संक्रमण: क्या हुआ लीलाधर के परिवार के साथ

लेखक- पुखराज सोलंकी

अपने गांव से मीलों दूर दिल्ली शहर के इंडस्ट्रियल एरिया की एक फैक्टरी में काम कर रहा लीलाधर इस बार शहर आते समय अपनी गर्भवती पत्नी रुक्मिणी और 4 साल की मुनिया से वादा कर के आया था कि अगली बार हमेशा की तुलना में जल्दी ही गांव लौटेगा.

समयसमय पर रुक्मिणी की खैरखबर लेने के लिए आने वाली  ‘आशा दीदी’ ने भी अप्रैल की ही तारीख बताते हुए लीलाधर से कहा था, ‘ऐसे समय में तुम्हारा यहां होना बेहद जरूरी है.’

जवाब में लीलाधर बोला था, ‘मैं तो उस से पहले ही पहुंच जाऊंगा, बस मार्च के महीने में काम का कुछ ज्यादा ही दबाव रहता है, जिस के चलते साहब लोग छुट्टी नहीं देते हैं. लेकिन उस के बाद लंबी छुट्टी पर ही आऊंगा और आते समय मुनिया, उस की मम्मी और नए आने वाले बच्चे के लिए कुछ कपड़ेलत्ते भी तो लाने हैं न.’

लौकडाउन के दौरान उस काट खाने वाले कमरे में छत को घूरते हुए लीलाधर अपनी यादों में खोया हुआ यह सब सोच ही रहा था कि कुंडी के खड़कने से उस की तंद्रा टूटी.

लुंगी लपेटते हुए दरवाजा खोला, तो सामने फैक्टरी का सुपरवाइजर खड़ा था. वह बाहर खड़ेखड़े ही बोला, ‘‘कुछ जुगाड़ बिठाया कि नहीं गांव जाने का? फैक्टरी अभी बंद है और मालिक भी किसकिस को घर से खिलाएगा…

‘‘यह पकड़ 500 रुपए, मालिक ने भेजे हैं… और आज शाम तक कमरा खाली कर देना. बाकी का हिसाब वापसी पर ही होगा.’’

यह सुन कर लीलाधर को एक बार तो ऐसा लगा, जैसे इस कोरोना वायरस ने उस के भविष्य के सपनों को अभी से ही संक्रमित करना शुरू कर दिया हो. अब कोई और चारा भी नहीं था, लिहाजा कमरा खाली करना पड़ा. अब जाएं तो जाएं कहां… न बस, न ट्रेन. जेब में 500 रुपए का नोट और कुछ 5-10 के सिक्के. अब अगर यहां रुका, तो जो पैसे हैं, वे भी खर्च हो जाएंगे.

यही सब सोचतेविचारते लीलाधर ने आखिरकार फैसला कर ही लिया और घर पर रुक्मिणी को फोन किया, ‘‘1-2 दिन में कुछ जुगाड़ बिठा कर गांव के लिए निकल जाऊंगा. तुम अपना और मुनिया का खयाल रखना, हाथ धोते रहना और उसे बाहर मत निकलने देना.’’

अपने घर आने की खबर रुक्मिणी को दे कर लीलाधर निकल पड़ा नैशनल हाईवे पर. मन ही मन उस ने हिसाब भी लगा लिया कि 24 घंटों में अगर 16 घंटे भी लगातार चला, तो 7-8 दिनों में तो गांव पहुंच ही जाएगा. उस ने ठान लिया था कि अब वह पैदल ही इस सफर को पूरा करेगा.

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लीलाधर के घर की तरफ बढ़ते कदमों में एक अलग ही जोश था. उसे बस इस बात का मलाल था कि वह मुनिया और नए बच्चे के लिए कुछ कपड़ेलत्ते और खिलौने नहीं खरीद सका.

सफर तय करतेकरते लीलाधर रुक्मिणी से फोन पर बात करते हुए बोला, ‘‘मेरे फोन की बैटरी डाउन होने लगी है. बाद में अगर फोन न कर पाऊं, तो परेशान मत होना. बस, कुछ ही दिनों की बात है, जल्दी ही सफर तय करूंगा.’’

सफर के दौरान लीलाधर ने रुक्मिणी को लौकडाउन की वजह से शहर में हो रही परेशानियों और पाबंदियों के बारे में तो बताया था, लेकिन यह नहीं बताया कि वह पैदल ही गांव पहुंच रहा है. बताता भी कैसे, उसे डर था कि रुक्मिणी कहीं मना न कर दे.

लीलाधर लगातार चलता रहा. उस के आगेपीछे जो लोग चल रहे थे, धीरेधीरे उन की तादाद कम होती गई. दिल्ली के आसपास के इलाकों वाले लोग अपनी मंजिल तक पहुंच चुके थे, लेकिन उस का चलना जारी था.

उधर, 4-5 दिन बीतने पर रुक्मिणी को घर से बाहर होने वाली हर आहट पर यही लगता कि शायद अब लीलाधर आया हो. फोन लगना तो कब का बंद हो चुका था. एक तो लौकडाउन और ऊपर से यह इंतजार, वह दोहरी मार  झेल रही थी. दिन में तो चलो जैसेतैसे मुनिया और मांबाबा के साथ समय निकल जाता, लेकिन रात होतेहोते उसे बेचैनी सी

होने लगती. बात करने के लिए फोन उठाती, लेकिन लीलाधर का फोन स्विच औफ मिलता.

अगले दिन सुबहसुबह जब घर की कुंडी खड़की, तो मुनिया खुशी से चहकी, ‘‘पापा आ गए… पापा आ गए…’’

घर में मांबाबा समेत सब के चेहरे पर खुशी के भाव साफ दिखने लगे थे. हाथों का काम छोड़ कर रुक्मिणी दरवाजे की तरफ दौड़ी. चुन्नी का पल्लू अपने सिर पर रख के उस ने दरवाजा खोला, तो सामने दारोगा साहब थे.

‘‘लीलाधर का घर यही है?’’

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‘‘जी, यही है.’’

‘‘क्या लगती हैं आप उन की?’’

रुक्मिणी पास खड़ी मुनिया की तरफ इशारा करते हुए बोली, ‘‘जी, इस के पापा हैं.’’

‘‘घर में कोई और है बड़ा?’’ दारोगा ने पूछा.

बातचीत सुन कर मुनिया के बाबा बाहर की तरफ आए और बोले, ‘‘क्या बात है दारोगा साहब? रुक्मिणी बेटी, तुम अंदर जाओ.’’

रुक्मिणी मुनिया को ले कर अंदर तो चली गई, लेकिन उस के कानों ने अभी भी दरवाजे पर हो रही गुफ्तगू का पीछा नहीं छोड़ा था.

‘‘जी, आप कौन?’’ दारोगा ने पूछा.

‘‘मैं लीलाधर का पिता हूं.’’

दारोगा ने हाथ में थाम रखा डंडा बगल में दबा कर अपनी टोपी उतारते हुए कहा, ‘‘बहुत अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि लीलाधर अब इस दुनिया में नहीं रहा. नैशनल हाईवे पर रात के समय गश्त पर गए पुलिस दस्ते को सड़क पर एक लहूलुहान हालत में लाश पड़ी मिली. शायद किसी गाड़ी ने टक्कर मार दी थी. शिनाख्त के दौरान जेब व बैग में मिले कुछ कागजों की वजह से ही हम यहां तक पहुंच पाए हैं. लाश फिलहाल मुरदाघर में रखी हुई है.’’

यह सुनते ही बूढ़े पिता की टांगों ने जवाब दे दिया. दरवाजा पकड़ कर खड़े रहने की हिम्मत जुटाई, क्योंकि बहू के आगे वे ऐसा करेंगे तो फिर उस को कौन संभालेगा.

उधर दारोगा के आते ही रुक्मिणी को भी कुछ अनहोनी का अंदेशा होने लगा था. वह अंदर थी, लेकिन उस के कान आसानी से बातचीत सुन पा रहे थे.

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‘‘हिम्मत रखिए और बताएं कि इतनी रात को आप का बेटा कैसे इतनी दूर निकल गया था? क्या घर में कोई बात हुई थी?’’ दारोगा ने सवाल किया.

‘‘हमारी किस्मत फूटी थी, जो उसे रोजगार के लिए दिल्ली भेजा. वह तो नहीं आया, लेकिन आप…’’

तभी लीलाधर की मां चिल्लाईं, ‘‘अरे.. कोई बचाओ, मुनिया की मां उसे ले कर कुएं में कूद गई है.’

दारोगा साहब अंदर की तरफ दौड़े, पीछेपीछे लीलाधर के पिता भी आए. दारोगा ने बाहर जीप के पास खड़े अपने सिपाही को आवाज दी. हड़बड़ाहट में किसी को कुछ नहीं सूझ रहा था. जब तक रस्सी का इंतजाम हुआ, तब तक दोनों लाशें पानी के ऊपर तैरने लगी थीं.

लीलाधर और उस का परिवार बिना किसी संक्रमण के हमेशा के लिए लौकडाउन की भेंट चढ़ चुका था.

खुदगर्ज मां: भाग 1- क्या सही था शादी का फैसला

शादी जीवन को एक लय देती है. जैसे बिना साज के आवाज अधूरी है वैसे ही बिन शादी के जीवन अधूरा. जीवनसाथी का साथ अकेलेपन को दूर करता है.

‘‘मां, अब दोनों की जिम्मेदारी तुम्हारे ऊपर है. वैसे भी लड़के के आ जाने के बाद दोनों बेटियों के प्रति मेरा मोह भी कम हो गया है,’’ मां को नानी से यह कहते जब सुना तो मेरी आंखें भर आईं. मां का खत मिला. फोन पर तो लगभग मैं ने उन से बात ही करना बंद कर दिया था. सो, मेरी सहेली अनुराधा के हाथों उन्होंने खत भिजवाया. खत में वही पुरानी गुजारिश थी, ‘‘गीता, शादी कर लो वरना मैं चैन से मर नहीं पाऊंगी.’’ मैं मन ही मन सोचती कि मां तो हम बहनों के लिए उसी दिन मर चुकी थीं जिस दिन उन्होंने हम दोनों को अकेले छोड़ कर शादी रचा ली थी. अब अचानक उन के दिल में मेरी शादी को ले कर ममता कैसे जाग गई. मेहमान भी आ कर एक बार खबर ले लेता है मगर मां तो जैसे हमें भूल ही गई थीं. साल में एकदो बार ही उन का फोन आता. मैं करती तो भी यही कहती बिलावजह फोन कर के मुझे परेशान मत करो, गीता. अब तुम बड़ी हो गई हो. तुम्हें वहां कोई कमी नहीं है. अब उन्हें कैसे समझाती कि सब से बड़ी कमी तो उन की थी हम बहनों को. क्या कोई मां की जगह ले सकता है?

खत पढ़ कर मैं तिलमिला गई. अचानक मन अतीत के पन्नों में उलझ गया. वैसे शायद ही कोई ऐसा दिन होगा जब अतीत को याद कर के मेरे आंसू न बहे हों. मगर मां जब कभी शादी का जिक्र करतीं तो अतीत का जख्म नासूर बन कर रिसने लगता. तब मैं 14 साल की थी. वहीं, मुझ से 2 साल छोटी थी मेरी बहन. उसे सभी छोटी कह कर बुलाते थे. मां ने तभी हमारा साथ छोड़ कर दूसरी शादी कर ली थी. पहले जब मैं मां के लिए रोती तो नानी यही कहतीं कि तेरी मां नौकरी के लिए दिल्ली गई है, आ जाएगी. पर मुझे क्या मालूम था कि कैसे मां और नानी ने मुझ से छल किया.

‘क्यों गई हैं?’ मेरा बालमन पूछता, ‘क्या कमी थी यहां? मामा हम सभी लोगों का खयाल रखते हैं.’ तब नानी बड़े प्यार से मुझे समझातीं, ‘बेटा, तेरे पिता कुछ करतेधरते नहीं. तभी तो तेरी मां यहां रहती है. जरा सोच, तेरे मामा भले ही कुछ नहीं कहते हों मगर तेरी मां को यह बात सालती रहती है कि वह हम पर बोझ है, इसीलिए नौकरी कर के इस बोझ को हलका करना चाहती है.’

‘वे कब आएंगी?’

‘बीचबीच में आती रहेगी. रही बात बातचीत करते रहने की, तो उस के लिए फोन है ही. तुम जब चाहो उस से बात कर सकती हो.’ सुन कर मुझे तसल्ली हुई. मैं ने आंसू पोंछे. तभी मां का फोन आया. मैं ने रोते हुए मां से शिकायत की, ‘क्यों हमें छोड़ कर चली गईं. क्या हम साथ नहीं रह सकते?’

मां ने ढांढ़स बंधाया, नानी का वास्ता दिया, ‘तुम लोगों को कोई तकलीफ नहीं होगी.’

मैं ने कहा, ‘छोटी हमेशा तुम्हारे बारे में पूछती रहती है.’

‘उसे किसी तरह संभालो. देखो, सब ठीक हो जाएगा,’ कह कर मां ने फोन काट दिया. मेरे गालों पर आंसुओं की बूंदें ढुलक आईं. बिस्तर पर पड़ कर मैं सुबकने लगी.

पूरा एक महीना हुआ मां को दिल्ली गए. ऐसे में उन को देखने की तीव्र इच्छा हो रही थी. नानी की तरफ से सिवा सांत्वना के कुछ नहीं मिलता. पूछने पर वे यही कहतीं, ‘नईनई नौकरी है, छुट्टी जल्दी नहीं मिलती. जैसे ही मिलेगी, वह तुम सब से मिलने जरूर आएगी,’ मेरे पास सिवा सुबकने के कोई हथियार नहीं था. मेरी देखादेखी छोटी भी रोने लगती. मुझ से उस की रुलाई देखी नहीं जाती थी. उसे अपनी बांहों में भर कर सहलाने का प्रयास करती ताकि उसे मां की कमी न लगे.

मां के जाने के बाद छोटी मेरे ही पास सोती. एक तरह से मैं उस की मां की भूमिका में आ गई थी. अपनी हर छोटीमोटी जरूरतों के लिए वह मेरे पास आती. एक भावनात्मक शून्यता के साथ 2 साल गुजर गए. जब भी फोन करती, मां यही कहतीं बहुत जल्द मैं तुम लोगों से मिलने बनारस आ रही हूं. मगर आती नहीं थीं. हमारा इंतजार महज भ्रम साबित हुआ. आहिस्ताआहिस्ता हम दोनों बहनें बिन मां के रहने के आदी हो गईं. मैं बीए में पहुंच गई कि एक दिन शाम को जब स्कूल से घर लौटी तो देखा मां आई हुई हैं. देख कर मेरी खुशी की सीमा न रही. मां से बिछोह की पीड़ा ने मेरे सब्र का बांध तोड़ डाला और बह निकला मेरे आंखों से आंसुओं का सैलाब जो रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था. नानी ने संभाला.

‘अब तुम कहीं नहीं जाओगी,’ सिसकियों के बीच में मैं बोली. वे चुप रहीं. उन की चुप्पी मुझे खल गई. जहां मेरे आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे वहीं मां का तटस्थ भाव अनेक सवालों को जन्म दे रहा था. क्या यहां आ कर उन्हें अच्छा नहीं लगा? 2 साल बाद एक मां को अपने बच्चों से मिलने की जो तड़प होती है उस का मैं ने मां में अभाव देखा. शायद नानी मेरे मन में उठने वाले भावों को भांप गईं. वे मुझे बड़े प्यार से दूसरे कमरे में यह कहती हुई ले गईं कि तुम्हारी मां लंबी यात्रा कर के आई है, उसे आराम करने की जरूरत है. जो बातें करनी हों, कल कर लेना. ऐसा मैं ने पहली बार सुना. अपनी औलादों को देख कर मांबाप की सारी थकान दूर हो जाती है, यहां तो उलटा हो रहा था. मां ने न हमारा हालचाल पूछा न ही मेरी पढ़ाईलिखाई के बारे में कुछ जानने की कोशिश की.

उन्होंने एक बार यह भी नहीं कहा कि बेटे, मेरी गैरमौजूदगी में तुम लोगों को जो कष्ट हुआ उस के लिए मुझे माफ कर दो. छोटी भी लगभग उपेक्षित सी मां के पास बैठी थी. मां के व्यवहार में आए इस अप्रत्याशित परिवर्तन को ले कर मैं परेशान हो गई. बहरहाल, मैं अपने कमरे में बिस्तर पर लेट गई. वैसे भी मां के बगैर रहने की आदत हो गई थी. लेटेलेटे मन मां के ही इर्दगिर्द घूमता रहा. 2 साल बाद मिले भी तो मांबेटी अलगअलग कमरों में लेटे हुए थे. सिर्फ छोटी जिद कर के मां के पास बैठी रही.

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मेरा पति सिर्फ मेरा है: भाग-1

सुबह के 6 बज गए थे. अनुषा नहाधो कर तैयार हो गई. ससुराल में उस का पहला दिन जो था, वरना घर में मजाल क्या कि वह कभी 8 बजे सुबह से पहले उठी हो.

विदाई के समय मां ने समझाया था,”बेटी, लड़कियां कितनी भी पढ़लिख जाएं उन्हें अपने संस्कार और पत्नी धर्म कभी नहीं भूलना चाहिए. सुबह जल्दी उठ कर सिर पर पल्लू रख कर रोजाना सासससुर का आशीर्वाद लेना. कभी भी पति का साथ न छोड़ना. कैसी भी परिस्थिति आ जाए धैर्य न खोना और मुंह से कभी कटु वचन न कहना.”

“जैसी आप की आज्ञा माताश्री…”

जिस अंदाज में अनुषा ने कहा था उसे सुन कर विदाई के क्षणों में भी मां के चेहरे पर हंसी आ गई थी.

अनुषा ड्रैसिंग टेबल के आगे बैठी थी. बीती रात की रौनक उस के चेहरे पर लाली बन कर बिखरी हुई थी. भीगी जुल्फें संवारते हुए प्यार भरी नजरों से उस ने बेसुध भुवन की तरफ देखा.

भुवन से वैसे तो उस की अरैंज्ड मैरिज हुई थी. मगर सगाई और शादी के बीच के समय में वे कई दफा मिले थे. इसी दरमियान उस के दिल में भुवन के लिए प्यार उमड़ पड़ा था. तभी तो शादी के समय उसे महसूस ही नहीं हुआ कि वह अरैंज्ड मैरिज कर किसी अजनबी को जीवनसाथी बना रही है. उसे लग रहा था जैसे लव मैरिज कर अपने प्रियतम के घर जा रही है.

बाल संवार कर और सिर पर पल्लू रख कर अनुषा सीढ़ियों से नीचे उतर आई. सासससुर बैठक रूम में सोफे पर बैठे अखबार पढ़ते हुए चाय की चुसकियों का आनंद ले रहे थे. अनुषा ने उन को अभिवादन किया और किचन में घुस गई. उस ने अपने हाथों से सुबह का नाश्ता तैयार कर खिलाया तो ससुर ने आशीष स्वरूप उसे हजार के 5 नोट दिए. सास ने अपने गले से सोने की चेन निकाल कर दी. तब तक भुवन भी तैयार हो कर नीचे आ चुका था.

भुवन ने अनुषा को बताया था कि अभी औफिस में कुछ जरूरी मीटिंग्स हैं इसलिए 2-3 दिन मीटिंग्स और दूसरे काम निबटा कर अगले सप्ताह दोनों हनीमून के लिए निकलेंगे. इस के लिए भुवन ने 10 दिनों की छुट्टी भी ले रखी थी.

भुवन का औफिस टाइम 10 बजे का था. औफिस ज्यादा दूर भी नहीं था और जाना भी अपनी गाड़ी से ही था. फिर भी भुवन ठीक 9 बजे घर से निकल गया तो अनुषा को कुछ अजीब लगा. मगर फिर सामान्य हो कर वह खाने की तैयारी में जुट गई.

तब तक कामवाली भी आ गई थी. अनुषा को ऊपर से नीचे तक तारीफ भरी नजरों से देखने के बाद धीरे से बोली,” शायद अब भुवन भैया उस नागिन के चंगुल से बच जाएंगे.”

“यह क्या कह रही हो तुम?”  कामवाली की बात पर आश्चर्य और गुस्से में अनुषा ने कहा.

वह मुसकराती हुई बोली,” बस बहुरानी कुछ ही दिनों में आप को मेरी बात का मतलब समझ आ जाएगा. 2-3 दिन इंतजार कर लो,” कह कर वह काम में लग गई.

फिर अनुषा की तारीफ करती हुई बोली,” वैसे बहुरानी बड़ी खूबसूरत हो तुम.”

अनुषा ने उस की बात अनसुनी कर दी. उस के दिमाग में तो नागिन शब्द  घूम रहा था. उसे नागिन का मतलब समझ नहीं आ रहा था.

पूरे दिन अनुषा भुवन के फोन का इंतजार करती रही. दोपहर में भुवन का फोन आया. दोनों ने आधे घंटे प्यार भरी बातें कीं. शाम में भुवन को आने में देर हुई तो अनुषा ने सास से पूछा.

सास ने निश्चिंतता भरे स्वर में कहा,”आ रहा होगा. थोड़ा औफिस के दोस्तों में बिजी होगा.”

8 बजे के करीब भुवन घर लौटा. साथ में एक महिला भी थी. लंबी, छरहरी, नजाकत और अदाओं से लबरेज व्यक्तित्व वाली उस महिला ने स्लीवलैस वनपीस ड्रैस पहन रखी थी. होंठों पर गहरी लिपस्टिक और हाई हील्स में वह किसी मौडल से कम नहीं लग रही थी. अनुषा को भरपूर निगाहों से देखने के बाद भुवन की ओर मुखातिब हुई और हंस कर बोली,” गुड चौइस. तो यह है आप की बैटर हाफ. अच्छा है.”

बिना किसी के कहे ही वह सोफे पर पसर गई. सास जल्दी से 2 गिलास शरबत ले आई. शरबत पीते हुए उस ने शरबती आवाज में कहा,” भुवन जिस दिल में मैं हूं उसे किसी और को किराए पर तो नहीं दे दोगे?”

उस महिला के मुंह से ऐसी बेतुकी बात सुन कर अनुषा की भंवें चढ़ गईं. उस ने प्रश्नवाचक नजरों से भुवन की ओर देखा और फिर सास की तरफ देखा.

सास ने नजरें नीचे कर लीं और भुवन ने बेशर्मी से हंसते हुए कहा,” यार टीना तुम्हारी मजाक करने की आदत नहीं गई.”

“मजाक कौन कर रहा है? मैं तो हकीकत बयान कर रही हूं. वैसे अनुषा तुम से मिल कर अच्छा लगा. आगे भी मुलाकातें होती रहेंगी हमारी. आखिर मैं भुवन की दोस्त जो हूं. तुम्हारी भी दोस्त हुई न. बैटर हाफ जो हो तुम उस की.”

वह बारबार बैटर हाफ शब्द पर जोर दे रही थी. अनुषा उस का मतलब अच्छी तरह समझ रही थी. टीना ने फिर से अदाएं बिखेरते हुए कहा,”आज की रात तो नींद नहीं, चैन नहीं, है न भुवन”

5 -10 मिनट रुक कर वह जाने के लिए खड़ी हो गई. भुवन उसे घर छोड़ने चला गया. अनुषा ने सास से सवाल किया,” यह कौन है मांजी जो भुवन पर इतना अधिकार दिखा रही है?”

“देखो बेटा, अब तुम भुवन की पत्नी हो इसलिए इतना तो तुम्हें जानने का हक है ही कि वह कौन थी? दरअसल, बेटा तुम्हें उस को भुवन की जिंदगी में स्वीकार करना पड़ेगा. हमारी मजबूरी है बेटा. हम सब को भी उसे स्वीकार करना पड़ा है बेटे.”

“पर क्यों सासूमां ? क्या भुवन का उस के साथ कोई रिश्ता है?”

“ऐसा कोई रिश्ता तो नहीं बहू पर बस यह जान लो कि उस के बहुत से एहसान हैं हमारे ऊपर. वैसे तो वह उस की बौस है मगर भुवन को इस मुकाम तक पहुंचाने में काफी मदद की है उस ने. अपने पावर का उपयोग कर भुवन को काफी अच्छा ओहदा दिया है. बस भुवन पसंद है उसे और कुछ नहीं.”

“इतना कम है क्या सासूमां ?”वह तो पत्नी की तरह हक दिखाती है भुवन पर.”

बहु कभीकभी हमें जिंदगी में समझौते करने पड़ते हैं. 1-2 बार भुवन ने जौब छोड़ने की भी कोशिश की. मगर उस ने आत्महत्या की धमकी दे डाली. भुवन के प्रति आकर्षित है इसलिए उस को अपने औफिस से निकलने भी नहीं देती.”

उसे कुछ करना है

कहानी- नारायणी

सर्दियों के दिन थे. शाम का समय था. श्वेता का कमरा गरम था. अपने एअरटाइट कमरे में उस ने रूम हीटर चला रखा था. 2 साल का भानू टीवी के आगे बैठा चित्रों का आनाजाना देख रहा था.  श्वेता अपने पसंदीदा धारावाहिक के खत्म होने का इंतजार कर रही थी.

‘‘पापा,’’ राजीव के आते ही भानू गोद में चढ़ गया.  श्वेता उठ कर रसोईघर में चाय के साथ कुछ नाश्ता लेने चली गई. क्योंकि शाम के समय राजीव को खाली चाय पीने की आदत नहीं थी.

‘‘आज तो कुछ गरमागरम पकौड़े हो जाते तो आनंद आ जाता,’’ श्वेता के चाय लाते ही राजीव ने कहा, ‘‘क्या गजब की ठंड पड़ रही है और इस चाय का आनंद तो पकौड़े से ही आएगा.’’

‘‘मेरे तो सिर में दर्द है,’’ श्वेता माथे पर उंगलियां फेर कर बोली.

‘‘तुम से कौन कह रहा है…चाय भी क्या तुम्हीं ने बनाई है, वह भी इतने दर्द में, रोली दी कहां हैं. वह मिनट में बना देंगी.’’

‘‘रोली दी,’’ श्वेता ने जोर से आवाज दी, ‘‘कहां हैं आप. थोड़े पकौड़े बना दीजिए, आप के भइया को चाहिए. इसी बहाने हम सब भी खा लेंगे.’’

रोली ने वहीं से आवाज लगाई, ‘‘श्वेता, तुम बना लो. मैं आशू को होमवर्क करा रही हूं. इस का बहुत सा काम पूरा नहीं है. मैं ने खाने की सारी तैयारी कर दी है.’’

राजीव ने रुखाई से कहा, ‘‘अभी तो 6 बजे हैं, रात तक तुम्हें करना क्या है?’’

‘‘करना क्यों नहीं है भइया, मां बीमार हैं तो रसोई भी देखनी है. साथ में उन लोगों को भी…फिर रात में एक तो आशू को जल्दी नींद आने लगती है, दूसरे, टीवी के चक्कर में पढ़ नहीं पाता है.’’

‘‘तो क्या उस के लिए सब लोग टीवी देखना बंद कर दें,’’ राजीव ने चिढ़ कर कहा क्योंकि उसे रोली से ऐसे उत्तर की आशा नहीं थी. उस की सरल ममतामयी दीदी तो सुबह से आधी रात तक भाई की सेवा में लगी रहती.

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इंटर के बाद रोली ने प्राइवेट बी.ए. की परीक्षा दी थी. परीक्षा के समय घर मेहमानों से भरा था. क्योंकि उस की बड़ी बहन दिव्या का विवाह था और वह दिनरात मेहमानों की आवभगत में लगी रहती. कोई भी रोली से यह न कहता कि तुम अकेले कहीं बैठ कर पढ़ाई कर लो. जबकि उस से बड़ी 2 बहनें, 2 भाई भी थे. घर में आए मेहमानों की जरूरतों को पूरा करने के बाद रोली ज्यों ही हाथ में कागजकलम या पुस्तक उठाती तो आवाज आती, ‘अरे कहां हो रोली…जरा ब्याह निपटा दो तब अपनी पढ़ाई करना.’

दोनों बहनें अपने छोटे बच्चों के चोंचलों और ससुराल के लोगों की आवभगत में अधिक लगी रहतीं. सब के मुंह पर दौड़भाग करती रोली का नाम रहता.

मां को तो घर आए मेहमानों से बातचीत से ही समय न मिलता, कितनी मुश्किल से अच्छा घरवर मिला है वह इस की व्याख्या करती रहतीं. बूआ ने रोली की परेशानी भांप कर कहा भी कि इस की परीक्षा के बाद ब्याह की तिथि रखतीं तो निश्चिंत रहतीं…

‘‘अब रोली की परीक्षा के लिए ब्याह थोड़े ही रुका रहेगा…फिर दीदी, यह पढ़लिख के कौन सा कलक्टर बन जाएगी. बस, ग्रेजुएट का नाम हो जाए फिर इस को भी पार कर के गंगा नहा लें हम.’’

रिश्ते की बूआ कह उठीं, ‘‘भाभी, आजकल तो लड़की को भी बराबरी का पढ़ाना पड़ रहा है. हम तो यह कह रहे थे कि परीक्षा के बाद ब्याह होता तो रोली पर पढ़ाई का बोझ न रहता. अभी तो उसे न पढ़ने के लिए समय है और न मन ही होगा.’’

‘‘दीदी, आप भूल रही हैं, हमारे यहां लड़के वालों की इच्छा से ही तिथि रखनी पड़ती है. लड़की वालों की मरजी कहां चलती है. हम ज्यादा कहेंगे तो उत्तर मिलेगा, आप दूसरा घर देख लीजिए.’’

रोली की जैसेतैसे परीक्षा हो गई थी. 50 प्रतिशत नंबर आए थे. आगे पढ़ने का न उत्साह रहा न सुविधा ही मिली और न कहीं प्रवेश ही मिला.

रोली के 3 वर्ष घर के काम करते, भाइयों के मन लायक भोजननाश्ता बनाते बीत गए. फिर उस का भी विवाह हो गया. घर भले ही साधारण था पर पति सुंदर, रोबीले व्यक्तित्व का था. अपने काम में कुशल, परिश्रमी और मिलनसार था. एक प्राइवेट फर्म में काम कर रहा था जहां उस के काम को देख कर मालिक ने विश्वास दिलाया था कि शीघ्र ही उस की पदोन्नति कर दी जाएगी. परिवार के लोग भी समीर को प्यार करते और मान देते थे. रोली को वर्ष भर में बेटा भी हो गया.

रोली के ससुराल जाने पर उस की सब से अधिक कमी भाई को अखरती. मां बीमार रहने लगी थीं और बहनें चली गईं. मां न राजीव के मन का खाना बना पातीं न पहले जैसे काम ही कर पातीं. रोली तो भाई के कपड़े धो कर उन्हें प्रेस भी कर देती थी. उस की कापीकिताबें यथास्थान रखती और सब से बढ़ कर तो राजीव के पसंद का व्यंजन बनाती.

विवाह को अभी 3 साल भी न बीते थे कि रोली पर वज्र सा टूट पड़ा था. एक दुर्घटना में रोली के पति समीर की मृत्यु हो गई. समीर जिस फर्म में काम करता था उस के मालिक ने उस पर आरोप लगा कर कुछ भी आर्थिक सहायता देने से इनकार कर दिया. बेटी को मुसीबत में देख कर मातापिता उसे अपने घर ले आए.

रोली पहले तो दुख में डूबी रही. बड़ी मुश्किल से मां और बहनें उस के मुंह में 2-4 कौर डाल देतीं. उस का तो पूरा समय आंसू बहाने और साल भर के आशू को खिलानेपिलाने में ही बीत जाता था. कभी कुछ काम करने रोली उठती तो सभी उसे प्रेमवश, दयावश मना कर देते.

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एक दिन ऐसे ही पगलाई हुई शून्य में ताकती मसली हुई बदरंग सी साड़ी पहने रोली बैठी थी कि मां की एक पुरानी सहेली मधु आ गई जो अब दूसरे शहर में रहती थी. मधु को देखते ही रोली दूसरे कमरे में चली गई क्योंकि किसी भी परिचित को देखते ही उस के आंसू बहने लगते थे.

मां ने कई बार आवाज दी, ‘‘बेटी रोली, देखो तो मधु मौसी आई हैं.’’

मां के बुलाने पर भी जब रोली नहीं आई तब मौसी स्वयं ही उसे पकड़ कर सब के बीच ले आईं और बहुत देर तक अपने से चिपटाए आंसू बहाती रहीं.

कुछ देर में उन्हें लगा, रोली से कुछ काम करने के लिए नहीं कहा जाता और न वह खुद काम में हाथ लगाती है. तब उन्होंने मां को और भाभी को समझाया कि इसे भी घर का कुछ काम करने दिया करो ताकि इस का मन लगा रहे. ऐसे तो यह अछूत की तरह अलग बैठीबैठी अपने अतीत को ही सोचती रहेगी और दुखी होगी.

‘‘हम तो इसे दुखी मान कर कुछ काम नहीं करने देते.’’

‘‘दीदी, आप उस पर भार भी न डालें पर व्यस्त जरूर रखें. आशू को भी उस के पास ही रहने दें क्योंकि दुख से उबरने के लिए अंधेरे में बैठे रहना कोई उपचार नहीं…और…’’

‘‘और क्या?’’ मां ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘यही कि आगे क्या सोचा है. आजकल तो लड़कियां बाहर का काम कर रही हैं. रोली भी कहीं कोई काम करेगी तो अपने पैरों पर खड़ी होगी… अभी उस की उम्र ही क्या है, कुछ आगे पढ़े, कोई ट्रेनिंग दिलवाइए…देखिए, कोई हाथ थामने वाला मिल जाए…’’

‘‘क्या कह रही हो, मधु…रोली तो इस तरह की बातें सुनना भी नहीं चाहती है. पहले भी किसी ने कहा था तो रोने बैठ गई कि क्या मैं आप को भारी हो रही हूं…ऐसा है तो मुझे मेरी ससुराल ही भेज दें, जैसेतैसे मेरा ठिकाना लग ही जाएगा…

‘‘मधु, इस के लिए 2-1 रिश्ते भी आए थे. एक 3 पुत्रियों का पिता था जो विधुर था. कहा, मेरे बेटा भी हो जाएगा और घर भी संवर जाएगा. जमीनजायदाद भी थी. लेकिन यह सोच कर हम ने अपने पांव पीछे खींच लिए कि सौतेली मां अपना कलेजा भी निकाल कर रख दे फिर भी कहने वाले बाज नहीं आते. वैसे यह तो सच है कि विधवा का हाथ थामने वाला हमारे समाज में जल्दी मिल नहीं सकता, फिर दूसरे के बच्चों को पिता का प्यार देना आसान नहीं.’’

‘‘गे्रजुएट तो है. किसी तरह की ट्रेनिंग कर ले. आजकल तरहतरह के काम हैं.’’

लेकिन लड़की के लिए सुरक्षित स्थान और इज्जतदार नौकरी हो तब न. फिर उस का मन भी नहीं है…भाई भी पक्ष में नहीं है.

एक के बाद एक कर 8 वर्ष बीत गए. रोली घर के काम में लगी रहती. गरम खाना, चायनाश्ता देना, घर की सफाई करना और सब के कपड़े धो कर उन्हें प्रेस करना उस का काम रहता. बीतते समय के साथ अब उस की सहेलियां भी अपनीअपनी ससुराल चली गईं जो कभी आ कर रोली के साथ कुछ समय बिता लिया करती थीं.

उस दिन उस की एक पुरानी सहेली मनजीत आई थी. वह उसे अपने घर ले गई जहां महराजिन को बातें करते रोली ने सुना, ‘‘बीबीजी, मैं तो पहले कभी दूसरे की रसोई में भी नहीं जाती थी. काम करना तो दूर की बात थी. पर जब मनुआ के बाबू 2 दिन के बुखार में चल बसे तब घर का खर्च पीतलतांबे के बरतन, चांदीसोने के गहने बेच कर मैं ने काम चलाया. उस समय मेरे भाइयों ने गांव में चल कर रहने को कहा. मैं ने अपनी चचिया सास के कहने पर जाने का मन भी बना लिया था लेकिन इसी बीच मेरी जानपहचान की एक बुजुर्ग महिला ने कहा कि बेटी, तुम यहीं रहो. मैं काम करती हूं तुम भी मेरे साथ खाना बनाने का काम करना. बेटी, काम कोई बुरा नहीं होता. काम को छोटाबड़ा तो हम लोग बनाते और समझते हैं. मैं जानती हूं कि गांव में तुम कोई काम नहीं कर पाओगी. कुछ दिन तो भाभी मान से रखेंगी पर बाद में छोटीछोटी बातें अखरने लगती हैं. उस के बाद से ही मैं ने कान पकड़ा और यहीं रहने लगी. अपनी कोठरी थी और अम्मां का साया था.’’

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रोली दूर बैठी उन की बातें सुन रही थी और उसे अपने पर लागू कर सोच रही थी कि मातापिता जहां तक होता है उस के लिए करते हैं किंतु भाभी… अखरने वाली बातें सुना जाती हैं. अब कल ही तो भाभी अपने बच्चों के लिए 500 के कपड़े लाईं और उस के आशू के लिए 100 रुपए खर्चना भी उन्हें एहसान लगता है.

‘गे्रजुएट है, कोई काम करे, कुछ ट्रेनिंग ले ले,’ मधु मौसी ने पहले भी कहा था पर मां ने कह दिया कि लड़की के लिए सुरक्षित स्थान हो, इज्जतदार नौकरी हो तब ही न सोचें. सोचते हुए 8 वर्ष बीत गए थे.

उस की सहेली मनजीत कौर के पिता की कपड़ों की दुकान थी. पहले मनजीत भी अकसर वहां बैठती और हिसाबकिताब देखती थी. कई सालों से मनजीत उसे दुकान पर आने के लिए कह रही थी और एक बार उस ने दुकान पर ही मिलने को बुलाया था. रोली वहां पहुंची तो मनजीत बेहद खुश हुई थी और उसे अपने साथ अपनी दूसरी दुकान पर चलने को कहा.

रोली को बुनाई का अच्छा अनुभव था. किसी भी डिजाइन को देख कर, पढ़ कर वह बना लेने में कुशल थी. रोली ने वहां कुछ बताया भी और आर्डर भी लिए. मनजीत कौर ने उस से कहा, ‘‘रोली, एक बात कहूं, बुरा तो नहीं मानोगी.’’

‘‘नहीं, कहो न.’’

‘‘मैं चाहती हूं कि तुम दिन में किसी समय आ कर थोड़ी देर यहां का काम संभाल लिया करो. तुम्हारा मन भी बहल जाएगा और मेरी मदद भी हो जाएगी.’’

‘‘तुम मां से कहना,’’ रोली ने कहा, ‘‘मुझे तो मनजीत कोई आपत्ति नहीं है.’’

उसी दिन शाम को मनजीत ने रोली की मां से कहा, ‘‘आंटी, मैं चाहती हूं कि रोली मेरे साथ काम में हाथ बंटा दे.’’

रोली की मां को पहले तो अच्छा नहीं लगा. सोचा शायद इसे पैसे की कमी खटक रही है. अभी रोली की मां सोच रही थीं कि मनजीत बोल पड़ी, ‘‘आंटी, इस का मन भी घर से बाहर निकल कर थोड़ा बहल जाएगा और मुझे अपने भरोसे की एक साथी मिल जाएगी. यह केंद्र समाज सेवा के लिए है.’’

मां ने यह सोच कर इजाजत दे दी कि रोली घर के बाहर जाएगी तो ढंग से रहेगी.

महीने के अंत में मनजीत ने रोली को लिफाफा पकड़ा दिया.

‘‘यह क्या है?’’

‘‘कुछ खास नहीं. यह तो कम है. तुम्हारे काम से मुझे जो लाभ हुआ है उस का एक अंश है. हमें दूरदूर से आर्डर मिल रहे हैं तो मेरी सास और पति का कहना है कि हमारे पास खाने को बहुत है…तुम मेरी सहायता करती रहो और मेरे केंद्र को चलाने में हाथ बंटाओ. मेरी बहन की तरह हो तुम…’’

रोली की मां को खुशी थी कि अब उन की बेटी अपने मन से खर्च कर पाएगी. भाईबहन का स्नेह मिलता रहे पर उन की दया पर ही निर्भर न रहे. बाहर की दुनिया से जुड़ कर उस का आत्मविश्वास भी बढ़ेगा साथ ही जीने का उत्साह भी.

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जलन

पिछले कुछ दिनों से सरपंच का बिगड़ैल बेटा सुरेंद्र रमा के पीछे पड़ा हुआ था. जब वह खेत पर जाती, तब मुंडे़र पर बैठ कर उसे देखता रहता था. रमा को यह अच्छा लगता था और वह जानबूझ कर अपने कपड़े इस तरह ढीले छोड़ देती थी, जिस से उस के उभार दिखने लगते थे. लेकिन गांव और समाज की लाज के चलते वह उसे अनदेखा करती थी. सुरेंद्र को दीवाना करने के लिए इतना ही काफी था. रातभर रमेश के साथ कमरे में रह कर रमा की बहू सुषमा जब बाहर निकलती, तब अपनी सास रमा को ऐसी निगाह से देखती थी, जैसे वह एक तरसती हुई औरत है.

रमा विधवा थी. उस की उम्र 40-42 साल की थी. उस का बदन सुडौल था. कभीकभी उस के दिल में भी एक कसक सी उठती थी कि किसी मर्द की मजबूत बांहें उसे जकड़ लें, जिस से उस के बदन का अंगअंग चटक जाए, इसी वजह से वह अपनी बहू सुषमा से जलती भी थी.

शाम का समय था. हलकी फुहार शुरू हो गई थी. रमा सोच रही थी कि जमींदार के खेत की बोआई पूरी कर के ही वह घर जाए. उसे सुरेंद्र का इंतजार तो था ही. सुरेंद्र भी ऐसे ही मौके के इंतजार में था. उस ने पीछे से आ कर रमा को जकड़ लिया.

रमा कसमसाई और उस ने चिल्लाने की भी कोशिश की, लेकिन फिर उस का बदन, जो लंबे समय से इस जकड़न का इंतजार कर रहा था, निढाल हो गया.

सुरेंद्र जब उस से अलग हुआ, तब रमा को लोकलाज की चिंता हुई. उस ने जैसेतैसे अपने को समेटा और जोरजोर से रोते हुए सरपंच के घर पहुंच गई और आपबीती सुनाने लगी. लेकिन सुरेंद्र की दबंगई के आगे कोई मुंह नहीं खोल रहा था.

इधर बेटा रमेश और बहू सुषमा भी सरपंच के यहां पहुंच गए. रमा रो रही थी, लेकिन सुषमा से आंखें मिलाते ही एक कुटिल मुसकान उस के चेहरे पर फैल गई.

गांव में चौपाल बैठ गई थी. सरपंच और 3 पंच इकट्ठा हो गए थे. एक तरफ रमा खड़ी थी, तो दूसरी तरफ सुरेंद्र था. गांव के और भी लोग वहां मौजूद थे.

रामू ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘जो हुआ सो हुआ. अब रमा  जो बोलेगी वही सब को मंजूर होगा.’’

तभी दीपू ने कहा, ‘‘हां, रमा बोल, कितना पैसा लेगी? बात को यहीं खत्म कर देते हैं.’’

पैसे की बात सुनते ही बहू सुषमा खुश हो गई कि सास 2-4 लाख रुपए मांग ले, तो घर की गरीबी दूर हो जाए. लेकिन रमा बिना कुछ बोले रोते ही जा रही थी.

जब सब ने जोर दिया, तब रमा ने कहा, ‘‘मेरी समझ में सरपंचजी सुरेंद्र का जल्दी से ब्याह रचा दें, जिस से यह इधरउधर मुंह मारना बंद कर दे.’’

रमा की बात पर सहमत तो सभी थे, पर सुरेंद्र की हरकतों और बदनामी को देखते हुए भला कौन इसे अपनी बेटी देगा. इस बात पर सरपंच भी चुप हो गए.

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सुरेंद्र भी अब 45 साल के आसपास हो चला था, इसलिए चाहता था कि घरवाली मिल जाए, तो जिंदगी सुकून से कट जाए.

रामू ने कहा, ‘‘रमा, तुम्हारी बात सही है, लेकिन इसे कौन देगा अपनी बेटी?’’

कांटा फंसता जा रहा था और चौपाल किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पा रही थी. इस का सीधा मतलब होता कि सुरेंद्र को या तो गांव से निकाले जाने की सजा होती या उस के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट दर्ज होती.

मामले की गंभीरता को देखते हुए अब सुरेंद्र ने ही कहा, ‘‘मैं यह मानता हूं कि मुझ से गलती हुई है और मैं शर्मिंदा भी हूं. अगर रमा चाहे, तो मैं इस से ब्याह रचाने को तैयार हूं.’’

रमा को तो मनमानी मुराद मिल गई थी, लेकिन तभी बहू सुषमा ने कहा, ‘‘सरपंचजी, यह कैसे हो सकता है? आप के बेटे की सजा मेरी सासू मां क्यों भुगतें? आप तो बस पैसा लेदे कर मामले को सुलझाएं.’’

तब दीपू ने कहा, ‘‘हम रमा की बात सुन कर ही अपनी बात कहेंगे.’’

रमा ने कहा, ‘‘गांव की बात गांव में ही रहे, इसलिए मैं दिल से तो नहीं लेकिन गांव की खातिर सुरेंद्र का हाथ थामने को तैयार हूं.’’

सरपंच और चौपाल ने चैन की सांस ली.

बहू सुषमा अपना सिर पकड़ कर वहीं बैठ गई. वहीं बेटा रमेश खुश था, क्योंकि उस की मां को सहारा मिल गया था. अब मां का अकेलापन दूर हो जाएगा. थोड़े दिनों के बाद ही उन दोनों की चुपचाप शादी करा दी गई. पहली रात रमा सुरेंद्र के सीने से लगते हुए कह रही थी, ‘‘विधवा होते ही औरत को अधूरी बना दिया जाता है. वह घुटघुट कर जीने को मजबूर होती है. अरे, अरमान तो उस के भी होते हैं.

‘‘और फिर मेरी बहू सुषमा की निगाहों ने हमेशा मेरी बेइज्जती की है. उस के लिए मेरी जलन ने ही हम दोनों को एक करने का काम किया है.’’

खुशी में सराबोर सुरेंद्र की मजबूत होती पकड़ रमा को जीने का संबल दे रही थी. जो खेत में हुआ वही अब हुआ, पर अब दोनों को चिंता नहीं थी, क्योंकि रमा सुरेंद्र की ब्याहता जो थी.

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थोथी सोच: कौन थी शालिनी

सामने से तेज रफ्तार से आती हुई जीप ने उस मोटरसाइकिल सवार को जोरदार टक्कर मार दी. टक्कर इतनी जबरदस्त थी कि उस की आवाज ने हर किसी के रोंगटे खड़े कर दिए. कोई कुछ समझ पाता, इस से पहले ही जीप वाला वहां से जीप ले कर भाग निकला.

सड़क पर 23-24 साल का नौजवान घायल पड़ा था. उस के चारों तरफ लोगों की भीड़ जमा हो गई. उन में से ज्यादातर दर्शक थे और बाकी बचे हमदर्दी जाहिर करने वाले थे. मददगार कोई नहीं था.

उस नौजवान का सिर फूट गया था और उस के सिर से खून बह रहा था. तभी भीड़ में से 39-40 साल की एक औरत आगे आई और तुरंत उस नौजवान का सिर अपनी गोद में रख कर चोट की जगह दबाने लगी ताकि खून बहने की रफ्तार कुछ कम हो. पर दबाने का ज्यादा असर नहीं होता देख कर उस ने फौरन अपनी साड़ी का पल्लू फाड़ कर चोट वाली जगह पर कस कर बांध दिया. अब खून बहना कुछ कम हो गया था.

उस औरत ने खड़े हुए लोगों से पानी मांगा और घूंटघूंट कर के उस नौजवान को पिलाने की कोशिश करने लगी. तब तक भीड़ में से किसी ने एंबुलैंस को फोन कर दिया.

एंबुलैंस आ चुकी थी. चूंकि उस घायल नौजवान के साथ जाने को कोई तैयार नहीं था इसलिए उस औरत को ही एंबुलैंस के साथ जाना पड़ा.

उस नौजवान की हालत गंभीर थी पर जल्दी प्राथमिक उपचार मिलने के चलते डाक्टरों को काफी आसानी हो

गई और हालात पर जल्दी ही काबू पा लिया गया.

नौजवान को फौरन खून की जरूरत थी. मदद करने वाली उस औरत का ब्लड ग्रुप मैच हो गया और औरत ने रक्तदान कर के उस नौजवान की जान बचाने में मदद की.

जिस समय हादसा हुआ था उस नौजवान का मोबाइल फोन जेब से निकल कर सड़क पर जा गिरा था, जो भीड़ में से एक आदमी उठा कर ले गया, इसलिए उस नौजवान के परिवार के बारे में जानकारी उस के होश में आने पर ही मिलना मुमकिन हुई थी.

वह औरत अपनी जिम्मेदारी समझ कर उस नौजवान के होश में आने तक रुकी रही. तकरीबन 5 घंटे बाद उसे होश आया. वह पास ही के शहर का रहने वाला था और यहां पर नौकरी करता था. उस के घर वालों को सूचित करने के बाद वह औरत अपने घर चली गई.

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दूसरे दिन जब वह औरत उस नौजवान का हालचाल पूछने अस्पताल गई तब पता चला कि वह नौजवान अपने मातापिता की एकलौती औलाद है. उस के मातापिता बारबार उस औरत का शुक्रिया अदा कर रहे थे. वे कह रहे थे कि आज इस का दूसरा जन्म हुआ है और आप ही इस की मां हैं.

कुछ महीने बाद ही उस नौजवान की शादी थी.

उस औरत का नाम शालिनी था. शादी के कुछ दिनों बाद ही एक हादसे में शालिनी के पति की मौत हो गई थी. वह पति की जगह पर सरकारी स्कूल में टीचर की नौकरी कर रही थी. नौजवान का नाम शेखर था.

अब दोनों परिवारों में प्रगाढ़ संबंध हो गए थे. शेखर शालिनी को मां के समान इज्जत देता था.

वह दिन भी आ गया जिस दिन शेखर की शादी होनी थी. शेखर का परिवार शालिनी को ससम्मान शादी के कार्यक्रमों में शामिल कर रहा था. सभी लोग लड़की वालों के यहां पहुंच

गए जहां पर लड़की की गोदभराई की रस्म के साथ कार्यक्रमों की शुरुआत होनी थी.

परंपरा के मुताबिक, लड़की की गोद लड़के की मां भरते हुए अपने घर का हिस्सा बनने के लिए कहती है. शेखर की इच्छा थी कि यह रस्म शालिनी के हाथों पूरी हो, क्योंकि उस की नजर में उसे नई जिंदगी देने वाली शालिनी ही थी. शेखर के घर वालों को इस पर कोई एतराज भी नहीं था.

पूरा माहौल खुशियों में डूबा हुआ था. लड़की सभी मेहमानों के बीच आ कर बैठ गई. ढोलक की थापों के बीच शादी की रस्में शुरू हो गईं. शेखर के पिता ने शालिनी से आगे बढ़ कर कहा कि वह गोदभराई शुरू करे.

वैसे, शालिनी इस के लिए तैयार नहीं थी और खुद वहां जाने से मना कर रही थी. पर जब शेखर ने शालिनी के पैर छू कर बारबार कहा तो वह मना नहीं कर पाई.

मंगल गीत और हंसीठठोली के बीच शालिनी गोदभराई का सामान ले कर जैसे ही लड़की के पास पहुंची, तभी एक आवाज आई, ‘‘रुकिए. आप गोद नहीं भर सकतीं,’’ यह लड़की की दादी की आवाज थी.

शालिनी को इसी बात का डर था. वह ठिठकी और रोंआसी हो कर वापस अपनी जगह पर जाने के लिए पलटी.

तभी शेखर बीच में आ गया और बोला, ‘‘दादीजी, शालिनी मम्मीजी सुलक्षणा की गोद क्यों नहीं भर सकतीं?’’

‘‘क्योंकि ब्याह एक मांगलिक काम है और किसी भी मांगलिक काम की शुरुआत किसी ऐसी औरत से नहीं कराई जा सकती जिस के पास मंगल चिह्न न हो,’’ दादी शेखर को समझाते हुए बोलीं.

‘‘आप भी कैसी दकियानूसी बातें करती हैं दादी. आप यह कैसे कह सकती हैं कि मंगल चिह्न पहनने वाली कोई औरत मंगल भावनाओं के साथ ही इस रीति को पूरा करेगी?’’

‘‘पर बेटा, यह एक परंपरा है और परंपरा यह कहती है कि मंगल काम सुहागन औरतों के हाथों से करवाया जाए तो भविष्य में बुरा होने का डर कम रहता है,’’ दादी कुछ बुझी हुई आवाज में बोलीं, क्योंकि वे खुद भी विधवा थीं.

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‘‘क्या आप भी ऐसा ही मानती हैं?’’

‘‘हां, यह तो परंपरा है और परंपराओं से अलग जाने का तो सवाल ही नहीं उठता,’’ दादी बोलीं.

‘‘इस के हिसाब से तो किसी लड़की को विधवा ही नहीं होना चाहिए क्योंकि हर लड़की की शादी की शुरुआत सुहागन औरत के हाथों से होती है?’’ शेखर ने सवाल किया.

‘‘शेखर, बहस मत करो. कार्यक्रम चालू होने दो,’’ शालिनी शेखर को रोकते हुए बोली.

‘‘नहीं मम्मीजी, मैं यह नाइंसाफी नहीं होने दूंगा. अगर विधवा औरत इतनी ही अशुभ होती तो मुझे उस समय ही मर जाना चािहए था जब मैं ऐक्सिडैंट के बाद सड़क पर तड़प रहा था और आप ने अपने कपड़ों की परवाह किए बिना ही साड़ी का पल्लू फाड़ कर मेरा खून रोकने के लिए पट्टी बनाई थी या आप के रक्तदान से आप का खून मेरे शरीर में गया.

‘‘भविष्य में होने वाली किसी अनहोनी को रोकने के लिए वर्तमान का अनादर करना तो ठीक नहीं होगा न…’’ फिर दादी की तरफ मुखातिब हो कर वह बोला, ‘‘कितने हैरानी की बात है कि जब

तक कन्या कुंआरी रहती है वह देवी रहती है, वही देवी शादी के बाद मंगलकारी हो जाती है, पर विधवा होते ही वह मंगलकारी देवी अचानक मनहूस कैसे हो जाती है? सब से ज्यादा हैरानी इस बात की है कि आप एक औरत हो कर ऐसी बातें कर रही हैं.’’

दादी की कुछ और भी दलीलें होने लगी थीं. तभी दुलहन बनी सुलक्षणा ने उन्हें रोकते हुए कहा, ‘‘दादीजी, मैं शेखर की बातों से पूरी तरह सहमत हूं और चाहती हूं कि मेरी गोदभराई की रस्म शालिनी मम्मीजी के हाथों से ही हो.’’

इस के बाद विवाह के सारे कार्यक्रम अच्छे से पूरे हो गए.

आज शेखर व सुलक्षणा की शादी को 10 साल हो चुके हैं. वे दोनों आज भी सब से पहले आशीर्वाद लेने के लिए शालिनी के पास जा रहे हैं.

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