जागरूक वेतनभोगी मांएं

पेरैंट्स टीचर मीटिंग में अपनी बारी का इंतजार करती मैं टीचर पेरैंट्स संवाद सुनने लगी. अभिभावकों में अधिकांश महिलाएं ही थीं. मेरे कानों में पति महाशय के शब्द अट्टहास करने लगे, ‘‘तुम महिलाओं जितना कहनेसुनने का धैर्य हम बेचारे पुरुषों में कहां. हम बेचारे तो शौफर ही भले.’’

‘‘मैम, मेरा बच्चा दूध नहीं पीता. टिफिन भी रोजाना बचाकर ले आता है,’’ एक मां का शिकायती स्वर कानों में पड़ा तो मैं अपनी चेतना सहित क्लासरूम में लौट आई.

‘‘जी, इस में मैं क्या कर सकती हूं?’’ टीचर ने अपनी असमर्थता जाहिर की.

‘‘क्यों, सर्कुलर तो आप के स्कूल की तरफ से ही आया है न कि बच्चों को टिफिन में सब्जीपरांठा, पुलाव आदि हैल्दी फूड ही भेजा जाए?’’ शिकायत करती मां ने अचानक तीरकमान निकाल लिए तो सब भौंचक्के से उन्हें देखने लगे.

मैडम बेचारी इस अप्रत्याशित आक्रमण से थोड़ा सहम गई. बोली, ‘‘ठीक है, मैं

मैनेजमैंट तक आप की बात पहुंचा दूंगी… वैसे यश के हमेशा की तरह इस बार भी मार्क्स काफी कम आए हैं. आप को उस की पढ़ाई की ओर ज्यादा ध्यान देना होगा.’’

‘‘यह हुई न मंजे हुए राजनीतिज्ञों जैसी बात. जब भी जनता किसी बात पर बवाल मचाने लगे ध्यान बंटाने के लिए तुरंत दूसरा मुद्दा खड़ा कर दो,’’ मैं ने मन ही मन टीचर को दाद दी.

‘‘पढ़ाने की जिम्मेदारी तो आप की है. नंबर अच्छे नहीं आ रहे तो इस के लिए तो मुझे आप को जिम्मेदार ठहराना चाहिए. उल्टा चोर कोतवाल को डांटे.’’

पंक्ति में खड़े अभिभावक द्वंद्व युद्ध का मजा लेते हुए मंदमंद मुसकरा उठे. मुफ्त का मनोरंजन किसे नहीं सुहाता.

तभी मेरा नंबर आ गया. बेटे पुनीत ने क्लास में टौप किया है, जान कर मैं खुशी से झूम उठी. मैडम ने मुझे बधाई दी तो आसपास खड़ी महिलाओं को भी मजबूरन मुझे बधाई देनी पड़ी.

क्लास से बाहर निकल कर मैं भी अन्य महिलाओं की तरह अपने शौफर महाशय का इंतजार करने लगी. पर बेटा तो कूदता हुआ खेलते हुए बच्चों के संग खेलने चला गया.

‘‘हुंह, इस बेवकूफ को तो अपने स्टेटस की कद्र ही नहीं है. फिसड्डी बच्चों के साथ खेल रहा हैं,’’ मैं अपना स्टेट्स मैंटेन रखते हुए अलगथलग खड़ी रही. हालांकि कान कुछ दूर खड़ी महिलाओं की बातों की ओर ही लगे थे.

‘‘हमारे राजस्थान की लड़की मिस इंडिया बन गई,’’ यश की मां का गर्वीला स्वर उभरा.

‘‘हुंह इतनी गर्वीली मुसकान तो मिस इंडिया की मां के चेहरे पर भी नहीं आई होगी. चलो बेटे पर नहीं किसी पर तो गर्व करे बेचारी,’’ मैं ने मुंह बिचकाया.

जवाब भी तो कितना लागलपेट वाला दिया था, ‘‘भई, मिस इंडिया का ताज पहनना हो तो मोरल साइंस की किताब रट कर चले जाओ,’’ दूसरी महिला ने तंज कसा.

‘‘क्यों क्या गलत कहा उस ने? मां की सेवाएं अनमोल नहीं होतीं क्या?’’ यश की मां ने यहां भी तलवार उठा ली.

‘‘इस महिला को पक्का चुनाव में खड़ा होना चाहिए. हर जगह भिड़ जाती है,’’ मैं बुदबुदाई.

‘‘अरे अनमोल, अतुल्य जैसे विशेषणों से नवाजनवाज कर ही बरसों से हम से बेगार करवाई जा रही है,’’ एक स्वर उभरा.

‘‘क्या मतलब?’’ एक अनाड़ी ने पूछा.

मेरे लिए अपना स्टेटस लैवल मैंटेन करना मुश्किल होता जा रहा था. खिसकतेखिसकते मैं इस ?ांड में शामिल हो ही ली थी.

‘‘इस का मतलब यह है मुहतरमा कि शब्दों का जामा मात्र पहना देने से न पाजामा जुटता है न पिज्जा. खाली तारीफ से न हम मांएं अच्छा पहन सकती हैं और न अच्छा खा सकती हैं. बरसों से हम ऐसे ही बेवकूफ बनती आ रही हैं,’’ सब प्रभावित लगीं तो अपनी बेसिरपैर की तुकबंदी पर मु?ो भी गर्व हो आया.

अब तो हर महिला अपना मत बेबाकी से सब के सामने रखने लगी. नारी सुधार आंदोलन अपने शबाब पर आ चुका था.

‘‘अपने काम का वेतन हम कैश में मांगने लग जाएं न, तो उसे चुकाने में ये पुरुष बिक ही जाएं,’’ एक ने मत रखा.

‘‘और क्या? 3 वक्त गरम खाना बनाना और वह भी भरेपूरे कुनबे का…’’

‘‘हाय दैया, इन का तो महीने का लाख से ऊपर का वेतन खाना पकाने, खिलाने का ही बन जाता है,’’ हमेशा होटल या मैस से खाना और्डर करने वाली एक नवविवाहिता ने पूरी सहानुभूति दर्शाई.

दूर खेल रहे बच्चों को देख कर मुझे खयाल आया, ‘अरी बहनो, हम अपना सब से महत्त्वपूर्ण टास्क और उस की सैलरी तो भूल ही रहे हैं. इन बच्चों को रखना, उन की देखभाल, होमवर्क, परीक्षा की तैयारी…’’

‘‘सखियो, हमें अपनीअपनी कार्यसूची और उस के अनुसार अपना वेतन तय करना है.’’

‘‘सिर्फ तय नहीं वसूल भी करना है.’’

अंतत: सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पास हुआ कि घर जा कर हम अपनेअपने काम की सूची और उस का अनुमानित वेतन और वह भी कैश में लिख कर अपनेअपने घरवालों को सौंप देगीं तथा जब तक हमें लिखित में अपना वेतन मिलने की स्वीकृति नहीं मिल जाती है हम घर के कार्यों से हाथ खींचे रहेंगी. मिस इंडिया तो क्या कोई भी हमें अब और इमोशनल फूल नहीं बना सकता. सब के नाम और मोबाइल नंबर डाल कर मैं ने फटाफट एक व्हाट्सऐप ग्रुप भी बना डाला-जागरूक वेतनभोगी मांएं. एडमिन के रूप में मैं स्वयं को बहुत गौरवान्वित महसूस कर रही थी.

‘‘मैं इस के बारे में ट्विटर और फेसबुक पर डाल कर ज्यादा से ज्यादा मांओं को इस ग्रुप से जोड़ूंगी,’’ सब का जोश देखने लायक था.

तभी बच्चों के संग खेलता मेरा बेटा पुनीत भागता हुआ मेरी ओर आया, ‘‘ममा देखो, पापा क्या लाए. मेरे लिए इतनी बड़ी चौकलेट. पापा कह रहे थे मुझे पहले से पता था कि मेरा बेटा फर्स्ट आएगा,’’ उस ने गर्व से बताया, ‘‘और ममा, पापा आप की फैवरिट बटरस्कौच आइसक्रीम का बड़ा सा पैक भी लाए हैं. कह रहे थे तुम्हारे साथ पूरा साल मेहनत कौन करता है? हर साल तुम इतना अच्छा रिजल्ट ममा की बदौलत ही तो ला पाते हो. इसलिए तुम्हारी चौकलेट खरीदने से पहले मैं ने तुम्हारी गुरु की पसंदीदा आइसक्रीम खरीदी.’’

‘‘सच, उन्होंने ऐसा कहा?’’ मैं आइसक्रीम की मानिद पिघलने लगी. पुनीत के पीछे आते

उस के पापा मुझे धुंधले दिखाई देने लगे. मुझे लगा चश्मा लगाना भूल गई हं. पर इस की

वजह तो खुशी के आंसू थे. अंतत: उन के हाथ में पकड़े बड़े से आइसक्रीम पैक से मैं ने उन्हें पहचान लिया. मैं ने पैक पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि पीछे से सम्मिलित बुलंद स्वर गूंज उठा, ‘‘नो.’’

मैं ने घबरा कर हाथ पीछे खींच लिया तो सभी ने हंसते हुए आगे बढ़ कर पैक लपक लिया.

‘‘हम तो अकेले खाने के लिए नो कह रही थीं.’’

सब के संग आइसक्रीम उड़ाते मैं सोच रही थी मिस इंडिया का जवाब वाकई मिस वर्ल्ड बनने लायक था.

करेले कड़वे हैं

‘‘कैसे करेले उठा लाए? सारे एकदम कड़वे हैं. न जाने कैसी खरीदारी करते हैं. एक भी सब्जी ठीक नहीं ला पाते.’’

श्रीमतीजी ने हमारे द्वारा लाए गए करेलों का सारा कड़वापन हम पर उड़ेला.

‘‘क्यों, क्या बुराई है भला इन करेलों में? बाजार से अच्छी तरह देख कर, चुन कर अच्छेअच्छे हरेहरे करेले लाए थे हम… अब सवाल रहा जहां तक इन के कड़वे होने का तो वह तो करेलों की प्रकृति ही है… करेले भी कभी मीठे सुना है क्या भला आज तक?’’ हम ने भी श्रीमतीजी की प्रतिक्रिया का पुरजोर विरोध किया.

‘‘करेले कड़वे होते हैं वह तो मैं भी जानती हूं, लेकिन इतने कड़वे करेले? अभी कल ही पड़ोस में कान्हा के दादाजी ने साइकिल वाले से करेले खरीदे. सच, भाभी बता रही थीं कि इतने अच्छे, इतने मुलायम और नरम करेले थे कि कुछ पूछो मत. ऊपर से कड़वापन भी बिलकुल न के बराबर. समझ में नहीं आता कि सब को अच्छी सब्जियां, अच्छे फल, अच्छा सामान कैसे मिल जाता है. बस एक आप ही हैं, जिन्हें अच्छी चीजें नहीं मिलतीं.

‘‘सच कई बार तो मन में आता है कि आप से कुछ कहने के बजाय स्वयं बाजार जा कर सामान खरीद लाया करूं. लेकिन उस में भी एक परेशानी है, आप के लिए तो यह और भी अच्छा हो जाएगा. काम न करने का बहाना मिल जाएगा,’’ श्रीमतीजी ने हम से कार्य करवाने की अपनी मजबूरी बताई.

‘‘संयोग की बात है कि ऐसा हो जाता है. वरना इस महंगाई में रुपए खर्च कर खराब सामान लाने का तो हमें स्वयं भी कोई शौक नहीं है. हमें स्वयं अफसोस होता है जब हमारे लिए सामान में कोई गड़बड़ निकलती है. लेकिन इस में भला हम कर भी क्या सकते हैं,’’ हम ने अपनी बेचारगी दिखाई.

‘‘संयोग है कि सारे संयोग सिर्फ आप के साथ ही होते हैं… संयोग से आप को ही अंदर से काले खराब आलू मिलते हैं… संयोग से ही आप को ऐसे सेब मिलते हैं, जो ऊपर से तो अच्छे दिखाई देते हैं, लेकिन होते हैं एकदम फीके. यह भी संयोग है कि आप के लाए नारियल फोड़ने पर प्राय: खराब निकल जाते हैं,’’ श्रीमतीजी के पास जैसे हमारे लाए खराब सामान की एक पूरी सूची थी.

‘‘यह क्यों भूल रही हैं कि तुम से विवाह कर के हम ही तुम्हें यहां इस घर में लाए थे… हम ने ही तुम्हें पसंद किया था… अब अपने विषय में तुम्हारा क्या विचार है? अपने ऊपर लगते लगातार आरोपों ने हमें भयभीत कर दिया…’’ इसीलिए वातावरण को हलका करने के लिए हम ने श्रीमतीजी से मजाक किया.

लेकिन यह क्या? हमारे मजाक को वे तुरंत समझ गईं. झल्ला कर बोलीं, ‘‘मजाक छोडि़ए, मैं आप से गंभीर बात कर रही हूं… आप की कमियां आप को बता रही हूं और एक आप हैं, जो मेरे कहे को गंभीरता से सुनने तथा स्वयं में सुधार लाने के स्थान पर मेरी बात को मजाक में उड़ा रहे हैं. आप की इस प्रवृत्ति का ही यहां के दुकानदार भरपूर फायदा उठा रहे हैं. वे खराब सामान आप के मत्थे मढ़ देते हैं. ऐसे में वे तो दोहरा लाभ उठा रहे हैं.

‘‘पहला उन के यहां का खराब सामान निकल जाता है. और दूसरा वे उसे बेच कर कमाई भी कर लेते हैं… और हम हैं कि सिर्फ नुकसान उठाए जा रहे हैं. मेरी तो समझ में नहीं आता कि क्या करूं, किन शब्दों में आप को चेताऊं ताकि हमें और नुकसान न झेलना पड़े.’’

‘‘तुम भी न बस जराजरा सी बातों को तूल देती हो… एक बड़ा मुद्दा बना देती हो… यह भी कोई बात हुई भला कि करेले कड़वे क्यों हैं? अरे करेले की तो प्रकृति ही है कड़वा होना. इस में भला हम क्या कर सकते हैं? रहा सवाल खरीदारी का तो यह तो किसी के साथ भी हो सकता है, बल्कि हो ही जाता होगा. लेकिन हमें क्या यह सब पता चलता है कि कौन कब बेवकूफ बना? किस के साथ क्या चालाकी हुई? इसलिए इन छोटीछोटी बातों को गंभीरता से न लिया करो. अब थोड़ाबहुत चला भी लिया करो,’’ अब हम कड़वे करेलों की बात को यहीं पर समाप्त करना चाहते थे.

‘‘आप इन्हें छोटीछोटी बातें समझ रहे हैं? कोई आप की आंखों में धूल फेंक दे, आप को बेवकूफ बना कर खराब सामान पकड़ा दे और आप के लिए यह कोई बात ही नहीं है? आप के लिए होगी ये सब जराजरा सी बातें, लेकिन मुझे तो यह सब किसी भी तरह अपने अपमान से कम नहीं लगता. कोई आप के संपूर्ण व्यक्तित्व को नकार कर अपना उल्लू सीधा कर ले, यह तो चुल्लू भर पानी में डूब मरने वाली बात हो गई. रहा सवाल दूसरों के बेवकूफ बनने का तो मुझे इस सब से कोई मतलब नहीं है कि कौन अपने घर में क्या कर रहा है, क्या खापका रहा है? वैसे भी राह चलता व्यक्ति चाहे जो कर रहा हो, हम न तो उस की ओर ध्यान देते हैं और न ही इस से कुछ खास फर्क पड़ता है. लेकिन आप तो मेरे पति हैं, आप के साथ यदि कुछ गलत होगा, चालाकी होगी तो उस का प्रभाव पूरे परिवार पर पड़ेगा. हमें बुरा भी लगेगा. इसलिए कोशिश कीजिए कि आप के साथ ऐसा कुछ न हो, जिस से हमें नुकसान उठाना पड़े. इस महंगाई के दौर में जब वैसे ही इतनी कठिनाई आ रही है… आप अपनी इन नादानियों से मेरी परेशानी और बढ़ा रहे हैं,’’ श्रीमतीजी ने कहा.

‘‘यदि तुम्हें मेरे लिए सामान, मेरी लाई सब्जी, फलों से इतनी ही अधिक परेशानी है, तो एक काम क्यों नहीं करतीं? आज से सारा सामान स्वयं लाया करो. इस से तुम्हें तुम्हारा मनपसंद सामान भी मिल जाएगा और खराब सामान आने की समस्या से भी दोचार नहीं होना पड़ेगा,’’ अब इस विकट परिस्थिति में हमें यही एक उपाय सूझा, जिसे हम ने श्रीमतीजी के सामने रख दिया.

‘‘अच्छा तो मुझ पर यह अतिरिक्त जिम्मेदारी सौंपी जा रही है… आप क्या समझते हैं कि मैं आप की चालाकी नहीं समझती हूं? खरीदारी का काम मुझे सौंप कर आप इस काम से बचना चाहते हैं… ऐसा कतई नहीं होगा. आप को घर का इतना कार्य तो करना ही पड़ेगा… बाजार से सामान तो आप को ही लाना पड़ेगा,’’ श्रीमतीजी ने निर्णायक स्वर में कहा.

अब भला हम क्या कहते? चुप रहे. इस समय हमारी हालत उस व्यक्ति की तरह हो रही थी जिसे मारा भी जा रहा हो और रोने भी न दिया जा रहा हो.

घबराना क्या: जिंदगी जीने का क्या यह सही फलसफा था

‘‘देखो बेटा, यह जीवन इतना लचीला भी नहीं है कि हम जिधर चाहें इसे मोड़ लें और यह मुड़ भी जाए. कुछ ऐसा है जिसे मोड़ा जा सकता है और कुछ ऐसा भी है जिसे मोड़ा नहीं जा सकता. मोड़ना क्या मोड़ने के बारे में सोचना ही सब से बड़ा भुलावा देने जैसा है, क्योंकि हमारे हाथ ही कुछ नहीं है. हम सोच सकते हैं कि कल यह करेंगे पर कर भी पाएंगे इस की कोई गारंटी नहीं है.

‘‘कल क्या होगा हम नहीं जानते मगर कल हम क्या करना चाहेंगे यह कार्यक्रम बनाना तो हमारे हाथ में है न. इसलिए जो हाथ में है उसे कर लो, जो नहीं है उस की तरफ से आंखें मूंद लो. जब जो होगा देखा जाएगा. ‘‘कुछ भी निश्चित नहीं होता तो कल का सोचना भी क्यों?

‘‘यह भी तो निश्चित नहीं है न कि जो सोचोगे वह नहीं ही होगा. वह हो भी सकता है और नहीं भी. पूरी लगन और फ र्ज मेहनत से अपना कर्म निभाना तो हमारे हाथ में है न. इसलिए साफ नीयत और ईमानदारी से काम करते रहो. अगर समय ने कोई राह आप को देनी है तो मिलेगी जरूर. और एक दूसरा सत्य याद रखो कि प्रकृति ईमानदार और सच्चे इनसान का साथ हमेशा देती है. अगर तुम्हारा मन साफ है तो संयोग ऐसा ही बनेगा जिस में तुम्हारा अनिष्ट कभी नहीं होगा. मुसीबतें भी इनसान पर ही आती हैं और हर मुसीबत के बाद आप को लगता है आप पहले से ज्यादा मजबूत हो गए हैं. इसलिए बेटा, घबरा कर अपना दिमाग खराब मत करो.’’

ताऊजी की ये बातें मेरा दिमाग खराब कर देने को काफी लग रही थीं कि कल क्या होगा इस की चिंता मत करो, आज क्या है उस के बारे में सोचो. कल मेरा इंटरव्यू है. उस के बारे में कैसे न सोचूं. कल का न सोचूं तो आज उस की तैयारी भी नहीं न कर पाऊंगा. परेशान हूं मैं, हाथपैर फूल रहे हैं मेरे. ताऊजी के जमाने में इतनी परेशानियां कहां थीं. उन के जमाने में इतनी स्पर्धा कहां थी. आज का सच यह है कि ठंडे दिमाग से पढ़ाई करो. मन में कोई दुविधा मत पालो. अपनेआप पर भरोसा रखो उसी में तुम्हारा कल्याण होगा.

‘‘क्या कल्याण होगा? नौकरी किसी और को मिल जाएगी,’’ स्वत: मेरे होंठों से निकल गया. ‘‘तुम्हें कैसे पता कि नौकरी किसी और को मिल जाएगी. तुम अंतरयामी कब से हो गए. ‘‘किसे क्या मिलने वाला है उसी में क्यों उलझे पड़े हो. अपना समय और ताकत इस तरह बरबाद मत करो, पढ़ने में समय क्यों नहीं खर्च कर रहे?’’ इतना कहते हुए ताऊजी ने एक हलकी सी चपत मेरे सिर पर लगा दी.

‘‘कब से यही कथा दोहरा रहे हो. मिल जाएगी किसी और को नौकरी तो मिल जाए. क्या उस से दुनिया में आग लग जाएगी और सबकुछ भस्म हो जाएगा. ज्यादा से ज्यादा क्या होगा, कुछ भी तो नहीं. यही दुनिया होगी और यही हम होंगे. संसार इसी तरह चलेगा. किसी दूसरी नौकरी का मौका मिलेगा. यहां नहीं तो कहीं और सही.’’

‘‘आप इतनी आसानी से ऐसी बातें कैसे कर सकते हैं, ताऊजी. अगर मैं कल सफल न हो पाया तो…’’ ‘‘तो क्या होगा? वही तो समझा रहा हूं. जीवन का अंत तो नहीं हो जाएगा, दो हाथ तुम्हारे पास हैं. हिम्मत और ईमानदारी से अगर तुम ओतप्रोत हो तो क्या फर्क पड़ता है. मनचाहा अवश्य मिल जाएगा.’’

‘‘क्या सचमुच?’’ क्षण भर को लगा, कितना आसान है सब. ताऊजी जैसा कह रहे हैं वैसा ही अगर सच में जीवन का फलसफा हो तो वास्तव में दुविधा कैसी, कैसी परेशानी. जो हमारा है वह हम से कोई छीन नहीं सकता. मेहनती हूं, ईमानदार हूं. मेरे पास अपनी योग्यता प्रमाणित करने का एक यही तो रास्ता है न कि मैं पूरी तरह इंटरव्यू की तैयारी करूं. जो मैं कर सकता हूं उसी को पूरा जोर लगा कर कर डालूं, न कि इस दुविधा में समय बरबाद कर डालूं कि अगर किसी और को नौकरी मिल गई तो मेरा क्या होगा?

ताऊजी की बातें मुझे अब शीशे की तरह पारदर्शी लगने लगीं. दूसरी शाम आ गई. 24 घंटे बीत चुके और मेरा इंटरव्यू हो गया. अपनी तरफ से मैं ने सब किया जो भी मेरी क्षमता में था. मेरे मन में कहीं कोई मलाल न था कि अगर इस से भी अच्छा हो पाता तो ज्यादा अच्छा होता. गरमी की शाम जब उमस गहरा गई तो सभी बाहर बालकनी में आ बैठे. ताऊजी ने पुन: चुसकी ली :

‘‘हमारे जमाने में आंगन हुआ करते थे. आज आंगन की जगह बालकनी ने ले ली है. हर दौर की समस्या अलगअलग होती है. हर दौर का समाधान भी अलगअलग होता है. ऐसा नहीं कि हमारे जमाने में हमारा जीवन आसान था. अपनी मां से पूछो जब मिट्टी के तेल का स्टोव जलाने में कितना समय लगता था. आज चुटकी बजाते ही गैस का चूल्हा जला लो. मसाला चुटकी में पीस लो आज. हमारी पत्नी पत्थर की कूंडी और डंडे से मसाला पीसा करती थी. अकसर मसाले की छींट आंख में चली जाती थी…क्यों राघव, याद है न.’’

ताऊजी ने मेरे पापा से पूछा और दोनों हंसने लगे. चाय परोसती मां ने भी नजरें झुका ली थीं. ‘‘क्यों शोभा, तुम ने क्या अपने बेटे को बताया नहीं कि उस के मांबाप को किस ने मिलाया था. अरे, इसी डंडेकूंडे ने. मसाले की छींट तुम्हारी मां की आंख में चली गई थी और तुम्हारा बाप पानी का गिलास लिए पीछे भागा था.’’

‘‘मेरी मां आप के घर कैसे चली आई थीं?’’ ‘‘तुम्हारी बूआ की सहेली थीं न. दोनों कपड़े बदलबदल कर पहना करती थीं. कदकाठी भी एक जैसी थी. राघव नौकरी पर रहता था. काफी समय बाद घर आया और अभी आंगन में पैर ही रखा था कि तुम्हारी मां को आंख पर हाथ रख कर भागते देखा. समझ गया, मसाला आंख में चला गया होगा. सो तुम्हारी बूआ समझ झट से पानी ले कर पीछे भागा. मुंह धुलाया, तौलिया ला कर मुंह पोंछा और जब शक्ल देखी तो हक्काबक्का. तभी सामने तुम्हारी बूआ को भी देख लिया. गलती हो गई है समझ तो गया पर क्या करता.’’

‘‘फिर?’’ सहसा पूछा मैं ने. ताऊजी हंसने लगे थे. पापा भी मुसकरा रहे थे और मेरी मां भी. ‘‘फिर क्या बेटा, कभीकभी गलती हो जाना बड़ा सुखद होता है. राघव बेचारा परेशान. जानबूझ कर तो इस की बांह नहीं पकड़ी थी न और न ही गरदन पकड़ कर जबरदस्ती जो मुंह पोंछा था उस में इस का कोई दोष था. तुम्हारी मां अब तक यही समझ रही थी कि तुम्हारी बूआ उस की आंखें धुला रही है.’’ हंसने लगे पापा भी.

‘‘यह भी सोचने लगी थी कि एकाएक उस के हाथ इतने सख्त कैसे हो गए हैं. बारबार कहने लगी, ‘इतनी जोर से क्यों पकड़ रही है. धीरेधीरे पानी डाल,’ और मैं सोचूं कि मेरी बहन की आवाज बदलीबदली सी क्यों है?’’ पहली बार अपने मातापिता के मिलन के बारे में जान पाया मैं उस दिन. आज भी मेरे पिता का स्वभाव बड़ा स्नेहमयी है. किसी की पीड़ा उन से देखी नहीं जाती. बूआ से आज भी बहुत प्यार करते हैं. बूआ की आंख में मसाले की छींट का पड़ जाना उन्हें पीड़ा पहुंचा गया होगा. बस, हाथ का सामान फेंक उन की ओर लपके होंगे. ताऊजी से आगे की कहानी जाननी चाही तो बड़ी गहरी सी मुसकान लिए मेरी मां को ताकने लगे.

‘‘बड़ी प्यारी बच्ची थी तुम्हारी मां. इसी एक घटना ने ऐसी डोरी बांधी कि बस, सभी इन दोनों को जोड़ने की सोचने लगे.’’ ‘‘आप दोनों की दोस्ती हो गई थी क्या उस के बाद?’’ सहज सवाल था मेरा जिस पर पापा ने गरदन हिला दी. ‘‘नहीं तो, दोस्ती जैसा कुछ नहीं था. कभी नजर आ जाती तो नमस्ते, रामराम हो जाती थी.’’ ‘‘आप के जमाने में इतना धीरे क्यों था सब?’’

‘‘धीरे था तो गहरा भी था. जरा सी घटना अगर घट जाती थी तो वह रुक कर सोचने का समय तो देती थी. आज तुम्हारे जमाने में क्या किसी के पास रुक कर सोचने का समय है? इतनी गहरी कोई भावना जाती ही कब है जिसे निकाल बाहर करना तुम्हें मुश्किल लगे. रिश्तों में इतनी आत्मीयता अब है कहां?’’ पुराना जमाना था. लोग घर के बर्तनों से भी उतना ही मोह पाल लेते थे. हमारी दादी मरती मर गईं पर उन्होंने अपने दहेज की पीतल की टूटी सुराही नहीं फेंकी. आज डिस्पोजेबल बर्तन लाओ, खाना खाओ, कूड़ा बाहर फेंक दो. वही हाल दोस्ती में है भई, जल्दी से ‘हां’ करो नहीं तो और भी हैं लाइन में. तू नहीं तो और सही और नहीं तो और सही.

‘‘जेट का जमाना है. इनसान जल्दी- जल्दी सब जी लेना चाहता है और इसी जल्दी में वह जीना ही भूल गया है. न उसे खुश रहना याद रहा है और न ही उसे यही याद रहता है कि उस ने किस पल किस से क्या नाता बांधा था. रिश्तों में गहराई नहीं रही. स्वार्थ रिश्तों पर हावी होता जा रहा है. जहां आप का काम बन गया वहीं आप ने वह संबंध कूड़ेदान में फेंक दिया.’’

ताऊजी ने बात शुरू की तो कहते ही चले गए, ‘‘मैं यह नहीं कहता कि दादी की तरह घर को कूड़ेदान ही बना दो, जहां घर अजायबघर ही लगने लगे. पुरानी चीजों को बदल कर नई चीजों को जगह देनी चाहिए. जीवन में एक उचित संतुलन होना चाहिए. नई चीजों को स्वीकारो, पुरानी का भी सम्मान करो. इतना तेज भी मत भागो कि पीछे क्याक्या छूट गया याद ही न रहे और इतना धीरे भी मत चलो कि सभी साथ छोड़ कर आगे निकल जाएं. इतने बेचैन भी मत हो जाओ कि ऐसा लगे जो करना है आज ही कर लो कल का क्या भरोसा आए न आए और निकम्मे हो कर भी इतना न पसर जाओ कि कल किस ने देखा है कौन कल के लिए आज सोचे.

‘‘तुम्हारे पापा की शादी हुई. शोभा हमारे घर चली आई. इस ने भी कोई ज्यादा सुख नहीं पाया. हमारी मां बीमार थीं, दमा की मरीज थीं और उसी साल मेरी पत्नी को ऐसा भयानक पीलिया हुआ कि एक ही साल में दोनों चली गईं. इस जरा सी बच्ची पर पूरा घर ही आश्रित हो गया. ‘‘इस से पूछो, इस ने कैसेकैसे सब संभाला होगा. जरा सोचो इस ने अपना चाहा कब जिया. जैसेजैसे हालात मुड़ते गए यह बेचारी भी मुड़ती गई. मेरी छोटी भाभी है न यह, पर कभी लगा ही नहीं. सदा मेरी मां बन कर रही यह बच्ची. जरा सी उम्र में इस ने कब कैसे सभी को संभालना सीखा होगा, पूछो इस से.

‘‘मेरे दोनों बच्चे कब इसे अपनी मां समझने लगे मुझे पता ही नहीं चला. तुम्हारे दादा और हम तीनों बापबेटे इसे कभी कहीं जाने ही नहीं देते थे क्योंकि हम अंधे हो जाते थे इस के बिना. इस का भी मन होता होगा न अपनी मां के घर जाने का. 18-20 साल की बच्ची क्या इतनी सयानी हो जाती है कि हर मौजमस्ती से कट जाए.’’ ताऊजी कहतेकहते रो पड़े. मेरे पापा और मां गरदन झुकाए चुपचाप बैठे रहे. सहसा हंसने लगे ताऊजी. एक फीकी हंसी, ‘‘आज याद आता है तो बहुत आत्मग्लानि होती है. पूरे 10 साल यह दोनों पतिपत्नी मेरे परिवार को पालते रहे. अपनी संतान का तब सोचा जब मेरे दोनों बच्चे 15-15 साल के हो गए. कबकब अपना मन मारा होगा इन्होंने, सोच सकते हो तुम?’’

मन भर आया मेरा भी. ताऊजी चश्मा उतार आंखें पोंछने लगे. ताऊजी के दोनों बेटे आज बच्चों वाले हैं. मुझ से बहुत स्नेह करते हैं और मां को तो सिरआंखों पर बिठाते हैं. बहुत मान करते हैं मेरी मां का. ‘‘क्या जीवन वास्तव में आसान होता है, बताना मुझे. नहीं होता न. मुश्किलें तो सब के साथ लगी हैं. प्रकृति ने सब का हिस्सा निश्चित कर रखा है. हमारा हिस्सा हमें मिलेगा जरूर. नौकरी के इंटरव्यू पर ही तुम इतना घबरा रहे थे. कल पहाड़ जैसे जीवन का सामना कैसे करोगे?’’ सुनता रहा मैं सब.

सच ही कह रहे हैं ताऊजी. मेरा बचपन तो सरलसुगम है और जवानी आराम से भरपूर. क्या स्वस्थ तरीके से बिना घबराए, ठंडे मन से मैं अपनी नौकरी के अलगअलग साक्षात्कार की तैयारी नहीं कर सकता? आखिर घबराने जैसा इस में है ही क्या? कल का कल देखा जाएगा पर ऐसी भी क्या बेचैनी कि जो सुखसुविधा आज मेरे पास है उस का सुख भी नकार कर सिर्फ कल की ही चिंता में घुलता रहूं. क्यों जीना ही भूल जाऊं?

जो मेरा है वह मुझे मिलेगा जरूर. मैं ईमानदार हूं, मेहनती हूं प्रकृति मेरा साथ अवश्य देगी. सच कहते हैं ताऊजी, आखिर घबराने जैसा इस में है ही क्या? कल क्या होगा देख लेंगे न. हम हैं तो, कुछ न कुछ तो कर ही लेंगे.

जरा बताओ तो: जब संचित को पता उसकी सहकर्मी दूसरे धर्म की है

आज औफिस में लंच करते हुए चारों सहेलियों फलक, दीप्ता, वमिका और मनुश्री बहुत उत्साहित थीं, जबसे औफिस नई जगह गोरेगांव शिफ्ट हुआ था तब से औफिस के कई लोगों को घर बदलने की जरूरत आ पड़ी थी.

ये चारों अभी जहां रहती थीं, वहां से औफिस पास ही था. अब गोरेगांव से सब का घर दूर पड़ रहा था तो चारों ने फैसला किया था कि एक अच्छा सा फ्लैट औफिस के आसपास ही किराए पर ले कर शेयर कर लेंगीं. आज औफिस के बाद 3-4 फ्लैट देखने जाने वाली थीं, ब्रोकर से बात हो गई थी.

मुंबई शहर को देखने के कई नजरिए हो सकते हैं, बाहर से आने वालों को इस शहर की रंगीनियां भाती हैं, किसी को यहां का किसी से लेने देने में इंटरेस्ट न होना भाता है, किसी को यहां का स्ट्रीट फूड अच्छा लगता है, किसी को यहां के फैशन, किसी को इस शहर का एक अलग मिजाज पसंद आता है. एक मुंबई में कई मुंबई बसती हैं. कई इलाके हैं, कई बिल्डिंग्स हैं, कई सोसाइटी हैं. वैसे तो हर शहर का एक मिजाज होता है पर मुंबई पर कहने के लिए अकसर बहुत कुछ होता है जैसाकि इस समय ये चारों बात कर रही हैं, फलक कह रही है, ‘‘यार. मैं तो कल एक फ्लैट देखने गई तो फ्लैट के मालिक ने मेरा मुसलिम नाम देख कर ही मुंह बना लिया, पूछा, ‘मुसलिम हो.’ मैं ने कहा, ‘हां.’ तो नालायक बोला, ‘मैं अपना फ्लैट किसी मुसलिम को नहीं दे सकता,’ सोचो, यार. यह मुंबई है, एक महानगर. यहां लोग ऐसी सोच रख सकते हैं, अब देख रही हूं जब घर से बाहर रहने की नौबत आई है, नहीं तो मैं तो इसी शहर में पली बढ़ी हूं, इन सब चीजों से कभी वास्ता ही नहीं पड़ा था. अजीब सा लग रहा है.’’

दीप्ता ने कहा, ‘‘ऐसे लोगों का, ऐसी सोच का इलाज करना ही पड़ेगा, अपना काम निकालना ही है, फ्लैट हम लोग ले लेते हैं, फलक. किसी को बताने की जरूरत ही नहीं कि तुम भी फ्लैट ले रही हो, आराम से रहो हमारे साथ. लोगों को हिंदूमुसलिम करने दो. हम तुम्हें उदास देख ही नहीं पाते.’’

मनुश्री ने भी कहा, ‘‘अगर कोई मुश्किल आ भी गई तो मैं हर स्थिति संभाल सकती हूं. मैं स्कूल, कालेज में अच्छी एक्टिंग कर लेती थी, और मैं कई बार बौस को भी भोलीभोली बन कर दिखा देती हूं और काम से बच जाती हूं, सोचो, जब बौस से निपट लेती हूं तो लैंडलौर्ड क्या चीज है.’’

सब हंस पड़ीं, ‘‘तुम तो हो ही सदा की कामचोर. तुम्हारा काम हमें करना पड़ता है.’’

‘‘पर दोस्त. यह गलत होगा.’’

‘‘ऐसी सोच वालों के साथ होने दो गलत.’’ आखिर में तीनों ने फलक को इस बात के लिए तैयार कर ही लिया कि फ्लैट तीनों ही लेंगीं, बाकी सब वो भी शेयर करेगी और साथ ही रहेगी.

चारों एक बड़ी कंपनी में जौब कर रही थीं, सब की उम्र 28 के आसपास की थी, अभी चारों अविवाहित थीं. लंच के बाद चारों अपनेअपने काम करने लगीं. इस से पहले भी कई फ्लैट्स देखे जा चुके थे पर किसी न किसी कारण से रहने लायक नहीं लगे थे. अब बारिश शुरू होने वाली थी, लंबे ट्रैफिक जाम के दिन आने वाले थे, जल्दी ही फ्लैट फाइनल होना चाहिए, यही सब सोचते हुए सब काम करती रहीं, शाम होते ही सब ब्रोकर से मिलने भागी.

ब्रोकर का नाम जानी था, चारों उस के नाम पर मुसकराती रहीं, यह समय थोड़ा परेशानी का था पर इस उम्र में कुछ तो खास होता है कि हंसने खिलखिलाने के बहाने ढूंढ़ ही लिए जाते हैं. जानी कह रहा था, ‘‘मैडम. आप चारों एक बार फ्लैट देख लो, मना कर ही नहीं पाएंगीं, फुली फर्निश्ड फ्लैट है, आप लोगों को घर से कुछ लाना ही नहीं पड़ेगा. सब कुछ है. हां, फ्लैट पसंद आया तो एग्रीमेंट किस के नाम पर होगा.’’

दीप्ता ने कहा, ‘‘मेरे और मेरी 2 फ्रैंड्स के नाम पर.’’

‘‘ठीक है.’’

एक कुछ पुरानी सी बनी बिल्डिंग की तीसरी फ्लोर का यह टू बैडरूम फ्लैट चारों को देखते ही पसंद आ गया, अच्छी तरह देख परख लिया गया. दीप्ता ने कहा, ‘‘ठीक है, इसे फाइनल कर लें.’’

सब ने हां में सिर हिला दिया, ‘‘मैं कल फ्लैट के मालिक को बुला लेता हूं, आप लोग कुछ टोकन मनी ट्रांसफर कर दो, मेरे औफिस आ कर पेपर साइन कर देना. मैं सब तैयार रखता हूं.’’

‘‘ठीक है, कल मिलते हैं,’’ कह कर चारों फलक की कार से ही औफिस की पार्किंग पहुंची, सब की कार वहीं थी, सब अपनीअपनी कार से ही आती जाती थीं, मनुश्री ने कहा, ‘‘फ्लैट तो बिलकुल सुंदर, तैयार है. फ्लैट ओनर पता नहीं कैसा होगा.’’

‘‘हमें क्या करना है उस का, कैसा भी हो. फ्लैट बढि़या मिल गया, बस. अपना काम हो गया. औफिस से भी 15 मिनट ही दूर है.’’

अगले दिन सब काम तेजी से हुआ, मुंबई में काम सिस्टेमेटिक होते हैं, ये सच है. सब को काम खत्म करने की एक जल्दी सी रहती है, कोई ढीलम ढाल नहीं. कोई काम ज्यादा लटकाया नहीं जाता, करना है तो कर के खत्म कर दिया जाता है. ओनर संचित शर्मा करीब 40 साल का व्यक्ति था, लड़कियों से मिल कर खुश हुआ. युवा, सुंदर, स्मार्ट, आधुनिक लड़कियों से मिल कर कौन खुश नहीं होता. एग्रीमेंट हो गया. चारों अपना जरूरी सामान ले कर शिफ्ट कर गईं. औफिस वालों में से जो खास दोस्त थे, उन्हें बुला कर एक छोटी सी हाउस वार्मिंग की पार्टी भी हो गई.

सब के घर वाले फ्लैट देख ही चुके थे, आपस में मिल भी चुके थे, सब निश्चिंत थे, किसी की बेटी अकेली नहीं रहेगी, अच्छे साथी मिले हैं. जिस का अपने घर जाने का मन होता, घर भी चली जाती. वीकेंड में चारों अपने घर चली जातीं, वर्क फ्रौम होम करना होता तो भी घर रुक जातीं. कुल मिला कर सब की लाइफ में इस घर का होना एक आराम ले कर आया था.

सब ठीक चल रहा था, चारों लड़कियां आजाद जीवन का आनंद ले रही थीं. घर वालों की कोई रोकटोक नहीं, जो मन हुआ, खाया, बनाया, कभी कुछ खाना और्डर कर लिया. फलक अपने घर जाती तो मनु श्री कहती, ‘घर जा रही हो तो अपनी मौम से कुछ बढि़या नौन वेज बनवा लाना. बाजार से चाहे कितना भी और्डर कर लो, तुम्हारी मौम के हाथों के बने चिकेन करी और कबाब का जवाब नहीं है,’ फलक हंस कर अपनी मौम को उसी टाइम फोन कर के बता देती कि मनुश्री को क्या चाहिए. दीप्ता और वमिका शाकाहारी थीं पर उन्हें फलक और मनुश्री के नौनवेज खाने के शौक से कोई परेशानी नहीं थी. एक वीकेंड बारिश बहुत ज्यादा तेज थी, कोई अपने घर के लिए निकल नहीं पाई.

सब के घर वालों ने भी कह दिया था कि फ्लैट में ही रहें, इस बारिश और ट्रैफिक में न निकलें. ये चारों इस तरह जब भी खाना और्डर करतीं, अपनाअपना अपने मन के हिसाब से मंगा लेती थीं, मन होता तो एकदूसरे का खाना टेस्ट कर लेतीं. फलक ने अपने लिए मटन बिरयानी और्डर की थी. डिलीवरी बौय सुनील आया, उसे और्डर और नाम से सम?ा आ ही गया कि फलक एक मुस्लिम लड़की है, वह उस समय तो कुछ नहीं बोला पर बिल्डिंग के बाहर बनी दुकानों में से एक पर रुक गया, दुकानदार अजीत से उस

की अच्छी जान पहचान थी. सुनील ने कहा, ‘‘अजीत भाई. आप लोगों की सोसाइटी में तो मुसलमानों को कोई घर किराए पर नहीं देता था, अब कैसे दे दिया.’’

अजीत ने ऐंठ से कहा, ‘‘भाई. अब भी कोई नहीं देता. यहां मुसलमान रह ही नहीं सकते. पूरी सोसाइटी में एक भी मुसलमान नहीं है.’’

‘‘नहीं, भाई. एक फ्लैट में लड़की को खाना डिलीवर करके आ रहा हूं, लड़की मुसलमान है.’’

‘‘न, न, हो ही नहीं सकता.’’

‘‘अरे भाई. बिल्डिंग नंबर बीस के तीन सौ दो नंबर से आ रहा हूं.’’

अजीत ने थोड़ी देर सोचा, बीस बिल्डिंग की पूरी सोसाइटी के शौपिंग कौंप्लैक्स में ग्रौसरी की यही दुकान थी, वह सब को जानता था. कुछ देर सोचने के बाद बोला, ‘‘वो फ्लैट तो संचित साहब का है, किराए पर दिया होगा, वे दूसरे बड़े फ्लैट में शिफ्ट हो गए हैं न. बात करता हूं.’’

समाज में पहले से ही दिन पर दिन भड़क रही धर्म की आग में अपना भी योगदान दे कर एक तीली और डाल कर सुनील चला गया. अजीत ने संचित को फोन मिलाया, ‘‘क्या साहब. आप ने घर मुसलमान लड़की को किराए पर दे दिया.’’

‘‘नहीं तो. फ्लैट किसी दीप्ता शर्मा ने लिया है, जानी ने ही तो दिलवाया है, उस के साथ दो और रहती हैं, वे भी हिंदू ही हैं.’’

‘‘नहीं साहब. कुछ तो गड़बड़ है. आप अपने फ्लैट में जा कर ठीक से पता कर लो.’’

‘‘औफिस के बाद आज ही जाता हूं.’’

रात 8 बजे संचित ने जब पूछताछ के इरादे से फ्लैट में कदम रखा, चारों हैरान हुईं.

संचित उच्च पदस्थ अधिकारी था पर धर्म का चश्मा उस की आंखों पर भी वैसे ही लगा था जैसा कि आजकल ज्यादातर लोगों की आंखों पर लगा है. उसने चारों को ध्यान से देखा, उसे बस दीप्ता का ही चेहरा याद था, एग्रीमेंट के टाइम वह साइन करके जल्दी ही औफिस निकल गया था. पूछा, ‘‘फ्लैट तो आप तीनों ने लिया था, ये चौथी कौन हैं.’’

‘‘ये भी हमारी दोस्त है, कभी कभी साथ रहती है.’’

‘‘क्या नाम है.’’

‘‘फलक.’’

‘‘क्या कास्ट है.’’

‘‘मुसलिम.’’

‘‘दीप्ता, मैं आपसे और वमिका से ही

मिला हूं, आप लोगों ने मुझे फ्लैट लेने के टाइम बताया नहीं कि इस फ्लैट में एक मुसलिम लड़की भी रहेगी.’’

अपमान और दुख से फलक का चेहरा उतर गया. उस की दोस्तों ने महसूस किया कि यह ठीक नहीं हो रहा है. वमिका ने कहा, ‘‘इतना जरूरी नहीं लगा कि यह बताया जाए कि कभी कभी हमारी कौन दोस्त आ कर हमारे साथ रह सकती है.’’

दीप्ता ने कुछ कड़े से स्वर में कहा, ‘‘अंकल. आप के घर कभी कोई दोस्त अचानक नहीं आ सकता.’’

मनुश्री ने कहा, ‘‘अंकल, क्या लेंगें आप, पानी, चाय.’’

संचित ने फौरन ‘कुछ नहीं.’ कहा, ध्यान से लड़कियों पर एक नजर डाली, चेहरे पर कुछ नाराजगी के भाव थे.

मनुश्री ने थोड़ा ठोस अंदाज से कहा, ‘‘सर. आप को हम लोगों से किसी भी तरह की कोई प्रौब्लम हो रही हो तो हम तुरंत आप का फ्लैट खाली कर देंगें. बस आप खुल कर अपनी परेशानी हमें साफसाफ बताओ कि अगर इस फ्लैट में हमारे साथ हमारी एक मुसलिम दोस्त फ्लैट शेयर करती है तो मुश्किल क्या है. आपका क्या नुकसान हो रहा है. आप तो इतनी अच्छी पोस्ट पर हैं, आप बड़े हैं, हम तो आप से कितनी छोटी हैं. हम से क्या नुकसान हो सकता है आप को. सुबह औफिस चली जाती हैं, शाम को आ कर घर रहती हैं, वीकेंड में घर चली जाती हैं.’’ फिर उस ने बाकी तीनों को अपने साथ खड़ा करते हुए कहा, ‘‘जरा बताओ तो अंकल. हम में से कौन मुस्लिम है. आप बस इतना बता दो, हम फौरन आप का घर खाली कर देंगें.’’

संचित की बोलती बंद हो गई, उसने चारों पर एक नजर डाली, सब इस समय अपने रात के कपड़ों में थी, टीशर्ट और शौर्ट्स में इस माहौल में भी प्यारी सी धीरेधीरे मुसकराती चारों आधुनिक पर शालीन सी लड़कियां उस के सामने खड़ी  थीं, अपने औफिस की मीटिंग्स में अपने जूनियर्स पर अकारण गुर्राने वाले संचित शर्मा को समझ नहीं आ रहा था कि इन लड़कियों से क्या कहें. ध्यान आया कि लड़कियों को रहते 3 महीने हो चुके हैं, किराया टाइम से आ जाता है, घर साफसुथरा चमक सा रहा है, किसी ने कोई शिकायत नहीं की है.

सब ठीक तो है पर मुसलिम लड़की. उनके फ्लैट में. पर कहें क्या. कैसे कहें. इतनी पढ़ी लिखी लड़कियों के सामने धर्म का इशू बनाते हुए अच्छे लगेंगें. वे इस समय ही कितने गंवार, मूर्ख जैसे लग रहे होंगे. उन्होंने अपने सारे भावों को मन में रख कर एक फीकी सी हंसी के साथ उठते हुए कहा, ‘ठीक है. पर आप लोगों को झूठ नहीं बोलना चाहिए था.’

चारों ने उत्साह के साथ हंसते हुए ‘सौरी.’ कहा, संचित अब मुसकरा दिए तो दीप्ता ने कहा, ‘‘अंकल. यह तो बता कर जाइए कि इन में से फलक कौन है.’’

‘‘कोई भी हो, क्या फर्क पड़ता है. जो भी हो, वह कभी कबाब बना कर खिला दे,’’ हंसते हुए कह कर संचित फ्लैट से निकल गए.

संचित के जाने के बाद मनुश्री ने इठलाते हुए कहा, ‘‘देखा. मैं ने कहा था न कि मैं सब को पटा सकती हूं.’’

‘‘सही कहा था, ड्रामेबाज. बेचारे कुछ बोल ही नहीं पाए, ‘‘सब ने हंसते हुए उसे गुदगुदी करना शुरू कर दिया जो उस की कमजोरी थी, अब फ्लैट उन्मुक्त ठहाकों से चहक उठा था.

धमाका: शेफाली से रुचि की मुलाकात के बाद क्या हुआ?

अब भी सुनाई देती है उस धमाके की गूंज क्योंकि मैं स्वयं भी वहीं थी. किंतु तब से अब तक चाह कर भी ऐसा कुछ न कर पाई उस के लिए कि वह ठीक उसी तरह मुसकरा उठे जिस तरह वह मुझ से पहली बार मिलते समय मुसकराई थी. वह है शेफाली. मात्र 24-25 वर्ष की. सुंदर, सुघड़, कुंदन सा निखरा रूप एवं रंग ऐसा जैसे चांद ने स्वयं चांदनी बिखेरी हो उस पर. कालेघुंघराले बाल मानों घटाएं गहराई हों और बरसने को तत्पर हों. किंतु उस धमाके ने उसे ऐसा बना दिया गोया एक रंगबिरंगी तितली अपनी उड़ान भरना भूल गई हो, मंडराना छोड़ दिया हो उस ने.

मुझे याद है जब हम पहली बार पैरिस में मिले थे. उस ने होटल में चैकइन किया था. छोटी सी लाल रंग की टाइट स्कर्ट, काली जैकेट और ऊंचे बूट पहने बालों को बारबार सहेज रही थी. मेरे पति भी होटल काउंटर पर जरूरी औपचारिकता पूरी कर रहे थे. हम दोनों को ही अपनेअपने कमरे के नंबर व चाबियां मिल गई थीं. दोनों के कमरे पासपास थे. दूसरे देश में 2 भारतीय. वह भी पासपास के कमरों में. दोस्ती तो होनी ही थी. मैं अपने पति व 2 बच्चों के साथ थी और वह आई थी हनीमून पर अपने पति के साथ.

मैं ने कहा, ‘‘हाय, मैं रुचि.’’ उस ने भी हाथ बढ़ाते हुए मुसकरा कर कहा, ‘‘आई एम शेफाली. आप की बेटी बहुत स्वीट है.’’ उस की मुसकराहट ऐसी थी गोया मोतियों की माला पिरोई हो 2 पंखुडि़यों के बीच. रात के खाने के समय बातचीत में मालूम हुआ कि उन्होंने भी वही टूर बुक किया था जो हम ने किया था. अगले ही दिन मैं अपने परिवार के साथ और वह अपने पति के साथ निकल पड़ी ऐफिल टावर देखने, जोकि पैरिस का मुख्य आकर्षण एवं 7 अजूबों में से एक है. वहां पहुंच वह तो बूट पहने भी खटखट करती सीढि़यां चढ़ गई, मगर मैं बस 2 फ्लोर चढ़ कर ही थक गई और फिर वहीं से लगी पैरिस के नजारे देखने और फोटो खिंचवाने. वह और ऊपर तक गई और फिर थोड़ी ही देर में अपने पति के कंधों पर अपने शरीर का बोझ डाल कर व उस की कमर पकड़े चलती हुई लौट आई. हमारे पास आ कर जब उस ने कहा कि क्या आप हमारे फोटो खींचेंगे तो मैं ने कहा हांहां क्यों नहीं?

वह अलगअलग पोज में फोटो खिंचवा रही थी और जब मन होता अपने डायमंड से सजे फोन से सैल्फी भी ले लेती. इस के बाद हम चले पैलेस औफ वर्साइल्स के लिए जोकि अब म्यूजियम में तबदील हो गया है. वहां के लिए स्पैशल ट्रेन चलती है. उस की कुरसियां मखमल के कपड़े से ढकी थीं और ट्रेन में पैलेस के चित्र बने थे. वे दोनों पासपास बैठे एकदूसरे से प्यार भरी छेड़छाड़ कर रहे थे. न चाहते हुए भी मेरा ध्यान उन पर चला ही जाता. आरामदेह और एसी वाली ट्रेन से हम पैलेस औफ वर्साइल्स पहुंचे. इतना बड़ा पैलेस और उस का बगीचा देखते ही बनता था. बगीचे में लगे फुहारे उस की शान को दोगुना कर रहे थे. उस पैलेस की मशहूर चीज है मोनालिसा की पेंटिंग जिसे देखने भीड़ उमड़ी थी. वह उस भीड़ को चीरते हुए आगे जा कर पेंटिंग के फोटो ले आई और मिहिर को इतनी खुशी से दिखा रही थी गोया उस ने कोई किला जीत लिया हो.

पैलेस में यूरोपियन सभ्यता को दर्शाते सफेद पुतले भी हैं, जिन में पुरुष व स्त्रियां वैसे ही नग्न दिखाई गई हैं जैसेकि हमारे अजंताऐलोरा की गुफाओं में. कोई भी पुरुष उन्हें देख अपना नियंत्रण खो ही देगा. वही मिहिर के साथ हुआ और उस ने शेफाली के गालों और होंठों को चूम ही लिया. वैसे भी यूरोप में सार्वजनिक जगहों पर लिप किस तो आम बात है. पति के किस करने पर शेफाली इस तरह इधरउधर देखने लगी कि उन्हें ऐसा करते किसी ने देखा तो नहीं. फिर हम साइंस म्यूजियम, गार्डन आदि सभी जगहें घूम आए. अब था वक्त शौपिंग का. मैं तो हर चीज के दाम को यूरो से रुपए में बदल कर देखती. हर चीज बहुत महंगी लग रही थी. और शेफाली, वह तो इस तरह शौपिंग कर रही थी जैसे कल तो आने वाला ही न हो. हर पल को तितली की तरह मस्त हो कर जी रही थी वह. बस एक ही दिन और बचा था उस का व हमारा वहां पर. अत: शाम को मैट्रो स्टेशन, जोकि अंडरग्राउंड होते हैं और उन में दुकानें भी होती हैं, में भी वह शौपिंग करने लगी. फिर वापसी में जैसे ही हम ट्रेन पकड़ने को दौड़े तो वह पीछे रह गई. हम सब के ट्रेन में चढ़ते ही ट्रेन के दरवाजे बंद हो गए और वह रवाना हो गई. मैं चलती ट्रेन से उसे देख रही थी. एक बार को तो लगा कि अब क्या होगा? लेकिन अगले ही स्टेशन पर हम उतरे और उस का पति उलटी दिशा में जाती ट्रेन में चढ़ कर उसे 5 ही मिनट में ले आया.

मैं ने जब उस से पूछा कि तुम्हें डर नहीं लगा तो वह कहने लगी कि बिलकुल नहीं. उसे मालूम था कि मिहिर उसे लेने जरूर आएगा. मैं सोच रही थी कि कितने कम समय में वह अपने पति को पूरी तरह पहचान गई है. होटल में रात के खाने के समय वह हमारे पास आ कर कहने लगी कि भारत जा कर न जाने हम मिलें न मिलें, इसलिए चलिए आज साथ ही खाना खाते हैं. मेरी 7 वर्षीय बेटी उस से बहुत हिलमिल गई थी. अगले दिन सुबह हम वक्त से पहले तैयार हो गए. नाश्ता कर अपने पैरिस के अंतिम दिन का लुत्फ उठाने होटल से सड़क पर आ गए. अपने टूर की बस की राह देखते हुए चहलकदमी कर ही रहे थे कि तभी एक जोर के धमाके की आवाज आई और फिर न जाने कहां से कुछ लोग आ कर धायंधायं गोलियां बरसाने लगे. जिसे जहां जगह मिली छिप गया. मेरे पति बेटी को गोद में उठा कर भाग रहे थे और मेरा बेटा मेरे साथ भाग रहा था. मैं एक कार के पीछे छिप गई थी. तभी शेफाली का भागते हुए पैर मुड़ गया. उस का पति उसे गोद में ले कर भागा, किंतु इसी बीच 1 गोली उस के पैर में व 1 पीठ में लग गई. अगले ही पल शेफाली चीखचीख कर पुकार रही थी कि मिहिर उठो, मिहिर भागो. पर शायद मिहिर इस दुनिया को अलविदा कह चुका था. बाद में मालूम हुआ वह एक आतंकी हमला था. पुलिस वहां पहुंच चुकी थी. बंदूकधारी वहां से भाग चुके थे. मैं यह सब कार के पीछे छिपी देख रही थी. पुलिस वाले मिहिर को अस्पताल ले गए, जहां उसे मृत घोषित कर दिया गया.

मैं शेफाली को संभालने की कोशिश कर रही थी. उस का रोरो कर बुरा हाल था. शाम को जिस विमान से हनीमून का जोड़ा लौटने वाला था उस तक सिर्फ शेफाली जीवित पहुंची और मिहिर की लाश. हम भारत अपने शहर मुंबई पहुंचे फिर अगले ही दिन दिल्ली शेफाली के घर पहुंचे. उस के घर मातम पसरा था. शेफाली तो पत्थर हो चुकी थी. न हंसती थी न बोलती थी. हां, मुझे देख कर मुझ से लिपट कर रो पड़ी. मैं उस से कह रही थी, ‘‘रो मत शेफाली. सब ठीक हो जाएगा.’’ किंतु मैं स्वयं अपनेआप को नहीं रोक पा रही थी. वह धमाका जो हम ने एकसाथ सुना था, शायद हम उसे हादसा समझ भूल जाएं, लेकिन शेफाली की तो उस ने दुनिया ही उजाड़ दी थी. तब से वह पत्थर की मूर्ति बन गई है. ऐसा लगता है जैसे एक तितली के पर कट गए हों और वह उड़ान भरना भूल गई हो. मैं अब भी सोचती रहती हूं कि काश, वह धमाका न हुआ होता.

अपने चरित्र पर ही संदेह: क्यों खुद पर शक करने लगे रिटायर मानव भारद्वाज

ब्रह्म सत्य जगत मिथ्य: जब लूटने वाले स्वामीजी का अंत बहुत ही भयावह हुआ

आश्रमके सब से भव्य ध्यानधारण कक्ष में सितार की मधुर स्वरलहरियां गूंज रही थीं. अगरबत्ती की सुगंध धुएं के साथ पूरे कक्ष में फैलने लगी थी. मंच को आज मधुर सुगंधियुक्त ताजे श्वेत पुष्पों से सजाया जा रहा था.

स्वामी अमृतानंदजी के बड़े से आश्रम में यह प्रतिदिन का नियम था. स्वामीजी जब भी आश्रम में होते थे, अपने भक्तों तथा अनुयायियों को उसी कक्ष में दर्शन देते थे. उन के दुखसुख सुनते और अपनी दिव्यशक्ति से उन का निराकरण करने का आश्वासन भी देते थे. सहस्रों भक्तों में से कुछ की समस्याओं का समाधान तो स्वत: ही हो जाता था. उन्हीं को प्रचारितप्रसारित कर के स्वामीजी और उन के आश्रम ने न केवल ख्याति अर्जित की थी, प्रचुर मात्रा में धनसंपत्ति भी कमाई थी. उन के इंटरव्यू कई चैनलों पर प्रसारित किए जाते, जिन में नीचे आश्रम का पता होता था. दान की अपील भी लगातार की जाती थी.

आश्रम के अधिकतर कार्यकर्ता अवैतनिक ही थे. वे गुरु शक्ति में भावविभोर हो कर अपना घरबार छोड़ कर आ गए थे. उन के भरणपोषण का प्रबंध आश्रम की ओर से होता था और क्यों न हो, अधिकतर कार्यकर्ता स्नातक व स्नातकोत्तर शिक्षा प्राप्त थे. न जाने कौन सा आकर्षण था, जो उन्हें आश्रम की ओर खींच लाता था. केवल खानेकपड़े पर अमृतानंदजी को ऐसे अद्भुत कार्यकर्त्ता और कहां मिलते. वैसे कार्यकर्ताओं को सुखों की कमी नहीं थी. भक्त आमतौर पर मोटी रकम कैश ले आते थे कि आश्रम में जमा करा दें. भक्तों को विश्वास था कि उन्हें जो भी मिल रहा है स्वामीजी की कृपा पर मिल रहा है.

आश्रम का अधिकतर प्रबंध स्वामी अद्भुतानंद देखते थे. उन का असली नाम क्या था, यह तो वे स्वयं भी संभवत: भूल चुके थे पर कहा जाता है कि अद्भुत रूप से मेधावी होने के कारण ही स्वामीजी ने उन्हें अद्भुतानंद की उपाधि प्रदान की थी. उन के बारे में प्रसिद्ध, यही था कि इंडियन इंस्टिट्यूट औफ टैक्नोलौजी संस्थान से इंजीनियरिंग की उपाधि प्राप्त कर वे ऊंची नौकरी कर रहे थे. कालेज के अंतिम वर्ष में ही नौकरी के लिए उन का चयन हो गया था. इस का पुख्ता सुबूत किसी के पास नहीं था पर जब नेताओं की डिगरी और बीवी को कोई नहीं पूछता तो कौन स्वामी अद्भुतानंद की डिगरी के बारे में पता करता.

वे कब और कैसे स्वामीजी के प्रभाव में आए, यह भी कोई नहीं जानता था पर वे शीघ्र ही स्वामी के विश्वासपात्र बन गए थे. आजकल वे स्वामीजी के कार्यकलापों तथा आश्रम की गतिविधियों दोनों को नियंत्रित करते हैं. उन की प्रबंधन क्षमता का सभी लोहा मानते और आश्रम में उन्हीं की तूती बोलती. पर आज वह अनमने से एक ओर बैठे थे. कैबिन के कार्यकलाओं के लिए तो वे ही पर्याप्त थे पर वे उन का मन बारबार भटक जाता था.

तभी मानो वे नींद से जागे थे. स्वामीजी के कक्ष में पधारने का समय हो चुका था. उन्हेें साजसज्जा के साथ ध्यानधारणा कक्ष में लाने का भार अद्भुतानंद के कंधों पर था. अत: वे  स्वामीजी के कक्ष की ओर चल पड़े.

‘‘अद्भुत, हमारे प्रस्ताव के विषय में क्या सोचा है?’’ स्वामीजी उन्हें देखते ही बोले.

‘‘सोचने का समय नहीं मिला, गुरुदेव,’’ उन का उत्तर था.

‘‘क्यों, अपने गुरु में श्रद्धा नहीं रही थी? मैं जो करता हूं, अपने शिष्यों के हित के लिए ही करता हूं. फिर तुम तो मेरे सर्वाधिक प्रियशिष्य हो,’’ स्वामीजी अनमने स्वर में बोल कर उठ खड़े हुए? आश्रम में उठ रहे विद्रोह को तुरंत दबाने में ही विश्वास करते थे.

‘‘आज ध्यानाभ्यास के पश्चात मुझे आप का उत्तर चाहिए,’’ वह ध्यानधारणा कक्ष की ओर प्रस्थान करते हुए बोले थे.

स्वामीजी ट्रांसवाल, दक्षिणी अफ्रीका में अपने लिए एक आश्रम की नींव रख आए थे. अब वे अद्भुतानंदजी पर दबाव डाल रहे थे कि वे वहां जा कर आश्रम का प्रबंधन अपने हाथों में ले लें. अद्भुतानंद को गुरुजी से ऐसी आशा नहीं थी. वे वस्तुस्थिति से पूर्णतया परिचित थे. वे बिना कहे ही समझ गए थे कि स्वामीजी अब उन्हें अपने बड़े होते बेटे को यह कांटा समझने लगे थे.

उन का पुत्र आरोहण किसी गुमनाम कालेज की पढ़ाई समाप्त कर लौट आया था. अब स्वामीजी उसे राजपाट सौंप कर राजकुमार की पदवी से विभूषित करना चाहते थे, जो अद्भुतानंद के आश्रम में रहते संभव नहीं था.

ध्यानधारणा कक्ष में पहुंचते ही अद्भुतानंद की विषाशृंखला टूटी. प्रतिदिन की भांति स्वामीजी अपने मंत्र पर विराजमान थे. उन के लिए विशेष रूप से लिखी गई प्रार्थना गाई जाने लगी थी, जिस में उन्हें ईश्वर की पदवी दी गई थी.

‘‘स्वामी अमृतानंद की बहती अमृत धारा, ईश्वर से भी पहले लेते हम सब नाम तुम्हारा.’’

प्रार्थना के प्रश्वात प्राणायाम तथा ध्यान का कार्यक्रम था. ध्यान के पश्चात स्वामीजी अपने भक्तों से सीधा संपर्क साधते थे और अपने विचारों से अवगत कराते थे. स्वामीजी अत्यंत मधुर वाणी में अपने भक्तों को आदेश देते थे कि गुरुदक्षिणा के रूप में अपने जैसा ही एक और भक्त जाएं पर भूल कर भी किसी पर अपने विचारों को थोपे नहीं. जो विरोध करे उस पर तो कभी नहीं. स्वामीजी की ओजपूर्ण वाणी ने अद्भुत समां बांध दिया था.

कुछ देर पश्चात स्वामीजी ने भक्तजनों को आंखें मूंदने का आदेश दिया क्योंकि 9 बजने वाले थे और प्रात: तथा रात्रि के 9 बजे स्वामीजी अपने भक्तों के कल्याण के लिए शक्तिपात करते थे. उन के भक्त संसार में कहीं भी हों, स्वामीजी से कभी दूर नहीं होते. वे उन्हें प्रात: तथा रात्रि के 9 बजे ध्यान लगा कर अपने ऊपर केंद्रित करने का आदेश देते थे, जिस से कि वे अपने गुरु की दिव्य शक्तियों से लाभान्वित हो सकें. स्वाइप, औनलाइन, व्हाट्सऐप सब से स्वामीजी सभी शिष्यों से जुड़े रहते थे. उन्हें बहुतों के नाम याद थे. यही तो उन का विशेष गुण था.

‘शक्तिपात’ के पश्चात भक्तगण गुरुजी की अमृतवाणी के पान की प्रतीक्षा कर ही रहे थे कि एक विचित्र घटना घटी. प्रथम पंक्ति में बैठी एक प्रौढ़ महिला तेजी से उठी और स्वामीजी के मंत्र के समीप पहुंच गई. कार्यकर्ताओं ने जब तक  रोकने का प्रयास किया तो उस ने कस कर स्वामीजी के चरण पकड़ लिए.

‘‘अरे, यह क्या करती हो, माता. यदि कोई समस्या हो तो दूर से कहो. हम ठहरे साधुसंन्यासी, किसी से स्पर्श नहीं कराते,’’ स्वामीजी सकपका गए.

‘‘दूर से कहने पर पता नहीं आप के कानों तक पहुंचे या नहीं इसीलिए पास आ कर ?ोली फैला कर भीख मांग रही हूं. स्वामीजी, मेरे पुत्र को छोड़ दीजिए, महिला रोंआसे स्वर में बोली.

‘‘यह आप कैसी बातें कर रही हैं, माता. हम ठहरे साधुसंन्यासी हमें किसी के पुत्रपुत्री से क्या लेनादेना.’’

‘‘स्वामीजी, मैं आरोग्य की बात कर रही हूं. वह मेरा इकलौता पुत्र है, परिवार का एकमात्र प्राणाधार. देश के प्रसिद्ध संस्थान से एमबीए कर के वह ऊंचे वेतन वाली नौकरी कर रहा था कि आप की एक प्रिय शिष्या के बहकावे में सबकुछ ठुकरा कर चला आया है. मेरे घरसंसार को उजाड़ कर आप को क्या मिलेगा, स्वामीजी’’

‘‘बह्म सत्यं जगत मिथ्य’’ स्वामीजी ने नेत्र मूंद कर उद्घोष किया.

‘‘माता, आज आप जो प्रश्न कर रही हैं वही कभी नरेंद्र की माता ने स्वामी रामकृष्ण परमहंस से किया था. यदि नरेंद्र अपनी माता के बहकावे में आ जाते तो स्वामी विवेकानंद नहीं बनते. गौतम बुद्ध ने भी राजपाट, सगेसंबंधियों का त्याग कर के ही बुद्धत्व प्राप्त किया था,’’ स्वामीजी अपनी गुरु गंभीर वाणी में बोलते जा रहे थे.

‘‘माता, आप भटक गई हैं. आरोग्य साधारण मानव नहीं, असाधारण आत्मा है, जिसे मेरे जैसे गुरु के माध्यम से अमरत्व प्राप्त होने वाला है. आरोग्य जन्मजन्मांतर के संस्कारों द्वारा अपने गुरु से बंध हुआ है. माता, आप चाह कर भी उसे रोक नहीं सकतीं. अपने श्रुद्र स्वार्थों के वशीभूत हो कर उसे सीमित मत करो. उसे असीमित हो कर सारे संसार का हो जाने दो, माता,’’ स्वाजीजी ने अपनी ओर से गूढ़ अर्थ वाले ज्ञानपूर्ण तर्क दिए.

मगर मंच के एक ओर खड़े अद्भुतानंद के सामने कुछ ?ान्न से गिरकर टूट गया. मानो नाटक के किसी दृश्य का पुन: मंचन किया जा रहा हो. आज आरोग्य की मां के स्थान पर तब उन की अपनी माताजी थीं पर संवाद तथा अभिनय हूबहू वैसा ही था.

मगर तभी कुछ अप्रत्याशित घट गया. आरोग्य की मां, अद्भुतानंद की माताजी की तरह बैठी सुबकती नहीं रही. वे तो अचानक शेरनी की तरह क्रोध में बिफ्र उठीं.

‘‘अरे, कैसा गुरु और कैसा निर्वाण. बड़ा आया जन्मजन्मांतर के साथ वाला. जनता को मूर्ख बना कर युवाओं को अपने सम्मोहन के जाल में फंसा कर न जाने कितने परिवारों को विनाश के कगार पर पहुंचाने वाले ढोंगियों को मैं भली प्रकार जानती हूं.

‘‘हम गृहस्थियों जैसा ही घरपरिवार है तुम्हारा. कौन सा त्याग किया है तुम ने? बात करते हो ध्यान और साधना की.’’

स्वामीजी ने दृष्टि का संकेत भर किया कि उन के 8-10 शिष्य महिला को उठा कर कक्ष के बाहर ले गए.

‘‘मैं पुलिस में जाऊंगी, कोर्टकचहरी तक जाऊंगी, धूर्त्त, पर तुम्हें चैन से नहीं बैठने दूंगी,’’ महिला रोते हुए भी स्वामी अमृतानंद को धमका गईर्.

शिष्यों द्वारा मां को जबरन घसीटे जाते देख कर आरोग्य उन की सहायता को लपका.

‘‘बेटा, आरोग्यानंद. साधना के मार्ग में अनेक विघ्नबाधाएं आती हैं पर साधक विचलित नहीं होते,’’ स्वामीजी ने आरोग्य को पुकारा.

‘‘गुरुजी, मैं मां को घर तक छोड़ कर शीघ्र ही लौट आऊंगा,’’ कहता हुआ आरोग्य मां को सहारा देने लगा. शिष्यों ने उसे जबरन मुख्यद्वार के बाहर धकेल दिया था, साथ ही धमकी भी दे डाली थी कि

पुन: इधर का रुख किया तो लाश तक नहीं मिलेगी तुम्हारी मां की.’’

उधर ध्यानधारणा कक्ष में ऐसी निस्तब्धता छा गई मानो उपस्थित जनसमूह सांस लेना भी भूल गया हो.

‘‘आप सब चित्रलिखित से क्यों बैठे हैं? साधना में ऐसे विघ्न तो आते ही रहते हैं. जो मार्ग के कंटकों से उल?ा जाएंगे वे उस परम सत्य को कैसे प्राप्त करेंगे. भटक गई हैं माता, इसी से व्यथित है पर जिस ने अपना सर्वस्व उस परमपिता के चरणों में अर्पित कर दिया उस के लिए तो संसार के सब बंधन व्यर्थ हैं. सब माया है. मनुष्य जब उसे जान लेता है, उस के सांसारित बंधन स्वत: ही ढीले पड़ जाते हैं. फिर तो बस, भक्त होता है और होते हैं उस के भगवान,’’ स्वामीजी की स्वरलहरी हवा के पंखों पर सवार हो पुन: भक्तगणों को प्रभावित करने लगी थी. उन का भक्तिभाव उन की भावभंगिमाओं में प्रकट हो रहा था.

मगर अद्भुतानंद अब भी सकते में थे. कम से कम आरोग्य में इतना साहस तो था कि स्वामीजी की इच्छा के विरुद्ध वह अपनी मां को सहारा देने चला गया था. उन की मां तो शिष्यों से अपमानित हो कर सुबकती हुई अकेली ही आश्रम से गई थी. उन के व्यथित मन में गहरी टीस उठ रही थी.

‘‘हां, तो आप ने क्या निर्णय लिया, अद्भुतानंद,’’ अपने कक्ष में तनिक सा एकांत मिलते ही स्वामी अमृतानंद ने पूछा.

‘‘निर्णय लेने का प्रश्न ही कहां है, गुरु की इच्छा तो मेरे लिए आदेश है,’’ वे बोले थे.

‘‘फिर यह रोनी सूरत क्यों बिना रखी है? साधना का लक्ष्य तो अखंड आनंद है, वत्स,’’ स्वामीजी बोले.

‘‘कहां आप और कहां हम, गुरुवर हम तो अभी तक रागद्वेष जैसी सांसारित भावनाओं से पीडि़त हैं,’’ अद्भुतानंद मुसकराए, ‘‘आप का और मेरा 8 वर्षों का साथ है, कष्ट तो होगा ही.’’

‘‘तो आप के लिए यही साधना का मार्ग भी है. आप तुरंत जाने की तैयारी कर लीजिए. इस सप्ताहांत तक आप देश छोड़ दें तो अच्छा है. हो सके तो आरोग्य को भी साथ ले जाइए. आया नहीं है वह. पर उस का लौट जाना अन्य शिष्यों को भी घर लौटने के लिए प्रेरित करेगा,’’ स्वामीजी बोले.

‘‘जैसी आज्ञा गुरुवर,’’ अद्भुतानंद ने झुक कर प्रणाम किया.

मगर आरोग्य के घर जाने के स्थान पर वे बहुत वर्षों के बाद अपने घर की ओर मुड़ गए.

द्वार उस के पिता ने खोला. उन्हें देख कर चश्मा ठीक किया और पहचानने का यत्न किया.

‘‘अरे, निर्मल तुम. कहो, आज कैसे राह भूल पड़े,’’ वे बोले.

‘‘कौन हैं जी?’’ अंदर से उन की मां ने

प्रश्न किया.

‘‘लीला, बाहर आओ, देखो तो कौन

आया है.’’

‘‘कौन? स्वामी अद्भुतानंद. कहिए, कैसे स्वागत करें आप का? आप ठहरे संन्यासी और साधक, पता नहीं हमारा अन्नजल भी ग्रहण करेंगे या नहीं,’’ लीला देवी ने व्यंग्य किया.

‘‘मां, अंदर आने को नहीं कहोगी?’’

‘‘स्वामी नहीं, मेरा निर्मल चाहे तो अंदर आ सकता है,’’ वह बोली.

फिर तो सब शिकवेशिकायत आंसुओं के सागर में धुल गए.

‘‘मैं दक्षिण अफ्रीका जा रहा हूं. चाहता हूं आप भी साथ चलें. मैं सब प्रबंध कर लूंगा. अब और कैसे जाना है, वह भी बता दूंगा. बस, आप तैयारी कर लें. मैं अभी चलता हूं अब तो वहीं भेंट होगी,’’ कहते हुए स्वामी अद्भुतानंद अर्थात निर्मल बाबू बाहर निकल गए.

उस के बाद वे आरोग्य के घर पहुंचे और उसे समझबुझ कर साथ चलने को तैयार कर लिया.

‘‘अपनी अनुपस्थिति में परिवार को यहां छोड़ने की भूल मत करना. हमारे गुरुजी बदला लेने के लिए कुछ भी कर सकते हैं,’’ उन्होंने आरोग्य को समझाया.

‘‘पर मैं तो वहां किसी को जानता तक नहीं. परिवार को कहां रखूंगा?’’ आरोग्य ने प्रश्न किया.

‘‘उस की चिंता मत करो. ट्रांसवाल में मेरे कई प्रभावशाली मित्र हैं. तुम्हारा परिवार मेरे मातापिता के साथ जाएगा. बाद में हम दोनों प्रस्थान करेंगे,’’ अद्भुतानंद ने समझाया.

जब से अमृतानंद ने अद्भुतानंद यानी निर्मल को साउथ अफ्रीका जाने को कहा था

तभी से अद्भुतानंद ने आरोग्य को साथ मिला कर काम शुरू कर दिया था. आश्रम की कितनी ही प्रौपर्टी गिरवी रख कर मोटा पैसा ले लिया था. बैंक अकाउंट वह ही चलाता था. उस ने उस पैसे को केमन आईलैंड, मोनाको, स्विटजरलैंड आदि में ट्रांसफर कर दिया था. आरोग्य भी इस कला में पारंगत था. पहले वह एक मल्टीनैशनल फाइनैंस कंपनी में ही था.

उन के नए पास पोर्ट बन गए थे. पहले पास पोर्टों पर वास्तव में नकली नाम थे ताकि कोई उन के मातापिता को आसानी से ढूंढ़ न सके. अद्भुतानंद ने यह काम बहुत जल्दबाजी में किया था. वह जानता था कि पता चल गया तो उसे ही नहीं उस के मांबाप को पता तक नहीं चलेगा. अमृतानंद स्वामी सभी विविटयों को जलवा देते थे, यह कह कर कि उन का अंतिम काल आ गया है और उन के किसी रिश्तेदार को किसी आश्रम का इंचार्ज बना कर भेज देते थे.

निर्मल ने इस तरह आश्रम का ढांचा खोखला कर दिया था कि उस के जाने के बाद यह और खोखला हो  गया. कुछ दिन बाद खबर मिली कि स्वामी अमृतानंद ने देह त्याग दी है और उन का होनहार बेटा अब जैसेतैसे बची संपत्ति को बेच रहा है. भक्तों को क्या? वे तो किसी और स्वामी के संपर्क में आ कर आश्रम खाली कर रहे थे. आखिर धन तो मिथ्य ही है न.

बिखरे सपने: जब तंग आकर उसने तलाक की कही

पत्रिका के पन्ने पलटते एक शीर्षक पर नजर अटक गई, ‘‘कह दो सारी दुनिया से, कर दो टैलीफोन कम से कम 1 साल चलेगा अपना हनीमून,’’ उत्सुकतावश पूरा लेख पढ़ गई.

इस में एक जोड़े के बारे में बताया था जो 5 साल से हनीमून मना रहा था. मुझे लगा इतना समय क्या घूम ही रहे हैं ये लोग. 5 साल तक पर पढ़ने के बाद कुछ और ही निकला. जैसे दोनों को साहित्य का शौक, दोनों को घूमनेफिरने का शौक, दोनों को पिकनिकपिक्चर का शौक, दोनों को दोस्तों से मिलनेजुलने का शौक, दोनों को होटलिंग का शौक, दोनों ही जिंदादिल और इस तरह से दोनों अपना हनीमून अभी तक मना रहे हैं.

उफ, पढ़ कर ही मन में गुदगुदी होने लगी. हाय, क्या कपल है… जैसे एकदूसरे के लिए ही बने हैं. एकदूजे के प्यार में आकंठ डूबे. 5 साल से हनीमून की रंगीनियत में खोए. यहां तो 5 महीने में ही 50 बार झगड़ा हो गया होगा हमारा. 8 दिनों के लिए शिमला गए थे हनीमून पर. 2-4 फोटो खिंचवाए, खर्च का हिसाबकिताब किया और हो गया हनीमून. श्रीदेवी स्टाइल में शिफौन की साड़ी पहन न सही स्विट्जरलैंड शिमलाकुल्लू की बर्फीली वादियों में ‘तेरे मेरे होंठों पे मीठेमीठे गीत मितवा…’ गाने की तमन्ना तमन्ना ही रह गई.

मगर यह लेख पढ़ कर दिल फिर गुदगुदाने लगा, अरमान फिर मचलने लगे, कल्पनाएं फिर उड़ान भरने लगीं. चलो ऐसे नहीं तो ऐसे ही सही. मैं भी ट्राई करती हूं अपनी शादीशुदा जिंदगी में हनी की मिठास और मून की धवल चांदनी का रंग घोलने की. पर कैसे? मैं ने दोबारा लेख पढ़ा.

पहला पौइंट मैं ने चुटकी बजाई. साहित्य, उन की पता नहीं पर मेरी तो साहित्य में रुचि है. आज ही एक बढि़या सी कविता बना कर सुनाती हूं उन्हें. फिर मैं जुट गई हनीमून का आरंभ करने में.

दिनभर लगा कर शृंगाररस में छलकती, प्रेमरस में भीगी, आसक्ति में डूबी एक बढि़या कविता तैयार की और खुद भी हो गई शाम के लिए तैयार. करने लगी इंतजार डोरबैल बजी तो मैं ने खुशी से दरवाजा खोला.

ये मुझे देखते ही बोले, ‘‘कहीं जा रही हो क्या? पर पहले मुझे चाय पिला दो. बहुत थक गया हूं.’’

मैं बुझ गई. मुझे देख तारीफ करने के बजाय, सुंदरता को निहारने के बजाय थक गया हूं. हुं पर कोई बात नहीं चाय के साथ सही. मैं ने बड़े मन से इन के लिए चाय बनाई, शानदार तरीके से ट्रे सजाई, साथ में ताजा लिखी हुई कविता रखी और चली इन के पास.

ये आंखें मूंदे सोफे पर पसरे हुए थे. मैं ने चूडि़यां बजाईं और प्यार से कहा, ‘‘चाय…’’

इन्होंने आंखें खोलीं, ‘‘इतनी चूडि़यां क्यों पहन रखी हैं गंवारों की तरह? इन्हें उतारो और कोई कड़ा पहनो.’’

मैं चुप. फिर भी स्वर को भरसक कोमल बनाते हुए कहा, ‘‘उतार दूंगी अभी सुनो न, आज मैं ने एक बहुत अच्छी कविता लिखी है. सुनाऊं?’’

ये ?ाल्ला कर बोले, ‘‘यह कवितावविता लिखना बेकार लोगों का काम होता है. सिर दुखता है मेरा ऐसी कविताओं से. दिनभर घर में खाली बैठी रहती हो कुछ जौबवौब क्यों नहीं ढूंढ़ती.

‘‘उफ, मेरे कान लाल हो गए. मेरी शृंगाररस की कविता करुणरस में बदल गई. संयोग के बादल बरसने से पहले वियोग की तरह छितरा गए. उखड़े मूड में मैं बैडरूम में गई. चेंज किया और पलंग पर पसर गई.

कुछ देर में ये आए, ‘‘आज खानावाना नहीं बनेगा क्या?’’

मैं भन्ना कर कुछ तीखा जवाब देने ही वाली थी कि हनीमून का दूसरा पौइंट याद आ गया-

किसी अच्छे रेस्तरां में कैंडल लाइट डिनर. मैं ने तुरंत अपनी टोन बदली, ‘‘नहीं, आज मन नहीं कर रहा. चलो न आज कहीं बाहर ही खाना खाते हैं. कितने दिनों से हम कहीं बाहर नहीं गए.’’

ये तलख स्वर में बोले, ‘‘अपने मांबाप के घर रोज ही बाहर खाना खाती थी क्या? तुम्हारी ये फालतू की फरमाइशें पूरी करने के पैसे नहीं हैं मेरे पास. तुम से बनता है तो बनाओ नहीं बनता तो मुझे कह दो मैं बना लूंगा.’’

छनछन… छनाक… और ये सपने चकनाचूर… मन तो हुआ कि 2-4 खरीखरी सुनाऊं इस कंजूस मारवाड़ी को. फालतू फरमाइश पूरी करने के पैसे नहीं हैं मेरे पास. रख ले अपने पैसे अपने पास. मुझे भी कोई शौक नहीं है ऐसे पैसों का. पर बोलने से बात और बिगड़ती ही मन में दबाई और उठ कर खाना बनाने चल दी. मन में यह ठान कर कि हनीमून तो मैं मना कर रहूंगी चाहे कैसे भी.

‘आज है प्यार का फैसला ए सनम आज मेरा मुकद्दर बदल जाएगा तू अगर संग दिल है तो परवाह नहीं मेरे बनाए खाने से पत्थर पिघल जाएगा…’

हनीमून का तीसरा पौइंट- बढि़या खाना

बना कर पेट से दिल में पहुंचें. यह भी क्या याद रखेंगे कि क्या वाइफ मिली है जो इतनी कड़वीतीखी बात सुनने के बाद भी इतना स्वादिष्ठ खाना बना सकती है. मेरे हाथ चलने लगे. फुरती से मैं ने बनाई लौकी के कोफ्ते की सब्जी, पनीर भुर्जी, दालचावल, सलाद, गरमगरम फुलके. फुलके उतारते मैं ने इन्हें आवाज दी, ‘‘आइए खाना तैयार हैं.’’

ये आए. खाना देखते ही बोले, ‘‘यह क्या मिर्चमसालों वाला खाना बना दिया. इतना तेल, मसाले खाने की आदत नहीं है मुझे. हरी सब्जियों को हरा ही क्यों नहीं रहने देती तुम?’’

लो पेट के रास्ते दिल तक पहुंचने का रास्ता तो बड़ा संकरा निकला. इस रास्ते से दिल तक पहुंचना तो मुश्किल ही नहीं नामुमकिन नजर आने लगा. मन मसोस कर बोली, ‘‘अभी तो खा लो कल से हरी सब्जी हरी ही बनाऊंगी.’’

एकदूसरे को निवाले खिलाने के अरमान दम तोड़ने लगे. उस में तो लिखा था आपस में एकदूसरे को प्यार से खिलाते हनीमून को ताजा करते रहते थे. अब मैं कैसे करूं. फिर भी कोशिश की. बड़े प्यार से निवाला बनाया और इन्हें खिलाने लगी तो इन्होंने हाथ ?ाटक दिया, ‘‘यह नाटकबाजी मुझे पसंद नहीं. खा लूंगा अपनेआप. कोई बच्चा नहीं हूं. एक तो ऐसा खाना ऊपर से इतनी नौटंकी.’’

यह पौइंट भी बेकार गया. कोई बात नहीं. अभी और भी फौर्मूले हैं. दिनभर काम कर के थक जाते हैं बेचारे. रोजरोज वही रूटीन, वही बोरिंग लाइफ, कुछ चेंज तो होना चाहिए. हनीमून मनाने का चौथा पौइंट याद किया. 2 दिन बाद ही संडे है. मित्रों के साथ पिकनिक का प्रोग्राम होना चाहिए. दोस्तों की छेड़छाड़, हंसीमजाक, धमाचौकड़ी के बीच सब की नजर बचा कर प्यार के कुछ पल शरारत भरे. मन में फिर गुदगुदी सी हुई. मैं ने इन की तरफ करवट बदली. ये हलके खर्राटे भरते नींद में गुम. मैं गुमसुम. मैं ने फिर करवट बदली और नींद को बुलाने लगी. सुबह बात करूंगी इन से पिकनिक के बारे में.

सुबह इन की झल्लाती आवाज से नींद टूटी, ‘‘कितनी देर तक सोती रहोगी? उठने का इरादा है या नहीं? चायवाय नहीं मिलेगी आज?’’

मेरा मन फट पड़ने को हुआ कि अजीब आदमी है सिवा चाय और खानेपीने के और कुछ सू?ाता ही नहीं इसे. सुबह नींद की खुमारी में डूबी, खूबसूरत, सिर्फ 15 महीने पुरानी बीवी को प्यार से, शरारत से उठाना तो दूर ऐसे उठा रहे हैं जैसे 25 साल पुरानी बीवी हो. न कभी खूबसूरती की तारीफ, न कभी खाने की, न कहीं शौपिंग, न बाहर खाना. उफ, हनीमून तो छोड़ो कैसे कटेगी जिंदगी इस बोर, उबाऊ, नीरस व्यक्ति के साथ. गुस्से से चादर झटकती, पैर पटकती मैं उठी. चाय का प्याला इन के सामने पटका और बाथरूम में जा घुसी. अब क्या करूं इन से पिकनिक की बात. फिर भी एक चांस तो और लेना ही पड़ेगा.

सो नाश्ता परोसते झूठ ही कहा, ‘‘कल श्वेता का फोन आया था. वह और नीरज इस संडे पिकनिक का प्रोग्राम बना रहे हैं आप के सभी दोस्तों के साथ. हमें भी चलने को कहा है. क्या कहूं?’’

सोचा अगर ये हां कह देंगे तो मैं खुद श्वेता को फोन कर प्रोग्राम बना लूंगी पर सपाट जवाब, ‘‘मना कर दो.’’

मैं हैरान, ‘‘क्यों?’’

ये हलकी चिढ़ से बोले, ‘‘क्यों क्या. सप्ताह में 1 दिन मिलता है थोड़ा रिलैक्स करने का, आराम करने का उसे भी फालतू दोस्तों के साथ आनेजाने में बिगाड़ दूं मैं नहीं चाहता.’’

उफ, अब मनाओ हनीमून. क्याक्या लिखा था उस लेख में. एकदूसरे को कविता सुनाओ, प्यारी रोमांटिक बातें करो, अच्छा खाना बनाओ, प्यार से एकदूसरे को खिलाओ, सजसंवर कर तैयार रहो, बीचबीच में प्यार का इजहार करो, बाहर जाओ, आइसक्रीम खाओ, खाना खाओ, शौपिंग पर जाओ, पिकनिक जाओ, पिक्चर जाओ. यहां तो लग रहा है कि अब सीधे अपने मायके जाओ. इन्होंने तो सब पर पानी फेर दिया. मैं ने मन ही मन में सोचा और इन्हें वह लेख पढ़ा दिया.

लेख पढ़ कर बोले, ‘‘ऐसे वाहियात लेख पढ़ कर ही तुम्हारा दिमाग खराब होता है. मेरी ऐसी वाहियात बातों में कोई रुचि नहीं समझ. बेहतर यही होगा कि दिनभर घर पर खाली बैठ कर यह फालतू मैगजीन पढ़ने के बजाय कुछ जौबवौैब करो ताकि घर में चार पैसे आएं और इस महंगाई में गुजारा हो सके.’’

अब मुझे पता चल गया मेरा हनीमून 5 साल तो क्या 2 साल भी नहीं चलेगा. तलाक समस्या का समाधान नहीं तो खुद को व्यस्त करना ही बेहतर उपाय लगा. अब मैं एक टीचर हूं और सब को व्यस्त रहने का ज्ञान बांटती रहती हूं.

अपने चरित्र पर ही संदेह: भाग 3- क्यों खुद पर शक करने लगे रिटायर मानव भारद्वाज

एक दिन परेशान थे मानव, आंखों में बसी चिरपरिचित सी शक्ति कहीं खो गई थी.

‘‘आप को क्या लगता है, मैं लड़ाका हूं, सब से मेरा झगड़ा लगा रहता है. मैं हर जगह सब में कमियां ही निकालता रहता हूं. वसुधा बेटा, जरा समझाना. 2 रातों से मैं सो नहीं पा रहा हूं.’’

मानव के मन की पीड़ा को जान कर मैं व वसुधा अवाक् थे. ऐसा क्या हो गया. पता चला कि मानव ने उस वृद्ध दंपती से अपनी रचनाओं के बारे में एक ईमानदार राय मांगी थी. 2 दिन पहले उन के घर पर कुछ मेहमानों के साथ मानव और मीना भाभी भी थीं.

‘‘मानव, आप की रचनाएं तो कमाल की होती हैं. आप के पात्रों के चरित्र भी बड़े अच्छे होते हैं मगर आप स्वयं इस तरह के बिलकुल नहीं हैं. आप की आप के रिश्तेदारों से लड़ाई, आप की आप के समधियों से लड़ाई इसलिए होती है कि आप सब में नुक्स निकालते हैं. आप तारीफ करना सीखिए. देखिए न हम सदा सब की तारीफ ही करते रहते हैं.’’

85 साल के वृद्ध इनसान का व्यवहार चार लोगों के सामने मानव को नंगा सा कर गया था.

‘‘मेरी रचनाओं के पात्रों के चरित्र बहुत अच्छे होते हैं और मैं वैसा नहीं हूं… वसुधा, क्या सचमुच मैं एक ईमानदार लेखक नहीं…अगर मैं ने कभी उन्हें अपना बुजुर्ग समझ उन से कोई राय मांग ही ली तो उन्होंने चार लोगों के सामने इस तरह कह दिया. अकसर वहां मैं वह सब नहीं खाता जो वे मेहमान समझ कर परोस देते हैं… मुझे तकलीफ होती है… तुम जानती हो न… हैरान हूं मैं कि वे मुझे 3 साल में बस इतना ही समझे. क्या मेरे लिए अपने मन में इतना सब लिए बैठे थे. यह दोगला व्यवहार क्यों? कुछ समझाना ही चाहते थे तो अकेले में कह देते. अब उस 85-87 साल के इनसान के साथ मैं क्या माथा मारूं कि मैं ऐसा नहीं हूं या मैं वैसा हूं. क्या तर्कवितर्क करूं?

‘‘मैं चापलूस नहीं हूं तो कैसे सब की तारीफ करता रहूं. जो मुझे तारीफ योग्य लगेगा उसी की करूंगा न. और फिर मेरी तारीफ से क्या बदलेगा? मेरी समस्याएं तो समाप्त नहीं हो जाएंगी न. मुझे किसी की झूठी तारीफ नहीं करनी क्योंकि मुझे किसी से कोई स्वार्थ हल नहीं करना. क्या सचमुच मैं जो भी लिखता हूं वह सब झूठ होता है क्योंकि मेरे अपने चरित्र में वह सब है ही नहीं जो मेरे संदेश में होता है.

‘‘मैं ने उस पल तो बात को ज्यादा कुरेदा नहीं क्योंकि 4-5 लोग और भी वहां बैठे थे. मैं ने वहां सब के साथ कौफी नहीं पी, जूस नहीं पिया. पकौड़ों के साथ चटनी नहीं खाई, क्योंकि मैं वह ले ही नहीं सकता. वे जानते हैं फिर भी कहते रहे मैं किसी का मान ही नहीं रखता…जरा सा खा लेने से खिलाने वाले का मन रह जाता है. अपनी कहानियों में तो मैं क्षमा कर देता हूं जबकि असल जिंदगी में मैं क्षमा नहीं करता. क्या ऐसा सच में है, वसुधा?’’

मानव की आंखें भर आई थीं.

‘‘मैं अपने उसूलों के साथ कोई समझौता नहीं करता…क्या यह बुरी बात है? मीना कहती है कि आप को अपने घर की बात उन से नहीं करनी चाहिए थी. क्या जरूरत थी उन से यह कहने की कि आप के रिश्तों में तनाव चल रहा है तभी तो उन्हें पता चला.

‘‘अरे, तनाव तो लगभग सभी घरों में होता है…कहीं कम कहीं ज्यादा…इस में नया क्या है. मेरा दोष इतना सा है कि मैं ने बुजुर्ग समझ कर उन से राय मांग ली थी कि मुझे क्या करना चाहिए…उस का उत्तर उन्होंने इस तरह चार लोेगों के सामने मुझे यह बता कर दिया कि मैं अपनी रचनाओं से मेल ही नहीं खाता.’’

मानव परेशान थे. वसुधा उन की बांह सहला रही थी.

‘‘चाचाजी, हर इनसान के पास किसी को नापने का फीता अलगअलग है. हो सकता है, जो समस्या आप के सामने है वह उन्होंने न झेली हो, लेकिन यह सच है कि उन्होंने समझदारी से काम नहीं लिया. आप स्पष्टवादी हैं और आज का युग सीधी बात करने वालों का नहीं है और सीधी बात आज कोई सुनना भी नहीं चाहता.’’

‘‘उन्होंने भी तो सीधी बात नहीं की न.’’

‘‘सीधी बात 3 साल की जानपहचान के बाद की. अरे, सीधी बात तो इनसान पहली व दूसरी मुलाकात में ही कर लेता है. 3 साल में भी अगर वे यही समझे तो क्या समझे आप को?’’

दूसरी सुबह मैं ने मानव को फोन किया था और पूछा था कि रात आप क्या कहना चाहते थे. जरा खुल कर समझाइए.

तब मानव ने बस इतना ही कहा कि मुझे सब की तारीफ करनी चाहिए. हर इनसान ठीक है. कोई भी गलत नहीं होता.

‘‘चाचाजी, आप परेशान मत होइए. मन की हम से कह लिया कीजिए क्योंकि नहीं कहने से भी आप बीमार हो सकते हैं. वैसे भी बाहर की दुनिया हम ने नहीं बनाई इसलिए सब के साथ हम एक जैसे नहीं रह सकते. आप के भीतर की दुनिया वह है जो आप लिखते हैं…सच में आप वही हैं जो आप लिखते हैं. आप ईमानदार हैं. आप का चरित्र वैसा है जैसा आप लिखते हैं.’’

‘‘समझ नहीं पा रहा हूं बेटी, क्या सच में…अपनेआप पर ही शक हो रहा है मुझे. 2-3 साल की हमारी जानपहचान में उन्होंने यही निचोड़ निकाला कि मैं वह नहीं हूं जो रचनाओं में लिखता हूं…तो शायद मैं वैसा ही हूं.’’

‘‘वे कौन होते हैं यह निर्णय लेने वाले…आप गलत नहीं हैं. आप वही हैं जो आप अपनी रचनाओं में होते हैं. जो इनसान आप को समझ ही नहीं पाया उन से दूरी बनाने में ही भलाई है. शायद वही आप की दोस्ती के लायक नहीं हैं. 60 साल जिन सिद्धांतों के साथ आप जिए और जिन में आप ने अपनी खुशी से किसी का न बुरा किया न चाहा, वही सच है और उस पर कहीं कोई शक नहीं है मुझे. अपना आत्म- विश्वास क्यों खो रहे हैं आप?’’

सहसा मानव का हाथ पकड़ कर वसुधा बोली, ‘‘चाचाजी, जो याद रखने लायक नहीं, उसे क्यों याद करना. उन्हें क्षमा कर दीजिए.’’

‘‘क्षमा तो उसी पल कर दिया था लेकिन भूल नहीं पा रहा हूं. अपना समझता रहा हूं उन्हें. 3 साल से हम मिल रहे हैं इस का मतलब इतना अभिनय कर लेते हैं वे दोनों.’’

‘‘3 साल आप की तारीफ करते रहे और आप समझ ही नहीं पाए कि उन के मन में क्या है…अभिनय भी अच्छा करते रहे. पहली बार ईमानदार सलाह दी और समझा दिया कि वे आप को पसंद ही नहीं करते. यही ईमानदारी आप नहीं सह पाए. आप के रास्ते सिर्फ 2 हैं ‘हां’ या ‘ना’…उन का रास्ता बीच का है जो आज का रास्ता है. जरूरत पड़ने पर दोनों तरफ मुड़ जाओ. चाचाजी, आप मुझ से बात किया करें. मैं दिया करूंगी आप को ईमानदार सलाह.’’

वसुधा मेरी बहू है. जिस तरह से वह मानव को समझा रही थी मुझे विश्वास नहीं हो रहा था. 30-32 साल की उम्र है उस की, मगर समझा ऐसे रही थी जैसे मानव से भी कहीं बड़ी हो.

सच कहा था एक दिन मानव ने. ज्यादा उम्र के लोग जरूरी नहीं समझदारी में ईमानदार भी हों. अपनी समझ से दूसरों को घुमाना भी समझदार ही कर सकते हैं. मानव आज परेशान हैं, इसलिए नहीं कि वे गलत समझ लिए गए हैं, उन्हें तो इस की आदत है, बल्कि इसलिए क्योंकि सिद्धांतों पर चलने वाला इनसान सब के गले के नीचे भी तो नहीं न उतरता. उन्हें अफसोस इस बात का था कि जिन्हें वे पूरी निष्ठा से अपना समझते रहे उन्होंने ही उन्हें इस तरह घुमा दिया. इतना कि आज उन्हें अपने चरित्र और व्यक्तित्व पर ही संदेह होने लगा.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें