मुझे एतराज नहीं- भाग 1: क्यों शांत थी वह महिला

मैं एक पौश कालोनी में रहती हूं. मेरे साथ मेरे वृद्ध पिता रहते हैं. मैं इस कालोनी में 15 वर्षों से रह रही हूं. पड़ोस के मकान, जिस की बाउंड्री एक ही है, में रहने वाले उसे बेच कर अपने बच्चों के पास चले गए. यहां मकान बहुत महंगे हैं. उस मकान को

60 साल की एक महिला ने खरीदा. उसे नया बनाने में बहुत पैसा खर्च किया. उसे मौडर्न बनवा लिया.

सारी सुविधाएं मुहैया करवाईं. फिर वे रहने आईं.

वे बहुत ही प्यारी व सुंदर महिला थीं. वे किसी से बात नहीं करती थीं, सिर्फ मुसकरा देती थीं. कहीं जाना हो तो अपनी बड़ी सी कार में बैठ कर चली जातीं. हमारी और उन की कामवाली बाई एक ही थी. जो थोड़ीबहुत मेरी उत्सुकता को कम करने की कोशिश करती. पूरे महल्ले वालों को उन के बारे में जानने की उत्सुकता तो थी, पर जानें कैसे?

वे कोई त्योहार नहीं मनाती थीं. नाश्ता वगैरह नहीं बनाती थीं. बाई, जिसे मैं समाचारवाहक ही कहूंगी, कहती, ‘कैसी औरत है, न वार माने न त्योहार. पूछो तो कहती है कि इन बातों में क्या रखा है. शुद्ध ताजा बनाओ और खाओ.’ वे अकसर दलिया ही बनातीं.

कभीकभी मैं सोचती कि बाई के हाथ कुछ नाश्ता भेज दूं. फिर कभी डरतेडरते भेज देती. वे महिला पहले मना करतीं, फिर ले लेतीं. मु झे बरतन लौटाते समय कोई फल रख कर दे देतीं. उन से बोलने की तो इच्छा होती पर मैं क्या, महल्ले का कोई भी उन से नहीं बोलता. मैं अपने पिता से ही कितनी बात करती. मैं सर्विस करती थी, सुबह जा कर शाम आती थी. इसीलिए मु झे ताक झांक करने की आदत नहीं है.

यदि उन के बाहर जाते समय मैं बाहर खड़ी होती तो वे मुसकरा देतीं. सब को उन के रुतबे के कारण बोलने में संकोच होता था. मैं स्वयं तो बोलती ही नहीं थी. ऐसे ही 5 साल बीत गए. इतने साल कालोनी में रहने के बावजूद उन की किसी से दोस्ती न हुई, न उन्होंने की.

एक दिन अचानक उन के घर एक बड़ी कार आ कर खड़ी हुई. उस में से एक सुंदर 40-45 साल का व्यक्ति निकला. सब ने उसे आश्चर्य से देखा. इतने सालों में उन के घर कोई नहीं आया. अब यह कौन है? महल्ले वालों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब उन्होंने देखा वह उन्हीं के घर में उन के साथ ही रहने लगा. वे साथसाथ बाहर जाते. कार से जाते और कार से ही वापस आते. मैं अपनी उत्सुकता रोक न सकी. पर क्या करें. अब तो उन के घर से पकवान बनाने की खुशबू भी आने लगी. परम आश्चर्य, एक दिन बाई ने मु झे बताया कि वह उन का बेटा है. शायद चला जाए. पर वह तो गया ही नहीं.

एक दिन वही पड़ोसिन गीता आंटी घर के सामने सुंदर रंगोली बना रही हैं. क्या बच्चे, क्या बड़े, पूरा महल्ला  झांक झांक कर देख रहा था. मेरी भी कुछ सम झ में नहीं आया, कहां तो कोई त्योहार नहीं मनाती थीं. हमारे उत्तर भारत में रंगोली कोईकोई बनाता है.

उन का बेटा भी मां के रंगोली बनाने को बड़े ध्यान से देख रहा था. तो उसी समय मेरे पापा ने अपना परिचय दे कर उस युवक से बात की. युवक तो बहुत खुश हुआ. बड़ी गर्मजोशी से पापा से हाथ मिलाया. पापा ने उसे बताया कि पड़ोस में रहते हैं.

‘‘हां अंकल, मैं ने आप को देखा, संकोचवश बोल न पाया,’’ उस ने कहा.

मैं ने घर में मूंग की दाल का हलवा बनाया था, सोचा क्यों न गीता आंटी को भी दे आऊं. मैं आंटी के घर गई.

उन्होंने खुश हो कर मेरे हाथ से हलवा ले लिया. और पोंगल चावलमूंग की दाल की मीठी डिश मुझे खिला दी. मु झे बहुत आश्चर्य हुआ. मैं ने बहुत स्वाद ले कर खाई. उन्होंने मेरे पापा के लिए भी एक बरतन में डाल कर दी. फिर अपने बेटे से मेरा परिचय कराया. उस का नाम सोमसुंदरम था. वे उसे सुंदर कह कर बुलाती हैं.

मैं ने पूछा, ‘‘इतने दिनों ये कहां गए थे?’’

‘‘यह अमेरिका में रहता था. अब मेरे पास आ गया है.’’

इस तरह आंटी से मेरी दोस्ती हो गई. पर मु झे एक प्रश्न परेशान करता था. इतने दिनों से तो कहती थीं कि मेरा कोई नहीं. आज मेरा बेटा कह रही हैं. कोई इन्हें धोखा तो नहीं दे रहा है, कहीं भावना में बह कर इन्होंने इसे अपना बेटा तो नहीं माना, कोई अनहोनी हो गई तो? मेरा मन रहरह कर मु झे परेशान करता. मैं ने यह बात अपने पापा को बताई तो वे बोले, ‘‘तुम अपने काम से मतलब रखो, ज्यादा होशियार बनने की जरूरत नहीं. वह औरत आईएएस थी. अपने काम से ही मतलब रखना बेटा. उन्हें सलाह देने की जरूरत नहीं.’’

परंतु, वह लड़का बहुत ही स्मार्ट, बढि़या पर्सनैलिटी, बहुत ही हैंडसम था. कहना तो नहीं चाहिए पर मेरे दिल में पता नहीं क्यों कुछ अजीब सा होने लगा. क्या हुआ इस उम्र में. मैं ने दिल को काबू करना चाहा. पर पता नहीं क्यों मेरा दिल काबू में नहीं रहा.

मु झे लगा इन आदमियों का दिल तो होता नहीं. मु झे बहुत तकलीफ हो रही थी. मु झे लगता, बच्चे सब को बहुत अच्छे लगते हैं. कौन सी ऐसी औरत होगी जो मां न बनना चाहे. यह औरत भी 65 साल से ऊपर हो गई है. कहते तो हैं कि 60 साल में सठिया जाते हैं. यह तो 65 से ऊपर हो गई है.

पैसे वाली हैं, इसीलिए कोई इन्हें धोखा तो नहीं दे रहा, फंस जाएंगी बेचारी. मैं सोचसोच कर परेशान होती रही. पर उन के बेटे का आकर्षण मु झे उन की ओर खींचता चला गया.

वे बेटे के लिए रोज तरहतरह का खानानाश्ता बनातीं.

यह लड़का शायद दक्षिण भारत का है, सो वे वहीं के त्योहार ज्यादा मनातीं और दक्षिण भारतीय व्यंजन और नाश्ते बनातीं. मन बहुत परेशान रहने लगा. कहीं मेरी पड़ोसिन धोखा न खा जाए क्योंकि पड़़ोस में साथ रहतेरहते उन से विशेष स्नेह और अपनत्व हो गया था. उन से कैसे पूछूं. कुछ बोलूं, तो शायद बुरा मानें. कल को कुछ हो न जाए, मन बहुत व्यथित हो रहा था.

एक दिन उन के लड़के को अकेले बाहर जाते देखा, तो मैं गीता आंटी

के पास चली गई. मैं ने कहा, ‘‘आंटी, आप बहुत बड़ी हैं. सम झदार हैं. मु झे आप के पारिवारिक मामले में दखल देने का कोई अधिकार नहीं है. होना भी नहीं चाहिए. पर मैं आप से बहुत ही स्नेह रखती हूं. सो, कह रही हूं, गलती हो तो माफ कर देना. मैं आप की बेटी जैसी हूं.’’

‘‘हांहां रमा, बोलो, क्यों इतनी परेशान हो रही हो? तुम मेरी बेटी ही हो,’ वे बोलीं. िझ झकते हुए मैं बोली, ‘‘यह आप का सगा बेटा है क्या?’’‘‘बिलकुल. पर मैं ने कभी किसी से कहा नहीं क्योंकि मु झे भी पता नहीं था कि वह कहां है?’’

टैंपल सैट: क्या थी सुरभि की जिद

दिनभर की भागदौड़ और साफसफाई के चक्कर में सुरभि एकदम पस्त हो चुकी थी. दीवाली के दिन घर में जाने कहां से इतने सारे काम निकल आते हैं, जिन्हें स्वयं ही निबटाना पड़ता है. और काम हैं कि खत्म होने का नाम ही नहीं लेते. उस पर शाम के वक्त का तो कहना ही क्या. मिठाई, पकवान बनातेबनाते कब अंधेरा घिर गया, पता ही नहीं चला. सुरभि जल्दी से तैयार हो कर दीयों और मोमबत्तियों से घरबाहर सजाने लगी. बच्चों को कितना भी कहो कि वे इस काम में सहयोग करें, मगर उन्हें तो जैसे अपने खिलौनों और पटाखों से फुरसत न थी.

शोभा तो फिर भी थोड़ाबहुत सहयोग करती थी, मगर सूरज ने तो जैसे अपने खिलौने पिस्तौल को न छोड़ने का प्रण कर रखा था. सुरभि को उस की इस मानसिकता से डर भी लगता था कि अभी से गोलीबंदूक का शौक लग रहा है. आगे जाने क्या हो.

सूरज का अकेले खेलने में मन भी नहीं लग रहा था और शोभा को भी दीए सजाने में ऊब महसूस हो रही थी. अत: उसे मौका मिला नहीं कि वह सूरज के साथ फ्लैट के नीचे खिसक

गई. सुरभि ?ाल्लाने लगी, तो राजीव उस की तरफदारी करते हुए बोले, ‘‘खेलने दो उन्हें, अभी बच्चे हैं.’’

‘‘तो आप ही मेरी सहायता कीजिए न,’’ वह हंस कर बोली, ‘‘यह त्योहार सिर्फ मेरे लिए ही तो नहीं है.’’

‘‘यह सब मेरे बस का नहीं,’’ वह हंस कर बोले, ‘‘मेरा काम बस सारा सामान लाना था, वह ला दिया. अब तुम्हारे जो जी में आए करो,’’ कह कर वे पुन: वीडियोगेम खेलने में व्यस्त हो गए.

सुरभि को काफी गुस्सा आया कि आखिर वह इतनी साफसफाई और सजावट किस के लिए कर रही है? उस ने तुरंत टीवी का स्विच औफ कर दिया और रिमोट उन के हाथ से ले कर बोली, ‘‘आप तो बच्चों से भी छोटे बन गए. आज दीवाली है और आज भी आप को टीवी और वीडियोगेम से फुरसत नहीं. घर में आंख उठा कर भी नहीं देख सकते तो न सही, मगर जरा बाहर का नजारा तो देख लीजिए.’’

‘‘सुरभि, तुम मु?ो चैन से बैठने नहीं देतीं,’’ वे हंसते हुए बोले और फिर फ्लैट के बाहर ?ारोखे में कुरसी डाल कर बैठे रहे.

सुरभि भी उन की बगल में आ खड़ी हुई और बोली, ‘‘आप को महल्ले की सजावट अच्छी नहीं लग रही क्या? रंगीन बल्बों, ?ालरों और कंदीलों से सजा वातावरण कितना सुहाना लग रहा है.

थोड़ी देर बाद जब दीए और मोमबत्तियां जल उठेंगी तो अमावस की यह स्याह रात रोशनी से नहा उठेगी.’’

‘‘अच्छा तो लग रहा है सुरभि,’’ वे मुसकराते हुए बोले, ‘‘मगर यह पटाखों

की आवाज…’’

‘‘अब त्योहारों के वक्त परंपराओं के अनुसार तो चलना ही पड़ता है,’’ वह बोली, ‘‘फिर बच्चों को तो इसी में ज्यादा आनंद आता है. आप ने ही तो बच्चों को पटाखे ला कर दिए हैं, तो उन्हें छुड़ाएंगे ही.’’

सुरभि दीए जलाने लगी थी. राजीव स्टीरियो में कैसेट लगा कर गाने सुनने लगे थे.

दीयों और मोमबत्तियों को सजानेजलाने का काम पूरा कर सुरभि ने सब को मिठाई बांटी और फिर खाना खिलाया. फिर इतमीनान से ?ारोखे के पास आ खड़ी हुई. बाहर का दृश्य कितना मनभावन था. जलते हुए दीए और मोमबत्तियों की शृंखला कितनी अच्छी लग रही थी.

सचमुच एक जलता हुआ दीपक सिर्फ स्वयं को नहीं, बल्कि औरों को भी आलोकित करता है, प्रकाश और ऊर्जा देता है. और जब एकसाथ इतने दीए जल रहे हों, तो कहने ही

क्या. तभी तो इस प्रकाशपर्व दीवाली की इतनी महत्ता है.

समय बीतने के साथ दीयों के बु?ाने का क्रम भी शुरू हो चुका था. इन बु?ाते दीयों में

तेल डालो, तो ही ये साथ दे पाते हैं. जीवन का भी तो यही क्रम है कि उस में सदैव स्नेह का ईंधन देना होता है अन्यथा उसे खत्म होते देर नहीं लगती. वह दीयों में तेल डालने लगी.

वातावरण में अभी भी पटाखों का शोर गूंज रहा था. सड़क पर लोगों के आनेजाने का क्रम थम सा गया था. अचानक उस ने रश्मि और मनोज को अपने घर की तरफ आते देखा, तो उसे आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता हुई.

दीवाली के दिन तो आमतौर पर लोग अपने ही घर रहते हैं. फिर आज क्या बात है कि वे अपने घर से बाहर निकले हैं. चेहरा देख कर तो ऐसा कुछ नहीं लगता कि कोई गंभीर बात है. कोई बात नहीं, आज उस के घर कोई मेहमान तो आया. यही सब सोचते सुरभि उठी और उन के आने से पहले ही घर की देहरी पर आ खड़ी हुई. रश्मि के हाथ में मिठाई का डब्बा था. अंदर आने के साथ ही वह बोली, ‘‘आज हमारा आना आप लोगों को अजीब लग रहा होगा. मगर सच पूछो तो आज ही का दिन ऐसा है जब मु?ो आप के दर्शन करना ज्यादा जरूरी लगा. आप सचमुच लक्ष्मी समान हैं.’’

‘‘अब ज्यादा बातें मत बनाओ और बैठो,’’ सुरभि उन्हें ड्राइंगरूम में ले जा कर बैठाती हुई बोली, ‘‘चलो यह तो बताओ कि कैसी लग रही है मेरे घर की सजावट? इन्हें तो आंख उठा कर देखने की फुरसत ही नहीं मिलती.’’

‘‘जहां आप का हाथ लगेगा, वह दिव्य और मनभावन हो उठेगा भाभी,’’ मनोज जैसे कृतज्ञ भाव से बोल रहा था, ‘‘सचमुच हम आप के बहुत आभारी हैं.’’

‘‘अच्छाअच्छा, अब रहने भी दो. ज्यादा मस्काबाजी ठीक नहीं,’’ राजीव बोले, ‘‘और मिठाई पर हाथ साफ करो.’’

‘‘आप लोग सिर्फ मिठाई ही खाएंगे तो इन खीलबताशों का क्या होगा?’’ रश्मि बोली, तो सभी हंस पड़े. हंसती हुई रश्मि की ओर अब सुरभि ने गौर किया तो उस ने आज भारीभरकम कांजीवरम की साड़ी के साथ वही स्वर्णाभूषण टैंपल सैट पहना हुआ था, जिस से उस के चेहरे में निखार आ गया था.

‘‘आज के दिन को ताजा रखने के लिए ही तो मैं ने यह टैंपल सैट पहन रखा है भाभी,’’ रश्मि बोली, ‘‘आप को कुछ याद हो न हो, मगर हमें तो है.’’

दक्षिण भारत के मंदिरों के तर्ज पर बने उस स्वर्णाभूषण टैंपल सैट को वह अपलक निहारती रही. मंदिरों की आकृति में बने हार, ?ामके, बाजूबंद और अंगूठी की बनावट बेहद कलात्मक और सुंदर थी. गत वर्ष ही मनोज चैन्नई से उस टैंपल सैट को खरीद कर लाया था. मगर इसी के साथ एक दुखद हादसा भी जुड़ा था.

‘‘बीती बात को क्या याद करना,’’ सुरभि शांत स्वर में बोली, ‘‘यह टैंपल सैट तुम पर बहुत जंच रहा है. यही मेरे लिए बहुत है.’’उन लोगों के जाने के बाद सुरभि पुन:

बाहर ?ारोखे में आ खड़ी हुई और बु?ाते दीयों में फिर से तेल डालने लगी थी. उस की नजरों के सामने रश्मि का वह टैंपल सैट रहरह कर घूम जाता था. गत वर्ष दीवाली के कुछ ही दिन पूर्व की बात थी. उस दिन जब बहुत रात हो गई और

राजीव नहीं आए, तो उसे चिंता हुई. उन के कार्यालय में और परिचितों को फोन किया, मगर उन का कोई पता नहीं चला.

रात के 11 बज रहे थे और उस की चिंता बढ़ती जा रही थी. उसी समय फोन खुद रश्मि ने किया था कि राजीवजी अभीअभी थोड़ी देर पहले उन के घर मनोज के साथ आए थे. उन्हें उन से कोई जरूरी सामान लेना था और अब अपने घर पहुंचने ही वाले होंगे.

रात 12 बजे के आसपास जब राजीव घर पहुंचे, तो उसे अजीब सा लगा. उन्होंने ड्रिंक

कर रखी थी. वह जानती थी कि कार्यालय के कार्यों के वजह से उन्हें कभीकभार देर हो जाती है. मगर आज की बात ही कुछ और थी. उन

के हाथ में एक पैकेट था, जिसे वे मजबूती से पकड़े थे. बच्चे सो गए थे… उसे काफी

उत्सुकता हो रही थी कि आखिर उस पैकेट में है क्या चीज?

राजीव ने उस पैकेट को काफी आहिस्ते से खोला. पैकेट में लाल मखमली कपड़े से ढका एक जेवर का डब्बा था. जैसे ही राजीव ने उसे खोला, उस की आंखें चौंधिया गईं. उस में वही टैंपल सैट था, जिस की मनोज द्वारा चेन्नई में खरीदे जाने की चर्चा कई बार कर चुका था.

‘‘यह आप के पास कैसे?’’ वह बोली, ‘‘शायद यह मनोजजी का है.’’

‘‘जरा आहिस्ता बोलो,’’ राजीव बोले, ‘‘वैसे तुम ने ठीक सोचा. मगर अब यह हमारा है, क्योंकि मैं ने इसे खरीद लिया है.’’

‘‘मगर उस ने बेचा क्यों?’’

‘‘क्योंकि उसे रुपयों की जरूरत थी. वह कंपनी के पैसे जुए में हार गया था और उसे कल ही अपने कुछ मजदूरों को बोनस के रूप में रुपए बांटने थे अन्यथा हंगामा हो जाता.’’

‘‘मगर आप के पास अचानक इतने रुपए कैसे आ गए, जो इसे खरीद लिया? मैं ने तो कभी आप से जेवर लाने को नहीं कहा,’’ वह नाराज हो कर बोली, ‘‘आप को नहीं पता कि मु?ो जेवरों का कोई शौक नहीं?’’

‘‘तुम्हें अच्छा नहीं लगा क्या?’’ राजीव बात बदलते हुए बोले, ‘‘जरा इस नई डिजाइन के टैंपल सैट को आंख भर कर तो देखो. ऐसा टैंपल सैट किसी के पास न होगा.’’

‘‘मैं पूछ रही हूं कि आज अचानक आप के पास इतने रुपए कहां से आ गए, जो इसे देखतेदेखते खरीद लिया?’’

‘‘मैं ने जुए में इतने रुपए जीते थे कि उन से ही इसे खरीद लिया.’’

‘‘क्या?’’ वह एकदम से जैसे आसमान से गिरी, ‘‘तो यह टैंपल सैट आप की कमाई का नहीं, बल्कि जुए का है,’’ सुरभि का उस सैट की तरफ देखने तक का मन नहीं हुआ. उसने तुरंत डब्बा बंद कर राजीव के हवाले कर दिया और फिर बिस्तर पर निढाल सी पड़ गई.

रात भर सो नहीं पाई. करवटें बदलती रही. मनोज की जगह यदि वह खुद हार जाते तो क्या होता? कहां से आते इतने ढेर सारे रुपए. बारबार कानों में युधिष्ठिर जैसे जुएबाजों की कहानियां गूंजती रहीं.

क्या आज तक किसी का जुए से भला हुआ है, जो हमारा होगा? क्या इस गलत कमाई को घर में रखना ठीक होगा? आखिर इस की जरूरत क्या है?

अंतत: दूसरे दिन सुरभि ने राजीव के समक्ष ये प्रश्न रख ही दिए, तो उन से जवाब

देते नहीं बना. सुरभि के लगातार के प्रश्नों से ऊब कर वे बोले, ‘‘दरअसल, कुछ दोस्त मिल गए थे. उन का साथ देने की खातिर बैठना पड़ा. मगर अब कान पकड़ता हूं कि उधर का रुख कभी नहीं करूंगा.’’

‘‘जब ऐसा ही है तो आप मेरा कहना मानेंगे?’’

‘‘अब से मैं तुम्हारा हर कहना मानूंगा.’’

‘‘तो आप यह टैंपल सैट मनोजजी को लौटा दो,’’ सुरभि दृढ़तापूर्वक एक सांस में कह गई, ‘‘आखिर इस में आप की कमाई का एक पैसा भी नहीं लगा है, इसलिए इसे लौटाने से आप को कोई तकलीफ नहीं होगी.’’

‘‘क्या तुम्हें भी तकलीफ न होगी?’’ वे आश्चर्य से भर कर सुरभि का मुंह देखते हुए बोले, ‘‘इस तरह आती हुई लक्ष्मी को कोई लौटाता है क्या?’’

‘‘मैं इस तरह की हराम की कमाई को लक्ष्मी नहीं मानती,’’ वह जोर से बोली, ‘‘लक्ष्मी वह है, जो व्यक्ति की मेहनत, ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठता से आती है. इसे रश्मि और मनोज को लौटा दो.’’

सुरभि की जिद के आगे अंतत: राजीव को ?ाकना पड़ा. वे स्वयं मनोज के घर गए और उन्हें दीवाली का उपहार कह कर लौटा आए. रश्मि

की आंखों में आभार के आंसू थे तो सुरभि स्वयं एक बहुत बड़े बो?ा से मुक्ति का एहसास कर रही थी.‘‘अब रात भर दीए ही जलाती रहोगी क्या?’’ राजीव पीछे से आ कर बोले तो उस की तंद्रा टूट गई.‘‘जब तक संभव हो, दीए तो जलाने ही चाहिए,’’ वह हंस कर बोली, ‘‘ताकि उजाला बना रहे.’’

सीरियल औन अनाज गौन: महंगाई की मार झेलती जनता

‘‘यहक्या, खाने में बैगन बनाए हैं… तुम्हें पता है न कि मुझे बैगन बिलकुल पसंद नहीं हैं. फिर क्यों बनाए? तुम चुनचुन कर वही चीजें क्यों बनाती हो, जो मुझे पसंद नहीं?’’ इन्होंने मुंह बना कर थाली परे सरकाते हुए कहा.

मैं भी थोड़ी रुखाई से बोली, ‘‘तो रोजरोज क्या बनाऊं? वही आलूमटर, गोभी…? सब्जियों के भाव पता हैं? आसमान छू रहे हैं. इस महंगाई में यह बन रहा है न तो इसे भी गनीमत समझो… जो बना है उसे चुपचाप खा लो.’’

ये चिढ़ते स्वर में बोले, ‘‘मुझे क्या अपने मायके वालों जैसा समझ रखा है कि जो बनाओगी चुपचाप खा लूंगा, जानवरों की तरह?’’

उफ, एक तो मेरे मायके वालों को बीच में लाना उस पर भी उन की तुलना जानवरों से करना. मैं ऐसे उफनी जैसे जापान के समुंदर में लहरें उफनती हैं, ‘‘मेरे मायके वाले आप की तरह नहीं हैं, वे चादर देख कर पैर फैलाते हैं. हुंह, घर में नहीं दाने और अम्मां चली भुनाने. पल्ले है कुछ नहीं पर शौक रईसों जैसे… इस महंगाई के जमाने में आप जो मुझे ला कर देते हैं न उस में तो बैगन की सब्जी भी नसीब नहीं हो सकती है… आए बड़े मेरे मायके वालों को लपेटने… पहले खुद की औकात देखो, फिर मेरे मायके की बात करो.’’

ये भी भड़क गए, ‘‘जितना देता हूं न वह कम नहीं है. बस, घर चलाने की अक्ल होनी चाहिए… मैं तुम्हारी जगह होता तो इस से भी कम में घर चलाता और ऊपर से बचत कर के भी दिखाता.’’

मेरी कार्यकुशलता पर आक्षेप? दक्षता से घर चलाने के बाद भी कटाक्ष? मैं भला कैसे चुप रह सकती थी… बोलना जरूरी था, इसलिए बोली, ‘‘बोलना बहुत आसान होता है… खाली जबान हिलाने से कुछ नहीं होता… 2 दिन घर संभालना पड़े तो नानीदादी सब याद आ जाएंगे. यह तो मैं ही हूं, जो आप की इस टुच्ची तनख्वाह में निर्वाह कर रही हूं… दूसरी कोई होती तो कब की छोड़ कर चली गई होती.’’

‘‘मैं ने तुम्हें रोका नहीं है. मेरी कमाई से पूरा नहीं पड़ रहा न, तो ढूंढ़ लो कोई ऐसा जिस की कमाई पूरी पड़ती हो… अच्छा है मुझे भी शांति मिलेगी,’’ कह इन्होंने जोर से हाथ जोड़ दिए.

अब तो मेरे सब्र का बांध टूट गया. जारजार आंसू बहने लगे. रोतेरोते ही बोली, ‘‘आ गई न दिल की बात जबान पर… आप चाहते ही हो कि मैं घर छोड़ कर चली जाऊं ताकि आप को छूट मिल जाए, मुझे नीचा दिखाने का बहाना मिल जाए. ठीक है, मैं चली जाऊंगी. देखती हूं कैसे रहोगे मेरे बिना… एक दिन बैगन की सब्जी क्या बना दी. इतना बखेड़ा कर दिया. अब चली जाऊंगी तो बनाते रहना, जो मन में आए और खाते रहना.’’और फिर मैं डाइनिंग टेबल से उठ कर अपने कमरे में आ गई और धड़ाम से दरवाजा बंद कर लिया.

दूसरे दिन बालकनी में कपड़े सुखा रही थी. कल का झगड़ा चेहरे पर पसरा हुआ था. उदासी आंखों के गलियारे में चक्कर लगा रही थी. बोझिल मन कपड़ों के साथ झटका जा रहा था. मैं अपने काम में व्यस्त थी और मेरी पड़ोसिन अपने काम में. पर वह पड़ोसिन ही क्या जो अपनी पड़ोसिन में बीमारी के लक्षण न देख ले और बीमारी की जड़ को न पकड़ ले. अत: उस ने पूछा, ‘‘लगता है भाई साहब से झगड़ा हुआ है?’’

खुद को रोकतेरोकते भी मेरे मुंह से निकल ही गया, ‘‘हां, इन्हें और काम ही क्या है सिवा मुझ से झगड़ने के.’’

पड़ोसिन हंस दी, ‘‘वजह से या बेवजह?’’

‘‘झगड़ा ही करना है तो फिर कोई भी वजह ढूंढ़ लो और झगड़ा कर लो. मैं तो कहती हूं ये आदमी शादी ही इसलिए करते हैं कि घर में ले आओ एक प्राणी, एक गुलाम, एक सेविका, एक दासी जो इन के लिए खाना पकाए, घर संवारे, इन के कपड़े धोए और बदले में या तो आलोचना सहे या फिर झगड़ा झेले. हुंह…’’ कह मैं ने कपड़े जोर से झटके.

मेरी पड़ोसिन खिलखिला कर हंस दी, ‘‘अरे, पर झगड़ा हुआ क्यों?’’

मैं ने बताया, ‘‘इन्हें बैगन पसंद नहीं और कल मैं ने बैगन की सब्जी बना दी. बस फिर क्या था सब्जी देखते ही भड़क उठे.’’

पड़ोसिन की हंसी नहीं रुक रही थी. बड़ी मुश्किल से हंसीं रोक कर बोली, ‘‘अच्छा, यह बता कि तुम लोग खाना खाते समय टीवी बंद रखते हो?’’

मैं ने हैरानी से कहा, ‘‘हां, मगर टीवी का और खाने का क्या संबंध?’’

उस ने कहा, ‘‘है टीवी और खाने का बहुत गहरा संबंध है. मेरे यहां तो सभी टीवी देखतेदेखते खाना खाते हैं. सब का ध्यान टीवी में रहता है तो किसी का इस तरफ ध्यान ही नहीं जाता कि खाने में क्या बना है और कैसा बना है? है न बढि़या बात? वे भी खुश और मैं भी टैंशन फ्री वरना तो रोज की टैंशन कि क्या बनाया जाए… अब तू ही बता रोजरोज बनाएं भी क्या?’’

मैं ने कहा, ‘‘वही तो… रोज सुबह उठो तो सब से पहले यही प्रश्न क्या बनाऊं? सच कहूं आधा समय तो इस क्या बनाऊं, क्या बनाऊं में ही निकल जाता है. ऊपर से फिर यह भी पता नहीं कि इन्हें पसंद आएगा या नहीं, खाएंगे या नहीं और फिर वही झगड़ा.’’

पड़ोसिन ने सुझाव दिया, ‘‘हां तो तू वही किया कर जैसे ही ये खाना खाने बैठें टीवी चला दिया. उन का ध्यान टीवी पर रहेगा तो खाने पर ध्यान नहीं जाएगा और फिर झगड़ा नहीं होगा.’’

मैं उस की सलाह सुन भीतर आ गई. फिर मन ही मन तय कर लिया आज से ही मिशन डिनर विद टीवी शुरू…

शाम को मैं ने टीवी देखना शुरू किया. स्टार प्लस, सब, जी, सोनी देखतेदेखते ही खाना बनाया. टीवी देखतेदेखते ही खाना लगाया और टीवी दिखातेदिखाते ही खिलाया. आश्चर्य, ये भी सीरियल देखतेदेखते आराम से खाना खा गए. हालांकि सब्जी इन की मनपसंद थी फिर भी कुछ बोले नहीं. न आह न वाह. फिर तो रोज का काम हो गया. मैं खाना बनाती, ये टीवी देखतेदेखते खा लेते. सब कुछ शांति से चलने लगा. पर अब दूसरी मुसीबत शुरू हो गई. इन का पूरा ध्यान टीवी में रहने लगा. मुझे गुस्सा आने लगा. जब देखो आंखें फाड़फाड़ कर सीरियल की हीरोइनों को देखते रहते. मेरा खून खौलता रहता. हद तो यह भी थी कि टीवी देखतेदेखते बस खाते रहते, खाते रहते गोया गब्बर की तरह यह डायलौग रट लिया हो कि जब तक यह टीवी चलेगा हमारा खाना चलेगा. अब मेरा किचन का बजट गड़बड़ाने लगा. एक दिन ये टीवी देखतेदेखते खाना खा रहे थे. जैसे ही इन्होंने एक और रोटी की डिमांड की मैं भड़क गई, ‘‘मैं ने यहां ढाबा नहीं खोल रखा है, जो रोटी पर रोटी बनाती रहूं और खिलाती रहूं… तोंद देखी है अपनी, कैसी निकल रही है.’’

इन्होंने टीवी में नजरें गड़ाए हुए ही जवाब दिया, ‘‘अब तुम खाना ही इतना अच्छा बनाती हो तो मैं क्या करूं? मन करता है खाते रहो खाते रहो… लाओ अब जल्दी से 1 चपाती और लाओ.’’

उफ यह… कुछ दिनों पहले तक तो खाने पर झगड़ा करते थे और अब खाना खाने बैठते हैं तो उठने का नाम ही नहीं लेते. अत: गुस्से से इन की थाली में चपाती रखते हुए मैं ने कहा, ‘‘बंद करो अब खाना खाना भी और टीवी देखना भी, कहीं ऐसा न हो चंद्रमुखी की आंखों में डूब ही जाओ…’’

इन्होंने कौर मुंह में दबाते हुए कहा, ‘‘तो प्रिया कपूर की जुल्फें है न, उन्हें पकड़ कर बाहर निकल आएंगे.’’

मैं गुस्से से तिलमिला गई, ‘‘और मैं जो हड्डियां तोड़ूंगी तब क्या करोेगे?’’

ये हंसने लगे, ‘‘तो डाक्टर निधि है न, इलाज के लिए.’’

मेरा मन किया कि टेबल पर पड़े सारे बरतन उठा कर पटक दूं… एक परेशानी से निकलना चाह रही थी दूसरी में उलझ गई.

अब मैं खाने में कुछ भी बनाऊं ये कुछ नहीं कहते. दाल पतली और बेस्वाद हो ‘लापतागंज’ की इंदुमति के चटपटेपन के साथ खा लेंगे. आलूमटर की सब्जी में मटर न मिलें तो ‘बड़े अच्छे लगते हैं’ के गोलू राम को गटक लेंगे. प्लेट से सलाद गायब हो तो ‘तारक मेहता’ के सेहत भरे संवाद हैं न? मीठानमकीन नहीं है पर ‘चौटाला’ की मीठीनमकीन बातें तो हैं न? आज पनीर नहीं बना कोई बात नहीं टोस्टी की टेबल पर से कुछ उठा लेंगे.

मतलब यह कि इधर सीरियल चलने लगे. उधर मेरा सीरियल (अनाज) उड़ने लगा. अब तो जो भी बनाऊं अच्छा लगे न लगे सीरियल के साथ चटखारे ले ले कर खाने लगे. मैं अब फिर परेशान हूं कि क्या करूं क्या न करूं. कुछ समझ में नहीं आ रहा.

महंगाई से निबटने और झगड़े से बचने के लिए सीरियल दिखातेदिखाते खाना खिलने की सलाह पर अमल किया था. पर मेरे साथ तो उलटा हो गया. अब सब कुछ मुझे डबल बनाना पड़ता है वरना भूखा रह गया का आलाप सुनना पड़ता है.

पंडों का चक्रव्यूह : पूजा के नाम पर ठगी

आजमैं जब अपने चाचाजी को देखने उन के घर गई तो उन्हें देख कर बहुत दुख हुआ. चाचाजी की हालत बहुत गंभीर थी. मैं ने चाचीजी से पूछा कि डाक्टर क्या कह रहा है? किस डाक्टर को दिखाया? अचानक क्या हुआ? 5 महीने पहले तो चाचाजी ठीक थे? तो चाचीजी ने बताया, ‘‘बिटिया, 4 महीने पहले तुम्हारे चाचाजी को बुखार आया था. डाक्टर की दवा से फायदा नहीं हुआ तो पड़ोसिन पंडिताइन ने एक अच्छे हकीम की दवा दिलवाई. ये कुछ दिन तो ठीक रहे फिर हालत बिगड़ती गई. फिर डाक्टर को दिखाया, पर ये ठीक नहीं हुए. बहुत दिनों तक दवा खाते रहे पर कोई फायदा नहीं हुआ. तभी एक दिन पंडिताइन ने चाचाजी की जन्मपत्री एक बहुत बड़े पंडित को दिखाई तो मालूम चला कि तुम्हारे चाचाजी ठीक कैसे होंगे. इन की तो घोर शनि और केतु की दशा चल रही है. तब से हम ने डाक्टर की दवा कम कर दी और इन के लिए जाप वगैरह करा रहे हैं.’’

सुन कर मेरा माथा ठनका. मैं ने कहा, ‘‘चाचीजी, जाप वगैरह से कुछ नहीं होगा. डाक्टर को ठीक से दिखा कर टैस्ट वगैरह कराइए. आप जो पैसा जाप में खर्च कर रही हैं, इन के खाने और दवा पर खर्च करिए.’’

चाचीजी ने कहा, ‘‘बिटिया, डाक्टर क्या पंडित से ज्यादा जाने हैं? जब पंडितजी ने बता दिया कि क्यों बीमार हैं, तो डाक्टर के पास जाने से क्या फायदा? अब हम किसी डाक्टर को नहीं दिखाएंगे,’’ और वे तमतमा कर अंदर चली गईं.

मैं ने अपनी भाभी यानी उन की बहू को सम?ाया. पर वे तो चाचीजी से भी ज्यादा अंधविश्वासी थीं. मैं चाचाजी से मिल कर दुखी मन से घर लौट आई. मैं सम?ा गई कि उस पंडित ने चाचीजी को अपने जाल में फांस लिया है.

मेरी चाचीजी को हमेशा पंडितों की बातों और उन के अंधविश्वासों पर विश्वास रहा. मैं पहले जब भी चाचीजी से मिलने जाती तो अकसर किसी पंडे या पंडित को उन के पास बैठा देखती. वे उस से घर की सुखशांति व निरोग होने के लिए उपाय पूछती दिखतीं और वह पंडा या पंडित जन्म और अगले जन्म के विषय में इस तरह से बताता जैसे सब कुछ उस के सामने घटित हो रहा हो. वह अकसर कौन सा दान करना जरूरी है, किस दान से क्या फल मिलेगा और अगर फलां दान नहीं किया तो अगले जन्म में क्या नुकसान होगा वगैरह बातें कर के चाचीजी के मस्तिष्क को अंधविश्वासों में जकड़ता जा रहा था और चाचीजी बिना किसी विरोध के उस का कहना मानती थीं.

चाचाजी उम्र बढ़ने के साथ व्याधियों से भी घिरते जा रहे थे. चाचीजी उस का कारण चाचाजी का पंडितों पर विश्वास न होना मानती थीं. चाचीजी और चाचाजी की उम्र में 12 साल का अंतर था पर चाचीजी का कहना था कि मैं इसलिए स्वस्थ हूं क्योंकि मैं पंडितजी के कहे अनुसार सारे धर्मकर्म करती हूं और चाचाजी चूंकि पंडितजी की बात नहीं मानते, इसलिए रोगों से ग्रस्त रहते हैं.

उन की इस तरह की बात बारबार सुन कर उन की बहू भी अंधविश्वासी हो गई थी.

एक घर में जब 2 महिलाएं पंडितों और पंडों के चक्कर में फंस जाएं तो वे रोज नए

तरह के किस्सों और कर्मकांडों द्वारा दानपुण्य से लूटने की भूमिका तैयार करते रहते हैं. वही चाचीजी के घर में हो रहा था.

मैं हर दूसरे दिन फोन पर चाचाजी की खबर लेती रहती. कभी उन की तबीयत ठीक होती तो कभी ज्यादा खराब होती. 3 हफ्ते बाद मैं जब चाचाजी से मिलने गई तो पंडितजी बैठे थे और चाचीजी की बहू को कुछ सामग्री लिखा रहे थे.

मैं ने पूछा, ‘‘क्या हो रहा है, चाचीजी?’’

चाचीजी बोलीं, ‘‘बिटिया, पंडितजी कह रहे हैं अगर चाचाजी का तुलादान कर दिया तो ये ठीक हो जाएंगे. तुलादान व्यक्ति के वजन के बराबर अनाज वगैरह दान करने को कहते हैं और ये उसी का सामान लिखा रहे हैं.’’

फिर वे पंडितजी से बात करने में मशगूल हो गईं. पंडितजी चाचीजी की उदारता और पतिभक्ति की भूरिभूरि प्रशंसा कर रहे थे और मैं खड़ीखड़ी पंडित के ठगने के तरीके और अंधविश्वास में लिपटे इन लोगों को देख रही थी.

2 दिन बाद मैं ने फोन किया तो पता चला कि चाचाजी की तबीयत बहुत बिगड़ गई है. घर में मेरे भाई का डाक्टर दोस्त आया हुआ था. उसे खाना खिला कर मैं ने चाचाजी को देखने का प्रोग्राम बनाया. जब उसे मैं ने अपना प्रोग्राम बताया तो वह बोला, ‘‘दीदी, मैं आप को चाचाजी के घर छोड़ता चला जाऊंगा. हम घर से निकले और चाचाजी के घर पहुंचे तो मैं ने क्षितिज से कहा, ‘‘जब तुम यहां तक आ गए हो तो एक बार चाचाजी को देख लो.’’

‘‘ठीक है दीदी, मैं देख लेता हूं,’’ क्षितिज ने कहा. हम अंदर गए तो पंडितजी मंत्र का जाप कर रहे थे. पास में एक गाय खड़ी थी. चाचाजी बेसुध से पास की चारपाई पर लेटे थे और उन के हाथ को पकड़ कर चाचीजी ने उस में फूल, पानी, अक्षत, रोली वगैरह रखे हुए थे.

पूछने पर उन की बहू ने बताया, ‘‘दीदी, गौदान हो रहा है. पंडितजी कह रहे थे कि गाय के शरीर में 33 करोड़ देवीदेवता रहते हैं. इस का दान करने से बाबूजी तुरंत ठीक हो जाएंगे.’’

ये बातें सुन कर मेरा माथा ठनका. मुझे लगा इन पंडितों का जाल इन्हीं अज्ञानी लोगों की वजह से दिन पर दिन समाज में फैलता जा रहा है. मैं अपनी सोचों में ही डूबउतरा रही थी कि पंडितजी की पूजा समाप्त हुई. उन्हें दक्षिणा का लिफाफा चाचीजी ने थमाया तो वह गाय और साथ का सामान ले कर चलने लगे. धूप, अगरबत्ती के धुएं से चाचाजी को सांस लेने में कठिनाई हो रही थी और खांसतेखांसते उन का बुरा हाल था.

पंडितजी चाचीजी से बोले, ‘‘देखिए माताजी, बाबूजी का रोग कैसे

बाहर निकलने के लिए लालायित है. अब ये कल तक ठीक हो जाएंगे.’’

चाचीजी बड़े आग्रह के साथ पंडितजी को खाना खिलाने ले गईं. उन्होंने चाचाजी की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया.

जब पंडितजी चले गए तो मैं चाचाजी के पास गई. उन के सिर पर हाथ रखा, सीने को सहलाया तो उन्हें कुछ आराम मिला. उन्होंने आंखें खोल कर मुझे देखा. मैं ने तभी क्षितिज को उन से मिलाया, ‘‘चाचाजी, आप ठीक हो जाएंगे, ये डाक्टर क्षितिज हैं.’’

चाचाजी की दर्द और कातरता से भरी आंखें आशा के साथ क्षितिज को देखने लगीं. क्षितिज ने चाचाजी का चैकअप किया और कुछ दवाएं लिखीं. उस ने चाचाजी को ढाढ़स बंधाया और दवा लेने चला गया.

क्षितिज ने दवा की एक खुराक उसी समय दी और अपनी क्लीनिक चला गया. मैं शाम तक वहीं रही. रात को खाना खा कर जब मैं वहां से अपने पति के साथ वापस आ रही थी, तो चाचाजी दवा की 2 डोज ले चुके थे और कुछ स्वस्थ से लग रहे थे. इधर चाचीजी और उन की बहू इस बात से आश्वस्त थीं कि गौदान करने से बाबूजी ठीक हो रहे हैं.

2 दिन बाद मैं ने फोन किया तो पता चला कि चाचाजी की तबीयत बहुत खराब है. मैं जल्दीजल्दी जब वहां पहुंची तो चाचाजी अंतिम सांसें ले रहे थे और वही पंडितजी मंत्र पढ़पढ़ कर न जाने कौन से दान और कर्मकांड करवा रहे थे. मालूम चला कि चाचीजी ने चाचाजी की दवा बंद करवा दी थी. सुन कर मुझे बहुत गुस्सा आया पर मैं क्या कर सकती थी?

मेरे देखतेदेखते चाचाजी ने अंतिम सांस ली. चाचाजी की मृत्यु को रोका जा सकता था, अगर उन की दवा बंद न की गई होती. पर चाचीजी तो पंडित के चक्कर में इतनी फंसीं कि उन्हें कुछ और दिखाई ही नहीं दे रहा था.

फिर शुरू हुआ पंडित द्वारा भगवान की मरजी आदि बातों को बताना. थोड़ी देर बाद चाचाजी का लड़का सब को फोन कर रहा था तो चाचीजी चाचाजी के पास बैठी सुबकसुबक कर रो रही थीं. उन की बहू अगरबत्ती जलाने, बैठने का प्रबंध करने आदि में लगी थी. पंडितजी एक सज्जन के साथ सामान की लिस्ट बनवाने में व्यस्त थे. पंडितजी ने चाचाजी के जीतेजी जितनी लंबी लिस्ट बनवाई थी, यह लिस्ट उस से और लंबी हो गई थी और वे न करने या कम करने पर मरने वाले की आत्मा को कष्ट होगा, यह दुहाई देते जा रहे थे.शाम को जब चाचाजी का शरीर अंतिम यात्रा के लिए ले जाया गया तो घाट पर फिर वही सब पंडों के आदेश और उन पर चलता व्यक्ति. न खत्म होने वाली रस्में और उन में उलझते घर के लोग.

जब दाह संस्कार कर के लोग वापस आए तो सब थक कर भरे मन से अपनेअपने घर चले गए. पर पंडितजी एक कोने में बैठ कर अगले दिन की तैयारी व लिस्ट बनवाने में व्यस्त हो गए. उन का असली किरदार तो अब शुरू हुआ था. अब 10 दिन की कड़ी तपस्या, खानपान में परहेज, जमीन में सोना, अलग रहना, अपने प्रिय की जुदाई का दुख. फिर भी पंडितजी की लिस्ट में किसी तरह की कमी नहीं थी. बल्कि ऐसे भावुक समय को भुनाने की तो पंडों की पूरी कोशिश रहती है. ऐसे समय में कुटुंब और समाज के लोग भी पंडे की बातों का समर्थन कर के, ऊंचनीच सम?ा कर, दुख से पीडि़त व्यक्ति के घाव को हरा ही करते हैं.

एक तो व्यक्ति दुखी वैसे ही होता है. ऐसे में अगर यह कह दिया जाए कि अगर आप इतना सब नहीं करेंगे तो आप के पिता भूखे रहेंगे, दुखी रहेंगे, तो वह उधार कर के भी उस पंडे की हर बात मानने को मजबूर हो जाता है.

9 दिन इसी तरह लूटने के बाद 10वें दिन पंडित ने एक बड़ी लिस्ट थमाई जिस में दानपुण्य की सामग्री लिखी थी. जब चाचाजी के बेटे ने प्रश्नवाचक नजरों से पंडितजी को देखा तो पंडितजी सम?ाने लगे, ‘‘बेटा, इस समय जो दान जाएगा, वह तो शमशान के पंडित को ही जाएगा. यह सारी सामग्री इसलिए आवश्यक है, क्योंकि

9 दिन से तुम्हारे पिता प्रेतयोनि में ही हैं और प्रेम को कोई लगाव नहीं होता. अगर प्रेत असंतुष्ट रह गया तो वह तुम्हारा, तुम्हारे बच्चों या परिवार का अहित करने से नहीं चूकेगा. इसलिए 10वें के दिन वह सभी दान करना पड़ता है जो 13वीं के दिन किया जाता है. वरना प्रेत से छुटकारा पाना बहुत कठिन हो जाता है.

अपने भविष्य व अपने बच्चों के प्रति हम इतने सशंकित रहते हैं कि पंडों या पंडितों के चक्रव्यूह में बेबस हो कर फंस जाते हैं. इस पंडित ने जिस तरह से अपराधबोध और भय की सुरंग चारों तरफ फैला दी थी, उस से निकलने का कोई रास्ता चाचाजी के बेटे को नजर नहीं आ रहा था. इसलिए जैसाजैसा पंडित कहते जा रहे थे, वह बुरे मन से ही सही सब कर रहा था.

13वीं के लिए पंडितजी ने पुन: एक बार लंबी पूजा व दान की लिस्ट चाचाजी

के बेटे को पकड़ाई और सम?ाया, ‘‘जजमान, 13वीं को आप के पिता आप के द्वारा दिए गए दान व तर्पण से प्रसन्न हो कर प्रेतयोनि से मुक्त हो कर पितरों के साथ मिलेंगे. अत: आप इन को वस्त्र, आभूषण, बरतन और अन्य सामग्री से प्रसन्न कर के पितरों के साथ मिलने में इन की सहायता करें.’’

चाचाजी का बेटा यह सब करतेकरते थक गया था. उसे तो इन सब पर विश्वास ही नहीं था, पर मां और पत्नी के डर से कुछ कह नहीं पा रहा था. पर जब 10वां हो गया और पंडित की मांगें सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती ही गईं तो वह बिफर गया और 13वीं के दिन का सामान देने के लिए राजी नहीं हुआ.

पंडित का कहना था कि अगर यह सब दान नहीं किया तो मृतात्मा को मुक्ति नहीं मिलेगी. और भी कई भावुक बातें उस ने कहीं. चाचाजी के बेटे का सब्र का बांध टूट गया. उस ने कहा, ‘‘मैं अगर आप के कहे अनुसार चलता रहा तो यह सच है कि मैं इस जन्म में तो कर्ज से मुक्त नहीं हो पाऊंगा और जीतेजी मर जाऊंगा. अब बहुत हो गया. कृपया लूटने का नाटक बंद करें,’’ और उस की आंखों से आंसू बहने लगे. पता नहीं ये आंसू दुख के थे या पश्चात्ताप के.

उसी समय चाचीजी बेटे को दिलासा देने आईं और बोलीं, ‘‘बेटा, इतना सब अच्छे से किया है, तो अब आखिरी काम क्यों नहीं अच्छे से कर देता है? मेरे पास जो भी है, उन का दिया है. ले मेरे हाथ की चूडि़यों को. उन्हें बेच कर तू उन की गति संवार दें. मैं तेरे आगे हाथ जोड़ती हूं,’’ और चाचीजी सुबकने लगीं.

उस ने चूडि़यां मां को वापस कीं. निर्लिप्त भाव से वह सब करने लगा, जो पंडित उस से कह रहा था पर चिंता की लकीरें उस के माथे पर स्पष्ट दिख रही थीं, क्योंकि अभी 11 पंडितों का खाना, दक्षिणा और संबंधियों का भोज बाकी था. पर वह इन के भंवर में इतना फंस गया था कि कुछ कहना व्यर्थ था.

घर के किसी भी व्यक्ति के जाने के बाद पीछे रहा व्यक्ति दोहरी पीड़ा ?ोलता है. एक तो अपने प्रियजन के विछोह की तो दूसरी व्यर्थ के कर्मकांडों की. पर अंधविश्वास व पंडों द्वारा फैलाए डर तथा अनर्थ की आशंका के कारण व्यक्ति इन का अतिक्रमण नहीं कर पाता.

हम सब एकसाथ 2 तरह की दुनिया में रहते हैं. एक भौतिक साधनों से संपन्न आधुनिकता से भरी दुनिया, तो दूसरी पाखंड और पंडों के द्वारा बनाई गई भयभीत करने वाली दुनिया, जिस में सत्य का या वास्तविकता का कोई अंश नहीं होता. भगवान के नाम पर, मृतात्मा के नाम पर ये पंडे, जिस तरह से व्यक्ति को लूटते हैं उस के बारे में सब को पता है कि यह सब शायद सत्य नहीं है पर फिर भी कभी डर से, कभी मृतात्मा के प्रति उपजे प्यार और आदर से, हम सब कुछ करने को तैयार हो जाते हैं और इन पंडों की कुटिल चाल में फंस जाते हैं.

खैर पंडितजी ने अपना सामान बांधा, चाचाजी के बेटे को पता दिया और सामान घर पहुंचाने का आदेश दे कर चलते बने.

बहादुर लड़की बनी मिसाल: सालबनी ने कौनसा हादसा टाला

आदिवासियों के जीने का एकमात्र साधन और बेहद खूबसूरत वादियों वाले हरेभरे पहाड़ी जंगलों को स्थानीय और बाहरी नक्सलियों ने छीन कर अपना अड्डा बना लिया था. उन्हें अपने ही गांवघर, जमीन से बेदखल कर दिया था. यहां के जंगलों में अनेक जड़ीबूटियां मिलती हैं. जंगल कीमती पेड़पौधों से भरे हुए हैं.

3 राज्यों से हो कर गुजरने वाला यह पहाड़ी जंगल आगे जा कर एक चौथे राज्य में दाखिल हो जाता था. जंगल के ऊंचेनीचे पठारी रास्तों से वे बेधड़क एक राज्य से दूसरे राज्य में चले जाते थे.

दूसरे राज्यों से भाग कर आए नक्सली चोरीचुपके यहां के पहाड़ी जंगलों में पनाह लेते और अपराध कर के दूसरे राज्यों के जंगल में घुस जाते थे.

कोई उन के खिलाफ मुंह खोलता तो उसे हमेशा के लिए मौत की नींद सुला देते. यहां वे अपनी सरकारें चलाते थे. गांव वाले उन के डर से सांझ होने से पहले ही घरों में दुबक जाते. उन्हें जिस से बदला लेना होता था, उस के घर के बाहर पोस्टर चिपका देते और मुखबिरी का आरोप लगा कर हत्या कर देते थे.

नक्सलियों के डर से गांव वाले अपना घरद्वार, खेतखलिहान छोड़ कर शहरों में रहने वाले अपने रिश्तेदारों के यहां चले गए थे.

डुमरिया एक ऐसा ही गांव था, जो चारों ओर से पहाड़ों से घिरा हुआ था. पहाड़ी जंगल के कच्चे रास्ते को पार कर के ही यहां आया जा सकता था. यहां एक विशाल मैदान था. कभी यहां फुटबाल टूर्नामैंट भी होता था जो अब नक्सलियों के कब्जे में था. एक उच्च माध्यमिक स्कूल भी था जहां ढेर सारे लड़केलड़कियां पढ़ते थे.

पिछले दिनों नक्सलियों ने अपने दस्ते में नए रंगरूटों को भरती करने के लिए जबरदस्ती स्कूल पर हमला कर दिया और अपने मनपसंद स्कूली बच्चों को उठा ले गए. गांव वाले रोनेपीटने के सिवा कुछ न कर सके.

नक्सली उन बच्चों की आंखों पर पट्टी बांध कर ले गए थे. बच्चे उन्हें छोड़ देने के लिए रोतेचिल्लाते रहे, दया की भीख मांगते रहे, लेकिन उन्हें उन मासूमों पर दया नहीं आई. जंगल में ले जा कर उन्हें अलगअलग दस्तों में गुलामों की तरह बांट दिया गया. सभी लड़केलड़कियां अपनेअपने संगीसाथियों से बिछुड़ गए.

अगवा की गई एक छात्रा सालबनी को संजय पाहन नाम के नक्सली ने अपने पास रख लिया. वह रोरो कर उस दरिंदे से छोड़ देने की गुहार करती रही, लेकिन उस का दिल नहीं पसीजा. पहले तो सालबनी को उस ने बहलाफुसला कर मनाने की कोशिश की, लेकिन सालबनी ने अपने घर जाने की रट लगाए रखी तो उस ने उसे खूब मारा. बाद में सालबनी को एक कोने में बिठाए रखा.

सोने से पहले उन के बीच खुसुरफुसुर हो रही थी. वे लोग अगवा किए गए बच्चों की बात कर

रहे थे.

एक नक्सली कह रहा था, ‘‘पुलिस हमारे पीछे पड़ गई है.’’

‘‘तो ठीक है, इस बार हम सारा हिसाबकिताब बराबर कर लेते हैं,’’ दूसरा नक्सली कह रहा था.

‘‘पूरे रास्ते में बारूदी सुरंग बिछा दी जाएंगी. उन के साथ जितने भी जवान होंगे, सभी मारे जाएंगे और अपना बदला भी पूरा हो जाएगा.’’

इस गुप्त योजना पर नक्सलियों की सहमति हो गई.

सालबनी आंखें बंद किए ऐसे बैठी थी जैसे उन की बातों पर उस का ध्यान नहीं है लेकिन वह उन की बातों को गौर से सुन रही थी. फिर बैठेबैठे वह न जाने कब सो गई. सुबह जब उस की नींद खुली तो देखा कि संजय पाहन उस के बगल में सो रहा था. वह हड़बड़ा कर उठ गई.

तब तक संजय पाहन की भी नींद खुल गई. उस ने हंसते हुए सालबनी को अपनी बांहों में जकड़ना चाहा. उस के पीले दांत भद्दे लग रहे थे जिन्हें देख कर सालबनी अंदर तक कांप गई.

सुबह संजय पाहन ने सालबनी से जल्दी खाना बनाने को कहा. खाना खाने के बाद वे लोग तैयार हो कर निकल गए. सालबनी भी उन के साथ थी.

उस दिन जंगल में घुसने वाले मुख्य रास्ते पर बारूदी सुरंग बिछा कर वे लोग अपने अड्डे पर लौट आए.

मौत के सौदागरों का खतरनाक खेल देख कर सालबनी की रूह कांप गई. उस ने मन ही मन ठान लिया कि चाहे जो हो जाए, वह इन्हें छोड़ेगी नहीं. वह मौका तलाशने लगी.

खाना बनाने का काम सालबनी का था. रात के समय वह खाना बनाने के साथ ही साथ भागने का जुगाड़ भी बिठा रही थी. खाना खा कर जब सभी सोने की तैयारी करने लगे तो उन के सामने सवाल खड़ा हो गया कि आज रात सालबनी किस के साथ सोएगी. संजय पाहन ने सब से पहले सालबनी का हाथ पकड़ लिया.

‘‘इस लड़की को मैं लाया हूं, इसे मैं ही अपने साथ रखूंगा.’’

‘‘क्या यह तुम्हारी जोरू है, जो रोज रात को तुम्हारे साथ ही सोएगी? आज की रात यह मेरे साथ रहेगी,’’ दूसरा बोला और इतना कह कर वह सालबनी का हाथ पकड़ कर अपने साथ ले जाने लगा.

संजय पाहन ने फुरती से सालबनी का हाथ उस से छुड़ा लिया. इस के बाद सभी नक्सली सालबनी को अपने साथ सुलाने को ले कर आपस में ही एकदूसरे पर पिल पड़े, वे मरनेमारने पर उतारू हो गए.

इसी बीच मौका देख कर सालबनी अंधेरे का फायदा उठा कर भाग निकली.

वह पूरी रात तेज रफ्तार से भागती रही. भौर का उजाला फैलने लगा था. दम साधने के लिए वह एक ऊंचे

टीले की ओट में छिप कर खड़ी हो गई और आसपास के हालात का जायजा लेने लगी.

सालबनी को जल्दी ही यह महसूस हो गया कि वह जहां खड़ी है, उस का गांव अब वहां से महज 2-3 किलोमीटर की दूरी पर रह गया है. मारे खुशी के उस की आंखों में आंसू आ गए.

सालबनी डर भी रही थी कि अगर गांव में गई तो कोई फिर से उस की मुखबिरी कर के पकड़वा देगा. वह समझदार और तेजतर्रार थी. पूछतेपाछते सीधे सुंदरपुर थाने पहुंच गई.

जैसे ही सालबनी थाने पहुंची, रातभर भागते रहने के चलते थक कर चूर हो गई और बेहोश हो कर गिर पड़ी.

सुंदरपुर थाने के प्रभारी बहुत ही नेक पुलिस अफसर थे. यहां के नक्सलियों का जायजा लेने के लिए कुछ दिन पहले ही वे यहां ट्रांसफर हुए थे. उन्होंने उस अनजान लड़की को थाने में घुसते देख लिया था. पानी मंगा कर मुंह पर छींटे मारे. वे उसे होश में लाने की कोशिश करने लगे.

सालबनी को जैसे ही होश आया, पहले पानी पिलाया. वह थोड़ा ठीक हुई, फिर एक ही सांस में सारी बात बता दी.

थाना प्रभारी यह सुन कर सकते में आ गए. उन्हें इस बात की गुप्त जानकारी अपने बड़े अफसरों से मिली थी कि डुमरिया स्कूल के अगवा किए गए छात्रछात्राओं का पता लगाने के लिए गांव से सटे पहाड़ी जंगलों में आज रात 10 बजे से पुलिस आपरेशन होने वाला है. लेकिन पुलिस को मारने के लिए नक्सलियों ने बारूदी सुरंग बिछाई है, यह जानकारी नहीं थी.

उन्होंने सालबनी से थोड़ा सख्त लहजे में पूछा, ‘‘सचसच बताओ लड़की, तुम कोई साजिश तो नहीं

कर रही, नहीं तो मैं तुम्हें जेल में बंद

कर दूंगा?’’

‘‘आप मेरे साथ चलिए, उन लोगों

ने कहांकहां पर क्याक्या किया है, वह सब मैं आप को दिखा दूंगी,’’ सालबनी ने कहा.

थाना प्रभारी ने तुरंत ही अपने से बड़े अफसरों को फोन लगाया. मामला गंभीर था. देखते ही देखते पूरी फौज सुंदरपुर थाने में जमा हो गई. बारूदी सुरंग नाकाम करने वाले लोग भी आ गए थे.

सालबनी ने वह जगह दिखा दी, जहां बारूदी सुरंग बिछाई गई थी. सब से पहले उसे डिफ्यूज किया गया.

सालबनी ने नक्सलियों का गुप्त ठिकाना भी दिखा दिया. वहां पर पुलिस ने रेड डाली, पर इस से पहले ही नक्सली वहां से फरार हो गए थे. वहां से अगवा किए गए छात्रछात्राएं तो नहीं मिले, मगर उन के असलहे, तार, हथियार और नक्सली साहित्य की किताबें जरूर बरामद हुईं.

इस तरह सालबनी की बहादुरी और समझदारी से एक बहुत बड़ा हादसा होतेहोते टल गया.

व्यंग्य: मैं ऐसी क्यों हूं

जमानाकहां से कहां पहुंच गया पर मिसेज शर्मा अभी भी पुरानी सदी का अजूबा हैं. मगर सम?ाती अपनेआप को मौडर्न. यह बात और है कि नईनई चीजों से उन्हें डर लगता है, पर पंगा घर में आने वाली हर नई वस्तु से लेना होता है. फिर चाहे वह स्मार्ट फोन हो, आईपौड हो या सीडी अथवा डीवीडी प्लेयर. वैसे तो अब ये सब आउट औफ फैशन हो गए हैं.

कितना हसीन था वह दिन जब शर्मा परिवार तैयार हो कर स्मार्ट फोन लेने गया था. एक तूफान से बेखबर बच्चों ने स्मार्ट फोन पसंद कर लिया और घर पहुंचतेपहुंचते उस का असर मिसेज शर्मा के सिर चढ़ कर बोलने लगा था.

जैसे ही फोन की घंटी बजी तो उन्होंने ऐसे चौंक कर उठाया मानो वह कोई बम हो, जो अगर जल्दी नहीं उठाया तो फट जाएगा.

बच्चे भी बातबात पर कहते, ‘‘ममा, क्या होगा आप का?’’

‘‘अब क्या होना,’’ एक लंबी सांस खींच कर वे कहतीं, ‘‘मेरा जो होना था वह हो गया है.’’

बच्चों ने सम?ाया, ‘‘ममा यह स्मार्ट फोन है.’’

‘‘लो अब बोलो. स्मार्ट तो इंसान होते हैं… कहीं फोन भी स्मार्ट होते हैं? अब इस फोन में ऐसा क्या है, जो मु?ा में नहीं?’’ मिसेज शर्मा तुनक कर बोलीं.

तब बच्चों ने सम?ाया, ‘‘इस में सोशल नैटवर्किंग होती है जैसे फेसबुक, ट्विटर, याहू कर सकते हैं.’’

‘‘लो बोलो ‘याहू’ तो मैं भी कर सकती हूं शम्मी कपूर को मैं ने एक पिक्चर में ‘याहू’ करते देखा है. फेसबुक पर क्या होता है?’’ उन्होंने पूछा.

‘‘उस पर हम अपने दोस्तों के साथ चैटिंग कर सकते हैं. कमैंट्स पढ़ते हैं.’’ बच्चों ने बताया.

‘‘अच्छा, हमारी किट्टी पार्टी की तरह.’’

‘‘ममा, क्या होगा आप का? कहां स्मार्ट फोन और कहां किट्टी पार्टी.’’

मिसेज शर्मा ने बच्चों को समझया, ‘‘किट्टी पार्टी में भी तो हम एक

से एक नए कपड़े पहन कर जाते हैं ताकि बाकी तारीफ करने वाली महिलाएं तारीफ करें और जलने वाली जलें… चैटिंग तो हम भी करते हैं. आप लोग जो स्टेटस डालते हो वह तो पुराना हो जाता है. हमारा तो लाइव टैलीकास्ट होता है. जलवा दिखाओ और हैंड टू हैंड कमैंट्स ले लो.’’

‘‘ममा, आप कहां की बात कहां ले जाती हैं.’’

जब बच्चे पहली बार लैप्पी यानी लैपटौप ले कर आए तो फिर उन के दिमाग ने उस के सिगनल पकड़ने शुरू कर दिए.

उन्होंने उसे बड़े प्यार से उठाया और अपनी गोद में बैठाया जैसे छोटे बच्चे को बैठाते हैं. फिर उसे गरदन गिरागिरा कर देखने लगीं. समझ नहीं आ रहा था कि कैसे चलेगा? जब 15-20 मिनट की जद्दोजेहद के बाद भी नहीं चला पाईं तो बच्चों ने फिर ममा, ‘‘क्या होगा आप का?’’ डायलौग दोहराया. फिर उन के प्लीज कहते ही उन्होंने पलक झपकते उसे चला दिया. वे उन के टेक सेवी होने पर बलिहारी हो गईं. पर फिर वही मुसीबत कि अब क्या करूं? कंप्यूटर को तो माउस घुमाघुमा कर चला लेती थीं, गाने सुन लेती थीं, गेम खेल लेती थीं.

पर इस माउस ने उन्हें बहुत दौड़ाया. उन की चीखें निकाली हैं. अकसर उन का और माउस का आमनासामना रसोई में हो जाता था. फिर तो ‘आज तू नहीं या मैं नहीं’ वाली स्थिति उत्पन्न हो जाती थी पर जीत हमेशा उस की ही होती थी. पर कंप्यूटर के माउस को उन्होंने खूब घुमाया और अपना बदला पूरा किया.

अब इस लैप्पी के ‘टचपैड’ को कैसे औपरेट करूं? गाने सुनना चाहती हूं तो वह गेम खोल देता है. सिर खुजाखुजा कर वे परेशान हो गई थीं. तभी हाथ से चाय का प्याला छलका और चाय लैपटौप पर जा गिरी. बच्चों को पता न चले इसलिए फटाफट उसे धोने चली गईं और फिर धो कर अच्छी तरह कपड़े से सुखा दिया.

पर यह क्या? लैप्पी को तो जैसे किसी की नजर लग गई? वह चल ही नहीं रहा था यानी उसे मिसेज शर्मा की हाय. ओ नहीं, चाय लग गई थी. 2 दिन लैप्पी कंप्यूटर क्लीनिक में रह कर आया, बेचारा. तभी चलने लायक हुआ.

तब बच्चों ने फरमान सुनाया, ‘‘ममा, अब आप इस से दूर ही रहना.’’

पर अब लगता है उन का सीपीयू कुछकुछ काम कर रहा है और इस का नैटवर्क अलग ही सिगनल पकड़ रहा है, उड़तीउड़ती खबर सुनी है कि घर में ‘आईपैड’ आने वाला है यानी अब उन का बेड़ा पार है और आईपैड का बंटाधार है.

मैं चुप रहूंगी: विजय की असलियत जब उसकी पत्नी की सहेली को पता चली

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मैं चुप रहूंगी – भाग 3 : विजय की असलियत जब उसकी पत्नी की सहेली को पता चली

मैं दिल्ली लौट आई. मन में तूफान समाया था. बेचैनी जब असहनीय हो गई तो मुझे लगा कि मीनाक्षी को सब कुछ बता देना चाहिए. वह मेरे बचपन की सहेली है, उसे अंधेरे में रखना ठीक नहीं. उस के साथ हो रहे धोखे से उसे बचाना मेरा फर्ज है. मैं अनमनी सी मीनाक्षी के घर जा पहुंची. मुझे देखते ही वह हमेशा की भांति खिल उठी. उस की वही बातें फिर शुरू हो गईं. कल ही विजय का फोन आया था. उस के भेजे क्व50 हजार अभी थोड़ी देर पहले ही मिले हैं. विजय अपने अकेलेपन से बहुत परेशान है. हम दोनों को बहुत याद करता है. दोनों की पलपल चिंता करता है वगैरहवगैरह. एक पतिव्रता पत्नी की भांति उस की दुनिया विजय से शुरू हो कर विजय पर ही खत्म हो जाती है.

मेरे दिमाग पर जैसे कोई हथौड़े चला रहा था. विजय की सफल अदाकारी से मन परेशान हो रहा था. लेकिन जबान तालू से चिपक गई. मुझे लगा मेरे मुंह खोलते ही सामने का दृश्य बदल जाएगा. क्या मीनाक्षी, विजय के बिना जी पाएगी? क्या होगा उस के बेटे विशु का?

मैं चुपचाप यहां से भी चली आई ताकि मीनाक्षी का भ्रम बना रहे. उस की मांग में सिंदूर सजा रहे. उस का घरसंसार बसा रहे. लेकिन कब तक?

‘सदा सच का साथ दो’, ‘सदा सच बोलो’, और न जाने कितने ही ऐसे आदर्श वाक्य दिनरात मेरे कानों में गूंजने लगे हैं, लेकिन मैं उन्हें अनसुना कर रही हूं. मैं उन के अर्थ समझना ही नहीं चाहती, क्योंकि कभी मीनाक्षी और कभी स्मृति का चेहरा मेरी आंखों के आगे घूमता रहता है. मैं उन के खिले चेहरों पर मातम की काली छाया नहीं देख पाऊंगी.

पता नहीं मैं सही हूं या गलत? हो सकता है कल दोनों ही मुझे गलत समझें. लेकिन मुझ से नहीं हो पाएगा. मैं तब तक चुप रहूंगी जब तक विजय का नाटक सफलतापूर्वक चलता रहेगा. परदा उठने के बाद तो आंसू ही आंसू रह जाने हैं, मीनाक्षी की आंखों में, स्मृति की आंखों में, सेठ अमृतलाल की आंखों में और स्वयं मेरी भी आंखों में. फिर भला विजय भी कहां बच पाएगा? डूब जाएगा आंसुओं के उस सागर में.

मैं चुप रहूंगी – भाग 2 : विजय की असलियत जब उसकी पत्नी की सहेली को पता चली

गार्ड का कहना ठीक था. उस नई बसी कालोनी में जहां इक्कादुक्का कोठियां ही खड़ी थीं, हलके गुलाबी रंग की टाइलों वाली एक ही कोठी ऐसी थी जिस पर नजर नहीं टिकती थी. कोठी के गेट पर पहुंचते ही नजर नेम प्लेट पर पड़ी. सुनहरे अक्षरों में लिखा था ‘विजय’ हालांकि अब विजय का व्यक्तित्व मेरी नजर में इतना सुनहरा नहीं रह गया था.

औटो वाले को रुकने के लिए कह कर जैसे ही मैं आगे बढ़ी, गेट पर खड़े गार्ड ने पहले तो मुझे सलाम किया, फिर पूछा कि किस से मिलना है और मेरा नामपता क्या है?

‘‘मैं एक अखबार के दफ्तर से आई हूं.

मुझे तुम्हारे विजय साहब का इंटरव्यू लेना है,’’ कहते हुए मैं ने अपना पहचानपत्र उस के सामने रख दिया.

‘‘साहब तो इस समय औफिस में हैं.’’

‘‘घर में कोई तो होगा जिस से मैं बात कर सकूं?’’

‘‘मैडम हैं. पर आप रुकिए मैं उन से पूछता हूं,’’ कह उस ने इंटरकौम द्वारा विजय की पत्नी से बात की. फिर उस से मेरी भी बात करवाई. मेरे बताने पर मुझे अंदर जाने की इजाजत मिल गई.

अंदर पहुंचते ही मेरा स्वागत एक 25-26 वर्ष की बहुत ही सुंदर युवती ने किया. दूध जैसा सफेद रंग, लाललाल गाल, ऊंचा कद, तन पर कीमती गहने, कीमती साड़ी. गुलाबी होंठों पर मधुर मुसकान बिखेरते हुए वह बोली, ‘‘नमस्ते, मैं स्मृति हूं. विजय की पत्नी.’’

‘‘आप से मिल कर बहुत खुशी हुई. विजय साहब तो हैं नहीं. मैं आप से ही बातचीत कर के उन के बारे में कुछ जानकारी हासिल कर लेती हूं,’’ मैं ने कहा.

‘‘जी जरूर,’’ कहते हुए उस ने मुझे सोफे पर बैठने का इशारा किया. मेरे बैठते ही वह भी मेरे पास ही सोफे पर बैठ गई.

इतने में नौकर टे्र में कोल्डड्रिंक ले आया. मुझे वास्तव में इस की जरूरत थी. बिना कुछ कहे मैं ने हाथ बढ़ा कर एक गिलास उठा लिया. फिर जैसेजैसे स्मृति से बातों का सिलसिला आगे बढ़ता गया, वैसेवैसे विजय की कहानी पर पड़ी धूल की परतें साफ होती गईं.

स्मृति विजय को कालेज के समय से जानती है. कालेज में ही दोनों ने शादी करना तय कर लिया था. विजय का तो अपना कोई है नहीं, लेकिन स्मृति के पिता, सेठ अमृतलाल को यह रिश्ता स्वीकार नहीं था. उन का कहना था कि विजय मात्र उन के पैसों की लालच में स्मृति से प्रेम का नाटक करता है. कितनी पारखी है सेठ की नजर, काश स्मृति ने उन की बात मान ली होती. वे स्मृति की शादी अपने दोस्त के बेटे से करना चाहते थे, जो अमेरिका में रहता था. लेकिन स्मृति तो विजय की दीवानी थी.

वाह विजय वाह, इधर स्मृति, उधर मीनाक्षी. 2-2 आदर्श, पतिव्रता पत्नियों का एकमात्र पति विजय, जिस के अभिनयकौशल की जितनी भी तारीफ की जाए कम है. स्मृति से थोड़ी देर की बातचीत में ही मेरे समक्ष पूरा घटनाक्रम स्पष्ट हो गया. हुआ यों कि जिन दिनों स्मृति को उस के पिता जबरदस्ती अमेरिका ले गए थे, विजय घबरा कर मुंबई की नौकरी छोड़ दिल्ली आ गया था और दिल्ली में उस ने मीनाक्षी से शादी कर ली. उधर अमेरिका पहुंचते ही सेठ ने स्मृति की सगाई कर दी, लेकिन स्मृति विजय को भुला नहीं पा रही थी. उस ने अपने मंगेतर को सब कुछ साफसाफ बता दिया. पता नहीं उस के मंगेतर की अपने जीवन की कहानी इस से मिलतीजुलती थी या उसे स्मृति की स्पष्टवादिता भा गई थी, उस ने स्मृति से शादी करने से इनकार कर दिया.

स्मृति की शादी की बात तो बनी नहीं थी. अत: वे दोनों यूरोप घूमने निकल गए. उस दौरान स्मृति ने विजय से कई बार संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन बात नहीं बनी, क्योंकि विजय मुंबई छोड़ चुका था. 6 महीनों बाद जब वे मुंबई लौटे तो विजय को बहुत ढूंढ़ा गया, लेकिन सब बेकार रहा. स्मृति विजय के लिए परेशान रहती थी और उस के पिता उस की शादी को ले कर परेशान रहते थे.

एक दिन अचानक विजय से उस की मुलाकात हो गई. स्मृति बिना शादी किए लौट आई है, यह जान कर विजय हैरानपरेशान हो गया. उस की आंखों में स्मृति से शादी कर के करोड़पति बनने का सपना फिर से तैरने लगा.

मेरे पूछने पर स्मृति ने शरमाते हुए बताया कि उन की शादी को मात्र 5 महीने हुए हैं. मन में आया कि इसी पल उसे सब कुछ बता दूं. धोखेबाज विजय की कलई खोल कर रख दूं. स्मृति को बता दूं कि उस के साथ कितना बड़ा धोखा हुआ है. लेकिन मैं ऐसा न कर सकी. उस के मधुर व्यवहार, उस के चेहरे की मुसकान, उस की मांग में भरे सिंदूर ने मुझे ऐसा करने से रोक दिया.

मेरे एक वाक्य से यह बहार, पतझड़ में बदल जाती. अत: मैं अपने को इस के लिए तैयार नहीं कर पाई. यह जानते हुए भी कि यह सब गलत है, धोखा है मेरी जबान मेरा साथ नहीं दे रही थी. एक तरफ पलदोपल की पहचान वाली स्मृति थी तो दूसरी तरफ मेरे बचपन की सहेली मीनाक्षी. मेरे लिए किसी एक का साथ देना कठिन हो गया. मैं तुरंत वहां से चल दी. स्मृति पूछती ही रह गई कि विजय के बारे में यह सब किस अखबार में, किस दिन छपेगा? खबर तो छपने लायक ही हाथ लगी थी, लेकिन इतनी गरम थी कि इस से स्मृति का घरसंसार जल जाता. उस की आंच से मीनाक्षी भी कहां बच पाती. ‘बाद में बताऊंगी’ कह कर मैं तेज कदमों से बाहर आ गई.

मैं चुप रहूंगी – भाग 1: विजय की असलियत जब उसकी पत्नी की सहेली को पता चली

पिछले दिनों मैं दीदी के बेटे नीरज के मुंडन पर मुंबई गई थी. एक दोपहर दीदी मुझे बाजार ले गईं. वे मेरे लिए मेरी पसंद का तोहफा खरीदना चाहती थीं. कपड़ों के एक बड़े शोरूम से जैसे ही हम दोनों बाहर निकलीं, एक गाड़ी हमारे सामने आ कर रुकी. उस से उतरने वाला युवक कोई और नहीं, विजय ही था. मैं उसे देख कर पल भर को ठिठक गई. वह भी मुझे देख कर एकाएक चौंक गया. इस से पहले कि मैं उस के पास जाती या कुछ पूछती वह तुरंत गाड़ी में बैठा और मेरी आंखों से ओझल हो गया. वह पक्का विजय ही था, लेकिन मेरी जानकारी के हिसाब से तो वह इन दिनों अमेरिका में है. मुंबई आने से 2 दिन पहले ही तो मैं मीनाक्षी से मिली थी.

उस दिन मीनाक्षी का जन्मदिन था. हम दोनों दिन भर साथ रही थीं. उस ने हमेशा की तरह अपने पति विजय के बारे में ढेर सारी बातें भी की थीं. उस ने ही तो बताया था कि उसी सुबह विजय का अमेरिका से जन्मदिन की मुबारकबाद का फोन आया था. विजय के वापस आने या अचानक मुंबई जाने के बारे में तो कोई बात ही नहीं हुई थी.

लेकिन विजय जिस तरह से मुझे देख कर चौंका था उस के चेहरे के भाव बता रहे थे कि उस ने भी मुझे पहचान लिया था. आज भी उस की गाड़ी का नंबर मुझे याद है. मैं उस के बारे में और जानकारी प्राप्त करना चाहती थी. लेकिन उसी शाम मुझे वापस दिल्ली आना था, टिकट जो बुक था. दीदी से इस बारे में कहती तो वे इन झमेलों में पड़ने वाले स्वभाव की नहीं हैं. तुरंत कह देतीं कि तुम अखबार वालों की यही तो खराबी है कि हर जगह खबर की तलाश में रहते हो.

दिल्ली आ कर मैं अगले ही दिन मीनाक्षी के घर गई. मन में उस घटना को ले कर जो संशय था मैं उसे दूर करना चाहती थी. मीनाक्षी से मिल कर ढेरों बातें हुईं. बातों ही बातों में प्राप्त जानकारी ने मेरे मन में छाए संशय को और गहरा दिया. मीनाक्षी ने बताया कि लगभग 6 महीनों से जब से विजय काम के सिलसिले में अमेरिका गया है उस ने कभी कोई पत्र तो नहीं लिखा हां दूसरे, चौथे दिन फोन पर बातें जरूर होती रहती हैं. विजय का कोई फोन नंबर मीनाक्षी के पास नहीं है, फोन हमेशा विजय ही करता है. विजय वहां रह कर ग्रीन कार्ड प्राप्त करने के जुगाड़ में है, जिस के मिलते ही वह मीनाक्षी और अपने बेटे विशु को भी वहीं बुला लेगा. अब पता नहीं इस के लिए कितने वर्ष लग जाएंगे.

मैं ने बातों ही बातों में मीनाक्षी को बहुत कुरेदा, लेकिन उसे अपने पति पर, उस के प्यार पर, उस की वफा पर पूरा भरोसा है. उस का मानना है कि वह वहां से दिनरात मेहनत कर के इतना पैसा भेज रहा है कि यदि ग्रीन कार्ड न भी मिले तो यहां वापस आने पर वे अच्छा जीवन बिता सकते हैं. कितन भोली है मीनाक्षी जो कहती है कि जीवन में आगे बढ़ने के लिए ऐसी चुनौतियों को स्वीकार करना ही पड़ता है.

मीनाक्षी की बातें सुन कर, उस का विश्वास देख कर मैं उसे अभी कुछ बताना नहीं चाह रही थी, लेकिन मेरी रातों की नींद उड़ गई थी. मैं ने दोबारा मुंबई जाने का विचार बनाया, लेकिन दीदी को क्या कहूंगी? नीरज के मुंडन पर दीदी के कितने आग्रह पर तो मैं वहां गई थी और अब 1 सप्ताह बाद यों ही पहुंच गई. मेरी चाह को राह मिल ही गई. अगले ही सप्ताह मुंबई में होने वाले फिल्मी सितारों के एक बड़े कार्यक्रम को कवर करने का काम अखबार ने मुझे सौंप दिया और मैं मुंबई पहुंच गई.

वहां पहुंचते ही सब से पहले अथौरिटी से कार का नंबर बता कर गाड़ी वाले का नामपता मालूम किया. वह गाड़ी किसी अमृतलाल के नाम पर थी, जो बहुत बड़ी कपड़ा मिल का मालिक है. इस जानकारी से मेरी जांच को झटका अवश्य लगा, लेकिन मैं ने चैन की सांस ली. मुझे यकीन होने लगा कि मैं ने जो आंखों से देखा था वह गलत था. चलो, मीनाक्षी का जीवन बरबाद होने से बच गया. मैं फिल्मी सितारों के कार्यक्रम की रिपोर्टिंग में व्यस्त हो गई.

एक सुबह जैसे ही मेरा औटो लालबत्ती पर रुका, बगल में वही गाड़ी आ कर खड़ी हो गई. गाड़ी के अंदर नजर पड़ी तो देखा गाड़ी विजय ही चला रहा था. लेकिन जब तक मैं कुछ करती हरीबत्ती हो गई और वाहन अपने गंतव्य की ओर दौड़ने लगे. मैं ने तुरंत औटो वाले को उस सफेद गाड़ी का पीछा करने के लिए कहा. लेकिन जब तक आटो वाला कुछ समझता वह गाड़ी काफी आगे निकल गई थी. फिर भी उस अनजान शहर के उन अनजान रास्तों पर मैं उस कार का पीछा कर रही थी. तभी मैं ने देखा वह गाड़ी आगे जा कर एक बिल्डिंग में दाखिल हो गई. कुछ पलों के बाद मैं भी उस बिल्डिंग के गेट पर थी. गार्ड जो अभी उस गाड़ी के अंदर जाने के बाद गेट बंद ही कर रहा था मुझे देख कर पूछने लगा, ‘‘मेमसाहब, किस से मिलना है? क्या काम है?’’

‘‘यह अभी जो गाड़ी अंदर गई है वह?’’

‘‘वे बड़े साहब के दामाद हैं, मेमसाहब.’’

‘‘वे विजय साहब थे न?’’

‘‘हां, मेमसाहब. आप क्या उन्हें जानती हैं?’’

गार्ड के मुंह से हां सुनते ही मुझे लगा भूचाल आ गया है. मैं अंदर तक हिल गई. विजय, मिल मालिक अमृत लाल का दामाद? लेकिन यह कैसे हो सकता है? बड़ी मुश्किल से हिम्मत बटोर कर मैं ने कहा, ‘‘देखो, मैं जर्नलिस्ट हूं, अखबार के दफ्तर से आई हूं, तुम्हारे विजय साहब का इंटरव्यू लेना चाहती हूं. क्या मैं अंदर जा सकती हूं?’’

‘‘मेमसाहब, इस वक्त तो अंदर एक जरूरी मीटिंग हो रही है, उसी के लिए विजय साहब भी आए हैं. अंदर और भी बहुत बड़ेबड़े साहब लोग जमा हैं. आप शाम को उन के घर में उन से मिल लेना.’’

‘‘घर में?’’ मैं सोच में पड़ गई. अब भला घर का पता कहां से मिलेगा?

लगता था गार्ड मेरी दुविधा समझ गया. अत: तुरंत बोला, ‘‘अब तो घर भी पास ही है. इस हाईवे के उस तरफ नई बसी कालोनी में सब से बड़ी और आलीशान कोठी साहब की ही है.’’

मेरे लिए इतनी जानकारी काफी थी. मैं ने तुरंत औटो वाले को हाईवे के उस पार चलने के लिए कहा. विजय और उस का सेठ इस समय मीटिंग में हैं. यह अच्छा अवसर था विजय के बारे में जानकारी हासिल करने का. विजय से बात करने पर हो सकता है वह पहचानने से ही इनकार कर दे.

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