फिर वही शून्य- भाग 3 : क्या शादी के बाद पहले प्यार को भुला पाई सौम्या

वज्रपात हुआ जैसे मुझ पर. नियति ने कैसा क्रूर मजाक किया था मेरे साथ. समर की रिहाई  हुई तो मेरी शादी के फौरन बाद. किस्मत के अलावा किसे दोष देती? समय मेरी मुट्ठी से रेत की तरह फिसल चुका था. अब हो भी क्या सकता था?

इसी उधेड़बुन में कई दिन निकल गए. पहले सोचा कि वीरां से बिना मिले ही वापस लौट जाऊंगी, लेकिन फिर लगा कि जो होना था, हो गया. उस के लिए, वीरां के साथ जो मेरा खूबसूरत रिश्ता था, उसे क्यों खत्म करूं? अजीब सी मनोदशा में मैं ने उस के घर का नंबर मिलाया.

‘‘हैलो,’’ दूसरी तरफ से वही आवाज सुनाई दी जिसे सुन कर मेरी धड़कनें बढ़ जाती थीं.

विधि की कैसी विडंबना थी कि जो मेरा सब से ज्यादा अपना था, आज वही पराया बन चुका था. मैं अपनी भावनाओं पर काबू न रख पाई. रुंधे गले से इतना ही बोल पाई, ‘‘मैं, सौम्या.’’

‘‘कैसी हो तुम?’’ समर का स्वर भी भीगा हुआ था.

‘‘ठीक हूं, और आप?’’

‘‘मैं भी बस, ठीक ही हूं.’’

‘‘वो…मुझे वीरां से बात करनी थी.’’

‘‘अभी तो वह घर पर नहीं है.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर मैं रिसीवर रखने लगी कि समर बोल उठा, ‘‘रुको, सौम्या, मैं…मैं कुछ कहना चाहता हूं. जानता हूं कि मेरा अब कोई हक नहीं, लेकिन क्या आज एक बार और तुम मुझ से शाम को उसी काफी शाप पर मिलोगी, जहां मैं तुम्हें ले जाता था?’’

एक बार लगा कि कह दूं, हक तो तुम्हारा अब भी इतना है कि बुलाओगे तो सबकुछ छोड़ कर तुम्हारे पास आ जाऊंगी, लेकिन यह सच कहां था? अब दोनों के जीवन की दिशा बदल गई थी. अग्नि के समक्ष जिस मर्यादा का पालन करने का वचन दिया था उसे तो पूरा करना ही था.

‘‘अब किस हैसियत से मिलूं मैं आप से? हम दोनों शादीशुदा हैं और आप की नजरों का सामना करने का साहस नहीं है मुझ में. किसी और से शादी कर के मैं ने आप को धोखा दिया है. नहीं, आप की आंखों में अपने लिए घृणा और वितृष्णा का भाव नहीं देख सकती मैं.’’

‘‘फिर ऐसा धोखा तो मैं ने भी तुम्हें दिया है. सौम्या, जो कुछ भी हुआ, हालात के चलते. इस में किसी का भी दोष नहीं है. मैं तुम से कभी भी नफरत नहीं कर सकता. मेरे दिल पर जैसे बहुत बड़ा बोझ है. तुम से बात कर के खुद को हलका करना चाहता हूं बाकी जैसा तुम ठीक समझो.’’

मैं जानती थी कि मैं उसे इनकार नहीं कर सकती थी. ?एक बार तो मुझे उस से मिलना ही था. मैं ने समर से कह दिया कि मैं उस से 6 बजे मिलने आऊंगी.

शाम को मैं साढे़ 5 बजे ही काफी शाप पर पहुंच गई, लेकिन समर वहां पहले से ही मौजूद था. जब उस ने मेरी ओर देखा, तो उठ कर खड़ा हो गया. उफ, क्या हालत हो गई थी उस की. जेल में मिली यातनाओं ने कितना अशक्त कर दिया था उसे और उस का बायां पैर…बड़ी मुश्किल से बैसाखियों के सहारे खड़ा था वह. कभी सोचा भी न था कि उसे इन हालात में देखना पडे़गा.

हम दोनों की ही आंखों में नमी थी. बैरा काफी दे कर चला गया था.

‘‘वीरां कैसी है?’’ मैं ने ही शुरुआत की.

‘‘अच्छी है,’’ एक गहरी सांस ले कर समर बोला, ‘‘वह खुद को तुम्हारा गुनाहगार मानती है. कहती है कि अगर उस ने जोर न दिया होता तो शायद आज तुम मेरी…’’

मैं निगाह नीची किए चुपचाप बैठी रही.

‘‘गुनाहगार तो मैं भी हूं तुम्हारा,’’ वह कहता रहा, ‘‘तुम्हें सपने दिखा कर उन्हें पूरा न कर सका, लेकिन शायद यही हमारी किस्मत में था. पकड़े जाने पर मुझे भयंकर अमानवीय यातनाएं दी जातीं. अगर हिम्मत हार जाता, तो दम ही तोड़ देता, लेकिन तुम से मिलन की आस ही मुझे उन कठिन परिस्थितियों में हौसला देती. एक बार भागने की कोशिश भी की, लेकिन पकड़ा गया. फिर एक दिन सुना कि दोनों तरफ की सरकारों में संधि हो गई है जिस के तहत युद्धबंदियों को रिहा किया जाएगा.

‘‘मैं बहुत खुश था कि अब तुम से आ कर मिलूंगा और हम नए सिरे से जीवन की शुरुआत करेंगे. जब यहां आ कर पता चला कि तुम्हारी शादी हो चुकी है, तो मेरी हताशा का कोई अंत न था. फिर वीरां भी शादी कर के चली गई. जेल में मिली यातनाओं ने मुझे अपंग कर दिया था. मैं ने खुद को गहन निराशा और अवसाद से घिरा पाया. मेरे व्यवहार में चिड़चिड़ापन आने लगा था. जराजरा सी बात पर क्रोध आता. अपना अस्तित्व बेमानी लगने लगा था.

‘‘उन्हीं दिनों नेहा से मुलाकात हुई. उस ने मुझे बहुत संबल दिया और जीवन को फिर एक सकारात्मक दिशा मिल गई. मेरा खोया आत्मविश्वास लौटने लगा था. मैं तुम्हें तो खो चुका था, अब उसे नहीं खोना चाहता था. तुम मेरे दिल के एक कोने में आज भी हो, मगर नेहा ही मेरे वर्तमान का सच है…’’

मैं सोचने लगी कि एक पुरुष के लिए कितना आसान होता है अतीत को पीछे ढकेल कर जिं?दगी में आगे बढ़ जाना. फिर खुद पर ही शर्मिंदगी हुई. अगर समर मेरी याद में बैरागी बन कर रहता, तब खुश होती क्या मैं?

‘‘…बस, तुम्हारी फिक्र रहती थी, पर तुम अपने घरसंसार में सुखी हो, यह जान कर मैं सुकून से जी पाऊंगा,’’ समर कह रहा था.

‘‘मुझे खुशी है कि तुम्हें ऐसा साथी मिला है जिस के साथ तुम संतुष्ट हो,’’ मैं ने सहजता से कहने की कोशिश की, ‘‘दिल पर कोई बोझ मत रखो और वीरां से कहना, मुझ से आ कर मिले. अब चलती हूं, देर हो गई है,’’ बिना उस की तरफ देखे मैं उठ कर बाहर आ गई.

जिन भावनाओं को अंदर बड़ी मुश्किल से दबा रखा था, वे बाहर पूरी तीव्रता से उमड़ आईं. यह सोच कर ही कि अब दोबारा कभी समर से मुलाकात नहीं होगी, मेरा दिल बैठने लगा. अपने अंदर चल रहे इस तूफान से जद्दोजहद करती मैं तेज कदमों से चलती रही.

तभी पर्स में रखे मोबाइल की घंटी बज उठी. अनिरुद्ध का स्वर उभरा, ‘‘मैं तो अभी से तुम्हें मिस कर रहा हूं. कब वापस आओगी तुम?’’

‘‘जल्दी ही आ जाऊंगी.’’

‘‘बहुत अच्छा. सौम्या, वह बात कहो न.’’

‘‘कौन सी?’’

‘‘वही, जिसे सुनना मुझे अच्छा लगता है.’’

मैं ने एक दीर्घनिश्वास छोड़ कर कहा, ‘‘मैं आप से बहुत प्यार करती हूं,’’ जेहन में समर का चेहरा कौंधा और आंखों में कैद आंसू स्वतंत्र हो कर चेहरे पर ढुलक आए. जीवन में फिर वही शून्य उभर आया था.

हाय बेचारी: रंजना का क्या था फैसला

रंजना सोसाइटी के गेट पर अन्य महिलाओं के साथ खड़ी थी. मांओं और स्कूल जाने वाले बच्चों का मेला सा लगा था. रंजना भी अपनी 11 वर्षीय बेटी मिनी का हाथ पकड़े खड़ी थी. स्कूल बस आने वाली थी. सभी महिलाएं रंजना को जिन नजरों से देख रही थीं, उन नजरों की भाषा से रंजना भलीभांति परिचित थी. सब की निगाहें हमेशा की तरह यही कह रही थीं कि हाय बेचारी. निगाहों का यह संदेश पा कर रंजना को हमेशा मन ही मन हंसी आती. सब उसे रोज ऊपर से नीचे तक कई बार देखतीं. उस के लेटैस्ट हेयरस्टाइल, बढि़या फिगर और आधुनिक कपड़ों की खूब प्रशंसा करतीं. लेकिन आंखों में वही हाय बेचारी के भाव.

स्कूल बस आ गई तो मांओं का अपनेअपने बच्चे को फ्लाइंग किस करने, आई लव यू बेटा, बाय बेटा, टेक केयर कहने का सिलसिला शुरू हो गया. रंजना ने भी मिनी को किस किया और मिनी बस में चढ़ गई. जब तक बस दिखती रही, रंजना वहीं खड़ी रही. फिर अपने फ्लैट की ओर चल दी. 11 बज रहे थे. मिनी का स्कूल 12 से 6 बजे तक था.

सारे काम करने के लिए मेड आ गई. 12 बजे तक रंजना फ्री हो चुकी थी. उस ने घड़ी देखी. 1 बजे अमित, उस का लेटैस्ट बौयफ्रैंड आने वाला था. उस ने सोचा 1 घंटा आराम कर ले. फिर अमित के साथ लंच कर के… इस के आगे की सोच कर ही रंजना के शरीर में मादक सी लहर दौड़ गई. आज

4 बजे उस की किट्टी पार्टी भी है. अमित को भेज कर वह किट्टी पार्टी में चली जाएगी. बैड पर लेट कर रंजना की आंखों के सामने बीते दिन किसी चलचित्र की तरह घूम गए… रंजना 21 साल की थी जब वह विनोद से एक पार्टी में मिली थी. पहली ही मुलाकात में दोनों एकदूसरे को दिल दे बैठे.

दोनों ही सुंदर, स्मार्ट और आकर्षक थे. विनोद बैंगलुरु से मुंबई अपने बिजनैस के किसी काम से आया था. मिलने के 6 महीने बाद ही रंजना ने विजातीय विनोद से प्रेमविवाह कर लिया. दोनों के मातापिता इस विवाह के खिलाफ थे. रंजना के मातापिता जो अंधेरी, मुंबई में रहते थे, उन्होंने उस से संबंध तोड़ लिए. उस की छोटी बहन संजना कभीकभी उस से फोन पर बात कर लेती थी. रंजना विनोद के साथ बैंगलुरु चली गई. विनोद के मातापिता भी रंजना को बहू मानने के लिए तैयार नहीं हुए थे.

रंजना को याद आ रहा था कि उस ने अच्छी पत्नी और अच्छी बहू बनने की बहुत कोशिश की थी, लेकिन बेहद कट्टरपंथी ससुराल में रहना मुश्किल होता जा रहा था.

एक दिन विनोद ने ही कह दिया, ‘‘रंजना, ऐसा करता हूं कि अलग घर ले लेता हूं, घर में रोजरोज का कलह अच्छा नहीं लगता.’’

रंजना को इस में भला क्या आपत्ति हो सकती थी. वह तैयार हो गई. विनोद ने एक फ्लैट ले लिया. अब रंजना खुश थी.

लेकिन यह खुशी ज्यादा दिनों तक नहीं रह सकी. उस ने नोट किया, विनोद उस के साथ बस रात को सोने ही आता है. सुबह अपने घर चला जाता है. एक दिन वह झंझला गई. बोली, ‘‘यह क्या चल रहा है… यहां बस सोने आते हो… अब यही तो हमारा घर है?’’

‘‘वहां मेरे मातापिता, भाईबहन हैं, उन्हें छोड़ दूं?’’ विनोद ने चिढ़ कर पूछा.

‘‘मैं उन्हें छोड़ने के लिए कहां कह रही हूं, रोज मिलने जाओ. मुझे कोई आपत्ति नहीं है. लेकिन यहां अपनी पत्नी के पास तुम चोरों की तरह आ रहे हो. मुझे बड़ा अजीब लग रहा है.’’

विनोद गरदन झटक कर चला गया. रंजना को कुछ समझ नहीं आया. यह तो वह देख ही चुकी थी कि विनोद एक बहुत धनी बिजनैसमैन का बेटा है, उन का बहुत लंबाचौड़ा बिजनैस था. पूरा दिन अकेली रहने पर रंजना बोर होने लगी थी. सुबह नाश्ते से डिनर तक वह अकेली होती थी. विनोद ने मेड का भी इंतजाम कर दिया था. 1 साल बीत रहा था. रंजना अब गर्भवती थी. उसे लगा शायद अब सब ठीक हो जाएगा. उस ने यह खुशखबरी विनोद को सुनाई तो उस ने कोई खास उत्साह नहीं दिखाया. 2 दिन बाद रात को आ कर कहने लगा, ‘‘मैं ने मां को यह खबर सुनाई.’’

रंजना ने चहक कर पूछा, ‘‘वे खुश हुईं?’’

विनोद ने तटस्थ भाव से कहा, ‘‘मां ने कहा कि इस हालत में तुम्हारा

अपने मातापिता के पास जाना ज्यादा ठीक रहेगा.’’

रंजना को जैसे धक्का लगा. वह भड़क उठी, ‘‘मैं क्यों जाऊं कहीं? मैं ने सब को छोड़ कर तुम्हें अपनाया है, सब मुझ से नाराज हैं.’’

‘‘लेकिन मम्मीपापा अब भी तुम्हें अपनाने को तैयार नहीं हैं.’’

‘‘तुम तो हो न मेरे साथ, मुझे प्यार करते हो न? फिर मुझे किसी की जरूरत नहीं है.’’

विनोद ने थोड़ा अटकते हुए कहा, ‘‘वह तो ठीक है, पर मैं उन के खिलाफ नहीं जा सकता.’’

‘‘यह बात अब याद आ रही है मेरे जीवन से खेल कर?’’ रंजना चिल्ला पड़ी.

विनोद ने धीमे स्वर में कहा, ‘‘मैं ने इस बारे में बहुत सोचा… यही ठीक लगा कि तुम मुंबई चली जाओ, मैं आता रहूंगा.’’

‘‘मैं क्यों जाऊं कहीं? मैं यहीं रहूंगी और अपने होने वाले बच्चे को पूरा हक दिलवाऊंगी.’’

रात भर रंजना और विनोद में कहासुनी होती रही. सुबह विनोद चला गया. अगले कुछ दिनों में विनोद के कुछ रिश्तेदारों से उसे उड़तीउड़ती खबर मिली कि विनोद के घर वाले उस पर दूसरा विवाह करने का दबाव डाल रहे हैं और रंजना को तलाक दिलवाना चाहते हैं.

रंजना को अपनी दुनिया उजड़ती लगी. वह पूरा दिन फूटफूट कर रोती रही. पड़ोसिन मालती आंटी उस की पूरी स्थिति से परिचित थीं. अत: उन्होंने उसे बहुत कुछ समझया. तब रंजना ने खुद को संभाला. अपने आंसू पोंछे. गर्भस्थ संतान को मन ही मन प्यार किया. अब वह और तरह सोच रही थी कि अगर विनोद और उस का परिवार इस विवाह के बंधन को खेल समझ रहा है तो वह क्यों रोते हुए जीए? क्यों वह एक कमजोर पुरुष के साथ अपनी जिंदगी बिताने के लिए मजबूर हो? वह आधुनिक लड़की है अत: कमजोर और बेबस हो कर नहीं जीएगी. कल उस की संतान इस दुनिया में जन्म ले लेगी. तब वह उस के साथ जी लेगी.

अब आगे क्या करना है, रंजना ने यह भी उसी समय सोच लिया. वह बस ग्रैजुएट थी. उसे कोई बहुत बड़ी नौकरी मिलने से रही, यह भी वह जानती थी.

अगली रात जब विनोद आया तो रंजना ने कहा था, ‘‘मैं मुंबई जाने के लिए

तैयार हूं.’’

विनोद उस का मुंह देखता रह गया.

रंजना ने कहा, ‘‘तुम मुझे मेरे नाम से वहां एक फ्लैट ले दो.’’

‘‘हां, यह तो हो जाएगा, मैं भी आता रहूंगा.’’

रंजना व्यंग्यपूर्वक हंसी, ‘‘और घर का खर्च?’’

‘‘मैं हर महीने क्व25-30 हजार तुम्हारे खाते में डाल दिया करूंगा और जरूरत हुआ करेगी तो और दे दिया करूंगा. तुम्हें कतई परेशानी नहीं होगी. बस मैं अपने परिवार से अलग कुछ कर नहीं सकता, यह मेरी मजबूरी है.’’

‘‘तुम रहो अपने परिवार के साथ, जितनी जल्दी हो सके मेरा मुंबई में रहने का अच्छा सा प्रबंध कर दो.’’

विनोद ने उसे बांहों में भरने की कोशिश की तो रंजना ने उस की बांहें झटक दीं. कहा, ‘‘तुम्हारे अब तक के प्यार को समझने में मुझ से जो भूल हुई है, पहले उस से तो उबर लूं… एक बात याद रखना, अगर मुझे या मेरे बच्चे को पैसे की तंगी हुई तो मैं तुम्हें कोर्ट में घसीट लूंगी.’’

रंजना जानती थी कि विनोद के परिवार को अपनी इज्जत जान से ज्यादा प्यारी है. समाज में एक नाम, इज्जत थी उन की.

‘‘नहींनहीं, तुम्हें कोई कमी नहीं रहेगी,’’ विनोद तुरंत बोला.

विनोद का बिजनैस के सिलसिले में मुंबई चक्कर लगता रहता था. उस ने 1 महीने के अंदर मुलुंड की एक अच्छी सोसाइटी में एक बैडरूम सैट खरीद कर रंजना के नाम कर दिया. मन ही मन वह दुखी और शर्मिंदा तो था. परिवार के दबाव के चलते उस ने रंजना के साथ अच्छा नहीं किया था. लेकिन परिवार की बात न मानने पर उसे सारी संपत्ति से हाथ धोना पड़ेगा, यह वह अच्छी तरह जानता था.

खुद को पूरी हिम्मत से संभाल कर रंजना मुंबई के इस फ्लैट में आ गई. संजना

उस के संपर्क में रहती थी. उसे पूरी बात पता थी. जब संजना ने अपने मम्मीपापा को यह बात बताई तो नाराजगी भूल उन्होंने आ कर रंजना को गले लगा लिया. तय समय पर रंजना ने स्वस्थ सुंदर मिनी को जन्म दिया. रंजना मिनी का चेहरा देख खिल उठी थी. विनोद और रंजना की फोन पर बातचीत होती रहती थी. वह खबर पाते ही मिनी को देखने चला आया.

सारा काम रंजना की मम्मी ने संभाला था. उस के मम्मीपापा विनोद से खिंचेखिंचे ही रहे. विनोद 2 दिन में रंजना के हाथ में भारी रकम रख कर चला गया. रंजना ने कोई नाराजगी नहीं दिखाई.

मिनी 2 महीने की हो गई तो रंजना ने अपनी मम्मी से कहा, ‘‘मम्मी, अब आप घर लौट जाओ. अब मैं मिनी को देख लूंगी.’’

‘‘लेकिन तू अकेली कैसे…?’’

‘‘नहीं मम्मी, मैं सब कर लूंगी, मुझे अपनी लाइफ खुद संभालने दो,’’ रंजना बीच ही में बोली.

रंजना के चेहरे पर छाए आत्मविश्वास को देख कर अंजना भी कुछ कह नहीं सकीं और बेटी को बहुत सी हिदायतें दे कर अपने घर लौट गईं.

रंजना ने बखूबी मिनी को संभाल लिया था, उसी को देख कर उस के रातदिन कटते, सुंदर और आकर्षक तो वह थी ही, उस पर बेहतरीन रखरखाव, बेहद मौडर्न कपड़े, यत्न से संवारा रूपरंग. तभी तो भीड़ में भी वह अलग दिखती.

ऐसे ही दिन बीत रहे थे. 2-3 महीनों में विनोद आता तो शारीरिक जरूरत की पूर्ति के चलते. विनोद का सामीप्य, एक पुरुष और स्त्री का नैसर्गिक संबंध दोनों को एकदूसरे के करीब ले आता और फिर दोनों अभी पतिपत्नी तो थे ही.

पासपड़ोस में भी सब को यही लगता कि बेचारी बच्ची के साथ

अकेली रहती है. रंजना ने सब को यही बताया था कि उस के पति की टूरिंग जौब है. उन्हें अकसर विदेश जाना पड़ता है. मिनी 1 साल की हो रही थी. बैंगलुरु की एक परिचिता ने रंजना को बताया था कि विनोद दूसरी शादी करने के लिए तैयार हो गया है. सुन कर रंजना के तनबदन में आग लग गई. फिर उस ने ठंडे दिमाग से सोचा. वह विनोद पर आर्थिक रूप से निर्भर थी. वह ताव में आ कर अपना नुकसान नहीं कर सकती थी. अत: उस ने विनोद से कहा, ‘‘तुम्हें जो करना है कर लो, लेकिन कानूनन आज भी मैं ही तुम्हारी पत्नी हूं. मेरा और मिनी का खर्च हमेशा तुम ही उठाओगे, मैं भी अब कुछ भी करूं, तुम्हें बोलने का हक नहीं होगा.’’

विनोद ने तो जान छूटी, सोच कर झट से कहा, ‘‘हांहां, बिलकुल, तुम्हें कोई परेशानी नहीं होगी, मैं भी मिलने आता रहूंगा.’’

‘‘मिलने में मुझे अब कोई रुचि नहीं रहेगी. मिनी के प्रति कोई फर्ज महसूस हो तो उस से मिलने आ जाना,’’ और उसी क्षण रंजना ने अकेली और उदास रह कर नहीं, बल्कि आनंदपूर्वक जीने का निश्चय कर लिया.

मिनी को वह मां और पिता दोनों का प्यार देती. उस की हर जिम्मेदारी मन से पूरा कर रही थी. सुजय उस की सहेली निशा का छोटा भाई था. वह रंजना के मादक सौंदर्य के आकर्षण से बच नहीं पाया. कभी मिनी से मिलने तो कभी किसी और बहाने आने लगा तो रंजना मन ही मन मुसकरा उठी. उस ने सुजय को बड़ी अदाओं से बढ़ावा दिया और फिर दोनों एकदूसरे में खो गए. एमबीए करने के बाद वह जौब की तलाश में था. मिनी के स्कूल जाने के बाद वह रंजना के पास पहुंच जाता और रंजना का पुरुषस्पर्श को तरसता मन उस की चाहत में डूबडूब जाता. सुजय उस से विवाह करने के लिए भी तैयार था, लेकिन अब रंजना विवाह के नाम से ही दूर भागती. हाथ में भरपूर पैसा, मनचाहा जीवन, न पति का कोई काम, न कोई रोकनेटोकने वाला, उसे अब अपने आजाद जीवन में कोई अड़चन नहीं चाहिए थी.

सुजय को दिल्ली से जौब का बुलावा आया तो वह उदास मन से चला गया और रंजना सिर झटक कर जीवन में आगे बढ़ गई. वह अपने मम्मीपापा और बहन से फोन पर संपर्क में रहती ही थी, मिनी की छुट्टियों में आनाजाना भी लगा रहता था. विनोद आज भी फोन पर हालचाल लेता रहता था. अब भी मुंबई आने पर मिलने जरूर आता था. बस, अब मेहमान की तरह आता था, मेहमान की तरह चला जाता था. मिनी को अभी रंजना ने बहला दिया था. समझदार होने पर वह अपनी बेटी को सब साफसाफ समझ देगी, यह वह सोच चुकी थी.

विनोद के मन में आज भी अपराधबोध था. बेचारी कैसे जीती है अकेली. लेकिन रंजना कैसे जी रही है, यह उसे बताने वाला कोई नहीं था. वह दूसरा विवाह कर चुका था और अब 1 बेटे का पिता भी बन चुका था. रंजना सब जानती थी, लेकिन विनोद के पैसे पर ही उसे मौज करनी थी, इसलिए वह गंभीर बनी रहती थी.

फिर उस के जीवन में आए डा. नीरज. वे चाइल्ड स्पैशलिस्ट थे. उन्होंने एक बार मिनी को तेज बुखार होने पर उस का इलाज किया था. वे भी रंजना के आकर्षण में बंधे एक दिन मिनी को देखने के बहाने उस के घर जा पहुंचे और फिर

2 साल रंजना और उन का प्रेमप्रसंग चला. वे तलाकशुदा थे. वे भी रंजना के साथ विवाह करना चाहते थे, पर रंजना उन के साथ शारीरिक रूप से तो जुड़ी लेकिन विवाह तो अब उसे करना नहीं था. अंत में रंजना के साफसाफ मना करने पर उन्होंने अन्यत्र विवाह कर लिया. अब रंजना की दोपहरें अमित के साथ बीत रही थीं.

अमित कालसैंटर में काम करता था. उस की अकसर नाइट शिफ्ट होती थी.

अमित से रंजना मिनी के स्कूल में मिली थी. वह मिनी की क्लास में पढ़ रहे सुधांशु का चाचा था. सुधांशु के मातापिता दोनों कामकाजी थे, इसलिए पीटीएम में अकसर अमित ही आता था. अमित से 2-4 मुलाकातें होने पर ही रंजना को वह अच्छा लगने लगा था. फिर उन की धीरेधीरे अंतरंगता बढ़ती गई.

अब अमित के इंतजार में अतीत की स्मृतियों में डूबतेउतरते डोरबैल बजने पर ही उस की तंद्रा भंग हुई. अमित ने आते ही उसे बांहों में भर लिया.

रंजना ने अपनी मादक हंसी बिखेरते हुए कहा, ‘‘अरे, पहले फ्रैश तो हो जाओ, लंच तो कर लो.’’

‘‘सब बाद में,’’ कहते हुए अमित रंजना को गोद में उठा कर बैड पर ले गया. रंजना भी उस की बांहों में समाती चली गई. भावनाओं का ज्वार जब थमा तो दोनों काफी देर लेट कर हंसीमजाक करते रहे. फिर लंच करते हुए रंजना ने कहा, ‘‘आज मेरी किट्टी पार्टी है.’’

‘‘अच्छा, कब निकलोगी?’’

‘‘4 बजे.’’

‘‘ठीक है, मैं चलता हूं, तुम भी तैयारी करो,’’ अमित बोला.

‘‘कल से मिनी की गरमी की छुट्टियां हैं. हम फिलहाल नहीं मिलेंगे… स्कूल शुरू होने के बाद ही मिलेंगे.’’

‘‘एज यू विश, चलता हूं,’’ कहते हुए अमित ने रंजना के गाल पर किस किया.

रंजना ने तुरंत किचन समेटी, टाइम देखा.

3 बज चुके थे. ‘15 मिनट लेट कर तैयार होगी,’ सोच कर वह बैड पर लेट गई. लेटते ही कुछ पल पहले अमित के साथ बिताए पलों ने उसे फिर आंतरिक खुशी दी कि कितनी खुश है वह, क्या बढि़या जीवन जी रही है. अभी अपनी लेटैस्ट ड्रैस पहनेगी, लंबी रैड स्कर्ट के साथ ब्लैक टौप, साथ में मैचिंग ज्वैलरी. किट्टी पार्टी में सभी उस की डै्रसिंगसैंस की तारीफ करती नहीं थकतीं. उसे उन कुछ मूर्ख महिलाओं पर हंसी आती जिन की यह कानाफूसी उस के कानों में पड़ती कि हाय बेचारी, कितनी अकेली है, कैसे जीती होगी, अपना समय कैसे काटती होगी? इन फुसफुसाहटों पर उस का मन होता कि वह जोर से ठहाका लगाए, वह और बेचारी? बिलकुल नहीं, वह तो लाइफ ऐंजौय कर रही है. कहां जरूरत है उसे पति नामक प्राणी की? फिर वह मन ही मन हंस कर उठ कर तैयार होने लगी.

तैयार हो कर शीशे में देखा तो खुद पर इतरा उठी. फिर पर्स ले कर निशा के घर चल दी.

पार्टी आज उस के घर पर ही थी. उसे देखते ही सब वाहवाह कर उठीं. किट्टी पार्टी में लगभग 50 साल की 2-3 आंटियां भी थीं. सविता आंटी ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा, फिर पूछा, ‘‘कैसी हो, बेटा?’’

‘‘एकदम ठीक,’’ कह कर रंजना औरों से मिलने लगी.

सविता अब मंजू आंटी से कह रही थी,

‘‘बेचारी किट्टी पार्टी में आ जाती है तो थोड़ा मन लग जाता होगा, हाय बेचारी.’’

अपने बारे में हमेशा होने वाली इस टिप्पणी

पर रंजना मन ही मन इन कुंठित सोच वाली महिलाओं पर तरस खाती थी. फिर रंजना ने पार्टी का पूरे मन से आनंद लिया. 5 बजते ही कई महिलाओं ने अपनाअपना पर्स संभाल कर कहा, ‘‘अब चलना पड़ेगा… अपना तो खानापीना हो गया, पति और बच्चों के लिए तो जा कर बनाना ही पड़ेगा.’’

एक ने कहा, ‘‘अरे, मुझे तो सासससुर के लिए चायनाश्ता बनाना है जा कर.’’

रंजना आराम से बैठी थी. मन ही मन सोच रही थी कि बेचारी तो ये हैं. वह कितने आराम से जी रही है, जीवन के 1-1 पल का भरपूर आनंद उठा रही है, और आगे भी उठाती रहेगी.

सब चली गईं. रंजना भी उठ खड़ी हुई तो निशा ने कहा, ‘‘तू बैठ न, तुझे क्या जल्दी है?’’

‘‘मिनी के आने का समय हो रहा है. आज उसे पिज्जा और आइसक्रीम खिलाने ले जाना है. सुबह ही कह कर गई थी,’’ कह कर निशा से विदा ले कर रंजना बस स्टैंड की ओर चल दी.

बस आई तो मिनी फुदकती हुई उस की तरफ बढ़ गई, बोली, ‘‘मौम, आज बाहर चलेंगे न?’’

‘‘बिलकुल, पहले चल कर कपड़े तो

बदल लो.’’

‘‘ठीक है मौम.’’

घर आ कर मिनी को याद आया, ‘‘अरे, आज आप की किट्टी पार्टी थी न? आप बहुत स्मार्ट लग रही हैं, आप की फ्रैंड्स आप की नई डै्रस देख कर क्या बोलीं मौम?’’

‘‘वे बोलीं, हाय बेचारी,’’ कह कर रंजना ने जोर से ठहाका लगाते हुए बेटी को सीने से लगा लिया.

मुखरता: रिचा घुटनभरी जिंदगी क्यों जी रही थी

रिचा बीए प्रथम वर्ष की छात्रा थी. वह क्लास में आखिरी बैंच पर बैठती थी और एकदम बुझीबुझी सी रहती थी. कुछ पूछने पर वह या तो चुप हो जाती या फिर बहुत कम सवालों का जवाब देती. वैसे रिचा पढ़ने में होशियार और मेहनती थी, लेकिन हरदम अकेली, खुद में खोई रहती.

कोई न कोई बात तो थी जो उसे अंदर ही अंदर खाए जा रही थी. सब से ज्यादा चौंकाने वाली बात यह थी कि वह लड़कों की मौजूदगी में सामान्य नहीं रहती थी. अगर गलती से कोई लड़का उसे छू लेता या कंधे पर हाथ रख देता, तो वह क्रोधित हो जाती.

उस के मातापिता भी कुछ समझ नहीं पा रहे थे. वे अगर उस से कुछ पूछते, तो वह एक गहरी चुप्पी साध लेती. उस की बचपन की सहेली मीरा जब भी मिलती, रिचा से चुप रहने की वजह पूछती पर उसे कोई जवाब नहीं मिलता.

लेकिन मनोविज्ञान की स्टूडैंट होने के कारण वह रिचा की मानसिक अवस्था समझ रही थी. उसे किसी अनहोनी का डर खाए जा रहा था.  एक दिन मीरा ने उस से बात करने का निश्चय किया. शुरू में तो रिचा ने सवालों से बचना चाहा, शायद वह थोड़ी भयभीत भी थी, पर मीरा के साथ रोज वार्त्तालाप करने से उस का हौसला बढ़ने लगा.

एक दिन उस के दुखों का बांध ढह गया और उस की भावनाओं ने उथलपुथल की और वह रोने लगी. फिर धीरेधीरे उस ने अपनी बीती सारी बातें बताईं.

उस ने बताया, ‘‘एक दिन दोपहर को मैं इतिहास पढ़ रही थी. वैसे भी इतिहास का विषय सब के लिए नींद की गोली जैसा होता है, पर मेरे लिए यह एक रोमांचक था. अनजाने में ही मेरे अंकल जल्दी घर वापस आ गए. वे हमेशा से ही मेरे कपड़ों, पढ़ाई व मेरे दोस्तों में रुचि रखते थे.

‘‘मैं उन से प्रेरित थी. वे मुझे मेरे पिता से ज्यादा निर्देशित करते थे. कई चीजों के बारे में चर्चा करतेकरते अंकल ने मुझे अपने पास आ कर बैठने को कहा. मुझे इस में कुछ भी अटपटा नहीं लगा और मैं उन के पास जा कर बैठ गई.

बात करतेकरते वे अचानक मेरे गुप्तांगों को बेहूदे तरीके से छूने लगे. यह देख कर मैं पीछे हट गई. मुझे उन की इस हरकत से असुविधा महसूस होने लगी. मैं सही समय पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दे पाई. संयोग से मेरी मां हौल में आ गईं. मैं मौके का फायदा उठा कर अपने कमरे में भाग गई.

मेरे साथ हौल में जो कुछ हुआ वह समझने में मुझे थोड़ा वक्त लगा. वह एक ऐसी अनहोनी थी जिस ने मेरी जिंदगी अस्तव्यस्त कर दी थी.‘‘मैं ने खुद से घृणा के भाव से पूछा, ‘मेरे साथ क्यों?’ मैं अपनी मां को यह बात नहीं बता पा रही थी, क्योंकि मुझे शर्मिंदगी और घबराहट महसूस हो रही थी.

‘‘अगले दिन अंकल ने मुझे फिर पीछे से पकड़ा और शैतानों वाली हंसी हंसते हुए पूछा कि मुझे कैसा लग रहा है.‘‘मेरे कुछ जवाब न देने और घूर कर देखने पर उन्होंने मुझे धमकाया. मैं डर के साथसाथ क्रोधित भी हो गई थी. मैं उन्हें थप्पड़ मारना चाहती थी पर उन की पकड़ से छूट ही नहीं पा रही थी.

‘‘मेरी चुप्पी उन की इस हरकत को बढ़ावा दे रही थी. धीरेधीरे मैं अंकल से दूरी बना कर रहने लगी. मैं ऐसी किसी जगह नहीं जाती थी जहां वे मौजूद हों. अब उन्हें देखते ही मुझे घृणा महसूस होने लगती थी. मेरा सामाजिक कार्यक्रमों में हिस्सा न लेना मेरे मातापिता को अनुचित लगता था.

वे मेरे इस व्यवहार का कारण पूछते थे. मैं इस उलझन में थी कि यह सब सुनने के बाद इस बारे में उन की क्या राय होगी? डर से मैं ने यह बात उन्हें न बताना ही सही समझ.‘‘मैं अब खुद को असहाय सा महसूस करने लगी हूं और सालों से सबकुछ चुपचाप सह रही हूं.

लंबे समय से वे बातें मेरे दिमाग में चलचित्र की तरह ताजी हैं. मैं अपनी मां से इस बारे में बात करना चाहती हूं पर नहीं कर पाती.‘‘जीवन में आगे चल कर मैं मर्दों के साथ रिश्ता नहीं निभा पाऊंगी. मुझे अपने दोस्तों (किसी लड़के) का साधारण तरीके से छूना भी पसंद नहीं आता.

मैं अपने बिगड़ते रिश्तों का कारण नहीं जान पा रही हूं. मैं खुद का आदर नहीं कर पाती और खुद से ही नाराज रहती हूं.’’ यह सब कहते हुए वह रोने लगी. यह सब सुन कर मीरा को बहुत दुख हुआ.

मीरा ने उस से कहा,’’ अच्छा, बुरा मत मानना, अन्याय सहना भी बहुत बड़ा अपराध है. आज अपनी इस दशा की जिम्मेदार तुम खुद हो. अगर तुम खुल कर अपनी मम्मी से इस यौनशोषण के बारे में बतातीं, तो शायद आज यह स्थिति न आती.

‘‘तुम क्यों हिचकिचाती रही? क्यों तुम ने शर्मिंदगी महसूस की. जीवन में बलि का बकरा बनने से अच्छा है कि हम खुद के लिए आवाज उठाएं. तुम आज ही अपनी मां से इस बारे में बात करो. तुम ने कोई अपराध नहीं किया है, जो तुम डरो. अगर तुम डर कर अपराधी को सजा नहीं दोगी, तो तुम उसे अपराध करने के लिए प्रेरित करोगी.

कल को कुछ भी हो सकता है.‘‘मुखरता, सहनशीलता और आक्रामकता का सही बैलेंस है. मुखर होना मतलब खुद के या दूसरों के अधिकार के लिए आराम से और सकारात्मक भाव से अपनी बात रखना होता है, न कि आक्रामक या सहनशील हो कर खड़ा होना.

मुखरता खुद में ही एक पुरस्कार की तरह है, क्योंकि यह देख कर अच्छा लगता है कि लोग आप की बातें ध्यान से सुनते हैं और परिस्थितियां भी अकसर अपने अनुसार ही चलती हैं. ‘‘मुखरता हमें अपने सोचविचार को खुल कर सामने लाने का आत्मविश्वास और ताकत देती है.

यह हम से किसी को भी गलत फायदा उठाने नहीं देती है. मुखरता एक तरह का व्यावहारिक उपचार है जो लोगों को खुद की मदद करने में सक्षम बनाता है.’’ मीरा की बातें सुन कर रिचा शायद अपनी भूल समझ गई थी.

उस ने उसी दिन अपनी मां को सारी बातें बता दीं. रिचा की मां कु्रद्ध हो गईं और उस की इस दुर्दशा को न जान पाने के लिए शर्मिंदगी महसूस करने लगी.

अब रिचा को एहसास हुआ कि जिस बात को सब के सामने आने के डर से वह हिचकिचाती थी और शर्मिंदगी महसूस करती थी, अगर चुप नहीं रहती, तो उसे इतने समय तक सबकुछ नहीं सहना पड़ता.रिचा अपने अंकल से ही नहीं, बल्कि अपनी बात समाज के सामने रखने से भी नहीं डरती.

मीरा ने उसे एक नया जीवन दिया. परिचय कराया उस का मुखरता से. उसे एक सकारात्मक आत्मछवि और जीने का विश्वास दिया. रिचा अब चुपचाप कुछ भी नहीं सहती है.

फिर वही शून्य- भाग 2 : क्या शादी के बाद पहले प्यार को भुला पाई सौम्या

हमारे प्यार को परिवार वालों की सहमति मिल गई और तय हुआ कि मेरी पढ़ाई पूरी होने के बाद हमारा विवाह किया जाएगा.

समर की छुट्टियां खत्म होने को थीं. उस के वापस जाने से पहले जो लम्हे मैं ने उस के साथ गुजारे वे मेरे जीवन की अमूल्य निधि हैं. उस का शालीन व्यवहार, मेरे प्रति उस की संवेदनशीलता और प्रेम के वे कोमल क्षण मुझे भावविह्वल कर देते. उस के साथ अपने भविष्य की कल्पनाएं एक सुखद अनुभूति देतीं.

मगर इनसान जैसा सोचता है वैसा हो कहां पाता है? पड़ोसी देश के अचानक आक्रमण करने की वजह से सीमा पर युद्ध के हालात उत्पन्न हो गए. एक फौजी के परिवार को किन परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है, इस का अंदाजा मुझे उस वक्त ही हुआ. टीवी पर युद्ध के हृदयविदारक दृश्य और फौजियों की निर्जीव देहें, उन के परिजनों का करुण रुदन देख कर मैं विचलित हो जाती. मन तरहतरह की आशंकाआें से घिरा रहता. सारा वक्त समर की कुशलता की प्रार्थना करते ही बीतता.

ऐसे में मैं एक दिन वीरां के साथ बैठी थी कि समर की बटालियन से फोन आया. समर को लापता कर दिया गया था. माना जा रहा था कि उसे दुश्मन देश के सैनिकों ने बंदी बना लिया था.

कुछ देर के लिए तो हम सब जड़ रह गए. फिर मन की पीड़ा आंखों के रास्ते आंसू बन कर बह निकली. वहां समर न जाने कितनी यातनाएं झेल रहा था और यहां…खुद को कितना बेबस और लाचार महसूस कर रहे थे हम.

युद्ध की समाप्ति पर दुश्मन देश ने अपने पास युद्धबंदी होने की बात पर साफ इनकार कर दिया. हमारी कोई कोशिश काम न आई. हम जहां भी मदद की गुहार लगाते, हमें आश्वासनों के अलावा कुछ न मिलता. उम्मीद की कोई किरण नजर नहीं आ रही थी.

वक्त गुजरता गया. इतना सब होने के बाद भी जिंदगी रुकी नहीं. वाकई यह बड़ी निर्मोही होती है. जीवन तो पुराने ढर्रे पर लौट आया लेकिन मेरा मन मर चुका था. वीरां और मैं अब भी साथ ही कालिज जाते, मगर समर अपने साथ हमारी हंसीखुशी सब ले गया. बस जीना था…तो सांस ले रहे थे, ऐसे ही…निरुद्देश्य. जीवन बस, एक शून्य भर रह गया था.

फिर हम दोनों ने साथ ही बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन का कोर्स भी कर लिया. तब एक दिन मम्मी ने मुझे अनिरुद्ध की तसवीर दिखाई.

‘मैं जानती हूं कि तुम समर को भुला नहीं पाई हो, लेकिन बेटा, ऐसे कब तक चलेगा? तुम्हें आगे के बारे में सोचना ही पडे़गा. इसे देखो, मातापिता सूरत में रहते हैं और खुद अमेरिका में साफ्टवेयर इंजीनियर है. इतना अच्छा रिश्ता बारबार नहीं मिलता. अगर तुम कहो तो बात आगे बढ़ाएं,’  वह मुझे समझाने के स्वर में बोलीं.

उन की बात सुन कर मैं तड़प उठी, ‘आप कैसी बातें कर रही हैं, मम्मी? मैं समर के अलावा किसी और के बारे में सोच भी नहीं सकती. आप एक औरत हैं, कम से कम आप तो मेरी मनोदशा समझें.’

‘तो क्या जिंदगी भर कुंआरी  रहोगी?’

‘हां,’ अब मेरा स्वर तल्ख होने लगा था, ‘और आप क्यों परेशान होती हैं? आप लोगों को मेरा बोझ नहीं उठाना पडे़गा. जल्दी ही मैं कोई नौकरी ढूंढ़ लूंगी. फिर तो आप निश्ंिचत रहेंगी न…’

‘पागल हो गई हो क्या? हम ने कब तुम्हें बोझ कहा, लेकिन हम कब तक रहेंगे? इस समाज में आज के दौर में एक अकेली औरत का जीना आसान नहीं है. उसे न जाने कितने कटाक्षों और दूषित निगाहों का सामना करना पड़ता है. कैसे जी पाओगी तुम? समझ क्यों नहीं रही हो तुम?’ मम्मी परेशान हो उठीं.

मगर मैं भी अपनी जिद पर अड़ी रही, ‘मैं कुछ समझना नहीं चाहती. मैं बस, इतना जानती हूं कि मैं सिर्फ समर से प्यार करती हूं.’

‘और समर का कुछ पता नहीं. वह जिंदा भी है या…कुछ पता नहीं,’ वीरां की धीमी आवाज सुन कर हम दोनों चौंक पड़ीं. वह न जाने कब से खड़ी हमारी बातें सुन रही थी, लेकिन हमें पता ही न चला था. मम्मी कुछ झेंप कर रह गईं लेकिन उस ने उन्हें ‘मैं बात करती हूं’ कह कर दिलासा दिया और वह हम दोनों को अकेला छोड़ कर वहां से चली गईं.

‘वीरां, तू कुछ तो सोचसमझ कर बोला कर. तू भूल रही है कि जिस के बारे में तू यह सब बातें कर रही है, वह तेरा ही भाई है.’

‘जानती हूं, लेकिन हकीकत से भी तो मुंह नहीं मोड़ा जा सकता. हमारी जो जिम्मेदारियां हैं, उन्हें भी तो पूरा करना हमारा ही फर्ज है. तुम्हें शायद भाई के लौटने की आस है, लेकिन जब 1971 के युद्धबंदी अब तक नहीं लौटे, तो हम किस आधार पर उम्मीद लगाएं.’

‘लेकिन…’

‘लेकिन के लिए कोई गुंजाइश नहीं है, सौम्या. तुम अपने मातापिता की इकलौती संतान हो. तुम चाहती हो कि वे जीवनभर तुम्हारे दुख में घुलते रहें? क्या तुम्हारा उन के प्रति कोई फर्ज नहीं है?’

‘लेकिन मेरा भी तो सोचो, समर के अलावा मैं किसी और से कैसे शादी कर सकती हूं?’

‘अपनी जिम्मेदारियों को सामने रखोगी तो फैसला लेना आसान हो जाएगा,’ उस दिन हम दोनों सहेलियां आपस में लिपट कर खूब रोईं.

फिर मैं अनिरुद्ध से विवाह कर के न्यू जर्सी आ गई, मगर मैं समर को एक दिन के लिए भी नहीं भूल पाई. हालांकि मैं ने अनिरुद्ध को कभी भी शिकायत का मौका नहीं दिया, अपने हर कर्तव्य का निर्वहन भली प्रकार से किया, पर मेरे मन में उस के लिए प्रेम पनप न सका. मेरे मनमंदिर में तो समर बसा था, अनिरुद्ध को कहां जगह देती.

यही बात मुश्किल भी खड़ी करती. मैं कभी मन से अनिरुद्ध की पत्नी न बन पाई. उस के सामने जब अपना तन समर्पित करती, तब मन समर की कल्पना करता. खुद पर ग्लानि होती मुझे. लगता अनिरुद्ध को धोखा दे रही हूं. आखिर उस की तो कोेई गलती नहीं थी. फिर क्यों उसे अपने हिस्से के प्यार से वंचित रहना पडे़़? अब वही तो मेरे जीवन का सच था. मगर खुद को लाख समझाने पर भी मैं समर को दिल से नहीं निकाल पाई. शायद एक औरत जब प्यार करती है तो बहुत शिद्दत से करती है.

अलार्म की आवाज ने विचारों की शृंखला को तोड़ दिया. सारी रात सोचतेसोचते ही बीत गई थी. एक ठंडी सांस ले कर मैं उठ खड़ी हुई.

फिर 1 साल बाद ही भारत आना हुआ. इस बीच वीरां का विवाह भी हो चुका था. जब इस बात का पता चला तो मन में एक टीस सी उठी थी.

‘‘तुम्हारी पसंद का मूंग की दाल का हलवा बनाया है, वहां तो क्या खाती होगी तुम यह सब,’’ मम्मी मेरे आने से बहुत उत्साहित थीं.

‘‘वीरां कैसी है, मम्मी? वह अपने ससुराल में ठीक तो है न?’’

‘‘हां, वह भी आई है अभी मायके.’’

‘‘अच्छा, तो मैं जाऊंगी उस से मिलने,’’ मैं ने खुश हो कर कहा.

इस पर मम्मी कुछ खामोश हो गईं. फिर धीरे से बोलीं, ‘‘हम ने तुम से एक बात छिपाई थी. वीरां की शादी के कुछ दिन पहले ही समर रिहा किया गया था. उस का एक पांव बेकार हो चुका है. बैसाखियों के सहारे ही चल पाता है. अभी महीना भर पहले ही उस का भी विवाह हुआ है. तुम वहां जाओगी तो जाहिर है, अत्यंत असहज महसूस करोगी. बेहतर होगा किसी दिन वीरां को यहीं बुला लेना.’’

कशमकश: क्या बेवफा था मानव

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हमसफर: भाग 3- प्रिया रविरंजन से दूर क्यों चली गई

मौसम में बदलाव आया. वसंत विदाई पर था. टेसू के फूलों से प्रकृति सिंदूरी हो गई थी. मैं जब भी रविरंजन को याद करती, दिल में अंगारे दहक जाते. रवि कह के गए थे कि जब भी मेरी जरूरत हो कहना, मैं चला आऊंगा पर आए नहीं थे. गरम हवा के थपेड़े

तन को   झुलसाने लगे थे. मैं ने लंबी छुट्टी पर जाने का मन बना लिया. फोन से मां को सूचित भी कर दिया.

बहुत दिनों बाद मां के पास पहुंची तो मु  झे लगा जैसे मेरा बचपन लौट आया है. अकसर मां की गोद में सिर रख कर लेटी रहती. मां भी दुलार से कहतीं कि बस, तेरी एक नहीं सुनूंगी. कई घरवर देख रखे हैं. अब भी चेत जा. अपना कहने वाला कोई तो होना चाहिए, मैं और कितने दिन की हूं.

उत्तर में मैं ने मां को साफसाफ कह दिया कि मां मेरी जिंदगी में दखल मत दो. मैं जैसी हूं वैसी ही रहूंगी. अभी वर्तमान में जी रही हूं. कल की कल देखी जाएगी. और हां मां, मेरी कुछ कुलीग मसूरी जा रही हैं छुट्टियां मनाने, उन के साथ मैं ने भी जाने का प्रोग्राम बना लिया है. बस 2 दिन बाद ही जाना है.

मसूरी में मैं ने एक कौटेज बुक करा लिया था. दरअसल, मैं अपना मन शांत करने के लिए एकांत में कुछ दिन बिताना चाहती थी. मां से मैं ने   झूठ ही कह दिया था कि मेरी फ्रैंड्स मेरे साथ जा रही हैं. सच तो यह था कि रवि द्वारा दी गई चोट ने मु  झे बड़ी पीड़ा पहुंचाई थी. एकांत शायद मु  झे राहत दे यह सोचा था मैं ने, इसीलिए अकेले मसूरी चली आई थी.

मसूरी में सैलानियों की टोलियां थीं और मैं बिलकुल अकेली अलगथलग घूमती. एक दिन अचानक एक 14-15 साल की किशोरी मेरे सामने आ खड़ी हुई. नमस्ते की और बोली, ‘‘आप शायद अकेली हैं. हमारी कंपनी लेना चाहेंगी? मैं और मेरे पापा हैं, हमें खुशी होगी आप के साथ. वे आ रहे हैं मेरे पापा.’’

फिर हमारा परिचय हुआ और लगभग रोज हमारे प्रोग्राम साथ बनने लगे.

हम अपनेअपने कौटेज से चल कर नियत समय पर, नियत स्थान पर पहुंच जाते. पर एक दिन मेरा मन निकलने को नहीं किया क्योंकि मेरा माथा तप रहा था. मैं अवचेतनावस्था में सोती रही.

शाम गहरा गई थी. ज्वर का जोर कम हुआ तब मैं ने आंखें खोलीं. देखा कि राजीव और उन की बेटी दोनों मेरे पास बैठे हैं. लड़की मेरे सिरहाने बैठी मेरा सिर दबा रही थी.

‘‘यह अचानक आप को क्या हो गया मिस प्रिया? हम तो चिंतित हो उठे थे. अब आप

कैसी हैं? मेरे पास दवा थी मैं ले आया हूं,

नीलू बेटा चाय बनाओ और आंटी को दवा दो,’’ राजीव बोले.

मैं ने बच्ची की ओर देखा. मासूम सा चिंतित चेहरा. मेरे ज्वर ने दोनों को उदास कर दिया था. मैं द्रवित हो उठी.

मैं सोचने लगी कितना अंतर है रवि और राजीव में. एक बरसाती नदी सा चंचल, दूसरा सागर सा शांत. मैं ने सोच पर लगाम लगाई. मैं इस अकेलेपन से डरने क्यों लगी हूं? मैं सदा यही सोचा करती कि रवि के अलावा मेरे जीवन में अब किसी पुरुष की जगह नहीं. पर राजीव… जागजाग कर दवा देना, कभी दूध गरम करना कभी पानी उबालना. ये नहीं होते तो इस अनजान जगह में बीमारी के बीच कौन होता मेरे पास?

मैं बहला रही थी अपनेआप को, भाग रही थी खुद से दूर. शायद सोच में डूब गई थी कि राजीव ने टोका, ‘‘क्या सोच रही हैं प्रियाजी?’’

‘‘आप के विषय में, आप नहीं जानते आप ने मु  झे क्या दिया है. अकेलेपन और अंतर्द्वंद्व के भयावह दौर से गुजर रही हूं मैं.’’

‘‘देखिए प्रियाजी, आप बिलकुल फिक्र न करें. आप के ठीक हो जाने के बाद ही हम यहां से जाएंगे. मेरी बच्ची नीलू को आप ने ममता भरा जो प्यार दिया है, वह उसे इस से पहले नहीं मिला. वह चाह रही है कि आप सदा उस के साथ रहें. जब उस ने अपनी मां को खोया, तब बच्ची थी मात्र 2 साल की. बाकी मेरे विषय में आप जान चुकी हैं और मैं आप के. आप सम  झ रही होंगी, मैं क्या कहना चाह रहा हूं?’’

‘‘मैं सम  झ रही हूं, राजीवजी पर अभी कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं हूं. इत्तफाक से हम दोनों का कार्यस्थल दिल्ली है. मैं बाद में आप से बात करती हूं.’’

छुट्टियां पूरी होने पर मैं मां के पास न लौट कर सीधे दिल्ली पहुंची.

घर इतने दिनों से बंद था. खोला तो लगा कि एक अनजानी रिक्तता हर तरफ पसरी थी. औफिस पहुंची तो वहां सन्नाटे भरी गहमागहमी थी. ज्ञात हुआ कि मिस सुजान की तबीयत अचानक खराब हो गई. उन्हें अस्पताल पहुंचाया गया. सुजान मेरे ही साथ काम करती थी. मैं स्वयं अपनेआप से उबर नहीं पा रही थी फिर भी सुजान को देखने अस्पताल पहुंची.

उस के आसपास अपना कहने वाला कोई नहीं था. मांबाप की मौत के बाद वह बिलकुल अकेली थी. उस की मानसिकता मेरे जैसी ही थी. अपने अहं, अपनी स्वतंत्रता की चाह में उस ने विवाह नहीं किया था. दिल की बातों को वह किसी से शेयर नहीं कर पाती थी और आज उस का परिणाम उस के सामने था. लोग कह रहे थे कि इसी कारण वह डिप्रैशन और मानसिक बीमारी की शिकार हो गई.

शायद मेरी मां इसी कारण मेरी चिंता करती रहती हैं, यह सोच कर मैं ऐसी दुखद और त्रासद स्थिति के लिए भयभीत हो उठी.

आगे का पूरा सप्ताह मैं ने ऊहापोह की स्थिति में गुजारा. मैं दोराहे पर खड़ी थी. कोई फैसला लेना कठिन हो रहा था. जीवन की

नौका अथाह जल में घूमती अपनी दिशा खो बैठी थी. किनारा उस की पहुंच से दूर होता जा रहा था. कभीकभी लगता कि मां का कहना मान लूं. पर क्या मां राजीव जैसे व्यक्ति से शादी करने की आज्ञा देंगी, जिस की एक बेटी है और जो विधुर है?

काफी सोचविचार के उपरांत मैं ने राजीव को फोन लगाया क्योंकि उन का और उन की बेटी का प्रस्ताव ही मु  झे उचित लगा. मैं ने फोन पर बस इतना ही कहा, ‘‘इस अकेलेपन में मु  झे आप की जरूरत है.’’

शाम   झुक आई थी. मैं ने कमरे की खिड़की खोली तो ठंडी हवा के   झोंके के साथ देखा कि राजीव की कार मेरे घर के नीचे आ लगी थी और वे अपनी बेटी के साथ मुख्य द्वार से प्रवेश कर रहे थे. मैं खुशी से झूम उठी. मु  झे लगा कि यही सच है, यही सृष्टि का नियम है. मां को बताना ही होगा, उन्हें मानना ही होगा.

खेल: दिव्या ने रचा ऐसा प्रपंच

आज से 6-7 साल पहले जब पहली बार तुम्हारा फोन आया था तब भी मैं नहीं समझ पाया था कि तुम खेल खेलने में इतनी प्रवीण होगी या खेल खेलना तुम्हें बहुत अच्छा लगता होगा. मैं अपनी बात बताऊं तो वौलीबौल छोड़ कर और कोई खेल मुझे कभी नहीं आया. यहां तक कि बचपन में गुल्लीडंडा, आइसपाइस या चोरसिपाही में मैं बहुत फिसड्डी माना जाता था.

फिर अन्य खेलों की तो बात ही छोड़ दीजिए कुश्ती, क्रिकेट, हौकी, कूद, अखाड़ा आदि. वौलीबौल भी सिर्फ 3 साल स्कूल के दिनों में छठीं, 7वीं और 8वीं में था, देवीपाटन जूनियर हाईस्कूल में.उन दिनों स्कूल में नईनई अंतर्क्षेत्रीय वौलीबौल प्रतियोगिता का शुभारंभ हुआ था और पता नहीं कैसे मुझे स्कूल की टीम के लिए चुन लिया गया और उस टीम में मैं 3 साल रहा.

आगे चल कर पत्रकारिता में खेलों का अपना शौक मैं ने खूब निकाला. मेरा खयाल है कि खेलों पर मैं ने जितने लेख लिखे, उतने किसी और विषय पर नहीं. तकरीबन सारे ही खेलों पर मेरी कलम चली. ऐसी चली कि पाठकों के साथ अखबारों के लोग भी मुझे कोई औलराउंडर खेलविशेषज्ञ समझते थे. पर तुम तो मुझ से भी बड़ी खेल विशेषज्ञा निकली.

तुम्हें रिश्तों का खेल खेलने में महारत हासिल है. 6-7 साल पहले जब पहली बार तुम ने फोन किया था तो मैं किसी कन्या की आवाज सुन कर अतिरिक्त सावधान हो गया था.

‘हैलो सर, मेरा नाम दिव्या है, दिव्या शाह. अहमदाबाद से बोल रही हूं. आप का लिखा हुआ हमेशा पढ़ती रहती हूं.’‘जी, दिव्याजी, नमस्कार, मुझे बहुत अच्छा लगा आप से बात कर. कहिए मैं आप की क्या सेवा कर सकता हूं.’जी सर, सेवावेवा कुछ नहीं. मैं आप की फैन हूं. मैं ने फेसबुक से आप का नंबर निकाला. मेरा मन हुआ कि आप से बात की जाए.‘थैंक्यूजी. आप क्या करती हैं, दिव्याजी?’‘सर, मैं कुछ नहीं करती. नौकरी खोज रही हूं.

वैसे मैं ने एमए किया है समाजशास्त्र में. मेरी रुचि साहित्य में है.’‘दिव्याजी, बहुत अच्छा लगा. हम लोग बात करते रहेंगे,’ यह कह कर मैं ने फोन काट दिया. मुझे फोन पर तुम्हारी आवाज की गर्मजोशी, तुम्हारी बात करने की शैली बहुत अच्छी लगी. पर मैं लड़कियों, महिलाओं के मामले में थोड़ा संकोची हूं. डरपोक भी कह सकते हैं. उस का कारण यह है कि मुझे थोड़ा डर भी लगा रहता है कि क्या मालूम कब, कौन मेरी लोकप्रियता से जल कर स्टिंग औपरेशन पर न उतर आए. इसलिए एक सीमा के बाद मैं लड़कियों व महिलाओं से थोड़ी दूरी बना कर चलता हूं.

पर तुम्हारी आवाज की आत्मीयता से मेरे सारे सिद्धांत ढह गए. दूरी बना कर चलने की सोच पर ताला पड़ गया. उस दिन के बाद तुम से अकसर फोन पर बातें होने लगीं. दुनियाजहान की बातें. साहित्य और समाज की बातें. उसी दौरान तुम ने अपने नाना के बारे में बताया था. तुम्हारे नानाजी द्वारका में कोई बहुत बड़े महंत थे.

तुम्हारा उन से इमोशनल लगाव था. तुम्हारी बातें मेरे लिए मदहोश होतीं. उम्र में खासा अंतर होने के बावजूद मैं तुम्हारी ओर आकर्षित होने लगा था. यह आत्मिक आकर्षण था. दोस्ती का आकर्षण. तुम्हारी आवाज मेरे कानों में मिस्री सरीखी घुलती. तुम बोलती तो मानो दिल में घंटियां बज रही हैं. तुम्हारी हंसी संगमरमर पर बारिश की बूंदों के माध्यम से बजती जलतरंग सरीखी होती.

उस के बाद जब मैं अगली बार अपने गृहनगर गांधीनगर गया तो अहमदाबाद स्टेशन पर मेरीतुम्हारी पहली मुलाकात हुई. स्टेशन के सामने का आटो स्टैंड हमारी पहली मुलाकात का मीटिंग पौइंट बना. उसी के पास स्थित चाय की एक टपरी पर हम ने चाय पी. बहुत रद्दी चाय, पर तुम्हारे साथ की वजह से खुशनुमा लग रही थी. वैसे मैं बहुत थका हुआ था.

दिल्ली से अहमदाबाद तक के सफर की थकान थी, पर तुम से मिलने के बाद सारी थकान उतर गई. मैं तरोताजा हो गया. मैं ने जैसा सोचा सम?ा था तुम बिलकुल वैसी ही थी. एकदम सीधीसादी. प्यारी, गुडि़या सरीखी. जैसे मेरे अपने घर की. एकदम मन के करीब की लड़की. मासूम सा ड्रैस सैंस, उस से भी मासूम हावभाव. किशमिशी रंग का सूट.

मैचिंग छोटा सा पर्स. खूबसूरत डिजाइन की चप्पलें. ऊपर से भीने सेंट की फुहार. सचमुच दिलकश. मैं एकटक तुम्हें देखता रह गया. आमनेसामने की मुलाकात में तुम बहुत संकोची और खुद्दार महसूस हुई.कुछ महीने बाद हुई दूसरी मुलाकात में तुम ने बहुत संकोच से    कहा कि सर, मेरे लिए यहीं अहमदाबाद में किसी नौकरी का इंतजाम करवाइए.

मैं ने बोल तो जरूर दिया, पर मैं सोचता रहा कि इतनी कम उम्र में तुम्हें नौकरी करने की क्या जरूरत है? तुम्हारी घरेलू स्थिति क्या है? इस तरह कौन मां अपनी कम उम्र की बिटिया को नौकरी करने शहर भेज सकती है? कई सवाल मेरे मन में आते रहे, मैं तुम से उन का जवाब नहीं मांग पाया.

सवाल सवाल होते हैं और जवाब जवाब. जब सवाल पसंद आने वाले न हों तो कौन उन का जवाब देना चाहेगा. वैसे मैं ने हाल में तुम से कई सवाल पूछे पर मुझे एक का भी उत्तर नहीं मिला. आज 20 अगस्त को जब मुझे तुम्हारा सारा खेल समझ में आया है तो फिर कटु सवाल कर के क्यों तुम्हें परेशान करूं.मेरे मन में तुम्हारी छवि आज भी एक जहीन, संवेदनशील, बुद्धिमान लड़की की है.

यह छवि तब बनी जब पहली बार तुम से बात हुई थी. फिर हमारे बीच लगातार बातों से इस छवि में इजाफा हुआ. जब हमारी पहली मुलाकात हुई तो यह छवि मजबूत हो गई. हालांकि मैं तुम्हारे लिए चाह कर भी कुछ कर नहीं पाया. कोशिश मैं ने बहुत की पर सफलता नहीं मिली.दूसरी पारी में मैं ने अपनी असफलता को जब सफलता में बदलने का फैसला किया तो मुझे तुम्हारी तरफ से सहयोग नहीं मिला. बस, मैं यही चाहता था कि तुम्हारे प्यार को न समझ पाने की जो गलती मुझ से हुई थी उस का प्रायश्चित्त यही है कि अब मैं तुम्हारी जिंदगी को ढर्रे पर लाऊं. इस में जो तुम्हारा साथ चाहिए वह मुझे प्राप्त नहीं हुआ. बहरहाल, 25 जुलाई को तुम फिर मेरी जिंदगी में एक नए रूप में आ गई.

अचानक, धड़धड़ाते हुए. तेजी से. सुपरसोनिक स्पीड से. यह दूसरी पारी बहुत हंगामाखेज रही. इस ने मेरी दुनिया बदल कर रख दी. मैं ठहरा भावुक इंसान. तुम ने मेरी भावनाओं की नजाकत पकड़ी और मेरे दिल में प्रवेश कर गई.मेरे जीवन में इंद्रधनुष के सभी रंग भरने लगे. मेरे ऊपर तुम्हारा नशा, तुम्हारा जादू छाने लगा. मेरी संवेदनाएं जो कहीं दबी पड़ी थीं उन्हें तुम ने हवा दी और मेरी जिंदगी फूलों सरीखी हो गई. दुनियाजहान के कसमेवादों की एक नई दुनिया खुल गई. हमारेतुम्हारे बीच की भौतिक दूरी का कोई मतलब नहीं रहा. बातों का आकाश मुहब्बत के बादलों से गुलजार होने लगा.

तुम्हारी आवाज बहुत मधुर है और तुम्हें सुर और ताल की सम?ा भी है. तुम जब कोई गीत, कोई गजल, कोई नगमा, कोई नज्म अपनी प्यारी आवाज में गाती तो मैं सबकुछ भूल जाता. रात और दिन का अंतर मिट गया. रानी, जानू, राजा, सोना, बाबू सरीखे शब्द फुसफुसाहटों की मदमाती जमीन पर कानों में उतर कर मिस्री घोलने लगे.

उम्र का बंधन टूट गया. मैं उत्साह के सातवें आसमान पर सवार हो कर तुम्हारी हर बात मानने लगा. तुम जो कहती उसे पूरा करने लगा. मेरी दिनचर्या बदल गई. मैं सपनों के रंगीन संसार में गोते लगाने लगा.क्या कभी सपने भी सच्चे होते हैं? मेरा मानना है कि नहीं. ज्यादा तेजी किसी काम की नहीं होती.

25 जुलाई को शुरू हुई प्रेमकथा 20 अगस्त को अचानक रुक गई. मेरे सपने टूटने लगे. पर मैं ने सहनशीलता का दामन नहीं छोड़ा. मैं गंभीर हो गया था. मैं तो कोई खेल नहीं खेल रहा था. इसलिए मेरा व्यवहार पहले जैसा ही रहा. पर तुम्हारा प्रेम उपेक्षा में बदल गया. कोमल भावनाएं औपचारिक हो गईं. मेरे फोन की तुम उपेक्षा करने लगी.

अपना फोन दिनदिन भर, रातभर बंद करने लगी. बातों में भी बोरियत झलकने लगी. तुम्हारा व्यवहार किसी खेल की ओर इशारा करने लगा.इस उपेक्षा से मेरे अंदर जैसे कोई शीशा सा चटख गया, बिखर गया हो और आवाज भी नहीं हुई हो. मैं टूटे ताड़ सा झक गया. लगा जैसे शरीर की सारी ताकत निचुड़ गई है. मैं विदेह सा हो गया हूं.

डा. सुधाकर मिश्र की एक कविता याद आ गई, इतना दर्द भरा है दिल में, सागर की सीमा घट जाए. जल का हृदय जलज बन कर जब खुशियों में खिलखिल उठता है. मिलने की अभिलाषा ले कर,भंवरे का दिल हिल उठता है. सागर को छूने शशधर की किरणें,भागभाग आती हैं, झमझम कर, चूमचूम कर, पता नहीं क्याक्या गाती हैं.

तुम भी एक गीत यदि गा दो,आधी व्यथा मेरी घट जाए.पर तुम्हारे व्यवहार से लगता है कि मेरी व्यथा कटने वाली नहीं है.अभी जैसा तुम्हारा बरताव है, उस से लगता है कि नहीं कटेगी. यह मेरे लिए पीड़ादायक है कि मेरा सच्चा प्यार खेल का शिकार बन गया है.

मैं तुम्हारी मासूमियत को प्यार करता हूं, दिव्या. पर इस प्यार को किसी खेल का शिकार नहीं बनने दे सकता. लिहाजा, मैं वापस अपनी पुरानी दुनिया में लौट रहा हूं. मुझे पता है कि मेरा मन तुम्हारे पास बारबार लौटना चाहेगा. पर मैं अपने दिल को समझ लूंगा. और हां, जिंदगी के किसी मोड़ पर अगर तुम्हें मेरी जरूरत होगी तो मुझे बेझिझक पुकारना, मैं चला आऊंगा. तुम्हारे संपर्क का तकरीबन एक महीना मुझे हमेशा याद रहेगा. अपना खयाल रखना.

थोड़ा दूर थोड़ा पास- भाग 3 : शादी के बाद क्या हुआ तन्वी के साथ

शुरूशुरू में तन्वी कुछ नाराजगी, कुछ डर के कारण नहीं गई. फिर धीरेधीरे उस ने भी जाना शुरू कर दिया. विजित के साथ छुट्टी के दिन या रविवार को वह भी मांपापा के पास चली जाती. ससुरजी का मूड तो कुछकुछ दिखाने के लिए सही हो गया पर सास का मूड उसे देख कर उखड़ा ही रहता. अभी उन्हें घर से अलग हुए 2 महीने भी नहीं हुए थे कि दिन वे सुबह औफिस जाने के लिए तैयार हो ही रहे थे कि विजित का मोबाइल बज उठा. पापा का फोन था. वे घबराए स्वर में बोल रहे थे. पापा बोल रहे थे कि मां का ऐक्सीडैंट हो गया है. जल्दी से घर आ जाओ.

‘‘हम अभी आते हैं पापा…’’ कह कर दोनों घबराए हुए दोनों जैसेतैसे घर की तरफ दौड़े… मां को उठा कर अस्पताल ले गए.

उन का ऐक्सरे हुआ तो पता चला पैर मुड़ने से पैर के बल गिरने से पैर में फ्रैक्चर हो गया है. प्लस्तर चढ़ गया. 45 दिन का प्लस्तर था. डाक्टर ने शुरू में तो पूर्ण आराम की सलाह दी थी. यहां तक कि बाथरूम तक भी व्हीलचेयर से ही ले जाना.

सबकुछ करा कर जब मां को ले कर विजित और तन्वी घर पहुंचे तो काफी देर हो गई थी.

तन्वी ने ही सब के लिए थकने के बावजूद जैसेतैसे खाना बनाया. उस रात दोनों वहीं रुक गए. रात को दोनों सोच में पड़ गए अब…?’’ पिता के बस का नहीं था मां की देखभाल करना,

‘‘मैं तो एकदम से छुट्टी भी नहीं ले सकता… कल से रिव्यू है… दिल्ली से बौस लोग आ रहे हैं… अलगे कुछ दिन मैं बहुत व्यस्त रहूंगा… इतने दिन से तैयारी कर रहा था…’’ विजित लाचारी और उल झन में बोला.

‘‘ऐसा करते हैं विजित…’’ विजित को सोच व उल झन में पड़े देख कर तन्वी बोली, ‘‘मेरी काफी छुट्टियां बाकी हैं… कल से मैं फिलहाल 15 दिन की छुट्टी ले लेती हूं… तब तक तुम्हारे रिव्यू खत्म हो जाएंगे. तब तुम छुट्टी लेने की कोशिश करना… उस के बाद दीदी को पूछ लो… यदि हफ्ते भर के लिए वे आ सकती हैं तो… फिर मैं दोबारा कोशिश करूंगी छुट्टी लेने की…’’

विजित ने चौंक कर तन्वी की तरफ देखा. उस के चेहरे पर मां की परेशानी  से उपजे चिंता के भाव थे. वह मुग्ध भाव से तन्वी को देखता रह गया कि पता नहीं मां तन्वी को क्यों नहीं सम झ पातीं. मां तन्वी की पीढ़ी की बहुओं को भी अपने जमाने की सासों के चश्मे से देखती हैं और उन की तुलना अपने जमाने की बहुओं से करती हैं. लेकिन तब से अब तक जमाने में, समाज में, शिक्षा में, लड़कियों के पालनपोषण में बहुत परिवर्तन आ चुका है, इस बात पर बिलकुल विचार करना नहीं चाहतीं.

इस घोर परेशानी व उल झन के समय में तन्वी के सहयोग से उस का दिल भर आया था, मां ने क्या कुछ नहीं कहा तन्वी को… पर प्रत्यक्ष में बोला, ‘‘ठीक है, पर तुम्हें छुट्टी लेने में दिक्कत तो नहीं होगी…’’

‘‘नहीं, मिल जाएगी… जरूरत पर नहीं मिलेंगी तो किस काम की ये छुट्टियां…’’

रात में वह निश्चिंत हो कर सो पाया. तन्वी ने छुट्टियां ले कर पूर्ण तनमन से मां की देखभाल की. चूंकि यह शुरू का समय था, इसलिए ज्यादा कष्टपूर्ण व नाजुक था. देखभाल की ज्यादा जरूरत थी. तन्वी की निश्छल देखभाल से मां का मन बारबार पिघलने को होता. हालांकि वे उन विचारों की अधिक थीं जिन में वे बहू का प्यार कम उस का फर्ज ज्यादा सम झती थीं.

15 दिन बाद तन्वी औफिस चली गई और विजित ने छुट्टियां ले ली. विजित की छुट्टियां खत्म हुईं तो 1 हफ्ते के लिए दीदी मां की देखभाल के लिए आ गई. दीदी गई तो तन्वी ने कुछ दिन की छुट्टियां दोबारा ले लीं.

मां अब काफी ठीक हो गई थीं. सहारे से बाथरूम जाने लगी थीं. तन्वी पूरी देखभाल  कर रही थी. धीरेधीरे मां पूरी तरह ठीक हो गईं.

विजित कृतज्ञ हो रहा था तन्वी के प्रति. उस ने इस परेशानी के समय मां के प्रति सभी पूर्वाग्रह भुला कर मन से उन की देखभाल व सेवा की थी और वह देख रहा था, कहीं न कहीं मां के मन को भी तन्वी की सेवा बांध गई थी.

तन्वी की जरूरतों पर कभी ध्यान न देने वाली मां उस से अब जबतब पूछ लेतीं कि उस ने खाना खा लिया या नहीं. चाय पी ली या फिर थोड़ी देर आराम कर ले तन्वी, थक गई होगी. विजित को खुशी होती यह देख कर.

कल से तन्वी की छुट्टियां भी खत्म हो रही थीं. कल से उसे औफिस जाना था. मां अब पूरी तरह से ठीक थीं. रात का खाना खिला कर खाना खाने के बाद वे अपने घर जाने के लिए तैयार हो गए. तन्वी कमरे में जा कर मां से मिल कर बाहर आ गई.

विजित भी मां से मिलने कमरे में चला गया. बोला, ‘‘अच्छा मां चलते हैं… अब आप बिलकुल ठीक हैं… अपना ध्यान रखना… हम आतेजाते रहेंगे… तन्वी की भी काफी छुट्टियां हो गई हैं, कल से वह भी औफिस जाएगी…’’

‘‘हां बेटा, बहुत सेवा की तन्वी ने मेरी…’’ मां का स्वर कुछकुछ पश्चात्ताप से भरा था, ‘‘तन्वी को सम झाने में शायद भूल कर दी मैं ने…’’

‘‘कोई बात नहीं मां…’’ वह संतुष्ट होता हुआ बोला, ‘‘आप सम झ गईं, हमारे लिए यही काफी है और मातापिता की सेवा व देखभाल करना तो हमारा फर्ज है… आप को जब भी जरूरत होगी, हम आप के पास होंगे मां…’’ वह भीगे स्वर में बोला. मां की आंखों में भी नमी तैर गई.

‘‘विजित, तन्वी अब वापस आ जाए बेटा… क्यों अलग जा रहे हो रहने… जहां दो बरतन होंगे तो थोड़ेबहुत तो बजेंगे ही… पर इस का मतलब यह तो नहीं कि मैं तुम लोगों को प्यार नहीं करती… बड़ों की बातों का इतना भी क्या बुरा मानना…’’ मां का स्वर कातर हो गया था.

‘‘ओह, मां…’’ वह मां को गले लगाता हुआ बोला, ‘‘आप इतनी भावुक क्यों हो रही हैं… आप के ही तो बच्चे हैं हम… दूर थोड़े ही न हो गए हैं आप से… जरा सी दूरी पर ही तो हैं…’’ वह धीरेधीरे मां की पीठ सहलाने लगा.

‘‘मां, एक घर में एक छत के नीचे रह रहे थे… पास थे आप के, पर आप के दिल से दूर थे… जब थोड़ा दूर हैं तो दिल के पास हैं… पास रह कर दूर रहने से, दूर रह कर पास रहना ज्यादा अच्छा है मां… मु झे उम्मीद है आप मेरी बात सम झ रही होंगी…’’ वह मां से अलग होता हुआ बोला.

‘‘साथ रह कर थोड़े दिन बाद फिर वही सब शुरू हो, वही दमघोंटू वातावरण, वही रिश्तों की खींचतान, बहुत मुश्किल होती है मां मु झे… तन्वी के लिए भी ये सब मुश्किल है नौकरी के साथ  झेलना… मैं अब तन्वी के ऊपर अपनी कोई सोच लादना नहीं चाहता… अपने और तन्वी के रिश्ते को थोड़ा और समय दो… हो जाने दो इस रिश्ते को परिपक्व… बदल जाने दो अपने खुद के विचारों को आप… जैसे आप को तन्वी पर विश्वास हो गया, वैसे ही तन्वी का विश्वास भी हो जाने दो आप पर…

‘‘जब तक तन्वी मु झे स्वयं घर लौटने के लिए नहीं कहेगी, तब तक मैं यह कदम नहीं उठाऊंगा… और तब तक आप भी इंतजार करो. मैं जानता हूं तन्वी को, जिस दिन उसे अपने और आप के रिश्ते पर विश्वास हो जाएगा वह खुद ही वापस आ जाएगी…

‘‘मेरे लिए तो दोनों रिश्ते प्रिय हैं मां… मैं तो चाहूंगा ही कि आप और तन्वी के बीच प्यार और प्यारभरा रिश्ता विकसित हो…जैसे तन्वी ने आप का दिल जीता. आप का उस पर विश्वास लौटा… वैसे ही तन्वी का विश्वास भी लौट आएगा आप पर… मु झे पूरा भरोसा है… तभी साथ रहने का मजा है मां…’’ कह कर वह उठ खड़ा हुआ.

विजित पीछे मुड़ा तो पापा खड़े थे. आज पहली बार उसे पापा के चेहरे पर  अपनी कही बात पर सहमति के भाव नजर आए. उन्होंने बेहद अपनेपन व बेहद भरोसे से उस का कंधा थपथपा दिया. बाहर आया तो तन्वी उस का इंतजार कर रही थी. वह जानता था, मां अभीअभी मुश्किल दौर से निकली हैं, इसलिए इतनी बदली हुई हैं. वर्षों की आदतें और विचार 4 दिन में नहीं बदलते.

जब फिर से साथ रहना शुरू करेंगे तो फिर से उन्हें अपनी वाणी और विचारों पर अकुंश रखना मुश्किल होगा. अभी और समय देना होगा उन्हें तन्वी को सम झाने का… और उन फालतू बातों से अधिक अपने बच्चों की जरूरत अपनी जिंदगी में महसूस करने का. तब तक तन्वी भी कुछ मां के नजदीक आ जाएगी तो फिर शायद उसे उन की बात इतनी बुरी न लगे, जितनी अभी लगती है.

जैसे मातापिता की देखभाल और सेवा करना उस का फर्ज है वैसे ही तन्वी भी उस से ही बंधी हुई इस घर में आई है, उस की जिंदगी में आई है. उसे एक सुंदर, स्वच्छ, अच्छी, संतुलित जिंदगी देना भी उस का कर्तव्य है. सोचता हुआ वह तन्वी के साथ घर से बाहर निकल गया.

थोड़ा दूर थोड़ा पास- भाग 2 : शादी के बाद क्या हुआ तन्वी के साथ

अकसर चुप रहने वाली तन्वी अब उस से कभीकभी प्रतिवाद करने लगी  थी. तर्क करने लगी थी और एक दिन उस की सहनशक्ति जवाब दे गई.

‘‘यह रोजरोज की चखचख मु झ से बरदाश्त नहीं होती विजित… औफिस से थक कर आओ और घर में आ कर ये सब सुनो… किचन में मां की मदद के लिए जाना चाहती हूं तो उन के रुख से भी डर लगता है… मैं भी कब तक चुप रहूं… एक ही काम तो नहीं है मेरा… एक छुट्टी के दिन भी न शरीर को आराम, न दिलदिमाग को… या तो तुम मां को सम झाओ या फिर अलग रहने की व्यवस्था करो…’’

‘‘सम झाता तो हूं मां को तन्वी… पर क्या करूं. वे मां हैं, बुरी तो नहीं हो सकतीं हमारे लिए… बस थोड़ा पुराने विचारों की हैं… तुम उन की बातों पर ध्यान मत दिया करो…’’

‘‘कितने दिन ध्यान न दो विजित… आखिर बातें जब कानों में पड़ती हैं तो दिल में भी उतरती ही हैं… दिमाग में बसती भी हैं… कितनी बार नजरअंदाज करूं… थकामांदा दिमाग भन्ना जाता है मेरा… ऐसे घुटनभरे वातावरण में कितने दिन रह पाऊंगी…

‘‘माना कि मां हैं… दिल की बुरी नहीं होंगी… हमें प्यार भी करती होंगी… पर वाणी भी कोई चीज होती है विजित… रोजरोज ताने नहीं सुने जाते… वाणी पर अकुंश रखना भी तो जरूरी है… यह उन का स्वभाव है… इंसान अपनी आदतें बदल सकता है पर अपना स्वभाव नहीं बदल सकता… उन के साथ मेरा निर्वाह नहीं हो पाएगा… मैं नहीं रह पाऊंगी उन के साथ…’’ तन्वी फैसला सा करते हुए बोली.

‘‘यह तुम क्या कह रही हो तन्वी… मैं ने तुम्हें पहले ही इस बारे में स्पष्ट बता दिया था कि मैं इकलौता बेटा हूं… मैं मांबाप से अलग नहींजा पाऊंगा.’’

‘‘तब तुम ने यह नहीं बताया था कि उन का बोलना इतना बुरा है… दूसरी बातों के साथ, आदतों के साथ, दिनचर्या के साथ सामंजस्य बैठाया जा सकता है… पर बुरा बोलने वाले के साथ सामंजस्य बैठाना बहुत मुश्किल है विजित… प्यार के दो मीठे बोल, प्रसंशा के दो शब्द नहीं हैं उन के पास… हर समय कोई बुरा ही कैसे सुनता रहे, तुम्हीं बताओ… ऐसा क्या बुरा करती हूं मैं उन के साथ…’’ कहतेकहते तन्वी का स्वर भर्रा गया.

विजित मानसिक उल झन का शिकार होता जा रहा था. मां किसी भी तरह से अपने स्वभाव से बाज नहीं आती थीं और तन्वी जबतब उस पर अपनी भड़ास निकाल देती.

उसे सम झ नहीं आता क्या करे, क्या न करे. समस्या का कोई समाधान उसे न दिखता. अलग घर भी लेता है तो क्या कहेंगे नातेरिश्तेदार, समाज कि विजित उन्हीं बेटों में से एक निकला, जो विवाह के बाद बीवी की बातों में आ कर मांबाप को छोड़ कर अलग हो गया, पर वे यहां आ कर उस की रात दिन की उल झन को नहीं सम झ सकते कि उस की मां… उस के जीवन का सब से प्यारा व अहम रिश्ता… उस के जीवन, उस के दिल का एक अभिन्न अंग कैसे अपने स्वभाव, अपनी कर्कश वाणी से उस के जीवन को छिन्नभिन्न करने पर तुली है. बीवी बुरी हो तो इंसान तलाक दे दे, पर मां का क्या करे, सोचसोच कर वह भन्ना जाता.

अपने जीवन की उल झनों ने उसे सम झा दिया था  कि रिश्तों को बनाने के लिए सिर्फ एक की कोशिश काफी नहीं होती जब तक सभी कोशिश न करें. धीरेधीरे उस के और तन्वी के बीच में भी  झगड़े होने लगे.

वह अपनी खीज और उल झन कभीकभी तन्वी पर भी उतार देता और ऐसे ही एक दिन के  झगड़े और मनमुटाव के बाद तन्वी घर छोड़ कर मायके चली गई. वह जब औफिस से घर आया और उसे तन्वी के जाने का पता चला तो उस ने तन्वी को फोन किया.

तब तन्वी ने साफ ऐलान कर दिया कि अगर उसे उस के साथ जिंदगी बितानी है तो अलग रहने की व्यवस्था करे… वह उस के मातापिता के साथ नहीं रह पाएगी. उस ने कई बार कई तरह से मनाने की कोशिश की तन्वी को. कई तरह से सम झाया पर तन्वी टश से मश नहीं हुई. वह बस अलग रहने की शर्त पर आने को तैयार थी.

तब से एक साल होने को आया था और अब तो तन्वी कहने लगी थी कि उस के लिए अगर ये सब इतना मुश्किल है तो वह चाहे तो वे दोनों अब अपना रास्ता बदल सकते हैं. सुन कर वह सन्न रह गया था. इतना बड़ा फैसला कैसे कर सकती है तन्वी इतनी छोटीछोटी बातों पर…

गुस्से के मारे कुछ समय तक उस ने तन्वी को फोन ही नहीं किया. आज उस ने बहुत दिनों बाद जब उस का दिमाग कुछ शांत हुआ तो नए सिरे से सम झाने के लिए फोन किया था पर तन्वी का जवाब जैसे का तैसा था.

छोटीछोटी बातों ने उस के जीवन में इतनी बड़ी उल झन पैदा कर  दी थी कि उसे समस्या का कोई समाधान नहीं सू झ रहा था. कैसे अपना वैवाहिक जीवन बचाए वह. खिन्न मन से वह उठा. औफिस से बाहर निकला पर घर जाने का मन नहीं किया. कुछ सोच कर अपने दोस्त शिवम के घर चला गया. शिवम उस की उल झनों को अच्छी तरह से सम झता था.

‘‘हूं… मतलब कि तन्वी अलग रहने के सिवा किसी भी सूरत में वापस आने को तैयार नहीं है…’’ चाय का कप मेज पर रखता हुआ शिवम बोला.

‘‘आएगी भी कैसे शिवम… मां का रवैया वही है… वे कुछ भी सम झाने को तैयार नहीं हैं… समस्याएं वही हैं… कुछ भी तो नहीं बदला… फिर से सबकुछ वही होगा… मां के ताने… मां का बोलना, मां का स्वभाव, अपनी वाणी पर जरा भी अकुंश नहीं रख पाती हैं वे… मां के विचारों से पार पाना तन्वी के लिए आसान नहीं…’’

‘‘एक बात कहूं विजित…’’

‘‘हूं…’’ विजित ने अपनी प्रश्नवाचक दृष्टी उस के चेहरे पर तान दी.

‘‘तू फिलहाल तन्वी की बात मान क्यों नहीं लेता… ज्यादा दूर मत जा… बस जहां तक तन्वी को मां के ताने सुनाई न दें…’’ वह हंसता हुआ बोला, ‘‘इतनी दूरी पर किराए का घर देख ले… फिलहाल अपना घर तो बचा… तू और तन्वी साथ रहोगे, पास रहोगे, तो एकदूसरे के प्यार व आकर्षण में बंध कर समस्या का हल भी निकाल लोगे…

‘‘यों दूर रह कर तो समस्या और भी विकराल हो जाएगी. दूर रह कर तो तुम दोनों के रिश्ते भी नकारात्मक हो रहे हैं… और वैसे भी तुम जबरदस्ती तो तन्वी को साथ में रहने के लिए बाध्य नहीं कर सकते… ये सब अपनी मरजी से हो और उन दोनों के रिश्ते खुद सुधरें… तभी साथ रहने में शांति है विजित… नहीं तो क्या फायदा है ऐसे साथ रहने से…’’

‘‘लेकिन लोग क्या कहेंगे शिवम… रिश्तेदार, समाज… मातापिता दुखी होंगे, सो अलग…’’ विजित उल झन में बोला.

‘‘तू भी वही बात करने लगा… तु झे सब की चिंता है या अपना घर बचाने की… पहले एक सीढ़ी तो चढ़… अगली सीढ़ी की बाद में सोचना… तू मातापिता को कोई छोड़ थोड़े ही न रहा है, बस उन से थोड़ी दूरी पर रहेगा… उन की एक पुकार पर उन के पास पहुंच जाएगा…’’

बात कुछकुछ विजित की सम झ में आ गई. दूसरे दिन वह तन्वी से मिलने उस के औफिस में चला गया. तन्वी को इस बात पर क्या एतराज हो सकता था. विजित ने थोड़ी दूरी पर किराए का घर देखा और ऐडवांस दे दिया. अब बात मांबाप को बताने की थी.

जैसेकि उम्मीद थी. सुनते ही मां ने तूफान मचा दिया, ‘‘मैं क्या सम झ नहीं रही थी, उस के शुरू से ही लक्षण ऐसे दिख रहे थे… बड़ों की बातें सम झने और मनाने के बजाय बुरा मान कर मायके जा बैठी… वह तो मैं सम झ ही रही थी कि बेटे को मांबाप से अलग कर के ही मानेगी पागल कही की… और तू भी कुपूत निकला, जो बीवी की बातों में आ कर मांबाप को छोड़ने पर राजी हो गया… तु झे शर्म नहीं आई ये सब कहने में… इसीलिए औलाद को बड़ा करते हैं मांबाप…’’

मां के मुंह में जो आ रहा था वह बोल रही थीं. विजित के दिल में भी बहुत कुछ आ रहा था पर इस समय मां के साथ तर्क करना व्यर्थ था और वह चाहता भी नहीं था. वह जानता था उस के मातापिता का दिल उस के इस निर्णय से बहुत दुखी हुआ होगा, पर इस के पीछे उन्हें अपनी खामियां नजर नहीं आई होंगी.

पिता ने इस बार भी कुछ न बोल कर भी अपने हावभाव से अपनी पूरी नाराजगी जाहिर कर दी. किसी तरह मन मजबूत कर वह अपने इरादे पर कायम रहा और तन्वी को ले कर अलग गृहस्थी बसा ली. घर से वह कोई सामान ले कर नहीं गया. थोड़ाबहुत सामान बाजार से खरीदा. कुछ फर्नीचर मकानमालिक का था.

कुल मिला कर उन की गृहस्थी सुचारु रूप से चलने लगी. उस की रोज की दिनचर्या थी वह औफिस से आ कर पहले रोज मांपापा केपास जाता. वहां चाय पीता. फिर अपने घर चला जाता.

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