मेघमल्हार: भाग 3- अभय की शादीशुदा जिंदगी में किसने मचाई खलबली

उस दिन मन बड़ा उदास रहा. बीवी ने पूछा तो काम का बहाना बना दिया. रात लगभग 11 बजे मेघा का फोन आया. मैं ने नहीं उठाया, पता नहीं मैं गुस्से में था या उस से नफरत करने लगा था. उस ने अचानक फोन क्यों किया था, यह मैं अच्छी तरह समझ रहा था. मनदीप ने उसे मेरे उस के यहां आने की बात बताई होगी. उसे भय होगा कि मैं उस के बारे में सबकुछ जान गया हूं. परंतु उसे डरने की कोई आवश्यकता नहीं थी. आज के बाद मुझे उस के किसी भी काम से कुछ लेनादेना नहीं था. मैं उस के जीवन में दखल देने वाला नहीं था.

मैं ने मोबाइल साइलैंट मोड पर रख दिया, ताकि घंटी की आवाज से मुझे परेशानी न हो और पत्नी के अनावश्यक सवालों से भी मैं बचा रहूं.

रात में नींद ठीक से तो नहीं आई परंतु इस बात का सुकून अवश्य था कि एक बोझ मेरे मन से उतर गया था.

सुबह देखा तो मेघा की 19 मिस्डकाल थीं. शायद बहुत बेचैन थी मुझ से बात करने के लिए. मेरे मन में जैसे खुशी का एक दरिया उमड़ आया हो. जो हमें दुख देता है, उसे दुखी देख कर हम सुख की अनुभूति करते हैं. यह स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्ति है.

मेघा ने एक मैसेज भी किया था, ‘मैं आप से मिलना चाहती हूं.’ मैं ने इस का कोई जवाब नहीं दिया. मैं उसे उपेक्षित करना चाहता था. प्यार के मामलों में ऐसा ही होता है. एक बार मन उचट जाए तो मुश्किल से ही लगता है.

मैं ने मेघा की उपेक्षा की और उस का फोन अटैंड नहीं किया, न उसे कोई मैसेज भेजा, तो उस ने मेरी पत्नी अनीता को फोन किया. उन दोनों के बीच क्या बातें हुईं, इस का तो पता नहीं, परंतु अनीता ने मुझ से पूछा, ‘‘मेघा से आप की कोई बात हुई है क्या?’’

‘‘क्या?’’ मैं उस का आशय नहीं समझा.

‘‘बोल रही थी कि आप उस से नाराज हैं.’’

‘‘अच्छा, मैं उस से क्यों नाराज होने लगा. उसे खुद ही वक्त नहीं मिलता मुझ से बात करने का. वह मेरा फोन भी अटैंड नहीं करती. उस के पंख निकल आए हैं,’’ मैं ने तैश में आ कर कहा. अनीता हैरानी से मेरा मुख निहारने लगी. मेरा चेहरा तमतमा रहा था और उस में कटुता के भाव आ गए थे.

‘‘ऐसा क्या हो गया है? इतनी प्यारी लड़की…’’ अनीता पता नहीं क्या कहने जा रही थी, परंतु मैं ने उस की बात बीच में ही काट दी, ‘‘हां, बहुत प्यारी है. उस के लक्षण तुम नहीं जानतीं. पता नहीं किसकिस के साथ गुलछर्रे उड़ाती फिर रही है.’’

‘‘अच्छा,’’ अनीता के चेहरे पर व्यंग्य भरी मुसकराहट बिखर गई, ‘‘आप को उस से इस बात की शिकायत है कि वह दूसरों के साथ गुलछर्रे उड़ा रही है. आप के साथ उड़ाती तो ठीक था, तब आप गुस्सा नहीं करते.’’

क्या अनीता को मेरे और मेघा के संबंधों के बारे में पता चल गया है? मैं ने गौर से उस का चेहरा देखा. ऐसा तो नहीं लग रहा था. अनीता सामान्य थी और उस के चेहरे पर भोली मुसकान के सिवा कुछ न था. अगर उसे पता होता तो वह इतने सामान्य ढंग से मेरे साथ पेश नहीं आती. मेरे दिल को राहत मिली.

‘‘छोड़ो उस की बातें, वह अच्छी लड़की नहीं है बस,’’ मैं ने बात को टालने के इरादे से कहा.

‘‘अरे वाह, जब तक हमारे घर में थी, हम सब से हंसतीबोलती थी, तब तक वह एक अच्छी लड़की थी. जब वह दूर चली गई और आप से उस का मिलनाजुलना कम हो गया, तो वह खराब लड़की हो गई,’’ अनीता के शब्दों में कटाक्ष का हलका प्रहार था.

मुझे फिर शक हुआ. शायद अनीता को सबकुछ पता है या यह केवल मेरा शक है. अगर पता है तो मेघा ने ही आजकल में पिछली सारी बातें अनीता को बताई होंगी. मेरे दिल में खलबली मची हुई थी, परंतु मैं अनीता से कुछ पूछने का साहस नहीं कर सकता था. अभी तक हमारे दांपत्य जीवन में कोई कटुता नहीं आई थी और मैं नहीं चाहता था कि जिस संबंध को मैं खत्म करना चाहता था, उस की वजह से मेरे सुखी घरपरिवार में आग लग जाए.

‘‘मैं उस के बारे में बात नहीं करना चाहता,’’ कह कर मैं उठ कर दूसरे कमरे में चला आया. अनीता मेरे पीछेपीछे आ गई और चिढ़ाने के भाव से बोली, ‘‘भागे कहां जा रहे हैं? सचाई से कहां तक मुंह मोड़ेंगे? आप मर्दों को घर भी चाहिए और बाहर की रंगीनियां भी. यह तो हम औरतें हैं, जो घर की सुखशांति के लिए अपना स्वाभिमान और व्यक्तिगत सुख भूल जाती हैं.’’

मैं पलटा, ‘‘क्या मतलब है तुम्हारा?’’

‘‘मतलब बहुत साफ है. मेघा ने बहुत पहले ही मुझ से आप के साथ अपने संबंधों का खुलासा कर दिया था. वह जवानी के आंगन में खड़ी एक भावुक किस्म की लड़की है. दुनिया के चक्करदार रास्तों में वह भटक रही थी कि आप उसे मिल गए. हर लड़की एक पुरुष में पिता और प्रेमी दोनों की छवि देखना चाहती है. आप में उस ने एक संरक्षक की छवि देखी और इसी नाते प्यार कर बैठी. बाद में उसे पछतावा हुआ तो घर छोड़ कर चली गई. आप से दूर होने के लिए आवश्यक था कि वह किसी लड़के से दोस्ती कर ले ताकि वह पिछली बातें भूल सके. बस, इतनी सी बात है,’’ अनीता ने कहा.

मैं अवाक् रह गया. अनीता को सब पता था और उस ने आज तक इस बारे में बात करनी तो दूर, मुझ पर जाहिर तक नहीं किया और मैं काठ के उल्लू की तरह 2 औरतों के बीच बेवकूफ बना फिरता रहा.  मेरी नजर में अनीता की छवि एक आदर्श पत्नी की थी, तो मेघा की छवि उस बादल की तरह जो वर्षा कर के दूसरों की प्यास तो बुझाते हैं परंतु खुद प्यासे रह जाते हैं. अनीता के सामने मैं नतमस्तक हो गया.

किसी एक जगह नहीं ठहरते. ये निरंतर चलते रहते हैं और बरस कर तपती हुई धरा को तृप्त करते हैं, मानव जीवन को सुखमय बनाते हैं. उसी प्रकार मेघा भी चंचल और चलायमान थी. वह बहुत अस्थिर थी और ढेर सारा प्यार न केवल बांटना चाहती थी, बल्कि सब से पाना भी चाहती थी.

वह मेरे जीवन में आई और अपने प्यार की वर्षा से मुझे तृप्त कर गई. उतना ही प्यार मेरे जीवन में लिखा था. अब वह किसी और को अपना प्यार बांट रही थी. आप बताइए, क्या उस ने मेरे साथ विश्वासघात किया था?

काश, वह मेघमल्हार होती और मैं उसे आजीवन सुना करता.

Father’s day 2023: निदान- कौनसे दर्द का इलाज ढूंढ रहे थे वो

आने वाला कल हमें हजार बार रुला सकता है, सैकड़ों बार शरम से झुका सकता है और न जाने कितनी बार यह सोचने पर मजबूर कर सकता है कि कल हम ने जो फैसला लिया था वह वह नहीं होना चाहिए था जो हुआ था.

‘‘आप क्या सोचने लगे, डाक्टर सुधाकर. भीतर चलिए न, चाय का समय समाप्त हो गया.’’

मैं सेमिनार में भाग लेने मुंबई आया हूं. आया तो था अपना कल, अपना आज संवारने, अपने पेशे में सुधार करने, कुछ समझने, कुछ जानने लेकिन अब ऐसा लगने लगा है कि जिसे पहले नहीं जानता था और शायद भविष्य में भी न जान पाऊं… उस में जाननेसमझने के लिए बहुत कुछ है.

अपने ही समाज में जड़ पकड़े कुछ विकृतियां क्यों पनप कर विशालकाय समस्या बन गईं और क्यों हम उन्हें काट कर फेंक नहीं पाते? क्यों हम में इतनी सी हिम्मत नहीं है कि सही कदम उठा सकें? कुछ अनुचित जो हमारी जीवन गति में रुकावट डालता है. उसे हम क्यों अपने जीवन से निकाल नहीं पाते? मेरा आज क्या हो सकता था उस का अंदाजा आज हो रहा है मुझे. मैं ने क्या खो दिया उस का पता आज चला मुझे जब उसे देखा.

‘‘आप की आंखें बहुत सुंदर हैं और बहुत साफ भी.’’

‘‘मैं चश्मा लगाती हूं पर आज लैंस लगाए हैं,’’ एक पल को चौंका था मैं.

‘‘आप के पापा से मेरे पापा ने बात की थी कि मैं चश्मा लगाती हूं, आप को पता है न.’’

‘‘हां, पापा ने बताया था.’’

याद आया था मुझे. मुसकरा दी थी वह. मानो चैन की सांस आई हो उसे. अच्छी लगी थी वह मुझे. महीने भर हमारी सगाई की बात चली थी. तसवीरों का आदानप्रदान हो चुका था जिस कारण वह अपनीअपनी सी भी लगने लगी थी.

‘‘डाक्टरी के पेशे में एक चीज बहुत जरूरी है और वह है हमारी अपनी अंतरात्मा के प्रति जवाबदेही…’’

ऐसी ही तो मानसिकता पसंद थी मुझे. सोच रहा था कि जीवनसाथी के रूप में मेरे ही पेशे की कोई मेधावी डाक्टर साथ हो तो मैं जीवन में तरक्की कर सकता हूं.

एक दिन मेरे पिताजी ने अखबार में शादी का विज्ञापन देखा तो झट से फोन कर दिया था. दूरी बहुत थी हमारे और उस के शहर में. हम कानपुर के थे और वह जम्मू की.

पिताजी ने फोन करने के बाद मुझे बताया था कि उन्होंने अपना फोन नंबर दे दिया है. शाम को लड़की के पापा आएंगे तो अपना पता देंगे ऐसा उत्तर उस की मां ने दिया था.

बात चल पड़ी थी. बस, आड़े थी तो जाति की सभ्यता और दहेज को ले कर हमारी खुल्लमखुल्ला बातें. महीने भर में हमारे बीच कई बार विचारों का आदानप्रदान हुआ था.

मेरे पिता ने पूरा आश्वासन दिया था कि दहेज की बात न होगी और उस के बाद ही वे हमारे शहर आने को मान गए थे. बहुत अच्छा लगा था हमें उस का परिवार. उन को देखते ही लगा था मुझे कि बस, ऐसा ही परिवार चाहिए था.

बड़े ही सौम्य सभ्य इनसान. हम से कहीं ज्यादा अच्छा जीवनस्तर होगा उन का, यह उन्हें देखते ही हम समझ गए थे आज 7 साल बाद वही सेमिनार में वही लड़की भाषण दे रही थी :

‘‘एक अच्छा होम्योपैथ सब से पहले एक अच्छा इनसान हो यह उस की सफलता के लिए बहुत जरूरी है. जो इनसान अपने पेशे के प्रति ईमानदार नहीं है वह अपने पेशे की उस ऊंचाई को कभी नहीं छू सकता जिस ऊंचाई को डाक्टर क्रिश्चियन फिड्रिक सैम्युल हैनेमन ने छुआ था. एक सफल डाक्टर को उस के बैंक बैलेंस से कभी नहीं नापा जाना चाहिए क्योंकि डाक्टरी का पेशा किसी बनिए का पेशा कभी नहीं हो सकता.’’

ऐसा लगा, उस ने मुझे ही लक्ष्य किया हो. आज सुबह से परेशान हूं मैं. तब से जब से उसे देखा है.

नजर उठा कर मैं सामने नहीं देख पा रहा हूं क्योंकि बारबार ऐसा लग रहा है कि उस की नजर मुझ पर ही टिकी है.

मैं अपने पेशे के प्रति ईमानदार नहीं रह पाया और न ही अपनी अंतरात्मा के प्रति. मैं एक अच्छा इनसान नहीं बन पाया. क्या सोचा था क्या बन गया हूं. 7-8 साल पहले मन में कैसी लगन थी. सोचा था एक सफल होम्योपैथ बन पाऊंगा.

उस के शब्द बारबार कानों में बज रहे हैं. क्या करूं मैं? इनसान को जीवन में बारबार ऐसा मौका नहीं मिलता कि वह अपनी भूल का सुधार कर पाए.

मेरी जेब में पड़ा मोबाइल बज उठा. मैं बाहर चला आया. मेरी पत्नी का फोन है. पूछ रही है जो सामान उस ने मंगाया था मैं ने उसे खरीद लिया कि नहीं. एक ऐसी औरत मेरे गले में बंध चुकी है जिसे मैं ने कभी पसंद नहीं किया और जिसे मेरा पेशा कभी समझ में नहीं आया. वास्तव में आज मैं केवल बनिया हूं, एक डाक्टर नहीं.

‘कैसे डाक्टर हो तुम? डाक्टरों की बीवियां तो सोनेचांदी के गहनों से लदी रहती हैं. मेरे पिता ने 10 लाख इसलिए नहीं खर्च किए थे कि जराजरा सी चीज के लिए भी तरसती रहूं.’ कभीकभार वह प्यार भरी झिड़की दे कर कहती.

सच है यह, उस के पिता ने 10 लाख रुपए मेरे पिता की हथेली पर रख कर एक तरह से मुझे खरीद लिया था. यह भी सच है कि मैं ने भी नानुकुर नहीं की थी, क्योंकि हमारी बिरादरी का यह चलन ही है जिसे पढ़ालिखा या अनपढ़ हर युवक जानेअनजाने कब स्वीकार कर लेता है पता नहीं चलता.

हमारे घरों की लड़कियां बचपन से लेनदेन की यह भाषा सुनती, बोलती  जवान होती हैं जिस वजह से उन के संस्कार वैसे ही ढल जाते हैं. हमारी बिरादरी में भावनाएं और दिल नहीं मिलाए जाते, जेब और औकात मिलाई जाती है.

जेब और औकात मिलातेमिलाते कब हम अपनी राह से हट कर किसी की भावनाओं को कुचल गए थे हमें पता ही नहीं चला था.

मुझे याद है, जब उस के मातापिता 7 साल पहले उसे साथ ले कर आए थे.

मेरे पिता ने पूछा था, ‘आप शादी में कितना खर्च करना चाहते हैं. यह हमारा आखिरी सवाल है, आप बताइए ताकि हम आप को बताएं कि 5 लाख रुपए कहांकहां और कैसेकैसे खर्च करने हैं.’

सबकुछ तय हो गया था पर पिताजी द्वारा पूछे गए इस अंतिम प्रश्न ने उस रिश्ते को ही अंतिम रूप दे दिया जो अभी नयानया अंकुरित हो रहा था.

‘आप ने अपनी बेटी को क्याक्या देने के बारे में सोच रखा है?’

मेरी मौसी ने भी हाथ नचा कर पूछा था. भौचक रह गए थे उस के मातापिता. एक कड़वी सी हंसी चली आई थी उन के होंठों पर. कुछ देर हमारे चेहरों को देखते रहे थे वे दोनों. हैरान थे शायद कि मेरे पिता अपने कहे शब्दों पर टिके नहीं रह पाए थे. सब्र का बांध मेरे पिता टूट जाने से रोक नहीं पाए थे’, ‘आखिर बेटी पैदा होती है तो मांबाप सोचना शुरू करते हैं. आप ने क्या सोचा है?’ पुन: पूछा था मेरी मौसी ने.

‘हम अपने लड़कों का सौदा नहीं करते और न यह बता सकते हैं कि बेटी को क्याक्या देंगे. यह तो हमारा प्यार है जिसे हम सारी उम्र बेटी पर लुटाएंगे. अपने प्यार का खुलासा हम आप के सामने कैसे करें?’

‘बहुएं भी तब आप के घरों में ही जला कर मारी जाती हैं. न आप लोग खुल कर मांगते हैं न ही आप के मन की मंशा सामने आती है. हमारी बिरादरी में तो सब बातें पहले ही खोल ली जाती हैं. बेटी के बाप की हिम्मत होगी तो माथा जोड़े नहीं तो रास्ता नापे.’ मौसी ने फिर अपना अक्खड़पन दर्शाया था.

अवाक् रह गए थे उस के मातापिता. मेरे पिता कोशिश कर रहे थे सब संभालने की. किसी तरह खिसिया कर बोले थे, ‘बहनजी ने फोन पर बताया था न… 5 लाख तक आप खर्च…’

‘अपनी इच्छा से हम 50 लाख भी खर्च कर सकते हैं. माफ कीजिएगा, आप की मांग पर एक पैसा भी नहीं.’

शीशे सा टूट गया था वह रिश्ता जिस के पूरा होने पर मैं क्याक्या करूंगा, सब सोच रखा था. मेरे क्लीनिक में उस की कुरसी कहां होगी और मेरी कहां. कुछ नहीं कर पाया था मैं. पिता के आगे जबान खोल ही न पाया था.

शायद यह हमारी कल्पना से भी परे था कि वह लोग इतनी लंबीचौड़ी प्रक्रिया के बाद इनकार भी कर सकते हैं. हमारा व्यवहार इतना अशोभनीय था कि कम से कम उस का क्षोभ मुझे सदा रहा. अपनी मुंहफट मौसी का व्यवहार भी सालता रहता है मुझे. क्या जरूरत थी उन्हें ऐसा बोलने की.

उस के पिता कुछ देर चुप रहे. फिर बोले थे, ‘आप का एक ही बेटा है. अच्छा होगा आप अपनी बिरादरी में ही कहीं कोई योग्य रिश्ता देखें. मुझे नहीं लगता हमारी बच्ची आप के साथ निभा पाएगी. देखिए साहब, हम तो शुरू से ही आप से कह रहे थे कि आप के और हमारे रिवाजों में जमीनआसमान का अंतर है तब आप ने कहा था, आप को डाक्टर बहू चाहिए. और अब हम देख रहे हैं कि आप की नजर हमारी बेटी पर कम हमारी जेब पर ज्यादा है.

‘हमारी बिरादरी में लड़के वाला मुंह फाड़ कर मांगता नहीं है, लड़की वाला अपनी यथाशक्ति सदा ज्यादा ही करने का प्रयास करता है क्योंकि अपनी बच्ची के लिए कोई  कमी नहीं करता. शरम का एक परदा हमेशा लड़के वाले और लड़की वालों में रहता है. यह भी सच है, बहुएं जल कर मर जाती हैं. उन में भी दहेज के मसले इतने ज्यादा नहीं होते जितने दिखाने का आजकल फैशन हो गया है.’

मुझे आज भी अपनी मां का चेहरा याद है जो इस तरह मना करने पर उतर गया था. हालात इतनी सीधीसादी चाल चल रहे थे कि अचानक पलट जाने की किसी को आशंका न थी.

‘मुझे कोई मजबूरी तो है नहीं जो अपनी बच्ची इतनी दूर ब्याह कर सदा के लिए सूली पर चढ़ जाऊं. अच्छे लोगों की तलाश में हम इतनी दूर आए थे, वह भी बारबार आप लोगों के बुलाने पर वरना ऐसा भी नहीं है कि हमारी अपनी बिरादरी में लड़के नहीं हैं. क्षमा कीजिएगा हमें.’

लाख हाथपैर जोड़े थे तब मेरे पिता ने. कितना आश्वासन दिया था कि हम कभी दहेज के बारे में बात नहीं करेंगे लेकिन बात निकल गई थी हाथ से.

आज मैं जब सेमिनार में चला आया हूं तो कुछ सीखा कब? पूरा समय अपना ही कल और आज बांचता रहा हूं. 3 दिन में न जाने कितनी बार मेरा उस से आमनासामना हुआ लेकिन मेरी हिम्मत ही नहीं हुई उस से बात करने की.

तीसरा दिन आखिरी दिन था. उस ने मुझे फोन किया. कहा, समय हो तो साथ बैठ कर एक प्याला चाय पी लें.

उस के सामने बैठा तो ऐसा लगा  जैसे 7-8 साल पीछे लौट गया हूं जब पहली बार मिलने पर अपने पेशे के बारे में क्याक्या बातें की थीं हम ने.

‘‘कैसे हैं आप, डाक्टर सुधाकर?’’

आत्मविश्वास उस का आज भी वैसा ही है जिस से मैं प्रभावित हुए बिना रह न पाया था.

‘‘आप मुझ से बात करना चाहते हैं न?’’

उस के इस प्रश्न पर मैं अवाक् रह गया. मुझे तो याद नहीं मैं ने कोई एक भी प्रयास ऐसा किया था. कर ही नहीं पाया था न.

‘‘एक अच्छा डाक्टर वह होता है जो सामने वाले के हावभाव देख कर ही उस की दवा क्या होगी, उस का पता लगा ले. नजर भी तेज होनी चाहिए.’’

चुप रहा मैं. क्या पूछता.

‘‘आप बिना वजह अपनेआप को कुसूरवार क्यों मान रहे हैं, डाक्टर सुधाकर?’’ उस ने कहा, ‘‘नियम यह है कि बिना जरूरत इनसान को दवा न दी जाए. एक स्वस्थ प्राणी अगर दवा खा लेगा तो उसी दवा का मरीज हो जाएगा.’’

मैं ने गौर से उस का चेहरा देखा. चश्मे से पार उस की आंखों में आज भी वही पारदर्शिता है.

‘‘पुरानी बातें भूल जाइए, हम अच्छे दोस्त बन कर बात कर सकते हैं. मैं जानती हूं कि आप एक बेहद अच्छे इनसान हैं. क्या सोच रहे हैं आप? प्रैक्टिस कैसी है आप की? आप की पत्नी भी…’’

‘‘कुछ भी…कुछ भी अच्छा नहीं है मेरा,’’ बड़ी हिम्मत की मैं ने इतनी सी बात स्वीकार करने में. इस के बाद जो झिझक खुली तो शुरू से अंत तक सब कह सुनाया उसे.

‘‘मैं हर पल घुटता रहता हूं. ऐसा लगता है चारों तरफ बस, अंधेरा ही है.’’

‘‘आप की प्रकृति ही ऐसी है. आप जिस इनसान की ओर से सब से ज्यादा लापरवाह हैं वह आप खुद हैं. आप अपने परिवार को दुखी नहीं कर सकते, सब को सम्मान देना चाहते हैं लेकिन अपने आप को सम्मान नहीं देते.

‘‘8 साल पहले भी आप के जूते जगहजगह से उधड़े थे और आज भी. अपने कपड़ों का खयाल आप को तब भी नहीं था और आज भी नहीं है. क्या आप केवल पैसे कमाने की मशीन भर हैं? पहले मांबाप के लिए एक हुंडी और अब परिवार के लिए? क्या आप के लिए कोई नहीं सोचता, अपनी इच्छा का सम्मान कीजिए, डाक्टर सुधाकर. दबी इच्छाएं ही आप का दम हर पल घुटाती रहती हैं.

‘‘इतने साल पहले आप पिता या मौसी के सामने सही निर्णय न कर पाए, उस का भी यही अर्थ निकलता है कि आप के जीवन में आप से ज्यादा दखल आप के रिश्तेदारों का है. आप अपने लिए जी नहीं पाते इसीलिए घुटते हैं. अपने घर वालों को अपने मूल्य का एहसास कराएं. यह एक शाश्वत सत्य है कि बिना रोए मां भी बच्चे को दूध नहीं पिलाती.’’

मुझ में काटो तो खून नहीं. क्या सचमुच मेरे जूते फटे हैं? क्या 8 साल पहले जब हम मिले थे तब भी मेरा व्यक्तित्व साफसुथरा नहीं था?

‘‘आप के अंदर एक अच्छा इनसान तब भी था और आज भी है. जो नहीं हो पाया उसे ले कर आप दुखी मत रहिए. भविष्य में क्या सुधार हो सकता है इस पर विचार कीजिए. पत्नी ज्यादा पढ़ीलिखी नहीं है तो अब आप क्या कर सकते हैं. उसी में सुख खोजने का प्रयास कीजिए. दोनों बेटों को अच्छा इनसान बनाइए.’’

‘‘उन में भी मां के ही संस्कार हैं.’’

‘‘कोशिश तो कीजिए, आप एक अच्छे डाक्टर हैं, मर्ज का इलाज तो अंतिम सांस तक करना चाहिए न.’’

‘‘मर्ज वहां नहीं, मर्ज कहीं और है. मर्ज हमारे रिवाजों में है, बिरादरी में है.’’

‘‘मैं ने कहा न कि जो नहीं हो पाया उस का अफसोस मत कीजिए. वह सब दोबारा न हो इस के लिए अपने बच्चों से शुरुआत कीजिए जिस की कोशिश आप के पिता चाह कर भी न कर पाए थे.’’

‘‘आप को मेरे पिता भी याद हैं?’’ हैरान रह गया मैं. मुझे याद है मेरे पिता ने तो इन से बात भी कोई ज्यादा नहीं की थी.

‘‘हां, मेरी याददाश्त काफी अच्छी है. वह बेचारे भी अंत तक डाक्टर बहू की चाह और बिरादरी को जवाबदेही कैसे देंगे, इन्हीं दो पाटों में पिसते नजर आ रहे थे. ऐसा नहीं होता तो वह मेरे पापा से क्षमा नहीं मांगते. वह भी बिरादरी की जंजीरों को तोड़ नहीं पाए थे.’’

‘‘आप सब समझ गई थीं तो अपने पिता को मनाया क्यों नहीं था.’’

हंस पड़ी थी वह. उस के सफेद मोतियों से दांत चमक उठे थे.

‘‘जो इनसान अपने अधिकार की रक्षा आज तक नहीं कर पाया वह मेरे मानसम्मान का क्या मान रख पाता? शक हो गया था मुझे. आप मेरे लिए योग्य वर नहीं थे.

‘‘रुपयापैसा आज भी मेरे लिए इतना महत्त्व नहीं रखता. मैं भी आप के योग्य नहीं थी. अलगअलग शैलियों के लोग एकसाथ खुश नहीं न रह सकते थे. भावनाओं को महत्त्व देने वालों का बैंक बैलेंस इतना नहीं होता जितना शायद आप को अच्छा लगता. बेमेल नाता निभ न पाता. बस, इसीलिए…’’

8 साल पहले का वह सारा प्रकरण किसी कथा की तरह मेरे सामने था.

‘‘संजोग में शायद ऐसा ही था. मैं ने कहा न, आप दोषी तब भी नहीं थे और आज भी नहीं हैं. बस, जरा सा अपना खयाल रखिए, अपने मन की कीजिए. सब अच्छा हो जाएगा.’’

डा. विजयकर के सेमिनार में मैं कितने प्रश्न ले कर आया था, कितने ही मरीजों के बारे में पूछना चाहता था लेकिन क्या पता था कि सब से बड़ा बीमार तो मैं खुद हूं जो कभी अपने अधिकार, अपनी इच्छा का सम्मान नहीं कर पाया…तभी मौसी की आवाज काट देता, पिता की इच्छा को नकार देता तो बनती बात कभी बिगड़ती नहीं. आज अनपढ़ अक्खड़ पत्नी के साथ निभानी न पड़ती.

पता नहीं कब वह उठ कर चली गई. सहसा होश आया कि मैं ने उस के बारे में कुछ पूछा ही नहीं. कैसा परिवार है उस का? उस के पति कैसे हैं? पर गले का मंगलसूत्र, कीमती घड़ी और कानों में दमकते हीरे उसे मुझ से इक्कीस ही दर्शाते हैं. आत्मविश्वास और दमकती सूरत बताती है कि वह बहुत सुखी है, बहुत खुश है. एक अच्छे इनसान की खोज में वह अपने मातापिता के साथ इतनी दूर आई थी न, मैं ही पत्थर निकला तो वह भी क्या करती.

कितना सब हाथ से निकल गया न. उठ पड़ा मैं. मन भारी भी था और हलका भी. भारी यह सोच कर कि मैं ने क्या खो दिया और हलका यह सोच कर कि अभी भी पूरा जीवन सामने पड़ा है. अपने बेटों का जीवन संवार कर शायद अपनी पीड़ा का निदान कर पाऊं.

मेघमल्हार: भाग 2-अभय की शादीशुदा जिंदगी में किसने मचाई खलबली

हमारे संबंधों के बीच अनजाने ही अनचाही दूरियां व्याप्त होती जा रही थीं. मैं उस से विरक्त नहीं होना चाहता था, परंतु शायद इन दूरियों और न मिल पाने की मजबूरियों की वजह से मेघा मुझ से विरक्त होती जा रही थी.  अब वह मेरे फोनकौल्स अटैंड नहीं करती थी, अकसर काट देती थी. कभी अटैंड करती तो उस की आवाज में बेरुखी तो नहीं, परंतु मधुरता भी नहीं होती. पूछने पर बताती, ‘‘फाइनल ऐग्जाम्स सिर पर हैं, पढ़ाई में व्यस्त रहती हूं, टैंशन रहती है.’’

उस का यह तर्क मेरी समझ से परे था. परीक्षाएं तो पहले भी आई थीं परंतु न तो कभी वह व्यस्त रहती थी, न टैंशन में. मैं जानता था, वह झूठ बोल रही थी. इस का कारण यह था कि बहुत बार जब मैं फोन करता तो उस का फोन व्यस्त होता. स्पष्ट था कि वह पढ़ाई में नहीं किसी से बातों में व्यस्त रहती थी, परंतु किस से…? यह पता करना मेरे लिए आसान न था. वह कालेज में पढ़ती थी. किसी भी लड़के से उसे प्यार हो सकता था. यह नामुमकिन नहीं था.

मैंस्वयं तनावग्रस्त हो गया. मेरी रातों की नींद और दिन का चैन उड़ गया. औफिस के काम में मन न लगता. पत्नी द्वारा बताए गए कार्य भूल जाता.  ऐसी तनावग्रस्त जिंदगी जीने का कोई मकसद नहीं था. मुझे कोई न कोई फैसला लेना ही था. बहुत दिनों से मेघा से मेरी मुलाकात नहीं हुई थी. हम आपस में तय कर के ही मिला करते थे, परंतु इस बार मैं ने अचानक उस के घर जाने का निर्णय लिया.

एक शाम औफिस से मैं सीधा मेघा के कमरे में पहुंचा, 2 मंजिल का साधारण मकान था. उसी की ऊपरी मंजिल के एक कोने में वह रहती थी. जब मैं उस के मकान में पहुंचा तो वह कमरे में नहीं थी.

मैं उस के कमरे के दरवाजे पर पड़े ताले को कुछ देर तक घूर कर देखता रहा, जैसे वह मेरे और मेघा के बीच में दीवार बन कर खड़ा हो. दीवार ही तो हमारे बीच खिंच गई थी. वह दीवार इतनी ऊंची और मजबूत थी कि हम न तो उसे पार कर के एकदूसरे की तरफ जा सकते थे, न तोड़ कर.  बुझे मन से मैं सीढि़यां उतर कर गेट की तरफ बढ़ रहा था कि मकानमालिक मनदीप सिंह अचानक अपने ड्राइंगरूम से बाहर निकले और तपाक से बोले, ‘‘अभयजी, आइए, कहां लौटे जा रहे हैं? बड़े दिन बाद आए? सब ठीक तो है?’’

जबरदस्ती की मुसकान अपने चेहरे पर ला कर मैं ने कहा, ‘‘हां मनदीपजी, सब ठीक है. आप कैसे हैं?’’

‘‘मैं तो चंगा हूं जी, आप अपनी सुनाइए. मेघा से मिलने आए थे?’’ उन्होंने उत्साह से कहा, परंतु मेरे मन में खुशियों के दीप नहीं खिल सके.

‘‘हां,’’ मैं ने भारी आवाज में कहा, ‘‘कमरे में है नहीं,’’ मैं ने इस तरह कहा, जैसे मैं जानना चाहता था कि वह कहां गई है.

‘‘आइए, अंदर बैठते हैं,’’ वे मेरा हाथ पकड़ कर अंदर ले गए. मुझे सोफे पर बिठा कर खुद दीवान पर बैठ गए और जोर से आवाज दे कर बोले, ‘‘सुनती हो जी, जरा कुछ ठंडागरम लाओ. अपने अभयजी आए हुए हैं.’’

‘‘लाती हूं,’’ अंदर से उन की पत्नी की आवाज आई. मैं चुप बैठा रहा. मनदीप ने ही बात शुरू की, ‘‘मैं तो आप को फोन करने ही वाला था,’’ वे जैसे कोई रहस्य की बात बताने जा रहे थे, ‘‘अच्छा हुआ आप खुद ही आ गए. आप बुरा मत मानना. आप मेघा के लोकल गार्जियन हैं. जरा उस पर नजर रखिए. उस के लक्षण अच्छे नहीं दिख रहे.’’

‘‘क्यों? क्या हुआ?’’ मेरे मुख से अचानक निकल गया.

‘‘वही बताने जा रहा हूं. आजकल उस का मन पढ़ाई में नहीं लग रहा. शायद प्यारव्यार के चक्कर में पड़ गई है.’’

‘‘क्या?’’ मुझे विश्वास नहीं हुआ. मेघा का मेरे प्रति जिस प्रकार का समर्पण था, उस से नहीं लगता था कि वह देहसुख की इतनी भूखी थी कि मुझे छोड़ कर किसी और से नाता जोड़ ले, परंतु लड़कियों के स्वभाव का कोई ठिकाना नहीं होता. क्या पता कब उन्हें कौन अच्छा लगने लगे?

‘‘हां जी,’’ मनदीप ने आगे बताया, ‘‘एक लड़का रोज आता है. उसी के साथ जाती है और देर रात को उसी के साथ वापस आती है. छुट्टी वाले दिन तो लड़का उस के कमरे में ही सारा दिन पड़ा रहता है. मैं ने 1-2 बार टोका, तो कहने लगी, उस का क्लासमेट है और पढ़ाई में उस की मदद करने के लिए आता है, परंतु भाईसाहब मैं ने दुनिया देखी है. उड़ती चिडि़या देख कर बता सकता हूं कि कब अंडा देगी. अकेले कमरे में घंटों बैठ कर एक जवान लड़का और लड़की केवल पढ़ाई नहीं कर सकते.’’

मेरे दिमाग में एक धमाका हुआ. लगा कि दिमाग की छत उड़ गई है. कई पल तक सांसें असंयमित रहीं और मैं गहरीगहरी सांसें लेता रहा.

तो यह कारण था मेघा का मुझ से विमुख होने का. अगर उस की जिंदगी में कोई अन्य पुरुष या युवक आ गया था तो यह कोई अनहोनी नहीं थी. वह जवान और सुंदर थी, चंचल और हंसमुख थी. उसे प्यार करने वाले तो हजारों मिल जाते, परंतु मुझे उस की तरह प्यार देने वाली दूसरी मेघा तो नहीं मिल सकती थी. काश, मेघों की तरह वह मेरे जीवन में न आती, मल्हार बन कर आती तो मैं उस की मधुर धुन को अपने हृदय में समा लेता. फिर मुझे उस से बिछड़ जाने का गम न होता.

मनदीप के घर पर मैं काफी देर तक बैठा रहा. ठंडा पीने के बाद इसी मुद्दे पर काफी देर तक बातें होती रहीं. उन की पत्नी बोली, ‘‘भाईसाहब, आप मेघा को समझाइए. वह मांबाप से दूर रह कर पढ़ाई कर रही है. प्यारमुहब्बत के चक्कर में उस का जीवन बरबाद हो जाएगा.’’

‘‘लेकिन भाभीजी, यह उस का कुसूर नहीं है. जमाना ही कुछ ऐसा आ गया है कि हर दूसरा लड़कालड़की किसी न किसी के साथ प्यार किए बैठे हैं. यह आधुनिक युग का चलन है. किसी पर अंकुश लगाना संभव नहीं है.’’

‘‘आप बात तो ठीक कहते हैं परंतु उसे समझाने में क्या हर्ज है? एक बार पढ़ाई पूरी कर ले, फिर जो चाहे करे. मांबाप की उम्मीदें, उन का भरोसा, उन का दिल तो न तोड़े.’’

‘‘मैं उसे समझाने का प्रयास करूंगा,’’ मैं ने उन से कह तो दिया, परंतु मैं अच्छी तरह जानता था कि मेघा से अब मेरी कभी मुलाकात नहीं होगी. मेरे मन के आसमान में अब किसी मेघ के लिए जगह नहीं थी.

Father’s Day 2023: अंतराल

25 साल बाद जरमनी से भेजा सोफिया का पत्र मिला तो पंकज आश्चर्य से भर गए. पत्र उन के गांव के डाकखाने से रीडाइरेक्ट हो कर आया था. जरमन भाषा में लिखे पत्र को उन्होंने कई बार पढ़ा. लिखा था, ‘भारतीय इतिहास पर मेरे शोध पत्रों को पढ़ कर, मेरी बेटी जूली इतना प्रभावित हुई है कि भारत आ कर वह उन सब स्थानों को देखना चाहती है जिन का शोध पत्रों में वर्णन आया है, और चाहती है कि मैं भी उस के साथ भारत चलूं.’

‘तुम कहां हो? कैसे हो? यह वर्षों बीत जाने के बाद कुछ पता नहीं. भारत से लौट कर आई तो फिर कभी हम दोनों के बीच पत्र व्यवहार भी नहीं हुआ, इसलिए तुम्हारे गांव के पते पर यह सोच कर पत्र लिख रही हूं कि शायद तुम्हारे पास तक पहुंच जाए. पत्र मिल जाए तो सूचित करना, जिस से भारत भ्रमण का ऐसा कार्यक्रम बनाया जा सके जिस में तुम्हारा परिवार भी साथ हो. अपने मम्मीपापा, पत्नी और बच्चों के बारे में, जो अब मेरी बेटी जूली जैसे ही बडे़ हो गए होंगे, लिखना और हो सके तो सब का फोटो भी भेजना ताकि हम जब वहां पहुंचें तो दूर से ही उन्हें पहचान सकें.’

पत्नी और बेटा अभिषेक दोनों ही उस समय कालिज गए हुए थे. पत्नी हिंदी की प्रोफेसर है और बेटा एम.बी.ए. फाइनल का स्टूडेंट है. शनिवार होने के कारण पंकज आज बैंक से जल्दी घर आ गए थे. इसलिए मन में आया कि क्यों न सोफिया को आज ही पत्र लिख दिया जाए.

पंकज ने सोफिया को जब पत्र लिखना शुरू किया तो उस के साथ की पुरानी यादें किसी चलचित्र की तरह उन के मस्तिष्क में उभरने लगीं.

तब वह मुंबई के एक बैंक में प्रोबेशनरी अधिकारी के पद पर कार्यरत थे. अभी उन की शादी नहीं हुई थी इसलिए वह एक होस्टल में रह रहे थे.

सोफिया से उन की मुलाकात एलीफेंटा जाते हुए जहाज पर हुई थी. वह भारत में पुरातत्त्व महत्त्व के स्थानों पर भ्रमण के लिए आई थी और उन के होस्टल के पास ही होटल गेलार्ड में ठहरी थी. सोफिया को हिंदी का ज्ञान बिलकुल नहीं था और अंगरेजी भी टूटीफूटी ही आती थी. उन के साथ रहने से उस दिन उस की भाषा की समस्या हल हो गई तो वह जब भी ऐतिहासिक स्थानों को घूमने के लिए जाती, उन से भी चलने का आग्रह करती.

सोफिया को भारत के ऐतिहासिक स्थानों के बारे में अच्छी जानकारी थी. उन से संबंधित काफी साहित्य भी वह अपने साथ लिए रहती थी, इसलिए उस के साथ रहने पर चर्चाओं में उन को आनंद तो आता ही था साथ ही जरमन भाषा सीखने में भी उन्हें उस से काफी मदद मिलती.

साथसाथ रहने से उन दोनों के बीच मित्रता कुछ ज्यादा बढ़ने लगी. एक दिन सोफिया ने अचानक उन के सामने विवाह का प्रस्ताव रख उन्हें चौंका दिया, और जब वह कुछ उत्तर नहीं दे पाए तो मुसकराते हुए कहने लगी, ‘जल्दी नहीं है, सोच कर बतलाना, अभी तो मुझे मुंबई में कई दिनों तक रहना है.’

यह सच है कि सोफिया के साथ रहते हुए वह उस के सौंदर्य और प्रतिभा के प्रति अपने मन में तीव्र आकर्षण का अनुभव करते थे पर विवाह की बात उन के दिमाग में कहीं दूर तक भी नहीं थी, ऐसा शायद इसलिए भी कि सोफिया और अपने परिवार के स्तर के अंतर को वह अच्छी तरह समझते थे. कहां सोफिया एक अमीर मांबाप की बेटी, जो भारत घूमने पर ही लाखों रुपए खर्च कर रही थी और कहां सामान्य परिवार के वह जो एक बैंक में अदने से अधिकारी थे. प्रेम के मामले में सदैव दिल की ही जीत होती है, इसलिए सबकुछ जानते और समझते हुए भी वह अपने को सोफिया से प्यार का इजहार करने से नहीं रोक पाए थे.

उन दिनों मां ने अपने एक पत्र में लिखा था कि आजकल तुम्हारे विवाह के लिए बहुत से लड़की वालों के पत्र आ रहे हैं, यदि छुट्टी ले कर तुम 2-4 दिन के लिए घर आ जाओ तो फैसला करने में आसानी रहेगी. तब उन्होंने सोचा था कि जब घर पहुंच कर मां को बतलाएंगे कि मुंबई में ही उन्होंने एक लड़की सोफिया को पसंद कर लिया है तो मां पर जो गुजरेगी और घर में जो भूचाल उठेगा, क्या वह उसे शांत कर पाएंगे पर कुछ न बतलाने पर समस्या क्या और भी जटिल नहीं हो जाएगी…

तब छोटी बहन चारू ने फोन किया था, ‘भैया, सच कह रही हूं, कुछ लड़कियों की फोटो तो बहुत सुंदर हैं. मां तो उन्हें देख कर फूली नहीं समातीं. मां ने कुछ से तो यह भी कह दिया कि मुझे दानदहेज की दरकार नहीं है, बस, घरपरिवार अच्छा हो और लड़की उन के बेटे को पसंद आ जाए…’

बहन की इन चुहल भरी बातों को सुन कर जब उन्होंने कहा कि चल, अब रहने दे, फोन के बिल की भी तो कुछ चिंता कर, तो चहकते हुए कहने लगी थी, ‘उस के लिए तो मम्मीपापा और आप हैं न.’

मां को अपने आने की सूचना दी तो कहने लगीं, ‘जिन लोगों के प्रस्ताव यहां सब को अच्छे लग रहे हैं उन्हें तुम्हारे सामने ही बुला लेंगे, जिस से वे लोग भी तुम से मिल कर अपना मन बना लें और फिर हमें आगे बढ़ने में सुविधा रहे.’

‘नहीं मां, अभी किसी को बुलाने की जरूरत नहीं है. अब घर तो आ ही रहा हूं इसलिए जो भी करना होगा वहीं आ कर निश्चित करेंगे…’

‘जैसी तेरी मरजी, पर आ रहा है तो कुछ निर्णय कर के ही जाना. लड़की वालों का स्वागत करतेकरते मैं परेशान हो गई हूं.’

घर पहुंचा तो चारू चहकती हुई लिफाफों का पुलिंदा उठा लाई थी, ‘देखो भैया, ये इतने प्रपोजल तो मैं ने ही रिजेक्ट कर दिए हैं…शेष को देख कर निर्णय कर लो…किनकिन से आगे बात करनी है.’

उन्होंने उन में कोई रुचि नहीं दिखाई, तो रूठने के अंदाज में चारू बोली, ‘क्या भैया, आप मेरा जरा भी ध्यान नहीं रखते. मैं ने कितनी मेहनत से इन्हें छांट कर अलग किया है, और आप हैं कि इस ओर देख ही नहीं रहे. ज्यादा भाव खाने की कोशिश न करो, जल्दी देखो, मुझे और भी काम करने हैं.’

जब वह उन के पीछे ही पड़ गई तो वह यह कहते उठ गए थे कि चलो, पहले स्नान कर भोजन कर लें…मां भी फ्री हो जाएंगी…फिर सब आराम से बैठ कर देखेंगे. मां ने भी उन का समर्थन करते हुए चारू को डपट दिया, ‘भाई ठीक ही तो कह रहा है, छोड़ो अभी इन सब को, आया नहीं कि चिट्ठियों को ले कर बैठ गई.’

दोपहर में चारू तो अपनी सहेली के साथ बाजार चली गई, मां को फुरसत में देख, वह उन के पास जा कर बैठ गए और बोले, ‘मां, आप से कुछ बात करनी है.’

‘ऐसी कौन सी बात है जिसे मां से कहने में तू इतना परेशान दिख रहा है?’

‘मां…दरअसल, बात यह है कि मुझे मुंबई में एक लड़की पसंद आ गई है.’

मां कुछ चौंकीं तो पर खुश होते हुए बोलीं, ‘अरे, तो अब तक क्यों नहीं बताया? कैसी लगती है वह? बहुत सुंदर होगी. फोटो लाया है? क्या नाम है? उस के मांबाप भी क्या मुंबई में ही रहते हैं? क्या करते हैं वे?’

मां की उत्सुकता और उन के सवालों को सुन कर वह तब मौन हो गए थे. उन्हें इस तरह खामोश देख कर मां बोली थीं, ‘अरे, चुप क्यों हो गया? बतला तो, कौन है, कैसी है?’

‘मां, वह एक जरमन लड़की है, जो रिसर्च के सिलसिले में मुंबई आई हुई है और मेरे होस्टल के पास ही होटल में रहती है. हमारी मुलाकात अचानक ही एक यात्रा के दौरान हो गई थी. मां, कहने को तो सोफिया जरमन है पर देखने में उस का नाकनक्श सब भारतीयों जैसा ही है.’

अपने बेटे की बात सुन कर मां एकदम सकते में आ गई थीं. कहने लगीं, ‘बेटा, तुम्हारी यह पसंद मेरी समझ में नहीं आई. तुम्हें अपने परिवार में सब संस्कार भारतीय ही मिले पर यह कैसी बात कि शादी एक विदेशी लड़की से करना चाहते हो? क्या मुंबई जा कर लोग अपनी परंपराओं और संस्कृति को भूल कर महानगर के मायाजाल में इतनी जल्दी खो जाते हैं कि जिस लड़की से शादी करनी है उस के घरपरिवार के बारे में जानने की जरूरत भी महसूस नहीं करते? क्या अपने देश में सुंदर लड़कियों की कोई कमी है, जो एक विदेशी लड़की को हमारे घर की बहू बनाना चाहते हो?’

फिर यह कहते हुए मां उठ कर वहां से चली गईं कि एक विदेशी बहू को वह स्वीकार नहीं कर पाएंगी.

शाम को चाय पर फिर एकसाथ बैठे तो मां ने समझाते हुए बात शुरू की, ‘देखो बेटा, शादीविवाह के फैसले भावावेश में लेना ठीक नहीं होता. तुम जरा ठंडे दिमाग से सोचो कि जिस परिवेश में तुम पढ़लिख कर बड़े हुए और तुम्हारे जो आचारविचार हैं, क्या कोई यूरोपीय संस्कृति में पलीबढ़ी लड़की उन के साथ सामंजस्य बिठा पाएगी? माना कि तुम्हें मुंबई में रहना है और वहां यह सब चलता है पर हमें तो यहां समाज के बीच ही रहना है. जब हमारे बारे में लोग तरहतरह की बातें करेंगे तब हमारा तो लोगों के बीच उठनाबैठना ही मुश्किल हो जाएगा. फिर चारू की शादी भी परेशानी का सबब बन जाएगी.’

‘मां, आप चारू की शादी की चिंता न करें,’ वह बोले थे, ‘वह मेरी जिम्मेदारी है और मैं ही उसे पूरी करूंगा. लोगों का क्या? वे तो सभी के बारे में कुछ न कुछ कहते ही रहते हैं. रही बात सोफिया के विदेशी होने की तो वह एक समझदार और सुलझेविचारों वाली लड़की है. वह जल्दी ही अपने को हमारे परिवार के अनुरूप ढाल लेगी. मां, आप एक बार उसे देख तो लें, वह आप को भी अच्छी लगेगी.’

बेटे की बातों से मां भड़कते हुए बोलीं, ‘तेरे ऊपर तो उस विदेशी लड़की का ऐसा रंग चढ़ा हुआ है कि तुझ से कुछ और कहना ही अब बेकार है. तुझे जो अच्छा लगे सो कर, मैं बीच में नहीं बोलूंगी.’

पापा के आफिस से लौटने पर जब उन के कानों तक सब बातें पहुंचीं, तो पहले वह भी विचलित हुए थे फिर कुछ सोच कर बोले, ‘बेटे, मुझे तुम्हारी समझदारी पर पूरा विश्वास है कि तुम अपना तथा परिवार का सब तरह से भला सोच कर ही कोई निर्णय करोगे. यदि तुम्हें लगता है कि सोफिया के साथ विवाह कर के ही तुम सुखी रह सकते हो, तो हम आपत्ति नहीं करेंगे. हां, इतना जरूर है कि विवाह से पहले एक बार हम सोफिया और उस के मातापिता से मिलना अवश्य चाहेंगे.’

पापा की बातों से उन के मन को तब बहुत राहत मिली थी पर वह यह समझ नहीं पाए थे कि उन की बातों से आहत हुई मां को वह कैसे समझाएं?

उन के मुंबई लौटने पर जब सोफिया ने उन से घर वालों की राय के बारे में जानना चाहा तो उन्होंने कहा था, ‘मैं ने तुम्हारे बारे में मम्मीपापा को बताया तो उन्होंने यही कहा यदि तुम खुश हो तो उन की भी सहमति है और तुम्हारे मम्मीपापा के भारत आने पर उन से मिलने वे मुंबई आएंगे.’

सोफिया से यह सब कहते हुए उन्हें अचानक ऐसा लगा था कि सोफिया के साथ विवाह का निर्णय कर कहीं उन्होंने कोई गलत कदम तो नहीं उठा लिया? लेकिन सोफिया के सौंदर्य और प्यार से अभिभूत हो जल्दी ही उन्होंने अपने इस विचार को झटक दिया था.

उन के मुंबई लौटने के बाद घर में एक अजीब सी खामोशी छा गई थी. मां और चारू दोनों ही अब घर से बाहर कम ही निकलतीं. उन्हें लगता कि यदि किसी ने बेटे की शादी का जिक्र छेड़ दिया तो वे उसे  क्या उत्तर देंगी?

पापा यह कह कर मां को समझाते, ‘मैं तुम्हारी मनोस्थिति को समझ रहा हूं, पर जरा सोचो कि मेरे अधिक जोर देने पर यदि वह सोफिया की जगह किसी और लड़की से विवाह के लिए सहमत हो भी जाता है और बाद में अपने वैवाहिक जीवन से असंतुष्ट रहता है तो न वह ही सुखी रह पाएगा और न हम सभी. इसलिए विवाह का फैसला उस के स्वयं के विवेक पर ही छोड़ देना हम सब के हित में है.’

कुछ दिन बाद उन के फोन करने पर पापा, मां और चारू को ले कर मुंबई आ गए थे क्योंकि सोफिया के मम्मीपापा भी भारत आ गए थे.

मुंबई पहुंचने पर निश्चित हुआ कि अगले दिन लंच सब लोग एक ही होटल में करेंगे और दोनों परिवार वहीं एकदूसरे से मिल कर विवाह की संक्षिप्त रूपरेखा तय कर लेंगे. दोनों परिवार जब मिले तो सामान्य शिष्टाचार के बाद पापा ने ही बात शुरू की थी, ‘आप को मालूम ही है कि आप की बेटी और मेरा बेटा एकदूसरे को पसंद करते हैं. हम लोगों ने उन की पसंद को अपनी सहमति दे दी है. इसलिए आप अपनी सुविधा से कोई तारीख निश्चित कर लें जिस से दोनों विवाह सूत्र में बंध सकें.

पापा के इस सुझाव के उत्तर में सोफिया के पापा ने कहा था, ‘पर इस के लिए मेरी एक शर्त है कि शादी के बाद आप के बेटे को हमारे साथ जरमनी में ही रहना होगा और इन की जो संतान होगी वह भी जरमन नागरिक ही कहलाएगी. आप अपने बेटे से पूछ लें, उसे मेरी शर्त स्वीकार होने पर ही इस शादी के लिए मेरी अनुमति हो सकेगी.’

उन की शर्त सुन कर सभी चौंक गए थे. सोफिया को भी अपने पापा की यह शर्त अच्छी नहीं लगी थी. उधर वह सोच रहे थे कि नहीं, इस शर्त के लिए वह हरगिज सहमत नहीं हो सकते. वह क्या इतने खुदगर्ज हैं जो अपनी खुशी के लिए अपने मांबाप और बहन को छोड़ कर विदेश में रहने चले जाएं? पढ़ते समय वह सोचा करते थे कि जिस तरह मम्मीपापा ने उन के जीवन को संवारने में कभी अपनी सुखसुविधा की ओर ध्यान नहीं दिया, उसी तरह वह भी उन के जीवन के सांध्यकाल को सुखमय बनाने में कभी अपने सुखों को बीच में नहीं आने देंगे.

उन्होंने दूर खड़ी उदास सोफिया से कहा, ‘तुम्हारे पापा की शर्त के अनुसार मुझे अपने परिवार और देश को छोड़ कर जाना कतई स्वीकार नहीं है, इसलिए अब आज से हमारे रास्ते अलग हो रहे हैं, पर मेरी शुभकामनाएं हमेशा तुम्हारे साथ हैं.’

दरवाजे की घंटी बजी तो अपने अतीत में खोए पंकज अचानक वर्तमान में लौट आए. देखा, पोस्टमैन था. पत्नी की कुछ पुस्तकें डाक से आई थीं. पुस्तकें प्राप्त कर, अधूरे पत्र को जल्द पूरा किया और पोस्ट करने चल दिए.

कुछ दिनों बाद, देर रात्रि में टेलीफोन की घंटी बजी. उठाया तो दूसरी ओर से सोफिया की आवाज थी. कह रही थी कि पत्र मिलने पर बहुत खुशी हुई. अगले मंडे को बेटी के साथ वह मुंबई पहुंच रही है. उसी पुराने होटल में कमरा बुक करा लिया है, पर व्यस्तता के कारण केवल एक सप्ताह का समय ही निकाल पाई है. उम्मीद है आप का परिवार भी घूमने में हमारे साथ रहेगा.

टेलीफोन पर हुई पूरी बात, सुबह पत्नी और बेटे को बतलाई. वे दोनों भी घूमने के लिए सहमत हो गए. सोफिया के साथ घूमते हुए पत्नी को भी अच्छा लगा. अभिषेक और जूली ने भी बहुत मौजमस्ती की. अंतिम दिन मुंबई घूमने का प्रोग्राम था. पर सब लोगों ने जब कोई रुचि नहीं दिखाई तो अभिषेक व जूली ने मिल कर ही प्रोग्राम बना लिया.

रात्रि में दोनों देर से लौटे. सोते समय सोफिया ने अपनी बेटी से पूछा, ‘‘आज अभिषेक के साथ तुम दिन भर, अकेले ही घूमती रहीं. तुम्हारे बीच बहुत सी बातें हुई होंगी? क्या सोचती हो तुम उस के बारे में? कैसा लड़का है वह?’’

‘‘मम्मी, अभि सचमुच बहुत अच्छा और होशियार है. एम.बी.ए. के पिछले सत्र में उस ने टाप किया है. आगे बढ़ने की उस में बहुत लगन है.’’

‘‘इतनी प्रशंसा? कहीं तुम्हें प्यार तो नहीं हो गया?’’

‘‘हां, मम्मी, आप का अनुमान सही है.’’

‘‘और वह?’’

‘‘वह भी.’’

‘‘तो क्या अभि के पापा से तुम दोनों के विवाह के बारे में बात करूं?’’

‘‘हां, मम्मी, अभि भी ऐसा ही करने को कह रहा था.’’

‘‘पर जूली, तुम्हारे पापा को तो ऐसा लड़का पसंद है, जो उन के साथ रह कर बिजनेस में उन की मदद कर सके. क्या अभि इस के लिए तैयार होगा.’’

‘‘क्यों नहीं, यह तो आगे बढ़ने की उस की इच्छा के अनुकूल ही है. फिर वह क्यों मना करने लगा?’’

‘‘भारत छोड़ देने पर, क्या उस के मम्मीपापा अकेले नहीं रह जाएंगे?’’

‘‘तो क्या हुआ? भारत में इतने वृद्धाश्रम किस लिए हैं?’’

‘‘क्या इस बारे में तुम ने अभि के विचारों को जानने का भी प्रयत्न किया?’’

‘‘हां, वह इस के लिए खुशी से तैयार है. कह भी रहा था कि यहां भारत में रह कर तो उस की तमन्ना कभी पूरी नहीं हो सकती. लेकिन मम्मी, अभि की इस बात पर आप इतना संदेह क्यों कर रही हैं?’’

‘‘कुछ नहीं, यों ही.’’

‘‘नहीं मम्मी, इतना सब पूछने का कुछ तो कारण होगा? बतलाइए.’’

‘‘इसलिए कि बिलकुल ठीक ऐसी ही परिस्थितियों में अभि के पापा ने भारत छोड़ने से मना कर दिया था.’’

‘‘पर तब आप ने उन्हें समझाया नहीं?’’

‘‘नहीं, शायद इसलिए कि मुझे भी उन का मना करना गलत नहीं लगा था.’’

‘‘ओह मम्मी, आप और अभि के पापा दोनों की बातें और सोच, मेरी समझ के तो बाहर की हैं. मैं तो सो रही हूं. सुबह जल्दी उठना है. अभि कह रहा था, वह सुबह मिलने आएगा. उसे आप से भी कुछ बातें करनी हैं.’’

बेटी की सोच और उस की बातों के अंदाज को देख, सोफिया को लग रहा था कि पीढ़ी के ‘अंतराल’ ने तो हवा का रुख ही बदल दिया है.

Father’s day 2023: जिंदगी फिर मुस्कुराएगी- पिता ने बेटे को कैसे रखा जिंदा

रात के 3 बजे थे. इमरजैंसी में एक नया केस आया था. इमरजैंसी में तैनात डाक्टरों और नर्सों ने मुस्तैदी से बच्चे की जांच की. बिना देरी किए उसे पीडियाट्रिक आई.सी.यू. में ऐडमिट कराने के लिए स्ट्रेचर पर लिटा कर नर्स व वार्ड- बौय तेजी से चल पड़े. पीछेपीछे बच्चे के मातापिता बदहवास से चल रहे थे.

पीडियाट्रिक आई.सी.यू. में भी अफरातफरी मच गई. बच्चे को बैड पर लिटा कर 4-5 डाक्टरों की टीम उस की चिकित्सा में लग गई.

‘‘टैल मी द हिस्ट्री,’’ डा. सिद्धार्थ ने कहा.

‘‘बच्चा 3 साल का है. यूरिनरी इन्फैक्शन हुआ था. डायग्नोसिस में बहुत देर हो गई. बच्चे को बहुत तेज बुखार की शिकायत है. इन्फैक्शन पूरे शरीर में फैल गया है पर इस से महत्त्वपूर्ण यह है कि 8 दिन पहले गिरने के कारण बच्चे को सिर में गहरी चोट लगी थी. ब्लड सर्कुलेशन के साथ इन्फैक्शन दिमाग में चला गया है. कल सुबह इन्फैक्शन के कारण ब्रेन हैमरेज भी हो गया,’’ पीडियाट्रिक्स इमरजैंसी के डा. शांतनु ने संक्षेप में बताया.

‘‘माई गुडनैस,’’ डा. सिद्धार्थ ने कहा, ‘‘मुझे सीटी स्कैन दिखाओ.’’

एक नर्स बच्चे के मातापिता के पास सीटी स्कैन लेने दौड़ी. बच्चे के पिता ने तुरंत सीटी स्कैन और रिपोर्ट नर्स को दे दी और पूछा, ‘‘बच्चा कैसा है सिस्टर. क्या कर रहे हैं अंदर. हम उसे देख सकते हैं क्या?’’

‘‘डाक्टर जांच कर रहे हैं. इलाज चल रहा है. एक बार बच्चे की हालत स्थिर हो जाए फिर आप को बुला लेंगे,’’ कह कर नर्स अंदर चली गई.

बच्चे के मातापिता बेबस से बाहर खड़े रह गए. बच्चे की मां मीनल के तो आंसू नहीं थम रहे थे. बच्चे की चोट वाली जगह से खून की एक लकीर पीछे तक गई थी.

‘‘सर, बच्चे के हाथ में लगा कैनूला ब्लौक हो गया है,’’ नर्स बोली, ‘‘चेंज करना पड़ेगा.’’

‘‘चेंज करो और फौरन आई.वी. ऐंटीबायोटिक और सलाइन शुरू करो. बच्चे का टैंपरेचर अभी कितना है?’’ डा. सिद्धार्थ ने पूछा.

नर्स ने तुरंत थर्मामीटर लगा कर बच्चे का बुखार देखा और कांपते स्वर में बोली, ‘‘सर, 106 से ऊपर है.’’

‘‘दिमाग के इन्फैक्शन में तो यह होना ही था. बच्चे को तुरंत कोल्ड वाटर स्पंज दो. हथेलियों, बगल में, पैर के तलवों और घुटनों के नीचे कोल्ड गौज या कौटन रखो और लगातार उन्हें बदलती रहना. ए.सी. के अलावा एक और पंखा ला कर बच्चे की ओर लगाओ ताकि बुखार आगे न जाने पाए,’’ डा. सिद्धार्थ ने हिदायत दी.

डेढ़ घंटे की जद्दोजहद के बाद कहीं बच्चे का बुखार 103 डिगरी तक आया, तब डा. सिद्धार्थ ने चैन की सांस ली. 2 नर्सों को बच्चों के पास छोड़ कर और इलाज के बारे में समझा कर डा. सिद्धार्थ ने बच्चे के मातापिता को बुला लाने को कहा. पीडियाट्रिक आई.सी.यू. के डाक्टर और नर्सें वापस अपनीअपनी ड्यूटी पर चले गए.

प्रशांत और मीनल दौड़ेदौड़े अंदर आए तो डा. सिद्धार्थ ने कहा, ‘‘हम ने बच्चे का इलाज शुरू कर दिया है. बुखार भी अब कम हो गया है. लेकिन बच्चे के दिमाग में जो इन्फैक्शन हो गया है उस के लिए न्यूरोलौजिस्ट को बुला कर चैकअप करवाना पड़ेगा.’’

‘‘हमारा बच्चा ठीक तो हो जाएगा न?’’ मीनल ने कांपते स्वर में पूछा.

‘‘हम अपनी ओर से पूरी कोशिश करेंगे. कल सुबह डा. बनर्जी दिमाग का उपचार शुरू कर देंगे तो उम्मीद है बुखार कंट्रोल में आ जाएगा. और हां, आप दोनों में से कोई एक ही आई.सी.यू. में बच्चे के पास बैठ सकता है.’’

मीनल ने बच्चे की ओर देख कर उसे पुकारा. थोड़ी देर बाद सोनू ने कमजोर स्वर में ‘हूं’ कहा. बुखार से सोनू बेदम हो रहा था. बीचबीच में अचानक कांप उठता और अजीब से स्वर में कराहने लगता. मीनल बच्चे की यह दशा देख कर रोने लगी.

प्रशांत ने पत्नी के कंधे पर हाथ रख कर उसे तसल्ली दी और अपने आंसू पोंछ कर बोला, ‘‘अपनेआप को संभालो मीनल. हमें उस का पूरा ध्यान रखना है. उसे ठीक करना है. अगर तुम ही टूट जाओगी तो सोनू की देखभाल कौन करेगा?’’

मीनल ने हामी भरते हुए अपने आंसू पोंछे और सोनू का हाथ थाम लिया. सोनू की कमजोर उंगलियों ने मीनल की उंगलियां थाम लीं तो मीनल का दिल भर आया. मस्तिष्क में संक्रमण से सोनू खुल कर रो नहीं पा रहा था और बोल भी नहीं पा रहा था. बस, रहरह कर उस का शरीर कांपता और वह घुटेघुटे स्वर में कराहने लगता.

सोनू का हाथ सहलाते हुए मीनल के सामने बेटे के जन्म से ले कर अब तक की घटनाएं चलचित्र की भांति घूमने लगीं. कितनी खुश थी वह मां बन कर. सोनू के जन्म के बाद उस के पालनपोषण में कब दिन गुजर जाता पता ही नहीं चलता. प्रकृति ने सारे जहां की खुशियां मीनल की झोली में डाल दी थीं. जीवन में खुशियां ही खुशियां थीं. सोनू था भी बहुत प्यारा बच्चा. सारा दिन ‘मांमां’ कहता मीनल का आंचल थामे उस के आगेपीछे घूमता रहता. पर अचानक उन के सुखी संसार में न जाने कहां से दुख के बादल घिर आए.

6 महीने पहले सोनू को बुखार आना शुरू हुआ. प्रशांत उसे डाक्टर के पास ले गया. दवाइयों से 5 दिनों में सोनू ठीक हो गया. मीनल और प्रशांत निश्चिंत हो गए. पर 15 दिन बाद ही सोनू को फिर बुखार आया तो उन्हें चिंता हुई और डाक्टर ने दवा दे कर कहा कि चिंता की कोई बात नहीं है, सभी बच्चों को बदलते मौसम से यह परेशानी हो रही है.

इसी तरह 5 महीने गुजर गए. सोनू को महीने भर तक जब लगातार बुखार के साथ पेट में दर्द, पेशाब में जलन की शिकायत होने लगी तब कसबे के डाक्टर ने उसे बड़े शहर में जा कर चाइल्ड स्पैशलिस्ट को दिखाने को कहा.

मीनल और प्रशांत तुरंत सोनू को शहर ले आए. वहां चाइल्ड स्पैशलिस्ट ने सोनू की खून और यूरिन की सभी जरूरी जांच करवाईं और कल्चर करवाया. कल्चर ड्रग सैंसेटिविटी जांच से पता चला कि अब तक जो ऐंटीबायोटिक सोनू को दी जा रही थीं उन दवाइयों ने सोनू पर कुछ असर ही नहीं किया था और संक्रमण बढ़तेबढ़ते गुर्दों तक फैल गया.

डाक्टर ने उसे तुरंत ऐडमिट कर लिया. 7 दिन तक उसे आई.वी. ऐंटीबायोटिक का कोर्स देने के बाद जब उस का बुखार सामान्य तक आ गया तो उसे जरूरी निर्देश दे कर डिस्चार्ज दे दिया.

मीनल और प्रशांत सोनू को ले कर घर आ गए. 2-3 दिन ठीक रहने के बाद सोनू को फिर से हलकाहलका बुखार रहने लगा. एक दिन घर के सामने पड़ोस के बच्चे खेल रहे थे. सोनू की जिद पर मीनल ने उसे खेलने भेज दिया.

मीनल आंगन में खड़ी हो कर बेटे को देख रही थी कि अचानक एक बच्चे को पकड़ने के लिए दौड़ने की कोशिश करता सोनू लड़खड़ा कर गिर गया. उस का सिर तेजी से एक नुकीले पत्थर से टकराया. खून की धार फूट पड़ी. मीनल घबरा कर जल्दी से उसे डाक्टर के यहां ले कर दौड़ी. डाक्टर ने दवा लगा कर पट्टी बांध दी.

घटना के 5वें दिन अचानक सोनू बेचैन हो कर हाथपैर पटकने लगा, अजीब तरह से कराहने लगा. मीनल ने उस का बदन छुआ तो उसे तेज बुखार था. मीनल ने तुरंत प्रशांत को फोन लगाया. प्रशांत औफिस से उसी समय घर आया और वे सोनू को शहर के चाइल्ड स्पैशलिस्ट के पास ले गए. उन्होंने तुरंत उसे ऐडमिट करवाया. उस का सीटी स्कैन करवाया तो पता चला कि चोट से शरीर में मौजूद संक्रमण मस्तिष्क तक चला गया है और तेज बुखार व संक्रमण के चलते सोनू को ब्रेन हैमरेज हो गया है.

मीनल तो यह सुन कर होश ही खो बैठी. कुछ दिनों तक वे लोग अपने शहर में इलाज कराते रहे लेकिन सोनू की स्थिति में सुधार न होता देख डाक्टर ने प्रशांत से सोनू को दिल्ली ले जाने के लिए कहा. मीनल और प्रशांत तुरंत सोनू को दिल्ली ले आए.

सोनू का हाथ थामे मीनल ने गहरी सांस ली. सोनू अब भी बेचैनी और दर्द से हाथपैर पटक रहा था और एक मां बेबस सी बैठी थी. सच, कुदरत के आगे इंसान कितना लाचार है.

सुबह 8 बजे डा. बनर्जी अपनी टीम सहित सोनू का निरीक्षण करने आ पहुंचे. उन्होंने सोनू को देखा और उस की रिपोर्ट की जांच की. डाक्टर व नर्सों को कुछ नई दवाइयों के बारे में बताया और फिर प्रशांत को बुलवाया.

‘‘देखिए, हम ने मस्तिष्क के संक्रमण के लिए एक नई दवा स्टार्ट कर दी है. जरूरत पड़ी तो एकदो दिन में एक सीटी स्कैन करवा लेंगे,’’ डा. बनर्जी ने प्रशांत और मीनल से कहा.

‘‘सोनू कब तक ठीक हो जाएगा डाक्टर साहब?’’ प्रशांत ने पूछा.

‘‘हम ने मस्तिष्क के संक्रमण के लिए जो नई ऐंटीबायोटिक शुरू की है, 2-3 दिन इस को देखते हैं, क्या असर होता है फिर आगे के इलाज की योजना बनाएंगे,’’ कह कर डा. बनर्जी वहां से दूसरे मरीज के पास चले गए.

अगले 2 दिनों तक सोनू की स्थिति में कोई सुधार नहीं दिखा तो डा. बनर्जी ने फिर से सोनू का सीटी स्कैन करवाया. संक्रमण फैलने की वजह से अब की बार उस के मस्तिष्क के पिछले हिस्से भी क्षतिग्रस्त नजर आए.

दूसरे दिन मीनल और प्रशांत हताश से बैठे थे कि रात में 8 बजे अचानक सोनू तेज आवाज में खींचखींच कर सांस लेने लगा. मीनल उस के सीने पर हाथ फेरने लगी. सिस्टर जल्दी से डाक्टर को बुला लाई. डाक्टर ने सोनू की स्थिति को देखते ही सिस्टर से कहा, ‘‘पेशेंट को तुरंत वैंटीलेटर पर शिफ्ट करना पड़ेगा. सिस्टर, डा. यतिन को फौरन बुलाओ और जब तक यतिन आते हैं तब तक बाकी सब तैयारी हो जानी चाहिए.’’

डा. यतिन ने पहुंचते ही मीनल से कहा, ‘‘आप प्लीज बाहर वेट करिए. हमें सोनू को वैंटीलेटर पर शिफ्ट करना पड़ेगा. बाद में हम आप को बुलवा लेंगे.’’

मीनल चुपचाप बाहर आ गई. उस ने प्रशांत को सबकुछ बताया. दोनों धीरज रख कर बाहर बैठे रहे.

करीब 2 घंटे बाद डा. यतिन ने प्रशांत और मीनल को बुलवाया और बताया, ‘‘सोनू खींचखींच कर सांस ले रहा था. इस का अर्थ है कि उस के दिमाग में ब्रीदिंग कंट्रोल करने वाला भाग डैमेज हो गया है. मस्तिष्क के किसी भी भाग की क्षति स्थायी होती है. आई एम सौरी. देखते हैं,’’ डा. यतिन ने प्रशांत का कंधा थपथपाया और चले गए.

अगले 2 दिनों में डा. बनर्जी ने फिर से सोनू का सीटी स्कैन करवाया और रिपोर्ट देख कर प्रशांत से बोले, ‘‘कल रात में इस का एक और बार ब्रेन हैमरेज हो चुका है. संक्रमण की वजह से मस्तिष्क के ज्यादातर हिस्से क्षतिग्रस्त हो कर काम करना बंद कर चुके हैं. हमें अफसोस है, हम सोनू के लिए कुछ नहीं कर पाए.’’

स्तब्ध सी मीनल धड़ाम से कुरसी पर गिर पड़ी. प्रशांत ने उस के कंधे पर अपना कांपता हुआ हाथ रख दिया. उन के घर का चिराग बस बुझने को ही है और वे नियति के हाथों कितने मजबूर हैं, लाचार हैं.

तीसरे दिन सुबह डा. लतिका ने प्रशांत और मीनल को अपने कैबिन में बुलवाया. डा. लतिका भी डा. यतिन की तरह ही पीडियाट्रिक्स की सीनियर डाक्टर थीं. उन्होंने पहले तो मीनल और प्रशांत को पानी पिलाया और फिर कहना प्रारंभ किया :

‘‘देखिए, आप सोनू की हालत तो जानते ही हैं. संक्रमण की वजह से उस के ब्रेन के ज्यादातर हिस्सों ने काम करना बंद कर दिया था. आज सुबह न्यूरोलौजिस्ट ने उस की जांच की तो पता चला कि उस के पूरे मस्तिष्क की क्रियाशीलता खत्म हो चुकी है. डाक्टरी भाषा में कहें तो सोनू की ब्रेन डैथ हो चुकी है.’’

‘‘नहीं…’’ मीनल चीत्कार कर उठी. प्रशांत भी सुबक उठा. करीब 15 मिनट बाद मीनल और प्रशांत के दुख का ज्वार कुछ कम हुआ तो प्रशांत ने पूछा, ‘‘सोनू की सांस और धड़कन तो चल रही है, डाक्टर.’’

‘‘जी, वह बस वैंटीलेटर (सिस्टोलिक ब्लडप्रैशर) के कारण चल रही है. अगर हम अभी वैंटीलेटर हटा लेते हैं तो उस की सांस और धड़कन बंद हो जाएगी. ब्रेन डैथ के मामले में हम 12 घंटे बाद दोबारा सारी जांच कर के यह तय करते हैं कि कहीं जीवन का लक्षण बाकी है या नहीं. तभी हम वैंटीलेटर हटाते हैं,’’ डा. लतिका ने समझाया, ‘‘लेकिन अगर आप चाहें तो सोनू का दिल हमेशा धड़कता रह सकता है.’’

‘‘जी? वह कैसे?’’ मीनल और प्रशांत ने एकसाथ अचरज से पूछा.

‘‘बात यह है कि हमारे अस्पताल में एकदो मरीज हैं जिन्हें तुरंत हार्ट ट्रांसप्लांट की जरूरत है. यदि आप सोनू का हार्ट डोनेट कर सकें तो उन में से जिस के साथ भी क्रास मैचिंग हो जाए उस में सोनू का हार्ट ट्रांसप्लांट किया जा सकता है. इस तरह से आप के बच्चे के जाने के बाद भी उस का दिल इस दुनिया में धड़कता रहेगा,’’ डा. लतिका ने कहा.

‘‘नहींनहीं. आप यह कैसी बातें कर रही हैं,’’ मीनल तड़प कर बोली, ‘‘आप मेरे सोनू के शरीर से…आप को एक मां के दर्द का जरा सा भी एहसास नहीं है.’’

डा. लतिका ने मीनल के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘मैं भी एक मां हूं, मुझे तुम्हारे दर्द का पूरा एहसास है, मीनल.

‘‘तुम्हारे सोनू की जगह उस दिन मेरा ही बेटा था. हां, मीनल यह घटना 6 साल पहले की है. मेरे 18 बरस के बेटे का जन्मदिवस था. वह अपने दोस्तों के साथ एक रैस्टोरैंट में गया था. लौटते समय उस की बाइक का ऐक्सीडैंट हो गया. सिर में लगी गंभीर चोट की वजह से उस की ब्रेन डैथ हो चुकी थी. मैं उस के दिल की धड़कन को हमेशा के लिए बरकरार रखना चाहती थी पर देश में उस समय हार्ट ट्रांसप्लांट के लिए मरीज उपलब्ध नहीं था.’’

डा. लतिका ने अपने आंसू पोंछ कर फिर कहना शुरू किया, ‘‘मेरे बेटे की धड़कन तो मैं नहीं बचा पाई लेकिन हम ने उस की दोनों किडनी और आंखें डोनेट कर दीं. आज कहीं न कहीं उस की आंखें यह दुनिया देख रही हैं. उस के गुर्दों ने तब मौत के मुंह में जाते 2 लोगों को बचा लिया था.’’

कुछ देर के मौन के बाद प्रशांत ने हिम्मत कर के पूछा, ‘‘आप हार्ट किस को डोनेट करेंगे?’’

‘‘क्षमा कीजिएगा, कुछ नियमों के कारण हम आप को यह जानकारी तो नहीं दे सकते. यह बात दोनों ही परिवारों से गुप्त रखी जाती है. मुझे भी अपने बेटे के समय ट्रांसप्लांट सर्जन ने यह जानकारी नहीं दी थी. लेकिन ट्रांसप्लांट सफल हुआ है या नहीं, वह सूचना हम आप को अवश्य देंगे,’’ डा. लतिका ने स्पष्ट किया.

प्रशांत और मीनल डा. लतिका से विदा ले कर आई.सी.यू. में आ कर सोनू के पास बैठ गए. वैंटीलेटर के मौनिटर पर सोनू की धड़कनों का रिकौर्ड आ रहा था. उसे देखते ही प्रशांत बिलख कर बोले, ‘‘हां कह दो मीनल. अपने सोनू की धड़कनों के सिलसिले को रुकने मत दो. डाक्टर की बात मान लो.’’

मीनल हैरानी से पति को देख कर बोली, ‘‘तुम भी यही कह रहे हो, प्रशांत? बताओ, मैं कैसे अपने मासूम बच्चे की चीराफाड़ी…’’ आगे के शब्द मीनल के आंसुओं से बह गए.

‘‘जरा सोचो मीनल, कुछ घंटे बाद ब्रेन डैथ कन्फर्म होने के बाद यों भी ये लोग वैंटीलेटर हटा देंगे. तब तो सोनू की सांस और धड़कन सबकुछ खत्म हो जाएगा. हम भी उसे श्मशान ले जा कर जला देंगे. सबकुछ राख हो जाएगा. आज डाक्टर ने हमें कितना बड़ा मौका दिया है कि हम उस की धड़कन को, उस की आंखों की रोशनी को हमेशा के लिए बरकरार रख सकते हैं. हमारा सोनू किसी न किसी रूप में आगे भी जीवित रहेगा.’’

प्रशांत की नजरें अभी भी सोनू की धड़कनों पर थीं.

‘‘मुझे क्या करना है दुनिया से,’’ मीनल बोली, ‘‘मैं अपने मासूम बच्चे के साथ ऐसा नहीं कर सकती.’’

‘‘ऐसा न कहो मीनल,’’ प्रशांत ने उस के कंधे पर हाथ रख कर समझाया, ‘‘डा. लतिका ने कहा न सोनू जल्द ही तुम्हारे पास आ जाएगा. सोनू को बचाने में हम ने कोई कसर बाकी नहीं रखी. परंतु सोनू के जाने के बाद भी उस की धड़कन और आंखों की रोशनी को बरकरार रख कर हमें मानवता की इतनी बड़ी सेवा करने का मौका मिला है.’’

मीनल चुपचाप सुबकती रही. प्रशांत फिर बोले, ‘‘देश और देशवासियों की रक्षा के लिए मांएं अपने जवान बेटों को सीमा पर हंसतेहंसते कुरबान कर देती हैं. क्या उन्हें अपने बेटों को खोने का गम नहीं होता होगा? पर देश, समाज और इंसानियत की रक्षा के लिए वे हंस कर यह दर्द, यह तकलीफ सह लेती हैं. उन का ध्यान करो. अपने बच्चों को खोते समय वे भी तो नहीं जानतीं कि किन लोगों के लिए उन्हें कुरबान कर रही हैं. जिन की रक्षा में उन के बच्चे अपने प्राण गंवाते हैं उन को सैनिकों की मांएं कहां पहचानती हैं.

‘‘तुम भी यह मत सोचो कि सोनू का दिल या आंखें किस में ट्रांसप्लांट होंगी. बस, मानवता के प्रति अपना कर्तव्य समझ कर हां कर दो,’’ प्रशांत ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए उसे समझाने की आखिरी कोशिश की.

मीनल ने अपना हाथ सोनू के सीने पर रखा. उस का दिल अपनी लय में धड़क रहा था. उस की धड़कन महसूस करते ही मीनल फफक पड़ी और रोते हुए बोली, ‘‘आप ठीक कहते हैं. मैं मां हूं. अपने बच्चे की धड़कन को भला कैसे रुकने दे सकती हूं. नहींनहीं, आप डा. लतिका से कह दीजिए कि मेरे सोनू के दिल की धड़कन हमेशा चलती रहेगी. उस की आंखें भी यह दुनिया देखती रहेंगी.’’

मीनल को गले लगाते हुए प्रशांत खुद फफक कर रो दिया.

प्रशांत के फैसले पर उस का हाथ पकड़ कर डा. लतिका ने आंखों में आंसू भर कर रुंधे गले से कहा, ‘‘तुम ने अपने बच्चे को अंधेरे में खो जाने से बचा लिया. तुम नहीं जानती हो कि तुम ने कितना बड़ा काम किया है. मानवता की कितनी बड़ी सेवा की है. कितने घरों के चिराग रोशन कर दिए. मैं तुम्हें दिल से दुआ देती हूं, तुम्हारा सोनू जल्द ही तुम्हारे पास वापस आएगा,’’ डा. लतिका ने मीनल को गले लगा लिया.

अगले दिन प्रशांत और मीनल अपने घर में रिश्तेदारों से घिरे बैठे थे. तभी प्रशांत को डा. लतिका का फोन आया. सोनू का हार्ट उपलब्ध मरीजों में से एक के साथ मैच कर गया तथा उस बच्चे में प्रत्यारोपित कर दिया गया. प्रत्यारोपण सफल रहा है.

इस के एक माह बाद डा. लतिका का फिर से फोन आया. सोनू का हार्ट जिस बच्चे में प्रत्यारोपित किया गया था उस के शरीर ने सोनू के दिल को स्वीकार कर लिया है. बच्चा अब पूरी तरह से स्वस्थ हो कर अपने घर जा रहा है. आप के सोनू का दिल सफलतापूर्वक धड़क रहा है और आगे भी धड़कता रहेगा. सोनू की आंखें भी 2 लोगों को लगाई जा चुकी हैं.

प्रशांत और मीनल ने एकदूसरे की ओर देखा. दोनों के मन ने एक अजीब सा संतोष महसूस किया. उन का सोनू आज भी जीवित है, उन्होंने सोनू को राख बन कर बिखर जाने से बचा लिया. उन का सोनू अमर हो गया.

इतने दिनों की भागादौड़ी और दुख में मीनल ने अपनी ओर ध्यान ही नहीं दिया था. उस का सोनू तो कभी कहीं गया ही नहीं था. वह तो रूप बदल कर पहले से चुपचाप मीनल की कोख में छिप कर बैठा था. डा. लतिका की दुआ सच हुई. जिंदगी फिर मुसकरा रही थी.

यह तो होना ही था: भाग 3- वासना का खेल मोहिनी पर पड़ गया भारी

इसी बीच अनिल औफिस की किसी मीटिंग से फ्री हुआ तो लंचटाइम में मिलने के लिए उस ने कई बार मोहिनी को फोन मिलाया. मोहिनी ने आज अपना फोन पहली बार बंद कर रखा था. अनिल ने सोचा क्या हो गया, आज फोन क्यों बंद है, जा कर देखता हूं.

कालेज में कोमल की तबीयत कुछ ढीली थी. उस ने सोचा मां के पास जा कर आराम करती हूं. वह भी मोहिनी को फोन मिला रही थी. फोन बंद होने पर कोमल को मां की चिंता होने लगी. वह फौरन छुट्टी ले कर मां से मिलने चल दी.

अनिल मोहिनी के घर पहुंचा तो देखा ताला लगा हुआ है. इस समय कहां चली गई, उस ने इधरउधर देखा, कुछ बच्चे खेल रहे थे. उन में से एक बच्चे ने इशारा किया कि आंटी उस घर की तरफ गई हैं, अनिल के मन में पता नहीं क्या आया, वह सुधीर के घर की तरफ चल दिया. कोमल भी पड़ोस में रहने वाली कुसुम आंटी के यह बताने पर कि उन्होंने मोहिनी को सामने वाले सुधीर के घर जाते देखा है. अत: वह भी सुधीर के घर चल दी.

अनिल ने सुधीर की डोरबैल बजाई, अंदर सुधीर और मोहिनी बैड पर एकदूसरे में खोए निर्वस्त्र लेटे थे. डोरबैल बजने पर कोई कूरियर होगा यह सोच कर बस टौवेल लपेट कर गेट खोल दिया. सामने अनिल खड़ा था. सुधीर की अस्तव्यस्त हालत देख अनिल को एक पल में सब सम झ आ गया.

अब तक कोमल भी चुपचाप पीछे आ कर खड़ी हो चुकी थी. सुधीर सकपका गया. वह अनिल से तो कभी नहीं मिला था, लेकिन कोमल से 1-2 बार मिल चुका था. अनिल ने सुधीर को एक तरफ धक्का दे कर अंदर जाते हुए पूछा, ‘‘कहां है मोहिनी?’’

कोमल को धक्का लगा कि अनिल कैसे उस की मां का नाम ले रहा है… क्या हो रहा है यह सब.

इतने में सुधीर चिल्लाया, ‘‘तुम यहां क्या कर रहे हो… जाओ यहां से.’’

‘‘मैं मोहिनी से मिल कर जाऊंगा,’’ कहते हुए अनिल बैडरूम की तरफ बढ़ गया. सुधीर ने पहले जल्दी से अंदर जा कर अपनी पेंट उठाई फिर बाथरूम में पहन कर निकला. तब तक अनिल मोहिनी के सामने पहुंच चुका था.

बैडरूम का दृश्य देख कर कोमल जैसे पत्थर की हो गई. निर्वस्त्र, अपने को चादर से ढकने की कोशिश करते हुए अब मोहिनी को लग रहा था कि काश, धरती फट जाए और वह उस में समा जाए.

कोमल को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ. उस की मां इस हालत में और अनिल.

उस ने सुधीर का कौलर पकड़ लिया. दोनों में हाथापाई शुरू हो गई. उमाशंकर और उन का परिवार, कुसुम, बाकी पड़ोसी भी शोर सुन कर वहां पहुंच गए.

किसी को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था और रहीसही कसर अनिल ने गुस्से में चीखते हुए पूरी कर ली. वह कह रहा था, ‘‘कोई सोच भी नहीं सकता कि क्याक्या

खेल खेले हैं तूने, बेशर्म, लालची औरत, अपनी बेटी को भी धोखा दिया है तू ने, अपने दामाद

को भी नहीं छोड़ा तू ने, इतने दिनों से मु झे फंसा रखा था.’’

कोमल को लग रहा था उस के कान के परदे फट जाएंगे. अनिल और सुधीर की आपस की लड़ाई और मोहिनी के बारे में कहे जा रहे सस्ते शब्दों को सुन कर सारी बात उस के सामने साफ हो गई, मारपिटाई बढ़ती देख इतने में किसी पड़ोसी ने पुलिस को खबर कर दी. पुलिस ने आ कर अनिल, सुधीर को जीप में बैठने के लिए कहा. सुधीर ने बड़ी मुश्किल से कपड़े पहनने

की इजाजत मांगी, पुलिस के सिपाही ने अनिल को कौलर पकड़ कर बाहर की तरफ चलने का इशारा किया.

अनिल जातेजाते मोहिनी को गालियां देता रहा. सुधीर भी जाते हुए चिल्ला

रहा था, ‘‘तू वेश्या से भी बदतर है, थू है तु झ पर, गिरी हुई औरत है तू.’’

पड़ोसी भी 1-1 कर कोमल के कंधे पर सांत्वना का हाथ रख कर चले गए, खड़ी रह गई कोमल ने जलती हुई, नफरत भरी आंखों से मोहिनी को देखा और फुफकार उठी, ‘‘आज आप ने मेरा हर रिश्ते से विश्वास उठा दिया. आज से आप का और मेरा कोई रिश्ता नहीं, कभी मेरे सामने मत आना,’’ कह कर कोमल चली गई.

अब मोहिनी शर्मिंदगी और पछतावे में डूब कर घुटनों पर सिर रख कर फूटफूट कर रो रही थी, अपने रूप और यौवन का सहारा ले कर, वासना और लालच का खेलखेल कर

2 पुरुषों से अनैतिक संबंध रख कर उन से फायदा उठाने चली थी… अब बेटी और समाज की नजरों में हमेशा के लिए गिर गई थी… यह तो होना ही था.

सुंदर माझे घर-भाग 2 : दीपेश ने कैसे दी पत्नी को श्रद्धांजलि

नीरा ने न केवल ड्राइंगरूम बल्कि बैडरूम और रसोईघर को भी सामान्य साजसामान की सहायता व अपनी कल्पनाशीलता से आधुनिक रूप दे दिया था, साथ ही, आगे बगीचे में उस ने गुलाब, गुलदाऊदी, गेंदा और रजनीगंधा आदि फूलों के पेड़ व घर के पीछे कुछ फलों के पेड़ और मौसमी सब्जियां भी लगाई थीं. अपने लगाए पेड़पौधों की देखभाल वह नवजात शिशु के समान करती थी. कब किसे कितनी खाद और पानी की जरूरत है, यह जानने के लिए उस ने बागबानी से संबंधित एक पुस्तक भी खरीद ली थी.

दीपेश कभीकभी घर सजानेसंवारने में पत्नी की मेहनत और लगन देख कर हैरान रह जाता था. एक बार वह साड़ी खरीदने के लिए मना कर देती थी लेकिन यदि उसे कोई सजावटी या घर के लिए उपयोगी सामान पसंद आ जाता तो वह उसे खरीदे बिना नहीं रह सकती थी.

नीरा की ‘मा झे सुंदर घर’ की कल्पना साकार हो उठी थी. धीरेधीरे एक वर्ष पूरा होने जा रहा था. वह इस अवसर को कुछ नए अंदाज से मनाना चाहती थी. इसीलिए घर में एक साधारण पार्टी का आयोजन किया गया था. घर को गुब्बारों और रंगबिरंगी पट्टियों से सजाया गया था. काम की हड़बड़ी में ऊपर के कमरे से नीचे उतरते समय नीरा का पैर साड़ी में उल झ गया और वह नीचे गिर गई. सिर में चोट आई थी लेकिन उस ने ध्यान नहीं दिया और पार्टी का मजा किरकिरा न हो जाए, यह सोच कर चुपचाप दर्द को  झेलती रही.

‘आज मैं बहुत थक गई हूं. अब सोना चाहती हूं,’ पार्टी समाप्त होने पर नीरा ने थके स्वर में दीपेश से कहा था.

‘अब आलतूफालतू काम करोगी तो थकोगी ही. भला इतना सब ताम झाम करने की क्या जरूरत थी?’ दीपेश ने सहज स्वर में कहा था. ऊपरी चोट के अभाव के कारण दीपेश ने नीरा के गिरने की घटना को गंभीरता से नहीं लिया था.

जब नीरा सुबह अपने समय पर नहीं उठी तब दीपेश को चिंता हुई. जा कर देखा तो पाया कि वह बेसुध पड़ी थी, चेहरे पर अजीब से भाव थे जैसे रातभर दर्द से तड़पती रही हो. दीपेश ने फौरन डाक्टर को बुला कर दिखाया. डाक्टर ने उसे शीघ्र ही अस्पताल में भरती कराने की सलाह देते हुए कहा कि गिरने के कारण सिर में अंदरूनी चोट आई है. ‘सिर की चोट को कभी भी हलके रूप में नहीं लेना चाहिए. कभीकभी साधारण चोट भी जानलेवा हो जाती है.’

डाक्टर की बात सच साबित हुई. लगभग 5 दिन जिंदगी और मौत के साए में  झूलने के बाद नीरा चिरनिद्रा में सो गई. सभी सगेसंबंधी, अड़ोसीपड़ोसी इस अप्रत्याशित मौत का समाचार सुन कर हक्कबक्के रह गए.

नीरा का अंतिम संस्कार करने के बाद दीपेश ने घर में प्रवेश किया तो उस के कुशल हाथों से सजासंवरा घर उसे मुंह चिढ़ाता प्रतीत हुआ. उस के लगाए पेड़पौधे कुछ ही दिनों में सूख गए थे. दीपेश सम झ नहीं पा रहा था कि वास्तुशास्त्र के नियमों का पालन करने के बाद भी घर वीरान क्यों हो गया? उन के जीवन में तूफान क्यों आया? उस समय वह नितिन और रीना को अपनी गोद में छिपा कर खूब रोया. तब नन्ही रीना उस के आंसू पोंछती हुई बोली थी, ‘डैडी, ममा नहीं हैं तो क्या हुआ, उन की यादें तो हैं.’’

दीपेश ने बच्चों का मन रखने के लिए आंसू पोंछ डाले थे. लेकिन नीरा का चेहरा उन के हृदय पर ऐसा जम गया था कि उस को निकाल पाना उस के लिए संभव ही नहीं था. वह घर कैसा जहां खुशियां न हों, प्यार न हो, स्वप्न न हों.

दीपेश के मांपिताजी नहीं थे, सो, नीरा की मां ने आ कर उन की बिखरती गृहस्थी को फिर से समेटने का प्रयत्न किया था.

एक दिन सवेरे दीपेश का मन टटोलने के लिए मांजी ने कहा, ‘बेटा, जाने वाले के साथ जाया तो नहीं जा सकता, फिर से घर बसा लो. बच्चों को मां व तुम्हें पत्नी मिल जाएगी. आखिर मैं कब तक साथ रहूंगी.’

‘पापा, आप नई मां ले आइए. हम उन के साथ रहेंगे,’ नन्हे नितिन, जो नानी की बात सुन रहा था, ने भोलेपन से कहा और उस की बात का समर्थन रीना ने भी कर दिया.

दीपेश सोच नहीं पा रहे थे कि बच्चे अपने मन से कह रहे हैं या मांजी ने उन के नन्हे मन में नई मां की चाह भर दी है. वह जानता था कि नीरा की यादों को वह अपने हृदय से कभी हटा नहीं सकता. फिर क्यों दूसरा विवाह कर वह उस लड़की के साथ अन्याय करे जो उस के साथ तरहतरह के स्वप्न संजोए इस घर में प्रवेश करेगी.

2 महीने बाद जाते हुए जब मांजी ने दोबारा दीपेश के सामने अपना सु झाव रखा तो वह एकाएक मना न कर सका. शायद इस की वजह यह थी कि रीना को अपनी नानी के साथ काम करते देख कर उस का मन बेहद आहत हो जाता था. कुछ ही दिनों में रीना बेहद बड़ी लगने लगी थी. उस की चंचलता कहीं खो गईर् थी. यही हाल नितिन का भी था. जो नितिन अपनी मां को इधरउधर दौड़ाए बिना खाना नहीं खाता था वही अब जो भी मिलता, बिना नानुकुर के खा लेता था.

बच्चों का परिवर्तित स्वभाव दीपेश को मन ही मन खाए जा रहा था. सो, मांजी के प्रस्ताव पर जब उन्होंने अपने मन की चिंता बताई तो वे बोली थीं, ‘बेटा, यह सच है कि तुम नीरा को भूल नहीं पाओगे. नीरा तुम्हारी पत्नी थी तो मेरी बेटी भी थी. जाने वाले के साथ जाया तो नहीं जा सकता और न किसी के जाने से जीवन ही समाप्त हो जाता.’

दीपेश को मौन पा कर मांजी फिर बोलीं, ‘तुम कहो तो नंदिता से तुम्हारी बात चलाऊं. तुम तो जानते ही हो, नंदिता नीरा की मौसेरी बहन है. उस के पति का देहांत एक कार दुर्घटना में हो गया था. वह भी तुम्हारे समान ही अकेली है तथा स्त्री होने के साथसाथ एक बेटी अर्चना की मां होने के नाते वह तुम से भी ज्यादा मजबूर और बेसहारा है.’

मांजी की इच्छानुसार दीपेश ने घर बसा लिया था लेकिन फिर भी न जाने क्यों जिस घर पर कभी नीरा का एकाधिकार था उसी घर पर नंदिता का अधिकार होना वह सह नहीं पा रहा था.

नंदिता ने दीपेश को तो स्वीकार कर लिया लेकिन बच्चों को स्वीकार नहीं कर पा रही थी. वैसे, दीपेश भी क्या उस समय अर्चना को पिता का प्यार दे पाए थे. घर में एक अजीब सा असमंजस, अविश्वास की स्थिति पैदा हो गई थी. वह अपनी बच्ची को ले कर ज्यादा ही भावुक हो उठती थी.

नंदिता को लगता था, उस की बेटी को कोई प्यार नहीं करता है. घर में अशांति, अविश्वास, तनाव और खिंचाव देख कर बस एक बात उन के दिमाग को मथती रहती थी कि वास्तुशास्त्र के नियमों का पालन कर बनाया यह घर प्रेम, ममता और अपनत्व का स्रोत क्यों नहीं बन पाया? आंतरिक और बाहरी शक्तियों में समरसता स्थापित क्यों नहीं हो पा रही है? क्यों उन की शक्तियां क्षीण हो रही हैं? उन में क्या कमी है? अपनी आंतरिक और बाहरी शक्तियों को निर्देशित कर उन में संतुलन स्थापित कर क्यों वे न स्वयं खुद रह पा रहे हैं और न दूसरों को खुश रख पा रहे हैं?

नई मां की अपने प्रति बेरुखी देख कर रीना और नितिन अपने में सिमट गए थे. लेकिन बड़ी होती अर्चना ने दिलों की दूरी को पाट दिया था. वह मां के बजाय रीना के हाथ से खाना खाना चाहती, उसी के साथसाथ सोना चाहती, उसी के साथ खेलना चाहती. रीना और नितिन की आंखों में अपने लिए प्यार और सम्मान देख कर नंदिता में भी परिवर्तन आने लगा था. बच्चों के निर्मल स्वभाव ने उस का दिल जीत लिया था या अर्चना को रीना और नितिन के साथ सहज, स्वाभाविक रूप में खेलता देख उस के मन का डर समाप्त हो गया था.

एक बार दीपेश को लगा था कि उन  के घर पर छाई दुखों की छाया हटने लगी है. रीना कालेज में आ गई थी तथा नितिन और अर्चना भी अपनीअपनी कक्षा में प्रथम आ रहे थे. तभी एक दिन नंदिता ऐसी सोई कि फिर उठ ही न सकी. पहले 2 बच्चे थे, अब 3 बच्चों की जिम्मेदारी थी. लेकिन फर्क इतना था कि पहले बच्चे छोटे थे, अब बड़े हो गए थे और अपनी देखभाल स्वयं कर सकते थे व अपना बुराभला सोच और सम झ सकते थे.

रीना ने घर का बोझ उठा लिया. अब दीपेश भी रीना के साथ रसोई तथा अन्य कामों में हाथ बंटाते तथा नितिन और अर्चना को भी अपनाअपना काम करने के लिए प्रेरित करते. घर की गाड़ी एक बार चल निकली थी, लेकिन इस बार के आघात ने उन्हें इतना एहसास करा दिया था कि दुखसुख के बीच में हिम्मत न हारना ही व्यक्ति की सब से बड़ी जीत है. वक्त किसी के लिए नहीं रुकता. जो वक्त के साथ चलता है वही जीवन के संग्राम में विजयी होता है.

इस एहसास और भावना ने दीपेश के अंदर के अवसाद को समाप्त कर दिया था. अब वे औफिस के बाद का सारा समय बच्चों के साथ बिताते या नीरा द्वारा बनाए बगीचे की साजसंभाल करते तथा उस से बचे समय में अपनी भावनाओं को कोरे कागज पर उकेरते. कभी वे गीत बन कर प्रकट होतीं तो कभी कहानी बन कर.

शीघ्र ही उन की रचनाएं प्रतिष्ठित पत्रपत्रिकाओं में स्थान पाने लगी थीं. उन के जीवन को राह मिल गई थी. समय पर बच्चों के विवाह हो गए और वे अपनेअपने घरसंसार में रम गए. उन की लेखनी में अब परिपक्वता आ गई थी.

 

मेघमल्हार: भाग 1- अभय की शादीशुदा जिंदगी में किसने मचाई खलबली

उस का नाम मेघा न हो कर मल्हार होता तो शायद मेरे जीवन में बादलों की गड़गड़ाहट के बजाय मेघमल्हार की मधुर तरंगें हिलोरें ले रही होतीं. परंतु ऐसा नहीं हुआ था. वह काले घने मेघों की तरह मेरे जीवन में आई थी और कुछ ही पलों में अपनी गड़गड़ाहट से मुझे डराती और मेरे मन के उजालों को निगलती हुई अचानक चली गई.

मेघा मेरे जीवन में तब आई जब मैं अधेड़ावस्था की ओर अग्रसर हो रहा था. मेरी और उस की उम्र में कोई बहुत ज्यादा अंतर नहीं था. मैं 30 के पार था और वह 20-22 के बीच की निहायत खूबसूरत लड़की. वह कुंआरी थी और मैं एक शादीशुदा व्यक्ति. उस से लगभग 10 साल बड़ा, परंतु उस ने मेरी उम्र नहीं, मुझ से प्यार किया था और मुझे इस बात का गर्व था कि एक कमसिन लड़की मेरे प्यार में गिरफ्तार है और वह दिलोजान से मुझ से प्यार करती है और मैं भी उसे उसी शिद्दत से प्यार करता हूं.

मेरे साथ रहते हुए उस ने मुझ से कभी कुछ नहीं मांगा. मैं ही अपनी तरफ से उसे कभी कपड़े, कभी कौस्मैटिक्स या ऐसी ही रोजमर्रा की जरूरत की चीजें खरीद कर दे दिया करता था. हां, रेस्तरां में जा कर पिज्जा, बर्गर खाने का उसे बहुत शौक था. मैं अकसर उसे मैक्डोनल्ड्स या डोमिनोज में ले जाया करता था. उसे मेरे साथ बाहर जानेआने में कोई संकोच नहीं होता था. उस के व्यवहार में एक खिलंदरापन होता था. बाहर भी वह मुझे अपना हमउम्र ही समझती थी और उसी तरह का व्यवहार करती थी. भीड़ के बीच में कभीकभी मुझे लज्जा का अनुभव होता, परंतु उसे कभी नहीं. ग्लानि या लज्जा नाम के शब्द उस के जीवन से गायब थे.

वह असम की रहने वाली थी और अपने मांबाप से दूर मेरे शहर में पढ़ाई के लिए आई थी. होस्टल में न रह कर वह किराए का मकान तलाश कर रही थी और इसी सिलसिले में वह मेरे मकान पर आई थी. अपने घर में मैं अपनी पत्नी और एक छोटे बच्चे के साथ रहता था. उसे किराए पर एक कमरे की आवश्यकता थी. हमारा अपना मकान था, परंतु हम ने कभी किराएदार रखने के बारे में नहीं सोचा था. हमें किराएदार की आवश्यकता भी नहीं थी, परंतु मेघा इतनी प्यारी और मीठीमीठी बातें करने वाली लड़की थी कि कुछ ही पलों में उस ने मेरी पत्नी को मोहित कर लिया और न न करते हुए भी हम ने उसे एक कमरा किराए पर देने के लिए हां कर दी. वह मेरे घर में पेइंगगेस्ट की हैसियत से रहने लगी. एक घर में रहते हुए हमारी बातें होतीं, कभी एकांत में, कभी सब के सामने और पता नहीं वह कौन सा क्षण था, जब उस की भोली सूरत मेरे दिल में समा गई और उस की मीठी बातोें में मुझे रस आने लगा. मैं उस के इर्दगिर्द एक मवाली लड़के की तरह मंडराने लगा. पत्नी को तो आभास नहीं हुआ, परंतु वह मेरे मनोभावों को ताड़ गई कि मैं उसे किस नजर से देख रहा था.

यह सच भी है कि लड़कियां पुरुषों के मनोभाव को बहुत जल्दी पहचान जाती हैं. उस ने एक दिन बेबाकी से पूछा, ‘‘आप मुझे पसंद करते हैं?’’

‘‘हां, क्यों नहीं, तुम एक बहुत प्यारी लड़की हो,’’ मैं ने बिना किसी हिचक के कहा.

‘‘तुम एक पुरुष की दृष्टि से मुझे पसंद करते हो न?’’ उस ने जोर दे कर पूछा.

मैं सकपका गया. उस की आंखों में तेज था. मैं न नहीं कह सका. मेरे मुंह से निकला, ‘‘हां, मैं तुम्हें प्यार करता हूं,’’ मैं सच को कहां तक छिपा सकता था.

‘‘आप का घर बिखर जाएगा,’’ उस ने मुझे सचेत किया. मैं चुप रह गया. वह सच कह रही थी. परंतु प्यार अंधा होता है. मैं उस के प्रति अपने झुकाव को रोक नहीं सका. वह भी अपने को रोकना नहीं चाहती थी. उस के अंदर आग थी और वह उसे बुझाना चाहती थी. वह मुझ से प्यार न करती तो किसी और से कर लेती. लड़कियां जब घर से बाहर कदम रखती हैं तो उन के लिए लड़कों की कोई कमी नहीं होती.

हम दोनों जल्द ही एक अनैतिक संबंध में बंध गए. हमें इस बात की भी कोई परवा नहीं थी कि हम एक ही घर में रह रहे थे, जहां मेरी पत्नी और एक छोटा बच्चा था, परंतु हम सावधानी बरतते थे और अकसर एकांत में मिलने के अवसर ढूंढ़ निकालते थे.

एक दिन वह बोली, ‘‘अभय,’’ अकेले में वह मुझे मेरे नाम से ही बुलाती थी, ‘‘हमारे संबंध ज्यादा दिनों तक किसी की नजरों से छिपे नहीं रह सकते हैं.’’

‘‘तब…?’’ मैं ने इस तरह पूछा जैसे समस्या का उस के पास समाधान था.

‘‘मुझे आप का घर छोड़ना पड़ेगा,’’ उस ने बिना हिचक के कहा.

‘‘तुम मुझे छोड़ कर चली जाओगी?’’ मैं आश्चर्यचकित रह गया.

‘‘नहीं, मैं केवल आप का घर छोड़ूंगी, आप को नहीं… मुझे आप दूसरा घर किराए पर दिलवा दो. हम लोग वहीं मिला करेंगे. हफ्ते में 1 या 2 बार… आपस में सलाह कर के.’’

‘‘मैं शायद इतनी दूरी बरदाश्त न कर सकूं,’’ मेरे दिल के ऊपर जैसे किसी ने एक भारी पत्थर रख दिया था. हवा जैसे थम सी गई थी. सांस रुकने लगी थी. प्यार में ऐसा क्यों होता है कि जब हम मिलते हैं तो हर चीज आसान लगती है और जब बिछड़ते हैं तो हर चीज बेगानी हो जाती है. समय भारी लगने लगता है.

उस का स्वर सधा हुआ था, ‘‘अगर आप चाहते हैं कि हमारे संबंध इसी तरह बरकरार रहें तो इतनी दूरी हमें बरदाश्त करनी ही पड़ेगी. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा.’’

वह अपने इरादे पर दृढ़ थी और मैं उस के सामने पिटा हुआ मोहरा…पत्नी को उस ने उलटीसीधी बातों से मना लिया और वह इस प्रकार अपने कालेज के पास एक नए घर में रहने के लिए आ गई. मैं ने अपना परिचय वहां उस के स्थानीय गार्जियन के तौर पर दिया था. इस प्रकार मुझे उस के घर आनेजाने में कोई दिक्कत पेश नहीं आती थी. किसी को शक भी नहीं होता था.

परंतु अलग घर में रहने के कारण मैं मेघा से रोज नहीं मिल पाता था. औफिस की व्यस्तताएं अलग थीं. फिर घर की जिम्मेदारियां थीं. मैं दोनों से विमुख नहीं होना चाहता था, परंतु मेघा का आकर्षण अलग था. मैं उस के हालचाल जानने के बहाने छुट्टी में उस से मिलने चला जाता था. परंतु हर रविवार जाने से पत्नी को शक भी हो सकता था. कई बार तो वह भी साथ चलने को तैयार हो जाती थी. एकाध बार उसे ले कर भी जाना पड़ा था. तब मैं मन मसोस कर रह जाता था.

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