तुम आज भी पवित्र हो– भाग 1

कल से नमन क्षितिजा को फोन लगाए जा रहा था, पर न तो वह अपना फोन उठा रही थी और न ही वापस उसे फोन कर रही थी.

लेकिन आज जब उस का फोन बंद आने लगा तो नमन आशंका से भर उठा.

‘‘हैलो आंटी, क्षितिजा कहां है? मैं कल से उसे फोन लगा रहा हूं, पर वह फोन नहीं उठा रही है और आज तो उस का फोन ही बंद आ रहा है. कहां है क्षितिजा?’’

नमन के कई बार पूछने पर भी जब सुमन ने कोई जवाब नहीं दिया तो वह बेचैन हो उठा. बोला, ‘‘आंटी, क्या हुआ सब ठीक तो है?’’

‘‘बेटा, वो…वो… क्षितिजा अस्पताल में…’’ इतना बोल कर सुमन सिसक कर रोने लगीं. ‘‘अस्पताल में?’’ अस्पताल का नाम सुनते ही नमन घबरा गया, ‘‘पर… पर क्या हुआ उसे?’’

फिर सुमन ने जो बताया उसे सुन कर नमन के पैरों तले की जमीन खिसक गई. फिर बोला, ‘‘ठीक है आंटी, आ… आप रोइए मत. मैं कल सुबह की फ्लाइट से ही वहां पहुंच रहा हूं.’’

नमन को देखते ही क्षितिजा के आंसू फूट पड़े. वह उस के सीने से लग कर एक बच्ची की तरह बिलखबिलख कर देर तक रोती रही.

‘‘बस क्षितिजा बस, अब मैं आ गया हूं न… सब ठीक हो जाएगा,’’ उस के आंसू पोंछते हुए नमन बोला.

मगर डर के मारे वह इसलिए नमन को नहीं छोड़ रही थी कि वह दरिंदा फिर उस के सामने न आ जाए. हिचकियां लेते हुए कहने लगी, ‘‘नमननमन उ… उस ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा. उस ने धोखे से मेरे साथ… बोलतेबोलते वह बेहोश हो

गई.’’ ‘‘जब से यहां आई हैं ऐसा ही हो रहा है. लगता है डर घुस गया है इन के मन में. देखिए, मैं अब भी यहीं कहूंगा कि आप सब को पुलिस में

शिकायत कर देनी चाहिए. आखिर दोषी को सजा तो मिलनी चाहिए न? वैसे आप सब को जो ठीक लगे,’’ डाक्टर बहुत ही रहम दिल इंसान थे. उन से क्षितिजा की हालत देखी नहीं जा रही थी. उन्होंने सब को समझाते हुए कहा.

मगर क्षितिजा के मातापिता ऐसा नहीं चाहते थे. वे नहीं चाहते थे कि उन की बेटी समाज में बदनाम हो, क्योंकि लड़की का भले ही कोई दोष न हो पर सुनना हमेशा उसी को पड़ता है.

क्षितिजा की ऐसी हालत और उस के मातापिता के मन के डर को समझते हुए नमन बोला, ‘‘हमें पुलिस में कोई शिकायत नहीं करनी डाक्टर. बस क्षितिजा जल्दी से स्वस्थ हो जाए, फिर हम उसे यहां से ले जाएंगे.’’

‘‘ठीक है जैसी आप लोगों की मरजी,’’ कह कर डाक्टर चले गए.

2 दिन बाद. कुछ हिदायतों के साथ डाक्टर ने क्षितिजा को अस्पताल से छुट्टी दे दी. नमन के पूछने पर कि आखिर ये सब हुआ कैसे, सुमन बताने लगीं, ‘‘जिस दिन तुम औफिस के काम से दुबई जाने के लिए निकले उस के अलगे ही दिन क्षितिजा और मैं सगाई की खरीदारी के लिए निकल गए. समय कम था, इसलिए तुम ने कहा था कि क्षितिजा अपनी पसंद से तुम्हारे लिए भी अंगूठी और शेरवानी ले ले. उस रोज वह इतनी खुश थी कि बस बोले ही जा रही थी कि तुम्हारे ऊपर कैसी और कौन से रंग की शेरवानी अच्छी लगेगी और यह भी कि उसे भी शेरवानी से मैच करता ही लहंगा लेना है ताकि लोग कहें कि वाह भई क्या लग रहे हैं दोनों.

‘‘सारी खरीदारी बस हो चुकी थी कि उसी वक्त क्षितिजा के बौस का फोन आ गया. कहने लगा कि कोई जरूरी फाइल है जो मिल नहीं रही है तो वह आ कर जरा उस की मदद कर दे.’’

‘‘अब यह क्या तरीका है क्षितिजा? जब उसे पता है कि तुम छुट्टी पर हो तो फिर कैसे… पर मेरी बात को बीच ही में काटते हुए बोली कि मां, कल औडिट होने वाला है न इसलिए उस फाइल की जरूरत होगी और शायद मैं ने वह गलती से अपने लौकर में रख दी होगी. आप चिंता न करो मैं जल्दी आ जाऊंगी. कह

वह वहीं औफिस के सामने उतर गई और मुझे ड्राइवर के साथ घर भेज दिया.’’

‘‘मगर जब 2 घंटे बीत जाने के बाद भी वह घर नहीं आई तब मैं ने

उसे फोन लगाया तो बोली कि बस मैं निकल ही रही हूं और फिर फोन काट दिया. हम खाने पर उस का इंतजार करते रहे, वह नहीं आई. तब फिर मैं ने उसे फोन लगाया, पर इस बार तो फोन ही नहीं उठा रही थी. क्षितिजा के पापा कहने लगे कि रास्ते में होगी… शायद फोन की आवाज सुनाई नहीं दे रही

होगी… तुम चिंता न करो आ जाएगी. पर मां का दिल है, चिंता तो होगी ही न? लेकिन जब मेरी बरदाश्त की हद हो गई तब मैं ने उस के बौस को फोन

लगाया तो वह बोला कि वह तो घर कब की निकल चुकी है. उस की बातें सुन कर मेरी टैंशन और ज्यादा बढ़ गई.

‘‘फिर मैं ने उस के सारे दोस्तों से पूछा कि क्या क्षितिजा उन के घर पर है? पर सब का एक ही जवाब था नहीं. समझ में नहीं आ रहा था कि क्षितिजा कहां जा सकती है और उस ने अपना फोन

क्यों बंद कर रखा है? यह सोचसोच कर मेरा डर के मारे बुरा हाल था. मैं सोच रही थी कि कहीं मेरी बेटी को कुछ हो तो नहीं गया.

‘‘हार कर मैं ने क्षितिजा के पापा को उस के औफिस तक भेजा और जब उन्होंने वहां ताला लगा देखा तो वे भी घबरा गए. जब वहां के वाचमैन से पूछा तो वह कहने लगा

कि हां क्षितिजा आई तो थी पर फिर बौस के साथ ही उन की गाड़ी में बैठ कर चली गई. माथा ठनका कि फिर उस के बौस ने झूठ क्यों बोला… रात

के 12 साढ़े 12 बजे तक, जब किसी की जवान बेटी घर से बाहर हो और उस का फोन भी न

लग रहा हो तो जरा सोचिए उन मांबाप पर क्या बीतेगी?

‘‘चिंता के मारे भूखप्यासनींद सबकुछ हवा हो चुका था हमारा. पूरी रात हम ने आंखों में काट दी. सोचा सुबह होते ही पुलिस में इतला कर देंगे. तभी दरवाजे की घंटी बजी. मैं ने दौड़ कर दरवाजा खोला और फिर जो देखा, उसे देख कर सन्न रह गई. क्षितिजा के कपड़े अस्तव्यस्त थे और वह दीवार से लग कर खड़ी मुझे एकटक निहार रही थी.

‘‘मैं पहले उसे अंदर लाई और फिर झट से दरवाजा बंद कर दिया ताकि कोई देख न ले. समझ में तो आ ही गया था मुझे, फिर भी मैं ने पूछा कि कहां चली गई थी बेटा और तुम्हारा फोन भी नहीं लग रहा था? क्या तुम्हारे बौस को… बौस का नाम सुनते ही वह फूट पड़ी. उस की आंखों से झरझर कर आंसू बहने लगे.

‘‘मैं ने इसे झंझोड़ कर पूछा कि क्या हुआ बता? किसी ने तेरे साथ… पर कुछ बोलने से पहले ही वह बेहोश हो गई. जल्दी से हम उसे अस्पताल ले आए. डाक्टर ने जांच कर बताया कि उस के साथ बलात्कार हुआ है. यह सुन कर हमारे पैरों तले की जमीन खिसक गई कि कुछ दिन बाद सगाई होने  वाली थी…यह उस के साथ क्या हो गया? सदमे से वह बारबार बेहोश हो रही है तो हम उस से पूछते क्या कि किस ने उस के साथ ऐसी घिनौनी हरकत की? कुछ ठीक होने पर जब मैं ने पूछा कि वह तो अपने बौस को कोईर् फाइल देने गई थी, तो फिर ये सब कैसे हुआ और किस ने किया?

‘‘तब बताने लगी कि उस के बौस ने ही धोखे से उस के साथ… उस रात अपने बौस के बहुत आग्रह करने पर कि वह डिनर उस के साथ, उस के घर पर ही चल कर करे, चाह कर भी वह मना नहीं कर पाई. वैसे पहले भी 1-2 बार वह उस के घर जा चुकी थी. फिर यह भी सोचा कि बौस की पत्नी तो होगी ही घर पर, लेकिन घर एक नौकर के अलावा और कोई न था. वह भी खाना टेबल पर लगा कर चला गया.

आगे पढ़ें-क्षितिजा के पूछने पर कि उस की पत्नी औ…

लाल साया: भाग-1

सफेद रंग की वह कोठी उस दिन खुशियों से चहक रही थी. होती भी क्यों ना, घर का इकलौता बेटा विशेष अपने दोस्तों के साथ आज आ रहा था.

‘‘भैया आ गए, भैया आ गए,” महेश ने उद्घोष सा किया. सेठ मदन लाल और उन की धर्मपत्नी विमला देवी तेजी से बाहर की ओर लपके. कार से उतर कर विशेष ने मातापिता के पैर छुए, तो मां ने अपने लाल को गले लगा लिया. उन की आंखें रो रही थीं.

‘‘क्या मां, आप मुझे देख कर हमेशा रोने क्यों लगती हैं? आप को मेरा आना अच्छा नहीं लगता क्या?” विशेष लाड़ लड़ाते हुए बोला.

‘‘चल पागल,” मां ने नकली गुस्से के साथ हलकी सी चपत लगाई.

अब तक उमेश के साथ रिचा और उदय भी गाड़ी से उतर आए थे. उन के बैठक में बैठते ही महेश एक के बाद एक नाश्ते की प्लेटें लगाने लगा.

‘‘अरे भैया, एक हफ्ते का नाश्ता हमें आज ही करा दोगे क्या?” उदय आंखें फैला कर बोला.

‘‘उदय यार, मां को लगता है न, जब मैं उन के पास नहीं होता हूं, तब मैं शायद भूखा ही रहता हूं, इसलिए जब आता हूं तो बस खिलाती ही जाती हैं. बच नहीं सकते हो, इसलिए चुपचाप खा लो.”

रिचा जो मां के साथ सोफे पर बैठी थी, मां के गले में बांहें डाल कर बोली, ‘‘मां तो होती ही ऐसी हैं.”

विमला देवी प्यार से उस का गाल थपथपाने लगीं.

‘‘उमेश बेटा, तुम क्या कर रहे हो?” समोसा उठाते हुए सेठ मदन लाल ने पूछा.

‘‘अंकल मेरी दिल्ली में इलेक्ट्रिकल सामान की शौप है. अच्छी चलती है,” उस के स्वर में सफलता की ठसक थी.

‘‘और शादी…?” मां ने पूछा.

‘‘बस अब शादी का ही इरादा है आंटी. चाहता हूं कि पत्नी को अपने ही मकान में विदा करा कर लाऊं. एक फ्लैट देखा है. पच्चीस लाख का है. लोन अप्लाई किया है. बस मिलते ही अगला कदम शादी होगा. आप लोगों को आना होगा.”

‘‘हां… हां, जरूर आएंगे. और उदय तुम क्या कर रहे हो?” सेठजी उदय की ओर घूमे.

‘‘बस अंकल, अभी तो हाथपैर ही मार रहा हूं. बिजनेस करना चाहता हूं, पर पूंजी नहीं है. व्यवस्था में लगा हूं. अब देखिए ऊंट किस करवट बैठता है,” कहते हुए उदय ने कंधे उचकाए.

‘‘मन छोटा क्यों करते हो बेटा. ऊपर वाला सब रास्ता बना देते हैं. अब चलो ऊपर के कमरे में जा कर तुम सब आराम कर लो,” मां स्नेह से बोलीं.

चारों बच्चों की चुहलबाजी से घर भर गया था. चारों रात का खाना खा कर ऊपर चले गए.

विमला देवी बोलीं, ‘‘यह 2 दिन तो पता ही नहीं चले, पर आप ने उन्हें ऊपर क्यों भेज दिया? बच्चे तो अभी गपें मार रहे थे?”

‘‘अरे भाग्यवान, बच्चे अब बड़े हो गए हैं. उन्हें थोड़ी प्राइवेसी चाहिए होती है. तो हम उन के आनंद में रोड़ा क्यों बनें?”

‘‘हां, यह तो सही कह रहे हैं,” कहते हुए विमला देवी मेज पर से प्लेटें उठाने लगीं.

‘‘अरे, तुम क्यों उठा रही हो? महेश कहां है?‘‘

‘‘उस के गांव से फोन आया था कि मां बीमार है उस की, तो मैं ने छुट्टी दे दी.‘‘

‘‘अरे, फिर कैसे होगा? अभी तो ये बच्चे हैं.‘‘

‘‘आप चिंता मत करिए. सब हो जाएगा.‘‘

‘‘मैं कल दूसरे खानसामे का पता करता हूं,‘‘ चिंतित स्वर में सेठजी बोले.

गोली की आवाज से सेठजी की नींद टूट गई. वे समझ नहीं पा रहे थे, यह कैसी आवाज है और कहां से आई. वे फिर से सोने की कोशिश करने लगे, तभी आंगन के पीछे के बगीचे में किसी भारी चीज के गिरने की आवाज आई.

उन्होंने पलट कर पत्नी की ओर देखा. वे गहरी नींद में थीं, तभी सीढ़ियों पर से कदमों की आवाजें आने लगी. वे सधे कदमों से उठे और आंगन में आ गए. आंगन का दरवाजा पूरा खुला हुआ था. वे दबे कदमों से धीरेधीरे दरवाजे की ओर बढ़े. बाहर झांका तो एकदम घबरा गए. तीन आकृतियां अंधेरे में भी स्पष्ट दिखाई दे रही थीं. तभी एक आकृति ने लाइटर जलाया और सेठजी की आंखें फटी रह गईं.

यह तो विशेष, उदय और उमेश थे, पर अंधेरे में ये तीनों यहां क्या कर रहे हैं. सोचते हुए सेठजी ने कड़क कर पूछा, ‘‘कौन है वहां?”

उमेश लपक कर उन के पास आ गया और फुसफुसाया, ‘‘अंकल, आवाज मत करिए. बहुत गड़बड़ हो गई है.”

‘‘क्या हुआ?”

‘‘नशे में, विशेष ने रिचा को धक्का दे दिया… और वह ऊपर से गिर कर मर गई.”

‘‘क्या…?” सदमे से उन की आंखें फैल गईं. वे वहीं बैठ गए.

‘‘अंकल, आप खुद को संभालिए और विशेष को भी. मैं कुछ करता हूं,‘‘ उमेश सेठजी का हाथ पकड़ कर बोला.

‘‘ठीक से देखो, शायद डाक्टर उसे बचा पाए,‘‘ डूबते स्वर में वे बोले.

‘‘नहीं अंकल, मैं देख चुका हूं… अंकल, यहां कहीं फावड़ा है क्या?‘‘

बिना कुछ बोले सेठजी ने एक ओर इशारा किया.

‘‘आप यहीं बैठिए अंकल,‘‘ कहता हुआ उमेश वापस दोस्तों के पास चला गया और नशे में धुत्त विशेष को सहारा दे कर सेठजी के पास ले आया. विशेष बडबडाए जा रहा था, ‘‘मैं ने मार दिया. मैं ने मार दिया.‘‘

बेटे का यह हाल देख कर सेठजी की आंखें बरसने लगीं.

उमेश ने उदय की मदद से बड़ा सा गड्ढा खोद कर उस में रिचा को गाड़ कर समतल कर दिया. फिर अंदर जा कर एक आदमकद स्त्री की मूर्ति जो कमर पर घड़ा लिए हुई थी उठा लाया और उस को घुटने तक उसी में गाड़ दिया. 5-6 गमले भी उस के अगलबगल सजा दिए.

पौ फटने लगी थी. विशेष वहीं जमीन पर सो गया था. सेठजी स्वयं को संभाल चुके थे. रातभर की कड़ी मेहनत से थके हुए उमेश व उदय उन के पास आए.

‘‘बेटा…” सेठजी के पास शब्द नहीं थे.

‘‘अंकल, आप चिंता मत कीजिए. विशेष हमारा बहुत प्रिय मित्र है. हम उसे किसी संकट में नहीं पड़ने देंगे. यह बात बस हम चारों के बीच में ही रहेगी.”

‘‘हम तुम्हारे आभारी रहेंगे बेटा,” सेठजी की रोबीली आवाज की जगह एक पिता की निरीहता ने ले ली थी.

‘‘अंकल, आप को अपना माली बदलना पड़ेगा,‘‘ उमेश मूर्ति की ओर देख कर बोला.

‘‘ठीक है.‘‘

‘‘और अंकल, हम विशेष को ऊपर ले जा रहे हैं. आज आप किसी को ऊपर मत आने दीजिएगा, नहीं तो रिचा की अनुपस्थिति को छुपाना मुश्किल हो जाएगा.‘‘

आगे पढ़ें- फिर तो बहुत अच्छा है. हम दोनों आज शाम तक निकल जाते हैं. सब…

Holi 2023: थोड़े से दूर… नॉट ब्रेक-अप

बहुत दिनों से एक बात कहना चाह रहा था, अर्जुन ने फिल्मी अंदाज में वैदेही का हाथ अपने हाथ में लिए कहा. अर्जुन कुछ और आगे कह पाता इससे पहले ही वैदेही ने मज़ाकिया लहजे में कहा, अगर एक स्मार्ट लड़की को कुछ कहना हो, तो लड़के के लिए सबसे जरूरी बात आई लूव यू ही होती है. और वह तो तुम तीन साल पहले ही बड़े अच्छे से कह चुके हो. अर्जुन बालों में हाथ घुमाते और गाल एक हाथ से खीचते हुए वैदेही आगे कहती हैं, आई लव यू ही क्या तुम उससे भी ज्यादा कह चुके हो.

वैदेही के बातों को मानो अनसुना सा करते हुये अर्जुन अपने में ही कुछ खो सा जाता है, मानों वह अपने सवालों का खुद ही जबाब तलाश कर रहा हो. अर्जुन के फिल्मी हीरो वाले सीरियस पोज को देखते हुए वैदेही कहती है, ऐसा क्या हुआ तुम तो चुप्पी ही साध गए. चलो बताओ क्या कहना चाहते हो?

अब वैदेही को सीरियस होते देख अर्जुन ने तुरंत ही बात को बदलते हुये कहता है चलो रहने दो फिर बाद में बताउगा, इतनी भी सीरियस होने की बात नहीं है. अर्जुन कुछ और कहता इससे पहले ही वैदेही बोलती है, इट इज नोट गुड, तुम हमेशा ऐसे ही करते हो. जब कुछ बताना नहीं होता तो कोई बात चालू ही क्यों करते हो.

अब वैदेही के मूड को बदलते हुये देखकर अर्जुन कहता है बिना सुने तो तुम इतनी नाराज हो रही हो सुनकर न जाने क्या करोगी?

तुरंत जबाब देते हुये वैदेही कहती है, यदि अच्छी बात होगी तो प्यार भी मिल सकता है और कुछ बकबास हुयी तो एक चाटा भी. वैदेही के मूड को कुछ नॉर्मल देख अर्जुन कहता है, सच में कहूँ जो मैं कहना चाहता हूँ.

वैदेही – हाँ कहो ना, क्या बात है.

अर्जुन – लेकिन एक शर्त है, अगर मंजूर हो तो बात शुरू करूँ.

वैदेही – अगर फालतू की कोई शर्त है तो बिलकुल नहीं मंजूर.

अर्जुन – यार हद है, एकदम छोटी सी शर्त है.

वैदेही – चलो मंजूर, बोलो अब.

वैदेही की शर्त बाली बात को मानने के बाद अर्जुन मन ही मन अब यह सोच रहा था कि वैदेही को यह बात कैसे कहूँ, जिससे वह मेरे मन में जो है वह समझ सके. क्योंकि शब्दों की कुछ सीमाएं तो हमेशा ही होती हैं, शब्द हमेशा आपकी भावनाओं को पूर्णता में अभिव्यक्त नहीं कर पाते. व्यक्ति चाहे जितना सोच ले, पहले से तैयारी कर ले, लेकिन जो वह सोचता है उसको शब्दों के जरिए नहीं बता सकता.

अर्जुन की कुछ पल की चुप्पी को देख वैदेही के मन में भी सैकड़ों बातों आने-जाने लगी, जैसे कोई रीमोट से चैनल बदल रहा हो. इस बात को कहते हुये अर्जुन भी कुछ सहज महसूस नहीं कर रहा था, इतना नर्वस तो वह उस समय भी नहीं था जब उसने वैदेही को प्रपोज किया था. एक छोटी खामोशी को तोड़ते अर्जुन वैदेही के हाथ को पकड़ते हुये कहता है, शर्त के अनुसार तुम आज इस बात पर कोई रिएक्ट नहीं करोगी, आज रात के बाद कल हम इस पर बात करेंगे.

वैदेही – ओके, अब आगे भी तो कुछ बोलो.

हाथ में हाथ लिए आसमान को देखते हुये अर्जुन कहता है मैंने पिछले कुछ महीनों से महसूस किया है कि हम मिलने पर बहुत बाते करने लगे हैं, और कभी-कभी तो ये बाते हमारी तुम्हारी न होकर किसी और की ही होती हैं. मिलने पर इतनी बाते तो हम पहले कभी नहीं करते थे. और पहले जो बाते होती भी थी वह मेरी और तुम्हारी ही थी. मुझे तो लगता है वैदेही हमारे अंदर कुछ बदल सा गया है. अब तो कभी-कभी हमारा झगड़ा भी होने लगा है, भले अभी यह ज्यादा लंबा नहीं होता.

वैदेही के चेहरे के हावभाव कुछ बदलते हुये देखकर भी अर्जुन अपनी बात को आगे बढ़ाते हुये कहता है, अगर हम अपने इस प्यार को यूं ही आगे इसी सिद्दत से जारी रखना चाहते हैं.  तो हमें प्यार के इस मोड पर कुछ समय के लिए दूर हो जाना चाहिए. लड़ने झगड़ने के बाद तो सभी अलग होते हैं… ब्रेकअप करते हैं. हम दोनों कुछ एकदम नया करते हैं. तुम जानती हो रूटीन लाइफ से में कुछ बोर सा हो जाता हूँ, इसलिए हम कुछ एक्साइटिंग कुछ हटके करते हैं.

वैदेही – यू मीन ब्रेक-अप, मतलब तुम मुझसे अलग होने कि बात कह रहे हो, और वो भी ब्रेकअप विदाउट रीज़न.

अर्जुन – यार मैंने कहा था, कि आज रिएक्ट नहीं करोगी, प्लीज कल बात करेंगे ना.

वैदेही – लेकिन तुम्हें पता है तुम क्या कह रहे हो?

इतना कहते की वैदेही की पलके आंसुओं से भारी होने लगी, उसे समझ ही नहीं आ रहा था. वह क्या कहे, और ऐसा अचानक क्या हो गया जो अर्जुन ऐसा कह रहा है.

अर्जुन – हाँ बिलकुल मैं सोचकर यह बात तुमसे कह रहा हूँ, और वैदेही प्यार में प्रपोज, एक्सेप्ट, रोमांस, ब्रेक-अप के अलाबा भी बहुत कुछ होता है. हाँ एक बात और मैं तुमसे कह दूँ तुम ये जो ब्रेक-अप जैसी फालतू बात कर रही हो मेरा मतलब बो बिलकुल भी नहीं है.

अब समझ में आने की जगह अर्जुन कि बाते और अबूझ पहेली की तरह हो रही थी, वैदेही मन ही मन सोचे जा रही थी, अगर ब्रेक-अप नहीं तो क्यों यह दूर जाने की बात कह रहा है. वैदेही के कंधे पर हाथ रखते हुए अर्जुन कहता है, पता नहीं तुम अभी मेरी बात समझी या नहीं, पर अब जो मैं कह रहा हूँ, उस पर तुम कल ध्यान से खूब सोचकर विचार कर आना.

वैदेही के बालों को सहलाते हुये अर्जुन अपने मन में उठे प्रश्नों को वैदेही के सामने रखता है. वैदेही याद करो प्यार की शुरुआत में फोन पर हम घंटों बाते करते थे, पर आज फोन पर हम कितनी बात करते हैं? पहले मिलने पर क्या हमारे पास इतनी बाते थी, जितनी आज हम करते हैं? और आजकल हमारी बाते मेरी तुम्हारी ना होकर किसी और टॉपिक पर ही क्यों होती हैं? और दूसरे की बातों में हम कभी-कभी वेवजह झगड़ भी लेते हैं.

अर्जुन की यह सारी बाते अभी भी वैदेही के समझ के बाहर थी, अब इसी कनफ्यूज से  मन और दिमाग की स्थिति के साथ कुछ मज़ाकिया अंदाज में वैदेही कहती है, लोग सच ही कहते हैं साइकोलोजी और फिलोसफी पढ़ने-पढ़ाने वाले लोग आधे खिसक जाते हैं. और तुमने तो दोनों ही पढ़े हैं, इसलिए लग रहा है, कि तुम तो पूरे….

अर्जुन – अब तुम्हें जो कहना है वह कहो या समझो पर कल जरूर मेरी इन बातों को सोचकर आना .

आज घर जाते हुए भले दोनों हाथों में हाथ लिए चल रहे थे, पर दोनों खोये हुये थे किसी और ही दुनिया में. वैदेही चलते-चलते सोचे जा रही थी कि अर्जुन की तो आदत ही है, इस टाइप के इंटेलेक्चुयल मज़ाक करने की, लेकिन दूसरे ही पल वह यह भी सोच रही थी कि छोड़ने या अलग होने की बात तो आजतक कभी अर्जुन ने नहीं की है. इसलिए वह ऐसा मजाक तो नहीं करेगा. मन की उधेड़बुन तो नहीं थमी, लेकिन चलते-चलते पार्किंग स्टैंड जरूर आ गया.

जहां से दोनों को अलग होना था. दोनों ने एक दूसरों को सिद्दत भरी निगाहों और प्यार के साथ अलविदा किया और अपनी-अपनी गाड़ी को स्टार्ट करते हुये, अपने-अपने रास्ते पर चल दिए.

भले अर्जुन की बातों से वैदेही ज्यादा उदास और सोचने को मजबूर थी, पर अर्जुन भी कम बैचेन नहीं था. इसलिए ही तो कहते हैं कि अगर हम किसी के मन में अपनी बातों या कामों से उथल-पुथल मचाते हैं तो उसका प्रभाव हम पर भी कुछ ना कुछ जरूर ही होता है. हम चाहे कितने प्रबल इच्छाशक्ति वाले क्यों ना हों.

बारह घंटे के बाद स्माइली इमोजी और गुड्मोर्निंग के साथ अर्जुन का मेसेज वैदेही के मोबाइल पर आता है. बताओ कहाँ मिलना है? और आई होप तुमने जरूर सोचा होगा. वैदेही भी कनफ्यूज इमोजी के साथ गुड्मोर्निंग भेजती है और लिखती है. कल कहानी तुमने ही चालू की थी, तो आज तुम ही बताओ कहा खत्म करोगे. रिप्लाई करते हुये अर्जुन कहता है आज संडे भी है तो यूनिवर्सिटी के उसी पार्क में मिलते हैं जहां पहली बार मिले थे.

पार्क में अर्जुन हमेशा की तरह टाइम से पहले बैठा मिलता है. वैदेही भी पार्क के गेट से ही अर्जुन को देख लेती है मानों पार्क में उसके अलावा कोई और हो ही ना.

अर्जुन कुछ बोलता उससे पहले ही वैदेही कहती है तुमने जो भी कहा था उस पर खूब सोचा और उससे आगे-पीछे भी बहुत कुछ सोचा. हाँ तुम सही कहते हो पहले हम फोन पर ज्यादा बाते करते थे और मिलने पर हमारे पास बाते कम और अहसास ज्यादा थे. एक-दूसरे से मिलने पर बातों की जरूरत ही महसूस नहीं होती थी. एक दूसरे की मौजूदगी ही सब कह देती थी. और यह भी सही है पिछले कुछ दिनों से हम लोग एक दूसरे की बात या विचार का उतना सम्मान नहीं करते जैसा पहले था. पहले मुझे तुम्हारी गलत बाते भी सही लगती थी और अब कभी-कभी सही बात पर भी हम वेवजह बहस करने लगते हैं.

वैदेही कुछ और कहती इसी बीच में अर्जुन कहता है, तो बताओ ऐसा क्यों है?

वैदेही- अरे अब मैंने फिलोसफी थोड़े पढ़ी है, मैंने तो आर्किटेक्ट पढ़ी है, और आर्किटेक्ट में पहेलियाँ नहीं सीधे-सीधे पढ़ाई होती है. इसलिए तुम ही बताओ ऐसा क्यों है?

अर्जुन कुछ बोलता इससे पहले ही वैदेही कहती है, जो तुमने कहा था वह तो सोचा ही साथ ही मैंने यह भी सोचा कि अपने रिलेशन के पिछले तीन सालों में वैसा व्यवहार एक दूसरे से बिल्कुल नहीं किया, जो किसी प्यार करने वालों में एक साल के अंदर ही होने लगता है, एक भी बार हम दोनों ने एक-दूसरे से इरीटेट होकर ना फोन काटा ना ही स्विच आफ किया. न तुम कभी मुझसे गुस्सा हुये और न ही मैं तुमसे, फिर ना जाने तुम क्यों ब्रेकअप ओह सॉरी-सॉरी दूर होने की बात कर रहे हो.

वैदेही की सारी बातों को हमेशा की तरह उसी तल्लीनता से सुनकर अर्जुन कहता है, वैदेही तुम जो कह रही हो मेरे मन भी यही सब बाते आई थी. तुमसे अलग होने की बात करने से पहले. मैं भी यही सोचता रहा कि अगर दो प्यार करने वाले मिलने पर ज्यादा बात करने लगे हैं, थोड़ा सा बहस करने लगे, थोड़ा सा लड़ ले, तो इसमें क्या गलत है.

पर वैदेही मुझे लगता है जब अहसास कुछ कम होने लगते हैं तब शब्दों की जरूरत ज्यादा पड़ती है, और हम दोनों क्या, अगर किसी भी संबंध में सिर्फ शब्द ही रह जाए तो मान लेना चाहिए संबंध या तो खत्म हो गया है या फिर अगर है भी तो बस औपचारिकता भर है, ऐसे संबंध में आत्मा या जीवंतता नहीं है.

आज हमारे रिलेशन में भले कोई बड़ी समस्या नहीं है पर मुझे लगता है ये छोटी-छोटी  नोकझोक ही आगे चलकर बड़ी प्रोबलम बन जाती हैं. अर्जुन अपनी बातों को और समझाने का प्रयास करते हुये कहता है, वैदेही मैंने कई लोगों के प्यार के सफर में देखा हैं, पहले छोटी मोटी नोकझोक, फिर बेमतलब की बहसे, फिर आरोप-प्रत्यारोप और फिर चुप्पी, और अंत की चुप्पी बहुत ही दर्द देती है.

अर्जुन कुछ और कहता उसके बीच में ही वैदेही कहती है तो तुम्हारा मतलब है हमारे बीच अब अहसास नहीं बचा या प्यार नहीं है.

अर्जुन – नहीं नहीं मैंने ऐसा कब कहा कि हमारे बीच प्यार नहीं. बल्कि मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ कि जो हमारे बीच अहसास है, प्यार है वह बरकरार रहे. वैदेही अभी बहुत कुछ है हमारे बीच जो हमें एक दूसरे की ओर आकर्षित और रोमांचित करता है. मैं यही चाहता हूँ कि यही अहसास बने रहें.

वैदेही – तो अब तुम्ही बताओ कि हमें क्या करना चाहिए?

अर्जुन – हमें कुछ दिनों या महीनों के लिए दूर हो जाना चाहिए ताकि फिर से हम एक दूसरे से कुछ अजनबी हो सके, कुछ दिनों कि दूरी फिर से वह आकर्षण या कशिश पैदा करेगी, जहां शब्दों की फिर कम ही जरूरत होगी. और जितनी बात हम दोनों के फिर से मिलने पर होगी वह मेरी और तुम्हारी ही होगी, क्योंकि कुछ दिनों का अजनबीपन से बहुत कुछ हम दोनों के पास होगा जो हम एक-दूसरे से सुनना और बताना चाहेंगे.

वैदेही – ठीक है मान लिया तुम चाहते हो कि हँसते-हँसते कुछ समय के लिए हम दूर हो जाए, एक अच्छे रिलेशन को और मजबूर करने के लिए, पर ये होगा कैसे?

अर्जुन – अरे यार तुम आर्किटेक्ट में डिप्लोमा करने के लिए जो मूड बना रही हो, उसे अहमदाबाद में जॉइन करो, और हो जाओ अजनबी. और फिर मिलते हैं कुछ नए-नए से होकर, विथ न्यू एक्साइटमेंट के साथ.

वैदेही – थोड़े-थोड़े अजनबी बनने के चक्कर में कहीं इतनी दूर नहीं हो जाए कि फिर कभी मिल ही ना सकें.

अर्जुन – अगर कुछ दिनों कि दूरी हमें अलग कर देती है तो फिर तो हम दोनों को ही मान लेना होगा की हमारा रिश्ता उतना मजबूत था ही नहीं, और ये दूरी तोड़ने या दूर जाने के लिए नहीं बल्कि और नजदीक आने के लिए है.

वैदेही अर्जुन के इस प्रपोज़ल को दिल से स्वीकार कर पायी थी या नहीं, पर अर्जुन के इस दिमागी फितूर को मानते हुए अहमदाबाद में उसने अपना कोर्स जॉइन कर लिया. वैदेही नयी जगह, नए दोस्तों और पढ़ाई में कुछ व्यस्त से हो गयी थी, पर रात में अर्जुन की यादें हमेशा उसके साथ रहती थी.

अर्जुन और वैदेही को दूर हुए अभी दो महीने ही तो हुये थे पर अर्जुन का 6 महीने बाद मिलने का वादा जबाब देने लगा. छः महीने के पहले न फोन करने और न ही मिलने वाली अपनी ही बात को ना मानते हुए, अर्जुन ने आज वैदेही को मोबाइल पर मेसेज भेजा.

कुछ घंटे के इंतजार के बाद उसने फिर मेसेज भेजा, पर पहले मेसेज की तरह ही दूसरा मेसेज न तो रिसीव हुआ और न ही कोई जबाब आया.

मेसेज का जबाब न आने पर अर्जुन की बैचेनी बढ़ने लगी थी, बढ़ती बैचेनी ने अर्जुन के मेसेज की संख्या और लंबाई को भी बड़ा दिया. और अब मेसेज क्या वैदेही ने तो कॉल भी रिसीव नहीं किया था.

अब अर्जुन के मन में सौ सवाल उठ रहे थे, क्या वैदेही गुस्सा हो गयी? कहीं वैदेही को कुछ हो तो नहीं गया? या कहीं कोई और बात तो नहीं? अर्जुन के मेसेज और कॉल करने और वैदेही के जबाब न देने का सिलसिला लगभग 15-20 दिन चला. अंततः अर्जुन ने ठान लिया की वह अब खुद ही अहमदाबाद जाएगा.

माना जाता है कि स्त्री के व्यक्तिव की यह खूबी और पुरुष के व्यक्तिव की यह कमी होती है, जिसके कारण पुरुष अपनी ही सोची बात, विचार या निर्णय पर अक्सर कायम नहीं रह पाता, जबकि एक स्त्री किसी दूसरे की बात, विचार या निर्णय को उतनी ही सिद्दत से निभाने का सामर्थ्य रखती है, जैसे वह विचार या निर्णय उसने ही लिया हो.

जिस दिन अर्जुन को अहमदाबाद जाना था उसके एक दिन पहले अचानक रात में अर्जुन के मोबाइल पर वैदेही के आने वाले मेसेज की खास रिंगटोन बजती है, इतने लंबे इंतजार के बाद वैदेही के मेसेज आने से मोबाइल की स्क्रीन के साथ अर्जुन की आंखे भी चमक रही थी.

पर मेसेज में न जाने ऐसा क्या लिखा हुआ था, जैसे-जैसे अर्जुन मेसेज की लाइने पढ़ रहा था, पढ़ने के साथ उसके चेहरे की रंगत भी उड़ती जा रही थी.

मेसेज पढ़ने के बाद अर्जुन वैदेही से पहली बार मिलने से लेकर उस अंतिम मुलाक़ात को याद कर रहा था, बेड पर लेटकर एकटक ऊपर की ओर देखते हुये अर्जुन की आँखों से नमी झलकने लगी थी. कहा जाता है जब दर्द गहरा होता है तो आँसू बिना रोये, बिना आबाज के ही बहने लगते हैं. कुछ पल पहले जिस मेसेज के आने से अर्जुन की आंखे खुशी से चमकी थी, वही आंखे मेसेज पड़ने के बाद नम थी. वैदेही के मेसेज को कई बार पढ़ने के बाद भी अर्जुन को यकीन नहीं हो रहा था कि यह सब सही है…

…..डियर अर्जुन इतने दिनों से तुम मेसेज और कॉल कर रहे हो पर मैंने कोई जबाब नहीं दिया उसके लिए सॉरी… मैं तुमसे बिल्कुल भी गुस्सा नहीं हूँ, पर क्या करूँ तुमने जो कहा था  मैं वही तो कर रही हूँ. और तुम जानते हो तुम्हारी हर खवाहिस को मैं दिल से पूरा करने की कोशिश करती हूँ. सच अर्जुन अभी भी मुझे पता नहीं कि दूर होने के लिए तुमने यह मजाक में कहा था, या फिर किसी और वजह से, हो सकता है मेरे कैरियर बनाने के लिए तुमने ऐसा किया हो, पर अर्जुन यह सच है कि मैं तुमसे दूर होने की सोच भी नहीं सकती थी. अर्जुन पिछले दिनों एक बात मेरे मन में रोज ही आती है, अभी तो हम सिर्फ प्यार में थे और शादी जैसा कोई बंधन भी नहीं था, पर तुम्हारे रूटीन लाइफ से बोर हो जाने के कारण हम कुछ दिनों के लिए दूर हो गए. पर अर्जुन यदि शादी के बाद भी तुम रूटीन लाइफ से बोर होने लगे तब क्या होगा. अर्जुन हम जैसी लड़कियों का गुण कहें या मजबूरी हम तो दिल से जिस कन्धें और हाथ को एक बार थाम लेते हैं, उसे ही ज़िंदगी भर के लिए अपना साहिल समझ लेते हैं, लड़कियों की ज़िंदगी में खासकर इंडिया में रूटीन लाइफ से बोर होने का आपसन नहीं होता है.  इसलिए मेरे और तुम्हारे बीच की इस कुछ दिनों की दूरी को फिलहाल अपना ब्रेक-अप ही समझ रही हूँ. हाँ ज़िंदगी बहुत लंबी है इसलिए आगे का मुझे भी कुछ पता नहीं क्या होगा? दुआ करती हूँ हम दोनों की ज़िंदगी में अच्छा ही हो. अब मेसेज और कॉल नहीं करना क्योंकि तुम्हारे सवालों और बातों का मेरे पास इस मेसेज के अलावा कोई और जबाब नहीं है, लव यू…तुम्हारी वैदेही.

Holi 2023: चोरी का फल- क्या राकेश वक्त रहते समझ पाया?

भटकते मन को दिशा मिल गई- भाग 1

न्यूयौर्कहवाई अड्डे पर विमान से विदेशी धरती पर कदम रखते ही चारुल मानो अपने सामने के अद्भुत दृश्य को देख कर विस्मित हो उठी. जिधर नजर जाती, बड़ेबड़े विमान और एकदम पीछे वहां की गगनचुंबी अट्टालिकाओं के पीछे से ?ार कर आते सिंदूरी उजास ने मनोरम समां बांधा हुआ था. नवंबर की शुरुआती गुलाबी ठंडक भरी हवा बह रही थी. चारुल ने सिहर कर अपने कंधों पर पड़े शौल को खोल कर अपने इर्दगिर्द कस लिया और तेज गति से इमिग्रैशन काउंटर की ओर चल पड़ी. अपनी बेखयाली में उसे यह भी याद न रहा कि जौय, उस का कालेज के जमाने का करीबी मित्र और बिजनैस पार्टनर भी इस यात्रा में उस के साथसाथ और उस के पीछेपीछे आ रहा था.

‘‘भई चारुल, बहुत जल्दी चलती हो तुम तो. मैं जरा अपने वीसा के डौक्यूमैंट्स निकाल रहा था और तुम तो देखतेदेखते गायब ही हो गई. इमिग्रैशन काउंटर पर सील लगवा ली?’’

‘‘जी जनाब, आप से पहले ही लगवा ली. तभी कहती हूं, थोड़ी वौकिंग करो. ऐक्सरसाइज किया करो. दिनदिन भर औफिस में बैठे रहते हो. यह हैल्थ के लिए ठीक नहीं.’’

‘‘करूंगा, करूंगा यार, मिडल ऐज आने दो. अमां यार अभी तो मैं जवान हूं.’’

‘‘तुम इतनी इनऐक्टिव लाइफ जीते हो. ओह, मुग्धा तुम से कुछ नहीं कहती?’’

‘‘अरे, उसे अपनी किट्टी पार्टी और सोशल आउटिंग्स से फुरसत मिले, तब तो मेरी तरफ ध्यान देगी.’’

‘‘ओह जौय, आज इतने बरसों बाद घर से निकल कर इतना अच्छा लग रहा है कि पूछो मत,’’ एक लंबी सांस लेते हुए चारुल ने कहा.

‘‘हां चारुल, एक मुद्दत बाद निकली हो न तुम घर से, इसलिए ऐसा फील हो रहा है तुम्हें. फिर फौरेन विजिट का अपना ही चार्म है. अपने देश की तुलना में यहां की पौल्यूशन रहित हवा, चौड़ीचौड़ी हलके ट्रैफिक वाली सड़कें, ऊंचेऊंचे स्काई स्केपर्स, साथ में घनी हरियाली, सबकुछ मन को बेहद सुकून देता है. लेकिन न्यूयौर्क शहर के भीतर जब तुम जाओगी, तो वहां तुम्हें बिलकुल दिल्ली वाला फील आएगा. वही दिल्ली जैसा बेतरतीब ट्रैफिक, भीड़भाड़ भरे बाजार देखने को मिलेंगे. तुम तो पहली बार आई हो न यहां. मैं तो पहले भी आ चुका हूं.’’

‘‘ओके.’’

चारुल और जौय का न्यूयौर्क में अगला पूरा सप्ताह बेहद व्यस्त बीता. वे दोनों वहां  इंटरनैशनल बिजनैस में संभावनाओं की तलाश में एक इंटरनैशनल नेट वर्किंग इवैंट में भागीदारी करने आए थे. दोनों ने अपनी फैक्टरी में निर्मित उत्पादों के सैंपल्स ब्रिटेन, फ्रांस, इटली और अमेरिका के उद्यमियों को दिए. उन के सैंपल्स विदेशी उद्यमियों की हर कसौटी पर खरे उतरे और इवैंट के चलते करोड़ों के और्डर उन के हाथ लगे.

अपने सा?ा व्यापार में इस अप्रत्याशित सफलता से दोनों बेहद खुश थे. इस 1 सप्ताह में दोनों न्यूयौर्क के अनेक दर्शनीय स्थल घूम चुके थे.

उस दिन शुक्रवार था. उन्हें अभी वहां 1 सप्ताह और गुजारना था. एक अतिव्यस्त सप्ताह की भागमभाग के बाद वे दोनों ही वहां अवकाश के दिन कुछ सुकून से गुजारना चाहते थे. तभी कुछ फ्रैंड्स की सलाह पर उन दोनों ने एक दिन वहां के सैंट्रल पार्क में बिताने का निश्चय किया.

पार्क में कुछ कदम चलते ही चारुल को एक अनोखे सुकून का एहसास हुआ. चारों ओर ऊंचेऊंचे वृक्षों के रूप में फैली हरियाली ने उस का जैसे मनमोह लिया. आज बरसों बाद उसे यों लग रहा था मानो वह एक अरसे बाद खुली हवा में सांस ले रही थी. एक अनजानी अबू?ा निश्चिंतता और आजादी का एहसास हो रहा था उसे आज.

दोनों ही सब से पहले वहां के टर्टल पौंड के किनारे लगी बैंच पर बैठ गए. पानी में अनेक मछलियां, बत्तखें और कछुए तैरते दिख रहे थे. किनारे पर अनेक कछुए सुबहसवेरे की गुनगुनी धूप में अलसाए पड़े थे. उन में शिथिल चाल से रेंगते हुए कानों के पास लाल धब्बों वाले कछुए उसे बेहद प्यारे लगे. कभी गरदन लंबी कर सिर ऊपर उठाए तो कभी अपने बड़े से शेल में दुबकते, सिमटते, अलसाती चाल से धीमेधीमे चलते कछुए आंखों को बेहद भले लग रहे थे.

‘‘भई जौय, दोपहर होने आई, पेट में चूहे कूद रहे हैं. कुछ खिलाओपिलाओ भई.’’

‘‘चलो, यहीं वो सामने वाले कैफे में चलते हैं.’’

‘‘काश, यहां कुछ इंडियन खाने को मिल जाता. मैं तो यहां सैंडविच, चिप्स, पीजा और बर्गर खा कर उब गई. कुछ हलकाफुलका भारतीय खाना मिल जाता तो मन तृप्त हो जाता.’’

‘‘अरे कल ही तो इंडियन रेस्तरां में इतना बढि़या चटपटा खाना खिलाया था तुम्हें.’’

‘‘उफ, इतना स्पाइसी खाना खा कर पेट का बैंड बज गया अपना तो.’’

‘‘अब मोहतरमा, सात समंदर पार इस परदेस में आप को चप्पेचप्पे पर इंडियन खाना कैसे खिलाऊं मैं?’’

तभी चारुल ने अचानक इतनी जोर की चीख मारी कि जौय चौंक गया और उसने उससे पूछा, ‘‘क्या हुआ चारुल.’’

‘‘वह देखो.’’

जौय ने भी उसी दिशा में देखा तो वह भी खुशी से ?ाम उठा.

उन से 10 कदमों पर एक मोबाइल फूड वैन खड़ी थी जिस पर बड़ेबड़े अक्षरों में लिखा था, ‘‘साउथ इंडियन फूड फ्रौम केरला, इंडिया.’’

अंधे को क्या चाहे दो आंखें. दोनों ने डोसा, इडली, उत्तपम, वडे छक कर खाए और शाम के लिए भी पैक करवा लिए.

शाम को पार्क के अन्य दर्शनीय स्पौट्स की सैर कर के दोनों अपने होटल में अपनेअपने कमरों में पहुंच गए.

रात के 6 बजे थे. चारुल टीवी औन कर यों ही तनिक तरोताजा होने वहां के अति नरम गद्देदार बिस्तर पर लेटी ही थी कि अनायास उस पर चलते किसी विवाह के दृश्य को देख कर वह अपने अतीत में जा पहुंची.

अंतर्मन में गुजरे दौर की स्मृतियां मानो सिनेमाई रील की तरह चलने लगीं…

उस ने और यश ने हैदराबाद के प्रतिष्ठित बिजनैस कालेज से साथसाथ एमबीए की. कालेज के शुरुआती दिनों से दोनों में गहरी दोस्ती थी. दोस्ती के गुलशन में कब एकदूसरे के साथ पूरी जिंदगी बिताने के हसीं ख्वाबों के गुंचे खिल गए, उन्हें पता ही न चला.

चारुल एक मध्यवर्गीय नौकरीपेशा परिवार से थी, जबकि यश एक बिजनैसक्लास फैमिली से था. चारुल का परिवार यश के परिवार से कम पढ़ालिखा और अपेक्षाकृत रूढि़वादी मानसिकता का था.

यश के मातापिता की अपेक्षा थी कि इकलौते बेटे की शादी किसी घरेलू लड़की से हो, जो आते ही गृहस्थी का बो?ा अपने ऊपर ले कर सासूमां को उस की जिम्मेदारियों से मुक्त कर दे, लेकिन यश की आंखों में तो चारुल बसी थी.

एमबीए कालेज से जुदा होने के बाद दोनों को ही एकदूसरे से अलगाव बेहद भारी पड़ने लगा. न दिन काटे कटते, न रातें चैन से बीततीं.

दोनों की ही विवाह की उम्र हो आई थी. इसलिए किसी तरह यश ने सब से पहले मां को चारुल के बारे में बताया. मां ने पिता को बताया. संकीर्ण मानसिकता के पिता ने एक प्रोफैशनल लड़की को अपनी बहू बनाने से साफसाफ इनकार कर दिया, लेकिन इस रिश्ते के लिए प्रारंभिक नानुकर के बाद आखिरकार ?ाख मार कर दोनों को ही बेटे की इच्छा के आगे घुटने टेकने पड़े.

Holi 2023: हां सीखा मैं ने जीना- भाग 3

नवनी और कुंतल ने सैमिनार से एक दिन पहले दिल्ली पहुंचना तय किया ताकि कुछ समय वे एकांत में बिता सकें. तय कार्यक्रम के अनुसार कुंतल दिल्ली पहुंच चुका था जबकि नवनी की ट्रेन 2 घंटे की देरी से चल रही थी. कुंतल से इंतजार का समय काटे नहीं कट रहा था. वह बारबार कभी फोन तो कभी मैसेज करकर के नवनी से ट्रेन की स्थिति की जानकारी ले रहा था. उस की बेचैनी पर नवनी निहाल हुई जा रही थी.

‘तुम क्या करने जा रही हो नवनी? क्या यह अनैतिक नहीं?’ नवनी के विचारों ने अचानक अपना रुख बदल लिया.

‘प्यार नैतिक या अनैतिक नहीं सिर्फ प्यार होता है… हम दोनों एकदूसरे का साथ पसंद करते हैं तो इस में अनैतिक क्या हुआ?’ नवनी ने तर्क किया.

‘क्या यह दिव्य से बेवफाई नहीं होगी? सौम्या को पता चलेगा तो उस के सामने तुम्हारी क्या इज्जत रह जाएगी?’ फिर एक प्रश्न उभरा,’नहीं, किसी से कोई बेफवाई नहीं… मेरी निगाहों में यह मेरी अपनेआप से वफा है. वैसे भी दिव्य मेरे शरीर पर अपना हक जता सकता है लेकिन मेरे मन पर नहीं… रही बात सौम्या की… तो वह भी नारी है… देरसवेर मेरी भावनाओं को समझ जाएगी… जिस तरह मैं सब की खुशी का खयाल रखती हूं उसी तरह क्या खुद को खुश रखना मेरी जिम्मेदारी नहीं? और वैसे भी हम सिर्फ अकेले में 2 घड़ी मिल ही तो रहे हैं. इस में इज्जत और बेइज्जती की बात कहां से आ गई?’ नवनी ने प्रतिकार किया.

‘तुम्हें क्या लगता है? क्या अकेले में कुंतल खुद पर काबू रख पाएगा? कहीं तुम ही फिसल गई तो?’ मन था कि लगातार प्रश्नजाल फैला कर उसे उलझाने की कोशिश में जुटा था. किसी को चाहने के बाद उसे पाने की लालसा होती ही है… और किसी को पूरी तरह से पाने की अनुभूति यदि शारीरिक मिलन से होती है तो फिर…’ नवनी ने अपने वितर्क को जानबूझ कर अधूरा छोड़ दिया और इस के साथ ही आप से किए जा रहे तर्कवितर्क को जबरदस्ती विराम दे दिया. शायद वह इन जलते हुए प्रश्नों का सामना कर के अपने मिलन के आनंद को कम नहीं करना चाहती थी.

सैमिनार में भाग लेने वाले सभी प्रतिभागियों और मेहमानों के ठहरनेखाने की व्यवस्था आयोजकों द्वारा एक होटल में की गई थी. कुंतल का कमरा तीसरी मंजिल पर और नवनी को छठी मंजिल पर ठहराया गया था. नवनी स्टैशन से कैब कर के होटल आ गई. अभी सामान एक तरफ रख के बिस्तर पर पसरी ही थी कि रूम की बेल बजी.

कम इन…” अटेंडैंट होगा सोच कर नवनी ने पड़ेपड़े ही जोर से कहा. दरवाजा खुला तो सामने कुंतल खड़ा था. नवनी हड़बड़ा कर उठने को हुई लेकिन कुंतल ने उसे इतना मौका ही नहीं दिया. नवनी कुछ कहने को हुई लेकिन कुंतल ने उस के होंठ अपने होंठों से बंद कर दिए. कुछ ही पलों में मन में बहने वाला भावनाओं का झरना तन से गुजरता हुआ शांत नदी सा बहने लगा. सांसों का शोर मधुर संगीत सा लयबद्ध हो गया. अब न कान कुछ सुन रहे थे और न ही आंखें कुछ देख रही थीं. रोमरोम सक्रिय हो गया था.

“कुंतल, आज हमारे पहले मिलन पर एक वादा करोगे मुझ से?” नवनी ने कुंतल की छाती के बालों से खेलते हुए कहा.

“बोलो,” कुंतल ने उसे थोड़ा सा और कस लिया. वह मिलन के हर लमहे को जी लेना चाहता था.

“जिन होंठों से तुम ने मुझे छुआ है, उन से किसी और को मत छूना,” नवनी भावुक हो उठी.

“मैं तुम्हारी भावनाओं को समझता हूं, नवनी लेकिन प्रेम किसी बंधन का नाम नहीं है. यह तो तुम भी बेहतर समझती हो वरना आज तुम यहां मेरी अंकशायिनी नहीं होती. प्रेम तो पूरी तरह से इमोशंस पर टिका हुआ होता है. अगर दिल मिले तो घड़ीभर में मिल जाए… न मिले तो जिंदगीभर साथ रह कर भी न मिले… मैं नहीं जानता कि हमारे रिश्ते का कल क्या होगा लेकिन हमें तो आज में जीना चाहिए न… और आज यह कहता है कि मैं ने तुम्हें और तुम ने मुझे अपनी मरजी से छुआ…अब चलो, उठो तैयार हो जाओ. डिनर के लिए कहीं बाहर चलते हैं. कल से तो फिर सब कुछ यहीं सब के साथ करना होगा,” कुंतल ने उस के बाल सहलाए.

दूसरे दिन सेमिनार में नवनी के साथ कुंतल का व्यवहार एकदम व्यावसायिक था. कुंतल ने एक प्रखर वक्ता की तरह से अपना वक्तव्य  दिया. सामने बैठी नवनी को यकीन ही नहीं हो रहा था कि यह वही कुंतल है जो कल रात आतुर प्रेमी सा उस की बांहों में था. लंच और डिनर के समय भी कुंतल ने उस से एक निश्चित दूरी बना के रखी थी. उस का यह दूसरा रूप देख कर नवनी मन ही मन मुसकरा रही थी.

रात के 11 बजते ही कुंतल फिर से उस की बांहों में था. अगले दिन दोपहर बाद सब एकदूसरे से संपर्क में रहने का वादा करते हुए विदा हो गए. नवनी और कुंतल भी अपनेअपने गंतव्य की ओर चल दिए. उनींदी सी नवनी अभी बिस्तर में पड़ी अंगड़ाईयां ही तोड़ रही थी कि वाइब्रैंट मोड पर रखा मोबाइल घरघराया. कुंतल का फोन था. एक सहज मुसकान होंठों पर तैर गई. नवनी ने पास में लेटे दिव्य की तरफ देखा और मोबाइल उठा कर रसोई में आ गई.

“ओहो, लगता है रातभर नींद नहीं आई जनाब को भी,” नवनी धीरे से फुसफुसाई.

“इश्क नचाए जिस को यार… वह फिर नाचे बीच बाजार,” दूसरी तरफ कुंतल भी अंगड़ाई ले रहा था.

“बाबू… खुद पर रखो काबू… ज्यादा रोमांटिक होने की जरूरत नहीं है… जानते हो न, लोग चेहरे पढ़ लेते हैं… अब फोन रखो, रोमांस बाद में कर लेना,” नवनी ने उसे प्यार से डांटा.

“अच्छा, तो समाजसेवा के नाम पर यह सब चल रहा है… शर्म नहीं आई तुम्हें एक जवान होती बेटी की मां हो कर यह सब करते हुए…” दिव्य नवनी पर चिल्लाया. कुंतल से बातचीत में नवनी इतनी खो गई थी कि उसे दिव्य की आहट भी सुनाई नहीं दी. एक बार तो नवनी के चेहरे का रंग उड़ गया लेकिन अगले ही पल वह सामान्य हो गई. दिव्य उस के हाथ से मोबाइल छीन कर देखने लगा.

“पीओ कुंतल… अब मैं समझा कि तुम्हारे प्रोजैक्ट लगातार पास कैसे हो रहे हैं… रिश्वत में खुद को जो परोस रही हो…” दिव्य का गुस्सा 7वें आसमान पर था लेकिन नवनी ने चुप्पी साध ली.

“अगर तुम्हें यहां मेरे घर में रहना है तो यह सब छोड़ना होगा… समझी तुम?” नवनी की चुप्पी ने आग में घी का काम किया. नवनी दिव्य के सामने से हट गई और अपनी सामान्य दिनचर्या में व्यस्त हो गई. कई दिन घर में अबोला रहा. एक तरफ दिव्य का पुरुषोचित अहम आहत हुआ था तो दूसरी तरफ नवनी को इस में सफाई देने लायक कुछ लगा नहीं. सौम्या अलग मुंह फुलाए घूम रही थी.

“मैं 15 दिनों के लिए एक ट्रैनिंग प्रोग्राम में दिल्ली जा रही हूं… तुम्हारे पास पूरा समय है सोचने के लिए… तुम चाहोगे तो ही मैं वापस इस घर में आऊंगी, नहीं तो वूमंस होस्टल में चली जाऊंगी. वैसे, तुम्हारी जानकारी के लिए बता दूं कि कुंतल भी इस ट्रैनिंग में आ रहा है,” एक रोज नवनी ने दिव्य से कहा.

15 दिन क्या दिव्य और सौम्या को 5 दिन में ही नवनी की अहमियत का अंदाजा हो गया था. अस्तव्यस्त घर और लगातार बाहर के खाने ने दोनों को ही चिड़चिड़ा बना दिया था.

‘हम भी तो अपने दोस्तों के साथ मौजमस्ती करते हैं… यदि मां कुछ समय अपनी पसंद के साथी के साथ बिताती हैं तो हमें बुरा नहीं लगना चाहिए,’ सौम्या के सोचने की दिशा ने करवट बदली.

‘नवनी इस घर और मुझे पूरा समय देती है… अगर वह कुछ समय अपनेआप को भी देती है तो मुझे इस तरह से रिएक्ट नहीं करना चाहिए… पंछी पूरे दिन चाहे आकाश में उड़े लेकिन सांझ ढले तो आखिर अपने घोंसले में ही आता है न…’ दिव्य को सिंक में झूठे बरतनों का ढेर देख कर उबकाई सी आ गई.

उधर कुंतल को जब पता चला कि उसे ले कर नवनी के घर में तनाव चल रहा है तो वह भी परेशान हो गया.

“सौरी यार, मेरी वजह से तुम परेशानी में पड़ गईं… लेकिन प्लीज… हमारे रिश्ते को ले कर कभी गिल्ट फील मत करना… यह सचमुच दिल से जुड़ा हुआ फैसला था… फिर भी… तुम जो फैसला करोगी, मैं तुम्हारे साथ हूं,” कुंतल ने कहा.

“नहीं… मुझे कोई गिल्ट नहीं… जो कुछ हुआ वह हमारी आपसी सहमति से ही हुआ न… और यह भी तो सच है कि तुम से मिलने के बाद ही मैं ने लीक पर चल रही जिंदगी से हट कर खुद अपने लिए जीना सीखा… अब चलो भी… सेशन का टाइम हो गया,” नवनी ने कुंतल को धकियाते हुए कहा.

“तुम सचमुच कमाल हो यार… टूट कर प्यार करने लायक… मैं ने तुम्हें चुन कर कोई गलती नहीं की… लब्बू…” कुंतल हौल की तरफ चल दिया.

“मां, तुम्हारी ट्रैनिंग कैसी चल रही है? मैं और पापा दोनों आप को मिस कर रहे हैं…” मोबाइल पर सौम्या का मैसेज पढ़ कर नवनी के दिल से सारा बोझ उतर गया.

“हां सीखा मैं ने जीना… जीना… हमदम…” गुनगुनाती हुई नवनी भी कुंतल के पीछेपीछे हौल में घुस गई.

धीरेधीरे वक्त ने अपने कदम बढाए. 40 की नवनी 50 को पार कर गई. सौम्या शादी के बाद ससुराल चली गई. दिव्य, सौम्या, कुंतल और नवनी… सब अपनेअपने दायरों में रह कर अपनी जिम्मेदारियां निभा रहे थे. बदली हुई परिस्थितियों को स्वीकार करने में दिव्य को जरूर थोड़ा वक्त लगा था लेकिन अकेलेपन की भयावह कल्पना ने उसे भी मौन समझौता करने की हिम्मत दे दी. सब ने अपने लिए समय चुरा कर जीना सीख लिया था.

मीठी परी: भाग 3- सिम्मी और ऐनी में से किसे पवन ने अपनाया

नयन ने सीधी बात शुरू की, ‘‘पवन, मैं समझता हूं कि ऐसे हालात में तुम क्रिस को हमारा बेटा समझ यहां छोड़ जाओ. आगे की सोचो, तुम वापस जाना चाहो या यहां रहो, यह तुम्हारा अपना फैसला होगा. मां को हम समझा लेंगे.’’ पवन का दिलआंखें ऐसे रोईं कि भाभी भी साथ रोती हुई, उस को तसल्ली दे, उस की पीठ थपथपाती रही.

‘‘सब ठीक हो जाएगा, हौसला रखो, पवन,’’ कह कर नयन उठ बाहर चले गए.

इस बार मां को इस दुख से उबारने की जिम्मेदारी पवन ने स्वयं ली. भरे मन से क्रिस को भाभी के पास छोड़ मां के पास जा, बिना रोए, ढांढ़स बांध, सारी बात बताई. मां ने उस के सिर पर हाथ रख कर कहा, ‘‘बेटा, किस को दोष दें, समय की बात है.’’ मां ने समझाया, ‘‘जो हुआ सो हुआ, अब वह जल्दी अपना घर बसाए. शादी टूटने की बात तो ठीक है पर बच्चे की चर्चा न ही हो तो अच्छा है.’’

पवन ने वापस लौट कुछ समय के बाद घर और नौकरी बदल ली. बैठता तो क्रिस को याद करने के साथ यह भी सोचता कि कैसी ममतामयी और समझदार हैं संजना भाभी, कितनी सहजता से भाई ने क्रिस को अपने बेटे जैसे रखने के बारे में सोच लिया. मां भी क्या रिश्ता है, कितनी सरलता से मां ने उसे आगे की सोचने की सलाह दी. क्या ऐनी के मन में ऐसा कोई भाव नहीं जागा.

इतवार का दिन था, पवन 10 बजे तक लेटा रहा. रात किनकिन विचारों में उलझा रहा था. तभी फोन बजा. भाई का फोन था, बता रहा था कि क्रिस ठीक है और उस की कुछ फोटो अपलोड कर भेजी हैं. साथ ही, यह भी बताया कि ईमेल पर किसी की पूरी डिटेल्स, फोटो और पता लिखा है. तुम स्वयं भी साइट देख सकते हो. मां और संजना लड़की के परिवार से मिल सब जानकारी ले भी आए और तुम्हारे विषय में भी बता दिया है. याद रहे, क्रिस अब हमारा बेटा है. जैसा मां का सुझाव था वैसे ही करो. लड़की सिम्मी अपने भाईभाभी के पास पिछले 2 वर्षों से रह रही है जो यूके में कई वर्षों से हैं. तुम्हारा पता नहीं दिया. मां चाहती हैं कि तुम स्वयं देखभाल कर बात बढ़ाओ.

पवन का मन खुश न हो, दुखी हुआ, काश, ऐनी के साथ ही सब ठीक रहता तो…किसे दोष दे. पवन को लगा शायद पहली बार सब मां के आशीर्वाद के बिना हुआ था इसलिए…टालता रहा. पर जब मां ने पूछा कि उन्हें फोन क्यों नहीं किया, सिम्मी के परिवार से क्यों नहीं मिला तो अब तक कहा कि इस इतवार सिम्मी के परिवार को फोन अवश्य करूंगा.

फोन किया तो सिम्मी ने ही उठाया, पूछा, ‘‘कहिए, किस से बात करनी है?’’

‘‘संजयजी से, जरा रुकें, भाभी को मैसेज दे दें.’’

झिझकते हुए पवन ने अपना परिचय दिया तो भाभी फोन पर बात करती हुई खुश हो पूछ बैठी, ‘‘आप आज शाम मिल सकते हैं.’’

‘‘जी, ठीक है, कहां?’’

‘‘संजयजी अभी आते होंगे, वे आप को बताएंगे.’’ अब तो पवन घबराया कि क्या बताए क्या छिपाए.

शाम कौ सैंट्रलसिटी रैस्टोरैंट में मिले. सिम्मी ने स्वयं अपनी शादी व तलाक के बारे में बताया कि लड़का जरमनी से आया था पर जल्दी ही उस के ड्रग ऐडिक्ट होने की बात सामने आई. सिम्मी ने अस्पताल और समयसमय पर थेरैपी के साथ रीहैबिलिटेशन के पेपर दिखाए. उस का मानना था कि ऐसी आदत जल्दी छूटती नहीं. वह यहां एमबीए कर रही है. इतना कहते हुए अपने भाईभाभी का आभार प्रकट किया.

साधारण सी दिखती लड़की का साहस और सोच पवन को अच्छी लगी. पवन अभी साहस जुटा रहा था अपने बारे में बताने का कि सिम्मी के भाई ने कहा कि आप के बारे में मांपापा व बड़े भाई को जानकारी है और अब आप का और सिम्मी का निर्णय ही हमारा फैसला होगा.

कुछ दिनों के बाद भाई की सलाह से सिम्मी ने फोन पर पवन से बात की और दोनों बाहर मिले. सिम्मी की तरफ से हां पर पवन ने फोन पर मां को बताया कि ठीक है. फिर भी जाने क्यों, जो पवन के साथ हो चुका था, उस का डर उस के मन के किसी कोने में छिपा बैठा था.

बर्मिंघम की कोर्ट में शादी के अवसर पर पवन का भाई नयन पहुंचा. सादी सी सैरामनी के साथ और परिवार के नाम पर 5 लोगों ने बाहर खाना खाया और नवदंपती को विदाई दी. नयन एक हफ्ता होटल में रुक इधरउधर घूम वापस लौटा. संजना भाभी खुश थी. मां ने महल्ले में लड्डू बंटवाए और पवन की विदेश में शादी की सब को खबर दी. पहले की घटित हुई सारी कहानी पर खाक डाल दी गई.

एक सप्ताह का आनंदमय समय इकट्ठा बिता पवन काम पर लौटा और सिम्मी पढ़ाई में लग गई. पवन की मां या भाभी से सिम्मी बहुत आदर से फोन पर बात करती. सिम्मी के भाईभाभी भी कभी थोड़ी देर के लिए आ जाते और बहन को खुश देख राहत की सांस लेते. परीक्षा खत्म हुई और अच्छा रिजल्ट पा सिम्मी के साथ पवन भी खुश हुआ और उस को सुंदर सी ड्रैस गिफ्ट की.

सिम्मी ने पवन को यह कह हैरान कर दिया कि नौकरी तो कभी भी की जा सकती है पर परिवार बढ़ाना है तो हम दोनों की आयु देखते हमें पहले बच्चे के विषय में सोचना चाहिए. पवन खुश, ‘‘अरे, सोचना क्या, इरादा नेक है.’’ जब समय मिलता, दोनों कहीं न कहीं घूम आते. 2 महीने बीते तो पाया कि सिम्मी गर्भवती है. सब बहुत खुश और सिम्मी के पैर तो खुशी के मारे धरती पर टिक ही नहीं रहे थे, ‘‘हमारा पहला बच्चा.’’

पवन सिम्मी का पूरा ध्यान रखता.

6 महीने बीतने को आए जब एक दिन औफिस से लौटने पर सिम्मी ने एक फोटो सामने रखते पवन से पूछा, ‘‘यह कौन है, कितना प्यारा बच्चा है?’’ पवन के काटो तो खून नहीं, यह फोटो उस ने ऐनी की क्रिस को गोद लिए पहले दिन डेकेयर छोड़ने जाने पर खींची थी. अच्छा हुआ कि वह नहीं था उस फोटो में. उस ने बड़ी सावधानी से कैमरे, अलबम, फ्रेम से सब फोटो बड़े दुख के साथ निकाल फेंक दी थी. यह फोटो किसी दूसरी फोटो के साथ उलटी लगी रह गई थी जिसे वह देख नहीं पाया. अपने को संभालते हुए, एक सहकर्मी व उस के बेटे की बता फोटो ले ली. सिम्मी की ओर से कोई प्रश्न न पूछा जाए, सोच कर पवन किचन में अपने व सिम्मी के लिए चाय बनाने लगा.

ऐनी अब स्कौटलैड में ही थी पर पवन के घर व औफिस बदलने की उसे खबर थी. ऐनी की बहन के विवाह को 10 वर्ष हो चुके थे. पर कोई संतान नहीं थी. काफी इलाज कराने के बाद कोई संभावना भी नहीं थी. घर में बच्चा गोद लेने की चर्चा चल रही थी.

ऐनी सब पीछे छोड़ तो आई थी पर कभीकभी उस का मन क्रिस को याद कर उदास हो जाता. उस ने बहन से सलाह की कि यदि उस का पति माने तो वह क्रिस को गोद ले सकती है. उस के पास क्रिस के जन्म पर अस्पताल से मिला प्रमाणपत्र है जिस पर उस का व पवन का नाम लिखा है. बात तय हो गई.

यूके में कोर्ट द्वारा पवन को सम्मन भिजवा दिया गया जिस में ऐनी ने बिना किसी शर्त के बेटे क्रिस को अपनाने की अपील की. पत्र पवन के नाम था, पर घर पर सिम्मी को मिला. खोला तो ऐनी नाम देख उसे याद हो आया यही नाम तो बताया गया था पवन की पहली पत्नी का. पर बच्चा उस की तो कभी चर्चा ही नहीं की किसी ने? सिम्मी का 8वां महीना चल रहा था और उस के मानसपटल पर इतने विचार आजा रहे थे कि वह बहुत घबरा गई. पवन को फोन पर तुरंत घर आने को कह वह बैठ गई. अचानक तसवीर उभरी जो उस को अलबम में मिली थी जिसे पवन ने सहकर्मी और उस का बेटा बताया था. कहीं वह बच्चा पवन…क्या हो रहा है ये सब, वह मन को शांत करते हुए सोफे पर बैठ गई.

घबराए आए पवन ने उसे यों बैठे देखा तो सोचा, अवश्य उस की तबीयत ठीक नहीं. कहा, ‘‘उठो, अस्पताल चलते हैं.’’

‘‘नहीं, कोर्ट में जाओ,’’ कहते हुए सिम्मी ने लिफाफा थमाया. पवन को तो जैसे घड़ों पानी पड़ गया हो, कहां जा डूबे, क्या करे? सिम्मी ने उसे हाथ पकड़ कर पास बैठाया, फिर उठ कर पानी ला कर पिलाया और धीरे से उस का झुका मुंह उठा, पूछा, ‘‘पवन, बस, सच बताओ, बाकी हम संभाल लेंगे.’’

अब छिपाने को कुछ रह ही नहीं गया था. पवन सिम्मी के कंधे पर सिर रख फफक कर रो पड़ा. सिम्मी ने उसे बांहों में सहलाया, ‘‘रोओ नहीं, शांत हो जाओ.’’

जब वह पूरी तरह शांत हो गया तो माफी मांगते सच उगल दिया.

सिम्मी ने कहा, ‘‘अब पूरी सचाई से बताओ कि तुम क्या चाहते हो?

‘‘प्लीज सिम्मी, मेरा साथ नहीं छोड़ना.’’

‘‘पवन अगर तुम ने हमें शादी से पहले अपने बेटे के बारे में बताया होता तो सच मानो वह आज हमारे साथ होता पर फिक्र न करो वह अब भी हमारे घर में है तुम्हारे भाईभाभी के साथ. जब चाहे उसे यहां ले आओ. हमारे 2 बच्चे हो जाएंगे.

बोलती सिम्मी का मुख पवन गौर से परखता रहा, क्या यह सच कह रही है, क्या ऐसा संभव है, क्या अब मेरा बेटा मेरे पास रह सकता है?

सिम्मी ने उसे धीरे से झिंझोड़ा, ‘‘पवन, मैं तुम्हारे बेटे की मां बनने को तैयार हूं. उठो, नोटिस का जवाब दो. कल किसी अच्छे वकील से मिलो. उठो पवन, शाम की चाय नहीं पिलाओगे.’’

पवन हैरान, ‘कैसी औरत है, कितनी सहजता से सब समेट लिया. कोई शिकायत नहीं, कितना बड़ा दिल है इस का. बिना कहे क्षमा कर दिया.’

दोनों ने मिल कर चाय पी और फिर सिम्मी बोली, ‘‘पवन, जरा भाईभाभी को फोन कर क्रिस का हाल जानें और उन्हें बताएं कि दूसरे बच्चे के होने के बाद हम पहले उसे लेने वहां आएंगे.’’

‘‘सच सिम्मी.’’

‘‘हां, सच पवन. और सुनो, मां को भी अपना फैसला बताएंगे तो वे भी खुश होंगी. रही मेरे परिवार की बात, तो उन से मैं स्वयं निबट लूंगी.’’

ये सब सुन पवन ने फोन लगा, सिम्मी को पकड़ाया और साथ ही झुक उस का माथा चूम लिया. सिम्मी

ने शरारत से देख, कहा, ‘‘अब मेरी बारी…अब तुम्हारा मुंह मीठा कर दिया मैं ने, कड़वी बातें भूल जाओ. मैं हूं मीठी परी, मुझ से कभी झूठ न बोलना.’’ पवन ने अपने दोनों कान पकड़ नहीं की मुद्रा में सिर हिलाया तो सिम्मी अपने पेट पर दोनों हाथ रख जोर से हंस दी. पवन हैरान था उस का यह सुहावना रूप देख, धीरे से बुदबुदाया, ‘मीठी परी’.

लेखिका- वीना त्रेहन

अमेरिकन बहू- भाग 1: समाज को भाने लगी विदेशी मीरा

अपनेगोरेचिट्टे हाथों को जोड़ कर, बिल्लोरी आंखों में मुसकान का जादू भर कर, सुनहरी पलकों को हौले से ?ाका कर जब उस ने कहा, ‘‘नैमेस्टे मम्मीजी,’’ तो सुजाता का मन बल्लियों उछलने लगा. उन के दिल की धड़कनें इतनी तेज हो गईं कि वह क्षण भर के लिए भूल गई कि वह अनुपम सुंदरी केवल लैपटौप के स्काइप के चमत्कार से प्रगट होने वाली एक छवि भर थी जिस से वे अपने बेटे राहुल से बहुत अनुनयविनय करने और अपने पति कुमार साहब के बहुत सम?ानेबु?ाने पर बात करने को तैयार हुई थीं. पर उस की एक शरमाती हुई ‘नैमस्टे’ ने उन का सारा संताप, सारे गिलेशिकवे धो कर रख दिए.

काश, वह हाड़मांस की काया में उन के सामने रही होती तो वे उसे अपने अंक में भर लेतीं, अपनी दोनों हथेलियों को मोड़ कर अपने कानों के ऊपर घुमा कर उस की वैसे ही बलैयां लेती जैसी कुमार साहब की माताजी यानी उन की अपनी सास ने 32 वर्ष पहले उन की ली थी. वह क्षण उन की आंखों के सामने सजीव हो उठा जब तेल के भरे हुए कटोरे को लजातेलजाते ठोकर लगा कर उलटने के बाद उन्होंने कुमार परिवार के घर की देहरी के अंदर प्रवेश किया था.

उन्हें रोमांच सा हो आया. लगा जैसे उन के घर के सामने लगे छोटे से लौन के टुकड़े पर स्वर्ण उत्तर आया और पृष्ठभूमि में कहीं शहनाई के स्वर गूंजने लगे. वे इतना भावविव्हल हो गई कि उस की मुसकराती हुई, मनुहार करती हुई मुद्रा में की गई ‘नेमेस्टे’ के उत्तर में दो वचन भी नहीं निकल सके.

वे मुग्ध हो कर लैपटौप की स्क्रीन पर उस के अप्रतिम सौंदर्य को निहारती रह गईं. कुमार साहब को, जो सुजाता के बाद स्काइप पर उस से बात करने के लिए अपना नंबर आने की प्रतीक्षा में अपने स्टडी टेबल के पास ही खड़े हुए थे, आगे बढ़ कर उन्हें याद दिलाना पड़ा कि वह अभी भी उन के उत्तर की प्रतीक्षा वाली मुद्रा बनाए हुए मुसकराए चली जा रही थी.

 

बड़ी मुश्किल से वे अपनी विव्हलता से उबर कर, भावातिरेक से रुद्ध हो गए गले को

साफ करते हुए कह पाईं, ‘‘खुश रहो बेटी, जुगजुग जियो.’’

कुमार साहब को पूरी स्थिति अपने काबू में लाने के लिए एक बार फिर से हस्तक्षेप करना पड़ गया. स्काइप की तरह मुखातिब हो कर वे बोले, ‘‘हाई मीरा, आई ऐम राहुल्स डैड. हिज मौम इज टू औवेव्हैल्मड. बट शी जस्ट विश्ड यू ए लौट्स औफ हैप्पीनैस ऐंड लौंग लाइफ…’’

इस बार कुमार साहब को ऐसा अप्रत्याशित उत्तर मिला कि उन्हें भी संभलने में 2 क्षण लग गए. लैपटौप की स्क्रीन पर मुसकराती हुई लड़की जिसे उन्होंने मीर कह कर संबोधित किया था, ने उत्तर दिया, ‘‘एस डैडी, मैं सम?ा गई. राहुल से दोस्ती हुए 6 महीने हो गए हैं. शादी का फैसला हम ने 3 महीने पहले लिया था. तभी मैं ने हिंदी भाषा सीखने की क्लास भी जौइन कर ली थी. अब मैं हिंदी सम?ा लेती हूं. बोलने का अभ्यास कर रही थी कि जब राहुल आप से और मां से बात कराएगा तो हिंदी ही में बात करूंगी. वैसे मु?ो मालूम है कि आप दोनों इंग्लिश बोलते हैं लेकिन मु?ो आप से प्यार है और हिंदी से भी बहुत प्यार है.’’

फिर तो बातों का ?ारना ?ार?ार करता हुआ बह निकला. टूटीफूटी हिंदी में वह जो बोली दोनों अच्छी तरह समझ गए. सुजाता ने 2-4 क्षणों में ही सहज हो कर मीरा से बातें करनी शुरू कर दीं और एक बार बातें शुरू हुई तो लगा कि उन का अंत ही न होगा. हां, यह जरूर बहुत जल्द पता चल गया कि मीरा की हिंदी अभी बहुत पुख्ता नहीं हुई थी. ‘त’ और ‘द’ जैसी कोमल ध्वनियों का उच्चारण अभी उस के बस का नहीं था. पर ‘ट’ और ‘ड’ की किसी धातु जैसी खनकती ध्वनि से सजी उस की हिंदी राहुल के लिए और सुदूर भारत में उस की राह तकते हुए राहुल के अधेड़ मांबाप के लिए कोमलता और स्नेह के रस में बहुत मृदु और मधुर हो गई लगती थी.

सुजाता के लिए इंग्लिश कोईर् पराई भाषा नहीं थी. अब से 4 दशक पहले भी उन्होंने इंग्लिश माध्यम से ही कालेज में पढ़ाई की थी और इंग्लिश विषय ले कर ही बीए भी किया था. बात करते हुए जब भी मीरा किसी इंग्लिश शब्द के लिए सही हिंदी शब्द की तलाश करती हुई अटकी तो वे तुरंत उस की कठिनाई दूर करने के लिए या तो उचित शब्द सु?ा पाईं या फिर स्वयं हिंदी छोड़ इंग्लिश में ही बात करने लगतीं.

होने वाली सास और बहू के बीच दोनों भाषाओं की एक लड़ी सी गुंध गई. सुजाता की इंग्लिश मीरा की हिंदी से कहीं अधिक सशक्त निकली. पर हिंदी के प्रति मीरा का अनुराग तो आइसबर्ग के दिखाई देने वाले एक छोटे से

टुकड़े भर निकला. बहुत जल्दी यह स्पष्ट हो गया कि उस की भारत और उन के पूरे परिवार में गहरी रुचि थी जो राहुल के प्रति उस के प्यार का महज प्रतीक नहीं बल्कि अपनी असली

वजह थी. प्यार बहुत कुछ नया करना को प्र्रेरित करता है और इसलिए मीरा ने भारत के बारे में भी बहुत कुछ जाना और राहुल ने सगेसंबंधियों के बारे में भी. मीरा का ?ाकाव ही उसे विशाल आइसबर्ग की सतह से नीचे छिपा हुआ विशाल हिमखंड था.

सुजाता ने मीरा से जितनी देर बात की उस में पूरे समय स्पष्ट होता रहा कि भारतीय जीवनशैली और भारतीय संस्कृति में उस की गहरी रुचि महज राहुल की मां को खुश करने के लिए एक दिखावा भर नहीं था. सुजाता को मीरा से बात करते हुए ऐसा महसूस होने लगा कि उन के मन के ऊपर लदा एक बड़ा भारी बो?ा हटता जा रहा था, जैसे कोई जकड़ी हुई गांठ धीरेधीरे अपनेआप खुलती जा रही थी. उन का चेहरा खुशी से खिल उठा.

कुमार भी मीरा से बात करने के लिए उतने ही बेचैन थे. पर सुजाता के मन में जितनी ग्रंथियां राहुल के एक अनजान अमेरिकी लड़की के प्रेमपाश में बंध जाने को ले कर थीं, जितने अज्ञात संकटों से वह पिछले कुछ महीनों से घिरी हुई महसूस कर रही थीं वैसा कुछ कुमार के दिलोदिमाग पर नहीं गुजरा था. उन के दृष्टिकोण में अपनी पत्नी की अपेक्षा कहीं अधिक खुलापन था. यह तो सच था कि राहुल जानेमाने भारतीय परिवेश वाली किसी लड़की को अपनी पसंद

कह कर उन से मिलवाता तो उन्हें कहीं अधिक खुशी होती. पर इस की बजाए राहुल से एक अमेरिकन लड़की का परिचय इस सूचना के

साथ मिला कि वह उस को अपना जीवनसाथी बनाना चाहता था. फिर भी उन्होंने राहुल से इस विषय में उस का पहला संकेत पाने के बाद से अब तक कभी खुल कर अपनी असहमति नहीं जाहिर की थी.

तूफान की वह रात- भाग 1

जैसी कि उम्मीद थी, शाम को पटना एयरपोर्ट पर एयरबस के उतरते ही उस ने चैन की सांस ली. मगर अभी तो बस शुरुआत थी. आगे के झंझावातों को भी तो उसे झेलना था. पंकज शर्मा की डेड बौडी भी इसी फ्लाइट से आई थी. और उसी के साथ उसे भी गांव  जाना था. पहली बार वह विमान पर चढ़ा था. मगर पहली बार फ्लाइट पर जाने का उसे कोई रोमांच या खुशी नहीं थी.

पंकज एक शिपिंग कंपनी में मैरीन इंजीनियर थे और उन की अच्छीभली स्थायी नौकरी और तनख्वाह थी. फिर उन के परिवार वाले संपन्न किसान भी थे. उन्होंने ही अपने खर्च पर पंकज शर्मा के शव को यहां मंगवाया था कि उन का दाह संस्कार अपने ही गांव में हो. और इसी बहाने वह भी साथ आ गया था.

पंकज शर्मा के बड़े भाई और उन के दो भतीजे भी साथ थे. संभवतः वे वहीं समस्तीपुर से ही एम्बुलेंस की व्यवस्था कर पटना एयरपोर्ट आए थे.

कोरोना के चक्कर में इस समय औक्सीजन और दवाओं के साथ अस्पतालों में बेड व एम्बुलेंस के लिए भी तो मारामारी थी.

कोरोना की जांच और दूसरी सुरक्षा जांच संबंधी औपचारिकताओं को पूरा करने में ही एक घंटा खर्च हो गया था. फिर बाहर निकलते ही पंकज शर्मा की डेड बौडी को एम्बुलेंस की छत पर रख कर बांधा जाने लगा. वह चुपचाप सारी गतिविधियां देखता रहा. उन का 16 साल का बेटा अनूप  अभी भी फूटफूट कर रो रहा था. उन के बड़े भाई नारायण की भी आंखें नम थीं.

पंकज शर्मा का भतीजा आलोक उसी की हमउम्र था और सभी कामों में काफी तत्परता दिखा रहा था.

वैसे तो आलोक मैट्रिक तक उसी का क्लासमेट था. वह उस के स्वभाव को जानता था कि वह कितना कामचोर और आलसी है. मगर आज उस की काम के प्रति तेजी देखते ही बनती थी. सच है, समय व्यक्ति को किस तरह बदल कर रख देता है.

“अब खड़े क्या हो राजन, आगे जा कर बैठ जाओ,” आलोक बोला, “हम अभी चलेंगे तो शाम के 7 बजे तक समस्तीपुर पहुंच
पाएंगे. फिर वहां से अपने गांव गणेशी पहुंचने में कितनी देर लगेगी.”

वह चुपचाप ड्राइवर की बगल वाली सीट पर जा कर बैठ गया.

एम्बुलेंस अपने गंतव्य की ओर दौड़ चली थी.

लौकडाउन की वजह से सड़कें शांत थीं. पटना के हर प्रमुख चौराहे पर गश्ती पुलिस का पहरा था. वहां यह बताते ही कि वह एयरपोर्ट से आ रहे हैं, कोई कुछ कहता नहीं था. गंगा सेतु पार करते ही एम्बुलेंस पूरी रफ्तार में आ गई थी.

6 बजे तक वह समस्तीपुर में थे. वहां भी हर गलीचौराहे पर लौकडाउन की वजह से पुलिस का पहरा था. साढ़े 6 बजे तक वह अब अपने गणेशी गांव में थे और अब एम्बुलेंस ‘शर्मा भवन’ के आगे खड़ी थी.

एम्बुलेंस देखते ही पंकज शर्मा की पत्नी चित्कार मार बाहर निकली और उस के आगे पछाड़ खा कर गिर पड़ी. मां और बहन अलग दहाड़ें मार कर रो रहे थे.

सबकुछ जैसे तैयार ही था. दरवाजे पर घंटेभर के लिए शव को रखा गया था और लोग मुंह पर मास्क लगाए अंतिम दर्शनों के लिए आजा रहे थे. वह चुपचाप अपना बैग संभाले खड़ा रहा. छोटा भाई माखन आया और उस का बैग लेते हुए बोला, “अब घर चलिए भैया. मां इंतजार कर रही हैं तुम्हारा.”

“अंत्येष्टि पूरी होने के बाद घर जाते हुए,” उस ने जैसे खुद से कहा, “गांव तो आ ही गया हूं. थोड़ी देर और सही…”

“अभी यहां की औपचारिकताएं पूरी होने में देर तो लगेगी ही,” आलोक उस के असमंजस और कशमकश को देखते हुए बोला, “नहीं राजन, तुम घर हो आओ. तुम भी काफी थक गए हो. मैं समझ सकता हूं. जब हम मुक्तिधाम को चलेंगे, उसी समय आ जाना.”

उसे देखते ही मां उस से चिपट कर रोने लगी, “मैं तो समझी कि सारा खेल खत्म हो गया. यह मेरे किसी पुण्य का प्रताप है कि तुम बच कर आ गए राजू. मेरा पुनर्जन्म हुआ है. सालभर पहले ही तुम्हारे पिता का देहांत हुआ था. कितनी मुश्किल से खुद को सम्हाला है मैं ने.”

“अब बीती बातों को छोड़ो मां,” उस की भी आंख भर आई थी, “क्या करता, बाबूजी के जाने के बाद घर में एक चवन्नी तक नहीं थी. उलटे उन के श्राद्धकर्म के नाम पर बिरादरी वालों ने कर्ज का पहाड़ चढ़ा दिया था. उसे उतारने के लिए ही तो मुझे मुंबई जाना पड़ गया.”

“मगर, लौटे तो किस हालत में…” मां रोते हुए कह रही थी, “अगर तुम्हें कुछ हो जाता, तो मैं तो जीतेजी मर जाती.”

“अब ये बातें छोड़ो मां,” वह बोला, “पंकज शर्मा की अंत्येष्टि के लिए मुझे जाना ही होगा. यह उन का ही अहसान है कि मैं कुछ कमाने लायक बन पाया हूं.”

माखन ने बाहर ही एक बालटी पानी और मग रख ला कर दिया था. वह वहीं अपने कपड़े उतार कर हाथमुंह धोने लगा था.

“भैया, आप नहा लीजिए. दिनभर से आप दौड़धूप कर रहे होगे. नहाने से थोड़ी थकान मिट जाएगी. गरमी बहुत है. मैं एक बालटी पानी और ला देता हूं.”

उस ने लगे हाथ नहा लेना ही ठीक समझा. मई का मौसम वैसे ही गरमी का है. थोड़ी तो राहत मिलेगी.

पछतावा-भाग 1: क्यूं परेशान थी सुधा

फ़ोन पर सुधा ने तन्वी से बात की और बड़बड़ाती हुई अपने कमरे में चली गई. तन्वी सुधा की छोटी बहन है. उस ने फ़ोन पर सुधा से कहा कि वह कुछ दिनों के लिए उस के घर आ रही है.

उस का आना सुधा को जरा भी पसंद नहीं आ रहा था. इसी फ्रस्ट्रेशन में वह सामान उठाउठा कर इधरउधर पटक रही थी.

उस को जब भी गुस्सा आता है, वह डस्टिंग करते समय इतनी जोरजोर से फटका मारती है कि पड़ोस के लोगों के घरों तक आवाज जाती है. फिर मोटा डंडा लाती है और गद्दों को पीटना शुरू करती है यानी की धूल झाड़ती है.

उस की बिल्डिंग के लोग इस का बहुत मजाक बनाते हैं. आंटी हमेशा कहती हैं,   इतना जोर से गद्दों की धूल तो गद्दे बनाने वाले, रुई पिजने वाले भी नहीं झाड़ते. इस का तो बहुत नाटक है बाबा. और इसीलिए सुधा का नाम   फटका वाली बाई रख दिया है बिल्डिंग के लोगों ने.

वह यह सब कर रही थी कि उस के दोनों बच्चे कमरे में आए और पूछने लगे, ‘किस का फ़ोन था, मम्मी?’

‘तुम्हारी तन्वी मासी का,’ सुधा ने जवाब दिया.

‘अच्छा,   कब आ रही हैं मासी,’   उस की बेटी निशा ने पूछा?

‘परसों सुबह आ रही है,’   सुधा ने खिन्न मन से कहा, ‘अब सब शैड्यूल डिस्टर्ब हो जाएगा.’ बच्चों ने सहमति में सिर हिलाया.

तन्वी को कैसे बिज़ी रखा जाए ताकि उस के बौयफ्रैंड की बातें उस की बहन को न पता चल सके. इसी उधेड़बुन में सुधा का एक दिन निकल गया. वह अंदर से उस के आने से खुश न थी. लेकिन वह यह बात जता भी नहीं सकती थी. अगले दिन तन्वी सुधा के घर पहुंच गई. वह अपने साथ बहुत सारा सामान ले कर आई थी. कुछ सामान उस का था और कुछ सुधा व उस के बच्चों के लिए. आते ही वह सुधा से गले लगती हुई बोली, “कैसी हो दीदी?”

“मैं ठीक हूं,” सुधा ने कहा, “चलो, सामान ले कर अंदर चलते हैं, बैठ कर बातें करेंगे.”

“हां, यह ठीक रहेगा,” तन्वी ने कहा.

“एक काम करो तन्वी, तुम अपना सामान निशा और पिंटू के रूम में रख दो. वह क्या है न, कि 2 बैडरूम हैं, एक मेरा और एक पिंटू व निशा का. इसलिए तुम को उन के साथ ऐडजस्ट करना पड़ेगा.”

“कोई बात नहीं, दीदी. मैं बच्चों के साथ रूम शेयर कर लूंगी. आप किसी भी तरह की चिंता मत करो,” तन्वी ने कहा, “अच्छा, मैं फ्रैश हो कर आती हूं.” और तन्वी बाथरूम में चली गई.

जब तक तन्वी फ्रैश हो कर आई, सुधा ने चाय बना ली. उस को पता था कि तन्वी को चाय बहुत पसंद है, दिन में कितनी बार भी चाय को पूछो, वह हां ही बोलेगी. उस के साथ उस ने बिस्कुट भी एक प्लेट में निकल लिए थे. नाश्ता बनाने के झंझट में वह पड़ना नहीं चाहती थी.

नाश्ता बनाने में काफी वक्त लग जाता और वह पाठक अंकल से बात न कर पाती. मिस्टर पाठक उस की कालोनी में ही रहते हैं. उस बिल्डिंग से दोतीन बिल्डिंग छोड़ कर उन का घर है. वे प्राइवेट कंपनी में काम करते थे. 6 महीने पहले उन का रिटायरमैंट हुआ है. वे काफी आशिकमिजाज हैं. अंकल कहने पर वे चिढ़ जाते हैं, इसलिए कालोनी के बच्चे उन का मजा लेते हैं और अब सभी लोग उन्हें अंकल कह कर ही बुलाते हैं. इस तरह उन का नाम पाठक अंकल ही पड़ गया.

वे अपने को अभी भी नवयुवक ही समझते हैं. एकदो बार एक किराने की दुकान पर उन की सुधा से मुलाकात हुई. जानपहचान बढ़ने लगी. फिर तो रोज किसी न किसी बहाने मिलने लगे. कभी वाकिंग के बहाने, सब्जीफ्रूट लाने के बहाने मुलाकातें होने लगीं.

सुधा साधरण नयननक्श की महिला थी. गोरा रंग, सामान्य कदकाठी लेकिन अपने को मिस वर्ल्ड ही समझती थी. पुरुषों को कैसे अपनी ओर आकर्षित करना है, इस में उस को महारत हासिल थी. उस के लटकेझटके और अंग प्रदर्शन करते कपड़े, उस के पहनावे के कारण पुरुष उस को घूरते थे.

पाठक अंकल तो वैसे भी रंगीनमिजाज थे. दोनों के बीच अफेयर हो गया. दोनों व्हाट्सऐप पर दिनभर चैटिंग करते. फ़ोन पर बातें होतीं, जैसे कि वो किशोरावस्था के प्रेमीप्रेमिका हों. पाठक अंकल भूल गए थे कि वे 60 वर्षीय अधेड़ हैं और जिस के प्रेम में पड़े हैं वह उन से 15 साल छोटी 2 बच्चों की मां है.

वहीं दूसरी ओर, सुधा सातवें आसमान पर थी. यथार्थ की दुनिया से बेखबर, समाज की परवा किए बिना. सही और गलत से उस का कोई लेनादेना नहीं था. उस की नजर में जो ठीक है, उसी को वह सही मानती थी. चाहे फिर वह गलत ही क्यों न हो.

तन्वी अपने साथ दीदी, जीजाजी और बच्चों के लिए जो सामान लाई थी, वो उस ने सुधा को दे दिया. सामान देख कर बच्चे और सुधा खुश हो गए. फिर अचार का डब्बा देते हुए तन्वी बोली, “आप को आम का अचार बहुत पसंद है न, इसलिए खास मैं आप के लिए बना कर लाई हूं.”

“अरे हां, अच्छा हुआ तू ले कर आ गई, मैं तुझ से बोलने वाली थी कि अचार लाना. तेरे हाथ के बने अचार की तारीफ तो तेरे जीजाजी भी करते हैं” सुधा बोली.

फिर तन्वी ने घर के सभी लोगों के बारे में बताना शुरू किया. मामाजी के पैर की हड्डी टूट गई थी. वे इंजैक्शन लगवाने से कैसे घबरा रहे थे. सब किस्से हंसहंस कर बता रही थी.

लेकिन सुधा का मन उस की बातों में जरा भी नहीं लग रहा था. उसे लग रहा था कि समीर का मैसेज आया होगा. अभी वह होटल पहुंच गया होगा. उस ने कहा था कि होटल पहुंचने के बाद मैसेज करेगा. मीटिंग ख़त्म होने के बाद कौल करेगा. फिर पाठक अंकल का भी मैसेज हो सकता है. लेकिन वह अभी तन्वी के सामने मैसेज कैसे चैक करे. इसी दुविधा में वह अनमने मन से उस की बातें सुन रही थी.

समीर सुधा की बिल्डिंग में ही रहता था. कई बार लिफ्ट में एकसाथ जानाआना होता था. और फिर एक ही बिल्डिंग में रहने के कारण जल्दी ही जानपहचान हो गई थी सुधा और समीर के बीच. यह जानपहचान जल्दी ही अफेयर में बदल गई. वह एक मल्टीनैशनल कंपनी में मैनेजर की पोस्ट पर कार्यरत था. उस की तनख्वाह अच्छी थी. लंबा कद, बड़ीबड़ी आंखें, फ्रैंचकट दाढ़ी, गोरा रंग…बहुत आकर्षक चेहरा था.

उस को पहली नजर में देखते ही सुधा उस पर फ़िदा हो गई थी. उस की बातचीत का तरीका भी बहुत प्रभावशाली था. आसानी से कोई भी उस से प्रभावित हो जाता था. शुरूशरू में तो उस ने सुधा पर कोई ज्यादा ध्यान नहीं दिया, लेकिन सुधा तो जैसे उस के पीछे हाथ धो कर पड़ गई थी. उस के सुबह औफिस जाने के समय वौकिंग के बहाने निकलती, उस को गुडमौर्निंग विश करती. रात को भी उस के औफिस के आने के समय नीचे पैसेज में बैठ कर उस का इंतजार करती. और बात करने के बहाने ढूंढती रहती.

समीर की पत्नी मायके गई तो जैसे सुधा के हाथ में खजाना लग गया. इसी मौके का उस ने फायदा उठाया. और समीर को अपने घर कौफ़ी पर इन्वाइट किया. फिर तो यह रोज का सिलसिला हो गया. उस को इंप्रैस करने के लिए और ये दिखाने के लिए कि वह कितनी मौर्डन है. वैस्टर्न औउटफिट पहनने लगी. हमेशा ऐसे कपड़े पहनती जिस में हद से ज्यादा अंग प्रदर्शन रहता.

समीर धीरेधीरे समझने लगा था कि सुधा उस पर फ़िदा है. वह क्या चाहती है, वह यह भी समझ रहा था. पुरुष तो आखिर पुरुष ही होते हैं. उन की प्रवृत्ति कभी नहीं बदलती. अगर औरत ही आगे हो कर पुरुष पर डोरे डाले, देह समर्पण करे तो पुरुष क्यों पीछे हटेगा. उन का यह अफेयर शारीरिक संबंधों में तबदील हो गया.

समर औफिस से जल्दी आता और अपने घर जाने के बदले सुधा के घर पर रुकता. एक तरफ समीर अपनी पत्नी काव्या को धोखा दे रहा था. वहीं दूसरी ओर, सुधा अपने पति को. दोनों ने बेशर्मी की सभी हदें पार कर दी थीं. न किसी बात की चिंता थी, न समाज की फ़िक्र. दोनों अपनी अलग ही दुनिया में खोए हुए थे. समीर जब सुबह औफिस जाता, तो बालकनी में आ कर उस को बाय करती और रस्सी पर टंगी टौवल के पीछे खड़ी रह कर उस को फ्लाइंग किस देती. शाम को बालकनी में खड़ी रह कर उस के आने का इंतजार करती. शाम के खाने की तैयारी 4 बजे से शुरू कर देती थी ताकि समीर के घर आने पर वह किचन के कार्यों से मुक्त हो सके.

धीरेधीरे उस की बिल्डिंग के लोगों को भी पता चलने लगा. वह कहते हैं न, इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपते. लोग सुधा को देखते ही खुसुरफुसुर शुरू कर देते. लेकिन सुधा पर इन सब बातों का कोई असर नहीं पड़ता था. तन्वी के आ जाने की वजह से वह समीर को बाय भी नहीं कर पा रही थी. दो-तीन दिन ऐसे ही निकल गए. समीर और पाठक अंकल के मैसेज आने पर उन का समय पर जवाब न दे पाती थी.

तन्वी के ऊपर किचन की जिमेदारी छोड़ कर वह उन से बात करती थी.  पाठक अंकल कितने चिपकू हैं और मूर्ख भी. मैं ने बोला है कि टाइम मिलने पर मैं खुद उन को कौल करूंगी, फिर भी मैसेज कर के, कौल कर के परेशान करते रहते हैं. उन को तो कोई कामधंधा नहीं हैं, रिटायर जो हैं वे. सुधा मन ही मन में झल्ला पड़ी.

उधर, तन्वी महसूस कर रही थी कि जब से वह आई है, दीदी कुछ उखड़ीउखड़ी रहती हैं, पता नहीं उस का आना दीदी को अच्छा लग रहा है या नहीं. सुधा पूरे दिन या तो चैटिंग करती या फ़ोन पर बात करती रहती. तन्वी को कुछ समझ नहीं आ रहा था.

सुधा के साथ जब वह खाना बनवाने में मदद कर रही थी, तभी उस ने सुधा से कहा, “दीदी, कल संडे है, जीजाजी भी घर पर ही रहेंगे, क्यों न हम मूवी देखने चलें. फिर डिनर भी किसी अच्छे होटल में कर के आएंगे…”

तन्वी अपनी बात खत्म करती, इस के पहले सुधा के पति किचन में आ गए, बोले, “क्या बातें हो रही हैं दोनों बहनों में, जरा हम भी तो सुनें.

तन्वी ने कहा, “कुछ नहीं जीजू, मैं दीदी से कल मूवी देखने की बात कर रही थी.”

“नेकी और पूछपूछ,” सुधा के पति ने कहा, “कल हम सब मूवी देखने जा रहे हैं और इस प्रोगाम के बारे में मैं पिंटू और निशा को भी बता कर आता हूं. दोनों यह सुन कर खुश हो जाएंगे.”   दूसरे दिन सब लोग मूवी देखने गए. उस के बाद डिनर किया. फिर पिंटू ने कहा, “पापा, आइसक्रीम भी है.” आइसक्रीम खातेखाते खूब गपें मारीं. बहुत एंजौय किया.

घर पर आने के बाद भी सुधा और तन्वी की बातें खत्म नहीं हुईं बल्कि और एक घंटा जारी रहीं. रात को बिस्तर पर लेटेलेटे तन्वी सोच रही थी कि कितनी अच्छी फैमिली है दीदी की. जीजाजी भी कितने अच्छे हैं, कितना खयाल रखते हैं वे जीजी और बच्चों का. हमारे यहां जब दीदी आती हैं तो उन्हें छोड़ने आते हैं और जब लेने आते हैं तो भी दसपंद्रह दिन रुकते हैं. हम सब खूब सैरसपाटा करते हैं. पीयूष भी दीदी-जीजाजी के आने पर छुट्टी ले लेते हैं. कितना मजा आता है.

दूसरे दिन जब तन्वी उठी तो देखा, टीवी पर प्रवचन चल रहे हैं. लेकिन दीदी का कोई अतापता नहीं है. उस ने सोचा, शायद बालकनी में होंगी. यह सोच कर वह बालकनी में गई लेकिन वहां वे नहीं थीं. फिर सोचा, सामान लेने नीचे गई होंगी. लेकिन दरवाजा तो अंदर से बंद है. इस का मतलब वे घर में ही हैं. फिर वह फ्रैश होने के लिए बाथरूम की ओर गई. वह बाथरूम के दरवाजे पर ही ठिठक कर रुक गई. दरवाजा थोड़ा सा खुला हुआ था. उस के अंदर से बात करने की आवाज आ रही थी.

वह दरवाजे के नजदीक पहुंची, तो दीदी किसी से कह रही थीं कि अरे, बहुत मुश्किल से टाइम मिला है बात करने का. अभी सब सो रहे हैं. दूसरी तरफ फ़ोन पर कौन था, तन्वी नहीं समझ पा रही थी.   क्या करूं मैं, मेरी बहन है वो. उस को आने के लिए मना नहीं कर सकी. उधर से किसी के पूछने पर दीदी बोलीं,   दसपंद्रह दिन तो रुकेगी, तन्वी. बस, थोड़े दिनों की बात है. थोड़ा तो आप को एडजस्ट करना पड़ेगा. मैं समय निकल कर आप को कौल करूंगी, ओके, बाय. यह सब कह कर सुधा ने फ़ोन रख दिया.

इतनी सुबह कौन दीदी को कौल कर रहा है, तन्वी को तो कुछ समझ ही नहीं आ रहा था. सुधा बेफिक्र हो कर पाठक अंकल से बात कर रही थी. बाथरूम के दरवाजे के बाहर तन्वी खड़ी उन की बातें सुन रही है, इस का अंदाजा सुधा को नहीं था. वह जैसे ही बाहर आई, तन्वी को खड़ा देख सकपका गई.

“किस से बात कर रही थीं, दीदी?” तन्वी के अचानक पूछने पर सुधा हड़बड़ा गई.

“किसी से नहीं,”   सुधा ने नजरें चुराते हुए कहा.

“झूठ मत बोलो, दीदी. मैं ने खुद अपने कानों से सुना है. आप किसी से कह रही थीं कि उस को आने से मना नहीं कर सकी. आप यदि मना कर देतीं तो मैं न आती, दीदी. वैसे भी, मैंने नोटिस किया है कि आप को मेरा आना अच्छा नहीं लगा. और आप छिपछिप कर किस से बातें करती हैं? मुझे किचन में छोड़ कर आप बीचबीच में चली जाती हैं. फुरसत के समय भी आप मोबाइल पे चैटिंग करती रहती हैं. कुछ तो है जो आप छिपाने की कोशिश कर रही हैं? सच बताओ, दीदी? कहीं आप का कोई अफेयर तो नहीं चल रहा न किसी के साथ?” तन्वी ने सवालों की झड़ी लगा दी.

सुधा की पोल खुल चुकी थी. तन्वी से अब झूठ बोल कर कोई फायदा नहीं था. इसलिए उस को सच बताना ही सुधा को ठीक लगा. उस ने कहा, “मैं पाठक अंकल से बात कर रही थी. उन के साथ मेरा अफेयर चल रहा है. आठदस साल हो गए हैं.”

“यह क्या कह रही हो, दीदी?” तन्वी ने आश्चर्य से पूछा.

“मैं सच कह रही हूं, तन्वी,” सुधा ने कहा, “यह हैंडबैग देख रही हो न तुम, इसे उन्होंने ही दिलाया है ब्रैंडेड कपड़े, जूते, हैंडबैग, परफ्यूम, गौगल्स, मोबाइल और यहां तक की पिंटू और निशा के पास जो लैपटौप, मोबाइल, हैडफ़ोन, हैंडीकैम हैं वे भी उन्होंने ही दिलाए हैं, ब्रैंडेड टीशर्ट भी.

यह सुन कर तन्वी अवाक रह गई. “तुम्हारा सिर्फ अफेयर है या इस से भी ज्यादा कुछ और?” तन्वी ने पूछा.

“मेरे उन के साथ शारीरिक संबंध भी हैं. वे तो जैसे मेरे पर लट्टू हैं. मैं जिस चीज की भी डिमांड करती हूं, वह मुझे मिल जाती है. बहुत पैसा है उन के पास. और वे उस का दिखावा भी बहुत करते हैं. बस, इसी चीज का मैं फायदा उठाती हूं,” सुधा ने कहा, “तुझे विश्वास नहीं हो रहा होगा. अभी उन से मैं ने बात की है, अगर मैं उन को फिर मिसकौल देती हूं, दो मिनट में ही उन का फ़ोन आ जाएगा.”

और सचमुच एक मिनट में ही पाठक अंकल का फ़ोन आ गया. सुधा ने जल्दी से फ़ोन उठा कर कहा, “वह गलती से आप को लगा दिया फ़ोन. अच्छा डार्लिंग, मैं फ़ोन रखती हूं, थोड़ा बिज़ी हूं.” और फ़ोन कट कर दिया.

फ़ोन रखने के बाद सुधा जोरजोर से हंसने लगी. उस को यों हंसती देख तन्वी को बड़ा अचरज हुआ.  “दीदी, तुम अचानक हंस क्यों रही हो? इस पर सुधा ने कहा, “दुनिया में बेवकूफों की कमी नहीं है ग़ालिब, एक ढूंढो हजार मिलते हैं. उन को लगता है कि मैं उन से प्यार करती हूं.”

“तो क्या तुम उन से प्यार नहीं करतीं, दीदी?” तन्वी बोल पड़ी.

सुधा ने कहा, “नहीं, मैं उन के साथ प्यार का नाटक करती हूं. तुझे मालूम है, मुझे ऐशोआराम की जिंदगी पसंद है. महंगे कपडे, जूते, पर्स आदि जो तेरे जीजाजी नहीं दिला सकते. पाठक अंकल आशिकमिजाज हैं, लड़की देखी नहीं कि फिसल गए. बस, इसी का मैं ने फायदा उठाया और मेरे जाल में आसानी से वे फंस गए. प्यारव्यार कुछ नहीं है मुझ को उन से. बड़ा व बाहर को निकला हुआ पेट, गंजापन, बेडौल शरीर. मेरा उन के साथ कोई मेल नहीं है. मुझे तो महंगेमहंगे गिफ्ट से मतलब है जो वे मुझे दिलाते रहते हैं. वे भ्रम में जी रहे हैं और मै अपना मतलब सिद्ध कर रही हूं. सुधा ने सपाट लहजे में कहा.

उन की बातें सुन कर तन्वी आश्चर्य से भर गई. कितनी लालची और स्वार्थी है उस की बहन, मन ही मन सोचने लगी. वह कुछ बोलती, उस के पहले पिंटू और निशा कमरे में आ गए. फिर तन्वी नहाने चली गई.

तन्वी दोतीन दिन से नोटिस कर रही थी कि दीदी सुबह से ले कर रात के सोने तक उन के घर के सामने वाले फ्लैट की निगरानी करती हैं- कौन आ रहा है, कौन जा रहा है, यदि कोई आया है तो कितनी देर रुका है, यहां तक कि उन लोगों के बीच क्या बातचीत हो रही है, उस को भी सुनने की कोशिश करतीं. बातें सुनने के लिए वे जो भी काम कर रही होतीं उसे वैसे ही छोड़ बालकनी में जा कर खड़ी हो जातीं और बातें सुनतीं. अगर चाय भी पी रही हों तो वे ऐसे बैठतीं कि सामने वाले फ्लैट में हो रही गतिविधियां देखी जा सकें.

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