
तभी एक शिष्य अमित के पास आया और बोला, ‘‘आप को गुरुजी ने याद किया है.’’
अमित एकदम उठा और शिष्य के साथ चल दिया.
गुरुजी के कमरे में पहुंच कर अमित हाथ जोड़ कर बैठ गया.
सामने बैठे गुरुजी ने पूछा, ‘‘क्या हुआ अमित? मेनका नहीं आई?’’
‘‘गुरुजी, मैं ने उसे बहुत कहा, पर वह नहीं आई. कहने लगी कि मैं माफी नहीं मांगूंगी. इस पर मैं ने उसे थप्पड़ भी मार दिया और वह गुस्से में बेटी के साथ कहीं चली गई.’’
‘‘चली गई? कहां चली गई? इस तरह अपनी पत्नी से हमें अपमानित करा कर तुम ने उसे जानबूझ कर यहां से भेजा है. यह तुम ने अच्छा नहीं किया,’’ गुरुजी ने अमित की ओर गुस्से से देखा.
अमित घबरा गया. वह गुरुजी के चरणों में सिर रख कर बोला, ‘‘मैं ने उसे नहीं भेजा गुरुजी. मैं सच कह रहा हूं. मेरा विश्वास कीजिए.’’
‘‘विश्वास… कैसा विश्वास? मुझे तुम जैसे अविश्वासी भक्त नहीं चाहिए. जिन की पत्नी अपने पति की बात न मानती हो. हम ने मेनका को इसलिए बुलाया था कि उसे भी आशीर्वाद मिल जाता.’’
‘‘गुरुजी, आप कहें तो मैं उसे छोड़ दूं. उस से तलाक ले लूं.’’
‘‘हम कुछ नहीं कहेंगे. जो तुम्हारी इच्छा हो करो…’’ गुरुजी ने नाराजगी
भरी आवाज में कहा, ‘‘अब तुम जा सकते हो.’’
‘‘गुरुजी, मेनका की ओर से मैं माफी मांगता हूं.’’
‘‘ऐसा नहीं होता कि किसी के अच्छेबुरे कर्मों का फल किसी दूसरे को दिया जाए. तुम अपने कमरे में जाओ,’’ गुरुजी ने अमित की ओर गुस्से से देखते हुए कहा.
अमित चुपचाप थके कदमों से अपने कमरे में पहुंचा.
कुछ देर बाद 2 शिष्य अमित के पास आए और उस के बैग में से कपड़े निकाल कर बाहर डालने लगे मानो कुछ ढूंढ़ रहे हों.
अमित समझ नहीं पाया कि यह क्या हो रहा है? उस ने पूछा, ‘‘भैयाजी, यह क्या कर रहे हो? बैग से कपड़े क्यों निकाल रहे हो?’’
‘‘अभी पता चल जाएगा,’’ कहते हुए एक शिष्य ने बैग में से एक लाल रंग की बहुत सुंदर सी डब्बी निकाल कर खोली. उस में हीरे की एक अंगूठी थी.
दूसरा शिष्य बोला, ‘‘आज ही यह अंगूठी गुरुजी को दिल्लीवासी एक भक्त ने भेंट में दी थी. उस भक्त की आभूषण की दुकान है. यह डब्बी कुछ देर पहले से गायब थी. हमें तुम पर शक था, पर अब तो पता चल गया कि यह चोरी तुम ने ही की है.’’
‘‘नहीं, मैं ने अंगूठी नहीं चुराई. मैं चोर नहीं हूं. मुझे अंगूठी के बारे में कुछ नहीं मालूम. मैं बेकुसूर हूं,’’ अमित घबरा कर बोला.
‘‘अंगूठी तेरे पास से मिली है और तू कहता है कि तू ने चोरी नहीं की,’’ एक शिष्य ने कहा.
तभी 2 शिष्य और आ गए. उन चारों ने अमित के साथ मारपीट शुरू कर दी.
अमित के साथ हो रही मारपिटाई की आवाज सुन आश्रम में कुछ भक्त कमरों से बाहर निकल कर देखने गए. जब उन्हें पता चला कि गुरुजी की अंगूठी चुराने पर उस की पिटाई की जा रही है तो किसी ने भी उसे छुड़ाने की कोशिश नहीं की. सभी नफरत और गुस्से से अमित की ओर देख रहे थे.
सभी का कहना था कि ऐसे चोर की तो खूब पिटाई कर के पुलिस में देना चाहिए.
चारों शिष्यों ने अमित की इतनी पिटाई कर दी कि वह बेहोश हो गया. आश्रम से बाहर उसे सड़क के किनारे फेंक दिया.
गाडि़यां आतीजाती रहीं. लोग देखते रहे कि सड़क के किनारे कोई शख्स पड़ा हुआ है.
पुलिस की गश्ती गाड़ी उधर से जा रही थी. सड़क के किनारे किसी को पड़ा हुआ देख कर गाड़ी रुकी. दारोगा और
2 सिपाही उतरे. उन्होंने अमित को देखा. उस के चेहरे पर मारपिटाई के निशान थे. मुंह व सिर से खून भी निकला था.
पुलिस ने उसे उठा कर जिला अस्पताल में भरती करा दिया. डाक्टर से कह दिया कि जब यह होश में आ जाए तो सूचना दे देना.
सुबह तकरीबन 7 बजे अमित को होश आया तो उस का पूरा शरीर बुरी तरह से दुख रहा था.
डाक्टर ने अमित के पास आ कर पूछा, ‘‘आप का नाम?’’
‘‘अमित.’’
‘‘क्या रात को किसी से झगड़ा हो गया था?’’ डाक्टर ने सवाल किया.
अमित ने सबकुछ बता दिया कि वह गुरुजी का एक भक्त है. पत्नी के साथ यहां आश्रम में आया था. रात पत्नी से कहासुनी होने पर वह चली गई. गुरुजी के शिष्यों ने उस पर चोरी का आरोप लगा कर मारपिटाई कर सड़क पर फेंक दिया.
‘‘तुम्हारा समय अच्छा है अमित कि उन शिष्यों ने तुम्हारी जान नहीं ली. वे तुम्हें बेहोशी की हालत में गंगा में भी फेंक सकते थे. अब उन्होंने तुम्हारा बैग, मोबाइल वगैरह सामान जरूर फेंक दिया होगा गंगा में.’’
अमित चुप रहा.
‘‘अब तुम्हारी पत्नी कहां होगी?’’ डाक्टर ने पूछा.
‘‘पता नहीं. वह बेटी को ले कर चली गई थी कि रात को किसी होटल में रुकेगी. सुबह बस या टे्रन से वापस जाने की बात कह रही थी.’’
‘‘उस के पास मोबाइल फोन होगा. जरा उस का नंबर बताओ.’’
अमित ने मेनका का मोबाइल नंबर बताया. डाक्टर ने नंबर मिलाया तो उधर घंटी बजने लगी.
‘हैलो,’ उधर से आवाज सुनाई दी.
‘‘मैडम मेनका बोल रही हैं?’’
‘हां, बोल रही हूं. आप कौन?’
‘‘मैं यहां सिविल अस्पताल से डाक्टर विपिन बोल रहा हूं. आप के पति अमित यहां अस्पताल में भरती हैं. अब वे काफी ठीक हैं. लीजिए उन से बात कीजिए,’’ कहते हुए डाक्टर ने मोबाइल अमित को दे दिया.
‘‘हैलो,’’ अमित की कराहती सी आवाज निकली.
‘क्या हुआ? तुम ठीक तो हो न? अस्पताल में क्यों? तुम्हारी तो आवाज भी नहीं निकल रही है.’
‘‘तुम यहां आ जाओ मेनका. मैं तुम्हारे बगैर जी नहीं सकूंगा,’’ कहतेकहते अमित को रुलाई आ गई.
‘मैं आ रही हूं. बस अभी पहुंच रही हूं,’ उधर से मेनका की घबराई सी आवाज सुनाई पड़ी.
डाक्टर ने पुलिस को सूचना दे दी कि अमित को होश आ गया है.
कुछ देर बाद चिंतित व डरी सी मेनका पिंकी के साथ अस्पताल में अमित के पास पहुंची. अमित के चेहरे पर चोट के निशान थे. सिर पर पट्टी बंधी हुई थी.
अमित को देखते ही वह कांप उठी. उस ने पूछा, ‘‘यह कैसे हुआ?’’
अमित ने सबकुछ बता दिया.
तभी दारोगा व एक सिपाही उन के पास आए. दारोगा ने पूछा, ‘‘अब कैसे हो आप?’’
‘‘ठीक हूं…’’ अमित ने कहा, ‘‘यह मेरी पत्नी और बेटी हैं.’’
‘‘अच्छा, अब आप यह बताओ कि हमें क्या करना है? आप चाहें तो रिपोर्ट लिखा सकते हो.’’
‘‘नहीं सर, हमें कोई रिपोर्ट नहीं लिखवानी है. हमें यह भी पता चल गया है कि गुरुजी की पहुंच ऊपर तक है. कई मंत्री व बड़ेबड़े नेता भी यहां आश्रम में आते रहते हैं. गुरुजी का कुछ नहीं बिगड़ेगा,’’ अमित ने कहा.
‘‘जिस दिन भी इस शैतान गुरु के पाप का घड़ा भर जाएगा, उस दिन यह भी नहीं बचेगा,’’ मेनका बोली.
कुछ देर तक बातचीत कर के दारोगा सिपाही के साथ वापस चला गया.
पछतावे के साथ अमित बोला, ‘‘कल सुबह अस्पताल से मुझे छुट्टी मिल जाएगी. हम वापस घर चले जाएंगे.
‘‘मेनका, मैं ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि जिस गुरु को मैं भगवान समझता रहा, वह एक शैतान है. इस गुरु की अंधभक्ति में मैं ने जिंदगी के इतने साल बरबाद कर दिए.
‘‘मैं ने हमेशा तुम्हारी कही गई बातों की अनदेखी की. तुम तो इन ढोंगी बाबाओं से नफरत करती थीं, लेकिन मैं उस की वजह नहीं समझ पाया.
‘‘तुम ने इशारोंइशारों में कई बार मुझे समझाने की कोशिश भी की थी, पर मेरी अक्ल पर तो जैसे पत्थर पड़ गए थे. दुख की बात तो यह है कि मैं ही तुम्हें यहां जबरदस्ती लाया था.’’
‘‘पुरानी बातों को सोच कर अपना मन मत दुखाओ. अगर मैं इस शैतान का कहना मान लेती तो कुछ भी न होता. तुम पर कोई आरोप न लगता. मारपिटाई भी न होती और न ही मुझे पिंकी के साथ होटल में जाना पड़ता.
‘‘मैं उन औरतों जैसी नहीं हूं जो अपने पति से विश्वासघात कर ऐसे ढोंगी गुरु की हर बात मान लेती हैं,’’ मेनका बोली.
‘‘मेनका, तुम तो बहुत पहले से ही मुझे समझा रही थीं, पर मैं ही गहरी नींद में आंखें बंद किए हुए था. काश, मैं भी तुम्हारी तरह गुरुजी के जाल में न फंसता.’’
‘‘कोई बात नहीं, जब जागो तभी सवेरा,’’ मेनका ने अमित की ओर देखते हुए कहा.
अमित एक नई सीख ले कर अस्पताल से सीधा अपने घर की ओर चल दिया. उस ने मन में ठान लिया था कि घर जाते ही वह उस ढोंगी गुरु के दिए गए सामान को फिंकवा देगा.
‘‘मैं नहीं जाऊंगी. तुम पता नहीं क्यों बारबार मुझे अपने गुरुजी के पास ले जाना चाहते हो जबकि मैं किसी गुरुवुरु के चक्कर में नहीं पड़ना चाहती. अखबारों में और टैलीविजन पर आएदिन अनेक गुरुओं की करतूतों का भंडाफोड़ होता रहता?है,’’ मेनका बोली.
‘‘सभी गुरु एकजैसे नहीं होते. आज मैं ने जब गुरुजी से फोन पर कहा कि आप के दर्शन करना चाहता हूं तो उन्होंने कहा कि मेनका को भी साथ लाना. हम उसे भी आशीर्वाद देना चाहते हैं.’’
‘‘मुझे किसी आशीर्वाद की जरूरत नहीं है. तुम ही चले जाना.’’
‘‘मैं ने गुरुजी को वचन दिया है कि तुम्हें जरूर ले कर आऊंगा. तुम्हें मेरी कसम मेनका, तुम्हें मेरे साथ चलना होगा. अगर इस बार भी तुम मेरे साथ नहीं गईं तो मैं वहीं गंगा में डूब जाऊंगा,’’ अमित ने अपना फैसला सुनाया.
यह सुन कर मेनका कांप कर रह गई. वह जानती थी कि अमित गुरुजी के चक्रव्यूह में बुरी तरह फंस चुका है. उस पर गुरुजी का जादू सिर चढ़ कर बोल रहा है. वह भावुक भी है. अगर वह साथ न गई तो हो सकता है कि गुरुजी अमित को इतना बेइज्जत कर दें कि उस के सामने डूब कर मरने के अलावा कोई दूसरा रास्ता न बचे.
मेनका को मजबूरी में कहना पड़ा, ‘‘ऐसा मत कहो… मैं तुम्हारे साथ हरिद्वार चलूंगी.’’
अमित के चेहरे पर मुसकान फैल गई, ‘‘यह हुई न बात. मेनका, तुम्हें गुरुजी से मिल कर बहुत अच्छा लगेगा. वहां मुझे, तुम्हें और पिंकी को आशीर्वाद मिलेगा.’’
मेनका ने कोई जवाब नहीं दिया.
एक हफ्ते बाद अमित मेनका और पिंकी के साथ हरिद्वार जा पहुंचा. रेलवे स्टेशन से बाहर निकल कर उस ने एक आटोरिकशा किया और गुरुजी के आश्रम जा पहुंचा. शिष्यों ने उन के लिए एक कमरा खोल दिया.
सामान रख कर अमित ने मेनका से कहा, ‘‘कुछ देर आराम कर लेते हैं. शाम को गुरुजी से मिलेंगे और आरती देखेंगे. 2-3 दिन हरिद्वारऋषिकेश घूमेंगे.’’
शाम को तकरीबन 6 बजे अमित मेनका व पिंकी के साथ गुरुजी के कमरे के बाहर इंतजार में बैठ गया. कुछ देर बाद शिष्य ने उन को कमरे में भेजा.
कमरे में पहुंचते ही अमित ने हाथ जोड़ कर गुरुजी के चरणों में सिर रख दिया. मेनका ने भी चरण छू कर प्रणाम किया.
‘‘सदा सुखी रहो, सौभाग्यवती रहो,’’ गुरुजी ने आशीर्वाद दिया, ‘‘तुम्हारे घर में अपार सुख और वैभव आ रहा?है मेनका. तुम्हें जल्दी पुत्र रत्न भी प्राप्त होगा.
‘‘यह तुम्हारा पति अमित बहुत भोला और सीधासादा सच्चा इनसान है.’’
मेनका कुछ नहीं बोली.
गुरुजी ने मेनका की ओर देखते हुए कहा, ‘‘शाम की आरती में जरूर शामिल होना.’’
‘‘जी गुरुजी,’’ अमित ने तुरंत जवाब दिया.
शाम को साढ़े 7 बजे आश्रम के मंदिर में खूब जोरशोर से आरती हुई. गुरुजी और शिष्य आरती में लीन थे.
प्रसाद ले कर कमरे में लौट कर अमित ने कहा, ‘‘मुझे तो यहां आ कर बहुत अच्छा लगता है मेनका. तुम्हें कैसा लगा?’’
‘‘ठीक है.’’
कुछ देर बाद एक शिष्य ने आ कर कहा, ‘‘गुरुजी मेनका को बुला रहे हैं.’’
‘‘अभी आ रही है,’’ अमित बोला.
‘‘जाओ मेनका. लगता है, गुरुजी तुम्हें कुछ खास आशीर्वाद देना चाहते हैं.’’
‘‘मैं अकेली नहीं जाऊंगी,’’ मेनका ने कहा.
‘‘अरे मेनका, हम तो भाग्यशाली हैं. गुरुजी हमें बुला कर दर्शन और आशीर्वाद दे रहे हैं. बहुत से लोग तो इन से मिलने को तरसते रहते हैं. जाओ, देर न करो. पिंकी यहीं है मेरे पास,’’ अमित ने कहा.
मेनका को अकेले ही जाना पड़ा. वह धड़कते दिल से नमस्कार कर गुरुजी के सामने बैठ गई.
तख्त पर बैठे हुए गुरुजी ने उस की ओर देख कर कहा, ‘‘मेनका, तुम्हारा भविष्य बहुत ही उज्ज्वल है. जरा अपना हाथ दिखाओ. हम देखना चाहते हैं कि तुम्हारा भाग्य क्या कह रहा है?’’
मेनका ने न चाहते हुए भी गुरुजी की तरफ अपना हाथ बढ़ा दिया. उस की कोमल हथेली पकड़ कर गुरुजी गंभीर मुद्रा में खो गए.
मेनका के दिल की धड़कनें बढ़ने लगीं. उसे यह सब जरा भी अच्छा नहीं लग रहा था.
‘‘देखो मेनका, जब तक अमित तुम्हारे पास है तुम्हें बहुत सुख मिलेगा, पर…’’ कहतेकहते गुरुजी रुक गए.
‘‘लेकिन क्या गुरुजी…?’’ मेनका चौंकी.
‘‘अमित ज्यादा दिनों तक तुम्हारी जिंदगी में नहीं रहेगा. वह तुम्हारी जिंदगी से काफी दूर निकल जाएगा. बिना पति के पत्नी की हालत कटी पतंग की तरह होती है. यह तुम भी अच्छी तरह जानती हो. मुझे अमित और तुम्हारे बीच के संबंध के बारे में पूरी जानकारी है. जो तुम चाहती हो, वह नहीं चाहता.’’
‘‘गुरुजी, इस में गलती पर कौन है?’’ मेनका ने पूछा.
‘‘गलती पर कोई नहीं है. अपनेअपने सोचने का ढंग है. मैं तुम्हारे मन की हालत समझ रहा हूं. तुम एक प्यासी नदी की तरह हो मेनका. तुम सुंदर ही नहीं, बहुत सुंदर हो, पर तुम्हारे रूप का असर अमित पर जरा भी नहीं पड़ रहा है. अमित इस समय मेरे प्रभाव में है. अगर मैं चाहूं तो वह कभी भी सबकुछ छोड़ कर मेरी शरण में आ सकता है,’’ गुरुजी ने मेनका की ओर देखते हुए कहा.
‘‘आप कहना क्या चाहते हैं?’’
‘‘मेनका, तुम जितनी सुंदर हो, अमित उतना ही भोला है. वह तुम्हारी इच्छाओं को आज तक समझ नहीं पाया. तुम्हारा यह सुंदर रूप देख कर मेरी प्यास बढ़ गई है. मैं भी एक प्यासा सागर हूं,’’ कहते हुए गुरुजी ने मेनका की हथेली चूमनी चाही.
मेनका को लगा, जैसे उस के शरीर में कोई बिच्छू डंक मार देना चाहता है. उस ने एक झटके से अपना हाथ छुड़ा कर कहा, ‘‘यह क्या कर रहे हैं आप? यहां बुला कर आप ऐसी हरकतें करते हैं क्या?’’
‘‘मेनका, तुम्हें मेरी बात माननी होगी, नहीं तो तुम्हारा अमित तुम्हें छोड़ कर मेरी शरण में आ जाएगा. उस के बिना क्या तुम अकेली रह लोगी?’’
‘‘मैं अकेली रह लूंगी या नहीं, यह तो बाद की बात है, लेकिन मैं आप की असलियत जान चुकी हूं. इस देश में आप की तरह अनेक ढोंगी व पाखंडी गुरु हैं जिन के बारे में अखबारों में छपता रहता है.
‘‘अमित भोला है, पर मैं नहीं. मैं तो यहां आना ही नहीं चाहती थी. मुझे तो अमित की कसम के सामने मजबूर होना पड़ा. अब मैं आप के इस आश्रम में नहीं रहूंगी,’’ मेनका ने गुस्से में कहा.
यह सुनते ही गुरुजी खिलखिला कर हंस पड़े. मेनका हैरान सी गुरुजी की ओर देखती रह गई.
‘‘सचमुच तुम बहुत समझदार हो मेनका, तुम भोली नहीं हो. मैं तो तुम्हारा इम्तिहान ले रहा था. मैं यह देखना चाह रहा था कि तुम कितने पानी में हो. अब तुम जा सकती हो,’’ गुरुजी ने मेनका की ओर देखते हुए कहा.
मेनका बाहर निकली और तेजी से कमरे में लौट आई. आते ही मेनका ने कहा, ‘‘अब हम यहां नहीं रहेंगे.’’
‘‘क्यों, क्या बात हुई?’’ अमित ने हैरान हो कर पूछा.
‘‘यह तुम्हारे गुरुजी भी उन ढोंगी बाबाओं की तरह हैं जो पकड़े जा रहे हैं. असलियत खुल जाने पर जिन की जगह आश्रम में नहीं, जेल में होती है. कई गुरु जेल में हैं. देखना, किसी न किसी दिन तुम्हारा यह ढोंगी गुरु भी जरूर पकड़ा जाएगा.’’
‘‘क्या हुआ? कुछ बताओ तो सही? तुम तो गुरुजी के पास आशीर्वाद लेने गई थीं, फिर क्या हो गया जो तुम गुरुजी के लिए ऐसे शब्द बोल रही हो?’’
‘‘मैं तो पहले ही यहां आने के लिए मना कर रही थी. पर तुम्हारी कसम ने मुझे मजबूर कर दिया,’’ कहते हुए मेनका ने पूरी घटना सुना दी.
अमित कुछ कहने ही वाला था, तभी एक शिष्य ने कमरे में आ कर कहा, ‘‘अमितजी, आप को गुरुजी बुला रहे हैं.’’
अमित शिष्य के साथ चल दिया.
मेनका धड़कते दिल से कमरे में बैठी रही. उस की आंखों के सामने बारबार गुरुजी का चेहरा और वह सीन याद आ रहा था, जब गुरुजी ने उस का हाथ पकड़ कर चूमना चाहा था. उस के मन में गुरुजी के प्रति नफरत भर उठी.
कुछ देर बाद अमित लौटा और बोल उठा, ‘‘मेनका, यह तुम ने अच्छा नहीं किया जो गुरुजी की बेइज्जती कर दी. गुरुजी ने तो तुम्हें आशीर्वाद देने के लिए बुलाया था लेकिन तुम ने गुरुजी की शान में ऐसी बातें कह दीं, जो नहीं कहनी चाहिए थीं. अब तुम्हें मेरे साथ चल कर गुरुजी से माफी मांगनी पड़ेगी.’’
यह सुन कर मेनका समझ गई कि गुरुजी ने अमित से झूठ बोल दिया है. वह बोली, ‘‘अमित, यहां आ कर तो मैं बेइज्जत हुई हूं. गुरुजी ने जो हरकत मेरे साथ की है, उस के बाद तो मैं ऐसे गुरु की शक्ल भी देखना नहीं चाहूंगी. माफी मांगने का तो सवाल ही नहीं उठता है.’’
अमित का भी पारा ऊपर चढ़ने लगा. वह मेनका को घूरता हुआ बोला, ‘‘मेनका, मुझे गुस्सा न दिलाओ. मेरे गुरुजी झूठ नहीं बोलते. मेरे साथ चल कर तुम्हें माफी मांगनी पड़ेगी.’’
‘‘मुझे नहीं जाना तुम्हारे ढोंगी गुरु के पास.’’
अमित अपने गुस्से पर काबू न रख सका. उस ने एक जोरदार थप्पड़ मेनका के मुंह पर दे मारा और कहा, ‘‘मैं तुम्हारी शक्ल भी देखना नहीं चाहता…’’
‘‘मैं यहां से चली जाऊंगी अपनी बेटी को ले कर. आज की रात किसी होटल में रुक जाऊंगी. कल सुबह होते ही बस या टे्रन से वापस मेरठ चली जाऊंगी. तुम चाहे जितने दिन बाद आना.
‘‘देख लेना किसी न किसी दिन इस ढोंगी गुरु की पोल भी खुलेगी और यह भी जेल में पहुंचेगा.’’
मेनका ने एक बैग में अपने व पिंकी के कपड़े भरे और पिंकी को गोद में उठा कर आश्रम से बाहर निकल गई.
मेनका एक होटल में पहुंची और एक कमरा ले कर बिस्तर पर कटे पेड़ की तरह गिर पड़ी.
आश्रम के कमरे में बैठे अमित को बारबार मेनका पर गुस्सा आ रहा था. मेनका ने गुरुजी की बेइज्जती कर दी. वह माफी मांगने भी नहीं गई. वह बहुत हठी है. न जाने खुद को क्या समझती है वह. चली जाएगी जहां जाना होगा, वह तो अब उस से कभी बात नहीं करेगा. उसे ऐसी पत्नी नहीं चाहिए जो गुरुजी और उस की बात ही न सुने. इस के लिए उसे तलाक भी लेना पड़े तो वह पीछे नहीं हटेगा.
मोहिनी को लगने लगा था, उस के घर की छत पर टंगा यह आसमान का टुकड़ा केवल उसी की धरोहर है. बचपन से ले कर आज तक वह उस के साथ अपना सुखदुख बांटती आई है. गुडि़यों से खेलना बंद कर जब वह कालेज की किताबों तक पहुंची तो यह आसमान का टुकड़ा उस के साथसाथ चलता रहा. फिर जब चाचाचाची ने उस का हाथ किसी अजनबी के हाथ में थमा कर उसे विदा कर दिया, तब भी यह आसमान का नन्हा टुकड़ा चोरीचोरी उस के साथ चला आया. तब मोहिनी को लगा कि वह ससुराल अकेली नहीं आई, कोई है उस के साथ. उस भरेपूरे परिवार में पति के प्यार की संपूर्ण अधिकारिणी होने पर भी उस के हृदय का कोई कोना इन सारे सामाजिक बंधनों से परे नितांत खाली था और उसे वह अपनी कल्पना के रंगों से इच्छानुसार सजाती रहती थी.
मोहिनी के मातापिता बचपन में ही चल बसे थे. मां की तो उसे याद भी न थी. हां, पिता की कोई धुंधली सी आकृति उस के अवचेतन मन पर कभीकभी उभरती थी. किसी जमाने के पुराने रईसों का उन का परिवार था, जिस में बड़े चाचा के बच्चों के साथ पलती, बढ़ती मोहिनी को यों तो कोई अभाव न था किंतु जब कभी कोई रिश्तेदार उसे ‘बेचारी’ कह कर प्यार करने का उपक्रम करता तो वह छिटक कर दूर जा खड़ी होती और सोचती, ‘वह ‘बेचारी’ क्यों है? बिंदु व मीनू को तो कोई बेचारी नहीं कहता.’ एक दिन उस ने बड़े चाचा के सम्मुख आखिर अपना प्रश्न रख दिया, ‘पिताजी, मैं बेचारी क्यों हूं?’ इस अचानक किए गए भोले प्रश्न पर श्यामलाल अपनी छोटी सी मासूम भतीजी का मुंह ताकते रह गए. उन्होंने उसे पास खींच कर अपने से चिपटा लिया. अपने छोटे भाई की याद में उन की आंखें भर आई थीं, जिस से वे बेहद प्यार करते थे. उस की एकमात्र बेटी को उस की अमानत मान कर भरसक लाड़प्यार से पाल रहे थे.
यों तो चाची भी स्नेहमयी महिला थीं, किंतु जब वे अपनी दोनों बेटियों को अगलबगल लिटा कर अपने साथ सुलातीं तो दूर खड़ी मोहिनी उदास आंखों से उन का मुंह देखती, उस पर आतेजाते रिश्तेदार मोहिनी के मुंह पर ही कह जाते, ‘अभी तो इस का बोझा भी उतारना होगा, बिन मांबाप की बेटी ब्याहना आसान है क्या?’ और टुकुरटुकुर ताकती वह उन रिश्तेदारों के पास भी न फटकती. अपनी किताबें समेट कर मोहिनी छत पर जा बैठती. नन्हीमुन्नी प्यारीप्यारी कविताएं लिखती, चित्र बनाती, जिन में बादलों के पीछे छिपे उस के बाबूजी और मां उसे प्यार से देख रहे होते. इस तरह अपनी कल्पनाओं के जाल में उलझी, सिमटी मोहिनी बड़ी होती रही. वह अधिक सुंदर तो न थी किंतु उस के भोलेपन का आकर्षण अनायास ही लोगों को अपनी ओर खींच लेता था. बड़ीबड़ी आंखों में मानो सागर लहराता था. फिर एक दिन श्यामलाल के पुराने मित्र लाला हरदयाल ने अपने छोटे भाई के लिए मोहिनी को मांग ही लिया. यों तो शहर में लाला हरदयाल की गिनती भी पुराने रईसों में होती थी, किंतु अब वह सब शानोशौकत समाप्त हो चुकी थी.
उन का काफी बड़ा परिवार था. 5 छोटे भाई थे, जिन में से 2 अभी पढ़ ही रहे थे. मां थीं, अपनी पत्नी और 3 बच्चे थे. पिता का निधन हुए काफी समय हो चुका था और नरेंद्र के साथ मिल कर वे इस सारे परिवार के खर्चे का इंतजाम करते थे. नरेंद्र सभी भाइयों में सब से सीधा और आज्ञाकारी था. लाला हरदयाल उस के लिए किसी ऐसी लड़की को घर में लाना चाहते थे जो उन के परिवार के इस संगठन को बिखरने न दे. हरदयाल की पत्नी और मां में बनती न थी. काफी समय से वे किसी ऐसी सुलझी हुई, पढ़ीलिखी लड़की की तलाश में थे जो उन के घर के इस दमघोंटू वातावरण को बदल सके. श्यामलाल के यहां आतेजाते वे मोहिनी को अपने छोटे भाई नरेंद्र के लिए पसंद कर बैठे. श्यामलाल ने नरेंद्र को बचपन से देखा था, बेहद सीधा लड़का था, या यों कहिए कि कुछ हद तक दब्बू भी था. किंतु उस की नौकरी अच्छी थी. मोहिनी को उस घर में कोई कष्ट न होगा, यह श्यामलाल जानते थे. सो, पत्नी से पूछ उन्होंने विवाह के लिए हां कर दी. मोहिनी से पूछने की या उसे नरेंद्र से मिलवाने की आवश्यकता नहीं समझी गई, क्योंकि उस परिवार में ऐसी परंपरा ही न थी. बिंदु और मीनू के विवाह में भी उन की सहमति नहीं ली गई थी. मोहिनी और नरेंद्र का विवाह अत्यंत सीधेसादे ढंग से संपन्न हो गया. घर के दरवाजे पर बरात पहुंचते ही शोर मच गया, ‘‘बहू आ गई…बहू आ गई.’’
‘‘मांजी कहां हैं, भाभी?’’ पहली बार मोहिनी ने नरेंद्र के मुंह से कोई बात सुनी.
‘‘वे अंदर कमरे में हैं, अभी आएंगी. तुम दोनों थोड़ा सुस्ता लो. मैं चाय भेजती हूं,’’ और जेठानी चली गईं. थोड़ी ही देर में चाय की ट्रे उठाए 3-4 लड़कियों ने अंदर आ कर मोहिनी को घेर लिया. शीघ्र ही 2-3 लड़कियां और भी आ गईं. किसी के हाथ में नमकीन की प्लेट थी तो किसी के हाथ में मिठाई की. नई बहू को सब से पहले देखने का चाव सभी को था. नरेंद्र इस शैतानमंडली को देख कर घबरा गया. वह चाय का प्याला हाथ में थामे बाहर खिसक लिया.
‘‘भाभी, हमारे भैया कैसे लगे?’’ एक लड़की ने पूछा.
‘‘भाभी, तुम्हें गाना आता है?’’ दूसरी बोली.
‘‘अरे भाभी, हम सब तो नरेंद्र भैया से छोटी हैं, हम से क्यों शरमाती हो?’’ और भी इसी तरह के न जाने कितने सवाल वे करती जा रही थीं.
मोहिनी इन सवालों की बौछार से घबरा उठी. फिर सोचने लगी, ‘नरेंद्र की मांजी कहां हैं? क्या वे उस से मिलेंगी नहीं?’
चाय का प्याला थाम कर उस ने धीरे से सिर उठा कर उन सभी लड़कियों की ओर देखा, जिन के भोले चेहरों पर अपनत्व झलक रहा था किंतु आंखें शरारत से बाज नहीं आ रही थीं. मोहिनी कुछ सहज हुई और आखिर पूछ ही बैठी, ‘‘मांजी कहां हैं?’’
‘‘कौन, चाची? अरे, वे तो अभी तुम्हारे पास नहीं आएंगी. शगुन के सारे काम तो बड़ी भाभी ही करेंगी.’’ मोहिनी कुछ ठीक से समझ न पाई, इसलिए चुप ही रही. चुपचाप चाय पीती वह सोच रही थी, क्या वह अंदर जा कर मांजी से नहीं मिल सकती.
तभी जेठानी अंदर आ गईं, ‘‘चलो मोहिनी, मांजी के पांव छू लो.’’ मोहिनी उठ खड़ी हुई. सास के पास पहुंच कर उस ने बड़ी श्रद्धा से झुक कर उन के पांव छुए और इस इंतजार में झुकी रही कि अभी वे उसे खींच कर अपने हृदय से लगा लेंगी, किंतु ऐसा कुछ भी न हुआ.
‘‘सदा सुखी रहो,’’ कहते हुए उन्होंने उस के सिर पर हाथ रख दिया और वहां से चली गईं.
ममता की प्यासी मोहिनी को ऐसा लगा जैसे उस के सामने से प्यार का ठंडा अमृत कलश ही हटा लिया गया हो.
फूलों से सजे कमरे में रात्रि के समय नरेंद्र व मोहिनी अकेले थे. यों तो नरेंद्र स्वभाव से ही शर्मीला था, किंतु उस रात वह भी सूरमा बन बैठा. हिचकिचाती, अपनेआप में सिमटी मोहिनी को उस ने जबरन अपनी बांहों में समेट लिया.
जीवनभर के विश्वासों की नींव शायद इसी परस्पर निकटता की आधारशिला पर टिकी होती है. इसीलिए सुबह होतेहोते दोनों आपस में इस तरह घुलमिल कर बातें कर रहे थे मानो वर्षों से एकदूसरे को जानते हों. मोहिनी नरेंद्र के मन को भा गई थी. दसरे दिन सुबह सभी मेहमान जाने को हो रहे थे. रसोई में नाश्ते की व्यवस्था हो रही थी. शायद उसे भी काम में हाथ बंटाना चाहिए, यही सोच कर मोहिनी भी रसोई के दरवाजे पर जा खड़ी हुई. जेठानी प्यालों में चाय छान रही थीं और मां पूरियां उतार रही थीं.
मोहिनी ने धीरे से चकला अपनी ओर खिसका कर सास के हाथ से बेलन ले लिया और ‘मैं बेलती हूं, मांजी’ कह कर पूरियां बेलने लगी. उस की बेली 4-6 पूरियां उतारने के बाद ही सास धीरे से बोल उठीं, ‘‘नरेंद्र की बहू, पूरियां मोटी हो रही हैं…रहने दो, मैं ही कर लूंगी.’’ मोहिनी सहम कर बाहर आ गई. रात को मोहिनी ने नरेंद्र के कंधे पर सिर टिका कर 2 दिन से अपने हृदय में मथ रहे प्रश्न को पूछ ही लिया, ‘‘मांजी मुझे पसंद नहीं करतीं क्या?’’
नरेंद्र इस बेतुके, किंतु बिना किसी बनावट के किए गए सीधे प्रश्न से चौंक उठा, ‘‘क्यों, क्या हुआ?’’
‘‘मांजी मुझ से प्यार से बोलती नहीं, न ही मुझे अपने से चिपटा कर प्यार किया. भाभी ने तो प्यार किया लेकिन मांजी ने नहीं.’’
मोहिनी के दोनों हाथ थाम कर वह बोला, ‘‘मां को समझने में तुम्हें अभी कुछ समय लगेगा. वैधव्य के सूनेपन ने ही उन्हें रूखा बना दिया है, उस पर भाभी के साथ कुछ न कुछ खटपट चलती ही रहती है. इसी कारण मांजी अंतर्मुखी हो गई हैं. किसी से अधिक बोलती नहीं. कुछ दिन तुम्हारे साथ रह कर शायद वे बदल जाएं.’’
‘‘मैं पूरा यत्न करूंगी,’’ और अपनेआप में हलका महसूस करते हुए मोहिनी नरेंद्र से सट कर सो गई. दूसरे दिन सुबह नरेंद्र के बड़े भाई एवं भाभी भी बच्चों सहित लौट गए. नरेंद्र से छोटे दोनों भाई अपनीअपनी नौकरियों पर वापस चले गए थे और 2 सब से छोटे भाई, जो नरेंद्र के पास रह कर पढ़ाई करते थे, अपनी पढ़ाई में व्यस्त हो गए.
नरेंद्र ने एक सप्ताह की छुट्टी ले ली थी. मोहिनी सोच रही थी कि शायद वे दोनों कहीं बाहर जाएंगे. किंतु नरेंद्र ने उस से बिना कुछ छिपाए अपने मन की बात उस के सामने रख दी, ‘‘मांजी और छोटे भाइयों को अकेला छोड़ कर हमारा घूमने जाना उचित नहीं.’’
मोहिनी खुशीखुशी पति की बात मान गई थी. उसे तो वैसे भी अपने दोनों छोटे देवर बहुत प्यारे लगते थे. मायके में बहनें तो थीं, लेकिन छोटे भाई नहीं. हृदय के किसी कोने में छिपा यह अभाव भी मानो पूरा होने को था. किंतु वे दोनों तो उस से इस कदर शरमाते थे कि दूरदूर से केवल देखते भर रहते थे. कभी मोहिनी से आंखें मिल जातीं तो शरमा कर मुंह छिपा लेते. तब मोहिनी हंस कर रह जाती और सोचती, ‘कभी तो उस से खुलेंगे.’ एक दिन मोहिनी को अवसर मिल ही गया. दोपहर का समय था. नरेंद्र किसी काम से बाहर गए हुए थे और मां पड़ोस में किसी से मिलने गई हुई थीं. अचानक दोनों देवर रमेश और सुरेश किताबें उठाए स्कूल से वापस आ गए.
‘‘मां, जल्दी से खाना दो, स्कूल में छुट्टी हो गई है. अब हम मैच खेलने जा रहे हैं.’’ किताबें पटक कर दोनों रसोई में आ धमके, किंतु वहां मां को न पा दोनों पलटे तो दरवाजे पर भाभी खड़ी थीं, हंसती, मुसकराती.
‘‘मैं खाना दे दूं?’’ मोहिनी ने हंस कर पूछा तो दोनों सकुचा कर बोले, ‘‘नहीं, मां ही दे देंगी, वे कहां गई हैं?’’
‘‘पड़ोस में किसी से मिलने गई हैं. उन्हें तो मालूम नहीं था कि आप दोनों आने वाले हैं. चलिए, मैं गरमगरम परांठे सेंक देती हूं.’’
मोहिनी ने रसोई में रखी छोटी सी मेज पर प्लेटें लगा दीं. सुबहसुबह जल्दी से सब यहीं इसी मेज पर खापी कर भागते थे. मोहिनी ने फ्रिज से सब्जी निकाल कर गरम की. कटा हुआ प्याज, हरीमिर्च, अचार सबकुछ मेज पर रखा. फ्रिज में दही दिखाई दिया तो उस का रायता भी बना दिया. ये सारी तैयारी देख रमेश व सुरेश कूद कर मेज के पास आ धमके. जल्दीजल्दी गरम परांठे उतार कर देती भाभी से खाना खातेखाते उन की अच्छीखासी दोस्ती भी हो गई. स्कूल के दोस्तों का हाल, मैच में किस की टीम अच्छी है, कौन सा टीचर अच्छा है, कौन नहीं आदि सब खबरें मोहिनी को मिल गईं. उस ने उन्हें अपने मायके के किस्से सुनाए. बिंदु और मीनू के साथ होने वाले छोटेमोटे झगड़े और फिर छत पर बैठ कर उस का कविताएं लिखना, सबकुछ सुरेश, रमेश को पता लग गया. ‘‘अरे वाह भाभी, तुम कविता लिखती हो? तब तो तुम हमें हिंदी भी पढ़ा सकती हो?’’ सुरेश उत्साहित हो कर बोला.
‘‘हांहां, क्यों नहीं. अपनी किताबें मुझे दिखाना. हिंदी तो मेरा प्रिय विषय है. कालेज में तो…’’ और मोहिनी बोलतेबोलते सहसा रुक गई क्योंकि चेहरे पर अजीब सा भाव लिए मांजी दरवाजे के पास खड़ी थीं. मोहिनी से कुछ न कह वे अपने दोनों बेटों से बोलीं, ‘‘तुम दोनों मेरे आने तक रुक नहीं सकते थे.’’
रमेश और सुरेश को तो मानो सांप ही सूंघ गया. मां के चेहरे का यह कठोर भाव उन के लिए नया था. भाभी से खाना मांग कर उन्होंने क्या गलती कर दी है, समझ न सके. हाथ का कौर हाथ में ही पकड़े खामोश रह गए. पल दो पल तो मोहिनी भी चुप ही रही, फिर हौले से बोली, ‘‘ये दोनों तो आप ही को ढूंढ़ रहे थे. आप थीं नहीं तो मैं ने सोचा, मैं ही खिला दूं.’’
‘‘क्यों? क्या घर में फल, डबलरोटी… कुछ भी नहीं था जो परांठे सेंकने पड़े?’’ मां ने तल्खी से पूछा.
‘‘ऐसा नहीं है मांजी. मैं ने सोचा बच्चे हैं, जोर की भूख लगी होगी, इसलिए बना दिए.’’
‘‘तुम्हारे बच्चे तो नहीं हैं न? मैं खुद ही निबट लेती आ कर,’’ अत्यंत निर्ममतापूर्वक कही गई सास की यह बात मोहिनी को मानो अंदर तक चीर गई, ‘क्या रमेश, सुरेश उस के कुछ नहीं लगते? नरेंद्र के छोटे भाइयों को प्यार करने का क्या उसे कोई हक नहीं? उन पर केवल मां का ही एकाधिकार है क्या? फिर कल जब ये दोनों भी बड़े हो जाएंगे तो मांजी क्या करेंगी? विवाह तो इन के भी होंगे ही, फिर…?’
रमेश व सुरेश न जाने कब के अपने कमरों में जा दुबके थे और मांजी अपनी तीखी दृष्टि के पैने चुभते बाणों से मोहिनी का हृदय छलनी कर अपने कमरे में जा बैठी थीं. एक अजीब सा तनाव पूरे घर में छा गया था. मोहिनी की आंखें छलछला आईं. उसे याद आया अपना मायका, जहां वह किसी पक्षी की भांति स्वतंत्र थी, जहां उस का अपना आसमान था, जिस के साथ अपने छोटेमोटे सुखदुख बांट कर हलकी हो जाती थी. मोहिनी को लगा, अब भी उस के साथसाथ चल कर आया आसमान का वह नन्हा टुकड़ा उस का साथी है, जो उसे हाथ हिलाहिला कर ऊपर बुला रहा है. वह नरेंद्र की अलमारी में कुछ ढूंढ़ने लगी. एक सादी कौपी और पैन उसे मिल ही गया. जल्दीजल्दी धूलभरी सीढि़यां चढ़ती हुई वह छत पर जा पहुंची. कैसी शांति थी वहां, मानो किसी घुटनभरी कैद से मुक्ति मिली हो. मन किसी पक्षी की भांति बहती हवा के साथ उड़ने लगा. धूप छत से अभीअभी गई थी. पूरा माहौल गुनगुना सा था. वहीं जीने की दीवार से पीठ टिका कर मोहिनी बैठ गई और कौपी खोल कर कोई प्यारी सी कविता लिखने की कोशिश करने लगी.
विचारों में उलझी मोहिनी के सामने सास का एक नया ही रूप उभर कर आया था. उसे लगा, व्यर्थ ही वह मांजी से अपने लिए प्यार की आशा लगाए बैठी थी. इन के प्यार का दायरा तो इतना सीमित, संकुचित है कि उस में उस के लिए जगह बन ही नहीं सकती और जैसेजैसे उन के बेटों के विवाह होते जाएंगे, यह दायरा और भी सीमित होता जाएगा, इतना सीमित कि उस में अकेली मांजी ही बचेंगी. मोहिनी के मुंह में न जाने कैसी कड़वाहट सी घुल गई. उस का हृदय वितृष्णा से भर उठा. जीवन का एक नया ही पक्ष उस ने देखा था. शायद नरेंद्र भी 23 वर्षों में अपनी मां को इतना न जान पाए होंगे जितना इन कुछ पलों में मोहिनी जान गई. साथ ही, वह यह भी जान गई कि प्यार यदि बांटा न जाए तो कितना स्वार्थी हो सकता है. मोहिनी ने मन ही मन एक निश्चय किया कि वह प्यार को इन संकुचित सीमाओं में कैद नहीं करेगी. मांजी को बदलना ही होगा. प्यार के इस सुंदर कोमल रूप से उन्हें परिचित कराना ही होगा.
शिखा की आंखों से नींद कोसों दूर थी. मन में तरहतरह की आशंकाएं घुमड़ रही थीं. उस की बेचैन निगाहें बारबार घड़ी की ओर जा टिकतीं. रात का 1 बज चुका था, कहां रह गए शिशिर?
दोपहर में इंदौर से आए फोन ने उसे लगभग चेतना शून्य ही कर दिया था. बड़ी भाभी ने रुंधे गले से बमुश्किल इतना बताया कि तुम्हारे भैया को हार्ट अटैक हुआ है… आईसीयू में भरती करा दिया है. डाक्टरों ने तुरंत बाईपास सर्जरी की आवश्यकता बताई है, जिस पर करीब 2 लाख रुपए खर्च आएगा.
भाभी इस बात को ले कर काफी व्यथित थीं कि इस समय इतने रुपए की व्यवस्था कहां से और कैसे हो सकेगी. शिखा ने भाभी को हौसला बनाए रखने की सलाह दी व शीघ्र इंदौर पहुंचने का आश्वासन दिया.
कुछ संयत हो कर शिखा ने सब से पहले शिशिर को फोन कर के घटना की जानकारी दी. शिशिर की व्यस्तता से वह भलीभांति परिचित थी इसलिए अकेले ही भैया के पास जाने की इच्छा व्यक्त की, लेकिन शिशिर का अब तक घर न पहुंचना अनेक आशंकाओं को जन्म दे रहा था. एकएक मिनट घंटों के समान बीत रहा?था. इंतजार के इन पलों में उस के मानस पटल पर वह कभी न भूलने वाली घटना चलचित्र की भांति जीवंत हो उठी.
शिखा के विवाह से पहले की बात है. मां को ब्रेन हैमरेज हो गया था. काफी इलाज के बाद वह ठीक तो हुईं पर अकसर बीमार रहने लगीं. शिखा पर पढ़ाई के साथसाथ घरगृहस्थी की पूरी जिम्मेदारी भी आ पड़ी. कभी पीएच.डी. को अपना ध्येय बना चुकी शिखा ने पारिवारिक कर्तव्यों की पूर्ति के लिए अपने लक्ष्य को तिलांजलि दे दी और एक स्थानीय स्कूल में शिक्षिका की नौकरी कर ली.
भैया तो नौकरी के सिलसिले में पहले ही इंदौर शिफ्ट हो चुके थे. छोटे भाईबहन और मां की देखभाल की जिम्मेदारी बखूबी निबाहते हुए वह पूरी तरह परिवार को समर्पित हो गई.
समय पंख लगाए उड़ रहा था. मां को रहरह कर उस के विवाह की चिंता सताए जाती थी. शिखा के सद्गुणों व घरेलू कार्यों में निपुणता की प्रशंसा सुन कर कई प्रस्ताव आ रहे थे किंतु शिखा इस शहर से दूर शादी करने को कतई तैयार नहीं हुई. उस का अपना वजनदार तर्क था कि दूर की ससुराल से वह जरूरत पड़ने पर मां के पास जल्दी नहीं आ सकेगी.
आखिर उस की इच्छानुसार इसी शहर के एक प्रतिष्ठित परिवार में उस का विवाह हो गया. नए परिवार में नई जिम्मेदारियों ने शिखा का स्वागत किया. नौकरी व परिवार के बीच सामंजस्य बिठाती हुई शिखा की व्यस्तता दिनोंदिन बढ़ती गई.
पहले हफ्ते 10 दिन में मायके का चक्कर लग जाता था पर बिटिया के जन्म के बाद धीरेधीरे यह अवधि बढ़ने लगी. फिर?भी समय निकाल कर कभीकभी टेलीफोन पर मां का हालचाल पूछ लिया करती.
एक दिन शिखा स्कूल से घर लौटी ही थी कि छोटे भाई का फोन आ गया, ‘दीदी, मां की तबीयत बिगड़ गई है. डाक्टर ने चेकअप कर कुछ टेस्ट कराए हैं… रिपोर्ट देख कर पूरी दवा लिखेंगे.’
शिखा का मन मां से मिलने को व्याकुल हो उठा. शिशिर के आफिस में आडिट चल रहा था इसलिए वह रोज देर से घर लौट रहे थे. इधर गुडि़या को भी सुबह से बुखार था. उसे ले कर सर्दी के इस मौसम में कैसे घर से निकले, यह प्रश्न शिखा को दुविधा में डाल रहा था. रात को थकेमांदे लौटे शिशिर को उस ने मां की तबीयत खराब होने की बात बताई तो उन्होंने, ‘कल देखने चलेंगे,’ कह कर बात समाप्त कर दी.
अगला दिन भी नियमित दिनचर्या से कतई अलग नहीं था. फिर भी समय निकाल कर शिखा ने भाई से फोन पर मां के हालचाल पूछे और शाम को आने का वादा किया. शाम को शिशिर का फोन आ गया कि चीफ आडिटर आज ही काम समाप्त कर वापस जाना चाहते हैं अत: घर लौटने में देर हो जाएगी. शिखा मनमसोस कर रह गई लेकिन उसे यह जान कर तसल्ली हुई कि बड़े भैया आ गए हैं और मां को अस्पताल में भरती कराया जा रहा है.
सुबह आफिस के लिए निकलते हुए शिशिर ने कहा, ‘मैं आडिट रिपोर्ट डाक से भिजवा कर लंच तक वापस लौट आऊंगा… तुम तैयार रहना… मां को देखने अस्पताल चलेंगे.’ शिखा ने कोई जवाब नहीं दिया. पिछले 3 दिन से ये कोरे आश्वासन ही तो मिल रहे थे.
गुडि़या को सुबह की दवा दे कर शिखा उठी ही थी कि अचानक फोन की घंटी बजी. किसी अनहोनी की आशंका से उस का दिल धड़क उठा. आशंका निर्मूल नहीं थी. ‘मां नहीं रहीं…’ ये शब्द पिघले शीशे की तरह उस के कानों में उतरते चले गए.
मातृशोक ने उस के हृदय को छलनी कर दिया. जिस मां की सेवा में कभी उस ने रातदिन एक कर दिया था, आज एक ही शहर में रहते हुए उन्हें अंतिम बार जीवित भी न देख सकी.
खबर मिलते ही शिशिर भी तुरंत घर लौट आए और दोनों अस्पताल जा पहुंचे. सभी का रोरो कर बुरा हाल था. भैया ने बताया कि आखिरी वक्त तक मां की आंखें बस, शिखा को ही तलाश रही थीं. गमगीन माहौल में शिशिर एक कोने मेें स्तब्ध से खड़े थे. उन्हें आत्मग्लानि हो रही थी कि अपनी व्यस्तता के कारण वह एक महत्त्वपूर्ण पारिवारिक दायित्व को नहीं निभा सके.
वक्त हर जख्म का मरहम है. ‘मां’ अतीत हो गईं किंतु एक टीस, शिखा और शिशिर के मन में हमेशा के लिए छोड़ गईं.
शिखा की वैचारिक तंद्रा टूटी. आज पुन: वही मंजर सामने था. उस के भैया जिंदगी और मौत के बीच झूल रहे थे… क्या इस बार भी वही कहानी दोहराई जाएगी… नियति उस की राह में रोड़े अटका रही है या शिशिर को काम के अलावा किसी की परवा नहीं… क्या इस संकट की घड़ी में वह भैयाभाभी का संबल बन सकेगी…
तभी दरवाजे की घंटी बजी… शिखा ने बेसब्री से दरवाजा खोला. सामने शिशिर खड़े थे, चेहरे पर दिनभर की भागदौड़ के स्पष्ट निशान लिए. शिखा ने सोचा कि अभी कोई व्यस्तता का नया बहाना सुनने को मिलेगा जिस के लिए वह मानसिक रूप से तैयार भी थी.
सोफे पर बैठते हुए शिशिर ने चुपचाप बैग खोला और 500 के नोटों की 4 गड्डियां उसे सौंपते हुए कहा, ‘‘सौरी शिखा… तुम्हारा फोन आने के बाद से ही आपरेशन के रुपए की व्यवस्था करने में जुट गया था. बैंक की एफडी तो दिन में तुड़वा ली थी, बाकी रुपयों की व्यवस्था दोस्तों से करने में इतनी रात हो गई… जल्दी तैयारी कर लो.. सुबह की ट्रेन से हम इंदौर जा रहे हैं.’’
शिखा हतप्रभ रह गई. उस के मन से संशय और अनिश्चय का कुहासा छंट गया. आज शिशिर ने वह कर दिखाया था जिस की उस ने उम्मीद भी नहीं की थी. वह कितना गलत समझ रही थी. उस की आंखों से अश्रुधार बहने लगी… इन आंसुओं ने वह फांस निकाल कर बाहर की, जो मां के निधन के वक्त से उस के हृदय में धंसी हुई थी.
शिशिर बेहद आत्मिक शांति का अनुभव कर रहे थे. शायद उन्होंने बरसों पहले हुई चूक का प्रायश्चित्त कर लिया था.
‘‘शाम के धुंधलके में अचानक उस का मुंह दबा कर 2 अनजान लोगों ने बेचारी के साथ जबरदस्ती की. देर रात में गांव के कुछ लोगों ने लहूलुहान उसे हालत में झडि़यों में बेहोश पड़े देखा. छोटे से गांव में आग की तरह यह खबर फैल गई. मंदिर के महंत और धर्म के ठेकेदार जमा हो गए. लड़की पर सैकड़ों लांछन लगे. उसे जाति व समाज से बाहर कर दिया गया. उस के परिवार को जाति से बाहर कर खेत और संपत्ति छीनने की धमकी दी गई, फिर गांव से बाहर निकलने को कहा गया.
‘‘मजबूर मांबाप अपने बच्चों के भविष्य की दुहाई दे कर बहुत गिड़गिड़ाए, तब मंदिर का महंत इस बात पर राजी हुआ कि परिवार पहले जैसा ही घर और खेत ले कर गांव में रह सकता है परंतु लड़की चूंकि अपवित्र हो चुकी है, इस के कारण गांव पर कोई विपत्ति न आए इस के लिए उसे मंदिर में ईश्वर की सेवा में सौंप दिया जाए. आखिर में समाज के दबाव के चलते उस के पिता को मजबूर हो कर उन की बात माननी पड़ी.
‘‘ईश्वर की सेवा का तो बस दिखावा था. असल में वह महंत और धर्म के ठेकेदारों और जमींदारों की वासनापूर्ति का माध्यम बनी. इन धर्म के ढोंगी ठेकेदारों का यही काम होता है. पहले धर्म का डर दिखा कर लड़की को घर से निकाल कर मंदिर की सेवा में अर्पण करने या आश्रम में रहने के लिए मजबूर करो और फिर उस का जी भर कर दैहिक शोषण करो. एक दिन बेचारी मौका पा कर जैसेतैसे वहां से भाग कर शहर की मिशनरी में आश्रय लेने पहुंची. पर वहां तो उस की और दुर्गति हुई. वहां के कार्यकर्ता स्वयं तो उस का शोषण करते ही, उसे दूसरी जगहों पर भी सप्लाई करने लगे…’’ डा. आशा की आंखों से आंसू बहने लगे.
‘‘फिर उस का क्या हुआ?’’ रिया का स्वर कांप रहा था. शायद वह स्वयं को उस की स्थिति में महसूस कर रही थी.
‘‘जब बेचारी उन के भोग और वासना पूर्ति के लायक नहीं रही, तो एक दिन उसे एक सरकारी अस्पताल के सामने फेंक कर चले गए. मैं उस समय उसी अस्पताल में नौकरी कर रही थी. उसी ने मुझे इन आश्रमों और धार्मिक संस्थानों की घिनौनी सचाई के बारे में बताया. उस की हालत इतनी नाजुक थी कि मैं बहुत कोशिशों के बाद भी उसे बचा नहीं पाई.’’
डा. आशा अपनी आंखें पोंछ कर आगे बोलीं, ‘‘इसलिए मैं कहती हूं कि पवित्रअपवित्र जैसी खोखली दकियानूसी बातों में कुछ नहीं रखा है. बीती बातों को भूल कर अपने परिवार के साथ रहो.’’
रिया पर उन की बातों का गहरा असर हुआ. 4 दिनों में ही वह झूठे अपराधबोध से बाहर निकल कर स्वस्थ हो गई. जब उस ने मम्मीपापा से आगे बढ़ने की इच्छा प्रकट की तो उन की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. रिया ने जीतोड़ मेहनत की और एमबीबीएस में सिलैक्ट हो गई. जब वह डाक्टर बन कर इंटर्नशिप कर रही थी, तभी डा. आशा भी वहीं आ गईं. उन के अंडर में ही रिया ने एमडी किया.
जन्म से ही घुट्टी में मिली हुई रूढिवादी मान्यताओं को अपने मन से निकाल फेंकना आसान नहीं था. पर रिया ने साहसपूर्वक यह कर दिखाया और हिम्मत से अपने जीवनपथ पर आगे बढ़ती रही. उसी साहस और सचाई के चलते वह यह बात नीरज से छिपाना नहीं चाहती थी. जिस हिम्मत से उस ने समाज की थोथी मान्यताओं और कुसंस्कारों को झटक कर अपने लिए एक रास्ता बनाया था, वह चाहती थी कि नीरज सारी सचाई को जान कर उसी हिम्मत से उसे स्वीकार कर उस के साथ जीवनपथ पर आगे बढ़े.
रात के 2 बज गए थे. रिया तो अपने अतीत को रात में देखा बुरा सपना समझ कर झटक चुकी थी, लेकिन नीरज से वह यह बात छिपा कर उसे धोखे में नहीं रखना चाहती थी. अत: उस ने फैसला किया कि वह कल नीरज को सब कुछ बता देगी. यह फैसला करने पर ही उसे नींद आई.
दूसरे दिन रिया की ड्यूटी नहीं थी. उस ने नीरज को फोन लगाया. संयोग से उस दिन उस की भी छुट्टी थी. 4 बजे लेकव्यू स्थित विंड्स ऐंड वेव्स पर उन का मिलना तय हुआ.
4 बजे रिया नियत स्थान पर पहुंची तो देखा नीरज पहले से ही वहां बैठा था. नीरज ने उठ कर उस का स्वागत किया. रिया का कलेजा धड़कने लगा, परंतु जल्द ही उस ने अपनेआप को संयत किया और नीरज के सामने वाली कुरसी पर बैठ गई. कुछ औपचारिक बातों के बाद रिया ने झिझकते हुए नीरज से कहा, ‘‘मुझे आप से कुछ कहना है.’’
‘‘कहो न,’’ नीरज के स्वर में प्रेमपूर्ण आग्रह था.
रिया ने हिम्मत जुटा कर निगाहें नीची कर के अपने साथ हुई दुर्घटना की पूरी बात नीरज को बता दी. फिर उस की आंखों से आंसू छलकने लगे. उस ने बड़ी मुश्किल से अपनेआप को संयत किया, लेकिन आंखें उठा कर नीरज की ओर देखने की उस की हिम्मत नहीं हो रही थी. उसे लग रहा था कि जिन नजरों में थोड़ी देर पहले तक उस के लिए प्यार झलक रहा था, उन में अब घृणा झलक रही होगी. वह आंखें नीचे किए ही बैठी रही. तभी अचानक अपने हाथ पर नीरज के हाथ का स्पर्श पा कर उस ने चौंक कर निगाहें ऊपर उठाईं तो आश्चर्यचकित रह गई. नीरज
अब भी उस की ओर प्यार से देख रहा था. नीरज ने रिया का हाथ प्यार से सहलाया और कहा, ‘‘मैं तुम्हारे बारे में पहले से ही सब कुछ जानता था.’’
‘‘क्या? लेकिन आप को किस ने बताया?’’ रिया अवाक रह गई.
‘‘डा. आशा रिश्ते में मेरी बूआ लगती हैं. उन्होंने ही तुम्हारे बारे में हमें बताया था. सुनते ही मैं ने तय किया था कि मैं ऐसी हिम्मत व आत्मविश्वास से भरी लड़की से शादी करूंगा. लेकिन खुद सचाई बता कर तुम ने मेरे मन में अपने लिए सम्मान और बढ़ा लिया है,’’ नीरज ने संक्षेप में बताया.
‘‘लेकिन मैं… मैं तो अपवित्र…’’ आगे की बातें रिया के गले में ही अटक कर रह गईं.
‘‘नहीं रिया, बूआ की तरह मैं भी यह मानता हूं कि इस में दोष उस हैवान का रहता है, जो यह नीच कार्य करता है. रास्ता चलते यदि कोई गाड़ी वाला हम पर कीचड़ के छींटे डाल कर चला जाए, तो हम घर आ कर नहा कर कपड़े धो लेते हैं न. उन छींटों को सहेज कर उम्र भर अपने से घिन तो नहीं करते? तुम भी उन छींटों को धो डालो. मेरे लिए तुम वैसी ही निर्मल, उज्ज्वल हो. तुम्हारी कोई गलती नहीं,’’ नीरज के स्वर में प्यार और अपनापन था.
रिया विभोर हो गई. ‘‘तो अब झटपट बता दो कि तुम्हें हमारा नीरज पसंद है कि नहीं ताकि हम जल्द से जल्द तुम दोनों की सगाई करा सकें,’’ अपने पीछे से अचानक किसी की आवाज सुन कर रिया ने मुड़ कर देखा तो डा. आशा मुसकरा रही थीं.
‘‘आप के बहुत से एहसान हैं मुझ पर मैडम,’’ रिया की आंखों में खुशी के आंसू आ गए.
‘‘मैडम नहीं, अब मैं तुम्हारी बूआसास हूं. और यह तो तुम्हारे लिए मेरा प्यार और अपनापन है पगली, कोई एहसान नहीं. अब झटपट बता दो कि सगाई कब कराऊं?’’ डा. आशा ने पूछा तो रिया ने एक नजर नीरज पर डालते हुए शरमा कर जवाब दिया, ‘‘जब आप चाहें…’’
यह सुनते ही डा. आशा ने रिया और नीरज दोनों को अपनी बांहों में भर लिया.
दोपहर का खाना खा कर मेनका थोड़ी देर आराम करने के लिए कमरे में आई ही थी कि तभी दरवाजे की घंटी बज उठी.
मेनका ने झल्लाते हुए दरवाजा खोला. सामने डाकिया खड़ा था.
डाकिए ने उसे नमस्ते की और पैकेट देते हुए कहा, ‘‘मैडम, आप की रजिस्टर्ड डाक है.’’
मेनका ने पैकेट लिया और दरवाजा बंद कर कमरे में आ गई. वह पैकेट देखते ही समझ गई कि इस में एक किताब है. पैकेट पर भेजने वाले गुरुजी के हरिद्वार आश्रम का पता लिखा हुआ था.
मेनका की जरा भी इच्छा नहीं हुई कि वह उस किताब को खोल कर देखे या पढ़े. वह जानती थी कि यह किताब गुरु सदानंद ने लिखी है. सदानंद उस के पति अमित का गुरु था. वह उठतेबैठते, सोतेजागते हर समय गुरुजी की ही बातें करता था, जबकि मेनका किसी गुरुजी को नहीं मानती थी.
मेनका ने किताब का पैकेट एक तरफ रख दिया. अजीब सी कड़वाहट उस के मन में भर गई. उस ने बिस्तर पर लेट कर आंखें बंद कर लीं. साथ में उस की 3 साल की बेटी पिंकी सो रही थी.
मेनका समझ नहीं पा रही थी कि उसे अमित जैसा अपने गुरु का अंधभक्त जीवनसाथी मिला है तो इस में किसे दोष दिया जाए?
शादी से पहले मेनका ने अपने सपनों के राजकुमार के पता नहीं कैसेकैसे सपने देखे थे. सोचा था कि शादी के बाद वह अपने पति के साथ हनीमून पर शिमला, मसूरी या नैनीताल जाएगी. पहाड़ों की खूबसूरत वादियों में उन दोनों का यादगार हनीमून होगा.
मेनका के सारे सपने शादी की पहली रात को ही टूट गए थे. उस रात वह अमित का इंतजार कर रही थी. काफी देर के बाद अमित कमरे में आया था.
अमित ने आते ही कहा था, ‘देखो मेनका, आज की रात का हर कोई बहुत बेचैनी से इंतजार करता है पर मैं उन में से नहीं हूं. मेरा खुद पर बहुत कंट्रोल है.’
मेनका चुपचाप सुन रही थी.
‘सदानंद मेरे गुरुजी हैं. हरिद्वार में उन का बहुत बड़ा आश्रम है. मैं कई सालों से उन का भक्त हूं. उन के उपदेश मैं ने कई बार सुने हैं. उन की इच्छा के खिलाफ मैं कुछ भी करने की सोच ही नहीं सकता.
‘मैं ने तो गुरुजी से कह दिया था कि मैं शादी नहीं करना चाहता पर गुरुजी ने कहा था कि शादी जरूर करो तो मैं ने कर ली.’
मेनका चुपचाप अमित की ओर देख रही थी.
अमित ने आगे कहा था, ‘देखो मेनका, आज की रात हमारी अनोखी रात होगी. हम नए ढंग से शादीशुदा जिंदगी की पहली रात मनाएंगे. मेरे पास गुरुजी की कई किताबें हैं. मैं तुम्हें एक किताब से गुरुजी के उपदेश सुनाऊंगा जिन्हें सुन कर तुम भी मान जाओगी कि हमारे गुरुजी कितने ज्ञानी और महान हैं.
‘और हां मेनका, मैं तुम्हें एक बात और भी बताना चाहता हूं…’
‘क्या?’ मेनका ने पूछा था.
‘मेरा तुम से एक वादा है कि तुम मां जरूर बनोगी यानी तुम्हें तुम्हारा हक जरूर मिलेगा, क्योंकि गुरुजी ने कहा है कि गृहस्थ जीवन में ब्रह्मचर्य व्रत को तोड़ना पड़ता है.’
मेनका जान गई थी कि अमित गुरुजी के जाल में बुरी तरह फंसा हुआ है. उस के सारे सपने बिखरते चले गए थे.
अमित एक सरकारी दफ्तर में बाबू के पद पर काम करता था. जब भी उसे समय मिलता तो वह गुरुजी की किताबें ही पढ़ता रहता था.
एक दिन किताब पढ़ते हुए अमित ने कहा था, ‘मेनका, गुरुजी के प्रवचन पढ़ कर तो ऐसा मन करता है कि मैं भी संन्यासी हो जाऊं.’
यह सुन कर मेनका को ऐसा लगा था मानो कुछ तेज सा पिघल कर उस के दिल को कचोट रहा है. वह शांत आवाज में बोल उठी थी, ‘मेरे लिए तो तुम अब भी संन्यासी ही हो.’
‘ओह मेनका, मैं मजाक नहीं कर रहा हूं. मैं सच कह रहा हूं. अगर तुम गुरुजी की यह किताब पढ़ लो, तुम भी संन्यासिनी हो जाने के लिए सोचने लगोगी,’ अमित ने वह किताब मेनका की ओर बढ़ाते हुए कहा था.
‘अगर इन गुरुओं की किताबें पढ़पढ़ कर सभी संन्यासी हो गए तो काम कौन करेगा? मैं गृहस्थ जीवन में संन्यास की बात क्यों करूं? अगर तुम्हारी तरह मैं भी संन्यासी बनने के बारे में सोचने लगूंगी तो हमारी बेटी पिंकी का क्या होगा? बिना मांबाप के औलाद किस तरह पलेगी? बड़ी हो कर उस की क्या हालत होगी? उस के मन में हमारे लिए प्यार नहीं नफरत होगी. इस नफरत के जिम्मेदार हम दोनों होंगे.
‘जिस बच्चे को हम पालपोस नहीं सकते, उसे पैदा करने का हक भी हमें नहीं है और जिसे हम ने पैदा कर दिया है उस के प्रति हमारा भी तो कुछ फर्ज है,’ मेनका कहा था.
अमित ने कोई जवाब नहीं दिया था.
एक दिन दफ्तर से लौट कर अमित ने कहा था, ‘मेनका, मेरे दफ्तर में 3 दिन की छुट्टी है. मैं सोच रहा हूं कि हम दोनों गुरुजी के आश्रम में हरिद्वार चलेंगे.’
‘मैं क्या करूंगी वहां जा कर?’
‘जब से हमारी शादी हुई है, तुम एक बार भी वहां नहीं गई हो. अब तो तुम मां भी बन चुकी हो. हमें गुरुजी का आशीर्वाद लेना चाहिए… वे हमारे भगवान हैं.’
‘मेरे नहीं सिर्फ तुम्हारे. जहां तक आशीर्वाद लेने की बात है, वह भी तुम ही ले लो. मुझे नहीं चाहिए किसी गुरु का आशीर्वाद.’
‘मेनका, मैं ने फोन कर के पता कर लिया है. गुरुजी अगले एक हफ्ते तक आश्रम में ही हैं. तुम मना मत करो.’
‘देखो अमित, मैं नहीं जाऊंगी,’ मेनका ने कड़े शब्दों में कहा था.
अमित को गुरुजी से मिलने के लिए अकेले ही हरिद्वार जाना पड़ा था.
3 दिन बाद अमित गुरुजी से मिल कर घर लौटा तो बहुत खुश था.
‘दर्शन हो गए गुरुजी के?’ मेनका ने पूछा था.
‘हां, मैं ने तो गुरुजी से साफसाफ कह दिया था कि आप की शरण में यहां आश्रम में आना चाहता हूं… हमेशा के लिए. गुरुजी ने कहा कि अभी नहीं, अभी वह समय बहुत दूर है. कभी मेनका से बात कर उसे भी समझाएंगे.’
‘वे भला मुझे क्या समझाएंगे? क्या मैं कोई गलत काम कर रही हूं या कोई छोटी बच्ची हूं? तुम ही समझते रहो और आशीर्वाद लेते रहो,’ मेनका ने कहा था.
तभी मेनका को पिंकी के रोने की आवाज सुनाई पड़ी. पिंकी नींद से जाग चुकी थी. मेनका उसे थपकियां दे कर दोबारा सुलाने की कोशिश करने लगी.
शाम को अमित दफ्तर से लौट कर आया तो मेनका ने कहा, ‘‘आज आप के गुरुजी की किताब आई है डाक से.’’
इतना सुनते ही अमित ने खुश हो कर कहा, ‘‘कहां है… लाओ.’’
मेनका ने अमित को किताब का वह पैकेट दे दिया.
अमित ने पैकेट खोल कर किताब देखी. कवर पर गुरुजी का चित्र छपा था. दाढ़ीमूंछें सफाचट. घुटा हुआ सिर. चेहरे पर तेज व आंखों में खिंचाव था.
अमित ने मेनका को गुरुजी का चित्र दिखाते हुए कहा, ‘‘देखो मेनका, गुरुजी कितने आकर्षक और तेजवान लगते हैं. ऐसा मन करता है कि मैं हरदम इन को देखता ही रहूं.’
‘‘तो देखो, मना किस ने किया है.’’
‘‘मेनका, तुम जरा एक कप चाय बना देना. मैं अपने गुरुजी की यह किताब पढ़ रहा हूं,’’ अमित बोला.
मेनका चाय बना कर ले आई और मेज पर रख कर चली गई.
अमित गुरुजी की किताब पढ़ने में इतना खो गया कि उसे समय का पता ही नहीं चला.
रात के साढ़े 8 बज गए तो मेनका ने कहा, ‘‘अब गुरुजी को ही पढ़ते रहोगे क्या? खाना खा लीजिए, तैयार है.’’
‘‘अरे हां मेनका, मैं तो भूल ही गया था कि मुझे खाना भी खाना है. गुरुजी की किताब सामने हो तो मैं सबकुछ भूल जाता हूं.’’
‘‘किसी दिन मुझे ही न भुला देना.’’
‘‘अरे वाह, तुम्हें क्यों भुला दूंगा? तुम क्या कोई भूलने वाली चीज हो…’’ अमित ने कहा, ‘‘ठीक है, तुम खाना लगाओ… मैं आता हूं.’’
मेनका रसोई में चली गई.
रात के 11 बजे थे. मेनका आंखें बंद किए बिस्तर पर लेटी थी. साथ में पिंकी सो रही थी. अमित आराम से बैठा हुआ गुरुजी की किताब पढ़ने में मगन था. तभी वह पुरानी यादों में खो गया.
कुछ साल पहले अमित अपने दोस्त से मिलने चंडीगढ़ गया था. दोस्त के घर पर ही गुरुजी आए हुए थे. तब पहली बार वह गुरुजी के दर्शन और उन के प्रवचन सुन कर बहुत प्रभावित हुआ था.
कुछ महीने बाद अमित गुरुजी के आश्रम में हरिद्वार जा पहुंचा था. आश्रम में गुरुजी के कई शिष्य थे जो आनेजाने वालों की खूब देखभाल कर रहे थे.
अमित उस कमरे में पहुंचा जहां एक तख्त पर केसरी रंग की महंगी चादर बिछी थी. उस पर गुरुजी केसरी रंग का कुरता व लुंगी पहने हुए बैठे थे. भरा हुआ शरीर. गोरा रंग. चंदन की भीनीभीनी खुशबू से कमरा महक रहा था. 8-10 मर्दऔरत गुरुजी के विचार सुन रहे थे. अमित ने गुरुजी के चरणों में माथा टेका था.
कुछ देर बाद अमित कमरे में अकेला ही रह गया था.
‘कैसे हो बच्चा?’ गुरुजी ने उस से पूछा था.
‘कृपा है आप की. आप के पास आ कर मन को बहुत शांति मिली. गुरुजी, मन करता है कि मैं यहीं आप की सेवा में रहने लगूं.’
‘नहीं बच्चा, अभी तुम पढ़ाई कर रहे हो. पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़े हो जाओ. यह आश्रम तुम्हारा ही है, कभी भी आशीर्वाद लेने आ सकते हो.’
‘जी, गुरुजी.’
‘एक बात का ध्यान रखना बच्चा कि औरत से हमेशा बच कर रहना. उस से बचे रहोगे तो खूब तरक्की कर सकोगे, नहीं तो अपनी जिंदगी बरबाद कर लोगे. ब्रह्मचर्य से बढ़ कर कोई सुख संसार में नहीं है,’ गुरुजी ने उसे समझाया था.
उस के बाद जब कभी अमित परेशान होता तो गुरुजी के आश्रम में जा पहुंचता.
विचारों में तैरतेडूबते अमित को नींद आ गई और वह खर्राटे भरने लगा.
2 महीने बाद एक दिन दफ्तर से लौट कर अमित ने कहा, ‘‘मेनका, अगले हफ्ते गुरुजी के आश्रम में चलना है.’
‘‘तो चले जाना, किस ने मना किया है,’’ मेनका बोली.
‘‘इस बार मैं अकेला नहीं जाऊंगा. तुम्हें भी साथ चलना है.’’
समय की गति और तेज हो चली थी. देखते ही देखते 4 वर्ष बीत गए. शांत कोलकाता में अपना पीजी भी पूरा करने जा रहा था. इस बीच उस ने हम लोगों से लगातर संपर्क बनाए रखा था. खासकर मेरे और संजय के जन्मदिन पर और शादी की सालगिरह पर बधाई और तोहफा देना कभी नहीं भूलता था. शांत ने अभी तक शादी नहीं की थी.
इन दिनों मेरे मातापिता और सासससुर काफी चिंतित रहते थे. हम दोनों पतिपत्नी भी, क्योंकि अभी तक हमारी कोई संतान न थी. मैं ने दिन भर के अकेलेपन से बचने के लिए पास का एक प्राइवेट स्कूल जौइन कर लिया था.
एक दिन शांत पटना आया था, तो हम लोगों से भी मिलने आया. बातोंबातों में संजय ने हमारी चिंता का कारण बताते हुए कहा, ‘‘अरे डाक्टर, कुछ हम लोगों का भी इलाज करो यार. यहां तो डाक्टरों ने जो भी कहा वह किया पर कोई फायदा नहीं हुआ. यहां के डाक्टर ने हम दोनों का टैस्ट भी लिया और कहा कि मैं पिता बनने में सक्षम ही नहीं हूं…इस के बाद से हम से ज्यादा दुखी हमारे मातापिता रहते हैं.’’
मैं भी वहीं बैठी थी. शांत ने हम दोनों को कोलकाता आने के लिए कहा कि वहां किसी अच्छे स्पैशलिस्ट की राय लेंगे.
संजय ने बिना देर किए कहा, ‘‘हां, यह ठीक रहेगा. तनुजा ने अभी तक कोलकाता नहीं देखा है.’’
अगले हफ्ते हम कोलकाता पहुंच गए. अगले दिन शांत हमें डाक्टर के पास ले गया.
एक बार फिर से दोनों के टैस्ट हुए. यहां भी डाक्टर ने यही कहा कि संजय संतान पैदा करने में सक्षम नहीं है. शांत ने डाक्टर दंपती से अकेले में कुछ बात की, फिर संजय से कहा कि बाकी बातें घर चल कर करते हैं.
उसी शाम जब हम तीनों शांत के यहां चाय पी रहे थे, तो उस ने मुझे और संजय दोनों की ओर देख कर कहा, ‘‘अब तो समस्या का मूल कारण हम सब को पता है, किंतु चिंता की बात नहीं है, क्योंकि इस का भी हल मैडिकल साइंस में है. दूसरा विकल्प किसी बच्चे को गोद लेना है.’’
संजय ने कहा, ‘‘नहीं, तनु किसी और के बच्चे को गोद लेने को तैयार नहीं है…जल्दी से पहला उपाय बताओ डाक्टर.’’
‘‘तुम दोनों ध्यान से सुनो. तनु में मां बनने के सारे गुण हैं. उसे सिर्फ सक्षम पुरुष का वीर्य चाहिए. यह आजकल संभव है, बिना परपुरुष से शारीरिक संपर्क के. उम्मीद है तुम ने सैरोगेसी के बारे में सुना होगा…इस प्रक्रिया द्वारा अगर सक्षम पुरुष का वीर्य तनु के डिंब में स्थापित कर दिया जाए तो वह मां बन सकती है,’’ शांत बोला.
यह सुन कर मैं और संजय एकदूसरे का मुंह देखने लगे.
तभी शांत ने आगे कहा, ‘‘इस में घबराने की कोई बात नहीं है. डाक्टर विजय दंपती के क्लीनक में सारा प्रबंध है. तुम लोग ठीक से सोच लो…ज्यादा समय व्यर्थ न करना. अब आए हो तो यह शुभ कार्य कर के ही जाना ठीक रहेगा. सब कुछ 2-3 दिन के अंदर हो जाएगा.’’
थोड़ी देर सब खामोश रहे, फिर संजय ने शांत से कहा, ‘‘ठीक है, हमें थोड़ा वक्त दो. मैं पटना अपने मातापिता से भी बात कर लेता हूं.’’
मैं ने और संजय दोनों ने पटना में अपनेअपने मातापिता से बात की. उन्होंने भी यही कहा कि कोई और विकल्प नहीं है तो सैरोगेसी में कोई बुराई नहीं है.
उस रात शांत ने जब पूछा कि हम ने क्या निर्णय लिया है तो मैं ने कहा, ‘‘हम ने घर पर बात कर ली है. उन को कोई आपत्ति नहीं है. पर मेरे मन में एक शंका है.’’
शांत के कैसी शंका पूछने पर मैं फिर बोली, ‘‘किसी अनजान के वीर्य से मुझे एक डर है कि न जाने उस में कैसे जीन्स होंगे और जहां तक मैं जानती हूं इसी पर बच्चे का जैविक लक्षण, व्यक्तित्व और चरित्र निर्भर करता है.’’
‘‘तुम इस की चिंता छोड़ दो. डाक्टर विजय और उन के क्लीनिक पर मुझे पूरा भरोसा है. मैं उन से बात करता हूं. किसी अच्छे डोनर का प्रबंध कर लेंगे,’’ कह शांत अपने कमरे में जा कर डाक्टर विजय से फोन पर बात करने लगा. फिर बाहर आ कर बोला, ‘‘सब इंतजाम हो जाएगा. उन्होंने परसों तुम दोनों को बुलाया है.’’
अगले दिन सुबह शांत ने कहा था कि उसे अपने अस्पताल जाना है. पर मुझे बाद में पता चला कि वह डाक्टर विजय के यहां गया था. डाक्टर विजय को उस ने मेरी चिंता बताई थी. उन्होंने शांत को अपना वीर्य देने को कहा था. पहले तो वह तैयार नहीं था कि तनु न जाने उस के बारे में क्या सोचेगी. तब डाक्टर विजय ने उस से कहा था कि इस बात की जानकारी किसी तीसरे को नहीं होगी. फिर शांत का एक टैस्ट ले कर उस का वीर्य ले कर सुरक्षित रख लिया.
अगले दिन मैं, संजय और शांत तीनों डाक्टर विजय के क्लीनिक पहुंचे. उन्होंने कुछ पेपर्स पर मेरे और संजय के हस्ताक्षर लिए जो एक कानूनी औपचारिकता थी. इस के बाद मुझे डाक्टर शालिनी अपने क्लीनिक में ले गईं. उन्होंने मेरे लिए सुरक्षित रखे वीर्य को मेरे डिंब में स्थापित कर दिया. वीर्य के डोनर का नाम गोपनीय रखा गया था. सारी प्रक्रिया 2 घंटों में पूरी हो गई.
देखते ही देखते 9 महीने बीत गए. वह दिन भी आ गया जिस का हमें इंतजार था. मैं एक सुंदर कन्या की मां बनी. पूरा परिवार खुश था. पार्टी का आयोजन भी किया गया. शांत भी आया था.
6 महीने ही बीते थे कि संजय को औफिस के काम से 1 हफ्ते के लिए सिक्किम जाना पड़ा. इन के जाने के 3 दिन बाद सिक्किम में आए भूंकप में इन की मौत हो गई. शांत स्वयं सिक्किम से संजय के पार्थिव शरीर को ले कर आया. अब चंद मास पहले की खुशी को प्रकृति के एक झटके ने गम में बदल डाला था. पर वक्त का मलहम बड़े से बड़े घाव को भर देता है. संजय को गुजरे 6 माह बीत चुके थे. शांत जब भी पटना आता बेबी के लिए ढेर सारे खिलौने लाता और देर तक उस के साथ खेलता था. अब बेबी थोड़ा चलने लगी थी.
एक दिन शांत लौन में बेबी के साथ खेल रहा था. मैं भी 2 कप चाय ले कर आई और कुरसी पर बैठ गई. मैं ने एक कप उसे देते हुए पूछा, ‘‘बेबी तुम्हें तंग तो नहीं करती? तुम इसे इतना वक्त देते हो…शादी क्यों नहीं कर लेते?’’
शांत ने तुरंत कहा, ‘‘तुम्हारी जैसी अब तक दूसरी मिली ही नहीं.’’
मैं ने सिर्फ, ‘‘तुम भी न,’’ कहा.
इधर शांत मेरे मातापिता एवं सासससुर से जब भी मिलता पूछता कि तनु के भविष्य के बारे आप लोगों ने क्या सोचा है? मैं अभी भी उस से प्यार करता हूं और सहर्ष उसे अपनाने को तैयार हूं. एक बार उन्होंने कहा कि तुम खुद बात कर के देख लो.
तब शांत ने कहा था कि वह इस बात की पहल खुद नहीं कर सकता, क्योंकि कहीं तनु बुरा मान गई तो दोस्ती भी खटाई में पड़ जाएगी.
एक बार मेरी मां ने मुझ से कहा कि अगर मैं ठीक समझूं तो शांत से मेरे रिश्ते की बात करेगी. पर मैं ने साफ मना कर दिया. इस के बाद उन्होंने शांत पर मुझ से बात करने का दबाव डाला.
इसीलिए शांत ने आज फिर कहा, ‘‘तनु अभी बहुत लंबी जिंदगी पड़ी है. तुम शादी क्यों नहीं कर लेती हो? बेबी को भी तो पिता का प्यार चाहिए?’’
मैं ने झुंझला कर कहा, ‘‘कौन देगा बेबी को पिता का प्यार?’’
‘‘मैं दूंगा,’’ शांत ने तुरंत कहा.
इस बार मैं गुस्से में बोली, ‘‘मैं बेबी को सौतेले पिता की छाया में नहीं जीने दूंगी, फिर चाहे तुम ही क्यों न हो.’’
‘‘अगर उस का पिता सौतेला न हो सगा हो तो?’’
‘‘क्या कह रहे हो? पागल मत बनो,’’ मैं ने कहा.
शांत ने तब मुझे बताया, ‘‘डाक्टर विजय के क्लीनिक में जब तुम ने वीर्य के जींस पर अपनी शंका जताई थी, तो मैं ने डाक्टर को यह बात कही थी. तब उन्होंने मुझे सलाह दी कि मैं तुम्हारा सच्चा दोस्त हूं तो यह काम मैं ही करूं. तुम ने अपनी कोख में 9 महीने तक मेरे ही अंश को संभाला था. अगर संजय जिंदा होता तो यह राज कभी न खुलता.’’
मैं काफी देर तक आश्चर्यचकित उसे देखती रही. फिर मैं ने फैसला किया कि मेरी बेबी को पिता का भी प्यार मिले…मेरी बेबी जो हम दोनों के अंश से बनी है अब अंशिका कहलाती है.
वृंदा ने बात को जल्दी ही समाप्त किया और लगभग भागती हुई अपने घर आ गई. घंटेभर शांति से बैठने के बाद जब उस की सांसें स्थिर हुईं तब उसे घर छोड़ कर बाहर अकेले रहने का अपना फैसला गलत लगने लगा. कितना कहा था रवि ने कि इसी घर में पड़ी रहो, पर वह कहां मानी. स्वाभिमान और आत्मसम्मान आड़े आ रहा था. पता नहीं क्या हो गया था उसे. भूल गई थी कि औरतों का भी कहीं सम्मान होता है. पर उसे तो स्वयं पर भरोसा था, समाज पर विश्वास था. सुनीसुनाई बातें वह मानती नहीं थी.
उस के अनुभव में भी अब तक ऐसी कोई घटना नहीं थी कि वह डरती. किंतु अब तक वह पति के द्वारा छोड़ी भी तो नहीं गई थी. पति ने छोड़ा है उसे? नहीं, वृंदा स्वाभिमान से घिर जाती. वह पति के द्वारा छोड़ी गई नहीं है बल्कि उस ने अपने पति को छोड़ा था. जब वह अपने पति द्वारा दिए अपमान को न सह सकी तब डा. निगम से इतना डर क्यों? इसी साहस के बल पर वह अकेले रहने निकली है? डा. निगम जैसे तो अब पगपग पर मिलेंगे. कब तक डरेगी?
अंधेरा घिर आया था. किसी ने दरवाजा फिर खटखटाया. वृंदा फिर भयभीत हुई. भय अंदर तक समाने की कोशिश कर रहा था, किंतु वृंदा ने उठ कर पूरे साहस के साथ दरवाजा खोल दिया. दरवाजे के सामने पड़ोस में रहने वाली मिसेज श्रीवास्तव खड़ी थीं. वृंदा को उदास देख उन्हें शंका हुई. उन्होंने कारण पूछा तो वृंदा रो पड़ी तथा शाम को घटी घटना का बयान ज्यों का त्यों उन के सामने कर दिया. फिर मिसेज श्रीवास्तव के प्रयास से ही 15 दिन के भीतर उसे यह कमरा मिला था.
वृंदा ने एक गहरी सांस ली. कमरे में रखे सामान पर उस की नजर गई. इस कमरे में तमाम सामान के साथ एक अटैची भी थी, जिस में सब से नीचे एक तसवीर रखी थी. तसवीर में रवि मुसकरा रहा था. वृंदा जब उस अटैची को खोलती तो उस तसवीर को जरूर देख लेती. क्या था इस तसवीर में? क्यों इसे इतना संभाल कर रखती है वह? बारबार इसे देखने की उस की इच्छा क्यों उमड़ती है? वह तो रवि से नफरत करती है. इतनी नफरत के बाद भी वह तसवीर उस की अटैची में कैसे है? उस ने महसूस किया कि न सिर्फ अटैची में है उस की तसवीर बल्कि अपनी हर छोटीमोटी परेशानी में वह सब से पहले रवि को ही याद करती है. क्या उस के हृदय में रवि के प्रति प्रेम जैसा कुछ अब भी है?
जितनी बार वृंदा के मन में ये विचार, ये प्रश्न उठते, उतनी ही बार वह मन को विश्वास दिलाती कि ऐसा कुछ नहीं है. यह तसवीर तो वह अपनी बेटियों के लिए लाई है, खुद अपने लिए नहीं. बेटियां पूछेंगी अपने पापा के बारे में तो वह बता सकेगी कि देखो, ये हैं तुम्हारे पापा, यह चेहरा है उन का, इस चेहरे से करो नफरत कि इस चेहरे ने किया है अनाथ तुम्हें. उस की बच्चियां और अनाथ? वह क्या कर रही है फिर? उस ने अपने अस्तित्व को नकार दिया है क्या? बस रवि ही सब कुछ था क्या? दुख में रवि, खुशी में रवि, नफरत में रवि. उलझ गई है वृंदा. वह रवि को जितना नकारती है, रवि उतना ही उसे याद आता है तभी तो अटैची खोलते ही वह सामान बाद में निकालती है तसवीर को पहले देखती है.
वृंदा अब लेटी नहीं रह पा रही थी. वह उठ कर खिड़की के पास तक आई. बाहर अभी भी अंधेरा था किंतु सुबह होने में अब अधिक देर नहीं थी. सरसराती हवा कमरे में आ रही थी. वृंदा ने अपने माथे को खिड़की से टिका दिया और एक लंबी सांस ली, चलो किसी तरह एक रात और बीती.
आज बच्चों के स्कूल में ऐनुअल फंक्शन था. उस ने बच्चियों को जगाया और अपने काम में लग गई. प्राची अपने कपड़ों को उलटनेपलटने लगी. गिनती के कपड़ों में वह यह देख रही थी कि अब तक कौन सी ड्रैस पहन कर स्कूल नहीं गई है. किंतु बारबार पलटने पर भी उसे एक भी ऐसी ड्रैस नहीं मिल रही थी. इन सब कपड़ों को एक बार तो क्या कईकई बार पहन कर वह स्कूल गई है. हार कर उस ने एक पुरानी फ्रौक निकाल ली और नहाने के लिए बाथरूम में घुसी.
रश्मि अभी तक बिस्तर पर लेटी थी. प्राची को बाथरूम में जाते देख चिल्लाने लगी कि पहले वह नहाएगी. रश्मि का रोना सुन कर प्राची बाथरूम से बाहर आ गई ताकि रश्मि ही पहले नहा ले. प्राची के हाथ में फ्रौक थी. रश्मि फ्रौक को खींचती हुई बोली, ‘‘इसे मैं पहनूंगी, तुम दूसरी पहन लेना. फ्रौक बड़ी है इस बात की चिंता उसे नहीं थी. वह तो खुश थी कि प्राची यह फ्रौक नहीं पहन पाई, बस.
इधर, कुछ दिनों से वृंदा रश्मि की इन आदतों, जिस में प्राची की चीजों को छीन लेना और उसे हरा देना शामिल होता जा रहा था, से परेशान थी. और शायद इसलिए आजकल उसे डरावने सपने भी अधिक आने लगे थे. वृंदा को रश्मि के जन्म के समय मैटरनिटी होम में कहे गए उस बंगाली महिला के शब्द याद आ गए. उस के दोनों बच्चों में मात्र सालभर का अंतर है, यह जानते ही बंगाली महिला ने उसे सलाह दी थी, ‘इस को, इस के हाथ से केला खिला देना. तब वह बहन से हिंसा नहीं करेगी.’
हिंसा शब्द ईर्ष्या शब्द के पर्याय में बोला गया था. यह तो वृंदा भलीभांति समझ गई थी, किंतु केला बड़ी बेटी के हाथ से छोटी को खिलाए या छोटी बेटी के हाथ से बड़ी बेटी को, यह नहीं समझ पाई थी. समझने का प्रयास भी नहीं किया था, कहीं केला खिलाने से प्रेम और द्वेष हो सकता है भला.
पर अब उस के मन में कभीकभी आता है कि वह पूरी तरह क्यों नहीं उस बंगाली महिला की बात को समझी. समझ कर वैसा कर लेती तो शायद रश्मि प्राची से इतनी ईर्ष्या न करती. लेकिन प्राची इतनी उदार कैसे हो गई? कहीं अनजाने में उस ने रश्मि को केला खिला तो नहीं दिया था. वृंदा झुंझला उठी, क्या हो गया है उसे? किनकिन बातों में विश्वास करने लगी है वह?
स्कूल के स्टेज पर एक कार्यक्रम के बाद दूसरा कार्यक्रम था. तालियों पर तालियां बज रही थीं, किंतु वृंदा का मन अपने ही द्वारा बुने गए विचारों में उलझा था. समारोह समाप्त होने पर सब बच्चों को स्कूल की तरफ से एकएक पैकेट चिप्स और चौकलेट दी गई. बच्चे खुश हो कर घर लौटे.
वृंदा का मन अब तक उदास था. वह बेमन से घर के कामों को निबटाने लगी.
प्राची ने रश्मि से पूछा, ‘‘रश्मि चौकलेट का स्वाद कैसा था?’’
‘‘अच्छा, बहुत अच्छा,’’ रश्मि ने इठलाते हुए जवाब दिया.
‘‘तुम्हें नहीं मिली थी क्या?’’ वृंदा के काम करते हाथ रुक गए.
‘‘हां, मिली थी.’’
‘‘फिर तुम ने भी तो खाई होगी?’’
‘‘नहीं.’’
‘‘क्यों?’’
‘‘रश्मि ने मांग ली थी.’’
‘‘उसे भी तो मिली होगी?’’
‘‘हां, उसे मिली थी, पर उसे और खानी थी.’’
‘‘आधी दे देनी थी, पूरी क्यों दी?’’
‘‘रश्मि रोने लगी थी, मम्मी.’’
प्राची के जवाब से वृंदा का धैर्य थर्रा कर टूट गया. उस ने प्राची के गाल पर तड़ातड़ कई थप्पड़ जड़ दिए, ‘‘उस ने मांगी और तुम ने दे दी, अपनी चीजों को बचाना नहीं आता तुम्हें? तुम दादी बन रही हो? तुम्हें क्या लगता है कि रश्मि तुम्हारा बड़ा मानसम्मान करेगी कि तुम ने हर पल अपने हिस्से को उसे दिया है…अरे, यों ही देती रहोगी तो एक दिन वह तुम से तुम्हारा जीवन भी छीन लेगी…अब उसे कुछ दोगी, बोलो, अब दोगी अपनी चीजें उसे…’’ वृंदा प्राची को मारे जा रही थी और बोले जा रही थी.
मां का रौद्र रूप देख कर रश्मि डर के मारे एक कोने में दुबक गई थी. वृंदा के मारते हाथ जब थोड़े रुके तो वह स्वयं फूटफूट कर रोने लगी और वहीं दीवार के सहारे जमीन पर बैठ गई.
घंटों रो लेने के बाद उस ने कमरे में नजर दौड़ाई. खिड़की के बाहर एक स्याह परदा पड़ गया है. भीतर की पीली रोशनी में कमरा कुछ उदास और खोयाखोया सा लग रहा था. उस की दोनों बेटियां रोतेरोते वहीं उस के पास जमीन पर ही सो गई थीं. रश्मि प्राची की गोद में दुबक गई थी और प्राची का हाथ रश्मि के सिर पर था. वृंदा का मन विह्वल हो गया. वह क्यों पिछली जिंदगी की गुत्थियों में उलझी है? 10 साल पहले घटी एक घटना का अब तक इतना गहरा प्रभाव? वह गलत राह पर है. उसे इस छाया को अपनी जिंदगी से मिटाना पड़ेगा. कितना प्रेम तो है दोनों में? वह क्यों अलगाव के बीज बो रही है. उस के इस व्यवहार से तो दोनों एकदूसरे से बहुत दूर हो जाएंगी. उस ने तय किया कि अब वह कभी पीछे लौट कर नहीं देखेगी. वह काली छाया अपनी बेटियों पर नहीं पड़ने देगी. उस ने बारीबारी से दोनों के सिर पर हाथ फेरा और आश्चर्य उसे यह हुआ कि आज इस अवसाद की स्थिति में भी उस ने रवि को याद नहीं किया.
महीने भर में रिया के शरीर की खरोंचें और घाव तो ठीक हो गए, लेकिन वह अपने साथ हुए हादसे को भूल नहीं पा रही थी. न वह खातीपीती, न स्कूल जाने या पढ़ने को तैयार होती. बस बिस्तर पर लेटी हुई एक ही बात बोलती रहती, ‘‘मुझे मर जाने दो, मुझे मर जाने दो.’’
मम्मीपापा, भैया ने बहुत कोशिश की वह दोबारा पढ़ने में अपना मन लगा ले तो यह हादसा भूल जाएगी, लेकिन उस की जीने की इच्छा ही खत्म हो चुकी थी. वह अपने मन की गहराई में कहीं अपनेआप को ही गुनहगार मान बैठी थी. उसे अपने शरीर से घृणा हो गई थी.
मम्मीपापा को उस के भविष्य की चिंता होने लगी. उन की मेधावी बेटी का भविष्य एक हैवान ने बरबाद कर दिया था. उन्होंने बहुत कोशिश की पता लगाने की, मगर नहीं जान पाए कि वह कौन शैतान था, जिस ने एक मासूम की खुशियां, उस का सुनहरा भविष्य, उस की प्यारी मुसकराहट सब कुछ बरबाद कर दिया.
डा. आशा अब भी कभीकभी रिया से मिलने आ जाती थीं. उन्हें उस से हमदर्दी हो गई थी. वे स्वयं भी इस घटना से बहुत दुखी और क्षुब्ध थीं और नहीं चाहती थीं कि इतनी अच्छी प्रतिभा यों घुट कर रह जाए.
एक दिन वे रिया से बोलीं, ‘‘बेटा, अब तो तुम ठीक हो चुकी हो. स्कूल जाना और पढ़ना शुरू करो. इस साल तो तुम्हें बहुत मेहनत से पढ़ना होगा, क्योंकि तुम्हें मैडिकल की तैयारी भी तो करनी है. अब समय मत गंवाओ और कल से ही स्कूल जाना शुरू करो.’’
‘‘क्या करूंगी मैं पढ़ कर? मैं अब जीना नहीं चाहती. सब कुछ खत्म हो गया.’’
उस का सदमे से भरा सपाट स्वर सुन कर आशाजी धक रह गईं. सचमुच रिया में जीने की कोई इच्छा बाकी नहीं रह गई थी. फिर भी उन्होंने कोशिश करना नहीं छोड़ा. वे उसे सम?ाने लगीं, ‘‘पढ़ कर तुम डाक्टर बनोगी. तुम्हारे तो मम्मीपापा, भाईबहन सब हैं. जीते तो वे भी हैं जिन का कोई नहीं होता. फिर तुम्हारा तो पूरा परिवार है. उन के लिए और डाक्टर बन कर लोगों का दुख बांटने के लिए तुम्हें जीना है, लोगों की सेवा करनी है. अपने लिए नहीं तो दूसरों के लिए जीना सीखो रिया. यों हिम्मत हारने से कुछ नहीं होता.’’
‘‘आप तो जानती हैं मेरे साथ क्या हुआ. मैं स्कूल जाऊंगी तो सब मु?ा से दूर भागेंगे. कौन अपनी लड़की को मेरे साथ रहने देगा. तब मेरे साथसाथ मेरे घर वालों का भी घर से बाहर निकलना बंद हो जाएगा आंटी. सब जगह मेरी बदनामी होगी,’’ और रिया फफकफफक कर रो दी.
आशाजी ने उसे रोने दिया. वे चाहती थीं कि रिया के मन का सारा गुबार निकल जाए, तभी वह कुछ अच्छा सोच और समझ पाएगी. वे चुपचाप उस की पीठ पर हाथ फेरती रहीं. जब रिया कुछ शांत हुई तब उन्होंने उसे प्यार से देखा और बोलीं, ‘‘दुनिया बस कालापीपल तक ही सीमित नहीं है. तुम दूसरे शहर भी जा सकती हो. मैं तुम्हारे पापा से कहूंगी वे अपना ट्रांसफर करा लें और ऐसी जगह चले जाएं जहां तुम्हें कोई न पहचानता हो और तुम सहजता से रह सको.’’
रिया की आंखों में क्षण भर को एक चमक सी आ गई. फिर बोली, ‘‘लेकिन मैं तो वही रहूंगी न. लोग मुझे नहीं जानेंगे, लेकिन मैं कैसे भूल पाऊंगी कि मेरे साथ क्या हुआ है?’’ रिया की आंखों में फिर एक भय उभर आया.
इसी बात का डा. आशा को डर था. दरअसल, हमारे समाज का ढांचा ही ऐसा है कि बचपन से ही लड़की को यह सिखाया जाता है कि विवाह होने तक उसे अक्षत यौवना रहना चाहिए. पति के अलावा किसी भी पुरुष के छूने या कौमार्य भंग होने से लड़की अपवित्र हो जाती है. बचपन से ही रूढिवादी समाज ऐसी मान्यताएं लड़की के मन में कूटकूट कर भर देता है और इन खोखली मान्यताओं के जाल में उलझ बेचारी पीडि़ता निर्दोष होते हुए भी किसी दूसरे के कुकर्म की सजा उम्र भर भोगने को विवश हो जाती है.
रिया भी ऐसे ही समाज में पलीबढ़ी है, इसलिए उस में भी ऐसे ही संस्कार भरे हुए हैं. समाज में भले ही किसी को पता न चले पर वह स्वयं अपनेआप को उम्र भर के लिए अपवित्र हो गई है, मान बैठी है. पर डा. आशा ऐसा हरगिज नहीं होने देना चाहती थीं.
‘‘तुम्हें भूलना होगा रिया,’’ आशाजी कठोर स्वर में बोलीं, ‘‘क्या लोगों के ऐक्सीडैंट नहीं होते? हाथपैर नहीं टूटते? उस के लिए तो लोग जिंदगी भर मुंह छिपा कर रोते नहीं रहते? फिर तुम क्यों रोओगी? जो कुछ भी हुआ उस में तुम्हारा क्या दोष है? यह तुम्हारा कुसूर नहीं है. हमारे संस्कार ही ऐसे हैं कि इस केस में हमेशा लड़की को ही दोषी ठहराया जाता है. वह नीच राक्षस तो समाज में सिर ऊंचा कर के चलता है और पीडि़त लड़की कोई गलती न होने के बाद भी ताउम्र एक अपराधबोध से ग्रस्त रहती है.
‘‘लेकिन मैं तुम्हें ऐसा नहीं करने दूंगी रिया. मैं किसी भी हालत में तुम्हारी प्रतिभा को बरबाद नहीं होने दूंगी. तुम न गलत हो, न ही दोषी. गलत और दोषी तो वह हैवान था. तुम्हें इस घटना को रात में देखा गया बुरा सपना समझ कर भूलना ही होगा. एक सुनहरा भविष्य तुम्हारा इंतजार कर रहा है.’’
‘‘मैं किसी आश्रम या मिशनरी चली जाऊंगी. ईश्वर की आराधना कर लोगों की सेवा में अपना जीवन बिता लूंगी,’’ रिया ने उदास स्वर में कहा.
‘‘ईश्वर होता तो तुम्हारे साथ यह होने देता? वह पत्थर या मूर्तियों में कभी नहीं होता और तुम्हें अभी इन धार्मिक स्थलों और आश्रमों की सचाई पता नहीं है. ऐसी बात भी अपने मन में कभी मत लाना. धर्म के तथाकथित ठेकेदार भगवान और धर्म के नाम पर अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए इन आश्रमों में ऐसेऐसे काले कारनामे करते हैं, जिन के बारे में कोई दूसरा सोच भी नहीं सकता. मैं तुम्हें अपने बचपन की एक घटना बताती हूं.’’
डाक्टर आशा ने 2 मिनट रुक कर अपने माथे से पसीना पोंछा और आगे कहना शुरू किया, ‘‘मैं तब 10-11 साल की थी और छुट्टियों में नानी के गांव गई थी. नानी के पड़ोस में एक परिवार रहता था. उन की 16-17 वर्ष की एक छोटी बेटी थी, जो बहुत सुंदर व गुणवान थी. मैं सारा दिन दीदीदीदी कहती उस के आसपास घूमती रहती थी. एक दिन खेत से वह अकेली लौट रही थी. पिता जरूरी काम से खेत पर ही रुक गए थे.
रिया पलंग पर लेटी तो उसे देर तक नींद नहीं आई. वह भी नीरज से काफी प्रभावित हुई थी. जिंदगी में पहली बार किसी ने उस के दिल के एक कोने को छू लिया था. लेकिन वह बारबार यह सोच रही थी कि क्या वह नीरज को अपने अतीत के बारे में बता दे या चुप रह कर रिश्ता स्वीकार कर ले? अगर वह बता देती है, तो नीरज से रिश्ता टूटना तय था और अगर नहीं बताती तो सारी उम्र उस के मन पर एक बोझ रहेगा और वह यह बोझ ले कर जी नहीं पाएगी.
रिया बेचैनी में उठ कर टहलने लगी. उस का अतीत उस की आंखों के सामने नाचने लगा… तब रिया के पिता कालापीपल नामक छोटे कसबे में रहते थे. 2 साल के लिए उन की पोस्टिंग वहां हुई थी. हंसताखेलता सुखी परिवार था उन का, जिस में उन के बच्चे रिया, उस का बड़ा भाई और छोटी बहन थी. तीनों ही मेधावी छात्र थे. उन का बड़ा सा सरकारी बंगला कसबे से बाहर की ओर था.
रिया तब मात्र 16 साल की किशोरी थी. अपने रंगरूप और मेधावी होने के कारण वह सब की लाडली थी. पूरे कसबे में उस की सुंदरता के चर्चे थे. लड़के उस की एक झलक पाने के लिए उस के स्कूल के आसपास चक्कर काटते थे, लेकिन रिया इन सब बातों से बेखबर अपनी ही दुनिया में मस्त रहती थी. वह खुशमिजाज थी, हमेशा हंसती रहती और सब से मीठा व्यवहार करती.
रिया तब 11वीं कक्षा में पढ़ती थी. अगले साल उसे मैडिकल की प्रवेश परीक्षा देनी थी. कसबे में एक टीचर थे सिद्धार्थ सर. वे बौटनी और जुलौजी बहुत अच्छा पढ़ाते थे. उन से पढ़े हुए बहुत से स्टूडैंट्स का चयन मैडिकल में हो चुका था. रिया ने 11वीं कक्षा की परीक्षा समाप्त होते ही एक सीनियर से 12वीं कक्षा की किताबें लीं और सिद्धार्थ सर के यहां पढ़ने जाने लगी. उन का घर कसबे के बिलकुल दूसरे छोर पर था और वहां ज्यादा घनी बस्ती भी नहीं थी.
यह 27 जून की बात है. मानसून आ चुका था. शाम 6 बजे तक आसमान बिलकुल साफ था. रिया अपनी स्कूटी उठा कर पढ़ने चली गई. उस की 2 सहेलियां भी उस के साथ पढ़ती थीं. पढ़ाई के बाद उन के बीच स्कूल की पढ़ाई और पीएमटी की तैयारी पर चर्चा होने लगी. ऐसे में रात के 8 कब बज गए, पता ही नहीं चला. बाहर आसमान पर बादल छाए हुए थे. रिया की सहेलियां पास ही में रहती थीं. अत: वे पैदल ही चली गईं.
रिया ने भी अपनी स्कूटी उठाई और घर की ओर तेजी से चल दी. अभी वह आधा किलोमीटर दूर भी नहीं पहुंची होगी कि तेज बारिश शुरू हो गई. रिया बारिश से तरबतर हो गई.
तभी अचानक रिया की स्कूटी चलतेचलते रुक गई. रिया स्कूटी से उतर कर किक लगा कर उसे स्टार्ट करने की कोशिश करने लगी मगर गाड़ी स्टार्ट नहीं हुई. उसे अपनेआप पर गुस्सा आया कि सहेलियों ने कहा था, मगर वह उन के घर नहीं गई. सोचा था कि बारिश शुरू होने से पहले ही घर पहुंच जाएगी, लेकिन अब क्या हो सकता है?
रिया का घर 2 किलोमीटर आगे है और सहेलियों के लगभग इतना ही पीछे. आखिर उस ने तय किया कि स्कूटी को ताला लगा कर यहीं खड़ी कर पैदल ही घर चली जाएगी. आते समय धूप थी इसलिए वह रेनकोट भी नहीं लाई थी. वह जिस स्थान पर थी, वह एकदम सुनसान था.
स्ट्रीट लाइट की रोशनी में वह थोड़ा ही आगे बढ़ी थी कि अचानक बिजली गरजी और लाइट चली गई. चारों ओर घुप्प अंधेरा हो गया. रिया का दिल जोरों से धड़कने लगा. वह अपना बैग सीने से दबाए तेजी से घर की ओर भागने लगी कि तभी 2 मजबूत हाथों ने उसे पीछे से दबोच लिया. रिया की चीख निकल गई. वह छूटने के लिए बहुत छटपटाई, चीखीचिल्लाई, लेकिन उस की चीखें मूसलाधार बारिश और बिजली की गड़गड़ाहट में दब कर रह गईं. हवस में अंधे नरपिशाच के आगे रिया बेदम हो गई.
जब उसे होश आया उस समय वह अपने पलंग पर अधमरी पड़ी थी. सुबह के शायद 8 बजे थे. मम्मीपापा व दोनों भाईबहन सहमे से खड़े थे. मम्मी के आंसू थम ही नहीं रहे थे. रिया को होश आता देख कर सब लोग उस के आसपास सिमट आए. रिया ने निर्जीव निगाहों से सब की ओर देखा और तभी उस के मस्तिष्क में रात की घटना कौंध गई और वह चीख मार कर पुन: बेहोश हो गई.
4-5 दिन बाद रिया की तबीयत जरा संभली. डाक्टर आशा सुबहशाम रिया का चैकअप करने आतीं. अपने सामने उसे सूप या जूस वगैरह दिलवातीं.
इस घटना को 1 माह बीत गया. रिया अपने कमरे से बाहर ही नहीं निकली. घर वालों की बातों से पता चला कि उस रात जब वह काफी देर तक घर नहीं पहुंची, तो उस का भाई उसे ढूंढ़ने निकला. रास्ते में ही उसे रिया की किताबें पड़ी दिखाई दे गईं और पास ही सड़क से थोड़ा हट कर झडि़यों में रिया पड़ी मिली.
घर के नौकरचाकरों को यही पता है कि वह स्कूटी से फिसल कर गिर पड़ी है. उस के स्कूल में भी यही खबर भिजवाई गई थी. उस की सहेलियां जब भी उसे देखने आतीं कोई न कोई बहाना बना कर उस का भाई उन्हें उस से मिलने से रोक देता था.