नमस्ते जी: भाग 3- नितिन ने कैसे तोड़ा अपनी पत्नी का भरोसा?

सुबह के समय नितिन के फैक्टरी जाने से पहले वह आने लगी थी ताकि अंकिता को वह संभाल सके और मैं उन के लिए अच्छे से नाश्ता तैयार कर सकूं. जब कभी नितिन आयशा के सामने आ जाते तो वह हलका सा मुसकराती हुई कहती-‘नमस्ते जी.’

उस का मुसकराने का अंदाज बड़ा ही शर्मीला था. नितिन भी उसी के अंदाज में मुसकराते हुए जवाब देते थे. आयशा जब भी मेरे पास बैठती तो हमारे बारे में ही पूछती. कभी पूछती थी कि आंटीजी आप की ‘लवमैरिज’ है क्या? कभी कहती थी कि आंटीजी, अंकलजी बहुत ‘स्मार्ट’ हैं, आप ने कहां से ढूंढ़ा इन्हें? जाने कब भोलेपन में मैं ने वे सारी बातें नितिन को बता दी थीं. वक्त गुजरता जा रहा था.

एक दिन रविवार की शाम को मैं रसोई में खाना पका रही थी और नितिन पहली मंजिल पर अपने बैडरूम में टेलीविजन देख रहे थे. मांजी रसोई के साथ लगते अपने कमरे में बैठ कर कोई किताब पढ़ रही थीं. अंकिता को भी आयशा के साथ पहली मंजिल पर बच्चों के कमरे में खेलने के लिए छोड़ा हुआ था. मुझे अचानक याद आया कि नितिन रात के खाने में कभीकभार प्याज तो खा ही लेते हैं इसलिए सोचा कि चलो क्यों न काटने से पहले पूछ ही लिया जाए. पहले तो आवाज लगाई थी. नितिन ने टेलीविजन की आवाज इतनी तेज कर रखी थी कि कोई फायदा न जान मैं सीढि़यां चढ़ते हुए अपने बैडरूम की तरफ चल दी थी. मैं ने जैसे ही कमरे में प्रवेश किया तो जो देखा उसे देखने के साथ तो मेरी सांस ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे रह गई थी. मैं कभी स्वप्न में भी नहीं सोच सकती थी, जो मेरे सामने हो रहा था.

आयशा अंकिता को फर्श पर खिलौने के साथ छोड़ कर खुद सोफे पर नितिन के होंठों में होंठ लगाए अनंत आनंद की यात्रा में तल्लीन थी. नितिन ने एक हाथ से आयशा को पूरी तरह से कसकर भींच रखा था तो उन का दूसरा हाथ आयशा के शरीर का मंथन कर रहा था.

अपनी बेटी की देखभाल व रक्षा के लिए रखी गई दूसरे की बेटी के जिस्म का यह कैसा मंथन था? मैं देख कर सन्न रह गई थी. कुछ पलों के बाद जब मुझे वहां अपने खड़े रहने का आभास हुआ तो मैं जोर से चिल्लाई थी, ‘नितिन.’

नितिन की नजर जब मुझ पर पड़ी तो उन का पूरा शरीर कांप उठा था. ठंडे पड़ते बदन में अब इतनी भी हिम्मत नहीं रही थी कि वे आयशा को अपने से अलग कर सके. आयशा ने पलट कर मेरी तरफ देखा तो वह झटके से उठ कर बाथरूम की तरफ भाग गई. और फिर बाथरूम की टोटी से पानी गिरने की आवाजें आने लगी थीं. उस पल पता नहीं मेरे मन में क्या आया, मैं ने अपनी चप्पल पैर से निकाली थी और नितिन के मुंह में ठूंस दी थी. फिर जोर से चिल्लाई थी, ‘गंदगी में ही मुंह मारना है तो लो मैं ही खिला देती हूं तुम्हें.’

तभी नीचे से मांजी की आवाज आई थी, ‘बहू क्या हुआ?’

मांजी की आवाज सुनते ही नितिन मेरे पैरों में पड़ गए थे. वे कुछ ही क्षणों में वह सबकुछ कह गए थे जो एक पत्नी को अपने पति के अहम को तोड़ने के लिए काफी होता है. मांजी जब तक सीढि़यां चढ़ कर हमारे बैडरूम में पहुंचीं तब तक नितिन वापस सोफे पर बैठ चुके थे व मैं ने अंकिता को गोद में उठा लिया था.

‘बहू, क्या हुआ था जो इतनी जोर से चिल्लाई?’

‘कुछ नहीं मांजी, बैडरूम से कुछ गिरने की आवाज आई थी. मैं ने आ कर देखा तो अंकिता बैड से नीचे गिरी हुई थी. उसे देख कर मेरे मुंह से चीख निकल गई.’

‘आयशा कहां है?’ मांजी के पूछने पर मैं ने कह दिया कि वह बाथरूम में है. मेरा जवाब सुन कर मांजी यह कहते हुए वापस अपने कमरे की तरफ चली गई थीं कि पता नहीं आजकल के मांबाप क्या करते रहते हैं? 2 बच्चों की भी ढंग से देखभाल नहीं कर सकते. उस के लिए भी अलग से कामवालियां. अरे, हम ने भी तो बच्चे पाले हैं, एक नहीं…

मांजी के जाने के बाद मैं ने आयशा को बाथरूम से जल्दी बाहर निकलने को कहा था. वह जब तक बाथरूम से बाहर नहीं आई, मैं अंकिता को गोद में लिए फनफनाती हुई बाथरूम के आगे ही उस की प्रतीक्षा में चक्कर लगाती रही. बाथरूम की कुंडी खुली तो मेरी निगाहें दरवाजे पर जा कर अटक गई थीं. आयशा ने जिन कपड़ों को पहन रखा था वह उन्हीं कपड़ों में नहा कर बाथरूम से बाहर निकल आई थी. उस को देखने से ऐसा आभास हो रहा था कि जैसे उस के तनबदन में अब भी कामाग्नि हिलौरे ले रही थी. आयशा की आंखों में कहीं भी अपराधबोध, आत्मग्लानि व पश्चात्ताप के भाव नजर नहीं आ रहे थे. तब मुझ से रहा नहीं गया. मैं ने उस के गीले गाल पर अपने उलटे हाथ का एक जोरदार थप्पड़ जड़ते हुए कहा था, ‘आयशा, जल्दी से कपड़े बदल कर मेरे कमरे में आओ.’

वह थोड़ी देर के बाद हमारे बैडरूम में हम दोनों के बीच थी, मगर कोई शिकन उस के चेहरे पर नहीं थी. मैं उस के इस रूप को देख कर हैरान व परेशान थी. मैं ने ही मन में सोचा कि इस लड़की को नितिन ने ऐसा कौन सा पाठ पढ़ा दिया है जो यह इतनी बड़ी भूल करने के बाद भी बिलकुल सामान्य हो कर खड़ी है.

मैं ने एकाएक आयशा से पूछा, ‘आयशा, यह सब कब से चल रहा है?’

‘मुझ से क्या पूछती हो आंटी, अंकल से पूछो न.’

उस का यह उत्तर सुन कर मैं ने अपना रुख नितिन की ओर किया तो नितिन ने अपना मुंह नीचे फर्श पर गड़ा दिया. मुझे लगा था कि नितिन का मन पश्चात्ताप के कुएं में डुबकियां मार रहा था.

आयशा का दाहिना हाथ पकड़ कर उसे दूसरे कमरे में ले गई और वहां उसे एक सोने की लौंग व 3-4 पुराने सूट दे कर कहा, ‘अपना सारा सामान अभी समेट लो…और ध्यान से सुन, तू इस बात का किसी से भी जिक्र नहीं करेगी…और हां, अपनी मां को कह देना कि अब हमें तुम्हारी जरूरत नहीं रही.’

आयशा वाली घटना को अभी 7-8 महीने ही हुए होंगे कि नितिन ने रात को देर से आना शुरू कर दिया था. पूछने पर कहा था, ‘आजकल आर्डर अधिक हैं, सो रात वाली शिफ्ट में भी लेबर से काम होता है.’

तब नितिन ने मेरी आंखों पर मेहनत की बातों का ऐसा चश्मा चढ़ाया था कि जब तक मेरी आंखों ने परदे के पीछे की सचाई को देखना शुरू किया तब तक नितिन एक और सांवलीसलोनी के साथ जाने कब ऐसे घुलमिल गए जैसे पानी के साथ चीनी. और उस सावंलीसलोनी औरत के साथ नितिन न जाने अपनी कितनी रातें रंगीन कर चुके थे. बाद में पता लगा था कि उस औरत को उस के पति ने छोड़ रखा था और वह ऐसे ही शिकार की तलाश में रहती थी.

मेरा जब कभी भी फैक्टरी में जाना होता तो वह औरत हलकी सी हंसी होंठों पर ला कर बड़े ही अंदाज से ‘नमस्तेजी’ कहती थी.

मेरी यादों में जीवित होहो कर उन सब की ‘नमस्तेजी’ अब भी व्यंग्य कसती है मुझ पर. मैं आज तक उन हादसों से अपनेआप को नहीं निकाल पाई हूं. पति पर शक करना अपनी गृहस्थी में कांटे बोना जैसा होता है. पर जब शक विश्वास में बदल जाए तो जिंदगी नीरस हो कर रह जाती है.

मैं शादी के बंधन से ही विश्वास खो बैठी हूं और शायद, तभी से खुद को वैसा कभी नहीं पाया जैसा विश्वास टूटने से पहले…बस, गृहस्थी की डगर पर चलती जा रही हूं. शायद यह सोच कर कि वैवाहिक जीवन के आधे से अधिक का रास्ता तय करने के बाद भारतीय नारी के लिए पलट कर वापस पहले छोर पर जाने की गुंजाइश कहां रहती है, क्योंकि इसी रास्ते पर हमारे पीछेपीछे कुछ नन्हेनन्हे पांव भी चल रहे होते हैं. अगर कदम वापस लिए तो ये नन्हेनन्हे पांव असंतुलित हो, हम से भी पहले गिर सकते हैं और कुचल भी सकते हैं.

यह सब सोच कर ही मैं नहीं रुकने देती गृहस्थी के पहिए को…और चलती जा रही है नितिन के साथसाथ मेरी जिंदगी की गाड़ी सुनसान मोड़ों पर, ऊबड़खाबड़, पथरीले रास्तों से गुजरती हुई एक अनजान मंजिल की तरफ.

आज चेहरा दूसरा है. आयशा की जगह धोबी की लड़की है. मगर ‘नमस्ते जी’ के पीछे छिपे अभिप्राय को मैं जहां तक समझ पाई हूं, वह केवल एक ऐसा मर्द ढूंढ़ना है जो सभ्यता व संस्कार का मुखौटा लगाए तलाश में रहता है प्रतिपल एक नए संबोधन की कि कोई मुसकराए और धीरे से कहे,

‘‘नमस्ते जी.’’

नया पड़ाव: भाग 2- जब पत्नी को हुआ अपनी गलती का अहसास

राकेश रात के 8 बजे लौटे. मुझे अनदेखा कर के बोले, ‘‘खाना तैयार हो तो

ले लाओ नहीं तो कल से खाना भी बाहर खा लिया करूंगा. फिर तुम्हें रंजू के लिए और ज्यादा वक्त मिल सकेगा.’’

मुझे गुस्सा तो बहुत आया परंतु चुप रहना ही उचित समझ खाना परोस कर ले आई. इतने व्यंग्य सुन कर मेरी भूख मिट गई थी. गले में ग्रास अटके जाते थे, पर जैसेतैसे खाना निबटा कर मैं उठ गई. राकेश ने मेरे कम खाने पर कुछ नहीं पूछा तो मन और उदास हो गया क्योंकि ऐसा पहली बार ही हुआ था.

सोचा, रात के एकांत में राकेश जरूर मुझे प्यार करेंगे. अपनी गलती के लिए कुछ कहेंगे परंतु बरतन समेट कर कमरे में आई तब तक राकेश सो चुके थे. उस पूरी रात मैं ठीक से सो भी नहीं सकी. आंखें बारबार भीगती रहीं.

मन में यह भी विचार आया कि राकेश कहीं किसी चक्कर में तो नहीं फंस गए. पर अंत में यह सोच कर कि आगे से राकेश के आने के वक्त से ठीक से तैयार हो जाया करूंगी, मैं हलकी हो कर सो गई.

सुबह देर से आंख खुली. रंजू बेतहाशा रो रहा था और राकेश अखबार पढ़ रहे थे. मैं ?ाटके से उठी. रंजू को उठाया और राकेश से बोली, ‘‘इतनी देर से रो रहा है, क्या यह सिर्फ मेरा

ही बेटा है जो आप इस की ओर जरा भी ध्यान नहीं देते.’’

राकेश चिढ़ कर बोले, ‘‘अलार्म का

काम कर रहा था तुम्हारा सुपूत, सो मैं बैठा

रहा ताकि तुम उठ कर चाय तो तैयार करो.

अब इस के होने पर न जाने क्याक्या बंद होने वाला है मेरा.’’

जैसे मुझे खिजाते हुए वे दोबारा अखबार पढ़ने लगे. मैं ने उठ कर रंजू को दूध दिया. फिर स्वयं बाथरूम से निबट कर चाय बना कर लाई तो राकेश बोले, ‘‘अब बैड टी तो गोल यह नाश्ते का वक्त है, कुछ साथ में ले आती तो नाश्ता गोल होने से बच जाता.’’

राकेश के इस तरह के व्यवहार की क्या वजह थी मुझे समझ में नहीं आ रहा था. फिर सुबहसुबह लड़ाई कर के बात बढ़ाना बेकार समझ मैं ने राकेश को घूर कर बिस्कुट का डब्बा पकड़ा दिया और चुपचाप चाय पीने लगी.

अभी बेइंतहा काम मेरा इंतजार कर रहा था. पहले ही काफी देर हो गई थी. मैं खाली चाय पी कर रसोई में आ गई. राकेश के लिए लंच बाक्स तैयार करना था.

रंजू को वाकर में बैठा कर मैं रसोई में ही ले आई. झटपट सब्जी बनाई और आटा गूंध कर परांठे तैयार किए. तब तक राकेश तैयार हो चुके थे.

मैं ने चुपचाप लंच बौक्स राकेश को पकड़ा दिया. बाहर तक छोड़ने आई तो राकेश मेरी ओर बगैर ध्यान दिए चल दिए.

सारा दिन मन बुझ रहा. अंदर का खालीपन और गहरा हो गया. रंजू की तबीयत

अब थोड़ी ठीक थी. मैं सारा काम चुपचाप करती रही. दिन में मां को पूरी बात बताई तो उन्होंने अपनी पुरानी कहानी शुरू कर दी कि पति की सेवा ही स्त्री का धर्म है. पति को कैसे भी मना और भूल कर भी लड़ना नहीं. शाम हुई तो मैं तैयार हो कर राकेश का इंतजार करने लगी.

मगर राकेश शाम के 7 बजे आए. मैं ने अच्छी साड़ी पहनी थी पर  उसे रंजू ने 3 बार गीला कर दिया था और वह जगहजगह से मुस गई थी. गोदी में उछलउछल कर उस ने मेरे बाल भी अस्तव्यस्त कर दिए थे.

राकेश देर से आने की कैफियत दिए बगैर बोले, ‘‘भारत की औरतों में एक बात है. बच्चों के पीछे सरी जिंदगी तबाह कर देती हैं. गीली साड़ी, उलझे बाल, खुरदुरे हाथ और मुरझया चेहरा. बस, बच्चों के बाद यही तसवीर मिलेगी औरतों की. अरे बाहर की औरतों को भी देखो, कैसे बच्चे पालती हैं. घर का काम भी करती हैं, बाहर का भी. फिर भी फूल की तरह मुसकराती रहती हैं.’’

मैं बिना कुछ कहे हिचकियां भरभर कर रोने लगी. रोतेरोते ही बोली, ‘‘सारा दिनभर खप कर काम किया है. फिर सज कर आप का इंतजार करती रही. इतनी देर से आए और अब भाषण देने लगे. बच्चों के लिए बड़ी आयानौकरानी रख दी है न, जो सारा दिन फूल सा मुककराता चेहरा ले कर आप के आगेपीछे घूमती रहूं. बरतन, सफाई, कपड़े, रंजू की देखभाल सब मेरे जिम्मे है. आप को तो सिर्फ बातें बनानी आ गई हैं… काम से लौट कर जख्मी तीर चला देते हो. अब रंजू को आप ही संभालो, मैं कुछ दिनों के लिए मायके

जा रही हूं,’’ कह कर मैं सचमुच अपने कपड़े समेटने लगी.

राकेश सिटपिटा कर बोले, ‘‘अरे भई, मैं तो मजाक कर रहा था. तुम्हारे बगैर कहीं मेरा गुजारा है. छोड़ो भी यार, हम तो कहते हैं हमारा भी कुछ खयाल रख लिया करो, बस.’’

मैं पिघल गई. राकेश ने उस रात मुझे खूब प्यार किया. खाना खा कर राकेश टहलने गए तो मेरे लिए एक कोल्ड क्रीम और हैंड लोशन खरीद लाए. बोले, ‘‘काम के बाद इन्हें इस्तेमाल किया करो, हाथ खराब नहीं होंगे.’’

सुन कर मुझे लगा कि राकेश अब भी मुझे बहुत प्यार करते हैं. मैं ही बुरी हूं जो उन का ध्यान नहीं रखती.

कुछ दिन मैं ने राकेश का खूब ध्यान रखा. थोड़ा जल्दी सुबह उठने से राकेश के लिए वक्त निकल आता था. पर थोड़े दिनों बाद मैं इस क्रम से ऊब गई क्योंकि दिनभर रंजू मुझे सोने नहीं देता था और रात को भी जगाता था. नींद पूरी न हो पाने से मैं चिड़चिड़ी हो गई और हार कर मैं ने सुबह देर से उठना शुरू कर दिया.

सारा दिन फिर उसी क्रम से सब काम देर से होते गए और शाम तक राकेश के लौटने तक मैं कामों में ही उलझ रहने लगी. स्वयं अपने पर ध्यान देने और सजने के लिए वक्त निकालने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता था.

कभी राकेश किसी पत्रिका में त्वचा की देखभाल या हाथपैरों की सुरक्षा पर कोई लेख पढ़ कर मुझे पढ़ने को कहते तो पढ़ने पर मुझे लगता कि वे सब किताबी बातें हैं, क्योंकि ढेर से काम निबटाने के बाद जब रात होती तो सिर्फ जल्दी से बिस्तर में घुसना ही याद रहता. गरम पानी से हाथपैर साफ कर के उन पर क्रीम और लोशन मलने में आधा घंटा भी गुजारना मुझे व्यर्थ लगता. सुबह फिर उसी क्रम से व्यस्तता शुरू हो जाती. इस व्यस्तता ने मेरे हाथपैर और चेहरे को बेरौनक कर दिया था. पर मैं सोचती इस में मैं क्या कर सकती हूं. घर का सारा काम भी तो मुझे ही निबटाना है.

राकेश ने देर से घर आना शुरू कर दिया

था. पर रंजू की देखभाल और घर की व्यवस्था

में उलझ मैं राकेश के देर से आने को कभी महत्त्व नहीं दे पाई क्योंकि उन के जल्दी घर

आने का मतलब था कि मैं भी साथ तैयार हो कर कहीं घूमने निकलूं, जो मुझे खलने लगा था. बच्चों के साथ कहीं ये सब संभव है? अच्छी साड़ी की दुर्दशा से बचने के लिए मैं अकसर गाउन ही पहने रहती.

राकेश ने अब कहना छोड़ दिया था. मैं ने भी कभी यह जानने की कोशिश नहीं की कि राकेश घर क्यों देर से आते हैं.

रंजू 3 साल का हो गया था. काम कुछ कम होता, इस से पहले ही पिंकी पैदा हो गई और फिर मैं उसी क्रम से उल?ाती चली गई. घर, बच्चे और मैं. न जाने कब सुबह होती और कब रात. काम खत्म होने को ही नहीं आते थे. बच्चों के मोह में अटकी में सारा दिन उन के आगेपीछे घूम कर खानापीना या दूध दिया करती. नहीं  खाते तो हाथ से ग्रास बनाबना कर खिलाती.

रंजू अब स्कूल जाने लगा था. उसे पढ़ाने का काम और बढ़ गया था. राकेश सुबह दफ्तर जाते तो रात के 7-8 बजे ही घर लौटते और फिर खापी कर सो जाते.

नया पड़ाव: भाग 1- जब पत्नी को हुआ अपनी गलती का अहसास

उस दिन मेरा मन बहुत बुझाबुझा सा था. मेरी बेटी पिंकी 4 साल का मैडिकल कोर्स करने के लिए कजाकिस्तान चली गई थी. जातेजाते वह घर को बुरी तरह फैला गई थी. न जाने कहांकहां उस का सामान पड़ा रहता था. बड़ी मुश्किल से जुगाड़ लगा कर 8-10 लाख रुपए का लोन ले कर उसे भेजा था. महीनों वह इस तरह के कालेजों में एडमिशन की जानकारी लेती रही थी. मैरिट में उस को वह रैंक नहीं मिली थी कि इतने में भारतीय निजी कालेज में पढ़ाई कर सके.

8 दिन बाद मेरा बेटा रंजू भी जब अपनी नौकरी पर देहरादून चला गया तो मैं काफी अकेलापन महसूस करने लगी थी. पर फिर भी घर समेटने में मुझे 8 दिन और लग गए.

शादी के 2-3 दिन बाद राकेश ने भी दफ्तर जाना शुरू कर दिया था. उस दिन मुझे सुबह से लग रहा था कि अब कोई काम ही नहीं है.

अब तक अपने वैवाहिक जीवन में मैं हमेशा काम समेटने के चक्कर में, घर चलाने व सुव्यवस्थित रखने की हायतोबा में और बच्चे पालनेपोसने में ही जिंदगी जीती आई थी. शांति से बैठने, अपने बारे में सोचने का कभी वक्त ही नहीं मिला. हमारी शादी अरैंज्ड मैरिज थी पर बच्चे जल्दी हो गए और मैं बिहार के एक कसबे से दिल्ली आ गई. अपने शहर में कभी ब्यूटीपार्लर नहीं गई थी. शादी के टाइम पहली बार गई थी. पिंकी बहुत बार कहती कि ममा चलो. पर मुझे लगता था कि मैं ऐसे ही ठीक हूं.

जब भी किसी पत्रिका में हाथों की देखभाल, पांवों की सुरक्षा या त्वचा की देखभाल पर कोई लेख पढ़ती थी तो लगता था ये सब खाली वक्त के चोंचले हैं या फिर उन लोगों के लिए हैं जिन के घर में नौकरचाकर हैं अथवा उन के लिए हैं जो मौडलिंग करती हैं.

मगर अब जिंदगी के इस मोड़ पर पहुंच कर जब मैं दोनों बच्चों की शादियां निबटा चुकी थी फुरसत के क्षण जैसे मेरे आगेपीछे बिखर गए हैं. अब जब मैं ने अपने खुरदुरे हाथों और बिवाई पड़े पैरों पर निगाह डाली तो हैरानी हुई है कि इन पर कभी ध्यान क्यों नहीं गया?

मैं उठ कर शीशे के आगे जा खड़ी हो

गई. उफ क्या यह मैं ही हूं. बाल किस कदर कालेसफेद हो गए हैं. चेहरे की रौनक खत्म

हो गई है. झुर्रियां और आंखों के नीचे का कालापन मेरी लापरवाही का संकेत है या मैं सचमुच बूढ़ी हो गई हूं. दिमाग पर जोर दिया तो याद आया अगले दिन ही तो पूरे 39 वर्ष की हो जाऊंगी मैं. सोच कर उदासी की परत और गहरी हो गई.

अब न मैं बूढ़ी कही जा सकती थी और न ही जवान. बच्चे अपनेअपने ठिकानों पर जा चुके थे और राकेश अपने में ही मस्त थे. रह गई थी

तो सिर्फ मैं. अपनी जिंदगी के अकेलेपन का एहसास होते ही वीरानी और निराशा सी महसूस करने लगी.

अतीत को टटोला तो लगा अपनी नासमझ या फिर जिद्दीपन या दोनों ही की वजह से मैं अपने बच्चों की सिर्फ मां बन सकी हूं, एक अच्छी पत्नी नहीं. राकेश भी बिहार से दिल्ली आया था और उस के विवाह के पहले के बहुत से दोस्त थे. कई तो कई साल तक रूममेट भी थे. उन के साथ उसे अपनापन लगता था.

फिर सोचा, खैर जो हुआ सो हुआ अब अपना फुरसत का साथी अपने पति को ही बनाना होगा. बच्चों के पीछे तो सारी जिंदगी ही बिना दी मैं ने.

तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया. मैं ने विचारों की केंचुली से निकल कर दरवाजा खोला. देखा, मेरे पति राकेश दफ्तर से लौट आए हैं. मैं ने मुसकरा कर उन का स्वागत किया.

राकेश बोले, ‘‘ओह, आज यह सूरज कहां से उगा है? तुम और फुरसत से मुसकरा कर मेरा स्वागत करो? क्यों भई, तुम्हें तो इस वक्त रसोई में होना चाहिए था या मोबाइल पर भाभी या फिर मां से चुगली करने में व्यस्त.’’

राकेश का व्यंग्य मुझेअंदर तक कचोट गया. सारा उत्साह बटोर कर बोली, ‘‘अब दोनों बच्चे चले गए. आखिर कभी तो फुरसत होनी

ही चाहिए.’’

‘‘पर मुझे अब फुरसत नहीं है. मेरे फुरसत के क्षणों पर मेरे उन दोस्तों का अधिकार हो गया है, जो शादी से पहले साथ थे,’’ राकेश बोले. फिर कुछ उदास से हो कर आगे कहने लगे, ‘‘मैं ने कितना चाहा कि तुम मेरे साथ रहो. मेरी हमदम रहो शादी के पहले साल ही रंजू हो गया, पर तुम्हें तो बस बच्चों के आगे कभी कुछ सू?ा ही नहीं. मैं ने कहा भी था कि गर्भपात करा लो पर तुम्हारी दकियानूसी मां नहीं मानी. अब मैं मजबूर हूं. चाहो तो रोज की तरह रसोई से चाय बना कर पिंकी के हाथ भेज दो. मैं तब तक तैयार हो रहा हूं. आधे घंटे में हम सब अपने छड़े दोस्त के फ्लैट पर मिल रहे हैं.’’

राकेश मुझे आहत कर के दूसरे कमरे में चले गए. मैं हताश सी दूसरे कमरे से निकल कर रसोई में आ गई. राकेश यह भी भूल गए थे कि रोज उन्हें चाय पहुंचाने वाली पिंकी अब ससुराल जा चुकी है.

चाय बनातेबनाते मैं सोचती रही कि आज राकेश उस के जाने के बाद पहली बार दफ्तर

गए हैं, इसीलिए शायद रोज के क्रम को याद कर रहे हैं.

चाय बना कर मैं ने राकेश को दे दी. प्याला पकड़ते हुए वे बोले, ‘‘ओह, मैं तो भूल ही गया था पिंकी तो अब है ही नहीं.’’

मुझे ऐसा लगा जैसे मैं रो पड़ूंगी, पर रोई नहीं. जैसेतैसे चाय समाप्त हो गई. राकेश भी चुपचाप चाय पी कर मेरे हाथों में प्याला

पकड़ाते हुए बोले, ‘‘खैर, मैं चलता हूं, देर हो

रही है.’’

मैं ने निरीह सी हो कर उन के जाने के बाद दरवाजा बंद कर लिया.

मुझे राकेश पर बहुत गुस्सा आया. एक तो मैं इतना अकेलापन महसूस कर रही थी, उस पर व्यंग्यबाण चला कर मुझे और आहत कर गए. निढाल सी पड़ कर मैं अनायास रोने लगी कि

एक दिन दोस्तों के साथ महफिल न सजाते तो क्या हो जाता. यही सोचसोच कर मैं काफी देर तक रोती रही.

फिर मुझे लगा कि शायद ऐसी स्थिति पर पहुंचने के लिए मैं स्वयं जिम्मेदार हूं. आज कुछ नया तो नहीं घटा. फिर 17 वर्षों के बाद ही क्यों मुझे राकेश का इस तरह जाना खल रहा है.

ऐसा तो हर शाम होता था, पर मुझे कभी कुछ खास नहीं लगा या शायद बच्चों के झंझटों से निकल कर मैं ने कभी इस बात पर ज्यादा गौर ही नहीं किया. लगा कि अब शायद सचमुच मैं बहुत फुरसत में हूं. तभी तो 19 वर्ष पूर्व के अपने सुनहले रुपहले दिन याद आने लगे थे.

मैं 22 की थी, राकेश 28 के. राकेश से जिस वक्त मेरी शादी हुईर् थी उस वक्त मैं और

राकेश एकदूसरे में ही खोए रहते थे. राकेश के दफ्तर जाने तक मैं उन के आगेपीछे ही घूमती रहती थी. उन की हर जरूरत का ध्यान रखती. राकेश तब मुझे पा कर फूले न समाते थे. इतना खयाल तो कभी उन की मां ने भी नहीं किया था. ऐसा उन का कहना था. हम लोग एक बड़े कसबे से आए थे. अच्छी पढ़ाईलिखाई के बावजूद मुझे घर में रहना ही पसंद था. राकेश ने बहुत कहा कि कोई नौकरी कर लो पर मैं नहीं मानी कि बच्चों को कौन देखेगा.

शुरूशुरू में दिनभर मैं राकेश के इंतजार में उन की मनपसंद चीजें बनाती रहती. आने का वक्त होता तो सजधज कर उन का स्वागत करती और फिर हम चाय पी कर घूमने निकल जाते. छुट्टी वाले रोज कभी कहीं घूमते, कभी कहीं. कभी पिक्चर तो कभी पिकनिक.

पड़ोसी तब हमें ‘युगल कपोत’ कहा करते थे क्योंकि मैं शादी के 1 साल में ही गर्भवती हो गई. इच्छा पूरी होती तो मैं ने उस की एहतियात के लिए घूमनाफिरना काफी कम कर दिया. राकेश को घूमने और पिक्चर देखने का बेहद शौक था, पर मैं उन्हें, ‘‘थोड़े ही दिन की तो बात है,’’ कह कर उन प्रोग्रामों को टालने लगी.

फिर 9 महीने बाद रंजू जब मेरी गोद में आया तो मानो मुझे सबकुछ मिल गया. राकेश भी खुश थे. हम ने प्यार से उस का नाम रंजू रखा.

40 दिन के आराम के बाद राकेश ने

पिक्चर का प्रोग्राम बनाया तो मैं ने यह कह कर मना कर दिया, ‘‘वहां रंजू रोएगा. बीच में उस

के दूध का वक्त होगा. वहां कैसे पिलाऊंगी.

आप का बहुत मन हो तो किसी दोस्त के साथ चले जाओ.’’

राकेश उस दिन मन मार कर अकेले

पिक्चर देख आए थे. पर फिर यह एक दिन का क्रम नहीं रहा. मैं रंजू के मोह में धीरेधीरे फंसती चली गई और मेरे घूमनेफिरने पर एकदम पाबंदी सी लग गई.

जब कभी राकेश उत्साहित हो कर कहीं चलने का प्रोग्राम बनाते तो मु?ो लगता बच्चे के साथ बाहर निकलना बहुत मुश्किल है. सर्दी

होती तो कहती, ‘‘रंजू को सर्दी लग जाएगी, बाहर बहुत हवा है. गरमी होती तो उसे लू लग जाने का भय बताती और बरसात होने पर उस के भीग जाने का.’’

सुन कर राकेश कभीकभी चिढ़ जाते थे. कभीकभी राकेश अपनी कमीज के बटन टूटने

की ओर ध्यान दिलाते तो मैं मुसकरा कर

कहती, ‘‘वक्त ही नहीं मिला आप के लाडले से. सारा दिन नचाए रखता है. अच्छा आज जरूर लगा दूंगी.’’

अकसर मैं उन के बताए काम भूल जाती. उन के आगेपीछे घूमना तो

मैं ने छोड़ ही दिया था. इस तरह रंजू की देखभाल में मैं न जाने कब राकेश को खोती चली गई, इस का मुझे पता ही नहीं चला.

राकेश के साथ घूमने में जो मजा आता था, उस से ज्यादा मजा मुझे रंजू को गोद में ले कर निहारते रहने में आता.

दिनभर रंजू के साथ कब गुजर जाता, मुझे पता ही न चलता. यह भी याद न रहता कि राकेश के आने का वक्त हो गया है.

एक दिन की बात है. राकेश ने दफ्तर जाते वक्त मुझे से पैंटकमीज निकाल देने को कहा. उस वक्त रंजू अपने नैपकिन को गोली कर के रो रहा था. मैं बोली कि रंजू हो रहा है, तुम जरा अपनेआप निकाल लो, तब तक मैं इस का नैपकिन बदल देती हूं.

मैं गुनगुनाती हुई रंजू का काम करने लगी. राकेश ने अपनेआप कपड़े तो निकाल कर पहन लिए, परंतु नाश्ते के वक्त मुझ से बिलकुल नहीं बोले, ‘‘आप को तो खुश होना चाहिए कि मैं आप के ही खून की अपने हाथों से देखभाल करती हूं, किसी आया या नौकरानी पर नहीं छोड़ती. अब बच्चे के साथ काम तो बढ़ ही जाता है. ऐसे में उलटे आप को चाहिए कि मेरा हाथ बंटाओ, कभीकभार सब्जी कटवा दो, चाय बना दो या रंजू का कोई काम कर दो. अपने कपड़े तो अपनेआप निकालने ही चाहिए आप को. अब पहले की तरह मैं खाली तो हूं नहीं जो हर वक्त आप के आगेपीछे घूमती रहूं.’’

सुन कर राकेश मुझे घूरते रहे. फिर दफ्तर चले गए. मैं ने बाहर जा कर उन्हें विदा भी नहीं किया… रंजू ने उलटी कर दी थी. उसे ही साफ करने में लगी रही.

उस दिन रंजू ने कई बार उलटियां कीं. घबरा कर मैं उसे डाक्टर के पास ले गई. दवा पीने के बाद वह आराम से सो पाया.

मैं ने रंजू की उलटियों से खराब हुए कपड़े धोने शुरू ही किए थे कि राजेश दफ्तर से लौट आए. शाम के 5 बज गए थे. मुझे पता ही नहीं चला था.

उलझे बालों और भीगे गाउन से मैं ने दरवाजा खोला तो राकेश् को फिर गुस्सा आ गया. बगैर मुझ से बोले ही वे अंदर दाखिल हो गए.

रंजू तब तक जाग गया था. मैं राकेश से बोली, ‘‘राकेश रंजू को उठा लो. मैं तब तक कपड़े सूखने डाल कर आप के लिए चाय बना देती हूं.’’

सुन कर राकेश बोले, ‘‘सारा दिन दफ्तर

में काम करतेकरते थक कर घर आया हूं, अब क्या यहां की नौकरी बजाऊं? तुम चाय रहने दो. तुम्हें तो अब इतनी भी फुरसत नहीं कि अपने बाल संवारो, वक्त पर कपड़े धोओ और मेरे

लिए कुछ वक्त निकालो. मैं कहीं बाहर ही चाय पी लूंगा.’’

राकेश मेरी दिनभर की व्यस्तता का लेखाजोखा लिए बगैर बाहर चले गए. मेरा दिल रोने को हो आया. दरवाजा बंद कर के रोतेरोते रंजू को उठा कर मैं ने चुप कराया. उसे दूध गरम कर पिलाया, दवा दी. वह खेलने लगा तो मैं ने फटाफट कपड़े धो कर सूखने डाल दिए. शाम की चाय अकेले ही पी.

अब तक मैं सुबह से काम करतेकरते थक गईर् थी, परंतु रात का खाना अभी तैयार करना था. जल्दीजल्दी वह भी काम निबटाया और स्वयं तैयार हो कर राकेश का इंतजार करने लगी.

लता आ गई: सफलता का शौर्टकट अपनाने के बाद कहां गायब हो गई लता?

‘‘क्या हुआ? कुछ पता चला क्या?’’ अपने पुत्र सोमेश और पति वीरेंद्र को देखते ही बिलख उठी थीं दामिनी. सोमेश ने मां की दशा देख कर अपनी डबडबा आई आंखों को छिपाने के लिए मुंह फेर लिया था.

‘‘लता अब नहीं आएगी,’’ आराम- कुरसी पर पसरते हुए दामिनी से बोल कर शून्य में टकटकी लगा दी थी वीरेंद्र बाबू ने.

‘‘क्या कह रहे हो जी? क्यों नहीं आएगी लता? मैं अपनी बेटी को बहुत भली प्रकार से जानती हूं. वह अधिक दिनों तक अपनी मां से दूर नहीं रह सकती,’’ दामिनी अवरुद्ध कंठ से बोलीं.

‘‘मैं सब जानतासमझता हूं पर यह समझ में नहीं आता कि तुम्हारी लाड़ली को कहां से ले आऊं. पता नहीं लता को आसमान खा गया या जमीन निगल गई. मैं दसियों चक्कर तो थाने के लगा चुका. पर हर बार एक ही उत्तर, ‘प्रयत्न कर रहे हैं, हम पुलिस वाले भी इनसान ही हैं. जान की बाजी लगा दी है हम ने, पर हम लता को नहीं ढूंढ़ पाए. पुलिस के पास क्या कोई जादू की छड़ी है कि पलक झपकते ही आप की बेटी को प्रस्तुत कर दे?’ पुलिस को वैसे भी छोटेबड़े सैकड़ों काम होते हैं,’’ वीरेंद्र बाबू धाराप्रवाह बोल कर चुप हो गए थे.

घर में शांति थी. सदा चहकती रहने वाली उन की छोटी बेटी रेनू देर तक सुबकती रही थी.  ‘‘बंद करो यह रोनाधोना, तुम सब को जरूरत से अधिक छूट देने का ही यह फल है जो हमें आज यह दिन देखना पड़ रहा है. मैं तो किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहा,’’ वीरेंद्र बाबू स्वयं पर नियंत्रण खो बैठे थे. रेनू का रुदन कुछ और ऊंचा हो गया था.

‘‘खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे,’’ दौड़ती हुई दामिनी पति के पास आईं और बोलीं, ‘‘जहां क्रोध दिखाना चाहिए वहां से तो दुम दबा कर चले आते हो. सारा क्रोध बस घर वालों के लिए है.’’

‘‘क्या करूं? तुम ही कहो न. वैसे भी तुम तो खुद भी बहुत कुछ कर सकती हो. तुम जैसी तेजतर्रार महिला के लिए कुछ भी मुश्किल नहीं है. जाओ, जा कर दुनिया फूंक डालो या किसी का खून कर दो,’’ वीरेंद्र बाबू इतनी जोर से चीखे थे कि दामिनी भी घबरा कर चुप हो गई थीं.  फिर अचानक मानो बांध टूट गया हो. वीरेंद्र बाबू फूटफूट कर रो पड़े थे.

रेनू दौड़ कर आई थी और पिता को सांत्वना देने लगी.  ‘‘ऐसे दिल छोटा नहीं करते जी, सब ठीक हो जाएगा. हमारी लता को कुछ नहीं होगा,’’ दामिनी बोलीं.

रेनू लपक कर चाय बना लाई थी. मानमनुहार कर के मातापिता को चाय थमा दी थी. तभी प्रभात ने वहां प्रवेश किया था.

‘‘रेनू, मुझे भी एक कप चाय मिल जाती तो…आज सुबह से कुछ नहीं खाया है,’’ प्रभात इतने निरीह स्वर में बोला था कि रेनू ने अपने लिए बनाई चाय उसे थमा कर बिस्कुट की प्लेट आगे बढ़ा दी थी.

‘‘मां, स्वयं को संभालो. 4 दिन से घर में चूल्हा नहीं जला है. कब तक मित्रों, संबंधियों द्वारा भेजा खाना खाते रहेंगे? अगले सप्ताह से मेरी और रेनू दोनों की परीक्षाएं प्रारंभ हो रही हैं. दिन भर घर में रोनाधोना चलता रहा तो सबकुछ चौपट हो जाएगा,’’ प्रभात ने अपनी मां दामिनी को समझाना चाहा था.

‘‘चौपट होने में अब बचा ही क्या है. 4 दिन से मेरी बेटी का पता नहीं है और तुम मुझे स्वयं को संभालने की सलाह दे रहे हो? कोई और भाई होता तो बहन को ढूंढ़ने के लिए दिनरात एक कर देता.’’

‘‘क्या चाहती हैं आप. लतालता चिल्लाता हुआ सड़कों पर चीखूं, चिल्लाऊं? या मैं भी घर छोड़ कर चला जाऊं? सच कहूं तो जो हुआ उस सब के लिए आप और पापा दोनों ही दोषी हैं. जिस राह पर लता चल रही थी उस पर चलने का अंजाम और क्या होना था?’’

‘‘शर्म नहीं आती, भाई हो कर बहन पर दोषारोपण करते हुए? वह क्या सबकुछ अपने लिए कर रही थी. कितने सपने थे उस के, अपने और अपने परिवार को ऊपर उठाने के. सदा एक ही बात कहती थी… परिवार को ऊपर उठाने के लिए संपर्कों की आवश्यकता होती है. उस का उठनाबैठना बड़े लोगों के बीच था.’’

‘‘तो जाइए न उन बड़े लोगों के पास लता को ढूंढ़ने में सहायता की भीख मांगने. जो संपर्क कठिन समय में भी काम न आएं वे भला किस काम के?’’ तीखे स्वर में बोल पैर पटकता हुआ प्रभात अपने कक्ष में चला गया था.

उस के पीछे सोमेश भी गया था. वह किसी प्रकार प्रभात और रेनू को समझाबुझा कर उन का ध्यान पढ़ाई की ओर लगाना चाहता था.

मेज पर सिर रखे सुबकते प्रभात के सिर को सहलाते हुए उस ने सांत्वना देनी चाही थी. स्नेहिल स्पर्श पाते ही उस ने सिर उठाया था.  ‘‘स्वयं को संभालो मेरे भाई. वास्त- विकता को स्वीकार कर लेने से आधी समस्या हल हो जाती है,’’ सोमेश ने सामने पड़ी कुरसी पर बैठते हुए कहा था.

‘‘कैसी वास्तविकता, भैया?’’ प्रभात ने पूछा.

‘‘यही कि लता के लौटने की आशा नहीं के बराबर है. वह अवश्य ही किसी हादसे की शिकार हो गई है. नहीं तो 4-5 दिन तक लता घर न लौटे ऐसा क्या संभव है? मांपापा भी इस बात को समझते हैं, पर स्वीकार नहीं कर पा रहे.’’

‘‘अब क्या होगा, भैया?’’

‘‘जो भी होगा मैं और पापा संभाल लेंगे. पर मैं नहीं चाहता कि तुम या रेनू अपनी पढ़ाई छोड़ कर 1 वर्ष बरबाद कर दो.’’

‘‘आप ही बताइए, मैं क्या करूं… किताब खोलते ही लता दीदी का चेहरा सामने घूमने लगता है.’’

‘‘मन तो लगाना ही पड़ेगा. मैं तो खास कुछ कर नहीं सका. पढ़ाईलिखाई में कभी मन ही नहीं लगा. पर तुम तो मेधावी छात्र हो. मेरी तो छोटी सी नौकरी है…चाह कर भी किसी की खास सहायता नहीं कर पाता. अब मैं चलता हूं. तुम भी अपनी किताबें आदि संभाल लो और कल से कालेज जाना प्रारंभ करो.’’  धीरज रखने का पाठ पढ़ा कर सोमेश चला गया था. मन न होने पर भी प्रभात ने किताब खोल ली थी. पर हर पृष्ठ पर लता का ही छायाचित्र नजर आ रहा था.

किसी तरह प्रथम श्रेणी में एम.ए. करते ही लता को स्थानीय कालेज में व्याख्याता के पद पर अस्थायी नियुक्ति मिल गई थी. पर उस को इतने से ही संतोष कहां था. हर कार्य में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेना या यों कहें हर स्थान पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में उसे महारत हासिल थी. कोल्हू के बैल की तरह काम करने में उस का विश्वास नहीं था. काम दूसरे करें और प्रस्तुतीकरण वह, लता तो इसी शैली की कायल थी, जिस से सब की नजरों में बनी रहे.

कालेज के स्थापना दिवस समारोह में जब उसी क्षेत्र के विधायक और राज्य सरकार के मंत्री नवीन राय पधारे तो प्रधानाचार्य महोदय ने उन के स्वागत- सत्कार का जिम्मा लता के कंधों पर डाल दिया था.  लता तो कल्पना लोक की सैर पर निकल पड़ी थी. अब उस के पांव धरती पर टिकते ही नहीं थे.  उस ने अपने स्वागतसत्कार से नवीन राय पर ऐसी छाप छोड़ी थी कि शहर में 2 दिन के लिए आए मंत्री महोदय 10 दिन तक वहीं टिके रहे थे.

हर रोज जब लालबत्ती वाली मंत्री की गाड़ी लता को घर छोड़ने आती तो दामिनी गर्व से फूल उठतीं. वे आ कर बेटी के स्वागत के लिए द्वार पर खड़ी हो जातीं. पर साथ ही आसपड़ोस की सब खिड़कियां खुल जातीं और विस्फारित नेत्र टकटकी लगा कर पूरे दृश्य को आत्मसात करने लगते थे. ‘‘मां, कैसे संकीर्ण विचारों वाले लोग रहते हैं इस महल्ले में. मेरे आते ही खिड़की या बालकनी में खड़े हो कर ऐसे घूरने लगते हैं जैसे लाल बत्ती वाली गाड़ी कभी किसी ने देखी नहीं,’’ एक दिन घर पहुंचते ही बिफर उठी थी लता.

‘‘गोली मारो इन सब को. सब के सब जलते हैं हम से. चलो, खाना खा लो,’’ दामिनी ने समझाया था.

‘‘खाना तो मैं खा कर आई हूं मां पर अब इस संकीर्ण विचारों वाले महल्ले में मेरा दम घुटने लगा है,’’ लता सामने पड़ी आरामकुरसी पर ही पसर गई थी.

‘‘चलो, लता तो खा कर आई है. आजकल इसे घर का खाना अच्छा कहां लगता है,’’ सोमेश ने व्यंग्य किया था.

‘‘तो आज सोमेश भैया आए हुए हैं. क्यों, क्या बात है, आज भाभी ने खाना नहीं बनाया क्या?’’ लता ने नजरें घुमाई थीं.

‘‘मैं खाना खाने नहीं, तुम से मिलने आया हूं. आजकल शहर में बड़ी चर्चा है तुम्हारी. मैं ने सोचा आज स्वयं चल कर देख लूं,’’ सोमेश रूखे स्वर में बोला था.

‘‘तो देख लिया न भैया, पड़ोसी और मित्र तो तरहतरह की बातें कर ही रहे हैं…आप भी अपनी इच्छा पूरी कर लो,’’ लता ने उत्तर दिया था.  ‘‘लता, मुझ में और पड़ोसियों में कुछ तो अंतर किया होता. मैं तुम्हारा बुरा चाहूंगा, ऐसा कहते हुए तुम्हें तनिक भी संकोच नहीं हुआ?’’ सोमेश भीगे स्वर में बोला था.

‘‘तुम ने तो विवाह होते ही अलग घर बसा लिया. लता बेचारी अपने बल पर आगे बढ़ना चाहती है तो तुम्हें उस पर भी आपत्ति है,’’ उत्तर लता ने नहीं दामिनी ने दिया था.

‘‘मां, अलग घर बसाने का आदेश भी आप का ही था. मैं ने मीनू से विवाह आप की इच्छा से ही किया था फिर भी यथा- शक्ति आप सब की मदद करता हूं मैं.’’  ‘‘क्या करती बेटे. दिनरात की कलह से त्रस्त आ कर ही मैं ने तुम से अलग होने को कहा था. पर अब अच्छा यही होगा कि व्यर्थ ही दूसरों के मामले में टांग अड़ाना बंद करो,’’ दामिनी तीखे स्वर में बोली थीं.

‘‘मां, लता मेरी बहन है और उसे विनाश की राह पर जाने से रोकना मेरा कर्तव्य है. मैं इस समय लता से बात कर रहा हूं. आप बीच में न बोलें.’’

‘‘भैया ठीक कह रहे हैं. मेरे मित्र कटाक्ष करते हैं, ताने मारते हैं. आज मेरा मित्र अरुण उपहास करते हुए कह रहा था कि अब तो तुम्हारी बहन मंत्रीजी के साथ घूमती है. करोड़पति बनते देर नहीं लगेगी,’’ प्रभात ने सोमेश की हां में हां मिलाई थी.

‘‘सोमेश भैया और प्रभात, तुम्हें अपनी बहन पर विश्वास हो न हो, मुझे खुद पर विश्वास है. मैं आप को आश्वासन देती हूं कि कभी गलत राह पर पैर न रखूंगी,’’ लता ने सोमेश और प्रभात को समझाया था. पर बात सोमेश के गले नहीं उतरी थी. वह भीतरी कक्ष में टेलीविजन के चैनल बदलने में व्यस्त वीरेंद्र बाबू के पास पहुंचा था  ‘‘पापा, आप सदा समस्या को सामने खड़ा देख कर शुतुरमुर्ग की तरह मुंह क्यों छिपा लेते हैं…किंतु इस समय यदि आप चुप रह गए तो सर्वनाश हो जाएगा,’’ सोमेश ने अनुनय की थी. पर वीरेंद्र बाबू ने कुछ नहीं कहा.  हार कर सोमेश चला गया था. प्रभात और रेनू अपनी पढ़ाई में मन लगाने का प्रयत्न करने लगे थे.  ‘‘पता नहीं भैया को क्या हो गया है? मंत्री महोदय तो बड़े ही सज्जन व्यक्ति हैं. सभी उन का सम्मान करते हैं. आज ही कह रहे थे कि कब तक इस अस्थायी पद पर कार्य करती रहोगी. दिल्ली चली आओ. अच्छे से अच्छे कालेज में नियुक्ति हो जाएगी वहां. साथ ही राजनीति के गुर भी सीख लेना. फिर देखना मैं तुम्हें कहां से कहां पहुंचाता हूं,’’ लता ने बड़ी प्रसन्नता से बताया था.

‘‘तू चिंता मत कर बेटी. मैं तेरे साथ हूं. पर एक बात कहे देती हूं, राजधानी जाना पड़ा तो मैं तेरे साथ चलूंगी. अकेले नहीं जाने दूंगी तुझे,’’ दामिनी बड़े लाड़ से बोली थीं.

‘‘अरे मां, तुम तो व्यर्थ ही परेशान होती हो. कहने और करने में बहुत अंतर होता है. नेता लोग बहुत से आश्वासन देते रहते हैं पर सभी पूरे थोड़े ही होते हैं,’’ लता लापरवाही से बोली थी और सोने चली गई थी. पर दामिनी देर तक स्वप्नलोक में डूबी रही थीं. उन्हें लता के रूप में सुनहरा भविष्य बांहें पसारे सामने खड़ा प्रतीत हो रहा था.  पर लता की आशा के विपरीत मंत्री महोदय ने राजधानी पहुंचते ही एक कन्या महाविद्यालय में उस की स्थायी नियुक्ति करवा कर नियुक्तिपत्र भेज दिया था.  कई दिनों तक घर में उत्सव का सा वातावरण रहा था. बधाई देने वालों का तांता लगा रहा था. सोमेश को भी लगा कि लता को अच्छा अवसर मिला है और उस का जीवन व्यवस्थित हो जाएगा.

शीघ्र ही मांबेटी ने अपना बिस्तर बांध लिया था. राजधानी पहुंचते ही लता ने अपना नया पद ग्रहण कर लिया था. उधर दामिनी को अपना घर छोड़ कर लता के साथ रहना भारी पड़ने लगा था. यों भी नवीन राय के साथ लता का घूमनाफिरना उन्हें रास नहीं आ रहा था.  दामिनी ने कई बार लता को समझाया कि अब तो स्थायी नियुक्ति मिल गई है. नवीन राय से किनारा करने में ही भलाई है. पर वह मां की सलाह सुनते ही बिफर उठती थी. दामिनी बेटी के आगे असहाय सी हो गई थीं. कुछ करने की स्थिति में नहीं थीं.

रेनू और प्रभात की परीक्षा निकट आई तो वे अपने शहर लौट गईं. कुछ दिनों तक लता के फोन आते रहे थे. फिर फोन वार्त्तालाप के बीच की दूरियां बढ़ने लगी थीं. दामिनी फोन करतीं तो वह व्यस्तता का बहाना बना देती थी.

फिर अचानक एक दिन लता सबकुछ छोड़ कर वापस लौट आई थी. दामिनी के पैरों तले से जमी  निकल गई थी. उस को देखते ही वे सबकुछ भांप गई थीं.

‘‘घर से निकलने की आवश्यकता नहीं है. तुम्हारे पापा और भाइयों को इस की भनक भी नहीं लगनी चाहिए. मैं सब संभाल लूंगी. हो जाती हैं ऐसी गलतियां कभीकभी. उस के लिए कोई अपना जीवन तो बरबाद नहीं कर देता,’’ उन्होंने लता को चुपचाप समझा दिया था.  उन्होंने एक नर्सिंग होम में सारा प्रबंध भी कर दिया था. पर कुछ हो पाता उस से पहले ही लता रहस्यमय तरीके से गायब हो गई थी. लता को ढूंढ़ने का बहुत प्रयत्न किया गया पर कोई फल नहीं निकला था. कई माह तक रोनेकलपने के बाद परिवार के सभी सदस्यों ने मन को समझा लिया था कि लता अब इस संसार में नहीं है.  दामिनी लता के लौटने की आशा पूरी तरह त्याग चुकी थीं पर एक दिन लता अचानक लौट आई.

कुछ क्षणों तक तो उन्हें अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ. उन्हें लगा जैसे कि वे कोई सपना देख रही हों. शीघ्र ही वे उसे अंदर के कमरे में ले गईं.

‘‘कहां मर गई थीं तुम? और अब अचानक कहां से प्रकट हो गईं? किसी ने देखा तो नहीं तुम्हें? तुम जानती भी हो कि तुम ने क्या किया है? हम तो कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहे. जितने मुंह उतनी ही बातें,’’ दामिनी ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी थी.

‘‘मां, आप अवसर दो तो मैं सब विस्तार से बता दूं,’’ लता ने उन के प्रश्नों की गति पर विराम लगा दिया था.  लता ने जब सारा घटनाक्रम समझाया तो दामिनी की समझ में नहीं आया कि रोएं या हंसें.

‘‘मां, मंत्री महोदय निसंतान थे. अपनी संतान को उन्होंने अपना लिया. वे मुझ से विवाह करने को तैयार नहीं थे. अत: मैं उन्हें छोड़ आई.’’

‘‘यह मैं क्या सुन रही हूं. तुम तो उन के हाथ की कठपुतली बन गईं. यह भी नहीं सोचा कि हम सब पर क्या बीतेगी?’’ दामिनी बिलख उठी थीं.

‘‘मां, संभालो स्वयं को. यह समय भावुक होने का नहीं है. मैं ने मंत्री महोदय से इतना धन ऐंठ लिया है जितना तुम ने देखा भी नहीं होगा. हम शीघ्र ही यह शहर छोड़ कहीं और जा बसेंगे. अपना जीवन नए सिरे से प्रारंभ करने के लिए.’’

दामिनी ने आंसू पोंछ डाले थे. लता के लिए चायनाश्ता बनाते समय वे एक नई कहानी गढ़ रही थीं जिस से लता के गायब होने और पुन: अवतरित होने की अभूतपूर्व घटना को तर्कसंगत बनाया जा सके.

मेरे हिस्से की कोशिश

ट्रेन अभी लुधियाना पहुंची नहीं थी और मेरा मन पहले ही घबराने लगा था. वहां मेरा घर है, वही घर जहां जाने को मेरा मन सदा मचलता रहता था. मेरा वह घर जहां मेरा अधिकार आज भी सुरक्षित है, किसी ने मेरा बुरा नहीं किया. जो भी हुआ है मेरी ही इच्छा से हुआ है. जहां सब मुझे बांहें पसारे प्यार से स्वीकार करना चाहते हैं और अब उसी घर में मैं जाने से घबराता हूं. ऐसा लगता है हर तरफ से हंसी की आवाज आती है. शर्म आने लगती है मुझे. ऐसा लगता है मां की नजरें हर तरफ से मुझे घूर रही हैं. मन में उमड़घुमड़ रहे झंझावातों में उलझा मैं अतीत में विचरण करने लगता हूं.

‘वाह बेटा, वाह, तेरे पापा को तो नई पत्नी मिल ही गई, वे मुझे भूल गए, पर क्या तुझे भी मां याद नहीं रही. कितनी आसानी से किसी अजनबी को मां कहने लगा है तू.’

‘ऐसा नहीं है मुन्ना कि तू मेरे पास आता है तो मुझे किसी तरह की तकलीफ होती है. बच्चे, मैं तेरी बूआ हूं. मेरा खून है तू. मेरे भैयाभाभी की निशानी है तू. तू घर नहीं जाएगा तो अपने पिता से और दूर हो जाएगा. बेटा, अपने पापा के बारे में तो सोच. उन के दिल पर क्या बीतती होगी जब तू लुधियाना आ कर भी अपने घर नहीं जाता. दादी की सोच, जो हर पल द्वार ही निहारती रहती हैं कि कब उन का पोता आएगा और…’

‘ये दादी न होतीं तो कितना अच्छा होता न… इतनी लंबी उम्र भी किस काम की. न इंसान मर सकता है और न ही पूरी तरह जी पाता है… हमारे ही साथ ऐसा क्यों हो गया बूआ?’

बूआ की गोद में छिप कर मैं जारजार रो पड़ा था. बुरा लगा होगा न बूआ को, उन की मां को कोस रहा था मैं. पिछले 10 साल से दादी अधरंग से ग्रस्त बिस्तर पर पड़ी हैं और मेरी मां चलतीफिरती, हंसतीखेलती दादी की दिनरात सेवा करतीं. एक दिन सोईं तो फिर उठी ही नहीं. हैरान रह गए थे हम सब. ऐसा कैसे हो सकता है, अभी तो सोई थीं और अभी…

‘अरे, यमराज रास्ता भूल गया. मुझे ले जाना था इसे क्यों ले गया… मेरा कफन चुरा लिया तू ने बेटी. बड़ी ईमानदार थी, फिर मेरे ही साथ बेईमानी कर दी.’

विलाप करकर के दादी थक गई थीं. मांगने से मौत मिल जाती तो दादी कब की इस संसार से जा चुकी होतीं. बस, यही तो नहीं होता न. अपने चाहे से मरा नहीं न जाता. मरने वाला छूट जाता है और जो पीछे रह जाते हैं वे तिलतिल कर मरते हैं क्योंकि अपनी इच्छा से मर तो पाते नहीं और मरने वाले के बिना जीना उन्हें आता ही नहीं.

‘इस होली पर जब आओ तो अपने ही घर जाना अनुज. भैया, मुझ से नाराज हो रहे थे कि मैं ही तुम्हें समझाती नहीं हूं. बेटे, अपने पापा का तो सोच. भाभी गईं, अब तू भी घर न जाएगा तो उन का क्या होगा?’

‘पिताजी का क्या? नई पत्नी और एक पलीपलाई बेटी मिल गई है न उन्हें.’

‘चुप रह, अनुज,’ बूआ बोलीं, ‘ज्यादा बकबक की तो एक दूंगी तेरे मुंह पर. क्या तू ने भैया को इस शादी के लिए नहीं मनाया था? हम सब तो तेरी शादी कर के बहू लाने की सोच रहे थे. तब तू ने ही समझाया था न कि मेरी शादी कर के समस्या हल नहीं होगी. कम उम्र की लड़की कैसे इतनी समस्याओं से जूझ पाएगी, हर पल की मरीज दादी का खानापीना और…’

‘हां, मुझे याद है बूआ, मैं नहीं कहता कि जो हुआ मेरी मरजी से नहीं हुआ. मैं ने ही पापा को मनाया था कि वे मेरी जगह अपनी शादी कर लें. विभा आंटी से भी मैं ने ही बात की थी. लेकिन अब बदले हालात में मैं यह सब सहन नहीं कर पा रहा हूं. घर जाता हूं तो हर कोने में मां की मौजूदगी का एहसास होने से बहुत तकलीफ होती है. जिस घर में मैं इकलौती संतान था अब एक 18-20 साल की लड़की जो मेरी कानूनी बहन है, वही अधिकारसंपन्न दिखाई देती है. दादी को नई बहू मिल गई, पापा को नई पत्नी और उस लड़की को पिता.’

‘यह तो सोचने की बात है न मुन्ना. तुझे भी तो एक बहन मिली है न. विभा को तू मां न कह लेकिन कोई रिश्ता तो उस से बांध ले. जितनी मुश्किल तेरे लिए है इस रिश्ते को स्वीकारने की उतनी ही मुश्किल उन के लिए भी है. वे भी कोशिश कर रहे हैं, तू भी तो कर. उस बच्ची के सिर पर हाथ रखेगा तभी तुझे  बड़प्पन का एहसास होगा. तू क्या समझता है उन दोनों के लिए आसान है एक टूटे घर में आ कर उस की किरचें समेटना, जहां कणकण में सिर्फ तेरी मां बसी हैं. तेरा घर तो वहीं है. उन मांबेटी के बारे में जरा सोच.

‘तुम चैन से दिल्ली में रह कर अगर अपनी नौकरी कर रहे हो तो इसीलिए कि विभा घर संभाल रही है. तुम्हारे पिता का खानापीना देखती है, दादी को संभालती है. क्या वह तुम्हारे घर की नौकरानी है, जिस का मानसम्मान करना तुम्हें भारी लग रहा है.

‘6 महीने हो गए हैं भाभी को मरे और इन 6 महीनों में क्या विभा ने कोई प्रयास नहीं किया तुम्हारे समीप आने का? वह फोन पर बात करना चाहती है तो तुम चुप रहते हो. घर आने को कहती है तो तुम घर नहीं जाते. अब क्या करे वह? उस का दोष क्या है. बोलो?’ बहुत नाराज थीं बूआ. किसी का भी कोई दोष नहीं है. मैं दोष किसे दूं. दोष तो समय का है, जिस ने मेरी मां को छीन लिया.

मैं निश्ंिचत हूं कि मेरे पिता का घर उजड़ कर फिर बस गया है और उस के लिए समूल प्रयास भी मेरा ही था. सब व्यवस्थित हैं. मेरे दोस्त विनय की विधवा चाची हैं विभा आंटी. हम दोनों के ही प्रयास से यह संभव हो पाया है.

मां तो एक ही होती है न, उन्हें मैं मां नहीं मान पा रहा हूं. और वह लड़की अणिमा, जो कल तक मेरे मित्र की चचेरी बहन थी अब मेरी भी बहन है. उम्र भर बहन के लिए मां से झगड़ा करता रहा, बहन का जन्म मां की मौत के बाद होगा, कब सोचा था मैं ने.

लुधियाना आ गया. ऐसा लग रहा था मानो गाड़ी का समूल भार पटरी पर नहीं मेरे मन पर है. एक अपराधबोध का बोझ. क्या सचमुच मैं ने अपनी मां के साथ अन्याय किया है? घर आ गया मैं. कांपते हाथ से मैं ने दरवाजे की घंटी बजा दी. मां की जगह कोई और होगी, इसी भाव से समूल चेतना सुन्न होने लगी.

‘‘आ गया मुन्ना…बेटा, आ जा.’’

दादी का स्वर कानों में पड़ा. दरवाजा खुला था. पापा भी नहीं थे घर पर. दादी अकेली थीं. दादी ने पास बिठा कर प्यार किया और देर तक रोते रहे हम.

‘‘बड़ा निर्मोही है रे मुन्ना. घर की याद नहीं आती.’’

अब क्या उत्तर दूं मैं. चारों तरफ नजर घुमा कर देखा.

‘‘दादी, कहां गए हैं सब. पापा कहां हैं?’’

‘‘अणिमा कहीं चली गई है. विभा और तेरा बाप उसे ढूंढ़ने गए हैं.’’

‘‘कहीं चली गई. क्या मतलब?’’

‘‘इस घर में उस का मन नहीं लगता,’’ दादी बोलीं, ‘‘तू भी तो आता नहीं. यह घर उजड़ गया है मुन्ना. खुशी तो सारी की सारी तेरी मां अपने साथ ले गई. मुझे भी तो मौत नहीं न आती. सभी घुटेघुटे जी रहे हैं. कोई भी तो खुश नहीं है न. इस तरह नहीं जिया जाता मुन्ना.’’

चारों तरफ एक उदासी सी नजर आई मुझे. उठ कर सारा घर देख आया. मेरा कमरा वैसा का वैसा ही था जैसा पहले था. जाहिर था कि इस कमरे में कोई नहीं रहता. पापा को फोन किया.

‘‘पापा, कहां हैं आप? मैं घर आया और आप कहां चले गए?’’

‘‘अणिमा अपने घर चली आई है मुन्ना. वह वापस आना ही नहीं चाहती. विनय भी यहीं है.’’

‘‘पापा, आप घर आइए. मैं वहां पहुंचता हूं. मैं बात करता हूं उस से.’’

घटनाक्रम इतनी जल्दी बदल जाएगा किस ने सोचा था. मैं जो खुद अपने घर आना नहीं चाहता अब अपने से 8 साल छोटी लड़की से पूछने जा रहा हूं कि वह घर क्यों नहीं आती? कैसी विडंबना है न, जिस सवाल का जवाब मेरे पास नहीं है उसी सवाल का जवाब उस से पूछने जा रहा हूं.  जब मैं विनय और अणिमा के पास पहुंचा तब तक पापा घर के लिए निकल चुके थे. विभा आंटी भी पापा के साथ लौट चुकी थीं. अणिमा वहां विनय के साथ थी.

‘‘वह घर मेरा नहीं है विनय भैया. देखा न मेरी मां उस आदमी के साथ चली भी गईं. मेरी चिंता नहीं है उन्हें. अनुज की मां तो उसे मर कर छोड़ गईं, मेरी मां तो मुझे जिंदा ही छोड़ गईं. अब मां मुझे प्यार नहीं करतीं. अनुज घर नहीं आता तो क्या मेरा दोष है? उस के कमरे में मत जाओ, उस की चीजों को मत छेड़ो, मेरा घर कहां है, विनय भैया. घर तो मेरी मां को मिला है न, मुझे नहीं. मेरे अपने पिता का घर है न यह. मैं यहीं रहूंगी अपने घर में. नहीं जाऊंगी वहां.’’

दरवाजे की ओट में बस खड़ा का खड़ा रह गया मैं. इस की पीड़ा मेरी ही तो पीड़ा है न. काटो तो खून नहीं रहा मुझ में. किस शब्दकोष का सहारा ले कर इस लड़की को समझाऊं. गलत तो कहीं नहीं है न यह लड़की. सब को अपनी ही पीड़ा बड़ी लगती है. मैं सोच रहा था मेरा घर कहीं नहीं रहा और यह लड़की अणिमा भी तो सही कह रही है न.

‘‘आसान नहीं है पराए घर में जा कर रहना. वह उन का घर है, मेरा नहीं. मैं यहां रहूं तो अनुज के पापा को क्या समस्या है?’’

‘‘तुम अकेली कैसे रह सकती हो यहां?’’

‘‘क्यों नहीं रह सकती. यह मेरा कमरा है. यह मेरा सामान है.’’

‘‘वह घर भी तुम्हारा ही है, अणिमा.’’

विनय अपनी चचेरी बहन अणिमा को समझा रहा था और वह समझना नहीं चाह रही थी. जैसे किसी और में मां को देखना मेरे लिए मुश्किल है उसी तरह मेरे पिता को अपना पिता बना लेना इस के लिए भी आसान नहीं हो सकता. भारी कदमों से सामने चला आया मैं. कुछ कहतीकहती रुक गई अणिमा. कितनी बदलीबदली सी लग रही है वह. चेहरे की मासूमियत अब कहीं है ही नहीं. हालात इंसान को समय से पहले ही बड़ा बना देते हैं न. उस की सूजीसूजी आंखें बता रही हैं कि वह बहुत देर से रो रही है. मैं घर नहीं आता हूं तो क्या उस का गुस्सा पापा और दादी इस बच्ची पर उतारते हैं? ठीक ही तो किया इस ने जो घर ही छोड़ कर आ गई. इस की जगह मैं होता तो मैं भी यही करता. ‘‘ओह, आ गए तुम भी.’’

दांत पीस कर कहा अणिमा ने. मेरे लिए उस के मन में उमड़ताघुमड़ता जहर जबान पर न आ जाए तो क्या करे.

इस रिश्ते में तो कुछ भी सामान्य नहीं है. इस रिश्ते को बचाने के लिए मुझे बहुत मेहनत करनी पड़ेगी. अणिमा मेरी बहन नहीं थी लेकिन इसे अपनी बहन मानना पड़ेगा मुझे. स्नेह दे कर अपना बनाना होगा मुझे. यही मेरी न हो पाई तो विभा आंटी भी मेरी मां कभी नहीं बन सकेंगी. कब तक वे भी इस घर और उस घर में सेतु का काम कर पाएंगी. पास आ कर अणिमा के सिर पर हाथ रखा मैं ने. झरझर बह चली उस की आंखें जैसे पूछ रही हों मुझ से, ‘अब और क्या करूं मैं?’

‘‘मैं राखी पर नहीं आया, वह मेरी भूल थी. अब आया हूं तो क्या तुम यहां छिपी रहोगी. तिलक नहीं लगाओगी मुझे?’’

विनय भीगी आंखों से मुझे देख रहा था, मानो कह रहा हो जहां तक उसे करना था उस ने किया, इस से आगे तो जो करना है मुझे ही करना है.  अणिमा को अपनी छाती से लगा लिया तो नन्ही सी बालिका की तरह जारजार रो पड़ी वह. उस की भावभंगिमा समझ पा रहा था मैं. अपने हिस्से की कोशिश तो वह कर चुकी है. अब बाकी तो मेरे हिस्से की कोशिश है.

‘‘अपने घर चलो, अणिमा. यह घर भी तुम्हारा है, पगली. लेकिन उस घर में हमें तुम्हारी ज्यादा जरूरत है. मैं तुम सब से दूर रहा वह मेरी गलती थी. अब आया हूं तो तुम तो दूर मत रहो.  ‘‘मां से सदा बहन मांगा करता था. कुछ खो कर कुछ पाना ही शायद मेरे हिस्से में लिखा था इस तरह. तो इसी तरह ही सही, अणिमा के आंसू पोंछ मैं ने उस का मस्तक चूम लिया. जिस ममत्व से वह मेरे गले लगी थी उस से यह आभास पूर्ण रूप से हो रहा था मुझे कि देर हुई है तो मेरी ही तरफ से हुई है. अणिमा तो शायद पहले ही दिन से मुझे अपना मान चुकी थी.

स्पेनिश मौस: क्या अमेरिका में रहने वाली गीता अपनी गृहस्थी बचा पाई?

‘‘आप यह नहीं सोचना कि मैं उन की बुराई कर रही हूं, पर…पर…जानती हैं क्या है, वे जरा…सामाजिक नहीं हैं.’’

उस महिला का रुकरुक कर बोला गया वह वाक्य, सोच कर, तोल कर रखे शब्द. ऋचा चौंक गई. लगा, इस सब के पीछे हो न हो एक बवंडर है. उस ने महिला की आंखों में झांकने का प्रयत्न किया, पर आंखों में कोई भाव नहीं थे, था तो एक अपारदर्शी खालीपन.

मुझे आश्चर्य होना स्वाभाविक था. उस महिला से परिचय हुए अभी एक सप्ताह भी नहीं हुआ था और उस से यह दूसरी मुलाकात थी. अभी तो वह ‘गीताजी’ और ‘ऋचाजी’ जैसे औपचारिक संबोधनों के बीच ही गोते खा रही थी कि गीता ने अपनी सफाई देते हुए यह कहा था, ‘‘माफ करना ऋचाजी, हम आप को टैलीफोन न कर सके. बात यह है कि हम…हम कुछ व्यस्त रहे.’’

ऋचा को इस वाक्य ने नहीं चौंकाया. वह जान गई कि अमेरिका में आते ही हम भारतीय व्यस्त हो जाने के आदी हो जाते हैं. भारत में होते हैं तो हम जब इच्छा हो, उठ कर परिचितों, प्रियजनों, मित्रों, संबंधियों के घर जा धमकते हैं. वहां हमारे पास एकदूसरे के लिए समय ही समय होता है. घंटों बैठे रहते हैं, नानुकर करतेकरते भी चायजलपान चलता है क्योंकि वहां ‘न’ का छिपा अर्थ ‘हां’ होता है. किंतु यहां सब अमेरिकन ढंग से व्यस्त हो जाते हैं. टैलीफोन कर के ही किसी के घर जाते हैं और चाय की इच्छा हो तो पूछने पर ‘हां’ ही करते हैं क्योंकि आप ने ‘न’ कहा तो फिर भारतीय भी यह नहीं कहेगा, ‘‘अजी, ले लो. एक कप से क्या फर्क पड़ेगा आप की नींद को,’’ बल्कि अमेरिकन ढंग से कंधे उचका कर कहेगा, ‘‘ठीक है, कोई बात नहीं,’’ और आप बिना चाय के घर.

अमेरिका आए ऋचा को अभी एक माह ही हुआ था. घर की याद आती थी. भारत याद आता था. यहां आने पर ही पता चलता है कि हमारे जीवन में कितनी विविधता है. दैनिक जीवन को चलाने के संघर्ष में ही व्यक्ति इतना डूब जाता है कि उसे कुछ हट कर जीवन पर नजर डालने का अवसर ही नहीं मिलता. यहां जीवन की हर छोटी से छोटी सुखसुविधा उपलब्ध है और फिर भी मन यहां की एकरसता से ऊब जाता है. अजीब एकाकीपन में घिरी ऋचा को जब एक अमेरिकन परिचिता ने ‘फार्म’ पर चलने की दावत दी तो वह फूली न समाई और वहीं गीता से परिचय हुआ था.

शहर से 20-25 किलोमीटर दूर स्थित इस ‘फार्म’ पर हर रविवार शाम को ‘गुडविल’ संस्था के 20-30 लोग आते थे, मिलते थे. कुछ जलपान हो जाता था और हफ्तेभर के लिए दिमाग तरोताजा हो जाता था. यह अनौपचारिक ‘मंडल’ था जिस में विविध देशों के लोगों को आने के लिए खास प्रेरित किया जाता था. सांस्कृतिक आदानप्रदान का एक छोटा सा प्रयास था यह.

यहीं उन गोरे चेहरों में ऋचा ने यह भारतीय चेहरा देखा और उस का मन हलका हो गया. वही गेहुआं रंग, काले घने बाल, माथे पर बिंदी और साड़ी का लहराता पल्ला. दोनों ने एकदूसरे की ओर देखा और अनायास दोनों चेहरों पर मुसकान थिरक गई. फिर परिचय, फिर अतापता, टैलीफोन नंबर का लेनदेन और छोटीमोटी, इधरउधर की बातें. कई दिनों बाद हिंदी में बातचीत कर अच्छा लगा.

तब गीता ने कहा था, ‘‘मैं टैलीफोन करूंगी.’’

और दूसरे सप्ताह मिली तो टैलीफोन न कर सकने का कारण बतातेबताते मन में लगी काई पर से जबान फिसल गई. उस के शब्द ऋचा ने पकड़ लिए, ‘‘वे सामाजिक नहीं हैं…’’ शब्द नहीं, मर्म को छूने वाली आवाज थी शायद, जो उसे चौंका गई. सामाजिक न होना कोई अपराध नहीं, स्वभाव है. गीता के पति सामाजिक नहीं हैं. फिर?

बातचीत का दौर चल रहा था. हरीहरी घास पर रंगबिरंगे कपड़े पहने लोग. लगा वातावरण में चटकीले रंग बिखर गए थे. ऋचा भी इधरउधर घूमघूम कर बातों में उलझी थी. अच्छा लग रहा था, दुनिया का नागरिक होने का आभास. ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की एक नन्ही झलक.

यहां मलयेशिया से आया एक परिवार था, कोई ब्राजील से, ये पतिपत्नी मैक्सिकन थे और वे कोस्टारिका के. सब अपनेअपने ढंग से अंगरेजी बोल रहे थे. कई ऋचा की भारतीय सिल्क साड़ी की प्रशंसा कर रहे थे तो कई बिंदी की ओर इशारा कर पूछ रहे थे कि यह क्या है? क्या यह जन्म से ही है आदि. कुल मिला कर ऐसा समां बंधा था कि ऋचा की हफ्तेभर की थकान मिट गई थी. तभी उस की नजर अकेली खड़ी गीता पर पड़ी. उस का पति बच्चों को संभालने के बहाने भीड़ से दूर चला गया था और उन्हें गाय दिखा रहा था.

ऋचा ने सोचा, ‘सचमुच ही गीता

का पति सामाजिक नहीं है. पर फिर यहां क्यों आते हैं? शायद गीता के कहने पर. किंतु गीता भी कुछ खास हिलीमिली नहीं इन लोगों से.’

‘‘अरे, आप अकेली क्यों खड़ी हैं?’’ कहती हुई ऋचा उस के पास जा खड़ी हुई.

‘‘यों ही, हर सप्ताह ही तो यहां आते हैं. क्या बातचीत करे कोई?’’ गीता ने दार्शनिक अंदाज से कहा.

‘‘हां, हो सकता है. आप तो काफी दिनों से आ रही हैं न?’’

‘‘हां.’’

‘‘तुम्हारे पति को अच्छा लगता है यहां? मेरा मतलब है भीड़ में, लोगों के बीच?’’

‘‘पता नहीं. कुछ कहते नहीं. हर इतवार आते जरूर हैं.’’

‘‘ओह, शायद तुम्हारे लिए,’’ ऋचा कब आप से तुम पर उतर आई वह जान न पाई.

‘‘मेरे लिए, शायद?’’ और गीता के होंठों पर मुसकान ठहर गई, पर होंठों का वक्र बहुत कुछ कह गया. ऋचा को लगा, कदाचित उस ने किसी दुखती रग पर हाथ रख दिया था, अनजाने ही अपराधबोध से उस ने झट आंखें फेर लीं.

तभी गीता ने उस के कंधे पर हाथ रखा और कहा, ‘‘सच मानो, ऋचा. मैं तो यहां आना बंद ही करने वाली थी कि पिछली बार तुम मिल गईं. बड़ा सहारा सा लगा. इस बार बस, तुम्हारी वजह से आई हूं.’’

‘‘मेरी वजह से?’’

‘‘हां, सोचा दो बातें हो जाएंगी. वरना हमारे न कोई मित्र हैं, न घर आनेजाने वाले. सारा दिन घर में अकेले रह कर ऊब जाती हूं. शाम को कभी बाजार के लिए निकल जाते हैं पर अब तो इन बड़ीबड़ी दुकानों से भी मन ऊब गया है. वही चमकदमक, वही एक सी वस्तुएं, वही डब्बों में बंद सब्जियां, गत्तों के चिकने डब्बों में बंद सीरियल, चाहे कौर्नफ्लैक लो या ओटबार्न, क्या फर्क पड़ता है.’’

गीता अभी बहुत कुछ कहना चाहती थी पर अब चलने का समय हो गया था. उस के पति कार के पास खड़े थे. वह उठ खड़ी हुई. ऋचा को लगा, गीता मन को खोल कर घुटन निकाल दे तो उसे शायद राहत मिलेगी. इस परदेस में इनसान मन भी किस के सामने खोले?

वह अपनी भावुकता को छिपाती हुई बोली, ‘‘गीता, कभी मैं तुम्हारे घर आऊं तो? बुरा तो नहीं मानेंगे तुम्हारे पति?’’

‘‘नहीं. परंतु हां, वे कभी कार से लेने या छोड़ने नहीं आएंगे, जैसे आमतौर पर भारतीय करते हैं. इन से यह सामाजिक औपचारिकता नहीं निभती,’’ वह चलते- चलते बोली. फिर निकट आ गई और साड़ी का पल्ला संवारते हुए धीरे से बोली, ‘‘तभी तो नौकरी छूट गई.’’

और वह चली गई, ऋचा के शांत मन में कंकड़ फेंक कर उठने वाली लहरों के बीच ऋचा का मन कमल के पत्ते की भांति डोलने लगा.

इस परदेस में, अपने घर से, लोगों से, देश से हजारों मील दूर वैसे ही इनसान को घुटन होती है, निहायत अकेलापन लगता है. ऊपर से गीता जैसी स्त्री जिसे पति का भी सहारा न हो. कैसे जी रही होगी यह महिला?

अगली बार गीता मिली तो बहुत उदास थी. पिछले पूरे सप्ताह ऋचा अपने काम में लगी रही. गीता का ध्यान भी उसे कम ही आया. एक बार टैलीफोन पर कुछ मिनट बात हुई थी, बस. अब गीता को देख फिर से मन में प्रश्नों का बवंडर खड़ा हो गया.

इस बार गीता और अधिक खुल कर बोली. सारांश यही था कि पति नौकरी छोड़ कर बैठ गए हैं. कहते हैं भारत वापस चलेंगे. उन का यहां मन नहीं लगता.

‘‘तो ठीक है. वहां जा कर शायद ठीक हो जाएं,’’ ऋचा ने कहा.

गीता की अपारदर्शी आंखों में अचानक ही डर उभर आया.

ऋचा सिहर गई, ‘‘नहीं. ऐसा न कहो. वहां मैं और अकेली पड़

जाऊंगी. इन के सब वहां हैं. इन का पूरा मन वहीं है और मेरा यहां.’’

तब पता चला कि गीता के 2 भाई हैं जो अब इंगलैंड में ही रहते हैं, पहले यहां थे. मातापिता उन के पास हैं. बहन कनाडा में है.

‘‘हमारी शादियां होने तक तो हम सब भारत में थे. फिर एकएक कर के इधर आते गए. मैं सब से छोटी हूं. मेरी शादी के बाद मातापिता भी भाइयों के पास आ गए.’’

गीता एक विचित्र परिस्थिति में थी. पति भारत जाना चाहते थे,वह रोकती थी. घर में क्लेश हो जाता. वे कहते कि अकेले जा कर आऊंगा तो भी गीता को मंजूर नहीं था क्योंकि उसे डर था कि मांबाप, भाईबहनों के बीच में से निकल कर वे नहीं आएंगे.

‘‘बच्चों की खातिर तो लौट आएंगे,’’ ऋचा ने समझाया.

‘‘बच्चों की खातिर? हुंह,’’ स्पष्ट था कि गीता को इस बात का भी भय था कि उन्हें बच्चों से भी लगाव नहीं है. ऋचा को अजीब लगा क्योंकि हर रविवार को बच्चों के साथ वे घंटों खेलते हैं, उन्हें प्यार से रखते हैं.

ऋचा कई बार सोचती, ‘आखिर कमी कहां रह गई है, वह तो सिर्फ गीता का दृष्टिकोण ही जान पाई है. उस के पति से बात नहीं हुई. वैसे गीता यह भी कहती है कि उस के पति बहुत योग्य व्यक्ति हैं और नामी कंप्यूटर वैज्ञानिक हैं. फिर यह सब क्या है?’

अब तो जब मिलो, गीता की वही शिकायत होती. पति ने फिलहाल अकेले भारत जाने की ठानी है. 3-4 महीने में वे चले जाएंगे. तत्पश्चात बच्चों की छुट्टियां होते ही वह जाएगी और फिर सब लौट आएंगे. पिछले 2 रविवारों को ऋचा फार्म पर गई नहीं थी. तीसरे रविवार गई तो गीता मिली. वही चिंतित चेहरा.

गीता के चेहरे पर भय की रेखाएं अब पूरी तरह अंकित थीं.

‘‘उन के बिना यहां…’’ गीता का वाक्य अभी अधूरा ही था कि ऋचा बोल पड़ी.

‘‘उन से इतना लगाव है तो लड़ती क्यों हो?’’

गीता चुप रही. फिर कुछ संभल कर बोली, ‘‘हमारा जीवन तो अस्तव्यस्त हो जाएगा न. बच्चों को स्कूल पहुंचाना, हर हफ्ते की ग्रौसरी शौपिंग, और भी तो गृहस्थी के झंझट होते हैं.’’

तभी गीता की परिचिता एक अमेरिकी महिला आ कर उस से कुछ कहने लगी. गीता का रंग उड़ गया. ऋचा ने उस की ओर देखा. गीता अंगरेजी में जवाब देने के प्रयास में हकला रही थी. ऋचा ने गीता की ओर से ध्यान हटा लिया और दूर एक पेड़ की ओर ध्यानमग्न हो देखने लगी. कुछ देर बाद अमेरिकन महिला चली गई. ऋचा को पता तब चला जब गीता ने उसे झकझोरा.

‘‘तुम ऋचा, दार्शनिक बनी पेड़ ताक रही हो. मैं इधर समस्याओं से घिरी हूं.’’

ऋचा ने उस की शिकायत सुनी- अनसुनी कर दी.

‘‘गीता, यह तुम्हारी अमेरिकी सहेली है. है न?’’

‘‘हां. नहीं. सच पूछो ऋचा, तो मैं कहां दोस्ती बढ़ाऊं? कैसे? अंगरेजी बोलना भी तो नहीं आता. मांबाप ने हिंदी स्कूलों में पढ़ाया.’’

‘‘ऐसा मत कहो,’’ ऋचा ने बीच में टोका, ‘‘अपनी भाषा के स्कूल में पढ़ना कोई गुनाह नहीं.’’

‘‘पर इस से मेरा हाल क्या हुआ, देख रही हो न?’’

‘‘यह स्कूल का दोष नहीं.’’

‘‘फिर?’’

‘‘दोष तुम्हारा है. अपने को समय व परिस्थिति के मुताबिक ढाल न सकना गुनाह है. बेबसी गुनाह है. दूसरे पर अवलंबित रहना गुनाह है. यही गुनाह औरत सदियों से करती चली आ रही है और पुरुषों को दोष देती चली आ रही है,’’ ऋचा तैश में बोलती चली गई. चेहरा तमतमाया हुआ था.

‘‘तुम कहना क्या चाहती हो, ऋचा?’’

‘‘बताती हूं. सामने पेड़ देख रही हो?’’

‘‘हां.’’

‘‘उन पेड़ों की टहनियों से ‘लेस’ की भांति नाजुक, हलके हरे रंग की बेल लटक रही है. है न?’’

‘‘हां. पर इन से मेरी समस्या का क्या ताल्लुक?’’

‘‘अमेरिका के दक्षिणी प्रांतों में ये बेलें प्रचुर मात्रा में मिलती हैं…’’

‘‘सुनो, ऋचा. इस वक्त मैं न कविता के मूड में हूं, न भूगोल सीखने के,’’ गीता लगभग चिढ़ गई थी.

ऋचा के चेहरे पर हलकी मुसकराहट उभर आई. फिर अपनी बात को जारी रखते हुए कहने लगी, ‘‘इन बेलों को ‘स्पेनिश मौस’ कहते हैं. इन की खासीयत यह है कि ये बेलें पेड़ से चिपक कर लटकती तो हैं पर उन पर अवलंबित नहीं हैं.’’

‘‘तो मैं क्या करूं इन बेलों का?’’

‘‘तुम्हें स्पेनिश मौस बनना है.’’

‘‘मुझे? स्पेनिश मौस?’’

‘‘हां, ‘अमर बेल’ नहीं, स्पेनिश मौस. ’’

‘‘पहेलियां न बुझाओ, ऋचा,’’ गीता का कंठ क्रोध और अपनी असहाय दशा से भर आया.

‘‘गीता, तुम्हारी समस्या की जड़ है तुम्हारी आश्रित रहने की प्रवृत्ति. पति पर निर्भर रहते हुए भी तुम्हें अपना अस्तित्व स्पेनिश मौस की भांति अलग रखना है. उन के साथ रहो, प्यार से रहो, पर उन्हें बैसाखी मत बनाओ. अपने पांव पर खड़ी हो.’’

‘‘कहना आसान है…’’ गीता कड़वाहट में कुछ कहने जा रही थी. पर ऋचा ने बात काट कर अपने ढंग से पूरी की, ‘‘और करना भी.’’

‘‘कैसे?’’

‘‘पहला कदम लेने भर की देर है.’’

‘‘तो पहला कदम लेना कौन सिखाएगा?’’

‘‘तुम्हारा अपना आत्मबल, उसे जगाओ.’’

‘‘कैसे जगाऊं?’’

‘‘तुम्हें अंगरेजी बोलनी आती है, जिस की यहां आवश्यकता है, बोलो?’’

‘‘नहीं?’’

‘‘कार चलानी आती है?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘यहां आए कितने वर्ष हो गए?’’

‘‘8.’’

‘‘अब तक क्यों नहीं सीखी?’’

‘‘विश्वास नहीं है अपने पर.’’

‘‘बस, यही है हमारी आम औरत की समस्या और यहीं से शुरू करना है तुम्हें. मदद मैं करूंगी,’’ ऋचा ने कहा.

गीता के चेहरे पर कुछ भाव उभरे, कुछ विलीन हो गए.

‘स्पेनिश मौस,’ वह बुदबुदाई. दूर पेड़ों पर स्पेनिश मौस के झालरनुमा गुच्छे लटक रहे थे. अनायास गीता को लगा कि अब तक उस ने नहीं जाना था कि स्पेनिश मौस की अपनी खूबसूरती है.

‘‘यह सुंदर बेल है ऋचा, है न?’’ आंखों में झिलमिलाते सपनों के बीच से वह बोली.

‘‘हां, गीता. पर स्पेनिश मौस बनना और अधिक सुंदर होगा.’’

लेखिका- उषा मनोहर

नमस्ते जी: भाग 2- आज उस ने अपनी बड़ी लड़की को काम पर क्यों भेजा…

एक दिन दोपहर में लगभग ढाई बजे के आसपास जब मैं अंकिता को दूध पिला रही थी तो प्रीति मेरे पास कमरे में आई. वैसे तो यह समय उस का आराम करने का होता था. उस की सांस कुछ फूली हुई सी थी और उस के सिर के बाल बेतरतीब से फैले हुए थे. मैं ने उस को नीचे से ऊपर तक निहारा तो लगा कि उस के साथ कुछ हुआ है. मैं ने पूछा था, ‘प्रीति, तुम इतनी घबराई हुई सी क्यों लग रही हो? क्या बात है?’

‘मेमसाहिब, आप कोई और काम करने वाली ढूंढ़ लो. मैं अब आप के घर काम नहीं कर सकती.’

‘क्यों प्रीति, ऐसा क्या हुआ जो तुम अचानक इस तरह दोपहर में काम छोड़ कर जा रही हो? तुम्हारे साथ हम सब अच्छे से बरताव करते हैं. तुम्हें यहां किसी तरह की कोई रोकटोक भी नहीं है. अपनी इच्छा से काम करती हो. जब मन में आता है तब घर घूम आती हो. फिर आज अचानक ऐसा क्यों…’

प्रीति तब कुछ नहीं बोल पाई थी. बस, वापस मुड़ कर अपनी चुनरी के एक कोने को मुंह में दबाए भाग ली थी वह. मैं कुछ भी नहीं समझ पाई थी. अंकिता को सोता छोड़ कर मैं दूसरे कमरे में आ गई थी जहां नितिन सोए थे. मैं ने उन्हें जगाया तो आंख भींचते हुए बोले, ‘क्या बात है छुट्टी वाले दिन तो आराम कर लेने दिया करो?’

मैं ने सारा वृतांत उन्हें सुनाते हुए पूछा, ‘तुम्हें कुछ समझ में आ रहा है कि प्रीति ऐसे अचानक क्यों भाग गई?’

‘प्रीति अपने घर चली गई? मैं आराम करने के लिए जब कमरे में आया था तब तो वह बरामदे में लेटी हुई थी. हो सकता है सोते हुए उस ने कोई बुरा स्वप्न देख लिया हो. शायद डर गई हो, बेचारी. कहीं तुम ने या मां ने तो कुछ नहीं कह दिया? काम करते वक्त उसे कुछ कह तो नहीं दिया आज सुबह या कल शाम को?’

‘नहीं तो, इतने दिन हो गए भला आज तक कुछ कहा है, जो आज. हां, हो सकता है सोते हुए उस ने कोई बुरा स्वप्न देखा हो. खैर, चलो छोड़ो, मैं शाम को उस के घर हो आऊंगी.’

यह कह कर मैं अपने कमरे में आ तो गई लेकिन मुझे चैन नहीं पड़ा रहा था. मैं बैड पर लेटेलेटे सोचती रही कि आखिर ऐसा क्या हुआ होगा जो वह भरी दोपहर में घर वापस जाने को मजबूर हो गई? मांजी से पूछा तो उन्होंने कह दिया कि उन की तो आज प्रीति से कोई बात ही नहीं हुई.

मुझे जब असमंजस में और अधिक नहीं रहा गया तो मैं प्रीति के घर पहुंच गई थी. प्रीति एक कोने में अलग सी बैठी थी. मुझे दहलीज पर देख कर भी कुछ नहीं बोली, वैसे ही बैठी रही थी, वरना तो उठ कर मेरा स्वागत करती थी. मैं ने जब काम छोड़ने के बारे में जानना चाहा तो उस की मां ने इतना ही कहा था, ‘मेमसाहिब, अब प्रीति तुम्हारे घर काम नहीं करेगी. अब यह गांव जाएगी इस की वहां शादी तय हो गई है.’

‘ऐसे अचानक, कैसे?’

‘बस, मेमसाहिब, हम गरीब लोगों के साथ कब, कैसे, क्या गुजर जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता. आप ठहरे बड़े आदमी, हम छोटे लोग भला क्या कह सकते हैं? बाकी अब प्रीति आप के घर नहीं जाएगी.’

मेरी लाख कोशिशों के बावजूद प्रीति ने काम छोड़ने का कारण नहीं बतलाया और मैं अपना सा मुंह ले कर वापस घर आ गई थी. घर आ कर मैं कुछ देर तक सोचती रही थी.

‘आखिर ऐसा क्या हुआ होगा जो प्रीति यों काम छोड़ कर चली गई और अब उस की शादी करने की बातें हो रही हैं. जिस के लिए उसे गांव भेजा जा रहा है. अभी तो प्रीति की उम्र 13 वर्ष की ही होगी, फिर इतनी जल्दी वह भी एकाएक.’

जब समझ में कुछ नहीं आया तो मैं नितिन के पास आ गई और उन से किसी दूसरी काम वाली लड़की का इंतजाम करने को कहा.

अनमने मन से नितिन ने कहा, ‘हां, देखता हूं. इतनी जल्दी थोड़ी ही काम वाली लड़कियां मिलती हैं, वह भी तुम्हारी पसंद की.’

तब मैं ने कहा था, ‘कोई बात नहीं. कैसी भी ले आओ, चलेगी. बच्चों का ध्यान कैसे रखना है, वह सबकुछ मैं समझा दूंगी.’

अगले ही दिन नितिन ने अपनी जानकारी में कइयों को काम वाली के बारे में कह दिया था. उस के 4-5 दिन के बाद शर्माजी के यहां काम करने वाली बाई ने ‘डोर बेल’ बजाई तो सास ने उस के पास जा कर पूछा था, ‘हां रमा, क्या बात है. कैसे आई हो?’

‘बीबीजी को एक लड़की चाहिए न बच्चों की देखभाल के लिए, सो उसी की खातिर आई थी.’

मैं ने घर के अंदर से ही कह दिया था. ‘हां रमा, चाहिए. लेकिन कौन है?’

‘मेमसाहिब, मेरी बड़ी लड़की 14-15 साल की है मगर…’

‘मगर क्या?’ सास ने पूछा था.

‘जी वह पैर से थोड़ी अपाहिज है. लेकिन घर का सारा काम कर लेती है. मेरी 4 लड़कियां उस से छोटी हैं. वही मेरे पीछे से घर का सारा काम करती है और अपनी छोटी बहनों की देखभाल भी. अब खर्चा बढ़ गया है न. शर्माजी की बीवी ने कहा था कि आप को तो सिर्फ काम वाली 2 घंटे सुबह और 2 घंटे शाम को चाहिए तो वह इतना वक्त निकाल लेगी.’

तब तक मैं भी अपनी सास के पास आ कर खड़ी हो गई थी. मैं ने उस से पूछा था कि महीने के हिसाब से कितने पैसे लोगी? हम उसे दोनों समय खाना तो देंगे ही साथ में कपड़े भी दे देंगे.

उस ने कहा था कि जो मरजी दे देना मांजी. वैसे मैं एक घर में बरतन करने का 300 रुपए लेती हूं.

मैं ने तपाक से कहा था, ‘अच्छा चल, कुल मिला कर महीने के 500 रुपए दे देंगे. अगर ठीक है तो आज शाम से ही भेज दो.’

500 रुपए सुन कर उस ने झट से हां की और हमारा अभिवादन कर के चली गई.

शाम को उस ने अपनी बड़ी लड़की को हमारे यहां काम के लिए भेज दिया था. लड़की का हुलिया दयनीय था. मोटेमोटे काले होंठ, उभरे हुए दांत जिन पर गंदगी साफ देखी जा सकती थी, मैलेकुचैले कपड़े. छाती पर इतना ही उभार था कि बस यह महसूस किया जा सके कि लड़की है. मेरे नाम पूछने पर उस ने अपना नाम आयशा बतलाया था. उसे देख कर मैं मन ही मन सोचने लगी कि ‘यह क्या काम करेगी? पहले तो मुझे ही इस के लिए कुछ करना पड़ेगा.’

मैं ने तब नहाने का साबुन व बदलने के लिए दूसरे कपड़े देते हुए उसे ताकीद की थी कि पहले तुम अच्छे से नहा कर आओ और दांत साफ करना मत भूलना. उस ने मुझ से कपड़े और साबुन लिए और पूछा, ‘आंटीजी, बाथरूम किस तरफ है?’

मैं चौंक गई थी. ‘अरे, तुम अपने घर जा कर नहा कर आओ.’

तब उस ने कहा था कि आंटी, हमारे घर बाथरूम कहां. मैं तो अंधेरा होने पर ही घर के आंगन में नहा लेती हूं या फिर सूरज निकलने से पहले.

मैं सोच में पड़ गई थी कि क्या करूं, क्या न करूं? यह कैसी मुसीबत आ गई. मांजी को पता चल गया तो. खैर, उसे चुपचाप बाथरूम में भेज मैं आंगन में बिछी चारपाई पर अंकिता को ले कर बैठ गई थी. वह थोड़ी ही देर में नहा कर बाहर आ गई थी. मैं ने उसे उस का सारा काम समझाते हुए उस से पहले बाथरूम की जम कर सफाई करवाई थी.

आयशा मेरी सोच से अधिक समझदार निकली. जो भी कहती वह उसे आगे से आगे, बिना ज्यादा बुलवाए, पूरा कर देती थी. जब भी उस को समय मिलता तो वह अंकिता को ले मेरे पास आ बैठती और कहती थी, ‘आंटी आप कितनी सुंदर हैं. आप क्या लगाती हैं अपने मुंह पर? कौन सी क्रीम लगाती हैं? कौन सा तेल इस्तेमाल करती हैं? आप के बालों से बहुत अच्छी महक आती रहती है.’

आयशा मेरी तारीफ करनी शुरू कर देती थी तो रुकती ही नहीं. मैं उसे अब अकसर शैंपू, तेल, साबुन, क्रीम दे दिया करती. उसे नए कपड़े भी सिलवा कर दे दिए थे. मेरे कहने से दांत मंजन करतेकरते न जाने कब आयशा आंख में अंजन भी करने लगी थी.

सुधरा संबंध: निलेश और उस की पत्नी के बीच तनाव की क्या थी वजह?

शादी की वर्षगांठ की पूर्वसंध्या पर हम दोनों पतिपत्नी साथ बैठे चाय की चुसकियां ले रहे थे. संसार की दृष्टि में हम आदर्श युगल थे. प्रेम भी बहुत है अब हम दोनों में. लेकिन कुछ समय पहले या कहिए कुछ साल पहले ऐसा नहीं था. उस समय तो ऐसा प्रतीत होता था कि संबंधों पर समय की धूल जम रही है.

मुकदमा 2 साल तक चला था तब. आखिर पतिपत्नी के तलाक का मुकदमा था. तलाक के केस की वजह बहुत ही मामूली बातें थीं. इन मामूली सी बातों को बढ़ाचढ़ा कर बड़ी घटना में ननद ने बदल दिया. निलेश ने आव देखा न ताव जड़ दिए 2 थप्पड़ मेरे गाल पर. मुझ से यह अपमान नहीं सहा गया. यह मेरे आत्मसम्मान के खिलाफ था. वैसे भी शादी के बाद से ही हमारा रिश्ता सिर्फ पतिपत्नी का ही था. उस घर की मैं सिर्फ जरूरत थी, सास को मेरे आने से अपनी सत्ता हिलती लगी थी, इसलिए रोज एक नया बखेड़ा. निलेश को मुझ से ज्यादा अपने परिवार पर विश्वास था और उन का परिवार उन की मां तथा एक बहन थीं. मौका मिलते ही मैं अपने बेटे को ले कर अपने घर चली गई. मुझे इस तरह आया देख कर मातापिता सकते में आ गए. बहुत समझाने की कोशिश की मुझे पर मैं ने तो अलग होने का मन बना लिया था. अत: मेरी जिद के आगे घुटने टेक दिए.

दोनों ओर से अदालत में केस दर्ज कर दिए गए. चाहते तो मामले को रफादफा भी किया जा सकता था, पर निलेश ने इसे अपनी तौहीन समझा. रिश्तेदारों ने मामले को और पेचीदा बना दिया. न सिर्फ पेचीदा, बल्कि संगीन भी. सब रिश्तेदारों ने इसे खानदान की नाक कटना कहा. यह भी कहा कि ऐसी औरत न वफादार होती है न पतिव्रता. इसे घर में रखना, अपने शरीर में मियादी बुखार पालते रहने जैसा है.

बुरी बातें चक्रवृत्ति ब्याज की तरह बढ़ती हैं. अत: दोनों तरफ से खूब आरोप उछाले गए. ऐसा लगता था जैसे दोनों पक्षों के लोग आरोपों की कबड्डी खेल रहे हैं. निलेश ने मेरे लिए कई असुविधाजनक बातें कहीं. निलेश ने मुझ पर चरित्रहीनता का तो हम ने दहेज उत्पीड़न का मामला दर्ज कराया. 6 साल तक शादीशुदा जीवन बिताने और 1 बच्चे के मातापिता होने के बाद आज दोनों तलाक के लिए लड़ रहे थे. हम दोनों पतिपत्नी के हाथों में तलाक के लिए अर्जी के कागजों की प्रति थी. दोनों चुप थे, दोनों शांत, दोनों निर्विकार.

मुकदमा 2 साल तक चला था. 2 साल हम पतिपत्नी अलग रहे थे और इन 2 सालों में बहुत कुछ झेला था. मैं ने नौकरी ढूंढ़ ली थी. बेटे का दाखिला एक अच्छे स्कूल में करा दिया था. सब से बड़ी बात हम दोनों में से ही किसी ने भी अपने बच्चे की मनोस्थिति नहीं पढ़ी.

बेटा हमारे अलग होने के फैसले से खुश नहीं था, पर सब कुछ उस की आंखों के सामने हुआ था तो वह चुप था. मुकदमे की सुनवाई पर दोनों को आना होता. दोनों एकदूसरे को देखते जैसे चकमक पत्थर आपस में रगड़ खा गए हों. दोनों गुस्से में होते. दोनों में बदले की भावना का आवेश होता. दोनों के साथ रिश्तेदार होते जिन

की हमदर्दियों में जराजरा विस्फोटक पदार्थ भी छिपा होता. जब हम पतिपत्नी कोर्ट में दाखिल होते तो एकदूसरे को देख कर मुंह फेर लेते. वकील और रिश्तेदार दोनों के साथ होते. दोनों पक्ष के वकीलों द्वारा अच्छाखासा सबक सिखाया जाता कि हमें क्या कहना है. हम दोनों वही कहते. कई बार दोनों के वक्तव्य बदलने लगते तो फिर संभल जाते.

अंत में वही हुआ जो हम सब चाहते थे यानी तलाक की मंजूरी. पहले उन के साथ रिश्तेदारों की फौज होती थी, धीरेधीरे यह संख्या घटने लगी. निलेश की तरफ के रिश्तेदार खुश थे, दोनों के वकील खुश थे, पर मेरे मातापिता दुखी थे. अपनीअपनी फाइलों के साथ मैं चुप थी. निलेश भी खामोश.

यह महज इत्तफाक ही था. उस दिन की अदालत की फाइनल कार्रवाई थोड़ी देर से थी. अदालत के बाहर तेज धूप से बचने के लिए हम दोनों एक ही टी स्टौल में बैठे थे. यह भी महज इत्तफाक ही था कि हम पतिपत्नी एक ही मेज के आमनेसामने थे.

मैं ने कटाक्ष किया, ‘‘मुबारक हो… अब तुम जो चाहते हो वही होने को है.’’

‘‘तुम्हें भी बधाई… तुम भी तो यही चाह रही थीं. मुझ से अलग हो कर अब जीत जाओगी,’ निलेश बोला. मुझ से रहा नहीं गया. बोली, ‘‘तलाक का फैसला क्या जीत का प्रतीक

होता है?’’

निलेश बोले, ‘‘तुम बताओ?’’

मैं ने जवाब नहीं दिया, चुपचाप बैठी रही, फिर बोली, ‘‘तुम ने मुझे चरित्रहीन कहा था… अच्छा हुआ अब तुम्हारा चरित्रहीन स्त्री से पीछा छूटा.’’

‘‘वह मेरी गलती थी, मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था.’’

‘‘मैं ने बहुत मानसिक तनाव झेला,’’ मेरी आवाज सपाट थी. न दुख, न गुस्सा, निलेश ने कहा, ‘‘जानता हूं पुरुष इसी हथियार से स्त्री पर वार करता है, जो स्त्री के मन को लहूलुहान कर देता है… तुम बहुत उज्ज्वल हो. मुझे तुम्हारे बारे में ऐसी गंदी बात नहीं कहनी चाहिए थी. मुझे बेहद अफसोस है.’’

मैं चुप रही, निलेश को एक बार देखा. कुछ पल चुप रहने के बाद उन्होंने गहरी सांस ली और फिर कहा, ‘‘तुम ने भी तो मुझे दहेज का लोभी कहा था…’’

‘‘गलत कहा था,’’ मैं निलेश की ओर देखते हुए बोली.

कुछ देर और चुप रही. फिर बोली, ‘‘मैं कोई और आरोप लगाती, लेकिन मैं नहीं…’’

तभी चाय आ गई. मैं ने चाय उठाई. चाय जरा सी छलकी. गरम चाय मेरे हाथ पर गिरी तो सीसी की आवाज निकली.

निलेश के मुंह से उसी क्षण उफ की आवाज निकली. हम दोनों ने एकदूसरे को देखा.

‘‘तुम्हारा कमर दर्द कैसा है?’’ निलेश का पूछना थोड़ा अजीब लगा.

‘‘ऐसा ही है,’’ और बात खत्म करनी चाही.

‘‘तुम्हारे हार्ट की क्या कंडीशन है? फिर अटैक तो नहीं पड़ा, मैं ने पूछा.’’

‘‘हार्ट…डाक्टर ने स्ट्रेन…मैंटल स्ट्रैस कम करने को कहा है,’’ निलेश ने जानकारी दी.

एकदूसरे को देखा, देखते रहे एकटक जैसे एकदूसरे के चेहरे पर छपे तनाव को पढ़ रहे हों.

‘‘दवा तो लेते रहते हो न?’’ मैं ने निलेश के चेहरे से नजरें हटा पूछा.

‘‘हां, लेता रहता हूं. आज लाना याद नहीं रहा,’’ निलेश ने कहा.

‘‘तभी आज तुम्हारी सांसें उखड़ीउखड़ी सी हैं,’’ बरबस ही हमदर्द लहजे में कहा.

‘‘हां, कुछ इस वजह से और कुछ…’’ कहतेकहते वे रुक गए.

‘‘कुछ…कुछ तनाव के कारण,’’ मैं ने बात पूरी की.

वे कुछ सोचते रहे, फिर बोले,  ‘‘तुम्हें 15 लाख रुपए देने हैं और 20 हजार रुपए महीना भी.’’

‘‘हां, फिर?’’ मैं ने पूछा.

‘‘नोएडा में फ्लैट है… तुम्हें तो पता है. मैं उसे तुम्हारे नाम कर देता हूं. 15 लाख फिलहाल मेरे पास नहीं हैं,’’ निलेश ने अपने मन की बात कही.

नोएडा वाले फ्लैट की कीमत तो 30 लाख होगी?

मुझे सिर्फ 15 लाख चाहिए… मैं ने अपनी बात स्पष्ट की.

‘‘बेटा बड़ा होगा… सौ खर्च होते हैं,’’ वे बोले.

‘‘वह तो तुम 20 हजार महीना मुझे देते रहोगे,’’ मैं बोली.

‘‘हां जरूर दूंगा.’’

‘‘15 लाख अगर तुम्हारे पास नहीं हैं तो मुझे मत देना,’’ मेरी आवाज में पुराने संबंधों की गर्द थी.

वे मेरा चेहरा देखते रहे.

मैं निलेश को देख रही थी और सोच रही थी कि कितना सरल स्वभाव है इन का… जो कभी मेरे थे. कितने अच्छे हैं… मैं ही खोट निकालती रही…

शायद निलेश भी यही सोच रहे थे. दूसरों की बीमारी की कौन परवाह करता है? यह करती थी परवाह. कभी जाहिर भी नहीं होने देती थी. काश, मैं इस के जज्बे को समझ पाता.

हम दोनों चुप थे, बेहद चुप. दुनिया भर की आवाजों से मुक्त हो कर खामोश.

दोनों भीगी आंखों से एकदूसरे को देखते रहे.

‘‘मुझे एक बात कहनी है,’’ निलेश की आवाज में झिझक थी.

‘‘कहो,’’ मैं ने सजल आंखों से उन्हें देखा.

‘‘डरता हूं,’’ निलेश ने कहा.

‘‘डरो मत. हो सकता है तुम्हारी बात मेरे मन की बात हो.’’

‘‘तुम्हारी बहुत याद आती रही,’’ वे बोले.

‘‘तुम भी,’’ मैं एकदम बोली.

‘‘मैं तुम्हें अब भी प्रेम करता हूं.’’

‘‘मैं भी,’’ तुरंत मैं ने भी कहा.

दोनों की आंखें कुछ ज्यादा ही सजल हो गई थीं. दोनों की आवाज जज्बाती और चेहरे मासूम.

‘‘क्या हम दोनों जीवन को नया मोड़ नहीं दे सकते?’’ निलेश ने पूछा.

‘‘कौन सा मोड़?’’ पूछ ही बैठी.

‘‘हम फिर से साथसाथ रहने लगें… एकसाथ… पतिपत्नी बन कर… बहुत अच्छे दोस्त बन कर?’’

‘‘ये पेपर, यह अर्जी?’’ मैं ने पूछा.

‘‘फाड़ देते हैं. निलेश ने कहा और अपनेअपने हाथ से तलाक के कागजात फाड़ दिए. फिर हम दोनों उठ खड़े हुए. एकदूसरे के हाथ में हाथ डाल कर मुसकराए.’’

दोनों पक्षों के वकील हैरानपरेशान थे. दोनों पतिपत्नी हाथ में हाथ डाले घर की तरफ चल दिए. सब से पहले हम दोनों मेरे घर आए. मातापिता से आशीर्वाद लिया. आज उन के चेहरे पर संतुष्टि थी. 2 साल बाद मांपापा को इतना खुश देखा था. फिर हम बेटे के साथ इन के घर, हमारे घर, जो सिर्फ और सिर्फ पतिपत्नी का था. 2 दोस्तों का था, चल दिए.

वक्त बदल गया और हालात भी. कल भी हम थे और आज भी हम ही पर अब किसी कड़वाहट की जगह नहीं. यह सुधरा संबंध है. पतिपत्नी के रिश्ते से भी कुछ ज्यादा खास.

अपने अपने सच: भाग 3- पहचान बनाने के लिए क्या फैसला लिया स्वर्णा की मां ने?

मेरा एक कमरे वाला घर आ गया तो उन्होंने स्वयं नीचे उतर कर मेरी तरफ की खिड़की खोली, ‘आओ, स्वर्णा…’ इतना सम्मान…

‘चाय नहीं लेंगे सर?’ मैं ने संकोच छोड़ आग्रह सा किया, ‘मां दरवाजे पर खड़ी हैं, उन से नहीं मिलेंगे…?’

वे सिर्फ मुसकराते रहे. फिर कभी आने को कह गाड़ी आगे बढ़ा ले गए.

लतिका के पापा को देख कर मां बहुत खुश हुईं और पूछ बैठीं, ‘कौन था यह आलीशान गाड़ी वाला?’

‘मेरी सहेली लतिका के पापा,’ मैं उत्साह से सराबोर थी, ‘मैं ने जिंदगी में ऐसा शानदार बंगला नहीं देखा मम्मी, जैसा इन का है…और पता है मम्मी, इन्होंने नाश्ते में मुझे क्याक्या खिलाया?’ इस तरह मां को मैं बहुत कुछ बता गई. पर उन की जांघ मेरी नंगी जांघ से सटी रही, मुझे यह छुअन अद्भुत लगी, इस बात को मैं ने छिपाए रखा और इस अनुभव को मैं गोल कर गई.

मैं सोच रही थी कि देर से आने के लिए मां मुझे जरूर डांटेंगी पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, उलटे वे बहुत खुश हुईं और बोलीं, ‘चलो, बड़े लोगों के संपर्क में आ कर तुझे कुछ उठनेबैठने का ढंग आ जाएगा.’

उस के बाद कई बार लतिका के साथ मैं और उस के पापा रेस्तराओं में गए. किताबों के मेले में गए. किला और जू देखने गए. हर जगह वे जिद कर के कुछ न कुछ मुझे खरीदवा देते जिसे एक संकोच के साथ ही मैं घर ला पाती.

जीवन में अपने पापा का अभाव ऐसे में मुझे बेहद खलता. काश, लतिका की तरह मुझे भी पापा का लाड़प्यार मिला होता. मेरी मां अगर ऐसा न करतीं तो हम भी अपने पापा के साथ कितने खुश होते. दूसरे क्षण ही, मैं यह भी सोच जाती कि लतिका के पापा एक तरह से मेरे  भी तो पापा ही हुए. पापा जितनी ही उम्र होगी इन की. बस, व्यवहार बहुत अलग किस्म का है. एकदम लाड़प्यार भरा.

एक दिन मां ने खुश हो कर मुझे बताया, ‘ले, तेरी एक और इच्छा मैं पूरी कर रही हूं. हम जल्दी ही एक छोटे लेकिन अपने फ्लैट में जाने वाले हैं.’

‘फ्लैट और वह भी हमारा अपना… इतने पैसे कहां से आए आप के पास?’ मैं ने कुपित स्वर में मां से पूछा तो वे अचकचा गईं.

‘तुझे आम खाने से मतलब है या पेड़ गिनने से?’ उन्होंने एक प्रकार से मुझे डांटा और कहा, ‘बस, कल तक उस फ्लैट में हमें पहुंचना है, इसलिए आज से ही अपना सामान ठीक से समेटना शुरू कर दे…लतिका के पापा ने तुझे ढेरों कपड़े ले दिए हैं…उन को ठीक से पैक करना…’

एक दिन लतिका ने स्कूल में बताया,

‘हम लोग बाहर पिकनिक पर चलेंगे. पापा अपनी गाड़ी से हमें ले चलेंगे…खूब मजा करेंगे हम लोग…’

सुन कर मैं एकदम उत्साह और खुशी से उछल पड़ी, ‘लेकिन मम्मी पता नहीं तैयार होंगी मुझे कहीं भेजने को.’

‘उन्हें मना लेना,’ लतिका बोली, ‘कहना, मैं साथ चल रही हूं, पापा साथ होंगे फिर डर किस बात का…?’

नए फ्लैट की एक चाबी मां के पास रहती थी, और दूसरी मेरे पास. हम लोग अपनेअपने वक्त पर आजादी के साथ नए घर में आजा सकते थे. मुझे देर होती तो, मां चिंता नहीं करती थीं, वे जानती थीं कि मेरे साथ लतिका होगी, या उस के पापा.

उस दिन अपने खयालों में खोई मैं ने धीरे से दरवाजा खोला तो एकदम चौंक सी गई. मां बिस्तर पर किसी के साथ सोई थीं. मैं एकदम हड़बड़ा कर अपने कमरे में चली गई. वहां देर तक थरथर कांपती रही. जो देखा क्या वह सच था? कहीं आंखों को धोखा तो नहीं हुआ था? मां के साथ कोई आदमी ही था या वे अकेली थीं?

लेकिन मां तो इस समय अस्पताल में होती हैं. यहां कैसे आ गईं? इस आदमी को इस से पहले तो कभी मां के साथ नहीं देखा. फिर…? अनजाने भय और आशंका ने मुझे जकड़ लिया. चुपचाप कांपती मैं देर तक कमरे में बैठी रही.

जब कमरे से बाहर निकली तो सामने मां एकदम सहज सी दिखीं. मुझे देख कर मुसकराईं, ‘आज तू स्कूल से जल्दी आ गई.’

‘हां, किसी की मौत हो गई तो स्कूल में छुट्टी हो गई.’

मैं उदास थी पर मां हंस रही थीं. मन हुआ पूछूं, कौन था वह? पर पूछने का साहस नहीं जुटा सकी.

‘कभीकभी ये आया करेंगे…’ मेज पर खाना लगाती हुई मां बोलीं. मैं समझ गई थी, मां उसी आदमी के बारे में कह रही हैं, ‘यह फ्लैट इन्होंने ही दिया है हमें…दिल्ली के बड़े बिल्डर हैं. बहुत अच्छे आदमी हैं.’

खाने के बाद मैं बोली, ‘मैं लतिका के साथ इन छुट्टियों में पहाड़ पर घूमने जाऊंगी…लतिका के पापा, मैं और लतिका…आप जाने देंगी?’ फिर कुछ सोच कर मैं बोली, ‘लतिका के पापा ने कहा है कि खर्चे की फिक्र न करूं मैं… लतिका के साथ होटल में रहूंगी. उस के पापा अलग कमरे में रहेंगे…गरम कपड़े वे ही खरीद देंगे.’

जाने क्यों यह सब सुन कर मां बहुत खुश हुईं और बोलीं, ‘बहुत अच्छे आदमी लगते हैं लतिका के पापा…एकदम लतिका की तरह ही तुझे प्यार करते हैं.’

मेरा मन हुआ कि मैं मां से अपने भीतर का सच उगल दूं… वे भले ही मुझे अपनी बेटी लतिका की तरह प्यार करते हों पर मुझे न जाने क्यों बहुत अच्छे लगते हैं… इतने अच्छे कि जी चाहता है उन्हें बांहों में भर कर सीने में भींच लूं.

हालांकि अपने इस निजी एहसास से मैं स्वयं झेंप जाती. मेरी रगों में गरम खून लावे की तरह धधकने लगता.

लतिका के पापा के साथ भेजने के लिए मां इतनी उतावली क्यों हो रही हैं? इसलिए तो नहीं कि पीछे उन्हें भी अकेले रहने का मौका मिलेगा और वह ‘बिल्डर’ मां के पास दिन में भी बेखटके आ सकेगा. यह सोचते ही मन में अजीब सी कसमसाहट हुई. पर मेरे पास उन्हें रोकने के लिए कोई तर्क नहीं था. कैसे रोकती?

लतिका के पापा लतिका और मुझे ले कर एक मौल में गए. गरम कपड़े खरीदवाए. मैं तो चुप ही रही. बड़े महंगे कपड़े थे…एकदम नए फैशन के.

‘तुम अपनी पसंद क्यों नहीं बतातीं, स्वर्णा…?’ लतिका के पापा ने जिन नजरों से मेरी ओर देखा, उस से मैं लाल पड़ गई, ‘आप की पसंद खुद ही बहुत अच्छी है…आप को जो ठीक लगे, ले दीजिए…’ कहती हुई मैं झेंप गई.

लतिका अपनी कोई खास ड्रैस पसंद करने जब दूसरी गैलरी में गई तो वे मौका पा कर नजदीक आ कर हौले से बोले, ‘मैं चाहता हूं कि तुम यह ड्रैस मेरे साथ एक दिन पहाड़ पर पहनो…पर लतिका को न दिखाना,’ ड्रैस देख कर मैं एकदम सकपका सी गई.

मन में आया, कहूं कि लतिका को न दिखाया तो पहाड़ पर पहन भी कैसे सकूंगी? वह तो साथ होगी…और वह साथ होगी तो देखेगी ही. फिर भी मैं ने चुपचाप एक बड़े बैग में वह ड्रैस रख ली.

मौल से वापसी के समय मैं लतिका और उस के पापा के बीच बैठी. मुझे उन का साथ बहुत अच्छा लग रहा था. एकदम गुनगुना, प्यार भरा, अपनत्व भरा और तनबदन महकादहका देने वाला.

लतिका चहक रही थी कि उस ने बहुत अच्छी ड्रैसें अपने लिए पसंद की हैं.

पहाड़ की यात्रा पर भी मैं लतिका और उस के पापा के बीच में ही बैठी. जाने क्यों ऐसा करने से मैं अपने को रोक नहीं पा रही थी. मैं हर समय उन के संग का सुख चाहती थी. आदमी का साथ, आदमी का कामुक स्पर्श कितना मादक होता है, उस का कैसा जादू भरा असर तन और मन पर होता है, इस का अनुभव जीवन में मैं पहली बार कर रही थी.

कहीं मन में गहरे यह भी चाह उठ रही थी कि काश, इस वक्त बस मैं होती और लतिका के पापा होते…

पहाड़ पर पहुंचतेपहुंचते लतिका को पता नहीं क्या हो गया कि उस का गला बैठ गया. शायद उसे सर्दी लग गई. माथा हलका गरम हो गया. होटल के कमरे में पहुंच कर पापा ने डाक्टर को बुला कर दिखाया तो डाक्टर ने फ्लू जैसा अंदेशा बता हमें डरा ही दिया. दवा दे कर लतिका को आराम करने के लिए कह दिया.

लतिका को अफसोस होने लगा कि इतने उत्साह के साथ वह पहाड़ पर आई और बीमार पड़ गई. वह बोली, ‘पर स्वर्णा, तू अपना मजा क्यों खराब करेगी? तू पापा के साथ घूमफिर… यहां सबकुछ देखने लायक है. पापा कई बार आ चुके हैं. तुझे सबकुछ बहुत अच्छी तरह घुमा देंगे…है न पापा…?’

 

लतिका आराम से रात भर सो सके इस के लिए डाक्टर ने उसे ऐसी दवा दे दी कि खाते ही वह नींद में बेसुध हो गई. मैं उस के पास पड़े सोफे पर बैठी रही और वहीं सोफे पर ही सोने के बारे में सोचने लगी कि कमरे का दरवाजा धीरे से खुला. लतिका के पापा थे. नजदीक आ कर बैठ गए. इधरउधर की बातों के बाद बोले, ‘लतिका सो गई?’ वे लगातार मेरी आंखों में देखे जा रहे थे. आदमी की निगाहों में ऐसा कौन सा सम्मोहन होता है कि लड़की का दिल उस के सीने से निकल कर आदमी के कदमों में जा गिरता है?

उन्होंने अपना एक हाथ बढ़ा कर मेरी कमर के इर्दगिर्द हौले से कसा और मुझे अपनी तरफ खींचा. मैं चाह कर भी उन्हें रोक न पाई. न जाने क्या हुआ कि मैं ने अपना सिर उन के कंधे पर रख दिया. वे देर तक मेरे बाल, मेरे गाल, मेरे होंठ, मेरी गरदन सहलाते रहे और फिर एकाएक उन्होंने झुक कर मेरी ठुड्डी ऊपर उठाई और मेरे नरमनरम होंठों का चुंबन ले लिया.

शायद यह मेरे अपनेआप को रोके रखने की अंतिम सीमा थी. उन के गले में बांहें डाल कर उन के सीने से सट कर मैं ने अपने चेहरे को छिपा लिया.

‘लतिका सोती रहेगी. तुम मेरे कमरे में चल सकती हो?’ उन्होंने मेरे कान में फुसफुसाते हुए कहा.

मैं ने जवाब नहीं दिया. सिर्फ उठ कर उन के साथ चलने को तैयार हो गई.

पूरा गलियारा पार कर उन का कमरा था. उन्होंने मुझे सीधे अपने बिस्तर पर बैठा लिया और ताबड़तोड़ मेरे होंठ, मेरा माथा, मेरा सिर, मेरी गरदन, मेरी हथेलियां, मेरी उंगलियां चूमते चले गए और मैं उन्हें रोकना चाह कर भी नहीं रोक सकी.

धौंकनी की तरह चलती अपनी सांसों पर किसी तरह काबू पा कर अपना तपता चेहरा एकदम उन के नजदीक ले जा कर पूछा, ‘मुझे आप हमेशा इतना ही प्यार  करेंगे?’

‘मैं तो हैरान हूं जो इस उम्र में तुम्हारी जैसी कमसिन लड़की बांहों में भरने को मिल गई.’

उठ कर लतिका के पापा ने फूलदान में से गुलाब के कई फूल निकाले और मेरे पैरों में रखे.

अंतिम सीमा थी यह. रुक नहीं सकी फिर. उन्हें अपने साथ बिस्तर पर खींच लिया और बोली, ‘इतना मान मत दीजिए मुझे…इस काबिल नहीं हूं…अपने पांव की धूल को सिर पर जगह मत दीजिए…’

‘तुम्हारी जगह कहां है यह तुम क्या जानो मेरी जान,’ वे तड़प उठे. उन की थरथराती उंगलियों ने मेरे सारे कपड़े एकएक कर उतारने शुरू कर दिए और मैं अपनी आंखों को बंद किए लजाती- शरमाती, अपनी अनछुई काया को अपने हाथों से ढांपने का असफल प्रयास करती रही.

अपने साथ कंबल में दबोच लिया उन्होंने मुझे और मैं उन के सीने में समा कर अपना होश खो बैठी.

‘मुझे इतना ही प्यार करोगी, स्वर्णा? ऐेसे ही देहसुख दोगी?’ वे बोले, ‘हालांकि शुरू में मुझे अजीब लग रहा था…मेरी बेटी लतिका की सहेली हो, उसी की हमउम्र. मन में बहुत संकोच हो रहा था, पर जब तुम्हारी आंखों में भी अपने लिए चाहत देखी तो हौसला हुआ और मैं ने तुम्हारी तरफ हाथ बढ़ा दिया…’

‘जीवन में पिता का अभाव बहुत गहरे अनुभव किया है, सर…हमेशा हसरत रही कि कोई पिता जैसा व्यक्ति मेरे जीवन में भी हो जो मेरी हर इच्छा, चाहत को पूरी करे…मेरी परवा एक संरक्षक की तरह करे और मैं उस की बांहों में अपना सर्वस्व भूल जाऊं…खो जाऊं…मुझे गहरी सुरक्षा का एहसास हो…और आप की वे बांहें जब मेरी तरफ उठीं तो मैं उन में समा गई.’

‘जानती हो स्वर्णा…मुझे पत्नी का सुख पिछले कई साल से नहीं मिला,’ वे मुझे अपनी बांहों में कसे चूमते रहे. मेरे बाल कानों पर टांकते रहे, ‘पैसे की कमी नहीं है. चाहता तो बाजार में एक से एक कमसिन लड़कियां आजकल मिल जाती हैं…पर मन नहीं हुआ. बहुत बड़ा एहसान है मुझ पर तुम्हारा कि तुम्हारी जैसी लड़की मुझे मन से मिली…यह एहसान मैं ताजिंदगी नहीं भुला सकूंगा…’

वे मेरे सीने के उभारों से खेलते रहे. मैं इठलाती, हंसती उन की तरफ ताकती रही. वे बोले, ‘लतिका 2 साल की थी जब पत्नी को दिल की बीमारी ने जकड़ लिया. डाक्टर ने मना कर दिया…शारीरिक संबंध मत बनाना. उस से उत्तेजना उत्पन्न होगी. बिस्तर पर ही मर जाएगी…इसलिए भयवश उसे तब से छुआ तक नहीं…और…स्वर्णा…कोई आदमी बिना औरत के जिस्म को पाए कब तक अपने को रोके रख सकता है? एक विश्वामित्र ही क्यों…अनेक कई विश्वामित्र होंगे दुनिया में जो औरत की आंच से मोम की तरह पिघल कर बहे होंगे.’

‘औरत भी तो आदमी की देह की आंच से ऐसे ही पिघल कर बहने लगती है जैसे मैं बहकती हुई बह गई…पागल बनी,’ हंसने लगी मैं.

बस, इस के बाद मैं ने उन के सीने में मुंह छिपा लिया और आराम से निश्ंिचत हो सोने लगी. उन की मजबूत बांहें मुझे कसती रहीं. निचोड़ती रहीं. भींचभींच कर पीसती रहीं और मुझे लगता रहा जैसे कोई सलमान खान जैसा हृष्टपुष्ट जवान हीरो मुझे अपनी मांसल बांहों में चिडि़या के बच्चे की तरह दबोचे है.

काफी रात गए आंख खुली तो बोली, ‘अब आप मुझे अपने कमरे में जाने दीजिए. लतिका जाग गई तो क्या सोचेगी?’

‘ठीक है. जाओ, पर याद रखना, अब हर रात हमारी ऐसे ही बीते…और मौका मिलते ही तुम बिना मेरी प्रतीक्षा किए मेरे पास चली आना…’ ढिठाई से हंसने लगे तो मैं ने झुक कर उन के होंठ चूम लिए, ‘गुड नाइट, सर.’

3 दिन की योजना बना कर आए थे. पूरे 2 दिन तो लतिका बिस्तर पर ही पड़ी रही. मजबूरन उस के पापा के साथ मैं अकेली ही घूमने गई. और घूमी क्या… सच तो यह है कि आदमी का पूरा सुख लेने की चाहत ने मुझे बाहर के नजारे देखने ही नहीं दिए. हर वक्त मन में होता, वे बांहों में कस लें, चूम लें. वे मेरे बाल सहलाएं. गाल सहला कर मेरे रसीले होंठ पी डालें.

तीसरे दिन लतिका किसी तरह साथ चली पर ऐसे स्थानों पर ही जहां उसे ज्यादा चढ़नाउतरना नहीं पड़े. वह जल्दी थक कर बैठ जाती थी. हम लोग मजे करते किसी ऐसे एकांत में पहुंच जाते जहां से वह दिखाई न देती और हम एकदूसरे की बांहों में खो जाते.

हंस दिए लतिका के पापा, ‘तुम्हें नहीं लगता स्वर्णा कि हम लोग यहां हनीमून पर आए हैं और तुम मेरी बीवी हो.’

वापस लौटने पर मां ने मुझे बहुत गहरी नजरों से एक बार ऊपर से नीचे तक देखा तो मैं सिहर सी गई. क्या देख रही हैं मां? कहीं सबकुछ जान तो नहीं लेंगी? बहुत तेज नाक है उन की. जहां कोई गंध नहीं होती वहां भी गंध सूंघ लेने में माहिर…

‘ऐसे क्या देख रही हैं आप?’ न जाने क्यों झेंपती हुई हंस दी.

‘3 दिन में ही तू एकदम औरत बन कर लौटी है स्वर्णा,’ वे हंस दीं, ‘लग रहा है, टूर पर नहीं गई थी, हनीमून पर गई थी लतिका के पिता के साथ…’

‘नहीं, मम्मी, वह बात नहीं…’ हकला गई मैं. फिर मेरी नजरें अपने फ्लैट में वह सब ढूंढ़ने लगीं जो मां से गलती से छूट गया होगा, उस आदमी…उस बिल्डर के साथ रहते हुए…रात को और दिन को भी. पीछे कोई रोकटोक तो थी नहीं…मुझ से कह रही हैं कि मैं लड़की से एकदम औरत बन कर लौटी हूं और वे खुद क्या बन गई होंगी इस बीच…?

2 दिन भी लतिका के पापा से बिना मिले बिताना मेरे लिए कठिन हो गया. मन हर वक्त चाहता कि किसी बहाने उन के पास पहुंच जाऊं. उन की बांहों में समा जाऊं…क्या एक बार प्यास जागने पर हर औरत की यही दशा होती है?

4 दिन बाद मैं खुद ही लतिका से बोली, ‘आज तेरे घर चलूंगी.’

एक बार पैनी नजरों से लतिका ने मुझे देखा, ‘क्यों…? क्या पापा की याद सता रही है?’ और एकदम हंस पड़ी.

‘कैसे हैं पापा…?’ यह पूछते ही मेरी सांस की गति तेज हो गई.

‘शाम को संग चल कर खुद देख लेना…फिर वही तुझे तेरे घर पहुंचा देंगे…’ और लतिका ने मुझे मोबाइल फोन पकड़ाया, ‘पापा ने दिया है तेरे लिए. कहा है, जब मन करे, उन से बात कर लिया कर.’

लतिका के साथ उस के घर पहुंची तो उस के पापा वहीं थे. लतिका की मम्मी की तबीयत ज्यादा बिगड़ गई थी. डाक्टर आए हुए थे. दवा दे रहे थे. लतिका उन के पास चली गई.

मैं अकेली लौबी में छूट गई. ऐसा अकेलापन मुझे अपनी अवहेलना-सा प्रतीत हुआ. लगा, सब मुझे अनदेखा कर रहे हैं, मैं अनचाहे वहां मौजूद हूं. उठ कर जाने की सोचने लगी कि लतिका के पापा डाक्टरों को छोड़ने के लिए बाहर निकले.

वापस आए तो मेरी तरफ देख कर पहले की तरह मुसकराए नहीं. गंभीर बने रहे.

‘क्या मम्मी की तबीयत ज्यादा गड़बड़ है?’ मैं ने पूछा.

‘अपनी मां से जा कर पूछना?’ लतिका के पापा कठोर स्वर में बोले, ‘यहां आईं और लतिका की मम्मी से न जाने क्याक्या कह गईं. मैं सामने पड़ा तो सीधे सौदे पर उतर आईं…मुझे नहीं पता था, वे अपनी बेटी का सौदा मुझ से करेंगी…धंधा करती हैं क्या? घर में चकला खोल कर बैठ जाओ तुम लोग… खूब आमदनी होगी मांबेटी की. दोनों अभी जवान हो, पूरी दिल्ली लूट लो…’

बोलते चले गए लतिका के पापा. मैं हड़बड़ा कर उठी और बिना कुछ और आगे सुने, उन के बंगले से बाहर भाग आई…जो आटो मिल गया, उसी में बैठ कर घर आई.

मां सामने पड़ गईं तो एकदम अपनी सारी किताबें उन के ऊपर फेंक कर मार दीं, ‘आप लतिका की मम्मी से मिलने गई थीं?’

‘हां, गई थी. तेरी तरह और तेरे बाप की तरह बेवकूफ नहीं हूं मैं,’ मां भी गुस्से से बोलीं, ‘मुफ्त में बूढ़े बिलौटे को अपनी मलाई चाटने दूं, यह कच्ची गोली मैं नहीं खेलती, समझी…मुझे इस मलाई की कीमत चाहिए…बिना मोल तो आजकल शुद्ध हवा और पानी तक नहीं मिलता…तू तो जवान होती लड़की है…वह खूसट मुझे बिना कुछ दिए मेरा खजाना लूटेगा? हरगिज नहीं.’

यह मेरी ही मां हैं? फटीफटी आंखों से उन के तमतमाए चेहरे की तरफ कुछ पल देखती रही…फिर न जाने क्या सोच कर घर छोड़ कर बाहर निकल आई. निकल तो आई पर बाहर आ कर सोचने लगी कि अब जाऊं कहां? दिल्ली है यह. एक से एक दुराचारी, दुष्ट, हत्यारे और बलात्कारी सड़कों पर घात लगाए डोल रहे हैं.

कुछ सोच कर पापा को फोन लगाया तो पता चला कि उन का ट्रांसफर दूसरे शहर में हो गया है. जिस ने फोन उठाया था उसी से पापा का नया नंबर मिला था. पापा का फोन देर से लगा. दूसरी ओर से हलो होते ही मैं सुबक उठी, ‘पापा…मैं बहुत अकेली रह गई हूं. कोई नहीं है अब मेरे साथ…प्लीज, मुझे अपने पास बुला लीजिए,’ और पापा ने इनकार नहीं किया. यहां, उन के पास आ गई.

अंतिम मुसकान: प्राची क्यों शादी के लिए आनाकानी करने लगी?

‘‘एकबार, बस एक बार हां कर दो प्राची. कुछ ही घंटों की तो बात है. फिर सब वैसे का वैसा हो जाएगा. मैं वादा करती हूं कि यह सब करने से तुम्हें कोई मानसिक या शारीरिक क्षति नहीं पहुंचेगी.’’

शुभ की बातें प्राची के कानों तक तो पहुंच रही थीं परंतु शायद दिल तक नहीं पहुंच पा रही थीं या वह उन्हें अपने दिल से लगाना ही नहीं चाह रही थी, क्योंकि उसे लग रहा था कि उस में इतनी हिम्मत नहीं है कि वह अपनी जिंदगी के नाटक का इतना अहम किरदार निभा सके.

‘‘नहीं शुभ, यह सब मुझ से नहीं होगा. सौरी, मैं तुम्हें निराश नहीं करना चाहती थी परंतु मैं मजबूर हूं.’’

‘‘एक बार, बस एक बार, जरा दिव्य की हालत के बारे में तो सोचो. तुम्हारा यह कदम उस के थोड़े बचे जीवन में कुछ खुशियां ले आएगा.’’

प्राची ने शुभ की बात को सुनीअनसुनी करने का दिखावा तो किया पर उस का मन दिव्य के बारे में ही सोच रहा था. उस ने सोचा, रातदिन दिव्य की हालत के बारे में ही तो सोचती रहती हूं. भला उस को मैं कैसे भूल सकती हूं? पर यह सब मुझ से नहीं होगा.

मैं अपनी भावनाओं से अब और खिलवाड़ नहीं कर सकती. प्राची को चुप देख कर शुभ निराश मन से वहां से चली गई और प्राची फिर से यादों की गहरी धुंध में खो गई.

वह दिव्य से पहली बार एक मौल में मिली थी जब वे दोनों एक लिफ्ट में अकेले थे और लिफ्ट अटक गई थी. प्राची को छोटी व बंद जगह में फसने से घबराहट होने की प्रौब्लम थी और वह लिफ्ट के रुकते ही जोरजोर से चीखने लगी थी. तब दिव्य उस की यह हालत देख कर घबरा गया था और उसे संभालने में लग गया था.

खैर लिफ्ट ने तो कुछ देर बाद काम करना शुरू कर दिया था परंतु इस घटना ने दिव्य और प्राची को प्यार के बंधन में बांध दिया था. इस मुलाकात के बाद बातचीत और मिलनेजुलने का सिलसिला चल निकला और कुछ ही दिनों बाद दोनों साथ जीनेमरने की कसमें खाने लगे थे. प्राची अकसर दिव्य के घर भी आतीजाती रहती थी और दिव्य के मातापिता और उस की बहन शुभ से भी उस की अच्छी पटती थी.

इसी बीच मौका पा कर एक दिन दिव्य ने अपने मन की बात सब को कह दी, ‘‘मैं प्राची के साथ शादी करना चाहता हूं,’’ किसी ने भी दिव्य की इस बात का विरोध नहीं किया था.

सब कुछ अच्छा चल रहा था कि एक दिन अचानक उन की खुशियों को ग्रहण लग गया.

‘‘मां, आज भी मेरे पेट में भयंकर दर्द हो रहा है. लगता है अब डाक्टर के पास जाना ही पड़ेगा.’’ दिव्य ने कहा और वह डाक्टर के पास जाने के लिए निकल पड़ा.

काफी इलाज के बाद भी जब पेट दर्द का यह सिलसिला एकदो महीने तक लगातार चलता रहा तो कुछ लक्षणों और फिर जांचपड़ताल के आधार पर एक दिन डाक्टर ने कह ही दिया, ‘‘आई एम सौरी. इन्हें आमाशय का कैंसर है और वह भी अंतिम स्टेज का. अब इन के पास बहुत कम वक्त बचा है. ज्यादा से ज्यादा 6 महीने,’’ डाक्टर के इस ऐलान के साथ ही प्राची और दिव्य के प्रेम का अंकुर फलनेफूलने से पहले ही बिखरता दिखाई देने लगा.

आंसुओं की अविरल धारा और खामोशी, जब भी दोनों मिलते तो यही मंजर होता.

‘‘सब खत्म हो गया प्राची, अब तुम्हें मुझ से मिलने नहीं आना चाहिए.’’ एक दिन दिव्य ने प्राची को कह दिया.

‘‘नहीं दिव्य, यदि वह आना चाहती है, तो उसे आने दो,’’ शुभ ने उसे टोकते हुए कहा. ‘‘जितना जीवन बचा है, उसे तो जी लो वरना जीते जी मर जाओगे तुम. मैं चाहती हूं इन 6 महीनों में तुम वह सब करो जो तुम करना चाहते थे. जानते हो ऐसा करने से तुम्हें हर पल मौत का डर नहीं सताएगा.’’

‘‘हो सके तो इस दुख की घड़ी में भी तुम स्वयं को इतना खुशमिजाज और व्यस्त कर लो कि मौत भी तुम तक आने से पहले एक बार धोखा खा जाए कि मैं कहीं गलत जगह तो नहीं आ गई. जब तक जिंदगी है भरपूर जी लो. हम सब तुम्हारे साथ हैं. हम वादा करते हैं कि हम सब भी तुम्हें तुम्हारी बीमारी की गंभीरता का एहसास तक नहीं होने देंगे.’’

बहन के इस ऐलान के बाद उन के घर का वातावरण आश्चर्यजनक रूप से बदल

गया. मातम का स्थान खुशी ने ले लिया था. वे सब मिल कर छोटी से छोटी खुशी को भी शानदार तरीके से मनाते थे, वह चाहे किसी का जन्मदिन हो, शादी की सालगिरह हो या फिर कोई त्योहार. घर में सदा धूमधाम रहती थी.

एक दिन शुभ ने अपनी मां से कहा, ‘‘मां, आप की इच्छा थी कि आप दिव्य की शादी धूमधाम से करो. दिव्य आप का इकलौता बेटा है. मुझे लगता है कि आप को अपनी यह इच्छा पूरी कर लेनी चाहिए.’’

मां उसे बीच में ही रोकते हुए बोलीं, ‘‘देख शुभ बाकी सब जो तू कर रही है, वह तो ठीक है पर शादी? नहीं, ऐसी अवस्था में दिव्य की शादी करना असंभव तो है ही, अनुचित भी है. फिर ऐसी अवस्था में कौन करेगा उस से शादी? दिव्य भी ऐसा नहीं करना चाहेगा. फिर धूमधाम से शादी करने के लिए पैसों की भी जरूरत होगी. कहां से आएंगे इतने पैसे? सारा पैसा तो दिव्य के इलाज में ही खर्च हो गया.’’

‘‘मां, मैं ने कईर् बार दिव्य और प्राची को शादी के सपने संजोते देखा है. मैं नहीं चाहती भाई यह तमन्ना लिए ही दुनिया से चला जाए. मैं उसे शादी के लिए मना लूंगी. फिर यह शादी कौन सी असली शादी होगी, यह तो सिर्फ खुशियां मनाने का बहाना मात्र है. बस आप इस के लिए तैयार हो जाइए.

‘‘मैं कल ही प्राची के घर जाती हूं. मुझे लगता है वह भी मान जाएगी. हमारे पास ज्यादा समय नहीं है. अंतिम क्षण कभी भी आ सकता है. रही पैसों की बात, उन का इंतजाम भी हो जाएगा. मैं सभी रिश्तेदारों और मित्रों की मदद से पैसा जुटा लूंगी,’’ कह कर शुभ ने प्राची को फोन किया कि वह उस से मिलना चाहती है.

और आज जब प्राची ने शुभ के सामने यह प्रस्ताव रखा तो प्राची के जवाब ने शुभ को निराश ही किया था परंतु शुभ ने निराश होना नहीं सीखा था.

‘‘मैं दिव्य की शादी धूमधाम से करवाऊंगी और वह सारी खुशियां मनाऊंगी जो एक बहन अपने भाई की शादी में मनाती है. इस के लिए मुझे चाहे कुछ भी करना पड़े.’’ शुभ अपने इरादे पर अडिग थी.

घर आते ही दिव्य ने शुभ से पूछा, ‘‘क्या हुआ, प्राची मान गई क्या?’’

‘‘हां मान गई. क्यों नहीं मानेगी? वह तुम से प्रेम करती है,’’ शुभ की बात सुन कर दिव्य के चेहरे पर एक अनोखी चमक आ गई जो शुभ के इरादे को और मजबूत कर गई.

शुभ ने दिव्य की शादी के आयोजन की इच्छा और इस के लिए आर्थिक मदद की जरूरत की सूचना सभी सोशल साइट्स पर पोस्ट कर दी और इस पोस्ट का यह असर हुआ कि जल्द ही उस के पास शादी की तैयारियों के लिए पैसा जमा हो गया.

घर में शादी की तैयारियां धूमधाम से शुरू हो गईं. दुलहन के लिए कपड़ों और गहनों का

चुनाव, मेहमानों की खानेपीने की व्यवस्था, घर की साजसजावट सब ठीक उसी प्रकार होने लगा जैसा शादी वाले घर में होना चाहिए.

शादी का दिन नजदीक आ रहा था. घर में सभी खुश थे, बस एक शुभ ही चिंता में डूबी हुई थी कि दुलहन कहां से आएगी? उस ने सब से झूठ ही कह दिया था कि प्राची और उस के घर वाले इस नाटकीय विवाह के लिए राजी हैं पर अब क्या होगा यह सोचसोच कर शुभ बहुत परेशान थी.

‘‘मैं एक बार फिर प्राची से रिक्वैस्ट करती हूं. शायद वह मान जाए.’’ सोच कर शुभ फिर प्राची के घर पहुंची.

‘‘बेटी हम तुम्हारे मनोभावों को बहुत अच्छी तरह समझते हैं और हम तुम्हें पूरा सहयोग देने के लिए तैयार हैं पर प्राची को मनाना हमारे बस की बात नहीं. हमें लगता है कि दिव्य के अंतिम क्षणों में, उसे मौत के मुंह में जाते हुए पर मुसकराते हुए वह नहीं देख पाएगी, शायद इसीलिए वह तैयार नहीं है. वह बहुत संवेदनशील है,’’ प्राची की मां ने शुभ को समझाते हुए कहा.

‘‘पर दिव्य? उस का क्या दोष है, जो प्रकृति ने उसे इतनी बड़ी सजा दी है? यदि वह इतना सहन कर सकता है तो क्या प्राची थोड़ा भी नहीं?’’ शुभ बिफर पड़ी.

‘‘नहीं, तुम गलत सोच रही हो. प्राची का दर्द भी दिव्य से कम नहीं है. वह भी बहुत सहन कर रही है. दिव्य तो यह संसार छोड़ कर चला जाएगा और उस के साथसाथ उस के दुख भी. परंतु प्राची को तो इस दुख के साथ सारी उम्र जीना है. उस की हालत तो दिव्य से भी ज्यादा दयनीय है. ऐसी स्थिति में हम उस पर ज्यादा दबाव नहीं डाल सकते.

‘‘फिर हमें समाज का भी खयाल रखना है. शादी और उस के तुरंत बाद ही दिव्य की मृत्यु. वैधव्य की छाप भी तो लग जाएगी प्राची पर. किसकिस को समझाएंगे कि यह एक नाटक था. यह इतना आसान नहीं है जितना तुम समझ रही हो?’’ प्राची की मां ने शुभ को समझाने की कोशिश की.

उस दिन पहली बार शुभ को दिव्य से भी ज्यादा प्राची पर तरस आया लेकिन यह उस की समस्या का समाधान नहीं था. तभी उस के तेज दिमाग ने एक हल निकाल ही लिया.

वह बोली, ‘‘आंटी जी, बीमारी की वजह से इन दिनों दिव्य को कम दिखाई देने लगा है. ऐसे में हम प्राची की जगह उस से मिलतीजुलती किसी अन्य लड़की को भी दुलहन बना सकते हैं. दिव्य को यह एहसास भी नहीं होगा कि दुलहन प्राची नहीं, बल्कि कोई और है. यदि आप की नजर में ऐसी कोई लड़की हो तो बताइए.’’

‘‘हां है, प्राची की एक सहेली ईशा बिलकुल प्राची जैसी दिखती है. वह अकसर नाटकों में भी भाग लेती रहती है. पैसों की खातिर वह इस काम के लिए तैयार भी हो जाएगी. पर ध्यान रहे शादी की रस्में पूरी नहीं अदा की जानी चाहिए वरना उसे भी आपत्ति हो सकती है.’’

‘‘आप बेफिक्र रहिए आंटी जी, सब वैसा ही होगा जैसा फिल्मों में होता है, केवल दिखावा. क्योंकि हम भी नहीं चाहते हैं कि ऐसा हो और दिव्य भी ऐसी हालत में नहीं है कि वह सभी रस्में निभाने के लिए अधिक समय तक पंडाल में बैठ भी सके.’’

शादी का दिन आ पहुंचा. विवाह की सभी रस्में घर के पास ही एक गार्डन में होनी थीं. दिव्य दूल्हा बन कर तैयार था और अपनी दुलहन का इंतजार कर रहा था कि अचानक एक गाड़ी वहां आ कर रुकी. गाड़ी में से प्राची का परिवार और दुलहन का वेश धारण किए गए लड़की उतरी.

हंसीखुशी शादी की सारी रस्में निभाई जाने लगीं. दिव्य बहुत खुश नजर आ रहा था. उसे देख कर कोई यह नहीं कह सकता था कि यह कुछ ही दिनों का मेहमान है. यही तो शुभ चाहती थी.

‘‘अब दूल्हादुलहन फेरे लेंगे और फिर दूल्हा दुलहन की मांग भरेगा.’’ जब पंडित ने कहा तो शुभ और प्राची के मातापिता चौकन्ने हो गए. वे समझ गए कि अब वह समय आ गया है जब लड़की को यहां से ले जाना चाहिए वरना अनर्थ हो सकता है और वे बोले, ‘‘पंडित जी, दुलहन का जी घबरा रहा है. पहले वह थोड़ी देर आराम कर ले फिर रस्में निभा ली जाएं तो ज्यादा अच्छा रहेगा.’’ कह कर उन्होंने दुलहन जोकि छोटा सा घूंघट ओढ़े हुए थी, को अंदर चलने का इशारा किया.

‘‘नहीं पंडित जी, मेरी तबीयत इतनी भी खराब नहीं कि रस्में न निभाई जा सकें.’’ दुलहन ने घूंघट उठाते हुए कहा तो शुभ के साथसाथ प्राची के मातापिता भी चौक उठे क्योंकि दुलहन कोई और नहीं प्राची ही थी.

शायद जब ईशा को प्राची की जगह दुलहन बनाने का फैसला पता चला होगा तभी प्राची ने उस की जगह स्वयं दुलहन बनने का निर्णय लिया होगा, क्योंकि चाहे नाटक में ही, दिव्य की दुलहन बनने का अधिकार वह किसी और को दे, उस के दिल को मंजूर नहीं होगा.

आज उस की आंखों में आंसू नहीं, बल्कि उस के होंठों पर मुसकान थी. अपना सारा दर्द समेट कर वह दिव्य की क्षणिक खुशियों की भागीदारिणी बन गई थी. उसे देख कर शुभ की आंखों से खुशी और दुख के मिश्रित आंसू बह निकले. उस ने आगे बढ़ कर प्राची को गले से लगा लिया.

यह देख कर दिव्य के चेहरे पर एक अनोखी मुसकान आ गई. ऐसी मुसकान पहले किसी ने उस के चेहरे पर नहीं देखी थी. परंतु शायद वह उस की आखिरी मुसकान थी, क्योंकि उस का कमजोर शरीर इतना श्रम और खुशी नहीं झेल पाया और वह वहीं मंडप में ही बेहोश हो गया.

दिव्य को तुरंत हौस्पिटल ले जाना पड़ा जहां उसे तुरंत आईसीयू में भेज दिया गया. कुछ ही दिनों बाद दिव्य नहीं रहा परंतु जाते समय उस के होंठों पर मुसकान थी.

प्राची का यह अप्रत्याशित निर्णय दिव्य और उस के परिवार वालों के लिए वरदान से कम नहीं  था. वे शायद जिंदगी भर उस के इस एहसान को चुका न पाएं. प्राची के भावी जीवन को संवारना अब उन की भी जिम्मेदारी थी.

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