यह तो होना ही था: भाग 1- वासना का खेल मोहिनी पर पड़ गया भारी

अपमानित, शर्मसार, निर्वस्त्र मोहिनी अपनेआप को बैड पर बिछी चादर से ढकने की कोशिश कर रह थी. मन फूटफूट कर, चीखचीख कर रोने को कर रहा था, लेकिन अपमान के सदमे से आंखें इतनी खुश्क थीं जैसे पत्थर की हों. अभीअभी एक तूफान उस के जीवन में आ कर गया था. कमरे के बाहर का शोर कुछ ठंडा तो पड़ा था. लेकिन यह तूफान उस के जीवन को हमेशा के लिए तहसनहस कर गया था.

मोहिनी 18 साल की थी जब शिव कुमार से उस का विवाह हुआ था, मोहिनी का उन से कभी वैचारिक तालमेल नहीं बैठा. शिव कुमार इंगलिश के अध्यापक थे व शांत गंभीर शिव कुमार ने उसे घर की चाबी पकड़ाई और लगभग भूल गए कि वह है चंचल मोहिनी. उन के गहरेपन को कभी सम झ नहीं पाई. शिव कुमार ने उसे आगे पढ़ने के लिए प्रोत्साहन दिया, लेकिन अपने रूप और मन के बिंदासपन के आगे उस ने कभी शिव कुमार की बात को गंभीरता से नहीं लिया.

उसी साल मोहिनी ने एक पुत्री को जन्म दिया, मां बन कर भी वह अल्हड़ युवती बनी रही. शिव कुमार ने बेटी कोमल की देखरेख भी एक तरह से अपने जिम्मे ले ली. कालेज से आते तो बेटी की देखरेख पर ध्यान देते, मोहिनी इधरउधर सहेलियों के साथ सैरसपाटा करती.

कोमल अपने पिता की तरह धीरगंभीर, शांत, दृढ़चरित्र की स्वामिनी थी. वह अपने पिता की छत्रछाया में पलतीबढ़ती रही. कोमल ने इंग्लिश में एमए किया ही था कि शिव कुमार का हृदयाघात से निधन हो गया. मांबेटी दोनों ने किसी तरह अपने को संभाला. पीएफ, पैंशन सब मोहिनी को मिला, अब उसे अपने भविष्य की चिंता खाए जा रही थी.

सब से बड़ी चिंता उसे कोमल की नहीं, अपनी थी, उसे अपने लिए किसी पुरुष का साथ चाहिए था, वह दूसरा विवाह भी नहीं करना चाहता थी, सोचती कौन फिर से  झं झट में पड़े, किसी की घरगृहस्थी की जिम्मेदारी क्यों उठाए. अगर किसी से तनमनधन की जरूरत बिना विवाह के पूरी हो जाए तो क्या हरज है आराम से जी लेगी.

मोहिनी दिनभर यही योजनाएं बनाती, सोचती कुछ ऐसा किया जाए ताकि बाकी का जीवन आराम से कट जाए, देखते में वह कोमल की बड़ी बहन ही लगती थी, यत्न से सजाया गया रूपसौंदर्य किशोरियों को भी पीछे छोड़ देता था और इसी बीच कोमल ने बीएड भी कर लिया तो शिव कुमार के कालेज में ही उसे इंगलिश की अध्यापिका का पद मिल गया. आर्थिक रूप से मांबेटी ठीक स्थिति में थीं, घर अपना था ही लेकिन मोहनी को मन ही मन यह चिंता थी कि शादी के बाद कोमल की अपनी घरगृहस्थी होगी तो वह मां पर ज्यादा ध्यान नहीं दे पाएगी.

मोहिनी के मायके में अब कोई नहीं था, मातापिता की मृत्यु हो चुकी थी, भाईबहन कोई था नहीं. ससुराल वालों से उस की कभी बनी नहीं थी. शिव कुमार की मृत्यु के बाद तो संबंध बिलकुल ही खत्म हो चुके थे और अब लखनऊ की इस कालोनी में मांबेटी अकेली ही रहती थीं. पासपड़ोसी अच्छे थे, उन का हालचाल लेते रहते थे, लेकिन मोहिनी को जिस चीज की तलाश थी, वह उसे एक विवाह समारोह से मिली, अनिल से उस का परिचय उस की सहेली अंजू ने करवाया था. अंजू ने उस को कहा था, ‘‘मोहिनी है हमारे दफ्तर के नया सीनियर अफसर, मातापिता हैं नहीं, एक बहन है जो विदेश में रहती है. महाराष्ट्र से है और रिजर्व कोटे की वजह से आए है पर अच्छेअच्छों को मात दे देता.’’

मोहिनी को अनिल पहली ही नजर में पसंद आ गया. उस के मन की मुराद पूरी हो गई. सुंदर, स्मार्ट है, भिन्न जाति का है तो क्या हुआ. सुल झा हुआ है, देखने में कश्मीरी लगता है. अनिल की तरफ वह आकर्षित हो गई.

अनिल उस से अच्छी तरह मिला और यह जान कर हैरान हुआ कि वह एक युवा बेटी की मां है. दोनों काफी देर अकेले में बातें करते रहे. अनिल भी उस के सौंदर्य से प्रभावित हुआ. मोहिनी को भी लगा कि अनिल में कहीं से हीनग्रंथि नहीं है.

चलते समय अगले दिन अनिल को घर आने का निमंत्रण दे कर मोहिनी स्वप्नों के संसार में डूबतीउतराती घर पहुंची.

कोमल ने पूछा, ‘‘मां, कैसी रही शादी?’’

‘‘तुम्हें क्या, तुम्हें तो अपने पापा की तरह बस किताबों में सिर खपाए रखने का शौक है.’’

‘‘नहीं मां, कुछ जरूरी नोट्स बनाने थे मु झे और वैसे भी मैं वहां किसी को जानती नहीं थी. मै वहां क्या करती.’’

‘‘अरे, कहीं जाओगी तभी तो जानपहचान होगी. कितने नएनए लोगों से मिली मैं आज. बहुत अच्छा लगा.’’

कोमल ने कहा, ‘‘अच्छा हुआ मां, आप हो आईं, आप को अच्छा लगा वहां यह आप को देख कर ही पता चल रहा है.’’

मोहिनी गुनगुनाते हुए चेंज करने अपने बैडरूम में चली गई तो कोमल अपने काम में व्यस्त हो गई.

अगले दिन कोमल कालेज चली गई. लंच के समय अनिल ने जब मोहिनी की डोरबैल बजाई तो दरवाजा खोलने पर मोहिनी हैरान नहीं हुई. उस ने अनिल को जिन अदाओं से आने का निमंत्रण दिया था अनिल जरूर आएगा यह उसे पूरा विश्वास था. उस ने अनिल की खूब आवभगत की. उसे घर दिखाया, उस के साथ ही लंच किया, अपनी दुखद कहानी सुनाई, कम उम्र में शादी, फिर वैधव्य का दुख और अकेलापन.

मोहिनी से अनिल को सहानुभति हुई. उस ने कहा, ‘‘आप परेशान न हों,

मु झे आप अपने साथ ही सम िझए. मैं आप की ऊंची जाति का नहीं पर जानता हूं कि दुनिया कैसे चलती है,’’ कह कर वह उठ कर मोहिनी के  पास ही बैठ गया तो मोहिनी ने भी अपना हाथ उस के हाथ पर रख दिया. अनिल के सामीत्य ने कई दिनों से पुरुष संपर्क को तरसते उस के तनमन में एक चिनगारी भी भड़का दी तो उस ने सारी लाजशर्म छोड़ कर अनिल की बांहों में खुद को सौंप दिया और फिर यह एक दिन की बात नहीं रही, कोमल के बाहर जाने का समय देख कर वह अनिल के मोबाइल पर मैसेज भेज देती और अनिल पहुंच जाता, वह अच्छे पद पर था. मोहिनी पर खुल कर खर्च करता. मोहिनी को हवस और पैसों का स्वाद मुंह लग गया.

अनिल और कोमल का अभी तक आमनासामना नहीं हुआ था, लेकिन एक दिन मार्केट में मोहिनी कोमल के साथ घर का कुछ सामान खरीद रही थी, तो अनिल वहां मिल गया. मोहिनी ने कोमल को अनिल का परिचय दिया. कहा कि अंजू के परिचित हैं और अनिल ने कोमल को पहली बार देखा तो देखता रह गया. शांत, कोमल, सुंदर सा चेहरा, दुबलीपतली. कोमल का शिष्ट व्यवहार उसे प्रभावित कर गया.

मोहिनी ने अनिल की आंखों में कोमल के लिए पसंदगी के भाव देखे तो उस के दिमाग में फौरन नई योजनाएं जन्म लेने लगीं.

अब तक कई पड़ोसी बातबात में अनिल कौन है, क्या करता है, क्या करने आता है, इस तरह के कई सवाल मोहिनी से करने लगे थे. मोहिनी ने अनिल को अपना एक परिचित बता कर बात टाल दी थी. अब वह ज्यादा सचेत रहने लगी थी. अनिल दूसरी कालोनी में अकेला रहता था. उस के मातापिता अरसा पहले मर चुके थे. वह वर्षों से अकेला रहा क्योंकि शादी के लिए कोई कहने वाला भी तो हो.

मोहिनी ने अनिल से कह दिया, ‘‘तुम यहां कम ही आया करो, मैं ही तुम्हारे घर आ जाया करूंगी.’’

अनिल को इस में कोई आपत्ति नहीं थी. अब फुरसत मिलते ही वह मोहिनी को फोन

कर देता.

मोहिनी कोमल को कोई न कोई काम बता कर

अनिल के घर पहुंच जाती और दोनों एकदूसरे में डूब कर काफी समय साथ बिताते. ऐसी ही एक शाम थी जब दोनों साथ थे, मोहिनी ने बात छेड़ी, ‘‘अनिल, तुम्हें कोमल पसंद है?’’

अनिल चौंका. पूछा, ‘‘क्यों?’’

‘‘मैं काफी दिनों से कुछ सोच रही हूं, तुम जवाब दो तो आगे बात करूं?’’

‘‘हां, अच्छी है,’’ अनिल ने  िझ झकते हुए कहा.

मोहिनी हंसी,’’ तो शरमा क्यों रहे हो. तुम्हारे ही फायदे की बात सोच रही हूं.’’

‘‘बताओ क्या सोचा है?’’

‘‘तुम कोमल से शादी कर लो.’’

जैसे करंट लगा अनिल को. बोला, ‘‘यह आप कैसे सोच सकती हो? मेरेआप के जो संबंध हैं उन के बाद भी मु झे अपनी बेटी से शादी करने के लिए कह रही हो? वैसे भी अपनी जाति के लोग आप को खा जाएंगे कि दलित से शादी

कर ली.’’

‘‘तो क्या हुआ. शादी तो तुम एक दिन किसी से करोगे ही और कोमल की भी शादी तो होनी ही है, तुम उस से कर लोगे तो उस के बाद भी हमारे संबंध ऐसे ही रहेंगे, फिर कभी किसी को हम पर शक भी नहीं होगा. रही बात जाति की तो तुम तो देख ही रहे हो कि हमारी जाति वालों ने ही हमें कैसे छोड़ दिया. उन्हें मैं अपशकुनी लगती. ऐसी जाति का क्या करूंगी.’’

अनिल मोहिनी का मुंह देखता रह गया कि कोई औरत ऐसा भी सोच सकती है.

मोहिनी ने अनिल के गले में बांहें डालते हुए कहा, ‘‘क्यों, क्या तुम मु झे प्यार नहीं करते? मेरे साथ हमेशा संबंध नहीं रखना चाहते?’’

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है,’’ कहते हुए उस ने भी मोहिनी को बांहों में भर लिया. कहा, ‘‘लेकिन मु झे सोचने का समय तो दो.’’

‘‘ठीक है, अच्छी तरह सोच लो,’’ कुछ देर रुक कर मोहिनी चली गई.

अनिल ने बाद में सोचा, मेरा क्या नुकसान है, अच्छीभली शरीफ सी लड़की है. मेरे तो

दोनों हाथों में लड्डू हैं. जब मोहिनी को बेटी से अपना प्रेमी शेयर करने में कोई परेशानी नहीं तो मु झे क्या.

अनिल ने मोहिनी को फोन पर अपनी स्वीकृति दे दी तो मोहिनी ने कोमल को भी अनिल से विवाह के लिए तैयार कर लिया. उस की बिरादरी में तो इस तरह के संबंध बहुत होते थे और कोई कुछ बोलता भी नहीं था.

बहुत जल्दी मोहिनी ने कोमल और अनिल की सीविल मैरिज करवा दी. कोमल चली गई. अब मोहिनी को रोकनेटोकने वाला कोई नहीं रहा. कोमल कालेज जाती तो अनिल कोमल को बिना बताए छुट्टी ले लेता. मोहिनी पहुंच जाती और दोनों कोमल के आने तक का समय साथ बिताते.

फिर वसंत लौट आया: भाग 3- जब टूटा मेघा का भ्रम

तभी अचानक उस की नजर बस के साइड मिरर पर पड़ गई. सांवला सा चेहरा. चेहरे पर उदासी पुती हुई थी. सांवलापन एकाएक उस के पूरे बदन में एक जहर की तरह फैल गया और उस का पूरा बदन गुस्से से सुलगने लगा, ‘‘राइज ऐंड लवली, क्रीम किसलिए चाहिए तुम्हें? गोरा होने के लिए… हुंह… जब कुदरत ने तुम्हें सांवला बना दिया है, तो तुम रोजी की तरह कभी गोरी नहीं हो सकती.

तुम समझने की कोशिश क्यों नहीं करती?’’ मनोज मेघा की एक छोटी सी डिमांड पर गुस्से से बिफरते हुए बोला था.

‘‘क्या यही कारण है कि तुम रोजी से शादी करना चाहते हो? मेरा रंग खराब है इसलिए?’’ मेघा बोली.

‘‘कारण चाहे जो भी रहा हो, लेकिन मैं रोजी से शादी करूंगा और हर हाल में करूंगा. अब हर चीज का कारण बताना मैं तुम्हें जरूरी नहीं समझता,’’ मनोज पलंग से उतर कर

खिड़की के पास चला गया और नीचे बालकनी

में देखने लगा.

उस दिन के बाद वह वापस कभी मनोज के पास नहीं गई. अपने दोनों बच्चों आदि और अवंतिका के साथ वह अपने पिता के घर पर ही रह रही थी.

इस बीच मेघा ने अपने पिता से निशांत के बारे में बताया था कि वह उस से शादी करना चाहता है. रंजीत बाबू अपनी बेटी की समझदारी के कायल थे. एक गलती उन से अपनी जिंदगी में मनोज जैसे दामाद को पा कर हुई थी. वे अपनी गलती का पश्चात्ताप भी करना चाहते थे.

इस तरह सालभर बीत गया. पतझड़ के बाद फिर से वसंत आया. पेड़ों पर नए पत्ते आए. बाग गुलजार हो गए और मेघा ने निशांत को अपने घर बुलाया और अपने पिताजी से मिलवाया. रंजीत बाबू निशांत की प्रगतिशील सोच से बहुत प्रभावित हुए.

अगले दिन निशांत को खाने पर बुलाया. अजय साहब भी मेघा और निशांत की जोड़ी को देख कर बहुत खुश हुए और दोनों को खूब आशीर्वाद दिया.

आज मेघा आईने के सामने खड़ी हो कर खुद को निहारने लगी. गुलाबी सूट में वह किसी परी से कम नहीं लग रही थी. आंखों में काजल, दोनों हाथों में लाललाल चूडि़यां, पांवों में नए सैंडल. उस ने गालों पर राइज ऐंड ग्लो क्रीम लगाना चाही, लेकिन कुछ सोच कर रुक गई.

निशांत ने तो मुझे ऐसे ही पसंद किया है और वह अपनी नई खरीदी स्कूटी पर सवार हो कर निशांत से  मिलने होटल पहुंच गई.

निशांत आज बड़ी बेसब्री से होटल में मेघा का इंतजार कर रहा था. उस ने एक टेबल मेघा और अपने लिए पहले से ही बुक कर रखी थी. काले कोटपैंट में निशांत भी खूब फब रहा था. मेघा के आते ही उस ने पहले उसे बुके दे कर

उस का स्वागत किया. फिर पूछा, ‘‘क्या फैसला किया तुम ने?’’

मेघा बुके लेते हुए बोली, ‘‘वही जो पहले था. सोच कर बताऊंगी,’’ और हंसने लगी.

आज बहुत दिनों के बाद निशांत ने मेघा के चेहरे पर हंसी देखी थी. वह भी बिना मुसकराए नहीं रह सका.

फिर मेघा बोली, ‘‘मेरे बच्चों को तुम अपना नाम दोगे, आई मीन तुम उन्हें अपनाओगे न? उन की जिम्मेदारी लोगे?’’

‘‘हां, तुम्हारे साथसाथ मैं तुम्हारे बच्चों को भी अपनाऊंगा और तुम्हारी जिम्मेदारी भी उठाऊंगा,’’ निशांत मेघा के हाथ को अपने हाथ में लेते हुए बोला और फिर दोनों खिलखिला कर हंस पड़े.

फिर वसंत लौट आया: भाग 2- जब टूटा मेघा का भ्रम

किसी तरह बस में सवार हुई और किनारे की सीट पर बैठ गई. बस में आनाजाना भी उसे बहुत ही उबाऊ लगता है. पापा अकसर कहते हैं कि बेटा कोई छोटी कार ही ले लो. मेरा रिटायरमैंट का पैसा तो है ही. समय से घर आओगी और दफ्तर भी समय से चली जाओगी.

आजकल जमाना बहुत खराब हो गया है. रात को छोड़ो आजकल दिनदहाड़े हत्या और बलात्कार हो रहे हैं. तुम जब बाहर निकलती हो तो मेरा जी बहुत घबराता है. कल मैं ने अखबार में पढ़ा था कि दिल्ली में एक बुजुर्ग महिला के साथ रेप हो गया है.’’

मगर मेघा बहुत ही स्वाभिमानी है, यह उस के पिता भी बखूबी जानते हैं. वह सबकुछ अपने कमाए पैसों से खरीदती है. घर भी अब उस के पैसों से ही चलता है. किसी प्राइवेट फाइनैंश कंपनी में काम करती है.

वह छेड़छाड़ से भी डरती है. अकेली औरत सब को ‘मुफ्त’ का माल लगती है. कोई हाथ छूने का बहाना ढूंढ़ता है, कोई कमर या कूल्हे का एक दिन बस में किसी ने उस का हाथ पकड़ लिया. खड़े रहने का सहारा ढूंढ़ते हुए. वह सब सम?ाती है. यह और बात है कि कभी किसी से कुछ कहा नहीं.

देशमुख उस दिन फाइल लेने के बहाने उस का हाथ पकड़ना चाहते थे. उस ने तब देशमुख को डपट दिया था, ‘‘आप को शर्म नहीं आती देशमुखजी? आप बालबच्चों वाले आदमी हैं. आप की पत्नी को जब यह सब पता चलेगा तब उस को कैसा लगेगा? मैं आप की बेटी की उम्र की हूं. मुझे घिन आती है आप जैसे लोगों से,’’ और वह फाइल फेंक कर चली गई.

उस दिन के बाद मेघा आज तक देशमुख

के कैबिन में नहीं गई. जब कोई फाइल

देनी होती तो चपरासी के हाथों भिजवाती है. देशमुख और उस के जैसे लोग मेघा को फूटी आंख नहीं सुहाते.

कंडक्टर ने आ कर पूछा, ‘‘टिकट… टिकट… टिकट… लीजिए.’’

मेघा की तंद्रा टूटी. उस ने टिकट लिया और पर्स से पैसे निकाल कर कंडक्टर की ओर बढ़ाए.

किसी को शायद उतरना था. कोई परिवार था. बस वहां काफी देर खड़ी रही.

सामने ढेर सारी सुहागिन औरतें वटवृक्ष

की पूजा कर रही थीं. लालनारंगी साडि़यों में सब कितनी सुंदर लग रही हैं. आपस में बोलतीबतियातीं, हंसीठहाके लगातीं, मांग में केसरिया सिंदूर नाक से ले कर मांग तक भरा हुआ था. कितनी हंसीखुशी से जीवन भरा हुआ है इन का. इस पृथ्वी पर सुख और दुख एक ही साथ पलते हैं. अलगअलग लोग एक ही समय में उस को

जीते हैं.

मेघा का गला रुंध आया था. एक टीस उस के अंदर पैदा होने लगी. उस के अंदर एक घाव है जो रहरह कर टीसता है. ऐसे मौके उसे बेचैनी से भर देते हैं.

मेघा के जीवन में अब तक दुख ही दुख भरे थे, लेकिन उस के जीवन में इधर

2 महीनों से एक सुख का पौधा अंकुराने लगा

था. निशांत से उस की मुलाकात इसी बस में

हुई थी, दफ्तर से लौटते वक्त. वह उस की

बगल में ही किसी बीमा कंपनी में काम करता है. अभी नयानया ही आया है इस शहर में. एकदम नई उम्र का लड़का है निशांत. औफिस से लौटते वक्त उस से इसी बस में रोज मुलाकात होने

लगी थी.

मुलाकातों का यह सिलसिला जब लंबा चला तो एक दिन मोबाइल पर बातचीत भी

होने लगी.

‘‘हाय,’’ मोबाइल पर पहला मैसेज निशांत ने ही किया था.

‘‘हैलो… अब तक सोए नहीं?’’ मेघा ने लिखा.

‘‘नहीं, नींद नहीं आ रही है. कुछ सोच

रहा हूं.’’

‘‘क्या सोच रहे हो?’’ मेघा बोली.

‘‘नहीं, जाने दो तुम बुरा मान जाओगी,’’ निशांत बोला.

‘‘अच्छा, ठीक है, नहीं मानूंगी. अब बोलो भी,’’ मेघा बोली.

‘‘मैं बहुत दिनों से तुम से एक बात कहना चाहता हूं,’’ निशांत बोला.

‘‘बोलो, क्या बोलना चाहते हो?’’ मेघा बोली.

‘‘कैसे कहूं, मुझ से कहा नहीं जा रहा है?’’ निशांत बोला.

‘‘अब कह भी दो. कोई बात कह देने से मन का बोझ हलका हो जाता है,’’ मेघा बोली.

निशांत ने किसी तरह हिम्मत की और अपना मैसेज पूरा किया, ‘‘आई

लव यू… मेघा…’’ लेकिन ऐसा लिखते ही उस का दिल बल्लियों उछलने लगा.

उधर से मेघा का कोई जबाब नहीं मिला.

निशांत परेशान हो गया. वह मेघा के मैसेज का बहुत देर तक इंतजार करता रहा कि उस का कोई जवाब मिले.

इस चक्कर में उसे सारी रात नींद नहीं आई. वह रहरह कर सारी रात मोबाइल चैक करता रहा.

एक दिन बस से लौटते वक्त निशांत मेघा से बोला, ‘‘मुझे सांवला रंग बहुत

पसंद है.’’

‘‘क्यों?’’ उस ने निशांत से ऐसे ही पूछ लिया.

‘‘क्योंकि मुझे बादल बहुत पसंद है. जोकि काले होते हैं. घटाएं भी बहुत पसंद हैं क्योंकि वे स्याह होती हैं और मेघा यानी वर्षा भी मुझे बहुत अच्छी लगती है. ये तीनों स्याह होतेहोते काले

हो जाते हैं. वर्षा के कारण ही इस धरती पर जीवन है, हरियाली है. इसलिए मुझे सांवला रंग बहुत पसंद है.’’

निशांत द्वीअर्थी भाषा में बोल रहा था. जिसे मेघा ने ताड़ लिया था. बोली, ‘‘और क्या पसंद

है तुम्हें?’’

‘‘तुम्हारी आंखों का स्याहपन और कत्थईरंग,’’ निशांत मेघा का हाथ अपने हाथ में लेते हुए बोला.

मेघा अपना हाथ धीरे से निशांत के हाथ से छुड़ाते हुए बोली, ‘‘इन कत्थई रंग के खूबसूरत आंखों की रूमानियत में मत बहो निशांत. रंग आदमी को हमेशा धोखा दे जाते हैं और आदमी भी समय के साथ रंग बदलने लगता है और बादल और घटाएं धरती के दुख को ही देख कर रोती हैं. जब आसमान से धरती का दुख नहीं देखा जाता तो वह बादल और घटाओं की आड़ ले कर रोता है,’’ और सचमुच मेघा की आंखें भीगने लगी थीं. वह अपनी आंखें पोंछते हुए बोली, ‘‘तुम्हें मालूम है, मैं तलाकशुदा हूं और मेरे 2 बच्चे भी हैं.’’

‘‘हां जानता हूं.’’

‘‘फिर भी तुम मुझ से शादी करोगे?’’ मेघा उसी अंदाज में बोली.

‘‘हां, फिर भी तुम से ही शादी करूंगा. तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो. और… और… मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं… आई लव यू मेघा.’’

‘‘और तुम्हारे घर वालों को कोई ऐतराज नहीं है?’’ मेघा बोली.

‘‘मैं बचपन से अनाथ हूं. एक बूढ़ी चाची हैं. उन्होंने ही मुझे पालपोस कर बड़ा किया है. उन्हें मैं ने बताया था. उन्हें कोई ऐतराज नहीं है,’’ निशांत बोला.

‘‘आई लव यू जैसा सस्ता और हलका शब्द प्रेम के लिए मत यूज करो निशांत, प्लीज. मैं सोच कर बताऊंगी… अपने पापा से पूछ कर,’’ मेघा ने टालने की गरज से कहा.

‘‘मुझे इस का बेसब्री से इंतजार रहेगा,’’ निशांत बस से उतरते हुए बोला.

अभी और 30 मिनट लगेंगे औफिस पहुंचने में. उस ने एक बार फिर घड़ी पर नजर डाली. अभी तो 9 ही बजे हैं.

फांस: भाग 3- प्रिंस दोस्ती के आड़ में धोखा क्यों दे रहा है?

लंच के बाद बस वंशिका और प्रिंस ही स्टाफरूम में रह गए थे. वंशिका कौपियां चैक करने में व्यस्त थी. प्रिंस बहुत देर से कोशिश कर रहा था पर उस से लैपटौप पर परीक्षा का पेपर टाइप नहीं हो रहा था. उसे इन सब कामों की आदत नहीं थी.

प्रिंस को पता था वंशिका इन सब कामों में अच्छी है. अचानक प्रिंस बोल उठा, ‘‘वंशिका, तुम इतनी खूबसूरत हो, तुम इस स्कूल में क्या कर रही हो?’’ वंशिका बोली, ‘‘जो तुम कर रहे हो.’’ प्रिंस बोला, ‘‘तुम्हारी मदद के बिना तो मैं वह भी नहीं कर पाऊंगा.’’ वंशिका न चाहते हुए भी प्रिंस की मदद करने के लिए उठ गई.

प्रिंस बात बढ़ाते हुए बोला, ‘‘वंशिका, तुम्हारे कितने बौयफ्रैंड्स हैं?’’ ‘‘क्यों?’’ प्रिंस बोला, ‘‘मुझे भी अर्जी लगानी है.’’ वंशिका थोड़ा खीजते हुए बोली, ‘‘तुम हो तो मेरे फ्रैंड.’’ प्रिंस बोला, ‘‘मुझे तुम्हारा बौयफ्रैंड बनना है.’’ वंशिका कुछ न बोली तो प्रिंस आगे बोला, ‘‘कृतिका और आरोही बहुत अच्छी हैं पर बस मेरी दोस्त है.

तुम से कभी खुल कर बात करने की हिम्मत ही नहीं हुई.’’ वंशिका न चाहते हुए भी अपनी तारीफ सुन कर बर्फ की तरह पिघल गई और प्रिंस के पूरे काम की जिम्मेदारी स्वयं पर ले ली. प्रिंस आगे बोला, ‘‘वंशिका, तुम सोच रही होगी, मैं कामचोर हूं पर दरअसल यह स्कूल की नौकरी मेरी मंजिल नहीं है.

मुझे एडमिनिस्ट्रेशन में जाना है इसलिए मेरा सारा ध्यान उस की परीक्षा की तैयारी में ही रहता है.’’ वंशिका ने भोलेपन से कहा, ‘‘तुम्हारा सारा टाइपिंग का काम अब मैं कर दिया करूंगी. तुम अपना सारा समय ऐग्जाम की तैयारी में लगाओ.’’ वंशिका ने अपनी और प्रिंस के मध्य हुई बात किसी को भी नहीं बताई थी. प्रिंस के जो भी स्कूल के अतिरिक्त कार्य होते थे वह अब त्रिमूर्ति कर देती थी.

मजे की बात यह थी कि तीनों ही यह बात एकदूसरे को भी नहीं बताती थीं. प्रिंस को लग रहा था, घर से अच्छी तैयारी तो वह यहां कर पा रहा है. घर पर पापा के ताने सुनो और मम्मी के काम भी करो.अच्छा किया उस ने यह स्कूल की नौकरी जौइन कर ली है. स्कूल में बस प्रिंस पढ़ाता था बाकी काम वंशिका और आरोही कर देती थीं. खाना भी अधिकतर कृतिका उस के लिए बना देती थी.

8 महीने 8 दिन की तरह बीत गए. प्रिंस का ऐग्जाम बहुत अच्छा गया. उसे पूरी उम्मीद थी कि वह इस बार जरूर सफल होगा. प्रिंस से ज्यादा आरोही, वंशिका और कृतिका को प्रिंस के रिजल्ट की चिंता थी. तीनों ने ही अपने भविष्य के सपने प्रिंस के नाम कर रखे थे.

जैसी प्रिंस को आशा थी वैसा ही हुआ. उस का चयन हो गया. वह बेहद खुश था. उस रात प्रिंस ने आरोही, वंशिका और कृतिका को शानदार दावत दी. तीनों ही डिनर के समय यही सोच रही थी कि प्रिंस जाने से पहले क्या कुछ वादा कर के जाएगा.

कृतिका को लगता था कि प्रिंस उस के अलावा और किसी के भी इतना करीब नहीं होगा. स्कूल का काम तो कोई भी कर सकता है पर देखभाल हर किसी के बस की बात नहीं है. उधर वंशिका को अपनी खूबसूरती पर पूरा विश्वास था तो आरोही को अपने टैलेंट और अल्हड़पन पर भरोसा था.

प्रिंस 2 दिन बाद सारी कागजी काररवाई कर के अपने शहर चला गया. तीनों ही प्रिंस के मैसेज और फोनकौल की प्रतीक्षा करतीं पर वह हमेशा कौन्फ्रैंस कौल या ग्रुप वीडियो कौल करता था, जिस में सब ही बेहद फौर्मल रहते थे.

फोन के बाद तीनों ही अपनेअपने नंबर से प्रिंस को मैसेज करती थीं पर अधिकतर वह रीड कर के मैसेज नहीं करता. उस का एक ही मैसेज होता कि वह अभी बहुत बिजी है. प्रिंस अपनी नई जिंदगी और नई नौकरी में व्यस्त हो गया था.

उसे त्रिमूर्ति की याद आती थी पर समस्या यह थी कि उसे तीनों ही पसंद थीं वह किसी एक का भी दिल नहीं तोड़ सकता था. इसी डर से वह वापस उन से मिलने नहीं आ रहा था. प्रिंस को पता था कि तीनों ही उस से उम्मीद लगाए बैठी हैं.

धीरेधीरे प्रिंस की कौल आनी कम हो गईं पर आरोही, कृतिका और वंशिका के रिश्ते में प्रिंस नाम की फांस इतनी गहरी थी कि अब वह चाह कर भी नहीं निकल पा रही थी. 5 माह बीत गए थे पर उस फांस की टीस बरकरार थी.

तीनों ही अपने को ठगा हुआ महसूस करती थीं. स्कूल में एनुअल फंक्शन की तैयारी जोरों से चल रही थी. तभी बाहर से शोर सुनाई दिया. कृतिका ने देखा कि प्रिंस खड़ा हुआ है, इस से पहले वह कुछ बोलती साथ खड़ी लड़की को देख कर वह रुक गई.

प्रिंस बोला, ‘‘जाह्नवी यह त्रिमूर्ति की एक मूर्ति कृतिका है, जिस ने मेरा बहुत ध्यान रखा और यह मेरी पत्नी जाह्नवी.’’ तब तक आरोही और वंशिका भी आ गई थीं. तीनों की ही आंखों में ढेर सारे प्रश्न थे. प्रिंस ने कहा, ‘‘आज रात तुम सब का डिनर हमारे साथ है.’’

तीनों का मन नहीं था पर फिर भी न जाने क्या सोच कर वे डिनर पर चली गई थीं. आखिर प्रिंस ने ऐसा क्यों किया? क्यों झूठे सपने दिखाए? क्यों तारीफ करी? और सब से महत्त्वपूर्ण बात क्यों उन्होंने एकदूसरे को यह बात नहीं बताई?

रात में डिनर के समय  प्रिंस अपनी पत्नी की तरफ देखते हुए बोला, ‘‘देखो तीनों  ही इतनी सुंदर और अच्छी हैं. तीनों ही मेरी दोस्त, इसलिए मैं किसी का भी दिल नहीं तोड़ सकता था.’’ ‘‘इस त्रिमूर्ति को खंडित करने का अपराध मैं नहीं कर पाया, इसलिए दोस्ती को दोस्ती तक ही सीमित रखा.’’

तीनों मन ही मन सोच रही थीं कि मतलब उन का शक सही था दोस्ती की आड़ में प्रिंस तीनों को बेवकूफ बनाता रहा. प्रिंस तो अपने हिस्से का गिलट बड़ी आसानी से क्लीयर कर के चला गया पर जो फांस आरोही, वंशिका और कृतिका के मन में थी तो वह अब और गहरी हो गई.

कृतिका सोच रही थी कि अगर वे 3 न हो कर 1 होतीं तो आज वह प्रिंस के साथ जरूर होती. आरोही सोच रही थी कि क्यों वंशिका और कृतिका ने प्रिंस से अपनी नजदीकी के बारे में नहीं बताया? वहीं वंशिका को लग रहा था कि अगर वे दोनों वास्तव में उस की सच्ची दोस्त होतीं तो उसे यों अंधेरे में नहीं रखतीं.

फादर्स डे- वरुण और मेरे बीच कैसे खड़ी हो गई दीवार

मुझे रात को जल्दी सोने की आदत है. बेटेबहू की तरह मैं देररात तक जागना पसंद नहीं करता. शाम का खाना जल्दी खा कर थोड़ी देर टहलने जाना और फिर गहरी नींद का मजा लेने के लिए बिस्तर पर लेट जाना मेरी रोज की दिनचर्या है. इस में मैं थोड़ा सा भी बदलाव नहीं करता.

उस दिन भी मैं अपनी इसी दिनचर्या के अनुसार अपने बिस्तर पर आ कर लेट गया. किंतु जाने क्या हुआ मुझे नींद ही नहीं आ रही थी. बिस्तर पर करवटें बदलतेबदलते जब मैं उकता गया तो सोचा क्यों न कुछ देर पोतापोती के साथ खेल कर मन बहला लूं.

मैं जब पोतापोती के कमरे में पहुंचा तो देखा वे लोग कुछ काम कर रहे थे. पहले तो मुझे लगा कि शायद वे पढ़ाई कर रहे हैं और उन की पढ़ाई में खलल डालना उचित नहीं होगा, मगर फिर ध्यान से देखने पर पता चला कि वे दोनों तो चित्रकारी कर रहे थे. मैं उन के पीछे जा कर खड़ा हो गया और उन की चित्रकारी देखने लगा. जल्द ही उन दोनों को एहसास हो गया कि मैं उन के पीछे खड़ा हूं. उन्होंने आश्चर्य से मेरी तरफ कुछ ऐसे देखा मानो पूछ रहे हों, ‘आप इस समय यहां क्या कर रहे हैं?’

‘‘क्या कर रहे हो बच्चो, किस का चित्र बना रहे हो, जरा मुझे भी तो दिखाओ.’’

आंखों ही आंखों में दोनों में कुछ इशारेबाजी हुई और फिर दोनों लगभग एकसाथ बोले, ‘‘कुछ खास नहीं दादाजी, हमें स्कूल में एक प्रोजैक्ट मिला है, वही कर रहे हैं.’’

‘‘अच्छा. लाओ मुझे दिखाओ, क्या प्रोजैक्ट मिला है. मैं मदद कर देता हूं.’’

‘‘नहींनहीं दादाजी, मुश्किल नहीं है, हम कर लेंगे. वैसे भी थोड़ा सा ही काम बचा है. आप अभी तक सोए नहीं, काफी देर हो गई है?’’ मेरी पोती ने पूछा.

‘‘मैं पानी पीने के लिए उठा था. तुम्हारे कमरे की लाइट जल रही थी, इसलिए तुम से मिलने आ गया.’’

‘‘मैं आप के लिए पानी लाती हूं,’’ पोती ने उठते हुए कहा.

‘‘नहीं, रहने दो, मैं पानी पी चुका हूं.’’

‘‘मैं आप को कमरे तक छोड़ आऊं दादाजी.’’ मेरे पोते ने बड़ी मासूमियत से यह कहा तो मुझे उन दोनों पर बड़ा प्यार आया. मैं उन दोनों के सिर पर हाथ फेर कर अपने कमरे में चला आया. यों तो मेरे पोतापोती बड़े अच्छे बच्चे हैं, दोनों मेरा हमेशा ही आदर करते हैं और मेरी परवा भी, किंतु उन का आज का व्यवहार मेरे प्रति कतई सम्मानजनक नहीं था बल्कि वे दोनों मुझे जल्दी से जल्दी अपने कमरे से बाहर करना चाहते थे.

खैर, मैं वापस अपने कमरे में आ गया. हालांकि बच्चों ने तो छिपाने की पूरी कोशिश की थी पर मुझे पता चल ही गया कि वे दोनों क्या कर रहे थे. वे फादर्स डे के मौके पर अपने पापा के लिए कार्ड बना रहे थे और कहीं मैं उन के इस सरप्राइज के बारे में जान न जाऊं, इसीलिए उन्होंने जल्द से जल्द मुझे अपने कमरे से टालने की कोशिश की.

फादर्स डे पर न जाने क्यों मेरे कदम अपनेआप ही अपनी अलमारी की तरफ उठ गए. मैं ने अलमारी खोली और उस में से एक डब्बा निकाला. यह डब्बा टाई का था. मैं ने डब्बे में से टाई निकाली और उसे प्यार से सहला दिया. यह टाई मेरे बेटे वरुण ने तोहफे में दी थी. वह फादर्स डे के मौके पर इसे मेरे लिए अपनी पहली तनख्वाह से खरीद कर लाया था. हालांकि मुझे इसे कभी पहनने का मौका नहीं मिला, लेकिन यह मेरे दिल के बेहद करीब है. मैं ने इसे संभाल कर रखा है.

सुबह नाश्ते की मेज पर दोनों बच्चों  ने अपने पापा को कार्ड भेंट  किया. मेरा बेटा कार्ड देख कर अपने बच्चों पर निहाल हो गया. उस ने दोनों को अपनी गोद में बैठा लिया और उन्हें अपने हाथों से नाश्ता करवाने लगा. बच्चों द्वारा बनाया गया कार्ड देखने को मुझे भी मिला. उन के द्वारा बनाई गई अपने बेटे की कार्टून जैसी सूरत देख कर मेरे होंठों पर मुसकान आ गई जिसे मैं बहुत कोशिश कर के भी अपने बेटे से छिपा नहीं पाया.

‘‘बच्चों की कोशिश बहुत अच्छी थी. हमें उन का हौसला बढ़ाना चाहिए. प्यार से दिया गया  हर तोहफा अनमोल होता है, हमें यह हमेशा ध्यान रखना चाहिए. मगर कुछ लोग दूसरों की भावनाओं को समझते ही नहीं या तो तोहफा देने वाले को डांट देते हैं या उस का मजाक उड़ाने लगते हैं,’’ वरुण ने सख्त शब्दों में अपनी नाराजगी व्यक्त की.

उस की यह नाराजगी उस के बच्चों के कार्ड का मजाक उड़ाने के लिए नहीं थी, बल्कि उस की इस नाराजगी की असली वजह वह टाई थी जिसे खरीदने पर मैं ने उसे डांटा था. वह पुराना वाकेआ हम पितापुत्र के बीच आज भी मौजूद है. न उस वाकए को कभी मैं भुला पाया और न ही कभी वो. यह बात उस के दिल में ऐसी घर कर गईर् कि उस के बाद मेरा बेटा मुझ से दूर हो गया.

हालांकि कोई भी यह कह सकता है कि मुझ से तब बहुत बड़ी गलती हो गई. मैं खुद भी कभी इस बात के लिए खुद को माफ नहीं कर सका. सफाई भी क्या दूं, जब यह हुआ उस समय मेरे हालात से वह बिलकुल अनजान तो नहीं था. एक तो उस समय मेरी आर्थिक स्थिति काफी नाजुक थी, उस पर पत्नी का स्वास्थ्य दिनोंदिन बिगड़ता जा रहा था और वह हमारा साथ छोड़ने की तैयारी में थी. ऐसे में इन औपचारिकताओं के लिए जिंदगी में जगह ही कहां थी.

मैं कुछ कहता तो बात और बढ़ती, उस से पहले मेरी बहू सुमी हमेशा की तरह आगे आई, ‘‘अच्छा अब छोड़ो पुरानी बातें और जल्दी से नाश्ता खत्म करो. फिर बाजार भी जाना है. आज बच्चे अपने पापा के लिए दोपहर के खाने में कुछ खास बनाना चाहते हैं.’’ वह बातें करतेकरते सब के लिए नाश्ता भी परोसती जा रही थी. सब पनीरसैंडविच खा रहे थे जबकि मुझे उस ने दूध व कौर्नफ्लैक्स खाने को दिए. यह भेदभाव देख कर मुझे बुरा लगा.

वरुण ने बाजार जाने से मना कर दिया. उसे दफ्तर की कोई जरूरी फाइल देखनी थी. सुमी भी इतवार की सुबह काफी व्यस्त रहती है. सो, बाजार जाने की जिम्मेदारी मैं ने ले ली. सुमी ने सामान की सूची और झोले के साथ यह हिदायत भी दे डाली कि मैं अधिक दूर न जा कर पास की मार्केट से ही सामान ले आऊं.

सुमी की हिदायत के बावजूद मैं दूर  सब्जी मंडी चला गया. शायद  सुबह की खीझ मिटाने और रास्ते में अपने मित्र रामलाल हलवाई की दुकान तक पहुंच कर मेरा सब्र टूट गया और वहां मैं ने डट कर कचौरी व जलेबी का नाश्ता किया. नाश्ता करते समय मैं ने ‘फादर्स डे’ के मौके पर बड़े ही भावपूर्ण तरीके से अपने पिताजी को याद किया और बेटे के लिए उस की सलामती की कामना की.

‘‘बड़ी देर लगा दी पापाजी, कहां चले गए थे?’’ घर पहुंचते ही सुमी ने इस सवाल के साथ मेरा स्वागत किया.

‘‘मैं मंडी चला गया था. वहां सब्जी सस्ती और अच्छी मिलती है न.’’ अपनी इस समझदारी पर दाद मिलने की उम्मीद से मैं ने उस की ओर देखा पर उस ने मेरा दिल तोड़ दिया.

‘‘सब्जी लेने ही गए थे न या फिर कुछ और भी?’’ उस के इस आधेअधूरे सवाल का मतलब मैं बखूबी समझ गया था और जवाब में उसे घूर कर भी देखना चाहता था मगर चोरी पकड़ी जाने के डर से ऐसा कर न सका. थकान का बहाना बना कर मैं अपने कमरे में चला आया.

रसोई में हंगामा सा मचा हुआ था. बच्चे खाना बना रहे थे और उन के मातापिता उन की मदद कर रहे थे. पता नहीं खाना ही बना रहे थे या कोई खेल खेल रहे थे, मुझे समझ नहीं आया. अच्छा ही हुआ जो मैं बाहर से खा कर आ गया, पता नहीं घर में तो आज खाना बनेगा भी या नहीं.

मेज पर खाना लग चुका था. मेरा पोता मुझे बुलाने आया. मेरा पेट जरा भारी सा हो रहा था. इस समय भोजन करने का बिलकुल भी मन नहीं था. पर मना करने का तो सवाल ही नहीं उठता, कमजोरी मेरी ही थी. मैं मन ही मन अपनी मधुमेह आदि बीमारियों को कोसते हुए, जो मुझे अपने बच्चों से झूठ बोलने को मजबूर कर देती हैं, बाहर चला आया.

यों तो आज भी मेरे लिए लौकी की सब्जी और चपाती बनी थी पर शायद आज बच्चों को मुझ पर थोड़ा ज्यादा प्यार आ गया, इसलिए उन्होंने अपने खाने में से भी थोड़ा सा चखने के लिए दे दिया. खाना बेहद स्वादिष्ठ बना था, शायद इसलिए कि उस में बच्चों का प्यार भी मिला था, पर मजा नहीं आ रहा था. इस का कारण भी मैं जानता था.

‘‘क्या बात है पापाजी, आप खाना नहीं खा रहे? अच्छा नहीं लग रहा है क्या?’’ बहू ने मुझे प्लेट में चम्मच घुमाते देख पूछा. वह खोजी नजरों से मुझे देख रही थी. मुझे उस की इस अदा से बड़ा डर लगता है, लगता है मानो अंदर झांक कर सारे राज मालूम कर लेगी.

‘‘नहीं बेटे, ऐसी कोई बात नहीं है. खाना बहुत अच्छा बना है,’’ मैं ने जल्दीजल्दी निवाले निगलते हुए कहा. उस समय मुझे अपनी पोल खुलने से अधिक फिक्र अपने बच्चों की भावनाओं की थी. मैं ने सब के साथ भरपेट भोजन किया और दिल खोल कर भोजन की तारीफ भी की.

शाम को बच्चों का बाहर जाने का प्लान था. जब वे लोग मुझ से इजाजत लेने आए तब मेरे पेट में बहुत तेज दर्द हो रहा था, लेकिन मैं ने उन्हें इस बाबत बताना ठीक नहीं समझा क्योंकि वे लोग अपना प्लान रद्द कर देते. मेरे पोतापोती मुझे बाय कर रहे थे और मैं किसी तरह अपने दर्द को दबाए हुए मुसकराने की कोशिश कर रहा था. सुमी अब भी मेरे लिए खाना बना कर गई थी. मुझे बड़ी खुशी हुई यह देख कर कि वह मेरी हर छोटीबड़ी जरूरत का हर तरह से ध्यान रखती है. मन तो किया कि उस के लिए ही सही, दो निवाले खा लूं, मगर मुझ से नहीं हुआ. हार कर मैं अपने बिस्तर पर पड़ गया.

मैं इतनी तकलीफ में था कि बच्चे कब घर वापस आए, मुझे पता ही नहीं चला. मुझे सोया जान उन्होंने मुझे नहीं जगाया. मैं रातभर दर्द से तड़पता रहा. सुबह खाई कचौरियां मेरे पेट में कुहराम मचाए हुए थीं. ऐसे में ठीक तो यही रहता कि मैं अपने बेटाबहू को जगा देता पर सब थके हुए थे और मुझे उस समय उन्हें परेशान करना ठीक नहीं लगा. मगर परेशान तो वे लोग फिर भी हो गए. मेरी लाख कोशिशों के बावजूद उन्हें मेरी तकलीफ के बारे में पता चल गया. मेरे वाशरूम से बारबार आती फ्लश की आवाज ने चुगली जो कर दी थी.

वरुण और सुमी मेरे कमरे में चले आए. मेरी हालत देख कर वे घबरा गए. वे तो उसी समय डाक्टर को बुलाना चाहते थे मगर इतनी रात डाक्टर का आना मुश्किल था. सो, खुद ही मेरी तीमारदारी में जुट गए. मुझे उस समय अपने बच्चों पर प्यार आ रहा था और शायद उन्हें गुस्सा, तभी तो वरुण मुझे घूर कर देख रहा था. वरुण के इस तरह घूरने से मुझे डर लगता था. उस के गुस्से से खुद को बचाने के लिए मैं आंखें बंद कर के लेट गया. थोड़ी देर में मुझे दवा के कारण नींद आ गई.

10 बजे के करीब मेरी नींद टूटी. मैं चौंक कर उठ बैठा. सुमी का दफ्तर जाने का समय हो रहा था. आज मैं अपनी आदत के उलट बहुत देर तक सोता रहा. मैं ने उठने की कोशिश की, पर उठ नहीं पाया. बड़ी कमजोरी महसूस हो रही थी. कुछ ही देर में सुमी मुझे देखने आई. मुझे जगा हुआ देख कर वह चाय बना लाई. तब तक वरुण ने मुझे सहारा दे कर बैठा दिया. दोनों को उस समय घर के कपड़ों में देख कर मुझे कुछ आश्चर्य हुआ, ‘‘तुम दोनों अब तक तैयार नहीं हुए. आज औफिस नहीं जाना है क्या?’’

‘‘आप को ऐसी हालत में छोड़ कर औफिस कैसे जाएं. आज हम दोनों ने दफ्तर से छुट्टी ले ली है,’’ वरुण ने जवाब दिया.

‘‘नहीं बेटा, इस की कोई जरूरत नहीं है. मैं अब ठीक महसूस कर रहा हूं. तुम लोग आराम से दफ्तर जाओ,’’ जाने मैं बच्चों से झूठ बोल रहा था या फिर खुद से, मुझे समझ नहीं आया.

‘‘हां, पता है हमें कितना ठीक महसूस कर रहे हैं आप. आप का चेहरा देख कर ही पता चल रहा है. अब आप कुछ नहीं बोलेंगे, सिर्फ आराम करेंगे. आज हम आप को छोड़ कर कहीं नहीं जाएंगे. पूरा दिन आप पर नजर रखेंगे और आप वो करेंगे जो हम कहेंगे. चलिए, लेट जाइए.’’ बहू की यह मीठी झिड़की मुझे अच्छी लगी. इस के बाद दोनों पूरा दिन मेरी इस तरह देखभाल करते रहे जैसे कि मैं एक छोटा बच्चा हूं और वे दोनों मेरे अभिभावक, मैं भी उन की हर आज्ञा का पालन करता रहा.

शाम तक मेरी हालत में काफी सुधार हो चुका था. मैं अपने कमरे में बैठेबैठे बोर हो गया था. सो, उठ कर हौल में चला आया. मुझे देख कर सुमी ने चाय का कप और एक प्लेट में बिस्कुट परोस कर मेरे सामने रख दिए. मुझे बड़ी हसरत से पैस्ट्री और समोसों की ओर ताकते देख उस के होंठों पर शरारती मुसकान आ गई जिसे देख कर मैं शरमा गया.

‘‘कल आप कहां गए थे पापा?’’ वरुण ने मेरी ओर सवाल दागा.

उस के इस सवाल के लिए मैं तैयार नहीं था, इसलिए कुछ पलों के लिए तो हड़बड़ा गया लेकिन फिर विरोध करने वाले अंदाज में बोला. ‘‘तुम्हारी याददाश्त अभी से कमजोर हो गई है क्या? याद नहीं तुम्हें, सब्जी लेने गया था, बहू ने ही तो भेजा था.’’

‘‘मेरी याददाश्त बिलकुल ठीक है. आप की बहू ने तो आप को पास वाली मार्केट भेजा था, पर आप रामलाल चाचा की दुकान पर पहुंच गए. पूछ सकता हूं क्यों?’’

‘‘मैं रामलाल की दुकान पर नहीं, मंडी गया था, अच्छी और सस्ती सब्जी लेने.’’ मैं जानता था अब मेरा झूठ ज्यादा देर तक नहीं चलेगा, पर फिर भी मैं ने एक आखिरी कोशिश की.

‘‘मेरे दोस्त दिनेश ने आप को रामलाल चाचा की दुकान पर देखा था वह भी जलेबी और कचौरी खाते हुए.’’

मेरे बेटे के बिगड़े तेवरों ने मुझे सीधा कर दिया. दिनेश को तो मैं ने भी देखा था उस दिन पर यह नहीं सोचा था कि वह मेरे बेटे से मेरी चुगली कर देगा, चुगलखोर कहीं का. आजकल के लड़कों में बड़ों के लिए आदरसम्मान रहा ही नहीं. मैं ने अपने बेटे की ओर देखा. वह सच सुनने के इंतजार में लगातार मुझे घूर रहा था. अब और किसी झूठ के लिए जगह नहीं थी, बहाने भी लगभग खत्म हो चुके थे. सो, अब सच बोलने में ही भलाई थी.

‘‘कल तुम लोगों को फादर्स डे मनाते देख मेरा भी मन कर गया. मैं वहां फादर्स डे मनाने गया था.’’ मेरा यह मासूमियत भरा जवाब सुन कर मेरी बहू की हंसी छूट गई. जाने उस की हंसी में क्या था कि पहले मैं, फिर मेरा बेटा भी उस के साथ खुल कर हंस दिए. हम हंसे जा रहे थे और दोनों बच्चे हमारी ओर आश्चर्यभरी नजरों से देख रहे थे.

Father’s Day 2023: दूसरा पिता- क्या दूसरे पिता को अपना पाई कल्पना

वह यादों के भंवर में डूबती चली जा रही थी. ‘नहीं, न वह देवदास की पारो है, न चंद्रमुखी. वह तो सिर्फ पद्मा है.’ कितने प्यार से वे उसे पद्म कहते थे. पहली रात उन्होंने पद्म शब्द का मतलब पूछा था.

वह झेंपती हुई बोली थी, ‘कमल’.

‘सचमुच, कमल जैसी ही कोमल और वैसे ही रूपरंग की हो,’ उन्होंने कहा था.

पर फिर पता नहीं क्या हुआ, कमल से वह पंकज रह गई, पंकजा. क्यों हुआ ऐसा उस के साथ? दूसरी औरत जब पराए मर्द पर डोरे डालती है तो वह यह सब क्यों नहीं सोचा करती कि पहली औरत का क्या होगा? उस के बच्चों का क्या होगा? ऐसी औरतें परपीड़ा में क्यों सुख तलाशती हैं?

हजरतगंज के मेफेयर टाकीज में ‘देवदास’ फिल्म लगी थी. बेटी ने जिद कर के उसे भेजा था, ‘क्या मां, आप हर वक्त घर में पड़ी कुछ न कुछ सोचती रहती हैं, घर से बाहर सिर्फ स्कूल की नौकरी पर जाती हैं, बाकी हर वक्त घर में. ऐसे कैसे चलेगा? इस तरह कसेकसे और टूटेटूटे मन से कहीं जिया जा सकता है?’

लेकिन वह तो जैसे जीना ही भूल गई थी, ‘काहे री कमलिनी, क्यों कुम्हलानी, तेरी नाल सरोवर पानी.’ औरत का सरोवर तो आदमी होता है. आदमी गया, कमल सूखा. औरत पुरुषरूपी पानी के साथ बढ़ती जाती है, ऊपर और ऊपर. और जैसे ही पानी घटा, पीछे हटा, वैसे ही बेसहारा हो कर सूखने लगती है, कमलिनी. यही तो हुआ पद्मा के साथ भी. प्रभाकर एक दिन उसे इस तरह बेसहारा छोड़ कर चले जाएंगे, यह तो उस ने सपने में भी नहीं सोचा था. पर ऐसा हुआ.

उस दिन प्रभाकर ने एकदम कह दिया, ‘पद्म, मैं अब और तुम्हारे साथ नहीं रहना चाहता. अगर झगड़ाझंझट करोगी तो ज्यादा घाटे में रहोगी, हार हमेशा औरत की होती है. मुझ से जीतोगी नहीं. इसलिए जो कह रहा हूं, राजीखुशी मान लो. मैं अब मधु के साथ रहना चाहता हूं.’

पति का फैसला सुन कर वह ठगी सी रह गई थी. यह वही मधु थी, जो अकसर उस के घर आयाजाया करती थी. लेकिन उसे क्या पता था, एक दिन वही उस के पति को मोह लेगी. वह भौचक देर तक प्रभाकर की तरफ ताकती रही थी, जैसे उन के कहे वाक्यों पर विश्वास न कर पा रही हो. किसी तरह उस के कंठ से फूटा था, ‘और हमारी बेटी, हमारी कल्पना का क्या होगा?’

‘मेरी नहीं, वह तुम्हारी बेटी है, तुम जानो,’ प्रभाकर जैसे रस्सी तुड़ा कर छूट जाना चाहते थे, ‘स्कूल में नौकरी करती हो, पाल लोगी अपनी बेटी को. इसलिए मुझे उस की बहुत फिक्र नहीं है.’

पद्मा हाथ मलती रह गईर् थी. प्रभाकर उसे छोड़ कर चले गए थे. अगर चाहती तो झगड़ाझंझट करती, घर वालों, रिश्तेदारों को बीच में डालती, पर वह जानती थी, सिवा लोगों की झूठी सहानुभूति के उस के हाथ कुछ नहीं लगेगा.

समझदार होने पर कल्पना ने एक दिन कहा था, ‘मां, आप ने गलती की, इस तरह अपने अधिकार को चुपचाप छोड़ देना कहां की बुद्धिमत्ता है?’

‘बेटी, अधिकार देने वाला कौन होता है?’ उस ने पूछा था, ‘पति ही न, पुरुष ही न? जब वही अधिकार देने से मुकर जाए, तब कैसा अधिकार?’

पद्मा ने बहुत मुश्किल से कल्पना को पढ़ायालिखाया. मैडिकल की तैयारी के लिए लखनऊ में महंगी कोचिंग जौइन कराई. जब वह चुन ली गई और लखनऊ के ही मैडिकल कालेज में प्रवेश मिल गया तो पद्मा बहुत खुश हुई. उस का मन हुआ, उन्नाव जा कर प्रभाकर को यह सब बताए, मधु को जलाए, क्योंकि उस के बच्चे तो अभी तक किसी लायक नहीं हुए थे. वह प्रभाकर से कहना चाहती थी कि वह हारी नहीं. उन्नाव जाने की तैयारी भी की, पर कल्पना ने मना कर दिया, ‘इस से क्या लाभ होगा, मां? जब अब तक आप ने संतोष किया, तो अब तो मैं जल्दी ही बहुतकुछ करने लायक हो जाऊंगी. जाने दीजिए, हम ऐसे ही ठीक हैं.’

पद्मा अकेली हजरतगंज के फुटपाथ पर सोचती चली जा रही थी. जया वहीं से डौलीगंज के लिए तिपहिए पर बैठ कर चली गई थी. उसे मुख्य डाकघर से तिपहिया पकड़ना था.

जया और वह एक ही स्कूल में पढ़ाती थीं. पद्मा अकेली फिल्म देखने नहीं जाना चाहती थी. लड़की की जिद बताई तो जया हंस दी, ‘चलो, मैं चलती हूं तुम्हारे साथ. अपने जमाने की प्रसिद्ध फिल्म है.’

पति के छिनते ही पद्मा की जैसे दुनिया ही छिन गई थी. कछुए की तरह अपने भीतर सिमट कर रह गई थी, अपने घर में, अपने कमरे में.

कल्पना अकसर कहा करती, ‘मां, आप का जी नहीं घबराता इस तरह गुमसुम रहतेरहते?’

वह हंसने का निष्फल प्रयास करती, ‘कहां हूं गुमसुम, खुश तो हूं.’ पर कहां थी, वह खुश? खाली हाथ, रीता जीवन, एक सतत प्यास लिए सूखा रेगिस्तान मन, उड़ती हुई रेत और सुनसान दिशाएं. औरत, पुरुष के बिना अधूरी क्यों रह जाती है?

अपने जीवन से हट कर पद्मा देखी हुई फिल्म के बारे में सोचने लगी…उसे लगा, वह खुद देवदास के किरदार में है, ‘अब तो सिर्फ यही अच्छा लगता है कि कुछ भी अच्छा न लगे,’ ‘यह प्यास बुझती क्यों नहीं’, ‘क्यों पारो की याद सताती है?’, ‘कौन कमबख्त पीता है होश में रहने के लिए? मैं तो पीता हूं जीने के लिए कि कुछ सांसें ले सकूं’, ‘मैं नहीं कर सकता. क्या सभी लोग सभीकुछ करते हैं?’ फिल्म के ऐसे कितने ही वाक्य थे, जो उस के दिलोदिमाग में ज्यों के त्यों खुद से गए थे. क्या हर दुख झेलने वाला व्यक्ति देवदास है? क्या देवदास आज की भी कड़वी सचाई नहीं है?

‘चंद्रमुखी, तुम्हारा यह बाहर का कमरा तो बिलकुल बदल गया.’

क्या जवाब दिया चंद्रमुखी ने, ‘बाहर का ही नहीं, अंदर का भी सब बदल गया है.’

क्या सचमुच वह भी बाहरभीतर से बदल नहीं गई पूरी तरह? चंद्रमुखी ने वेश्या का पेशा छोड़ दिया है. देवदास कहता है, ‘छोड़ तो दिया है, पर औरतों का मन बहुत कमजोर होता है, चंद्रमुखी.’

पद्मा सोचती है, ‘क्या सचमुच औरतों का मन बहुत कमजोर होता है? क्या आदमी का मोह, आदमी की चाह, उसे कभी भी डिगा सकती है? वह कभी भी उस के मोहपाश में बंध कर अपना आगापीछा भुला सकती है?’

अचानक पद्मा हड़बड़ा गई क्योंकि आगे चलता एक व्यक्ति अचानक चकरा कर उस के पास ही फुटपाथ पर गिर पड़ा था. वह कुछ समझ नहीं पाई. बगल के पान वाले की दुकान से पद्मा ने पानी लिया और उस के चेहरे पर छींटे मारे. लोगों की भीड़ जुट गई, ‘कौन है? कहां का है? क्या हुआ?’ जैसे तमाम सवाल थे, जिन के उत्तर उस के पास नहीं थे.

लोगों की सहायता से पद्मा ने उस व्यक्ति को एक तिपहिए पर लदवाया, खुद साथ बैठी और मैडिकल कालेज के आपात विभाग पहुंची.

पद्मा ने तिपहिया चालक की सहायता से उस व्यक्ति को उतारा और आपात विभाग में ले जा कर एक बिस्तर पर लिटा दिया. कल्पना को तलाश करवाया तो वह दौड़ी आई, ‘‘क्या हुआ, मां, कौन है यह?’’

पद्मा क्या जवाब देती, हौले से सारी घटना बता दी.

‘‘तुम भी गजब करती हो, मां. ऐसे ही कोई आदमी गिर पड़ा और तुम ले कर यहां चली आईं. मरने देतीं वहीं.’’

उस ने बेटी को अजीब सी नजरों से देखा कि यह क्या कह रही है? मरने देती? सहायता न करती? यह भी कोई बात हुई? अनजान आदमी है तो क्या हुआ, है तो आदमी ही.

‘‘दूसरे लोग उठाते और किसी अस्पताल ले जाते. या फिर पुलिस उठाती. आप क्यों लफड़े में पड़ीं, मरमरा गया तो जवाब कौन देगा?’’ भुनभुनाती कल्पना डाक्टरों के पास दौड़ी.

डाक्टरों ने कल्पना के कारण उस की अच्छी देखभाल की. 2 घंटे बाद उसे होश आया. दाएं हिस्से में जुंबिश खत्म हो गई थी, लकवे का असर था.

जब उसे ठीक से होश आ गया तो पद्मा को खुशी हुई, एक अच्छा काम करने का आत्मसंतोष. उस ने उस व्यक्ति से पूछा, ‘‘आप कहां रहते हैं?’’

‘‘कहीं नहीं और शायद सब कहीं,’’ वह अजीब तरह से मुसकराया.

‘‘हम लोग आप के घर वालों को खबर करना चाहते थे, पर आप की जेब से कोई अतापता नहीं मिला. सिर्फ रुपए थे पर्स में, ये रहे, गिन लीजिए,’’ पद्मा ने पर्स उस की तरफ बढ़ाया.

कल्पना भी निकट आ कर बैठ गई थी.

‘‘मैडम, जो लोग सड़क पर गिरे आदमी को अस्पताल पहुंचाते हैं, वे उस का पर्स नहीं मारते,’’ वह उसी तरह मुसकराता रहा, ‘‘समझ नहीं पा रहा, आप को धन्यवाद दूं या खुद को कोसूं.’’

‘‘क्यों भला?’’ कल्पना ने पूछा, ‘‘आप के बीवीबच्चे आप की कुशलता सुन कर कितने प्रसन्न होंगे, यह एहसास है आप को?’’

‘‘कोई नहीं है अब हमारा,’’ वह आदमी उदास हो गया, ‘‘2 साल हुए, हत्यारों ने घर में घुस कर मेरी बेटी और पत्नी के साथ बलात्कार किया था. लड़के ने बदमाशों का मुकाबला किया तो उन लोगों ने तीनों की हत्या कर दी.’’

‘‘यह सुन कर वे दोनों सन्न रह गईं.

काफी देर तक खामोशी छाई रही, फिर पद्मा ने पूछा, ‘‘आप कहां रहते हैं?’’

‘‘कहां बताऊं? शायद कहीं नहीं. जिस घर में रहता था, वहां हर वक्त लगता है जैसे मेरी बेटी, पत्नी और

बेटा लहूलुहान लाशों के रूप में पड़े

हैं. इसलिए उस घर से हर वक्त भागा रहता हूं.’’

‘‘यहां लखनऊ में आप कैसे आए थे?’’ कल्पना ने पूछा.

‘‘इलाहाबाद में किताबों का प्रकाशक हूं. स्कूल, कालेजों की पुस्तकें प्रकाशित करता हूं-पाठ्यपुस्तकों से ले कर कहानी, उपन्यास, कविता, नाटक आदि तक,’’ वह बोला, ‘‘यहां इसी सिलसिले में आया था. हजरतगंज के एक

होटल में ठहरा हूं. एक सिनेमाहौल में पुरानी फिल्म ‘देवदास’ लगी है, उसे देखने गया था कि रास्ते में गश खा कर गिर पड़ा.’’

डाक्टरों से बात कर के कल्पना उस व्यक्ति को मां के साथ घर लिवा लाई, ‘‘चलिए, आप यहीं रहिए कुछ दिन,’’ उस ने कहा, ‘‘हम आप का सामान होटल से ले आते हैं. कमरे की चाबी दीजिए और होटल की कोई रसीद हो, तो वह…’’

‘‘रसीद तो कमरे में ही है, चाबी यह रही,’’ उस ने जेब से निकाल कर चाबी दी.

कल्पना ने मां को बताया, ‘‘इन्हें कोई ठंडी चीज मत देना. गरम चाय या कौफी देना.’’

फिर एक पड़ोसी को साथ ले कर कल्पना चली गई.

पद्मा कौफी बना लाई. उस व्यक्ति ने किसी तरह बैठने का प्रयास किया, ‘‘बिलकुल इतनी ही उम्र थी मेरी बेटी की,’’ उस का गला भर्रा गया, आंखों में नमी तिर आई.

‘‘भूल जाइए वह सब, जो हुआ,’’ पद्मा बोली, ‘‘आप अकेले नहीं हैं इस धरती पर जिन्हें दुख झेलना पड़ा, ऐसे तमाम लोग हैं.’’

वह कुछ बोला नहीं, भरीभरी आंखों से पद्मा की तरफ देखता रहा और कौफी के घूंट भरता रहा.

‘‘सच पूछिए तो अब जीने की इच्छा ही नहीं रह गई,’’ वह बोला, ‘‘कोई मतलब नहीं रह गया जीने का. बिना मकसद जिंदगी जीना शायद सब से मुश्किल काम है.’’

‘‘शायद आप ठीक कहते हैं,’’ पद्मा के मुंह से निकल गया, ‘‘मैं ने भी ऐसा ही कुछ अनुभव किया जब कल्पना के पिता ने अचानक एक दिन मुझे छोड़ दिया.’’

‘‘आप जैसी नेक औरत को भी कोई आदमी छोड़ सकता है क्या?’’ उसे विश्वास नहीं हुआ.

‘‘मधु नामक एक लड़की पड़ोस में रहती थी. हमारे घर आतीजाती थी. वे उसी के मोह में फंस गए. कल्पना तब छोटी थी. वे चले गए मुझे छोड़ कर,’’ पता नहीं वह यह सब उस से क्यों कह बैठी.

3-4 दिनों में वह व्यक्ति चलनेफिरने लगा था.

एक सुबह पद्मा ने पूछा, ‘‘अभी तक आप ने अपना नाम नहीं बताया?’’

जवाब कल्पना ने दिया, ‘‘कमलकांत,’’ और होटल की रसीद मां की तरफ बढ़ाई, ‘‘रसीद पर इन का यही नाम लिखा है,’’ वह मुसकरा रही थी.

थोड़ी देर बाद जब वह सूटकेस में अपने कपड़े रखने लगा तो पद्मा ने पूछा, ‘‘कहां जाएंगे अब?’’

‘‘क्या बताऊं?’’ कमलकांत बोला, ‘‘इलाहाबाद ही जाऊंगा. वहां मेरा कुछ काम तो है ही, लोग परेशान हो रहे होंगे.’’

कल्पना ने उस के हाथ से सूटकेस ले लिया, ‘‘आप अभी कहीं नहीं जाएंगे. इतने ठीक नहीं हुए हैं कि कहीं भी जा सकें. दोबारा अटैक हो गया तो लेने के देने पड़ जाएंगे. यहीं रहिए कुछ दिन और, अपने दफ्तर में फोन कर दीजिए.’’

पद्मा कुछ बोली नहीं. कहना तो वह भी यही सब चाहती थी, पर अच्छा लगा, बेटी ने ही कह दिया. शायद वह समझ गई, पर क्या समझ गई होगी? देर तक चुप बैठी पद्मा सोचती रही. कहां पढ़ा था उस ने यह वाक्य- ‘प्यार जानने, समझने की चीज नहीं होती, उसे तो सिर्फ महसूस किया जाता है.’

‘क्या कमलकांत उसे अच्छे लगने लगे हैं?’ पद्मा ने अपनेआप से पूछा. एक क्षण को वह सकुचाई. फिर झेंप सी महसूस की, ‘नहीं, अब इस उम्र में फिर से कोई नई शुरुआत करना बहुत मुश्किल है. न मन में उत्साह रहा, न इच्छा. प्रभाकर के साथ जुड़ कर देख लिया. क्या मिला उसे? क्या दोबारा वही सब दोहराए? आदमी का क्या भरोसा? क्यों सोच रही है वह यह सब इस आदमी को ले कर? क्या लगता है यह उस का? कोई भी तो नहीं…क्या सचमुच कोई भी नहीं?’ अचानक उस के भीतर से किसी ने पूछा. और वह अपनेआप को भी कोई सचसच जवाब नहीं दे पाई थी. व्यक्ति दूसरे से झूठ बोल सकता है, अपनेआप से कैसे झूठ बोले?

कल्पना कालेज जाती हुई बोली, ‘‘मां, आप अभी एक सप्ताह की और छुट्टी ले लीजिए, इन की देखरेख कीजिए.’’

पद्मा बुत बनी बैठी रही, न हां बोली, न इनकार किया.

उस के जाने के बाद पद्मा ने छुट्टी की अर्जी लिखी और पड़ोस के लड़के को किसी तरह स्कूल जाने को राजी किया. उस के हाथों अर्जी भिजवाई.

शाम को जया आई, ‘‘क्या हुआ, पद्मा?’’ एक अजनबी को घर में देख कर वह भी चकराई.

जवाब देने में वह लड़खड़ा गई, ‘‘क्या बताऊं?’’

जया उसे एकांत में ले गई, ‘‘ये महाशय?’’

सवाल सुन कर पद्मा का चेहरा अपनेआप ही लाल पड़ गया, पलकें झुक गईं.

जया मुसकरा दी, ‘‘तो यह बात है… कल्पना के नए पिता?’’

पद्मा अचकचा गई, ‘‘नहीं रे, पर… शायद…’’

बाद में देर तक पद्मा और जया बातें करती रहीं. अंत में जया ने पूछा, ‘‘कल्पना मान जाएगी?’’

‘‘कह नहीं सकती. मेरी हिम्मत नहीं है, जवान बेटी से यह सब कहने की. अगर तू मदद कर सके तो बता.’’

‘‘कल्पना से कल बात करूंगी,’’ जया बोली, ‘‘और प्रभाकर ने टांग अड़ाई तो…?’’

‘‘इतने सालों से उन्होंने हमारी खबर नहीं ली. मैं नहीं समझती उन्हें कोई एतराज होगा.’’

‘‘सवाल एतराज का नहीं, कानून का है. आदमी अपना अधिकार कभी भी जता सकता है. तुम स्कूल में अध्यापिका हो, बदनामी होगी.’’

‘‘तब से यही सब सोच रही हूं,’’ पद्मा बोली, ‘‘इसीलिए डरती भी हूं. कुछ तय नहीं कर पा रही कि कदम सही होगा या गलत. एक मन कहता है, कदम उठा लूं, जो होगा, देखा जाएगा. दूसरा मन कहता है, मत उठा. लोग क्या कहेंगे. दुनिया क्या कहेगी. समाज में क्या मुंह दिखाऊंगी. यह उम्र बेटी के ब्याह की है और मैं खुद…’’ पद्मा संकोच में चुप रह गई.

‘‘ठीक है, पहले कल्पना का मन जानने दे, तब तुम से बात करती हूं और कमलकांत से भी कहती हूं,’’ जया चली गई.

पद्मा पास की दुकान से घर की जरूरत की चीजें ले कर आई तो देखा, कमलकांत के पास कल्पना बैठी गपशप कर रही है और दोनों बेहद खुश हैं.

‘‘मां, जया मौसी रास्ते में मिली थीं.’’

सुन कर पद्मा घबरा गई. हड़बड़ाई हुई सामान के साथ सीधे घर में भीतर चली गई कि बेटी का सामना कैसे करे?

अचानक कल्पना पीछे से आ कर उस से लिपट गई, ‘‘मां, आप से कितनी बार कहा है, हर वक्त यों मन को कसेकसे मत रहा करिए. कभीकभी मन को ढीला भी छोड़ा जाता है पतंग की डोर की तरह, जिस से पतंग आकाश में और ऊंची उठती जाए.’’

वह कुछ बोली नहीं. सिर झुकाए चुप बैठी रही. कल्पना हंसी, ‘‘मैं बहुत खुश हूं. अच्छा लग रहा है कि आप अपने खोल से बाहर आएंगी, जीवन को फिर से जिएंगी, एक रिश्ते के खत्म हो जाने से जिंदगी खत्म नहीं हो जाती…

‘‘मुझे ये दूसरे पिता बहुत पसंद हैं. सचमुच बहुत भले और सज्जन व्यक्ति हैं. हादसे के शिकार हैं, इसलिए थोड़े अस्तव्यस्त हैं. मुझे विश्वास है, हमारा प्यार मिलेगा तो ये भी फिर से खिल उठेंगे.’’

पता नहीं पद्मा को क्या हुआ, उस ने बेटी को बांहों में भर कर कई बार चूम लिया. उस की आंखों से अश्रुधारा बह रही थी और कल्पना मां का यह नया रूप देख कर चकित थी.

फिर वसंत लौट आया: भाग 1- जब टूटा मेघा का भ्रम

‘‘बेटी मेघा, अजय साहब के लिए चाय ले आओ,’’ रंजीत बाबू ने बैरेक से ही आवाज लगाई.

मेघा किचन से ही आवाज देती हुई बोली, ‘‘हां पापा बस 2 मिनट में लाती हूं.’’

वह थोड़ी ही देर में चाय ले आई. मेघा देखने में बहुत खूबसूरत थी. बैरेक में घुसते ही सब से पहले उस ने अजय साहब को नमस्ते की और फिर चाय के कप मेज पर सजा कर वापस नमकीन लाने किचन में चली गई.

अब बातों का सिलसिला चल पड़ा. अजय साहब अफसोस जताते हुए बोले, ‘‘इतनी सीधीसादी लड़की के साथ ये लोग ऐसा व्यवहार कर रहे हैं. अरे, कम से कम सासससुर को तो बीच में कुछ कहना ही चाहिए था…’’

तभी बीच में रंजीत बाबू ने अजय साहब को टोका, ‘‘अरे, छोडि़ए भी अजय साहब अगर मेघा ने मना न किया होता तो मैं मनोज को छोड़ने वाला नहीं था. मैं अपनी बेटी का मुंह देख कर ही रह गया. मेघा कह रही थी कि जब मनोज ही मेरे साथ नहीं रहना चाहता, तो मैं क्यों जबरदस्ती उन के साथ रहूं. और सासससुर क्या करेंगे? जब मेरा दामाद मनोज ही नालायक निकल गया. हमारे समधि और समधन तो ऐसे सरल हैं कि पूछिए मत. आज भी हमारे संबंध उतने ही प्रगाढ़ हैं जितने पहले हुआ करते थे,’’ रंजीत बाबू मेघा के दिन ही खराब बता कर संतोष कर रहे थे.

‘‘सुबहसुबह मेघा को बहुत आपाधापी रहती है. सुबह सब से पहले नाश्ता तैयार करो. फिर खुद तैयार हो कर पापा का नाश्ता टेबल पर लगाओ. उस के बाद खुद नाश्ता कर के अपना टिफिन पैक करो. उस के बाद बच्चों का टिफिन पैक करो. यह मेघा की पिछले 4-5 सालों से एकजैसी दिनचर्या हो गई है.

चाय और नमकीन दे कर मेघा बाथरूम में गई और जल्दीजल्दी नहा कर औफिस के लिए तैयार हुई. फिर जल्दबाजी में जैसेतैसे नाश्ता किया और अपने पिता रंजीत बाबू से मुखातिब हुई, ‘‘पापा, टेबल पर नाश्ता लगा दिया है… आप नाश्ता कर लीजिएगा वरना ठंडा हो जाएगा.

अब मैं चलती हूं, औफिस के लिए लेट हो रही हूं,’’ मेघा अपने कमरे का दरवाजा बंद करते

हुए बोली.

‘‘ठीक है बेटा,’’ रंजीत बाबू बोले, ‘‘तुम ने अपना टिफिन और छाता ले लिया है न… बाहर बहुत धूप है. छाता ले कर ही निकलना,’’ रंजीत बाबू अखबार साइड में रखते हुए बोले.

‘‘अरे पापा मैं तो छाता भूल ही गई थी. आप ने अच्छा याद दिलाया,’’ कह कर  टेबल के नीचे से छाता निकालने लगी.

मेघा बस लेने के लिए बसस्टौप पर आ कर खड़ी हो गई.

‘‘तुम मु?ो बेवकूफ सम?ाते हो क्या मनोज?’’ मेघा को जब मनोज की दूसरी शादी के बारे में पता चला तो जैसे वह चीख पड़ी थी.

‘‘ऐसा मैं ने कब कहा,’’ मनोज संयत स्वर में बोला.

‘‘ऐसा नहीं है तो फिर कैसा है? एक म्यान में 2 तलवारें नहीं रह सकतीं. यह तो तुम्हें पता ही है ठीक वैसे ही मेरे रहते तुम रोजी के साथ नहीं रह सकते,’’ मेघा सम?ाता करने के लिए तैयार नहीं थी.

‘‘तुम और रोजी दोनों मेरे साथ रहेंगे. मैं तुम्हें अपने घर से भगा थोड़े ही रहा हूं,’’ मनोज सफाई देता हुआ बोला.

‘‘मैं आज की लड़की हूं और स्वाभिमानी भी हूं. मैं अपनी सौत के साथ जिंदगी नहीं बिता सकती. तुम्हें मेरे और रोजी में से किसी एक को चुनना होगा,’’ मेघा अपने आदर्शों से तिल मात्र भी सम?ाता नहीं करना चाहती थी.

मनोज भी सपाट स्वर में बोला, ‘‘तुम्हें

जो अच्छा लगता है करो, लेकिन रोजी मेरे साथ ही रहेगी.’’

‘‘तो मैं किस हैसियत से तुम्हारे घर में रहूं? एक बीवी की हैसियत से या एक रखैल की हैसियत से?’’ मेघा बोली.

‘‘तुम ऐसा क्यों कह रही हो? सारे समाज के सामने हमारी शादी हुई है, फिर तुम मेरी

रखैल कैसे हो गई? तुम्हें इस घर में पहले की तरह ही मानसम्मान मिलेगा,’’ मनोज सफाई देता हुआ बोला.

‘‘मानसम्मान की बात तुम न ही करो तो ज्यादा अच्छा है. तुम पूरीपूरी रात उस रोजी के कमरे में बिताते हो और उस का बिस्तर गरम करते हो. मेरे कमरे में ?ांकने तक नहीं आते और ऊपर से मानसम्मान की बात करते हो. मैं कल पूरी रात बिस्तर पर सिरदर्द और बुखार से तड़पती रही, लेकिन तुम मु?ो देखने तक नहीं आए. क्या यही मानसम्मान तुम मु?ो दे रहे हो? पतिपत्नी का रिश्ता केवल सुख का नहीं होता, बल्कि दुख का भी होता है और समाज. किस समाज की तुम बात करते हो? तुम अगर समाज की जरा भी परवाह करते तो ऐसी गंदी हरकत कभी न करते. छि: एक बीवी के रहते तुम ने दूसरी शादी कर ली.

‘‘तुम ने कभी यह भी न सोचा कि हमारे बच्चे क्या सोचेंगे? उन के संस्कारों पर क्या असर होगा? वे तुम्हारे बारे में क्या सोचेंगे?’’ मेघा आज फैसले के मूड में थी. वह मनोज से यही चाहती थी कि वह आज मेघा या रोजी में से किसी एक को चुनें ताकि मेघा को अपनी जिंदगी की राह चुनने में आसानी हो.

मेघा ने इस दुनिया में बहुत कष्ट सहा था. बचपन में मां गुजर गई. बचपन मां के बिना बिता. पिता ने किसी तरह पालपोस कर उसे बड़ा किया.

‘‘मैं ने कोई ऐसा काम नहीं किया है, जिस से मुझे समाज के सामने शर्मिंदा होना पडे़. बड़ेबड़े राजामहाराजाओं और मुगल बादशाहों की हजारों पटरानियां हुआ करती थीं. उन्होंने कभी इस का विरोध नहीं किया, लेकिन पता नहीं तुम्हें क्यों ऐतराज है मेरे और रोजी के साथ रहने पर?’’ मनोज ने अपने कुतर्क को ढकने के लिए अपना तर्क दिया.

‘‘अपनी नाकामियों और घृणित कारगुजारियों को छिपाने के लिए कम से कम ऐसे कुतर्क तो मत ही गढ़ो मनोज. अगर मैं तुम्हारे तर्क के हिसाब से चलूं तो पुराने मातृसत्तात्मक समाज में स्त्रियां बहू विवाह करती थीं,

‘‘तो क्या मैं भी 10 शादियां कर लूं? नहीं ऐसा आधुनिक समय में नहीं हो सकता. जब मैं ऐसा नहीं कर सकती तो तुम पुराने समय के राजामहाराजाओं और मुगल बादशाहों का उदाहरण क्यों दे रहे हो? आज के समय में हमारा संविधान हमें पहली पत्नी के मर जाने, पत्नी के दुराचारी होने पर ही तलाक के बाद दूसरी शादी की इजाजत देता है और जब तक तलाक न हो जाए तब तक दूसरी शादी अवैध मानी जाती है.’’

‘‘तो क्या तुम मु?ा से तलाक लोगी?’’ मनोज ने खिड़की को घूरते हुए पूछा.

‘‘हां, बिना तलाक के हम दोनों अपनी आने वाली जिंदगी का फैसला नहीं कर सकते. बेहतर होगा हमारा तलाक हो जाए ताकि तुम भी रोजी के साथ अपनी मरजी से अपनी जिंदगी गुजार सको,’’ मेघा निर्णयात्मक लहजे में बोली.

मेघा ने घड़ी पर नजर डाली. उस की 9 बजे वाली आज की बस छूट गई थी. वह

अकसर लेट हो जाती है. वह भी करे तो आखिर क्या करे? बच्चों का टिफिन तैयार करे, उन को स्कूल भेजे, दफ्तर संभाले, घर संभाले. एक अकेली जान आखिर क्याक्या करे? आज से पहले वह कभी इतनी लेट नहीं हुई. आज जरूर बौस से डांट पड़ेगी.

फांस: भाग 2- प्रिंस दोस्ती के आड़ में धोखा क्यों दे रहा है?

रविवार की रात तीनों सहेलियां खूब ढंग से तैयार हुई थीं. वंशिका की पिंक कलर की साड़ी उस की ही रंगत में मिलजुल गई थी. वहीं कृतिका महरून रंग के पैंट सूट में बेहद मोहक लग रही थी. उस ने अपने बालों को ऐसे ही खोल दिया था और आंखों को काजल से बांध कर एकदम कमनीय बना दिया था. वहीं आरोही ने गाउन पहना था. प्रिंस टाइम से आ गया था और तीनों के लिए छोटेछोटे गिफ्ट लाया था.

वह जब डिनर कर के वापस गया तो तीनों का दिल अपनी मुट्ठी में बंद कर के चला गया था. अब चारों एकसाथ लंच करते थे. तीनो सहेलियों में प्रिंस को इंप्रैस करने का कंपीटिशन चल रहा था और जिस कारण तीनों आजकल एकदूसरे से कटीकटी रहने लगी थीं.

तीनों सहेलियां जो पहले रसोई से दूर भागती थीं, अब प्रिंस के लिए नित नई डिश बना कर लाती थीं. प्रिंस को भला क्या आपत्ति हो सकती थी. उसे तो इतनी इंपौर्टैंस कभी नहीं मिली थी. प्रिंस की गर्लफ्रैंड ने इंजीनियर का रिश्ता मिलते ही उसे टाटा कर दिया था.

प्रिंस प्रशासनिक सेवा की तैयारी ही कर रहा था पर जब 2 प्रयासों के बाद भी सफल नहीं हो पाया केंद्रीय स्कूल में चयन होते ही वह यहां चला आया. आज प्रिंस लैसन प्लान बनाने का प्रयास कर रहा था कि तभी आरोही आई और बोली, ‘‘यह मैं कर दूंगी. तुम परेशान मत हो.’’ प्रिंस बोला, ‘‘तुम सच मे बहुत प्यारी हो, आज मेरी तरफ से तुम्हें ट्रीट मिलेगी, कहीं बाहर चलोगी?’’

आरोही बेहद खुश हो गई. उस ने जानबूझ कर यह बात कृतिका और  वंशिका से छिपा ली क्योंकि वह नहीं चाहती थी कि आज की मुलाकात फिर से कोई फ्रैंड्स का गैटटूगैदर बन जाए. अगर प्रिंस को सब को ले चलना होता तो वह अवश्य बोलता.

शाम को आरोही जैसे ही तैयार हो कर निकल रही थी कि कृतिका और वंशिका सामने से आती हुई दिखाई दीं. दोनों को देख कर आरोही सकपका गई. जब दोनों ने प्रश्नात्मक मुद्रा में उसे देखा तो आरोही बोली, ‘‘अरे मम्मी की कोई दूर की रिश्तेदार यहां रहती हैं.

आज उन्होंने बुलाया था.’’ दोनों को आरोही का व्यवहार कुछ अजीब लगा पर वे चुप लगा गईं. आरोही और प्रिंस ने उस शाम खूब सारी बातें कीं. एक बार भी प्रिंस ने कृतिका या वंशिका का जिक्र भी नहीं किया. चलते हुए आरोही बोली, ‘‘मैं ने कृतिका और वंशिका को इस ट्रीट के बारे में कुछ नहीं बताया है.’’

प्रिंस बोला, ‘‘अच्छा किया तुम ने जरूरी नहीं हर बात सब को बताई जाए.’’ आरोही का मन आज सपनों के घोड़े पर बैठ कर अपने शादी के मंडप पर पहुंच गया था. उसे अच्छे से पता था कि घर पर किसी को कोई ऐतराज नहीं होगा.

उस ने मन ही मन प्रिंस के क्वार्टर या फिर अपने घर को कैसे सजाएगी, इस की भी तैयारी कर ली थी. अब आरोही न जाने क्यों कृतिका और वंशिका से खिंचीखिंची रहती थी. वह नहीं चाहती थी कि कृतिका और वंशिका उस के और प्रिंस के बारे में कुछ जानें.

अब वह उस की फ्रैंड्स नहीं कंपीटीटर बन गई थीं. प्रिंस तीनों लड़कियों के लिए एक मेडल था, जिस के गले में भी यह मैडल पड़ेगा उसी की जीत होगी.  अब जब चारों लंच करने बैठते तो माहौल में एक अलग सा तनाव बना रहता. प्रिंस  को अच्छेअच्छे पकवान बना कर खिलाने के लिए तीनों फ्रैंड्स में होड़ लगी रहती.

वह तीनों के साथ एक समान व्यवहार करता और उस के मन में क्या चल रहा है तीनों को ही नहीं पता था. आज कृतिका का जन्मदिन था. हरे रंग की साड़ी में वह सच में बेहद खूबसूरत लग रही थी. जैसे ही वह स्टाफरूम में घुसी प्रिंस बोला, ‘‘कृतिका तुम्हें देख कर मुझे सदैव बिपाशा बसु याद आ जाती हैं पर आज तो तुम ने उन्हें भी पीछे छोड़ दिया है.’’ कृतिका खिलखिला कर हंसते हुए अपने बाल झटकने लगी.

वंशिका और आरोही यह बात सुन कर जलभुन गई थीं. प्रिंस फ्लर्ट करते हुए बोला, ‘‘शाम को क्या चारों डिनर के लिए कहीं मिलें.’’ वंशिका बोली, ‘‘अरे मेरी तो ऐक्स्ट्रा क्लास है.’’ आरोही बोली, ‘‘मुझे तो आज एक वर्कशौप के लिए जाना है, आतेआते देर हो जाएगी.’’ प्रिंस बोला, ‘‘शाम को क्या कर रही हो कृतिका?’’ ‘‘कुछ नहीं.’’ ‘‘तो फिर आज शाम को मेरे घर डिनर पर आ जाना.’’

आरोही और वंशिका ने झूठ ही बोला था कि उन की ऐक्स्ट्रा क्लास या वर्कशौप है पर अब वे कुछ कह नहीं सकती थीं. उस रोज शाम को कृतिका ने वाकई विपाशा बसु की तरह शृंगार किया. प्रिंस कृतिका को देख कर पलकें झपकाना भूल गया.

उस दिन शाम को कृतिका और प्रिंस के बीच बहुत कुछ घटित हो गया. कृतिका को लगा जैसे आज 31 साल में वह लड़की से औरत बन गई.  अगले दिन स्टाफरूम में कृतिका प्रिंस को प्यारभरी नजरों से देख रही थी.

कृतिका को लग रहा था कि उस की जिंदगी में एक बहुत खूबसूरत मोड़ आ गया है मगर प्रिंस कृतिका के साथ बेहद नौर्मल ही था. कृतिका को लगा शायद प्रिंस यह सब के सामने जाहिर नहीं करना चाहता है, इसलिए उस ने भी यह बात अपने तक ही सीमित रखी.

लंच के बाद बस वंशिका और प्रिंस ही स्टाफरूम में रह गए थे. वंशिका कौपियां चैक करने में व्यस्त थी. प्रिंस बहुत देर से कोशिश कर रहा था पर उस से लैपटौप पर परीक्षा का पेपर टाइप नहीं हो रहा था. उसे इन सब कामों की आदत नहीं थी.

प्रिंस को पता था वंशिका इन सब कामों में अच्छी है. अचानक प्रिंस बोल उठा, ‘‘वंशिका, तुम इतनी खूबसूरत हो, तुम इस स्कूल में क्या कर रही हो?’’ वंशिका बोली, ‘‘जो तुम कर रहे हो.’’ प्रिंस बोला, ‘‘तुम्हारी मदद के बिना तो मैं वह भी नहीं कर पाऊंगा.’’ वंशिका न चाहते हुए भी प्रिंस की मदद करने के लिए उठ गई.

प्रिंस बात बढ़ाते हुए बोला, ‘‘वंशिका, तुम्हारे कितने बौयफ्रैंड्स हैं?’’ ‘‘क्यों?’’ प्रिंस बोला, ‘‘मुझे भी अर्जी लगानी है.’’ वंशिका थोड़ा खीजते हुए बोली, ‘‘तुम हो तो मेरे फ्रैंड.’’ प्रिंस बोला, ‘‘मुझे तुम्हारा बौयफ्रैंड बनना है.’’ वंशिका कुछ न बोली तो प्रिंस आगे बोला, ‘‘कृतिका और आरोही बहुत अच्छी हैं पर बस मेरी दोस्त है.

तुम से कभी खुल कर बात करने की हिम्मत ही नहीं हुई.’’ वंशिका न चाहते हुए भी अपनी तारीफ सुन कर बर्फ की तरह पिघल गई और प्रिंस के पूरे काम की जिम्मेदारी स्वयं पर ले ली. प्रिंस आगे बोला, ‘‘वंशिका, तुम सोच रही होगी, मैं कामचोर हूं पर दरअसल यह स्कूल की नौकरी मेरी मंजिल नहीं है.

मुझे एडमिनिस्ट्रेशन में जाना है इसलिए मेरा सारा ध्यान उस की परीक्षा की तैयारी में ही रहता है.’’ वंशिका ने भोलेपन से कहा, ‘‘तुम्हारा सारा टाइपिंग का काम अब मैं कर दिया करूंगी. तुम अपना सारा समय ऐग्जाम की तैयारी में लगाओ.’’ वंशिका ने अपनी और प्रिंस के मध्य हुई बात किसी को भी नहीं बताई थी. प्रिंस के जो भी स्कूल के अतिरिक्त कार्य होते थे वह अब त्रिमूर्ति कर देती थी.

मजे की बात यह थी कि तीनों ही यह बात एकदूसरे को भी नहीं बताती थीं. प्रिंस को लग रहा था, घर से अच्छी तैयारी तो वह यहां कर पा रहा है. घर पर पापा के ताने सुनो और मम्मी के काम भी करो.अच्छा किया उस ने यह स्कूल की नौकरी जौइन कर ली है. स्कूल में बस प्रिंस पढ़ाता था बाकी काम वंशिका और आरोही कर देती थीं. खाना भी अधिकतर कृतिका उस के लिए बना देती थी.

फांस: भाग 1-प्रिंस दोस्ती के आड़ में धोखा क्यों दे रहा है?

कृतिका, वंशिका और आरोही तीनों ही आज चाह कर भी अपनेअपने चेहरे की खुशी को छिपा नहीं पा रही थीं. कारण था उन के विद्यालय में आज प्रिंस नाम के एक नए अध्यापक ने जौइन किया था. तीनों ही इस स्कूल में 5 सालों से पढ़ा रही थीं. तीनों ही करीब 30 की की उम्र की थीं. वह अलग बात है पिछले 5 साल से ही उन की उम्र 25 वर्ष पर ही आ कर अटक गई थी. कृतिका इंग्लिश विषय पढ़ाती थी.

सैंट्रल स्कूल की यह नौकरी उस के लिए बेहद जरूरी थी. उस के पापा का कानपुर में छोटामोटा बिजनैस था. वह हर माह अपने वेतन का बड़ा हिस्सा कानपुर भेजती थी. उस के परिवार को उस के विवाह की कोई जल्दी नहीं थी पर उस का मन था कि उस का भी परिवार हो, एक जीवनसाथी हो.

लखनऊ में स्थित जब कृतिका ने यह सैंट्रल स्कूल जौइन किया तो उसे यह गलतफहमी थी कि अब वह पूरी तरह से आजाद है. मगर इस स्कूल में आ कर उस की गलतफहमी जल्द ही दूर हो गई थी. महीनों तक वह स्कूल के कैंपस से बाहर नहीं निकल पाती थी.

चाह कर भी अपने लिए कुछ नहीं कर पा रही थी. कृतिका का सांवला रंग पिछले 5 सालों में और अधिक गहरा हो गया था और लखनऊ की आबोहवा ने उस के बालों को और अधिक रूखा बना दिया था. आरोही दुबलीपतली सी थी.

चाय जैसी रंगत और लंबे सीधे बाल, चेहरे पर एक भोली सी मुसकान. अभी भी ऐसा लगता था कि वह पढ़ ही रही हो. आरोही के घर में पिता कैंसर से लड़ रहे थे. भाइयों को उस के लिए वर तलाशने की फुरसत नहीं थी. छुट्टियों में भी उस का अपने घर गोरखपुर जाने का मन नहीं करता था.

स्वभाव से बेहद सीधी थी इसलिए पहले भी दिल पर चोट खा चुकी थी. वंशिका का घर वाराणसी में था और अगर कहें तो वही तीनों में सब से अधिक सुंदर और स्टाइलिश थी. उस के घर मे कोई समस्या भी नहीं थी पर उस के लिए कोई वर नहीं तलाश रहा था क्योंकि उस के परिवार में लव मैरिज करने का चलन था. वंशिका के ऊपर लव मैरिज करने का इतना प्रैशर था कि वह बहुत बार सोशल मीडिया साइट्स के जरीए उलटेसीधे लड़कों से मिल चुकी थी.

वंशिका, कृतिका और आरोही स्कूल में त्रिमूर्ति के नाम से मशहूर थीं. तीनों ही एकदूसरे को बहुत अच्छे से समझती थीं. तीनों के क्वार्टर भी कैंपस में एकदूसरे से लगे हुए थे. तीनों के ही मन में अपने परिवार के प्रति एक आक्रोश छिपा हुआ था. अकसर तीनों छुट्टियों में भी यहीं बनी रहती थीं या फिर एकसाथ घूमने निकल जाती थीं.

जिंदगी यों ही नीरस सी चल रही थी कि तभी प्रिंस का पदार्पण हुआ और  तीनों की आंखों में सपने पलने लगे. जब इन तीनों की नौकरी लगी थी तो इन के अपने विवाह को ले कर सपने बहुत ऊंचे थे. परंतु घर वालों की लापरवाही, स्कूल की किचकिच, हाथ से सरकती उम्र और आसपास अपने से कम उम्र की लड़कियों की शादी होती देख कर बस यह त्रिमूर्ति अब विवाह करना चाहती थी.

आज जब तीनों कृतिका के घर पर चाय पी रही थीं तो वंशिका बोली, ‘‘क्यों न इस रविवार को प्रिंस को डिनर पर बुला लें.’’ कृतिका बोली, ‘‘अरे अच्छा आइडिया है पर उसे ऐसा न लगे कि हम उस से दोस्ती करने के लिए मरे जा रहे हैं.’’ आरोही बिस्कुट को चाय में डुबोती हुई बोली, ‘‘लगता भी है तो लगे, इतने वर्षों बाद कुछ आई टौनिक मिला है.’’ ‘‘यहां तो सब शादीशुदा पुरुष ही हैं या फिर महिलाएं.’’ ‘‘देखना वह भी हम से दोस्ती का इच्छुक होगा.’’ कृतिका कुछ सोचते हुए बोली, ‘‘काश वह इंग्लिश विभाग में होता पर वह तो आरोही के गणित विभाग में है.’’ वंशिका बोली, ‘‘आरोही तुम्हारी जिम्मेदारी है अब उसे इनवाइट करने की.’’

अगले दिन प्रिंस जैसे ही स्टाफरूम में आया, स्कूल की स्टाफ सैक्रेटरी ने उस का परिचय सब से कराया. नेवीब्लू पैंट और ग्रे रंग की शर्ट में उस का गोरा रंग बेहद खिल रहा था.

प्रिंस का लंबा कद, घने बाल और आजकल के फैशन के अनुसार उस के चेहरे पर दाढ़ी थी जो उसे बेहद सूट करती थी. तभी आशा मैडम ने पूछा, ‘‘प्रिंस आप शादीशुदा हो या बैचलर?’’ प्रिंस हंसते हुए बोला, ‘‘अभी तो बैचलर ही हूं.’’ आशा मैडम बोली, ‘‘फिर तो हमारी त्रिमूर्ति में से किसी एक मूर्ति के साथ इस विद्यालय के प्रांगण में सदैव के लिए स्थपित हो जाओ.’’ प्रिंस ने गहरी नजरों से उस तरफ देखा जहां त्रिमूर्ति झेंपी हुई सी समोसे खा रही थी.

कृतिका, आरोही से होते हुए प्रिंस की नजर वंशिका पर अटक गई. यह बात कृतिका और आरोही ने भी महसूस करी और उन का सर्वांग जल उठा. वंशिका मन ही मन इतरा रही थी. उसे लग रहा था अब तो उस की विजय निश्चित है. प्रिंस का वर्कस्टेशन आरोही से लगता हुआ था क्योंकि दोनों का सब्जैक्ट मैथ ही था. लास्ट पीरियड में आरोही ने प्रिंस को स्कूल के नियमकायदों से अवगत कराया.

प्रिंस आरोही की आंखों में झंकता हुआ बोला, ‘‘तुम तो मेरी मैंटर हो आरोही, वैरी क्यूट मैंटर जो अभी भी बच्ची ही लगती है.’’ आरोही प्रिंस की बात सुन कर पुलकित सी हो उठी और उस ने छुट्टी की घंटी बजतेबजते प्रिंस को डिनर पर इनवाइट कर दिया. शाम को चाय पीते हुए आरोही ने विजयभाव से यह बात अपनी सहेलियों को बताई तो सब बेहद खुश हो गईं.

उन के शुष्क और मरुस्थल जीवन में प्रिंस एक ठंडी हवा का झंका बन कर आया वरना तो इस स्कूल में कोई भी अविवाहित टीचर आता ही नहीं था.   घर जा कर कृतिका ने चेहरे पर बेसन का लेप लगाया और रूखे बालों में नारियल का तेल.

कालेज में वह मृगनयनी के नाम से मशहूर थी क्योंकि तब वह अपनी आंखों को काजल औऱ लाइनर की मदद से एक ड्रौमैटिक लुक देती थी परंतु अब तो उस का कुछ मन नहीं करता था. स्कूल ने और जीवन की परिस्थितियों ने उस के जीवन का रस सोख लिया था.

उधर आरोही ने सोचा कि कल से वह जूड़ा बना कर जाएगी और साड़ी पहनेगी ताकि वह प्रिंस को क्यूट के साथसाथ सैक्सी भी लगे. वंशिका को अपनी खूबसूरती पर पूरा भरोसा था. बस उसे थोड़ा सा कपड़ों पर और अधिक ध्यान देना होगा.

तीनों ने ही जब अगले दिन स्टाफरूम में प्रवेश किया तो आशा मैडम ने कहा, ‘‘क्या बात है प्रिंस के आते ही स्टाफरूम का मिजाज ही बदल गया.’’ तीनो झोंप गईं तभी प्रिंस ने स्टाफरूम में प्रवेश किया. आज उस की नजरों को तीनों ही बांध रही थीं. आज धीरेधीरे प्रिंस की बात वंशिका और कृतिका से भी हुई.

Father’s Day 2023: पापा की जीवनसंगिनी- भाग 4

‘‘आंटी आप…’’ उन्हें इस प्रकार अचानक अपने सामने देख कर पीहू चौंक गई.

‘‘ओहो मिशेल आप आ गईं पेशैंट का कुछ सामान मंगवाया था इन से शी इज केयरिंग योअर फादर सिंस यसटरडे,’’ नर्स ने उन से सामान लेते हुए कहा.

पड़ोस की मिशेल आंटी से पिछली बार पापा ने मिलवाया था पर पापा की इतनी केयर उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था. 2 दिन बाद पापा कुछ ठीक हुए तो सामने पीहू को देख कर खुश हो गए. अब पापा को रूम में शिफ्ट करना था सो वह कुछ जरूरी सामान लेने घर चली गई. लौटी तो पापा रूम में शिफ्ट हो गए थे. जैसे ही वह रूम में जाने के लिए मुड़ी तो बाहर कैंसर वार्ड लिखा देख कर चौंक गई कि क्या. पापा को कैंसर हुआ है… पापा को ऐसी बीमारी… वह चक्कर खा कर गिरने ही वाली थी कि अहमद की मजबूत बांहों ने उसे संभाल लिया… अहमद ने उसे पास ही पड़ी बैंच पर बैठाया. अहमद पीहू को बहुत अच्छे से जानता था. वह पीहू के दिमाग में चल रहे ?ां?ावात को भलीभांति सम?ा गया था सो बोला, ‘‘पीहू हम यहां पापा को संभालने आए हैं खुद उन के लिए मुसीबत बनने नहीं… खुद को संभालो… यदि तुम ही कमजोर पड़ जाओगी तो पापा को कौन संभालेगा?’’

‘‘हां तुम ठीक कह रहे हो…’’ कहते हुए पीहू ने अपनी आंखों में आए आंसुओं को रूमाल से पोंछ लिया. मिशेल आंटी दूसरी बैंच पर बैठी ये सब बातें सुन रही थीं. वे अचानक पीहू के पास आईं और बोलीं, ‘‘तुम उन से कुछ मत पूछना मैं तुम्हें सब बताऊंगी पर अभी तुम उन के पास जा कर बैठो उन्हें अच्छा लगेगा.’’

उस दिन शाम को मिशेल आंटी ने जो बताया उसे सुन कर पीहू के पैरों तले जमीन

खिसक गई. उस की आंखों से ?ार?ार आंसू बह निकले. वे बोली, ‘‘तुम्हारे पापा को काफी दिनों से पेट में बहुत प्रौब्लम हो रही थी… खाना बिलकुल हजम नहीं हो रहा था… कुछ दिनों से ब्लीडिंग भी होने लगी थी. जब डाक्टर को दिखाया तो कुछ टैस्ट्स के बाद उन्होंने आंतों का कैंसर बताया है… पर तुम जरा भी चिंता मत करो. अभी प्रथम स्टेज ही है. डाक्टर ने कहा है कि एक छोटी सी सर्जरी के बाद पूरी तरह से ठीक हो जाएंगे.’’

‘‘आंटी मैं पापा से रोज बात करती हूं,पापा इतना सब सह रहे थे और मुझे बताया तक नहीं,’’ पीहू रोते हुए बोली.

‘‘वे तुम्हें परेशान नहीं करना चाहते थे तुम प्रैगनैंट जो थीं. जब से उन्हें तुम्हारी प्रैगनैंसी के बारे में पता चला था खुशी से पागल हुए जा रहे थे. बेबी के होने के बाद के न जाने कितने प्लान बना रखे थे. इस बीमारी ने तो उन्हें बीच में ही पकड़ लिया न,’’ मिशेल ने कहा.

सब सुन कर पीहू के तो होश ही उड़ चुके थे साथ ही यह भी स्पष्ट हो गया था कि मिशेल और उस के पापा काफी करीब थे. रात्रि में अहमद पापा के पास रुके तो वह मिशेल के साथ घर आ गई. सोने से पहले पीहू जब पापा की अलमारी ठीक करने लगी तो उस के हाथ पापा की डायरी लगी. वह जानती थी कि पापा नियम से रोज डायरी लिखते हैं. पीहू उत्सुकतावश पन्ने पलटने लगी. पिछले कुछ पृष्ठों पर पापा ने लिखा था,

‘‘पीहू और अनु मेरी जिंदगी थीं और दोनों ही अब मेरे पास नहीं हैं. कभीकभी जीवन बहुत बो?िल सा लगने लगता है. लगता है जीने का उद्देश्य ही समाप्त हो गया हो. पता नहीं क्यों आजकल बहुत बीमार रहने लगा हूं. पीहू को बताऊंगा तो वह परेशान हो जाएगी. ऐसा लगता है मानो जिंदगी से थक गया हूं. आज पार्क में पड़ोस की मिशेल मिलीं बड़ा अच्छा लगा मिल कर जिंदगी में पति और बेटाबहू खोने के बाद भी जिंदादिली से भरपूर. उन से बात कर के बड़ा सुकून मिलता है.’’

इस के कुछ महीनों बाद ही लिखा था,

‘‘मिशेल और मैं बहुत अच्छे दोस्त बन गए हैं. अब हम एकदूसरे से अपना सुखदुख साझा करने लगे हैं. उन्होंने तो विवाह का प्रस्ताव भी रखा है. विवाह तो मैं भी करना चाहता हूं कम से कम कोई बात करने वाला तो मिलेगा. अकेला घर तो खाने को दौड़ता है. शायद उन के साथ से मेरा बुढ़ापा कुछ आसानी से कट जाएगा. उन की तो कोई संतान ही नहीं है पर पीहू… पीहू से मैं डरता हूं… बिना मां की बच्ची है… सुन कर कहीं गलत अर्थ न निकाल ले. अनु को तो खो ही चुका हूं पीहू को नहीं खोना चाहता.’’

पापा की डायरी पढ़तेपढ़ते पीहू वहीं जमीन पर सिर पकड़ कर बैठ गई.

अगले दिन अस्पताल पहुंच कर पीहू ने अहमद को पापा की डायरी वाली बात बताई तो अहमद बोले, ‘‘सही तो है दोनों यदि एकदूसरे के साथी बन जाते हैं तो दोनों के लिए ही जिंदगी जीनी बहुत आसान हो जाएगी पर अब जबकि पापा को यह बीमारी डायग्नोस हो चुकी तो अब भी क्या मिशेल वही सोचती हैं जो पहले सोचती थीं. फिर क्या तुम मिशेल आंटी को अपनी मां का दर्जा देने या अपने प्यारे पापा को उन के साथ सा?ा करने को तैयार हो?’’

‘‘हां तुम सही कह रहे हो पर मिशेल आंटी से तो मैं स्पष्ट पूछ लूंगी और जहां तक मेरी बात है तो मैं यही चाहती हूं कि मेरी अनुपस्थिति में पापा के पास कोई तो होगा जिस से वे अपनी बातें शेयर कर सकें.’’

कुछ देर बाद मिशेल भी आ गईं. पीहू ने उन्हें पापा के पास जाने को कहा और अंदर मिशेल के साथ पापा को हंसहंस कर बात करते देख कर अहमद से बोली, ‘‘अहमद अब मैं आंटी का मन ले कर ही रहूंगी चाहे कुछ भी हो जाए अपने पापा की खातिर. देखो पापा कितने खुश हैं उन के साथ..’’

‘‘पर क्या तुम्हारे परिवार और समाज वाले इसे मान्यता देंगे? एक तो इस उम्र में विवाह और उपर से दूसरे धर्म में?’’ अहमद ने कुछ अचकचाते हुए कहा.

‘‘अरे अहमद जब पापा ने मेरे विवाह में इस समाज की चिंता नहीं की तो मैं क्यों करूं. वैसे भी जिस समाज की तुम बात कर रहे हो वह सिर्फ मुंह चलाना जानता है, कमजोर को 2 ठोकर मार कर और अधिक कमजोर बनाता है और ताकतवर और पैसे वाले को सलाम ठोका करता है. जब आप भूखे होते हैं तो आप को 2 रोटी को नहीं पूछता यह समाज. अहमद मैं ऐसे किसी समाज की चिंता नहीं करती. मैं सिर्फ पापा की परवाह करती हूं,’’ पीहू बोलतेबोलते हांफने लगी थी.

1 सप्ताह बाद पापा को ले कर पीहू घर आ गई. एकदम व्यवस्थित और साफसुथरा घर देख कर पापा चौंक गए और बोले, ‘‘अरे मिशेल आज फिर तुम ने घर की सफाई कर दी. तुम्हें पता है पीहू यह तुम्हारी मिशेल आंटी अकसर मेरे द्वारा फैलाई गंदगी साफ करती रहती हैं.’’

‘‘मैं ने नहीं ये सब पीहू ने किया है बाबा…’’ मिशेल आंटी कुछ शरमाते हुई सी बोलीं.

‘‘आंटी अभी तो मैं ने कर दिया है पर मैं चाहती हूं कि अब आप ही पापा और उन के घर को संभालें. बोलिए आंटी क्या आप मेरे पापा की जीवनसंगिनी बनने को तैयार हैं?’’

अचानक ऐसे सीधे प्रश्न से मिशेल ही नहीं पापा और अहमद दोनों

ही चौंक गए. पर वे बहुत समझदार थीं सो बहुत सधे स्वर में बोलीं, ‘‘पीहू मैं तैयार तो थी पर तुम्हारे पापा…’’

‘‘मेरे पापा अब कैंसर के पेशैंट हैं तो इसलिए आप विवाह नहीं कर सकतीं, जबकि आप पहले तैयार थीं. मुझे भी यही शक था इसीलिए मैं ने घुमाफिरा कर पूछने के बजाय आप से सीधे ही पूछ लिया. आंटी आप भी इसी समाज का ही हिस्सा हो न तो आप की सोच अलग कैसे हो सकती है,’’ पीहू एकदम तैश में आ कर बोली.

‘‘नहीं बेटा ऐसी बात नहीं है. प्यार कभी बीमारी, इंसान, जाति, रंग रूप या धर्म को देख कर नहीं किया जाता है प्यार तो बस प्यार है जो दिल का दिल से होता है. मैं आज भी तुम्हारे पापा को पहले जितना ही प्यार करती हूं. मैं बस तुम्हारे पापा की मंशा जानना चाह रही थी. बेटा बीमारी का क्या है बाद में भी हो सकती है. मुझे तो सुदेश की कंपनी पसंद है पर क्या सुदेश को मेरा साथ पसंद है?’’ कह कर मिशेल चुप हो गईं.

मिशेल आंटी की बातें सुन कर पीहू मानो सोते से जाग गई. आंटी की पौजिटिव सोच ने उस के सारे नकारात्मक विचारों को दूर कर दिया. वह दौड़ कर अपने पापा और मिशेल के गले लग गई. यद्यपि वह अपने पापा के मन की बात डायरी में पढ़ चुकी थी पर फिर भी उन की ओर मुखातिब हो कर बोली, ‘‘बोलो पापा क्या आप तैयार हो?’’

पापा ने मुसकरा कर मिशेल की ओर देखते हुए उसे गले लगा लिया. पापा की स्वीकृति समझ पीहू किचन की तरफ मिठाई लेने दौड़ पड़ी.

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