अनजाने पल: भाग 4- क्यों सावित्री से दूर होना चाहता था आनंद

मैं ने अभी तक अपनी घर की स्थिति के बारे में पिताजी को कुछ नहीं बताया था. सोचा, उन्हें क्यों परेशानी में डालूं. मां तो थी नहीं. पिताजी वैसे भी व्यापार के सिलसिले में हमेशा ही दौरे पर रहते थे. अभी मैं सोच ही रही थी कि पिताजी से मिल आऊं कि आनंद का पत्र आ गया. पत्र देख कर मेरा मन आनंदित हो गया.

बड़े ही उत्साह से मैं ने पत्र खोला. अब तो मैं नौकरी छोड़ कर भी अपनी बच्ची और पति के पास लौटने के लिए बेताब हो रही थी. कितनी अजीब होती है नारी, अपनी अस्मिता के लिए संघर्ष करते हुए परिवार से अलग हुई थी. अब उसी प्रकार परिवार से जुड़ने के लिए सबकुछ छोड़ने को उद्यत हो गई. लेकिन पत्र पढ़ते ही मेरा चेहरा फक पड़ गया. ऐसा लगा, मानो हजारों बरछियां शरीर को छलनी कर रही हों. बड़े ही अनुनयविनय से कड़वी दवा पर मीठी टिकिया का लेप चढ़ा कर पत्र भेजा था. सारांश यही था कि वह माया से विवाह करना चाहता है. माया के गर्भ में उस का बच्चा है. वह मुझ से तलाक चाहता है.

मेरी समझ में सारी बातें आ गईं. मुझ से अलगाव रखना, चिट्ठी न लिखना और खिंचेखिंचे रहने के पीछे क्या कारण था. यह मैं समझ गई. उस कायर की दुर्बलता पर मुझे हंसी आई. साफसाफ कह देता तो क्या मैं मुकर जाती.

मुझे नीलिमा के लिए डर लगने लगा था. परंतु उस ने लिखा था, नीलिमा माया से बहुत प्यार करती है. इसलिए वह  हमारे साथ ही रहेगी. मैं ने अपने दिल को कठोर बना कर तलाक के कागजों पर हस्ताक्षर कर दिए, कानूनी कार्यवाही के बाद 4 वर्षों में तलाक भी हो गया. मैं पिता के पास चेन्नई लौट आई.

मैं ने व्यापार में पिताजी का हाथ बंटाने का निश्चय कर लिया. दिल्ली की नौकरी से भी इस्तीफा दे दिया. चेन्नई में हमारी कंपनी खूब अच्छी चल रही थी. मैं ने पूरी निष्ठा से अपने को काम में समर्पित कर दिया. पर पिताजी वह सदमा झेल न पाए. तलाक होने के 2 महीने बाद ही हृदयगति रुक जाने से उन की मृत्यु हो गई.

मेरी जिंदगी की गाड़ी मंथर गति से आगे बढ़ने लगी. मैं कई मर्दों से व्यापार के दौरान मिलती. परंतु किसी से भी व्यापारिक चर्चा के अलावा कोई बात न करती. लोग मुझ से कहते भी कि तुम दोबारा विवाह क्यों नहीं कर लेतीं. परंतु मैं ने पुनर्विवाह न करने का दृढ़ संकल्प कर लिया था.

एक दिन जब मैं फैक्टरी से कार में लौट रही थी तो एक शराबी मेरी गाड़ी से टकरा कर गिर पड़ा. मैं ने गाड़ी रोकी और उसे अस्पताल ले गई. उस का इलाज करवाया. बाद में परिचय पूछने पर उस ने अपना नाम विकास बताया. उस ने बताया कि उस की पत्नी किरण कुछ दिनों पहले मर गई है. शादी हुए 2 साल ही हुए थे कि वह गुजर गई. उस के वियोग को सहन न कर पाने के कारण विकास ने शराब पीना शुरू कर दिया था.

विकास का भी कपड़े का व्यापार था. पर उस ने किरण के गुजर जाने के बाद उस की तरफ ध्यान नहीं दिया था. दुखी ही दुखियारे का दुख समझ सकता है. मैं ने विकास को सहारा दिया, उस के अंदर प्रेरणा जगाई. धीरेधीरे विकास मुझ से प्रेम करने लगा. उस ने शादी का प्रस्ताव रखा तो मैं झिझकी. तब उस ने कहा, ‘मुझे अपने पर विश्वास नहीं है. अगर तुम ने मुझे ठुकरा दिया तो मैं फिर से कहीं शराबी न बन जाऊं.’

मैं ने सोचा, दिशाहीन चलती अपनी जीवननैया को अगर खेवैया मिल रहा हो तो इनकार नहीं करना चाहिए. हम दोनों को एकदूसरे की जरूरत भी थी ही.

पर मन ने सचेत किया, ‘आज इसे मेरी जरूरत है, कल जरूरत न पड़े तो आनंद की तरह ही दूध की मक्खी के समान फेंक दे तो…’

मैं ने उस के विवाह प्रस्ताव को ठुकरा दिया. हम दोनों का व्यापार एकजैसा होने के कारण हम अकसर मिलते. परंतु विकास ने दोबारा मुझ से इस बारे में चर्चा नहीं की. हम दोनों होटल में व्यापार के सिलसिले में ही एक गोष्ठी में भाग लेने गए थे. विकास ने मुझे विचारों के घेरे से बाहर निकाला, ‘‘सावित्री, तुम ने कुछ भी नहीं खाया है. सारे लोग खा कर जा चुके हैं.’’

मैं ने कहा, ‘‘ओह, मुझे माफ कर दो, विकास. पुरानी यादों में मैं खो गई थी.’’

‘‘मैं समझ गया था. मैं ने उन लोगों से कह दिया है कि तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है. चलो, हम यहां से सीधे आनंद के पास चलते हैं.’’

‘‘अभी वे लोग हमें आनंद से मिलने देंगे?’’

‘‘कम से कम नीलिमा से तो मिल लोगी.’’

‘‘मैं तुम्हें परेशान नहीं करना चाहती, स्वयं ही चली जाऊंगी. तुम गोष्ठी में जाओ.’’

उस ने मेरी बात न मानी. अपने सहायक को सारी बातें समझा कर वह मेरे साथ चल पड़ा. उस ने अपने ड्राइवर से गाड़ी घर भेज देने को कह दिया.

जब हम अस्पताल पहुंचे तो नीलिमा बाहर ही खड़ी मिली. वह रो पड़ी थी. अश्रुपूरित नेत्रों से उस ने हम से जुदा होने के बाद की कहानी सुनाई. जब माया ने आनंद से विवाह किया तो नीलू बहुत खुश थी. माया उस से बहुत प्यार करती थी. आनंद भी बहुत खुश था.

परंतु नीलू को माया का धीरेधीरे आंनद के करीब आना अच्छा न लगा. वह थी भी जिद्दी. आनंद का प्यार उस के लिए कम होने पर वह सह नहीं पाई. माया को वह कभी आनंद के साथ कहीं न जाने देती और उस के करीब भी न जाने देती. इस बात को ले कर हर रोज झगड़ा होता, तकरार होती, परंतु अंत में जीत नीलू की ही होती.

जब माया का बेटा हुआ तो नीलू को बहुत अच्छा लगा, लेकिन माया गुड्डू को सदा नीलू से दूरदूर ही रखती. एक दिन गुड्डू पालने में सो रहा था. माया रसोई में खाना बना रही थी. अचानक वह जाग गया और रोने लगा.

नीलू अपने कमरे से भाग कर आई और गुड्डू को गोद में उठाना चाहा. वह नीचे गिरने को हुआ तो माया ने उसे उठा लिया. माया ने सोचा कि वह गुड्डू को पालने से नीचे गिराना चाह रही थी. नीलू ने कितना समझाने की कोशिश की, परंतु न तो वह समझी, न ही उस ने आनंद को समझाने का मौका दिया. आनंद के ऐसे कान भरे कि रात में उस ने नीलू को मारा भी.

इस घटना के बाद उस परिवार में एक दरार उत्पन्न हो गई, जो बढ़ती ही गई. ऐसे ही वातावरण में दुखी, तिरस्कृत, उपेक्षित, प्यार के लिए तरसतीबिलखती नीलू बड़ी होती गई. मुझे सोच कर हैरानी होती है कि आनंद ने अपने ही खून को इस तरह लाचार, विवश और दुखी क्यों बनाया?

इस घटना के बाद जब से आनंद का तबादला चेन्नई हुआ, तब से नीलू हर रोज यही सोचती कि उस की मां उसे दोबारा मिल जाए.

मैं ने अश्रुपूरित नेत्रों से बेटी को देखा. 9 साल की उम्र में उस ने क्याकुछ नहीं देखा और सहा था. आनंद और माया हर जगह गुड्डू को ले जाते और नीलिमा को घर पर छोड़ जाते. इस बार भी डिजनीलैंड से लौटते समय कार दुर्घटना में यह हादसा हो गया था. माया की मौत हो गई थी और आनंद भी बुरी तरह जख्मी हो जीवन व मृत्यु के बीच संघर्ष कर रहा था. गुड्डू को तनिक भी चोट नहीं आई थी.

नीलिमा जब यह सब बता रही थी, उसी दौरान आनंद भी गुजर गया. उस से कुछ कहनेसुनने का मौका भी न मिला. मैं दोनों बच्चों को घर ले आई. विकास ने आनंद के अंतिम संस्कार में मेरी काफी मदद की. पूछताछ के दौरान पता चला कि माया का कोई रिश्तेदार नहीं था. मैं किस रिश्ते से बच्चे को यहां रखती. स्कूल में उस का क्या नाम देती. सोच में डूबी हुई थी कि नीलू अंदर आई. उस ने पूछा, ‘‘मां, क्या तुम गुड्डू की भी मां बनोगी?’’

मैं ने कहा, ‘‘मैं गुड्डू की मां ही तो हूं.’’

‘‘मैं ने आप को कितना गलत समझा था मां,’’ नीलू आत्मग्लानि से भर कर बोली.

‘‘मेरी भी तो कुछ गलती थी.’’

‘‘मैं ने आप से मिलने की बहुत कोशिश की, पर पिताजी और माया आंटी ने मौका ही नहीं दिया.’’

‘‘बेटी, जो गुजर गए, उन के बारे में अपशब्द नहीं कहते.’’

गुड्डू रोता हुआ वहां आया. 3 बरस का गोलमटोल गुड्डू बहुत प्यारा लगता था. तोतली जबान में जब उस ने पुकारा ‘दीदी’, तो नीलू ने उसे अपनी बांहों में समेटते हुए कहा, ‘‘गुड्डू, ये हमारी मां हैं.’’

मैं ने उसे गोद में ले कर पुचकारा. वह बहुत देर तक ‘मम्मीमम्मी’ कह कर रोता रहा. मैं सोचने लगी, जिस पति ने मुझे मेरी बेटी से इसलिए अलग किया था, क्योंकि उस के अनुसार, मुझ में ममता नहीं थी, स्नेह नहीं था, और अब समय का खेल देखिए उस के बच्चे मेरी गोद में आ गए.

इतने में विकास भीतर आया और बोला, ‘‘आज इन बच्चों की परवरिश के लिए पिता का स्थान मुझे दे सकोगी?’’

मैं ने कहा, ‘‘हमारे बच्चे होंगे तो क्या होगा?’’

‘‘सरकार के परिवार नियोजन का बोर्ड नहीं देखा. 2 बच्चे बस, 2 से अधिक नहीं. मैं ने औपरेशन करवा लिया है,’’ वह बोला.

‘‘अगर मैं विवाह से इनकार कर देती तो…तुम ने ऐसा क्यों किया?’’

‘‘तुम इनकार कर दो, तब भी ये बच्चे हमारे ही रहेंगे. इन बच्चों को हम ने साथसाथ ही पाया है. इसलिए मैं ने इन का संरक्षक बन कर जीवन गुजारने का निश्चिय कर लिया है.’’

इस से आगे मुझ में इनकार करने की शक्ति नहीं थी. परंतु मैं ने नीलिमा को बुला कर पूछा, ‘‘विकास अंकल को पापा कह सकोगी?’’

‘‘अगर गुड्डू के लिए तुम मां हो तो अंकल हम दोनों के पापा हुए न…’’

हम उस अनजाने पल में एकदूसरे से पूरी तरह बंध चुके थे. मैं ने कृतज्ञताभरी दृष्टि से विकास की ओर देखा. मेरी नजरों में छिपी सहमति विकास की नजरों से छिप न सकी.

एक सच यह भी: किस वजह से सुमि डिप्रैशन में चली गई?

आदतन सुबह की चाय पीते हुए मैं ने फेसबुक के अपडेट्स देखने के लिए फोन औन किया तो सब से पहले सुमि की पोस्ट दिखी. उस ने सिर्फ इतना लिखा था कि आज मेरा जन्मदिन है. मुझे बड़ा अजीब लगा कि यह बात ऐसे लिख कर खुद कौन बताता है पर मन में कई सवाल उठे जैसे क्या यह किसी की लाइफ में बढ़ता अकेलापन नहीं है कि वह अब आभासी दुनिया के लोगों से अपना हर सुखदुख बांटने के लिए विवश है? इंसान के आसपास उस के मन की बातें सुनने वाले लोग कम होते जा रहे हैं. जो भी हैं आसपास, वे सब अपनेअपने फोन में दूर की दुनिया के लोगों से जुड़े रहने में खुशी तलाश रहे हैं, अपने सामने बैठे व्यक्ति को इग्नोर कर, उस की बातों को अनसुना कर.

सुमि से मिले मुझे भी एक अरसा हो चुका था. कोरोना के समय ने लोगों को जो एकदूसरे  से दूर किया, लोगों को अकेले रहने की आदत ही हो गई है. इस समय लोगों ने अपना खाली समय सोशल मीडिया पर बिताया, पर अब लाइफ नौर्मल होने पर भी हम वहीं सोशल मीडिया पर ही अटके रह गए. सुमि से मिलना आसान नहीं लगता. वह मुंबई के एक कोने में रहती है, मैं दूसरे कोने में. पर आज मैं ने उसे सरप्राइज देने का मन बना लिया था. मैं ने उसे तुरंत फोन मिलाया, बर्थडे सौंग गाते हुए विश किया. वह

हंस पड़ी.

मैं ने कहा, ‘‘अगर आज फैमिली के साथ बिजी है तो कोई बात नहीं पर अगर फ्री है तो चल बीच में किसी अच्छी जगह लंच करते हैं.’’

सुमि ने कहा, ‘‘फैमिली के साथ तो डिनर होगा, दिन में फ्री ही हूं, पलैडियम मिलते हैं.’’

पलैडियम मौल उस के और मेरे घर के

रास्ते में पड़ता है. हम पहले भी वहीं मिलते रहे हैं. दोनों को आनाजाना फिर लंबा नहीं पड़ता. आज मु?ो बारबार सुमि का ध्यान आ रहा था. ऐसा कोई दिन नहीं जाता जब वह 3-4 पोस्ट्स न डालती हो. कभी कुछ खाया तो खाने की पोस्ट, कभी अपनी, कभी कोई और. मैं जितने लोगों को जानती हूं, सुमि सब से ज्यादा सोशल मीडिया पर ऐक्टिव है. एक बेटा मलय है जो जौब करता है, उस के पति संजय से कई बार मिल चुकी हूं. जब भी मिले, सज्जन, सभ्य लगे.

‘पंजाब ग्रिल’ के बाहर खड़ी एक मौडर्न सी स्टाइलिश वन पीस ड्रैस पहने सुमि बहुत सुंदर तरीके से तैयार थी. मैं ने उसे गले लगाते हुए विश करते हुए उस का गिफ्ट उसे दिया और कहा भी, ‘‘बहुत अच्छी लग रही हो. लग रहा है आज तुम्हारा जन्मदिन है.’’

वह खुश दिखी. हम एक कोने में बैठ गए, और्डर देते रहे, खातेपीते रहे. मैं ने फिर उस से वह सवाल पूछ ही लिया जो आजकल मुझे परेशान करता है, ‘‘सुमि, सोशल मीडिया पर तुम कैसे अचानक बहुत ज्यादा ऐक्टिव हो गई हो पर अच्छा हुआ, आज तुम ने फेसबुक पर अपना बर्थडे लिख कर बता दिया वरना मैं सचमुच भूल गई थी. तुम वैसे भी सबकुछ तो वहां बता ही देती है.’’

‘‘हां, दीया जानती हूं, ऐसे अब कौन याद रखता है. इसीलिए तो लिखा और देखो न, फायदा भी हुआ. आज कितने टाइम बाद हम 2 फ्रैंड्स बैठ कर ऐसे बातें कर रही हैं. तुम्हें याद नहीं था तो अगर मैं पोस्ट न करती तो क्या मैं आज इस खास दिन दोस्त से मिल पाती.’’

सुमि की बात में दम था. वह मेरी 10 साल पुरानी दोस्त है. हम पहले एक ही

सोसाइटी में सालों साथ रहे हैं फिर वह कहीं और शिफ्ट हो गई तो मिलनाजुलना कम होता गया और अब तो फोन भी कभीकभी ही होते. मैं चुप रही.

वह एक ठंडी सांस ले कर बोली, ‘‘यार, लाइफ जैसी हो गई है वैसी तो नहीं सोची थी.’’

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘तुम्हें नहीं लगता कि सब पता नहीं क्यों अपने में सिमटते जा रहे. कोई किसी से मिलता नहीं, बातें नहीं करता, बातें सुनता भी नहीं.’’

‘‘हां, सुमि, आजकल सब बहुत बिजी हैं.’’

‘‘पर किस चीज में? कमाखा तो पहले भी रहे थे. अब कहां इतने बिजी हो गए?’’ कहतेकहते उस की आवाज भर्रा गई.

इस पर मुझे चौंकना ही था. अत: मैं ने पूछा, ‘‘सुमि, क्या हुआ है? सब ठीक तो है?’’

‘‘दीया, मेरा डिप्रैशन, ऐंग्जौइटी का ट्रीटमैंट चल रहा है.’’

‘‘क्या?’’ खाना बीच में रोक कर मैं उस का चेहरा देखने लगी कि यह इतनी हंसमुख है. इसे डिप्रैशन कैसे हो सकता है. मुझे बहुत दुख हुआ. पूछा, ‘‘सुमि, क्या हुआ है?’’

‘‘पता नहीं दीया, अचानक तबीयत खराब रहने लगी, पता नहीं क्यों बहुत अकेलापन लगने लगा. संजय और मलय अपनी दुनिया में मस्त. जब छोटे शहर से मुंबई आई थी, आंखों में एक अलग ही सपने थे. अब तो सब बुझ गए. कभी सोचती हूं कि अगर वर्किंग होती तो क्या मेरी लाइफ में कुछ तो लोग होते, एक सोशल सर्किल होता, कुछ तो होता.’’

‘‘नहीं, सुमि ऐसा नहीं है. तब और बातों का स्ट्रैस होता. तब और जिम्मेदारियां होती.’’

‘‘पर तब यह अकेलापन तो नहीं होता न?’’

‘‘इतने लोग अकेलेपन के शिकार हैं, सब के सब घर ही नहीं बैठे हैं, वर्किंग भी हैं. यह तुम्हारी परेशानी एक तुम्हारी ही नहीं है.’’

‘‘थक कर सोशल मीडिया पर कभी कोई पोस्ट तो कभी कोई पोस्ट डालती रहती हूं. लोग वहां तुरंत जुड़ जाते हैं. थोड़ा हंसीमजाक चलता है तो अच्छा लगता है. कम से कम एक स्माइल तो आती है फनी पोस्ट्स पर वरना तो कभीकभी लगता है कि मुसकराए हुए भी कितना टाइम बीत गया. तू बता, विराज और वंशा कैसे हैं?’’

‘‘विराज का तो वही औफिस, टूर का रूटीन. वंशा आजकल हफ्ते में 3 दिन वर्क फ्रौम होम करती है, पूरा दिन अपने रूम में. उसे भी काम का बहुत स्ट्रैस रहता है. कभीकभी तो सिर्फ वाशरूम और कुछ खाने के लिए अपने रूम से निकलती है. वीकैंड आराम करती है या अपने दोस्तों के साथ थोड़ा बाहर जाती है.’’

‘‘तुम बोर नहीं होती? खाली समय क्या करती हो?’’

‘‘बस तुम्हारी तरह ही ऐसे ही बोर होने

लगी थी तो खुद भी कुछ क्लासेज जौइन कर

ली हैं और घर पर छोटे बच्चों की डांस क्लासेज भी लेने लगी हूं. क्या करें यार कहीं तो दिल लगाना है न.’’

‘‘अरे वाह, कत्थक सिखा रही है? तू तो ऐक्सपर्ट है न डांस में? पर खुद कौनसी क्लास जा रही है?’’

‘‘गिटार बजाना सीख रही हूं. बहुत दिनों से मन था कि गिटार सीखूं. वहां एक अच्छा ग्रुप भी बन गया है. अब यह जमाना हमारी मां, नानी का तो है नहीं कि हमेशा पासपड़ोस में कोई गपशप वाला हाजिर ही हो. अब तो अकेलेपन से निबटने के लिए रास्ते ढूंढ़ने हैं. कई बार सोचती हूं कि मां को तो आज भी सोशल मीडिया की जरूरत नहीं है. कई बार उन्हें कहती हूं कि आओ मां, आप को फोन पर ही सिखा देती हूं तो कहती हैं कि मत सिखाओ, नहीं तो जब आओगी, मैं भी इस में सिर दिए बैठी मिलूंगी. तुम्हारी बातें जो अभी बैठ कर सुनती हूं, फिर किसे सुनाओगी?’’

सुमि यह बात सुन कर बहुत प्यारी हंसी हंसी. मैं ने फिर कहा, ‘‘वैसे यार, एक बात तो है कि जब भी तुम कोई पोस्ट डालती हो, बड़े कमैंट्स आ जाते हैं. मैं सब पढ़ती हूं और हंसती भी हूं. उस दिन तो तुम्हारी रैड ड्रैस पर किसी ने कविता ही लिख दी थी.’’

‘‘हां, नई ड्रैस थी, पहन कर जब संजय को दिखाने गई तो फोन में ही मुंह दिए बैठे रहे. मैं ने कहा कि कैसी है ड्रैसेज तो बोले कि पहले भी तो देखा है, अच्छी ही है.’’

हम दोनों इस बात पर खुल कर हंसीं. फिर उस ने कहा, ‘‘अब हंस रही हूं इस बात पर, उस दिन तो गुस्सा आया था, फिर पोस्ट डाली तो लोगों के हंसीमजाक पर सचमुच हंसने लगी थी. भले ही फेसबुक को हम फेकबुक कह लें, कुछ पलों का अकेलापन तो दूर हो ही जाता है.’’

‘‘रिश्तेदारों से मिलनाजुलना होता रहता है?’’

‘‘नहीं यार, कभी किसी को मुंबई घूमने आना होता है और ठिकाना चाहिए होता है तो घर आ जाता है. हम से मिलने, हमारे साथ रहने के लिए थोड़े ही कोई आता है. जो हम से अच्छी स्थिति में हैं, वे आ कर अपने घमंड में डूबे रहते हैं, जो हम से कम हैं वे ईर्ष्या में जलते रहते हैं. मातापिता, सासससुर से ही मायके ससुराल होते हैं. वे सब तो अब रहे नहीं. सब रिश्तेदारी बस खत्म ही समझ. पिछले महीने एक रिश्तेदार घर आए थे. हमारा घर सी फेसिंग है ही. तुम्हें तो पता ही है, बस सारा दिन मुझ से अपने फोटोज खिंचवाते रहे और पोस्ट करते रहे. बैठ कर बात करने की फुरसत ही नहीं थी उन्हें. बस फोन में लगे रहे.’’

‘‘पर ऐसे बीमार हो कर नहीं चलेगा, सुमि. डिप्रैशन की नौबत आनी नहीं चाहिए. मुझे बहुत दुख हुआ है. कभीकभी के लिए सोशल मीडिया पर टाइम पास करने में कोई बुराई नहीं, पर कुछ और भी करनेसीखने में मन लगा लो तो लाइफ से शिकायतें भी कम हो जाएंगी और जीना थोड़ा आसान हो जाएगा. देख सुमि, अब टाइम ही ऐसा है कि किसी की किसी को जरूरत नहीं. हर इंसान अपने में व्यस्त है, अकेलापन बढ़ता जा रहा है, पर जीवन बीमारियों की भेंट थोड़े ही चढ़ा देना है. थोड़ा हैल्थ पर ध्यान दो और किसी काम में खुद को व्यस्त कर के देखना. अच्छा लगेगा. जमाना और लोग अब बदलने वाले नहीं. यह सब अब ऐसा ही रहेगा.’’

सुमि ने मेरे हाथ पर हाथ रख दिया, थोड़ा भावुक हुई, कहा, ‘‘ऐसे ही जल्दीजल्दी मिलते रहा करें?’’

‘‘क्यों नहीं, जब तेरा मन हो, बताना, मिलेंगे. मैं तो हमेशा ही दोस्तों के साथ बैठ कर बातें करने के लिए तैयार रहती हूं.’’

हम खाना खा चुके थे. मैं बिल देने लगी तो उस ने नहीं देने दिया, कहा, ‘‘यह मेरे जन्मदिन की पार्टी है.’’

हम ने फिर गले मिल कर अपनेअपने रास्ते की कैब पकड़ ली. हम दोनों आज करीब

4 घंटे साथ थीं और मैं इस बात पर हैरान थी कि एक बार व्हाट्सऐप के अपने फैमिली गु्रप पर ‘रीच्ड’ का मैसेज डाल कर हम दोनों ने ही एक बार भी अपने फोन की तरफ आज देखा भी

नहीं था.

मैं ने सुमि को छेड़ने के लिए एक मैसेज किया, ‘‘सुमि, हम फोटो लेना भूल गए, कोई फोटो नहीं लिया.’’

रोने वाली इमोजी के साथ उस ने जवाब दिया, ‘‘मैं सचमुच अपनी लाइफ में कुछ पल ऐसे चाहती हूं कि कुछ देर फोन और सोशल मीडिया भूली रहूं, पर ऐसे पल मिलते ही नहीं.’’

मैं ने उसे बस एक किस की इमोजी भेज. फिर कुछ देर बाद उस का मैसेज आया, ‘‘सिंगिंग क्लास जौइन करूंगी, सोच लिया है, गूगल कर रही हूं, अब कुछ गाया जाए.’’

मुझे खुशी हुई. मैं ने हार्ट की इमोजी भेज दी.

वर्किंग हसबैंड: दीपा ने अपनी जरुरतो के लिए सहारा क्यों चुना?

दीपा अपने औफिस की सीढि़यां चढ़ते हुए सोच रही थी, एक दिन मैं भी इस औफिस की बौस बनूंगी. तभी मोबाइल पर आशीष का फोन आ गया, ‘‘तुम कानन की नोटबुक कहां रख कर गई हो?’’

दीपा झंझला कर बोली, ‘‘यार ढूंढ़ लो,

अब औफिस से भी मैं घर के काम मौनिटर करूं?’’ आशीष ने झेंपी हुई हंसी के साथ मोबाइल काट दिया.

दीपा 26 वर्ष की बेहद महत्त्वाकांक्षी और आकर्षक नवयुवती थी. उस की उड़ान बेहद ऊंची थी, पर उस की शादी एक ऐसे इंसान से हो गई थी जो बेहद कमजोर था. मगर इस से दीपा की उड़ान पर कोई फर्क नहीं पड़ा था.

दूसरी बेटी के जन्म के बाद बढ़ते हुए खर्च को मद्दे नजर दीपा ने बड़ी बड़ी कंपनियों में अप्लाई करना शुरू कर दिया था और जल्द ही उसे कामयाबी भी मिल गई थी. आज उसी बड़ी कंपनी में दीपा का पहला दिन था.

दीपा ने अपने वर्क स्टेशन पर बैग रखा और इधरउधर जायजा लिया. उस ने देखा 2 बेहद ही मामूली शक्लसूरत की लड़कियां और 3 उजड़ से युवक उस की टीम में थे. दीपा को लगा इन देहातियों और मामूली शक्लसूरतों के बीच उस का काम आसान हो गया है.

अगले दिन पूरी टीम की टीम मैनेजर के साथ मीटिंग थी. दीपा ने घर आ कर शाम की चाय पी और फिर कमरा बंद कर के प्रेजैंटेशन में लग गई थी. दीपा को अच्छे से मालूम था कि कौन सा दांव कब खेलना है.

शाम के 7 बजे जब आशीष आया तो दोनों बच्चियों को नानी के साथ देख कर

बोला, ‘‘अरे, मम्मी कहां है तुम्हारी?’’

दीपा की मम्मी बोली, ‘‘अरे, मेरी लड़की तो दिनरात इस घर के लिए मेहनत कर रही है.

जो काम तुम्हें करने चाहिए थे, मेरे बेटी कर

रही है.’’

आशीष चाह कर भी कुछ बोल नहीं पाया. वह जिंदगी को ऐसे ही जीने का आदि था.

आशीष को मेहनत करने से, रिस्क लेने से डर लगता था, एक ही लीक पर चलने का नाम

ही आशीष के लिए जिंदगी है. मगर दीपा की सोच बहुत अलग थी. बहरहाल, आशीष ने कभी दीपा को किसी भी फैसले पर सवाल नहीं किया. वह अलग बात है कि आशीष के इस रवैए के कारण दीपा और आशीष के बीच दूरी बढ़ती जा रही थी.

अगले दिन दफ्तर में हरकोई दीपा को ही देख रहा था. काले रंग के ट्यूब टौप और लाल रंग की मिनी स्कर्ट में वह कहर बरपा रही थी. प्रेजैंटेशन के बाद टीम का प्रोजैक्ट मैनेजर अजय दीपा का मुरीद हो गया.

अजय ने दीपा के अंदर वही कामयाबी की भूख महसूस करी जो उस के अंदर थी. उसे समझ आ गया कि दीपा के साथ वह इस कंपनी को ऊंचाइयों पर ले जा सकता है.

अगले दिन अजय ने दीपा को अपने कैबिन में बुलाया और उस से बातचीत करी. दीपा के परिवार के बारे में जान कर अजय का दिल बुझ सा गया.

अजय ने गला खंखारते हुए कहा, ‘‘दीपा, तुम्हें मैं अपने प्रोजैक्ट में टीम लीड बनाने की सोच रहा था, मगर शायद छोटे बच्चों के साथ तुम्हें दिक्कत होगी.’’

दीपा पलकें झपकाते हुए बोली, ‘‘सर,

मेरी प्रोफैशनल और पर्सनल लाइफ अलग हैं. आप एक बार मौका दीजिए. मैं आप को निराश नहीं करूंगी.’’

दीपा की मेहनत, लगन, कामयाबी की भूख और उस का आकर्षक व्यक्तित्व सभी कुछ उस की फेवर में था. धीरेधीरे दीपा अजय के लिए जरूरी हो गई.

1 ही साल के भीतर दीपा की सैलरी दोगुनी हो गई. उस ने एक अच्छी सोसायटी में फ्लैट बुक करा लिया और एक सैकंड हैंड छोटी कार भी अपने आनेजाने के लिए खरीद ली.

दीपा सुबह 10 बजे से रात के

10 बजे तक औफिस में बिताती थी. अजय औफिस में दीपा की छोटीछोटी जरूरतों का बहुत ध्यान रखता था. उसे दीपा के साथ समय गुजारना बेहद पसंद था. वहीं दीपा को भी औफिस में घर जैसा लगने लगा था.

दीपा जब तक घर आती तब तक आशीष बच्चों को खाना खिला कर सुला देता था और खुद भी

आधी नींद में ही रहता था. दीपा का कितना मन करता था कि वह आशीष को दफ्तर की बातें बताए, मगर आशीष सुनीअनसुनी कर देता था.आशीष की दुनिया ही अलग थी. वह

उन मर्दों में से नहीं था जो बीवी की तरक्की से जलता बल्कि आशीष ने पूरी जिम्मेदारी दीपा

के कंधों पर डाल कर बैक सीट ले ली थी.

दफ्तर के बाद आशीष कुछ समय बच्चों के साथ बीतता और बाकी पंडेपुजारियों और भजन मंडली के साथ.

परिवार और रिश्तेदारों में दीपा और

आशीष एक ऐसे जोड़े के रूप में मशहूर थे जो औरों से जुदा थे. पूरी रिश्तेदारी में इस बात का डंका बजता था कि आशीष ने अपनी पत्नी दीपा के कैरियर के कारण खुद अपना कैरियर बलिदान कर दिया है. मगर असलियत क्या है यह बस दीपा ही जानती थी.

ऐसे में धीरेधीरे ही सही दीपा का झुकाव अजय की तरफ बढ़ता जा रहा था. जहां पूजापाठ, व्रत, कीर्तनों और पत्नी की बेरुखी के कारण आशीष पतिपत्नी के रिश्ते से विमुख होता जा रहा था वहीं दीपा अब अपनी शारीरिक जरूरतों के लिए भी अजय के ऊपर आश्रित थी.

अजय दीपा के लिए वर्किंग हसबैंड बन गया था. उस के सपनों का साथी. वे सपने जिन का साथी उस का अपना हसबैंड कभी नहीं बन पाया था. समाज में आशीष दीपा के पति के

रूप में जाना जाता था. रात के जिस भी पहर दीपा घर आती थी आशीष उस का खाना लगा कर देता, दीपा को बच्चों की प्रोग्रैस रिपोर्ट बताता और फिर रात के पूजापाठ में लग जाता. बस दीपा और आशीष का रिश्ता इन्हीं बैसाखियों पर घिसट रहा था.

आशीष एक छोटी सी कंपनी में छोटी सी नौकरी में था. आगे बढ़ने की, तरक्की करने की आशीष को कोई चाह नहीं थी. ऐसा भी कह सकते हैं वह अपनी कमजोरी को पूजापाठ के पाखंड के परदे के पीछे ढक लेता था.

जब भी दीपा आशीष को नौकरी बदलने को कहती वह बात को अपने ग्रहों की बुरी

दशा पर डाल देता था. उस का यह ढुलमुल रवैया दीपा को अजय के और करीब कर देता था.

दीपा जहां दफ्तर में अजय के साथ

जितनी पावरफुल महसूस करती थी वहीं घर आ कर वह आशीष के साथ बेहद लाचार महसूस करती थी.

दीपा की बड़ी बेटी आरना अब  4 साल

की हो रही थी. मगर अब तक भी आराना ठीक से न तो चल पा रही थी और न ही बोल पा रही. दीपा जब भी आशीष से इस बारे में बात करती उस का एक ही जवाब होता, ‘‘मैं पंडितजी से बात कर रहा हूं. तुम क्व5 हजार दे दो. मैं आरना के पाठ करवा दूंगा.’’

दीपा अब तक 3 बार पाठ के लिए पैसे खर्च कर चुकी थी.

एक बार ऐसे ही जब दीपा ने औफिस में अजय से इस बात का जिक्र किया तो उस ने दीपा से रुखाई से कहा, ‘‘पढ़लिख कर क्यों जाहिलों जैसी बात कर रही हो.’’

‘‘आज शाम बेटी को आशीर्वाद हौस्पिटल ले कर आ जाना, मैं डाक्टर को दिखा दूंगा.’’

शाम को दीपा व आशीष नियत समय पर आरना को लेकर पहुंच गए. अजय ने पहले से ही डाक्टर से अपौइंटमैंट ले रखा था. डाक्टर से बातचीत में भी अजय ही आगे रहा. दीपा को ऐसा लग रहा था मानो आरना अजय की बेटी हो.

आशीष की पैनी नजरें यह भांप गई थीं कि अजय दीपा का बौस भी से कुछ ज्यादा ही है, मगर उसे लगा जब फ्री में बिना कुछ करे काम हो रहा है तो क्या फर्क पड़ता हैं.

कार में बैठते ही आशीष बड़ी बेशर्मी से बोला, ‘‘दीपा देखा पाठ का कमाल, अजयजी जैसा फरिश्ता भेज दिया भगवान ने हमारी आरना के लिए.’’

अजय मन ही मन सोच रहा था कि दीपा का पति तो उस की सोच से भी अधिक घटिया है.

अगले दिन औफिस में दीपा

अजय से डाक्टर की फीस के बारे में पूछ रही थी.

अजय दीपा का हाथ हाथों में लेते हुए बोला, ‘‘आरना मेरी बेटी ही है, मैं यह अपनी खुशी के लिए कर रहा हूं. आरना को पूजा की नहीं डाक्टर की जरूरत हैं. डाक्टर और फिजियोथेरैपी की मदद से देखना आरना जल्द ही ठीक हो जाएगी.’’

आरना की कंडीशन के कारण अब अजय का दीपा के घर में आनाजाना बढ़ गया था. अजय अब अकसर डिनर दीपा के यहां ही करता.

रिश्तेदारों में जब इस बात को ले कर कानाफूसी होने लगी तो आशीष बोला, ‘‘मैं  20वीं शताब्दी का पति नहीं हूं, जब साथ काम करते हैं तो साथ उठनाबैठना भी होगा.’’

आशीष ने अपनी आंखों पर दौलत की पट्टी बांध ली थी. वह मन ही मन जानता था कि अजय और दीपा का रिश्ता दोस्ती से कहीं बढ़ कर है मगर अजय के जीवन में रहने से आशीष के परिवार की जिंदगी में जो सहूलितें बढ़ गई थीं वे आशीष की आंखों से छिपी नहीं थीं.

मगर जब अजय की पत्नी संस्कृति को

दीपा के बारे में पता चला तो अजय ने बड़ी सफाई से दीपा और अपने रिश्ते को प्रोफैशनल करार कर दिया.

उस दिन के बाद से अजय ने दीपा के

घर आनाजाना कम कर दिया. दीपा को मालूम

था ये सब अजय अपने परिवार के कारण कर

रहा है. इसलिए दीपा भी अजय से उखड़ीउखड़ी रहने लगी.

अजय एक दिन दीपा से बोला, ‘‘तुम आजकल आरना को डाक्टर के पास ले कर क्यों नहीं जा रही हो? डाक्टर का फोन आया था.’’

दीपा बोली, ‘‘कब जाऊं मैं, रात के 8 बजे तो यहीं से वापस जाती हूं.’’

अजय बोला, ‘‘तुम्हारे और मेरे बीच क्या बौस इंप्लोई वाला रिश्ता है?’’

दीपा रूखी आवाज में बोली, ‘‘हमारे बीच  प्रोफैशनल रिश्ता ही तो है तो फिर मैं कैसे आप से कुछ उम्मीद रख सकती हूं?’’

अजय हंसते हुए बोला, ‘‘अरे मैं आरना

को अपनी बेटी ही मानता हूं, तुम एक बार कहो तो सही मैं खुद उसे डाक्टर के पास ले कर जाऊंगा. मुझे मालूम है तुम मु?ा से नाराज हो. मगर दीपा मैं ने तुम से कभी कोई वादा नहीं

किया था. मैं संस्कृति को चाह कर भी नहीं

छोड़ सकता हूं. उस ने मेरा साथ तब दिया था

जब मेरी जिंदगी मैं कोई नहीं था. उस के

परिवार ने मुझे हर तरह से सपोर्ट किया है. प्यार जैसा कुछ नहीं है मगर फिर भी मैं उसे छोड़

नहीं सकता हूं. तुम क्या आशीष से अलग हो सकती हो?’’

दीपा थके स्वर में बोली, ‘‘मैं यह दोहरी जिंदगी जीते हुए थक गई हूं. मैं आशीष से

अलग होने को तैयार हूं तुम बताओ, तुम तैयार हो हमारे रिश्ते को कानूनी रूप से अपनाने को?’’

अजय ने डूबते स्वर में कहा,

‘‘मैं तुम्हारा वर्किंग हसबैंड तो हो सकता हूं दीपा मगर लीगल हसबैंड नहीं.’’

दीपा ने कुछ नहीं कहा मगर पूरा दिन वह इसी उधेड़बुन में रही कि क्या ऐसी जिंदगी जीना जायज है जैसी वह जी रही है?

पूरे 1 माह तक दीपा ने अजय से दूरी बना

कर रखी. अपनी शारीरिक इच्छाओं को उस ने काम की बलि चढ़ा दिया. मगर अजय ने दीपा के इस फैसले का सम्मान किया था. उस ने कभी इस बाबत दीपा से कोई सवाल नहीं किया. दीपा ने इस दौरान आशीष से दूरियां खत्म करने का भी भरसक प्रयास किया. मगर आशीष पर कोई फर्क नहीं पड़ा.

पहले जो काम दीपा अजय की मदद से कर लेती थी अब उसे अकेले करने पड़ रहे थे. मगर एक रात अचानक दीपा की छोटी बेटी के पेट में बहुत तेज दर्द हुआ. दीपा अकेले ही उसे हौस्पिटल ले कर भागी क्योंकि आशीष अपनी भक्त मंडली के साथ किसी दूरदराज इलाके में गया हुआ था.

हौस्पिटल में जा कर दीपा 1 घंटे तक इधर से उधर डाक्टर के चक्कर लगाती रही मगर जब कोई और राह नहीं सु?ाई दी तो उस ने झिझकते हुए रात के 1 बजे अजय को फोन किया. उसे समझ नहीं आ रहा था कि अजय इतनी रात गए कौल उठाएगा भी या नहीं.

मगर अजय ने न केवल कौल उठाई वह

20 मिनट में दीपा के साथ था. अजय ने डाक्टर से बातचीत करी तो पता लगा कि बच्ची की इमरजैंसी में सर्जरी करनी पड़ेगी क्योंकि उसे इंटेस्टाइनल ओब्सट्रक्शन हो गया है. 1 लाख रुपेय का खर्च था. अजय ने बिना दीपा से पूछे सर्जरी के लिए हां कर दी.

दीपा बस चुपचाप सब सुन रही थी. उस ने अजय से बस इतना कहा, ‘‘मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं.’’

बेटी की सर्जरी हो गई थी. अजय ने आशीष को भी फोन किया था मगर उस ने खीसें निपोरते हुए कहा, ‘‘मैं अपनी बेटी के लिए यहां से प्रार्थना कर रहा हूं, भगवान सब भला करेंगे.’’

जब दीपा की बेटी वापस घर आ गई तो अजय ने दीपा के लिए 1 माह तक वर्क फ्रौम होम की इजाजत भी दे दी.

दीपा को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करती अगर अजय उस की जिंदगी में नहीं होता. दीपा को समझ आ गया था कि उस की जिंदगी में लीगल हसबैंड से अधिक वर्किंग हसबैंड की जरूरत है. दीपा ने सहीगलत की परिभाषा को गृहस्थी के हवनकुंड में स्वाहा कर दिया.

दीपा ने समझता कर लिया कि अपने बच्चों और अपने भविष्य के लिए अजय जैसे वर्किंग हसबैंड का साथ बहुत जरूरी है. अत: धीरेधीरे फिर से अजय और दीपा के बीच नजदीकियां बढ़ने लगीं.

मगर इस बार अजय ने भी दीपा के घर

की देहरी नहीं लाघी. और न ही दीपा

ने अजय से कोई उम्मीद बांधी. दोनों ने ही

शायद अपने इस वर्किंग रिश्ते को स्वीकार कर लिया.

1 माह बाद जब दीपा औफिस पहुंची तो अजय मुसकराते हुए बोला, ‘‘बहुत दिनों बाद औफिस में जिंदगी वापस आई है.’’

दीपा ने अजय को कौफी का मग पकड़ते हुए कहा, ‘‘चलो अब काम पर जुटते हैं वर्किंग हसबैंड.’’

‘‘मुझे तुम्हारे साथ मिल कर इस कंपनी को नई ऊंचाइयों पर ले जाना है.’’

 

अपने अपने सच: पहचान बनाने के लिए क्या फैसला लिया स्वर्णा की मां ने?

अनजाने पल: भाग 3- क्यों सावित्री से दूर होना चाहता था आनंद

अपनी पीएचडी की समाप्ति पर प्रफुल्लचित, उत्साहित मैं जयपुर चल पड़ी. मन मुझे दोषी ठहराने लगा. मैं ने इन 6 महीनों में उन लोगों की कोई खोजखबर नहीं ली थी. उन लोगों ने भी मुझे कोई पत्र नहीं लिखा था. मैं सोचने लगी कि मेरी बेटी नीलिमा को भी क्या मेरी याद कभी नहीं आई होगी. पर मैं ने ही कौन सा उसे याद किया. पीएचडी की तैयारी इतनी अजीब होती है कि व्यक्ति सबकुछ भूल जाता है. परंतु इस में गलती ही क्या है? आनंद भी जब कंपनी की तरफ से ट्रेनिंग के लिए 6 महीने के लिए विदेश गया था तो उस ने भी तो कोई खोजखबर नहीं ली थी.

मैं भी तो व्यस्त थी. आनंद मेरी मजबूरी जरूर समझ गया होगा. मैं जब घर जाऊंगी तो वे लोग बहुत खुश होंगे. सहर्ष मेरा स्वागत करेंगे. मन में आशा की किरण जागी, लेकिन तुरंत ही निराशा के बादलों ने उसे ढक दिया, ‘क्या सचमुच वे मेरा स्वागत करेंगे? मुझे अगर घर में प्रवेश ही नहीं करने दिया तो?’ संशय के साथ ही मैं ने जयपुर पहुंच कर ननद के घर में प्रवेश किया.

ननद विधवा हो गई थी. अपना कोई नहीं था. नीलिमा से उसे बहुत प्यार था. बहुत रईस भी थी, इसलिए बड़ी शान से रहती थी. घर में नौकरचाकरों की कमी नहीं थी. मैं ने डरतेडरते भीतर प्रवेश किया. आनंद बाहर बरामदे में खड़ा था. उस ने मुझे देखते ही व्यंग्यभरी मुसकराहट के साथ कहा, ‘मेमसाहब को फुरसत मिल गई.’

मैं ने जबरदस्ती अपने क्रोध को रोका और मुसकराते हुए अंदर प्रवेश किया. अंदर से ननद की कठोर व कर्कश आवाज ने मुझे टोका, ‘जिस परिवार से तुम ने 6 महीने पहले रिश्ता तोड़ दिया था, अब वहां क्या लेने आई हो?’

‘मैं ने…मैं ने कब रिश्ता तोड़ा था?’

ननद बोली, ‘जब बच्ची को मेरे सुपुर्द कर दिया तो क्या संबंध तोड़ना नहीं हुआ?’

मैं ने हैरान हो, बरबस अपनी भावनाओं को काबू में रखते हुए, कहा, ‘दीदी, मैं आप से अपना अधिकार जताने या लड़ने नहीं आई हूं. नीलिमा कानूनन आज भी मेरी ही बेटी है. मैं केवल उसे लेने आई हूं.’

सफर की थकान और मई की लू के थपेड़ों ने मुझे पहले ही पस्त कर दिया था. ऊपर से आनंद के शब्दों ने मुझे और भी व्यथित कर दिया. उस ने बेरुखी से कहा, ‘नीलिमा को ले जाने का खयाल अपने दिल से निकाल दो. वह तुम से कोई संबंध रखना ही नहीं चाहती.’

मैं ने आपा खोते हुए कहा, ‘क्या रिश्ते कच्चे धागों के बने होते हैं, जो इतनी जल्दी टूट जाते हैं?’

इतने में नीलिमा बाहर आई. मैं ने सोचा था कि वह मुझ से गले मिलेगी, रोएगी. अगर वह मुझे कोसती, रूठती, रोती, कुछ भी करती तो मैं खुश हो जाती. परंतु उस की बेरुखी ने मुझे परेशान कर दिया.

उसी ने कहा, ‘मां, क्या लेने आई हो यहां?’

‘शुक्र है, तुम मुझे अब भी मां तो मानती हो. मैं तुम्हारे पास आई हूं. मेरी पीएचडी पूरी हो गई है. जून से मुझे प्रिंसिपल का पद मिल जाएगा. कालेज के कैंपस में ही हमारा घर होगा. तुम्हें वहां बहुत अच्छा लगेगा. अब हम साथसाथ रहेंगे.’

‘पिताजी हमारे साथ नहीं चलेंगे. और मैं उन के बगैर रह नहीं सकती. क्या आप हमारे साथ यहां नहीं रह सकतीं?’

मैं कुछ भी न कह पाई. मेरा वजूद मुझे नौकरी छोड़ने से रोक रहा था. मैं तबादले की कोशिश करने को तैयार थी. प्रिंसिपल का पद छोड़ने को भी तैयार थी, परंतु नौकरी छोड़ कर बैठे रहना मुझे मंजूर नहीं था. अगर मर्द का अहं इतना तन जाए तो नारी ही क्यों झुके? हम दोनों ने अपनेअपने अहं के चलते बच्ची के भविष्य की बात सोची ही नहीं.

मैं ने फिर विनम्रता और स्नेह से कहा, ‘बेटी, मैं तबादले की कोशिश करूंगी. तब तक तुम मेरे साथ रहो. एक साल के भीतर हम यहीं आ जाएंगे.’

नीलिमा ने पलट कर पिता की ओर देखा, ‘क्यों, मंजूर है?’

आनंद बोला, ‘सोच लो. मैं वहां नहीं रहूंगा. तुम्हें घर में अकेले दीवारों से बातें करते हुए रहना पड़ेगा. फिर तुम्हारी मां के कथन में न जाने कितनी सचाई. बाद में मुकर जाए तो…’

मुझे आनंद पर बहुत क्रोध आया कि न जाने भाईबहन ने नीलिमा से मेरे विरुद्ध  क्या कुछ कह दिया था. वह बेचारी अपने नन्हे से मस्तिष्क में विचारों का बवंडर लिए चुप रह गई.

मेरी ननद ने कहा, ‘अभी बच्ची को ले जाने की क्या जरूरत है. जब तबादला हो जाए तब देख लेंगे. अभी तो वह यहां बहुत खुश है.’

मुझे यह सलाह ठीक लगी. मैं अगली ट्रेन से ही दिल्ली लौट

आई. मेरे मन में भी आगे के कार्यक्रमों के बारे में योजनाएं बनने लगी थीं. मैं ने लौटते ही अपने तबादले के बारे में सैक्रेटरी से अनुरोध किया तो उन्होंने कहा, ‘तुम्हारी प्रिंसिपल की नौकरी के लिए सिफारिश आई है. क्या यह सबकुछ छोड़ कर जयपुर जाना चाहोगी?’

मैं ने कहा, ‘परिवार की खुशी के लिए नारी को थोड़ा सा त्याग करना ही पड़ता है. तभी तो वह नारी होने का दायित्व निभा पाती है.’

मुझे लोगों ने बहुत समझाया, पर मैं टस से मस न हुई. लेकिन तबादले की अर्जी देते ही तो तबादला नहीं हो जाता. सरकारी विश्वविद्यालयों में प्रशिक्षकों का आदानप्रदान हो सकता है. यूनिवर्सिटी में उत्तरपुस्तिकाओं की जांच के दौरान मेरी रजनी से मुलाकात हुई. उस के पति का दिल्ली तबादला हो गया था और वह भी यहां आना चाहती थी. जयपुर कालेज से दिल्ली आने की उस की उत्सुकता देख मैं भी अत्यंत प्रसन्न हुई. हम दोनों ने ही आदानप्रदान के सारे कागजात जमा करवा दिए.

फिर मैं 4 दिनों की छुट्टी ले जयपुर गई. जयपुर से मेरे पति के पत्र नियमित रूप से नहीं आते थे. ननद तो कभी लिखती ही नहीं थी. मैं अपने खयालों में खोई हुई यह सोच भी नहीं पाई कि शायद वे लोग मुझ से कन्नी काट रहे हैं.

जयपुर पहुंचने पर पता चला कि ननद को कैंसर था. जब तक पता चला, काफी देर हो चुकी थी. उन की देखभाल के लिए माया नाम की 20-21 वर्षीय नर्स रख ली गई थी. मैं ने पति से पूछा, ‘मुझे सूचना क्यों नहीं दी, क्या मैं इतनी गैर हो गई थी?’

आनंद ने कहा, ‘पता नहीं, तुम छुट्टी ले कर आतीं या नहीं. और इस बीमारी में इलाज भी काफी दिनों तक चलता रहता है.’

मैं ने उस समय भी यही सोचा कि शायद उस ने मेरे बारे में ठीक ही निर्णय लिया होगा. मैं ने अपने तबादले के बारे में उस से जिक्र किया तो वह बोला, ‘इस समय तुम्हारा तबादला कराना ठीक नहीं होगा. दीदी बहुत बीमार हैं. माया उन की देखभाल अच्छी तरह कर ही लेती है. वह इलाज के बारे में सबकुछ जानती भी है. नीलू भी उस से काफी हिलमिल गई है.’

‘मेरे आने से इस में क्या रुकावट आ सकती है?’

‘डाक्टरों का कहना है कि दीदी महीने, 2 महीने से ज्यादा रहेंगी नहीं. फिर मैं भी जयपुर में रहना नहीं चाहता. मेरा अगला तबादला जहां होगा, तुम वहीं आ जाना. यही ठीक रहेगा.’

मैं समझ ही नहीं पाई कि वह मुझ से पीछा छुड़ाना चाह रहा है या मेरी भलाई चाहता है. मैं नीलू से जब भी कुछ बोलना चाहती, वह  ‘मां, मुझे परेशान मत करो’, कह कर भाग जाती.

माया दिल की अच्छी लगती थी, देखने में भी सुंदर थी. नीलू से वह बहुत प्यार करती थी. परंतु मैं ने पाया कि वह मेरे पति और बेटी के कुछ ज्यादा ही करीब है. वातावरण कुछ बोझिल सा लगने लगा. ननद मुझ से ठीक तरह से बोलती ही नहीं थी. वह बोलने की स्थिति में थी भी नहीं, क्योंकि काफी कमजोर और बीमार थी.

मैं वहां 2 दिनों से ज्यादा रुक न पाई. जाने से पहले मैं ने रजनी को अपनी मजबूरी बताते हुए फोन कर दिया था.

जब दिल्ली लौटी तो मन में दुविधा थी, ‘क्या मुझे जबरदस्ती वहां रुक जाना चाहिए था. पर किस के लिए रुकती? सब तो मुझे अजनबी समझते थे.’ कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था.

मुश्किल से 10 दिन बीते होंगे कि आनंद का पत्र आया. ‘दीदी की मृत्यु उसी दिन हो गई थी, जिस दिन तुम दिल्ली लौटी. मैं ने यहां से तबादले के लिए अर्जी भेजी है. आगे कुछ नहीं लिखा था. मैं ने संवेदना प्रकट करते हुए जवाब भेज दिया. इस के बाद एक महीना बीत गया. आनंद ने मेरे किसी भी पत्र का जवाब नहीं दिया.

मैं ने चिंतातुर जब बैंक मुख्यालय को फोन किया तो पता चला कि आनंद 15 दिन पहले ही तबादला ले कर मुंबई जा चुका है. उस ने जाने की मुझे कोई खबर नहीं दी थी.

मेरा मन आनंद की तरफ से उचट गया. मुझे मर्दों से नफरत सी होने लगी. इस प्रकार मुझ से दूरी बनाए रखने का क्या कारण हो सकता है, मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था.

आस्था के आयाम : क्यों उड़ गए अभय के होश

जून का अंतिम सप्ताह और आकाश में कहीं बादल नहीं. अभय को आज हर हाल में रामपुर पहुंचना है वरना ऐसी गरमी में वह क्यों यात्रा करता? वह तो स्टेशन पहुंचने से ले कर रिजर्वेशन चार्ट में अपना नाम ढूंढ़ने तक में ही पसीनापसीना हो गया. पर अपने फर्स्ट क्लास एसी डब्बे में पहुंचते ही उस ने राहत की सांस ली. सामने की सीट पर एक सुंदर महिला बैठी थी. यात्रा में ऐसे सहयात्री का सान्निध्य अच्छा लगता है.

‘‘सामान सीट के नीचे लगा दो,’’ अभय ने पानी की बोतल को खिड़की के पास की खूंटी से टांगते हुए कुली से कहा.

अभय ने महिला को कनखियों से देखा. वह एक बार उन लोगों को उचटती नजर से देख कुछ पढ़ने में व्यस्त हो गई है. इस बीच कुली ने सामान सीट के नीचे रख दिया. जेब से पर्स निकाल कर कुली को मुंहमांगी मजदूरी के साथसाथ अभय ने 10 रुपए बख्शिश भी दी. कुली के डब्बे से उतरते ही गाड़ी ने रेंगना शुरू कर दिया. गाड़ी स्टेशन, शहर पीछे छोड़ती जा रही थी. अब बेफिक्र हो कर अभय ने पूरे डब्बे में नजर दौड़ाई. पूरे डब्बे में सिर्फ वे दोनों ही थे. ऐसा सुखद संयोग पा कर अभय खुश हो उठा. थोड़ी देर बाद अपने जूते उतार कर, बाल संवार कर वह बर्थ पर इस प्रकार टेक लगा कर बैठा कि उस महिला को भलीभांति निहार सके. महिला वास्तव में सुंदर थी. वह लगभग 34-35 वर्ष की तो रही होगी पर देखने से काफी कम आयु की लग रही थी.

अभय उस महिला से संवाद स्थापित करने हेतु व्यग्र हो उठा. पर महिला अपने आसपास के वातावरण से बेखबर पढ़ने में व्यस्त थी. उस की बर्थ पर एक ओर कई समाचारपत्र और पत्रिकाएं रखी हुई थीं और वह एक पुस्तक खोले उस से अपनी नोटबुक में कुछ नोट करती जा रही थी. अभय के बैग में भी 2-3 पत्रिकाएं रखी थीं. पर उन्हें निकालने के बजाय महिला से संवाद करने के उद्देश्य से उस ने शालीनता से पूछा, ‘‘ऐक्सक्यूज मी मैडम, क्या मैं यह मैगजीन देख सकता हूं?’’ महिला ने एक बार सपाट नजर से उसे देखा. 36-37 वर्ष का स्वस्थ, ऊंचे कद का व्यक्ति, गेहुआं रंग और उन्नत मस्तक. कुल मिला कर आकारप्रकार से संभ्रांत और सुशिक्षित दिखाई देता व्यक्ति. महिला ने बिना कुछ कहे मैगजीन उस की ओर बढ़ा दी. तभी अचानक उसे लगा कि इस व्यक्ति को उस ने कहीं देखा है? पर कब और कहां?

दिमाग पर जोर देने पर भी उसे कुछ याद नहीं आया. थक कर उस ने यह विचार मन से झटक दिया और पुन: अपने काम में मशगूल हो गई. गाड़ी लखनऊ स्टेशन पर रुक रही थी. महिला को अपना सामान समेटते देख कर अभय इस आशंका से भयभीत हो उठा कि कहीं यह सुखद सान्निध्य यहीं तक का तो नहीं? अभी तो कोई बात भी नहीं हो पाई है. तभी महिला ने दूसरी नोटबुक और किताब निकाल ली और पुन: कुछ लिखने में व्यस्त हो गई. अभय ने यह देख राहत की सांस ली.

अचानक डब्बे का दरवाजा खुला. टीटी ने अंदर झांका और फिर सौरी कह कर दरवाजा बंद कर दिया. दरवाजा फिर खुला और सफेद वरदी में एक व्यक्ति, जो उस महिला का अरदली था और द्वितीय श्रेणी में यात्रा कर रहा था, ने आ कर उस महिला से सम्मान से पूछा, ‘‘मेम साहब, चाय, कौफी या फिर ठंडा लाऊं?’’

‘‘हां, स्ट्रौंग कौफी ले आओ,’’ महिला ने बिना नजरें उठाए कहा.

जब अरदली जाने लगा तो अभय ने उसे आवाज दे कर बुलाया, ‘‘सुनो, 1 कप कौफी मेरे लिए भी ले आना.’’

अरदली ने ठिठक कर महिला की ओर देखा और उस की मौन स्वीकृति पा कर चला गया. महिला अब अभय के बारे में सोचने लगी कि पुरुष मानसिकता की कितनी स्पष्ट छाप है इस की हर गतिविधि में. थोड़ी ही देर में अरदली 2 कप कौफी दे कर लौट गया. अभय ने कौफी का सिप लेते ही कहा, ‘‘कौफी अच्छी बनी है.’’

मगर महिला बिना कुछ बोले कौफी पीती रही. अभय समझ नहीं पा रहा था कि अब वह महिला से कैसे संवाद स्थापित करे. वह कुछ बोलने ही जा रहा था कि तभी बैरा अंदर आ गया. उस ने पूछा, ‘‘साहब, लंच कहां सर्व किया जाए?’’

‘‘लखनऊ में तो दूसरा बैरा आया था, अब तुम कहां से आ गए?’’ अभय ने पूछा.

‘‘नहीं तो साहब… लखनऊ में भी मैं ही इस डब्बे के साथ था.’’

दोनों के वार्त्तालाप के मध्य हस्तक्षेप कर महिला ने कहा, ‘‘वह बैरा नहीं, मेरा अरदली था.’’ यह सुन कर अभय लज्जित हो उठा. उस ने बैरे को फौरन लंच के लिए और्डर दे कर विदा कर दिया. महिला ने पहले ही अपने लिए कुछ भी लाने को मना कर दिया था. वह मन ही मन सोच रहा था कि उच्चपदासीन होने के बावजूद उस के जीवन में अब तक ऐसी कोई महिला नहीं आई, जिस से संवाद स्थापित करने की ऐसी प्रबल इच्छा होती. कार और सुंदर बंगला मिलने के प्रलोभन में ऐसी पत्नी मिली, जिस से उस का मानसिक स्तर पर कभी अनुकूलन न हो सका. ‘काश, ऐसी महिला आज से कुछ वर्ष पहले मेरे जीवन में आई होती.’

अभय ने पुन: वार्त्ता का सूत्र जोड़ने का प्रयास किया, ‘‘मैडम, आप ने लंच और्डर नहीं किया. क्या आप हरदोई या शाहजहांपुर तक ही जा रही हैं?’’

महिला ने उसे ध्यान से देखा. उसे खीज हुई कि यह व्यक्ति उस की रुखाई के बावजूद निरंतर उस से बात करने का प्रयास किए जा रहा है. ‘इसे पहले कहीं देखा है’ एक बार फिर इस प्रश्न के कुतूहल ने सिर उठाया, पर व्यर्थ. उसे कुछ याद नहीं आ रहा था. फिर अपने दिमाग पर अनावश्यक जोर देने के बजाय उस ने संक्षिप्त उत्तर दिया, ‘‘नहीं, मैं बरेली तक जा रही हूं.’’

‘‘क्या वहां आप का मायका है?’’

‘‘नहीं, मेरा मायका तो फैजाबाद में है. दरअसल, मैं बरेली में एडीशनल मजिस्ट्रेट के पद पर तैनात हूं.’’

यह सुनते ही अभय के मन में एक हूक सी उठी. फिर उस ने लुभावने अंदाज में कहा, ‘‘आप जैसी शख्सीयत से मिलने पर बहुत खुशी हो रही है.’’

फिर अभय सहसा अपने बारे में बताने के लिए बेचैन हो उठा. बोला, ‘‘मैडम, मैं भी जनपद फैजाबाद का रहने वाला हूं. इस समय मैं हरिद्वार में पीडब्लूडी में अधीक्षण अभियंता के पद पर हूं. अभय प्रताप सिंह नाम है मेरा. मेरे पिता ठाकुर विक्रम प्रताप सिंह भी अपने क्षेत्र के नामी ठेकेदार हैं.

‘‘मेरा विवाह सुलतानपुर के एक संभ्रांत ठाकुर घराने में हुआ है. मेरे ससुर भी हाइडिल विभाग में उच्चाधिकारी हैं,’’ अभय नौनस्टौप बोले जा रहा था.

पर ठाकुर विक्रम प्रताप सिंह का नाम सुनते ही महिला को कुछ और सुनाई देना बंद हो गया. एक झटके से विस्मृति के सारे द्वार खुल गए. उसे अपने जीवन की घनघोर पीड़ा का वह अध्याय याद हो आया, जिसे वह अब तक भूल न सकी थी. फिर एक गहरी सांस छोड़ कर महिला ने सोचा कि कुदरत जो करती है, अच्छा ही करती है.

एक दिन इसी अभय से उस की सगाई हुई थी. वह तो मन ही मन उसे अपना पति मान चुकी थी, पर धनसंपदा के प्रलोभन में अभय के पिता ने यह सगाई तोड़ दी थी. बड़ा अपमान हुआ था उस के सीधेसादे बाबूजी का. मगर उसी अपमान के तीखे दंश उसे निरंतर आगे बढ़ने को प्रेरित करते रहे. अपने बाबूजी के खोए सम्मान को वापस पाने हेतु उस ने कड़ी मेहनत की. आज उस के पास सब कुछ है फिर भी उस में एक अजब सा वैराग्य आ गया है, जो शायद इसी व्यक्ति के प्रति कभी रहे उस के गहन अनुराग को ठुकराए जाने का परिणाम है. पर आज अभय की आंखों में अपने प्रति सम्मान और प्रशंसा देख कर उस की सारी गांठें जैसे अपनेआप खुलती चली गईं. गाड़ी बरेली स्टेशन पर रुकी. अरदली ने महिला का सामान उठाया. महिला डब्बे से बाहर जाने के लिए बढ़ी, फिर अनायास अभय की ओर मुड़ी और बोली, ‘‘पहचानते हैं मुझे? मैं उन्हीं ठाकुर विजय सिंह की बेटी निकिता हूं, जिस से कभी आप की सगाई हुई थी,’’ और फिर अभय को अवाक छोड़ डब्बे से उतर गई. बाहर उस के पति और बच्चे उसे रिसीव करने आए थे.

मौसमी बुखार: पति के प्यार को क्यों अवहेलना समझ बैठी माधवी?

‘‘उठो भई, अलार्म बज गया है,’’ कह कर पत्नी के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना राकेश ने फिर करवट बदल ली.

चिडि़यों की चहचहाहट और कमरे में आती तेज रोशनी से राकेश चौंक कर जाग पड़ा, ‘‘यह क्या तुम अभी तक सो रही हो? मधु…मधु सुना नहीं था क्या? मैं ने तुम्हें जगाया भी था. देखो, क्या वक्त हो गया है? बाप रे, 8…’’

जल्दी से राकेश बिस्तर से उठा तो माधवी के हाथ से अचानक उस का हाथ छू गया, वह चौंक पड़ा. माधवी का हाथ तप रहा था. माधवी बेखबर सो रही थी. राकेश ने एक चिंता भरी नजर उस पर डाली और सोचने लगा, ‘यदि मौसमी बुखार ही हो तो अच्छा है, 2-3 दिन में लोटपोट कर मधु खड़ी हो जाएगी. अगर कोई और बीमारी हुई तो जाने कितने दिन की परेशानी हो जाए,’ सोचतेसोचते राकेश बच्चों को जगाने पहुंचा.

चाय बना कर माधवी को जगाते हुए राकेश बोला, ‘‘उठो, मधु, चाय पी लो.’’

माधवी ने आंखें खोलीं, ‘‘क्या समय हो गया? अरे, 9. आप ने मुझे जगाया नहीं. आज बच्चे स्कूल कैसे जाएंगे?’’

राकेश मुसकरा कर बोला, ‘‘बच्चे तो स्कूल गए, तुम क्या सोचती हो, मैं कुछ कर ही नहीं सकता. मैं ने उन्हें स्कूल भेज दिया है.’’

‘‘टिफिन?’’

‘‘चिंता न करो. टिफिन दे कर ही भेजा है.’’

माधवी को खुशी भी हुई और अचंभा भी कि राकेश इतने लायक कब से बन गए? वह सोई रह गई और इतने काम हो गए.

राकेश पुन: बोला, ‘‘मधु और बिस्कुट लो, तुम्हें बुखार लगता है. यह रहा थर्मामीटर. बुखार नाप लेना. अब दफ्तर जा रहा हूं.’’

‘‘नाश्ता?’’

‘‘कर लिया है.’’

‘‘टिफिन?’’

‘‘जरूरत नहीं, वहीं दफ्तर में खा लूंगा. यह दवाइयों का डब्बा है, जरूरत के मुताबिक गोली ले लेना,’’ एक सांस में कहता हुआ राकेश कमरे से बाहर हो गया.

पर दूसरे ही पल फिर अंदर आ कर बोला, ‘‘अरे, दूध तो गैस पर ही चढ़ा रह गया,’’ शीघ्र ही राकेश थर्मस में दूध भर कर माधवी के पास रखते हुए बोला, ‘‘थोड़ी देर बाद पी ले.’’

राकेश के जाते ही माधवी सोचने लगी, ‘इतनी चिंता, इतनी सेवा,’ फिर भी खुश होने के बजाय उस का मन भारी होता जा रहा था, ‘इतना भी नहीं हुआ कि माथे पर हाथ रख कर देख लेते. खुद बुखार नाप लेते तो लाट- साहबी पर धब्बा लग जाता? कितने मजे से सब संभाल लिया. वही पागल है जो सोचती रहती है कि उस के बिना सब को तकलीफ होगी. दिन भर जुटी रहती है सब के आराम के लिए. देखो, सब हो गया न? उस के न उठने पर भी सब काम हो गया? वह सवेरे 6 से 9 बजे तक चकरघिन्नी बन कर नाचती रहती है और सब उसे नचाते रहते हैं. आज तो सब को सबकुछ मिल गया न? लगता है सब जानबूझ कर उसे परेशान करते हैं.’

सोचतेसोचते माधवी का सिर दुखने लगा. चाय के साथ एक गोली सटक कर वह फिर लेट गई. झपकी आई ही थी कि बिन्नो की आवाज से नींद खुल गई, ‘‘बहूजी, आज दरवाजा कैसे खुला पड़ा है? अरे, लेटी हो. तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’

माधवी की आंखें छलछला आईं, ‘‘बिन्नो, जरा देखना, स्नानघर में कपड़े पड़े होंगे. धो देना. गीले कपड़े मेरी छाती पर बोझ बढ़ाते हैं. सब यह जानते हैं पर कपड़े ऐसे ही फेंक गए होंगे.’’

बिन्नो ने स्नानघर से ही आवाज लगाई, ‘‘बहूजी, स्नानघर एकदम साफ है. यहां तो एक भी कपड़ा नहीं.’’

‘क्या एक भी कपड़ा नहीं?’ विस्मय से माधवी ने सोचा. उस की मनोस्थिति ऐसी हो रही थी कि राकेश और बच्चों के हर कार्य से उसे अपनेआप पर अत्याचार होता ही महसूस हो रहा था.

बिन्नो ने काम खत्म कर के उस का सिर और हाथपैर दबा दिए. माधवी कृतज्ञता से भर गई, ‘घर वालों से तो महरी ही अच्छी है. बेचारी कितनी सेवा करती है, अब की दीवाली पर इसे एक अच्छी सी साड़ी दूंगी.’

कुछ तो हाथपैर दबाए जाने से और कुछ दवा के असर से दर्द कम हो गया था. इसलिए माधवी दोपहर तक सोती ही रही.

अचानक ही आंखें खुलीं तो प्रिय सखी सुधा को देख माधवी आश्चर्यमिश्रित खुशी से भर गई, ‘‘तू आज अचानक कैसे?’’

सुधा ने हंस कर कहा, ‘‘मन ने कहा और मैं आ गई,’’ सुधा सुरीले स्वर में गुनगुनाने लगी, ‘‘दिल को दिल से राह होती है. तू बीमार पड़ी है, अकेली है, कितने सही समय पर मैं आई हूं.’’

माधवी कुछ बोले बिना एकटक सुधा को देखती रही. फिर उस की आंखें छलछला आईं. सुधा ने अचरज से पूछा, ‘‘अरे, क्या हुआ?’’

भीगे हुए करुण स्वर में अपने दिन भर के विचारबिंदु एकएक कर सुधा के सामने परोस दिए माधवी ने. स्वार्थी राकेश और बच्चों के किस्से, उस की सेवाटहल में की गई कोताही, जानबूझ कर उस से फायदा उठाने के लिए की गई लापरवाहियों के किस्से, उदाहरण सब सुनाते हुए अंत में न चाहते हुए भी माधवी के मुंह से वह निकल गया जो उसे सवेरे से परेशान किए था, ‘‘देखो न, मेरे बिना भी तो सब का काम होता है. मेरी इन लोगों को जरूरत ही क्या है? सवेरे 6 से 9 बजे तक चकरघिन्नी की तरह नाचती हूं. मुझ से तो राकेश ज्यादा कार्यकुशल है, सुबह फटाफट बच्चों को स्कूल भेज दिया.’’

सुधा मुंह दबा कर मुसकान रोक रही थी. उस पर नजर पड़ते ही  माधवी भभक उठी, ‘‘तुम हंस रही हो? हंसो, मैं ने बेवकूफी में जो इतने साल गंवाएं हैं, उन के लिए तुम्हारा हंसना ही ठीक है.’’

सुधा ठहाका लगा कर हंस पड़ी, ‘‘सच मधु, तुम बहुत भोली हो,’’ फिर गंभीर होते हुए समझाने लगी, ‘‘क्या मैं अपनेआप आ गई हूं? राकेश भैया ने ही मुझे फोन किया था कि आप की मित्र बहुत बीमार है, कृपया दोपहर में उन्हें देख आइएगा. जरूरत पड़े तो डाक्टर को दिखा दीजिए.’’

‘‘अब यही बचा है? मेरी बीमारी का ढिंढ़ोरा सारे शहर में पीटना था. खुद नहीं दिखा सकते थे डाक्टर को? डाक्टर की बात छोड़ो, माथा तक छू कर नहीं देखा. क्या पहले कभी मुझे छुआ नहीं?’’

सुधा हंस कर बोली, ‘‘खुद छुआ है भई, इस में क्या शक है? पर मधु इतना गुस्सा केवल इसीलिए कि माथा छू कर बुखार नहीं देखा? तुम्हें डाक्टर को दिखाने के लिए क्या वे बिना छुट्टी लिए घर बैठ जाते? तुम्हीं सोचो जो काम तुम 3 घंटे में करती हो, बेचारे ने इतनी जल्दी कैसे किया होगा?’’

‘‘यही तो बात है, मेरी उन्हें अब जरूरत ही नहीं. इतने कार्यकुशल…’’

‘‘खाक कार्यकुशल,’’ सुधा गुस्से से बोल पड़ी, ‘‘तुम्हारे आराम के लिए खुद कितनी परेशानी उठाई उन्होंने? इस में तुम्हें उन का प्यार नहीं दिखता? अच्छा हुआ, मैं आ गई. डाक्टर से ज्यादा तुम्हें मेरी जरूरत थी. ऐसा करो, आंखों से गुस्से की पट्टी उतार कर देखो चुपचाप. आंखें खुली, जबान बंद. सब पता लग जाएगा कि सचाई क्या है और उन लोगों को तुम्हारी कितनी जरूरत है? तुम्हारी चिंता कम करने के लिए ही वे सब तुम्हारी देखभाल कर रहे हैं.’’

माधवी को सुधा की बातें कुछ समझ आईं, कुछ नहीं पर उस ने तय किया कि जबान बंद और आंखें खुली रख कर देखने की कोशिश करेगी. शाम को एकएक कर सब घर लौटे. पहले बच्चे, फिर राकेश. उस ने आते ही पूछा, ‘‘क्या हाल है? बिन्नो आई थी? दवा ली?’’

‘‘हां, एक गोली ली थी,’’ माधवी ने धीरे से कहा.

ठीक है, आराम करो. और कोई तो नहीं आया था?’’

‘‘नहीं तो. किसी को आना था क्या?’’

‘‘नहीं भई, यों ही पूछ लिया.’’

‘‘हां, याद आया, सुधा आई थी,’’ माधवी बोली. सुनते ही राकेश के चेहरे पर इतमीनान झलक उठा. वह उत्साह से बोला, ‘‘चलो बच्चो, दू पी लो. फिर हम सब खिचड़ी बनाएंगे.’’

गुडि़या सोचते हुए बोली, ‘‘पिताजी, हमें खिचड़ी बनानी तो आती नहीं है.’’

‘‘अच्छा, तो क्या बनाना आता है?’’

गुडि़या चुप हो गई क्योंकि उसे तो कुछ भी बनाना नहीं आता था. उसे देख कर सब हंसने लगे.

राकेश उत्साहपूर्वक बोला, ‘‘चलो, हम सब मिल कर बनाएंगे. तुम्हारी मां आराम करेंगी.’’

रसोई से आवाजें आ रही थीं. माधवी सुन रही थी, ‘‘पिताजी, चावलदाल बीनने होंगे?’’

‘‘नहीं बेटा, धो कर काम चल जाएगा.’’

‘‘पर पिताजी मां तो शायद बीनती भी हैं.’’

‘‘शायद न? तुम्हें पक्का तो नहीं मालूम?’’

माधवी का मन हुआ कि चिल्ला कर बता दे, ‘चावल, दाल बीने जाएंगे,’ पर फिर सोचा, ‘हटाओ, कौन उस से पूछने आ रहा है जो वह बताने जाए?’

खिचड़ी बन कर आई. राकेश ने पहली प्लेट उसी को पेश की. पहला चम्मच मुंह में डालते ही कंकड़ दांतों के नीचे बज गया. सब एकदूसरे का मुंह ताकने लगे. दोचार कौर के बाद राकेश ने खिसियाते हुए कहा, ‘‘कंकड़ हैं खिचड़ी में.’’

पप्पू बोला, ‘‘पिताजी, कहा था न कि चावल, दाल बीनने पड़ेंगे.’’

‘‘चुप, पिताजी क्या रोज बनाते हैं? जैसा मालूम था बेचारों को वैसा बना दिया,’’ गुडि़या पप्पू को घूरते हुए बोली.

‘‘बेटा, डबलरोटी खा लो,’’ राकेश ने धीरे से कहा.

‘‘पिताजी, सवेरे से बस डबलरोटी ही तो खा रहे हैं. नाश्ते में, टिफिन में, दूध के साथ, अब फिर?’’ पप्पू गुस्से से बोला. गुडि़या बिगड़ कर बोली, ‘‘तू एकदम बुद्धू है क्या? मां इतनी बीमार हैं, एक दिन डबलरोटी खा कर तू दुबला हो जाएगा? पिताजी ने भी सवेरे से क्या खाया है? कितने परेशान हैं?’’

गुडि़या की इस बात से कमरे में  सन्नाटा छा गया. सब अपनीअपनी प्लेटों के सामने चुप बैठे थे.

पप्पू अपनी प्लेट छोड़ कर उठा और मां की बगल में लेटता हुआ बोला, ‘‘मां, आप कब ठीक होंगी? जल्दी ठीक हो जाइए, कुछ सही नहीं चल रहा है.’’

गुडि़या मां का सिर दबाते हुए बोली, ‘‘अभी चाहें तो और आराम कर लीजिए, हम लोग काम चला लेंगे.’’

राकेश ने माधवी का माथा छू कर कहा, ‘‘अब लगता है, बुखार कम है.’’

माधवी आनंद की लहरों में डूबती उतराती उनींदे स्वर में बोली, ‘‘तुम सब जा कर होटल से खाना खा आओ.’’

‘‘और तुम?’’ राकेश के प्रश्न के जवाब में असीम तृप्ति से उस का हाथ अपने माथे पर दबा कर माधवी ने कहा, ‘‘मैं अब सोऊंगी.’’

अनजाने पल: भाग 2- क्यों सावित्री से दूर होना चाहता था आनंद

एक दिन मैं ने छुट्टी ले ली. घर में उस की पसंद की खीर बनाई और आलू की टिकियां. ये दोनों चीजें उसे बहुत अच्छी लगती थीं. वह स्कूल से घर आई. मैं बड़े प्यार से उसे मेज के पास ले गई. उस ने मेज पर रखी चीजें एकएक कर खोलीं, फिर बंद कर दीं. मैं खुशीखुशी उस की प्रतिक्रिया का इंतजार करने लगी. जब वह कुछ न बोली तो मैं ने ही कहा, ‘चल नीलू, आज मैं तुझे स्वयं हाथ से खिलाती हूं.’

‘क्यों? आज मुझ से इतनी हमदर्दी क्यों?’ उस के शब्द शूल की तरह मेरे हृदय को भेद गए?

‘बेटी, कैसी बात करती है. मैं ने तेरी पसंद की चीजें बनाई हैं. देख…खीर, आलू की गरमगरम टिकिया.’

‘मुझे भूख नहीं है.’

‘क्या हुआ, मुझ से नाराज है?’

‘अगर तुम मुझे हर रोज इस प्रकार खाना खिलाओगी तो मैं आज खाने को तैयार हूं.’

मैं चुप हो गई, क्या जवाब देती. आखिर उसी ने चुप्पी तोड़ी, ‘बोलो, जवाब दो. क्या हर रोज घर पर रह सकती हो?’

‘तब तो मुझे नौकरी छोड़नी पड़ेगी. और नौकरी छोड़ दूं तो हम तुम्हें वह सुख और आराम नहीं दे पाएंगे, जो तुम्हें आज मिल रहा है. देखो, तुम्हारे पास टीवी है, एसी है, कितने खिलौने हैं, अच्छे स्कूल में पढ़ती हो, क्या ये सब तुम्हें खोना अच्छा लगेगा?’

‘लेकिन पिताजी तो कहते हैं कि तुम्हें नौकरी करने की जरूरत नहीं है.’

‘वे तो यों ही कहते हैं. तुम जब बड़ी हो जाओगी, तभी ये बातें समझ पाओगी.’

‘क्या पता. लेकिन मुझे कुछ अच्छा नहीं लगता. तुम्हारा हर रोज देर से आना, फिर रात को तुम्हारा और पिताजी का झगड़ा…’ यह कहतेकहते उस की आंखों से आंसू झरने लगे.

मैं ने बच्ची को आलिंगन में भींच लिया. फिर कहा, ‘कहो तो तुम्हें होस्टल भेज दें. वहां तुम्हें खूब सारी सहेलियां मिलेंगी. खूब मजा आएगा.’

उस ने कुछ जवाब नहीं दिया. उस रात मैं ने आनंद से इस बात का जिक्र किया. मुझे तो आश्चर्य होता था कि उस व्यक्ति से मैं ने शादी कैसे की? वह कितना बदल गया गया था. कठोर हृदयहीन और अहंकारी. उस ने गुस्से से लगभग चीखते हुए कहा, ‘कैसी मां हो. बच्ची को अपने से अलग करना चाहती हो?’

मैं बोली, ‘मैं उसे अलग कहां कर रही हूं. आजकल तो सभी बच्चों को होस्टल भेजते हैं. एक साल में मेरा काम हो जाएगा. फिर पिं्रसिपल बन जाने पर कालेज के कैंपस में ही घर मिल जाएगा. नीलू को फिर घर ले आएंगे.’

आनंद ने तपाक से उत्तर दिया, ‘औरों की बात छोड़ो. सोसाइटी में झूठी शान बघारने के लिए लोग बच्चों को होस्टल भेजते हैं. हमें इस की जरूरत नहीं है. और यह खयाल दिल में फिर कभी मत लाना कि मैं कालेज कैंपस में तुम्हारे साथ रहूंगा.’

मैं दंग रह गई. थोड़ी देर बाद पूछा, ‘आप वहां क्यों नहीं रहेंगे? हमारी बच्ची की देखभाल भी वहां ढंग से हो जाएगी. मैं भी उसे ज्यादा समय दे पाऊंगी.’

‘क्या तुम सोचती हो कि मैं तुम्हारे टुकड़ों पर पलूंगा. मैं मर्द हूं. याद नहीं है, मैं ने तुम्हारे पिताजी से क्या कहा था?’

‘भला उसे मैं भूल सकती हूं. तुम ने पिताजी से कितने आक्रोश में कहा था कि मैं चाहे मिट जाऊं, परंतु दूसरों के टुकड़ों पर नहीं पल सकता. मेरे बाजुओं की ताकत पर भरोसा हो तो अपनी लड़की का हाथ मेरे हाथ में दें. अपनी खुद्दारी पर बहुत गर्व था न तुम्हें?’

‘था नहीं, आज भी है.’

‘लेकिन हम, तुम अलग तो नहीं हैं न.’

‘स्त्रीपुरुष का अस्तित्व अलग है और अलग ही रहेगा.’

‘तो तुम ने मुझे नौकरी करने के लिए मजबूर क्यों किया?’

‘अब भी मैं तुम्हें नौकरी करने से नहीं रोकता. बस, यही कहता हूं कि घर और बच्ची का ध्यान रखो. पीएचडी वगैरह की आवश्यकता नहीं है. तुम्हारी जितनी तनख्वाह है, उतनी ही काफी है. महत्त्वाकांक्षाओं का कभी अंत नहीं होता.’

‘लेकिन मेरे इतने दिनों की मेहनत पर पानी फिर जाएगा. मुझे नहीं लगता कि बच्ची को होस्टल भेजने और तुम्हारी इस लैक्चरबाजी में कोई संबंध है.’

‘है, तभी तो कह रहा हूं. मेरी बेटी होस्टल नहीं जाएगी. तुम पीएचडी छोड़ कर उस की परवरिश करो, नहीं तो मैं उसे अपनी बहन के पास जयपुर

भेज दूंगा. फिर अपना तबादला भी वहीं करा लूंगा.’

‘नीलिमा केवल तुम्हारी बेटी नहीं है, उस पर मेरा भी उतना ही अधिकार है, जितना कि तुम्हारा. उस के संबंध में मुझे भी निर्णय लेने का पूरा अधिकार है.’

‘इस निर्णय की हकदार तुम तभी बन सकती हो, जब उस का भला चाहो. मां हो कर अगर अपनी प्रतिष्ठा, यश और पदवी के लिए तुम उसे होस्टल भेजने पर उतारू हो जाओ तो ऐसे में तुम उस हक से वंचित हो जाती हो.’

मेरे क्रोध का पारावार न रहा. मैं भी बहुतकुछ बोल गई. आनंद ने भी बहुतकुछ कहा. बात बढ़ती ही चली गई. इतने में नीलिमा दौड़ती हुई आई और लगभग चीखती हुई बोली, ‘बंद करो यह झगड़ा. नहीं रहना मुझे अब इस घर में. मैं आंटी के पास जयपुर जाऊंगी.’

मेरा कलेजा मुंह को आ गया. ऐसा लगा, जैसे किसी ने छाती पर गोली दाग दी हो. मैं एकदम से पलट कर अपने कमरे में चली गई. मन में विचार उठा, ‘क्या अपनी पहचान बनाना गुनाह है? क्या मैं ने कोई गलती की है? मुझे पीएचडी नहीं करनी चाहिए क्या?’

मन ने झकझोरा, ‘नहीं, गलती मर्दों की है. पति का अहं मेरी पदोन्नति स्वीकार नहीं कर पाता. वह आखिर शाखा अधिकारी है और अगर मैं पिं्रसिपल बन गई तो उस को समाज में वह इज्जत नहीं मिलेगी, जो मुझे मिलेगी. वह मुझ से जलता है. मैं हार मानने से रही. नीलिमा अभी बच्ची है. एक दिन वह मां का प्यार जरूर महसूस करेगी,’ विचारों के सागर में गोते लगातेलगाते कब आंख लग गई, पता ही न चला.

सुबह उठी तो कुछ अजीब सी मायूसी ने घेर लिया. आनंद को नजदीक न पा कर जल्दी से उठ कर ड्राइंगरूम में पहुंची. घर की निस्तब्धता भयानक लगने लगी.

‘नीलिमा,’ मैं ने आवाज दी. लेकिन मेरी आवाज गूंजती हुई कानों में टकराने लगी. दिल धड़कने लगा. सहसा मेज पर रखी हुई चिट्ठी ने ध्यान आकर्षित किया. धड़कते दिल से उठा कर उसे पढ़ने लगी. उस में लिखा था, ‘मैं नीलिमा को ले कर जयपुर जा रहा हूं, उस की मरजी से ही यह सब हो रहा है. कभी हमारे लिए वक्त निकाल सको तो जयपुर पहुंच जाना. आनंद.’

इस के बाद बहुतकुछ हो गया. नीलिमा ने मुझे समझने या समझाने का मौका ही नहीं दिया. इतने समय बाद उसे देख कर पुराने जख्म हरे हो गए. मैं सोचने लगी, ‘आनंद अस्पताल में क्या कर रहा है? कैसी विचित्र परिस्थिति है, कैसा अजीब संगम. क्या कहूंगी आनंद से, क्या वह मुझे पहचानेगा? क्या मुझे उस से मिलना चाहिए? कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था कि क्या करूं.

मैं जब विकास से मिली तो बड़ी परेशानी में थी. उस ने देखते ही कहा, ‘‘क्या हुआ. एक तो देर से आई हो… फिर इतनी घबराहट. सबकुछ ठीक तो है न. कोई बुरी खबर है क्या?’’

मैं ने मुसकराते हुए अपने विचारों को झटकने का प्रयास किया. हम होटल के अंदर गए. मन में विचारों का बवंडर उठ रहा था, ‘क्या विकास को सबकुछ बता दूं, क्या वह समझ पाएगा? आनंद से मिलने कैसे जाऊं? विकास से क्या कहूं?’ कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था.

अचानक मेरे कंधे पर हाथ रख कर विकास ने ही कहा, ‘सवि, मैं कुछकुछ समझ रहा हूं. समस्या क्या है, साफसाफ कहो?’

मेरी आंखों में आंसू आ गए. मैं ने विकास को सबकुछ बता दिया. उस ने मुसकराते हुए कहा, ‘इतनी सी बात के लिए परेशान हो. गोष्ठी खत्म होने के बाद उस से जा कर मिल लो. मैं भी साथ चलूंगा.’

उस ने इतनी आसानी से कह दिया, पर मैं अपने को संभाल नहीं पा रही थी. भोजन के दौरान स्मृतिपटल पर चलचित्र की तरह बीते दिन फिर से उभर आए.

बहू: दीपक ने शोभा को क्यों त्याग दिया था?

बहू शब्द सुनते ही मन में सब से पहला विचार यही आता है कि बहू तो सदा पराई होती है. लेकिन मेरी शोभा भाभी से मिल कर हर व्यक्ति यही कहने लगता है कि बहू हो तो ऐसी. शोभा भाभी ने न केवल बहू का, बल्कि बेटे का भी फर्ज निभाया. 15 साल पहले जब उन्होंने दीपक भैया के साथ फेरे ले कर यह वादा किया था कि वे उन के परिवार का ध्यान रखेंगी व उन के सुखदुख में उन का साथ देंगी, तब से वह वचन उन्होंने सदैव निभाया.

जब बाबूजी दीपक भैया के लिए शोभा भाभी को पसंद कर के आए थे तब बूआजी ने कहा था, ‘‘बड़े शहर की लड़की है भैयाजी, बातें भी बड़ीबड़ी करेगी. हमारे छोटे शहर में रह नहीं पाएगी.’’

तब बाबूजी ने मुसकरा कर कहा था, ‘‘दीदी, मुझे लड़की की सादगी भा गई. देखना, वह हमारे परिवार में खुशीखुशी अपनी जगह बना लेगी.’’

बाबूजी की यह बात सच साबित हुई और शोभा भाभी कब हमारे परिवार का हिस्सा बन गईं, पता ही नहीं चला. भाभी हमारे परिवार की जान थीं. उन के बिना त्योहार, विवाह आदि फीके लगते थे. भैया सदैव काम में व्यस्त रहते थे, इसलिए घर के काम के साथसाथ घर के बाहर के काम जैसे बिजली का बिल जमा करना, बाबूजी की दवा आदि लाना सब भाभी ही किया करती थीं.

मां के देहांत के बाद उन्होंने मुझे कभी मां की कमी महसूस नहीं होने दी. इसी बीच राहुल के जन्म ने घर में खुशियों का माहौल बना दिया. सारा दिन बाबूजी उसी के साथ खेलते रहते. मेरे दोनों बच्चे अपनी मामी के इस नन्हे तोहफे से बेहद खुश थे. वे स्कूल से आते ही राहुल से मिलने की जिद करते थे. मैं जब

भी अपने पति दिनेश के साथ अपने मायके जाती तो भाभी न दिन देखतीं न रात, बस

सेवा में लग जातीं. इतना लाड़ तो मां भी नहीं करती थीं.

एक दिन बाबूजी का फोन आया और उन्होंने कहा, ‘‘शालिनी, दिनेश को ले कर फौरन चली आ बेटी, शोभा को तेरी जरूरत है.’’

मैं ने तुरंत दिनेश को दुकान से बुलवाया और हम दोनों घर के लिए निकल पड़े. मैं सारा रास्ता परेशान थी कि आखिर बाबूजी ने इस समय हमें क्यों बुलाया और भाभी को मेरी जरूरत है, ऐसा क्यों कहा? मन में सवाल ले कर जैसे ही घर पहुंची तो देखा कि बाहर टैक्सी खड़ी थी और दरवाजे पर 2 बड़े सूटकेस रखे थे. कुछ समझ नहीं आया कि क्या हो रहा है. अंदर जाते ही देखा कि बाबूजी परेशान बैठे थे और भाभी चुपचाप मूर्ति बन कर खड़ी थीं.

भैया गुस्से में आए और बोले, ‘‘उफ, तो अब अपनी

वकालत करने के लिए शोभा ने आप लोगों को बुला लिया.’’

भैया के ये बोल दिल में तीर की तरह लगे. तभी दिनेश बोले, ‘‘क्या हुआ भैया आप सब इतने परेशान क्यों हैं?’’

इतना सुनते ही भाभी फूटफूट कर रोने लगीं.

भैया ने गुस्से में कहा, ‘‘कुछ नहीं दिनेश, मैं ने अपने जीवन में एक महत्त्वपूर्ण फैसला लिया है जिस से बाबूजी सहमत नहीं हैं. मैं विदेश जाना चाहता हूं, वहां बहुत अच्छी नौकरी मिल रही है, रहने को मकान व गाड़ी भी.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छी बात है भैया,’’ दिनेश ने कहा.

दिनेश कुछ और कह पाते, तभी भैया बोले, ‘‘मेरी बात अभी पूरी नहीं हुई दिनेश, मैं अब अपना जीवन अपनी पसंद से जीना चाहता हूं, अपनी पसंद के जीवनसाथी के साथ.’’

यह सुनते ही मैं और दिनेश हैरानी से भैया को देखने लगे. भैया ऐसा सोच भी कैसे सकते थे. भैया अपने दफ्तर में काम करने वाली नीला के साथ घर बसाना चाहते थे.

‘‘शोभा मेरी पसंद कभी थी ही नहीं. बाबूजी के डर के कारण मुझे यह विवाह करना पड़ा. परंतु कब तक मैं इन की खुशी के लिए अपनी इच्छाएं दबाता रहूंगा?’’

मैं बाबूजी के पैरों पर गिर कर रोती हुई बोली, ‘‘बाबूजी, आप भैया से कुछ कहते क्यों नहीं? इन से कहिए ऐसा न करें, रोकिए इन्हें बाबूजी, रोक लीजिए.’’

चारों ओर सन्नाटा छा गया, काफी सोच कर बाबूजी ने भैया से कहा, ‘‘दीपक, यह अच्छी बात है कि तुम जीवन में सफलता प्राप्त कर रहे हो पर अपनी सफलता में तुम शोभा को शामिल नहीं कर रहे हो, यह गलत है. मत भूलो कि तुम आज जहां हो वहां पहुंचने में शोभा ने तुम्हारा भरपूर साथ दिया. उस के प्यार और विश्वास का यह इनाम मत दो उसे, वह मर जाएगी,’’ कहते हुए बाबूजी की आंखों में आंसू आ गए.

भैया का जवाब तब भी वही था और वे हम सब को छोड़ कर अपनी अलग

दुनिया बसाने चले गए.

बाबूजी सदा यही कहते थे कि वक्त और दुनिया किसी के लिए नहीं रुकती, इस बात का आभास भैया के जाने के बाद हुआ. सगेसंबंधी कुछ दिन तक घर आते रहे दुख व्यक्त करने, फिर उन्होंने भी आना बंद कर दिया.

जैसेजैसे बात फैलती गई वैसेवैसे लोगों का व्यवहार हमारे प्रति बदलता गया. फिर एक दिन बूआजी आईं और जैसे ही भाभी उन के पांव छूने लगीं वैसे ही उन्होंने चिल्ला कर कहा, ‘‘हट बेशर्म, अब आशीर्वाद ले कर क्या करेगी? हमारा बेटा तो तेरी वजह से हमें छोड़ कर चला गया. बूढ़े बाप का सहारा छीन कर चैन नहीं मिला तुझे अब क्या जान लेगी हमारी? मैं तो कहती हूं भैया इसे इस के मायके भिजवा दो, दीपक वापस चला आएगा.’’

बाबूजी तुरंत बोले, ‘‘बस दीदी, बहुत हुआ. अब मैं एक भी शब्द नहीं सुनूंगा. शोभा इस घर की बहू नहीं, बेटी है. दीपक हमें इस की वजह से नहीं अपने स्वार्थ के लिए छोड़ कर गया है. मैं इसे कहीं नहीं भेजूंगा, यह मेरी बेटी है और मेरे पास ही रहेगी.’’

बूआजी ने फिर कहा, ‘‘कहना बहुत आसान है भैयाजी, पर जवान बहू और छोटे से पोते को कब तक अपने पास रखोगे? आप तो कुछ कमाते भी नहीं, फिर इन्हें कैसे पालोगे? मेरी सलाह मानो इन दोनों को वापस भिजवा दो. क्या पता शोभा में ऐसा क्या दोष है, जो दीपक इसे अपने साथ रखना ही नहीं चाहता.’’

यह सुनते ही बाबूजी को गुस्सा आ गया और उन्होंने बूआजी को अपने घर से चले जाने को कहा. बूआजी तो चली गईं पर उन की

कही बात बाबूजी को चैन से बैठने नहीं दे रही थी. उन्होंने भाभी को अपने पास बैठाया और कहा, ‘‘बस शोभा, अब रो कर अपने आने

वाले जीवन को नहीं जी सकतीं. तुझे बहादुर बनना पड़ेगा बेटा. अपने लिए, अपने बच्चे

के लिए तुझे इस समाज से लड़ना पड़ेगा.

तेरी कोई गलती नहीं है. दीपक के हिस्से

तेरी जैसी सुशील लड़की का प्यार नहीं है.

तू चिंता न कर बेटा, मैं हूं न तेरे साथ और हमेशा रहूंगा.’’

वक्त के साथ भाभी ने अपनेआप को संभाल लिया. उन्होंने कालेज में नौकरी कर ली और शाम को घर पर भी बच्चों को पढ़ाने लगीं. समाज की उंगलियां भाभी पर उठती रहीं, पर उन्होंने हौसला नहीं छोड़ा. राहुल को स्कूल में डालते वक्त थोड़ी परेशानी हुई पर भाभी ने सब कुछ संभालते हुए सारे घर की जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठा ली.

भाभी ने यह साबित कर दिया कि अगर औरत ठान ले तो वह अकेले पूरे समाज से लड़ सकती है. इस बीच भैया की कोई खबर नहीं आई. उन्होंने कभी अपने परिवार की खोजखबर नहीं ली. सालों बीत गए भाभी अकेली परिवार चलाती रहीं, पर भैया की ओर से कोई मदद नहीं आई.

एक दिन भाभी का कालेज से फोन आया, ‘‘दीदी, घर पर ही हो न शाम को?

आप से कुछ बातें करनी हैं.’’

‘‘हांहां भाभी, मैं घर पर ही हूं आप

आ जाओ.’’

शाम 6 बजे भाभी मेरे घर पहुंचीं. थोड़ी परेशान लग रही थीं. चाय पीने के बाद मैं ने उन से पूछा, ‘‘क्या बात है भाभी कुछ परेशान लग रही हो? घर पर सब ठीक है?’’

थोड़ा हिचकते हुए भाभी बोलीं, ‘‘दीदी, आप के भैया का खत आया है.’’

मैं अपने कानों पर विश्वास नहीं कर पा रही थी. बोली, ‘‘इतने सालों बाद याद आई उन को अपने परिवार की या फिर नई बीवी ने बाहर निकाल दिया उन को?’’

‘‘ऐसा न कहो दीदी, आखिर वे आप के भाई हैं.’’

भाभी की बात सुन कर एहसास हुआ कि आज भी भाभी के दिल के किसी कोने में भैया हैं. मैं ने आगे बढ़ कर पूछा, ‘‘भाभी, क्या लिखा है भैया ने?’’

भाभी थोड़ा सोच कर बोलीं, ‘‘दीदी, वे चाहते हैं कि बाबूजी मकान बेच कर उन के साथ चल कर विदेश में रहें.’’

‘‘क्या कहा? बाबूजी मकान बेच दें? भाभी, बाबूजी ऐसा कभी नहीं करेंगे और अगर वे ऐसा करना भी चाहेंगे तो मैं उन्हें कभी ऐसा करने नहीं दूंगी. भाभी, आप जवाब दे दीजिए कि ऐसा कभी नहीं होगा. वह मकान बाबूजी के लिए सब कुछ है, मैं उसे कभी बिकने नहीं दूंगी. वह मकान आप का और राहुल का सहारा है. भैया को एहसास है कि अगर वह मकान नहीं होगा तो आप लोग कहां जाएंगे? आप के बारे में तो नहीं पर राहुल के बारे में तो सोचते. आखिर वह उन का बेटा है.’’

मेरी बातें सुन कर भाभी चुप हो गईं और गंभीरता से कुछ सोचने लगीं. उन्होंने यह बात अभी बाबूजी से छिपा रखी थी. हमें समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या करें, तभी दिनेश आ गए और हमें परेशान देख कर सारी बात पूछी. बात सुन कर दिनेश ने भाभी से कहा, ‘‘भाभी, आप को यह बात बाबूजी को बता देनी चाहिए. दीपक भैया के इरादे कुछ ठीक नहीं लग रहे.’’

यह सुनते ही भाभी डर गईं. फिर हम तीनों तुरंत घर के लिए निकल पड़े. घर जा कर

भाभी ने सारी बात विस्तार से बाबूजी को बता दी. बाबूजी कुछ विचार करने लगे. उन के चेहरे से लग रहा था कि भैया ऐसा करेंगे उन्हें इस बात की उम्मीद थी. उन्होंने दिनेश से पूछा, ‘‘दिनेश, तुम बताओ कि हमें क्या करना चाहिए?’’

दिनेश ने कहा, ‘‘दीपक आप के बेटे हैं तो जाहिर सी बात है कि इस मकान पर उन का अधिकार बनता है. पर यदि आप अपने रहते यह मकान भाभी या राहुल के नाम कर देते हैं तो फिर भैया चाह कर भी कुछ नहीं कर सकेंगे.’’

दिनेश की यह बात सुन कर बाबूजी ने तुरंत फैसला ले लिया कि वे अपना मकान भाभी के नाम कर देंगे. मैं ने बाबूजी के इस फैसले को मंजूरी दे दी और उन्हें विश्वास दिलाया कि वे सही कर रहे हैं.

ठीक 10 दिन बाद भैया घर आ पहुंचे और आ कर अपना हक मांगने लगे. भाभी पर इलजाम लगाने लगे कि उन्होंने बाबूजी के बुढ़ापे का फायदा उठाया है और धोखे से मकान अपने नाम करवा लिया है.

भैया की कड़वी बातें सुन कर बाबूजी को गुस्सा आ गया. वे भैया को थप्पड़ मारते हुए बोले, ‘‘नालायक कोई तो अच्छा काम किया होता. शोभा को छोड़ कर तू ने पहली गलती की और अब इतनी घटिया बात कहते हुए तुझे जरा सी भी लज्जा नहीं आई. उस ने मेरा फायदा नहीं उठाया, बल्कि मुझे सहारा दिया. चाहती तो वह भी मुझे छोड़ कर जा सकती

थी, अपनी अलग दुनिया बसा सकती थी पर उस ने वे जिम्मेदारियां निभाईं जो तेरी थीं.

तुझे अपना बेटा कहते हुए मुझे अफसोस

होता है.’’

भाभी तभी बीच में बोलीं, ‘‘दीपक, आप बाबूजी को और दुख मत दीजिए, हम सब की भलाई इसी में है कि आप यहां से चले जाएं.’’

भाभी का आत्मविश्वास देख कर भैया दंग रह गए और चुपचाप लौट गए.

भाभी घर की बहू से अब हमारे घर का बेटा बन गई थीं.

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