कुछ पल का सुख: क्यों था ऋचा के मन में आक्रोश- भाग 2

आज उसे किसी का भय नहीं था. वैसे भी पानी तो साढ़े 8 बजे तक आता है. इसलिए चैन की सांस ले कर वह फिर से सो गई. जब आंख खुली तो सुबह के 7 बज चुके थे. देखा राजीव चाय का कप हाथ में लिए उसे उठा रहा था, ‘‘मां, उठो, चाय पी लो, क्या हुआ, तबीयत तो ठीक है? मुझे तो चिंता हो रही थी. तुम इतनी देर तक कभी सोती नहीं.’’

कुछ पल तक तो मालती राजीव को देखती ही रह गई. उसे विश्वास ही नहीं हुआ कि वह जो देख रही है वह सपना है या सच.

‘‘राजू, तू चाय बना कर लाया मेरे लिए?’’

‘‘तो क्या हुआ, तुम इतने आराम से गहरी नींद में सो रही थीं तो मुझे लगा कि तुम्हें कौन परेशान करे, मैं ही बना लाता हूं.’’

‘‘अरे, नहीं रे, बिलकुल ठीक हूं मैं, ऐसे ही मालूम नहीं क्यों, आज आंख नहीं खुली,’’ मालती बोली.

‘‘सर्दी भी तो बहुत पड़ रही है,’’ चाय की चुस्की लेते हुए राजीव बोला.

‘‘हां, शायद इसीलिए उठ नहीं पाई.’’

आज चाय में मालती को एक अजीब स्वाद की अनुभूति हो रही थी. न जाने कितने समय के बाद बेटे के पास बैठ कर बात करने का अवसर मिला है. उसे याद आने लगे वे पल जब राजीव छोटा था और वह बीमार हो जाती तो वह उसे बिस्तर से उठने ही न देता था.

उस की भोली, प्रेम से भरी बातें सुन कर मालती के बीमार चेहरे पर मुसकराहट तैर जाती थी. गर्व से वह सुधीर की तरफ देख कर कहती, ‘सुन रहे हो, मेरा बेटा मेरा कितना खयाल रखता है.’

चाय छलकने से मालती की तंद्रा भंग हुई और वह वर्तमान में लौट आई, ‘‘उठूं, तेरे लिए कुछ खाना बनाऊं.’’

‘‘नहीं मां, आज रहने दो, आज मुझे बाहर काम है, खाने का वक्त तो मिलेगा नहीं. इसलिए परेशान मत हो.’’

‘‘चल ठीक है, पर नाश्ता तो बना दूं.’’

‘‘नहीं, मां, आज मैं बे्रेड खा कर दूध पी लूंगा.’’

मालती के नेत्रों में अचानक जल भर आया और प्रतीत हुआ मानो उस का 20 बरस पहले का राजीव उस के सामने फिर छोेटा हो कर आ गया हो.

राजीव के आफिस जाने के बाद  जब वह कमरे से बाहर निकली तो 10 बज चुके थे. धूप लान में बिखर चुकी थी. कुरसी डाल कर वह धूप का आनंद लेने लगी. और कोई दिन होता तो इस समय वह रसोई की सफाई में लगी होती. तभी उसे सामने से मिसेज शर्मा आती दिखाई दीं. वह उसी की हमउम्र थीं. तुरंत उठ कर मालती ने उन्हें रोका, ‘‘नमस्ते, बहनजी, सुबहसुबह कहां की सैर हो रही है?’’

‘‘अरे, सैर कहां, सब्जी वाले की आवाज सुनाई दी तो बाहर निकल आई, लेकिन तब तक वह आगे चला गया.’’

‘‘कोई बात नहीं. इसी बहाने आइए, थोड़ी देर बैठिए.’’

‘‘चलिए, आती हूं, इस वक्त तो मुझे भी कुछ काम नहीं है.’’

आज मालती बेफिक्र हो कर  मिसेज शर्मा से बातें कर रही थी. उसे वह बहुत अच्छी लगती हैं पर ऋचा को वह बिलकुल पसंद नहीं. जब कभी वह उन से बात करती तो ऋचा उसे खा जाने वाली नजरों से देखती हुई कहती, ‘मुझे समझ में नहीं आता, मेरे बारबार मना करने पर भी आप इन से मेलजोल क्यों बढ़ाती हैं. यह गेट पर खड़े हो कर सब से बात करने की आप की आदत न जाने कब जाएगी.’

पर आज उसे टोकने वाला घर में कोई नहीं था. वह जिस से भी चाहे हंसबोल सकती है, अपने मन की बात कर सकती है.

जब मिसेज शर्मा गईं तो 11 बज चुके थे. 1 घंटा कैसे बीत गया मालूम ही नहीं पड़ा. कमरे में जा कर मालती आराम से लेट गई. वर्षों पश्चात उसे ऐसा लगा जैसे उसे किसी जेल से छुटकारा मिला हो.

फिर कुछ समय बाद उठ कर नहाधो कर उस ने अपने लिए थोड़ी सी खिचड़ी बना कर खा ली. लेटीलेटी वह किसी पत्रिका के पन्ने पलटने लगी. तभी अचानक अपने पुराने महल्ले वालों के यहां फोन मिलाने लगी, जिन से कि वह चाहते हुए भी कभी बात नहीं कर पाती थी. ऋचा उन लोगों को बिलकुल पसंद नहीं करती थी. वह नहीं चाहती कि पुराने लोगों से संबंध बनाए रखे जाएं.

फोन पर उस की आवाज सुन कर उस की पुरानी सहेली सरोज हैरान रह गई, ‘‘अरे, मालती, आज तुम्हें हम लोगों की याद कैसे आ गई?’’

‘‘बस, कुछ न पूछो, सरोज बहन, पर तुम सब ने भी तो मेरी खोजखबर लेना छोड़ दिया,’’ मालती बोली.

‘‘ऐसा न कहो, हम लोग जब भी  दिन में एकसाथ बैठते हैं तो तुम्हें जरूर याद करते हैं. अच्छा, यह बताओ, यहां कब आ रही हो? क्या कभी भी अपने पुराने पड़ोसियों से मिलने का मन नहीं करता?’’ सरोज ने उलाहना दिया.

‘‘अच्छा, मैं आज राजीव से बात करती हूं. यदि उसे समय हुआ तो किसी दिन जरूर आऊंगी,’’ मालती ने कहा.

शाम को जब राजीव घर आया तो खाना खाते समय मालती ने उस से अपने मन की बात कही.

‘‘ठीक है, कल मेरी मीटिंग है. वह तो 1 बजे तक खत्म हो जाएगी. दोपहर को आ कर मैं तुम्हें ले चलूंगा.’’

राजीव की बात सुन कर मालती प्रसन्न हो उठी. वैसे तो वह जानती है कि राजीव बचपन से ही उस के कहे किसी भी काम को मना नहीं करता परंतु ऋचा से विवाह के पश्चात स्वयं उसी ने संकोचवश राजीव से किसी भी बात के लिए कहनासुनना छोड़ दिया है. आज बेटे की बात सुन कर उसे लगा कि यह उस की भूल थी. उस का राजीव आज भी उस की किसी बात को नहीं टालता.

अगले दिन समय पर मालती ने तैयार होना शुरू किया. बहुत समय बाद उस ने पहनने के लिए एक अच्छी साड़ी निकाली. जब साड़ी पहन कर शीशे के सामने खड़ी हुई तो एक फीकी मुसकान उस के अधरों पर खिल गई. आज न जाने कितने समय पश्चात यों निश्ंिचत हो कर उसे स्वयं को आईने में निहारने का अवसर मिला था. अन्यथा सदा तो यह सोच कर कि ऋचा सोचेगी कि सास को बुढ़ापे में भी शीशे के सामने खड़े होने का शौक है, वह कभी आईने के सामने खड़े होने का साहस नहीं कर पाती. समय बीतने के साथ नारी सुलभ इच्छाएं कम जरूर हो जाती हैं पर मरती तो नहीं हैं.

ठीक समय पर राजीव की मोटर- साइकिल की आवाज सुन कर वह बाहर निकली.

‘‘चलो मां, जल्दी से ताला लगा कर आ जाओ,’’ राजीव ने कहा.

ताला लगा कर जब वह राजीव के साथ अपने पुराने महल्ले में जाने के लिए मोटरसाइकिल पर बैठी तो उस का हृदय प्रसन्नता से भर उठा. आज न जाने कितने समय बाद उस ने खुले वातावरण में सांस ली.

जिंदगी के रंग- भाग 1: क्या था कमला का सच

‘‘बीबीजी…ओ बीबीजी, काम वाली की जरूरत हो तो मुझे आजमा कर देख लो न,’’ शहर की नई कालोनी में काम ढूंढ़ते हुए एक मकान के गेट पर खड़ी महिला से वह हाथ जोड़ते हुए काम पर रख लेने की मनुहार कर रही थी.

‘‘ऐसे कैसे काम पर रख लें तुझे, किसी की सिफारिश ले कर आई है क्या?’’

‘‘बीबीजी, हम छोटे लोगों की सिफारिश कौन करेगा?’’

‘‘तेरे जैसी काम वाली को अच्छी तरह देख रखा है, पहले तो गिड़गिड़ा कर काम मांगती हैं और फिर मौका पाते ही घर का सामान ले कर चंपत हो जाती हैं. कहां तेरे पीछे भागते फिरेंगे हम. अगर किसी की सिफारिश ले कर आए तो हम फिर सोचें.’’

ऐसे ही जवाब उस को न जाने कितने घरों से मिल चुके थे. सुबह से शाम तक गिड़गिड़ाते उस की जबान भी सूख गई थी, पर कोई सिफारिश के बिना काम देने को तैयार नहीं था.

कितनों से उस ने यह भी कहा, ‘‘बीबीजी, 2-4 दिन रख के तो देख लो. काम पसंद नहीं आए तो बिना पैसे दिए काम से हटा देना पर बीबीजी, एक मौका तो दे कर देखो.’’

‘‘हमें ऐसी काम वाली की जरूरत नहीं है. 2-4 दिन का मौका देते ही तू तो हमारे घर को साफ करने का मौका ढूंढ़ लेगी. ना बाबा ना, तू कहीं और जा कर काम ढूंढ़.’’

‘आज के दिन और काम मांग कर देखती हूं, यदि नहीं मिला तो कल किसी ठेकेदार के पास जा कर मजदूरी करने का काम कर लूंगी. आखिर पेट तो पालना ही है.’ मन में ऐसा सोच कर वह एक कोठी के आगे जा कर बैठ गई और उसी तरह बीबीजी, बीबीजी की रट लगाने लगी.

अंदर से एक प्रौढ़ महिला बाहर आईं. काम ढूंढ़ने की मुहिम में वह पहली महिला थीं, जिन्होंने बिना झिड़के उसे अंदर बुला कर बैठाते हुए आराम से बात की थी.

‘‘तुम कहां से आई हो? कहां रहती हो? कौन से घर का काम छोड़ा है? क्याक्या काम आता है? कितने रुपए लोगी? घर में कौनकौन हैं? शादी हुई है या नहीं?’’ इतने सारे प्रश्नों की झड़ी लगा दी थी उन्होंने एकसाथ ही.

बातों में मिठास ला कर उस ने भी बड़े धैर्य के साथ उत्तर देते हुए कहा, ‘‘बीबीजी, मैं बाहर से आई हूं, मेरा यहां कोई घर नहीं है, मुझे घर का सारा काम आता है, मैं 24 घंटे आप के यहां रहने को तैयार हूं. मुझ से काम करवा कर देख लेना, पसंद आए तो ही पैसे देना. 24 घंटे यहीं रहूंगी तो बीबीजी, खाना तो आप को ही देना होगा.’’

उस कोठी वाली महिला पर पता नहीं उस की बातों का क्या असर हुआ कि उस ने घर वालों से बिना पूछे ही उस को काम पर रखने की हां कर दी.

‘‘तो बीबीजी, मैं आज से ही काम शुरू कर दूं?’’ बड़ी मासूमियत से वह बोली.

‘‘हां, हां, चल काम पर लग जा,’’ श्रीमती चतुर्वेदी ने कहा, ‘‘तेरा नाम क्या है?’’

‘‘कमला, बीबीजी,’’ इतना बोल कर वह एक पल को रुकी फिर बोली, ‘‘बीबीजी, मेरा थोड़ा सामान है, जो मैं ने एक जगह रखा हुआ है. यदि आप इजाजत दें तो मैं जा कर ले आऊं,’’ उस ने गिड़गिड़ाते हुए कहा.

‘‘कितनी देर में वापस आएगी?’’

‘‘बस, बीबीजी, मैं यों गई और यों आई.’’

काम मिलने की खुशी में उस के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. उस ने अपना सामान एक धर्मशाला में रख दिया था, जिसे ले कर वह जल्दी ही वापस आ गई.

उस के सामान को देखते ही श्रीमती चतुर्वेदी चौंक पड़ीं, ‘‘अरे, तेरे पास ये बड़ेबड़े थैले किस के हैं. क्या इन में पत्थर भर रखे हैं?’’

‘‘नहीं बीबीजी, इन में मेरी मां की निशानियां हैं, मैं इन्हें संभाल कर रखती हूं. आप तो बस कोई जगह बता दो, मैं इन्हें वहां रख दूंगी.’’

‘‘ऐसा है, अभी तो ये थैले तू तख्त के नीचे रख दे. जल्दी से बर्तन साफ कर और सब्जी छौंक दे. अभी थोड़ी देर में सब आते होंगे.’’

‘‘ठीक है, बीबीजी,’’ कह कर उस ने फटाफट सारे बर्तन मांज कर झाड़ूपोंछा किया और खाना बनाने की तैयारी में जुट गई. पर बीबीजी ने एक पल को भी उस का पीछा नहीं छोड़ा था, और छोड़तीं भी कैसे, नईनई बाई रखी है, कैसे विश्वास कर के पूरा घर उस पर छोड़ दें. भले ही काम कितना भी अच्छा क्यों न कर रही हो.

उस के काम से बड़ी खुश थीं वह. उन की दोनों बेटियां और पति ने आते ही पूछा, ‘‘क्या बात है, आज तो घर बड़ा चमक रहा है?’’

मिसेज चतुर्वेदी बोलीं, ‘‘चमकेगा ही, नई काम वाली कमला जो लगा ली है,’’ यह बोलते समय उन की आंखों में चमक साफ दिखाई दे रही थी.

‘‘अच्छी तरह देखभाल कर रखी है न, या यों ही कहीं से सड़क चलते पकड़ लाईं.’’

‘‘है तो सड़क चलती ही, पर काम तो देखो, कितना साफसुथरा किया है. अभी तो जब उस के हाथ का खाना खाओगे, तो उंगलियां चाटते रह जाओगे,’’ चहकते हुए मिसेज चतुर्वेदी बोलीं.

सब खाना खाते हुए खाने की तारीफ तो करते जा रहे थे पर साथ में बीबीजी को आगाह भी करा रहे थे कि पूरी नजर रखना इस पर. नौकर तो नौकर ही होता है. ऐसे ही ये घर वालों का विश्वास जीत लेते हैं और फिर सबकुछ ले कर चंपत हो जाते हैं.

यह सब सुन कर कमला मन ही मन कह रही थी कि आप लोग बेफिक्र रहें. मैं कहीं चंपत होने वाली नहीं. बड़ी मुश्किल से तो तुझे काम मिला है, इसे छोड़ कर क्या मैं यों ही चली जाऊंगी.

खाना वगैरह निबटाने के बाद उस ने बीबीजी को याद दिलाते हुए कहा, ‘‘बीबीजी, मेरे लिए कौन सी जगह सोची है आप ने?’’

‘‘हां, हां, अच्छी याद दिलाई तू ने, कमला. पीछे स्टोररूम है. उसे ठीक कर लेना. वहां एक चारपाई है और पंखा भी लगा है. काफी समय पहले एक नौकर रखा था, तभी से पंखा लगा हुआ है. चल, वह पंखा अब तेरे काम आ जाएगा.’’

उस ने जा कर देखा तो वह स्टोररूम तो क्या बस कबाड़घर ही था. पर उस समय वह भी उसे किसी महल से कम नहीं लग रहा था. उस ने बिखरे पड़े सामान को एक तरफ कर कमरा बिलकुल जमा लिया और चारपाई पर पड़ते ही चैन की सांस ली.

पूरा दिन काम में लगे रहने से खाट पर पड़ते ही उसे नींद आ गई थी, रात को अचानक ही नींद खुली तो उसे, उस एकांत कोठरी में बहुत डर लगा था. पर क्या कर सकती थी, शायद उस का भविष्य इसी कोठरी में लिखा था. आंख बंद की तो उस की यादों का सिलसिला शुरू हो गया.

आज की कमला कल की डा. लता है, एस.एससी., पीएच.डी.. उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद के कितने बड़े घर में उस का जन्म हुआ था. मातापिता ने उसे कितने लाड़प्यार से पाला था. 12वीं तक मुरादाबाद में पढ़ाने के बाद उस की जिद पर पिता ने उसे दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए भेज दिया था. गुणसंपन्न (मेरिटोरिअस) छात्रा होने के कारण उसे जल्द ही हास्टल में रहने की भी सुविधा मिल गई थी.

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वसंत आ गया- भाग 3: क्या संगीता ठीक हो पाई

फिर वह कमली से बोले, ‘जाओ कमली, संगीता को ले आओ.’

यह सुन कर एकदम सन्नाटा छा गया. तभी जाती हुई कमली को रोकते हुए सौरभ भाई बोले, ‘ठहरो, कमली, संगीता कहीं नहीं जाएगी. यह सही है कि इन लोगों ने हमें धोखा दिया और हम सब को ठेस पहुंचाई. इस के लिए इन्हें सजा भी मिलनी चाहिए, और सजा यह होगी कि आज के बाद इन से हमारा कोई संबंध नहीं होगा. परंतु इस में संगीता की कोई गलती नहीं है, क्योंकि उस की मानसिक दशा तो ऐसी है ही नहीं कि वह इन बातों को समझ सके.

‘परंतु मैं ने तो अपने पूरे होशोहवास में मनप्राण से उसे पत्नी स्वीकारा है. अग्नि को साक्षी मान कर हर दुखसुख में साथ निभाने का प्रण किया है. कहते हैं जन्म, शादी और मृत्यु सब पहले से तय होते हैं. अगर ऐसा है तो यही सही, संगीता जैसी भी है अब मेरे साथ ही रहेगी. मैं अपने सभी परिजनों से हाथ जोड़ कर विनती करता हूं

कि मुझे मेरे जीवनपथ से विचलित न करें क्योंकि मेरा निर्णय अटल है.’

सौरभ भाई के स्वभाव से हम सब वाकिफ थे. वह जो कहते उसे पूरा करने में कोई कसर न छोड़ते, इसलिए एकाएक ही मानो सभी को सांप सूंघ गया.

संगीता भाभी के मातापिता सौरभ भाई को लाखों आशीष देते चले गए. बाकी वहां मौजूद सभी नातेरिश्तेदारों में से किसीकिसी ने सौरभ भाई को सनकी, बेवकूफ और पागल आदि विशेषणों से विभूषित किया और धीरेधीरे चलते बने. आजकल किसी के पास इतना वक्त ही कहां होता है कि किसी की व्यक्तिगत बातों और समस्याओं में अपना कीमती वक्त गंवाए.

भाभी के आने के बाद मैं बहुत मौजमस्ती करने की योजना मन ही मन बना चुकी थी, पर अब तो सब मन की मन ही में रही. तीसरे दिन अपने मम्मीपापा के साथ ही मैं ने लौटने का मन बना लिया.

दुखी मन से मैं भुवनेश्वर लौट आई. आने से पहले चुपके से एक रुमाल में सोने की चेन और कानों की बालियां कमली को दे आई कि मेरे जाने के बाद सौरभ भाई को दे देना. जब उन की ज्ंिदगी में बहार आई ही नहीं तो मैं कैसे उस तोहफे को कबूल कर सकती थी.

सौरभ भाई के साथ हुए हादसे को काकी झेल नहीं पाईं और एक साल के अंदर ही उन का देहांत हो गया. काकी के गम को हम अभी भुला भी नहीं पाए थे कि एक दिन नाग के डसने से कमली का सहारा भी टूट गया. बिना किसी औरत के सहारे के सौरभ भाई के लिए संगीता भाभी को संभालना मुश्किल होने लगा था, इसलिए सौरभ भाई ने कोशिश कर के अपना तबादला भुवनेश्वर करवा लिया ताकि मैं और मम्मी उन की देखभाल कर सकें.

मकान भी उन्होंने हमारे घर के करीब ही लिया था. वहां आ कर मेरी मदद से घर व्यवस्थित करने के बाद सब से पहले वह संगीता भाभी को अच्छे मनोचिकित्सक के पास ले गए. मैं भी साथ थी.

डाक्टर ने पहले एकांत में सौरभ भाई से संगीता भाभी की पूरी केस हिस्ट्री सुनी फिर जांच करने के बाद कहा कि उन्हें डिप्रेसिव साइकोसिस हो गया है. ज्यादा अवसाद की वजह से ऐसा हो जाता है. इस में रोेगी जब तक क्रोनिक अवस्था में रहता है तो किसी को जल्दी पता नहीं चल पाता कि अमुक आदमी को कोई बीमारी भी है, परंतु 10 से ज्यादा दिन तक वह दवा न ले तो फिर उस बीमारी की परिणति एक्यूट अवस्था में हो जाती है जिस में रोगी को कुछ होश नहीं रहता कि वह क्या कर रहा है. अपने बाल और कपड़े आदि नोंचनेफाड़ने जैसी हरकतें करने लगता है.

डाक्टर ने आगे बताया कि एक बार अगर यह बीमारी किसी को हो जाए तो उसे एकदम जड़ से खत्म नहीं किया जा सकता, परंतु जीवनपर्यंत रोजाना इस मर्ज की दवा की एक गोली लेने से सामान्य जीवन जीया जा सकता है. दवा के साथ ही साथ साईकोथैरेपी से मरीज में आश्चर्यजनक सुधार हो सकता है और यह सिर्फ उस के परिवार वाले ही कर सकते हैं. मरीज के साथ प्यार भरा व्यवहार रखने के साथसाथ बातों और अन्य तरीकों से घर वाले उस का खोया आत्मविश्वास फिर से लौटा सकते हैं.

डाक्टर के कहे अनुसार हम ने भाभी का इलाज शुरू कर दिया. मां तो अपने घर के काम में ही व्यस्त रहती थीं, इसलिए भाई की अनुपस्थिति में भाभी के साथ रहने और उन में आत्मविश्वास जगाने के लिए मैं ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी. भाई और मैं बातोंबातों में निरंतर उन्हें यकीन दिलाने की कोशिश करते कि वह बहुत अच्छी हैं, सुंदर हैं और हरेक काम अच्छी तरह कर सकती हैं.

शुरू में वह नानुकर करती थीं, फिर धीरेधीरे मेरे साथ खुल गईं. हम तीनों मिल कर कभी लूडो खेलते, कभी बाहर घूमने चले जाते.

लगातार प्रयास से 6 महीने के अंदर संगीता भाभी में इतना परिवर्तन आ गया कि वह हंसनेमुसकराने लगीं. लोगों से बातें करने लगीं और नजदीक के बाजार तक अकेली जा कर सब्जी बगैरह खरीद कर लाने लगीं. दूसरे लोग उन्हें देख कर किसी भी तरह से असामान्य नहीं कह सकते थे. यों कहें कि वह काफी हद तक सामान्य हो चुकी थीं.

हमें आश्चर्य इस बात का हो रहा था कि इस बीच न तो काका और न ही सौभिक भाई कभी हालचाल पूछने आए, पर सब कुछ ठीक चल रहा था, इसलिए हम ने खास ध्यान नहीं दिया.

इस के 5 महीने बाद ही मेरी शादी हो गई और मैं अपनी ससुराल दिल्ली चली गई. ससुराल आ कर धीरेधीरे मेरे दिमाग से सौरभ भाई की यादें पीछे छूटने लगीं क्योंकि आलोक के अपने मातापिता के एकलौते बेटे होने के कारण वृद्ध सासससुर की पूरी जिम्मेदारी मेरे ऊपर थी. उन्हें छोड़ कर मेरा शहर से बाहर जाना मुश्किल था.

मेरे ससुराल जाने के 2 महीने बाद ही पापा ने एक दिन फोन किया कि अच्छी नौकरी मिलने के कारण सौरभ भाई संगीता भाभी के साथ सिंगापुर चले गए हैं. फिर तो सौरभ भाई मेरे जेहन में एक भूली हुई कहानी बन कर रह गए थे.

अचानक किसी के हाथ की थपथपाहट मैं ने अपने गाल पर महसूस की तो सहसा चौंक पड़ी और सामने आलोक को देख कर मुसकरा पड़ी.

‘‘कहां खोई हो, डार्ल्ंिग, कल तुम्हारे प्यारे सौरभ भाई पधार रहे हैं. उन के स्वागत की तैयारी नहीं करनी है?’’ आलोक बोले. वह सौरभ भाई के प्रति मेरे लगाव को अच्छी तरह जानते थे.

‘‘अच्छा, तो आप को पता था कि फोन सौरभ भाई का था.’’

‘‘हां, भई, पता तो है, आखिर वह हमारे साले साहब जो ठहरे. फिर मैं ने ही तो उन से पहले बात की थी.’’

दूसरे दिन सुबह जल्दी उठ कर मैं ने नहाधो कर सौरभ भाई के मनपसंद दमआलू और सूजी का हलवा बना कर रख दिया. पूरी का आटा भी गूंध कर रख दिया ताकि उन के आने के बाद जल्दी से गरमगरम पूरियां तल दूं.

आलोक उठ कर तैयार हो गए थे और बच्चे भी तैयार होने लगे थे. रविवार होने की वजह से उन्हें स्कूल तो जाना नहीं था. कोई गाड़ी घर के बाहर से गुजरती तो मैं खिड़की से झांक कर देखने लगती. आलोक मेरी अकुलाहट देख कर मंदमंद मुसकरा रहे थे.

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शब्दचित्र: क्या था नीतू का सपना

सुबह 6 बजे का अलार्म पूरी ईमानदारी से बज कर बंद हो गया. वह एक सपने या थकान पर कोई असर नहीं छोड़ पाया. ठंडी हवाएं चल रही हैं. पक्षी अपने भोजन की तलाश में निकल पड़े हैं.

तभी मां नीतू के कमरे में घुसते ही बोलीं, ‘‘इसे देखो, 7 बजने को हैं और अभी तक सो रही है. रात को तो बड़ीबड़ी बातें करती है, अलार्म लगा कर सोती हूं. कल तो जल्दी उठ जाऊंगी, मगर रोज सुबह इस की बातें यों ही धरी रह जाती हैं.’’ मां बड़बड़ाए जा रही थीं.

अचानक ही मां की नजर नीतू के चेहरे पर पड़ी, यह भी क्या करे, सुबह 9 बजे निकलने के बाद औफिस से आतेआते शाम के 8 बज जाते हैं. कितना काम करती है. एक पल मां ने यह सब सोचा, फिर नीतू को जगाने लगीं.

‘‘नीतू, ओ नीतू, उठ जा. औफिस नहीं जाना क्या तुझे?’’

‘‘‘हुं… सोने दो न मां,’’ नीतू ने करवट बदलते हुए कहा.

‘‘अरे नीतू बेटा, उठ ना… देख 7 बज चुके हैं,’’ मां ने फिर से उठाने का प्रयास किया.

‘‘क्या…7 बज गए?’’ यह कहती

वह जल्दी से उठी और आश्चर्य से पूछने लगी, ‘‘उस ने तो सुबह 6 बजे का अलार्म लगाया था?’’

‘‘अब यह सब छोड़ और जा, जा कर तैयार हो ले,’’ मां ने नीतू का बिस्तर समेटते हुए जवाब दिया.

नीतू को आज भी औफिस पहुंचने में देर हो गई थी. सब की नजरों से बच कर वह अपनी डैस्क पर जा पहुंची. मगर रीता ने उसे देख ही लिया. 5 मिनट बाद वह उस के सामने आ धमकी. कहानियों से भरे पत्र उस की डैस्क पर पटक कर कहने लगी, ‘‘ये ले, इन 5 लैटर्स के स्कैच बनाने हैं आज तुझे लंच तक. मैम ने मुझ से कहा था कि मैं तुझे बता दूं.’’

‘‘पर यार, आधे दिन में 5 स्कैच कैसे कंप्लीट कर पाऊंगी मैं?’’

‘‘यह तेरी सिरदर्दी है. इस में मैं क्या कर सकती हूं. और, वैसे भी मैम का हुक्म है,’’ कह कर रीता अपनी डैस्क पर चली गई.

बचपन से ही अपनी आंखों में पेंटर बनने का सपना लिए नीतू अब जा कर उसे पूरा कर पाई है. जब वह स्कूल में थी, तब कौपियों के पीछे के पन्नों पर ड्राइंग किया करती थी, मगर अब एक मैगजीन में हिंदी कहानियों के चित्रांकन का काम करती है.

अपनी चेयर को आगे खिसका कर वह आराम से बैठी और बुझेमन से एक पत्र उठा कर पढ़ने लगी. वह जब भी चित्रांकन करती, उस से पहले कहानी को अच्छी तरह पढ़ती थी  ताकि पात्रों में जान डाल सके.

2 कहानियों के पढ़ने में ही घड़ी ने एक बजा दिया. जब उस की नजर घड़ी पर पड़ी, तो वह थोड़ी परेशान हो गई.

वह सोचने लगी, अरे, लंच होने में सिर्फ एक घंटा ही बचा है और अभी तक 2 ही कहानियां पूरी हुई हैं. कैसे भी 3 तो पूरी कर ही लेगी.  और वह फिर से अपने काम में लग गई.

लंच भी हो गया. उस ने 3 कहानियों का चित्रांकन कर दिया था. वह खाना खाती जा रही थी और सोचती जा रही थी कि बाकी दोनों भी 4 बजे तक पूरा कर देगी. साथ ही,  उस के मन में यह डर था कि कहीं मैम पांचों स्कैच अभी न मांग लें.

खाना खा कर नीतू मैम को देखने उन के केबिन की ओर गई, परंतु उसे मैम न दिखीं.

रीता से पूछने पर पता चला कि मैम किसी जरूरी काम से अपने घर गई हैं.

इतना सुनते ही उस की जान में जान आई. लंच समाप्त हो गया.

नीतू अपनी डैस्क पर जा पहुंची. अगली कहानी छोटी होने की वजह से उस ने जल्दी ही निबटा दी. अब आखिरी कहानी बची है, यह सोचते हुए उस ने 5वां पत्र उठाया और पढ़ने लगी.

‘प्रशांत शर्मा’ इतना पढ़ते ही उस के मन से काम का बोझ मानो गायब हो गया. वह अपने हाथ की उंगलियों के पोर पत्र पर लिखे नाम पर घुमाने लगी. उस की आंखें, बस, नाम पर ही टिकी रहीं. देखते ही देखते वह अतीत में खोने लगी.

तब उस की उम्र 15 साल की रही होगी. 9वीं क्लास में थी. घर से स्कूल जाते हुए वह इतना खुश हो कर जाती थी जैसे आसमान में उड़ने जा रही हो.

मम्मीपापा की इकलौती बेटी थी वह. सो, मुरादें पूरी होना लाजिमी थीं. पढ़ने में होशियार होने के साथसाथ वह क्लास की प्रतिनिधि भी थी.

दूसरी ओर प्रशांत था. नाम के एकदम विपरीत. कभी न शांत रहने वाला लड़का. क्लास में शोर होने का कारण और मुख्य जड़ था वह ही. पढ़ाई तो वह नाममात्र ही करता था. क्या यह वही प्रशांत है?

दिल की धड़कन जोरों से धड़कने लगी. तुरंत उस ने पत्र को पलटा और ध्यान से हैंडराइटिंग को देखने लगी. बस, चंद सैकंड में ही उस ने पता लगा लिया कि यह उस की ही हैंडराइटिंग है.

फिर से अतीत में लौट गई वह. सालभर पहले तो गुस्सा आता था उसे, पर न जाने क्यों धीरेधीरे यह गुस्सा कम होने लगा था उस के प्रति. जब भी वह इंटरवल में खाना खा कर चित्र बनाती, तो अचानक ही पीछे से आ कर वह उस की कौपी ले भागता था. कभी मन करता था कि 2 घूंसे मुंह पर टिका दे, मगर हर बार वह मन मार कर रह जाती.

रोज की तरह एक दिन इंटरवल में वह चित्र बना रही थी, तभी क्लास के बाहर से भागता हुआ प्रशांत उस के पास आया. वह समझ गई कि कोई न कोई शरारत कर के भाग आया है, तभी उस के पीछे दिनेश, जो उस की ही क्लास में पढ़ता था, वह भी वहां आ पहुंचा और उस ने लकड़ी वाला डस्टर उठा कर प्रशांत की ओर फेंकना चाहा. उस ने वह डस्टर प्रशांत को निशाना बना कर फेंका. उस ने आव देखा न ताव, प्रशांत को बचाने के लिए अपनी कौपी सीधे डस्टर की दिशा में फेंकी, जो डस्टर से जा टकराई. प्रशांत को बचा कर वह दिनेश को पीटने गई, पर वह भाग गया.

‘अरे, आज तू ने मुझे बचाया, मुझे…’ प्रशांत आश्चर्य से बोला.

‘हां, तो क्या हो गया?’ उस ने जवाब दिया.

अचानक प्रशांत मुड़ा और अपने बैग से एक नया विज्ञान का रजिस्टर ला कर उसे देते हुए बोला, ‘यह ले, आज से तू चित्र इस में बनाना. वैसे भी, मुझे बचाते हुए तेरी कौपी घायल हो गई है.’

उस ने रजिस्टर लेने से मना कर दिया.

‘अरे ले ले, पहले भी तो मैं तुझे

कई बार परेशान कर चुका हूं, पर अब से नहीं करूंगा.’

जब उस ने ज्यादा जोर दिया, तो उस ने रजिस्टर ले लिया, जो आज भी उस के पास रखा है.

ऐसे ही एक दिन जब उसे स्कूल में बुखार आ गया, तो तुरंत वह टीचर के

पास गया और उसे घर ले जाने की अनुमति मांग आया.

टीचर के हामी भरते ही वह उस का बैग उठा कर घर तक छोड़ने गया.

वहीं, शाम को वह उस का हाल जानने उस के घर फिर चला आया. उस की इतनी परवा करता है वह, यह देख कर उस का उस से लगाव बढ़ गया था. साथ ही, वह यह भी समझ गई थी कि कहीं न कहीं वह भी उसे पसंद करता है.

पर 10 सालों में वह एक बार भी उस से नहीं मिला. दिल्ली जैसे बड़े शहर में न जाने कहां खो गया.

‘‘रीता, इस की एक कौपी कर के मेरे कैबिन में भिजवाओ जल्दी,’’ अचला मैम की आवाज कानों में पड़ने से उस की तंद्रा टूटी.

मैम आ गई थीं. अपने कैबिन में जातेजाते मैम ने उसे देखा और पूछ बैठीं, ‘‘हां, वो पांचों कहानियों के स्कैचेज तैयार कर लिए तुम ने?’’

‘‘बस, एक बाकी है मैम,’’ उस ने चेयर से उठते हुए जवाब दिया.

‘‘गुड, वह भी जल्दी से तैयार कर के मेरे पास भिजवा देना. ओके.’’

‘‘ओके मैम,’’ कह कर नीतू चेयर पर बैठी और फटाफट प्रशांत की लिखी कहानी पढ़ने लगी.

10 मिनट पढ़ने के बाद जल्दी से उस ने स्कैच बनाया और मैम को दे आई.

औफिस का टाइम भी लगभग पूरा हो चला था. शाम 6 बजे औफिस से निकल कर नीतू बस का इंतजार करने लगी. कुछ ही देर में बस भी आ गई. वह बस में चढ़ी, इधरउधर नजर घुमाई तो देखा कि बस में ज्यादा भीड़ नहीं थी. गिनेचुने लोग ही थे.

कंडक्टर से टिकट ले कर वह खिड़की वाली सीट पर जा बैठी और बाहर की ओर दुकानों को निहारने लगी.

अचानक बस अगले स्टौप पर रुकी, फिर चल दी.

‘‘हां भाई, बताइए?’’

बस के इंजन के नीचे दबी कंडक्टर की आवाज मेरे कानों में पड़ी.

‘‘करोल बाग एक,’’ पीछे से किसी ने जवाब दिया.

लगभग एक घंटा तो लगेगा. अभी इतना सोच कर वह पर्स से मोबाइल और इयरफोन निकालने लगी कि अचानक कोई आ कर उस की बगल में बैठ गया.

उसे देखने के लिए उस ने अपनी गरदन घुमाई, तो बस देखती ही रह गई. वह खुशी से चिल्लाती हुई बोली, ‘‘प्रशांत, तुम!’’

प्रशांत ने घबरा कर उस की ओर देखा. ‘‘अरे, नीतू, इतने सालों बाद. कैसी हो?’’ और वह सवाल पर सवाल करने लगा.

‘‘मैं अच्छी हूं. तुम कैसे हो?’’ नीतू ने जवाब दे कर प्रश्न किया. उसे इतनी खुशी हो रही थी कि वह सोचने लगी कि अब यह बस 2 घंटे भी ले ले, तो भी कोई बात नहीं.

‘‘मैं ठीक हूं. और बताओ, क्या करती हो आजकल?’’

‘‘वही, जो स्कूल के इंटरवल में

करती थी.’’

‘‘अच्छा, वह चित्रों की दुनिया.’’

‘‘हां, चित्रों की दुनिया ही मेरा सपना. और मैं ने अपना वही सपना अब पूरा कर लिया है.’’

‘‘सपना, कौन सा? अच्छी स्कैचिंग करने का.’’

‘‘हां, स्कैचिंग करतेकरते मैं एक दिन अलंकार मैगजीन में इंटरव्यू दे आई थी. बस, उन्होंने रख लिया मुझे.’’

‘‘बधाई हो, कोई तो सफल हुआ.’’

‘‘और तुम क्या करते हो? जौब लगी या नहीं?’’

‘‘जौब तो नहीं लगी, हां, एक प्राइवेट कंपनी में जाता हूं.’’

तभी प्रशांत को कुछ याद आता है, ‘‘एक मिनट, क्या बताया तुम ने, अभी कौन सी मैगजीन?’’

‘‘अलंकार मैगजीन,’’ नीतू ने बताया.

‘‘अरे, उस में तो…’’

नीतू उस की बात बीच में ही काटती हुई बोली, ‘‘कहानी भेजी थी. और संयोग से वह कहानी मैं आज ही पढ़ कर आई हूं, स्कैच बनाने के साथसाथ.’’

‘‘पर, तुम्हें कैसे पता चला कि वह कहानी मैं ने ही भेजी थी. नाम तो कइयों के मिलते हैं.’’

‘‘सिंपल, तुम्हारी हैंडराइटिंग से.’’

‘‘क्या? मेरी हैंडराइटिंग से, तो

क्या तुम्हें मेरी हैंडराइटिंग भी याद है

अब तक.’’

‘‘हां, मिस्टर प्रशांत.’’

‘‘ओह, फिर तो अब तुम पूरे दिन चित्र बनाती होगी और कोई डिस्टर्ब भी न करता होगा मेरी तरह. है न?’’

‘‘हां, वह तो है.’’

‘‘देख ले, सब जनता हूं न मैं?’’

‘‘लेकिन, तुम एक बात नहीं जानते प्रशांत.’’

‘‘कौन सी बात?’’

बारबार मुझे स्कूल की बातें याद आ रही थीं. मैं ने सोचा कि बता देती हूं. क्या पता, फिर ऊपर वाला ऐसा मौका दे या न दे, यह सोच कर नीतू बोल पड़ी, ‘‘प्रशांत, मैं तुम्हें पसंद करती हूं.’’

‘‘क्या…?’’ प्रशांत ऐसे चौंका जैसे उसे कुछ पता ही न हो.

‘‘तब से जब हम स्कूल में पढ़ते थे और मैं यह भी जानती हूं कि तुम भी मुझे पसंद करते हो. करते हो न?’’

प्रशांत ने शरमाते हुए हां में अपनी गरदन हिलाई.

तभी बस एक स्टाप पर रुकी. हम खामोश हो कर एकदूसरे को देखने लगे.

‘‘तेरी शादी नहीं हुई अभी तक?’’ प्रशांत ने प्रश्न किया.

‘‘नहीं. और तुम्हारी?’’

‘‘नहीं.’’

न जाने क्यों मेरा मन भर आया और मैं ने बोलना बंद कर दिया.

‘‘क्या हुआ नीतू? तुम चुप क्यों हो गईं?’’

‘‘प्रशांत, शायद मेरी जिंदगी में तुम हो ही नहीं, क्योंकि कल मेरी एंगेजमैंट है और तुम इतने सालों बाद आज

मिले हो.’’

इतना सुनते ही प्रशांत का गला भर आया. वह बस, इतना ही बोला, ‘‘क्या,

कल ही.’’

दोनों एक झटके में ही उदास हो गए.

कुछ देर खामोशी छाई रही.

‘‘कोई बात नहीं नीतू. प्यार का रंग कहीं न कहीं मौजूद रहता है हमेशा,’’ प्रशांत ने रुंधे मन से कहा.

‘‘मतलब?’’ नीतू ने पूछा.

‘‘मतलब यह कि हम चाहे साथ रहें न रहें, तुम्हारे चित्र और मेरे शब्द तो साथ रहेंगे न हमेशा कहीं न कहीं,’’ प्रशांत हलकी सी मुसकान भरते हुए बोला.

‘‘मुझे नहीं पता था प्रशांत कि तुम इतने समझदार भी हो सकते हो.’’

तभी कंडक्टर की आवाज सुनाई दी, ‘‘पंजाबी बाग.’’

‘‘ओके प्रशांत, मेरा स्टौप आ गया है. अब चलती हूं. बायबाय.’’

‘‘बाय,’’ प्रशांत ने भी अलविदा कहा.

वह बस से उतरी और जब तक आंखों से ओझल न हो गए, तब तक दोनों एकदूसरे को देखते रहे.

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दिल हथेली पर: अल्पना ने क्यों कहा अमित को डरपोक

अमित और मेनका चुपचाप बैठे हुए कुछ सोच रहे थे. उन की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करना चाहिए.

तभी कालबेल बजी. मेनका ने दरवाजा खोला. सामने नरेन को देख चेहरे पर मुसकराहट लाते हुए वह बोली, ‘‘अरे जीजाजी आप… आइए.’’

‘‘नमस्कार. मैं इधर से जा रहा था तो सोचा कि आज आप लोगों से मिलता चलूं,’’ नरेन ने कमरे में आते हुए कहा.

अमित ने कहा, ‘‘आओ नरेन, कैसे हो? अल्पना कैसी है?’’

नरेन ने उन दोनों के चेहरे पर फैली चिंता की लकीरों को पढ़ते हुए कहा, ‘‘हम दोनों तो ठीक हैं, पर मैं देख रहा हूं कि आप किसी उलझन में हैं.’’

‘‘ठीक कहते हो तुम…’’ अमित बोला, ‘‘तुम तो जानते ही हो नरेन कि मेनका मां बनने वाली है. दिल्ली से बहन कुसुम को आना था, पर आज ही उस का फोन आया कि उस को पीलिया हो गया है. वह आ नहीं सकेगी. सोच रहे हैं कि किसी नर्स का इंतजाम कर लें.’’

‘‘नर्स क्यों? हमें भूल गए हो क्या? आप जब कहेंगे अल्पना अपनी दीदी की सेवा में आ जाएगी,’’ नरेन ने कहा.

‘‘यह ठीक रहेगा,’’ मेनका बोली.

अमित को अपनी शादी की एक घटना याद हो आई. 4 साल पहले किसी शादी में एक खूबसूरत लड़की उस से हंसहंस कर बहुत मजाक कर रही थी. वह सभी लड़कियों में सब से ज्यादा खूबसूरत थी.

अमित की नजर भी बारबार उस लड़की पर चली जाती थी. पता चला कि वह अल्पना है, मेनका की मौसेरी बहन.

अब अमित ने अल्पना के आने के बारे में सुना तो वह बहुत खुश हुआ.

मेनका को ठीक समय पर बच्चा हुआ. नर्सिंग होम में उस ने एक बेटे को जन्म दिया.

4 दिन बाद मेनका को नर्सिंग होम से छुट्टी मिल गई.

शाम को नरेन घर आया तो परेशान व चिंतित सा था. उसे देखते ही अमित ने पूछा, ‘‘क्या बात है नरेन, कुछ परेशान से लग रहे हो?’’

‘‘हां, मुझे मुंबई जाना पड़ेगा.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘बौस ने हैड औफिस के कई सारे जरूरी काम बता दिए हैं.’’

‘‘वहां कितने दिन लग जाएंगे?’’

‘‘10 दिन. आज ही सीट रिजर्व करा कर आ रहा हूं. 2 दिन बाद जाना है. अब अल्पना यहीं अपनी दीदी की सेवा में रहेगी,’’ नरेन ने कहा.

मेनका बोल उठी, ‘‘अल्पना मेरी पूरी सेवा कर रही है. यह देखने में जितनी खूबसूरत है, इस के काम तो इस से भी ज्यादा खूबसूरत हैं.’’

‘‘बस दीदी, बस. इतनी तारीफ न करो कि खुशी के मारे मेरे हाथपैर ही फूल जाएं और मैं कुछ भी काम न कर सकूं,’’ कह कर अल्पना हंस दी.

2 दिन बाद नरेन मुंबई चला गया.

अगले दिन शाम को अमित दफ्तर से घर लौटा तो अल्पना सोफे पर बैठी कुछ सोच रही थी. मेनका दूसरे कमरे में थी.

अमित ने पूछा, ‘‘क्या सोच रही हो अल्पना?’’

‘‘कुछ नहीं,’’ अल्पना ने कहा.

‘‘मैं जानता हूं.’’

‘‘क्या?’’

‘‘नरेन के मुंबई जाने से तुम्हारा मन नहीं लग रहा?है.’’

‘‘ऐसी बात नहीं है. वे जिस कंपनी में काम करते हैं, वहां बाहर जाना होता रहता है.’’

‘‘जैसे साली आधी घरवाली होती है वैसे ही जीजा भी आधा घरवाला होता है. मैं हूं न. मुझ से काम नहीं चलेगा क्या?’’ अमित ने अल्पना की आंखों में झांकते हुए कहा.

‘‘अगर जीजाओं से काम चल जाता तो सालियां शादी ही क्यों करतीं?’’ कहते हुए अल्पना हंस दी. 5-6 दिन इसी तरह हंसीमजाक में बीत गए.

एक रात अमित बिस्तर पर बैठा हुआ अपने मोबाइल फोन पर टाइमपास कर रहा था. जब आंखें थकने लगीं तो वह बिस्तर पर लेट गया.

तभी अमित ने आंगन में अल्पना को बाथरूम की तरफ जाते देखा. वह मन ही मन बहुत खुश हुआ.

जब अल्पना लौटी तो अमित ने धीरे से पुकारा.

अल्पना ने कमरे में आते ही पूछा, ‘‘अभी तक आप सोए नहीं जीजाजी?’’

‘‘नींद ही नहीं आ रही है. मेनका सो गई है क्या?’’

‘‘और क्या वे भी आप की तरह करवटें बदलेंगी?’’

‘‘मुझे नींद क्यों नहीं आ रही है?’’

‘‘मन में होगा कुछ.’’

‘‘बता दूं मन की बात?’’

‘‘बताओ या रहने दो, पर अभी आप को एक महीना और करवटें बदलनी पड़ेंगी.’’

‘‘बैठो न जरा,’’ कहते हुए अमित ने अल्पना की कलाई पकड़ ली.

‘‘छोडि़ए, दीदी जाग रही हैं.’’

अमित ने घबरा कर एकदम कलाई छोड़ दी.

‘‘डर गए न? डरपोक कहीं के,’’ मुसकराते हुए अल्पना चली गई.

सुबह दफ्तर जाने से पहले अमित मेनका के पास बैठा हुआ कुछ बातें कर रहा था. मुन्ना बराबर में सो रहा था.

तभी अल्पना कमरे में आई और अमित की ओर देखते हुए बोली, ‘‘जीजाजी, आप तो बहुत बेशर्म हैं.’’

यह सुनते ही अमित के चेहरे का रंग उड़ गया. दिल की धड़कनें बढ़ गईं. वह दबी आवाज में बोला, ‘‘क्यों?’’

‘‘आप ने अभी तक मुन्ने के आने की खुशी में दावत तो क्या, मुंह भी मीठा नहीं कराया.’’

अमित ने राहत की सांस ली. वह बोला, ‘‘सौरी, आज आप की यह शिकायत भी दूर हो जाएगी.’’

शाम को अमित दफ्तर से लौटा तो उस के हाथ में मिठाई का डब्बा था. वह सीधा रसोई में पहुंचा. अल्पना सब्जी बनाने की तैयारी कर रही थी.

अमित ने डब्बा खोल कर अल्पना के सामने करते हुए कहा, ‘‘लो साली साहिबा, मुंह मीठा करो और अपनी शिकायत दूर करो.’’

मिठाई का एक टुकड़ा उठा कर खाते हुए अल्पना ने कहा, ‘‘मिठाई अच्छी है, लेकिन इस मिठाई से यह न समझ लेना कि साली की दावत हो गई है.’’

‘‘नहीं अल्पना, बिलकुल नहीं. दावत चाहे जैसी और कभी भी ले सकती हो. कहो तो आज ही चलें किसी होटल में. एक कमरा भी बुक करा लूंगा. दावत तो सारी रात चलेगी न.’’

‘‘दावत देना चाहते हो या वसूलना चाहते हो?’’ कह कर अल्पना हंस पड़ी.

अमित से कोई जवाब न बन पड़ा. वह चुपचाप देखता रह गया.

एक सुबह अमित देर तक सो रहा था. कमरे में घुसते ही अल्पना ने कहा, ‘‘उठिए साहब, 8 बज गए हैं. आज छुट्टी है क्या?’’

‘‘रात 2 बजे तक तो मुझे नींद ही नहीं आई.’’

‘‘दीदी को याद करते रहे थे क्या?’’

‘‘मेनका को नहीं तुम्हें. अल्पना, रातभर मैं तुम्हारे साथ सपने में पता नहीं कहांकहां घूमता रहा.’’

‘‘उठो… ये बातें फिर कभी कर लेना. फिर कहोगे दफ्तर जाने में देर हो रही है.’’

‘‘अच्छा यह बताओ कि नरेन की वापसी कब तक है?’’

‘‘कह रहे थे कि काम बढ़ गया है. शायद 4-5 दिन और लग जाएं. अभी कुछ पक्का नहीं है. वे कह रहे थे कि हवाईजहाज से दिल्ली तक पहुंच जाऊंगा, उस के बाद टे्रन से यहां तक आ जाऊंगा.’’

‘‘अल्पना, तुम मुझे बहुत तड़पा रही हो. मेरे गले लग कर किसी रात को यह तड़प दूर कर दो न.’’

‘‘बसबस जीजाजी, रात की बातें रात को कर लेना. अब उठो और दफ्तर जाने की तैयारी करो. मैं नाश्ता तैयार कर रही हूं,’’ अल्पना ने कहा और रसोई की ओर चली गई.

एक शाम दफ्तर से लौटते समय अमित ने नींद की गोलियां खरीद लीं. आज की रात वह किसी बहाने से मेनका को 2 गोलियां खिला देगा. अल्पना को भी पता नहीं चलने देगा. जब मेनका गहरी नींद में सो जाएगी तो वह अल्पना को अपनी बना लेगा.

अमित खुश हो कर घर पहुंचा तो देखा कि अल्पना मेनका के पास बैठी हुई थी.

‘‘अभी नरेन का फोन आया है. वह ट्रेन से आ रहा है. ट्रेन एक घंटे बाद स्टेशन पर पहुंच जाएगी. उस का मोबाइल फोन दिल्ली स्टेशन पर कहीं गिर गया. उस ने किसी और के मोबाइल फोन से यह बताया है. तुम उसे लाने स्टेशन चले जाना. वह मेन गेट के बाहर मिलेगा,’’ मेनका ने कहा.

अमित को जरा भी अच्छा नहीं लगा कि नरेन आ रहा है. आज की रात तो वह अल्पना को अपनी बनाने जा रहा था. उसे लगा कि नरेन नहीं बल्कि उस के रास्ते का पत्थर आ रहा है.

अमित ने अल्पना की ओर देखते हुए कहा, ‘‘ठीक?है, मैं नरेन को लेने स्टेशन चला जाऊंगा. वैसे, तुम्हारे मन में लड्डू फूट रहे होंगे कि इतने दिनों बाद साजन घर लौट रहे हैं.’’

‘‘यह भी कोई कहने की बात है,’’ अल्पना बोली.

‘‘पर, नरेन को कल फोन तो करना चाहिए था.’’

‘‘कह रहे थे कि अचानक पहुंच कर सरप्राइज देंगे,’’ अल्पना ने कहा.

अमित उदास मन से स्टेशन पहुंचा. नरेन को देख वह जबरदस्ती मुसकराया और मोटरसाइकिल पर बिठा कर चल दिया.

रास्ते में नरेन मुंबई की बातें बता रहा था, पर अमित केवल ‘हांहूं’ कर रहा था. उस का मूड खराब हो चुका था.

भीड़ भरे बाजार में एक शराबी बीच सड़क पर नाच रहा था. वह अमित की मोटरसाइकिल से टकराताटकराता बचा. अमित ने मोटरसाइकिल रोक दी और शराबी के साथ झगड़ने लगा.

शराबी ने अमित पर हाथ उठाना चाहा तो नरेन ने उसे एक थप्पड़ मार दिया. शराबी ने जेब से चाकू निकाला और नरेन पर वार किया. नरेन बच तो गया, पर चाकू से उस का हाथ थोड़ा जख्मी हो गया.

यह देख कर वह शराबी वहां से भाग निकला.

पास ही के एक नर्सिंग होम से मरहमपट्टी करा कर लौटते हुए अमित ने नरेन से कहा, ‘‘मेरी वजह से तुम्हें यह चोट लग गई है.’’

नरेन बोला, ‘‘कोई बात नहीं भाई साहब. मैं आप को अपना बड़ा भाई मानता हूं. मैं तो उन लोगों में से हूं जो किसी को अपना बना कर जान दे देते हैं. उन की पीठ में छुरा नहीं घोंपते.

‘‘शरीर के घाव तो भर जाते हैं भाई साहब, पर दिल के घाव हमेशा रिसते रहते हैं.’’

नरेन की यह बात सुन कर अमित सन्न रह गया. वह तो हवस की गहरी खाई में गिरने के लिए आंखें मूंदे चला जा रहा था. नरेन का हक छीनने जा रहा था. उस से धोखा करने जा रहा था. उस का मन पछतावे से भर उठा.

दोनों घर पहुंचे तो नरेन के हाथ में पट्टी देख कर मेनका व अल्पना दोनों घबरा गईं. अमित ने पूरी घटना बता दी.

कुछ देर बाद अमित रसोई में चला गया. अल्पना खाना बना रही थी.

नरेन मेनका के पास बैठा बात कर रहा था.

अमित को देखते ही अल्पना ने कहा, ‘‘जीजाजी, आप तो बातोंबातों में फिसल ही गए. क्या सारे मर्द आप की तरह होते हैं?’’

‘‘क्या मतलब…?’’

‘‘लगता है दिल हथेली पर लिए घूमते हो कि कोई मिले तो उसे दे दिया जाए. आप को तो दफ्तर में कोई भी बेवकूफ बना सकती है. हो सकता है कि कोई बना भी रही हो.

‘‘आप ने तो मेरे हंसीमजाक को कुछ और ही समझ लिया. इस रिश्ते में तो मजाक चलता है, पर इस का मतलब यह तो नहीं कि… अब आप यह बताइए कि मैं आप को जीजाजी कहूं या मजनूं?’’

‘‘अल्पना, तुम मेनका से कुछ मत कहना,’’ अमित ने कहा.

‘‘मैं किसी से कुछ नहीं कहूंगी पर आप तो बहुत डरपोक हैं,’’ कह कर अल्पना मुसकरा उठी.

अमित चुपचाप रसोईघर से बाहर निकल गया.

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वसंत आ गया- भाग 4: क्या संगीता ठीक हो पाई

आखिर जब तंग आ कर मैं ने देखना छोड़ दिया तो अचानक पौने 9 बजे दरवाजे की घंटी बज उठी. मैं ने दौड़ कर दरवाजा खोला तो सामने सदाबहार मुसकान लिए सौरभ भाई अटैची के साथ खड़े थे. वह तो वैसे ही थे, बस बदन पहले की अपेक्षा कुछ भर गया था और मूंछें भी रख ली थीं.

उन से पहली बार मिलने के कारण बच्चे नमस्ते करने के बाद कुछ सकुचाए से खड़े रहे. सौरभ भाई ने घुटनों के बल बैठते हुए अपनी बांहें पसार कर जब उन्हें करीब बुलाया तो दोनों बच्चे उन के गले लग गए.

मैं भाई को प्रणाम करने के बाद दरवाजा बंद करने ही वाली थी कि वह बोले, ‘‘अरे, क्या अपनी भाभी और भतीजे को अंदर नहीं आने दोगी?’’

मैं हक्कीबक्की सी उन का मुंह ताकने लगी क्योंकि उन्होंने भाभी और भतीजे के बारे में फोन पर कुछ कहा ही नहीं था. तभी भाभी ने अपने 7 वर्षीय बेटे के साथ कमरे में प्रवेश किया.

कुछ पलों तक तो मैं कमर से भी नीचे तक चोटी वाली सुंदर भाभी को देख ठगी सी खड़ी रह गई, फिर खुशी के अतिरेक में उन के गले लग गई.

सभी का एकदूसरे से मिलनेमिलाने का दौर खत्म होने और थोड़ी देर बातें करने के बाद भाभी नहाने चली गईं. फिर नाश्ते के बाद बच्चे खेलने में व्यस्त हो गए और आलोक तथा सौरभ भाई अपने कामकाज के बारे में एकदूसरे को बताने लगे.

थोड़ी देर उन के साथ बैठने के बाद जब मैं दोपहर के भोजन की तैयारी करने रसोई में गई तो मेरे मना करने के बावजूद संगीता भाभी काम में हाथ बंटाने आ गईं. सधे हाथों से सब्जी काटती हुई वह सिंगापुर में बिताए दिनों के बारे में बताती जा रही थीं. उन्होंने साफ शब्दों में स्वीकारा कि अगर सौरभ भाई जैसा पति और मेरी जैसी ननद उन्हें नहीं मिलती तो शायद वह कभी ठीक नहीं हो पातीं. भाभी को इस रूप में देख कर मेरा अपराधबोध स्वत: ही दूर हो गया.

दोपहर के भोजन के बाद भाभी ने कुछ देर लेटना चाहा. आलोक अपने आफिस के कुछ पेंडिंग काम निबटाने चले गए. बच्चे टीवी पर स्पाइडरमैन कार्टून फिल्म देखने में खो गए तो मुझे सौरभ भाई से एकांत में बातें करने का मौका मिल गया.

बहुतेरे सवाल मेरे मानसपटल पर उमड़घुमड़ रहे थे जिन का जवाब सिर्फ सौरभ भाई ही दे सकते थे. आराम से सोफे  पर पीठ टिका कर बैठती हुई मैं बोली, ‘‘अब मुझे सब कुछ जल्दी बताइए कि मेरी शादी के बाद क्या हुआ. मैं सब कुछ जानने को बेताब हूं,’’ मैं अपनी उत्सुकता रोक नहीं पा रही थी.

भैया ने लंबी सांस छोड़ते हुए कहना शुरू किया, ‘‘रंजू, तुम्हारी शादी के बाद कुछ भी ऐसा खास नहीं हुआ जो बताया जा सके. जो कुछ भी हुआ था तुम्हारी शादी से पहले हुआ था, परंतु आज तक मैं तुम्हें यह नहीं बता पाया कि पुरी से भुवनेश्वर तबादला मैं ने सिर्फ संगीता के लिए नहीं करवाया था, बल्कि इस की और भी वजह थी.’’

मैं आश्चर्य से उन का मुंह देखने लगी कि अब और किस रहस्य से परदा उठने वाला है. मैं ने पूछा, ‘‘और क्या वजह थी?’’

‘‘मां के बाद कमली किसी तरह सब संभाले हुए थी, परंतु उस के गुजरने के बाद तो मेरे लिए जैसे मुसीबतों के कई द्वार एकसाथ खुल गए. एक दिन संगीता ने मुझे बताया कि सौभिक ने आज जबरन मेरा चुंबन लिया. जब संगीता ने उस से कहा कि वह मुझ से कह देंगी तो माफी मांगते हुए सौभिक ने कहा कि यह बात भैया को नहीं बताना. फिर कभी वह ऐसा नहीं करेगा.

‘‘यह सुन कर मैं सन्न रह गया. मैं तो कभी सोच भी नहीं सकता था कि मेरा अपना भाई भी कभी ऐसी हरकत कर सकता है. बाबा को मैं इस बात की भनक भी नहीं लगने देना चाहता था, इसलिए 2-4 दिन की छुट्टियां ले कर दौड़धूप कर मैं ने हास्टल में सौभिक के रहने का इंतजाम कर दिया. बाबा के पूछने पर मैं ने कह दिया कि हमारे घर का माहौल सौभिक की पढ़ाई के लिए उपयुक्त नहीं है.

‘‘वह कुछ पूछे बिना ही हास्टल चला गया क्योंकि उस के मन में चोर था. रंजू, आगे क्या बताऊं, बात यहीं तक रहती तो गनीमत थी, पर वक्त भी शायद कभीकभी ऐसे मोड़ पर ला खड़ा करता है कि अपना साया भी साथ छोड़ देता नजर आता है.

‘‘मेरी तो कहते हुए जुबान लड़खड़ा रही है पर लोगों को ऐसे काम करते लाज नहीं आती. कामांध मनुष्य रिश्तों की गरिमा तक को ताक पर रख देता है. उस के सामने जायजनाजायज में कोई फर्क नहीं होता.

‘‘एक दिन आफिस से लौटा तो अपने कमरे में घुसते ही क्या देखता हूं कि संगीता घोर निद्रा में पलंग पर सोई पड़ी है क्योंकि तब उस की दवाओं में नींद की गोलियां भी हुआ करती थीं. उस के कपड़े अस्तव्यस्त थे. सलवार के एक पैर का पायंचा घुटने तक सिमट आया था और उस के अनावृत पैर को काका की उंगलियां जिस बेशरमी से सहला रही थीं वह नजारा देखना मेरे लिए असह्य था. मेरे कानों में सीटियां सी बजने लगीं और दिल बेकाबू होने लगा.

‘‘किसी तरह दिल को संयत कर मैं यह सोच कर वापस दरवाजे की ओर मुड़ गया और बाबा को आवाज देता हुआ अंदर आया जिस से हम दोनों ही शर्मिंदा होने से बच जाएं. जब मैं दोबारा अंदर गया तो बाबा संगीता को चादर ओढ़ा रहे थे, मेरी ओर देखते हुए बोले, ‘अभीअभी सोई है.’ फिर वह कमरे से बाहर निकल गए. इन हालात में तुम ही कहो, मैं कैसे वहां रह सकता था? इसीलिए भुवनेश्वर तबादला करा लिया.’’

‘‘यकीन नहीं होता कि काका ने ऐसा किया. काकी के न रहने से शायद परिस्थितियों ने उन का विवेक ही हर लिया था जो पुत्रवधू को उन्होंने गलत नजरों से देखा,’’ कह कर शायद मैं खुद को ही झूठी दिलासा देने लगी.

भाई आगे बोले, ‘‘रिश्तों का पतन मैं अपनी आंखों से देख चुका था. जब रक्षक ही भक्षक बनने पर उतारू हो जाए तो वहां रहने का सवाल ही पैदा नहीं होता. इत्तिफाकन जल्दी ही मुझे सिंगापुर में एक अच्छी नौकरी मिल गई तो मैं संगीता को ले कर हमेशा के लिए उस घर और घर के लोगों को अलविदा कह आया ताकि दुनिया के सामने रिश्तों का झूठा परदा पड़ा रहे.

‘‘जब मुझे यकीन हो गया कि दवा लेते हुए संगीता स्वस्थ और सामान्य जीवन जी सकती है तो डाक्टर की सलाह ले कर हम ने अपना परिवार आगे बढ़ाने का विचार किया. जब मुझे स्वदेश की याद सताने लगी तो इंटरनेट के जरिए मैं ने नौकरी की तलाश जारी कर दी. इत्तिफाक से मुझे मनचाही नौकरी दिल्ली में मिल गई तो मैं चला आया और सब से पहले तुम से मिला. अब और किसी से मिलने की चाह भी नहीं है,’’ कह कर सौरभ भाई चुप हो गए.

वह 2 दिन रह कर लाजपतनगर स्थित अपने नए मकान में चले गए. मैं बहुत खुश थी कि अब फिर से सौरभ भाई से मिलना होता रहेगा. मेरे दिल से

मानो एक बोझ उतर गया था क्योंकि हो न हो मेरी ही वजह से पतझड़ में

तब्दील हो गए मेरे प्रिय और आदरणीय भाई के जीवन में भी आखिर वसंत आ ही गया.

जातेजाते भाभी ने मेरे हाथ में छोटा सा एक पैकेट थमा दिया. बाद में उसे मैं ने खोला तो उस में उन की शादी के वक्त मुझे दी गई चेन और कानों की बालियों के साथ एक जोड़ी जड़ाऊ कंगन थे, जिन्हें प्यार से मैं ने चूम लिया.

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जिंदगी के रंग- भाग 2: क्या था कमला का सच

लता ने बी.एससी. बहुत अच्छे अंकों से उत्तीर्ण की. फिर वहीं से एस.एससी. बौटनी कर लिया. पढ़ाई के अलावा वह दूसरी गतिविधियों में भाग लेती थी. भाषण और वादविवाद के लिए जब वह मंच पर जाती थी तो श्रोताओं के दिलोदिमाग पर अपनी छाप छोड़ जाती थी. उस के अभिनय का तो कोई जवाब ही नहीं था, यूनिवर्सिटी में होने वाली नाटकप्रतियोगिताओं में उस ने कई बार प्रथम स्थान प्राप्त किया था. बाद में दिल्ली विश्वविद्यालय से ही लता ने एम.फिल और पीएच.डी. भी कर ली थी.

पीएच.डी. पूरी करने के बाद उस ने मुंबई विश्वविद्यालय में लेक्चरर पद के लिए आवेदन किया था. वह इंतजार कर रही थी कि कब साक्षात्कार के लिए पत्र आए, तभी एक दिन अचानक घटी एक घटना ने उसे आसमान से जमीन पर पटक दिया.

एक रात घर में सभी लोग सोए हुए थे कि अचानक कुछ लोगों ने हमला बोल दिया. उस की आंखों के सामने उन्होंने उस के मातापिता को गोलियों से भून डाला. भाई ने विरोध किया तो उसे भी गोली मार दी गई. वह इतना डर गई कि अपनी जान बचाने के लिए पलंग के नीचे छिप गई.

अपने सामने अपनी दुनिया को बरबाद होते देखती रही, बेबस लाचार सी, पर कुछ भी नहीं बोल पाई थी वह. ये लोग पिता के किसी काम का बदला लेने आए थे. पिता की पुश्तैनी लड़ाई चल रही थी. कितने ही खून हो चुके थे इस बारे में.

6 लोगों के सामने वह कर भी क्या सकती थी. पलंग के नीचे छिपी वह अपने आप को सुरक्षित अनुभव कर रही थी. पिता ने कभीकभार सुनाई भी थीं ये बातें. अत: उसे कुछ आभास सा हो गया था कि ये लोग कौन हो सकते हैं. उस के जेहन में पिता की कही बातें याद आ रही थीं.

डर का उस ने अपने को और सिकोड़ने की कोशिश की तो उन में से एक की नजर उस पर पड़ गई और उस ने पैर पकड़ कर उसे पलंग के नीचे से खींच लिया और चाकू से उस पर वार करने जा रहा था कि उस के एक साथी ने उस का हाथ पकड़ कर मारने से रोक दिया.

‘लड़की, हम क्या कर सकते हैं यह तो तू ने देख ही लिया है. इस घर का सारा कीमती सामान हम ले कर जा रहे हैं. चाहें तो तुझे भी मार सकते हैं पर तेरे बाप से बदला लेने के लिए तुझे जिंदा छोड़ रहे हैं कि तू दरदर घूम कर भीख मांगे और अपने बाप के किए पर आंसू बहाए. हमारे पास समय कम है. हम जा रहे हैं पर कल इस मकान में तेरा चेहरा देखने को न मिले. अगर दिखा तो तुझे भी तेरे बाप के पास भेज देंगे,’ इतना कह कर वे सभी अंधेरे में गुम हो गए.

अब सबकुछ शांत था. कमरे में उस के सामने खून से लथपथ उस के परिवार के लोगों की मृत देह पड़ी थी. वह चाह कर भी रो नहीं सकती थी. घड़ी पर नजर पड़ी तो रात के सवा 3 बजे थे. लता का दिमाग तेजी से चल रहा था. उस के रुकने का मतलब है पुलिस के सवालों का सामना करना. अदालत में जा कर वह अपने परिवार के कातिलों को सजा दिला पाएगी. इस में उसे संदेह था क्योंकि भ्रष्ट पुलिस जब तक कातिलों को पकड़ेगी तब तक तो वे उसे मार ही डालेंगे.

उस ने अपने सारे सर्टिफिकेट और अपनी किताबें, थीसिस, 4 जोड़ी कपड़े थैली में भर कर घर से निकलने का मन बना लिया, पापा और मम्मी ने उसे जेब खर्च के लिए जो रुपए दिए वे उस ने किताबों के बीच में रखे थे. उन पैसों का ध्यान आया तो वह कुछ आस्वस्त हुई.

किसी की हंसतीखेलती दुनिया ऐसे भी उजड़ सकती है, ऐसी तो उस ने कल्पना भी नहीं की थी. फिर भी चलने से पहले पलट कर मांबाप और भाई के बेजान शरीर को देखा तो आंखों से आंसू टपक पड़े. फिर पिता के हत्यारे की कही बातें याद आईं तो वह तेजी से निकल गई. चौराहे तक इतने सारे सामान के साथ वह भागती गई थी. उस में पता नहीं कहां से इतनी ताकत आ गई थी. शायद हत्यारों का डर ही उसे हिम्मत दे रहा था, वहां से दूर भागने की.

लता ने सोचा कि किसी रिश्तेदार के यहां जाने से तो अच्छा है, जहां नौकरी के लिए आवेदन कर रखा है वहीं चली जाती हूं. आखिर छात्र जीवन में की गई एक्ंिटग कब काम आएगी. किसी के यहां नौकरानी बन कर काम चला लूंगी. जब तक नौकरी नहीं मिलेगा, किसी धर्मशाला में रह लूंगी. मुंबई जाते समय उसे याद आया कि उस की रूम मेट सविता की मामी मुंबई में ही रहती हैं.

एक बार सविता से मिलने उस की मामी होस्टल में आई थीं तो उन से लता की भी अच्छी जानपहचान हो गई थी. उस ने योजना बनाई कि धर्मशाला में सामान रख कर पहले वह सविता की मामी के यहां जा कर बात करेगी, क्योंकि उस ने मुंबई विश्वविद्यालय के फार्म पर मुरादाबाद का पता लिखा है और वहां के पते पर इंटरव्यू लेटर जाएगा तो इस की सूचना उसे किस तरह मिलेगी.

टे्रन से उतरने के बाद लता स्टेशन से बाहर आई और कुछ ही दूरी पर एक धर्मशाला में अपने लिए कमरा ले कर थैले में से उस डायरी को निकालने लगी जिस में सविता की मामी का पता उस ने लिख रखा था. फिर उस किताब में से रुपए ढूंढ़े और सविता की मामी के घर पहुंच गई.

मामी के सामने अपनी असलियत कैसे बताती इसलिए उस ने कहा कि उस की मुंबई में नौकरी लग गई है, लेकिन स्थायी पते का चक्कर है इसलिए मैं आप के घर का पता विश्वविद्यालय में लिखा देती हूं.

वहां से लौट कर काम की तलाश करते लता को श्रीमती चतुर्वेदी ने काम पर रख लिया था. वैसे लता मुंबई में किसी प्राइवेट कालिज में कोशिश कर के नौकरी पा सकती थी, पर एक तो प्राइवेट कालिजों में तनख्वाह कम, ऊपर से किराए का मकान ले कर रहना, खाने का जुगाड़, बिजली, पानी का बिल चुकाना, यह सब उस थोड़ी सी तनख्वाह में संभव नहीं था. दूसरे, वह अभी उस घटना से इतनी भयभीत थी कि उस ने 24 घंटे की नौकरानी बन कर रहना ही अच्छा समझा.

इस तरह लता से कमला बनी वह रोज सुबह उठ कर काम में लग जाती. दिन भर काम करती हुई उस ने बीबीजी और सभी घर वालों का मन मोह लिया था. कमला के लिए अच्छी बात यह थी कि वह लोग शाम का खाना 5 बजे ही खा लेते थे, इसलिए सारा काम कर के वह 7 बजे फ्री हो जाती थी.

काम से निबट कर वह अपने छोटे से कमरे में पहुंच जाती और फिर सारी रात बैठ कर इंटरव्यू की तैयारी करती. वैसे छात्र जीवन में वह बहुत मेहनती रही थी, इसलिए पहले से ही काफी अच्छी तैयारी थी. लेकिन फिर भी मुंबई विश्वविद्यालय में प्राध्यापक के पद पर नियुक्ति पाना और वह भी बिना किसी सिफारिश के बहुत ही मुश्किल था. वह तो केवल अपनी योग्यता के बल पर ही इंटरव्यू में पास होने की तैयारी कर रही थी. आत्मविश्वास तो उस में पहले से ही काफी था. दिल्ली विश्वविद्यालय में भी उस ने कितने ही सेमिनार अटेंड किए थे. अब तो वह बस, सारे कोर्स रिवाइज कर रही थी.

श्रीमती चतुर्वेदी के घर 4 दिन उस के बहुत अच्छे गुजरे. 5वें दिन धड़कते दिल से उस ने पूछा, ‘‘आप ने क्या सोचा बीबीजी, मुझे काम पर रखना है या हटाना है?’’

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जिंदगी के रंग- भाग 3: क्या था कमला का सच

बीबीजी और घर के सभी सदस्य उस के काम से खुश तो थे ही, इसलिए मालकिन हंसते हुए बोलीं, ‘‘चल, तू भी क्या याद रखेगी कमला, तेरी नौकरी इस घर में पक्की, लेकिन एक बात पूछनी थी, तू पूरी रात लाइट क्यों जलाती है?’’

‘‘वह क्या है बीबीजी, अंधेरे में मुझे डर लगता है, नींद भी नहीं आती. बस, इसीलिए रातभर बत्ती जलानी पड़ती है,’’ बड़े भोलेपन से उस ने जवाब दिया.

कभीकभी तो लता को अपने कमला बनने पर ही बेहद आश्चर्य होता था कि कोई उसे पहचान नहीं पाया कि वह पढ़ीलिखी भी हो सकती है. एक दिन तो उस की पोल खुल ही जाती, पर जल्दी ही वह संभल गई थी.

हुआ यह कि मालकिन की छोटी बेटी, जो बी.एससी. कर रही थी, अपनी बड़ी बहन से किसी समस्या पर डिस्कस कर रही थी, तभी कमला के मुंह से उस का समाधान निकलने ही वाला था कि उसे अपने कमलाबाई होने का एहसास हो गया.

अब तो मालकिन उस से इतनी खुश थी कि दोपहर को खुद ही उस से कह देती थी कि तू दोपहर में थोड़ी देर आराम कर लिया कर.

कमला को और क्या चाहिए था. वह भी अब दोपहर को 2 घंटे अपनी स्टडी कर लेती थी. इतना ही नहीं उसे कमरे में एक सुविधा और भी हो गई थी कि रोज के पुराने अखबार ?मालकिन ने उसे ही अपने कमरे में रखने को कह दिया था. इस से वह इंटरव्यू की दृष्टि से हर रोज की खास घटनाओं के संपर्क में बनी रहने लगी थी.

श्रीमती चतुर्वेदी के यहां काम करते हुए कमला को अब 2 महीने हो गए. एक दिन बीबीजी की तबीयत अचानक अधिक खराब हो गई, लगभग बिस्तर ही पकड़ लिया था उन्होंने. उस दिन बीमार मालकिन को दिखाने के लिए घर के सभी लोग अस्पताल गए थे, तभी टेलीफोन की घंटी बजी, फोन सविता की मामी का था.

‘‘हैलो लता, तुम्हारा साक्षात्कार लेटर आ गया है, 15 दिन बाद इंटरव्यू है तुम्हारा. कहो तो इंटरव्यू लेटर वहां भिजवा दूं.’’

मामी को उस समय टालते हुए कमला ने कहा, ‘‘नहीं, मामीजी, आप भिजवाने का कष्ट न करें, मैं खुद ही आ कर ले लूंगी.’’

इंटरव्यू से 2 दिन पहले कमला ने मालकिन से बात की, ‘‘बीबीजी, परसों 15 सितंबर को मुझे छुट्टी चाहिए.’’

‘‘क्यों?’’ श्रीमती चतुर्वेदी बोलीं.

‘‘ऐसा है, बीबीजी, मेरी दूर के रिश्ते की बहन यहां रहती है, जब से आई हूं उस से मिल नहीं पाई. 15 सितंबर को उस की लड़की का जन्मदिन है, यहां हूं तो सोचती हूं कि वहां हो आऊं.’’

फिर बच्चे की तरह मचलते हुए बोली, ‘‘बीबीजी उस दिन तो आप को छुट्टी देनी ही पड़ेगी.’’

15 सितंबर के दिन एक थैला ले कर कमला चल दी. वह वहां से निकल कर उसी धर्मशाला में गई और वहां कुछ देर रुक कर कमला से लता बनी.

काटन की साड़ी पहन, जूड़ा बना कर, माथे पर छोटी सी बिंदी लगा कर, हाथ में फाइल और थीसिस ले कर जब उस ने वहां लगे शीशे में अपने को देखा तो जैसे मानो खुद ही बोल उठी, ‘वाह लता, क्या एक्ंिटग की है.’

सविता की मामी के पास से इंटरव्यू लेटर ले कर वह विश्वविद्यालय पहुंच गई. सभी प्रत्याशियों में इंटरव्यू बोर्ड को सब से अधिक लता ने प्रभावित किया था.

लौटते समय लता सविता की मामी से यह कह आई थी कि अगर उस का नियुक्तिपत्र आए तो वह फोन पर उसी को बुला कर यह खबर दें, किसी और से यह बात न कहें.

धर्मशाला में जा कर लता कपड़े बदल कर कमला बन गई और फिर मालकिन के घर जा कर काम में जुट गई थी. मन बड़ा प्रफुल्लित था उस का. अपने इंटरव्यू से वह बहुत अधिक संतुष्ट थी, इस से अच्छा इंटरव्यू हो ही नहीं सकता था उस का.

खुशी मन से जल्दीजल्दी काम करती हुई कमला से श्रीमती चतुर्वेदी ने कहा, ‘‘सच कमला, तेरे बिना अब तो इस घर का काम ही चलने वाला नहीं है. इसलिए अब जब भी तुझे अपनी बहन के यहां जाना हुआ करे तो हमें बता दिया कर, हम मिलवा कर ले आया करेंगे तुझे.’’

‘‘ठीक है, बीबीजी,’’ इतना कह कर वह काम में लग गई थी.

एक दिन सविता की मामी ने फोन पर उसे बुला कर सूचना दी कि उस का चयन हो गया है, अपना नियुक्तिपत्र आ कर उन से ले ले.

अब वह सोचने लगी कि बीमार बीबीजी से इस बारे में क्या और कैसे बात करे, क्योंकि वह नहीं चाहती थी कि नौकरी ज्वाइन करने से पहले बीबीजी को यह बात बताए. उसे डर था कहीं कोई अडं़गा न आ जाए.

वहां से जा कर ज्वाइन करने का पूरा गणित बिठाने के बाद कमला बीबीजी से बोली, ‘‘बीबीजी, आज जब मैं सब्जी लेने गई थी, तब मेरी उसी बहन की लड़की मिली थी, उस ने बताया कि उस की मां की तबीयत बहुत खराब है, इसलिए बीबीजी मुझे उस की देखभाल के लिए जाना पड़ेगा.’’

‘‘और यहां मैं जो बीमार हूं, मेरा क्या होगा? हमारी देखभाल कौन करेगा? यह सब सोचा है तू ने,’’ बीबीजी नाराज होते बोलीं, ‘‘देख, तनख्वाह तो तू यहां से ले रही है, इसलिए तेरा पहला फर्ज बनता है कि तू पहले हम सब की देखभाल करे.’’

‘‘बीबीजी, आप मेरी तनख्वाह से जितने पैसे चाहे काट लेना, मेरी देखभाल के बिना मेरी बहन मर जाएगी, हां कर दो न बीबीजी,’’ अत्यंत दीनहीन सी हो कर उस ने कहा.

कमला की दीनता को देख कर बीबीजी को तरस आ गया और उन्होंने जाने के लिए हां कर दी.

सारी औपचारिकताएं पूरी करते हुए लता ने मुंबई विश्वविद्यालय में व्याख्याता पद पर कार्यभार ग्रहण कर लिया था. उसे वहीं कैंपस में स्टाफ क्वार्टर भी मिल गया था. आज उस की खुशी का ठिकाना नहीं था. इन 5 दिन में सविता की मामी के पास ही रहने का उस ने मन बना लिया था.

जाते ही उसे एम.एससी. की क्लास पढ़ाने को मिल गई थी. क्लास में भी क्या पढ़ाया था उस ने कि सारे विद्यार्थी उस के फैन हो गए थे.

5 दिनो के बाद 3 दिन की छुट्टियों में डा. लता फिर कमलाबाई बन कर बीबीजी के घर पहुंच गई.

‘‘अरी, कमला, तू इस बीमार को छोड़ कर कहां चली गई थी. तुझे मुझ पर जरा भी तरस नहीं आया. कितना भी कर लो पर नौकर तो नौकर ही होता है, तुझे तो तनख्वाह से मतलब है, कोई अपनी बीबीजी से मोह थोड़े ही है. अगर मोह होता तो 5 दिनों में थोड़ी देर के लिए ही सही खोजखबर लेने नहीं आती क्या? अब मैं कहीं नहीं जाने दूंगी तूझे, मर जाऊंगी मैं तेरे बिना, सच कहे देती हूं मैं,’’ मालकिन बोले ही जा रही थीं.

कमला खामोश हो कर बीबीजी से सबकुछ कहने की हिम्मत जुटा रही थी. तभी शाम के समय चतुर्वेदीजी के एक मित्र घर आए. वह मुंबई विश्वविद्यालय में बौटनी विभाग के हेड थे और उस की ज्वाइनिंग उन्होंने ही ली थी. ड्राइंगरूम से ही बीबीजी ने आवाज लगाते हुए कहा, ‘‘कमला, अच्छी सी 3 कौफी तो बना कर लाना.’’

‘‘अभी लाई, बीबीजी,’’ कह कर कमला कौफी बना कर जैसे ही ड्राइंगरूम में पहुंची, डा. भार्गव को देख कर उस की समझ में नहीं आया कि वह क्या करे. लेकिन फिर भी वह अंजान ही बनी रही.

डा. भार्गव लता को देख कर चौंक कर बोले, ‘‘अरे, डा. लता, आप यहां?’’

‘‘अरे, भाई साहब, आप क्या कह रहे हैं, यह तो हमारी बाई है, कमला. बड़ी अच्छी है, पूरा घर अच्छे से संभाल रखा है इस ने.’’

‘‘नहीं भाभीजी, मेरी आंखें धोखा नहीं खा सकतीं, यह डा. लता ही हैं, जिन्होंने 5 दिन पहले मेरे विभाग में ज्वाइन किया है. डा. लता, आप ही बताइए, क्या मेरी आंखें धोखा खा रही हैं?’’

‘‘नहीं सर, आप कैसे धोखा खा सकते हैं, मैं लता ही हूं.’’

‘‘क्या…’’ घर के सभी सदस्यों के मुंह से अनायास ही एकसाथ निकल पड़ा. सभी लता के मुंह की ओर देख रहे थे.

उन के अभिप्राय को समझ कर लता बोली, ‘‘हां, बीबीजी, सर बिलकुल ठीक कह रहे हैं,’’ यह कहते हुए उस ने अपनी सारी कहानी सुनाते हुए कहा, ‘‘तो बीबीजी, यह थी मेरे जीवन की कहानी.’’

‘‘खबरदार, जो अब मुझे बीबीजी कहा. मैं बीबीजी नहीं तुम्हारी आंटी हूं, समझी.’’

‘‘डा. लता, वैसे आप अभिनय खूब कर लेती हैं, यहां एकदम नौकरानी और वहां यूनिवर्सिटी में पूरी प्रोफेसर. वाह भई वाह, कमाल कर दिया आप ने.’’

‘‘मान गई लता मैं तुम्हें, क्या एक्ंिटग की थी तुम ने, कह रही थी कि मुझे लाइट बिना नींद ही नहीं आती. लेकिन लता, सच में मुझे बहुत खुशी हो रही है…हम सभी को, कितने संघर्ष के बाद तुम इतने ऊंचे पद पर पहुंचीं. सच, तुम्हारे मातापिता धन्य हैं, जिन्होंने तुम जैसी साहसी लड़की को जन्म दिया.’’

‘‘पर बीबीजी…ओह, नहीं आंटीजी, मैं तो आप का एहसान कभी नहीं भूलूंगी, यदि आप ने मुझे शरण नहीं दी होती तो मैं कैसे इंटरव्यू की तैयारी कर पाती? मैं जहां भी रहूंगी, इस परिवार को सदैव याद रखूंगी.’’

‘‘क्या कह रही है…तू कहीं नहीं रहेगी, यहीं रहेगी तू, सुना तू ने, जहां मेरी 2 बेटियां हैं, वहीं एक बेटी और सही. अब तक तू यहां कमला बनी रही, पर अब लता बन कर हमारे साथ हमारे ही बीच रहेगी. अब तो जब तेरी डोली इस घर से उठेगी तभी तू यहां से जाएगी. तू ने जिंदगी के इतने रंग देखे हैं, बेटी उन में एक रंग यह भी सही.’’

खुशी के आंसुओं के बीच लता ने अपनी सहमति दे दी थी.

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अधिक्रमण: क्या सही था प्रिया का शक

‘‘देखो प्रिया, मैं ने तो हां कर दी,’’ सुनील ने कौफी में चीनी डाल कर चम्मच से हिलाते हुए कहा, ‘‘अब तुम्हारी हां का इंतजार है. कह दो न.’’

‘‘इस में कहना क्या है, मेरी भी हां है,’’ बिना ध्यान दिए सुनील का प्याला उठाते हुए प्रिया ने कहा, ‘‘तुम मेरी मजबूरी जानते तो हो.’’

‘‘भई वाह, पत्नी हो तो ऐसी,’’ सुनील ने हंस कर कहा, ‘‘मैडम, अभी तो आप ने मेरे प्याले पर अधिकार किया है, कल को मेरी जेब पर अधिकार जमा लेंगी और फिर मेरे समूचे जीवन पर तो होगा ही.’’

‘‘क्या मैं ने तुम्हारा प्याला उठा लिया,’’ प्रिया ने आश्चर्य से कहा, ‘‘ओह हां, पता नहीं क्या सोच रही थी.  लो, तुम्हारा प्याला वापस किया.’’

‘‘धन्यवाद,’’ सुनील मुसकराया, ‘‘तो हम तुम्हारी समस्या के बारे में सोच रहे थे.’’

‘‘अब समस्या मेरी है. कुछ मुझे ही सोचना पड़ेगा,’’ प्रिया ने गहरी सांस ले कर कहा.

‘‘बहनजी,’’ सुनील चिढ़ाने के लिए अकसर प्रिया को बहनजी कहता था, ‘‘हर समस्या का कोई न कोई समाधान अवश्य होता है.’’

‘‘तो मां का क्या करूं? पिताजी की असमय मौत के बाद वह मेरे ऊपर पूरी तरह निर्भर हैं,’’ प्रिया ने मेज पर कोहनी टिका कर कहा, ‘‘मैं उन्हें छोड़ नहीं सकती, सुनील.’’

‘‘तो मां को साथ ले आओ,’’ सुनील हंसा, ‘‘इस से बढ़ कर और दहेज क्या हो सकता है.’’

‘‘यह हंसी की बात नहीं है,’’ प्रिया ने गंभीरता से कहा, ‘‘उस घर के साथ मां की इतनी यादें जुड़ी हैं कि वह कभी भी घर छोड़ने को तैयार नहीं होंगी. दूसरी बात, अगर मां हमारे साथ रहने को तैयार हो भी गईं तो क्या तुम्हारे घर वाले इसे कभी स्वीकार करेंगे?’’

‘‘मेरे लिए तो कोई समस्या ही नहीं है,’’ सुनील ने कहा, ‘‘मातापिता तो सांसारिक दुनिया को त्याग कर ऋषिकेश के एक आश्रम में रहते हैं. एक बड़ा भाई है जो शादी कर के चेन्नई में रहने लगा है. मैं अपनी मरजी का मालिक हूं.’’

अचानक प्रिया की आंखों में चमक आ गई, ‘‘तुम मेरी मां से मिलोगे? शायद उन्हें समझा पाओ.’’

सुनील ने मुसकरा कर पूछा, ‘‘बताओ, उन्हें पटाने का कोई नुस्खा है क्या?’’

‘‘शरम करो, अपनी सास के लिए क्या कोई ऐसे कहता है,’’ प्रिया को हंसी आ गई.

‘‘तो फिर कब आना है?’’ सुनील ने पूछा.

‘‘पहले मां से बात कर लूं फिर तुम्हें बता दूंगी.’’

घंटी बजने पर जब दरवाजा खुला तो सुनील चौंक गया. प्रिया ने आज तक उसे यह नहीं बताया था कि घर में बड़ी बहन भी है. बिलकुल प्रिया की शक्ल की.

‘‘नमस्ते, दीदी,’’ सुनील ने कहा, ‘‘क्या मैं अंदर आ सकता हूं?’’

‘‘हांहां, आओ न, तुम्हारा ही तो इंतजार था,’’ मां ने मुसकरा कर कहा, ‘‘मैं प्रिया की मां हूं.’’

बिलकुल कल्पना से परे, वह एकदम चुस्तदुरुस्त और स्मार्ट लग रही थीं. सुनील ने सोचा था कि मां तो वृद्धा होती हैं. उन के चेहरे पर बुढ़ापा झलक रहा होगा. पर यहां तो सबकुछ उलटा था. मां ने आधुनिक स्टाइल के कपड़े पहने हुए थे. और उन की आंखों में हंसी नाच रही थी.

प्रिया उन के पीछे खड़ी हो शरारत से मुसकरा रही थी, ‘‘जब भी हम दोनों बाजार जाते हैं तो सब हमें बहनें ही समझते हैं. तुम भी धोखा खा गए.’’

सोफे पर बैठते हुए सुनील ने शिकायत की, ‘‘प्रिया, तुम्हें मुझे सतर्क कर देना चाहिए था.’’

‘‘तो फिर क्या करते?’’ प्रिया ने पूछा.

‘‘अरे, मांजी के लिए विदेशी परफ्यूम लाता. साथ में कोई और अच्छा सा उपहार लाता.’’

‘‘ठीक है, तुम मां से बातें करो,’’ प्रिया ने कहा, ‘‘मैं चाय बना कर लाती हूं.’’

कुछ ही देर में सुनील मां से घुलमिल गया. अपने बारे में पूरी जानकारी दी और प्रिया से शादी करने की इच्छा भी जता दी.

‘‘मुझे तो कोई आपत्ति नहीं है,’’ मां ने सहजता से कहा, ‘‘प्रिया ने तुम्हारे बारे में इतना कुछ बता दिया है कि तुम बिलकुल अजनबी नहीं लगे.’’

‘‘तो आप ने मुझे पसंद कर लिया?’’ सुनील ने द्विअर्थी संवाद का सहारा लिया.

‘‘प्रिया की पसंद मेरी पसंद,’’ मां ने भी नहले पर दहला मारा.

सुनील ने प्रिया से आते ही कहा, ‘‘मांजी तो राजी हैं.’’

मां के गले में बांहें डाल कर प्रिया ने पुलकित स्वर में कहा, ‘‘मां, तुम हमारे साथ आ कर रहोगी न?’’

‘‘तुम्हारे साथ?’’ मां ने आश्चर्य से कहा, ‘‘तुम्हारे साथ क्यों रहूंगी?’’

‘‘क्यों, सुनील ने कहा नहीं कि दहेज में मुझे मां चाहिए,’’ प्रिया ने हंसते हुए कहा.

‘‘ऐसी तो हमारे बीच कोई बात नहीं हुई,’’ मां ने कहा.

आत्मीयता से मां का हाथ अपने हाथों में लेते हुए सुनील बोला, ‘‘अरे मां, शादी के बाद आप अकेली थोड़े ही रहेंगी. आप साथ रहेंगी तो प्रिया को भी तसल्ली रहेगी.’’

‘‘साथ रहने में मुझे कोई एतराज नहीं,’’ मां ने थोड़ा हिचकिचा कर कहा, ‘‘लेकिन तुम्हारे घर में…’’

‘‘ओह मां, एक ही बात है,’’ सुनील ने समझाया, ‘‘हम तीनों एकसाथ मेरे घर में रहें या इस घर में, क्या फर्क पड़ता है?’’

तुम्हारे घर में रहना अच्छा नहीं लगेगा,’’ मां ने कहा, ‘‘लोग क्या कहेंगे?’’

थोड़ी देर की बहस के बाद सुनील ने मां को इतना राजी कर लिया कि वह शादी के बाद सुनील के घर कुछ समय रह कर देखेंगी अगर मन नहीं लगा तो सब यहां आ जाएंगे.

बिना धूमधाम के कोर्ट में शादी हो गई. सुनील का घर व कमरा मां ने खुद सजाया था. लगता था सजावट करने में उन्हें विशेष रुचि थी. घर पूरी तरह से मां ने संभाल लिया था.

एक सप्ताह बाद सुनील और प्रिया को अपनेअपने कार्यालय जाना था. प्रिया का दफ्तर सुनील के दफ्तर से अधिक दूर नहीं था. बीच में एक दक्षिण भारतीय रेस्तरां था जहां दोनों का परिचय, दोस्ती व प्रणयलीला का आरंभ हुआ था. उन के जीवन में इस रेस्तरां का विशेष स्थान था.

नाश्ता करने के बाद मां ने दोनों को अपनाअपना टिफनबाक्स पकड़ा दिया.

‘‘आप जितनी अच्छी हैं उतनी ही पाक कला में भी निपुण हैं,’’ सुनील ने टिफनबाक्स लेते हुए कहा, ‘‘मुझे अगर पहले पता होता तो शादी के मामले में इतनी देर न लगाता. यह सारी गलती आप की बेटी की है.’’

प्रिया ने झूठा गुस्सा दिखाते हुए कहा, ‘‘तुम तो शादी करने को ही राजी नहीं थे. कहते थे न कि ऐसे ही साथ क्यों नहीं रहते?’’

मां ने हंस कर कहा, ‘‘अरेअरे, लड़ो मत. जो कुछ इतने दिनों में तुम ने खोया है वह सब मैं पूरा कर दूंगी.’’

‘‘बहुत चटोरे हैं मां, इन्हें ज्यादा मुंह न लगाओ,’’ प्रिया ने इठला कर कहा, ‘‘अब चलो भी.’’

मां उन्हें जाते हुए देखती रहीं. कहां गए वे दिन जब वह इसी तरह अपने पति को विदा करती थीं. उन के जाने के बाद वह घर की सफाई में लग गईं.

दिन में 2 बार फोन कर के सुनील ने मां से बात कर ली. मां को अच्छा लगा. प्रिया को तो अकसर समय ही नहीं मिलता था और अगर फोन करती भी थी तो केवल अपने मतलब से.

मोटरसाइकिल की आवाज सुनते ही मां ने दरवाजा खोला और दोनों का हंस कर स्वागत किया.

सुनील ने देखा कि मां भी एकदम तरोताजा लग रही थीं. अच्छी साड़ी के साथ हलका सा शृंगार कर लिया था. प्रिया की ओर देखा तो वह दफ्तर से हारीथकी आई थी. बालों की लटें बिखर रही थीं. चेहरे का रंग किसी बरतन की कलई की तरह उतर रहा था.

एक दिन सुनील मां से कह बैठा, ‘‘मां, आप प्रिया को अपनी तरह स्मार्ट रहना क्यों नहीं सिखातीं?’’

प्रिया चिढ़ गई और नाराज हो कर अपने कमरे में चली गई.

थोड़ी देर तक कमरे में से सुनील और प्रिया के बीच झगड़ने की आवाजें आती रहीं.

मां ने आवाज लगाई, ‘‘अरे भई, जल्दी से बाहर आओ. मैं गरमागरम पालक की पकौडि़यां बना रही हूं. बैगन की पकौड़ी भी तो तुम्हें अच्छी लगती हैं. वह भी काट रखा है.’’

सुनील उत्साह से बाहर आया, ‘‘लो, मैं आ गया. मांजी, आप ने तो मेरी कमजोरी पकड़ ली है. वाहवाह, साथ में धनिए की चटनी भी है.’’

हाथमुंह धो कर प्रिया भी बाहर आ गई. उस का क्रोध ठंडा हो गया था लेकिन मुंह फूला हुआ था.

‘‘खाओखाओ,’’ सुनील ने कहा, ‘‘प्रिया, तुम भी मांजी के कुछ गुण सीख लो.’’

‘‘मुझे आता है. वह तो मां ही किचन में नहीं घुसने देतीं.’’

‘‘अरे, अभी बच्ची है,’’ मां ने मुसकरा कर कहा, ‘‘और जब तक मैं हूं उसे कुछ करने की जरूरत क्या है?’’

‘‘मां, मुझे क्षमा करो. मैं भूल गया था. नजरें कमजोर हो गईं लगता है,’’ सुनील ने विनोद से प्रिया को ऊपर से नीचे तक देखा और कहा, ‘‘सच ही तो, प्रिया अभी बच्ची है.’’

सुनील रोज सुबहशाम मां की प्रशंसा करते नहीं थकता था. लेकिन इस बीच परिस्थिति कुछ ऐसी हो गई कि प्रिया को अंदर से बुरा लगने लगा. फिर भी वह चुप रह कर झगड़ा अधिक न बढ़े इस की चेष्टा करती थी.

एक दिन जब प्रिया नहा कर बाथरूम से बाहर आई तो देखा सुनील मां की गोद में सिर रख कर लेटा हुआ था और मां उस के ललाट पर बाम लगा रही थीं. यह देख कर वह चकित रह गई.

इस बीच मां ने मुसकरा कर सुनील से पूछा, ‘‘कैसा लग रहा है?’’

‘‘बहुत अच्छा,’’ सुनील ने उठने की चेष्टा की.

‘‘लेटे रहो. आराम करो,’’ मां ने उठते हुए कहा, ‘‘प्रिया, एक प्याला गरम चाय बना दे. थोड़ी देर में ठीक हो जाएगा.’’

‘‘सिर में दर्द था तो मुझ से क्यों नहीं कहा?’’ प्रिया ने शिकायत की, ‘‘मां को नाहक कष्ट दिया. मां, आप ही चाय बना दो. मैं यहां बैठी हूं.’’

कुछ दिनों से प्रिया महसूस कर रही थी कि मां अब छोटेमोटे कामों के लिए उसे ही दौड़ा देती थीं जबकि पहले सारे काम खुद ही करती थीं, उसे हाथ तक नहीं लगाने देती थीं. कहीं मां से ईर्ष्या तो नहीं होने लगी उसे?

एक दिन उत्साह से सुनील ने कहा, ‘‘चलो, आज दिल्ली हाट चलते हैं. दक्षिण की हस्तकला की प्रदर्शनी है और विशेष व्यंजनों के स्टाल भी लगे हैं.’’

मां ने खुश हो कर कहा, ‘‘हांहां चलो. मेरी तो बहुत इच्छा थी ऐसी प्रदर्शनियां देखने की पर क्या करूं, अकेली जा नहीं सकती और कोई अवसर भी नहीं मिलता.’’

‘‘चलो, प्रिया, झटपट तैयार हो जाओ,’’ सुनील ने आग्रह किया.

प्रिया ने सोचा कि अगर वह नहीं जाएगी तो कोई नहीं जाएगा. इसलिए उस ने कह दिया कि मेरी तबीयत ठीक नहीं है, मैं नहीं जाऊंगी.

‘‘अरे, चल भी,’’ मां ने कहा, ‘‘बाहर चलेगी तो तबीयत ठीक हो जाएगी.’’

‘‘नहीं मां, सारे बदन में दर्द हो रहा है. मैं तो कुछ देर सोऊंगी,’’ प्रिया ने सोचा दर्द की बात सुन कर सुनील कोई गोली खिलाएगा या डाक्टर के पास चलने को कहेगा.

‘‘तो ऐसा करो,’’ सुनील ने कहा, ‘‘तुम आराम करो. मैं मां को ले जाता हूं. वैसे भी मोटरसाइकिल पर 2 ही लोग बैठ सकते हैं.’’

‘‘ठीक है, प्रिया. तू आराम कर,’’ मां ने कहा और तैयार होने चली गईं. प्रिया आश्चर्य से उन्हें देखती रह गई. मां को क्या हो गया है?

कुछ देर बाद मां और सुनील अपनेअपने कमरों से तैयार हो कर बाहर आ गए. आश्चर्य से आंखें फाड़ कर वह दोनों को देख रही थी. मां ने सुनील की दी हुई साड़ी पहन रखी थी. गले और कानों में आभूषण भी थे. लिपस्टिक व पाउडर का भी इस्तेमाल किया था. बगल में छिड़के मादक परफ्यूम से कमरा महक रहा था.

‘‘हाय, हम चलते हैं, अपना खयाल रखना,’’ सुनील ने चलते हुए कहा.

‘‘ठीक है प्रिया, फ्रिज में खिचड़ी रखी है. उसे गरम कर के जरूर खा लेना और आराम करना,’’ मां ने बिना मुड़े कहा.

उन के जाने के बाद प्रिया बहुत देर तक सूनी आंखों से छत को देखती रही और फिर जब अपने पर नियंत्रण न कर पाई तो सिसकसिसक कर रोने लगी. लगता है मां और सुनील के बीच चक्कर चल रहा है. मां कोई इतनी बूढ़ी तो हुई नहीं हैं…इस के आगे प्रिया बस, यही सोच सकी कि क्या यह उस के अधिकारों पर अधिक्रमण है? प्रिया ने सोचा, चलो, मां के व्यवहार का कोई कारण था तो सुनील को क्या हो गया? शादी उस से और प्यार मां से? नहीं, समस्या और परिस्थिति दोनों पर अंकुश लगाना पड़ेगा.

वे लौट कर आए तो बहुत खुश थे. सुनील मां का बारबार हाथ पकड़ लेता था और मां की ओर से कोई आपत्ति भी उसे नजर नहीं आई. इस खुलेआम प्रेम प्रदर्शन को देख कर उस का मन और भी दुखी हो उठा.

‘‘सच प्रिया, बहुत मजा आया. अच्छा होता तुम भी साथ चलतीं. दक्षिण भारतीय खाना तो बड़ा ही स्वादिष्ठ था,’’ सुनील ने हंस कर कहा, ‘‘चलो, फिर सही.’’

मां स्वयं विस्तार से मौजमस्ती का बखान कर रही थीं.

सब अपनीअपनी हांक रहे थे. किसी ने उस से यह तक नहीं पूछा कि उस की तबीयत कैसी है. उस ने कुछ खाया भी या नहीं. क्रोध से प्रिया अंदर ही अंदर उबल रही थी. सोचा, नहीं, यह तमाशा वह और नहीं चलने देगी.

बहुत रात हो गई थी. प्रिया मुंह ढक कर लेटी जरूर थी पर उसे नींद नहीं आ रही थी.

‘‘क्या बात है, प्रिया,’’ सुनील ने पूछा, ‘‘कोई तकलीफ है क्या?’’

‘‘हां, है,’’ प्रिया बिफर पड़ी, ‘‘मां को अपने घर जाना होगा. तुम दोनों का नाटक अब और अधिक बरदाश्त नहीं होता.’’

‘‘यह अचानक तुम्हें क्या हो गया,’’ सुनील ने पूछा. वैसे वह सब समझ रहा था. मां के प्रति वह आकर्षित तो हो गया था, लेकिन कुछ अपराधबोध भी था. इस संकट से उबरना होगा.

‘‘तुम सब समझ रहे हो, इतने मूर्ख नहीं हो,’’ प्रिया ने क्रोध से कहा, ‘‘मां को किसी भी तरह उन के घर छोड़ आओ.’’

‘‘लेकिन साथ रखने की शर्त तो तुम्हारी थी,’’ सुनील ने कहा.

‘‘वह मेरी भूल थी,’’ प्रिया ने कटुता से पूछा, ‘‘तुम मेरे साथ क्या खेल खेल रहे हो? मां को क्यों बहका रहे हो?’’

सुनील उठ कर बैठ गया, ‘‘सुनना चाहती हो तो सुनो. मैं ने मां को हमेशा मां की नजरों से ही देखा है. अगर मेरी मां यहां होतीं तो भी मैं ऐसा ही करता. अभी तक मैं ने कोई अनुचित सोच उन के प्रति मन में कायम ही नहीं की है.’’

‘‘यह तुम कह रहे हो? निर्लज्जता की भी कोई हद होती है,’’ प्रिया ने क्रोध से कहा.

‘‘मैं चाहता था कि तुम अच्छे कपड़े पहनो, ठीक शृंगार करो, स्मार्ट दिखो, लेकिन दिन पर दिन तुम लापरवाह होती गईं, मानो शादी कर ली तो जीवन का लक्ष्य पूरा हो गया. अरे, शादी के पहले भी तो तुम अच्छीखासी थीं,’’ सुनील ने कहा.

‘‘नहीं करता मेरा मन तो…’’ प्रिया का वाक्य अधूरा रह गया.

‘‘वही तो. मेरी कितनी तमन्ना थी कि साथ चलो तो नईनवेली पत्नी लगो, कोई नौकरानी नहीं,’’ सुनील ने कहा, ‘‘और इसीलिए मैं ने यह नाटक किया कि ईर्ष्या के मारे तुम सही दिखने की कोशिश करो, लेकिन तुम्हारी समझ में कुछ नहीं आया.’’

प्रिया काफी देर तक चुप रही. फिर उस ने पूछा, ‘‘सुनील, तुम सच बोल रहे हो या मुझे बेवकूफ बना रहे हो.’’

‘‘सच, एकदम सच,’’ सुनील ने प्रिया को पास खींचा. मां पानी पीने कमरे से बाहर आई थीं. बेटी और दामाद की बातें कानों में पड़ीं. सुना और चुपचाप दबेपांव अपने कमरे में चली गईं. अगले दिन बहुत स्वादिष्ठ नाश्ता परोसते हुए मां ने मुसकरा कर कहा, ‘‘यहां रहते बहुत दिन हो गए हैं. अब मुझे जाना पड़ेगा.’’

‘‘क्यों, मां?’’ प्रिया ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘अकेली कैसे रहोगी?’’

‘‘आदत तो डालनी पड़ेगी न बेटी,’’ मां ने कहा, ‘‘और फिर तुम लोग तो आतेजाते रहोगे. है न बेटे?’’ प्रिया ने सुना. आज मां ने पहली बार सुनील को बेटा कह कर संबोधन किया था.

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