Famous Hindi Stories : लुकाछिपी

Famous Hindi Stories : एकतरफ दाल का तड़का तैयार करते और दूसरी तरफ भिंडी की सब्जी चलाते हुए मेरा ध्यान बारबार घड़ी की तरफ जा रहा था. मन ही मन सोच रही थी कि जल्दी से रोटियां सेंक लेती हूं. याद है मुझे जतिन के स्कूल से लौटने से पहले मैं रोटियां सेंक कर रख लेती थी फिर हम मांबेटे साथ में लंच करते. जिस दिन घर में भिंडी बनती वह खुशी से नाचता फिरता.

एक दिन तो बालकनी में खड़ा हो चिल्लाचिल्ला कर अपने दोस्तों को बताने लगा, ‘‘आज मेरी मां ने भिंडी बनाई है.’’

आतेजाते लोग भी उस की बात पर हंस रहे थे और मेरा बच्चा बिना किसी की परवाह किए खुश था कि घर में भिंडी बनी है. यह हाल तब था जब मैं हफ्ते में 3 बार भिंडी बनाती थी. खुश होने के लिए बड़ी वजह की जरूरत नहीं होती, यह बात मैं ने जतिन से सीखी.

अब साल में एक ही बार आ पाता है और वह भी हफ्तेभर के लिए. इतने समय में न आंखें भरती हैं उसे देख कर और न ही कलेजा. कितना कहता है कि मेरे साथ चलो. मैं तो चली भी जाऊं लेकिन नरेंद्र तैयार नहीं होते. कहते हैं कि अपने घर में जो सुकून है वह और कहीं नहीं, कोई पूछे इन से बेटे का घर अपना घर नहीं होता क्या. किसी तरह के बदलाव को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होते.

खाना बन गया, खुशबू अच्छी आ रही थी. शिप्रा को मेरी बनाई दाल बहुत पसंद है इसलिए जब बच्चे आते हैं तो मैं दोनों की पसंद का खयाल रखते हुए खाना बनाती हूं. उम्र के साथ शरीर साथ नहीं देता मगर बच्चों के लिए काम करते हुए थकान महसूस ही नहीं होती. सारा काम निबटा डाइनिंगटेबल पर जा बैठी और शाम के लिए मटर छीलने लगी. नरेंद्र बाहर बरामदे में उस अखबार को फिर से पढ़ रहे थे जिसे वे सुबह से कम से कम 4 बार पढ़ चुके थे. सच तो यह है कि यह अखबार सिर्फ बहाना है वे बरामदे में बैठ कर बच्चों का इंतजार कर रहे थे. पिता हैं न, खुल कर अपनी भावना जता नहीं सकते.

जब जतिन छोटा था तो एक खास आदत थी मेरी, जतिन के स्कूल से लौटने से पहले मेन डोर खोल कर घर के किसी कोने में छिप जाती.

‘‘मां. कहां हो मां?’’ कहता हुआ जतिन घर में दाखिल होता. बैग एक तरफ रख मुझे खोजता और मैं… मैं बेटे की आवाज सुन तृप्त हो जाती… एक सुकून मिलता कि मेरे बच्चे को घर में घुसते ही सब से पहले मेरी याद आती है.

जतिन मुझे देखता और गले लग जाता, ‘‘मैं तुम्हें ढूंढ़ रहा था मां, तुम्हारे बिना मेरा कहीं मन नहीं लगता.’’

‘‘मेरा भी तेरे बिना मन नहीं लगता मेरे बच्चे.’’

उस एक पल में हम मांबेटे एकदूसरे के प्यार को कहीं गहराई में महसूस करते. यह हमारा रूटीन था. जब से जतिन ने स्कूल जाना शुरू किया तब से कालेज में आने तक. बहुत बार नरेंद्र, मांबेटे को इस खेल के लिए चिढ़ाते, ‘‘अब भी तुम मांबेटे वही बचकाना खेल खेलते हो… पागल हो दोनों.’’

उन की बात पर मैं बस मुसकरा कर रह जाती और जतिन प्यार से मेरे गले में लग जाता. यह सिर्फ खेल नहीं हम दोनों का एकदूसरे के लिए प्यार जताने का तरीका था.

जतिन बचपन से ही दूसरे बच्चों से अलग था. पढ़ने में तेज, सम?ादार और उम्र से ज्यादा जिम्मेदार. उस ने कभी न तो दूसरे बच्चों की तरह जिद की और न ही कभी परेशान किया. मांबेटे की कुछ अलग ही बौंडिंग थी, बिना कहे एकदूसरे की बात समझ जाते. पढ़ीलिखी होने के बावजूद मैं ने जतिन को अच्छी परवरिश देने के लिए नौकरी न करने का फैसला लिया था और अपना सौ प्रतिशत दिया भी.

जतिन के स्कूल से लौटने के बाद मेरा सारा वक्त उसी के लिए था. साथ खाना और खाते हुए स्कूल की 1-1 बात जब तक नहीं बता लेता जतिन को चैन नहीं मिलता.

अपनी टीनऐज में भी दोस्तों के साथ होने वाली बातें मुझसे साझा करता और मैं बिना टोके सुनती. बाद में उन्हीं बातों में क्या सही है और क्या गलत, उसे बता देती. वह मेरी हर बात मानता भी था.

‘‘बात हुई क्या जतिनशिप्रा से?’’ नरेंद्र की आवाज से मैं वर्तमान में लौटी.

‘‘हां, शिप्रा से बात हुई थी 3 बज जाएंगे उन्हें आतेआते. आप खाना खा लो.’’

‘‘नहीं, बच्चों के साथ ही खाऊंगा. अच्छा सुनो. तुम ने अपने छिपने की जगह तो सोच ली होगी न. आज भी तुम्हारा लाड़ला तुम्हें ढूंढ़ेगा?’’

नरेंद्र की बात में एक तरह का तंज था जिस का जवाब मेरे पास नहीं था. क्या हम मांबेटे का प्यार इस उम्र में प्रमाण मांगता है? पता नहीं मैं खुद को तर्क दे रही थी या सचाई से मुंह मोड़ रही थी. जानती हूं कि वह उस का बचपन था, अब वह एक जिम्मेदार पति और पिता बन चुका है.

शिप्रा, जतिन के साथ कालेज में पढ़ती थी. कालेज के आखिरी ऐग्जाम के बाद जतिन ने अपने खास दोस्तों को लंच पर बुलाया. शिप्रा भी आई थी. इस से पहले मैं ने जतिन से बाकी दोस्तों की तरह ही शिप्रा का जिक्र सुना था.

जब बाकी सब मस्ती कर रहे थे, शिप्रा मेरे पास किचन में आ गई, ‘‘आंटी, कुछ हैल्प करूं?’’

उस की आवाज में अनजाना सा अपनापन लगा.

‘‘नहीं बेटा, सब हो गया तुम चलो सब के साथ ऐंजौय करो.’’

मगर वो मेरे साथ रुकी रही.

खापी कर, मस्ती कर के सब चले गए. मैं रसोई समेट रही थी. जतिन मेरे साथ कांच के बरतन पोंछने लगा.

‘‘हां बोल.’’

‘‘मां वह…’’

‘‘करती हूं पापा से बात, वैसे मुझे पसंद

है शिप्रा.’’

‘‘मां… आप कैसे समझाऊं?’’

‘‘मां हूं, तेरी आंखों में देख तेरे मन का हाल जान लेती हूं. कल ही जान गई थी कि किसी खास दोस्त को बुलाया है तूने मुझ से मिलवाने के लिए.’’

‘‘मां तुम दुनिया की सब से अच्छी मां हो… मुझे सब से ज्यादा जानती और समझती हो,’’ जतिन की बात सुन पहली बार मुझे कुछ खटका.

‘‘सब से ज्यादा प्यार मैं करती हूं,’’ यह बात शिप्रा को कैसी लगेगी? वैसे भी आजकल की लड़कियों को सिर्फ पति चाहिए होता है मम्माज बौय बिलकुल नहीं. मेरा जतिन तो सच में मम्माज बौय था.

अचानक कुछ दिन पहले बड़ी बहन की कही बात याद आ गई, ‘‘देख सुधा, जतिन तुझे बेहद प्यार करता है, ऐसे में जब उस की शादी होगी तब वह अपनी पत्नी को हर वक्त या तो तुझ से कंपेयर करेगा या तुझे तवज्जो ज्यादा देगा. दोनों ही हालात में उस की गृहस्थी खराब होगी. ध्यान रखना, तेरा प्यार उस की गृहस्थी न बरबाद कर दे.’’

बहन के कहे शब्द मेरे कलेजे में फांस की तरह चुभ गए. कहीं सच में मैं अपने बच्चे की गृहस्थी में दरार का कारण न बन जाऊं.

कालेज पूरा हो चुका था और जल्द ही जतिन को अच्छी नौकरी मिल गई. सैकड़ों मील दूर बैंगलुरु में. वहां से जतिन जब आता तो मैं दरवाजा खुद खोलती जिस से वह न मझे पुकार पाता और न ही खोजने की जरूरत पड़ती. इस तरह मैं ने खुद ही लुकाछिपी का खेल बंद कर दिया था.

शिप्रा के साथ जतिन की शादी हो गई. शिप्रा की समझदारी और रिश्तों के लिए सम्मान देख मेरे मन का संशय जाता रहा. मेरी कोई बेटी नहीं थी शायद इसलिए मैं जतिन से ज्यादा शिप्रा को महत्त्व देने लगी.

मेरे मन में एक बात और बैठी हुई थी कि जतिन तो मेरा अपना बेटा है ही, शिप्रा के साथ मु?ो रिश्ता मजबूत करना है. मैं कब शिप्रा को पहले और जतिन को बाद में रखने लगी, पता ही नहीं चला.

सब ठीक चल रहा है. बच्चे अपनी जिंदगी में खुश हैं, तरक्की कर रहे हैं. हमारा पूरा ध्यान रखते हैं. कहीं, किसी भी तरह की शिकायत की गुंजाइश नहीं है फिर भी मन का कोई कोना खाली है.

घड़ी पर नजर गई. 2 बज गए थे. एक बार शिप्रा को फिर फोन करती हूं.

‘‘हैलो मां, आप को ही कौल करने वाली थी, अभी 1 घंटा लग जाएगा हमें. आप दोनों खाना खा लो. मैडिसिन भी लेनी होती है न.’’

उस की आवाज में बेटी जैसा प्यार और मां जैसा अधिकार था.

‘‘अच्छा ठीक है.’’

‘‘दादी… दादी, मुझे पास्ता खाना है.’’

3 साल की वृंदा पीछे से बोली.

‘‘ नो वृंदा… दादी ने दालराइस और भिंडी बनाई है, हम वही खाएंगे,’’ जतिन की बात सुन मैं चौंक गई.

‘‘तुझे कैसे पता चला?’’

‘‘मां, बेटा हूं तुम्हारा. यह बात अलग है कि अब तुम मुझ से ज्यादा शिप्रा और वृंदा को प्यार करती हो और…’’ कहता हुआ जतिन चुप हो गया.

‘‘और क्या?’’

‘‘कुछ नहीं मां, तुम और पापा खाना खा लो.’’

बच्चों के बिना खाना खाने का जरा मन नहीं था लेकिन दवाई लेनी थी तो 2 बिस्कुट खा कर ले ली. मैसेज डाल दिया कि दवा ले ली है पर खाना साथ ही खाएंगे.

मन था कि एक जगह रुकता ही नहीं था, कभी जतिन कभी शिप्रा तो कभी वृंदा तक पहुंच रहा था. कहते हैं कि मूल से ब्याज ज्यादा प्यारा होता है बस ऐसे ही मुझे मेरी वृंदा प्यारी है. कोई दिन नहीं जाता जब वह मु?ा से वीडियो कौल पर बात नहीं करती. अब तो साफ बोलने लगी है, जब तुतलाती थी और टूटे शब्दों में अपनी बात सम?ाती थी तब भी हम दादीपोती देर तक बातें करते थे.

शिप्रा हंसा करती कि ‘‘कैसे आप इस की बात झट से समझ लेती हो, हम दोनों तो समझ ही नहीं पाते.’’

वृंदा के जन्म के वक्त हम बच्चों के पास ही चले गए थे. 4 महीने की थी वृंदा जब मैं उसे छोड़ कर वापस आई थी. एअरपोर्ट तक रोती चली आई थी. जतिन ने बहुत जिद की थी रुकने के लिए लेकिन नरेंद्र नहीं माने.

दरवाजे की घंटी से ध्यान टूटा. लगता है बच्चे आ गए. तेज चलने की कोशिश में पैर मुड़ गया और मैं लड़खड़ा कर वहीं की वहीं बैठ गई. नरेंद्र के दरवाजा खोलते ही वृंदा उन की गोद में चढ़ न जाने क्याक्या बताने लगी. सफेद रंग के टौप और छोटी सी लाल स्कर्ट में बिलकुल गुडि़या लग रही थी.

‘‘पड़ोस वाले अंकल मिल गए. जतिन उन से बात कर रहे हैं.’’  शिप्रा ने आगे बढ़ पैर छूए.

‘‘शिप्रा देखना जरा अपनी मां को… पैर में ज्यादा तो नहीं लगी, दरवाजा खोलने आते हुए पैर मुड़ गया.’’

पैर हिलाया भी नहीं जा रहा था.

‘‘अरे मां, आप के पैर पर स्वैलिंग आने लगी है. चलो, अंदर बैडरूम में पैर फैला कर बैठो. मैं स्प्रे कर देती हूं. फिर भी आराम नहीं मिला तो डाक्टर के पास चलेंगे.’’

मैं अंदर नहीं जाना चाहती थी, जतिन नहीं आया था न अब तक और मैं उस की एक झलक के लिए उतावली थी. लेकिन शिप्रा के सामने मेरी एक नहीं चली.

शिप्रा ने जैसे ही मुझे बैड पर बैठा स्प्रे किया, तभी बाहर से जतिन की आवाज आई…

‘‘मां… कहां हो मां.’’

एक पल के लिए वक्त रुक गया. मेरा जतिन मुझे पुकार रहा था. वही मेरा छोटा सा बेटा. आज भी उसे घर में घुसते ही सब से पहले मेरी याद आई थी. मेरा मातृत्व तृप्त हो गया. बिना जवाब दिए चुपचाप बैठी रही. शिप्रा सम?ा गई, उस ने भी जवाब नहीं दिया.

‘‘मैं तुम्हें ढूंढ़ रहा था मां, तुम्हारे बिना मेरा कहीं मन नहीं लगता.’’

‘‘मेरा भी तेरे बिना मन नहीं लगता मेरे बच्चे,’’ मैं ने अपनी दोनों बांहें फैला दीं और जतिन मुझ से लिपट गया.

‘‘मेरा बच्चा. तू कितना भी बड़ा हो जाए, मेरे लिए वही स्कूल से लौटता मेरा बेटा रहेगा हमेशा.’’

‘‘फिर तुम ने मेरे साथ लुकाछिपी खेलना क्यों बंद कर दिया? जानती हो मैं कितना मिस करता हूं. ऐसा लगता है कि मेरी मां मुझे भूल गई, अब बस शिप्रा की मां और वृंदा की दादी बन कर रह गई हो. मां मैं कितना भी बड़ा हो जाऊं तुम्हारी ममता का पहला हकदार मैं ही रहूंगा. जानती हो न यह लुकाछिपी सिर्फ खेल नहीं था.’’

‘‘बेटा मैं डरने लगी थी कि कहीं मेरी जरूरत से ज्यादा ममता तेरे और शिप्रा के रिश्ते के बीच न आ जाए लेकिन यह नहीं सोचा कि मेरे बच्चे को कैसा लगेगा.’’

‘‘किसी रिश्ते का दूसरे रिश्ते से कोई कंपेरिजन नहीं है. मां तो तुम ही हो न मेरी. तुम ने अच्छी सास और दादी बनने के लिए अपने बेटे को इग्नोर कर दिया. कितने साल तरसा हूं मैं… ऐसा लगता था सच में मेरी मां कहीं खो गई है. प्रौमिस करो आज के बाद हमारा लुकाछिपी का खेल कभी बंद नहीं होगा,’’ जतिन ने मेरी तरफ अपनी हथेली बढ़ा दी और मैं ने अपना हाथ उस के हाथ पर रख दिया.

राइटर-  संयुक्ता त्यागी

Hindi Folk Tales : रैगिंग का रगड़ा – कैसे खत्म हुई शहरी बनाम होस्टल की लड़ाई

Hindi Folk Tales :  बात 70 के दशक की है. उन दिनों इलाहाबाद विश्वविद्यालय के तकनीकी और गैरतकनीकी संस्थानों में बिहारी छात्रों की संख्या बहुत अधिक होती थी. उन के बीच आपस में एकता और गुटबंदी भी थी. शहर में उन की तूती बोलती थी. इसलिए उन से कोई पंगा लेने का साहस भी नहीं करता था. यहां तक कि नए बिहारी छात्रों की रैगिंग भी दूसरे प्रदेशों के सीनियर छात्र नहीं ले पाते थे. अगर बिहारी छात्रों की रैगिंग होती भी थी तो बिहार के ही सीनियर छात्र करते थे.

इत्तफाक से शहर के कुछ डौन भी भोजपुर से आए थे और विश्वविद्यालय के छात्र संगठन में बिहारियों की अच्छी भागीदारी थी. उन्हीं दिनों मैं ने भी एक तकनीकी संस्थान में नामांकन कराया था और शहर के एक होटल में कमरा ले कर रहता था. तब इलाहाबाद में कई होटल ऐसे थे जिन में मासिक किराए पर खाने और रहने की व्यवस्था थी. मैं जिस होटल में रहता था उस में 150 रुपए में पंखायुक्त कमरा, सुबह की चाय और दोनों वक्त का भोजन शामिल था. नाश्ता बाहर करना होता था.

मैं मोतीहारी के एक कालेज से आया था. जहां से कई छात्र इलाहाबाद आए थे. उन में से अधिकांश होस्टल में रहते थे. नैनी स्थित एग्रीकल्चर इंस्टिट्यूट में भी बिहार के काफी छात्र थे. सब आपस में मिलतेजुलते रहते थे. उन दिनों पौकेट में चाकू रखने का बड़ा फैशन था. हम भी रखते थे.

एक दिन जब मैं अपने कालेज के होस्टल में मोतीहारी के मित्रों से मिलने गया हुआ था तो पता चला कि होस्टल के एक दादा ने रैगिंग के नाम पर एक नए लड़के की बहन की तसवीर छीन ली है और उस के बारे में अश्लील टिप्पणियां करता रहता है. लड़का पूरी बात बतातेबताते रोने लगा. हमें गुस्सा आया. रैगिंग का यह क्या तरीका है.

हम 4-5 लोग कथित दादा के कमरे में गए. चाकू निकाल कर उस की गरदन पर सटा दिया और उस लड़के की बहन की तसवीर तुरंत वापस लौटाने को कहा. उस ने तसवीर लौटा दी और बाद में देख लेने की धमकी दी. हम ने कहा बाद में क्यों, अभी देख लो और उस की जम कर पिटाई कर वहां से चल दिए. थोड़ी दूर जाने के बाद अरुण सिंह नाम के एक साथी ने कहा कि फिर होस्टल चलते हैं. मैं ने उसे समझाया कि कोई कांड करने के बाद घटनास्थल पर भूल कर भी नहीं जाना चाहिए, लेकिन वह ताव में आ गया. उस की जिद के कारण हम दोबारा होस्टल पहुंचे. तब तक माहौल काफी गरम हो चुका था. होस्टल के लड़के उत्तेजित थे. हमें देखते ही वे हम पर टूट पड़े. हमारी पिटाई हो गई और हमें कालेज के प्रिंसिपल के पास ले जाया गया. प्रिंसिपल के चैंबर के बाहर हम खड़े थे. लड़के इधरउधर खड़े थे, तभी इलाहाबाद के कुछ स्थानीय लड़के मेरे पास आए और बोले, ‘बौस, हमारे घेरे में धीरेधीरे चारदीवारी की ओर चलो और फांद कर निकल जाओ. पुलिस आने वाली है.’ तरकीब काम आ गई. मैं धीरे से चारदीवारी फांद कर सरक गया. अपने ठिकाने पर जाना खतरे से खाली नहीं था इसलिए गलीगली होता हुआ लोकनाथ पहुंचा जहां मेरे एक मित्र मंटूलाल रहते थे. उन के घर पहुंचा तो बिहार के कई छात्र चिंतित अवस्था में बैठे थे. उन्हें घटना की जानकारी मिल चुकी थी.

अब परिस्थितियों के अनुरूप रणनीति तैयार की गई. अजीत लाल ने यह सुझाव दिया कि होस्टल के युवा लड़के शहर में जहां भी दिखें उन की पिटाई की जाए और अपना आवागमन गलियों के जरिए किया जाए. इस बीच शहरी इलाके के कई युवक वहां पहुंचे और उन्होंने इस लड़ाई में हर तरह से साथ देने का वादा किया. मेरे होटल में लौटने पर रोक लग गई. हम पास के एक बिहारी लौज में रहने लगे. उस दिन हम लोकनाथ के इलाके से निकले ही थे कि एक शहरी लड़के ने सूचना दी कि होस्टल के 2 लड़के पास के सिनेमाहौल में टिकट लेने के लिए लाइन में खड़े हैं.

हम तुरंत सिनेमाहौल पहुंचे. उन्हें खींच कर बाहर ले आए. इलाहाबाद की सड़क पर मारपीट करना आसान नहीं था. हम ने एक तरकीब लगाई. उसे पीटते हुए कहा, ‘साले, छोकरीबाजी करता है.’

तभी हमारे ग्रुप के दूसरे लड़के भी वहां आ गए और शुरू हो गए देदनादन उसे बजाने में. इस बीच भीड़ इकट्ठी हो गई. लोगों को पता चला कि कुछ मजनुओं की पिटाई हो रही है तो उन्होंने भी उन्हें पीटना शुरू किया. वे अपनी सफाई देते रहे और पिटते रहे. हम धीरे से खिसक लिए और उन की पिटाई चलती रही. इस बीच शहरी लड़कों की सूचना पर हम ने उस शाम 8-10 लड़कों की इसी तर्ज पर पिटाई कर दी. अब लड़ाई शहरी बनाम होस्टल में तबदील हो चुकी थी. हम लोगों की चारों तरफ तलाश हो रही थी, लेकिन हम छापामार तरीके से हमला कर फिर गायब हो जा रहे थे.

अगले दिन से होस्टल के लड़कों का शहर में निकलना बंद हो गया. वे होस्टल में नजरबंद हो गए. इलाहाबाद के शहरी क्षेत्र के लड़कों ने होस्टल पर नजर रखी थी और हमें वहां की तमाम गतिविधियों की सूचना मिल रही थी. होस्टल के दादाओं में एक ऐसा था जो हमारे ग्रुप के एक वरिष्ठ साथी मलय दा का भानजा था. मलय दा पूरी तरह हमारे साथ थे और उसे किसी तरह की रियायत देने के खिलाफ थे, लेकिन हम ने तय किया था कि उसे बख्श देंगे. उसे भी पता था कि जब तक वह हमला नहीं करेगा हम उस पर हाथ नहीं उठाएंगे. वह किसी तरह हिम्मत कर के होस्टल से निकला और शहर के एक खुंख्वार डौन से संपर्क कर उसे अपने पक्ष में कर लिया.

हमें जानकारी मिली तो हम भी डौन लोगों से संपर्क करने लगे. शहरी खेमे का होने के कारण अधिकांश गैंगस्टर हमारे पक्ष में आ गए. सिर्फ एक डौन होस्टल वालों के पक्ष में था. मेरे होटल के सामने एक लौज में हमारे गु्रप के कई लड़के रहते थे. वही हमारा केंद्र बना हुआ था.

दोपहर में कुछ शहरी लड़कों ने सूचित किया कि होस्टल में कथित डौन के साथ सैकड़ों लड़कों की मीटिंग चल रही है. वे हमारे अड्डे पर हमला करने की तैयारी में हैं. प्रशांत और अजीत लाल ने पूछा, ‘‘तुम कितने लोग हो.’’

उस ने बताया, ‘‘हम 5-6 लोग हैं.’’

’’ठीक है, ऐसा करो कि 2 लोग मीटिंग में घुस जाओ और अफवाह फैलाओ कि हम लोग छत पर बंदूकराइफल और बम ले कर बैठे हैं. आज भयंकर कांड होने वाला है. 2 लोग होस्टल से यहां तक बीच में खड़े रहना और इसी बात को दोहराना.’’

तरकीब काम कर गई. सभास्थल पर ही इस अफवाह ने इतना असर दिखाया कि 70 फीसदी छात्र किसी न किसी बहाने खिसक गए. दूसरे गुट ने जब तेजी से आ कर यही बात दोहराई तो फिर भगदड़ मच गई. शेष बचे सिर्फ डौन और मलय चाचा के रिश्तेदार. वे भी हमारे केंद्र से 100 गज की दूरी पर तीसरे प्रोपेगंडा एजेंट के आगे घिघियाते हुए बोले, ‘‘उन लोगों को जा कर कहो कि हम लोग समझौता करना चाहते हैं.’’

उस ने आ कर बताया कि उन की हालत खराब है. इस बीच शहर के सब से बड़े डौन हमारी सुरक्षा में हमारे अड्डे से थोड़ी दूरी पर जीप लगा कर हथियारों के साथ मौजूद थे. कुछ बड़े डौन हमारे बीच आ कर बैठे थे. यूनिवर्सिटी के कुछ बड़े छात्रनेता भी हमारे बीच थे. कहा गया कि उन्हें बुला लाओ. उन के पक्ष के डौन तो अपने बड़ों की उस इलाके में चहलकदमी देख कर खिसक लिए. मलय चाचा के भानजे अकेले लौज में आए. हम ने समझौते की कई शर्तें रखीं. पहली, मुकदमा बिना शर्त वापस हो. दूसरी, होस्टल के वे लड़के जो हमारे साथ थे, उन्हें सम्मान के साथ वापस बुलाया जाए. उन पर कालेज प्रबंधन किसी तरह की दंडात्मक कार्यवाही न करे.

बौस लोगों ने भी अपनी तरफ से शहर में शांति बनाए रखने के लिए एक शर्त रखी कि दोनों पक्ष इलाहाबाद शहर के अंदर आपस में टकराव नहीं करेंगे. होस्टल के दादा लड़ाई हार चुके थे इसलिए हर शर्त मानने के अलावा उन के पास कोई चारा नहीं था. इस घटना का नतीजा यह हुआ कि पहले दिन होस्टल की घटना के बाद मोतीहारी के जो लड़के होस्टल छोड़ कर भाग गए थे. वे वापस लौटने के बाद होस्टल के बौस बन गए. पुराने बौस लोगों की हवा निकल गई. इस घटना के बाद शहर के अन्य संस्थानों में भी रैगिंग की परंपरा में कमी आई.

इधर किसी ने मेरे घर तक इस घटना की खबर पहुंचा दी और मुझे तुरंत इलाहाबाद छोड़ कर वापस लौट आने का फरमान सुना दिया गया. इलाहाबाद में लंबे समय तक यह लड़ाई चर्चा का विषय बनी रही.

Romantic Hindi Stories : क्योंकि वह अमृत है…:

Romantic Hindi Stories : सरला ने क्लर्क के पद पर कार्यभार ग्रहण किया और स्टाफ ने उस का भव्य स्वागत किया. स्वभाव व सुंदरता में कमी न रखने वाली युवती को देख कर लगा कि बनाने वाले ने उस की देह व उम्र के हिसाब से उसे अक्ल कम दी है.

यह तब पता चला जब मैं ने मिस सरला से कहा, ‘‘रमेश को गोली मारो और जाओ, चूहों द्वारा क्षतिग्रस्त की गई सभी फाइलों का ब्योरा तैयार करो,’’ इतना कह कर मैं कार्यालय से बाहर चला गया था.

दरअसल, 3 बच्चों के विधुर पिता रमेश वरिष्ठ क्लर्क होने के नाते कर्मचारियों के अच्छे सलाहकार हैं, सो सरला को भी गाइड करने लगे. इसीलिए वह उस के बहुत करीब थे.

अपने परिवार का इकलौता बेटा मैं सरकार के इस दफ्तर में यहां का प्रशासनिक अधिकारी हूं. रमेश बाबू का खूब आदर करता हूं, क्योंकि वह कर्मठ, समझदार, अनुशासित व ईमानदार व्यक्ति हैं. अकसर रमेश बाबू सरला के सामने बैठ कर गाइड करते या कभीकभी सरला को अपने पास बुला लेते और फाइलें उलटपलट कर देखा दिखाया करते.

उन की इस हरकत पर लोग मजाक करने लगे, ‘‘मिस सरला, अपने को बदल डालो. जमाना बहुत ही खराब है. ऐसा- वैसा कुछ घट गया तो यह दफ्तर बदनाम हो जाएगा.’’

असल में जब भी मैं सरला से कोई फाइल मांगता, उस का उत्तर रमेशजी से ही शुरू होता. उस दिन भी मैं ने चूहों द्वारा कुतरी गई फाइलों का ब्योरा मांगा तो वह सहजता से बोली, ‘‘रमेशजी से अभी तैयार करवा लूंगी.’’

हर काम के लिए रमेशजी हैं तो फिर सरला किसलिए है और मैं गुस्से में कह गया, ‘रमेश को गोली मारो.’ पता नहीं वह मेरे बारे में क्याक्या ऊलजलूल सोच रही होगी. मैं अगली सुबह कार्यालय पहुंचा तो सरला ने मुझ से मिलने में देर नहीं की.

‘‘सर, मैं कल से परेशान हूं.’’

‘‘क्यों?’’ मुसकराते हुए मैं ने उसे खुश करने के लिए कहा, ‘‘फाइलों का ब्योरा तैयार नहीं हुआ? कोई बात नहीं, रमेशजी की मदद ले लो. सरला, अब तुम स्वतंत्र रूप से हर काम करने की कोशिश करो.’’

वह मुझे एक फाइल सौंपते हुए बोली, ‘‘सर, यह लीजिए, चूहों द्वारा कुतरी गई फाइलों का ब्योरा, पर मेरी परेशानी कुछ और है.’’

‘‘क्या मतलब?’’ मैं ने जानना चाहा.

‘‘कल आप ने कहा था कि रमेशजी को गोली मारो. सर, मैं रातभर सोचती रही कि रमेशजी में क्या खराबी हो सकती है जिस की वजह से मैं उन को गोली मारूं. पहेलीनुमा सलाह या अधूरे प्रश्न से मैं बहुत बेचैन होती हूं सर,’’ वह गंभीरतापूर्वक कहती गई.

तभी मेरी मां की उम्र की एक महिला मुझ से मिलने आईं. परिचय से मैं चौंक गया. वह सरला की मां हैं. जरूर सरला से संबंधित कोई शिकायत होगी. यह सोच कर मैं ने उन्हें सादर बिठाया. उन्होंने मेरे सामने वाली कुरसी पर बैठने से पहले अपनी बेटी के सिर पर हाथ फेर कर उस से जाने को कहा तो वह केबिन से निकल गई.

‘‘सर, मैं एक प्रार्थना ले कर आप को परेशान करने आ गई,’’ सरला की मां बोलीं.

‘‘हां, मांजी, आप एक नहीं हजार प्रार्थनाएं कर सकती हैं,’’ मैं ने बात आगे बढ़ाई, ‘‘बताइए, मांजी.’’

वह बोलीं, ‘‘सर, मेरी सरला कुछ असामान्य हरकतें करती है. उस के सामने कोई बात अधूरी मत छोड़ा कीजिए. कल घर जा कर उस ने धरतीआसमान उठा कर जैसे सिर पर रख लिया हो. देर रात तक समझानेबुझाने के बाद वह सो पाई. बेचैनी में बहुत ही अजीबोगरीब हरकतें करती है. दरअसल, मैं उसे बहुत चाहती हूं, वह मेरी जिंदगी है. मैं ने सोचा कि यह बात आप को बता दूं ताकि कार्यालय में वह ऐसावैसा न करे.’’

मैं ने आश्चर्य व धैर्यता से कहा, ‘‘मांजी, आप की बेटी का स्वभाव बहुत कुछ मेरी समझ में आ गया है. पिछले सप्ताह से मैं उसे बराबर रीड कर रहा हूं. असहनीय बेचैनी के वक्त वह अपना सिर पटकती होगी, अपने बालों को भींच कर झकझोरती होगी, चीखतीचिल्लाती होगी. बाद में उस के हाथ में जो वस्तु होती है, उसे फेंकती होगी.’’

‘‘हां, सर,’’ मांजी ने गोलगोल आंखें ऊपर करते हुए कहा, ‘‘सबकुछ ऐसा ही करती है. इसीलिए मैं बताने आई हूं कि उसे सामान्य बनाए रखने के लिए सलाहमशविरा यहीं खत्म कर लिया करें अन्यथा वह रात को न सोएगी न सोने देगी. भय है कि कहीं कार्यालय में किसी को कुछ फेंक कर न मार दे.’’

‘‘जी, मांजी, आप की सलाह पर ध्यान दिया जाएगा. पर एक प्रार्थना है कि मैं आप को मांजी कहता हूं इसलिए आप मुझे रजनीश कहिए या बेटा, मुझे बहुत अच्छा लगेगा.’’

उठते हुए मांजी बोलीं, ‘‘ठीक है बेटा, एक जिज्ञासा हुई कि सरला के लक्षणों को तुम कैसे समझ पाए हो? क्या पिछले दिनों भी कार्यालय में उस ने ऐसा कुछ…’’

‘‘नहीं, अब तक तो नहीं, पर मैं कुछ मनोभावों के संवेदनों और आप द्वारा बताए जाने से यह सब समझ पाया हूं. मेरा प्रयास रहेगा कि सरला जल्दी ही सामान्य हो जाए,’’ मैं ने मांजी को उत्तर दिया तो वह धन्यवाद दे कर केबिन से बाहर निकली और फिर सरला का माथा चूम कर बाहर चली गईं.

मैं ने अपना प्रभाव जमाने के लिए उन्हें आश्वस्त किया था. संभव है कि हालात मेरे पक्ष में हों और सरला को सामान्य करने का मेरा प्रयास सफल रहे. सरला की शादी के बाद किसी एक पुरुष की जिंदगी तो बिगड़ेगी ही, क्यों न मेरी ही बिगड़े. हालांकि उसे सामान्य करने के लिए शादी ही उपचार नहीं है पर प्रथम शोधप्रयास विवाहोपचार ही सही. वैसे मेरे हाथ के तोते तो उड़ चुके थे फिर भी साहस बटोर कर सरला को बुला कर मैं बोला, ‘‘मिस सरला, मैं एक सलाह दूं, तुम उस पर विचार कर के मुझे बताना.’’

‘‘जी, सर, सलाह बताइए, मैं रमेशजी से समझ लूंगी. रही बात विचार की, सो मैं विचार के अलावा कुछ करती भी तो नहीं, सर,’’ प्रसन्नतापूर्वक सरला ने आंखें मटकाते हुए कहा.

चंचलता उस की आंखों में झलक आई थी. तथास्तु करती परियों जैसी मुसकराहट उस के होंठों पर खिल उठी.

मैं ने सरला को ही शादी की सलाह दे कर उकसाना चाहा ताकि उसे भी कुछकुछ होने लगे और जब तक उस की शादी नहीं हो जाएगी, वह बेचैन रहेगी. घर जा कर अपने मातापिता को तंग करेगी और तब शादी की बात पर गंभीरता से विचारविमर्श होगा.

मैं तो आपादमस्तक सरला के चरित्र से जुड़ गया था और मैं ने उसे सहजता से कह दिया, ‘‘देखो, सरला, अब तुम्हें अपनी शादी कर लेनी चाहिए. अपने मातापिता से तुम यह बात कहो. मैं समझता हूं कि तुम्हारे मातापिता की सभी चिंताएं दूर हो जाएंगी. उन की चिंता दूर करने का तुम्हारा फर्ज बनता है, सरला.’’

‘‘ठीक है, सर, मैं रमेशजी से पूछ लेती हूं,’’ सरला ने बुद्धुओं जैसी बात कह दी, जैसे उसे पता नहीं कि उसे क्या सलाह दी गई. उस के मन में तो रमेशजी गणेशजी की तरह ऐसे आसन ले कर बैठे थे कि आउट होने का नाम ही नहीं लेते.

मैं ने अपना माथा ठोंका और संयत हो कर बोला, ‘‘सरला, तुम 22 साल की हो और तुम्हारे अच्छे रमेशजी डबल विधुर, पूरे 45 साल के यानी तुम्हारे चाचा हैं. तुम उन्हें चाचा कहा करो.’’

मैं ने सोचा कि रमेश से ही नहीं अगलबगल में भी सब का पत्ता साफ हो जाए, ‘‘और सुनो, बगल में जो रसमोहन बैठता है उसे भैयाजी और उस के भी बगल में अनुराग को मामाजी कहा करो. ये लोग ऐसे रिश्ते के लिए बहुत ही उपयुक्त हैं.’’

‘‘जी, सर,’’ कह कर सरला वापस गई और रमेश के पास बैठ कर बोली, ‘‘चाचाजी, आज मैं अपने मम्मीपापा से अपनी शादी की बात करूंगी. क्या ठीक रहेगा, चाचाजी?’’

यह सुन कर रमेशजी तो जैसे दस- मंजिली इमारत से गिर कर बेहोश होती आवाज में बोले, ‘‘ठीक ही रहेगा.’’

5 बजे थे. सरला ने अपना बैग कंधे पर टांगा और रसमोहन से ‘भैयाजी नमस्ते’, अनुराग से ‘मामाजी नमस्ते’ कहते हुए चलती बनी. सभी अपनीअपनी त्योरियां चढ़ा रहे थे और मेरी ओर उंगली उठा कर संकेत कर रहे थे कि यह षड्यंत्र रजनीश सर का ही रचा है.

मैं जानता हूं कि मेरे विभाग के सभी पुरुषकर्मी असल में जानेमाने डोरीलाल हैं. किसी पर भी डोरे डाल सकते हैं. लेकिन शर्मदार होंगे तो इस रिश्ते को निभाएंगे और तब कहीं सरला खुले दिमाग से अपना आगापीछा सोच सकेगी. उस के मातापिता भी अपनी सुकोमल, बचकानी सी बेटी के लिए दामाद का कद, शिक्षा, पद स्तर आदि देखेंगे जिस के लिए पति के रूप में मैं बिलकुल फिट हूं.

अगली सुबह बिना बुलाए सरला मेरे कमरे में आई. मुझे उस से सुन कर बेहद खुशी हुई, ‘‘सर, मैं ने कल चाचाजी, भैयाजी, मामाजी कहा तो ये सब ऐसे देख रहे थे जैसे मैं पागल हूं. आप बताइए, क्या मैं पागल लगती हूं, सर?’’

इस मानसिक रूप से कमजोर लड़की को मैं क्या कहता, सो मैं ने उस के दिमाग के आधार पर समझाया, ‘‘देखो, सरला…चाचा, भैया, मामा लोग लड़कियों को लाड़प्यार में पागल ही कहा करते हैं. तुम्हारे मम्मीपापा भी कई बार तुम्हें ‘पगली कहीं की’ कह देते होंगे.’’

उस की ‘यस सर’ सुनतेसुनते मैं उस के पास आ गया. वह भी अब तक खड़ी हो चुकी थी. अपने को अनियंत्रित होते मैं ने उसे अपने सीने से लगा लिया और वह भी मुझ से चिपक गई, जैसे हम 2 प्रेमी एक लंबे अरसे के बाद मिले हों. हरकत आगे बढ़ी तो मैं ने उस के कंधे भींच कर उस के दोनों गालों पर एक के बाद एक चुंबन की छाप छोड़ दी.

मैं ने उसे जाने को कहा. वह चली गई तो मैं जैसे बेदिल सा हो गया. दिल गया और दर्द रह गया. पहली बार मेरा रोमरोम सिहर उठा, क्योंकि प्रथम बार स्त्रीदेह के स्पर्श की चुभन को अनुभव किया था. जन्मजन्मांतर तक याद रखने लायक प्यार के चुंबनों की छाप से जैसे सारा जहां हिल गया हो. सारे जहां का हिलना मैं ने सरला की देह में होती सिहरन की तरंगों में अनुभव किया.

प्रथम बार मैं ने किसी युवती के लिए अपने दिल में प्रेमज्योति की गरमाहट अनुभव की. काश, यह ज्योति सदा के लिए जल उठे. शायद ऐसी भावनाओं को ही प्यार कहते होंगे? यदि यह सत्य है तो मैं ने इस अद्भुत प्यार को पा लिया है उन पलों में. पहली बार लगा कि मैं अब तक मुर्दा देह था और सरला ने गरम सांसें फूंक कर मुझ में जान डाल दी है.

सरला ने दफ्तर से जाने के पहले मेरी विचारतंद्रा भंग की, ‘‘सर, आज मैं खुश भी हूं और परेशान भी. वह दोपहर पूर्व की घटना मुझ से बारबार कहती है कि मैं आप के 2 चुंबनों का उधार चुका दूं वरना मैं रातभर सो नहीं सकती.’’

मैं मन ही मन बेहद खुश था. यही तो प्यार है, पर इस पगली को कौन समझाए. इसे तो चुंबनों का कर्ज चुकता करना है, नहीं तो वह सो नहीं पाएगी. बस…प्यार हमेशा उधार रखने पर ही मजा देता है पर यह नादान लड़की. बदला चुकाना प्यार नहीं हो सकता. यदि ऐसा हुआ तो मेरी बेचैनी बढ़ेगी और वह निश्ंिचत हो जाएगी अर्थात सिर्फ मेरा प्यार जीवित रहे, यह मुझे गंवारा नहीं है और न ही हालात को.

मैं सरला को निराश नहीं कर सकता था, अत: पूछा, ‘‘सरला, क्या तुम्हें मेरी जरूरत है या एक पुरुष की?’’ और उस के चेहरे पर झलकती मासूमियत को मैं ने बिना उस का उत्तर सुने परखना चाहा. उसे अपने सीने से लगा कर कस कर भींच लिया, ‘‘सरला, इस रजनीश के लिए तुम अपनेआप को समर्पित कर दो. यही प्यार की सनक है. 2 जिंदा देहों के स्पर्श की सनक.’’

और वह भिंचती गई. चुंबनों का कौन कितना कर्जदार रहा, किस ने कितने उधार किए, कुछ होश नहीं था. शायद कुछ हिसाबकिताब न रख पाना ही प्यार होता है. हां, यही सत्य है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता.

मैं ने उस की आंखों में झांक कर कहा, ‘‘सरला, हम प्यार की झील में कूद पड़े हैं,’’ मैं ने फिर 2 चुंबन ले कर कहा, ‘‘देखो, अब इन चुंबनों को उधार रहने दो, चुकाने की मत सोचना, आज उधार, कल अदायगी. इसे मेरी ओर से, रजनीश की ओर से उपहार समझना और इसे स्वस्थ व जीवंत रखना.’’

‘‘जी, सर,’’ कह कर वह चली गई. मुझे इस बात की बेहद खुशी हुई, अब की बार उस ने ‘रमेशजी’ का नाम नहीं लिया. उस के मुड़ते ही मैं धम्म से कुरसी पर बैठ गया. लगा मेरी देह मुर्दा हो गई. सोचा, चलो अच्छा ही हुआ, तभी तो कल जिंदादेह हो सकूंगा उस से मिल कर, उस से आत्मसात हो कर, अपने चुंबनों को चुकता पा कर. मैं वादा करता हूं कि अब मैं सरला की सनक के लिए फिर दोबारा मरूंगा, क्योंकि वह अमृत है.

घर से दफ्तर के लिए निकला तो मन पर कल के नशे का सुरूर बना हुआ था. मैं कब कार्यालय पहुंचा, पता ही नहीं चला. हो सकता है कि 2 देहों के आत्मसात होने में स्वभावस्वरूप पृथक हों, परंतु नतीजा तो सिर्फ ‘प्यार’ ही होता है.

आज कार्यालय में सरला नहीं आई. उस की मम्मी आईं. गंभीर समस्या का एहसास कर के मैं सहम ही नहीं गया, अंतर्मन से विक्षिप्त भी हो गया था क्योंकि इस मुर्दादेह को जिंदा करने वाली तो आई ही नहीं. पर उन की बातों से लगा कि यह दूसरा सुख था जो मेरे रोमरोम में प्रवेश कर रहा था जिसे आत्मसंतुष्टि का नाम दिया जा सके तो मैं धन्य हो जाऊं.

‘‘मेरी बेटी आज रात खूब सोई. सुबह उस में जो फुर्ती देखी है उसे देख कर मुझ से रहा नहीं गया. मुझे विवश हो कर तुम्हारे पास आना पड़ा, बेटा. आखिर कैसे-क्या हुआ? दोचार दिनों में ही उस का परिणाम दिखा. काश, वह ऐसी ही रहे, स्थायी रूप से,’’ मांजी स्थिति बता कर चुप हुईं.

‘‘हां, मांजी,’’ मैं प्रसन्नतापूर्वक बोला, ‘‘असल में मैं ने कल दुनियादारी के बारे में खुश व सामान्य रहने के गुर सरला को सिखाए और मैं चाहता हूं कि आप सरला की शादी कर दें.’’

फिर मैं ने अपने पक्ष में उन्हें सबकुछ बताया और वह खुश हुईं.

मैं ने उन की राय जाननी चाही कि वह मुझे अपने दामाद के रूप में किस तरह स्वीकारती हैं. वह हंसते हुए बोलीं, ‘‘मैं जातिवाद से दूर हूं इसलिए मुझे कोई एतराज नहीं है, बेटा. इतना जरूर है कि आप के परिवार में खासतौर से मातापिता राजी हों तो हमें कोई एतराज नहीं है.’’

‘‘ठीक है, मांजी, सभी राजी होंगे तभी हम आगे बात बढ़ाएंगे,’’ मैं ने अपनी सहमति दी.

‘‘अच्छा बेटा, मन में एक बात उपजी है कि सरला दिमाग से असामान्य है, यह जान कर भी तुम उस से शादी क्यों करना चाहते हो?’’ मांजी ने अपनी दुविधा को मिटाना चाहा.

‘‘मांजी, इस का कारण तो मैं खुद भी नहीं जानता पर इतना जरूर है कि वह मुझे बेहद पसंद है. अब सवाल यह है कि शादी के बारे में वह मुझे कितना पसंद करती है.’’

चलते वक्त मुझे व मेरे मातापिता को अगले दिन छुट्टी पर घर बुलाया. मैं जानता हूं कि मेरे मातापिता मेरी पसंद पर आपत्ति नहीं कर सकते. सो आननफानन में शादी तय हुई.

शादी के ठीक 1 सप्ताह पहले मैं और सरला अवकाश पर गए तथा निमंत्रणपत्र भी कार्यालय में सभी को बांट दिए. सब के चेहरे आश्चर्य से भरे थे. सभी खुश भी थे.

विवाह हुआ और 1 माह बाद हम ने साथसाथ कार्यभार ग्रहण किया. हमारा साथसाथ आना व जाना होने से हमें सभी आशीर्वाद देने की नजर से ही देखते.

लेखक- राजेंद्रप्रसाद शंखवार

Latest Hindi Stories : चटोरी जीभ का रहस्य

Latest Hindi Stories :  मां की मृत्यु के बाद पिता जी बिल्कुल अकेले पड़ गये थे. कमरे में बैठे घर के एक कोने में बने मंदिर की ओर निहारते रहते थे. हालांकि पूरे जीवन नास्तिक रहे. कभी मंदिर नहीं गये. कभी कोई व्रत-त्योहार नहीं किया. मगर मां के जाने के बाद अपने पलंग पर बैठे मंदिर को ही निहारते रहते थे. अब पता नहीं मंदिर को निहारते थे या उसके सामने रोज सुबह घंटा भर बैठ कर पूजा करने वाली मां की छवि तलाशते थे.

पिता जी और मां के बीच कई बातें बिल्कुल जुदा थीं. मां जहां पूरी तरह आस्तिक थी, पिता जी बिल्कुल नास्तिक. मां जहां नहाए-धोए बगैर पानी भी मुंह में नहीं डालती थीं, वहीं पिता जी को बासी मुंह ही चाय चाहिए होती थी. लेकिन फिर भी दोनों में बड़ा दोस्ताना सा रिश्ता रहा. कभी झगड़ा, कभी प्यार. वे मां के साथ ही बोलते-बतियाते और कभी-कभी उन्हें गरियाने भी लगते थे कि बुढ़िया अब तुझसे कुछ नहीं होता. मां समझ जातीं कि बुड्ढे का फिर कुछ चटपटा खाने का मन हो आया है. अब जब तक कुछ न मिलेगा ऐसे ही भूखे शेर की तरह आंगन में चक्कर काटते रहेंगे और किसी न किसी बात पर गाली-गलौच करते रहेंगे. सीधे बोलना तो आता ही नहीं इन्हें. भुनभुनाती हुई मां छड़ी उठा कर धीरे-धीरे किचेन की ओर चल पड़तीं थीं. मां को किचेन की ओर जाता देख पिताजी की बेचैनी और बढ़ जाती. उनकी हरकतों को देखकर तब मैं सोचता था कि शायद उनको यह अच्छा नहीं लगता था कि इस बुढ़ापे में वो मां को इतना कष्ट दें, मगर चटोरी जीभ का क्या करें? मानती ही न थी. इसीलिए इतना तमाशा करते थे.

थोड़ी देर में मां थाली में पकौड़े तल के ले आती, या भुने हुए लइया-चना में प्याज, टमाटर, मिर्ची, नींबू डाल कर बढ़िया चटपटी चाट तैयार कर लातीं. लाकर धर देतीं सामने. पिता जी कुछ देर देखते फिर धीरे से हाथ बढ़ा कर प्लेट उठा लेते और देखते ही देखते पूरी प्लेट चट कर लंबी तान कर लेट जाते. मां बड़बड़ाती, ‘बच्चों की तरह हो गये हैं बिल्कुल. पेट न भरे तो जुबान गज भर लंबी निकलने लगती है. अब देखो कैसे खर्राटे बज रहे हैं. बताया तक नहीं कि कैसा बना था.’

फिर उठ कर प्लेट किचेन में रखतीं और अपने लिए चाय बना कर आंगन में खाट पर आ बैठती थीं.

मैं कभी कहता कि बाहर रेहड़ी वाले से चाट-पकौड़े ले आऊं तो पिता जी फट मना कर देते थे. मां भी मुझे रोक देती थीं. कहतीं अरे, बाहर कहां जाएगा लेने, मैं अभी झट से बना देती हूं. इनकी फरमाइशें तो दिन भर चलती रहती हैं.

मैं उन दिनों बनारस में पोस्टेड था. हमारा कस्बा ज्यादा दूर नहीं था. शनिवार और इतवार मैं घर पर मां पिताजी के साथ ही रहता था. तब यह सारा तमाशा देखता था. मां काफी बूढ़ी हो गयी थीं. आंखों से भी अब कम दिखने लगा था. काम अब ज्यादा नहीं होता था. जल्दी ही थक जाती थीं. इसलिए मैं चाहता था कि मेरी जल्दी शादी हो जाए तो आने वाली लड़की मां पिताजी का भोजन पानी और सेवा टहल कर लिया करेगी. फिर एक जगह बात पक्की हो गयी और मेरी शादी मीनाक्षी से हो गयी. मीनाक्षी ने आते ही घर संभाल लिया. मां को भी आराम हो गया. मैं नोटिस करता था कि पिता जी मीनाक्षी से खाने की कोई फरमाइश नहीं करते थे. मां ही कुछ-कुछ बना कर उन्हें परोसती रहती थीं. मीनाक्षी कहती भी, कि मुझे बोल दिया करें, मगर मां हंस कर उसकी बात टाल जाती थी.

मेरी शादी को अभी तीन महीने ही हुए थे कि एक दिन अचानक हार्ट अटैक से मां चल बसी. शायद इसी इंतजार में बैठी थी कि घर को संभालने के लिए कोई औरत आ जाए तो मैं चलूं. मां का इस तरह अचानक चले जाने का बड़ा धक्का पिता जी को लगा. वे बड़े गुमसुम से हो गये हैं. मीनाक्षी यूं तो पिता जी के खाने पीने का पूरा ख्याल रखती थी, मगर मैं देख रहा हूं कि अब पिता जी की चटपटी चीजों की ख्वाहिश बिल्कुल खत्म हो चुकी है. न तो वो कभी पकौड़ियों की फरमाइश करते हैं न चाट या दही बड़े की. बेहद सादा खाना खाने लगे हैं. कभी-कभी तो सिर्फ खिचड़ी या दूध ब्रेड ही खाकर ही सो रहते हैं. मीनाक्षी को बताऊं तो शायद यकीन न करे कि इनकी जुबान कितनी चटोरी थी. अभी दिन ही कितने हुए हैं उसे इस घर में आये. उसने उनका वह रूप नहीं देखा था, जब वह गाली-गलौच करते पूरे आंगन में शेर की तरह तब तक चहल-कदमी करते थे जब तक मां उनके लिए किचेन से कुछ चटपटी चीज बना कर नहीं ले आती थीं. मगर उनकी लंबी जुबान भी मां के साथ ही चली गयी शायद. उनके जाने के बाद मैंने पिताजी को जोर से बात करते भी नहीं सुना. चुपचाप बैठे रहते हैं और मंदिर की ओर निहारते रहते हैं. बिल्कुल शांत.

पहले मैं नहीं समझा था इस खामोशी का राज, मगर अब सबकुछ समझ में आ रहा है. दरअसल पिता जी चटोरे नहीं थे, उनका हर वक्त कुछ न कुछ खाने को मांगना मां के प्रति उनका प्यार था. मां के हाथों की बनी चीजों में ही उनको स्वाद आता था. फिर चाहे वे कुछ भी बना कर उनके सामने धर दें. मां को खाली बैठा देख उनको उलझन होती थी. वह चाहते थे कि मां उनके सामने चलती फिरती ही नजर आएं. उन्हें चलता फिरता देख उनके स्वस्थ होने को प्रमाणित करता था इसलिए. जब मां जिंदा थीं और पिताजी उनको बात-बात पर परेशान करते थे तो मुझे बड़ी कोफ्त होती थी, मगर आज पिता जी का मां के प्रति प्यार देखकर आंखें छलक आती हैं. पिता जी के गुस्से और गाली गलौच के पीछे छिपे इस प्यार को मां महसूस तो करती ही होंगी, तभी तो फटाफट छड़ी उठा कर किचेन की ओर चल पड़ती थीं कि कुछ चटपटा बना दूं इस बुड्ढे के लिए, वरना चुप ही नहीं होगा….

Best Hindi Stories : देवकन्या – राधिका मैडम का क्या था प्लान

Best Hindi Stories : राधिका मैडम ने उबाकई ली, फिर इधरउधर नजर दौड़ाई. बस में आज उन के रास्ते का स्टाफ कम था. कहीं छुट्टी तो नहीं है? कोई नेता अचानक मर गया होगा. उन्होंने पिता को फोन किया. कोई नेता नहीं मरा था, छुट्टी भी नहीं थी. बस चलने लगी. उन्होंने बैग से ‘हनुमान चालीसा’ निकाली और पढ़ने लगीं.

थोड़ी देर में बस स्टैंड आ गया. वे धीरेधीरे नीचे उतरीं. घड़ी देखी. 8 बजे थे. आधा घंटा देर हो गई थी. वे आराम से चलते हुए स्कूल पहुंचीं. 3-4 छात्र आए थे. एक नौजवान भी खड़ा था.

राधिका मैडम ताला खोल कर अंदर गईं और कुरसी पर पसर गईं. उस नौजवान ने कमरे में आ कर नमस्ते कहते हुए एक कागज उन की तरफ बढ़ा दिया.

राधिका ने देखा कि वह जौइनिंग लैटर था. नाम पढ़ा. श्यामलाल आदिवासी. उन्होंने मुंह बनाया और श्यामलाल को कुरसी पर बैठने को कहा. फिर पूछा, ‘‘क्या आईपीएससी से चयनित हो? कितने नंबर आए थे?’’

जवाब का इंतजार न करते हुए वे फिर बोलीं, ‘‘इस गांव में सभी आदिवासी हैं. बच्चों को पढ़ाने नहीं भेजते. मैं तो थक गई. अब तुम कोशिश करो. यहां गांव में वनवासी संगठन का एकल स्कूल चलता है. बहुत से बच्चे वहीं पढ़ने जाते हैं.’’ श्यामलाल बोल पड़ा ‘‘हम पढ़ाएंगे, तो हमारे यहां भी आने लगेंगे.’’

यह सुन कर राधिका मैडम का पारा चढ़ गया. उन्हें लगा कि यह नयानया मास्टर बना भील उन्हें निकम्मा कह रहा है. उन्होंने दबाव बनाने के लिए कहा, ‘‘तुम मेरे पति को तो जानते ही होगे. सुगम भारती नाम है उन का. धर्म प्रसार का काम करते हैं. राष्ट्रवादी सोच है. बहुत दबदबा है उन का…’’

अचानक राधिका मैडम को लगा कि श्यामलाल का ध्यान उन की देह पर है. उन्होंने ब्लाउज से बाहर झांकती ब्रा की लाल स्ट्रिप को ब्लाउज में दबाने की कोशिश की. श्यामलाल के चेहरे पर उलझन थी. वह उठ गया और पढ़ने आए 4-5 छात्रों से बातें करने लगा.

मिड डे मील बन कर आ गया. दाल में पानी ही पानी था. रोटियां कच्ची व कम थीं. राधिका मैडम ने 55 छात्रों की हाजिरी भरी थी. श्यामलाल कुछ कहना चाहता था कि राधिका बोलीं, ‘‘मैं तुम्हारा जौइनिंग लैटर नोडल सैंटर में देने जा रही हूं. यह लो स्कूल की चाबी.’’

उन के जाने के बाद श्यामलाल ने गांव का चक्कर लगाया. घरघर जा कर बच्चों को पढ़ने के लिए भेजने को कहा. मांबाप के मुंह से राधिका मैडम की बुराई सुन कर उसे लगा कि बहुत मेहनत कर के ही स्कूल जमाया जा सकता है.

दूसरे दिन राधिका मैडम रोजाना की तुलना में और देर से स्कूल पहुंचीं. साढ़े 8 हो गए थे. स्कूल खुला था. तकरीबन 30 बच्चे क्लास में बैठे थे. श्यामलाल कविताएं बुलवा रहा था.

राधिका मैडम दूसरे कमरे में जा कर ‘धम्म’ से कुरसी पर बैठ गईं. उन्हें बहुत गुस्सा आ रहा था. श्यामलाल को बुला कर वे बोलीं, ‘‘तुम यह क्या कर रहे हो? क्यों पढ़ा रहे हो? इन सभी के लिए मिड डे मील बनाना होगा. काफी खर्चा होगा बेकार में.’’

श्यामलाल ने कहा, ‘‘मैडम, सरकार दे रही है न गेहूंचावल पकाने का खर्च.’’

राधिका का गुस्सा बढ़ गया. उन्होंने साड़ी के अंदर हाथ डाला और ब्लाउज के बटन से खेलने लगीं. श्यामलाल का ध्यान भी उसी तरफ चला गया. हलके सफेद रंग के ब्लाउज में से काले रंग की ब्रा दिख रही थी.

राधिका मैडम के बड़ेबड़े उभार… श्यामलाल के होंठों पर जीभ घूम गई. राधिका ने पल्लू पीठ पीछे से घुमा कर छाती को ढक दिया. श्यामलाल घबरा कर दूसरे कमरे में चला गया और बच्चों को पढ़ाने लगा.

अगले दिन ही श्यामलाल की मेहनत रंग लाने लगी. 50 छात्र पढ़ने आए थे. कुछ ने नई कमीज पहनी थी, कुछ के पास नई स्लेट थी. राधिका मैडम आज और देर से आईं. मिड डे मील की सब्जीमसाले ले कर पति के साथ मोटरसाइकिल पर आई थीं. श्यामलाल का परिचय हुआ. बातचीत का सिलसिला चला.

सुगम भारती बोले, ‘‘तुम ने अच्छा किया. स्कूल जमा दिया. अब इन बच्चों को श्लोक, मंत्र, सरस्वती की प्रार्थना, राष्ट्रगीत सुनाओ. पर ध्यान रखना भाई, गांव में चल रहे अपने एकल स्कूल पर असर न हो. वे भी हमारी संस्कृति का जागरण कर रहे हैं, वरना ईसाई मशीनरी…’’

श्यामलाल ने टोक दिया, ‘‘ईसाई और हिंदू की खींचतान में हमारी आदिवासी संस्कृति उलझ गई है, खत्म होने लगा है हमारा आदि धर्म…’’

सुगम भारती ने टोका, ‘‘भाई श्यामलाल, हमतुम अलग नहीं हैं. हमारे पूर्वज एक ही हैं.’’

बहस हद पर थी. श्यामलाल बोला, ‘‘आर्य हैं आप. हम मूल निवासी, राक्षस, असुर, दैत्य…’’

सुगम भारती ने उसे बीच में ही टोक दिया, ‘‘तुम ईसाई तो नहीं हो? कौन सी किताबें, पत्रिकाएं पढ़ते हो जो ऐसी गैरों सी बातें करते हो? अभी तो मुझे कुछ काम है, फिर कभी बात करेंगे,’’ कह कर वे चल दिए.

श्यामलाल क्लास में गया. वहां वह पढ़ाता रहा. वक्त कहां निकल गया, पता ही नहीं चला. राधिका मैडम समय से ही घर के लिए निकल गईं.

श्यामलाल बस में बैठ गया. उस का विचार मंथन चल रहा था, ‘डाक्टर अंबेडकर ने संविधान का प्रारूप बनाया, इसीलिए देश में समानता की धारा चल रही है, वरना ये लोग तो ‘मनुस्मृति’ ही लागू करते. हमारी अशिक्षा, पिछड़ेपन, गरीबी की वजह पूर्व जन्म के कर्म बताते हैं. हमारा अन्न नहीं लेते, पर रुपया लपक लेते हैं. हम पर अपने कर्मकांड लाद रहे हैं. हम इन के यजमान हैं. गौतम बुद्ध ने सही कहा है कि पहले अनुभव, फिर विश्वास, आस्था व श्रद्धा. जानो, न कि मानो.

‘ईश्वर है तो पहले पता तो लगे कि कहां है? स्वर्गनरक कहां है? ये कहते हैं कि पहले मानो, फिर जानो. पहले आस्था, श्रद्धा, फिर अनुभव. क्यों भाई, क्यों? ईसाई मशीनरी ने शिक्षा, स्वास्थ्य के माध्यम से लोगों का दिल जीता, धर्म बदला. तभी तो ये लोग हमें पढ़ाने आए हैं. एकल स्कूल चला रहे हैं, वरना इन्हें कहां फुरसत थी हमारे शोषण से.’

श्यामलाल घर पहुंच गया. खाट पर डाक पड़ी थी. डाकिया महीने में 1-2 बार ही आता था. वह सारी डाक एकसाथ दे जाता था.

अगले दिन श्यामलाल स्कूल पहुंचा. स्कूल खुला देख कर वह हैरान हुआ. राधिका मैडम स्कूल में आ गई थीं. श्यामलाल ने नमस्ते कहा और वह क्लास में चला गया. राधिका का देर से स्कूल आना, जल्दी चले जाना, कभीकभी नहीं आ कर दूसरे दिन दस्तखत करना चलता रहा. श्यामलाल पढ़ाता रहता, अपना काम करता रहता. कभीकभी दोनों एकसाथ बैठते तो बातें चलतीं, मजाक होता, उंगलियों का छूना भी हो जाता.

एक दिन श्यामलाल मोटरसाइकिल ले कर स्कूल आया. उसे शहर जाना था, पर छुट्टी के बाद राधिका मैडम उस की मोटरसाइकिल पर बैठ गईं. श्यामलाल को मजबूरन उन के घर जाना पड़ा. सुगम भारती घर पर ही थे. बातचीत चली, तो बहस में बदल गई.

‘‘हमारे आध्यात्मिक मूल्य एक हैं. यह भूभाग पवित्र है, इसीलिए हम एक राष्ट्र हैं. हमारा धर्म हमें आपस में जोड़ता है. हमें अपनी भारत माता की तनमनधन से सेवा करनी चाहिए,’’ सुगम भारती लगातार बोलते रहे.

श्यामलाल बहस नहीं करना चाहता था. बहस कटुता बढ़ाती है. मतभेद को मनभेद में बदल देती है, फिर भी जब हद हो गई, तो वह बोल ही गया, ‘‘आप के शास्त्र में यह क्यों लिखा है कि पूजिए विप्र शील गुण हीना, शुद्र न गुनगान, ज्ञान प्रवीणा?’’

इतने में सुगम भारती के दफ्तर का चपरासी रजिस्टर ले कर आ गया. उन्होंने 15-20 दिनों के दस्तखत एकसाथ किए. श्यामलाल की आंखों में उठे सवाल को जान कर वे बोले, ‘‘क्या करूं? राष्ट्र सेवा में लगा रहता हूं, दफ्तर जाने का वक्त ही नहीं मिलता. देश पहले है, दफ्तर तो चलता रहेगा.’’

राधिका चाय ले कर आ गईं. बहस रुक गई. घरपरिवार की बातें चल पड़ीं. एक दिन स्कूल में हाथ की रेखाएं देखते हुए राधिका ने अपना ज्योतिष ज्ञान बताया, ‘‘तुम्हारे अनेक लड़कियों से संबंध रहेंगे.’’

श्यामलाल मुसकरा दिया. राधिका ने कहा, ‘‘भारतीजी बाहर गए हैं…’’ और वे भी मुसकरा दीं.

लेखक- भारत दोसी

Hindi Kahaniyan : चोट

Hindi Kahaniyan : आखिर कब तक सहन करती? कब तक बेइज्जती, जोरजुल्म सहती? इस आदमी ने, जब से मैं इस घर में शादी कर के आई हूं, डांटफटकार, उलाहनों तानों के अलावा कुछ नहीं दिया.

शादी के शुरुआती कुछ दिन… कुछ महीने… ज्यादा हुआ, तो एक साल तक प्यार से बात की. घुमानेफिराने ले जाते. सिनेमा दिखाते, मेला, प्रदर्शनी ले जाते. मीठीमीठी प्यारभरी बातें करते. यहां तक कि अपनी मां से भी बहस कर लेते.

अगर मेरी सास मुझे छोटीछोटी बातों पर टोकतीं, तो पतिदेव अपनी मां से कह देते, ‘‘क्यों छोटीछोटी बातों पर घर की शांति भंग कर रही हो? आप की लड़की के साथ ससुराल में यही सब हो तो क्या बीतेगी आप पर? यह इस घर की बहू है, नौकरानी नहीं.

‘‘यह तो कुछ नहीं कहती, लेकिन मैं ही इसे घुमाने ले जाता हूं. पढ़ीलिखी औरत है. बदलते समय के साथ आप नहीं बदल सकतीं, तो छोटीछोटी बातों पर टोकाटाकी कर के घर में अशांति तो न फैलाएं.’’

सास को लगता होगा कि जोरू का गुलाम है बेटा. वे गुस्से में कुछ दिन तक बात न करतीं. बात करतीं तो भी इस तरह, जैसे धीरेधीरे बातों से अपना गुस्सा निकाल रही हों.

‘‘मुझे क्या करना है? तुम खूब घूमोफिरो, लेकिन हद में. आसपड़ोस के घर में भी बहुएं हैं. यह क्या बात हुई कि जब जी आया मुंह उठा कर चल दिए.

न किसी से कुछ पूछना, न बता कर जाना. आखिर घर में बड़ेबुजुर्ग भी हैं. उन के मानसम्मान का भी ध्यान रखो.’’

एक साल बाद ही पति के बरताव में बदलाव आने लगा. शायद शादी की  खुमारी अब तक उतर चुकी थी. पहले ये बहुत ही कम टोकाटाकी करते, बाद में बातबात पर टोकने लगे. मेरी कोई बात इन्हें अच्छी ही नहीं लगती. हर बात में अपनी मां की तरफदारी करते. चाहे वह बात गलत हो या सही, मैं सुनती रही.

इस बीच 2 बच्चे भी हो गए. कहने को घरगृहस्थी तो ठीकठाक चल रही थी, लेकिन जिन पति से मैं प्यार करती थी, उन के बातबात पर डांटनेटोकने से मन उदास रहने लगा.

मैं अपनी तरफ से पति का, सास का, बच्चों का, घर का पूरा खयाल रखती, फिर भी इन की बातबात पर टोकने, डांटने की आदत नहीं जाती.

एक बार मैं ने गुस्से में जरा जोर से कहा भी था, ‘‘आखिर बात क्या है? आप मुझे इस तरह से बेइज्जत क्यों करते रहते हैं?’’

इन्होंने भी झुंझला कर जवाब दिया, ‘‘मैं मर्द हूं. घर का मुखिया हूं. गलत बात पर टोकूंगा नहीं, तो क्या लाड़ करूंगा? तुम 2 बच्चों की मां बन गई हो. तुम्हें घर की जिम्मेदारी समझनी चाहिए. गलती पर डांटता हूं, तो गलती को सुधारना चाहिए. इस में बुरा मानने वाली क्या बात है?’’

‘‘मैं ऐसी कौन सी गलती करती हूं? क्या मन भर गया है मुझ से?’’

‘‘मुझे तो सब को साथ ले कर चलना है. तुम्हारा भी अब तक मन भर जाना चाहिए. प्यारमुहब्बत की उम्र बीत चुकी. अब अपने फर्ज पर ध्यान दो.’’

‘‘आखिर मैं ने फर्ज निभाने में कौन सी कमी रखी है?’’

‘‘तुम फिर बहस करने लगीं. मुझे तुम्हारी यही बात अच्छी नहीं लगती.’’

‘‘आप को मेरी कौन सी बात अच्छी लगती है आजकल?’’

‘‘औरत हो, औरत की तरह रहना सीखो. घर के कामकाज देखो. अम्मां की तबीयत ठीक नहीं रहती आजकल. उन की देखभाल करो.’’

‘‘करती तो हूं.’’

‘‘करती, तो अम्मां शिकायत नहीं करतीं.’’

‘‘अम्मां की तो आदत है मेरी शिकायत करने की. एक की चार लगा कर भड़काती हैं.’’

‘‘खबरदार, जो मेरी अम्मां के बारे में कुछ कहा,’’ इन्होंने इतनी जोर से डांटा कि मैं गुस्से में अपने कमरे में आ कर रोने लगी.

बैडरूम में तो ये बड़े प्यार से बात करते हैं. हालांकि अब यह होता है कि बैडरूम में मेरे आने तक ये सो जाते हैं. मुझे घर के काम निबटातेनिबटाते ही रात के 11-12 बज जाते हैं.

अब हमारे बीच संबंध बनने में भी काफी समय होने लगा था. मसरूफियत, जिम्मेदारी, बढ़ती उम्र के साथ ऐसा होता है. इस की कोई शिकायत नहीं. लेकिन आदमी दो बातें प्यार से कर ले, तो क्या बिगड़ जाएगा? लेकिन पता नहीं क्यों आजकल मुझे देख कर इन का पारा चढ़ जाता है, खासकर दूसरों के सामने.

ये दूसरों से तो अच्छी तरह बात करेंगे. अपनी अम्मां से, बच्चों से, पासपड़ोस के लोगों से, घर आए रिश्तेदारों से. दोस्तों से तो इस कदर प्यार से बातें करेंगे कि जैसे इन्हें गुस्सा आता ही न हो, मानो जबान पर चाशनी चिपक जाती हो.

लेकिन सुबह मैं थोड़ी देर से उठूं, तो चिल्लाते हैं, ‘‘तुम जल्दी नहीं उठ सकतीं. यह कोई समय है उठने का? अभी तक चाय नहीं बनी. चाय में चीनी कम है. कभी ज्यादा है. खाने में नमक नहीं है. यह सब्जी क्यों बनाई है? वही काम करती हो, जो मुझे पसंद नहीं आता. न घर में साफसफाई है, न बच्चों की तरफ ढंग से ध्यान देती हो.

‘‘अम्मां अब कितने दिनों की मेहमान हैं. कम से कम उन की देखभाल ही ठीक से कर लिया करो. तुम्हें कपड़े पहनने का सलीका नहीं आता है. तुम्हें मेहमानों से बात करने का ढंग नहीं है. तुम यह नहीं करती, तुम वह नहीं करती. तुम ऐसी हो, तुम वैसी हो. तुम्हें तो कुछ भी नहीं आता.’’

मैं ने तो अब बहस करना, इन की बातों पर ध्यान देना ही छोड़ दिया. जो कहना है, कहते रहो. मेरा काम सुनना है, सुनती रहती हूं. लेकिन आखिर कब तक? अकेले में कह दें तो सुन भी लूं. चार लोगों के बीच टोकना, डांटना घोर बेइज्जती है मेरी. मेरे औरत होने की. पत्नी हूं, नौकरानी नहीं.

एक दिन इन के 2-3 दोस्त खाने पर आए. इन के कहे मुताबिक ही खाना बनाया. मैं ने अच्छे से परोसा. लेकिन दोस्तों के सामने ही इन का चिल्लाना शुरू हो गया, ‘‘जरा अपने हाथपैर तेजी से चलाओ. यह जैट युग है, बैलगाड़ी की तरह काम मत करो…’’

फिर इन्होंने चीख कर कहा, ‘‘दही कहां है?’’

‘‘अभी लाई,’’ मैं ने अपनी रुलाई रोकते हुए कहा.

इन के एक दोस्त ने कहा, ‘‘क्या दबदबा बना कर रखा है यार? मैं अगर अपनी पत्नी से इतना कह दूं, तो घर में मुसीबत खड़ी हो जाए.’’

दूसरे दोस्त ने इन की हिम्मत बढ़ाते हुए कहा, ‘‘वाकई सही माने में तुम हो असली मर्द. औरतों को ज्यादा सिर पर नहीं चढ़ाना चाहिए.’’

मैं अंदर रसोई में से सब सुन रही थी. जी तो चाहता था कि सारा सामान उठा कर फेंक दूं. इन्हें और इन के दोस्तों को जम कर लताड़ लगाऊं, लेकिन चुप ही रही. पर मैं ने भी मन ही मन तय कर लिया था कि अपनी बेइज्जती का बदला तो ले कर रहूंगी. लेकिन बहस से, चीखचिल्ला कर घर का माहौल बिगाड़ कर नहीं. इन्हें बताऊंगी कि औरत कैसे शर्मिंदा कर सकती है. कैसे हरा सकती है. कैसे तुम्हारे मर्द होने का अहंकार तोड़ सकती है.

खाना खा रहे दोस्तों के बीच मैं दही रखने गई, तभी दोनों बच्चे वहां आ गए खेलते हुए.

‘‘बाहर निकालो इन्हें कमरे से. तुम बच्चों का ध्यान नहीं रख सकतीं…’’ वे जोर से चिल्लाए.

मैं दोनों बच्चों को जबरदस्ती घसीटते हुए कमरे से बाहर ले गई.

इन के किसी दोस्त की आवाज कानों में आई, ‘‘खाना तो लजीज बना है.’’

इन्होंने मुंह बिचकाते हुए जवाब दिया, ‘‘खाना तो सुमन बनाती थी. पहले मेरी उसी से शादी होने वाली थी. सगाई तक हो गई थी उस से. कई बार मैं सुमन के घर भी गया. ऐसा स्वादिष्ठ खाना मुझे आज तक नसीब नहीं हुआ.’’

इन की सगाई टूटने की बात मुझे पता थी, लेकिन सुमन के खाने की तारीफ और मेरे खाने को सुमन के मुकाबले कमतर बताना मुझे अखर गया.

ये मर्द थे, तो मैं औरत थी. इन्हें अपने मर्द होने का घमंड था, तो मुझे क्यों न हो अपने औरत होने पर गर्व? अब इन्हें बताना जरूरी था कि औरत क्या होती है.

मर्द की सौ सुनार की और औरत की एक लुहार की कहावत को सच साबित करने का समय आ गया था. इन का यह जुमला कि मर्द बने रहने के लिए औरत को दुत्कारते रहना जरूरी है, तभी घर भी घर बना रहता है. तभी सब ठीक रहते हैं.

अम्मांजी ने इन से एक बार कहा भी था, ‘‘बेटा, मर्द को मर्द की तरह रहना चाहिए. औरत को हमेशा सिर पर चढ़ा कर नहीं रखना चाहिए. उसे डांटडपट, फटकार लगाना जरूरी है.’’

इन्होंने अम्मांजी की बातों को इस तरह स्वीकार किया कि मेरा पूरा वजूद ही बिखरने लगा.

दोनों बच्चे अकसर दादी के पास ही सोया करते थे. वे आज भी वहीं सो रहे थे. ये भी बिस्तर पर लेटेलेटे किताब पढ़ रहे थे.

आज मैं जरा जल्दी ही कमरे में पहुंच गई थी. मैं गाउन पहन कर सोती थी और कपड़े बाथरूम में ही बदलती थी. लेकिन आज मैं ने कमरे में जा कर साड़ी उतारी.

मैं ने तिरछी नजरों से इन की तरफ देखा. साड़ी बदलते ही इन का ध्यान मेरी तरफ गया. नहीं… नहीं, मेरे बदन की तरफ. पहले तो इन्होंने आदत के मुताबिक मुझे टोका, ‘‘यह जगह है क्या कपड़े बदलने की?’’

मैं ने भी कह दिया, ‘‘यहां पर आप के अलावा और कौन हैं? आप से कैसी परदादारी?’’

ये कुछ कहते, इस से पहले ही मैं ने अपने बाकी कपड़े भी उतार दिए. अब मैं छोटे कपड़ों में थी, टूपीस भी कह सकते हैं.

मैं ने पहनने के लिए गाउन उठाया. लेकिन इन के सब्र का पैमाना छलक चुका था. इन्होंने प्यार से मुझे अपनी ओर खींचते हुए कहा, ‘‘बहुत दिन हो गए तुम्हें प्यार किए हुए. आज इस रूप में देख कर सब्र नहीं होता.’’

इस के बाद कमरे में हम दोनों एक हो गए. अलग होते ही मैं मुंह बिचका कर एक तरफ मुंह फेर कर लेट गई.

मैं ने कहा, ‘‘किसी वैद्यहकीम को दिखाओ. इतने सारे तो इश्तिहार आते हैं, कोई गोली ले लिया करो.’’

ये दुम दबाते पालतू कुत्ते की तरह आ कर कूंकूं की आवाज में बोले, ‘‘क्यों, खुश नहीं हुईं क्या तुम? कुछ कमी रह गई क्या?’’

इन की हालत देख कर बड़ी मुश्किल से मैं ने अपनी हंसी रोकते हुए कहा, ‘‘नहीं, कोई ऐसी बात नहीं है. कभीकभी होता है ऐसा.’’

इन का उदास, हताश, हारा हुआ चेहरा देख कर मुझे अपनी जीत का एहसास हुआ. एक ही वार से इन के अंदर की मर्दानगी और बाहर का मर्द दोनों मुरदा पड़े हुए थे, जैसे दुनिया के सब से तुच्छ, कमजोर इनसान हों.

उस के बाद इन की टोकाटाकी, डांटफटकार तो बंद हुई ही, साथ ही साथ मेरी तरफ जब भी ये देखते, तो ऐसा लगता कि इन के देखने में डर और शर्मिंदा का भाव हो. अकसर चोरीछिपे जिस्मानी ताकत बढ़ाने के इश्तिहार पढ़ते भी नजर आते.

Sad Story : दर्द की सिलवटें

Sad Story : अवंतिका औफिस में बैठी कुछ फाइलों के बीच अपनी आंखें जमाए हुए थी. बौस का आदेश था कि इन फाइलों का निबटारा जल्द से जल्द कर दिया जाए वरना उस की सैलरी यों ही अटकी रहेगी.

‘‘क्या हुआ अवंतिका? मुंह बना कर फाइलों को क्यों निहार रही हो?’’ अवंतिका के पास कुरसी खींच कर बैठते हुए यामिनी बोली. यामिनी उसी औफिस में काम करती थी.

‘‘क्या बोलूं?’’ अवंतिका ने गहरी सांस खींची, ‘‘इन फाइलों का निबटारा तो मैं कर ही नहीं पाई. पता नहीं कैसे दिमाग से उतर गया. बहुत जरूरी हैं. यदि 2 दिन के अंदर इन्हें सही नहीं किया तो बौस का लौस होगा तो होगा, साथ में मु?ो भी पता नहीं कब सैलरी मिले.

‘‘तुम कितनी तेजी से काम का निबटाती हो न. तुम्हारी मेहनत और काबिलीयत को देख कर ही तो बौस ने तुम्हें यह सब दिया था. अब क्या हुआ. सबकुछ ठीक तो है न.’’

‘‘अरे बाबा, सब ठीक है. वह घर में भी तो काम देखना पड़ता है न. दीप की 10वीं कक्षा की परीक्षा चल रही थी. उसी पर ध्यान देने में व्यस्त रही, इसलिए…’’

‘‘अच्छा चलो, जल्दी से अपना काम

निबटा लो,’’ यामिनी वहां से अपने कैबिन की तरफ चल दी.

शाम के समय औफिस से लौटते हुए अवंतिका सब्जियां आदि खरीदते हुए घर पहुंची. निखिल औफिस से आ चुका था. अवंतिका को देखते ही बोला, ‘‘बहुत सही समय पर आई हो. चलो, जल्दी से चाय पिला दो.’’

‘‘निखिल मैं बहुत थकी हुई हूं. बदन में भी खिंचाव महसूस हो रहा है. दीप को कहती हूं चाय बना कर ले आएगा.’’

‘‘अरे नहीं उसे चाय बनानी नहीं आती. कभी चायपत्ती अधिक डाल देता है तो कभी चीनी. चाय पीने का मजा किरकिरा कर देता है,’’  निखिल बोला.

‘‘ऐसा बिलकुल नहीं है. अब उसे मात्रा आदि समझा दी है. अच्छी चाय बना लेगा,’’ कह कर अवंतिका ने अपने बेटे दीप को चाय बनाने के लिए कहा.

अवंतिका मेहनती और टेलैंटेड महिला थी. उसे कुछ वर्ष ही हुए थे एक मल्टी नैशनल कंपनी में नौकरी करते. निखिल बैंक में कैशियर के पद पर कार्यरत था. अवंतिका के 2 बच्चे थे श्रुति और दीप. श्रुति 7वीं कक्षा में पढ़ रही थी और दीप 10वीं बोर्ड की परीक्षा दे दी थी. शुरुआती दिनों में सिंगल फैमिली होने के कारण अवंतिका ने एक गृहिणी बने रहना मंजूर किया था. लेकिन बच्चे जब बड़े होने लगे और अपनी पढ़ाई और दोस्तों में उन की व्यस्तता बढ़ने लगी तो अवंतिका को घरगृहस्थी के कामों के बाद खाली समय में अकेलापन महसूस होने लगा. निखिल भी अपने बैंक से लौटने के बाद शाम का समय दोस्तों के बीच ठहाके लगाने में बिताता. बैंक से आने के बाद शाम की चाय पी कर निखिल अपनी मित्र मंडली में जा बैठता. फिर तो उन के ठहाके और मनोरंजन का दौर थमता ही नहीं था. रात के 8-9 के पहले वह घर नहीं आता.

ऐसे में अवंतिका ने एक मल्टी नैशनल कंपनी जौइन कर ली. व्यस्त दिनचर्या के साथ हाथ में सैलरी मिलने से उसे सुखद अनुभूति होने लगी. अब उसे छोटीमोटी जरूरत के लिए भी निखिल पर आश्रित नहीं रहना पड़ता. अपनी मेहनत और कार्यकौशल से उस ने औफिस में खास पहचान बना ली थी. लेकिन इधर कुछ समय से वह अपने कार्य को ले कर पहले जैसी तत्परता और सक्रियता नहीं दिखा पा रही थी. घर की जिम्मेदारी पहले की ही तरह निभा रही थी, उस पर औफिस का काम.

रात का खाना बनाने के बाद अवंतिका टेबल पर खाना लगा रही थी, ‘‘श्रुति, जरा खाना सर्व करो और दीप तुम पीने के लिए पानी ले आओ. आज मैं बहुत थकी हुई महसूस कर रही हूं. ज्यादा देर नहीं बैठ पाऊंगी. जल्दी से खा कर सोने जा रही हूं. तुम लोग खाना खा कर जूठे बरतन सिंक में डाल देना.’’

अगली सुबह फिर से पूरा परिवार अपनेअपने काम में व्यस्त हो गया. श्रुति और दीप अपनी पढ़ाई और दोस्तों के बीच तो निखिल भी दिन में ड्यूटी और शाम में दोस्तों के साथ मस्ती में व्यस्त रहते. अवंतिका समय पर औफिस पहुंच चुकी थी. उसे अभी भी 2 फाइलों के काम निबटाने थे और कल तक बौस की टेबल पर देनी थीं.

‘‘गुड मौर्निंग अवंतिका. और कहो, तुम्हारा पैंडिंग वर्क पूरा हो गया?’’ यामिनी ने पूछा.

‘‘नहीं यार, अभी तो 2 फाइलें बाकी हैं और कल सुबह तक बौस को टेबल पर चाहिए. प्लीज, जरा मेरी हैल्प कर दो न.’’

‘‘यह भारीभरकम उलझी फाइलों में सिर खपाना मेरे वश की बात नहीं, वह भी प्रैशर में. तुम्हें ध्यान नहीं शायद लेकिन यह सब तुम्हारी प्रतिभा के कारण मिला है. और दिखाओ बौस को अपनी प्रतिभा और काबिलीयत,’’ यामिनी टोंट करते हुए हंस दी.

‘‘देखो मजाक का वक्त नहीं है. तुम्हें पता है न बौस ने मु?ो इस महीने की सैलरी नहीं दी है?  वे भी मेरी लापरवाही से नाराज हैं. यदि औफिस का नुकसान हुआ तो पूरी सैलरी खतरे में पड़ जाएगी. अब गंभीर बनो और कुछ रास्ता सुझाओ.’’

‘‘ओके, तुम अतुल की मदद ले लो.’’

‘‘कौन. वह लड़का जिस ने अभी कुछ महीने पहले ही कंपनी जौइन की है? उस नौसिखिए से क्या मदद लूं?’’

‘‘शायद तुम उसे ठीक से जानती नहीं हो. वह भी दिमाग का तेज है और युवा है तो काम के लिए उत्साह भी खूब भरा रहता है. पता है, पिछले महीने उस ने अमन की मदद की थी.’’

यह सुन अवंतिका अतुल से मदद लेने को तैयार हो गई. शाम होने लगी थी. अवंतिका ने अतुल को दोनों फाइलें दे कर काम समझा दिया और अगले दिन ले कर आने को कहा.

घर पहुंचने के बाद अवंतिका अपनी गृहस्थी वाले रूटीन वर्क  में लग गई तभी…

‘‘ऊफ… फिर से पीरियड भी न…’’

पिछले कुछ महीनों से अवंतिका के पीरियड्स थोड़ा असामान्य हो गए थे. इस दौरान वह शारीरिक कष्ट को भी ?ोलने लगी थी. उस ने सोचा कि वर्क लोड और अनियमित खानपान के कारण यह सब हो रहा होगा. वह अपने पीरियड्स को ले कर कुछ विशेष चिंता नहीं करती. वैसे भी लोग कहते हैं कि 40+ की महिलाओं में माहवारी को ले कर कुछनकुछ समस्या रहती ही है.

औफिस का काम तो निबट गया. उसे राहत मिली. लेकिन पीरियड्स के दौरान होने वाले शारीरिक कष्ट शुरू हो गए. इसलिए अवंतिका खाना खा कर जल्दी से बैड पर आराम करने चली गई. हौट फ्लैश और पेड़ू कमर के दर्द से परेशान अवंतिका बिस्तर पर आते ही निढाल हो गई. निखिल भी कुछ देर के बाद बैडरूम में आ चुका था. वह रात की बेला में रूमानियत महसूस कर रहा था. बिस्तर पर लेटी अवंतिका किसी हुस्न परी का एहसास करा रही थी. निखिल अवंतिका के समीप आया है और उसे स्पर्श करते हुए अपने पास खींचने की कोशिश करने लगा.

‘‘नहीं निखिल, तबीयत बिलकुल ठीक नहीं है. हौट फ्लैश से परेशान हूं. मुझे आराम करने दो.’’

‘‘यह क्या हो गया है तुम्हें? जब देखो तब तबीयत खराब या थकान का बहाना करती रहती हो. औफिस जाने के लिए तुम तो एकदम तंदुरुस्त हो जाती हो. है न?’’

‘‘तुम कैसी बातें कर रहे हो. मेरी थकान, मेरी खराब तबीयत तुम्हें नाटक लगता है?’’

‘‘और नहीं तो क्या. मैं देख रहा हूं कि कुछ महीनों से तुम घरपरिवार पर पहले की तरह ध्यान नहीं दे रही हो और मुझ पर तो बिलकुल भी नहीं. कभी तबीयत खराब, कभी थकान, कभी पीरियड्स… तुम मुझ से दूर होती जा रही हो.’’

‘‘तुम कहना क्या चाहते हो निखिल? मैं दोहरी जिम्मेदारी निभा रही हूं. घरपरिवार देखते हुए जौब भी कर रही हूं.’’

‘‘जिम्मेदारी? हुंह,’’ कह निखिल बिस्तर पर एक तरफ मुंह घुमा कर सो गया.

मगर अवंतिका की आंखों में नींद गायब हो गई. उसे निखिल की बातें चुभ गईं. वह जौब करने के लिए तब घर से बाहर निकली जब बच्चे थोड़े बड़े हो गए थे. निखिल भी तो अपनी दुनिया में व्यस्त रहता है. दोस्तों के साथ मस्ती भरे पल बिताता है.

‘‘क्या मेरी जरूरत सिर्फ घर के काम और बिस्तर तक ही सीमित है?’’ अचानक अवंतिका के मन में यह विचार कौंध गया और उस की आंखें डबडबा गईं.

अवंतिका थोड़ी चिड़चिड़ी होने लगी थी. निखिल को अवंतिका से शिकायत रहती. वहीं अवंतिका को निखिल से सम?ादारी की उम्मीद. उस की जिंदगी इसी तरह गुजरते जा रही थी. उस के मातापिता कुछ वर्ष पहले गुजर गए थे. एक भाई था तो वह भी विदेश में सैटल हो चुका था जो उस की कोई खोजखबर नहीं लेता. ससुराल में सासससुर भी नहीं थे. लेकिन ससुराल के नातेरिश्तेदार यदाकदा अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहते, वह भी निखिल के लिए. अवंतिका को ससुराल पक्ष के रिश्तेदार हेय दृष्टि से देखते.

वे कहते, ‘‘इस का तो न मायका है न भाई पूछने वाला. हम न पूछें तो इसे कोई न पूछे. मरने पर कोई कफन देने वाला भी न मिले.’’

अवंतिका सब की बातों को सुनती और खून का घूंट पी कर रह जाती. मन में सोचती कि सही वक्त पर इस का जवाब देना उचित होगा. यही कारण था कि बच्चों के साथ वह अपने काम के प्रति भी पजैसिव हो गई थी. हालांकि उसे न तो प्रोत्साहन मिलता और न ही सपोर्ट. लेकिन वह खुद को काम में व्यस्त रखती.

औफिस में अवंतिका को यामिनी के रूप में एक अच्छी साथी तो मिली ही. लेकिन अब अतुल के रूप में भी उसे एक समझदार दोस्त मिल गया था. उम्र में वह अवंतिका से छोटा जरूर था मगर था बहुत समझदार और सहयोगी व्यवहार वाला. तभी तो उस ने अवंतिका के बिखरे काम को समेटने में मदद की. अवंतिका ने पैंडिंग फाइलें समय पर पूरी कर बौस को दे दीं.

काम को सही तरीके से करने के लिए बौस ने अवंतिका की तारीफ की, ‘‘वैरी गुड. रियली दैट्स नाइस. मुझे मालूम था कि तुम इसे पूरा कर लोगी. मैं तुम्हारी काबिलीयत को जानता हूं. लेकिन पता नहीं क्यों तुम इधर काम के प्रति थोड़ी लापरवाह होने लगी थी.’’

‘‘थैंक यू सर. दरअसल बेटे का 10वीं कक्षा का ऐग्जाम था तो उस पर ध्यान देने के चक्कर में यह काम दिमाग से उतर गया था. मेरी कोशिश रहेगी कि आइंदा ऐसा न हो.’’

‘‘चलो, कोई बात नहीं. मैं ने तुम्हारी सैलरी पास कर दी है और साथ में कुछ बोनस भी. अब एक बात ध्यान से सुनो, एक बड़े प्रोजैक्ट पर काम होने वाला है. उस में तुम मेरे साथ रहोगी. यदि तुम ने अपनी मेहनत से अच्छा कर दिखाया तो तुम्हारी प्रमोशन पक्की. मुझे पूरा विश्वास है कि तुम मुझे निराश नहीं करोगी.’’

‘‘थैंक यू वैरी मच सर. मैं हार्ड वर्क से पीछे नहीं हटने वाली. मेरी पूरी कोशिश रहेगी कि मैं आप की उम्मीदों पर खड़ी उतरूं.’’

अवंतिका नए काम को पा कर बहुत खुश थी. उसे अब पूरी तरह से अपने नए प्रोजैक्ट पर फोकस करना था. उसे अपनी प्रमोशन के सपने खुली आंखों से दिखने लगे थे. लेकिन उस के इस उत्साह में निखिल का साथ बिलकुल नहीं मिल पा रहा था. अवंतिका निखिल से यह उम्मीद करने लगी थी कि घर की जिम्मेदारियों में निखिल थोड़ा सहयोग करे जिस से उसे अपना काम करने में सहूलियत हो. लेकिन निखिल का रवैया पहले जैसा ही था.

उस के रिश्तेदार भी निखिल से कहते, ‘‘देखा, सासससुर के न रहने पर कैसे अपने पंखों को फैला रही है. अब घरपरिवार उसे कहां से रास आएगा. मातापिता के रहते तुम से किसी ने घर में कोई काम करवाया? लेकिन देखो, अब महारानी तुम्हें गृहस्थी के कामों में उलझना चाहती है. सावधान रहना, तुम भी तो नौकरी करते हो.’’

निखिल शुरू से अवंतिका को कम और रिश्तेदारों को अधिक महत्त्व देता रहा. लेकिन अवंतिका सामंजस्य स्थापित कर के रिश्ते को निभाने की कोशिश करती रहती. अभी वह चाहती थी कि निखिल शाम के वक्त घर पर बच्चों को समय दे या सब्जी आदि खरीद कर ले आए.  लेकिन वह अपने दोस्तों के बीच रहना अधिक जरूरी समझौता. कहता, ‘‘मेरी भी तो अपनी लाइफ है. ड्यूटी से आ कर दोस्तों के साथ मन बहलाना भी जरूरी है नहीं तो सारा समय कामकाम और बस काम.’’

‘‘लेकिन निखिल, मेरी स्थिति भी समझ. एक अच्छा अवसर हाथ में आने वाला है. मैं इस गोल्डन मौके को गंवाना नहीं चाहती. मुझे घर के कामों में थोड़ा सहयोग कर दो ताकि इस प्रोजैक्ट को बेहतर मन से कर पाऊं.’’

‘‘तुम ने यह सब क्यों चुना? घरपरिवार ज्यादा जरूरी है. तुम्हें तो पता है, शुरू से मैं स्वच्छंद रहा हूं. मांबाबूजी ने बड़े प्यार से पाला है. ऊपर से किसी भी रिश्तेदार के घर जाता हूं तो बैठेबैठे आवभगत होती है. ऐसे में मुझे घर में कुछ करने की जरूरत नहीं पड़ी. यदि तुम से नहीं हो पा रहा तो प्रोजैक्ट छोड़ दो.’’

‘‘छोड़ दो,’’ अवंतिका को निखिल की बात बुरी लगी. वह मन ही मन सोचने लगी कि क्यों हर बार हर चीज स्त्री को ही छोड़नी पड़ती है ताकि गृहस्थी सुचारु रूप से चल सके. लड़की मायके और वहां से जुड़ी हर बात छोड़ कर आती है ससुराल में. एक नए रूप और अस्तित्व के साथ ससुराल में रहती है. सभी के साथ सामंजस्य स्थापित करने में न जाने कितना कुछ छोड़ती चली जाती है. इस सब के बावजूद क्या वह एक अपनी खुशी या सपने को ले कर आगे नहीं बढ़ सकती? आज जिस काम से उसे खुशी मिल रही है, उस का वजूद निखर रहा है, उसे भी वह छोड़ दे ताकि पारिवारिक जिम्मेदारियां सही से निभा पाए? माना कि निखिल प्यार में पला, कभी कोई जवाबदेही नहीं उठाई. मगर अभिभावक और घर का मुखिया बनने के बाद भी उस में जिम्मेदारी का भाव नहीं आना चाहिए? एक पति और हमसफर के तौर पर क्या उसे अपनी पत्नी का सहयोग नहीं करना चाहिए? आखिर मैं भी तो बचपन से ही जिम्मेदारियां उठाने की आदी नहीं?

तरहतरह की बातें मन में सोचते हुए अवंतिका खुद से ही जाने कितने सवाल पूछ बैठी. फिर भी, मन ही मन सोचा है कि यह मौका हाथ से नहीं जाने दूंगी. जिस को जैसे चलना है चले. मैं भी अपनी मेहनत बढ़ा दूंगी. एक बार प्रमोशन हो जाए बस.’’

अवंतिका निखिल के व्यवहार और दूसरों की सोच को दरकिनार करते हुए अपने काम में लगी रहती. बच्चों से भी कुछ काम में हाथ बंटाने का आग्रह करती ताकि उसे थोड़ा सी सपोर्ट मिल जाए. उस ने अपनी मेहनत बढ़ा दी लेकिन जल्दीजल्दी होने वाले पीरियड्स के कारण परेशान भी होने लगी थी. महीने में एक बार होने वाला कभीकभी 2 बार भी होने लगा. इस दौरान वह शारीरिक, मानसिक कष्ट महसूस करती. उसे बातबात पर गुस्सा भी आने लगा था. लेकिन निखिल उस की परेशानी समझाने के बजाय उस पर बरस पड़ता. इन सब की वजह से अवंतिका का कार्य भी प्रभावित होने लगा.

यामिनी ने अवंतिका की परेशानी को देख कर उसे डाक्टर से मिलने की सलाह दी. डाक्टर ने अवंतिका को बताया कि वह मेनोपौज के दौर से गुजर रही है. कभीकभी किसी को समय से पहले भी मेनोपौज हो जाता है. ऐसे में चिड़चिड़ापन, नकारात्मक सोच, थकान, कमजोरी आदि शारीरिकमानसिक दिक्कतें होनी सामान्य बात है. उसे अभी अपने सही खानपान के साथ सकारात्मक खुशहाल माहौल बनाए रखना भी जरूरी है. आवश्यक दिशानिर्देश और दवाइयां देने के साथ डाक्टर ने अवंतिका को मेनोपौज के संबंध में विस्तार से समझाया.

अवंतिका ने अपनी परेशानी निखिल से साझा की है. उसे उम्मीद थी कि यह सब जान कर निखिल को अब कोई शिकायत नहीं होगी बल्कि वह अपनी पत्नी की परेशानियों को समझाते हुए उस को मानसिक मजबूती प्रदान करेगा. लेकिन अवंतिका की सोच यहां उलटी पड़ गई. निखिल ने अवंतिका और डाक्टर की बातों को अधिक महत्त्व नहीं दिया.

‘‘यह सब क्या नई बातें ले कर बैठ गई? मासिकचक्र कोई नई बात है क्या? महिलाओं के लिए तो यह आम बात है. अब जा कर तुम्हें मनोवैज्ञानिक पहलू समझ में आने लगा? यह सब ज्यादा पढ़लिख जाने के कारण है. नौटंकी तो ऐसे कर रही हो जैसे कोई बहुत बड़ी बीमारी हो गई है. हुंह.’’

निखिल की बात से अवंतिका एक बार फिर खीझ गई. वह मन ही मन सोचने लगी कि चाहे जो हो मुझे हिम्मत से काम लेना होगा. भावनात्मक सहारा मिले न मिले लेकिन अपने अंदर सकारात्मक ऊर्जा को जरूर भरना होगा. समय के ऊबड़खाबड़ रास्ते पर अवंतिका के जीवन की गाड़ी यों ही बढ़ते जा रही थी. इधर औफिस के साथ घर की जिम्मेदारियां पूरा करते हुए अवंतिका मेनोपौज के दौर से भी गुजर रही थी. निखिल का रूखा व्यवहार पतिपत्नी के रिश्ते में खटास भरने का काम करने लगा था. अवंतिका को ऐसे में अपने मातापिता की बहुत याद आती कि काश वे होते तो उन से कुछ अपना दुख बांट लेती.

यामिनी ने अवंतिका की परेशानियों को समझाते हुए उसे पुन: सलाह दी कि प्रोजैक्ट में अतुल को शामिल कर के उस की मदद ले ले. कुछ तो राहत मिलेगी और यह बात उन तीनों तक ही रहेगी, बौस को जानकारी नहीं होने देंगे.

अवंतिका को यामिनी की बात जंच गई. उस ने इस नए प्रोजैक्ट में अतुल को अपने साथ मिला लिया. अतुल अवंतिका की बड़ी इज्जत करता था. सहयोगी व्यवहार के कारण वह एक बार फिर अवंतिका के काम में सहयोग करने के लिए तैयार हो गया.

अब अवंतिका ने थोड़ी राहत की सांस ली. काम को ले कर अतुल और अवंतिका की बातचीत औफिस के बाद घर पर भी फोन से होने लगी. निखिल को यह बात भी खटकने लगी. अवंतिका निखिल की इस मानसिक सोच से अनभिज्ञ अपनी दिनचर्या में मसरूफ थी. घर आने के बाद भी अतुल का काम के सिलसिले में कभी कौल तो कभी मैसेज आ जाता. इस बार का प्रोजैक्ट बड़ा महत्त्वपूर्ण था और अवंतिका कोई गलती नहीं करना चाहती थी. इसलिए 1-1 बारीकी पर वह अतुल से बात करती.

अतुल के सहयोग से अवंतिका का काम आसान तो हो गया मगर निखिल के साथ रिश्ते कठिन होने लगे.

एक शाम अवंतिका रसोई में खाना बना रही थी कि तभी अतुल का फोन आया. प्रोजैक्ट फाइल में कहीं कुछ मिसिंग था. उस को ले कर वह अवंतिका से कुछ जरूरी चीज पूछने लगा. उस में से मैटर बताने के लिए अवंतिका हौल की तरफ बढ़ गई और वहीं बैठे निखिल को गैस पर चढ़ी सब्जी देखने को बोल दिया.

इधर अवंतिका फाइल समेट कर वापस रसोई में आई तो सब्जी जल चुकी थी. वह निखिल से अपनी बात बोली तो उस ने न सुनने की बात कह कर पल्ला झाड़ लिया. ऊपर से अवंतिका पर ही बरसने लगा, ‘‘मैं देख रहा हूं कि तुम्हें अब कोई और भाने लगा है. घर की जिम्मेदारी तो छोड़ो अब खाना बनाने में भी मन नहीं लग रहा है. सीधेसीधे बोल दो कि तुम स्वतंत्र होना चाहती हो.’’

‘‘निखिल, तुम यह क्या बोल रहे हो? बच्चे क्या कहेंगे यह सब सुन कर? मैं तुम्हें सब्जी देखने के लिए बोल कर फाइल देखने चली गई थी.’’

‘‘अच्छा, तुम्हें नहीं दिखा कि मैं क्रिकेट मैच देख रहा हूं?’’

‘‘यदि तुम्हें नहीं देखना था तो बोल देते, मैं बच्चों को बोल देती. खैर, बात खत्म करो. आइंदा मैं बच्चों से ही बोल कर कुछ सहयोग ले लिया करूंगी.’’

‘‘हांहां, ले लो बच्चों का सहयोग. तुम नौकरी करो और बच्चों की पढ़ाई छुड़वा कर उन से घर के काम करवाओ.’’

‘‘अब इस में पढ़ाई छुड़वाने की बात कहां से आ गई? घर में छोटेमोटे कुछ काम देख लेने से उन की पढ़ाई छूट जाएगी? कितने बच्चे शहरों में अकेले रह कर पढ़ाई करते हैं. वे अपना काम खुद करते हैं.’’

अवंतिका समझ कर बात खत्म करना चाहती थी. लेकिन निखिल का गुस्सा 7वें आसमान पर था. उस दिन की तकरार से अवंतिका का मन टूट गया. उस ने एक पल को औफिस छोड़ने का मन बना लिया. अगले दिन औफिस में अवंतिका ने अतुल से प्रोजैक्ट पर काम करना बंद करने के लिए कहा. यह सुन कर अतुल चौंक गया. तब अवंतिका ने उसे अपनी पारिवारिक समस्याएं बताईं.

अतुल ने समझाया, ‘‘अवंतिकाजी, बड़ी सफलता के लिए कड़ी मेहनत के साथ संघर्ष भी करना पड़ता है. आप संघर्ष करते हुए सफलता के करीब आने वाली हैं. ऐसे में जौब छोड़ने का फैसला गलत होगा.’’

अब तक यामिनी भी अवंतिका के पास आ चुकी थी और सारी बातें जानने के बाद उस ने भी अवंतिका को जौब न छोड़ने की सलाह दी.

एक तो अवंतिका मेनोपौज के दौर से गुजर रही थी उस पर निखिल का व्यवहार. औफिस में महत्त्वपूर्ण प्रोजैक्ट उस के कैरियर को एक टर्निंग पौइंट देने वाला बन चुका था इसलिए अतुल और यामिनी की बात मान कर अवंतिका अपने काम और पारिवारिक परिस्थितियों में सामंजस्य रखने की सोची. यामिनी और अतुल यह सुन कर मुसकरा दिए.

‘‘दैट्स लाइक ए गुड गर्ल. देखो अवंतिका, मेनोपौज के दौर से गुजर रही महिलाओं की मानसिकशारीरिक स्थिति कुछ अलग होती है, लेकिन बेहतर खानपान और योग के द्वारा इन स्थितियों से निबटा जा सकता है. तुम वादा करो, किसी भी सिचुएशन में खुद को कूल रखोगी.’’

यामिनी की बात सुन कर अवंतिका ने स्वयं को कूल रखने का वादा किया. प्रोजैक्ट को 3-4 दिन में पूरा कर लेना था. निखिल के व्यवहार को देखते हुए अवंतिका ने तय किया कि वह औफिस से 1 घंटा लेट निकलेगी. यहीं अतुल के साथ बैठ कर काम का निबटारा कर लेगी ताकि घर जा कर प्रोजैक्ट वर्क पर बात करने की जरूरत न पड़े. अतुल भी इस बात को सही माना.

2-3 दिन अवंतिका औफिस से घर लेट पहुंची तो निखिल अवंतिका पर शक करने लगा. उस ने औफिस से जानकारी ली तो अतुल और अवंतिका के लेट तक रुकने का पता चला. निखिल का गुस्सा 7वें आसमान पर पहुंच गया लेकिन अपने क्रोध को छिपाते हुए उस ने एक शाम अतुल को बहुत जरूरी काम बोल कर बहाने से घर बुलाया.

‘‘अतुल इस आमंत्रण को सम?ा न सका. लेकिन उस ने निखिल के घर जाने का निर्णय लिया. अतुल को घर बुलाने के बाद निखिल ने उस को खूब फटकार लगाई और अवंतिका से दूर रहने की चेतावनी दी.

‘‘यह आप क्या कह रहे हैं? हमारे लिए आप के मन में क्या चल रहा है?’’ अतुल ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘मेरे मन में नहीं तुम्हारे मन में चल रहा है और वह भी अवंतिका के लिए. तुम्हें शर्म नहीं आती किसी की गृहस्थी को बरबाद करते?’’ निखिल गुस्से में बोला.

‘‘निखिलजी आप बहुत गलत सोच रहे हैं. ऐसा कुछ भी नहीं है. मैं अवंतिकाजी की बहुत इज्जत करता हूं,’’ अतुल ने सम?ाने का प्रयास किया.

अवंतिका निखिल के इस रवैए से बहुत गुस्सा हुई. अतुल के सामने ही अवंतिका और निखिल में अच्छीखासी बहस हो गई.

गुस्से में निखिल ने अवंतिका से कहा,  ‘‘ठीक है, तुम दोनों के बीच यदि कुछ भी गलत नहीं है तो अभी मेरे सामने तुम अतुल को राखी बांधो और इसे अपना भाई बना कर दिखाओ.’’

‘‘निखिल तुम इतनी गिरी हुई सोच के हो जाओगे यह मैं ने कभी नहीं सोचा था. मुझे तुम से नफरत हो गई है. क्या एक स्त्री और पुरुष मित्रवत व्यवहार के साथ नहीं रह सकते?’’

‘‘तुम बात घुमाने की कोशिश मत करो. अभी इसे राखी बांध कर इसे अपना भाई मानो.’’

अतुल भी निखिल के व्यवहार से क्रुद्ध हो गया है. लेकिन खुद को सामान्य बनाते हुए बोला, ‘‘अवंतिकाजी, आप इन की बात मान लीजिए. आप मेरी कलाई पर धागा बांध कर मुझे भाई के रूप में स्वीकार कीजिए.’’

अवंतिका अतुल की बात सुन कर कुछ बोलती उस से पहले ही अतुल ने फिर से अपनी बात दोहराई. अवंतिका को माहौल शांत करने का यही एकमात्र रास्ता नजर आया. वह मौली उठा कर ले आई और उसे अतुल की दाहिनी कलाई पर राखी के रूप में बांध दिया.

कलाई पर मौली बंधवाने के बाद अतुल अपने क्रोधावेग को बढ़ाते हुए बोला, ‘‘सुनो निखिल, मैं तुम्हें चेतावनी देता हूं कि इसी पल से तुम अवंतिका के साथ न तो बुरा बरताव करोगे और न ही उसे किसी प्रकार का मानसिक कष्ट देने की कोशिश करोगे. अभी से यह मेरी बड़ी बहन है और यदि उस की आंखों में तुम्हारी वजह से आंसू आए तो मु?ा से बुरा कोई न होगा. याद रखना यह अवंतिका के भाई की चेतावनी है.’’

निखिल अतुल का यह रूप देख कर अवाक रह गया. वे इस प्रकार के जवाब की बिलकुल उम्मीद नहीं की थी. आगे वह किस बात पर बहस करे?

उस को चुप देख कर अतुल बोला, ‘‘मैं अवंतिकाजी को बड़ी बहन के रूप में ही इज्जत करता था लेकिन आज तुम ने हमारे रिश्ते को इस धागे से मजबूत बना दिया है. अब यह मत सम?ाना कि अवंतिका अकेली है. मैं इस का भाई सदैव इस के लिए खड़ा रहूंगा. चलता हूं अवंतिकाजी अपना खयाल रखिएगा और हां, आप को अपने काम पर पूरा फोकस करना है. यह प्रमोशन का अवसर आप के हाथ से जाने न पाए. अब मैं चलता हूं.’’

अतुल वहां से जा चुका था मगर निखिल के पैर अब भी जस के तस ठिठके थे.

‘‘आज तुम ने विश्वास की आखिरी डोर को भी तोड़ दिया. तुम ने मुझे जो दर्द की सिलवटें दी हैं वे हृदय में जीवनभर चुभती रहेंगी. निखिल, भले ही मैं यहां इस घर में रहूंगी वह भी अपने बच्चों की खातिर मगर मेरे मन में तुम्हारे लिए

न तो पहले जैसी भावना रहेगी और न इज्जत. अपनी गंदी सोच से गृहस्थीरूपी

प्रेमालय को तुम ने मैला कर दिया है. तुम न तो अपनी जिम्मेदारियां समझ सके और न ही अपनी पत्नी को,’’ कह कर अवंतिका गुस्से से कमरे में चली गई और निखिल वहीं खड़ा अपनी सोच पर पछतावा करता रहा.

Inspirational Hindi Stories : अपना वजूद

Inspirational Hindi Stories : पानीपत शहर की मिडल क्लास परिवार की छोटी बेटी सुहानी (छोटी इसलिए कि भाई इस से बड़ा है) ने 1978 में एमबीए पास कर लिया था. लास्ट सैमेस्टर में ही दिल्ली की एक अच्छी कंपनी द्वारा नौकरी का औफर भी मिल गया. पढ़ीलिखी और अच्छी नौकरी के साथसाथ खूबसूरती ऐसी कि जो देखे वह पलक झपकना ही भूल जाए. गहरी नीली आंखें, पतले कमान से होंठ, सुराहीदार गरदन, तीखी नाक. उस पर कयामत ढा रहे गोरे रंग के गालों पर छोटा सा काला तिल, सीना कामदेव को आमंत्रण देता. उफ…

क्या कहने उस के हुस्न के. जो देखे बस दिल हार दे.

रिश्ते तो अनगिनत आए मगर अकसर कहीं न कहीं दहेज का लालच दिखता जो सुहानी के मातापिता दे नहीं सकते थे क्योंकि सुहानी के पिता की पोस्टऔफिस में पोस्ट मास्टर की नौकरी थी और जायदाद के नाम पर बस लेदे कर 2 कमरों का छोटा सा घर. मोटे दहेज की डिमांड कहां से पूरी करें? इस तरह से 2 साल बीत गए कहीं कोई बात जमती नजर न आई.

खैर, कुदरत भी कभीकभी कोई चमत्कार करती है. आखिर 2 साल के बाद 1980 में सुहानी की भाभी के किसी दूर के रिश्तेदार ने स्वयं इस रिश्ते की मांग की. दहेज लेना तो दूर की बात वे एक पैसा भी इन का खर्च न कराने को तैयार. भाई भी भाभी के कहने पर इस रिश्ते के लिए जोर देने लगा.

मांपापा ने हां कर दी. सुहानी चुप. जो मांपापा कहें सब ठीक, लड़के को बिन देखे शादी के लिए तैयार. भाईभाभी भी सिर से बोझ उतारना चाहते थे सो सुहानी को बताया, ‘‘सुहानी, हम ने लड़का देखा है, अच्छा है और उस पर देखो सरकारी नौकरी है और वह भी दिल्ली में ही है. उस पर दिल्ली जैसे शहर में अपना अच्छाखासा घर है, साथ में तेरी भी अच्छीखासी नौकरी दिल्ली में ही है. छोटा सा परिवार है अर्थात तुम दोनों और केवल मांबाप हैं. तुझे कोई कमी नहीं रहेगी वहां पर, सुखी रहेगी.’’

सुहानी ने बस हां में सिर हिला दिया. शादी के समय जब सुहानी ने नजर उठा कर दूल्हे अनीश को देखा तो काला रंग, पेट बाहर को निकला हुआ, सिर पर बालों के नाम पर चांद चमकता हुआ. बस चुप हो कर रह गई. क्या कहती आज के समय में बिना दहेज कोई बात ही नहीं करता और ये तो शादी का खर्च भी खुद के सिर ले रहे थे. मांपापा के बारे में सोच कर चुप रही. भाई तो पहले ही भाभी की भाषा बोलने लगा था.

शादी के बाद ससुराल में रिसैप्शन बहुत शानदार की गई. जो भी आता यही फुसफुसाता लंगूर को हूर मिल गई. लड़की तो परियों की रानी है, न जाने क्या मजबूरी रही होगी बेचारी की.

शादी के 2 महीने बाद ही सास को अचानक पैरालिसिस का अटैक आया. अब घर की देखभाल कौन करे. पति ने हुक्म सुनाया, ‘‘सुहानी, तुम नौकरी छोड़ दो, घर पर मां की देखभाल करो.’’

सुहानी सारा दिन घर का कामकाज करती. सास की सेवा में लगी रहती. 6 महीने बीते लेकिन सास की तबीयत में कोई सुधार नहीं लग रहा था ताकि कुछ उम्मीद हो उस के ठीक हो जाने की, उलटा तबीयत गिरती जा रही थी. उस पर ससुरजी बहुत परेशान करने लगे. थोड़ीबहुत पीने की आदत थी जो अब और बढ़ गई. वैसे भी ससुरजी खानेपीने के शौकीन होने के साथ कुछ रंगीन मिजाज के भी थे. जीवनसंगिनी तो चुप्पी लगा चुकी थी किस से मस्तीमजाक करते? बेटे ने कह दिया था कि जब भी कुछ खाने का मन करे आप सुहानी से कह दिया कीजिए.

अब तो ससुरजी,बहू से खुल चुके थे इसलिए जब भी कुछ खाने का मन हो ?ाट से बहू से बोल देते, ‘‘सुहानी, कल मेरे लंच में फलां चीज पैक कर देना या कभी सुहानी आज औफिस से आते हुए मैं चिकन लेता आऊंगा तुम मसाला वगैरा तैयार कर के रखना अर्थात नित नई डिमांड होने लगी. कभी सुहानी से कोई स्नैक्स, कभी चिकन, कभी कुछ, कभी कुछ डिमांड करते रहते. सुहानी इन सब में अनीश को समय न दे पाती.

आखिर एक दिन अनीश भड़क पड़ा, ‘‘सुहानी, तुम सारा दिन क्या करती हो?

जो काम इस समय हो रहा है वह दिन में क्यों नहीं कर लेती? मेरे लिए तुम्हारे पास समय ही नहीं है और

अपनी शक्ल तो देखो, तुम से तो कामवाली ही अच्छी लगती है. कभी ढंग से भी रहना सीखो.’’

सुहानी चुपचाप हां में सिर हिला देती. अगर कुछ कहती तो अनीश का पारा 7वें आसमान पर चढ़ जाता कि मेरे पापा के लिए तुम इतना सा काम भी नहीं कर सकती, मां ठीक थी तो सब मां ही करती थी न, अब तुम से इतना भी नहीं हो पाता कि इंसान घर में ढंग से खाना खा सके.

समय बीतता गया. शादी को 2 साल हो गए. अनीश औफिस के काम में व्यस्त और सुहानी घर के काम और सासससुर की तीमारदारी में. नतीजा यह कि सुहानी और अनीश में दूरियां बढ़ती गईं.

एक दिन तो हद ही हो गई. ससुरजी ने 2 पैग ज्यादा लगा लिए और चढ़ गई उन्हें. उन्होंने हाथ पकड़ कर सुहानी को खींच लिया अपनी तरफ. जैसेतैसे हाथ छुड़ा कर भागी. अनीश टूर पर गए हुए थे किस से कहे. अनीश के आने पर कुछ कहने की हिम्मत करने लगी मगर फिर चुप कि अनीश अपने पिता के बारे में नहीं मानेंगे ऐसी बात, उलटा उस पर ही दोष न लग जाए यह सोच कर चुप रह गई क्योंकि आजकल अनीश उसे बातबात पर ताने देता या कभी गुस्सा करता.

इस तरह सुहानी का अनीश को समय न देने से अनीश को स्त्री सुख की कमी खली तो वह स्त्री सुख की तलाश में बाहर भटकने लगा. इस से शराब की लत भी पड़ गई. अकसर पी कर आने लगा और सुहानी से गालीगलौच करता. कभीकभी तो हाथ भी उठा देता मगर सुहानी सब चुपचाप सहती.

सुहानी की शादी के 1 साल बाद ही उस के मांपापा तीर्थ यात्रा पर सुहानी की शादी के लिए मानी गई मन्नत देने जा रहे थे कि वापस आते समय बस गहरी खाई में पलटने की वजह से गुजर गए. अपना दुखड़ा वह किस से कहती, बस सब चुपचाप सहती रहती.

शादी को 5 साल बीत जाने पर भी कुदरत ने अभी तक गोद सूनी रखी थी वरना कोई तो सहारा बन जाता जीने का. गोद भरती भी तो कैसे? पति तो किसी और के साथ सो कर आता. जब बीज ही नहीं तो फल कहां से आएगा?

अधिक शराब के कारण पति को लंग कैंसर हो गया और शादी के केवल 5 साल बाद ही गुजर गया. भाईभाभी सार्वजनिक रूप में आ कर अफसोस कर के चले गए. बहन का एक बार भी हालचाल न पूछा. सुहानी चुपचाप सब अकेले ?ोलती रही.

मगर अब ससुर के लिए खुला रास्ता था. बेटा रहा नहीं, पत्नी बैड पर. किसी न किसी बहाने सुहानी को छूता रहता. बेचारी चुपचाप कन्नी काट लेती.

पति की सरकारी नौकरी थी, इसलिए उस के स्थान पर सुहानी को नौकरी मिल गई. अब सुहानी की जिम्मेदारी भी बढ़ गई. घर भी संभालना और नौकरी भी. सुहानी का औफिस ससुरजी के औफिस के रास्ते में था तो ससुर जाते हुए छोड़ देते और आते हुए ले लेते और रास्ते में कभीकभी सुहानी से गंदेगंदे मजाक करते सुहानी चुपचाप सहती रहती.

सुहानी सोचती कोई भी तो नहीं उस का अपना. न मायके में और न ही ससुराल में. हां लेकिन कभीकभी जब मन हद से ज्यादा भरा होता तो सासूमां के पास बैठ उन से बातें करती मानो वह इस की बातें सुन रही हो. जानती थी कि वे जवाब नहीं देंगी. मगर फिर भी वह बोल कर अपना दिल हनका कर लेती थी. लेकिन सुहानी यह नहीं जानती थी कि पैरालिसिस का मरीज बेशक बोल नहीं सकता, रिस्पौंस नहीं कर सकता लेकिन वह महसूस कर सकता है और यही हालात सुहानी की सास की थी. वह सब सुन कर महसूस करती थी लेकिन रिस्पौंस नहीं कर पाती थी. अंदर ही अंदर घुलती थी इस कारण जब उसे पता चला कि अनीश और उस का पति सुहानी के साथ कैसा बरताव करते हैं और उस के बाद अनीश की मृत्यु की खबर, तो वह पूरी तरह से टूट चुकी थी. हर पल मन में कुदरत से मृत्यु मांगती.

सुहानी की कोई सखीसहेली भी नहीं बनी थी यहां पर. सारा दिन पहले घर से फुरसत नहीं मिलती थी, अब घर के साथ नौकरी भी ही गई. उसे तो इतना तक पता न था कि महल्ले के तीसरे घर में कौन रहता है. लेकिन उसे लगा कि उस का बौस बहुत नेक इंसान है, कितने अपनेपन से बात करता है. घर से तो कम से कम औफिस का समय तो अच्छा निकलता है. इसी में वह संतुष्ट रहती.

सुहानी के बौस नीरज अकसर कोई भी इंपौर्टैंट काम होता तो सुहानी को ही सौंपते. कहते, ‘‘सुहानी, तुम्हारे सिवा मैं किसी पर भी इतना भरोसा नहीं कर सकता जितना तुम पर. इसलिए इस काम को तुम ही अंजाम दोगी.’’

वैसे भी सुहानी मेहनत और लगन से काम करती थी. कभी कोई शिकायत का मौका नहीं दिया उस ने.

धीरेधीरे नीरज की मीठीमीठी बातों का असर सुहानी पर होने लगा. कभी जब नीरज पूरे स्टाफ की छुट्टी कर के उसे ऐक्स्ट्रा काम के लिए रोक लेते तो औफिस के बाहर ससुरजी पहरा दिए खड़े रहते.

सुहानी लाख कहती कि मुझे देर हो जाएगी, आप जाओ मैं बस से आ जाऊंगी लेकिन ससुरजी कहां मानने वाले, खड़े रहते वहीं अड़ कर.

उधर नीरज तो कुछ और ही मंशा रखते थे जिस से सुहानी अनजान थी. आखिर एक दिन नीरज बोले, ‘‘सुहानी, यहां तुम्हारे ससुरजी पहरेदार बने ऐसे खड़े रहते हैं जैसे हम कोई उन के कोहिनूर हीरे को चुरा कर कहीं ले जाएंगे. उन के इस तरह सिर पर खड़े रहने से काम में न तो मैं कंस्ट्रेट कर पाता हूं, न ही तुम. मुझे लगता है हमें कहीं और ठिकाना बनाना होगा, अपने काम की बेहतरी के लिए,’’ और फिर कुछ दिनों बाद नीरज ने सुहानी को प्रोजैक्ट फाइल ले कर अपने घर चलने को कहा ताकि उन के घर पर काम किया जा सके.

नीरज की उम्र को देखते हुए अंदाजा लगाया जा सकता था कि अगर उन के बच्चों की शादी नहीं हुई तो शादी लायक तो अवश्य हो गए होंगे. अब भला ऐसी उम्र और परिवार वाले आदमी पर कौन शक कर सकता है कि उस का इरादा गलत हो सकता है. वैसे भी सुहानी को वहां जौब किए लगभग डेढ़ साल बीत चुका था. नीरज सर पर उसे विश्वास हो चला था कि वे अच्छे इंसान हैं. पहले कभीकभी अनीश भी नीरज सर की बहुत तारीफ किया करता था.

यह सोच सुहानी उन के साथ चली गई और नीरज ने सुहानी के ससुर को पता न बताते हुए कौन्फिडैंशल प्रोजैक्ट का बहाना बना दिया और सुहानी को खुद उस के घर तक छुड़वाने की जिम्मेदारी दे ली.

मगर सुहानी नीरज के घर जैसे ही पहुंची, उस के होश उड़ गए क्योंकि घर पर परिवार का कोई सदस्य न होने पर भी आते ही नीरज ने नौकर को फिल्म देखने भेज दिया. सुहानी यह सब देख हैरानपरेशान कुछ न कह सकी, मगर दिल ही दिल घबरा अवश्य गई.

और वही हुआ नीरज ने आते ही उसे किचन में चाय बनाने के बहाने भेज कर घर को अंदर से लौक कर दिया और कपड़े बदल कर केवल नाइट गाऊन में उस के पास किचन में आ कर पीछे से उसे पकड़ कर उस की गरदन पर चुंबन लेने लगे.

सुहानी हड़बड़ा कर मुड़ी तो नीरज का यह रूप देख कर हैरान रह गई.

‘‘स… स… सर यह… आप क्या कर रहे हैं? आप होश में तो हैं?’’ डरतेडरते सुहानी के मुंह से ये लफ्ज निकले.

‘‘होश ही तो नहीं रहता जब तुम सामने आती हो. जब से तुम्हें देखा है सच दिल बेकाबू हो गया है. हर पल सिर्फ तुम्हें पाने को बेचैन रहता है. औफिस में तो मौका मिलता नहीं था. इतने दिनों बाद बड़ी मुश्किल से परिवार वालों को टूर पर भेज कर आज मन की इच्छा पूरी होने का वक्त आया है. बस डार्लिंग अब और न सताओ, जल्दी से इस दिल की प्यास बु?ा दो.’’

‘‘सर प्लीज मुझे यों जलील मत कीजिए, मैं कहीं की नहीं रहूंगी, मु?ो जाने दे सर, मैं आप के हाथ जोड़ती हूं, मैं आप की बेटी समान हूं.’’

‘‘छोड़ो न यार, क्या ऊलजलूल बातें करती हो, भला इस भरी जवानी में इस तरह अकेले उम्र कटती है क्या? फिर तुम्हारे हुस्न को देख कर तो न जाने कितनों के दिलों पर छुरियां चलती होंगी. देखो तुम चुपचाप मेरे पास आ जाया करो, मेरे मन की और तुम्हारे तन की, दोनों की आग को शांत करने का यही तरीका है. तुम बेकार में रातों में अकेले तड़पती होगी,’’ कहते हुए नीरज ने उसे बलपूर्वक गोद में उठा लिया और बैडरूम में ले गया.

उधर ससुरजी ने भी एक दिन तो हद ही कर दी. 28 दिसंबर, 1987. उस दिन उसका जन्मदिन होता है. शादी से पहले तो पापा हर साल इतने अच्छे से जन्मदिन मनाया करते थे, मगर शादी के बाद पहला जन्मदिन ही अनीश से सैलिब्रेट किया था. उस के बाद तो हर जन्मदिन साधारण सा ही बीतता, कोई चाव न रहता उसे.

उस दिन ससुरजी जब पीने बैठे तो 1 नहीं 2 पैग बनाए और सुहानी को पीने के लिए जबरदस्ती करने लगे और उस के मुंह से गिलास लगाते हुए बोले, ‘‘आज तो जश्न मनाने का दिन है, आज हमारी जान का जन्मदिन जो है. इसी बात पर आज तो 2 घूंट भर ही लो यार.’’

ऐसे लगा जैसे जहर का घूंट भर लिया हो. सिर चकराने लगा. कोई घटना घटती उस से पहले ही कुदरत ने खेल खेला. उस की सास की तबीयत अचानक बिगड़ गई. सुहानी को तो नशा हो गया, उसे कुछ पता नहीं. ससुरजी ने ही सास की रातभर देखभाल तो की मगर तबीयत ऐसी बिगड़ी कि अगले ही दिन वह सदा के लिए सो गई. 13वीं तक तो दोनों ससुरबहू ने छुट्टियां ले कर बड़ी शांति से सबकुछ करवाया. सब शांति से निबट गया और अगले दिन से फिर वही रूटीन सुहानी का. बहुत परेशान रहती थी हर समय.

उधर औफिस में नीरज सर और इधर घर पर ससुरजी अकसर उस से छेड़छाड़ करते रहते. किस से कहे और क्या कहे कुछ समझ न आता. बस चुप रहती हर पल, औफिस में भी ज्यादा बात न करती किसी से, एक आलोक ही था जिस से वह कभीकभी अपने दिल की बात कह देती थी. मगर उस का भी तबादला हो गया.

दिनेश इंडिया की ब्रांच में आए तो उन का सब ने खुले दिल से स्वागत किया. उन को भी अच्छा लगा. वे अकेले ही थे क्योंकि पत्नी का तो देहांत हो गया था और बच्चा अभी कोई था नहीं. लेकिन उन्हें अपनी पत्नी से इतनी मुहब्बत थी कि उन्होंने दोबारा शादी नहीं की. लगभग 14-15 सालों बाद उन्हें इंडिया आ कर बहुत अच्छा लग रहा था खासकर सुहानी के मेहनती और मिलनसार स्वभाव के तो वे कायल हो गए.

रोजरोज बाजार का या नौकर के हाथ का खाना न खाएं इसलिए कभीकभी सुहानी अपने लंच के साथ बौस के अर्थात कंपनी के ओनर दिनेश का लंच भी ले आती. जब सुहानी उन्हें उन का लंच परोसती तो वे सुहानी को भी वहीं बैठ कर खाने को कहते. इस तरह धीरेधीरे दोनों में नजदीकियां बढ़ती गईं. दिनेश की उम्र बेशक 40-42 की थी पर दिल तो अभी जवान है. उन्हें सुहानी का साथ अच्छा लगता. सुहानी को भी कुछ समय के लिए नीरज से छुटकारा मिल जाता. इधर ससुरजी से तो छुटकारा मिलना मुश्किल था लेकिन नीरज से तो कुछ राहत मिलने लगी क्योंकि अब सुहानी दिनेश साहब के साथ ही रहती और घर जाते भी कभीकभी वे छोड़ देते.

मगर एक दिन ससुर ने सारी हदें पार कर दी. पत्नी को मरे 6 महीने बीत चुके थे बेटा तो पहले ही गुजर चुका था. वैसे भी पत्नी कितने ही सालों से बैड पर थी. लगभग 7-8 साल से तन की विरह वेदना में तड़प रहे थे. उस रात तो ससुरजी ने ठान ही लिया कि आज अपनी पिपासा को शांत कर के ही दम लेंगे. इत्तफाक से 15 जून का दिन था. सुहानी की शादी का दिन. हां… आज से 8 साल पहले यानी 15 जून, 1980 रविवार को आज के ही दिन सुहानी की अनीश से शादी हुई थी.

सुहानी को आज उस समय की बहुत याद आ रही थी. वह बीते पलों में खोई सोच रही थी कि उस की जिंदगी क्या से क्या हो गई, किस तरह तिलतिल कर के उस की जिंदगी सुलगती रही अब तक. इन खयालों में खोई नींद उस की आंखों से कोसों दूर थी. तभी ससुरजी ने आधी रात को अचानक सुहानी को जगाया, ‘‘सुहानी मेरे सिर में बहुत दर्द है, थोड़ी सी मसाज कर दो.’’

सुहानी ने देखा तो वे केवल अंडरवियर में ही थे. उस ने शर्म से मुंह फेर लिया.

ससुरजी बोले, ‘‘अरे गरमी बहुत है न और उस पर दर्द की वजह से भी बेचैनी हो रही है इसलिए… तुम तो जानती हो मुझ से ज्यादा गरमी बरदाश्त नहीं होती,’’ कहते हुए उन के चेहरे पर कुटिल मुसकान आ गई.

तीसरे दिन ससुर ने रोब दिखा कर कहा, ‘‘औफिस जाना शुरू करो, सरकारी नौकरी है, छूट गई तो खाना भी नहीं मिलेगा, मैं ने तुम्हें पालने का ठेका नहीं ले रखा.’’

सुहानी चुपचाप उठी और औफिस के लिए तैयार हो कर चल दी.

कुछ दिनों बाद जब माहवारी का समय आया और वह नहीं आई तो सुहानी को घबराहट होने लगी. चैक कराने पर पता चला कि उम्मीद से है अर्थात प्रैगनैंट है. मरने की ठान ली. क्या करती? जिंदा रह कर कैसे दुनिया का सामना करती? 2-4 दिन परेशानी से बीते तो एक दिन न जाने सुहानी को क्या सू?ा कि औफिस से हाफ डे ले कर चल पड़ी अकेली अनजान राहों पर. दिनेश को 2-4 दिन से ही सुहानी कुछ अपसैट लग रही थी. कुछ पूछने पर भी नहीं बता रही थी. इसलिए वे चुपके से सुहानी के पीछे हो लिए.

दिनेश ने देखा सुहानी नदी की तरफ जा रही. जैसे ही सुहानी नदी में छलांग लगाने लगी दिनेश ने उस की बांह पकड़ ली, ‘‘सुहानी, यह क्या कर रही हो तुम? जिंदगी से हार कर हम जिंदगी को खत्म कर लें यह किसी समस्या का हल नहीं. हमें हर समस्या का डट कर मुकाबला करना है, तुम्हें जो भी परेशानी है मु?ा से कहो, मैं हर पल तुम्हारे साथ हूं.’’

सुहानी दिनेश के गले लग कर फफकफफक कर रो पड़ी. काफी देर रोने के बाद उस ने अपने को संभाला और दिनेश साहब को शुरू से ले कर अब तक की सारी व्यथा सुना दी.

‘‘सुहानी यह दुनिया ऐसी ही है जो जितना झुकता है उसे उतना झुकाती है, जो जितना सहता है उस पर उतने ही ज़ुल्म करती है. यहां बिन मांगे या बिन छीने हक नहीं मिलता. आज के समय में जीने का हक भी छीनना पड़ता है. तुम्हें अपनी परेशानियों से खुद लड़ना होगा, अपना वजूद तुम्हें खुद ढूंढ़ना होगा,’’ दिनेश साहब ने सांत्वना देते हुए कहा

सुहानी दिनेश साहब की बातें ध्यान से सुन रही थी. वह एक दृढ़ निश्चय के साथ बोली, ‘‘सर, आप सही कह रहे हैं अब मैं चुप नहीं रहूंगी, यह चुप्पी तोड़नी होगी अब मुझे. अब मैं और सहन नहीं करूंगी, मुझे अपना वजूद ढूंढ़ना है.’’

‘‘सुहानी मैं हर पल तुम्हारे साथ हूं और मैं तुम्हारे इस बच्चे को अपना नाम दूंगा. मैं कल ही तुम से शादी कर लूंगा.’’

‘‘नहीं सर अभी नहीं. अभी मुझे अपने ससुर नाम के दुश्मन का हिसाब चुकाना है.’’

‘‘ठीक है, जैसा तुम कहो. लेकिन नीरज को मैं बताऊंगा कि कैसे किसी मजलूम की इज्जत से खेला जाता है.’’

एक दिन रात को जब सुहानी का ससुर पैग बनाने लगा तो सुहानी सलाद, ड्राई फू्रट्स तथा फू्रट्स इत्यादि प्लेटों में डाल कर, बर्फ ले कर आई तो ससुरजी हैरानी से उसे देखने लगे.

‘‘अरे इस तरह क्या देख रहे हैं. अब जब इस जीवन को अपना ही लिया है तो खुशी से रहें. रोधो कर क्या करना है,’’ सुहानी हंसते हुए बोली.

‘‘अरे वाह. आज तो फिर खूब मजा आएगा. इसी खुशी में आज लार्ज पैग बनाते हैं,’’ कहते हुए ससुरजी ने अपने गिलास में थोड़ी और शराब डाल ली.

इस तरह बातोंबातों में सुहानी ने ससुर को अत्याधिक शराब पिला दी और नशे की हालत में उस से घर के कागजात पर हस्ताक्षर करवा कर अपने नाम करा लिया. इधर नीरज को औफिस से निकाल दिया गया.

1 सप्ताह के बाद सुहानी ने ससुरजी को साफ शब्दों में बता दिया कि वह दिनेश से शादी कर रही है. जब ससुर ने एतराज जताया तो उस ने घर के कागजात दिखा कर कहा कि वे अपना इंतजाम कहीं और कर लें क्योंकि घर सुहानी का है.

आखिर आज 8 सालों के दर्द के बाद सुहानी को सुकून मिला है. सुहानी और दिनेश साहब ने कोर्ट में शादी कर ली. दिनेश साहब के पिता अजीत भी बेटे का घर बसता देख प्रसन्न थे.

बेशक सुहानी कंपनी के मालिक की पत्नी है लेकिन उस ने जौब नहीं छोड़ी क्योंकि उसे अपने वजूद के साथ जीना है न कि किसी दूसरे की परछाईं के नाम पर.

Latest Hindi Stories : यही सच है

Latest Hindi Stories :  उस ने एक बार फिर सत्या के चेहरे को देखा. कल से न जाने कितनी बार वह इस चेहरे को देख चुकी है. दोपहर से अब तक तो वह एक मिनट के लिए भी उस से अलग हुई ही न थी. बस, चुपचाप पास में बैठी रही थी. दोनों एकदूसरे से नजरें चुरा रही थीं. एकदूसरे की ओर देखने से कतरा रही थीं. सत्या का चेहरा व्यथा और दहशत से त्रस्त था. वह समझ नहीं पा रही थी कि अपनी बेटी को किस तरह दिलासा दे. उस के साथ जो कुछ घट गया था, अचानक ही जैसे उस का सबकुछ लुट गया था. वह तकिए में मुंह छिपाए बस सुबकती रही थी. सबकुछ जाननेसमझने के बावजूद उस ने सत्या से न तो कुछ कहा था न पूछा था. ऐसा कोई शब्द उस के पास नहीं था जिसे बोल कर वह सत्या की पीड़ा को कुछ कम कर पाती और इस विवशता में वह और अधिक चुप हो गई थी.

जब रात घिर आई, कमरे में पूरी तरह अंधेरा फैल गया तो वह उठी और बत्ती जला कर फिर सत्या के पास आ खड़ी हुई, ‘‘कुछ खा ले बेटी, दिनभर कुछ नहीं लिया है.’’ ‘‘नहीं, मम्मी, मुझे भूख नहीं है. प्लीज आप जाइए, सो जाइए,’’ सत्या ने कहा और चादर फैला कर सो गई.

कुछ देर तक उसी तरह खड़ी रहने के बाद वह कमरे से निकल कर बालकनी में आ खड़ी हुई. उस के कमरे का रास्ता बालकनी से ही था अपने कमरे में जाने से वह डर रही थी. न जाने कैसी एक आशंका उस के मन में भर गई थी. आज दोपहर को जिस तरह से लिथड़ीचिथड़ी सी सत्या आटो से उतरी थी और आटो का भाड़ा दिए बिना ही भाग कर अपने कमरे में आ गई थी, वह सब देख कर उस का मन कांप उठा था. सत्या ने उस से कुछ कहा नहीं था, उस ने भी कुछ पूछा नहीं था. बाहर निकल कर आटो वाले को उस ने पैसे दिए थे.

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आटो वाला ही कुछ उदासउदास स्वर में बोला था, ‘‘बहुत खराब समय है बीबीजी, लगता है बच्ची गुंडों की चपेट में आ गई थी या फिर…रिज के पास सड़क पर बेहाल सी बैठी थी. किसी तरह घर तक आई है…इस तरह के केस को गाड़ी में बैठाते हुए भी डर लगता है. पुलिस के सौ लफड़े जो हैं.’’ पैसे दे कर जल्दी से वह घर के भीतर घुसी. उसे डर था, आटो वाले की बातें आसपास के लोगों तक न पहुंच जाएं. ऐसी बातें फैलने में समय ही कितना लगता है. वह धड़धड़ाती सी सत्या के कमरे में घुसी. सत्या बिस्तर पर औंधी पड़ी, तकिए में मुंह छिपाए हिचकियां भर रही थी. कुछ देर तक तो वह समझ ही न पाई कि क्या करे, क्या कहे. बस, चुपचाप सत्या के पास बैठ कर उस का सिर सहलाती रही. अचानक सत्या ही उस से एकदम चिपक गई थी. उसे अपनी बांहों से जकड़ लिया था. उस की रुलाई ने वेग पकड़ लिया था.

‘‘ममा, वे 3 थे…जबरदस्ती कार में…’’ सत्या आगे कुछ बोल नहीं पाई, न बोलने की जरूरत ही थी. जो आशंकाएं अब तक सिर्फ सिर उठा रही थीं, अब समुद्र का तेज ज्वार बन चुकी थीं. उस का कंठ अवरुद्ध हो आया, आंखें पनीली… परंतु अपने को संभालते हुए बोली, ‘‘डोंट वरी बेटी, डोंट वरी…संभालो अपने को… हिम्मत से काम लो.’’

कहने को तो कह दिया, सांत्वना भरे शब्द, किंतु खुद भीतर से वह जिस तरह टूटी, बिखरी, यह सिर्फ वह ही समझ पाई. जिस सत्या को अपने ऊपर अभिमान था कि ऐसी स्थिति में आत्मरक्षा कर पाने में वह समर्थ है, वही आज अपनी असमर्थता पर आंसू बहा रही थी. बेटी की पीड़ा ने किस तरह उसे तारतार कर दिया था, दर्द की कितनी परतें उभर आई थीं, यह सिर्फ वह समझ पा रही थी, बेटी के सामने व्यक्त करने का साहस नहीं था उस में.

सत्या इस तरह की घटनाओं की खबरें जब भी अखबार में पढ़ती, गुस्से से भर उठती, ‘ये लड़कियां इतनी कमजोर क्यों हैं? कहीं भी, कोई भी उन्हें उठा लेता है और वे रोतीकलपती अपना सबकुछ लुटा देती हैं? और यह पुलिस क्या करती है? इस तरह सरेआम सबकुछ हो जाता है और…’ वह सत्या को समझाने की कोशिश करती हुई कहती, ‘स्त्री की कमजोरी तो जगजाहिर है बेटी. इन शैतानों के पंजे में कभी भी कोई भी फंस सकता है.’

‘माई फुट…मैं तो इन को ऐसा मजा चखा देती…’ उस ने घबराए मन से फिर सत्या के कमरे में एक बार झांका और चुपचाप अपने कमरे में आ कर लेट गई. खाना उस से भी खाया नहीं गया. यों ही पड़ेपड़े रात ढलती रही. बिस्तर पर पड़ जाने से ही या रात के बहुत गहरा जाने से ही नींद तो नहीं आ जाती. उस ने कमरे की बत्ती भी नहीं जलाई थी और उस अंधेरे में अचानक ही उसे बहुत डर लगने लगा. वह फिर उठ कर बैठ गई. कमरे से बाहर निकली और फिर सत्या के कमरे की ओर झांका. सत्या ने बत्ती बुझा दी थी और शायद सो रही थी.

वह मंथर गति से फिर अपने कमरे में आई. बिस्तर पर लेट गई. किंतु आंखों के सामने जैसे बहुत कुछ नाच रहा था. अंधेरे में भी दीवारों पर कईकई परछाइयां थीं. वह सत्या को कैसे बताती कि जो वेदना, जो अपमान आज वह झेल रही है, ठीक उसी वेदना और अपमान से एक दिन उसे भी दोचार होना पड़ा था. सत्या तो इसे अपने लिए असंभव माने बैठी थी. शायद वह भूल गई थी कि वह भी इस देश में रहने वाली एक लड़की है. इस शहर की सड़कों पर चलनेघूमने वाली हजारों लड़कियों के बीच की एक लड़की, जिस के साथ कहीं कुछ भी घट सकता है.

सत्या के बारे में सोचतेसोचते वह अपने अतीत में खो गई. कितनी भयानक रात थी वह, कितनी पीड़ाजनक. वह दीवारों पर देख रही थी, कईकई चेहरे नाच रहे थे. वह अपने मन को देख रही थी जहां सैकड़ों पन्ने फड़फड़ा रहे थे.

एक सुखीसंपन्न परिवार की बहू, एक बड़े अफसर की पत्नी, सुखसाधनों से लदीफंदी. एक 9 साल की बेटी. परंतु पति सुख बहुत दिनों तक वह नहीं भोग पाई थी. वैवाहिक जीवन के सिर्फ 16 साल बीते थे कि पति का साथ छूट गया था. एक कार दुर्घटना घटी और उस का जीवन सुनसान हो गया. पति की मौत ने उसे एकदम रिक्त कर दिया था. यद्यपि वह हमेशा मजबूत दिखने की कोशिश में लगी रहती थी. कुछ महीने बाद ही उस ने बेटी को अपने से दूर दून स्कूल में भेज दिया था. शायद इस का एक कारण यह भी था कि वह नहीं चाहती थी कि उस की कमजोरियां, उस की उदासी, उस का खालीपन किसी तरह बेटी की पढ़ाई में बाधक बने. अब वह नितांत अकेली थी. सासससुर का वर्षों पहले इंतकाल हो गया था. एक ननद थी, वह अपने परिवार में व्यस्त थी. अब बड़ा सा घर उसे काटने को दौड़ता था. एकाकीपन डंक मारता था. तभी उस ने फैसला किया था कि वह भारतदर्शन करेगी. इसी बहाने कुछ समय तक घर और शहर से बाहर रहेगी. यों भी देशदुनिया घूमने का उसे बहुत शौक था. खासकर भारत के कोनेकोने को वह देखना चाहती थी.

उस ने फोन पर बेटी को बता दिया था. कुछ सहेलियों को भी बताया. 1-2 ने इतनी लंबी यात्रा से उसे रोका भी कि अकेली तुम कहां भटकती फिरोगी? पर वह कहां रुकने वाली थी. निकल पड़ी थी भारत दर्शन पर और सब से पहले दक्षिण गई थी. कन्याकुमारी, तिरुअनंतपुरम, तिरुपति, मदुरै, रामेश्वरम…फिर मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के अनेक शहर. राजस्थान को उस ने पूरी तरह छान मारा था. फिर पहुंची थी हिमाचल प्रदेश. धर्मशाला के एक होटल में ठहरी थी. वहीं वह अंधेरी रात आई थी. जिन पहाड़ों के सौंदर्य ने उसे खींचा था उन पहाड़ों ने ही उसे धोखा दिया.

दिन भर वह इधरउधर घूमती रही थी. रात का अंधियारा जब पहाड़ों पर उगे पेड़ों को अपनी परछाईं से ढकने लगा, वह अपने होटल लौटी थी. वे दोनों शायद उस के पीछेपीछे ही थे. उस का ध्यान उधर था ही नहीं. वह तो प्रकृति के नैसर्गिक सौंदर्यसुख में ऐसी डूबी थी कि मानवीय छाया पर उस की नजर ही नहीं गई. जैसे रात चुपकेचुपके धीरेधीरे आती है, उन के पैरों की गति भी वैसी ही थी. सन्नाटे में डूबा रास्ता. भूलेभटके ही कोई नजर आता था. उसी मुग्धावस्था में उस ने अपने कमरे का ताला खोला था, फिर भीतर घुसने के लिए एक कदम उस ने उठाया ही था कि पीछे से किसी ने धक्का मारा था उसे. वह लड़खड़ाती हुई फर्श पर गिर पड़ी थी. गिरना ही था क्योंकि अचानक भूकंप सा वह झटका कैसे संभाल पाती. वह कुछ समझती तब तक दरवाजा बंद हो चुका था.

उन दोनों ने ही बत्ती जलाई थी. उम्र ज्यादा नहीं थी उन की. झटके में उस के हाथपैर बांध दिए गए थे. वह चाहती थी चिल्लाए पर चिल्ला न सकी. उस की चीख उस के अंदर ही दबी रह गई थी. होटल तो खाली सा ही पड़ा था क्योंकि पहाड़ों का सीजन अभी चालू नहीं हुआ था. वह अकेली औरत. होटल का उस का अपना कमरा. एक अनजान जगह में बदनाम हो जाने का भय. मन का भय बहुत बड़ा भय होता है. उस भय से ही वह बंध गई थी. इस उम्र में यह सब भी भोगना होगा, वह सोच भी नहीं सकती थी.

वे लूटते रहे. पहले उसे, फिर उस का सामान. वह चुपचाप झेलती रही सबकुछ. कोई कुंआरी लड़की तो थी नहीं वह. भोगा था उस ने सबकुछ पति के साथ. परंतु अभी तो वह रौंदी जा रही थी. एक असह्य अपमान और पीड़ा से छटपटा रही थी वह. उन पीड़ादायी क्षणों को याद कर आज भी वह कांप जाती है. बस, यही एक स्थिति ऐसी होती है जहां नारी अकसर शक्तिहीन हो जाती है. अपनी सारी आकांक्षाओं, आशाओं की तिलांजलि देनी पड़ती है उसे. बातों में, किताबों में, नारों में स्त्री अपने को चाहे जितना भी शक्तिशाली मान ले, इस पशुवृत्ति के सामने उसे हार माननी ही पड़ती है.

उस रात उसे अपने पति की बहुत याद आई थी. कहीं यह भी मन में आ रहा था कि उन के न होने के बाद उन के प्रति उसे किसी ने विश्वासघाती बना दिया है. न जाने कब तक वे लोग उस के ऊपर उछलतेकूदते रहे. एक बार गुस्से में उस ने एक की बांह में अपने दांत भी गड़ा दिए थे. प्रत्युत्तर में उस शख्स ने उस की दोनों छातियों को दांत से काटकाट कर लहूलुहान कर दिया था. उस के होंठों और गालों को तो पहले ही उन लोगों ने काटकाट कर बदरंग कर दिया था. वह अपनी सारी पीड़ा को, गुस्से को, चीख को किस तरह दबाए पड़ी रही, आज सोच कर चकित होती है. यह स्पष्ट था कि वे दोनों इस काम के अभ्यस्त थे. जाने से पहले दोनों के चेहरों पर अजीब सी तृप्ति थी. खुशी थी. एक ने उस के बंधन खोलने के बाद रस्सी को अपनी जैकेट के अंदर छिपाते हुए कहा, ‘गुड नाइट मैडम…तुम बहुत मजेदार हो.’ घृणा से उस ने मुंह फेर लिया था. कमरे के दूसरी तरफ एक खिड़की थी, उसे खोल कर वे दोनों बाहर कूद गए थे. बाहर का अंधेरा और घना हो उठा था.

कमरे में जैसे चारों तरफ बदबू फैल गई थी. बाहर का घना अंधेरा उछलते हुए उस कमरे में भरने लगा था. वह उठी. कांपते शरीर के साथ खिड़की तक पहुंची. खिड़की को बंद किया. बदबू और तेज हो गई थी. उस ने नाक पर हाथ रख लिया और दौड़ती हुई बाथरूम में घुसी.

उस ठंडी रात में भी न जाने वह कब तक नहाती रही. बारबार पूरे शरीर पर साबुन रगड़ती रही. चेहरे को मलती रही. छातियों को रगड़रगड़ कर धोती रही, परंतु वह बदबू खत्म होने को नहीं आ रही थी. वह नंगे बदन ही फिर कमरे में आई. पूरे शरीर पर ढेर सारा पाउडर थोपा, परफ्यूम लगाया, कमरे में भी चारों तरफ छिड़का, किंतु उस बदबू का अंत नहीं था. कैसी बदबू थी यह. कहां से आ रही थी. वह कुछ समझ नहीं पा रही थी. बिस्तर पर लेटने के बाद भी देर तक नींद नहीं आई थी. जीवन व्यर्थ लगने लगा था. उसे लग रहा था, उस का जीवन दूषित हो गया है, उस का शरीर अपवित्र हो गया है. अब जिंदगी भर इस बदबू से उसे छुटकारा नहीं मिलेगा. वह कभी किसी से आंख मिला कर बात नहीं कर पाएगी. अपनी ही बेटी से जिंदगी भर उसे मुंह छिपाना पड़ेगा. हालांकि एक मिनट के लिए वह यह भी सोच गई थी कि अगर वह किसी को कुछ नहीं बताएगी तो भला किसी को कुछ भी पता कैसे चलेगा.

फिर भी एक पापबोध, हीनभाव उस के अंदर पैदा हो गया था. और ढलती रात के साथ उस ने तय कर लिया था कि उस के जीवन का अंत इन्हीं पहाड़ों पर होना है. यही एक विकल्प है उस के सामने.

वह बेचैनी से कमरे में टहलने लगी. उस होटल से कुछ दूरी पर ही एक ऊंची पहाड़ी थी, नीचे गहरी खाई. वह कहीं भी कूद सकती थी. प्राण निकलने में समय ही कितना लगता है. कुछ देर छटपटाएगी. फिर सबकुछ शांत. पर रात में होटल का बाहरी गेट बंद हो जाता था. कोई आवश्यक काम हो तभी दरबान गेट खोलता था. वह भला उस से क्या आवश्यक काम बताएगी इतनी रात को? संभव ही नहीं था उस वक्त बाहर निकल पाना. चक्कर लगाती रही कमरे में सुबह के इंतजार में. भोर में ही गेट खुल जाता था.

अपने शरीर पर एक शाल डाल कर वह बाहर निकली. कमरे का दरवाजा भी उस ने बंद नहीं किया. अभी भी अंधकार घना ही था. पर ऐसा नहीं कि रास्ते पर चला न जा सके. टहलखोरी के लिए निकलने वाले भी दोचार लोग रास्ते पर थे. वह मंथर गति से चलती रही. सामने ही वह पहाड़ी थी…एकदम वीरान, सुनसान. वह जा खड़ी हुई पहाड़ी पर. नीचे का कुछ भी दिख नहीं रहा था. भयानक सन्नाटा. वह कुछ देर तक खड़ी रही. शायद पति और बेटी की याद में खोई थी. हवा की सरसराहट उस के शरीर में कंपन पैदा कर रही थी. पर वह बेखबर सी थी. शाल भी उड़ कर शायद कहीं नीचे गिर गई थी. नीचे, सामने कहीं कुछ भी दिख नहीं रहा…सिवा मृत्यु के एक काले साए के. एक संकरी गुफा. वह समा जाएगी इस में. बस, अंतिम बार पति को प्रणाम कर ले. उस ने अपने दोनों हाथ जोड़ लिए और ऊपर आसमान की ओर देखा. अचानक उस की नजरें सामने गईं. देखा, दूर पहाड़ों के पीछे धीरेधीरे लाली फैलने लगी है. सुनहरी किरणें आसमान के साथसाथ पहाड़ों को भी सुनहरे रंग में रंग रही हैं. सूर्योदय, सुना था, लोग यहां से सूर्योदय देखते हैं. आसमान की लाली, शिखरों पर फैली लाली अद्भुत थी.

वह उसी तरह हाथ जोड़े विस्मित सी वह सब देखती रही. उस के देखतेदेखते लाल गोला ऊपर आ गया. तेजोमय सूर्य. रात के अंधकार को भेदता अपनी निर्धारित दिशा की ओर अग्रसर सूर्य. सच, उस दृश्य ने पल भर में ही उस के भीतर का सबकुछ जैसे बदल डाला. अंधकार को तो नष्ट होना ही है, फिर उस के भय से अपने को क्यों नष्ट किया जाए? कोशिश तो अंधकार से लड़ने की होनी चाहिए, उस से भागने की थोड़े ही. वही जीत तो असली जीत होगी. और वह लौट आई थी. एक नए साहस और उमंग के साथ. एक नए विश्वास और दृढ़ता के साथ.

अचानक छन्न की आवाज हुई. उस की तंद्रा टूट गई. अतीत से वर्तमान में लौटना पड़ा उसे. यह आवाज सत्या के कमरे से ही आई थी. वह समझ गई, सत्या अभी तक सोई नहीं है. शायद वह भी किसी बदबू से परेशान होगी. एक दहशत के साथ शायद अंधेरे कमरे में टहल रही होगी. उस से टकरा कर कुछ गिरा है, टूटा है…छन्न. यह अस्वाभाविक नहीं था. सत्या जिन स्थितियों से गुजरी है, जिस मानसिकता में अभी जी रही है, किसी के लिए भी घोर यातना का समय हो सकता है.

संभव है, उस के मन में भी आत्महत्या की बात आई हो. सारी वेदना, अपमान, तिरस्कार का एक ही विकल्प होता है जैसे, अपना अंत. परंतु वह नहीं चाहती कि सत्या ऐसा कुछ करे…ऐसा कोई कदम उठाए. अभी बहुत नादान है वह. पूरी जिंदगी पड़ी है उस के सामने. उसे सबकुछ झेल कर जीना होगा. जीना ही जीत है. मर जाने से किसी का क्या बिगड़ेगा? उन लोगों का ही क्या बिगड़ेगा जिन्होंने यह सब किया? वह सत्या को बताएगी, एक ठोकर की तरह ही है यह सबकुछ. ठोकर खा कर आदमी गिरता है परंतु संभल कर फिर उठता है, फिर चलता है. वह स्थिर कदमों से सत्या के कमरे की ओर बढ़ी. उस के पैरों में न कंपन थी न मन में अशांति. कमरे में घुसने से पहले बालकनी की बत्ती को उस ने जला दिया था.

Moral Stories in Hindi : सुलझती जिंदगियां

Moral Stories in Hindi : विवाहस्थलअपनी चकाचौंध से सभी को आकर्षित कर रहा था. बरात आने में अभी समय था. कुछ बच्चे डीजे की धुनों पर थिरक रहे थे तो कुछ इधर से उधर दौड़ लगा रहे थे. मेजबान परिवार पूरी तरह व्यवस्था देखने में मुस्तैद दिखा.

इसी विवाह समारोह में मौजूद एक महि कुछ दूर बैठी दूसरी महिला को लगता घूर रही थी. बहुत देर तक लगातार घूरने पर भी जब सामने बैठी युवती ने कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की तो सीमा उठ कर खुद ही उस के पास चली गई. बोली, ‘‘तुम रागिनी हो न? रागिनी मैं सीमा. पहचाना नहीं तुम ने? मैं कितनी देर से तुम्हें ही देख रही थी, मगर तुम ने नहीं देखा, तो मैं खुद उठ कर तुम्हारे पास चली आई. कितने वर्ष गुजर गए हमें बिछुड़े हुए,’’ और फिर सीमा ने उत्साहित हो कर रागिनी को लगभग झकझोर दिया.

रागिनी मानो नींद से जागी. हैरानी से सीमा को देर तक घूरती रही. फिर खुश हो कर बोली, ‘‘तू कहां चली गई थी सीमा? मैं कितनी अकेली हो गई थी तेरे बिना,’’ कह कर उस ने उसे अपनी बांहों में भर लिया. दोनों की आंखें छलक उठीं.

‘‘तू यहां कैसे?’’ सीमा ने पूछा.

‘‘मेरे पति रमन ओएनजीसी में इंजीनियर हैं और यह उन के बौस की बिटिया की शादी है, तो आना ही था अटैंड करने. पर तू यहां कैसे?’’ रागिनी ने पूछा.

‘‘सुकन्या यानी दुलहन मेरी चचेरी बहन है. अरे, तुझे याद नहीं अकसर गरमी की छुट्टियों में आती तो थी हमारे घर लखनऊ में. कितनी लड़ाका थी… याद है कभी भी अपनी गलती नहीं मानती थी. हमेशा लड़ कर कोने में बैठ जाती थी. कितनी बार डांट खाई थी मैं ने उस की वजह से,’’ सीमा ने हंस कर कहा.

‘‘ओ हां. अब कुछ ध्यान आ रहा है,’’ रागिनी जैसे अपने दिमाग पर जोर डालते हुए बोली.

फिर तो बरात आने तक शौपिंग, गहने, मेकअप, प्रेमप्रसंग और भी न जाने कहांकहां के किस्से निकले और कितने गड़े मुरदे उखड़ गए. रागिनी न जाने कितने दिनों बाद खुल कर अपना मन रख पाई किसी के सामने. सच बचपन की दोस्ती में कोई बनावट, स्वार्थ और ढोंग नहीं होता. हम अपने मित्र के मूल स्वरूप से मित्रता रखते हैं. उस की पारिवारिक हैसियत को ध्यान नहीं रखते.

तभी शोर मच गया. किसी की 4 साल की बेटी, जिस का नाम निधि था, गुम हो गई थी. अफरातफरी सी मच गई. सभी ढूंढ़ने में जुट गए, तुरंत एकदूसरे को व्हाट्सऐप से लड़की की फोटो सैंड करने लगे. जल्दी ही सभी के पास पिक थी. शादी फार्महाउस में थी, जिस के ओरछोर का ठिकाना न था. जितने इंतजाम उतने ही ज्यादा कर्मचारी भी. आधे घंटे की गहमागहमी के बाद वहां लगे गांव के सैट पर सिलबट्टा ले कर चटनी पीसने वाली महिला कर्मचारी के पास खेलती मिली. रागिनी तो मानो तूफान बन गई. उस ने तेज निगाह से हर तरफ  ढूंढ़ना शुरू कर दिया था. बच्ची को वही ढूंढ़ कर लाई. सब की सांस में सांस आई. निधि की मां को चारों तरफ  से सूचना भेजी जाने लगी, क्योंकि सब को पता चल गया था कि मां तो डीजे में नाचने में व्यस्त थी. बेटी कब खिसक कर भीड़ में खो गई उसे खबर ही न हई. जब निधि की दादी को उसे दूध पिलाने की याद आई, तो उस की मां को ध्यान आया कि निधि कहां है?

बस फिर क्या था. सास को मौका मिल गया. बहू को लताड़ने का और फिर शोर मचा कर सास ने सब को इकट्ठा कर लिया. भीड़ फिर खानेपीने में व्यस्त हो गई. सीमा ने भी रागिनी से अपनी छूटी बातचीत का सिरा संभालते हुए कहा, ‘‘तेरी नजरें बड़ी तेज हैं… निधि को तुरंत ढूंढ़ लिया तूने.’’

‘‘न ढूंढ़ पाती तो शायद और पगला जाती… आधी पागल तो हो ही गई हूं,’’ रागिनी उदास स्वर में बोली.

‘‘मुझे तो तू पागल कहीं से भी नहीं लगती. यह हीरे का सैट, ब्रैंडेड साड़ी, यह स्टाइलिश जूड़ा, यह खूबसूरत चेहरा, ऐसी पगली तो पहले नहीं देखी,’’ सीमा खिलखिलाई.

‘‘जाके पैर न फटे बिवाई वो क्या जाने पीर पराई. तू मेरा दुख नहीं समझ पाएगी,’’ रागिनी मुरझाए स्वर में बोली.

‘‘ऐसा कौन सा दुख है तुझे, जिस के बोझ तले तू पगला गई है? उच्च पदस्थ इंजीनियर पति, प्रतिष्ठित परिवार और क्या चाहिए जिंदगी से तुझे?’’ सीमा बोली.

‘‘चल छोड़, तू नहीं समझ पाएगी,’’ रागिनी ने ताना दिया.

‘‘मैं, मैं नहीं समझूंगी?’’ अचानक ही उत्तेजित हो उठी सीमा, ‘‘तू कितना समझ पाई है मुझे, क्या जानती है मेरे बारे में… आज 10 वर्ष के बाद हम मिले हैं. इन 10 सालों का मेरा लेखाजोखा है क्या तेरे पास? जो इतने आराम से कह रही है? क्या मुझे कोई गम नहीं, कोई घाव नहीं मिला इस जिंदगी में? फिर भी मैं तेरे सामने मजबूती से खड़ी हूं, वर्तमान में जीती हूं, भविष्य के सपने भी बुनती हूं और अतीत से सबक भी सीख चुकी हूं, मगर अतीत में उलझी नहीं रहती. अतीत के कुछ अवांछित पलों को दुस्वप्न समझ कर भूल चुकी हूं. तेरी तरह गांठ बांध कर नहीं बैठी हूं,’’ सीमा तमतमा उठी.

‘‘क्या तू भी किसी की वासना का शिकार बन चुकी है?’’ रागिनी बोल पड़ी.

‘‘तू भी क्या मतलब? क्या तेरे साथ भी यह दुर्घटना हुई है?’’ सीमा चौंक पड़ी.

‘‘हां, वही पल मेरा पीछा नहीं छोड़ते. फिल्म, सीरियल, अखबार में छपी खबर, सब मुझे उन पलों में पहुंचा देते हैं. मुझे रोना आने लगता है, दिल बैठने लगता है. न भूख लगती है न प्यास, मन करता है या तो उस का कत्ल कर दूं या खुद मर जाऊं. बस दवा का ही तो सहारा है, दवा ले कर सोई रहती हूं. कोई आए, कोई जाए मेरी बला से. मेरे साथ मेरी सास रहती हैं. वही मेड के साथ मिल कर घर संभाले रहती हैं और मुझे कोसती रहती हैं कि मेरे हीरे से बेटे को धोखे से ब्याह लिया. एक से एक रिश्ते आए, मगर हम तो तेरी शक्ल से धोखा खा गए. बीमारू लड़की पल्ले पड़ गई. मैं क्या करूं,’’ आंखें छलछला उठीं रागिनी की.

‘‘तू अकेली नहीं है इस दुख से गुजरने वाली. इस विवाहस्थल में तेरीमेरी जैसी न जाने कितनी और भी होंगी, पर वे दवा के सहारे जिंदा नहीं हैं, बल्कि उसे एक दुर्घटना मान कर आगे बढ़ गई हैं. अच्छा चल, तू ही बता तू रोड पर राइट साइड चल रही है और कोई रौंग साइड से आ कर तुम्हें ठोकर मार कर चला जाता है, तो गलत तो वही हुआ न? ऐसे ही, जिन्होंने दुष्कर्म कर हमारे विश्वास की धज्जियां उड़ाईं, दोषी वे हैं. हम तो निर्दोष हैं, मासूम हैं और पवित्र हैं. अपराधी वे हैं, फिर हम घुटघुट कर क्यों जीएं, यह एहसास तो हमें उन्हें हर पल कराना चाहिए, ताकि वे बाकी की जिंदगी घुटघुट कर जीएं.’’ सीमा ने आत्मविश्वास से कहा.

‘‘क्या तू ने दिलाया यह एहसास उसे?’’ रागिनी ने पूछा.

‘‘मेरा तो बौयफ्रैंड ही धोखेबाज निकला. आज से 10 साल पहले जब हम पापा  के दिल्ली ट्रांसफर के कारण लखनऊ छोड़ कर चले गए थे, तब वहां नया कालेज, नया माहौल पा कर मैं कितना खुश थी. हां तेरी जैसी बचपन की सहेली से बिछुड़ने का दुख तो बहुत था, मगर मैं दिल्ली की चकाचौंध में कहीं खो गई थी. जल्दी ही मैं ने क्लास में अपनी धाक जमा ली…

‘‘धु्रव मेरा सहपाठी, जो हमेशा प्रथम आता था, दूसरे नंबर पर चला गया. 10वीं कक्षा में मैं ने ही टौप किया तो धु्रव जलभुन कर राख हो गया, मगर बाहरी तौर पर उस ने मुझ से आगे बढ़ कर मित्रता का हाथ मिलाया और मैं ने खुशीखुशी स्वीकार भी कर लिया. 12वीं कक्षा की प्रीबोर्ड परीक्षा में भी मैं ने ही टौप किया तो वह और परेशान हो उठा. मगर उस ने इसे जाहिर नहीं होने दिया.

‘‘इसी खुशी में ट्रीट का प्रस्ताव जब धु्रव ने रखा तो मैं मना न कर सकी. मना भी क्यों करती? 2 सालों से लगातार हम साथ कालेज, कोचिंग और न जाने कितने फ्रैंड्स की बर्थडे पार्टीज अटैंड करते आए थे. फर्क यह था कि हर बार कोई न कोई कौमन फ्रैंड साथ रहता था. मगर इस बार हम दोनों ही थे और धु्रव पर अविश्वास करने का कोई प्रश्न ही नहीं था.

‘‘पहले हम एक रेस्तरां में लंच के लिए गए. फिर वह अपने घर ले गया. घर में किसी को भी न देख जब मैं ने पूछा कि तुम ने तो कहा था मम्मी मुझ से मिलना चाहती हैं. मगर यहां तो कोई भी नहीं है? तो उस ने जवाब दिया कि शायद पड़ोस में गई होंगी. तुम बैठो मैं बुला लाता हूं और फिर मुझे फ्रिज में रखी कोल्डड्रिंक पकड़ा कर बाहर निकल गया.

‘‘मैं सोफे पर बैठ कर ड्रिंक पीतेपीते उस का इंतजार करती रही, मुझे नींद आने लगी तो मैं वहीं सोफे पर लुढ़क गई. जब नींद खुली तो अपने को अस्तव्यस्त पाया. धु्रव नशे में धुत पड़ा बड़बड़ा रहा था कि मुझे हराना चाहती थी. मैं ने आज तुझे हरा दिया. अब मुझे समझ आया कि धु्रव ने मेरे नारीत्व को ललकारा है. मैं ने भी आव देखा न ताव, पास पड़ी हाकी उठा कर उस के कोमल अंग पर दे मारी. वह बिलबिला कर जमीन पर लोटने लगा, मैं ने चीख कर कहा कि अब दिखाना मर्दानगी अपनी और फिर घर लौट आई. बोर्ड की परीक्षा सिर पर थी. ऐसे में अपनी पूरी ताकत तैयारी में झोंक दी. फलतया बोर्ड परीक्षा में भी मैं टौपर बनी.  ‘‘धु्रव का परिवार शहर छोड़ कर जा चुका था. उन्हें अपने बेटे की करतूत पता चल गई थी,’’ कह कर सीमा पल भर को रुकी और फिर पास से गुजरते बैरे को बुला कर पानी का गिलास ले कर एक सांस में ही खाली कर गई.

फिर आगे बोली, ‘‘मां को तो बहुत बाद में मैं ने उस दुर्घटना के विषय में बताया था.  वे भी यही बोली थीं कि भूल जा ये सब. इन का कोई मतलब नहीं. कौमार्य, शारीरिक पवित्रता, वर्जिन इन भारी भरकम शब्दों को अपने ऊपर हावी न होने देना… तू अब भी वैसी ही मासूम और निश्चल है जैसी जन्म के समय थी… मां के ये शब्द मेरे लिए अमृत के समान थे. उस के बाद मैं ने पीछे मुड़ कर देखना छोड़ दिया,’’ सीमा ने अपनी बात समाप्त की. ‘‘मैं तो अपने अतीत से भाग भी नहीं सकती. वह शख्स तो मेरे मायके का पड़ोसी और पिताजी का मित्र है, इसीलिए मेरा तो मायके जाने का ही मन नहीं करता. यहीं दिल्ली में पड़ी रहती हूं,’’ रागिनी उदास स्वर में बोली.

‘‘कौन वे टौफी अंकल? वे ऐसा कैसे कर सकते हैं? मुझे अच्छी तरह याद है वे सफेद कुरतापाजामा पहने हमेशा बैडमिंटन गेम के बीच में कूद कर गेम्स के रूल्स सिखाने लगते थे और फि र खुश होने पर अपनी जेब से टौफी, चौकलेट निकाल कर ईनाम भी देते थे. हम लोगों ने तो उन का नाम टौफी अंकल रखा था,’’ सीमा ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा.

‘‘वह एक मुखौटा था उन का अपनी घिनौनी हरकतें छिपाने का. तुझे याद है वे हमारे गालों पर चिकोटी भी काट लेते थे गलती करने पर और कभीकभी अपने हाथों में हमारे हाथ को दबा कर रैकेट चलाने का अभ्यास भी कराने लगते थे. उन सब हरकतों को कोई दूर से देखता भी होगा तो यही सोचता होगा कि वे बच्चों से कितना प्यार करते हैं. मगर हकीकत तो यह थी कि वे जाल बिछा रहे थे, जिस में से तू तो उड़ कर उन की पहुंच से दूर हो गई पर रह गई मैं.

‘‘अपने हाथ से एक पंछी निकलता देख वे बौखला उठे और तुम्हारे जाने के महीने भर बाद ही मुझे अपनी हवस का शिकार बना लिया. उस दिन मां ने मुझे पड़ोस में आंटी को राजमा दे कर आने को कहा. हमेशा की तरह कभी यह दे आ, कभी वह दे आ. मां पर तो अपने बनाए खाने की तारीफ  सुनने का भूत जो सवार रहता था. हर वक्तरसोई में तरहतरह के पकवान बनाना और लोगों को खिला कर तारीफें बटोरना यही टाइम पास था मां का.

‘‘उस दिन आंटी नहीं  घर पर… अंकल ने मुझ से दरवाजे पर कहा कि अांटी किचन में हैं, वहीं दे आओ, मैं भीतर चली गई. पर वहां कोई नहीं था. अंकल ने मुझे पास बैठा कर मेरे गालों को मसल कर कहा कि वे शायद बाथरूम में हैं. तुम थोड़ी देर रुक जाओ. मुझे बड़ा अटपटा लग रहा था. मैं उठ कर जाने लगी तो हाथ पकड़ कर बैठा कर बोले कि कितने फालतू के गेम खेलती हो तुम… असली गेम मैं सिखाता हूं और फिर अपने असली रूप में प्रकट हो गए. कितनी देर तक मुझे तोड़तेमरोड़ते रहे. जब जी भर गया तो अपनी अलमारी से एक रिवौल्वर निकाल कर दिखाते हुए बोले कि किसी से भी कुछ कहा तो तेरे मांबाप की खैर नहीं.

‘‘मन और तन से घायल मैं उलटे पांव लौट आई और अपने कमरे को बंद कर देर तक रोती रही. मां की सहेलियों का जमघट लगा था और वे अपनी पाककला का नमूना पेश कर इतरा रही थीं और मैं अपने शरीर पर पड़े निशानों को साबुन से घिसघिस कर मिटाने की कोशिश कर रही थी.  ‘‘धीरेधीरे मैं पढ़ाई में पिछड़ती चली गई और मैं 10वीं कक्षा में फेल हो गई. मां ने मुझे खूब खरीखोटी सुनाई, मगर कभी मेरी पीड़ा न सुनी. मैं गुमसुम रहने लगी. सोती तो सोती ही रहती उठने का मन ही न करता. मां खाना परोस कर मेरे हाथों में थमा देती तो खा भी लेती अन्यथा शून्य में ही निहारती रहती. सब को लगा फेल होने का सदमा लग गया है, किसी ने सलाह दी कि मनोचिकित्सक के पास जाओ.

3-4 सीटिंग के बाद जब मैं ने महिला मनोचिकित्सक को अपनी आपबीती बताई तो उन्होंने मां को बुला कर ये सब बताया. मगर वे मानने को ही तैयार न हुईं. कहने लगीं कि साल भर तो पढ़ा नहीं, अब उलटीसीधी बातें बना रही है. इस की वजह से हमारी पहले ही कम बदनामी हुई है, जो अब पड़ोसी को ले कर भी एक नया तमाशा बनवा लें अपना… जब मेरी कोई सुनवाई ही नहीं तो मैं भी चुप्पी लगा गई. मुझे ही आरोपी बना कर कठघरे में खड़ा कर दिया गया था. फिर इंसाफ  किस से मांगती?

‘‘तब से अपना मुंह बंद कर जीना सीख लिया. मगर इस दिल और दिमाग का क्या करूं. जो अब भी चीखचीख कर इंसाफ  मांगता है जब दर्द बरदाश्त से बाहर हो जाता है तो नशा ही मेरा सहारा है, उन गोलियों को खा बेहोशी में डूब जाती हूं. तू ही बता कोई इलाज है क्या इस का तेरे पास?’’ रागिनी ने सीमा के हाथों को अपने हाथों में ले कर पूछा.

‘‘हां है… हर मुसीबत का कोई न कोई हल जरूर होता है. बस उसे ढूंढ़ने की कोशिश जारी रहनी चाहिए. इस बार तेरे मायके मैं भी साथ चलूंगी और उस शख्स के भी घर चल कर, बलात्कारियों की सजा पर चर्चा करेंगे. बलात्कारियों को खूब कोसेंगे, गाली देंगे और बातों ही बातों में उस शख्स के चेहरे पर लगे मुखौटे को उस की पत्नी के समक्ष नोंच कर फेंक देंगे.

‘‘उन्हें भी तो पता चले उन के पतिपरमेश्वर की काली करतूत…देखो बलात्कारी की पत्नी उस की कितनी सेवा करती हैं… उन का बुढ़ापा नर्क बना कर छोड़ेंगे… रोज मरने की दुआ मांगता न फिरे वह तो मेरा नाम बदल देना,’’ सीमा ने रागिनी के हाथों को मजबूती से थाम कर बोला.

रागिनी के चेहरे पर मुसकराहट तैर गई. तभी रमन ने आ कर रागिनी के कंधे पर हाथ रख कर कहा, ‘‘बचपन की सहेली क्या मिल गई, तुम तो एकदम बदल ही गई. यह मुसकराहट कभी हमारे नाम भी कर दिया करो.’’ सीमा ने रागिनी के हाथों को रमन के हाथों में सौंपते हुए कहा, ‘‘अब से यह इसी तरह मुसकराएगी, आप बिलकुल फिक्र न करें… इस के कंधे से कंधा मिलाने के लिए मैं जो वापस आ गई हूं इस की जिंदगी में.’’

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