Story Telling 2025 : कुछ खट्टा कुछ मीठा

Story Telling 2025 : फोनकी घंटी लगातार बज रही थी. सब्जी के पकने से पहले ही उस ने तुरंत आंच बंद कर दी और मन ही मन सोचा कि इस समय किस का फोन हो सकता है. रिसीवर उठा कर कहा, ‘‘हैलो.’’

‘‘हैलो ममा,’’ उधर मिनी थी.

मिनी का इस समय फोन? सोच उस ने पूछा, ‘‘तू अभी तक औफिस नहीं गई?’’

‘‘बस जा रही हूं. सोचा जाने से पहले आप को फोन कर लूं,’’ मिनी का उत्तर था.

‘‘कोई खास बात?’’ उस ने जानना चाहा.

‘‘नहीं, वैसे ही. आप ठीक हैं न?’’ मिनी ने पूछा.

‘‘लो, मुझे क्या हुआ है? भलीचंगी हूं,’’ उस ने हैरान हो कर कहा.

‘‘आप ने फोन देर से उठाया न, इसलिए पूछ रही हूं,’’ मिनी बोली.

‘‘मैं किचन में काम कर रही थी,’’ उस ने कहा.

‘‘और सुनाइए कैसा चल रहा है?’’ मिनी ने बात बढ़ाई.

‘‘सब ठीक है,’’ उस ने उत्तर दिया, पर मन ही मन सोच रही थी कि मिनी को क्या हो गया है. एक तो सुबहसुबह औफिस टाइम पर फोन और उस पर इतने इतमीनान से बात कर रही है. कुछ बात तो जरूर है.

‘‘ममा, पापा का अभी फोन आया था,’’ मिनी बोली.

‘‘पापा का फोन? पर क्यों?’’ सुन कर वह हैरान थी.

‘‘कह रहे थे मैं आप से बात कर लूं. 3-4 दिन से आप का मूड कुछ उखड़ाउखड़ा है,’’ मिनी ने संकोच से कहा.

अच्छा तो यह बात है, उस ने मन ही मन सोचा और फिर बोली, ‘‘कुछ नहीं, बस थोड़ा थक जाती हूं. अच्छा तू अब औफिस जा वरना लेट हो जाएगी.’’

‘‘आप अपना ध्यान रखा करो,’’ कह कर मिनी ने फोन काट दिया.

वह सब समझ गई . पिछले हफ्ते की बात है. वीर टीवी देख रहे थे. उस ने कहा, ‘‘आज दोपहर को आनंदजी के घर चोरी हो गई है.’’

‘‘अच्छा.’’

‘‘आनंदजी की पत्नी बस मार्केट तक ही गई थीं. घंटे भर बाद आ कर देखा तो सारा घर अस्तव्यस्त था. चोर शायद पिछली दीवार फांद कर आए थे. आप सुन रहे हैं न?’’ उस ने टीवी की आवाज कम करते हुए पूछा.

‘‘हांहां सब सुन रहा हूं. आनंदजी के घर चोरी हो गई है. चोर सारा घर अस्तव्यस्त कर गए हैं. वे बाहर की दीवार फांद कर आए थे वगैरहवगैरह. तुम औरतें बात को कितना खींचती हैं… खत्म ही नहीं करतीं,’’ कहते हुए उन्होंने टीवी की आवाज फिर ऊंची कर दी.

सुन कर वह हक्कीबक्की रह गई. दिनदहाड़े कालोनी में चोरी हो जाना क्या छोटीमोटी है? फिर आदमी क्या कम बोलते हैं? वह मन ही मन बड़बड़ा रही थी.

उस दिन से उस के भी तेवर बदल गए. अब वह हर बात का उत्तर हां या न में देती. सिर्फ मतलब की बात करती. एक तरह से अबोला ही चल रहा था. तभी वीर ने मिनी को फोन किया था. उस का मन फिर अशांत हो गया, ‘जब अपना मन होता तो घंटों बात करेंगे और न हो तो जरूरी बात पूछने पर भी खीज उठेंगे. बोलो तो बुरे न बोलो तो बुरे यह कोई बात हुई. पहले बच्चे पास थे तो उन में व्यस्त रहती थी. उन से बात कर के हलकी हो जाती थी, पर अब…अब,’ सोचसोच कर मन भड़क रहा था.

उसे याद आया. इसी तरह ठीक इसी तरह एक दिन रात को लेटते समय उस ने कहा,  ‘‘आज मंजू का फोन आया था, कह रही थी…’’

‘‘अरे भई सोने दो. सुबह उठ कर बात करेंगे,’’ कह कर वीर ने करवट बदल ली.

बहुत बुरा लगा कि अपने घर में ही बात करने के लिए समय तय करना पड़ता है, पर चुपचाप पड़ी रही. सुबह वाक पर मंजू मिल गई. उस ने तपाक से मुबारकबाद दी.

‘‘किस बात की मुबारकबाद दी जा रही है. कोई हमें भी तो बताए,’’ वीर ने पूछा.

‘’पिंकू का मैडिकल में चयन हो गया है. मैं ने फोन किया तो था,’’ मंजू तुरंत बोली.

‘‘पिंकू के दाखिले की बात मुझे क्यों नहीं बताई?’’ घर आ कर उन्होंने पूछा.

‘‘रात आप को बता रही थी पर आप…’’

उस की बात को बीच ही में काट कर वीर बोल उठे,  ‘‘चलो कोई बात नही. शाम को उन के घर जा कर बधाई दे आएंगे,’’ आवाज में मिसरी घुली थी.

शाम को मंजू के घर जाने के लिए तैयार हो रही थी. एकाएक याद आया कुछ दिन पहले शैलेंद्र की शादी की वर्षगांठ थी.

‘‘जल्दी से तैयार हो जाओ, हम हमेशा लेट हो जाते हैं,’’ वीर ने आदेश दिया था.

‘‘मैं तो तैयार हूं.’’

‘‘क्या कहा? तुम यह ड्रैस पहन कर जाओगी…और कोई अच्छी ड्रैस नहीं है तुम्हारे पास? अच्छे कपड़े नहीं हैं तो नए सिलवा लो,’’ वीर की प्रतिक्रिया थी.

उस ने तुरंत उन की पसंद की साड़ी निकाल कर पहन ली.

‘‘हां? अब बनी न बात,’’ आंखों में प्रशंसा के भाव थे.

अपनी तारीफ सुनना कौन नहीं चाहता. इसीलिए  तो भी उस दिन उस ने 2-3 साडि़यां निकाल कर पूछ लिया, ‘‘इन में से कौन सी पहनूं?’’

‘‘कोई भी पहन लो. मुझ से क्यों पूछती हो?’’ वीर ने रूखे स्वर में उत्तर दिया.

कहते हैं मन पर काबू रखना चाहिए, पर वह क्या करे? यादें थीं कि थमने का नाम ही नहीं ले रही थीं. उस पर मिनी के फोन ने आग में घी का काम किया था. कड़ी से कड़ी जुड़ती जा रही थी. मंजू और वह एक दिन घूमने गईं. रास्ते में मंजू शगुन के लिफाफे खरीदने लगी. उस ने भी एक पैकेट ले लिया. सोचा 1-2 ले जाऊंगी तो वीर बोलेंगे कि जब खरीदने ही लगी थी तो पूरा पैकेट ले लेती.

उस के हाथ में पैकेट देखते ही वीर पूछ बैठे, ‘‘कितने में दिया.’’

‘‘30 में.’’

इतना महंगा? पूरा पैकेट लेने की क्या जरूरत थी? 1-2 ले लेती. कलपरसों हम मेन मार्केट जाने वाले हैं.’’

सुनते ही याद आया. ठीक इसी तरह एक दिन वह लक्स की एक टिक्की ले रही थी.

‘‘बस 1?’’ वीर ने टोका.

‘‘हां, बाकी मेन मार्केट से ले आएंगे,’’ वह बोली.

‘‘तुम क्यों हर वक्त पैसों के बारे में सोचती रहती हो. पूरा पैकेट ले लो. मेन मार्केट पता नहीं कब जाना हो,’’ उन का जवाब था.

वह समझ नही पा रही थी कि वह कहां गलत है और कहां सही या क्या वह हमेशा ही गलत होती है. यादों की सिलसिला बाकायदा चालू था. आज उस पर नैगेटिव विचार हावी होते जा रहे थे. पिछली बार मायके जाने पर भाभी ने पनीर के गरमगरम परांठे बना कर खिलाए थे. वीर तारीफों के पुल बांधे जा रहे थे. सुनसुन कर वह ईर्ष्या से जली जा रही थी. परांठे वाकई स्वादिष्ठ थे. पर जो भी हो, कोई भी औरत अपने पति के मुुंह से किसी दूसरी औरत की प्रशंसा नहीं सुन सकती. फिर यहां तो मामला ननदभाभी का था. उस ने भी घर आ कर खूब मिर्चमसाला डाल कर खस्ताखस्ता परांठे बना डाले. पर यह क्या पहला टुकड़ा मुंह में डालते ही वीर बोल उठे,  ‘‘अरे भई, कमाल करती हो? इतना स्पाइसी… उस पर लगता है घी भी थोक में लगाया है.’’

सुन कर वह जलभुन गई. दूसरे बनाएं तो क्रिस्पी, वह बनाए तो स्पाइसी…पर कर क्या सकती थी. मन मार कर रह गई. कहते हैं न कि एक चुप सौ सुख.

मन का भटकाव कम ही नहीं हो रहा था. याद आया. उस के 2-4 दिन इधरउधर होने पर जनाब उदास हो जाते थे. बातबात में अपनी तनहाई का एहसास दिलाते, पर पिछली बार मां के बीमार होने पर 15 दिनों के लिए जाना पड़ा. आ कर उस ने रोमांचित होते हुए पूछा, ‘‘रात को बड़ा अकेलापन लगता होगा?’’

‘‘अकेलापन कैसा? टीवी देखतेदेखते कब नींद आ जाती थी, पता ही नहीं चलता था.’’

वाह रे मैन ईगो सोचसोच कर माथा भन्ना उठा सिर भी भारी हो गया. अब चाय की ललक उठ रही थी. फ्रिज में देखा, दूध बहुत कम था. अत: चाय पी कर घड़ी पर निगाह डाली, वीर लंच पर आने में समय था. पर दुकान पर पहुंची ही थी कि फोन बज उठा, ‘‘इतनी दोपहर में कहां चली गई हो? मैं घर के बाहर खड़ा हूं. मेरे पास चाबी भी नहीं है,’’ वीर एक ही सांस में सब बोल गए. आवाज से चिंता झलक रही थी.

‘‘घर में दूध नहीं था. दूध लेने आई हूं.’’

‘‘इतनी भरी दोपहर में? मुझे फोन कर दिया होता, मैं लेता आता.’’

उस के मन में आया कह दे कि फोन करने पर पैसे नहीं कटते क्या? पर नहीं जबान को लगाम लगाई .

‘‘ बोली सोचा सैर भी हो जाएगी.’’

‘‘इतनी गरमी में सैर?’’ बड़े ही कोमल स्वर में उत्तर आया.

आवाज का रूखापन पता नहीं कहां गायब हो गया था. मन के एक कोने से आवाज आई कह दे कि मार्च ही तो चल रहा है. कौन सी आग बरस रही है पर नहीं बिलकुल नहीं दिमाग बोला रबड़ को उतना ही खींचना चाहिए जिस से वह टूटे नहीं.

रहना तो एक ही छत के नीचे है न. वैसे भी अब यह सब सुनने की आदत सी हो गई है. फिर इन छोटीछोटी बातों को तूल देने की क्या जरूरत है? उस ने अपने उबलते हुए मन को समझाया और चुपचाप सुनती रही.

‘‘तुम सुन रही हो न मैं क्या कह रहा हूं?’’

‘‘हां सुन रही हूं.’’

‘‘ठीक है, तुम वहीं ठहरो. मैं गाड़ी ले कर आता हूं. सैर शाम को कर लेंगे,’’ शहद घुली आवाज में उत्तर आया.

‘‘ठीक है,’’ उस ने मुसकरा कर कहा.

‘‘इतनी मिठास. इतने मीठे की तो वह आदी नहीं है. नहीं, ज्यादा मीठा सेहत के लिए अच्छा नहीं होता, यह सोच कर वह स्वयं ही खिलखिला कर हंस पड़ी मन का सारा बोझ उतर चुका था. वह पूरी तरह हलकी हो चुकी थी.

Hindi Short Story 2025 : सुख की पहचान

Hindi Short Story 2025 : “सुनते हो, आज एटीएम से ₹10 हजार निकाल कर ले आना. राशन नहीं है घर में,” किचन से चिल्ला कर बिंदु ने अपने पति सतीश से कहा.

सतीश बाथरूम से निकलते हुए झुंझलाए स्वर में बोला,” फिर से रुपए? अभी 10 दिन पहले ही तो ₹12 हजार निकाल कर लाए थे.”

“तुम क्या सोचते हो मैं ने सारे पैसे उड़ा दिए ? खर्चे कम हैं क्या तुम्हारे घर के? बेटे के ट्यूशन में ₹ 2 हजार चले गए. दूधवाले के ₹ 2 हजार, डाक्टर की फीस में ₹ 12 सौ. तुम ने भी तो ₹4 हजार लिए थे मुझ से, सेठ का उधार चुकाने को. इस तरह के दूसरे छोटेमोटे खर्च में ही ₹ 10 हजार तक खर्च हो गए. बाकी बचे रुपए फलसब्जी आदि में लग गए.”

“देखो बिंदु मैं हिसाब नहीं मांग रहा. मगर तुम्हें हाथ दबा कर खर्च करना होगा. मैं कोई हर महीने लाख दो लाख सैलरी पाने वाला बंदा तो हूं नहीं. मकान किराए पर चढ़ाने का व्यवसाय है मेरा जो आजकल मंदा चल रहा है. ”

“तुम बताओ कौन सा खर्च रोकूं? घर के खर्चे, राशन, दूध, बिजली, पानी, सब्जी, बच्चे की पढ़ाई… इन सब में तो खर्च होने जरूरी हैं न. फिर हर महीने कुछ न कुछ ऐक्स्ट्रा खर्च भी आते ही रहते हैं. उस पर तुम ₹3-4 हजार तक की शराब भी गटक जाते हो.”

“तो क्या शराब मैं अकेला पीता हूं? तुम भी पीती ही हो न,” सतीश ने चिढ़ कर कहा.

“मैं कभीकभार तुम्हारा साथ देने को पीती हूं. पर तुम पीने के लिए जीते हो. खाना नहीं बना तो चलेगा पर शराब जरूर होनी चाहिए. फ्रिज में दूध नहीं तो चलेगा मगर अलमीरा में दारू की बोतल न हो तो हंगामा कर दोगे.”

“तुम केवल दिमाग खराब करती रहती हो मेरा… मैं ले आऊंगा रुपए,” कह कर सतीश भुनभुनाते हुए बाहर निकल गया.

ऐसे झगड़े बिंदु और सतीश के जीवन में रोज की कहानी है. मध्यवर्गीय परिवार में वैसे भी पैसों की किचकिच हमेशा चलती ही रहती है.
सतीश शराब में भी काफी रुपए फेंकता है. हजारों रुपयों की शराब तो वह बिंदु की नजर में आए बिना ही गटक जाता है. वैसे और कोई ऐब नहीं है सतीश में. मेहनत से अपना काम करता है. यारदोस्तों के सुखदुख में शरीक होने की पूरी कोशिश करता है. कभी मन खुश हो या बिजनैस अच्छा चल निकले तो बीवीबच्चे के लिए नए कपड़े और तोहफे भी खरीद कर लाता है. बस शराब के आगे बेबस हो जाता है. शराब सामने हो तो फिर उसे कुछ भी नहीं दिखता.

इस बीच देश में कोरोना के बढ़ते मामलों की वजह से लौकडाउन हो गया. सतीश को शराब खरीद कर जमा करने का मौका ही नहीं मिला. शराब की जो बोतलें अलमीरा में छिपा कर रखी थीं उन के सहारे 20- 25 दिन तो निकल गए. मगर फिर सतीश को शराब की तलब लगने लगी. शराब के बिना उस का कहीं मन नहीं लगता. वैसे भी रोजगार ठप्प पड़ गया था. प्रौपर्टी बिजनैस शून्य था. उस के पास मकान और औफिस तो था पर नकदी की कमी थी. पैसे आ नहीं रहे थे. बैंक से निकाल कर किसी तरह घर का खर्च चल रहा था. तीसरे लौकडाउन के दौरान शराब बिकने की शुरुआत हुई तो सतीश खुश हो उठा. पहले दिन तो 2-3 घंटे लाइन में लग कर उस ने अपने पास बचे रूपयों से 4-6 बोतल शराब खरीद ली. शराब के चक्कर में उसे पुलिस की लाठियां भी खानी पड़ीं. हजारों की भीड़ थी उस दिन.

अगले दिन भी वह शराब लेना चाहता था. सतीश के मन में खौफ था कि ठेके फिर से बंद न हो जाएं. इसलिए उस ने शराब स्टौक में रखने की सोची. रुपए पास में थे नहीं. बैंक अकाउंट में भी ₹ 10- 12 हजार से अधिक नहीं था. इतने रुपए तो घर के राशन के लिए जरूरी था.

सतीश अपनी बीवी के पास पहुंचा और प्यार से बोला, “यार बिंदु मुझे शराब खरीदनी है. तूने कुछ रुपए बचाए हैं तो दे दो या फिर अपने गहने…”

गहनों का नाम सुनते ही बिंदु फुफकार उठी,” खबरदार जो गहनों का नाम भी लिया. तुम ने नहीं बनवाए हैं. मेरी मां के दिए गहने हैं और इन्हें दारू खरीदने के लिए नहीं दे सकती. जाओ गटर में जा कर लोटो या शराबी दोस्तों से भीख मांगो. मगर मेरे गहनों की तरफ देखना भी मत.”

बिंदु की बात सुन कर सतीश को भी गुस्सा आ गया. उस ने बिंदु के बाल पकड़ कर खींचते हुए कहा,” कलमुंही मैं ने प्यार से बोला कि कुछ रुपए या जेवर दे दे, तो तुम्हारे भेजे में आग लग गई.”

“आग तो मैं तुम्हारे कलेजे में लगाती हूं. ठहरो… कहती हुई बिंदु गई और एक बड़ी लाठी उठा लाई,” खबरदार मेरे गहनों या पैसों को हाथ लगाया तो हाथ तोड़ दूंगी.”

“तू हाथ तोड़ेगी मेरा? ठहर अभी दिखाता हूं मैं,” सतीश ने लाठी छीन कर उसी को जमा दी.

वह अपना आपा खो चुका था. चीखता हुआ उल्टीसीधी बातें बोलने लगा,” तू नहीं दे सकती तो जा अपने यार से ले कर आ पैसे.”

“यार ? कौन सा यार पाल रखा है मैं ने? बददिमाग कहीं का. घिन नहीं आती तुझे ऐसी बातें बोलते हुए?”

“हां सतीसावित्री तो बनना मत. सारे कारनामे जानता हूं मैं. किस के लिए सजधज कर निकलती है. उसी की दुकान पर जाती है रोज मरने.”

बिंदु होश खो बैठी. दहाड़ती हुई उठी और सतीश की गरदन पकड़ कर चीखी,” एक शब्द भी तू ने मुंह से निकाला तो अभी टेंटुआ दबा दूंगी. फिर लगाते रहना इल्जाम मुझ पर.”

सतीश ने आव देखा न ताव और लाठी बिंदु के सिर पर दे मारी. वह दर्द से बिलबिलाती हुई गिर पड़ी तो सतीश ने जल्दी से अलमारी में से गहने निकाले. सामने 7 साल का पिंकू सहमा खड़ा मम्मीपापा की लड़ाई देख रहा था. सतीश ने दरवाजा भिड़ाया और तेजी से बाहर निकल आया.

10 मिनट सामने की पुलिया पर बैठा रहा. फिर सोचना शुरू किया कि अब गहने किस के पास गिरवी रखे जाएं. उसे अपने दोस्त श्यामलाल का ख्याल आया. मन में सोचा कि चलो आज उसी से रुपए मांगे जाएं.

सतीश श्यामलाल के घर के दरवाजे पर पहुंचा और दस्तक दी तो अंदर से उस की बीवी की आवाज आई,” हां जी भाईसाहब, बोलिए क्या काम है?”

“भाभी जरा श्याम को भेजना. उस से कुछ काम था.”
“माफ कीजिएगा. कोरोना के डर से वे आजकल कहीं नहीं निकलते. वैसे भी अभी तो वे सो रहे हैं. उन की तबीयत ठीक नहीं.”

“अच्छा”, कह कर सतीश ने कदम पीछे कर लिए. श्यामलाल के अलावा सुदेश से भी उस की अच्छी पटती थी. वह सुदेश के घर पहुंचा. सुदेश ने दरवाजे से ही उसे यह कह कर टरका दिया कि अभी खुद पैसों की तंगी है. कोविड-19 के इस बदहाल समय में जेवर ले कर पैसे नहीं दे सकता.

1-2 और लोगों के पास भी सतीश ने जा कर गुहार लगाई. मगर किसी ने उसे घर में घुसने भी नहीं दिया. सब ने अपनेअपने बहाने बना दिए. साथ ही सब ने उस पर यह तोहमत भी लगाई कि तू कैसा आदमी है जो ऐसे समय में पत्नी के जेवर बेचने निकला है?

सतीश के पास अब एक ही रास्ता था कि वह किसी ज्वैलर से ही संपर्क करे. उस ने ज्वैलरी की दुकान के आगे लिखे नंबर पर फोन किया. उसे उम्मीद थी कि अब काम बन जाएगा. सामने से किसी ने फोन उठाया तो सतीश ने कहा,” सर जी, मुझे गहने बेचने हैं.”

“क्यों ऐसी क्या समस्या है जो पत्नी के गहने बेच रहे हो? कौन हो तुम?”

“सर जी मुसीबत में हूं. रुपए चाहिए. इसलिए बेचना चाहता हूं.”

“सारी मुसीबतें जानता हूं मैं तुम लोगों के. जरूर दारू खरीदनी होगी तभी पैसे चाहिए. सरकार ने भी जाने क्यों ठेके खोल दिए. पैसे नहीं तो भी दारू पीनी इतनी जरूरी है.”

“हां जी जरूरी है और फ्री में रुपए देने नहीं कह रहा. गहने लो और पैसे दो,” सतीश भी भड़क उठा.

“समझा क्या है तू ने बेवकूफ? पूरा देश कोविड-19 से लड़ रहा है और तुझे अपनी तलब बुझानी है. जिंदगी में कुछ अच्छे काम भी करने चाहिए. कभी देख गरीबों के बच्चों को. 2 रोटी के लिए तरस रहे हैं. दूसरों का भला करने के लिए रुपए मांगता तो तुरंत दे देता पर तुझे तो…”

सतीश ने फोन काट दिया. इतना उपदेश सुनने के मूड में नहीं था वह. हताश हो कर वापस घर की तरफ लौट चला. कदम आगे नहीं बढ़ रहे थे. अपनी बेचारगी पर गुस्सा आ रहा था. इस महामारी ने जिंदगी बदल दी थी उस की.

वह घर पहुंचा तो देखा कि दरवाजा खुला हुआ है. अंदर बेटा एक कोने में बैठा रो रहा है और बिस्तर पर बिंदु बेसुध पड़ी है. उस के हाथों में नींद की गोलियों की डब्बी पड़ी थी. दोचार गोलियां इधरउधर बिखरी हुई थीं. बाकी गोलियां खा कर वह बेहोश हो गई थी.

सतीश की काटो तो खून नहीं वाली स्थिति हो गई. उस ने जल्दी से ऐंबुलैंस वाले को फोन किया. बेटे को कमरे में बंद कर खुद बिंदु को गोद में उठा कर बाहर निकल आया. बिंदु को ऐंबुलेंस में बैठा कर पास वाले अस्पताल में पहुंचा तो उसे ऐंट्री करने से भी रोक दिया गया. बताया गया कि अस्पताल कोविड-19 के लिए बुक है. सतीश ने दूसरे अस्पताल का रुख किया. वहां भी उसे रिसैप्शन से ही टरका दिया गया. बिंदु की हालत खराब होती जा रही थी. इस डर से कि कहीं बिंदु को कुछ हो न जाए वह पसीने से तरबतर हो रहा था. 3-4 अस्पतालों के चक्कर लगाने पर भी जब कोई मदद नहीं मिली तो वह हार कर वापस घर लौट आया.

बिंदु को बेड पर लिटा कर वह खुद भी बगल में लुढ़क गया. रोता हुआ पिंकू भी आ कर उस से लिपट गया. सतीश को खयाल आया कि इतनी देर से पिंकू भूखा होगा. वह किचन में गया और ब्रैड गरम कर दूध के साथ पिंकू को दे दिया. खुद भी चाय पी कर सो गया.

अगले दिन उस की नींद देर से खुली. किसी तरह पिंकू को नहला कर उसे नाश्ता कराया और खुद चायब्रैड खा कर बिंदु के बगल में आ कर बैठ गया. अचेत पड़ी बिंदु पर उसे बहुत प्यार आ रहा था.

वह पुराने दिन याद करने लगा. 2- 3 महीने पहले तक उस की जिंदगी कितनी अच्छी थी. बिंदु ने कितने सलीके से घर संभाला हुआ था. बेटे और पत्नी के साथ वह एक खूबसूरत जिंदगी जी रहा था. मगर आज बिंदु को अपनी आंखों के आगे अचेत पड़ा देख मन में तड़प उठ रही थी.

बिंदु की इस हालत का जिम्मेदार वह खुद था. दारू की लत में पड़ कर उस ने अपने सुखी संसार में आग लगा ली थी. कितना बेबस था वह. कितनी कोशिश की कि बिंदु की जान बचाई जा सके. मगर हर जगह से निराश और बेइज्जत हो कर लौटना पड़ा.

कितनी दयनीय स्थिति हो गई थी उस की. बिंदु का हाथ पकड़े हुए वह उस के सीने पर सिर रख कर सिसकसिसक कर रोने लगा.

तभी उसे लगा जैसे बिंदु के शरीर में कोई हरकत हुई है. वह एकदम से उठ बैठा और बिंदु को आवाज देने लगा. बिंदु ने किसी तरह आंखें खोलीं और पानी कह कर फिर से आंखें बंद कर लीं. सतीश दौड़ कर पानी ले आया. 1-2 घूंट पी कर बिंदु फिर सो गई. शाम तक सतीश बिंदु के बगल में यह सोच कर बैठा रहा कि शायद वह फिर से आंखें खोलेगी.

शाम 5 बजे के करीब बिंदु ने फिर से आंखें खोलीं. सतीश ने उसे तुरंत पानी पिलाया. अब वह थोड़ी बेहतर लग रही थी. सतीश उस के लिए संतरे और अनार का जूस बना लाया. बिंदु की स्थिति में और भी सुधार हुआ. वह किसी तरह उठ कर बैठ गई. पिंकू को सीने से लगा कर रोने लगी.

सतीश ने अलमीरे से दारू की बची हुई बोतलें निकालीं और बिंदु के आगे ही उन बोतलों को बाहर फेंक दिया. फिर वह बिंदु को गले लगा कर रोता हुआ बोला,” बिंदु मुझे मेरा खुशहाल परिवार चाहिए दारू नहीं,” बिंदु हौले से मुसकरा उठी.

आज सतीश को असली सुख की पहचान हो गई थी.

Emotional Story In Hindi : चौकलेट चाचा

Emotional Story In Hindi : रूपल के पति का तबादला दिल्ली हो गया था. बड़े शहर में जाने के नाम से ही वह तो खिल गई थी. नया शहर, नया घर, नए तरीके का रहनसहन. बड़ी अच्छी जगह के अपार्टमैंट में फ्लैट दिया था कंपनी ने. नीचे बहुत बड़ा एवं सुंदर पार्क था, जिस में शाम के समय ज्यादातर महिलाएं अपने बच्चों को ले कर आ जातीं. बच्चे वहीं खेल लेते और महिलाएं भी हवा व बातों का आनंद लेतीं. हरीभरी घास में रंगबिरंगे कपड़े पहने बच्चे बड़े ही अच्छे लगते. रूपल ने भी सोसाइटी के रहनसहन को जल्दी ही अपना लिया और शाम के समय अपनी डेढ़ वर्षीय बेटी को पार्क में ले कर जाने लगी. एक दिन उस ने देखा कि एक बुजुर्ग के पार्क में आते ही सभी बच्चे दौड़ कर उन के पास पहुंच गए और चौकलेट चाचा, चौकलेट चाचा कह कर उन से चौकलेट लेने लगे. सभी बच्चों को चौकलेट दे वे रूपल के पास भी आए और उस से भी बातें करने लगे. फिर रूपल व उस की बेटी को भी 1-1 चौकलेट दी. पहले तो रूपल ने झिझकते हुए चौकलेट लेने से इनकार कर दिया, किंतु जब चौकलेट चाचा ने कहा कि बच्चों के चेहरे पर खुशी देख उन्हें बहुत अच्छा लगता है, तो उस ने व उस की बेटी ने चौकलेट ले ली.

पूरे अपार्टमैंट के लोग उन्हें चौकलेट चाचा के नाम से पुकारते, इसलिए अब रूपल की बेटी भी उन्हें चौकलेट चाचा कहने लगी और उन से रोज चौकलेट लेने लगी. वह भी और बच्चों की तरह उन्हें देख कर दौड़ पड़ती. ऐसा करतेकरते 6 माह बीत गए. अब तो रूपल की अपार्टमैंट में सहेलियां भी बन गई थीं. एक दिन उस की एक सहेली ने जिस की 10 वर्षीय बेटी थी, उस से पूछा, ‘‘क्या तुम चौकलेट चाचा को जानती हो?’’

रूपल ने कहा, ‘‘हां बहुत अच्छे इंसान हैं. सारे बच्चों को बहुत प्यार करते हैं.’’ उस की सहेली ने कहा, ‘‘मैं ने सुना है कि चौकलेट के बदले लड़कियों को अपने गालों पर किस करने के लिए बोलते हैं.’’

रूपल बोली, ‘‘ऐसा तो नहीं देखा.’’

सहेली ने आगाह करते हुए कहा, ‘‘तुम थोड़ा ध्यान देना इस बार जब वे पार्क में आएं.’’

रूपल ने जवाब में ‘हां’ कह दिया. अगले ही दिन जब रूपल अपनी बेटी को ले कर पार्क गई तो उस ने देखा कि चौकलेट चाचा वहां बैठे थे. उस की बेटी दौड़ कर उन के पास गई और उन के गालों पर किस कर दिया. रूपल तो यह देखते ही सन्न रह गई. वह तो समझ ही न पाई कि कब व कैसे चौकलेट चाचा ने उस की बेटी को किस करने के लिए ट्रेंड कर दिया था. वह चौकलेट के लालच में उन्हें किस करने लगी थी. अब जब भी वह पार्क में जाती तो चौकलेट चाचा को देखते ही सतर्क हो जाती और हर बार उन्हें मना करती कि वे उस की बेटी को चौकलेट न दें. वह यह भी देखती कि चौकलेट चाचा अन्य लड़कियों को गले लगाते एवं कुछ की छाती व पीठ पर भी मौका पाते ही हाथ फिरा देते. यह सब देख उसे घबराहट होने लगी थी और वह स्तब्ध रह जाती थी कि चौकलेट चाचा कैसे सब लड़कियों को ट्रेनिंग दे रहे थे और उन की मासूमियत और अपने बुजुर्ग होने का फायदा उठा रहे थे.

उस ने अपने पति को भी यह बात बताई, तो जब कभी वह अपने पति व बेटी के साथ पार्क जाती और चौकलेट चाचा को देखती तो उस के पति यह कह देते कि उन की बेटी को डाक्टर ने चौकलेट खाने के लिए मना किया है, इसलिए वे उसे न दें. पर चौकलेट चाचा तो उसे चौकलेट दिए बिना मानते ही नहीं थे. दोनों पतिपत्नी ने उन्हें कई बार समझाया, पर वे किसी न किसी तरह उन की बेटी को चौकलेट दे ही देते. अब रूपल चौकलेट चाचा को देखते ही अपनी बेटी को उन के सामने से हटा ले जाती, लेकिन चौकलेट चाचा तो अपार्टमैंट में सब जगह घूमते और उस की बेटी को चौकलेट दे ही देते. बदले में उस की बेटी उन्हें बिना बोले ही किस कर देती. अब रूपल मन ही मन डरने लगी थी कि इस तरह तो उस की बेटी चौकलेट या किसी अन्य वस्तु के लिए किसी के भी पीछे चल देगी. और वह इतनी बड़ी भी न थी कि वह उसे समझा सके. इस तरह तो कोई भी उस की बेटी को बहलाफुसला सकता है. उस ने फैसला कर लिया कि अब वह चौकलेट चाचा को मनमानी नहीं करने देगी.

अगले दिन जब चौकलेट चाचा अपने अन्य बुजुर्ग मित्रों के साथ पार्क में आए और जैसे ही उस की बेटी को चौकलेट देने लगे, वह चीख कर बोली, ‘‘मैं आप को कितनी बार बोलूं कि आप मेरी बेटी को चौकलेट न दें.’’ इस बार चौकलेट चाचा रूपल का मूड समझ गए. उन के मित्र तो इतना सुन कर वहां से नदारद हो गए. चौकलेट चाचा भी बिना कुछ बोले वहां से खिसक लिए. किसी बुजुर्ग से इस तरह व्यवहार करना रूपल को अच्छा न लगा, इसलिए वह पार्क में अकेले ही चुपचाप बैठ गई. तभी वे सभी महिलाएं जो आसपास थीं और यह सब होते देख रही थीं, उस के पास आईं. उन में से एक बोली, ‘‘हां, तुम ने ठीक किया. हम सभी चौकलेट चाचा की इन हरकतों से बहुत परेशान हैं. ये तो लिफ्ट में आतीजाती महिलाओं को भी किसी न किसी बहाने स्पर्श करना चाहते हैं. मगर इन की उम्र का लिहाज करते हुए महिलाएं कुछ बोल नहीं पातीं.’’ उस के इतना कहने पर सब एकएक कर अपनेअपने किस्से बताने लगीं. अब रूपल को समझ में आ गया था कि चौकलेट चाचा की हरकतों को कोई भी पसंद नहीं कर रहा था, लेकिन कहते हैं न कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे, इसीलिए सभी चुप थीं.

उस दिन वह गहरी सोच में पड़ गई कि क्या यही है हमारा सभ्य समाज, जहां लोग अपनी उम्र की आड़ में या फिर लोगों द्वारा किए गए लिहाज का फायदा उठाते हुए मनमानी या यों कहिए कि बदतमीजी करते हैं? और तो और मासूम बच्चों को भी नहीं छोड़ते. अब उसे अपने किए पर कोई पछतावा न था और अपने उठाए कदम की वजह से वह अपार्टमैंट की सभी महिलाओं की अच्छी सहेली बन गई थी. उस के द्वारा की गई पहल पर सब उसे बधाइयां  दे रहे थे.

Best Short Story : मीठी छुरी

 Best Short Story : चंचला भाभी के स्वभाव में जरूरत से कुछ ज्यादा मिठास थी जो शुरू से ही मेरे गले कभी नहीं उतरी, लेकिन घर का हर सदस्य उन के इस स्वभाव का मुरीद था. वैसे भी हर कोई चाहता है कि उस के घर में गुणी, सुघड़, सब का खयाल रखने वाली और मीठे बोल बोलने वाली बहू आए. हुआ भी ऐसा ही. चंचला भाभी को पा कर मां और बाबूजी दोनों निहाल थे, बल्कि धीरेधीरे चंचला भाभी का जादू ऐसा चला कि मां और बाबूजी नवीन भैया से ज्यादा उन की पत्नी यानी चंचला भाभी को प्यार और मान देने लगे. कभी बुलंदियों को छूने का हौसला रखने वाले, प्रतिभाशाली और आकर्षक व्यक्तित्व वाले नवीन भैया अपनी ही पत्नी के सामने फीके पड़ने लगे.

मेरे  4 भाईबहनों में सब से बड़े थे मयंक भैया, फिर सुनंदा दी, उस के बाद नवीन भैया और सब से छोटी थी मैं. हम  चारों भाईबहनों में शुरू से ही नवीन भैया पढ़ने में सब से होशियार थे. इसलिए घर के लोगों को भी उन से कुछ ज्यादा ही आशाएं थीं. आशा के अनुरूप, नवीन भैया पहली बार में ही भारतीय प्रशासनिक सेवा की मुख्य लिखित परीक्षा में चुन लिए गए और उस दौरान मौखिक परीक्षा की तैयारियों में जुटे हुए थे, जब एक शादी में उन की मुलाकात चंचला भाभी से हुई.

निम्न  मध्यवर्गीय परिवार की साधारण से थोड़ी सुंदर दिखने वाली चंचला भाभी को नवीन भैया में बड़ी संभावनाएं दिखीं या वाकई प्यार हो गया, किसे मालूम, लेकिन नवीन भैया उन के प्यार के जाल में ऐसे फंसे कि उन्होंने अपना पूरा कैरियर ही दांव पर लगा दिया. उन से शादी करने की ऐसी जिद ठान ली कि उस के आगे झुक कर उन की मौखिक परीक्षा के तुरंत बाद उन की शादी चंचला भाभी से कर दी गई.

शादी के बाद भाभी ने घर वालों से बहुत जल्द अच्छा तालमेल बना लिया, लेकिन नवीन भैया को पहला झटका तब लगा जब भारतीय प्रशासनिक सेवा का फाइनल रिजल्ट आया. आईएएस तो दूर की बात उन का तो पूरी लिस्ट में कहीं नाम नहीं था. अब उन्हें अपना सपना टूटता नजर आया, वे चंचला भाभी को मांबाबूजी के सुपुर्द कर नए सिरे से अपनी पढ़ाई शुरू करने दिल्ली चले गए.

नवीन भैया भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा में 3 बार शामिल हुए. हर बार असफल रहे. भैया हतप्रभ थे. बारबार की इस असफलता ने उन के आत्मविश्वास को जड़ से हिला दिया.

जिन नौकरियों को कभी नवीन भैया ने पा कर भी ठोकर मार दी थी, अब उन्हीं को पाने के लिए लालायित रहते, कोशिश करते पर हर बार असफलता हाथ आती. जब किसी काम को  करने से पहले ही आत्मविश्वास डगमगाने लगे तो सफलता प्राप्त करना कुछ ज्यादा ही मुश्किल हो जाता है. उन के साथ यही हो रहा था.

नवीन भैया पटना लौट आए थे. यहां भी वे नौकरी की तलाश में लग गए, कहीं कुछ हो नहीं पा रहा था. बाबूजी उन का आत्मविश्वास बढ़ाने के बदले उन्हें हमेशा निकम्मा, कामचोर और न जाने क्याक्या कहते रहते.

प्रतिभाशाली लोगों को चाहने वालों की कमी नहीं होती और उन से ईर्ष्या करने वाले भी कम नहीं होते. होता यह है कि जब कोई प्रतिभाशाली व्यक्ति कामयाबी की राह नहीं पकड़ पाता तो उस के चाहने वाले उस से मुंह मोड़ने लगते हैं और ईर्ष्या करने वाले ताने कसने का कोई मौका नहीं छोड़ते.

नवीन भैया से जलने वाले रिश्तेदारों और पड़ोसियों को भी मौका मिल गया उन पर तरहतरह के व्यंग्यबाण चलाते रहने का. उन की असफलता से आहत उन के अपने भी उन्हें जबतब जलीकटी सुनाने लगे. पासपड़ोस के लोग तो अकसर उन्हें कलैक्टर बाबू कह उन के जले पर नमक छिड़कते, जिसे सुन एक बार नवीन भैया तो मरनेमारने पर उतारू हो गए थे. जब बाबूजी को इस घटना के बारे में मालूम हुआ तो वे क्रोध में अंधे हो उन्हें बेशर्म और नालायक जैसे अपशब्दों से नवाजते हुए मारने तक दौड़ पड़े थे.

पूरी तरह टूट चुके नवीन भैया देर तक ड्राइंगरूम के एक कोने में सुबकसुबक कर रोते रहे थे. उन का तो आत्मविश्वास के साथ जैसे स्वाभिमान भी खत्म हो रहा था. दूसरे ही दिन नौकरी की तलाश में जाने के लिए उन्होंने बाबूजी से ही रुपए मंगवाए थे. भाई की दुर्दशा से आहत बड़े भैया ने दूसरा कोई रास्ता न देख समझाबुझा कर उन का दाखिला ला कालेज में करवा दिया.

नवीन भैया के ऐसे कठिन समय में उन का साथ देने के बदले चंचला भाभी मां और बाबूजी के पास बैठी उन्हें कोसती रहतीं और आंसू बहाती रहतीं जिस से उन लोगों की पूरी सहानुभूति बहू के साथ होती चली गई और नवीन भैया के लिए उन के अंदर गरम लावे की तरह उबलता गुस्सा ही बचा रह गया था.

क्षणिक आवेश में लिए गए जीवन के एक गलत फैसले ने नवीन भैया को कहां से कहां पहुंचा दिया था. विपरीत परिस्थितियों के शिकार नवीन भैया के मन की स्थिति समझने के बदले जबतब उन के जन्मदाता बाबूजी ही उन के विरुद्ध कुछ न कुछ बोलते रहते. वे अपनी सारी सहानुभूति और वात्सल्य  चंचला भाभी पर न्योछावर करते और अपनी सारी नफरत नवीन भैया पर उड़ेलते.

चंचला भाभी ने अपनी मीठी जबान और सेवाभाव से सासससुर को अपने हिसाब से लट्टू की तरह नचाना शुरू कर दिया था. वे जो चाहतीं, जैसा चाहतीं, मांबाबूजी वैसा ही करते. नवीन भैया वकालत पास कर कोर्ट जाने तो लगे पर उन की वकालत ढंग से चल नहीं पा रही थी. पैसों की तंगी हमेशा बनी रहती.

इस दौरान उन के 2 लड़के भी हो गए अंश और अंकित. शुरू से ही बड़ी होशियारी से चंचला भाभी अपने दोनों बच्चों को नवीन भैया से दूर अपने अनुशासन में रखतीं. बातबात में जहर उगल कर बच्चों के मन में पिता के प्रति उन्होंने इतना जहर भर दिया था कि अपने पिता की अवज्ञा करना उन के दोनों बेटों के लिए शान की बात थी. घर के बड़े ही जब घर के किसी सदस्य की उपेक्षा करने लगते हैं तो क्या नौकर, क्या बच्चे, कोई भी उसे जलील करने से नहीं चूकता.

अंश और अंकित पूरी तरह बाबूजी के संरक्षण में पलबढ़ रहे थे पर उन का रिमोट कंट्रोल हमेशा चंचला भाभी के पास रहता. नवीन भैया तो अपने बच्चों के लिए भी कोई फैसला लेने से वंचित हो गए थे. धीरेधीरे उन के अंदर भी एक विरक्ति सी उत्पन्न होने लगी थी, अब वे देर रात तक यहांवहां घूमते रहते. घर आते बस खाने और सोने के लिए.

घर के लोग चंचला भाभी की चाहे जितनी बड़ाई करें पर मैं जब भी उन के स्वभाव का विश्लेषण करती, मुझे लगता कुछ है जो सामान्य नहीं है. चंचला भाभी की जरूरत से ज्यादा फर्ज निभाने का उत्साह मेरे मन में संशय भरता. मैं अकसर मां से कहती, ‘‘मां, ज्यादा मिठास की आदत मत डालो, कहीं तुम्हें डायबिटीज न हो जाए.’’

मेरी बातें सुनते ही बड़ों की आलोचना करने के लिए मां दस नसीहतें सुना देतीं.

यह चंचला भाभी के मीठे वचनों का ही असर था जो मयंक भैया अंश और अंकित को भी अपने तीनों बच्चों में शामिल कर अपने बच्चों की तरह पढ़ातेलिखाते और उन की सारी जरूरतों को पूरा करते. पर्वत्योहार में जैसी साड़ी भैया भाभी के लिए खरीदते वैसी ही साड़ी चंचला भाभी के लिए भी खरीदते. वैसे भी मां की मयंक भैया को सख्त हिदायत थी कि कपड़ा हो या और कोई दूसरी वस्तु, दोनों बहुओं के लिए एक समान होनी चाहिए. भैया भी मां की इस बात का मान रखते.

वैसे चंचला भाभी भी कुछ कम नहीं थीं, जबतब बड़ी भाभी के कीमती सामान पर भी मीठी छुरी चलाती रहतीं. कभी कहतीं, ‘‘हाय भाभी, कितने सुंदर कर्णफूल आप ने बनवाए हैं. इन पर तो मेरी पसंदीदा मीनाकारी है. मैं तो इन के कारण लाचार हूं, इन्होंने इतनी छोटीछोटी चीजों को भी मेरे लिए दुर्लभ बना दिया है.’’

झट बड़ी भाभी अपना बड़प्पन दिखातीं, ‘‘अरे नहीं, चंचला, इतना मायूस मत हो. तू इन्हें रख ले. मैं अपने लिए दूसरे बनवा लूंगी.’’

पहले वे मना करतीं, ‘‘नहींनहीं, भाभी, मैं भला इन्हें कैसे ले सकती हूं. ये आप ने अपने लिए बनवाए हैं.’’

बड़ी भाभी जब जिद कर उन्हें थमा ही देतीं तब बोलतीं, ‘‘मैं खुश हूं कि मुझे आप जैसी जेठानी मिलीं. भला इस दुनिया में कितने लोग हैं जिन के दिल आप के जैसे सोने के हैं. आप मुझे छोटी बहन मानती हैं तो पहन ही लूंगी.’’

चंचला भाभी की तारीफ सुन कर बड़ी भाभी फूल कर कुप्पा हो जातीं.

सुनंदा दी जब भी चेन्नई से आतीं, सब के लिए साडि़यां लातीं. यह सोच कर कि नवीन तो शायद ही चंचला के लिए अच्छी साड़ी ला पाता होगा, सब से पहले चंचला भाभी को ही साड़ी पसंद करने को बोलतीं और चंचला भाभी अकसर 2 साडि़यों के बीच कन्फ्यूज हो जातीं कि कौन सी साड़ी ज्यादा अच्छी है. तब सुनंदा दी इस का हंस कर समाधान निकालतीं, ‘‘तुम दोनों ही साडि़यां रख लो.’’

जितना जादू चंचला भाभी के मधुर वचनों का घर के लोगों पर बढ़ता जा रहा था, उतना ही नवीन भैया अपने घर में  बेगाने होते जा रहे थे.

नवीन भैया की शादी के समय बाबूजी ने छत पर एक कमरा बनवाया था, उसी कमरे में नवीन भैया और चंचला भाभी रहते थे. जब भाभी नीचे का काम खत्म कर सोने जातीं तब सीढि़यों से दरवाजा बंद कर लेतीं.

एक बार देर रात तक पढ़तेपढ़ते मैं बुरी तरह थक कर आंगन में आ बैठी. सामने सीढि़यों का दरवाजा खुला देख, मैं ठंडी हवा  का आनंद उठाने छत पर आ गई. तभी चंचला भाभी की कर्कश और फुफकारती हुई धीमी आवाज सुन जैसे मेरी रीढ़ की हड्डी में एक ठंडी लहर सी दौड़ गई. नवीन भैया को चंचला भाभी किसी बात पर सिर्फ डांट ही नहीं रही थीं, अपशब्द भी बोल रही थीं. फिर धक्कामुक्की की आवाज सुनाई पड़ी. उस के तुरंत बाद ऐसा लगा जैसे कुछ गिरा. मेरा तो यह हाल हो गया था कि काटो तो खून नहीं.

अचानक नवीन भैया दरवाजा खोल कर बाहर आ गए. कमरे से आती धीमी रोशनी में भी मुझे सबकुछ साफसाफ दिख रहा था. वे बुरी तरह हांफ रहे थे, उन के बाल बिखरे और कपड़े जगहजगह से फटे हुए नजर आ रहे थे. अपने हाथ से रिसते खून को अपनी शर्ट के कोने से साफ करने की कोशिश करते नवीन भैया को देख, मुझे ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरा कलेजा चाक कर दिया हो.

मेरी उपस्थिति से अनजान चंचला भाभी ने फटाक से दरवाजा बंद कर लिया और नवीन भैया सीढि़यों की तरफ बढ़े. तभी सीढि़यों पर जलते बल्ब की रोशनी में हम दोनों की आंखें टकराईं. भैया मुझे विवश दृष्टि से देख तेजी से आगे बढ़ गए.

हमेशा से सहनशील रहे नवीन भैया का चेहरा उस समय इतना दयनीय दीख रहा था कि वहां खड़ी मैं हर पल शर्म के बोझ तले दबती जा रही थी. इन्हीं चंचला भाभी की लोग मिसाल अच्छी बहू के रूप में देते हैं जिन्होंने अपने पति को इस कदर प्रताडि़त करने के बाद भी, दुनियाभर में उन पर तरहतरह के आरोप लगा उन को बदनाम कर रखा था. मैं ने किसी से कुछ भी नहीं कहा. परिवार के लोगों पर तो अभी भाभी का जादू छाया हुआ था. मेरी कौन सुनता.

उन्हीं दिनों मयंक भैया का ट्रांसफर रांची हो गया था. संयोग से उसी साल मुझे भी रांची मैडिकल कालेज में दाखिला मिल गया. मैं पटना से रांची आ गई.

मयंक भैया के पटना से हटते ही बाबूजी की चिंता नवीन भैया के परिवार के लिए कुछ ज्यादा बढ़ गई थी. अभी तक बड़े भैया एक परिवार की तरह सब को संभाले हुए थे. घर से बाहर निकलने पर कई तरह के खर्चे बढ़े, फिर भी अंश और अंकित की पढ़ाई का पूरा खर्च भेजते रहे. लेकिन बाबूजी संतुष्ट नहीं थे. वे नवीन भैया के परिवार की निश्चित आय की व्यवस्था करना चाहते थे.

नौकरी से अवकाश प्राप्त करने के बाद उन्होंने एक मार्केट कौंप्लैक्स बनवाया था, जिस से उन की अच्छीखासी आमदनी हो जाती थी. उन्होंने उस मार्केट कौंप्लैक्स को मयंक भैया के मना करने के बावजूद चंचला भाभी के नाम कर दिया. मयंक भैया चाहते थे कि वह मार्केट कौंप्लैक्स नवीन भैया के नाम हो. लेकिन बाबूजी के लिए तो नवीन भैया एक गैरजिम्मेदार और निकम्मे इंसान थे. उन की बहू ने उन के दिमाग में यह बात बिठा दी थी.

मयंक भैया के हटते ही चंचला भाभी ने मांबाबूजी की जिम्मेदारी के साथसाथ उन की सारी आमदनी भी अपनी मुट्ठी में कर ली थी. फिर भी हम सभी चंचला भाभी के इस तरह सबकुछ संभाल लेने से मांबाबूजी की तरफ से चिंतामुक्त हो गए थे. अकसर बाबूजी मयंक भैया को फोन कर नवीन भैया की गैरजिम्मेदाराना हरकतों से अवगत कराते रहते. इतने दिनों बाद भी बाबूजी यह नहीं समझ पा रहे थे कि नवीन भैया को फटकार के बदले अपनों के प्यार और सहानुभूति की कितनी जरूरत है.

वह जनवरी की ठिठुरती शाम थी. हम सभी शाम होते ही उस हाड़ कंपा देने वाली ठंड से बचने के लिए एक कमरे में आग जला कर बैठे गपशप कर रहे थे. तभी फोन की घंटी बजी. फोन उठाते ही मां ने रोतेरोते बताया, बाबूजी की तबीयत बहुत खराब है. उन्हें आईसीयू में भरती कराया गया है. मां को आश्वस्त कर हम फौरन पटना के लिए रवाना हो गए.

नवीन भैया द्वारा बताए पते पर सीधे अस्पताल पहुंचे. वार्ड के बाहर ही नवीन भैया और मां बैठे मिले. चंचला भाभी कहीं नजर नहीं आ रही थीं. हम लोगों को देख मां को थोड़ी तसल्ली हुई. जब मयंक भैया ने चंचला भाभी के बारे में पूछा तो उस चिंता, दुख, अनिश्चितता और भय की स्थिति में भी जो कुछ मां ने सुनाया, सुनते ही जैसे हम सब के पैरों तले जमीन खिसक गई. किंकर्तव्यविमूढ़ बने हम सब मां की बातें सुनते रहे.

मां ने बताया, ‘जब बाबूजी को दिल का दौरा पड़ने से अस्पताल में भरती करवाया गया, आननफानन डाक्टरों ने लाखों के खर्चों की फेहरिस्त थमा दी. हमेशा की तरह जब मां ने चंचला भाभी से पैसा निकालने के लिए कहा तो उन्होंने थोड़े से पैसे निकाल कर देने के बाद, यह कह कर पैसे निकालने से मना कर दिया कि अकाउंट में पैसे हैं ही नहीं. जबकि चंचला भाभी के साथ जौइंट अकाउंट में बाबूजी ने अच्छीखासी रकम जमा करवा रखी थी. 1 मिनट में चंचला भाभी ने मांबाबूजी के अटूट विश्वास की धज्जियां उड़ा कर रख दी थीं.

मां ने धैर्य से काम लेते हुए मकान और उस के बगल वाले जमीन के कागजात बाबूजी से मांगे, ताकि उन्हें गिरवी रख पैसों का इंतजाम करें. तब उन्हें पता चला, दुकान की रजिस्ट्री के समय वे सब भी चंचला भाभी ने अपने नाम करवा लिए थे. परिस्थिति को देखते हुए हम सब ने अभी मां को चुप रहने की सलाह दी और खुद भी खामोश रहे. मयंक भैया ने सारे खर्च संभाल लिए थे, पर डाक्टरों की लाख कोशिश के बाद भी बाबूजी को बचाया नहीं जा सका.

बाबूजी की तेरहवीं तक इस बारे में सब चुप रहे. जब सारे रिश्तेदार चले गए, मयंक भैया ने चंचला भाभी को बुलवा कर मां द्वारा लगाए गए आरोपों की सत्यता जाननी चाही तब बिना किसी संकोच के मां द्वारा लगाए गए सारे आरोपों को सही बताते हुए वे बोलीं, ‘‘हां, मैं ने ऐसा किया है, क्योंकि मैं नहीं चाहती कि मैं और मेरे दोनों बच्चे हमेशा आप लोगों के मुहताज रहें.’’

उन की आंखों में एक अजीब सी हिंसक ईर्ष्या धधक उठी, जिसे देख भैया ने समझाना चाहा कि तुम ऐसा क्यों सोचती हो कि हम सब तुम्हारे अपने नहीं हैं.

भैया की बातें सुनते ही वे और भी भड़क उठीं. हमेशा से सीधीसादी दिखने वाली चंचला भाभी ने एकाएक बहुत उग्र रूप धारण कर लिया. कहीं बहस में रिश्तों की मर्यादा न टूट जाए, यह सोच मयंक भैया खामोशी से मां के बचेखुचे सामान और गहने समेट हम सब को साथ रांची ले जाने के लिए कार में आ बैठे.

हम सभी घर से निकले ही थे कि नवीन भैया बीच रास्ते में आ खड़े हो गए. मयंक भैया के कार रोकते ही वे दौड़ कर आए और भैया का हाथ थामते हुए बोले, ‘‘भैया, मुझे अकेला छोड़ कर मत जाइए, मैं आप लोगों के बिना जी नहीं सकूंगा.’’

भैया कुछ बोलते, उस के पहले ही भाभी गाड़ी से उतर नवीन भैया का हाथ थाम अपने बगल में बैठाते हुए बोलीं, ‘‘चलो, तुम मेरे साथ चलो. इतना प्रतिभाशाली हो कर भी किस कदर तुम ने अपनी जिंदगी को नरक बना लिया. बहुत हुआ यह सब. तुम्हें मैं ने हमेशा अपना छोटा भाई समझा है. देखना, मैं तुम्हें फिर से कैसे बुलंदियों पर पहुंचाती हूं. जितना तुम ने जिंदगी में चाहा होगा उस का चौगुना तुम पाओगे, यह तुम्हारी भाभी का तुम से वादा है. एक दिन तुम यह भी देखोगे कि कैसे तुम्हारे यही बीवीबच्चे सिर के बल दौड़े तुम्हारे पास आएंगे.’’

गाड़ी आगे बढ़ी, अब मेरे बोलने की बारी थी, ‘‘आप लोगों को चंचला भाभी पर अटूट विश्वास करते देख मैं हमेशा खामोश रही, वरना मैं तो शुरू से ही उन्हें अच्छी तरह समझ रही थी. जो जितना उन की मीठी वाणी का मुरीद हुआ उस के गले पर उन की मीठी छुरी उतनी ही तेज चली. आप लोगों के तो फिर भी धनसंपत्ति पर ही उन की मीठी छुरी चली, जरा नवीन भैया की सोचिए, जिन की पूरी जिंदगी ही बरबाद हो गई.’’

किसी के पास अब इस बात का भला क्या जवाब था? सब मीठी छुरी के मारे हुए थे. सब को राहत इस बात की थी कि चलो घाव भले हुआ, प्राण तो बचे. शायद इसीलिए उस विषम परिस्थिति में भी सब के चेहरों पर मुसकराहट छा गई.

Inspirational Social Stories : जिंदगी एक बांसुरी है

Inspirational Social Stories : जोकी हाट का ब्लौक दफ्तर. एक गोरीचिट्टी, तेजतर्रार लड़की ने कुछ दिन पहले वहां जौइन किया था. उसे आमदनी, जाति, घर का प्रमाणपत्र बनाने का काम मिला था. वह अपनी ड्यूटी को मुस्तैदी से पूरा करने में लगी रहती थी. सुबह के 10 बजे से शाम के 4 बजे तक वह सब की अर्जियां लेने में लगी रहती थी. आज उसे यहां 6 महीने होने को आए हैं. अब उस के चेहरे पर शिकन उभर आई है. होंठों से मुसकान गायब हो चुकी है. ऐसा क्या हो गया है? अजय भी ठहरा जानामाना पत्रकार. खोजी पत्रकारिता उस का शगल है. अजय ने मामले की तह तक जाने का फैसला किया. पहले नाम और डेरे का पता लगाया.

नाम है सुमनलता मुंजाल और रहती है शिवपुरी कालोनी, अररिया में.अजय ने फुरती से अपनी खटारा मोटरसाइकिल उठाई और चल पड़ा. पूछतेपूछते वहां पहुंचा. आज रविवार है, तो जरूर वह घर पर ही होगी.

डोर बैल बजाई. वह बाहर निकली. अजय अपना कार्ड दिखा कर बोला, ‘‘मैं एक छोटे से अखबार का प्रतिनिधि हूं मैडमजी. मैं आप से कुछ खास जानने आया हूं.’’

‘फुरसत नहीं है’ कह कर वह अंदर चली गई और अजय टका सा मुंह ले कर लौट आया.

अजय दूसरे उपाय सोचने में लग गया. 15 दिन की मशक्कत के बाद उसे सब पता चल गया. सुमनलता को किसी न किसी बहाने से उस के अफसर तंग करते थे.

अजय ने स्टोरी बना कर छपवा दी. फिर तो वह हंगामा हुआ कि क्या कहने. दोनों की बदली हो गई. अच्छी बात यह हुई कि सुमनलता के होंठों पर पुरानी मुसकान लौट आई.

एक दिन अजय कुछ काम से ब्लौक दफ्तर गया था. उस ने आवाज दे कर बुलाया. अजय चाहता तो अनसुना कर सकता था, पर फुरसत पा कर वह मिला. औपचारिक बातें हुईं. उस ने अजय को घर आने का न्योता दिया और उस का फोन नंबर लिया. बात आईगई हो गई.

3 दिन बाद रविवार था. शाम को अजय को फोन आया. अजनबी नंबर देख कर ‘हैलो’ कहा.

उधर से आवाज आई, ‘सर, मैं मिस मुंजाल बोल रही हूं. आप आए नहीं. मैं सुबह से आप का इंतजार कर रही हूं. अभी आइए प्लीज.’

मिस मुंजाल यानी ‘वह कुंआरी है’ सोच कर अजय तैयार हुआ और चल पड़ा. एक बुके व मिठाई ले ली. डोर बैल बजाते ही उस ने दरवाजा खोला.

साड़ी में वह बड़ी खूबसूरत लग रही थी. वह चहकते हुए बोली, ‘‘आइए, मैं आप का ही इंतजार कर रही थी.’’

अजय भीतर गया. वहां एक औरत बनीठनी बैठी थी. वह परिचय कराते हुए बोली, ‘‘ये मेरी मम्मी हैं. और मम्मी, ये महाशय पत्रकार हैं. मेरे बारे में इन्होंने ही छापा था.’’

अजय ने उन के पैर छू कर प्रणाम किया. वे उसे आशीर्वाद देते हुए बोलीं, ‘‘सदा आगे बढ़ो बेटा. आओ, बैठो.’’

तभी मिस मुंजाल बोलीं, ‘‘आप ने मुझे अभी तक अपना नाम तो बताया ही नहीं?’’

वह बोला, ‘‘मुझे अजय मोदी कहते हैं. आप सिर्फ मोदी भी कह सकती हैं.’’

‘‘मैं अभी आती हूं,’’ कह कर वह अंदर गई. पलभर में वह ट्रौली धकेलती हुई आई. उस पर केक सजा हुआ था. देख कर अजय को ताज्जुब हुआ.

उस ने खुलासा किया, ‘‘आज मेरा जन्मदिन है.’’

अजय ने पूछा, ‘‘मेहमान कहां हैं?’’

वह मुसकराते हुए बोली, ‘‘आप ही मेहमान हैं मिस्टर अजय मोदी.’’

‘‘ओह,’’ अजय ने इतना ही कहा.

मोमबत्ती बुझा कर उस ने केक काटा. पहला टुकड़ा अजय को खिलाया. अजय ने भी उसे और उस की मम्मी को केक खिलाया. फिर बुके व मिठाई के साथ बधाई दी और कहा, ‘‘मैं बस यही ले कर आया हूं. पहले पता होता, तो तैयारी के साथ आता.’’

उस ने इशारे से मना किया और बोली, ‘‘आज प्रोफैशनल नहीं पर्सनल मूमैंट को जीना है.’’

अजय चुप हो गया. रात के 8 बजे वह लौटा, तो वे दोनों अजनबी से एक गहरे दोस्त बन चुके थे.

2 महीने बाद अजय का प्रमोशन हो गया, तो सोचा कि उस के साथ ही सैलिबे्रट करे. फोन किया. उस ने बधाई दी. उस की आवाज में कंपन और उदासी थी.

अजय ने कहा, ‘‘आप आज शाम को तैयार रहना.’’

शाम में वह तैयार हो कर शिवपुरी पहुंचा. वह सजसंवर कर तैयार थी. दोनों मोटरसाइकिल पर बैठ कर चल पड़े.

अजय ने रास्ते में बताया कि वे दोनों पूर्णिया जा रहे हैं. वह कुछ नहीं बोली. होटल हर्ष में सीट बुक थी. खानेपीने का सामान उस की पसंद से और्डर किया. पनीर के पकौड़े, अदरक की चटनी कौफी…

अजय ने कहा, ‘‘मिस मुंजाल, आज हम लोग स्पैशल मूमैंट्स को जीएंगे.’’

वह गजब की मुसकान के साथ बोली, ‘‘जैसा आप कहें सर.’’

अजय ने प्यार से पूछा, ‘‘मिस मुंजाल, मुझे ‘सर’ कहना जरूरी है?’’

वह भी पलट कर बोली, ‘‘मुझे भी ‘मिस मुंजाल’ कहना जरूरी है?’’

अजय ने कहा, ‘‘ठीक है. आज से केवल अजय कहना या फिर मोदी.’’

वह बोली, ‘‘मुझे भी केवल सुमन या लता कहना.’’

फिर वह अपने बारे में बताने लगी कि वह हरियाणा के हिसार की है. नौकरी के सिलसिले में बिहार आ गई, पर अब मन नहीं लग रहा है. एलएलएम कर रही है. बहुत जल्द ही वह यहां से चली जाएगी. उसे वकील बनने की इच्छा है.

फिर अजय ने बताया, ‘‘मैं भी बहुत जल्द दिल्ली जौइन कर लूंगा. हैड औफिस बुलाया जा रहा है.’’

फिर उस ने मुझे एक छोटा सा गिफ्ट दिया. बहुत खूबसूरत ‘ब्रेसलेट’ था, जिस पर अंगरेजी का ‘ए’ व ‘एस’ खुदा था.

मैं ने भी एक सोने की पतली चेन दी. उस में एक लौकेट लगा था और एक तरफ ‘ए’ व दूसरी तरफ ‘एस’ खुदा था.

वह बहुत खुश हुई. ब्रेसलेट पहना कर उस ने अजय का हाथ चूम लिया और सहलाने लगी. वह भी थोड़ा जोश में आ गया. उस ने भी उसे चेन पहनाई और गरदन चूम ली. वह सिसकने लगी.

अजय ने वजह पूछी, तो बोली, ‘‘तुम पहले इनसान हो, जिस ने मेरी बिना किसी लालच के मदद की थी.’’

अजय ने कहा, ‘‘एलएलएम करने तक तुम यहीं रहो. कुछ गलत नहीं होगा. मैं हूं न.’’

उस ने ‘हां’ में सिर हिलाया. रात होतेहोते अजय ने उसे उस के डेरे पर छोड़ दिया. विदा लेने से पहले वे दोनों गले मिले.

अजय दूसरे ही दिन गुपचुप तरीके से बीडीओ साहब से मिला. अपने प्रभाव का इस्तेमाल किया और उस की ड्यूटी बदलवा दी.

इस बात को 10 साल गुजर गए. अजय अपने असिस्टैंट के साथ एक मशहूर मर्डर मिस्ट्री की सुनवाई कवर करने पटियाला हाउस कोर्ट गया था.  कोर्ट से बाहर निकल कर वह मुड़ा ही था कि कानों में आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘मिस्टर मोदी, प्लीज रुकिए.’’

अजय ने देखा कि एक लड़की वकील की ड्रैस में हांफती हुई चली आ रही थी. पास आ कर उस ने पूछा, ‘‘ऐक्सक्यूज मी प्लीज, आर यू मिस्टर अजय मोदी?’’

अजय ने कहा, ‘‘यस. ऐंड यू?’’

उस ने कहा, ‘‘मैं रीना महिंद्रा. आप प्लीज मेरे साथ चलिए. मेरी सीनियर आप को बुला रही हैं.’’

अजय हैरान सा उस के साथ चल पड़ा. पार्किंग में एक लंबी नीली कार खड़ी थी. उस के अंदर एक औरत वकील की ड्रैस में बैठी थी.

अजय के वहां पहुंचते ही वह बाहर निकली और उस के गले लग गई.

अजय यह देख कर अचकचा गया. वह चहकते हुए बोली, ‘‘कहां खो गए मिस्टर मोदी? पहचाना नहीं क्या मुझे? मैं सुमनलता मुंजाल.’’

अजय बोला, ‘‘कैसी हैं आप?’’

वह बोली, ‘‘गाड़ी में बैठो. सब बताती हूं.’’

अजय ने अपने असिस्टैंट को जाने के लिए कहा और गाड़ी में बैठ गया. उस ने भी रीना को मैट्रो से जाने के लिए कहा और खुद ही गाड़ी ड्राइव करने लगी.

वह लक्ष्मी नगर के एक फ्लैट में ले आई. अजय को एक गिलास पानी ला कर दिया और खुद फ्रैश होने चली गई.

कुछ देर बाद टेबल पर नाश्ता था, जिसे उस ने खुद बनाया था. फिर वह अपनी जिंदगी की कहानी बताने लगी.

‘‘आप ने तो चुपचाप मेरी ड्यूटी बदलवा दी. कुछ दिन बाद ही मुझे पता चल गया. सभी ताने मारने लगे. मुझ से सभी आप का रिलेशन पूछने लगे, तो मैं ने ‘मंगेतर’ बता दिया.

‘‘काफी समय बीत जाने पर भी जब आप नहीं मिले और न ही फोन लगा, तो मैं परेशान हो गई. पता चला कि आप दिल्ली में हो और अखबार भी बंद हो गया है.

‘‘मैं समझ गई कि आप जद्दोजेहद कर रहे होंगे. इधर मेरी मां को लकवा मार गया. मेरी एलएलएम भी पूरी हो गई थी. उस नौकरी से मैं तंग आ ही चुकी थी.

‘‘मां के इलाज के बहाने मैं दिल्ली चली आई. एक महीने बाद मेरी मां चल बसीं. फिर मेरा संघर्ष भी शुरू हो गया. दिल्ली हाईकोर्ट जौइन कर लिया और धीरेधीरे मैं क्रिमिनल वकील के रूप में मशहूर हो गई.’’

अजय मुसकरा कर रह गया.

उस ने पूछा, ‘‘आप बताओ, कैसी कट रही है?’’

अजय ने बताया, ‘‘दिल्ली आने के कुछ महीनों बाद ही अखबार बंद हो गया. मैं ने हर छोटाबड़ा काम किया. ठेला तक चलाया. अखबार बेचा. फिर एक दिन एक रिपोर्टिंग कर एक अखबार को भेजी और उसी में मुझे काम मिल गया. आज तक उसी में हूं.’’

‘‘बीवीबच्चे कैसे हैं?’’

अजय ने हंसते हुए जवाब दिया, ‘‘मैडम मुंजाल, जब अपना पेट ही नहीं भर रहा हो, तो फिर वह सब कैसे?’’

वह मुसकराते हुए बोली, ‘‘तब तो ठीक है.’’

अजय बोला, ‘‘सच कहूं, तो तुम्हारी जैसी कोई मिली ही नहीं और न ही मिलेगी. जहां इतनी कट गई है, तो आगे भी कट ही जाएगी.’’

वह बोली, ‘‘अच्छी बात है.’’

अजय ने पूछा, ‘‘तुम्हारे बालबच्चे कहां और कैसे हैं?’’

वह फीकी मुसकान के साथ बोली, ‘‘एक भिखारी दूसरे भिखारी से पूछ रहा है, तुम ने कितना पैसा जमा किया है.’’

फिर वह चेन दिखाते हुए बोली, ‘‘याद है न… ये चेन आप ने ही पहनाई थी. मैं ने तब से ही इसे अपना ‘मंगलसूत्र’ मान लिया है. समझे…’’

‘‘और फिर मैं हरियाणवी हूं. पति के शहीद होने पर भी दूसरी शादी नहीं करते, यहां तो मेरा ‘खसम’ मोरचे पर गया था, शहीद थोड़े ही हुआ था.’’

अजय उस की प्यार वाली बात सुन कर फफकफफक कर रोने लगा. वह उस के आंसू पोंछते हुए बोली, ‘‘कितना झंडू ‘खसम’ हो आप मेरे? मर्द हो कर रोते हो?’’

अजय ‘खसम’ शब्द पर मुसकराते हुए बोला, ‘‘आई एम सौरी माई लव. यू आर ग्रेट ऐंड आई लव यू वैरी मच.’’

वह भी मुसकराते हुए बोली, ‘‘अच्छा, इसलिए पलट कर मेरी खबर तक नहीं ली.’’

इस के बाद अजय को अपनी बांहों में कसते हुए वह बोली, ‘‘मैं इस ‘अनोखे मंगलसूत्र’ को दिखादिखा कर थक चुकी हूं, मोदी डियर. अब सब के सामने मुझे स्वीकार भी कर लो प्लीज.’’

वे दोनों अगले हफ्ते ही एक भव्य समारोह में एकदूसरे के हो गए. कहा भी गया है कि जिंदगी एक बांसुरी की तरह होती है. अंदर से खोखली, बाहर से छेदों से भरी और कड़ी भी, फिर भी बजाने वाले इसे बजा कर ‘मीठी धुन’ निकाल ही लेते हैं.

लेखक- डा. चंदन

Hindi Moral Tales : क्या तुम आबाद हो

लेखिका- कात्यायनी सिंह

Hindi Moral Tales : कलरात अचानक नन्ही की तबीयत बहुत खराब होने की वजह से मैं परेशान हो गई. जय को फोन लगाया तो कवरेज से बाहर बता रहा था. रात के आठ बज रहे थे. कुछ सम झ नहीं आया तो मैं अकेली ही डाक्टर को दिखाने के लिए निकल पड़ी. नीरवता में अजीब सी शांति थी. मु झे यह रात बहुत भा रही थी. चारों ओर फैली उस कालिमा में रोमांस के अलावा और कुछ था तो वह था नन्ही की बीमारी के लिए चिंता और मेरे तेज चलते कदमों की आहट.

डाक्टर के कैबिन से बाहर आते ही मैं ने राहत की सांस ली. नन्ही को वायरल था, घबराने वाली बात नहीं थी. अंधेरा और गहरा हो गया था. दिल की धड़कनें तेज हो रही थीं. अपनेआप पर गुस्सा भी आ रहा था. नन्ही की बीमारी ने मेरा दिलदिमाग सुन्न कर दिया था. बगैर सोचे रात को निकल पड़ी थी.

जय बहुत गुस्सा करेंगे. गुस्सा याद आते ही शरीर में डर से  झुर झुरी पैदा हो गई. जय जब गुस्सा करते हैं तो उन्हें कुछ भी तो सम झ में नहीं आता है… कभीकभी तो हाथ भी उठा देते हैं. मेरी खुद्दारी सिर्फ मेरे पास थी. इस से जय को कुछ लेनादेना नहीं था. वे तो अपने पौरुष बल को जबतब दिखा कर मु झे और कमजोर कर देते हैं.

कभीकभी सोचती हूं कि मेरे मांबाप ने मु झे पढ़ाया ही क्यों. अनपढ़ रहती तो ज्यादा अच्छा था. तभी मोबाइल की रिंग ने मु झे चौंका दिया. जय का नंबर देख थोड़ी राहत महसूस हुई.

‘‘कहां हो? मैं घर आया तो दरवाजे पर ताला लगा देख घबरा गया,’’ जय का घबराया स्वर सुन मेरा डर और बढ़ गया.

मैं ने कांपती आवाज में जवाब दिया, ‘‘नन्ही की तबीयत बहुत ज्यादा खराब हो गई थी… तुम्हारा मोबाइल कवरेज क्षेत्र से बाहर बता रहा था. पड़ोसी के घर चाबी है, ले लेना.’’

‘‘तुम वहीं रहो, मैं थोड़ी देर में आता हूं,’’ कह कर जय ने फोन काट दिया.

मेरे बेचैन मन को शांति मिली.

फोन कटने के बाद जैसे ही नजर उठाई कि मु झे बरसों पुरानी मेरी एक दोस्त दिखाई दी.

हम एकदूसरे को कुछ देर देखते रह गए. बात करने की पहल उसी ने की, ‘‘व्हाट ए सरप्राइज… कल्पना तुम मु झे यहां ऐसे मिलोगी, मैं सोच भी नहीं सकती थी.’’

मैं ने मुसकराते हुए हलके से उस का हाथ दबा दिया.

बरसों पहले जब हम जुदा हुए थे तो छोटी सी बात पर हम दोनों के बीच दरार आ गई थी. बरसों की दूरी ने उस दरार को भर दिया था. हम सहज थे और मु झे अपनी सहजता पर विस्मय भी हो रहा था.

हालांकि मु झे उसे देख कर खास खुशी नहीं हुई. यह अप्रत्याशित मुलाकात मेरे अकेलेपन की समस्या से छुटकारा दिला देगी, यह सोच कर मेरा मन संतोष से भर गया. वह मेरे पास आ गई. मेरा हाथ पकड़ पास की बैंच पर बैठ गई तो मु झे भी बैठना पड़ा. उस ने मेरी बच्ची को मेरी गोद से अपनी गोद में ले लिया.

मैं ने उस का चेहरा गौर से देखा. थकी और परेशान लग रही थी. मु झे बरसों पुरानी बात याद आ गई, जब वह मु झे अपना दुखड़ा सुनाया करती थी और मैं ऊब जाया करती थी. वह हर समय अपने प्रेमी के बारे में बातें कर के जी हलका कर लेती थी पर मैं और भारी हो जाती थी. मैं वाहियात बातों पर अपना समय खराब नहीं करना चाहती थी. इसीलिए उस समय या बाद के दिनों में मेरा कोई प्रेमी नहीं हुआ.

‘‘कहां खो गई कल्पना?’’ उस की नम्र आवाज मु झे भूत से वर्तमान में ले आई.

‘‘कृति तुम अपने बारे में बताओ? इतने साल बाद मिली हो. तुम जिस से प्यार करती थी उसी से तुम्हारी शादी हुई या किसी और से? कितना प्यार करती थी न तुम उस से. तुम्हारी हरेक बात में सिर्फ उसी का जिक्र होता था,’’ वह बोली.

‘‘मैं उसे अभी तक नहीं भूल पाई… आखिर तक नहीं भूल पाऊंगी. शायद भूलना चाहूं तब भी नहीं भूल सकती. जानती हो कल्पना जिस दिन मैं उस को भूल जाऊंगी, उस दिन मैं मर जाऊंगी. उस ने मेरे साथ विश्वासघात किया, मु झे धोखा दिया. प्यार मु झ से किया और शादी किसी और से…’’

मैं उसे कभी माफ नहीं करूंगी. मैं मरते दम तक उसे कोसती रहूंगी. वह जहां है जैसे भी है कभी खुश नहीं रहेगा. मेरी जिंदगी को बरबाद करने वाला कभी आबाद नहीं रहेगा. मेरे अंदर एक आग हमेशा जलती रहती है, जिसे मैं कभी बु झने नहीं दूंगी, क्योंकि मैं इसी आग के सहारे अभी तक जिंदा हूं. मैं अब किसी आदमी पर भरोसा नहीं कर पाती… वह मेरा विश्वास इस कदर तोड़ गया है.

‘‘मेरे शरीर के 1-1 हिस्से पर उस के स्पर्श के निशान हैं. उस ने मु झे निचोड़ दिया है. मेरे अंदर अब कुछ भी नहीं बचा है कि मैं अब किसी दूसरे पुरुष से शादी भी कर सकूं. मैं टूट गई हूं. बस अब तो मेरी एक ही ख्वाहिश है कि किसी भी तरह वह बेवफा मु झे मिल जाए और मैं उस से बदला ले सकूं. हालांकि मैं जानती हूं उस से बदला लेने के बाद मेरे मन में रिक्तता भर जाएगी. जीने की इच्छा खत्म हो जाएगी, लेकिन इस सब के बावजूद मैं उसे खोज रही हूं, कई शहर भटक रही हूं. बस एक ही ख्वाहिश लिए कि वह एक बार मिल जाए कहीं भी.’’

मैं परेशान हो गई. अभी भी इस की बातों में, इस के जेहन में सिर्फ वही लड़का है. इन्हीं वाहियात बातों के कारण मैं ने इस से दूरी बना ली थी. पर आज… आज की अप्रत्याशित मुलाकात के बाद भी इस के पास बात करने के लिए सिर्फ एक ही व्यक्ति था.

मैं ने कहा, ‘‘कृति भूल जाओ उस शख्स को, जिस ने तुम्हें इतना दर्द दिया है. उसे तुम्हारी कद्र नहीं है. तुम क्यों उस के पीछे अपना जीवन बरबाद कर रही हो. आगे बढ़ो… तुम्हें उस से कहीं अच्छा और ज्यादा प्यार करने वाला लड़का मिल जाएगा.’’

उस ने मु झे अजीब नजरों से देखा फिर धीरे से कहा, ‘‘क्या तुम आबाद हो?’’

यह एक विचित्र प्रश्न था मेरे लिए. मेरे मन में उथलपुथल होने लगी. क्या मैं आबाद हूं?

मेरी पलकें बादल बन गईं और आंखें समुद्र… पानी अंदर ही अंदर पीने की नाकाम कोशिश करने लगी कि क्या हम औरतों के हिस्से यही लिखा है. बारबार चोट खाने के बाद हम अपने ही वजूद को बचाने की नाकाम कोशिश करते रहते हैं. कई बार तो यह नाकाम कोशिश हमें पीड़ा दे जाती है. क्या हमारा मन बारबार नहीं रूठता? मगर फिर खुदबखुद मान भी जाता है क्योंकि वह जानता है कि हमें मनाने वाला कोई नहीं है.

मेरी आंखों में पानी देख कल्पना का हाथ मेरे हाथ में आ गया. एक अनकही आत्मीयता का फूल हमारे मन में खिल गया. एक नजर उस ने मु झे देखा और फिर कहा, ‘‘कह दो कल्पना अपने अंदर का सारा दर्द… शायद तुम्हारा दर्द कुछ हलका हो जाए,’’ उस की बड़ीबड़ी आंखों में ममता उतर आई.

‘‘मैं क्या बताऊं कृति, मेरी जिंदगी रेगिस्तान है, जिस में कोई फूल नहीं खिल सकता. पोस्ट ग्रैजुएशन करते ही मेरी शादी हो गई. कई ख्वाबों को ले कर मैं सुसराल आ गई. सुहागरात के दिन करीब 12 बजे मेरे पति शराब के नशे में लड़खड़ाते हुए आए.

‘‘मेरी कल्पनाओं के ख्वाब मन के खुले आसमान में उमंगें भर रहे थे. पर मेरी कल्पनाओं के विपरीत आते ही मेरी साड़ी उतार दी… न प्यार न मनुहार. मैं शर्म से सिकुड़ गई. उस की हंसी कमरे के चारों तरफ गूंज गई. मैं ने धीरे से कहा कि व्हाट इज दिस.

मगर जैसे उसे कुछ सुनाई ही नहीं दिया. मैं रो पड़ी. उस के चुंबन से मेरा दम घुटने लगा. मन गुस्से से भर गया. दिल में यही खयाल आया कि यह इंसान नहीं जानवर है. मैं बर्फ सी ठंडी पड़ गई.

कुछ मिनटों के बाद वह शांत सो गया पर मैं रातभर जागती रही. शरीर और मन दर्द से तड़पता रहा. कृति मैं बलात्कार की शिकार हो गई थी. इस से बचने का कोई उपाय हमारे समाज के पास नहीं है. मेरा पति अब हर रात मेरा बलात्कार करता है और मैं कुछ नहीं कर सकती. कुछ न कर सकने की पीड़ा मेरे अंदर आग जलाती रहती है. घर है राजमहल जैसा. सारी सुखसुविधाएं… पर मु झे इन सुखसुविधाओं से कोई मतलब नहीं. मैं एक भटकती आत्मा की तरह दिनभर भटकती रहती हूं. मेरे सपने तिरोहित हो गए कल्पना. पढ़लिख कर अनपढ़से भी बदतर जिंदगी… अकेलापन काटने के लिए कई नुसखे आजमाए… पर कुंठा और हताशा मेरे अंदर निराशा भरती गई. मेरा दर्द आंसुओं के रूप में बहने लगा. मैं एक लंबी सांस ले कर चुप हो गई.’’

‘‘ओह, कल्पना तुम कितना सहन करती हो… मु झ से कहीं ज्यादा. शायद सारे मर्द कमीने होते हैं. जहां भी मर्द को मौका मिला औरत के शरीर को नापने लगता है. कभी हाथों से तो कभी आंखों से. इसीलिए मु झे सख्त नफरत है मर्द जात से.’’

अभी कृति कुछ और कहना चाह रही थी कि गाड़ी की आवाज से मैं कांप गई. पति की गाड़ी का हौर्न मेरे दिलोदिमाग पर छाया रहता है. मैं ने हलके से कृति का हाथ दबा दिया. स्पर्श की अपनी भाषा होती है. शायद कृति सम झ गई और गाड़ी की दिशा में देखने लगी.

जय को देखते ही अचानक उस की सांसें तेज हो गईं और वह जोर से चिल्ला पड़ी,

‘‘यही तो है वह बेवफा, जिस ने मेरी जिंदगी बरबाद कर दी. तुम्हारी शादी इस से हुई है? तभी तो यह जानवर है… नहींनहीं यह जानवर नहीं यह तो राक्षस है राक्षस… औरतों के शरीर से खेलने की आदत हो गई है इसे. मैं इसी को तो कोस दे रही थी. मेरा आज कुदरत पर से विश्वास उठ गया… तुम्हारी जैसी लड़की को यह हैवान मिला.’’

अचानक जय ने मेरा हाथ पकड़ खींचते हुए गाड़ी में बैठा दिए. गाड़ी चल दी. मैं अंदर से खोखली हो गई थी. अब मु झे अपनी इस दोस्त से ईर्ष्या होने लगी… कम से कम उस के पस याद करने के लिए बेवफाई का अनुभव तो है पर मेरे पास क्या है?

एक दलदल जिस में मैं धंसती जा रही थी, जहां से निकलने का कोई रास्ता नहीं था. मेरा मन कहीं और था पर मेरा शरीर एक और शरीर के साथ चले जा रहा था उसी विशाल मकान में जहां मैं रोज रात अपने ही शरीर का शोर सुनती हूं.

Hindi Fiction Story : गृहस्थी की गाड़ी

Hindi Fiction Story : रविशंकर के रिटायर होने की तारीख जैसेजैसे पास आ रही थी, वैसेवैसे विमला के मन की बेचैनी बढ़ती जा रही थी. रविशंकर एक बड़े सरकारी ओहदे पर हैं, अब उन्हें हर महीने पैंशन की एक तयशुदा रकम मिलेगी. विमला की चिंता की वजह अपना मकान न होना था, क्योंकि रिटायर होते ही सरकारी मकान तो छोड़ना पड़ेगा.

रविशंकर अभी तक परिवार सहित सरकारी मकान में ही रहते आए हैं. एक बेटा और एक बेटी हैं. दोनों बच्चों को उन्होंने उच्चशिक्षा दिलाई है. शिक्षा पूरी करते ही बेटाबेटी अच्छी नौकरी की तलाश में विदेश चले गए. विदेश की आबोहवा दोनों को ऐसी लगी कि वे वहीं के स्थायी निवासी बन गए और दोनों अपनीअपनी गृहस्थी में खुश हैं.

सालों नौकरी करने के बावजूद रविशंकर अपना मकान नहीं खरीद पाए. गृहस्थी के तमाम झमेलों और सरकारी मकान के चलते वे घर खरीदने के विचार से लापरवाह रहे. अब विमला को एहसास हो रहा था कि वक्त रहते उन्होंने थोड़ी सी बचत कर के छोटा सा ही मकान खरीद लिया होता तो आज यह चिंता न होती. आज उन के पास इतनी जमापूंजी नहीं है कि वे कोई मकान खरीद सकें, क्योंकि दिल्ली में मकान की कीमतें अब आसमान छू रही हैं.

आज इतवार है, सुबह से ही विमला को चिड़चिड़ाहट हो रही है. ‘‘तुम चिंता क्यों करती हो, एक प्रौपर्टी डीलर से बात की है. मयूर विहार में एक जनता फ्लैट किराए के लिए उपलब्ध है, किराया भी कम है. आखिर, हम बूढ़ेबुढि़या को ही तो रहना है. हम दोनों के लिए जनता फ्लैट ही काफी है,’’ रविशंकर ने विमला को समझाते हुए कहा.

‘‘4 कमरों का फ्लैट छोड़ कर अब हम क्या एक कमरे के फ्लैट में जाएंगे? आप ने सोचा है कि इतना सामान छोटे से फ्लैट में कैसे आएगा, इतने सालों का जोड़ा हुआ सामान है.’’

‘‘हम दोनों की जरूरतें ही कितनी हैं? जरूरत का सामान ले चलेंगे, बाकी बेच देंगे. देखो विमला, घर का किराया निकालना, हमारीतुम्हारी दवाओं का खर्च, घर के दूसरे खर्चे सब हमें अब पैंशन से ही पूरे करने होंगे. ऐसे में किराए पर बड़ा फ्लैट लेना समझदारी नहीं है,’’ रविशंकर दोटूक शब्दों में पत्नी विमला से बोले.

‘‘बेटी से तो कुछ ले नहीं सकते, लेकिन बेटा तो विदेश में अच्छा कमाता है. आप उस से क्यों नहीं कुछ मदद के रूप में रुपए मांग लेते हैं जिस से हम बड़ा फ्लैट खरीद ही लें?’’ विमला धीरे से बोली.

‘‘भई, मैं किसी से कुछ नहीं मागूंगा. कभी उस ने यह पूछा है कि पापा, आप रिटायर हो जाओगे तो कहां रहोगे. आज तक उस ने अपनी कमाई का एक रुपया भी भेजा है,’’ रविशंकर पत्नी विमला पर बरस पड़े.

विमला खुद यह सचाई जानती थी. शादी के बाद बेटा जो विदेश गया तो उस ने कभी मुड़ कर भी उन की तरफ देखा नहीं. बस, कभीकभार त्योहार आदि पर सिर्फ फोन कर लेता है. विमला यह भी अच्छी तरह समझती थी कि उस के स्वाभिमानी पति कभी बेटी के आगे हाथ नहीं फैलाएंगे. विमला उन मातापिता को खुशहाल मानती है जो अपने बेटेबहू, नातीपोतों के साथ रह रहे हैं जबकि वे दोनों पतिपत्नी इस बुढ़ापे में बिलकुल अकेले हैं.

आखिर, वह दिन भी आ ही गया जब विमला को सरकारी मकान से अपनी गृहस्थी समेटनी पड़ी. रविशंकर ने सामान बंधवाने के लिए 2 मजदूर लगा लिए थे. कबाड़ी वाले को भी उन्होंने बुला लिया था जिस कोे गैरजरूरी सामान बेच सकें. केवल जरूरत का सामान ही बांधा जा रहा था.

विमला ने अपने हाथों से एकएक चीज इकट्ठा की थी, अपनी गृहस्थी को उस ने कितने जतन से संवारा था. कुछ सामान तो वास्तव में कबाड़ था पर काफी सामान सिर्फ इसलिए बेचा जा रहा था, क्योंकि नए घर में ज्यादा जगह नहीं थी. विमला साड़ी के पल्लू से बारबार अपनी गीली होती आंखों को पोंछे जा रही थी. उस के दिल का दर्द बाहर आना चाहता था पर किसी तरह वह इसे अपने अंदर समेटे हुए थी.

उस के कान पति रविशंकर की कमीज की जेब में रखे मोबाइल फोन की घंटी पर लगे थे. उसे बेटे के फोन का इंतजार था क्योंकि पिछले सप्ताह ही बेटे को रिटायर होने तथा घर बदलने की सूचना दे दी थी. आज कम से कम बेटा फोन तो करेगा ही, कुछ तो पूछेगा, ‘मां, छोटे घर में कैसे रहोगी? घर का साजोसामान कैसे वहां सैट होगा? मैं आप दोनों का यहां आने का प्रबंध करता हूं आदि.’ लेकिन मोबाइल फोन बिलकुल खामोश था. विमला के दिल में एक टीस उभर गई.

‘‘आप का फोन चार्ज तो है?’’ विमला ने धीरे से पूछा.

‘‘हां, फोन फुलचार्ज है,’’ रविशंकर ने जेब में से फोन निकाल कर देखा.

‘‘नैटवर्क तो आ रहा है?’’

‘‘हां भई, नैटवर्क भी आ रहा है. लेकिन यह सब क्यों पूछ रही हो?’’ रविशंकर झुंझलाते हुए बोले.

‘‘नहीं, कुछ नहीं,’’ कहते हुए विमला ने अपना मुंह फेर लिया और रसोईघर के अंदर चली गई. वह अपनी आंखों से बहते आंसुओं को रविशंकर को नहीं दिखाना चाहती थी.

सारा सामान ट्रक में लद चुका था. विमला की बूढ़ी गृहस्थी अब नए ठिकाने की ओर चल पड़ी. घर वाकई बहुत छोटा था. एक छोटा सा कमरा, उस से सटा रसोईघर. छोटी सी बालकनी, बालकनी से लगता बाथरूम जोकि टौयलेट से जुड़ा था. विमला का यह फ्लैट दूसरी मंजिल पर था.

विमला को इस नए मकान में आए एक हफ्ता हो गया है. घर उस ने सैट कर लिया है. आसपड़ोस में अभी खास जानपहचान नहीं हुई है. विमला के नीचे वाले फ्लैट में उसी की उम्र की एक बुजुर्ग महिला अपने बेटेबहू के साथ रहती है. विमला से अब उस की थोड़ीथोड़ी बातचीत होने लगी है. शाम को बाजार जाने के लिए विमला नीचे उतरी तो वही बुजुर्ग महिला मिल गई. उस का नाम रुक्मणी है. एकदूसरे को देख कर दोनों मुसकराईं.

‘‘कैसी हो विमला?’’ रुक्मणी ने विमला से पूछा.

‘‘ठीक हूं. घर में समय नहीं कटता. यहां कहीं घूमनेटहलने के लिए कोई अच्छी जगह नहीं है?’’ विमला ने रुक्मणी से कहा.

‘‘अरे, तुम शाम को मेरे साथ पार्क चला करो. वहां हमउम्र बहुत सी महिलाएं आती हैं. मैं तो रोज शाम को जाती हूं. शाम को 1-2 घंटे अच्छे से कट जाते हैं. पार्क यहीं नजदीक ही है,’’ रुक्मणी ने कहा.

अगले दिन शाम को विमला ने सूती चरक लगी साड़ी पहनी, बाल बनाए, गरदन पर पाउडर छिड़का. विमला को आज यों तैयार होते देख रविशंकर ने टोका, ‘‘आज कुछ खास बात है क्या? सजधज कर जा रही हो?’’

‘‘हां, आज मैं रुक्मणी के साथ पार्क जा रही हूं,’’ विमला खुश होती हुई बोली.

विमला को बहुत दिनों बाद यों चहकता देख रविशंकर को अच्छा लगा, क्योंकि विमला जब से यहां आई है, घर के अंदर ही अंदर घुट सी रही थी.

विमला और रुक्मणी दोनों पार्क की तरफ चल दीं. पार्क में कहीं बच्चे खेल रहे थे तो कहीं कुछ लोग पैदल घूम रहे थे ताकि स्वस्थ रहें. वहीं, एक तरफ बुजुर्ग महिलाओं का गु्रप था. विमला को ले कर रुक्मणी भी महिलाओं के ग्रुप में शामिल हो गई.

सभी बुजुर्ग महिलाओं की बातों में दर्द, चिंता भरी थी. कहने को तो सभी बेटेबहुओं व भरेपूरे परिवारों के साथ रहती थीं, लेकिन उन का मानसम्मान घर में ना के बराबर था. किसी को चाय समय पर नहीं मिलती तो किसी को खाना, कोई बीमारी में दवा, इलाज के लिए तरसती रहती. दो वक्त की रोटी खिलाना भी बेटेबहुओं को भारी पड़ रहा था.

इन महिलाओं की जिंदगी की शाम घोर उपेक्षा में कट रही थी. शाम के ये चंद लमहे वे आपस में बोलबतिया कर, अपने दिलों की कहानी सुना कर काट लेती थीं. अंधेरा घिरने लगा था. अब सभी घर जाने की तैयारी करने लगीं. विमला और रुक्मणी भी अपने घर की ओर बढ़ गईं.

घर पहुंच कर विमला कुरसी पर बैठ गई. पार्क में बुजुर्ग महिलाओं की बातें सुन कर उस का मन भर आया. वह सोचने लगी कि बुजुर्ग मातापिता तो उस बड़े पेड़ की तरह होते हैं जो अपना प्यार, घनी छावं अपने बच्चों को देना चाहते हैं लेकिन बच्चे तो इस छावं में बैठना ही नहीं चाहते. तभी रविशंकर रसोई से चाय बना कर ले आए.

‘‘लो भई, तुम्हारे लिए गरमागरम चाय बना दी है. बताओ, पार्क में कैसा लगा?’’

विमला पति को देख कर मुसकरा दी. जवाब में इतना ही बोली, ‘‘अच्छा लगा,’’ फिर चाय की चुस्की लेने के साथ मुसकराती हुई बोली, ‘‘सुनो, कल आप आलू की टिक्की खाने को कह रहे थे, आज रात के खाने में वही बनाऊंगी. और हां, आप कुछ छोटे गमले सीढ़ी तथा बालकनी में रखना चाहते थे, तो आप कल माली को कह दीजिए कि वह गमले दे जाए, हरीमिर्च, टमाटर के पौधे लगा लेंगे. थोड़ी बागबानी करते रहेंगे तो समय भी अच्छा कटेगा,’’ यह कहते हुए विमला खाली कप उठा कर रसोई में चली गई और सोचने लगी कि हम दोनों एकदूसरे को छावं दें और संतुष्ट रहें.

रविशंकर हैरान थे. कल तक वे विमला को कुछ खास पकवान बनाने को कहते थे तो विमला दुखी आवाज में एक ही बात कहती थी, ‘क्या करेंगे पकवान बना कर, परिवार तो है नहीं. बेटेबहू, नातीपोते साथ रहते, तो इन सब का अलग ही आनंद होता.’ गमलों के लिए भी वे कब से कह रहे थे पर विमला ने हामी नहीं भरी. विमला में यह बदलाव रविशंकर को सुखद लगा.

रसोईघर से कुकर की सीटी की आवाज आ रही थी. विमला ने टिक्की बनाने की तैयारी शुरू कर दी थी. घर में मसालों की खुशबू महकने लगी थी. रविशंकर कुरसी पर बैठेबैठे गीत गुनगुनाने लगे. आज उन्हें लग रहा था जैसे बहुत दिनों बाद उन की गृहस्थी की गाड़ी वापस पटरी पर लौट आई है…

Moral Stories In Hindi : मां की बेबसी

Moral Stories In Hindi : बरसती बूंदें कजरी के पैरों से कदमताल कर रही थीं. अभी 6 ही तो बजे थे, पर तेज बारिश और काले बादलों ने वक्त से पहले ही जैसे अंधेरा करने की ठान ली थी. ठीक उस के जीवन की तरह, जिस में उस की खुशियों के उजाले को समय के स्याह बादलों ने हमेशा के लिए ढक लिया था. कजरी सोचती जा रही थी. झमाझम होती बारिश में उस की पुरानी छतरी ने भी आज उस का साथ छोड़ दिया था. बच्चों की चिंता ने उस के पैरों की गति को और बढ़ा दिया. उस का घर आने से पहले ही बाबूलाल किराने वाले की दुकान पड़ती थी, जहां से उसे कुछ किराना भी लेना था.

‘‘क्या चाहिए?’’ बाबूलाल ने कजरी की भीगी देह पर भरपूर नजर डालते हुए कहा.

‘‘2 किलो आटा, आधा लिटर तेल, पाव किलो शक्कर और हां, आधा लिटर दूध भी दे देना,’’ कजरी ने अपने आंचल को ठीक करते हुए कहा. बाबूलाल की ललचाई नजरों में उसे हमेशा ही एक मौन आमंत्रण दिखाई देता था. यह तो उस की मजबूरी थी कि वह यहां से वक्तबेवक्त कभी भी उधारी में सामान ले लिया करती थी, वरना उस की दुकान की ओर कभी वह मुड़ कर भी न देखती.

सोचतेसोचते कजरी घर पहुंच गई. बच्चे ‘‘मां, मां’’ कहते हुए उस से लिपट गए.

‘‘आई बहुत भूख लगी है, ताई ने कुछ खाने को नहीं दिया,’’ छोटे बेटे कमल ने दीदी की शिकायत की.

‘‘क्या करती आई, घर में आटा ही नहीं था,’’ सुमि ने सफाई देते हुए कहा.

‘‘अच्छा मेरा राजा बेटा, मैं अभी गरमागरम रोटी बना कर अपने लाल को खिलाती हूं, मीठे दूध में मींज के खा लेना,’’ कजरी ने बेटे को पुचकारते हुए कहा.

‘‘आई, मैं भी खाऊंगी,’’ 9 साल की रीना ने मचलते हुए कहा.

‘‘क्यों नहीं मेरी गोलू, तू भी खाना.’’ गोलमटोल बड़ीबड़ी आंखों वाली रीना को सब गोलू ही कह कर बुलाते थे.

‘‘मैं ने टमाटर की मस्त चटनी भी बनाई है, आई,’’ सुमि ने उसे पानी का गिलास पकड़ाते हुए कहा.

जल्दी से आटा गूंध कर उस ने बच्चों को खाना खिलाया. उन को सुलाने के बाद कजरी सुमि के साथ वहीं नीचे जमीन पर लेट गई.

‘‘आई, आज फिर दीनू रीना को चौकलेट खिला रहा था. तब मैं ने रीना के हाथ से छीन कर वापस उस के मुंह पर फेंक दी, तो वह मेरे को देख लेने की धमकी दे कर चला गया. मुझे उस से बहुत डर लगता है, आई,’’ सुमि ने भयभीत स्वर में मां को बताते हुए कहा.

‘‘तुम घबराओ नहीं, सुमि, मैं उस की मां से बात करूंगी,’’ कजरी ने उसे तो समझा दिया, परंतु खुद सोच में पड़ गई.

जब से रमेश उसे छोड़ कर गया है, जीना कितना दूभर हो गया है. कभी सोचा नहीं था कि जिंदगी इस कदर बोझ बन जाएगी. रमेश के रहते उसे कभी भी बाहर जा कर काम करने की जरूरत नहीं पड़ी. 17 साल की थी जब मांबाप ने रमेश के साथ उस का ब्याह कर दिया था. बहुत खुश थी वह रमेश के साथ. पेशे से पेंटर रमेश इंदौर के राजेंद्रनगर इलाके से कुछ दूर बुद्धनगर के स्लम एरिया में किराए के मकान में रहता था. मकान बहुत अच्छा नहीं, पर रहने लायक जरूर था. दोनों की जिंदगी मजे में कट रही थी.

समय के साथ कजरी 3 प्यारे बच्चों की मां बनी. सब से बड़ी सुमि, उस से छोटी रीना और सब से छोटा कमल. बच्चों के जन्म के बाद कजरी का भरा बदन और भी सुंदर लगने लगा था. शादी के 12 साल बीत जाने पर भी रमेश उसे जीजान से चाहता था. आसपड़ोस के लोग उन दोनों के प्यारभरे रिश्ते से अनजान नहीं थे. कजरी के घर के पास ही एक बढ़ई परिवार रहता था. इस परिवार की इकलौती लड़की माया रमेश को बहुत पसंद करती थी, पर रमेश उस पर कभी ध्यान नहीं देता था.

इधर, बच्चों की देखरेख और घर के कामों में व्यस्त कजरी चाहते हुए भी रमेश को ज्यादा वक्त न दे पाती थी जिस वजह से अकसर दोनों में झड़प हो जाया करती थी. वह रमेश को समझाती थी कि बच्चों के आने के बाद उस का काम बढ़ गया है. पर पुरुषवादी सोच का गुलाम रमेश उस की न को अपना अपमान समझने लगा था. धीरेधीरे उन के बीच में दूरियां बढ़ती चली गईं.

अब काम से लौट कर रमेश सीधे जो बाहर निकलता, तो रात 11-12 बजे ही वापस आता. बच्चों के पालनपोषण में व्यस्त कजरी ने पहले तो इस ओर ध्यान नहीं दिया, और जब ध्यान दिया तब तक बड़ी देर हो चुकी थी.

35 साल का रमेश अब 16 साल की लड़की माया का दीवाना बन चुका था. इस बात का पता लगते ही कजरी ने बहुत बवाल मचाया. रमेश से लड़ीझगड़ी, उस माया के घर जा कर उसे लताड़ा. फिर भी उन दोनों पर कोई असर न होता देख कजरी ने माया के सामने अपना आंचल फैलाते हुए अपने बच्चों के पिता को छोड़ देने के लिए बहुत अनुनयविनय की. पर माया टस से मस न हुई. माया के मातापिता भी उस की इस हरकत के आगे मजबूर थे.

फिर, एक दिन वह दिन भी आया जब काम पर गया रमेश कभी घर नहीं लौटा. इधर, माया भी घर से गायब थी. कजरी की आंखों के सामने अंधेरा छा गया. वह फूटफूट कर रोई. पर अब हो भी क्या सकता था. भारी मन से उस ने इस सचाई को स्वीकार कर लिया कि अब वह एक परित्यक्ता है, जिसे उस का आदमी हमेशा के लिए छोड़ कर जा चुका है.

पति द्वारा छोड़ी हुई औरत समाज के पुरुषों की बपौती बन जाती है, कुछ ही दिनों में यह बात उस की समझ में आ चुकी थी. यह वह समाज है, जहां पुरुषों द्वारा की गई गलती की सजा भी औरत को ही भुगतनी पड़ती है. घर के बाहर हर दूसरा आदमी उस के शरीर पर अपनी गिद्ध निगाह जमाए बैठा था. पर बच्चों के भरणपोषण के लिए उस का घर से निकलना बेहद जरूरी हो चुका था. ऐसे में रमेश के दोस्त लखन ने उस की बहुत सहायता की. उस ने अपने मालिक के घर पर कजरी को काम दिला दिया.

जल्द ही कजरी ने भी बेशर्मी की चादर ओढ़ कर जीना सीख लिया. लेकिन, अब भी काम पर जाने के बाद बच्चों की देखरेख की समस्या उस के आगे मुंहबाए खड़ी थी, जिस का जिम्मा उस की 11 साल की बेटी ने ले लिया. अपनी पढ़ाई छोड़ कर वह अपने छोटे भाईबहन को संभालने लगी. पापा के घर छोड़ कर चले जाने से वह अचानक ही अपनी उम्र से कुछ ज्यादा बड़ी हो गई थी. कुछ महीनों में कजरी को ऐसा लगने लगा कि जिंदगी फिर पटरी पर आने लगी है.

एक दिन वह काम पर से वापस आ रही थी कि रास्ते में लखन मिल गया. बातोंबातों में उस ने कजरी से अपने प्यार का इजहार कर दिया. उस के एहसानों तले दबी कजरी उसे एकदम से इनकार न कर सकी. उस ने उस से सोचने के लिए कुछ समय मांगा. रातभर वह इसी ऊहापोह में रही कि अपने ही पति द्वारा वह एक बार ठगी जा चुकी है. क्या फिर से उसे किसी पर इतना विश्वास करना चाहिए? परंतु बिना मर्द के घर पर लोगों की चीलकौवे सी पड़ती निगाहों से बचने के लिए आखिरकार उसे यही रास्ता सब से उपयुक्त लगा.

उस के घर में ही लखन ने कुछ पासपड़ोसियों के सामने उसे मंगलसूत्र पहना कर उस की मांग में सिंदूर भर दिया. अब लखन उस के साथ ही आ कर रहने लगा. बच्चों ने भी कुछ समय बाद आखिर उसे अपना लिया.

शादी को 8 महीने हो चुके थे. पुराने जख्म भरने लगे थे कि अचानक एक दिन सुबहसुबह एक औरत उस के दरवाजे पर आ कर उसे भलाबुरा कहने लगी. पहले तो कजरी समझ ही न पाई कि यह चक्कर क्या है. बाद में उसे समझ आया, तो उस पर फिर से एक बार आसमान टूट पड़ा.

वह औरत लखन की पत्नी थी जो रात ही अपने गांव से आई थी, और लखन व उस के संबंध की जानकारी मिलते ही वह उस से लड़ने चली आई थी. कजरी ने इस बारे में लखन से कई सवाल किए, पर उस की खामोशी देख कर वह समझ गई कि समय ने फिर से उस के साथ बहुत ही गंदा मजाक किया है. लखन ने सिर्फ अपनी वासनापूर्ति की खातिर ही उस से संबंध जोड़ा था.

लखन जा चुका था, कजरी अंदर ही अंदर टूट कर फिर बिखर चुकी थी. पर इस बार वह पहले की तरह एक कमजोर औरत नहीं थी, जो अपनी बेबसी का रोना ले कर बैठे. सो, दूसरे दिन से ही उस ने सुमि पर भाईबहनों की जिम्मेदारी छोड़ कर काम पर जाना शुरू कर दिया.

इधर, पड़ोस में रहने वाला 22 साल का दीनू उस की छोटी बेटी रीना पर गलत निगाह रखता था. रीना 9 साल की एक अबोध बालिका थी, जिसे अकसर वह चौकलेट वगैरह का लालच दे कर अपने पास बुलाने की कोशिश करता था. एक दिन सुमि ने चौकलेट खाती रीना के शरीर पर उस के रेंगते हाथों को देख कर मां को तुरंत बताया था. कजरी ने भी इस वाकए को हलके रूप में न ले कर दीनू के मांबाप से जा कर तुरंत इस की शिकायत की थी. उस के बाद दीनू ने सब के सामने उस से माफी मांगी थी.

कुछ दिनों शांत बैठ कर दीनू फिर से वही काम दोहरा रहा था. कजरी को समझ नहीं आ रहा था कि आखिर वह क्या करे. कैसे बुरी नीयत व बुरी निगाह रखने वाले लोगों से अपनी बच्चियों को बचाए. खुद उस की देह भी तो उस के लिए बड़ी दुखदाई बन चुकी थी. मर्दों की पैनी निगाहें उस के शरीर पर यों फिसलती थीं मानो कपड़ों के अंदर तक झांक लेना चाहती हों.

पति की छोड़ी औरत शायद हर मर्द की जागीर हो जाती है. जिस पर हर कोईर् हाथ साफ करना चाहता है. कजरी के अंदर की औरत बहुत अकेली व लाचार हो गई थी. क्या बिना आदमी के औरत का कोई वजूद नहीं है? आखिर औरत को इतना कमजोर क्यों बनाया है? उस की बेचैनी आंसू बन कर उस के गालोें पर ढुलकने लगी. रात को न जाने कब उस की आंख लगी.

सुबह उठी तो सिर भारी हो रहा था.

आंखें भी जल रही थीं. देररात तक जागने से ऐसा हुआ है, यह  सोच कर कजरी ने उठने की कोशिश की परंतु शरीर ने साथ न दिया.सुमि ने मां को सहारा देने के लिए हाथ बढ़ाया, तो चौंक पड़ी, ‘‘आई, तुझे तो तेज बुखार है.’’

‘‘हां रे, मुझ से तो उठा भी नहीं जा रहा,’’ कजरी पर बेहोशी छाती जा रही थी. शायद बारिश में भीगने से उसे बुखार ने जकड़ लिया था.

मां की हालत देख कर सुमि घबरा गई. मां को वैसे ही छोड़ कर वह दौड़ कर पड़ोस से विमला काकी को बुला लाई. विमला काकी के पति औटो चलाते थे. जल्दी से कजरी को अपने औटो में बैठा कर वे उसे पास के अस्पताल ले गए.

कजरी की बिगड़ती हालत देख कर डाक्टर ने उसे वहीं ऐडमिट कर ग्लूकोस की बोतल चढ़ाने की सलाह दी. जब तक वह हौस्पिटल में रही, विमला काकी ने उस की पूरी देखभाल की और हौस्पिटल का बिल भी उन्होंने ही भरा.

कजरी घर पर तो आ गई लेकिन कमजोरी के चलते उस से उठतेबैठते नहीं बन रहा था. कुछ पैसे जो उस ने बचा कर रखे थे, वे घर के खानेखर्च में खत्म हो गए. अभी विमला काकी का उधार पूरा बाकी था.

‘‘आई, आज आटा खत्म हो गया है, तेल भी नहीं बचा. खाना कैसे बनाऊं?’’ सुमि ने एक सुबह कुछ झिझकते हुए मां से कहा. काम पर गए उसे एक हफ्ता हो गया था.

‘‘आज कुछ अच्छा लग रहा है. आज जाती हूं काम पर. उधर से आते वक्त सब किराना लेती आऊंगी. तब तक तुम पास वाली दुकान से दूध और ब्रैड ले आना और चाय बना कर उस के साथ टोस्ट खा लेना,’’ अपने पास बचे 50 रुपए का आखिरी नोट सुमि को पकड़ाते हुए वह बोली.

काम पर जा कर उसे बहुत बड़ा झटका लगा. उस की मालकिन ने बगैर बताए इतने दिनों की छुट्टी करने पर उसे काम से हटा कर दूसरी बाई रख ली थी. उस ने लाख मिन्नतें कर उन्हें समझाने की भरपूर कोशिश की कि उस ने जानबूझ कर छुट्टी नहीं मारी. लेकिन उन का कलेजा न पसीजा. उन्होंने उसे दोबारा काम पर रखने से साफ मना कर दिया.

दुखी मन से कजरी वहां से चल पड़ी कि तभी बाहर से मालिक की गाड़ी आती दिखाई दी. मन में उम्मीद की एक किरन जागी. शायद मालिक को उस की परेशानी समझ दया आ जाए और वे मालकिन को समझा कर उसे फिर काम पर रख लें. कुछ हौसला कर के उस ने पास जा कर मालिक को अपनी मजबूरी की पूरी दास्तां सुना दी. ध्यान से उस की परेशानी सुन कर मालिक ने धीमे स्वर में उसे कुछ समझाया, जिसे सुन कर एक बार फिर उस के होश उड़ गए. तेज कदमों से चलते हुए वह उन के बंगले से बाहर निकल आई. पीछे से मालिक उसे आवाज लगाते रह गए.

मालिक के शब्द अभी भी उस के कानों में गूंज रहे थे, ‘देखो, तुम चिंता मत करो, मैं तुम्हें भरपूर पैसा दूंगा. बस, बदले में मैं तुम्हें जब बुलाऊं, चली आना.’ छि, उसे अब अपनेआप से भी घिन आने लगी थी. क्या औरत के शरीर में अब यही रह गया है? उस के काम, उस के हुनर की कोई कीमत ही नहीं है? वह मालिक की बात को अनसुनी कर चली तो आई थी, पर पेट की रोटी के लिए जुगाड़ करने का सवाल अब भी अपनी जगह मुंहबाए खड़ा था.

अब कोई रास्ता दिख नहीं रहा था कजरी को. ‘घर में खाने के लिए अन्न का दाना नहीं है,’ कजरी अपनेआप में ही बड़बड़ाती जा रही थी. आसपास के दोचार घरों के गेट खड़का कर उस ने उन से कोई काम देने की गुहार लगाई. एकदो लोगों ने उसे बाद में आने को कहा भी, पर फिलहाल तो उस के पास एक भी पैसा नहीं था. काम पर आते वक्त उस ने यही सोचा था कि मालकिन से कुछ एडवांस मांग लेगी. पर अब तो उस के पास काम भी नहीं था.

‘चल कर कुछ किराना ही उधार ले लेती हूं, बाद में चुका दूंगी,’ सोचते हुए कजरी बाबूलाल की दुकान की तरफ चल दी.

‘‘भैया, कुछ सामान लेना है,’’ कुछ झिझकते हुए उस ने बाबूलाल से कहा.

‘‘पहले पुराना हिसाब चुकता कर दो, 1,250 रुपए हो रहे हैं,’’ बाबूलाल ने उसे गहरी नजरों से देखते हुए कहा.

‘‘हमेशा ही चुका देती हूं, भैया. हां, इस बार जरूर कुछ देर हो गई. पर मैं जल्द ही आप के सारे रुपए चुका दूंगी,’’ कजरी ने लगभग गिड़गिड़ाते हुए कहा.

‘‘माफ करना, मैं ने यहां कोई धर्मखाता नहीं खोल रखा है, जो मुफ्त में ही सब को जलपान कराता जाऊं,’’ बाबूलाल ने उसे दुत्कारते हुए कहा.

‘‘आज मेरा काम छूट गया है, लेकिन मैं विश्वास दिलाती हूं कि जल्द ही कोई काम ढूंढ़ कर आप की पूरी उधारी चुका दूंगी,’’ कह कर कजरी ने बेबसी से अपने हाथ जोड़ दिए.

‘‘काम तो मैं भी तुम्हें दे सकता हूं, अगर तुम चाहो तो. इस से तुम्हारा आज तक का पूरा उधार चुक जाएगा और ऊपर से कुछ कमाई भी हो जाएगी.’’ बाबूलाल की आंखों से टपकती लार देख कर कजरी सहम गई.

जाने कैसे ये भेडि़ए एक औरत की मजबूरी को सूंघ कर अपना दांव गांठते हैं. कजरी ने गहरी सांस छोड़ी और दुकान के बाहर आ गई.

मोड़ तक आतेआते वह कुछ ठिठक कर खड़ी हो गई. घर जा कर बच्चों को क्या खिलाएगी? बच्चों के भूख से कलपते चेहरे उसे साफ दिखाई पड़ रहे थे. मकान का किराया कहां से आएगा? विमला काकी का पूरा उधार अभी बाकी है. उफ, कैसे होगा यह सब? कजरी के दिल और दिमाग में एक जंग सी छिड़ गई थी. दिल कहता था…यह गलत है जबकि दिमाग कुछ ज्यादा ही व्यावहारिक हो चला था, जो हालफिलहाल की स्थिति से कैसे निबटा जाए, यह सोच रहा था. आखिरकार, एक औरत के सतीत्व पर मां की ममता भारी पड़ गई. कजरी के दुकान में दोबारा प्रवेश करते ही बाबूलाल की आंखों में वासनाजनित चमक आ गई.

कुछ देर बाद ही कजरी दोनों हाथों में सामान लिए घर की तरफ तेजी से बढ़ी चली जा रही थी. सामान्यतया रोज खुला रहने वाला दरवाजा आज भीतर से बंद था. अंदर से आती घुटीघुटी सिसकारी की आवाज ने कजरी को तनिक संशय में डाल दिया. किसी अनिष्ट की आशंका से उस का मन कांप गया. जोरजोर से बच्चों को आवाज लगा कर उस ने दरवाजा पीटना शुरू कर दिया. पर दरवाजा न खुला.

इतने में सुमि और कमल को बाहर से आता देख कजरी चीख पड़ी, ‘‘रीना कहां है सुमि?’’

‘‘अंदर ही होगी, आई. मैं कुछ देर पहले ही ब्रैड और दूध लेने गई थी और यह कमल मेरे पीछे लग लिया. बहुत समझाया, पर माना ही नहीं.’’

तब तक चिल्लाने की आवाज सुन कर आसपड़ोस से कई लोग निकल कर जमा हो गए. तुरंतफुरत ही दरवाजा तोड़ दिया गया. दरवाजा टूटते ही कजरी अंदर घुसी और कमरे के एक कोने में रीना को बेसुध पड़ा देख बदहवास सी हो गई. तभी भीतर से एक साया निकल कर बाहर की तरफ भागा. हां, वह दीनू ही था, जिस ने रीना के अकेले होने का फायदा आज उठा ही लिया था. यह सब इतना अचानक हुआ कि किसी को कुछ समझ ही नहीं आया.

शोरगुल की आवाज से विमला काकी भी आ चुकी थीं. कजरी ने रीना को उठानेहिलाने की बहुत कोशिश की, मगर सब बेकार था. रीना बेजान हो चुकी थी. एक नन्ही कली आज फिर किसी वहशी दरिंदे की बुरी नीयत का शिकार हो चुकी थी. कजरी सामने पड़ी सचाई स्वीकार नहीं कर पा रही थी. अपनी प्यारी गोलू का यह हाल देख कर वह कांप उठी थी. उस की पूरी दुनिया ही जैसे उजड़ गई थी. सुमि लगातार रोए जा रही थी और कमल सहमा हुआ एक तरफ खड़ा हुआ था.

लोगों की आपसी चर्चा चालू थी. कोई पुलिस को बुलाने की बात कर रहा था तो कोई रीना को डाक्टर के पास ले जाने को कह रहा था. कजरी अचानक उठी और पलंग के नीचे से हंसिया निकाल कर बिजली की फुरती से बाहर निकल गई. उधर, दीनू जल्दीजल्दी एक बैग में अपने कुछ कपड़े भर कर घर से निकलने ही वाला था कि कजरी ने उस का रास्ता रोक लिया.

‘‘मुझे माफ कर दो कजरी भाभी, मुझ से बहुत बड़ी गलती हो गई. पता नहीं मुझे क्या हो गया था. मैं उसे मारना नहीं चाहता था, वह चिल्ला न सके, इसलिए मैं ने उस का मुंह बंद किया. मुझे नहीं…’’ दीनू अपनी सफाई देता रह गया और कजरी ने उस पर हंसिये से प्रहार करना शुरू कर दिया.

‘‘नीच, तू ने मेरी गोलू को क्यों मारा, क्या बिगाड़ा था उस मासूम ने तेरा,’’ कजरी चीखती जा रही थी. तभी पीछे से विमला काकी ने आ कर कुछ लोगों की मदद से उसे रोका.

दीनू घायल हो कर गिर पड़ा था. इलाके की पुलिस ने तुरंत ही दीनू को अस्पताल भेजा. और पूछताछ में लग गई. रीना की मृतदेह एम्बुलेंस में ले जाई जा रही थी. उपस्थित सभी लोगों की आंखें नम थीं. इतनी देर से मूकदर्शक बनी कजरी ने अचानक अट्टहास करना शुरू कर दिया. भीड़ में से किसी ने कहा, ‘वह पागल हो गई है.’ एक विमला काकी ही ऐसी थीं जिन्हें कजरी में एक परित्यक्त मां की बेबसी और हताशा दिखाई दे रही थी, जो अपना सबकुछ दांव पर लगा कर भी अपनी मासूम बच्ची को नहीं बचा पाई.

Hindi Love Story : ड्रीम डेट

Hindi Love Story : सच तो यह है कि आरव से मिलना ही एक ड्रीम है और जब उस डे और डेट को अगर सच में एक ड्रीम की तरह से बना लिया जाए तो फिर सोने पर सुहागा. हां, यह वाकई बेहद रोमांटिक ड्रीम डेट थी, मैं इसे और भी ज्यादा रोमांटिक और स्वप्निल बना देना चाहती थी. कितने महीनों के बाद हमारा मिलना हुआ था. एक ही शहर में साथसाथ जाने का अवसर मिला था. कितनी बेसब्री से कटे थे हमारे दिनरात, आंसूउदासी में. आरव को देखते ही मेरा सब्र कहीं खो गया. मैं उस पब्लिक प्लेस में ही उन के गले लग गई थी. आरव ने मेरे माथे को चूमा और कहा, ‘‘चलो, पहले यह सामान वेटिंगरूम में रख दें.’’

‘‘हां, चलो.’’

मैं आरव का हाथ पकड़ लेना चाहती थी पर यह संभव नहीं था क्योंकि वे तेजी से अपना बैग खींचते हुए आगेआगे चले जा रहे थे और मैं उन के पीछेपीछे.

‘‘बहुत तेज चलते हो आप,’’ मैं नाराज सी होती हुई बोली.

‘‘हां, अपनी चाल हमेशा तेज ही रखनी चाहिए,’’ आरव ने समझने के लहजे में मुझ से कहा.

‘‘अरे, यहां तो बहुत भीड़ है,’’ वे वेटिंगरूम को देखते हुए बोले. लोगों का सामान और लोग पूरे हौल में बिखरे हुए से थे.

‘‘अरे, जब आजकल ट्रेनें इतनी लेट हो रही हैं तो यही होना है न,’’ मैं कहते हुए मुसकराई.

‘‘कह तो सही ही रही हो. आजकल ट्रेनों का कोई समय ही नहीं है,’’ वे मुसकराते हुए बोले.

मेरी मुसकान की छाप उन के चेहरे पर भी पड़ गई. ‘‘फिर कैसे जाएं, क्या घर में बैठें?’’ मैं ने पूछा.

‘‘अरे नहीं भई, आराम से फ्लाइट से जाओ,’’ उन्होंने जवाब दिया.

‘‘यह भी सही है, आजकल फ्लाइट का सफर राजधानी ऐक्सप्रैस से सस्ता है.’’

वे हंसे, ‘‘बिलकुल ठीक कहा. कुछ समय बाद देखना, फ्लाइट वाले जोरजोर से आवाजें लगाएंगे. आओ, आओ, एक सीट बची है यहां की, वहां की. जैसे बस वाले लगाते हैं.’’

उन की बात सुन कर मैं भी जोर से हंस दी.

इसी तरह से मुसकराते, बतियाते हुए लेडीज वेटिंगरूम आ गया था. किसी तरह से उस में अपने सामान के साथ उन का सामान सैट किया.

‘‘चलो, अब बाहर चलते हैं, यहां बैठना तो बड़ा मुश्किल है. लेकिन बाहर सर्दी लगेगी.’’

‘‘नहीं, कोई सर्दीवर्दी नहीं. आओ,’’ वे मेरा हाथ पकड़ते हुए बोले.

मैं किसी मासूम बच्चे की तरह उन का? हाथ पकड़े बाहर की तरफ चलती चली गई.

‘‘चलो आओ, पहले तुम्हें यहां की फेमस चाय की दुकान से चाय पिलवाता हूं.’’

‘‘आप को यहां की चाय की दुकानें पता हैं?’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं पता होंगी, क्या मैं यहां से कहीं आताजाता नहीं?’’

मैं जवाब में सिर्फ मुसकराई.

‘‘सुन भई, जरा 2 बढि़या सी चाय ले कर आओ,’’ उन्होंने वहां पहुंचते ही अपनी ठसकभरी आवाज में और्डर दिया.

कितने अपनेपन से कहा, जैसे जाने कब से उसे जानते हैं. वे शायद मेरे मन की भाषा समझ गए थे.

‘‘अरे, यह अपना यार है, बहुत ही बढि़या चाय बनाता है. मैं तो पहले कई बार सिर्फ चाय पीने के लिए ही यहां चला आता था.’’

वे बोल रहे थे और मैं उन के चेहरे को देख रही थी. न जाने कुछ खोज रही थी या उस चेहरे को अपनी आंखों में और भी ज्यादा भर लेना चाहती थी.

चाय मेज पर रख कर जाते हुए लड़के ने पूछा, ‘‘कुछ और भी चाहिए?’’

‘‘नहीं, बस यहां की चाय से ही तृप्त हो जाता हूं.’’

चाय वाकई स्वादभरी थी. इंतजार की सारी थकान खत्म हो गई थी. लेकिन यह मेरी अपेक्षाओं के अनुकूल नहीं था. मैं तो उन के साथ गुजारे एकएक पल को बेहद खूबसूरत और रोमांटिक बना लेना चाहती थी. जैसे, चांद की रोशनी में बैठ कर उन्हें घंटों निहारती रहूं और वे मेरी गोद में सिर रखे, मेरे माथे को चूमते हुए मेरी आंखों में खा जाएं.

‘‘अरे चलना नहीं है? चाय इतनी अच्छी लगी कि और पीने का दिल कर रहा है?’’ आरव ने मुझे सोच में डूबे देख कर टोका.

‘‘नहींनहीं बाबा, ऐसा नहीं है. चलो, चलते हैं.’’

‘‘अब यह बाबा कौन है, यह भी बता दो हमें?’’ वे खूब जोर से खिलखिला कर हंस दिए, कितने प्यारे लगते हैं ये यों हंसते हुए.

‘कहीं किसी की नजर न लग जाए हमारे प्यार को, हमारी मुसकान को.’ मैं ने मन ही मन सोचा.

रात का समय था और ट्रेन अभी 2 घंटे और लेट थी. इस समय को गुजारना अब कोई मुश्किल काम नहीं था, क्योंकि मेरा प्यार, मेरा आरव मेरे साथ है. ‘वह हर जगह बहुत प्यारी है जहां मेरा आरव हो,’ मैं मन ही मन बोली. मैं ने आरव का हाथ अपने हाथ में कस कर पकड़ रखा था, ऐसे जैसे कि अगर पकड़ थोड़ी भी ढीली पड़ी तो वे कहीं मुझ से अलग न हो जाएं. मैं ने उस दूरी के कष्ट को इस कदर सहा है, इतने आंसू बहाए हैं कि अब साथ में हैं तो पलभर को भी उन्हें दूर या अलग नहीं होने देना चाहती थी.

‘‘साथ ही हूं तेरे न, फिर कैसी परवा?’’ आरव ने मुसकराते हुए पूछा.

‘‘हां, मैं इस साथ को महसूस करना चाहती हूं,’’ मैं भी मुसकराते हुए बोली.

‘‘बड़े अच्छे लगते हैं… यह धरती, यह नदिया, यह रैना और तुम…’’ आरव गुनगुना रहे थे और मैं उस मधुर धुन में खोई उन का हाथ थामे हर बात से बेफिक्र सी चाल से चल रही थी.

जनवरी का महीना और सर्द मौसम, इसलिए स्टेशन पर लोग न के बराबर थे, हालांकि ट्रेन बहुत लेट चल रही थी. लोग वेटिंगरूम में ही खुद को किसी तरह से ऐडजस्ट किए हुए थे या जो कुछ लोग बाहर बैठे भी थे वे खुद को खुद में ही सिकोड़ेसमेटे दुबके हुए से बैठे थे. मैं इस सर्द मौसम में अपने आरव का हाथ पकड़े स्टेशन के एक छोर से दूसरे छोर तक घूम रही थी. चांद पूरे निखार के साथ आसमान में चमक रहा था. मैं ने उंगली उठा कर आरव को चांद दिखाते हुए कहा, ‘‘देखो, यह चांद गवाह है न हमारे प्रेम का, कितनी मोहकता से हमें ही देख रहा है.’’

‘‘हमारे प्रेम को किसी गवाह की जरूरत ही कब है?’’ वे बोले.

मैं सिर्फ मुसकरा कर रह गई और उस ताप, उस ऊष्मा में खोती हुई उसे अपने बेहद करीब महसूस करते हुए साथसाथ चलती रही. प्रेम में बिताया और प्रेम के साथ का एकएक पल हमेशा यादगार होता है. उसे हम एक ड्रीम की तरह अपने अंतर्मन में बसाए रहते हैं.

‘‘सुनो, तुम ने खाना खाया?’’ आरव ने मौन तोड़ा और मेरी तरफ मुखातिब होते हुए पूछा.

‘‘हां,’’ मैं ने संक्षिप्त सा जवाब दिया.

‘‘सही,’’ वे संतुष्ट होते हुए बोले.

‘‘आप ने?’’

‘‘हां भाई, मैं तो खा कर ही आया हूं.’’

‘‘सुनो, मेरे पास बिस्कुट और केक रखे हैं, आप खाएंगे?’’

‘‘न, अभी कुछ नहीं खाना. चाय भी पी ली है और सफर भी करना है, रात का सफर है.’’

इस बात पर मैं ने मुसकराते हुए अपना सिर हिलाया.

पूरे एक घंटे तक यों ही दीवानों की तरह हम उस स्टेशन के प्लेटफौर्म पर एकदूसरे का हाथ पकड़े टहलते रहे. आरव ने कुछ इस तरह से मेरे हाथ को अपने हाथ में सहेज रखा था मानो कोईर् फूल. मैं कभी मुसकरा रही थी और कभी आरव की बांहों पर अपना सिर टिका दे रही थी. कितना मजबूती का एहसास मन में भर रहा था, मानो खुशियां सिमट आई हों.

सच में उन के होने से बढ़ कर मेरे जीवन में कोई और खुशी नहीं है. उन के इंतजार में बिताए दिन, आंखों से बहाए गए आंसू, सब न जाने कहां खो गए थे. आज मैं उन के साथ अपने सारे दुख भुला कर सिर्फ मुसकराना चाहती थी. बहुत रो लिए अकेले में, अब साथ में हंसने के दिन आए हैं.

‘‘चलो, अब तुम थक गई होगी, जा कर वेटिंगरूम में बैठ जाओ.’’

‘‘और आप?’’

‘‘मैं यहीं ठीक हूं.’’

‘‘सही है. वैसे, मैं भी यहीं आप के साथ रहना चाहती हूं.’’

‘‘अरे यार, साथ ही तो हैं.’’

‘‘आरव, तुम यहां?’’ किसी ने उन को आवाज लगाते हुए कहा. वे शायद गार्ड थे और आरव के दोस्त. देखा जाए तो आरव का व्यवहार इतना अच्छा है कि वे एक बार किसी से मिलते हैं तो उस के दिल में उतर जाते हैं और फिर सालोंमहीनों न मिलने के बाद भी लोग उन्हें याद रखते हैं.

‘‘और सुना, क्या हाल है तेरा और तेरे दोनों बौडीगार्ड्स का?’’ आरव ने गरमजोशी से हाथ मिलाते हुए कहा.

‘‘सब सही, भाई.’’

इन को बौडीगार्ड की क्या जरूरत. मैं ने मन ही मन में सोचा, यह कोई फिल्मस्टार तो लग नहीं रहे.

‘‘सुनो, अब तुम वेटिंगरूम में जा कर आराम से बैठो, मैं अपने यार से बातें कर लूं. बड़े दिनों के बाद दिखाई दिया है और सब से ज्यादा खुशी की बात यह है कि उस ने मुझे पहचान लिया है.’’

‘‘जी.’’

अब तो मुझे जाना ही था लेकिन मैं जाना नहीं चाहती थी. इतनी मुश्किल से मिले इस साथ का एकएक पल साथ में ही बिताना चाहती थी. खैर, मैं अंदर आ

गई और अपना मन बाहर आरव के पास  छोड़ आई.

करीब एक घंटा गुजर गया और मैं वहां आसपास के लोगों से बोलती व मोबाइल यूज करती रही. अब मुझे घुटन सी होने लगी. आरव, तुम इतने लापरवाह कैसे हो सकते हो, कोई तुम्हारे इंतजार में बैठा है और तुम करीब हो कर भी मेरे करीब नहीं हो.

मुझे बहुत तेज गुस्सा आ रहा था, नजरें लगातार वेटिंगरूम के गेट की तरफ लगी हुई थीं. आखिर नहीं रहा गया और मैं खुद ही बाहर निकल आई, देखा दूरदूर तक वे कहीं नहीं दिख रहे थे. अब तो ट्रेन के आने का समय भी हो गया है. आधे घंटे में ट्रेन आ जाएगी, मैं ने अपनी नजरें चारों तरफ घुमाईं तो देखा सामने से दोस्त से बतियाते चले आ रहे हैं.

मैं ने उन को देखा और नजरों से ही इशारा किया. वे समझ गए और करीब आते हुए बोले, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘कुछ नहीं, यह बताने आई थी कि ट्रेन के आने का समय हो गया है.’’

‘‘हां यार, पता है.’’

‘‘तो चलिए, सामान ले आएं.’’

‘‘अरे ले आएंगे, अभी बहुत देर है.’’

‘‘जी नहीं, अब देर नहीं है. यहां से सामान ले कर जाने में ही करीबकरीब 10 मिनट लग जाएंगे.’’

‘‘हां, यह ठीक है.’’ उन्होंने आखिर सहमति में सिर हिलाया. भरे हुए वेटिंगरूम में किसी तरह सामान निकाल कर बाहर ले कर आए क्योंकि लोग फर्श तक पर बैठे हुए थे और इस का कारण सिर्फ एक ही था कि ट्रेन हद से ज्यादा लेट थी.

हम लोग हमेशा फ्लाइट ही से जाते हैं परंतु इस बार हमें जाना था ट्रेन के फर्स्ट क्लास के एसी कोच में, कुछ अलग या बिलकुल अलग सा एहसास महसूस करने के लिए. ट्रेन प्लेटफौर्म पर बस आने ही वाली है, अनाउंसमेंट हो गई थी. मैं और आरव अपनेअपने सामान को ले कर प्लेटफौर्म पर खड़े हो गए थे. ‘‘यार, इस सरकार के राज में ट्रेनों ने रुला ही दिया. मैं इतना बड़ा हो गया, लेकिन आज तक कभी भी इतनी लेट ट्रेन नहीं देखी. अनाउंसमैंट हो गई है लेकिन ट्रेन का कहीं अतापता ही नहीं,’’ आरव बोले. सच ही तो कह रहे हैं, जिसे देखो वह परेशान है. वेटिंगरूम भरे हुए हैं, लोग जमीन पर बैठे हुए हैं, क्या करें.

अकेली महिलाएं, बच्चे सफर कर रहे हैं. वे भी ट्रेन के लेट होने से दुखी हैं और उन के साथसाथ घर में बैठे उन के परिवार वाले भी. खैर, ट्रेन प्लेटफौर्म पर लग गई. मानो सब को सांस में सांस आ गई है. एसी कोच के फर्स्ट क्लास वाले कूपे में चढ़ते हुए लगा जैसे किसी घर में प्रवेश कर लिया है जहां हमारा अपना कमरा हर सुविधा से युक्त है. सीनरी, फ्लौवर पौट से सजे हुए उस कूपे में 2 सीटें थीं, एक ऊपर और एक नीचे. नीचे वाली सीट को खींच कर बैड की तरह बना कर हम दोनों बैठ गए, फिल्मों में देखे हुए वे सीन याद आ गए जो पुरानी फिल्मों में हुआ करते थे, जब गाने गाते हुए हीरोहीरोइन अपने हनीमून इसी तरह की ट्रेन के कूपे में मनाते थे.

‘‘सुनो आरव, जब हम बात करते हैं न, तो कितना हलकाहलका सा हो जाता है मन. है न?’’

‘‘हां, तुम सही कह रही हो, एकदम फूल की तरह से. जब मैं तुम से अपने मन की बात कर लेता हूं तो वाकई बहुत ही अच्छा लगता है.’’

‘‘लेकिन मुझे कुछ भी समझ नहीं आता कि दुनिया में ऐसा क्यों होता है?’’ मैं ने कहा.

‘‘ऐसा?’’

‘‘हां, ऐसा ही कि हम जिस से बहुत ज्यादा प्यार करते हैं वह हम से दूर क्यों हो जाता है? क्यों वह उसे दुख देता है जिस ने अपनी पूरी जान सौंप दी. पूरी जिंदगी उस के नाम कर दी? क्या उस का दिल नहीं कसकता? क्या उसे यह एहसास नहीं होता कि वह तो पलपल में उसे जी रही है और वह अपने एहसास तक नहीं दे रहा है, न ही शब्द दे रहा है. क्या यह स्वार्थ नहीं है? चुप क्यों हो? आखिर इंसान ऐसा कर कैसे पाता है? क्या यही प्रेम है? वैसे, प्रेम क्या होता है, मुझे बताओ?’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं होता. कभीकभी परिस्थितियां ऐसी बन जाती हैं कि इंसान मजबूर हो जाता है.’’

‘‘अच्छा, आरव सुनो, मेरा एहसास, प्यार, समर्पण और विश्वास सबकुछ तुम्हारा ही तो है. मेरी कैसे याद नहीं आती, तुम कैसे मुझे भूल जाते हो?’’

‘‘नहीं, भूलता नहीं. कहा न मजबूरी.’’

‘‘इतनी मजबूरी कि कोई घूंटघूंट दर्द पी रही है बिना कहे, बिना सुने. मेरे आंसू तुम्हें क्यों नहीं दिखते क्योंकि मैं छिपछिप कर रोती हूं और सामना होने पर अपने आंसू छिपा लेती हूं ताकि तुम को कोई दुख न हो. क्या मेरी कमजोरी समझते हो, इसलिए ऐसा करते हो?’’

‘‘ समझ नहीं आ रहा, क्या कहूं.’’

‘‘कहो न कुछ, मेरे दर्द को समझे. मैं कुछ कह नहीं पाती हूं.’’

‘‘समझता हूं, सच में. तुम जानती हो कि मैं कभी झठ नहीं बोलता.’’

‘‘तो सब कह देना चाहिए क्योंकि प्रेम कहनेसुनने से और बढ़ता है, है न? जब हम प्रेम करते हैं तो फिर यह क्यों सोचते हैं कि वह कुछ न कहे, बस सामने वाला कहे.

‘‘प्रेम गली अति संकरी जामें दाऊ न समाई.

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहीं.’’

कुछ समझ आया, प्यार में अहं की जगह नहीं.’’

‘‘एक ही बात है, चाहे कोई कह दे.’’

‘‘लेकिन अगर एक ही बारबार कहता रहे, दूसरा कभी पहल न करे तो?’’

‘‘तो भी कोईर् बात नहीं? तुम प्रेम का अर्थ समझती ही नहीं हो?’’

मुझे पता था कि आरव किसी तरह से भी अपनी ही बात रखेंगे चाहे उन से कितनी भी बहस क्यों न कर लूं, जीतेंगे वही और मैं हार जाऊंगी. वैसे, हार जाने में भी जीत छिपी होती है. हार कर जीत जाना बेहतर है, जीत के हार जाने से.

खैर, मेरी खवाबोंभरी आंखों में थकान की वजह से नींद भर गईर् थी. कल से आने की तैयारी और आज सुबह ही घर से निकलना और यहां पहुंच कर ट्रेन के इंतजार में शरीर दर्द से जवाब देता लग रहा था, बस, अब सो जाओ.

आरव ने सामान सही से लगाया और मुझे कस कर सीने से लगाते हुए मेरे माथे को चूम लिया. आह, मानो जेठ की तपती हुई रेत पर सागर की शीतल लहर आ कर ठंडक दे रही हो. सच में कितना मुश्किल होता है न? यों महीनों और सालों एकदूसरे से दूर रहना.

‘‘सुनो आरव, तुम अपने दोस्त से क्या कह रहे थे कि दोनों बौडीगार्ड्स ठीक हैं? क्या वह कोई बड़ी हस्ती है जो उसे यों बौडीगार्ड की जरूरत पड़ी?’’

‘‘अरे नहीं यार, उस की 2 प्रेमिकाएं हैं न, उन के बारे में कह रहा था.’’

‘‘2-2 प्रेमिकाएं? लेकिन यह गलत है न? शादी क्यों नहीं कर लेते किसी एक से?’’

‘‘वह पहले से ही शादीशुदा है,’’ आरव मुसकराते हुए बोले.

‘‘शादीशुदा हो कर भी 2-2 प्रेमिकाएं?’’ मैं चौंक सी गई.

‘‘हां यार, आजकल की दुनिया में यही सब चल रहा है, तुझे कुछ पता भी है दुनियादारी के बारे में? खैर छोड़, हम क्यों अपना दिमाग खराब करें? सुनो, मैं तुम्हारे लिए कुछ लाया हूं.’’

‘‘मैं भी.’’

‘‘अच्छा अब पहले तुम दिखाओ.’’

‘‘नहीं, पहले तुम.’’

‘‘अरे, लेडीज फर्स्ट.’’

‘‘नो, बैड मैनर, पहले आप को दिखाना चाहिए.’’

‘‘ठीक है, मैं हारा. वरना पहले आप, पहले आप में रात गुजर जाएगी.’’

मुझे जोर की हंसी आ गई, आरव भी मुसकरा दिए. कितना अच्छा लगता है न, यों हंसते हुए खुशियों को दामन में भरते हुए.

आरव ने अपनी पैंट की जेब से एक डब्बी निकाली और उस में से डायमंड की अंगूठी निकाल कर मुझे पहना दी.

‘‘वाओ, कितनी प्यारी है. और, मैं यह लाई हूं,’’ मैं ने एक गरम शौल उन के गले में डालते हुए कहा, ‘‘देखो, तुम पहाड़ पर रहते हो, तो तुम्हें ठंड भी बहुत लगती होगी. है न?’’

‘‘हां, सच में.’’

‘‘तो अब इसे हमेशा अपने साथ में रखना,’’ कहते हुए मैं उन के गले से लग गई.

ट्रेन अपनी रफ्तार से चल रही थी और हमारी धड़कनें भी साथसाथ धड़क रही थीं जैसे ट्रेन और हमारी सांसों की रफ्तार एक सी हो गई हो.

 कहानी- सीमा सक्सेना असीम

Story 2025 : आखिर कब तक

Story 2025 : शाम के साढ़े 4 बजे रोजमर्रा की तरह मैं टीवी खोल कर देशविदेश की खबरें देखने लगा. थोड़ीबहुत देशविदेश और खेल जगत की खबरों के अतिरिक्त, बाकी खबरें लगभग वही थीं, कुछ भी बदला हुआ नहीं था, बस तारीख और दिन के.

शाम के 5 बजते ही फिर विभिन्न चैनलों में शुरू हो जाता है कहीं बहस, कहीं टक्कर, कहीं दंगल, तो कहीं ताल ठोंक के. बहुत बार न चाहते हुए भी मैं इन को देखने लग जाता हूं, यंत्रचलित सा. इस में आमांत्रित किए गए वक्ताओं में अधिकतर विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के प्रवक्ताओं के अतिरिक्त कुछ राजनीतिक विश्लेषक, कभी सामरिक विषयों पर चर्चा के दौरान सेना में उच्च पदों पर अपना योगदान दे चुके सेनाधिकारी और सामाजिक कार्यकर्ता होते हैं. अब तो धर्मगुरु भी खूब नजर आते हैं. एंकर कार्यक्रम के नामानुसार बहस के संचालन में पूरा न्याय करते दिखाई देते हैं.

दिनभर के चर्चित किसी सनसनीखेज ज्वलंत मुद्दे पर उठी बहस से शीघ्र ही शुरू हो जाता आरोपप्रत्यारोप का दौर. कुछ बुद्धिजीवी वक्ताओं की सही और सटीक बातों को विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के प्रवक्ताओं की बुलंद आवाज और आपसी तनातनी के बीच में हमेशा दबते हुए ही देखा. अकसर ही बहस मुख्य मुद्दे से भटक कर कहीं और चली जाती है, जिस का विषय से दूरदूर तक कोई लेनादेना दिखाई नहीं देता. यह चैनल क्या दिखा रहे हैं? और, हम क्या देख रहे हैं? इसी कशमकश में दर्शकगण उलझे ही होते हैं कि एंकर के द्वारा कार्यक्रम की समाप्ति की घोषणा कर दी जाती है.

आज का विषय था- दो समुदायों में हुई हिंसा की झड़प से पूरे देश में फैली आगजनी की घटना, व्यक्तिगत व सरकारी संपत्ति का नुकसान और उस के परिणामस्वरूप कुछ लोगों की मौतें.

सभी वक्ता ऊंची आवाज में सारी मर्यादाओं को ताक पर रख कर अपनी बातों को सही साबित करने के लिए एकदूसरे की बखिया उधेड़ने में लगे हुए थे, और साथ ही एकदूसरे को नीचा साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे. पता नहीं, मैं कितनी देर तक इन दंगलों के उठापटक में उलझा रहता, अगर नीता मुझे नहीं टोकती.

‘‘उफ्फ, आप भी, ये क्या देखते रहते हो,‘‘ नीता ने चाय पकड़ाते हुए कहा.

नीता की बातें सुन कर मैं ने टीवी बंद कर अपना मोबाइल खोल दिया. चाय का आनंद लेते हुए व्हाट्सएप पर मैसेज चैक करने लगा. पूरा व्हाट्सएप भड़काऊ संदेशों से भरा हुआ था. मैं ने तुरंत उस एप से बाहर निकलने में ही अपनी भलाई समझी. फिर भी ऐसा कहना ईमानदारी नहीं होगी कि मैं इन भड़काऊ और अनेक बार विषाक्त खबरों से स्वयं को अछूता रख पा रहा था. कहीं न कहीं मैं प्रभावित भी हो रहा था. कई प्रश्न भी मस्तिष्क में उमड़नेघुमड़ने लगे थे. अगर ये खबरें मुझ जैसे एक शिक्षित और जागरूक व्यक्ति को प्रभावित कर सकती हैं तो अल्पशिक्षितों की मनःस्थिति का क्या होता होगा.

7 साल हो गए थे मुझे बैंक से रिटायर हुए. दोनों बच्चे भी अन्य शहरों में अपनेअपने जीवन में व्यवस्थित हो गए थे. घर पर मैं और मेरी पत्नी नीता अपने जिम्मेदारियों से मुक्त एक आराम की जिंदगी बिता रहे थे.

इन सब बातों को देख कर मुझे नौकरी के शुरुआती दौर की अपनी गांव की वह पोस्टिंग याद आई. मुझे बरेली में बैंक में अफसर के पद पर नियुक्त हुए अभी 2 ही साल हुए थे कि सितंबर माह 1979 को मुझे डेपुटेशन पर बरेली से 47 किलोमीटर दूर, एक रिमोट गांव में शाखा प्रबंधक के रूप में भेज दिया गया. उस गांव की पोस्टिंग को उस समय ‘काला पानी’ की सजा कहते थे, जोकि वहां पहुंचते ही सही सिद्ध भी हो गया था.

गांव मुख्य सड़क से 7-8 किलोमीटर दूर था. कोई भी वाहन वहां पर उपलब्ध नहीं था. कंधे पर अपने भारी बैग के साथ खेतों के बीच से होता हुआ ऊबड़खाबड़ पगडंडियों पर पैदल चलते हुए गांव तक पहुंचतेपहुंचते मेरी हालत पस्त हो गई थी. सीधे बैंक पहुंचा, जहां पर एक क्लर्क और चपरासी मेरा इंतजार कर रहे थे. गरमी और थकान से बेहाल जब मैं ने कुरसी पर बैठते ही उन्हें पंखा चलाने के लिए कहा, तो दोनों हंसने लगे.

‘साब, लाइट हो गांव में तो पंखा चलाएं.‘

‘क्या…?‘ यह मेरे लिए पहला झटका था.

‘रहने का क्या इंतजाम है?‘ मैं ने क्लर्क विनय से पूछा, जिस की कुछ महीने पहले ही नौकरी लगी थी.

‘साब, आप की खटिया भी रात में यहीं आंगन में डाल देंगे,‘ दैनिक वेतन में लगा हुआ जफर जिस बेतकल्लुफी से बोला, उस से मुझे अपनी अफसरगीरी का चोला उतरते हुए लगा.

जफर उसी गांव का रहने वाला था. मुझे अपनी दैनिक आवश्यकताओं के लिए उस पर होने वाली निर्भरता का अहसास होने लगा.

लोग इसे ‘काला पानी’ की सजा क्यों बोलते हैं, समझ में आने लगा. एक बार तो मन हुआ, जिन ऊबड़खाबड़ पगडंडियों पर चल कर अभी आया, उसी पर चल कर वापस लौट जाऊं. पर फिर 6 महीने की बात सोच कर मन मसोस कर दिल को बहला दिया.

मेरा सामान विनय के सामान के साथ बैंक के एक कोने में रख दिया गया. बैंक के उस कोने में मेज पर एक स्टोव, कुछ खाने की साम्रगी के डब्बों के अतिरिक्त चंद बरतन थे. बगल में ही एक चारपाई भी खड़ी कर के रखी हुई थी. बैंक ही आशियाना बन गया. खाना भी सुबह और शाम वहीं बैंक के अंदर बनता. पीने का पानी जफर पास के कुएं से ले आता. शौचालय का तो कोई प्रश्न ही नहीं था.

रात में जफर मेरी और विनय की खटमलों से भरी चारपाइयों को बाहर आंगन में लगा देता था. हमारे इर्दगिर्द मकान मालिक के परिवार के पुरुष सदस्यों की चारपाइयां भी बिछ जातीं. अकसर हमारी रातें खटमलों से युद्ध करते हुए गुजरती थीं.

मैं धीरेधीरे गांव को समझने लगा था. वह एक मुसलिम बहुल गांव था. 95 प्रतिशत लोग मुसलिम समुदाय के थे और शेष 5 प्रतिशत हिंदू समुदाय के. हमारे बैंक का मकान मालिक भी मुसलिम था. बैंक के अतिरिक्त वहां पर 3 और सरकारी विभाग के कार्यालय थे – ब्लौक, स्वास्थ्य और पशु चिकित्सालय. गांवों के विकास के न हो पाने का कारण सरकारी योजनाओं का सिर्फ पेपर तक सीमित रह जाने की वजह का मैं चश्मदीद गवाह बन गया. इन तीनों विभागों के कर्मचारी महीने में सिर्फ वेतन वाले दिन दिखाई देते थे. उस दिन तीनों विभागों के लोग इकट्ठा हो कर पिकनिक मनाते थे. स्वास्थ्य विभाग तो राम भरोसे था. पशु चिकित्सालय के कंपाउंडर को गांव के लोगों का डाक्टर बना देख मैं आसमान से जमीन पर गिरा.

यहां पर समय काटना भी एक अलग समस्या थी. किसान खातेदारों के दर्शन सुबह और शाम को ही होते थे. दिनभर सन्नाटा पसरा रहता था. सितंबर का महीना था. गरमी बेहाल कर रही थी. ऊपर से गांव में बिजली नहीं. मैं बहुत जल्दी औफिस टाइम में पैंटशर्ट से टीशर्ट और हाफ पैंट में आ गया.

वह पेड़ आज भी मुझे याद आता है, जिस के नीचे बिछी चारपाई पर मैं दिन में लेट कर उपन्यास पढ़ता था. चारपाई के निकट ही चारों ओर बंधी बकरियों का मिमियाना संगीत की ध्वनि उत्पन्न करता और नींद का वातावरण बनाता था. उन के मलमूत्र की गंध को मैं ने स्वीकार कर लिया था. कभीकभी अपने काम में अति व्यस्त किसी किसान को लगभग जबरदस्ती पकड़ कर चौथा साथी बना देते और हम तीनों ताश खेलने बैठ जाते. वहां हमारे मनोरंजन और जरूरी सामान की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मंगलवार और शुक्रवार को लगने वाले हाट थे, और एक ट्रांजिस्टर जिस को गांव आने से पहले मेरे एक कलीग ने मुझे साथ ले जाने के लिए कहा था.

उस गांव में बस एक ही दृश्य था, जो मेरे मन को आह्लादित करता था, वह था… गन्ने के लहलहाते खेत. गन्ने चूसने के लिए मेरा मन ललक उठता था.

‘हमीद मियां, कभी गन्ने तो खिलाओ,‘ एक दिन मैं बोल ही पड़ा.

उस समय मैं घोर आश्चर्य में पड़ गया, जब मैं ने उस को कानों पर हाथ लगा कर यह बोलते सुना, ‘ना बाबा ना… अभी तो दशहरे का पूजन ही नहीं हुआ. उस से पहले काटना तो दूर हम इन्हें छू भी नहीं सकते. एक बार देवता को चढ़ा दें, फिर तो साहब, सारा खेत आप का.‘

उस का विश्वास देख कर दोबारा मेरी बोलने की हिम्मत ही नहीं हुई.

मैं 6 महीने वहां पर रहा. सभी त्योहार दशहरा, दीवाली, ईद आए. दोनों समुदायों के लोगों को पूरे उत्साह के साथ सभी त्योहारों को मनाते देखा. एक बार भी मुझे ऐसा महसूस नहीं हुआ कि मैं किसी ऐसे गांव में हूं, जहां की अधिकतर जनसंख्या मुसलिम है. इतना आपसी सौहार्द्र था वहां दोनों समुदायों के बीच में.

आज जब मैं यह सारी खबरें देखता, पढ़ता या सुनता हूं, तो मेरे जेहन में बिताए वह 6 महीने जबतब आ जाते हैं. ऐसा लगता है, जैसे हमारे देश में कुछ विषयों के लिए वक्त थम सा गया है. आजादी के इतने सालों बाद भी ये सोच जस की तस है. इतने वर्षों में इतिहास तक बदल जाता है. कभी तो लगता है, परिस्थितियां संभलने के स्थान पर और बिखर रही हैं. बौर्डर पर सेना ने आतंकवादी गतिविधियों का मुंहतोड़ जवाब दिया… 4 आतंकवादी ढेर हो गए… हमारे भी 3 जवान शहीद हो गए. इस प्रकार के समाचार हमारे जीवन का हिस्सा बन गए हैं. कलैंडर बदल रहा है… सरकारें बदल रही हैं… दृश्य बहुत तेजी से बदल रहे हैं, अगर कुछ नहीं बदल रहा है, तो ये सब, देश की सीमाओं पर अशांति और देश के अंदर खलबली. सत्ता के लोभ में राजनीतिक पार्टियां इस आग को और भड़काने का प्रयास करती हैं. ऊपर से टीवी में लगातार प्रसारित इन समाचारों और सोशल मीडिया में तेजी से फौरवर्ड होते ये संदेश समाज में जहर घोलने का काम कर हैं, और इन की गिरफ्त में हम सब आ रहे हैं. क्या सचमुच हमें इन समाचारों को बारबार सुनने और देखने की जरूरत है? ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्‘ यह उक्ति अब समाचार प्रसारण में भी लागू होती दिख रही है.

यूरोपीय देशों ने भी बहुतकुछ देखा है. क्या कुछ नहीं हुआ उन देशों के बीच… हमेशा युद्ध क्या, महायुद्धों की स्थिति उन देशों के बीच रही. अपना वर्चस्व साबित करने के लिए देश की सीमाओं को बढ़ाने की होड़… कई युद्धों को झेलने के बाद, वे समझ गए कि इन बातों से कुछ हासिल नहीं होगा. और ये भी वे समझ गए कि पड़ोसी देशों से सौहार्द्रपूर्ण संबंध उन की सब से बड़ी ताकत होगी. सारी बातों को छोड़ कर, आपसी रंजिशें भुला कर, ये देश आगे बढ़े. आज वहां अमनचैन है. आवागमन भी इन देशों में सरल है. इन देशों के आपसी संबंधों का सकारात्मक प्रभाव इन देशों के पर्यटन पर भी पड़ा. अन्य देशों के पर्यटक शेंगेन वीजा से यूरोप के 26 देशों में आराम से घूम सकते हैं. हम भी जब पिछले साल नीता की बहन के पास डेनमार्क गए थे, तो कैसे कार से जरमनी चले गए थे. उस एक वीजा से हम स्वीडन, नार्वे, फ्रांस भी घूम लिए थे. कहीं कोई सघन जांच की प्रक्रिया से नहीं गुजरना पड़ा. इन देशों की ऊर्जा, अपने देश के विकास कामों में लगती है, सीमाओं की रक्षा में नष्ट नहीं होती. क्या ये सब हमारे देश और पड़ोसी देशों के बीच में संभव नहीं हो सकता. अगर ऐसा हो जाए, तो कितनी समस्याओं का समाधान हो जाएगा. देशों के बीच में सौहार्द्रपूर्ण वातावरण बन जाएगा. सीमा पर अमनचैन हो जाएगा और देश में रह रहे नागरिकों पर इस का सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा. दोनों देशों में आपसी भाईचारे के साथ व्यापार के क्षेत्र में भी प्रगति होगी. पर्यटन को भी बढ़ावा मिलेगा.

‘‘क्या हुआ…?‘‘ मुझे गंभीर देख नीता ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं…‘‘

‘‘आप जरा जुनैद को फोन कर दो. किचन और बाथरूम का भी एक नल खराब हो गया है,‘‘ कह कर नीता खाने बनाने किचन में चली गई और मैं जुनैद को फोन लगाने लगा.

मैं ने रात में नीता के हाथ का स्वादिष्ठ भोजन किया, बचे खाने को समेटा. नीता किचन की सफाई में लगी हुई थी. काम से निबट कर नीता टीवी देखने लगी. मैं लैपटौप पर अपनी मेल चेक करने लगा. कुछ बिलों का पेमेंट करने के बाद दूसरे शहरों में रह रहे दोनों बच्चों से उन के हालचाल पूछने लगा. मुझे बेटे से बातें करते देख नीता ने एकदम से मेरे हाथ से फोन ले लिया और प्रफुल्लित हो बेटे से बातचीत में मगन हो गई. मैं ने रिमोट उठाया और टीवी के चैनल खंगालने लगा. एक चैनल पर कवि सम्मेलन चल रहा था. एक से बढ़ कर एक कवि और कवयत्रियां. उन की कविता प्रस्तुत करने की अपनीअपनी शैलियां इतनी रोचक और मनमोहक थीं कि मैं मंत्रमुग्ध हो सुनता ही रह गया. शायर भी थे, उन का अंदाजेबयां भी इतना दिलकश था कि मजा आ गया.

नीता कब बच्चों से बात पूरी कर टीवी देखने लगी, इस का भी भान मुझे नहीं हुआ. फिर एक शायर आए और अपनी दमदार आवाज से एक समां सा बांध दिया. उन के हर शेर पर वाहवाह की आवाज गूंज रही थी. मैं भी अपने को रोक ना सका और वाहवाह की आवाज मेरे मुंह से भी निकलने लगी. शायर के अंतिम शेर पर तो वाहवाह करने वाले दर्शक अपनी जगह से उठ कर करतल ध्वनि के साथ शायर को दाद देने लगे. नीता भी अपने को रोक न पाई, वह भी ताली बजा कर दाद देने लगी. मेरा मन एक खूबसूरत अहसास से भर गया. मैं हलका महसूस करने लगा. जब इतनी खूबसूरती हमारे बीच है, तो हवा में जहर कौन घोल रहा है?

दूसरे दिन ठीक 10 बजे जुनैद पहुंच गया और आधे घंटे में ही दोनों नल ठीक कर दिए. जब भी हमें नलों आदि में कोई परेशानी आती थी, बस एक नाम दिमाग में आता था… जुनैद.

जुनैद को देख मैं सोचने लगा कि जुनैद और हमारे जैसे हजारों, लाखों नहीं, वरन करोड़ों लोग हैं, जिन को इन सियासती दांवपेंचों से कोई मतलब नहीं. सब अपनीअपनी दिनचर्या में इतने व्यस्त हैं कि उन्हें दूरदूर तक इन सब से कोई सरोकार ही नहीं है.

इसी बीच नीता ने फिर से न्यूज चैनल लगा दिया. टीवी पर खबर चल रही थी कि देश में सांप्रदायिक सौहार्द्र बिगाड़ने का कारण खुल कर सामने आया है. दिल्ली के दंगे हों या बैंगलुरु का उत्पात, पश्चिम बंगाल में हिंसा की बात हो या फिर मुजफ्फरनगर का बवाल. हर जगह सोशल मीडिया पर कुछ लोगों द्वारा भड़काऊ पोस्ट डाल कर दंगे भड़काए गए. आज पूरी दुनिया में इस के खिलाफ आवाज उठाई जा रही है.

इस खबर से फिर एक बवंडर दिमाग पर हावी होने लगा. ‘कुछ लोगों के कारण…’ सच में ये लोग सब के लिए घातक हैं और सब से ज्यादा अपने समुदाय के लिए.

एकाएक मुझे अनवर की बात याद आ गई कि जब वह औफिस के काम से अमेरिका गया था, तो महज एक मुसलिम नाम होने कारण कैसे एयरपोर्ट पर घंटों उस की चैकिंग होती रही और उस ने खुद को कितना जलील होते हुए महसूस किया. आखिर क्या दोष था अनवर का? किस के प्रभाव में वे ये सब करते हैं? इस से इन्हें क्या हासिल होगा? कौन हैं, जो सब के अंदर इतना विष घोल कर देश में अस्थिरता का वातावरण बना रहे हैं?

अंगरेजों से तो देश को आजादी मिल गई, लेकिन इस दूषित मानसिकता से देश को कब आजादी मिलेगी? नेता, धर्मगुरु, मौलवी कोई भी जिम्मेदार हो, परिणाम तो अंत में आम जनता को ही भुगतना पड़ता है. दंगे देश में कहीं भी हों, किसी भी कारण से हों, इस का प्रभाव प्रत्यक्षअप्रत्यक्ष रूप से सब पर पड़ता है. मुद्दा चाहे आरक्षण का हो, जाति का हो या धर्म का, विद्रोह में तो हर कोई सुलग उठता है. और अगर हिंदूमसलिम का हो तो कई दर्द उभर आते हैं… कई अध्याय खुल जाते हैं. इन प्रायोजित सांप्रदायिक दंगों में कभी किसी नेता, धर्मगुरु, मौलवी की लाशों को तो बिछते हुए नहीं देखा, अगर देखा है, तो बस आम आदमी की ही लाश को. इन दंगों के बाद रह क्या जाता है, सिवाय बरबादी के मंजर और कभी न भर पाने वालें घावों के. उन्मादता में लोग अंधे हो जाते हैं और सहीगलत तक का विवेक खो देते हैं.

क्या यूरोप की तरह हमारे भी पड़ोसी देश से अच्छे संबंध नहीं हो सकते? क्या दोनों देश एकदूसरे की ताकत नहीं बन सकते? अगर ऐसा हो जाए, तो दोनों देश एक महाशक्ति के रूप में विश्व के पटल पर उभर सकते हैं. रंगरूप, पहनावा, खानपान यहां तक कि भाषा, बोली भी एक है, फिर ये सब क्यों?

बहुत जरूरी है इस कट्टरवादी सोच से बाहर निकलना. कट्टरवादी सोच स्वयं की, समाज की और देश की प्रगति में सब से बड़ा रोड़ा है. इस से कभी किसी राष्ट्र का विकास नहीं हो सकता. साथ ही, सोशल मीडिया पर त्वरित गति से फौरवर्ड होते इन भड़काऊ पोस्ट से लोगों को बचना होगा. न्यूज चैनलों को भी अपनी सीमा में रहना होगा. सच के साथ कल्याण को भी जोड़ना होगा. आम आदमी को अपनी ताकत को समझना होगा. उस के हाथ में सामाजिक सौहार्द्र की अद्भुत शक्ति है. वह बहकावे में न आए, इस से भी बहुतकुछ संभल जाएगा.

आखिर कब तक हम लोग, देश और समाज के चंद नुमाइंदों के द्वारा देश को सांप्रदायिकता की आग में झोंक कर जलाए जाते देखते रहेंगे… कब तक… आखिर कब तक?

राइटर- सुधा थपलियाल

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