कितनी रंजिश: मोनू को क्यों पाना चाहता था वह

मेरा एक मित्र था गजलों का बड़ा शौकीन. हर जुमले पर वह झट से कोई शेर पढ़ देता या मुहावरा सुनाने लगता. मुझे कई बार हैरानी भी होती थी उस की हाजिरजवाबी पर. इतना बड़ा खजाना कहां सहेज रखा है, सोच कर हैरत होती थी. कभी किसी चीज को लेने की चाह व्यक्त करता तो अकसर कहने लगता, ‘‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी हर ख्वाहिश पे दम निकले…’’

‘‘ऐसी भी क्या ख्वाहिश पाल ली है यार, हर बात पर तुम्हारा प्रवचन मुझे पसंद नहीं,’’ मैं टोकता था.

‘‘चादर अनुसार पैर पसारो, बेटा.’’

‘‘कोई ताजमहल खरीदने की बात तो की नहीं मैं ने जो लगे हो भाषण देने. यही तो कह रहा हूं न, नया मोबाइल लेना है, मेरा मोबाइल पुराना हो गया है.’’

‘‘कहां तक दौड़ोगे इस दौड़ में. मोबाइल तो आजकल सुबह खरीदो, शाम तक पुराना हो जाता है. यह तो अंधीदौड़ है जो कभी खत्म नहीं हो सकती. पूर्णविराम या अर्धविराम तो हमें ही लगाना पड़ेगा न,’’ वह बोला.

उस की हाजिरजवाबी के आगे मेरे सार तर्क समाप्त हो जाते थे. बेहद संतोषी और ठंडी प्रकृति थी उस की. एक बार मेरी उस से कुछ अनबन सी हो गई. हमारे एक तीसरे मित्र की वजह से कोई गलतबयानी हुई जिस पर मुझे बुरा लगा. उस मामले में मैं ने कोई सफाई नहीं मांगी, न ही दी. बस, चुप रहा और उसी चुप्पी ने बात बिगाड़ दी.

आज बहुत अफसोस होता है अपनी इस आदत पर. कम से कम पूछता तो सही. उस ने कई बार कोशिश भी की थी मगर मेरा ही व्यवहार अडि़यल रहा जो उसे नकारता रहा. सहसा एक हादसे में वह संसार से ही विदा हो गया और मैं रह गया हक्काबक्का. यह क्या हो गया भला. ऐसा क्या हो गया जो वह चला ही गया. चला वह गया था और नाराज था मैं. रो नहीं पा रहा था. रोना आ ही नहीं रहा था. ऐसा बोध हो रहा था जैसे उसे नहीं मुझे जाना चाहिए था. आत्मग्लानि थी जिसे मैं समझ नहीं पा रहा था. जिंदा था वह और मैं नकारता रहा. और अब जब वह नहीं है तो कहां जाऊं मैं उसे मनाने. जिस रास्ते वह चला गया उस रास्ते का नामोनिशान है ही कहां जो पीछेपीछे जाऊं और उस की बात सुन, अपनी सुना पाऊं.

आज कल में बदल गया और जो कल चला गया वह कभी नहीं आता. गया वक्त बहुत कुछ सिखा गया मुझे. उन दिनों हम जवान थे, तब इतना तजरबा नहीं होता जो उम्र बीत जाने के बाद होता है. आज बालों में सफेदी छलकने लगी है और जिंदगी ने मुझे बहुतकुछ सिखा दिया है. सब से बड़ी बात यह है कि रंजिश हमारे जीवन से बड़ी कभी नहीं हो सकती. कोई नाराजगी, कोई रंजिश तब तक है जब तक हम हैं. हमारे बाद उस की क्या औकात. हमारी जिद क्या हमारी जिंदगी से भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण है कि उसे हम जिंदगी से ऊपर समझने लगें.

मन में आया मैल इतना बलवान कभी न हो कि रिश्ते और प्यारमुहब्बत ही उस के सामने गौण हो जाएं. प्रेम था मुझे अपने मित्र से, तभी तो उस का कहा मुझे बुरा लगा था न. किस संदर्भ में उस ने कहा था, जो भी कहा था, तीसरे इंसान ने उसे क्या समझा और मुझे क्या बना कर बताया होगा, कम से कम विषय की गहराई में तो मुझे ही जाना चाहिए था न. मेरा मित्र इतना भी बचकाना, इतना नादान तो नहीं था जो मेरे विषय में इतनी हलकी बात कर जाता जिस का मुझे बेहद अफसोस हुआ था. उसी अफसोस को मैं ने नाजायज नाराजगी का जामा पहना कर इतना खींचा कि मेरा प्रिय मित्र समय से भी आगे निकल गया और मेरे सफाई लेनेदेने का मौका हाथ से निकल गया.

हमारा जीवन इतना भी सस्ता नहीं है कि इसे बेकार, बचकानी बातों पर बरबादकर दिया जाए. रंजिश हो तो भी बात करने की गुंजाइश बंद कर देने की भला क्या जरूरत है. मिलो, कुछ कहो, कुछ सुनो, बात को समाप्त करो और आगे बढ़ो. गजल सम्राट मेहंदी हसन की गाई एक गजल मेरा मित्र बहुत गाया करता था-

‘‘रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ,

तू मुझ से खफा है तो जमाने के लिए आ,

आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ…’’

छोटेछोटे अहंकार, छोटेछोटे दंभ हमें कभीकभी उस रसातल पर ला कर पटक देते हैं जहां से ऊपर आने का कोई रास्ता ही नहीं होता. अगर हमें अपनी गलती का बोध हो जाए तो इतना अवश्य हो कि किसी और को समझा सकें. जिसे स्वयं भोग कर सीखा जाए उस से अच्छा तजरबा और क्या होगा. समझदार लोग अकसर समझाते हैं, या जान कर चलो या मान कर चलो.

जीवन पहले से ही फूलों की सेज नहीं है. हर किसी के मन पर कहीं न कहीं, कोई न कोई बोझ रहता है. जरा से बच्चे की भी कोई न कोई प्यारी सी, सलोनी सी समस्या होती है जिस से वह जूझता है. नन्हे, मेरा प्यारा पोता है. बड़ा उदास सा मेरे पास आया.

‘‘आज मोनू मेरे से बोला ही नहीं,’’ रोंआसा सा हो गया नन्हे.

‘‘तो आप बुला लेते बेटा. वैसे, बात क्या हुई थी? कोई झगड़ा हो गया था क्या?’’

‘‘उस ने मेरी कौपी पर लकीरें डाल दी थीं. मेरा इरेजर भी नीचे फेंक दिया. मेरी ड्राइंगशीट भी फाड़ दी.’’

‘‘वह तुम्हारा दोस्त है न. बैस्ट फ्रैंड है तो उस ने ऐसा क्यों किया. आप ने पूछा नहीं?’’

‘‘वह कहता है उस ने नहीं किया. वह तो लंचब्रैक में क्लास में आया ही नहीं था. झूले पर था.’’

‘‘और तुम कहां थे? तब तुम उस के साथ थे न?’’

‘‘हां, मैं उस के साथ था.’’

‘‘फिर तुम क्यों कहते हो? उसी ने सब किया है. तुम्हें किस ने बताया?’’

‘‘मुझे राशि ने बताया कि उस ने देखा था मोनू को मेरा बैग खोलते हुए.’’

‘‘राशि भी तुम्हारी फ्रैंड है, तुम्हारे साथ ही बैठती है.’’

‘‘नहीं, वह पीछे बैठती है. मोनू की उस से कट्टी है न, इसलिए मोनू उस से बोलता नहीं है,’’ नन्हे ने झट जवाब दिया.

सारा माजरा समझ गया था मैं. छोटेछोटे बच्चे भी कैसीकैसी चालें चल जाते हैं.

‘‘कल सुबह जब जाओगे न, मोनू को गले से लगा लेना, सौरी कह देना. झगड़ा खत्म हो जाएगा.’’

मेरे पोते नन्हे के चेहरे पर ऐसी मुसकान चली आई जिस में एक विश्वास था, एक प्यारा सा, मीठा सा भाव.

दूसरी दोपहर स्कूल से आते ही नन्हे झट से मेरे पास चला आया. ‘‘दादू, आज मोनू मेरे साथ बोला, हम ने खाना भी साथ खाया, झूला भी झूला. थैंक्यू दादू, आप ने मेरी समस्या हल कर दी. मैं ने मोनू को गले से भी लगाया, किस भी किया,’’ नन्हे ने खुश होते हुए बताया.

सारे संसार का सुख नन्हें की आंखों में था जिन में कल उदासी छाई थी. बच्चे का छोटा सा संसार उस का स्कूल, उस का मित्र और उस की मासूम सी चाह थी कि मोनू उस से बात करे. मोनू को नन्हे खोना नहीं चाहता था, वह उदास था. आज मोनू मिल गया तो उसे लग रहा है सारी कायनात की खुशी मोनू के मिलने से उसे मिल गई. मेरे चाचा मेरे अच्छे मित्र भी थे. उन्होंने समझाया था मुझे, कभी जीवन में एकतरफा फैसला न करो. फांसी पर चढ़ने वाले को भी कानून एक बार तो बोलने का अवसर देता है न. मैं अपने पोते नन्हे जैसा मासूम होता तो शायद चाचा का कहना मान लेता. बढ़ती उम्र शीशे से मन पर मैल के साथसाथ जिद भी ले आती है. धुंधले शीशे में कुछ भी साफ नहीं दिखता. क्यों जिद पर अड़ा रहा मैं और झूठा दंभ पालता रहा. आज सोचता हूं कि क्या मिला मुझे. हर पल कलेजे में एक फांस सी धंसी रहती है, बस.

बीच राह में: भाग 2- अनिता ने अपना घर क्यों नहीं बसाया

पर डाक्टर आनंद ने कभी उस का प्रेमी बनने की कोशिश नहीं की.डाक्टर आनंद ने जब अपनी शादी की25वीं सालगिरह मनाई तब लगभग पूरे अस्पताल को अपनी कोठी पर दावत में बुलाया. वहांजब अनिता नहीं पहुंची, तो सब को बहुतहैरानी हुई.

अनिता ने अपने न आने की बात डाक्टर आनंद को पहले ही बता दी थी.‘‘तुम पार्टी में क्यों नहीं आओगी?’’ डाक्टर आनंद उस की बात सुन कर उलझन का शिकार बन गए थे.‘‘सर, मेरी और आप की दोस्ती अस्पताल के अंदर ही ठीक है. यहां आप के सब से ज्यादा नजदीक मैं ही हूं.

आप के घर में बात अलग होगी. वहां आप के ऊपर मुझ से ज्यादा अधिकार रखने वाले बहुत लोग होंगे और यह बात मेरा दिल सहन नहीं कर पाएगा,’’ अनिता ने अपने मन की बात साफसाफ बता दी.‘‘यह तो समझदारी वाली बात नहीं हुई,’’ डाक्टर आनंद ने सिर्फ इतना ही कहा औरफिर उस पर पार्टी में शामिल होने को जोरनहीं डाला.

‘‘मैं सिरफिरी लड़की हूं, इतना तो आप मेरे बारे में समझ ही लीजिए,’’ खुल कर मुसकरा रही अनिता की नजरों का सामना नहीं कर पाए थे उस शाम डाक्टर आनंद और सोच में डूबे से वार्ड का राउंड लेने निकल गए.

उन के एक मरीज योगेशजी ने अपने बेटे की शादी में डाक्टर आनंद और अनिता दोनों को बहुत जोर दे कर बुलाया था. वहां से लौटते हुए देर हो गई तो दोनों को अपने घर ले आए थे. उन के रुकने की व्यवस्था उन्होंने 2 गैस्टरूमों में करवा दी थी.

उस रात अनिता उन के कमरे में चलीआई. बोली, ‘‘मैं आज आप से दूरनहीं सोना चाहती हूं,’’ और फिर उन की छाती से जा लगी.डाक्टर आनंद कुछ पलों तक पत्थर की मूर्ति से खड़े रहे. फिर जब अनिता ने उन की आंखों में प्यार से झंका तो उन्होंने उसे अपनी बांहों के मजबूत बंधन में कैद कर लिया.डाक्टर आनंद उस की जिंदगी में आने वाले पहले पुरुष थे.

प्यार की वह रात इस का सुबूत छोड़ गई थी.‘‘आई एम वैरी हैप्पी सर कि आप को मैं वह दे पाई हूं जो दिल के करीबी को ही सौंपना चाहिए. मैं ने जो किया है वह अपनी खुशियों की खातिर किया है,’’ बाद में अनिता ने ऐसा कह कर उन्हें किसी तरह के अपराधबोध में नहीं उलझने दिया था.‘‘मुझे फिर भी बहुत अजीब सा लगरहा है,’’ डाक्टर आनंद काफी बेचैन नजर आरहे थे.‘‘आप अपने को परेशान मत कीजिए, प्लीज.’’‘‘अनिता, तुम ने मुझे अपना सब कुछ सौंप दिया है पर मैं बदले में तुम्हें कुछ नहीं दे सकता हूं… न शादी, न समाज में इज्जत… उलटा मैं तुम्हारी बदनामी का कारण…’’अनिता ने उन के मुंह पर हाथ रख उन्हें आगे नहीं बोलने दिया और खुद भावुक हो कर कहा, ‘‘आप बेकार की बातें सोच कर परेशान मत होइए… जो हुआ है उसे मैं ने चाहा है और तभी वह हुआ है.

मैं आप के साथ जुड़ कर बहुत सुखी और खुश हूं. रोज सुबह उठ कर आप के बारे में सोचती हूं तो मन जीने के उत्साह से भर जाता है. आई लव यू, सर.’’‘‘पता नहीं यह रिश्ता कब तक चलेगा,कैसे चलेगा?’’ डाक्टर आनंद ने उस का माथा चूमने के बाद अपने मन की चिंता व्यक्त की.‘‘मेरी दिली इच्छा है कि हमारा यह रिश्ता मेरी आखिरी सांस तक चले,’’

अनिता ने उन की छाती पर सिर टिकाया और संतुष्ट अंदाज में आंखें बंद कर लीं.‘‘तुम से पहले तो मेरी सांसें बंद होंगी,माई स्वीटहार्ट.’’‘‘आप 100 साल और मैं 80 साल तक जिऊंगी, जनाब और फिर हम दोनों एक ही दिन इस दुनिया से विदा लें, तो कैसा रहेगा?’’ अनिता एकाएक हंस पड़ी तो डाक्टर आनंद भी मुसकराने को मजबूर हो गए. दोनों अब महीने में 1-2 बार योगेशजी की कोठी में ही मिलते.

उन के अलावा उन दोनों के बीच बने प्रेमसंबंध का कोई और राजदार नहींथा. डाक्टर आनंद की पत्नी सीमा भी जबकभी उस से किसी पार्टी में मिलीं, हमेशा हंस कर मिलीं.‘‘मेरी पत्नी कहती है कि मैं धीरेधीरे बूढ़ा होता जा रहा हूं. वह सम?ाती है कि जब तक अंदर ताकत है, मैं उस के साथ खूब मजे कर लूं… मैं क्या बूढ़ा हो गया हूं?’’ एक रात अनिता को जी भर के प्यार करने के बाद डाक्टर आनंद ने उस से हंसते हुए पूछा.

‘‘मुझे किसी और के साथ सोने का तो अनुभव नहीं है पर जो कुछ सहेलियों से सुना है और इंटरनैट पर देखा है, उस के हिसाब से तो आप जवानों को मात कर देने वाली जवानी के मालिक हो,’’ अनिता ने उन की दिल से तारीफ की तो वे बहुत खुश हुए.

डाक्टर आनंद ने 3 बार नए अस्पतालों में काम करना शुरू किया और तीनों बार 2 महीनों के अंदरअंदर ही अनिता ने भी उन्हीं अस्पताल में नौकरी शुरू कर ली.

दिल के औपरेशन के बाद मरीज की देखभाल करने की वह विशेषज्ञा समझ जाती थी, इसलिए अस्पताल वाले उसे खुशी से रख लेते थे. सीनियर होने के साथ उसे रहने केलिए फ्लैट मिलने लगा पर डाक्टर आनंद ने एक रात भी कभी उस के फ्लैट में नहीं गुजारी.

‘‘मैं नहीं चाहता हूं कि मेरे कारण कभी कोई तुम्हारा अपमान करे… अगर कभी ऐसा हुआ तो मु?ो तुम्हारे साथ सारे संबंध तोड़ने पड़ेंगे,’’ डाक्टर आनंद की इस चेतावनी को सुनने के बाद अनिता ने उन पर फिर कभी फ्लैट में आने को दबाव नहीं बनाया.

वह उन के लिए कभीकभी खाने की मनपसंद चीज बना कर ले जाती थी. उन्हें खासकर आलू के परांठे और खीर बहुत पसंद थी.

जब भी कोई खास मौका होता तो डाक्टर आनंद के कक्ष में दोनों इन का लुत्फ उठाते.जिस इंसान को केंद्र मान कर 20 साल से अनिता का सारा जीवन घूम रहा था, उसेअचानक दिल का तेज दौरा पड़ा था. उन की कोठी से रात के 11 बजे उन्हें ऐंबुलैंस से आईसीयू में लाया गया था.

प्रैगनैंसी: भाग 2- अरुण को बड़ा सबक कब मिला

4-5 दिन बाद शिखा अपने पति अरुण को फिर हवाईअड्डे पर छोड़ने गई. इस बार वह कंपनी के कुछ अधिकारियों के साथ अकेली थी. रूपा को उस ने कालेज जाने से रोका था और कहा था कि उस के पिताजी अब की बार लंबे दौरे पर जा रहे हैं, उन को विदा करने के लिए चलना है.

पर रूपा ने स्वयं पिता से जा कर कह दिया, ‘‘पिताजी, आप तो जानते ही हैं, कालेज कितना जरूरी होता है. एक छुट्टी का मतलब है 2 दिन तक लड़कियों से नोट्स मांगते फिरो. फिर आप तो कार से उतरते ही हवाईअड्डे के सुरक्षित भाग में चले जाएंगे. इस से अच्छा है आप हमें यहीं मोटी सी पप्पी दे दो.’’

अरुणा रूपा के सामने कुछ नहीं बोल पाया. रूपा के गाल पर प्यार किया और कंधा थपथपाते हुए बस इतना ही कहा, ‘‘तुम्हारी मां अकेले थोड़ा परेशान हो जाती है, उन का खयाल. रखना मैं अब की बार डेढ़ महीने बाद आऊंगा.’’

रूपा के इस तरह के व्यवहार से अरुण भी थोड़ा हिल गया था. एक क्षण को सोचा भी कि आजकल के बच्चे कितने हृदनहीन होते जा रहे हैं. फिर पुरुष होने के नाते दृढ़ता आ गई और फिर कंपनी के अधिकारियों से बात करने लगा.

इस बार अरुण को भी दुख हो रहा था कि वह शिखा को डेढ़ महीने के लिए अकेली छोड़े जा रहा है पर कर भी क्या सकता था. काम की जिम्मेदारियों का भी जीवन में अलग हिस्सा होता है. आदमी उन में उलझता है तो घर की जिम्मेदारी छोटी लगने लगती है.

अरुण के जाने के बाद शिखा अकेली ही गाड़ी में बैठ कर घर लौट आई. ड्राइंगरूम के सोफे पर वह निढाल सी बैठ गई. उसे को लगा समय जैसे एक क्षण को ठहर गया हो. करने को कुछ काम ही नहीं है. रूपा कालेज चली गई थी.

अरुण के उन शब्दों को याद कर के कि तुम खुश रहोगी तो मुझे भी ताकत मिलेगी, वह थोड़ा संभली. बाहर छज्जे पर जा कर गहरे नीले समुद्र की तरफ देखती रही और सोचती रही कि उसे भी समुद्र की तरह सबकुछ बरदाश्त कर लेना चाहिए. एकाएक उसे समुद्र की लहरों में संगीत की ध्वनि सुनाई देने लगी. वह अरु ण की याद के सुख में खो गई…

एक दिन शिखा अपने पलंग पर लेटी हुई रूपा का इंतजार कर रही थी, 4 बज चुके थे, अकसर रूपा 4 बजे तक कालेज से वापस आ जाती थी. वैसे उस की छुट्टी तो डेढ़ बजे ही हो जाती थी, पर घर पर आतेआते 4 बज जाते थे. शिखा शाम की चाय के लिए बराबर उस का इंतजार करती थी पर उस दिन 4 कभी के बज चुके थे.

वैसे रूपा को लेने के लिए वह गाड़ी भी भेज सकती थी, पर यह रूपा को पसंद नहीं था. उस का कहना था, ‘‘हर समय मेरे पीछे ड्राइवर भागता रहे, यह मुझे पसंद नहीं.’’

शिखा हर तरफ से जैसे मजबूर हो गई थी. दरवाजे की घंटी जैसे उस के कानों में आ कर फिट हो गई थी. हर आवाज उसे दरवाजे की घंटी जैसी लगती. पर फिर वह उदास हो जाती और सोचने लगती कि पति के बिना भी औरत कितनी मजबूर हो जाती है. इस समय कुछ हो जाए तो वह क्या कर सकती है. उस का मन किसी काम में नहीं लग रहा था. छज्जे पर जा

कर वह घूमने लगी. पता नहीं क्यों समुद्र को देख कर  उस के मन में एक अजीब सा साहस आ जाता था.ऐसे घूमतेघूमते 7 बज गए. अंधेरा छाने लगा था, पर रूपा का कहीं पता नहीं था. उस का मोबाइल लगातार बिजी जा रहा था. एक बार मैसेज आया, ‘‘आई बिल वी लेट डौंट वरी लव यू.’’

शिखा नहीं चाहती थी कि नौकरों व ड्राइवर से रूपा को ढूंढ़ने के लिए कहे. उस के मन में घर की इज्जत का पूरा खयाल था. पूरे 8 बजे दरवाजे की घंटी बजीं तो शिखा भाग कर दरवाजे पर पहुंची. वैसे दरवाजा नौकर ही खोलता था, पर आज जैसे उस से रहा नहीं गया.

दरवाजा खोलते ही शिखा ने देखा कि रूपा बहुत उदास है. बिना उस से कुछ बोलेचाले अपने कमरे में चली गई. शिखा को जैसे भय ने डस लिया. किसी तरह अपने को संभाल कर वह चुपचाप रूपा के पीछेपीछे उस के कमरे में आ गई. अंदर आ कर उस ने दरवाजा बंद कर दिया. रूपा किताबें रख कर पलंग पर जा लेटी.

शिखा से नहीं रहा गया. वह उसी के पास पलंग पर बैठ गई. रूपा का उदासी भरा चेहरा देख कर उस का गुस्सा समाप्त हो गया. वह उस की पीठ पर हाथ फेरते हुए बहुत ही प्यार से बोली, ‘‘रूपा बेटी, क्या तुम्हारी तबीयत ठीक

नहीं है? मैं तो कितनी देर से तुम्हारी राह देख रही थी?’’

उत्तर में रूपा ने ठंडी और लंबी सांस ले कर कहा, ‘‘मैं बिलकुल ठीक हूं मां,’’ कह कर उस ने  अपना सिर शिखा की गोदी में रख दिया.

शिखा को एहसास हुआ कि वह रो रही है. शिखा ने उस का चेहरा अपनी तरफ करते हुए पूछा, ‘‘कुछ तो जरूर है. सचसच बताओ?’’

रूपा रोते हुए बोली, ‘‘मां, मैं तुम्हें कैसे बताऊ,’’ कह कर वह फिर रोने लगी.

शिखा के मन में शंका सी उभर आई. वह थोड़ा गुस्से से बोली, ‘‘रूपा, मैं तो पहले ही डरती थी. तू मेरा कहना मानती तो आज ऐसा नहीं होता.’’

‘‘मां, मेरे साथ क्या हुआ, यह आप कैसे जान गईं.’’

‘‘तुम्हारी शक्ल बता रही है कि तुम्हें किसी लड़के ने धोखा दिया है. है न?’’

रूपा कुछ न बोली.

शिखा को भीतर ही भीतर गुस्सा आ रहा था. वह समझ गई थी कि जरूर किसी लड़के ने पहले तो इसे खूब सब्जबाग दिखाए होंगे, विश्वास दिलाया होगा कि जीवनभर प्यार करता रहूंगा. यह भोली लड़की उस पर सबकुछ लुटा बैठी होगी. लड़का जब मन भर गया होगा तो किसी और लड़की के साथ घूमने लगा होगा. पर वह रूपा के ऊपर गुस्सा दिखा भी तो नहीं सकती थी. वह इस समय एक ऐसे मोड़ पर खड़ी है, जहां एक जरा सी गलती उस का सारा जीवन बरबाद कर सकती है.

आखिर शिखा ने झंझलाते हुए कहा, ‘‘मैं तुम्हारे पिताजी को फोन करती हूं, वही आ कर संभालेंगे.’’

रूपा ने रोते हुए कहा, ‘‘मां, मैं क्या करूं. मुझे नहीं मालूम था कि संजय मुझे इस तरह धोखा दे जाएगा.’’

संजय का नाम सुन कर शिखा बोली, ‘‘क्या यह संजय तेरे साथ पढ़ता था? तुम ने मुझे पहले तो कभी नहीं बताया?’’

‘‘मां, मैं क्या बताती. मुझे तुम से बड़ा डर लगता था,’’ रूपा की आवाज में बहुत नर्मी थी.

‘‘फिर उस ने तुम्हारे साथ क्या किया?’’

‘‘मां, मैं उसे बिलकुल अपना समझती थी. पर आज उस ने मुझ से मिलने से इनकार कर दिया. वह 2-3 दिन से ऐनी के साथ घूमने लगा है. अब मुझ से बात भी नहीं करता. तुम नहीं जानती मां, वह ऐनी को भी मेरी तरह बरबाद कर देगा. आज ऐनी ने भी मुझ से बात नहीं की.’’

‘बरबाद’ शब्द सुनते ही शिखा के शरीर में जैसे कांटे चुभने लगे. उस का मन किया कि रूपा को जोर से तमाचा मारे और कहे कि जब तुम्हें यह सब मालूम था, फिर उस के साथ तुम इतनी बढ़ी ही क्यों? पर उस के सामने घर की इज्जत का सवाल आ गया.

शिखा सोचने लगी, यदि वह चीखीचिल्लाई तो घर के सभी नौकर उस के कमरे के बाहर जमा हो जाएंगे और घर की बदनामी बाहर तक फैल जाएगी. थोड़ी देर के लिए उस ने अपनी आंखें बंद कर लीं जैसे जहर का घूंट अंदर ही अंदर पी रही हो.

शिखा ने रूपा के पिता को फोन कर के लौटने के लिए कहने का फैसला किया. जब उस ने रूपा को यह बताया तो रूपा फिर रोने लगी. कालेज में जाने के बाद वह पहली बार अपनी मां से कुछ कह नहीं पा रही थी. वह कांटे में फंसी मछली की तरह तड़प रही थी. उस ने कहा, ‘‘मां, मैं तब तक कालेज नहीं जाऊंगी… तुम पिताजी को बुला लो.’’

शिखा को थोड़ा साहस मिला. वह धीरे से उठी और बड़ी मेज पर रखे फोन को उठा लाई. अरुण को फोन किया जो दार्जिलिंग में ही गार्डन सैट करने में लगा था.

अरुण ने फोन तुरंत काट दिया. 12 बजे अरुण का फोन आया.

शिखा ने घबराते हुए कहा, ‘‘सुनो, रूपा के साथ कोई दुर्घटना हो गई है. मैं बहुत घबरा गई हूं, जल्दी चले आओ.’’

दुर्घटना का नाम सुनते ही उस का पति बोला, ‘‘शिखा, घबराना नहीं, मैं आ रहा हूं. कल सुबह बाग डीगरा से जाऊंगा. तुम उस की पूरी तरह देखभाल करना.’’

कौल करने के बाद शिखा को जैसे राहत मिल गई. वह रूपा से बोली, ‘‘अब तुम कुछ खा लो.’’

शिखा ने रूपा का खाना अपने कमरे में ही मंगा लिया था. वह नहीं चाहती थी कि कोई बात उस के नौकरों तक पहुंचे. वैसे नौकरों से उस ने कह दिया कि रूपा का साथ कार ऐक्सीडैंट हो गया है.

मां आनंदेश्वरी: भाग 1- पोस्टर देख के नलिनी हैरान क्यों हो गई

नलिनी लगभग 10 वर्षों बाद अपने ननिहाल बरेली जा रही थी. वह बहुत खुश थी. रास्ते में फरुखाबाद में लगे टैंट की नगरी को देख कर उसे अपना बचपन याद आ गया जब वह अपनी मम्मी और नानी के साथ कई बार रामनगरिया मेला घूमने आया करती थी. उसे हमेशा से मेले की भीड़भाड़ और वहां पर साधु/महात्मा लोगों का जमघट आकर्षित करता रहा है.

उन की अजीबोगरीब वेशभूषा-कहीं नागा बाबा तो कहीं मचान पर बैठा साधु, कोई बाबा एक पैर पर खड़ा रह कर तपस्या करता होता आदिआदि. वह बचपन से इन दृश्यों को देख कर रोमांचित हो उठती थी. हालांकि अब उसे यह सब ढकोसला और पाखंड लगता लेकिन वह अपने को आज भी नहीं रोक पाई थी. मेले में लगने वाले हर माल और तरहतरह के झोले देख वह अपने बचपन के दिनों में खो गई.

तभी एक साधुओं के पंडाल के बाहर एक आदमकद पोस्टर को देख कर वह चौंक पड़ी. यह चेहरा तो पहले कहीं देखादेखा सा और पहचाना सा लग रहा है. बहुत कोशिश के बाद याद कर पाने में असमर्थ हो जाने पर जिज्ञासावश वह उस पंडाल के अंदर पहुंच गई. वहां पर स्टेज पर बहुत बड़ा सा कटआउट लगा था और नाम लिखा था मां आनंदेश्वरी.

वह उलझीउलझी हुई सी एक स्टौल पर गई और चाय पी लेकिन मन उस कटआउट में ही उलझ रहा था. उस ने उस कटआउट का एक फोटो खींच लिया था. वह अपनी मामी से जरूर इस के बारे में पूछेगी, यह सोचती हुई वह बरेली पहुंच गई थी और फिर सबकुछ भूल गई. जिन गलियों में वह इक्खटदुक्खट और आइसपाइस खेल खेला करती थी, अब वहां बड़ीबड़ी अट्टालिकाएं और शोरूम खुल चुके थे.

जहां बड़ेबड़े पेड़ के नीचे से वह नीम की निबौरियां चुनती थी वहां अब सबकुछ बदल चुका था.लंबे अंतराल में सबकुछ कितना बदल चुका था. नानी के जाने के बाद बड़े मामा भरी जवानी में कैंसर जैसी बीमारी के चलते गुंजन मामी की दुनिया सूनी कर के चले गए थे.

गुंजन मामी बंगाली परिवार से थीं. स्कूल के ऐनुअल फंक्शन में स्टेज पर उन का गाना सुन कर मामा उन पर रीझ उठे थे. वे रूपरंग में भी बहुत सुंदर थीं, गोरा चंपई रंग और हिरणी जैसी चंचल आंखें.नानाजी ने बहुत कोशिश की कि इस घर में शादी न हो लेकिन मामा की जिद के आगे उन्हें हार माननी पड़ी थी. गुंजन दुलहन बन कर घर आ गई.

मामी का दुलहन रूप इतना मोहक था कि जो आता वह प्रशंसा किए बिना न रह पाता. उस दौरान पापा के बागेश्वर ट्रांसफर के कारण वह वहीं पर रह कर पढ़ रही थी, इसलिए मामा का संदेसा पहुंचाने के लिए वह कई बार उन के घर जाया करती थी.

नानाजी की निरीह जर्जर काया पलंग के एक कोने में सिमटी हुई थी. उन को इस हालत में देखना उस के लिए सदमा जैसा था. उस को देखते ही उन की आंखों के कोने से आंसू बह निकले थे. जिस नानाजी की एक आवाज पर सारा घर कांप उठता था, उन के ऐसे रूप की तो वह स्वप्न में भी कल्पना ही नहीं कर सकती थी. वह मुंह घुमा कर बरबस अपने आंसू छिपाने की कोशिश कर रही थी.

वह ठीक से संभल भी नहीं पाई थी कि शृंगारविहीन गुंजन मामी सूनी मांग और सूनेसूने माथे के साथ आ कर उस के गले से लग कर सिसक पड़ीं. वह भी अपने को नहीं रोक पाई थीं और अनायास ही अश्रुधारा बह निकली. चंद मिनटों में मामी संभल गईं और उस के लिए उस के मनपसंद आटे के गोंद और मेवे वाले लड्डू व पानी ले कर आ गईं. ‘‘वाउ, मामी, बिलकुल नानी वाला स्वाद है और वह यादों में खो गई…’’मामी रोज सिंदूर से अपनी मांग सजाती थीं. वे कहतीं कि जितनी लंबी मांग का सिंदूर उतना लंबा पति का जीवन. वह हंसा करती थी और मजाक भी बनाती थी लेकिन मामी का विश्वास… सब झूठा ही निकला. फिर खानापीना और पुरानी बातों को याद करते कब रात बीत गई, पता नहीं लगा था.

तभी मुंबई और दूसरी फोटो दिखातेदिखाते उस की उंगली उस पोस्टर की फोटो पर रुक गई थी, ‘‘मामी, इस फोटो को देखो, इस का चेहरा मुझे देखादेखा लग रहा है.’’मामी ने गौर से देखा, फिर बोलीं, ‘‘इस की फोटो तुम्हारे फोन में कैसे?’’जब उस ने मेले की बात बताई तो मामी अपने अतीत में खो गईं और बताने लगीं, ‘‘यह आनंदी है. मां ने बताया था, वह किसी स्वामीजी के साथ रहने लगी है.’’‘‘ओह, अब याद आ गया, इस को आप के घर में ही देखा था,’’ नलिनी बोली.‘‘हां, तुम सही कह रही हो.

जिन दिनों तुम अपने मामा का संदेसा ले कर आया करती थीं, यह मेरे घर पर ही रहा करती थी. लेकिन मेरे यहां इस का मन नहीं लगा था और 6 महीने में ही मेरी बूआ के यहां इलाहाबाद लौट गई थी.‘‘इस की सुंदरता ही इस के लिए अभिशाप बन गई. बदमाशों से बचाने के लिए बूआ ने इसे मेरे घर भेज दिया था. इस के काम करने के ढंग से हम सब बहुत खुश थे. यह बहुत सुंदर और सलीकेदार थी. इस के 2 नन्हे मासूम बाहर बरामदे में बैठ कर सब को टुकुरटुकुर देखते रहते और उन्हें जो दे दिया जाता, चुपचाप खा लेते. आनंदी खाना बहुत अच्छा बनाती, रोटी बहुत मुलायम बनाती और बड़े प्यार से सब को खिलाया करती थी.‘‘एक दिन मां से रोरो कर अपने ऊपर हुए अत्याचार की सारी कहानी सुना रही थी.

जब वह 12 साल की थी तभी मातापिता ने 40 वर्षीय उम्रदराज दिलीप के पल्ले उसे बांध दिया. वह मासूम कली की तरह थी, जो पूरी तरह से अभी खिल भी नहीं पाई थी. दिलीप नशे में डूबा हुआ आया और पहली रात ही नोचखसोट कर उसे लहूलुहान कर दिया था. अब तो वह उस की शक्ल देख कर ही कांप उठती. लेकिन अपना वह दर्द किस से कहती?‘‘उस की सुंदरता ही उस के जीवन के लिए विष बन गई. पति काला और अधेड़, हर घड़ी शक की आग में जलता रहता. रात में पी कर आता और पीटपीट कर लहूलुहान कर के कामांध हो कर अपनी हवस मिटाता.

वह प्रैग्नैंट हो गई थी लेकिन उस की क्रूरता बढ़ती गई थी. आनंदी सबकुछ झेलती रही थी. यह सिलसिला दोतीन साल तक चलता रहा और इस बीच वह 2 बच्चों की मां बन गई थी. लेकिन जब एक दिन दिलीप नशे में उस की 2 साल की अबोध बच्ची के साथ गलत हरकत करने की कोशिश कर रहा था, आनंदी सहन नहीं कर पाई और गुस्से में उस ने सिल का लोढ़ा उस पर फेंक कर मार दिया था.‘‘दिलीप दर्द के मारे बहुत खुंखार हो उठा था लेकिन पड़ोस की काकी सामने आ कर खड़ी हो गईं और आनंदी बच कर बच्चों को ले कर अपने मायके आ गई.

लेकिन यहां भी चैन कहां था? वह बारबार आ कर धमकाता और तमाशा करता लेकिन उस के बापू ने मार कर भगा दिया था. अम्मा 4-6 घरों में बरतनचौका करतीं, उसी से रोटी चलती. बापू रिकशा चलाया करते थे.  ‘‘अब अम्मा ने आनंदी को भी कई घरों में  झाड़ूपोंछा करने के लिए लगा दिया.

उस को शुरू से ही सजधज कर रहने का शौक था. अब जब उस के हाथ में पैसे आने लगे तो वह सस्ते वाले पाउडर, लाली, चिमटी, चूडि़यां आदि खरीद कर ले आती. सुंदर तो वह थी ही. प्रज्ञा दीदी उसे बहुत मानती थीं, उन्होंने अपनी कई सारी साडि़यां दे दी थीं आनंदी को.‘‘प्रमिला आंटी के यहां राधे दूध ले कर आता था. वह आनंदी की मुनिया के लिए दूध बिना पैसे के दे देता था.

वह हर मंगल को मंदिर में जब सुंदरकांड होता तो वह ढोलक बजाया करता था. वह भगवान की सुनी हुई कथा सुनाया करता. वह अपने गुरुजी स्वामी सच्चानंद की बहुत बातें करता रहता. उस का गला भी सुरीला था, जब वह माइक पर गाता तो आनंदी आश्चर्य से उसे देखती रह जाती. राधे उसे प्यारभरी नजरों के साथ ढेर सारा प्रसाद दे देता. राधे ने ही मुनिया का स्कूल में नाम लिखा दिया था.

जब मुनिया स्कूल ड्रैस पहन, बस्ता कंधे पर लटका कर स्कूल जाती तो आनंदी बिटिया के सुखद भविष्य के कल्पनालोक में डूब जाती.  ‘‘आनंदी भी लगभग 20 साल की जवान लड़की और राधे भी गबरू जवान, कहता, ‘मेरी बन जा, तुझे रानी बना कर रखूंगा.’ पूरी चाल में सब को उन दोनों के बीच के नैनमटक्का की बात मालूम हो गई थी. उस ने स्वामीजी से दीक्षा ले रखी थी. उन्होंने राधे को अपने आश्रम में एक कमरा दे रखा था.

वह उसी कमरे में रहा करता था. स्वामीजी उस को अपने बेटे सा मान देते थे, इसलिए उन्होंने उसे बाइक दे रखी थी. सो, वह कई बार उसे बाइक पर बैठा घुमाने के लिए ले जाया करता था.‘‘अम्मा ने उस की सब तरफ होने वाली बदनामी से परेशान हो कर जब बूआ के सामने जब रोना रोया तो उसे बरेली काम करने के लिए भेज दिया. यहां वह 6 महीने भी नहीं रुकी और फिर एक दिन आनंदी चुपचाप राधे के साथ भाग गई थी.

उसकी गली में : आखिर क्या हुआ उस दिन

Family story in hindi

नया द्वार: मनोज की मां ने कैसे बनाई बहू के दिल में जगह

एक दिन रास्ते में रेणु भाभी मिल गईं.

बड़ी उदास, दुखी लग रही थीं. मैं

ने कारण पूछा तो उबल पड़ीं. बोलीं, ‘‘क्या बताऊं तुम्हें? माताजी ने तो हमारी नाक में दम कर रखा है. गांव में पड़ी थीं अच्छीखासी. इन्हें शौक चर्राया मां की सेवा का. ले आए मेरे सिर पर मुसीबत. अब मैं भुगत रही हूं.’’

भाभी की आवाज कुछ ऊंची होती जा रही थी, कुछ क्रोध से, कुछ खीज से. रास्ते में आतेजाते लोग अजीब नजरों से हमें घूरते जा रहे थे. मैं ने धीरे से उन का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘चलो न, भाभी, पास ही किसी होटल में चाय पी लें. वहीं बातें भी हो जाएंगी.’’

भाभी मान गईं और तब मुझे उन का आधा कारण मालूम हुआ.

रेणु भाभी मेरी रिश्ते की भाभी नहीं हैं, पर उन के पति मनोज भैया और मेरे पति एक ही गांव के रहने वाले हैं. इसी कारण हम ने उन दोनों से भैयाभाभी का रिश्ता जोड़ लिया है.

मनोज भैया की मां मझली चाची के नाम से गांव में काफी मशहूर हैं. बड़ी सरल, खुशमिजाज और परोपकारी औरत हैं. गरीबी में भी हिम्मत से इकलौते बेटे को पढ़ाया. तीनों बेटियों की शादी की.

अब पिछले कुछ वर्षों से चाचा की मृत्यु के बाद, मनोज भैया उन्हें शहर लिवा लाए. कह रहे थे कि वहां मां के अकेली होने के कारण यहां उन्हें चिंता सताती रहती थी. फिर थोड़ेबहुत रुपए भी खर्चे के लिए भेजने पड़ते थे.

‘‘तभी से यह मुसीबत मेरे पल्ले पड़ी है,’’ रेणु भाभी बोलीं, ‘‘इन्हीं का खर्चा चलाने के लिए तो मैं ने भी नौकरी कर ली. कहीं इन्हें बुढ़ापे में खानेपीने, पहनने- ओढ़ने की कमी न हो. पर अब तो उन के पंख निकल आए हैं,’’

‘‘सो कैसे?’’

‘‘तुम ही घर आ कर देख लेना,’’ भाभी चिढ़ कर बोलीं, ‘‘अगर हो सके तो समझा देना उन्हें. घर को कबाड़खाना बनाने पर तुली हुई हैं. दीपक भैया को भी साथ लाएंगी तो वह शायद उन्हें समझा पाएंगे. बड़ी प्यारी लगती हैं न उन्हें मझली चाची?’’

चाय खत्म होते ही रेणु भाभी उठ खड़ी हुईं और बात को ठीक तरह से समझाए बिना ही चली गईं.

मैं ने अपने पति दीपक को रेणु भाभी के वक्तव्य से अवगत तो करा दिया था, लेकिन बच्चों की परीक्षाएं, घर के अनगिनत काम और बीचबीच में टपक पड़ने वाले मेहमानों के कारण हम लोग चाची के घर की दिशा भूल से गए.

तभी एक दिन मेरी मौसेरी बहन सुमन दोपहर को मिलने आई. उस ने एम.ए., बी.एड कर रखा था, पर दोनों बच्चे छोटे होने के कारण नौकरी नहीं कर पा रही थी. हालांकि उस के परिवार को अतिरिक्त आय की आवश्यकता थी. न गांव में अपना खुद का घर था, न यहां किराए का घर ढंग का था. 2 देवर पढ़ रहे थे. उन का खर्चा वही उठाती थी. सास बीमार थी, इसलिए पोतों की देखभाल नहीं कर सकती थी. ससुर गांव की टुकड़ा भर जमीन को संभाल कर जैसेतैसे अपना काम चलाते थे.

फिर भी सुमन की कार्यकुशलता और स्नेह भरे स्वभाव के कारण परिवार खुश रहता था. जब भी मैं उसे देखती, मेरे मन में प्यार उमड़ पड़ता. मैं प्रसन्न हो जाती.

उस दिन भी वह हंसती हुई आई. एक बड़ा सा पैकेट मेरे हाथ में थमा कर बोली, ‘‘लो, भरपेट मिठाई खाओ.’’

‘‘क्या बात है? इस परिवार नियोजन के युग में कहीं अपने बेटों के लिए बहन के आने की संभावना तो नहीं बताने आई?’’ मैं ने मजाक में पूछा.

‘‘धत दीदी, अब तो हाथ जोड़ लिए. रही बहन की बात तो तुम्हारी बेटी मेरे शरद, शिशिर की बहन ही तो है.’’

‘‘पर मिठाई बिना जाने ही खा लूं?’’

‘‘तो सुनो, पिछले 2 महीने से मैं खुद के पांवों पर खड़ी हो गई हूं. यानी कि नौ…क…री…’’ उस ने खुशी से मुझे बांहों में भर लिया. बिना मिठाई खाए ही मेरा मुंह मीठा हो गया. तभी मुझे उस के बच्चों की याद आई, ‘‘और शरद, शिशिर उन्हें कौन संभालता है? तुम कब जाती हो, कब आती हो, कहां काम करती हो?’’

‘‘अरे…दीदी, जरा रुको तो, बताती हूं,’’ उस ने मिठाई का पैकेट खोला, चाय छानी, बिस्कुट ढूंढ़ कर सजाए तब कुरसी पर आसन जमा कर बोली, ‘‘सुनो अब. नौकरी एक पब्लिक स्कूल में लगी है. तनख्वाह अच्छी है. सवेरे 9 बजे से शाम को 4 बजे तक. और बच्चे तुम्हारी मझली चाची के पास छोड़ कर निश्ंिचत हो जाती हूं.’’

‘‘क्या?’’

‘‘जी हां. मझली चाची कई बच्चों को संभालती हैं. बहुत प्यार से देखभाल करती हैं.’’

खापी कर पीछे एक खुशनुमा ताजगी में फंसे हुए प्रश्न मेरे लिए छोड़ कर सुमन चली गई. मझली चाची ऐसा क्यों कर रही थीं? रेणु भाभी क्या इसी कारण से नाराज थीं?

‘‘बात तो ठीक है,’’ शाम को दीपक ने मेरे प्रश्नों के उत्तर में कहा, ‘‘फिर भैयाभाभी दोनों कमाते हैं. मझली चाची के कारण उन्हें समाज की उठती उंगलियां सहनी पड़ती होंगी. हमें चाची को समझाना चाहिए.’’

‘‘दीपक, कभी दोपहर को बिना किसी को बताए पहुंच कर तमाशा देखेंगे और चाची को अकेले में समझाएंगे. शायद औरों के सामने उन्हें कुछ कहना ठीक नहीं होगा,’’ मैं ने सुझाव दिया.

दीपक ने एक दिन दोपहर को छुट्टी ली और तब हम अचानक मनोज भैया के घर पहुंचे.

भैयाभाभी काम पर गए हुए थे. घर में 10 बच्चे थे. मझली चाची एक प्रौढ़ा स्त्री के साथ उन की देखभाल में व्यस्त थीं. कुछ बच्चे सो रहे थे. एक को चाची बोतल से दूध पिला रही थीं. उन की प्रौढ़ा सहायिका दूसरे बच्चे के कपड़े बदल रही थी.

चाची बड़ी खुश नजर आ रही थीं. साफ कपड़े, हंसती आंखें, मुख पर संतोष तथा आत्मविश्वास की झलक. सेहत भी कुछ बेहतर ही लग रही थी.

‘‘चाचीजी, आप ने तो अच्छीखासी बालवाटिका शुरू कर दी,’’ मैं ने नमस्ते कर के कहा.

चाची हंस कर बोलीं, ‘‘अच्छा लगता है, बेटी. स्वार्थ के साथ परमार्थ भी जुटा रही हूं.’’

‘‘पर आप थक जाती होंगी?’’ दीपक ने कहा, ‘‘इतने सारे बच्चे संभालना हंसीखेल तो नहीं.’’

‘‘ठहरो, चाय पी कर फिर तुम्हारी बात का जवाब दूंगी,’’ वह सहायिका को कुछ हिदायतें दे कर रसोईघर में चली गईं, ‘‘यहीं आ जाओ, बेटे,’’ उन्होंने हम दोनों को भी बुला लिया.

‘‘देखो दीपक, अपने पोतेपोती के पीछे भी तो मैं दौड़धूप करती ही थी? तब तो कोई सहायिका भी नहीं थी,’’ चाची ने नाश्ते की चीजें निकालते हुए कहा, ‘‘अब ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की उम्र है न मेरी? इन सभी को पोतेपोतियां बना लिया है मैं ने.’’

फिर मेरी ओर मुड़ कर कहा, ‘‘तुम्हारी सुमन के भी दोनों नटखट यहीं हैं. सोए हुए हैं. दोपहर को सब को घंटा भर सुलाने की कोशिश करते हैं. शाम को 5 बजे मेरा यह दरबार बरखास्त हो जाता है. तब तक मनोज के बच्चे शुचि और राहुल भी आ जाते हैं.’’

‘‘पर चाची, आप…आप को आराम छोड़ कर इस उम्र में ये सब झमेले? क्या जरूरत थी इस की?’’

‘‘तुम से एक बात पूछूं, बेटी? तुम्हारे मांपिताजी तुम्हारे भैयाभाभी के साथ रहते हैं न? खुश हैं वह?’’

मेरी आंखों के सामने भाभी के राज में चुप्पी साधे, मुहताज से बने मेरे वृद्ध मातापिता की सूरतें घूम गईं. न कहीं जाना न आना. कपड़े भी सब की जरूरतें पूरी करने के बाद ही उन के लिए खरीदे जाते. वे दोनों 2 कोनों में बैठे रहते. किसी के रास्ते में अनजाने में कहीं रोड़ा न बन जाएं, इस की फिक्र में सदा घुलते रहते. मेरी आंखें अनायास ही नम हो आईं.

चाची ने धीरे से मेरे बाल सहलाए. ‘‘बेटी, तू दीपक को मेरी बात समझा सकेगी. मैं तेरी आंखों में तेरे मातापिता की लाचारी पढ़ सकती हूं, लेकिन जब तुझ पर किसी वयोवृद्ध का बोझ आ पड़े, तब आंखों की इस नमी को याद रखना.’’

दीपक के चेहरे पर प्रश्न था.

‘‘सुनो बेटे, पति की कमाई या मन पर जितना हक पत्नी का होता है उतना बेटे की कमाई या मन पर मां का नहीं होता. इस कारण से आत्मनिर्भर होना मेरे लिए जरूरी हो गया था. रही काम की बात तो पापड़बडि़यां, अचारमुरब्बे बनाना भी तो काम ही है, जिन्हें करते रहने पर भी करने वालों की कद्र नहीं की जाती. घर में रह कर भी अगर ये काम हम ने कर भी लिए तो कौन सा शेर मार दिया? बहू कमाएगी तो सास को यह सबकुछ तो करना ही पड़ेगा,’’ चाची ने एक गहरी सांस ली.

‘‘कब आते हैं बच्चे?’’ दीपक ने हौले से पूछा.

‘‘9 बजे से शुरू हो जाते हैं. कोई थोड़ी देर से या जल्दी भी आ जाते हैं कभीकभी. मेरी सहायिका पार्वती भी जल्दी आ जाती है. उसे भी मैं कुछ देती हूं. वह खुशी से मेरा हाथ बंटाती है.’’

‘‘और भी बच्चों के आने की गुंजाइश है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘पूछने तो आते हैं लोग, पर मैं मना कर देती हूं. इस से ज्यादा रुपयों की मुझे आवश्यकता नहीं. सेहत भी संभालनी है न?’’

चाय खत्म हो चुकी थी. सोए हुए बच्चों के जागने का समय हो रहा था. इसलिए ‘नमस्ते’ कह कर हम चलना ही चाहते थे कि चाची ने कहा, ‘‘बेटी, दीवाली के बाद मैं एक यात्रा कंपनी के साथ 15 दिन घूमने जाने की बात सोच रही हूं. अगर तुम्हारे मातापिता भी आना चाहें तो…’’

मैं चुप रही. भैयाभाभी इतने रुपए कभी खर्च न करेंगे. मैं खुद तो कमाती नहीं.

चाची को भी मनोज भैया ने कई बहानों से यात्रा के लिए कभी नहीं जाने दिया था. उन की बेटियां भी ससुराल के लोगों को पूछे बिना कोई मदद नहीं कर सकती थीं. अब चाची खुद के भरोसे पर यात्रा करने जा रही थीं.

‘‘सुनीता के मातापिता भी आप के साथ जरूर जाएंगे, चाची,’’ अचानक दीपक ने कहा, ‘‘आप कुछ दिन पहले अपने कार्यक्रम के बारे में बता दीजिएगा.’’

रेणु भाभी और मनोज भैया की नाराजगी का साहस से सामना कर के मझली चाची ने एक नया द्वार खोल लिया था अपने लिए, देखभाल की जरूरत वाले बच्चों के लिए और सुमन जैसी सुशिक्षित, जरूरतमंद माताओं के लिए.

हरेक के लिए इतना साहस, इतना धैर्य, इतनी सहनशीलता संभव तो नहीं. पर अगर यह नहीं तो दूसरा कोई दरवाजा तो खुल ही सकता है न?

जीवन बहुत बड़ा उपहार है हम सब के लिए. उसे बोझ समझ कर उठाना या उठवाना कहां तक उचित है? क्यों न अंतिम सांस तक खुशी से, सम्मान से जीने की और जिलाने की कोशिश की जाए? क्यों न किसी नए द्वार पर धीरे से दस्तक दी जाए? वह द्वार खुल भी तो सकता है.

स्मृति चक्र: रेत के घरोंदे की तरह जब सपने हुए तहसनहस

विभा ने झटके से खिड़की का परदा एक ओर सरका दिया तो सूर्य की किरणों से कमरा भर उठा.

‘‘मनु, जल्दी उठो, स्कूल जाना है न,’’ कह कर विभा ने जल्दी से रसोई में जा कर दूध गैस पर रख दिया.

मनु को जल्दीजल्दी तैयार कर के जानकी के साथ स्कूल भेज कर विभा अभी स्नानघर में घुसी ही थी कि फिर घंटी बजी. दरवाजा खोल कर देखा, सामने नवीन कुमार खड़े मुसकरा रहे थे.

‘‘नमस्कार, विभाजी, आज सुबहसुबह आप को कष्ट देने आ गया हूं,’’ कह कर नवीन कुमार ने एक कार्ड विभा के हाथ में थमा दिया, ‘‘आज हमारे बेटे की 5वीं वर्षगांठ है. आप को और मनु को जरूर आना है. अच्छा, मैं चलूं. अभी बहुत जगह कार्ड देने जाना है.’’

निमंत्रणपत्र हाथ में लिए पलभर को विभा खोई सी खड़ी रह गई. 6-7 दिन पहले ही तो मनु उस के पीछे पड़ रही थी, ‘मां, सब बच्चों की तरह आप मेरा जन्मदिन क्यों नहीं मनातीं? इस बार मनाएंगी न, मां.’

‘हां,’ गरदन हिला कर विभा ने मनु को झूठी दिलासा दे कर बहला दिया था.

जल्दीजल्दी तैयार हो विभा दफ्तर जाने लगी तो जानकी से कह गई कि रात को सब्जी आदि न बनाए, क्योंकि मांबेटी दोनों को नवीन कुमार के घर दावत पर जाना था.

घर से दफ्तर तक का बस का सफर रोज ही विभा को उबा देता था, किंतु उस दिन तो जैसे नवीन कुमार का निमंत्रणपत्र बीते दिनों की मीठी स्मृतियों का तानाबाना सा बुन रहा था.

मनु जब 2 साल की हुई थी, एक दिन नाश्ते की मेज पर नितिन ने विभा से कहा था, ‘विभा, जब अगले साल हम मनु की सालगिरह मनाएंगे तो सारे व्यंजन तुम अपने हाथों से बनाना. कितना स्वादिष्ठ खाना बनाती हो, मैं तो खाखा कर मोटा होता जा रहा हूं. बनाओगी न, वादा करो.’

नितिन और विभा का ब्याह हुए 4 साल हो चुके थे. शादी के 2 साल बाद मनु का जन्म हुआ था. पतिपत्नी के संबंध बहुत ही मधुर थे. नितिन का काम ऐसी जगह था जहां लड़कियां ज्यादा, लड़के कम थे. वह प्रसाधन सामग्री बनाने वाली कंपनी में सहायक प्रबंधक था. नितिन जैसे खूबसूरत व्यक्ति के लिए लड़कियों का घेरा मामूली बात थी, पर उस ने अपना पारिवारिक जीवन सुखमय बनाने के लिए अपने चारों ओर विभा के ही अस्तित्व का कवच पहन रखा था. विभा जैसी गुणवान, समझदार और सुंदर पत्नी पा कर नितिन बहुत प्रसन्न था.

विलेपार्ले के फ्लैट में रहते नितिन को 6 महीने ही हुए थे. मनु ढाई साल की हो गई थी. उन्हीं दिनों उन के बगल वाले फ्लैट में कोई कुलदीप राज व सामने वाले फ्लैट में नवीन कुमार के परिवार आ कर रहने लगे थे. दोनों परिवारों में जमीन- आसमान का अंतर था. जहां नवीन कुमार दंपती नित्य मनु को प्यार से अपने घर ले जा कर उसे कभी टौफी, चाकलेट व खिलौने देते, वहीं कुलदीप राज और उन की पत्नी मनु के द्वारा छुई गई उन की मनीप्लांट की पत्ती के टूट जाने का रोना भी कम से कम 2 दिन तक रोते रहते.

एक दिन नवीन कुमार के परिवार के साथ नितिन, विभा और मनु पिकनिक मनाने जुहू गए थे. वहां नवीन का पुत्र सौमित्र व मनु रेत के घर बना रहे थे.

अचानक नितिन बोला, ‘विभा, क्यों न हम अपनी मनु की शादी सौमित्र से तय कर दें. पहले जमाने में भी मांबाप बच्चों की शादी बचपन में ही तय कर देते थे.’

नितिन की बात सुन कर सभी खिलखिला कर हंस पड़े तो नितिन एकाएक उदास हो गया. उदासी का कारण पूछने पर वह बोला, ‘जानती हो विभा, एक ज्योतिषी ने मेरी उम्र सिर्फ 30 साल बताई है.’

विभा ने झट अपना हाथ नितिन के होंठों पर रख उसे चुप कर दिया था और झरझर आंसू की लडि़यां बिखेर कर कह उठी थी, ‘ठीक है, अगर तुम कहते हो तो सौमित्र से ही मनु का ब्याह करेंगे, पर कन्यादान हम दोनों एकसाथ करेंगे, मैं अकेली नहीं. वादा करो.’

बस रुकी तो विभा जैसे किसी गहरी तंद्रा से जाग उठी, दफ्तर आ गया था.

लौटते समय बस का इंतजार करना विभा ने व्यर्थ समझा. धीरेधीरे पैदल ही चलती हुई घंटाघर के चौराहे को पार करने लगी, जहां कभी वह और नितिन अकसर पार्क की बेंच पर बैठ अपनी शामें गुजारते थे.

सभी कुछ वैसा ही था. न पार्क बदला था और न वह पत्थर की लाल बेंच. विभा समझ नहीं पा रही थी कि उस दिन उसे क्या हो रहा था. जहां उसे घर जाने की जल्दी रहती थी, वहीं वह जानबूझ कर विलंब कर रही थी. यों तो वह इन यादों को जीतोड़ कोशिशों के बाद किसी कुनैन की गोली के समान ही सटक कर अपनेआप को संयमित कर चुकी थी.

हालांकि वह तूफान उस के दांपत्य जीवन में आया था, तब वह अपनेआप को बहुत ही कमजोर व मानसिक रूप से असंतुलित महसूस करती थी और सोचती थी कि शायद ही वह अधिक दिनों तक जी पाएगी, पर 3 साल कैसे निकल गए, कभी पीछे मुड़ कर विभा देखती तो सिर्फ मनु ही उसे अंधेरे में रोशनी की एक किरण नजर आती, जिस के सहारे वह अपनी जिंदगी के दिन काट रही थी.

उस दिन की घटना इतना भयानक रूप ले लेगी, विभा और नितिन दोनों ने कभी ऐसी कल्पना भी नहीं की थी.

एक दिन विभा के दफ्तर से लौटते ही एक बेहद खूबसूरत तितलीनुमा लड़की उन के घर आई थी, ‘‘आप ही नितिन कुमार की पत्नी हैं?’’

‘‘जी, हां. कहिए, आप को पहचाना नहीं मैं ने,’’ विभा असमंजस की स्थिति में थी.

उस आधुनिका ने पर्स में से सिगरेट निकाल कर सुलगा ली थी. विभा कुछ पूछती उस से पहले ही उस ने अपनी कहानी शुरू कर दी, ‘‘देखिए, मेरा नाम शुभ्रा है. मैं दिल्ली में नितिन के साथ ही कालिज में पढ़ती थी. हम दोनों एकदूसरे को बेहद चाहते थे. अचानक नितिन को नौकरी मिल गई. वह मुंबई चला आया और मैं, जो उस के बच्चे की मां बनने वाली थी, तड़पती रह गई. उस के बाद मातापिता ने मुझे घर से निकाल दिया. फिर वही हुआ जो एक अकेली लड़की का इस वहशी दुनिया में होता है. न जाने कितने मर्दों के हाथों का मैं खिलौना बनी.’’

विभा को तो मानो सांप सूंघ गया था. आंखों के आगे अंधेरा सा छा गया था. उस ने झट फ्रिज से बोतल निकाल कर पानी पिया और अपने ऊपर नियंत्रण रखते हुए अंदर से किवाड़ की चटखनी चढ़ा कर उस लड़की से पूछा, ‘‘तुम ने अभी- अभी कहा है कि तुम नितिन के बच्चे की मां बनने वाली थीं…’’

‘‘मेरा बेटा…नहीं, नितिन का बेटा कहूं तो ज्यादा ठीक होगा, वह छात्रावास में पढ़ रहा है,’’ युवती ने विभा की आंखों में झांकते हुए कहा.

‘‘तुम अब क्या चाहती हो? मेरे विचार से बेहतर यही होगा कि तुम फौरन  यहां से चली जाओ. नितिन तुम्हें भूल चुका होगा और शायद तुम से अब बात भी करना पसंद नहीं करेगा. तुम्हें पैसा चाहिए? मैं अभी चेक काट देती हूं, पर यहां से जल्दी चली जाओ और फिर कभी इधर न आना?’’ विभा ने 10 हजार रुपए का चेक काट कर उसे थमा दिया.

‘‘इतनी आसानी से चली जाऊं. कितनी मुश्किल से तो अपने एक पुराने साथी से पैसे मांग कर यहां तक पहुंची हूं और फिर नितिन से मुझे अपने 6 साल का हिसाब चुकाना है,’’ युवती ने व्यंग्य- पूर्वक मुसकराते हुए कहा.

थोड़ी देर बाद घंटी बजी. विभा ने दौड़ कर दरवाजा खोला. नितिन ने अंदर कदम रखते हुए कहा, ‘‘शुभ्रा, तुम…तुम यहां कैसे?’’

विभा की तो रहीसही शंका भी मिट चुकी थी. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे और क्या न करे. युवती ने अपनी कहानी एक बार फिर नितिन के सामने दोहरा दी थी.

विभा के अंदर जो घृणा नितिन के प्रति जागी थी, उस ने भयंकर रूप ले लिया था. नितिन बारबार उसे समझा रहा था, ‘‘विभा, यह लड़की शुरू से आवारा है. मेरा इस से कभी कोई संबंध नहीं था. हर पुराने सहपाठी या मित्र को यह ऐसे ही ठगती है. विभा, नासमझ न बनो. यह नाटक कर रही है.’’

पर विभा ने तो अपना सूटकेस तैयार करने में पलभर की भी देरी नहीं की थी. वह नितिन का घर छोड़ कर चली गई. कोशिश कर के नवीन कुमार के दफ्तर में उसे नौकरी भी मिल गई. कुछ समय मनु के साथ एक छोटे से कमरे में गुजार कर बाद में विभा ने फ्लैट किराए पर ले लिया था.

घर छोड़ने के 5-6 माह बाद ही विभा को पता चला कि वह लड़की धोखेबाज थी. उस ने डराधमका कर नितिन से बहुत सा रुपया ऐंठ लिया था. उस हादसे से वह एक तरह से अपना मानसिक संतुलन ही खो बैठा था. चाह कर भी विभा फिर नितिन से मिलने न जा सकी.

नवीन कुमार के बेटे के जन्मदिन की पार्टी में विभा नहीं गई. जब विभा घर पहुंची तो मनु सो चुकी थी. विभा कपड़े बदल कर निढाल सी पलंग पर जा लेटी. उस दिन न जाने क्यों उसे नितिन की बेहद याद आ रही थी.

रात के 11 बजे कच्ची नींद में विभा को जोरजोर से किवाड़ पर दस्तक सुनाई दी. स्वयं को अकेली जान यों ही एक बार तो वह घबरा उठी. फिर हिम्मत जुटा कर उस ने पूछा, ‘‘कौन है?’’

बाहर से कुलदीप राज की आवाज पहचान उस ने द्वार खोला. पुलिस की वर्दी में एक सिपाही को देख एकाएक उस के पैरों के नीचे से जमीन ही निकल गई.

‘‘आप ही विभा हैं?’’ सिपाही ने पूछा.

‘‘ज…ज…जी, कहिए.’’

‘‘आप के पति का एक्सीडेंट हो गया है. नशे की हालत में एक टैक्सी से टकरा गए हैं. उन की जेब में मिले कागजों व आप के पते तथा फोटो से हम यहां तक पहुंचे हैं. आप तुरंत हमारे साथ चलिए.’’

‘‘कैसे हैं वह?’’

‘‘घबराएं नहीं, खतरे की कोई बात नहीं है,’’ सिपाही ने सांत्वना भरे स्वर में कहा.

विभा का शरीर कांप रहा था. हृदय की धड़कन बेकाबू सी हो गई थी. एक पल में ही विभा सारी पिछली बातें भूल कर तुरंत मनु को पड़ोसियों को सौंप कर अस्पताल पहुंची.

नितिन गहरी बेहोशी में था. काफी चोट आई थी. डाक्टर के आते ही विभा पागलों की भांति उसे झकझोर उठी, ‘‘डाक्टर साहब, कैसे हैं मेरे पति? ठीक तो हो जाएंगे न…’’

डाक्टर ने विभा को तसल्ली दी, ‘‘खतरे की कोई बात नहीं है. 2-3 जगह चोटें आई हैं, खून काफी बह गया है. लेकिन आप चिंता न करें. 4-5 दिन में इन्हें घर ले जाइएगा.’’

विभा के मन को एक सुखद शांति मिली थी कि उस के नितिन का जीवन खतरे से बाहर है.

5वें दिन विभा नितिन को ले कर घर आ गई थी. अस्पताल में दोनों के बीच जो मूक वार्त्तालाप हुआ था, उस में सारे गिलेशिकवे आंसुओं की नदी बन कर बह गए थे.

बचपन में विभा के स्कूल की एक सहेली हमेशा उस से कहती थी, ‘विभा, एक बार कुट्टी कर के जब दोबारा दोस्ती होती है तो प्यार और भी गहरा हो जाता है.’ उस दिन विभा को यह बात सत्य महसूस हो रही थी.

नितिन ने विभा से फिर कभी शराब न पीने का वादा किया था और उन की गृहस्थी को फिर एक नई जिंदगी मिल गई थी.

इतने वर्ष कैसे बीत गए, पता ही नहीं चला था. उस दिन विभा की बेटी मनु की शादी हो रही थी.

‘‘नितिन, वह ज्योतिषी कितना ढोंगी था, जिस ने तुम्हें फुजूल मरनेजीने की बात बता कर वहम में डाला था. चलो, मनु का कन्यादान करने का समय हो रहा है,’’ विभा ने मुसकराते हुए कहा.

विदाई के समय विभा ने मनु को सीख दी थी, ‘‘मनु, कभी मेरी तरह तुम भी निराधार शक की शिकार न होना, वरना हंसतीखेलती जिंदगी रेगिस्तान के तपते वीराने में बदल जाएगी.’’

आईना: क्यों सुंदर सहगल को मंजूर नहीं था बेटी का चुना रास्ता

मस्ती में कंधे पर कालिज बैग लटकाए सुरुचि कान में मोबाइल का ईयरफोन लगा कर एफएम पर गाने सुनती हुई मेट्रो से उतरी. स्वचालित सीढि़यों से नीचे आ कर उस ने इधरउधर देखा पर सुकेश कहीं नजर नहीं आया. अपने बालों में हाथ फेरती सुरुचि मन ही मन सोचने लगी कि सुकेश कभी भी टाइम पर नहीं पहुंचता है. हमेशा इंतजार करवाता है. आज फिर लेट.

गुस्से से भरी सुरुचि ने फोन मिला कर अपना सारा गुस्सा सुकेश पर उतार दिया. बेचारा सुकेश जवाब भी नहीं दे सका. बस, इतना कह पाया, ‘‘टै्रफिक में फंस गया हूं.’’

सुरुचि फोन पर ही सुकेश को एक छोटा बालक समझ कर डांटती रही और बेचारा सुकेश चुपचाप डांट सुनता रहा. उस की हिम्मत नहीं हुई कि फोन काट दे. 3-4 मिनट बाद उस की कार ने सुरुचि के पास आ कर हलका सा हार्न बजाया. गरदन झटक कर सुरुचि ने कार का दरवाजा खोला और उस में बैठ गई, लेकिन उस का गुस्सा शांत नहीं हुआ.

‘‘जल्दी नहीं आ सकते थे. जानते हो, अकेली खूबसूरत जवान लड़की सड़क के किनारे किसी का इंतजार कर रही हो तो आतेजाते लोग कैसे घूर कर देखते हैं. कितना अजीब लगता है, लेकिन तुम्हें क्या, लड़के हो, रास्ते में कहीं अटक गए होगे किसी खूबसूरत कन्या को देखने के लिए.’’

‘‘अरे बाबा, शांत हो कर मेरी बात सुनो. दिल्ली शहर के टै्रफिक का हाल तो तुम्हें मालूम है, कहीं भी भीड़ में फंस सकते हैं.’’

‘‘टै्रफिक का बहाना मत बनाओ, मैं भी दिल्ली में रहती हूं.’’

‘‘तुम तो मेट्रो में आ गईं, टै्रफिक का पता ही नहीं चला, लेकिन मैं तो सड़क पर कार चला रहा था.’’

‘‘बहाने मत बनाओ, सब जानती हूं तुम लड़कों को. कहीं कोई लड़की देखी नहीं कि रुक गए, घूरने या छेड़ने के लिए.’’

‘‘तुम इतना विश्वास के साथ कैसे कह सकती हो?’’

‘‘विश्वास तो पूरा है पर फुरसत में बताऊंगी कि कैसे मुझे पक्का यकीन है…’’

‘‘तो अभी बता दो, फुरसत में…’’

‘‘इस समय तो तुम कार की रफ्तार बढ़ाओ, मैं शुरू से फिल्म देखना चाहती हूं. देर से पहुंचे तो मजा नहीं आएगा.’’

सिनेमाहाल के अंधेरे में सुरुचि फिल्म देखने में मस्त थी, तभी उसे लगा कि सुकेश के हाथ उस के बदन पर रेंग रहे हैं. उस ने फौरन उस के हाथ को झटक दिया और अंधेरे में घूर कर देखा. फिर बोली, ‘‘सुकेश, चुपचाप फिल्म देखो, याद है न मैं ने कार में क्या कहा था, एकदम सच कहा था, जीताजागता उदाहरण तुम ने खुद ही दे दिया. जब तक मैं न कहूं, अपनी सीमा में रहो वरना कराटे का एक हाथ यदि भूले से भी लग गया तो फिर मेरे से यह मत कहना कि बौयफें्रड पर ही प्रैक्टिस.’’

यह सुन कर बेचारा सुकेश अपनी सीट पर सिमट गया और सोचने लगा कि किस घड़ी में कराटे चैंपियन लड़की पर दिल दे बैठा. फिल्म समाप्त होने पर सुकेश कुछ अलगअलग सा चलने लगा तो सुरुचि ने उस का हाथ पकड़ा और बोली, ‘‘इस तरह छिटक के कहां जा रहे हो, भूख लगी है, रेस्तरां में चल कर खाना खाते हैं,’’ और दोनों पास के रेस्तरां में खाना खाने चले गए.

कोने की एक सीट पर बैठे सुकेश व सुरुचि बातें करने व खाने में मस्त थे. तभी शहर के मशहूर व्यापारी सुंदर सहगल भी उसी रेस्तरां में अपने कुछ मित्रों के साथ आए और एक मेज पर बैठ कर बिजनेस की बातें करने लगे. आज के भागदौड़ के समय में घर के सदस्य भी एकदूसरे के लिए एक पल का समय नहीं निकाल पाते हैं, सुरुचि के पिता सुंदर सहगल भी इसी का एक उदाहरण हैं. आज बापबेटी आमनेसामने की मेज पर बैठे थे फिर भी एकदूसरे को नहीं देख सके.

लगभग 1 घंटे तक रेस्तरां में बैठे रहने के बाद पहले सुरुचि जाने के लिए उठी. वह सुंदर की टेबल के पास से गुजरी और उस का पर्स टेबल के कोने से अटक गया. जल्दी से पर्स छुड़ाया और ‘सौरी अंकल’ कह कर सुकेश के हाथ में हाथ डाले निकल गई. उसे इस बात का एहसास ही नहीं हुआ कि वह टेबल पर बैठे अंकल और कोई नहीं उस के पिता सुंदर सहगल थे.

लेकिन पिता ने देख लिया कि वह उस की बेटी है. अपने को नियंत्रण में रख कर वह बिजनेस डील पर बातें करते रहे. उन्होंने यह जाहिर नहीं होने दिया कि वह उन की बेटी थी. रेस्तरां से निकल कर सुंदर सीधे घर पहुंचे. उन की पत्नी सोनिया कहीं बाहर जाने की तैयारी कर रही थीं. मेकअप करते हुए सोनिया ने पति से पूछा, ‘‘क्या बात है, दोपहर में कैसे आना हुआ, तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘हां, ठीक है.’’

‘‘तबीयत ठीक है तो इतनी जल्दी? कुछ बात तो है…आप का घर लौटने का समय रात 11 बजे के बाद ही होता है. आज क्या बात है?’’

‘‘कहां जा रही हो?’’

‘‘किटी पार्टी में और कहां जा सकती हूं. एक सफल बिजनेसमैन की बीवी और क्या कर सकती है.’’

‘‘किटी पार्टी के चक्कर कम करो और घर की तरफ ध्यान देना शुरू करो.’’

‘‘आप तो हमेशा व्यापार में डूबे रहते हैं. यह अचानक घर की तरफ ध्यान कहां से आ गया?’’

‘‘अब समय आ गया है कि तुम सुरुचि की ओर ध्यान देना शुरू कर दो. आज उस ने वह काम किया है जिस की मैं कल्पना नहीं कर सकता था.’’

‘‘मैं समझी नहीं, उस ने कौन सा ऐसा काम कर दिया…खुल कर बताइए.’’

‘‘क्या बताऊं, कहां से बात शुरू करूं, मुझे तो बताते हुए भी शर्म आ रही है.’’

‘‘मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है कि आप क्या बताना चाहते हैं?’’ सोनिया, जो अब तक मेकअप में व्यस्त थी, पति की तरफ पलट कर उत्सुकतावश देखने लगी.

‘‘सोनिया, तुम्हारी बेटी के रंगढंग आजकल सही नहीं हैं,’’ सुंदर सहगल तमतमाते हुए बोले, ‘‘खुल्लमखुल्ला एक लड़के के हाथों में हाथ डाले शहर में घूम रही है. उसे इतना भी होश नहीं था कि उस का बाप सामने खड़ा है.’’

कुछ देर तक सोनिया सुंदर को घूरती रही फिर बोली, ‘‘देखिए, आप की यह नाराजगी और क्रोध सेहत के लिए अच्छा नहीं है. थोड़ी शांति के साथ इस विषय पर सोचें और धीमी आवाज में बात करें.’’

इस पर सुंदर सहगल का पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया. चेहरा लाल हो गया और ब्लडप्रेशर ऊपर हो गया. सोनिया ने पति को दवा दी और सहारा दे कर बिस्तर पर लिटाया. खुद का किटी पार्टी में जाने का प्रोग्राम कैंसल कर दिया.

सुंदर को चैन नहीं था. उस ने फिर से सोनिया से सुरुचि की बात शुरू कर दी. अब सोनिया, जो इस विषय को टालना चाहती थी, ने कहना शुरू किया, ‘‘आप इस बात को इतना तूल क्यों दे रहे हैं. मैं सुकेश से मिल चुकी हूं. आजकल लड़कालड़की में कोई अंतर नहीं है. कालिज में एकसाथ पढ़ते हैं. एकसाथ रहने, घूमनेफिरने में कोई एतराज नहीं करते और फिर मुझे अपनी बेटी पर पूरा भरोसा है कि वह कोई गलत काम कर ही नहीं सकती है. मैं ने उसे पूरी ट्रेनिंग दे रखी है. आप को मालूम भी नहीं है, वह कराटे जानती है और 2 बार मनचलों पर कराटे का इस्तेमाल भी कर चुकी है…’’

‘‘सोनिया, तुम सुरुचि के गलत काम में उस का साथ दे रही हो,’’ सुंदर सहगल ने तमतमाते हुए बीच में बात काटी.

‘‘मैं आप से बारबार शांत होने के लिए कह रही हूं और आप हैं कि एक ही बात को रटे जा रहे हैं. आखिर वह है तो आप की ही बेटी. तो आप से अलग कैसे हो सकती है.

‘‘आप अपनी जवानी के दिनों को याद कीजिए. 25 साल पहले, आप क्या थे. एक अमीर

बाप की बिगड़ी औलाद जो महज मौजमस्ती के लिए कालिज जाता था. आप ने कभी कोई क्लास भी अटैंड की थी, याद कर के बता सकते हैं मुझे.’’

‘‘तुम क्या कहना चाहती हो?’’

‘‘वही जो आप मुझ से सुनना चाह रहे थे…आप का ज्यादातर समय लड़कियों के कालिज के सामने गुजरता था. आप ने कितनी लड़कियों को छेड़ा था शायद गिनती भी नहीं कर सकते, मैं भी उन्हीं में से एक थी. आतेजाते लड़कियों को छेड़ना, फब्तियां कसना ही आप और आप की मित्रमंडली का प्रिय काम था. छटे हुए गुंडे थे आप सब, इसलिए हर लड़की घबराती थी और मेरा तो जीना ही हराम कर दिया था आप ने. मैं कमजोर थी क्योंकि मेरा बाप गरीब था और कोई भाई आप की हरकतों का जवाब देने वाला नहीं था. इसलिए आप की हरकतों को नजरअंदाज करती रही.

‘‘हद तो तब हो गई थी जब मेरे घर की गली में आप ने डेरा जमा लिया था. आतेजाते मेरा हाथ पकड़ लेते थे. कितना शर्मिंदा होना पड़ता था मुझे. मेरे मांबाप पर क्या बीतती थी, आप ने कभी सोचा था. मेरा हाथ पकड़ कर खीखी कर पूरी गुंडों की टोली के साथ हंसते थे. शर्म के मारे जब एक सप्ताह तक मैं घर से नहीं निकली तो आप मेरे घर में घुस आए. कभी सोचने की कोशिश भी शायद नहीं की होगी आप ने कि क्या बीती होगी मेरे मांबाप पर और आज मुझ से कह रहे हैं कि अपनी बेटी को संभालूं. खून आप का भी है, कुछ तो बाप के गुण बच्चों में जाएंगे लेकिन मैं खुद सतर्क हूं क्योंकि मैं खुद भुगत चुकी हूं कि इन हालात में लड़की और उस के मातापिता पर क्या बीतती है.

‘‘इतिहास खुद को दोहराता है. आज से 25 साल पहले जब उस दिन सब हदें पार कर के आप मेरे घर में घुसे थे कि शरीफ बाप क्या कर लेगा और अपनी मनमानी कर लेंगे तब मैं अपने कमरे में पढ़ रही थी और कमरे में आ कर आप ने मेरा हाथ पकड़ लिया था. मैं चिल्ला पड़ी थी. पड़ोस में शकुंतला आंटी ने देख लिया था. उन के शोर मचाने पर आसपास की सारी औरतें जमा हो गई थीं…जम कर आप की धुनाई की थी, शायद आप उस घटना को भूल गए होंगे, लेकिन मैं आज तक नहीं भूली हूं.

‘‘महल्ले की औरतों ने आप की चप्पलों, जूतों, झाड़ू से जम कर पिटाई की थी, सारे कपड़े फट गए थे, नाक से खून निकल रहा था और आप को पिटता देख आप के सारे चमचे दोस्त भाग गए थे और उस अधमरी हालत में घसीटते हुए सारी औरतें आप को इसी घर में लाई थीं. ससुरजी भागते हुए दुकान छोड़ कर घर आए और आप की करतूतों के लिए सिर झुका लिया था, लिखित माफी मांगी थी, कहो तो अभी वह माफीनामा दिखाऊं, अभी तक संभाल कर रखा है.’’

सुंदर सहगल कुछ नहीं बोल सके और धम से बिस्तर पर बैठ गए. सोनिया ने उन के अतीत का आईना सामने जो रख दिया था. सच कितना कड़वा होता है शायद इस बात का अंदाजा उन्हें आज हुआ.

आज इतिहास करवट बदल कर सामने खड़ा है. खुद अपना चेहरा देखने की हिम्मत नहीं हो रही है, सुधबुध खो कर वह शून्य में गुम हो चुके थे. सोनिया क्या बोल रही है, उन के कान नहीं सुन रहे थे, लेकिन सोनिया कहे जा रही थी :

‘‘आप सुन रहे हैं न, चोटग्रस्त होने की वजह से एक हफ्ते तक आप बिस्तर से नहीं उठ सके थे. जो बदनामी आप को आज याद आ रही है, वह मेरे पिता और ससुरजी को भी आई थी. बदनामी लड़के वालों की भी होती है. एक गुंडे के साथ कोई अपनी लड़की का ब्याह नहीं कर रहा था. चारों तरफ से नकारने के बाद सिर्फ 2 ही रास्ते थे आप के पास या तो किसी गुंडे की बहन से शादी करते या कुंआरे रह कर सारी उम्र गुंडागर्दी करते.

‘‘जिस बाप की लड़की के पीछे गुंडा लग जाए, वह कर भी क्या सकता था. ससुरजी ने जब सब रास्ते बंद देख कर मेरा हाथ मेरे पिता से मांगा तो मजबूरी से दब कर एक गुंडे को न चाहते हुए भी उन्हें अपना दामाद स्वीकार करना पड़ा,’’ कहतेकहते सोनिया भी पलंग का पाया पकड़ कर सुबक कर रोने लगी.

बात तो सच है, जवानी की रवानी में जो कुछ किया जाता है, उस को भूल कर हम सभी बच्चों से एक आदर्श व्यवहार की उम्मीद करते हैं. क्या अपने और बच्चों के लिए अलग आदर्श होने चाहिए, कदापि नहीं. पर कौन इस का पालन करता है. सुंदर सहगल तो केवल एक पात्र हैं जो हर व्यक्ति चरितार्थ करता है.

बने एकदूजे के लिए: भाग 3- क्या विवेक और भावना का प्यार परवान चढ़ा

‘‘फिर समय भागता गया. एक दिन अचानक एक संयोग ने एक बार फिर विवेक और भावना को एकदूसरे के सामने ला खड़ा किया. ऐसा हुआ तो दोनों के हृदय का वेग बांध तोड़ कर उष्ण लावा सा बहने लगा. दोनों एक बार फिर सब कुछ भूल कर अपनत्व की मीठी फुहार से भीगने लगे.

कुछ महीनों बाद दोनों विवाह के बंधन में बंध गए, लेकिन शादी के कुछ समय बाद विवेक प्लेन क्रैश में चल बसा. विवेक की मृत्यु की खबर सुनते ही हमारी आंखों के सामने अंधेरा छा गया.

हम दोनों स्तब्ध थे कि उन दोनों का पुनर्मिलन कल ही की तो बात थी.’’इतने में फोन की घंटी बजी. फोन पर मामाजी थे, ‘‘हैलो सुनो, हमें घर पहुंचते पहुंचते 5 बज जाएंगे.

चाय तैयार रखना.’’सर्दियों का मौसम था. वे लोग लौट कर आए तो सब चुप बैठ कर चाय पीने लगे. भावना स्तब्ध, निर्जीव बर्फ की प्रतिमा सी एक तरफ बैठी सोच रही थी कि कितना भद्दा और कू्रर मजाक किया है कुदरत ने उस के साथ.

अभी तक उस की आंखों से एक भी आंसू नहीं छलका था. मानो आंसू सूख ही गए हों. सभी को विवेक के चले जाने के गम के साथसाथ भावना की चिंता सताए जा रही थी.‘‘भावना रोतीं क्यों नहीं तुम? अब वह लौट कर नहीं आएगा,’’ मामीजी ने भावना को समझते हुए कहा.

अंधेरा बढ़ता जा रहा था. भावना गठरी सी बैठी टकटकी लगाए न जाने क्या सोच रही थी. उस की दशा देख सभी चिंतित थे. 4 दिन से उस के गले में निवाला तक न उतरा था. मामीजी से उस की यह दशा और देखी नहीं गई. उन्होंने भावना को झकझोरते, जोर से उसे एक चांटामारा और रोतेरोते बोलीं, ‘‘रोती क्यों नहीं? पगली, अब विवेक लौट कर नहीं आएगा.

तुम्हें संभलना होगा अपने और बच्ची के लिए. यह जीवन कोई 4 दिन का जीवन नहीं है. संभाल बेटा, संभाल अपने को.’’फिर वे भावना को ऊपर उस के कमरे में ले गईं. पोलीन तथा जेम्स अपने कमरे में जा चुके थे. भावना कमरे में विवेक के कपड़ों से लिपट कर फूटफूट कर रोती रही.

इतने में दरवाजे पर दस्तक हुई, ‘‘मे आई कम इन?’’‘‘यस, आओ बैठो पोलीन,’’ भावना ने इशारा करते हुए कहा. दोनों एकदूसरे से लिपट कर खूब रोईं. दोनों का दुख सांझ था. दोनों की चुभन एक सी थी. पोलीन ने भावना को संभालते तथा खुद को समेटते स्मृतियों का घड़ा उड़ेल दिया.

वह एक लाल रंग की अंगूठी निकाल कर बोली, ‘‘मुझे पूरा यकीन है तुम इसे पहचानती होगी?’’भावना की आंखों से बहते आंसुओं ने बिना कुछ कहे सब कुछ कह डाला. वह मन ही मन सोचने लगी कि पोलीन, मैं इसे कैसे भूल सकती हूं? इसे तो मैं ने विवेक को जरमनी जाते वक्त दिया था.

यह तो मेरी सगाई की अंगूठी है. तुम ने इस का कहां मान रखा? फिर धीरेधीरे पोलीन ने एकएक कर के भावना के बुने सभी स्वैटर, कमीजें तथा दूसरे तोहफे उस के सामने रखे. स्वैटर तो सिकुड़ कर छोटे हो गए थे. पोलीन ने बताया, ‘‘भावना, विवेक तुम से बहुत प्रेम करता था.

तुम्हारी हर दी हुई चीज उस के लिए अनमोल थी. 2 औडियो टेप्स उसे जान से प्यारी थीं. उस के 2 गाने ‘कभीकभी मेरे दिल में खयाल आता है…’ और ‘जब हम होंगे 60 साल के और तुम होगी55 की, बोलो प्रीत निभाओगी न तुम भी अपने बचपन की… वह बारबार सुनता था.

ये दोनों गाने जेम्स ने भी गाने शुरू कर दिए थे. तुम्हारी दी हुई किसी भी चीज को दूर करने के नाम से वह तड़प उठता था. जब कभी वह उदास होता या हमारी तकरार हो जाती तो वह कमरे में जा कर और स्वैटरों को सीने से लगा कर उन्हें सहलातेसहलाते वहीं सो जाता था.

कभीकभी तुम्हारे एहसास के लिए सिकुड़े स्वैटर को किसी तरह शरीर पर चढ़ा ही लेता था. घंटों इन चीजों से लिपट कर तुम्हारे गम में डूबा रहता था. जितना वह तुम्हारे गम में डूबता, उतना मुझे अपराधबोध सताता.

मुझे तुम से जलन होती थी. मैं सोचती थी यह कैसा प्यार है? क्या कभी कोई इतना भी प्यार किसी से कर सकता है? मैं ने विवेक को पा तो लिया था, लेकिन वह मेरा कभी न बन सका. जब उस ने तुम से विवाह किया, मैं अपने लिए दुखी कम, तुम्हारे लिए अधिक प्रसन्न थी.

मैं जानती थीकि विवेक अब वहीं है, जहां उसे होना चाहिए था. मैं भी उसे खुश देखना चाहती थी. तुम दोनों बने ही एकदूसरे के लिए ही थे. मुझे खुशी है कि मरने से पहले विवेक ने कुछ समय तुम्हारे साथ तो बिताया.‘‘मुझे अब कुछ नहीं चाहिए.

उस ने मुझे बहुत कुछ दिया है. तुम जब चाहोगी मैं जेम्स को तुम्हारे पास भेज दूंगी. जेम्स बिलकुल विवेक की फोटोकौपी है. वैसा ही चेहरा, वैसी ही हंसी.’’फिर पोलीन और भावना दोनों आंखें बंद किए, एकदूसरे के गले में बांहें डाले, अपनाअपना दुख समेटे, अतीत की स्मृतियों के वे अमूल्यक्षण बीनबीन कर अपनी पलकों पर सजाने लगीं. दोनों का एक ही दुख था. पोलीन बारबार यही दोहरा रही थी. ‘‘आई एम सौरी भावना. फौरगिव मी प्लीज.’’

बीच राह में: भाग 1- अनिता ने अपना घर क्यों नहीं बसाया

सिस्टर अनिता की नजरें बारबार प्राइवेट कमरा नंबर-1 की तरफ उठ जाती थीं. उस कमरे  में इसी अस्पताल के नामी हार्ट सर्जन डाक्टर आनंद भरती थे.‘‘अब आप इतनी चिंता क्यों कर रही हैं? डाक्टर आनंद ठीकहो कर कल सुबह घर जा तो रहे हैं,’’ साथ बैठी सिस्टर शारदा ने अनिता की टैंशन कम करने की कोशिश की.

‘‘मैं ठीक हूं… कई दिनों से नींद पूरी न होने के कारण आंखें लाल हो रही हैं,’’ अनिता बोली.‘‘कुछ देर रैस्टरूम में जाकर आराम कर लो, मैं यहां सब संभाल लूंगी.’’‘‘नहीं, मैं कुछ देर यहीं सुस्ता लेती हूं,’’ कह अनिता ने आंखें बंद कर सिर मेज पर टिका लिया.

डाक्टर आनंद से अनिता का परिचय करीब 20 साल पुराना था. इतने लंबे समय में इकट्ठी हो गई कई यादें उस के स्मृतिपटल पर आंखें बंद करते ही घूमने लगीं…पहली बार वह डाक्टर आनंद की नजरों में औपरेशन थिएटर में आई थी.

उस दिन वह सीनियर सिस्टर को असिस्ट कर रही थी. तब उस ने डाक्टर आनंद का ध्यान एक महत्त्वपूर्ण बात की तरफ दिलाया था, ‘‘सर, पेशैंट का खून नीला पड़ता जा रहा है.’’डाक्टर आनंद ने डाक्टरनीरज की तरफ नाराजगी भरे अंदाज में देखा.डाक्टर नीरज की नजर औक्सीजन सिलैंडर की तरफ गई. पर उस का रैग्यूलेटर ठीक प्रैशर दिखा रहा था.‘‘यह रैग्यूलेटर खराब है… जल्दी से सिलैंडर चेंज करो,’’ डाक्टर आनंद का यह आदेश सुन कर वहां खलबली मच गई.

जब सिलैंडर बदल दिया गया तब डाक्टर आनंद एक बार अनिता के चेहरे की तरफ ध्यान से देखने के बाद बोले, ‘‘गुड औब्जर्वेशन, सिस्टर… थैंकयू.’’औपरेशन समाप्त होने के कुछ समय बाद डाक्टर आनंद ने अनिता को अपने चैंबर में बुला कर प्रशंसा भरी आवाज में कहा, ‘‘आज तुम्हारी सजगता ने एक मरीज की जान बचाई है.’’‘‘थैंकयू, सर.’’‘‘बैठ जाओ, प्लीज… चाय पी कर जाना.’’‘‘थैंकयू, सर,’’ अपने दिल की धड़कनों को काबू में रखने की कोशिश करते हुए अनिता सामने वाली कुरसी पर बैठ गई.

उस दिन के बाद अनिता अपने खाली समय में डाक्टर आनंद के चैंबर में ही नजर आती. वे अपने मरीजों के ठीक होने में आ रही रुकावटों की उस के साथ काफी चर्चा करते. अगर अनिता की सम?ा में उन की कुछ बातें नहीं भी आतीं तो भी वह अपने ध्यान को इधरउधर भटकने नहीं देती.सब यह मानते थे कि उन से अनिता बहुत कुछ सीख रही है.

उस की गिनती बेहद काबिल नर्सों में होती, पर उस की सहेलियां डाक्टर आनंद के साथ उस के अजीब से रिश्ते को ले कर उसका मजाक भी उड़ाती थीं, ‘‘अरे, तुम दोनों केस डिस्कस करने के अलावा कुछ मौजमस्ती भी करते हो या नहीं?’’‘‘वे कमजोर चरित्र के इंसान नहीं हैं,’’ अनिता उन की बातों का बुरा न मान हंस कर जवाब देती.

‘‘चरित्र कमजोर नहीं है तो क्या कुछ और कमजोर है?’’ वे उसे और ज्यादा छेड़तीं.‘‘मु?ा से हर वक्त ऐसी बेकार की बातें न किया करो,’’ कभीकभी अनिता खीज उठती.‘‘सारे जूनियर डाक्टर जिस हसीना के लिए लार टपकाते हैं, वह फंसी भी तो एक सनकी और सीनियर डाक्टर से… अरी, उन के साथ बेकार समय न बरबाद कर… तेरी रैपुटेशन इतनी अच्छी है कि कोई तेरा दीवाना डाक्टर तुझ से शादी करने को भी तैयार हो जाएगा,’’ उन दिनों अनिता को ऐसी सलाहें अपनी सहेलियों व अन्य सीनियर नर्सों से आए दिन सुनने को मिलती थीं.

अनिता के मन में शादी करने का विचार उठता ही नहीं था. शादी को टालने की बात को ले कर उस के घर वाले भी उस से नाराज रहने लगे थे. उस के लिए किसी भी अच्छे रिश्ते का आना उन के साथ तकरार का कारण बन जाता.‘‘आप मेरे लिए रिश्ता न ढूंढ़ो… नर्स के साथ हर आदमी नहीं निभा सकता है. जब कोई अच्छा, सम?ादार लड़का मुझे मिल जाएगा, मैं उसे आप सब से मिलवाने ले आऊंगी,’’ अनिता की इस दलील को सुन उस का भाई व मातापिता बहुत गुस्सा होते.‘‘अब तू 23 साल की तो हो गई है… और कितनी देर लगाएगी उस अच्छे लड़के को ढूंढ़ने में?’’ उन सब के ऐसे सवालों को टालने में वह कुशल होती चली गई थी.

अनिता को अच्छा लड़का तो तब मिलता जब वह डाक्टर आनंद के अलावा किसी और को समय देती. अगर उस की सहेलियां उस की दोस्ती किसी डाक्टर या अन्य काबिल युवकसे कराने की कोशिश करतीं तो अनिता बड़ेरूखे से अंदाज में उस युवक के साथ पेशआती. हार कर वह युवक उस में दिलचस्पी लेना छोड़ देता.

डाक्टर आनंद ने भी एक दिन अपनेचैंबर में उस के साथ चाय पीते हुए पूछ ही लिया, ‘‘तुम शादी कब कर रही हो?’’‘‘मेरा शादी करने का कोई इरादा नहीं है, सर.’’‘‘यह क्या कह रही हो? शादी करने का… मां बनने का तो हर लड़की का मन करता है.’’‘‘मुझे नहीं लगता कि मेरा मनभाता लड़का कभी मेरी जिंदगी में आएगा.’’‘‘जरा मुझे भी तो बताओ कि कैसा होना चाहिए तुम्हारे सपनों का राजकुमार?’’‘‘उसे बिलकुल आप के जैसा होना चाहिए, सर,’’ अनिता ने शरारती मुसकान होंठों पर लाते हुए जवाब दिया.

‘‘क्या मतलब?’’ डाक्टर आनंद चौंक कर उस के चेहरे को ध्यान से पढ़ने लगे.‘‘मतलब यह कि उसे आप की तरह संवेदनशील, समझदार, अपने काम के लिए पूरी तरह समर्पित होना चाहिए.’’‘‘अरे, ज्यादा मीनमेख निकालना छोड़कर किसी भी अच्छे लड़के से शादी कर लो.

तुम बहुत समझदार हो… जिस से भी शादी करोगी, उस में ये सब गुण तुम्हारा साथ पा कर पैदा हो जाएंगे.’’‘‘सौरी सर, मैं इस मामले में रिस्क नहीं ले सकती… वैसे मैं कभीकभी सोचती हूं…’’‘‘क्या?’’ उसे अपनी बात पूरी न करते देख डाक्टर आनंद ने पूछा.‘‘यही कि अगर आप शादीशुदा न होते तो मेरे सामने लड़का ढूंढ़ने की समस्या ही नहींखड़ी होती.’’‘‘अनिता, मैं बस तुम्हें इतना याद दिलाना चाहूंगा कि मैं जब जवान हुआ था तब तुमपैदा भी नहीं हुई थीं,’’ अपने मन की बेचैनी छिपाने को डाक्टर आनंद ने यह बात मुसकराते हुए कही.

‘‘मेरे दिमाग में ही कुछ खोट होगी सर. हमारे बीच उम्र का 20 साल का अंतर होने के बावजूद मैं आप को इस पूरे अस्पताल का सबसे स्मार्ट पुरुष पता नहीं क्यों मानती हूं?’’ अपने चेहरे पर नाटकीय गंभीरता ला कर अनिता नेयह सवाल पूछा और फिर खिलखिला करहंस पड़ी. ‘‘शरारती लड़की, मुझे ही ढूंढ़नापड़ेगा तुम्हारे लिए कोई अच्छा रिश्ता.’’‘‘सर, शीशे के सामने खड़े हो कर इस बारे में सोचविचार करोगे तो मेरी पसंद आसानी से पकड़ में आ जाएगी.’’अनिता की पहल पर उन के बीच ऐसा हंसीमजाक शुरू हो गया.

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