बंटवारा- भाग 3: क्या थी फौजिया की कहानी

अमीरन ने गांव वालों से भी कई बार खुशामद की कि उसे हिंदुस्तान भिजवाने का कुछ इंतज़ाम करवा दें. कुछ लोगों ने तो उस की बात पर कान ही नहीं दिए लेकिन गफूर के एक दूर के रिश्तेदार कादिर ने पास के एक गांव से 2 लोगों को ला कर उस के सामने खड़ा कर दिया और बोला, “परजाई, तेरे प्रा नू ले आया.” पहले तो अमीरन उनको देख कर खुश हो गई लेकिन जैसे ही उस ने उन दोनों के नाम पूछे तो कादिर का झूठ  खुल गया क्योंकि उन नकली भाइयों ने अपने नाम जाकिर और हशमत बताए. बस, फिर क्या था, अमीरन ने झाड़ू से पीटपीट कर तीनों को घर से बाहर निकाल दिया और कादिर को दोबारा इस तरफ आने पर जान से मार देने की धमकी दे दी.

वक्त गुज़रता गया और धीरेधीरे चारों बेटों ने खेतीबारी पूरी तरह से संभाल ली. लक्ष्मी को पुराने बेकार सामान की तरह घर के एक कोने में पटक दिया. रहीसही कसर बहुओं ने अपनी सास की दुर्दशा कर के पूरी कर दी. धीरेधीरे चारों बेटे अलगअलग घर बसा कर रहने लगे और मां को बड़े बेटे के पास छोड़ गए. तब से लक्ष्मी अकरम के परिवार के साथ रह रही है और उन लोगों द्वारा किए जाने वाले अपमान को सह रही है. लेकिन दुख के इस अंधेरे में रज़िया उस के लिए उम्मीद की किरन बन कर हमेशा उस के साथ खड़ी रहती है.

सारी बात सुन कर अफशां ने रजिया से पूछा,  “रज्जो, हुण त्वाडे दिमाग विच की चलदा प्या मैनू दस.” तब रजिया ने उस से पूछा कि क्या वे बेबे की मदद करने के लिए फेसबुक पर बेबे के परिवार वालों को ढूंढने की कोशिश करेंगी? अफशां ने जवाब दिया कि बगैर नामपता जाने फेसबुक पर किसी को ढूंढना मुश्किल है और बेबे को अपने भाइयों के पूरे नाम भी मालूम नहीं हैं. और यह भी ज़रूरी नहीं है कि बेबे के परिवार वाले  लोग फेसबुक पर हों.

रजिया यह सुन कर निराश हो गई. तब अफशां ने कुछ सोच कर लक्ष्मी की पूरी कहानी और मोर गांव का ज़िक्र करते हुए एक लेख फेसबुक पर पोस्ट किया और साथ ही, लोगों से प्रार्थना की कि इस बारे में कोई भी जानकारी होने पर तुरंत सूचित करें.

पोस्ट डाले कई दिन बीत गए. लेकिन किसी का कोई जवाब नहीं आया. अफशां निराश हो गई और रजिया से बोली कि शायद बेबे को उस के परिवार से मिलवाना संभव नहीं होगा. मगर रजिया ने उम्मीद नहीं छोड़ी और अफशां को दोबारा लोगों से अपील करने को कहा जिस पर अफशां ने एक बार फिर लोगों से मदद की अपील की.

रजिया के गांव से 4-5 सौ किलोमीटर दूर बीकानेर के एक दफ्तर में बैठे मनीष राठौर ने जब अपने  फेसबुक के पन्ने पर लक्ष्मी की कहानी पढ़ी तो उस का ध्यान सब से पहले मोर गांव ने खींचा और उस ने फ़ौरन अपने मित्र संजय मेघवाल को फोन मिलाया जो मूलरूप से मोर गांव का रहने वाला है. “संजय, तूने फेसबुक पर लक्ष्मी की कहानी देखी?” संजय ने शायद जवाब नहीं में दिया क्योंकि मनीष ने उसे बताया कि कहानी किसी लक्ष्मी नाम की महिला से संबंधित है जो मोर गांव से पार्टीशन के समय गायब हुई थी. “यार, जल्दी से पढ़ पूरा किस्सा, हो सकता है तेरे पापा या दादाजी इस औरत को जानते हों.”

मित्र के आग्रह पर संजय ने पूरा किस्सा फेसबुक पर पढ़ा तो उसे ख़याल आया कि बहुत पहले दादू ने एक बार ज़िक्र तो किया था अपनी किसी रिश्तेदार के गायब होने का.

दफ्तर से शाम को घर पंहुचने पर संजय ने अपने दादू को लक्ष्मी की कहानी के बारे में बताया. तो किशन चंद मेघवाल तुरंत पलंग पर सीधे बैठ गए और खुश हो कर चिल्लाए, “म्हारी बीरी मिली गई.” दादू से इस प्रतिक्रया की उम्मीद संजय को हरगिज़ न थी. उस ने दादू को तकिए से टिका कर बैठाते हुए पूछा कि क्या लक्ष्मी उन की बहन का नाम है?

किशनचंद ने आंसू पोंछते हुए हामी भरी और बताया कि वे उस समय करीब 5 वर्ष के रहे होंगे, इसलिए ज़्यादाकुछ याद नहीं है पर उस दिन घर में खूब रौनक थी. उन को लड्डू खाने को मिले थे और घर में गानाबजाना हो रहा था. लेकिन कुछ देर बाद ही शोर मचने लगा की लक्ष्मी गायब हो गई है और मासा रोने लगी थी. सब ने बहुत ढूंढा लेकिन बीरी  कहीं नहीं मिली. मासा ने तो इसी दुख में बिस्तर पकड़ लिया और जल्दी ही दुनिया से चली गईं. परिवार वाले भी धीरे धीरे बीरी को भूल गए. “के संजय बेटा, म्हारी बात हो सके छे बीरी से?” किशनचंद ने पोते से पूछा.

“पता करता हूं दादू,” संजय ने जवाब दिया और फिर से फेसबुक पर लक्ष्मी की कहानी पर नज़र दौडाने लगा तो नीचे एक व्हाट्सऐप नंबर दिखाई दिया. संजय ने तुरंत उस नंबर पर मैसेज कर के अपना फोन नंबर भेजा और वीडियोकौल करने को कहा. इस के बाद उस ने यह खबर मनीष को दी और फिर अपने पापा व मम्मी को बताने गया. पापा तो खबर सुन कर खुश हो गए लेकिन मां ने एक सवाल खड़ा कर दिया- “तुम्हें क्या मालूम कि ये असली लक्ष्मी हैं या आतंकवादियों की नई  चाल? तुम्हारे पास क्या सुबूत है कि वह औरत बाबूजी की बहन ही हैं? जानते तो हो कि आजकल न जाने कितने धोखेबाज़ झूठी कहानियां बना कर लोगों को लूटते रहते हैं. तुम तो इन चक्करों से दूर ही रहो बेटा.”

मां की बात में दम तो था लेकिन संजय का मन कह रहा था कि एक बार इस कहानी की सचाई जाननी ज़रूरी है. उधर पाकिस्तान में अफशां ने जैसे ही संजय मेघवाल का संदेश और फोन नंबर देखा, वह रजिया के घर की तरफ दौड़ी. रजिया की भाभियां और अम्मी आंगन में बैठ कर गेंहू साफ़ कर रही थीं. अफशां को अपने घर आया देख कर वे सब चौंक गईं और अफशां उन लोगों को इतना हैरान देख कर अपने आने की वजह उन लोगों को बताने ही वाली थी कि तभी बेबे की कोठरी से निकलते हुए रजिया की नज़र अफशां पर पड़ी और वह अफशां बाजी चिल्लाती हुई दौड़ कर उस के पास आई व उस का हाथ पकड़ कर बहाने से उसे छत पर ले गई. अफशां ने उसे बताया कि वह बेबे की बात उन के भाई से करवाने के लिए यहां आई है, इसलिए अभी बेबे के पास चलना ज़रूरी है.

रजिया ने मारे ख़ुशी के अफशां के हाथ पकड़ कर उस को नचा डाला और फिर उसे ले कर बेबे के पास गई. फौजिया ने बेटी को अफशां के साथ बेबे के पास जाते हुए देखा तो वह लपक कर आई और रजिया से बोली कि बेबे की कोठरी  में तो बहुत गरमी है, इसलिए अफशां को बैठक में ले जा कर बैठाए. उस पर अफशां ने कहा कि वह बेबे से ख़ास किस्म की शीरमाल बनाने के बारे में पूछने आई है. फौजिया ने झट से कहा कि शीरमाल बनाना तो उस को भी आता है वही सिखा देगी लेकिन रजिया ने अम्मी को परे करते हुए कहा कि अफशां शीरमाल के बारे में बेबे से पूछना चाहती है, इसलिए वह बीच में न पड़े और फिर दोनों सहेलियां दौड़ कर बेबे के पास पंहुच गईं.

अफशां ने रजिया से कोठे का दरवाज़ा बंद करने को कहा और फिर शुरू हुआ बरसों से बिछुड़े भाई और बहन का वार्त्तालाप जिस में बातें तो कम हुईं लेकिन दोनों तरफ से आंसू ज़्यादा बहे. बेबे फोन में दिखाई दे रहे सफ़ेद बालों वाले बूढ़े के चेहरे में अपने छोटे से किसना को ढूंढ रही थी और किशनचंद मेघवाल अपनी जर्जर बूढ़ी बहन की हालत देख कर दुखी हो रहे  थे. फिर बेबे से फोन ले कर अफशां ने संजय से कहा कि अगर वे लोग बेबे को हिंदुस्तान बुलाना चाहते हैं तो उस के लिए उन लोगों को ही कोशिश करनी होगी क्योंकि यहां बेबे के बेटे इस मामले में उस की कोई मदद नहीं करेंगे. संजय ने उस से कहा कि वह बेबे को भारत लाने का सारा प्रबंध होते ही अफशां को सूचित कर देगा.

15 अगस्त स्पेशल: बुराई में अच्छाई- धांसू आइडिया में अच्छाई का शहद

आवश्यकता आविष्कार की जननी है. बचपन में मास्टर साहब ने यह सूत्रवाक्य रटाया था मगर इस का अर्थ अब समझ में आया है. दरअसल, लोकतंत्र में बाबू, अफसर, नेता सभी आम जनता की सेवा कर मेवा खा रहे हैं. लेकिन बेचारे फौजी अफसर क्या करें? उन की तो तैनाती ही ऐसी जगह होती है जहां न तो ‘आम रास्ता’ होता है न ‘आम जनता’ होती है. ऐसे में बेचारे कैसे करें किसी की सेवा और कैसे खाएं मेवा? मगर भला हो उस वैज्ञानिक का जिस ने ‘आवश्यकता आविष्कार की जननी है’ नामक फार्मूला बनाया था. फौजियों के बीवीबच्चे भी खुशहाल जिंदगी जी सकें, इस के लिए जांबाजों ने मलाई जीमने के नएनए फार्मूले ईजाद कर डाले. ऐसेऐसे जो  ‘न तो भूतो और न भविष्यति’ की श्रेणी में आएं.

एक बहादुर अफसर ने तो अपने ही जवानों को टमाटर का लाल कैचअप लगा कर लिटा दिया और फोटो खींचखींच कर अकेले दम दुश्मनों से मुठभेड़ का तमगा जीत लिया. वह तो बुरा हो उन विभीषणों का जिन्होंने चुगली कर दी वरना अब तक वीरता के सारे पुरस्कार अगले की जेब में होते. कुछ लोगों को इस मामले में बुराई नजर आती है. मगर मुझे तो इस में ढेरों अच्छाइयां नजर आती हैं (जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी वाला मामला). भारतीय जवानों की वीरता, अनुशासन, वफादारी और फरमांबरदारी के किस्से तो पुराने जमाने से मशहूर हैं.

वे अपने अफसरों के हुक्म पर हंसतेहंसते प्राण निछावर कर देते हैं. कभी उफ नहीं करते. अब अफसर ने कहा, प्राण निछावर करने की जरूरत नहीं, बस, लाल कैचअप लगा कर मुरदा बन जाओ. बेचारों ने उफ तक नहीं की और झट से मुरदा बन फोटो खिंचवा ली. है किसी और सेना में अनुशासन की इतनी बड़ी मिसाल?

बालू से तेल निकालने के किस्से तो आप ने बहुत सुने होंगे लेकिन चाइना बौर्डर पर टाइमपास कर रहे कुछ अफसरों ने पानी से तेल निकाल ईमानदारी के सीने पर नए झंडे गाड़ दिए हैं. अगलों ने फौजी टैंकों के लिए पैट्रोल पहुंचाने वाले टैंकरों में शुद्ध जल सप्लाई कर दिया. बाकायदा हर चैकपोस्ट पर टैंकरों की ऐंट्री हुई ताकि कागजपत्तर पर हिसाब पक्का रहे.

उस के बाद गश्त लगाते लड़ाकू टैंक कितने किलोमीटर चले, उन का प्रति लिटर ऐवरेज क्या है और वे कितना पैट्रोल पी गए, यह या तो ऊपर वाला जानता है या जुगाड़खोर अफसर. कुछ लालची ड्राइवरों के चलते हिसाबकिताब गड़बड़ा गया वरना सबकुछ रफादफा रहता और चारों ओर शांति छाई रहती.

कुछ लोगों को इस में भी बुराई नजर आती है. लेकिन, मुझे तो इस में भी ढेरों अच्छाइयां नजर आती हैं. ऊपर वाला न करे लेकिन अगर कभी दुश्मन की सेना आप के चैकपोस्ट पर कब्जा कर ले और वहां आप के डीजलपैट्रोल से भरे टैंकर खड़े हों तो क्या होगा? आप का ही तेल भर कर वह आप के सीने पर चढ़ी चली आएगी.

लेकिन अगर टैंकरों में पानी भरा हो तो बल्लेबल्ले हो जाएगी. गलतफहमी में दुश्मन मुफ्त का तेल समझ उन टैंकरों से पानी अपने टैंकों में भर लेंगे और थोड़ी दूर चलने के बाद उन के टैंक टें बोल जाएंगे. है न बिलकुल आसान तरीका दुश्मन को चित करने का.

ये सब तो हुई पुरानी बातें. हाल ही में प्रतिभाशाली फौजियों ने जन कल्याण का ऐसा फार्मूला ईजाद किया कि दांतों तले उंगलियां दबाई जाएं या उंगलियों से दांत दाबे जाएं, तय करना मुश्किल है. किसी भले आदमी ने कानून बना दिया कि कश्मीर में गोलाबारूद, विस्फोटक का पता बताने वालों को  30 से 50 हजार रुपए का इनाम दिया जाएगा. बस, लग गई लौटरी हाथ. अगलों ने खाली डब्बों में काले रंग की बालू भर दी और तारवार जोड़ कर सुरक्षित स्थानों पर रखवा दिया. उस के बाद? अरे भैया, उस के बाद क्या पूछते हो?

जानते नहीं कि इतनी बड़ी फौज का इतना बड़ा नैटवर्क चलाने के लिए मुखबिरों की टीम बनानी बहुत जरूरी है और उस से भी ज्यादा जरूरी है मुखबिरों को खुश रखना. बेचारे जान जोखिम में डाल कर फौज के लिए सूचनाएं लाते हैं. अब नियमानुसार तो नियम से ज्यादा रकम मुखबिरों को दी नहीं जा सकती और उतने में मुखबिर काम करने को राजी नहीं होते.

इसीलिए अगलों ने अपने मुखबिरों से ही उन नकली विस्फोटकों के छिपे होने की सूचना दिलवा दी और फटाक से छापा मार उसे बरामद करवा दिया. बस, 30 से 50 हजार रुपए तक का इनाम पक्का. अब भैया, मुखबिर कोई बेईमान तो होते नहीं जो सारा माल खुद हड़प जाएं. सुना है बेचारे आधा इनाम पूरी ईमानदारी से हुक्मरानों को सौंप देते हैं ताकि उन के भी परिवार पलते रहें वरना खाली तनख्वाह में आजकल होता क्या है.

कुछ लोगों को इस में भी बुराई नजर आती है. (पता नहीं इस देश के लोग इतनी संकीर्ण मानसिकता वाले क्यों हैं?) मगर मुझे तो इस में अच्छाइयों का महासागर नजर आता है. कुछ अच्छाइयां गिनवा देता हूं. पहली बात ऐसी घटनाओं से मुखबिरों और उन के खास अफसरों के दिन बहुरे, ऊपर वाला करे ऐसे ही सब के दिन बहुरें.

दूसरी बात यह है कि इस से पाकिस्तान का असली चेहरा  सामने आ गया. वह कैसे? अरे भैया, इतना भी नहीं समझे? देखो, एक जमाने से पूरी दुनिया आरोप लगा रही है कि इंडिया में जो बमवम दग रहे हैं उस के पीछे पाकिस्तान का हाथ है, जबकि वहां के बेचारे निर्दोष हुक्मरान एक जमाने से दुहाई दे रहे हैं कि भारत में चल रहे आतंकवाद में उन का कोई हाथ नहीं है. अब इस घटना से यह साफ हो गया है कि बमवम हमारे ही फौजी रखवा रहे हैं. इस से पाकिस्तान का चेहरा बेदाग साबित हो गया. दुनिया वालों को उस पर तोहमत लगाना छोड़ देना चाहिए.

अगर थोड़ी देर के लिए मान लिया जाए कि आईएसआई वालों ने बिना अपने मासूम हुक्मरानों की जानकारी के दोचार बम अपने एजेंटों से रखवा दिए होंगे तो उन में भी आपस में सिरफुटौव्वल हो जाएगी. वह कैसे? अरे भैया, आप तो कुछ भी नहीं समझते. सीधी सी बात है, भारतीय सेना जब दनादन विस्फोटक बरामद करेगी तो आईएसआई वाले अपने एजेंटों को हड़काएंगे कि तुम लोग एक भी काम ढंग से नहीं करते. ऐसी जगह बम लगाया जो बरामद हो गया.

इस के अलावा हम ने बारूद दिया था 2 बम लगाने का और तुम लोगों ने आधाआधा लगा दिया 2 जगह. तभी एक भी ढंग से नहीं फटा. बेचारे एजेंट अपनी सफाई देते रहें लेकिन उन की सुनेगा कोई नहीं. ताव खा कर वे आपस में लड़ मरेंगे. आखिर वे भी महान तालिबानी गुरुओं के महान चेले हैं. कोई ऐरेगैरे नहीं. बताइए, अगर ऐसा हुआ तो मजा आ जाएगा या नहीं? खामखां दुश्मन आपस में लड़ मरेंगे और अपनी पौबारह हो जाएगी. इसी को कहते हैं कि हींग लगे न फिटकरी और रंग निकले चोखा.

तो भैया, देखा आप ने, फौजी जो भी करते हैं देशहित में करते हैं. देशहित में कई बार उन को अपनी असली योजना गुप्त रखनी पड़ती है. इसलिए उन के कामों को ऊपरी नजर से मत देखिए. गहराई में जा कर देखेंगे तो आप को भी उन की हर हरकत में अच्छाई नजर आएगी. जैसे, मुझे नजर आ रही है. इसलिए, अब जरा जोर से बोलिए, जयहिंद.

बंटवारा- भाग 2: क्या थी फौजिया की कहानी

विभाजन के समय बेबे 13-14 साल की बच्ची थी और राजस्थान के एक गांव में रहती थी. उसे अपने गांव का नाम व पता तो अब याद नहीं है लेकिन इतना ज़रूर याद है कि उस के गांव में मोर  बहुत थे और उसी बात के लिए उस का गांव मशहूर था. परिवार में अम्मा, बापू के अलावा 3 भाई और 1 बहन थी. बहन व भाइयों के नाम उसे आज भी  याद हैं- बंसी, सरजू और किसना 3 भाई और बहन का नाम लाली.l  उस का बापू कालूराम गांव के ज़मींदार के खेतों में काम करता था और अम्मा भी कुंअरसा ( ज़मींदार ) के घर में पानी भरने व कपड़ेभांडी धोने का काम करती थी. अपने छोटे बहनभाइयों को लक्ष्मी (बेबे) संभालती थी. बापू ने  पास के गांव में लक्ष्मी का रिश्ता तय कर दिया था. लक्ष्मी का होने वाला बिनड़ा चौथी जमात में पढ़ता था और उस की परीक्षा के बाद दोनों के लगन होने की बात तय हुई थी.

उसी दौरान देश का विभाजन होने की खबर आई और चारों तरफ हड़कंप सा मचने लगा. उस के गांव से भी कुछ मुसलमान परिवार पाकिस्तान जाने की तैयारी करने लगे. लक्ष्मी के बापू ने उस की ससुराल वालों से हालात सुधरने के बाद लगन करवाने के लिए कहा, तो लक्ष्मी के होने वाले ससुर ने कहा कि ब्याह बाद में कर देंगे, पर सगाई अभी ही करेंगे.

सगाई वाले दिन हाथों में मेंहदी लगा व नया घाघराचोली पहन कर लक्ष्मी तैयार हुई. अम्मा ने फूलों से चोटी गूंथी तो लक्ष्मी घर के एकलौते शीशे में बारबार जा कर खुद को निहारने लगी. आंगन में ढोलक बज रही थी और आसपास की औरतें बधाइयां गा रही थीं. फिर उस की होने वाली सास ने लक्ष्मी को चांदला कर के हंसली व कड़े पहनाए और हाथों में लाललाल चूड़ियां पहना कर उस को सीने से लगा लिया. घर में गानाबजाना चल रहा था, तब मां की आंख बचा कर लक्ष्मी अपने गहने व कपड़े सहेलियों को दिखाने के लिए झट से बाहर भाग गई व दौड़ती हुई खेतों की तरफ चली गई. बहुत ढूंढा, पर उसे वहां कोई भी सहेली खेलती हुई नहीं मिली. हां, खेतों के पास से कई खड़खडों  में भर कर लोगों की भीड़ कहीं जाती हुई ज़रूर दिखाई दी.

लछमी वापस लौटने लगी, तभी किसी ने उसे पुकारा. उस ने पलट कर देखा. उस की सहेली फातिमा एक खड़खड़े में बैठी उसे आवाज़ दे रही थी. लक्ष्मी दौड़ कर उस के पास गई और उस से पूछने लगी कि वह कहां जा रही है? फातिमा ने बताया कि वह पाकिस्तान जा रही है और अब वहीं रहेगी. लक्ष्मी अपनी सहेली से बिछुड़ने के दुख से रोने लगी. तभी फातिमा के अब्बू जमाल चचा ने लक्ष्मी को झट से हाथ पकड़ कर अपने खड़खड़े में बैठा लिया और कहा कि जब तक चाहे वह अपनी सहेली से बात कर ले, फिर वह उसे नीचे उतार देंगे. खड़खड़ा चल पड़ा और दोनों सहेलियां बातें करते हुए गुट्टे खेलती रहीं. बीचबीच में जमाल बच्चियों को गुड़ के लड्डू खिलाता जा रहा था. इन्हीं सब में वक्त का पता ही न चला और घर जाने का ख़याल लक्ष्मी को तब आया जब जमाल चचा ने उसे अपने खड़खड़े से उतार कर दूसरी ऊंटगाड़ी में बैठा दिया.

उस ने चारों तरफ निगाह घुमाई, तो देखा कि वह अपने गांव से बहुत दूर रेगिस्तानी रास्ते में है और वहां ढेर सारी भीड़ गांव से उलटी दिशा में चली जा रही है. लक्ष्मी यह देख कर ऊंटगाड़ी से कूदने लगी, तो  गाड़ी में बैठे दाढ़ी वाले आदमी ने उस का हाथ कस कर पकड़ लिया और फिर एक रस्सी से उस के हाथपैर बांध कर अपनी अम्मा के पास बैठाते हुए बोला कि वह उस को अपने साथ पाकिस्तान ले जा रहा है क्योंकि उस ने जमाल को पूरे 30 रुपए दे कर लक्ष्मी को खरीदा है और अब वह उस की  बीवी है. लाचार लक्ष्मी पूरे रास्ते रोती रही. पर न उस आदमी को रहम आया, न ही उस की बूढी अम्मा को.

गफूर नामक वह आदमी भी राजस्थान के किसी गांव से ही आया था.  पकिस्तान पहुंच कर इस गांव में उस ने अपना डेरा डाल दिया और धीरेधीरे अच्छा पैसा कमाने लगा. आते ही गफूर ने यह मकान और कुछ खेत यह सोच कर  ख़रीद लिए कि उस की गिनती गांव के रईसों में होने लगेगी और लोग उस की इज्ज़त करेंगे. मगर जिसे अपना असली मुल्क समझ कर वह आया था वहां, तो उसे हमेशा परदेसी का ही दर्जा दिया गया और अपनी इस घुटन व झुंझलाहट को वह अमीरन यानी लक्ष्मी पर उतारता था.

दिनभर उस की मां अमीरन को मारतीपीटती रहती और रात को गफूर अपना तैश उस बच्ची पर निकालता. उस की सास ने पहले तो उसे डराधमका कर गोश्त पकाना सिखाया और उस से भी मन नहीं भरा, तो मांबेटे ने कई दिनों तक भूखा रख कर उसे ज़बरदस्ती  गोश्त खिलाना भी शुरू कर दिया और आखिर उस को लक्ष्मी से अमीरन बना कर ही दम लिया. जब तक अमीरन 20 वर्ष की हुई तब तक 3 बच्चे जन चुकी थी. धीरेधीरे खानदान बढ़ता गया और अमीरन  के अंदर की लक्ष्मी मरती गई.

अमीरन (लक्ष्मी) के बच्चे छोटेछोटे थे, तभी गफूर की मौत हो गई और लक्ष्मी की परेशानियां और भी बढ़ गईं क्योंकि अकेली औरत जान कर गांव वालों ने उस के खेतों पर कब्ज़ा करने की कोशिश तो शुरू कर ही दी, साथ ही, कई लोगों ने उस को अपनी हवस का शिकार भी बनाना चाहा. और जब एक दिन खेत में काम करते समय बगल के खेत वाले अब्दुल ने उस को धोखे से पकड़ कर उस के साथ ज़बरदस्ती करनी चाही  तो अमीरन के अंदर की राजस्थानी शेरनी जाग गई और उस ने घास काटने वाले हंसिए से अब्दुल की गरदन काट डाली.

गांव में उस की इस हरकत से हंगामा मच गया और उस को पंचायत में घसीट कर ले जाया गया. लेकिन लक्ष्मी डरी नहीं. उस ने साफ़साफ़ कह दिया कि जो भी उस के खेतों की तरफ या उस की तरफ बुरी नज़र डालेगा उस का वह यही हश्र करेगी. कुछ लोग उस की इस जुर्रत के लिए उसे पत्थरों से मारने की सज़ा देने की बात करने लगे और कुछ लोगों ने गांव से निकाल देने की सलाह दी. लेकिन गांव के सरपंच, जो एक बुजुर्गवार थे, ने फैसला अमीरन के हक़ में करते हुए गांव वालों को चेतावनी दी कि कोई भी इस अकेली औरत पर ज़ुल्म नहीं करेगा वरना उस आदमी को सज़ा दी जाएगी.

सरपंच की सरपरस्ती के कारण लक्ष्मी अपनी मेहनत से अपने बच्चों को पालने लगी. बड़ा बेटा अकरम जब खेतों में अम्मी की मदद करने लायक हो गया तो लक्ष्मी को थोड़ा आराम मिला. लेकिन उसे हमेशा इस बात का अफ़सोस रहा कि उस के अपने बच्चों ने भी कभी अपनी अम्मी का साथ नहीं दिया. कितनी बार उस ने अपने बेटों की खुशामद की कि एक बार उसे हिंदुस्तान ले जा कर उस के भाइयों से मिलवा दें लेकिन उन लोगों की निगाहों में तो अम्मी के नाते वाले सब काफिर थे और काफिरों से नाता रखना उन के मज़हब के खिलाफ है. इसलिए हर बार बेटों ने उस के अनदेखे परिवार वालों को दोचार गालियां देते हुए लक्ष्मी (अमीरन) को काफिरों के पास जाने की जिद छोड़ देने को कहा.

बंटवारा- भाग 1: क्या थी फौजिया की कहानी

चूल्हे पर रोटियां सेंकते सेंकते फौजिया सामने फर्श पर बैठे पोतेपोतियों को थाली में रोटी और रात का बचा सालन परोसती जा रही थी, साथ ही, बगल में रखी टोकरी में भी रोटियां रखती जा रही थी ताकि शौहर और बेटों के लिए समय से खेत पर खाना भेज सके. तभी उस की सास की आवाज़ सुनाई पड़ी, “अरी खस्मनुखानिये, आज मैनू दूधरोट्टी मिल्लेगी कि नै?”

सास की पुकार पर फौजिया ने जल्दी से पास रखे कटोरदान में से 2 बासी रोटियां निकाल कर एक कटोरे में तोड़ कर गुड़ में मींसीं और उस में थोड़ा पानी व गरम दूध डाल कर अपनी बगैर दांत वाली सास के खाने लायक लपसी बना कर पास बैठी बेटी को कटोरा थमा दिया, “जा, दे आ बुड्ढी नू.” कटोरा तो पकड़ लिया रज़िया ने, लेकिन जातेजाते अम्मी को ताना ज़रूर दे गई, “जब तू तज्ज़ी रोटी सेंक रही है हुण बेबे नू बस्सी रोटी किस वास्ते दें दी?”

फौजिया ने कोई जवाब न दे कर गुस्से से बेटी को घूरा और वहां से जाने का इशारा किया, तो रजिया बड़बड़ाती हुई चली गई.  फौजिया ने अपनी बड़ी बहू सलमा को आवाज़ दे कर खेत में खाना पंहुचाने को कहा और जल्दीजल्दी सरसों का साग व कच्ची प्याज फोड़ कर रोटियों के साथ टोकरी में रख कर टोकरी एक तरफ सरका दी.

रज़िया को अपनी दादी के प्रति अम्मी के दोगले व्यवहार से बहुत चिढ़ है. लेकिन उस का कोई वश नहीं चलता, इसीलिए हर रोज़ अपनी अम्मी से छिपा कर वह दादी के लिए कुछ न कुछ खाने का ताज़ा सामान ले जा कर चुपचाप उसे खिला देती है और दादी भीगी आंखों व भरे गले से अपनी पोती को पुचकारती रहती हैं. आज जब रज़िया नाश्ते का कटोरा ले कर बेबे के पास गई तो वह अपनी फटी कथरी पर बैठी अपने सामने एक पुरानी व मैली सी पोटली खोल कर उस में कुछ टटोल रही थी पर उस की आंखें अपनी पोती के इंतज़ार में दरवाज़े की तरफ ही गड़ी हुई थीं.

रजिया ने रोटी का कटोरा बेबे  को पकड़ा कर अपने दुपट्टे के खूंट में बंधे 3-4 खजूर निकाल कर झट से तोड़ कर कटोरे में डाले और बेबे  को जल्दी से रोटी ख़त्म करने को कहा. बेबे  की बूढ़ी आंखों में खजूर देख कर चमक आ गई और उस ने कटोरा मुंह से लगा लिया. तभी रजिया की नज़र खुली पोटली पर पड़ी जिस में किसी बच्ची की लाख की चूड़ियां, चांदी की पतली सी हसली और पैरों के कड़े एक छींटदार घाघरे व चुनरी में लिपटे रखे हुए थे. बेबे ने एक हाथ से पोटली पीछे सरकानी चाही, तो रज़िया ने पूछा, “बेबे, आ की?”

पोती के सवाल को पहले तो बेबे ने टालना चाहा  मगर रजिया के बारबार पूछने पर  लाख की लाल चूड़ियों को सहलाती हुई बोली, “ये म्हारी सचाई, म्हारो बचपण छे री छोरी.”

दादी को अलग ढंग से बात करते सुन रजिया को थोड़ी हैरानी हुई और उस ने हंस कर पूछा, “अरी बेबे, आज तू केसे गल्लां कर दी पई?” बेबे ने चेहरा उठाया, तो आंखों में आंसू डबडबा रहे थे. कुछ देर रुक कर बोली, “आज मैं तैनू सच्च दसां पुत्तर.” और फिर बेबे ने जो बताया उसे सुन कर रज़िया का कलेजा कांप उठा और वह बेबे से लिपट कर रोते हुए बोली, “बेबे, मैं तैनू जरूर त्वाडे असली टब्बर नाल मिल्वाइन. तू ना घबरा.” और अपने आंसू पोंछती हुई वह खाली कटोरा ले कर आंगन में आ गई.

रज़िया 18-19 साल की एक संजीदा और समझदार लड़की है जो अपने अनपढ़ परिवार की मरजी के खिलाफ जा कर अपनी एक सहेली की मदद से 8वीं तक की पढ़ाई कर चुकी है और अब उसी सहेली अफशां के स्मार्टफोन के ज़रिए  फेसबुक व व्हाट्सऐप जैसी आधुनिक दुनिया की बातों के बारे में भी जान गई है. यों तो रज़िया के अब्बू और तीनों भाई उस का घर से निकलना पसंद नहीं करते पर अफशां चूंकि गांव के सरपंच अजीबुर्रहमान की बेटी है, इसलिए उस के घर जाने की बंदिश रजिया पर नहीं है. अफशां लाहौर के एक कालेज में पढ़ती है और छुट्टियों में ही घर आती है. इसलिए उस से मिल कर शहरी फैशन और वहां के रहनसहन के बारे में जानने की उत्सुकता रज़िया को अफशां के घर ले जाती है.

रज़िया के अब्बा 4 भाई और 3 बहनें थीं जिन में से सब से बड़ी बहन का पिछले साल इंतकाल हो गया. बाकी 2 बहनें अपनेअपने परिवारों के साथ आसपास के गांवों में रहती हैं और चारों भाई इसी गांव में पासपास घर बना कर रहते हैं. हालांकि इन की बीवियां एकदूसरे को ज़रा भी पसंद नहीं करती हैं मगर खेतों का बंटवारा अभी तक नहीं हुआ है. इसलिए सभी भाई एकसाथ खेतों में काम करते हैं और उन की बीवियों को जगदिखाई के लिए अपनेपन का नाटक करना पड़ता है.

सभी भाइयों के बच्चे अंगूठाछाप हैं क्योंकि उन के खानदान में पढ़ाईलिखाई को बुरा माना जाता है. रज़िया ने अफशां की मदद से जो थोड़ी किताबें पढ़ लीं हैं उस की वजह है रज़िया का मंगेतर जहीर, जो चाहता था कि निकाह से पहले रजिया थोड़ा लिखनापढ़ना सीख ले. वह खुद भी 12वीं पास कर के पास ही के कसबे में नौकरी करता है और साथ ही, आगे की पढ़ाई भी कर रहा है. वह हमेशा रज़िया को आगे और पढ़ने के लिए कहता रहता है. लेकिन रजिया के अब्बू उसे किसी स्कूल में भेजने के खिलाफ हैं, इसलिए अफशां से ही जो भी सीखने को मिल जाता है उसी से रजिया तसल्ली कर लेती है.

आज बेबे की बातें सुनने के बाद रजिया ने मन ही मन तय किया कि वह हर हाल में अपनी बेबे को उस के अपनों से मिलवा कर रहेगी. इस के लिए चाहे उसे अपने खानदान से लड़ाई ही क्यों न करनी पड़े. मगर सिर्फ तय कर लेने से तो काम बनेगा नहीं, उस के लिए कोई राह भी तो निकालनी पड़ेगी. तभी रजिया को अफशां के फोन पर देखे फेसबुक के देशविदेश के लोगों का ख़याल आया और वह तुरंत अफशां के घर की तरफ लपक ली.

सुबह-सुबह रजिया को आया देख कर हैरान अफशां ने आने की वजह पूछी, तो रजिया उस के कंधे पर सिर रख कर सिसकने लगी. अफशां उसे अपने कमरे में ले गई और आराम से बैठा कर उस की परेशानी की वजह पूछी. तब रजिया ने अपनी बेबे का पूरा इतिहास उस के सामने रख दिया. “बाजी,  बेबे हिंदुस्तानी हैं.” रजिया की यह बात सुन कर अफशां ने हंस कर कहा कि पाकिस्तान में बसे आधे से ज़्यादा लोग हिंदुस्तानी ही हैं क्योंकि बंटवारे के वक्त वे लोग यहां आ कर बसे हैं. “ना बाजी, बेबे साडे मज़हब दी नहीं हैगी” और फिर रजिया ने बेबे की पूरी आपबीती अफशां को सुनाई.

दो सखियां: भाग 3- क्या बुढ़ापे तक निभ सकती है दोस्ती

तारा ने भी पुराने दिन याद करते हुए कहा, ‘‘क्या खूब याद दिलाई. हम तो देव आनंद पर फिदा थे. हाय जालिम, क्या चलता था. मेरे पति तो मधुबाला के इतने दीवाने थे कि घर पर उस की फोटो टांग रखी थी. इन का बस चलता तो सौतन बना करले आते.’’

‘‘तभी एक देव आनंद जैसे लड़के पर रीझ गई थीं शादी के बाद?’’

‘‘ताना मार रही हो या तारीफ कर रही हो?’’

‘‘अरे सहेली हूं तेरी, ताना क्यों मारूंगी. अपनी जवानी के दिन याद भी नहीं कर सकते. फिर जवानी में तो सब से खताएं होती हैं.’’

‘‘हां, तू भी तो गफूर भाई को दिलीप कुमार समझ दिल दे बैठी थी.’’

‘‘अरे, उस कमबख्त की याद मत दिलाओ. मुझ से आशिकी बघारता रहता और निकाह कर लिया किसी और से. समझा था दिलीप कुमार, निकला प्राण. मेरा तो घर टूटतेटूटते बचा.’’

‘‘हम औरतों का यही तो रोना है. जिसे देव आनंद समझ कर बतियाते रहे उस ने महल्लेभर में बदनामी करवा दी हमारी. यह तो अच्छा हुआ कि हमारे पति को हम पर भरोसा था. फिर जो पिटाई की थी उस की, वह दोबारा दिखा नहीं. जिसे देव आनंद समझा वह अजीत निकला. खैर, पुरानी बातें छोड़ो, यह बताओ कि जफर भाई के बारे में कुछ सुना है?’’

‘‘हां, सुना तो है. घर की नौकरानी को पेट से कर दिया. इज्जत और जान पर आई तो निकाह करना पड़ा.’’

‘‘लेकिन जफर ठहरे 50 साल के और लड़की 20 साल की.’’

‘‘अरे मर्द और घोड़े की उम्र नहीं देखी जाती. घोड़ा घास खाता है और मर्द ने सुंदर जवान लड़की देखी कि मर्दों का दिमाग घास चरने चला जाता है.’’

‘‘जफर भाई बुढ़ाएंगे तो नई दुलहन को बाहर किसी का मुंह ताकना पड़ेगा.’’

‘‘यह तो सदियों से चला आ रहा है.’’

बातचीत चल रही थी कि इसी बीच फिर आवाज आई, ‘‘दादी, ओ दादी.’’

‘‘लो आ गया बुलावा. बात अधूरी रह गई. कल मिल कर बताऊंगी. तब तक कुछ और पता चलेगा.’’

रात में अल्पविराम लग गया. महिलाओं की गपें उस पर निंदारस, कहीं पूर्णविराम लग ही नहीं सकता था. बुढ़ापे में वैसे भी नींद कहां आती है. खापी कर बेटा काम पर चला जाता. बहू घर के काम निबटा सोने चली जाती. पोती स्कूल चली जाती तो सितारा बैठने चली जाती तारा के घर. तारा का भी यही हाल था. भोजनपानी होने के बाद पोता स्कूल निकल जाता. बहू घर के कामकाज में लगी रहती. कामकाज हो जाता तो बिस्तर पर झपकी लग जाती. अब तारा क्या करे.

अकेला मन और एकांत काटने को दौड़ता. वह सितारा को आवाज देती. कभी सितारा अपने घर महफिल जमा लेती. तारासितारा के अलावा यदि कोई और वृद्ध महिला बैठने आ जाती तो दोनों की बातें रुक जातीं. उन्हें सभ्यता के तकाजे के कारण बात करनी पड़ती, बिठाना पड़ता. लेकिन अंदर से उन्हें ऐसा लगता मानो कबाब में हड्डी. कब जाए? वे यही दुआ करतीं. उन्हें अपने बीच तीसरा ऐसे अखरता जैसे पत्नी को सौतन. फिर दूसरी महिलाओं के पास इतना समय भी नहीं होता कि दोपहर से रात तक बैठतीं.

इस उम्र में तो आराम चाहिए. तारासितारा तो बैठेबैठे थक जातीं तो वहीं जमीन पर चादर बिछा कर लेट जातीं. फिर कोई बात याद आ जाती तो फिर शुरू हो जातीं. उन की थकान तो बात करते रहने से ही दूर होती थी. एक बार सितारा के बेटे ने पूछा भी, ‘‘अम्मी, क्या बात चलती रहती है? घर की बुराई तो नहीं करती हो?’’ सितारा समझ गई कि यह बात बहू ने कही होगी बेटे से. सितारा भी जवाब में कहती, ‘‘क्या मैं अपने बहूबेटे की बुराई करूंगी?’’

बेटे ने कहा, ‘‘नहीं अम्मी, बात यह है कि हम ठहरे मुसलमान और वे हिंदू. आजकल माहौल बिगड़ता रहता है. फिर तुम्हारी सहेली का बेटा तो मुसलिम का विरोध करने वाली पार्टी का खास है. सावधानी रखना थोड़ी.’’

वहीं, तारा के बेटे ने भी कहा, ‘‘अम्मा, हम हिंदू हैं और वे मुसलमान. देखना कहीं धोखे से गाय का मांस खिला कर भ्रष्ट न कर दें. उन का कोई भरोसा नहीं. पाकिस्तान समर्थक हैं वे.’’ अम्मा ने कहा, ‘‘बेटा, हमें क्या लेनादेना तुम्हारी राजनीति से. हम ठहरे उम्रदराज लोग, धर्मकर्म की बातें कर के अपने मन की कह कर दिल हलका कर लेते हैं. मेरे बचपन की सहेली है. मुझे गोमांस नहीं खिलाएगी. इतना विश्वास है. इस के बाद वे मिलीं तो बातों का जायका कुछ बदला.

तारा ने कहा, ‘‘तुम गाय खाती हो. हम लोग तो उसे पूजते हैं.’’ सितारा ने कहा, ‘‘खाने को क्या गाय ही रह गई है. बकरा, मुरगा, मछली सब तो हैं. मैं अपने धर्म को जितना मानती हूं उतना ही दूसरे धर्म का सम्मान करती हूं. मैं पहले तुम्हारी सहेली हूं, बाद में मुसलमान. क्यों? किसी ने कुछ कहा है? भरोसा नहीं है मुझ पर?’’

‘‘नहींनहीं, गंभीर मत हो. ऐसे ही पूछ लिया.’’

‘‘दिल साफ कर लो. पूछने में क्या एतराज करना.’’

‘‘तुम पाकिस्तान की तरफ हो?’’

‘‘ऐसा आरोप लगाया जाता है हम पर.’’

‘‘कभी माहौल बिगड़ा तो क्या करोगी?’’

‘‘तुम्हारे घर आ जाऊंगी, क्योंकि मुझे भरोसा है तुम पर. तुम मेरी और मेरे परिवार की रक्षा करोगी. कभी तुम पर मुसीबत आई तो मैं तुम्हारे परिवार की रक्षा करूंगी,’’ और दोनों सहेलियों की आंखों में आंसू आ गए.

‘‘तुम्हारा बेटा अजय, मुसलमान विरोधी क्यों है? उसे समझाओ.’’

‘‘वह सब समझता है. कहता है, राजनीति है. बस और कुछ नहीं. लेकिन सुना है तुम्हारा बेटा हिंदू विरोधी है?’’

‘‘नहीं रे, वह तो हिंदुओं के डर के कारण मात्र मुसलिम संघों से जुड़ा है. केवल दिखाने के लिए. बाकी वह समझता सब है. हम एक ही देश के रहने वाले पड़ोसी हैं एकदूसरे के. चलो, कोई और बात करो. इन बातों से हमारा क्या लेनादेना.’’ और फिर वे वर्मा की बेटी, गफूर का नौकरानी से निकाह, बहुओं की तानाशाही, बेटों की धनलोलुपता, अपने पोतेपोतियों के स्नेह पर चर्चा करने लगीं.

समाज में फैली अश्लीलता, बेहूदा गीत, संगीत पर भी उन्होंने चर्चा की. अपनी जवानी, बचपन को भी याद किया और बुढ़ापे की इस उम्र में सत्संग आदि पर भी चर्चा की. लेकिन आनंद उन्हें दूसरों की बहूबेटियों के विषय में बात करने में ही आता था. पराए मर्दों के अवैध संबंधों में जो रस मिलता वह दुनिया में और कहां था.

तारा ने कहा, ‘‘मेरा पोता 20 साल का हो चुका है. खुद को शाहरुख खान समझता है.’’

सितारा ने कहा, ‘‘मेरी पोती भी 18 साल की हो गई. अपनेआप को करीना कपूर समझती है.’’

तारा ने कहा, ‘‘एक विचार आया मन में. कहो तो कहूं. बुरा मत मानना, मैं जानती हूं संभव नहीं और ठीक भी नहीं.’’

सितारा ने कहा, ‘‘यही आया होगा कि मेरी पोती शबनम और तुम्हारे पोते अजय की जोड़ी क्या खूब रहेगी? मेरे मन में आया कई बार. लेकिन हमारे हाथ में कहां कुछ है. कितने हिंदूमुसलिम लड़केलड़कियों ने शादी की. वे बड़े लोग हैं. उन की मिसालें दी जाती हैं. हम मिडिल क्लास. हम करें तो धर्म, जात से बाहर. हमारे यहां तो औरतें बच्चा पैदा करने की मशीन भर हैं. जमाने भर के नियमकायदे. फिर पुरुष को 4 शादियों की छूट. तुम्हारे यहां अच्छा है कि एक शादी.’’

तारा ने कहा, ‘‘लेकिन हमारे यहां दहेज जैसी प्रथा भी है. हर धर्म में अच्छाई और बुराई हैं. खैर, यह बताओ कि वर्मा की बेटी का कुछ पता चला? क्या सचमुच एबौर्शन हुआ था उस का? उस के मातापिता शादी क्यों नहीं कर देते उस लड़के से?’’

सितारा ने कहा, ‘‘वर्मा ठहरे कायस्थ. ऊंची जात के. वे कहते हैं मर जाएंगे लेकिन छोटी जात से शादी नहीं करेंगे.’’

‘‘इतना खयाल था तो ध्यान रखना था. अब लड़की तो उसी जात की हो गई जिस जात वाले के साथ सो गई थी. अब अपनी जात में करेंगे तो यह तो धोखा होगा उस लड़के के साथ. अगर लड़के को पता चल गया तो शादी के बाद फिर क्या होगा. धक्के मार कर भगा देगा.’’

तारासितारा की गपें चलती रहतीं. इसी बीच उन के पोते, पोती की भी आंखें लड़ गईं. उन में प्यार हो गया. कब हो गया, कैसे हो गया, उन्हें भी पता न चला. चुपकेचुपके निहारते रहे. फिर ताकने लगे धीरेधीरे, फिर मुसकराने लगे और दीवाने दिल मचलने लगे. बात हुई छोटी सी. फिर बातें हुईं बहुत सी. प्यार परवान चढ़ा. दिल बेकरार हुए और पाने को मचल उठे एकदूसरे को. फिर दोनों ने इकरार किया. फिर तो बातों का सिलसिला चल निकला. मुलाकातें होने लगीं दुनिया से छिप कर, मरमिटने की कसमें खाईं. दुनिया से न डरने की, साथ जीनेमरने की ठान ली. और एक दिन दुनिया को पता चला तो तूफान आ गया.

बुजुर्ग बातें करते हैं. अधेड़ धर्म और समाज की चिंता करते हैं. नौजवान प्यार करते हैं. पहले एक परिवार ने दूसरे को चेतावनी दी. अपनेअपने बच्चों को डांटाफटकारा. उन पर पहरे लगाए. पहरेदार जागते रहे और प्यार करने वाले भाग खड़े हुए. किसी को समाज से निष्कासन की सजा मिली. किसी पर फतवा जारी हुआ. बच्चों ने दूर कहीं शादी कर के घर बसा लिया और अपनेअपने परिवार के साथ थाने में भी सूचना भिजवा दी ताकि लड़की भगाने, अपहरण, बलात्कार जैसी रिपोर्ट दर्ज न हों. समाज पर थूक कर चले गए दोनों. दोनों परिवार कसमसा कर रह गए.

तारासितारा का मिलना बंद हो गया. दोनों को खरीखोटी सुनने को मिलीं, ‘सब तुम लोगों की वजह से. कहीं का नहीं छोड़ा. दिखा दी न अपनी जात, औकात.’ तारासितारा ने भी बचपन की दोस्ती खत्म कर ली. हिंदूमुसलिम दंगों का सवाल ही पैदा नहीं हुआ. बाकायदा कोर्ट मैरिज की थी दोनों ने. फसाद का कोई मौका ही नहीं दिया कमबख्तों ने. कट्टरपंथी मन मसोस कर रह गए. दूसरों पर हंसने वाली तारा और सितारा पर आज दूसरों के साथ उन के घर वाले भी हंस रहे थे. लानतें भेज रहे थे. 2 घनिष्ठ सखियों की दोस्ती समाप्त हो चुकी थी हमेशाहमेशा के लिए.

एक कट्टरपंथी ने सलाह दी, ‘‘भाईजान, हिंदू महल्ले में रहने का अंजाम देख लिया. आज लड़की गई है, कल…ऐसा करें, मकान बेचें और मोमिनपुरा चलें. अपनों के बीच.’’

शर्म और जिल्लत से बचने के लिए अपनी जान से प्यारी लड़की को मृत मान कर सितारा अम्मी सहित वह घर बेच कर मोमिनपुरा चली गईं. ऐसा नहीं है कि मोमिनपुरा की लड़कियों ने हिंदू लड़कों से और बजरंगपुरा की लड़कियों ने मुसलिम लड़कों से विवाह न किया हो, लेकिन जिस पर गुजरी वही नफरत पालता है. बच्चों ने मातापिता को फोन किया. विवाह स्वीकारने का निवेदन किया लेकिन दोनों घर के मिडिल क्लास दरवाजे बंद हो चुके थे उन के लिए. बच्चों ने न आना ही बेहतर समझा. वे अपने दकियानूसी विचारों वाले परिवारों को जानते थे. तारा और सितारा दो जिस्म एक जान थीं.

बचपन की सहेलियां. अलगअलग हो कर भी एकदूसरे को याद करतीं. एकदूसरे की याद में आंसू बहातीं. वह दिनदिन भर बतियाना, एकदूसरे को पान खिलाना, चायनाश्ता करवाना, गपें करने का हर संभव बहाना तलाशना. मीठी ईद की सेंवइयां, दीवाली की मिठाई. लेकिन क्या करें, धर्म के पहरे, समाज की चेतावनी के आगे दोनों बुजुर्ग सहेलियां मजबूर थीं. इश्क की कोई जात नहीं होती. प्यार का कोई धर्म नहीं होता. दिल से दिल का मिलन, प्रेमियों का हो या सखियों का, कहां टूटता है. पहरे शरीर पर होते हैं मन और विचारों पर नहीं. अपने अहं और जिद की वजह से दोनों परिवारों और समाज के लोगों ने उन्हें शेष जीवन मिलने तो नहीं दिया पर सुना है कि

अंतिम समय तारा की जबान पर सितारा का नाम था और सितारा ने तारा कह कर अंतिम सांस ली थी. यह भी सुना है कि दोनों की मृत्यु एक ही दिन लगभग एक ही समय हुई थी. 2 बुजुर्ग सहेलियों में इतना प्रेम देख कर मातापिता ने धर्म की दीवार तोड़ कर, मजहब के ठेकेदारों को ठोकर मारते हुए अजय को अपना दामाद और शबनम को अपनी बहू स्वीकार कर लिया था और उन से निवेदन किया था कि वे घर वापस आ जाएं.

दो सखियां: भाग 2- क्या बुढ़ापे तक निभ सकती है दोस्ती

तारा ने कहा, ‘‘सुना है पाकिस्तान के राष्ट्रपति को पुलिस ने पकड़ लिया.’’

सितारा ने कहा, ‘‘पाकिस्तान अजीब मुल्क है जहां राष्ट्रपति को पुलिस पकड़ लेती है. भारत में किसी पुलिस वाले की हिम्मत नहीं कि राष्ट्रपति पर उंगली भी उठा सके. यहां पुलिस वाले तो बस गरीबों को ही पकड़ते हैं.’’

‘‘अरे छोड़ो ये सब, यह बताओ, कल क्या कहने वाली थीं?’’ सितारा याद करने की कोशिश करती है लेकिन उसे याद नहीं आता. फिर वह बातों में रस लाने के लिए काल्पनिक बात कहती है, ‘‘हां, मैं कह रही थी कि वर्मा की बिटिया कल छत पर उलटी कर रही थी. कहीं पेट से तो नहीं है?’’

‘‘हाय-हाय, वर्माजी के मुख पर तो कालिख पुतवा दी लड़की ने. घर वालों को तो पता ही होगा.’’

‘‘क्यों न होगा. उस के मांबाप के चेहरे का रंग उड़ा हुआ है. रात में घर से चीखने की आवाजें आ रही थीं. बाप चिल्ला रहा था कि नाक कटवा कर रख दी. क्या मुंह दिखाऊंगा लोगों को. और लड़की सुबकसुबक कर रो रही थी. आज देखा कि वर्माइन अपनी बेटी को बिठा कर रिकशे पर ले जा रही थीं. दोनों मांबेटी के चेहरे उतरे हुए थे. जरूर बच्चा गिराने ले जा रही होगी.’’

‘‘क्या सच में?’’

‘‘तो क्या मैं झूठ बोलूंगी. धर्म कहता है झूठ बोलना गुनाह है, जैसे शराब पीना गुनाह है.’’

‘‘लेकिन क्या मुसलमान शराब नहीं पीते?’’

‘‘अरे, अब धर्म की कौन मानता है. जो पीते हैं वे शैतान हैं.’’

‘‘जीजा भी तो पीते थे.’’ सितारा ने दोनों कान पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘तौबातौबा, कभीकभी दोस्तों के कहने पर पी लेते थे. अब मृतक के क्या दोष निकालना. बहुत भले इंसान थे.’’

‘‘लेकिन मैं ने तो सुना है कि पी कर कभीकभी तुम्हें पीटते भी थे?’’

‘‘किस से सुना है? नाम बताओ उस का?’’ सितारा ने गुस्से में कहा तो फौरन तारा ने उसे पान लगा कर दिया. सितारा ने पान मुंह में रखते हुए कहा, ‘‘अब आदमी कभीकभी गुस्से में अपनी औरत को पीट देता है. मियांबीवी के बीच में थोड़ीबहुत तकरार जरूरी भी है. मैं भी कहां मुंह बंद रखती थी. पुलिस वालों की तरह सवाल पर सवाल दागती थी, ‘देर क्यों हो गई, कहीं किसी के साथ चक्कर तो नहीं है?’’’

‘‘था क्या कोई चक्कर?’’

‘‘होता तो शादी नहीं कर लेते. हमारे मर्दों को 4 शादियों की छूट है. लेकिन मेरा मर्द बाहर चाहे जो करता हो, घर पर कभी किसी को नहीं लाया.’’

फिर थोड़ी देर खामोशी छा जाती. इतने में चायनाश्ता हो जाता. वे फिर तरोताजा हो जातीं और सोचतीं कि कहां से शुरू करें. आखिर 2 औरतें कितनी देर खामोश रह सकती हैं.

‘‘तुम अपनी कहो, कल बहू चिल्ला क्यों रही थी?’’

‘‘अरे, पतिपत्नी में झगड़ा हो गया था किसी बात को ले कर. थोड़ी देर तो मैं सुनती रही, फिर जब नीचे आ कर दोनों को डांटा तो बोलती बंद दोनों की.’’ यह तो तारा ही जानती थी कि जब उस ने पूछा था कि क्या हो गया बहू? तो बहू ने पलट कर जवाब दिया था, ‘अपने काम से काम रखो, ज्यादा कान देने की जरूरत नहीं है. अपने लड़के को समझा लो कि शराब पी कर मुझ पर हाथ उठाया तो अब की रिपोर्ट कर दूंगी दहेज की. सब अंदर हो जाओगे.’

‘‘लेकिन मुझे तो सुनने में आया कि कोई दहेज रह गया था, उस पर…’’

तारा ने बात काटते हुए कहा, ‘‘हम क्या इतने गएगुजरे हैं कि बहू को दहेज के लिए प्रताडि़त करेंगे. किस से सुना तुम ने…सब बकवास है. अब झगड़े किस घर में नहीं होते. हमारा आदमी हमें पीटता था तो हम चुपचाप रोते हुए सह लेते थे. पति को ही सबकुछ मानते थे. लेकिन आजकल की ये पढ़ीलिखी बहुएं, थोड़ी सी बात हुई नहीं कि मांबाप को रो कर सब बताने लगती हैं. रिपोर्ट करने की धमकी देती हैं. ऐसे कानून बना दिए हैं सरकार ने कि घरगृहस्थी चौपट कर दी. सत्यानाश हो ऐसे कानूनों का.’’

‘‘हां, सच कहती हो. घरपरिवार के मामलों में सरकार को क्या लेनादेना. जबरदस्ती किसी के फटे में टांग अड़ाना.’’

तारा ने आंखों में आंसू भरते हुए कहा, ‘‘घर तो हम जैसी औरतों की वजह से चलते हैं. बाहर आदमी क्या कर रहा है, हमें क्या लेनादेना लेकिन आजकल की औरतें तो अपने आदमी की जासूसी करती हैं. वह क्या कहते हैं…मोबाइल, हां, उस से घड़ीघड़ी पूछती रहती हैं, कहां हो? क्या कर रहे हो, घर कब आओगे? अरे आदमी है, काम करेगा कि इन को सफाई देता रहेगा. हमारा आदमी बाहर किस के साथ था, हम ने कभी नहीं पूछा.’’ यह तो तारा ने नहीं बताया कि पूछने पर पिटाई हुई थी कई दफा. उस का आदमी बाहर किसी औरत को रखे हुए था. घर में कम पैसे देता था. कभीकभी घर नहीं आता था. आता तो शराब पी कर. पूछने पर कहता कि मर्द हूं. एक रखैल नहीं रख सकता क्या. तुम्हें कोई कमी हो तो कहो. दोबारा पूछताछ की तो धक्के दे कर भगा दूंगा. उस ने अपने आंसुओं को रोका. पानी पिया. पिलाया. फिर पान का दौर चला.

‘‘अरे तारा, कल बेटा पान ले कर आया था बाजार से. लाख महंगा हो, एक से एक चीजें पड़ी हों सुगंधित, खट्टीमीठी लेकिन घर के पान की बात ही और है.’’

‘‘क्या था ऐसा पान में? क्या तुम ने देखा था?’’

‘‘हां, जब बेटे ने बताया कि पूरे 20 रुपए का पान है. ये बड़ा. तो इच्छा हुई कि आखिर क्या है इस में? खोला तो बेटे से पूछा, ‘ये क्या है?’ तो बेटे ने बताया कि अम्मी, यह चमनबहार है, यह खोपरा है, यह गुलकंद है, यह चटनी है. और भी न जाने क्याक्या. लेकिन अच्छा नहीं लगा, एक तो मुंह में न समाए. उस पर खट्टामीठा पान. अरे भाई, पान खा रहे हैं कोई अचार नहीं. पान तो वही जो पान सा लगे, जिस में लौंग की तेजी, इलाइची की खुशबू, कत्था, चूना, सुपारी हो. ज्यादा हुआ तो ठंडाई और सौंफ. बाकी सब पैसे कमाने के चोंचले हैं.’’ यह नहीं बताया सितारा ने कि उन्हें शक हो गया था कि जमीनमकान के लोभ में कहीं बेटा पान की आड़ में जहर तो नहीं दे रहा है. सो, उन्होंने पान खोल कर देखा था. जब आश्वस्त हो गईं और आधा पान बहू को खिला दिया, तब जा कर उन्हें तसल्ली हुई. बेटेबहू काफी समय से गांव की जमीन बेचने के लिए दबाव बना रहे थे.

‘‘कितनी उम्र होगी तुम्हारी पोती की?’’

‘‘होगी कोई 16 वर्ष की.’’

‘‘लड़का देखा है कोई?’’

‘‘नहीं, बहू कहती है कि 18 से पहले शादी करना गैरकानूनी है. अभी उम्र ही क्या है? मांबाप के यहां चैन से रह लेने दो. फिर तो जीवनभर गृहस्थी में पिसना ही है. एक तो ये कानून नएनए बन गए हैं, फिर लड़की जात. इस उम्र में तो हम 2 बच्चों की अम्मा बन गए थे. लेकिन बहूबेटे कहते हैं कि अभी उम्र नहीं हुई शादी की. पढ़ना कम, घूमना ज्यादा. एक कहो, दस कहती हैं आजकल की औलादें. तौबा.’’

‘‘यही हाल तो हमारे यहां है. जब देखो सिनेमा, टीवी, क्रिकेट. पढ़ाई का अतापता नहीं. 10वीं में फेल हो चुके हैं. उम्र 20 साल के आसपास हो गई है. हम कहें तो उन की अम्मा को बुरा लगता है. बाप, बेटे से पूछता है कितना स्कोर हुआ. यह कैसा खेल है भई.’’

‘‘अच्छा क्रिकेट. हमारे यहां भी यही चलता है. खेल न हुआ, तमाशा हो गया. इस ने इतने बनाए, उस ने आउट किया. बापबेटी में बहस चलती है. कौन, क्यों कैसे आउट हो गया. एंपायर ने गलत फैसला दे दिया. टीवी पर चिपके रहते हैं दिनभर. ये भी नहीं कि अम्मी को मनपसंद सीरियल देख लेने दें. बेटा तो बेटा, पोती रिमोट छीन लेती है हाथ से, न शर्म न लिहाज.’’

‘‘क्या करें, अब हमारे दिन नहीं रहे. बुढ़ापा आ गया. बस, अपनी मौत का रास्ता तक रहे हैं. हमारे जमाने में तो रेडियो चलता था. ये औफिस गए नहीं कि हम ने गीतमाला लगाई. मजाल है कोई डिस्टर्ब कर दे. सास टोक भी दे तो हम कहां मानने वाले थे.’’

‘‘सच कहती हो तारा, हमारे मियां तो हमें अकसर फिल्म दिखाने ले जाते थे, क्या फिल्में बनती थीं. मैं तो मरती थी दिलीप कुमार पर. क्या शानदार गाने, मन मस्त हो जाता था. आजकल तो पता नहीं क्या गा रहे हैं, सिवा होहल्ला के. हीरो बंदर की तरह उछलकूद कर रहा है. हीरोइन ने कपड़े ऐसे पहने हैं कि…नहीं ही पहने समझो. तहजीब का तो कचूमर निकाल दिया है.’’

सलाहकार

छात्र छात्राओं का प्रिय शगल हर एक अध्यापक- अध्यापिका को कोई नाम देना होता है और चाहे अध्यापक हों या प्राध्यापक, सब जानबूझ कर इस तथ्य से अनजान बने रहते हैं, शायद इसलिए कि अपने जमाने में उन्होंने भी अपने गुरुजनों को अनेक हास्यास्पद नामों से अलंकृत किया होगा.

ऋतिका इस का अपवाद थीं. वह अंगरेजी साहित्य की प्रवक्ता ही नहीं होस्टल की वार्डन भी थीं, लेकिन न तो लड़कियों ने खुद उन्हें कोई नाम दिया और न ही किसी को उन के खिलाफ बोलने देती थीं. मिलनसार, आधुनिक और संवेदनशील ऋतिका का लड़कियों से कहना था :

‘‘देखो भई, होस्टल के कायदे- कानून मैं ने नहीं बनाए हैं, लेकिन मुझे इस होस्टल में रह कर पीएच.डी. करने की सुविधा इसलिए मिली है कि मैं किसी को उन नियमों का उल्लंघन न करने दूं. मैं नहीं समझती कि आप में से कोई भी लड़की होस्टल के कायदेकानून तोड़ कर मुझे इस सुविधा से वंचित करेगी.’’

इस आत्मीयता भरी चेतावनी के बाद भला कौन लड़की मैडम को परेशान करती?  वैसे लड़कियों की किसी भी उचित मांग का ऋतिका विरोध नहीं करती थीं. खाना बेस्वाद होने पर वह स्वयं कह देती थीं, ‘‘काश, मुझ में होस्टल की मैनेजिंग कमेटी के सदस्यों को दावत पर बुला कर यह खाना खिलाने की हिम्मत होती.’’

लड़कियां शिकायत करने के बजाय हंसने लगतीं.

ऋतिका मैडम का व्यवहार सभी लड़कियों के साथ सहृदय था. किसी के बीमार होने पर वह रात भर जाग कर उस की देखभाल करती थीं. पढ़ाई में कोई दिक्कत होने पर अपना विषय न होते हुए भी वह यथासंभव सहायता कर देती थीं, लेकिन अगर कभी कोई लड़की व्यक्तिगत समस्या ले कर उन के पास जाती थी तो बजाय समस्या सुनने या कोई हल सुझाने के वह बड़ी बेरुखी से मना कर देती थीं. लड़कियों को उन की बेरुखी उन के स्वभाव के अनुरूप तो नहीं लगती थी फिर भी किसी ने इसे कभी गंभीरता से नहीं लिया.

मनोविज्ञान की छात्रा श्रेया ने कुछ दिनों में ही यह अटकल लगा ली कि ऊपर से सामान्य लगने वाली ऋतिका मैम, भीतर से बुरी तरह घायल थीं और जिंदगी को सजा समझ कर जी रही थीं. मगर उन से पूछने का तो सवाल ही नहीं था क्योंकि अगर उस का प्रश्न सुन कर ऋतिका मैडम जरा सी भी उदास हो गईं तो सब लड़कियां उन का होस्टल में रहना मुश्किल कर देंगी.

एम.ए. की छात्रा होने के कारण श्रेया अन्य लड़कियों से उम्र में बड़ी और ऋतिका मैडम से कुछ ही छोटी थी, सो प्राय: हमउम्र होने के कारण दोनों में दोस्ती हो गई और दोनों एक ही कमरे में रहने लगीं.

एक दिन एक पत्रिका द्वारा आयोजित निबंध लेखन प्रतियोगिता में भाग ले रही छात्रा रश्मि उन के कमरे में आई.

‘‘मुझे समझ में नहीं आ रहा कि मैं हिंदी में निबंध लिखूं या अंगरेजी में?’’

‘‘लिखना तो उसी भाषा में चाहिए जिस में तुम सुंदरता से अपने भाव व्यक्त कर सको,’’ श्रेया बोली.

‘‘दोनों में ही कर सकती हूं.’’

‘‘इस की दोनों भाषाओं पर अच्छी पकड़ है,’’ ऋतिका मैडम के स्वर में सराहना थी जिसे सुन कर रश्मि का उत्साहित होना स्वाभाविक ही था.

‘‘इस प्रतियोगिता में मैं प्रथम पुरस्कार जीतना चाहती हूं, सो आप सलाह दें मैडम, कौन सी भाषा में लिखना अधिक प्रभावशाली रहेगा?’’ रश्मि ने ऋतिका से मनुहार की.

‘‘तुम्हारी शिक्षिका होने के नाते बस, इतना ही कह सकती हूं कि तुम अच्छी अंगरेजी लिखती हो और सलाह तो मैं किसी को देती नहीं,’’ ऋतिका मैडम ने इतनी रुखाई से कहा कि रश्मि सहम कर चली गई.

‘‘जब आप को पता है कि उस की अंगरेजी औसत से बेहतर है, तो उसे उसी भाषा में लिखने को कहना था क्योंकि अंगरेजी में जीत की संभावना अधिक है,’’ श्रेया बोली.

‘‘इतनी समझ रश्मि को भी है.’’

‘‘फिर भी बेचारी आश्वस्त होने आप के पास आई थी और आप ने दुत्कार दिया,’’ श्रेया के स्वर में भर्त्सना थी, ‘‘मैडम, आप से सलाह मांगना तो सांड को लाल कपड़ा दिखाना है.’’

ऋतिका ने अपनी हंसी रोकने का असफल प्रयास किया, जिस से प्रभावित हो कर श्रेया पूछे बगैर न रह सकी :

‘‘आखिर आप सलाह देने से इतना चिढ़ती क्यों हैं?’’

‘‘चिढ़ती नहीं श्रेया, डरती हूं,’’ ऋतिका मैडम आह भर कर बोलीं, ‘‘मेरी सलाह से एकसाथ कई जीवन बरबाद हो चुके हैं.’’

‘‘किसी आतंकवादी गिरोह की आप सदस्या रह चुकी हैं?’’ श्रेया ने उन की ओर कृत्रिम अविश्वास से देखा.

ऋतिका ने गहरी सांस ली, ‘‘असामाजिक तत्त्व ही नहीं शुभचिंतक भी जिंदगियां तबाह कर सकते हैं, श्रेया.’’

‘‘वह कैसे?’’

‘‘बड़ी लंबी कहानी है.’’

‘‘मैडम, आज पढ़ाई यहीं बंद करते हैं. कल रविवार को कहीं घूमने न जा कर पढ़ाई कर लेंगे,’’ कह कर श्रेया उठी और उस ने कमरे का दरवाजा बंद किया, बत्ती बुझा कर बोली, ‘‘अब आप शुरू हो जाओ. कहानी सुनाने से आप का दिल हलका हो जाएगा और मेरी जिज्ञासा शांत.’’

‘‘मेरा दिल तो कभी हलका नहीं होगा मगर चलो, तुम्हारी जिज्ञासा शांत कर देती हूं.

‘‘शुचिता मेरी स्कूल की सहपाठी थी. जब वह 7वीं में पढ़ती थी तो उस के डाक्टर मातापिता उसे दादी के पास छोड़ कर मस्कट चले गए थे. जब भी वह उन्हें याद करती, दादी प्रार्थना करने को कहतीं या उसे दिलासा देने को राह चलते ज्योतिषियों से कहलवा देती थीं कि उस के मातापिता जल्दी आएंगे.

‘‘मस्कट कोई खास दूर तो था नहीं, सो दादी से शुचि की उदासी के बारे में सुन कर अकसर उस के मातापिता में से कोई न कोई बेटी से मिलने आता रहता था. इस तरह शुचि भाग्य और भविष्यवक्ताओं पर विश्वास करने लगी. विदेश से लौटने पर उस के आधुनिक मातापिता ने शुचि को बहुत समझाया मगर उस की अंधविश्वास के प्रति आस्था नहीं डिगी.

‘‘रजत शुचि का पड़ोसी और मेरे पापा के दोस्त का बेटा था, सो एकदूसरे के घर आतेजाते मालूम नहीं कब हमें प्यार हो गया, लेकिन यह हम दोनों को अच्छी तरह मालूम था कि सही समय पर हमारे मातापिता सहर्ष हमारी शादी कर देंगे, मगर अभी से इश्क में पड़ना गवारा नहीं करेंगे. लेकिन मिले बगैर भी नहीं रहा जाता था, सो मैं पढ़ने के बहाने शुचि के घर जाने लगी. शुचि के मातापिता नर्सिंग होम में व्यस्त रहते थे इसलिए रजत बेखटके वहां आ जाता था. जिंदगी मजे में गुजर रही थी. मैं शुचि से कहा करती थी कि प्यार जिंदगी की अनमोल शै है और उसे भी प्यार करना चाहिए. तब उस का जवाब होता था, ‘करूंगी मगर शादी के बाद.’

‘‘ ‘उस में वह मजा नहीं आएगा जो छिपछिप कर प्यार करने में आता है.’

‘‘‘न आए, मगर जब मैं अपने मम्मीपापा को यह वचन दे चुकी हूं कि मैं शादी उन की पसंद के डाक्टर लड़के से करूंगी, जो उन का नर्सिंग होम संभाल सके तो फिर मैं किसी और से प्यार कैसे कर सकती हूं?’

‘‘असल में शुचि के मातापिता उसे डाक्टर बनाना चाहते थे लेकिन शुचि की रुचि संगीत साधना में थी, सो दामाद डाक्टर पर समझौता हुआ था. हम सब बी.ए. फाइनल में थे कि रजत का चचेरा भाई जतिन एम.बी.ए. करने वहां आया और रजत के घर पर ही रहने लगा.

‘‘एक रोज शुचिता पर नजर पड़ते ही जतिन उस पर मोहित हो गया और रजत के पीछे पड़ गया कि वह उस की दोस्ती शुचिता से करवाए. रजत के असलियत बताने का उस पर कोई असर नहीं हुआ. मालूम नहीं जतिन को कैसे पता चल गया कि रजत मुझ से मिलने शुचिता के घर आता है. उस ने रजत को ब्लैकमेल करना शुरू कर दिया कि या तो वह उस की दोस्ती शुचिता के साथ करवाए नहीं तो वह हमारे मातापिता को सब बता देगा.

‘‘इस से बचने की मुझे एक तरकीब समझ में आई कि शुचिता के अंधविश्वास का फायदा उठा कर उस का चक्कर जतिन के साथ चला दिया जाए. रजत के रंगकर्मी दोस्त सुधाकर को मैं ने अपने और शुचिता के बारे में सबकुछ अच्छी तरह समझा दिया. एक रोज जब मैं और शुचिता कालिज से घर लौट रहे थे तो साधु के वेष में सुधाकर हम से टकरा गया और मेरी ओर देख कर बोला कि मैं चोरी से अपने प्रेमी से मिलने जा रही हूं. उस के बाद उस ने मेरे और रजत के बारे में वह सब कहना शुरू कर दिया जो हम दोनों के अलावा शुचिता को ही मालूम था, सो शुचिता का प्रभावित होना स्वाभाविक ही था.

‘‘शुचिता ने साधु बाबा से अपने घर चलने को कहा. वहां जा कर सुधाकर ने भविष्यवाणी कर दी कि शीघ्र ही शुचिता के जीवन में भी उस के सपनों का राजकुमार प्रवेश करेगा. सुधाकर ने शुचिता को आश्वस्त कर दिया कि वह कितना भी चाहे प्रेमपाश से बच नहीं सकेगी क्योंकि यह तो उस के माथे पर लिखा है. उस ने यह भी बताया कि वह कहां और कैसे अपने प्रेमी से मिलेगी.

‘‘शुचिता के यह पूछने पर कि उस की शादी उस व्यक्ति से होगी या नहीं, सुधाकर सिटपिटा गया, क्योंकि इस बारे में तो हम ने उसे कुछ बताया ही नहीं था, सो टालने के लिए बोला कि फिलहाल उस की क्षमता केवल शुचिता के जीवन में प्यार की बहार देखने तक ही सीमित है. वैसे जब प्यार होगा तो विवाह भी होगा ही. सच्चे प्यार के आगे मांबाप को झुकना ही पड़ता है.

‘‘उस के बाद जैसे सुधाकर ने बताया था उसी तरह जतिन धीरेधीरे उस के जीवन में आ गया. शुचिता का खयाल था कि जब साधु बाबा की कही सभी बातें सही निकली हैं तो मांबाप के मानने वाली बात भी ठीक ही निकलेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ. जतिन ने यहां तक कहा कि उसे उन का एक भी पैसा नहीं चाहिए…वे लोग चाहें तो किसी गरीब बच्चे को गोद ले कर उसे डाक्टर बना कर अपना नर्सिंग होम उसे दे दें. शुचिता ने भी जतिन की बात का अनुमोदन किया. शुचिता के मातापिता को मेरी और अपनी बेटी की गहरी दोस्ती के बारे में मालूम था, सो एक रोज वह दोनों हमारे घर आए.

‘‘‘देखो ऋतिका, शुचि हमारी इकलौती बेटी है. हम ने रातदिन मेहनत कर के जो इतना बढि़या नर्सिंग होम बनाया है या दौलत कमाई है इसीलिए कि हमारी बेटी हमेशा राजकुमारियों की तरह रहे. जतिन अच्छा लड़का है लेकिन उस की एक बंधीबधाई तनख्वाह रहेगी. वह एक डाक्टर जितना पैसा कभी नहीं कमा पाएगा और फिर हमारे इतनी लगन से बनाए नर्सिंग होम का क्या होगा? अपनी बेटी के रहते हम किसी दूसरे को कैसे गोद ले कर उसे सब सौंप दें? हम ने शुचि के लिए डाक्टर लड़का देखा हुआ है जो हर तरह से उस के उपयुक्त है और उस के साथ वह बहुत खुश रहेगी. तुम भी उसे जानती हो.’

‘‘ ‘कौन है, अंकल?’

‘‘‘तुम्हारा भाई कुणाल. उस के अमेरिका से एम.एस. कर के लौटते ही दोनों की शादी कर देंगे.’

‘‘ ‘मैं ठगी सी रह गई. शुचिता मेरी भाभी बन कर हमेशा मेरे पास रहे इस से अच्छा और क्या होगा? जतिन तो आस्ट्रेलिया जाने को कटिबद्ध था.

‘‘ ‘आप ने यह बात छिपाई क्यों?’ मैं ने पूछा, ‘क्या पता भैया ने वहीं कोई और पसंद कर ली हो.’

‘‘ ‘उसे वहां इतनी फुरसत ही कहां है? और फिर मैं ने कुणाल और तुम्हारे मम्मीपापा को साफ बता दिया था कि मैं कुणाल को अमेरिका जाने में जो इतनी मदद कर रहा हूं उस की वजह क्या है. उन सब ने तभी रिश्ता मंजूर कर लिया था. तुम्हें बता कर क्या ढिंढोरा पीटना था?’

‘‘अब मैं उन्हें कैसे बताती कि मुझे न बताने से क्या अनर्थ हुआ है. तभी मेरे दिमाग में बिजली सी कौंधी. शुचिता के जिस अंधविश्वास का सहारा ले कर मैं ने उस का और जतिन का चक्कर चलवाया था, एक बार फिर उसी अंधविश्वास का सहारा ले कर उस चक्कर को खत्म भी कर सकती थी लेकिन अब यह इतना आसान नहीं था. रजत कभी भी मेरी मदद करने को तैयार नहीं होता और अकेली मैं कहां साधु बाबा को खोजती फिरती? मैं ने शुचिता की मम्मी को सलाह दी कि वह शुचि के अंधविश्वास का फायदा क्यों नहीं उठातीं? उन्हें सलाह पसंद आई. कुछ रोज के बाद उन्होंने शुचिता से कहा कि वह उस की और जतिन की शादी करने को तैयार हैं मगर पहले दोनों की जन्मपत्री मिलवानी होगी. अगर कुछ गड़बड़ हुई तो ग्रह शांति की पूजा करा देंगे.

‘‘अंधविश्वासी शुचिता तुरंत मान गई. उस ने जबरदस्ती जतिन से उस की जन्मपत्री मंगवाई. मातापिता ने एक जानेमाने पंडित को शुचिता के सामने ही दोनों कुंडलियां दिखाईं. पंडितजी देखते ही ‘त्राहिमाम् त्राहिमाम्’ करने लगे.

‘‘‘इस कन्या से विवाह करने के कुछ ही समय बाद वर की मृत्यु हो जाएगी. कन्या के ग्रह वर पर भारी पड़ रहे हैं.’

‘‘ ‘उन्हें हलके यानी शांत करने का कोई उपाय जरूर होगा पंडितजी. वह बताइए न,’ शुचिता की मम्मी ने कहा.

‘‘ ‘ऐसे दुर्लभ उपाय जबानी तो याद होते नहीं, कई पोथियां देखनी होंगी.’

‘‘‘तो देखिए न, पंडितजी, और खर्च की कोई फिक्र मत कीजिए. अपनी बिटिया की खुशी के लिए आप जो पूजा या दान कहेंगे हम करेंगे.’

‘‘‘मगर पूजा से अमंगल टल जाएगा न पंडितजी?’ शुचिता ने पूछा.

‘‘‘शास्त्रों में तो यही लिखा है. नियति में लिखा बदलने का दावा मैं नहीं करता,’ पंडितजी टालने के स्वर में बोले.

‘‘ ‘ऐसा है बेटी. जैसे डाक्टर अपने इलाज की शतप्रतिशत गारंटी नहीं लेते वैसे ही यह पंडित लोग अपनी पूजा की गारंटी लेने से हिचकते हैं,’ शुचिता के पापा हंसे.

‘‘उस के बाद शुचिता ने कुछ और नहीं पूछा. अगली सुबह उस के कमरे से उस की लाश मिली. शुचिता ने अपनी कलाई की नस काट ली थी. उस ने अपने अंतिम पत्र में लिखा था कि पंडितजी की बात से साफ जाहिर है कि उस की जिंदगी में जतिन का साथ नहीं लिखा है, वह जतिन से बेहद प्यार करती है. उस के बगैर जीने की कल्पना नहीं कर सकती और न ही उस का अहित चाहती है, सो आत्महत्या के सिवा उस के पास कोई और विकल्प नहीं है.

‘‘शुचिता की आत्महत्या के लिए उस के मातापिता स्वयं को अपराधी मानते हैं, मगर असली दोषी तो मैं हूं जिस की सलाह पर पहले एक नकली ज्योतिषी ने शुचिता का जतिन से प्रेम करवाया और मेरी सलाह से ही उस प्रेम संबंध को तोड़ने के लिए फिर एक झूठे ज्योतिषी का सहारा लिया गया.

‘‘शुचिता के मातापिता और उस से अथाह प्यार करने वाला जतिन तो जिंदा लाश बन ही चुके हैं. मगर मेरे कुणाल भैया, जो बचपन से शुचिता से मूक प्यार करते थे और जिस के कारण ही वह बजाय इंजीनियर बनने के डाक्टर बने थे, बुरी तरह टूट गए हैं और भारत लौटने से कतरा रहे हैं इसलिए मेरे मातापिता भी बहुत मायूस हैं. यही नहीं मेरे इस तरह क्षुब्ध रहने से रजत भी बेहद दुखी हैं. तुम ही बताओ श्रेया, इतना अनर्थ कर के, इतने लोगों को संत्रास दे कर मैं कैसे खुश रह सकती हूं या सलाहकार बनने की जुर्रत कर सकती हूं?’

सूनी आंखें: जब महामारी ने कर दिया पति पत्नी को अलग

सुबह के समय अरुण ने पत्नी सीमा से कहा,”आज मुझे दफ्तर जरा जल्दी जाना है. मैं जब तक तैयार होता हूं तुम तब तक लंच बना दो ब्रेकफास्ट भी तैयार कर दो, खा कर जाऊंगा.”

बिस्तर छोड़ते हुए सीमा तुनक कर बोली,”आरर… आज ऐसा कौन सा काम है जो इतनी जल्दी मचा रहे हैं.”अरुण ने कहा,”आज सुबह 11 बजे  जरूरी मीटिंग है. सभी को समय पर बुलाया है.”

“ठीक है जी, तुम तैयार हो जाओ. मैं किचन देखती हूं,” सीमा मुस्कान बिखेरते हुए बोली.अरुण नहाधो कर तैयार हो गया और ब्रेकफास्ट मांगने लगा, क्योंकि उस के दफ्तर जाने का समय हो चुका था, इसलिए वह जल्दबाजी कर रहा था.

गैराज से कार निकाली और सड़क पर फर्राटा भर अरुण  समय पर दफ्तर पहुंच गया. दफ्तर के कामों से फुरसत पा कर अरुण आराम से कुरसी पर बैठा था, तभी दफ्तर के दरवाजे पर एक अनजान औरत खड़ी अजीब नजरों से चारों ओर देख रही थी.

चपरासी दीपू के पूछने पर उस औरत ने बताया कि वह अरुण साहब से मिलना चाहती है. उस औरत को वहां रखे सोफे पर बिठा कर चपरासी दीपू अरुण को बताने चला गया.

‘‘साहब, दरवाजे पर एक औरत खड़ी है, जो आप से मिलना चाहती है,’’ दीपू ने अरुण से कहा.‘‘कौन है?’’ अरुण ने पूछा.‘‘मैं नहीं जानता साहब,’’ दीपू ने जवाब दिया.

‘‘बुला लो. देखें, किस काम से आई है?’’ अरुण ने कहा.चपरासी दीपू उस औरत को अरुण के केबिन तक ले गया.केबिन खोलने के साथ ही उस अजनबी औरत ने अंदर आने की इजाजत मांगी.

अरुण के हां कहने पर वह औरत अरुण के सामने खड़ी हो गई. अरुण ने उस औरत को बैठने का इशारा करते हुए कहा, ‘‘बताइए, मैं आप के लिए क्या कर सकता हूं?”

“सर, मेरा नाम संगीता है. मेरे पति सुरेश आप के दफ्तर में काम करते हैं.” अरुण बोला,”जी, ऑफिस के बहुत से काम वे देखते हैं. उन के बिना कई काम रुके हुए हैं.”

अरुण ने चपरासी दीपू को बुला कर चाय लाने को कहा.चपरासी दीपू टेबल पर पानी रख गया और चाय लेने चला गया.कुछ देर बाद ही चपरासी दीपू चाय ले आया.

चाय की चुस्की लेते हुए अरुण पूछने लगा, ” कहो, कैसे आना हुआ?’’‘‘मैं बताने आई थी कि मेरे पति सुरेश की तबीयत आजकल ठीक नहीं रहती है, इसलिए वे कुछ दिनों के लिए दफ्तर नहीं आ सकेंगे.”

“क्या हुआ सुरेश को,” हैरान होते हुए अरुण बोला”डाक्टर उन्हें अजीब सी बीमारी बता रहे हैं. अस्पताल से उन्हें आने ही नहीं दे रहे,”संगीता रोने वाले अंदाज में बोली.

संगीता को रोता हुआ देख कर अरुण बोला, “रोइए नहीं. पूरी बात बताइए कि उन को यह बीमारी कैसे लगी?””कुछ दिनों से ये लगातार गले में दर्द बता रहे थे, फिर तेज बुखार आया. पहले तो पास के डाक्टर से इलाज कराया, पर जब कोई फायदा न हुआ तो सरकारी अस्पताल चले गए.

“सरकारी अस्पताल में डाक्टर को दिखाया तो देखते ही उन्हें भर्ती कर लिया गया. “ये तो समझ ही नहींपाए कि इन के साथ हो क्या गया है?””जब अस्पताल से इन का फोन आया तो मैं भी सुन कर हैरान रह गई,” संगीता ने अपने आंसू पोंछते हुए कहा.

“अभी वे अस्पताल में ही हैं,” संगीता से अरुण ने पूछा.”जी,” संगीता ने जवाब दिया.अरुण यह सुन कर परेशान हो गया. सुरेश का काम किसी और को देने के लिए चपरासी दीपू से कहा.

अरुण ने सुरेश की पत्नी संगीता को समझाते हुए कहा कि तुम अब बिलकुल चिंता न करो. घर जाओ और बेफिक्र रहो, उन्हें कुछ नहीं होगा.संगीता अरुण से आश्वस्त हो कर घर आ गई और उसे भी घर आने के लिए कहा. अरुण ने भी जल्द समय निकाल कर घर आने के लिए कहा.

“सर, कुछ कहना चाहती हूं,” कुर्सी से उठते समय संगीता ने झिझकते हुए पूछा.”हां, हां, कहिए, क्या कहना चाहती हैं आप,” अरुण ने संगीता की ओर देखते हुए कहा.”जी, मुझे कुछ पैसों की जरूरत है. इन की तनख्वाह मिलने पर काट लेना,” संगीता ने सकुचाते हुए कहा.

“बताइए, कितने पैसे चाहिए?” अरुण ने पूछा.”जी, 20 हजार रुपए चाहिए थे…” संगीता संकोच करते हुए बोली.”अभी तो इतने पैसे नहीं है, आप कलपरसों में आ कर ले जाना,” अरुण ने कहा. “ठीक है,” यह सुन कर संगीता का   उदास चेहरा हो गया.

“आप जरा भी परेशान न होइए. मैं आप को पैसे दे दूंगा,” संगीता के उदास चेहरे को देख कर कहा.अरुण के दफ्तर से निकलने का समय हो चुका था, इसलिए संगीता भी अपने घर लौट आई.

अगले दिन दफ्तर के काम जल्द निबटा कर अरुण कुछ सोच में डूबा था, तभी उस के मन में अचानक ही सुरेश की पत्नी संगीता की पैसों वाली बात याद आ गई.2 दिन बाद ही संगीता अरुण के दफ्तर पहुंची. चपरासी दीपू ने चायपानी ला कर दी.

अरुण ने सुरेश की तबीयत के बारे में जानना चाहा. संगीता आंखों में आंसू लाते हुए बोली,”वहां तो अभी वे ठीक नहीं हैं. मैं अस्पताल गई थी, पर वहां किसी को मिलने नहीं दे रहे.”

“क्या…” अरुण हैरानी से बोला.”अस्पताल वाले कहते हैं, जब वे ठीक हो जाएंगे तो खुद ही घर आ जाएंगे.”यह जान कर अरुण हैरान हो गया कि अस्पताल वाले किसी से मिलने नहीं दे रहे. वह आज शाम को उस से मिलने जाने वाला था.

अरुण ने संगीता को 20 हजार के बजाय 30 हजार रुपए दिए और कहा कि और भी पैसे की जरूरत हो तो बताना.संगीता पैसे ले कर घर लौट आई. 21 मार्च की शाम जब अरुण हाथपैर धो कर बिस्तर पर बैठा, तभी उस की पत्नी सीमा चाय ले आई और बताने लगी कि रात 8 बजे रास्ट्र के नाम संदेश आएगा.

अरुण टीवी खोल कर तय समय पर बैठ गया. मोदी का संदेश सुनने के बाद अरुण ने पत्नी सीमा को अगले दिन रविवार को जनता कर्फ्यू के बारे में बताया कि घर से किसी को बाहर नहीं निकलना है. साथ ही, यह भी बताया कि शाम 5 बजे अपनेअपने घरों से बाहर निकल कर थाली या बरतन, कुछ भी बजाएं.

उस दिन शाम को जब पड़ोसी ने घर से बाहर निकल थाली बजाई तो अरुण भी शोर सुन कर बाहर आया. पत्नी सीमा भी खुश होते हुए थाली हाथ में लिए बाहर जोरजोर से बजाने लगी. उसे देख अरुण भी खुश हुआ.

सोमवार 23 मार्च को अरुण किसी जरूरी काम के निकल आने की वजह से ऑफिस नहीं गया.उसी दिनशाम को फिर से रास्ट्र के नाम संदेश आया. 21 दिनों के लॉक डाउन की खबर से वह भी हैरत में पड़ गया.

अगले दिन किसी तरह अरुण ऑफिस गया और जल्दी से सारे काम निबटा कर घर आ गया.घर पर अरुण ने सीमा को ऑफिस में साथ काम करने वाले सुरेश के बारे में बताया कि उस की तबीयत ठीक नहीं है.

अगले दिन सड़क पर सख्ती होने से अरुण दफ्तर न जा सका. लॉक डाउन होने की वजह से अरुण घर में रहने को विवश था.इधर जब सुरेश को कोरोना होने की तसदीक हो गई तो संगीता के घर को क्वारन्टीन कर दिया. अब वह घर से जरा भी बाहर नहीं निकल सकती थी.

उधर क्वारन्टीन होने के कुछ दिन बाद ही अस्पताल से सुरेश के मरने की खबर आई तो क्वारन्टीन होने की वजह से वह घर से निकल नहीं सकती थी.

संगीता को अस्पताल वालों ने फोन पर ही सुरेश की लाश न देने की वजह बताई. वजह यह कि ऐसे मरीजों को वही लोग जलाते हैं ताकि किसी और को यह बीमारी न लगे.

यह सुन कर संगीता घर में ही दहाड़े मारते हुए गश खा कर गिर पड़ी. ऑफिस में भी सुरेश के मरने की खबर भिजवाई गई, पर ऑफिस बंद होने से किसी ने फोन नहीं उठाया.जब लॉक डाउन हटा तो अरुण यों ही संगीता के दिए पते पर घर पहुंच गया.

अरुण ने सुरेश के घर का दरवाजा खटखटाया तो संगीता ने ही खोला.संगीता को देख अरुण मुस्कुराते हुए बोला, “कैसे हैं सुरेश? उस की तबीयत पूछने चला आया.”संगीता ने अंदर आने के लिए कहा, तो वह संगीता के पीछेपीछे चल दिया.

कमरे में अरुण को बिठा कर संगीता चाय बनाने किचन में चली गई. कमरे का नजारा देख अरुण  हैरत में पड़ गया क्योंकि सुरेश की तसवीर पर फूल चढ़े हुए थे, अरुण समझ गया कि सुरेश अब नहीं रहा.

संगीता जब चाय लाई तो अरुण ने हैरानी से संगीता से पूछा तो उस ने रोते हुए बताया कि ये तो 30 मार्च को ही चल बसे थे. अस्पताल से खबर आई थी. मुझे तो क्वारन्टीन कर दिया गया. फोन पर ही अस्पताल वालों ने लाश देने से मना कर दिया.

क्या करती,घर में फूटफूट कर रोने के सिवा.अरुण ने गौर किया कि सुरेश की फोटो के पास ही पैसे रखे थे, जो उस ने संगीता को दिए थे.संगीता ने उन पैसों की ओर देखा और अरुण ने संगीता की इन सूनी आंखों में  देखा. थके कदमों से अरुण वहां से लौट आया.इन सूनी आंखों में अरुण को जाते देख  संगीता की आंखों में आंसू आ गए.

वजूद से परिचय: भैरवी के बदले रूप से क्यों हैरान था ऋषभ?

‘‘मम्मी… मम्मी, भूमि ने मेरी गुडि़या तोड़ दी,’’ मुझे नींद आ गई थी. भैरवी की आवाज से मेरी नींद टूटी तो मैं दौड़ती हुई बच्चों के कमरे में पहुंची. भैरवी जोरजोर से रो रही थी. टूटी हुई गुडि़या एक तरफ पड़ी थी.

मैं भैरवी को गोद में उठा कर चुप कराने लगी तो मुझे देखते ही भूमि चीखने लगी, ‘‘हां, यह बहुत अच्छी है, खूब प्यार कीजिए इस से. मैं ही खराब हूं… मैं ही लड़ाई करती हूं… मैं अब इस के सारे खिलौने तोड़ दूंगी.’’

भूमि और भैरवी मेरी जुड़वां बेटियां हैं. यह इन की रोज की कहानी है. वैसे दोनों में प्यार भी बहुत है. दोनों एकदूसरे के बिना एक पल भी नहीं रह सकतीं.

मेरे पति ऋषभ आदर्श बेटे हैं. उन की मां ही उन की सब कुछ हैं. पति और पिता तो वे बाद में हैं. वैसे ऋषभ मुझे और बेटियों को बहुत प्यार करते हैं, परंतु तभी तक जब तक उन की मां प्रसन्न रहें. यदि उन के चेहरे पर एक पल को भी उदासी छा जाए तो ऋषभ क्रोधित हो उठते, तब मेरी और मेरी बेटियों की आफत हो जाती.

शादी के कुछ दिन बाद की बात है. मांजी कहीं गई हुई थीं. ऋषभ औफिस गए थे. घर में मैं अकेली थी. मांजी और ऋषभ को सरप्राइज देने के लिए मैं ने कई तरह का खाना बनाया.

परंतु यह क्या. मांजी ऋषभ के साथ घर पहुंच कर सीधे रसोई में जा घुसीं और फिर

जोर से चिल्लाईं, ‘‘ये सब बनाने को किस ने कहा था?’’

मैं खुशीखुशी बोली, ‘‘मैं ने अपने मन से बनाया है.’’

वे बड़बड़ाती हुई अपने कमरे में चली गईं और दरवाजा बंद कर लिया. ऋषभ भी चुपचाप ड्राइंगरूम में सोफे पर लेट गए. मेरी खुशी काफूर हो चुकी थी.

ऋषभ क्रोधित स्वर में बोले, ‘‘तुम ने अपने मन से खाना क्यों बनाया?’’

मैं गुस्से में बोली, ‘‘क्यों, क्या यह मेरा घर नहीं है? क्या मैं अपनी इच्छा से खाना भी नहीं बना सकती?’’

मेरी बात सुन कर ऋषभ जोर से चिल्लाए, ‘‘नहीं, यदि तुम्हें इस घर में रहना है तो मां की इच्छानुसार चलना होगा. यहां तुम्हारी मरजी नहीं चलेगी. तुम्हें मां से माफी मांगनी होगी.’’

मैं रो पड़ी. मैं गुस्से से उबल रही थी कि सब छोड़छाड़ अपनी मां के पास चली जाऊं. लेकिन मम्मीपापा का उदास चेहरा आंखों के सामने आते ही मैं मां के पास जा कर बोली, ‘‘मांजी, माफ कर दीजिए. आगे से कुछ भी अपने मन से नहीं करूंगी.’’

मैं ने मांजी के साथ समझौता कर लिया था. सभी कार्यों में उन का ही निर्णय सर्वोपरि रहता. मुझे कभीकभी बहुत गुस्सा आता मगर घर में शांति बनी रहे, इसलिए खून का घूंट पी जाती.

सब सुचारु रूप से चल रहा था कि अचानक हम सब के जीवन में एक तूफान आ गया. एक दिन मैं औफिस में चक्कर खा कर गिर गई और फिर बेहोश हो गई. डाक्टर को बुलाया गया, तो उन्होंने चैकअप कर बताया कि मैं मां बनने वाली हूं.

सभी मुझे बधाई देने लगे, मगर ऋषभ और मैं दोनों परेशान हो गए कि अब क्या किया जाए.

तभी मांजी ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे बेटा नहीं था उसी कमी को पूरा करने के लिए यह अवसर आया है.’’

मां खुशी से नहीं समा रही थीं. वे अपने पोते के स्वागत की तैयारी में जुट गई थीं.

 

अब मां मुझे नियमित चैकअप के लिए डाक्टर के पास ले जातीं.

चौथे महीने मुझे कुछ परेशानी हुई तो डाक्टर के मुंह से अल्ट्रासाउंड करते समय अचानक निकल गया कि बेटी तो पूरी तरह ठीक है औैर मां को भी कुछ नहीं है.

मांजी ने यह बात सुन ली. फिर क्या था. घर आते ही फरमान जारी कर दिया कि दफ्तर से छुट्टी ले लो और डाक्टर के पास जा कर गर्भपात कर लो. मांजी का पोता पाने का सपना जो टूट गया था.

मैं ने ऋषभ को समझाने का प्रयास किया, परंतु वे गर्भपात के लिए डाक्टर के पास जाने की जिद पकड़ ली. आखिर वे मुझे डाक्टर के पास ले ही गए.

डाक्टर बोलीं, ‘‘आप लोगों ने आने में बहुत देर कर दी है. अब मैं गर्भपात की सलाह नहीं दे सकती.’’

अब मांजी का व्यवहार मेरे प्रति बदल गया. व्यंग्यबाणों से मेरा स्वागत होता. एक दिन बोलीं, ‘‘बेटियों की मां तो एक तरह से बांझ ही होती हैं, क्योंकि बेटे से वंश आगे चलता है.’’

अब घर में हर समय तनाव रहता. मैं भी बेवजह बेटियों को डांट देतीं. ऋषभ मांजी की हां में हां मिलाते. मुझ से ऐसा व्यवहार करते जैसे इस सब के लिए मैं दोषी हूं. वे बातबात पर चीखतेचिल्लाते, जिस से मैं परेशान रहती.

एक दिन मांजी किसी अशिक्षित दाई को ले कर आईं और फिर मुझ से बोलीं, ‘‘तुम औफिस से 2-3 की छुट्टी ले लो… यह बहुत ऐक्सपर्ट है. इस का रोज का यही काम है.

यह बहुत जल्दी तुम्हें इस बेटी से छुटकारा दिला देगी.’’

सुन कर मैं सन्न रह गई. अब मुझे अपने जीवन पर खतरा साफ दिख रहा था. मैं ऋषभ के आने का इंतजार करने लगीं. वे औफिस से आए तो मैं ने उन्हें सारी बात बताई.

ऋषभ एक बार को थोड़े गंभीर तो हुए, लेकिन फिर धीरे से बोले, ‘‘मांजी नाराज हो जाएंगी, इसलिए उन का कहना तो मानना ही पड़ेगा.’’

मुझे कायर ऋषभ से घृणा होने लगी. अपने दब्बूपन पर भी गुस्सा आने लगा कि क्यों मैं मुखर हो कर अपने पक्ष को नहीं रखती. मैं क्रोध से थरथर कांप रही थी. बिस्तर पर लेटी तो नींद आंखों से कोसों दूर थी.

ऋषभ बोले, ‘‘क्या बात है? बहुत परेशान दिख रही हो? सो जाओ… डरने की जरूरत नहीं है. सबेरे सब ठीक हो जाएगा.’’

मैं मन ही मन सोचने लगी कि ऋषभ इतने डरपोक क्यों हैं? मांजी का फैसला क्या मेरे जीवन से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है? मेरा मन मुझे प्रताडि़त कर रहा था. मुझे अपने चारों ओर उस मासूम का करुण क्रंदन सुनाई पड़ रहा था. मेरा दिमाग फटा जा रहा था… मुझे हत्यारी होने का बोध हो रहा था. ‘बहुत हुआ, बस अब नहीं,’ सोच मैं विरोध करने के लिए मचल उठी. मैं चीत्कार कर उठी कि नहीं मेरी बच्ची, अब तुम्हें मुझ से कोई नहीं दूर कर सकता. तुम इस दुनिया में अवश्य आओगी…

मैं ने निडर हो कर निर्णय ले लिया था. यह मेरे वजूद की जीत थी. अपनी जीत पर मैं स्वत: इतरा उठी. मैं निश्चिंत हो गई और प्रसन्न हो कर गहरी नींद में सो गई.

सुबह ऋषभ ने आवाज दी, ‘‘उठो, मांजी आवाज दे रही हैं. कोई दाई आई है… तुम्हें बुला रही हैं.’’

मेरे रात के निर्णय ने मुझे निडर बना दिया था. अत: मैं ने उत्तर दिया, ‘‘मुझे सोने दीजिए… आज बहुत दिनों के बाद चैन की नींद आई है. मांजी से कह दीजिए कि मुझे किसी दाईवाई से नहीं मिलना.’’

मांजी तब तक खुद मेरे कमरे में आ चुकी थीं. वे और ऋषभ दोनों ही मेरे धृष्टता पर हैरान थे. मेरे स्वर की दृढ़ता देख कर दोनों की बोलती बंद हो गई थी. मैं आंखें बंद कर उन के अगले हमले का इंतजार कर रही थी. लेकिन यह क्या? दोनों खुसुरफुसुर करते हुए कमरे से बाहर जा चुके थे.

भैरवी और भूमि मुझे सोया देख कर मेरे पास आ गई थीं. मैं ने दोनों को अपने से लिपटा कर खूब प्यार किया. दोनों की मासूम हंसी मेरे दिल को छू रही थी. मैं खुश थी. मेरे मन से डर हवा हो चुका था. हम तीनों खुल कर हंस रहे थे.

ऋषभ को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि रात भर में इसे क्या हो गया. अब मेरे मन में न तो मांजी का खौफ था न ऋषभ का और न ही घर टूटने की परवाह थी. मैं हर परिस्थिति से लड़ने के लिए तैयार थी.

यह मेरे स्वत्व की विजय थी, जिस ने मुझे मेरे वजूद से मेरा परिचय कराया था.

आदमी का स्वार्थ: पेड़ के पास क्यों आता था बच्चा

उस बालक को मानो सेब के उस पेड़ से स्नेह हो गया था और वह पेड़ भी बालक के साथ खेलना पसंद करता था. समय बीता और समय के साथसाथ नन्हा सा बालक कुछ बड़ा हो गया. अब वह रोजाना पेड़ के साथ खेलना छोड़ चुका था. काफी दिनों बाद वह लड़का पेड़ के पास आया तो बेहद दुखी था.

‘‘आओ, मेरे साथ खेलो,’’ पेड़ ने लड़के से कहा.

‘‘मैं अब नन्हा बच्चा नहीं रह गया और अब पेड़ पर नहीं खेलता,’’ लड़के ने जवाब दिया, ‘‘मुझे खिलौने चाहिए. इस के लिए मेरे पास पैसे नहीं हैं. मैं पैसे कहां से लाऊं?’’

‘‘अच्छा तो तुम इसलिए दुखी हो?’’ पेड़ ने कहा.

‘‘मेरे पास पैसे तो नहीं हैं, पर तुम मेरे सारे सेब तोड़ लो और बेच दो. तुम्हें पैसे मिल जाएंगे.’’

यह सुन कर लड़का बड़ा खुश हुआ. उस ने पेड़ के सारे सेब तोड़ लिए और चलता बना. इस के बाद वह लड़का फिर पेड़ के आसपास दिखाई नहीं दिया. पेड़ दुखी रहने लगा.

अचानक एक दिन लड़का फिर पेड़ के पास दिखाई दिया. वह अब जवान हो रहा था. पेड़ बड़ा खुश हुआ और बोला, ‘‘आओ, मेरे साथ खेलो.’’

‘‘मेरे पास खेलने के लिए समय नहीं है. मुझे अपने परिवार की चिंता सता रही है. मुझे अपने परिवार के लिए सिर छिपाने की जगह चाहिए. मुझे एक घर चाहिए. क्या तुम मेरी मदद कर सकते हो?’’ युवक ने पेड़ से कहा.

‘‘माफ करना, मेरे बच्चे, मेरे पास तुम्हें देने के लिए कोई घर तो नहीं है, हां, अगर तुम चाहो तो मेरी शाखाओं को काट कर अपना घर बना सकते हो.’’

युवक ने पेड़ की सभी शाखाओं को काट डाला और खुशीखुशी चलता बना. उस को प्रसन्न जाता देख कर पेड़ प्रफुल्लित हो उठा. इस तरह नन्हे बच्चे से जवान हुआ दोस्त फिर काफी समय के लिए गायब हो गया और पेड़ फिर अकेला हो गया, उस की हंसीखुशी उस से छिन गई.

काफी समय बाद अचानक एक दिन गरमी के दिनों में वही युवक  से अधेड़ हुआ व्यक्ति पेड़ के पास आया तो पेड़ खुशी से फूला नहीं समाया, मानो उस की जिंदगी वापस आ गई हो. पेड़ ने उस से कहा, ‘‘आओ, मेरे साथ खेलो.’’

‘‘मैं बहुत दुखी हूं,’’ उस ने कहा, ‘‘अब मैं बूढ़ा होता जा रहा हूं. मैं एक जहाज पर लंबे सफर पर निकलना चाहता हूं ताकि आराम कर सकूं. क्या तुम मुझे एक जहाज दे सकते हो?’’

‘‘मेरे तने को काट कर जहाज बना लो. तुम इस जहाज से खूब लंबा सफर करना और बस, अब खुश हो जाओ,’’ बालक से अधेड़ बने व्यक्ति ने पेड़ के तने से एक जहाज बनाया और सफर पर निकल गया और फिर गायब हो गया.

काफी समय के बाद वह पेड़ के पास फिर पहुंचा.

‘‘माफ करना मेरे बच्चे, अब मेरे पास तुम्हें देने के लिए कुछ भी नहीं बचा है. अब तो सेब भी नहीं रहे,’’ पेड़ ने बालक से कहा.

‘‘मेरे दांत ही नहीं हैं कि मैं सेब चबाऊं,’’ उस ने उत्तर दिया.

‘‘अब वह तना भी नहीं बचा जिस पर चढ़ कर तुम खेलते थे.’’

‘‘अब मेरी उम्र मुझे पेड़ पर चढ़ने की इजाजत नहीं देती,’’ रुंधे गले से उस ने कहा.

‘‘मैं सही मानों में तुम्हें कुछ दे नहीं सकता. अब मेरे पास केवल मेरी बूढ़ी मृतप्राय जड़ें ही बची हैं,’’ पेड़ ने आंखों में आंसू ला कर कहा.

‘‘अब मैं ज्यादा कुछ नहीं चाहता. चाहता हूं तो बस एक आराम करने की जगह. मैं इस उम्र में अब बहुत थका सा महसूस कर रहा हूं,’’ उस ने कहा.

‘‘वाह, ऐसी बात है. पेड़ की पुरानी जड़ें टेक लगा कर आराम करने के लिए सब से बढि़या हैं. आओ मेरे साथ बैठो और आराम करो,’’ पेड़ ने खुशीखुशी उस को आराम करने की दावत दी.

वह टेक लगा कर बैठ गया.

ये सेब के पेड़ हमारे अभिभावकों की तरह हैं. जब हम बच्चे होते हैं तो पापामम्मी के साथ खेलना पसंद करते हैं. जब हम पलबढ़ कर बड़े होते हैं तो अपने मातापिता को छोड़ कर चले जाते हैं और उन के पास गाहेबगाहे अपनी जरूरत से ही जाते हैं, जब कोई ऐसी जरूरत आन पड़ती है जिसे खुद पूरा करने में असमर्थ होते हैं. इस के बावजूद हमारे अभिभावक ऐसे मौकों पर हमारी सब जरूरतें पूरी कर हमें खुश देखना चाहते हैं.

आदमी कितना कू्रर है कि उस सेब के पेड़ का फल तो फल उस की शाखाएं और तने तक काट डालता है, वह भी अपने स्वार्थ की खातिर. इतना कू्रर कि पेड़ काटते समय उसे जरा भी उस पेड़ पर दया नहीं आई, जिस के साथ बचपन से खेला, उस के फल खाए और उस के साए में मीठी नींद का मजा लिया.

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