अंशिका: भाग 2- क्या दोबारा अपने बचपन का प्यार छोड़ पाएगी वो?

समय के भी पंख होते हैं. देखते ही देखते मेरी फाइनल परीक्षा भी खत्म हो गई. आखिरी पेपर के दिन शांत ने दोपहर को एक रैस्टोरैंट में मिलने को कहा. वहां हम दोनों कैबिन में बैठे और शांत ने कुछ स्नैक्स और कौफी और्डर की.

शांत ने कहा, ‘‘तनु, तुम ने ग्रैजुएशन के बाद क्या सोचा है? आगे पीजी करनी है?’’

मैं ने कहा, ‘‘अभी कुछ तय नहीं है. वैसे मातापिता को कहते सुना है कि तनुजा की अब शादी कर देनी चाहिए. शायद किसी लड़के से बात भी चल रही है.’’

मैं ने महसूस किया कि शादी शब्द सुनते ही उस के चेहरे पर एक उदासी सी छा गई थी.

फिर शांत बोला, ‘‘तुम्हारे मातापिता ने तुम से राय ली है? तुम्हारी अपनी भी तो कोई पसंद होगी? तुम्हें यहां बुलाने का एक विशेष कारण है. याद है एक दिन मैं ने कहा था कि तुम्हें इलू का मतलब बताऊंगा. आज मैं ने तुम्हें इसीलिए बुलाया है.’’

‘‘तो फिर जल्दी बताओ,’’ मैं ने कहा.

‘‘मेरे इलू का मतलब आई लव यू है,’’ शांत ने कहा.

मैं बोली, ‘‘तुम्हारे मुख से यह सुन कर खुशी हुई. पर हमेशा अव्वल रहने वाले शांत ने प्यार का इजहार करने में इतनी देर क्यों कर दी? मेरे आगे की पढ़ाई और शादी के बारे में अपने मातापिता का विचार जानने की कोशिश करूंगी, फिर आगे बात करती हूं. मुझे तो तुम्हारा साथ वर्षों से प्यारा है,’’ इस के बाद मैं ने उस का हाथ दबाते हुए घर ड्रौप करने को कहा.

मेरे मातापिता शांत को पसंद नहीं करते थे. मेरे गै्रजुएशन का रिजल्ट भी आ गया था और मैं अपने रिजल्ट से खुश थी. इस दौरान मां ने मुझे बताया कि मेरी शादी एक लड़के से लगभग तय है. लड़के की ‘हां’ कहने की देरी है. इसी रविवार लड़का मुझे देखने आ रहा है. मैं ने मां से कहा भी कि मुझे पीजी करने दो, पर वे नहीं मानीं. कहा कि मेरे पापा भी यही चाहते हैं. लड़का सुंदर है, इंजीनियर है और अच्छे परिवार का है. मैं ने मां से कहा भी कि एक बार मुझ से पूछा होता… मेरी पसंद भी जानने की कोशिश करतीं.

अभी रविवार में 4 दिन थे. पापा ने भी एक दिन कहा कि संजय (लड़के का नाम) 4 दिन बाद मुझे देखने आ रहा था. मैं ने उन से भी कहा कि मेरी शादी अभी न कर आगे पढ़ने दें. पर उन्होंने सख्ती से मना कर दिया. मै ने दबी आवाज में कहा कि इस घर में किसी को मेरी पसंद की परवाह नहीं है. तब पापा ने गुस्से में कहा कि तेरी पसंद हम जानते हैं, तेरी पसंद प्रशांत है न? पर यह असंभव है. प्रशांत बंगाली बनिया है और हम हिंदी भाषी ब्राह्मण हैं.

मैं ने एक बार फिर विरोध के स्वर में पापा से कहा कि आखिर प्रशांत में क्या बुराई है? उन का जवाब और सख्त था कि मुझे प्रशांत या मातापिता में से किसी एक को चुनना होगा. इस के आगे मैं कुछ नहीं बोल सकी.

अगले दिन मैं ने शांत से उसी रैस्टोरैंट में मिलने को कहा. मैं ने घर की स्थिति से उसे अवगत कराया.

शांत ने कहा, ‘‘देखो तनु प्यार तो मैं तुम्हीं से करता हूं और आगे भी करता रहूंगा. पर नियति को हम बदल नहीं सकते. अभी मेरी पढ़ाई पूरी करने में समय लगेगा…और तुम जानती हो आजकल केवल एमबीबीएस से कुछ नहीं होता है…मुझे एमएस करना होगा…मुझे सैटल होने में काफी समय लगेगा. अगर इतना इंतजार तुम्हारे मातापिता कर सकते हैं, तो एक बार मैं उन से मिल कर बात कर सकता हूं…मुझे पूरा भरोसा है कि मेरे मातापिता को इस रिश्ते से कोई ऐतराज नहीं होगा.’’

कुछ देर चुप रहने के बाद मैं ने कहा, ‘‘मुझे कोई फायदा नहीं दिखता, बल्कि मुझे डर है कि कहीं वे तुम्हारा अपमान न करें जो मुझे गंवारा नहीं.’’

इस पर शांत ने कहा था कि मेरे प्यार के लिए वह यह रिस्क लेने को तैयार है. आखिर वही हुआ जिस का डर था. पापा ने उसे दरवाजे से ही यह कह कर लौटा दिया कि उस के आने की वजह उन्हें मालूम है, जो उन्हें हरगिज स्वीकार नहीं. अगले दिन शांत फिर मुझ से मिला. मैं ने ही उस से कहा था कि मेरे घर कल उस के साथ जो कुछ हुआ उस पर मैं शर्मिंदा हूं और उन की ओर से मुझे माफ कर दे. शांत ने बड़ी शांति से कहा कि इस में माफी मांगने का सवाल ही नहीं है. सब कुछ समय पर छोड़ दो. मातापिता के विरुद्ध जा कर इस समय कोर्ट मैरिज करने की स्थिति में हम नहीं हैं और न ही ऐसा करना उचित है.

मैं भी उस की बात से सहमत थी और फिर अपने घर चली आई. भविष्य को समय के हवाले कर हालात से समझौता कर लिया था.

रविवार के दिन संजय अपने मातापिता के साथ मुझे देखने आए. देखना क्या बस औपचारिकता थी. उन की तरफ से हां होनी ही थी. संजय की मां ने एक सोने की चेन मेरे गले में डाल कर रिश्ते पर मुहर लगा दी. 1 महीने के अंदर मेरी शादी भी हो गई.

संजय पीडब्ल्यूडी में इंजीनियर थे और पटना में ही पोस्टेड थे. चंद हफ्तों बाद मेरा जन्मदिन था. संजय ने एक पार्टी रखी थी तो मुझ से भी निमंत्रण पाने वालों की लिस्ट दिखाते हुए पूछा था कि मैं किसी और को बुलाना चाहूंगी क्या? तब मैं ने प्रशांत का नाम जोड़ दिया और उस का पता और फोन नंबर भी लिख दिया था. शांत अब होस्टल में रहने लगा था. संजय के पूछने पर मैं ने बताया कि वह मेरे बचपन का दोस्त है.

संजय ने चुटकी लेते हुए पूछा था, ‘‘ओनली फ्रैंड या बौयफ्रैंड…’’

मैं ने उन की बातचीत काट कर कहा था, ‘‘प्लीज, दोबारा ऐसा न बोलें.’’

संजय ने कहा, ‘‘सौरी, मैं तो यों ही मजाक कर रहा था.’’

खैर, संजय ने शानदार पार्टी रखी थी. शांत भी आया था. संजय और शांत दोनों काफी घुलमिल कर बातें कर रहे थे. बीचबीच में दोनों ठहाके भी लगा रहे थे. मुझे भी यह देख कर खुशी हो रही थी और मेरे मन में जो डर था कि शांत को ले कर संजय को कोई गलतफहमी तो नहीं, वह भी दूर हो चुकी थी.

Raksha Bandhan: बहनें- भाग 2-रिश्तों में जलन का दर्द झेल चुकीं वृंदा का बेटिंयों के लिए क्या था फैसला?

वृंदा को लगा था कि शादी की बात सुनते ही सास के ऊपर दुखों का पहाड़ टूट पड़ेगा. ‘ऐसा कैसे होगा? मेरे जीतेजी ऐसा नहीं हो सकता.’ इस तरह का कोई वाक्य वे बोलेंगी. किंतु उन्होंने तो सपाट सा जवाब दे कर पल्लू झाड़ लिया.

वृंदा का गला भर्रा गया, ‘मां, आप ऐसा कैसे बोल रही हैं? आप मुझे बहू बना कर इस घर में लाई हैं. क्या आप यह सब होने देंगी? मेरे लिए कुछ भी नहीं करेंगी?’

‘मैं क्या करूंगी? तुम्हारी बहन है, तुम देखो.’

‘लाख मेरी बहन है, घुस तो आप के बेटे के संसार में रही है न. आप अपने बेटे को समझा सकती हैं. कुंदा का विरोध कर सकती हैं. मैं ने आप से कहा तो था कि मैं डिलिवरी के लिए अपनी मां के यहां चली जाती हूं, तब आप ने स्वास्थ्य की दुहाई दे कर मुझे यहीं रोक लिया था. आप के कहने पर ही मैं ने कुंदा को यहां बुलाया था.’

हमेशा उन के सामने चुप रह जाने वाली वृंदा का इतना बोलना सास से सहन नहीं हुआ और उन का क्रोध भभक पड़ा, ‘अब मुझे क्या पता था कि तुम्हारी बहन के लक्षण खराब हैं. पता नहीं कौन से संस्कार दिए थे तुम्हारी मां ने. वैसे यह कोई बड़ी बात भी नहीं हो गई है. तुम्हें कोई घर से निकाल रहा है क्या? रवि तो कहता है कि दूसरी शादी भी कर लूंगा तब भी वृंदा को इस घर से बेघर नहीं करूंगा. अपनी जिम्मेदारी की समझ है उसे.’

तो ये भी रवि की योजना में शामिल हैं. मां के दिए संस्कार की बात कर रही हैं. जो काम कुंदा कर रही है वही तो इन का बेटा भी कर रहा है बल्कि दो कदम आगे बढ़ कर अपनी पहली पत्नी और 2 बच्चियों को छोड़ कर. इन्होंने कौन से संस्कार दिए हैं अपने बेटे को. एहसान बता रही हैं कि घर से नहीं निकाला जा रहा है उसे. अरे कौन होते हैं ये लोग घर से निकालने वाले? शादी कर के आई है यहां. पूरा हक है इस घर पर. यहां से निकलना होगा तो वह खुद ही निकल जाएगी.

जिम्मेदारी की क्या खाक समझ है इन लोगों को? कोई नौकरानी है वह कि सुविधाएं दे देंगे. पगार दे देंगे. उतने से वह खुश हो जाएगी. ये सास हैं? इन के तमाम नखरों को बड़े प्रेम और आदर के साथ झेलते हुए उस ने 5 साल बिता दिए किंतु इस घर की रीतिनीति समझ ही न पाई.

ये वही सास हैं जिन को उस ने मां का दरजा दिया था. इतनी कठोर. इन से डरती रही थी वह. ये तो नफरत के काबिल भी नहीं हैं. वृंदा के सिर से पल्ला सरक कर नीचे गिर गया जिसे फिर से सिर पर रखने की जरूरत उस ने महसूस नहीं की और हिकारत भरी नजर से सास को देखती हुई उठ आई.

वृंदा के मन से सास का आदर एक झटके में ही समाप्त हो गया और इस परिस्थिति से लड़ने की हिम्मत पनपने लगी. उस ने सोचा, अब रवि के सिवा किसी से वह इस विषय पर बात नहीं करेगी. था ही कौन उस का? पिता बहुत पहले ही चल बसे थे. मां के बस का कुछ है नहीं. अब उसे खुद ही सोचना पड़ेगा. इस समस्या से उबरना तो है ही.

मां को उस ने न तो चिट्ठी लिखी, न फोन किया. कुंदा से इस विषय पर बात करने की उस की इच्छा ही नहीं हुई. किंतु रवि? रवि पर तो उस का अधिकार है. वह अपने अधिकार को नहीं छोड़ेगी.

उस दिन से कईकई बार उस ने रवि को समझाने का प्रयास किया था. अपने प्यार का हवाला दिया. बच्चों की तरफ देखने की प्रार्थना की. ‘उस के बिना नहीं रह पाएगी’ कह कर जारजार रोई भी थी, पर रवि का मन काबू में नहीं था. उस की नजरें अन्य सारी बातों को पछाड़ देतीं. बस कुंदा का चेहरा ही उसे दिखता था. वृंदा हताश हो गई थी. अब घर में चौबीसों घंटे तनाव रहने लगा था.

फिर मां आ पहुंचीं. उस की अपनी मां. बताया तो उस ने नहीं था पर मां सब जान गई थीं पर आ कर भी कर कुछ नहीं पाई थीं वे. हार कर वृंदा के आगे ही आंचल पसार दिया था उन्होंने. वृंदा समझ गई थी कि अब मां भी उन्हीं लोगों की भाषा बोलना चाह रही हैं. कोई उस की पीड़ा को नहीं समझता. मां भी नहीं. मां की 2 बेटियां एक ही सुख की कामना किए हैं, मां किस की पीड़ा समझें. अपने सामने फैले मां के आंचल को वृंदा ने अपने हाथों से नीचे किया और बोली, ‘मैं तुम्हारे आंचल में अब कुछ नहीं डाल पाऊंगी

मां. मैं यह घर छोड़ दूंगी. तुम मुझ से कुछ मत मांगो. मैं देने में असमर्थ हूं. मेरी नियति अकेले बहने की है मां. मैं बहूंगी, यहां नहीं रुकूंगी.’

‘कहां जाओगी…? अकेले रहना आसान है क्या? तुम रह भी लो, पर ये बच्चियां? इन्हें पिता से क्यों अलग कर रही हो?’

‘मैं अलग कर रही हूं मां? मैं? रवि ने सोचा इन के बारे में? इन की किस्मत में पिता का सुख नहीं है मां, अपना दम घोंट कर मैं इन्हें पिता का सुख नहीं दे सकती.’

‘बेटा, राजा दशरथ ने भी…’

‘बस करो मां, बस करो. क्या हो गया है तुम्हें? कुछ नहीं कर सकती हो तो कम से कम चुप ही रहो. अब तक मैं यहां इसलिए रही मां, क्योंकि यह मेरा घर था. पूरे हक से रहती थी यहां, अब दया पर नहीं रहूंगी. कह दो कुंदा से, मैं ने उसे अपना पति दे दिया.’

मां वृंदा से लिपट कर फूटफूट कर रोईं. मां वृंदा की मनोव्यथा समझ रही थीं. क्या करें मां. इस उम्र में किसी समस्या से जूझने की शक्ति खो चुकी हैं. वे चाहती हैं कि शांति से इस का निबटारा हो जाए तो न उन्हें कुंदा की चिंता होगी और न ही वृंदा की. दोनों बेटियों के प्रेम में पड़ी मां समझ नहीं पा रही हैं कि वृंदा आखिर पति को बांटे भी तो कैसे?

6 महीने से वृंदा स्थिति को बदलने का प्रयास कर रही है किंतु जब ज्वालामुखी फट ही चुका है तो कब तक वह इस के लावे से बचेगी. इस लावे में झुलस कर दफन नहीं होना है उसे. जानती है वृंदा कि उस का वजूद अब बिखर चुका है किंतु वह उसे समेटेगी. अपनी खातिर नहीं, अपनी बच्चियों की खातिर.

घर छोड़ कर जब वह अलग रहने के लिए निकली थी तब उसे 2 कमरों का मकान मिल गया था. जगह अच्छी थी किंतु रवि के दूसरे ब्याह की खबर उस से पहले इस घर में पहुंची थी. मिसेज निगम बड़ी नेक विचारों की थीं. हर छोटीमोटी तकलीफों में वृंदा को उन्हीं का सहारा था.

एक दिन शाम को डा. निगम ने वृंदा का दरवाजा खटखटा कर बताया कि उस के लिए फोन आया है. कई बार वृंदा की मां का फोन उन के घर आ जाता था. फोन आने पर उसे निगम की लड़कियां ही बुलाने आती थीं. आज क्या इन के घर में कोई नहीं है? वृंदा असमंजस में थी. वह फोन पर बात करने जाए या न जाए. थोड़ी देर बाद डा. निगम ने फिर आवाज लगाई. मन की तमाम उलझनों के बावजूद भी वृंदा इस बार फोन पर बात करने चली गई.

वृंदा जब तक वहां पहुंची फोन कट गया था. वह वहीं बैठ कर फोन आने का इंतजार करने लगी. डा. निगम वृंदा की बेटियों से बातें कर रहे थे पर उन की नजरें वृंदा की तरफ ही उठ आती थीं. वृंदा असहज हो गई. डर के मारे उस की सांसें चलने लगीं. वह उठ कर अपने घर लौट आना चाहती थी तभी फोन की घंटी बजी. डा. निगम ने फोन उठाया. फोन उस की मां का ही था. वृंदा रिसीवर लेने आगे बढ़ी और उस ने महसूस किया कि यह जो रिसीवर देते समय डा. निगम की उंगलियां उस के हाथों से कुछ गहराई तक छू गईं वह अनजाने में नहीं हुआ.

तुम्हारी कोई गलती नहीं: भाग 1- रिया के साथ ऐसा क्या हुआ था

ड नंबर 8 के मरीज की दवाओं और इंजैक्शन के बारे में नर्स को समझ कर रिया जनरल वार्ड से निकल कर प्राइवेट वार्ड की ओर चल दी. स्त्रीरोग विभाग में 16 प्राइवेट कमरे थे, जिन में से 11 इस समय भरे हुए थे. उन में औपरेशन, डिलीवरी, गर्भपात आदि के पेशैंट थे. 1-1 पेशैंट का हालचाल पूछते हुए जब डा. रिया सब से आखिरी पेशैंट को देख कर रूम से बाहर निकली, तो बहुत थक गई थी. नर्सों के ड्यूटीरूम में जा कर उस ने हैड नर्स को कुछ पेशैंट्स के उपचार संबंधी निर्देश दिए और डाक्टर्स ड्यूटीरूम की ओर चल दी.

ड्यूटीरूम में डा. प्रशांत और डा. नीलम बैठे थे.

‘‘क्या बात है रिया, काफी थकी हुई लग रही हो? लो, कौफी पी लो,’’ कह डा. प्रशांत ने 1 कप रिया की ओर बढ़ा दिया.

‘‘थैंक्स डा. प्रशांत,’’ रिया ने आभार प्रकट करते हुए कौफी ले ली.

‘‘सच में रिया तुम्हारा चेहरा काफी डल लग रहा है. तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’

डा. नीलम ने पूछा.

‘‘तबीयत तो ठीक है. बस थोड़ा थक गई हूं, इसलिए सिर थोड़ा भारी है,’’ रिया ने जवाब दिया, ‘‘ओह, 4 बज गए, आज मुझे जरा जल्दी घर जाना है. मैं डा. अश्विन को बता कर घर चली जाती हूं,’’ रिया ने घड़ी देखते हुए कहा.

‘‘डा. अश्विन तो ओ.टी. में होंगे, तुम आशा मैडम को रिपोर्ट कर के चली जाओ,’’ नीलम ने कहा और फिर चुटकी लेते हुए पूछ ही लिया, ‘‘वैसे काम क्या है, जो आज अचानक जल्दी जा रही हो? घर में खास मेहमान आ रहे हैं क्या?’’

रिया मुसकरा दी, ‘‘नहींनहीं, ऐसी बात नहीं है. शौपिंग करने जाना है,’’ रिया दोनों को बाय कर के आशा मैडम के कैबिन की ओर चली दी. वैसे डिपार्टमैंट के हैड डा. अश्विन थे, लेकिन चूंकि वे सर्जन थे, इसलिए उन का अधिकांश समय औपरेशन थिएटर में ही गुजरता था. उन के बाद डा. आशा थीं, जो उन की अनुपस्थिति में विभाग का काम संभालती थीं. रिया ने उन के पास जा कर अपनी प्रौब्लम बताई और छुट्टी ले कर अपनी गाड़ी से घर की ओर चल दी.

नीलम ने सही सोचा था कि रिया के यहां खास मेहमान आने वाले हैं. सचमुच वह आज इसीलिए जल्दी जा रही थी कि लड़के वाले उसे देखने आ रहे हैं. लड़का नीरज भी डाक्टर है. लंदन से कैंसर पर रिसर्च कर के आया है. उस के पिताजी का भोपाल में स्वयं का क्लीनिक है, लेकिन वह कैंसर हौस्पिटल में कार्यरत है. नीरज के पिता और्थोपैडिक सर्जन हैं और मां ने रिटायरमैंट के बाद प्रैक्टिस छोड़ दी है.

रिया 5 बजे अपने घर पहुंची. सारे रास्ते वह अनमनी सी रही. घर पहुंचते ही देखा मां दरवाजे पर ही खड़ी थीं.

‘‘कितनी देर लगा दी बेटी,’’ आते ही उन्होंने रिया को प्यार भरा उलाहना दिया.

‘‘सौरी मां, राउंड लेते हुए लेट हो गई थी,’’ रिया ने मां के गले में बांहें डाल कर मुसकराते हुए कहा.

‘‘अच्छा चल, हाथमुंह धो कर चाय पी ले,’’ मां ने कहा.

‘‘नहीं मां, मैं कौफी पी कर आई हूं. वे लोग कितने बजे आएंगे?’’ रिया ने झिझकते हुए पूछा.

‘‘6 बजे तक आने को कह रहे थे,’’ मां ने घड़ी की ओर देखते हुए कहा.

रिया ने अपने जीवन का यही ध्येय बनाया था कि डाक्टर बन कर लोगों की सेवा करेगी. वह हर रिश्ते के लिए मना कर देती थी, क्योंकि वह भलीभांति जानती थी कि उस के अतीत के बारे में पता लगते ही हर कोई मना कर देगा. डाक्टर लड़की के लालच में बहुत से लोग अपने बेटे का रिश्ता ले कर आए, लेकिन रिया ने किसी से भी मिलने से इनकार कर दिया. लेकिन नीरज के पिता रिया के पिता से एक पार्टी के दौरान मिले, तो रिया से मिलने की जिद ही कर बैठे. हार कर रिया के पिता को उन्हें घर पर आमंत्रित करना ही पड़ा.

6 बजने में 5 मिनट थे, जब रिया पलंग से उठी. सिर थोड़ा हलका लग रहा था. बाथरूम में जा कर उस ने मुंह पर पानी के छींटे मारे तो थोड़ी ताजगी आई. उस ने एक साधारण सा सूट निकाला और पहन लिया. पता था रिश्ता तो होना नहीं, तो क्यों बेकार अपना प्रदर्शन करे? माथे पर बिंदी लगाई, केशों की चोटी बनाई और नीचे मां के पास आ गई. उस ने जरा भी मेकअप नहीं किया था, लेकिन वह सुंदर ही इतनी थी कि उसे किसी भी तरह का मेकअप करने की जरूरत ही नहीं थी. उस के खिले हुए रंग पर उस के सूट का गुलाबी रंग उसे एक स्वाभाविक गुलाबी आभा प्रदान कर रहा था. उस के कानों में छोटेछोटे सोने के टौप्स थे.

मां ने उसे देखा तो टोका नहीं, क्योंकि उन्हें पता था कि वह अन्य लड़कियों की तरह बननेसंवरने में विश्वास नहीं करती. उन्होंने केवल अपनी चैन निकाल कर उसे पहना दी और उस के खाली हाथों में 1-1 चूड़ी पहना दी. रिया ने विरोध नहीं किया.

ठीक साढ़े 6 बजे नीरज अपने मातापिता के साथ आ गया. वे लोग काफी सहज थे. रिया के मातापिता को थोड़ा तनाव था, लेकिन जल्द ही नीरज और उस के मातापिता के सहजसरल स्वभाव ने माहौल को एकदम सहज बना दिया. जल्द ही रिया भी औपचारिकता और झिझक छोड़ कर उन लोगों से घुलमिल गई.

नीरज की मां सीधेसादे स्वभाव की लगीं. पिताजी काफी हंसमुख थे. बातबात पर वे ठहाके लगा रहे थे. नीरज स्वयं गंभीर स्वभाव का था, परंतु उस के चेहरे पर एक सरल स्वाभाविकता थी, जिस ने सब को काफी प्रभावित किया. चायनाश्ते के बाद सब के कहने पर नीरज और रिया बाहर लौन में चले गए.

नीरज का व्यवहार और बातचीत का तरीका बेहद शालीन था. रिया को ऐसा लगा ही नहीं कि वह उस से पहली बार बात कर रही है. डाक्टरी से ले कर बगीचे के फूलों तक विभिन्न विषयों पर उस ने रिया से बात की. रिया उस से काफी प्रभावित हुई. नीरज ने उसे अपना मोबाइल नंबर दिया.

रात घिरने लग गई, तब वे दोनों अंदर आ गए. कुछ देर बाद नीरज के पिताजी जाने के लिए उठ खड़े हुए. बाहर निकलते वक्त उन्होंने रिया और उस के मातापिता को चौंका दिया.

वे कार में बैठने से पहले बोले, ‘‘भई,

हमें तो रिया बहुत पसंद आई. हम ने उसे अपनी बहू बनाने का फैसला कर लिया है. हमारी ओर से यह रिश्ता पक्का है. अब आप लोग हमें अपना फैसला बता दीजिएगा,’’ और वे चले गए.

उन के जाने के बाद रिया और उस के मातापिता 2 मिनट तक तो अवाक से वहीं खड़े रह गए. उन्हें इतनी जल्दी हुए फैसले पर यकीन ही नहीं हो रहा था.

अंदर आ कर रिया की मां ने रिया के कंधे पर हाथ रख कर कहा, ‘‘रिया बेटा, सोच ले, नीरज बहुत अच्छा लड़का है और परिवार भी अच्छा है. सारी बातें भूल कर एक नई जिंदगी की शुरुआत कर ले बेटा,’’ उन की आवाज में मां के दिल का दर्द उमड़ आया.

रिया हौले से आश्वासन की मुद्रा में मुसकरा दी तो मां थोड़ी आश्वस्त हो गईं.

Raksha Bandhan:सोनाली की शादी- क्या बहन के लिए रिश्ता ढूंढ पाया प्रणय

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अंशिका: भाग 1- क्या दोबारा अपने बचपन का प्यार छोड़ पाएगी वो?

प्रशांत और मैं पटना शहर के एक ही महल्ले में रहते थे और एक ही स्कूल में पढ़ते थे. यह भी इत्तफाक ही था कि दोनों अपने मातापिता की एकलौती संतान थे. एक ही गली में थोड़ी दूरी के फासले पर दोनों के घर थे. प्रशांत के पिता रेलवे में गोदाम बाबू थे तो मेरे पिता म्यूनिसिपल कौरपोरेशन में ओवरसियर. दोनों अच्छेखासे खातेपीते परिवार से थे. पर एक फर्क था वह यह कि प्रशांत बंगाली बनिया था तो मैं हिंदी भाषी ब्राह्मण थी. पर प्रशांत के पूर्वज 50 सालों से यहीं बिहार में थे.

हम एक ही स्कूल में एक ही कक्षा में पढ़ते थे. प्रशांत मेधावी विद्यार्थी था तो मैं औसत छात्रा थी. हमारा स्कूल आनाजाना साथ ही होता था. हम दोनों अच्छे दोस्त बन चुके थे.

ऐसा नहीं था कि मेरी कक्षा में और लड़कियां नहीं थीं, पर मेरी गली से स्कूल में जाने वाली मैं अकेली लड़की थी. हमारा स्कूल ज्यादा दूर नहीं था. करीब पौना किलोमीटर दूर था, इसलिए हम पैदल ही जाते थे. मैं प्रशांत को शांत बुलाया करती थी, क्योंकि वह और लड़कों से अलग शांत स्वभाव का था. प्रशांत मुझे तनुजा की जगह तनु ही पुकारता था. हमारी दोस्ती निश्छल थी. पर स्कूल के विद्यार्थी कभी छींटाकाशी भी कर देते थे. उन की कुछ बातें उस समय मेरी समझ से बाहर थीं तो कुछ को मैं नजरअंदाज कर देती थी.

जब मैं 9वीं कक्षा में पहुंची तो एक दिन मां ने मुझ से कहा कि तू अब प्रशांत के साथ स्कूल न जाया कर. तब मैं ने कहा कि इस में क्या बुराई है? वह हमेशा कक्षा में अव्वल रहता है… पढ़ाई में मेरी मदद कर देता है.

जब मैं 10वीं कक्षा में पहुंची थी तो एक दिन शांत ने पूछा था कि आगे मैं क्या पढ़ना चाहूंगी तब मैं ने कहा था कि इंजीनियरिंग करने का मन है, पर मेरी मैथ थोड़ी कमजोर है. उस दिन से शांत गणित के कठिन सवालों को समझने में मेरी सहायता कर देता था. कभीकभार नोट्स या किताबें लेनेदेने मेरे घर भी आ जाता, पर घर के अंदर नहीं आता था, बाहर से ही चला जाता था. मेरी मां को वह अच्छा नहीं लगता था, इसलिए मैं चाह कर भी अंदर आने को नहीं कहती थी. पर मुझे उस का साथ, उस का पास आना अच्छा लगता था. मन में एक अजीब सी खुशी होती थी.

देखते ही देखते बोर्ड की परीक्षा भी शुरू हो गई. 3 सप्ताह तक हम इस बीच काफी व्यस्त रहे. शांत की सहयाता से मेरा मैथ का पेपर भी अच्छा हो गया. अब स्कूल आनाजाना बंद था तो शांत से मिले भी काफी दिन हो गए थे. अब तो बोर्ड परीक्षा के परिणाम का बेसब्री से इंतजार था.

परीक्षा परिणाम भी घोषित हो गया. मैं अपनी मार्कशीट लेने स्कूल पहुंची. वहां मुझे प्रशांत भी मिला. जैसे कि पूरे स्कूल को अपेक्षा थी शांत अपने स्कूल में अव्वल था. मैं ने उसे बधाई दी. मुझे भी अपने मार्क्स पर खुशी थी. आशा से अधिक ही मिले थे. जब प्रशांत ने भी मुझे बधाई दी तो मैं ने उस से कहा कि इस में तुम्हारा भी सहयोग है. तब शांत ने कहा था कि मुझे भी इसी स्कूल में प्लस टू में साइंस विषय मिल जाना चाहिए.

अब मैं 11वीं कक्षा में थी. मुझे भी साइंस विषय मिला पर मैं ने मैथ चुना था, जबकि शांत ने बायोलौजी ली थी. वह डाक्टर बनना चाहता था. अब मेरे और शांत के सैक्शन अलग थे. फिर भी ब्रेक में हम अकसर मिल लेते थे. कभीकभी प्रयोगशाला में भी मुलाकात हो जाती थी.

उस की बातों से अब मुझे ऐसा एहसास होता कि वह मुझ में कुछ ज्यादा ही रुचि ले रहा है. इस बात से मैं भी मन से आनंदित थी पर दोनों में ही खुल कर मन की बात कहने का साहस न था. पर शांत कहा करता था कि हमारे विषय भिन्न हैं तो पता नहीं 12वीं कक्षा के बाद हम दोनों कहां होंगे. एक बार मुझे जो नोटबुक उस ने दिया था उस के पहले पन्ने पर लिखा था तनु ईलू. मैं ने भी उस के नीचे ‘शांत…’ लिख कर लौटा दिया था. देखते ही देखते हम दोनों की बोर्ड की परीक्षा खत्म हो गई. शांत ने मैडिकल का ऐंट्रेंस टैस्ट दिया और मैं ने इंजीनियरिंग का. 12वीं कक्षा का परिणाम भी आ गया था. प्रशांत फिर अव्वल आया था. मुझे भी अच्छे मार्क्स मिले थे. शांत मैडिकल के लिए कंपीट कर चुका था. मैं ने उसे बधाई दी, परंतु मैं इंजीनियरिंग में कंपीट नहीं कर सकी थी. शांत ने मेरा हौसला बढ़ाते हुए कहा कि चिंता की कोई बात नहीं है. मुझे अपने मनपसंद विषय में औनर्स ले कर गै्रजुएशन की पढ़ाई पूरी करने की सलाह दी थी. कुदरत ने एक बार फिर मेरा साथ दिया. मुझे पटना साइंस कालेज में फिजिक्स औनर्स में दाखिला मिल गया और शांत ने पटना मैडिकल कालेज में दाखिला लिया. दोनों कालेज में कुछ ही दूरी थी. यहां भी हम लौंग बे्रक में मिल कर साथ चाय पी लेते थे.

मुझे याद है एक बार शांत ने कहा था, ‘‘तनु, चलो आज तुम्हें कौफ्टी पिलाता हूं.’’

मैं ने कहा, ‘‘शांत यह कौफ्टी क्या बला है? कभीकभी तुम्हारी बातें मुझे मिस्ट्री लगती हैं बिलकुल वैसे ही जैसे ईलू.’’

उस ने कहा, ‘‘तो तनु मैडम को अभी तक ईलू समझ नहीं आया…कोई बात नहीं…उस पर बाद में बात करते हैं. फिलहाल कौफ्टी से तुम्हारा परिचय करा दूं,’’ और मुझे मैडिकल कालेज के गेट के सामने फुटपाथ पर एक चाय वाले ढाबे पर ले गया. फिर 2 कौफ्टी बनाने को कहा. ढाबे वाले ने चंद मिनटों में 2 कप कौफ्टी बना दिए. सच, गजब का स्वाद था. दरअसल, यह चाय और कौफी का मिश्रण था, पर बनाने वाले के हाथ का जादू था कि ऐसा निराला स्वाद था.

कुछ दिनों तक शांत और मैं एक ही बस से कालेज आते थे. वह तो शांत का संरक्षण था जो बस की भीड़ में भी सहीसलामत आनाजाना संभव था वरना बस में पटना के मनचले लड़कों की कमी न थी. फिर भी उन के व्यंग्यबाण के शिकार हम दोनों थे पर हम नजरअंदाज करना ही बेहतर समझते थे. चूंकि बस में आनेजाने में काफी समय बरबाद होता था, इसलिए शांत के पिता ने उस के लिए एक स्कूटर ले दिया. अब तो दोनों के वारेन्यारे थे. रास्ते में पहले मेरा कालेज पड़ता था. शांत मुझे ड्रौप करते हुए अपने कालेज जाता था. हालांकि लौटने में कभी मुझे अकेले ही बस या रिकशा लेना पड़ता था. ऐसा उस दिन होता था जब मेरे या शांत की क्लास खत्म होने के बीच का अंतराल ज्यादा होता था.

Raksha Bandhan: बहनें- भाग 1- रिश्तों में जलन का दर्द झेल चुकीं वृंदा का बेटिंयों के लिए क्या था फैसला?

स्वप्न इतना डरावना तो नहीं था किंतु न जाने कैसे वृंदा पसीने से तरबतर हो गई. गला सूख गया था उस का. आजकल अकसर ऐसा होता है. स्वप्न से?डरना. यद्यपि वह इन मान्यताओं को नहीं मानती थी कि स्वप्न किसी शुभाशुभ फल को ले कर आता है, पर पता नहीं क्यों, आजकल वह उस कलैंडर की तलाश में रहने लगी है जिस में स्वप्न के शुभाशुभ फल दिए रहते हैं. क्या करे, सहेलियां डरा जो देती हैं उसे.

कभीकभी जब वह अपना कोई स्वप्न बता कर पूछती है कि मरा हाथी देखने से क्या होता है? या फिर मकान गिरते हुए देखने का क्या फल मिलता है? तब सहेलियां चिंतित हो कर अपनी बड़ीबड़ी आंखें घुमा कर उस का भविष्य बताने लगतीं, ‘लगता है, अभी तुम्हारी मुसीबत खत्म नहीं हुई है. कोई बहुत बड़ी विपत्ति आने वाली है तुम पर. अपनी बेटियों की देखभाल जरा ध्यान से करना.’

तब वृंदा मारे डर के कांपने लगती है. अब ये मासूम बेटियां ही तो उस की सबकुछ हैं. कैसे नहीं ध्यान रखेगी इन का? दोनों कितनी गहरी नींद में सो रही हैं? वृंदा अरसे से ऐसी गहरी नींद के लिए तरस रही है. यदि किसी रात नींद आ भी जाती है तो कमबख्त डरावने स्वप्न आ धमकते हैं और नींद छूमंतर हो जाती है.

वृंदा ने घड़ी की तरफ देखा, रात के 3 बज रहे थे. स्वप्न की बेचैनी और घबराहट से माथे पर पसीने की बूंदें छलछला आई थीं. वह बिस्तर से उठी, मटके से गिलास भर पानी निकाला व एक ही सांस में गटागट पी गई. माथे पर आए पसीने को साड़ी के आंचल से पोंछती हुई वह फिर बिस्तर पर आ कर लेट गई. वृंदा ने पूरे कमरे में नजर घुमाई. यह छोटा सा कमरा ही अब उस का घर था. न अलग से रसोई, न स्टोर, न बैठक. सबकुछ इसी कमरे में था. गैस चूल्हे की आंच से जो गरमी निकलती वह रातभर भभकती रहती.

कमरे से लगा एक छोटा सा बाथरूम था और एक छोटी सी बालकनी भी. वृंदा का मन हुआ कि बालकनी का दरवाजा खोल दे, बाहर की थोड़ी हवा तो अंदर आएगी, किंतु उस की हिम्मत नहीं पड़ी. रात के 3 बजे सवेरा तो नहीं हो जाता. वृंदा मन मार कर लेटी रही.

उस का ध्यान फिर से स्वप्न पर गया. एक बड़े से गड्ढे में गिर कर उस की बड़ी बेटी प्राची रो रही थी और रश्मि बड़ी बहन को रोता देख कर खिलखिला रही थी. यह भी कोई स्वप्न है? इतना डरने लायक? वह डरी क्यों? इस स्वप्न के किस हिस्से ने उसे डराया? प्राची का गड्ढे में गिरना या रश्मि का किनारे खड़े हो कर खिलखिलाना? रश्मि हंस क्यों रही थी? शायद प्राची को गड्ढे में उस ने ही धकेला था. वृंदा फिर कांप गई.

स्वप्न, स्वप्न था. आया और चला गया. किंतु उस की परछाईं किसी सच्ची घटना की तरह उसे डरा रही थी. वह इस प्रकार डरी मानो अभी घर में तूफान आया हो और घर की दीवारें तक हिल गई हों.

यह स्वप्न उसे अतीत के बिंबों की तरफ ले जा रहा था जिस में न जाने की उस ने सैकड़ों बार प्रतिज्ञा की थी.

बिंब अभी थोड़े धुंधले थे. उसे थोड़ा संतोष हुआ. वह इन्हें और चटक नहीं होने देगी. यहीं से उबर जाएगी. किंतु उस का प्रयास अधिक देर तक टिक नहीं पाया. शीघ्र ही एक के बाद एक सारे बिंब चमकदार होने लगे हैं जिन्हें देखते ही उस की धड़कनें अधिक तेज हो गईं.

उस की भी एक छोटी बहन थी, कुंदा. हमेशा उस के चौकलेट, खिलौनों तथा कपड़ों को हथिया लेती थी. वृंदा या तो उस से जीत नहीं पाती थी या जीतने का भाव मन में लाती ही नहीं थी. छोटी बहन से क्या जीतना और क्या हारना? खुशीखुशी अपने चौकलेट, खिलौने और कपड़े कुंदा को दे देती थी. कुंदा विजयी भाव से उस की चीजों का इस्तेमाल करती थी. वृंदा को बस उस का यह विजयभाव ही खटकता था. वह सोचती, ‘काश, कुंदा समझ पाती कि उस की विजय का कारण मेरी कमजोरी नहीं बल्कि प्रेम है, छोटी बहन के प्रति प्रेम.’ पर कुंदा को न समझना था, न ही समझी.

बचपन छूटता गया पर कुंदा का स्वभाव न बदला. रश्मि के जन्म के समय वृंदा के घर आई कुंदा ने उस से उस का पति भी छीन लिया. वृंदा हतप्रभ थी. 5 वर्ष के संबंध चंद दिनों की परछाईं में दब कर सिसकने लगे.

वृंदा का विश्वास टूटा था, वह स्वयं नहीं. उस ने अपने घर को संभालने का पूरा प्रयास किया. सब से पहले उस ने अपने पति से बात की.

‘यह सब क्यों हुआ रवि…बोलो, ऐसा क्यों किया तुम ने? तुम्हारे जीवन में मैं इतनी महत्त्वहीन हो गई? इतनी जल्दी? मात्र 5 वर्षों में?’

‘ऐसी बात नहीं है वृंदा, तुम्हारा महत्त्व तनिक भी कम नहीं है,’ एकदम सपाट और भावशून्य शब्दों में जवाब दिया था रवि ने. वृंदा कुछ संतुष्ट हुई, ‘तो फिर यह महज भूल थी जो हो गई होगी. कोई बात नहीं, सब ठीक हो जाएगा,’ मन में सोचा था उस ने, पर ऊपर से कठोर बनी प्रश्न करती रही.

‘जब तुम्हारे जीवन में मेरा महत्त्व कम नहीं हुआ है तो तुम ने ऐसा क्यों किया…? कुंदा तो नासमझ है, पर तुम्हें तो कुछ सोचना था?’

‘तुम इतनी छोटी बात का बतंगड़ बना रही हो?’ रवि की आवाज में खीज थी. वृंदा सब्र खो बैठी. क्षणभर पहले उस के मन में रवि के लिए उठे विचार विलीन हो गए.

‘मैं बतंगड़ बना रही हूं…? मैं? तुम्हारी नजर में यह इतनी छोटी बात है? अरे, तुम ने मेरे विश्वास का गला घोंटा है रवि, जिंदगीभर की चुभन दी है तुम ने मुझे. समय बीत जाएगा, ये बातें समाप्त हो जाएंगी लेकिन मेरे दिल में पहले जैसे भाव कभी नहीं आएंगे. हमेशा एक अविश्वास घेरे रहेगा मुझे. मुझे तो तुम ने जिंदगीभर की पीड़ा दी ही, साथ ही मेरी बहन को भी बेवकूफ बनाया.’

‘क्या बकवास कर रही हो? मैं ने किसी को बेवकूफ नहीं बनाया है…किसी को कोई पीड़ा नहीं दी है,’ क्रोध में रवि चिल्ला पड़े थे. फिर थोड़ी देर बाद संयत हो कर अपने एकएक शब्द पर जोर देते हुए बोले, ‘कुंदा से मेरी बात हो चुकी है. मैं उस से शादी करूंगा. वह भी राजी है. हां, तुम इस घर में पूरे मानसम्मान के साथ रह सकती हो. अब यह तुम्हारे ऊपर निर्भर है कि तुम बात का बतंगड़ बनाती हो या अपना और कुंदा का जीवन बरबाद करती हो,’ रवि ने बेपरवाह उद्दंडता से जवाब दिया.

वृंदा अवाक् रवि का मुंह ताकती रह गई. हाथपैर जम गए उस के. मुंह से बोल नहीं फूट रहे थे. बात यहां तक बढ़ गई और वह कुछ जान ही न पाई. किस दुनिया में रहती है वह.

छत पर पंखा धीमी गति से घूम रहा है. दोनों बेटियां अब भी गहरी नींद में सो रही हैं. वृंदा ने पंखे को कुछ तेज किया किंतु उस की रफ्तार ज्यों की त्यों रही. बेटियों के माथे पर उभर आई पसीने की बूंदों को वृंदा ने अपने आंचल से थपथपा कर सुखाया, फिर छत निहारती हुई लेट गई.

पति के जवाब से आहत वृंदा के मन में उम्मीद की डोर अभी बाकी थी. सास से उम्मीद. वे कुछ करेंगी. वैसे थीं वे कड़क गुस्से वाली. वृंदा को उन के साथ रहते हुए 5 वर्ष बीत चुके थे किंतु हिम्मत थी कि उन के सामने सिकुड़ कर रह जाती थी. मुंह ही नहीं खुलता था. पर बात तो करनी थी, आखिर उसे इस घर से अलगथलग कर देने का षड्यंत्र रचा जा रहा है.

इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. यह उस के अस्तित्व का प्रश्न है. वह बात करेगी. अनुचित के विरोध में बोलना अपने अस्तित्व को बनाए रखने की बुनियादी जरूरत है. कुंदा के साथ अपने खिलौनों को बांटना छोटी बहन के प्रति प्यार है, बड़ी बहन का बड़प्पन है. पति खिलौना नहीं है, वह उसे कैसे बांटेगी? कैसे बंट जाने देगी? पर क्या करे वह, जब पति खुद ही बंटना चाहता हो. बंटना ही नहीं पूरी तरह से निकल जाना चाहता हो. फिर भी वह प्रयास करेगी.

मौका देख कर वृंदा ने सास से बात शुरू की, ‘मां, रवि कुंदा से शादी करने की सोच रहे हैं.’

‘हां, कह तो रहा था,’ एकदम ठंडी आवाज में जवाब दिया था सास ने.

‘तो मां, आप को पता है?’ वृंदा की आवाज में आश्चर्य समाया था.

‘हां, पता है.’

‘तो क्या आप यह सब होने देंगी?’

‘क्या करूंगी मैं? तुम देखो. तुम्हारी ही तो बहन है…उसे नहीं सोचना था तुम्हारे बारे में? चौबीस घंटे आगेपीछे नाचेगी तब तो यही होगा न?’ 

Raksha Bandhan:अंतत- भाग 3- क्या भाई के सितमों का जवाब दे पाई माधवी

बूआ के दर्दभरे पत्र दादी के मर्म पर कहीं भीतर तक चोट कर जाते थे. मन की घनीभूत पीड़ा जबतब आंसू बन कर बहने लगती थी. कई बार मैं ने स्वयं दादी के आंसू पोंछे. मैं समझ नहीं पाती कि वे इस तरह क्यों घुटती रहती हैं, क्यों नहीं बूआ के लिए कुछ करतीं? यदि फूफाजी निर्दोष हैं तो उन्हें किसी से भी डरने की क्या आवश्यकता है?

लेकिन मेरी अल्पबुद्धि इन प्रश्नों का उत्तर नहीं ढूंढ़ पाती थी. बूआ के पत्र बदस्तूर आते रहते. उन्हीं के पत्रों से पता चला कि फूफाजी का स्वास्थ ठीक नहीं चल रहा. वे अकसर बीमार रहे और एक दिन उसी हालत में चल बसे.

फूफाजी क्या गए, बूआ की तो दुनिया ही उजड़ गई. दादी अपने को रोक नहीं पाईं और उन दुखद क्षणों में बेटी के आंसू पोंछने उन के पास जा पहुंचीं. जाने से पूर्व उन्होंने पिताजी से पहली बार कहा था, ‘जिसे तू अपना बैरी समझता था वह तो चला गया. अब तू क्यों अड़ा बैठा है. चल कर बहन को सांत्वना दे.’

मगर पिताजी जैसे एकदम कठोर और हृदयहीन हो गए थे. उन पर दादी की बातों का कोई प्रभाव न पड़ा. दादी क्रोधित हो उठीं. और उस दिन पहली बार पिताजी को खूब धिक्कारा था. इस के बाद दादी को ताऊजी से कुछ कहने का साहस ही नहीं हुआ था.

बूआ ने भाइयों के न आने पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की. उन्होंने सारे दुख को पी कर स्वयं को कठोर बना लिया था. पति की मौत पर न वे रोईं, न चिल्लाईं, बल्कि वृद्ध ससुर और बच्चों को धीरज बंधाती रहीं और उन्हीं के सहयोग से सारे काम निबटाए. बूआ का यह अदम्य धैर्य देख कर दादी भी चकित रह गई थीं, साथ ही खुश भी हुईं. फूफाजी की भांति यदि बूआ भी टूट जातीं तो वृद्ध ससुर और मासूम बच्चों का क्या होता?

फूफाजी के न रहने के बाद अकेली बूआ के लिए इतने बड़े शहर में रहना और बचेखुचे काम को संभालना संभव न था. सो, उन्होंने व्यवसाय को पति के मित्र के हवाले किया और स्वयं बच्चों को ले कर ससुर के साथ गांव चली गईं, जहां अपना पैतृक मकान था और थोड़ी खेतीबाड़ी भी.

बूआ को पहली बार मैं ने तब देखा था जब वे 3 वर्ष पूर्व ताऊजी के निधन का समाचार पा कर आई थीं, हालांकि उन्हें बुलाया किसी ने नहीं था. ताऊजी एक सड़क दुर्घटना में अचानक चल बसे थे. विदेश में पढ़ रहे उन के बड़े बेटे ने भारत आ कर सारा कामकाज संभाल लिया था.

दूसरी बार बूआ तब आईं जब पिछले साल समीर भैया की शादी हुई थी. पहली बार तो मौका गमी का था, लेकिन इस बार खुशी के मौके पर भी किसी को बूआ को बुलाना याद नहीं रहा, लेकिन वे फिर भी आईं. पिताजी को बूआ का आना अच्छा नहीं लगा था. दादी सारा समय इस बात को ले कर डरती रहीं कि बूआ की घोर उपेक्षा तो हो ही रही है, कहीं पिताजी उन का अपमान न कर दें. लेकिन जाने क्या सोच कर वे मौन ही रहे.

पिताजी का रवैया मुझे बेहद खला था. बूआ कितनी स्नेहशील और उदार थीं. भाई द्वारा इतनी अपमानित, तिरस्कृत हो कर क्या कोई बहन दोबारा उस के पास आती, वह भी बिन बुलाए. यह तो बूआ की महानता थी कि इतना सब सहने के बाद भी उन्होंने भाई के लिए दिल में कुछ नहीं रखा था.

चलो, मान लिया कि फूफाजी ने पिताजी के साथ विश्वासघात किया था और उन्हें गहरी चोट पहुंची थी, लेकिन उस के बाद स्वयं फूफाजी ने जो तकलीफें उठाईं और उन के बाद बूआ और बच्चों को जो कष्ट झेलने पड़े, वे क्या किसी भयंकर सजा से कम थे. यह पिताजी की महानता होती यदि वे उन्हें माफ कर के अपना लेते.

अब जबकि बूआ ने बेटी की शादी पर कितनी उम्मीदों से बुलाया है, तो पिताजी का मन अब भी नहीं पसीज रहा. क्या नफरत की आग इंसान की तमाम संवेदनाओं को जला देती है?

दादी ने उस के बाद पिताजी को बहुतेरा समझाने व मनाने की कोशिशें कीं. मगर नतीजा वही ढाक के तीन पात. विवाह का दिन जैसेजैसे करीब आता जा रहा था, दादी की चिंता और मेरी बेचैनी बढ़ती जा रही थी.

ऐसे में ही दादी के नाम बूआ का एक पत्र आ गया. उन्होंने भावपूर्ण शब्दों में लिखा था, ‘अगले हफ्ते तान्या की शादी है. लेकिन भैया नहीं आए, न ही उन्होंने या तुम ने ऐसा कोई संकेत दिया है, जिस से मैं निश्चिंत हो जाऊं. मैं जानती हूं कि तुम ने भैया को मनाने में कोई कसर नहीं रख छोड़ी होगी, मगर शायद इस बार भी हमेशा की तरह मेरी झोली में भैया की नफरत ही आई है.

‘मां, मैं भैया के स्वभाव से खूब परिचित हूं. जानती हूं कि कोई उन के फैसले को नहीं बदल सकता. पर मां, मैं भी उन की ही बहन हूं. अपने फैसले पर दृढ़ रहना मुझे भी आता है. मैं ने फैसला किया है कि तान्या का कन्यादान भैया के हाथों से होगा. बात केवल परंपरा के निर्वाह की नहीं है बल्कि एक बहन के प्यार और भांजी के अधिकार की है. मैं अपना फैसला बदल नहीं सकती. यदि भैया नहीं आए तो तान्या की शादी रुक जाएगी, टूट भी जाए तो कोई बात नहीं.’

पत्र पढ़ कर दादी एकदम खामोश हो गईं. मेरा तो दिमाग ही घूम गया. यह बूआ ने कैसा फैसला कर डाला? क्या उन्हें तान्या दीदी के भविष्य की कोई चिंता नहीं? मेरा मन तरहतरह की आशंकाओं से घिरने लगा.

आखिर में दादी से पूछ ही बैठी, ‘‘अब क्या होगा, बूआ को ऐसा करने की क्या जरूरत थी.’’

‘‘तू नहीं समझेगी, यह एक बहन के हृदय से निकली करुण पुकार है,’’ दादी द्रवित हो उठीं, ‘‘माधवी आज तक चुपचाप भाइयों की नफरत सहती रही, उन के खिलाफ मुंह से एक शब्द भी नहीं निकाला. आज पहली बार उस ने भाई से कुछ मांगा है. जाने कितने वर्षों बाद उस के जीवन में वह क्षण आया है, जब वह सब की तरह मुसकराना चाहती है. मगर तेरा बाप उस के होंठों की यह मुसकान भी छीन लेना चाहता है. पर ऐसा नहीं होगा, कभी नहीं,’’ उन का स्वर कठोर होता चला गया.

दादी की बातों ने मुझे अचंभे में डाल दिया. मुझे लगा उन्होंने कोई फैसला कर लिया है. किंतु उन की गंभीर मुखमुद्रा देख कर मैं कुछ पूछने का साहस न कर सकी. पर ऐसा लग रहा था कि अब कुछ ऐसा घटित होने वाला है, जिस की किसी को कल्पना तक नहीं.

शाम को पिताजी घर आए तो दादी ने बूआ का पत्र ला कर उन के सामने रख दिया. पिताजी ने एक निगाह डाल कर मुंह फेर लिया तो दादी ने डांट कर कहा, ‘‘पूरा पत्र पढ़, रघुवीर.’’

पिताजी चौंक से गए. मैं कमरे के दरवाजे से सटी भीतर झांक रही थी कि पता नहीं क्या होने वाला है.

पिताजी ने सरसरी तौर पर पत्र पढ़ा और बोले, ‘‘तो मैं क्या करूं?’’

‘‘तुम्हें क्या करना चाहिए, इतना भी नहीं जानते,’’ दादी के स्वर ने सब को चौंका दिया था. मां रसोई का काम छोड़ कर कमरे में चली आईं.

‘‘मां, मैं तुम से पहले भी कह चुका हूं.’’

‘‘कि तू वहां नहीं जाएगा,’’ दादी ने व्यंग्यभरे, कटु स्वर में कहा, ‘‘चाहे तान्या की शादी हो, न हो…वाह बेटे.’’

क्षणिक मौन के बाद वे फिर बोलीं, ‘‘लेकिन मैं ऐसा नहीं होने दूंगी. मैं आज तक तेरी हठधर्मिता को चुपचाप सहती रही. तुम दोनों भाइयों के कारण माधवी का तो जीवन बरबाद हो ही गया, पर मैं तान्या का जीवन नष्ट नहीं होने दूंगी.’’

दादी का स्वर भर्रा गया, ‘‘तेरी जिद ने आज मुझे वह सब कहने पर मजबूर कर दिया है, जिसे मैं नहीं कहना चाहती थी. मैं ने कभी सोचा भी नहीं था कि जिस बेटे के जीतेजी उस के अपराध पर परदा डाले रही, आज उस के न रहने के बाद उस के बारे में यह सब कहना पड़ेगा. पर मैं और चुप नहीं रहूंगी. मेरी चुप्पी ने हर बार मुझे छला है.

‘‘सुन रहा है रघुवीर, फर्म में गबन धीरेंद्र ने नहीं बल्कि तेरे सगे भाई ने किया था.’’

मैं सकते में आ गई. पिताजी फटीफटी आंखों से दादी की तरफ देख रहे थे, ‘‘नहीं, नहीं, मां, यह नहीं हो सकता.’’

दादी गंभीर स्वर में बोलीं, ‘‘लेकिन सच यही है, बेटा. क्या मैं तुझ से झूठ बोलूंगी? क्या कोई मां अपने मृत बेटे पर इस तरह का झूठा लांछन लगा सकती है? बोल, जवाब दे?’’

‘‘नहीं मां, नहीं,’’ पिताजी का समूचा शरीर थरथरा उठा. उन की मुट्ठियां कस गईं, जबड़े भिंच गए और होंठों से एक गुर्राहट सी खारिज हुई, ‘‘इतना बड़ा विश्वासघात…’’

फिर सहसा उन्होंने चौंक कर दादी से पूछा, ‘‘यह सब तुम्हें कैसे पता चला, मां?’’

‘‘शायद मैं भी तुम्हारी तरह अंधेरे में रहती और झूठ को सच मान बैठती. लेकिन मुझे शुरू से ही सचाई का पता चल गया था. हुआ यों कि एक दिन मैं ने सुधीर और बड़ी बहू की कुछ ऐसी बातें सुन लीं, जिन से मुझे शक हुआ. बाद में एकांत में मैं ने सुधीर को धमकाते हुए पूछा तो उस ने सब सचसच बता दिया.’’

‘‘तो तुम ने मुझे यह बात पहले क्यों नहीं बताई?’’ पिताजी ने तड़प कर पूछा.

‘‘कैसे बताती, बेटा, मैं जानती थी कि सचाई सामने आने के बाद तुम दोनों भाई एकदूसरे के दुश्मन बन जाओगे. मैं अपने जीतेजी इस बात को कैसे बरदाश्त कर सकती थी. मगर दूसरी तरफ मैं यह भी नहीं चाहती थी कि बेकुसूर दामाद को अपराधी कहा जाए और तुम सभी उस से नफरत करो. किंतु दोनों ही बातें नहीं हो सकती थीं. मुझे एक का परित्याग करना ही था.

‘‘मैं ने बहुत बार कोशिश की कि सचाई कह दूं. पर हर बार मेरी जबान लड़खड़ा गई, मैं कुछ नहीं कह पाई और तभी से अपने सीने पर एक भारी बोझ लिए जी रही हूं. बेटी की बरबादी की असली जिम्मेदार मैं ही हूं,’’ कहतेकहते दादी की आंखों से झरझर आंसू बहने लगे.

‘‘मां, यह तुम ने अच्छा नहीं किया. तुम्हारी खामोशी ने बहुत बड़ा अनर्थ कर दिया,’’ पिताजी दोनों हाथों से सिर थाम कर धड़ाम से बिस्तर पर गिर गए. मां और मैं घबरा कर उन की ओर लपकीं.

पिताजी रो पड़े, ‘‘अब तक मैं क्या करता रहा. अपनी बहन के साथ कैसा अन्याय करता रहा. मैं गुनाहगार हूं, हत्यारा हूं. मैं ने अपनी बहन का सुहाग उजाड़ दिया, उसे घर से बेघर कर डाला. मैं अपनेआप को कभी क्षमा नहीं कर पाऊंगा.’’

पिताजी का आर्तनाद सुन कर मां और मेरे लिए आंसुओं को रोक पाना कठिन हो गया. हम तीनों ही रो पड़े.

दादी ही हमें समझाती रहीं, सांत्वना देती रहीं, विशेषकर पिताजी को. कुछ देर बाद जब आंसुओं का सैलाब थमा तो दादी ने पिताजी को समझाते हुए कहा, ‘‘नहीं, बेटा, इस तरह अपनेआप को दोषी मान कर सजा मत दे. दोष किसी एक का नहीं, हम सब का है. वह वक्त ही कुछ ऐसा था, हम सब परिस्थितियों के शिकार हो गए. लेकिन अब समय अपनी गलतियों पर रोने का नहीं बल्कि उन्हें सुधारने का है. बेटा, अभी भी बहुतकुछ ऐसा है, जो तू संवार सकता है.’’

दादी की बातों ने पिताजी के संतप्त मन को ऐसा संबल प्रदान किया कि वे उठ खड़े हुए और एकदम से पूछा, ‘‘समीर कहां है?’’

समीर भैया उसी समय बाहर से लौटे थे, ‘‘जी, पिताजी.’’

‘‘तुम जाओ और इसी समय कानपुर जाने वाली ट्रेन के टिकट ले कर आओ, पर सुनो, ट्रेन को छोड़ो… मालूम नहीं, कब छूटती होगी. तुम एक टैक्सी बुक करा लो और ज्योत्सना, माया तुम दोनों जल्दी से सामान बांध लो. मां, हम लोग इसी समय दीदी के पास चल रहे हैं,’’ पिताजी ने एक ही सांस में हस सब को आदेश दे डाला.

फिर वे शिथिल से हो गए और कातर नजरों से दादी की तरफ देखा, ‘‘मां, दीदी मुझे माफ कर देंगी?’’ स्वर में जाने कैसा भय छिपा हुआ था.

‘‘हां, बेटा, उस का मन बहुत बड़ा है. वह न केवल तुम्हें माफ कर देगी, बल्कि तुम्हारी वही नन्हीमुन्नी बहन बन जाएगी,’’ दादी धीरे से कह उठीं.

अंतत: भाईबहन के बीच वर्षों से खड़ी नफरत और गलतफहमी की दीवार गिर ही गई. मैं खड़ी हुई सोच रही थी कि वह दृश्य कितना सुखद होगा, जब पिताजी बूआ को गले से लगाएंगे.

Rakhsa Bandhan:एक विश्वास था- अमर ने क्यों निभाया बड़े भाई का फर्ज

मेरी बेटी की शादी थी और मैं कुछ दिनों की छुट्टी ले कर शादी के तमाम इंतजाम को देख रहा था. उस दिन सफर से लौट कर मैं घर आया तो पत्नी ने आ कर एक लिफाफा मुझे पकड़ा दिया. लिफाफा अनजाना था लेकिन प्रेषक का नाम देख कर मुझे एक आश्चर्यमिश्रित जिज्ञासा हुई.

‘अमर विश्वास’ एक ऐसा नाम जिसे मिले मुझे वर्षों बीत गए थे. मैं ने लिफाफा खोला तो उस में 1 लाख डालर का चेक और एक चिट्ठी थी. इतनी बड़ी राशि वह भी मेरे नाम पर. मैं ने जल्दी से चिट्ठी खोली और एक सांस में ही सारा पत्र पढ़ डाला. पत्र किसी परी कथा की तरह मुझे अचंभित कर गया. लिखा था :

आदरणीय सर, मैं एक छोटी सी भेंट आप को दे रहा हूं. मुझे नहीं लगता कि आप के एहसानों का कर्ज मैं कभी उतार पाऊंगा. ये उपहार मेरी अनदेखी बहन के लिए है. घर पर सभी को मेरा प्रणाम.

आप का, अमर.

मेरी आंखों में वर्षों पुराने दिन सहसा किसी चलचित्र की तरह तैर गए.

एक दिन मैं चंडीगढ़ में टहलते हुए एक किताबों की दुकान पर अपनी मनपसंद पत्रिकाएं उलटपलट रहा था कि मेरी नजर बाहर पुस्तकों के एक छोटे से ढेर के पास खड़े एक लड़के पर पड़ी. वह पुस्तक की दुकान में घुसते हर संभ्रांत व्यक्ति से कुछ अनुनयविनय करता और कोई प्रतिक्रिया न मिलने पर वापस अपनी जगह पर जा कर खड़ा हो जाता. मैं काफी देर तक मूकदर्शक की तरह यह नजारा देखता रहा. पहली नजर में यह फुटपाथ पर दुकान लगाने वालों द्वारा की जाने वाली सामान्य सी व्यवस्था लगी, लेकिन उस लड़के के चेहरे की निराशा सामान्य नहीं थी. वह हर बार नई आशा के साथ अपनी कोशिश करता, फिर वही निराशा.

मैं काफी देर तक उसे देखने के बाद अपनी उत्सुकता दबा नहीं पाया और उस लड़के के पास जा कर खड़ा हो गया. वह लड़का कुछ सामान्य सी विज्ञान की पुस्तकें बेच रहा था. मुझे देख कर उस में फिर उम्मीद का संचार हुआ और बड़ी ऊर्जा के साथ उस ने मुझे पुस्तकें दिखानी शुरू कीं. मैं ने उस लड़के को ध्यान से देखा. साफसुथरा, चेहरे पर आत्मविश्वास लेकिन पहनावा बहुत ही साधारण. ठंड का मौसम था और वह केवल एक हलका सा स्वेटर पहने हुए था. पुस्तकें मेरे किसी काम की नहीं थीं फिर भी मैं ने जैसे किसी सम्मोहन से बंध कर उस से पूछा, ‘बच्चे, ये सारी पुस्तकें कितने की हैं?’

‘आप कितना दे सकते हैं, सर?’

‘अरे, कुछ तुम ने सोचा तो होगा.’

‘आप जो दे देंगे,’ लड़का थोड़ा निराश हो कर बोला.

‘तुम्हें कितना चाहिए?’ उस लड़के ने अब यह समझना शुरू कर दिया कि मैं अपना समय उस के साथ गुजार रहा हूं.

‘5 हजार रुपए,’ वह लड़का कुछ कड़वाहट में बोला.

‘इन पुस्तकों का कोई 500 भी दे दे तो बहुत है,’ मैं उसे दुखी नहीं करना चाहता था फिर भी अनायास मुंह से निकल गया.

अब उस लड़के का चेहरा देखने लायक था. जैसे ढेर सारी निराशा किसी ने उस के चेहरे पर उड़ेल दी हो. मुझे अब अपने कहे पर पछतावा हुआ. मैं ने अपना एक हाथ उस के कंधे पर रखा और उस से सांत्वना भरे शब्दों में फिर पूछा, ‘देखो बेटे, मुझे तुम पुस्तक बेचने वाले तो नहीं लगते, क्या बात है. साफसाफ बताओ कि क्या जरूरत है?’

वह लड़का तब जैसे फूट पड़ा. शायद काफी समय निराशा का उतारचढ़ाव अब उस के बरदाश्त के बाहर था.

‘सर, मैं 10+2 कर चुका हूं. मेरे पिता एक छोटे से रेस्तरां में काम करते हैं. मेरा मेडिकल में चयन हो चुका है. अब उस में प्रवेश के लिए मुझे पैसे की जरूरत है. कुछ तो मेरे पिताजी देने के लिए तैयार हैं, कुछ का इंतजाम वह अभी नहीं कर सकते,’ लड़के ने एक ही सांस में बड़ी अच्छी अंगरेजी में कहा.

‘तुम्हारा नाम क्या है?’ मैं ने मंत्रमुग्ध हो कर पूछा.

‘अमर विश्वास.’

‘तुम विश्वास हो और दिल छोटा करते हो. कितना पैसा चाहिए?’

‘5 हजार,’ अब की बार उस के स्वर में दीनता थी.

‘अगर मैं तुम्हें यह रकम दे दूं तो क्या मुझे वापस कर पाओगे? इन पुस्तकों की इतनी कीमत तो है नहीं,’ इस बार मैं ने थोड़ा हंस कर पूछा.

‘सर, आप ने ही तो कहा कि मैं विश्वास हूं. आप मुझ पर विश्वास कर सकते हैं. मैं पिछले 4 दिन से यहां आता हूं, आप पहले आदमी हैं जिस ने इतना पूछा. अगर पैसे का इंतजाम नहीं हो पाया तो मैं भी आप को किसी होटल में कपप्लेटें धोता हुआ मिलूंगा,’ उस के स्वर में अपने भविष्य के डूबने की आशंका थी.

उस के स्वर में जाने क्या बात थी जो मेरे जेहन में उस के लिए सहयोग की भावना तैरने लगी. मस्तिष्क उसे एक जालसाज से ज्यादा कुछ मानने को तैयार नहीं था, जबकि दिल में उस की बात को स्वीकार करने का स्वर उठने लगा था. आखिर में दिल जीत गया. मैं ने अपने पर्स से 5 हजार रुपए निकाले, जिन को मैं शेयर मार्किट में निवेश करने की सोच रहा था, उसे पकड़ा दिए. वैसे इतने रुपए तो मेरे लिए भी माने रखते थे, लेकिन न जाने किस मोह ने मुझ से वह पैसे निकलवा लिए.

‘देखो बेटे, मैं नहीं जानता कि तुम्हारी बातों में, तुम्हारी इच्छाशक्ति में कितना दम है, लेकिन मेरा दिल कहता है कि तुम्हारी मदद करनी चाहिए, इसीलिए कर रहा हूं. तुम से 4-5 साल छोटी मेरी बेटी भी है मिनी. सोचूंगा उस के लिए ही कोई खिलौना खरीद लिया,’ मैं ने पैसे अमर की तरफ बढ़ाते हुए कहा.

अमर हतप्रभ था. शायद उसे यकीन नहीं आ रहा था. उस की आंखों में आंसू तैर आए. उस ने मेरे पैर छुए तो आंखों से निकली दो बूंदें मेरे पैरों को चूम गईं.

‘ये पुस्तकें मैं आप की गाड़ी में रख दूं?’

‘कोई जरूरत नहीं. इन्हें तुम अपने पास रखो. यह मेरा कार्ड है, जब भी कोई जरूरत हो तो मुझे बताना.’

वह मूर्ति बन कर खड़ा रहा और मैं ने उस का कंधा थपथपाया, कार स्टार्ट कर आगे बढ़ा दी.

कार को चलाते हुए वह घटना मेरे दिमाग में घूम रही थी और मैं अपने खेले जुए के बारे में सोच रहा था, जिस में अनिश्चितता ही ज्यादा थी. कोई दूसरा सुनेगा तो मुझे एक भावुक मूर्ख से ज्यादा कुछ नहीं समझेगा. अत: मैं ने यह घटना किसी को न बताने का फैसला किया.

दिन गुजरते गए. अमर ने अपने मेडिकल में दाखिले की सूचना मुझे एक पत्र के माध्यम से दी. मुझे अपनी मूर्खता में कुछ मानवता नजर आई. एक अनजान सी शक्ति में या कहें दिल में अंदर बैठे मानव ने मुझे प्रेरित किया कि मैं हजार 2 हजार रुपए उस के पते पर फिर भेज दूं. भावनाएं जीतीं और मैं ने अपनी मूर्खता फिर दोहराई. दिन हवा होते गए. उस का संक्षिप्त सा पत्र आता जिस में 4 लाइनें होतीं. 2 मेरे लिए, एक अपनी पढ़ाई पर और एक मिनी के लिए, जिसे वह अपनी बहन बोलता था. मैं अपनी मूर्खता दोहराता और उसे भूल जाता. मैं ने कभी चेष्टा भी नहीं की कि उस के पास जा कर अपने पैसे का उपयोग देखूं, न कभी वह मेरे घर आया. कुछ साल तक यही क्रम चलता रहा. एक दिन उस का पत्र आया कि वह उच्च शिक्षा के लिए आस्ट्रेलिया जा रहा है. छात्रवृत्तियों के बारे में भी बताया था और एक लाइन मिनी के लिए लिखना वह अब भी नहीं भूला.

मुझे अपनी उस मूर्खता पर दूसरी बार फख्र हुआ, बिना उस पत्र की सचाई जाने. समय पंख लगा कर उड़ता रहा. अमर ने अपनी शादी का कार्ड भेजा. वह शायद आस्ट्रेलिया में ही बसने के विचार में था. मिनी भी अपनी पढ़ाई पूरी कर चुकी थी. एक बड़े परिवार में उस का रिश्ता तय हुआ था. अब मुझे मिनी की शादी लड़के वालों की हैसियत के हिसाब से करनी थी. एक सरकारी उपक्रम का बड़ा अफसर कागजी शेर ही होता है. शादी के प्रबंध के लिए ढेर सारे पैसे का इंतजाम…उधेड़बुन…और अब वह चेक?

मैं वापस अपनी दुनिया में लौट आया. मैं ने अमर को एक बार फिर याद किया और मिनी की शादी का एक कार्ड अमर को भी भेज दिया.

शादी की गहमागहमी चल रही थी. मैं और मेरी पत्नी व्यवस्थाओं में व्यस्त थे और मिनी अपनी सहेलियों में. एक बड़ी सी गाड़ी पोर्च में आ कर रुकी. एक संभ्रांत से शख्स के लिए ड्राइवर ने गाड़ी का गेट खोला तो उस शख्स के साथ उस की पत्नी जिस की गोद में एक बच्चा था, भी गाड़ी से बाहर निकले.

मैं अपने दरवाजे पर जा कर खड़ा हुआ तो लगा कि इस व्यक्ति को पहले भी कहीं देखा है. उस ने आ कर मेरी पत्नी और मेरे पैर छुए.

‘‘सर, मैं अमर…’’ वह बड़ी श्रद्धा से बोला.

मेरी पत्नी अचंभित सी खड़ी थी. मैं ने बड़े गर्व से उसे सीने से लगा लिया. उस का बेटा मेरी पत्नी की गोद में घर सा अनुभव कर रहा था. मिनी अब भी संशय में थी. अमर अपने साथ ढेर सारे उपहार ले कर आया था. मिनी को उस ने बड़ी आत्मीयता से गले लगाया. मिनी भाई पा कर बड़ी खुश थी.

अमर शादी में एक बड़े भाई की रस्म हर तरह से निभाने में लगा रहा. उस ने न तो कोई बड़ी जिम्मेदारी मुझ पर डाली और न ही मेरे चाहते हुए मुझे एक भी पैसा खर्च करने दिया. उस के भारत प्रवास के दिन जैसे पंख लगा कर उड़ गए.

इस बार अमर जब आस्ट्रेलिया वापस लौटा तो हवाई अड्डे पर उस को विदा करते हुए न केवल मेरी बल्कि मेरी पत्नी, मिनी सभी की आंखें नम थीं. हवाई जहाज ऊंचा और ऊंचा आकाश को छूने चल दिया और उसी के साथसाथ मेरा विश्वास भी आसमान छू रहा था.

मैं अपनी मूर्खता पर एक बार फिर गर्वित था और सोच रहा था कि इस नश्वर संसार को चलाने वाला कोई भगवान नहीं हमारा विश्वास ही है.

Raksha Bandhan: अंतत- भाग 2- क्या भाई के सितमों का जवाब दे पाई माधवी

अचानक ही फर्म में लाखों की हेराफेरी का मामला प्रकाश में आया, जिस ने न केवल तीनों साझेदारों के होश उड़ा दिए बल्कि फर्म की बुनियाद तक हिल गई. तात्कालिक छानबीन से एक बात स्पष्ट हो गई कि गबन किसी साझेदार ने किया है, और वह जो भी है, बड़ी सफाई से सब की आंखों में धूल झोंकता रहा है.

तमाम हेराफेरी औफिस की फाइलों में हुई थी और वे सब फाइलें यानी कि सभी दस्तावेज फूफाजी के अधिकार में थे. आखिरकार शक की पहली उंगली उन पर ही उठी. हालांकि फूफाजी ने इस बात से अनभिज्ञता प्रकट की थी और अपनेआप को निर्दोष ठहराया था. पर चूंकि फाइलें उन्हीं की निगरानी में थीं, तो बिना उन की अनुमति या जानकारी के कोई उन दस्तावेजों में हेराफेरी नहीं कर सकता था.

लेकिन जाली दस्तावेजों और फर्जी बिलों ने फूफाजी को पूरी तरह संदेह के घेरे में ला खड़ा किया था. सवाल यह था कि यदि उन्होंने हेराफेरी नहीं की तो किस ने की? जहां तक पिताजी और ताऊजी का सवाल था, वे इस मामले से कहीं भी जुड़े हुए नहीं थे और न ही उन के खिलाफ कोई प्रमाण था. प्रमाण तो कोई फूफाजी के खिलाफ भी नहीं मिला था, लेकिन वे यह बताने की स्थिति में नहीं थे कि अगर फर्म का रुपया उन्होंने नहीं लिया तो फिर कहां गया? ऐसी ही दलीलों ने फूफाजी को परास्त कर दिया था. फिर भी वे सब को यही विश्वास दिलाने की कोशिश करते रहे कि वे निर्दोष हैं और जो कुछ भी हुआ, कब हुआ, कैसे हुआ नहीं जानते.

इन घटनाओं ने जहां एक ओर पिताजी को स्तब्ध और गुमसुम बना दिया था, वहीं ताऊजी उत्तेजित थे और फूफाजी से बेहद चिढ़े थे. जबतब वे भड़क उठते, ‘यह धीरेंद्र तो हमें ही बदनाम करने पर तुला हुआ है. अगर इस पर विश्वास न होता तो हम सबकुछ इसे कैसे सौंप देते. अब जब सचाई सामने आ गई है तो दुहाई देता फिर रहा है कि निर्दोष है. क्या हम दोषी हैं? क्या यह हेराफेरी हम ने किया है?

‘मुझे तो इस आदमी पर शुरू से ही शक था, इस ने सबकुछ पहले ही सोचा हुआ था. हम इस की मीठीमीठी बातों में आ गए. इस ने अपने पैसे लगा कर हमें एहसान के नीचे दबा देना चाहा. सोचा होगा कि पकड़ा भी गया तो बहन का लिहाज कर के हम चुप कर जाएंगे. मगर उस की सोची सारी बातें उलटी हो गईं, इसलिए अब अनापशनाप बकता फिर रहा है.’

एक बार तो ताऊजी ने यहां तक कह दिया था, ‘हमें इस आदमी को पुलिस के हवाले कर देना चाहिए.’

लेकिन दादी ने कड़ा विरोध किया था. पिताजी को भी यह बात पसंद नहीं आई कि यदि मामला पुलिस में चला गया तो पूरे परिवार की बदनामी होगी.

बात घर से बाहर न जाने पाई, लेकिन इस घटना ने चारदीवारी के भीतर भारी उथलपुथल मचा दी थी. घर का हरेक प्राणी त्रस्त व पीडि़त था. पिताजी के मन को ऐसा आघात लगा कि वे हर ओर से विरक्त हो गए. उन्हें फर्म के नुकसान और बदनामी की उतनी चिंता नहीं थी, जितना कि विश्वास के टूट जाने का दुख था. रुपया तो फिर से कमाया जा सकता था. मगर विश्वास? उन्होंने फूफाजी पर बड़े भाई से भी अधिक विश्वास किया था. बड़ा भाई ऐसा करता तो शायद उन्हें इतनी पीड़ा न होती, मगर फूफाजी ऐसा करेंगे, यह तो उन्होंने ख्वाब में भी न सोचा था.

उधर फूफाजी भी कम निराश नहीं थे. वे किसी को भी अपनी नेकनीयती का विश्वास नहीं दिला पाए थे. दुखी हो कर उन्होंने यह जगह, यह शहर ही छोड़ देने का फैसला कर लिया. यहां बदनामी के सिवा अब धरा ही क्या था. अपने, पराए सभी तो उन के विरुद्ध हो गए थे. वे बूआ को लेकर अपने एक मित्र के पास अहमदाबाद चले गए.

दादी बतातीं कि जाने से पूर्व फूफाजी उन के पास आए थे और रोरो कहा था, ‘सब लोग मुझे चोर समझते हैं, लेकिन मैं ने गबन नहीं किया. परिस्थितियों ने मेरे विरुद्ध षड्यंत्र रचा है. मैं चाह कर भी इस कलंक को धो नहीं पाया. मैं भी तो आप का बेटा ही हूं. मैं ने उन्हें हमेशा अपना भाई ही समझा है. क्या मैं भाइयों के साथ ऐसा कर सकता हूं. क्या आप भी मुझ पर विश्वास नहीं करतीं?’

‘मुझे विश्वास है, बेटा, मुझे विश्वास है कि तुम वैसे नहीं हो, जैसा सब समझते हैं. पर मैं भी तुम्हारी ही तरह असहाय हूं. मगर इतना जानती हूं, झूठ के पैर नहीं होते. सचाई एक न एक दिन जरूर सामने आएगी. और तब ये ही लोग पछताएंगे,’ दादी ने विश्वासपूर्ण ढंग से घोषणा की थी.

व्यवसाय से पिताजी का मन उचट गया था, उन्होंने फर्म बेच देने का प्रस्ताव रखा. ताऊजी भी इस के लिए राजी हो गए. गबन और बदनामी के कारण फर्म की जो आधीपौनी कीमत मिली, उसे ही स्वीकार कर लेना पड़ा.

पिताजी ने एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी कर ली, जबकि ताऊजी का मन अभी तक व्यवसाय में ही रमा हुआ था. वे पिताजी के साथ कोई नया काम शुरू करना चाहते थे. किंतु उन के इनकार के बाद उन्होंने अकेले ही काम शुरू करने का निश्चय कर लिया.

फर्म के बिकने के बाद जो पैसा मिला, उस का एक हिस्सा पिताजी ने फूफाजी को भिजवा दिया. हालांकि यह बात ताऊजी को पसंद नहीं आई, मगर पिताजी का कहना था, ‘उस ने हमारे साथ जो कुछ किया, उस का हिस्सा ले कर वही कुछ हम उस के साथ करेंगे तो हम में और उस में अंतर कहां रहा. नहीं, ये पैसे मेरे लिए हराम हैं.’

किंतु लौटती डाक से वह ड्राफ्ट वापस आ गया था और साथ में थी, फूफाजी द्वारा लिखी एक छोटी सी चिट…

‘पैसे मैं वापस भेज रहा हूं इस आशा से कि आप इसे स्वीकार कर लेंगे. अब इस पैसे पर मेरा कोई अधिकार नहीं है. फर्म में जो कुछ भी हुआ, उस की नैतिक जिम्मेदारी से मैं मुक्त नहीं हो सकता. यदि इन पैसों से उस नुकसान की थोड़ी सी भी भरपाई हो जाए तो मुझे बेहद खुशी होगी. वक्त ने साथ दिया तो मैं पाईपाई चुका दूंगा, क्योंकि जो नुकसान हुआ है, वह आप का ही नहीं, मेरा, हम सब का हुआ है.’

पत्र पढ़ कर ताऊजी वितृष्णा से हंस पड़े थे और व्यंग्यात्मक स्वर में कहा था, ‘देखा रघुवीर, सुन लो मां, तुम्हारे दामाद ने कैसा आदर्श बघारा है. चोर कहीं का. आखिर उस ने सचाई स्वीकार कर ही ली. लेकिन अब भी अपनेआप को हरिश्चंद्र साबित करने से बाज नहीं आया.’

पिताजी इस घटना से और भी भड़क उठे थे. उन्होंने उसी दिन आंगन में सब के सामने कसम खाई थी कि ऐसे जीजा का वे जीवनभर मुंह नहीं देखेंगे. न ही ऐसे किसी व्यक्ति से कोई संबंध रखेंगे, जो उस शख्स से जुड़ा हुआ हो, फिर चाहे वह उन की बहन ही क्यों न हो.

बूआ न केवल फूफाजी से जुड़ी हुई थीं बल्कि वे उन का एकमात्र संबल थीं. उस के बाद वास्तव में ही पिताजी फूफाजी का मुंह न देख सके. वे यह भी भूल गए कि उन की कोई बहन भी है. उन्होंने कभी यह जानने की कोशिश नहीं की कि वे लोग कहां हैं, किस हालत में हैं.

इधर ताऊजी ने बिलकुल ही नए क्षेत्र में हाथ डाला और अपना एक पिं्रटिंग प्रैस खोल लिया. शुरू में एक साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ. बहुत समय तक ऐसे ही चला, किंतु धीरेधीरे पत्रिका का प्रचारप्रसार बढ़ने लगा. कुछ ही वर्षों में उन के प्रैस से 1 दैनिक, 2 मासिक और 1 साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन होने लगा. ताऊजी की गिनती सफल प्रकाशकों में होने लगी. किंतु जैसेजैसे संपन्नता बढ़ी, वे खुद और उन का परिवार भौतिकवादी होता चला गया. जब उन्हें यह घर तंग और पुराना नजर आने लगा तो उन्होंने शहर में ही एक कोठी ले ली और सपरिवार वहां चले गए.

इस बीच बहुतकुछ बदल गया था. मैं और भैया जवान हो गए थे. मां, पिताजी ने बुढ़ापे की ओर एक कदम और बढ़ा दिया. दादी तो और वृद्ध हो गई थीं. सभी अपनीअपनी जिंदगी में इस तरह मसरूफ हो गए कि गुजरे सालों में किसी को बूआ की याद भी नहीं आई.

पिताजी ने बूआ से संबंध तोड़ लिया था, लेकिन दादी ने नहीं, इस वजह से पिताजी, दादी से नाराज रहते थे और शायद इसीलिए दादी भी बेटी के प्रति अपनी भावनाओं का खुल कर इजहार न कर सकती थीं. उन्हें हमेशा बेटे की नाराजगी का डर रहा. बावजूद इस के, उन्होंने बूआ से पत्रव्यवहार जारी रखा और बराबर उन की खोजखबर लेती रहीं. बूआ के पत्रों से ही दादी को समयसमय पर सारी बातों का पता चलता रहा.

फूफाजी ने अहमदाबाद जाने के बाद अपने मित्र के सहयोग से नया व्यापार शुरू कर दिया था. लेकिन काम ठीक से जम नहीं पाया. वे अकसर तनावग्रस्त और खोएखोए से रहते थे. बूआ ने एक बार लिखा था, ‘बदनामी का गम उन्हें भीतर ही भीतर खोखला किए जा रहा है. वे किसी भी तरह इस सदमे से उबर नहीं पा रहे. अकेले में बैठ कर जाने क्याक्या बड़बड़ाते रहते हैं. समझाने की बहुत कोशिश करती हूं, पर सब व्यर्थ.’

कुछ समय बाद बूआ ने लिखा था, ‘उन की हालत देख कर डर लगने लगा है. उन का किसी काम में मन नहीं लगता. व्यापार क्या ऐसे होता है. पर वे तो जैसे कुछ समझते ही नहीं. मुझ से और बच्चोें से भी अब बहुत कम बोलते हैं.’

बूआ को भाइयों से एक ही शिकायत थी कि उन्होंने मामले की गहराई में गए बिना बहुत जल्दी निष्कर्ष निकाल लिया था. यदि ईमानदारी से सचाई जानने की कोशिश की गई होती तो ऐसा न होता और न वे (फूफाजी) इस तरह टूटते.

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