रिश्तों का बंधन: भाग 2- विजय ने दीपा की फोटो क्यों जलाई

दीपा अब अपने आने वाले जीवन के बारे में सोच रही थी. वह अपने पापा से दूर नहीं रहना चाहती थी. सोचा कि वह इस बारे में विजय से बात करेगी.

अगर वह उस के साथ रहने को तैयार हो जाता है, तो उसे अपने पापा की कोई चिंता नहीं रहेगी और उस की किश्ती को किनारा मिल जाएगा.

विजय की फैमिली का बिजनैस है और उस के घर वाले चाहते हैं कि वह अपने घर के बिजनैस में हाथ बंटाए और जल्दी से शादी कर अपना घर बसाए. उस के पिता चाहते हैं कि वे विजय की शादी अपने दोस्त राजीव की बेटी शिवानी से कर अपनी दोस्ती को रिश्तेदारी में बदल दें, लेकिन विजय ने शादी करने से यह कह कर इनकार कर दिया है कि जब तक वह खुद अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो जाता, वह शादी नहीं करेगा. वह दीपा से अपने प्यार के बारे में किसी को कुछ नहीं बता सका. लेकिन मांबाप की जिद और बूढ़ी दादी के आगे उसे झुकना पड़ा और आखिर वह राजीव परिवार के यहां पुणे में लड़की देखने जाने को तैयार हो गया.

दोनों ही परिवारों को यकीन था कि शिवानी जैसी सुंदर और होशियार लड़की को देख कर विजय न नहीं कर सकता.
विजय सच में शिवानी को देखता ही रह गया. शिवानी भी पहली नजर में ही उसे अपना दिल दे बैठी और मन ही मन उसे अपना पति मान लिया लेकिन उस वक्त उस का दिल टूट गया जब विजय ने शादी करने से इनकार कर दिया. किसी की समझ में नहीं आया कि उस ने ऐसा क्यों किया.
अपनी छोटी बहन रोली के बहुत पूछने पर विजन ने अपने और दीपा के प्यार के बारे में बताया और कहा कि वह उसी से शादी करेगा.

उधर शिवानी अब खोईखोई सी रहने लगी थी. राजीव उसे बहुत समझते और विजय को भूल जाने को कहते हैं रहे, लेकिन शिवानी ने तो चुप्पी साध रखी थी. राजीव अब विजय के बारे में पता लगाने की कोशिश की और उन्हें पता चलता है कि विजय मुंबई में किसी लड़की के साथ घूमताफिरता है और उस का दीवाना सा लगता है तो उन्होंने यह बात शिवानी को बताई.
‘‘बेटी, मैं ने पता लगाया है विजय मुंबई में किसी लड़की के साथ घूमताफिरता है. तुम अपने दिल से उस का खयाल निकाल दो. मुझे तो लगता है कि विजय का करैक्टर…’’
‘‘नहीं पापा, विजय ऐसा नहीं है, मैं अच्छी तरह जानती हूं और आप से वादा करती हूं कि मैं जल्द ही उसे उस लड़की के चंगुल से छुड़ा कर आजाद करा लूंगी.’’
‘‘लेकिन तुम ऐसा कैसे करोगी? तुम यहां पुणे में और वह मुंबई में.’’
‘‘आप चिंता मत करिए पापा, वहां मेरी एक बहुत पुरानी बचपन की सहेली रहती है. वह मेरी मदद करेगी.’’
‘‘क्या नाम है उस का?’’
‘‘दीपा.’’
दीपा शिवानी का खत पा कर हत्प्रभ रह गई. बचपन की सहेली शिवानी. हमेशा वह उसे दीदीदीदी कहती रहती थी.
और उसे बचपन की शरारतों से ले कर कालेज हौस्टल तक की सारी बातें याद आ गईं…
शिवानी ने लिखा था कि वह एक विजय से शादी करना चाहती है और वह उसे किसी तरह से उस लड़की से मुक्ति दिला दे जो उस के पीछे पड़ी है. विजय का पूरा हुलिया, फोटो, फोन नंबर घर का पता साथ भेजा था.
दीपा की आंखों में आंसू आ गए, ‘‘क्या
मेरी जिंदगी में वीरनी ही लिखी है? शिवानी
को कैसे बताऊं कि कैसे विजय को पा कर मेरी सूनी जिंदगी में कुछ हलचल हो रही है, कैसे बताऊं कि मैं भी विजय के बिना नहीं रह सकती. कैसे बताऊं कि वह लड़की कोई और नहीं मैं
ही हूं.’’
दीपा को लगा जैसे वह एक ऐसे भंवर में फंस गई है, जहां से निकल नहीं पाएगी. शिवानी, जिसे उस ने हमेशा अपनी छोटी बहन ही समझ. बचपन से ले कर कालेज हौस्टल तक कैसे वे दोनों रातरात भर जाग कर हंसीमजाक करती रहती थीं.

मोटी नाक पर पतले फ्रेम का चश्मा लगाने वाली टीचर को देखदेख कर हंसा करती थीं. आज हालात ने उसे ऐसे मोड़ पर ला कर खड़ा कर दिया है, जहां से उसे कुछ सुझाई नहीं पड़ रहा है. क्या वह शिवानी को अपने और विजय के प्रेम के बारे में सबकुछ लिख दे कि वह भी विजय के बिना नहीं रह सकती और फिर उस ने फैसला कर मैसेज भेजने के लिए लैपटौप खोला और जैसे ही उस ने वर्ड फाइल पर क्लिक किया उस की पुरानी यादें ताजा हो गईं…

बस एक बार आ जाओ

प्यार का एहसास अपनेआप में अनूठा होता है. मन में किसी को पाने की, किसी को बांहों में बांधने की चाहत उमड़ने लगती है, कोई बहुत अच्छा और अपना सा लगने लगता है और दिल उसे पूरी शिद्दत से पाना चाहता है, फिर कोई भी बंधन, कोई भी दीवार माने नहीं रखती, पर कुछ मजबूरियां इंसान से उस का प्यार छीन लेती हैं, लेकिन वह प्यार दिल पर अपनी अमिट छाप छोड़ जाता है. हां सुमि, तुम्हारे प्यार ने भी मेरे मन पर अमिट छाप छोड़ी है. हमें बिछड़े 10 वर्ष बीत गए हैं, पर आज भी बीता हुआ समय सामने आ कर मुंह चिढ़ाने लगता है.

सुमि, तुम कहां हो. मैं आज भी तुम्हारी राहों में पलकें बिछाए बैठा हूं, यह जानते हुए भी कि तुम पराई हो चुकी हो, अपने पति तथा बच्चों के साथ सुखद जीवन व्यतीत कर रही हो और फिर मैं ने ही तो तुम से कहा था, सुमि, कि य-पि यह रात हम कभी नहीं भूलेंगे फिर भी अब कभी मिलेंगे नहीं. और तुम ने मेरी बात का सम्मान किया. जानती हो बचपन से ही मैं तुम्हारे प्रति एक लगाव महसूस करता था बिना यह सम झे कि ऐसा क्यों है. शायद उम्र में परिपक्वता नहीं आई थी, लेकिन तुम्हारा मेरे घर आना, मु झे देखते ही एक अजीब पीड़ा से भर उठना, मु झे बहुत अच्छा लगता था.

तुम्हारी लजीली पलकें  झुकी होती थीं, ‘अनु है?’ तुम्हारे लरजते होंठों से निकलता, मु झे ऐसा लगता था जैसे वीणा के हजारों तार एकसाथ  झंकृत हो रहे हों और अनु को पा कर तुम उस के साथ दूसरे कमरे में चली जाती थीं.’

‘भैया, सुमि आप को बहुत पसंद करती है,’ अनु ने मु झे छेड़ा.

‘अच्छा, पागल लड़की फिल्में बहुत देखती है न, उसी से प्रभावित होगी,’ और मैं ने अनु की बात को हंसी में उड़ा दिया, पर अनजाने में ही सोचने पर मजबूर हो गया कि यह प्यारव्यार क्या होता है सम झ नहीं पाता था, शायद लड़कियों को यह एहसास जल्दी हो जाता है. शायद युवकों के मुकाबले वे जल्दी युवा हो जाती हैं और प्यार की परिभाषा को बखूबी सम झने लगती हैं. ‘संभल ऐ दिल तड़पने और तड़पाने से क्या होगा. जहां बसना नहीं मुमकिन, वहां जाने से क्या होगा…’

यह गजल तुम अनु को सुना रही थी, मु झे भी बहुत अच्छा लगा था और उसी दिन अनु की बात की सत्यता सम झ में आई और जब मतलब सम झ में आने लगा तब ऐसा महसूस हुआ कि तुम्हारे बिना जीना मुश्किल है. कैशौर अपना दामन छुड़ा चुका था और मैं ने युवावस्था में कदम रखा और जब तुम्हें देखते ही अजीब मीठीमीठी सी अनुभूति होने लगी थी. दरवाजे के खटकते ही तुम्हारे आने का एहसास होता और मेरा दिल बल्लियों उछलने लगता था. कभी मु झे महसूस होता था कि तुम अपलक मु झे देख रही हो और जब मैं अपनी नजरें तुम्हारी ओर घुमाता तो तुम दूसरी तरफ देखने लगती थी, तुम्हारा जानबू झ कर मु झे अनदेखा करना मेरे प्यार को और बढ़ावा देता था. सोचता था कि तुम से कह दूं, पर तुम्हें सामने पा कर मेरी जीभ तालु से चिपक जाती थी और मैं कुछ भी नहीं कह पाता था कि तभी एक दिन अनु ने बताया कि तुम्हारा विवाह होने वाला है. लड़का डाक्टर है और दिल्ली में ही है. शादी दिल्ली से ही होगी. मैं आसमान से जमीन पर आ गिरा.

यह क्या हुआ, प्यार शुरू होने से पहले ही खत्म हो गया, ऐसा कैसे हो सकता है, क्या आरंभ और अंत भी कभी एकसाथ हो सकते हैं. हां शायद, क्योंकि मेरे साथ तो ऐसा ही हो रहा था. मेरा मैडिकल का थर्ड ईयर था, डाक्टर बनने में 2 वर्ष शेष थे. कैसे तुम्हें अपने घर में बसाने की तुम्हारी तमन्ना पूरी करूंगा. अप्रत्यक्ष रूप से ही तुम ने मेरे घर में बसने की इच्छा जाहिर कर दी थी, मैं विवश हो गया था.  दिसंबर के महीने में कड़ाके की ठंड पड़ रही थी. इसी माह तुम्हारा ब्याह होने वाला था. मेरी रातों की नींद और दिन का चैन दोनों ही जुदा हो चले थे. तुम चली जाओगी यह सोचते ही हृदय चीत्कार करने लगता था, ऐसी ही एक कड़कड़ाती ठंड की रात को कुहरा घना हो रहा था. मैं अपने कमरे से तुम्हारे घर की ओर टकटकी लगाए देख रहा था. आंसू थे कि पलकों तक आआ कर लौट रहे थे. मैं ने अपना मन बहुत कड़ा किया हुआ था कि तभी एक आहट सुनाई दी, पलट कर देखा तो सामने तुम थी. खुद को शौल में सिर से लपेटे हुए. मैं तड़प कर उठा और तुम्हें अपनी बांहों में भर लिया. तुम्हारी आवाज कंपकंपा रही थी.

‘मैं ने आप को बहुत प्यार किया, बचपन से ही आप के सपने देखे, लेकिन अब मैं दूर जा रही हूं. आप से बहुत दूर हमेशाहमेशा के लिए. आखिरी बार आप से मिलने आई हूं,’ कह कर तुम मेरे सीने से लगी हुई थी.

सुमि, कुछ मत कहो. मु झे इस प्यार को महसूस करने दो,’ मैं ने कांपते स्वर में कहा.

‘नहीं, आज मैं अपनेआप को समर्पित करने आई हूं, मैं खुद को आप के चरणों में अर्पित करने आई हूं क्योंकि मेरे आराध्य तो आप ही हैं, अपने प्यार के इस प्रथम पुष्प को मैं आप को ही अर्पित करना चाहती हूं, मेरे दोस्त, इसे स्वीकार करो,’ तुम्हारी आवाज भीगीभीगी सी थी, मैं ने अपनी बांहों का बंधन और मजबूत कर लिया. बहुत देर तक हम एकदूसरे से लिपटे यों ही खड़े रहे. चांदनी बरस रही थी और हम शबनमी बारिश में न जाने कब तक भीगते रहे कि तभी मैं एक  झटके से अलग हो गया. तुम कामना भरी दृष्टि से मु झे देख रही थी, मानो कोई अभिसारिका, अभिसार की आशा से आई हो. नहींनहीं सुमि, यह गलत है. मेरा तुम पर कोई हक नहीं है, तुम्हारे तनमन पर अब केवल तुम्हारे पति का अधिकार है, तुम्हारी पवित्रता में कोई दाग लगे यह मैं बरदाश्त नहीं कर सकता हूं. हम आत्मिक रूप से एकदूसरे को समर्पित हैं, जो शारीरिक समर्पण से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है, तुम मु झे, मैं तुम्हें समर्पित हूं.

हम जीवन में कहीं भी रहें इस रात को कभी नहीं भूलेंगे. चलो, तुम्हें घर तक छोड़ दूं, किसी ने देख लिया तो बड़ी बदनामी होगी. तुम कातर दृष्टि से मु झे देख रही थी. तुम्हारे वस्त्र अस्तव्यस्त हो रहे थे, शौल जमीन पर गिरा हुआ था, तुम मेरे कंधों से लगी बिलखबिलख कर रो रही थी. चलो सुमि, रात गहरा रही है और मैं ने तुम्हारे होंठों को चूम लिया. तुम्हें शौल में लपेट कर नीचे लाया. तुम अमरलता बनी मु झ से लिपटी हुई चल रही थी. तुम्हारा पूरा बदन कांप रहा था और जब मैं ने तुम्हें तुम्हारे घर पर छोड़ा तब तुम ने कांपते स्वर में कहा, ‘विकास, पुरुष का प्रथम स्पर्श मैं आप से चाहती थी. मैं वह सब आप से अनुभव करना चाहती थी जो मु झे विवाह के बाद मेरे पति, सार्थक से मिलेगा, लेकिन आप ने मु झे गिरने से बचा लिया. मैं आप को कभी नहीं भूल पाऊंगी और यही कामना करती हूं कि जीवन के किसी भी मोड़ पर हम कभी न मिलें, और तुम चली गईं.

10 वर्ष का अरसा बीत चला है, आज भी तुम्हारी याद में मन तड़प उठता है. जाड़े की रातों में जब कुहरा घना हो रहा होता है, चांदनी धूमिल होती है और शबनमी बारिश हो रही होती है तब तुम एक अदृश्य साया सी बन कर मेरे पास आ जाती हो. हृदय से एक पुकार उठती है. ‘सुमि, तुम कहां हो, क्या कभी नहीं मिलोगी?’

नहीं, तुम तड़पो, ताउम्र तड़पो,’ ऐसा लगता है जैसे तुम आसपास ही खड़ी मु झे अंगूठा दिखा रही हो. सुमि, मैं अनजाने में तुम्हें पुकार उठता हूं और मेरी आवाज दीवारों से टकरा कर वापस लौट आती है, क्या मैं अपना पहला प्यार कभी भूल सकूंगा?

रिश्तों का बंधन: भाग 1- विजय ने दीपा की फोटो क्यों जलाई

‘‘डैडी,मैं ने रेस्तरां बेच दिया है.’’
रिटायर्ड कर्नल विमल उस वक्त बालकनी में बैठे अखबार पढ़ रहे थे जब उन की लड़की दीपा ने उन से यह बात कही. उन्होंने एक सरसरी सी नजर अपनी बेटी पर डाली जो उन के लिए केतली से कप में चाय डाल रही थी.
‘‘हम अगले हफ्ते शिमला वापस जा रहे हैं.’’

दीपा की इस बात का भी विमल ने कोई जवाब नहीं दिया.

‘‘डैडी चाय,’’ दीपा ने चाय का प्याला उन की ओर बढ़ा दिया.
‘‘डैडी, क्या मैं ने कुछ गलत किया?’’

‘‘नहीं, बिलकुल गलत नहीं,’’ विमल ने एक घूंट चाय सिप करते हुए कहा.

‘‘लेकिन आप ने पूछा नहीं कि मैं ने यह फैसला क्यों लिया और वह भी बिना आप से पूछे?’’
विमल ने चाय का प्याला टेबल पर रख दिया और प्यार से अपनी बेटी के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘क्योंकि मैं जानता हूं कि मेरी बेटी जो भी कदम उठाती है, सोचसमझ कर ही उठाती है.’’

‘‘डैडी,’’ दीपा के मुंह से हलकी कराह जैसी आवाज निकली और वाह अपने डैडी के गले से लिपट गई, ‘‘आई लव यू डैडी,’’ उस के मुंह से निकला.

कर्नल विमल रिटायर्ड आर्मी औफिसर थे. दुश्मन से मोरचा लेते हुए वे अपना एक हाथ और एक पैर गंवा चुके थे. उन की पत्नी अपने पति का यह हाल नहीं देख सकीं और सदमे में चल बसी थीं. दीपा उन की इकलौती बेटी थी, जो अपनी पढ़ाई पूरी कर के विदेश जाना चाहती थी, लेकिन अब उस ने अपना फैसला बदल दिया था और एक रेस्तरां चलाती थी.

विमल ने कई बार उस से शादी कर अपना घर बसाने की बात कही, पर उस ने हमेशा मना कर दिया. वह अपने अपाहिज पिता को अकेले इस तरह छोड़ कर जाने को तैयार नहीं थी. विमल को दीपा पर पूरा भरोसा था, इसलिए उन्हें उस के इस फैसले पर कोई आश्चर्य नहीं हुआ. शिमला में उन का पुराना मकान था. दीपा ने उन से वहीं वापस जाने की बात कही थी.

विमल ने दीपा का चेहरा उठाया और उस की भीगी पलकों को देखते हुए बोले, ‘‘यह क्या बेटी तेरी आंखों में आंसू? तुझे याद नहीं, मैं ने तेरी मां को उस के आखिरी समय पर क्या वचन दिया था कि मैं तेरी आंखों में कभी आंसू नहीं आने दूंगा.

दीपा ने विमल की ओर देखा, फिर अपने रूमाल से उन की भीग आई आंखों को पोंछते हुए अपने कमरे में चली गई और पलंग पर लेट कर एक मैगजीन उठा कर उस के पन्ने पलटने लगी, लेकिन उस का ध्यान मैगजीन में नहीं लग रहा था. धीरेधीरे उसे अपनी जिंदगी के कुछ पिछले पन्ने पलटते दिखाई पड़े…
उस दिन बारिश बहुत हुई थी और दीपा का रेस्तरां पूरी तरह खाली था. कोईर् वर्कर भी नहीं आया था. दीपा अकेली बैठी रेडियो सुन रही थी. तभी उस की नजर अपने रेस्तरां के बाहर खड़े एक युवक पर पड़ी, जो बुरी तरह पानी में भीगा हुआ था और ठंड से जकड़ा जा रहा था. दीपा ने उसे अपने काउंटर से ही आवाज दी, ‘‘हैलो, अंदर आ जाओ.’’

युवक ने शायद सुना नहीं.
दीपा ने दोबारा उसे आवाज दी, ‘‘हैलो, मैं आप ही से कह रही हूं, अंदर आ जाओ वरना बीमार हो जाओगे.’’

अब की युवक ने मुड़ कर देखा तो दीपा को अपनी ओर इशारा करते हुए पाया. वह अंदर चला गया.
‘‘बैठ जाओ, बहुत भीग गए हो,’’ दीपा उठ कर उस के पास आई और एक कुरसी उस के करीब खिसका दी.
‘‘थैंक यू,’’ युवक बोला. लेकिन तब तक दीपा अंदर जा चुकी थी और जल्द ही 2 कप चाय ले कर आ गई और उस के पास ही कुरसी पर बैठ गई और उस के पास चाय का प्याला
रख दिया.
युवक ने पहले चाय की ओर, फिर दीपा की ओर देखा और सकुचाते हुए बोला, ‘‘इस की क्या जरूरत थी, आप ने बेकार ही तकलीफ की.’’
‘‘फार्मैलिटी दिखाने की जरूरत नहीं है. मैं देख रही हूं कि तुम सर्दी में ऐंठे जा रहे हो. अगर गरमागरम चाय नहीं पी तो निश्चय ही निमोनिया हो जाएगा तुम्हें.’’
युवक ने जल्दी से कप उठा लिया और चाय पीने लगा. उसे लगा जैसे इस सर्दी में उसे चाय नहीं अमृत मिल गया है.
‘‘और हां, मैं ने तुम पर कोईर् एहसान नहीं किया है चाय पिला कर. दरअसल, मुझे भी चाय की तलब हो रही थी, लेकिन आलस के मारे उठा नहीं गया. तुम देख रहे हो न कि आज यहां कोई वर्कर नहीं आया है, सो चाय खुद ही बनानी पड़ी. तुम्हारे साथसाथ मुझे भी चाय मिल गई. वैसे इस भरी बरसात में जनाब आप हैं कौन और कौन सा शिकार करने निकले थे?’’

युवक दीपा की इतनी बेबाकी पर हंस पड़ा और बोला, ‘‘मेरा नाम विजय है और मैं एक काम की तलाश में निकला था.’’

‘‘इतनी बरसात में काम की तलाश करना, वाह कमाल है. क्या रोटीवोटी के लाले पड़ रहे हैं?’’
नहीं… नहीं ऐसी कोई बात नहीं है. दरअसल, मेरे डैडी चाहते हैं कि मैं उन के बिजनैस में उन का हाथ बंटाऊ, लेकिन मैं अपनेआप अपने पैरों पर खड़े होना चाहता हूं, इसलिए काम के लिए मुझे बारिश या तूफान की कोई परवाह नहीं होती.’’

‘‘हूं,’’ दीपा उस की ओर देखती हुई बोली, ‘‘खयाल अच्छा है और विचार भी तुम्हारे ऊंचे हैं. तुम्हारा यह कहना भी सही है कि हर किसी को खुद अपने बल पर अपन भविष्य बनाना चाहिए.’’
‘‘आप को देख कर तो ऐसा ही लगता है कि इतने छोटा लेकिन प्यारा सा रेस्तरां आप ने खुद ही खड़ा किया है…’’
‘‘दीपा, मेरा नाम दीपा है और मैं ही अकेली इस रेस्तरां को पिछले कई सालों से चला रही हूं. मैं ने इस के लिए किसी की मदद नहीं ली, बस मेरे डैडी का आशीर्वाद है जो मैं रोज सुबहशाम उन से लेती हूं.’’
दीपा और विजय की यह छोटी सी मुलाकात धीरेधीरे बढ़ती गई और पता नहीं

कब इन मुलाकातों का दौर प्यार में बदल गया. दीपा को लगा जैसे उसे जीने के लिए एक और सहारा मिल गया हो. उस ने अपनी और विजय की मुलाकात और प्यार के बारे में विमल को सबकुछ बता दिया. विमल को यह जान कर बहुत खुशी हुई. उन्हें लगा जैसे दीपा और विजय की शादी कर वह अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाएगा.

‘‘डैडी, आज मैं बहुत खुश हूं,’’ दीपा उस दिन अपने डैडी से लिपट कर बोली थी. विमल ने उस दिन अपनी बेटी की आंखों में एक नई और अनोखी चमक देखी थी.
दीपा उन्हें विजय से अपनी पहली मुलाकात से ले कर अब तक की सारी कहानी सुना चुकी थी.

विमल बहुत खुश थे. बोली, ‘‘तुझे विजय पसंद है न?’’

दीपा मुंह से कुछ नहीं बोली, बस सिर हिला दिया.
‘‘फिर ठीक है, बात पक्की.’’
दीपा चौंक उठी.
‘‘मैं अब विजय के घर वालों से बात कर चट मंगनी कर पट ब्याह रचा कर अपनी इस प्यारी सी गुडि़या को विदा कर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाऊंगा.’’
‘‘क्या मैं आप को बो?ा लगने लगी हूं डैडी, जो इतनी जल्दी आप मुझे अपने से दूर करना चाहते हैं?’’
‘‘अरे पगली, अभी तूने ही तो कहा है न कि विजय तुझे बहुत पसंद है.’’
‘‘हां डैडी, लेकिन इस का यह मतलब तो नहीं कि आप मुझे घर से ही निकाल दें. जाइए, मैं आप से नहीं बोलती.’’

प्यार और समाज: क्या विधवा लता और सुशील की शादी हो पाई

लेखक- शुभम पांडेय गगन

लता आज भी उस दर्दनाक हादसे को सोच कर रोने लगती है. उसे लगता है कि सारा मंजर उस के सामने किसी फ़िल्म की भांति चल रहा है. अभी मुश्किल से सालभर भी न हुआ जब उस के हाथों में राजन के नाम की मेहंदी सजी थी और उस की मांग में राजन द्वारा भरा सिंदूर चमक रहा था. अब उस की सूनी मांग हर किसी को रोने को मजबूर कर देती है.लता की उम्र अभी 24 साल है और वह बेहद खूबसूरत व पढ़ीलिखी है.

उस की शादी 6 महीने पहले शहर के एक बड़े व्यापारी  के इकलौते पुत्र राजन से हुई. राजन सुंदर और सुशील लड़का था जो लता को बहुत प्यार भी करता था. उन के प्यार को शायद किसी की नज़र लग गई और राजन की सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई. उस की मौत के बाद उस के घर वालों ने लता को बेसहारा कर के उस के मायके भेज दिया. तब से लता यहीं रहती है. उस के पिता शहर से बाहर रहते हैं. वह उन की अकेली बेटी है.

प्रकृति न जाने क्यों ऐसी तक़लीफ देती है जिस में मनुष्य न जी सकता, न मर सकता. लता के दुखों के पहाड़ ने उस की जिंदगी की सारी खुशियां को दबा दिया था. उस की यौवन से सजी बगिया आज वीरान हुई थी.  जिस उम्र में उस की सहेलियों ने अपने परिवार को बढ़ाने और पति के साथ अलगअलग जगहों पर घूमने के प्लान बना रहीं, उस उम्र में वह अकेली सिसकती है.

लता के घर की बगल में महेश का घर है. उन के घर में कई लोग किराए पर रहते हैं. उन में ही एक हैं सुशील, जो पेशे से एक अखबार में काम करते हैं. उन की उम्र 28 साल होगी. वे लंबे कद, सुंदर चेहरे व बढ़िया कदकाठी के मालिक हैं.

वे लता को उस की शादी के पहले से काफ़ी पसंद करते हैं. लेकिन कहने से डरते हैं. आज वे बालकनी में खड़े थे कि लता छत पर कपड़े डालने आई. उन्होंने उस को देखा. उस को देखते ही उन को अपने प्रेम की अनुभूति फिर से उमड़ पड़ी.

लता का सफेद बदन धूप में चमक रहा था. उस के लंबे कमर तक के बाल अपनी लटों में किसी को उलझाने के लिए पर्याप्त थे. उस का यौवन किसी भी को आकर्षित करने में महारथी था.

सुशील उस को देखता रहा. एक दिन उस को लता बाजार में मिली. उस ने कहा, “लता, मुझे तुम से कुछ बात करनी है.”

लता ने कहा, “बोलो सुशील.”

दोनों एकदूसरे को अच्छे से जानते थे. कोई पहली बार नहीं था कि वह उस से बात कर रही थी. एक दोस्त के नज़रिए से दोनों अकसर बात किया करते थे.

सुशील ने कहा, “कहीं बैठ कर बातें करें.”

दोनों बगल के पार्क में चले गए.

लता ने कहा, “बोलो सुशील.”

सुशील ने कहा, “लता, सच कहूं, मुझ से तुम्हारा दुख देखा नहीं जाता. मैं शुरुआत के दिनों से ही तुम्हें बहुत पसंद करता हूं. मैं ने न जाने कितने सपनों में तुम्हें अपने पत्नी के रूप में स्वीकार किया. लेकिन मेरी इच्छा तुम्हें पाने की असफल रह गई.

“तुम अकेली  कब तक ऐसे दर्द को सहते रहोगी. तुम्हारी भी उम्र है और यह फासला बहुत बड़ा है जिसे अकेले काटना मुश्किल हो जाएगा. अगर तुम चाहो, मैं तुम्हारे साथ इस उम्र के सफर में चलना चाहता हूं.”

लता सारी बातें सुन कर चौंक गई, लेकिन अंदर ही अंदर उस के मन में कहीं न कहीं ये बातें बैठ भी गई थीं. उस के आंखों से अश्रु की धारा अनवरत गिरने लगी.

सुशील ने बड़े प्यार से उसे अपने रूमाल से पोंछा और कहा, “तुम सोचसमझ कर बताना, मैं इंतज़ार करूंगा तुम्हारे जवाब का.”

उस के बाद लता घर आई और उस ने इस विषय में काफ़ी सोचा. उस को उस की उम्र काटने की बातें घर कर गई थीं लेकिन उस के ह्रदय में अभी राजन का चेहरा बसा था.

लेकिन कहते हैं न, कि वक़्त बड़ा बलवान होता है जो दिल से लोगों को निकाल भी फेंकता और किसी अंजान को बसा भी देता है.

लता लगभग एक महीने न सुशील को दिखी न मिली. एक दिन उस के घर की घंटी बजी और जब उस ने दरवाजा खोला तो सामने सुशील खड़ा था.

उस ने कहा, “अंदर आने को नहीं कहोगी?”

लता ने उसे अंदर बुलाया और फिर चाय के लिए पूछा. लेकिन सुशील ने मना कर दिया.

सुशील ने उस को बैठाया और उस से फिर अपने सवाल का जवाब मांगा.

लता ने कहा, “सुशील, मुझे तुम्हारी बातों ने बहुत प्रभावित किया परंतु एक विधवा से शादी करना क्या तुम्हारे घर वाले स्वीकार करेंगे?”

सुशील ने कहा, “मानें या न मानें, मैं तुम से ही करूंगा.”

लता को न जाने क्यों उस पर विश्वास करने को दिल कर रहा था लेकिन वह यह भी जानती थी इस समाज में आज भी बहुत सी कुरीतियों और रूढ़िवादी सोचों का कब्जा है जो उस के मिलन में बाधा पैदा करेंगी.

लेकिन फिर भी उस ने सब से लड़ने का फैसला कर अपनी जिंदगी में आगे बढ़ने को सोच लिया और सुशील के प्रस्ताव को मान लिया.

धीरेधीरे दोनों का साथ घूमना, मिलना, घर आनाजाना भी शुरू हो गया. लता के घर में सिर्फ उस के पिताजी थे जो अकसर शहर से बाहर रहते थे. उन को लता ने सब बता दिया और वे भी बहुत खुश थे कि उन की बेटी जिंदगी में आगे बढ़ना चाहती है. एक पिता के लिए इस से खूबसूरत खबर क्या हो सकती थी.

एक दिन लता सुशील के घर गई. दरवाजा खुला था, वह सीधे अंदर गई. तभी किसी ने उस की कमर को पकड़ कर अपनी बांहों में भींच लिया. उस ने पलट कर देखा तो वह सुशील था.

उस ने कहा, “क्या कर रहे हो सुशील, छोड़ो मुझे?”

सुशील ने उस के कंधे पर चूमते हुए कहा, “अपनी जान को प्यार कर रहा हूं. क्या कोई गुनाह कर रहा?”

लता ने कहा, “तुम्हारी ही हूं. कुछ दिन रुक जाओ, फिर शादी के बाद करना प्यार. अभी छोड़ो.”

लेकिन सुशील उसे बेतहाशा कंधे, गले सब जगह चूमता रहा और अपनी बांहों में समेट रखा था. फिर लता ने भी छुड़ाने के असफ़ल प्रयास करना छोड़ उस की बाजुओं में खुद को समेट लिया.

सुशील की सशक्त बाजुओं में वह खुद समर्पित हो कर यौवन के प्रवाह के अधीन हो गई और दोनों काम के यज्ञ में आहुति बन गए.

दोनों का रिश्ता अब जिस्मानी हो चुका था. लता ने अपनी सीमा लांघ कर प्रेम में खुद को अशक्त कर लिया. सुशील ने भी उस के यौवन पर अपनी छाप छोड़ दी.

कुछ दिनों बाद सुशील अपने घर गया. लता ने 2 दिनॉ तक उस का फ़ोन बारबार मिलाया लेकिन कोई जवाब नहीं मिल रहा था.

न जाने क्यों उस के मन मे बुरेबुरे ही ख़याल आते रहे.  उस का मन अंदर ही अंदर किसी अनहोनी को ही सामने ला रहा था परंतु उसे यकीन था, समय हर बार ऐसे खेल नहीं खेल सकता.

3 दिनों बाद एक अलग नंबर से उस के फ़ोन पर घंटी बजी. उस ने तपाक से फ़ोन उठाया और बोली, “हेलो, कौन?”

उसे ज़रा भी देर नहीं लगी कि दूसरी तरफ सुशील था. लता ने धड़ाधड़ प्रश्नों की बौछार कर सुशील को बोलने के मौके का रास्ता अवरुद्ध कर दिया.

सुशील बोला, “लता, तुम सच में मुझ से प्यार करती हो.”

लता ने कहा, “पागल हो, अगर नहीं करती तो सारी सीमाएं तोड़ कर खुद को तुम में समर्पित न करती.”

सुशील ने कहा, ” लता, घर वाले मेरी कहीं और शादी करना चाहते हैं. वे तुम्हारे और मेरे रिश्ते के विरुद्ध हैं. हम दोनों चलो भाग कर शादी कर लें.”

लता स्तब्ध मौन थी. वह न हां बोल रही, न ही मना कर रही. उस को जिस बात का डर था आख़िर वही हो रहा था. उसे पता था कि यह समाज एक विधवा को अभी भी अछूत और कलंकित समझता है.

उस ने फ़ोन रख दिया और फूटफूट कर रोने लगी मानो सालों पहले बीता वही मंजर, जिसे वह भुला चुकी थी, फिर से आ गया हो.

अगले दिन सुबह उस के दरवाजे पर दस्तक हुई और उस ने दरवाजा खोला. सामने सुशील खड़ा था. उस के कंधे पर एक बैग लटक रहा था. उस ने तुरंत उस का हाथ पकड़ लिया और कहा, “लता, चलो, हम अभी शादी करते हैं.”

लता ने कहा, “अभी…ऐसे? क्या हुआ?”

सुशील ने कहा, “अगर तुम्हें मुझ से प्रेम है तो सवाल न करो और चुपचाप मेरे साथ चलो.”

लता ने उस के साथ जाना उचित समझा. दोनों सीधे कोर्ट गए और वहां कोर्ट मैरिज कर ली.

आज से लता फ़िर सुहागिन हो गई. उस के चेहरे पर अलग सुंदरता आ गई मानो चांद को ढके हुए बादलों का एक हिस्सा अलग हो गया.

समाज की कुरीतियों और रूढ़िवादी सोच को मात दे कर दो प्रेमियों ने अपनी प्रेमकहानी को मुक्कमल कर दिया. सुशील ने लता को नई जिंदगी दी. उसे अपना नाम दिया और जीवनभर चलने के वादे को पूरा किया.

एक रिक्त कोना: क्या सुशांत का अकेलापन दूर हो पाया

सुशांत मेरे सामने बैठे अपना अतीत बयान कर रहे थे: ‘‘जीवन में कुछ भी तो चाहने से नहीं होता है. इनसान सोचता कुछ है होता कुछ और है. बचपन से ले कर जवानी तक मैं यही सोचता रहा…आज ठीक होगा, कल ठीक होगा मगर कुछ भी ठीक नहीं हुआ. किसी ने मेरी नहीं सुनी…सभी अपनेअपने रास्ते चले गए. मां अपने रास्ते, पिता अपने रास्ते, भाई अपने रास्ते और मैं खड़ा हूं यहां अकेला. सब के रास्तों पर नजर गड़ाए. कोई पीछे मुड़ कर देखता ही नहीं. मैं क्या करूं?’’

वास्तव में कल उन का कहां था, कल तो उन के पिता का था. उन की मां का था, वैसे कल उस के पिता का भी कहां था, कल तो था उस की दादी का.

विधवा दादी की मां से कभी नहीं बनी और पिता ने मां को तलाक दे दिया. जिस दादी ने अकेले रह जाने पर पिता को पाला था क्या बुढ़ापे में मां से हाथ छुड़ा लेते?

आज उन का घर श्मशान हो गया. घर में सिर्फ रात गुजारने आते हैं वह और उन के पिता, बस.

‘‘मेरा तो घर जाने का मन ही नहीं होता, कोई बोलने वाला नहीं. पानी पीना चाहो तो खुद पिओ. चाय को जी चाहे तो रसोई में जा कर खुद बना लो. साथ कुछ खाना चाहो तो बिस्कुट का पैकेट, नमकीन का पैकेट, कोई चिप्स कोई दाल, भुजिया खा लो.

‘‘मेरे दोस्तों के घर जाओ तो सामने उन की मां हाथ में गरमगरम चाय के साथ खाने को कुछ न कुछ जरूर ले कर चली आती हैं. किसी की मां को देखता हूं तो गलती से अपनी मां की याद आने लगती है.’’

‘‘गलती से क्यों? मां को याद करना क्या गलत है?’’

‘‘गलत ही होगा. ठीक होता तो हम दोनों भाई कभी तो पापा से पूछते कि हमारी मां कहां है. मुझे तो मां की सूरत भी ठीक से याद नहीं है, कैसी थीं वह…कैसी सूरत थी. मन का कोना सदा से रिक्त है… क्या मुझे यह जानने का अधिकार नहीं कि मेरी मां कैसी थीं जिन के शरीर का मैं एक हिस्सा हूं?

‘‘कितनी मजबूर हो गई होंगी मां जब उन्होंने घर छोड़ा होगा…दादी और पापा ने कोई रास्ता ही नहीं छोड़ा होगा उन के लिए वरना 2-2 बेटों को यों छोड़ कर कभी नहीं जातीं.’’

‘‘आप की भाभी भी तो हैं. उन्होंने घर क्यों छोड़ दिया?’’

‘‘वह भी साथ नहीं रहना चाहती थीं. उन का दम घुटता था हमारे साथ. वह आजाद रहना चाहती थीं इसलिए शादी के कुछ समय बाद ही अलग हो गईं… कभीकभी तो मुझे लगता है कि मेरा घर ही शापित है. शायद मेरी मां ने ही जातेजाते श्राप दिया होगा.’’

‘‘नहीं, कोई मां अपनी संतान को श्राप नहीं देती.’’

‘‘आप कैसे कह सकती हैं?’’

‘‘क्योंकि मेरे पेशे में मनुष्य की मानसिकता का गहन अध्ययन कराया जाता है. बेटा मां का गला काट सकता है लेकिन मां मरती मर जाए, बच्चे को कभी श्राप नहीं देती. यह अलग बात है कि बेटा बहुत बुरा हो तो कोई दुआ भी देने को उस के हाथ न उठें.’’

‘‘मैं नहीं मानता. रोज अखबारों में आप पढ़ती नहीं कि आजकल मां भी मां कहां रह गई हैं.’’

‘‘आप खूनी लोगों की बात छोड़ दीजिए न, जो लोग अपराधी स्वभाव के होते हैं वे तो बस अपराधी होते हैं. वे न मां होते हैं न पिता होते हैं. शराफत के दायरे से बाहर के लोग हमारे दायरे में नहीं आते. हमारा दायरा सामान्य है, हम आम लोग हैं. हमारी अपेक्षाएं, हमारी इच्छाएं साधारण हैं.’’

बेहद गौर से वह मेरा चेहरा पढ़ते रहे. कुछ चुभ सा गया. जब कुछ अच्छा समझाती हूं तो कुछ रुक सा जाते हैं. उन के भाव, उन के चेहरे की रेखाएं फैलती सी लगती हैं मानो कुछ ऐसा सुना जो सुनना चाहते थे.

आंखों में आंसू आ रहे थे सुशांत की.

मुझे यह सोच कर बहुत तकलीफ होती है कि मेरी मां जिंदा हैं और मेरे पास नहीं हैं. वह अब किसी और की पत्नी हैं. मैं मिलना चाह कर भी उन से नहीं मिल सकता. पापा से चोरी-चोरी मैं ने और भाई ने उन्हें तलाश किया था. हम दोनों मां के घर तक भी पहुंच गए थे लेकिन मां हो कर भी उन्होंने हमें लौटा दिया था… सामने पा कर भी उन्होंने हमें छुआ तक नहीं था, और आप कहती हैं कि मां मरती मर जाए पर अपनी संतान को…’’

‘‘अच्छा ही तो किया आप की मां ने. बेचारी, अपने नए परिवार के सामने आप को गले लगा लेतीं तो क्या अपने परिवार के सामने एक प्रश्नचिह्न न खड़ा कर देतीं. कौन जाने आप के पापा की तरह उन्होंने भी इस विषय को पूरी तरह भुला दिया हो. क्या आप चाहते हैं कि वह एक बार फिर से उजड़ जाएं?’’

सुशांत अवाक् मेरा मुंह देखते रह गए थे.

‘‘आप बचपना छोड़ दीजिए. जो छूट गया उसे जाने दीजिए. कम से कम आप तो अपनी मां के साथ अन्याय न कीजिए.’’

मेरी डांट सुन कर सुशांत की आंखों में उमड़ता नमकीन पानी वहीं रुक गया था.

‘‘इनसान के जीवन में सदा वही नहीं होता जो होना चाहिए. याद रखिए, जीवन में मात्र 10 प्रतिशत ऐसा होता है जो संयोग द्वारा निर्धारित किया जाता है, बाकी 90 प्रतिशत तो वही होता है जिस का निर्धारण व्यक्ति स्वयं करता है. अपना कल्याण या अपना सर्वनाश व्यक्ति अपने ही अच्छे या बुरे फैसले द्वारा करता है.

‘‘आप की मां ने समझदारी की जो आप को पहचाना नहीं. उन्हें अपना घर बचाना चाहिए जो उन के पास है…आप को वह गले क्यों लगातीं जबकि आप उन के पास हैं ही नहीं.

‘‘देखिए, आप अपनी मां का पीछा छोड़ दीजिए. यही मान लीजिए कि वह इस संसार में ही नहीं हैं.’’

‘‘कैसे मान लूं, जब मैं ने उन का दाहसंस्कार किया ही नहीं.’’

‘‘आप के पापा ने तो तलाक दे कर रिश्ते का दाहसंस्कार कर दिया था न… फिर अब आप क्यों उस राख को चौराहे का मजाक बनाना चाहते हैं? आप समझते क्यों नहीं कि जो भी आप कर रहे हैं उस से किसी का भी भला होने वाला नहीं है.’’

अपनी जबान की तल्खी का अंदाज मुझे तब हुआ जब सुशांत बिना कुछ कहे उठ कर चले गए. जातेजाते उन्होंने यह भी नहीं बताया कि अब कब मिलेंगे वह. शायद अब कभी नहीं मिलेंगे.

सुशांत पर तरस आ रहा था मुझे क्योंकि उन से मेरे रिश्ते की बात चल रही थी. वह मुझ से मिलने मेरे क्लीनिक में आए थे. अखबार में ही उन का विज्ञापन पढ़ा था मेरे पिताजी ने.

‘‘सुशांत तुम्हें कैसा लगा?’’ मेरे पिता ने मुझ से पूछा.

‘‘बिलकुल वैसा ही जैसा कि एक टूटे परिवार का बच्चा होता है.’’

पिताजी थोड़ी देर तक मेरा चेहरा पढ़ते रहे फिर कहने लगे, ‘‘सोच रहा हूं कि बात आगे बढ़ाऊं या नहीं.’’

पिताजी मेरी सुरक्षा को ले कर परेशान थे…बिलकुल वैसे जैसे उन्हें होना चाहिए था. सुशांत के पिता मेरे पिता को पसंद थे. संयोग से दोनों एक ही विभाग में कार्य करते थे उसी नाते सुशांत 1-2 बार मुझे मेरे क्लीनिक में ही मिलने चले आए थे और अपना रिक्त कोना दिखा बैठे थे.

मैं सुशांत को मात्र एक मरीज मान कर भूल सी गई थी. उस दिन मरीज कम थे सो घर जल्दी आ गई. फुरसत थी और पिताजी भी आने वाले थे इसलिए सोचा, क्यों न आज  चाय के साथ गरमागरम पकौडि़यां और सूजी का हलवा बना लूं.

5 बजे बाहर का दरवाजा खुला और सामने सुशांत को पा कर मैं स्तब्ध रह गई.

‘‘आज आप क्लीनिक से जल्दी आ गईं?’’ दरवाजे पर खड़े हो सुशांत बोले, ‘‘आप के पिताजी मेरे पिताजी के पास गए हैं और मैं उन की इजाजत से ही घर आया हूं…कुछ बुरा तो नहीं किया?’’

‘‘जी,’’ मैं कुछ हैरान सी इतना ही कह पाई थी कि चेहरे पर नारी सुलभ संकोच तैर आया था.

अंदर आने के मेरे आग्रह पर सुशांत दो कदम ही आगे बढे़ थे कि फिर कुछ सोच कर वहीं रुक गए जहां खड़े थे.

‘‘आप के घर में घर जैसी खुशबू है, प्यारीप्यारी सी, मीठीमीठी सी जो मेरे घर में कभी नहीं होती है.’’

‘‘आप उस दिन मेरी बातें सुन कर नाराज हो गए होंगे यही सोच कर मैं ने भी फोन नहीं किया,’’ अपनी सफाई में मुझे कुछ तो कहना था न.

‘‘नहीं…नाराजगी कैसी. आप ने तो दिशा दी है मुझे…मेरी भटकन को एक ठहराव दिया है…आप ने अच्छे से समझा दिया वरना मैं तो बस भटकता ही रहता न…चलिए, छोडि़ए उन बातों को. मैं सीधा आफिस से आ रहा हूं, कुछ खाने को मिलेगा.’’

पता नहीं क्यों, मन भर आया मेरा. एक लंबाचौड़ा पुरुष जो हर महीने लगभग 30 हजार रुपए कमाता है, जिस का अपना घर है, बेघर सा लगता है, मानो सदियों से लावारिस हो.

पापा का और मेरा गरमागरम नाश्ता मेज पर रखा था. अपने दोस्तों के घर जा कर उन की मां के हाथों में छिपी ममता को तरसी आंखों से देखने वाला पुरुष मुझ में भी शायद वही सब तलाश रहा था.

‘‘आइए, बैठिए, मैं आप के लिए चाय लाती हूं. आप पहले हाथमुंह धोना चाहेंगे…मैं आप के लिए तौलिया लाऊं?’’

मैं हतप्रभ सी थी. क्या कहूं और क्या न कहूं. बालक की तरह असहाय से लग रहे थे सुशांत मुझे. मैं ने तौलिया पकड़ा दिया तब एकटक निहारते से लगे.

मैं ने नाश्ता प्लेट में सजा कर सामने रखा. खाया नहीं बस, देखते रहे. मात्र चम्मच चलाते रहे प्लेट में.

‘‘आप लीजिए न,’’ मैं ने खाने का आग्रह किया.

वह मेरी ओर देख कर कहने लगे, ‘‘कल एक डिपार्टमेंटल स्टोर में मेरी मां मिल गईं. वह अकेली थीं इसलिए उन्होंने मुझे पुकार लिया. उन्होंने बड़े प्यार से मेरा हाथ पकड़ लिया था लेकिन मैं ने अपना हाथ छुड़ा लिया.’’

सुशांत की बातें सुन कर मेरी तो सांस रुक सी गई. बरसों बाद मां का स्पर्श कैसा सुखद लगा होगा सुशांत को.

सहसा सुशांत दोनों हाथों में चेहरा छिपा कर बच्चे की तरह रो पड़े. मैं देर तक उन्हें देखती रही. फिर धीरे से सुशांत के कंधे पर हाथ रखा. सहलाती भी रही. काफी समय लग गया उन्हें सहज होने में.

‘‘मैं ने ठीक किया ना?’’ मेरा हाथ पकड़ कर सुशांत बोले, ‘‘आप ने कहा था न कि मुझे अपनी मां को जीने देना चाहिए इसलिए मैं अपना हाथ खींच कर चला आया.’’

क्या कहती मैं? रो पड़ी थी मैं भी. सुशांत मेरा हाथ पकड़े रो रहे थे और मैं उन की पीड़ा, उन की मजबूरी देख कर रो रही थी. हम दोनों ही रो रहे थे. कोई रिश्ता नहीं था हम में फिर भी हम पास बैठे एकदूसरे की पीड़ा को जी रहे थे. सहसा मेरे सिर पर सुशांत का हाथ आया और थपक दिया.

‘‘तुम बहुत अच्छी हो. जिस दिन से तुम से मिला हूं ऐसा लगता है कोई अपना मिल गया है. 10 दिनों के लिए शहर से बाहर गया था इसलिए मिलने नहीं आ पाया. मैं टूटाफूटा इनसान हूं…स्वीकार कर जोड़ना चाहोगी…मेरे घर को घर बना सकोगी? बस, मैं शांति व सुकून से जीना चाहता हूं. क्या तुम भी मेरे साथ जीना चाहोगी?’’

डबडबाई आंखों से मुझे देख रहे थे सुशांत. एक रिश्ते की डोर को तोड़ कर दुखी भी थे और आहत भी. मुझ में सुशांत क्याक्या तलाश रहे होंगे यह मैं भलीभांति महसूस कर सकती थी. अनायास ही मेरा हाथ उठा और दूसरे ही पल सुशांत मेरी बांहों में समाए फिर उसी पीड़ा में बह गए जिसे मां से हाथ छुड़ाते समय जिया था.

‘‘मैं अपनी मां से हाथ छुड़ा कर चला आया? मैं ने अच्छा किया न…शुभा मैं ने अच्छा किया न?’’ वह बारबार पूछ रहे थे.

‘‘हां, आप ने बहुत अच्छा किया. अब वह भी पीछे मुड़ कर देखने से बच जाएंगी…बहुत अच्छा किया आप ने.’’

एक तड़पतेबिलखते इनसान को किसी तरह संभाला मैं ने. तनिक चेते तब खुद ही अपने को मुझ से अलग कर लिया.

शीशे की तरह पारदर्शी सुशांत का चरित्र मेरे सामने था. कैसे एक साफसुथरे सचरित्र इनसान को यों ही अपने जीवन से चला जाने देती. इसलिए मैं ने सुशांत की बांह पकड़ ली थी.

साड़ी के पल्लू से आंखों को पोंछने का प्रयास किया तो सहसा सुशांत ने मेरा हाथ पकड़ लिया और देर तक मेरा चेहरा निहारते रहे. रोतेरोते मुसकराने लगे. समीप आ कर धीरे से गरदन झुकाई और मेरे ललाट पर एक प्रगाढ़ चुंबन अंकित कर दिया. फिर अपने ही हाथों से अपने आंसू पोंछ लिए.

अपने लिए मैं ने सुशांत को चुन लिया. उन्हें भावनात्मक सहारा दे पाऊंगी यह विश्वास है मुझे. लेकिन उन के मन का वह रिक्त स्थान कभी भर पाऊंगी ऐसा विश्वास नहीं क्योंकि संतान के मन में मां का स्थान तो सदा सुरक्षित होता है न, जिसे मां के सिवा कोई नहीं भर सकता. जो जीवन रहते बेटी को बेटी कह कर छाती से न लगा सकी.

संयोगिता पुराण: संगीता को किसका था इंतजार

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सफेद गुलाब: क्यों राहुल की हसरतें तार-तार हो गई?

‘‘उफ यह बारिश तो रुकने का नाम ही नहीं ले रही है,’’ निशा बुदबुदाई.

उस दिन सुबहसुबह ही बड़ी जोर से बारिश शुरू हो गई थी और जैसेजैसे बारिश तेज हो रही थी, वैसेवैसे ‘अब मैं कैसे मिलने जाऊंगी राहुल से इस बारिश में?’ सोचसोच कर निशा की परेशानी और धड़कनें बढ़ती जा रही थीं. जाना भी जरूरी था राहुल से मिलने, क्योंकि राहुल मुंबई से दिल्ली सिर्फ उस से मिलने के लिए आया था.

उस ने सोचा था कि अपने दोस्त के साथ एक अच्छा वक्त बिताऊंगी. घर के रोजमर्रा के काम करतेकरते वह ऊब गई थी. जिंदगी में थोड़ा बदलाव चाहती थी, इसलिए जब राहुल ने मिलने की पेशकश रखी तो वह मना न कर सकी.

तभी अचानक उस का फोन बज उठा.

फोन राहुल का था. उस ने पूछा, ‘‘तुम कितने

बजे आओगी?’’

निशा ने घबरा कर कहा, ‘‘ऐसा करते हैं कल मिलते हैं.’’

‘‘मैं तो अपने होटल से निकल चुका हूं और कल वापस चला जाऊंगा,’’ बोल कर राहुल ने फोन काट दिया.

फिर निशा के मन में अजीब सी उथलपुथल शुरू हो गई. अब वादा किया है तो निभाना ही पड़ेगा, यही सोच कर तेज बारिश में छाता ले कर वह निकल पड़ी.

उसे राहुल ने सुभाष नगर मैट्रो स्टेशन पर बुलाया था.

चलतेचलते उस का दिल अतीत की गोद में चला गया.

2 महीने पहले नैट पर चैटिंग करते वक्त उसकी राहुल से मुलाकात हुई थी. उस के बाद

राहुल का अपने काम से वक्त निकाल कर उस से फोन पर बात करना, उसे अच्छा लगता था. जबकि उस के पति को उस से बात करने की फुरसत ही नहीं थी. वे अपने काम में इतना उल?ो रहते थे कि पत्नी का अस्तित्व महज 2-4 कामों के लिए था.

उस के एक बार बुलाने पर राहुल का ?ाट से औनलाइन आ जाना, उस की हर बात को ध्यान से सुनना और उस की परवाह करना कुछ ऐसा था, जो उसे राहुल की ओर आकर्षित कर रहा था. तभी एक दिन जब उस ने मैसेज भेजा कि अगर मैं दिल्ली आऊं तो क्या तुम मु?ा से मिलोगी? तो उस ने इस बात को मान लिया था.

राहुल के साथ हुई तमाम चैटिंग को सोचतेसोचते निशा कब मैट्रो स्टेशन पहुंच गई

उसे पता ही नहीं चला. राहुल की बस एक ?ालक ही तो देखी थी उस ने नैट पर, कैसे पहचानेगी उसे वह इसी सोच में गुम थी कि अचानक एक 5 फुट 7 इंच का सांवला सा आदमी टोकन जमा कर के बाहर निकला. इस बात से बेखबर कि 2 अनजान निगाहें उसे घूर रही हैं और पहचानने की कोशिश कर रही हैं. उस ने एक बार उड़ती सी नजर निशा पर डाल कर नजरें फेर लीं. अचानक उसे लगा कि वही

2 निगाहें उसे घूर रही हैं. उस ने पलट कर देखा निशा अभी भी उसे घूर रही थी और हलकेहलके मुसकरा रही थी.

राहुल उसे एकटक देखता ही रह गया. निशा ने सफेद रंग का सूट पहना हुआ था, जो उस के गोरे रंग पर बहुत खिल रहा था और उस की लुभावनी मुसकान ने तो उस का दिल ही हर लिया. उस का मन हुआ कि एक बार उसे बांहों में ले कर एक किस ले ले. पर अपने को संभालते हुए निशा के नजदीक जा कर हलके से मुसकराते हुए बोला, ‘‘हाय, कैसी हो?’’

‘‘मैं ठीक हूं, तुम अपनी सुनाओ. आखिर तुम यहां तक आ ही गए मु?ा से मिलने,’’ निशा ने खुश होते हुए कहा.

‘‘क्या एक दोस्त अपने दोस्त को मिलने नहीं आ सकता?’’

‘‘हां, बगैर काम के,’’ निशा ने जैसे ही बोला दोनों खिलखिला कर हंस पड़े.

फिर राजीव चौक के 2 टोकन ले कर दोनों प्लेटफार्म की सीढि़यां चढ़ने लगे. एक अजीब सा डर खामोशी के रूप में दोनों के दिलोदिमाग पर छाया हुआ था. राहुल के मन में डर था कि कहीं निशा मु?ो किसी जुर्म में फंसा न दे, तो निशा को डर था कि आज कहीं कुछ ऐसा न हो जाए कि उसे अपने इस मिलने के फैसले पर पछताना पड़े.

मैट्रो आई तो दोनों उस पर चढ़ गए. राहुल को निशा की परेशानी का कुछकुछ आभास होने लगा था. उस ने माहौल की बो?िलता को कम करने के लिए पूछा, ‘‘छुट्टियां कैसी बीतीं? कहांकहां घूमीं? बच्चे कैसे हैं?’’

निशा ने चहकते हुए जवाब दिया, ‘‘छुट्टियों में बहुत मस्ती की. बच्चों ने भी नानी के घर खूब धमाचौकड़ी की.’’

अब दोनों थोड़ाथोड़ा सहज होने लगे थे और 20 मिनट में राजीव चौक पहुंच गए. वहां से बाहर निकले तो पास की ही एक बिल्डिंग के नजदीक पहुंचे. उस में राहुल को कुछ काम था.

‘‘मैं यहीं रुकती हूं, तुम अपना काम निबटा आओ,’’ निशा ने घबराते हुए कहा.

‘‘मैं इतना बुरा इंसान नहीं हूं,’’ फिर कुछ सोच कर वह बोला, ‘‘तुम साथ चलो, मैं तुम्हें यहां अकेला नहीं छोड़ सकता,’’ इतना कह कर उस ने उस का हाथ पकड़ा और लिफ्ट की तरफ बढ़ गया.

अगर लिफ्ट को कुछ हो गया तो क्या होगा? अगर यह बीच में रुक गई

तो? अगर मैं समय पर घर नहीं पहुंची तो घर वालों को क्या जवाब दूंगी? सोचसोच कर निशा डर रही थी और सोच रही थी कि न ही मिलने आती तो अच्छा था.

उस के चेहरे पर आतेजाते भाव पर राहुल की नजर थी. वह अपनी तरफ से उस का पूरा खयाल रख रहा था. खैर लिफ्ट कहीं रुकी नहीं और राहुल 10वें फ्लोर के एक औफिस में

अपना काम निबटाने चला गया. निशा बाहर लाउंज में बैठी रही. वहां से आने के बाद राहुल उसे एक फ्लैट पर ले गया, जो उस के दोस्त

का था. कमरे में एक बैड था और एक तरफ कुरसियां व 1 मेज रखी थी. एक तरफ छोटी गैस और 8-10 जरूरत भर की चीजें रखी हुई थीं रसोई के नाम पर.

निशा कुरसी पर बैठी तो राहुल उस के पास आ कर बैठ गया. फिर बाहर बारिश क्या तेज हुई, निशा के दिल की धड़कन भी तेज हो गई. एक अनजाना डर उस के दिल में घर कर गया. तभी अचानक राहुल ने निशा के हाथ पर अपना हाथ रख दिया, तो वह घबरा कर उठ गई.

‘‘रिलैक्स निशा, तुम यह बिलकुल मत सम?ाना कि मैं तुम्हें यहां कोई जोरजबरदस्ती करने के लिए लाया हूं. लोगों की भीड़ में तुम से बात नहीं कर पाता, इसलिए तुम्हें यहां ले आया. अगर तुम्हें कुछ गलत लगता है तो हम अभी बाहर चलते हैं.’’

वह कुछ जवाब नहीं दे पाई. उसे अपनेआप पर और अपने दोस्त पर विश्वास था जिस के चलते वह यहां तक उस के साथ आ गई थी.

‘‘चलो मैं तुम्हारे लिए अच्छी सी चाय बनाता हूं.’’

‘‘तुम्हें चाय बनानी आती है?’’ निशा ने हैरानी से पूछा.

‘‘हां भई, शादीशुदा हूं. बीवी ने थोड़ाबहुत तो सिखाया ही है,’’ वह कुछ इस अंदाज में बोला कि दोनों हंसे बिना न रह सके. अब वह कुछ सहज हो गई थी. बारिश अब रुक गई थी और धूप निकल आई थी. चाय पीतेपीते राहुल ने देखा कि सूरज की किरणें निशा के चेहरे पर पड़ रही थीं. उस ने फिर अपनी बीवी और बच्चे के बारे में बताया. बीवी के बारे में कहा कि वह एक अच्छी पत्नी और मां है. उस ने पूरे घर को अच्छे से संभाला हुआ है.

निशा ने भी अपने संयुक्त परिवार के बारे में बताया जहां की वह एक चहेती सदस्या है. सब उस से बहुत प्यार और उस पर विश्वास करते हैं.

बातों का सिलसिला थमा तो निशा ने राहुल को अपनी ओर देखते पाया.

वह घबरा कर उठ गई और बोली, ‘‘अब मु?ो चलना चाहिए.’’

राहुल ने उस का हाथ पकड़ कर आंखों में ?ांकते हुए कहा, ‘‘कुछ देर और नहीं रुक सकतीं?’’

‘‘3 बज गए हैं. बच्चे घर वापस आ गए होंगे और मेरा इंतजार कर रहे होंगे.’’

राहुल ने उसे फिर रुकने के लिए नहीं कहा. दोनों बातें करतेकरते कमरे से बाहर आ कर मैट्रो स्टेशन पहुंच गए और 2 टोकन सुभाष नगर के ले कर मैट्रो में चढ़ गए. अचानक मैट्रो एक ?ाटके से रुकी तो निशा संभलतेसंभलते भी राहुल की बांहों में आ गई. उस ने उसे संभालते हुए पूछा, ‘‘तुम ठीक हो?’’

‘‘हां,’’ उस ने ?ोंपते हुए कहा.

फिर उस ने निशा की आंखों में ?ांकते हुए कहा, ‘‘निशा, मैं तुम से कुछ कहना चाहता हूं. जब से मेरी तुम से दोस्ती हुई है कहीं मेरे मन में तुम्हें पाने की इच्छा पनपने लगी थी. पर तुम से मिल कर मु?ो आत्मग्लानि महसूस हो रही है कि मैं ने ऐसा सोचा भी कैसे? सूरज की किरणों ने मेरे दिल में छिपी सारी भावनाओं को भेद दिया. तुम एक सफेद गुलाब की तरह हो जो हर किसी को सचाई और पवित्रता का संदेश देता है. तुम्हें पा कर मैं उस का अस्तित्व नहीं मिटाना चाहता.’’

निशा ने उस से कहा, ‘‘कुदरत ने हम स्त्रियों को छठी इंद्रिय दी है, जो आदमी के मनसूबों से रूबरू करवाती है. मु?ो इस बात का आभास था. पर फिर भी मु?ो अपनेआप पर और तुम पर विश्वास था. तुम 100 फीसदी सही थे जब तुम ने कहा था कि मैं इतना बुरा इंसान नहीं हूं. तुम्हारा इस तरह अपनी बात कुबूल करना इस बात का प्रमाण है. हम अगर आज कुछ गलत करते तो वह हमारे पार्टनर के साथ धोखा होता.’’

‘‘शायद तुम्हें पाने की इच्छा मैं फिर न दबा पाऊं, इसलिए हम आज के बाद कभी नहीं मिलेंगे,’’ कह कर राहुल मैट्रो की सीढि़यां उतर कर हमेशा के लिए चला गया. न कोई आस न कोई करार. हां अपनी बात की एक अमिट छाप निशा के दिलोदिमाग पर छोड़ गया. जिस मैट्रो स्टेशन से यह कहानी शुरू हुई थी वहीं आ कर खत्म हो गई.

रिश्ता: माया को अर्जुन का साथ मिला क्या

रात  के ढाई बजे हैं. मैं जानती हूं आज नींद नहीं आएगी. बैड से उठ कर चेयर पर बैठ गई और बैड पर नजर डाली. राकेश आराम से सोए हैं. कभीकभी सोचती हूं यह व्यक्ति कैसे जीवन भर इतना निश्चिंत रहा? सब कुछ सुचारु रूप से चलते जाना ही जीवन नहीं है. खिड़की से बाहर दूर चमकती स्ट्रीट लाइट पर उड़ते कुछ कीड़े, शांत पड़ी सड़क और हलकी सी धुंध नजर आती है जो फरवरी माह के इस समय कम ही देखने को मिलती है.

अचानक जिस्म में हलचल होने लगी. ड्रैसिंग रूम में आईने के सामने गाउन उतार कर खड़ा होना अब भी अच्छा लगता है. अपने शरीर को किसी भी युवती की ईर्ष्या के लायक महसूस करते ही अंतर्मन में छिपे गर्व का एहसास चेहरे छा गया. कसी हुई त्वचा, सुडौल उन्नत वक्ष, गहरी कटावदार कमर, सपाट उभार लिए कसा हुआ पेट, चिकनी चमकदार मांसल जांघें, सुडौल नितंब, दमकता गुलाबी रंग और चेहरे पर गहराई में डुबोने वाली हलकी भूरी आंखें, यही तो खूबियां हैं मेरी.

अचानक अर्जुन के कहे शब्द याद आने से चेहरे पर मुसकान कौंधी फिर लाचारी का एहसास होने लगा. सच मैं उस के साथ कितना रह सकती  हूं.

अर्जुन ने कहा था, ‘‘रिश्ते आप के जीवन में पेड़पौधों से आते हैं. जिन में से कुछ पहले से होते हैं, कुछ अंत तक आप के साथ चलते हैं, तो कुछ मौसमी फूलों की तरह बहुत खूबसूरत तो होते हैं, लेकिन सिर्फ एक मौसम के लिए.’’

‘‘और तुम कौन सा पेड़ हो मेरे जीवन में,’’ मैं ने मुसकरा कर उसे छेड़ा था.

‘‘मु झे गन्ना समझिए. एक बार लगा है तो 3 साल काम आएगा.’’

‘‘फिर जोर से हंसे थे हम. अर्जुन बड़ा हाजिरजवाब था. उस का ऐसा होना उस की बातों में अकसर  झलक जाता था. 3 साल से उस का मतलब हमारे 3 साल बाद वापस लुधियाना जाने से था.

अर्जुन कैसे धीरेधीरे दिमाग पर छाता चला गया पता ही न चला. मिला भी अचानक ही था, पाखी की बर्थडे पार्टी में. वहां की भीड़ और म्यूजिक का शोर थका देने वाला था. मैं साइड में लगे सोफे पर बैठ गई थी. कुछ संयत होने पर बगल में नजर गई तो देखा पार्टी से बिलकुल अलग लगभग 24-25 वर्ष का आकर्षक युवक आंखें बंद किए और पीछे सिर टिकाए आराम से सो रहा था.

तभी दीपिका आ कर बोली, ‘‘थक गईं दीदी?’’ फिर उस की नजर सोए उस युवक पर गई, तो वह बोली, ‘‘तुम यहां सोने आए हो…’’ फिर उस ने उस का चेहरा अपने एक हाथ में पकड़ जोर से हिला दिया.

‘‘ओ भाभी, मैं तो बस आंखें बंद किए बैठा था,’’ कह कर वह मुसकराया फिर हंस पड़ा.

‘‘मीट माया दीदी, अभी इन के हसबैंड ट्रांसफर हो कर यहां आए हैं और दीदी ये है अर्जुन रोहित का फ्रैंड,’’ दीपिका ने परिचय कराया था.

‘‘लेकिन रोहित के हमउम्र तो ये लगते नहीं,’’ मैं ने कहा.

‘‘रोहित से 8 साल छोटा है, लेकिन उस का बेहतरीन फ्रैंड और सब का फैं्रड है,’’ फिर बोली, ‘‘अर्जुन दीदी का खयाल रखना.’’

‘‘अरे मु झे यहां से कोई उठा कर ले जाने वाला है, पर क्या?’’ मैं ने दीपिका से कहा.

मैं इसे आप को कंपनी देने के लिए कह रही हूं,’’ कह कर दीपिका मुसकराई फिर बाकी गैस्ट्स को इंटरटैन करने के लिए चली गई. मैं ने अर्जुन की ओर देखा, वह दोबारा सो गया था.

राकेश का ट्रांसफर लुधियाना से हम यहां होने पर मेरठ आए थे. दीपिका के इसी शहर में होने से यहां आनाजाना तो बना ही रहा था, लेकिन व्यवस्थित होने के बाद अकेलापन सालने लगा था. पल्लवी कितनी जल्दी बड़ी हो गई थी. वह इसी साल रोहतक मैडिकल कालेज में ऐडमिशन होने से वहीं चली गई थी.

गाउन पहन मैं वापस कमरे में आ कर चेयर पर आ बैठ गई. बैड पर सिमटे हुए राकेश को देख कर लगता है कितना सरल है जीवन. यदि राकेश की जगह अर्जुन बैड पर होता तो लगता जीवन कितना स्वच्छंद और गतिशील है.

अर्जुन दूसरी बार भी दीपिका के घर पर ही मिला था. वह डिनर के वक्त एक बहुत ही क्यूट छोटा व्हाइट डौगी गोद में लिए अचानक चला आया था. आ कर उस ने डौगी पाखी की गोद में रख दिया. इतना प्यारा डौगी देख पाखी और राघव तो बहुत खुश हो गए थे.

‘‘इसे कहां से उठा लाए तुम?’’ दीपिका ने पूछा.

‘‘पाखी, राघव बहुत दिनों से कह रहे थे, अब मिला तो ले आया.’’

‘‘मुझे से भी तो पूछना चाहिए था,’’ दीपिका ने प्रतिवाद किया

‘‘मुझे ऐसा नहीं लगा,’’ अर्जुन ने मुसकरा कर कहा.

‘‘रोहित यह लड़का…सम झाओ इसे, डौगी वापस ले कर जाए.’’

‘‘तुम भी जानती हो डौगी यहीं रहने वाला है, इसे प्यार से ऐक्सैप्ट करो,’’ रोहित ने कहा.

फिर सभी डिनर टेबल पर आ गए.

‘‘अर्जुन, तुम राकेश से मिले नहीं शायद. यह शास्त्रीनगर ब्रांच में ब्रांच मैनेजर हो कर पिछले महीने ही मेरठ आए हैं और भाईसाब यह अर्जुन है,’’ रोहित ने परिचय कराया, अर्जुन ने खामोशी से हाथ जोड़ दिए.

‘‘आप क्या करते हैं?’’ राकेश ने उत्सुकता से पूछा था.

‘‘जी कुछ नहीं.’’

‘‘मतलब, पढ़ाई कर रहे हो?’’ आवाज से सम्मान गायब हो गया था.

‘‘इसी साल पीएच.डी. अवार्ड हुई है.’’

‘‘अच्छा अब लैक्चरर बनोगे,’’

‘‘जी नहीं…’’

तभी बीच में रोहित बोल पड़ा, ‘‘भाईसाहब यह अभी भी आप के मतलब का आदमी है. इस के गांव में आम के 3 बाग, खेत, शहर में दुकानों और होस्टल कुल मिला कर ढाईतीन लाख रुपए का मंथली ट्रांजैक्शन है, जिसे इस के पापा देखते हैं इन का सीए मैं ही हूं.’’

‘‘गुड, इन का अकाउंट हमारे यहां कराओ, राकेश चहका.’’

‘‘कह दूंगा इस के पापा से,’’ रोहित ने कहा.

‘‘हमारे घर आओ कभी,’’ राकेश ने अर्जुन से कहा.

‘‘जी.’’

‘‘यह डिफैंस कालोनी में अकेला रहता है,’’ दीपिका ने कहा फिर अर्जुन से बोली, ‘‘तुम दीदी को बाहर आनेजाने में हैल्प किया करो. रक्षापुरम में घर लिया है इन्होंने.’’

‘‘जी.’’

मुझे बाद में पता चला था शब्दों का कंजूस अर्जुन शब्दों का कितना सटीक प्रयोग जानता है. रात के 3 बजे हैं. सब कुछ शांत है. ऐसा लग रहा है जैसे कभी टूटेगा ही नहीं. बांहों के रोम उभर आए हैं. उन पर हथेलियां फिराना भला लग रहा है. अगर यही हथेलियां अर्जुन की होतीं तो उष्णता होती इन में, शायद पूरे शरीर को  झुलसा देने वाली. हमेशा ही तो ऐसा लगता रहा, जब कभी अर्जुन की उंगलियां जिस्म में धंसी होती थीं तब कितना मायावी हो जाता था. सच में सभी पुरुष एक से नहीं होते. तनमन, यौवन सभी तो, फर्क होता है और उस से भी अधिक फर्क इन तीनों के संयोजन और नियत्रंण में होता है.

किशोरावस्था से ही देखती आई हूं पुरुषों की कामनाओं और अभिव्यक्तियों के वैविध्य को. समय से हारते अपने प्यार सचिन की लाचारी आज तक याद है. उस रोमानियत में बहते न उस ने न कभी मैं ने ही सोचा था कि अचानक खुमार ऐसे टूट आएगा. अभी ग्रैजुएशन का सैकंड ईयर चल ही रहा था कि मां को मेरी सुरक्षा मेरे विवाह में ही नजर आई. कितना बड़ा विश्वास टूटा था हम सब का. डैड की जाफना में हुई शहादत के बाद अपने भाइयों का ही तो सहारा था मां को. उन्हीं के भरोसे वे अपनी दोनों बेटियों के साथ देहरादून छोड़ सहारनपुर आ कर अपने मायके में रहने लगी थीं. सब कुछ ठीक चला. नानानानी और तीनों मामाओं के भरोसे हमारा जीवन पटरी पर लौटा था, लेकिन फिर भयावाह हो कर खंडित हो गया.

मां दीपिका को ले कर चाचाजी के घर गई थीं जबकि गरमी के उन दिनों अपने ऐग्जाम्स के कारण मैं नहीं जा सकी थी, इसलिए नानाजी के घर पर थी. नानानानी 3 मामाओं और 3 मामियों व बच्चों  वाला उन का बड़ा सा घर मु झे भीड़भाड़ वाला तो लगता था, लेकिन अच्छा भी लगता था. लेकिन वहां एक दिन अचानक मेरे साथ एक घटना घटी. उस दिन मेरे रूम से अटैच बाथरूम की सिटकनी टूटी हुई मिली. इस पर ध्यान न दे कर मैं नहाने लगी, क्योंकि उस बाथरूम में मेरे सिवा कोई जाता नहीं था.

वहां अचानक जब दरवाजा खोल कर म झले मामा को नंगधडंग आ कर अपने से लिपटा पापा तो भय से चीख उठी थी मैं. मेरे जोर से चीखने से मामा भाग गए तो उस दिन मेरी जान बच गई, लेकिन मां के वापस लौटने पर जब मैं ने उन्हें यह बात बताई तो मां को अपनी असहाय स्थिति का भय दिनरात सालने लगा.

परिणाम यह हुआ कि हम ने दोबारा देहरादून शिफ्ट किया, लेकिन मां ने उसी वर्ष मेरी शादी में मेरी सुरक्षा ढूंढ़ ली जबकि दीपिका अभी बहुत छोटी थी.

राकेश अच्छे किंतु साधारण व्यक्ति हैं, काम और सान्निध्य ही इन के लिए अहम रहा. मानसिक स्तर पर न इन में उद्वेग था न ही मैं ने कभी कोई अभिलाषा दिखाई. पल्लवी के जन्म के बाद मेरा

जीवन पूरी तरह से उस पर केंद्रित हो गया था. राकेश के लिए बहुत खुशी की बात यह थी कि उन की पत्नी ग्रेसफुली घर चलाती है बच्चे को देखती है और नानुकर किए बिना शरीर सौंप देती है. कभी सोचती हूं तो लगता है यही जीवन तो सब जी रहे हैं, इस में गलती कहां है.

धीरेधीरे पहचान बढ़ने पर मैं ने ही अर्जुन को घर बुलाना शुरू किया था. तब मु झे ड्राइविंग नहीं आती थी और सभी मार्केट यहां से बहुत दूर हैं. बिना कार ऐसी कालोनी में रहना दूभर होता है. कुछ भी तो नहीं मिलता आसपास. ऐसे में अर्जुन बड़ा मददगार लगा. वह अकसर मु झे मार्केट ले जाता था. मु झे दिन भर अर्जुन के साथ रहना और घूमना सब कुछ जीवन के भले पलों की तरह कटता रहा. शादी के बाद पहली बार कोई लड़का इतना निकट हुआ था, जीवन में आए एकमात्र मित्र सा.

फिर सहसा ही वह पुरुष में परिवर्तित हो गया. कार चलाना सिखाते हुए अचानक ही कहा था उस ने काश आप को चलाना

कभी न आए हमेशा ऐसे ही सीखती रहें. आप को छूना बहुत अच्छा लगता है.’’

दहल गई थी मैं, ‘‘पागल

हो गए हो?’’ खुद को संयत

रखने का प्रयास करते हुए मैं ने प्रतिवाद किया.

इन 4 महीनों में उस का व्यवहार कुछ तो सम झ आने लगा था. मैं ने जान लिया कि वह वही कह रहा था, जो उस के मन में था. मैं ने कार को वापस घर की ओर मोड़ दिया. असहजता बढ़ने लगी थी. अर्जुन वैसा ही शांत बैठा था. मैं बहुत कुछ कहना चाहती थी उस से होंठ खुल ही नहीं पाए.

‘‘आउट,’’ घर पहुंचने पर कार रोक कर मैं क्रोध से बोली.

वह खामोशी से उतरा और चला गया. मैं चाहती थी वह सौरी बोले कुछ सफाई दे, लेकिन वह चुपचाप चला गया. उस के इस तरह जाने ने मुझे  झक झोर दिया. बाद में घंटों उस का नंबर डायल करती रही, लेकिन फोन नहीं उठाया.

अगले दिन मैं उस के घर पहुंच गई, लेकिन गेट पर ताला लगा था. फोन अब भी नहीं उठ रहा था. दीपिका से उस के बारे

में पता करने का प्रयास किया तो पता चला वह कल से फोन ही नहीं उठा रहा है. धीमे कदमों से घर पहुंची. गेट के सामने अर्जुन को खड़ा पाया. दिल हुआ कि एक चांटा खींच कर मारूं इस को, लेकिन वह हमेशा की तरह शांत शब्दों में बोला, ‘‘कल मोबाइल आप की कार की सीट पर पड़ा रह गया था.’’

‘‘ओह गौड…मैं ने सिर पकड़ लिया.’’

फिर 3 साल जैसे प्रकाश गति से निकल चले. उस दिन जब घर में अर्जुन ने मु झे पहली बार बांहों में लिया था तब एहसास हुआ था कि शरीर सैक्स के लिए भी बना है. कितना बेबाक स्पर्श था उस का. अपने चेहरे पर उस के होंठ

अनुभव करती मैं नवयौवना सी कांप उठी थी. उस की उंगलियों की हरकतें, मैं ने कितने सुख से अपने को सौंप दिया उसे. उस के वस्त्र उतारते हाथ प्रिय लगे. पूर्ण निर्वस्त्र उस की बांहों में सिमट कर एहसास हुआ था कि अभी तक मैं कभी राकेश के सामने भी वस्त्रहीन नहीं हुई थी. अर्जुन एक सुखद अनुभव सा जीवन में आया था. उस के साथ बने रिश्ते ने जीवन को नया उद्देश्य, नई सम झ दी थी. अब जीवन को सच झूठ, सहीगलत, पापपुण्य से अलग अनुभव करना आ गया था.

3 साल बीत गए ट्रांसफर ड्यू था सो राकेश ने वापस ट्रांसफर लुधियाना करवा लिया. सामान्य हालात में यह खुशी का क्षण होता, लेकिन अब जैसे बहती नदी अचानक रोक दी गई थी. जानती हूं सदा तो अर्जुन के साथ नहीं रह सकती. परिवार और समाज का बंधन जो है. सोचती रही कि

अर्जुन कैसे रिएक्ट करेगा, इसलिए एक हफ्ते यह बात दबाए रही, लेकिन कल शाम तो उसे बताना ही पड़ा. मौन, सिर  झुकाए वह चला गया बिना कुछ कहे, बिना कोई एहसास छोड़े.

सुबह 8 बजे जाना है, 4 बज चुके हैं. आंखों में नींद नहीं, राकेश पहले की  तरह सुख से सोए हैं. अचानक मोबाइल में बीप की आवाज. नोटिफिकेशन है अर्जुन के ब्लौग पर नई पोस्ट जो एक कविता है:

मोड़ से पहले

जहां गुलदाउदी के फूल हैं,

लहू की कुछ बूंदें

चमक रही हैं.

माली ने शायद

उंगली काट ली हो.

जब निकलोगी सुबह

रुक कर देखना,

क्या धूप में रक्त

7 रंग देता है.

नहीं तो जीवन

इंद्रधनुषी कैसे हो गया.

जब जाने लगो

देखना माली के हाथों पर,

सूखे पपड़ाए जख्म मिलेंगे

रुकना मत.

जीवन साथ लिए

जीवन सी ही निकल जाना.

मोड़ से पहले

जहां गुलदाउदी के फूल हैं ,

कुछ खत्म हुआ है

तुम्हारे सपनों सा.

पर मैं सदा ही

जीवित रहूंगा तुम्हारे

सपनों में.

पंछी एक डाल के: रजत का फोन देख कर सीमा क्यों चौंक पड़ी?

‘‘नहीं, नहाने जा रही हूं. इतनी जल्दी फोन? सब ठीक है न?’’

‘‘हां, गुडफ्राईडे की छुट्टी का फायदा उठा कर घर चलते हैं. बृहस्पतिवार की शाम को 6 बजे के बाद की किसी ट्रेन में आरक्षण करवा लूं?’’

‘‘लेकिन 6 बजे निकलने पर रात को फिरोजाबाद कैसे जाएंगे?’’

‘‘रात आगरा के बढि़या होटल में गुजार कर अगली सुबह घर चलेंगे.’’

‘‘घर पर क्या बताएंगे कि इतनी सुबह किस गाड़ी से पहुंचे?’’ सीमा हंसी.

‘‘मौजमस्ती की रात के बाद सुबह जल्दी कौन उठेगा सीमा, फिर बढि़या होटल के बाथरूम में टब भी तो होगा. जी भर कर नहाने का मजा लेंगे और फिर नाश्ता कर के फिरोजाबाद चल देंगे. तो आरक्षण करवा लूं?’’

‘‘हां,’’ सीमा ने पुलक कर कहा.

होटल के बाथरूम के टब में नहाने के बारे में सोचसोच कर सीमा अजीब सी सिहरन से रोमांचित होती रही.

औफिस के लिए सीढि़यां उतरते ही मकानमालिक हरदीप सिंह की आवाज सुनाई पड़ी. वे कुछ लोगों को हिदायतें दे रहे थे. वह भूल ही गई थी कि हरदीप सिंह कोठी में रंगरोगन करवा रहे हैं और उन्होंने उस से पूछ कर ही गुडफ्राईडे को उस के कमरे में सफेदी करवाने की व्यवस्था करवाई हुई थी. हरदीप सिंह सेवानिवृत्त फौजी अफसर थे. कायदेकानून और अनुशासन का पालन करने वाले. उन का बनाया कार्यक्रम बदलने को कह कर सीमा उन्हें नाराज नहीं कर सकती थी.

सीमा ने सिंह दंपती से कार्यक्रम बदलने को कहने के बजाय रजत को मना करना बेहतर सम  झा. बाथरूम के टब की प्रस्तावना थी तो बहुत लुभावनी, अब तक साथ लेट कर चंद्र स्नान और सूर्य स्नान ही किया था. अब जल स्नान भी हो जाता, लेकिन वह मजा फिलहाल टालना जरूरी था.

सीमा और रजत फिरोजाबाद के रहने वाले थे. रजत उस की भाभी का चचेरा भाई था और दिल्ली में नौकरी करता था. सीमा को दिल्ली में नौकरी मिलने पर मम्मीपापा की सहमति से भैयाभाभी ने उसे सीमा का अभिभावक बना दिया था. रजत ने उन से तो कहा था कि वह शाम को अपने बैंक की विभागीय परीक्षा की तैयारी करता है. अत: सीमा को अधिक समय नहीं दे पाएगा, लेकिन असल में फुरसत का अधिकांश समय वह उसी के साथ गुजारता था. छुट्टियों में सीमा को घर ले कर आना तो खैर उसी की जिम्मेदारी थी. दोनों कब एकदूसरे के इतने नजदीक आ गए कि कोई दूरी नहीं रही, दोनों को ही पता नहीं चला. न कोई रोकटोक थी और न ही अभी घर वालों की ओर से शादी का दबाव. अत: दोनों आजादी का भरपूर मजा उठा रहे थे.

सीमा के सु  झाव पर रजत ने शाम को एमबीए का कोर्स जौइन कर लिया था.

कुछ रोज पहले एक स्टोर में एक युवकयुवती को ढेर सारा सामान खरीदते देख कर सीमा ने कहा था, ‘‘लगता है नई गृहस्थी जमा रहे हैं.’’

‘‘लग तो यही रहा है. न जाने अपनी गृहस्थी कब बसेगी?’’ रजत ने आह भर कर कहा.

‘‘एमबीए कर लो, फिर बसा लेना.’’

‘‘यही ठीक रहेगा. कुछ ही महीने तो और हैं.’’

सीमा ने चिंहुक कर उस की ओर देखा. रजत गंभीर लग रहा था. सीमा ने सोचा कि इस बार घर जाने पर जब मां उस की शादी का विषय छेड़ेंगी तो वह बता देगी कि उसे रजत पसंद है.

औफिस पहुंचते ही उस ने रजत को फोन कर के अपनी परेशानी बताई.

‘‘ठीक है, मैं अकेला ही चला जाता हूं.’’

‘‘तुम्हारा जाना जरूरी है क्या?’’

‘‘यहां रह कर भी क्या करूंगा? तुम तो घर की साफसफाई करवाने में व्यस्त हो जाओगी.’’

‘‘ठीक है,’’ कह सीमा ने मम्मी को फोन कर बता दिया कि रंगरोगन करवाने की वजह से वह रजत के साथ नहीं आ रही.

रविवार की शाम को कमरा सजा कर सीमा रजत का इंतजार करने लगी. लेकिन यह सब करने में इतनी थक गई थी कि कब आंख लग गई, पता ही नहीं चला. रजत सोमवार की शाम तक भी नहीं आया और न ही उस ने फोन किया. रात को मम्मी का फोन आया. उन्होंने बताया, ‘‘रजत यहां आया ही नहीं, मथुरा में सुमन के घर है. उस के घर वाले भी वहीं चले गए हैं.’’

सुमन रजत की बड़ी बहन थी. सीमा से भी मथुरा आने को कहती रहती थी. ‘अब इस बार रजत घर नहीं गया है. अत: कुछ दिन बाद महावीर जयंती पर जरूर घर चलना मान जाएगा,’ सोच सीमा ने कलैंडर देखा, तो पाया कि महावीर जयंती भी शुक्रवार को ही पड़ रही है.

लेकिन कुछ देर के बाद ही पापा का फोन आ गया. बोले, ‘‘तेरी मम्मी कह रही है कि तू ने कमरा बड़ा अच्छा सजाया है. अत: महावीर जयंती की छुट्टी पर तू यहां मत आ, हम तेरा कमरा देखने आ जाते हैं.’’

‘‘अरे वाह, जरूर आइए पापा,’’ उस ने चिंहुक कर कह तो दिया पर फिर जब दोबारा कलैंडर देखा तो कोई और लंबा सप्ताहांत न पा कर उदास हो गई.

अगले दिन सीमा के औफिस से लौटने के कुछ देर बाद ही रजत आ गया. बहुत खुश लग रहा था, बोला, ‘‘पहले मिठाई खाओ, फिर चाय बनाना.’’

‘‘किस खुशी में?’’ सीमा ने मिठाई का डब्बा खोलते हुए पूछा.

‘‘मेरी शादी तय होने की खुशी में,’’ रजत ने पलंग पर पसरते हुए कहा, ‘‘जब मैं ने मम्मी को बताया कि मैं बस से आ रहा हूं, तो उन्होंने कहा कि फिर मथुरा में ही रुक जा, हम लोग भी वहीं आ जाते हैं. बात तो जीजाजी ने अपने दोस्त की बहन से पहले ही चला रखी थी, मुलाकात करवानी थी. वह करवा कर रोका भी करवा दिया. मंजरी भी जीजाजी और अपने भाई के विभाग में ही मथुरा रिफायनरी में जूनियर इंजीनियर है. शादी के बाद उसे रिफायनरी के टाउनशिप में मकान भी मिल जाएगा और टाउनशिप में अपने बैंक की जो शाखा है उस में मेरी भी बड़ी आसानी से बदली हो जाएगी. आज सुबह यही पता करने…’’

‘‘बड़े खुश लग रहे हो,’’ किसी तरह स्वर को संयत करते हुए सीमा ने बात काटी.

‘‘खुश होने वाली बात तो है ही सीमा, एक तो सुंदरसुशील, पढ़ीलिखी लड़की, दूसरे मथुरा में घर के नजदीक रहने का संयोग. कुछ साल छोटे शहर में रह कर पैसा जोड़ कर फिर महानगर में आने की सोचेंगे. ठीक है न?’’

‘‘यह सब सोचते हुए तुम ने मेरे बारे में भी सोचा कि जो तुम मेरे साथ करोगे या अब तक करते रहे हो वह ठीक है या नहीं?’’ सीमा ने उत्तेजित स्वर में पूछा.

‘‘तुम्हारे साथ जो भी करता रहा हूं तुम्हारी सहमति से…’’

‘‘और शादी किस की सहमति से कर रहे हो?’’ सीमा ने फिर बात काटी.

‘‘जिस से शादी कर रहा हूं उस की

सहमति से,’’ रजत ने बड़ी सादगी से कहा, ‘‘तुम्हारे और मेरे बीच में शादी को ले कर कोई वादा या बात कभी नहीं हुई सीमा. न हम ने

कभी भविष्य के सपने देखे. देख भी नहीं

सकते थे, क्योंकि हम सिर्फ अच्छे पार्टनर हैं, प्रेमीप्रेमिका नहीं.’’

‘‘यह तुम अब कह रहे हो. इतने उन्मुक्त दिन और रातें मेरे साथ बिताने के बाद?’’

‘‘बगैर साथ जीनेमरने के वादों के… असल में यह सब उन में होता है सीमा, जिन में प्यार होता है और वह तो हम दोनों में है ही नहीं?’’ रजत ने उस की आंखों में देखा.

सीमा उन नजरों की ताब न सह सकी. बोली, ‘‘यह तुम कैसे कह सकते हो, खासकर मेरे लिए?’’

रजत ठहाका लगा कर हंसा. फिर बोला, ‘‘इसलिए कह सकता हूं सीमा कि

अगर तुम्हें मु  झ से प्यार होता न तो तुम पिछले 4 दिनों में न जाने कितनी बार मु  झे फोन कर चुकी होतीं और मेरे रविवार को न आने के बाद से तो मारे फिक्र के बेहाल हो गई होतीं… मैं भी तुम्हें रंगरोगन वाले मजदूरों से अकेले निबटने को छोड़ कर नहीं जाता.’’

रजत जो कह रहा था उसे   झुठलाया नहीं जा सकता था. फिर भी वह बोली, ‘‘मेरे

बारे में सोचा कि मेरा क्या होगा?’’

‘‘तुम्हारे घर वालों ने बुलाया तो है महावीर जयंती पर गुड़गांव के सौफ्टवेयर इंजीनियर को तुम से मिलने को… तुम्हारी भाभी ने फोन पर बताया कि लड़के वालों को जल्दी है… तुम्हारी शादी मेरी शादी से पहले ही हो जाएगी.’’

‘‘शादी वह भी लिव इन रिलेशनशिप में रहने वाली लड़की के साथ? मैं लड़की हूं रजत… कौन करेगा मु  झ से शादी?’’

‘‘यह 50-60 के दशक की फिल्मों के डायलौग बोलने की जरूरत नहीं है सीमा,’’ रजत

उठ खड़ा हुआ, ‘‘आजकल प्राय: सभी का ऐसा अतीत होता है… कोई किसी से कुछ नहीं पूछता. फिर भी अपना कौमार्य सिद्ध करने के लिए उस समय अपने बढ़े हुए नाखूनों से खरोंच कर थोड़ा सा खून निकाल लेना, सब ठीक हो जाएगा,’’ और बगैर मुड़ कर देखे रजत चला गया.

रजत का यह कहना तो ठीक था कि उन

में प्रेमीप्रेमिका जैसा लगाव नहीं था, लेकिन उस ने तो मन ही मन रजत को पति मान लिया था. उस के साथ स्वच्छंदता से जीना उस की सम  झ

में अनैतिकता नहीं थी. लेकिन किसी और से शादी करना तो उस व्यक्ति के साथ धोखा होगा और फिर सचाई बताने की हिम्मत भी उस में नहीं थी, क्योंकि नकारे जाने पर जलालत   झेलनी पड़ेगी और स्वीकृत होने पर जीवन भर उस व्यक्ति की सहृदयता के भार तले दबे रहना पड़ेगा.

अच्छा कमा रही थी, इसलिए शादी के लिए मना कर सकती थी, लेकिन रजत के सहचर्य के बाद नितांत अकेले रहने की कल्पना भी असहनीय थी तो फिर क्या करे? वैसे तो सब सांसारिक सुख भोग लिए हैं तो क्यों न आत्महत्या कर ले या किसी आश्रमवाश्रम में रहने चली जाए? लेकिन जो भी करना होगा शांति से सोचसम  झ कर.

उस की चार्टर्ड बस एक मनन आश्रम के पास से गुजरा करती थी. एक दिन उस ने अपने से अगली सीट पर बैठी महिला को कहते सुना था कि वह जब भी परेशान होती है मैडिटेशन के लिए इस आश्रम में चली जाती है. वहां शांति से मनन करने के बाद समस्या का हल मिल जाता है. अत: सीमा ने सोचा कि आज वैसे भी काम में मन नहीं लगेगा तो क्यों न वह भी उस आश्रम चली जाए. आश्रम के मनोरम उद्यान में बहुत भीड़ थी. युवा, अधेड़ और वृद्ध सभी लोग मुख्यद्वार खुलने का इंतजार कर रहे थे. सीमा के आगे एक प्रौढ दंपती बैठे थे.

‘‘हमारे जैसे लोगों के लिए तो ठीक है, लेकिन यह युवा पीढ़ी यहां कैसे आने लगी है?’’ महिला ने टिप्पणी की.

‘‘युवा पीढ़ी को हमारे से ज्यादा समस्याएं हैं, पढ़ाई की, नौकरी की, रहनेखाने की. फिर शादी के बाद तलाक की,’’ पुरुष ने उत्तर दिया.

‘‘लिव इन रिलेशनशिप क्यों भूल रहे हो?’’

‘‘लिव इन रिलेशनशिप जल्दबाजी में की गई शादी, उस से भी ज्यादा जल्दबाजी में पैदा किया गया बच्चा और फिर तलाक से कहीं बेहतर है. कम से कम एक नन्ही जान की जिंदगी तो खराब नहीं होती? शायद इसीलिए इसे कानूनन मान्यता भी मिल गई है,’’ पुरुष ने जिरह की, ‘‘तुम्हारी नजरों में तो लिव इन रिलेशनशिप में यही बुराई है न कि यह 2 लोगों का निजी सम  झौता है, जिस का ऐलान किसी समारोह में नहीं किया जाता.’’

जब लोगों को विधवा, विधुर या परित्यक्तों से विवाह करने में ऐतराज नहीं होता तो फिर लिव इन रिलेशनशिप वालों से क्यों होता है?

तभी मुख्यद्वार खुल गया और सभी उठ कर अंदर जाने लगे. सीमा लाइन में लगने के बजाय बाहर आ गई. उसे अपनी समस्या का हल मिल गया था कि वह उस गुड़गांव वाले को अपना अतीत बता देगी. फिर क्या करना है, उस के जवाब के बाद सोचेगी. कार्यक्रम के अनुसार मम्मीपापा आ गए. उसी शाम को उन्होंने सौफ्टवेयर इंजीनियर सौरभ और उस के मातापिता को बुला लिया.

‘‘आप से फोन पर तो कई महीनों से बात हो रही थी, लेकिन मुलाकात का संयोग आज बना है,’’ सौरभ के पिता ने कहा.

‘‘आप को चंडीगढ़ से बुलाना और खुद फिरोजाबाद से आना आलस के मारे टल रहा था लेकिन अब मेरे बेटे का साला रजत जो दिल्ली में सीमा का अभिभावक है, यहां से जा रहा है, तो हम ने सोचा कि जल्दी से सीमा की शादी कर दें. लड़की को बगैर किसी के भरोसे तो नहीं छोड़ सकते,’’ सीमा के पापा ने कहा.

सौरभ के मातापिता एकदूसरे की ओर देख कर मुसकराए फिर सौरभ की मम्मी हंसते हुए बोलीं, ‘‘यह तो हमारी कहानी आप की जबानी हो गई. सौरभ भी दूर के रिश्ते की कजिन वंदना के साथ अपार्टमैंट शेयर करता था, इसलिए हमें भी इस के खानेपीने की चिंता नहीं थी. मगर अब वंदना अमेरिका जा रही है. इसे अकेले रहना होगा तो इस की दालरोटी का जुगाड़ करने हम भी दौड़ पड़े.’’

कुछ देर के बाद बड़ों के कहने पर दोनों बाहर छत पर आ गए.

‘‘बड़ों को तो खैर कोई शक नहीं है, लेकिन मु  झे लगता है कि हम दोनों एक ही मृगमरीचिका में भटक रहे थे…’’

‘‘इसीलिए हमें चाहिए कि बगैर एकदूसरे के अतीत को कुरेदे हम इस बात को यहीं खत्म कर दें,’’ सीमा ने सौरभ की बात काटी.

‘‘अतीत के बारे में तो बात यहीं खत्म कर देते हैं, लेकिन स्थायी नीड़ का निर्माण मिल कर करेंगे,’’ सौरभ मुसकराया.

‘‘भटके हुए ही सही, लेकिन हैं तो हम पंछी एक ही डाल के,’’ सीमा भी प्रस्ताव के इस अनूठे ढंग पर मुसकरा दी.

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