘यह घाव पेटी की वजह से हैं सोम, ठीक हो जाएंगे…आप बेकार अपने हाथ गंदे कर रहे हैं.’’

मरहमपट्टी के बाद सोम ने अलमारी से विभा के कपड़े निकाल कर निशा को दिए. वह साड़ी उतार कर सलवारसूट पहनने चली गई. लौट कर आई तो देखा सोम ने दालचावल बना लिए हैं.

हलके से हंस पड़ी निशा.

सोम चुपचाप उसे एकटक निहार रहे थे. निशा को याद आया कि एक दिन विकास ने उसे बंजर जमीन और कंदमूल कहा था. आधीअधूरी पत्नी उस के लिए बेकार वस्तु थी.

‘क्या मुझे शरीरिक भूख नहीं सताती, मैं अपनेआप को कब तक मारूं?’ चीखा था विकास. पता नहीं किस आवेग में सोम ने निशा से यही नितांत व्यक्तिगत प्रश्न पूछ लिया, तब निशा ने विकास के चीख कर कहे वाक्य खुल कर सोम से कह डाले.

हालांकि यह सवाल निशा के चेहरे की रंगत बदलने को काफी था. चावल अटक गए उस के हलक में. लपक कर सोम ने निशा को पानी का गिलास थमाया और देर तक उस की पीठ थपकते रहे.

‘‘मुझे क्षमा करना निशा, मैं वास्तव में यह जानना चाहता था कि आखिर विकास को तुम्हारे साथ रहने में परेशानी क्या थी?’’

सोम के प्रश्न का उत्तर न सूझा उसे.

‘‘मैं चलती हूं सोम, अब आप आराम करें,’’ कह कर उठ पड़ी थी निशा लेकिन सोम के हाथ सहसा उसे जाने से रोकने को फैल गए..

‘‘मैं तुम्हारा अपमान नहीं कर रहा हूं निशा, तुम क्या सोचती हो, मैं तमाशा बना कर बस तुम्हारी व्यक्तिगत जिंदगी का राज जान कर मजा लेना चाहता हूं.’’

रोने लगी थी निशा. क्या उत्तर दे वह? नहीं सोचा था कि कभी बंद कमरे की सचाई उसे किसी बाहर वाले पर भी खोलनी पड़ेगी.

‘‘निशा, विकास की बातों में कितनी सचाई है, मैं यह जानना चाहता हूं, तुम्हारा मन दुखाना नहीं चाहता.’’

‘‘विकास ने मेरे साथ रह कर कभी अपनेआप को मारा नहीं था…मेरे घाव और उन से रिसता खून भी कभी उस की किसी भी इच्छा में बाधक नहीं था.’’

उस शाम के बाद एक सहज निकटता दोनों के बीच उभर आई थी. बिना कुछ कहे कुछ अधिकार अपने और कुछ पराए हो गए थे.

‘‘दिल्ली चलोगी मेरे साथ…बहन के घर शादी है. वहां आयुर्विज्ञान संस्थान में एक बार फिर तुम्हारी पूरी जांच हो जाएगी और मन भी बहल जाएगा. मैं ने आरक्षण करा लिया है, बस, तुम्हें हां कहनी है.’’

‘‘शादी में मैं क्या करूंगी?’’

‘‘वहां मैं अपनी सखी को सब से मिलाना चाहता हूं…एक तुम ही तो हो जिस के साथ मैं मन की हर बात बांट लेता हूं.’’

‘‘कपड़े बारबार गंदे हो जाते हैं और ठीक से बैठा भी तो नहीं जाता…अपनी बेकार सी सखी को लोगों से मिला कर अपनी हंसी उड़ाना चाहते हैं क्या?’’

उस दिन सोम दिल्ली गए तो एक विचित्र भाव अपने पीछे छोड़ गए. हफ्ते भर की छुट्टी का एहसास देर तक निशा के मानस पटल पर छाया रहा.

बहन उन के लिए एक रिश्ता भी सुझा रही थी. हो सकता है वापस लौटें तो पत्नी साथ हो. कितने अकेले हैं सोम. घर बस जाएगा तो अकेले नहीं रहेंगे. हो सकता है उन की पत्नी से भी उस की दोस्ती हो जाए या सोम की दोस्ती भी छूट जाए.

2 दिन बीत चुके थे, निशा रात में सोने से पहले पेट का घाव साफ करने के लिए सामान निकाल रही थी. सहसा लगा उस के पीछे कोई है. पलट कर देखा तो सोम खड़े मुसकरा रहे थे.

हैरानी तो हुई ही कुछ अजीब सा भी लगा उसे. इतनी रात गए सोम उस के पास…घर की एक चाबी सदा सोम के पास रहती है न…और वह तो अभी आने वाले भी नहीं थे, फिर एकाएक चले कैसे आए?

‘‘जी नहीं लगा इसलिए जल्दी चला आया. गाड़ी ही देर से पहुंची और सुबह का इंतजार नहीं कर सकता था…मैं पट्टी बदल दूं?’’

part-3

‘‘मैं बदल लूंगी, आप जाइए, सोम. और घर की चाबी भी लौटा दीजिए.’’

सोम का चेहरा सफेद पड़ गया, शायद अपमान से. यह क्या हो गया है निशा को? क्या निशा स्वयं को उन के सामीप्य में असुरक्षित मानने लगी है? क्या उन्हें जानवर समझने लगी है?

एक सुबह जबरन सोम ने ही पहल कर ली और रास्ता रोक बात करनी चाही.

‘‘निशा, क्या हो गया है तुम्हें?’’

‘‘भविष्य में आप खुश रहें उस के लिए हमारी दोस्ती का समाप्त हो जाना ही अच्छा है.’’

‘‘सब के लिए खुशी का अर्थ एक जैसा नहीं होता निशा, मैं निभाने में विश्वास रखता हूं.’’

तभी दफ्तर में एक फोन आया और लोगों ने चर्चा शुरू कर दी कि बांद्रा शाखा के प्रबंधक विकास शर्मा की पत्नी और दोनों बच्चे एक दुर्घटना में चल बसे.

सकते में रह गए दोनों. विश्वास नहीं आया सोम को. निशा के पैरों तले जमीन ही खिसकने लगी, वह धम से वहीं बैठ गई.

सोम के पास विकास की बहन का फोन नंबर था. वहां पूछताछ की तो पता चला इस घटना को 2 दिन हो गए हैं.

भारी कदमों से निशा के पास आए सोम जो दीवार से टेक लगाए चुपचाप बैठी थी. आफिस के सहयोगी आगेपीछे घिर आए थे.

हाथ बढ़ा कर सोम ने निशा को पुकारा. बदहवास सी निशा कभी चारों तरफ देखती और कभी सोम के बढ़े हुए हाथों को. उस का बच्चा भी चला गया… एक आस थी कि शायद बड़ा हो कर वह अपनी मां से मिलने आएगा.

भावावेश में सोम से लिपट निशा चीखचीख कर रोने लगी. इतने लोगों में एक सोम ही अपने लगे थे उसे.

विकास दिल्ली वापस आ चुका था. पता चला तो दोस्ती का हक अदा करने सोम चले गए उस के यहां.

‘‘पता नहीं हमारे ही साथ ऐसा क्यों हो गया?’’ विकास ने उन के गले लग रोते हुए कहा.

वक्त की नजाकत देख सोम चुप ही बने रहे. उठने लगे तो विकास ने कह दिया, ‘‘निशा से कहना कि वह वापस चली आए… मैं उस के पास गया था. फोन भी किया था लेकिन उस ने कोई जवाब नहीं दिया,’’ विकास रोरो कर सोम को सुना रहा था.

उठ पड़े सोम. क्या कहते… जिस इनसान को अपनी पत्नी का रिसता घाव कभी नजर नहीं आया वह अपने घाव के लिए वही मरहम चाहता है जिसे मात्र बेकार कपड़ा समझ फेंक दिया था.

‘‘निशा तुम्हारी बात मानती है, तुम कहोगे तो इनकार नहीं करेगी सोम, तुम बात करना उस से…’’

‘‘वह मुझ से नाराज है,’’ सोम बोले, ‘‘बात भी नहीं करती मुझ से और फिर मैं कौन हूं उस का. देखो विकास, तुम ने अपना परिवार खोया है इसलिए इस वक्त मैं कुछ कड़वा कहना नहीं चाहता पर क्षमा करना मुझे, मैं तुम्हारीं कोई भी मदद नहीं कर सकता.’’

सोम आफिस पहुंचे तो पता चला कि निशा ने तबादला करा लिया. कार्यालय में यह बात आग की तरह फैल गई. निशा छुट्टी पर थी इसलिए वही उस का निर्देश ले कर घर पर गए. निर्देश पा कर निशा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई.

‘‘तबीयत कैसी है, निशा? घाव तो भर गया है न?’’

‘‘पता नहीं सोम, क्या भर गया और क्या छूट गया.’’

धीरे से हाथ पकड़ लिया सोम ने. ठंडी शिला सी लगी उन्हें निशा. मानो जीवन का कोई भी अंश शेष न हो. ठंडे हाथ को दोनों हाथों में कस कर बांध लिया सोम ने और विकास के बारे में क्या बात करें यही सोचने लगे.

‘‘मैं क्या करूं सोम? कहां जाऊँ? विकास वापस ले जाने आया था.’’

‘‘आज भी उस इनसान से प्यार करती हो तो जरूर लौट जाओ.’’

‘‘हूं तो मैं आज भी बंजर औरत, आज भी मेरा मूल्य बस वही है न जो 2 साल पहले विकास के लिए था…तब मैं मनु की मां थी…अब तो मां भी नहीं रही.’’

‘‘क्या मेरे पास नहीं आ सकतीं तुम?’’ निशा के समूल काया को मजबूत बंधन में बांध सोम ने फिर पूछा, ‘‘पीछे मुड़ कर क्यों देखती हो तुम…अब कौन सा धागा तुम्हें खींच रहा है?’’

किसी तरह सोम के हाथों को निशा ने हटाना चाहा तो टोक दिया सोम ने, ‘‘क्या नए सिरे से जीवन शुरू नहीं कर सकती हो तुम? सोचती होगी तुम कि मां नहीं बन सकती और जो मां बन पाई थी क्या वह काल से बच पाई? संतान का कैसा मोह? मैं भी कभी पिता था, तुम भी कभी मां थीं, विकास तो 2 बच्चों का पिता था… आज हम तीनों खाली हाथ हैं…’’

‘‘सोम, आप समझने की कोशिश करें.’’

‘‘बस निशा, अब कुछ भी समझना शेष नहीं बचा,’’ सस्नेह निशा का माथा चूम सोम ने पूर्ण आश्वासन की पुष्टि की.

‘‘देखो, तुम मेरी बच्ची बनना और मैं तुम्हारा बच्चा. हम प्रकृति से टक्कर नहीं ले सकते. हमें उसी में जीना है. तुम मेरी सब से अच्छी दोस्त हो और मैं तुम्हें खो नहीं सकता.’’

सोम को ऐसा लगा मानो निशा का विरोध कम हो गया है. उस की आंखें हर्षातिरेक से भर आईं. उस ने पूरी ताकत से निशा को अपने आगोश में भींच लिया. कल क्या होगा वह नहीं जानते परंतु आज उन्हें प्रकृति से जो भी मिला है उसे पूरी ईमानदारी और निष्ठा से स्वीकारने और निभाने की हिम्मत उन में है. आखिर इनसान को उसी में जीना पड़ता है जो भी प्रकृति दे.

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