बरसात की काई: भाग 2- क्या हुआ जब दीपिका की शादीशुदा जिंदगी में लौटा प्रेमी संतोष?

संतोष के आग्रह को दीपिका ठुकरा न सकी. कुछ घंटों की असहजता के बाद दोनों पहले की तरह घुलमिल गए. वही हंसीमजाक, वही मधुर स्वरलहरी भरा अभ्यास.

‘‘अपने अतीत में घटे हादसों पर शोकाकुल होने से अब क्या लाभ? जो होना था वह हो चुका. अब आगे की सुध लेने में ही समझदारी है,’’ अगले दिन अभ्यास के बाद उदास संतोष को दीपिका समझा रही थी. उसे संतोष का उदास चेहरा देख कर पीड़ा होती थी.

‘‘तुम्हें अपने सामने किसी और को देख मुझे जो पीड़ा होती है शायद तुम समझ नहीं सकतीं. तुम मेरी थीं और अब…’’ कहते हुए संतोष ने दीपिका की बांहें कस कर पकड़ लीं.

कुंआरी लाज को बचाए रखना हर लड़की को धरोहर में सिखाया जाता है.

लेकिन अब दीपिका कुंआरी नहीं थी, शादीशुदा थी. अब वह इस सीमा को लांघ चुकी थी. शादी के बाद उस ने मजबूरी में इस सीमा को लांघा, तो क्या अब अपनी खुशी के लिए नहीं लांघ सकती और फिर घर की चारदीवारी में किसी को क्या खबर लगेगी. फिर उस के पति ने स्वयं ही संतोष को उस के कमरे में धकेल दिया था. संतोष और दीपिका स्वयं को नहीं रोक सके. उन के प्यार का सागर उमड़ा और फिर बांध को तोड़ते चला गया.

इस घटना के बाद दीपिका का उन्मुक्त व्यवहार लौट आया था. उदय इस से काफी प्रसन्न था. उसे लग रहा था कि दीपिका संगीत में डूब कर इतनी खुश है.

‘‘कभी कोई स्वैटर हमारे लिए भी बना दो,’’ आसमानी रंग का स्वैटर देख उदय के मुंह में पानी आ गया, ‘‘क्या लाजवाब डिजाइन डाली है इस बार तुम ने.’’

‘‘अगली बार आप के लिए बना दूंगी, पक्का. यह तो अपने चचेरे भाई के लिए बना रही हूं. दरअसल, अगले महीने उस का जन्मदिन आ रहा है.’’

‘‘तो हो क्यों नहीं आतीं तुम अपने मायके? काफी अरसे से गई नहीं.’’

‘‘नहीं, नहीं, मुझे नहीं जाना. आप के खानेपीने का क्या होगा और फिर…’’

‘‘मैं कोईर् दुधमुंहा बच्चा हूं, जो इतनी चिंता करती हो? मायके जाने में भला कौन लड़की मना करती है? तुम तसल्ली से जाओ और सब से मिल कर आओ. मैं अपनी देखभाल खुद कर लूंगा,’’ उदय ने जोर दिया तो दीपिका मना न कर सकी.

‘‘अब क्या होगा, अब हम कैसे मिलेंगे? उस शहर में मिलना असंभव है, किसी ने देख लिया तो अनर्थ हो जाएगा,’’ आज दोपहरी में दीपिका का अभ्यास में बिलकुल मन नहीं लग रहा था.

‘‘तुम चिंता मत करो. तुम से मिले बिना मैं भी नहीं रह सकता हूं. कुछ सोचता हूं…’’ संतोष ने आखिर एक उपाय निकाल लिया, ‘‘तुम और मैं यहीं इसी शहर में किसी होटल में रह लेंगे 3-4 दिन. उदय को तुम खुद ही फोन करती रहना अपने मोबाइल से. होटल के कमरे से बाहर ही नहीं निकलेंगे तो कोई हमें देखेगा कैसे? हंस कर कहते हुए संतोष दीपिका के बदन पर अठखेलियां करने लगा.’’

टे्रन के टिकट हाथ में लिए उदय को बाय करती दीपिका ट्रेन में सवार हो गई. अगले स्टेशन पर संतोष उस की प्रतीक्षा कर रहा था. वहां से दोनों होटल चले गए. रिसैप्शन पर गलत नाम बताने की सोची, किंतु आजकल आईडैंटिटी पू्रफ, घर का पता, पैन कार्ड आदि की कौपी रखी जाती है, इसलिए असली नामपता बताते हुए दोनों की हालत खराब हो रही थी. हर जगह सीसीटीवी कैमरे लगे थे, जिन से मुंह छिपाते दीपिका को किसी कालगर्ल वाली अनुभूति हो रही थी.

‘‘मुझे पता होता कि ऐसा अनुभव रहेगा तो मैं कभी नहीं आती,’’ दीपिका को खुद पर गिलानी हो रही थी.

‘‘अब तो कमरे में आ गए हैं… छोड़ो न बातों को और आ जाओ मेरी बांहों में,’’ संतोष ऐसे लालायित था जैसे आज उस की सुहागरात हो.

‘‘ठहरो, पहले उदय को फोन कर के बता तो दूं कि मैं पहुंच गई हूं.’’

‘‘अरेअरे, यह क्या कर रही हो? अभी नहीं, तुम कल सवेरे पहुंचोगी. भूल गईं कि अभी तुम ट्रेन में सफर कर रही हो.’’

संतोष का अट्टहास दीपिका को जरा भी अच्छा नहीं लगा. एक ही कमरे में, बिना किसी लोकलाज के बावजूद दीपिका का यौवन संतोष की बांहों को टालने लगा. सिरदर्द का बहाना बना कर वह जल्दी सो गई.

अगली सुबह जब दीपिका ने चाय का और्डर दिया तो 2-3 वेटरों को उस ने अपनी ओर देख फुसफुसाते हुए पाया. ‘हो न हो ये हम दोनों के भिन्न नाम और पते के बारे में बात कर रहे होंगे… क्या सोच रहे होंगे ये मेरे बारे में… छि…’ दीपिका के मन का चोर बारबार सिर उठा रहा था.

‘‘अब तो फोन कर लूं उदय को? अब तक तो ट्रेन पहुंच गई होगी,’’ थोड़ीथोड़ी देर में यही राग अलापती दीपिका से संतोष भी परेशान हो उठा. बोला ‘‘हां, कर लो.’’

‘‘तुम्हारे चायपानी का इंतजाम तो ठीक है न? पता नहीं कैसे यह ट्रेन लेट हो गई. अकसर तो समय पर पहुंचती है,’’ उदय के सुर में चिंता घुली थी. शुक्र है दीपिका ने फोन उठाते ही यह नहीं कहा कि मैं ठीक से पहुंच गई. एक बार फिर वह बच गई. वह बहुत घबरा गई. बोली, ‘‘यदि मेरे मुंह से निकल जाता कि मैं ठीकठाक पहुंच गई तो क्या होता, संतोष?’’

‘‘कहा तो नहीं न. मत घबराओ इतना. कल वैसे ही तुम्हारे सिर में दर्द था. आज सोचसोच कर और सिरदर्द कर लोगी,’’ इस चोरीछिपे की पिकनिक से न तो दीपिका खुश थी और न ही संतोष को चैन था.

‘‘चलो, आज नीचे रेस्तरां में चल कर नाश्ता कर के आते हैं. तुम्हारा थोड़ा मन बहल जाएगा,’’ संतोष बोला.

उदय के साथ रहने से दीपिका को स्वास्थ्यवर्धक नाश्ता करने की आदत हो गईर् थी. उस ने ओट्स और आमलेट लिया. संतोष ने कालेज के दिनों की तरह आलू के परांठे और रायता मंगवाया.

‘‘दीपू, इतना हलका नाश्ता क्यों? पेट ठीक नहीं है क्या?’’ संतोष ने पूछा.

‘‘अब हम कालेज में पढ़ते लड़केलड़की नहीं रहे, संतोष. उम्र के साथ हमें अपना खानपान और मात्र भी बदलनी चाहिए. उदय कहते हैं कि…’’ पर फिर दीपिका संभल कर चुप हो गई.

यह क्या हो रहा था उसे… बारबार उदय का खयाल, उदय की बात. उदय का नाम सुन संतोष के चेहरे का रंग फीका पड़ गया. दोनों ने चुपचाप नाश्ता किया और फिर कमरे में लौट आए.

‘‘मैं बहुत बोर हो रही हूं, चलो कहीं घूम आएं,’’ दीपिका के अनुरोध पर संतोष मान गया. कमरे में पड़ेपड़े टीवी देख कर वह भी उकता रहा था. देर शाम तक दोनों ने आसपास के बाजार की खाक छानी और रात को कमरे में लौट आए. कपड़े बदल कर दीपिका बिस्तर पर लेट तो गई, किंतु जैसे वह उदय को टालती थी, वैसे आज उस का हृदय संतोष को टालने को कर रहा था. यह अजीब अपराधबोध की भावना क्यों जकड़ रही थी उसे आज?

संतोष को वह टाल नहीं पाई. मगर उस की ठंडी प्रतिक्रिया पर संतोष ने शिकायत अवश्य की, ‘‘यह क्या यंत्रचालित सी व्यवहार कर रही हो आज? क्या हुआ है?’’

दीपिका ने कोई उत्तर नहीं दिया. उस का मन स्वयं नहीं समझ पा रहा था कि जिन घडि़यों के लिए वह तरसती रही, आज जब वे सामने हैं, तो क्यों वह भाग कर उन्हें नहीं पकड़ लेना चाहती?

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उधार का रिश्ता: लिव इन रिलेशन के सपने देख रही सरिता के साथ क्या हुआ?

टैलीफोन की घंटी लगातार बजती जा रही थी. मैं ने उनीदी आंखों से घड़ी की ओर देखा. रात के 2 बजे थे. ‘इस समय कौन हो सकता है?’ मैं ने स्वयं से ही सवाल किया और जल्दी से टैलीफोन का रिसीवर उठाया, ‘‘मेजर रंजीत दिस साइड.’’

‘‘सर, कैप्टन सरिता ने आत्महत्या कर ली है’’ औफिसर्स मैस के हवलदार की आवाज थी. वह बहुत घबराया हुआ लग रहा था.

‘‘क्या?’’

‘‘सर, जल्दी आइए.’’

‘‘घबराओ मत, मैं तुरंत आ रहा हूं. किसी को भी मेरे आने तक किसी चीज को हाथ मत लगाने देना.’’

‘‘जी सर.’’

मुझे विश्वास ही नहीं हुआ कि कैप्टन सरिता ऐसा कर सकती है. वह एक होनहार अफसर थी. मैं नाइट सूट में था और उन्हीं कपड़ों में औफिसर्स मैस की ओर भागा. वहां पहुंचा तो कैप्टन नीरज और कैप्टन वर्मा पहले से मौजूद थे. कैप्टन नीरज ने सरिता के कमरे की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘‘सर, इस ओर.’’

‘‘ओके,’’ हम सब कैप्टन सरिता के कमरे की ओर बढ़े. नाइलौन की रस्सी का फंदा बना कर वह सीलिंग फैन से झूल गई थी.

‘‘सब से पहले कैप्टन सरिता को इस अवस्था में किस ने देखा?’’  मैस स्टाफ से मैं ने पूछा.

‘‘सर, 10 बजे मैम ने गरम दूध मंगवाया था. मैं दूध देने आया तो मैम लैपटौप पर काम कर रही थीं. मैं ने दूध का गिलास रख दिया. उन्होंने कहा, ‘आधे घंटे में गिलास ले जाना.’ मैं ‘जी’ कह कर लौट आया. आ कर कुरसी पर बैठा तो मेरी आंख लग गई. आंख खुली तो देखा कि मैम के कमरे की लाइट जल रही थी. सोचा, खाली गिलास उठा लाता हूं. मैम के कमरे में आया तो उन को पंखे से लटके देखा. मैं ने उन का चेहरा देख कर अनुमान लगाया था कि वे मर चुकी हैं. तुरंत आप को सूचित किया.’’

‘‘क्या तुम्हें इस बात का ध्यान नहीं रहा कि इतनी रात गए किसी महिला अफसर के कमरे में नहीं जाना चाहिए?’’ मैं ने मैस हवलदार को घूरते हुए कहा.

‘‘सर, मुझे समय का ध्यान नहीं रहा. मैं ने घड़ी की ओर देखा ही नहीं. मैं ने सोचा, मेरी आंख लगे अधिक देर नहीं हुई है. इसलिए चला गया, सर.’’

मैं ने देखा, मैस हवलदार एकदम डर गया है. शायद उसे लग रहा था कि इस छोटी सी गलती के लिए उसे ही न फंसा दिया जाए.

‘‘कैप्टन नीरज, देखो कोई सुसाइड नोट है या नहीं? तब तक मैं मिलिटरी पुलिस को इस की सूचना दे देता हूं,’’ यह कहते हुए मैं टैलीफोन की ओर बढ़ा. मैं ने नंबर डायल किया तो दूसरी ओर से आवाज आई, ‘‘सर, मैं डेस्क एनसीओ हवलदार राम सिंह बोल रहा हूं.’’

इधर से मैं ने कहा, ‘‘मैं ओएमपी से मेजर रंजीत सिंह बोल रहा हूं. मुझे आप के ड्यूटी अफसर से तुरंत बात करनी है.’’

‘‘सर, एक सेकंड होल्ड करें, मैं लाइन ट्रांसफर कर रहा हूं,’’ राम सिंह ने कहा.

कुछ समय बाद दूसरी ओर से आवाज आई, ‘‘ड्यूटी अफसर कैप्टन डोगरा स्पीकिंग, सर, इतनी रात गए कैसे याद किया?’’

‘‘एक बुरी खबर है कैप्टन डोगरा. कैप्टन सरिता कमीटैड सुसाइड,’’ मैं ने उसे बताया.

‘‘ओह, सर, यह तो बहुत बुरी खबर है. सर, किसी को बौडी से छेड़छाड़ न करने दें. मैं अभी टीम भेज रहा हूं. प्लीज मेजर साहब, डू इनफौर्म टू ब्रिगेड मेजर इन ब्रिगेड हैडक्वार्टर. आई विल आलसो इनफौर्म हिम.’’ यह कह कर कैप्टन डोगरा ने फोन काट दिया.

मैं ने तुरंत बीएम साहब को फोन लगाया. दूसरी ओर से आवाज आई, ‘‘यस, मेजर बतरा स्पीकिंग.’’

‘‘मेजर रंजीत दिस साइड,’’ मैं ने कहा.

‘‘इन औड औवर्स? इज देयर ऐनी इमरजैंसी, मेजर रंजीत?’’

‘‘यस, कैप्टन सरिता कमीटैड सुसाइड.’’

‘‘ओह, सैड न्यूज, मेजर. हैव यू इनफौर्म मिलिटरी पुलिस?’’

‘‘यस, मेजर.’’

‘‘ओके, प्लीज डू नीडफुल.’’

‘‘राइट, मेजर.’’

मैं अभी फोन कर के हटा ही था कि मिलिटरी पुलिस की टीम आ गई. उस टीम में 1 सूबेदार और 2 हवलदार थे. उन्होंने मुझे सैल्यूट किया और चुपचाप अपने काम में लग गए. इतने में कैप्टन नीरज मेरे पास आया और कहा, ‘‘सर, और कुछ तो मिला नहीं, लेकिन यह डायरी मिली है. मैं मिलिटरी पुलिस की टीम से बचा कर ले आया हूं. सोचा, टीम के देखने से पहले शायद आप देखना चाहें.’’

‘‘गुड जौब, कैप्टन नीरज.’’

‘‘थैंक्स, सर.’’

‘‘कैप्टन नीरज, हैडक्लर्क को मेरे पास भेजो.’’

‘‘राइट, सर.’’

थोड़ी देर बाद हैडक्लर्क साहब आए, सैल्यूट किया और चुपचाप आदेश के लिए खड़े हो गए. मैं ने उन्हें गहराई से देखा और कहा, ‘‘यू नो, व्हाट हैज हैपेंड?’’

‘‘यस सर.’’

‘‘गिव टैलीग्राम टू हर पेरैंट्स. जस्ट राइट डाउन, कैप्टन सरिता एक्सपायर्ड, गिव नियरैस्ट रेलवे स्टेशन ऐंड माई सैल नंबर. डोंट राइट वर्ड सुसाइड.’’

‘‘राइट, सर.’’

‘‘मेक दिस टैलीग्राम मोस्ट अरजैंट.’’

‘‘सर, हम सैल से भी इनफौर्म कर सकते हैं.’’

‘‘कर सकते हैं, पर इस समय हम इस अवस्था में नहीं हैं कि उन से बात कर सकें. जस्ट डू इट, इट इज माई और्डर.’’

‘‘यस, सर,’’ हैडक्लर्क साहब ने सैल्यूट किया और चले गए.

हैडक्लर्क साहब गए तो मेरे सेवादार ने आ कर कहा, ‘‘सर, ब्रिगेड कमांडर साहब आप को याद कर रहे हैं. उन्होंने कहा है, जिस अवस्था में हों, आ जाएं.’’

‘‘उन के साथ और कोई भी है?’’

‘‘सर, बीएम साहब हैं.’’

‘‘ठीक है, तुम उन को औफिस में ले जा कर बैठाओ. उन्हें पानी वगैरह पिलाओ, तब तक मैं आता हूं.’’

‘‘जी, सर,’’ कह कर वह चला गया लेकिन मैं खुद पिछली यादों में खो गया.

अभी पिछले सप्ताह की ही तो बात है, ब्रिगेड औफिसर्स मैस की पार्टी में कैप्टन सरिता ब्रिगेडियर यानी ब्रिगेड कमांडर साहब से चिपक कर डांस कर रही थी. मुझे ही नहीं बल्कि पूरी यूनिट के सभी अफसरों को यह बुरा लगा था. मैं उस का कमांडिंग अफसर था. मेरा फर्ज था, मैं उसे समझाऊं. दूसरे रोज औफिस में बुला कर उसे समझाने की कोशिश भी की थी.

‘यह सब क्या था, कैप्टन सरिता?’

‘क्या था, सर?’ उलटे उस ने मुझ से सवाल किया था.

‘कल रात पार्टी में ब्रिगेडियर साहब के साथ इस तरह डांस करना क्या अच्छी बात थी?’ मैं ने उसे डांटते हुए कहा. कुछ समय के लिए वह झिझकी फिर बड़े साफ शब्दों में बोली, ‘सर, मैं उन के साथ रिलेशन में हूं.’

‘क्या बकवास है यह? जानती हो तुम क्या कह रही हो? तुम कैप्टन हो, वे ब्रिगेडियर हैं. तुम्हारे और उन के स्टेटस में जमीनआसमान का फर्क है. वे शादीशुदा हैं, 2 बच्चे और एक सुंदर बीवी है. तुम उन के साथ कैसे रिलेशन रख सकती हो? थोड़ा सा भी दिमाग है तो जरा सोचो.’

‘सर, उन्होंने कहा है, वे मेरे साथ लिव इन रिलेशन में रहेंगे. वे अपने बीवीबच्चों को भी खुश रखेंगे और मुझे भी.’

‘माइ फुट. वह तुम्हें यूज करेगा और छोड़ देगा. वह मर्द है, सरिता, मर्द. उस को कुछ फर्क नहीं पड़ता, वह चाहे 10 के साथ संबंध रखे. तुम लड़की हो, एक कुंआरी लड़की, तुम्हारा ब्राइट कैरियर है. जरा सोचो, लोग, तुम्हारे मांबाप, समाज, सब तुम्हें उस की रखैल कहेंगे और रखैल को समाज में अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता.’

मैं ने उसे हर तरह से समझाने की कोशिश की थी. उस ने मेरी किसी बात का जवाब नहीं दिया था, केवल सैल्यूट किया और मेरे औफिस से बाहर चली गई थी. मैं सोचने लगा कि ‘लिव इन रिलेशन’ कैसा रिश्ता है जो धीरेधीरे समाज की युवा पीढ़ी में फैलता जा रहा है, बिना इस के परिणाम सोचे. मैं दूरदूर तक इस सवाल का जवाब नहीं दे पा रहा था. मैं खुद को असहाय महसूस कर रहा था. इसी स्थिति में मैं औफिस पहुंचा. हालांकि मुझ से कहा गया था कि मैं जिस स्थिति में हूं वैसे ही आ जाऊं लेकिन मैं यूनीफार्म में पहुंचा. मुझे नाइट सूट में जाना अच्छा नहीं लगा, वह भी अपने सीनियर अधिकारी के समक्ष.

औफिस में आते ही मैं ने ब्रिगेडियर साहब व बीएम साहब को सैल्यूट किया और अपनी कुरसी पर आ कर बैठ गया. सुबह के 8 बज चुके थे. सभी जवान और अधिकारी काम पर आ चुके थे. अर्दली मेरे औफिस के बाहर आ कर खड़ा हो गया था.

‘‘आस्क अर्दली टू क्लोज द डोर ऐंड नौट अलाऊ ऐनीबडी टू कम इन,’’ ब्रिगेडियर साहब ने कहा.

मैं ने अर्दली को बुला कर वैसा ही करने को कहा.

‘‘मेजर रंजीत, नाऊ टैल मी व्हाट इज योर ऐक्शन प्लैन?’’ बीएम साहब ने सीधे सवाल किया.

‘‘सर, मैं ने कैप्टन सरिता के पेरैंट्स को इनफौर्म कर दिया है, जिस में केवल उस की मौत की बात लिखी है. सुसाइड के बारे में कुछ नहीं कहा है. मिलिटरी पुलिस ने बौडी उतार कर पोस्टमौर्टम के लिए भेज दी है. और मामले की जांच कराने के लिए मैं ने अपने सहायक को निर्देश दे दिया है कि वह ब्रिगेड हैडक्वार्टर को निवेदन कर दे.’’

‘‘ओके, फाइन,’’ बीएम ने कहा.

‘‘अब आगे, सर?’’ बीएम साहब ने अब ब्रिगेड कमांडर साहब से कहा.

कमांडर साहब बोले, ‘‘मेजर रंजीत, यह आप के हाथ में कैप्टन सरिता की डायरी है?’’

‘‘जी सर.’’

‘‘आप ने पढ़ा इसे?’’

‘‘नहीं सर, मैं पढ़ नहीं पाया.’’

‘‘मैं मानता हूं, जो कुछ हुआ, गलत हुआ. कैप्टन सरिता जैसी होनहार अफसर इस कदर भावना में बह कर अपनी जान गंवा देगी, मैं ने इस का अंदाजा नहीं लगाया था.’’

ब्रिगेड कमांडर साहब के चेहरे से दुख साफ झलक रहा था, लगा जैसे उस की मौत में कहीं न कहीं वे स्वयं को भी दोषी मानते हों.

‘‘रंजीत, क्या कैप्टन सरिता को औन ड्यूटी शो नहीं किया जा सकता?’’

मैं ब्रिगेड कमांडर साहब को कैप्टन सरिता का हत्यारा मानता था. कैप्टन सरिता तो बच्ची थी लेकिन वे तो बच्चे नहीं थे. वे उसे समझाते तो संभवत: यह नौबत न आती. लेकिन आज वे एक अच्छा काम करने जा रहे थे. मन के भीतर अनेक प्रकार के विरोध होने पर भी, कैप्टन सरिता के परिवार वालों के लिए मैं इस का विरोध नहीं कर पाया और कहा, ‘‘सर, ऐसा हो जाए तो बहुत अच्छा होगा.’’

‘वैसे भी इस आत्महत्या को हत्या साबित करना बहुत कठिन था,’ मैं ने सोचा.

‘‘ओके, मेजर बतरा, मेरे औफिस में एक मीटिंग का प्रबंध करो. ओसी प्रोवोस्ट यूनिट (मिलिटरी पुलिस), कमांडैंट मिलिटरी अस्पताल और इंक्वायरी करने वाली कमेटी के चेयरमैन को बुलाओ. मेजर रंजीत तुम भी जरूर आना, प्लीज.’’

‘‘राइट सर. एट व्हाट टाइम, सर?’’

‘‘11 बजे और कोर्ट औफ इंक्वायरी के लिए जो आप लैटर लिखें उस में सुसाइड शब्द का इस्तेमाल मत करें, जस्ट यूज डैथ औफ कैप्टन सरिता.’’

‘‘सर’’ मेरे इतना कहते ही सब उठ कर चले गए. मैं ने असिस्टैंट साहब को बुलाया और कैप्टन सरिता की डैथ के संबंध में ब्रिगेड हेडक्वार्टर को लिखे जाने वाले लैटर के लिए आदेश दिए. मैं ने अर्दली को बुला कर चायबिस्कुट लाने के लिए कहा. वह ले आया तो धीरेधीरे चाय की चुसकियां लेने लगा. मेरे पास इतना समय नहीं था कि मैं बंगले पर जा कर नाश्ता करता और फिर मीटिंग पर जाता. मैं कैप्टन सरिता की डायरी को भी एकांत में पढ़ना चाहता था, इसलिए उसे औफिस के लौकर में बंद कर दिया.

11 बजने में 10 मिनट बाकी थे जब मैं ब्रिगेड हैडक्वार्टर के मीटिंग हौल में पहुंचा. सभी अधिकारी, जिन्हें बुलाया गया था,आ चुके थे, केवल बीएम साहब और कमांडर साहब का इंतजार था. मैं ने सभी अधिकारियों को सैल्यूट किया और अपने लिए निश्चित कुरसी पर जा कर बैठ गया.

ठीक 11 बजे बीएम साहब और ब्रिगेड कमांडर साहब आए. सभी ने उठ कर उन का अभिवादन किया. सभी के बैठ जाने के बाद कमांडर साहब ने कहना शुरू किया, ‘‘जैंटलमेन, आप सब जानते हैं, हम यहां क्यों इकट्ठे हुए हैं? मैं आप का अधिक समय न लेते हुए सीधी बात पर आ जाता हूं. कैप्टन सरिता अब हमारे बीच नहीं है. शी हैज कमीटेड सुसाइड.’’

कुछ समय रुक कर कमांडर साहब ने अपनी बात की प्रतिक्रिया जानने के लिए सभी के चेहरों को गौर से देखा, ‘‘मैं मानता हूं, आत्महत्या को भारतीय सेना में अपराध माना गया है और ऐसा अपराध करने वालों के परिवार वालों को सेना और सरकार किसी प्रकार की सुविधा नहीं देती. वे सड़क पर आ जाते हैं जिन्होंने कोई अपराध नहीं किया होता. इसलिए मैं चाहता हूं, कैप्टन सरिता की डैथ को औन ड्यूटी शो किया जाए जिस से उस के परिवार वालों को सभी सुविधाएं मिलें. आप लोगों के क्या विचार हैं, इसे जानने के लिए हम यहां एकत्रित हुए हैं.’’

काफी समय तक खामोशी छाई रही फिर प्रोवोस्ट यूनिट के ओसी कर्नल राजन बोले, ‘‘सर, ऐसा हो जाए तो इस से अच्छी बात और क्या हो सकती है. इसलिए नहीं कि कैप्टन सरिता एक अफसर थी बल्कि पिछले दिनों हवलदार जिले सिंह के केस में भी ऐसा किया गया.’’

‘‘और कर्नल सुरेश?’’ कमांडर साहब ने ओसी एमएच से पूछा.

‘‘सर, मुझे कोई एतराज नहीं है, केवल मिलिटरी पुलिस की इनीशियल रिपोर्ट को समझदारी से बदलना होगा.’’

कर्नल सुरेश के सवाल का जवाब कर्नल राजन ने दिया, ‘‘वह सब मैं बदल दूंगा.’’

‘‘फिर, पोस्टमौर्टम रिपोर्ट को मैं देख लूंगा.’’

‘‘कर्नल सुब्रामनियम, आप कोर्ट औफ इंक्वायरी की अध्यक्षता कर रहे हैं, आप को पता है, आप को क्या करना है?’’ कमांडर साहब ने पूछा.

‘‘सर.’’

‘‘तो जैंटलमैन, यह तय रहा कि कैप्टन सरिता के केस में क्या करना है?’’ कमांडर साहब ने कहना शुरू किया, ‘‘कर्नल सुरेश, पोस्टमौर्टम रिपोर्ट में कारण ऐसा होना चाहिए जिसे कहीं भी चैलेंज न किया जा सके.’’

‘‘सर, ऐसा ही होगा.’’

‘‘ओके जैंटलमेन, मीटिंग अब खत्म. एक सप्ताह में सारा काम हो जाए.’’

मीटिंग समाप्त होने पर सभी अपनेअपने कार्यालय में चले गए. गाड़ी में बैठते ही मुझे कैप्टन सरिता की डायरी की याद आई. ड्राइवर ने जब इस आशय से मेरी ओर देखा कि अब कहां जाना है तो मैं ने उसे औफिस चलने के लिए कहा. औफिस पहुंच कर मैं ने डायरी निकाली और पढ़ने लगा :

‘‘मेरे सपनों के राजकुमार, सर, मैं मानती हूं, किसी कुंआरी लड़की का एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति से प्यार करना सुगम नहीं है. इस का कोई औचित्य भी नहीं है परंतु मैं जिस माहौल में पल, पढ़ कर बड़ी हुई, उस में अधेड़ उम्र के व्यक्ति को पसंद किया जाता है. मेरे दादा मेरी दादी से बहुत बड़े थे, मेरी मां भी मेरे पिताजी से बहुत छोटी थीं. शायद यही कारण था, आप को जब पहली बार देखा तो आप की ओर आकर्षित हुए बिना न रह पाई. आप ने मुझे सब बताया कि आप के 2 बच्चे हैं, एक सुंदर बीवी है जिसे आप किसी भी तरह छोड़ नहीं सकते. मैं तो ‘लिव इन रिलेशन’ की बात कर रही थी जिसे आप ने मन की गहराइयों से माना और स्वीकार किया. यह रिलेशन एक लंबे समय तक चलता रहा.

‘‘सोचा था, किसी को कानोंकान खबर नहीं होगी लेकिन उस रोज आप की बीवी आईं और हमें रंगे हाथों पकड़ लिया. उन्होंने मुझे इतना बुराभला कहा कि मैं बर्दाश्त नहीं कर पाई, इसलिए भी कि आप चुपचाप सुनते रहे. आप की कातर नजरों ने इस बात की घोषणा कर दी कि जिसे मैं ने ‘लिव इन रिलेशन’ का रिश्ता समझा था, वह तो उधार का रिश्ता था, जो अब टूट चुका है. सो, मैं ने सोचा कि मेरे जीने का अब कोई औचित्य नहीं है, इसीलिए मैं ने स्वयं को खत्म करने का निर्णय लिया है.’’

मैं ने डायरी बंद कर दी और इस सोच में डूब गया कि 1 सप्ताह के भीतर सबकुछ ठीक हो जाएगा. सरकार की ओर से कैप्टन सरिता के परिवार वालों को सारी सुविधाएं मिल जाएंगी यानी जब तक उस की सर्विस रहती तब तक के लिए पूरा वेतन, उस के बाद पैंशन भी. परंतु अब भी मेरे सामने अनेक सवाल मुंहबाए खड़े हैं. क्या किसी कुंआरी लड़की अथवा किसी ब्याहता का इस तरह ‘लिव इन रिलेशन’ में रहना और अपनी जान गंवाना ठीक है? मैं इस सवाल का जवाब नहीं ढूंढ़ पा रहा हूं.

परीक्षा: क्या हुआ जब खटपट की वजह से सुषमा मायके को तैयार हो गई?

पंकज दफ्तर से देर से निकला और सुस्त कदमों से बाजार से होते हुए घर की ओर चल पड़ा. वह राह में एक दुकान पर रुक कर चाय पीने लगा. चाय पीते हुए उस ने पीछे मुड़ कर ‘भारत रंगालय’ नामक नाट्यशाला की इमारत की ओर देखा. सामने मुख्यद्वार पर एक बैनर लटका था, ‘आज का नाटक-शेरे जंग, निर्देशक-सुधीर कुमार.’

सुधीर पंकज का बचपन का दोस्त था. कालेज के दिनों से ही उसे रंगमंच में बहुत दिलचस्पी थी. वैसे तो वह नौकरी करता था किंतु उस की रंगमंच के प्रति दिलचस्पी जरा भी कम नहीं हुई थी. हमेशा कोई न कोई नाटक करता ही रहता था.

चाय पी कर वह चलने को हुआ तो सोचा कि सुधीर से मिल ले, बहुत दिन हुए उस से मुलाकात हुए. उस का नाटक देख लेंगे तो थोड़ा मन बहल जाएगा. वह टिकट ले कर हौल के अंदर चला गया.

नाटक खत्म होने के बाद दोनों मित्र फिर चाय पीने बैठे. सुधीर ने पूछा, ‘‘यार, तुम इतनी दूर चाय पीने आते हो?’’

पंकज ने उदास स्वर में जवाब दिया, ‘‘दफ्तर से पैदल लौट रहा था. सोचा, चाय पी लूं और तुम्हारा नाटक भी देख लूं. बहुत दिन हो गए तुम्हारा नाटक देखे.’’

सुधीर ने उस का झूठ ताड़ लिया. पंकज के उदास चेहरे को गौर से देखते हुए उस ने पूछा, ‘‘तुम्हारा दफ्तर इतनी देर तक खुला रहता है? क्या बात है? इतना बुझा हुआ चेहरा क्यों है?’’

पंकज ने ‘कुछ नहीं’ कह कर बात टालनी चाही तो सुधीर चाय के पैसे देते हुए बोला, ‘‘चलो, मैं भी चलता हूं तुम्हारे साथ. काफी दिन से भाभीजी से भी भेंट नहीं हुई है.’’

‘‘आज नहीं, किसी दूसरे दिन,’’ पंकज ने घबरा कर कहा.

सुधीर ने पंकज की बांह पकड़ ली, ‘‘क्या बात है? कुछ आपस में खटपट हो गई है क्या?’’

पंकज ने फिर ‘कोई खास बात नहीं है’ कह कर बात टालनी चाही, लेकिन सुधीर पीछे पड़ गया, ‘‘जरूर कोई बात है, आज तक तो तुझे इतना उदास कभी नहीं देखा. बताओ, क्या बात है? अगर कोई बहुत निजी बात हो तो…?’’

पंकज थोड़ा हिचकिचाया. फिर बोला, ‘‘निजी क्या? अब तो बात आम हो गई है. दरअसल बात यह है कि आमदनी कम है और सुषमा के शौक ज्यादा हैं. अमीर घर की बेटी है, फुजूलखर्च की आदत है. परेशान रहता हूं, रोज इसी बात पर किचकिच होती है. दिमाग काम ही नहीं करता.’’

‘‘वाह यार,’’ सुधीर उस की पीठ पर हाथ मार कर बोला, ‘‘तुम्हें जितनी तनख्वाह मिलती है, क्या उस में 2 आदमियों का गुजारा नहीं हो सकता है? बस, अभी 3-4 साल तक बच्चा पैदा नहीं करना. मैं तुम से कम तनख्वाह पाता हूं, लेकिन हम दोनों पतिपत्नी आराम से रहते हैं. हां, फालतू खर्च नहीं करते.’’

‘‘वह तो ठीक है, लेकिन इंसान गुजारा करना चाहे तब तो? खर्च का कोई ठिकाना है? जितना बढ़ाओ, बढ़ेगा. सुषमा इस बात को समझने को तैयार नहीं है,’’ पंकज ने मायूसी से कहा.

‘‘यार, समझौता तो करना ही होगा. अभी तो नईनई शादी हुई है, अभी से यह उदासी और झिकझिक. तुम दोनों तो शादी के पहले ही एकदूसरे को जानते थे, फिर इन 5-6 महीनों में ही…’’

पंकज उठ गया और उदास स्वर में बोला, ‘‘शुरू में सबकुछ सामान्य व सहज था, किंतु इधर 1-2 महीनों से…अब सुषमा को कौन समझाए.’’

सुधीर ने झट से कहा, ‘‘मैं समझा दूंगा.’’

पंकज ने घबरा कर उस की ओर देखा, ‘‘अरे बाप रे, मार खानी है क्या?’’

सुधीर ठठा कर हंस पड़ा, ‘‘लगता है, तू बीवी से रोज मार खाता है,’’ फिर वह पंकज की बांह पकड़ कर थिएटर की ओर ले गया, ‘‘तो चल, तुझे ही समझाता हूं. आखिर मैं एक अभिनेता हूं. तुझे कुछ संवाद रटा देता हूं. देखना, सब ठीक हो जाएगा.’’

पंकज को घर लौटने में काफी देर हो गई. लेकिन वह बड़े अच्छे मूड में घर के अंदर घुसा. सुषमा के झुंझलाए चेहरे की ओर ध्यान न दे कर बोला, ‘‘स्वीटी, जरा एक प्याला चाय जल्दी से पिला दो, थक गया हूं, आज दफ्तर में काम कुछ ज्यादा था. अगर पकौड़े भी बना दो तो मजा आ जाए.’’

सुषमा ने उसे आश्चर्य और क्रोध से घूर कर देखा. फिर झट से रसोईघर से प्याला और प्लेट ला कर उस की ओर जोर से फेंकती हुई चिल्लाई, ‘‘लो, यह रहा पकौड़ा और यह रही चाय.’’

पंकज ने बचते हुए कहा, ‘‘क्या कर रही हो? चाय की जगह भूकंप कैसे? यह घर है कि क्रिकेट का मैदान? घर के बरतनों से ही गेंदबाजी, वह भी बंपर पर बंपर.’’

उस के मजाक से सुषमा का पारा और भी चढ़ गया, ‘‘न तो यह घर है और न  ही क्रिकेट का मैदान. यह श्मशान है श्मशान.’’

‘‘यह भी कोई बात हुई. पति दिनभर दफ्तर में काम करे और जब थक कर घर लौटे तो पत्नी उस का स्वागत प्रेम की मीठी मुसकान से न कर के शब्दों की गोलियों और तेवरों के तीरों से करे?’’

‘‘यह घर नहीं, कैदखाना है और कैदखाने में बंद पत्नी अपने पति का स्वागत मीठी मुसकान से नहीं कर सकती, पति महाशय.’’

पंकज ने सुषमा की ओर डर कर देखा. फिर मुसकरा कर समझाने के स्वर में बोला, ‘‘यह भी कोई बात हुई सुषमा, घर को कैदखाना कहती हो? यह तो मुहब्बत का गुलशन है.’’

किंतु सुषमा ने चीख कर उत्तर दिया, ‘‘कैदखाना नहीं तो और क्या कहूं? मैं दिनरात नौकरानी की तरह काम करती हूं. अब मुझ से घर का काम नहीं होगा.’’

‘‘अभी तो हमारी शादी को चंद महीने हुए हैं. हमें तो पूरी जिंदगी साथसाथ गुजारनी है. फिर पत्नी का तो कर्तव्य है, घर का कामकाज करना.’’

सुषमा ने पंकज की ओर तीखी नजरों से देखा, ‘‘सुनो जी, घर चलाना है तो नौकर रख लो या होटल में खाने का इंतजाम कर लो, नहीं तो इस हालत में तुम्हें पूरी जिंदगी अकेले ही गुजारनी होगी. अब मैं एक दिन भी तुम्हारे साथ रहने को तैयार नहीं हूं. मैं चली.’’

सुषमा मुड़ कर जाने लगी तो पंकज उस के पीछे दौड़ा, ‘‘कहां चलीं? रुको. जरा समझने की कोशिश करो. देखो, अब इतने कम वेतन में नौकर रखना या होटल में खाना कैसे संभव है?’’

सुषमा रुक गई. उस ने गुस्से में कहा, ‘‘इतनी कम तनख्वाह थी तो शादी करने की क्या जरूरत थी. तुम ने मेरे मांबाप को धोखा दे कर शादी कर ली. अगर वे जानते कि वे अपनी बेटी का हाथ एक भिखमंगे के हाथ में दे रहे हैं तो कभी तैयार नहीं होते. अगर तुम अपनी आमदनी नहीं बढ़ा सकते तो मैं अपने मांबाप के घर जा रही हूं. वे अभी जिंदा हैं.’’

पंकज कहना चाहता था कि उस के बारे में पूरी तरह से उस के मांबाप जानते थे और वह भी जानती थी, कहीं धोखा नहीं था. शादी के वक्त तो वह सब को बहुत सुशील, ईमानदार और खूबसूरत लग रहा था. लेकिन वह इतनी बातें नहीं बोल सका. उस के मुंह से गलती से निकल गया, ‘‘यही तो अफसोस है.’’

सुषमा ने आगबबूला हो कर उस की ओर देखा, ‘‘क्या कहा? मेरे मातापिता के जीवित रहने का तुम्हें अफसोस है?’’

पंकज ने झट से बात मोड़ी, ‘‘नहीं, कुछ नहीं. मेरे कहने का मतलब यह है कि अगर गृहस्थी की गाड़ी का पहिया पैसे के पैट्रोल से चलता है तो उस में प्यार का मोबिल भी तो जरूरी है. क्या रुपया ही सबकुछ है?’’

‘‘हां, मेरे लिए रुपया ही सबकुछ है. इसलिए मैं चली मायके. तुम अपनी गृहस्थी में प्यार का मोबिल डालते रहो. अब बनावटी बातों से काम नहीं चलने का. मैं चली अपना सामान बांधने.’’

सुषमा ने अंदर आ कर अपना सूटकेस निकाला और जल्दीजल्दी कपड़े वगैरह उस में डालने लगी. पंकज बगल में खड़ा समझाने की कोशिश कर रहा था, ‘‘जरा धैर्य से काम लो, सुषमा. हम अभी फालतू खर्च करने लगेंगे तो कल हमारी गृहस्थी बढ़ेगी. बालबच्चे होंगे लेकिन अभी नहीं, 4-5 साल बाद होंगे न. तो फिर कैसे काम चलेगा?’’

सुषमा ने उस की ओर चिढ़ कर देखा, ‘‘बीवी का खर्च तो चला नहीं सकते और बच्चों का सपना देख रहे हो, शर्म नहीं आती?’’

‘‘ठीक है, अभी नहीं, कुछ साल बाद ही सही, जब मेरी तनख्वाह बढ़ जाएगी, कुछ रुपए जमा हो जाएंगे, ठीक है न? अब शांत हो जाओ.’’

किंतु सुषमा अपना सामान निकालती रही. वह क्रोध से बोली, ‘‘अब तुम्हारी पोल खुल गई है. मैं इसी वक्त जा रही हूं.’’

‘‘आखिर अपने मायके में कब तक रहोगी? लोग क्या कहेंगे?’’

‘‘लोग क्या कहेंगे, इस की चिंता तुम करो. अब मैं लौट कर नहीं आने वाली.’’

पंकज चौंक पड़ा, ‘‘लौट कर नहीं आने वाली? तुम जीवनभर मायके में ही रहोगी?’’

सुषमा ने जोर दे कर कहा, ‘‘हांहां, और मैं वहां जा कर तुम्हें तलाक दे दूंगी, तुम जैसे मर्दों को अकेले ही रहना चाहिए.’’

पंकज हतप्रभ हो गया, ‘‘तलाक, क्या बकती हो? होश में तो हो?’’

‘‘हां, अब मैं होश में आ गई हूं. बेहोश तो अब तक थी. अब वह जमाना गया जब औरत गाय की तरह खूंटे से बंधी रहती थी,’’ सुषमा ने चाबियों का गुच्छा जोर से पंकज की ओर फेंका, ‘‘लो अपनी चाबियां, मैं चलती हूं.’’

सुषमा अपना सामान उठा कर बाहर के दरवाजे की ओर बढ़ी. पंकज ने कहा, ‘‘सुनो तो, रात को कहां जाओगी? सुबह चली जाना, मैं वादा करता हूं…’’

उसी वक्त दरवाजे पर जोरों की दस्तक हुई. पंकज ने उधर देखा, ‘‘अब यह बेवक्त कौन आ गया? लोग कुछ समझते ही नहीं. पतिपत्नी के प्रेमालाप में कबाब में हड्डी की तरह आ टपकते हैं. देखना तो सुषमा, कहीं वह बनिया उधार की रकम वसूलने तो नहीं आ गया. कह देना कि मैं नहीं हूं.’’

लेकिन सुषमा के तेवर पंकज की बातों से ढीले नहीं पड़े. उस ने हाथ झटक कर कहा, ‘‘तुम ही जानो अपना हिसाब- किताब और खुद ही देख लो, मुझे कोई मतलब नहीं.’’

दरवाजे पर लगातार दस्तक हो रही थी.

‘‘ठीक है भई, रुको, खोलता हूं,’’ कहते हुए पंकज ने दरवाजा खोला और ठिठक कर खड़ा हो गया. उस के मुंह से ‘बाप रे’ निकल गया.

सुषमा भी चौंक कर देखने लगी. एक लंबी दाढ़ी वाला आदमी चेहरे पर नकाब लगाए अंदर आ गया था. उस ने झट से दरवाजा बंद करते हुए कड़कती आवाज में कहा, ‘‘खबरदार, जो कोई अपनी जगह से हिला.’’

पंकज ने हकलाते हुए कहा, ‘‘आप कौन हैं भाई? और क्या चाहते हैं?’’

उस आदमी ने कहा, ‘‘मैं कौन हूं, उस से तुम्हें कोई मतलब नहीं. घर में जो भी गहनारुपया है, सामने रख दो.’’

पंकज को ऐसी परिस्थिति में भी हंसी आ गई, ‘‘क्या मजाक करते हैं दाढ़ी वाले महाशय, अगर इस घर में रुपया ही होता तो रोना किस बात का था. आप गलत जगह आ गए हैं. मैं आप को सही रास्ता दिखला सकता हूं. मेरे ससुर हैं गनपत राय, उन का पता बताए देता हूं. आप उन के यहां चले जाइए.’’

सुषमा बिगड़ कर बोली, ‘‘क्या बकते हो, जाइए.’’

किंतु आगंतुक ने उन की बातों पर ध्यान नहीं दिया. उस ने बड़े ही नाटकीय अंदाज में जेब से रिवाल्वर निकाला और उसे हिलाते हुए कहा, ‘‘जल्दी माल निकालो वरना काम तमाम कर दूंगा. देवी जी, जल्दी से सब गहने निकालिए.’’

सुषमा चुपचाप खड़ी उस की ओर देखती रही तो उस ने रिवाल्वर पंकज की ओर घुमा दिया, ‘‘मैं 3 तक गिनूंगा, उस के बाद आप के पति पर गोली चला दूंगा.’’

पंकज ने सोचा, ‘सुषमा कहेगी कि उसे क्या परवा. वह तो पति को छोड़ कर मायके जा रही है.’ किंतु जैसे ही आगंतुक ने 1…2…गिना, सुषमा हाथ उठा कर बेचैन स्वर में बोली, ‘‘नहीं, नहीं, रुको, मैं तुरंत आती हूं.’’

नकाबपोश गर्व से मुसकराया और सुषमा जल्दी से शयनकक्ष की ओर भागी. वह तुरंत अपने गहनों का बक्सा ले कर आई और आगंतुक के हाथों में देते हुए बोली, ‘‘लीजिए, हम लोगों के पास रुपए तो नहीं हैं, ये शादी के कुछ गहने हैं. इन्हें ले जाइए और इन की जान  छोड़ दीजिए.’’

नकाबपोश रिवाल्वर नीची कर के व्यंग्य से मुसकराया, ‘‘कमाल है, एकाएक आप को अपने पति के प्राणों की चिंता सताने लगी. बाहर से आप लोगों की अंत्याक्षरी सुन रहा था. ऐसे नालायक पति के लिए तो आप को कोई हमदर्दी नहीं होनी चाहिए. जब आप को तलाक ही देना है, अकेले ही रहना है तो कैसी चिंता? यह जिंदा रहे या मुर्दा?’’

सुषमा क्रोध से बोली, ‘‘जनाब, आप को हमारी आपसी बातों से क्या मतलब? आप जाइए यहां से.’’

पंकज खुश हो गया, ‘‘यह हुई न बात, ऐ दाढ़ी वाले महाशय, पतिपत्नी की बातों में दखलंदाजी मत कीजिए. जाइए यहां से.’’

आगंतुक हंस कर सुषमा की ओर मुड़ा, ‘‘जा रहा हूं, लेकिन मेमसाहब, एक और मेहरबानी कीजिए. अपने कोमल शरीर से इन गहनों को भी उतार दीजिए. यह चेन, अंगूठी, झुमका. जल्दी कीजिए.’’

सुषमा पीछे हट गई, ‘‘नहीं, अब मैं तुम्हें कुछ भी नहीं दूंगी.’’

नकाबपोश ने रिवाल्वर फिर पंकज की ओर ताना, ‘‘तो चलाऊं गोली?’’

सुषमा ने चिल्ला कर कहा, ‘‘लो, ये भी ले लो और भागो यहां से.’’

वह शरीर के गहने उतार कर उस की ओर फेंकने लगी. नकाबपोश गहने उठा कर इतमीनान से जेब में रखता गया. पंकज भौचक्का देखता रहा.

आगंतुक ने जब गहने जेब में रखने के बाद सुषमा की कलाइयों की ओर इशारा किया, ‘‘अब ये कंगन भी उतार दीजिए.’’

सुषमा ने दृढ़ स्वर में कहा, ‘‘नहीं, ये कंगन नहीं दूंगी.’’

वे शादी के कंगन थे, जो पंकज ने दिए थे.

आगंतुक ने सुषमा की ओर बढ़ते हुए कहा, ‘‘मुझे मजबूर मत कीजिए, मेमसाहब. आप ने जिद की तो मुझे खुद कंगन उतारने पड़ेंगे, लाइए, इधर दीजिए.’’

अब पंकज का पुरुषत्व जागा. वह कूद कर उन दोनों के नजदीक पहुंचा, ‘‘तुम्हारी इतनी हिम्मत कि मेरी पत्नी का हाथ पकड़ो? खबरदार, छोड़ दो.’’

नकाबपोश ने रिवाल्वर हिलाया, ‘‘जान प्यारी है तो दूर ही रहो.’’

लेकिन पंकज रिवाल्वर की परवा न कर के उस से लिपट गया.

तभी ‘धांय’ की आवाज हुई और पंकज कराह कर सीना पकड़े गिर गया. आगंतुक के रिवाल्वर से धुआं निकल रहा था. सुषमा कई पलों तक हतप्रभ खड़ी रही. फिर वह चीत्कार कर उठी, ‘‘हत्यारे, जल्लाद, तुम ने मेरे पति को मार  डाला. मैं तुम्हें जिंदा नहीं छोड़ूंगी.’’

नकाबपोश जल्दी से दरवाजे की ओर बढ़ते हुए बोला, ‘‘मैडम, आप नाहक अफसोस कर रही हैं. आप को इस नालायक पति से तो अलग होना ही था. मैं ने तो आप की मदद ही की है.’’

सुषमा का चेहरा आंसुओं से भीग गया. उस की आंखों में दर्द के साथ आक्रोश की चिंगारियां भी थीं. आगंतुक डर सा गया.

सुषमा उस की ओर शेरनी की तरह झपटी, ‘‘मैं तेरा खून पी जाऊंगी. तू जाता कहां है?’’ और वह उसे बेतहाशा पीटने लगी.

नकाबपोश नीचे गिर पड़ा और चिल्ला कर बोला, ‘‘अरे, मर गया, भाभीजी, क्या कर रही हैं, रुकिए.’’

सुषमा उसे मारती ही गई, ‘‘हत्यारे, मुझे भाभी कहता है?’’

आगंतुक ने जल्दी से अपनी दाढ़ी को नोच कर हटा दिया और चिल्लाया, ‘‘देखिए, मैं आप का प्यारा देवर सुधीर हूं.’’

सुषमा ने अवाक् हो कर देखा, वह सुधीर ही था.

सुधीर कराहते हुए उठा, ‘‘भाभीजी, केवल यह दाढ़ी ही नकली नहीं है यह रिवाल्वर भी नकली है.’’

सुषमा ने फर्श पर गिरे पंकज की ओर देखा.

तब वह भी मुसकराता हुआ उठ कर खड़ा हो गया, ‘‘हां, और यह मौत भी नकली थी. अब मैं यह कह सकता हूं कि हर पति को यह जानने के लिए कि उस की पत्नी वास्तव में उस से कितना प्यार करती है, एक बार जरूर मरना चाहिए.’’

सुधीर और पंकज ने ठहाका लगाया और सुषमा शरमा गई.

सुधीर हाथ जोड़ कर माफी मांगते हुए बोला, ‘‘भाभीजी, हमारी गलती को माफ कीजिए. आप दोनों एकदूसरे से बहुत प्यार करते हैं. उस में जो थोड़ा व्यवधान हो गया था उसे ही दूर करने के लिए यह छोटा सा नाटक करना पड़ा.’’

सुषमा ने हंस कर कहा, ‘‘जाओ, माफ किया.’’

‘‘भाभीजी, आमदनी के अनुसार जरूरतों को समेट लिया जाए तो पतिपत्नी हमेशा  प्यार और आनंद से रह सकते हैं,’’ सुधीर ने समझाने के लहजे में कहा तो सुषमा ने हंस कर सहमति में सिर हिला दिया.

एक कागज मैला सा: क्या था मैले कागज का सच?

वासंती की तबीयत आज सुबह से ही कुछ नासाज थी. न बुखार था, न जुकाम, न सिरदर्द, न जिस्म टूट रहा था, फिर भी कुछ ठीक नहीं लग रहा था. लगभग 10 बजे पति दफ्तर गए और बिटिया मेघा कालेज चली गई.

वासंती ने थोड़ा विश्राम किया, लेकिन शारीरिक परिस्थिति में कुछ परिवर्तन होते न देख उन्होंने कालेज में फोन किया और प्रिंसिपल से 1 दिन की छुट्टी मांग ली. हलका सा भोजन कर वे लेटने ही वाली थीं कि घंटी बजी. उन्होंने दरवाजा खोला. बाहर डाकिया खड़ा था. उस ने वासंती को एक मोटा सा लिफाफा दिया और दूसरे फ्लैट की ओर मुड़ गया.

वासंती ने दरवाजा बंद किया और धीमे कदमों से शयनकक्ष में आईं. लिफाफे पर उन्हीं का पता लिखा था और पीछे की ओर खत भेजने वाले ने अपना पता लिखा था :

‘हिंदी

आई सी 3480

कैप्टन अक्षय कुमार

द्वारा, 56 एपीओ’

वासंती हस्ताक्षर से अच्छी तरह परिचित थीं. अक्षरों को हलके से चूमते हुए उन्होंने अधीर हाथों से लिफाफा खोला. अंदर 3-4 मैले से मुड़े हुए पन्ने थे. पत्र काफी लंबा था. वे आराम से लेट गईं और पत्र पढ़ने लगीं.

मेरी प्यारी मां,

प्रणाम.

काफी दिनों से मेरा पत्र न आने से आप मुझ से खफा अवश्य होंगी. लेकिन मुझे पूरा विश्वास है कि आज मेरा पत्र देखते ही आप ने उसे कलेजे से लगा कर धीरे से चूम कर कहा होगा, ‘अक्षय, मेरे बेटे…’

मां, यह लिखते समय मैं यों महसूस कर रहा हूं जैसे आप यहां मेरे पास हैं और मेरे गालों को हलके से चूम रही हैं. दरअसल, जब मैं छोटा था तो आप रोज मुझे सुलाते समय मेरे गालों को चूम कर कहा करती थीं, ‘कैसा पगला राजा बेटा है, मेरा बेटा. सो जा मुन्ने, आराम से सो… कल स्कूल जाना है…अक्षू बेटे को जल्दी उठना है…स्कूल जाना है…अब सो भी जा बेटे…’ और फिर मैं शीघ्र ही सपनों के देश में पहुंच जाता था.

दिनभर स्कूल में मस्ती, शाम को क्रिकेट और उस के बाद माहीम के तरणताल में भरपूर तैरने के बाद रात को जब मैं खाने की मेज पर बैठता तब आप मुझे डांट कर, दुलार कर किसी तरह खाना खिलाती थीं.

अरे, हां, याद आया. मां, कल मुझे सचमुच ही बहुत जल्दी उठना है. जल्दी यानी ठीक 2 बजे. हां मां, सच कह रहा हूं. सचमुच सुबह 2 बजे. काम ही कुछ ऐसा है कि उठना ही पड़ेगा. वैसे इस वक्त रात के साढ़े 10 बज रहे हैं और मुझे सो जाना चाहिए.

लेकिन मां, मुझे नींद ही नहीं आ रही है. लगभग 8 बजे से मैं करवटें बदल रहा हूं, लेकिन नींद कोसों दूर है. इस वक्त मैं बहुत उत्तेजित हूं मां, किसी से बातें करने को मन कर रहा है और यहां मैं अकेला हूं. नींद की प्रतीक्षा करते हुए, हृदय में यादों का बवंडर, अकेला, बिलकुल तनहा.

यादों के बवंडर में बचपन याद आया. आप आईं और आंखें नम हुईं. मैं उठा और अपना झोला खोला. नीचे ठूंसे हुए कुछ मैले से मुड़े हुए कागज निकाले, सिलवटें ठीक कीं, धीरे से झोले की आड़ ले कर टौर्च जलाई और लिखा, ‘मेरी प्यारी मां.’

मां, यहां पर रात को रोशनी करना मना है. अगर सावधानी न बरती जाए तो गोली चल जाती है. मां, मुझे मालूम है कि तुम्हें मैले, मुडे़ हुए कागज नहीं भाते. लेकिन क्या करूं, मजबूरी है. मां, आज आप कृपया मेरी भाषा पर न हंसें. जो भी मैं ने लिखा है, पढ़ लें. मैं आप जैसा हिंदी का प्राध्यापक तो हूं नहीं. मैं तो एक फौजी हूं, एक फौजी कप्तान. बौंबे इंजीनियर्स ग्रुप का. अक्षय कुमार, एक युवा कप्तान.

अरे हां, इस कप्तान शब्द से कुछ याद आया. 8वीं में उत्तीर्ण हो कर मैं 9वीं में दाखिल हुआ था. शाम का समय था. मैं क्रिकेट खेलने के लिए निकलने ही वाला था कि हैडमास्टरजी आ धमके.

उन्होंने मुझे रोका और आप से कहा, ‘वासंतीजी, कृपया अपने पुत्र को संभालिए, दिनभर शरारतें करता है, पढ़ता नहीं है. बहनजी, यह आप का बेटा है, एक प्राध्यापिका का बेटा, इसलिए मैं ने इस वर्ष इसे किसी तरह उत्तीर्ण किया है अन्यथा आप का लाड़ला फेल हो जाता. लेकिन अगले वर्ष मैं सहायता नहीं कर सकूंगा. क्षमा करें. आप जानें और आप का बेटा.’

यह सब सुन कर आप आगबबूला हो उठीं और मुझे डांटते हुए बोलीं, ‘अक्षय, शर्म करो, आखिर तुम क्या करना चाहते हो? नहीं पढ़ना चाहते तो मत पढ़ो. यहीं रहो और चौपाटी पर पानीपूरी की दुकान खोल लो. बेशर्म कहीं के.’ और आपे से बाहर हो कर आप ने मुझे पहली बार मारा था.

गालों पर आप की उंगलियों के निशान ले कर मैं चीखते हुए बाहर निकला था कि मुझे नहीं पढ़ना है. मुझे बंदूक चलानी है. फौज में जाना है. कप्तान बनना है.

ओह मां, ठंड के मारे लिखतेलिखते उंगलियां जाम हो गई हैं. यहां इतनी ठंड पड़ती है कि क्या बताऊं. अब इस मार्च के महीने में तो कुछ कम है लेकिन ठंड के मौसम में मुंह से शब्द बाहर निकलते ही जम कर बर्फ हो जाते हैं. मां, एक बार यहां आइए. हजार फुट की ऊंचाई पर तब आप को पता चलेगा कि ठंड किसे कहते हैं और बर्फ क्या होती है?

वैसे अब बर्फ काफी हद तक पिघल गई है. पहाड़ों के पत्थरों, दरख्तों की शाखाएं और यहांवहां हरी घास भी दिख रही है. नजदीक बहने वाली हिम नदी से पानी बहने की आवाज बर्फ की ऊपरी सतह के नीचे से आ रही है. हिम नदी पर अभी भी बर्फ की मोटी सतह है लेकिन उस के नीचे तेज बहता हुआ बर्फीला पानी है. परंतु बर्फ की ऊपरी सतह में कहींकहीं दरारें पड़ गई हैं और बर्फ पिघलने से छोटेबड़े छेद भी प्रकृति ने बना दिए हैं. दृश्य बड़ा ही मनोहारी है मां, लेकिन… लेकिन…

हिम नदी के उस छोर पर दुश्मन बैठा है. नदी का पाट बड़ा नहीं है किंतु दूसरे किनारे पर एक ऊंचा पहाड़ है. उस पर्वत के बीच से एक चोटी बाहर निकली है, तोते की चोंच जैसी. और चोंच में दुश्मन बैठा है. बिलकुल हमारे सिर पर, हमें हर क्षण घूरता हुआ. हमारी जरा सी आहट होते ही हमारी तरफ गोलियों की बौछार करता हुआ.

हमें आगे बढ़ना है. उस चोंच को तहसनहस करना है और दुश्मन का सफाया कर सामने वाली घाटी को दुश्मन के चंगुल से छुड़ा कर अपना तिरंगा वहां लहराना है. काम आसान नहीं है. हम यहां से एक गज भी आगे नहीं बढ़ सकते, दुश्मन के पास मशीनगनें तो हैं ही, शक्तिशाली तोपें भी हैं, जिन से वे हवाई जहाज को भगा सकते हैं अथवा मार गिरा सकते हैं.

परिस्थिति गंभीर है दुश्मन का सफाया करने के लिए, इस चोटी को बारूद से उड़ाने के लिए ब्रिगेड ने हमारी इंजीनियर्स कंपनी को यहां भेजा है. हम यहां लगभग 20 दिनों से बैठे हैं, लेकिन अभी तक कामयाबी हासिल नहीं हुई है. अलबत्ता, यहां आते ही हम ने कोशिश जरूर की थी.

15 दिन पहले मेरा वरिष्ठ अफसर मेजर दयाल, अपने साथ 8 जवानों को ले कर आधी रात को हिम नदी पर चल पड़ा. सब जवानों ने सफेद वरदी पहन रखी थी. जूते भी सफेद थे.

हिम नदी पूरी तरह बर्फीली थी. मेजर दयाल आधे रास्ते तक पहुंचा ही था कि ऊपर से फायरिंग शुरू हुई. सब ने बर्फ में छिप कर अपनी जान बचाई और उसी समय मेजर दयाल के अरदली सिपाही रामसिंह को फायरिंग की वजह मालूम हुई. मेजर की सफेद जरसी के गले के नीचे एक काला पट्टा था. रामसिंह ने अपनी जरसी साहब को दी और उन की खुद पहन ली. फिर दुश्मन को चकमा देने के लिए खुद एक रास्ते से और बाकी जवानों को दूसरे रास्ते से पीछे हटने को कहा. 2 घंटे बाद सब लौट आए, लेकिन सिपाही रामसिंह…

खैर, इन 20 दिनों में परिस्थिति काफी बदल गई है. बर्फ काफी पिघल गई है और हिम नदी की ऊपरी बर्फीली सतह में गड्ढे पड़ गए हैं. बर्फ की ऊपरी सतह और नीचे बहने वाले पानी के मध्य कुदरत ने काफी जगह बना दी है. इसी जगह का फायदा उठाते हुए बर्फ की सतह से नीचे, दुश्मन की नजरों से बच कर तेज बहते हुए बर्फीले पानी को चीर कर हमें दूसरे तट पर पहुंचना है, मां. पानी इतना ठंडा है कि अगर आदमी असावधानी से गिर पडे़ तो कुछ क्षणों में ही जम कर वह आइसक्रीम बन जाएगा.

लेकिन 3 दिन पहले ही हमें दिल्ली से बर्फीले पानी में तैरने के लिए विशिष्ट पोशाक मिली है. साथ में पानी में रह कर भी गीला न होने वाला गोलाबारूद, बंदूकें, टौर्च, प्लास्टिक के झोले और खाने की डब्बाबंद वस्तुएं भी मिली हैं.

मां, जिस क्षण की प्रतीक्षा हर फौजी को होती है वह क्षण आज मेरे जीवन में आया है. जिस क्षण के लिए हम फौज में भरती होते हैं, प्रशिक्षण पाते हैं, वेतन पाते हैं, वह क्षण अब मुझ से थोड़ी ही दूरी पर है. मुझे उस क्षण का बेसब्री से इंतजार है. इसी लिए मैं बहुत उत्तेजित हूं और मुझे नींद नहीं आ रही है.

आज दोपहर को इस ‘मिशन’ के लिए, जिसे हम ने ‘औपरेशन पैरट्स बीक’ नाम दिया है, मेरा चयन हुआ है.

हां, तो मां, अब थोड़ी ही देर बाद रात के ठीक 2 बजे मैं वह विशिष्ट पोशाक पहन कर हिम नदी में बनी दरार के जरिए पानी में कूदूंगा. तेज बहते हुए पानी को किसी तरह चीर कर चट्टानों, पत्थरों और बर्फ का सहारा ले कर नदी का दूसरा किनारा पकड़ूंगा और सावधानी से किसी दूसरी दरार से बाहर निकलूंगा. मेरी कमर में बंधी लंबी रस्सी का सहारा ले कर मेरे 4 जवान हथियार, गोलाबारूद और बम ले कर मेरे पास आएंगे.

उस के बाद उस चोटी के नीचे बारूद भर कर हम उसे उड़ा देंगे. संयोग से दूसरे तट पर खड़े हुए मनुष्य को दुश्मन देख नहीं सकता क्योंकि वह बिलकुल उस की नाक के नीचे होता है. दूसरा यह कि दुश्मन यह ख्वाब में भी नहीं सोच सकता कि रात के अंधेरे में हिम नदी के नीचे से तैर कर इंसान दूसरे तट पर आ सकता है.

मां, यह समूची कार्यवाही साढ़े 3-4 बजे तक हो जानी चाहिए. उस के बाद हमारी ब्रिगेड आगे बढ़ेगी और समूची घाटी पर कब्जा कर लेगी. मैं जानता हूं कि काम खतरनाक है, लेकिन फिर भी मैं कामयाबी हासिल कर के रहूंगा और इतिहास में अपना नाम सुरक्षित कर दूंगा.

याद है मां, कुछ वर्ष पूर्व हम ने मैट्रो में एक फिल्म देखी थी, ‘दि गंस औफ नेव्हरौन’, यहां भी लगभग वही परिस्थिति है. फर्क इतना है कि वहां खौलता हुआ डरावना समुद्र था और यहां बर्फीली हिम नदी और बर्फीला पानी है.

मैं जानता हूं कि मुझे यह सब नहीं लिखना चाहिए. यह सब गोपनीयता और सुरक्षा के खिलाफ है. फिर भी आज शाम से ही मैं इतना रोमांचित हूं कि किसी से कुछ कहने के लिए मन व्याकुल हो रहा है. फिर दुनिया में मां के सिवा और कौन है जो बेटे की हकीकत सुन कर उसे दिल में छिपा सकती है. हो सकता है कि इस मिशन के बाद मुझे वीरचक्र मिले. मैं चाहता हूं कि उस वक्त आप अपनी सहेलियों से और रिश्तेदारों से बड़े फख्र से कहें कि मेरे अक्षू ने ऐसा किया…वैसा किया…

आज मैं एक और अपराध कर रहा हूं, मैं यह पत्र सेना के डाकघर के माध्यम से न भेजते हुए एक सिपाही के हाथ भेज रहा हूं. यह सिपाही कल दिल्ली जा रहा है. बर्फ के प्रभाव से उस की उंगलियां गल गई हैं. दिल्ली पहुंचते ही वह इस पर टिकट लगा कर किसी लाल डब्बे में डाल देगा. हो सकता है, यह लिफाफा आप को 3 दिनों में ही मिल जाए. सेना के डाकघर से यह आप को शायद 15 दिन बाद मिले.

अरे, बाप रे. आधी रात हो गई है. थोड़ा सोना चाहिए. अच्छा मां, बाकी बातें अगले खत में लिखूंगा. सच कहता हूं, आप से बातें क्या हुईं, मन शांत हो गया है. अरे हां, अच्छा हुआ कि कुछ याद आया. मैं ने बीमा की एक किस्त शायद नहीं भरी है, पिताजी से कह कर भुगतान करवा देना.

मेरे लिए खाने की कोई चीज न भेजें, रास्ते में, दिल्ली वाले चोर सब खा जाते हैं. कोई अच्छा उपन्यास अवश्य भेजें, यहां पढ़ने के लिए सिर्फ फिल्मी पत्रिकाएं ही हैं. मेघा से कहना कि मन लगा कर पढ़ाई करे, उसे डाक्टर जो बनना है. आप दोनों अपनी तबीयत का खयाल रखें. ज्यादा दौड़धूप करने की कोई आवश्यकता नहीं है. अब मैं बड़ा हो गया हूं. फौजी कप्तान हूं. आप सब की देखभाल कर सकता हूं.

अच्छा मां, अब मैं सोता हूं. आंखें अपनेआप बंद हो रही हैं. मां, बस एक बार, सिर्फ एक बार मेरे गालों को चूम कर कहो, ‘कैसा पगला राजा बेटा है, मेरा मुन्ना…सो जा बेटे, सो जा…कल जल्दी जो उठना है.’

आप का,

प्यारा अक्षय

अक्षय के पत्र के आखिरी अक्षर तो वासंती के आंसुओं में ही धुल गए. उन्होंने आंखें पोंछीं, मन शांत किया. आखिरी पंक्तियां फिर से पढ़ीं और ‘अक्षय’ शब्द को चूम कर बोलीं, ‘‘बिलकुल पगला है, मेरा राजा बेटा…’’

उसी वक्त घंटी खनकी और वासंती के मुंह से अनायास शब्द फूट पड़े, ‘‘अक्षू बेटा, रुक, मैं आ रही हूं.’’

उन्होंने दौड़ कर दरवाजा खोला. दरवाजे पर अक्षय नहीं था, लेकिन उसी की रैजीमैंट का एक युवा अफसर खड़ा था. वह वरदी पहने था. सिर पर ‘पी कैप’ थी. उस ने वासंती को सैल्यूट करते हुए धीरे से पूछा, ‘‘कैप्टन अक्षय कुमार?’’

‘‘जी हां, यह अक्षय का ही घर है.’’

‘‘आप?’’

‘‘मैं उस की मां हूं, वैसे अभी घर में कोई नहीं है. साहब दफ्तर गए हैं. मेघा कालेज में है और अक्षय तो सीमा क्षेत्र में तैनात है. तबीयत नासाज थी, इसलिए मैं रुक गई अन्यथा मैं भी कालेज गई होती. आप अंदर आइए.’’

अफसर हौले से अंदर आया. उस ने धीरे से कुछ इशारा किया. खुले दरवाजे से 2 सिपाही लोहे का एक बड़ा संदूक ले कर अंदर आए. उन्होंने उसे नीचे रखा और दोनों सावधान मुद्रा में खड़े हो गए. संदूक के बीचोबीच एक ‘पी कैप’ रखी हुई थी और उस के सामने वाले भाग पर लिखा था, ‘कैप्टन अक्षय कुमार, बौंबे इंजीनियर्स ग्रुप, इंजीनियर्स रैजीमैंट’.

‘‘यह सब क्या है?’’ वासंती ने घबरा कर पूछा, उस का दिल तेजी से धड़क रहा था.

‘‘अक्षय का सामान है,’’ अफसर धीरे से बोला.

‘‘अक्षय कहां है?’’ वासंती ने संदूक की ओर एकटक देखते हुए पूछा.

अफसर कुछ नहीं बोला. उस ने अपनी टोपी उतारी और वह जमीन ताकने लगा.

‘‘आप बोलते क्यों नहीं? अक्षय कहां है? यह सब क्या हो रहा है? अक्षय को क्या हुआ है? बोलिए, कुछ तो बोलिए?’’ वासंती ने चीख कर कहा.

अफसर ने अपनी जेब से कागज का एक छोटा सा टुकड़ा निकाला, जो मैला था और बुरी तरह मुड़ा हुआ था.

‘‘अक्षय की वरदी की ऊपरी जेब से यह टुकड़ा बरामद हुआ है, टुकड़ा गीला था, अब सूख चुका है. कृपया, आप पढ़ लें,’’ अफसर धीमी आवाज में बोला.

थरथराते हाथों से वासंती ने कागज का टुकड़ा लिया. उस मैले से मुड़े हुए कागज के टुकड़े पर केवल 3 पंक्तियां लिखी थीं:

‘अगर मैं बढ़ूं, मेरे पीछे आएं,

अगर मैं मुड़ूं, मुझे शूट करें,

अगर मैं मरूं, मुझे भूल जाएं.’

बरसात की काई: भाग 1- क्या हुआ जब दीपिका की शादीशुदा जिंदगी में लौटा प्रेमी संतोष?

शाम ढलते देख कर दीपिका ने बिस्तर समेटना शुरू किया. उस के हलके भूरे रेशम से बाल बारबार उस के गुलाबी गालों पर गिर रहे थे और वह उन्हें बारबार अपनी कोमल उंगलियों से कानों के पीछे धकेल रही थी.

‘‘अब उठो भी… यह चादर समेटने दो,’’ कहते हुए दीपिका ने संतोष को हिलाया, जो अब भी बिस्तर पर लेटा था.

‘‘रहने दो न इन जुल्फों को अपने सुंदर मुखड़े पर… जैसे चांद को बादल ढकने की कोशिश कर रहे हों,’’ संतोष ने दीपिका को अपनी जुल्फें पीछे करते देख कहा.

‘‘शाम होने को आई है, जनाब. अब भी इन बादलों को घर नहीं भेजा तो आज तुम्हारे इस चांद को घरनिकाला मिल जाएगा, समझे?’’

‘‘तुम्हें किस बात का डर है? न घर की कमी है और न घर ले जाने वाले की… जिस दिन तुम हां कह दो उसी दिन मैं…’’

‘‘बसबस, हां कर तो चुकी हूं… अब जाओ भी. उदय घर आते ही होंगे… तब तक मैं सब ठीकठाक कर लूं,’’ दीपिका फटाफट हाथ चलाते घर व्यवस्थित करते हुए बोली, ‘‘कल कितने बजे आएंगे, गुरुदेव?’’

‘‘वही, करीब 12 बजे,’’ कहते ही संतोष कुछ सुस्त हो गया, ‘‘अब यों चोरीछिपे मिलना अच्छा नहीं लगता मानो हम प्यार नहीं कोई गुनाह कर रहे हों.’’

‘‘गुनाह तो कर ही रहे हैं हम, संतोष.

यदि हमारी शादी हो गई होती तब अलग बात थी पर अब मैं उदय की पत्नी हूं… तुम मेरे घर में मेरे संगीत अध्यापक की हैसियत से आते हो. इस स्थिति में हमारा यह रिश्ता गुनाह ही तो हुआ न?’’

‘‘ऐसा क्यों भला? पहले हम दोनों ने प्यार किया… उदय तुम्हारी जिंदगी में बाद में आया. अगर तुम्हारे और मेरे घर वाले जातबिरादरी के चक्कर में न पड़ कर हमारे प्यार के लिए राजी हो गए होते और आननफानन में तुम्हारी शादी दूसरे शहर में न करवा दी होती तो…’’

‘‘छोड़ो पुरानी बातों को. यह क्या कम है कि दूसरे शहर में भी हम एकदूसरे से टकरा गए और एक बार फिर मिल गए. शायद प्रकृति को भी मेरे मन में तुम्हारे लिए इतना प्यार देख मुझ पर दया आ गई और उस ने हमारे समीप्य का रास्ता सुझा दिया.’’

दफ्तर से लौटने के बाद शाम ढले उदय बरामदे में बैठा शाम की चाय की  चुसकियां ले रहा था. दीपिका वहीं बैठी स्वैटर बुन रही थी. संतोष को दीपिका के हाथ से बनी चीजें बहुत भाती थीं. इसीलिए वह संतोष के लिए कभी स्वैटर तो कभी दस्ताने बुनती रहती. उदय के पूछने पर कह देती कि अपनी किसी सहेली या छोटे भाई के लिए बना रही है. फिर बनाने के बाद खुशी से अपने पहले प्यार संतोष को उपहारस्वरूप दे आती.

दीपिका और उदय की शादी को 2 वर्ष बीत चुके थे. इन 2 वर्षों की शुरुआत में दीपिका बेहद उदासीन रही. उदय सोचता कि नया शहर, नया साथी और नई जिंदगी के चलते वह अपने पुराने जीवन को याद कर उदास रहती है. किंतु असली वजह थी उस का प्यार संतोष का उस से बिछड़ जाना. दीपिका बारबार उस शाम को कोसती जब वह और संतोष मूवी देख कर बांहों में बांहें डाले लौट रहे थे कि बड़े भाई साहब से उन का अचानक सामना हो गया. बिजली ही टूट पड़ी थी. वहीं बाजार से घसीटते हुए उसे घर लाया गया था. अब उस का कमरा ही उस का संसार बना दिया गया था. न कोई मिलने आएगा, न वह किसी से मिलने जा सकेगी. ढाई दिन भूख हड़ताल भी की दीपिका ने, किंतु कोई न पिघला. पेट की ज्वाला ने उसे ही पिघला दिया. संतोष से मिलने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था. घर वाले पुराने विचारों के थे और ऊपर से संतोष विजातीय भी था.

‘अगर उस लड़के की जान की सलामत चाहती है, तो भूल जा उसे’, ‘एक बार आप आज्ञा दे दो भाई साहब उस कमीने के टुकड़े भी नहीं मिलेंगे,’ ‘मेरा मन करता है कि इस निर्लज्ज को ही जहर दे कर मार डालूं’ जैसे कठोर वाक्यों से उस की सुबह और शाम होने लगी थी. धीरेधीरे उस का मनोबल टूटने लगा था. फिर 15 दिनों के भीतर उस की शादी तय कर दी गई. उस की अपने होने वाले पति या आने वाली जिंदगी के बारे में कुछ भी जानने की लालसा नहीं थी. वह एक मुरदे की भांति वही करती गई, जो उस के घर वालों ने उस से करने को कहा. विवाहोपरांत वह दूसरे शहर में पहुंच गई जहां उदय की नौकरी थी. घर में केवल उस का पति और वह ही रहती थी. ससुराल वाले दूसरे शहर में रहते थे.

उदय बहुत अच्छा व्यक्ति था. किंचित गंभीर किंतु सरल. किसी भी लड़की के लिए ऐसा जीवनसाथी मिलना बेहद खुशी की बात होती. वह अपनी पत्नी की हर खुशी का ध्यान रखता. यहां तक कि सुहागरात पर दीपिका के चेहरे पर दुख की छाया देख उदय ने उसे जरा भी तंग नहीं किया. सोचा पहले वह अपने नए परिवेश में समा जाए.

कुछ दिन उदास रहने के बाद दीपिका ने भी अपना मन लगाने में ही भलाई समझी. वह अपने नए घर, अपने नए रिश्तों में अपनी खुशी तलाशने लगी.

उस शाम घर में एक छोटी सी पार्टी थी. उदय के सभी मित्र आमंत्रित थे. उदय के जिद करने पर दीपिका ने एक छोटा सा गीत सुनाया. सारी महफिल उस के सुरीले गायन पर झूम उठी थी. सभी वाहवाह करते नहीं थक रहे थे. उदय मंत्रमुग्ध रह गया था.

‘‘मुझे पता नहीं था कि मेरी बीवी ने इतना अच्छा गला पाया है. तुम संगीत की शिक्षा क्यों नहीं लेतीं? तुम्हारा मन भी लगा रहेगा और शौक भी पूरा हो जाएगा,’’ उस रात सब के जाने के बाद उदय ने कहा था.

दीपिका चुप रही थी. वह संगीत की कक्षा ही तो थी जहां उस की मुलाकात संतोष से हुईर् थी. दोनों के सुर इतनी अच्छी तरह से मेल खाते थे कि उन के गुरु ने स्वत: ही उन की जोड़ी बना दी थी. फिर साथ अभ्यास करतेकरते कब संगीत ने उन दोनों के दिल के तार आपस में जोड़ दिए, उन्हें पता ही नहीं चला. गातेगुनगुनाते दोनों एक उज्ज्वल संगीतमय भविष्य के सपने संजोने लगे थे. लेकिन उस एक शाम ने उन के सभी सपनों को चकनाचूर कर दिया था और आज फिर उदय संगीत का विषय ले बैठा था.

दीपिका के चुप रहने के बावजूद उस की इच्छाओं का ध्यान रखने वाले उस के पति ने इधरउधर से पता कर उस के लिए एक संगीत अध्यापक का इंतजाम कर दिया, ‘‘आज से रोज तुम्हें नए सर संगीत का अभ्यास करवाने आया करेंगे.’’

संतोष को अपने संगीत अध्यापक के नए रूप में देख कर दीपिका हैरान रह गई. विस्फारित आंखों उसे ताकती वह कुछ न बोल सकी. हकीकत से अनजान उदय ने दोनों की मुलाकात करवाई और फिर ‘आल द बैस्ट’ कहता हुआ दफ्तर चला गया.

‘‘तुम यहां कैसे? क्या मेरा पीछा करते हुए…?’’ दीपिका के मुंह से पहला वाक्य निकला.

‘‘नहीं दीपू, मैं तुम्हारा पीछा नहीं कर रहा. मैं तो इस शहर में रोजगार ढूंढ़ने आया और किसी के कहने पर यहां नौकरी की तलाश में पहुंच गया.’’

‘‘मुझे दीपू कहने का हक अब तुम खो चुके हो, संतोष. अब मैं शादीशुदा हूं. तुम्हारे लिए एक पराई स्त्री.’’

पता नहीं नियति को क्या मंजूर था, जो संतोष और दीपिका को एक बार फिर एकदूसरे के समक्ष खड़ा कर दिया था. अपनीअपनी जिंदगी में दोनों आगे बढ़ने को प्रयासरत थे, परंतु इस अप्रत्याशित घटना से दोनों को एक बारगी फिर धक्का लगा था.

‘‘मुझे तुम संगीत सिखाने आने दो दीपू. नहींनहीं दीपिका. फीस के पैसों से मेरी मदद हो जाएगी. उदय के सामने मैं कोई बात नहीं आने दूंगा, यह मेरा वादा रहा.’’

जमाना बदल गया: भाग 2- ऐश्वर्या ने सुशांत को कैसे सिखाया सबक?

ऐश्वर्या घर लौट आई. ठंडे दिमाग से सोचा तो उसे यह मौका उपयुक्त लगा. पापा 6 महीने बाद रिटायर होने वाले थे. उस का पैकेज तो साढ़े चार लाख रुपए सालाना का था, लेकिन हाथ में केवल 30 हजार ही प्रतिमाह आते थे. इतने में अपना खर्चा चलाना मुश्किल था, घर की मदद करना तो दूर की बात थी.

वह अगले दिन शाम को जब रैस्टोरैंट में पहुंची तो सुशांत टैरेस में उस की प्रतीक्षा कर रहा था. हलकाहलका संगीत बज रहा था. शाम बहुत ही खूबसूरत थी.

ऐश्वर्या ने जब अमेरिका जाने की इच्छा जताई तो सुशांत ने कहा, ‘‘बहुत सही निर्णय लिया है आप ने. वहां से लौटने के बाद आप के कैरियर में चार चांद लग जाएंगे. मैं कोशिश करूंगा कि वहां की हमारी सहयोगी कंपनी आप के रहने की व्यवस्था भी कर दे.’’

यह सुन ऐश्वर्या का चेहरा प्रसन्नता से खिल उठा कि अमेरिका में रहना सब से महंगा है.

अगर उस का इंतजाम हो जाए तो 1 साल में काफी पैसे बचाए जा सकते हैं. अत: उस ने कृतज्ञता भरे स्वर में कहा, ‘‘सर, आप जो मेहरबानी कर रहे हैं, समझ में नहीं आता कि उसे मैं कैसे चुका पाऊंगी.’’

‘‘आप चाहें तो उसे आज ही चुका सकती हैं,’’ सुशांत ने कहा.

‘‘कैसे?’’ ऐश्वर्या ने अपनी बड़ीबड़ी पलकें ऊपर उठाते हुए पूछा.

‘‘देखिए, यह दुनिया गिव ऐंड टेक के फौर्मूले पर चलती है. मांबाप किसी बच्चे को पालतेपोसते हैं, तो बदले में अपेक्षा करते हैं कि बच्चा बुढ़ापे में उन की देखभाल करेगा. एक अध्यापक किसी को शिक्षा देता है, तो बदले में तनख्वाह लेता है. सरकार भी अगर जनता को सुरक्षा और अन्य ढेर सारी सुविधाएं देती है, तो बदले में उस से टैक्स लेती है. इस दुनिया में मुफ्त में कुछ भी नहीं मिलता,’’ सुशांत के चेहरे पर किसी दार्शनिक जैसे भाव उभर आए थे.

ऐश्वर्या की समझ में नहीं आया कि वह कहना क्या चाहता है. अत: उस ने अचकचाते हुए पूछा, ‘‘जी, मुझे क्या करना होगा?’’

‘‘बस कुछ दिनों के लिए मेरी बन जाओ. मैं आप के कैरियर को इतनी ऊंचाइयों पर पहुंचा दूंगा कि लोग देख कर ईर्ष्या करेंगे,’’ कह सुशांत ने सीधे ऐश्वर्या की आंखों में झांका.

ऐश्वर्या को अपने आसपास की चीजें हिलती महसूस हुईं. उस ने हमेशा कालेज में टौप किया लेकिन क्या अब उस की प्रतिभा और काबिलीयत का कोई मोल नहीं? वह बस मांस का एक लोथड़ा है, जिस की कीमत लगाई जा रही है. देह व्यापार का एक सुसंस्कृत  प्रस्ताव उस के सामने था. अपमान से उस की आंखें छलछला आईं.

‘‘ऐश्वर्याजी, कोई जोरजबरदस्ती नहीं. यह एक प्रस्ताव मात्र है. आप मान लेंगी तो ठीक नहीं मानेंगी तो भी ठीक. कंपनी में आप की पोजीशन पर कोई असर नहीं पड़ेगा. आप पहले की ही तरह अपना काम करती रहेंगी,’’ सुशांत ने अपने स्वर में भरपूर चाश्नी घोलते हुए कहा.

‘‘माफ कीजिएगा सर, आप ने मुझे गलत समझा. मैं बिकाऊ नहीं हूं,’’ अपने आंसुओं को रोकते हुए ऐश्वर्या खड़ी हो गई.

‘‘अरे, आप खड़ी क्यों हो गईं? आराम से कौफी तो पी लीजिए.’’

‘‘ऐश्वर्या ने उस की बात का कोई उत्तर नहीं दिया और तेजी से वहां से चली गई. अपने फ्लैट आ कर वह बुरी तरह फफक पड़ी. उस ने सफलता के लिए शौर्टकट अपनाने वाली बहुत सी लड़कियों के किस्से सुन रखे थे, लेकिन उसे भी ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ेगा, ऐसा उस ने कभी सोचा भी न था. अब तो उस के लिए इस कंपनी में काम करना मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि सुशांत हर कदम पर उस के लिए समस्याएं खड़ी करेगा. तो क्या उसे यह कंपनी छोड़ देनी चाहिए? लेकिन उस ने तो 2 साल नौकरी करने का बौंड भर रखा है.’’

पूरी रात ऐश्वर्या करवटें बदलती रही. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे. अगले दिन वह सहमीसहमी सी औफिस पहुंची. उसे पूर्ण विश्वास था कि आज सुशांत किसी न किसी बहाने उसे जलील करेगा, लेकिन उस का व्यवहार तो पहले की ही तरह मृदु और शिष्ट था. ऐसा लग रहा था जैसे कुछ हुआ ही न हो.

1 सप्ताह ऐश्वर्या सहमीसहमी सी रही, फिर सामान्य हो गई. उसे लगा कि शायद सुशांत को अपने किए पर पछतावा होगा. धीरेधीरे महीना बीत गया. कोई खास घटना नहीं हुई.

एक दिन सुशांत ने उसे अपने चैंबर में बुला कर कहा, ‘‘ऐश्वर्या, यह अमेरिका के हमारे एक खास क्लाइंट का प्रोजैक्ट है. इसे 48 घंटे में पूरा करना है. क्या आप इसे कर पाएंगी?’’

‘‘जी, मैं पूरी कोशिश करूंगी.’’

‘‘गुड,’’ सुशांत ने कहा, ये कंपनी के खास क्लाइंट हैं, इसलिए ध्यान रहे कि कोई गड़बड़ न हो.

‘‘ओके सर,’’ कह ऐश्वर्या अपनी सीट पर लौट आई. उस ने उस प्रोजैक्ट को आराम से देखा, तो लगा कि यह तो बहुत आसान है. सुशांत सर बेकार में परेशान हो रहे थे. वह इसे आज ही पूरा कर सकती है.

ऐश्वर्या ने काम शुरू कर दिया लेकिन उस का अंदाजा गलत निकला. वह उस प्रोजैक्ट पर जैसेजैसे आगे बढ़ती गई वैसेवैसे उस की जटिलताएं भी बढ़ती गईं. दोपहर तक वह कोई खास काम नहीं कर पाई. उसे लगने लगा कि 2 दिनों में यह काम पूरा कर पाना संभव नहीं है.

वह लंच के बाद सुशांत से इस के बारे में कुछ पूछने गई, लेकिन वह किसी मीटिंग के सिलसिले में बाहर गया था और अगले दिन ही लौटना था. उस ने दूसरे सीनियर्स से भी बात की, लेकिन किसी ने भी पहले कभी ऐसे प्रोजैक्ट पर काम नहीं किया था.

अगले दिन सुशांत ने औफिस आते ही प्रोजैक्ट की प्रगति देखी तो बुरी तरह भड़क उठा, ‘‘यह क्या? आप ने तो कुछ किया ही नहीं? मैं औफिस में नहीं था, तो आप हाथ पर हाथ रख कर बैठी रहीं.’’

‘‘ऐसा नहीं है सर, इस में कुछ प्रौब्लम आ गई थी, जिस के बारे में कोई कुछ नहीं बता पाया. मैं ने दोपहर बाद क्लाइंट को कई बार फोन भी किया, लेकिन उस ने उठाया नहीं,’’ ऐश्वर्या ने सफाई दी.

‘‘ऐश्वर्या, आप होश में तो हैं,’’ सुशांत चीख सा पड़ा, ‘‘आप पढ़ीलिखी हैं. आप को इतनी तमीज तो होनी चाहिए कि जिस समय आप फोन कर रही थीं उस समय अमेरिका में रात होगी और क्लाइंट सो रहा होगा. खैर मनाइए कि उस की नींद नहीं टूटी वरना आप की नौकरी चली जाती.’’

‘‘सर, तो मैं और क्या करती?’’ अपनी बेबसी पर ऐश्वर्या की आंखें छलछला आईं.

‘‘अपने दिमाग का इस्तेमाल करतीं और काम पूरा करतीं,’’ सुशांत ने बुरी तरह डपटा. फिर प्रोजैक्ट को देख कर कुछ बातें बता उसे उस की सीट पर भेज दिया.

ऐश्वर्या ने लाख कोशिश की, लेकिन प्रोजैक्ट उस दिन पूरा नहीं हो पाया. इस से नाराज हो कर सुशांत ने उसे एक मैमो पकड़ा दिया.

धीरेधीरे सुशांत का असली रंग सामने आने लगा था. वह सब से कठिन काम ऐश्वर्या को सौंपता और उस के पूरा न होने पर डांटने के साथसाथ मैमो भी पकड़ाता रहता.

एक दिन सुशांत ने सुबहसुबह ही ऐश्वर्या को अपने चैंबर में बुला कर कहा, ‘‘3 महीने में आप को 11 मैमो मिल चुके हैं. अगर आप ने अपने काम में सुधार नहीं किया तो कंपनी आप को डिसमिस करने के लिए मजबूर हो जाएगी. इसे आप आखिरी चेतावनी समझिएगा.’’

परिणाम: विज्ञान की जीत हुई या पाखंड की

“हमारे बेटे का नाम क्या सोचा है तुम ने?” रात में परिधि ने पति रोहन की बांहों पर अपना सिर रखते हुए पूछा.

“हमारे प्यार की निशानी का नाम होगा अंश, जो मेरा भी अंश होगा और तुम्हारा भी,” मुसकराते हुए रोहन ने जवाब दिया.

“बेटी हुई तो?”

“बेटी हुई तो उसे सपना कह कर पुकारेंगे. वह हमारा सपना जो पूरा करेगी.”

“सच बहुत सुंदर नाम हैं दोनों. तुम बहुत अच्छे पापा बनोगे,” हंसते हुए परिधि ने कहा तो रोहन ने उस के माथे को चूम लिया.

लौकडाउन का दूसरा महीना शुरू हुआ था जबकि परिधि की प्रैगनैंसी का 8वां महीना पूरा हो चुका था और अब कभी भी उसे डिलीवरी के लिए अस्पताल जाना पड़ सकता था.

परिधि का पति रोहन इंजीनियर था जो परिधि को ले कर काफी सपोर्टिव और खुले दिमाग का इंसान था जबकि उस की सास उर्मिला देवी का स्वभाव कुछ अलग ही था. वे धर्मकर्म पर जरूरत से ज्यादा विश्वास रखती थीं.

प्रैगनैंसी के बाद से ही परिधि को कुछ तकलीफें बनी रहती थीं. ऐसे में उर्मिला देवी ने कई दफा परिधि के आने वाले बच्चे के नाम पर धार्मिक अनुष्ठान भी करवाए. मगर फिलहाल लौकडाउन की वजह से सब बंद था.

उस दिन सुबह से ही परिधि के पेट में दर्द हो रहा था. रात तक उस का दर्द काफी बढ़ गया. उसे अस्पताल ले जाया गया. महिला डाक्टर ने अच्छी तरह परीक्षण कर के बताया,” रोहनजी, परिधि के गर्भाशय में बच्चे की गलत स्थिति की वजह से उन्हें बीचबीच में दर्द हो रहा है. ऐसे में इन्हें ऐडमिट कर के कुछ दिनों तक निगरानी में रखना बेहतर होगा.”

“जी जैसा आप उचित समझें,” कह कर रोहन ने परिधि को ऐडमिट करा दिया.

इधर उर्मिला देवी ने डाक्टर की बात सुनी तो तुरंत पंडित को बुलावा भेजा.

“पंडितजी, बहू को दर्द हो रहा है. उसे स्वस्थ बच्चा हो जाए और सब ठीक रहे इस के लिए कुछ उपाय बताइए?”

अपनी भौंहों पर बल डालते हुए पंडितजी ने कुछ देर सोचा फिर बोले,” ठीक है एक अनुष्ठान कराना होगा. सब अच्छा हो जाएगा. इस अनुष्ठान में करीब ₹10 हजार का खर्च आएगा.”

“जी आप रुपयों की चिंता न करें. बस सब चंगा कर दें. आप बताएं कि किन चीजों का इंतजाम करना है?”

पंडितजी ने एक लंबी सूची तैयार की जिस में लाल और पीला कपड़ा, लाल धागे, चावल, घी, लौंग, कपूर, लाल फूल, रोली, चंदन, साबुत गेहूं, सिंदूर, केसर, नारियल, दूर्वा, कुमकुम, पीपल और तुलसी के पत्ते, पान, सुपारी आदि शामिल थे.

उर्मिला देवी ने मोहल्ले के परिचित परचून की दुकान से वे चीजें खरीद लीं. कुछ चीजें घर में भी मौजूद थीं.

सारे सामानों के साथ उर्मिला देवी पंडित को ले कर अस्पताल पहुंंचीं तो अस्पताल की नर्सें और कर्मचारी हैरान रह गए. उन्हें रिसैप्शन पर ही रोक दिया गया मगर उर्मिला देवी बड़ी चालाकी से पंडित को विजिटर बना कर अंदर ले आईं. उर्मिला देवी ने पहले ही परिधि को प्राइवेट वार्ड में शिफ्ट कर लिया था. कमरा बंद कर के अनुष्ठान की प्रक्रिया आरंभ की गई.

बाहर घूम रहीं नर्सों को इस बाबत पूरी जानकारी थी कि अंदर क्या चल रहा है मगर उन के पास कहने के लिए शब्द नहीं थे. उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि इस पाखंड को कैसे रोकें. दरअसल, अस्पताल में ऐसी घटना कभी भी नहीं हुई थी. सभी सीनियर डाक्टर के आने का इंतजार कर रहे थे. तब तक करीब 1 घंटे की के अंदर सारी प्रक्रियाएं पूरी कर उर्मिला देवी ने पंडित को विदा कर दिया.

नर्सें अंदर घुसीं तो देखा की परिधि के हाथ में लाल धागा बंधा हुआ है. माथे पर दूर तक सिंदूर लगा है. जमीन पर हलदी से बनाई गई एक आकृति के ऊपर चावल, लौंग, कुमकुम जैसी बहुत सी चीजें रखी हुई हैं. पास में नारियल के ऊपर एक पीला कपड़ा भी पड़ा हुआ है. और भी बहुत सी चीजें नजर आ रही थीं.

“स्टूपिड पीपुल्स…” कहते हुए एक नर्स ने बुरा सा मुंह बनाया और बाहर चली गई.

उर्मिला देवी चिढ़ गईं. नर्स को सुनाने की गरज से जोरजोर से चिल्ला कर कहने लगीं,” पूजा हम ने कराई है इस कलमुंही को क्या परेशानी है?”

इस बात को 4-5 दिन बीत गए. इस बीच परिधि को जुकाम और खांसी की समस्या हो गई. हलका बुखार भी हो गया था. अस्पताल वालों ने तुरंत उस का कोविड टेस्ट कराया.

उसी दिन रात में परिधि को दर्द उठा. आननफानन में सारे इंतजाम किए गए. सुबह की पहली किरण के साथ उस की गोद में एक नन्हा बच्चा खिलखिला उठा. घर वालों को खबर की गई. वे दौड़े आए.

तबतक कोविड-19 रिपोर्ट भी आ गई थी. परिधि कोरोना पोजिटिव थी. परिधि के पति और सास को जब यह खबर दी गई तो सास ने चिल्ला कर कहा,” ऐसा कैसे हो सकता है? हमारी बहू तो बिलकुल स्वस्थ हालत में अस्पताल आई थी. तुम लोगों ने जरूर सावधानी नहीं रखी होगी तभी ऐसा हुआ.”

“यह क्या कह रही हो अम्मांजी? हम ने ऐसा क्या कर दिया? हमारे अस्पताल में मरीजों की सुरक्षा का पूरा खयाल रखा जाता है. यहां पूरी सफाई से सारे काम होते हैं.”

नर्स ने कहा तो सास उसी पर चिल्ला उठीं,” हांहां… गलत तो हम ही कह रहे हैं. वह देखो मरीज बिना मास्क के जा रहा है.”

“अम्मांजी उस की कल ही रिपोर्ट आई है. उसे कोरोना नहीं है और एक बात बता दूं, इस अस्पताल में कई इमारते हैं. इस इमारत में केवल गाइनिक केसेज आते हैं. बगल वाली इमारत कोविड मरीजों के लिए है. वहां के किसी स्टाफ को भी इधर आने की परमिशन नहीं. वैसे भी हम मास्क, ग्लव्स और सैनिटाइजेशन का पूरा खयाल रखते हैं. हमें उलटी बातें न सुनाओ.”

“कैसे न सुनाऊं? मेरी बहू को इसी अस्पताल में कोरोना हुआ है. साफ है कि यहां का मैनेजमैंट सही नहीं. यहां आया हुआ स्वस्थ इंसान भी कोरोना मरीज बन जाता है.”

“आप तो हम पर इल्जाम लगाना भी मत. पता नहीं क्याक्या अंधविश्वास और पाखंड के चोंचले करती फिरती हो. अपनी बहू को देखिए. उस की तबीयत बिगड़ जाएगी. उस का फीवर अब ठीक है. आप अपने साथ ले जाइए. न्यू बोर्न बेबी को इस अस्पताल में छोड़ना उचित नहीं. इस वक्त छोटे बच्चे की कैसे केयर करनी है वह हम समझा देंगे.”

“नहीं इसे हम घर कैसे ले जा सकते हैं? इसे कोविड है. घर में किसी को हो जाएगा. इतनी तो समझ होनी चाहिए न आप को.”

“मां हम परिधि को घर में क्वैरंटाइन कर देंगे. बच्चे को कोविड से कैसे बचाना है वह नर्स बता ही देंगी.”

“नहीं हम बहू और बच्चे को घर नहीं ले जा सकते. खबरदार रोहन जो तू इन के चक्कर में आया. ये नर्स और डाक्टर ऐसे ही बोलते हैं. पर मैं कोई खतरा मोल नहीं ले सकती.”

“पर मां…”

तुझे कसम है चल यहां से..”

उर्मिला देवी रोहन का हाथ पकड़ कर उसे घसीटती हुई घर ले गईं. परिधि का चेहरा बन गया. डाक्टर और नर्स आपस में उर्मिला देवी के व्यवहार और हरकतों की बुराई करने लगे. उन लोगों ने मैनेजमैंट को भी उर्मिला देवी के गलत व्यवहार की खबर कर दी. 1-2 लोकल अखबारों में भी इस घटना का उल्लेख किया गया.

इस बात को करीब 4-5 दिन बीत चुके थे. एक दिन उर्मिला देवी ने पंडितजी को फोन लगाया. वह पूछना चाहती थीं कि आगे क्या करना उचित रहेगा और ग्रहनक्षत्रों के बुरे दोष कैसे दूर किए जाएं?

फोन पंडित के बेटे ने उठाया.

“बेटा जरा पंडितजी को फोन देना..” उर्मिला देवी ने कहा.

बेटे ने कहा,”पिताजी को कोरोना हो गया था. 1 सप्ताह पहले ही उन की मौत हो चुकी है.”

उर्मिला जी के हाथ से फोन छूट कर गिर पड़ा. खुद भी सोफे पर बैठ गईं. पंडितजी को कोरोना था, यह जान कर वह डर गई थीं. यानी जिस दिन पंडितजी धार्मिक अनुष्ठान कराने आए थे तब भी उन्हें कोरोना था. तभी तो परिधि को भी यह बीमारी हुई है.

परिधि के साथ उस दिन पंडितजी के साथ वह भी तो थीं यानी अब वह खुद भी कोरोना की चपेट में आ सकती हैं. उन्होंने गौर किया कि 2-3 दिनों से उन्हें भी खांसी हो रही थी.

उर्मिलाजी ने फटाफट अपना कोरोना टेस्ट करवाया. अब तक उन्हें बुखार भी आ चुका था. हजारीबाग में कोरोना का एक ही अस्पताल था इसलिए उन्हें उसी अस्पताल में जाना पड़ा. मगर वहां के मैनेजमैंट ने उर्मिला देवी को ऐडमिट करने से साफ इनकार कर दिया.

ऐंबुलैंस में पड़ीं उर्मिला देवी का दिमाग काम नहीं कर रहा था. वे जानती थीं कि इस के अलावा यहां कोई अस्पताल नहीं. अब या तो उन्हें 4 घंटे के सफर के बाद रांची ले जाया जाएगा और वहां बैड न मिला तो 12 घंटे का सफर कर के पटना जाने को तैयार रहना होगा. हताश रोहन अस्पताल से वापस निकल आया.

दोनों जानते थे कि उर्मिला देवी को अपनी करनी का फल ही मिल रहा था. उन की गलत सोच, अंधविश्वास और नकारात्मक रवैए का ही परिणाम था कि आज बहू और पोते के साथसाथ उन की अपनी जिंदगी भी दांव पर लग चुकी थी.

वाइट पैंट: जब 3 सहेलियों के बीच प्यार ने दी दस्तक

इस बार जब मायके आई तो घूमते हुए कालेज के आगे से गुजरना हुआ. तभी अनायास ही वह सफेद पैंट पहना हुआ शख्स आंखों के आगे लहरा गया जिस का नाम ही हम लोगों ने वाइट पैंट रखा हुआ था. और सोचते हुए कालेज के दिन चलचित्र जैसे आंखों के आगे नाचने लगे.

बात तब की है जब हम ने कालेज में नयानया ऐडमिशन लिया था. उस जमाने में कालेज जाना ही बहुत बड़ी बात होती थी. हर कोई स्कूल के बाद कालेज तक नहीं पहुंच पाता था. तो हम खुद को बहुत खुशनसीब समझते थे जो कालेज की चौखट तक पहुंचे थे. इंटर कालेज के कठोर अनुशासन के बाद कालेज का खुलापन और रंगबिरंगे परिधान एक अलग ही दुनिया की सैर कराते थे.

हमारे लिए हर दिन नया दिन होता था. कालेज हमें कभी बोर नहीं करता था. हम 3 सहेलियां थीं सरिता, सुमित्रा और सुदेश. हम हमेशा साथसाथ रहती थीं, इसीलिए सभी लोग हमें त्रिमूर्ति भी कहते थे.

हम तीनों अकसर क्लास खत्म होने के बाद खुले मैदान में बैठ कर घंटों गपें लड़ाती थीं. इसी क्रम में हम तीनों ने महसूस किया कि कोई हमारे आसपास खड़ा हो कर हम पर नजर रखता है और इस बात को हम तीनों ने ही नोट किया. हम ने देखा मध्यम कदकाठी का एक लड़का, जो बहुत खूबसूरत नहीं था, उस के गेहुएं रंग में सिल्की बाल अच्छे ही लग रहे थे. शर्ट जैसी भी पहने था. लेकिन पैंट वह हमेशा सफेद ही पहनता था. रोजरोज उसे सफेद पैंट में देखने के कारण हम ने उस का नाम ही वाइट पैंट रख दिया था जिस से हमें उस के बारे में बात करने में आसानी रहती थी.

हमारा काम था क्लास के बाद मैदान में बैठ कर टाइम पास करना और उस का काम एक निश्चित दूरी से हम को देखते रहना. जब यह क्रम काफी दिनों तक चलता रहा तो हमें भी कुतूहल हुआ कि आखिर यह हम तीनों में से किसे पसंद करता है. सो, हम तीनों ने सोचा क्यों न इस बात का पता लगाया जाए. तो इत्तफाक से एक दिन सुदेश नहीं आई लेकिन हम ने देखा कि वाइट पैंट फिर भी हमारे आसपास उपस्थित है. तो इतना तो पक्का हो गया कि सुदेश वह लड़की नहीं है जिस के लिए वह हमारा ग्रुप ताकता है. कुछ समय बाद सुमित्रा उपस्थित न रही. फिर भी उस का हमें ताकना बदस्तूर जारी रहा. अब सुमित्रा भी इस शक के घेरे से बाहर थी. अब रह गई थी एकमात्र मैं और फिर किसी कारणवश मैं ने भी छुट्टी ली तो अगले दिन कालेज जाने पर पता चला कि मेरे न होने पर भी उस का ताकना जारी था.

अब तो हम तीनों को गुस्सा आने लगा. लेकिन कर भी क्या सकते थे. हम कहीं भी जा कर बैठते, उसे अपने आसपास ही पाते. हम ने कई बार अपने बैठने की जगह भी बदली, मगर उसे अपने ग्रुप के आसपास ही पाया. तीनों में मैं थोड़ी साहसी और निडर थी. हम रोज उसे देख कर यही सोचते कि इसे कैसे मजा चखाया जाए. लेकिन हमारे पास कोई आइडिया नहीं था और वैसे भी, इतने महीनों तक न उस ने कुछ बात की और न ही कभी कोई गलत हरकत. इसलिए भी हम कुछ नहीं कर सके. लेकिन उस का हमेशा हमारे ही ग्रुप को ताकना हमें किसी बोझ से कम नहीं लगता था. एक दिन हमारे बैठते ही जब वह भी आ गया तो मैं ने कहा चलो, आज इसे मजा चखाते हैं. तो दोनों बोलीं, ‘कैसे?’

?मैं ने कहा, ‘यह रोज हमारा पीछा करता है न, तो चलो आज हम इस का पीछा करते हैं.’ वे दोनों बोलीं, ‘कैसे?’ मैं ने कहा, ‘तुम दोनों सिर्फ मेरा साथ दो. जैसा मैं कहती हूं, बस, मेरे साथसाथ वैसे ही चलना.’ उन दोनों ने हामी भर दी. फिर हम वहीं बैठे रहे. हम ने देखा लगभग एक घंटे बाद वह लाइब्रेरी की तरफ गया तो मैं ने दोनों से कहा कि चलो अब मेरे साथ इस के पीछे. आज हम इस का पीछा करेंगे और इसे सताएंगे. मेरी बात सुन कर वे दोनों खुश हो गईं. और हम तीनों उस के पीछेपीछे लाइब्रेरी पहुंच गए. जितनी दूरी पर वह खड़ा होता था, लगभग उतनी ही दूरी बना कर हम तीनों खड़े हो गए. जब उस की नजर हम पर पड़ी तो वह हमें देख कर चौंक गया और हलके से मुसकरा कर अपने काम में लग गया.

उस के बाद वह पानी पीने वाटरकूलर के पास गया तो हम भी उस के पीछेपीछे वहीं पहुंच गए. अब तक वह हम से परेशान हो चुका था. फिर वो नीचे आया और मैदान के दूसरे छोर पर बने विज्ञान विभाग की तरफ चल दिया. हम भी उस के पीछेपीछे चल दिए. वह विज्ञान विभाग के अंदर गया और काफी देर तक बाहर नहीं आया. हम बाहर ही मैदान में बैठ कर उस के बाहर आने का इंतजार करने लगे.

लगभग 35 मिनट के बाद वह चोरों की तरह झांकता हुआ बाहर निकला, तो उस ने हम तीनों को उस के इंतजार में बैठे पाया. 10 बजे से इस चूहेबिल्ली के खेल में 2 बज चुके थे. वह हम से भागतेभागते बुरी तरह थक चुका था. वह कालेज से बाहर निकला और ऋषिकेश की तरफ पैदल चलने लगा. हम भी उस के पीछे हो लिए. वह मुड़मुड़ कर हमें देखता और आगे चलता जाता. जब थकहार कर उसे हम किसी भी तरह टलते नहीं दिखे तो आखिर में वह हरिद्वार जाने वाली बस में चढ़ गया और हमारे सामने से हमें टाटा करते हुए मुसकराते हुए निकल गया. हम तीनों अपनी इस जीत पर पेट पकड़ कर हंसती रहीं और फिर उस दिन के बाद कभी दोबारा हम ने वाइट पैंट को अपने आसपास नहीं देखा.

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