भाभी हमारे यहां ऐसे ही होता है

निधिकी शादी को 5 वर्ष हो चुके थे. सासससुर और पति नितिन के साथ उस ने बेहतर सामंजस्य बैठा लिया था, लेकिन उस की नकचढ़ी ननद निकिता अब भी मानती नहीं थी कि निधि उन के घर की परंपरा को निभा पा रही है.

अकसर निकिता किसी न किसी बात पर मुंह बना कर बोल ही देती, ‘‘भाभी, हमारे यहां ऐसा ही होता है.’’

उस की यही बात निधि को चुभती थी. शुरूशुरू में अपने कमरे में जा कर रोती भी थी. पति नितिन को भी बताया तो उन्होंने भी यह कह कर टाल दिया, ‘‘उस की बात को दिल से मत लगाओ, घर में सब से छोटी है, सब की प्यारी होने से थोड़ी मुंहफट हो गई है. अनसुना कर

दिया करो.’’

निधि को सम झ नहीं आता कि कोई उसे कुछ कहता क्यों नहीं है. क्या उसे दूसरे घर नहीं जाना है. परंतु सब ऐसे ही चलता रहा. न निधि ने बुरा मानना छोड़ा न ही निकिता ने उसे घर के रिवाज सिखाना.

आज निधि का बेटा पहली बार अपने स्कूल जा रहा था. सभी ऐसे उत्साहित थे जैसे कोई त्योहार हो. निधि ने उसे स्कूल यूनिफौर्म पहना कर तैयार कर दिया. उस के बाल कंघी कर रही थी तभी निकिता कटोरी में कुछ ले कर आई और चम्मच से उसे खिलाने लगी. धु्रव नानुकर कर रहा था. निधि ने भी बोल दिया, ‘‘दीदी बच्चा है, नहीं मन है उस का, स्कूल से आ कर खा लेगा.’’

निकिता तुनक गई, ‘‘भाभी, हमारे यहां ऐसा ही होता है. जब कोई पहली बार घर से बाहर किसी काम के लिए जाता है, मीठा दही खा कर ही जाता है.’’

निधि कुछ बोलती उस से पहले ही नितिन ने आ कर धु्रव को गोद में उठा लिया और अपनी उंगली में लगा कर मीठा दही उस के होंठों पर लगा दिया, ‘‘स्कूल को लेट हो रहा है,’’ कह कर धु्रव को ले कर चला गया.

निधि अपने कमरे में चली गई. निकिता अब भी बोले जा रही थी, ‘‘मैं ने क्या गलत कर दिया. भाई तो अब सबकुछ भूल गए हैं. पहली बार औफिस गए थे तब भी मीठा दही मु झ से ही मांग कर खा कर गए थे. उन का बेटा मेरा भी तो भतीजा है, क्या मैं उसे दही नहीं खिला सकती?’’

पापाजी ने उसे आवाज लगाई तब जा कर वह चुप हुई. निधि इन घटनाओं से बहुत आहत होती थी, परंतु कोई हल नहीं निकाल पाती.

संयोग से उसी दिन उस की मम्मी का

फोन आया. उन्होंने बताया कि उस का भाई और भाभी विदेश से वापस आने वाले हैं. भाई विदेश में ही नौकरी करता था. उस ने वहीं पर भारतीय मूल की एक लड़की से विवाह कर लिया था. शादी के बाद वे दोनों पहली बार घर वापस आ रहे थे.

मां चाहती थी कि पूरे रीतिरिवाज के साथ नई बहू का स्वागत किया जाए. इसीलिए उन्होंने निधि को घर बुलाया था. घर उसी शहर में था इसलिए नितिन उसी दिन शाम को निधि को उस के घर छोड़ आया.

अगले दिन भाईभाभी आ गए. दरवाजे पर उस के भाई विकास के साथ खड़ी

लड़की को देख कर निधि दंग रह गई. उस ने लाल रंग की साड़ी पहन रखी थी, सिर पर पल्लू ले रखा था और माथे पर लाल रंग की बड़ी सी बिंदी लगा रखी थी. किसी भी तरह से वह विदेशी लड़की नहीं दिख रही थी. मम्मीपापा तो उस की एक  झलक पर ही गदगद हो गए. निधि भी उस से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाई.

विकास बोला, ‘‘अरे भई अब घर के अंदर भी तो आने दो. क्या बाहर ही खड़े रखोगे.’’

निधि ने मुसकरा कर दोनों को अंदर आने का इशारा किया. घर की देहरी के अंदर रंगोली बना कर, चावलों से भरा एक कलश रखा था.

नई बहू ने पैर अंदर रखने से पहले उसे हाथ में उठा लिया.

निधि तुरंत उस के हाथ से कलश ले कर वापस उसी स्थान पर रख कर बोली, ‘‘भाभी हमारे यहां कलश को पैर से गिरा कर तब घर के अंदर प्रवेश करते हैं.’’

नई बहू ने मुसकरा कर वैसा ही किया और विकास के साथ अंदर आ गई. बाकी की रस्में पूरी करने के बाद सब ने खाना खाया और निधि मां के कमरे में सोने चली गई. मां अभी बाहर ही थीं. तभी भाभी कमरे में आईं. निधि के इशारा करने पर उस के पास ही बैठ गई. निधि का हाथ पकड़ कर बोली, ‘‘थैंक्यू, दीदी आप ने मु झे बताया कि घर के अंदर आने की रस्म कैसे की जाती है. मैं तो उलटा ही कर रही थी.’’

निधि हैरान थी कि भाभी इतनी अच्छी हिंदी भी बोल लेती हैं. भाभी ने निधि का हाथ पकड़ा तो उस की चेतना वापस आई, ‘‘दीदी जब तक मैं यहां हूं, आप को रुकना पड़ेगा. मु झे और भी बहुत कुछ जानना है आप के घर के रिवाजों के बारे में. अब यही मेरा भी घर है.’’

भाभी की बात से निधि को कुछ याद आया. उस का व्यवहार… जब निकिता उसे अपने घर

के बारे में कुछ बोलती थी तब उस ने कभी भी भाभी की तरह निकिता की बातों को सहजता से नहीं लिया.

निधि ने भाभी के हाथ पर हाथ रख कर कहा, ‘‘पूरी कोशिश करूंगी भाभी, आप के

जाने तक रुकने की. वैसे तो आप खुद बहुत सम झदार हो. कुछ दिन यहां रहोगी तो देख कर ही सब सीख जाओगी. अभी आप सो जाओ, कल बात करेंगे.’’

भाभी गुड नाइट बोल कर चली गई. निधि की आंखों में नींद नहीं थी. उस के सामने वे सभी घटनाएं घूम रही थीं जब उस की और निकिता की बहस होती थी.

अगले दिन निधि उठते ही फिर से आगे की रस्मों के विषय में मां से बात कर रही थी. तभी फोन की घंटी बज उठी. उस ने फोन अटैंड किया, निकिता का फोन था. निकिता कुछ बोलती उस से पहले ही निधि शुरू हो गई, ‘‘दीदी, मैं जानती हूं हमारे घर में बहुएं अधिक समय तक मायके में नहीं रुकती हैं पर 2 दिन नई भाभी के पास रुक रही हूं. आप वहां हो इसलिए मु झे अपने घर की चिंता नहीं है.’’

उधर से निकिता की खनकती हंसी सुनाई दी, ‘‘मैं कल आ रही हूं भाई के साथ आप को लाने के लिए. कोई बहाना नहीं चलेगा भाभी, हमारे यहां ऐसा ही होता है.’’

निधि भी हंसे जा रही थी, शायद 5 वर्ष में पहली बार खुल कर हंसी थी. निधि का पूरा दिन हंसते हुए ही बीता. अगले दिन नितिन, निकिता और धु्रव उसे घर वापस ले जाने के लिए आ गए. भाभी ने बहुत जल्दी की लेकिन नितिन निधि को साथ ले कर ही गए. इस बार पहली बार ससुराल जाते हुए निधि के मन पर कोई बो झ नहीं था. रास्ते में कार में बाते करते हुए सब खुश थे. निकिता बड़ी उत्सुकता से नई बहू की बातें सुन रही थी. निधि ने उसे छेड़ा, ‘‘अब शादी का अगला नंबर आप का ही है, निकिता दीदी. तभी इतने ध्यान से सब सुन रही हो.’’

‘‘ऐसा नहीं है भाभी, कुछ सोच रही थी,’’ निकिता ने निधि की बात का जवाब दिया.’’

हमें भी बताओ ऐसी कौन सी बात है,’’ निधि ने फिर छेड़ा.

निकिता ने बात को टालते हुए कहा, ‘‘अरे छोड़ो न भाभी. आप इन सब बातों को नहीं

मानती हो.’’

अब तो निधि की उत्सुकता और भी बढ़ गई, ‘‘आप बता कर तो देखो,’’ वह हंसते हुए बोली.

धु्रव कुछ खाने की जिद कर रहा था. नितिन ने कार को किनारे रोक दिया और धु्रव को ले कर सामने दुकान पर चला गया.

निकिता और निधि भी कुछ देर के लिए कार से बाहर आ गए. सामने देख कर निकिता अचानक बच्चे की तरह उछल पड़ी, ‘‘अरे भाभी यही वह जगह है जहां परसों सत्संग होने वाला है. 2 साल बाद देवीजी पधार रही हैं.

निधि को याद आ गया, ‘‘अच्छा वही, जिन से धु्रव के पहले जन्मदिन पर घर में सत्संग करवाया था.’’

निकिता ने आश्चर्य से निधि की ओर देख कर कहा, ‘‘आप को याद है? इस बार आप भी साथ में आना.’’

निधि ने बेमन से हां बोल दिया.

मम्मीजी की तबीयत ठीक नहीं थी, इसलिए निधि को ही निकिता के साथ सत्संग में जाना पड़ा. निकिता सक्रियता से सब व्यवस्था देख रही थी. शहर के दूसरे लोग भी थे आयोजन में. सत्संग खत्म होने ही वाला था कि तेज आंधी चलने लगी. प्रवचन सुनने आए लोगों में अफरातफरी मच गई. सब जल्दी से निकलना चाहते थे. देखतेदेखते पंडाल पूरा खाली हो गया. आयोजक भी चले गए. नितिन कार ले कर बाहर ही खड़े थे इसलिए निकिता और निधि भी कार में बैठ कर घर आ गए.

 

थोड़ी देर बाद ही पुलिस स्टेशन से फोन आया कि कई औरतों के गहने और

आदमियों के पर्स गायब हो गए. सुबह होते ही पुलिस स्टेशन बुलाया. रात जैसेतैसे गुजरी. सुबह पुलिस स्टेशन में सभी आयोजक थे. निधि का नाम भी आयोजकों में था. पुलिस लगातार पूछताछ कर रही थी. उस का कहना था कि या तो देवीजी और उन के लोग या फिर आयोजक दोनों में से कोई इस लूट में शामिल है.

‘‘देवीजी कभी ऐसा नहीं कर सकती हैं. उन्होंने तो अपनी संपत्ति भी आश्रम को ही दे रखी है,’’ निधि ऊंचे स्वर में बोली.

पुलिस इंस्पैक्टर ने उसे शांत रहने की हिदायत देते हुए बताया कि देवीजी एक लंबी सजा काट चुकी औरत है. ठगी के केस में कई साल जेल में थी. जेल से छूट कर उस ने भगवान के प्रवचन दे कर ठगी शुरू कर दी थी. पुलिस को सूचना मिली थी, इसलिए सत्संग परिसर में पुलिसकर्मी साधारण कपड़े पहने घूम रहे थे.

सारा सामान देवीजी के शिष्यों के पास से ही बरामद कर लिया गया. निकिता घर पंहुची

तो मम्मीपापा की नजरों का सामना नहीं कर पा रही थी. उसे सामान्य होने में कई दिन लगे.

निधि पूरा समय उस के साथ थी और एक बदलाव महसूस कर रही थी कि निकिता अब बातबात पर बोलना भूल गई है कि भाभी हमारे यहां ऐसा ही होता है

निगाहों से आजादी कहां : क्या हुआ था रामकली के साथ

‘‘अरे रामकली, कहां से आ रही है?’’ सामने से आती हुई चंपा ने जब उस का रास्ता रोक कर पूछा तब रामकली ने देखा कि यह तो वही चंपा है जो किसी जमाने में उस की पक्की सहेली थी. दोनों ने ही साथसाथ तगारी उठाई थी. सुखदुख की साथी थीं. फुरसत के पलों में घंटों घरगृहस्थी की बातें किया करती थीं.

ठेकेदार की जिस साइट पर भी वे काम करने जाती थीं, साथसाथ जाती थीं. उन की दोस्ती देख कर वहां की दूसरी मजदूर औरतें जला करती थीं, मगर एक दिन उस ने काम छोड़ दिया. तब उन की दोस्ती टूट गई. एक समय ऐसा आया जब उन का मिलना छूट गया.

रामकली को चुप देख कर चंपा फिर बोली, ‘‘अरे, तेरा ध्यान किधर है रामकली? मैं पूछ रही हूं कि तू कहां से आ रही है? आजकल तू मिलती क्यों नहीं?’’

रामकली ने सवाल का जवाब न देते हुए चंपा से सवाल पूछते हुए कहा, ‘‘पहले तू बता, क्या कर रही है?’’

‘‘मैं तो घरों में बरतन मांजने का काम कर रही हूं. और तू क्या कर रही है?’’

‘‘वही मेहनतमजदूरी.’’

‘‘धत तेरे की, आखिर पुराना धंधा छूटा नहीं.’’

‘‘कैसे छोड़ सकती हूं, अब तो ये हाथ लोहे के हो गए हैं.’’

‘‘मगर, इस वक्त तू कहां से आ रही है?’’

‘‘कहां से आऊंगी, मजदूरी कर के आ रही हूं.’’

‘‘कोई दूसरा काम क्यों नहीं पकड़ लेती?’’

‘‘कौन सा काम पकड़ूं, कोई मिले तब न.’’

‘‘मैं तुझे काम दिलवा सकती हूं.’’

‘‘कौन सा काम?’’

‘‘मेहरी का काम कर सकेगी?’’

‘‘नेकी और पूछपूछ.’’

‘‘तो चल तहसीलदार के बंगले पर. वहां उन की मेमसाहब को किसी बाई की जरूरत थी. मुझ से उस ने कहा भी था.’’

‘‘तो चल,’’ कह कर रामकली चंपा के साथ हो ली. वैसे भी वह अब मजदूरी करना नहीं चाहती थी. एक तो यह हड्डीतोड़ काम था. फिर न जाने कितने मर्दों की काम वासना का शिकार बनो. कई मजदूर तो तगारी देते समय उस का हाथ छू लेते हैं, फिर गंदी नजरों से देखते हैं. कई ठेकेदार ऐसे भी हैं जो उसे हमबिस्तर बनाना चाहते हैं.

एक अकेली औरत की जिंदगी में कई तरह के झंझट हैं. उस का पति कन्हैया कमजोर है. जहां भी वह काम करता है, वहां से छोड़ देता है. भूखे मरने की नौबत आ गई तब मजबूरी में आ कर उसे मजदूरी करनी पड़ी.

जब पहली बार रामकली उस ठेकेदार के पास मजदूरी मांगने गई थी, तब वह वासना भरी आंखों से बोला था, ‘‘तुझे मजदूरी करने की क्या जरूरत पड़ गई?’’

‘‘ठेकेदार साहब, पेट का राक्षस रोज खाना मांगता है?’’ गुजारिश करते हुए वह बोली थी.

‘‘इस के लिए मजदूरी करने की क्या जरूरत है?’’

‘‘जरूरत है तभी तो आप के पास आई हूं.’’

‘‘यहां हड्डीतोड़ काम करना पड़ेगा. कर लोगी?’’

‘‘मंजूर है ठेकेदार साहब. काम पर रख लो?’’

‘‘अरे, तुझे तो यह हड्डीतोड़ काम करने की जरूरत भी नहीं है,’’ सलाह देते हुए ठेकेदार बोला था, ‘‘तेरे पास वह चीज है, मजदूरी से ज्यादा कमा सकती है.’’

‘‘आप क्या कहना चाहते हैं ठेकेदार साहब.’’

‘‘मैं यह कहना चाहता हूं कि अभी तुम्हारी जवानी है, किसी कोठे पर बैठ जाओ, बिना मेहनत के पैसा ही पैसा मिलेगा,’’ कह कर ठेकेदार ने भद्दी हंसी हंस कर उसे वासना भरी आंखों से देखा था.

तब वह नाराज हो कर बोली थी, ‘‘काम देना नहीं चाहते हो तो मत दो. मगर लाचार औरत का मजाक तो मत उड़ाओ,’’ इतना कह कर वह ठेकेदार पर थूक कर चली आई थी.

फिर कहांकहां न भटकी. जो भी ठेकेदार मिला, उस के साथ वह और चंपा काम करती थीं. दोनों का काम अच्छा था, इसलिए दोनों का रोब था. तब कोई मर्द उन की तरफ आंख उठा कर नहीं देखा करता था.

मगर जैसे ही चंपा ने काम पर आना बंद किया, फिर काम करते हुए उस के आसपास मर्द मंडराने लगे. वह भी उन से हंस कर बात करने लगी. कोई मजदूर तगारी पकड़ाते हुए उस का हाथ पकड़ लेता, तब वह भी कुछ नहीं कहती है. किसी से हंस कर बात कर लेती है तब वह समझता है कि रामकली उस के पास आ रही है.

कई बार रामकली ने सोचा कि यह हाड़तोड़ मजदूरी छोड़ कर कोई दूसरा काम करे. मगर सब तरफ से हाथपैर मारने के बाद भी उसे ऐसा कोई काम नहीं मिला. जहां भी उस ने काम किया, वहां मर्दों की वहशी निगाहों से वह बच नहीं पाई थी. खुद को किसी के आगे सौंपा तो नहीं, मगर वह उसी माहौल में ढल गई.

‘‘ऐ रामकली, कहां खो गई?’’ जब चंपा ने बोल कर उस का ध्यान भंग किया तब वह पुरानी यादों से वर्तमान में लौटी.

चंपा आगे बोली, ‘‘तू कहां खो गई थी?’’

‘‘देख रामवती, तहसीलदार का बंगला आ गया. मेमसाहब के सामने मुंह लटकाए मत खड़ी रहना. जो वे पूछें, फटाफट जवाब दे देना,’’ समझाते हुए चंपा बोली.

रामकली ने गरदन हिला कर हामी भर दी.

दोनों गेट पार कर लौन में पहुंचीं. मेमसाहब बगीचे में पानी देते हुए मिल गईं. चंपा को देख कर वे बोलीं, ‘‘कहो चंपा, किसलिए आई हो?’’

‘‘मेमसाहब, आप ने कहा था, घर का काम करने के लिए बाई की जरूरत थी. इस रामकली को लेकर आई हूं,’’ कह कर रामकली की तरफ इशारा करते हुए चंपा बोली.

मेमसाहब ने रामकली को देखा. रामकली भी उन्हें देख कर मुसकराई.

‘‘तुम ईमानदारी से काम करोगी?’’ मेमसाहब ने पूछा.

‘‘हां, मेमसाहब.’’

‘‘रोज आएगी?’’

‘‘हां, मेमसाहब.’’

‘‘कोई चीज चुरा कर तो नहीं भागोगी?’’

‘‘नहीं मेमसाहब. पापी पेट का सवाल है, चोरी का काम कैसे कर सकूंगी…’’

‘‘फिर भी नीयत बदलने में देर नहीं लगती है.’’

‘‘नहीं मेमसाहब, हम गरीब जरूर हैं मगर चोर नहीं हैं.’’

चंपा मोरचा संभालते हुए बोली, ‘‘आप अपने मन से यह डर निकाल दीजिए.’’

‘‘ठीक है चंपा. इसे तू लाई है इसलिए तेरी सिफारिश पर इसे रख

रही हूं,’’ मेमसाहब पिघलते हुए बोलीं, ‘‘मगर, किसी तरह की कोई शिकायत नहीं मिलनी चाहिए.’’

‘‘आप को जरा सी भी शिकायत नहीं मिलेगी,’’ हाथ जोड़ते हुए रामकली बोली, ‘‘आप मुझ पर भरोसा रखें.’’

फिर पैसों का खुलासा कर उसे काम बता दिया गया. मगर 8 दिन का काम देख कर मेमसाहब उस पर खुश हो गईं. वह रोजाना आने लगी. उस ने मेमसाहब का विश्वास जीत लिया.

मेमसाहब के बंगले में आने के बाद उसे लगा, उस ने कई मर्दों की निगाहों से छुटकारा पा लिया है. मगर यह केवल रामकली का भरम था. यहां भी उसे मर्द की निगाह से छुटकारा नहीं मिला. तहसीलदार की वासना भरी आंखें यहां भी उस का पीछा नहीं छोड़ रही थीं.

मर्द चाहे मजदूर हो या अफसर, औरत के प्रति वही वासना की निगाह हर समय उस पर लगी रहती थी. बस फर्क इतना था जहां मजदूर खुला निमंत्रण देते थे, वहां तहसीलदार अपने पद का ध्यान रखते हुए खामोश रह कर निमंत्रण देते थे.

ऐसे ही उस दिन तहसीलदार मेमसाहब के सामने उस की तारीफ करते हुए बोले, ‘‘रामकली बहुत अच्छी मेहरी मिली है, काम भी ईमानदारी से करती?है और समय भी ज्यादा देती है,’’ कह कर तहसीलदार साहब ने वासना भरी नजर से उस की तरफ देखा.

तब मेमसाहब बोलीं, ‘‘हां, रामकली बहुत मेहनती है.’’

‘‘हां, बहुत मेहनत करती है,’’ तहसीलदार भी हां में हां मिलाते हुए बोले, ‘‘अब हमें छोड़ कर तो नहीं जाओगी रामकली?’’

‘‘साहब, पापी पेट का सवाल है, मगर…’’

‘‘मगर, क्या रामकली?’’ रामकली को रुकते देख तहसीलदार साहब बोले.

‘‘आप चले जाओगे तब आप जैसे साहब और मेमसाहब कहां मिलेंगे.’’

‘‘अरे, हम कहां जाएंगे. हम यहीं रहेंगे,’’ तहसीलदार साहब बोले.

‘‘अरे, आप ट्रांसफर हो कर दूसरे शहर में चले जाएंगे,’’ रामकली ने जब तहसीलदार पर नजर गड़ाई, तो देखा कि उन की नजरें ब्लाउज से झांकते उभार पर थीं. कभीकभी ऐसे में जान कर के वह अपना आंचल गिरा देती ताकि उस के उभारों को वे जी भर कर देख लें.

तब तहसीलदार साहब बोले, ‘‘ठीक कहती हो रामकली, मेरा प्रमोशन होने वाला है.’’

उस दिन बात आईगई हो गई. तहसीलदार साहब उस से बात करने का मौका ढूंढ़ते रहते हैं. मगर कभी उस पर हाथ नहीं लगाते हैं. रामकली को तो बस इसी बात का संतोष है कि औरत को मर्दों की निगाहों से छुटकारा नहीं मिलता है. मगर वह तब तक ही महफूज है, जब तक तहसीलदार की नौकरी इस शहर में है.

तीमारदारी: राज के साथ क्या हुआ

सरकारी अस्पताल का बरामदा मरीजों से खचाखच भरा हुआ था. छींक आने के साथ गले में दर्द, सर्दी, खांसी, बुखार से सम्बंधित मरीजों की तादाद यहां अचानक ही बढ़ गई थी.

मरीजों को सुबह से ही तमाम सरकारी अस्पताल में लंबीलंबी लाइनों में खड़े देखा जा सकता था क्योंकि इन अस्पतालों में मरीजों को पहले ओपीडी में पर्ची बनवाने के बाद ही डाक्टर के पास जाना होता था. देखने के बाद डाक्टर दवा दे कर घर भेज देते थे.

तब तक कोरोना अपने देश में आया नहीं था. एक सरकारी अस्पताल में ऐसे मरीजों की तादाद ज्यादा ही बढ़ गई.

सरकार ने इन मरीजों को गंभीर बता कर भर्ती करने के लिए कहा तो ऐसे में वहां डाक्टरों की जिम्मेदारी बढ़ गई. स्टाफ की भी जरूरत आ पड़ी.

इन मरीजों को अलग ही वार्ड में रखा गया था. छूत की बीमारी बता कर इन मरीजों को दूर से ही दवा, खाना दिया जाता था. मरीजों के साथ एक तरह से अलग तरह का ही बरताव किया जाता था.

इन मरीजों की देखरेख के लिए सीनियर डाक्टर कमल ने अपने से जूनियर डाक्टर सुनील से कुछ को मैडिकल अटेंडेंट के तौर पर रखने के लिए कहा.डाक्टर सुनील ने किसी नर्स के माध्यम से राज को मैडिकल अटेंडेंट के तौर पर रख लिया.

‘‘बधाई हो राज, तुम नौकरी पर रख लिए गए हो. अपने काम में मन लगाना ताकि किसी को कहने का मौका न मिले. तुम यहां इनसानियत के लिए भी काम कर सकोगे. किसी लाचार के काम आ सकोगे.’’ डाक्टर सुनील ने राज का हौसला बढ़ाते हुए कहा.

“जी डाक्टर साहब,” इतना ही कह सका राज.

जो भी हो, राज  की समझ में तो यही आया कि उसे एक अच्छी नौकरी मिल गई है.अस्पताल में राज को 6 महीने की पहले ट्रेनिंग दी गई. पर उसे इस छूत की बीमारी के बारे में ज्यादा नहीं बताया गया था.

जब डाक्टरों को खुद ही नहीं पता था, तो वे उसे क्या बताते. राज को अस्पताल में सबकुछ करना पड़ता था. मरीजों के टैंपरेचर, ब्लडप्रैशर वगैरह के रिकौर्ड रखने से ले कर उन्हें बिस्तर पर सुलाने तक की जिम्मेदारी उस पर थी. हर बिस्तर तक जा कर उसे मरीजों को दवा देनी पड़ती थी.

वैसे, राज अस्पताल के आसपास ही रहता था और पैदल ही चला आता था. वह एक पिछड़े इलाके से ताल्लुक रखता था और गरीब भी.

यहां  अस्पताल की नर्स से ले कर कंपाउंडर, डाक्टर तक मरीजों को डांटते रहते थे. किसी से मिलने की मनाही थी. एकएक इंजैक्शन लगाने के लिए नर्स फीस लेती थी. डाक्टरों से बात करने में डर लगता था कि कहीं डांटने न लगें.

यहां नर्सों का दबदबा था. राज को पहले ही ताकीद कर दी गई थी कि किसी मरीज से कभी भी चाय मत पीना, वरना निकाला जा सकता है.राज को पलपल यही खयाल रहता था कि कैसे नौकरी महफूज रखी जाए.

एक दिन जब राज अपनी शिफ्ट ड्यूटी पर गया, तो उस से पहले काम कर रहे साथी उमेश ने बताया, ‘‘एक नया मरीज भरती हुआ है. उसे दवा दे देना.’’यह कह कर वह उमेश अपनी ड्यूटी खत्म कर घर चला गया.

 राज ने उस मरीज को गौर से देखा. उस के गले में बेहद दर्द था. उसे छींकें भी बहुत आ रही थीं. बुखार से उस का बदन तप रहा था. पर राज ने डाक्टर को न बुला कर डाक्टर द्वारा दी गई पर्ची के मुताबिक उसे दवा दे दी. पर उस मरीज की तबियत बिगड़ने लगी.

अगले दिन उस मरीज की जांच की गई. डाक्टर कमल राज पर चिल्लाया, ‘‘यह क्या है…? तुम ने तो मरीज का कोई केयर ही नहीं किया है?’’यह सुन कर राज के पैरों तले जमीन खिसक गई. वह बोला, ‘‘सर, मैं ने उसे दवा दी थी.’’

“पर, दवा से कुछ असर नहीं हुआ.” राज ने अपनी बात कही. उस की बात सुन कर डाक्टर कमल उस पर बिगड़ा, ‘‘तुम्हारी समझाने की ड्यूटी नहीं है. तुम्हारी लापरवाही के चलते इस मरीज की हालत बिगड़ी है. कहीं दवा से कोई इंफैक्शन न हो जाए.’’

यह सुन कर राज की बोलती बंद हो गई. डाक्टर द्वारा डांट खा कर राज अपने को अपमानित सा महसूस करने लगा.राज को बड़ी कुंठा होने लगी.अब वह अपनेआप को बड़ा बेबस महसूस कर रहा था.

यही सोच कर राज कुछ दिन की छुट्टी ले कर अपने गांव जाने की योजना बनाने लगा.अगले दिन यही सोच कर राज  सीनियर डाक्टर कमल के पास चला गया, ‘‘सर, मुझे तो अपनेआप पर शर्म आ रही है, इसलिए मैं कुछ दिन की छुट्टी ले कर गांव जाना चाहता हूं.’’

वह सीनियर डाक्टर तुरंत मुड़ा और दूसरे मरीज को आवाज दी. वह मरीज उस के चैंबर में आया. राज वहीं खड़ा उस डाक्टर और मरीज को देखने लगा.

उस मरीज को देखने के बाद सीनियर डाक्टर कमल ने राज से समझाते हुए कहा, ‘‘उस दिन उस मरीज की जान चली जाती, अगर थोड़ी देर और होती.”

“क्या तुम ने खबर देखी है कि सरकार ने इस तरह के मरीजों को कोरोना होने की बात कही है, इसलिए इन्हें भर्ती किया जा रहा है. मरीज भी पहले से ज्यादा हो गए हैं. इन मरीजों को ले कर सरकार बहुत गंभीर है. और तुम ऐसे समय में छुट्टियां मांग रहे हो. ऐसे समय में तो तुम्हें इन मरीजों की तीमारदारी करनी चाहिए. यह भी एक तरह की देशभक्ति है.”

इतना कह कर सीनियर डाक्टर कमल अपने चैंबर से चला गया.यह सुन कर राज को दुख होने लगा. डाक्टर द्वारा समझाए जाने पर उस ने छुट्टी पर न जाने का मन बनाया. उसे अब इस नौकरी का असली माने पता चला था. यही तो उस का असली काम था, जिसे करने से वह चूक रहा था.

सवाल का जवाब: जफर ने कौन सा झूठ बोला था

जफर दफ्तर से थकाहारा जैसेतैसे रेलवे के नियमों को तोड़ कर एक धीमी रफ्तार से चल रही ट्रेन से कूद कर, मन ही मन में कचोटने वाले एक सवाल के साथ, उदासी से मुंह लटकाए हुए रात के साढ़े 8 बजे घर पहुंचा था. बीवी ने खाना बना कर तैयार कर रखा था, इसलिए वह हाथमुंह धोने के लिए वाशबेसिन की ओर बढ़ा तो देखा कि उस की 7 साल की बड़ी बेटी जैना ठीक उस के सामने खड़ी थी. वह हंस रही थी. उस की हंसी ने जफर को अहसास करा दिया था कि जरूर उस के ठीक पीछे कुछ शरारत हो रही है.

जफर ने पीछे मुड़ कर देखने के बजाय अपनी गरदन को हलका सा घुमा कर कनखियों से पीछे की ओर देखना बेहतर समझा कि कहीं उस के पीछे मुड़ कर देखने से शरारत रुक न जाए.

आखिरकार उसे समझ आ गया कि क्या शरारत हो रही है. उस की दूसरी

6 साला बेटी इज्मा ठीक उस से डेढ़ फुट पीछे वैसी ही चाल से जफर के साए की तरह उस के साथ चल रही थी.

बस, फिर क्या था. एक खेल शुरू हो गया. जहांजहां जफर जाता, उस की छोटी बेटी इज्मा उस के पीछे साए की तरह चलती. वह रुकता तो वह भी उसी रफ्तार से रुक जाती. वह मुड़ता तो वह भी उसी रफ्तार से मुड़ जाती. किसी भी दशा में वह जफर से डेढ़ फुट पीछे रहती.

इज्मा को लग रहा था कि जफर उसे नहीं देख रहा है, जबकि वह उस को कभीकभी कनखियों से देख लेता, इस तरह कि उसे पता न चले.

इस अनचाहे आकस्मिक खेल की मस्ती में जफर अपने 2 दिन पहले की सारी परेशानी और गम भूल सा गया था. तभी उसे अहसास हुआ कि इस नन्ही परी ने खेलखेल में उसे गम और परेशानियों का हल दे दिया था. इस मस्ती में उसे उस के बहुत बड़े सवाल का जवाब मिल गया था, जिस का जवाब ढूंढ़तेढूंढ़ते वह थक चुका था.

पिछले 2 दिनों से वह हर वक्त दिमाग में सवालिया निशान लगाए घूम रहा था. मगर जवाब कोसों दूर नजर आ रहा था, क्योंकि 2 दिन पहले उस की दोस्त नेहा ने कुछ ऐसा कर दिया था जिस के गम के बोझ में जफर जमीन के नीचे धंसता चला जा रहा था.

हमेशा सच बोलने का दावा करने वाली नेहा ने उस से एक झूठ बोला था. ऐसा झूठ, जिसे वह कतई बरदाश्त नहीं कर सकता था.

आखिर क्यों और किसलिए नेहा ने ऐसा किया?

इस सवाल ने दिमाग की सारी बत्तियों को बुझा कर रख दिया था. इस झूठ से जफर का उस के प्रति विश्वास डगमगा गया था.

वह ठगा सा महसूस कर रहा था. उसे लगने लगा था कि अब वह दोबारा कभी भी नेहा पर भरोसा नहीं कर पाएगा. ऐसा झूठ जिस ने रिश्तों के साथ मन में भी कड़वाहट भर दी थी और जो आसानी से पकड़ा गया था, क्योंकि उस शख्स ने जफर को फोन कर के बता दिया था कि नेहा अभीअभी उस से मिलने आई थी. जब जफर ने पूछा तो नेहा ने इनकार कर दिया था.

नेहा ने झूठ बोला था और उस शख्स ने सचाई बता दी थी. इतनी छोटी सी बात पर झूठ जो किसी मजबूरी की वजह से भी हो सकता था, जफर ने दिल से लगा लिया था. इस झूठ को शक और अविश्वास की कसौटी पर रख कर वह नापतोल करने लगा.

झूठ के पैमाने पर नेहा से अपने रिश्ते को नापने लगा तो सारी कड़वाहट उभर कर सामने आ गई. सारी कमियां याद आने लगीं. अच्छाई भूल गया. अच्छाई में भी बुराई दिखने लगी और यही वजह उस की परेशानी का सबब बन गई. उस के जेहन में एक, बस एक ही सवाल गूंज रहा था कि नेहा ने उस से आखिर क्यों झूठ बोला था?

जफर की नन्ही परी इज्मा ने बड़ी मासूमियत से उसे गम के इस सैलाब

से बाहर निकाल लिया था. उसे अपने सवाल का जवाब उस की इन मस्तियों में मिल गया था क्योंकि अब वह समझ गया था कि उस की बेटी थोड़ी मस्ती के लिए उस की साया बन कर, उस की पीठ के पीछे चल कर खेल खेल रही थी, जिस का मकसद खुशी था. अपनी भी और उस की भी. ठीक उसी तरह नेहा भी उस से झूठ बोल कर एक खेल खेल रही थी.

जफर की पीठ पीछे की घटना थी. उस ने शायद उस नन्ही परी की तरह

ही आंखमिचौली करने की सोची थी, क्योंकि इस से पहले कितनी ही बार जफर ने उस को परखा था. उस ने कभी झूठ नहीं बोला था. आज शायद उस का मकसद भी उस नन्ही परी की तरह मस्ती करने का था. शायद कुछ समय बाद वह सबकुछ बता देने वाली थी जिस तरह नन्ही परी ने बाद में बता दिया था.

जफर ठहरा जल्दी गुस्सा होने वाला इनसान, उस की एक न सुनी और बारबार फोन करने पर भी उसे सच बताने का मौका ही नहीं दिया था.

वह हैरान थी और डरी हुई भी. उस ने उस से बात तक नहीं की. जब तक बात न हो, गिलेशिकवे और बढ़ जाते हैं. बातचीत से ही रिश्तों की खाइयां कम होती हैं. यहां बातचीत के नाम पर

2 दिनों से सिर्फ ‘हां’ या ‘न’ दो जुमले इस्तेमाल हो रहे थे.

नेहा जफर की नाराजगी को ले कर परेशान थी और वह उस के झूठ को ले कर. नन्ही परी की मस्ती की अहमियत को इस सवाल के जवाब के रूप में समझ कर मेरी दिमाग की सारी घटाएं छंट गई थीं. दिल पर छाया कुहरा अब ऐसे हट गया था, जैसे सूरज की किरणों से कुहरे की धुंध हट जाया करती है.

सबकुछ साफ दिखाई दे रहा था. समझ में आ गया था कि कोई सच्चा इनसान कभीकभी छोटीछोटी बातों के लिए झूठ क्यों बोल देता है. शायद मस्ती के लिए. जो बात वह दिमाग के सारे घोड़े दौड़ा कर भी नहीं सोच पा रहा था, वह इस नन्ही परी इज्मा की शरारत ने समझा दी थी, वह भी कुछ ही पलों में.

जफर का गुस्सा अब पूरी तरह से शांत हो गया था. एकदम शांत. वह समझ गया था कि उसे क्या करना है.

जफर ने खुद ही नेहा को फोन किया. नेहा ने सफाई देने की कोशिश की, मगर जफर ने उसे रोक दिया.

जफर ने अपनी नन्ही परी इज्मा का पूरा किस्सा सुनाया. अब नेहा एकदम शांत थी. उस की नाराजगी और सफाई अब दोनों की ही कोई अहमियत नहीं रह गई थी. फिर उस ने पहले की तरह एक चुटकुला छेड़ दिया था और वे दोनों सबकुछ भूल कर पहले जैसे हो गए थे.

लेखक- मौहम्मद आसिफ

गली नंबर 10: कौनसी कड़वी याद थी उसे के दिल में

चेहरे पर ओढ़ी खामोशी, आंखों का आकर्षण बरबस मुझे उस की ओर खींच ले गया था. उस से मिलने की चाह में एकएक पल बिताना मुश्किल हो रहा था. लेकिन यह कैसी बेबसी थी कि उस की आंखों का दर्द देख कर भी मैं सिर्फ महसूस करता रह गया, बेबस सा.

उस के व्यक्तित्व ने मुझे ऐसा प्रभावित कर रखा था कि घंटों तो क्या, अगर पूरे दिन भी इंतजार करना पड़ता तो भी मैं कुछ बुरा महसूस नहीं करता. एक अजीब रूमानी आकर्षण ने मुझे अपने पाश में ऐसा जकड़ लिया था कि मैं अपने खुद के अस्तित्व से भी उदासीन रहने लगा था. हर ‘क्यों’ का उत्तर अगर मिल जाता तो दुनिया ही रुक गई होती. पर पार्क की बैंच पर बैठ कर किसी की प्रतीक्षा करने का अनोखा आनंद तो वही जान सकता है जो ऐसे पलों से गुजरा हो.

पिछले जमाने की रहस्यमयी फिल्मों की नायिका सी यह लड़की मुझे शहर की एक सड़क पर दिखी थी. पता नहीं क्यों, पहली नजर में ही मैं उस के प्रति आकर्षित हो गया था और यह स्वीकार करने में मुझे कोई संकोच नहीं कि मैं ने उस के बाद, उस रास्ते के अनगिनत चक्कर काटे थे. मन में पक्की उम्मीद थी कि एक न एक दिन तो वह फिर मिलेगी और ऐसा ही हुआ. एकदो बार फिर आमनासामना हुआ और पता नहीं कैसे, उसे भी यह एहसास हो गया कि मैं वहां उसी के लिए चक्कर काटा करता हूं. शायद इसीलिए उस ने, थोड़ी चोरी से, मेरी और देखना शुरू कर दिया था. बस, कहानी यहीं से शुरू हुई थी.

बातचीत की हालत में पहुंचने में काफी समय लगा और जब मिलने के वादे तक पहुंचे तो वह भी हफ्ते में सिर्फ एक दिन, मंगलवार और समय दोपहर का. मुझे लगा कि शायद उसे उस दिन घर से निकलने में आसानी होती होगी. वैसे, मंगलवार को मेरी भी सिर्फ 2 ही क्लास होती थीं, इसलिए कालेज से जल्दी निकल पाना आसान था. जगह तय हुई यही पार्क…मैं तो कालेज से निकल कर, तेजतेज कदमों से सीधा पार्क जा पहुंचता और पहले से तय बैंच पर जा कर बैठ जाता. वह देर से आए या जल्दी, मेरी आंखें पार्क के गेट पर टिकी रहतीं. उस का वह गेट से घुसना, धरती पर नजर बिछाए हौलेहौले चलना और फिर निकट आ कर आधा इंच मुसकराना, मुझे बहुत मोहक लगता था.

हम एक ही बैंच पर पासपास बैठे होते पर उस की ओर से कोई ऐसी क्रिया होती नहीं लगती थी जो प्यार का संदेश दे सके. वह कम बोलती थी, मैं ही बकबक करता रहता था. मैं ने अपने अतीत, वर्तमान और भविष्य की योजनाएं तक सबकुछ उस को बता डाली थीं. पर उस के बारे में मैं अब तक कुछ जान पाने में सफल नहीं हो सका था. मैं जब भी उस से उस के बारे में कोई प्रश्न करता तो वह अनजान सी आसमान की तरफ देखने लगती. उस के चेहरे पर छाया सांध्यकालीन शून्य और रहस्यमय हो जाता.

अपने इस तथाकथित ‘अचीवमैंट’ को निकट मित्रों से साझा कर डालना स्वाभाविक था. पर जब मैं ने उन्हें यह बताया कि मेरे प्यार का सफर एक बिंदु पर ही अटका हुआ है तो वे सब के सब सलाहकार बन गए.

एक ने कहा –

‘अगर वह प्यार न करती होती तो चल कर पार्क तक आती ही क्यों.’

बात ठीक लगी.

दूसरे ने कहा –

‘अच्छे संस्कारों वाली होगी. शी वोंट कम रनिंग ऐंड ले डाउन विद यू.’

यह बात अनजाने ही मन को सुख का एहसास करा गई.

तीसरे ने कहा-

‘ऐसा करो, एक दिन पार्क में तुम देर से जाओ. अगर वह बैठ कर तुम्हारी प्रतीक्षा करती रही तो पक्का है कि वह तुम्हें प्यार करती है. और अगर उठ कर वापस चली गई, तो समझ लेना कि यह सब खेल था.’

यह बात सब को जम गई. सब की सहमति से आने वाले मंगलवार को ही यह निर्णायक प्रयोग करने का निर्णय ले लिया गया.

गिनगिन कर दिन काटे. आखिर, मंगलवार आया. क्लास में क्या पढ़ाया जा रहा था, मुझे कोई ज्ञान नहीं. देर करनी थी, सो, बैठा रहा. जैसे ही निर्णायक घड़ी आई, मैं भारीभारी पैर उठाता पार्क की ओर चल दिया. मित्रों ने मुझे ऐसे विदा किया जैसे मैं श्मशान घाट जा रहा हूं.

मुझे नहीं मालूम था कि दिल इतनी तेज भी धड़क सकता है. पार्क के गेट की ओर बढ़ते हुए मेरे हाथपैर लगभग कांप रहे थे पर, जैसे ही मेरी दृष्टि ने पार्क के भीतर प्रवेश किया, दिल बल्लियों उछल पड़ा. वह पार्क की उसी बैंच पर बैठी अपने पैर के अंगूठे से जमीन पर कुछ रेखाचित्र बना रही थी.

मेरी गति में अचानक तेजी आ गई. मैं लगभग भागता हुआ बैंच तक जा पहुंचा. वह मुसकराई और एक ओर खिसक कर मेरे बैठने के लिए ज्यादा जगह बना दी.

मन के भीतर अब तक पनपते अपनेपन की जगह अब अधिकार भाव ने ले ली थी. इसलिए बैंच पर बैठते ही मैं ने उस का हाथ अपने दोनों हाथों के बीच दबा लिया. वह सकुचाई जरूर, पर प्रतिरोध नहीं किया.

मेरे मन का विश्वास अब चरम पर था. मैं ने बिना किसी हिचकिचाहट के सीधेसीधे उस से प्रश्न कर दिया, ‘‘शादी करोगी मुझ से?’’

वह कुछ बोली नहीं. सिर झुकाए बैठी पैर के अंगूठे से जमीन पर रेखाचित्र बनाती रही.

मैं उतावला हो रहा था. मैं ने अपना प्रश्न दोहराया, ‘‘बोलो, शादी करोगी मुझ से?’’

वह सिर झुकाएझुकाए ही धीरे से बोली, ‘‘इस के लिए आप को हमारी मम्मी से मिलना होगा.’’

मेरा मन बेकाबू हो उठा था, ‘‘हां…हां, क्यों नहीं. बोलो, कब, कहां?’’

वह थोड़ी देर कुछ सोचती रही, फिर बोली, ‘‘पूछ कर बताऊंगी.’’

इतना कह कर वह एकदम उठी और चल दी. गेट के पास पहुंच कर उस ने एक बार मुड़ कर मेरी ओर देखा और बाहर चली गई.

अब मेरा एकएक दिन मुश्किल से कट रहा था, अगले मंगलवार के इंतजार में.

आखिर वह दिन आया. अब समस्या थी कि दोपहर तक का समय कैसे काटा जाए. कालेज जाने का कोईर् फायदा लग नहीं रहा था. सो, सड़कों के चक्कर काटकाट कर सूरज के चढ़ने को निहारता रहा.

समय होते ही मैं पार्क की ओर भागा.

मैं जब पार्क में पहुंचा तो यह देख कर थोड़ी निराशा हुई कि बैंच अभी खाली पड़ी थी. खैर, मैं अपनी उसी जगह जा कर बैठ गया जहां मैं अकसर बैठा करता था. मेरी नजर गेट पर ही टिकी रही.

जैसेजैसे समय बीत रहा था, एक अनजान सा डर मुझे परेशान किए था. तभी एक गरीब सा दिखने वाला आदमी मेरी ओर बढ़ने लगा. वह जैसे ही पास आया उस ने एक मुड़ा हुआ कागज मेरी ओर बढ़ाया. कंपकंपाते हाथों से वह कागज मैं ने उस से लिया और जल्दी से खोल कर पढ़ा. उस में लिखा था –

‘आप इन के साथ चले आएं. ये आप को पहुंचा देंगे.’

जो कुछ हो रहा था उस ने मुझे सारी हालत पर विचार करने को मजबूर कर दिया था. पहले मैं ने उस आदमी को गौर से देखा. यह वही आदमी था जिस के रिकशे पर वह पार्क आयाजाया करती थी. तब मैं ने उस आदमी को आगे चलने का इशारा किया और मैं उस के पीछे हो लिया.

मैं इस सड़क पर कभी बहुत आगे तक गया नहीं था, इसलिए मुझे पता नहीं था कि यह सड़क आगे जा कर एक पतली गली जैसी हो जाती है. छोटीछोटी ढेरों दुकानें, खुली नालियां

और एकदूसरे को धकियाती भीड़. मुझे लगा कि शायद सफाई कर्मचारियों को

इस रास्ते का पता मालूम नहीं होगा.

थोड़ा आगे जा कर रिकशा रुक गया. रिकशे वाले ने एक गहरी सांस ली और बोला, ‘‘बाबू साहब, रिकशा इस के आगे न जा पाएगा. दस कदम आगे चल कर बाईं ओर की गली नंबर 10 में मुड़ जाइएगा. 2 कोठियां छोड़ कर एक जीना ऊपर जाता दिखेगा. बस, उस में चढ़ जाइएगा, मैडम मिल जाएंगी.’’

मैं ने उसे पैसे देने की कोशिश की, पर उस ने लिए नहीं. जहां कहीं मैं इस समय था वह जगह ऐसी लग रही थी जैसे यह शहर का हिस्सा है ही नहीं. जगहजगह टूटे प्लास्टर वाले रंगबिरंगे मकान लगभग वैसे ही लग रहे थे जैसे माचिस की ढेर सारी डब्बियां एकदूसरे के ऊपर रख दी गई हों. हर मकान के बाहर, धूप में सूखते मैलेकुचैले कपड़े और दीवारों पर चिपकी पान की पीक के अलावा जगहजगह पी हुई बीड़ीसिगरेटों के बचे टुकड़े बिखरे पड़े थे.

अब मुझे डर लगने लगा था, पर फिर भी, पैर अनजाने ही आगे बढ़ते चले जा रहे थे. तभी सामने की दीवार पर एक जंग खाई टीन की पट्टी लगी दिखाई दी, जिस पर लगभग मिटता हुआ सा लिखा था- ‘गली नंबर-10.’ मैं उस ओर मुड़ गया.

गली के मुहाने पर ही पड़ी प्लास्टिक की कुरसी पर एक पुलिसमैन बैठा दिखाई दिया. उसे पुलिसमैन मानने में तनिक शंका हो रही थी. पैंट से बाहर निकली मुड़ीतुड़ी कमीज, मुंह में भरी पान की पीक, बिना धुला सा चेहरा. पर हां, हाथ में डंडा जरूर था.

वह मेरी ओर देख कर मुसकराया. मैं ने भी मुसकरा कर मुसकराहट का उत्तर दे दिया. मुझे मुसकराते देख वह इतनी जोर से हंसा कि उस के मुंह में भरी पीक उछल कर उस की कमीज पर आ गिरी. मुझे यह सब देख उबकाई सी आने लगी, इसलिए मैं तेजी से आगे बढ़ गया.

रिकशे वाले द्वारा बताई सीढ़ी सामने थी. एकदम पतला सा जीना था और जीने की दीवारें बहुत ही ज्यादा गंदी थीं. छोटीछोटी सीढि़यों पर पैर तो मैं ने रख दिए पर मन में ‘आगे जाऊं या पीछे’ की उलझन और बढ़ गई. सोच रहा था ‘नर्क में भी अप्सराएं रहती हैं, ऐसा तो कभी किसी ने बताया नहीं. या कहीं, मेरे साथ कोई उपहास प्रायोजित तो नहीं किया गया है.’ अपनी सुरक्षा का डर भी जोर पकड़ने लगा था. तभी सामने एक दरवाजा आ गया. दरवाजे के बाजू में लिखा था ‘नं.-3.’

मेरा हाथ दरवाजा खटखटाने को आगे बढ़ गया. भीतर से किसी महिला की आवाज आई, ‘‘खुला है, तशरीफ ले आइए.’’

पसोपेश की हालत में होते हुए भी पैर आगे बढ़ ही गए. अब मैं एक बड़े कमरे में खड़ा था. कमरे में कई दरवाजे खुल रहे थे जिन पर परदे पड़े हुए थे. सामने वाली दीवार के साथ एक तख्त बिछा हुआ था जिस पर गहरे रंग की चादर बिछी थी और इधरउधर 2-3 मसनद जैसे तकिए भी लगे थे. मसनदों का रंग भी चादर की तरह सुर्ख था.

तख्त पर एक अधेड़ उम्र की महिला बैठी थी जिस के दोनों हाथ किसी कड़ी चीज को काटने में व्यस्त थे और आंखें मेरे ऊपर गड़ी हुई थीं. वे बहुत धीरे से बोलीं, ‘‘बैठिए.’’

मैं ने इधरउधर देखा. बेंत से बनी कई कुरसियां पड़ी थीं. मैं ने एक कुरसी खींची और उस पर बैठ गया.

मेरी नजर महिला पर कम, इधरउधर के वातावरण पर ज्यादा थी. मैल की आगोश में लिपटी दीवारें, कमरों के दरवाजों पर झूलते सिल्की परदों से मेल नहीं खा रही थीं.

मन घबराने लगा था. तभी वे महिला जो शायद उस की मम्मी ही रही होंगी, धीरे से बोलीं, ‘‘क्या सोच रहे हो, हम ने आप को यहां क्यों बुलाया. किसी बेहतर जगह भी तो बुला सकते थे. पर…पर वह हमारी नजर में आप के साथ धोखा होता.’’

इस के बाद वे थोड़ी देर चुप रहीं. फिर कुछ बैठी सी आवाज में बोलीं, ‘‘धोखा दे कर, बाद में उस का अंजाम भुगतना अब हमारे बूते का नहीं रह गया है बरखुरदार.’’

यह कहतेकहते शायद उन का गला भर आया था, इसलिए वे चुप हो गईं. ऐसा लग रहा था जैसे कुछ पुरानी यादें उन के जेहन में उतर आई थीं.

मैं चुप ही रहा.

सुपारी काटने में व्यस्त उन के हाथों

की गति पहले से तेज हो गई थी.

शायद वे अपने मन के आवेश को कड़ी सुपाड़ी के ऊपर उतारने की कोशिश कर रही थीं. वे अचानक फिर से बोलीं, ‘‘आंखें बूढ़ी हो गईं एक ऐसे मर्द का दीदार करने की ख्वाहिश में जिस में इतनी हिम्मत हो कि वह औरत के जिस्म के सौदागरों को चुनौती दे सके.’’ उन की तकलीफ मुझे झकझोरने लगी थी.

वे शायद अपने आंसू रोकने की कोशिश कर रही थीं. थोड़ी देर चुप रहीं. फिर वे बोलीं, ‘‘यहां तक आने की हिम्मत दिखाई है तुम ने. तो सुनो, गौर से सुनो, यहां रह रही सैकड़ों लड़कियों की कराहती आवाजें जो चीखचीख कर पूछ रही हैं कि इन का क्या कुसूर था. कुसूर तो कमबख्त वक्त का था जिस ने इन्हें बदनाम कोख में ला पटका.’’

मेरे चिंतन पर प्रश्नचिह्न लग गया था.

मेरे कानों में सैकड़ों कराहते नारी स्वर गूंजने लगे थे. मेरी आंखें गीली हो आई थीं.

वे फिर बोलीं. इस बार उन की आवाज में कुछ उत्तेजना सी थी, ‘‘साहबजादे, अगर एक मासूम को इस नरक से निकालने का हौसला रखते हो तो जाओ अपने मांबाप, घरखानदान वालों से पूछो कि क्या वे गली नंबर-10 के कोठे नंबर-3 की एक लड़की को अपने घर की बहू बनाने को तैयार हैं.’’

मैं खामोश था.

वे चुप थीं.

थोड़ी देर चुप रह कर वे तनिक धीमी आवाज में बोलीं, ‘‘अगर वे हां कर दें तो हमें खबर कर देना. हम बेटी को दुलहन बना कर खुद छोड़ने आ जाएंगे.’’

वे थोड़ा सा चुप हुईं और फिर कराहती सी आवाज में बोलीं, ‘‘और अगर ‘न’ कर दें तो तुम फिर कभी इस ओर मत आना. ये बदनाम गलियां हैं. बेकार में बदनाम हो जाओगे.’’

वे बहुत थकी सी लगने लगी थीं. वे धीरेधीरे उठीं और बिना मेरी ओर देखे पीछे के कमरे के अंदर चली गईं.

अब एकदम सन्नाटा हो गया था.

मैं कुरसी पर बैठा अपनी चेतना लौटने का इंतजार करता रहा. फिर मैं भी कुरसी से उठा और धीरेधीरे बाहर की ओर चल दिया.

मुझे लग रहा था कि कमरे के दरवाजे पर पड़े परदे के पीछे से याचनाभरी

2 आंखें मेरा पीछा कर रही हैं.

मैं कितनी ही कोशिशें करने के बाद  घर वालों से कुछ न कह सका और न कभी फिर वह लड़की ही मिली. दिनदहाड़े आगरा घूमनेफिरने के बाद टैक्सी वाला तारीफों के पुल बांधते हुए हमें एक दुकान में यह कह कर ले गया कि यहां आगरा की प्रसिद्ध वस्तुएं फिक्स रेट पर मिलती हैं. दुकान के पहले छोर में हैंडीक्राफ्ट के आइटम रखे थे, जिन के दाम और क्वालिटी पहली नजर में हमें बाजार की अपेक्षा उचित लगे. हम ने कुछ आइटम खरीद लिए.

दुकान पर हमारा भरोसा जमता देख, दुकानदार आग्रह कर के हमें दुकान के दूसरे छोर में ले गया जहां हैंडलूम के आइटम थे.

हमारे लाख मना करने के बाद कि हमारे पास खरीदारी के लिए पैसे ही नहीं हैं, वह बोला, ‘‘अरे साहब, पैसे कौन मांग रहा है. आप आइटम तो पसंद कीजिए. जितने का भी सामान हो उस का सिर्फ 40 फीसदी दे जाइए, हम सामान पार्सल से आप के घर भेज देंगे. डाक का खर्च हमारा रहेगा, बाकी पैसे दे कर पार्सल छुड़ा लेना.’’

हमारे नानुकुर करने के बाद भी वह एक साड़ी मेरी मिसेज को दिखाते हुए बोला, ‘‘बहनजी, यह बांस (बैंबू)

की साड़ी आगरा की प्रसिद्ध साड़ी

है, इसे जरूर ले जाइए, कीमत मात्र 1,200 रुपए.’’

मैं ने पत्नी को एकदो साड़ी खरीदने की सहमति दे डाली. फिर क्या था, मोहतरमा ने 6 साडि़यां पैक करा डालीं.

दुकानदार ने प्रत्येक साड़ी के कोने में हमारे हस्ताक्षर करा लिए ताकि साडि़यों के बदले जाने की गुंजाइश न रहे. दुकानदारी के तरीके से प्रभावित हो कर हम इतने निश्ंिचत हो गए कि बिल की काउंटरफाइल में लिखी शर्तों को पढ़े  बगैर हम ने उन की शर्तों पर साइन कर दिए. सारी जेबें खंगालने के बाद 3 हजार रुपए अदा कर के हम अपने घर को विदा हो लिए.

घर पहुंचने के एक हफ्ते के अंदर पार्सल भी पहुंच गया. डाकिया बाकी के 3 हजार रुपए के अलावा 125 रुपए डाकखर्च भी मांगने लगा. हमारे यह कहने पर कि डाकखर्च तो दुकानदार ने दे दिया होगा, वह बोला, ‘‘नहीं, बकाया डाकखर्च देने पर ही मैं पार्सल आप को दे सकता हूं.’’ 125 रुपए के पीछे 3 हजार फंसते देख हम ने पार्सल छुड़ा लिया.

हम ने पार्सल खोला. हस्ताक्षरयुक्त साडि़यां पा कर तसल्ली हुई. आगरा की निशानी के नाम पर बड़े उत्साह से पहनने के बाद एक ही धुलाई में साडि़यों का सारा आकर्षण भी धुल गया. इस ठगी की कटु याद आज भी मुझे कचोटती है.

लेखक-सुबोध मिश्र

वह बदनाम लड़की : आकाश की जिंदगी में कैसे आया भूचाल

आकाश जैसे एक खूब पढ़ेलिखे व काबिल इनसान की एक कालगर्ल से यारी…? यकीन मानिए, वह अपनी पत्नी प्रिया को पूरा प्यार देने वाला अच्छा इनसान है और हवस मिटाने के लिए यहांवहां झांकना भी उसे हरगिज गवारा नहीं है. इस के बावजूद वह टीना को दिलोजान से चाहता है, उस की इज्जत करता है.

आप के दिमाग में चल रही कशमकश मिटाने के लिए हम आप को कुछ पीछे के समय में ले चलते हैं. कुछ साल हो गए हैं आकाश को बैंगलुरु आए हुए. एक छोटे कसबे से निकल कर इस महानगरी की एक निजी कंपनी में जब क्लर्की का काम मिला तो पत्नी प्रिया को भी वह अपने साथ यहां ले आया था और उस के नन्हेमुन्ने प्रियांशु ने भी यहीं पर जन्म लिया था.

औफिस से अपने किराए के घर और घर से औफिस, यही आकाश की दिनचर्या बन चुकी थी. ऐसे ही एक दिन वह बस में सवार हो कर औफिस जा रहा था कि कंडक्टर की बहस ने उस का ध्यान खीच लिया. एक बेहद हसीन लड़की शायद पैसे घर पर ही भूल आई थी और कंडक्टर बड़े शांत भाव से पैसों का तकाजा कर रहा था. उस लड़की के चेहरे के भाव उस की परेशानी बयां करने के लिए काफी थे.

न जाने आकाश के मन में क्या आया कि उस ने लड़की के टिकट के पैसे अदा कर दिए. वह उसे ‘थैंक्स’ कह कर पीछे की सीट पर बैठ गई. आकाश ने भी पैसों को ज्यादा तवज्जुह नहीं दी और अपना स्टौप आते ही नीचे उतर गया.

आकाश कुछ कदम ही चला था कि हांफते हुए वह लड़की एकदम उस के आगे आ कर खड़ी हो गई और बोली, ‘‘सर… आप के पैसे मैं कल लौटा दूंगी. हुआ यह कि मैं आज जल्दी में अपने पर्स में पैसे डालना ही भूल गई.’’

आकाश ने उस का चेहरा देखा तो अपलक निहारता ही रह गया. फिर जैसे उसे अपनी हालत का बोध हुआ. उस ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘मैडम, वह इनसान ही क्या, जो इनसान के काम न आए. आप पैसों की टैंशन न लें.’’

‘‘नहीं सर, आप ने आज मुझे शर्मिंदा होने से बचा लिया. प्लीज, मुझे अपना घर या औफिस का पता बता दें. मैं किसी का अहसान नहीं रख सकती.’’

‘‘तो फिर कल मैं बिना टिकट बस में चढ़ूंगा. आप मेरा टिकट ले कर अहसान चुका देना,’’ आकाश के इस अंदाज ने उस लड़की के होंठों पर हंसी बिखेर दी.

साथसाथ चलते हुए आकाश को पता चला कि उस का नाम टीना है और वह प्राइवेट नौकरी करती है. काम के बारे में पूछने पर वह हंस कर टाल गई. साथ ही, यह भी पता चला कि वह इस महानगरी के पौश इलाके छायापुरम में रहती है. बाकी उस की बातें, उस का लहजा उस के ज्यादा पढ़ेलिखे होने का सुबूत दे ही रहा था.

आकाश ने उसे वापसी के खर्च के लिए 100 रुपए देने चाहे, लेकिन उस ने कहा कि उस की सहेली इस जगह काम करती है. वह उस से पैसा ले लेगी.

आकाश के औफिस का पता ले कर पैसे आजकल में लौटाने की बात

कह कर वह चली गई. न जाने उस छोटी सी मुलाकात में क्या जादू था कि आकाश दिनभर टीना के बारे में ही सोचता रहा.

अगले दिन आकाश ने टीना का इंतजार किया, पर वह नहीं आई. कुछ दिन बीत गए. आकाश के दिमाग से अब वह पूरा वाकिआ निकल ही गया था.

आज काम की भारी टैंशन थी. आकाश अपने केबिन में फाइलों में सिर खपाए बैठा था कि किसी ने पुकारा, ‘‘हैलो, सर.’’

काम की चिंता में गुस्से से सिर उठाया तो सामने टीना को देख आकाश का सारा गुस्सा काफूर हो गया.

‘‘सौरी सर, मैं आप के पैसे तुरंत नहीं लौटा पाई. दरअसल, मेरा इस तरफ आना ही नहीं हुआ,’’ वह एक ही सांस में कह गई.

आकाश ने उसे कुरसी पर बैठने का इशारा करते हुए चपरासी को कौफी लाने को बोल दिया. इस बीच उन दोनों में हलकीफुलकी बातों का दौर शुरू हो गया.

आकाश को अच्छा लगा, जब टीना ने उस के बारे में, उस के परिवार और उस के शौक का भी जायजा लिया. लेकिन तब तो और भी अच्छा लगा, जब आकाश के शादीशुदा होने की बात सुन कर भी उस के चेहरे पर किसी तरह के नैगेटिव भाव नहीं उभरे.

आकाश अंदाजा लगाने लगा कि टीना उस के बारे में क्या सोच बना रही होगी, पर वह नहीं चाहता था कि उस से बातों का यह सिलसिला यहीं टूट जाए.

आकाश की इस हालत को टीना ने भी महसूस किया और कौफी की घूंट भर कर कहा, ‘‘आकाशजी, आज तक न जाने मैं कितने मर्दों से मिली हूं लेकिन आप से जितनी प्रभावित हुई हूं, उतनी कभी किसी से नहीं हुई.’’

आकाश खुद पर ही इतरा गया. आखिर में उस के जज्बात शब्दों में उमड़ ही आए, ‘‘क्या हम अच्छे दोस्त बन सकते हैं?’’

टीना ने मूक सहमति तो दी, लेकिन यह भी साफ कर दिया कि आकाश के शादीशुदा होने के चलते उस की पत्नी प्रिया को वह दोस्ती हरगिज गवारा नहीं होगी. पर आकाश का बावला मन तो किसी भी तरह उस के साथ के लिए छटपटा रहा था. आकाश ने बचकाने अंदाज में बोल दिया, ‘‘हमारी दोस्ती के बारे में प्रिया को कभी पता नहीं चलेगा. मैं दोस्ती तो निभाऊंगा, पर पति धर्म मेरे लिए बढ़ कर होगा.’’

टीना ने सहमति जताई और आकाश को अपना मोबाइल नंबर दे कर चली गई. आकाश फिर से अपने काम में जुट गया. फाइलों का जो ढेर उसे सिरदर्दी दे रहा था, अब वह पलक झपकते ही निबट गया.

मोबाइल फोन पर मैसेज और बातों का सिलसिला शुरू हो गया. शाम को टीना ने आकाश को अपने घर बुला लिया. घर क्या आलीशान बंगला था, जिस के आसपास सन्नाटा पसरा हुआ था. टीना के दरवाजा खोलते ही शराब का तेज भभका आकाश की नाक से टकराया. टीना ने उसे भीतर बुला कर दरवाजा बंद कर दिया.

आकाश कुछ सोचनेसमझने की कोशिश करता, इस से पहले ही टीना ने उसे बैठने का संकेत किया और खुद उस के सामने सोफे पर पसर गई और बोली, ‘‘तुम मेरा यह अंदाज देख कर हैरान हो रहे होगे न. दरअसल, आज मैं तुम से अपनी जिंदगी के कुछ गहरे राज बांटना चाहती हूं.’’

चंद पल चुप रहने के बाद टीना बोली, ‘‘हम अपनी जिंदगी में एक नकाब ओढ़े रहते हैं. यह ऊपर का जो चेहरा है न, यह सब को दिखता है, पर जो चेहरा अंदर है उसे कोई दूसरा नहीं देख पाता. तुम भी सोच रहे होगे कि मैं कैसी बहकीबहकी बातें कर रही हूं. पर आकाश, मैं ने तुम्हारे अंदर एक सच्चा इनसान, एक सच्चा दोस्त देखा है

जो जिस्म नहीं, दिल देखता है. और इस दोस्त से मैं भी कुछ छिपा

कर नहीं रखना चाहती… तुम मेरी नौकरी पूछते थे न? तो सुनो, मैं एक कालगर्ल हूं,’’ इतना कह कर वह ठिठक गई.

आकाश को झटका सा लगा. उस के होंठ कुछ कहने को थरथराए, इस

से पहले ही टीना बोली, ‘‘मेरी कोई मजबूरी नहीं थी, न ही किसी ने मुझे जबरन इस धंधे में धकेला. मेरे बीटैक होने के बावजूद कोई भी नौकरी, कोई भी तनख्वाह मेरी ऐशोआराम की जरूरतें, मेरे शाही ख्वाब पूरे नहीं कर सकती थी, इसलिए मैं ने अपने रूप, अपनी जवानी के मुताबिक देह का धंधा चुना. तुम यह जो आलीशान फ्लैट देख रहे हो, यह मैं नौकरी कर के कभी नहीं बना सकती थी.

‘‘आकाश, मैं ने बहुत पैसा कमाया, बहुत संबंध बनाए, लेकिन रिश्ता नहीं कमा सकी. मैं कोई ऐसा शख्स चाहती थी जिसे मैं खुल कर अपनी भावनाएं साझा कर सकूं. लेकिन हर किसी की नजरें मेरे जिस्म से हो कर गुजरती थीं. यही वजह है कि तुम्हारे अंदर की सचाई देख कर मैं खुद तुम्हारी दोस्ती को उतावली थी. पर मुझे यह मंजूर नहीं

हो रहा था कि मैं अपने दोस्त को अंधेरे में रखूं,’’ कह कर उस ने आकाश को सवालिया नजरों से देखा.

‘‘टीना, मैं तुम्हारे काम के बारे में सुन कर चौंका तो जरूर हूं, लेकिन मुझे झटका नहीं लगा. तुम ने जिस बेबाकी से मुझे अपने बारे में बताया, उसे जान कर मेरी दोस्ती और गहरी हुई है.

‘‘मेरी जानकारी में ऐसी कई और

भी लड़कियां और औरतें हैं, जिन्होंने शराफत का चोला ओढ़ रखा है, लेकिन उन के नाजायज रिश्तों ने आपसी रिश्तों को ही बदनाम कर दिया है. भले ही यह पेशा अपनाना तुम्हारी मजबूरी न हो, लेकिन दिलोदिमाग और जिस्मानी मेहनत तो इस में भी है. हर किसी को अपनी जरूरत के मुताबिक काम चुनने का हक है. कानून और समाज भले ही इसे नाजायज माने, लेकिन मैं इस में कुछ भी गलत नहीं मानता.’’

‘‘दोस्त, मैं तुम्हारी सोच की कायल हूं. अच्छा यह बताओ, क्या पीना चाहोगे…’’

‘‘फिलहाल तो मैं कुछ नहीं लूंगा. अच्छा, तुम्हारे परिवार में और कौनकौन हैं?’’

‘‘मेरी मम्मी बचपन में ही चल बसी थीं और पापा की मौत 2 साल पहले हुई. वे इलाहाबाद में रहते थे लेकिन अपनी आजादी के चलते मैं ने बैंगलुरु आना ही मुनासिब समझा. अच्छा, यह बताओ कि तुम्हारा चेहरा क्यों लटका हुआ है.’’

‘‘कोई खास बात नहीं है,’’ कह कर आकाश ने टालने की कोशिश की, पर टीना के जोर देने पर उसे बताना पड़ा, ‘‘मेरा नया बौस मुझे बेवजह परेशान कर रहा है.’’

‘‘चिंता न करो. सब ठीक हो जाएगा. अब तो मेरे हाथ की बनी कौफी ही तुम्हारा मूड ठीक करेगी,’’ टीना ने कहा.

कौफी वाकई उम्दा बनी थी. तरावट महसूस करते हुए आकाश ने उस से विदा लेनी चाही. न जाने आकाश के दिल में क्या भाव उभरे कि उस ने टीना से लिपट कर उस का चेहरा चूमना चाहा, तो वह छिटक कर पीछे हट गई और बोली, ‘‘दोस्त, दूसरों और तुम्हारे बीच में बस यही तो फासला है. क्या इसे भी मिटाना चाहोगे…’’

गर्मजोशी से इनकार में सिर हिलाते हुए आकाश ने उस से विदा ली.

अगले 2 दिनों में बौस के तेवर बिलकुल बदले देखे तो आकाश को यकीन न हुआ. साथ में काम करने वालों में से एक ने कहा, ‘‘यार, क्या जादू चलाया है तू ने? कल तक तो यह तुझे काट खाने को दौड़ता था और अब तो तेरा मुरीद हो कर रह गया है. अब तो तेरी प्रमोशन पक्की.’’

अगले ही महीने आकाश का प्रमोशन कर दिया गया. जब उस ने यह खुशखबरी टीना को सुनाई, तो उस ने मुबारकबाद दी.

आकाश ने पूछा, ‘‘यह सब कैसे हुआ टीना?’’

‘‘बौस शायद तुम्हारे काम से खुश हो गया होगा.’’

‘‘टीना, प्लीज सच क्या है?’’

‘‘सच तो यह है कि मुझ से अपने दोस्त का लटका चेहरा देखा नहीं

गया और…’’

‘‘और क्या?’’

‘‘और यह कि सख्त दिखने वाले बुढ़ऊ ही महफिल में हुस्न के तलबे चाटते हैं. वैसे, तुम चिंता न करो. उसे मेरी और तुम्हारी दोस्ती की कोई खबर नहीं है.’’

‘‘टीना, मेरे लिए तुम ने…’’

‘‘बस, अब भावुक मत होना. और कोई परेशानी हो तो साफ बताना.’’

उस दिन से आकाश के मन में टीना के लिए और ज्यादा इज्जत बढ़ गई. वह उस के लिए सच्चे दोस्त से बढ़ कर साबित हुई.

कुछ दिन बाद जब आकाश ने अपने लिए एक छोटा सा घर खरीदने के लिए बैंक के कर्ज के बावजूद 2 लाख रुपए कम पड़े तो टीना ने उसे इस मुसीबत से भी उबार दिया.

हालांकि आकाश ने उसे वचन दिया कि भविष्य में वह यह रकम उसे जरूर वापस लौटाएगा.

अब आकाश के दिल में टीना के लिए प्यार की भावना उछाल मारने लगी थी. लेकिन उस ने कभी इन जज्बातों को खुद पर हावी न होने दिया. वह औफिस से छुट्टी के बाद आज शाम को फिर टीना के घर पर था.

‘‘टीना, मैं तुम्हारा सब से अच्छा दोस्त हूं तो फिर मुझ से ऐसी दूरी क्यों?’’

‘‘आकाश, अकसर हम मतलबी बन कर दूसरे रिश्तों खासकर अपनों को भूल जाते हैं. फिर क्या तुम नहीं मानते कि दोस्ती दिलों में होनी चाहिए, जिस्म की तो भूख होती है?’’

‘‘मैं कुछ नहीं समझना चाहता. मेरे लिए तुम ही सबकुछ हो…’’ भावनाओं के जोश में आकाश ने लपक कर उसे अपनी बांहों के घेरे में कस लिया. उस के लरजते लबों ने जैसे ही टीना के तपते गालों को छुआ, उस की आंखें मुंद गईं. सांसों के ज्वारभाटे के साथ ही उस की बांहें भी आकाश पर कसती चली गईं.

‘टिंगटांग…’ तभी दरवाजे की घंटी बजते ही टीना आकाश से अलग हुई. उसे जबरन एक तरफ धकेल कर टीना ने दरवाजा खोला. कोरियर वाला उसे एक लिफाफा थमा कर चला गया. आकाश ने लिफाफे की बाबत पूछा तो उस ने लिफाफा अलमारी में रख कर बात टाल दी.

जब आकाश ने दोबारा उसे अपनी बांहों में लिया तो उस ने आहिस्ता से खुद को उस की पकड़ से छुड़ा लिया और बोली, ‘‘नहीं आकाश, यह सब करना ठीक नहीं है.’’

आकाश नाराजगी जताते हुए वहां से चला गया.

अगले दिन जब सुबह टीना ने मोबाइल फोन पर बात की तो आकाश ने काम का बहाना बना कर फोन काट दिया. वह चाहता था कि टीना को अपनी गलती का अहसास हो.

रात को 10 बजे मोबाइल फोन बज उठा. टीना का नंबर देख कर आकाश कांप गया. नजर दौड़ाई. प्रिया और प्रियांशु सो रहे थे. उस ने फोन काट दिया. मोबाइल फोन फिर बजने पर आकाश ने रिसीव किया तो उधर से टीना का बड़ा धीमा स्वर सुनाई दिया. ‘‘हैलो आकाश, कैसे हो? नाराज हो न?’’

आकाश नहीं चाहता था कि प्रिया उठ जाए और उसे टीना की भनक तक लगे, इसलिए फौरन कहा, ‘‘नहीं, नाराज नहीं. कहो, कैसे याद किया?’’

‘‘दोस्त, तुम्हारी बड़ी याद आ रही है. मैं तुम्हें अभी अपने पास देखना चाहती हूं.’’

‘‘ठीक है, मैं देखता हूं.’’

तभी प्रिया ने करवट बदली तो आकाश ने फोन काट कर मोबाइल स्विच औफ कर दिया. अब जाने का तो सवाल ही नहीं उठता था. प्रिया को क्या जवाब देगा भला… और टीना को इस समय फोन करने की क्या सूझी? कल तक इंतजार नहीं कर सकती थी?

इसी उधेड़बुन में आकाश की आंख लग गई.

सुबह उठते ही प्रिया ने रोज की तरह अखबार की सुर्खियों को टटोलते हुए कहा, ‘‘छायापुरम में अकेली रहने वाली कालगर्ल की मौत.’’

आकाश फौरन बिस्तर से उठ कर बैठ गया. खबर में उस की उत्सुकता देख प्रिया ने पूरी खबर पढ़ी, ‘‘छायापुरम में तनहा जिंदगी बसर करने वाली टीना की कल देर रात ब्रेन हैमरेज से मौत हो गई. वह देह धंधे से जुड़ी बताई जाती थी. डाक्टर के मुताबिक टीना काफी समय से दिमागी कैंसर से पीडि़त थी. कल रात हालत बिगड़ने पर पड़ोसियों ने उसे अस्पताल पहुंचाया, लेकिन रास्ते में ही उस ने दम तोड़ दिया.’’

खबर पढ़ने के बाद प्रिया ने कह दिया, ‘‘ऐसी औरतों का तो यही हश्र होता है,’’ और उस ने आकाश की तरफ देखा.

आकाश की आंखों में पानी देख कर उस ने वजह पूछी. आकाश ने सफाई दी, ‘‘कुछ नहीं, आंखों में कचरा चला गया है. मैं अभी आंखें धो कर आता हूं.’’

संदीप कुमार

केले का छिलका: क्या थी रौनी की सच्चाई

‘‘देहरादून के सिर पर ताज की तरह विराजमान मसूरी की अपनी निराली छटा है. सागर तल से लगभग 2,005 मीटर की ऊंचाई पर 65 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली मसूरी से एक ओर घाटी का मनोरम दृश्य दिखाई देता है तो दूसरी ओर बर्फीले हिमालय की ऊंचीऊंची चोटियां. मसूरी को ‘पहाड़ों की रानी’ यों ही नहीं कहा जाता.

‘‘यहां के प्रसिद्ध पर्यटन स्थलों में गनहिल, कैमल्सबैक रोड, नगरनिगम उद्यान, चाइल्ड्स लौज, झड़ीपानी निर्झर, कैंप्टी फौल, धनोल्टी प्रमुख हैं.’’

गाइड अपनी लच्छेदार भाषा में रटारटाया भाषण दिए जा रहा था. अधिकतर यात्री एकाग्रचित्त हो कर सुन रहे थे, लेकिन कुछ लोग खिड़की से बाहर मनोहर और लुभावने दृश्य देख रहे थे.

अचानक ईशान ने महसूस किया कि कुछ गड़बड़ है. उस के पास बैठी लड़की की आंखों से आंसू टपक रहे थे. वह अपनी सिसकियों को दबाने का असफल प्रयास कर रही थी और इसी ने ईशान का ध्यान आकर्षित किया था. जब पास में बैठी कोई लड़की, जो खूबसूरत भी हो, अगर इतने सुहावने वातावरण के बावजूद रो रही हो तो एक सुसंस्कृत युवक का क्या कर्तव्य बनता है?

ईशान एक अमेरिकन बैंक में योजना अधिकारी था. वेतन इतना मिलता था कि भारत सरकार के उच्च अधिकारियों को भी एक बार ईर्ष्या हो जाती. वर्ष में एक बार 15 दिन की अनिवार्य छुट्टी पूरे वेतन के साथ मिलती थी. स्थान के लिहाज से सब से अच्छे होटल में रहना और सुबह का नाश्ता मुफ्त. घूमनेफिरने और हर दिन के कड़े काम की उकताहट से उबरने के लिए इस से बड़ा प्रोत्साहन और क्या हो सकता है.

ईशान का विवाह पिछले वर्ष बड़े धूमधाम से हुआ था. पत्नी गर्भवती थी और प्रसूति के लिए मायके गई हुई थी. कुछ सहयोगी, जो कुछ समय पहले मसूरी हो कर आए थे, इतनी प्रशंसा कर रहे थे कि उस ने भी मसूरी घूमने का निश्चय किया. वैसे तो घूमनेफिरने का आनंद पत्नी के साथ ही आता है, बिलकुल दूसरे हनीमून जैसा. परंतु इस समय ईशान की पत्नी पहाड़ों पर जाने की स्थिति में नहीं थी इसलिए वह अकेला ही निकल पड़ा था.

मसूरी के एक वातानुकूलित होटल में कमरा पहले से आरक्षित किया जा चुका था. कुछ समय तक कमरे में बैठेबैठे ही खिड़की खोल कर ईशान दूरदूर तक फैली हरियाली और कीड़ेमकोड़ों की तरह दिखते मकानों को निहारता रहा. कभीकभी आवारा बादल कमरे में ही घुस आते थे और तब वह सिहर कर अपनी पत्नी गौरी की कमी महसूस करता.

होटल की स्वागतिका से कह कर ईशान ने आसपास घूमने के लिए बस में सीट आरक्षित करवा ली थी. उस समय वह बस में बैठा हुआ था जब पास बैठी लड़की की सिसकियों ने उस का ध्यान अपनी ओर खींचा.

जब नहीं रहा गया तो उस ने शालीनता से पूछा, ‘‘क्षमा कीजिए, आप को कुछ कष्ट है क्या? क्या मैं आप की कुछ मदद कर सकता हूं?’’

लड़की ने कोई उत्तर नहीं दिया, केवल सिसकती रही. ईशान की समझ में नहीं आ रहा था कि अपने काम से काम रखे या अंगरेजी फिल्मों के नायक की तरह अपना रूमाल उसे पेश करे.

आखिर एक लंबी सांस छोड़ते हुए उस ने कहा, ‘‘देखिए, मैं आप के मामले में कोई दखल नहीं देना चाहता. हां, अगर आप समझती हैं कि एक अजनबी से कुछ मदद ले सकती हैं तो मैं हाजिर हूं.’’

सिसकियां दबाते हुए लड़की ने कहा, ‘‘मेरा सिर चकरा रहा है. मैं कहीं खुली जगह में बैठना चाहती हूं.’’

‘‘ओह, तबीयत खराब है?’’

‘‘नहीं,’’ लड़की ने कराहते हुए कहा.

‘‘तो फिर…’’ ईशान झिझका, ‘‘खैर, मैं अभी बस रुकवाता हूं,’’ सोचा, लड़की की तबीयत खराब होना भी एक नाजुक मामला है.

जब उस ने थोड़ी चहलपहल वाली जगह पर बस रुकवाई तो सारे पर्यटक आश्चर्य से उसे देखने लगे.

लड़की के हाथ में केवल एक पर्स था, वह झट से उतर गई. ईशान अपनी सीट पर बैठने ही वाला था कि उसे कुछ बुरा लगा. सोचने लगा कि अकेली मुसीबत में पड़ी लड़की को यों ही छोड़ देना ठीक नहीं. शायद उसे मदद की आवश्यकता हो?

इस से पहले कि चालक बे्रक पर से पैर हटाता, वह अपना बैग उठा कर लड़की के पीछेपीछे उतर गया. बस उन्हें छोड़ कर आगे बढ़ गई.

सड़क के किनारे एक खाली बेंच थी. लड़की जा कर उस पर बैठ गई. फिर उस ने आंखें बंद कर लीं और सिर पीछे टिका लिया. ईशान भी पास ही बैठ गया. पर अब महसूस कर रहा था कि वह किस चक्कर में पड़ गया.

लगभग 2 मिनट की चुप्पी के बाद लड़की ने क्षीण स्वर में कहा, ‘‘मुझे अफसोस है. आप बेकार में ही मेरे लिए इतना परेशान हो रहे हैं.’’

पहली बार ईशान का ध्यान लड़की की टांगों पर गया. वह स्कर्टब्लाउज पहने थी. गोरीगोरी टांगें रेशम की तरह मुलायम लग रही थीं. घुटने से ऊपर तक के मोजे पहने थे, देखने में वे पारदर्शी और टांगों के रंग से मिलतेजुलते थे.

ईशान ने सिर झटका, ‘मूर्ख कहीं का, इस तरह मत भटक.’

‘‘परेशानी तो कुछ नहीं,’’ ईशान ने जल्दी से कहा, ‘‘हां, अगर आप के कुछ काम आया तो खुशी होगी.’’

अचानक लड़की की आंखों से फिर से ढेर सारे आंसू निकल पड़े तो ईशान भौचक्का रह गया.

‘‘मैं अपने मातापिता के साथ कुछ रोज पहले यहां आई थी,’’ लड़की ने सिसकते हुए कहा.

‘‘ओह, ये बात है,’’ ईशान कुछ न समझते हुए बोला.

‘‘मुझे क्या मालूम था…’’ लड़की फिर रो पड़ी.

‘‘धीरज से काम लीजिए,’’ ईशान ने सहानुभूति से कहा. सोचा, ‘शायद कुछ हादसा हो गया है.’

लड़की अब आंसू पोंछने लगी, फिर बोली, ‘‘क्षमा कीजिए. मेरा नाम वैरोनिका है. वैसे सब मुझे ‘रौनी’ कहते हैं.’’

ईशान मुसकराया. औपचारिकता के लिए बोला, ‘‘बड़ा अच्छा नाम है. आप बैठिए, मैं आप के लिए कुछ लाता हूं. कौफी या शीतल पेय?’’

रौनी ने झिझकते हुए कहा, ‘‘बड़ी मेहरबानी होगी, अगर आप मेरे लिए इतना कष्ट न उठाएं.’’

‘‘नहींनहीं, कष्ट किस बात का…आप ने अपनी पसंद नहीं बताई?’’ ईशान ने जोर दिया.

‘‘गरम कौफी ले आइए,’’ रौनी ने अनिच्छा से कहा.

सामने ही ‘कौफी कौर्नर’ था. ईशान

2 कप कौफी ले आया. वह कौफी पीने लगा. पर लग रहा था कि रौनी केवल होंठ गीले कर रही है.

‘‘क्या हुआ आप के मांबाप को?’’ थोड़ी देर बाद ईशान ने पूछा.

‘‘उन की हाल ही में मौत हो गई,’’ रौनी फिर रो पड़ी.

ईशान ने उस के हाथ से कप ले लिया, क्योंकि कौफी उस के अस्थिर हाथों से छलकने ही वाली थी.

‘‘माफ कीजिएगा, आप का दिल दुखाने का मेरा कतई इरादा नहीं था,’’ ईशान ने शीघ्रता से कहा.

‘‘कोई बात नहीं,’’ आंसुओं पर काबू पाते हुए रौनी ने कहा, ‘‘कोई सुनने वाला भी नहीं. मेरा दिल भरा हुआ है. आप से कहूंगी तो दुख कम ही होगा.’’

‘‘ठीक है. पहले कौफी पी लीजिए,’’ कप आगे करते हुए उस ने कहा.

जब रौनी स्थिर हुई तो बोली, ‘‘मेरी मां को कैंसर था. बहुत इलाज के बाद भी हालत बिगड़ती जा रही थी. एक दिन हम सब टीवी देख रहे थे. पर्यटकों के लिए अच्छेअच्छे स्थानों को दिखाया जा रहा था. बस, मां ने यों ही कह दिया कि काश, वे भी किसी पहाड़ की सैर कर रही होतीं तो कितना मजा आता.’’

रौनी ने कौफी खत्म कर के कप पीछे फेंक दिया. ईशान उत्सुकता से उस की कहानी सुन रहा था.

‘‘पिताजी के मन में आया कि मां की अंतिम इच्छा पूरी करना उन का कर्तव्य है. हम लोग मध्यवर्ग के हैं. फिर मां की बीमारी पर भी काफी खर्च हो रहा था. काफी रुपया उधार ले चुके थे,’’ रौनी ने गहरी सांस छोड़ी.

‘‘आप की तबीयत ठीक नहीं है,’’ ईशान ने कहा, ‘‘अभी थोड़ा आराम कर लीजिए.’’

‘‘नहीं, मैं ठीक हूं. कहने से मन हलका ही होगा,’’ रौनी ने अपने ऊपर नियंत्रण करते हुए कहा, ‘‘किसी तरह से पिताजी ने उधार ले कर और कुछ जेवर बेच कर मसूरी आने का कार्यक्रम बनाया. यहां आ कर हम तीनों एक सस्ते होटल में ठहरे.

‘‘एक दिन कैमल्सबैक गए. इतनी ऊंचाई पर जब वह पहाड़ी दिखाई दी, जो ऊंट की पीठ के आकार की थी, मां के आनंद का ठिकाना न रहा. वे बच्चों की तरह प्रसन्न हो कर किलकारियां मारने लगीं. अचानक वे अपना नियंत्रण खो बैठीं और नीचे को गिरने लगीं. पिताजी ने जैसे ही देखा, उन्हें पकड़ने की कोशिश की. पर वे स्वयं भी अपने पर नियंत्रण न रख सके. दोनों एकसाथ गिर पड़े. नीचे इतनी गहराई थी कि लाशें भी नहीं मिलीं.’’

रौनी फिर से सिसकने लगी.

ईशान ने हिम्मत कर के रौनी का हाथ अपने हाथों में ले लिया और कहा, ‘‘मुझे आप के साथ पूरी सहानुभूति है. आप का दुख समझ सकता हूं. अब क्या इरादा है?’’

‘‘कुछ नहीं. कुछ दिन और रुकूंगी. शायद कुछ पता लगे. फिर तो वापस जाना ही है,’’ रौनी ने उदास हो कर कहा, ‘‘पता नहीं क्या करूंगी?’’

‘‘घबराइए मत. कोई न कोई रास्ता निकल ही आएगा,’’ ईशान ने घड़ी की ओर देखते हुए कहा, ‘‘भूख लग रही है. चलिए, कुछ खाते हैं.’’

‘‘मेरी तो भूखप्यास ही खत्म हो गई है. आप मेरी वजह से परेशान न हों.’’

‘‘ऐसा कैसे हो सकता है? मैं खाऊं और आप भूखी रहें?’’ ईशान ने दिलेरी से कहा, ‘‘वैसे मुझे अकेले खाने की आदत भी नहीं है.’’

‘‘देखिए. मैं आप के ऊपर कोई बोझ नहीं बनना चाहती,’’ रौनी ने दयनीय भाव से कहा, ‘‘आप की सहानुभूति मिली, इसी से मुझे बड़ा सहारा मिला.’’

‘‘रौनी,’’ इस बार ईशान ने जोर दे कर कहा, ‘‘अगर तुम मेरे साथ खाना खाओगी तो यह मेरे ऊपर तुम्हारी मेहरबानी होगी.’’

‘‘ओह, आप तो बस…’’ रौनी की आंखों में पहली बार मुसकान की झलक दिखाई दी.

‘‘बस, अब उठ कर चलो मेरे साथ,’’ ईशान ने उठ कर उस की ओर हाथ बढ़ाया.

वह रौनी को एक अच्छे होटल में ले गया. दोनों ने बहुत महंगा भोजन किया. रौनी अब पिछले हादसों से उबर रही थी.

‘‘अब क्या करोगी? घूमने चलोगी या आराम करोगी?’’ ईशान ने बाहर आ कर पूछा.

‘‘आराम कहां है मेरी जिंदगी में,’’ रौनी ने आह भर कर कहा.

‘‘देखो, अब ऐसी बातें मत करो. सामान्य होने की कोशिश करो,’’ ईशान ने अब अधिकार से उस के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘मैं सोचता हूं, तुम्हें कुछ देर अब आराम करना चाहिए. चलो, तुम्हारे होटल छोड़ आता हूं. शाम को फिर मिलेंगे.’’

‘‘होटल,’’ रौनी से उदासी से कहा, ‘‘होटल तो मैं ने बहुत पहले छोड़ दिया था. रहने के लिए रुपया चाहिए और सारा रुपया पिताजी की जेब में था. वह तो होटल का मालिक इतना सज्जन था कि उस ने मुझ से कोई हिसाब नहीं मांगा.’’

‘‘तो फिर कहां रहती हो?’’ ईशान ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘कालीबाड़ी में. इतने सारे लोग रोज आतेजाते हैं, मुझे कोई परेशानी नहीं होती,’’ रौनी ने लापरवाही से कहा.

ईशान ने कुछ क्षणों तक सोचा और फिर कहा, ‘‘तुम्हें कालीबाड़ी में रहने की कोई जरूरत नहीं है. चलो, अपना सामान उठाओ और मेरे होटल में आ जाओ. मैं तुम्हारे लिए कमरा आरक्षित करवा दूंगा.’’

रौनी ने आशंका और अविश्वास से ईशान को देखा और कहा, ‘‘आप मेरे लिए इतना सब क्यों करेंगे? मैं नादान और कमसिन जरूर हूं पर भोली भी नहीं हूं.’’

ईशान के ऊपर बिजली सी गिर पड़ी. शीघ्रता से बोला, ‘‘विश्वास करो रौनी, मेरा कोई बुरा आशय नहीं है. मैं कोई नाजायज फायदा भी नहीं उठाना चाहता. हां, एक दोस्त की हैसियत से तुम्हें कुछ लमहे खुशी के दे सकता हूं तो इनकार कर के मेरा दिल तो न तोड़ो.’’

रौनी ने शरारतभरी मुसकराहट से कहा, ‘‘बुरा मान गए? दरअसल, हम लड़कियों को हर पल चौकन्ना और होशियार रहना पड़ता है. अच्छे और बुरे की पहचान करना कोई आसान काम है क्या?’’

ईशान ने हंसते हुए कहा, ‘‘तुम ने तो मुझे डरा ही दिया था. अपने ही आईने में भेडि़या नजर आने लगा.’’

‘‘अब छोडि़ए भी. हां, इतना फिर कहूंगी कि मैं जहां हूं, ठीक हूं. आप मेरी चिंता मत कीजिए,’’ उस ने जोर दिया.

‘‘रौनी, कृपा कर के अब यह संवाद अधिक मत दोहराओ. तुम मेरी खातिर चलो. मुझे अच्छा लगेगा,’’ रौनी का हाथ ईशान ने मजबूती से पकड़ लिया.

रौनी के साथ ईशान कालीबाड़ी गया और उस का सामान उठवाया. केवल एक सूटकेस और स्लीपिंग बैग देख कर उसे आश्चर्य तो हुआ, पर कुछ बोला नहीं.

रौनी ने अपनेआप ही सफाई दी, ‘‘रुपए की जरूरत पड़ी तो बाकी सामान बेच दिया.’’

ईशान ने कोई उत्तर नहीं दिया. होटल पहुंच कर रौनी के लिए कमरा लिया. शाम की कौफी, नाश्ता भी वहीं किया और फिर रात को मसूरी का आनंद लेने के लिए निकल पड़े. रौनी से धीरेधीरे ईशान की घनिष्ठता बढ़ गई. शर्म व झिझक भी कम होती जा रही थी.

जिस किसी दुकान पर वह कोई पोशाक या आभूषण ठिठक कर देखने लगती, ईशान तुरंत खरीद कर भेंट कर देता. धीरेधीरे ईशान का एहसान अधिकार में बदलने लगा. रौनी अब खुल कर फरमाइश भी कर देती थी. अच्छा खातीपीती थी और खूब खरीदती थी.

ईशान जितने रुपए साथ लाया था, सब कभी के खत्म हो चुके थे. अब वह अपने बैंक का ‘क्रैडिट कार्ड’ इस्तेमाल कर रहा था. सोच कर आया था कि अपनी पत्नी गौरी के लिए ढेर सारी चीजें खरीदेगा और अपने होने वाले बच्चे के लिए ढेर सारे खिलौने व कपड़े, पर रौनी के चक्कर में फुरसत ही न मिली. साथ ही अब तो इफरात से खर्च करने के कारण आर्थिक स्थिति भी डांवांडोल हो रही थी. ठीक पता नहीं था कि क्रैडिट कार्ड कब तक साथ देगा.

15 दिन कैसे निकल गए, पता नहीं लगा. ईशान को रौनी अच्छी लगने लगी थी. कभीकभी तो लगता कि वह उसे प्यार करने लगा है. काश, कहीं रौनी की ओर से कोई संकेत मिल जाता.

परंतु रौनी ने ऐसा कुछ नहीं किया. मौजमस्ती ने उस का दुख मिटा दिया था, उस की खिलखिलाहट में एक खिलाड़ी का स्वर गूंजता था. इसी से ईशान बड़ा सुकून महसूस करता था.

‘‘कल सुबह तो मैं चला जाऊंगा,’’ ईशान ने डूबी हुई आवाज में कहा, ‘‘अब तुम क्या करोगी?’’

‘‘अब तुम ही चले परदेस…’’ रौनी ने शरारत से ठुमका लगा कर कहा, ‘‘लगा के ठेस तो अब हम क्या करेगा?’’

ईशान ने हंस कर कहा, ‘‘शैतानी से बाज नहीं आओगी. सुनो, मेरे साथ चलोगी?’’

‘‘न बाबा,’’ रौनी ने अपने कानों को हाथ लगाते हुए कहा, ‘‘तुम्हारी गौरी से जूते खाने हैं क्या?’’

‘‘तो तुम से कब और कैसे भेंट होगी?’’ ईशान ने पूछा.

‘‘यह मुझ पर छोड़ दो. पहले अपना ठिकाना ढूंढ़ लूं. फिर तो तुम्हें कहीं से भी पकड़ लाऊंगी,’’ रौनी ने हंसते हुए कहा.

‘‘तुम्हें मजाक सूझ रहा है और मेरी जान पर बनी है,’’ ईशान ने नाराजगी का फिल्मी इजहार किया.

रौनी ने केवल जीभ दिखा दी. फिर उस की प्रार्थना पर ईशान ने होटल का 2 दिन का किराया और दे दिया. साथ ही कुछ रुपए खानेपीने के लिए दिए.

ईशान जब घर पहुंचा तो एकदम कड़का था. बैंक से भी पता लगा कि उस ने बचत से कहीं अधिक खर्च कर डाला है, इसलिए अब उधार पर अधिक सूद देना पड़ेगा. लेकिन रौनी की मधुरस्मृति ने दुखी नहीं होने दिया. सोचने लगा, कब याद करेगी अब?

कुछ समय बाद ईशान की पत्नी गौरी गोलमटोल बबलू को ले कर घर आ गई. उस ने पति के बरताव में कुछ बदलाव सा महसूस किया. लेकिन उस ने खामोश रहना ही बेहतर समझा.

ईशान ने एकाध बार सोचा कि क्यों न गौरी को बता दे कि कैसे उस ने एक मुसीबत में फंसी लड़की को सहारा दिया. तब गौरी अवश्य ही उस की प्रशंसा करेगी. फिर यह सोच कर रह जाता था कि बहादुरी दिखाने के बजाय विवेक से काम लेना अधिक अच्छा होता है. हो सकता है, गौरी इस का गलत अर्थ लगाए.

वर्ष बीत रहा था और रौनी के संपर्क न करने से ईशान को बेचैनी सी होने लगी थी. कभी यह भी सोचता था कि चलो, अच्छा हुआ, पीछा छूटा. कहीं उस का संबंध गहरा हो जाता तो अपना पारिवारिक जीवन ही डांवांडोल हो जाता. उन क्षणों में वह गौरी से आवश्यकता से अधिक ही प्रेम जताने लगता.

जब छुट्टी लेने का समय आया तो उस ने फिर से मसूरी ही जाने का निश्चय किया.

‘‘पिछले साल ही तो मसूरी गए थे?’’ गौरी ने पूछा, ‘‘क्या हमारे महान देश में पर्यटक स्थलों की कमी पड़ गई है?’’

‘‘गौरी, एक बार मसूरी चलो तो सही. तुम देखते ही उस से प्यार करने लगोगी,’’ ईशान ने हंस कर कहा, ‘‘मेरा तो मन करता है, वहां ही कोई घर ले लूं.’’

गौरी को दार्जिलिंग अधिक अच्छा लगता था. इस बात पर अकसर दोनों में गरम बहस भी होती थी.

वे मसूरी पहुंचे तो ठहरे उसी पुराने होटल में.

दोपहर का सुहावना मौसम था. वे घूमने निकल पड़े. बादल छाए हुए थे और ठंडी हवा के झोंके बदन में सिहरन भर रहे थे. गौरी ने बबलू को कंबल में लपेट कर गोद में लिटा रखा था. ईशान पास ही बैठा उस से अपने अनुभवों का वर्णन कर रहा था.

अचानक एक परिचित स्वर कानों में पड़ा. ईशान चौंक गया. मुड़ कर देखा, वही थी. साथ में एक मोटा आदमी था. पीछे वाली बैंच पर दोनों बैठे थे. ईशान की तरफ उन की पीठ थी.

‘‘मैं अपने मांबाप के साथ कुछ रोज पहले यहां आई थी,’’ रौनी सिसकते हुए कह रही थी, ‘‘मुझे क्या मालूम था… क्षमा कीजिए, मेरा नाम वैरोनिका है, वैसे सब मुझे ‘रौनी’ कहते हैं…मेरी मां को कैंसर था…’’

ईशान का दिल डूबने लगा. वह गौरी से आंखें न मिला सका. ऐसा लगा, जैसे उस ने उस की चोरी पकड़ ली हो.

2 आदमी हाथों में मूंगफली की पुडि़या लिए सामने से निकले. दोनों वार्त्तालाप में मस्त थे.

‘‘किसी शायर ने क्या खूब कहा है,’’ एक आदमी कह रहा था, ‘‘औरत केले के छिलके की तरह होती है, पैर पड़ा नहीं कि फिसल गए.’’

दोनों ठहाका मार कर हंस रहे थे. क्या खूब कहा था.

दूसरी हार: आजम को किस बात का अफसोस था

आ  जम, हैदर और रऊफ एक मिडिल क्लास के कौफी हाउस में बैठे कौफी की चुस्कियां ले रहे थे. तीनों दसवीं क्लास तक साथसाथ पढ़े थे. हैदर और रऊफ पहले से कौफी हाउस में थे, जबकि आजम थोड़ी देर पहले वहां पहुंचा था. तीनों की भेंट कभीकभार ही होती थी.

‘‘तो तुम आजकल टैक्सी चला रहे हो?’’ हैदर ने आजम से पूछा.

‘‘हां, क्या तुम ने यही पूछने के लिए बुलाया था?’’ आजम ने खुश्क स्वर में कहा और हैदर के कीमती सूट की तरफ देखा.

हैदर उस के चेहरे को ताकतेहुए बोला, ‘‘और तुम्हारी टांगें? क्या तुम पहले की तरह अब भी तेज दौड़ सकते हो?’’

‘‘टांगें भी ठीक हैं, लेकिन इस बात का मुझे यहां बुलाने से क्या संबंध है?’’ आजम ने उसे घूरते हुए कहा.

‘‘इस बारे में तुम्हें रऊफ बताएगा.’’ हैदर ने रऊफ की ओर इशारा करते हुए कहा, जो अब तक बिलकुल चुपचाप बैठा था. वह दुबलापतला युवक था, लेकिन उस का सिर एक तरफ झुका हुआ था, जैसे वह कान लगा कर कोई आवाज सुन रहा हो. उस के बारे में यह मशहूर था कि वह पचास गज के फासले से ही पुलिस वालों के कदमों की आहट सुन लेता था. हैदर और रऊफ आपराधिक गतिविधियों में संलग्न रहते थे. वे कभीकभी बड़ा हाथ भी मार लेते थे.

रऊफ बोला, ‘‘तुम्हें स्कूल में सब से तेज दौड़ने वाला छात्र कहा जाता था. मैं ने अपनी जिंदगी में किसी को इतना तेज दौड़ते हुए नहीं देखा. तुम ने एक किलोमीटर दौड़ने का क्या रिकौर्ड बनाया था आजम?’’

‘‘4 मिनट 10 सेकेंड. लेकिन यह स्कूल के जमाने की बात है. बाद में तो मैं 24 सेकेंड में 220 गज का फासला तय कर के स्टेट चैंपियन बन गया था. लेकिन उस के बाद कमबख्त शकील ने 22 सेकेंड में यह फासला तय कर के मेरा रिकार्ड तोड़ दिया. कोई सोच सकता है कि सिर्फ 2 सेकेंड के फर्क से मैं दूसरे नंबर पर आ गया.’’ आजम निराश स्वर में बोला.

हैदर धीरे से हंसा, ‘‘मुझे यकीन था कि तुम उस मनहूस शकील को पराजित करने में कामयाब हो जाओगे? वह बड़ा मगरूर और बददिमाग लड़का था.’’

‘‘शकील कहां है आजकल?’’ रऊफ ने पूछा.

‘‘पता नहीं, किसी बड़ी कंपनी में ऊंची पोस्ट पर नौकरी कर रहा होगा. वह पढ़ने में भी तो काफी तेज था.’’ आजम ने कहा.

‘‘शकील ऊंची पोस्ट पर और तुम टैक्सी ड्राइवर…यहां भी तुम उस से मात खा गए.’’ रऊफ आंखें बंद कर के मुस्कराया.

आजम की मुट्ठियां भिंच गईं, ‘‘अब यह सब बातें छोड़ो. बताओ, मुझे यहां क्यों बुलाया है.’’

‘‘50 लाख रुपए. क्या तुम यह रकम लेना पसंद करोगी.’’

आजम का चेहरा पीला पड़ गया. वह कुछ देर चुप रहने के बाद बोला, ‘‘क्या तुम लोग कहीं डाका डालना चाहते हो.’’

‘‘तुम्हें हम दोनों के कामों के बारे में तो मालूम ही होगा. इसलिए ताज्जुब करने की कोई जरूरत नहीं है. अगर तुम्हें 50 लाख रुपए कमाने में दिलचस्पी हो तो बोलो. नहीं तो कोई बात नहीं.’’ हैदर ने उस के चेहरे पर निगाहें गड़ाते हुए कहा.

‘‘लेकिन मैं ही क्यों?’’ आजम बोला.

‘‘हमें एक तेज दौड़ने वाले आदमी की जरूरत है. काम बहुत आसान है, जिस में नाकामी का सवाल ही नहीं पैदा होता और आमदनी… तुम सुन ही चुके हो. तीसरा हिस्सा 50 लाख रुपए बनता है. क्या खयाल है?’’ रऊफ ने कहा.

‘‘पूरी बात सुने बगैर मैं क्या जवाब दे सकता हूं.’’ आजम को अब 50 लाख रुपए लहराते हुए दिखाई देने लगे थे.

रऊफ ने सिर हिलाया और मेज पर आगे की तरफ झुकता हुआ बोला, ‘‘नाजिमाबाद में एक बहुत बड़ी टूल फैक्ट्री है. हैदर पिछले 2 महीने से वहीं नौकरी कर रहा है. हर माह की 5 तारीख को वहां के कर्मचारियों को तनख्वाह दी जाती है. यह धनराशि लगभग एक सौ पचास लाख होती है.’’ रऊफ ने जेब से कागज का एक टुकड़ा निकाल कर मेज पर फैला दिया. आजम ने उस पर खिंची हुई टेढ़ी तिरछी लकीरों को देखा, लेकिन उस की समझ में कुछ नहीं आया.

‘‘ये देखो, यह है फैक्ट्री की चारदीवारी और यह है प्रवेश द्वार. इस के पास ही एक छोटा सा दरवाजा है. बड़े दरवाजे से फैक्ट्री के कर्मचारी आतेजाते हैं. इसलिए यह दिन में 4 बार ही खुलता है. लेकिन छोटा दरवाजा खुला रहता है, जहां से फैक्ट्री के दफ्तर के लोग आतेजाते हैं. दरवाजे के अंदर दाखिल हो तो खुला मैदान आता है जो सीमेंट का बना हुआ है. यह मैदान पार करने के बाद फैक्ट्री का औफिस है.

‘‘फैक्ट्री के मुख्य प्रवेश द्वार और औफिस के बीच करीब 5 सौ फुट की दूरी है. पहले यह मैदान औफिस के कर्मचारियों द्वारा अपनी गाडि़यां खड़ी करने के काम आता था, लेकिन अब फैक्ट्री के मालिकों ने सामने वाला प्लाट भी खरीद लिया है, जहां सभी गाडि़यां खड़ी की जाती हैं. मैदान में सुबहशाम ट्रकों पर माल लादा और उतारा जाता है. बाकी समय यह खाली पड़ा रहता है.’’ हैदर ने विस्तार से आजम को बताते हुए कहा, ‘‘अब तुम समझे कि हमें तुम्हारी मदद की क्यों जरूरत पड़ी.’’

आजम हैरानी से उन दोनों को बारीबारी से देखता रहा.

रऊफ बोला, ‘‘फैक्ट्री के प्रवेश द्वार से गाड़ी अंदर नहीं जा सकती. फैक्ट्री के औफिस में एक सौ पचास लाख की धनराशि होती है. तुम्हें औफिस के अंदर से धनराशि का थैला उठा कर फैक्ट्री के प्रवेश द्वार तक दौड़ लगानी है-बहुत तेज. बाहर हम लोग गाड़ी में बैठे तुम्हारा इंतजार कर रहे होंगे. जैसे ही तुम गाड़ी में बैठोगे, गाड़ी दस सेकेंड में वहां से एक मील दूर पहुंच जाएगी. सारा मामला 500 फुट मैदान पार करने का है.’’

‘‘यानी मैं…’’ आजम ने कुछ कहना चाहा.

‘‘हां, तुम…तुम्हारे जैसा तेज दौड़ने वाला आदमी ही यह काम कर सकता है. 5 तारीख को सुबह ठीक साढ़े 10 बजे एकाउंटेंट तिजोरी में से एक सौ पचास लाख रुपए निकालता है. उस की मदद के लिए 3 औरतें होती हैं. वे कमरा बंद कर के रकम गिनते हैं और हर कर्मचारी की तनख्वाह के अनुसार रकम को लिफाफों में बंद करते जाते हैं.

रकम प्राप्त करना कोई मसला नहीं है. एकाउंटेंट एक बूढा आदमी है. रिवाल्वर देख कर वह कोई विरोध नहीं करेगा. और तीनों औरतें तो डर के मारे कांपने लगेंगी. बस, तुम्हें रुपयों का थैला उठा कर फैक्ट्री के प्रवेश द्वार तक दौड़ लगानी है-तेज, खूब तेज. तुम्हें सारे रिकौर्ड तोड़ देने हैं.’’ हैदर ने आजम को उत्साहित करते हुए कहा.

‘‘नहींनहीं.’’ आजम ने जल्दी से कहा, ‘‘मैं यह काम नहीं कर सकता, चाहे तुम मुझे कितने ही रुपए दो. इस काम में बहुत खतरा है. फिर सवाल यह भी है कि मुझे प्रवेश द्वार के अंदर कौन जाने देगा. फैक्ट्री के कर्मचारियों को पहचान पत्र जारी किए जाते हैं, जिन्हें दिखा कर अंदर जाने की अनुमति मिलती है.’’

रऊफ बोला, ‘‘पहचान पत्र पर फोटो नहीं होती. तुम हैदर का पहचान पत्र दिखा कर अंदर जा सकते हो. तुम्हें कोई नहीं रोकेगा. फैक्ट्री में रोजाना नए कर्मचारी भर्ती किए जाते हैं, क्योंकि 1-2 कर्मचारी नौकरी छोड़ कर चले जाते हैं. फैक्ट्री काफी बड़ी है, इसलिए कोई भी गार्ड या गेटमैन इतने कर्मचारियों या मजदूरों के चेहरे याद नहीं रख सकता. आजम, यह बड़ा आसान काम है और तुम जैसे तेज दौड़ने वाले आदमी के लिए तो यह कोई काम ही नहीं है.’’

‘‘मैं तेज दौड़ सकता हूं लेकिन गोली की रफ्तार से मुकाबला नहीं कर सकता.’’ आजम ने हकबकाते हुए कहा.

‘‘गोली चलने की नौबत नहीं आएगी. बूढे़ एकाउंटेंट को गोली चलानी नहीं आती. वह कमरे का दरवाजा बंद रखने का आदी है.’’ हैदर बोला. लेकिन आजम फिर भी नहीं तैयार हुआ. उस ने कहा कि वह बंद दरवाजा कैसे तोड़ेगा. इस पर हैदर ने कहा, ‘‘मैं रिपेयरिंग विभाग में कार्यरत हूं. मैं घटना से एक दिन पहले उस दरवाजे की कुंडी कुछ ढीली कर दूंगा, जिस से वह एक धक्के में खुल जाएगा.’’

लेकिन तब भी आजम यह काम करने को तैयार नहीं हुआ. इस पर रऊफ बोला, ‘‘आजम अब दौड़ने के काबिल नहीं रहा.’’

‘‘ये बात नहीं है.’’ आजम ने विरोध किया.

‘‘हमें मालूम है, तुम दौड़ सकते हो, लेकिन तुम्हारे अंदर हौसले की कमी है. यही वजह है कि तुम शकील से शिकस्त खा गए.’’ रऊफ जोर से हंसा, ‘‘50 लाख से तो तुम कई टैक्सियों के मालिक बन सकते हो. लेकिन तुम इस के लिए कोशिश करना ही नहीं चाहते.’’ फिर वह हैदर से बोला, ‘‘चलो हैदर, किसी दूसरे की तलाश करें, जो तेज दौड़ने के साथसाथ शानदार भविष्य का इच्छुक हो.’’

रऊफ और हैदर उठ खड़े हुए. रऊफ जाते समय आजम से बोला कि अगर वह अपना फैसला बदले तो हैदर को फोन कर दे. आजम ने कहा, ‘‘मैं अपना फैसला नहीं बदलूंगा.’’ लेकिन अगली रात आजम ने अपना फैसला बदल दिया और उन के साथ काम करने को तैयार हो गया.

फिर दूसरे ही दिन से आजम ने मैदान में दौड़ लगाने का अभ्यास शुरू कर दिया. उसे यह देख कर बहुत तसल्ली हुई कि वह अब भी उतना ही तेज दौड़ सकता है. फर्क सिर्फ यह पड़ा था कि अभ्यास छूटने से उस की सांस अब जल्दी फूलने लगी थी.

लेकिन फिक्र की कोई बात नहीं थी, उसे फैक्ट्री के औफिस से प्रवेश द्वार तक सिर्फ एक ही बार दौड़ लगानी थी. फिर तो उसे गाड़ी में बैठ कर वहां से निकल भागना था. रविवार के दिन आजम ने जब मैदान में दौड़ लगाई तो वह आश्चर्यचकित रह गया. उस की रफ्तार पहले से काफी ज्यादा बढ़ गई है.

शीघ्र ही 5 तारीख आ गई, जिस दिन टूल फैक्ट्री में तनख्वाह बंटनी थी और आजम को रऊफ एवं हैदर के साथ नाजिमाबाद पहुंचना था. एक घंटे के बाद वे लोग फैक्ट्री के पास पहुंच गए. रऊफ ने फैक्ट्री के मुख्य प्रवेश द्वार से कुछ दूर पहले ही अपनी गाड़ी रोक दी. वहां से आजम पैदल ही फैक्ट्री तक पहुंचा. ठीक 10 बजे फैक्ट्री का दरवाजा खुला और कर्मचारी कतारबद्ध हो कर अंदर जाने लगे.

आजम भी लाइन में लग गया. नंबर आने पर उस ने चौकीदार को हैदर का पहचान पत्र दिखाया, जिस ने सरसरी तौर से उस पर नजर डाली और आगे बढ़ने का इशारा किया. दरवाजे से घुसने पर उस ने अंदर का निरीक्षण किया. रऊफ ने वहां का जो नक्शा बनाया था, वह एकदम ठीक था.

आजम ने फैक्ट्री के औफिस से छोटे दरवाजे तक का फासला नजरों से मापा, वह लगभग, 500 फुट ही था. यानी 150 गज. आजम यह फासला 15-16 सेकेंड में तय कर सकता था. अब उसे यह इत्मीनान हो गया कि यह काम वाकई ज्यादा मुश्किल नहीं है.

इस से पहले आजम, रऊफ और हैदर इस योजना पर कई बार बात कर चुके थे तथा हर मामले पर अपनी दृष्टि डाल चुके थे. यही नहीं, आजम हैदर से मिलने के बहाने पूरी फैक्ट्री बाहर से देख चुका था.

आजम आगे बढ़ता जा रहा था. लेकिन वह अन्य कर्मचारियों के साथ फैक्ट्री के अंदर नहीं गया, बल्कि कुछ दूरी पर बने शौचालय की ओर बढ़ गया. उसे अपना काम ठीक साढ़े 10 बजे अंजाम देना था. 10:25 पर वह शौचालय से बाहर निकला और फैक्ट्री के औफिस के पास पहुंच कर रुक गया. उस ने जेब में रिवाल्वर टटोला जिसे रऊफ ने दिया था. फिर वह औफिस के अंदर पहुंचा.

आजम ने खिड़की से देखा कि तनख्वाह बांटने वाले कमरे में बूढ़ा एकाउंटेंट और 3 औरतें थीं. एकाउंटेंट तिजोरी से रुपए निकाल कर थैले में डाल चुका था. आजम ने दरवाजे का हैंडल घुमाया और दरवाजे को धक्का दिया. मगर दरवाजा टस से मस न हुआ. एक क्षण के लिए उस के होश उड़ गए.

लेकिन जब उस ने थोड़ा जोर से धक्का दिया तो दरवाजा खुल गया. बूढे़ एकाउंटेंट ने सिर उठा कर उस की ओर देखा, फिर उस के माथे पर बल पड़ गए. उस ने प्रश्नवाचक नजरों से आजम को देखा, जो अब तक रिवाल्वर निकाल चुका था. रिवाल्वर देख कर तीनों औरतों की चीखें निकल गईं.

‘‘खामोश!’’ आजम ने सख्त स्वर में कहा, ‘‘चुपचाप रुपयों का थैला मेरे हवाले कर दो, नहीं तो तुम लोग बेमौत मारे जाओगे.’’

‘‘नहीं.’’ बूढ़े एकाउंटेंट की सांसें फूलने लगीं, ‘‘इस में हमारी तनख्वाहें हैं.’’

‘‘जल्दी करो.’’ आजम ने कठोर स्वर में कहा. बूढे एकाउंटेंट ने डर के मारे नोटों से भरा थैला आजम की ओर बढ़ा दिया. आजम ने झपट कर थैला ले लिया. थैला बहुत भारी था. उसे पहली बार महसूस हुआ कि नोटों में भी काफी वजन होता है. वह सोचने लगा कि थैला ले कर दौड़ लगाने में उसे जरूर परेशानी होगी. लेकिन फिर भी वह 500 फुट का फासला 15-16 सेकेंड में तय कर सकता था.

आजम दरवाजे की ओर कदम बढ़ाते हुए बोला, ‘‘शोर मचाने की जरूरत नहीं है. अगर किसी ने शोर मचाया या मेरा पीछा करने की कोशिश की तो मैं गोली चला दूंगा.’’ फिर शीघ्र ही वह कमरे से बाहर निकला और दरवाजे की कुंडी लगा कर दौड़ना शुरू कर दिया.

7 साल पहले का जमाना लौट आया, जब आजम दर्शकों के सामने दौड़ लगाता था. आज भी वह अपनी योग्यता का भरपूर प्रदर्शन कर रहा था. उस के कानों में तेज हवाओं की सीटियां गूंज रही थीं. आजम को अपने पीछे दौड़ते कदमों का एहसास हो रहा था. ऐसे में उस के पैरों में मानो पंख लग गए थे.

वह जीजान से तेज दौड़ रहा था. उस की नजरों के सामने छोटा दरवाजा तेजी से पास आता जा रहा था. उस दरवाजे के बाहर रऊफ और हैदर गाड़ी में बैठे उस का इंतजार कर रहे थे. तभी उसे एहसास हुआ कि वह जिंदगी में कभी पहले इस से ज्यादा तेज नहीं दौड़ा था.

अचानक उसे किसी ने पीछे से पकड़ने का प्रयास किया. खतरे का एहसास होते ही क्षण भर के लिए उस का बदन टेढ़ा हो गया. आजम का कंधा पूरी ताकत के साथ सीमेंट के पक्के फर्श से टकराया लेकिन रुपयों का थैला उस के हाथ से फिर भी नहीं छूटा. ऐसे में उस के चेहरे के अंग सुरक्षित रहे. अगर वह सीधा गिरता तो शायद काफी समय तक कोई उसे पहचान न पाता.

जमीन से टकराते ही आजम के फेफड़ों में भरी हुई हवा निकल गई. उस ने एक गहरी सांस ले कर जल्दी से उठने की कोशिश की. लेकिन किसी ने उस की टांगें बड़ी मजबूती से पकड़ रखी थीं. उस के गले से एक तेज चीख निकल गई.

यह कैसे संभव हो सकता था. वह तो अपनी जिंदगी में कभी इतना तेज नहीं दौड़ा था. आखिर कोई आदमी उसे किस तरह पकड़ने में सफल हो गया. उस ने सिर घुमा कर पीछे देखा-एक युवक उस के टखने पकडे़ हुए था. वह युवक बोला, ‘‘माफ करना मित्र, इस थैले में मेरी तनख्वाह है. इसलिए मैं तुम्हें यह थैला ले कर भागने की इजाजत नहीं दे सकता.’’

पहले तो आजम को अपनी आंखों पर यकीन नहीं आया. फिर धीरेधीरे उस ने उस युवक को पहचान लिया. उस ने छोटी सी दाढ़ी बढ़ा रखी थी. उसे पकड़ने वाला युवक शकील था, जिस ने 7 साल पहले कालेज में उसे दौड़ प्रतियोगिता में हराया था.

‘‘शकील!’’ आजम के हलक से एक दर्दभरी कराह निकली, ‘‘तुम…तुम यहां क्या कर रहे हो?’’

‘‘मैं इस टूल फैक्ट्री का कर्मचारी हूं.’’ शकील ने कठोर स्वर में जवाब दिया, ‘‘एक विभाग का मैनेजर.’’

फिर पलक झपकते ही वहां फैक्ट्री के बहुत से कर्मचारी इकट्ठा हो गए. उन्होंने पहले रुपयों का थैला उठाया, फिर आजम को उस के पैरों पर खड़ा किया. वे आपस में जोरजोर से बातें कर रहे थे. रऊफ और हैदर को भी पकड़ लिया गया था.

आजम को उन दोनों की कोई परवाह नहीं थी. उसे रुपए हाथ से निकल जाने का भी कोई दुख नहीं हुआ. आजम को बस एक ही बात का अफसोस था कि इस बार भी वह दौड़ में शकील के मुकाबले दूसरे नंबर पर रहा.

– प्रस्तुति : कलीम उल्लाह   

सीलन: उमा बचपन की सहेली से क्यों अलग हो गई?

बचपन से ही वह हमेशा नकाब में रहती थी. स्कूल के किसी बच्चे ने कभी उस का चेहरा नहीं देखा था. हां, मछलियों सी उस की आंखें अकसर चमकती रहती थीं. कभी शरारत से भरी हुई, तो कभी एकदम शांत और मासूम. लेकिन कभीकभी उन आंखों में एक डर भी दिखाई देता था. हम दोनों साथसाथ पढ़ते थे. पढ़ाई में वह बेहद अव्वल थी. जोड़घटाव तो जैसे उस की जबां पर रहता था. मुझे अक्षर ज्ञान में मजा आता था. कहानियां, कविताएं पसंद आती थीं, जबकि गणित के समीकरण, विज्ञान, ये सब उस के पसंदीदा सब्जैक्ट थे.

वह थोड़ी संकोची, किसी नदी सी शांत और मैं एकदम बातूनी. दूर से ही मेरी आवाज उसे सुनाई दे जाती थी, बिलकुल किसी समुद्र की तरह. स्कूल में अकसर ही उसे ले कर कानाफूसी होती थी. हालांकि उस कानाफूसी का हिस्सा मैं कभी नहीं बनता था, लेकिन दोस्तों के मजाक का पात्र जरूर बन जाता था. मैं रिया के परिवार के बारे में कुछ नहीं जानता था. वैसे भी बचपन की दोस्ती घरपरिवार सब से परे होती है. बचपन से ही मुझे उस का नकाब बेहद पसंद था, तब तो मैं नकाब का मतलब भी नहीं जानता था. शक्लसूरत उस की अच्छी थी, फिर भी मुझे वह नकाब में ज्यादा अच्छी लगती थी.

बड़ी क्लास में पहुंचते ही हम दोनों के स्कूल अलग हो गए. उस का दाखिला शहर के एक गर्ल्स स्कूल में हो गया, जबकि मेरा दाखिला लड़कों के स्कूल में करवा दिया गया. अब हम धीरेधीरे अपनीअपनी दिलचस्पी के काम के साथ ही पढ़ाई में भी बिजी हो गए थे, लेकिन हमारी दोस्ती बरकरार रही. पढ़ाईलिखाई से वक्त निकाल कर हम अब भी मिलते थे. वह जब तक मेरे साथ रहती, खुश रहती, खिली रहती. लेकिन उस की आंखों में हर वक्त एक डर दिखता था. मुझे कभी उस डर की वजह समझ नहीं आई. अकसर मुझे उस के परिवार के बारे में जानने की इच्छा होती. मैं उस से पूछता भी, लेकिन वह हंस कर टाल जाती.

हालांकि अब मुझे समझ आने लगा था कि नकाब की वजह कोई धर्म नहीं था, फिर ऐसा क्या था, जो उसे अपना चेहरा छिपाने को मजबूर करता था? मैं अकसर ऐसे सवालों में उलझ जाता. कालेज में भी मेरे अलावा उस की सिर्फ एक ही सहेली थी उमा, जो बचपन से उस के साथ थी. मेरे मन में उसे और उस के परिवार को करीब से जानने के कीड़े ने कुलबुलाना शुरू कर दिया था. शायद दिल के किसी कोने में प्यार के बीज ने भी जन्म ले लिया था. मैं हर मुलाकात में उस के परिवार के बारे में पूछना चाहता था, लेकिन उस की खिलखिलाहट में सब भूल जाता था. अकसर मैं अपनी कहानियों और कविताओं की काल्पनिक दुनिया उस के साथ ही बनाता और सजाता गया.

बड़े होने के साथ ही हम दोनों की मुलाकात में भी कमी आने लगी. वहीं मेरी दोस्ती का दायरा भी बढ़ा. कई नए दोस्त जिंदगी में आए. उन्हें मेरी और रिया की दोस्ती की खबर हुई. एक दिन उन्होंने मुझे उस से दूर रहने की नसीहत दे डाली. मैं ने उन्हें बहुत फटकारा. लेकिन उन के लांछन ने मुझे सकते में डाल दिया था. वे चिल्ला रहे थे, ‘जिस के लिए तू हम से लड़ रहा है. देखना, एक दिन वह तुझे ही दुत्कार कर चली जाएगी. गंदी नाली का कीड़ा है वह.’ मैं कसमसाया सा उन्हें अपने तरीके से लताड़ रहा था. पहली बार उस के लिए दोस्तों से लड़ाई की थी. मैं बचपन से ही अकेला रहा था. मातापिता के पास समय नहीं होता था, जो मेरे साथ बिता सकें. उमा और रिया के अलावा किसी से कोई दोस्ती नहीं. पहली बार किसी से दोस्ती हुई और

वह भी टूट गई. मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था. वह एक सर्द दोपहर थी. सूरज की गरमाहट कम पड़ रही थी. कई महीनों बाद हमारी मुलाकात हुई थी. उस दोपहर रिया के घर जाने की जिद मेरे सिर पर सवार थी. कहीं न कहीं दोस्तों की बातें दिल में चुभी हुई थीं.

मैं ने उस से कहा, ‘‘मुझे तुम्हारे मातापिता से मिलना है.’’

‘‘पिता का तो मुझे पता नहीं, लेकिन मेरी बहुत सी मांएं हैं. उन से मिलना है, तो चलो.’’ मैं ने हैरानी से उस के चेहरे की ओर देखा. वह मुसकराते हुए स्कूटी की ओर बढ़ी. मैं भी उस के साथ बढ़ा. उस ने फिर से अपने खूबसूरत चेहरे को बुरके से ढक लिया. शाम ढलने लगी थी. अंधेरा फैल रहा था. मैं स्कूटी पर उस के पीछे बैठ गया. मेन सड़क से होती हुई स्कूटी आगे बढ़ने लगी. उस रोज मेरे दिल की रफ्तार स्कूटी से भी ज्यादा तेज थी. अब स्कूटी बदनाम बस्ती की गलियों में हिचकोले खा रही थी.

मैं ने हड़बड़ा कर पूछा, ‘‘रास्ता भूल गई हो क्या?’’

उस ने कहा, ‘‘मैं बिलकुल सही रास्ते पर हूं.’’ उस ने वहीं एक घर के किनारे स्कूटी खड़ी कर दी. मेरे लिए वह एक बड़ा झटका था. रिया मेरा हाथ पकड़ कर तकरीबन खींचते हुए एक घर के अंदर ले गई. अब मैं सीढि़यां चढ़ रहा था. हर मंजिल पर औरतें भरी पड़ी थीं, वे भी भद्दे से मेकअप और कपड़ों में सजीधजी. अब तक फिल्मों में जैसा देखता आया था, उस से एकदम अलग… बिना किसी चकाचौंध के… हर तरफ अंधेरा, सीलन और बेहद संकरी सीढि़यां. हर मंजिल से अजीब सी बदबू आ रही थी. जाने कितनी मंजिल पार कर हम लोग सब से ऊपर वाली मंजिल पर पहुंचे. वहां भी कमोबेश वही हालत थी. हर तरफ सीलन और बदबू. बाहर से देखने पर एकदम छोटा सा कमरा, जहां लोगों के होने का अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता था. ज्यों ही मैं कमरे के अंदर पहुंचा, वहां ढेर सारी औरतें थीं. ऐसा लग रहा था, मानो वे सब एक ही परिवार की हों.

मुझे रिया के साथ देख कर उन में से कुछ की त्योरियां चढ़ गईं, लेकिन साथ वालियों को शायद रिया ने मेरे बारे में बता रखा था, उन्होंने उन के कान में कुछ कहा और फिर सब सामान्य हो गईं.

एकसाथ हंसनाबोलना, रहना… उन्हें देख कर ऐसा नहीं लग रहा था कि मैं किसी ऐसी जगह पर आ गया हूं, जो अच्छे घर के लोगों के लिए बैन है. वहां छोटेछोटे बच्चे भी थे. वे अपने बच्चों के साथ खेल रही थीं, उन से तोतली बोली में बातें कर रही थीं. घर का माहौल देख कर घबराहट और डर थोड़ा कम हुआ और मैं सहज हो गया. मेरे अंदर का लेखक जागा. उन्हें और जानने की जिज्ञासा से धीरेधीरे मैं ने उन से बातें करना शुरू कीं.

‘‘यहां कैसे आना हुआ?’’

‘‘बस आ गई… मजबूरी थी.’’

‘‘क्या मजबूरी थी?’’

‘‘घर की मजबूरी थी. अपना, अपने बच्चों का, परिवार का पेट पालना था.’’

‘‘क्या घर पर सभी जानते हैं?’’

‘‘नहीं, घर पर तो कोई नहीं जानता. सब यह जानते हैं कि मैं दिल्ली में रहती हूं, नौकरी करती हूं. कहां रहती हूं, क्या करती हूं, ये कोई भी नहीं जानता.’’

मैं ने एक और औरत को बुलाया, जिस की उम्र 45 साल के आसपास रही होगी.

मेरा पहला सवाल वही था, ‘‘कैसे आना हुआ?’’

‘‘मजबूरी.’’

‘‘कैसी?’’

‘‘घर में ससुर नहीं, पति नहीं, सिर्फ बच्चे और सास. तो रोजीरोटी के लिए किसी न किसी को तो घर से बाहर निकलना ही होता.’’

‘‘अब?’’

‘‘अब तो मैं बहुत बीमार रहती हूं. बच्चेदानी खराब हो गई है. सरकारी अस्पताल में इलाज के लिए गई. डाक्टर का कहना है कि खून चाहिए, वह भी परिवार के किसी सदस्य का. अब कहां से लाएं खून?’’

‘‘क्या परिवार में वापस जाने का मन नहीं करता?’’

‘‘परिवार वाले अब मुझे अपनाएंगे नहीं. वैसे भी जब जिंदगीभर यहां कमायाखाया, तो अब क्यों जाएं वापस?’’

यह सुन कर मैं चुप हो गया… अकसर बाहर से चीजें जैसी दिखती हैं, वैसी होती नहीं हैं. उन लोगों से बातें कर के एहसास हो रहा था कि उन का यहां होना उन की कितनी बड़ी मजबूरी है. रिया दूर से ये सब देख रही थी. मेरे चेहरे के हर भावों से वह वाकिफ थी. उस के चेहरे पर मुसकान तैर रही थी. मैं ने एक और औरत को बुलाया, जो उम्र के आखिरी पड़ाव पर थी. मैं ने कहा, ‘‘आप को यहां कोई परेशानी तो नहीं है?’’

उस ने मेरी ओर देखा और फिर कुछ सोचते हुए बोली, ‘‘जब तक जवान थी, यहां भीड़ हुआ करती थी. पैसों की कोई कमी नहीं थी. लेकिन अब कोई पूछने वाला नहीं है. अब तो ऐसा होता है कि नीचे से ही दलाल ग्राहकों को भड़का कर, डराधमका कर दूसरी जगह ले जाते हैं. बस ऐसे ही गुजरबसर चल रही है. ‘‘आएदिन यहां किसी न किसी की हत्या हो जाती है या फिर किसी औरत के चेहरे पर ब्लेड मार दिया जाता है. ‘‘अब लगता है कि काश, हमारा भी घर होता. अपना परिवार होता. कम से कम जिंदगी के आखिरी दिन सुकून से तो गुजर पाते,’’ छलछलाई आंखों से चंद बूंदें उस के गालों पर लुढ़क आईं और वह न जाने किस सोच में खो गई.मुझे अचानक वह ककनू पक्षी सी लगने लगी. ऐसा लगने लगा कि मैं ककनू पक्षियों की दुनिया में आ गया हूं. मुझे घबराहट सी होने लगी. धीरेधीरे उस के हाथों की जगह बड़ेबड़े पंख उग आए. ऐसा लगा, मानो इन पंखों से थोड़ी ही देर में आग की लपटें निकलेंगी और वह उसी में जल कर राख हो जाएंगी. क्या मैं ऐसी जगह से आने वाली लड़की को अपना हमसफर बना सकता हूं? दिमाग ऐसे ही सवालों के जाल में फंस गया था.

अचानक ही मुझे बुरके में से झांकतीचमकती सी रिया की उदास डरी हुई आंखें दिखीं. मुझे अपने मातापिता  की भागदौड़ भरी जिंदगी दिख रही थी, जिन के पास मुझ से बात करने का वक्त नहीं था और साथ ही, वे दोस्त भी दिखे, जो अब भी कह रहे थे, ‘निकल जा इस दलदल से, वह तुम्हारी कभी नहीं होगी.’ मेरा वहां दम घुटने लगा. मैं वहां से बाहर भागा. बाहर आते ही रिया की अलमस्त सुबह सी चमकती हंसी ने हर सोच पर ब्रेक लगा दिया. मैं दूर से ही उसे खिलखिलाते देख रहा था. उफ, इतने दमघोंटू माहौल में भी कोई खुश रह सकता है भला क्या?

मकड़जाल – रवि की कोनसी बात से मानवी के होश उड़ गए ?

आज मानवी की आंख जरा देर से खुली, लेकिन जब वह सो कर उठी तब उस ने एक अजीब सी बेचैनी महसूस की. अपनी बिगड़ी हालत देख कर वह समझ गई कि जरूर उस का गर्भपात हुआ है. तब उस ने अधीरता से रवि को आवाज लगाई, पर उस की आवाज उसे नहीं सुनाई दी.

‘जरूर रवि मेरे लिए चाय बना रहा होगा,’ यही सोच कर वह देर तक आंखें मूंदे बिस्तर पर पड़ी रही, लेकिन जब काफी देर के बाद भी रवि नहीं आया तब मानवी का माथा ठनका.

फिर वह किसी तरह अपनी बची शक्ति समेट कर बड़ी मुश्किल से उठी और धीरेधीरे चलती हुई किचन की तरफ बढ़ गई.

पर यह क्या? रवि तो किचन में भी नहीं था. तभी उस की नजर घर में फैले सामान पर पड़ी. सामने वाली अलमारी का ताला टूटा पड़ा था और उस में रखा सारा कीमती सामान गायब था.

ये सब देख कर मानवी की चीख निकल गई. तब वह धम से सामने पड़े सोफे पर बैठ गई और अनायास ही उस का दिल भर आया.

एक तरफ वह बहुत कमजोरी महसूस कर रही थी तो दूसरी तरफ मानसिक व आर्थिक रूप से भी अक्षम हो चुकी थी.

उसे आज समझ आ रहा था कि उस ने रवि के साथ लिव इन में रह कर कितनी बड़ी भूल की है.

‘कुछ भी ऐसा मत करना मेरी बेटी, जिस से बाद में हमें पछताना पड़े,’ दिल्ली आते समय उस के बाबूजी उस से बोले थे.

‘ओह, बाबूजी… मैं वहां कुछ बनने जा रही हूं, इसलिए कुछ भी ऐसेवैसे की तो गुंजाइश ही नहीं है…’ इतना कह कर उस ने आगे बढ़ कर अपने बाबूजी के चरणस्पर्श कर लिए थे.

फिर वह अपनी आंखों में ढेर सारे सपने लिए दिल्ली आ पहुंची थी. छोटे शहर की मानवी को दिल्ली स्वप्न नगरी से कम नहीं लगी थी. अपनी मंजिल की तरफ बढ़ते हुए कब रवि उस का हमसफर बन बैठा, इस का एहसास तो उसे बहुत देर में हुआ.

तभी अचानक मानवी को याद आने लगा कि रात को रवि ने जो ड्रिंक उसे औफर किया था, जरूर उस में उस ने कुछ मिलाया होगा. तभी तो उस ड्रिंक को पीते ही उसे बेहोशी छाने लगी थी और शायद इसी वजह से उस का यह गर्भपात हुआ.

अब तो जैसे उस की सोचनेसमझने की शक्ति चुक गई थी. अभी कल ही तो रवि ने उस से मंदिर में शादी की थी. वैसे यह बात नहीं थी कि मानवी ने यह निर्णय जल्दबाजी में लिया था बल्कि लगातार 2 साल लिव इन में रहने के बाद ही उस ने यह निर्णय लिया था.

फिर अचानक मानवी को सारी बीती बातें रवि की सोचीसमझी चाल का हिस्सा लगने लगी थीं.

‘2 महीने का गर्भ है मुझे, अब तो शादी कर लो मुझ से,’ मानवी जब रवि से बोली तो वह खुश होने के बजाय उलटा उस पर ही बरस पड़ा था.

‘पता नहीं, तुम आजकल की लड़कियों को क्या होता जा रहा है. सरकार गर्भनिरोध के नितनए तरीकों पर लाखों रुपए बरबाद कर रही है, पर तुम लोगों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती. मैं तो मस्तमौला हूं पर तुम तो ध्यान रख सकती थी,’ रवि अचानक आक्रामक हो उठा था.

ये सब सुन कर मानवी का मुंह उतर गया था. फिर वह रोंआसी सी अपने कमरे की तरफ बढ़ गई थी.

थोड़ी देर रो लेने के बाद जब उस का जी हलका हुआ, तब उस ने रवि को अपने सामने खड़ा पाया. उस के हाथ में एक ट्रे थी, जिस में कौफी के 2 मग और मानवी के मनपसंद वैज सैंडविच थे.

‘‘लो जानेमन, गुस्सा थूको और नाश्ता कर लो, ऐसी स्थिति में तो तुम्हें बिलकुल भूखा नहीं रहना चाहिए और फिर हमारा नन्हा शैतान भी तो भूखा होगा…’’ इतना कह कर रवि ने अपने हाथों में पकड़ी ट्रे मानवी के सामने रख दी थी.

‘‘वैसे तुम जानते सबकुछ हो पर अनजान बनने का नाटक करते हो, शायद इसी वजह से मैं तुम्हें अपना दिल दे बैठी,’’ इतना कह कर मानवी ने रवि को खींच कर अपने पास बैठा लिया और फिर वे दोनों नाश्ता करने लगे.

‘‘मानवी, ऐसा करते हैं कि आज दोपहर में मूवी देखते हैं और फिर लंच भी बाहर ही कर लेंगे,’’ रवि खाली ट्रे उठाते हुए बोला, ‘‘पर हां, आज का सारा खर्च तुम्हें ही करना होगा, क्योंकि मेरी हालत जरा टाइट है.’’

‘‘वह तो ठीक है जनाब, पर आज तुम्हारा आशिकी भरा व्यवहार देख कर मुझे तुम पर बहुत प्यार आ रहा है,’’ यह कहतेकहते वह रवि से लिपट गई थी.

‘‘मैं एक बात सोच रहा था कि अगर अब जिम्मेदारी आ रही है तो उस से निबटने के लिए प्लानिंग भी करनी पड़ेगी.’’

रवि मानवी को चूमते हुए बोला, ‘‘अगर कुछ इंतजाम हो जाए तो मैं अपना कोई काम ही शुरू कर लूं. मुझे तो इस बंधीबंधाई कमाई वाली प्राइवेट नौकरी में आगे बढ़ने के कोई आसार नजर नहीं आ रहे हैं और फिर क्या शादी के बाद भी हर छोटेछोटे खर्च के लिए मैं तुम पर ही निर्भर रहूंगा?’’

‘‘अच्छा जानू, एक बात तो बताओ जरा कि अगर किसी और की मदद लेने की जगह मैं ही तुम्हें फाइनैंस कर दूं तो?’’

‘‘वाह, इस से बढि़या बात तो कोई हो ही नहीं सकती. यह तो वही कहावत हुई, ‘बगल में छोरा और शहर में ढिंढोरा.’ मुझ से ज्यादा तो तुम आर्थिक रूप से सबल हो. इस का तो मुझे तनिक भी एहसास नहीं था,’’ यह कहतेकहते रवि की आंखों में अचानक ही चमक नजर आने लगी थी.

फिर उस ने अचानक ही मानवी को अपनी ओर खींच लिया था और प्यार भरे स्वर में उस से बोला था, ‘‘मैं तो सोच रहा था कि तुम शायद अपने किसी परिचित या सहकर्मी से मदद लोगी पर तुम्हारे पास तो गढ़ा हुआ धन है, मेरी छिपीरुस्तम…’’

‘‘जनाब, जरा अपनी सोच को ब्रेक लगाइए और ध्यान से मेरी बात सुनिए,’’ मानवी हंसते हुए बोली, ‘‘मेरे पास कोई गढ़ा हुआ धन नहीं बल्कि खूनपसीने से कमाए हुए पैसों की बचत है जिस की मैं ने एफडी करवाई हुई है.’’

अब तक मैं ने इस बारे में तुम्हें नहीं बताया था पर अब जब हम दोनों एक होने जा रहे हैं तो भला यह दुरावछिपाव क्यों?’’

‘‘ओह, मेरी प्यारी मानवी,’’ इतना कह कर रवि ने एक प्यारा सा चुंबन मानवी के गाल पर अंकित कर दिया था.

फिर वे दोनों अपने प्यार की खुमारी में डूबे पिक्चर हौल की तरफ बढ़ गए थे.

पहले उन्होंने मस्त मूवी का मजा लिया और फिर एक बढि़या रेस्तरां में लजीज खाना खाया.

जब रात को दोनों सोने के लिए बिस्तर पर लेटे तब फिर से रवि ने सुबह वाली बात का जिक्र छेड़ दिया.

‘‘मैं क्या कह रहा था मानवी,’’ रवि जरूरत से ज्यादा अपने स्वभाव को नम्र करते हुए बोला, ‘‘कल सोमवार है तो तुम औफिस जाने से पहले बैंक से पैसे निकाल कर मुझे दे देना. पैसे हाथ में होंगे तो आगे की प्लानिंग आसान हो जाएगी,’’ फिर रवि मानवी के बालों में अपना हाथ फेरने लगा था.

‘‘वह तो ठीक है जानू,’’ मानवी रवि को गलबहियां डालती हुई बोली, ‘‘पर पहले हमारी शादी होगी, तभी तुम्हें पैसे मिलेंगे, क्योंकि मैं ने यह पैसे अपने फ्यूचर पार्टनर के लिए ही तो बचा कर रखे थे.’’

‘‘ओह, तो तुम्हें मुझ पर भी विश्वास नहीं है,’’ रवि खुद को मानवी की पकड़ से छुड़ाते हुए बोला, ‘‘क्या, मैं तुम्हें ऐसा लगता हूं जो तुम्हें धोखा दे कर भाग जाऊंगा?’’

‘‘सच, बहुत प्यारे लगते हो तुम, जबजब गुस्से में होते हो,’’ मानवी फिर से रवि से लिपटते हुए बोली, ‘‘मेरे जानेजिगर, अब जब तुम्हें अपना तनमन ही सौंप दिया तो भला शक की कैसी गुंजाइश?

‘‘मैं तो यह सोच रही थी कि अब जब शादी करनी ही है तो फिर देरी कैसी? इधर हमारी शादी हुई तो उधर मैं अपनी सारी जमापूंजी तुम्हें सौंप दूंगी,’’ मानवी रवि के आगोश में समाते हुए बोली.

इतना कह कर मानवी तो सो गई पर रवि बेचैनी से लगातार करवटें बदलता रहा था.

‘‘जल्दी से तैयार हो जाओ. हम लोग अभी मंदिर जा कर शादी करेंगे,’’ इतना कह कर रवि ने एक पैकेट उसे थमा दिया, जिस में एक प्यारी सी लाल साड़ी, लाल चूडि़यां और एक प्यारा सा महकता गजरा था.

‘‘पर रवि, इतनी भी क्या जल्दी है? थोड़ा समय दो मुझे,’’ मानवी चाय बनाते हुए बोली.

‘‘तुम लड़कियां न वाकई में कमाल हो. पहले तो जल्दीजल्दी की रट लगाती हो और फिर अगर तुम्हारी बात मान लो तो उस में भी तुम्हें प्रौब्लम होती है,’’ इतना कह कर रवि गुस्से में पैर पटकता हुआ बाहर चला गया.

वैसे मानवी को ये सब इतनी जल्दी होते देख अटपटा तो अवश्य लग रहा था पर अब शक की कोई गुंजाइश नहीं थी.

इसलिए वह सबकुछ भुला कर खुशीखुशी तैयार होने लगी थी. बीचबीच में उसे अपने घर वालों की याद भी आ रही थी पर फिर उस ने सोच लिया था कि वह शादी होते ही रवि को ले कर अपने घर जाएगी.

मानवी को दुलहन के रूप में देख कर पहले तो वे लोग अवश्य उस से गुस्सा होंगे पर फिर जल्दी ही मान भी जाएंगे, क्योंकि वह सभी की लाड़ली जो है.

‘‘वाह, क्या गजब ढा रही हो तुम दुलहन के रूप में, आज तो सब तुम पर फिदा हो जाएंगे,’’ रवि की इस चुटकी पर मानवी शरमा कर उस के गले जा लगी थी.

‘‘अरे सुनो, तुम्हारा बैंक भी तो मंदिर के रास्ते में ही पड़ता है न. ऐसा करना तुम अपनी चैकबुक भी रख लेना,’’ रवि कुछ सोचते हुए बोला.

‘‘तुम भी न, हर काम जल्दी में ही करते हो,’’ मानवी अपना मांगटीका ठीक करते हुए बोली, ‘‘वैसे मुझे कम से कम इतना तो बता दो कि तुम कौन सा काम शुरू करने वाले हो?’’

‘‘मैडम, यह सरप्राइज है तुम्हारे लिए. बस, यह समझ लो कि यह शादी का तोहफा होगा तुम्हारे लिए,’’ इतना कह कर उस ने मानवी का हाथ पकड़ा और फिर वे दोनों शादी करवाने वाली दुकान की तरफ बढ़ गए. वहां एक पंडित बैठा था. उस ने जल्दबाजी में रीतिरिवाज निबटा कर उन की शादी करवा दी और एक प्रमाणपत्र पकड़ा दिया. फिर लौटते समय मानवी ने बैंक से पैसे निकाल कर रवि को दे दिए.

पैसे मिलते ही रवि के रंगढंग बदल गए, इस का एहसास मानवी को हुआ तो जरूर पर फिर उस ने इसे वहम मान कर आगे बढ़ने में ही भलाई समझी.

मानवी कपड़े चेंज कर के अभी लेटी ही थी कि तभी रवि आ गया, ‘‘यह क्या जानेमन, आज तो सैलिब्रेशन की रात है और तुम इतनी सुस्त सी लेटी हो. दैट्स नौट फेयर माई लव,’’ इतना कह कर उस ने विदेशी शराब 2 गिलासों में उड़ेल दी.

वैसे तो मानवी थकी होने के कारण सोना चाहती थी पर वह रवि को परेशान भी तो नहीं कर सकती थी.

फिर वह तुरंत उठी और रवि के पास जा कर बैठ गई.

‘‘चीयर्स,’’ कह कर इधर दोनों के गिलास आपस में टकराए तो उधर एक अजीब सा उन्माद छा गया मानवी पर. फिर थोड़ी देर बाद उस की आंखें भारी होने लगीं और वह सो गई. अब जब आंखें खुलीं तो रवि का सारा सच उस के सामने आ गया था.

अभी वह इसी उहापोह में थी कि क्या करे? तभी उस के मोबाइल पर उस की सहेली रम्या का फोन आ गया.

‘‘क्या यार, 2 दिन से औफिस क्यों नहीं आई?’’ रम्या हंसते हुए बोली.

‘‘कुछ नहीं यार.’’

‘‘तू अभी बिजी है तो मैं बाद में कौल करती हूं,’’ रम्या ने चुटकी ली.

‘‘ऐसा कुछ नहीं है यार,’’ इतना कह कर मानवी रोने लगी.

‘‘तू रो मत, मैं अभी आती हूं,’’ फिर चिंतातुर रम्या सारा काम बीच में ही छोड़ कर मानवी के पास पहुंच गई.

मानवी की इतनी बुरी हालत देख कर रम्या भी सकते में आ गई. फिर मानवी ने भारी मन से रम्या को सबकुछ बता दिया.

‘‘मैं तो तुझे पहले ही समझाती थी कि मत पड़ इस लिव इन के चक्कर में, पर तब तो मैडम पर इश्क का भूत जो सवार था. लिव इन एक कच्चा रिश्ता होता है जो किसी को भी सुख नहीं देता,’’ रम्या गुस्से में बोले जा रही थी.

‘‘मैं तो आत्महत्या कर के अपना जीवन ही समाप्त कर दूंगी. आखिर किस मुंह से मैं सामना करूंगी अपने घर वालों का?’’ इतना कह कर मानवी फिर से रोने लगी.

‘‘आत्महत्या के बारे में सोचना भी मत,’’ यह कह कर रम्या मानवी को समझाने लगी, ‘‘देख मानवी, अब तक तो तू ने जो कुछ गलत किया सो किया पर अब संभल जा. रही बात तेरे परिवार वालों की, तो यह बात समझ ले कि हमारी लाख गलतियों के बावजूद जो हमें स्वीकार करता है, वह हमारा परिवार ही होता है.

‘‘तू शायद यह नहीं जानती थी कि अपने दोस्त तो हम चुनते हैं पर हमें हमारी फैमिली चुनती है.

‘‘शुरू में तो तेरे परिवार वाले तेरे शुभचिंतक होने के नाते तुझे अवश्य डांटेंगे, लेकिन फिर तुझे खुले मन से स्वीकार भी कर लेंगे.

‘‘आत्महत्या तो रवि को करनी चाहिए तूने तो उसे सच्चे दिल से चाहा था, पर दगाबाज तो वही निकला, जो तुझे आर्थिक, मानसिक व शारीरिक स्तर पर धोखा दे कर चंपत हो गया. वह शातिर तो तेरे पैसों पर ऐश कर रहा होगा और तू यहां रोरो कर बेहाल हो रही है.’’

फिर रम्या ने उस के आंसू पोंछे और उसे अपनी कार में बैठा कर डाक्टर के पास ले गई.

डाक्टर ने पहले मानवी का चैकअप किया और फिर थोड़े उपचार के बाद उसे कुछ दवाएं लिख दीं, जिन से मानवी को बहुत आराम मिला.

इसी बीच रम्या ने मानवी द्वारा बताए गए नंबर पर उस के घर वालों से संपर्क किया और उन्हें सारी बात बता दी.

फिर क्या था? शाम होते ही मानवी के घर वाले उसे लेने आ पहुंचे.

मानवी की मनोदशा उस की मां ने तुरंत भांप ली और उसे अपने प्यार भरे आंचल में समेट लिया. पर मानवी की गलतियों पर उस के बाबूजी ने उसे बहुत डांटा. फिर इस बात का एहसास होते ही कि मानवी को अपनी गलतियों का एहसास है, उन्होंने उसे माफ भी कर दिया.

मानवी अपने घर वालों के साथ अपने घर चली गई. रम्या उस की कार को जाते हुए तब तक देखती रही, जब तक  कार उस की आंखों से ओझल नहीं हो गई.

एक तरफ जहां उसे अपनी सहेली से बिछुड़ना बहुत खल रहा था वहीं दूसरी तरफ उसे इस बात की बेहद खुशी थी कि चाहे देर से ही सही, उस की सहेली उसे उस मकड़जाल से बाहर निकालने में सफल हो गई थी, जिसे उस ने अपनी नासमझी से अपने इर्दगिर्द बुना था.

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