अंधविश्वास की दलदल: भाग 2- प्रतीक और मीरा के रिश्ते का क्या हुआ

हमारे पिछले रिलेशन के बारे में कुछ न बता कर, हम ने एकदूसरे का परिचय सब के सामने रखा. वरुण, प्रतीक से हाथ मिलाते हुए बातें करने लगे और मैं प्रतीक की पत्नी नंदा से बातें करने लगी. थोड़ी देर में ही पता चल गया कि वह कितनी तेजतरार्र औरत है. बस अपनी ही हांके जा रही थी और बीचबीच में मेरे हाथों में डायमंड जड़ी चूडि़यां भी निहारे जा रही थी.

कुछ देर बाद जैसे ही हम चलने को हुए, अपनी आदत के अनुसार वरुण कहने लगे, ‘‘अब ऐसे सिर्फ हायहैलो से काम नहीं चलेगा. परसों क्रिसमस की छुट्टी है. आप सब हमारे घर खाने पर आमंत्रित हैं.’’ प्रतीक के न करने पर वरुण ने उस की एक न सुनी. मुझे वरुण पर गुस्सा भी आ रहा था. क्या जरूरत थी तुरंत किसी को अपने घर बुलाने की? प्रतीक मुझे देखने लगा, क्योंकि मुझे पता था वह भी मेरे घर नहीं आना चाह रहा होगा. पर वरुण को कौन समझाए. मजबूरन मुझे भी कहना पड़ा, ‘‘आओ न बैठ कर बातें करेंगे.’’

याद करना तो दूर, अब प्रतीक कभी भूलेबिसरे भी मेरे खयालों में नहीं आता था. पर आज अचानक उसे देख जाने मेरे मन को क्या हो गया. वरुण ने अपने फोन नंबर के साथ घर का पता भी प्रतीक को मैसेज कर दिया.

रास्ते भर मैं प्रतीक और उस की फैमिली के बारे में सोचती रही. मां ने ही तो बताया था मुझे. मेरे बाद प्रतीक के लिए कितने रिश्ते आए और कुंडली न मिलने के कारण लौट गए. हां, यह भी बताया था मां ने कि प्रतीक की जिस लड़की से शादी तय हुई है उस से प्रतीक के 28 गुणों का मिलान हुआ है. लेकिन प्रतीक और उस की पत्नी को देख कर लग नहीं रहा था कि दोनों के एक भी गुण मिल रहे हों. खैर, मुझे क्या. माना हमारा रिश्ता न हो पाया पर वरुण जैसा इतना प्यार करने वाला पति तो पाया न मैं ने.

घर आ कर हम ने थोड़ी बहुत इधरउधर

की बातें की और सो गए. सुबह उठ कर बच्चों को स्कूल भेज कर हमेशा की तरह हम जौगिंग पर निकल गए. वरुण बातें करते रहे और मैं उन की बातों पर सिर्फ हांहूं करती रही. मेरे मन में बारबार यही सवाल उठ रहे थे कि जन्मपत्री मिलान के बावजूद प्रतीक खुश था अपनी पत्नी के साथ? क्या सच में दोनों का मन मिल रहा था? चाय पीते हुए भी बस वही सब बातें चल रही थी मेरे दिमाग में. वरुण ने टोका भी कि क्या सोच रही हो, पर मैं ने अपना सिर हिला कर इशारों में कहा, ‘‘कुछ नहीं.’’ वरुण को औफिस भेज कर मैं भी अपने बैंक के लिए निकल गई.

रात में खाना खाते वक्त वरुण कहने लगे, ‘‘मीरा, कल मुझे औफिस जाना पड़ेगा. जरूरी मीटिंग है और हो सकता है लेट आऊं. मेरी तरफ से प्रतीक और उस के परिवार को सौरी बोल देना.’’

मुझे वरुण पर बहुत गुस्सा आया. मुझे गुस्सा होते देख कहने लगे, ‘‘सौरी… सौरी… अब इतना गुस्से से भी मत देखो. क्या बच्चे की जान लोगी?’’ और बच्चों के सामने ही मेरे गालों को चूमने लगे. वरुण की यह आदत भी मुझे नहीं पसंद थी. वे बच्चों के सामने ही रोमांस शुरू कर देते और बच्चे भी ‘हो… हो… पापा’ कह कर मजे लेने लगे.

दूसरे दिन वरुण अपने औफिस के लिए निकल गए और थोड़ी देर बाद बच्चे भी यह कह कर घर से निकल गए कि उन्होंने अपने दोस्तों के साथ मिल कर फिल्म जाने का प्रोग्राम बनाया है. अब मैं क्या करूंगी? सोचा चलो खाने की तैयारी ही कर लेती हूं क्योंकि अकेली हूं तो खाना बनाने में वक्त भी लगेगा और घर को भी व्यवस्थित करना था, तो लग गई अपने कामों में.

दोपहर के करीब 1 बजे वे लोग हमारे घर आ गए. मैं ने उन्हें बैठाया और पहले सब को जूस सर्व किया. फिर कुछ सूखा नाश्ता टेबल पर लगा दिया. प्रतीक ने वरुण और बच्चों के बारे में पूछा तो मैं ने उसे बताया, ‘‘उन्हें किसी जरूरी मीटिंग में जाना था इसलिए… लेकिन सामने वरुण को देख कर मुझे आश्चर्य हुआ, ‘‘वरुण, आप तो…?’’

‘‘हां, मीटिंग कैंसिल हो गई और अच्छा ही हुआ. बोलो कोई काम बाकी है?’’ वरुण ने कहा.

‘‘नहीं सब तैयार है,’’ मैं ने कहा.

खानापीना समाप्त होने के बाद हम बाहर लौन में ही कुरसी लगा कर बैठ गए. हम बातें कर रहे थे और बच्चे वहीं लौन में खेल रहे थे. लेकिन मेरा ध्यान प्रतीक के बेटे पर चला जाता जो कभी झूला झूलता तो कभी झूले को ही झुलाने लगता. उस की प्यारी शरारतों पर मैं मंदमंद मुसकरा रही थी. फिर मुझ से रहा नहीं गया तो मैं उस के पास जा कर उस से बातें करने लगी, ‘‘क्या नाम है तुम्हारा?’’ मैं ने पूछा तो उस ने तुतलाते हुए कहा, ‘‘अंछ है मेला नाम.’’

‘‘अंश, अरे वाह, बहुत ही सुंदर नाम है तुम्हारा तो.’’ उस की तोतली बातों पर मुझे हंसी आ गई. लेकिन अचानक से जब मेरी नजर प्रतीक पर पड़ी तो मैं सकपका गई. पता नहीं कब से वह मुझे देखे जा रहा था. मुझे लगा शायद वह मुझ से बहुत कुछ कहना चाह रहा था, कुछ बताना चाह रहा था, लेकिन अपने मन में ही दबाए हुए था.

‘‘ठीक है अब चलते हैं,’’ कह कर प्रतीक उठ खड़ा हुआ पर वरुण ने यह कह कर उन्हें रोक लिया कि एकएक कप चाय हो जाए. जिसे प्रतीक ठुकरा नहीं पाया. मैं चाय बनाने जा ही रही थी कि नंदा भी मेरे पीछेपीछे आ गई और कहने लगी, ‘‘हमारे आने से ज्यादा काम बढ़ गया न आप का?’’

‘‘अरे ऐसी बात नहीं नंदाजी. अच्छा अपने बारे में कुछ…?’’ अभी मैं बोल ही रही थी कि मेरी बात बीच में काटते हुए कहने लगी, ‘‘मैं अपने बारे में क्या बताऊं मीराजी, मेरा तो मानना है आप जैसी नौकरी करने वाली औरतें ज्यादा खुश रहती हैं, वरना हम जैसी गृहिणी तो बस काम और परिवार में पिसती रह जाती हैं. अब हमें ही देख लीजिए, दिन भर बस घर और बच्चों के पीछे पागल रहती हूं. ऊपर से मेरी सास, कुछ भी कर लो उन्हें मुझ से शिकायत ही लगी रहती है. कुछ तो काम है नहीं, बस दिन भर बकबक करती रहती हैं. अरे, मैं ने तो प्रतीक से कितनी बार कहा जा कर इन्हें गांव छोड़ आइए, आखिर हमारी भी तो जिंदगी है कब तक ढोते चलेंगे इस माताजी को पर नहीं, इन्हें मेरी बात सुननी ही कहा है.’’

बाबाजी का ठुल्लू

बाहर गली में लाउडस्पीकर बज रहा था. धूलमिट्टी उड़ाते औटो पर रखे लाउडस्पीकर से आवाज आ रही थी, ‘‘आप सभी को बाबाजी के समागम में आमंत्रित किया जाता है. जहां विशेष कृपा के तौर पर बाबाजी का ठुल्लू दिया जाएगा.

ज्यादा से ज्यादा संख्या में पहुंच कर बाबाजी की कृपा का लाभ उठाएं.’’ठुल्लू शब्द उल्लू ज्यादा सुनाई पड़ रहा था पर फिर भी मैसेज जा चुका था कि कोई विशेष कार्यक्रम ही होगा तभी इतनी जोरशोर से प्रचार हो रहा है.

जो ‘कौमेडी नाइट विद कपिल’ देखते हैं वे तो समझ गए पर जो नहीं देखते थे वे कार्यक्रम का हिस्सा बन गए.भव्य पंडाल सजा था. आसपास श्रद्धा की दुकानें सजी थीं, जिन में धूप, मालाएं, धार्मिक ग्रंथ, हवन सामग्री आदि मिल रही थी और साथ ही सजी थीं खानेपीने की दुकानें.

बाहर से तो ऐसा लग रहा था जैसे कोई शादीब्याह का आयोजन हो. एक बार को लगा कहीं गलत जगह तो नहीं आ गए पर पता तो यही था. बाबाजी का आने का समय 4 बजे का था. 7 बज रहे थे पर उन का अभी तक कोई अतापता न था. भीड़ बढ़ती जा रही थी.

8 बजे 4 गाडि़यां धूलमिट्टी उड़ाती मैदान में पहुंचीं. उन में एक औडी थी, जिस में गेरुआ चोला पहने बाबाजी अपनी धोती संभालते उतरे. उम्र यही कोई 50-55 वर्ष. बाल मिलेजुले सफेदकाले. चेहरे की चमक किसी महंगे ब्यूटीपार्लर का इश्तिहार लग रही थी जैसे अभी वहां से फेशियल करवा कर आए हों.‘‘बाबाजी की जय हो,’’ समर्थकों ने जोरजोर से नारे लगाने शुरू कर दिए.

लोग उत्सुकतावश बाबाजी की ओर ऐसे देख रहे थे जैसे वे कोई अजूबा हों.बाबाजी हाथ उठा कर बहुत आत्मविश्वास के साथ बोले, ‘‘मैं कुछ नहीं करता, भगवान मुझ से करवाता है. जब तक उस का हुक्म न हो तब तक मैं यहां आ ही नहीं सकता.’’पूरी बात जनता के पल्ले नहीं पड़ी. पर जोरदार तालियों से आभास हो गया शायद कोई बहुत बड़ी बात कही है.

‘‘बाबाजी आज आप सब को एक विशेष कृपा प्रदान करेंगे. ज्यादा से ज्यादा संख्या में पहुंच कर आप ने जो विश्वास बाबाजी पर जताया है वह काबिलेतारिफ है.’’समर्थक 1-1 कर के बाबाजी की प्रशंसा के पुल बांधते हुए अपनी बात आगे रखने लगे.तभी एक तरफ खुसुरफुसुर शुरू हो गई.‘‘कृपया शांत बैठें…जो कुछ कहना चाहते हैं कृपया माइक पर कहें.’’कुछ श्रोता आपस में लड़ रहे थे, ‘‘मैं बोलूंगा, मैं बोलूंगा.’’‘‘सभी को मौका दिया जाएगा,’’ ऐसा कह कर एक समर्थक ने माइक एक स्मार्ट, पढ़ेलिखे दिखने वाले सज्जन को पकड़ा दिया.‘‘गुरुदेव आप की सेवा में मेरा कोटिकोटि प्रणाम स्वीकार हो.

मुझे कई सालों से शुगर और ब्लडप्रैशर की बीमारी थी, जो आप की विशेष कृपा से ठीक हो गई.’’शुगर और ब्लडप्रैशर वाले मरीज खुश थे कि हम यहां आ गए तो हमारी भी बीमारी ठीक हो जाएगी.इस के साथ ही समर्थक फिर ‘बाबाजी की जय हो’ दोहराने लगे.‘‘मुझ में ऐसा कुछ नहीं है. परमात्मा परम ज्ञानी हैं,’’ बाबाजी का इतना बोलना था कि लोग फिर जोरजोर से तालियां बजाने लगे.कई लोग जो पहली बार आए थे, थोड़े कनफ्यूज दिखे कि ऐसा कैसे हो गया? यह तो शुरुआत थी.

फिर एक महिला ने माइक पकड़ा और कहा, ‘‘बाबाजी, गृहस्थी चलानी बहुत मुश्किल हो गई है…इतनी महंगाई है कि प्याज तो अब सपने की बात हो गई है और टमाटर तो कीमत से और लाल हुए पड़े हैं,’’ बाबाजी हाथ उठाते हुए बोले, ‘‘प्याज खाना कोई फायदे की बात नहीं है. इसे छीलो तो आंसू निकलते हैं और काटो तो जेब कटती है. मुझे देखो मैं ने इस की तरफ कभी आंख उठा कर भी नहीं देखा.’’समर्थक बोले, ‘‘बाबाजी के नक्शेकदम पर चलो, आंखें भी खुश रहेंगी और जेब भी.’’इस के साथ ही वही तालियां, वही नारा और वही समर्थकों का जोश.

माइक वाली महिला कुछ समझ कुछ नहीं और फिर बगले झंकते हुए बैठ गई. तालियों से शायद उसे अंदाजा हो गया था कि बाबाजी बहुत पहुंचे हुए हैं.तभी माइक एक बच्चे को दिया गया. बोला, ‘‘बाबाजी, मैं पेपरों से पहले बीमार पड़ गया था और यह आप की कृपा ही होगी कि मैं ने 20 नंबर का प्रश्नपत्र हल कर लिया और मेरे 40 नंबर आ गए.’’जनता फिर उल्लू की तरह कभी इधर देखती तो कभी उधर, पर उसे समझ नहीं आया कि यह कैसे हो गया.

जो इन सब बातों की सचाई जानना चाहते थे उन्हें कोई माइक नहीं दे रहा था.रात का 1 बज गया. बाबाजी को नींद आने लगी, तो समागम के समापन की घोषणा हो गई और लाउडस्पीकर पर ‘बजरंगी हमारी सुध लेना भुला नहीं देना, विनय तोहे बारबार है…’ भजन चलाया गया और समर्थक स्टेज पर हाथ उठाउठा कर नाचने लगे.

सब अपने आसपास के लोगों की देखादेखी नाचने लगे. उन के बजरंगी जा चुके थे अपने नए अवतार में, जिस में उन्होंने एक पैर जमीन पर रखा हुआ है और एक लोगों के दिल पर. और अपने बलशाली हाथों पर लोगों का दिमाग रख कर अपनी औडी में उड़ गए.

जिन्होंने माइक पर बोला था स्टेज के पीछे उन्हें पैसे बांटे जा रहे थे. पंडाल वाला भी खुश था कि अगली बार ज्यादा कमाई हो जाएगी. बड़ा पंडाल जो लगाना है.खाने के खोमचे वालों की चांदी हो गई. बाबा के इंतजार में लोगों ने खा कर ही टाइमपास किया.अंत में एक समर्थक ने माइक पर घोषणा की कि अगला कार्यक्रम 15 दिन बाद होगा. अपने साथ अपने पूरे परिवार को लाएं और बाबाजी के उल्लू उफ, सौरी ठुल्लू का सीक्वल पाएं.

चिर आलिंगनरत : मोहन को गौरी मैम से कैसे प्यार हो गया

संसार भर के सागरों में की जाने वाली क्रूज? यात्राओं में अलास्का की क्रूज सब से अधिक मनोहारी और रोमांचकारी मानी जाती है. इस यात्रा हेतु सिल्विया और मोहन 2 दिन पहले कनाडा के वैंकूवर नगर के बंदरगाह से नौर्वेजियन क्रूज लाइन के शिप पर सवार हुए थे.

क्रूज 7 दिन का था और शिप आज प्रात: जूनो नगर में आ कर रुका था. उन्होंने शिप पर ओशन व्यू कमरा बुक कराया था, जिस की खिड़की से दूरदूर तक लहराता सागर और यदाकदा ऊंचेऊंचे वृक्षों की हरीतिमा से आच्छादित द्वीपों का मंत्रमुग्धकारी बियाबान दिखाई देता था. यद्यपि इस प्रेमी युगल को पारस्परिक संग के दौरान किसी अन्य मुग्धकारी उत्तेजक की आवश्यकता नहीं थी, तथापि क्रूज शिप का मोहक वातावरण और महासागर का सम्मोहन अद्वितीय कैमिस्ट्री के जनक थे.

दोनों पृथ्वी पर स्वर्ग का आनंद प्राप्त कर रहे थे. जूनो अलास्का प्रांत की राजधानी है. अलास्का प्रांत की आबादी अधिक नहीं है, परंतु अलास्का की राजधानी होने के कारण यह नगर महासागर के किनारे बसा एक बड़ा कसबा सा है. शिप से उतर कर उन्होंने एक बस पकड़ ली.

उन्होंने 2 घंटे में कसबा व बाजार देख लिया. उन्हें यह देख कर आश्चर्य हुआ था कि बाजार में कुछ दुकानें गहनों की थीं जिन में अधिकांश के मालिक मुंबई के मूल निवासी थे.समयाभाव के कारण वे रोपवे और सी प्लेन की राइड पर नहीं गए.

तत्पश्चात वे मेंडेनहौल ग्लेशियर देखने और व्हेलवाच के लिए बोट से चल दिए. उस बोट में 2 ही हिंदीभाषी पर्यटक थे. शेष में अधिकांश इंग्लिश बोलने वाले अथवा अलास्का की आदिमजातियों की भाषा वाले थे, जिन में मुख्यतया ट्लिंगिट भाषा बोलने वाले थे.

अत: उसे और सिल्विया को आपस में कुछ भी बोलने और चुहलबाजी करने का निर्बाध अवसर उपलब्ध था. दोनों अन्यों की उपस्थिति से अनभिज्ञ रह कर इस अद्भुत यात्रा का आनंद ले रहे थे और जीवनिर्जीव सब पर हिंदी में अच्छीबुरी टिप्पणी कर के हंसते रहे थे.

मेंडेनहौल ग्लेशियर देख कर सिल्विया तो जैसे पागल हो रही थी. उस के और ग्लेशियर के बीच तट के निकट के सागर का एक भाग था. ग्लेशियर सागर के उस भाग के पार स्थित पर्वत से निकल रहा था. वह सुदूर पर्वत से निकल कर हिम की एक विस्तृत नदी की भांति चल कर सागर में समा रहा था. ऊपर से खिसक कर आई हिम सागर किनारे आ कर रुक जाती थी और वहां विशाल हिमखंड के रूप में परिवर्तित हो जाती थी जैसे सागर में कूदने के पूर्व उस की गहराई की थाह लेना चाह रही हो.

कुछकुछ अंतराल के पश्चात सागर किनारे स्थित शिलाखंड पीछे से आने वाली हिम के दबाव से भयंकर गरजना के साथ टूटता था और टुकड़ों में बिखर कर समुद्र में तैरने लगता था.हिमशिला टूटते समय सहस्रों पक्षी उस के नीचे से अपने प्राण बचाने को चिचिया कर निकलते थे. सिल्विया और मोहन यह देख कर हैरान थे कि उन पक्षियों ने सागर किनारे जमी उस हिमशिला के नीचे कुछ अंदर जा कर अपनी कालोनी बसा रखी थी.

हिमखंड के टूटने से उत्पन्न गरजना और जल का उछाल थम जाने पर वे पक्षी उस के नीचे बनी अपनी कालोनी में पुन: चले जाते थे. हिम के टूटे हुए खंड सागर में आइसबर्ग बन कर तैरने लगते थे.सिल्विया और मोहन जहां खड़े थे, वहां से बाईं ओर सागर में दूर तक वे आइसबर्ग दिखाई देते थे. उन के दाहिनी ओर एक पहाड़ी थी, जिस के ऊपर से एक झरना बह रहा था.

उस का आकर्षण सिल्विया को खींचने लगा और वह उस के किनारेकिनारे ऊपर दूर तक जाने लगी. मोहन भी उस के पीछेपीछे चलता गया.एकांत पा कर सिल्विया मोहन से सट गई और बोली, ‘‘मोहन, मेरा मन तो यहीं खो जाने को हो रहा है.’’पता नहीं क्यों तभी मोहन के मन में किसी अनहोनी की आशंका व्याप्त हो गई, परंतु मोहन ने सिल्विया को बांहों में भर लिया और उसे एक चुंबन दिया.

तभी यात्रियों की बोट पर वापसी का अलार्म बज गया और वे जल्दीजल्दी बोट पर वापस आ गए.बोट यात्रियों को व्हेल, सी लायन, सामन मछली, बोल्ड ईगिल आदि जीवधारियों को दिखाने हेतु गहरे समुद्र की ओर चल दी. व्हेलों के निवास के क्षेत्र में जब बोट पहुंची और यात्रियों ने उन की उछलकूद तथा श्वास के साथ पानी के फुहारे छोड़ने के दृश्यों का आनंद लेना प्रारंभ किया, तभी उन की बोट नीचे से एक भीषण ठोकर खा कर उछली और उलट गई. किसी यात्री को संभलने का अवसर नहीं मिला.

कोई डूब रहा था तो कोई तैर रहा था.कुछ यात्री बोट को पकड़ने उस की ओरतैरे भी, परंतु बोट अपने नीचे फंसी व्हेल केसाथ गहरे समुद्र में खिंची जा रही थी. सिल्विया और मोहन ने पानी में बहती लाइफ जैकेट पकड़ कर पहन ली और बोट से समुद्र में गिरे एकचप्पू को पकड़ कर पानी के ऊपर रुके हुए थे. पानी बेहद ठंडा था. थोड़ी देर में चीखपुकार कम हो गई. कुछ यात्री डूब गए थे और कुछ अशक्त हो रहे थे.मोहन और सिल्विया भी शिथिल होने लगे थे.

ऐसे में दोनों के मन एकदूसरे पर केंद्रित हो गए थे. मोहन एकटक सिल्विया की आंखों में देखे जा रहा था. सिल्विया भी उसे अपलक देख रही थी. दोनों के मानस एकदूसरे को ऐसे आत्मसात कर रहे थे कि किसी के होंठ हिलें न हिलें, दूसरा उस के मन की भाषा पढ़ लेता था.दिन ढल रहा था और मोहन का मन आशानिराशा के भंवर में डूबनेउतराने लगा था.

व्याकुलता पर नियंत्रण रखने हेतु वह सिल्विया से प्रथम मिलन की घटना को वर्णित करने लगा था और सिल्विया होंठों पर स्मितरेखा उभार कर तन्मयता से सुनने लगी थी. ‘‘सिल्विया, तुम से प्रथम मिलन में ही मैं सम?ा गया था कि तुम जीवन के विषय में निर्द्वंद्व सोच वाली, साहसी और नटखट स्वभाव की हो. मैं तभी से तुम्हारी इस अदा पर फिदा हो गया था.

उस दिन तुम होटल के कौरीडोर में मोबाइल कान में दबाए किसी से बात करती हुई निकल रही थीं, तभी मैं कमरे से निकल रहा था और तुम मुझ से टकरा गई थीं और तुम्हारे मुंह से अनायास निकल गया था कि ओह, आई एम सौरी. मैं भी अपने उच्छृंखल स्वभाव के वशीभूत हो बोल पड़ा था कि यू आर वैल्कम. तुम नहले पर दहला धर देने में माहिर थीं और बिना किसी झिझक के मेरी ओर बढ़ कर मुझे से फिर टकरा कर बोली थीं कि देन टेक इट. इस पर हम दोनों बेसाख्ता हंस दिए थे और यही बन गया था हमारी अंतरंग दोस्ती का सबब. ‘‘फिर मैं ने तपाक से हाथ बढ़ा कर कहा था कि आई एम मोहन,’’ तुम ने अविलंब हाथ बढ़ा कर अपना नाम बताया था.

मैं तुम्हारे हाथ को सामान्य से अधिक देर तक अपने हाथ में लिए रहा था और तुम ने भी हाथ वापस खींचने का कोई उपक्रम नहीं किया था. तुम्हारे जाते समय मैं ने केवल शरारत हेतु एक आंख मारते हुए पूछ लिया था कि सो, व्हेयर आर वी मीटिंग दिस ईविनिंग ऐट एट पी. एम.? और तुम ने उत्तर दिया था कि औफकोर्स, इन योर रूम.‘‘शाम होने पर मैं तुम्हारे आने हेतु जितना उत्सुक था, उतना आश्वस्त नहीं था.

तुम्हारे आने और न आने की आशानिराशा के काले में झलता हुआ मैं काफी पहले से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा था, जब अपने वादे के अनुसार तुम ने ठीक 8 बजे मेरे कमरे की घंटी बजा दी थी. घंटी सुनते ही मैं ने लपक कर दरवाजा खोला था और तुम को देख कर प्रसन्नता के आवेग में आगापीछा सोचे बिना तुम्हें बांहों में भर कर बोला था कि ओह सिल्विया. लंबे बिछोह के उपरांत मिलने वाले प्रेमी की भांति तुम ने भी मुझे बांहों में समेट लिया था.

फिर मैं ने अपनी सांसों को सामान्य करते हुए तुम्हें कुरसी पर बैठा दिया था और स्वयं सामने की कुरसी पर बैठ गया था. कुछ क्षण तक हम दोनों में एक प्रश्नवाचक सा मौन व्याप्त रहा था. फिर उसे तोड़ते हुए मैं सहज हो कर अपना परिचय देने लगा था कि सिल्विया, मैं मोहन मूल रूप से नैनीताल के एक गांव का रहने वाला हूं. मेरे मातापिता और छोटी बहन पहाड़ पर ही रहते हैं.

आजकल दिल्ली में टी.सी.एस. में जौब करता हूं. उसी सिलसिले में कोच्चि आया हूं. अभी 1 सप्ताह तक और यहां रुकना है. फिर कुछ रुक कर चुहल करने के अंदाज में आगे जोड़ा था कि और मैं निबट कुंआरा हूं.’’इतना बोलने के श्रम से मोहन हांफ गया था और एक निरीह सी दृष्टि से सिल्विया को देखने लगा था. तब सिल्विया बोल पड़ी, ‘‘मुझे सब याद है मोहन. मैं ने अपना परिचय देते हुए कहा था कि मैं सिल्विया मूलरूप से कोच्चि की ही रहने वाली हूं और इसी होटल में असिस्टैंट मैनेजर के पद पर कार्यरत हूं.

मेरे मातापिता बग इस दुनिया में नहीं हैं, परंतु उन की प्रेमकथा यहां अभी तक प्रचलित है. मेरी माता जेन का जन्म फ्रांस में हुआ था. वे अपनी युवावस्था में फ्रांस से भ्रमण हेतु यहां आई थीं. उन्हें समुद्र से बहुत लगाव था. मेरे पिता शंकर एक छोटी सी यात्री बोट के चालक थे और उस के मालिक भी.एक दिन जब मौसम काफी खराब था, तब मेरी मां उन की नाव के पास आई थीं और पिता से समुद्र में घूमने की जिद करने लगी थीं. वे पूरी नाव का भाड़ा देने को कह रही थीं.

पिता ने मौसम का हवाला दे कर पहले तो मना किया परंतु सुंदर गोरी महिला की जिद के आगे उन का हृदय पिघल गया. आखिरकार वे अविवाहित नौजवान थे और जिंदादिल भी.‘‘पिता की आशंका के अनुसार नाव के समुद्र में कुछ दूरी तक पहुंचतेपहुंचते तूफान आ गया और नाव को उलट कर बहा ले गया. पिता कुशल तैराक थे और अपनी जान पर खेल कर मां को बचा कर किनारे ले आए.

मां बेहोश थीं और उन का पताठिकाना न जानने के कारण पिता उन्हें अपने घर ले आए. देर रात्रि में होश आने पर मां ने अपने को उन के द्वारा लिपटाए हुए और अश्रु बहाते हुए पाया. वह लजाई तो अवश्य परंतु अलग होने के बजाय उन से और जोर से लिपट गईं और फिर सदैव के लिए उन की हो कर कोच्चि में ही रुक गई थीं.’’सिल्विया के सांस लेने हेतु रुकते ही मोहन बोल पड़ा, ‘‘उसी ढंग से तुम उस दिन होटल के कमरे में मुझ से लिपट गई थीं और सदैव के लिए मेरी हो कर रह गई थीं.

फिर मैं दिल्ली की अपनी जौब छोड़ कर कोच्चिवासी हो गया था.’’ यह सुन कर सिल्विया हलदी सा मुसकरा दी थी. फिर वह बोली, ‘‘तुम ने मुझे जिंदगी में वह सब दिया है, जिस की मुझे चाह थी. हम ने कितनी तूफानी जिंदगी जी है? कितनी बार हम आंधीपानी के तूफानों, वीरान जंगलों और पहाड़ों के जानलेवा झंझवातों में फंसते रहे हैं और हर बार तुम हम दोनों को जीवित बाहर निकालते रहे हो,’’ फिर कुछ आशंकित हो कर प्रश्न किया, ‘‘क्या आज नहीं बचाओगे मेरे मोहन?’’मोहन ने सिल्विया को आश्वस्त करने हेतु कह दिया, ‘‘बचाऊंगा, अवश्य बचाऊंगा मेरी मोहिनी,’’ परंतु उस के शब्दों में वह आत्मविश्वास नहीं था, जो उस के सामान्य स्वभाव में रहता था.

दिन में तो मोहन और सिल्विया एकदूसरे से प्रेमालाप करते रहे थे, परंतु अंधेरा हो जाने और किसी प्रकार की सहायता आती न दिखाई देने पर उन के मन में निराशा व्याप्त हो गई.तब मोहन ने आगे बढ़ कर सिल्विया को अपनी बांहों के घेरे में ले लिया और उस के मुख से अनायास निकला, ‘‘मेरी सिल्विया, क्षमा करना.’’सिल्विया की पथराई सी आंखों के कोरों से मात्र अश्रु ढलका था. दूसरे दिन जूनो से आई एक रैस्क्यू बोट को एक हिंदुस्तानी युवक तथा एक गोरी युवती के बांहों में जकड़े शरीर लहरों पर तैरते मिले थे.

हौसले बुलंद हैं: समाज की परवाह किए बिना सुहानी ने क्या किया

रात सिर्फ करवटें ही तो बदली थीं, नींद न आनी थी, न आई. फिर सुबह ताजी कैसे लगती. 4 बजे ही बिस्तर छोड़ दिया. समीर सो रहे थे पर उन्हें मेरी रात भर की बेचैनी सोतेसोते भी पता था. नींद में ही आदतन कंधा थपथपाते रहे थे. बोलते रहे, ‘‘सुहानी, सो जाओ. चिंता मत करो.’’

मैं ने फ्रैश हो कर पानी पीया. अपने लिए चाय चढ़ा दी. 20 साल की अपनी बेटी पीहू के कमरे में भी धीरे से झंक लिया. वह सो रही थी. मैं चुपचाप बालकनी में आ कर बैठ गई. इंतजार करने लगी कि कब सुबह हो तो बाहर सैर पर ही निकल जाऊं. सोसाइटी की सड़कों को साफ करने वाली लड़कियां काम पर लग चुकी थीं. मेरे दिल में इन लड़कियों के लिए बहुत करुणा, स्नेह रहता है. करीब 20 से 50 साल के ये लोग इतनी सुबह अपना काम शुरू कर चुके हैं. मुंबई में यह दृश्य आम है पर इन की मेहनत देख कर दिल मोम सा हुआ जाता है.

देख इन सब को रही थी पर मम्मी की चिंता में दिल बैठा जा रहा था. रात को उन्होंने फोन पर बताया था कि उन का बीपी बहुत हाई चल रहा है. वे गिर भी गई थीं, कुछ चोटें आई हैं. सुनते ही मन हुआ कि उन्हें देखूं. पीहू ने कहा भी कि नानी को वीडियोकौल कर लो मम्मी. पर 80 साल

की मेरी मम्मी को वीडियोकौल करना आता ही नहीं है. उन्हें कई बार कहा कि मम्मी व्हाट्सऐप या वीडियोकौल सीख लो, कम से कम आप को देख ही लिया करूंगी पर उन की इस टैक्नोलौजी में कोई रुचि ही नहीं है. तड़प रही हूं कि जाऊं, उन्हें देखूं, उन की देखभाल करूं. पर मायके नहीं जाऊंगी, यह फैसला कर लिया है तो कर लिया.

5 साल पहले मैं जब रुड़की मायके गई तो वहीं से यह फैसला कर के आई थी कि अब यहां कभी नहीं आऊंगी. मैं अपने से कई साल बड़े अपने बड़े भाईबहन के नफरतभरे दिलों की आग सहन नहीं कर पाती. वे मुझ से सालों बाद भी नाराज हैं. उन की नजर में मैं ने ऐसा गुनाह किया है जिसे माफ नहीं किया जा सकता.

प्यार करने का गुनाह. ब्राह्मण की बेटी हो कर एक मुसलिम से प्रेमविवाह करने का गुनाह. स्वार्थी, लालची भाईबहन को निश्छल समीर कैसे समझ आते.

वे तो मम्मी थीं कि समीर से मिलते ही समझ गई थीं कि उन की बेटी समीर के साथ हमेशा खुश रहेगी. मम्मी ने कैसे इस समाज को झेला है, मैं ही जानती हूं. मैं बहुत छोटी थी, पापा चले गए थे. मम्मी अगर अपने पैरों पर न खड़ी होतीं तो हम इन भाईबहन के सामने कैसे जीते, यह सोच कर ही खौफ आता है.

आसमान में जब इतना उजाला दिख गया कि सैर पर जाया जा सकता है तो मैं ने अपने सैर के शूज पहने और धीरे से घर से निकल गई. आज कदम सुस्त थे, मन जैसा था, वैसी ही चाल थी, थकी सी, उदास. गार्डन के चक्कर काटने के साथसाथ आज मन अतीत की गलियों में भी घूम रहा था. जब मैं ने मम्मी को अपने दिल की बात बताई, उन्होंने सिर्फ इतना पूछा, ‘‘एडजस्ट कर लोगी? सबकुछ अलग होगा.’’

मैं ने कहा था, ‘‘हां, मम्मी. सब ठीक होगा. समीर को इन 3 सालों में अच्छी तरह समझ

चुकी हूं.’’

‘‘तुम दोनों कब शादी करना चाहते हो?’’

‘‘मम्मी जब आप कहें कर लेंगे.’’

‘‘तो फिर ठीक है, जल्द ही करवा देती हूं. तुम्हारे भाईबहन को भनक भी पड़ गई तो मुश्किल हो जाएगी.’’

मैं खुशी के मारे रोती हुई मम्मी के गले लग गई थी. उन्होंने भी किसी छोटी बच्ची की तरह मुझे अपने से लिपटा लिया. फिर मम्मी ने अपने दम पर हमारी शादी करवाई, अपने बुलंद हौसलों के साथ. जाति, धर्म को दूर धकेल दिया. बहनभाई सिर पीटते रह गए. मैं तो नई गृहस्थी संभालने में व्यस्त थी पर मम्मी ने जो ?ोला वह सोच कर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं. मम्मी टीचर रही हैं. यह शादी करवाने पर स्कूल में उन का सोशल बायकौट हुआ, स्कूल का चपरासी तक उन्हें पानी ला कर नहीं देता था. 1 महीना उन्होंने स्कूल के स्टाफरूम में बैठ कर अकेले खाया, अकेले बैठ कर चुपचाप अपने काम किए और किसी से बिना बात किए घर वापस.

मम्मी ने उस समय किसी की चिंता नहीं की, उन की बेटी खुश है, सिर्फ यही बात उन के लिए माने रखती थी. उन्होंने तो हर जाति के स्टूडैंट्स को बराबर स्नेह दिया था. हमारे घर उन के कितने ही मुसलिम स्टूडैंट्स उन से मिलने आ जाते थे. हम मांबेटी ने तो पता नहीं कितनी बार उन की लाई हुई ईद की सेवइयां खाई थीं जिन्हें मेरे भाईबहन छूते भी नहीं थे.

खुद को गर्व से कट्टर ब्राह्मण बताने वाला भाई शराब पी सकता था, दुनिया के सारे गलत काम कर सकता था पर ईद की सेवइयां कैसे छूता. बहन अपनी बीमारी में एक मौलवी से खुद को ?ाड़वाने जा सकती थीं, पर छोटी बहन के मुसलिम पति को, एक सभ्य, शिष्ट इंसान को कैसे स्वीकार करतीं. उन का धर्म न नष्ट हो जाता.

आज मैं कुछ जल्दी ही थक गई, मन की थकान ज्यादा थकाती है वरना इस समय तो मैं गार्डन में कूदतीफांदती चल रही होती हूं. शायद  ही कभी बैंच पर बैठने की नौबत आई हो. आज मैं थोड़ी देर के लिए बैंच पर बैठ गई.

शुरूशुरू में मम्मी मेरे पास काफी दिन रहीं. समीर ने ही कहा था कि आप कुछ दिन हमारे साथ शांति से रह लें. धीरेधीरे मेरे लालची भाईबहन को मम्मी की बातों से समझ आया कि छोटी बहन तो ससुराल में सुखी है, पति के साथ बनारस में समृद्ध गृहस्थी की उन्हें खबर मिली तो उन्हें सम?ा आ गया कि छोटी बहन से बिगाड़ना नुकसानदायक होगा. समीर अच्छी जौब में रहे हैं. 1-2 बार हिंदूमुसलिम की नफरतों से भरे स्वार्थी, बेशर्म भाईबहन ने समीर से बीमारी के बहाने पैसे भी मांग लिए जो उन्होंने खुशीखुशी दे भी दिए पर हर बार जब भी मतलब निकल जाता है उन की मुसलमानों के प्रति नफरत देख कर मेरा खून खौल जाता.

गिरने की कोई सीमा ही नहीं काम निकलना होता तो समीरसमीर करते हैं और काम पूरा होते ही समीर सिर्फ एक मुसलमान रह जाते हैं. बनारस घूमना है तो आ कर घर भी रह गए, मंदिरों के दर्शन भी कर लिए, खूब आवभगत हो गई. पर जाते ही फिर वही सब. फिर वे सब मुंबई भी आ गए, फिर वही सब किया. ऐसे सिलसिलों से किस का मन नहीं थकेगा.

5 साल पहले मायके गई थी. अब उन्हें मुझ से कोई स्वार्थ नहीं था, सब काम हो ही चुके थे. बातबात पर सुनाया जाने लगा कि मांबेटी ने ब्राह्मण हो कर धर्म को गर्त में गिरा दिया. इतने सालों बाद अब मैं यह सब सुनने के मूड में नहीं रहती. देखा जाए तो बात पुरानी हो चुकी है. अब इस पर बात होनी नहीं चाहिए थी पर मेरे पढ़ेलिखे भाईबहन धर्म के नाम पर जितने तमाशे हो सकते हैं, सब कर सकते हैं.

मुझे लगता है जब तक वे लोग इस धरती पर रहेंगे, जातिधर्म के नारे लगाते रहेंगे. ऐसी

बुद्धि पर मुझे अब तरस आता है. मैं इन लोगों से डरती नहीं, इन्हें हिंदूमुसलमान करने में जिंदगी बितानी है, मुझे यह बताना है कि अंतर्जातीय विवाह होते रहने चाहिए, धर्म, जाति के चक्कर में न पड़ कर प्यार देखा जाए, इंसान के गुण देखे जाएं. वे भी अपने पिछले रास्ते पर चल रहे हैं, मैं भी अपने बुलंद हौसलों के साथ जीवन में आगे बढ़ रही हूं.

पिछली बार मुझे लगा कि मैं यह सब अब नहीं सहूंगी, कह कर आई हूं कि अब कभी नहीं आऊंगी. कह कर आई हूं सब रिश्ते खत्म और यह सच भी है कि मैं अब उन लोगों की शक्ल भी नहीं देखना चाहती जिन के लिए छोटी बहन की खुशी कुछ नहीं, धर्म ही सबकुछ है.

मेरी उन लोगों से कैसे निभ सकती है जिन के लिए धर्म, जाति ही सबकुछ है जबकि मेरे लिए यह सबकुछ माने नहीं रखता. मम्मी से

फोन पर बात रोज होती है, पर उन्हें 5 सालों से देखा नहीं है. इस बात का दुख रहता है. अब वे बीमार हैं. मुझे पता है कि वहां उन की सेवा नहीं होती है. वे वहां अकेली ही हैं. मैं चाहती हूं कि मैं उन की बीमारी में उन की देखभाल करूं. बैठेबैठे पता नहीं मैं क्याक्या सोचती रही. फिर फोन में टाइम देखा. 6 बज रहे थे. कब से बैठी रह गई. घर जा कर पीहू और समीर के लिए टिफिन बनाना है.

अचानक कुछ सोच मम्मी को फोन मिला लिया. हैरान सी कमजोर

आवाज आई, ‘‘अरे, इतनी जल्दी? क्या हुआ?’’

‘‘मम्मी. किसी तरह दिल्ली आ जाओ टैक्सी में. मैं आप को दिल्ली एअरपोर्ट पर मिल जाऊंगी. वहां से आप को अपने साथ ले आऊंगी. फिर तबीयत ठीक होने तक आराम से मेरे साथ कुछ दिन रह कर जाना. दिल्ली तक आ पाओगी?’’

मम्मी हंस पड़ीं, ‘‘इतनी सुबहसुबह यह क्या प्लान बना रही है?’’

मैं भी अचानक हंस पड़ी, ‘‘मैं उस मां की बेटी हूं जिस के हौसले मैं ने हमेशा बुलंद देखे हैं. आप बीमार हैं, मुझे आप की देखभाल करनी है. चलने लायक तो हो न. बस एअरपोर्ट पहुंच जाओ, बाकी मैं सब देख लूंगी.’’

मम्मी की आवाज की कमजोरी अब गायब हो चुकी थी. अब उन की आवाज में एक उल्लास था. कहा, ‘‘ठीक है बना ले प्रोग्राम. यहां से क्याक्या चाहिए, बता देना.’’

मुझे हंसी आ गई, ‘‘कुछ नहीं चाहिए मम्मी. वहां सब कबाड़ है.’’

मेरे कहने का मतलब समझ मम्मी जोर से हंसी, बोलीं, ‘‘सही कह रही है.’’

हम दोनों फिर थोड़ी देर हंसतीबोलती रहीं. मुझे इतनी हिम्मती मां की बेटी होने पर हमेशा गर्व रहा है.

हां, मैं ऐसे ही जीऊंगी बेखौफ, निडर उन सब बेकार के रिश्तों से दूर. मम्मी को लाना है, उन की देखभाल करनी है. रास्ता निकाल

लिया है मैं ने. जब ठीक हो जाएंगी, जब कहेंगी, ऐसे ही छोड़ भी आऊंगी. बस अब घर जा कर कल की ही फ्लाइट बुक करती हूं. मैं एक

बार फिर अपने बुलंद हौसलों पर खुद को ही शाबाशी देती हुई अब तेज कदमों से घर की तरफ बढ़ गई.

अंधविश्वास की दलदल: भाग 1- प्रतीक और मीरा के रिश्ते का क्या हुआ

आजरविवार की छुट्टी होने के कारण होटल में काफी भीड़ थी. हमें भी डिनर और्डर किए काफी वक्त हो चुका था पर अभी तक आया नहीं था. हम बैठेबैठे आपसी बातचीत में मशगूल थे. लेकिन मेरा ध्यान बारबार उस टेबल पर जा अटकता जहां एक फैमिली बैठी थी.

उन का टेबल हमारे टेबल को छोड़ तीसरा टेबल था, जिस में मातापिता और 3 बच्चे बैठे हुए थे. 2 बेटियां और एक बेटा. बेटियां अपनेअपने मोबाइल में व्यस्त थीं और मातापिता आपस में ही बातें कर रहे थे. पति का चेहरा तो नहीं दिख रहा था, क्योंकि उस का चेहरा दूसरी तरफ था, पर पत्नी के हावभाव से लग रहा था, उन में किसी बात को ले कर बहस चल रही थी, क्योंकि पत्नी अपनी आंखें बड़ी करकर के कुछ बोले जा रही थी और पति अपना हाथ उठा कर उसे शांत रहने को कह रहा था.

उन का बेटा, जिस की उम्र करीब 3-4 साल होगी, सब बातों से बेफिक्र अपनेआप में ही मगन, कभी कांटाचम्मच से खेलता तो कभी उसी कांटाचम्मच से प्लेट बजाने लगता. कभी टेबल पर रखे नमक और पैपर पाउडर को अपनी हथेली पर गिरा कर उंगली से चाटने लगता तो कभी टिशू पेपर निकाल कर अपना चेहरा खुद ही पोंछने लगता. जब उस की मां उसे आंखें दिखा कर इशारों से कहती कि बैठ जाओ तो वह बैठ भी जाता, पर फिर थोड़ी देर में वही सब शुरू कर देता. उस की छोटीछोटी शरारतें देख कर मुझे उस मासूम पर बड़ी हंसी आ रही थी और प्यार भी.

सच, बच्चे कितने मासूम होते हैं. उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि उन की हरकतों को कौन देख रहा है कौन नहीं. उस की शरारतें मुझे अपने बचपन की याद दिलाने लगीं. आखिर हम ने भी तो इसी तरह की शरारतें की होंगी कभी. बीचबीच में वह मुझे भी देखता कि मैं उसे देख रही हूं और फिर शांत खड़ा हो जाता और जब मैं उसे देख कर मुसकरा देती तो वह फिर शुरू हो जाता.

तभी मेरे पति वरुण बोले कि खाना आ गया. जहां मेरे बेटे ने पिज्जा और्डर किया था, वहीं बेटी ने पावभाजी और हम ने सिंपल दालरोटी और सब्जी मंगवाई थी. अभी हम ने खाना शुरू ही किया था कि वह बच्चा हमारे टेबल के सामने आ कर खड़ा हो गया. मैं उसे देख कर मुसकराई और उस के नरम गालों को छू कर प्यार भी किया, लेकिन उस का ध्यान तो बस पिज्जा पर ही अटका हुआ था. एकटक वह पिज्जा को देखे जा रहा था. लग रहा था अभी बोलूंगी और खाने लगेगा. ‘‘थोड़ा सा खिला दें क्या?’’ मैं ने वरुण की तरफ देखते हुए कहा.

‘‘नहीं मीरा, ऐसे किसी अनजान बच्चे को कुछ खिलानापिलाना ठीक बात नहीं है. पता नहीं उस के मांबाप क्या बोल दें.’’

तभी उस की मां ने आंखें दिखाते हुए उसे आने का इशारा किया. मां के डर से वह चला तो गया, लेकिन फिर वापस आ कर हमारे टेबल के सामने खड़ा हो गया. लग रहा था अभी पिज्जा उठा कर खाने लगेगा. हमें थोड़ा अजीब भी लग रहा था.

‘‘थोड़ा सा खिला देते हैं न इस में क्या हरज है? मेरा बेटा जिगर, पिज्जा का एक पीस उस बच्चे की तरफ  बढ़ाते हुए कहने लगा तो वरुण ने झट से उस का हाथ पकड़ लिया और कहने लगा, ‘‘मैं ने मना किया न. अरे, दूसरों के बच्चे को ऐसे कैसे कुछ खिला सकते हैं. अगर इस के मांबाप बुरा मान गए तो?’’

पर वो बच्चा तो वहां से हिलने का नाम ही नहीं ले रहा था. खातेखाते यह सोच कर मेरा हाथ रुक गया कि शायद बच्चा बहुत भूखा है और मैं उस से कुछ पूछती कि उस की मां ने आवाज दे कर उसे बुला लिया, क्योंकि उस के टेबल पर भी खाना लग चुका था.

सच में बच्चा भूखा था. जल्दीजल्दी वह पापड़ पर ही टूट पड़ा. उस की मां आंखें दिखाते हुए उसे बोल रही थी, ‘‘आराम से खाओ आराम से.’’ हमारा खाना तो बस हो ही चुका था और वेटर बिल के साथ सौंफ, चीनी भी ले कर आ गया.

हम रैस्टोरैंट से निकलने लगे, पर हमारी आदत ऐसी होती है कि अगर हम किसी चीज को बारबार देख रहे होते हैं तो जातेजाते भी लगता है कि एक बार मुड़ कर और देख लें. इसलिए मेरी नजर फिर एक बार उस बच्चे पर जा टिकी पर उस बच्चे के बगल वाली कुरसी पर प्रतीक को देख कर हैरान रह गई. लगा कहीं मेरी आंखों का धोखा तो नहीं.

हां धोखा ही होगा क्योंकि यहां प्रतीक कैसे हो सकता है और यह तो सिर्फ प्रतीक सा दिखता है. मैं ने अपने मन में कहा कि तभी पीछे से अपना नाम सुन कर मैं चौंक गई.

वह झटकते हुए मेरे पास आया और कहने लगा, ‘‘मीरा… तुम और यहां?’’

‘‘प्रतीक… तुम?’’ मैं आश्चर्यचकित रह गई उसे यहां देख कर.

तो क्या यह प्रतीक की फैमिली है? और प्रतीक कैसा हो गया? यह तो ठीक से पहचान में भी नहीं आ रहा है. सिर के आधे बाल उड़े हुए, आंखों पर मोटा सा चश्मा, चेहरे पर कोई रौनक नहीं, न वह हंसी न मुसकान. अपनी उम्र से करीब 10 साल बड़ा लग रहा था वह. उसे देख कर मेरे दिल में फिर से वही भावना जाग उठी.

‘‘मीरा… मीरा कहां खो गई? क्या पहचाना नहीं मुझे?’’ प्रतीक की आवाज से मेरा ध्यान भंग हुआ.

अपनेआप को भावनाओं के जाल से मुक्त कर और संभलते हुए मैं ने कहा, ‘‘प्रतीक तुम और यहां? और यह तुम्हारी फैमिली है क्या? मुझे उस की फैमिली के बारे में सामने से नहीं पूछना चाहिए था, पर अनायास ही मेरे मुंह से निकल गया.’’

प्रतीक अपनी फैमिली से मिलवाते हुए कहने लगा, ‘‘हां, मेरी फैमिली है. मेरी पत्नी नंदा, बड़ी बेटी कोयल, छोटी बेटी पिंकी और बेटा अंश. अभी कुछ महीने पहले ही मेरा तबादला यहां मुंबई में हुआ है.’’

मैं ने अपने मन में ही कहा, ‘अच्छा तो ये हैं प्रतीक की जीवनसंगिनी? आखिर प्रतीक की मां को अपने मन की बहू मिल ही गई. वैसे बहुत खास तो नहीं है देखने में. हो सकता है उन की नजर में हो.’

मैं ने भी अपने परिवार से प्रतीक को मिलवाते हुए कहा, ‘‘प्रतीक, ये हैं मेरे पति वरुण और ये है बेटा जिगर और बेटी साक्षी.’’

प्रतीक बड़े गौर से मेरे पति और बच्चों को देखे जा रहा था.

वरुण कहने लगे, ‘‘क्या आप दोनों पहले से एकदूसरे को जानते हैं?’’

‘‘हां वरुण, हम ने एकसाथ ही प्रोबेशनरी औफिसर की ट्रैनिंग ली थी और तब से हम एकदूसरे को जानते हैं.’’

तोहफा: भाग 4- रजत ने सुनयना के साथ कौन-सा खेल खेला

वह मरीन ड्राइव पर असमंजस में खड़ी थी एक गाड़ी उस के पास आ कर रुकी.

‘‘अरे सुनयना?’’ मोहित ने कहा, ‘‘तुम यहां कैसे?’’

‘‘मैं यहां किसी काम से आई थी और अचानक जोरों की बारिश शुरू हो गई. कोई टैक्सी भी दिखाई नहीं दे रही.’’

‘‘तो यहां खड़ी भीग क्यों रही हो? मैं इसी बिल्डिंग में रहता हूं. चलो मेरे यहां चल कर थोड़ी देर बैठो. बारिश रुक जाए तो चली जाना.’’

मोहित के घर उस की मां ने उस का स्वागत किया. थोड़ी देर बाद चाय के साथ हलवा और मठरी ले कर आई.

‘‘ओहो आंटीजी इतना कष्ट क्यों किया?’’

‘‘तुम पहली बार हमारे यहां आई हो. ऐसे कैसे जाने दूं. यह लो हलवा खाओ.’’

‘‘मेरी मां बहुत स्वादिष्ठ खाना बनाती हैं,’’ मोहित ने कहा, ‘‘अरे हां, इस शनिवार को मेरा जन्मदिन है. तुम्हें आना है.’’

‘‘आऊंगी,’’ सुनयना सूखे कंठ से बोली, ‘‘अच्छा अब चलती हूं.’’

मोहित ने घर पर पार्टी रखी थी. उस की मां ने खाना बना कर मेज पर सजा दिया और कहा, ‘‘अब तुम बच्चे लोग ऐंजौय करो.’’

पार्टी में खूब शोरशराबा हुआ. मोहित ने कहा, ‘‘आज मैं अपने यार रजत को बहुत मिस कर रहा हूं. अरे हां, अच्छा याद आया. उस ने कहा था कि वह मेरे लिए एक तोहफा भेज रहा है. एक सरप्राइज गिफ्ट.’’

सुनयना का चेहरा फक पड़ गया.

‘‘लगता है भूल गया. आने दो वापस बच्चू को. तोहफा मय सूद वसूल लूंगा.’’ फिर जब उस ने जाना कि सुनयना नरीमन प्वाइंट स्थित एक होटल में काम करती है, तो बोला, ‘‘अरे तब तो हम पड़ोसी हुए. किसी दिन मैं तुम से मिलने आऊंगा.’’

‘‘अवश्य, मुझे भी मेहमाननवाजी का मौका दो.’’

एक दिन मोहित आया तो दोनों ने इकट्ठे चाय पी. फिर वे मरीन ड्राइव पर टहलते हुए चौपाटी की ओर निकल गए. फिर वे करीब रोज ही मिलने लगे. कभी चौपाटी पर चाट खाते, कभी समंदर के किनारे चट्टानों पर बैठे घंटों बातें करते. बातों के दौरान मोहित ने उसे बताया कि कालेज के दिनों से ही वह उसे चाहता था. वह बोला, ‘‘मुझे अभी तक याद है वह दिन, जब तुम ने स्टेज पर मौडलिंग की थी. हम चारों दोस्त तुम्हारे लिए पागल थे. पर रजत ने कहा ‘हैंड्स अप यह शिकार मेरा है.’ जब वह मैदान में कूद पड़ा तो हम पीछे हट गए, क्योंकि हम जानते थे कि उस से मुकाबला करना आसान नहीं था. वह जब किसी चीज को हासिल करने का मन बना लेता है तो कोई उस के आड़े नहीं आ सकता.’’

सुनयना हलके से मुसकराई. उस का मन हुआ कि वह मोहित को अपने बारे में बता दे कि कैसे रजत के प्यार में पड़ कर वह अधर में लटकी है. पर उस ने चुप्पी साथ ली.

रशिया से 2-4 बार रजत का ईमेल आया. एक बार उस ने लिखा था कि मुझे यहां शायद 3 महीने तक रहना पड़ेगा. फिर अचानक वह आ पहुंचा और आते ही उसने सुनयना को फोन किया, ‘‘हम कब मिल रहे हैं? मैं तुम्हें देखने को तरस गया. इस रविवार को तुम फ्री हो?’’

‘‘नहीं, रविवार को तो मैं फ्री नहीं हूं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘उस रोज मेरी मंगनी है.’’

‘‘क्या?’’ रजत मानों आसमान से गिरा, ‘‘ये क्या कह रही हो? तुम मेरी हो. किसी और से तुम्हारी मंगनी कैसे हो सकती है? मैं तुम्हें किसी और की नहीं होने दूंगा.’’

‘‘लेकिन तुम भी तो मुझे अपनाना नहीं चाहते,’’ सुनयना ने उलाहना

दिया, ‘‘जब मेरे मातापिता को पता चला कि तुम्हारा मुझ से शादी करने का कोई इरादा नहीं है, तो उन्होंने मुझ पर दबाव डाल कर मुझे इस शादी के लिए राजी कर लिया.’’

‘‘किस से हो रही है मंगनी?’’

‘‘है एक लड़का. और ज्यादा जान कर क्या करोगे?’’

‘‘ऐसा हरगिज नहीं हो सकता. मैं अभी तुम से मिलने होटल आ रहा हूं.’’

‘‘लेकिन मैं ने होटल की नौकरी छोड़ दी है.’’

‘‘तो कहां हो तुम, घर पर?’’

‘‘नहीं और मैं तुम्हें बताऊंगी भी नहीं कि मैं कहां हूं. मैं जानती हूं कि तुम यहां आ कर एक हंगामा खड़ा करोगे. बस अब आइंदा मुझे फोन मत करना और न मिलने की कोशिश करना. हमारातुम्हारा रिश्ता खत्म,’’ कह कर सुनयना ने फोन रख दिया.

थोड़ी देर बाद मोहित का सैलफोन बज उठा.

‘‘यार मैं रजत बोल रहा हूं.’’

‘‘बोलो मेरे बिगडे़ेदिल शहजादे, रशिया से कब लौटे?’’

‘‘कल ही. और सुना तेरी जन्मदिन की पार्टी कैसी रही?’’

‘‘बहुत बढि़या पर तू होता तो और मजा आता. तू तो हर महफिल की जान है.’’

‘‘और मेरा भेजा तोहफा कैसा लगा?’’

‘‘तोहफा? वह तो सचमुच शानदार था, अनूठा था. मुझे बहुत पसंद आया.’’

‘‘सच? है न वह एक लाजवाब चीज?’’

‘‘हां. मैं तो उसे 1 मिनट के लिए भी अपने से अलग नहीं करता हूं.’’

‘‘यह क्या कह रहा है तू?’’

‘‘सच कह रहा हूं. इतनी सुंदर कलाई घड़ी आज तक मैं ने नहीं देखी. हमेशा पहने रहता हूं.’’

‘‘ओह,’’ रजत हंसने लगा, ‘‘मैं कुछ और ही समझ था.’’

‘‘क्या समझा था तू?’’

‘‘छोड़ जाने दे.’’

‘‘रशिया कैसा देश है और मास्को कैसा शहर है?’’

‘‘दोनों बकवास हैं पर वहां की लड़कियां एक से एक बढ़ कर एक हैं. अपने यहां की लड़कियां तो उन के सामने कुछ भी नहीं हैं.’’

‘‘अच्छा…’’

‘‘हां मैं ने तो एकाध को न्योता भी दे दिया भारत आने का. आएगी तो कुछ धमाल करेंगे.

अरे हां, तुम ने सुना अपनी सुनयना शादी कर रही है?’’

‘‘अच्छा, पर उस का तो तेरे साथ चक्कर चल रहा था?’’

‘‘वह सिलसिला खत्म समझे. वह शादी के लिए मेरे पीछे पड़ी थी तो मैं ने उस से पीछा छुड़ा लेने का निश्चय कर लिया. तू तो जानता है मुझे, मैं मस्तमौला हूं. अपनी मरजी का मालिक. मैं बिंदास जिंदगी जीना चाहता हूं. मुझे किसी तरह की बंदिश गवारा नहीं, किसी तरह का बंधन बरदाश्त नहीं. और एक सुनयना गई तो क्या हुआ? तालाब में और भी मछलियां हैं. खैर छोड़, इस रविवार को तू क्या कर रहा है? मेरे घर आ जा अड्डा जमाते हैं, कुछ मौजमस्ती करते हैं.’’

‘‘इस रविवार को तो मैं फ्री नहीं हूं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘उस दिन मेरी सगाई है.’’

‘‘सगाई? ये अचानक सगाई की हवा कैसे बहने लगी? जिसे देखो वही सगाई कर रहा है. खैर, ये बता लड़की कौन है?’’

‘‘है एक…’’

‘‘कहीं सुनयना तो नहीं?’’ रजत ने शंकित हो कर पूछा.

‘‘हां वही है.’’

थोड़ी देर सन्नाटा छाया रहा. फिर रजत ने एक भद्दी गाली दी और जोर से अपना मोबाइल फोन जमीन पर दे मारा.

पेचीदा हल – भाग 2 : नई जिंदगी जीना चाहता था संजीव

उस के साथ मेरी जानपहचान कालेज के समय

से है?’’

‘‘ये सब बताने के अलावा उस ने यह भी बताया है कि अब वह आप की प्रेमिका है.’’

‘‘यह  झूठ बात है. उसे लोग रोहित की प्रेमिका सम झने की भूल एक बार को कर सकते हैं, मेरी नहीं.’’

‘‘लोगों की मु झे फिक्र नहीं, पर शिखा

भाभी की सारी गलतफहमी आज तब दूर हो जाएगी जब मैं उन्हें बताऊंगी कि प्रौपर्टी खरीदनेबेचने के सिलसिले में आप शनिवार या इतवार के दिन सुबह से देर रात तक घर से

बाहर रहते हो, तब कौन आप के साथ होता है.’’

‘‘उसे मालूम है कि तब मैं रोहित के साथ होता हूं.’’

‘‘और अब मैं उन्हें यह बताऊंगी कि आप के दबाव में आ कर रोहित इस मामले में  झूठ बोलते आ रहे हैं. आप रोहित की मौजूदगी को ढाल बना कर मानसी के साथ रंगरलियां मनाते हो.’’

‘‘क्या रोहित ने तुम से ये सब कहा है?’’ संजीव अब डरा हुआ सा नजर आ रहा था.

‘‘आप जानते हो कि रोहित अपने सब से पक्के दोस्त के खिलाफ कभी कुछ नहीं बोलेंगे.’’

‘‘फिर कौन है यह आदमी जो तुम्हें यह गलत जानकारी दे रहा है?’’

‘‘वह आदमी न हो कर मानसी की कोई महिला मित्र भी हो सकती है और मेरी यह सारी जानकारी गलत नहीं है.’’

अंजलि की इस बात ने संजीव की बोलती बंद कर दी.उस की खामोशी का फायदा उठाते हुए अंजलि दृढ़ लहजे में बोलती रही, ‘‘आप तीनों को साथ घूमते देख कर सब सम झते हैं कि मानसी रोहित की गर्लफ्रैंड होगी, पर सचाई यहहै कि उस के साथ आप का चक्कर चल रहा है. मैं ने इसी पल फैसला कर लिया है कि रोहित और अपने मन की सुखशांति और खुशियोंकी खातिर मैं आज ही उन्हें अमन के बारे में सबकुछ बता दूंगी. अब मैं यह भी चाहती हूं कि आप रोहित के साथ अपनी दोस्ती फौरन खत्म कर दो.’’

‘‘तुम्हारे चाहने भर से ऐसा कुछ कभी नहीं होगा. हमारी दोस्ती के टूटने के सपने भी मत देखना,’’ संजीव ने चिड़े लहजे में जवाब दिया

‘‘यह दोस्ती तो टूट कर रहेगी क्योंकि आप दोनों का साथ रहना हमारे हित में नहीं है. यह तो इत्तफाक से मु झे पता लग गया कि उन की  झूठी गवाही के बल पर आप मानसी के साथ अपने गलत रिश्ते को शिखा भाभी से छिपा कर रखने में सफल हुए हैं… कल को ऐसा ही गलत काम रोहित भी कर सकता है और इसीलिए आप दोनोें की दोस्ती हमारे विवाहित जीवन की भावी खुशियों के लिए बहुत बड़ा खतरा है,’’ भावावेश के कारण अंजलि की आवाज में कंपन पैदा हो गया था.

‘‘तुम बेकार ही बात का बतंगड़ बना रही हो.’’

‘‘आप को जो सम झना है सम झो, पर रोहित के साथ अपनी दोस्ती तोड़ लो.’’

‘‘तुम सम झ नहीं रही हो, अंजलि. रोहित से दूर हो कर मैं बहुत अकेला पड़ जाऊंगा,’’ संजीव अब बहुत बेचैन और परेशान नजर आ

रहा था.‘‘और आप इस मुद्दे को मेरे हिसाब से क्यों नहीं देख रहे हैं? मैं नहीं चाहती हूं कि मानसी से अवैध रिश्ता बनाए रख कर आप

गलत उदाहरण रोहित के सामने रखें. मैं खुद को शिखा भाभी की स्थिति में कभी नहीं देखना चाहूंगी.’’

‘‘और तुम यह क्यों नहीं सम झ रही हो कि अपने सब से पक्के दोस्त को खो कर मेरे लिए जीने का सारा मजा जाता रहेगा?’’ संजीव का बोलते हुए गला भर आया था.

‘‘रोहित के साथ अपनी दोस्ती को अगर आप मानसी के साथ चल रहे नाजायज प्यार के रिश्ते से ज्यादा अहमियत देते हैं, तो उस से हमेशा के लिए दूर क्यों नहीं हो जाते हो?’’ अंजलि ने उत्तेजित लहजे में सवाल किया.

संजीव जवाब में कुछ नहीं बोला तोअंजलि ने कोमल लहजे में सम झाना शुरू किया, ‘‘भाई साहब, अगर आप शांत मन से सोचेंगे तो पाएंगे कि  मैं आप को ठीक कदम उठाने की सलाह दे रही हूं. शिखा भाभी के व्यक्तित्व में आई कमियों को दूर करने की जिम्मेदारी मैं लेती हूं. उन का मोटापा कम कराने के लिए मैं उन के साथ रोज जिम जाना शुरू करूंगी. उन्हें ब्यूटीपार्लर जाने की आदत डलवाऊंगी. हम सब मिल कर सहयोग करेंगे तो जल्द ही उन का व्यक्तित्व वैसा ही आकर्षक हो जाएगा जैसा शादी के समय था.’’

पेचीदा हल – भाग 3 : नई जिंदगी जीना चाहता था संजीव

लंबी खामोशी के बाद संजीव संजीदा लहजे में बोला, ‘‘लगता है कि मानसी के साथ अपने गलत रिश्ते को जड़ से खत्म करने का वक्त आ गया है. शिखा से इस रिश्ते को छिपाने की टैंशन और मन में लगातार बनी रहने वाली खीज व अपराधबोध का शिकार बन मैं अभी से हाई ब्लड प्रैशर का मरीज हो गया हूं. मैं तुम से वादा करता हूं कि मानसी से अपना रिश्ता खत्म कर दूंगा.’’

‘‘भाई साहब, मु झ से  झूठा वादा न करना वरना मु झे बहुत दुख होगा,’’ अंजलि की आंखों में एकाएक आंसू भर आए थे.

‘‘मैं रोहित के साथ अपनी दोस्ती का वास्ता देता हूं कि मैं सच बोल रहा हूं.’’

‘‘तब मैं भी आप से वादा करती हूं कि अगली मुलाकात में मैं अमन को उस से फिर कभी न मिलने आने की बात सख्ती से बता दूंगी.’’

संजीव के मन के एक कोने में यह विचार उभरा कि मानसी के साथ उस कारिश्ता तुड़वाने के लिए ही तो कहीं अंजलि ने अपने पुराने प्रेमी अमन से शादी के बाद भी मिलने जाने का सारा मुद्दा जानबू झ कर तो

खड़ा नहीं किया था. मगर फिर विचार को अनदेखा करते हुए संजीव ने उस की दिल से प्रशंसा करी, ‘‘तुम वाकई बहुत सम झदार लड़की हो अंजलि.’’

‘‘थैंक यू, भाई साहब,’’ अपनी तारीफ सुन कर अंजलि खुशी से भर गई

‘‘सही राह दिखाने के लिए ‘थैंक यू’ तो तुम्हें मु झे बोलना चाहिए,’’ मानसी के साथ

अपने गलत रिश्ते को समाप्त करने का फैसला कर लेने से संजीव मन ही मन सचमुच बहुत ज्यादा राहत और अजीब सी खुशी महसूस कर रहा था.

अंजलि को बस अब यही डर था कि कहीं रोहित अमन की खोजबीन न करना शुरू कर दे क्योंकि वह तो पिछले 6 साल से उन के शहर से कहीं दूर बैंगलुरु में रहता है. उस की पोल खुल गई तो संजीव और अंजलि की उन से दोस्ती समाप्त हो जाएगी.

मां: क्या मीरा को छोड़ कर चला गया सनी

तीसरी बार फिर मोबाइल की घंटी बजी थी. सम झते देर नहीं लगी थी मीरा को कि फिर वही राजुल का फोन होगा. आज जैसी बेचैनी उसे कभी महसूस नहीं हुई थी. सनी भी तो अब तक आया नहीं था. यह भी अच्छा है कि उस के सामने फोन नहीं आया. मोबाइल की घंटी लगातार बजती जा रही थी. कांपते हाथों से उस ने मोबाइल उठाया-‘‘हां, तो मीरा आंटी, फिर क्या सोचा आप ने?’’ राजुल की आवाज ठहरी हुई थी.‘‘तुम फिर एक बार सोच लो,’’ मीरा ने वे ही वाक्य फिर से दोहराने चाहे थे.

‘मेरा तो एकमात्र सहारा है सनी, तुम्हारा क्या, तुम तो किसी को भी गोद ले सकती हो.’’‘‘अरे, आप सम झती क्यों नहीं हैं? किसी और में और सनी में तो फर्क है न. फिर मैं कह तो रही हूं कि आप को कोई कमी नहीं होगी.’’ ‘‘देखो, सनी से ही आ कर कल सुबह बात कर लेना,’’ कह कर मीरा ने फोन रख दिया था. उस की जैसे अब बोलने की शक्ति भी चुकती जा रही थी.यहां मैं इतनी दूर इस शहर में बेटे को ले कर रह रही हूं. ठीक है, बहुत संपन्न नहीं है, फिर भी गुजारा तो हो ही रहा है. पर राजुल इतने वर्षों बाद पता लगा कर यहां आ धमकेगी, यह तो सपने में भी नहीं सोचा था. बेटे की इतनी चिंता थी, तो पहले आती.अब जब पालपोस कर इतना बड़ा कर दिया, बेटा युवा हो गया तो… एकाएक फिर  झटका लगा था.

यह क्या निकल गया मुंह से, क्यों कल सुबह आने को कह दिया, सनी तो चला ही जाएगा, वियोग की कल्पना करते ही आंखें भर आई थीं. सनी उस का एकमात्र सहारा.पिछले 3 दिनों से लगातार फोन आ रहे थे राजुल के. शायद यहां किसी होटल में ठहरी है, पुराने मकान मालिक से ही पता ले कर यहां आई है. और 3 दिनों से मीरा का रातदिन का चैन गायब हो गया है. पता नहीं कैसे जल्दबाजी में उस के मुंह से निकल गया कि यहां आ कर सनी से बात कर लेना. यह क्या कह दिया उस ने, उस की तो मति ही मारी गई.‘‘मां, मां, कितनी देर से घंटी बजा रहा हूं, सो गईं क्या?’’ खिड़की से सनी ने आवाज दी, तब ध्यान टूटा.‘‘आई बेटा, तेरा ही इंतजार कर रही थी,’’ हड़बड़ा कर उठी थी मीरा.‘‘अरे, इंतजार कर रही थीं तो दरवाजा तो खोलतीं. देखो, बाहर कितनी ठंड है,’’ कहते हुए अंदर आया था सनी, ‘‘अब जल्दी से खाना गरम कर दो, बहुत भूख लगी है और नींद भी आ रही है.’’किचन में आ कर भी विचारतंद्रा टूटी नहीं थी मीरा की. अभी बेटा कहेगा कि फिर वही सब्जी और रोटी,

कभी तो कुछ और नया बना दिया करो. पर आज तो जैसेतैसे खाना बन गया, वही बहुत है.‘‘यह क्या, तुम नहीं खा रही हो?’’ एक ही थाली देख कर सनी चौंका था.‘‘हां बेटा, भूख नहीं है, तू खा ले, अचार निकाल दूं?’’‘‘नहीं रहने दो, मु झे पता था कि तुम वही खाना बना दोगी. अच्छा होता, प्रवीण के घर ही खाना खा आता. उस की मां कितनी जिद कर रही थीं. पनीर, कोफ्ते, परांठे, खीर और पता नहीं क्याक्या बनाया था.’’मीरा जैसे सुन कर भी सुन नहीं पा रही थी.‘‘मां, कहां खो गईं?’’ सनी की आवाज से फिर चौंक गई थी.‘‘पता है, प्रवीण का भी सलैक्शन हो गया है. कोचिंग से फर्क तो पड़ता है न, अब राजू, मोहन, शिशिर और प्रवीण सभी चले जाएंगे अच्छे कालेज में. बस मैं ही, हमारे पास भी इतना पैसा होता, तो मैं भी कहीं अच्छी जगह पढ़ लेता,’’ सनी का वही पुराना राग शुरू हो गया था.‘

‘हां बेटा, अब तू भी अच्छे कालेज में पढ़ लेना, मन चाहे कालेज में ऐडमिशन ले लेना, बस, सुबह का इंतजार.’’‘‘क्या? कैसी पहेलियां बु झा रही हो मां. सुबह क्या मेरी कोईर् लौटरी लगने वाली है, अब क्या दिन में भी बैठेबैठे सपने देखने लगी हो. तबीयत भी तुम्हारी ठीक नहीं लग रही है. कल चैकअप करवा दूंगा, चलना अस्पताल मेरे साथ,’’ सनी ने दो ही रोटी खा कर थाली खिसका दी थी.‘‘अरे खाना तो ढंग से खा लेता,’’ मीरा ने रोकना चाहा था.‘‘नहीं, बस. और हां, तुम किस लौटरी की बात कर रही थीं?’’ ‘‘हां, लौटरी ही है, कल सुबह कोई आएगा तु झ से मिलने.’’‘‘कौन? कौन आएगा मां,’’ सनी चौंक गया था.‘‘तू हाथमुंह धो कर अंदर चल, फिर कमरे में आराम से बैठ कर सब सम झाती हूं.’’मीरा ने किसी तरह मन को मजबूत करना चाहा था. क्या कहेगी किस प्रकार कहेगी.‘‘हां मां, आओ,’’ कमरे से सनी ने आवाज दी थी.मन फिर से भ्रमित होने लगा. पैर भी कांपे. किसी तरफ कमरे में आ कर पलंग के पास पड़ी कुरसी पर बैठ गई थी मीरा.‘‘क्या कह रही थीं तुम, किस लौटरी के बारे में?’’ सनी का स्वर उत्सुकता से भरा हुआ था. मीरा ने किसी तरह बोलना शुरू किया,

‘‘बेटा, मैं आज तु झे सबकुछ बता रही हूं, जो अब तक बता नहीं पाई. तेरी असली मां का नाम राजुल है, जोकि बहुत बड़ी प्रौपर्टी की मालिक हैं. उन की कोई और औलाद नहीं है. वे अब तु झे लेने आ रही हैं,’’ यह कहते हुए गला भर्रा गया था मीरा का और आंसू छिपाने के लिए मुंह दूसरी ओर मोड़ लिया था उस ने.मां, आप कह क्या रही हो, मेरी असली मां कोई और है. तो अब तक कहां थी, आई क्यों नहीं?’’ सनी सम झ नहीं पा रहा था कि आज मां को हुआ क्या है? क्यों इतनी बहकीबहकी बातें कर रही हैं.‘‘हां बेटा, तेरी असली मां वही है. बस, तु झे जन्म नहीं देना चाह रही थी तो मैं ने ही रोक दिया था और कहा था कि जो भी संतान होगी, मैं ले लूंगी. मेरे भी कोईर् औलाद नहीं थी. मैं वहीं अस्पताल में नर्स थी. बस, तु झे जन्म दे कर और मु झे सौंप कर वह चली गई.’’‘‘अब तू जो भी सम झ ले. हो सके तो मु झे माफ कर दे. मैं ने अब तक तु झ से यह सब छिपाए रखा था. मेरे लिए तो तू बेटे से भी बढ़ कर है. बस, अब और कुछ मत पूछ,’’ यह कहते फफक पड़ी थी मीरा और जोर की रुलाई को रोकते हुए कमरे से बाहर निकल गई.अपने कमरे में आ कर गिर रुलाई फूट ही पड़ी थी. सनी उस का बेटा इतने लाड़प्यार से पाला उसे.

कल पराया हो जाएगा. सोचते ही कलेजा मुंह को आने लगता है. कैसे जी पाएगी वह सनी के बिना. इतना दुख तो उसे अपने पति जोसेफ के आकस्मिक निधन पर भी नहीं हुआ था. तब तो यही सोच कर संतोष कर लिया था कि बेटा तो है उस के पास. उस के सहारे बची जिंदगी निकल जाएगी. यही सोच कर पुराना शहर छोड़ कर यहां आ कर अस्पताल में नौकरी कर ली थी. तब क्या पता था कि नियति ने उस के जीवन में सुख लिखा ही नहीं. तभी तो, आज राजुल पता लगाते हुए यहां आ धमकी है. शायद वक्त को यही मंजूर होगा कि सनी को अच्छा, संपन्न परिवार मिले, उस का कैरियर बने, तभी तो राजुल आ रही है. बेटा भी तो यही चाहता है कि उसे अच्छा कालेज मिले. अब कालेज क्या, राजुल तो उसे ऐसे ही कई फैक्ट्री का मालिक बना देगी.ठीक है, उसे तो खुश होना चाहिए. आखिर, सनी की खुशी में ही तो उस की भी खुशी है. और उस की स्वयं की जिंदगी अब बची ही कितनी है, काट लेगी किसी तरह.लेकिन अपने मन को लाख उपाय कर के भी वह सम झा नहीं पा रही थी. पुराने दिन फिर से सामने घूमने लगे थे. तब वह राजुल के पड़ोस में ही रहा करती थी. राजुल के पिता नगर के नामी व्यवसायी थे.

उन्हीं के अस्पताल में वह नर्स की नौकरी कर रही थी. राजुल अपने पिता की एकमात्र संतान थी. खूब धूमधाम से उस की शादी हुई पर शादी के चारपांच माह बाद ही वह तलाक ले कर पिता के घर आ गईर् थी. तब उसे 3 माह का गर्भ था. इसीलिए वह एबौर्शन करा कर नई जिंदगी जीना चाह रही थी. इस काम के लिए मीरा से संपर्क किया गया. तब तक मीरा और जोसेफ की शादी हुए एक लंबा अरसा हो चुका था और उन की कोई संतान नहीं थी.मीरा ने राजुल को सम झाया था. ‘तुम्हारी जो भी संतान होगी, मैं ले लूंगी. तुम एबौर्शन मत करवाओ.’ बड़ी मुश्किल से इस बात के लिए राजुल तैयार हुई थी. और बेटे को जन्म दे कर ही उस शहर से चली गई. बेटे का मुंह भी नहीं देखना चाहा था उस ने.सनी का पालनपोषण उस ने और जोसेफ ने बड़े लाड़प्यार से किया था. राजुल की शादी फिर किसी नामी परिवार के बेटे से हो गई थी और वह विदेश चली गई थी.यह तो उसे राजुल के फोन से ही मालूम पड़ा कि वहां उस के पति का निधन हो गया और अब वह अपनी जायदाद संभालने भारत आ गई है, चूंकि निसंतान है, इसलिए चाह रही है कि सनी को गोद ले ले, आखिर वह उसी का तो बेटा है.

मीरा समझ नहीं पा रही थी कि नियति क्यों उस के साथ इतना क्रूर खेल खेल रही है. सनी उस का एकमात्र सहारा, वह भी अलग हो जाएगा, तो वह किस के सहारे जिएगी.आंखों में नींद का नाम नहीं था. शरीर जैसे जला जा रहा था. 2 बार उठ कर पानी पिया.सुबह उठ कर रोज की तरह दूध लाने गई, चाय बनाई. सोचा, कमरा थोड़ा ठीकठाक कर दे, राजुल आती होगी. सनी को भी जगा दे, पर वह जागा हुआ ही था. उसे चाय थमा कर वह अपने कमरे में आ गई. बेटे को देखते ही कमजोर पड़ जाएगी. नहीं, वह राजुल के सामने भी नहीं जाएगी.जब राजुल की कार घर के सामने रुकी, तो उस ने उसे सनी के ही कमरे में भेज दिया था. ठीक है, मांबेटा आपस में बात कर लें. अब उस का काम ही क्या है? वैसे भी राजुल के पिता के इतने एहसान हैं उस पर, अब किस मुंह से वह सनी को रोक पाएगी. पर मन था कि मान ही नहीं रहा था और राजुल और सनी के वार्त्तालाप के शब्द पास के कमरे से उस के कानों में पड़ भी रहे थे.‘‘बस बेटा, अब मैं तु झे लेने आ गईर् हूं. मीरा ने बताया था कि तू अपने कैरियर को ले कर बहुत चिंतित है.

पर तु झे चिंता करने की कोई जरूरत नहीं. करोड़ों की जायदाद का मालिक होगा तू,’’ राजुल कह रही थी.‘‘कौन बेटा, कैसी जायदाद, मैं अपनी मां के साथ ही हूं, और यहीं रहूंगा. ठीक है, बहुत पैसा नहीं है हमारे पास, पर जो है, हम खुश हैं. मेरी मां ने मु झे पालपोस कर बड़ा किया है और आप चाहती हैं कि इस उम्र में उन्हें छोड़ कर चल दूं. आप होती कौन हैं मेरे कैरियर की चिंता करने वाली, कैसे सोच लिया आप ने कि मैं आप के साथ चल दूंगा?’’ सनी का स्वर ऊंचा होता जा रहा था.इतने कठोर शब्द तो कभी नहीं बोलता था सनी. मीरा भी चौंकी थी. उधर, राजुल का अनुनयभरा स्वर, ‘‘बेटे, तू मीरा की चिंता मत कर, उन की सारी व्यवस्था मैं कर दूंगी. आखिर तू मेरा बेटा ही है, न तो मैं ने तु झे गोद दिया था, न कानूनीरूप से तेरा गोदनामा हुआ है. मैं तेरी मां हूं, अदालत भी यही कहेगी मैं ही तेरी मां हूं. परिस्थितियां थीं, मैं तु झे अपने पास नहीं रख पाई. मीरा को मैं उस का खर्चा दूंगी. तू चाहेगा तो उसे भी साथ रख लेंगे.

मु झे तेरे भविष्य की चिंता है. मैं तेरा अमेरिका में दाखिला करा दूंगी, यहां तु झे सड़ने नहीं दूंगी. तू मेरा ही बेटा है.’’ ‘‘मत कहिए मु झे बारबार बेटा, आप तो मु झे जन्म देने से पहले ही मारना चाहती थीं. आप को तो मेरा मुंह देखना भी गवारा नहीं था. यह तो मां ही थीं जिन्होंने मु झे संभाला और अब इस उम्र में वे आप पर आश्रित नहीं होंगी. मैं हूं उन का बेटा, उन की संभाल करने वाला, आप को चिंता करने की जरूरत नहीं है, सम झीं? और अब आप कृपया यहां से चली जाएं, आगे से कभी सोचना भी मत कि मैं आप के साथ चल दूंगा.’’सनी ने जैसे अपना निर्णय सुना दिया था. फिर राजुल शायद धीमे स्वर में रो भी रही थी. मीरा सम झ नहीं पा रही थी कि क्या कह रही है.तभी सनी का तेज स्वर सुनाई दिया, ‘‘मैं जो कुछ कह रहा हूं, आप सम झ क्यों नहीं पा रही हैं. मैं कोई बिकाऊ कमोडिटी नहीं हूं. फिर जब आप ने मु झे मार ही दिया था तो अब क्यों आ गई हैं मु झे लेने. मैं बालिग हूं, मु झे अपना भविष्य सोचने का हक है. आप चाहें तो आप भी हमारे साथ रह सकती हैं. पर मैं, आप के साथ मां को छोड़ कर जाने वाला नहीं हूं. आप मु झे भी सम झने की कोशिश करें. मेरा अपना भी उत्तरदायित्व है.

जिस ने मुझे पालापोसा, बड़ा किया, मैं उसे इस उम्र में अंधकार में नहीं छोड़ सकता. कानून आप की मदद नहीं करेगा. दुनिया में आप की बदनामी अलग होगी. आप भी शांति से रहें, हमें भी रहने दें. आप मु झे सम झने की कोशिश करें. अब मैं और कुछ कहूं और अपशब्द निकल जाएं मेरे मुंह से, मेरी रिक्वैस्ट है, आप चली जाएं. सुना नहीं आप ने?’’ सनी की आवाज फिर और तेज हो गई थी.इधर, राजुल धड़ाम से दरवाजा बंद करते हुए निकल गई थी. फिर कार के जाने की आवाज आई. मीरा की जैसे रुकी सांसें फिर लौट आई थीं. सनी कमरे से बाहर आया और मां के गले लग गया और बोला, ‘‘मेरी मां सिर्फ आप हो. कहीं नहीं जाऊंगा आप को छोड़ कर.’’ मीरा को लगा कि उस की ममता जीत गई है.

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