घोंसले के पंछी- भाग 1: क्या मिल पाए आदित्य और ऋचा

आदित्य गुमसुम से खड़े थे. पत्नी की बात पर उन्हें विश्वास नहीं हुआ. वे शब्दों पर जोर देते हुए बोले, ‘‘क्या तुम सच कह रही हो ऋचा?’’

‘‘पहले मुझे विश्वास नहीं था लेकिन मैं एक नारी हूं, जिस उम्र से अंकिता गुजर रही है उस उम्र से मैं भी गुजर चुकी हूं. उस के रंगढंग देख कर मैं समझ गई हूं कि दाल में कुछ काला है.’’

आदित्य की आंखों में एक सवाल था, ‘वह कैसे?’

ऋचा उन की आंखों की भाषा समझ गई. बोली, ‘‘सुबह घर से जल्दी निकलती है, शाम को देर से घर आती है. पूछने पर बताया कि टाइपिंग क्लास जौइन कर ली है. इस की उसे जरूरत नहीं है. उस ने इस बारे में हम से पूछा भी नहीं था. घर में भी अकेले रहना पसंद करती है, गुमसुम सी रहती है. जब देखो, अपना मोबाइल लिए कमरे में बंद रहती है.’’

‘‘उस से बात की?’’

‘‘अभी नहीं, पहले आप को बताना उचित समझा. लड़की का मामला है. जल्दबाजी में मामला बिगड़ सकता है. एक लड़का हम खो चुके हैं, अब लड़की को खो देने का मतलब है पूरे संसार को खो देना.’’

आदित्य विचारों के समुद्र में गोता लगाने लगे. यह कैसी हवा चली है. बच्चे अपने मांबाप के साए से दूर होते जा रहे हैं. वयस्क होते ही प्यार की डगर पर चल पड़ते हैं, फिर मांबाप की मरजी के बगैर शादी कर लेते हैं. जैसे चिडि़या का बच्चा पंख निकलते ही अपने जन्मदाता से दूर चला जाता है, अपने घोंसले में कभी लौट कर नहीं आता, उसी प्रकार आज की पीढ़ी के लड़के तथा लड़कियां युवा होने से पहले ही प्यार के संसार में डूब जाते हैं. अपनी मरजी से शादी करते हैं और अपना घर बसा कर मांबाप से दूर चले जाते हैं.

आदित्य और ऋचा के एकलौते पुत्र ने भी यही किया था. आज वे दोनों अपने बेटे से दूर थे और बेटा उन की खोजखबर नहीं लेता था. इस में गलती किस की थी? आदित्य की, उन की पत्नी की या उन के बेटे की कहना मुश्किल था.

आदित्य ने पहले ध्यान नहीं दिया था, इस के बारे में सोचा तक नहीं था परंतु आज जब उन की एकलौती बेटी भी किसी के प्यार में रंग चुकी है, किसी के सपनों में खोई है, तो वे विगत और आगत का विश्लेषण करने पर विवश हैं.

प्रतीक एम.बी.ए. कर चुका था. बेंगलूरु की एक बड़ी कंपनी में मैनेजर था. एम.बी.ए. करते समय ही उस का एक लड़की से प्रेम हुआ था. तब तक उस ने घर में बताया नहीं था. नौकरी मिलते ही मांबाप को अपने प्रेम से अवगत कराया. आदित्य और ऋचा को अच्छा नहीं लगा. वह उन का एकलौता बेटा था. उन के अपने सपने थे. हालांकि वे आधुनिक थे, नए जमाने के चलन से भी वाकिफ थे परंतु भारतीय मानसिकता बड़ी जटिल होती है.

हम पढ़लिख कर आधुनिक बनने का ढोंग करते हैं, नए जमाने की हर चीज अपना लेते हैं, परंतु हमारी मानसिकता कभी नहीं बदलती. हमारे बच्चे किसी के प्रेम में पड़ें, वे प्रेमविवाह करना चाहें, हम इसे बरदाश्त नहीं कर पाते. अपनी जवानी में हम भी वही करते हैं या करना चाहते हैं परंतु हमारे बच्चे जब वही सब करने लगते हैं, तो सहन नहीं कर पाते हैं. उस का विरोध करते हैं.

प्रतीक उन का एकलौता बेटा था. वे धूमधाम से उस की शादी करना चाहते थे. वे उसे कामधेनु गाय समझते थे. उस की शादी में अच्छा दहेज मिलता. इसी उम्मीद में अपने एक रिश्तेदार से उस की शादी की बात भी कर रखी थी. मामला एक तरह से पक्का था. मांबाप यहीं पर गलती कर जाते हैं. अपने जवान बच्चों के बारे में अपनी मरजी से निर्णय ले लेते हैं. उन को इस से अवगत नहीं कराते. बच्चों की भावनाओं का उन्हें खयाल नहीं रहता. वे अपने बच्चों को एक जड़ वस्तु समझते हैं, जो बिना चूंचपड़ किए उन की हर बात मान लेंगे. परंतु जब बच्चे समझदार हो जाते हैं तब वे अपने जीवन के बारे में वे खुद निर्णय लेना पसंद करते हैं. वे अपना जीवन अपने तौर पर जीना चाहते हैं.

जब प्रतीक ने अपने प्यार के बारे में उन्हें बताया तो उन के कान खड़े हुए. चौंकना लाजिमी था. बेटे पर वे अपना अधिकार समझते थे. आदित्य और ऋचा ने पहले एकदूसरे की तरफ देखा, फिर प्रतीक की तरफ. वह एक हफ्ते की छुट्टी ले कर आया था. मांबाप से अपनी शादी के बारे में बात करने के लिए. प्रेम उस ने अवश्य किया था परंतु वह उन की सहमति से शादी करना चाहता था. अगर वे मान जाते तो ठीक था, अगर नहीं तब भी उस ने तय कर रखा था कि अपनी पसंद की लड़की से ही शादी करेगा. जिस को प्यार किया था, उसे धोखा नहीं देगा. मांबाप माने या न मानें.

ऋचा ने ही बात का सिरा पकड़ा था, ‘‘परंतु बेटे, हम ने तो तुम्हारी शादी के बारे में कुछ और ही सोच रखा है.’’

‘‘अब वह बेकार है. मैं ने अपनी पसंद की लड़की देख ली है. वह मेरे अनुरूप है.

हम दोनों ने एकसाथ एम.बी.ए. किया था. अब साथ ही नौकरी भी कर रहे हैं, साथ ही जीवन व्यतीत करेंगे.’’

‘‘परंतु हमारे सपने…’’ ऋचा ने प्रतिवाद करने की कोशिश की परंतु प्रतीक की दृढ़ता के सामने वह कमजोर पड़ गईं. ऋचा की आवाज में कोई दम नहीं था. उसे लगा, वह हार जाएगी.

‘‘मम्मी, आप समझने की कोशिश कीजिए. बच्चे ही मांबाप का सपना होते हैं. अगर मैं खुश हूं तो आप के सपने साकार हो जाएंगे, वरना सब बेकार है.’’

‘‘बेकार तो वैसे भी सब कुछ हो चुका है. मैं बंसलजी को क्या मुंह दिखाऊंगा?’’ आदित्य ने पहली बार मुंह खोला, ‘‘उन के साथसाथ सारे नातेरिश्तेदार हैं. वे भी अलगथलग पड़ जाएंगे.’’

‘‘कोई किसी से अलग नहीं होता. आप धूमधाम से शादी आयोजित करें. रिश्तेदार 2 दिन बातें बनाएंगे, फिर भूल जाएंगे. प्रेमविवाह अब असामान्य नहीं रहे,’’ प्रतीक ने बहुत धैर्य से अपनी बात कही.

‘‘बेटे, तुम नहीं समझोगे. हम वैश्य हैं और हमारे समाज ने इस मामले में आधुनिकता की चादर नहीं ओढ़ी है. कितने लोग तुम्हारे लिए भागदौड़ कर रहे हैं. अपनी बेटी का विवाह तुम्हारे साथ करना चाहते हैं. जिस दिन पता चलेगा कि तुम ने गैर जाति की लड़की से शादी कर ली है, वे हमें समाज से बहिष्कृत कर देंगे. तुम्हारी छोटी बहन की शादी में तमाम अड़चनें आएंगी.’’

‘‘उस का भी प्रेमविवाह कर देना,’’ प्रतीक ने सहजता से कह दिया. परंतु आदित्य और ऋचा के लिए यह सब इतना सहज नहीं था.

‘‘बेटे, एक बार तुम अपने निर्णय पर पुनर्विचार करो. शायद तुम्हारा निश्चय डगमगा जाए. हम उस से सुंदर लड़की तुम्हारे लिए ढूंढ़ कर लाएंगे.’’

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अनोखा हनीमून- भाग 1: मिस्टर माथुर और सिया का क्या रिश्ता था

‘‘पर, क्या तुम्हें अब भी लगता है कि मैं ने तुम को धोखा दिया है और प्यार का नाटक कर के तुम्हारा बलात्कार किया है,‘‘ वीरेन की इस बात पर नमिता सिर्फ सिर झुकाए बैठी रही. उस की आंखों में बहुतकुछ उमड़ आया था, जिसे रोकने की कोशिश नाकाम हो रही थी.

नमिता के मौन की चुभन को अब वीरेन महसूस कर सकता था. उन दोनों के बीच अब दो कौफी के मग आ चुके थे, जिन्हें होठों से लगाना या न लगाना महज एक बहाना सा लग रहा था, एकदूसरे के साथ कुछ समय और गुजारने का.

‘‘तो इस का मतलब यह है कि तुम सिर्फ मुझे ही दोषी मानती हो… पर, मैं ने तुम्हारे साथ कोई जबरदस्ती नहीं की… हमारे बीच जो भी हुआ, वो दो दिलों का प्यार था और जवान होते शरीरों की जरूरत… और फिर संबंध बनाने से कभी तुम ने भी तो मना नहीं किया.‘‘

वीरेन की इस बात से नमिता को चोट पहुंची थी, तिलमिलाहट की रेखा नमिता के चेहरे पर साफ देखी जा सकती थी.

पर, अचानक से एक अर्थपूर्ण मुसकराहट नमिता के होठों पर फैल गई.

‘‘उस समय तुम 20 साल के रहे होगे और मैं 16 साल की थी… उम्र के प्रेम में जोश तो बहुत होता है, पर परिपक्वता कम होती है और किए प्रेम की परिणिति क्या होगी, यह अकसर पता नहीं होता…

‘‘वैसे, सभी मर्द कितने स्वार्थी होते हैं… दुनिया को अपने अनुसार चलाना चाहते हैं और कुछ इस तरह से कि कहीं उन का दामन दागदार न हो जाए.‘‘

‘‘मतलब क्या है तुम्हारा?‘‘ वीरेन ने पूछा.‘‘आज से 16 साल पहले तुम ने प्रेम की आड़ ले कर मेरे साथ जिस्मानी संबंध बनाए, उस का परिणाम मैं आज तक भुगत ही तो रही हूं.‘‘‘थोड़ा साफसाफ कहो,‘‘ वीरेन भी चिहुंकने लगा था.

‘‘बस यही कि मेरे बच्चा ठहर जाने की बात मां को जल्द ही पता चल गई थी. वे तुरंत ही मेरा बच्चा गिराने अस्पताल ले कर गईं…”पर… पर, डाक्टर ने कहा कि समय अधिक हो गया है, इसलिए बच्चा गिरवाने में मेरी जान को भी खतरा हो सकता है,‘‘ दो आंसू नमिता की आंखों से टपक गए थे.

‘‘हालांकि पापा तो यही चाहते थे कि मुझे मर ही जाने दिया जाए, कम से कम मेरा चरित्र और उन की इज्जत दोनों नीलाम होने से बच जाएंगे… लेकिन, मां मुझे ले कर मेरठ से दिल्ली चली आईं और बाकी का समय हम ने उस अनजाने शहर में एक फ्लैट में बिताया, जब तक कि मैं ने एक लड़की को जन्म नहीं दे दिया,‘‘ कह कर नमिता चुप हो गई थी.

उस ने बोलना बंद किया.‘‘कोई बात नहीं नमिता, जो हुआ उसे भूल जाओ… अब मैं अपनी बेटी को अपनाने को तैयार हूं… कहां है मेरी बेटी?‘‘‘‘मुझे नहीं पता… पैदा होते ही उसे मेरा भाई किसी अनाथालय में छोड़ आया था,‘‘ नमिता ने बताया.

‘‘पर क्यों…? मेरी बेटी को एक अनाथालय में छोड़ आने का क्या मतलब था?‘‘‘‘तो फिर एक नाजायज औलाद को कौन पालता…? और फिर, हम लोगों से क्या कहते कि हमारे किराएदार ने ही हमारे साथ धोखा किया.‘‘‘‘पर, मैं ने कोई धोखा नहीं किया नमिता.‘‘

‘‘एक लड़की के शरीर से खिलवाड़ करना और फिर जब वह पेट से हो जाए तो उस को बिना सहारा दिए छोड़ कर भाग जाना धोखा नहीं तो और क्या कहलाता है वीरेन?‘‘

‘‘देखो, जहां से तुम देख रही हो, वह तसवीर का सिर्फ एक पक्ष है, बल्कि दूसरा पक्ष यह भी है कि तुम्हारे भाई और पापा मेरे कमरे में आए और मुझे बहुत मारा, मेरा सब सामान बिखेर दिया और मुझे लगा कि मेरी जान को भी खतरा हो सकता है, तब मैं तुम्हारा मकान छोड़ कर भाग गया…

“यकीन मानो, उस के बाद मैं ने अपने दोस्तों के द्वारा हर तरीके से तुम्हारा पता लगाने की कोशिश की, पर तुम्हारा कुछ पता नहीं चल सका.‘‘

‘‘हां वीरेन… पता चलता भी कैसे, पापा ने मुझे घर में घुसने ही नहीं दिया… मैं तो आत्महत्या ही कर लेती, पर मां के सहयोग से ही मैं दूसरी जगह रह कर पढ़ाई कर पाई और आज अपनी मेहनत से तुम्हारी बौस बन कर तुम्हारे सामने बैठी हूं.‘‘

नमिता के शब्द वीरेन को चुभ तो गए थे, पर मैं ने प्रतिउत्तर देना सही नहीं समझा.‘‘खैर, तुम बताओ, तुम्हारी शादी…? बीवीबच्चे…? सब ठीक तो होंगे न,‘‘ नमिता के स्वर में कुछ व्यंग्य सा था, इसलिए अब वीरेन को जवाब देना जरूरी लगा.

‘‘नहीं नमिता… तुम स्त्रियों के मन के अलावा हम पुरुषों के मन में भी भाव रहते हैं… हम लोगों को भी सहीगलत, ग्लानि और प्रायश्चित्त जैसे शब्दों का मतलब पता होता है…

“तुम्हारे घर से निकाले जाने के बाद मैं पढ़ाई पूरी कर के राजस्थान चला गया. वहां मैं प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने लगा… मेरे मन में भी अपराधबोध था, जिस के कारण मैं ने आजीवन कुंवारा रहने का प्रण लिया… ‘‘

मेरे ‘कुंवारे‘ शब्द के प्रयोग पर नमिता की पलकें उठीं और मेरे चेहरे पर जम गईं.‘‘मेरा मतलब है… अविवाहित… मैं अब भी अविवाहित हूं.‘‘‘‘और मैं भी…‘‘ नमिता ने कहा.

उन दोनों की बातों का सफर लंबा होता देख वीरेन ने और दो कौफी का और्डर दे दिया.

‘‘पर, मेरी बेटी अनाथालय में है, यह बात मेरे पूरे व्यक्तित्व को ही कचोटे डाल रही है… मैं अपनी बेटी से मिलने के बाद उसे अपने साथ रखूंगा… मैं उसे अपना नाम दूंगा.‘‘‘पर, कहां ढूंढ़ोगे उसे?‘‘

‘‘अपने भाई का मोबाइल नंबर दो मुझे… मैं उस से पूछूंगा कि उस ने मेरी बेटी को किस अनाथालय में दिया है?‘‘ वीरेन ने कहा.‘‘वैसे, इस सवाल का जवाब तुम्हें कभी नहीं मिल पाएगा… क्योंकि इस बात का जवाब देने के लिए मेरा भाई अब इस दुनिया में नहीं है. एक सड़क हादसे में उस की मौत हो गई थी.‘‘

‘‘ओह्ह, आई एम सौरी,‘‘ मेरे चेहरे पर दुख और हताशा के भाव उभर आए.‘‘हम शायद अपनी बेटी से कभी नहीं मिल पाएंगे?‘‘‘‘नहीं नमिता… भला जो भूल हम ने की है, उस का खमियाजा हमारी बेटी क्यों भुगते… मैं अपनी बेटी को कैसे भी खोज निकालूंगा.’’

‘‘मैं भी इस खोज में तुम्हारा पूरा साथ दूंगी.‘‘नमिता का साथ मिल जाने से वीरेन का मन खुशी से झूम उठा था. शायद ये उन दोनों की गलती का प्रायश्चित्त करने का एक तरीका था.

अपनी नाजायज बेटी को ढूंढ़ने के लिए वीरेन ने जो प्लान बनाया, उस के अनुसार उन्हें दिल्ली जाना था और उस अस्पताल में पहुंचना था, जहां नमिता ने बेटी को जन्म दिया था.

वीरेन के हिसाब से उस अस्पताल के सब से निकट वाले अनाथालय में ही नमिता के भाई ने बेटी को दिया होगावीरेन की छुट्टी को पास कराने के लिए एप्लीकेशन पर नमिता के ही हस्ताक्षर होने थे, इसलिए छुट्टी मिलने या न मिलने का कोई अंदेशा नहीं था… नमिता को अपने अधिकारी से जरूर परमिशन लेनी थी.

वीरेन और नमिता उस की पर्सनल गाड़ी से ही दिल्ली के लिए रवाना हो लिए थे.वीरेन के नथुनों में नमिता के ‘डियोड्रेंट‘ की खुशबू समा गई. नमिता के बाल उस के कंधों पर झूल रहे थे, निश्चित रूप से समय बीतने के साथ नमिता के रूप में और भी निखार आ गया था.

‘‘नमिता कितनी सुंदर है… कोई भी पुरुष नमिता को बिना देर किए पसंद कर लेगा, पर… ‘‘ वीरेन सोच रहा था.‘‘अगर जिंदगी में ‘इफ‘, ‘बट‘, ‘लेकिन’, ‘किंतु’, ‘परंतु’ नहीं होता, तो कितनी सुहानी होती जिंदगी… है न,‘‘ नमिता ने कहा, पर मुझे उस की इस बात का मतलब समझ नहीं आया.

नमिता की कार सड़क पर दौड़ रही थी. नमिता अपने साथ एक छोटा सा बैग लाई थी, जिसे उस ने अपने साथ ही रखा हुआ था.नमिता ‘व्हाट्सएप मैसेज‘ चेक कर रही थी.

वीरेन को याद आया कि पहले नमिता अकसर हरिवंशराय बच्चन की एक कविता अकसर गुनगुनाया करती थी, ‘जो बीत गई सो बात गई‘.

हाय हैंडसम- भाग 2: क्या हुआ था गौरी के साथ

सोशलसाइट पर फेक आईडी बना कर लोग लोगों को ब्लैकमेल करते हैं, पर हम ऐसे नहीं हैं. हम सीधीसादी लड़की हैं. पैसे की भी हमारे पास कमी नहीं है. मम्मीपापा दोनों बिजनैस में हैं. हम उन की इकलौती, वह भी लाड़ली, संतान हैं. बहुत प्यार करते हैं मम्मीपापा हमें. पर क्या करें हम आप को प्यार करने लगे. आप का प्रोफाइल फोटो देख कर हमारा दिल हमारे काबू में नहीं रहा. आप के मन में हमें ले कर जो भी भ्रम हैं, वह हम मिल कर दूर कर लेंगे. हैंडसम, हमें इग्नोर मत करना वरना हमारा नन्हा सा, मासूम सा दिल टूट जाएगा.’

मैं ने उस से पीछा छुड़ाने की गरज से कह दिया, ‘अच्छा ठीक है. मैं अगले सप्ताह औफिस के काम से दिल्ली जाते वक्त तुम से मिल लूंगा.’ इतना सुनते ही वह खुशी से उछल पड़ी और बोली, ‘‘हैंडसम, आना जरूर, धोखा मत देना.’’

‘ठीक है, इस बीच तुम भी मुझे फोन मत करना, मैं खुद तुम्हें फोन कर लूंगा.’

‘ठीक है, हमे मंजूर है, नहीं करेंगे हम आप को फोन.’

‘हां, मैं ने भी कह दिया तो जरूर आऊंगा.’

मैं ने गौरी से कह तो दिया लेकिन मेरे जेहन में उस की बातें उथलपुथल मचाने लगीं. कभी सोचता, मैं कहां फंस गया, कभी अपने मन में उस की काल्पनिक तसवीर बनाने लगता, वह ऐसी दिखती होगी, वह वैसी दिखती होगी. एक बार मन में आया, मैं घर में पत्नी को बता दूं. फिर सोचा, पत्नी ने मेरी बातों पर यकीन नहीं किया तो… फालतू में बात का बतंगड़ बन जाएगा. घर में हंगामा खड़ा हो जाएगा. नहीं, मैं पत्नी को नहीं बताऊंगा. मुझे नहीं लगता कि वह लड़की गलत हो. वह भटक गई है, उस से मिल कर मुझे उस को समझना होगा, वरना उलटेसीधे हाथों में पड़ कर वह अपना जीवन बरबाद कर सकती है.

एक दिन जब मैं ने उस को फोन कर के बताया कि मैं कल सुबह 11 बजे तक उस के पास पहुंच जाऊंगा, मुझे मिल जाना, तो वह खुशी से जैसे पागल हो गई. कई बार एक सांस में, ‘आई लव यू… आई लव यू सो मच…’ बोलती चली गई. मैं ने बिना किसी प्रतिक्रिया के फोन डिसकनैक्ट कर दिया.

रात को औफिस के ड्राइवर का फोन आया, ‘सर, सुबह को कितने बजे गाड़ी ले कर आऊं?’

मैं ने सोचा, अगर ड्राइवर के साथ मैं गौरी से मिलूंगा तो ड्राइवर औफिस में सब को बता देगा और फिर यह बात घर तक भी पहुंच जाएगी. इसलिए मैं ने ड्राइवर से झठ बोला. मैं ने कहा, ‘मैं तो मुरादाबाद में ही हूं. रात को यहीं रुकना पड़ेगा. ऐसा करो, तुम कल दोपहर को 12 बजे तक यहां आ जाना, हम यहीं से दिल्ली चलेंगे.’

‘ठीक है सर,’ कह कर ड्राइवर ने फोन काट दिया.

अगले दिन सुबह मैं बस में बैठ कर जा रहा था. मन किसी अनजाने भय से भयांकित था. सोच रहा था, पता नहीं क्या होगा? मेरे साथ कहीं कुछ गलत न हो जाए. अगर ऐसा कुछ हो गया तो पत्नी और बच्चों को कैसे समझऊंगा? मैं तो कहीं भी मुंह दिखाने लायक नहीं रह जाऊंगा, मेरी इज्जत का ढिंढोरा बीच बाजार पिट जाएगा? एक मन कह रहा था, मैं गौरी से न मिलूं, तो एक मन कह रहा था, मिल लो, मिलने से स्थिति साफ हो जाएगी. यही सब सोचते हुए मैं मुरादाबाद पहुंच गया. कपूर कंपनी चौराहे पर बस रुकी. मैं बस से उतरा ही था, गौरी मेरे सामने आ कर बोली, ‘हाय हैंडसम.’ मैं उसे देख कर सकपका गया.

‘जनाब, पूरे 9 बजे से यहां खड़ी आप का इंतजार कर रही हूं,’ उस ने जताया.

मैं ने बस, उस से इतना ही कहा, ‘तुम ने मुझे पहचान लिया?’

‘हां तो, इस में चौंकने की क्या बात है. बौडीशौडी तो बिलकुल फोटो जैसी है. बस, सिर के बाल ही तो थोड़े सफेद हुए हैं.’

मैं खामोश ही रहा.

‘हम चलें?’ उस ने सड़क किनारे खड़ी अपनी लाल रंग की बड़ी कार की तरफ इशारा कर के कहा.

‘हम कार से चलेंगे?’

‘हां कार भी हमारी, रैस्त्रां भी हमारा और लस्सी भी हमारी होगी, आप हमारे मेहमान जो हो.’

मैं उस की कार में बैठ गया. कार वही चला रही थी. हम मुरादाबाद से करीब 7 किलोमीटर दूर बिजनौर रोड पर एक रैस्टोरैंट में आ कर बैठ गए. उस ने 2 कुल्हड़ वाली लस्सी और 2 सैंडविच का और्डर दे दिया. वहां बैठे लोग मुझे और उस को अजीब निगाहों से घूरने लगे. मुझे अजीब लगा, तो मैं ने अपने हावभाव ऐसे कर लिए जैसे मैं उस का कोई रिश्तेदार हूं. वह बहुत उतावली हो रही थी. टेप रिकौर्डर की तरह पटरपटर बोले जा रही थी. वह क्या बोल रही थी, मैं कुछ सुन नहीं पा रहा था क्योंकि मेरा दिलोदिमाग उस की बातों में नहीं लग रहा था. मैं, बस, उसे देखे जा रहा था. फिर उस ने अपने दोनों हाथों की हथेलियों में अपने दोनों गालों को रोका और कुहनियों को मेज पर टिका कर हसरत से मुझे ऐसे देखने लगी जैसे कोई अनोखी चीज देख रही हो. फिर मुसकराने लगी.

मैं ने कहा, ‘अरे, ऐसे क्यों देख रही हो मुझे?’

वह उसी तरह मुसकराते हुए बोली, ‘एक बात बोलूं हैंडसम, मेरे दिल ने आप को चाह कर कोई गलती नहीं की. आप तो कल्पना से भी अधिक स्मार्ट और हैंडसम हैं. दिन में 10 बार देखते हैं आप की तसवीर को.’

‘अच्छा, ऐसा क्या है उस तसवीर में?’ मेरे कहते ही वह अपने महंगे मोबाइल फोन पर मेरा फेसबुक अकाउंट खोल कर मेरी डीपी को मुझे दिखाते हुए बोली, ‘‘हमारी निगाहों से देखिए अपनी इस तसवीर को. कैसे अपने दोनों हाथों को ऊपर कर के मंदमंद मुसकरा रहे हैं. इसी मुसकराहट ने हमारी जान ले ली.’’

मैं कभी अपनी फोटो देख रहा था, तो कभी उस को.

‘आप की लस्सी गरम हो रही है, पीजिए इसे,’ उस ने अधिकार से कहा.

मैं ने लस्सी का कुल्हड़ उठाया और एक घूंट भर कर कहा, ‘गौरी, तुम ने कहा था तुम मुझ से मिलना चाहती हो, तो मैं तुम से मिल लिया. तुम ने यह भी कहा था मिलने के बाद मैं जो कहूंगा, तुम उस को मानोगी?’

‘तो कहिए न, हम आप की बात सुनेंगे भी और मानेंगे भी,’ वह तपाक से बोली.

मैं ने कहा, ‘अब तुम न तो मुझे कभी फोन करोगी और न ही फेसबुक पर मुझे कोई मैसेज करोगी.’

‘आप से प्यार तो करूंगी या वह भी नहीं करूंगी. सुनिए हैंडसम, हम आप को अब न फोन करेंगे, न आप से फेसबुक पर चैट करेंगे लेकिन एक शर्त पर, एक बार, बस, एक बार आप हम से मुसकरा कर आई लव यू कह दीजिए.’

मैं ने मन में सोचा, यह लड़की बहुत जिद्दी है. ऐसे मानने वाली नहीं है. इस के लिए कुछनकुछ तो करना ही पड़ेगा. मैं ने कहा, ‘ठीक है, मैं तुम से सचमुच प्यार करने लगूंगा, तुम्हें आई लव यू भी बोलूंगा, लेकिन तब जब तुम अच्छे से अपनी पढ़ाई करोगी और फर्स्ट डिवीजन से अपनी इंटर की परीक्षा पास कर लोगी. उस से पहले, न तुम मुझे फोन करोगी और न ही मुझ से चैट करोगी.’

‘ओके हैंडसम, हमें आप की शर्त मंजूर है. अब हम खूब जम कर पढ़ाई करेंगे. हालांकि, यह सब करना हमारे लिए मुश्किल हो जाएगा क्योंकि जो शर्त आप ने हमारे सामने रखी है वह हमारे लिए किसी सजा से कम नहीं है. फिर भी हम इस सजा को आप की मोहब्बत का तोहफा समझ कर स्वीकार कर लेते हैं, पर आप हमें भूल मत जाना.’

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अनोखा हनीमून- भाग 2: मिस्टर माथुर और सिया का क्या रिश्ता था

वीरेन ने तुरंत ही गूगल के द्वारा उस कविता को सर्च किया और नमिता के व्हाट्सएप पर भेज दिया.नमिता मैसेज देख कर मुसकराई और उसे पूरे ध्यान से पढ़ने लगी. कुछ देर बाद मैं ने अपने मोबाइल पर भी नमिता का एक मैसेज देखा, जो कि एक पुरानी फिल्म का गीत था, ‘दुनिया में हम आए हैं तो जीना ही पड़ेगा… जीवन है अगर जहर तो पीना ही पड़ेगा’.‘‘

उस के द्वारा इस तरह से एक गंभीर मैसेज भेजने के बाद और कोई मैसेज भेजने की वीरेन की हिम्मत नहीं हुई.नमिता खिड़की से बाहर देख रही थी. बाहर अंधेरे के अलावा सिर्फ बहुमंजिला इमारतों की जगमगाहट ही दिखती थी. हालांकि एसी औन था, फिर भी पसीने की चमक मैं नमिता के माथे पर देख सकता था.

‘‘तुम्हारा ब्लड प्रेशर बढ़ा हुआ है क्या?‘‘ वीरेन ने पूछ ही लिया.‘‘नहीं. दरअसल, इस से पहले जब तुम साथ में थे, तो उस के बाद मेरे जीवन में एक भूचाल आया था और अब फिर से मैं तुम से मिल रही हूं… ऊपर वाला ही जाने कि अब क्या होगा,‘‘ नमिता के चेहरे पर फीकी मुसकराहट थी.

नमिता को अच्छी तरह पता था कि पीला कलर वीरेन को बहुत पसंद है… और आज उस ने पीली कलर की साड़ी पहनी थी.बीचबीच में वीरेन की नजर अपनेआप नमिता के चेहरे पर चली जाती थी.

‘‘मेरी वजह से नमिता कितना परेशान रही होगी. और न जाने कैसे उस ने अपने मांबाप के अत्याचारों और तानों को सहा होगा,‘‘ यह सोच कर वीरेन को गहरा अफसोस हो रहा था.गाड़ी हाईवे पर दौड़ रही थी. बाहर ढाबों और रैस्टोरैंट की कतार देख कर वीरेन ने कहा, ‘‘चलो, खाना खा लेते हैं.‘‘

वीरेन ने अपने लिए दाल फ्राई और चपाती मंगाई, जबकि नमिता ने सिर्फ सलाद और्डर किया… और धीरेधीरे खाने लगी.

वापस कार में बैठते ही नमिता ने कानों में हैडफोन लगा लिया था और कोई संगीत सुनने लगी. वीरेन समझ गया कि नमिता अब और ज्यादा बातें नहीं  करना चाहती है. लिहाजा, वीरेन भी अपने मोबाइल पर उंगलियों को सरकाने लगा.

कार सड़क पर मानो फिसल रही थी. बाहर रात गहरा रही थी. शहर पीछे छूटते जा रहे थे और नमिता का सिर वीरेन के कंधे पर आ गया था. उसे नींद आ गई थी. उस का मासूम सा चेहरा नींद में कितना खूबसूरत लग रहा था.

नमिता का वीरेन के कंधे पर सिर रख लेना उस के लिए सुखद अहसास से कम नहीं था.कुछ देर बाद ही नमिता जाग गई थी. वीरेन ने भी अपने उड़ते विचारों को थाम लिया था.वे दिल्ली पहुंच गए थे, और वे वहां से कैब ले कर नमिता के फ्लैट की तरफ चल दिए.

‘अमनचैन अपार्टमैंट्स‘ में ही नमिता आ कर रुकी थी और वहीं से कुछ ही दूरी पर एक नर्सिंगहोम था, जहां पर नमिता ने बेटी को जन्म दिया था. यहां पहुंच कर उन्हें सब से पास का अनाथालय ढूंढ़ना था, जिस के लिए वीरेन ने तकनीक की मदद ली और गूगल मैप की सहायता से उसे अनाथालय ढूंढ़ने में कोई परेशानी नहीं हुई. उन्होंने अनाथालय में जा कर वहां के मैनेजर से मुलाकात की.

‘‘जी कहिए… आप कितना डोनेशन देने आए हैं सर,‘‘ गंजे सिर वाले मैनेजर ने पूछा.‘‘डोनेशन…? हम तो एक बच्चे को ढूंढ़ने आए हैं, जिसे आज से 15 साल पहले आप के ही अनाथालय में कोई आ कर दे गया था.‘‘

मैनेजर ने आंखें सिकोड़ीं, मानो वो बिना बताए ही सबकुछ समझने की कोशिश कर रहा था.‘‘अरे साहब, कोई जरूरी नहीं कि वह बच्चा अब भी यहां हो या उसे कोई आ कर गोद ले गया हो… इतने साल पुरानी बात आप आज क्यों पूछ रहे हैं… हालांकि मुझे इस बात से कोई लेनादेना नहीं है… पर, अब पुराने रिकौर्ड भी इधरउधर हो गए हैं… और फिर हम किसी अजनबी को अपनी कोई जानकारी भला दे भी क्यों?‘‘ मैनेजर ने अपनी हथेली खुजाते हुए कहा.

नमिता अपने बच्चे को देखने के लिए अधीर हो रही थी. उस ने अपने पर्स से सौ के नोट की एक गड्डी निकाली और मैनेजर की ओर बढ़ाई.

‘‘जी, ये लीजिए डोनेशन… और इस की रसीद भी हमें आप मत दीजिए. उसे आप ही रख लीजिएगा… बस आज से 15 साल पहले 10 अगस्त को एक लड़की को कोई आप के यहां दे गया था. आप हमें उस बच्ची से मिलवा दीजिए… हम उसे गोद लेना चाहते हैं.‘‘

नोटों की गड्डी को जेब के हवाले करते हुए मैनेजर ने अपना सिर रजिस्टर में झुका लिया और कुछ ढूंढ़ने का उपक्रम करने लगा.‘‘जी, आप जिस बच्ची की बात कर रही हैं… वह कहां है… देखता हूं…‘‘

कुछ देर बाद मैनेजर ने उन लोगों को बताया कि 10 अगस्त के दिन एक लड़की को कोई छोड़ तो गया था, पर अब वह लड़की उन के अनाथालय में नहीं है.‘‘तो कहां है मेरी बेटी?‘‘ किसी अनिष्ट की आशंका से डर गई थी नमिता.

‘‘जी, घबराइए नहीं. आप की बेटी जहां भी है, सुरक्षित है. आप की बेटी को कोई निःसंतान दंपती आ कर गोद ले गए थे.‘‘‘‘कौन दंपती? कहां हैं वो? आप हमें उन का पता दीजिए… हम अपनी बेटी उन से जा कर मांग लेंगे,‘‘ वीरेन ने कहा.

‘‘जी नहीं सर… उस दंपती ने पूरी कानूनी कार्यवाही कर के उस बच्ची को गोद लिया है… अब कोई भी उन से बच्ची को छीन नहीं सकता है,‘‘ मैनेजर ने कहा.

‘‘पर, आप हमें बता तो सकते हैं न कि किस ने उसे गोद लिया है… हम एक बार अपनी बेटी से मिल तो लें,‘‘ नमिता परेशान हो उठी थी.

‘‘मैं चाह कर भी उन लोगों की पहचान आप को नहीं बता सकता हूं… ये हमारे नियमों के खिलाफ है,‘‘ मैनेजर ने कहा.

अब बारी वीरेन की थी. उस ने भी मैनेजर को पैसे पकड़ाए, तो कुछ ही देर में उस ने उस दंपती का पूरा पता एक कागज पर लिख कर मेरी ओर बढ़ा दिया.

ये बरेली के सिविल लाइंस में रहने वाले मिस्टर राजीव माथुर का पता था.‘‘अब हमें वापस चलना चाहिए,‘‘ वीरेन ने नमिता से कहा.‘‘नहीं, मैं अपनी बेटी से जरूर मिलूंगी और अपने साथ ले कर आऊंगी,‘‘ नमिता ने कहा, तो वह उस के चेहरे पर कठोरता का भाव साफ देख सकता था.

वीरेन के समझाने पर भी नमिता नहीं मानी, तो वे बरेली की तरफ चल दिए और वहां पहुंच कर दिए गए पते को खोजते हुए राजीव माथुर के घर के सामने खड़े हुए थे. वह एक सामान्य परिवार था. उन का घर देख कर तो ऐसा ही लग रहा था.

राजीव माथुर के घर की घंटी बजाई, तो उन के नौकर ने दरवाजा खोला. सामने ही मिस्टर माथुर थे. मिस्टर माथुर की उम्र कोई 70 साल के आसपास होगी, पर उन्हें व्हीलचेयर पर बैठा देख वीरेन को एक झटका सा जरूर लगा, मिस्टर माथुर के साथ ही उन की पत्नी भी खड़ी थीं. उन दोनों को देख कर नमिता और वीरेन के चेहरे पर कई प्रश्नचिह्न आए.

पर, फिर भी उन्होंने एक महिला को देख कर उन्हें ड्राइंगरूम में बिठाया और अपने नौकर को 2 कप चाय बनाने को कहा.

‘‘जी, दरअसल, हम लोग दिल्ली से आए हैं और आप लोग जिस अनाथालय से एक लड़की को गोद ले कर आए थे… वो दरअसल में हमारी बेटी है,‘‘ नमिता ने एक ही सांस में मानो सबकुछ कह डाला था और बाकी का अनकहा मिस्टर माथुर बखूबी समझ गए थे.

‘तो आज इतने सालों के बाद मांबाप का प्यार जाग उठा है… अब आप लोग मुझ से क्या चाहते हैं?‘‘‘देखिए, मैं जानता हूं कि आप ने कागजी कार्यवाही पूरी करने के बाद ही हमारी बेटी को गोद लिया है… पर, फिर भी…‘‘ वह आगे कुछ कह न पाया, तो मिस्टर माथुर ने वीरेन की मदद की.

‘‘पर, फिर भी… क्या… बेहिचक कहिए…‘‘‘‘दरअसल, हम हमारी बेटी को वापस चाहते हैं.‘‘वीरेन भी हिम्मत कर के अपनी बात कह गया था.

कुछ देर चुप रहने के बाद मिस्टर माथुर ने बोलना शुरू किया, ‘‘देखिए, यह तो संभव नहीं है. आज का युवा मजे करता है, जब फिर बच्चे पैदा होते हैं,  फिर अनाथालय में छोड़ देता है और फिर एक दिन अचानक उन का प्यार जाग पड़ता है और वे औलाद को ढूंढ़ने चल पड़ते हैं.

‘‘आप जैसे लोगों की वजह से ही अनाथालयों में बच्चों की भीड़ लगी रहती है और कई नवजात बच्चे कूड़े के ढेर में पड़े हुए मिलते हैं… और मुझे लग रहा है कि आप दोनों अब भी अविविवाहित हैं?‘‘ मिस्टर माथुर का पारा बढ़ने लगा था. उन की अनुभवशाली आंखें काफीकुछ समझ गई थीं.

कुछ देर खामोशी छाई रही, फिर मिस्टर माथुर ने अपनेआप को संयत करते हुए कहा, ‘‘खैर जो भी हो, अब वह हमारी बेटी है और वह हमारे ही पास रहेगी… अगर आप चाय पीने में दिलचस्पी रखते हों तो पी सकतें हैं, नहीं तो आप लोग जा सकते हैं.‘‘

मेहनत रंग लाई: क्या शर्मिंदगी को गर्व में बदल पाया दिवाकर

ठाणे के विधायक दिवाकर की कार में ड्राइवर के अलावा पिछली सीट पर दिवाकर उन की पत्नी मालिनी थीं. पीछे वाली कार में उन के दोनों युवा बच्चे पर्व और सुरभि और दिवाकर का सहायक विकास थे. आज दिवाकर को एक स्कूल का उद्घाटन करने जाना था.

दिवाकर का अपने क्षेत्र में बड़ा नाम था. पर्व और सुरभि अकसर उन के साथ ऐसे उद्घाटनों में जा कर बोर होते थे, इसलिए बहुत कम ही जाते थे. पर कारमेल स्कूल की काफी चर्चा हो रही थी, काफी बड़ा स्कूल बना था, सो आज फिर दोनों बच्चे आ ही गए. वैसे, उद्घाटन तो किसी न किसी जगह का दिवाकर करते ही रहते थे. पर स्कूल का उद्घाटन पहली बार करने गए थे.

विकास ने भाषण तैयार कर लिया था. मीडिया थी ही वहां. मालिनी भी उन के साथ कम ही आती थी, पर आज बच्चे उसे भी जबरदस्ती ले आए थे. वैसे भी स्कूल की प्रबंध कमेटी ने दिवाकर को सपरिवार आने के लिए बारबार आग्रह किया था. विकास का भी यही कहना था ‘सर, ऐसे संपर्क बढ़ेंगे तो पार्टी के लिए ठीक रहेगा. टीचर्स होंगे, अभिभावक होंगे, आप का सपरिवार जाना काफी प्रभाव डालेगा.’

कार से उतरते ही दिवाकर और बाकी सब का स्वागत जोरशोर से हुआ. स्कूल की पिं्रसिपल विभा पारिख, मैनेजर सुदीप राठी और प्रबंधन समिति के अन्य सदस्य सब का स्वागत करते हुए उन्हें गेट पर लगे लाल रिबन तक ले गए. दिवाकर ने उसे काटा तो तालियों की आवाज से एक उत्साहपूर्ण माहौल बन गया. दिवाकर स्टेज पर चले गए. दर्शकों की पंक्ति में सब से आगे रखे गए सोफे पर मालिनी विकास और बच्चों के साथ बैठ गई.

विभा पारिख ने दिवाकर को सपरिवार आने के लिए धन्यवाद देते हुए एक बुके दे कर उन का अभिनंदन किया. फिर उन्होंने अपने स्कूल के बारे में काफीकुछ बताया. अभिभावकगण बड़ी संख्या में थे. स्कूल की बिल्ंिडग वाकई बहुत शानदार थी. कैमरों की लाइट चमकती रही. दिवाकर से भी दो शब्द बोलने का आग्रह किया गया.

दिवाकर माइक पर खड़े हुए. शिक्षा के महत्त्व शिक्षा के विकास, नए बने स्कूल की तारीफ कर के भाषण खत्म कर ही रहे थे कि एक मीडियाकर्मी ने पूछ लिया, ‘‘सर, आप ने शिक्षा के संदर्भ में बहुत अच्छी बातें कहीं, आप प्लीज अपनी शिक्षा के बारे में भी आज बताना पसंद करेंगे?’’

शर्मिंदगी का एक साया दिवाकर के चेहरे पर आ कर लहराया. उन की नजरें मालिनी और अपने बच्चों से मिलीं तो उन की आंखों में भी अपने लिए शर्मिंदगी सी दिखी. नपेतुले, सपाट शब्दों में उन्होंने कहा, ‘‘अपने बारे में फिर कभी बात करूंगा, आज इस नए स्कूल के लिए, इस के सुनहरे भविष्य के लिए मैं शुभकामनाएं देता हूं. बच्चे यहां ज्ञान अर्जित करें, सफलता पाएं.’’

तालियों की गड़गड़ाहट से सभा समाप्त हुई पर शर्मिंदगी का जो एक कांटा आज दिवाकर के गले में अटका था, लौटते समय कुछ बोल ही नहीं पाए, चुप ही रहे. मालिनी को घर छोड़ा और विकास के साथ अपने औफिस निकल गए. विकास दिवाकर के साथ सालों से काम कर रहा था. दोनों के बीच आत्मीय संबंध थे. दिवाकर के तनाव का पूरा अंदाजा विकास को था. वह सम झ रहा था कि अपनी शिक्षा पर उसे सवाल दिवाकर को शर्मिंदा कर गए हैं. पूरे रास्ते दिवाकर गंभीर विचारों में डूबे रहे, विकास भी चुप ही रहा.

औफिस पहुंचते ही विकास ने उन के लिए जब कौफी मंगवाई इतनी देर में वे पहली बार हलके से मुसकराए. कहा, ‘‘तुम्हें सब पता है, मु झे कब क्या चाहिए,’’ विकास भी हंस दिया, ‘‘चलो सर, आप ने कम से कम कुछ बोला तो. आप इतने परेशान न हों. खोदखोद कर सवाल पूछना मीडिया का काम ही है. और यह पहली बार तो हुआ नहीं है. पर आज आप इतने सीरियस क्यों हो गए? एक ठंडी सांस ली दिवाकर ने. ‘‘बहुत कुछ सोच रहा था, विकास मु झे तुम्हारी हैल्प चाहिए.’’

‘‘हुक्म दीजिए सर.’’‘‘तुम तो जानते हो, बहुत गरीबी में पलाबढ़ा हूं. गांव से काम की तलाश में यहां आया था और अपने ही प्रदेश के यहां के विधायक के लिए काम करता था. उन की मृत्यु के बाद बड़ी मेहनत से यहां पहुंचा हूं. आज लोगों की नजरों में अपने लिए उस समय एक उपहास सा देखा तो बड़ा दुख हुआ. अपने परिवार की नजरों में भी अपने लिए एक शर्मिंदगी सी देखी, तो मन बड़ा आहत हुआ. सच तो यही है कि इतने बड़े स्कूल के उद्घाटन में जा कर स्वयं कम शिक्षित रह कर शिक्षा के महत्त्व और विकास पर बड़ीबड़ी बातें करना खुद को ही एक खोखलेपन से भरता चला जाता है. आज मैं ने सोच लिया है कि मैं किसी दूसरे राज्य से पत्राचार के जरिए आगे पढ़ाई करूंगा. यहां किसी को बताऊंगा ही नहीं, मालिनी और बच्चों तक को नहीं.’’

विकास को जैसे एक करंट लगा, ‘‘सर, यह क्या कह रहे हैं? यह तो बहुत ज्यादा मुश्किल है, असंभव सा है.’’‘‘कुछ भी असंभव नहीं है. मैं आगे पढ़ूंगा, तुम इस में मेरी मदद करोगे और किसी को भी इस बात की खबर नहीं होनी चाहिए.’’

‘‘सर, कैसे होगा? पढ़ाई कहां होगी? बुक्स, कालेज?’’‘‘आज तुम यही सब पता करो. मु झे अगर अपने क्षेत्र में सिर उठा कर लोगों से शिक्षा के महत्त्व पर बात करनी है तो उस से पहले मु झे स्वयं को सुशिक्षित करना होगा. जाओ फौरन काम शुरू कर दो.’’

विकास ‘हां’ में सिर हिलाता हुआ उन के रूम से निकल गया, दिवाकर से मिलने कुछ और लोग आए हुए थे. वे उन के साथ व्यस्त हो गए. वे सब चले गए तो दिवाकर कुछ पेपर्स देख रहे थे. विकास उत्साहपूर्वक अंदर आया. उसे देखते ही बोले, ‘‘क्या पता किया? बैठो.’’

‘‘सर सब हो जाएगा, आप सिक्किम मणिपाल यूनिवर्सिटी से अपना फौर्म भर दें. इस की परीक्षाओं के कई सैंटर हैं. आप भोपाल चुन लें. वहां औनलाइन परीक्षाएं होती हैं. वहां आप को कोई पहचानेगा भी नहीं. आप अपना कोर्स, अपने विषय बता दें. मैं और भी डिटेल्स देख लूंगा.’’

‘‘वाह, शाबाश, कहते हुए दिवाकर अपनी चेयर से उठे और विकास का कंधा थपथपाते हुए उसे गले लगा लिया, ‘‘आओ, अभी फाइनल कर लेते हैं. ध्यान रखना, तुम्हारे अलावा यह सब किसी को पता नहीं चलना चाहिए.’’

‘‘निश्चित रहिए, सर.’’

विकास को दिवाकर ने हमेशा अपना छोटा भाई ही सम झा था. उस की पत्नी और एक बच्चा ठाणे में ही रहते थे. दिवाकर विकास का हर तरह से खयाल रखते थे तो विकास भी दिवाकर का बहुत निष्ठावान सहायक था. एक विधायक और एक सहायक के साथसाथ दोनों दोस्त, भाई जैसा व्यवहार भी रखते थे. दोनों ने बैठ कर औनलाइन बहुतकुछ देखा, विषय चुने और सिक्किम मणिपाल यूनिवर्सिटी में पत्राचार से ग्रेजुएशन करने के लिए फौर्म भर दिया गया. सब ठीक रहा, औफिस में ही बुक्स भी आ गईं.

दिवाकर ने नई बुक्स को हाथ में ले कर बच्चे की तरह सहलाया, आंखें भीग गईं, उन्हें कभी पढ़ने का शौक था पर साधन नहीं थे. फिर कुछ नया करने की चाह उन्हें मुंबई ले आई थी. अब उन के सामने एक नई राह थी, शिक्षा की राह, जिस पर उन्होंने अपने कदम उत्साहपूर्वक बढ़ा दिए थे. व्यस्त वे पहले भी रहते थे. सो, मालिनी और बच्चों को उन्हें व्यस्त देखने की आदत थी ही. अब वे औफिस में बैठ कर पढ़ने भी लगे थे. कभी पढ़ते कभी नोट्स बनाते. उन्हें अपने जीवन में आए इस मोड़ पर बड़ा आनंद आ रहा था. जीवन एक नई उमंग, उत्साह से भर उठा था. विकास उन के इस मिशन में हर पल उन के साथ था. उन की सेहत का, उन के खानेपीने का पूरा खयाल रखता था.

परीक्षाओं का समय आया तो वह दिवाकर के साथ भोपाल भी गया. परीक्षाकाल में दोनों होटल में ही रहे. अब परीक्षाफल के इंतजार में दिवाकर बेचैन होते तो विकास हंस पड़ता. अपने क्षेत्र की समस्याओं के साथ जब दिवाकर अपनी पढ़ाई भी विकास के साथ डिस्कस करने लगे, तो विकास मुसकराता हुआ उन का उत्साह देखता रहता. दिवाकर का जब रिजल्ट आया तो वे उस समय घर में ही थे. विकास रिजल्ट देखने के बाद उन के घर पहुंच गया. मिठाई का डब्बा मालिनी को देते हुए बोला, ‘‘मैडम, मुंह मीठा कीजिए.’’

दिवाकर भी वहीं बैठे थे, बोले, ‘‘क्या हुआ भई?’’

‘‘एक दोस्त का रिजल्ट निकला है सर, वह पास हो गया,’’ कहतेकहते विकास ने उन की तरफ जिस तरह से देखा, दिवाकर उत्साहपूर्वक खड़े हो गए. विकास को  झटके से गले लगा लिया. मालिनी हैरान हुई, ‘‘अरे, विकास, यह कौन सा दोस्त है तुम्हारा?’’

‘‘है एक पढ़ रहा है आजकल मैडम, बहुत मेहनती है.’’

‘‘बढि़या, इस उम्र में? क्या पढ़ रहा है?’’

‘‘ग्रेजुएशन किया है, और शिक्षा प्राप्त करने की तो कोई उम्र नहीं होती है न.’’

‘‘हां, यह भी ठीक है.’’

दिवाकर ने कहा, ‘‘तुम रुको, मैं तैयार होता हूं मु झे भी जाना है कुछ जरूरी काम है. घर से निकलते ही दिवाकर ने कहा, ‘‘थैक्यू विकास.’’

‘‘आप को बधाई हो सर, आप की मेहनत, लगन रंग लाई है.’’

‘‘चलो, अब, एमए भी करूंगा.’’

‘‘क्या?’’ विकास चौंका.

‘‘हां, चलो, औफिस, पौलिटिकल साइंस में अब एमए करूंगा. देखो, क्या, कैसे करना है सब.’’

विकास उन का मुंह देखता रह गया. फिर एमए का फौर्म भी भर दिया गया और फिर अपनी बाकी व्यस्तताओं के साथसाथ रातदिन से अपनी पढ़ाई का थोड़ाथोड़ा समय निकाल कर एमए की परीक्षाएं भी दे दीं. इस बार पढ़ाई ज्यादा की गई थी क्योंकि दिवाकर को और पढ़ना था, शिक्षा प्राप्त करने का नशा गहराता जो जा रहा था. आगे एमफिल करने के लिए एमए में 55 प्रतिशत अंक प्राप्त करने जरूरी थे. कहीं समय की कमी से पढ़ाई प्रभावित न हो, इस के लिए दिवाकर ने अपने आराम, नींद के घंटे कम कर दिए थे. पार्टी के कामों के बाद बेकार की गप्पों, निरर्थक बातों में बीतने वाला समय वहां से जल्दी उठ कर औफिस में बैठ कर खुद को किताबों में डुबो कर बिताया था. खूब नोट्स बना बना कर पढ़ाई की गई थी.

एमए में 60 प्रतिशत अंक पा कर दिवाकर की खुशी का ठिकाना न रहा. विकास को ले कर ‘कोर्टयार्ड’ गए. एक कोने में चल रहे गजलों के लाइव प्रोग्राम का आनंद लेते हुए विकास को शानदार दावत दी. उन के चेहरे की खुशी देखने लायक थी. विकास ने कहा, ‘‘सर, अब बस न? और तो नहीं पढ़ना है न?’’

दिवाकर हंस पड़े कहा, ‘‘एमफिल.’’

विकास कुछ न बोला, सिर्फ मुसकरा दिया. थोड़ी देर बाद कहा, ‘‘लगता है आप सुरभि और पर्व से भी ज्यादा शिक्षा हासिल कर लेंगे.’’

‘‘उन्हें तो मु झे बहुत पढ़ाना है ताकि उन्हें किसी भी उम्र में जा कर कम पढ़ने का अफसोस कभी न हो. अब तुम एमफिल के डिटेल्स देख लो.’’

‘‘ठीक है, सर.’’

दिवाकर के जीवन का एक सार्थक उद्देश्य था अब, मन ही मन उस पल का शुक्रिया अदा करते जब कारमेल के उद्घाटन के लिए गए थे और अपनी कम शिक्षा पर शर्मिंदगी हुई थी. अब किताबों के साहित्य में जीवन जैसे एक नई दिशा की तरफ बढ़ता जा रहा था. दिवाकर की छवि एक मेहनती और सहृदय नेता की थी. अब जब वे सुशिक्षित होते जा रहे थे कई बातें और स्पष्ट होती जा रही थीं. अपना समय शिक्षा के प्रचारप्रसार में लगाने लगे थे.

विकास ने आ कर उन्हें आगे की जानकारी देते हुए कहा, ‘‘सर, आप इग्नू से एमफिल के लिए फौर्म भर दें. पर इस में ऐडमिशन के लिए लिखित परीक्षा होगी. फिर इंटरव्यू होगा. तब एडमिशन होगा. काफी तैयारी करनी पड़ेगी. सर, पत्राचार से 18 महीने का कोर्स है.’’

पलभर सोचते रहे दिवाकर, फिर बोले, ‘‘हां, काफी समय निकालना पड़ेगा, लिखित परीक्षा, इंटरव्यू. हां, ठीक है. भर दो मेरा फौर्म.’’

विकास उन्हें गर्वभरी नजरों से देखता रहा. फिर दोनों अपनेअपने काम में व्यस्त हो गए. दिवाकर देर रात तक औफिस में बैठ कर पढ़ते. बहुत व्यस्त पहले भी रहते थे. अब बहुत रात होने लगी तो मालिनी ने टोका भी, ‘‘आजकल कुछ ज्यादा ही देर से आ रहे हो? पहले तो इतनी रात कभी नहीं हुई,’’ बच्चों ने भी संडे को कहा, ‘‘पापा पहले तो संडे को आराम करते थे, अब संडे को भी औफिस?’’

सब को देख कर मुसकराते हुए दिवाकर ने जवाब दिया, ‘‘एक प्रोजैक्ट पर काम कर रहा हूं.’’

‘‘कितना टाइम लगेगा?’’

‘‘लगभग 2 साल, शायद बीचबीच में दिल्ली भी जाना पड़े.’’

सब ने पार्टी का काम सम झ कर ही संतोष कर लिया. दिवाकर को कोई बुरी आदत तो थी नहीं, हमेशा घरगृहस्थी के प्रति भी जिम्मेदार रहे थे. सब ने इसे राजनीतिक व्यस्तता सम झ कर यह विषय यहीं रोक दिया.

दिवाकर ने लिखित परीक्षा भी पास कर ली, दिल्ली जा कर इंटरव्यू भी दे आए. विकास हर कदम पर उन के साथ था. उन का चयन हो गया. दिवाकर एमफिल की पढ़ाई में जुट गए. जहां कभी कुछ अटकते, विकास गूगल पर खोजबीन कर उन की मदद करता. इग्नू में कुछ संपर्क निकाल कर विकास कुछ प्रोफैसर्स के फोन नंबर भी ले आया था. उन्होंने यथासंभव दिवाकर की मदद करने का आश्वासन भी दिया था और वे मदद कर भी रहे थे. और एमफिल भी हो गया. अपनी डिग्री हाथ में लेने पर दिवाकर की आंखों से आंसू बह निकले. विकास की आंखें भी भीग गईं. गर्व हुआ इतने मेहनती नेता का सहयोगी है वह. ठाणे लौटते हुए घर जाने से पहले उन्होंने सब के लिए उपहार लिए. एक बड़ी धनराशि लिफाफे में रख कर विकास को देते हुए कहा, ‘‘जो तुम ने मेरे लिए किया, उस का मूल्य हो ही नहीं सकता. वह अनमोल है. यह सिर्फ तुम्हारे और तुम्हारे परिवार के लिए मेरा खुशी का उपहार है.’’

विकास हंसता हुआ बोला, ‘‘सर, आप ने कई सालों से किसी स्कूल का उद्घाटन नहीं किया, मना कर दिया. 2 दिनों बाद ही एक नए स्कूल के उद्घाटन के लिए बारबार आग्रह किया जा रहा है, चलें? मजा आएगा इस बार.’’

‘‘देखते हैं.’’

‘‘सौरी सर, मैं ने आप की तरफ से हां कर दी है, आप की सफलता के लिए मैं सुनिश्चित था. अब की बार मीडिया को जो पूछना हो, पूछ ले, मजा आएगा.’’

खुल कर हंस पड़े दिवाकर, ‘‘अच्छा ठीक है.’’

घर आ कर सब को उपहार दिए, उन्हें बातबात पर मुसकराता, हंसता, चहकता देख मालिनी और बच्चे हैरान थे. दिवाकर ने कहा, ‘‘प्रोजैक्ट पूरा हो गया.’’

‘‘अब तो बता दो, कौन सा प्रोजैक्ट?’’

‘नीलकंठ हाइट्स’ में बने अपने बंगले के गार्डन में बने  झूले पर बैठते हुए दिवाकर बोले, ‘‘2 दिनों बाद एक स्कूल का उद्घाटन करूंगा, वहीं बताऊंगा. तीनों साथ चलना,’’ मालिनी और बच्चों ने एकदूसरे पर नजर डाली, जाने की बात पर संकोच हुआ, मालिनी ने कह ही दिया, ‘‘तुम ही चले जाना हम क्या करेंगे.’’

‘‘हां, पापा, हमें भी अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘इस बार अच्छा लगेगा, इस की गारंटी देता हूं,’’ तय समय पर सब नए स्कूल की बिल्ंिडग की तरफ चल दिए. वही तरीके, वही स्वागत, वही मीडिया, जब उन्हें 2 शब्द कहने के लिए मंच पर बुलाया गया, इस बार कदमों का आत्मविश्वास देखते ही बनता था. पूरे व्यक्तित्व में कुछ खास नजर आ रहा था. स्कूल, शिक्षा का महत्त्व बता कर बात खत्म की.

आज फिर उन की शिक्षा के बारे में भी पूछ लिया गया तो जवाब देने से पहले वे मुसकराए. विकास से नजरें मिलीं तो वह हंस दिया. फिर उन्होंने मालिनी और बच्चों पर नजर डालते हुए कहा, ‘‘मैं ने एमफिल किया है,’’ मालिनी और बच्चों के चेहरे का रंग उड़ गया, स्टेज पर खड़े हो कर दिवाकर इतना बड़ा  झूठ बोल रहे हैं. यह मीडिया उन की क्या गत बनाएगा, कितना अपमान होगा.

दिवाकर कह रहे थे, ‘‘कुछ साल पहले मु झे शिक्षा का महत्त्व सम झ आया. मैं ने पढ़ना शुरू किया तो पढ़ता चला गया. शिक्षा प्राप्त करने में जो आनंद मिला, वह सब सुखों से बढ़ कर लगने लगा. पहले बीए, फिर राजनीति विज्ञान में एमए और 2 दिन पहले ही दिल्ली के इग्नू से एमफिल की डिग्री ले कर लौटा हूं. पढ़ाई हो गई. अब अपने क्षेत्र, देश के विकास, कल्याण पर ध्यान देना है. बच्चे को समुचित शिक्षा मिले, इस पर काम करना है.’’

तालियों की गड़गड़ाहट से स्कूल का प्रांगण गूंज उठा था. उन की नजरें मालिनी और बच्चों की नजरों से मिलीं, तीनों के आंसू बहे चले जा रहे थे. गर्वमिश्रित खुशी के आंसू. विकास तो तालियां बजाते हुए खड़ा ही हो गया था. कई लोग वाहवाह कर उठे थे. समाज को आज ऐसे ही मेहनती नेता की तो तलाश थी. दिवाकर के दिल को मालिनी, बच्चों और वहां उपस्थित लोगों के दिलों में अपने लिए जो भाव दिखे, उन्हें महसूस कर असीम शांति मिली थी. सालों की मेहनत रंग लाई थी. आज किसी की नजरों में अपने लिए अपमान, शर्मिंदगी का नामोनिशान नहीं था. अब वे शिक्षा, किताबों और ज्ञान की दुनिया की सैर से जो लौटे थे, तनमन पुलकित हो उठा था.

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स्मिता तुम फिक्र मत करो- भाग 1: क्या वापस लौटी खुशियां

दिल्ली की ऐसी पौश आवासीय सोसाइटी जहां लोग एकदूसरे से ज्यादा मतलब नहीं रखते. पड़ोसियों का कभी एकदूसरे से सामना हो जाता है तो आधुनिकता का लबादा ओढ़े लेडीज, ‘हाय, हाऊ आर यू’ कहती हुई आगे निकल जाती हैं. जैंट्स को तो वैसे भी आसपड़ोस से ज्यादा कुछ लेनादेना नहीं होता. सुबह घर से काम के लिए निकलते हैं तो शाम तक, यदि बिजनैसमैन हुए तो रात तक, घर लौटते हैं. घर की जिम्मेदारी उन की पत्नियां उठाती हैं. मतलब, घर उन्हीं की देखरेख में चल रहा होता है.

10 साल बीत चुके थे स्मिता को शादी कर दिल्ली की इस हाई सोसाइटी में रहते हुए. आज सुबह से सोसाइटी में सुगबुगाहट थी. सोसाइटी के व्हाट्सऐप ग्रुप में स्मिता के पति सुमित की मौत की खबर सब को मिल चुकी थी. ज्यादातर लोग सुमित और स्मिता को जानते थे.
वक्त की किताब के पन्ने उलटें, तो अभी की बात लगती है.

स्मार्ट, पढ़ीलिखी, सुंदर स्मिता चंड़ीगढ़ में पैदा हुई. वहीं उस ने अपनी पढ़ाई पूरी की. फैशन के मामले में चंड़ीगढ़ की लड़कियां दिल्ली की लड़कियों से पीछे नहीं हैं. छोटे शहरों में लड़कियां खूब स्कूटी चलाती हैं क्योंकि वहां दिल्ली की तरह यातायात के साधन खास नहीं होते. एक तरह से वे पूरी तरह सैल्फ इंडिपैंडैंट होती हैं, इतनी तो दिल्ली की लड़कियां भी तेज नहीं होतीं. मतलब इस सब का यही है कि स्मिता आत्मविश्वास से भरी, लोगों से मेलमिलाप रखने वाली, खुशमिजाज लड़की थी जब उस की शादी सुमित से हुई थी.

सुमित तो जैसे दीवाना ही हो गया था स्मिता को देख कर जब पहली बार उन की मुलाकात हुई थी. हुआ यों था कि सुमित के दोस्तों के ग्रुप में उदय की शादी सब से पहले तय हुई थी. सब के लिए बरात में जाने, डांस करने, मस्ती मारने का अच्छा मौका था. और बरात जा रही थी चंड़ीगढ़.

एकदूसरे से सुमित और स्मिता वहीं मिले थे. शीना स्मिता की बैस्ट फ्रैंड थी. शीना ने स्मिता से पहले ही बोल दिया था कि शादी के एक हफ्ते पहले ही वह अपना ताम झाम ले कर उस के घर आ जाएगी और शादी होने के बाद ही घर वापस जाएगी. स्मिता भी कम उत्साहित नहीं थी शीना के विवाह को ले कर. स्मिता शीना का पूरा हाथ बंटा रही थी शादी की खरीदारी करने में. शीना की बात मानते हुए वह एक हफ्ते पहले ही शीना के घर रहने आ गई थी. दोनों सहेलियां रात में शादी के बाद हनीमून और उदय को ले कर खूब मस्ती, छेड़छाड़भरी बातें करतीं.

वह दिन भी आ गया जब बरात द्वार पर खड़ी थी. स्मिता कई सहेलियों के साथ द्वार पर दूल्हे से रिबन कटवाने के लिए खड़ी थी.

‘जीजाजी, इतनी भी क्या जल्दी है, फटाफट से 10 हजार रुपए का नेग दीजिए, रिबन काटिए, और फिर अंदर आइए. और हां, शीना से मिलने की इतनी जल्दी है तो नेग डबल कर दीजिए. हम हैं न, शौर्टकट से सब मामला सैट कर देंगे.’
‘उस की कोई जरूरत नहीं, वो देखिए, सामने से अंकलआंटी और सब आ रहे हैं. खुद ही हमें प्यार से अंदर ले जाएंगे,’ उस तरफ से सुमित बोला.
और वाकई अंकलआंटी ने आते ही कहा, ‘अरे बेटा, क्यों रोक रखा है दूल्हेराजा को?’
‘अंकलजी, बिना नेग लिए ये अंदर कैसे आ सकते हैं?’ स्मिता इठलाते हुए बोली.
‘बेटा, नेग क्या कहीं भागा जा रहा है. पहले ही बहुत देर हो गई. सब को आने दो. चलो, सब साइड हो जाओ. तुम्हारी आंटी को दूल्हे का तिलक करना है.’
दूल्हा और उस के दोस्त बड़ी शान से अंदर आए और सुमित ने साइड में खड़ी स्मिता को आंख मार दी. इस से स्मिता और भी  झल्ला गई.
इस के बाद तो पूरी शादी और विदाई होने तक स्मिता और सुमित की नोक झोंक चलती रही. बरात दुलहन को ले कर वापस दिल्ली लौट रही थी, तो सारे दोस्त सुमित को छेड़ रहे थे, ‘भई, लगता है जल्दी ही दोबारा चंड़ीगढ़ बराती बन कर आना पड़ेगा.’

वाकई सुमित अपना दिल चंड़ीगढ़ में स्मिता के पास ही छोड़ आया था. मम्मी के पीछे पड़ कर उस ने स्मिता से शादी के लिए इतना जोर दिया कि एक महीने बाद स्मिता दुलहन बन कर सुमित के घर आ गई थी.
‘चट मंगनी पट ब्याह, मैं तो इसी में विश्वास रखता हूं,’ हनीमून पर सुमित स्मिता से अकसर यह बात कह उसे अपने प्यार की दीवानगी दिखाता रहा था.
खुशी के दिन पंख लगा कर उड़ जाते हैं और बुरे दिन कुछ ही दिनों के लिए आते हैं लेकिन लगता है हम मानो वर्षों से उसी में जी रहे हैं.
स्मिता 2 बच्चों की मां बन चुकी थी. जिंदगी का हर लमहा खुशगवार गुजर रहा था. कोई चिंता नहीं थी उसे. सुमित का अच्छाखासा बिजनैस था. पैसे की कमी का सवाल ही नहीं था.

सोमा काकी बरसों से उन के घर पर काम कर रही थीं. एक तरह से वे घर में खानेपीने की व्यवस्था, रखरखाव, घर में आनेजाने वालों पर अपनी पूरी नजर रखती थीं. इसलिए, स्मिता घर की तरफ से बेफिक्र थी और घर के ड्राइवर शामू काका ने तो अपनी पूरी जवानी ही इस घर में गुजार दी थी. सुमित के पापा के समय के ड्राइवर थे शामू काका. पापा के गुजर जाने के बाद भी पूरी निष्ठा से इस घर की सेवा की. मम्मी को शामू पर पूरा भरोसा था. रातबेरात कहीं आनाजाना हो तो शामू के साथ कार में जाने में उन्हें पूरी तरह सुरक्षित महसूस होता था. सुमित ने बचपन से शामू काका को देखा था. स्कूल से लाना ले जाना, ट्यूशन से घर ले जाना, घर का सारा राशनपानी लाना, यहां तक कि फैक्ट्री के सामान को पूरी तरह से सुरक्षित रूप से क्लाइंट तक पहुंचाने का काम भी शामू काका बहुत निपुणता से करते.

स्मिता बहुत खुश थी अपनी जिंदगी से. शायद अपनी खुशियों पर उस की खुद की नजर लग गई थी. सुबह के 8 बज गए थे, लेकिन मम्मीजी के कमरे का दरवाजा अभी तक बंद था. ऐसा तो कभी नहीं होता. बच्चों को स्कूल के लिए तैयार कर के जब वह ऊपर अपने बैडरूम से नीचे आती थी तो मम्मीजी अकसर गार्डन में चेयर पर बैठी अखबार पढ़ती दिखतीं या फिर गार्डन में चहलकदमी करती बच्चों को बायबाय कर उन्हें प्यार से निहारती थीं. लेकिन आज क्या हुआ. बच्चों को शामू काका के साथ कार में बैठा कर स्मिता ने अंदर मम्मी के कमरे का दरवाजा धकेला तो वह खुल गया. सामने बैड पर मम्मी औंधेमुंह लेटी थीं और हाथ नीचे लटका हुआ था. यह देख कर स्मिता की घुटी चीख निकल गई.
‘सुमित….सुमित…,’ चिल्लाने लगी, ‘सुमित, देखो मम्मीजी को क्या हो गया.’
रात में मम्मीजी को दिल का दौरा पड़ा था. उठने की कोशिश की होगी शायद लेकिन औंधेमुंह पलंग पर गिर गईं.

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स्मिता तुम फिक्र मत करो- भाग 2: क्या वापस लौटी खुशियां

मम्मीजी की जीवनडोर टूट चुकी थी. उन का इस तरह अचानक से चले जाना स्मिता और सुमित के लिए  झटके से कम नहीं था. सुमित तो जैसे पूरी तरह से टूट गया था. मां से बहुत ज्यादा लगाव था. वैसे भी, जब वह 10वीं में गया ही था, पापा की ब्रेन हैमरेज से मौत हो गई थी. मम्मीजी ने अकेले उसे पालापोसा था, फैक्ट्री का काम संभाला था और इतने बड़े घर को संजो कर रखा था.

एक तरह से आज वह जो भी था, मम्मी के हाथों गड़ा मजबूत व्यक्तित्व था. उन के जाने से वह भीतर से टूट गया था.

फैक्ट्री का काम तो उस ने बीबीए की पढ़ाई के बाद ही संभाल लिया था लेकिन मम्मी के होते बिजनैस की ओर से वह ब्रेफिक्र था क्योंकि इंपौर्टेंट डिसीजन तो वही लेती थीं.

खैर, वक्त के साथसाथ सब सामान्य हो जाएगा, यह सोच कर स्मिता सुमित को हर तरह से खुश रखने की कोशिश करती. सुमित एक शाम फैक्ट्री से आया तो हलका बुखार महसूस कर रहा था.

स्मिता घबरा सी गई. पिछले महीने से पूरे देश में मंडराती कोरोना वायरस की महामारी ने सभी को दहशत में डाल दिया था.

सरकार द्वारा लोगों को पूरी एहतियात बरतने की सलाह दी जा रही थी. टीवी चैनलों में यही न्यूज छाई हुई थी. मानव से मानव में होने वाली इस बीमारी की चपेट में पूरा विश्व आ गया था.

बच्चों के स्कूल तो बंद हो गए थे. स्मिता ने सुमित को फैक्ट्री जाने से मना किया था. लेकिन सुमित का कहना था कि हो सकता है देशभर में लौकडाउन की स्थिति बन जाए, इसलिए वह फैक्ट्री का काम काफी हद तक समेटना चाहता है ताकि आगे दिक्कत न हो, लेकिन इंसान अपनेआप को कितना ही बचा ले, प्रकृति के आगे उस की एक नहीं चलती.

दिल्ली में जैसे ही लौकडाउन का ऐलान हुआ, उस से एक दिन पहले सुमित कोरोना वायरस की चपेट में आ चुका था.

स्मिता ने बच्चों को ऊपर के फ्लोर में ही रहने की हिदायत दे दी थी. सोमा काकी थीं, तो स्मिता को बच्चों की फिक्र करने की जरूरत नहीं थी. सुमित की बिगड़ती हालत देखते हुए उसे अस्पताल में भरती करा दिया गया.

अस्पताल जाने से पहले सुमित बोला था, ‘सुमि, लगता है अब तुम्हें, बच्चों को, इस घर को दोबारा नहीं देख पाऊंगा. सुमि, मैं तुम से, बच्चों से, इस घर से बहुत प्यार करता हूं. मु झे मरना नहीं है, प्लीज, मु झे बचा लो. मैं तुम सब को छोड़ कर जाना नहीं चाहता. सुमि, मु झे लग रहा है मौत मु झे बुला रही है. नहीं सुमि, नहीं, मु झे नहीं छोड़ना तुम्हारा साथ.’

स्मिता का रोरो कर बुरा हाल था. सुमित की यह हालत उस से भी नहीं देखी जा रही थी. लेकिन करती भी क्या वह, उस के हाथ में हो तो अपनी जिंदगी उस के नाम लिख देती.

अस्पताल में एक बार मरीज को भरती कराने के बाद उस से मिलना मुश्किल था. सुमित के साथ वहां अस्पताल में क्या हो रहा है, कुछ दिनों तक तो पता ही नहीं चला. टीवी पर अस्पताल के बुरे हालात, मरीज के साथ बरती जाने वाली लापरवाही और मरीजों की मौत के बाद उन के शरीर के साथ अमानवीयता देख स्मिता सिहर उठती थी. फोन की हर घंटी किसी आशंका का संकेत देती थी और वाकई उस की आशंका सच में बदल गई. सुमित नहीं बच पाया था.
यह सुनते ही स्मिता जैसे पत्थर हो गई थी. सोमा काकी न होतीं तो शायद आज वह भी जिंदा न होती.

मम्मीजी की मौत को 2 महीने भी नहीं हुए थे, और सुमित का उसे यों अचानक छोड़ कर चले जाना. ऊपर से लौकडाउन की वजह से कोई घर नहीं आ सकता था. कोई पास आ कर उसे गले नहीं लगा सकता था. कोई पास नहीं था कि वह उस के कंधे पर सिर रख कर रो सके. बस, एक सोमा चाची थीं जिन की गोद में वह सिर रख सकती थी. वे ममता की मूरत बन स्मिता को संभाले हुए थीं. बच्चे तो कुछ सम झ नहीं पा रहे थे कि सब क्या हो रहा है. 8 साल का अवि कुछकुछ सम झ रहा था लेकिन 2 साल की परी तो अभी नादान थी.
अस्पताल से सुमित के पार्थिव शरीर को ले कर अंतिम संस्कार करना था. शामू काका स्मिता के साथ थे, वरना अभी तक तो स्मिता की हिम्मत टूट चुकी थी. कोई अपना सगासंबंधी नहीं था. लौकडाउन की हालत में चंड़ीगढ़ से किसी का आना मुश्किल था. अड़ोसीपड़ोसी फोन पर ही अफसोस जता रहे थे. सुमित का दोस्त उदय जरूर काफी मदद कर रहा था. सुमित उस का बचपन का दोस्त था, वह स्मिता को क्या दिलासा देता, उस के भी आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे.
स्मिता असहाय महसूस कर रही थी अपने को. सामान्य दाहसंस्कार तो दूर की बात थी, स्मिता सुमित के शरीर को छू भी नहीं सकती थी, वह सुमित जिस के बिना वह जीने की कल्पना नहीं कर सकती थी. कितनी बेबस थी वह, चीखचीख कर रोना चाहती थी, लेकिन सुनने वाला कोई नहीं था.
किसी तरह शवदाहगृह में क्रियाकर्म हुआ. अचानक सब क्या हो गया था. स्मिता की तो दुनिया ही बदल गई थी.
3 महीने गुजर गए थे सुमित को गुजरे हुए लेकिन स्मिता सदमे से उबरी नहीं थी. अवि और परी उस के पास आते और कहते, ‘मम्मी, खेलो न हमारे साथ,’ तो स्मिता खोईखोई आंखों से, बस, उन्हें देख कर सिर पर हाथ फेर फिर न जाने कहां खो जाती.
कोशिश कर रही वह खुद को संभालने की, लेकिन हो नहीं पा रहा था. ऐसे में सोमा काकी ही एक मां की तरह उसे संभाल रही थीं. गांव से तो उन का नाता कब का टूट गया था. पति की मौत के बाद ससुराल वालों ने उन्हें एक तरह से घर से निकाल दिया था. आस न आलौद. शहर आईं तो इस घर में उन्हें ऐसा आसरा मिला, कि यहीं की हो कर रह गईं.

रोज चंड़ीगढ़ से मम्मीपापा का फोन आता था. मम्मी रोतीं उसे तसल्ली देतीं. मम्मी के पैरों में दर्द रहता था और पापा की हार्टसर्जरी हो चुकी थी, इसलिए स्मिता ने उन्हें सख्त मना कर दिया कि कोई जरूरत नहीं दिल्ली आने की. अपनी सेहत का खयाल रखो. आ कर भी अब क्या हो जाएगा, सुमित वापस तो नहीं आ जाएगा.

स्मिता ने अब कभीकभी फैक्ट्री जाना शुरू कर दिया था. अनलौक की प्रक्रिया काफी हद तक शुरू हो गई थी. उन का टेप का बिजनैस था. छोटी से ले कर बड़ी हर तरह की टेप बनती थी उन की फैक्ट्री में. कोरोनाकाल में पीपीई किट के लिए टेप का इस्तेमाल होता है. फैक्टी का मैनेजर विशाल बिजनैस माइंडेड इंसान था.

टेप तो फैक्ट्री में बन ही रही है क्यों न पीपीई किट खुद ही अपनी फैक्ट्री में बनाई जाए. बस, काम चल पड़ा था. विशाल ने स्मिता को सजेशन दिया कि मार्केटिंग के लिए कोई नया व्यक्ति चुन लिया जाए, क्योंकि यह काम पहले सुमित देखता था.

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स्मिता तुम फिक्र मत करो- भाग 3: क्या वापस लौटी खुशियां

स्मिता ने यह काम विशाल को सौंप दिया और सबकुछ देखभाल कर रजत को मार्केटिंग हैड नियुक्त किया गया. रजत ने काफी अच्छी तरह से काम संभाल लिया था. स्मिता कभीकभी फैक्ट्री जाती थी पैसों का हिसाबकिताब देखने. स्मिता ने कौमर्स पढ़ा था इसलिए अकाउंट्स वह देख लेती थी.
स्मिता नोट कर रही थी कि जब भी वह फैक्ट्री जाती रजत किसी न किसी बहाने से उस के नजदीक आने की कोशिश करता. वैसे रजत बुरा इंसान नहीं था लेकिन इस का ऐसा बरताव स्मिता को कुछ अटपटा लगता.

रात के 8 बज रहे थे. दरवाजे की घंटी बजी तो सोमा काकी ने दरवाजा खोला.
‘‘स्मिता मैडम हैं?’’ रजत 2-3 फाइल हाथ में पकड़े खड़ा था.
‘‘हां, लेकिन आप?’’ सोमा काकी ने पूछा.

‘‘मैं रजत, फैक्ट्री का न्यू मार्केटिंग हैड’’ रजत अपना परिचय दे ही रहा था तब तक स्मिता दरवाजे तक आ गई.
‘‘आप, इस वक्त, क्या बात है?’’ स्मिता ने आश्चर्य से पूछा.
‘‘मैडम, जरूरी कागज पर साइन चाहिए थे. क्लाइंट से बात हो चुकी है. बस आप के अप्रूवल की जरूरत थी.’’

‘‘आइए, बैठिए, लाइए पेपर दीजिए,’’ स्मिता ने रजत से पेपर ले लिए.
रजत की आंखें घर का मुआयना कर  रही थीं. साइड टेबल पर फ्रेम में अवि और परी की फोटो देख कर बोला, ‘‘बहुत प्यारे बच्चे हैं आप के मैडम.’’

‘‘हूं,’’ स्मिता बात को आगे नहीं बढ़ाना चाहती थी. पेपर साइन कर के रजत की ओर बढ़ा दिए.

सोमा काकी को रजत की आंखों में लालच नजर आया था. शामू काका से सोमा काकी को पता तो चला था कि फैक्ट्री में नया आदमी आया है और काफी अच्छा काम कर रहा है. आज देख भी लिया, लेकिन रजत सोमा को कुछ ठीक सा नहीं लगा. इंसान को देख कर पहचान लेती थीं वे. जिंदगी ने इतनी ठोकरें दी थीं कि अच्छेबुरे की पहचान कर सकती थीं.

‘‘नहींनहीं, स्मिता बिटिया को इस से बचाना होगा,’’ सोमा काकी के दिमाग में एक उपाय सू झा.
घर के पीछे बने गैराज में गईं. शामू काका वहीं रहते थे. खानापीना, नहानाधोना सब इंतजाम कर रखे थे उन के लिए.
‘‘क्या बात है, इस वक्त यहां?’’ शामू काका दूध गरम कर रहे थे. खाना तो उन्हें घर से मिल ही जाता था.
‘‘शामू, तु झे फैक्ट्री में आए नए आदमी… क्या नाम है… हां, रजत उस पर नजर रखनी है. मु झे उस के इरादे ठीक नहीं लग रहे.’’

‘‘हूं… कभीकभी मु झे भी ऐसा लगता है. जिस तरह से वह स्मिता बिटिया को देखता है मु झे बुरा लगता है. फैक्ट्री में कितने आदमी हैं लेकिन यह बिटिया के आसपास मंडराता रहता है.’’
अगले दिन जब रजत फैक्ट्री से निकला, शामू काका ने गाड़ी उस के गाड़ी के पीछे लगा दी. उस ने गाड़ी मौल की पार्किंग में खड़ी कर दी. शामू काका भी गाड़ी पार्क कर उस के पीछे हो लिए. शामू काका ने अपना हुलिया बदला हुआ था. रजत उन्हें आसानी से पहचान नहीं सकता था.
रजत मौल के फूड कोर्ट में पहुंचा. वहां कोने की टेबल पर एक लड़की उस का इंतजार कर रही थी.
‘‘मिल आए अपनी स्मिता मैडम से?’’ लड़की ने ताना देते हुए कहा.
‘‘यार, तुम भी न. सब अपने और तुम्हारे लिए तो कर रहा हूं. हाथ में आ गई तो वारेन्यारे हो जाएंगे. तुम बस मेरा कमाल देखती जाओ.’’
शामू काका एक टेबल छोड़ कर बैठे थे. लेकिन उन के कान पीछे लगे थे. अब रजत की असलियत सामने थी.
शामू ने सोमा के सामने घर पहुंचते ही रजत का फरेब सामने रख दिया.
सोमा काकी ने भी स्मिता को रजत का कमीनापन बताने में देर नहीं लगाई.
स्मिता को रजत की हरकतों पर पहले ही शक था. शामू काका की बात पर यकीन न करने का सवाल ही नहीं उठता था.

अगले ही दिन स्मिता ने मैनेजर विशाल से बात कर के एक प्लान के तहत रजत का फैक्ट्री से हिसाब ऐसे किया कि उसे यह पता नहीं चला कि स्मिता को उस की सचाई पता चल चुकी है.
स्मिता जान चुकी थी कि अब उसे कदमकदम पर फरेब करने वाले,  झूठी हमदर्दी दिखा कर अपनेपन का दिखावा करने वाले और प्यार करने का दावा करने वाले लोग मिलेंगे. उसे हर कदम फूंकफूंक कर उठाना है.

शामू काका और सोमा काकी ने भी यह ठान लिया था कि स्मिता की, इस घर की और बच्चों की हर हाल में रखवाली करेंगे. खून का न सही, दिल का रिश्ता जुड़ा था उन का इन सब से.

रजत की तरह ही स्मिता को काम के सिलसिले में ऐसे लोग मिल जाते थे जिन्हें स्मिता की धनदौलत से बेशक मतलब न था लेकिन उस जैसी सुंदर, स्मार्ट, अकेली औरत को देख कर उसे पाने की उन्होंने कोशिशें कीं कि शायद दांव लग जाए. लेकिन स्मिता ने अपने दिल में सुमित को बैठा रखा था. कोई दूसरा उस में घुस नहीं सकता था.

स्मिता की मम्मी का आएदिन फोन आता और दबी जबान में उन की यही ख्वाहिश होती थी कि बेटी अपनी जिंदगी के बारे में एक बार फिर से सोचे. अभी उम्र ही क्या थी उस की. महज 34 साल की थी. लेकिन स्मिता बात को दूसरी तरफ मोड़ देती थी.

स्मिता के पीछे पड़ने वाले भौंरों की कमी न थी. एक बड़े होलसेल डीलर, जो लाखों का और्डर देते थे, स्मिता से मिलने के बाद 2 करोड़ रुपए के माल खरीदने का और्डर दे गए और कच्चा माल उधार में दिलवा दिया अलग. वे अब हर दूसरेतीसरे दिन आने लगे, तो शामू काका को शक हुआ. उन्होंने बाहर खड़ी डीलर की गाड़ी के ड्राइवर को बुला कर चाय पिलाना शुरू कर दिया. ड्राइवर ने बताया कि साहब की पत्नी कई साल से अलग रह रही है क्योंकि ये इधरउधर मुंह मारते रहते हैं.

एक बार फिर शामू काका ने स्मिता को संकट से निकाला. शामू काका ने कहा था कि बड़े मालिक ने उन्हें 10 साल की उम्र से रखा हुआ है और अब भी उन का अपना कोई नहीं है. वे बचपन में कब अनाथ हो गए थे, उन्हें नहीं मालूम. बस, इतना मालूम है कि उन के गांव के चाचा बड़े मालिक के पास किसी पुराने कर्मचारी की सिफारिश पर छोड़ गए थे.

सोमा काकी अकसर स्मिता को अकेले में बैठी आंसू बहाते देखती थीं. वे भी चाहती थीं कि स्मिता को अपने जीवन की खुशियां मिलें, लेकिन वे क्या कर सकती थीं अपनी इस बिटिया के लिए.

‘‘मम्मी, संडे को मेरी क्लास में चिराग का बर्थडे है. उस के पापा ने पार्टी रखी है. उस ने मु झे भी इन्वाइट किया है,’’ अवि बोला.
‘‘ठीक है, शामू काका तुम्हें ले जाएंगे.’’

संडे को अवि तैयार हो कर शामू काका के साथ चिराग के घर चला गया. उसे कार में बैठा स्मिता जब घर के अंदर आई तो टीवी खोल कर बैठ गई. अचानक साइड टेबल पर नजर गई तो गिफ्ट तो वहीं रखा हुआ था. वैसे तो शामू काका को फोन कर के वापस बुला सकती थी लेकिन काफी देर हो चुकी थी और वह नहीं चाहती कि शामू काका अवि को वहां अकेला छोड़ कर आएं.

स्मिता ने सोचा, क्यों न वह ही दे आए, लौटते हुए बुटीक से अपने कपड़े भी लेती आएगी. कई बार फोन आ चुका था कि उस के सूट सिल कर रेडी हैं.

स्मिता ने फटाफट कपड़े बदले और दूसरी गाड़ी निकाल कर चिराग के घर पहुंच गई. चिराग के घर का पता उस ने शामू काका को लिख कर दिया था, इसलिए उसे याद था.

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बैकुंठ- भाग 1: क्या हुआ था श्यामचरण के साथ

दुनियाभर को जतातेफिरते श्यामाचरण के लिए आज मालती ने भी व्रत रखा है, इस से उन की इज्जत बढ़ जाती. अपने से ढेर सारे फलफलाहारी, फेनीवेनी, पूजासामग्री, उपहार, साड़ी, चूड़ी, आल्ता, बिंदी सब ले आते. सरगई का इंतजाम करना जैसे उन्हीं की जिम्मेदारी हो.

‘‘लो ब्लडप्रैशर रहता है न तुम्हारा, व्रत का क्या मतलब,’’ रैमचो भैया ने मालती को समझाया.

चेहरा

20 वर्ष की आयु में व्यक्ति का जो चेहरा रहता है, वह प्रकृति के उतारचढ़ाव की देन है लेकिन 50 वर्ष की आयु का चहेरा व्यक्ति की अपनी कमाई है.

सरिता बाथरूम में नहाते हुए लगातार श्यामाचरण की कंपकंपाती स्वरलहरी गूंज रही थी. उन की पत्नी मालती उन के कोर्ट जाने की तैयारी में जुटी कभी इधर तो कभी उधर आजा रही थी. श्यामाचरण अपनी दीवानी कचहरी में भगत वकील नाम से मशहूर थे. मालती ने पूजा के बरतन धोपोंछ कर आसन के पास रख दिए, प्रैस किए कपड़े बैड पर रख दिए, टेबल पर जल्दीजल्दी नाश्ता लगा रही थी. मंत्रपाठ खत्म होते ही श्यामाचरण का, ‘देर हो रही है’ का चिल्लाना शुरू हो जाता. मुहूर्त पर ही उन्हें कोर्ट भी निकलना होता. आज 9 बज कर 36 मिनट का मुहूर्त पंडितजी ने बतलाया था. श्यामाचरण जब तक कोर्ट नहीं जाते, घर में तब तक अफरातफरी मची रहती. लौटने पर वे पंडित की बतलाई घड़ी पर ही घर में कदम रखते.

बड़ा बेटा क्षितिज और बहू पल्लवी, बेटी सोनम और छोटा बेटा दक्ष सभी उन की इस पुरानी दकियानूसी आदत से परेशान रहते, पर उन का यह मानना था कि वे ऐसा कर के बैकुंठधाम जाने के लिए अपने सारे दरवाजे खोलते जा

रहे हैं.

यों तो श्यामाचरण चारों धाम की यात्रा भी कर आए थे और आसपास के सारे मंदिरों के दर्शन भी कर चुके थे, फिर भी सारे काम ठीकठाक होते रहें और कहीं कोई अनर्थ न हो जाए, इस आशंका से वे हर कदम फूंकफूंक कर रखते और घर वालों को भी डांटतेडपटते रहते कि वे भी उन के जैसे विधिविधानों का पालन किया करें.

‘‘अम्मा, अब तो हद ही हो गई, आज भी पापाजी की वजह से मेरा पेपर छूटतेछूटते बचा. अब से मैं उन के साथ नहीं जाऊंगा, बड़ी मुश्किल से मुझे परीक्षा में बैठने दिया गया, पिं्रसिपल से माफी मांगनी पड़ी कि आगे से ऐसा कभी नहीं होगा,’’ दक्ष पैंसिलबौक्स बिस्तर पर पटक कर गुस्से में जूते के फीते खोलने लगा और बोलता रहा, ‘‘फिर मुझे राधे महाराज वाले मंदिर ले गए, शुभमुहूर्त के चक्कर में उन्होंने जबरदस्ती 10 मिनट तक मुझे बिठाए रखा कि परीक्षा अच्छी होगी. जब परीक्षा ही नहीं दे पाता तो क्या खाक अच्छी होती. उस राधे महाराज का तो किसी दिन, दोस्तों से घेर कर बैंड बजा दूंगा.’’

‘‘ऐसा नहीं कहते दक्ष,’’ मालती ने उसे रोका, उसे दक्ष के कहने के ढंग पर हंसी भी आ रही थी. श्यामाचरण के अंधभक्ति आचरण और पंडित राधे महाराज की लोलुप पंडिताई ने, जो थोड़ीबहुत पूजा वह पहले करती थी, उस से भी उसे विमुख कर दिया. लेकिन चूंकि पत्नी थी, इसलिए वह उन का सीधा विरोध नहीं कर पा रही थी. मन तो बच्चों के साथ उस का भी कुछ यही करता इस महाराज के लिए जो बस अपना उल्लू सीधा कर पैसे बटोरे जा रहा है.

सोनाक्षी, क्षितिज और पल्लवी सब अपनीअपनी जगह इन मुहूर्त व कर्मकांड के ढकोसलों से परेशान थे. सोनाक्षी को महाराज के कहने पर अच्छा वर पाने के लिए जबरदस्ती 72 सोमवार के व्रत रखने पड़ रहे थे. पता नहीं कौन सा ग्रहदोष बता कर पूजा व उपवास करवाए जा रहे थे. सोमवार के दिन कालेज में उस की अच्छी खिंचाई होती.

‘अरे भई, सोनाक्षी को पढ़ाई के लिए अब क्यों मेहनत करनी है, इस की लाइफ तो इस के व्रतों को सैट करनी है. पढ़लिख कर भी क्या करना है, बढि़या मुंडा मिलेगा इसे. अपन लोगों का तो कोई चांस ही नहीं,’ सब ठिठोली करते, ठठा कर हंस पड़ते.

बड़ा बेटा क्षितिज भी धार्मिक ढकोसलों से परेशान था. एक दिन उस ने छत की टंकी में गिरी बिल्ली को जब तक निकाला तब तक वह मर ही गई. श्यामाचरण ने सारा घर सिर पर उठा लिया, ‘‘अनर्थ, घोर अनर्थ, बड़ा पाप हो गया. नरक में जाएंगे सब इस के कारण,’’ उन्होंने फौरन राधे महाराज को फोन खड़खड़ा दिया. राधे पंडित को तो लूटने का मौका मिलना चाहिए, वे तुरंत सेवा में हाजिर हो गए.

‘‘मैं यह क्या सुन रहा हूं. यजमान से ऐसा पाप कैसे हो गया, मंदिर में अब कम से कम सवा किलो चांदी की बिल्ली चढ़ानी पड़ेगी. 12 पंडितों को बुला कर 7 दिनों तक लगातार मंत्रोच्चारहवन तथा भोजन कराना पड़ेगा, फिर घर के सभी सदस्य गंगास्नान कर के आएंगे, तभी जा कर शुद्धि हो पाएगी. बैकुंठ धाम जाना है तो यजमान, यह सब करना ही पड़ेगा,’’ राधे महाराज ने पूजाहवन के लिए सामग्री की अपनी लंबी लिस्ट थमा दी. उस में सारे पंडितों को वे कपड़ेलत्ते शामिल करने से भी नहीं चूके थे. क्षितिज को बड़ा क्रोध आ रहा था. एक तो पैसे की बरबादी, उस पर औफिस से जबरदस्ती छुट्टी लेने का चक्कर. औफिस में कारण बताए भी तो क्या. जिस को बताएगा, वह मजाक बनाएगा.

‘‘मैं तो इतनी छुट्टी नहीं ले सकता. आज रविवार है, फिर पूरा एक हफ्ते का चक्कर. हवन के बाद सब के साथ एक दिन भले ही चांदी की बिल्ली मंदिर में चढ़ा कर गंगास्नान कर आऊं, वह भी सवा किलो की नहीं, केवल नाम की, पापाजी की तसल्ली के लिए,’’ क्षितिज खीझ कर बोला.

‘‘पापाजी इस के लिए मानेंगे कैसे? सब की बोलती तो उन के सामने बंद हो जाती है. अम्माजी ही चाहें तो कुछ कर सकती हैं,’’ पल्लवी अपने बेटे किशमिश को साबुन लगाती हुई बोली. 4 साल का शरारती किशमिश श्यामाचरण की नकल करते हुए खुश हो, कूदकूद कर अपने ऊपर पानी डालने लगा.

‘‘तिपतिप, हलहल दंदे…हलहल दंदे,’’ वह उछलकूद मचा रहा था, पल्लवी भी गीली हो गई.

‘‘ठहर जा बदमाश, दादाजी की नकल करता है, अम्माजी देखो, आप ही नहला सकती हो इसे,’’ पल्लवी ने आवाज लगाई.

‘‘अम्माजी, आप ही इस शैतान को नहला सकती हैं और इन के पापा की समस्या भी आप ही सुलझा सकेंगी, देखिए, कल से मुंह लटकाए खड़े हैं,’’ मालती के आने पर पल्लवी मुसकराई और कार्यभार उन्हें सौंप कर अलग

हट गई.

‘‘सीधी सी बात है, पंडित पैसों के लालच में यह सब पाखंड करते हैं. कुछ पैसे उन्हें अलग से थमा दो, कुछ नए उपाय ये झट निकाल लेंगे. न तुम्हें छुट्टी लेनी पड़ेगी, न कुछ. तुम्हारी जगह तुम्हारे रूमाल से भी वे काम चला लेंगे. इतने लालची होते हैं ये पंडित.

मैं सब जानती हूं पर सवा किलो की चांदी की बिल्ली की तो बात पापाजी के मन में बचपन से ही धंसी है, मानेंगे नहीं, दान करेंगे ही वरना उन के लिए बैकुंठ धाम के कपाट बंद नहीं हो जाएंगे?’’ वह हंसी, फिर बोली, ‘‘मैं तो 30 सालों से इन का फुतूर देख रही हूं. मांजी थीं, सो पहले वे कुछ जोर न दे सकीं वरना उस वक्त की मैं संस्कृत में एमए हूं, क्या इतना भी नहीं जानती थी कि ये पंडित क्या और कितना सही मंत्र पढ़ते हैं, अर्थ का अनर्थ और अर्थ भी क्या, देवताओं के काल्पनिक रूप, शक्ति, कार्यों का गुणगान. फिर हमें यह दे दो, वह दे दो. हमारा कल्याण करो. बस, खुद कुछ न करो. खाली ईश्वर से डिमांड. बस, यही सब बकवास. अच्छा हुआ जो संस्कृत पढ़ ली, आंखें खुल गईं मेरी, वरना धर्म से डर कर इन व्यर्थ के ढकोसलों में ही पड़ी रहती,’’ मालती किशमिश को नहला कर उसे तौलिये से पोंछती मुसकरा रही थी.

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