ताकि शरीर बना रहे साफ और स्वच्छ

गरमी का मौसम हानिकारक पदार्थों को शरीर से बाहर निकालने (डिटौक्स) के लिए एकदम उपयुक्त समय होता है, क्योंकि इन दिनों ताजा और्गैनिक फलों और सब्जियों की काफी उपलब्धता होती है. शरीर से हानिकारक पदार्थों को बाहर निकालना बेहद जरूरी है. कुछ फलों की मदद से अपने शरीर को साफ करने में मदद मिल सकती है. ये शरीर को स्वस्थ और तरोताजा बना सकते हैं:

– गरमी के मौसम में डिटौक्स के लिए तरबूज सब से अच्छा खा-पदार्थ है. इस से शरीर में काफी क्षारीय गुणों वाले तत्त्व बनते हैं और इस में काफी मात्रा में साइट्रोलाइन होता है. इस से आर्जिनिन बनने में मदद मिलती है, जिस से शरीर में अमोनिया एवं अन्य हानिकारक तत्त्व बाहर निकलते हैं. इस के साथ ही तरबूज पोटैशियम का भी अच्छा स्रोत है, जो हमारी डाइट में सोडियम की मात्रा को संतुलित करता है और सफाई के दौरान हमारी किडनियों को भी सपोर्ट करता है.

– नीबू लिवर के लिए बेहतरीन उत्तप्रेरक है और यह यूरिक ऐसिड और अन्य हानिकारक रसायनों को घुला देता है. यह शरीर को क्षारीय बनाता है. इस तरह से यह शरीर के पीएच को संतुलित करता है.

– शरीर से हानिकारक तत्त्वों को निकालने में खीरा भी काफी मददगार होता है. इस में पानी की काफी मात्रा होती है, जिस से मूत्र प्रणाली में गतिशीलता आती है. 1/2 कप कटे खीरे में केवल 8 कैलोरी होती है.

– अमीनो ऐसिड प्रोटीन युक्त पदार्थों में पाया जाता है. हानिकारक तत्त्वों को शरीर से निकालने की प्रक्रिया के लिए यह बहुत आवश्यक है.

– सब्जियों को भाप में पकाने या हलका फ्राई करना अच्छा विकल्प है, क्योंकि इस से पोषक तत्त्वों का क्षय नहीं होता है.

– हानिकारक तत्त्वों को शरीर से बाहर निकालने के लिए कुछ हलकेफुलके व्यायाम करें. डिटौक्सिंग के दौरान यह जरूरी है कि आप अलकोहल और कैफीन से दूर रहें.

– पुदीने की पत्तियां गरमी में ठंडक का एहसास देती हैं. ये खाने को ज्यादा प्रभावी तरीके से पचाने में मदद करती हैं और लिवर, पित्ताशय और छोटी आंत से पित्त के प्रवाह में सुधार लाती हैं व आहार वसा को विघटित करती हैं.

– पोलिफेनोल्स युक्त हरी चाय का खूब सेवन करें, क्योंकि यह शक्तिशाली ऐंटीऔक्सिडैंट का काम करती है.

– कैफीन से दूर रहें, क्योंकि यह शरीर को पोषक तत्त्वों को अवशोषित करने में अड़चन खड़ी करती है. शराब का सेवन न करें, क्योंकि यह रक्तप्रवाह में आसानी से अवशोषित होती है और शरीर के हर हिस्से को प्रभावित करती है.

– खूब पानी पीएं. पुरुषों को प्रतिदिन कम से कम 3 लिटर और महिलाओं को करीब 2.2 लिटर पानी पीना चाहिए. पानी महत्त्वपूर्ण अंगों से हानिकारक तत्त्वों को बाहर निकालता है और पोषक तत्त्वों को कोशिकाओं तक पहुंचाता है.

– अपने आहार में फाइबरयुक्त भोजन की मात्रा बढ़ाएं. फाइबरयुक्त आहार प्रतिरोधक प्रणाली के नियमन में अहम भूमिका निभाता है. इस की वजह से कार्डियोवैस्क्यूलर बीमारी, मधुमेह, कैंसर और मोटापे का खतरा कम होता है.

– तय मात्रा में लेकिन नियमित तौर पर दूध का सेवन करें. दूध में पोषक तत्त्वों की प्रचुरता होती है, जो हड्डियों के लिए खासतौर पर जरूरी हैं. यह हमारे शरीर से अशुद्ध चीजों को बाहर निकालने के दौरान शरीर को मजबूत बनाता है.

– प्रतिदिन सुबह गरम पानी में नीबू और शहद मिला कर पीएं. यह पाचनतंत्र को सक्रिय करता है और कब्ज से दूर रखने में मदद करता है.

– विटामिंस महत्त्वपूर्ण पोषक हैं, जिन का शरीर अपनेआप पर्याप्त मात्रा में उत्पादन नहीं कर सकता. इसलिए आहार में विटामिंस संतुलित मात्रा में होने जरूरी हैं.

शरीर से हानिकारक तत्त्वों को निकालने में सोने की भी अहम भूमिका होती है. जब हम एक बच्चे की तरह सोते हैं तो सभी कोशिकाओं और ऊतकों में समुचित औक्सीजन का संचार होता है. औक्सीजन की उपलब्धता सभी आवश्यक अंगों को अच्छी तरह चलाने में मदद करती है. यह त्वचा को कोमल एवं आंखों को चमकदार बनाती है.

– सोनिया नारंग, पोषण विशेषज्ञा, ओरिफ्लेम इंडिया

फिल्म रिव्यू : डेथ इन ए गंज

कहानीकार मुकुल शर्मा ने सत्तर के दशक में एक लघु कहानी लिखी थी, जिस पर उनकी बेटी व अभिनेत्री कोंकणा सेन शर्मा बतौर निर्देशक फिल्म ‘‘डेथ इन ए गंज’’ लेकर आयी हैं,जो कि बंगला फिल्मों की परिपाटी वाली फिल्म कही जा सकती है.

जब इंसान को बार बार अपमानित किया जाए या कुचला जाए, तो यह सब किसी भी इंसान के लिए भुलाना मुश्किल होता है. ऐसे में इंसान डिप्रेशन का शिकार हो खुद को ही खत्म कर लेता है. इस बात को यह फिल्म बेहतरीन ढंग से चित्रित करती है.

कहानी 1979 की रांची के पास मैक्लुस्की गंज में रहने वाले ओ पी बख्शी (ओमपुरी) और मिसेस अनुपमा बख्शी (तनूजा) के घर पर छुट्टी बिताने आने वाले रिश्तेदारों में से एक नंदू (गुलशन देवैया) के भाई शुतु (विक्रांत मैसे) के इर्द गिर्द घूमती है. इस घर में नंदू (गुलशन देवैया), बोनी (तिलोत्मा शोम), मिमी (कलकी कोचलीन), ब्रायन (जिम सर्भ), तानी (आर्या शर्मा) व शुतु (विक्रांत मैसे) जमा हुए हैं.

इस परिवार में रहने आने वाले यह सभी एक बड़े परिवार का हिस्सा हैं. मगर इनके बीच जो संबंध हैं, उससे एहसास होता है कि इनमें आपस में आत्मीयता का अभाव है. इन सभी की अपनी समस्याएं और परेशानियां हैं, जिन्हें कोई दूसरा समझ नहीं पाता. यह सभी पिकनिक मनाने आए हैं, मगर सभी तन्हा व परेशान हैं.

शुतु अपनी समस्याओं से जूझ रहा है. वह पढ़ाई में असफल हो चुका है, तो कहीं न कहीं डिप्रेशन का शिकार है. उसकी मां भी उसके बर्ताव से परेशान है और अपनी बहन अनुपमा बख्शी को पत्र लिखकर मदद मांगती है. शुतु को सभी अपमानित व कुचलने का ही प्रयास करते हैं. सभी उस पर अपनी धौंस जमाते हैं. कहानी आगे बढ़ती है, तो पता चलता है कि गर्म दिमाग के विक्रम की शादी हो गयी है और विक्रम ने अपनी पत्नी को सोने की पायल पहनने के लिए दी है. इसके बावजूद विक्रम व मिमी के बीच अवैध संबंध हैं.

एक दिन जब व्रिकम अपनी पत्नी के सामने मिमी की अनदेखी करता है, तो मिमी बहाने से शुतु का अपने कमरे में ले जाती है और उसके यौन क्रीड़ा कर अपनी प्यास बुझाती है. शुतु को लगता है कि मिमी उससे प्यार करने लगी है. दोनों दूसरे दिन घने बाग में जाकर प्यार करने के साथ साथ शारीरिक भूख मिटाते हैं. उसके दूसरे दिन विक्रम का साथ पाते ही मिमी भी शुतु को अपमानित कर विक्रम के संग चल देती है. इससे शुतु व्यधित होता है और ओ पी बख्शी से बंदूक छीनकर खुद को सभी के सामने गोली मार लेता है. उसकी मौत हो जाती है.

फिल्म की गति धीमी है, मगर सशक्त कहानी व पटकथा के साथ ही उत्कृष्ट निर्देशन के चलते फिल्म अपना प्रभाव छोड़ने में कामयाब रहती है. बंगला पृष्ठभूमि के सभी किरदार

अंग्रेजी,बंगला व हिंदी बोलते हुए नजर आते हैं. इंसानी रिश्तों, उनके अंदर की कसक आदि का बेहतरीन चित्रण है.

जहां तक अभिनय का सवाल है, तो बार बार कुचले जा रहे व अपमानित हो रहे शुतु के किरदार में विक्रांत मैसे ने जान डाल दी है. रणवीर शोरी, कल्की कोचलीन व बाल कलाकार आर्या शर्मा ने भी उल्लेखनीय अभिनय किया है. स्व. ओम पुरी व तनूजा के अभिनय की तो हर कोई हमेशा तारीफ करता है. इसमें भी इन दोनों ने बेहतरीन परफॉर्मेंस दी है.

एक घंटे 44 मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘‘ए डेथ इन ए गंज’’ का निर्माण अषीश भटनागर विजय कुमार स्वामी, हनी त्रेहान, अभिषेक चौबे तथा पटकथा लेखन व निर्देशन कोंकणा सेन शर्मा ने किया है. संगीतकार सागर देसाई, कैमरामैन सिरसा रे तथा कलाकार हैं, ओम पुरी, तनूजा, विक्रांत मैसे, रणवीर शोरी, तिलोत्मा शोम, गुलशन देवैया, जिम सर्भ, आर्या शर्मा व अन्य.

फिल्म रिव्यू : डियर माया

बौलीवुड में कभी मनीषा कोईराला की गिनती अति खूबसूरत व बेहतरीन अदाकारा के रूप में हुआ करती थी. पर कैंसर की बीमारी के चलते वह लंबे समय तक अभिनय से दूर रहीं. अब कैंसर की बीमारी से लड़कर जीत हासिल करने के बाद नई जिंदगी की शुरुआत करते हुए उन्होंने फिल्म ‘‘डियर माया’’ से अभिनय में वापसी की है. जिसे देखकर कहा जा सकता है कि मनीषा कोईराला ने वापसी के तौर पर गलत फिल्म का चयन किया है. कहानी, पटकथा व निर्देशन हर स्तर पर यह कमजोर फिल्म है. फिल्म में किसी भी किरदार को सशक्त तरीके से नहीं गढ़ा गया है. फिल्म का सशक्त पक्ष शिमला की लोकेशन मात्र ही है.

फिल्म की कहानी शिमला की है, जहां दो लड़कियां एना (मदीहा ईमाम) और ईरा (श्रेया चैधरी) जो कि आपस में बहुत गहरी दोस्त हैं, उनके बीच पड़ोस में रहने वाली माया (मनीषा कोईराला) हमेशा चर्चा का विषय रहती हैं. माया हमेशा अपने बड़े से बंगले की चार दीवारी के अंदर कैद रहती हैं. ज्यादातर समय वह घर के अंदर बंद रहकर काले या नीले रंग की पोशाक पहनने वाली गुड़िया बनाती रहती हैं. उन्होंने अपने घर के अंदर काफी पक्षियों को पिंजरे में कैद कर रखा है. जिनकी देखभाल करने के लिए एक बूढ़ी नौकरानी उनके साथ रहती है. माया का जीवन अवसाद से भरा हुआ है. खुशी नाम की कोई चीज नहीं है. एना की मां हमेशा एना को समझाती है कि वह ईरा से दूर रहे. क्योंकि ईरा आत्मकेंद्रित लड़की है, वह सिर्फ अपने बारे में सोचती है. वह कभी भी एना को नुकसान पहुंचा सकती है. पर एना को यह सब गलत लगता है.

एना की मां (इरावती हर्षे) से एना व ईरा को पता चलता है कि माया के पिता की मौत के बाद माया के चाचा ने उसकी मां व उसे इतनी तकलीफें दी थी कि एक दिन माया की मां कहीं चली गयी. उसके बाद माया के चाचा ने उस पर भी अत्याचार किया. माया के चाचा के गुस्से की वजह से सभी डरते थे. माया के चाचा की नजर माया की संपत्ति पर रही, जिसके चलते उन्होंने माया की शादी नही होने दी और माया से कहा कि लड़के ने उसे अस्वीकार कर दिया.

सब कुछ जानने के बाद ईरा व एना निर्णय लेते हैं कि वह माया के जीवन में खुशियां भरेंगे. काफी सोचविचार कर ईरा व एना, माया को देव नामक काल्पनिक युवक के नाम से प्रेम पत्र लिखना शुरू कर देती हैं. इन प्रेम पत्रों में देव लिखता है कि किस तरह वह उन्हें पसंद करने लगा था. पर उसके चाचा ने ही उन्हे मिलने नहीं दिया. वगैरह..धीरे धीरे माया की जिंदगी में बदलाव आने लगता है. पर ईरा को यह बर्दाश्त नही कि सब कुछ एना कर जाए, इसलिए वह भी एक पत्र देव की तरफ से लिखकर उस लिफाफे में भेजती है, जिस पर दिल्ली का पता लिखा है. उसके बाद माया शिमला में अपना घर व सारा सामान बेचकर अपने कुत्तों के साथ दिल्ली पहुंच जाती है. इधर एना परेशान है कि माया दिल्ली में क्या करेंगी.

सारा सच जानकर एना के माता पिता नाराज होकर उसे दिल्ली में होस्टल में रहकर पढ़ने भेज देते हैं. एना अपनी तरफ से माया को तलाशने की कोशिश करती है. छह वर्ष बीत जाते हैं. अंततः वह दिल्ली की दीवारों पर माया की तस्वीर के साथ गुमशुदगी के बारे में पोस्टर चिपका देती है. माया बताती हैं कि उसके साथ दिल्ली में क्या क्या हुआ और आखिर उसे एक देव कैसे मिला.

फिल्म में दो सहेलियों की दोस्ती, बनते बिगड़ते रिश्ते, प्रेम के साथ गुमशुदगी का मसला भी है. मगर सब कुछ बहुत ही सतही स्तर पर है. फिल्म बहुत धीमी गति से आगे बढ़ती है. इंटरवल के बाद तो फिल्म एकदम शिथिल हो जाती है. फिल्म को एडीटिंग टेबल पर छोटा करने की जरुरत थी. अति कमजोर कहानी को बेहतर बनाया जा सकता था. गुमशुदगी के मसले पर काफी कुछ कहा जा सकता था, पर यह फिल्म चुप रहती है. पटकथा व निर्देशन में भी काफी कमियां हैं. माया के शिमला से दिल्ली पहुंचने व गायब रहने का रहस्य भी ठीक से नहीं उभरता. प्रभाव हीन संवाद व गीत फिल्म को स्तरहीन बनाने में कोई कसर बाकी नहीं रखते.

जहां तक अभिनय का सवाल है, तो मनीषा कोईराला ने अपनी तरफ से बेहतर परफार्मेंस देने की कोशिश की है, मगर जब किरदार सही ढंग से न लिखा गया हो, पटकथा कमजोर हो, तो कलाकार भी बेबस हो जाता है. एना की मां के किरदार में इरावती हर्षे ने अच्छा काम किया है. श्रेया चौधरी व मदीहा ने अपने किरदारों के साथ न्याय किया है.

दो घंटे ग्यारह मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘‘डियर माया’’ की निर्देशक सुनैना भटनागर तथा कलाकार हैं-मनीषा कोईराला, ईरावती हर्षे, श्रेया चौधरी, मदीहा इमाम व अन्य.

फिल्म रिव्यू : बेवाच

एक्शन कामेडी फिल्म ‘‘बेवाच’’ की कहानी इसी नाम के एक लोकप्रिय शो पर आधारित है. मगर अफसोस की बात है कि नब्बे के दशक के इस लोकप्रिय टीवी शो की तुलना इस फिल्म के साथ नहीं की जा सकती. इस फिल्म में एकशन की भरमार है. बंदूकें चल रही हैं. लाशे मिल रही हैं. महिला पात्रों को छाती दिखाना अनिवार्य सा लगता है. गालियां भी हैं. हास्य के नाम पर फूहड़ता के अलावा कुछ नही है. जिसके चलते भारत में ‘वयस्क’ तथा विदशों में यह ‘‘आर’’ श्रेणी की फिल्म है.

विदेशो में समुद्री बीच और उसके किनारे को ‘बेवाच’ कहा जाता है. यह कहानी फ्लोरीडा के एम्राल्ड बे की है. जहां पर ‘लाइफ गार्डस’ यानी कि जीवन रक्षक के रूप में मिच बुचन्नान (द्वायने जान्सन) की टीम कार्यरत है. 500 से अधिक लोगों की जान बचा चुके मिच लोगों के बीच काफी लोकप्रिय हैं. इस बात से स्थानीय पुलिस अफसर गार्नेर (याहया अब्दुल मस्तीन) और मिच के उच्चाधिकारी कैप्टन थोर्पे (रोब हुबेल) नाराज रहते हैं. एक दिन सुबह सुबह समुद्री बीच पर सैर करते समय हंटले क्लब के सामने मिच को ड्रग्स का एक छोटा सा पैकेट मिलता है. अब हंटले क्लब की मालकिन विक्टोरिया (प्रियंका चोपड़ा) हैं.

इधर ‘लाइफ गार्डस’ का हिस्सा बनने के लिए कई लोग प्रयासरत हैं. इसमें से पूर्व ओलंपिक तैराक मैट ब्राड (जैक इफ्रान) भी हैं, जो कि बेरोजगार हैं. उसे शराब पीने की बुरी लत है. मिच का उच्चाधिकारी जान बूझकर मैट ब्राड को ‘लाइफ गार्ड’ टीम का हिस्सा बनाने के लिए मिच से कहता है. मिच को न चाहते हुए भी रॉनी (जोन बास) और क्विन (अलेक्जेंडर ददारियो) के साथ ब्राड को भी अपनी टीम से जोड़ना पड़ता है. रॉनी की प्रेमिका सी जे पारकर (केली रोहब्राच) भी हैं. जबकि क्विन पर ब्राड फिदा है.

उधर मिच को इस बात का शक हो चुका है कि विक्टोरिया क्लब की आड़ में ड्रग्स का कारोबार चला रही है. जब बीच समुद्र में खड़े याच्ट में आग लग जाती है, तो मिच के आदेश का उल्लंघन कर ब्राड आग में कूदता है, बड़ी मुश्किल से उसे सी जे पारकर बचाती है. जबकि याच्ट पर लगी आग से एक मृत व्यक्ति को लाया जाता है, जिसकी पहचान शहर के एक अधिकारी के रूप में होती है. मिच इस इंसान के शरीर की जांच करना शुरू करता है, तो पुलिस अफसर गार्नेर उसे रोकता है. पुलिस अफसर का तर्क है कि अपराध की जांच करना उसका दायित्व है, जबकि मिच का दायित्व सिर्फ लाइफ गार्ड की ही है. ब्राड भी पुलिस अफसर का साथ देता है. परिणामतः ब्राड तथा मिच का साथ देने वाले अन्य लाइफ गार्डस के लोगों के बीच दुराव पैदा हो जाता है.

विक्टोरिया द्वारा आयोजित पार्टी में ब्राड शराब पीकर बहक जाता है, तब मिच भीड़ के सामने ब्राड का अपमान करता है. दूसरे दिन नशा उतरने पर ब्राड को गलती का अहसास होता है कि वह अपनी बुरी आदतों के चलते ही गरीब हुआ है. वह मिच से माफी मांगकर एक मौका देने के लिए कहता है. मिच उसे माफ कर देता है.

मिच अपनी तरफ से विक्टारिया के खिलाफ जांच कर रहा है. वह एक दिन ब्राड व क्विन को लेकर उस शवग्रह में जाता है, जहां याच्ट से मिली लाश पर विक्टोरिया के आदमी गलत पोस्टमार्टम रिपोर्ट रख रहे होते हैं. सारी बातें क्विन अपने मोबाइल में रिकार्ड कर लेती है, पर ऐन वक्त पर उनकी मौजूदगी उजागर हो जाती है. फिर विक्टोरिया के आदमी यानी कि गुंडे मोबाइल तोड़कर सारे सबूत मिटा देते हैं. मिच पुलिस अफसर के पास पहुंचता है, पर वह कुछ भी सुनने को तैयार नहीं. बल्कि मिच का उच्चाधिकारी उसे नौकरी से बाहर कर ब्राड को मुखिया बना देता है. उसके बाद ब्राड ‘लाइफ गार्डस’ के बाकी सदस्यों के साथ मिलकर विक्टेारिया के खिलाफ लग जाता है, ऐन वक्त पर वह मिच से मदद मांगता है. अंत में विक्टोरिया के ड्रग्स साम्राज्य का खात्मा हो जाता है. मिच को पुनः ‘लाइफगार्डस’ का मुखिया बना दिया जाता है.

कथानक स्तर पर कोई नवीनता नहीं है. बौलीवुड में इस तरह के कथानक पर कई फिल्में बन चुकी हैं. फिल्म में हास्य व एक्शन कुछ भी सही ढंग से नहीं उभरता. वैसे फिल्म को तहस नहस करने में कुछ काम सेंसर बोर्ड ने भी किया है. फिल्म में कोई भी कलाकार सही ढंग से हास्य दृश्यों को नहीं निभा पाया. जैक इफ्रान पटकथा में बंधे हुए नजर आते हैं. क्योंकि वह भी अपने अभिनय का प्रभाव नहीं छोड़ पाते हैं. फिल्म के महिला पात्र तो महज खानापूर्ति के लिए ही हैं. कुछ महिला पात्र तो समुद किनारे बिकनी या अर्धनग्नावस्था में घूमने के लिए नजर आनी ही चाहिए. परिणामतः बेहतरीन कलाकारों की मौजूदगी भी इस फिल्म को बाक्स आफिस पर बुरी तरह से डूबने से कोई नहीं बचा सकता.

जहां तक अभिनय का सवाल है, तो फिल्म ‘‘बेवाच’’ में खलनायक विक्टोरिया के किरदार में प्रियंका चोपड़ा को देखकर तरस आता है कि क्या वह इतना छोटा व घटिया काम करने के लिए ही हौलीवुड फिल्म से जुड़ी हैं. खलनायिका के रूप में उनका किरदार सही ढंग से लिखा ही नहीं गया है, वह सशक्त किरदार के रूप में नहीं उभरता है. उपर से प्रियंका चोपड़ा का अभिनय भी सतही ही है. महज बोल्ड पहनावा व मेकअप ही अभिनय का हिस्सा नहीं होता, यह बात हर अभिनेत्री को याद रखनी चाहिए. इस फिल्म से प्रियंका चोपड़ा के कम से कम भारतीय प्रशंसक तो काफी निराश होंगे.

एक घंटे 56 मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘‘बेवाच’’ का निर्माण इवान रैतमन, मिचाइल बर्क, डगलस ने किया है. जबकि भारत की तरफ से ‘‘वायकाम 18’’ जुड़ा हुआ है. निर्देशक सेठ गोरडन, पटकथा लेखक दमियान शनन व मार्क स्विफ्ट, संगीतकार क्रिस्टोफर, कैमरामैन इरिक स्टीलबर्ग तथा कलाकार हैं-द्वायने जानसन, याह्या अब्दुल मस्तीन, प्रियंका चोपड़ा,  जोन बास, अलेक्जेंडर ददारिया, केली रोहब्राच, रोब हुबेल व अन्य.

क्या है मौनी के परफेक्ट फिगर का राज

कलर्स के शो नागिन 2 की नागिन मौनी रॉय को कौन नहीं जानता. मौनी नागिन में अपनी एक्टिंग के साथ-साथ बेहतरीन फिगर के लिए भी जानी जाती हैं. इस बेहतरीन फिगर का राज हाल ही में मौनी ने अपने इंस्टाग्राम अकाउंट के जरिए खोला है. दरअसल मौनी ने अपने इंस्टाग्राम अकाउंट पर एक तस्वीर पोस्ट की है जिसमें वो जिम में कड़ी मेहनत करती हुई दिख रही हैं.

मौनी ने जिम में स्ट्रेचिंग करते हुए अपनी एक तस्वीर पोस्ट की है जिसमें वो बड़े ही साहसी तरीके से स्ट्रेचिंग करती दिख रही हैं. इस फोटो के साथ उन्होंने कैप्शन दिया है “एंड देन वी जिम”. अपनी पसंदीदा नागिन को इस तरह स्ट्रेचिंग करते देख उनके कई फैंस ने कमेंट किए हैं. उन्हीं में से एक ने कमेंट किया है “बी केयरफुल”.

मौनी ने टीवी पर अपने करियर की शुरुआत 2007 में क्योंकि सास भी कभी बहू थी से की थी. इस शो में वो बॉलीवुड एक्टर पुलकित सम्राट के अपोजिट नजर आईं थी.

देवों के देव महादेव में मोहित रैना के अपोजिट आने के बाद उन्हें काफी पसंद किया जाने लगा. नागिन में शिवन्या और शिवांगी के किरदार के बाद तो वो घर-घर में जाना जाने वाला नाम बन गई हैं.

 

 

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संजय दत्त की फिल्म से बॉलीवुड में डेब्यू करेंगी अंकिता!

टेलीविजन एक्ट्रेस अंकिता लोखंडे के फैन्स के लिए एक अच्छी खबर है. मीडिया में छाई रिपोर्ट के मुताबिक, अंकिता की झोली में फाइनली एक फिल्म आ चुकी है. कहा जा रहा है कि अंकिता को बॉलीवुड स्टार संजय दत्त की अगली फिल्म ‘मलंग’ के लिए साइन कर लिया गया है. हालांकि, इससे पहले भी अंकिता के बॉलीवुड में डेब्यू की खबरें आई थीं लेकिन अब तक अंकिता बड़े पर्दे पर नहीं उतर पाईं.

बता दें कि सबसे पहले शाहरुख खान की फिल्म ‘हैप्पी न्यू इयर’ से अंकिता के बॉलीवुड डेब्यू की खबरें आई थीं, जिसमें यकीनन बात नहीं बन सकी. इसके बाद संजय लीला भंसाली की बहुचर्चित अगली फिल्म ‘पद्मावती’ को लेकर खबर आई कि इस फिल्म से वह बॉलीवुड में अपने सफर की शुरुआत कर सकती हैं, लेकिन यहां भी उनके फैन्स को निराश ही होना पड़ा. अब अंकिता को बॉलीवुड में देखने की चाह रखने वाले उनके फैन्स का यह सपना शायद जल्द पूरा हो.

हालांकि, इस खबर को लेकर अभी तक न तो अंकिता ने और न ही डायरेक्टर ओमंग कुमार ने कुछ कन्फर्म किया है, लेकिन उनके फैन्स उम्मीद करते हैं कि इस बार सब कुछ सही हो और वे अपनी चहेती एक्ट्रेस को बड़े पर्दे पर देख सकें. मशहूर टीवी सीरियल ‘पवित्र रिश्ता’ के बाद से अब तक अंकिता ने किसी और शो के लिए काम नहीं किया है.

मैंने अपनी शर्तों पर काम किया है : प्रियंका चोपड़ा

फिल्म ‘फैशन’ से चर्चित हुई अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा ने बॉलीवुड और हॉलीवुड में अपनी एक खास जगह बना ली है. देश हो या विदेश हर जगह उनके फैन फौलोवर्स की संख्या लाखों-करोड़ों में है. मिस वर्ल्ड बनने के बाद उन्हें पहचान मिली और इसे उन्होंने केवल देश में ही नहीं, बल्कि विदेश में सिद्ध कर दिया कि वह एक मंझी हुई अदाकारा हैं.

अभिनय में उनका शुरूआती दौर अधिक अच्छा नहीं था, लेकिन उनकी लगन और मेहनत उन्हें यहां तक ले आई. आज वह नंबर वन की अभिनेत्री हैं. उन्होंने हर तरह के किरदार निभाए हैं. प्रियंका अपने देश लौटने के बाद यहां की फिल्मों और अपने प्रोडक्शन हाउस को लेकर व्यस्त हैं. उन्होंने कई साल अमेरिका में गुजारे, लेकिन उन्हें बॉलीवुड और अपना परिवार सबसे अधिक पसंद है.

प्रियंका का हॉलीवुड में जाना एक इतफाक नहीं था, बल्कि उनकी इच्छा थी कि वह उनके काम करने के तरीका और वहां की इंडस्ट्री को अच्छी तरह समझ सकें. उनसे मिलकर बात करना रोचक था. पेश है अंश.

घर लौटने के बाद पहला काम क्या किया?

उस दिन मैं घर पर देर से पहुंची और बालकनी में गयी. वहां की सारी चीजें, बुक शेल्फ सब ठीक किया. सारी खिड़कियां खोली और बड़ा अच्छा महसूस हुआ. मेरी मां हमेशा अमेरिका जाती रहती है और बातें होती रहती है. इसलिए उससे अधिक यहां की मिट्टी को मैंने ‘मिस’ किया.

हॉलीवुड में एंट्री करना कितना मुश्किल था?

सीरियल क्वांटिको की पॉपुलैरिटी ही इसकी खास वजह है. वहां मुझे बुलाया गया और मैंने जब फिल्म ‘बेवाच’ की कहानी सुनी तो मुझे पसंद आई थी. मैं इसमें विलेन हूं और ये किरदार मेरे लिए नया था. मुझे हमेशा से चैलेंजिंग और नयी भूमिका करना पसंद है. हालांकि कई हिंदी फिल्म जैसे ‘साथ खून माफ’ और ‘ऐतराज’ में विलेन की भूमिका मैंने निभाई है, पर ये उससे अलग है.

वहां काम करने का ढंग अलग नहीं है. वहां भी फिल्म मेकिंग ऐसे ही होता है, लेकिन वहां की बजट अलग है, हर काम बड़े स्तर पर होता है और समय से हर काम खत्म हो जाता है. भाषा में केवल फर्क है. इसके अलावा टीवी और फिल्म में काफी अंतर है, जो यहां भी है.

हॉलीवुड में आपने बॉलीवुड की कलाकार के रूप में काम किया, क्या आप किसी प्रकार की अलगाववाद की शिकार हुईं?

वहां के लोगों को बॉलीवुड के बारें में जानकारी कम है, हमारी फिल्मों में कहानी के साथ-साथ कैसे डांस, डांसर और गाना आ जाता है, ये कैसे कहानी को आगे बढाती है, ये उन्हें समझ नहीं आती. ऐसे में उन्हें समझान पड़ा कि हमारी संस्कृति में गाना बजाना बचपन से होता है. बच्चा पैदा हो या शादी ब्याह, गाना बजाना और डांस हर जगह होता है. कही भी संगीत बजे, हम डांस कर लेते है. इस तरह उन्हें समझ आया और उन्होंने मेरी कई हिंदी फिल्में, जिसमें ‘बाजीराव मस्तानी’ और ‘बर्फी’ देखी. उन्हें मेरी एक्टिंग पसंद आई.

इसके अलावा मुझे अपना काम पता है और वह मुझे हिंदी फिल्म इंडस्ट्री ने सिखाया है, इसलिए हॉलीवुड में काम करते वक्त कुछ कमी न हो, इसका ध्यान रखती थी. मुझे कभी भी इस बात का एहसास नहीं हुआ कि मेरी स्किन ब्राउन है और वे मुझे अलग समझते हैं. वहां मेरे कई अच्छे दोस्त बन चुके हैं, जो मेरी सहायता करते हैं.

आपको मराठी फिल्म ‘वेंटिलेटर’ के लिए नैशनल अवार्ड मिला, इस बारें में क्या कहना चाहती हैं?

मुझे खुशी है कि मुझे अवार्ड मिला. मैं इस फिल्म की कहानी से बहुत अधिक प्रेरित थी. इसे मैंने अपने पिता के लिए बनायी थी. मुझे याद आता है जब मेरे पिता वेंटिलेटर पर थे, तब आई सी यू के बाहर यही सब हो रहा था. मेरे पिता के परिवार के लोग पंजाबी हैं और मेरे मां के तरफ के लोग बिहारी हैं, सबके अलग-अलग विचार आ रहे थें. इस तरह ‘टू स्टेट्स’ की बातचीत चल रही थी.

इसके अलावा मैंने जिस वजह से अपनी प्रोडक्शन कंपनी बनायी और वह कामयाब हो रही है, तो खुशी की बात है, क्योंकि जब मैं इंडस्ट्री में आई थी तो मुझे ‘हेल्प’ करने वाला कोई नहीं था. मैं मिस वर्ल्ड थी इसलिए फिल्में मिली. मुझे अपने आप को परिचय करवाना पड़ा. इसलिए मैं अपनी कंपनी में नए लेखक, निर्देशक, संगीतकार, गायक और कलाकार को मौका देती हूं. मैं चाहती हूं कि फिल्में छोटी भले ही हो पर अच्छी हो.

हिंदी फिल्मों को कितना मिस करती हैं? आगे की प्लानिंग क्या है?

हिंदी फिल्म और इस इंडस्ट्री को मिस करती हूं, यहां मेरा परिवार भी है. आगे मैं कुछ स्क्रिप्ट पढ़ रही हूं, पसंद आने पर करुंगी. इसके अलावा मैं अपनी प्रोडक्शन कंपनी में कई रीजनल फिल्में जैसे मराठी, सिक्किम, बांग्ला, कोंकणी आदि बनाउंगी. इसमें सारे कलाकार उसी जगह से लेने की कोशिश की जाएगी, ताकि वे उससे जुड़ सकें. सिक्किम में तो मेरी पहली प्रोजेक्ट होगी, क्योंकि वहां फिल्म इंडस्ट्री नहीं है.

गर्मियों में आप अपनी देखभाल कैसे करती हैं? आपकी फिटनेस का राज क्या है?

वहां तो ठण्ड का मौसम हमेशा रहता है. यहां गर्मी में एसी में रहती हूं, लेकिन मुझे गर्मी का मौसम पसंद है. मेरा कोई खास डाइट प्लान नहीं होता, मैं सब खाती हूं, लेकिन कुछ सावधानियां रखनी पड़ती है ताकि वजन न बढ़े. प्रोटीन अधिक कार्बोहाइड्रेट कम लेना पड़ता है. मुझे घर के गरम-गरम फुल्के बहुत पसंद हैं. इसके अलावा विदेश में भी मेरे साथ रसोइयां जाती हैं, जो वहां खाना बनाती है. पानी और लिक्विड गर्मियों में अधिक लेती हूं.

मेरी जींस अच्छी है, इसलिए हमेशा फिट रहती हूं. इसका श्रेय मेरे माता-पिता को जाता है. 40 की उम्र तक मेरे पिता का स्वास्थ्य बहुत अच्छा था. मेरी मां भी फिट है और मेरी प्रोडक्शन हाउस पूरी तरह से सम्हालती है. अपने वजन को नियंत्रित रखने के लिए मैं वर्क आउट करती हूं, सही आउट फिट पहनती हूं.

आप अपनी जर्नी को कैसे देखती हैं? एक्टर और एक्ट्रेस में पारिश्रमिक अंतर को कैसे देखती हैं?

मैंने जो फिल्में की, उसमें सफल फिल्में अधिक थी और आज मैं यहां पहुच चुकी हूं, मैंने कभी ट्रेंड फौलो नहीं किया. लीड करने की कोशिश की. उसे मैंने एन्जॉय किया और इसकी क्रेडिट बहुत सारे लोगों को जाता है, जिन्होंने मेरी असफल फिल्मों के बाद भी मुझे सहयोग दिया आगे बढ़ने की प्रेरणा दी. मैं नए कलाकारों को भी यही संदेश देना चाहती हूं कि जो भी काम मिले, उसमें कुछ नया लाने की कोशिश करें, ज्ञान बढायें, घबराएं नहीं. काम अच्छा मिले तो चमत्कार होकर ही रहता है.

पूरा विश्व पुरुष प्रधान है. जितना यहां महिला और पुरुषों की समानता के लिए लड़ाई लड़ी जाती है, वहां भी वैसी ही बहस चलती रहती है. सालों से यही चल रहा है, लेकिन यह दौर अब खत्म हो रहा है. आजकल एक्ट्रेस की फिल्में भी सौ करोड़ का आंकड़ा पार कर रही है, उम्मीद है आगे दो सौ और तीन सौ करोड़ भी पार कर लेगी. इसमें दर्शकों सबसे अधिक जिम्मेदार है. उन्हें अपनी टेस्ट बदलनी होगी, उन्हें महिला लीड फिल्मों को देखने के लिए आगे आना होगा. इससे जो एक्टर और एक्ट्रेस के बीच में मेहनताना में अंतर है वह कम होगा, क्योंकि पूरे विश्व  में एक्टर को एक्ट्रेस से अधिक पारिश्रमिक मिलता है, लेकिन इतना सही है कि मुझे वहां के लोगों ने बहुत प्यार दिया और मुझे मेहनताना भी सही मिला. विदेश में भी मैंने शुरू से ही अपनी शर्तों पर काम किया है.

आप सोशल मीडिया पर कितनी एक्टिव हैं और किसी पोस्ट पर कितनी सतर्कता बरतती हैं ताकि बाद में कंट्रोवर्सी न हो?

इसके लिए मैं मीडिया को जिम्मेदार मानती हूं, जो हर पोस्ट को आर्टिकल बना लेती है. मैंने अगर कुछ पोस्ट किया है तो मेरे 1.5 मिलियन फौलोअर्स ने उसे पढ़ लिया है. मीडिया उसे अगर तवज्जों न दे तो कोई बात आगे नहीं बढ़ेगी. सभी को अपनी बात रखने का हक है. मेरे पेरेंट्स ने ये मुझे बचपन से सिखाया है कि किसी भी सही बात को कहने में कभी डरो नहीं और मैं वैसा ही करती हूं. मैं आगे भी यूथ को कहना चाहती हूं कि कुछ सही या गलत नहीं होता, डेमोक्रेटिक कंट्री में सब अपनी राय दे सकते हैं और सब कुछ परिप्रेक्ष्य होता है.

बिग बी होस्ट करेंगे ‘कौन बनेगा करोड़पति’ सीजन 9

बॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन जल्द ही छोटे पर्दे पर वापसी करने वाले हैं. अमिताभ सोनी एंटरटेनमेंट के मशहूर शो ‘कौन बनेगा करोड़पति’ के होस्ट के तौर पर टीवी पर वापसी करेगें. कौन बनेगा करोड़पति का ये 9वां सीजन होगा.

जी हां, पिछले दिनों खबर थी कि ये शो अब ऐश्वर्या या फिर माधुरी होस्ट कर सकती हैं लेकिन अब कंफर्म हो गया है कि अमिताभ बच्चन ही इसे होस्ट करेंगे.

शो का शेड्यूल बेहद ही कड़ा होने वाला है इसलिए शो के निर्माता बेहद मेहनत कर रहे हैं. बच्चन ने शो की शूटिंग के लिए 17 दिन दिए हैं. 10 दिन अगस्त में और 7 दिन सितंबर में. शो में कुल 30 एपिसोड होने हैं इसलिए या तो अमिताभ 17 दिन में 30 एपिसोड शूट करेगें या अपने टाइम को आगे बढाएगें. कौन बनेगा करोड़पति 2000 में शुरू हुआ था और दर्शकों के बीच काफी मशहूर हो गया था.

बता दें कि साल 2000 में ‘कौन बनेगा करोड़पति’ की शुरुआत हुई थी. इस शो ने ना सिर्फ लोगों के दिलों पर राज किया ही बल्कि कई लोगों की जिंदगी भी इस शो ने संवार दी. टीआरपी की दौड़ में भी इस शो ने झंडे गाड़ दिए थे.

रामायण और महाभारत के बाद ये पहला टीवी शो था जिसके लिए तमाम लोगों की निगाहें टीवी की तरफ मुड़ जाती थीं. दर्शक इस शो में अमिताभ को होस्ट के तौर पर देखना काफी पसंद करते हैं लेकिन ये लंबे ब्रेक के बाद टीवी पर आता है. शो का पिछला सीजन 2014 में प्रसारित हुआ था जिसके बाद अब ये फिर से दर्शकों के बीच छाने के लिए तैयार है.

पिछले दिनों खबर थी कि ‘कौन बनेगा करोड़पति’ को इस बार नया होस्ट मिलने वाला है. खबर यहां तक थी कि रणबीर कपूर, अमिताभ बच्चन को रिप्लेस करेंगे बाद में रिपोर्ट आई कि उनकी बहू ऐश्वर्या राय बच्चन या माधुरी दीक्षित इस बार ‘केबीसी’ होस्ट कर सकती हैं.

‘केबीसी’ का अंतिम सीजन 2014 में आया था और अब शो के मेकर्स फिर से नया सीजन लाना चाहते हैं, जो प्राइम टाइम पर प्रसारित होगा.

नस्लभेद का नासूर

विश्वभर में हिंसा का रंग और सुर्ख हो रहा है. अमेरिका, आस्ट्रेलिया, कनाडा, फ्रांस से ले कर भारत तक कुदरती इंसानी रंगों की आपसी नफरत और गहरी होती जा रही है. ग्रेटर नोएडा में नाइजीरियाई छात्रों के साथ हुई हिंसा से भारत की वर्ण, रंगभेदी सोच उजागर हुई है.

मामले की गूंज सोशल मीडिया से ले कर भारतीय संसद और अफ्रीकी देशों तक पहुंच गई. अफ्रीकी देशों ने नाइजीरियाई छात्रों पर हुए हमले को नस्लभेदी हमला करार दिया है. अफ्रीकी राजदूतों के समूह की बैठक में हमले को विदेशियों से घृणा और नस्लवादी सोच से युक्त बताया गया. हालांकि विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने जांच के आदेश दे दिए पर सरकार इसे नस्लीय हमला मानने को तैयार नहीं है.

क्या है मामला

24 मार्च को ग्रेटर नोएडा की एनसीजी रैजिडेंसी सोसायटी में रहने वाला 19 वर्षीय मनीष खारी गायब हो गया तो उस के परिवार ने कासना पुलिस स्टेशन में कुछ नाइजीरियाई युवकों के खिलाफ अपहरण व हमले की रिपोर्ट दर्ज कराई.

अगले दिन मनीष अपने घर के पास बेहोशी की हालत में मिला. उसे अस्पताल ले जाया गया. वहां उसे ओवरडोज ड्रग सेवन के संदेह में मृत घोषित कर दिया गया. पुलिस ने मामले में 5 नाइजीरियाइयों को पकड़ा. अगले दिन नाइजीरियाइयों के समूह ने कासना पुलिस स्टेशन के बाहर पकड़े गए युवकों को छोड़ने के लिए विरोध प्रदर्शन किया. पुलिस को इन के खिलाफ कोई सुबूत नहीं मिला.

नाइजीरियाइयों को छोड़ने के बाद 27 मार्च को एसएसपी कार्यालय के बाहर स्थानीय लोग जमा हुए और उन की गिरफ्तारी के लिए परी चौक को ब्लौक कर दिया गया. कैंडल लाइट प्रदर्शन किया गया और इसी दौरान कई नाइजीरियाई छात्रों की पिटाई कर दी गई.

घटना के बाद क्षेत्र में तनाव फैल गया. ग्रेटर नोएडा की रिहायशी कालोनियों में रहने वाले अफ्रीकी छात्रों को घर खाली कर चले जाने को कहा गया. प्रशासन द्वारा तनाव के हालात को देख कर

28 मार्च को परी चौक और आसपास के इलाकों में अतिरिक्त रैपिड ऐक्शन फोर्स तैनात कर दी गई. नौलेज पार्क, कासना, सूरजपुर, एच्छर, ओमीक्रोन सैक्टर, ओमेगा, पी4  रिहायशी सोसायटियों में रहने वाले अफ्रीकी छात्रों की सुरक्षा के लिए सुरक्षाकर्मी तैनात करने पड़े.

प्रशासन ने स्थानीय रैजिडैंट वैलफेयर एसोसिएशन और अफ्रीकी छात्रों के प्रतिनिधियों के साथ शांति बनाए रखने के लिए बैठक कर दोनों ओर के लोगों को समझाने का प्रयास किया.

रंगभेद की मार

अफ्रीकी छात्र यहां के कालेज और विश्वविद्यालयों में बड़ी तादाद में पढ़ रहे हैं. 2007-08 के बाद से इन छात्रों की तादाद बढ़ रही है. भारत में कुछ विदेशी छात्रों में से अफ्रीकी 19 प्रतिशत बताए जाते हैं. ये छात्र नियमित तौर पर आएदिन रंगभेद के शिकार हो रहे हैं. रंगों को ले कर इन पर फब्तियां कसी जाती हैं. उन्हें ब्लैक मंकी, कालू आदि कहा जाता है.

इन पर आरोप लगते हैं कि ये नशे का कारोबार करते हैं. यह भी आरोप लगाया जाता है कि भारतीय युवकयुवतियां भी नशे की वजह से इन के साथ रहते हैं. सवाल उठता है कि भारतीय युवा ड्रग लेते ही क्यों हैं? कहा जाता है कि मृतक मनीष खारी भी अपने पड़ोस में रहने वाले इन नाइजीरियाई छात्रों के साथ नशा करता था.

यह पहली घटना नहीं है. पिछले साल दिल्ली में ही एक कांगो छात्र की पिटाई से मौत हो गई थी. इस से पहले एक तंजानियाई युवक को बेंगलुरु में भीड़ ने मार डाला था. मई 2016 में करीब 12 अफ्रीकी युवक और युवतियों के साथ, उन की फ्री लाइफस्टाइल पर विरोध जताते हुए दिल्ली में मारपीट की गई. 2014 में दिल्ली के ही राजीव चौक मैट्रो स्टेशन पर अफ्रीकी छात्र को भीड़ द्वारा पीटा गया.

जनवरी 2014 में आम आदमी पार्टी के नेता सोमनाथ भारती के समर्थकों द्वारा दक्षिण दिल्ली के खिड़की ऐक्सटैंशन इलाके में ड्रग और सैक्स रैकेट चलाने के संदेह में इन लोगों के साथ हिंसा की गई. इस घटना में 2 नाइजीरियाई और 2 युगांडा की महिलाएं घायल हो गई थीं, जिन्हें एम्स में भरती कराया गया था.

भारतीय बड़ी संख्या में विदेशों में रहते हैं. हजारों लोग नौकरियां कर रहे हैं तो हजारों पढ़ाई कर रहे हैं. अमेरिका, आस्टे्रलिया, कनाडा, फ्रांस जैसे देशों में भारतीयों के साथ धार्मिक भेदभाव और हिंसा की घटनाएं आएदिन सुर्खियों में रहती हैं. कई बार इन्हें देश छोड़ कर चले जाने को कहा जाता है.

ग्रेटर नोएडा में बड़ी तादाद में अफ्रीकी युवक पढ़ाई के सिलसिले में रह रहे हैं. हिंसा के बाद स्थानीय लोगों में इन के खिलाफ गुस्सा है. इन लोगों ने नाइजीरियाई युवकों से कहा कि वे यहां न रहें. हमले का आरोप लगाने वाली केन्याई युवती मारिया बुरेंडी ने तो भारत छोड़ने का फैसला कर लिया.

एस्टोनिया सोसायटी में रहने वाले अब्दुल ने कहा कि घटना के बाद हम भयभीत हैं. जब से मैं यहां आया हूं, हमारे साथ अनैतिक व्यवहार किया जाता है. लोग उंगलियों से हमारी ओर इशारा करते हैं. हम पर हंसते हैं जैसे हम कोई इंसान नहीं हैं. हमारे साथ भेदभाव बरता जाता है. यह भारतीयों द्वारा हमारे साथ नस्लभेद व्यवहार है.

बीएससी छात्र वाशिम के अनुसार, ‘‘मैं घर के अंदर बंद हूं और भयभीत हूं. मैं यहां पिछले साल सितंबर में आया था. मैं सोच रहा हूं वापस देश लौट जाऊं. मैं टिकट बनवाने की प्लानिंग कर रहा हूं. मैं अब यहां किसी भी तरह नहीं रुक सकता. अफ्रीकियों में कुछ लोग ड्रग्स के मामलों में लिप्त हो सकते हैं पर आप सभी को कैसे शामिल कर सकते हैं.

भेदभाव हमारी संस्कृति है

असल में रंगभेद वर्णव्यवस्था का रूप है, भारत में जाति और वर्ण का बोलबाला रहा है, इसलिए यहां हमेशा गोरे और कालों का झगड़ा रहा है. सदियों से यहां शूद्र, दलितों के साथ गुलामों जैसा व्यवहार किया गया. आमतौर पर शूद्र और दलित काले तथा सवर्ण गोरे होते माने गए. इसलिए शूद्रों व दलितों के साथ छुआछूत, भेदभाव, हिंसा होती रही है. विश्वभर में अपने से काली चमड़ी का मजाक उड़ाया जाता है.

भेदभाव हमारी सदियों पुरानी संस्कृति है. यहां वर्ण और जातियां सदैव भेदभाव से त्रस्त रही हैं. खुद को ऊंचा समझने वालों ने अपने से निचले को हीन समझा और उस के साथ भेदभाव बरता. यहां सवर्ण पिछड़ों और पिछड़े दलितों के साथ गैर बराबरी का व्यवहार करते आए हैं. ग्रेटर नोएडा के जिस पिछड़े गुर्जर समुदाय ने नाइजीरियाइयों को मारापीटा, वे खुद सवर्णों से उपेक्षित रहे.

अब वे खुद कभी दलितों के साथ वही व्यवहार कर के सुर्खियों में आते हैं तो कभी मुसलमानों के खिलाफ. उन्होंने खुद को दलितों से और अब दक्षिण अफ्रीकियों से ऊंचा समझ लिया. यह ऊंचनीच की सोच हमारे खून में रचीबसी हुई है. उत्तर प्रदेश के इस क्षेत्र में इस तरह की घटनाएं आम हैं. इस बार दलितों, मुसलमानों की जगह नाइजीरियाई काले भेदभाव की चपेट में आ बैठे.

भारत में दलित और अफ्रीका के अश्वेत तो जन्मजात गैरबराबरी के शिकार रहे हैं. दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद कानून 1948 में बना था पर वहां की गोरी सरकारें कालों के खिलाफ भेदभावपूर्ण रवैया अपनाना जारी रखे हुई थीं. वहां की कुल आबादी के तीनचौथाई अश्वेत थे और अर्थव्यवस्था उन्हीं के श्रम पर आधारित थी पर सारी सुविधाएं मुट्ठीभर गोरे लोगों को मिलती थीं. 70 प्रतिशत जमीन गोरों के कब्जे में थी. रंगभेद के खिलाफ नेल्सन मंडेला को लंबा संघर्ष करना पड़ा.

भारत की विदेश नीति का एक प्रमुख सिद्धांत रंगनीति का विरोध रहा है. स्वतंत्रता से पहले भारत ने दक्षिण अफ्रीका की रंगभेद नीति का विरोध किया था. रंगभेद समर्थक दक्षिण अफ्रीकी सरकार के विरुद्घ 1954 में संयुक्त राष्ट्र के माध्यम से प्रतिबंध लगाने में भारत सक्रिय रहा. इसी नीति के कारण भारत ने 1954 में दक्षिण अफ्रीका से अपने कूटनीतिक संबंध तोड़ लिए थे. भारत तथा अन्य देशों के दबाव के कारण दक्षिण अफ्रीका को राष्ट्रमंडल से बाहर होना पड़ा था. महात्मा गांधी ने रंगभेद नीति का विरोध किया और अफ्रीका जा कर वहां के लोगों को इस समस्या से मुक्ति दिलाने के लिए जनआंदोलन शुरू किया.

दक्षिण अफ्रीका में एक दौर था जब नस्लीय भेदभाव चरम पर था. सुविधाएं रंग के आधार पर बंटी हुई थीं. बसस्टैंड फौर ओनली व्हाइट, समुद्र बीच केवल व्हाइट रेस गु्रप के लिए, भूमिगत मार्ग से प्रवेश केवल गोरों के लिए, बसों, टे्रनों में अलग सीटें, अलग टौयलेट, अलग पार्क, अलग पब्लिक टैलीफोन बाकायदा इस तरह की सुविधाएं कानून बना कर दी गई थीं.

घृणा का डंक

नस्लभेद के चलते दुनिया को बड़ा नुकसान झेलना पड़ा है. पिछली सदी के 2 महायुद्धों में 65 लाख से ज्यादा लोगों की हत्याओं के पीछे भयंकर नस्लभेद कानून और इस के अगुआ यूरोपीय देशों के गोरे शासक थे. यूरोप की सभ्यता जब दुनिया के चारों कोनों में पांव पसार रही थी तब गुलाम देशों के लोगों पर, बंदूक के बल पर, बर्बर रंगभेद कानून थोपे गए.

मानवता के खिलाफ घृणा का डंक खुद भारत ने बहुत झेला है. सामूहिक तौर पर होने वाली हिंसा से बहुत भारी नुकसान होता है लेकिन क्या हमें अमेरिकी समाज में छिपी गैरबराबरी पर उंगली उठाने का हक है? असमानता के मामले में हमारा अतीत अमेरिका से कहीं अधिक बुरा है. हमारे संविधान ने जो बराबरी दलितों, आदिवासियों, स्त्रियों को दी है क्या वह हम वास्तविक तौर पर दे रहे हैं. क्या हमारी आर्थिक गैरबराबरी में हमारे सामाजिक अन्याय की हकीकत भी शामिल नहीं है?

किसी भी देश की तरक्की में धार्मिक, नस्लीय भेदभाव व हिंसा प्रमुख बाधाएं हैं. ऐसे में भारत फिलिस्तीन, इसराईल, वियतनाम की ओर ही जा रहा है. भारत तरक्की में चीन, अमेरिका या जापान की बराबरी नहीं कर पाएगा. ये देश धर्म के अवलंबन के बगैर आगे बढे़ हैं.

ग्रेटर नोएडा में अफ्रीकियों के साथ किए गए दुर्व्यवहार से देश की छवि को गहरा नुकसान हुआ है. ऐसी घटनाओं से भारतीयों की नस्लभेदी सोच उजागर होती है. नस्लीय भेदभाव से अंतर्राष्ट्रीय संबंध भी प्रभावित होते हैं.

हम अमेरिका, आस्ट्रेलिया, कनाडा की निंदा करते हैं क्योंकि वहां भारतीयों पर नस्ल, रंगभेद के नाम पर हमले होते हैं. वहां अश्वेतों के साथ हिंसा बढ़ रही है. हम यह तो चाहते हैं कि विदेशों में रह रहे भारतीय सुरक्षित रहें, उन के साथ धार्मिक भेदभाव न हो पर इस के उलट, भारत में हम यदि विदेशियों के साथ वही व्यवहार करें तो दुनियाभर में भारतीयों पर हो रहे हमलों को हम गलत ठहराने का नैतिक व राजनयिक हक खो रहे हैं.

अमेरिका जैसा पुराना लोकतांत्रिक, प्रगतिशील देश रंगभेद को खत्म करने में असफल साबित होता दिख रहा है. वहां शासकीय स्तर पर धार्मिक, नस्लीय विचार ज्यादा दृढ़ता से मजबूत होते जा रहे हैं. अश्वेतों, दूसरे धर्मों के प्रति हिंसा बढ़ रही है. अश्वेतों द्वारा शुरू किया गया ब्लैक लाइव्ज मैटर जैसा आंदोलन अब खामोश दिख रहा है.

विश्वभर में फैल रही धार्मिक, नस्लीय सोच केवल पीडि़त अल्पसंख्यकों, अश्वेतों या स्त्रियों के लिए खतरा नहीं है, वह समस्त समाज के लिए खतरा है. वह स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व के संवैधानिक मूल्यों और समाज के दबेकुचले वर्गों की बेहतरी के लिए उठाए गए कदमों के लिए भी खतरा है.

धार्मिक, जातीय, नस्लीय भेदभाव का सवाल पूरी दुनिया के सामने है. विश्व के 2 बड़े लोकतंत्रों भारत और अमेरिका के भीतर ही नहीं, सारी दुनिया में बराबरी के लिए वास्तविक क्रांति बाकी है. जो पिट रहे हैं वे कहीं अश्वेत हैं, कहीं दलित हैं, कहीं आदिवासी हैं और हर जगह स्त्रियां हैं. इन तमाम लोगों को समाज से बाहर रख कर न देश स्वस्थ, सुखी रह सकता है, न समाज और न व्यक्ति.

दुनिया में समानता खुशहाली, तरक्की की पहली शर्त है. गैर बराबरी में तो बरबादी ही बरबादी है. यकीन न हो तो जोहान्सबर्ग, वर्जीनिया से ले कर गोहाना, मिर्चपुर की जली हुई बस्तियां देखी जा सकती हैं.   

महिलाओं की ट्रंप से टक्कर

अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति का पद संभालते ही अमेरिका गुस्से से उबलने लगा. एक ऐसा व्यक्ति जो औरतों के प्रति नितांत बाजारू व घृणित सोच रखता हो, राजनीति के दांवपेंचों के सहारे राष्ट्रपति बन गया तो अमेरिका समेत दुनिया के 70 देशों में सैकड़ों मार्च निकाले गए. तकरीबन साढ़े 5 लाख महिलाओं ने अपनी सुरक्षा, गरिमा, अधिकार और मानसम्मान की खातिर जबरदस्त विरोधप्रदर्शन कर जता दिया कि उन्हें किसी भी रूप में कमजोर न समझा जाए. ‘सिस्टर्स मार्च’ के जरिए उन्होंने अपनी एकजुटता और मजबूती का जबरदस्त प्रदर्शन किया.

इस मार्च के पीछे 60 वर्षीया ग्रैंडमदर टेरेसा शुक की भूमिका काबिलेतारीफ है. बड़ी संख्या में लोगों को बुलाने के लिए उन्होंने सोशल मीडिया फेसबुक के जरिए ट्रंप की नापसंद नीतियों के खिलाफ आमजन का आह्वान किया था. एक नजर डालते हैं उन के प्रयास और उस रणनीति पर जिस ने दुनियाभर की महिलाओं को आवाज बुलंद करने की जबरदस्त हिम्मत दी.

एक अकेली दादी मां टेरेसा शुक, जिस ने दुनियाभर की महिलाओं को अपनी आवाज बुलंद करने की जोरदार हिम्मत दिखाई और अंजाम की परवा किए बगैर अमेरिका के सब से ताकतवर व्यक्ति से टकरा गई.

अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप 8 नवंबर, 2016 को बेहद खुश थे. उन्होंने तमाम विरोधी लहरों और विवादों के बावजूद हिलेरी क्लिंटन को हरा कर राष्ट्रपति पद का चुनाव जीत लिया था. उन के समर्थक जश्न मना रहे थे, जबकि करोड़ों लोगों को उन की जीत लोकतंत्र की जीत नहीं लग रही थी. विभिन्न देशों से आए मुसलिम समुदाय के अप्रवासियों में काफी बेचैनी थी, जो लंबे समय से अमेरिका में रह रहे थे.

उन्हीं में अमेरिकी शहर हवाई की रहने वाली एक सामान्य घरेलू महिला 60 वर्षीया ग्रैंडमदर टेरेसा शुक को ट्रंप की जीत ने अंदर से झकझोर कर रख दिया था. वह काफी विचलित हो गई थी. उस की आंखों की नींद गायब थी. निराशा से भरी हुई वह यह सोचसोच कर कुपित हो रही थी कि ट्रंप का अमेरिकी राष्ट्रपति बनना महिलाओं के लिए किस हद तक हानिकारक साबित होगा.

यह चिंता उस के मन को कचोट रही थी कि क्या ट्रंप के कुछ फैसलों से महिलाओं की समानता और अधिकारों पर अंकुश लग सकता है? इन सब से महिलाओं को बचाने के लिए वह अकेली करे भी तो क्या करे? कैसे विरोध करे? इसी ऊहापोह के बीच उस के दिमाग में महिलाओं को एकजुट करने का विचार कौंध गया.

महिलाओं, अल्पसंख्यकों और प्रवासियों को ले कर ट्रंप द्वारा दिए गए अभद्र और बेतुकी बयानों से जनमानस को आगाह करने के लिए उन्होंने दृढ़ता से एक संकल्प लिया.

मार्च की तैयारी

रात के 12 बजे उन्होंने फेसबुक पर एक इवैंट पेज बनाया, जिस में डोनाल्ड ट्रंप की हेट पौलिटिक्स के खिलाफ मार्च निकालने की बात पोस्ट कर दी. पोस्ट में उन्होंने ट्रंप की नीतियों को ले कर कई आशंकाएं जताईं. ट्रंप को अमेरिकी मूल्यों के बारे में संदेश देने के लिए एक प्रदर्शन के आयोजन की विचारधारा दी. कोई निश्चित मांग किए बगैर प्रदर्शन का मुख्य आधार सम्मान और अधिकार को बनाया.

उन्होंने लिखा, ‘‘मुझे लगता है कि हमें ट्रंप के विरुद्घ रैली निकालनी चाहिए.’’ यह सब सोच कर वह सोने चली गई, लेकिन नींद नहीं आ रही थी. आधे घंटे बाद उस की नींद अचानक खुल गई. उस ने अपने इवैंटपेज पर देखा, विभिन्न पेशे से जुड़े 40 लोग उस की बातों से सहमत थे. सुबह 5 बजे जागने पर पाया कि 10,000 लोग उस के द्वारा आह्वान किए गए मार्च में शामिल होने की अपनी सहमति जता चुके हैं.

शुक के मार्च निकालने के प्रस्ताव और विचार को स्वीकारने वालों में हर वर्ग की कई देशों की महिलाएं थीं. उन में अगर हौलीवुड की कई सैलिब्रिटी थीं, तो कुछ सामान्य घरेलू, शिक्षिकाएं, चिकित्सा एवं उद्योग जगत से जुड़ी कारोबारी और दूसरे सामाजिक कार्यकर्ताएं भी थीं. कुछ महिलाएं ऐसी भी थीं जिन की इच्छा और सोच भी शुक से मेल खाती थी.

फिर क्या था सोशल साइट्स पर इस मार्च का प्रस्ताव वायरल होने के 2 दिनों  के बाद ही न्यूयौर्क के मैनहटन के एक रेस्तरां में वीमेंस मार्च की तैयारी शुरू हो गई. उसे ‘सिस्टर्स मार्च’ का नाम दिया गया. यह तय हुआ कि ट्रंप के शपथ लेने के ठीक अगले रोज ही इस मार्च को एकसाथ यह जताने के लिए निकाला जाएगा कि ‘आप हमें जितना गिराएंगे, हम उतनी ही बार ऊपर उठेंगे.’ उस के बाद 21 जनवरी को दुनिया के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ जब किसी सब से ताकतवर गद्दी पर बैठे व्यक्ति के खिलाफ आवाज बुलंद की गई हो.

पूरे अमेरिका में विरोध का कुहराम तो ट्रंप के शपथग्रहण के समय से ही मचा हुआ था, लेकिन लाखों महिलाओं के प्रदर्शन ने पूरी दुनिया को बता दिया कि उन्होंने ट्रंप से टक्कर ले ली है. विशाल जनसमूह की भीड़ उन के शपथग्रहण समारोह से कहीं ज्यादा मार्च में आंदोलनकारी के रूप में जुटी थी. प्रदर्शनकारी महिलाओं के अलगअलग बने संगठनों ने 7 महाद्वीपों के शहरों में जबरदस्त प्रदर्शन किया. केवल अमेरिका में ही जगहजगह 150 से अधिक मार्च निकाले गए, जबकि इस के 408 मार्च की योजना थी. इस के अलावा ब्रिटेन, कनाडा, मैक्सिको, भारत, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, स्पेन, नार्वे, फिलीपींस समेत कई देशों में भी प्रदर्शन किए गए.

मौलिक अधिकारों की सुरक्षा

लंदन में अगर एक लाख से अधिक महिलाओं ने ट्रंप के खिलाफ मोरचा खोला तो उत्तरी धु्रव के अंटार्कटिका में गिनेचुने लोग और वैज्ञानिकों ने भी हाथ में तख्ती ले कर विरोध जताया. यह  पूरी तरह से गैरराजनीतिक हो कर अपने मौलिक अधिकार की सुरक्षा के लिए निकाला गया मार्च था.

विरोध करने वालों में अगर काले, गोरे और मुसलिम समाज की महिलाएं थीं, तो एलजीबीटी (लेस्बियन, गे, बाइसैक्सुअल और ट्रांसजैंडर) की भी जमातें शामिल थीं. प्रदर्शन काफी शांतिपूर्ण हुआ और इस दौरान न किसी तरह का हंगामा हुआ और न ही किसी की गिरफ्तारी हुई. यह 1960-70 के दशक में वियतनाम युद्घ विरोधी प्रदर्शन के बाद यह सब से बड़ा प्रदर्शन था.

इस वीमेंस मार्च के समर्थन में लंदन की महिलाओं द्वारा ट्रैफल्गा स्क्वायर से अमेरिकी दूतावास तक निकाले गए मार्च में लंदन के मेयर सादिक खान भी शामिल हुए. टीवी प्रैंजेंटर सैडी टौक्सविग और लेबर सांसद वाय कूपर ने ट्रंप के खिलाफ व अपने अधिकारों की तख्ती लिए लोगों को संबोधित किया. आयोजकों ने कड़े लहजे में विरोध करते हुए आम नागरिकों को यह संदेश दिया कि इस से महिलाओं के अधिकारों को रेखांकित किया गया है, जो डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिकी राष्ट्रपति बनने के बाद खतरे में पड़ गए हैं. प्रदर्शनकारियों ने मैक्सिको सीमा पर प्रस्तावित दीवार बनाने की बात पर नारे लगाए, ‘पुल बनाओ दीवार नहीं,’ ‘हम एक रहेंगे, नहीं बंटेंगे.’

मार्च में शामिल होने वाली, अमेरिका में लंबे समय से रह रही, फौजिया काजी को भी राष्ट्रपति के तौर ट्रंप कुबूल नहीं हैं. वह 9 साल पहले बंगलादेश से अकेली अमेरिका आई थी और वहां कपड़े की दुकान में काम करती है. उस का कहना है कि ट्रंप के प्रशासन से सब से अधिक डर अप्रवासियों, मुसलमानों, औरतों और शरणार्थियों को है. कारण, उन्होंने अपने चुनावप्रचार के दौरान उन के खिलाफ नागवार गुजरने वाले बयान दिए हैं. ट्रंप मुसलमानों और महिलाओं के खिलाफ भद्दी बातें करते रहे हैं.

इस संबंध में फौजिया कहती है, ‘‘ट्रंप के पास किसी तरह की ठोस नीति नहीं है, जिस से कोई उम्मीद की जा सके. उन की मानसिकता और उन के मूल्य भी हम से मेल नहीं खाते हैं. अब जबकि ट्रंप

4 सालों तक अमेरिका में राज करेंगे, तो हम जैसे लोग उन का हर कदम पर विरोध करेंगे और डट कर विरोध करते रहेंगे. और तो और, अमेरिका में रह कर ही विरोध करेंगे.’’

ट्रंप के खिलाफ इतनी बड़ी संख्या में लोगों में विशेष कर महिलाओं के तन कर खडे़ होने की मूल वजह यही है कि उन का नजरिया महिलाओं के प्रति अच्छा नहीं माना जाता रहा है. उन के द्वारा महिलाओं के संदर्भ में दिए गए कई बयानों में बहुतकुछ अटपटी बातें सामने आ चुकी हैं. जैसे, उन्होंने चुनावप्रचार के दौरान कहा था, ‘जो महिला उन्हें पसंद नहीं है वह भद्दी, मोटी या काली होगी.’ उन्होंने यह भी कहा था, ‘महिलाओं के साथ कुछ भी किया जा सकता है.’ उन का मानना है कि ट्रंप की चुनाव में जीत का कारण गरीब कामगारों का समर्थन रहा है. उन्होंने ट्रंप को वोट इसलिए दिया क्योंकि उन की आर्थिक दशा सुधारने के वादे किए गए हैं.

हवाई की शुक द्वारा किए गए विरोध के आह्वान ने हजारों महिलाओं को भीतर से झिंझोड़ डाला था. वह भले ही राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व के लिए पर्याप्त नहीं रहा हो लेकिन समर्थन में आए आमलोगों ने इस की जरूरत को गंभीरता से लिया. उन की जैसी फेसबुक पेज बनाने वाली एव्वी हरमौन, न्यूयौर्क की बहुचर्चित फैशन डिजाइनर बौब ब्लांड, ब्रून्नी बटलर की अपील से मार्च के मैसेज और अधिकार संबंधी मांगों को फेसबुक, यूट्यूब और ट्विटर के जरिए तेजी से फैला दिया गया.

शुक ने अपने इस अभियान और ट्रंप के खिलाफ बनी बेचैनी के बारे में एक टीवी शो में कहा था, ‘मैं चुनाव नतीजे के बाद काफी हतोत्साहित हो गई थी. मैं बहुत ही बुरा महसूस कर रही थी. उस रात नींद नहीं आ रही थी. बारबार सोच में थी, यह कैसे हो सकता है?’

बहरहाल, महिलाओं की वैबसाइट के अनुसार, मार्च को बड़े पैमाने पर सफल बनाने के लिए 700 सिस्टर मार्च के आह्वान किए गए थे, जिस में अमेरिका और दूसरे देशों में 20 लाख लोगों को शामिल करने का लक्ष्य रखा गया था. आइए एक नजर उन महिलाओं पर भी डालते हैं जिन्होंने आंदोलन को सफल बनाने में अहम भूमिका निभाई.

बौब ब्लांड : शुक ने विरोध की जो अलख जगाई उस में दूसरी महिलाओं का भरपूर साथ मिला. उन्हीं में एक हैं बौब ब्लांड. वे न्यूयौर्क में एक फैशन डिजाइनर हैं. उन्होंने विरोध प्रदर्शन के लिए युवाओं को आकर्षित करने वाले नैस्टी वीमैन (बुरी औरत) और बैड हौम्ब्रे (बुरा आदमी) जैसे शब्द छपे टीशर्ट डिजाइन किए और उसे बेच कर 3 दिनों के भीतर ही आंदोलन के लि 20 हजार डौलर की रकम भी जुटा ली.

उन्होंने अभियान संबंधी बातें न्यूयौर्क में कई दूसरे सामाजिक कार्यकर्ताओं के बीच तेजी से फैलाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई. इस का असर यह हुआ कि उन के साथ मार्च में शामिल होने के लिए उन्हें बंदूक इस्तेमाल और नियंत्रण की वकील तमिका मैलोरी, एक आपराधिक न्याय सुधार समूह की प्रमुख कार्मेन पेरेज और मुसलिम समुदाय के लिए छुट्टियों की मांग को ले कर न्यूयौर्क में सफल अभियान का नेतृत्व करने वाली लिंडा सारसौर का भी समर्थन मिल गया.

कुछ दिनों में ही मार्च की तैयारी पूरी हो गई. उन्होंने अपनेअपने तरीके से विरोध के लिए मार्च का नामकरण किया. उन्हीं में मिलियन पुस्सी मार्च ट्रंप द्वारा की गई निंदा के खिलाफ था. मिलियन वीमन मार्च भी कुछ इसी तरह का था.

लिंडा सरसौर : अमेरिकी मुसलिम समाज की लिंडा सरसौर न्यूयौर्क में अरब अमेरिकन एसोसिएशन की कार्यकारी निदेशक हैं. बु्रकलिन की मूल निवासी 3 बच्चों की मां लिंडा वाशिंगटन में महिलाओं की इस मार्च की सहअध्यक्ष थीं. वे नागरिक अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता और 15 सालों से नस्लीय न्याय की मांगों को ले कर सक्रिय हैं. वैसे मूलतया वे अंगरेजी शिक्षिका हैं और अरब अमेरिकन एसोसिएशन के साथ तब जुड़ गई थीं जब इस के संस्थापक बास्मेह अथवेह की 2005 में आकस्मिक मृत्यु हो गई थी.

लिंडा सरसौर के अनुसार, उन्होंने अमेरिका में 9/11 की काली छाया को काफी शिद्दत के साथ महसूस किया था. वे कहती हैं, ‘‘बुरे वक्त के बाद अच्छा समय हमेशा आता है. खास कर वैसे समुदाय के लिए जो रंगभेद के शिकार हैं.’’

शिशि रोज : नस्लीय, लिंग और आर्थिक असमानता के बारे में बोलने और हाशिए पर आए लोगों के उत्थान के लिए संघर्ष करने वाली 27 वर्षीया सामाजिक कार्यकर्ता और लेखिका शिशि रोज 2014 से सक्रिय हैं. इंस्टाग्राम पर उन के 35 हजार से अधिक अनुयायी हैं. यही उन के लिए सफल कार्य करने का औजार है. इस की बदौलत ही उन्होंने राष्ट्रीय महिला मार्च के लिए आह्वान किया. उन्होंने अलगथलग पड़ी गौरवर्णी महिलाओं को मार्च में शामिल होने के लिए तैयार किया.

कार्मेन पेरेज : अपने जीवन को पूरी तरह से एक सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर समर्पित कर चुकी कार्मेन पेरेज 17 वर्ष की उम्र से ही सक्रिय हैं. उन की बहन की 19 वर्ष की आयु में ही मृत्यु हो गई थी. उस के बाद से ही अपनी आतंरिक ऊर्जा को समेटते हुए वे सामाजिक कार्यों में जुट गईं. यूएस सांताक्रुज से वर्ष 2001 में मनोविज्ञान की डिगरी हासिल करने के बाद उन्होंने युवाओं और महिलाओं के हितों के लिए कार्य करने का मन बना लिया था. वे उन्हें आपराधिक न्याय प्रणाली संबंधी व्यापक मार्गदर्शन देती हैं, उन का नेतृत्व करती हैं और समुचित सुविधाएं उपलब्ध करवाती हैं.

कार्मेन की पूरे सांताकु्रज और खास समुदाय में खासी पहचान है. वे युवाओं के एक समूह रीफौर्म, एजुकेशन एडवोकेटिंग फौर यूथ (शिक्षा में सुधार के लिए वकालत) की संस्थापक और लड़कियों की बेहतरी के लिए बनी संस्था टास्क फोर्स की सहसंस्थापक हैं.

तमिका डी मल्लोरी : वीमन मार्च की सहअध्यक्ष तमिका की पहचान सामाजिक न्याय की मुखर वक्ता के रूप में है. मुद्दे चाहे नागरिक अधिकारों के हों, महिलाओं के हित की बात हो, स्वास्थ्य की देखभाल का मसला हो, बंदूकी हिंसा या पुलिस और कदाचार की बातें आदि हों. वाशिंगटन में वे एक राष्ट्रीय मार्च की 50वीं वर्षगांठ के मौके पर 3 लाख लोगों का नेतृत्व कर चुकी हैं.

वैनेसा व्रुबले : सामाजिक तौर पर मीडिया की प्रासंगिकता, राजनीतिक आयोजनों और आधुनिक अफ्रीकी संस्कृति को वैश्विक स्तर पर पुनर्परिभाषित करने को ले कर कार्य करने वाली वैनेसा व्रुबले अपने जीवन को समर्पित कर चुकी है. वे वीमन मार्च में भी भागीदारी निभा चुकी हैं. ओकायाफ्रिका उन की अपनी एक बड़ी मीडिया कंपनी है, जिस का पूरा फोकस अफ्रीकी महाद्वीप की समस्याओं को ले कर रहता है.

कैस्सडे फेंडली : सामाजिक न्याय के लिए मीडिया में मुद्दे उठाने वाली कैस्सडे फेंडली स्वतंत्र संचार की रणनीतिकार की तरह कार्य करती हैं. उन्होंने गैरलाभकारी संगठनों और सरकारी तथ्यों के जरिए कई प्रगतिशील कदम उठाए हैं तथा सामाजिक न्याय के लिए दूसरे आंदोलनकारियों को समर्थन दिया है.

मृणालिनी चक्रवर्ती : भारतीय मूल की अमेरिकी युवती मृणालिनी चक्रवर्ती शिकागो के इलिनोइस विश्वविद्यालय में मानव विज्ञान की एक डौक्टरेट छात्रा हैं. उन्हें 8 साल पहले अमेरिका में एक कालेज द्वारा छात्रवृत्ति मिली और फिर वे वहां जा बसीं. वहां रहते हुए वे अप्रवासियों और महिला व पुरुष के साथ रंगभेद, एलजीबीटी समुदाय की समस्याओं को ले कर लड़ाई लड़ती रही हैं. उन्होंने खुद को राजनीतिक रूप से सक्रिय बना लिया है. वे मार्च में हिस्सा ले कर, लोगों को जागृत कर उन्हें मुखर आवाज देने की कोशिश करती हैं, जो आंदोलन में भाग लेने से झिझकते हैं. वाशिंगटन में महिला मार्च में हिस्सा ले कर वे अप्रवासी महिला शक्ति को बखूबी दर्शा चुकी हैं.

औरतों को सिर्फ सैक्स टौय समझते हैं ट्रंप?

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के खिलाफ दुनियाभर की महिलाओं ने यों ही नहीं मोरचा खोल रखा है. दरअसल, ट्रंप अलगअलग मौकों पर महिलाओं को ले कर अपनी घटिया मानसिकता का सुबूत कुछ इस तरह देते रहे हैं कि कोई भी उन से नफरत करने लगेगा. आइए नजर डालते हैं डोनाल्ड ट्रंप के महिलाओं को ले कर कुछ विवादित व शर्मनाम बयानों पर —

–       सितंबर 2015 में तत्कालीन प्रतिद्वंद्वी कार्ली फियोरेना के बारे में डोनाल्ड ने बड़े भद्दे तरीके से बोला था कि, ‘‘जरा इन का चेहरा देखिए. क्यों इस के लिए कोई वोट करेगा. क्या आप सोच भी सकते हैं कि ऐसे चेहरे वाली हमारी अगली राष्ट्रपति होगी?’’

–       सितंबर में ही पूर्व मिस यूनीवर्स और ऐक्ट्रैस मेलिसिया माचादो को डोनाल्ड ट्रंप ने मिस पिग्गी कहा था और बाद में उन के मोटापे को ले कर भी भद्दी टिप्पणी की थी.

–       अप्रैल 2015 में एक ट्वीट किया था, जिस में कहा था कि हिलेरी क्लिंटन अपने पति को संतुष्ट नहीं कर पाती हैं, ऐसे में वे अमेरिकी राष्ट्रपति बन कर देश को कैसे संतुष्ट करेंगी.

–       7 अगस्त, 2015 को डोनाल्ड ट्रंप ने एक इंटरव्यू में एंकर मेगिन कैली के बारे में कहा कि, ‘उस की आंखों से खून आ रहा था. दरअसल, उस से हर जगह से खून बाहर आ रहा था.’

–       एक वीडियो में ट्रंप रेडियो एवं टीवी प्रस्तोता बिली बुश के साथ बातचीत के दौरान महिलाओं के बारे में, बिना सहमति के महिलाओं को छूने व उन के साथ यौन संबंध बनाने के बारे में बेहद अश्लील टिप्पणियां करते दिखाई दिए थे.

–       मार्च 2013 में ट्रंप ने कौमेडियन रोजी ओ डोनेल को ले कर अनापशनाप बोला और फिर बजाय अपनी गलती मानने के उन्होंने कहा था, ‘‘मुझे ऐसा लगता है कि वह इसी लायक है. मुझे इस बात के लिए बिलकुल भी खेद नहीं है.’’

–       डोनाल्ड ट्रंप ने अपनी बेटी इवांका के बारे में कहा था कि इवांका पहले से ज्यादा कामुक लग रही है. यदि मेरी खुद की बेटी नहीं होती तो मेरा उस से जरूर अफेयर होता.

–       1991 में डोनाल्ड ट्रंप ने महिलाओं के बारे में कहा था कि अगर उन के पास खूबसूरत ‘एस’ हैं, तो अमेरिकी मीडिया उन के बारे में क्या लिखता है, उस से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता है.

–       इन आरोपों के अलावा ट्रंप का एक और टेप सामने आया था जिस में वे 10 साल की बच्ची पर अभद्र टिप्पणी करते दिखे.

–       पीपल मैगजीन की पत्रकार ने भी ट्रंप पर जबरदस्ती किस करने का आरोप लगाया था. मैनहटन की जेसिका लीड्स के साथ डोनाल्ड ट्रंप ने 30 साल पहले एक फ्लाइट में अश्लील हरकत की थी.

–       जेसिका लीड्स अकेली नहीं हैं, पीपल मैगजीन की रिपोर्टर नताशा ने भी डोनाल्ड ट्रंप पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया था. 

शंभु सुमन

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