आज का सच : कौनसा सच छिपा रहा था राम सिंह

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किसकी मां, किसका बाप: भाग 2- ससुराल में कैसे हुआ वरुण का स्वागत ?

निशा की मादक मुसकराहट और भोलेपन के कारण वरुण को उस की सचाई अच्छी लगी. हंस कर फिर से दोहराया, ‘‘मां सच ही बड़ी समझदार हैं.’’

निशा ने उठने का प्रयत्न करते हुए पूछा, ‘‘आप क्या लेंगे, चाय या कौफी?’’

वरुण ने शरारत से पूछा, ‘‘चाय या कौफी कौन बनाएगा, मां?’’

निशा मुसकराई,  ‘‘आप कहेंगे तो मैं बना दूंगी.’’

‘‘पर उस के लिए तुम्हें उठ कर जाना होगा,’’ वरुण ने कहा.

‘‘सो तो है,’’ निशा का उत्तर था.

‘‘फिर बैठी रहो,’’ वरुण ने फुसफसा कर कहा, ‘‘आज बहुत सारी बातें

करने को जी कर रहा है. चलो, कहीं चलते हैं.’’

निशा ने मुंह पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘ना बाबा ना, मां जाने नहीं देंगी.’’

‘‘मां से पूछ लेते हैं,’’ वरुण ने बहादुरी से कहा.

‘‘मां ने पहले ही कह दिया है कि अगर आप बाहर जाने को कहें तो सख्ती से मना कर देना,’’ निशा ने नाखूनों पर अंगूठा फिराते हुए कहा.

‘‘मां तो बहुत समझदार हैं,’’ इस बार वरुण के स्वर में व्यंग्य का अनुपात अधिक था.

‘‘सो तो है,’’ निशा ने स्वीकार किया.

‘‘कौफी हाजिर है,’’ शिवानी ट्रे में

2 कप कौफी ले कर खड़ी थी, ‘‘रुकावट के लिए खेद है.’’

प्यालों से ऊपर उठते सफेद झाग की ओर प्रशंसा से देखते हुए वरुण ने कहा, ‘‘कौफी तो लगता है तुम्हारी तरह स्वादिष्ठ और लाजवाब है.’’

शिवानी ने चट से कहा, ‘‘बिना चखे कैसे कह सकते हैं.’’

वरुण ने शरारत से कहा, ‘‘अगर तुम्हारी दीदी की अनुमति हुई तो वह भी कर  सकता हूं.’’

‘‘धत् जीजाजी,’’ कह कर शिवानी ने ट्रे मेज पर रखी और भाग गई.

‘‘आप बहुत गंदे हैं,’’ निशा ने मुसकरा कर कहा.

‘‘यह तो पहला प्रमाणपत्र है तुम्हारा. अभी तो आगे बहुत से मिलेंगे,’’ वरुण ने कौफी पीते हुए कहा.

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वरुण के जाने के बाद मांबाप का बहुत झगड़ा हुआ. मां ने दुनियादारी की दुहाई दी और पिता ने ‘जमाना बदल गया’ का तर्क पेश किया. निर्णय तो कु़छ नहीं हुआ, पर कुछ समय पहले के खुशी के वातावरण में मनहूसियत फैल गई.

पति से बदला लेने के लिए मां बेटी पर बरस पड़ी, ‘‘तुझ से किस ने कहा था कि अपने घर की सारी बातें बता दे?’’

‘‘मैं ने क्या कहा?’’ निशा ने तीव्र स्वर में पूछा. मां की बेरुखी पर वह पहले से ही दुखी थी.

‘‘क्या नहीं कहा?’’

मां ने नकल करते हुए कहा, ‘‘दहीबड़े सख्त बने थे, सो नौकरानी को दे दिए. सारे व्यंजन बाजार से आए थे. ये सब किस ने कहा?’’

‘तो मां कान लगा कर सुन रही थीं,’ निशा को कोई उत्तर नहीं सूझा तो वह रोने लगी ओर रोतेरोते अपने कमरे में चली गई.

पिता ने क्रोध में कहा, ‘‘रुला दिया न गुड्डी को? कौन सा झूठ कह रही थी? और फिर तुम्हारी तरह से झूठ बोलने में माहिर भी तो नहीं है. तुम्हारी तरह मंजने में समय तो लगेगा ही.’’

वरुण ने झिझकते हुए निशा को बाहर ले जाने की आज्ञा मांगी थी पर मां ने बड़ी होशियारी से टाल दिया.

वरुण को निराशा तो हुई ही, क्रोध भी बहुत आया. सारे रोमानी सपनों पर पानी फिर गया. उस ने अब कभी भी ससुराल न जाने का निश्चय कर लिया. सास के लिए जो श्रद्धा होनी चाहिए, वह लगभग लुप्त हो गई. एक बार शादी हो जाने दो, उस के मन में जो विचार उठ रहे थे, वे बड़े खतरनाक थे.

मुंह लटका देख कर बहन ने हंसी से ताना दिया, ‘‘मुंह ऐसे लटका है जैसे किसी गोदाम के दरवाजे पर बड़ा सा ताला. लगता है खातिर नहीं हुई. इस बार मुझे साथ ले चलना. फिर देख लूंगी सब को.’’

मां ने हंस कर पूछा, ‘‘सब ठीक है न?’’

पिता को अच्छा नहीं लगा, ‘‘कोई गड़बड़ हो तो बता दो. रिश्ता अभी भी टूट सकता है.’’ बात इतनी गंभीर हो जाएगी, वरुण ने सोचा न था. मुसकरा कर कहा, ‘‘कुछ नहीं. मैं तो नाटक कर रहा था.’’ जब वरुण ने 3 सप्ताह तक कोई बात नहीं की तो निशा को चिंता होने लगी और मां के दिल में भी अशांति ने जन्म लिया. निशा ने बहन को उकसाया. शिवानी ने मां से कहा और फिर मां ने पति से कहा कि वरुण को फोन करें और बाइज्जत निमंत्रण दें. फोन पर ससुर का स्वर सुनते ही वरुण की 3 सप्ताह की भड़ास काफूर हो गई और बड़े उत्साह से वहां पहुंच गया. इस का लाभ यह हुआ कि जब वरुण ने निशा को बाहर ले जाने का प्रस्ताव रखा तो कोई आपत्ति किसी ने नहीं उठाई. थोड़ाबहुत खा कर बेसब्री से बाहर निकल पड़ा. निशा साथ थी तो मन कर रहा था कि दुनियाभर उसे देखे और जले.

‘‘किस हौल में चलना है?’’ वरुण ने पूछा.

‘‘तो क्या आप ने टिकट नहीं खरीदे हैं?’’ निशा ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘कैसे खरीदता?’’ वरुण ने कटुता से कहा, ‘‘कहीं पिछली बार की तरह फिर मां मेरा टिकट काट देतीं?’’

मीठी हंसी बिखेरती हुई निशा बोली, ‘‘तो अभी तक नाराज हो? क्या इसीलिए इतने दिनों तक आप ने फोन नहीं किया? और न ही कोई संदेश?’’

‘‘हां, जी तो कर रहा था कि आज भी न आऊं,’’ वरुण मुसकराया.

‘‘तो फिर क्यों आ गए?’’ निशा ने सरलता से पूछा.

‘‘कशिश, मैडम, कशिश,’’ वरुण ने गहरी सांस ले कर कहा, ‘‘शुद्ध, शतप्रतिशत शुद्ध कशिश.’’

‘‘ओह,’’ निशा ने आंखें मटका कर पूछा, ‘‘तो क्या कशिश का भी कोई अनुपात होता है?’’

‘‘होता है,’’ वरुण ने दिल पर हाथ रख कर कहा, ‘‘शादी के बाद पूरी तफसील के साथ बताऊंगा. अभी तो यह बताओ, कौन सी फिल्म देखनी है?’’

‘‘जिस में भी टिकट मिल जाए.’’ निशा ने उत्तर दिया.

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‘‘अब दिल्ली में इतने सारे सिनेमाघर हैं, कहांकहां देखेंगे?’’ वरुण ने पूछा, ‘‘क्या अंगरेजी सिनेमा देखती हो?’’

‘‘कभीकभी,’’ निशा ने कहा, ‘‘वैसे मुझे शौक नहीं है.’’

‘‘अंगरेजी फिल्म के टिकट तो जरूर मिल जाएंगे,’’ वरुण ने उत्साह से पूछा, ‘‘तुम ने ‘बेसिक इंस्ंिटक्ट’ और ‘इन्डीसैंट प्रपोजल’ देखी है?’’

‘‘नहीं,’’ निशा ने सिहर कर कहा, ‘‘ये तो नाम से ही गंदी फिल्में लगती

हैं. क्या आप ऐसी फिल्में देखना पसंद करते हैं?’’

‘‘अरे, जैसा नाम वैसी फिल्में नहीं हैं,’’ वरुण ने निराशा से कहा, ‘‘देखोगी तो अच्छी लगेंगी.’’

‘‘ना बाबा ना,’’ निशा ने मुंह पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘मां को पता लग गया तो खा जाएंगी.’’

चिढ़ कर वरुण ने कहा, ‘‘तुम्हारी मां तो मुझे नरभक्षी लगती हैं. क्या तुम्हें थोड़ाथोड़ा रोज खाती हैं? कैसी मां हैं तुम्हारी?’’ निशा को मां की बुराई अच्छी नहीं लगी, पर इस पर लड़ाई करना भी ठीक नहीं था. आखिर मां का नाम भी तो उसी ने ले लिया था.

‘‘मां बहुत अच्छी हैं,’’ निशा ने गंभीरता से कहा, ‘‘सही मार्गदर्शन करती हैं. मेरी मां तो एक संपूर्ण स्कूल हैं.’’

व्यग्ंय से वरुण ने कहा, ‘‘वह तो सामने आ रहा है. वैसे हम फिल्म की बात कर रहे थे.’’

निशा ने सोच कर कहा, ‘‘चलो ‘बेबीज डे आउट’ देखते हैं. सुना है बहुत अच्छी है. उस डायरैक्टर की मैं ने ‘होम अलोन’ देखी थी, बहुत मजेदार थी.’’

वरुण समझ गया कि अंगरेजी फिल्मों के बारे में निशा से टक्कर नहीं ले सकेगा. वैसे अच्छा भी लगा. कुछ गर्व भी हुआ. पत्नी अच्छी अंगरेजी बोलती हो, अंगरेजी सिनेमा भी देखती हो और पाश्चात्य संगीत में रुचि रखती हो तो पति का स्तर बढ़़ जाता है.

‘‘चलो छोड़ो फिल्मविल्म,’’ वरुण ने कहा, ‘‘थोड़ा घूमते हैं और फिर बैठेंगे किसी रेस्तरां में. क्या कहती हो?’’

‘‘जैसी आप की मरजी,’’ निशा ने मासूमियत से कहा, ‘‘मां ने कहा था कि धूप में ज्यादा मत घूमना.’’

‘‘रंग काला पड़ जाएगा,’’ वरुण ने चिढ़ कर कहा, ‘‘मां की सारी हिदायतें क्या टेप में भर ली हैं?’’

निशा हंस पड़ी, ‘‘ऐसा ही समझ लो.’’

‘‘तो अगली बार मां को साथ मत लाना. शादी तुम से कर रहा हूं, तुम्हारी मां से नहीं,’’ वरुण ने क्रोध से कहा. निशा को अच्छा नहीं लगा लेकिन अपने ऊपर नियंत्रण कर के बोली,‘‘आप को मेरी मां के लिए ऐसा नहीं कहना चाहिए. आखिर वे आप की सास हैं. मां के बराबर हैं.’’ वरुण को भी एहसास हुआ कि शायद उस के स्वर में कुछ अधिक तीखापन था. बोला, ‘‘मुझे खेद है. क्षमा कर दो.’  निशा की मुसकराहट में क्षमा छिपी थी. यही इस का उत्तर था. अपराधभावना से ग्रस्त वरुण ने सोचा कोई निदान करना चाहिए. अगर निशा को कोई भेंट दे तो वह खुश हो जाएगी. भुने चनों की पुडि़या हाथों में ले कर घूमते हुए वरुण एक दुकान के सामने रुक गया. बड़ा सुंदर सलवारसूट एक डमी मौडल, आतेजाते सब का ध्यान आकर्षित कर रही थी.

‘‘यह सूट तुम्हारे ऊपर बहुत अच्छा लगेगा,’’ वरुण ने पूछा, ‘‘क्या खयाल है?’’

‘‘खयाल तो अच्छा है,’’ निशा की आंखोें में चमक आई पर लुप्त हो गई,  ‘‘पर…’’

‘‘पर क्या?’’ वरुण ने आश्चर्य में पूछा और शौर्य प्रदर्शन करते हुए कहा, ‘‘दाम की तरफ मत देखो.’’

निशा ने अब देखा. मूल्य था 1,750 रुपए.

‘‘दाम तो ज्यादा है ही,’’ निशा ने झिझकते हुए कहा, ‘‘पर इस का गला ठीक नहीं है.’’

अब वरुण ने देखा, कुरते का गला आगे से नीचे कटा हुआ था.

‘‘तो क्या हुआ,’’ वरुण ने बहादुरी से कहा, ‘‘मेरी पसंद है, तुम मेरे लिए पहनोगी.’’

‘‘नहीं,’’ निशा ने दृढ़ता से कहा, ‘‘मां पहनने नहीं देंगी. इस मामले में बहुत सख्त हैं.’’

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किसकी मां, किसका बाप: भाग 1- ससुराल में कैसे हुआ वरुण का स्वागत ?

मां बाप अकसर इस कहावत ‘आ बैल मुझे मार’ के शिकार हो जाते हैं. पहले तो मुसीबत को बड़े जोश से निमंत्रण देते हैं और फिर परेशान हो कर सिर पटकते हैं. दूरदर्शिता तो दूरदर्शन पर भी नहीं दिखाई देती जो एक आम आदमी के जीवन का अहम हिस्सा बन गई है. अब निशा और वरुण की सगाई तो दोनों के मांबापों ने जल्दबाजी में न केवल कर दी बल्कि अच्छी तरह से ढोल बजा कर की. सारे रिश्तेदारों और महल्ले वालों को मालूम है, यहां तक कि पान वाले और बनिए को भी, जिस के यहां से घर का सामान आता है, मालूम है. नौकरानी रोज अपनी मांगें बढ़ाती जाती है. एक नहीं, 3 साडि़यां, वेतन दोगुना और नेग अलग. जानते हुए भी सब लोग पूछते रहते हैं कि शादी कब हो रही है? शादी के सिवा सब विषयों पर पूर्णविराम लग गया है. मुश्किल यह है कि शादी होने में अभी  7 महीने बाकी हैं. 1-2 महीने तो यों ही गुजर जाते हैं, पर 7 महीने? परिवार वाले तो जब कभी इकट्ठा बैठते हैं, खोखली योजनाओं पर बहस कर लेते हैं. वैसे, होगा तो वही जो होना है, पर 7 महीने का विकराल अंतराल 7 साल सा लगता है. सगाई के साथ ही शादी क्यों न कर दी?

चलिए परिवार वालों को छोडि़ए. किसी ने निशा और वरुण के बारे में भी सोचा है? रोज मिलें और प्रेमवाटिका में विचरण करें तो मुश्किल और कई दिनों तक न मिलें तो विरह के मारे बुरा हाल. सब से बड़ी मुश्किल तो इन लोगों की है. जब सगाई हो जाए और मिलने न दें तो यह परिवार का सरासर अन्याय ही कहा जाएगा. दूसरी ओर मिलने की गति और अवधि दिन पर दिन बढ़ती जाए तो मांबाप का चिंतित होना स्वाभाविक है. विशेषकर लड़की के मांबाप का. बुरा जमाना है, पैर फिसलते देर नहीं लगती. कोई ऊंचनीच हो गई तो जगहंसाई तो होगी ही, मुंह दिखाने योग्य भी न रहेंगे. कहीं रिश्ता तोड़ने की नौबत आ गई तो लड़की तो बस गई काम से. दूसरा कौन पकड़ेगा हाथ?

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सगाई के कुछ दिन बाद ही ससुराल से वरुण के लिए दोपहर के भोजन का निमंत्रण आ गया. सासससुर को तो दामाद की खातिरदारी करने का चाव था ही, निशा के बदन में भी वरुण का नाम सुनते ही गुदगुदी होने लगी. वह बारबार घड़ी को देखती. मरी 1 घंटे में भी 1 मिनट ही आगे खिसकती है. वरुण की हालत भी कम खराब नहीं थी. ससुराल जाने लायक कोई कपड़ा समझ में नहीं आ रहा था. अगर सगाई में मिले कपड़े पहनेगा तो सब यही समझेंगे कि बेचारे के पास अपने कोई कपड़े नहीं हैं. अगर अपने पुराने कपड़े पहनेगा तो लगेगा कि जनाब की हालत खस्ता है. अपनी जींस और चैक वाली लालनीली कमीज में लगता तो स्मार्ट है, पर इन कपड़ों में उस का फोटो खिंच चुका है और इस फोटो की एक कौपी ससुराल में बतौर इश्तिहार के पहले ही भेजी जा चुकी है. जहां तक वरुण का अनुमान है, यह फोटो ससुराल के ड्राइंगरूम में बहुत सारे चांद लगा रही है.

हठ कर के मां के गुल्लक में से रुपए निकाले और कुछ अपने जोड़े. बहन की शरारतभरी हंसी से चिढ़ा तो, पर उसे डांट कर चुप कर दिया और नई जींस, कमीज, टौप की जैकेट व गला कसने के लिए एक बहुरंगा स्कार्फ ले आया. काला चश्मा तो उस के पास था. जब आईने में देखा तो आंखों में चमक आ गई. सामने वरुण नहीं, दिलीप कुमार, देव आनंद, आमिर खान, शाहरुख और सैफ अली खान, सब मिला कर एक अनूठा व्यक्तित्व वाला जवां मर्द खड़ा था.

जब चलने लगा तो मां ने कहा, ‘‘बेटा, जल्दी आ जाना. ससुराल में ज्यादा देर बैठने से इज्जत कम हो जाती है. अपना सम्मान अपने हाथ में है.’’

पिता ने चुटकी ली, ‘‘मेरा उदाहरण ले सपूत. जानता है न मेरा सम्मान कितना करते हैं तेरे मामा लोग?’’

यह मां के लिए बड़ा दुखदायी विषय था. जब से मामियां आई हैं कोई उसे बुलाता तक नहीं है और अब तो यह बात जूते की तरह घिस गई है. शरारती बहन बोली तो कुछ नहीं, बस, सुगंधित परफ्यूम पेश कर दिया. परफ्यूम का नाम था ‘फेटल अट्रैक्शन’ यानी घातक आकर्षण. चुलबुली इतनी है कि गंभीर से गंभीर चेहरा भी खिल जाए. वरुण ने पहले तो घूर कर देखा और फिर मुसकरा कर प्यार से चपत मारने के लिए हाथ उठाया. बहन भाग कर मां के पल्लू में छिप गई. मां की ढाल के आगे सारी तलवारें कुंद हो जाती हैं. सब हंस पड़े, वरुण भी. लगता था कि सब दरवाजे से चिपके खड़े थे. वरुण ने घंटी के बटन पर उंगली रखी ही थी कि दरवाजा अलीबाबा के ‘खुल जा सिमसिम’ की तरह चर्रचूं करता हुआ खुल गया. सब के चेहरे इतने नजदीक कि नाक से नाक भिड़ जाती अगर वरुण चौंक कर पीछे न हट जाता.

‘‘नमस्कार जीजाजी,’’ एक सामूहिक स्वर जिस में 2 साले और 1 साली की आवाजें शामिल थी. एक साला उधार का था. छुट्टियों में गुलछर्रे उड़ाने के लिए चाची ने भेज दिया था.

‘‘आप लोगों ने तो मुझे डरा ही दिया,’’ वरुण ने झेंपते हुए कहा.

‘‘यह तो सिर्फ नमूना है जीजाजी,’’ शिवानी ने आंखें मिचकाते हुए कहा, ‘‘आगेआगे देखिए होता है क्या.’’

‘‘आगे क्या होगा?’’ वरुण ने पूछा.

‘‘आप दीदी से डर जाएंगे,’’ शिवानी ने उत्तर दिया.

‘‘भला क्यों?’’ वरुण ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘जब से आप से रूबरू हुई हैं, उन के 2 सींग निकल आए हैं,’’ शिवानी ने निहायत गंभीरता से कहा, ‘‘आंखें फूल कर बजरबट्टू हो गई हैं, कान हाथी के से बड़े हो कर फड़फड़ा रहे हैं और नाक कंधारी अनार की तरह फूल गई है. दांत…’’

वरुण वापस मुड़ा, मानो जा रहा हो.

‘‘अरेअरे, कहां जा रहे हैं?’’ शिवानी ने पूछा.

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‘‘लगता है मैं गलती से किसी अजायबघर आ गया हूं,’’ वरुण ने गंभीरता से कहा, ‘‘क्या गोपालदासजी घर छोड़ कर चले गए हैं?’’

मां ने पीछे से हंसते हुए आवाज लगाई, ‘‘अरे, अब अंदर आने भी दोगे या बाहर से ही भगा दोगे? आओ बेटे, ये लोग तो बड़े शरारती हैं. बुरा मत मानना. टीवी देखदेख कर सब बिगड़ गए हैं.’’ सब ने सिर झुका कर सलाम किया और वरुण के लिए रास्ता बनाया. बैठते ही सास ने फ्रिज में से शीतल पेय की बोतल निकाल कर पेश कर दी. निशा कमरे के अंदर से परदे की दरार में से झांक रही थी और वरुण की रूपरेखा दिल में उतार रही थी. बड़ा बांका लग रहा था.

इतने में शिवानी पास आ कर फुसफुसाई, ‘‘बड़े स्मार्ट लग रहे हैं जीजाजी, बिलकुल चार्ली चैपलिन की तरह. पूछ तो सही, कपड़े जामा मसजिद की कौन सी दुकान से लाए हैं?’’

‘‘चल हट,’’ निशा ने झिड़क कर कहा, ‘‘तू ही पूछ ले.’’

फिर निशा ने भी अधिक शरमाने में भलाई नहीं समझी. उस का जी भी तो वरुण के पास बैठने को मचल रहा था. मां तो समझती ही नहीं, पर फिर भी…

जब धीरेधीरे खुली खिड़की से आती खुशबूदार हवा की तरह उस ने कमरे में प्रवेश किया तो वरुण की आंखें मानो उस पर चिपक गईं. फालसई रंग का सलवारकुरता उस पर अच्छा खिल रहा था. सांवला रंग फीका पड़ गया था और वरुण को वह आशा के विपरीत अधिक साफसुथरी नजर आ रही थी. अलग अकेले में बात करने को मन करने लगा. शिवानी ने उठते हुए वरुण के पास निशा के लिए जगह बना दी.

सास मुंह बना कर अंदर रसोई में चली गईं. ससुर 1-2 औपचारिक बातें करने के बाद अपने कमरे में चले गए. शिवानी मां की मदद करने के लिए रसोई में गई और दोनों साले बाजार से कुछ लाने को भेज दिए गए.

इस तरह मैदान खाली कर दिया गया.

निशा शरमा कर नीचे देख रही थी. वरुण उस के चेहरे पर आंखें गड़ाए था. यही तो है न वह.

वरुण ने गहरी सांस ले कर आहिस्ते से कहा, ‘‘बहुत सुंदर लग रही हो.’’

निशा ने मुसकरा कर मासूमियत से कहा, ‘‘हां, मां भी यही कहती हैं.’’

वरुण शरारत से हंसा, ‘‘ओह, तो मां का प्रमाणपत्र पहले ही मिल चुका है. यह अधिकार तो मेरा था.’’

निशा भी हंसी, ‘‘आप ने तो कुछ खाया ही नहीं. लीजिए, रसमलाई खाइए.’’

‘‘तुम ने बनाई है?’’ वरुण ने पूछा.

‘‘नहीं,’’ निशा ने कहा, ‘‘बाजार से मंगाई है. बहुत मशहूर दुकान की है.’’

‘‘तुम ने क्या बनाया है?’’ वरुण ने हंस कर कहा, ‘‘वही खिलाओ.’’

‘‘कुछ नहीं,’’ निशा ने सादगी से कहा, ‘‘मां ने कुछ बनाने नहीं दिया.’’

‘‘क्यों?’’ वरुण ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘मां ने कहा कि अगर अच्छा नहीं बना तो,’’ निशा ने मुसकरा कर कहा, ‘‘और आप को भी अच्छा नहीं लगा तो आप हमेशा वही याद रखेंगे.’’

‘‘मां तो बहुत समझदार हैं,’’ वरुण के स्वर में हलका सा व्यंग्य था, ‘‘पर उस दिन तो तुम ने हम लोगों का मन जीत लिया था.’’

‘‘दरअसल उस दिन अधिक व्यंजन तो मां ने ही बनाए थे. मैं ने तो उन की मदद की थी,’’ निशा की हंसी में रबड़ी की खुशबू थी.

‘‘पर कुछ तो बनाया होगा?’’ वरुण ने अपना प्रश्न दोहराया.

‘‘दहीबड़े बनाए थे,’’ निशा ने संकोच से कहा, ‘‘पर वे इतने सख्त थे कि मां ने नौकरानी को दे दिए.’’

आगे पढ़ें- वरुण के जाने के बाद मांबाप का बहुत झगड़ा हुआ….

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बहन का सुहाग: भाग 2- क्या रिया अपनी बहन का घर बर्बाद कर पाई

लेखकनीरज कुमार मिश्रा

दोनों में नजदीकियां बढ़ गई थीं. राजवीर सिंह का रुतबा विश्वविद्यालय में काफी बढ़ चुका था और निहारिका को भी यह अच्छा लगने लगा था कि एक लड़का जो संपन्न भी है, सुंदर भी और विश्वविद्यालय में उस की अच्छीखासी धाक भी है, वह स्वयं उस के आगेपीछे रहता है.

थोड़ा समय और बीता तो राजवीर ने निहारिका से अपने मन की बात कह डाली, ‘‘देखो निहारिका, अब तक तुम मेरे बारे में सबकुछ जान चुकी हो… मेरे घर वालों से भी तुम मिल चुकी हो… मेरा घर, मेरा बैंक बैलेंस, यहां तक कि मेरी पसंदनापसंद को भी तुम बखूबी जानती हो…

“और आज मैं तुम से कहना चाहता हूं कि मैं तुम से शादी करना चाहता हूं और मैं यह भी जानता हूं कि तुम इनकार नहीं कर पाओगी.”

बदले में निहारिका सिर्फ मुसकरा कर रह गई थी.

‘‘और हां, तुम अपने मम्मीपापा की चिंता मत करो. मैं उन से भी बात कर लूंगा,‘‘ इतना कह कर राजवीर सिंह ने निहारिका के होंठों को चूमने की कोशिश की, पर निहारिका ने हर बार की तरह इस बार भी यह कह कर टाल दिया कि ये सब शादी से पहले करना अच्छा नहीं लगता.

राजवीर सिंह ने खुद ही निहारिका के घर वालों से बात की. वह एक पैसे वाले घर से ताल्लुक रखता था, जबकि निहारिका एक सामान्य घर से.
निहारिका के मम्मीपापा को भला इतने अच्छे रिश्ते से क्या आपत्ति होती और इस से पहले भी वे निहारिका के मुंह से कई बार राजवीर के लिए तारीफ सुन चुके थे. ऐसे में उन्हें रिश्ते को न कहने की कोई वजह नहीं मिली.

ग्रेजुएशन करते ही निहारिका की शादी राजवीर सिंह से तय हो गई.

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और शादी ऐसी आलीशान ढंग से हुई, जिस की चर्चा लोग महीनों तक करते रहे थे. इलाके के लोगों ने इतनी शानदार दावत कभी नहीं खाई थी. बरात में ऊंट, घोड़े और हाथी तक आए थे.

शादी के बाद निहारिका के सपनों को पंख लग गए थे. इतना अच्छा घर, सासससुर और इतना अच्छा पति मिलेगा, इस की कल्पना भी उस ने नहीं की थी.

‘‘राजवीर… जा, बहू को मंदिर ले जा और कहीं घुमा भी ले आना,‘‘ राजवीर को आवाज लगाते हुए उस की मां ने कहा.

राजवीर और निहारिका साथ घूमतेफिरते और अपने जीवन के मजे ले रहे थे. रात में वे दोनों एकदूसरे की बांहों में सोए रहते.

सैक्स के मामले में राजवीर किसी भूखे भेड़िए की तरह हो जाता था. वह निहारिका को ब्लू फिल्में दिखाता और वैसा ही करने के लिए उस पर दबाव डालता.

निहारिका को ये सब पसंद नहीं था. राजवीर के बहुत कहने पर भी वह ब्लू फिल्मों के सीन को उस के साथ नहीं कर पाती थी. कई बार तो निहारिका को ऐसा करते समय उबकाई सी आने लगती.

ये राजवीर का एक नया और अलग रूप था, जिस से निहारिका पहली बार परिचित हो रही थी.

अपनी इस समस्या के लिए निहारिका ने इंटरनैट का सहारा लिया और पाया कि कुछ पुरुषों में पोर्न देखने और वैसा ही करने की कुछ अधिक प्रवत्ति होती है और यह बिलकुल ही सहज है.

निहारिका ने सोचा कि अभी नईनई शादी हुई है, इसलिए  अधिक उत्साहित है. थोड़ा समय बीतेगा, तो वह मेरी भावनाओं को भी समझेगा, पर बेचारी निहारिका को क्या पता था कि ऐसा कभी नहीं होने वाला था.

शादी के 5 महीने बीत चुके थे. निहारिका की छोटी बहन रिया अपने पापा आनंद रंजन के साथ निहारिका से मिलने आई थी. पापा आनंद रंजन तो अपनी बेटी निहारिका से मिल कर चले गए, पर रिया निहारिका के पास ही रुक गई थी.

राजवीर सिंह ने निहारिका के पापा आनंद रंजन को बताया कि वे सब आगरा जाने का प्लान बना रहे हैं और इस में रिया भी साथ रहेगी, तो निहारिका को भी अच्छा लगेगा.

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निहारिका के पापा आनंद रंजन को कोई आपत्ति नहीं हुई.

रिया के आने के बाद तो राजवीर के चेहरे पर चमक और भी बढ़ गई थी, बढ़ती भी क्यों नहीं, दोनों का रिश्ता ही कुछ ऐसा था. अब तो दोनों में खूब चुहलबाजियां होतीं. अपने जीजा को छेड़ने का कोई भी मौका रिया अपने हाथ से जाने नहीं देती थी.

वैसे भी रिया को हमेशा से ही लड़कों के साथ उठनाबैठना, खानापीना अच्छा लगता था और अब जीजा के रूप में उसे ये सब करने के लिए एक अच्छा साथी मिल गया था.

एक रात की बात है, जब खाने के बाद रिया अपने कमरे में सोने के लिए चली गई तो उसे याद आया कि उस के मोबाइल का पावर बैंक तो जीजाजी के कमरे में ही रह गया है. अभी ज्यादा देर नहीं हुई थी, इसलिए वह अपना पावर बैंक लेने जीजाजी के कमरे के पास गई और दरवाजे के पास आ कर अचानक ही ठिठक गई. दरवाजा पूरी तरह से बंद नहीं था और अंदर का नजारा देख रिया रोमांचित हुए बिना न रह सकी. कमरे में जीजाजी निहारिका के अधरों का पान कर रहे थे और निहारिका भी हलकेफुलके प्रतिरोध के बाद उन का साथ दे रही थी और उन के हाथ जीजाजी के सिर के बालों में घूम रहे थे.

किसी जोड़े को इस तरह प्रेमावस्था में लिप्त देखना रिया के लिए पहला अवसर था. युवावस्था में कदम रख चुकी रिया भी उत्तेजित हो उठी थी और ऐसा नजारा उसे अच्छा भी लग रहा था और मन में देख लिए जाने का डर भी था, इसलिए वह तुरंत ही अपने कमरे में लौट आई.

कमरे में आ कर रिया ने सोने की बहुत कोशिश की, पर नींद उस की आंखों से कोसों दूर थी. वह बारबार करवट बदलती थी, पर उस की आंखों में दीदी और जीजाजी का आलिंगनबद्ध नजारा याद आ रहा था. मन ही मन वह अपनी शादी के लिए राजवीर सिंह जैसे गठीले बदन वाले बांके के ख्वाब देखने लगी.

किसी तरह सुबह हुई, तो सब से पहले जीजाजी उस के कमरे में आए और चहकते हुए बोले, ‘‘हैप्पी बर्थ डे रिया.‘‘

‘‘ओह… अरे जीजाजी, आप को मेरा बर्थडे कैसे पता… जरूर निहारिका  दीदी ने बताया होगा.’’

‘‘अरे नहीं भाई… तुम्हारे जैसी खूबसूरत लड़की का बर्थडे हम कैसे भूल सकते हैं?‘‘ राजवीर की आंखों में शरारत तैर रही थी.

‘‘ओह… तो आप ने मुझ से पहले ही बाजी मार ली, रिया को हैप्पी बर्थडे विश कर के…‘‘ निहारिका ने कहा.

‘‘हां… हां… भाई, क्यों नहीं… तुम से ज्यादा हक है मेरा… आखिर जीजा हूं मैं इस का,‘‘ हंसते हुए राजवीर बोला.

कमरे में एकसाथ तीनों के हंसने की आवाजें गूंजने लगीं.

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शाम को एक बड़े होटल में केक काट कर रिया का जन्मदिन मनाया गया. बहुत बड़ी पार्टी दी थी राजवीर ने और राजनीतिक पार्टी के कई बड़े नेताओं को भी इसी बहाने पार्टी में बुलाया था.

रिया आज बहुत खूबसूरत लग रही थी. कई बार रिया को राजवीर सिंह के साथ खड़ा देख लोगों ने उसे ही मिसेज राजवीर समझ लिया और जबजब कोई रिया को मिसेज राजवीर कह कर संबोधित करता तो एक शर्म की लाली उस के चेहरे पर दौड़ जाती.

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10 साल: नानी से क्यों परेशान थे सभी ?

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आधुनिक बीवी: भाग 3- क्या धर्मपाल की तलाश खत्म हो पाई

लेखक- प्रमोद कुमार शर्मा

लगभग 1 साल तक पाल को कहीं नौकरी न मिली. सुषमा ने एक दुकान में काम करना शुरू कर दिया था. पाल को कुछ पैसे ‘स्टेट’ से सहायता के रूप में मिलते थे. सो, उन दोनों के खर्च के लिए काफी थे. परंतु उन पर जो पुराने बिल चढ़े हुए थे, उन का भुगतान बहुत ही मुश्किल था. जब 4 महीने तक पाल ने कार की किस्त न दी तो बैंक ने कार ले ली. पाल बहुत ही निरुत्साहित सा हो गया था. मैं इधर कंपनी के काम से बाहर रहने लगा था. कभी महीने में 1-2 बार ही उस से बातें हो पाती थीं.

पिछली बार जब उस से फोन पर बातें हुईं तो उस ने बताया कि अरुण भी अब उन के पास ही रहने लगा है. खाना वगैरा तो वह बाहर ही खाता है, रात में केवल सोने के लिए आता है. किराए का आधा पैसा देता है. इसलिए कुछ राहत मिली है. उन के पास 2 शयनकक्ष थे, सो परेशानी की कोई बात नहीं थी.

अरुण पढ़ने में बहुत तेज था. उस ने डेढ़ वर्ष में ही एमएस कर ली. यूनिवर्सिटी की तरफ से ही उसे एक कंपनी में जूनियर इंजीनियर की नौकरी मिल गई. अब वह कहीं और जा कर रहने लगा.

एक बार शनिवार को हम खरीदारी करने गए तो हमें सुषमा और अरुण साथसाथ नजर आए. हम ने जब उन्हें पुकारा तो वे ऐसे हड़बड़ाए जैसे कि कोई चोरी करते पकड़े गए हों.

‘‘रेणु, तुम आजकल हमारे घर नहीं आतीं?’’ सुषमा ने बनावटी गुस्से से कहा.

‘‘ये आजकल औफिस के काम से बाहर बहुत जाते हैं. जब शनिवार, रविवार की छुट्टी होती है तो बहुत थक जाते हैं,’’ रेणु ने उत्तर दिया.

हम चूंकि खरीदारी कर चुके थे, इसलिए रेणु ने कहा, ‘‘सुषमा, मैं तुम्हें फोन करूंगी और फिर मिलने का प्रोग्राम बनाएंगे.’’

हम वापस घर आ गए. कोई विशेष काम था नहीं, सो रेणु ने कहा, ‘‘चलो, आज सुषमा के घर बिना सूचना दिए ही चलते हैं.’’

शाम हो चली थी और हम पाल के यहां जा पहुंचे. घंटी बजाई तो पाल ने ही दरवाजा खोला. अंदर कहीं जब सुषमा नजर न आई तो रेणु ने पूछा, ‘‘सुषमा अभी तक नहीं आई?’’

पाल बोला, ‘‘भाभीजी, वह शनिवार व रविवार को देर तक काम करती है.’’ पाल के मुख से यह सुन कर बड़ा अजीब सा लगा. मैं ने रेणु को आंख से कुछ भी न बोलने का इशारा किया.

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पाल ने हमें बैठने को कहा और चाय बनाने चला गया. इतने में ही फोन आया तो पाल ने उठाया. उस के बात करने से पता चला कि वह सुषमा का ही फोन है. उस ने उस से मुश्किल से 1 मिनट बात की होगी. हमें चाय देते हुए बोला, ‘‘सुषमा का ही फोन था. उसे अभी आने में 2 घंटे और लगेंगे.’’ पाल ने हम से बहुत कहा कि हम खाने के लिए रुकें, पर हम ने मना कर दिया.

रास्ते में रेणु ने कहा, ‘‘यह माजरा क्या है?’’

मैं ने कहा, ‘‘दूसरों के मामलों में हमें दखल नहीं देना चाहिए.’’

रेणु इस बार बहुत गुस्से में बोली, ‘‘पाल तुम्हारा गहरा दोस्त है, अपनी आंखों से आज तुम ने सबकुछ देखा है. उस का घर, परिवार बरबाद हुआ जा रहा है और तुम कह रहे हो कि हमें दूसरों के मामलों में दखल नहीं देना चाहिए. कैसे दोस्त हो तुम?’’

रेणु की बात में दम था. मैं ने जब उस से पूछा कि हमें क्या करना चाहिए तो इस का उत्तर उस के पास भी नहीं था. वह बोली, ‘‘जो कुछ भी हो, हमें पाल से बात करनी चाहिए.’’

‘‘हां, पर कैसे?’’

मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि पाल से कैसे बात करूं? कोई प्रत्यक्ष प्रमाण भी नहीं था कि उस से सुषमा और अरुण के नाजायज संबंध बताऊं. मैं ने रेणु से कहना चाहा कि जो हम ने देखा है, वह गलत भी तो हो सकता है, पर हिम्मत न हुई. रेणु उस समय गुस्से में थी.

लगभग 1 सप्ताह यों ही बीत गया. अगले शनिवार को 10-11 बजे पाल का फोन आया कि हम खरीदारी करने जाएं तो उसे भी साथ लेते जाएं.

मैं ने उस से 3-4 बजे तैयार रहने को कह दिया. हम उसे ले कर सुपर मार्केट गए तथा पूरे सप्ताह का राशन खरीदा. पाल ने भी अपना सामान खरीदा.

‘‘जहां सुषमा काम करती है, वहां चलते हैं. मुझे वहां से कुछ सामान खरीदना है,’’ रेणु ने कहा.

हम वहां गए. जिस काउंटर पर सुषमा काम करती थी, वह वहां नहीं थी. पाल ने उस के बौस से जा कर पूछा तो पता चला कि सुषमा तो पिछले 2 महीने से शनिवार व रविवार को काम करने ही नहीं आ रही है. पाल को यह जान कर बड़ा धक्का लगा. वह बोला, ‘‘यदि वह यहां काम करने नहीं आती है तो फिर कहां अपना मुंह काला करवाने जाती है?’’

मैं ने पाल को धैर्य बंधाते हुए कहा, ‘‘हो सकता है, उस ने कहीं और पार्टटाइम नौकरी ढूंढ़ ली हो.’’

‘‘पर मुझे तो बताना चाहिए था.’’

मैं ने उसे समझाया कि उसे घर जा कर सुषमा से प्यार से बात करनी चाहिए. हम ने उसे उस के फ्लैट पर छोड़ा.

वापसी में कार में बैठते ही रेणु मुझ पर बिफर पड़ी, ‘‘कैसे दोस्त हो तुम. सबकुछ पता होते हुए भी चुप क्यों रहे?’’

मैं ने उस से केवल इतना ही कहा, ‘‘आज की रात इन दोनों पर बड़ी भारी पड़ेगी.’’

अगले दिन सुबह 10 बजे के आसपास मैं ने पाल को फोन किया. मैं ने पूछा, ‘‘तुम ने रात सुषमा से बात की?’’

वह बोला, ‘‘हां, वह मुझे छोड़ कर चली गई है.’’

‘‘कहां?’’ मैं ने हैरानी से पूछा तो वह बोला, ‘‘अपने नए खसम के पास और कहां?’’

‘‘पाल, जरा शांत हो कर बताओ,’’ मैं ने कहा तो वह बोला, ‘‘मैं शांति से ही बात कर रहा हूं. उस ने मुझे तलाक देने का फैसला कर लिया है. वह अरुण के साथ नई शादी रचाएगी.’’

‘‘यह तुम क्या कह रहे हो?’’

‘‘मैं बिलकुल वही कह रहा हूं जो उस ने रात में मुझ से कहा था,’’ पाल बोलता ही रहा, ‘‘जब रात को 10 बजे वह घर आई और मैं ने उस से पूछा कि यह सब क्या हो रहा है तो उस ने बड़े सहज स्वर में कह दिया कि वह मुझ जैसे बेकार व निकम्मे आदमी के साथ नहीं रह सकती.’’

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पाल बोला, ‘‘मैं ने उसे फोन किया था, पर वह बात करने को ही तैयार नहीं. अरुण ने भी साफ शब्दों में कह दिया कि अब मेरे और सुषमा के बीच में बात करने के लिए कुछ भी शेष नहीं बचा है, और मैं उस के यहां फोन न करूं.’’

पाल बहुत टूटा सा लग रहा था. मुझे उस की हालत पर बहुत दुख हो रहा था, पर मैं कुछ भी नहीं कह पा रहा था.

दोपहर में भोजन के समय मैं ने उसे फोन किया, ‘‘यदि तुम्हें कुछ पैसों की जरूरत हो तो मांगने में संकोच न करना.’’

शाम को मैं उसे फिर अपने घर ले आया तथा एक हजार डौलर का चैक दे दिया.

एक दिन अरुण व सुषमा दोनों पाल की अनुपस्थिति में उस के फ्लैट में आए तथा फर्नीचर वगैरा सब उठवा कर ले गए. पाल के पास अब कुछ नहीं बचा था.

3-4 सप्ताह बाद पाल के पास सुषमा के वकील से तलाक के कागज आए और उस ने बिना किसी शर्त के उन पर हस्ताक्षर कर के भेज दिए. चूंकि तलाक दोनों को स्वीकार था, इसलिए कोर्ट से बिना देरी के उन का तलाक स्वीकार हो गया. यह सब इतना जल्दी घटित हुआ कि विश्वास ही नहीं हुआ.

अभी 1 सप्ताह ही बीता था कि एक दिन पाल का मेरे पास औफिस में फोन आया, ‘‘दिनेश, मुझे कल तुम्हारी कार चाहिए.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘मेरा कल सुबह एक कंपनी में 9 बजे इंटरव्यू है. यदि मैं समय पर नहीं पहुंचा तो नौकरी हाथ से निकल जाएगी.’’

‘‘ठीक है. तुम सुबह मुझे औफिस छोड़ जाना और मेरी कार ले जाना,’’ मैं ने उस से यह कह फोन बंद कर दिया.

अगले दिन वह मुझे औफिस छोड़ कर मेरी कार ले गया तथा शाम को जब आया तो बोला, ‘‘यार, तुम लोगों की मदद से नौकरी मिल गई.’’

मैं ने उसे बहुतबहुत बधाई दी. 1 महीने तक मैं उसे हर सुबह उस के नए औफिस में छोड़ आता. जैसे ही उसे पहली तनख्वाह मिली, उस ने एक कार खरीद ली और धीरेधीरे सामान्य सा होने लगा. वह अब अकसर शाम को हमारे यहां आने लगा. रात 9-10 बजे तक बैठता, खाना खाता और अपने घर लौट जाता.

6 महीने ऐसे ही गुजर गए. पाल की आर्थिक स्थिति सुधरने लगी. जिस कंपनी में वह काम करता था, उस के मालिक कंपनी की एक शाखा भारत में खोलने की सोच रहे थे. उन्होंने पाल को 1 महीने के लिए दिल्ली जाने को कहा तो वह वहां चला गया.

लगभग 1 महीने बाद जब वह वापस आया तो मुझे फोन किया कि उस ने फिर से शादी कर ली है और उस की पत्नी उस के साथ ही आई है. उस ने अगले शनिवार को हमें घर आने को कहा.

‘‘भाईसाहब, थोड़ी और पकौड़ी लीजिए. आप ने तो कुछ खाया ही नहीं. मैं ने स्वयं बनाई हैं. क्या अच्छी नहीं बनीं?’’ पाल की पत्नी ऊषा ने जब मुझ से यह कहा तो मैं अचानक उस दुखद स्मृति से चौंका, जो पाल की पुरानी विवाहित जिंदगी से जुड़ी थी और मैं उसी में खोया हुआ था.

‘‘नहींनहीं, बहुत अच्छी बनी हैं,’’ मैं ने कहा तो पाल ऊषा से बोला, ‘‘दिनेश को यदि पकौडि़यों के साथ बियर मिल जाती तो यह और भी खाता.’’

‘‘यह सब इस घर में नहीं होगा. यह घर मेरे प्यार का प्रेरणा स्थल है. ऐसे स्थान पर मादक द्रव्य नहीं लाए जाते,’’ ऊषा ने तपाक से कहा तो पाल कुछ न बोला.

थोड़ी देर में फोन की घंटी बजी. पाल ने रिसीवर उठाया, ‘‘हां, मैं धर्मपाल बोल रहा हूं,’’ उस के बाद उस ने फोन पर कुछ बातें कीं. जब हमारे पास आया तो रेणु बोली, ‘‘आप का नाम फिर से धर्मपाल हो गया क्या?’’

‘‘हां, भाभीजी, ऊषा को यही पसंद है.’’

खाना खा कर जब हम घर चले तो कार में बैठते ही रेणु ने कहा, ‘‘अब मुझे तुम्हारे मित्र के बारे में कोई चिंता नहीं है. ऊषा उसे आदमी बना कर ही छोड़ेगी.’’

मैं ने कहा, ‘‘जैसे तुम ने मुझे बना दिया.’’

वह कुछ न बोली तो मैं ने कहा, ‘‘चलो, अब कल देर तक सोएंगे.’’

‘‘तुम कभी नहीं बदलोगे,’’ कहते हुए वह मुसकरा पड़ी.

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बहन का सुहाग: भाग 1- क्या रिया अपनी बहन का घर बर्बाद कर पाई

लेखकनीरज कुमार मिश्रा

आनंद रंजन अर्बन बैंक में क्लर्क थे. उन की आमदनी ठीकठाक ही थी. घर में सुघड़ पत्नी के अलावा 2 बेटियां और 1 बेटा बस इतना सा ही परिवार था आनंद रंजन का.

गांव में अम्मांबाबूजी बड़े भाई के साथ रहते थे, इसलिए उन की तरफ की जिम्मेदारियों से आनंद मुक्त थे, हां… पर गांव में हर महीने पैसे जरूर भेज दिया करते थे.

वैसे तो आनंद रंजन का किसी के साथ कोई मनमुटाव नहीं था. सब के साथ उन का मृदु स्वभाव उन्हें लोगों के बीच लोकप्रिय बनाए रखता था, चाहे बैंक का काम हो या सामाजिक काम, सब में आगे बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया करते थे वे. साथ ही साथ अपने परिवार को आनंद रंजन पूरा समय भी देते थे. जहां हमारे देश में एक लड़के को ही वंश चलाने के लिए जरूरी माना जाता है और लड़कियों के बजाय लोग लड़कों को वरीयता देते हैं, वहीं आनंद की दोनों बेटियां, बड़ी बेटी निहारिका और छोटी बेटी रिया उन की आंखों का तारा थीं. बड़ी बेटी सीधीसादी और छोटी बेटी रिया थोड़ी चंचल थी.

आनंद रंजन बेटे और बेटियों दोनों को समान रूप से ही प्यार करते थे और यही वजह है कि जब बड़ी बेटी को इंटरमीडिएट की पढ़ाई के बाद आगे की पढ़ाई के लिए लखनऊ जाने की बात आई, तो आनंद रंजन सहर्ष ही बेटी को लखनऊ भेजने के लिए मान गए थे और लखनऊ विश्वविद्यालय में एडमिशन के लिए खुद वे अपनी बेटी निहारिका के साथ कई बार लखनऊ आएगए.

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निहारिका को लखनऊ विश्वविद्यालय में एडमिशन मिल गया था और उस के रहने का इंतजाम भी आनंद रंजन ने एक पेइंग गेस्ट के तौर पर करा दिया था.

एक छोटे से कसबे से आई निहारिका एक बड़े शहर में आ कर पढ़ाई कर रही थी. एक नए माहौल, एक नए शहर ने उस की आंखों में और भी उत्साह भर दिया था.

यूनिवर्सिटी में आटोरिकशा ले कर पढ़ने जाना और वहां से आ कर रूममेट्स के साथ में मिलनाजुलना, निहारिका के मन में एक नया आत्मविश्वास जगा रहा था.

वैसे तो यूनिवर्सिटी में रैगिंग पर पूरी तरह से बैन लगा हुआ था, पर फिर भी सीनियर छात्र नए छात्रछात्राओं से चुहलबाजी करने से बाज नहीं आते थे.

‘‘ऐ… हां… तुम… इधर आओ…‘‘ अपनी क्लास के बाहर निकल कर जाते हुए निहारिका के कानों में एक भारी आवाज पड़ी.

एक बार तो निहारिका ने कुछ ध्यान नहीं दिया, पर दोबारा वही आवाज उसे ही टारगेट कर के आई तो निहारिका पलटी. उस ने देखा कि क्लास के बाहर बरामदे में 5-6 लड़कों का एक ग्रुप खड़ा हुआ था. उस में खड़ा एक दाढ़ी वाला लड़का उंगली से निहारिका को पास आने का इशारा कर रहा था.

यह देख निहारिका ऊपर से नीचे तक कांप उठी थी. उस ने यूनिवर्सिटी में दाखिला लेने से पहले विद्यार्थियों की रैगिंग के बारे में खूब सुन रखा था.

‘तो क्या ये लोग मेरी रैगिंग लेंगे…? क्या कहेंगे मुझ से ये…? मैं क्या कह पाऊंगी इन से…?‘ मन में इसी तरह की बातें सोचते हुए निहारिका उन लड़कों के पास जा पहुंची.

‘‘क्या नाम है तुम्हारा?”

‘‘ज… ज… जी… निहारिका.‘‘

‘‘हां, तो… इधर निहारो ना… इधर… उधर कहां ताक रही हो… जरा हम भी तो जानें कि इस बार कैसेकैसे चेहरे आए हैं बीए प्रथम वर्ष में,‘‘ दाढ़ी वाला लड़का बोला.

हलक तक सूख गया था निहारिका का. उन लड़कों की चुभती नजरें निहारिका के पूरे बदन पर घूम रही थीं. अपनी किताबों को अपने सीने से और कस कर चिपटा लिया था निहारिका ने.

‘‘अरे, तनिक ऊपर भी देखो न, नीचेनीचे ही नजरें गड़ाए रहोगे, तो गरदन में दर्द हो जाएगा,‘‘ उस ग्रुप में से दूसरा लड़का बोला.

निहारिका पत्थर हो गई थी. उसे समझ नहीं आ रहा था कि इन लड़कों को क्या जवाब दे. निश्चित रूप से इन लड़कों को पढ़ाई से कोई लेनादेना नहीं था. ये तो शोहदे थे जो नई लड़कियों को छेड़ने का काम करते थे.

‘‘अरे क्या बात है… क्यों छेड़ रहे हो… इस अकेली लड़की को भैया,‘‘ एक आवाज ने उन लड़कों को डिस्टर्ब किया और वे सारे लड़के वास्तव में डिस्टर्ब तो हो ही गए थे, क्योंकि राजवीर सिंह अपने दोस्तों के साथ वहां पहुंचा था और उस अकेली लड़की की रैगिंग होता देख उसे बचाने की नीयत से वहां आया था.

‘‘और तुम… जा सकती हो  यहां से… कोई तुम्हें परेशान नहीं करेगा,’’ राजवीर की कड़क आवाज निहारिका के कानों से टकराई थी.

निहारिका ने सिर घुमा कर देखा तो एक लड़का, जिस की आंखें इस समय उन लड़कों को घूर रही थीं, निहारिका तुरंत ही वहां से लंबे कदमों से चल दी थी. जातेजाते उस के कान में उस लड़के की आवाज पड़ी थी, जो उन शोहदों से कह रहा था, ‘‘खबरदार, किसी फ्रेशर को छेड़ा तो ठीक नहीं होगा… ये कल्चर हमारे लिए सही नहीं है.‘‘

निहारिका मन ही मन उस अचानक से मदद के लिए आए लड़के का धन्यवाद कर रही थी और यह भी सोच रही थी कि कितनी मूर्ख है वह, जो उस लड़के को थैंक्स भी नहीं कह पाई… चलो, कोई बात नहीं, दोबारा मिलने पर जरूर कह देगी.

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उस को थैंक्स कहने का मौका अगले ही दिन मिल गया, जब निहारिका क्लास खत्म कर के निकल रही थी. तब वही आवाज उस के कानों से टकराई, ‘‘अरे मैडम, आज किसी ने आप को छेड़ा तो नहीं ना.‘‘

देखा तो कल मदद करने वाला लड़का ही अपने दोनों हाथों को नमस्ते की शक्ल में जोड़ कर खड़ा हुआ था और निहारिका की आंखों में देख कर मुसकराए जा रहा था.

‘‘ज… जी, नहीं… पर कल जो आप ने मेरी मदद की, उस का बहुत शुक्रिया.‘‘

‘‘शुक्रिया की कोई बात नहीं… आगे से अगर आप को कोई भी मदद चाहिए हो तो आप मुझे तुरंत ही याद कर सकती हैं… ये मेरा कार्ड है… इस पर मेरा फोन नंबर भी है,‘‘ एक सुनहरा कार्ड आगे बढाते हुए उस लड़के ने कहा.

कार्ड पर नजर डालते हुए निहारिका ने देखा, ‘राजवीर सिंह, बीए तृतीय वर्ष.’

राजवीर एक राजनीतिक परिवार से ताल्लुक रखता था और उस ने एडमिशन तो विश्वविद्यालय में ले रखा था, पर उस का उद्देश्य प्रदेश की राजनीति तक पहुंचने का था और इसीलिए पढ़ाई के साथ ही उस ने छात्रसंघ के अध्यक्ष पद के लिए तैयारी शुरू कर दी थी.

निहारिका इतना तो समझ गई थी कि पढ़ाई संबंधी कामों में यह लड़का भले काम न आए, पर विश्वविद्यालय में एक पहचान बनाने के लिए इस का साथ अगर मिल जाए तो कोई बुराई  भी नहीं है.

तय समय पर विश्वविद्यालय में चुनाव हुए, जिस में राजवीर सिंह की भारी मतों से जीत हुई और अब वह कैंपस में जम कर नेतागीरी करने लगा.

पर, राजवीर सिंह के अंदर नेता के साथसाथ एक युवा का दिल भी धड़कता था और उस युवा दिल को निहारिका पहली ही नजर में अच्छी लग गई थी. निहारिका जैसी सीधीसादी और प्रतिभाशाली लड़की जैसी ही जीवनसंगिनी की कल्पना की थी राजवीर ने.

और इसीलिए वह मौका देखते ही निहारिका के आगेपीछे डोलता रहता. अब निहारिका को आटोरिकशा की जरूरत नहीं पड़ती. वह खुद ही अपनी फौर्चूनर गाड़ी निहारिका के पास खड़ी कर उसे घर तक छोड़ने का आग्रह करता और निहारिका उस का विनम्र आग्रह टाल नहीं पाती.

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आधुनिक बीवी: भाग 2- क्या धर्मपाल की तलाश खत्म हो पाई

लेखक- प्रमोद कुमार शर्मा

रेणु जब नहा कर वापस आई तब तक मैं ने फायर प्लेस में आग जला ली थी. हम ने एक हिंदी फिल्म का कैसेट लगाया और देखने लगे. इतने में फोन की घंटी बजी. रेणु ने रिसीवर उठाया और ऊपर जा कर बातें करने लगी. वह करीब आधे घंटे बाद नीचे आई तो मैं ने पूछा, ‘‘किस का फोन था?’’

वह बोली, ‘‘कल की पार्टी में एक दक्षिण भारतीय महिला मिली थी, उसी का फोन था. सुषमा के बारे में ही बातें होती रहीं कि कैसे वह बड़ी बेशर्मी से पाल के गले में बांहें डाल कर शराब पी रही थी.’’

मैं ने बात को आगे न बढ़ाया, उठ कर वीडियो बंद कर दिया और चाय बनाने लगा.

चाय पीने के बाद मैं ऊपर जा कर लेट गया. मुझे छुट्टी के दिन दोपहर बाद थोड़ी देर सोना बड़ा अच्छा लगता है.

जब मेरी आंख खुली तो देखा कि रेणु भी मेरे पास ही सो रही है. मैं उसे सोता छोड़ कर नीचे चला आया और टैलीविजन देखने लगा.

लगभग 1 घंटे बाद रेणु भी नीचे आई और रसोई में जा कर रात के खाने का प्रबंध करने लगी. मैं ने रेणु से कहा कि यदि बर्फ पड़नी बंद न हुई तो लगता है, कल औफिस जाना मुश्किल हो जाएगा.

करीब 8 बजे हम ने खाना खाना और फिर से हिंदी फिल्म देखने लगे. 10 बजे के आसपास हम सोने चले गए.

सुबह उठ कर मैंने देखा कि बर्फ तो पड़नी बंद हो गई है, पर सड़कें अभी बर्फ से ढकी हुई हैं. मेरा औफिस घर से केवल 5-6 मील की दूरी पर है, सो औफिस जाने का निश्चय किया.

औफिस में ज्यादा लोग नहीं आए थे. शाम 5 बजे मैं वापस घर आ गया. रेणु ने चाय बनाई तथा डाक ला कर दी. पूरा सप्ताह ही बीत गया. शुक्रवार की शाम को रीता का फोन आया. उस ने अपने यहां अगले दिन रात के डिनर पर आने का निमंत्रण दिया. हमारा चूंकि अगले दिन कहीं जाने का प्रोग्राम नहीं था, सो ‘हां’ कर दी.

रीता के घर जब पहुंचे तो यह जान कर बड़ा अचंभा हुआ कि पाल वहां निमंत्रित नहीं है. रीता ने अन्य भारतीय परिवारों को भी बुलाया हुआ था. पार्टी में भी सुषमा के बारे में चर्चा होती रही. महिलाओं को इस बात का बड़ा दुख था कि उन्होंने कभी सुषमा जैसा फैशन क्यों नहीं किया या खुल कर लोगों के सामने शराब क्यों नहीं पी. रात को जब हम घर लौटे तो रेणु ने कार में फिर से सुषमा पुराण दोहराना चाहा, पर जब मैं ने उस में कोई दिलचस्पी न दिखाई तो उसे चुप हो जाना पड़ा.

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अगले दिन रेणु ने पाल को फोन किया और उसे घर आने को कहा. लेकिन उस ने यह कह कर मना कर दिया कि उन्हें घर के लिए फर्नीचर वगैरा खरीदने जाना है. पर शाम को करीब 8 बजे वे दोनों अचानक हमारे घर आ पहुंचे.

‘‘अरे, तुम तो खरीदारी के लिए जाने वाले थे?’’ मैं ने पाल से पूछा.

‘‘वहीं से तो आ रहे हैं,’’ वह बोला. उस ने बाद में बताया कि फर्नीचर तो खरीद नहीं पाए क्योंकि सुषमा ने और सामान खरीदने में ही इतने पैसे लगा दिए. हमारे यहां वे लोग रात के खाने तक रुके और फिर घर चले गए.

रेणु ने मुझे बाद में बताया कि पाल ने अपनी पत्नी को 2 हजार डौलर की हीरे की अंगूठी दिलवाई है. उस की असली शिकायत यह थी कि मैं ने कभी हीरे की अंगूठी खरीद कर उसे क्यों नहीं दी. उस ने मुझे कई और ताने भी दिए.

3-4 महीने यों ही गुजर गए. एक दिन औफिस में पाल का फोन आया कि वह मुझ से कुछ बात करना चाहता है. मैं ने उसे शाम को घर आने को कहा तो बोला, ‘‘नहीं, मैं केवल तुम से एकांत में मिलना चाहता हूं.’’

मुझे जल्दी एक मीटिंग में जाना था, सो कहा, ‘‘अच्छा, औफिस के बाद पब्लिक लाइब्रेरी में मिलते हैं.’’

वह इस के लिए राजी हो गया. मैं ने रेणु को फोन कर दिया कि शाम को जरा देर से आऊंगा.

शाम को मैं जब लाइब्रेरी में पहुंचा तो पाल वहां पहले से ही बैठा था. इधरउधर की बातें करने के बाद उस ने मुझ से 5 हजार डौलर उधार मांगे. वह मुझ से कुछ ज्यादा ही कमाता था और काफी समय से नौकरी भी कर रहा था. उस ने अभी तक घर भी नहीं खरीदा था, किराए के फ्लैट में ही रहता था. भारत भी उस ने कभी पैसे भेजे नहीं थे क्योंकि उस के घर वाले बहुत समृद्ध थे. मैं ने पूछा, ‘‘तुम्हें पैसों की ऐसी क्या आवश्यकता आ पड़ी? क्या घर खरीदने जा रहे हो?’’

वह बोला, ‘‘नहीं यार, जब से सुषमा आई है, तब से खर्च कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है. उस ने 3-4 महीने में इतनी खरीदारी की है कि सारे पैसे खर्च हो गए हैं. अब वह नई कार खरीदने को कह रही है.’’

‘‘तो उस में क्या बात है, किसी भी कार डीलर के पास चले जाओ. वह पैसे का प्रबंध करा देगा.’’

वह बोला, ‘‘अब तुम से क्या छिपाऊं. मेरे ऊपर करीब 10-12 हजार डौलर का वैसे ही कर्जा है. यह सब जो हम ने खरीदा है, सब उधार ही तो है. अब जब क्रैडिट कार्ड के बिल आ रहे हैं तो पता चल रहा है.’’

मैं ने आगे कहा, ‘‘पाल, बुरा मत मानना, पर जब तुम्हारे पास इतने पैसे नहीं थे तो इतना सब खरीदने की क्या जरूरत थी?’’

‘‘मेरी नईनई शादी हुई है और सुषमा आधुनिक विचारों की है. चाहता हूं कि मैं उसे दुनियाभर की खुशियां दे दूं, जो आज तक किसी पति ने अपनी पत्नी को न दी हों,’’ उस ने अजीब सा उत्तर दिया.

मैं ने पाल को समझाना चाहा कि उसे अपनी जेब देख कर ही खर्च करना चाहिए और कुछ पैसा बुरे समय के लिए बचा कर रखना चाहिए. पर असफल ही रहा.

अगले दिन मैं ने पाल को 5 हजार डौलर का चैक दे दिया. घर से पिताजी का पत्र आया कि मेरी छोटी बहन मंजु का रिश्ता तय हो गया है तथा 1 महीने के बाद ही शादी है. घर में यह आखिरी शादी थी, सो हम दोनों ने भारत जाने का निश्चय किया और शादी से 2 दिन पहले भारत पहुंच गए. 5-6 वर्ष बाद भारत आए थे. सबकुछ बदलाबदला सा लग रहा था. ऐसा लगा कि भारत में लोगों के पास बहुत पैसा हो गया है. लोग पान खाने के लिए भी सौ रुपए का नोट भुनाते हैं.

शादी में एक सप्ताह ऐसे बीत गया कि समय का पता ही न चला. शादी के बाद कुछ और दिन भारत में रह कर हम वापस अमेरिका लौटे. अगले दिन रविवार था सो, खूब डट कर थकान मिटाई. शाम को बाजार खाने का सामान लेने गए. सुपर मार्केट में अचानक रीता से मुलाकात हुई. मुझ से नमस्कार करने के बाद वह रेणु से बातें करने लगी. बातोंबातों में पता लगा कि पाल के हाल कुछ अच्छे नहीं हैं.

मैं ने घर जा कर पाल को फोन मिलाया तो वह बोला, ‘‘अरे, तुम कब आए?’’

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‘‘कल रात ही आए हैं,’’ मैं ने उत्तर दिया. इधरउधर की बातें करने के बाद उस ने बताया कि उस के औफिस में करीब 50 आदमियों की छंटनी होने वाली है और उस का नाम भी उस सूची में है.

अमेरिका में यह बड़ा चक्कर है. स्थायी नौकरी नाम की कोई चीज यहां नहीं है. जब जरूरत होती है, तो मुंहमांगी तनख्वाह पर रखा जाता है लेकिन जब जरूरत नहीं है तो दूध में गिरी मक्खी की तरह से निकाल दिया जाता है.

मैं ने पाल को समझाते हुए कहा कि उसे अभी से दूसरी नौकरी की तलाश करनी चाहिए, लेकिन वह बहुत ही घबराया हुआ था. फिर मैं ने कहा, ‘‘ऐसा करो, तुम लोग यहां आ जाओ, बैठ कर बातें करेंगे.’’

8 बजे के आसपास पाल और सुषमा आ गए. सुषमा तो रेणु के पास रसोई में चली गई, पाल मेरे पास आ कर बैठ गया. उस ने बताया कि उस पर पहले करीब 15 हजार डौलर का कर्ज था. लेकिन कार लेने के बाद वह 35 हजार डौलर तक पहुंच गया है. यदि नौकरी चली गई और जल्दी से दूसरी नहीं मिली तो क्या होगा?

मैं ने उसे धीरज बंधाते हुए कहा, ‘‘अभी तो 2 महीने तक तुम्हारी कंपनी निकाल ही नहीं रही, तुम इलैक्ट्रिकल इंजीनियर हो और इस लाइन में बहुत नौकरियां हैं. चिंता छोड़ कर प्रयत्न करते रहो.’’

जब उस ने मुझ से मेरे पैसों के बारे में कहना शुरू किया तो मैं ने उसे एकदम रोक दिया, ‘‘मेरे पैसों की तुम बिलकुल चिंता मत करो. जब तुम्हारे पास होंगे, तब दे देना, नहीं होंगे तो मत देना.’’

मैं ने पाल को एक सुझाव और दिया कि सुषमा को भी कहीं नौकरी करनी चाहिए. रात का खाना खाने के बाद वे दोनों अपने घर चले गए.

2 महीने बाद पाल की नौकरी छूट गई तो मुझे बड़ा दुख हुआ. मैं ने 2-3 कंपनियों में पता लगाया, पर कुछ बात न बनी. पाल बहुत हताश हो गया था. उन्हीं दिनों उस के पिताजी का भारत से पत्र आया कि उन के एक मित्र का लड़का न्यूजर्सी स्टेट में पढ़ने आ रहा है. पाल से उन्होंने उस की सहायता करने को लिखा था. जिस यूनिवर्सिटी में वह लड़का पढ़ने आ रहा था, वह हमारे घर के पास ही थी. पाल ने मुझे उसे हवाईअड्डे से लिवा लाने को कहा तो मैं उसे ले आया. उस का नाम अरुण था. पाल अगले दिन उसे यूनिवर्सिटी ले गया तथा उस का रजिस्ट्रेशन वगैरा सब करा दिया.

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बिलखता मौन: भाग 1- क्यों पास होकर भी मां से दूर थी किरण

‘पता नहीं क्या हो गया है इस लड़की को? 2 दिनों से कमरे में बंद बैठी है. माना स्कूल की छुट्टियां हैं और उसे देर तक बिस्तर में रहना अच्छा लगता है, किंतु पूरे 48 घंटे बिस्तर में भला कौन रह सकता है? बाहर तो आए, फिर देखते हैं. 2 दिनों से सबकुछ भुला रखा है. कई बार बुला भेजा उसे, कोई उत्तर नहीं. कभी कह देती है, आज मेरी तबीयत ठीक नहीं. कभी आज भूख नहीं है. कभी थोड़ी देर में आती हूं. माना कि थोड़ी तुनकमिजाज है, किंतु अब तक तो मिजाज दुरुस्त हो जाना चाहिए था. हैरानी तो इस बात की है कि 2 दिनों से उसे भूख भी नहीं लगी. एक निवाला तक नहीं गया उस के अंदर. पिछले 10 वर्षों में आज तक इस लड़की ने ‘रैजिडैंशियल केअर होम’ के नियमों का उल्लंघन कभी नहीं किया. आज ऐसा क्या हो गया है?’’ केअर होम की वार्डन हैलन बड़बड़ाए जा रही थी. फिर सोचा, स्वयं ही उस के कमरे में जा कर देखती हूं कहीं किरण की तबीयत तो खराब नहीं. डाक्टर को बुलाना भी पड़ सकता है. हैलन पंजाब से आई ईसाई औरत थी और 10 सालों से वार्डन थी उस केअर होम की.

वार्डन ने कई बार किरण का दरवाजा खटखटाया. कोई उत्तर न पा वह झुंझलाती हुई अधिकार से बोली, ‘‘किरण, दरवाजा खोलो वरना दरवाजा तोड़ दिया जाएगा.’’ किरण की ओर से कोई उत्तर न पा कर वार्डन फिर क्रोध से बोली, ‘‘दरवाजा क्यों नहीं खोलती? किस का शोक मना रही हो? बोलती क्यों नहीं.’’

‘‘शोक मना रही हूं, अपनी मां का,’’ किरण ने रोतेरोते कहा. फिर फूटफूट कर रोने लगी.

इतना सुनते ही वार्डन चौंक पड़ी. सोच में पड़ गई, मां, कौन सी मां? जब से यहां आई है, मां का तो कभी जिक्र तक नहीं किया. वार्डन ने गहरी सांस ले अपने को संभालते हुए बड़े शांत भाव से कहा, ‘‘किरण बेटा, प्लीज दरवाजा तो खोलो.’’

कुछ क्षण बाद दरवाजा खोलते ही किरण वार्डन से लिपट कर दहाड़दहाड़ कर रोने लगी. धीरेधीरे उस का रोना सिसकियों में बदल गया.

‘‘किरण, ये लो, थोड़ा पानी पी लो,’’ वार्डन ने स्नेहपूर्वक कहा.

नाजुक स्थिति को समझते हुए वार्डन ने किरण का हाथ अपने हाथ में ले उस से प्यार से पूछा, ‘‘किरण, अपनी मां से तो तुम कभी मिली नहीं? आज ऐसी क्या बात हो गई है?’’

सिसकियां भरतेभरते किरण बोली, ‘‘मैं मां से कहां मिलना चाहती थी. अभी भी कहां मिली हूं. न जाने यह कब और कैसे हो गया. अब तो मैं चाह कर भी मां से नहीं मिल सकती.’’ इतना कह कर किरण ने गहरी सांस ली.

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वार्डन ने उसे आश्वासन देते हुए कहा, ‘‘जो कहना है कहो, मेरे पास तुम्हारे लिए समय ही समय है.’’

वार्डन का कहना भर था कि किरण के मुंह से अपने जीवन का इतिहास अपनेआप निकलने लगा, ‘‘पैदा होने से अब तक रहरह कर मेरे कानों में मां के तीखे शब्द गूंजते रहते हैं, ‘तू कोख में क्या आई, मेरे तो करम ही फूट गए.’ ऊपर से नानी, जिन्होंने मां को एक पल भी चैन से नहीं जीने दिया, मां से संबंधविच्छेद के बाद भी कभीकभार हमारे घर आ धमकतीं. फिर चालू हो जाती उन के तानोंउलाहनों की सीडी, ‘न सुखी, तू जम्मी ओ वी कुड़ी’. हुनतां तू अपने देसी बंदे नाल व्याण जोगी वी नई रई. कुड़ी अपने बरगी होंदी ते बाकी बच्यां नाल रलमिल जांदी. लबया वी कौन? दस्दयां वी शर्म आंदी ऐ.’’ आंसू भर आए थे एक बार फिर किरण की आंखों में.

‘‘मिसेज हैलन, मुझे नानी का हरदम कोसना, मां की बेरुखी से कहीं अधिक खलता था. ऐसा लगता जैसे वे मुझे नहीं, मेरे मांबाप को गालियां दे रही हों. मेरे मोटेमोटे होंठ, तंगतंग घुंघराले बाल, सभी को बहुत खटकते थे. मैं अकसर क्षुब्ध हो कर मां से पूछती, ‘इस में मेरा क्या कुसूर है?’ मैं दावे से कह सकती हूं कि अगर नानी का बस चलता तो मेरे बाल खींचखींच कर सीधे कर देतीं. मेरे होंठों की प्लास्टिक सर्जरी करवा देतीं. मुझे नानी जरा भी नहीं भाती थीं. दरवाजे से अंदर घुसते ही उन का शब्दों का प्रहार शुरू हो जाता, ‘नी सुखीये ऐस कुड़ी नूं सहेड़ के, तू अपनी जिंदगी क्यों बरबाद कर रई ए. दे दे किसी नूं, लाह गलयों. जद गल ठंडी पै जावेगी, तेरा इंडिया जा के ब्याह कर दयांगे. ताकत देखी है लाल (ब्रिटिश) पासपोर्ट दी. जेड़े मुंडे ते हथ रखेंगी, ओईयों तैयार हो जावेगा.’

‘‘दिनरात ऐसी बातें सुनसुन कर मेरे प्रति मां के व्यवहार में रूखापन आने लगा. एक दिन जब मैं स्कूल से लौटी ही थी कि घंटी बजी. मेरे दरवाजा खोलते ही सामने एक औरत खड़ी थी, बोली, ‘हाय किरण, मैं, ज्योति आंटी, तुम्हारी मम्मी की सहेली.’

‘‘मां, आप की सहेली, ज्योति आंटी आई हैं,’’ मैं ने मम्मी को आवाज दी.

‘‘‘हाय ज्योति, तुम आज रास्ता कैसे भूल गई हो?’

‘‘‘बहुत दिनों से मन था तुम्हारे साथ बैठ कर पुरानी यादों को कुरेदने का.’

‘‘‘आओ, अंदर आओ, बैठो. बताओ, आजकल क्या शगल चल रहा है. 1 से 2 हुई या नहीं?’ मां ने पूछा.

‘‘‘न बाबा न, मैं इतनी जल्दी इन झंझटों में पड़ने वाली नहीं. जीभर के मजे लूट रही हूं जवानी के. तू ने तो सब मजे स्कूल में ही ले लिए थे,’ ज्योति ने व्यंग्य से कहा.

‘‘‘मजे? क्या मजे? वे मजे तो नुकसानदेह बन गए हैं मेरे लिए. सामने देख,’ मां ने मेरी ओर इशारा करते हुए कहा.

‘‘इतना सुनते ही मैं दूसरे कमरे में चली गई. मुझे उन की सब बातें सुनाई दे रही थीं. बहुत तो नहीं, थोड़ाथोड़ा समझ में आ रहा था…

‘‘‘सुखी, तुझे तो मैडल मिलना चाहिए. तू ने तो वह कर दिखाया जो अकसर लड़के किया करते हैं. क्या गोरा, क्या काला. कोई लड़का छोड़ा भी था?’ ज्योति आंटी ने मां को छेड़ते हुए कहा.

‘‘‘ज्योति, तू नहीं समझेगी. सुन, जब मैं भारत से आई थी, उस समय मैं 14 वर्ष की थी. स्कूल पहुंचते ही हक्कीबक्की सी हो गई. यहां का माहौल देख कर मेरी आंखें खुली की खुली रह गईं. तकरीबन सभी लड़केलड़कियां गोरेचिट्टे, संगमरमरी सफेद चमड़ी वाले, उन के तीखेतीखे नैननक्श. नीलीनीली हरीहरी आंखें, भूरेभूरे सोने जैसे बाल, उन्हें देख कर ऐसा लगता था मानो लड़के नहीं, संगमरमर के बुत खड़े हों. लड़कियां जैसे आसमान से उतरी परियां. मेरी आंखें तो उन पे गड़ी की गड़ी रह जातीं. शुरूशुरू में उन का खुलापन बहुत अजीब सा लगता था. बिना संकोच के लड़केलड़कियां एकदूसरे से चिपटे रहते. उन का निडर, आजाद, हाथों में हाथ डाले घूमते रहना, ऐसा लगता था जैसे वे शर्म शब्द से अनजान हैं. धीरेधीरे वही खुलापन मुझे अच्छा लगने लगा. ज्योति, सच बताऊं, कई बार तो उन्हें देख कर मेरे मन में भी गुदगुदी होती. मन मचलने लगता. उन से ईर्ष्या तक होने लगती थी. तब मैं घंटों अपने भारतीय होने पर मातम मनाती. बहुत कोशिशें करने के बावजूद मेरे मन में भी जवानी की इच्छाएं इठलाने लगतीं. आहिस्ताआहिस्ता यह आग ज्वालामुखी की भांति भभकने लगी. एक दिन आखिर के 2 पीरियड खाली थे. मार्क ने कहा, ‘सुखी, कौफी पीने चलोगी?’ मैं ने उचक कर झट से हां कर दी. क्यों न करती? उस समय मेरी आंखों के सामने वही दृश्य रीप्ले होने लगा. तुम इसे चुनौती कहो या जिज्ञासा. मुझे भी अच्छा लगने लगा. धीरेधीरे दोस्ती बढ़ने लगी. मार्क को देख कर जौर्ज और जौन की भी हिम्मत बंधी. कई लड़कों को एकसाथ अपने चारों ओर घूमते देख कर अपनी जीत का एहसास होता. इसे तुम होल्ड, कंट्रोल या फिर पावर गेम भी कह सकती हो. अपने इस राज की केवल मैं ही राजदार थी.’

‘‘‘सुखी, तुम कौन से जौर्ज की बात कर रही हो, वही अफ्रीकन?’

‘‘‘हां, वह तो एक जिज्ञासा थी. उसे टाइमपास भी कह सकती हो. न जाने कब और कैसे मैं आगे बढ़ती गई. आसमान पर बादलों के संगसंग उड़ने लगी. पढ़ाई से मन उचाट हो गया. एक दिन पता चला कि मैं मां बनने वाली हूं. घर में जो हंगामा हुआ, सो हुआ. मुझे स्कूल छोड़ना पड़ा. सभी लड़कों ने जिम्मेदारी से मुंह मोड़ लिया. मैं भी किस पर हाथ रखती. मैं तो खुद ही नहीं जानती थी. किरण का जन्म होते ही उसे अपनाना तो दूर, मां ने किसी को उसे हाथ तक नहीं लगाने दिया. जैसे मेरी किरण गंदगी में लिपटी छूत की बीमारी हो. इस के बाद मेरी मां के घर से क्रिसमस का उपहार तो क्या, कार्ड तक नहीं आया.’’’

‘‘किरण, तुम्हें यह सब किस ने बताया?’’ वार्डन ने स्नेहपूर्वक पूछा.

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‘‘उस दिन मैं ने मां और ज्योति आंटी की सब बातें सुन ली थीं. जल्दी ही समय की कठोर मार ने मुझे उम्र से अधिक समझदार बना दिया. मां जो कभीकभी सबकुछ भुला कर मुझे प्यार कर लेती थीं, अब उन के व्यवहार में भी सौतेलापन झलकने लगा. जो पैसे उन्हें सोशल सिक्योरिटी से मिलते थे, उन से वे सारासारा दिन शराब पी कर सोई रहतीं. घर के काम के कारण कईकई दिन स्कूल नहीं भेजतीं. सोशलवर्कर घर पर आने शुरू हो गए. सोशल सर्विसेज की मुझे केयर में ले जाने की चेतावनियों का मां पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. शायद मां भी यही चाहती थीं. मां हर समय झुंझलाई सी रहतीं. मुझे तो याद ही नहीं कि कभी मां ने मुझे प्यार से बुलाया हो या फिर कभी अपने संग बिस्तर में लिटाया हो. मैं मां की ओर ललचाई आंखों से देखती रहती. ‘एक दिन मां ने मुझे बहुत मारा. शाम को वे मुझे अकेला छोड़ कर दोस्तों के संग पब (बीयर बार) में चली गईं. उस वक्त मैं केवल 8 वर्ष की थी. घर में दूध के सिवा कुछ खाने को नहीं था. बाहर बर्फ पड़ रही थी. रातभर मां घर नहीं आईं. न ही मुझे डर के मारे नींद. दूसरे दिन सुबह मैं ने पड़ोसी मिसेज हैंपटन का दरवाजा खटखटाया. मुझे डरीडरी, सहमीसहमी देख कर उन्होंने पूछा, ‘किरण, क्या बात है? इतनी डरीडरी क्यों हो?’

‘‘मम्मी अभी तक घर नहीं आईं,’ मैं ने सुबकतेसुबकते कहा.

‘‘‘डरो नहीं, अंदर आओ.’

‘‘मैं सर्दी से ठिठुर रही थी. मिसेज हैंपटन ने मुझे कंबल ओढ़ा कर हीटर के सामने बिठा दिया. वे मेरे लिए दूध लेने चली गईं. 20 मिनट के बाद एक सोशलवर्कर, एक पुलिस महिला के संग वहां आ पहुंची. जैसेतैसे पुलिस ने मां का पता लगाया.

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आई हेट हर: गूंज की अपनी मां से नाराजगी का क्या था कारण

सुबह के 7 बजे थे, गूंज औफिस जाने के लिए तैयार हो रही थी कि मां के फोन ने उस का मूड खराब कर दिया,”गूंज बिटिया, मुझे माफ कर दो…मेरी हड्डी टूट गई है…”

“बीना को दीजिए फोन…,” गूंज परेशान सा बोली. ‘’बीना क्या हुआ मां को?”

“दीदी, मांजी बाथरूम में गिर कर बेहोश हो गई थीं. मैं ने गार्ड को बुलाया और किशोर अंकल भी आ गए थे. किसी तरह बैड पर लिटा दिया लेकिन वे बहुत जोरजोर से रो रहीं हैं. सब लोग होस्पिटल ले जाने को बोल रहे हैं. शायद फ्रैक्चर हुआ है. किशोर अंकल आप को फोन करने के लिए बोल रहे थे.”

“बीना, मैं डाक्टर को फोन कर देती हूं. वह देख कर जो बताएंगे फिर देखती हूं…’’

गूंज ने अपने फैमिली डाक्टर को फोन किया और औफिस आ गई. उसे मालूम हो गया था कि मां को हिप बोन में फ्रैक्चर हुआ है, इसी वजह से वे परेशान थीं. उसे अब काफी चिंता होने लगी थी.

किशोर अंकल ने ऐंबुलैंस बुला कर उन्हें नर्सिंगहोम में ऐडमिट करवा दिया था. इतनी देर से लगातार फोन से सब से बात करने से काम तो हो गया, लेकिन बीना है कि बारबार फोन कर के कह रही है कि मां बहुत रो रही हैं और एक बार आने को बोल रही हैं.

“गूंज, किस का फोन है जो तुम बारबार फोन कट कर रही हो?’’ पार्थ ने पूछा. पार्थ उस के साथ उसी के औफिस में काम करता है और अच्छा दोस्त है.

एक ही कंपनी में काम करतेकरते दोनों के बीच घनिष्ठता बढ़ गई थी. फिर दोनों कब आपस में अपने सुखदुख साझा करने लगे थे, यह पता ही नहीं लगा था.

गूंज ने अपना लैपटौप बंद किया और सामान समेटती हुई बोली, ‘’मैं रूम पर जा रही हूं.‘’पार्थ ने भी अपना लैपटौप बंद कर बौस के कैबिन में जा कर बताया और दोनों औफिस से निकल पड़े.

“गूंज, चलो न रेस्तरां में 1-1 कप कौफी पीते हैं.”गूंज रोबोट की तरह उदास कदमों के साथ रेस्तरां की ओर चल दी. वह वहां बैठी अवश्य थी पर उस की आंखों से ऐसा स्पष्ट हो रहा था कि उस का शरीर यहां है पर मन कहीं और, मानों वह अपने अंतर्मन से संघर्ष कर रही हो .

पार्थ ने उस का मोबाइल उठा लिया और काल हिस्ट्री से जान लिया था कि उस की मां की कामवाली का फोन, फिर डाक्टर…“क्या हुआ तुम्हारी मम्मी को?’’“वे गिर गईं हैं, हिप बोन में फ्रैक्चर हुआ है. मुझे रोरो कर बुला रही हैं.‘’“तुम्हें जाना चाहिए.‘’

“मुझे तो सबकुछ करना चाहिए, इसलिए कि उन्होंने मुझे पैदा कर के मुझ पर बहुत बड़ा एहसान किया है…इसलिए…उन्होंने मेरे साथ क्या किया है? हमेशा मारनापीटना… प्यारदुलार के लिए मैं सदा तरसती रही…अब आएं उन के भगवान…करें उन की देखभाल….उन के गुरु  महराज… जिन के कारण वे मेरी पिटाई किया करती थीं. आई हेट हर.”

‘’देखो गूंज, तुम्हारा गुस्सा जायज है, होता है… कुछ बातें स्मृति से प्रयास करते रहने से भी नहीं मिट पातीं. लो पानी लो, अपनेआप को शांत करो.”

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“पार्थ, मैं मां की सूरत तक नहीं देखना चाहती,‘’ कह कर वह सिसक उठी थी.पार्थ चाहता था कि उस के मन की कटुता आंसू के माध्यम से बाहर निकल जाएं ताकि वह सही निर्णय ले पाए.

वह छोटी सी थी. तब संयुक्त परिवार में रहती थी. घर पर ताईजी का शासन था क्योंकि वह रईस परिवार की बेटी थी. मां सीधीसादी सी समान्य परिवार से थीं.

गूंज दुबलीपतली, सांवली, पढ़ने में कमजोर, सब तरह से उपेक्षित… पापा का किसी के साथ चक्कर था… सब तरह से बेसहारा मां दिन भर घर के कामों में लगी रहतीं. उन का सपना था कि उन की बेटी पढ़लिख कर औफिसर बने पर उसे तो आइसपाइस, कैरमबोर्ड व दूसरे खेलों से ही फुरसत नहीं रहती. वह हर समय ताई के गोलू और चिंटू के पीछेपीछे उन की पूंछ की तरह घूमा करती.

घर में कभी बुआ के बच्चे, तो कभी मौसी के बच्चे तो कभी पड़ोस के साथियों की टोली का जमघट लगा रहता. बस, सब का साथ पा कर वह भी खेलने में लग जाती.

एक ओर पति की उपेक्षा, पैसे की तंगी साथ में घरेलू जिम्मेदारियां. कुछ भी तो मां के मनमाफिक नहीं था. गूंज जिद करती कि मुझे गोलू भैया जैसा ही बैग चाहिए, नाराज हो कर मां उस का कान पकड़ कर लाल कर देतीं. वह सिसक कर रह जाती. एक तरफ बैग न मिल पाने की तड़प, तो दूसरी तरफ कान खींचे जाने का दर्द भरा एहसास और सब से अधिक अपनी बेइज्जती को महसूस कर गूंज  कभी रो पड़ती तो कभी चीखनेचिल्लाने लगती. इस से फिर से उस की पिटाई होती थी. रोनाधोना और भूखे पेट सो जाना उस की नियति थी.

उस उम्र में वह नासमझ अवश्य थी पर पिटाई होने पर अपमान और बेइज्जती को बहुत ज्यादा ही महसूस करती थी.

गूंज दूसरी क्लास में थी. उस की फ्रैंड हिना का बर्थडे था. वह स्कूल में पिंक कलर की फ्रिल वाली फ्रौक पहन कर आई थी. उस ने सभी बच्चों को पैंसिल बौक्स के अंदर पैंसिल, रबर, कटर और टौफी रख कर दिया था. इतना सुंदर पैंसिल बौक्स देख कर वह खुशी से उछलतीकूदती घर आई और मां को दिखाया तो उन्होंने उस के हाथ से झपट कर ले लिया,’’कोई जरूरत नहीं है इतनी बढ़िया चीजें स्कूल ले जाने की, कोई चुरा लेगा.‘’

वह पैर पटकपटक कर रोने लगी, लेकिन मां पर कोई असर नहीं पड़ा था.

कुछ दिनों के बाद वह एक दिन स्कूल से लौट कर आई तो मां उस पैंसिल बौक्स को पंडित के लड़के को दे रही थीं. यह देखते ही वह चिल्ला कर  उन के हाथ से बौक्स छीनने लगी,”यह मुझे मिला था, यह मेरा है.”

इतनी सी बात पर मां ने उस की गरदन पीछे से इतनी जोर से दबाई कि उस की सांसें रुकने लगीं और मुंह से गोंगों… की आवाजें निकलने लगीं… वह बहुत देर तक रोती रही थी.

लेकिन समय सबकुछ भुला देता है.

वह कक्षा 4 में थी. अपनी बर्थडे के दिन नई फ्रौक दिलवाने की जिद करती रही लेकिन फ्रौक की जगह उस के गाल थप्पड़ से लाल हो गए थे. वह रोतेरोते सो गई थी लेकिन शायद पापा को उस का बर्थडे याद था इसलिए वह उस के लिए टौफी ले कर आए थे. वह स्कूल यूनीफौर्म में ही अपने बैग में टौफी रख कर बेहद खुश थी. लेकिन शायद टौफी सस्ती वाली थी, इसलिए ज्यादातर बच्चों ने उसे देखते ही लेने से इनकार कर दिया था. वह मायूस हो कर रो पड़ी थी. उस ने गुस्से में सारी टौफी कूङेदान में फेंक दी थी.

लेकिन बर्थडे तो हर साल ही आ धमकता था.

पड़ोस में गार्गी उस की सहेली थी. उस ने आंटी को गार्गी को अपने हाथों से खीर खिलाते देखा था. उसी दिन से वह कल्पनालोक में केक काटती और मां के हाथ से खीर खाने का सपना पाल बैठी थी. पर बचपन का सपना केक काटना और मां के हाथों  से खीर खाना उस के लिए सिर्सफ एक सपना ही रह गया .

वह कक्षा 6 में आई तो सुबह मां उसे चीख कर जगातीं, कभी सुबहसुबह थप्पड़ भी लगा देतीं और स्वयं पत्थर की मूर्ति के सामने बैठ कर घंटी बजाबजा कर जोरजोर से भजन गाने बैठ जातीं.

वह अपने नन्हें हाथों से फ्रिज से दूध निकाल कर कभी पीती तो कभी ऐसे ही चली जाती. टिफिन में 2 ब्रैड या बिस्कुट देख कर उस की भूख भाग जाती. अपनी सहेलियों के टिफिन में उन की मांओं के बनाए परांठे, सैंडविच देख कर उस के मुंह में पानी आ जाता साथ ही भूख से आंखें भीग उठतीं. यही वजह थी कि वह मन ही मन मां से चिढ़ने लगी थी.

उस ने कई बार मां के साथ नजदीकी बढ़ाने के लिए उन के बालों को गूंथने और  हेयरस्टाइल बनाने की कोशिश भी की थी मगर मां उस के हाथ झटक देतीं.

मदर्सडे पर उस ने भी अपनी सहेलियों के साथ बैठ कर उन के लिए प्यारा सा कार्ड बनाया था लेकिन वे उस दिन प्रवचन सुन कर बहुत देर से आई थीं. गूंज को मां का इतना अंधविश्वासी होना बहुत अखरता था. वे घंटों पूजापाठ करतीं तो गूंज को कोफ्त होता.

जब मदर्सडे पर उस ने उन्हें मुस्कराते हुए कार्ड दिया तो वे बोलीं,”यह सब चोंचले किसलिए? पढोलिखो, घर का काम सीखो, आखिर पराए घर जाना है… उन्होंने कार्ड खोल कर देखा भी नहीं था और अपने फोन पर किसी से बात करने में बिजी हो गई थीं.

वह मन ही मन निराश और मायूस थी साथ ही गुस्से से उबल रही थी.

पापा अपने दुकान में ज्यादा बिजी रहते. देर रात घर में घुसते तो शराब के नशे में… घर में ऊधम न मचे, इसलिए मां चुपचाप दरवाजा खोल कर उन्हें सहारा दे कर बिस्तर पर लिटा देतीं. वह गहरी नींद में होने का अभिनय करते हुए अपनी बंद आंखों से भी सब देख लिया करती थी.

रात के अंधेरे में मां के सिसकने की भी आवाजें आतीं. शायद पापा मां से उन की पत्नी होने का जजियाकर वसूलते थे. उस ने भी बहुत बार मां के चेहरे, गले और हाथों पर काले निशान देखे थे.

पापा को सुधारने के लिए मां ने बाबा लोगों की शरणों में जाना शुरू कर दिया था… घर में शांतिपाठ, हवन, पूजापाठ, व्रतउपवास, सत्संग, कथा आदि के आयोजन आएदिन होने लगे था. मां को यह विश्वास था कि बाबा ही पापा को नशे से दूर कर सकते हैं, इसलिए वे दिनभर पूजापाठ, हवनपूजन और उन लोगों का स्वागतसत्कार करना आवश्यक समझ कर उसी में अपनेआप को समर्पित कर चुकी थीं. वैसे भी हमेशा से ही घंटों पूजापाठ, छूतछात, कथाभागवत में जाना, बाबा लोगों के पीछे भागना उन की दिनचर्या में शामिल था.

अब तो घर के अंदर बाबा सत्यानंद का उन की चौकड़ी के साथ जमघट लगा रहता… कभी कीर्तन, सत्संग और कभी बेकार के उपदेश… फिर स्वाभाविक था कि उन का भोजन भी होगा…

पापा का बिजनैस बढ़ गया और उस महिला का तबादला हो गया था, जिस के साथ पापा का चक्कर चल रहा था. वह मेरठ चली गई थी… मां का सोचना था कि यह सब कृपा गुरूजी की वजह से ही हुई है, इसलिए अब पापा भी कंठी माला पहन कर सुबहशाम पूजा पर बैठ जाते. बाबा लोगों के ऊपर खर्च करने के लिए पापा के पास खूब पैसा रहता…

इन सब ढोंगढकोसलों के कारण उसे पढ़ने और अपना होमवर्क करने का समय ही नहीं मिलता. अकसर उस का होमवर्क अधूरा रहता तो वह स्कूल जाने के लिए आनाकानी करती. इस पर मां का थप्पड़ मिलता और स्कूल में भी सजा मिलती.

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वह क्लास टेस्ट में फेल हो गई तो पेरैंट्स मीटिंग में टीचर ने उस की शिकायत की कि इस का होमवर्क पूरा नहीं रहता और क्लास में ध्यान नहीं देती, तो इस बात पर भी मां ने उस की खूब पिटाई की थी.

धीरेधीरे वह अपनेआप में सिमटने लगी थी. उस का आत्मविश्वास हिल चुका था. वह हर समय अपनेआप में ही उलझी रहने लगी थी. क्लास में टीचर जब समझातीं तो सबकुछ उस के सिर के ऊपर से निकल जाता.

वह हकलाने लगी थी. मां के सामने जाते ही वह कंपकंपाने लगती. पिता की अपनी दुनिया थी. वे उसे प्यार तो करते थे, पिता को देख कर गूंज खुश तो होती थी लेकिन बात नहीं कर पाती थी. वह कभीकभी प्यार से उस के सिर पर अपना हाथ फेर देते तो  वह खुशी से निहाल हो उठती थी.

उधर मां की कुंठा बढती जा रही थी. वे नौकरों पर चिल्लातीं, उन्हें गालियां  देतीं और फिर गूंज की पिटाई कर के स्वयं रोने लगतीं,”गूंज, आखिर मुझे क्यों तंग करती रहती हो?‘’

तब वह ढिठाई से हंस देती थी. उसे मालूम था कि ज्यादा से ज्यादा मां फिर से उस की पिटाई कर देंगी और क्या? पिटपिट कर वह मजबूत हो  चुकी थी. अब पिटने को ले कर उस के मन में कोई खौफ नहीं था.

वह कक्षा 7वीं में थी. गणित के पेपर में फेल हो गई थी. जुलाई में उस की फिर से परीक्षा होनी थी. वह स्कूल से अपमानित हो कर आई थी, क्योंकि गणित के कठिन सवाल उस के दिमाग में घुसता ही नहीं था.

घर के अंदर घुसते ही सभी के व्यंग्यबाणों से उस का स्वागत हुआ था,”अब तो घर में नएनए काम होने लगे हैं… गूंज से इस घर में झाड़ूपोंछा लगवाओ. वह इसी के लायक है…”

एक दिन ताईजी ने भी गूंज को व्यंग्य से कुछ बोलीं तो वह उन से चिढ़ कर कुछ बोल पङी. फिर क्या था, उसे जोरदार थप्पड़ पङे थे.

इस घटना के बाद उस की आंखों के आंसू सूख चुके थे… अब वह मां को परेशान करने के नएनए तरीके सोच रही थी. कुछ देर में मां आईं और फूटफूट कर रोने लगीं थीं. कुछ देर तक उस के मन में यह प्रश्न घुमड़ता रहा कि जब पीट कर रोना ही है तो पीटती क्यों हैं?

मां के लिए उस के दिल में क्रोध और घृणा बढ़ती गई थी.

लेकिन उस दिन पहली बार मां के चेहरे पर बेचारगी का भाव देख कर वह व्याकुल हो उठी थी.

व्यथित स्वर में वे बोली थीं, “गूंज, पढ़लिख कर इस नरक से निकल जाओ, मेरी बेटी.‘’

उस दिन मजबूरी से कहे इन प्यारभरे शब्दों ने उस के जीवन में पढ़ाई के प्रति रुचि जाग्रत कर दी थी.

अब पढ़ाई में रुझान के कारण उस का रिजल्ट अच्छा आने लगा तो मां की शिकायत दूर हो गई थी.

वह 10वीं में थी. बोर्ड की परीक्षा का तनाव लगा रहता था… साथ ही अब उस की उम्र की ऐसी दहलीज थी, जब किशोर मन उड़ान भरने लगता है. फिल्म, टीवी के साथसाथ हीरोहीरोइन से जुड़ी खबरें मन को आकर्षित करने लगती हैं.

पड़ोस की सुनिता आंटी का बेटा कमल भैया का दोस्त था. अकसर वह घर आया करता था. वह बीएससी में था, इसलिए वह कई बार उस से कभी इंग्लिश तो कभी गणित के सवाल पूछ लिया करती थी.

वह उस के लिए कोई गाइड ले कर आया था. उस ने अकसर उसे अपनी ओर देख कर मुसकराते हुए देखा था. वह भी शरमा कर मुसकरा दिया करती थी.

एक दिन वह उस के कमरे में बैठ कर उसे गणित के सवाल समझा रहा था. वह उठ कर अलमारी से किताब निकाल रही थी कि तभी उस ने उसे अपनी बांहों में भर लिया था. वह सिटपिटा कर उस की पकड़ से छूटने का प्रयास कर रही थी कि तभी कमरे में कमल भैया आ गए और बस फिर तो घर में जो हंगामा हुआ कि पूछो मत…

वह बिलकुल भी दोषी नहीं थी लेकिन घर वालों की नजरों मे सारा दोष उसी का था…

“कब से चल रहा है यह ड्रामा? वही मैं कहूं कि यह सलिल आजकल क्यों बारबार यहां का चक्कर काट रहा है… सही कहा है… कहीं पर निगाहें कहीं पर निशाना…

मां ने भी उस की एक नहीं सुनी, न ही कुछ पूछा और लगीं पीटने,”कलमुंही, पढ़ाई के नाम पर तुम्हारा यह नाटक चल रहा है…”

वह पिटती रही और ढिठाई से कहती रही,”पीट ही तो लोगी… एक दिन इतना मारो कि मेरी जान ही चली जाए…”

मां का हाथ पकड़ कर अपने गले पर ले जा कर बोलती,”लो मेरा गला दबा दो… तुम्हें हमेशाहमेशा के लिए मुझ मुक्ति मिल जाएगी.”

उस दिन जाने कैसे पापा घर आ गए थे… उस को रोता देख मां से डांट कर बोले,”तुम इस को इतना क्यों मारती हो?”

तो वे छूटते ही बोलीं,”मेरी मां मुझे पीटती थीं इसलिए मैं भी इसे पीटती हूं.”

पापा ने अपना माथा ठोंक लिया था.

अब मां के प्रति उस की घृणा जड़ जमाती जा रही थी. वह उन के साथ ढिठाई से पेश आती. उन से बातबात पर उलझ पड़ती.

मगर गुमसुम रह कर अपनी पढाई में लगी रहती. वह मां का कोई कहना नहीं मानती न ही किसी की इज्जत करती. उस की हरकतों से पापा भी परेशान हो जाते. दिनबदिन वह अपने मन की मालिक होती जा रही थी.

उस के मन में पक्का विश्वास था कि यह पूजापाठ, बाबा केवल पैसा ऐंठने के लिए ही आते हैं… यही वजह थी कि वह पापा से भी जबान लड़ाती. वह किसी भी हवनपूजन, पूजापाठ में न तो शामिल होती और न ही सहयोग करती.

इस कारण अकसर घर में कहासुनी होती लेकिन वह अपनी जिद पर अड़ी रहती.

इसी बीच उस का हाईस्कूल का रिजल्ट आया. उस की मेहनत रंग लाई थी. उस ने स्कूल में टौप किया था. उस के 92% अंक आए थे. बस, फिर क्या था, उस ने कह दिया कि उसे कोटा जा कर आगे की पढ़ाई करनी है. इस बात पर एक बार फिर से मां ने हंगामा करना शुरू कर दिया था,”नहीं जाना है…किसी भी हालत में नहीं…”

लेकिन पापा ने उसे भेज दिया और वहां अपने मेहनत के बलबूते वह इंजीनियरिंग की प्रतियोगिता पास कर बाद में इंजीनियर बन गई.

उधर पापा की अपनी लापरवाही के कारण उन का स्टाफ उन्हें धोखा देता रहा… वे सत्संग में मगन रह कर पूजापाठ में लगे रहे.

जब तक पापा को होश आया उन का बिजनैस बाबा लोगों द्वारा आयोजित पूजापाठ, चढ़ावे के हवनकुंड में स्वाह हो चुका था. अब वे नितांत अकेले हो गए. फिर उन्हें पैरालिसिस का अटैक हुआ. कोई गुरूजी, बाबा या फिर पूजापाठ काम नहीं आया. तब गूंज ने खूब दौड़भाग की लेकिन निराश पापा जीवन की जंग हार गए…

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मां अकेली रह गईं तो वह बीना को उन के पास रख कर उस ने अपना कर्तव्य निभा दिया.

गूंज का चेहरा रोष से लाल हो रहा था तो आंखों से अश्रुधारा को भी वह रोक सकने में समर्थ नहीं हो पाई थी.

‘’पार्थ, आई हेट हर…’’

“आई अंडरस्टैंड गूंज, तुम्हारे सिवा उन का इस दुनिया में कोई नहीं है, इसलिए तुम्हें उन के पास जाना चाहिए. शायद उन के मन में पश्चाताप  हो, इसलिए वे तुम से माफी मांगना चाहती हों…यदि तुम्हें मंजूर हो तो उन्हें बैंगलुरू शिफ्ट करने में मैं तुम्हारी मदद कर सकता हूं. यहां के ओल्ड एज होम का नंबर मुझे मालूम है. यदि तुम कहो तो मैं बात करूं?”

“पार्थ, मैं उन की शक्ल तक देखना नहीं चाहती…”

“मगर डियर, सोचो कि एक मजबूर बुजुर्ग, वह भी तुम्हारी अपनी मां, बैड पर लेटी हुईं तुम्हारी ओर नजरें लगाए तुम्हें आशा भरी निगाहों से निहार रही हैं…”

वह बुदबुदा कर बोली थी, ‘’कहीं पहुंचने में हम लोगों को देर न हो जाए.‘’

गूंज सिसकती हुई मोबाइल से फ्लाइट की टिकट बुक करने में लग गई…

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