मन से मन का जोड़

मोती से मिल कर धागा और गंगाजल के कारण जैसे साधारण पात्र भी कीमती हो जाता है, वैसे ही छवि भी मनोज से विवाह कर इतनी मंत्रमुग्ध थी कि अपनी किस्मत पर गर्व करती जैसे सातवें आसमान पर ही थी. उस का नया जीवन आरंभ हो रहा था.

हालांकि अमरोहा के इतने बड़े बंगले और बागबगीचों वाला पीहर छोड़ कर गाजियाबाद आ कर किराए के छोटे से मकान में रहना यों आसान नहीं होता, मगर मनोज और उस के स्नेह की डोर में बंध कर वह सब भूल गई.

मनोज के साथ नई गृहस्थी, नया सामान, सब नयानया, वह हर रोज मगन रहती और अपनी गृहस्थी में कुछ न कुछ प्रयोग या फेरबदल करती. इसी तरह पूरे 2 साल निकल गए.

मगर, कहावत है ना कि ‘सब दिन होत न एक समान‘ तो अब छवि के जीवन में प्यार का प्याला वैसा नहीं छलक रहा था, जैसा 2 साल पहले लबालब रहता था.

यों तो कोई खास दिक्कत नहीं थी, मगर छवि कुछ और पहनना चाहती तो मनोज कुछ और पहनने की जिद करता. यह दुपट्टा ऐसे ओढ़ो, यह कुरता वापस फिटिंग के लिए दे दो वगैरह.

मनोज हर बात में दखलअंदाजी करता था, जो छवि को कभीकभी बहुत ही चुभ जाती थी. बाहर की बातें, बाहर के मामले तो छवि सहन कर लेती थी, मगर यह कप यहां रखो, बरतन ऐसे रखो वगैरह रोकटोक कर के मनोज रसोई तक में टीकाटिप्पणी से बाज नहीं आता था.

परसों तो हद ही हो गई. छवि पूरे एक सप्ताह तक बुखार और सर्दी से जूझ रही थी, मगर मनोज तब भी हर पल कुछ न कुछ बोलने से बाज नहीं आ रहा था. छवि जरा एकांत चाहती थी और खामोश रह कर बीमारी से लड़ रही थी, मगर मनोज हर समय रायमशवरा दे कर उस को इतना पागल कर चुका था कि वह पक गई थी.

तब तो हद पार हो गई, जब वह सहन नहीं कर सकी. हुआ यह था कि अपने फोन पर पसंदीदा पुराने गीत लगा कर जब किसी तरह वह रसोई में जा कर नाश्ता वगैरह तैयार करने लगी और मनोज ने आदतन बोलना शुरू कर दिया, ‘‘छवि, यह नहीं यह वाले बढ़िया गाने सुनो,‘‘ और फिर वह रुका नहीं, ‘‘छवि, यह भिंडी ऐसे काटना, वो बींस वैसे साफ करना, उस लहसुन को ऐसे छीलना,‘‘ बस, अब तो छवि ने तमतमा कर चीखनाचिल्लाना शुरू कर दिया, ‘‘ये लो, यह पकड़ो अपने घर की चाबी. यह रहा पर्स, यह रहे बचत के रुपए और यह रहे 500 रुपए, बस यही ले जा रही हूं… और जा रही हूं,‘‘ कह कर छवि ने बड़बड़ाते हुए बाहर आ कर रिकशा किया और सीधा बस स्टैंड चल दी.

बस तैयार खड़ी थी. छवि को सीट भी मिल गई. वह पूरे रास्ते यही सोचती रही, ‘‘अब इस टोकाटाकी करने वाले मनोज नामक व्यक्ति के पास कभी जाएगी ही नहीं, कभी नहीं.‘‘

महज 4 घंटे में वह पीहर पहुंच गई. वह पीहर, जहां वह पूरे 2 साल में बस एक बार पैर फिराने और दूसरी बार पीहर के इष्ट को पूजने गई थी.

पीहर में पहले तो उस को ऐसे अचानक देख पापामम्मी, चाचाचाची और चचेरे भाईबहन सब चैंक गए, मगर छवि ने बहाना बनाया, ‘‘वहां कोई परिचित अचानक बीमार हो गए हैं. मनोज को वहां जाना है. मुझे पहले से बुखार था, तो मनोज ने कहा कि अमरोहा जा कर आराम करो. बस जल्दी में आना पड़ा, इसलिए केवल यह मिठाई लाई हूं.‘‘

सब लोग खामोश रहे. मां सब समझ गई थीं. वे छवि को नाश्ता करा कर उस की अलमारी की चाबी थमा कर बोलीं, ‘‘जब से तुम गई हो, तुम्हारे पापा हर रोज 100 रुपए तुम्हारे लिए वहां रख देते हैं. यह लो चाबी और वो सब रुपए खुल कर खर्च करो.‘‘

यह सुन कर छवि उछल पड़ी और चाबी ले कर झटपट अपनी अलमारी खोल दी. उस में बहुत सी पोशाकें थीं और कुछ पर्स थे नोटों से भरे हुए.

छवि ने मां से पूछा, ‘‘पापा यहां रुपए क्यों रख रहे थे?‘‘

मां ने हंस कर कहा, ‘‘तुम हमारी सलोनी बिटिया कैसे कुशलता से अपना घर चला रही हो. हम को गर्व है, यह तो तुम्हारे लिए है बेटी.‘‘

‘‘अच्छा, गर्व है मुझ पर,‘‘ कह कर छवि आज सुबह का झगड़ा याद कर के मन ही मन शर्मिंदा होने लगी. उस को लगा कि मां कुछ छानबीन करेंगी, कुछ सवाल तो जरूर ही पूछ लेंगी, मगर उस को प्यार से सहला कर और आराम करो, ऐसा कह कर मां कुछ काम करने चली गईं. वह अलमारी के सामने अकेली रह गई, मगर अभी कुछ जरूरी काम करना था. इसलिए छवि सबकुछ भूल कर तुरंत दुनियादार बन गई. वहां तकरीबन 25,000 रुपए रखे थे. उस ने चट से एक सूची बना कर तैयार कर ली.

छवि फिलहाल तो कुछ खा कर सो गई, मगर शाम को बाजार जा कर उन रुपयों से पीहर में सब के लिए उपहार ले आई. बाजार में उस को अपनी सहेली रमा मिल गई. छवि और उस की गपशप भी हो गई. उस के गांव का बाजार बहुत ही प्यारा था. छोटा ही था, पर वहां सबकुछ मिल गया था.

उपहार एक से बढ़ कर एक थे. सब से उन उपहारों की तारीफ सुन कर कुछ बातें कर के वह उठ गई और फिर छवि ने रसोई में जा कर कुछ टटोला. वहां आलू के परांठे रखे थे. उस ने बडे़ ही चाव से खाए और गहरी नींद में सो गई. नींद में उस को रमा दिखाई दी. रमा से जो बातें हुईं, वे सब वापस सपने में आ गईं. छवि पर इस का गहरा असर हुआ.

सुबह उठ कर छवि वापस लौटने की जिद पर अड़ गई थी. मां समझ गईं कि शायद सब मामला सुलझ गया है. वे कभी भी बच्चों के किसी निर्णय पर टोकाटाकी नहीं करतीं थीं. वे ग्रामीण थीं, मगर बहुत ही सुलझी हुई महिला थीं. छवि को पीहर की मनुहार मान कर कम से कम आज रुकना पड़ा. वह कल तो आई और आज वापस, यह भी कोई बात हुई. सब की मानमनुहार पर छवि बस एक दिन और रुक गई.

उधर, मनोज को इतनी लज्जा आ रही थी कि उस ने ससुराल मे शर्म से फोन तक नहीं किया. मगर वह 2 दिन तक बस तड़पता ही रहा और उस के बाद फोन ले कर कुछ लिखने लगा.

‘‘छवि, पता है, तुम सब से ज्यादा शाम को याद आतीं. दिनभर तो मैं काम करता था, मगर निगोड़ी शाम आते ही पहली मुश्किल शुरू हो जाती थी कि आखिर इस तनहा शाम का क्या किया जाए. तुम नहीं होती थीं, तो एक खाली जगह दिखती थी, कहना चाहिए कि बेचैनी और व्याकुलता से भरी. तब मैं एलबम उठा लेता था, इसे तुम्हारी तसवीरों से, उन मुलाकातों की यादों से, बातों से, तुम्हारी किसी अनोखी जिद और बहस को हूबहू याद करता और जैसेतैसे भर दिया करता था, वरना तो यह दैत्य अकेलापन मुझे निगल ही गया होता.

‘‘तुम होती थीं, तो मेरी शामों में कितनी चहलपहल, उमंग, भागमभाग, तुम्हारी आवाजें, गंध, शीत, बारिश, झगड़े, उमस या ओस सब हुआ करता था, मगर अब तो ढलती हुई शाम हर क्षण कमजोर होती हुई जिंदगी बन रही है कि जितना विस्मय होता है, उस से अधिक बेचैनी.

‘‘तुम्हारे बिना एक शाम न काटी गई मुझ से, जबकि मैं ने कोशिश भरसक की थी. परसों सुबह तुम नाराज हो कर चली गईं. मैं ने सोचा कि वाह, मजा आ गया. अब पूरे 2 साल बाद मैं अपनी सुहानी शाम यारों के साथ गुजार लूंगा. अब पहला काम था उन को फोन कर के कोई अड्डा तय करना. रवि, मोहित और वीर यह तीनों तो सपरिवार फिल्म देखने जा रहे थे. इसलिए तीनों ने मना कर दिया. अब बचा राजू. उसे फोन किया तो पता लगा कि वह अपनी प्रेमिका को समय दे चुका है. इतनी कोफ्त हुई कि आगे कोई कोशिश नहीं की.

‘‘बस, चैपाटी चला गया, मगर वहां तो तुम्हारे बिना कभी अच्छा लगता ही नहीं था. बोर होता रहा और कुछ फोटोग्राफी कर ली. बाहर कुछ खाया और घर आ गया.

‘‘घर आ कर ऐसा लगा कि घर नहीं है, कोई खंडहर है. बहुत ही भयानक लग रहा था तुम्हारे बिना, पर मेरे अहंकार ने कहा कि कोई बात नहीं, कल सुबह से शाम बहुत मजेदार होने वाली है और बस सोने की कोशिश करता रहा. करवट बदलतेबदलते किसी तरह नींद आ ही गई. सुबह मजे से चाय बनाई, मगर बहुत बेस्वाद सी लगी, फिर अकेले ही घर साफ कर डाला और दफ्तर के लिए तैयार हो गया.

‘‘अब नाश्ता कौन बनाता, बाहर ही सैंडविच खा लिए, तब बहुत याद आई, जब तुम कितने जायकेदार सैंडविच बनाती हो, यह तो बहुत ही रूखे थे.

‘‘मुझे अपने जीवन की फिल्म दिखाई देने लगी किसी चित्रपट जैसी, मगर नायिका के बगैर. मैं बहुत बेचैन हो गया. दफ्तर की मारामारी में मन को थोड़ा सा आराम मिला, मगर पलक झपकते ही शाम हो गई और दफ्तर के बाहर मैदान में हरी घास देख कर तुम्हारी फिर याद आ गई. 1-2 महिला मित्र हैं, उन को फोन लगाया, मगर वे तो अब अपनी ही दुनिया में मगन थीं. कहां तो 4 साल पहले तक वे कितनी लंबीलंबी बातें करती थीं और कहां अब वे मुझे भूल ही गई थीं.

अब क्या करता, फिर से एक उदास शाम को धीरेधीरे से रात में तबदील होता नहीं देख सकता, पर झक मार कर सहता रहा. मन ऐसा बेचैन हो गया था कि खाना तो बहुत दूर की बात पानी तक जहर लग रहा था. शाम के गहरे रंग में तारों को गिन रहा था, मगर तुम को न फोन किया और न तुम्हारा संदेश ही पढ़ा. तुम को जितना भूलना चाहता, तुम उतना ही याद आ रही थीं.

बस, इस तरह से दो शामों को रात कर के अपने ऊपर से गुजर जाने दिया. मेरा अहंकार मुझे कुचल रहा था, पर मैं कुछ समझना ही नहीं चाहता था. तुम हर पल मेरे सामने होतीं और मैं नजरअंदाज करना चाहता, यह भी मेरे अहंकार का विस्तार था.

अब तुम को लेने आ रहा हूं, तुम तैयार रहना, यह सब अपने फोन पर टाइप कर के मनोज ने छवि को भेज दिया. मगर 10 मिनट हो गए, कोई जवाब नहीं आया. 20 मिनट बीततेबीतते मनोज की आंखें ही छलक आईं. वह समझ गया कि अब शायद छवि कभी लौट कर नहीं आने वाली है, तभी दरवाजा खुला. मनोज चैंक गया, ‘‘ओह छवि, उसे पता रहता तो कभी दरवाजा बंद ही नहीं करता.’’

छवि ने हंस कर अपने फोन का स्क्रीन दिखाते हुए कहा, ‘‘वह बारबार यह संदेश पढ़ रही थी.‘‘

संदेश पढ़ कर तुम उड़ कर ही वापस आ गई, ‘‘हां… हां, पंख लगा कर आ गई,’’ यह सुन कर मनोज ने कुछ नहीं कहा. वह बडे़ गिलास में पानी ले आया और छवि को गरमागरम चाय भी बना कर पिला दी.

छवि ने अपने भोलेपन में मनोज को यह बात बता दी कि पीहर के बाजार में सहेली रमा मिली थी. रमा से बात कर के उस का मन बदल गया. वह उसे पूरे 2 साल बाद अचानक ही मिली थी. वह बता रही थी, ‘‘उस के पति सूखे मेवे का बड़ा कारोबार करते हैं. रोज उस को 5,000 रुपए देते हैं कि जहां मरजी हो खर्च करो. घरखर्च अलग देते हैं, पर कोई बात नहीं करते. कभी पूछते तक नहीं कि रसोई कैसे रखूं, कमरा कैसे सजाऊं, क्या पहनूं और क्या नहीं?

‘‘हर समय बस पैसापैसा यही रहता है दिमाग में. मुझे हर महीने पीहर भेज कर अपने कारोबारी दोस्तों के साथ घूमते हैं. मेरे मन की बात, मेरी कोई सलाह, मेरा कोई सपना, उन को इस से कुछ लेनादेना नहीं है. बस, मैं तो चैकीदार हूं, जिस को वे रुपयों से लाद कर रखते हैं.

‘‘सच कहूं, ऐसा लापरवाह जीवनसाथी है कि बहुत उदास रहती हूं, पर किसी तरह मन को मना लेती हूं. मगर यह सपाट जीवन लग रहा है.‘‘

यह सब सुन कर मुझे बारबार मनोज बस आप की याद आने लगी. मन ही मन मैं इतनी बेचैन हो गई कि रात सपने में भी रमा दिखाई दी और वही बातें कहने लगी. मैं समझ गई कि यह मेरी अंतरात्मा का संकेत है. रमा अचानक राह दिखाने को ही मिली, और मैं वापस आ गई.’’

‘‘पर छवि, तुम कम से कम रमा को कोई उचित सलाह तो देतीं. तुम तो सब को अच्छी राय देती हो. जब वह तुम को अपना राज बता रही थी छवि,‘‘ मनोज ने टोका, तो छवि ने कहा, ‘‘हां, हां, मैं ने उस को अपने दोनों फोन नंबर दे दिए हैं और गाजियाबाद आने का आमंत्रण दिया है.

‘‘साथ ही, उसे यह सलाह दी कि रमा, तुम मन ही मन मत घुटती रहो. मुझे लगता है, मातापिता, भाईबहन, पड़ोसन या किसी मित्र को अपना राजदार बना लो. अगर कोई एक भी आप को समझता है, तो अगर वह सलाह नहीं देगा, पर कम से कम सुनेगा तो, तब भी मन हलका हो जाता है. साहित्य से लगाव हो, तो सकारात्मक साहित्य पढ़ो. नई जगहों पर अकेले निकल जाओ, नई जगह को अपनी यादों में बसा कर उन को अपना बना लो.

‘‘आमतौर पर जब भी कभी किसी को ऐसी बेचैनी वाली परिस्थिति का सामना करना पड़ा है, अच्छी किताब और संगीत, वफादार मित्र साबित होते हैं वैसे समय में. और अकेले खूब घूमा करो, पार्क में या मौल में या हरियाली को दोस्त बना लो और यह भी सच है कि सब से बड़ा आनंद तो अपना काम देता है. झोंक देना स्वयं को, काम में. चपाती सेंकना और पकवान बनाना यह सब मन की सारी नकारात्मकता को खत्म करता है.‘‘

‘‘हूं, वाह, वाह, बहुत अच्छी दी सलाह,‘‘ कह कर मनोज ने गरदन हिला दी.

‘‘बहुत शुक्रिया,‘‘ शरारत से कह कर छवि ने मनोज को कुछ पैकेट थमा दिए. उन सब में मनोज के लिए उपहार रखे थे, जो छवि को पीहर से दिए गए थे.

छवि ने रुपयों से भरी अलमारी का पूरा किस्सा भी सुना दिया, तो मनोज ने उस का हाथ थाम कर कहा, ‘‘तब तो पिता के गौरव की हिफाजत करो. छवि, अब नाराज मत होना. ठीक है.‘‘

छवि ने प्रगट में तो होंठों पर हंसी फैला दी, पर वह मन ही मन कहने लगी, मगर, मुझे तो मजा आ गया, ऐसे लड़ कर जाने में तो बहुत आनंद है. नहीं, अब बिलकुल नहीं, मनोज ने उस के मन की आवाज सुन कर प्रतिक्रिया दी. दोनों खिलखिला कर हंसने लगे.

असमंजस: भाग 3- क्यों अचानक आस्था ने शादी का लिया फैसला

आस्था एक दिन ऐसे ही विचारों में गुम थी कि काफी अरसे बाद एक बार फिर रंजना मैडम का खत आया. यह खत पिछले सारे खतों से अलग था. अब तक जितनी गर्द उन आंधियों ने आस्था के मन पर बिछाई थी, जो पिछले खतों के साथ आई थी, सारी की सारी इस खत के साथ आई तूफानी सुनामी ने धो दी.

आस्था बारबार उस खत को पढ़ रही थी :

‘प्रिय बेटी आस्था,

‘मुझे क्षमा करो, बेटी. मैं समझ नहीं पा रही हूं कि किस हक से मैं तुम्हें यह खत लिख रही हूं. आज तक मैं ने तुम्हें जो भी शिक्षा दी, जाने क्या असर हुआ होगा तुम पर, जाने कितनी खुशियों को तुम से छीन लिया है मैं ने. लेकिन सच मानो, आज तक मैं ने तुम्हें जो भी कहा, वह मेरे जीवन का यथार्थ था. मैं ने वही कहा जो मैं ने अनुभव किया था, जिया था. मुझे सच में, स्त्री की स्वतंत्रता ही उस के जीवन की सब से महत्त्वपूर्ण उपलब्धि लगती थी, जिसे मैं ने विवाह न कर के, परिवार न बसा कर पाया था. लेकिन पिछले 4 सालों में मैं ने स्वयं को जिस तरह अकेला, तनहा, टूटा हुआ महसूस किया है उसे मैं बयां नहीं कर सकती.

‘रिटायरमैंट से पहले तक समय की व्यस्तता के कारण मुझे एकाकी जीवन रास आता था लेकिन बाद में जब भी अपनी उम्र की महिलाओं को अपने नातीपोतों के साथ देखती तो मन में टीस सी उठती. यदि मैं ने सही समय पर अपना परिवार बसाया होता तो आज मैं भी इस तरह अकेली, नीरस जिंदगी नहीं जी रही होती. यही कारण है कि पिछले कुछ सालों से तुम्हारे खतों का जवाब देने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाती थी.

‘आखिर क्या कहती तुम्हें कि जिस रंजना मैडम को तुम अपना आदर्श मानती हो आज उस के लिए दिन के 24 घंटे काटना भी मुश्किल हो गया है. पिछले कुछ सालों ने मुझे एहसास दिला दिया है कि एक इंसान की जिंदगी में परिवार की क्या अहमियत होती है. आज जिंदगी के बयाबान में मैं नितांत अकेली भटक रही हूं, पर ऐसा कोई नहीं है जिस के साथ मैं अपना सुखदुख बांट सकूं. यह बहुत ही भयंकर और डरावनी स्थिति है, आस्था. मैं नहीं चाहती कि जीवन की संध्या में तुम भी मेरी तरह ही तनहा और निराश अनुभव करो. हो सके तो अब भी अपनी राह बदल दो.

‘जिस अस्तित्व को कायम रखने के लिए मैं ने यह राह चुनी थी अब वह अस्तित्व ही अर्थहीन लगता है. जिस समाज की भलाई और उन्नति के लिए हम ने यह एकाकीपन स्वीकार किया है उस समाज की सब से बड़ी भलाई इसी में है कि अनंतकाल से चली आ रही परिवार नाम की संस्था बरकरार रहे, सभी बेटी, बहन, पत्नी, मां, नानीदादी के सभी रूपों को जीएं. तुम यदि चाहो तो अब भी अपने शेष जीवन को इस अंधेरे गर्त में भटकने से रोक सकती हो.

‘जाने क्यों ऐसा लग रहा है कि स्त्री स्वतंत्रता के मेरे विचारों ने अब तक तुम्हारा अच्छा नहीं, बुरा चाहा था लेकिन आज मैं पहली बार तुम्हारा अच्छा चाहती हूं. चाहती हूं कि तुम अपने व्यक्तित्व के हर पहलू को जीओ. आशा है तुम निहितार्थ समझ गई होगी.

‘एक हताश, निराश, एकाकी, वृद्ध महिला जिस का कोई नहीं है.’

बारबार उस खत को पढ़ कर उस के सामने अतीत की सारी गलतियां उभर कर आ गईं. कैसे उस ने विवान का प्रस्ताव कड़े शब्दों में मना कर दिया था, किस प्रकार उस ने मांबाप को कई बार रूखे शब्दों में लताड़ दिया था, किस प्रकार उस ने अपनी बीमार, मृत्युशैया पर लेटी दादी की अंतिम इच्छा का भी सम्मान नहीं किया था. आज क्या है उस के पास, चापलूसों की टोली जो शायद पीठ पीछे उस के बारे में उलटीसीधी बातें करती होगी.

क्या वह जानती नहीं कि किस समाज का हिस्सा है वह. क्या वह जानती नहीं कि अकेली औरत के बारे में किस तरह की

बातें करते होंगे लोग. उस को जन्म देने वाले मांबाप ने अपनी विषम आर्थिक परिस्थितियों के बावजूद बेटी की पढ़ाई- लिखाई पर कोई आंच नहीं आने दी, कभी भी किसी बात के लिए दबाव नहीं डाला, सलाह दी लेकिन निर्णय नहीं सुनाया. यदि उस के मांबाप इतनी उदार सोच रख सकते हैं तो क्या उस का हमवय पुरुष मित्र उस की स्वतंत्रता का सम्मान नहीं करता.

आस्था ने निर्णय किया कि वह अपनी गलतियां सुधारेगी. उस ने मां को फोन मिलाया, ‘हैलो मां, कैसी हो?’

‘ठीक हूं. तू कैसी है, आशु. आज वक्त कैसे मिल गया?’ हताश मां ने कहा.

‘मां शर्मिंदा मत करो. मैं घर आ रही हूं. मुझे मेरी सारी गलतियों के लिए माफ कर दो. क्या हाथ पीले नहीं करोगी अपनी बेटी के?’

मां को अपने कानों पर यकीन ही नहीं हुआ, ‘तू सच कह रही है न, आशु. मजाक तो नहीं कर रही है. तुझे नहीं पता तेरे पापा यह सुन कर कितने खुश होंगे. हर समय तेरी ही चिंता लगी रहती है.’

‘हां मां. मैं सच कह रही हूं. मैं ने देर जरूर की है लेकिन अंधेरा घिरने से पहले सही राह पर पहुंच गई हूं. अब तुम शादी की तैयारियां करो.’

कुछ ही महीनों में आस्था के लिए एक कालेज प्रोफैसर का रिश्ता आया जिस के लिए उस ने हां कह दी. आज बरसों बाद ही सही, आस्था के मांपापा की इच्छा पूरी होने जा रही थी.

‘‘बेटी आस्था.’’ किसी ने आस्था को पीछे से पुकारा और वह अपने वर्तमान में लौटी. वह पलटी, पीछे रंजना मैडम खड़ी थीं. उन के चेहरे पर खुशी की चमक थी, जिसे देख कर आस्था एक अजीब से भय में जकड़ गई क्योंकि मैडम ने तो खत में कुछ और ही लिखा था, लेकिन तभी भय की वह लहर शांत हो गई जब उस ने उन की मांग में सिंदूर, गले में मंगलसूत्र, हाथों में लाल चूडि़यां देखीं.

‘‘बेटी आस्था, इन से मिलो, ये हैं ब्रिगेडियर राजेश. कुछ दिनों पहले ही मैं ने एक मैट्रिमोनियल एजेंट से अपना जीवनसाथी ढूंढ़ने की बात की थी और फिर क्या था, उस ने मेरी मुलाकात राजेश से करवा दी जोकि आर्मी से रिटायर्ड विधुर थे और अपनी जिंदगी में एकाकी थे. हम ने साथ चलने का फैसला किया और पिछले हफ्ते ही

कोर्ट में रजिस्टर्ड शादी कर ली. इन सब में इतनी व्यस्त थी कि तुम्हें बता भी नहीं पाई.’’

मैडम को ब्रिगेडियर के हाथों में हाथ थामे इतना खुश देख कर आस्था की खुशी का ठिकाना नहीं था. वह खुश थी क्योंकि शादी करने का निर्णय ले कर आखिरकार उस के सारे असमंजस खत्म हो चुके थे.

हरेक का अपना दिल है: भाग 3- स्नेहन आत्महत्या क्यों करना चाहता था

जब मैं ने अपनी बात खत्म की तो जेनिफर बोलने लगी, ‘‘आप की कहानी बेहद दुखी है.  व्यवसाय में सफलता और असफलता सामान्य है, यह बारीबारी से होता है. बड़े से बड़े बिजनैसमैन को भी इस तरह का उतारचढ़ाव का सामना करना ही पड़ता है.

आज की पेशेवर हार आप के लिए एक    झटका सा ही लगेगा जो लगातार जीत ही देखते रहे. लेकिन सम   झदारी इस बात में है कि इस से कैसे बाहर निकला जाए और सफल होने की कोशिश की जाए. यदि आप अपनी पारिवारिक स्थिति के बारे में सोचते हैं, तो कृपया मेरी राय को क्षमा करें मु   झे ऐसा लगता है कि आप के देश में आप परिवार के नाम पर एकदूसरे पर ज्यादा हक जताना चाहते हैं.

‘‘क्या आप जानते हैं कि आप का बेटा नशे का आदी क्यों बना है? आप की बेटी ने आप की मरजी के खिलाफ शादी क्यों की? आप की पत्नी अब अवसाद में क्यों है? क्या आप ने कभी उन के पास बैठ कर इन सभी विषयों के बारे में बातें करने की कोशिश की?’’ उस ने सीधा मु   झ से सवाल पूछा.

मेरे पास जवाब नहीं था, ‘‘मैं ने उन्हें जीवन के लिए आवश्यक सभी सुखसुविधाएं दीं… इस से ज्यादा और क्या करना है मु   झे?’’

‘‘सुखसुविधाएं देने से आप का काम पूरा हो जाता? अगर यह आप की सोच है तो यह सरासर गलत है… मु   झे लगता है कि आप उन तीनों व्यक्तियों को जिन्हें अपना परिवार मानते हैं उन में से किसी को भी आप ने सम   झा ही नहीं.’’

‘‘आप यह क्या कह रही हैं?’’

‘‘आज जो हुआ वह एक मिसाल है आप की लापरवाही की. जब आप को अपनी आशा के अनुरूप सफलता नहीं मिली तो आप ने आत्महत्या करने का फैसला किया. आप का बेटा ड्रग्स का आदी हो सकता है क्योंकि उसे वह नहीं मिल रहा है जो वह चाहता है. हो सकता है कि आप की बेटी अपने पसंदीदा पति को यह जान कर चुन रही हो कि आप उसे वैसा जीवनसाथी नहीं देंगे जो वह चाहती है. आप की पत्नी भ्रमित हो सकती है क्योंकि उस ने जो चाहा था वह नहीं मिला.’’

‘‘उन की सारी इच्छाएं बिन मांगे मैं ने पूरी कीं,’’ मैं ने गुस्से से कहा.

‘‘यही गलती है. मैं ने कई भारतीय परिवारों में एक पति अपनी पत्नी पर और मातापिता दोनों अपने बच्चों पर अपने विचारों, इच्छाओं और सपनों को थोपते हैं. हम इस से सहमत नहीं हैं…’’

मैं ने जेनिफर को देखा.

‘‘हर एक के पास एक दिल है, स्नेहन. अलगअलग आशाएं, इच्छाएं होती हैं यह मत भूलना. क्या आप ने कभी अपने परिवार वालों से बैठ कर आपस में बात करने के बाद कोई भी फैसला लिया?’’

‘‘नहीं’’ मेरा उत्तर था जिस का मैं ने सिर्फ इशारे में जवाब दिया.

‘‘यहां तक कि आज आप ने जो आत्महत्या का निर्णय लिया है वह भी आप के

अहंकार को ही दर्शाता है. अगर आप इस तरह आत्महत्या कर लेते तो आप की पत्नी पर क्या गुजरती इस बारे में आप ने सोचा? हर इंसान के पास हर विषय के बारे में अपनी एक दृष्टि है. आप की मौत से तुम्हारे परिवार वालों की समस्याओं का समाधान नहीं होने वाला है.

मौत को गले लगा कर आप ने अपनी समस्या का हल ढूंढ़ निकाला और अपने परिवार वालों की उल   झनों को और बढ़ा दी. यह फैसला भी अपने स्वार्थ की वजह से लिया गया फैसला ही है. अपने देश वापस जाइए और अपने परिवार वालों से दिल खोल कर बात कीजिए. हर समस्या का हल अपनेआप निकल आएगा,’’ जेनिफर ने कहा.

मैं ने जवाब नहीं दिया.

‘‘स्नेहन कुदरत ने आप को मेरे द्वारा नया जन्म दिया है. इसे सही तरीके से इस्तेमाल करना या न करना आप की मरजी है. हम वास्तव में व्यक्तिगत स्वतंत्रता को महत्त्व देते हैं. औल द बैस्ट…’’ जेनिफर उठकर चली गई.

उस के शब्दों की सचाई ने मुझे, मेरे ज्ञान और मेरे अहंकार सब को जला कर राख कर दिया. मुझे ऐसा लगा कि जैसे मेरा पुनर्जन्म हुआ है. मैं काफी देर तक वहीं बैठा रहा.

थोड़ी देर बाद मैं उठा और फिर से समुद्र की ओर चलने लगा… अब मेरा इरादा बदल चुका था. सागर में चमकता सूरज मेरे मन में नई उम्मीदों की किरण ले कर आया. मु   झे लगा सिर्फ मेरा नहीं हरेक का अपना दिल है और उस की इज्जत करनी चाहिए.

इस्तीफा: क्या सफलता के लिए सलोनी औफर स्वीकार करेगी

सलोनी की रिस्ट वाच पर जैसे ही नजर पड़ी, ‘उफ… मुझे आज फिर से देर हो गई. कार्यालय में कल नए बौस का आगमन हो रहा है. अत: सारे पैंडिंग काम कल जल्दी औफिस पहुंच कर अपडेट कर लूंगी. अब मुझे जल्दी घर पहुंचना चाहिए. बिटिया गुड्डी और नन्हे अवि के साथ मां परेशान हो रही होंगी. नीरज तो पता नहीं अभी घर लौटे भी हैं या नहीं,’ मन ही मन में सोचविचार करती सलोनी ने अपनी मेज पर रखा कंप्यूटर औफ किया और तेजी से कार्यालय से बाहर निकल आई. लंबेलंबे डग भरते हुए 5 मिनट में बसस्टौप पर आ पहुंची.

चूंकि लोकल ट्रेन अभी आई नहीं थी. अत: वह भी सामने प्रतीक्षारत लगी लाइन में सब से पीछे जा खड़ी हो गई. अचानक उस की नजर अपने से आगे खड़े नवयुवक पर पड़ी. वह गोरे वर्ण का लंबा, गठीला बदन, सुंदर, सुदर्शन, देखने में हंसमुख सजीला नवयुवक, अपनी गरदन घुमा कर उसे ही पहचानने का प्रयास कर रहा था. उस से नजरें मिलते ही सलोनी को भी वह सूरत कुछकुछ जानीपहचानी सी लगी.  सलोनी उस नवयुवक को देख कर पहचानने के उद्देश्य से सोचविचार में गुम थी. कि अचानक दोनों की नजरें आपस में टकराईं तो उस की ओर देख कर वह हौले से मुसकराया. युवक की मुसकान भरी प्रतिक्रिया देख कर उस ने सकपका कर नजरें दूसरी ओर घुमा लीं.

‘‘माफ कीजिए अगर मैं गलत नहीं हूं तो आप का नाम सलोनी है न?’’ युवक ने पहचानने का उपक्रम करते हुए नम्रता के साथ सलोनी से पूछ लिया.

युवक की बात सुन कर सलोनी चौंकते हुए बोली, ‘‘हां मेरा नाम सलोनी है. लेकिन आप मु   झे कैसे जानते हैं? मैं तो आप को नहीं जानती?’’

सलोनी के चेहरे पर अनजान चेहरे को पहचानने के कई रंगभाव उभरे और जल्दी ही विलुप्त हो गए.

‘‘दरअसल, हमारी मुलाकात करीब 19-20 बर्षों बाद हो रही है इसलिए आप मु   झे पहचान नहीं रही हैं.’’

‘‘अच्छा.. लेकिन वह कैसे? कौन हैं आप?’’ सलोनी ने अपने दिमाग पर जोर डालते हुए पूछ लिया.

‘‘लगता है कि आप ने अभी तक इस नाचीज को पहचाना नहीं. हम भूलेबिसरे गीतों

में छिपी कहानी कहीं…’’ युवक ने शायराना अंदाज में मुसकराते हुए यह बात ऐसे कही कि

न चाहते हुए भी सलोनी के चेहरे पर मुसकान खेल गई.

‘‘शायद आप को याद होगा कि कानपुर के संत विवेकानंद माध्यमिक विद्यालय में 9वीं क्लास में एक लड़का कमल आप की कक्षा में साथ में पढ़ता था. लेकिन उस के पिताजी का ट्रांसफर हो गया था, जिस के कारण उसे कानपुर शहर छोड़ कर दूसरे शहर जाना पड़ा था.’’

‘‘अरे हां… वह पढ़ाकू प्रजाति का कविकुल कमल… क्या खूबसूरत कविताएं लिखता था वह… आज भी जेहन में उस की कुछ कविताओं की यादें ताजा हैं,’’ अब जानपहचान पर अभिमत की मुहर लगाते हुए खुले अंदाज में सलोनी खिलखिला कर बोली, ‘‘उस के खूबसूरत पढ़ने वाले अंदाज को सुनने की खातिर कविता लिखवाने को कितनी लड़कियां उस के आगेपीछे चक्कर लगाती रहती थीं पर वह… पढ़ाकू… आसानी से किसी को घास नहीं डालता था.’’

‘‘हूं… बहुत खूब… सही पहचाना आप ने. हां तो मैडम सलोनीजी मैं गुलेगुलजार, खिलता आफताब, खुशमिजाज, दिले बेताब आप का वही नाचीज कमल हूं,’’ कमल ने शब्दों को शायराना अंदाज में ढाल कर अलग अंदाज में अपने परिचय से रूबरू करवाया.

किशोर वय में सलोनी पर दिलोजान से मरमिटने वाले कमल से उस का इस तरह से परिचय होगा ऐसा सलोनी ने कभी नहीं सोचा था. अत: उस के शरीर में करंट मिश्रित मीठी    झुर   झुरी सी दौड़ गई. फिलहाल तो घर पहुंचने में देरी हो जाने की चिंता में घुलते हुए फिर जल्द ही मिलने का वादा करते हुए दोनों ने अपनेअपने घर की राह पकड़ी. अचानक हुए मिलन की इस बेतकल्लुफ आपाधापी में वे दोनों ही एकदूसरे का फोन नंबर लेना भूल गए.

अगले दिन सलोनी कार्यालय पहुंच कर कंप्यूटर औन कर के कार्य सूची को

अपडेट कर रही थी कि तभी चपरासी ने बताया कि बौस कैबिन में आप को बुला रहे हैं.

सलोनी ने फाइल हाथ में पकड़े हुए बौस के कैबिन के पास जा कर पूछा, ‘‘मे आई कम इन सर?’’

‘‘यस कम इन.’’

सलोनी को आवाज कुछ जानीपहचानी सी लगी. लेकिन बौस की कुरसी की पीठ उस की ओर होने के कारण वह बौस का चेहरा नहीं देख सकी. तभी यकायक बिजली की तेजी से बौस ने अपनी कुरसी उस के चेहरे की ओर घुमाई तो अपने सामने मुसकराते हुए खूबसूरत कमल का सुदर्शन चेहरा देख कर वह खुशी से चहक उठी. अचानक तेजी से बदलते घटनाक्रम के कारण खुशी और सरप्राइज दोनों का एहसास उसे एकसाथ हुआ. अत: हकलाहट में उस के मुख से बोल नहीं निकल सके, ‘‘अरे… कमल… सर… आप… बौस…’’

‘‘जी… सलोनीजी… तो कैसा लगा मेरा सरप्राइज डियर…’’ कहते हुए कमल के सुंदर

मुख पर करीने से तराशी हुई बारीक मूंछों की पंक्ति के नीचे पतले सुर्ख होंठों पर प्यारी सी मुसकान खेलने लगी.सलोनी के मुखड़े पर चमकती धूप सी स्वर्णिम मुसकान खिली और जल्दी ही विलीन हो गई. फिलहाल दोनों ने

काम करने को तवज्जो देते हुए कार्य की बारीकियों पर विचारों का आदानप्रदान किया, साथ ही रविवार को दोपहर में लंच साथ करने और मिलने की प्लानिंग भी कर ली.

घर और कार्यालय दोनों स्थानों पर काम के बो   झ तले दबी सलोनी के चिड़चिड़ाते मुखड़े पर अब चमकती मुसकान खेलने लगी थी. इसी कारण घर का वातावरण बहुत खुशनुमा रहने लगा था. सलोनी की सासूमां और नीरज ने भी घर का वातावरण खुशनुमा देख कर सलोनी को थोड़ीबहुत देरसवेर से घर पहुंचने पर टोकाटाकी करना या कुछ कहनासुनना छोड़ दिया.

कमल और सलोनी की मुलाकातें खूब रंग ला रही थीं. खूबसूरत लावण्यमयी सलोनी जब हैंडसम कमल के साथ होती तो उत्साह, उमंग से लबरेज उस की आंखों से खुशियों की फुल   झडि़यां छूटने लगतीं. दोपहर का भोजन अकसर वे साथ ही करते. मस्तीमजाक के बीच रूठना, मनाना और मनपसंद उपहारों का आदानप्रदान भी होने लगा था. देखतेदेखते सालभर बादलों की मानिंद पंख लगा कर उड़ गया.

औफिस में सहकर्मी साथियों के बीच दोनों के नाम की चर्चा अब जोर पकड़ने लगी थी. सलोनी को साथी सहकर्मी घटिया मानसिकता की महिला समझने लगे. 2 बच्चों की मां सलोनी अपने सुखी विवाहित जीवन में खुद आग लगा रही थी. महिला साथी सहकर्मी कनखियों से उसे आता हुआ देख कर एक व्यंग्य भरी मुसकराहट जब उस की ओर फेंकतीं तो सलोनी मन ही मन जलभुन जाती.

साथी सहकर्मियों के द्विअर्थी संवादों से लिपटे जुमले उस के कानों में पिघले शीशे की मानिंद गूंजने लगते. ये सब सहकर्मी साथी बौस के नाराज हो जाने के भय से सलोनी से कुछ नहीं कहते थे. लेकिन उन लोगों की घटिया सोच की दबीदबी मुसकराहट और बातों को ध्यान से सुन कर सलोनी बहुत कुछ सोचनेसमझने लगी थी.

अत: कभीकभी उस का मन नीरज और कमल के बीच डांवांडोल हो जाता. उस की

आंखों के सामने उन दोनों के चेहरे आपस में गड्डमड्ड हो जाते. अंतर्द्वंद्व से बाहर निकलने के प्रयास में जब वे उन दोनों के मध्य तुलना करती तो उसे नीरज गृहस्थी का बोझ उठाता एक सांवले रंग का सामान्य कदकाठी का पुरुष नजर आता जो पति के दंभ से भरा हुआ, उबाऊ और अंहकारी पुरुष लगता जिस ने मर्दानगी के रोब में उस के मन की गहराइयों के भीतर धड़कते हुए दिल की खुशियों की कभी परवाह नहीं की. उसे अपने काम और बस काम से प्यार था. उसे स्त्री के मन से अधिक तन के साथ शगल करने की जरूरत थी.

वहीं कमल उस के मन में दबीछिपी अनेक सतहों को पार करता हुआ अब उस के दिल का करार बन गया था. स्वच्छंद प्रकृति का भंवरे सरीखा कमल गुनगुन करता उस के आसपास मंडराता रहता. वह गुलाब के फूल सरीखा हमेशा तरोताजा और खिलाखिला लगता था. अपनी सुंदरता की सारी महक उस की एक मुसकान की खातिर लुटाना चाहता था. उस की मनमोहक बातें सुन कर उस का मन छलकने लगता. उस के रूपसौंदर्य में गढ़ कर ऐसी शायरी सुनाता कि सलोनी का मन निहाल हो कर निसार हो उठता.

वह भी उस के सीने से लिपट कर हंसनारोना चाहती थी. कमल उस की शादीशुदा जिंदगी के बारे में सब जानता था. अत: उस ने दोनों के बीच की मर्यादा रेखा को पार करने के बारे में कभी कोई चर्चा नहीं की थी. वह तो सलोनी के जीवन के सुखदुख भरे पलों की उल   झनों को सुल   झाते हुए अपनी मनमोहक, लच्छेदार बातों से उसे कुछ पलों के लिए हर्ष और उल्लास से भर, परी लोक जैसे सुखद कल्पना लोक में पहुंचा देता था.

सलोनी को पूरी तरह अपने प्रेम के जाल में फंसा कर अब कमल उस से शारीरिक नजदीकियां बढ़ाने का प्रयास करने लगा. आज उस ने सलोनी के साथ शहर से दूर 3 दिन का टूर का प्रस्ताव रखा था. कमल के टूर के पीछे छिपी शारीरिक सुख प्रस्ताव की भावना जान कर सलोनी जैसे सोते से जागी. आज कमल के दोहरे व्यक्तित्व से उस का सामना हुआ. कमल के सुखद मुसकान भरे सुंदर चेहरे के पीछे छिपी कुत्सित मानसिकता से आज वह बहुत असहज हो उठी थी.

तो क्या कमल की सोच भी अन्य मर्दों जैसी है? कमल को भी उस के साथ से उत्पन्न मानसिक सुख नहीं चाहिए वरन उसे भी उस के शारीरिक संबंध का इस्तेमाल चाहिए? इस

दुनिया में औरत और मर्द का रिश्ता केवल शरीर तक ही सीमित क्यों होता है? एक अच्छा साथी पुरुष महिला मित्र के लिए शरीर की जरूरतों से ऊपर उठ कर, मन की भावनाओं के अनुरूप सामंजस्य क्यों नहीं रख सकता? मन और आत्मा से निसार जब एक स्त्री सच्चे आत्मिक रिश्ते निभाने के लिए समर्पित होती है तो खुदगर्ज मर्द शरीर की भाषा से ऊपर उठ कर आत्मिक भाषा क्यों नहीं सम   झते?

सोचतेसोचते उस का दिमाग सुन्न सा होने लगा. अब इस रिश्ते को बरकरार रखने और आगे बढ़ने से अन्य नजदीकी परिस्थितियों को भी स्वीकार करना पडेगा और शायद तब तक मेरे लिए बहुत देर हो चुकी होगी.

घर पहुंच कर काम निबटाते हुए आज सलोनी का दिलदिमाग अपने नन्हेमुन्ने प्यारे बच्चों के साथ लाड़मनुहार कर के खाना खिलाने से अधिक कमल के हावभाव की सोचों में गुम था. यदि नीरज को सब पता चल गया तो… 2 नावों पर सवारी करने वाले व्यक्ति कभी तैर कर पार नहीं होते वरन डूबना ही उन की नियति होती है. सलोनी तू भी तो 2 नावों पर सवार है. आखिर सचाई से वह कब तक मुंह छिपा सकती है?

मन में निरंतर चलते विचारक्रम से व्यथित बेकल हो कर वह पसीनापसीना हो गई और बाहर बालकनी में निकल कर गहरी लंबी सांसें लेने लगी. तब भी उसे भीतर दिल के पास घुटन महसूस हो रही थी.

कहीं न कहीं उस के संस्कार, उस की सोच फिसलन भरी डगर पर बढ़ते कदमों को फिसलने से रोक रहे थे. अब वैवाहिक जीवन की खंडित मर्यादा के भय से उस का अंतर्मन उसे धिक्कारने लगा था. गृहस्थी की सुखी और शांत नींव का आधार नारी का मर्यादित आचरण माना जाता है. जरा सी ठेस लगते ही बेशकीमती हीरा फिर शोकेस में सजाने के काबिल नहीं रहता. गृहस्थी में नारी या पुरुष दोनों की जीवनचर्या सीमा रेखा के इर्दगिर्द घूमती है. जिम्मेदारियों की अनदेखी कर के, राह से भटकने पर, सीमा रेखा पार करने वालों की जिंदगी में आने वाले भूचाल को फिर कोई नहीं रोक सकता. अत: जो कुछ करना है अभी करना है.

पूरी रात सलोनी का मन उसे रहरह कर कचोटता रहा. सलोनी को अनमनी देख कर नीरज ने उस से परेशान होने का कारण जानना चाहा तो वह फीकी सी हंसी हंस कर बात टाल गई और सोने का उपक्रम करने लगी. लेकिन नींद तो आंखों से कोसों दूर थी. जीवन के उतारचढ़ाव सोचनेविचारने के लिए मजबूर सलोनी खुद से सवालजबाव करने लगी कि…

यह जिंदगी भी हमारे साथ कितना अन्याय करती है- हम हाड़मांस के मानवीय पुतलों के साथ कैसेकैसे भावनात्मक अनोखे खेल खेलती है. काश कमल अब से 10 साल पहले मु   झे मिला होता तो आज नीरज के स्थान पर कमल मेरी जिंदगी में पति के रूप में होता और अब तक जब वह नहीं मिला था तो मैं अपनी जिंदगी सुख से जी रही थी न, फिर इस मोड़ पर अब मु   झे कमल से क्यों मिलाया?

गहरी सोच में गुम होने पर उस के भीतर से आवाजें आने लगतीं कि सलोनी तू कितनी खुदगर्ज है. अपने क्षणिक सुख  के लिए तू कितनी सारी सुखी जिंदगियां दांव पर लगा रही है. मातापिता के नाम पर दाग लगा कर सलोनी क्या तू सुख से रह सकेगी?

कमल के साथ चले जाने के बाद यदि नीरज ने तु   झे अवि और गुड्डी से मिलने का अधिकार नहीं दिया तो क्या तू ममता का गला घोंट कर जी सकेगी? नौकरी पर चले जाने के बाद सासूमां कितने प्यारदुलार से अवि और गुड्डी का पालनपोषण अपनी देखरेख में करती हैं. क्या तू उन की अच्छाइयों को झुठला सकेगी?

अब… बस कर… यही रुक जा सलोनी, चल आज रोक ले अपने बढ़ते कदमों को.

अपने सुखीशांत वैवाहिक जीवन को खुद अपने हाथों से तबाह मत कर. नीरज के बाहरी व्यक्तित्व और काम के बो   झ तले दबे जिम्मेदार पिता के व्यवहार को नकारने के बजाय उस के साथ बिताए गए 10 सालों की अच्छाइयों को याद रख. अपने बच्चों का भविष्य सुखद बनाने के लिए ही तो तुम दोनों दिनरात दोहरी मेहनत करते हो. मानसिक तनाव दूर करने के लिए नीरज को अपनी पत्नी का साथ चाहिए तो इस में भला उस की क्या गलती है? इस से पहले तो तुम ने कभी ऐसा नहीं सोचा था. कमल के बजाय नीरज की जिम्मेदारियों को सकारात्मक दृष्टिकोण से सामने रख कर देख.  तब सारी तसवीर तेरे सामने स्पष्ट होगी और तू सही निर्णय लेने में स्वयं सक्षम होगी. धीरेधीरे आंखों के सामने बीते समय के चित्र उभरने लगे…

जब तू बुखार में बेसुध पड़ी थी तब नीरज ने कैसे रातरात भर जागते रह कर तेरे माथे पर ठंडी पट्टी रख कर तुझे सुखसुकून पहुंचाया था. नीरज ने कितनी बार अपने औफिस से छुट्टी ले कर तेरे ठीक हो जाने तक सारे घर के कामकाज कितनी सुगमता से संभाले. देर हो जाने के कारण कितनी बार तेरे साथ मिल कर रसोईघर में बरतन धुलवाए.

ठंडे दिमाग से एक तरफा निर्णय लेने वाले सोचविचार करने पर कमल के मोहजाल में फंसी सलोनी की आंखों के सामने अब नीरज की सकारात्मक तसवीर स्पष्ट होने लगी थी. मन ही

मन जीवन में आने वाले पलों का निर्णय ले कर आज उस का मन असीम शांति का अनुभव कर रहा था. सुबहसवेरे सुखद भोर का एहसास करते हुए सलोनी मीठी सी अंगड़ाई ले कर उठ खड़ी हुई. शीघ्रता से नहा धो कर उस ने बच्चों और पति का मनपसंद नाश्ता तैयार किया. दोनों बच्चों को उठा कर लाड़दुलार से दूध पिलाया. नन्हा अवि मां के आंचल की गरमाहट पा कर जल्द ही उनींदा हो गया. उस ने उसे मांजी के पास लिटाया और तत्पश्चात मांजी और नीरज को नाश्ता दे कर 2-4 सामान्य बातें करने के बाद वह औफिस के लिए निकल पड़ी.

औफिस में पहुंच कर सलोनी कई दिनों से पैंडिंग पड़ा काम निबटाने लगी. समय के पाबंद कमल के कैबिन में पहुंच जाने के बाद, हाथों में फाइल थामे दमसाधे वह उस के पीछेपीछे बौस के कैबिन में पहुंच गई.

सलोनी को सामने खड़े देख कर कमल ने मुसकराते हुए उस से कल के प्रस्ताव पर विचारविमर्श करने के विषय में पूछा. तुरंत ही फाइल खोल कर सलोनी ने करीने से रखा एक लिफाफा कमल के सामने रखते हुए कहा, ‘‘कमल यह मेरा इस्तीफा है… प्लीज इसे स्वीकार करो… और मु   झे यह नौकरी छोड़ने की इजाजत दे दो.’’

‘‘सलोनी… क्या है ये सब?’’ हैरत से कमल ने पूछा. अचानक अप्रत्याशित स्थिति का सामना करते हुए, हकबकाए कमल का मुंह खुला का खुला रह गया.

ठंडे ठहरे हुए लफ्जों में सलोनी आगे बोली, ‘‘क्या… कुछ नहीं… कमल… यह मेरा इस्तीफा है. मैं इस नौकरी से रिजाइन कर रही हूं…’’

‘‘अगर तुम्हें मेरा प्रस्ताव इतना ही बुरा लग रहा था तो कल ही साफ इंकार कर देती न… मैं ने तुम से जबरदस्ती तो नहीं की थी,’’ कमल के मन की नाराजगी जबां से जाहिर होने लगी. अब कमल का मूड उखड़ने लगा था, ‘‘इस तरह से नौकरी से रिजाइन करने के बारे में तुम सोच भी कैसे सकती हो? अपने घर की आर्थिक स्थिति तुम अच्छी तरह से सम   झती हो.’’

‘‘हां… अब तक तो नहीं सम   झी थी, लेकिन अब बहुत अच्छी तरह से सम   झने लगी हूं और वैसे भी कमल… जिस रास्ते मु   झे जाना ही नहीं तो उस का पता पूछने से हासिल भी क्या होगा. अब यह पक्का तय है कि हम दोनों के रास्ते अलगअलग हैं. हम लोग अब आगे साथ काम नहीं कर सकते.’’

सलोनी का बदला रुख देख कर कमल बात बदलते हुए बोला, ‘‘यार सलोनी, तुम जानती हो न कि मैं तुम्हारी पदोन्नति कर के तुम्हें मैनेजिंग डाइरैक्टर की सीट पर बैठा सकता हूं… सलोनी… थोड़ा सा दिमाग पर जोर डालो और सम   झो कि मैं तुम्हें साथ में क्या

औफर कर रहा हूं… जिंदगी में इस तरह कोरी भावुकता से तरक्की नहीं मिला करती… यहां

हम सभी को कुछ पाने के लिए बहुत कुछ खोना भी पड़ता है… इसलिए यदि सुखद भविष्य के लिए तरक्की करनी है, तो कुछ सम   झौते भी करने पड़ेंगे न…’’

‘‘कमल मुझे ऐसी तरक्की नहीं चाहिए जिस की आड़ में मैं खुद की नजरों में गिर जाऊं. ऐसे लिजलिजे सम   झौते मु   झे कदापि स्वीकार नहीं,’’ कहते हुए सलोनी दृढ़ निश्चय के साथ कमल के कैबिन से बाहर निकल आई और मेज से अपना बैग उठा कर सुरक्षित अपने सुखद नीड़ की ओर चल पड़ी.

बरसी मन गई : कैसे मनाई शीला ने बरसी

इधर कई दिनों से मैं बड़ी उलझन में थी. मेरे ससुर की बरसी आने वाली थी. मन में जब सोचती तो इसी नतीजे पर पहुंचती कि बरसी के नाम पर पंडितों को बुला कर ठूंसठूंस कर खिलाना, सैकड़ों रुपयों की वस्तुएं दान करना, उन का फिर से बाजार में बिकना, न केवल गलत बल्कि अनुचित कार्य है. इस से तो कहीं अच्छा यह है कि मृत व्यक्ति के नाम से किसी गरीब विद्यार्थी को छात्रवृत्ति दे दी जाए या किसी अस्पताल को दान दे दिया जाए.

यों तो बचपन से ही मैं अपने दादादादी का श्राद्ध करने का पाखंड देखती आई थी. मैं भी उस में मजबूरन भाग लेती थी. खाना भी बनाती थी. पिताजी तो श्राद्ध का तर्पण कर छुट्टी पा जाते थे. पर पंडित व पंडितानी को दौड़दौड़ कर मैं ही खाना खिलाती थी. जब से थोड़ा सा होश संभाला था तब से तो श्राद्ध के दिन पंडितजी को खिलाए बिना मैं कुछ खाती तक नहीं थी. पर जब बड़ी हुई तो हर वस्तु को तर्क की कसौटी पर कसने की आदत सी पड़ गई. तब मन में कई बार यह प्रश्न उठ खड़ा होता, ‘क्या पंडितों को खिलाना, दानदक्षिणा देना ही पूर्वजों के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने का सर्वश्रेष्ठ तरीका है?’

हमारे यहां दादाजी के श्राद्ध के दिन पंडितजी आया करते थे. दादीजी के श्राद्ध के दिन अपनी पंडितानी को भी साथ ले आते थे. देखने में दोनों की उम्र में काफी फर्क लगता था. एक  दिन महरी ने बताया कि  यह तो पंडितजी की बहू है. बड़ी पंडितानी मर चुकी है. कुछ समय बाद पंडितजी का लड़का भी चल बसा और पंडितजी ने बहू को ही पत्नी बना कर घर में रख लिया.

मन एक वितृष्णा से भर उठा था. तब लगा विधवा विवाह समाज की सचमुच एक बहुत बड़ी आवश्यकता है. पंडितजी को चाहिए था कि बहू के योग्य कोई व्यक्ति ढूंढ़ कर उस का विवाह कर देते और तब वे सचमुच एक आदर्श व्यक्ति माने जाते. पर उन्होंने जो कुछ किया, वह अनैतिक ही नहीं, अनुचित भी था. बाद में सुना, उन की बहू किसी और के साथ भाग गई.

मन में विचारों का एक अजीब सा बवंडर उठ खड़ा होता. जिस व्यक्ति के प्रति मन में मानसम्मान न हो, उसे अपने पूर्वज बना कर सम्मानित करना कहां की बुद्धिमानी है. वैसे बुढ़ापे में पंडितजी दया के पात्र तो थे. कमर भी झुक गई थी, देखभाल करने वाला कोई न था. कभीकभी चौराहे की पुलिया पर सिर झुकाए घंटों बैठे रहते थे. उन की इस हालत पर तरस खा कर उन की कुछ सहायता कर देना भिन्न बात थी, पर उन की पूजा करना किसी भी प्रकार मेरे गले न उतरता था.

अपने विद्यार्थी जीवन में तो इन बातों की बहुत परवा न थी, पर अब मेरा मन एक तीव्र संघर्ष में जकड़ा हुआ था. इधर जब से मैं ने एक महिला रिश्तेदार की बरसी पर दी गई वस्तुओं के लिए पंडितानियों को लड़तेझगड़ते देखा तो मेरा मन और भी खट्टा हो गया था. पर क्या करूं ससुरजी की मृत्यु के बाद से हर महीने उसी तिथि पर एक ब्राह्मण को तो खाना खिलाया ही जा रहा था.

मैं ने एक बार दबी जबान से इस का विरोध करते हुए अपनी सास से कहा कि बाबूजी के नाम पर कहीं और पैसा दिया जा सकता है पर उन्होंने यह कह कर मेरा मुंह बंद कर दिया कि सभी करते हैं. हम कैसे अपने रीतिरिवाज छोड़ दें.

मेरी सास वैसे ही बहुत दुखी थीं. जब से ससुरजी की मृत्यु हुई थी, वे बहुत उदास रहती थीं, अकसर रोने लगती थीं. कहीं आनाजाना भी उन्होंने छोड़ दिया था. सो, उन्हें अपनी बातों से और दुखी करने की मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी. पर दूसरी ओर मन अपनी इसी बात पर डटा हुआ था कि जब हम चली आ रही परंपराओं की निस्सारता समझते हैं और फिर भी आंखें मूंद कर उन का पालन किए जाते हैं तो हमारे यह कहने का अर्थ ही क्या रह जाता है कि हम जो कुछ भी करते हैं, सोचसमझ कर और गुणदोष पर विचार कर के करते हैं.

मैं ने अपने पति से कहा कि वे अम्माजी से बात करें और उन्हें समझाने का प्रयत्न करें. पर उन की तरफ से टका सा जवाब मिल गया, ‘‘भई, यह सब तुम्हारा काम है.’’

वास्तव में मेरे पति इस विषय में उदासीन थे. उन्हें बरसी मनाने या न मनाने में कोई एतराज न था. अब तो सबकुछ मुझे ही करना था. मेरे मन में संघर्ष होता रहा. अंत में मुझे लगा कि अपनी सास से इस विषय में और बात करना, उन से किसी प्रकार की जिद कर के उन के दुखी मन को और दुखी करना मेरे वश की बात नहीं. सो, मैं ने अपनेआप को जैसेतैसे बरसी मनाने के लिए तैयार कर लिया.

हम लोग आदर्शों की, सुधार की कितनी बड़ीबड़ी बातें करते हैं. दुनियाभर को भाषण देते फिरते हैं. लेकिन जब अपनी बारी आती है तो विवश हो वही करने लगते हैं जो दूसरे करते हैं और जिसे हम हृदय से गलत मानते हैं. मेरे स्कूल में वादविवाद प्रतियोगिता हो रही थी. उस में 5वीं कक्षा से ले कर 10वीं कक्षा तक की छात्राएं भाग ले रही थीं. प्रश्न उठा कि मुख्य अतिथि के रूप में किसे आमंत्रित किया जाए. मैं ने प्रधानाध्यापिका के सामने अपनी सास को बुलाने का प्रस्ताव रखा, वे सहर्ष तैयार हो गईं.

पर मैं ने अम्माजी को नहीं बताया. ठीक कार्यक्रम से एक दिन पहले ही बताया. अगर पहले बताती तो वे चलने को बिलकुल राजी न होतीं. अब अंतिम दिन तो समय न रह जाने की बात कह कर मैं जोर भी डाल सकती थी.

अम्माजी रामचरितमानस पढ़ रही थीं. मैं ने उन के पास जा कर कहा, ‘‘अम्माजी, कल आप को मेरे स्कूल चलना है, मुख्य अतिथि बन कर.’’

‘‘मुझे?’’ अम्माजी बुरी तरह चौंक पड़ीं, ‘‘मैं कैसे जाऊंगी? मैं नहीं जा सकती.’’

‘‘क्यों नहीं जा सकतीं?’’

‘‘नहीं बहू, नहीं? अभी तुम्हारे बाबूजी की बरसी भी नहीं हुई है. उस के बाद ही मैं कहीं जाने की सोच सकती हूं. उस से पहले तो बिलकुल नहीं.’’

‘‘अम्माजी, मैं आप को कहीं विवाहमुंडन आदि में तो नहीं ले जा रही. छोटीछोटी बच्चियां मंच पर आ कर कुछ बोलेंगी. जब आप उन की मधुर आवाज सुनेंगी तो आप को अच्छा लगेगा.’’

‘‘यह तो ठीक है. पर मेरी हालत तो देख. कहीं अच्छी लगूंगी ऐसे जाती हुई?’’

‘‘हालत को क्या हुआ है आप की? बिलकुल ठीक है. बच्चों के कार्यक्रम में किसी बुजुर्ग के आ जाने से कार्यक्रम की रौनक और बढ़ जाती है.’’

‘‘मुझे तो तू रहने ही दे तो अच्छा है. किसी और को बुला ले.’’

‘‘नहीं, अम्माजी, नहीं. आप को चलना ही होगा,’’ मैं ने बच्चों की तरह मचलते हुए कहा, ‘‘अब तो मैं प्रधानाध्यापिका से भी कह चुकी हूं. वे क्या सोचेंगी मेरे बारे में?’’

‘‘तुझे पहले मुझ से पूछ तो लेना चाहिए था.’’

‘‘मुझे मालूम था. मेरी अच्छी अम्माजी मेरी बात को नहीं टालेंगी. बस, इसीलिए नहीं पूछा था.’’

‘‘अच्छा बाबा, तू मानने वाली थोड़े ही है. खैर, चली चलूंगी. अब तो खुश है न?’’

‘‘हां अम्माजी, बहुत खुश हूं,’’ और आवेश में आ कर अम्माजी से लिपट गई. दूसरे दिन मैं तो सुबह ही स्कूल आ गई थी. अम्माजी को बाद में ये नियत समय पर स्कूल छोड़ गए थे. एकदम श्वेत साड़ी से लिपटी अम्माजी बड़ी अच्छी लग रही थीं.

ठीक समय पर हमारा कार्यक्रम शुरू हो गया. प्रधानाध्यापिका ने मुख्य अतिथि का स्वागत करते हुए कहा, ‘‘आज मुझे श्रीमती कस्तूरी देवी का मुख्य अतिथि के रूप में स्वागत करते हुए बड़ा हर्ष हो रहा है. उन्होंनेअपने दिवंगत पति की स्मृति में स्कूल को

2 ट्रौफियां व 10 हजार रुपए प्रदान किए हैं. ट्रौफियां 15 वर्षों तक चलेंगी और वादविवाद व कविता प्रतियोगिता में सब से अधिक अंक प्राप्त करने वाली छात्राओं को दी भी जाएंगी. 10 हजार रुपयों से 25-25 सौ रुपए 4 वषोें तक हिंदी में सब से अधिक अंक प्राप्त करने वाली छात्राओं को दिए जाएंगे. मैं अपनी व स्कूल की ओर से आग्रह करती हूं कि श्रीमती कस्तूरीजी अपना आसन ग्रहण करें.’’

तालियों की गड़गड़ाहट से हौल गूंज उठा. मैं कनखियों से देख रही थी कि सारी बातें सुन कर अम्माजी चौंक पड़ी थीं. उन्होंने मेरी ओर देखा और चुपचाप मुख्य अतिथि के आसन पर जा बैठी थीं. मैं ने देखा, उन की आंखें छलछला आई हैं, जिन्हें धीरे से उन्होंने पोंछ लिया.

सारा कार्यक्रम बड़ा अच्छा रहा. छात्राओं ने बड़े उत्साह से भाग लिया. अंत में विजयी छात्राओं को अम्माजी के हाथों पुरस्कार बांटे गए. मैं ने देखा, पुरस्कार बांटते समय उन की आंखें फिर छलछला आई थीं. उन के चेहरे से एक अद्भुत सौम्यता टपक रही थी. मुझे उन के चेहरे से ही लग रहा था कि उन्हें यह कार्यक्रम अच्छा लगा.

अब तक तो मैं स्कूल में बहुत व्यस्त थी. लेकिन कार्यक्रम समाप्त हो जाने पर मुझे फिर से बरसी की याद आ गई.

दूसरे दिन मैं ने अम्माजी से कहा, ‘‘अम्माजी, बाबूजी की बरसी को 15 दिन रह गए हैं. मुझे बता दीजिए, क्याक्या सामान आएगा. जिस से मैं सब सामान समय रहते ही ले आऊं.’’

‘‘बहू, बरसी तो मना ली गई है.’’

‘‘बरसी मना ली गई है,’’ मैं एकदम चौंक पड़ी, ‘‘अम्माजी, आप यह क्या कह रही हैं?’’

‘‘हां, शीला, कल तुम्हारे स्कूल में ही तो मनाईर् गई थी. कल से मैं बराबर इस बारे में सोच रही हूं. मेरे मन में बहुत संघर्ष होता रहा है. मेरी आंखों के सामने रहरह कर 2 चित्र उभरे हैं. एक पंडितों को ठूंसठूंस कर खाते हुए, ढेर सारी चीजें ले जाते हुए. फिर भी बुराई देते हुए, झगड़ते हुए. मैं ने बहुत ढूंढ़ा पर उन में तुम्हारे बाबूजी कहीं भी न दिखे.’’

‘‘दूसरा चित्र है   उन नन्हींनन्हीं चहकती बच्चियों का, जिन के चेहरों से अमित संतोष, भोलापन टपक रहा है, जो तुम्हारे बाबूजी के नाम से दिए गए पुरस्कार पा कर और भी खिल उठी हैं, जिन के बीच जा कर तुम्हारे बाबूजी का नाम अमर हो गया है.’’

मैं ने देखा अम्माजी बहुत भावुक हो उठी हैं.

‘‘शीला, तू ने कितने रुपए खर्च किए?’’

‘‘अम्माजी, 11 हजार रुपए. 5-5 सौ रुपए की ट्रौफी और 10 हजार रुपए नकद.’’

‘‘तू ने ठीक समय पर इतने सुंदर व अर्थपूर्ण ढंग से उन की बरसी मना कर मेरी आंखें खोल दीं.’’

‘‘ओह, अम्माजी.’’ मैं हर्षातिरेक में उन से लिपट गई. तभी ये आ गए, बोले, ‘‘अच्छा, आज तो सासबहू में बड़ा प्रेमप्रदर्शन हो रहा है.’’

‘‘अच्छाजी, जैसे हम लड़ते ही रहते हैं,’’ मैं उठते हुए बनावटी नाराजगी दिखाते हुए बोली.

ये धीरे से मेरे कान में बोले, ‘‘लगता है तुम्हें अपने मन का करने में सफलता मिल गई है.’’

‘‘हां.’’

‘‘जिद्दी तो तुम हमेशा से हो,’’ ये मुसकरा पड़े, ‘‘ऐसे ही जिद कर के तुम ने मुझे भी फंसा लिया था.’’

‘‘धत्,’’ मैं ने कहा और मेरी आंखें एक बार फिर अम्माजी के चमकते चेहरे की ओर उठ गईं.

परख : भाग 3- कैसे बदली एक परिवार की कहानी

‘‘मां, मैं आप के चेहरे से आप की पीड़ा सम झ सकती हूं. आप पापा के पास क्यों नहीं लौट जातीं,’’ एक दिन गौरिका ने मां श्यामला से साफ कह दिया. ‘‘कहना क्या चाहती हो तुम?’’ श्यामला ने प्रश्न किया. ‘‘यही कि इस आयु में मु झ से अधिक पापा को आप की आवश्यकता है.’’

‘‘उस की चिंता तुम न ही करो तो अच्छा है. तुम्हारे पापा ने ही मु झे यहां भेजा है पर यहां आ कर मु झे भी उन की बात सम झ में आने लगी है. तुम्हारे लक्षण ठीक नहीं नजर आ रहे हैं.’’

‘‘ऐसा क्या देख लिया आप ने जो मेरे लक्षण बिगड़ते दिखने लगे? अपने बेटे गुंजन के लक्षणों की कभी चिंता नहीं की आप ने?’’ गौरिका बेहद कटु स्वर में बोली.

‘‘अपने भाई पर इस तरह आरोप लगाते तुम्हें शर्म नहीं आती? मैं जब भी उस से मिलने जाती हूं आसपास के लोग उस की प्रशंसा करते नहीं थकते. जबकि यहां तुम श्याम भैया और नीता भाभी से लड़ झगड़ कर अकेले रहने चली आईं. तुम ही बताओ कि क्लब से नशे में धुत्त लौट कर तुम किस का सम्मान बढ़ा रही हो?’’

‘‘मामाजी और मामीजी से तो आप भी लड़ झगड़ आई हैं. मेरे ऊपर उंगली उठाने से पहले यह तो सोच लिया होता.’’

‘इसी मूर्खता पर तो मैं स्वयं को कोस रही हूं. वे तो तुम्हारे बारे में और कुछ भी बताना चाहते थे पर मैं ही अपनी मूर्खता से उन की बोलती बंद कर आई.’’

‘‘उस के लिए दुखी होने की आवश्यकता नहीं है. मेरे संबंध में कोई बात आप को किसी और से पता चले, उस से अच्छा तो यही होगा कि मैं स्वयं बता दूं. मैं और मेरा सहकर्मी अर्णव साथ रहते हैं. आप आ रही थीं इसलिए वह कुछ दिनों के लिए घर छोड़ कर चला गया है,’’ गौरिका बिना किसी लागलपेट के बोली.

‘‘उफ, यह मैं क्या सुन रही हूं? संस्कारी परिवार है हमारा. ऐसी बातें बिरादरी में फैल गईं तो तुम से कौन विवाह करेगा?’’ श्यामला बदहवास हो उठीं.

‘‘आप उस की चिंता न करो. मैं बिरादरी में विवाह नहीं करने वाली.’’

‘‘ठीक है, साथ ही रहना है तो विवाह क्यों नहीं कर लेते तुम दोनों?’’

‘‘अभी हम एकदूसरे को परख रहे हैं. कुछ समय साथ रहने के बाद यदि हमें लगा कि हम एकदूसरे के लिए बने हैं, तो विवाह की सोचेंगे. वैसे भी विवाह नाम की संस्था में मेरा या अर्णव का कोई विश्वास नहीं है. इस के बिना भी समाज का काम चल सकता है,’’ गौरिका अपनी ही रौ में बहे जा रही थी.

‘‘सम झ में नहीं आ रहा कि मैं रोऊं या हंसूं. तुम्हारे पापा को पता चला तो पता नहीं वे इस सदमे को सह पाएंगे या नहीं,’’ श्यामला रो पड़ीं.

‘‘मम्मी, यह रोनापीटना रहने दो. आप कहो तो अर्णव को यहीं बुला लूं. आप भी उसे जांचपरख लेंगी,’’ गौरिका ने प्रस्ताव रखा.

‘‘तुम्हारा साहस कैसे हुआ मेरे सामने ऐसा बेहूदा प्रस्ताव रखने का?’’ श्यामला की आंखों से चिनगारियां निकलने लगीं.

‘‘ठीक है, आप नाराज मत होइए. भविष्य में कभी ऐसी बात नहीं कहूंगी,’’ श्यामला का क्रोध देख कर गौरिका ने तुरंत पैतरा बदला.

पर श्यामला को चैन कहां था. वे रात भर करवटें बदलती रहीं. कभी बेचैनी से टहलने लगतीं तो कभी प्रलाप करने लगतीं. वे नभेश से बात करने का साहस भी नहीं जुटा पा रही थीं.

रात भर सोचविचार कर वे इस निर्णय पर पहुंचीं कि गौरिका की बात मान लेने में कोई बुराई नहीं है. अर्णव साथ आ कर रहेगा तो वे उस पर दबाव डाल कर उसे विवाह के लिए राजी कर लेंगी. अंतत: उन्होंने अर्णव को साथ रहने की अनुमति दे दी. वह दूसरे ही दिन साथ रहने के लिए आ धमका.

श्यामला को जब भी अवसर मिलता वे दोनों को विवाहबंधन के लाभ गिनातीं पर गौरिका और अर्णव अपने तर्कों द्वारा उन के हर तर्क को काट देते. इतनी मानसिक यातना उन्होंने कभी नहीं झेली थी.

वे मन ही मन इतनी डरी हुई थीं कि सारे प्रकरण की जानकारी नभेश को देने में मन कांप उठता था.

इसी ऊहापोह में कब 3 माह बीत गए, उन्हें पता ही नहीं चला. अपने सभी प्रयत्नों को असफल होते देख कर उन्होंने सारी जानकारी अपने पति को देने का निर्णय लिया. फिर उन्होंने फोन उठाया ही था कि गौरिका का फोन आ गया, ‘‘मम्मी, हम 8-10 सहेलियों ने रात्रि उत्सव का आयोजन किया है. मैं आज रात घर नहीं आऊंगी. कल सुबह मिलेंगे. शुभरात्रि,’’ कह गौरिका ने उन्हें सूचित किया और फोन काट दिया. उन की प्रतिक्रिया जानने का प्रयत्न भी नहीं किया.

‘‘कौन हैं ये सहेलियां जिन के साथ इस पार्टी का आयोजन किया जा रहा है?’’ उन्होंने अर्णव के आते ही प्रश्न किया.

‘‘फेसबुक पर गौरिका की सैकड़ों सहेलियां हैं. मैं कैसे जान सकता हूं कि वह किन के साथ पार्टी कर रही है? सच पूछिए तो हम एकदूसरे के व्यक्तिगत मामलों में दखल नहीं देते,’’ अर्णव ने हाथ खड़े कर दिए तो श्यामला विस्फारित नेत्रों से उसे ताकती रह गईं फिर उन्होंने तुरंत ही फोन पर पूरी जानकारी नभेश को दे दी.

सारी बात सुन कर वे देर तक उन्हें बुराभला कहते रहे. फिर वे काफी देर तक आंसू बहाती रहीं. पर उस दिन उन्हें बहुत दिनों बाद चैन की नींद आई. उन्हें लगा कि शीघ्र ही नभेश आ कर उन्हें इस यंत्रणा से मुक्ति दिला देंगे. वे बहुत गहरी नींद में थीं जब फोन की घंटी बजी, ‘‘हैलो, कौन?’’ उन्होंने उनींदे स्वर में पूछा. ‘‘जी मैं सुषमा, गौरिका की सहेली. हम लोग खापी कर मस्ती करने सड़क पर निकले थे.

गौरिका कार पर नियंत्रण नहीं रख सकी. उस की कार कुछ राह चलते लोगों पर चढ़ गई. हम मानसी पुलिस स्टेशन में हैं. आप अर्णव के साथ तुरंत वहां पहुंचिए.’’ बदहवास श्यामला ने अर्णव के कमरे का दरवाजा पीट डाला. अर्णव के दरवाजा खोलते ही उन्होंने पूरी बात बता दी. ‘‘ठीक है, मैं तैयार हो कर आता हूं,’’ और फिर दरवाजा बंद कर लिया. कुछ देर बाद दरवाजा खुला तो अर्णव अपने दोनों हाथों में सूटकेस थामे खड़ा था. ‘‘अरे बेटा, इस सब की क्या जरूरत है?’’ श्यामला ने प्रश्न किया.

‘‘आंटी, क्षमा कीजए. मैं आप के साथ नहीं जा रहा. मेरा एक सम्मानित परिवार है. मैं पुलिस, कचहरी के चक्कर में पड़ कर उन्हें ठेस नहीं पहुंचा सकता. मैं यह घर छोड़ कर जा रहा हूं. आप जानें और आप की सिरफिरी बेटी,’’ क्रोधित स्वर में बोल अर्णव बाहर निकल गया. जब तक श्यामला कुछ बोल पातीं वह कार स्टार्ट कर जा चुका था. उस अंधकार में उन्हें श्याम की ही याद आई. फोन पर ही उन्होंने क्षमायाचना की और सहायता करने का आग्रह किया. श्याम ने उन्हें धीरज बंधाया. आश्वासन दिया कि वे तुरंत पहुंच रहे हैं. रिसीवर रख श्यामला वहीं बैठ गईं. उन के आंसू थे कि थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे. द्य

असमंजस: भाग 2- क्यों अचानक आस्था ने शादी का लिया फैसला

‘यदि मेरी बात एक हितैषी मित्र के रूप में मानती हो तो अपनी राह स्वयं तैयार करो. हिमालय की भांति ऊंचा लक्ष्य रखो. समंदर की तरह गहरे आदर्श. आशा करती हूं कि तुम अपनी जिंदगी के लिए वह राह चुनोगी जो तुम्हारे जैसी अन्य कई लड़कियों की जिंदगी में बदलाव ला सके. उन्हें यह एहसास करा सके कि एक औरत की जिंदगी में शादी ही सबकुछ नहीं है. सच तो यह है कि शादी के मोहपाश से बच कर ही एक औरत सफल, संतुष्ट जिंदगी जी सकती है.

‘एक बार फिर जन्मदिन मुबारक हो.

‘तुम्हारी शुभाकांक्षी,

रंजना.’

रंजना मैडम का हर खत आस्था के इस निश्चय को और भी दृढ़ कर देता कि उसे विवाह नहीं करना है. विवान और आस्था दोनों इसी उद्देश्य को ले कर बड़े हुए थे कि दोनों को अपनेअपने पिता की तरह सिविल सेवक बनना है. लेकिन विवान जहां परिवार और उस की अहमियत का पूरा सम्मान करता था वहीं आस्था की परिवार नाम की संस्था में कोई आस्था बाकी नहीं थी. उसे घर के मंदिर में पूजा करती दादी या रसोई में काम करती मां सब औरत जाति पर सदियों से हो रहे अत्याचार का प्रतीक दिखाई देतीं.

अपने पहले ही प्रयास में दोनों ने सिविल सेवा परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी. आस्था का चयन भारतीय प्रशासनिक सेवा में हुआ था तो विवान का भारतीय राजस्व सेवा में. बस, अब क्या था, दोनों के परिवार वाले उन की शादी के सपने संजोने लगे. विवान के परिजनों के पूछने पर उस ने शादी के लिए हां कह दी किंतु वह आस्था की राय जानना चाहता था. विवान ने जब आस्था के सामने शादी की बात रखी तो एकबारगी आस्था के दिमाग में रंजना मैडम की दी हुई सीख जैसे गायब ही हो गई. बचपन के दोस्त विवान को वह बहुत अच्छे तरीके से जानती थी. उस से ज्यादा नेक, सज्जन, सौम्य स्वभाव वाले किसी पुरुष को वह नहीं जानती थी. और फिर उस की एक आजाद, आत्मनिर्भर जीवन जीने की चाहत से भी वह अवगत थी. लेकिन इस से पहले कि वह हां कहती, उस ने विवान से सोचने के लिए कुछ समय देने को कहा जिस के लिए उस ने खुशीखुशी हां कह दी.

वह विवान के बारे में सोच ही रही थी कि रंजना मैडम का एक खत उस के नाम आया. अपने सिलैक्शन के बाद वह उन के खत की आस भी लगाए थी. मैडम जाने क्यों मोबाइल और इंटरनैट के जमाने में भी खत लिखने को प्राथमिकता देती थीं, शायद इसलिए कि कलम और कागज के मेल से जो विचार व्यक्त होते हैं वे तकनीकी जंजाल में उलझ कर खो जाते हैं. उन्होंने लिखा था :

‘प्रिय मित्र,

‘तुम्हारी आईएएस में चयन की खबर पढ़ी. बहुत खुशी हुई. आखिर तुम उस मुकाम पर पहुंच ही गईं जिस की तुम ने चाहत की थी लेकिन मंजिल पर पहुंचना ही काफी नहीं है. इस कामयाबी को संभालना और इसे बहुत सारी लड़कियों और औरतों की कामयाबी में बदलना तुम्हारा लक्ष्य होना चाहिए. और फिर मंजिल एक ही नहीं होती. हर मंजिल हमारी सफलता के सफर में एक पड़ाव बन जाती है एक नई मंजिल तक पहुंचने का. कामयाबी का कोई अंतिम चरण नहीं होता, इस का सफर अनंत है और उस पर चलते रहने की चाह ही तुम्हें औरों से अलग एक पहचान दिला पाएगी.

‘निसंदेह अब तुम्हारे विवाह की चर्चाएं चरम पर होंगी. तुम भी असमंजस में होगी कि किसे चुनूं, किस के साथ जीवन की नैया खेऊं, वगैरहवगैरह. तुम्हें भी शायद लगता होगा कि अब तो मंजिल मिल गई है, वैवाहिक जीवन का आनंद लेने में संशय कैसा? किंतु आस्था, मैं एक बार फिर तुम्हें याद दिलाना चाहती हूं कि जो तुम ने पाया है वह मंजिल नहीं है बल्कि किसी और मंजिल का पड़ाव मात्र है. इस पड़ाव पर तुम ने शादी जैसे मार्ग को चुन लिया तो आगे की सारी मंजिलें तुम से रूठ जाएंगी क्योंकि पति और बच्चों की झिकझिक में सारी उम्र निकल जाएगी.

‘यह मैं इसलिए कहती हूं कि मैं ने इसे अपनी जिंदगी में अनुभव किया है. तुम्हें यह जान कर हर्ष होगा कि मुझे राष्ट्रपति द्वारा प्रतिवर्ष शिक्षकदिवस पर दिए जाने वाले शिक्षक सम्मान के लिए चुना गया है. क्या तुम्हें लगता है कि घरगृहस्थी के पचड़ों में फंसी तुम्हारी अन्य कोई भी शिक्षिका यह मुकाम हासिल कर सकती थी?

‘शेष तुम्हें तय करना है.

‘हमेशा तुम्हारी शुभाकांक्षी,

रंजना.’

इस खत को पढ़ने के बाद आस्था के दिमाग से विवान से शादी की बात को ले कर जो भी असमंजस था, काफूर हो गया. उस ने सभी को कभी भी शादी न करने का अपना निर्णय सुना दिया. मांपापा और दादी पर तो जैसे पहाड़ टूट गया. उस के जन्म से ले कर उस की शादी के सपने संजोए थे मां ने. होलीदीवाली थोड़ेबहुत गहने बनवा लेती थीं ताकि शादी तक अपनी बेटी के लिए काफी गहने जुटा सकें लेकिन आज आस्था ने उन से बेटी के ब्याह की सब से बड़ी ख्वाहिश छीन ली थी. उन्हें अफसोस होने लगा कि आखिर क्यों उन्होंने एक निम्नमध्य परिवार के होने के बावजूद अपनी बेटी को आसमान के सपने देखने दिए. आज जब वह अर्श पर पहुंच गई है तो मांबाप की मुरादें, इच्छाओं की उसे परवा तक नहीं.

विवान ने भी कुछ वर्षों तक आस्था का इंतजार किया लेकिन हर इंतजार की हद होती है. उस ने शादी कर ली और अपनी जिंदगी में व्यस्त हो गया. दूसरी ओर आस्था अपनी स्वतंत्र, स्वैच्छिक जिंदगी का आनंद ले रही थी. सुबहशाम उठतेबैठते सिर्फ काम में व्यस्त रहती थी. दादी तो कुछ ही सालों में गुजर गईं और मांपापा से वह इसलिए बात कम करने लगी क्योंकि वे जब भी बात करते तो उस से शादी की बात छेड़ देते. साल दर साल उस का मांपापा से संबंध भी कमजोर होता गया.

वह घरेलू स्त्रियों की जिंदगी के बारे में सोच कर प्रफुल्लित हो जाती कि उस ने अपनी जिंदगी के लिए सही निर्णय लिया है. वह कितनी स्वतंत्र, आत्मनिर्भर है. उस का अपना व्यक्तित्व है, अपनी पहचान है. बतौर आईएएस, उस के काम की सारे देश में चर्चा हो रही है. उस के द्वारा शुरू किए गए प्रोजैक्ट हमेशा सफल हुए हैं. हों भी क्यों न, वह अपने काम में जीजान से जो जुटी हुई थी.

हरेक का अपना दिल है: भाग 2- स्नेहन आत्महत्या क्यों करना चाहता था

मैं अपने कमरे में पहुंचा और अपना सामान चैक किया. चंद महंगे कपड़े… पैसे… बस इतना ही… शाम ढलते ही अंधेरा घिरने लगा. मुझे नहीं पता कि मैं कितनी देर तक समुद्र में बैठा रहा और लहरों को लगातार तट से टकराते देखता रहा. आधी रात होनी चाहिए. मैं उस समय का इंतजार कर के बैठा रहा.

बहुत हो गया… यह जीवन… मैं ने अपनेआप से कहा और कुदरत से क्षमायाचना करते हुए चलने लगा.

समुद्र की गहराई उन जगहों पर ज्यादा नहीं होती जहां पैर सामने रखे जाते थे. मैं सागर की ओर चलने लगा. लहरें दौड़ती हुई मेरे पास आ कर मु   झे छूने लगीं और मु   झे ऐसा लगा जैसे मु   झे भीतर आने का निमंत्रण दे रही हों.

पैरों में सीप और पत्थर चुभ गए. छोटीछोटी मछलियों को मैं महसूस कर सकता था. आगेआगे मैं चहलकदमी करने लगी और गरदन तक पानी आ गया.

कुछ पुरानी यादें मु   झे उस वक्त घेरने लगीं और मेरे मन में अजीबोगरीब खयाल आने लगे. मगर मैं नहीं रुका, मैं चलता रहा.

खारा पानी मुंह में घुस गया, आंखों में पानी आने लगा. ऐसा लग रहा था जैसे कोई मु   झे किसी अवर्णनीय गहराई तक खींच रहा हो.

लहरों की गति अधिक है, एक खींच, एक टक्कर, एक लात, लहरें पानी में मेरे साथ प्रतिस्पर्धा करने लगीं जैसे फुटबौल खिलाड़ी गेंद को लात मार रहे हों.

मेरी स्मृति धूमिल हो रही थी. छाती, नाक, आंखें, कानों, मुंह में खारा पानी भर कर मु   झे नीचे और नीचे धकेल रहा था.

अचानक मु   झे ऐसा लगा कि कोई मजबूत हाथ मु   झे गहराई से ऊपर खींच रहा हो. मेरी याददाश्त रुक गई.

जब मैं उठा तो काले रंग के स्विमसूट में एक बूढ़ी विदेशी महिला मेरी बगल में बैठी थी. उस की बगल में 3 युवा थाई लड़के खड़े थे.

क्या मैं मरा नहीं हूं? मुझे तट पर कौन लाया?

उस ने अपनी आंखें खोलीं. मैं ने विदेशी महिला को अपनी धाराप्रवाह अमेरिकी अंगरेजी में कहते सुना. तब तक, जिस रिजोर्ट में मैं ठहरा था, उस का मालिक और दूसरा आदमी दोनों हमारी ओर दौड़ते हुए आए.

‘‘क्या हुआ? वे होश में आ गए?’’ थाइलैंड आदमियों ने टूटीफूटी अंगरेजी में पूछा तो अमेरिकी महिला ने कहा, ‘‘हां इन्हें होश आ गया.’’

मैं सुन सकता था. उन में से एक डाक्टर जैसा दिख रहा था. उस ने मेरी नब्ज पकड़ी और कहा,‘‘सब ठीक है.’’

बाद में उन्होंने अमेरिकी महिला से कहा, ‘‘तुम ने इस की जान बचा कर एक अच्छा काम किया है.’’

हालांकि मैं बहुत थका हुआ महसूस कर रहा था. मैं चलने लायक नहीं था. उन सभी लोगों ने मिल कर मु   झे वहां से उठा कर जिस कमरे में मैं ठहरा हुआ था उस में बिस्तर पर लिटा दिया.

उस महिला ने मुझ से केवल इतना कहा, ‘‘शुभ रात्रि… ठीक से सो जाओ… सुबह मिलेंगे…’’ और दरवाजा बंद कर चली गई.

तो मैं ने जो प्रयास किया वह भी असफल रहा? अपने जीवन में पहली बार मैं आह… जोर से चिल्लाया जैसे मानो मेरे सीने तक दबा हुआ दुख खुल कर बाहर आ गया हो. मु   झे नहीं पता कि मैं कब सो गया.

जब मैं उठा तो धूप अच्छी थी. मेरे कमरे के परदों से भोर का उजास आ रहा था. जैसे ही मैं चौंक कर उठा और गीले कपड़ों में बाहर निकला, मैं ने कल जिस थाई युवक को देखा था उस ने कहा, ‘‘सुप्रभात… ठीक हैं?’’ उस ने मुसकराते हुए पूछा.

मैं बरामदे में कुरसी पर बैठ गया और फिर से समुद्र को देखने लगा.

‘‘गुड मौर्निंग…’’ उधर से आवाज आई.

मैं ने पलट कर देखा. कल समुद्र से मु   झे बचाने वाली अमेरिकी महिला वहीं खड़ी थी. लगभग एक आदमी जितना कद, सुनहरे बाल, गोरा रंग…

मेरी सामने वाली कुरसी पर उस ने बैठ कर कहा, ‘‘मुझे माफ कर दीजिए,

हम ने एकदूसरे का परिचय तक नहीं किया है. मैं जेनिफर हूं. न्यू औरलियंस, यूएसए से हूं और मैं एक लेखिका हूं,’’ उस ने मुसकराते हुए कहा.

मैं कुछ सैकंड्स के लिए नहीं बोल सका. महिला अपने 40वें वर्ष में होनी चाहिए. लंबीचौड़ी दिखने में बड़ी थी.

‘‘मैं स्नेहन हूं… बिजनैसमैन…’’ मैं ने कहा.

‘‘पहले तो मु   झे लगा कि आप समुद्र में तैरने जा रहे हैं. लेकिन मैं ने आप पर ध्यान दिया क्योंकि आप की पोशाक और शैली तैरने लायक नहीं लग रही थी. जैसेजैसे लहरें आप को अंदर खींचने लगीं, मैं सम   झ गई कि आप डगमगा रहे हैं. मैं थोड़ी दूर तैर रही थी और तुरंत आप के पास आई और आप को खींच कर ले आई…’’

मुझे बहुत गुस्सा आया. एक विदेशी महिला ने मेरी कायरतापूर्ण जान बचाई है. कितनी शर्मनाक बात है.

कुछ देर के लिए सन्नाटा पसर गया. उस ने खुद इस सन्नाटे को भंग किया, ‘‘क्या आप खुदकुशी करने के लिए गए थे? मु   झे क्षमा कीजिए… यह एक असभ्य प्रश्न है. हालांकि पूछना है. आप की समस्या क्या है?’’

उस के साथ अपनी समस्याओं और असफलताओं पर चर्चा करने से मु   झे क्या लाभ होगा?

‘‘मैं आप को मजबूर नहीं करना चाहती… प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन का निर्णय लेने का अधिकार है. लेकिन आत्महत्या मेरे खयाल से एक बहुत ही कायरतापूर्ण, घृणित निर्णय है…’’ उस ने खुद कहा.

अचानक मेरे अंदर एक गुस्सा पैदा हो गया, ‘‘तुम से किस ने कहा मु   झे बचाने के लिए?’’

जेनिफर ने मेरी आंखों में देखा और कहा, ‘‘अपनी आंखों के सामने किसी को मरते हुए देखना इंसानियत नहीं है… इसलिए मैं ने बचाया… आप एक भारतीय की तरह दिखते हैं? भारतीय ही हैं न?’’ उस ने पूछा.

मैं ने हां में बस सिर हिलाया.

‘‘अपना देश, अपनी संस्कृति और तत्त्वज्ञान के लिए पूरे विश्व में जाना जाता और मर्यादा से माना भी जाता है. मैं ने जीवन के अर्थ और अर्थहीन दोनों पर आप के देश के तत्त्वज्ञानियों की किताब से ही जाना है.’’

मैं ने आश्चर्य से उस की ओर देखा, ‘‘आप ने अध्ययन किया है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘कुछ हद तक.’’

‘‘आप ने खुद को एक लेखिका कहा?’’

वह हंसी, ‘‘जो लिखते हैं वे ही पढ़ते हैं, जो पढ़ेंगे वे लिखेंगे जरूर.’’

‘‘मैं जीवन की उस मोड़ पर खड़ा हूं जहां से मैं वापस जिंदगी में जा ही नहीं सकता. मेरी मृत्यु ही मेरी सारी समस्याओं का इकलौता समाधान है.’’

‘‘अगर समस्याओं का समाधान मौत ही है तो दुनिया में जीने लायक कोई नहीं होगा,’’ जेनिफर ने कहा.

मैं ने जवाब नहीं दिया.

जेनिफर फिर बोलीं, ‘‘अपने दिल की बात कीजिए. हम दोनों का आपस में कोई पुराना परिचय या जानपहचान नहीं है. इसलिए हम एकदूसरे के बारे में जो भी सोचेंगे उस से हम में किसी को लाभ या नुकसान नहीं होगा. कभीकभी अपनी समस्याओं को दूसरों के साथ सा   झा करना मददगार होता है…’’

मैं बैठा समुद्र को निहार रहा था. फिर मैं ने खुद अपनी सफलता की कहानी और कई असफलताओं का वर्णन किया, जिन का मैं आज सामना कर रहा था.

थैंक्यू दादी: निवी का बचपन कैसा था

कोचिंग से आ कर नवेली बिस्तर पर गुमसुम निढाल सी पड़ गई थी. ‘‘क्या हुआ निवी, मेरी बच्ची, थक गई? तेरा मनपसंद बादाम वाला दूध तैयार है, बस, गरमगरम पी कर सो जा एक घंटे,’’ 65 वर्षीय दादी तिलोतमा ने पोती नवेली को प्यार से उठाया तो गरमगरम आंसू उस के गालों पर ढुलकने लगे.

‘‘कुछ नहीं दादी, मुझे अब पढ़ना नहीं है. मुझ से इतनी पढ़ाई नहीं होगी, मैं पापामम्मी की आशाओं को पूरा नहीं कर सकती दादी. मैं राजीव अंकल की बेटी अंजलि की तरह वह परसैंटेज नहीं ला सकती चाहे लाख कोशिश करूं.’’

‘‘अरे, तो किसी के जैसा लाने की क्या जरूरत है? अपने से ही बेहतर लाने की कोशिश करना, बस.’’

‘‘पर पापामम्मी को कौन समझाए दादी, वे हर वक्त मुझे उस अंजलि का उदाहरण देते रहते हैं. घर आते ही शुरू हो जाती हैं उन की नसीहतें, ‘कोचिंग कैसी रही, सैल्फ स्टडी कितने घंटे की, कोर्स कितना कवर किया, कहां तक तैयारी हुई. आधे घंटे का ब्रेक ले लिया बस, अब पढ़ने बैठ जा. एग्जाम के बाद बड़ा सा ब्रेक ले लेना. देखो, अंजलि कैसे पढ़ती रहती है, मछली की आंख पर ही अभ्यास करती रहती है हर समय.’ वही घिसेपिटे गिनेचुने शब्द बस, इस के अलावा कोई बात नहीं करते,’’ वह दादी की गोद में सिर रख कर रो पड़ी.

तिलोतमा सब जानती थीं. कई बार उन्होंने पहले भी बेटाबहू से इस के लिए कहा था. आज फिर टोक दिया…

‘‘अरे, निवी से तुम सब खाली यही बातें करोगे? एक तो वह पहले ही कोचिंग से थकी हुई आती है, घर में भी बस पढ़ाईपढ़ाई, कुछ और बातें भी तो किया करो ताकि दिमाग फ्रैश हो उस का.’’

‘‘मम्मा, मैं कोचिंग नहीं जाऊंगी अब से,’’ नवेली रोतेरोते बोली.

‘‘ठीक है तेरे लिए घर पर ही ट्यूटर का बंदोबस्त कर देते हैं.

‘‘वैसे भी आनेजाने में तेरा टाइम वेस्ट होता है, ग्रुप में पढ़ाई भी क्या होती होगी. मैं कपूर कोचिंग से बात कर लेता हूं, उन की अच्छी रिपोर्ट है. साइंसमैथ्स के ट्यूटर घर आ जाएंगे.’’

‘‘नहीं पापा, मुझे अपना गिटार का कोर्स कंप्लीट करना है.’’

‘‘कुछ नहीं, एक बार कैरियर सैट हो जाने दो, फिर जो चाहे सीखते रहना. गिटारविटार से कैरियर नहीं बना करते.’’

तिलोतमा की पारखी नजरें अच्छी तरह पहचान गई थीं कि पोती नवेली का उस मैथ्स पढ़ाने वाले युवा ट्यूटर अंश डिसिल्वा से संबंध गुरुशिष्य से बढ़ कर दोस्ती के रूप में पनपने लगा है. इस का कारण भी वे अच्छी तरह जानती थीं, बेटे राघव और बहू शीला की अत्यधिक व्यस्तता जो इकलौती संतान नवेली को अकेलेपन की ओर ढकेल रही थी. दोनों को अपने काम से ही फुरसत नहीं होती. शाम को जब दोनों अपनेअपने औफिसों से थक कर आते, थोड़ा फ्रैश हो कर चायकौफी पीते, मां, बच्चे और आपस में कुछ पूछताछ, कुछ हालचाल लिया, फिर वही हिदायतें.

फिर टीवी चैनल बदलबदल कर न्यूज का जायजा लेते. थोड़ा घरबाहर का काम निबटा कर कुछ कल की तैयारी करते और फिर डिनर कर मां और नवेली को गुडनाइट कर के फिर दोनों अपने रूम में चले जाते. उन के लिए तो यह सब ठीक था, लेकिन बच्चे के पास शेयर करने के लिए कितनी ही नई बातें होती हैं, जो सब दादी से नहीं की जा सकतीं. 10 मिनट भी बाहर नहीं जाने देते. न जाने पढ़ाई में कितना हर्ज हो जाएगा बल्कि दोस्त मिलेंगे तो उन से कुछ जानकारी ही मिलेगी. फिर बच्चे को खुद क्याकोई सम?ा नहीं है?  तिलोतमा को यह सब देख कर हैरानी होती.

‘‘क्या करना है बाहर जा कर, सबकुछ तो घर में है, कंप्यूटर है, इंटरनैट है. आखिर 12वीं कक्षा के बोर्ड एग्जाम हैं, पढ़ो, खाओपीओ और सो जाओ, रिलैक्स करना है तो थोड़ी देर टीवी देख लो, म्यूजिक सुन लो. बस, और क्या चाहिए.

‘‘बाहर दोस्त क्या करेंगे, उलटा माइंड डायवर्ट करेंगे, ऐसे कैरियर बनता है क्या?

‘‘सैटरडे या संडे हम आप को बाहर ले ही जाते हैं.

‘‘एक बार कैरियर बन जाए, फिर जितनी चाहे मस्ती करना.’’

‘‘पहले कोचिंग के लिए बाहर ही तो जाती थी, पर उस में तो मुंह लाल कर के थक के आती थी. फिर सैल्फ स्टडी नहीं हो पाती थी, कभी दर्द, कभी बुखार का बहाना कि मु?ो कोचिंग नहीं जाना, आखिर और बच्चे रातदिन पढ़ते नहीं क्या, टौप यों ही करते हैं?

‘‘खैर, हम ने वह भी मान लिया, सब से अच्छे ट्यूशन सैंटर से घर पर ही टौप ट्यूटर का बंदोबस्त कर दिया. अब क्या?

‘‘अभी दोस्त, मोबाइल, गिटार पार्टी सब बंद, लक्ष्य सिर्फ कैरियर…’’

फिर ऐसे में गुमसुम सा पड़ा बच्चा बेचारा अकेलेपन से घबरा कर कोई साथी न ढूंढ़ ले, डिप्रैशन में कुछ उलटापुलटा न करे तो आश्चर्य कैसा. कई बार तिलोतमा ने बहूबेटे का ध्यान इस ओर दिलाने का प्रयास किया था. मगर उन दोनों पर कोई असर नहीं हुआ.

नवेली का गुमसुम सा रहना दादी की तरह अंश को भी खटकता. वह उसे बेहद सीरियस देख कर कोई मजेदार चुटकुला सुना देता. वह हंसती, कुछ देर को खुश हो जाती.

‘‘अधिक स्ट्रैस नहीं लेना, 89 परसैंट मार्क्स थे तुम्हारे. अब इतना भी सीरियस रहने की जरूरत नहीं,’’ वह भी कहता. धीरेधीरे नवेली उस से खुलने लगी थी. वह उस से दिल की बातें भी शेयर करती.

‘‘सर, आप ने वह नैशनल ज्योग्राफिक चैनल पर स्टुपिड साइंस देखा है? बड़ा कमाल का लगता है.’’

‘‘हां, वे हंसीहंसी में विज्ञान का ज्ञान… सही है, पूरे समय कोर्स की बातें नहीं थोड़ा इधरउधर भी दिमाग दौड़ाना चाहिए, इस से वह ऐक्टिव ज्यादा रहता है.’’

‘सही तो कह रहा है अंश,’ तिलोतमा सोच रही थीं.

‘‘सर, डेढ़ घंटा हो गया, बड़ी गरमी है, बाहर आइसक्रीम वाला है, खाएंगे? पर बाहर जाना मना है मु?ो.’’

‘‘कोई नहीं, मैं देख रही हूं न, जा थोड़ी खुली हवा भी जरूरी है,’’ तिलोतमा मुसकराते हुए बोली और दराज से 100 रुपए निकाल कर उसे थमा दिए.

‘‘थैंक्यू दादी,’’ नवेली ने दादी को प्यारी झप्पी दी.

अंश नवेली के साथ सड़क पर निकल आया था. नवेली ने ताजी हवा में हाथ फैला लिए टायटैनिक के अंदाज में.

‘‘वाह सर, कितना अच्छा लगता है बाहर, लोगों की चहलपहल के बीच आना कभीकभी कितनी एनर्जी देता है,’’ आइसक्रीम ले कर वे वहीं खड़े हो गए.

‘‘पता है सर, मुझे म्यूजिकल और डांसिंग शोज बेहद पसंद हैं. काश, मैं भी उन में भाग ले पाती. गिटार भी एक महीने सीखा, कोर्स कंपलीट करना चाहती हूं, पर मम्मीपापा को यह सब बिलकुल भी पसंद नहीं. हमारी जिस में रुचि हो उस में बेहतर काम कर सकते हैं, अधिक खुश रह सकते हैं, है कि नहीं सर?’’

‘‘ये तो है, आज तो हर क्षेत्र में आगे बढ़ने की संभावना है. जरूरी नहीं कि इंजीनियर, डाक्टर, आईएएस ही बनें. मुझे तो साइंसमैथ्स शुरू से ही पसंद थे.’’

‘‘पता नहीं सर, क्यों पापामम्मी ने रट लगा रखी है. 98 परसैंट मार्क्स लाने के लिए कहते हैं. इस के बिना आजकल कुछ नहीं होता, अगर मेरे अंजलि से कम मार्क्स आए तो उन की नाक कट जाएगी. अंजलि जैसा मेरा दिमाग है ही नहीं, तो मैं क्या करूं. पिछली बार पूरी कोशिश की थी पर…’’ वह रोने को हुई.

दोनों घर के अंदर आ गए. वह बाथरूम में घुस कर खूब रोई. तिलोतमा समझ रही थी कि दोस्त के रूप में अंश को पा कर नवेली के दिल में छिपा दर्द आज फिर बह निकला, जिसे वह दिखाना नहीं चाहती थी. अच्छा है जी हलका हो जाएगा’ यही सोच कर उन्होंने दरवाजा थोड़ी देर को थपथपाना छोड़ दिया.

‘‘नवेली, बाहर आ, सर वेट कर रहे हैं तेरा. 10 मिनट हो गए, आ जल्दी,’’ तिलोतमा दरवाजा पीट रही थीं. वे घबराने लगी थीं, ‘आजकल बच्चे डिप्रैशन में आ कर न जाने क्याक्या कर डालते हैं.’

‘‘जी, पढ़ाई के लिए इतना प्रैशर डालना ठीक नहीं. उस का मन कुछ और करने का है. वह उस में भी तो कैरियर बना सकती है,’’ अंश दादी से बोला.

‘‘मुझे नहीं पढ़ना दादी, मुझ से इतना नहीं पढ़ा जाएगा,’’ वह रोती हुई लाल आंखों से बाहर आ गई.

‘‘अच्छा, चलो, 10 मिनट का और ब्रेक ले लो, मैं तब तक मेल चैक कर लेता हूं,’’ सर ने कहा.

‘‘चल ठीक है, थोड़ी देर और कुछ कर ले, फिर पढ़ लेना. आज का कोर्स पूरा तो करना ही है, सर को भी तो जाना होगा,’’ दादी ने प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरा तो वह फिर रोने लगी थी.

‘‘मुझे कुछ नहीं करना दादी.’’

‘‘गिटार बजाएगी?’’ तिलोतमा ने उस के कानों में धीरे से कहा.

‘‘क्या… पर…’’ नवेली के आंसू एकाएक थम गए थे.

‘‘उस कमरे की चाबी मेरे पास है, चल आ, एक धुन बजा कर रख देना और फिर पढ़ाई करना, ठीक है?’’ नवेली ने हां में सिर हिलाया और बच्चे की तरह मुसकरा उठी. ‘‘

अंश बेटा, देख नवेली कितना सुंदर गिटार बजाती है.’’

‘‘जी,’’ वह मोबाइल पर मेल चैक करते हुए बोला.

नवेली ने गिटार हाथों में ले कर चूमा था, कितनी रिक्वैस्ट की थी पापामम्मी से कि गिटार का कोर्स कंपलीट करने दें, पर उन्होंने तो छीन कर इसे एक किनारे कमरे में बंद कर ताला लगा दिया. रोज थोड़ी देर बजा लेती तो क्या जाता. मैं रिलैक्स हो जाती. उस ने कवर हटा कर बड़े प्यार से उसे पोंछा और बाहर आ गई.

गिटार के तारों पर उस की उंगलियां फिसलने लगीं. एक मनमोहक धुन वातावरण में फैलने लगी. वह ऊर्जा से भर उठी. फिर अपने वादे के अनुसार पढ़ने आ बैठी. अंश चला गया, तो दादी ने उसे फिंगर चिप्स के साथ बादाम वाला दूध थमा दिया. नवेली दादी से लिपट गई.

‘‘आप कितनी अच्छी हैं दादी. मेरा मूड कैसे फ्रैश होगा, आप सब जानती हैं. पर मम्मीपापा नहीं जानते. रोज थोड़ी देर ही बजा लेने देते तो मैं फ्रैश हो जाती पढ़ाई के हैंगओवर से…आप मुझे रोज कुछ देर गिटार बजाने देंगी दादी? थोड़ी देर बजा लूं? अभी सर गए हैं.’’

‘‘चल ठीक है, मुझे पहले सुना वो 1950 के गाने की कोई धुन.’’ वह दीवान पर मसनद लगा एक ओर बैठ गई थी. तिलोतमा आंखें मूंद कर मगन हो सुनने लगीं. नवेली की सधी हुई उगलियां तारों पर फिसलने लगीं.

‘‘मना किया था न कि एग्जाम तक गिटार पर हाथ नहीं लगाओगी तुम,’’ शीला के साथ कमरे में आया राघवेंद्र का पारा सातवें आसमान पर था. उस ने नवेली से झटके से गिटार खींचा और जमीन पर मारने ही जा रहा था कि तिलोतमा ने उसे कस कर पकड़ लिया. नवेली अपनी जान से प्यारे गिटार के टूट जाने के डर से जोरों से चीख उठी, ‘‘नहीं…पापा.’’

‘‘क्या कर रहा है, पागल हो गया क्या. अभी तो पढ़ कर उठी थी बेचारी, क्या सारा वक्त यह पढ़ती ही रहेगी?’’ तिलोतमा ने डर से पास आई नवेली को अपनी छाती से चिपका लिया था.

‘‘इसे चाबी कैसे मिल गई?’’

‘‘मैं ने कमरा खोल कर दिया है इसे,’’ नवेली कांप रही थी, चेतनाशून्य हो कर सहसा वह नीचे गिर पड़ी.

‘‘क्या हुआ मेरी बच्ची, उठ…उठ,’’ सभी भाग कर नवेली के पास पहुंच गए थे.

‘‘क्या हुआ नवेली, उठो ड्रामे नहीं…बस.’’

‘‘वह ड्रामा नहीं कर रही राघव, कैसा बाप है तू?’’ तिलोतमा को बेटे पर बेहद गुस्सा आ रहा था, ‘‘बस, अब एक शब्द भी नहीं बोलना, जल्दी पानी…’’ वे घबरा कर कभी नवेली के हाथपैर तो कभी गाल व माथा मले जा रही थीं.

नवेली को बिस्तर पर लिटा दिया गया, उसे होश आ गया था. डाक्टर ने भी कहा, ‘‘सदमा या डर से ऐसा हुआ है, कल तक बिलकुल ठीक हो जाएगी. घबराने की कोई बात नहीं, कोशिश करें ऐसी कोई बात न हो.’’ डाक्टर इंजैक्शन दे कर चला गया लेकिन वह खुली आंखों में निश्चेष्ट मौन पड़ी थी. तिलोतमा का एक हाथ नवेली की हथेली तो दूसरा सिर सहला रहा था. हैरानपरेशान शीलाराघव उस से कुछ बुलवाने की चेष्टा में थे.

‘‘इतनी जोरजबरदस्ती और पढ़ाई का इतना प्रैशर डाल कर तुम लोग कहीं बच्ची को ही न खो दो. मु?ो तो डर है. तुम ने क्या हाल कर डाला निवी का सिर्फ इसलिए की सोसाइटी में तुम्हारी इज्जत बढ़ जाए, कोई रेस हो रही है जैसे, उस में जीत जाओ, भले बच्चे की जान निकल जाए. डिप्रैशन में बच्ची आत्महत्या जैसा कोई गलत कदम उठा ले या फिर भाग ही जाए. उस से दोस्त, मोबाइल, गिटार, उस की इच्छा, समय सबकुछ छीन लिया है, तुम लोग मांबाप हो या दुश्मन.’’ तिलोतमा ने गुस्से में कहा, ‘‘इतनी बड़ी बच्ची है, उसे भी मालूम है कि क्या सही है, क्या गलत, थोड़ी छूट दे कर तो देखो. आज बच्चे खुद भी अपने कैरियर को ले कर सतर्क हैं. उन की भी तो सुनो, जितनी उन्हें नौलेज है हर फील्ड्स की उतनी शायद तुम्हें भी न हो.’’

‘‘मगर…’’

‘‘मगरवगर कुछ नहीं. उसे भाईबहन तो तुम ने दिए नहीं. तुम्हारे पास तो समय ही नहीं है. मुझ बूढ़ी से वह क्याक्या बातें शेयर करेगी भला? बेटी को बेटा मानना तो ठीक है, पर जबरदस्ती ठीक नहीं. उस का लिया सबकुछ उसे लौटा दो. मछली की आंख उसे भी मालूम है, वह कोशिश तो कर ही रही है. इतने पीछे पड़ते हैं क्या. बच्चा ही खुश नहीं तो मैडल ले कर क्या करोगे.

तुम ने भी तो परीक्षाएं पास की हैं. तुम्हारे पापा और मैं तो कभी इतने पीछे नहीं पड़े थे. फिर भी तुम ने परीक्षाएं पास की हैं न? आज कुछ बन गए हो. अपने बच्चे पर विश्वास करना सीखो,’’ तिलोतमा ने देखा नवेली के चेहरे पर अब निश्चिंतता के भाव थे. आंखें बंद कर वह सो गई थी. कितनी मासूम लग रही थी वह. तिलोतमा ने प्यार से उस के माथे को चूमा और चुपचाप बाहर चलने का इशारा किया.

सुबह नवेली की आंखें खुलीं तो वह खुश हो गई, उस का प्यारा गिटार पहले जैसे उस के कमरे में अपनी जगह पर रखा था. उस ने छू कर देखा, बिलकुल सही था, टूटा नहीं था. वह खुशी से उछल पड़ी और उसे बैड पर ले आई, तभी टेबल पर पड़े डब्बे पर उस की निगाह पड़ी, खोल कर देखा, ‘‘ओ, इतना सुंदर नया मोबाइल मेरे लिए.’’

‘‘दादी…मम्मी.. पापा…थैंक्यू लव यू औल…’’ वह खुशी से उछलकूद करती हुई बाहर आई और सामने से उस के लिए दूध का गिलास ले कर आ रहीं तिलोतमा के गले में बाहें डाल कर प्यारी सी पप्पी ली थी ‘‘थैंक्यू दादी.’’

ब्रश कर के नवेली ने दूध पिया और दोगुने उत्साह से पढ़ने बैठ गई.

निकिता की नाराजगी: कौनसी भूल से अनजान था रंजन

निकिता अकसर किसी बात को ले कर झल्ला उठती थी. वह चिङचिङी स्वभाव की क्यों हो गई थी, उसे खुद भी पता नहीं था. पति रंजन ने कितनी ही बार पूछा लेकिन हर बार पूछने के साथ ही वह कुछ और अधिक चिड़चिड़ा जाती.

“जब देखो तब महारानी कोपभवन में ही रहती हैं. क्या पता कौन से वचन पूरे न होने का मौन उलाहना दिया जा रहा है. मैं कोई अंतरयामी तो हूं नहीं जो बिना बताए मन के भाव जान लूं. अरे भई, शिकायत है तो मुंह खोला न, लेकिन नहीं. मुंह को तो चुइंगम से चिपका लिया. अब परेशानी बूझो भी और उसे सुलझाओ भी. न भई न. इतना समय नहीं है मेरे पास,” रंजन उसे सुनाता हुआ बड़बड़ाता.

निकिता भी हैरान थी कि वह आखिर झल्लाई सी क्यों रहती है? क्या कमी है उस के पास? कुछ भी तो नहीं… कमाने वाला पति. बिना कहे अपनेआप पढ़ने वाले बच्चे. कपड़े, गहने, कार, घर और अकेले घूमनेफिरने की आजादी भी. फिर वह क्या है जो उसे खुश नहीं होने दे रहा? क्यों सब सुखसुविधाओं के बावजूद भी जिंदगी में मजा नहीं आ रहा.

कमोबेश यही परेशानी रंजन की भी है. उस ने भी लाख सिर पटक लिया लेकिन पत्नी के मन की थाह नहीं पा सका. वह कोई एक कारण नहीं खोज सका जो निकिता की नाखुशी बना हुआ है.

‘न कभी पैसे का कोई हिसाब पूछा न कभी खर्चे का. न पहननेओढ़ने पर पाबंदी न किसी शौक पर कोई बंदिश. फिर भी पता नहीं क्यों हर समय कटखनी बिल्ली सी बनी रहती है…’ रंजन दिन में कम से कम 4-5 बार ऐसा अवश्य ही सोच लेता.

ऐसा नहीं है कि निकिता अपनी जिम्मेदारियों को ठीक तरह से नहीं निभा रही या फिर अपनी किसी जिम्मेदारी में कोताही बरत रही है. वह सबकुछ उसी तरह कर रही है जैसे शादी के शुरुआती दिनों में किया करती थी. वैसे ही स्वादिष्ठ खाना बनाती है. वैसे ही घर को चकाचक रखती है. बाहर से आने वालों के स्वागतसत्कार में भी वही गरमजोशी दिखाती है. लेकिन सबकुछ होते हुए भी उस के क्रियाकलापों में वह रस नहीं है. मानों फीकी सी मिठाई या फिर बिना बर्फ वाला कोल्डड्रिंक… उन दिनों कैसे उमगीउमगी सी उड़ा करती थी. अब मानों पंख थकान से बोझिल हो गए हैं.

रंजन ने कई दोस्तों से अपनी परेशानी साझा की. अपनीअपनी समझ के अनुसार सब ने सलाह भी दी. किसी ने कहा कि महिलाओं को सरप्राइज गिफ्ट पसंद होते हैं तो रंजन उस के लिए कभी साड़ी, कभी सूट तो कभी कोई गहना ले कर आया लेकिन निकिता की फीकी हंसी में प्राण नहीं फूंक सका. किसी ने कहा कि बाहर डिनर या लंच पर ले कर जाओ. वह भी किया लेकिन सब व्यर्थ. किसी ने कहा पत्नी को किसी पर्यटन स्थल पर ले जाओ लेकिन ले किसे जाए? कोई जाने को तैयार हो तब न? कभी बेटे की कोचिंग तो कभी बेटी की स्कूल… कोई न कोई बाधा…

रंजन को लगता है कि निकिता बढ़ते बच्चों के भविष्य को ले कर तनाव में है. कभी उसे लगता कि वह अवश्य ही किसी रिश्तेदार को ले कर हीनभावना की शिकार हो रही है. कभीकभी उसे यह भी वहम हो जाता कि कहीं खुद उसे ही ले कर तो किसी असुरक्षा की शिकार तो नहीं है? लेकिन उस की हर धारणा बेकार साबित हो रही थी.

ऐसा भी नहीं है कि निकिता उस से लड़तीझगड़ती या फिर घर में क्लेश करती, बस अपनी तरफ से कोई पहल नहीं करती. न ही कोई जिद या आग्रह. जो ले आओ वह बना देती है, जो पड़ा है वह पहन लेती. अपनी तरफ से तो बात की शुरुआत भी नहीं करती. जितना पूछो उतना ही जवाब देती. अपनी तरफ से केवल इतना ही पूछती कि खाने में क्या बनाऊं? या फिर चाय बना दूं? शेष काम यंत्रवत ही होते हैं.

कई बार रंजन को लगता है जैसे निकिता किसी गहरे अवसाद से गुजर रही है लेकिन अगले ही पल उसे फोन पर बात करते हुए मुसकराता देखता तो उसे अपना वहम बेकार लगता.
निकिता एक उलझी हुई पहेली बन चुकी थी जिसे सुलझाना रंजन के बूते से बाहर की बात हो गई. थकहार कर उस ने निकिता की तरफ से अपनेआप को बेपरवाह करना शुरू कर दिया. जैसे जी चाहे वैसे जिए.
न जाने प्रकृति ने मानव मन को इतना पेचीदा क्यों बनाया है, इस की कोई एक तयशुदा परिभाषा होती ही नहीं.

मानव मन भी एक म्यूटैड वायरस की तरह है. हरएक में इस की सरंचना दूसरे से भिन्न होती है. बावजूद इस के कुछ सामान्य समानताएं भी होती हैं. जैसे हरेक मन को व्यस्त रहने के लिए कोई न कोई प्रलोभन चाहिए ही चाहिए. यह कोई लत, कोई व्यसन, या फिर कोई शौक भी हो सकता है. या इश्क भी…

बहुत से पुरुषों की तरह रंजन का मन भी एक तरफ से हटा तो दूसरी तरफ झुकने लगा. यों भी घर का खाना जब बेस्वाद लगने लगे तो बाहर की चाटपकौड़ी ललचाने लगती हैं.

पिछले कुछ दिनों से अपने औफिस वाली सुनंदा रंजन को खूबसूरत लगने लगी थी. अब रातोरात तो उस की शक्लसूरत में कोई बदलाव आया नहीं होगा. शायद रंजन का नजरिया ही बदल गया था. शायद नहीं, पक्का ऐसा ही हुआ है. यह मन भी बड़ा बेकार होता है. जब किसी पर आना होता है तो अपने पक्ष में माहौल बना ही लेता है.

“आज जम रही हो सुनंदा,” रंजन ने कल उस की टेबल पर ठिठकते हुए कहा तो सुनंदा मुसकरा दी.

“क्या बात है? आजकल मैडम घास नहीं डाल रहीं क्या?” सुनंदा ने होंठ तिरछे करते हुए कहा तो रंजन खिसिया गया.

‘ऐसा नहीं है कि निकिता उस के आमंत्रण को ठुकरा देती है. बस, बेमन से खुद को सौंप देती है,’ याद कर रंजन का मन खट्टा हो गया.

“लो, अब सुंदरता की तारीफ करना भी गुनाह हो गया. अरे भई, खूबसूरती होती ही तारीफ करने के लिए है. अब बताओ जरा, लोग ताजमहल देखने क्यों जाते हैं? खूबसूरत है इसलिए न?” रंजन ने बात संभालते हुए कहा तो सुनंदा ने गरदन झुका कर दाहिने हाथ को सलाम करने की मुद्रा में माथे से लगाया. बदले में रंजन ने भी वही किया और एक मिलीजुली हंसी आसपास बिखर गई.

रंजन निकिता से जितना दूर हो रहा था उतना ही सुनंदा के करीब आ रहा था. स्त्रीपुरुष भी तो विपरीत ध्रुव ही होते हैं. सहज आकर्षण से इनकार नहीं किया जा सकता. यदि उपलब्धता सहज बनी रहे तो बात आकर्षण से आगे भी बढ़ सकती है. सुनंदा के साथ कभी कौफी तो कभी औफिस के बाद बेवजह तफरीह… कभी साथ लंच तो कभी यों ही गपशप… आहिस्ताआहिस्ता रिश्ते की रफ्तार बढ़ रही थी.

सुनंदा अकेली महिला थी और अपने खुद के फ्लैट में रहती थी. जाने पति से तलाक लिया था या फिर स्वेच्छा से अलग रह रही थी, लेकिन जीवन की गाड़ी में बगल वाली सीट हालफिलहाल खाली ही थी जिस पर धीरेधीरे रंजन बैठने लगा था.

रंजन हालांकि अपनी उम्र के चौथे दशक के करीब था लेकिन इन दिनों उस के चेहरे पर पच्चीसी वाली लाली देखी जा सकती थी. प्रेम किसी भी उम्र में हो, हमेशा गुलाबी ही होता है.
सुनंदा के लिए कभी चौकलेट तो कभी किसी पसंदीदा लेखक की किताब रंजन अकसर ले ही आता था.

वहीं सुनंदा भी कभी दुपट्टा तो कभी चप्पलें… यहां तक कि कई बार तो अपने लिए लिपस्टिक, काजल या फिर बालों के लिए क्लिप खरीदने के लिए भी रंजन को साथ चलने के लिए कहती. सुन कर रंजन झुंझला जाता. सुनंदा उस की खीज पर रीझ जाती.

“ऐसा नहीं है कि मैं यह सब अकेली खरीद नहीं सकती बल्कि हमेशा खरीदती ही रही हूं लेकिन तुम्हारे साथ खरीदने की खुशी कुछ अलग ही होती है. चाहे पेमेंट भी मैं ही करूं, तुम्हारा केवल पास खड़े रहना… कितना रोमांटिक होता है, तुम नहीं समझोगे,” सुनंदा कहती तो रंजन सुखद आश्चर्य से भर जाता.

मन की यह कौन सी परत होती है जहां इस तरह की इंद्रधनुषी अभिलाषाएं पलती हैं. इश्क की रंगत गुलाबी से लाल होने लगी. रंजन पर सुनंदा का अधिकार बढ़ने लगा. अब तो सुनंदा अंडरगारमैंट्स भी रंजन के साथ जा कर ही खरीदती थी. सुनंदा के मोबाइल का रिचार्ज करवाना तो कभी का रंजन की ड्यूटी हो चुकी थी. मिलनामिलाना भी बाहर से भीतर तक पहुंच गया था. यह अलग बात है कि रंजन अभी तक सोफे से बिस्तर तक का सफर तय नहीं कर पाया था.

आज सुबहसुबह सुनंदा का व्हाट्सऐप मैसेज देख कर रंजन पुलक उठा. लिखा था,”मिलो, दोपहर में.”

ऐसा पहली बार हुआ है जब सुनंदा ने उसे छुट्टी वाले दिन घर बुलाया है.
दोस्त से मिलने का कह कर रंजन घर से निकला. निकिता ने न कोई दिलचस्पी दिखाई और न ही कुछ पूछा. कुछ ही देर में रंजन सुनंदा के घर के बाहर खड़ा था. डोरबेल पर उंगली रखने के साथ ही दरवाजा खुल गया.

“दरवाजे पर ही खड़ी थीं क्या?” रंजन उसे देख कर प्यार से मुसकराया.

सुनंदा अपनी जल्दबाजी पर शरमा गई. रंजन हमेशा की तरह सोफे पर बैठ गया. सुनंदा ने अपनी कुरसी उस के पास खिसका ली.

“आज कैसे याद किया?” रंजन ने पूछा. सुनंदा ने कुछ नहीं कहा बस मुसकरा दी.

चेहरे की रंगत बहुतकुछ कह रही थी. सुनंदा उठ कर रंजन के पास सोफे पर बैठ गई और उस के कंधे पर सिर टिका दिया. रंजन के हाथ सुनंदा की कमर के इर्दगिर्द लिपट गए और चेहरा चेहरे पर झुक गया. थोड़ी ही देर में रंजन के होंठ सुनंदा के गालों पर थे. वे आहिस्ताआहिस्ता गालों से होते हुए होंठों की यात्रा कर अब गरदन पर कानों के जरा नीचे ठहर कर सुस्ताने लगे थे. सुनंदा ने रंजन का हाथ पकड़ा और भीतर बैडरूम की तरफ चल दी. यह पहला अवसर था जब रंजन ने ड्राइंगरूम की दहलीज लांघी थी.

साफसुथरा बैड और पासपास रखे जुड़वां तकिए… कमरे के भीतर एक खुमारी सी तारी थी. तापमान एसी के कारण सुकूनभरा था. खिड़कियों पर पड़े मोटे परदे माहौल की रुमानियत में इजाफा कर रहे थे. अब ऐसे में दिल का क्या कुसूर? बहकना ही था.

सुनंदा और रंजन देह के प्रवाह में बहने लगे. दोनों साथसाथ गंतव्य की तरफ बढ़ रहे थे कि अचानक रंजन को अपनी मंजिल नजदीक आती महसूस हुई. उस ने अपनी रफ्तार धीमी कर दी और अंततः खुद को निढाल छोड़ कर तकिए के सहारे अपनी सांसों को सामान्य करने लगा. तृप्ति की संतुष्टि उस के चेहरे पर स्पष्ट देखी जा सकती थी. सुनंदा की मंजिल अभी दूर थी. बीच राह अकेला छुट जाने की छटपटाहट से वह झुंझला गई मानों मगन हो कर खेल रहे बच्चे के हाथ से जबरन उस का खिलौना छीन लिया गया हो.

नाखुशी जाहिर करते हुए उस ने रंजन की तरफ पीठ कर के करवट ले ली. रंजन अभी भी आंखें मूंदे पड़ा था. जरा सामान्य होने पर रंजन ने सुनंदा की कमर पर हाथ रखा. सुनंदा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. हाथ को धीरे से परे खिसका दिया. वह कपड़े संभालते हुए उठ बैठी.

“चाय पीओगे?” सुनंदा ने पूछा. रंजन ने खुमारी के आगोश में मुंदी अपनी आंखें जबरन खोलीं.

“आज तो बंदा कुछ भी पीने को तैयार है,” रंजन ने कहा.

उस की देह का जायका अभी भी बना हुआ था. सुनंदा के चेहरे पर कुछ देर पहले वाला उत्साह अब नहीं था. उस की चाल में गहरी हताशा झलक रही थी. रंजन की उपस्थिति अब उसे बहुत बोझिल लग रही थी.

“थैंक्स फौर सच ए रोमांटिक सिटिंग,” कहता हुआ चाय पीने के बाद रंजन उस के गाल पर चुंबन अंकित कर चला गया. सुनंदा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी.

कुछ दिनों से रंजन को सुनंदा के व्यवहार का ठंडापन बहुत खल रहा है. 1-2 बार दोनों अकेले में भी मिले लेकिन वही पहले वाली कहानी ही दोहराई गई. हर बार समागम के बाद रंजन का चेहरा तो खिल जाता लेकिन सुनंदा के चेहरे पर असंतुष्टि की परछाई और भी अधिक गहरी हो जाती. धीरेधीरे सुनंदा रंजन से खिंचीखिंची सी रहने लगी. अब तो उस के घर आने के प्रस्ताव को भी टालने लगी.

रंजन समझ नहीं पा रहा था कि उसे अचानक क्या हो गया? वह कभी उस के लिए सरप्राइज गिफ्ट ले कर आता, कभी उस के सामने फिल्म देखने चलने या यों ही तफरीह करने का औफर रखता लेकिन वह किसी भी तरह से अब सुनंदा की नजदीकियां पाने में सफल नहीं हो पा रहा था.

‘सारी औरतें एकजैसी ही होती हैं. जरा भाव दो तो सिर पर बैठ जाती हैं…’ निकिता के बाद सुनंदा को भी मुंह फुलाए देख कर रंजन अकसर सोचता. सुनंदा का इनकार वह बरदाश्त नहीं कर पा रहा था.

“आज छुट्टी है, निकिता को उस के घर जा कर सरप्राइज देता हूं. ओहो, कितनी ठंड है आज,” निकिता के साथ रजाई में घुस कर गरमगरम कौफी पीने की कल्पना से ही उस का मन बहकने लगा.

निकिता के घर पहुंचा तो उस ने बहुत ही ठंडेपन से दरवाजा खोला. बैठी भी उस से परे दूसरे सोफे पर. बैडरूम में जाने का भी कोई संकेत रंजन को नहीं मिला. थोड़ी देर इधरउधर की बातें करने के बाद सुनंदा खड़ी हो गई.

“रंजन, मुझे जरा बाहर जाना है. हम कल औफिस में मिलते हैं,” सुनंदा ने कहा. रंजन अपमान से तिलमिला गया.

“क्या तुम मुझे साफसाफ बताओगी कि आखिर हुआ क्या है? क्यों तुम मुझ से कन्नी काट रही हो?” रंजन पूछ बैठा.

“आई वांट ब्रैकअप,” सुनंदा ने कहा.

“व्हाट? बट व्हाई?” रंजन ने बौखला कर पूछा.

“सुनो रंजन, हमारे रिश्ते में मैं ने बहुतकुछ दांव पर लगाया है. यहां तक कि अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा भी. मैं तुम से कोई अपेक्षा नहीं रखती सिवाय संतुष्टि के. यदि वह भी तुम मुझे नहीं दे सकते तो फिर मुझे इस रिश्ते से क्या मिला? सिर्फ बदनामी? अपने पैसे, समय और प्रतिष्ठा की कीमत पर मैं बदनामी क्यों चुनूं?” सुनंदा ने आखिर वह सब कह ही दिया जिसे वह अब तक अपने भीतर ही मथ रही थी. उस के आरोप सुन कर रंजन अवाक था.

“लेकिन हमारा मिलन तो कितना सफल होता था,” रंजन ने उसे याद दिलाने की कोशिश की.

“नहीं, उस समागम में केवल तुम ही संतुष्ट होते थे. मैं तो प्यासी ही रह जाती थी. तुम ने कभी मेरी संतुष्टि के बारे में सोचा ही नहीं. ठीक वैसे ही जैसे अपना पेट भरने के बाद दूसरे की भूख का एहसास न होना,” सुनंदा बोलती जा रही थी और रंजन के कानों में खौलते हुए तेल सरीखा कुछ रिसता जा रहा था.

सुनंदा के आक्रोश में उसे निकिता का गुस्सा नजर आ रहा था. निकिता में सुनंदा… सुनंदा में निकिता… आज रंजन को निकिता की नाराजगी समझ में आ रही थी.

थके कदमों से रंजन घर की तरफ लौट गया. मन ही मन यह ठानते हुए कि यदि यही निकिता की नाराजगी की वजह है तो वह अवश्य ही उसे दूर करने की कोशिश करेगा. अपने मरते रिश्ते को संजीवनी देगा.

कहना न होगा कि इन दिनों निकिता हर समय खिलखिलाती रहती है. एक लज्जायुक्त मुसकान हर समय होंठों पर खिली रहती है.

रंजन मन ही मन सुनंदा का एहसानमंद है, इस अनसुलझी पहेली को सुलझाने का रास्ता दिखाने के लिए.

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