2 हिस्से: जब खुशहाल शादी पहुंची तलाक तक

‘‘कहां थीं तुम? 2 घंटे से फोन कर रहा हूं… मायके पहुंच कर बौरा जाती हो,’’ बड़ी देर के बाद जब मोनी ने फोन रिसीव किया तो मीत बरस पड़ा.

‘‘अरे, वह… मोबाइल… इधरउधर रहता है तो रिंग सुनाईर् ही नहीं पड़ी… सुबह ही तो बात हुई थी तुम से… अच्छा क्या हुआ किसलिए फोन किया? कोई खास बात?’’ मोनी ने उस की झल्लाहट पर कोई विशेष ध्यान न देते हुए कहा.

‘‘मतलब अब तुम से बात करने के लिए कोई खास बात होनी चाहिए मेरे पास… क्यों ऐसे मैं बात नहीं कर सकता? तुम्हारा और बच्चों का हाल जानने का हक नहीं है क्या मुझे? हां, अब नानामामा का ज्यादा हक हो गया होगा,’’ मीत मोनी के सपाट उत्तर से और चिढ़ गया. उसे उम्मीद थी कि वह अपनी गलती मानते हुए विनम्रता से बात करेगी.

उधर मोनी का भी सब्र तुरंत टूट गया. बोली, ‘‘तुम ने लड़ने के लिए फोन किया है तो मुझे फालतू की कोई बात नहीं करनी है. एक तो वैसे ही यहां कितनी भीड़ है और ऊपर से मान्या की तबीयत…’’ कहतेकहते उस ने अपनी जीभ काट ली.

‘‘क्या हुआ मान्या को? तुम से बच्चे नहीं संभलते तो ले क्यों जाती हो… अपने भाईबहनों के साथ मगन हो गई होगी… ऐसा है कल का ही तत्काल का टिकट बुक करा रहा हूं तुम्हारा… वापस आ जाओ तुम… मायके जा कर बहुत पर निकल आते हैं तुम्हारे. मेरी बेटी की तबीयत खराब है और तुम वहां सैरसपाटा कर रही हो… नालायकी की हद है… लापरवाह हो तुम…’’ हालचाल लेने को किया गया फोन अब गृहयुद्ध में बदल रहा था. मीत अपना आपा खो बैठा था.

‘‘जरा सा बुखार हुआ है उसे… अब वह ठीक है… और सुनो, मुझे धमकी मत दो. मैं 10 दिन के लिए आई हूं. पूरे 10 दिन रह कर ही आऊंगी… मैं अच्छी तरह जानती हूं कि मेरे मायके आने से सांप लोटने लगा है तुम्हारे सीने पर… अभी तुम्हारे गांव जाती जहां 12-12 घंटे लाइट नहीं आती… बच्चे वहां बीमार होते तो तुम्हें कुछ नहीं होता… पूरा साल तुम्हारी चाकरी करने के बाद 10 दिन को मायके क्या आ जाऊं तुम्हारी यही नौटंकी हर बार शुरू हो जाती है,’’ मोनी भी बिफर गई. उस की आवाज भर्रा गई पर वह अपने मोरचे पर डटी रही.

‘‘अच्छा मैं नौटंकी कर रहा हूं… बहुत शह मिल रही है तुम्हें वहां…

अब तुम वहीं रहो. कोई जरूरत नहीं वापस आने की… 10 दिन नहीं अब पूरा साल रहो… खबरदार जो वापस आईं,’’ गुस्से से चीखते हुए मीत ने उस की बात आगे सुने बिना ही फोन काट दिया.

मोनी ने भी मोबाइल पटक दिया और सोफे पर बैठ कर रोने लगी. उस की मां पास बैठी सब सुन रही थीं. वे बोलीं, ‘‘बेटी, वह हालचाल पूछने के लिए फोन कर रहा था. देर से फोन उठाने पर अगर नाराज हो रहा था तो तुम्हें प्यार से उसे हैंडल करना था. खैर, चलो अब रोओ नहीं. कल सुबह तक उस का भी गुस्सा उतर जाएगा.’’

मोनी अपना मुंह छिपाए रोते हुए बोली, ‘‘मम्मी, सिर्फ 10 दिन के लिए आई हूं. जरा सी मेरी खुशी देखी नहीं जाती इन से… पतियों का स्वभाव ऐसा क्यों होता है कि जब भी हमें मिस करेंगे, हमारे बिना काम भी नहीं चलेगा तब प्यार जताने के बदले, हमारी कदर करने के बदले हमीं पर झलाएंगे, गुस्सा दिखाएंगे… हम से जुड़ी हर चीज से बैर पाल लेंगे. यह क्या तरीका है जिंदगी जीने का?’’

‘‘बेटी, ये पुरुष होते ही ऐसे हैं… ये बीवी से प्यार तो करते हैं पर उस से भी ज्यादा अधिकार जमाते हैं. बीवी के मायके जाने पर इन को लगता है कि इन का अधिकार कुछ कम हो रहा है, तो अपनेआप अंदर ही अंदर परेशान होते हैं. ऐसी झल्लाहट में जब बीवी जरा सा कुछ उलटा बोल दे तो इन के अहं पर चोट लग जाती है और बेबात का झगड़ा होने लगता है… तेरे पापा का भी यही हाल रहता था,’’ मां ने मोनी के सिर पर हाथ फेरते हुए उसे चुप कराया.

‘‘पर मम्मी औरत को 2 भागों में आखिर बांटते ही क्यों हैं ये पुरुष? मैं पूरी ससुराल की भी हूं और मायके की भी… मायके में आते ही ससुराल की उपेक्षा का आरोप क्यों लगता है हम पर? यह 2 जगह का होने का भार हमें ही क्यों ढोना पड़ता है?’’ मोनी ने मानो यह प्रश्न मां से ही नहीं, बल्कि सब से किया हो.

मां उसे अपने सीने से लगा कर चुप कराते हुए बोलीं, ‘‘इन के अहं और ससुराल में छत्तीस का आंकड़ा रहता ही है… मोनी मैं ने कहा न कि पुरुष होते ही ऐसे हैं. यह इन की स्वाभाविक प्रवृत्ति है… और पुरुष का काम ही है स्त्री को 2 भागों में बांट देना, जिन में एक हिस्सा मायके का और दूसरा ससुराल का बनता है… जैसे 2 अर्ध गोलाकार से एक गोलाकार पूरा होता है वैसे ही एक औरत भी इन 2 हिस्सों से पूर्ण होती है.’’

मोनी मूक बनी सब सुन रही थी. कुछ समझ रही थी और कुछ नहीं समझने की कोशिश कर रही थी. शायद यही औरत का सच है.

जमाना बदल गया: भाग 1- ऐश्वर्या ने सुशांत को कैसे सिखाया सबक?

‘‘हैलोपापा, मेरा कैंपस सलैक्शन हो गया है,’’ ऐश्वर्या ने लगभग चिल्लाते हुए कहा. उस से अपनी खुशी छिपाए नहीं छिप रही थी.

‘‘बधाई हो बेटा,’’ पापा की प्रसन्नता भरी आवाज सुनाई दी, ‘‘किस कंपनी में हुआ है?’’

‘‘रिवोल्यूशन टैक्नोलौजी में. बहुत बड़ी सौफ्टवेयर कंपनी है. इस की कई देशों में शाखाएं हैं,’’ ऐश्वर्या ने खुशी से बताया, ‘‘कालेज में सब से ज्यादा पैकेज मुझे मिला है. ज्यादातर बच्चों को तीन से साढ़े तीन लाख रुपए तक के पैकेज मिले हैं, लेकिन मुझे साढ़े चार लाख रुपए का पैकेज मिला है. लेकिन…’’

‘‘लेकिन क्या?’’

‘‘यह कंपनी 2 साल का बौंड भरवा रही है. समझ में नहीं आ रहा क्या करूं?’’

‘‘दूसरी कंपनियां भी तो कम से कम 1 साल का बौंड भरवाती ही हैं. अगर अच्छी शुरुआत मिल रही है तो 2 साल का बौंड भरने में कोई बुराई नहीं है, क्योंकि 2 साल बाद अगर कंपनी बदलती हो तो तुम्हें इस से ऊपर का जंप मिलेगा जबकि तुम्हारे दूसरे साथियों को मुश्किल से उतना मिल पाएगा जितने से तुम शुरुआत कर रही हो,’’ पापा ने राय दी.

‘‘थैंक्यू पापा, आप ने मेरी उलझन दूर कर दी.’’

ऐश्वर्या लखनऊ के एक इंजीनियरिंग कालेज की छात्रा थी. हर सेमैस्टर में टौप करती थी. सभी उस की प्रतिभा का लोहा मानते थे. सभी को विश्वास था कि सब से अच्छा पैकेज उसी को मिलेगा.

2 दिन बाद जब ऐश्वर्या घर पहुंची तो पापा ने उसे गले से लगा लिया. मम्मी ने उस के ऊपर आशीर्वादों की बौछार करते हुए पूछा, ‘‘तुम्हारी पोस्टिंग कहां होगी?’’

‘‘बैंगलुरु में?’’

घर में जश्न का माहौल था. खुशियों के बीच छुट्टियां कब बीत गईं पता ही नहीं चला. ऐश्वर्या जब नौकरी जौइन करने पहुंची तो कंपनी की भव्यता देख दंग रह गई. बैंगलुरु के आई टी हब में एक मल्टी स्टोरी बिल्डिंग की छठी मंजिल पर कंपनी का शानदार औफिस था.

सुबह 10 बजे कंपनी के सभी कर्मचारी मिनी औडिटोरियम में 15 मिनट तक मैडिटेशन करते उस के बाद अपनेअपने कार्यस्थल पर चले जाते. जूनियर कर्मचारियों के लिए हाल में छोटेछोटे क्यूबिकल्स बने थे, जबकि मैनेजर और ऊपर के अधिकारियों के लिए कैबिनों की व्यवस्था थी. किंतु सभी क्यूबिकल्स और कैबिनों की साजसज्जा एक ही तरह की थी, जिस से कंपनी का ऐश्वर्य झलकता था.

ऐश्वर्या की नियुक्ति प्रोजैक्ट मैनेजर सुशांत की टीम में हुई थी. उस की गिनती कंपनी के प्रमुख अधिकारियों में होती थी. अपनी काबिलीयत के बल पर उस ने बहुत तेजी से तरक्की की थी.

पहले ही दिन उस ने ऐश्वर्या का स्वागत करते हुए कहा, ‘‘ऐश्वर्याजी, मेरी टीम कंपनी की लीड टीम है. कंपनी के सब से महत्त्वपूर्ण प्रोजैक्ट हमारी टीम को ही मिलते हैं. मुझे विश्वास है कि आप के आने से हमारी टीम और मजबूत होगी.’’

‘‘सर, मैं आप की अपेक्षाओं पर खरी उतरने की पूरी कोशिश करूंगी,’’ ऐश्वर्या के चेहरे से भरपूर आत्मविश्वास झलक उठा.

सुशांत ने सच ही कहा था. कंपनी के सब से महत्त्वपूर्ण प्रोजैक्ट उस की टीम को ही

मिलते थे, इसलिए सभी को दूसरों की अपेक्षा मेहनत भी ज्यादा करनी पड़ती थी. देखते ही देखते पहला महीना बीत गया. ऐश्वर्या को ज्यादा काम नहीं दिया गया. इस बीच वह काम को समझतीसीखती रही.

पहली तनख्वाह मिलने पर उस ने पूरे 25 हजार की खरीदारी कर डाली और फिर हवाईजहाज से लखनऊ पहुंच गई.

‘‘मम्मी, यह देखिए बैंगलौरी सिल्क की साड़ी और पशमीना शाल दोनों आप पर बहुत खिलेंगी,’’ ऐश्वर्या ने मम्मी के कंधों पर साड़ी रखते हुए कहा.

साड़ी और शाल वास्तव में बहुत खूबसूरत थी. मम्मी का चेहरा खिल उठा.

‘‘पापा, आप के लिए गरम सूट और घड़ी,’’ कह ऐश्वर्या ने 2 पैकेट पापा की ओर बढाए.

सूट पापा के मनपसंद रंग का था और घड़ी भी बहुत खूबसूरत थी. पापा का चेहरा भी खिल उठा.

‘‘तुम ने कितने की खरीदारी कर डाली?’’ मम्मी ने पूछा.

‘‘ज्यादा नहीं, सिर्फ 25 हजार की,’’ ऐश्वर्या मुसकराई.

सुन मम्मी की आंखें फैल गईं, ‘‘अब पूरे महीने का खर्चा कैसे चलाओगी?’’

‘‘जैसे पहले चलाती थी. पापा जिंदाबाद,’’ ऐश्वर्र्या खिलखिला पड़ी.

‘‘हांहां क्यों नहीं. अभी मेरे रिटायरमैंट में6 महीने बाकी हैं. तब तक तो अपनी  लाडली का खर्चा उठा ही सकता हूं,’’ पापा ने भी ठहाका लगाया.

2 दिन बाद ऐश्वर्या बैंगलुरु  लौट गई. अगले दिन लंच के बाद उस के सीनियर ने उसे एक टास्क दिया, जिसे पूरा करतेकरते 7 बज गए, लेकिन टास्क पूरा नहीं हुआ. कंपनी के ज्यादातर कर्मचारी चले गए थे, पर ऐश्वर्या अपने काम में जुटी रही. जानती थी कि यह काम आज ही पूरा होना जरूरी है.

‘‘मैडम, आप अभी तक घर नहीं गईं?’’ अपने चैंबर से निकलते सुशांत की नजर उस पर पड़ी.

‘‘सर, एक छोटा सा टास्क था, जो पूरा नहीं हो पाया. लेकिन मैं कर लूंगी.’’

‘‘लाइए मैं देखता हूं क्या है?’’ सुशांत ने कहा.

ऐश्वर्या कंप्यूटर के सामने से हट गई. सुशांत ने चंद पलों तक स्क्रीन पर खुले प्रोग्राम

को देखा, फिर उस की उंगलियां तेजी से कीबोर्ड पर चलने लगीं.

करीब 5 मिनट बाद सुशांत मुसकराया, ‘‘लीजिए आप का टास्क पूरा हो गया.’’

जिस काम को ऐश्वर्या कई घंटों से नहीं कर पा रही थी उसे सुशांत ने 5 मिनट में ही पूरा कर दिया. ऐश्वर्या उस की प्रतिभा की कायल हो गई.

‘‘थैंक्यू सर,’’ ऐश्वर्र्या ने कृतज्ञता प्रकट की.

‘‘इस की जरूरत नहीं,’’ सुशांत हलका सा मुसकराया, ‘‘थैंक्स के बदले क्या आप मेरे साथ 1 कप कौफी पीना चाहेंगी?’’

ऐश्वर्या भी काफी थक गई थी. उसे भी कौफी या चाय की जरूरत महसूस हो रही थी, इसलिए उस ने हामी भर दी.

सुशांत उसे एक महंगे रैस्टोरैंट में ले गया. वहां हाल के साथसाथ टैरेस में भी बैठने की व्यवस्था थी. सुशांत सीधे टैरेस में आ गया. वहां अपेक्षाकृत भीड़ कम थी और शांति भी थी. टैरेस से बाहर के दृश्य बहुत खूबसूरत नजर आ रहे थे. शहर की जगमगाती लाइटें देख कर लग रहा था जैसे सितारे जमीं पर उतर आए हों.

‘‘ऐश्वर्याजी, कंपनी की तरफ से 2 इंजीनियर 1 साल के लिए अमेरिका भेजे जा रहे हैं. आप ने उस के लिए आवेदन क्यों नहीं दिया? कौफी की चुसकियां लेते हुए सुशांत ने पूछा.’’

‘‘सर, मैं बिलकुल नई हूं, इसलिए आवेदन नहीं किया.’’

‘‘बात नए या पुराने की नहीं है. बात प्रतिभा की है और इस मामले में आप किसी से कम नहीं हैं. आप को आवेदन करना चाहिए. 3 लाख प्रति माह के साथसाथ कंपनी की तरफ से बोनस भी मिलेगा. 1 साल बाद जब लौटेंगी तो आप की मार्केट वैल्यू काफी बढ़ चुकी होगी,’’ सुशांत ने समझाया.

‘‘लेकिन सर, मैं बहुत जूनियर हूं. क्या मेरा चयन हो पाएगा?’’

‘‘उस की चिंता छोडि़ए. यह प्रोजैक्ट मेरा है. कौन अमेरिका जाएगा और कौन नहीं, इस का फैसला मुझे ही करना है.’’

ऐश्वर्या सोच में पड़ गई. वह तत्काल कोई निर्णय नहीं ले पा रही थी.

तब सुशांत ने कहा, ‘‘कोई जल्दी नहीं है. आप अच्छी तरह सोच लीजिए. कल शाम हम फिर यहीं मिलेंगे. तब आप अपना फैसला सुना दीजिएगा.’’

एक डाली के फूल: भाग 3-किसके आने से बदली हमशक्ल ज्योति और नलिनी की जिंदगी?

जब प्रथम प्रसव में कन्या हुई तो विपुला पति की आंखों में उतरे क्रोध व शोक को देख कांप उठी थी. वकील साहब उपस्थित प्रियजनों के सम्मुख तो कुछ न बोले, किंतु एकांत पाते ही दांत पीस विपुला को यह जताना न भूले, ‘लड़की ही पैदा करनी थी…?’

विपुला के नेत्रों में आंसू डबडबा आए. वह चुपचाप मुंह दूसरी तरफ कर सिसकने लगी.
दूसरी बार प्रसव कक्ष में सरबती भी विपुला के साथ थी. नवजात शिशुओं के रुदन के बीच ही सरबती का चेहरा लटक गया था. उस का मुख देख ही विपुला का चेहरा स्याह पड़ गया था. परिणाम तो सरबती के चेहरे पर परिलक्षित था किंतु फिर भी उस ने प्रश्नभरी निगाह सरबती पर डाली थी.
सरबती अटकअटक कर बोली थी, ‘मालकिन, अब के तो दोनों जुड़वां बेटियां हैं.’

विपुला पर तो मानो वज्र गिर पड़ा. वह उस की ओर जीवनदान मांगती सी इतना भर कह पाई, ‘सरबती, कुछ सोच, वे बरदाश्त न कर पाएंगे,’ और वह बेहोश हो गई.
सरबती विपुला के दर्द और घाव को समझती थी, पर अनपढ़, गरीब किस बल पर उस का साहस बंधाती. उस को जो सूझा, उस ने किया.

विपुला को घंटेभर बाद होश आया तो वकील साहब को तनिक संतुष्ट व प्रसन्न देख फटी आंखों से चारों तरफ निहारने लगी. कहीं स्वप्न तो नहीं देख रही या इतने वर्षों तक वह अपने पति को ही भलीभांति न जान सकी? इतने में वकील साहब तन कर बोले, ‘देखना, बेटे को बैरिस्टर बनाऊंगा, बैरिस्टर.’

वह चौंकी, मानो स्वप्न की दुनिया से वास्तविकता में आ गई हो. वकील साहब ने बेटे को उस की बगल में लिटा दिया था. विपुला के कांपते हाथ अनायास ही बच्चे के शिश्न पर चले गए. वह मूक ठगी सी कृतज्ञ सरबती की ओर ताकने लगी.

थोड़ी देर बाद वकील साहब घर चले गए थे. विपुला ने दोनों हाथों से कंगन उतारते सरबती को इशारे से पास बुला पहना दिए और फफक कर रो पड़ी थी.

सरबती ने धीरे से बताया था, ‘चिंता न करो बहूजी, एक डाक्टर के बेटा हुआ है, उस से बदल लिया है.’
इस के बाद बड़ी देर तक सरबती खुसुरफुसुर कर बताती रही अपनी वीरगाथा कि कैसे नर्स को लोभ दिखा कर उसे यह सफलता मिली. विपुला सुन तो रही थी पर पीड़ा भी उसे हुई इस कृत्य पर. फिर भी सरबती की कृतज्ञ थी, जिस ने अपने गले में पड़ी सोने की चेन तुरंत नर्स के हाथ में रख दी थी.

अचानक विपुला को वकील साहब ने जोरों से झकझोरा तो उस की तंद्रा टूटी. वह हड़बड़ा कर खड़ी हो गई. वे बोले, ‘‘तुम अभी तक यहीं मुंह लटकाए बैठी हो?’’

विपुला अपना सिर पकड़ बिना कुछ कहे वहां से चल दी. नलिनी ने पूछा, ‘‘मां, सिर में दर्द है?’’

दीपक ने भी कहा, ‘‘मैं सिर दबा दूं?’’

विपुला इनकार में सिर हिलाती एक लंबी सांस खींच बोली, ‘‘मुझे अकेला छोड़ दो. कोई बात मत करो.’’
‘‘पर मां, खाना तो खा लो,’’ दीपक ने कहा तो विपुला शून्य में देखती हुई बोली, ‘‘भूख नहीं है.’’
इतना कह विपुला कमरे में सोने चली गई. नींद उसे कहां आनी थी. वह आंखों में आंसू भरे करवटें लेती रही. कभी अपनी कायरता पर रोती, कभी अपराधबोध त्रस्त कर देता, ‘हाय, क्यों इतना भय समा गया था? किसी की कोख से बेटा छीन लेने का जो अपराध किया, उस से तिलतिल जलती ही रही हूं, कोई सुख नहीं पाया. इतने वर्षों तक घुटघुट कर जीती रही. पर अपने को कभी माफ नहीं कर पाई. अपनी ही नजर में जब व्यक्ति गिर जाए तो उस का जीनामरना एक समान होता है.’

अगले दिन विपुला नलिनी से ज्योति के घर का पता पूछ चली गई. उसे देखते ही डा. प्रशांत व्यंग्य से मुसकराए और बोले, ‘‘मैं जानता था, आज आप में से कोई या दोनों पतिपत्नी आओगे जरूर. इस कारण ही मैं क्लीनिक बंद कर घर में बैठा हूं,’’ फिर लंबी सांस छोड़ कर गंभीरता ओढ़ ली, ‘‘कहिए, मैं आप की क्या सेवा कर सकता हूं?’’

विपुला सिर झुकाए अपराधी की भांति कुछ क्षण सूखे होंठ चाटती रही. सहसा फूटफूट कर रो पड़ी. रुदन थमा तो बोली, ‘‘डाक्टर साहब, मैं आप की अपराधिन हूं, मुझे दंड मिलना ही चाहिए. मैं ने अपने स्वार्थ के कारण आप का बेटा छीना. पर विश्वास कीजिए, यह कदम मैं ने बेटीबेटे के भेद के कारण नहीं बल्कि अपने पति के भय से उठाया था. फिर भी कुछ भी हो, मैं ने यह अपराध किया तो अपने स्वार्थ के लिए ही न. इसलिए सजा मिलनी ही चाहिए.

‘‘यह सच है कि ज्योति मेरी ही बेटी है और दीपक आप का बेटा, मैं स्वीकार करती हूं. सजा भोगने को भी तैयार हूं,’’ उस ने अंतिम वाक्य सजल नेत्र ऊपर उठा सीधे उन की आंखों में झांकते हुए कहा.
डा. प्रशांत फिर भी चुप रहे.
वह आगे बोली, ‘‘आप अपना दीपक दावा कर के ले लीजिए.’’
‘‘क्यों, आज पति का भय नहीं रहा?’’
‘‘भय आज भी है, परंतु उस को सहने की ताकत मुझ में पैदा हो गई है,’’ जोर दे कर निर्भीकता से बोली विपुला.

ज्योति, जिस ने सबकुछ सुनसमझ लिया था, कमरे की ओट से उन के सामने आते हुए बोली, ‘‘पिताजी, मैं ने आप को बहुत दुख दिया है,’’ इतना कह उन के पैरों में गिर पड़ी. उस की आंखों से आंसू बह रहे थे.
डा. प्रशांत अचकचा गए. इस स्थिति की तो उन्होंने कल्पना भी न की थी. उन्होंने उसे उठाते हुए ताज्जुब से पूछा, ‘‘तू कब कालेज से आई? छि… बेटियां पांव नहीं पड़तीं. तू रो क्यों रही है? पगली, तेरे बिना तो मेरा जीवन ही व्यर्थ है,’’ उसे दुलारते, समझाते बोले, ‘‘तू तो मेरे शरीर का हिस्सा है, ज्योति, मैं दीपक ले कर क्या करूंगा, जब ज्योति ही न होगी. तू तो सचमुच मेरी ज्योति है.’’

यह कह कर उन्होंने उस के सिर पर स्नेह से चपत लगाई और कहा, ‘‘तू दुखी मत हो, हम यह शहर ही छोड़ देंगे. मैं जल्लाद नहीं हूं, जो तुझे ऐसी जगह झोंक दूं जहां बेटियों के जन्म का भय समाया हो. तू तो मेरा बेटा और बेटी दोनों ही है.’’

‘‘नहीं, पिताजी, मुझे पता है, आप मुझे मानसिक रूप से असुरक्षित नहीं देखना चाहते हैं. पर मैं इतनी स्वार्थी कैसे हो सकती हूं. मैं ने आज तक बहुत लाड़प्यार और दुलार आप से पाया है. यद्यपि मैं आप को खोना नहीं चाहती, पर आप को बेटे से वंचित रखना…’’
‘‘चुप,’’ जोर से बीच में ही उन्होंने टोका, ‘‘बहुत बोलने लगी है.’’

विपुला आगे बढ़ कर ज्योति से आंखें मिलाने का साहस न कर सकी, गले लगाना तो दूर रहा. वह बोली, ‘‘डाक्टर साहब, मैं ने आप जैसे महान व्यक्ति के साथ धोखा किया, मुझे सजा मिलनी ही चाहिए. मैं दंड की ही अधिकारिणी हूं,’’ इतना कह वह फिर रोने लगी.

डा. प्रशांत को विपुला पर क्रोध तो आ रहा था पर वे उसे सजा भी नहीं देना चाह रहे थे. कुछ चिढ़ कर बोले, ‘‘जानती हैं, आप को भय तब क्यों लग रहा था क्योंकि आप मोह में फंसी थीं और आज अपराधबोध से शायद आप की अपनी देह से ही ममता छूट गई है, इसलिए भयभीत नहीं हैं…’’
‘‘डा. साहब, सही कहा आप ने. आज मैं ने जान लिया है, जो मनुष्य भयवश झूठा आचरण करता है वह पशु से भी बदतर है.’’

डा. प्रशांत के चेहरे की कठोरता कुछ कम हुई. उन्होंने सोचा, सजा के बजाय क्षमा अधिक वीरतापूर्ण कार्य है. क्षमा जो वीर पुरुष का भूषण है. अपने कुटुंब और प्रियजन के लिए तो सभी त्याग करते हैं पर जो दूसरों के लिए करे वही प्रशंसनीय है. फिर अपकार का बदला अपकार नहीं बल्कि उपकार ही हो सकता है. जिस पौधे को उन्होंने सींच कर बड़ा किया ही नहीं, उस से मोह उत्पन्न होगा भी कैसे और न ही वह उन्हें अपना पाएगा.

विपुला दोनों हाथ जोड़ बड़ी निर्भयता से परिणाम जानने के लिए उन के आगे खड़ी थी. डा. प्रशांत बड़ी दृढ़ता से बोले, ‘‘आप ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया, मैं इसी से प्रसन्न हूं. अब आप जा सकती हैं. और हां, जो पहेली आप ने आज तक अपने तक सीमित रखी है, आगे भी रख सकती हैं. मेरी ज्योति मुझे प्राणों से प्यारी है. शायद आप मेरा अभिप्राय समझ गई होंगी.’’

विपुला आश्चर्य से कुछ पल उन की ओर ताकती रही, फिर उन के चरणों में झुक गई, ‘‘डा. साहब, आप सचमुच महान हैं.’’

फरिश्ता

‘‘मम्मी,मेरा दोष क्या था जो कुदरत ने मेरे साथ इतना क्रूर मजाक किया?’’ नंदिता अपनी मां से रोरो कर पूछ रही थी. उस के रुदन से मां का कलेजा फटा जा रहा था. वे क्या जवाब दें? बेटी का दुख इस कदर हावी हो रहा था कि जैसे उन के खुद के प्राण न निकल जाएं. बूढ़ी हड्डियां कितना सहन करेंगी? पिता का भी वही हाल था. भाईबहन सभी की आंखें गीली थीं. सभी उसे धैर्य बंधा रहे थे. मगर वह थी कि रोना बंद करने का नाम नहीं ले रही थी.

नंदिता की यह दूसरी शादी थी. पहले से उसे एक लड़की मीना थी. वह 5 साल की रही होगी जब उस के पिता एक ऐक्सीडैंट में गुजर गए. नंदिता के लिए इस हादसे को सह पाना आसान न था. मात्र 30 साल की होगी नंदिता, जब उसे वैधव्य का असहनीय दुख  झेलना पड़ा. गोरीचिट्टी, तीखे नैननक्श वाली नंदिता में चित्ताकर्षण के सारे गुण थे. खूबसूरत इतनी थी कि जो उसे एक बार देखे बस देखता ही रह जाए. उस का पहला पति अक्षय एक निजी कंपनी में उच्चाधिकारी था. कार, फ्लैट, आधुनिक सुखसुविधा का सारा सामान घर में मौजूद था. अक्षय उसे बेहद प्यार करता था. वह अपने छोटे से परिवार में खुश थी कि एक दिन उस के ऐक्सीडैंट की खबर ने नंदिता की खुशियों पर ग्रहण लगा दिया. सहसा उसे विश्वास नहीं हुआ. अक्षय की लाश के पास बैठ कर वह बारबार उस से उठने को कहती. इस हृदयविदारक दृश्य को देख कर सब की आंखें नम थीं. किसी तरह लोगों ने नंदिता को संभाला.

वक्त हर जख्म को भर देता है. ऐसा ही हुआ. नंदिता ने एक निजी कंपनी में नौकरी कर ली. वह धीरेधीरे अतीत के हादसों से उबरने लगी. अब सबकुछ सामान्य हो चुका था. मगर उस के मांबाप को चैन नहीं था. वे उस की पहाड़ जैसी जिंदगी को ले कर चिंताकुल थे. वे चाहते थे कि नंदिता की दूसरी शादी हो जाए ताकि उस की जिंदगी में आया सूनापन भर जाए. कब तक अकेली रहेगी? क्या अकेले जिंदगी काटना एक स्त्री के लिए आसान होगा? माना कि वह अपने पैरों पर खड़ी है फिर भी जब काम से घर आती तो अपनेआप में खोई रहती. न किसी से ज्यादा बोलना न किसी से जिरह करना. यकीनन अकेलापन उसे अंदर ही अंदर बेचैन किए हुए था. भले ही जाहिर न करे पर क्या मांबाप की अनुभवी नजरों से छिप सकता है? वे बेटी की दुर्दशा देख कर गहरी वेदना से भर जाते.

ये सब देख कर एक दिन पिता ने नंदिता से कहा, ‘‘हम तुम्हारी दूसरी शादी करना चाहते हैं.’’

यह अप्रत्याशित था नंदिता के लिए. फिर भी इस का जवाब देना था. अत: वह बोली, ‘‘मेरी बेटी का क्या होगा? मैं उसे आप लोगों पर छोड़ कर ब्याह रचाऊं यह मेरे लिए संभव नहीं है.’’

‘‘अगर लड़का तुम्हारी बेटी को अपनाने के लिए तैयार हो जाए तब क्या स्वीकार करोगी?’’

‘‘ऐसे कैसे हो सकता है जो किसी और से पैदा बेटी को अपनी बेटी माने?’’

‘‘सब एकजैसे नहीं होते. एक ऐसा ही रिश्ता आया है. लड़के को कोई एतराज नहीं है. वह सरकारी नौकरी में है. पहली पत्नी से

2 संतानें हैं. एक 15 साल का बेटा और एक 10 साल की बेटी है,’’ पिता बोले.

‘‘उन के पालने की जिम्मेदारी मेरी होगी?’’

‘‘पालना क्या है… दोनों अपने पैरों पर खड़े हैं. सिर्फ साथ की बात है, जिस की तुम दोनों की जरूरत है.’’

पिता के कथन पर नंदिता ने सोचने के लिए समय मांगा. उस ने हर तरीके से सोचा. फिर इस फैसले पर पहुंची कि उसे शादी कर लेनी चाहिए. इस से जहां उस के मांबाप की चिंता कम होगी, वहीं उसे भी आर्थिक सुरक्षा मिलेगी. मांबाप, कब तक जिंदा रहेंगे. भैयाभाभी का क्या भरोसा? कल वे बदल गए तो क्या बेटी को ले कर जीना आसान होगा?

नंदिता की रजामंदी के बाद एक दिन उस के औफिस में उस का भावी पति विश्वजीत उसे देखने आया. सांवला रंग, सामान्य कदकाठी, सिर पर नाममात्र बाल. नैननक्श ऐसे मानों 19वीं सदी के हों. नंदिता को वह जमा नहीं. उस का पहला पति बेहद स्मार्ट था. एमबीए किया.  वहीं विश्वजीत देखने से ही सरकारी विभाग का बाबू लग रहा था. न ढंग से कपड़े पहने था न ही बातचीत में स्मार्टनैस की  झलक थी. उस का मन उदास हो गया. विधवा न होती तो आज भी उस के लिए कुंआरों की कमी न थी.

‘‘आप का नाम नंदिता है?’’ विश्वजीत ने पूछा.

‘‘जी,’’ नंदिता मुसकराई.

‘‘मेरा नाम विश्वजीत है. अगर आप को एतराज न हो तो आज शाम किसी रैस्टोरैंट में चलते हैं.’’

कुछ देर के लिए नंदिता हिचकिचाई. फिर खुद को संयत कर उस से क्षमा मांग कर एकांत में आई. अपनी मां को फोन लगाया. मां ने उस के साथ जाने की इजाजत दे दी. न चाहते हुए भी वह विश्वजीत के साथ रैस्टोरैंट में गई.

कौफी के शिप के बीच विश्वजीत बोला, ‘‘क्या आप शादी के लिए तैयार हैं?’’

नंदिता के सामने दूसरा कोई चारा न था. उसे लगा रंगरूप अपनी जगह है. मगर जिंदगी जीने के लिए एक पारिवारिक व्यक्ति होना बेहद जरूरी है, साथ में उस का आर्थिक भविष्य भी सुनिश्चित हो. यही सब सोच कर उस ने उस के रंगरूप को नजरअंदाज कर दिया.

‘‘मु झे अपनी बेटी की फिक्र है. क्या उसे आप पिता का नाम देंगे?’’ नंदिता के चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ थीं.

‘‘क्यों नहीं? जब आप मेरे बेटेबेटी को मां का प्यार देंगी तो मैं भला क्यों पिता के फर्ज से विमुख होऊंगा? आप की बेटी मेरी बेटी होगी. भरोसा रखिए मैं आप को शिकायत का मौका कभी नहीं दूंगा.’’

‘‘मु झे अलग से कुछ नहीं चाहिए. मैं सिर्फ इस बात के लिए आश्वस्त होना चाहूंगी कि आप अपने और मेरे में कोई भेद नहीं करेंगे.’’

‘‘ऐसा ही होगा,’’ विश्वजीत मुसकराया.

नंदिता को विश्वजीत के कथन में सत्यता नजर आई. सो शादी के लिए हां कर दी.

शादी संपन्न हो गई. नंदिता ने नौकरी छोड़ दी. धीरेधीरे उस ने खुद को नए

माहौल के अनुरूप ढाल लिया. विश्वजीत के लिए वह किसी हूर से कम नहीं थी. करीबियों को छोडि़ए उस के दूरदूर के रिश्ते में नंदिता जैसी कोई खूबसूरत महिला नहीं थी. इसी के बल पर वह विश्वजीत के दिल पर राज करने लगी. विश्वजीत की हालत यह थी कि जब उसे नंदिता धकेलती तब कहीं औफिस जाता वरना उसी के मोहपाश में बंध कर समय काटना उसे अच्छा लगता. औफिस जाता तो भी नंदिता को 10 बार फोन लगा कर अपना हाल ए दिल बयां करता रहता.

2 साल गुजर गए. इस बीच वह एक लड़के की मां भी बन गई. बच्चा दोनों की सहमति से पैदा हुआ. नंदिता के लिए यह अच्छी खबर थी. एक लड़की तो थी ही. अब वह एक लड़के की भी मां बन गई. बच्चे की मां बनते ही नंदिता का पूरा ध्यान उसी पर लग गया.

लड़का पूरी तरह अपनी मां पर गया था. एकदम गोरा था. कहीं से नहीं लगता था कि वह विश्वजीत का बेटा है. ऐसा बेटा पा कर विश्वजीत निहाल था. यों बेटे का नाम सुबोध रखा.

एक दिन विश्वजीत की बड़ी बहन सुमन हालचाल लेने के लिए आई. जब तक विश्वजीत की दूसरी शादी नहीं हो गई थी तब तक घर की देखभाल वही करती थी. जब शादी हो गई तो आनाजाना कम कर दिया. उस का अपना भी परिवार था. विश्वजीत का हाल लेने के बाद वह विश्वजीत की पहली पत्नी से पैदा बेटे अंकित और बेटी अनुराधा के कमरे में आई. विश्वजीत नंदिता के साथ नीचे रहता तो उस की दोनों संतानें दूसरी मंजिल पर.

‘‘पढ़ाईलिखाई कैसी चल रही है?’’ कमरे में घुसते ही विश्वजीत की बहन ने पूछा.

दोनों बच्चे अपनी पढ़ाई छोड़ कर बूआ की तरफ मुखातिब हो गए.

‘‘ठीक चल रही है,’’ अंकित बोला.

‘‘क्या बात है तुम्हारी आवाज इतनी दबी क्यों है? सब ठीक तो है?’’ सुमन ने भांप लिया. उस ने फिर पूछा, ‘‘नई मां कैसी हैं?’’

अंकित सम झदार था, इसलिए कुछ नहीं बोला.

वहीं अनुराधा बोल पड़ी, ‘‘पापा, ऊपर बहुत कम आते हैं. ज्यादातर नीचे नई मां और बच्चे के साथ रहते हैं. पहले रोज हमारे लिए बाजार से कुछ न कुछ लाते थे, अब सिवा डांटने के उन्हें कुछ नहीं सू झता.’’

सुन कर सुमन को दुख हुआ. उसे अपने ही बच्चे पराए लगने लगे? ऐसा होना स्वाभाविक था. मगर इस कदर अपने बच्चों से बेखबर हो जाएगा, इस की कल्पना उस ने नहीं की थी. सुमन को विश्वजीत का दोबारा बाप बनना नागवार गुजरा. जब पहले से ही 2 संतानें थीं, नंदिता की जोड़ें तो 3 उस पर एक और बेटा लाना कहां की सम झदारी थी? सुमन को विश्वजीत मूर्ख लगा, जो अपनी बीवी के रंगरूप में ऐसा डूबा कि सहीगलत का फैसला भी नहीं कर पाया. सुमन पहले से ही उस के इस फैसले से खिन्न थी.

एक बार सोचा विश्वजीत से इस संदर्भ में बात करे. उसे दुनियादारी सिखाए पर फिर अगले ही पल सोचा यह उन लोगों का आपसी मामला है. बिना वजह बुरा बनेगी. विचारप्रक्रिया बदली तो सोचा उन का आपसी मामला बता कर क्या वह अपनी जिम्मेदारी से नहीं भाग रही?

क्या उस का इस परिवार पर कोई हक नहीं? सगी बहन है कोई सौतेली मां नहीं. जब कोई नहीं था तब तो उसी ने अपने परिवार का हरज कर के विश्वजीत का घर संभाला. अब उन का आपसी मामला बता कर किनारा कर ले? उस का मन नहीं माना. उसे अंकित और अनुराधा की फिक्र थी. इसलिए विश्वजीत को रास्ते पर लाना जरूरी लगा.

‘‘विश्वजीत, आजकल तुम अपने बच्चों पर ध्यान नहीं दे रहे हो? वे बेचारे खुद को उपेक्षित महसूस करते हैं.’’

‘‘अपने बच्चे? यह क्या कह रही दीदी? क्या नंदिता के बच्चे मेरे अपने बच्चे नहीं हैं?’’

‘‘मैं ने यह कब कहा? मगर तुम्हें उन पर विशेष ध्यान देना चाहिए क्योंकि वे बिन मां के हैं.’’

विश्वजीत को सुमन की बात बुरी लगी.

सुमन आगे बोली, ‘‘सुना है तुम ने अनुराधा का नाम पहले वाले स्कूल से कटवा कर उसे एक छोटे से स्कूल में डलवा दिया है?’’

दूसरे कमरे में अपने नवजात को दूध पिलाते हुए नंदिता सारी बातें सुन रही थी. एक बार सोचा इस का प्रतिकार करे, मगर भाईबहन का आपसी मामला सम झ कर चुप रही.

‘‘स्कूल इसलिए छुड़वा दिया क्योंकि उस की फीस बहुत ज्यादा थी. अंकित का पढ़ाई में मन नहीं लग रहा था. ऐसे में बिना वजह महंगे स्कूल में डालने का क्या औचित्य है?’’

‘‘इसीलिए सस्ते स्कूल में डलवा दिया?’’ सुमन के स्वर में व्यंग्य का पुट था, ‘‘तुम उस की पढ़ाईलिखाई पर ध्यान देते तो वह कमजोर नहीं होती. तुम्हारा सारा ध्यान नंदिता के इर्दगिर्द रहता है.’’

सुमन का कथन विश्वजीत को शूल की तरह चुभ गया. अत: गुस्से में बोला, ‘‘दीदी, बेहतर होगा तुम इस पचड़े में न पड़ो. नंदिता मेरी पत्नी है. मैं उस का ध्यान नहीं रखूंगा तो कौन रखेगा?’’

‘‘बीवी का खयाल है अपने खून का नहीं?’’ सुमन तलख स्वर में बोली, ‘‘अब मैं तुम्हारे घर कभी नहीं आऊंगी. अंकित और अनुराधा को नहीं पाल सकते तो मेरे यहां छोड़ देना. मैं देख लूंगी,’’ कह कर सुमन चली गई.

विश्वजीत खून का घूंट पी कर रह गया. उस का मन किया कि सुमन को खूब खरीखोटी सुनाए, मगर हिम्मत नहीं हुई.

उस दिन पतिपत्नी दोनों में इस बात को ले कर खूब कहासुनी हुई. नंदिता कहने लगी, ‘‘मैं ने सपने में भी न सोचा था कि तुम्हारे बच्चे इस हद तक जा सकते हैं? क्या जरूरत थी सुमन दीदी के कान भरने की? क्या नहीं उन्हें यहां मिल रहा है? लगाईबु झाई करना कोई इन से सीखे,’’ और फिर वह मुंह फुला कर बैठ गई.

विश्वजीत को काफी देर तक उसे मनाना पड़ा. तब जा कर मानी.

उधर सुमन का मन विश्वजीत के रवैए से खिन्न था. नंदिता का रंगरूप इस कहर हावी हो गया कि अपना खून ही बेगाना लगने लगा. नंदिता की बेटी को अच्छे से अच्छे कपड़े लाना, बड़े स्कूल में दाखिला दिलाना, बाजार, मौल घूमना, उस की उलटीसीधी हर मांग पूरी करना, प्यारदुलारमनुहार सब नंदिता के ही परिवार तक सिमट गया.

विश्वजीत के व्यवहार में आए इस परिवर्तन से उस की सभी बहनें उस से कटने लगीं. मगर विश्वजीत को कोई फर्क नहीं पड़ा. उस के लिए नंदिता ही सबकुछ थी. नंदिता ने इस का भरपूर फायदा उठाया. विश्वजीत के मकान पर नंदिता का नाम चढ़ गया. औफिस में पत्नी की जगह नंदिता का नाम हो गया. ये सब नंदिता ने खुद को आर्थिक रूप से सुरक्षित करने के लिए किया.

अंकित से कुछ भी छिपा न था. राखी के दिन जब वह सुमन के घर आया तो सारी बातों का खुलासा कर दिया. सारी बात जानने के बाद वह बोली, ‘‘नंदिता ने अच्छा नहीं किया. आते ही तुम्हारी मां के सारे गहने ले लिए. अब धीरेधीरे हर चीज पर कब्जा करती जा रही है.’’

मां का जिक्र आते ही अंकित की आखें भर आईं. भरे कंठ से बोला, ‘‘मां होतीं तो ये सब न होता.’’

‘‘सब समय का खेल है. कल विश्वजीत के लिए तुम्हारी मां ही सबकुछ थी. बदलाव आता है, मगर विश्वजीत इतना बदल जाएगा, मु झे सपने में भी भान नहीं था. खैर छोड़ो, तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है?

‘‘जल्दी से पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़े हो जाओ… सब ठीक हो जाएगा.’’

‘‘बूआजी, मु झे अनुराधा की फिक्र होती है. सोचता हूं जितनी जल्दी हो सके मैं कमाने लायक हो जाऊं ताकि उस की अच्छी शादी कर सकूं.’’

अंकित की बातों से लगा सचमुच वह सम झदार हो गया है. सुमन का मन भर आया.

अंकित ने सिविल सर्विसेज की तैयारी की और उस में सफल हो गया. उस के नौकरी पा जाने पर नंदिता ज्यादा खुश नहीं थी. उस की नजर में अंकित औसत बुद्धि का लड़का था. वहीं विश्वजीत खुश था. नंदिता को लगा विश्वजीत का  झुकाव कहीं अंकित की तरफ न हो जाए, इसलिए तंज कसने से बाज नहीं आती.

सबकुछ ठीकठाक चल रहा था कि एक दिन मनहूस खबर आई कि

विश्वजीत को फूड पौइजनिंग हो गया है. वह शहर से 100 किलोमीटर दूर एक गांव में शादी अटैंड करने अकेला गया था. वहीं पर उसे फूड पौइजनिंग हो गया. तब तक काफी देर हो चुकी थी. वह रास्ते में ही चल बसा.

अंकित फैजाबाद में पोस्टेड था. भागाभागा आया. पिता की लाश देख कर फूटफूट कर रोने लगा. आज पहली बार उसे लगा कि वह सचमुच अनाथ हो गया.

पिता के सारे क्रियाक्रम करने के बाद वह वापस जाने लगा तो नंदिता के पास आया. बोला, ‘‘मम्मी, आप यह मत समझिएगा कि आप अकेली हो गईं. मैं हमेशा आप के साथ रहूंगा. मोना की शादी मेरे हिस्से की जिम्मेदारी है. जैसे अनुराधा वैसी मोना. मैं आप को शिकायत का मौका नहीं दूंगा.’’

अचानक नंदिता फफकफफक कर रो पड़ी. वहां बैठे सब के सब अचंभित.

अंकित पास बैठी सुमन से बोला, ‘‘बूआ, मां को देखिए क्या हो गया?’’

एकबारगी सुमन को लगा क्यों वह उस से सहानुभूति जताने जाए… जैसा किया वैसा भुगते.

बूआ की दुविधा अंकित ने भांप ली. उसे अच्छा नहीं लगा. जो भी हो वह उस की मां है. क्या उन्हें मं झधार में छोड़ कर यों चले जाना उचित होगा? उन्हें दोबारा वैधव्य की पीड़ा  झेलने पड़ी, इस से बड़ा दंड क्या हो सकता है कुदरत का एक स्त्री के लिए?

‘‘मु झे क्षमा कर दें. मैं स्वार्थ में अंधी हो गई थी. मु झे नहीं पता था कि जिस के साथ भेदभाव कर रही हूं वह मेरे बेटे से भी बढ़ कर होगा.’’

नंदिता का इतना भर कहना था कि सब के मन के भाव एकाएक बदल गए. सुमन को अब भी नंदिता के व्यवहार में आए परिवर्तन पर भरोसा नहीं था. उसे यही लग रहा था कि उस ने वक्त की नजाकत सम झ कर अपना पैतरा बदल लिया है. फिर एकांत में ले जा कर अंकित को सम झाने का प्रयास किया.

‘‘नहीं बूआजी, उन का अब मेरे सिवा कोई नहीं है. उन्होंने चाहे जैसा भी व्यवहार मेरे साथ किया हो मैं अपने कर्तव्य से विमुख नहीं होऊंगा.’’

सुमन को अंकित का कद उस से भी बड़ा नजर आने लगा. वह इंसान नहीं साक्षात फरिश्ता लगा उसे. वह भावविभोर हो उठी.

बाहरवाली

बूआ का दुखड़ा सुनना मेरी दिनचर्या में शामिल था. रोज दोपहर में वे भनभनाती हुई चली आतीं और रोना ले कर बैठ जातीं, ‘‘क्या बताऊं सुधा, बेटों को पालपोस कर कितने जतन से बड़ा करो और बहुएं उन्हें ऐसे छीन ले जाती हैं जैसे सब उन्हीं का हो. अरे, हम तो जैसे कुछ हैं ही नही.’’

‘‘आप ने तो जैसे कभी किसी को पलापलाया छीना ही नहीं है, क्यों बूआ?’’ मेरे पति ने अकारण ही हस्तक्षेप कर दिया, ‘‘आप की तीनों बेटियां भी तो किन्हीं के पलेपलाए छीन कर बैठी हैं.’’

मैं ने आंखें तरेर कर पति को मना करना चाहा, मगर अखबार एक तरफ फेंक वे बोलते ही चले गए, ‘‘मेरी मां भी कहती हैं, शादी के बाद मैं सुधा का ही हो कर रह गया हूं. अब तुम्हीं बताओ, मैं क्या करूं? समझ में नहीं आता, जब बहुओं से इतनी ही जलन होती है तो उन्हें तामझाम के साथ घर लाने की क्या जरूरत होती है?

‘‘बेटे की शादी करने से पहले हर मां को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि अब उसे बेटा किसी और को सौंपना है, जैसे लड़की के मांबाप सोच लेते हैं. एक नया घर बनता है बूआ, लड़के पर जिम्मेदारी पड़ती है. वह भी कई रिश्तों में बंट जाता है. ऐसे में मां का यह सोचना कि वह अभी भी दुधमुंहा बच्चा बन उस का पल्लू थामे ‘राजा बेटा’ ही बना रहे तो यह उस के प्रति अन्याय होगा.’’

‘‘न, न सुधीर, मां का पल्लू क्यों पकड़े बेचारा राजा बेटा, वह हूर जो मिल गईर् है, पल्लू देने को,’’ बूआ ने हाथ झटक दिया.

मैं विषय उलझाना नहीं चाहती थी पर लाख इशारों के बाद भी पति मान नहीं रहे थे. वे बोले, ‘‘हूर लाता कौन है, तुम्हीं तो ठोकबजा कर, सैकड़ों लड़कियां देख अपनी बहू लाई थीं. फिर रोजरोज बहू का रोना ले कर क्यों बैठ जाती हो. उसे आए 2 महीने ही तो हुए हैं. नईनई शादी हुई है, तुम्हें तो बहू को लाड़प्यार से अपने काबू में रखना चाहिए. कभी तुम भी तो किसी की बहू बनी थीं.’’

‘‘लाड़प्यार करे मेरी जूती, मैं पीछेपीछे घूमने वालों में से नहीं हूं. देख सुधीर, मुझे विशू का उस की ससुराल वालों से ज्यादा मेलजोल पसंद नहीं है. 3 दिन से उस का छोटा भाई आया हुआ है. बाहर पढ़ता है न, इसलिए छुट्टियों में बहन के घर चला आया.’’

‘‘तो क्या हुआ, तुम भी 3-3 महीने अपनी बेटियों के घर रह आती हो. वह तो फिर भी छोटा भाई है.’’

‘‘वह…वह… मैं तो इलाज कराने…’’

‘‘इलाज कराने ही सही, पर दामाद ने भरपूर सेवा की, तुम स्वयं ही तो सुनाती रही हो. क्या तुम्हारा दामाद किसी

का पलापलाया बेटा नहीं है? तब तो तुम्हारी समधिन भी तुम्हारी तरह ही चीखतीचिल्लाती होगी?’’

‘‘सुधीर’’, बूआ का चेहरा फक पड़ गया. उन का चेहरा देख मुझे घबराहट होने लगी. मैं कभी बूआ की बातों को काटती नहीं थी. हमेशा यही सोचती, क्यों बुजुर्ग औरत का मन दुखाऊं. दो घड़ी मन हलका कर के भला वे मेरा क्या ले जाती हैं. परंतु पति का उन्हें आईना दिखा देना मुझे अनावश्यक सा लगा.

मेरे पति आगे बोले, ‘‘अपनी बेटी पराए घर में जा कर चाहे जो नाच नचाए, परंतु बहू का ऊंची आवाज में बात करना भी तुम्हें खलता है. अच्छा बूआ, घर में सुखशांति रखने का एक गुरुमंत्र लोगी मुझ से, बोलो?’’

बूआ कुछ न बोलीं, गुस्से से इन्हें घूरती रहीं.

पति बातें करते रहे, परंतु बूआ चली गईं. मुझे अच्छा नहीं लगा, मगर प्रत्यक्ष में मैं मौन ही रही. समय ने अतीत को पीछे धकेल दिया था, परंतु एक घाव सदा मेरे मानसपटल पर हरा रहा. चाहती तो पति को फटकार कर बूआ के अपमान पर नाराजगी प्रकट कर सकती थी, मगर ऐसा किया नहीं. शायद मैं भी बूआ को आईना दिखाना चाहती थी.

यही बूआ थीं जिन्होंने कभी सासुमां का पैर इस घर में जमने नहीं दिया था. मुझे अपनी सास निरीह गाय सी लगी थीं. पता नहीं क्यों, सासुमां ने मुझे कभी अपना नहीं समझा था. बूआ के सामने चुप रहने वाली सासुमां मेरे सामने शेरनी सी बन जाती थीं.

शायद अपने साथ हुए अन्याय का प्रतिकार सासुमां मुझ से लेना चाहती थीं. मुझ से मन की बात कभी न करतीं और जराजरा सी बात मेरे पति के कानों में जा डालतीं, जिस का प्रभाव अकसर हमारी गृहस्थी पर पड़ता. हम आपस में झगड़ पड़ते, जिस की कोई वजह हमारे पास होती ही नहीं थी.

एक शाम मायके से मेरे भाई की सगाई का पत्र आया तो मैं खुशीखुशी अम्मा को सुनाने दौड़ी. पर मेरी प्रसन्नता पर कुठाराघात हो गया. वे गुस्से से बोलीं, ‘बसबस, हमारे घर में मायके की ज्यादा चर्चा करने का रिवाज नहीं है.’

मैं अवाक रह गई और पति के सामने रो पड़ी, ‘इस घर में ब्याह दी गई, इस का अर्थ यह तो नहीं कि मेरा मायका समाप्त ही हो गया.’

उस दिन पहली बार पति को मां पर क्रोध आया था. मेरे मन में अम्मा के लिए संजोया सम्मान धीरेधीरे समाप्त होने लगा. यह सत्य है, अम्मा ने जो कुछ अपनी ससुराल से पाया था, वही मुझे लौटा रही थीं, मगर क्या यह न्यायसंगत था?

तब इन्होंने अम्मा से कहा था, ‘तुम्हें इस तरह नहीं करना चाहिए, अम्मा. तुम बबूल का पेड़ बो कर आम के फल की उम्मीद कैसे कर सकती हो? बिना वजह सुधा का मन दुखाओगी तो घर में सुखशांति कैसे रहेगी? इज्जत चाहती हो तो इज्जत देना भी सीखो, उस की खुशी में भी तो हमें खुश होना चाहिए.’

‘अरे’, विस्फारित आंखें लिए अम्मा मुझे यों घूरने लगीं मानो पति ने मेरी वकालत कर किसी की हत्या जैसा अपराध कर दिया हो. वे तुनक कर बोलीं, ‘यह कल की आई तुझे इतनी प्यारी हो गई, जो मुझे समझाने चला है. जोरू का गुलाम.’

उसी पल से अम्मा मेरी प्रतिद्वंद्वी बन गईं. कभी रुपए चोरी हो जाने का इलजाम मुझ पर लगता और कभी यह आरोप लगता कि मैं अपनी ननदों की पूरी देखभाल नहीं करती. धीरेधीरे पति ने हस्तक्षेप करना छोड़ दिया. 20

वर्ष बीत जाने पर भी अम्मा मुझे स्वीकार नहीं कर पाईं. पति पर जोरू का गुलाम होने का ठप्पा आज भी लगा है. अम्मा और मैं नदी के 2 किनारों की तरह जीते हैं.

मैं हैरान थी कि मेरी ननदों के घर में अम्मा का पूरा दखल है, मगर मेरे मायके से किसी का आना उन्हें पसंद नहीं. अम्मा, जो स्वयं बूआ और अपनी सास के दुर्व्यवहार से आजीवन अपमानित होती रहीं, क्यों मेरे मन की पीड़ा समझ नहीं पाईं? मैं उन के बेटे की पत्नी हूं, उन की प्रतिद्वंद्वी नहीं.

बूआ तो चली गईं, मगर अपने पीछे कड़वाहट का गहरा धुआं छोड़

गई थीं. पति बुरी तरह झल्ला रहे थे, ‘‘पता नहीं प्रकृति ने स्त्री को ऐसा क्यों बनाया है? 10-10 पुरुष एकसाथ  रह लेते हैं, लेकिन 2 औरतें जब भी साथ रहेंगी, अधिकारों को ले कर लड़ेंगी, विशेषकर अपना बेटा, बहू के साथ बांटने में औरत को बड़ी तकलीफ होती है.’’

‘‘हर घर में तो ऐसा नहीं होता,’’ मैं ने उन्हें टोका.

‘‘हां, सच कहती हो. 10 प्रतिशत घर ऐसे होंगे, जहां सासबहू में तालमेल होता होगा, वरना 90 प्रतिशत तो ऐसे ही हैं, जिन में अमनचैन नहीं है. सास अच्छी है तो बहू नकचढ़ी और कहीं बहू सेवा करने वाली हो, तो सास मेरी मां और बूआ जैसी.

‘‘सत्य तो यह है कि झगड़ा होता ही नहीं, सिर्फ उसे पैदा किया जाता है. भई, सीधी सी बात है, बेटा काबू में रखना हो तो बहू को वश में करो, उस से प्रेम करो, वह वश में रहेगी तो बेटा भी पीछेपीछे खिंचा चला आएगा.’’

‘‘और पति को वश में रखना हो तो क्या बहू को सास को वश में रखना चाहिए, ताकि बेटा, बहू के वश में रहे?’’ मेरी इस बात पर पति हंस पड़े, ‘‘नहीं, ऐसा नहीं है. बहू बाहर से आती है, उसे विश्वास में लेना ज्यादा जरूरी होता है. बेटा तो अपना ही होता है, उस से इतना प्यार बढ़ाने की भला क्या जरूरत होती है.

‘‘मजा तो तब है जब पराई को अपना बनाओ. मगर होता उलटा है. शादी कर के सास अकसर असुरक्षा से घिर जाती है, बेटे पर हाथ कसने लगती है और बस, यहीं से झगड़ा शुरू हो जाता है.’’

‘‘यह सब अपनी अम्मा से भी कहा है कभी?’’

‘‘नहीं कह पाया न, इसीलिए तुम्हें समझा रहा हूं. आने वाले कुछ वर्षों में तुम भी तो सास बनने वाली हो, कुछ समझीं?’’

मैं क्या कहती, सिर्फ हंस कर रह गई कि कौन जाने जब सास बनूंगी, तब मैं कैसी हो जाऊंगी. कहीं मैं भी अपनी बहू को वही न परोसने लगूं, जो मुझे मिलता रहा था.

ऐसी होती हैं बेटियां

स्नातक करने के बाद पिता के कहने पर मीना ने बीएड भी कर लिया था. एक दिन पिता ने मीना को अपने पास बुला कर कहा, ‘‘मीना, मैं चाहता हूं कि अब तुम्हारे हाथ पीले कर दूं. तुम्हारे छोटे भाईबहन भी हैं न. बेटे, एकएक कर के अपनी जिम्मेदारी पूरी करना चाहता हूं.’’

नाराज हो गई थी वह पापा से, शादी की बात सुन कर, ‘‘पापा, प्लीज, मुझे शादी कर के निबटाने की बात न करें. मैं आगे पढ़ना चाहती हूं. मुझे एमए कर के पीएचडी भी करनी है.’’

कुछ देर सोचने के बाद उन्होंने कहा, ‘‘अगर तुम्हारी पढ़ने की इतनी ही इच्छा है तो मैं तुम्हारे रास्ते का रोड़ा नहीं बनूंगा. जितनी मरजी हो पढ़ो.’’

पापा की बात सुन कर वह उस दिन कितना खुश हुई थी. लेकिन पिता की असामयिक मृत्यु के कारण उत्तरदायित्व के एहसास ने महत्त्वाकांक्षाओं पर विजय पा ली थी. मीना ने 20 साल की छोटी उम्र में ही घर की जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठा ली थी.

7 साल बाद जब 2 बड़े भाई और बहन ने अपनी पढ़ाई पूरी कर ली तो उन्होंने कहा था, ‘‘जीजी, आप ने हमारे लिए बहुत किया है. अब हमें घर संभालने दीजिए.’’

जिम्मेदारियों के कंधे बदलते ही मीना ने सोच लिया कि वह अब ब्याह कर के अपना घर बसा लेगी. 3 साल बाद 30 वर्षीय मीना की शादी 35 वर्षीय सुशांत से हो गई.

शादी के 2 वर्ष बाद जब मीना ने पुत्री को जन्म दिया तो वह खुशी से फूली नहीं समाई. मीना की सास ने बच्ची का स्वागत करते हुए कहा, ‘‘इस बार लक्ष्मी आई है, ठीक है. पोते का मुंह कब दिखा रही हो?’’

बेटी नीता, अभी 2 साल की भी नहीं हुई थी कि घर के बुजुर्गों ने मीना पर बेटे के लिए दबाव डालना शुरू कर दिया. जल्द ही मीना गर्भवती हुई और समय पूरा होने पर उस ने फिर बेटी को जन्म दिया. दूसरी बेटी मीता के जन्म पर सब के लटके हुए चेहरों को देख कर मीना ने सुशांत से कहा, ‘‘सुशांत, हमारी इस बेटी का भी जोरशोर से स्वागत होना चाहिए. बेटियां, बेटों से किसी तरह भी कम नहीं हैं. किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित होने के बजाय, हम बेटियों को ऊंची से ऊंची शिक्षा देंगे. फिर देखिए, कल आप उन पर गर्व करेंगे.’’

‘‘ठीक है मीना, तुम इतनी भावुक मत बनो. यह मेरी भी तो बेटी है, जैसा तुम चाहती हो वैसा ही होगा.’’

कुछ दिन तो सबकुछ ठीक रहा. फिर घर में बेटे की रट शुरू हो गई. मीना के संस्कार उसे इजाजत नहीं देते थे कि वह घर के बड़ों से बहस करे. उस ने सुशांत से बात की.

‘‘सुशांत, हम इन 2 बेटियों की परवरिश अच्छी तरह करेंगे. मैं ने आप से पहले भी कहा था, तो फिर यह जिद क्यों?’’

सुशांत पर अपने मातापिता का प्रभाव इतना था कि वे भी उन की ही भाषा बोलते थे. वे मीना को समझाने लगे, ‘‘मीना, हमें एक बेटे की बहुत चाह है. कल को ये बेटियां ब्याह कर अपनेअपने घरों को चली जाएंगी, तो हमारी देखभाल के लिए बेटा ही साथ रहेगा न.’’

सुशांत का उत्तर सुन कर भड़क गई मीना, ‘‘सुशांत, क्या मैं ने अपने परिवार को नहीं संभाला? फिर हमारी बच्चियां हमारा सहारा क्यों नहीं बनेंगी? वास्तव में अपने बच्चों से ऐसी अपेक्षा हम रखें ही क्यों?’’

मीना की एक न चली. वह तीसरी बार भी गर्भवती हुई और उस ने फिर एक बेटी को जन्म दिया.

3 बच्चों की परवरिश, फिर स्कूल का काम, दोनों के बीच सामंजस्य स्थापित करना मीना को काफी मुश्किल लग रहा था. इस का असर मीना के स्वास्थ्य पर पड़ने लगा.

3 बेटियों के बाद मीना पर जब फिर से दबाव डालने का सिलसिला शुरू हुआ तो वह चुप नहीं रह सकी. बरदाश्त की हद जब पार हो गई तो जैसे बम फूट पड़ा, मीना चीख उठी, ‘‘मैं कोई बच्चा पैदा करने की मशीन हूं? मेरी उम्र 40 पार कर चुकी है. ऐसे में एक और बच्चा पैदा करने का मेरे स्वास्थ्य पर क्या असर होगा, सोचा है आप ने? बस, बहुत हो गया. मुझ पर दबाव डालना बंद कीजिए.’’

मीना की सास अवाक् खड़ी बहू का मुंह देखती रह गईं. मीना भी वहां खड़ी नहीं रह सकी. अपने कमरे में पहुंच कर फूटफूट कर रोने लगी. सुशांत ने मीना को गले से लगा कर शांत कराया. शांत होने पर मीना मन ही मन सोचने लगी कि उस ने इस अनावश्यक दबाव के खिलाफ आवाज उठा कर कोई गलत नहीं किया है. थोड़े दिन तक तो सब शांत रहा. एक दिन सुशांत ने मीना से कहा, ‘‘मीना, क्यों न हम एक अंतिम कोशिश कर लेते हैं. अब की बार चाहे लड़का हो या लड़की, मैं तुम से वादा करता हूं, फिर कभी इस बारे में कुछ नहीं कहूंगा. प्लीज, मान जाओ.’’

कोमल स्वभाव की मीना पति की बातों में आ गई. इस बार जब वह गर्भवती हुई तो 3 बच्चों की परवरिश, ऊपर से बढ़ती उम्र उस के स्वास्थ्य पर हावी होने लगी. मीना को हार कर लंबी छुट्टी लेनी पड़ी, जो वेतनरहित थी.

समय पूरा होने पर मीना ने एक बेटे को जन्म दिया. अपनी मनोकामना पूरी होते देख, सब के चेहरों पर खुशी देखते बनती थी. उन की ये खुशी क्षणभंगुर साबित हुई. बच्चे को अचानक सांस लेने में तकलीफ होने लगी. उसे औक्सीजन दी जाने लगी. डाक्टरों ने बताया, ‘‘बच्चे के शरीर में औक्सीजन की कमी होने की वजह से मस्तिष्क को सही समय पर औक्सीजन नहीं मिल पाई, इसलिए उस के दोनों हाथ और पैर विकृत हो गए हैं.’’

ऐसा शायद गर्भावस्था के दौरान मीना की बढ़ती उम्र और कमजोरी के कारण हुआ था. इस के बाद पैसा पानी की तरह बहाने के बावजूद मीना का बेटा अरुण स्वस्थ नहीं हो पाया था. वह जिंदगीभर के लिए अपाहिज बन गया.

मीना और सुशांत पर जैसे दुखों का पहाड़ टूट पड़ा था. पहले तो सुशांत बेटा चाहते थे, जो उन के बुढ़ापे की लाठी बने. अब उन्हें यह चिंता सताने लगी कि उन के बाद उन के बेटे की देखभाल कौन करेगा.

करीब 1 साल तक छुट्टी लेने के बाद मीना फिर से स्कूल जाने लगी. पहले वाली मीना और इस मीना में जमीनआसमान का अंतर था. पहले कितनी सुघड़ रहा करती थी मीना. अब तो कपड़े भी अस्तव्यस्त रहा करते थे. दिनरात की चिंता ने उसे समय से पहले ही बूढ़ा बना दिया था.

बच्चियां मां को सांत्वना देतीं, ‘‘मां, आप पहले की तरह हंसतीबोलती क्यों नहीं हैं? भाई की देखभाल हम सब मिल कर करेंगे. आप चिंता मत कीजिए.’’

बच्चियों की बातें सुन कर मीना उन्हें गले लगा लेती. अपनेआप को बदलने की कोशिश भी करती, पर फिर वही ‘ढाक के तीन पात.’ वास्तव में बच्चियों की बातों से मीना आत्मग्लानि से भर जाती थी. वह अपनेआप को कोसती, ‘अरुण को इस दुनिया में ला कर मैं ने बच्चियों के साथ अन्याय किया है. एक और बच्चे को इस दुनिया में न लाने के अपने निर्णय पर मैं अटल क्यों नहीं रह सकी? अपनी इस कायरता के लिए दूसरे को दोष देने का क्या फायदा? अन्याय के खिलाफ कदम न उठाना भी किसी गुनाह से कम तो नहीं.’

एक तो बढ़ती उम्र में कमजोर शरीर, ऊपर से यह मानसिक पीड़ा.

मानसिक चिंताएं शरीर को दीमक की तरह खोखला कर जाती हैं. दुखों का सामना न कर पाने की स्थिति में दुर्बल शरीर, कमजोर इमारत की तरह भरभरा कर गिर जाता है. यही हाल हुआ मीना का. एक रात जब वह सोई तो, फिर उठ नहीं सकी. वह चिरनिद्रा में विलीन हो चुकी थी. मीना की सास की बूढ़ी हड्डियों में इतना दम कहां था कि वे सबकुछ संभाल सकें. कुछ ही दिनों में वे भी इस दुनिया से कूच कर गईं.

पत्नी और मां की विरह वेदना से ग्रसित सुशांत एक जिंदा लाश बन कर रह गए. उन की 2 बड़ी बेटियां जैसे रातोंरात बड़ी हो गईं. लड़कियां बारीबारी से अपने भाई का ध्यान रखतीं. दोनों बड़ी बहनें, भाई की दैनिक जरूरतों, खानेपीने का ध्यान रखतीं. नीता ने अपनी सब से छोटी बहन प्रिया को हिदायत दे रखी थी कि वह अरुण के पास बैठ कर पढ़ाई करे.

कहानी की पुस्तकें जोर से पढ़े ताकि अरुण भी उन का मजा ले सके. लड़कियां बारीबारी से अपने भाई को पढ़ाती भी थीं. पर वह अपने विकृत हाथों की वजह से कुछ लिख नहीं पाता था. उस के हाथों के मुकाबले उस के पांव कम विकृत थे. लड़कियों ने महसूस किया कि अरुण के पैरों की उंगलियों के बीच पैंसिल फंसा देने पर वह लिखने लगा था. उस की लिखावट अस्पष्ट होने पर भी, जोर देने पर पढ़ी जा सकती थी. कभीकभी अरुण कागज पर आड़ीतिरछी रेखाएं खींचता था, तो कुछ चित्र उभर कर आ जाता. बहनों ने जब देखा कि अरुण चित्रकारी में रुचि ले रहा है, तो उन्होंने उस के लिए एक गुरु की तलाश शुरू कर दी. इस के लिए उन्हें कहीं दूर नहीं जाना पड़ा. घर बैठे ही इंटरनैट में उन्हें एक ऐसा गुरु मिल गया जो अपने हाथों से अक्षम बच्चों को पैरों की मदद से चित्रकारी करना सिखाता था. अरुण बहुत मन लगा कर सीखता था. देखते ही देखते वह इस कला में माहिर हो गया.

एक दिन ऐसा भी आया जब बहनों ने अरुण के चित्रों की प्रदर्शनी लगाई. प्रदर्शनी काफी कामयाब रही. अरुण के चित्रों को बहुत सराहा गया. चित्रों की अच्छी बिक्री हुई और बहुत से और्डर भी मिले. फिर अरुण ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. बहनों ने अरुण का नाम विकलांगों की श्रेणी में ‘गिनीज बुक औफ वर्ल्ड रिकौर्ड्स’ में भी दर्ज करा दिया. एक विदेशी संस्था, जो विकलांगों की मदद करती थी, ने इसे देखा और इस तरह अरुण के पास विदेशों से ग्रीटिंग कार्ड्स डिजाइन करने के और्डर आने लगे. अरुण अब डौलर में कमाने लगा.

सुशांत अब काफी संभल चुके थे. वक्त घावों को भर ही देता है. एकएक कर के उन्होंने अपनी 2 बड़ी बेटियों की शादियां कर दीं. छोटी अभी पढ़ रही थी. अरुण अब बड़ा हो गया था, इसलिए उस की देखभाल में दिक्कतें आने लगी थीं. ऐसा लगा जैसे प्रकृति ने उन की सुन ली थी. मीता इस बार जब मायके आई तो अपने साथ असीम को ले कर आई, जो बेहद ईमानदार और कर्त्तव्यनिष्ठ था. असीम पढ़ालिखा था पर बेरोजगार था. वह मीता के पति के पास नौकरी की तलाश में आया था. अरुण, असीम को मोटी रकम पगार के तौर पर देने लगा. असीम जैसा साथी पा कर अरुण बेहद खुश था.

आज टीवी वाले घर पर आए हुए हैं. वे अरुण का इंटरव्यू लेना चाहते हैं. कैमरा अरुण की तरफ घुमा कर कार्यक्रम के प्रस्तुतकर्ता ने अरुण का परिचय देने के बाद कहा, ‘‘अरुण से हमें प्रेरणा लेनी चाहिए. हाथपैर सहीसलामत रहने पर भी लोग अपनी असमर्थता का रोना रोते रहते हैं. अपने पैरों की उंगलियों की सहायता से अरुण जिस तरह जानदार चित्र बनाता है, वैसा शायद हम हाथ से भी नहीं बना सकते. अरुण ने यह साबित कर दिया है कि जिंदगी में कितनी भी मुश्किलें क्यों न आएं, कोशिश करने वालों की हार नहीं होती. अरुण, अब आप को बताएगा कि वह अपनी सफलता का श्रेय किसे देता है.’’

अरुण ने कहा, ‘‘आज मैं जो कुछ भी हूं, अपनी बहनों की बदौलत हूं. मैं ने अपनी मां को बचपन में ही खो दिया था. बहनों ने न सिर्फ मुझे मां का प्यार दिया बल्कि मेरी प्रतिभा को पहचान कर, मेरे लिए गुरुजी की व्यवस्था भी की. आज मैं अपने पिता, गुरुजी और सब से बढ़ कर अपनी बहनों का आभारी हूं.’’

अरुण की बातें कुछ अस्पष्ट सी थीं, इसलिए असीम, अरुण द्वारा कही बातों को दोहराने के लिए आगे आया. सुशांत वहां और ठहर नहीं सके. उन्होंने अपनेआप को कमरे में बंद कर लिया. मीना का फोटो हाथ में ले कर विलाप करने लगे, ‘‘मीना, देख रही हो अपने बच्चों को, उन की कामयाबी को. काश, आज तुम हमारे बीच होतीं. तुम्हें तो शुरू से ही अपनी बच्चियों पर विश्वास था. मैं ही तुम्हारे विश्वास पर विश्वास नहीं कर सका और तुम्हें खो बैठा. लेकिन आज मैं फख्र के साथ कह सकता हूं कि ऐसी होती हैं बेटियां क्योंकि उन्होंने अपनी पढ़ाई को जारी रखते हुए पूरे घर को संभाला, यहां तक कि मुझे भी. अपने भाई को काबिल बनाया और मेरी एक आवाज पर दौड़ी चली आती हैं.’’

एक डाली के फूल: भाग 2- किसके आने से बदली हमशक्ल ज्योति और नलिनी की जिंदगी?

उन की जिज्ञासा उन्हें कानपुर खींच ले गई. उन्होंने अस्पताल से सारी रिपोर्टें निकलवाईं, परंतु व्यर्थ. रिकौर्ड में तो एक ही बच्चा हुआ लिखा था. थोड़ी देर बाद उन्होंने सोचा, क्यों न नलिनी का रिकौर्ड देख लिया जाए. पहले तो अस्पताल के कर्मियों ने इनकार कर दिया परंतु डा. प्रशांत को वहां के डा. मल्होत्रा बहुत अच्छी तरह जानते थे. उन्होंने कहसुन कर नलिनी का रिकौर्ड निकलवा दिया.

विपुला के 2 जुड़वां बच्चे होने का रिकौर्ड था. साथ में यह भी लिखा था कि एक ही नाल से दोनों बच्चे जुड़े थे. उन्होंने देखा, वजन के स्थान पर एक बच्चे का वजन स्वस्थ बच्चे के वजन के बराबर काट कर लिखा गया था. यह बात वह समझ न सके कि आखिर एक ही नाल से जुड़े बच्चों के वजन में इतनी असमानता कैसे? जबकि जुड़वां बच्चों का वजन जन्म के समय एक स्वस्थ बच्चे जितना नहीं होता. ऊपर से लड़के का वजन काट कर लिखा हुआ था. यही नहीं, मात्रा भी कटी थी, मानो भूल से लड़की लिख दिया गया हो.

उन्होंने फिर अपनी फाइल देखी. कहीं कुछ कटापिटा नहीं था. इतना उन के दिमाग में दौड़ा भी नहीं कि बेटा को बेटी करने में या लड़का को लड़की करने में कहीं काटनेपीटने की जरूरत ही नहीं पड़ती. वे चुपचाप घर लौट आए.

पहेली हल नहीं हुई थी. यदि ज्योति नलिनी की बहन थी तो उन का बच्चा कौन था? वह कहां गया? उन की उत्सुकता इतनी तीव्र थी कि वे रातदिन सोचते ही रहते. नलिनी ज्योति से मिलने अकसर आ जाती. उसे बड़ा आनंद आता जब डा. प्रशांत उन दोनों के साथ गपशप में व्यस्त हो जाते.

एक दिन डा. प्रशांत ने नलिनी व ज्योति के खून का परीक्षण किया. दोनों के कार्डियोग्राफ, उंगलियों के चिह्न, विभिन्न अंगों के एक्सरे, कानों के परदे, आंखों के अंदर की नसों आदि की फोटो ले डालीं.

ज्योति ने हंसते हुए कहा, ‘‘नलिनी, पिताजी शायद यह देखना चाह रहे हैं कि हम किसी  गंभीर रोग से पीडि़त या पीडि़त होने वाली तो नहीं हैं. उन्हें यह सब करने में बड़ा मजा आता है.’’

डा. प्रशांत ने जितने भी परीक्षण किए, उन से यही साबित हुआ कि दोनों लड़कियां जुड़वां बहनें ही हैं. वे दुविधा में डूबे सोच रहे थे कि अंतिम व मान्यताप्राप्त परीक्षण रह गया है. यदि वह परीक्षण होहल्ला कर के करेंगे तो हो सकता है उन्हें अपनी ज्योति से हाथ न धोना पड़ जाए. और यदि लड़कियों को मूर्ख बना कर करना चाहेंगे तो वे तैयार न होंगी किसी सूरत में.

परीक्षण भी तो अजीबोगरीब था. यदि लड़कियों को राजी करने का प्रयत्न करते तो वे उन्हें पागल ही समझतीं. किसी घायल व्यक्ति का अगर मांस कहीं से उखड़ जाए तो उसी की जांघ का मांस उस स्थान पर लगाया जाता है. परंतु किसी दूसरे व्यक्ति का मांस कटे स्थान पर लगाने से वह सूख जाता है. यहां तक कि उस घायल व्यक्ति के मांबाप, भाईबहन का मांस भी काम नहीं दे सकता. सिर्फ जुड़वां भाई या बहन का मांस काम दे सकता है. अब इस परीक्षण के लिए भला जवान लड़कियां कहां से तैयार होतीं.

डा. प्रशांत ने सोचा, ‘सारे परीक्षण अभी तक पक्ष में गए हैं. फिर इस एक परीक्षण को ले कर शंका को शंका बने रहने देना कोई अक्लमंदी नहीं है. वे जान गए थे कि दोनों लड़कियां एक ही मां की हैं परंतु एक प्रश्न खड़ा था, फिर उन का बच्चा कहां गया? क्या किसी ने बच्चे बदल लिए? पर क्यों? यह प्रश्न वे सुलझा नहीं पा रहे थे क्योंकि ज्योति देखने में सुंदर, स्वस्थ बच्चे के रूप में थी और अपने यौवन के चढ़ते और भी निखर आई थी. लंगड़ी, लूली, गूंगी, काली कोई भी दोष तो न था, फिर किसी ने क्यों बदला?’

वे इस गंभीर प्रश्न में उलझे हुए थे कि उन के एक मित्र ने टोका, ‘‘क्या बात है, प्रशांत, कुछ परेशान से दिखते हो?’’

‘‘कोई स्त्री अपना बच्चा किसी

दूसरे से किनकिन कारणों से बदल सकती है?’’

उन के मित्र ने मुसकरा कर जवाब दिया, ‘‘अपने भारतीय समाज में सब से प्रमुख व पहला कारण तो ‘लड़का’ है, जिसे पाने के लिए…’’

वे पूरा वाक्य न कह पाए थे कि डाक्टर प्रशांत बोले, ‘‘धन्यवाद. तुम ने मेरी गुत्थी सुलझा दी.’’

डा. प्रशांत के दिमाग में बिजली सी कौंध गई. रिकौर्ड पर लिखी हस्तलिपि उन्हें याद हो आई, जिस में ‘लड़की’ शब्द के ऊपर की मात्रा कटी थी और वजन भी काट कर सामान्य बच्चे का लिखा गया था. उन्हें विश्वास हो गया कि जरूर दाल में काला है. परंतु फिर एक दुविधा थी.  नलिनी के पिता एक प्रतिष्ठित वकील थे, जिन के पास न धन की कमी थी और न ही विद्वत्ता की.

डा. प्रशांत एक दिन बिना बुलाए मेहमान की तरह नलिनी के घर पहुंच गए. वकील साहब सपरिवार घर पर ही थे. नलिनी ने उन के साथ ज्योति को न देख कर पूछा, ‘‘चाचाजी, ज्योति नहीं आई?’’

वे हंस कर बोले, ‘‘नहीं बेटे, मैं घर से थोड़े ही आ रहा हूं. मैं तो सीधे क्लीनिक बंद कर तुम्हारे घर आ धमका हूं, तुम्हारे हाथ की चाय पीने,’’ उन के इतना खुल कर बोलने से सब हंस पड़े.

वकील साहब बोले, ‘‘चाय ही क्यों, कुछ और पीना चाहेंगे तो वह भी मिलेगा.’’

उन्होंने बड़ी शिष्टता से इशारा समझते हुए कहा, ‘‘क्षमा करें, मैं इस के सिवा कुछ और नहीं पीता.’’

विपुला भी शिष्टाचारवश आ कर बैठ गई थी.

वकील साहब के बच्चों ने बारीबारी आ कर नमस्ते की तो वे पूछ बैठे, ‘‘इन में से जुड़वां कौन हैं?’’

इस अकस्मात किए गए प्रश्न पर विपुला चौंक सी गई. नलिनी भी ताज्जुब में पड़ गई क्योंकि उस ने कभी ज्योति से अपने जुड़वां भाई होने की बात कही ही नहीं थी.

‘‘नलिनी और यह मेरा बेटा दीपक. ये दोनों जुड़वां हैं,’’ वकील साहब मुसकराते हुए बोले.

डा. प्रशांत ताज्जुब  से देख तो रहे थे, पर विचलित तनिक न हुए. बेटे की ओर वे टकटकी लगाए देखते रहे. बिलकुल चेहरामोहरा, नाकनक्श उन के जैसा ही था. एक विचित्र सी तरंग उन के हृदय में दौड़ गई.

परंतु सामान्य स्वर में बोले, ‘‘वकील साहब, लोग जाने कैसे हैं, बच्चों की अदलाबदली करने में शर्म नहीं महसूस करते. एक लड़के के लिए लोग दूसरे का बच्चा चुरा लेते हैं.’’

वकील साहब, जो वास्तव में कुछ भी न समझने की स्थिति में थे, मेहमान की ‘हां’ में ‘हां’ मिलाते बोले, ‘‘हो सकता है साहब, इस दुनिया में कुछ भी संभव है.’’

‘‘संभव नहीं, वकील साहब, ऐसा हुआ है. एक केस हमारे पास ऐसा है, जिस में मैं चाहूं तो एक दंपती को जेल की सलाखों के पीछे पहुंचा सकता हूं, पूरे प्रमाण के साथ,’’ डा. प्रशांत कुछ ज्यादा जोश में कह गए.

विपुला को तो बिजली का करंट सा लगा. वह सुन्न सी पड़ गई. वकील साहब को तो जोश से कोर्ट में जिरह सुनने और कहने की आदत सी थी. वे प्रभावहीन बने देखते रहे.

डा. प्रशांत शायद अपने को तब तक काबू में कर चुके थे. वे मुलायम पड़ते रूखी हंसी हंसते हुए बोले, ‘‘पर मैं ऐसा करूंगा नहीं,’’ यह कहते उन्होंने तिर्यक दृष्टि विपुला पर डाली, जो सूखे पत्ते की तरह कांप रही थी.

उन के जाने के बाद वकील साहब विपुला से इतना भर बोले, ‘‘डा. प्रशांत ऐसे कह रहे थे मानो उन का कटाक्ष हम पर ही हो.’’

विपुला पति के मुंह से यह सुन और भी डर गई. उस का अनुमान अब और पक्का हो गया कि डाक्टर इशारे में उन्हीं को कह रहे थे. शिथिल, निढाल सी विपुला कुछ भी न बोल पाने की स्थिति में जहां बैठी थी वहीं बैठी रही. उस की आंखों के आगे अपना अतीत साकार हो उठा.

नामी वकील जगदंबा प्रसाद की पत्नी बनने से पूर्व विपुला कितनी चंचल थी, किंतु उस की हंसी, वह अल्हड़ता शादी के सातफेरों के बीच ही शायद स्वाहा हो गई थी. ससुराल के एक ही चक्कर के बाद किसी ने मायके में उसे हंसतेखिलखिलाते, बातबात पर उलझते नहीं देखा. जगदंबा प्रसाद के रोबदार व्यक्तित्व के आगे वह इतनी अदनी होती चली गई कि धीरेधीरे उस का अपना अस्तित्व ही विलीन हो गया. जगदंबा प्रसाद के बेबुनियादी क्रोध पर कई बार उस के मन में आया कि छोड़छाड़ कर मायके चली जाए. पर हर बार मां उसे तमाम ऊंचनीच समझा और अपनी असमर्थता जता वापस भेज देती थीं.

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