तीज स्पेशल: उज्ज्वला- क्या पत्नी को स्वीकार कर पाया सुनील

सुनील के जाते ही उज्ज्वला कमरे  में आ गई और तकिए में मुंह गड़ा  कर थकी सी लेट गई. सुनील के व्यवहार से मन का हर कोना कड़वाहट से भर गया था. जितनी बार उस ने सुनील से जुड़ने का प्रयत्न किया था उतनी बार सुनील ने उसे बेदर्दी से झटक डाला था. उस ने कभी सोचा भी नहीं था कि जीवन में यह मोड़ भी आ सकता है. शादी से पहले कई बार उपहास भरी नजरें और फब्तियां झेली थीं, पर उस समय कभी ऐसा नहीं सोचा था कि स्वयं पति भी उस के प्रति उपेक्षा और घृणा प्रदर्शित करते रहेंगे.

बचपन कितना आनंददायी था. स्कूल में बहुत सारी लड़कियां उस की सहेलियां बनने को आतुर थीं. अध्यापिकाएं भी उसे कितना प्यार करती थीं. वह हंसमुख, मिलनसार होने के साथसाथ पढ़ने में अव्वल जो थी. पर ऐसे निश्ंिचत जीवन में भी मन कभीकभी कितना खिन्न हो जाया करता था.

उसे बचपन की वह बात आज भी कितनी अच्छी तरह याद है, जब पहली बार उस ने अपनेआप में हीनता की भावना को महसूस किया था. मां की एक सहेली ने स्नेह से गाल थपथपा कर पूछा था, ‘क्या नाम है तुम्हारा, बेटी?’

‘जी, उज्ज्वला,’ उस ने सरलता से कहा. इस पर सहेली के होंठों पर व्यंग्यात्मक हंसी उभर आई और उस ने पास खड़ी महिला से कहा, ‘लोग न जाने क्यों इतने बेमेल नाम रख देते हैं?’ और वे दोनों हंस पड़ी थीं. वह पूरी बात समझ नहीं सकी थी. फिर भी उस ने खुद को अपमानित महसूस किया था और चुपचाप वहां से खिसक गई थी.

फिर तो कई बार ऐसे अवसर आए, जब उस ने इस तरह के व्यवहार से शर्मिंदगी महसूस की. उसे अपने मातापिता पर गुस्सा आता था कि प्रकृति ने तो उसे रंगरूप देने में कंजूसी की ही पर उन्होंने क्यों उस के काले रंग पर उज्ज्वला का नाम दे कर व्यंग्य किया और उसे ज्यादा से ज्यादा उपहास का पात्र बना दिया. मात्र नाम दे कर क्या वे उज्ज्वला की निरर्थकता को सार्थकता में बदल पाए थे. जब वह स्कूल के स्नेहिल प्रांगण को छोड़ कर कालिज गई थी तो कितना तिरस्कार मिला था. छोटीछोटी बातें भी उस के मर्म पर चोट पहुंचा देती थीं. अपने नाम और रंग को ले कर किया गया कोई भी मजाक उसे उत्तेजित कर देता था.

आखिर उस ने किसी से भी दोस्ती करने का प्रयत्न छोड़ दिया था. फिर भी उसे कितने कटु अनुभव हुए थे, जो आज भी उस के दिल में कांटे की तरह चुभते हैं. सहपाठी विनोद का हाथ जोड़ कर टेढ़ी मुसकान के साथ ‘उज्ज्वलाजी, नमस्ते’ कहना और सभी का हंस पड़ना, क्या भूल सकेगी कभी वह? शर्म और गुस्से से मुंह लाल हो जाता था. न जाने कितनी बातें थीं, जिन से उस का हर रोज सामना होता था. ऐसे माहौल में वह ज्यादा से ज्यादा अंतर्मुखी होती गई थी.

वे दमघोंटू वर्ष गुजारने के बाद जब कुछ समय के लिए फिर से घर का सहज वातावरण मिला तो मन शांत होने लगा था. रेणु और दीपक उस की बौद्धिकता के कायल थे और उसे बहुत मानते थे. मातापिता भी उस के प्रति अतिरिक्त प्यार प्रदर्शित करते थे. ऐसे वातावरण में वह बीते दिनों की कड़वाहट भूल कर सुखद कल्पनाएं संजोने लगी थी.

उज्ज्वला के पिता राजकिशोर जूट का व्यापार करते थे और व्यापारी वर्ग में उन की विशेष धाक थी. उन के व्यापारी संस्कार लड़कियों को पढ़ाने के पक्ष में न थे. पर उज्ज्वला की जिद और योग्यता के कारण उसे कालिज भेजा था. अब जल्दी से जल्दी उस की शादी कर के निवृत्त हो जाना चाहते थे. अच्छा घराना और वर्षों से जमी प्रतिष्ठा के कारण उज्ज्वला का साधारण रंगरूप होने के बावजूद अच्छा वर और समृद्ध घर मिलने में कोई विशेष दिक्कत नहीें हुई.

दीनदयाल, राजकिशोर के बचपन के सहपाठी और अच्छे दोस्त भी थे. दोस्ती को संबंध में परिवर्तित कर के दोनों ही प्रसन्न थे. दीनदयाल कठोर अनुशासन- प्रिय व्यक्ति थे तथा घर में उन का रोबदाब था. वह लड़कालड़की को आपस में देखनेदिखाने तथा शादी से पूर्व किसी तरह की छूट देने के सख्त खिलाफ थे.

सुनील सुंदर, आकर्षक और सुशिक्षित नौजवान था. फिर सी.ए. की परीक्षा में उत्तीर्ण हो कर तो वह राजकिशोर की नजरों में और भी चढ़ गया था. ऐसा सुदर्शन जामाता पा कर राजकिशोर फूले नहीं समा रहे थे. सुनील को भी पूरा विश्वास था कि उस के पिता जो भी निर्णय लेंगे, उस के हित में ही लेंगे. पर सुहागरात को दुबलीपतली, श्यामवर्ण, आकर्षणहीन उज्ज्वला को देखते ही उस की सारी रंगीन कल्पनाएं धराशायी हो गईं. वह चाह कर भी प्यार प्रदर्शित करने का नाटक नहीं कर सका. बाबूजी के प्रति मन में बेहद कटुता घुल गई और बिना कुछ कहे एक ओर मुंह फेर कर नाराज सा सो गया. पैसे वाले प्रतिष्ठित व्यापारियों का समझौता बेमेल वरवधू में सामंजस्य स्थापित नहीं करा पाया था.

उज्ज्वला धड़कते दिल से पति की खामोशी के टूटने का इंतजार करती रही. सबकुछ जानते हुए भी इच्छा हुई थी कि सुनील की नाराजगी का कारण पूछे, माफी भी मांगे, पर सुनील के आकर्षक व्यक्तित्व से सहमी वह कुछ नहीं बोल पाई थी. आखिर घुटनों में सिर रख कर तब तक आंसू बहाती रही थी जब तक नींद न आ गई थी.

‘‘बहू, खाना नहीं खाना क्या?’’ सास के स्वर से उज्ज्वला अतीत के उन दुखद भंवरों से एक झटके से निकल कर पुन: वर्तमान से आ जुड़ी. न जाने उसे इस तरह कितनी देर हो गई. हड़बड़ा कर गीली आंखें पोंछ लीं और अपनेआप को संयत करती नीचे आ गई.

वह खाने के काम से निवृत्त हो कर फिर कमरे में आई तो सहज ही चांदी के फ्रेम में जड़ी सुनील की तसवीर पर दृष्टि अटक गई. मन में फिर कोई कांटा खटकने लगा. सोचने लगी, इन 2 सालों में किस तरह सुनील छोटीछोटी बातों से भी दिल दुखाते रहे हैं. कभीकभार अच्छे मूड में होते हैं तो दोचार औपचारिक बातें कर लेते हैं, वरना उस के बाहुपाश को बेदर्दी से झटक कर करवट बदल लेते हैं.

अब तक एक बार भी तो संपूर्ण रूप से वह उस के प्रति समर्पित नहीं हो पाए हैं. आखिर क्या गलती की है उस ने? शिकायत तो उन्हें अपने पिताजी से होनी चाहिए थी. क्यों उन के निर्णय को आंख मूंद कर सर्वोपरि मान लिया? यदि वह पसंद नहीं थी तो शादी करने की कोई मजबूरी तो नहीं थी. इस तरह घुटघुट कर जीने के लिए मजबूर कर के वह मुझे किस बात की सजा दे रहे हैं?

बहुत से प्रश्न मन को उद्वेलित कर रहे थे. पर सुनील से पूछने का कभी साहस ही नहीं कर सकी थी. नहीं, अब नहीं सहेगी वह. आज सारी बात अवश्य कहेगी. कब तक आज की तरह अपनी इच्छाएं दबाती रहेगी? उस ने कितने अरमानों से आज रेणु और दीपक के साथ पिकनिक के लिए कहीं बाहर जाने का कार्यक्रम बनाया था. बड़े ही अपनत्व से सुबह सुनील को सहलाते हुए बोली थी, ‘‘आज इतवार है. मैं ने रेणु और दीपक को बुलाया है. सब मिल कर कहीं पिकनिक पर चलते हैं.’’

‘‘आज ही क्यों, फिर कभी सही,’’ उनींदा सा सुनील बोला.

‘‘पर आज आप को क्या काम है? मेरे लिए न सही उन के लिए ही सही. अगर आप नहीं चलेंगे तो वे क्या सोचेंगे? मैं ने उन से पिकनिक पर चलने का कार्यक्रम भी तय कर रखा है,’’ उज्ज्वला ने बुझे मन से आग्रह किया.

‘‘जब तुम्हारे सारे कार्यक्रम तय ही थे तो फिर मेरी क्या जरूरत पड़ गई? तुम चली जाओ, मेरी तरफ से कोई मनाही नहीं है. मैं घर पर गाड़ी भी छोड़ दूंगा,’’ कह कर सुनील ने मुंह फेर लिया. उसे बेहद ठेस पहुंची.

पहली बार उस ने स्वेच्छा से कोई कार्यक्रम बनाया था और सुनील ने बात को इस कदर उलटा ले लिया. न तो वह कोई कार्यक्रम बनाती और न ही यह स्थिति आती. उज्ज्वला ने उसी समय दीपक को फोन कर के कह दिया, ‘‘तेरे जीजाजी को कोई जरूरी काम है, इसलिए फिर कभी चलेंगे.’’

मन बहुत खराब हो गया था. फिर किसी भी काम में जी नहीं लगा. बारबार अपनी स्थिति को याद कर के आंखें भरती रहीं. क्या उसे इतना भी अधिकार नहीं है कि अपने किसी शौक में सुनील को भी शामिल करने की सोच सके? आज वह सुनील से अवश्य कहेगी कि क्यों वह उस से इस कदर घृणा करते हैं और उस के साथ कहीं भी जाना पसंद नहीं करते.

शाम उतरने लगी थी. लंबी परछाइयां दरवाजों में से रेंगने लगीं तो उज्ज्वला शिथिल कदमों से रसोई में आ कर खाना बनाने में जुट गई. हाथों के साथसाथ विचार भी तेज गति से दौड़ने लगे. रोज की यह बंधीबंधाई जिंदगी, जिस में जीवन की जरा भी हसरत नहीं थी. बस, भावहीनता मशीनी मानव की तरह से एक के बाद एक काम निबटाते रहो. कितनी महत्त्वहीन और नीरस है यह जिंदगी.

मातापिता खाना खा चुके थे. सुनील अभी तक नहीं आया था. उज्ज्वला बचा खाना ढक कर मन बहलाने के लिए टीवी के आगे बैठ गई. घंटी बजी तो भी वैसे ही कार्यक्रम में खोई बैठी रहने का उपक्रम करती रही. नौकर ने दरवाजा खोला. सुनील आया और जूते खोल कर सोफे पर लेट सा गया.

‘‘बड़ी देर कर दी. चल, हाथमुंह धो कर खाना खा ले. बहू इंतजार कर रही है तेरा,’’ मां ने कहा.

‘‘बचपन का एक दोस्त मिल गया था. इसलिए कुछ देर हो गई. वह खाना खाने का बहुत आग्रह करने लगा, इसलिए उस के घर खाना खा लिया था,’’ सुनील ने लापरवाही से कहा.

उज्ज्वला अनमनी सी उठी और थोड़ाबहुत खा कर, बाकी नौकर को दे कर अपने कमरे में आ गई, ‘सुनील जैसे आदमी को कुछ भी कहना व्यर्थ होगा. यदि मन की भड़ास निकाल ही देगी तो भी क्या ये दरारें पाटी जा सकेंगी? कहीं सुनील उस से और ज्यादा दूर न हो जाए? नहीं, वह कभी भी अपनी कमजोरी जाहिर नहीं करेगी. आखिर कभी न कभी तो उस के अच्छे बरताव से सुनील पिघलेंगे ही,’ मन को सांत्वना देती उज्ज्वला सोने का प्रयत्न करने लगी.

सुबह का सुखद वातावरण, ठंडी- ठंडी समीर और तरहतरह के पक्षियों के मिलेजुले स्वर जैसे कानों में रस घोलते हुए. ‘सुबह नींद कितनी जल्दी टूट जाती है,’ बिस्तर से उठ कर बेतरतीब कपड़ों को ठीक करती उज्ज्वला सोचने लगी, ‘कितनी सुखी होती हैं वे लड़कियां जो देर सुबह तक अलसाई सी पति की बांहों में पड़ी रहती हैं.’ वह कमरे के कपाट हौले से भिड़ा कर रसोई में आ गई. उस ने घर की सारी जिम्मेदारियों को स्वेच्छा से ओढ़ लिया था. उसे इस में संतोष महसूस होता था. वह सासससुर की हर जरूरत का खयाल रखती थी, इसलिए थोड़े से समय में ही दोनों का दिल जीत लिया था.

भजन कब के बंद हो चुके थे. कोहरे का झीना आंचल हटा कर सूरज आकाश में चमकने लगा था. कमरे के रोशनदानों से धूप अंदर तक सरक आई थी.

‘‘सुनिए जी, अब उठ जाइए. साढ़े 8 बज रहे हैं,’’ उज्ज्वला ने हौले से सुनील की बांह पर हाथ रख कर कहा. चाह कर भी वह रजाई में ठंडे हाथ डाल कर अधिकारपूर्वक छेड़ते हुए नहीं कह सकी कि उठिए, वरना ठंडे हाथ लगा दूंगी.

बिना कोई प्रतिकार किए सुनील उठ गया तो उज्ज्वला ने स्नानघर में पहनने के कपड़े टांग दिए और शेविंग का सामान शृंगार मेज पर लगाने लगी. जरूरी कामों को निबटा कर सुनील दाढ़ी बनाने लगा. उज्ज्वला वहीं खड़ी रही. शायद किसी चीज की जरूरत पड़ जाए. सोचने लगी, ‘सुनील डांटते हैं तो बुरा लगता है. पर खामोश हो कर उपेक्षा जाहिर करते हैं, तब तो और भी ज्यादा बुरा लगता है.’

‘‘जरा तौलिया देना तो,’’ विचारों की शृंखला भंग करते हुए ठंडे स्वर में सुनील ने कहा.

उज्ज्वला ने चुपचाप अलमारी में से तौलिया निकाल कर सुनील को थमा दिया. सुनील मुंह पोंछने लगा. अचानक ही उज्ज्वला की निगाह सुनील के चेहरे पर बने हलकेहलके से सफेद दागों पर अटक गई. मुंह से खुद ब खुद निकल गया, ‘‘आप के चेहरे पर ये दाग पहले तो नहीं थे.’’

‘‘ऐसे ही कई बार सर्दी के कारण हो जाते हैं. बचपन से ही होते आए हैं,’’ सुनील ने लापरवाही से कहा.

‘‘फिर भी डाक्टर से राय लेने में हर्ज ही क्या है?’’

‘‘तुम बेवजह वहम मत किया करो. हमेशा अपनेआप मिटते रहे हैं,’’ कह कर सुनील स्नानघर में घुस गया तो उज्ज्वला भी बात को वहीं छोड़ कर रसोई में आ गई और नाश्ते की तैयारी में लग गई.

पर इस बार सुनील के चेहरे के वे दाग ठीक नहीं हुए थे. धीरेधीरे इतने गहरे होते गए थे कि चेहरे का आकर्षण नष्ट होने लगा था. सुनील पहले जितना लापरवाह था, अब उतना ही चिंतित रहने लगा. इस स्थिति में उज्ज्वला बराबर सांत्वना देती और डाक्टरों की बताई तरहतरह की दवाइयां यथासमय देती रही.

अब सुनील उज्ज्वला से चिढ़ाचिढ़ा नहीं रहता था. अधिकतर किसी सोच में डूबा रहता था, पर उज्ज्वला जो भी पूछती, शांति से उस का जवाब देता था. उज्ज्वला को न जाने क्यों इस आकस्मिक परिवर्तन से डर लगने लगा था.

रात गहरा चुकी थी. सभी टीवी के आगे जमे बैठे थे. आखिर उकता कर उज्ज्वला ऊपर अपने कमरे में आ गई तो सुनील भी मातापिता को हाल में छोड़ कर पीछेपीछे आ गया. हमेशा की तरह उज्ज्वला चुपचाप लेट गई थी. चुपचाप, मानो वह सुनील की उपेक्षा की आदी हो गई हो. सुनील ने बत्ती बंद कर के स्नेह से उसे बांहों में कस लिया और मीठे स्वर में बोला, ‘‘सच बताओ, उज्ज्वला, तुम मुझ से नफरत तो नहीं करतीं?’’

उस स्नेहस्पर्श और आवाज की मिठास से उज्ज्वला का रोमरोम आनंद से तरंगित हो उठा था. पहली बार प्यार की स्निग्धता से परिचित हुई थी वह. खुशी से अवरुद्ध कंठ से फुसफुसाई, ‘‘आप ने ऐसा कैसे सोच लिया?’’

‘‘अब तक बुरा बरताव जो करता रहा हूं तुम्हारे साथ. पिताजी के प्रति जो आक्रोश था, उस को तुम पर निकाल कर मैं संतोष महसूस करता रहा. सोचता था, मेरे साथ धोखा हुआ और बेवजह ही इस के लिए मैं तुम को दोषी मानता रहा. पर तुम मेरे लिए हमेशा प्यार लुटाती रहीं. मैं मात्र दैहिक सौंदर्य की छलना में मन के सौंदर्य से अनजान बना रहा. अब मैं जान गया कि तुम्हारा मन कितना सुंदर और प्यार से लबालब है. मैं तुम्हें सिर्फ कांटों की चुभन ही देता रहा और तुम सहती रहीं. कैसे सहन किया तुम ने मुझे? मैं अपनी इन भूलों के लिए माफी मांगने लायक भी नहीं रहा.’’

‘‘बस, बस, आगे कुछ कहा तो मैं रो पडूंगी,’’ सुनील के होंठों पर हथेली रखते हुए उज्ज्वला बोली, ‘‘मुझे पूरा विश्वास था कि एक न एक दिन मुझे मेरी तपस्या का फल अवश्य मिलेगा. आप ऐसा विचार कभी न लाना कि मैं आप से घृणा करती हूं. मेरे मन में आप का प्यार पाने की तड़प जरूर थी, पर मैं ने कभी भी अपनेआप को आप के काबिल समझा ही नहीं. आज मुझे ऐसा लगता है मानो मैं ने सबकुछ पा लिया हो.’’

‘‘उज्ज्वला, तुम सचमुच उज्ज्वला हो, निर्मल हो. मैं तुम्हारा अपराधी हूं. आज मैं अपनेआप को कंगाल महसूस कर रहा हूं. न तो मेरे पास सुंदर दिल है और न ही वह सुंदर देह रही जिस पर मुझे इतना घमंड था,’’ सुनील ने ठंडी सांस ले कर उदासी से कहा.

‘‘जी छोटा क्यों करते हैं आप? हम इलाज की हर संभव कोशिश करेंगे. फिर भी ये सफेद दाग ठीक नहीं हुए तो भी मुझे कोई गम नहीं. यह कोई खतरनाक बीमारी नहीं है. प्यार इतना सतही नहीं होता कि इन छोटीछोटी बातों से घृणा में बदल जाए. मैं तो हमेशाहमेशा के लिए आप की हूं,’’ उज्ज्वला ने कहा.

सुनील ने भावविह्वल हो कर उसे इस तरह आलिंगनबद्ध कर लिया मानो अचानक उसे कोई अमूल्य निधि मिल गई हो.

तीज स्पेशल: 12 साल छोटी पत्नी- सोच में फर्क

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तीज स्पेशल: झूठा सच- पत्नी आशा से क्यों नफरत कर बैठा ओम

“ऐसे कैसे अकेले ही निर्णय ले बैठा है शरत… अब वह अविवाहित नहीं, शादीशुदा है. पत्नी का भी बराबर का अधिकार है उस के जीवन में. जाना ही था तो संग ले कर जाए कामिनी को,” आशा बोल रही थी.

यों शरत और कामिनी की शादी को पूरे 3 साल हो चुके थे. उस के पति शरत ने भारत में नौकरी छोड़ दी और आस्ट्रेलिया में आगे शिक्षा प्राप्त करने हेतु अरजी दी थी जो स्वीकार हो गई थी. उसे अच्छाखासा वजीफा भी मिल रहा था. ऐसे में शरत यह मौका हाथ से जाने देने को बिलकुल तैयार न था. कामिनी यहां अकेली नहीं रहना चाहती थी, मगर खर्चों के कारण शरत के साथ जाना भी संभव नहीं था और यही कारण था दोनों में क्लेश का. कुछ दिन सोचविचार करने हेतु कामिनी मायके आ गई थी.

‘थोड़े दिन अलग रह कर, बिना भावनाओं को बीच में लाए सोचेंगे तो शायद सही निर्णय पर पहुंच पाएं,’ यह दोनों का मत था.

कामिनी नहीं चाहती थी कि मातापिता दोनों में से कोई भी उस की गृहस्थी के निर्णयों में दखल दें. वैसे भी पिता ओम चुपचाप हमेशा अपनी ही चलाते थे और हर मामले में आशा तिरस्कार सहती आ रही थी. वह इस बात को देखती और समझती रही थी और इसलिए उस ने दोनों को कुछ नहीं बताया. पिता एकदम उग्र हो उठेंगे, उसे मालूम था.

आखिर कई दिनों बाद कामिनी और शरत ने एकसाथ ओम व आशा को अपने निर्णय से अवगत कराया, ‘‘शरत 2 वर्षों की प्रबंधक शिक्षा हेतु आस्ट्रेलिया जाएंगे और इस बीच मैं यहां रह कर अपनी नौकरी करती रहूंगी. फिर इन की शिक्षा पूरी होने पर देखते हैं कि कहां अच्छी नौकरी मिलती है, उसी हिसाब से आगे की योजना बनाएंगे,” कामिनी की इस बात से जहां मां आशा सहमत न होते हुए भी ब्याहता बेटी के निर्णय का सम्मान कर रही थी, वहीं ओम के चेहरे पर कुंठा साफ झलक रही थी, ‘‘मैं तुम दोनों के इस निर्णय से असंतुष्ट हूं. विवाहोपरांत अलग रहना और वह भी इतनी समायाविधि के लिए कहां उचित है?’’ ओम के ऐसा कहते ही मानों एक गहरी खाई खुल गई और एकायक वे उस में गिरते चले गए…

करीब 24 वर्ष पूर्व, जब कामिनी मात्र 3 साल की थी, उस के पिता ओम को एक अच्छी नौकरी की तलाश विदेश ले गई. कतर में कंपनी ने ही रहने को क्वार्टर किया था. पीछे आशा और कामिनी को एक किराए के घर में छोड़ ओम अच्छा पैसा कमाने निकल पड़े थे. आखिर यह पैसा ही उन की गृहस्थी की गाड़ी को फर्राटे से चला पाएगा न.

कतर में दिनरात कड़ी मेहनतमशक्कत मेंं कब व्यतीत हो जाता, पता ही नहीं चलता. रात को शहर से दूर, औफ साइट कंपनी के अहाते में ओम अपनी पत्नी आशा की स्नेहपूर्ण यादों के सहारे समय काटते.

भारत में थे तो घर चाहे कितना छोटा था, टीन की छत वाली रसोई हो, दोपहरी में कितनी भी गरमी बरस रही हो, आशा गरमगरम खाना ही परोसती. ओम के पेट भर लेने के बाद भी एक और फुलके की जिद करती. उन को खाने के बाद कुछ मीठा खाना पसंद था तो हर रोज कुछ न कुछ, चाहे कितना भी कम बन पड़े, मीठा बनाती और बड़े प्यार से खिलाती. जब ओम शाम को थक कर घर लौटते तो गली के मोड़ से ही आशा को द्वार पर खड़ा पाते और जब तक चल कर घर में दाखिल होते, आशा हाथ में पानी का गिलास और आखों में प्रेममनुहार लिए आ पहुंचती.

दूर परदेस में ओम यही सब छोटीछोटी बातें याद करते रहते और उदास हो उठते. साल में एक बार घर आने का अवसर मिलता. वह 1 माह फिर उसी स्नेह और आदरसत्कार के बीच बीत जाता. कामिनी भी इस बार उन्हें बड़ी सी लगने लगी थी.

साल बीतने लगे. करीब 3-4 सालों के बाद आशा शिकायत करने लगी कि अब उस से अकेलापन नहीं झेला जाता. साथ के अपने जैसे लोगों के साथ कुछ समय बीत जाता पर सब इसी दुख को झेल रहे थे.

‘‘तुम यहां अपने घर में, अपनी बच्ची के साथ हो, तुम्हें काहे का अकेलापन? मेरा सोचो, वहां सुदूर परदेस मैं अकेला तो मैं हूं,’’ ओम तर्क देते.

‘‘आप समझ नहीं रहे हैं, एक बच्ची को अकेले पालना…अब मैं कैसे कहूं…’’ आशा ज्यादा कुछ बोल नहीं पाई थी.

बस इस बार छुट्टियां पूरी होने पर कतर लौटने के 1 महीने बाद ही ओम को आशा की चिट्ठी मिली थी-

‘कामिनी के पापा, आप से साफ तरह से कह न सकी, इस बारबार या तो हमें अपने साथ ले चलिए या खुद लौट आइए. लगता है, आप को जैसा चल रहा है वही रास आने लगा है. लेकिन मुझ से अब यों नहीं रहा जाता. मेरी जिंदगी में कोई और आ गया है…वह मुझ से बहुत प्यार करता है, अपने साथ रखने को तैयार है. कामिनी को भी अपनाना चाहता है. आप मुझे तलाक दे दीजिए.

‘आप की आशा.’

आघात ने ओम के पांव तले जमीन हिला दी. आशा ने यह क्या सब लिख भेजा? और अंत में लिखती है ‘आप की आशा.’ कौन हो सकता है वह आदमी आशा के जीवन में? जब वे इस बार भारत गए थे, तब उन्हें कोई शक क्यों नहीं हुआ? कामिनी ने भी कभी कोई उत्तर नहीं दिया…पत्नी वियोग में पहले ही उन के लिए यहां स्वयं को स्थापित करना मुश्किल लगता था, साथ ही अकेलेपन की टीस और वीरान सी उन की जिंदगी बेचैन हुआ करती थी. आशा के इस पत्र से ओम को बहुत रोष हुआ था. उन का मन खिन्न हो उठा था. वह तन और मन से कितना भार ढो रहे हैं. इस से अनजान कैसे हो सकती थी उस की पत्नी. ओम आहत थे.

मगर उन्होंने इस रिश्ते को ऐसे ही खत्म करने का सोच लिया. आशा ऐसा चाहती है, तो ऐसा ही सही. जल्द से जल्द लौट कर उन्होंने अपने लिए एक अलग मकान का बंदोबस्त किया और अदालत के रास्ते अपना लिए.

नोटिस मिलने पर लुटीपिटी सी आशा अदालत में दुहाई देने लगी, ‘‘जज साहिबा, मैं ने झूठ लिखा था, ऐसावैसा कुछ नहीं है. वह तो मेरी एक सहेली ने मुझे यह तरकीब सुझाया कि शायद जलन और असुरक्षा की वजह से कामिनी के पापा वापस आ जाएं या फिर हमें अपने संग ले जाएं.’’

‘‘आप समझ रही हैं कि आप क्या कह रही हैं…’’ जज साहिबा ने झिडक़ी लगाई.

‘‘जज साहिबा, मुझे गलत न समझें. एक अकेली औरत के लिए समाज में जीना बहुत मुश्किल है. रास्ते से जाओ तो मनचलेमजनुओं के ताने सुनो, यहां तक कि त्योहारों पर भी लोग सुना देते हैं. ऐसे कमाने का क्या फायदा कि इंसान होलीदीवाली पर भी घर न आ पाएं. और तो और अपने खास दोस्त भी…’’ कहतेकहते आशा वियोग में बिताए पलों की खट्टी यादों में पहुंच गई…

एक बार कामिनी काफी बीमार हो गई थी. उस कष्ट की घड़ी में आशा की पड़ोस की सहेली अंबिका ने उस का बहुत साथ दिया. अंबिका के पति गगन ने उन के अपने छोटे से बेटे का ध्यान रखा और अंबिका कामिनी के माथे पर पट्टी रखती रही, जब तक आशा डाक्टर के पास जा कर दवा ले आई. उस रात आशा के घर गगन रुक गया ताकि जरूरत के समय काम आ सके. आशा, अंबिका को जातियों के भेदभाव के बावजूद अपनी बहन समान मानती थी और गगन उसे दीदी कह कर संबोधित करता था. इस वक्त उन्होंने यह रिश्ता निभा कर दिखाया था. आशा कामिनी के पास ही सो गई और गगन साथ वाले कमरे में.

अचानक रात के तीसरे पहर नींद की कच्ची आशा ने कमरे में कुछ आहट महसूस की. देखा तो गगन पास खड़ा था, ‘‘क्या हुआ गगन? कुछ चाहिए आप को?’’

‘‘नहीं आशा, मैं तो बस देखने आ गया कि तुम्हें नींद आ गई क्या?’’ गगन के मुंह से अपना नाम व ‘तुम’ सुन आशा का चौंकना स्वाभाविक था. उस के लाल डोरे और उन में एक अजीब सा नशा आशा को डरा रहा था. प्रकृति ने स्त्री को छठी इंद्री प्रदान की है जिस से वह परपुरुष की मन की इच्छा आसानी से भांप लेती है.

घर अकेला था और कामिनी बीमार अवस्था में सो रही थी. आशा ने फौरन बात टाली, ‘‘चाय लोगे गगन भाई?’’

‘‘आशा, यह समय चाय का नहीं बल्कि…’’

‘‘नहीं, मैं चाय बना ही लाती हूं. तब तक आप जरा कामिनी के पास बैठिए,’’ कह जबरदस्ती चाय बनाने लगी. उस ने 2 कप चाय बनाई, एक गगन को दी और एक खुद घूंटघूंट कर के पी. जैसेतैसे सुबह के 5 बजे. सूर्योदय से पहले की लालिमा के साथ चिडिय़ों की चहचहाहट पौ फटते ही सारे आकाश में फैल गई. आशा बोली, ‘‘गगन भाई, अब आप अपने घर जाइए, अंबिका आप का इंतजार कर रही होगी.’’

उस घटना के बाद आशा अंदर तक हिल गई. किस से कहे? अंबिका को कैसे बताए? कहीं उस ने आशा को ही गलत समझ लिया कि एक तो मेरे पति ने इतनी मदद की और ऊपर से उन पर इतना घिनौना इल्जाम. और फिर हुआ तो कुछ भी नहीं. यह तो सिर्फ उस का डर है, कोई सुबूत नहीं है उस के पास. काफी परेशान हो गई वह और उस ने ठान लिया कि अब वह अकेली नहीं रहेगी. इस संसार में उस का कोई है तो बस उस का अपना पति. वह फौरन उन्हें घर वापस बुलाना चाहती थी. बस, एक अन्य सहेली की सुझाई हुई तरकीब अपना कर आशा ने ओम को वह चिट्ठी लिख डाली.

कितनी मूर्ख थी आशा. क्या वह कभी समझ पाएगी कि उस की इस तरकीब से ओम को कितना गुस्सा होगा? उन में कितनी निराशा, कितना अंधकार घर कर चुका था. इस तरकीब के पीछे के सारे घटनाक्रम से अनभिज्ञ ओम इस फैसले पर पहुंच गए थे कि चुप्पी ही तूतूमैंमैं से बेहतर है. वे तो केवल अपनी पत्नी की ओर कमजोर आंखों से देख रहे थे. आशा ने बहुत माफी मांगी. कोर्ट ने भी उसे खरीखोटी सुनाई. मगर आशा के न मानने पर तलाक न हो पाया. उन्हें साथ ही रहना था लेकिन ओम के मन में गङी फांस ने उन्हें आशा की ओर से एक तरह अलग कर दिया. तो बस, यों ही बुझे मन से, निभाने के लिए ओम ने अपना जीवन काट दिया था.

कामिनी को इस बात की कुछ हलकीफुलकी जानकारी मौसी से मिली थी जो कभीकभार आती थीं. आज उस का पति वही करने जा रहा था जिस का परिणाम उस के पिता आज तक भुगत रहे थे तो भला कैसे मान जाते इस निर्णय को? नेपथ्य से वाकिफ कामिनी भी समझ रही थी कारण को. बेटियां मांओं की थोड़ी अधिक करीब होती हैं. यही कारण था कि बड़ी होती कामिनी ने मातापिता के बीच की दूरी भांप ली थी. पूछने पर मां ने अपनी गलती तथा अपने दिल का हाल दोनों ही उड़ेल दिए थे. संवेदनशील कामिनी सब समझ गई थी. लेकिन मर्यादा का पालन इसी में था कि वह छोटी थी और छोटों की भांति रहती सो इस विषय में उस का चुप रहना ही उचित था.

मगर आज एक झूठे सच को ले कर इतना परेशान भी तो नहीं देख पा रही थी. बहुत उधेड़बुन में उलझे थे दिल और दिमाग. आज वह स्वयं शादीशुदा है, पतिपत्नी के रिश्ते की नजाकत को पहचानती है. क्या आगे बढ़ कर एक प्रयास करना उचित न होगा?

कामिनी शरत के साथ अपने घर लौट गई. शरत जाने की तैयारी में था. कामिनी उस का पूरा साथ दे रही थी. वह चाहती थी कि शरत खुश मन से जाए, पूरी लगन से अपनी शिक्षा पूर्ण करे और फिर दोनों साथ में एक बेहतर जिंदगी जिएं.

नियत दिन शरत चला गया. आजकल के युग में जहां संपूर्ण दुनिया एक ग्लोबल विलेज बन गई है. जहां स्काइप, ट्विटर, व्हाट्सऐप आदि ने सात समुंदर पार की भी दूरियों को हमारी हथेलियों पर सिमटा दिया है, वहां लौंग डिस्टैंस रिलेशनशिप का निभना इतना कठिन नहीं, कामिनी यह बात अच्छी तरह समझती थी.

उस का पति उस से बहुत दूर, एक दूसरे महाद्वीप में होते हुए भी उस के इतने पास था कि आज उस ने क्या खाया, कितने बजे सोया, क्या कपड़े पहने, किसकिस से मिला, क्या सीखा आदि सब से वाकिफ थी कामिनी. इसी तरह वह भी जो कुछ अपने पति से बांटना चाहती, वह हर बात वह शरत से कर सकती थी. बिस्तर जरूर अकेला था, मगर इतना साथ भी बहुत था. और फिर वह जानती थी कि ये दूरियां केवल 2 साल के लिए हैं. जब समायाविधि नियत हो तो प्रतीक्षा इतनी कठिन नहीं लगती.

कुछ समय बाद कामिनी फिर अपने मायके चली जाती. एक ही शहर में मायका और ससुराल होने का एक फायदा यह भी है कि जल्दीजल्दी मिलना हो जाता है. मातापिता ने शरत के हालचाल पूछे और कामिनी को सारी जानकारी है इस बात से उन्हें तसल्ली मिली, ‘‘चल, अच्छा है बिटिया, तेरी शरतजी से रोज बातें हो जाती हैं. हमारे जमाने में तो बस चिट्ठियों का सहारा था…’’

आशा के कहते ही ओम बिफर पड़े, ‘‘हां, बहुत सहारा था चिट्ठियों का. जो बातें मुंह पर न कह सको, वे लिख कर भेज दो. एक बार फिर उपेक्षा से आशा की आंखें छलक आईं. पल्लू के कोर से धीरे से आंखें पोंछती आशा बहाने से उठ गई पर कामिनी से यह बात न छिप सकी, ‘‘पापा, आप कब तक यों…”

फिर कुछ सोच कर उस ने अपने पिता का हाथ थाम कमरे में ले गई और चिटकनी चढ़ा दी. उन की प्रश्नवाचक दृष्टि के उत्तर में वह बोली, ‘‘मैं नहीं चाहती कि मम्मी हमारी बातें सुन लें. पापा, शायद मैं पूरी तरह न समझ पाऊं कि आप पर मम्मी की वह चिट्ठी पढ़ कर क्या गुजरी होगी क्योंकि जिस पर बीतती है, वही जानता है. लेकिन फिर यही लौजिक मम्मी की भावनाओं पर भी तो लागू होगा न. जैसे आप को अपनी ठेस, अपना आघात ज्ञात है, वैसे ही क्या आप ने कभी मम्मी से यह जानना चाहा कि क्यों उन्होंने इतना बड़ा झूठ बोला? इतना बड़ा झूठ जिस की सजा वे आज तक भुगत रही हैं…”

कामिनी ने आगे कहा,”जैसे आज मेरे पति के मुझ से दूर जाने पर आप को एक पिता के रूप में परेशानी हुई क्योंकि आप मानते हो कि मैं अकेली कैसी जिंदगी जिऊंगी. लेकिन पापा, मेरे पास आप दोनों हो और बच्चे की जिम्मेदारी भी नहीं है. मम्मी के पास मैं थी और घरपरिवार वाले सब दूर. ऐसे में उन्हें कितनी ही परेशानियां आई होंगी. एक महानगर में अकेली औरत, एक छोटे बच्चे का साथ, उस की पढ़ाईलिखाई का इंतजाम. स्कूल में दाखिला कराना, स्कूल की मीटिंग में जाना, घरगृहस्थी की सारी संभाल, राशन, कपड़ों इत्यादि की खरीदारी, ऊपर से बढ़ते बच्चे का पालनपोषण… मैं सोच भी नहीं पाती हूं कि कैसे मां ने अकेले ही सब किया होगा.

“याद है आप को जब आप छुट्टियों में आया करते थे, तब सभी रिश्तेदार दूरदूर से आप सेे मिलने बारीबारी आते रहते थे. एक तो उस 1 माह में मम्मी आप के साथ ढंग से समय नहीं बिता पाती थीं ऊपर से बढ़ा हुआ काम और घर खर्च.

“आज सोचती हूं तो समझ पाती हूं कि उन्हें कितनी कोफ्त होती होगी कि 1 माह को पति आया है, फिर 1 साल नहीं मिल पाएंगी और इस 1 माह में भी रिश्तेदारों का तांता.

‘‘एक औरत की तरह सोचती हूं तो समझ पाती हूं कि कितना अकेलापन सालता होगा उन्हें. काम बांटने की इच्छा, बातें करने की इच्छा, मानसिक संबल की आवश्यकता, हंसनेबोलने और बदन को छूनेसहलाने का मन, मन बढ़त की जरूरतें, विरह भरे दिनमहीने…

‘‘उस समय उम्र ही क्या थी उन की? किसी भी औरत के लिए कितना नीरस हो जाएगा जीवन जब उस का पति दूर परदेस में हो और उस के लौटने का कोई सूत्र भी नहीं दिखे. जरा सोचिए पापा, किस हद तक अकेली हो गई होगी उन की जिंदगी जो उन्होंने यह कदम उठा लिया. किसी परपुरुष के अपने जीवन में न होते हुए भी उन्होंने इतना बड़ा रिस्क उठाया कि अपने पति को अपनी बेवफाई का लिखित सुबूत दे डाला. यह उन की चालाकी नहीं, सीधापन था.

“जो वे वाकई बेवफा होतीं तो कुछ भी कर सकती थीं. आप तो साल में 1 बार आते थे और सभी रिश्तेनातेदार भी उसी 1 माह में आते थे. यहां क्या हो रहा है किस को खबर?’’

कामिनी ने आज वह खिडक़ी खोली थी जिसे ओम कस कर बंद चुके थे. यह बात ठीक है कि ओम अपने परिवार से दूर, कठिन परिस्थितियों में परदेस में मेहनत कर अपनी गृहस्थी के लिए कमा रहे थे मगर यह भी उतना ही सच था कि उस गृहस्थी की गाड़ी को आशा अकेली ही खींच रही थी. उस ने कई बार ओम को घर लौट आने या उसे भी साथ ले चलने की मांग की थी. ओम की अनिच्छा देख हो सकता है उसे यही एक विकल्प सूझा हो. गलती दोनों में से किसी की भी नहीं थी. गलती केवल परिस्थिति की थी. ओम की परिस्थिति उन्हें बीवीबच्चे साथ रखने की इजाजत नहीं दे रही थी और आशा की परिस्थिति उसे अकेले आगे नहीं बढ़ने दे रही थी. वह जानती थी कि कतर में नौकरी मिलने की शर्त ही यह थी कि पत्नी को साथ न लाओ. वह यह भी जानती थी कि ओम न जाते, तो वे टूटेफूटे, टीनटप्पर के मकान में रहने को मजबूर रहते.

कामिनी को भी 2 वर्ष ही अकेले विरहगीत गाने थे लेकिन आज उस ने जो किया था उस से एक ही छत के नीचे रह रहे अपने मांबाप की कभी न खत्म होने वाली विरह की दीवार को तोङ जरूर दिया था. इस बार मायके से अपने घर वापस लौटने पर कामिनी अकेले होते हुए भी मुसकरा रही थी. उस का मन हलका हो गया था.

कासनी का फूल: भाग 3- अभिषेक चित्रा से बदला क्यों लेना चाहता था

एक बार इंस्टिट्यूट के फाउंडेशन डे पर क्लासिक सौंग्स के कंपीटिशन में जब दर्शकों की वाहवाही के बाद भी चित्रा को तीसरा स्थान मिला था तो ईशान ने कितने प्यार से कहा था, ‘‘तुम्हारी वजह से यहां के स्टूडैंट्स पुरानी फिल्मों के गीतों में रुचि दिखा रहे हैं. यही तुम्हारा इनाम है. दुनिया में तरहतरह के लोग होते हैं और उन की पसंद भी अलगअलग होती है. हमें खानेपीने के साथसाथ और बातों में भी सभी लोगों की पसंद का ध्यान रखना पड़ेगा क्योंकि हौस्पिटैलिटी इंडस्ट्री में जाना है.’’

यहां आने के बाद चित्रा को ईशान की कुछ ज्यादा ही याद आने लगी है. शिमला के आसपास ही तो बताता था वह अपना घर. जब से यहां आई है जहां निगाह पड़ती है ईशान की दृष्टि से सब देखने लगती है. ईशान के पास प्रतिदिन उस का बैठना और ईशान से पहाड़ों के बारे में सवाल करना उस की दिनचर्या का सब से सुखद पहलू था. ईशान भी बातें करते हुए खो जाता था चित्रा में. सच तो यह है कि ईशान का मन पढ़ते हुए वह जान गई थी कि एक मुलायम सा मखमली कोना ईशान के हृदय में बन चुका है उस के लिए. अपने दिल को कभी टटोला ही नहीं था उस ने क्योंकि चंदनदास वाली घटना के बाद उसे प्रेम संबंधों के विषय में सोच कर ही डर लगता था.

आज अपने मन के अंधेरे, उजाले के बीच झलती चित्रा घाटी में उतर रहे हलके उजाले और घाटी से पहाड़ पर चढ़ रहे अंधेरे में खोई थी. थोड़ी देर बाद दृष्टि वहां से हट कर सामने कुछ दूरी पर बने मकानों पर टिकी तो एक घर में प्रवेश करती आकृति उसे ईशान जैसी लगी.

‘ईशान इतना छा गया है मुझ पर कि दिखाई भी देने लगा,’ अशांत कहीं खोईखोई सी चित्रा मोबाइल में मैसेज देख अपना ध्यान उस ओर से हटाने के प्रयास में लग गई.

चित्रा का होटल घर से बहुत दूर नहीं था. सुबह जल्दी उठकर पैदल ही निकल जाती थी वह. उस दिन भी घर से निकली, सामने की छोटी पहाड़ी पर बने मकान पर निगाहें टिक गईं. जब से ईशान के प्रवेश का भ्रम हुआ है वहां से निकलते हुए एक चोर सा मोह उस के मन को जकड़ने लगता है. ऊंचाई अधिक न होने के कारण 2 मिनट रुक कर एक भरपूर दृष्टि उस मकान पर डाल सिर झट कर चल दी.

‘‘चित्रा…’’ अपने नाम की पुकार सुन एकाएक चित्रा विश्वास न कर सकी, ‘उफ, मुझे तो ईशान की आवाज भी सुनाई देने लगी,’ चित्रा ने अपना सिर उठा कर देखा तो आंखें खुली की खुली रह गईं. ईशान बालकनी में खड़ा हाथ हिला रहा था.

‘‘मैं नीचे आ रहा हूं, रुको,’’ ईशान झटपट सामने आ खड़ा हुआ.

‘‘तुम्हें देखा तो लगा कि तुम चित्रा ही हो, सोचा कि नाम पुकारता हूं कोई और हुई तो तुम्हारे नाम से रुक थोड़े ही जाएगी,’’ हांफते हुए ईशान एक सांस में सब बोल गया.

‘‘मुझे भी एक दिन तुम जैसा कोई मतलब तुम दिखे थे वहां से,’’ चित्रा अपने घर की ओर इशारा करते हुए बोली.

दोनों खिलखिला कर हंस पड़े. एकदूसरे को अपने वर्तमान की झलक दे कर शाम को मिलने की बात हुई. चित्रा चली ही थी कि ईशान ने पुकार कर कहा, ‘‘पता है अपने जिस रैस्टोरैंट की बात मैंने अभी की है वह तुम्हें डैडिकेटेड है. एक दिन वहां ले जाऊंगा फिर बताना कैसे जुड़ा है वह तुम से? देखता हूं तुम्हें दोस्ती की पुरानी बातें कितनी याद हैं?’’

‘‘मिलते ही उलझन में डाल दिया ईशान,’’ चित्रा मुसकरा दी.

दोनों ने हंसते हुए विदा ली और अपनी राह चल दिए. ईशान ने कसौली में एक ढाबानुमा रैस्टोरैंट खोला था. उस का अपना घर वहां से कोई 150 किलोमीटर दूर धरौट नाम के गांव में था. चित्रा को याद है कि पढ़ते हुए भी ईशान अकसर फूड शौप खोलने के सपने देखता था. गांव में ऐसे रैस्टोरैंट्स के चलने की संभावना कम ही थी. कसौली में इस व्यवसाय को शुरू करने का मुख्य कारण पर्यटकों का कसौली के प्रति बढ़ता आकर्षण था. चित्रा के सामने वाले मकान में वह उन 2 लड़कों के साथ किराए पर रह रहा था जिन्हें अपने साथ ही काम पर रखा हुआ था.

चित्रा ने थोड़ी दूर चलने के बाद पगडंडी छोड़ सड़क का रास्ता पकड़ लिया. वह सड़क उस ओर जाती थी, जहां ईशान ने अपना रैस्टोरैंट होने की बात कही थी. वह रैस्टोरैंट उसे कैसे समर्पित है, यह देखने की चाह उसे खींच रही थी.

रास्तेभर चित्रा सोचती आ रही थी कि शाम को अपने विषय में ईशान को क्या बताए, क्या छिपाए? अभी तो ईशान को उस ने केवल यही बताया कि उस का विवाह हो चुका और यहां वह अकेली रह कर जौब कर रही है. अपनी व्यथा और पीड़ा के सिवा बताने को है ही क्या उस के पास. क्या ईशान उस की जिंदगी की अंधेरी गलियों में जाना पसंद करेगा?

चित्रा की सोच एक झटके में थम गई. सामने दिख रही फूड शौप ईशान की थी, नाम था ‘कासनी फूड हट.’ बोर्ड पर बना लोगो (प्रतीक चिह्न) भी कासनी के फूल की बनावट लिए था.

चित्रा कैसे भूल सकती है कि एक बार पढ़ाई के दौरान उन को हल्द्वानी के एक संस्थान में ले कर गए थे, जहां कासनी के फूल प्रचुर मात्रा में उगाए जाते थे. होटल मैनेजमैंट के विद्यार्थियों को वहां कासनी के पौधों की सूखी जड़ें पीस कर पाउडर बनाने के बाद कौड़ी में मिलाना सिखाया गया था. सामान्य सी दिखने वाली जड़ों से सूखने पर चौकलेट जैसी गंध आती है, स्वाद भी चौकलेट से मिलताजुलता होता है, लेकिन कैफीन नहीं होता उस में. चित्रा उस मनभावन सुगंध में खो गई थी. कासनी का फूल उसे हमेशा से बहुत प्रिय था.

ईशान ने उस दिन कहा था, ‘‘चित्रा, तुम इन कासनी के फूलों जैसी ही हो. नीले रंग के फूल प्रकृति ने बहुत कम दिए हैं, तुम सी भी कम ही होंगी दुनिया में. कासनी न सिर्फ सुंदर है इस का प्रत्येक भाग किसी न किसी रूप में लाभकारी भी है. तुम भी खूबसूरती के साथ अपने में अनेक गुण समेटे हो. इस की मीठी खुशबू सा व्यवहार भी है तुम्हारा. कासनी को चिकोरी भी कहते हैं इसलिए आज से मैं तुम्हें चिकोरी कह कर बुलाऊंगा.’’

यह बात ईशान और चित्रा तक ही सीमित थी. कोई चिकोरी नाम के विषय में पूछता तो ईशान कह देता कि चित्रा की तुलना में चिकोरी बोलना आसान है, इसलिए बुलाता है वह इस नाम से.

‘ईशान को मैं न सिर्फ याद हूं उस के मन में मेरी अब भी वही खास जगह है. तभी तो उस ने कासनी रखा है अपने रैस्टोरैंट का नाम. मैं ईशान से कुछ नहीं छिपाऊंगी. अपनी जिंदगी खोल कर रख दूंगी उस के सामने. ऐसे दिल से चाहने वाले दोस्त कहां मिलते हैं? मुझे अपना राजदार बनाना ही है उसे,’ सोच चित्रा की आंखें नम हो गईं.

किसी तरह पलपल गिनते हुए उस का दिन बीता. सांझ को घर लौटी. ईशान की प्रतीक्षा में आकुल मन कुछ करने ही नहीं दे रहा था.

ईशान आते ही बोला, ‘‘सुबह हिम्मत नहीं जुटा सका था, क्या मैं तुम्हें अब भी चिकोरी कह कर बुला सकता हूं.’’

चित्रा खिल उठी. लौंग, इलायची डाल कर चाय बनाई. उसे याद था कि ईशान को चाय में इलायची और लौंग डाल कर पीना बहुत पसंद है. ईशान अपने रैस्टोरैंट के बने मोमोज ले कर आया था.

‘‘चिकोरी, तुम से बहुत सी बातें करनी हैं या यों कहूं कि बहुत कुछ सुनना है. मुझे तो जो कहना था सुबह ही कह दिया था मैं ने,’’ ईशान चित्रा के विषय में जानने को उत्सुक था.

दोनों बालकनी में बैठे तो बातों का सिलसिला शुरू हो गया.

‘‘चिकोरी, तुम ने बताया कि तुम्हारी शादी हो गई, लेकिन तुम तो पहले जैसी ही दिख रही हो, बल्कि चेहरा कुछ मुरझाया सा लग रहा है. यह बात दूसरी है कि सूखे हुए कासनी के फूल की तरह सुंदरता कम नहीं हुई तुम्हारी.’’

इतने अपनेपन में भीगे शब्द चित्रा ने न जाने कितने दिनों बाद सुने थे. अत: वह आपबीती सुनाने लगी. अभिषेक से विवाह और तलाक के विषय में तो उस ने सब बता दिया, लेकिन चंदनदास वाली घटना और अभिषेक के साथ संबंध बनाते हुए सहयोग न कर पाने की बात कहते हुए उसे झिझक आ रही थी. इतना ही कह सकी, ‘‘हम मिलते रहेंगे तो जीवन की अनकही परतें खोलती रहूंगी, जाने कब से मन के अंधेरे कुएं में बंद मेरा दम घोटती रहती हैं काली यादें.’’

‘‘ओह, तुम्हारी जिंदगी इतनी दुखभरी रही और मुझे पता तक नहीं चला,’’ ईशान के शब्दों में चित्रा को सहानुभूति और आंखों में जज्बात की वह झील दिख रही थी जो इतना समय बीत जाने पर भी नहीं सूखी थी. अनायास ही उस का सिर ईशान के कंधे पर जा टिका. ईशान ने प्यार से उस के बालों में हाथ फेरा तो चित्रा की पलकें मुंद गईं. दोनों देर तक यों ही शांत बैठे रहे.

रात को ईशान घर लौटा तो आंखों में नींद की जगह बेचैनी ने ले ली थी, ‘लगता है अभी भी बहुत कुछ दबा है चिकोरी के दिल में. मैं उस के मन की थाह लूंगा, उस के दुख में भागीदार बनूंगा.’

ईशान का काम अच्छा चलने लगा था. सहयोग के लिए 2 और लड़कों को रख लिया उस ने. इस का एक अन्य कारण चित्रा को समय देना भी था.

‘‘2 दिनों के लिए चैल चलोगी? यहां से ज्यादा दूर नहीं है, बहुत सुंदर हिल स्टेशन है,’’ एक दिन चित्रा के सामने ईशान ने प्रस्ताव रखा तो उस ने पूरे मन से हां कर दी.

ईशान को पहाड़ों पर ड्राइव करने का अच्छा अनुभव था, इसलिए अपनी कार से जाने का निश्चय किया. 2 घंटे की यात्रा थी लगभग. नियत दिन वे सुबह जल्दी घर से निकल पड़े. सर्दी के दिन बीत चुके थे, फिर भी हलकी सी धुंध फैली. कुछ देर बाद हलके कुहरे को चीरती सूर्य की किरणें बिखरने लगीं. ठंडी हवा के ?ांके हृदय को आह्लादित कर रहे थे.

बलखाती सड़क के एक ओर खाई तो दूसरी ओर ऊंचे पहाड़, चित्रा मन ही मन ईशान व अभिषेक की तुलना करने लगी, ‘खाई दूर से हरीभरी लग रही है लेकिन भूले से भी कोई फिसल जाए तो गिरता ही जाए नीचे, नीचे, कहां तक पता नहीं. अभिषेक का साथ मिला तो मेरी नौकरी भी छूटी, सुकून भी गया. इस के विपरीत पहाड़ पर चढ़ना मतलब ऊंचाइयों को छू लेना. अपने मन में तरल प्रेम सा पानी छिपाए हैं जो कभीकभी झरनों के रूप में फूट पड़ता है ठीक ईशान की तरह.’

‘‘जब कोई बात बिगड़ जाए, जब कोई मुश्किल पड़ जाए, तुम देना साथ मेरा ओ हमनवा…’’ कानों में गीत की आवाज आने से चित्रा अपने खयालों से बाहर निकल आई.

‘‘चिकोरी, कैसा है गाना? जहां तक मुझे याद है तुम्हें पुराने गाने पसंद हैं. जो कहोगी वही सौंग लगा दूंगा. बहुत बड़ा कलैक्शन है मेरे पास. रैस्टोरैंट में सारा दिन अलगअलग तरह के गाने लगाने पड़ते हैं.’’

‘‘इतना सुंदर गाना किस को पसंद नहीं आएगा,’’ चित्रा सचमुच गाने में खो गई.

‘‘गाने की दूसरी लाइन मेरे दिल सी निकली लगती है चिकोरी, न कोई है न कोई था जिंदगी में तुम्हारे सिवा…’’ ईशान ने गाने के बहाने मन की बात कह ही दी.

उन का कमरा पैलेस होटल में बुक था. कार वहां पहुंची तो होटल की भव्यता देख चित्रा ठगी सी रह गई.

‘‘जानती हो चिकोरी यह एक महल था जिसे 19वीं शताब्दी के अंत में पटियाला के महाराजा ने बनवाया था.’’

बातें करते हुए दोनों कमरे में पहुंच गए. कौफी और हलकेफुलके स्नैक्स लेने के बाद घूमने चल दिए.

मन के तहखाने-भाग 2: अवनी के साथ ससुराल वाले गलत व्यवहार क्यों करते थे

उसे जेठानी का चेहरा अकसर याद आता रहता. सोचती, इतने थोड़े समय का साथ था पर मैं नासमझ उन से चिढ़ने में ही लगी रही. धीरेधीरे मन को शांत कर सकी थी. जब सुध आई तो सामने पहाड़ की तरह एक उत्तरदायित्व उसे परेशान करने लगा. क्या होगा अवनी का? जैसे ही उसे सीने से लगाती तो अतीत के कई स्वर उसे आंदोलित करते और वह पुन: विक्षिप्त सी हो उठती. विवाह की पहली रात ही पूरब ने कहा था, ‘‘श्रावणी, हम चाहते हैं कि तुम्हारा मीठा स्वभाव उसी तरह मां के मन पर राज करे, जैसे भाभी का करता है.’’

प्रथम मिलन के समय अपने पति से मीठी प्यारी बातों के स्थान पर ऐसी बात उसे आश्चर्यचकित कर गई. वह कह रहा था, ‘‘भैया भाभी ने इस घर के लिए बहुत से त्याग किए हैं पर कभी भी उलाहना नहीं दिया.’’

पूरब ने उसे बताया कि कैसे बाबूजी के कम वेतन में इस घर में दरिद्रता का राज था. भैया ने अपनी पढ़ाई पूरी करने के साथ कुछ ट्यूशन ले रखी थीं ताकि घर की स्थिति में भी सुधार आए और वह पढ़ाई भी पूरी कर लें. भैया की लगन और परिश्रम से उन्हें एक अच्छी नौकरी भी मिल गई. घर में सुख के छोटे छोटे पौधे लहराने लगे. जब भाभी ब्याह कर आईं तो उन्होंने भी हर प्रकार से घर के हितों का ही ध्यान रखा. उन्हीं की जिद से मैं एम.बी.ए. कर सका और आज एक बड़ी कंपनी में नौकरी कर रहा हूं.

श्रावणी को याद है कि कैसे अपनी उबासियों को रोक कर उस ने सारी बातें सुनी थीं. उस रात की मर्यादा बनाए रखने के लिए उस ने मन का उफनता हुआ लावा सदा मन में दबाए रखा. जब जेठ जेठानी चले गए तो वह लावा समय असमय अवनी पर फूटने लगा.

अवनी के विवाह के नाम पर जेठ जेठानी ने बहुत पहले ही एक पौलिसी ली थी जिसे अब निश्चित समय पर आगे बढ़ाना पूरब के जिम्मे था. जब तक अवनी 20 वर्ष की होगी, उस के विवाह के लिए अच्छी रकम जमा हो चुकी होगी. फिर भी वह समयसमय पर अवनी के विवाह की चिंता दिखाने बैठ जाती. ‘इस महंगाई में अपनी बेटी का विवाह करना ही कठिन है, ऊपर से जेठजी की बेटी का भी सब कुछ हमें ही संभालना है.’

उस की बातों से आसपड़ोस की महिलाएं बहुत प्रभावित हो जातीं लेकिन पूरब खीज उठता, जो श्रावणी को सहन नहीं होता था.

पूरब कहता, ‘‘भैया सिर्फ अवनी के लिए ही नहीं अपनी विधू के लिए भी छोड़ गए हैं. दोनों उस में ब्याह जाएंगी.’’

श्रावणी खीज कर कहती, ‘‘मेरे पास बहुत काम है, तुम्हारी भैयाभाभी स्तुति सुनने का समय नहीं है.’’

अवनी पढ़ाई में बहुत तेज थी. घर के सारे काम निबटा कर अपनी पढ़ाई पूरी करती. कभी विविधा कुछ पूछती तो उसे भी पढ़ाने में समय देती.

एक दिन श्रावणी की दूर की मौसी का फोन आया कि वे अपने पुत्र के लिए लड़की देखने आ रही हैं. उन का एक ही पुत्र था.

2 बेटियों का विवाह कर चुकी थीं, अब पुत्र का शीघ्र विवाह करना चाहती थीं ताकि कनाडा जाने से पूर्व उस के पैरों में बेडि़यां डाल दें. श्रावणी ने अवनी से कहा, ‘‘मेरी दूर की मौसी आ रही हैं, पहली बार आएंगी, खूब खातिर करना.’’

विविधा ने तुरंत टोका, ‘‘फिर दीदी कालेज कब जाएंगी?’’

‘‘हम सब कर लेंगे चाची, आप चिंता न करिए…’’

श्रावणी ने विविधा को क्रोध से देख कर कहा, ‘‘तुम्हारी तरह आलसी नहीं है अवनी. सब कुछ मैनेज करना जानती है.’’

कहने को तो वह कह गई पर तुरंत उसे अपनी गलती का एहसास हो गया. अवनी से काम करवाने के चक्कर में अपनी बेटी पर कटाक्ष कर बैठी. वह मन ही मन में अपनी नासमझी पर विकल हो उठी.

न चाहते हुए भी बहुत कुछ हो जाता है और उस सब की जिम्मेदारी उसी पर है. अपना हाथ एकसाथ दोनों पर रख कर बोली, ‘‘हमारा मतलब है कि आज तुम भी अपनी दीदी का हाथ बटाओ और सीख लो कि कैसे वह सब बनाती है,’’ अपनी गलती सुधारती श्रावणी तीव्रता से बाहर चली गई.

मौसी आईं तो उन का पुत्र अनिकेत भी साथ आया. उस ने बहुत जल्दी हर एक का मन जीत लिया. भोजन करने बैठे सब तो मौसी ने खूब प्रशंसा आरंभ कर दी.

श्रावणी बोली, ‘‘दोनों बहनों ने मिल कर बनाया है.’’

‘‘नहीं आंटी,’’ विविधा तुरंत बोली, ‘‘यह सारा खाना दीदी ने बनाया है.’’

‘‘अरे वाह, तुम तो बहुत अच्छी गृहस्थन हो बेटा,’’ मौसी ने प्यार से अवनी को देखा, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘जी, अवनी.’’

‘‘पढ़ती हो?’’ मौसी ने अगला प्रश्न उछाल दिया.

‘‘बी.ए. फाइनल में,’’ अवनी ने धीरे से कहा.

‘‘काश! वह लड़की भी तुम्हारी ही तरह गुणी हो, जिसे हम लोग अनिकेत के लिए देखने जा रहे हैं.’’

मौसी और अनिकेत के जाने के बाद अवनी कालेज चली गई. उस के 2 पीरियड छूट चुके थे.

शाम को जब घर पहुंची तो घर में बहुत सन्नाटा था. मौसी और चाची धीरेधीरे कुछ बोल कर चुप्पी साध लेती थीं. अनिकेत समाचारपत्र पकड़ कर लगातार कुछ सोच रहा था.

अवनी ने पुस्तकें रखीं और चाची के पास जा कर बोली, ‘‘चाय बनाऊं?’’

मौसी ने चौंक कर उसे देखा. उन की आंखों में जाने क्या था. श्रावणी ने कहा, ‘‘हां, साथ में कुछ गरमगरम पकौड़े भी बना लो.’’

अवनी लौटी तो उस ने सुना मौसी कह रही थीं, ‘‘कितनी प्यारी और शांत स्वभाव की है तुम्हारी अवनी.’’

रात तक अवनी को उन लोगों की चुप्पी का कारण पता चल गया था. इन लोगों को तो लड़की पसंद थी पर उस लड़की ने एकांत में अनिकेत से कहा कि वह किसी से प्यार करती है, मांबाप जबरन उस की शादी करवा रहे हैं. विविधा ने ये सारी बातें करते मौसी और मां को सुना था और अवनी को बताने चली आई थी.

अवनी के काम में हाथ बटाते हुए वह निरंतर कुछ न कुछ बोलती जा रही थी. अवनी मन ही मन में सोच रही थी कि वह लड़की कितनी बहादुर है, जिस ने सच को इस तरह सामने रख दिया.

खाने की मेज पर सब बैठे तो मौसी ने कहा, ‘‘अवनी बेटा, तुम भी हमारे साथ बैठो.’’

‘‘आप खाइए, हम गरम गरम फुलके सेंक रहे हैं.’’

मौसी ने उसे बहुत हसरत से देखा और अचानक बोलीं, ‘‘श्रावी, अपनी अवनी हमें दे दो,’’ फिर उन्होंने अनिकेत से कहा, ‘‘क्यों अनि, अवनी हमें बहुत पसंद है, तुम्हारे लिए मांग लें.’’

रसोई में कदम रखतेरखते अवनी ने सुना तो हठात ठहर गई. पूरा शरीर सिहर उठा. चाची से पहले चाचा ने कहा, ‘‘आप की ही बेटी है मौसी, जब चाहें अपना बना लें.’’

‘‘लेकिन अवनी से भी तो पूछिए,’’ अचानक उसे अनिकेत का यह स्वर सुनाई दिया.

इस असंभव सी बात पर वह आश्चर्यचकित भी थी और प्रसन्न भी. मन उत्तेजना से धड़क रहा था. क्या यह कोई सपना है? मौसी ने अगली बार उस के आते ही अपनी बगल में बैठा लिया.

‘‘बैठो बेटा, रोटी श्रावी बना लेगी,’’ उन की बात पर श्रावणी घबरा कर उठ गई और अवनी को बैठना पड़ा. मौसी ने प्यार से उस की पीठ पर हाथ फेरा और कहा, ‘‘बेटा,एक बात सचसच बताना, हमारा अनिकेत कैसा है?’’

अवनी ने धीरे से पलकें उठाईं. अनिकेत मुसकरा रहा था. उसे घबराहट सी होने लगी. अचानक आए ये अनोखे पल उसे अवाक कर रहे थे, पर स्थिति का सामना तो करना था. उस ने अपने चाचा की ओर देखा, फिर धीरे से बोली, ‘‘अच्छे हैं.’’

‘‘इस से शादी करोगी?’’ मौसी ने फिर पूछा. घबरा कर उस ने फिर चाचा की ओर देखा. उन्होंने ‘हां’ का संकेत दिया तो गरदन झुकाते हुए लजा कर उस ने ‘हां’ में हिला दी.

‘‘थैंक्यू अवनी,’’ अचानक अनिकेत का स्वर उस के कानों में गूंजा, ‘‘मुझे तो पहली ही नजर में आप पसंद आ गई थीं.’’

मौसी ने आश्चर्य से उसे देखा फिर बोलीं, ‘‘अरे, तो पहले ही क्यों नहीं कहा. हम वहां जाते ही नहीं.’’

अनिकेत ने संकोच से उधर देखा, ‘‘मां, मैं आप का वचन तोड़ कर कभी कुछ नहीं करना चाहता हूं. आप ने अपने वहां जाने की सूचना उन्हें दे रखी थी.’’

‘‘वाह बेटा वाह,’’ पूरब ने झट से कहा, ‘‘आजकल ऐसी अच्छी सोच कहां देखने को मिलती है.’’

श्रावणी मन ही मन में सोच रही थी कि जेठ जेठानी अकेली छोड़ गए बेटी को पर देखो तो, घर बैठे विदेश में बसा लड़का मिल गया. पता नहीं हमारी बेटी का क्या होगा.

एक नारी ब्रह्मचारी- भाग 4 : पति वरुण की हरकतों पर क्या था स्नेहा का फैसला

चाय पीते हुए भी वह वही सब बातें सोचने लगा. आज उस का औफिस जाने का जरा भी मन नहीं हो रहा था. पर, जाना तो पड़ेगा ही. सो, खापी कर तैयार हो कर वह औफिस के लिए निकल गया और सोचने लगा, ‘काश, रूपम एक बार फिर उसे मिल जाए, तो इस बार उसे जाने नहीं देगा.‘

3-4 दिन ऐसे ही बीत गए, पर रूपम नहीं आई. एक दिन अचानक एक अनजान नंबर से वरुण के फोन पर फोन आया, तो उस ने उठा लिया. वह अभी हैलो बोलता ही कि सामने से वही मधुर आवाज सुन कर उस का रोमरोम सिहर उठा. रूपम कहने लगी कि क्या कल वह उस से मिलने बैंक आ सकती है?

वरुण अभी बोलने ही जा रहा था कि वह तो खुद उस से मिलने को बेचैन है. लेकिन उस ने खुद को कंट्रोल कर लिया, क्योंकि इतनी जल्दी वह शिकारी को अपने जाल में नहीं फंसाना चाहता था. पहले थोड़ा दाना डालेगा, फिर वह खुदबखुद उस के जाल में फंसती चली आएगी.

“सर, आप ने बताया नहीं, क्या मैं कल आप से मिलने आ सकती हूं?” रूपम ने फिर वही बात दोहराई, तो वरुण ने बड़े ही शालीनता से हां में जबाव दे कर फोन रख दिया. लेकिन उस के दिल में जो हलचल मची थी, नहीं बता सकता था.

कई दिनों से वरुण को गुमशुम, उदास देख स्नेहा को भी अच्छा नहीं लग रहा था. लेकिन आज बाथरूम में उसे गुनगुनाते देख स्नेहा को जरा अचरज तो हुआ, पर खुश भी हुई कि वरुण खुश है.

औफिस पहुंच कर वरुण बेसब्री से रूपम के आने का इंतजार करने लगा. कुछ देर बाद मैसेंजर ने आ कर बताया कि एक महिला उस से मिलना चाहती है.

“भेज दो,” कह कर वरुण रूपम के सपनों में खो गया. तभी उस की खनकती आवाज से वरुण की तंद्रा टूटी और जब उस ने मुसकुराते हुए ‘गुड मार्निंग सर‘ कहा, तो वरुण को जैसे जोर का करंट लगा.

“गुड मार्निंग… प्लीज, हैव ए सीट,” वरुण ने कुरसी की तरफ इशारा किया.

‘थैंक यू सर’ बोल कर वह कुरसी पर बैठ गई और कहने लगी कि वह एकदो बैंक गई थी लोन मांगने, पर कहीं भी उस का काम नहीं बना. लेकिन अगर आप मेरी मदद कर दें तो लोन मिल सकता है.

“वह कैसे मैडम…?” वरुण ने उसे तिरछी नजरों से देखते हुए पूछा.

“सर, वह तो मुझे नहीं पता, लेकिन आप इतने बड़े बैंक में मैनेजर हैं. देखने में आप इनसान भी अच्छे लग रहे हैं, तो कुछ तो मेरी मदद कर ही सकते हैं.

‘‘सर, मुझे पैसों की सख्त जरूरत है, वरना मैं यों बैंकों के चक्कर नहीं काट रही होती.

‘‘मैं जल्दी ही बैंक का लोन चुका दूंगी, विश्वास कीजिए सर मेरी बात पर.”

रूपम की बात पर वरुण को कुछकुछ विश्वास होने लगा कि यह औरत सही बोल रही है. इसी तरह वह रोज किसी न किसी बहाने वरुण से मिलने लगी. अगर वह नहीं आ पाती तो सामने से वरुण ही उसे फोन लगा देता.

रूपम को अच्छे से जान लेने के बाद कि सच में इस औरत को पैसों की जरूरत है, वरुण खुद गारंटर बन कर उसे बैंक से लोन दिलवा देता है.

इधर वरुण की मदद पा कर रूपम उस की शुक्रगुजार हो जाती है और वह उस के लिए अपने हाथों का बना पकवान ले कर आती है.

इसी तरह दोनों की दोस्ती गहरी होती जाती है और जिस का फायदा रूपम खूब अच्छे से उठाने लगती है.

अब वरुण की शाम रूपम की बांहों में बीतने लगती है. और जब स्नेहा उस से देर से आने का कारण पूछती है तो कोई न कोई बहाना बना कर उसे टाल देता है, जैसे कि आज औफिस में बहुत काम था, बौस के साथ जरूरी मीटिंग चल रही थी, क्लाइंट के साथ बिजी था, बोल कर स्नेहा को बहला देता. और उसे लगता कि वरुण सही कह रहा है.

उस रोज वरुण की शर्ट की जेब में मूवी की 2 टिकटें देख कर स्नेहा चीख पड़ी, “वरुण… वरुण, ये तुम्हारी जेब में मूवी की 2 टिकट… क्या चल रहा है?”

“मू… मूवी की टिकट. अरे, वो… वो तो मैं एक क्लाइंट के साथ ही गया था पागल. बौस ने कहा था क्लाइंट को खुश करने के लिए मूवी दिखा आ. अब बोलो बौस की बात कैसे टाल सकता था मैं. जानती तो हो अगले साल मेरा प्रमोशन ड्यू है, क्या तुम नहीं चाहती मेरी तरक्की हो? हद है भाई… बातबात पर शक करती हो मुझ पर,” वरुण ने मुंह बनाया, तो स्नेहा को भी लगा कि वह बेकार में उस के पीछे पड़ी रहती है.

वरुण को लग रहा था कि वह स्नेहा को चकमा दे रहा है. लेकिन उसे नहीं पता कि रूपम उसे चकमा दे रही थी. वह एक नंबर की फ्रौड थी. उस ने कितनों को ठगा था अब तक. और इस बार वरुण की बारी थी.

वरुण अपने प्रमोशन के लिए जीतोड़ मेहनत कर रहा था, लेकिन अभी भी कई लोन एमपीए जा रहा था, जिस के लिए रोज उसे अपने बौस की डांट खानी पड़ रही थी. वैसे तो रूपम को उस ने कई बार कहा लोन भरने के लिए, लेकिन हर बार वह यही कहती, गांव में उस का एक पुराना पुश्तैनी मकान है, जिसे बेच कर वह एकसाथ बैंक के सारे पैसे भर देगी.

वरुण को उस की बात सही लगती, मगर इधर कई दिनों से रूपम का कुछ अतापता नहीं था. न तो वह उस से मिलने आ रही थी और न ही उस का फोन उठा रही थी. लेकिन जब उस का फोन स्विच औफ आने लगा तो वरुण को लगा कि कहीं वह किसी मुसीबत में तो नहीं है? या कहीं उस की तबीयत तो नहीं खराब है? यह सोच कर वह उस से मिलने उस के घर चला गया. वैसे तो बैंक अधिकारी किसी के घर नहीं जाते जल्दी, लेकिन उस रोज रूपम के बहुत जिद करने पर वह उस के घर चला गया था. 2 कमरे के एक छोटे से घर में वह अकेली रहती थी. बताया था उस ने उस के मांबाप का देहांत हो चुका है. शादी हुई, पर पति से उस का तलाक हो चुका है और अब वह अपने जीवन में अकेली है. ब्यूटीपार्लर का कोर्स कर रखा था, इसलिए अपना खुद का एक पार्लर खोलना चाहती थी, जिस के लिए उसे बैंक से लोन चाहिए.

खैर, जब वरुण उस के घर पहुंचा, तो दरवाजे पर बड़ा सा ताला लटका देख हैरान रह गया… हैरान इसलिए, क्योंकि अपनी हर एक छोटी से छोटी बात वह उस से बताती आई थी. तो यह बात कैसे नहीं बताई कि वह कहीं जा रही है? वह कहां गई है? कब आएगी ? कैसे पता करेगा, समझ नहीं आ रहा था उसे. तभी उसे सामने से एक अधेड़ उम्र की महिला आती दिखी.

“ए… एक मिनट मैडम, क्या आप बता सकती हैं कि इस घर में जो महिला रहती थी, रूपम व्यास… कहां गई है और कब आएगी?”

पहले तो उस महिला ने वरुण को ऊपर से नीचे तक गौर से देखा, फिर यह बोल कर आगे बढ़ गई कि उसे कुछ नहीं पता.

वरुण ने फिर कई बार रूपम को फोन मिलाया, पर वही स्विच औफ.

‘कहीं उस ने मुझे धोखा तो नहीं दे दिया? अगर ऐसा हुआ तो गया काम से मैं,’ अपने मन में ही सोच वरुण ने माथा पकड़ लिया. बहुत पता लगाया, लेकिन रूपम का कहीं कोई पताठिकाना नहीं मिला उसे, लेकिन एक रोज रूपम की सचाई जान कर वरुण को जोर का करंट लगा. उस ने वरुण को जोजो बताया अपने बारे में, सब झूठ था. यहां तक कि उस का नाम भी झूठा था. वह एक फ्रौड महिला थी, जो लोगों को लूटने का काम करती थी. पहले वह लोगों को अपनी सुंदरता के जाल में फंसाती थी, फिर उस के पैसे लूट कर रफूचक्कर हो जाती थी.

कितना समझाया था स्नेहा ने, ‘सुधर जाओ, वरना… खुद तो डूबोगे ही एक दिन हमें भी ले डूबोगे,’ और ऐसा ही हुआ.

वरुण हमेशा स्नेहा की बातों को इगनोर करता आया था. लेकिन आज उसे एहसास हो रहा था कि वह कितना गलत था. लेकिन अब क्या…? पैसे तो अब उसे अपनी जेब से ही भरने पड़ेंगे न, वरना अपनी नौकरी से जाएगा.. बड़ी हिम्मत कर के जब उस ने स्नेहा को यह सारी बात बताई, तो वह सिर पकड़ कर बैठ गई. पूरी रात दोनों चिंता, अनिद्रा और तनाव के कारण करवटें बदलते रहे. अब एकदो पैसे की बात तो थी नहीं, पूरे 10 लाख रुपए…? कहां से लाएगा वो इतनी बड़ी रकम…? अब स्नेहा भी क्या कर सकती थी. लेकिन गुस्सा तो उसे अभी भी बहुत आ रहा था. रात में कितना सुनाया उस ने वरुण को कि देख लिया न अपनी करनी का फल? सुंदर औरतों के पीछे भागने का नतीजा? उस पर वरुण ने अपने दोनों कान पकड़ कर उस से माफी मांगी थी और कहा था कि अब कभी वह ऐसी गलती नहीं करेगा. अब गलतियां तो इनसान से ही होती हैं न? यह सोच कर स्नेहा ने भी उसे माफ कर दिया और अपने सारे जेवर यह बोल कर उस के हाथों में पकड़ा दिए कि वह जा कर लोन की रकम भर दे, वरना प्रमोशन मिलना भी मुश्किल हो जाएगा.

“चलो, मैं औफिस के लिए निकलता हूं,” स्नेहा को सीने से लगाते हुए वरुण बोला, तो स्नेहा ने चुटकी ली कि फिर वह कहीं किसी मेनका के फेर में न पड़ जाए.

“पागल हो क्या…?‘‘ अपनी आंखें गोलगोल घुमाते हुए वरुण बोला, “गलती बारबार थोड़ी ही दोहराई जाती है. मैं तो एक नारी ब्रह्मचारी हूं और रहूंगा…” लेकिन गाड़ी में बैठते ही वह बड़ी कुटिलता से मुसकराया और बोला, “पागल… अब घोड़ा घास से यारी नहीं करेगा तो खाएगा क्या?

 

सूरजमुखी: राज ने ऐसा क्या किया कि छाया खुश हो गई

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कासनी का फूल: भाग 2- अभिषेक चित्रा से बदला क्यों लेना चाहता था

उस रात अभिषेक बेकाबू हो गया. चित्रा की न… न… करती गुहार को अनसुना कर अपनी पिपासा मिटाने को आतुर हो गया. भय से नीले पड़े चित्रा के अधरों को उस ने अपने दहकते होंठों से सिल दिया. अपनी बलिष्ठ भुजाओं में कांपती देह दबोच ली. एक शिकारी पक्षी निरीह जीव को पंजों में दबाए था. अभिषेक के निढाल हो कर लुढ़कने के बाद चित्रा सिसकियां ले कर लगातार आंसू बहाती रही, लेकिन उस के आंसू पोंछने वाला कोई नहीं था.

सिलसिला चल निकला. चित्रा अपने को अभिषेक द्वारा रौंदे जाने से पहले मन पक्का कर लेती, किसी तरह वे 10-15 मिनट बीतते और वह चैन की सांस लेती. धीरेधीरे वह इस की आदी हो गई. अब अभिषेक के छूने पर वह चुपचाप पड़ी रहती. न कोई पीड़ा, न दुख, न उत्साह, न रोमांच. प्रेम में उत्तेजित होना क्या होता है, यह तो वह कभी जान ही नहीं पाई.

चित्रा का शुष्क व ठंडा व्यवहार अभिषेक को रास नहीं आ रहा था, लेकिन पति के खोल से बाहर निकल उस ने एक मित्र या प्रेमी के समान कभी यह जानने का प्रयास नहीं किया कि चित्रा के ऐसे व्यवहार का कारण आखिर है क्या? चित्रा को उस ने न कभी प्यार से सहलाया और न गले लगा कर आंसू पोंछे. चित्रा बेचैन और उदास रहने लगी थी. चेहरा मलिन, क्लांत हो गया था.

‘‘कल सुबह जल्दी उठ कर नहाधो लेना. हमारा परिवार एक स्वामीजी का बहुत सम्मान करता है. वे कुछ. महीनों से विदेश गए हुए थे. कल ही लौटे हैं, सुबह उन का आशीर्वाद लेने चलेंगे,’’ उस रात सोने से पहले अभिषेक बोला.

‘‘साधु बाबा टाइप के हैं क्या स्वामीजी?’’ चित्रा अनिष्ट से आशंकित हो रही थी.

‘‘तो और कैसे होते हैं स्वामीजी? फालतू बातें ही करनी आती हैं तुम्हें.’’

‘‘मुझे ऐसे लोगों पर विश्वास नहीं है. उन का आशीर्वाद तो दूर मैं तो पास भी नहीं फटकना चाहूंगी.’’

अभिषेक उठ कर बैठ गया. क्रोध में बढ़बढ़ाते हुए बोला, ‘‘तुम कैसी औरत हो? बिस्तर पर पति का साथ पसंद नहीं, बिन वजह रोज की यही समस्या. समाधान चाहा सिर्फ स्वामीजी के आशीर्वाद रूप में तो वह भी मंजूर नहीं. मैं तो पछता रहा हूं तुम से शादी कर के.’’

‘‘सौरी,’’ चित्रा रुंधे गले से बोली, ‘‘ऐसे लोगों से मुझे डर लगता है. एक बार जब मैं छोटी थी तो…’’

‘‘रहने दो बस. अब मेरी बात टालने के लिए बना लो कोई नई कहानी. मुझे परेशान देख कर बहुत मजा आता है न तुम्हें?’’ अभिषेक ने चित्रा को अपनी पूरी बात कहने का मौका ही नहीं दिया.

करवटें बदलती अगले दिन की भयावह कल्पनाओं में डूबी चित्रा रातभर सो न सकी. सुबह सिर भारी था. अभिषेक से चित्रा ने स्वामीजी के पास जाने में असमर्थता जताई तो उस ने घर वालों के साथ मिल कर आसमान सिर पर उठा लिया. चित्रा के सामने शर्त रखी गई कि उसे न केवल आज बल्कि माह में एक दिन स्वामीजी की सेवा में व्यतीत करना होगा वरना इस घर में उस के लिए कोई जगह नहीं होगी.

चित्रा के क्षमा मांगते हुए असहमति दर्शाने का कोई लाभ नहीं हुआ. हाथ जोड़ कर वह गिड़गिड़ाई भी, लेकिन कोई उस की बात सुनने को तैयार न था. अभिषेक उसी दिन चित्रा को यह कहते हुए मायके छोड़ आया कि स्वामीजी का अपमान वे लोग किसी कीमत पर नहीं सह सकते.

कुछ दिन यों ही बीत गए. चित्रा ने कई बार कौल कर बात करने का प्रयास किया, लेकिन अभिषेक ने फोन अटैंड नहीं किया. चित्रा के एक प्यार भरे मैसेज के जवाब में अभिषेक ने स्वामीजी से जुड़ने की शर्त को दोहरा दिया. अंतत: चित्रा को तलाक का रास्ता चुनना पड़ा. अभिषेक से रिश्ता रखने का अर्थ स्वामीजी से भी संबंध जोड़ना था.

‘‘जंगली जानवरों से भी डरावने चेहरे लिए चंदनदास जैसे ही किसी स्वामीजी के पास जाने के बारे में सोचते हुए भी मुझे डर लगता है,’’ अपनी मां से उस ने कहा था जब वे तलाश को ले कर फिर से सोचने की बात कह रही थीं.

‘‘तू बच्ची थी तब. मंत्र याद करने से बचना चाहती थी. अब तो सच स्वीकार कर ले चित्रा,’’ मां को बेटी से ज्यादा अभी भी चंदनदास पर भरोसा था.

‘‘नहीं आप को जो बताया था वही सच है कि चंदनदास ने अंधेरे में… मैं अब उस बारे में बात भी नहीं करना चाहती,’’ चित्रा के स्वर में घृणा उतर आई थी.

अभिषेक और चित्रा का वैवाहिक जीवन तलाक की भेंट चढ़ गया. जब चित्रा का परिवार ही उस का दुख नहीं समझ सका तो किसी से क्या आशा करती? मन पर बोझ लिए सब के बीच रहने से अच्छा विकल्प उसे दूर चले जाना ही लगा. कई होटलों में नौकरी के लिए अप्लाई किया. हिमाचल प्रदेश के छोटे से नगर कसौली से बुलावा आया तो उस ने तनिक देर नहीं की.

पहाड़ों पर बिखरे सौंदर्य को निहारते, आत्मसात करते हुए चित्रा अपने दुख को कम करने का प्रयास करती. उस दिन भी चाय ले कर बालकनी में खड़ा हो ढलती सांझ के झुटपुटे में खो रहे पेड़पौधों और रंगबिरंगे फूलों से कह रही थी कि अंधेरा हमेशा नहीं रहता, कल फिर धूप खिलेगी, फिर से रूपसौंदर्य दिखने लगेगा सब का. यही तो कहता था उसे ईशान जब कभी वह निराश होती थी. होटल मैनेजमैंट करते हुए ईशान के रूप में कितना बेहतरीन दोस्त पाया था उस ने. कोई डिश बनाते हुए चित्रा पीछे रह जाती तो ईशान चख कर स्वाद की प्रशंसा कर हौसला बढ़ाता.

 

मन के तहखाने-भाग 1: अवनी के साथ ससुराल वाले गलत व्यवहार क्यों करते थे

चाची बरामदा पार करने लगीं तो आंगन में गेहूं साफ करती अवनी पर दृष्टि ठहर गई. कमाल है यह लड़की भी. धूप में, पानी में कहीं भी बैठा दो, चुपचाप बैठी काम पूरा करती रहेगी.

सुबह उस के हाथों से गिर कर चायदानी टूट गई थी. उसी के दंडस्वरूप चाची ने अवनी को धूप में गेहूं बीनने का आदेश दिया था.

सुबह की धूप अब धीरेधीरे पूरे आंगन को अपनी बांहों में घेरती जा रही थी. चाची ने देखा, अवनी का गोरा रंग धूप की हलकी तपिश में और भी चमक रहा था. मन ने कहा, ‘श्रावणी, तू इतनी निर्दयी क्यों बन गई?’ पर उत्तर उस के पास नहीं था.

जब वह ब्याह कर इस घर में आई थी, तब जेठानी मानसी के रूपरंग को देख धक रह गई थी. वह उन के आसपास भी कहीं नहीं ठहरती थी. मानसी जीजी ने प्यार से उसे बांहों में भर लिया था और एकांत होते ही बोली थीं, ‘‘हमारी कोई छोटी बहन नहीं है, बस 2 भाई हैं, तुम हमारी बहन बनोगी न?’’

वह मुसकरा कर आश्वस्त हो गई थी. जिसे अपने रूप का तनिक भी गर्व नहीं उस से भला कैसा डरना? पर सब कुछ वैसा ही नहीं होता है, जैसा व्यक्ति सोचता है. प्राय: किसी भी काम से पहले सास का स्वर उसे आहत कर देता, ‘‘श्रावणी बेटा, जरा मानसी से भी पूछ लेना कि भरवां टिंडे कैसे बनेंगे. पूरब को अभी तक अपनी भाभी के हाथों के स्वाद की आदत पड़ी है.’’

उस का तनमन सुलग उठता. कैसे प्यार भरी चाशनी में लपेट कर सास ने उसे जता दिया था कि अभी तुम रसोई में कच्ची हो.

श्रावणी धीमे कदमों से आंगन में पहुंची और उसे झंझोड़ कर बोली, ‘‘इतनी देर में बस आधा कनस्तर गेहूं बीना है, चल उठ, रसोई में जा कर नाश्ता कर ले.’’

अवनी चुपचाप उठ गई. श्रावणी जब मन ही मन दयावान होती, तब भी क्रोध से ही उसे परेशानी से नजात दिलाती. धूप की ताप से परेशान अवनी को देख कर मन में तो दया उपज रही थी, पर दिखाने से तो मन के तहखाने का सच सामने आ जाता, अत: नाश्ते के बहाने उसे वहां से उठा दिया था.

अवनी ने स्टील की छोटी प्लेट हटा कर देखा, 2 रोटियों पर आलू को कुछ टुकड़े रखे थे. वह चुपचाप खाने लगी. छुट्टी का दिन था, वह परीक्षा की तैयारी के लिए पढ़ना चाहती थी, पर अब रसोई के काम का समय हो गया था. उस की आंखें नम होने लगीं.

उसी समय पानी लेने विविधा वहां आ गई. उसे खाते देख कर बोली, ‘‘यह क्या अवनी दीदी, आप रोटी क्यों खा रही हैं? हम ने तो ब्रैडपैटीज खाई हैं.’’

अवनी के मन में हलचल मची पर संभालने की आदत पड़ चुकी थी उसे. बोली, ‘‘आज हीरा काम पर नहीं आया है तो बासी रोटी कौन खाता. इस महंगाई में अनाज फेंकना नहीं चाहिए.’’

विविधा ने 2-3 डोंगे खोल डाले और ब्रैडपैटीज उस की प्लेट में रखते हुए बोली, ‘‘पता है, आप बहुत अच्छी गृहस्थन हैं पर चख कर तो देखिए.’’

वह पानी ले कर मटकती हुई बाहर चली गई. अवनी की आंखें सदा ऐसे प्रसंगों पर नम हो जाती हैं. विविधा उस से 7 वर्ष छोटी है. जब पूरब चाचा का विवाह हुआ तब अवनी 5 वर्ष की थी. नई चाची को हुलस हुलस कर देखती. वे टौफी देतीं तो झट उन की गोद में बैठ जाती. ‘‘चाची आप बहुत अच्छी हैं,’’ वह कहती.

श्रावणी तब उसे बहुत प्यार करती थी. 2 वर्ष पूरे होतेहोते ही विविधा आ गई तो अवनी फूली नहीं समाई. स्कूल से आते ही उस के साथ खेलने लगती. कभीकभी चाची उसे टोकतीं, ‘‘देख संभल कर, गिरा मत देना,’’ मां सामने होतीं तो आगे बढ़ कर उस का हाथ विविधा की गरदन के नीचे लगा कर कहतीं, ‘‘देख बेटा, छोटे बच्चों को ऐसे संभाल कर गोद में उठाते हैं.’’

अवनी को जब भी अतीत याद आता वह उदास हो जाती. दादी जब बहुत बीमार थीं,

तब वह उन से कहती, ‘‘दादी, आप कब ठीक हो जाएंगी?’’

‘‘पता नहीं रानी, ठीक हो जाऊंगी या जाने का समय आ गया है,’’ दादी खांसते हुए कहतीं.

‘‘कहां जाना है दादी?’’ वह भोलेपन से पूछती तो दादी की आंखों के कोर भीग जाते.

‘‘तुम्हारे दादाजी के पास,’’ दादी दुख से शून्य में देखते हुए बोलतीं. तब तक वह इतनी बड़ी हो चुकी थी कि जन्म और मृत्यु का अर्थ समझ सकती थी. उसे पता था कि दादाजी अब इस संसार में नहीं हैं.

 

नाश्ता कर के उस ने प्लेट धो कर रख दी. तभी चाची आ गईं. बोलीं, ‘‘अवनी, जितना आटा है, गूंध कर रोटी बना लेना. दाल हम ने बना दी है. गोभीआलू भी बना लेना.’’

‘‘जी चाची, सब हो जाएगा,’’ उस ने सादगी से कहा.

चाची कमरे में पहुंचीं तो विविधा ने घेर लिया, ‘‘मम्मी, आप ऐसा क्यों करती हैं?’’ उस ने कहा.

‘‘क्या कैसा करती हूं?’’ श्रावणी ने पसीना पोंछते हुए पूछा.

‘‘दीदी को बासी रोटी क्यों दी?’’

श्रावणी के चेहरे पर हलकी सी घबराहट उभर आई. वह विविधा के समक्ष लज्जित होना नहीं चाहती थी. अपने आप को संभालती हुई बोली, ‘‘कल को उस का विवाह होगा और वहां बासी भी खाना पड़ा तो उसे दुख तो नहीं होगा.’’

‘‘यह तो कोई बात नहीं हुई. ऐसे घर में क्यों करोगी उन की शादी. उन के लिए खूब अच्छा घर खोजना,’’ विविधा ने कहा तो वह खीजते हुए बोली, ‘‘इतना दहेज कहां से लाएंगे.’’

विविधा जातेजाते ठिठक कर बोली, ‘‘इतनी सुंदर हैं दीदी, उन्हें तो कोई बिना दहेज के भी ब्याह लेगा.’’

श्रावणी के मन पर किसी ने जैसे पत्थर मार दिया. वह जब से ब्याह कर आई, यही तो सुनती रही, ‘बड़ी बहू बहुत सुंदर है. उस की बेटी भी मां पर ही गई है.’ कभी पड़ोसिनें कहतीं, कभी रिश्तेदार. वह डूबते मन से सुनती रहतीं.

पूरब अकसर कहता रहता, ‘‘भाभी बहुत स्वादिष्ठ खाना बनाती हैं. उन के हाथों में तो जादू है जैसे.’’

मांजी तो खाने की मेज पर बैठते ही पूछतीं, ‘‘मानसी बेटा, आज क्या बनाया?’’

हालांकि यह सब जान कर नहीं होता था पर ये अप्रत्यक्ष सी टिप्पणियां उस का सर्वांग आहत कर जातीं. वह अपमानित सा महसूस करती स्वयं को. साड़ी वाला साडि़यां ले कर प्राय: घर पर ही आया करता था. मांजी स्वयं ही साडि़यां चुनतीं और कहतीं, ‘‘ये कत्थई रंग तो अपनी मानसी पर खूब खिलेगा. श्रावणी बेटा, तुम पर यह हलका नीला रंग फबेगा.’’

वह उदास हो जाती. लगता यह सीधा प्रहार है उस के साधारण रूपरंग पर. मन के अंदर ईर्ष्या की ज्वाला सी धधकने लगती.

जब एक दिन कार दुर्घटना में जेठ जेठानी की अचानक मृत्यु हो गई तो पूरे घर पर जैसे बिजली सी गिर पड़ी. कुछ वर्ष पहले ही मांजी की मृत्यु भी हो चुकी थी. लाख ईर्ष्या थी पर उस हादसे ने उसे किंकर्तव्यविमूढ़ कर दिया था. वह बिलखबिलख कर रो पड़ी थी.

 

कबूतरों का घर: क्या जूही और कृष्णा का प्यार पूरा हो पाया

चांद की धुंधली रोशनी में सभी एकदूसरे की सांसें महसूस करने की कोशिश कर रहे थे. उन्हें तो यह भरोसा भी नहीं हो रहा था कि वे जीवित बचे हैं. पर ऊपर नीला आकाश देख कर और पैरों के नीचे जमीन का एहसास कर उन्हें लगा था कि वह बाढ़ के प्रकोप से बच गए. बाढ़ में कौन बह कर कहां गया, कौन बचा, किसी को कुछ पता नहीं था.

इन बचने वालों में कुछ ऐसे भी थे जिन के अपने देखते ही देखते उन के सामने जल में समाधि ले चुके थे और बचे लोग अब विवश थे हर दुख झेलने के लिए.

‘‘जाने और कितना बरसेगा बादल?’’ किसी ने दुख से कहा था.

‘‘यह कहो कि जाने कब पानी उतरेगा और हम वापस घर लौटेंगे,’’ यह दूसरी आवाज सब को सांत्वना दे रही थी.

‘‘घर भी बचा होगा कि नहीं, कौन जाने.’’ तीसरे ने कहा था.

इस समय उस टापू पर जितने भी लोग थे वे सभी अपने बच जाने को किसी चमत्कार से कम नहीं मान रहे थे और सभी आपस में एकदूसरे के साथ नई पहचान बनाने की चेष्टा कर रहे थे. अपना भय और दुख दूर करने के लिए यह उन सभी के लिए जरूरी भी था.

चांद बादलों के साथ लुकाछिपी खेल रहा था जिस से वहां गहन अंधकार छा जाता था.

तानी ने ठंड से बचने के लिए थोड़ी लकडि़यां और पत्तियां शाम को ही जमा कर ली थीं. उस ने सोचा आग जल जाए तो रोशनी हो जाएगी और ठंड भी कम लगेगी. अत: उस ने अपने साथ बैठे हुए एक बुजुर्ग से माचिस के लिए पूछा तो वह जेब टटोलता हुआ बोला, ‘‘है तो, पर गीली हो गई है.’’

तानी ने अफसोस जाहिर करने के लिए लंबी सांस भर ली और कुछ सोचता हुआ इधरउधर देखने लगा. उस वृद्ध ने माचिस निकाल कर उस की ओर विवशता से देखा और बोला, ‘‘कच्चा घर था न हमारा. घुटनों तक पानी भर गया तो भागे और बेटे को कहा, जल्दी चल, पर वह….’’

तानी एक पत्थर उठा कर उस बुजुर्ग के पास आ गया था. वृद्ध ने एक आह भर कर कहना शुरू किया, ‘‘मुझे बेटे ने कहा कि आप चलो, मैं भी आता हूं. सामान उठाने लगा था, जाने कहां होगा, होगा भी कि बह गया होगा.’’

इतनी देर में तानी ने आग जलाने का काम कर दिया था और अब लकडि़यों से धुआं निकलने लगा था.

‘‘लकडि़यां गीली हैं, देर से जलेंगी,’’ तानी ने कहा.

कृष्णा थोड़ी दूर पर बैठा निर्विकार भाव से यह सब देख रहा था. अंधेरे में उसे बस परछाइयां दिख रही थीं और किसी भी आहट को महसूस किया जा सकता था. लेकिन उस के उदास मन में किसी तरह की कोई आहट नहीं थी.

अपनी आंखों के सामने उस ने मातापिता और बहन को जलमग्न होते देखा था पर जाने कैसे वह अकेला बच कर इस किनारे आ लगा था. पर अपने बचने की उसे कोई खुशी नहीं थी क्योंकि बारबार उसे यह बात सता रही थी कि अब इस भरे संसार में वह अकेला है और अकेला वह कैसे रहेगा.

लकडि़यों के ढेर से उठते धुएं के बीच आग की लपट उठती दिखाई दी. कृष्णा ने उधर देखा, एक युवती वहां बैठी अपने आंचल से उस अलाव को हवा दे रही थी. हर बार जब आग की लपट उठती तो उस युवती का चेहरा उसे दिखाई दे जाता था क्योंकि युवती के नाक की लौंग चमक उठती थी.

कृष्णास्वामी ने एक बार जो उस युवती को देखा तो न चाहते हुए भी उधर देखने से खुद को रोक नहीं पाया था. अनायास ही उस के मन में आया कि शायद किसी अच्छे घर की बेटी है. पता नहीं इस का कौनकौन बचा होगा. उस युवती के अथक प्रयास से अचानक धुएं को भेद कर अब आग की मोटीमोटी लपटें खूब ऊंची उठने लगीं और उन लपटों से निकली रोशनी किसी हद तक अंधेरे को भेदने में सक्षम हो गई थी. भीड़ में खुशी की लहर दौड़ गई.

कृष्णा के पास बैठे व्यक्ति ने कहा, ‘‘मौत के पास आने के अनेक बहाने होते हैं. लेकिन उसे रोकने का एक भी बहाना इनसान के पास नहीं होता. जवान बेटेबहू थे हमारे, देखते ही देखते तेज धार में दोनों ही बह गए,’’ कृष्णा उस अधेड़ व्यक्ति की आपबीती सुन कर द्रवित हो उठा था. आंच और तेज हो गई थी.

‘‘थोड़े आलू होते तो इसी अलाव में भुन जाते. बच्चों के पेट में कुछ पड़ जाता,’’ एक कमजोर सी महिला ने कहा, उन्हें भी भूख की ललक उठी थी. इस उम्र में भूखा रहा भी तो नहीं जाता है.

आग जब अच्छी तरह से जलने लगी तो वह युवती उस जगह से उठ कर कुछ दूरी पर जा बैठी थी. कृष्णा भी थोड़ी दूरी बना कर वहीं जा कर बैठ गया. कुछ पलों की खामोशी के बाद वह बोला, ‘‘आप ने बहुत अच्छी तरह अलाव जला दिया है वरना अंधेरे में सब घबरा रहे थे.’’

‘‘जी,’’ युवती ने धीरे से जवाब में कहा.

‘‘मैं कृष्णास्वामी, डाक्टरी पढ़ रहा हूं. मेरा पूरा परिवार बाढ़ में बह गया और मैं जाने क्यों अकेला बच गया,’’ कुछ देर खामोश रहने के बाद कृष्णा ने फिर युवती से पूछा, ‘‘आप के साथ में कौन है?’’

‘‘कोई नहीं, सब समाप्त हो गए,’’ और इतना कहने के साथ वह हुलस कर रो पड़ी.

‘‘धीरज रखिए, सब का दुख यहां एक जैसा ही है,’’ और उस के साथ वह अपने आप को भी सांत्वना दे रहा था.

अलाव की रोशनी अब धीमी पड़ गई थी. अपनों से बिछड़े सैकड़ों लोग अब वहां एक नया परिवार बना रहे थे. एक अनोखा भाईचारा, सौहार्द और त्याग की मिसाल स्थापित कर रहे थे.

अगले दिन दोपहर तक एक हेलीकाप्टर ऊपर मंडराने लगा तो सब खड़े हो कर हाथ हिलाने लगे. बहुत जल्दी खाने के पैकेट उस टीले पर हेलीकाप्टर से गिरना शुरू हो गए. जिस के हाथ जो लग रहा था वह उठा रहा था. उस समय सब एकदूसरे को भूल गए थे पर हेलीकाप्टर के जाते ही सब एकदूसरे को देखने लगे.

अफरातफरी में कुछ लोग पैकेट पाने से चूक गए थे तो कुछ के हाथ में एक की जगह 2 पैकेट थे. जब सब ने अपना खाना खोला तो जिन्हें पैकेट नहीं मिला था उन्हें भी जा कर दिया.

कृष्णा उस युवती के नजदीक जा कर बैठ गया. अपना पैकेट खोलते हुए बोला, ‘‘आप को पैकेट मिला या नहीं?’’

‘‘मिला है,’’ वह धीरे से बोली.

कृष्णा ने आलूपूरी का कौर बनाते हुए कहा, ‘‘मुझे पता है कि आप का मन खाने को नहीं होगा पर यहां कब तक रहना पड़े कौन जाने?’’ और इसी के साथ उस ने पहला निवाला उस युवती की ओर बढ़ा दिया.

युवती की आंखें छलछला आईं. धीरे से बोली, ‘‘उस दिन मेरी बरात आने वाली थी. सब शादी में शरीक होने के लिए आए हुए थे. फिर देखते ही देखते घर पानी से भर गया…’’

युवती की बातें सुन कर कृष्णा का हाथ रुक गया. अपना पैकेट समेटते हुए बोला, ‘‘कुछ पता चला कि वे लोग कैसे हैं?’’

युवती ने कठिनाई से अपने आंसू पोंछे और बोली, ‘‘कोई नहीं बचा है. बचे भी होंगे तो जाने कौन तरफ हों. पता नहीं मैं कैसे पानी के बहाव के साथ बहती हुई इस टीले के पास पहुंच गई.’’

कृष्णा ने गहरी सांस भरी और बोला, ‘‘मेरे साथ भी तो यही हुआ है. जाने कैसे अब अकेला रहूंगा इतनी बड़ी दुनिया में. एकदम अकेला… ’’ इतना कह कर वह भी रोंआसा हो उठा.

दोनों के दर्द की गली में कुछ देर खामोशी पसरी रही. अचानक युवती ने कहा, ‘‘आप खा लीजिए.’’

युवती ने अपना पैकट भी खोला और पहला निवाला बनाते हुए बोली, ‘‘मेरा नाम जूही सरकार है.’’

कृष्णा आंसू पोंछ कर हंस दिया. दोनों भोजन करने लगे. सैकड़ों की भीड़ अपना धर्म, जाति भूल कर एक दूसरे को पूछते जा रहे थे और साथसाथ खा भी रहे थे.

खातेखाते जूही बोली, ‘‘कृष्णा, जिस तरह मुसीबत में हम एक हो जाते हैं वैसे ही बाकी समय क्यों नहीं एक हो कर रह पाते हैं?’’

कृष्णा ने गहरी सांस ली और बोला, ‘‘यही तो इनसान की विडंबना है.’’

सेना के जवान 2 दिन बाद आ कर जब उन्हें सुरक्षित स्थानों पर ले कर चले तो कृष्णा ने जूही की ओर बहुत ही अपनत्व भरी नजरों से देखा. वह भी कृष्णा से मिलने उस के पास आ गई और फिर जाते हुए बोली, ‘‘शायद हम फिर मिलें.’’

रात होने से पहले सब उस स्थान पर पहुंच गए जहां हजारों लोग छोटेछोटे तंबुओं में पहले से ही पहुंचे हुए थे. उस खुले मैदान में जहांजहां भी नजर जाती थी बस, रोतेबिलखते लोग अपनों से बिछुड़ने के दुख में डूबे दिखाई देते थे. धीरेधीरे भीड़ एक के बाद एक कर उन तंबुओं में गई. पानी ने बहा कर कृष्णा और जूही  को एक टापू पर फेंका था लेकिन सरकारी व्यवस्था ने दोनों को 2 अलगअलग तंबुओं में फेंक दिया.

मीलों दायरे में बसे उस तंबुओं के शहर में किसी को पता नहीं कि कौन कहां से आया है. सब एकदूसरे को अजनबी की तरह देखते लेकिन सभी की तकलीफ को बांटने के लिए सब तैयार रहते.

सरकारी सहायता के नाम पर वहां जो कुछ हो रहा था और मिल रहा था वह उतनी बड़ी भीड़ के लिए पर्याप्त नहीं था. कुछ स्वयंसेवी संस्थाएं भी मदद करने के काम में जुटी थीं.

वहां रहने वाले पीडि़तों के जीवन में अभाव केवल खानेकपड़े का ही नहीं बल्कि अपनों के साथ का अभाव भी था. उन्हें देख कर लगता था, सब सांसें ले रहे हैं, बस.

उस शरणार्थी कैंप में महामारी से बचाव के लिए दवाइयों के बांटे जाने का काम शुरू हो गया था. कृष्णा ने आग्रह कर के इस काम में सहायता करने का प्रस्ताव रखा तो सब ने मान लिया क्योंकि वह मेडिकल का छात्र था और दवाइयों के बारे में कुछकुछ जानता था. दवाइयां ले कर वह कैंपकैंप घूमने लगा. दूसरे दिन कृष्णा जिस हिस्से में दवा देने पहुंचा वहां जूही को देख कर प्रसन्नता से खिल उठा. जूही कुछ बच्चों को मैदान में बैठा कर पढ़ा रही थी. गीली जमीन को उस ने ब्लैकबोर्ड बना लिया था. पहले शब्द लिखती थी फिर बच्चों को उस के बारे में समझाती थी. कृष्णा को देखा तो वह भी खुश हो कर खड़ी हो गई.

‘‘इधर कैसे आना हुआ?’’

‘‘अरे इनसान हूं तो दूसरों की सेवा करना भी तो हमारा धर्म है. ऐसे समय में मेहमान बन कर क्यों बैठे रहें,’’ यह कहते हुए कृष्णा ने जूही को अपना बैग दिखाया, ‘‘यह देखो, सेवा करने का अवसर हाथ लगा तो घूम रहा हूं,’’ फिर जूही की ओर देख कर बोला, ‘‘आप ने भी अच्छा काम खोज लिया है.’’

कृष्णा की बातें सुन कर जूही हंस दी. फिर कहने लगी, ‘‘ये बच्चे स्कूल जाते थे. मुसीबत की मार से बचे हैं. सोचा कि घर वापस जाने तक बहुत कुछ भूल जाएंगे. मेरा भी मन नहीं लगता था तो इन्हें ले कर पढ़नेपढ़ाने बैठ गई. किताबकापी के लिए संस्था वालों से कहा है.’’

दोनों ने एकदूसरे की इस भावना का स्वागत करते हुए कहा, ‘‘आखिर हम कुछ कर पाने में समर्थ हैं तो क्यों हाथ पर हाथ रख कर बैठे रहें?’’

अब धीरेधीरे दोनों रोज मिलने लगे. जैसेजैसे समय बीत रहा था बहुत सारे लोग बीमार हो रहे थे. दोनों मिल कर उन की देखभाल करने लगे और उन का आशीर्वाद लेने लगे.

कृष्णा भावुक हो कर बोला, ‘‘जूही, इन की सेवा कर के लगता है कि हम ने अपने मातापिता पा लिए हैं.’’

एकसाथ रह कर दूसरों की सेवा करते करते दोनों इतने करीब आ गए कि उन्हें लगा कि अब एकदूसरे का साथ उन के लिए बेहद जरूरी है और वह हर पल साथ रहना चाहते हैं. जिन बुजुर्गों की वे सेवा करते थे उन की जुबान पर भी यह आशीर्वाद आने लगा था, ‘‘जुगजुग जिओ बच्चों, तुम दोनों की जोड़ी हमेशा बनी रहे.’’

एक दिन कृष्णा ने साहस कर के जूही से पूछ ही लिया, ‘‘जूही, अगर बिना बराती के मैं अकेला दूल्हा बन कर आऊं तो तुम मुझे अपना लोगी?’’

जूही का दिल धड़क उठा. वह भी तो इस घड़ी की प्रतीक्षा कर रही थी. नजरें झुका कर बोली, ‘‘अकेले क्यों आओगे, यहां कितने अपने हैं जो बराती बन जाएंगे.’’

कृष्णा की आंखें खुशी से चमक उठी. अपने विवाह का कार्यक्रम तय करते हुए उस ने अगले दिन कहा, ‘‘पता नहीं जूही, अपने घरों में हमारा कब जाना हो पाए. तबतक इसी तंबू में हमें घर बसाना पडे़गा.’’

जूही ने प्यार से कृष्णा को देखा और बोली, ‘‘तुम ने कभी कबूतरों को अपने लिए घोसला बनाते देखा है?’’

कृष्णा ने उस के इस सवाल पर अपनी अज्ञानता जाहिर की तो वह हंस कर बताने लगी, ‘‘कृष्णा, कबूतर केवल अंडा देने के लिए घोसला बनाते हैं, वरना तो खुद किसी दरवाजे, खिड़की या झरोखे की पतली सी मुंडेर पर रात को बसेरा लेते हैं. हमारे पास तो एक पूरा तंबू है.’’

कृष्णा ने मुसकरा कर उस के गाल पर पहली बार हल्की सी चिकोटी भरी. उन दोनों के घूमने से पहले ही कुछ आवाजों ने उन्हें घेर लिया था.

‘‘कबूतरों के इन घरों में बरातियों की कमी नहीं है. तुम तो बस दावत की तैयारी कर लो, बराती हाजिर हो जाएंगे.’’

उन दोनों को एक अलग सुख की अनुभूति होने लगी. लगा, मातापिता, भाईबहन, सब की प्रसन्नता के फूल जैसे इन लोगों के लिए आशीर्वाद में झड़ रहे हैं.

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