मलमल की चादर

आज फिर बरसात हो रही है. वर्षा ऋतु जैसी दूसरी ऋतु नहीं. विस्तृत फैले नभ में मेघों का खेल. कभी एकदूसरे के पीछे चलना तो कभी मुठभेड़. कभी छींटे तो कभी मूसलाधार बौछार. किंतु नभ और नीर की यह आंखमिचौली तभी सुहाती है जब चित्त प्रसन्न होता है. मन चंगा तो कठौती में गंगा. और मन ही हताश, निराश, घायल हो तब…? वैदेही ने कमरे की खिड़की की चिटकनी चढ़ाई और फिर बिस्तर पर पसर गई.

उस की दृष्टि में कितना बेरंग मौसम था, घुटा हुआ. पता नहीं मौसम की उदासी उस के दिल पर छाईर् थी या दिल की उदासी मौसम पर. जैसे बादलों से नीर की नहीं, दर्द की बौछार हो रही हो. वैदेही ने शौल को अपने क्षीणकाय कंधों पर कस कर लपेट लिया.

शाम ढलने को थी. बाहर फैला कुहरा मन में दबे पांव उतर कर वहां भी धुंधलका कर रहा था. यही कुहरा कब डूबती शाम का घनेरा बन कमरे में फैल गया, पता ही नहीं चला. लेटेलेटे वैदेही की टांगें कांपने लगीं. पता नहीं यह उस के तन की कमजोरी थी या मन की. उठ कर चलने की हिम्मत भी नहीं हो रही थी उस की. शौल को खींच कर अपनी टांगों तक ले आई वह.

अचानक कमरे की बत्ती जली. नीरज थे. कुछ रोष जताते हुए बोले, ‘‘कमरे की बत्ती तो जला लेतीं.’’ फिर स्वयं ही अपना स्वर संभाल लिया, ‘‘मैं तुम्हारे लिए बंसी की दुकान से समोसे लाया था. गरमागरम हैं. चलो, उठो, चाय बना दो. मैं हाथमुंह धो आता हूं, फिर साथ खाएंगे.’’

एक वह जमाना था जब वैदेही और नीरज में इसी चटरमटर खाने को ले कर बहस छिड़ी रहती थी. वैदेही का चहेता जंकफूड नीरज की आंख की किरकिरी हुआ करता था. उन्हें तो बस स्वास्थ्यवर्धक भोजन का जनून था. लेकिन आज उन के कृत्य के पीछे का आशय समझने पर वह मन ही मन चिढ़ गई. वह समझ रही थी कि समोसे उस के खानेपीने के शौक को पूरा करने के लिए नहीं थे बल्कि यह एक मदद थी, नीरज की एक और कोशिश वैदेही को जिंदगी में लौटा लाने की. पर वह कैसे पहले की तरह हंसेबोले?

वैदेही तो जीना ही भूल गई थी जब डाक्टर ने बताया था कि उसे कैंसर है. कैंसर…पहले इस चिंता में उस का साथ निभाने को सभी थे. केवल वही नहीं, उस का पूरा परिवार झुलस रहा था इस पीड़ाग्नि में. वैदेही का मन शारीरिक पीड़ा के साथ मानसिक ग्लानि के कारण और भी झुलस उठता था कि सभी को दुखतकलीफ देने के लिए उस का शरीर जिम्मेदार था. बारीबारी कभी सास, कभी मां, कभी मौसी, सभी आई थीं उस की 2 वर्र्ष पुरानी गृहस्थी संभालने को. नीरज तो थे ही. लेकिन वही जानती थी कि सब से नजरें मिलाना कितना कठिन होता था उस के लिए. हर दृष्टि में  ‘मत जाओ छोड़ कर’ का भाव उग्र होता. तो क्या वह अपनी इच्छा से कर रही थी? सभी जरूरत से अधिक कोशिशें कर रहे थे. शायद कोई भी उसे खुश रखने का आखिरी मौका हाथ से खोना नहीं चाहता था.

अब तक उस की जिंदगी मलमल की चादर सी रही थी. हर कोई रश्क करता, और वह शान से इस मलमल की चादर को ओढ़े इठलाती फिरती. लेकिन पिछले 8 महीनों में इस मलमल की चादर में कैंसर का पैबंद लग गया था. इस की खूबसूरती बिगड़ चुकी थी. अब इसे दूसरे तो क्या, स्वयं वैदेही भी ओढ़ना नहीं चाहती थी. आजकल आईना उसे डराता था. हर बार उस की अपनी छवि उसे एक झटका देती.

‘‘धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा. देखो न, तुम्हारे बाल फिर से आने लगे हैं. और आजकल तो इस तरह के छोटे कटे बाल लेटेस्ट फैशन भी हैं. क्या कहते हैं इस हेयरस्टाइल को…हां, याद आया, क्रौप कट,’’ आईने से नजरें चुराती वैदेही को कनखियों से देख नीरज ने कहा.

क्यों समझ जाते हैं नीरज उस के दिल की हर बात, हर डर, हर शंका? क्यों करते हैं वे उस से इतना प्यार? आखिर 2 वर्ष ही तो बीते हैं इन्हें साथ में. वैदेही के मन में जो बातें ठंडे छींटे जैसी लगनी चाहिए थीं, वे भी शूल सरीखी चुभती थीं.

समोसे और चाय के बाद नीरज टीवी देखने लगे. वैदेही को भी अपने साथ बैठा लिया. डाक्टरों के पिछले परीक्षण ने यह सिद्ध कर दिया था कि अब वैदेही इस बीमारी के चंगुल से मुक्त है. सभी ने राहत की सांस ली थी और फिर अपनीअपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गए थे. रिश्तेदार अपनेअपने घर लौट गए थे. नीरज सारा दिन दफ्तर में व्यस्त रहते. लेकिन शाम को अब भी समय से घर लौट आते थे. डाक्टरी राय के अनुसार, नीरज हर मुमकिन प्रयास करते रहते वैदेही में सकारात्मक विचार फूंकने की.

परंतु कैंसर ने न केवल वैदेही के शरीर पर बल्कि उस के दिमाग पर भी असर कर दिया था. सभी समझाते कि अकेले उदासीन बैठे रहना सर्वथा अनुचित है. बाहर निकला करो, लोगों से मिलाजुला करो. लेकिन वह जब भी घर के दरवाजे तक पहुंचती, उस का अवचेतन मन उसे देहरी के भीतर धकेल देता. घर की चारदीवारी जैसे सिकुड़ गई थी. मन में अजीब सी छटपटाहट बढ़ने लगी थी.

दिल बहलाने को कुछ देर सड़क पर टहलने के इरादे से गई. मगर यह इतना आसान नहीं था. सड़क पर पहुंचते ही लगा जैसे सारा वातावरण इस स्थिति को घूरने को एकत्रित हो गया हो. आसमान में उस के अधूरे मन सा अधूरा चांद, आसपास के उदास पत्थर, फूलपत्ते, गहराती रात…सभी उस के अंदर की पीड़ा को और गहरा रहे थे. इस अकेली ठंडी सांध्य में वैदेही घर लौट कर बिस्तर पर निढाल हो लेट गई. दिल कसमसा उठा. नयनों के पोरों से बहते अश्रुओं ने अब कान के पास के बाल भी गीले कर दिए थे.

उस की सूरत से उस की मनोस्थिति को भांप कर नीरज बोले, ‘‘वैदू, आगे की जिंदगी की ओर देखो. अभी हमारी गृहस्थी नई है, उग रही है. आगे इस में नूतन पुष्प खिलेंगे. क्या तुम भविष्य के बारे में कभी भी सकारात्मक नहीं होगी?’’

पर वैदेही आंखें मूंदे पड़ी रही. एक बार फिर वह वही सब नहीं सुनना चाहती थी. उस को नहीं मानना कि उस के कारण सभी के सकारात्मक स्वप्न धूमिल हो रहे हैं. अन्य सभी की भांति वह यह मानने को तैयार नहीं थी कि अब वह पूरी तरह स्वस्थ है. कैंसर के बारे में उस ने जो कुछ भी पढ़ासुना था, उस से यही जाना था कि कैंसर एक ढीठ, जिद्दी बीमारी है. यदि उस के अंदर अब भी इस का कोई अंश पनप रहा हो तो? मन में यह बात आ ही जाती.

अगली सुबह वैदेही रसोई में गई तो पाया कि नीरज ने पहले ही चाय का पानी चढ़ा दिया था. प्रश्नसूचक नजरों के उत्तर में वे बोले, ‘‘आज शाम मेरे कालेज का जिगरी दोस्त व उस की पत्नी आएंगे. तुम दिन में आराम करो ताकि शाम को फ्रैश फील करो. और हां, कोई अच्छी सी साड़ी पहन लेना.’’

दिन फिर उसी खिन्नता में गुजरा. किंतु सूर्यास्त के समय वैदेही को नीरज का उत्साह देख मन ही मन हंसी आई. भागभाग कर घर साफसुथरा किया, रैस्तरां से मंगवाई खानेपीने की वस्तुओं को करीने से डाइनिंग टेबल पर सजाया.

वैदेही अपने कक्ष में जा साड़ी पहन कर जैसे ही बिंदी लगाने को आईने की ओर मुड़ी, सिर पर छोटेछोटे केश देख फिर हतोत्साहित हो गई. क्या फायदा अच्छी साड़ी, इत्र या सजने का जब शक्ल से ही वह… तभी दरवाजे पर बजी घंटी के कारण उसे कक्ष से बाहर आना पड़ा.

‘‘इन से मिलो, ये है मेरा लंगोटिया यार, सुमित, और ये हैं साक्षी भाभी,’’ कहते हुए नीरज ने वैदेही का परिचय मेहमानों से करवाया. हलकी मुसकान लिए वैदेही ने हाथ जोड़ दिए किंतु उस की अपेक्षा से परे साक्षी ने आगे बढ़ फौरन उसे गले से लगा लिया. ‘‘इन दोनों को अपना शादीशुदा गम हलका करने दो, हम बैठ कर इन की खूब चुगली करते हैं,’’ साक्षी हंस कर कहने लगी.

लग ही नहीं रहा था कि पहली बार मिल रहे हैं. इतनी घनिष्ठता से मिले दोनों मियांबीवी कि उन के घर में अचानक रौनक आ गई. धूमिल से वातावरण में मानो उल्लास की किरणें फूट पड़ीं. साक्षी पुरानी बिसरी सखी समान बातचीत में मगन हो गई थी. वैदेही भी आज खुद को अपने पुराने अवतार में पा कर खुश थी.

दोनों की गपबाजी चल रही थी कि नीरज लगभग भागते हुए उस के पास आए और बोले, ‘‘वैदेही, सुमित को पिछले वर्ष कैंसर हुआ था, अभी बताया इस ने.’’ इस अप्रत्याशित बात से वैदेही का मुंह खुला रह गया. बस, विस्फारित नेत्रों से कभी सुमित, तो कभी साक्षी को ताकने लगी.

‘‘अरे यार, वह बात तो कब की खत्म हो गई. अब मैं भलाचंगा हूं, तंदुरुस्त तेरे सामने खड़ा हूं.’’

‘‘हां भैया, अब ये बिलकुल ठीक हैं. और इस का परिणाम यहां है,’’ अपनी कोख की ओर इशारा करते हुए साक्षी के कपोल रक्ताभ हो उठे. नीरज और वैदेही ने अचरजभाव से एकदूसरे को देखा, फिर फौरन संभलते हुए अपने मित्रों को आने वाली खुशी हेतु बधाई दी.

‘‘दरअसल, कैंसर एक ऐसी बीमारी है जो आज आम सी बनती जा रही है. बस, डर है तो यही कि उस का इलाज थोड़ा कठिन है. परंतु समय रहते ज्ञात हो जाने पर इलाज भी भली प्रकार संभव है. अब मुझे ही देख लो. स्थिति का आभास होते ही पूरा इलाज करवाया और फिर जब डाक्टर ने क्लीनचिट दे दी तो एक बार फिर जिंदगी को भरपूर जीना आरंभ कर डाला,’’ सुमित के स्वर से कोई नहीं भांप सकता था कि वे एक जानलेवा बीमारी से लड़ कर आए हैं.

‘‘हमारा मानना तो यह है कि यह जीवन एक बार मिलता है. यदि इस में थोड़ी हलचल हो भी जाए तो कोशिश कर इसे फिर पटरी पर ले आना चाहिए. शरीर है तो हारीबीमारी लगी ही रहेगी, उस में हताश हो कर तो नहीं बैठा जा सकता न? जो समय मिले, उसे भरपूर जियो.’’

साक्षी ने अपनी बात सुमित की बात से जोड़ी. ‘‘अरे यार, वह कौन सा डायलौग था ‘आनंद’ मूवी का जो अपने कालेज में बोला करते थे…हां, जिंदगी बड़ी होनी चाहिए, लंबी नहीं, हा हा…’’ और सचमुच वे सब हंसने लगे.

नीरज हंसे, वैदेही हंसी. सारा वातावरण, जो अब तक वैदेही को केवल घायल किए रहता था, अचानक बेहद खुशनुमा हो गया था. वैदेही के चक्षु खुल गए थे, वह देख पा रही थी कि उस ने अपनी और अपनों की जिंदगी के साथ क्या कर रखा था अब तक.

सुमित और साक्षी के लौटने के बाद वैदेही ने अलमारी के कोने से अपनी लाल नाइटी निकाली. उसे भी आगे बढ़ना था अब नए सपने सजाने थे. अपनी मलमल की चादर को आखिर कब तक तह कर अलमारी में छिपाए रखेगी जबकि पैबंद तो कब का छूट कर गिर चुका था.

15 अगस्त स्पेशल: हाट बाजार- दो सरहदों पर जन्मी प्यार की कहानी

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Raksha Bandhan: कच्ची धूप- भाग 2- कैसे हुआ सुधा को गलती का एहसास

सौम्या के महीनेभर की होते ही सुधा उसे ले कर कोलकाता आ गई. इस के बाद केशव की शादी पर ही सुधा अपने मायके गई थी.

सुधा ने सौम्या को बहुत ही नाजों से पाला था. वह उसे न तो कहीं अकेले भेजती थी और न ही किसी से मेलजोल रखने देती थी. स्कूल जाने के लिए भी अलग से गाड़ी की व्यवस्था कर रखी थी सौम्या के लिए.

यों अकेले पलती सौम्या साथी के लिए तरसने लगी. वह सोने के पिंजरे में कैद चिडि़या की तरह थी जिस के लिए खुला आसमान केवल एक सपना ही था. वह उड़ना चाहती थी, खुली हवा में सांस लेना चाहती थी मगर सुधा ने उसे पंख खोलने ही नहीं दिए थे. उसे बेटी का साधारण लोगों से मेलजोल अपने स्टेटस के खिलाफ लगता था. हां, सौम्या के लिए खिलौनों और कपड़ों की कोई कमी नहीं रखी थी सुधा ने.

धीरेधीरे वक्त के पायदान चढ़ती सौम्या ने अपने 16वें साल में कदम रखा. इसी बीच केशव एक प्रतिष्ठित डाक्टर बन चुका था. वह नोखा छोड़ कर अब बीकानेर शिफ्ट हो गया था, वहीं लोकेश एक पुलिस अधिकारी बन कर क्राइम ब्रांच में अपनी सेवाएं दे रहा था. दोनों भाइयों की आर्थिक स्थिति सुधरने से अब सुधा के मन में उन के लिए थोड़ी सी जगह बनी थी, मगर इतनी भी नहीं कि वह हर वक्त मायके के ही गुण गाती रहे. जबजब सुधा को कोई जरूरत आन पड़ती थी, वह अपने भाइयों से मदद अवश्य लेती थी. मगर काम निकलने के बाद वह उन्हें मक्खी की तरह बाहर निकाल फेंकती थी. लोकेश और केशव उस के स्वभाव को जान चुके थे, इसलिए वे उस का बुरा भी नहीं मानते थे और जरूरत पड़ने पर बहन के साथ खड़े होते थे.

अपनी ममेरी बहन शालिनी की शादी में जाने के लिए सौम्या का उत्साह देखते ही बनता था. उसे याद ही नहीं कि वह पिछली बार ननिहाल साइड के भाईबहनों से कब मिली थी. उन के साथ बचपन में की गई किसी भी शरारत या चुहलबाजी की कोई धुंधली सी भी याद उस के जेहन में नहीं आ रही थी. बड़े होने पर भी मां कहां उसे किसी से भी कौन्टैक्ट रखने देती हैं. हां, सभी रिश्तेदारों ने व्हाट्सऐप पर ‘हमारा प्यारा परिवार’ नाम से एक फैमिली गु्रप बना रखा था, उसी पर वह सब को देखदेख कर अपडेट होती रहती थी. ‘पता नहीं वहां जा कर सब को पहचान पाऊंगी या नहीं, सब के साथ ऐडजस्ट कर पाऊंगी या नहीं, क्याक्या बातें करूंगी’ आदि सोचसोच कर ही सौम्या रोमांचित हुई जा रही थी.

सौम्या को यह देख कर आश्चर्य हो रहा था कि अपनी एकलौती भतीजी की शादी में जाने को ले कर उस की मां बिलकुल भी उत्साहित नहीं है. जहां सौम्या ने महीनेभर पहले से ही शादी में पहने जाने वाले कपड़ों, फुटवियर और मैचिंग ज्वैलरी की शौपिंग करनी शुरू कर दी थी, वहीं सुधा अभी तक उदासीन बैठी थी. उस ने मां से कहा भी, मगर सुधा ने यह कह कर उस के उत्साह पर पानी फेर दिया कि अभी तो बहुत दिन बाकी हैं, कर लेंगे तैयारी. शादी ही तो हो रही है इस में क्या अनोखी बात है. मगर यौवन की दहलीज पर खड़ी सौम्या के लिए शादी होना सचमुच ही अनोखी बात थी.

सौम्या बचपन से ही देखती आई है कि मां उस के लोकेश और केशव मामा से ज्यादा नजदीकियां नहीं रखतीं. मगर अब तो उन की एकलौती भतीजी की शादी थी. मां कैसे इतनी उदासीन हो सकती हैं?

खैर, शादी के दिन नजदीक आए तो सुधा ने शालिनी को शादी में देने के लिए सोने के कंगन खरीदे, साथ ही 4 महंगी साडि़यां भी. सौम्या खुश हो गई कि आखिर मां का अपनी भतीजी के लिए प्रेम जागा तो सही मगर जब उस ने सुधा को एक बड़े बैग में उस के पुराने कपड़े भरते देखा तो उस से रहा नहीं गया. उस ने पूछ ही लिया, ‘‘मां, मेरे पुराने कपड़े कहां ले कर जा रही हो?’’

‘‘बीकानेर ले जा रही हूं, तुम तो पहनती नहीं हो, वहां किसी के काम आ जाएंगे,’’ सुधा ने थोड़ी लापरवाही और थोड़े घमंड से कहा.

‘‘मगर मां किसी को बुरा लगा तो?’’ सौम्या ने पूछा.

‘‘अरे, जिसे भी दूंगी, वह खुश हो जाएगा. इतने महंगे कपड़े खरीदने की हैसियत नहीं है किसी की,’’ सुधा अपने रुतबे पर इठलाई.

‘‘और ये आप की ड्राईक्लीन करवाई हुई पुरानी साडि़यां? ये किसलिए?’’ सौम्या ने फिर पूछा.

‘‘अरे, मैं ने पहनी ही कितनी बार हैं? इतनी महंगी साडि़यां भाभी ने तो कभी देखी भी नहीं होंगी. बेचारी पहन कर खुश हो जाएगी,’’ सुधा एक बार फिर इठलाई. वह अपनेआप को बहुत ही महान और दरियादिल समझे जा रही थी, मगर सौम्या को यह सब बिलकुल भी अच्छा नहीं लग रहा था. वह पुराने कपड़ों को बीकानेर न ले जाने की जिद पर अड़ी रही. आखिरकार उस की जिद पर वह पुराने कपड़ों से भरा बैग सुधा को वहीं कोलकाता में ही छोड़ना पड़ा.

शालिनी की शादी में सौम्या ने अपने ममेरे भाईबहनों के साथ बहुत मस्ती की. उस ने पहली बार प्यार और स्नेह के माने जाने थे. उस ने जाना कि परिवार क्या होता है और फैमिली बौंडिंग किसे कहते हैं. दिल के एक कोने में प्यार की कसक लिए सौम्या लौट आई अपनी मां के साथ फिर से उसी सोने के पिंजरे में जहां उस के लिए सुविधाएं तो मौजूद हैं मगर उसे अपने पंख अपनी इच्छा से फड़फड़ाने की इजाजत नहीं थी.

सौम्या का दिल अब इन बंधनों को तोड़ने के लिए मचलने लगा. जितना सुधा उसे आम लोगों से दूर रखने की कोशिश करती, सौम्या उतनी ही उन की तरफ खिंचती चली जाती. उस के मन में सुधा और उस के लगाए बंधनों के प्रति बगावत जन्म लेने लगी.

सौम्या ने अपनी स्कूल की पढ़ाई खत्म कर के कालेज में ऐडमिशन ले लिया था. सुधा ने बेटी को कालेज आनेजाने के लिए नई कार खरीद दी. मगर जब तक सौम्या ठीक से गाड़ी चलाना नहीं सीख लेती, उस के लिए किशोर को ड्राइवर के रूप में रखा गया. किशोर लगभग 30 वर्षीय युवक था. वह शादीशुदा और एक बेटे का पिता था. मगर देखने में बहुत ही आकर्षक और बातचीत में बेहद स्मार्ट था. रोज साथ आतेजाते सौम्या का किशोरमन किशोर की तरफ झुकने लगा. वह उस की लच्छेदार बातों के भंवरजाल में उलझने लगी.

एक रोज बातोंबातों में सौम्या को पता चला कि 4 दिनों बाद किशोर का जन्मदिन है. सौम्या ने सुधा से कह कर उस के लिए नए कपड़ों की मांग की. 4 दिनों बाद जब किशोर सौम्या को कालेज ले जाने के लिए आया तो सुधा ने उसे जन्मदिन की बधाई देते हुए राघव के पुराने कपड़ों से भरा बैग थमा दिया. किशोर ने बिना कुछ कहे वह बैग सुधा के हाथ से ले लिया, मगर सौम्या को किशोर की यह बेइज्जती जरा भी रास नहीं आई. उस ने कालेज जाते समय रास्ते में ही किशोर से गाड़ी मार्केट की तरफ मोड़ने को कहा और एक ब्रैंडेड शोरूम से किशोर के लिए शर्ट खरीदी. शायद वह अपनी मां द्वारा किए गए उस के अपमान के एहसास को कम करना चाहती थी. किशोर ने उस की यह कमजोरी भांप ली और वक्तबेवक्त उस के सामने खुद को खुद्दार साबित करने की जुगत में रहने लगा.

Raksha Bandhan: कच्ची धूप- भाग 1-कैसे हुआ सुधा को गलती का एहसास

‘‘सुनिए, केशव का फोन आया था, शालिनी की शादी है अगले महीने. सब को आने को कह रहा था,’’ देररात फैक्टरी से लौटे राघव को खाना परोसते हुए सुधा ने औपचारिक सूचना दी.

‘‘ठीक है, तुम और सौम्या हो आना. मेरा जाना तो जरा मुश्किल होगा. कुछ रुपएपैसे की जरूरत हो तो पूछ लेना, आखिर छोटा भाई है तुम्हारा,’’ राघव ने डाइनिंग टेबल पर बैठते हुए कहा.

‘‘रुपएपैसे की जरूरत होगी, तभी इतने दिन पहले फोन किया है, वरना लड़का देखने से पहले तो राय नहीं ली,’’ सुधा ने मुंह बिचकाते हुए कहा.

सुधा का अपने मायके में भरापूरा परिवार था. उस के पापा और चाचा दोनों ही सरकारी सेवा में थे. बहुत अमीर तो वे लोग नहीं थे मगर हां, दालरोटी में कोई कमी नहीं थी. सुधा दोनों परिवारों में एकलौती बेटी थी, इसलिए पूरे परिवार का लाड़प्यार उसे दिल खोल कर मिलता था. चाचाचाची भी उसे सगी बेटी सा स्नेह देते थे. उस का छोटा भाई केशव और बड़ा चचेरा भाई लोकेश दोनों ही बहन पर जान छिड़कते थे.

सुधा देखने में बहुत ही सुंदर थी. साथ ही, डांस भी बहुत अच्छा करती थी. कालेज के फाइनल ईयर में ऐनुअल फंक्शन में उसे डांस करते हुए मुख्य अतिथि के रूप में पधारे बीकानेर के बहुत बड़े उद्योगपति और समाजसेवक रूपचंद ने देखा तो उसी क्षण अपने बेटे राघव के लिए उसे पसंद कर लिया.

रूपचंद का मारवाड़ी समाज में बहुत नाम था. वे यों तो मूलरूप से बीकानेर के रहने वाले थे मगर व्यापार के सिलसिले में कोलकाता जा कर बस गए थे. हालांकि, अपने शहर से उन का नाता आज भी टूटा नहीं था. वे साल में एक महीना यहां जरूर आया करते थे और अपने प्रवास के दौरान बीकानेर ही नहीं, बल्कि उस के आसपास के कसबों में भी होने वाली सामाजिक व सांस्कृतिक गतिविधियों में शामिल हुआ करते थे. इसी सिलसिले में वे नोखा के बागड़ी कालेज में मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित थे.

‘सुधा की मां, तुम्हारी बेटी के तो भाग ही खुल गए. खुद रूपचंद ने मांगा है इसे अपने बेटे के लिए,’ पवन ने औफिस से आ कर शर्ट खूंटी पर टांगते हुए कहा.

‘मेरी प्यारी बहनिया बनेगी दुलहनिया…’ कह कर केशव ने सुधा को चिढ़ाया तो सुधा ने लोकेश की तरफ मदद के लिए देखा.

‘सज के आएंगे दूल्हे राजा, भैया राजा, बजाएगा बाजा…’ लोकेश ने हंसते हुए गाने को पूरा किया तो सुधा शर्म के मारे चाची के पीछे जा कर छिप गई. मां ने बेटी को गले लगा लिया. और पूरे परिवार ने एकसाथ मिल कर शादी की तैयारियों पर चर्चा करते हुए रात का खाना खाया.

2 कमरों के छोटे से घर की बेटी सुधा जब आलीशान बंगले की बहू बन कर आई तो कोठी की चकाचौंध देख कर उस की आंखें चौंधिया गईं. उस के घर जितनी बड़ी तो बंगले की लौबी थी. हौल की तो शान ही निराली थी. महंगे सजावटी सामान घर के कोनेकोने की शोभा बढ़ा रहे थे. सुधा हर आइटम को छूछू कर देख रही थी. हर चीज उसे अजूबा लग रही थी. ससुराल के बंगले के सामने सुधा को अपना घर ‘दीन की बालिका’ सा नजर आ रहा था.

पवन ने बेटी की शादी अपने समधी की हैसियत को देखते हुए शहर के सब से महंगे मैरिज गार्डन में की थी, मगर पगफेरे के लिए तो सुधा को अपने घर पर ही जाना था. उसे बहुत ही शर्म आ रही थी राघव को उस में ले जाते हुए.

सुधा जैसी सुंदर लड़की को पत्नी के रूप में पा कर राघव तो निहाल ही हो गया. उस के साथ कश्मीर में हनीमून के 15 दिन कैसे बीत गए, उसे पता ही नहीं चला. रूपचंद ने जब कामधंधे के बारे में याद दिलाया तब कहीं जा कर उसे होश आया. वहीं अपने मायके के परिवार में हवाईयात्रा कर हनीमून पर जाने वाली सुधा पहली लड़की थी. यह बात आज भी उसे गर्व का एहसास करा जाती है.

खूबसूरत तो सुधा थी ही, पैसे की पावर ने उस का दिमाग सातवें आसमान पर पहुंचा दिया. रूपचंद की बहू बन कर वह अपनेआप को अतिविशिष्ट समझने लगी थी. सुधा अपनी ससुराल के ऐशोआराम और रुतबे की ऐसी आदी हुई कि अब उस का नोखा जाने का मन ही नहीं करता था. उसे मायके के लोग और वहां का घर बहुत ही हीन लगने लगे. उस ने धीरेधीरे उन से दूरी बनानी शुरू कर दी.

जब भी नोखा से किसी का फोन आता, तो उसे लगता था जैसे किसी तरह की मदद के लिए ही आया है और वह बहुत ही रुखाई से उन से बात करती थी. केशव भी सब समझने लगा था, वह बहुत जरूरी हो, तो ही बहन को फोन करता था. लोकेश तो उस के बदले रवैये से इतना आहत हुआ कि उस ने सुधा से बात करनी ही बंद कर दी.

शादी के बाद 1-2 बार तो मां के बुलाने पर सुधा राखी बांधने नोखा गई मगर उस का व्यवहार ऐसा होता था मानो वहां आ कर उस ने मायके वालों पर एहसान किया हो. बातबात में अपनी ससुराल की मायके से तुलना करना मां को भी कमतरी का एहसास करा जाता था. एक बार सुधा अपनी रौ में कह बैठी, ‘मेरा जितना पैसा यहां राखी बांधने आने पर खर्च होता है उतने में तो केशव के सालभर के कपड़ों और जूतों की व्यवस्था हो जाए. नाहक मेरा टाइम भी खराब होता है और तुम जो साड़ी और नकद मुझे देते हो, उसे तो ससुराल में दिखाते हुए भी शर्म आती है. अपनी तरफ से पैसे मिला कर कहना पड़ता है कि मां ने दिया है.’ यह सुन कर मां अवाक रह गईं. इस के बाद उन्होंने कभी सुधा को राखी पर बुलाने की जिद नहीं की.

लोकेश की शादी में पहली बार सुधा राघव के साथ नोखा आई थी. उस के चाचा अपने एकलौते दामाद की खातिरदारी में पलकपांवड़े बिछाए बैठे थे. वे जब उन्हें लेने स्टेशन पर पहुंचे तो उन्हें यह जान कर धक्का सा लगा कि सुधा ने नोखा के बजाय बीकानेर का टिकट बनवाया है. कारण था मायके के घर में एसी का न होना. उन्होंने कहा भी कि आज ही नया एसी लगवा देंगे मगर अब सुधा को तो वह घर ही छोटा लगने लगा था. अब घर तो रातोंरात बड़ा हो नहीं सकता था, इसलिए अपमानित से चाचा ने माफी मांगते हुए राघव से कहा, ‘दामाद जी, घर बेशक छोटा है हमारा, मगर दिल में बहुत जगह है. आप एक बार रुक कर तो देखते.’ राघव कुछ कहता इस से पहले ही ट्रेन स्टेशन से रवाना हो चुकी थी.

सुधा ठीक शादी वाले दिन सुबह अपनी लग्जरी कार से नोखा आई और किसी तरह बरात रवाना होने तक रुकी. जितनी देर वह वहां रुकी, सारा वक्त अपनी कीhttps://audiodelhipress.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audible/ch_a108_000001/1043_ch_a108_000006_kachhi_dhoop_gh.mp3मती साड़ी और महंगे गहनों का ही बखान करती रही. बारबार गरमी से होने वाली तकलीफ की तरफ इशारा करती और एसी न होने का ही रोना रोती रही. सुधा की मां को बेटी का यह व्यवहार बहुत अखर रहा था.

हद तो तब हो गई जब सौम्या पैदा होने वाली थी. सामाजिक रीतिरिवाजों के चलते सुधा की मां ने उसे पहले प्रसव के लिए मायके बुला भेजा. कोलकाता जैसे महानगर की आधुनिक सुविधाएं छोड़ कर नोखा जैसे छोटे कसबे में अपने बच्चे को जन्म देना नईनई करोड़पति बनी सुधा को बिलकुल भी गवारा नहीं था, मगर मां के बारबार आग्रह करने पर, सामाजिक रीतिरिवाज निभाने के लिए, उसे आखिरकार नोखा जाना ही पड़ा.

सुधा की डिलीवरी का अनुमानित समय जून के महीने का था. उस ने पापा से जिद कर के, आखिर एक कमरे में ही सही, एसी लगवा ही लिया. सौम्या के जन्म के बाद घरभर में खुशी की लहर दौड़ गई. हर कोई गोलमटोल सी सौम्या को गोदी में ले कर दुलारना चाहता था मगर सुधा ने सब की खुशियों पर पानी फेर दिया. यहां भी उस का अपनेआप को अतिविशिष्ट समझने का दर्प आड़े आ जाता. वह किसी को भी सौम्या को छूने नहीं देती थी, कहती थी, ‘गंदे हाथों से छूने पर बच्ची को इन्फैक्शन हो जाएगा.’

15 अगस्त स्पेशल: मजहब नहीं सिखाता…

दरअसल, मजहब कुछ नहीं सिखाता, अगर सिखाता होता तो हजारों   साल से चले आ रहे इस देश में धर्म के नाम पर इतने दंगेफसाद न होते, इतने जानलेवा हमले न होते. इतने वर्षों से सुनाए जा रहे ढेरों उपदेशों का कहीं कुछ तो असर होता.  अद्भुत बात यह है कि हमारा देश धर्मपरायण भी है और धर्मनिरपेक्ष भी, यहां एकदेववाद भी है और बहुदेववाद भी, ‘जाकी रही भावना जैसी.’ जो जिस के लिए लाभकारी है वह उस का सेवन करता है. राजनीति के लिए धर्म बीमारी भी है और दवा भी. धर्म को चुनाव के समय जाति के साथ मिलाया जाता है और दंगों के समय उसे संप्रदाय नाम दिया जाता है.

हमारा देश धर्मप्राण देश कहलाता है क्योंकि यहां धर्म की रक्षा के लिए प्राण लेने और देने का सिलसिला जमाने से चला आ रहा है. बलिप्रथा आज भी बंद नहीं हुई है. धर्म के लिए बलिदान लेने वालों की व देने वालों की आज भी कमी नहीं है. भाई के लिए राजगद्दी छोड़ने वाला धर्म जायदाद के लिए भाई पर मुकदमा करना, उस का कत्ल करना सिखा रहा है. जिस धर्म ने धन को मिट्टी समझना सिखाया वही धर्म मिट्टी को धन समझ कर हड़पना, लूटना, नुकसान पहुंचाना सिखा रहा है.

हमारा देश धर्मनिरपेक्ष भी कहलाता है, लेकिन यह कैसी निरपेक्षता है कि हम अपने धर्म वाले से अपेक्षा करते हैं कि वह दूसरे धर्म वाले की हत्या करे. दूसरे धर्म वाले का सम्मान करने के बजाय अपमान करने के नएनए तरीके ढूंढ़ते रहते हैं. सुबह से शाम तक ‘रामराम’ करने वाले ऐसेऐसे श्रेष्ठ लोग हैं, जिन के कुल की रीति है, ‘वचन जाए पर माल न जाए.’ ऐसे ही श्रेष्ठ भक्तों के लिए कहावत बनी है, ‘रामराम जपना, पराया माल अपना.’ ऐसे ही श्रेष्ठ लोग मंत्रियों को गुप्तदान देते हैं. उन के शयनकक्ष से किसी भी पार्टी का कोई नेता खाली ब्रीफकेस ले कर नहीं लौटता. अपनेअपने धर्माचार्यों की झोली भी वही भरते जाते हैं. झोली इसलिए कि वे धन को हाथ से छूते तक नहीं.

धर्म का सब से प्रमुख तत्त्व सत्य होता है और यही सब प्रचारित भी करते हैं. अत: धर्मप्रेमियों को इस तत्त्व से सब से ज्यादा प्रेम होना चाहिए, लेकिन उन्हें इसी से सब से ज्यादा चिढ़ होती है क्योंकि उन के व्यवसाय में यही सब से ज्यादा आड़े आता है. सच बोलेंगे तो मिलावटी और नकली माल कैसे बेचेंगे? धर्म कहता है, ईमानदारी रखो, लेकिन व्यापार तो ईमानदारी से चल ही नहीं सकता. हां, दो नंबर में ऐसे लोग पूरी ईमानदारी बरतते हैं.

धर्म कहता है, त्याग करो और व्यवसाय कहता है, कमाई ही कमाई होनी चाहिए. धर्म कहता है, उदार बनो, लेकिन धर्म के ठेकेदार कट्टरपंथी होते हैं. इस की 2 शाखाएं हैं, एक पर उदारपंथी व्यवसायी बैठते हैं, दूसरे पर कट्टरपंथी जो दंगों का धंधा करते हैं. दरअसल, धर्म के नियमों में धंधों के हिसाब से संशोधन होते रहते हैं, तभी वह शाश्वत रह सकता है.

धर्मप्रेमी कहते हैं, ईश्वर एक है, हम सब उसी परमपिता की संतान हैं. फिर भाईभाई की तरह प्रेम से रहते क्यों नहीं? कहते हैं, वह हमारे पास ही है. फिर उसे चारों ओर ढूंढ़ते क्यों फिरते हैं? वे कहते हैं, ईश्वर सबकुछ करता है अर्थात जो खूनखराबा हो रहा है, इस में उन का कोई हाथ नहीं है. ये सब ईश्वर के कारनामे हैं, वे तो पूर्ण निष्काम हैं.

वे कहते हैं, ईश्वर बहुत दयालु है अर्थात तुम कितने भी दुष्कर्म करो, कृपा तो वह कर ही देगा. फिर चिंता की क्या बात. अत: डट कर चूसो, काटो, मारो. ‘पापपुण्य’ का हिसाब करने वाला तो ऊपर बैठा है. वस्तुत: उन का परमात्मा या तो उन की तिजोरी में होता है या ब्रीफकेस में. वे तो हमें बहकाने के लिए उसे इधरउधर ढूंढ़ने का नाटक करते हैं.  कहते हैं, किसी जमाने में शुद्ध संत हुआ करते थे, केवल धार्मिक. फिर मिलावट होनी शुरू हुई और संत राजनीतिबाज भी होने लगे.

गुरु गद्दी को ले कर झगड़े पहले भी होते थे, तभी तो हर बाबा का अलग आश्रम और अलग अखाड़ा होता था. उन में धार्मिक कुश्तियां होती थीं. अब के संत अपनेअपने नेताओं को दंगल में उतारते हैं. चुनावी मंत्रतंत्र सिखाते हैं.  नकली संत तुलसीदास के जमाने में भी होते थे, तभी तो उन्होंने कहा था, ‘नारि मुई घर संपत्ति नासी, मूंड मुड़ाए भए संन्यासी.’ अब के संतों को शिष्याएं चाहिए, संपत्ति चाहिए, बड़ीबड़ी सुंदर जुल्फें चाहिए, मूंड़ने को अमीर चेले चाहिए.

तब संतन को ‘सीकरी’ से कोई काम नहीं था, अब सारा ध्यान सीकरी पर ही रहता है कि कब वहां से बुलावा आए. वे एक तंत्र से दूसरे तंत्र की उखाड़पछाड़ के लिए तपस्या में लीन रहते हैं. ब्रह्मचारी विदेश जा कर अपनी सचिव के साथ हनीमून मनाते हैं. योगी योग के माध्यम से भोग की शिक्षा देते हैं. ऐसे धर्मात्मा संतों की जयजयकार हो रही है. सब की दुकानदारी खूब चल रही है.

आजकल धर्म के निर्यात का धंधा भी जोरों से चल निकला है. धर्म के देसी माल की विदेशों में मांग बढ़ रही है. अत: धर्म का बड़े पैमाने पर निर्यात होता है. इस धंधे में अच्छी संभावनाएं छिपी हुई हैं. सब अपनीअपनी कंपनी के धर्म की गुणवत्ता का गुणगान करते हैं, जिन्हें प्रार्थनाएं कहा जाता है.

यहां विशेष योग्यता वाले विक्रेता ही सफल हो पाते हैं. विदेशियों की आत्मा शांत करने के खूब ऊंचे दाम मिलते हैं. इस धंधे में लगे लोगों का यह लोक ही नहीं ‘दूसरा लोक’ भी सुधर जाता है. धर्म के धंधे से पर्याप्त विदेशी मुद्रा अर्जित की जाती है, लेकिन फिर भी हमारा देश दरिद्र रहना पसंद करता है. शायद हमारे देश के गरीबों और अमीरों के देवता अलगअलग हैं. शायद दोनों में पटती नहीं है.

कहते हैं, हमारा देवता बड़ा दानी है, अत: हमारे मांगते रहने में ही उस की दानवीरता सिद्ध होती है. हम उस राम से सिंहासन मांगते हैं जिन्होंने वचनपालन के लिए राजत्याग किया था. जो हनुमानजी सीता को माता मानते थे उन्हीं से नारियां संतान मांगती हैं और वह भी पुत्र.

राम द्वारा ली गई हर परीक्षा में बजरंग- बली सफल हो गए थे. शायद यही सोच कर परीक्षार्थी मंगलवार को सवा रुपए का प्रसाद चढ़ा कर परीक्षा में नकल करने की शक्ति मांगते हैं. दुष्टदमन करने वाली दुर्गा से दूसरों की संपत्ति लूटने का वरदान मांगते समय दुष्ट लोग बिलकुल नहीं डरते. जो शिवजी भभूत रमाते थे और  शेर की खाल लपेटते थे, उन्हीं की तसवीर धर्मात्मा लोग अपनी कपड़े की दुकान में सजाते हैं.

निष्काम कर्म का उपदेश देने वाले कृष्ण से लोग ऊपरी कमाई वाली नौकरी मांगते हैं. शादी में शराब पी कर पहले ब्रेकडांस करते हैं, फिर हवन में बैठ कर ‘ओम भूर्भुव: स्व…’ का खुशबूदार मंत्रोच्चार करते हैं. अहिंसा और करुणा का उपदेश देने वाले धर्मप्रेमी अपने स्कूल की अध्यापिकाओं का शोषण करते हैं. चींटियों को चीनी खिलाने वाले मैनेजर मास्टरनियों को पूरे वेतन पर हस्ताक्षर करवा कर आंशिक वेतन देते हैं. धर्म का चमत्कार यही है कि धर्म फल रहा है और धर्मात्मा फूल रहा है.

जिस धर्म का सर्वप्रमुख व आधारभूत सिद्धांत सत्य रहा हो उस धर्म की सचाई कहो या लिखो तो धर्म का अपमान होता है. धर्मविरुद्ध आचरण से धर्म का अपमान नहीं होता.

मातृभूमि के प्रेम के गीत गाने वाले ऊंचे दामों पर मातृभूमि बेचते हैं तो उस का अपमान नहीं होता. ‘देवी स्वरूपा’ नारी को नौकरानी बना कर शोषण करने से देवी का अपमान नहीं होता.  एकपत्नीव्रत धर्मपालक पांचसितारा होटल में रात बिता कर लौटते हैं, तब धर्म का अपमान नहीं होता. चरबी मिला कर घी बेचने से धर्म का अपमान नहीं होता. शांति का संदेश बांटने वाला धर्म हथियार बांट कर दंगे करता है, तब धर्म का अपमान नहीं होता. ऐसे धर्म की जयजयकार.  ऐसे महान धर्माचार्यों के धर्म को ‘करहुं प्रनाम जोरि जुग पानी.’

एक डाली के तीन फूल

भाई साहब की चिट्ठी मेरे सामने मेज पर पड़ी थी. मैं उसे 3 बार पढ़ चुका था. वैसे जब औफिस संबंधी डाक के साथ भाई साहब की चिट्ठी भी मिली तो मैं चौंक गया, क्योंकि एक लंबे अरसे से हमारे  बीच एकदूसरे को पत्र लिखने का सिलसिला लगभग खत्म हो गया था. जब कभी भूलेभटके एकदूसरे का हाल पूछना होता तो या तो हम टेलीफोन पर बात कर लिया करते या फिर कंप्यूटर पर 2 पंक्तियों की इलेक्ट्रौनिक मेल भेज देते.

दूसरी तरफ  से तत्काल कंप्यूटर की स्क्रीन पर 2 पंक्तियों का जवाब हाजिर हो जाता, ‘‘रिसीव्ड योर मैसेज. थैंक्स. वी आर फाइन हियर. होप यू…’’ कंप्यूटर की स्क्रीन पर इस संक्षिप्त इलेक्ट्रौनिक चिट्ठी को पढ़ते हुए ऐसा लगता जैसे कि 2 पदाधिकारी अपनी राजकीय भाषा में एकदूसरे को पत्र लिख रहे हों. भाइयों के रिश्तों की गरमाहट तनिक भी महसूस नहीं होती.

हालांकि भाई साहब का यह पत्र भी एकदम संक्षिप्त व बिलकुल प्रासंगिक था, मगर पत्र के एकएक शब्द हृदय को छूने वाले थे. इस छोटे से कागज के टुकड़े पर कलम व स्याही से भाई साहब की उंगलियों ने जो चंद पंक्तियां लिखी थीं वे इतनी प्रभावशाली थीं कि तमाम टेलीफोन कौल व हजार इलेक्ट्रौनिक मेल इन का स्थान कभी भी नहीं ले सकती थीं. मेरे हाथ चिट्ठी की ओर बारबार बढ़ जाते और मैं हाथों में भाई साहब की चिट्ठी थाम कर पढ़ने लग जाता.

प्रिय श्याम,

कई साल बीत गए. शायद मां के गुजरने के बाद हम तीनों भाइयों ने कभी एकसाथ दीवाली नहीं मनाई. तुम्हें याद है जब तक मां जीवित थीं हम तीनों भाई देश के चाहे किसी भी कोने में हों, दीवाली पर इकट्ठे होते थे. क्यों न हम तीनों भाई अपनेअपने परिवारों सहित एक छत के नीचे इकट्ठा हो कर इस बार दीवाली को धूमधाम से मनाएं व अपने रिश्तों को मधुरता दें. आशा है तुम कोई असमर्थता व्यक्त नहीं करोगे और दीवाली से कम से कम एक दिन पूर्व देहरादून, मेरे निवास पर अवश्य पहुंच जाओगे. मैं गोपाल को भी पत्र लिख रहा हूं.

तुम्हारा भाई,

मनमोहन.

दरअसल, मां के गुजरने के बाद, यानी पिछले 25 सालों से हम तीनों भाइयों ने कभी दीवाली एकसाथ नहीं मनाई. जब तक मां जीवित थीं हम तीनों भाई हर साल दीवाली एकसाथ मनाते थे. मां हम तीनों को ही दीवाली पर गांव, अपने घर आने को बाध्य कर देती थीं. और हम चाहे किसी भी शहर में पढ़ाई या नौकरी कर रहे हों दीवाली के मौके पर अवश्य एकसाथ हो जाते थे.

हम तीनों मां के साथ लग कर गांव के अपने उस छोटे से घर को दीयों व मोमबत्तियों से सजाया करते. मां घर के भीतर मिट्टी के बने फर्श पर बैठी दीवाली की तैयारियां कर रही होतीं और हम तीनों भाई बाहर धूमधड़ाका कर रहे होते. मां मिठाई से भरी थाली ले कर बाहर चौक पर आतीं, जमीन पर घूमती चक्कर घिन्नियों व फूटते बम की चिनगारियों में अपने नंगे पैरों को बचाती हुई हमारे पास आतीं व मिठाई एकएक कर के हमारे मुंह में ठूंस दिया करतीं.

फिर वह चौक से रसोईघर में जाती सीढि़यों पर बैठ जाया करतीं और मंत्रमुग्ध हो कर हम तीनों भाइयों को मस्ती करते हुए निहारा करतीं. उस समय मां के चेहरे पर आत्मसंतुष्टि के जो भाव रहते थे, उन से ऐसा प्रतीत होता था जैसे कि दुनिया जहान की खुशियां उन के घर के आंगन में थिरक रही हैं.

हम केवल अपनी मां को ही जानते थे. पिता की हमें धुंधली सी ही याद थी. हमें मां ने ही बताया था कि पूरा गांव जब हैजे की चपेट में आया था तो हमारे पिता भी उस महामारी में चल बसे थे. छोटा यानी गोपाल उस समय डेढ़, मैं साढ़े 3 व भाई साहब 8 वर्ष के थे. मां के परिश्रमों, कुर्बानियों का कायल पूरा गांव रहता था. वस्तुत: हम तीनों भाइयों के शहरों में जा कर उच्च शिक्षा हासिल करने, उस के बाद अच्छे पदों पर आसीन होने में मां के जीवन के घोर संघर्ष व कई बलिदान निहित थे.

मां हम से कहा करतीं, तुम एक डाली के 3 फूल हो. तुम तीनों अलगअलग शहरों में नौकरी करते हो. एक छत के नीचे एकसाथ रहना तुम्हारे लिए संभव नहीं, लेकिन यह प्रण करो कि एकदूसरे के सुखदुख में तुम हमेशा साथ रहोगे और दीवाली हमेशा साथ मनाओगे.’

हम तीनों भाई एक स्वर में हां कर देते, लेकिन मां संतुष्ट न होतीं और फिर बोलतीं, ‘ऐसे नहीं, मेरे सिर पर हाथ रख कर प्रतिज्ञा करो.’

हम तीनों भाई आगे बढ़ कर मां के सिर पर हाथ रख कर प्रतिज्ञा करते, मां आत्मविभोर हो उठतीं. उन की आंखों से खुशी के आंसू छलक जाते.

मां के मरने के बाद गांव छूटा. दीवाली पर इकट्ठा होना छूटा. और फिर धीरेधीरे बहुतकुछ छूटने लगा. आपसी निकटता, रिश्तों की गरमी, त्योहारों का उत्साह सभीकुछ लुप्त हो गया.

कहा जाता है कि खून के रिश्ते इतने गहरे, इतने स्थायी होते हैं कि कभी मिटते नहीं हैं, मगर दूरी हर रिश्ते को मिटा देती है. रिश्ता चाहे दिल का हो, जज्बात का हो या खून का, अगर जीवंत रखना है तो सब से पहले आपस की दूरी को पाट कर एकदूसरे के नजदीक आना होगा.

हम तीनों भाई एकदूसरे से दूर होते गए. हम एक डाली के 3 फूल नहीं रह गए थे. हमारी अपनी टहनियां, अपने स्तंभ व अपनी अलग जड़ बन गई थीं. भाई साहब देहरादून में मकान बना कर बस गए थे. मैं मुंबई में फ्लैट खरीद कर व्यवस्थित हो गया था. गोपाल ने बेंगलुरु में अपना मकान बना लिया था. तीनों के ही अपनेअपने मकान, अपनेअपने व्यवसाय व अपनेअपने परिवार थे.

मैं विचारों में डूबा ही था कि मेरी बेटी कनक ने कमरे में प्रवेश किया. मु झे इस तरह विचारमग्न देख कर वह ठिठक गई. चिहुंक कर बोली, ‘‘आप इतने सीरियस क्यों बैठे हैं, पापा? कोई सनसनीखेज खबर?’’ उस की नजर मेज पर पड़ी चिट्ठी पर गई. चिट्ठी उठा कर वह पढ़ने लगी.

‘‘तुम्हारे ताऊजी की है,’’ मैं ने कहा.

‘‘ओह, मतलब आप के बिग ब्रदर की,’’ कहते हुए उस ने चिट्ठी को बिना पढ़े ही छोड़ दिया. चिट्ठी मेज पर गिरने के बजाय नीचे फर्श पर गिर कर फड़फड़ाने लगी.

भाई साहब के पत्र की यों तौहीन होते देख मैं आगबबूला हो गया. मैं ने लपक कर पत्र को फर्श से उठाया व अपनी शर्ट की जेब में रखा, और फिर जोर से कनक पर चिल्ला पड़ा, ‘‘तमीज से बात करो. वह तुम्हारे ताऊजी हैं. तुम्हारे पापा के बड़े भाई.’’

‘‘मैं ने उन्हें आप का बड़ा भाई ही कहा है. बिग ब्रदर, मतलब बड़ा भाई,’’ मेरी 18 वर्षीय बेटी मु झे ऐसे सम झाने लगी जैसे मैं ने अंगरेजी की वर्णमाला तक नहीं पड़ी हुई है.

‘‘क्या बात है? जब देखो आप बच्चों से उल झ पड़ते हो,’’ मेरी पत्नी मीना कमरे में घुसते हुए बोली.

‘‘ममा, देखो मैं ने पापा के बड़े भाई को बिग ब्रदर कह दिया तो पापा मु झे लैक्चर देने लगे कि तुम्हें कोई तमीज नहीं, तुम्हें उन्हें तावजी पुकारना चाहिए.’’

‘‘तावजी नहीं, ताऊजी,’’ मैं कनक पर फिर से चिल्लाया.

‘‘हांहां, जो कुछ भी कहते हों. तावजी या ताऊजी, लेकिन मतलब इस का यही है न कि आप के बिग ब्रदर.’’

‘‘पर तुम्हारे पापा के बिग ब्रदर… मतलब तुम्हारे ताऊजी का जिक्र कैसे आ गया?’’ मीना ने शब्दों को तुरंत बदलते हुए कनक से पूछा.

‘‘पता नहीं, ममा, उस चिट्ठी में ऐसा क्या लिखा है जिसे पढ़ने के बाद पापा के दिल में अपने बिग ब्रदर के लिए एकदम से इतने आदरभाव जाग गए, नहीं तो पापा पहले कभी उन का नाम तक नहीं लेते थे.’’

‘‘चिट्ठी…कहां है चिट्ठी?’’ मीना ने अचरज से पूछा.

मैं ने चिट्ठी चुपचाप जेब से निकाल कर मीना की ओर बढ़ा दी.

चिट्ठी पढ़ कर मीना एकदम से बोली, ‘‘आप के भाई साहब को अचानक अपने छोटे भाइयों पर इतना प्यार क्यों उमड़ने लगा? कहीं इस का कारण यह तो नहीं कि रिटायर होने की उम्र उन की करीब आ रही है तो रिश्तों की अहमियत उन्हें सम झ में आने लगी हो?’’

‘‘3 साल बाद भाई साहब रिटायर होंगे तो उस के 5 साल बाद मैं हो जाऊंगा. एक न एक दिन तो हर किसी को रिटायर होना है. हर किसी को बूढ़ा होना है. बस, अंतर इतना है कि किसी को थोड़ा आगे तो किसी को थोड़ा पीछे,’’ एक क्षण रुक कर मैं बोला, ‘‘मीना, कभी तो कुछ अच्छा सोच लिया करो. हर समय हर बात में किसी का स्वार्थ, फरेब मत खोजा करो.’’

मीना ने ऐलान कर दिया कि वह दीवाली मनाने देहरादून भाईर् साहब के घर नहीं जाएगी. न जाने के लिए वह कभी कुछ दलीलें देती तो कभी कुछ, ‘‘आप की अपनी कुछ इज्जत नहीं. आप के भाई ने पत्र में एक लाइन लिख कर आप को बुलाया और आप चलने के लिए तैयार हो गए एकदम से देहरादून एक्सप्रैस में, जैसे कि 24 साल के नौजवान हों. अगले साल 50 के हो जाएंगे आप.’’

‘‘मीना, पहली बात तो यह कि अगर एक भाई अपने दूसरे भाई को अपने आंगन में दीवाली के दीये जलाने के लिए बुलाए तो इस में आत्मसम्मान की बात कहां से आ जाती है? दूसरी बात यह कि यदि इतना अहंकार रख कर हम जीने लग जाएं तो जीना बहुत मुश्किल हो जाएगा.’’

‘‘मुझे दीवाली के दिन अपने घर को अंधेरे में रख कर आप के भाई साहब का घर रोशन नहीं करना. लोग कहते हैं कि दीवाली अपने ही में मनानी चाहिए,’’ मीना  झट से दूसरी तरफ की दलीलें देने लग जाती.

‘‘मीना, जिस तरीके से हम दीवाली मनाते हैं उसे दीवाली मनाना नहीं कहते. सब में हम अपने इन रीतिरिवाजों के मामले में इतने संकीर्ण होते जा रहे हैं कि दीवाली जैसे जगमगाते, हर्षोल्लास के त्योहार को भी एकदम बो िझल बना दिया है. न पहले की तरह घरों में पकवानों की तैयारियां होती हैं, न घर की साजसज्जा और न ही नातेरिश्तेदारों से कोई मेलमिलाप. दीवाली से एक दिन पहले तुम थके स्वर में कहती हो, ‘कल दीवाली है, जाओ, मिठाई ले आओ.’ मैं यंत्रवत हलवाई की दुकान से आधा किलो मिठाई ले आता हूं. दीवाली के रोज हम घर के बाहर बिजली के कुछ बल्ब लटका देते हैं. बच्चे हैं कि दीवाली के दिन भी टेलीविजन व इंटरनैट के आगे से हटना पसंद नहीं करते हैं.’’

थोड़ी देर रुक कर मैं ने मीना से कहा, ‘‘वैसे तो कभी हम भाइयों को एकसाथ रहने का मौका मिलता नहीं, त्योहार के बहाने ही सही, हम कुछ दिन एक साथ एक छत के नीचे तो रहेंगे.’’ मेरा स्वर एकदम से आग्रहपूर्ण हो गया, ‘‘मीना, इस बार भाई साहब के पास चलो दीवाली मनाने. देखना, सब इकट्ठे होंगे तो दीवाली का आनंद चौगुना हो जाएगा.’’

मीना भाई साहब के यहां दीवाली मनाने के लिए तैयार हो गई. मैं, मीना, कनक व कुशाग्र धनतेरस वाले दिन देहरादून भाईर् साहब के बंगले पर पहुंच गए. हम सुबह पहुंचे. शाम को गोपाल पहुंच गया अपने परिवार के साथ.

मुझे व गोपाल को अपनेअपने परिवारों सहित देख भाई साहब गद्गद हो गए. गर्वित होते हुए पत्नी से बोले, ‘‘देखो, मेरे दोनों भाई आ गए. तुम मुंह बनाते हुए कहती थीं न कि मैं इन्हें बेकार ही आमंत्रित कर रहा हूं, ये नहीं आएंगे.’’

‘‘तो क्या गलत कहती थी. इस से पहले क्या कभी आए हमारे पास कोई उत्सव, त्योहार मनाने,’’ भाभीजी तुनक कर बोलीं.

‘‘भाभीजी, आप ने इस से पहले कभी बुलाया ही नहीं,’’ गोपाल ने  झट से कहा. सब खिलखिला पड़े.

25 साल के बाद तीनों भाई अपने परिवार सहित एक छत के नीचे दीवाली मनाने इकट्ठे हुए थे. एक सुखद अनुभूति थी. सिर्फ हंसीठिठोली थी. वातावरण में कहकहों व ठहाकों की गूंज थी. भाभीजी, मीना व गोपाल की पत्नी के बीच बातों का वह लंबा सिलसिला शुरू हो गया था, जिस में विराम का कोई भी चिह्न नहीं था. बच्चों के उम्र के अनुरूप अपने अलग गुट बन गए थे. कुशाग्र अपनी पौकेट डायरी में सभी बच्चों से पूछपूछ कर उन के नाम, पते, टैलीफोन नंबर व उन की जन्मतिथि लिख रहा था.

सब से अधिक हैरत मु झे कनक को देख कर हो रही थी. जिस कनक को मु झे मुंबई में अपने पापा के बड़े भाई को इज्जत देने की सीख देनी पड़ रही थी, वह यहां भाई साहब को एक मिनट भी नहीं छोड़ रही थी. उन की पूरी सेवाटहल कर रही थी. कभी वह भाईर् साहब को चाय बना कर पिला रही थी तो कभी उन्हें फल काट कर खिला रही थी. कभी वह भाई साहब की बांह थाम कर खड़ी हो जाती तो कभी उन के कंधों से  झूल जाया करती. भाई साहब मु झ से बोले, ‘‘श्याम, कनक को तो तू मेरे पास ही छोड़ दे. लड़कियां बड़ी स्नेही होती हैं.’’

भाई साहब के इस कथन से मु झे पहली बार ध्यान आया कि भाई साहब की कोई लड़की नहीं है. केवल 2 लड़के ही हैं. मैं खामोश रहा, लेकिन भीतर ही भीतर मैं स्वयं से बोलने लगा, ‘यदि हमारे बच्चे अपने रिश्तों को नहीं पहचानते तो इस में उन से अधिक हम बड़ों का दोष है. कनक वास्तव में नहीं जानती थी कि पापा के बिग ब्रदर को ताऊजी कहा जाता है. जानती भी कैसे, इस से पहले सिर्फ 1-2 बार दूर से उस ने अपने ताऊजी को देखा भर ही था. ताऊजी के स्नेह का हाथ कभी उस के सिर पर नहीं पड़ा था. ये रिश्ते बताए नहीं जाते हैं, एहसास करवाए जाते हैं.’’

दीवाली की संध्या आ गई. भाभीजी, मीना व गोपाल की पत्नी ने विशेष पकवान व विविध व्यंजन बनाए. मैं ने, भाई साहब व गोपाल के घर को सजाने की जिम्मेदारी ली. हम ने छत की मुंडेरों, आंगन की दीवारों, कमरों की सीढि़यों व चौखटों को चिरागों से सजा दिया. बच्चे किस्मकिस्म के पटाखे फोड़ने लगे. फुल झड़ी, अनार, चक्कर घिन्नियों की चिनगारियां उधरउधर तेजी से बिखरने लगीं. बिखरती चिनगारियों से अपने नंगे पैरों को बचाते हुए भाभीजी मिठाई का थाल पकड़े मेरे पास आईं और एक पेड़ा मेरे मुंह में डाल दिया. इस दृश्य को देख भाई साहब व गोपाल मुसकरा पड़े. मीना व गोपाल की पत्नी ताली पीटने लगीं, बच्चे खुश हो कर तरहतरह की आवाजें निकालने लगे.

कुशाग्र मीना से कहने लगा, ‘‘मम्मी, मुंबई में हम अकेले दीवाली मनाते थे तो हमें इस का पता नहीं चलता था. यहां आ कर पता चला कि इस में तो बहुत मजा है.’’

‘‘मजा आ रहा है न दीवाली मनाने में. अगले साल सब हमारे घर मुंबई आएंगे दीवाली मनाने,’’ मीना ने चहकते हुए कहा.

‘‘और उस के अगले साल बेंगलुरु, हमारे यहां,’’ गोपाल की पत्नी तुरंत बोली.

‘‘हां, श्याम और गोपाल, अब से हम बारीबारी से हर एक के घर दीवाली साथ मनाएंगे. तुम्हें याद है, मां ने भी हमें यही प्रतिज्ञा करवाई थी,’’ भाई साहब हमारे करीब आ कर हम दोनों के कंधों पर हाथ रख कर बोले.

हम दोनों ने सहमति में अपनी गर्दन हिलाई. इतने में मेरी नजर छत की ओर जाती सीढि़यों पर बैठी भाभीजी पर पड़ी, जो मिठाइयों से भरा थाल हाथ में थामे मंत्रमुग्ध हम सभी को देख रही थीं. सहसा मु झे भाभीजी की आकृति में मां की छवि नजर आने लगी, जो हम से कह रही थी, ‘तुम एक डाली के 3 फूल हो.’

तीज स्पेशल: 12 साल छोटी पत्नी- भाग 3-सोच में फर्क

वह हंस पड़ी, “खबर मिल गई आप को?”

“हां, स्पेशल इनविटेशन है. मालती और आंटी तो स्वागत की तैयारियों में जुटी होंगी?”

“हां, भाभी को सब से पहले पार्लर जाना याद आया.”

“सच…?”

“हां भाभी, मुझे तो लगता है कि वे यहां भाभी से मिलने ही आते हैं,” कह कर नीरा जोर से हंसी, तो मैं ने झूठ ही डांटा, “खबरदार, अपनी भाभी का मजाक नहीं बनाते.”

“आप से ही कह सकती हूं, वे तो भाभी से फोन पर भी टच में रहते हैं, उन का कहीं शिविर होने वाला है, भाभी वहां जा कर रहने की सोच रही हैं, आजकल भाभी सचमुच बहुत एक्साइटेड घूम रही हैं.”

“नीरा, यह बहुत चिंता की बात है. कुछ तो करना चाहिए.”

“हमारे यहां कुछ नहीं हो सकता, भाभी. सब की आंखों पर पट्टी बंधी है, उन के आने के टाइम पर मैं तो अपने फ्रैंड के घर चली जाऊंगी, मैं ने सोच लिया है, मैं तो मेंटली इन ड्रामों से थक चुकी हूं. अच्छाभला नाम है, नीलेश. दुनिया को पत्थर की दुनिया कहते हैं, तो पत्थर वाले बाबा हो गए. आशीर्वाद देने के बहाने जिस तरह से छूते हैं न, घिन आने लगती है. पर अपने घर वालों का क्या करूं?”

“मेरे पास एक आइडिया है, साथ दोगी? फिलहाल तो मालती के सिर से इन का भूत उतारना बहुत जरूरी है, नहीं तो शिविर में जा कर बैठ जाएगी. और आंटी झींकती भी रहेंगी और कुछ कह भी न पाएंगी.”

“बोलो भाभी, क्या करना है?”

मैं ने और नीरा ने बहुत देर तक काफी बातें की, अच्छाखासा प्रोग्राम बनाया और फोन रख दिया.

सुधीर के घर जाने वाले दिन जब मैं बिना कोई तमाशा किए आराम से तैयार होने लगी, तो जयराज को बड़ी हैरानी हुई, बोल ही पड़े, “क्या हुआ? बड़ी शांति से जाने के लिए तैयार हो रही हो?”

यह सुनते ही मुझे हंसी आ गई, तो वे और चौंके, ध्यान से मुझे देखा, उन की आंखों में तारीफ के भाव देख मैं हंस पड़ी, “हां, हां, जानती हूं कि अच्छी लग रही हूं.”

“तुम तो ऐसे तैयार हो गई हो, जैसे किटी पार्टी में जा रही हो.”

“नीलेश ने बुलाया है, सजना तो पड़ेगा ही,” मुझे शरारत सूझी, तो वे बुरा मान गए, “कैसी बकवास करती हो?”

“32-35 साल में बाबा बन गया तो अरमान तो खत्म नहीं हो गए होंगे न? वरना मुझे विशेष रूप से बुलाने का क्या मतलब था? पुरुष भक्त काफी नहीं हैं?”

“जिस ने घरसंसार न बसाया हो, उस के लिए ऐसी बातें करनी चाहिए? कितना त्यागपूर्ण जीवन जीते हैं. सबकुछ तो त्याग रखा है. तुम जैसी महिलाओं के कारण धर्म खतरे में है,” जयराज ने जब यह ताना कसा, मुझे बहुत तेज गुस्सा आया. मैं ने अपने मन में और पक्का ठान लिया कि मिस्टर नीलेश का तो भांडा फोड़ कर के रहूंगी. मैं चुप रही. मालती के घर पहुंचे, ऐसे दृश्य तो अब मेरे लिए आम रह ही नहीं गए हैं, पूरी तरह बाबाओं के प्रति अंधश्रद्धा में डूबे पति के कारण मैं ये अनुभव काफी झेल चुकी हूं. मालती जिस तरह से तैयार थी और जिस तरह से उस की नजर इस फर्जी बाबा को निहार रही थी, मुझे समझने के लिए कुछ शेष न रहा था.

किचन में मेरी और नीरा की कुछ जरूरी बातें हुईं. मैं नीलेश को प्रणाम करने उस के पास गई, उस पर अपना जाल फेंका, उसे तो फंसना ही था, नीरा दूर खड़ी मेरा और नीलेश का वीडियो बना रही थी, जो हम बाद में मालती को दिखाने वाले थे. पुरुष बस 3-4 ही थे, जो एक कोने में बैठे थे.

सजीसंवरी महिलाओं पर नीलेश की नजरें यहां से वहां घूम रही थीं, आशीर्वाद देने के बहाने उस ने मुझे कई बार छुआ, मन हुआ कि एक जोर का थप्पड़ मार कर सारी मस्ती भुला दूं, पर इस से क्या होता. लोग मुझे बुराभला कहते और फिर यह मजमा कहीं और लगता.

अभी मेरा एक ही उद्देश्य था कि मालती के सिर से नीलेश का भूत उतरे. वह मेरी अच्छी दोस्त थी, पर इस समय इस कपटी के हाथों कोई नुकसान न उठा ले, बस यही चिंता थी मुझे. वैसे वीडियो बन गए थे, जैसे मुझे चाहिए थे. जब सब हो गया, नीलेश और उस के साथी चले गए, हमें खाने के लिए रोक लिया गया था. सब से फ्री हो कर मैं, नीरा और मालती थोड़ी देर साथ आ कर बैठे, फिर नीरा ‘चाय बना कर लाती हूं,’ कह कर बाहर चली गई. मैं ने बात छेड़ी, “कहो, कैसा रहा बाबा का दर्शन?”

वह यों शरमा गई, तो मेरा दिमाग घूम गया, “क्यों भाई, तुम्हारा चेहरा क्यों शर्म से लाल हो रहा है?”

“मुझे नीलेश के प्रवचन अच्छे लगते हैं, मैं कुछ दिन उन के शिविर में जा कर रहने वाली हूं.”

“बच्चों की पढ़ाई का क्या होगा? तुम्हारा घर कौन देखेगा?”

“सब ईश्वर की मरजी से ही तो होता है.”

“ईश्वर क्या तुम्हारे बच्चों का होमवर्क करवाएंगे?”

“जयराज भाई जैसी भक्ति क्यों नहीं रखती तुम?” उस ने चिढ़ कर कहा. मैं ने तो आज ठान ही लिया था, ”इसलिए, क्योंकि ये बाबा उन की कमर नहीं सहलाते, बहाने से बारबार उन्हें नहीं छूते. हम महिलाओं को जो इन महापुरुषों के स्पर्श से घिन आती है, उस का जयराज जैसों को कहां अंदाजा होता है? क्यों इन पर मोहित हुई चली जा रही हो? ये वीडियो देखोगी? आज का ही है. ये देखो, कितनी बार मेरे करीब आने की कोशिश की है आज इस लंपट ने. देखो,” कहते हुए मैं ने उसे वीडियो दिखाए, जहां वह नीलेश मुझ पर लट्टू होहो कर पास आए जा रहा था.

यह वीडियो देख मालती का मुंह लटक गया. मैं ने कहा, “दोस्त हो मेरी. तुम्हें मूर्खता करते हुए नहीं देख सकती. और जयराज पति हैं, इन सब बातों पर रोज तो उन से नहीं लड़ सकती न. फिर भी कोशिश तो कर ही रही हूं, आज जा कर ये वीडियो उन्हें भी दिखाऊंगी. तुम जैसे भक्तों को सुधारने में जितनी मेहनत करनी पड़े करूंगी.”

इतने में नीरा चाय ले कर आ गई. मैं ने उसे इशारे से बता दिया कि काम हो गया है. थोड़ी देर हलकीफुलकी बातें कर के हम वहां से चलने के लिए निकले.

जयराज ने विदा लेते हुए मालती से कहा, “भाभी, अच्छा आयोजन था. ऐसे ही फिर किसी प्रोग्राम में जल्दी मिलते हैं.”

मालती ने बेदिली से कहा, “नहीं, भाईसाहब. किसी और दिन ऐसे ही मिल लेंगे, मिलने के लिए ऐसे ही आयोजन रह गए हैं क्या?”

मालती के इस जवाब पर जयराज ने मुझे घूर कर देखा. मैं जोर से हंस पड़ी, कहा, “और क्या, आ जाओ हमारे घर वीकेंड पर. साथ डिनर करते हैं. सेलिब्रेट करते हैं,” सब के मुंह से एकसाथ निकला, “क्या सेलिब्रेट करना है?”

नीरा और मैं बस खुल कर हंस दिए, कहा कुछ नहीं. मालती भी समझ गई थी और फिर वह भी हंस पड़ी.

हाट बाजार- भाग 4: दो सरहदों पर जन्मी प्यार की कहानी

जमाल ने रुखसार की पूरी बात नहीं सुनी. वह अंधेरे की आड़ में गायब हो गया. शाहिद लौटा तो रुखसार ने उसे सारी बात विस्तार से बता दी.

‘‘मैं जमाल का नापाक इरादा पूरा नहीं होने दूंगा. अपने सुखचैन के लिए मैं अपने मुल्क से गद्दारी नहीं करूंगा. मैं कप्तान मंजीत को सब कुछ सचसच बता दूंगा. भले ही इस का अंजाम कुछ भी क्यों न हो,’’ शाहिद ने मानो पक्का फैसला कर लिया और जीरो लाइन के करीब पोस्ट की तरफ चल पड़ा.

‘‘साहब तो कहीं फौरवर्ड एरिया में गए हैं,’’ संतरी ने बताया.

‘‘अच्छा कप्तान साहब आएं तो कहना मैं आया था. कोई जरूरी काम है. मैं सुबह फिर आऊंगा.’’

पौ फटते ही शाहिद फिर मंजीत से मिलने के लिए निकला, तो सामने से आती बीएसएफ और बंगलादेशी गार्ड्स की संयुक्त टुकड़ी को अपनी ओर आते हुए देख कर ठिठक गया. अनिष्ट की आशंका को इनसान की परेशानी पर पसीने के रूप में आने से ठंडी और बर्फीली हवा भी नहीं रोक सकती. शाहिद चाह कर भी पसीना पोंछ नहीं पाया.

‘‘हमें तुम्हारे स्टोर की तलाशी लेनी है. इन्हें शक है कि इस जगह का इस्तेमाल आईएसआई के एजेंट अपने उन हथियारों को रखने के लिए करते हैं, जो भारत में गड़बड़ी के इरादे से भेजे जाते हैं,’’ मंजीत ने बंगलादेशी कप्तान की ओर इशारा करते हुए कहा.

शाहिद को काटो तो खून नहीं, ‘‘यह एक लंबी कहानी है कप्तान साहब. मैं कल रात को सब सच बयां करने के लिए आप की पोस्ट पर गया था. मगर आप वहां नहीं थे. यह सारा सामान रुखसार के भाई जमाल का है.’’

‘‘रुखसार कौन, वही बंगलादेशी लड़की न, जिसे आप ने डूबने से बचाया था? उस का आप से क्या रिश्ता है?’’ मंजीत ने सवाल दागा.

‘‘मैं बताती हूं,’’ रुखसार ने बाहर निकल कर आत्मविश्वास के साथ कहना शुरू किया, ‘‘यह अमन है मेरा बच्चा. यह यहीं इसी बियाबान जंगल में पैदा हुआ है. मैं शाहिद की ब्याहता हूं, हमारा बाकायदा निकाह हुआ है.’’

कप्तान मंजीत और बंगलादेशी गार्ड दोनों हतप्रभ हो कर एकदूसरे का मुंह देखने लगे.

‘‘क्या तुम दोनों नहीं जानते कि तुम मुख्तलिफ मुल्कों के बाशिंदे हो और जो तुम ने किया वह गैरकानूनी है,’’ मंजीत बोले.

‘‘शादी के अलावा हम ने कोई भी काम गैरकानूनी नहीं किया है,’’ शाहिद ने आहिस्ता से कहा, ‘‘हम ने सिर्फ प्यार किया है. इस के अलावा कोई गुनाह नहीं किया है. न हम ने कोई कानून तोड़ा है, न कोई गद्दारी की है.’’

‘‘इस का फैसला कानून करेगा,’’ मंजीत ने कहा फिर शाहिद को अपनी जीप में बैठा लिया. बंगलादेशी गार्ड ने बच्चा रुखसार की गोद से छीन लिया और उस को जीप में धकेल दिया. जीप जब चलने को हुई तो रुखसार चीख उठी, ‘‘मेरा बच्चा…’’

रुखसार की चीख का बंगला गार्ड पर कोई असर नहीं हुआ. वह बोला, ‘‘तुम्हारा बच्चा न इंडियन है न बंगलादेशी, इसलिए वह कहीं और रहेगा. और तुम बंगलादेश की जेल में सड़ोगी और तुम्हारा खाविंद हिंदुस्तानी जेल में हवा खाएगा.’’

‘‘यह अन्याय है, एक मासूम पर जुल्म है. हमारे जुर्म की सजा इसे क्यों दी जा रही है? यह कहां रहेगा किस के पास रहेगा? अगर बच्चा दोनों मुल्कों के बीच की धरती में पैदा हुआ है तो क्या वह इनसान नहीं है?’’ रुखसार चीखती जा रही थी और जीप उसी रफ्तार से बढ़ती जा रही थी.

कप्तान मंजीत ने शाहिद के कंधे पर हाथ रखा और कहा, ‘‘तुम बेफिक्र रहो. मैं तुरंत रैडक्रौस को वायरलैस भिजवा कर उन की नर्स को बुलवाता हूं और बाकी इंतजाम करवाता हूं.’’

शाहिद को भारतीय जेल में डाल दिया गया और रुखसार बंगलादेश की जेल की सलाखों के पीछे पहुंचा दी गई. ‘नो मैन लैंड’ में जन्मा मासूम अमन रैडक्रौस के हवाले कर दिया गया और मीडिया के कैमरों की मेहरबानी से दोनों ओर की सीमा पर अमन को दूर से देखने वालों का तांता लग गया. वह समाचार, नेताओं और एनजीओ के सदस्यों के लिए चाय के प्याले पर चलने वाली बहस का एक मुद्दा भी बन गया. टीआरपी बढ़ाने के लए इस विषय पर टीवी चैनलों में होड़ सी लग गई और अमन को इंसाफ दिलाने की मुहिम हर शहर, हर गांव तक पहुंच गई.

यह बात कि अमन नाम का एक बच्चा दोनों सरहदों के बीच जन्म लेने के जुर्म की सजा पा रहा है और दोनों देशों के बीच अपनी पहचान ढूंढ़ रहा है, दोनों देशों की सरकारों के कानों तक भी पहुंच चुकी थी. नन्हा अमन रैडक्रौस की नर्सों से इठलाते हुए कभी भारत की सीमा की ओर मुंह कर लेता, तो कभी बंगलादेश की सरहद की तरफ इशारा कर देता मानो अपने वजूद की तलाश कर रहा हो या याचना कर रहा हो कि मेरा कुसूर क्या है?

जमाल में शायद कुछ इंसानियत जिंदा रह गई थी. उस ने ऐसा बयान दिया कि रुखसार पर कोई आंच नहीं आई. उधर कप्तान मंजीत और गांव वालों ने शाहिद को बचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. सजा के तौर पर शाहिद का ठेका रद्द कर दिया गया और हाटबाजार का काम रोक दिया गया.

धीरेधीरे बेबस शाहिद, रुखसार और अमन का मामला अंतर्राष्ट्रीय बहस का विषय बन गया और कोलकाता एवं ढाका दोनों के न्यायालयों में याचिकाएं दायर हो गईं. दोनों ही देशों के मानवाधिकार आयोग भी सक्रिय हो गए. दोनों ही न्यायालयों ने सख्त रवैया अपनाते हुए लगभग एकजैसा फैसला सुनाया कि अमन के बालिग होने तक उसे रैडक्रौस के संरक्षण में रखा जाए. उस के बाद ही मामला फिर सुना जाए. शाहिद और रुखसार टूट गए. लगा वक्त ठहर गया है और इस गहरी भयानक काली रात का कोई अंत नहीं है. लेकिन तभी आशा की एक किरण से ऐसा प्रकाश फूटा जिस ने तीनों की जिंदगी को पूर्णतया रोशन कर दिया. हताशा और बेबसी की लहरों के बीच कुदरत ने अपना करतब दिखाया और उफनती लहरों के शांत होने की उम्मीद जाग उठी.

भारत और बंगलादेश की सीमा पर कुछ गांवों की अदलाबदली का मामला दसियों सालों से निलंबित था. सरकारें बदलती गईं मगर इस प्रक्रिया की कोई शुरुआत नहीं हो पाई. नियति ने मानो इस मामले को शाहिद, रुखसार और अमन के लिए ही बचा कर रखा हुआ था. दोनों सरकारों ने नई अंतर्राष्ट्रीय सीमा रेखाएं तय कीं और अदलाबदली किए जाने वाले इलाकों को चिहिन्त किया. इसी समझौते के अंतर्गत जिंजराम नदी के मुहाने के कई बंगलादेशी गांव भारत में शामिल हो गए और वहां के नागरिकों को यह अख्तियार और विकल्प दिया गया कि वे भारत अथवा बंगलादेश की नागरिकता का स्वेच्छा से चुनाव करें.

वह दिन किसी मेले से कम नहीं था. रैडक्रौस ने भारतीय और बंगलादेशी अधिकारियों की उपस्थिति में अमन को रुखसार की गोद में डाल दिया. जिस की आंखों से आंसू अविरल और अनवरत बहते जा रहे थे. रुखसार और शाहिद के अलावा न सिर्फ मानसी मां, बल्कि पूरे गांव वाले भी अपने आंसू छिपा नहीं पा रहे थे और सब के हाथ स्वत: ही आशीर्वाद स्वरूप उठ गए थे. दूर कहीं से नगाड़ों के बजने की आवाज पूरे वातावरण में गूंज रही थी. देशों की राजनीति से बिछड़ा प्यार फिर मिल रहा था.

तीज स्पेशल: 12 साल छोटी पत्नी- भाग 2-सोच में फर्क

सुनील की पार्टी के लिए मैं ने खास तैयारी की, फिगर मेरा मस्त है ही. खूब ध्यान रखती हूं अपना. मैं ने उस दिन बहुत स्टाइलिश तरीके से साड़ी पहनी. स्लीवलेस ब्लाउज. सुंदर सी हील. शोल्डर कट बालों को बढ़िया कर्ल किया. शानदार मेकअप. मुझे ऊपर से नीचे तक देखते हुए जयराज ने अपनी बांहों में भर लिया, “ये तुम किस के लिए इतना तैयार हो गई, डार्लिंग?’’

“तैयार तो मूवी के लिए होना था, पर आप भजन, कीर्तन में ले जा रहे हो तो कम से कम मैं तैयार तो अपनी मरजी का हो ही सकती हूं.’’

सुनील की पत्नी रीना अच्छाखासा फैली हुई महिला हैं, ड्रेसिंग सेंस जीरो है. मुझे अकसर जलन के भाव से देखती हैं, मैं ठहरी औरत. दूसरी औरत के मन के भाव पढ़ने में एक्सपर्ट. पुरुष बेचारे ये सब नहीं जानते. ये गुण तो हमें ही मिला है.

सुनील स्मार्ट है, और पार्टी में तो काफी स्टाइलिश लग रहा था. मेरी ही उम्र का होगा. जयराज को सर कहता है, मेरा नाम लेता है. रीना मुझ से 2 साल छोटी होगी. भजन चल रहे थे, तो मैं अनमनी सी उठ कर स्विमिंग पूल के पास आ कर टहलने लगी. सब को अंदाजा है कि मैं भजन, कीर्तन के दौरान बहुत देर तक नहीं बैठती, बाहर टहलती रहती हूं, आज तो मजा तब आया, जब सुनील भी उठ कर मेरे पीछे आ गया. यह देख मैं चौंकी, ”अरे, आप की तो पार्टी है, आप क्यों उठ कर आ गए?’’

मुझे जयराज पर कितना भी गुस्सा आता हो, पर मैं उन्हें प्यार भी करती हूं, परपुरुष में इतनी रुचि नहीं लेती कि बात बढ़े. हां, अभी शरारत सूझी थी तो मुसकराते हुए बोल पड़ी, “आज आप बहुत अच्छे और खुश लग रहे हैं.’’

सुनील के अंदर जो फ्लर्ट पुरुष है, वह पत्नी की अनुपस्थिति में जाग उठा, बोला, “आप तो हमेशा ही स्मार्ट लगती हैं, पर आज तो गजब ढा रही हैं.’’

मैं बस ‘थैंकयू’ कहते हुए मुसकरा दी.

“चलिए, बैठते हैं,” कहते हुए मैं ओपन प्लेस में रखी एक चेयर पर बैठ गई कि तभी जयराज भी आ गए और सुनील से कहने लगे, “भाई, तुम यहां क्या कर रहे हो? कीर्तन किस के लिए रखवाया है?’’

“मैं बस यों ही आ गया था. सर, आप बैठिए. अब बस भोग का टाइम हो ही रहा है, जरा देखता हूं,” कह कर सुनील चला गया, तो जयराज ने मुझ से पूछा, “क्या कह रहा था?’’

“तारीफ कर रहा था. मैं खुश हो गई. तुम तो कंजूस हो तारीफ करने में. सुनील हमेशा मेरी तारीफ करता है.’’

“इस से थोड़ा दूर रहा करो. बेकार आदमी है.’’

जयराज यहां अब आम पति बन गए. मैं ने छेड़ा, “अरे, इस में क्या बुरा है? अच्छी बातों की तो तारीफ होनी ही चाहिए.’’

“बस, मैं ने कह दिया न कि इस से दूर रहा करो.’’

“तो मुझे यहां लाते ही क्यों हो?’’

“ठीक है, अब मत आया करना.’’

शायद रीना ने भी मुझे सुनील से बातें करते देख लिया था. मैं आज लग भी तो रही थी एकदम सैक्सी बौम्ब. रमेश, अनिल और विजय भी बहाने से मुझ से बातें करने आ रहे थे.

जयराज के माथे पर त्योरियां ही रहीं, जिन्हें देख कर मुझे आज खास मजा आया.

इस के बाद एक पार्टी और हुई, जहां मैं इस तरह तैयार हो कर गई कि पुरुष तो पुरुष, महिलाएं भी मुझे देखती रह गईं.

घर आ कर जयराज का मुंह उखड़ा ही रहा, चिढ़चिढ़ शुरू हो गई, “अपनी पत्नी सामने है तो भी दूसरे की पत्नी को घूरते रहेंगे. मुझे देखो, किसी की पत्नी की तरफ आंख भी नहीं उठाता. अब तुम क्लब कम ही जाया करो, नहीं तो मेरा सब से झगड़ा ही हो जाएगा. अपनी फ्रैंड्स के साथ ही प्रोग्राम बना कर एंजौय किया करो.’’

मैं ने भोला चेहरा बनाए हामी भर दी और उन के गले में बांहें डाल दीं. मैं ने चैन की सांस ली, जान बची लाखों पाए… अब मैं जीभर कर एंजौय कर पाऊंगी, अपनी उम्र की सहेलियों के साथ.

जयराज अपने क्लब में खुश, मैं अपनी फ्रैंड्स के साथ खुश, जिन्हें भजनकीर्तन नहीं, मूवीज, खानापीना अच्छा लगता है. उम्र के अंतर के चलते हम दोनों के स्वभाव में फर्क है, उसे रोरो कर क्या निभाना, कुछ तो करना पड़ता है न कि किसी को कोई तकलीफ भी न हो और दोनों खुश भी रह लें.

और हां, अपनी इस हरकत से मैं यह भी समझ पाई कि हर समस्या का हल निकाला जा सकता है.

जयराज के क्लब के भजनकीर्तन से पीछा छूटने पर मैं अपनेआप को शाबाशी देते नहीं थक रही थी.

और फिर एक दिन औफिस से ही जयराज ने फोन किया, ”अमोली, संडे को हमारे पत्थर वाले बाबा सुधीर के घर मिलने आ रहे हैं. उन्होंने मुझे भी फोन कर के बताया, तो मैं ने उन के दर्शन का समय मांग लिया, वाशी चलेंगे, वे वहीं ठहरे हैं.
मैं तुम्हें कहता न, पर उन्होंने विशेष रूप से तुम्हें साथ लाने के लिए कहा है.’’

“ओह्ह नो. फिर…? यार, एक बात बताओ, ये पत्थर वाले बाबा का क्या नाम हुआ?”

“कई बार बता चुका हूं, अब नहीं बताऊंगा, बहुत बिजी हूं.”

जयराज ने फोन रख दिया, पत्थर वाले बाबा. एक नंबर का धूर्त. आंखें ऐसी जैसे आंखों से ही खा जाएगा, ऊपर से नीचे तक शरीर को तौलती आंखें. ये इन पुरुषों को दिखता नहीं क्या कि इन की पत्नियों को, बेटियों को कैसे घूरा जाता है, घर की बड़ीबूढ़ी औरतें इन की भक्त कैसे हो सकती हैं. हम अपनी लाइफ की समस्याओं को खुद क्यों नहीं निबटा सकते, जो इन जैसों के सामने झुके चले जाते हैं. ये सही तरह से इनसान ही नहीं बन सके, इन्हें क्यों ईश्वर का रूप समझ लिया जाता है. किस बात का डर है आम इनसान को? ये बाबा लोग हमारे दुख दूर कर देंगे? मुझे सुधीर की बहन नीरा की बात याद आई, जो उस ने पिछली बार मिलने पर कही थी, “भाभी, सुधीर भैया को समझाइए न. इन बाबा को घर न बुलाया करें. ये जरा भी अच्छे नहीं हैं. मालती भाभी और मां भी इन के दर्शन करने के लिए बेचैन रहती हैं. बस आप ही मेरी तरह इन्हें इग्नोर करती हैं. भाभी, कुछ कर सकती हैं?” नीरा और मेरी बोंडिंग बहुत अच्छी है, सुधीर की फैमिली जब भी कहीं गई है, नीरा को पढ़ाई के लिए मेरे पास छोड़ गई है. मैं ने नीरा को फोन किया, “कपटी फिर आ रहा है, नीरा?”

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