अद्भुत खजाना : ड्रमहैलर

कनाडा के एल्बर्टा प्रदेश की राजधानी एडमन्टन के दक्षिणपूर्व की ओर 300 किलोमीटर की दूरी पर ड्रमहैलर नामक एक प्रसिद्ध स्थान है. कनाडा के बैडलैंड इलाके में वर्ष 1913 में एक बहुत छोटे गांव के रूप में बसने के बाद इसे वहीं के एक व्यक्ति सैमुअल ड्रमहैलर के नाम से जाना जाने लगा. उसी समय इस गांव के समीप कोयले का विशाल भंडार पाए जाने से वह स्थान कनाडा के सब से तेजी से विकसित स्थान में परिवर्तित हो गया.

केवल 17 वर्षों के अल्पकाल में वर्ष 1930 तक यह गांव पूरे पश्चिमी संसार का सब से तेजी से विकसित हो कर एक अत्यंत सुंदर शहर में परिवर्तित होने वाला केवल कनाडा का ही नहीं, बल्कि विश्व का एक ज्वलंत उदाहरण बन गया. दरअसल, जैसे ही कोयला भंडार पाए जाने की खबर कनाडा के साथ अमेरिका तथा यूरोप में पहुंची, वहां उथलपुथल सी मच गई, विशेषकर उन देशों की कोलमाइंस की कंपनियों में. एल्बर्टा प्रदेश बेहद ठंडा होने के कारण कोयला वहां के घरों को गरम रखने तथा भोजन आदि बनाने के लिए एक प्राकृतिक देन थी. कोल भंडार की विशालता को देखते हुए तमाम देशों से आ कर 139 माइंस कंपनियां रजिस्टर्ड हो गईं और सभी ने कार्य प्रारंभ कर दिया.

हजारों की संख्या में यूरोप, अमेरिका आदि से इन कंपनियों में काम करने वाले ड्रमहैलर पहुंच गए. उन के रहने के लिए बहुत से मकान आदि बनाए जाने लगे. इधर अच्छी बात यह हुई कि उस स्थान से निकलने वाला कोयला, मकानों में जलाने के दृष्टिकोण से बहुत उत्तम क्वालिटी का था. कनाडा सरकार ने बिना समय नष्ट किए ड्रमहैलर से, समीप के पूर्ण विकसित शहर कैलगरी तक 1913 में ही रेल लाइन बिछा दी ताकि कोयला ढोने तथा वितरण में आसानी हो जाए.

कहते हैं कि उस समय ड्रमहैलर में यूरोप की 20-25 भाषाओं को बोलने वाले व्यक्ति रहते थे जो वहां की माइंस के कर्मचारी थे. अगले 50 वर्षों तक बहुत बड़ी मात्रा में वहां की माइंस द्वारा कोयला निकाला जाता रहा. रिकौर्ड्स के अनुसार 60 मिलियन टन कोयला ड्रमहैलर से बाहर भेजा गया. यही समय था कि माइंस में कोयला समाप्त होने लगा था. यह वर्ष 1979 का समय था कि कोयले के भंडार कम होते ही उस स्थान पर तेल तथा गैस के विशाल भंडार मिल गए. इस समय तक वहां के आसपास खेती के साथ टूरिज्म का भी तेजी से विकास हो गया था. सो, खानों को बंद कर दिया गया जो अब टूरिस्टों के देखने का केंद्र बन गई हैं.

गैस तथा तेल के निकलते ही कनाडा के उस बेहद ठंडे प्रांत में, जो संसार के उत्तरी धु्रव के बहुत पास होने से बहुत ठंडा, विशेषकर जाड़ों के मौसम में, जबकि इस प्रदेश में अकसर बर्फीले तूफान आते एवं हिमपात होता है, गैस के मिल जाने से वहां के मकानों को कोयला जला कर गरम करने के स्थान पर अब वैज्ञानिक तरीकों से गैस द्वारा सैंट्रली हीटेड बना कर इच्छानुसार तापक्रम पर रखा जा सकता है जो सुविधाजनक हो गया.

साथ ही, अब इस भाग के मकानों में एक भाग अंडरग्राउंड भी बनाने के प्रावधान होने लगे ताकि यदि कभी बड़े भयंकर तूफान आने से मकान के ऊपरी भागों के नष्ट होने की संभावना हो तो अंडरग्राउंड वाले भाग में जा कर सुरक्षित रहा जा सकता है. मौसम के क्षेत्र में यहां के विश्वविद्यालयों में कमाल के अनुसंधान हुए हैं जिन के कारण मौसम विभाग में बहुत से ऐसे वैज्ञानिक यंत्र लग गए हैं जिन की भविष्यवाणियों में आश्चर्यजनक परिवर्तन आए हैं जो सत्यता के अत्यंत समीप हैं. लगातार मौसम की भविष्यवाणियां टैलीविजनों, इंटरनैट, मोबाइल फोनों पर आती रहती हैं ताकि नागरिक उसी के अनुसार सतर्कता बरत सकें.

यह अच्छी बात है कि मेरा बड़ा पुत्र संजय अपनी फैमिली के साथ एल्बर्टा प्रदेश की राजधानी एडमन्टन में रहता है. भारत एवं कनाडा का दोहरा नागरिक है. मैं गरमी में अकसर उस के पास कनाडा आता जाता रहता हूं. हम सब इन्हीं दिनों कनाडा के दर्शनीय स्थलों को देखने जाते हैं. हम लोगों ने डायनासौर के प्राचीन गढ़ ड्रमहैलर को देखने जाने का प्रोग्राम बनाया. मौसम विभाग की इस भविष्यवाणी के आधार पर कि सुबह से शाम 6 बजे तक ड्रमहैलर का मौसम सामान्य रहेगा तथा शाम 6 बजे से मौसम खराब होने के साथ तेज बारिश होने की संभावना है, सुबह 8.30 बजे घर से चल कर ठीक 3 घंटे में ड्राइव कर रास्ते के बसंती वातावरण का आनंद लेते हुए हम लोग 11.30 बजे ड्रमहैलर के सुंदर टाउन में पहुंच गए. कहीं कोई भीड़ नहीं थी. वातावरण शांत था.

इस स्थान का नक्शा हम ने यहां आने से पहले ही इंटरनैट द्वारा निकाल लिया था तथा उसी के अनुसार हम टाउन के मध्य में बने एक अत्यंत सुंदर पार्क में पहुंच गए जहां डायनासौर की एक बहुत विशाल स्टेच्यू ने हमारा स्वागत किया. पता चला कि मानव निर्मित यह स्टेच्यू डायनासौर की सब से विशाल प्रतिमा थी. हम सब उसे देख कर दंग रह गए. उस की ऊंचाई 86 फुट तथा वजन 1,45,000 पाउंड्स था जिसे ज्यादातर स्टील द्वारा बनाया गया था तथा इस पर लगे पेंट्स इस का प्राकृतिक रूप देते हैं. इस विशाल मूर्ति के पास ही विजिटर्स इन्फौरमेशन के लिए अत्यंत सुंदर इमारत थी. इसी इमारत के एक ओर से एक जीना बना था जिस के द्वारा इस विशाल मगर अंदर से खोखले डायनासौर के खुले जबड़ों तक जाया जा सकता था, जहां से खड़े हो कर संपूर्ण ड्रमहैलर टाउन के साथ दूरदूर तक की पहाड़ियों को देखा जा सकता था.

यह उसी विशाल डायनासौर की प्रतिमा थी जिस के पूर्वज लगभग 100 मिलियन वर्ष पहले पृथ्वी के इसी भाग में स्वच्छंदता से घूमा करते थे तथा इन्हीं प्राणियों का संपूर्ण अमेरिकी कौंटिनैंट में एकछत्र साम्राज्य था. एल्बरटोसौरस प्रजाति का यह भयंकर प्राणी लगभग 69 मिलियन वर्षों से 100 मिलियन वर्षों के बीच एल्बर्टा के इसी भाग में बहुलता से घूमा करते थे. ड्रमहैलर के बहुत से मकानों, दुकानों तथा मौलों के सामने विभिन्न आकारों की इसी प्राणी की प्रतिमाएं लगी हुई थीं. बड़ी प्रतिमा वाले पार्क में बैंचों पर बैठ कर हम ने लंच किया. फिर हम 30 किलोमीटर की दूरी पर प्रकृति का हुडूज नामक वह आश्चर्यजनक चमत्कार, जिसे हम लोगों ने जीवन में पहली बार ही सुना था, देखने के लिए चल दिए.

हम लोग कुछ ही किलोमीटर आगे गए थे कि सड़क के दोनों ओर की पहाडि़यों के निचले भाग में जमीन से 2-3 फुट की ऊंचाई पर लगभग 11/2 फुट की ऊंचाई के साथ पहाडि़यों के बड़े भाग में स्थित कुछ अजीब सी प्रतिमाएं दिखीं. हम हैरान थे. इस प्रकार की रचनाएं केवल एक पहाड़ी पर ही नहीं, बल्कि बीसियों पहाडि़यों पर मौजूद थीं. ठीक उसी तरह जैसे बहुत से प्राचीन मंदिरों में देवीदेवताओं की प्रतिमाएं हों. कुछ भी समझ में नहीं आया कि यह क्या है. आखिरकार हम उस स्थान पर पहुंच गए जहां नक्शे के अनुसार हमें जाना था.

उस स्थान पर लगभग 50-60 व्यक्ति मौजूद थे. हम लोग गाड़ी पार्क कर वहीं पहुंच गए. वहां उसी तरह की प्रतिमाएं थीं जो हम ने मार्ग की पहाडि़यों के निचले भागों में बनी देखी थीं. साथ ही बहुत से प्राचीन भवनों के खंडहरों के थमलों की आकृतियां, जो लगभग 5-6 फुट ऊंचाई की थीं तथा विभिन्न आकारों की थीं, भी देखीं. वहां खड़े एक व्यक्ति से मैं ने पूछा कि यह क्या है तो उस ने बताया कि ये हुडूज हैं. ये ज्वालामुखी से निकले लावे की गरम मिट्टी एवं बैडलैंड में उपस्थित ग्लेशियर्स के ज्वालामुखी के अत्यंत गरम लावे के संपर्क में आने से बर्फ के पिघले पानी से मिल कर यहां की तेज हवाओं, पहाड़ों के इरोजन आदि के प्रभाव से कई मिलियन वर्षों में बनी प्रतिमाएं हैं, जो हुडूज कहलाती हैं.

बाद में हम लोगों ने वहां बनी स्टील की सीढि़यों पर चढ़ कर बहुत से अन्य तरह तरह के आकारों की प्रतिमाओं को बहुत पास से देखा. प्रकृति का यह मनोहारी दृश्य देख कर हम आश्चर्यचकित रह गए. कुछ इन्फौरमेशन सैंटर से मिले लिटरेचर में मैं ने यह भी पढ़ा कि हुडूज ड्रमहैलर की मिट्टी, कुछ सीमेंट के समकक्ष मिट्टी, ज्वालामुखी लावा, समुद्री शैल, सैंडस्टोन आदि के मिक्स्चर के पानी में मिलने के बाद तेज हवाओं, फ्रोस्ट आदि के प्रभाव से लाखों साल में ये अजीबअजीब प्रतिमाओं की शक्ल में परिवर्तित हुई हैं. प्रकृति की ये भूगर्भीय रचनाएं ड्रमहैलर की लगभग 11 हैक्टेअर बैडलैंड भूमि में ईस्ट काउली नामक स्थान तक बहुतायत में पाई जाती हैं.

हुडूज देखने के बाद हम लोग 12 किलोमीटर दूर स्थित घोस्टटाउन देखने गए. उस स्थान पर जाने के लिए करीब 1 किलोमीटर की दूरी तय करने के लिए स्टील के बने 11 पुलों से गुजरना पड़ा. एक प्राचीन नदी, जिस का नाम वाइंडिंग रोज बड रिवर है, पर लगभग 1 किलोमीटर के रास्ते को पार करने के लिए 11 पुल हैं जो सब एकलेन पुल हैं. ये पुल प्राचीनकाल में कोयले की खानों में काम करने वाले कर्मचारियों के लिए कोयला ढोने के काम आते थे. इन पुलों को पार किया. वहां एक उजाड़ टाउन था जिस में 10-15 घर बने थे. सब खाली पड़े थे.

पास में एक अत्यंत प्राचीन बार भी थी. इस स्थान पर हम ने 2-3 आदमियों को घूमते भी देखा था किंतु वे घोस्ट नहीं लग रहे थे. हम लोग फिर उन 11 ब्रिजेज को पार करते हुए सीधे ड्रमहैलर पहुंचे तथा वहां से लगभग 10 किलोमीटर पर स्थित अत्यंत सुंदर पहाडि़यों से घिरे ‘मिडलैंड प्रोविंशियल पार्क’ पहुंचे जिस में डायनासौर का म्यूजियम बना हुआ है. इसे रौयल टाइरैल म्यूजियम नाम से 1985 में कनाडा सरकार ने बनवाया था. इसे देखने संसार के विभिन्न भागों से प्रतिवर्ष 4 लाख से अधिक सैलानी पहुंचते हैं.

अब तक की हमारी यात्रा में हम ने कहीं भी भीड़ नहीं देखी थी, यहां तक कि ड्रमहैलर एक बड़ा शहर होने पर भी इस की जनसंख्या केवल 8,200 ही होने से कहीं भी भीड़भाड़ न थी किंतु हम उस स्थान पर कम से कम 2 हजार पर्यटकों को देख कर चकित हो गए. हम टिकट ले कर जैसे ही प्रथम हौल में पहुंचे, एक अत्यंत विशाल डायनासौर का संपूर्ण अस्थिपंजर दिखा जिस की विशालता देख कर हम दंग रह गए.

यह अस्थिपंजर लगभग 100 मिलियन वर्षों पुराने डायनासौर का था. संजय, मधु, सिद्धार्थ एवं अनीष चारों के पास कैमरे थे जिन्होंने उस प्राचीन अस्थिपंजर के चित्र लिए. हम लोग काफी समय तक उस विशाल अस्थिपंजर को देखते रहे. अन्य विशाल हौल में 3 और बड़े एवं लगभग 37 अन्य छोटे डायनासौर के बच्चों एवं मध्यम आकार के डायनासौर के अस्थिपंजर थे. सभी अस्थिपंजरों को बहुत सुंदरता के साथ यथास्थान पर प्रदर्शित किया गया था.

इस म्यूजियम की बड़ी बात यह है कि इस के एक बड़े भाग में एक विशाल लैबोरेटरी भी स्थित है जिस में नए खोजे गए फौसिल्स को पूरी तरह वैज्ञानिक ढंगों से साफ कर के सारे अस्थिपंजरों को एसैंबल किया जाता है जिस के लिए आधुनिकतम वैज्ञानिक यंत्र लगे हैं. विशेषकर उन वयस्क विशाल शरीर वाले डायनासौर के अस्थिपंजरों को जोड़ने के लिए उस विशाल लैब की छत पर भी यंत्र लगे हैं जो अस्थिपंजरों को जोड़ते समय सही पोजीशन पर आवश्यकतानुसार उन की पोजीशन आदि बदल कर उन्हें सुरक्षित रख सकें. इस लैब तथा म्यूजियम के बीच की दीवार पूर्णतया पारदर्शक शीशे द्वारा बनी हुई है ताकि म्यूजियम के दर्शक आसानी से लैब में होता हुआ काम स्वयं देख सकें.

म्यूजियम के एक भाग में प्रीहिस्टोरिक पानी के पौधों का अपूर्व संग्रह है जिन्हें मुख्यतया वान्कूवर द्वीपों की नर्सरियों से खरीदा गया है. ऐसे पौधे अभी तक पैसीफिक महासागर की तलहटी में पाए जाते हैं जो लगभग पूर्णतया अंधकार में ही उगते हैं तथा प्रीहिस्टोरिक एल्बर्टा के पौधों से बहुत मिलतेजुलते हैं. क्योंकि गहरे पानी में अंधकार में उगने वाले ये पौधे, अंधकार में ही उग सकते हैं अत: म्यूजियम के एक बड़े भाग में इस प्रकार के बहुत से पौधों के लिए एक अलग भाग है जहां पूर्ण अंधकार रहता है. साइड में लगी बहुत कम लाइट के साथ शीशे के पीछे स्थित पानी में इन्हें देखा जा सकता है.

इस म्यूजियम में एक बहुत बड़ी चट्टान भी रखी है जिस के मध्य में लाखों वर्ष पूर्व दब जाने से एक मीडियम आकार के डायनासौर का सारा भाग आसपास की मिट्टी आदि के साथ चट्टान में परिवर्तित हो गया था तथा डायनासौर का पूरा शरीर एक फौसिल में परिवर्तित हो गया था, दिखता है. उस चट्टान को इस प्रकार तोड़ा गया है कि पूरे डायनासौर के फौसिल के एक साइड का पूरा शरीर स्पष्टतया दृष्टिगोचर होता है. इस के अतिरिक्त लगभग 4-5 फुट चौड़ी तथा इतनी ही ऊंची एक चट्टान का शिलाखंड भी वहां रखा है जिस में संसार के बहुत से बेहद कीमती हीरे तथा अन्य तरहतरह के कई रंग वाले बेहद कीमती पत्थर दिखते हैं. चट्टान पर लिखा है कि इस चट्टान की कीमत कई बिलियन डौलर है.

यहां मैं पाठकों को यह भी बताना चाहूंगा कि एक जीववैज्ञानिक होते हुए भी मेरी डायनासौर्स के आकारों के बारे में एक बहुत बड़ी भ्रांति इस म्यूजियम के देखने के बाद दूर हो गई है. म्यूजियम में लगभग 145 से 200 मिलियन वर्ष पूर्व के एक डायनासौर की, पैर से घुटने तक की काफी मोटी तथा 11 फुट ऊंची हड्डी का फौसिल रखा है. अब अनुमान कीजिए कि जिस प्रीहिस्टोरिक प्राणी की नीचे के पंजे से ले कर घुटने तक की लंबाई 11 फुट थी तो उस का पूरा शरीर कितना बड़ा होगा? किंतु जैसेजैसे समय बीतता गया, इन प्राणियों के आकार छोटे होते गए जो प्रदर्शित फौसिल्स से सिद्ध हो जाता है. डायनासौर के 1-2 मिलियन वर्ष पूर्व के उन के आकार उन के 200 मिलियन पूर्व के बुजुर्गों की अपेक्षा लगभग 1/3 ऊंचाई के ही रह गए थे. यही कारण है कि उन के आकारों से संबंधित मेरी भ्रांति दूर हो गई थी.

‘रौयल टाइरैल म्यूजियम औफ पैलान्टोलौजी’ से बाहर आने तक शाम को 5:15 बज चुके थे. यद्यपि ड्रमहैलर का एक और मुख्य आकर्षण केंद्र वहां की सदैव के लिए बंद माइन्स थीं किंतु उन्हें देखने के लिए हमारे पास समय का अभाव था. दूसरे, हमें यह भी ज्ञात था कि शाम 6 बजे से बहुत तेज वर्षा का प्रकोप होने वाला है, हम ने तत्काल अपनी गाड़ी एडमन्टन की ओर दौड़ा दी. हम लोगों ने लगभग 100 किलोमीटर का सफर तय किया था कि ड्रमहैलर में बेहद तेज बारिश के साथ मौसम बहुत खराब हो चुका था. यह सूचना हमें अपने मोबाइल द्वारा प्राप्त हो गई थी. हमें तसल्ली थी कि हम ने अपने मिशन का विशेष भाग अत्यंत सफलतापूर्वक पूरा कर लिया था तथा ठीक 8:15 बजे शाम को हम लोग एडमन्टन में अपने घर पहुंच गए थे.

बॉलीवुड के इन सितारों की दुश्मनी सालों पुरानी

बॉलीवुड इंडस्ट्री में सितारों के बीच दोस्ती और दुश्मनी होना कोई बड़ी बात नहीं है. इस इंडस्ट्री में कई ऐसे सितारे हैं जो कई सालों से अच्छे दोस्त हैं और इस दोस्ती को अच्छी तरह से निभाना जानते हैं.
लेकिन दूसरी तरफ इंडस्ट्री के कुछ ऐसे सितारे हैं जिनके बीच सालों से किसी न किसी विवाद को लेकर मनमुटाव चला आ रहा है. ये सितारे सालों से एक-दूसरे के जानी दुश्मन माने जाते हैं.

1. करण जौहर और अजय देवगन
फिल्म मेकर करण जौहर और अजय देवगन के बीच दुश्मनी की शुरूआत फिल्म ‘कुछ-कुछ होता है’ के दौरान शुरू हुई थी. करण ने रानी मुखर्जी, काजोल और शाहरुख के साथ एक कोल्ड ड्रिंक का एड शूट किया था. इस एड शूट के दौरान भी अजय के साथ करण का व्यवहार अच्छा नहीं था. शाहरुख और अजय की लड़ाई की वजह से करण जौहर अजय को नजर अंदाज करते रहे हैं.

2. शाहरुख खान और अजय देवगन
शाहरुख खान और अजय देवगन की दुश्मनी की शुरुआत राकेश रोशन की फिल्म ‘करण अर्जुन’ के दौरान हुई थी. इस फिल्म के लिए शाहरुख और अजय को चुना गया था लेकिन अजय देवगन शाहरुख को ऑफर किया गया रोल करना चाहते थे.
दोनों ने इस बारे में राकेश रोशन से बात भी की लेकिन वो किसी भी तरह के बदलाव के लिए तैयार नहीं हुए. इसी दौरान इस फिल्म में सलमान की एंट्री हो गई और ये बात शाहरुख ने अजय को नहीं बताया. तब से अजय देवगन और शाहरुख खान एक-दूसरे से दूरी बनाने लगे.

3. आमिर खान और रेखा
अभिनेता आमिर खान के पिता ताहिर हुसैन ने 80 के दशक में ‘लॉकेट’ नाम की फिल्म शुरू की थी. इस फिल्म में अभिनेत्री रेखा मुख्य किरदार निभा रही थीं. रेखा ने फिल्म की शूटिंग के दौरान कई शूट कैंसिल किए और वक्त की पाबंदी को नजरअंदाज कर दिया.
ये फिल्म बहुत मुश्किल से पूरी हो पाई थी. आमिर ने ये सब काफी करीब से देखा था लिहाजा इंडस्ट्री में अपना मुकाम हांसिल करने के बाद आमिर ने इस बात पर कभी रिएक्ट नहीं किया लेकिन उन्होंने कभी भी रेखा के साथ काम नहीं किया.

4. अनुराग कश्यप और राकेश रोशन
डायरेक्टर अनुराग कश्यप और राकेश रोशन के बीच दुश्मनी उस वक्त शुरू हुई जब साल 2006 में फिल्म ‘कृष’ आई थी. सुभाष घई के एक्टिंग स्कूल व्हिसलिंग वुड्स में अनुराग को लेक्चर के लिए बुलाया गया था.
लेक्चर के दौरान अनुराग ने स्टूडेंट्स से सिनेमा में सक्सेस को लेकर बात की. उसी समय अनुराग ने “कृष” को दोयम दर्जे की फिल्म बताया था. बस उनकी इसी बात से राकेश रोशन और सुभाष घई समेत इंडस्ट्री के कई लोग नाराज हो गए.

5. सनी देओल और आदित्य चोपड़ा
अभिनेता सनी देओल और आदित्य चोपड़ा के बीच दुश्मनी की शुरूआत फिल्म “डर” के दौरान हुई थी जो आज तक कायम है. इस फिल्म के लिए आदित्य ने सनी को राजी तो कर लिया था लेकिन जो वादे किए थे वो पूरे नहीं हुए.
इसी बात को लेकर सनी और आदित्य ने आज तक एक-दूसरे से बात नहीं की. इतना ही नहीं उसके बाद से सनी देओल यशराज के किसी प्रोजेक्ट से फिर कभी नहीं जुड़े.

इन सितारों के बीच दुश्मनी सालों पहले शुरू हुई थी जो आज भी जारी है. आज भी ये एक-दूसरे से बात करने से बचते हैं. जिसे देखकर तो यही लगता है कि उनकी ये दुश्मनी कभी ना खत्म होनेवाली दुश्मनी है.

महंगी न पड़ जाए सेकेंड हैंड कार

हम भारतीय जरूरत या शौकीया तौर पर कार नहीं रखते, पर दूसरों की आंखों को लुभाने या सच कहें तो जलाने के लिए गाड़ियां रखते हैं. भारत में जितनी तेजी से नित नए कारों के मॉडल लॉन्च हो रहे हैं उतनी ही तेजी से सेकेंड हैंड कारों का बाजार भी बढ़ रहा है. कारों के शौक के कारण आजकल लोग 1-2 साल में ही नई कार बेच देते हैं. यही कारण है कि सेकेंड हैंड कारों का बाजार पहले के मुकाबले बहुत ज्यादा बढ़ा है और लोग भी सेकेंड हैंड कारें खरीद रहे हैं. पर सेकेंड हैंड कार लेने से पहले सावधानी बहुत जरूरी है. कार के बारे में अच्छे से जांच-पड़ताल कर लेना बहुत जरूरी है.

बाहरी खूबसरती पर ही फिदा हो जाते हैं, चाहे वो इंसान की हो या कार की. पर ऐसा करनी बेवकूफी है. क्योंकि जो दिखता है, वो होता नहीं. लुक के अलावा भी कुछ बातें हैं जो सेकेंड हैंड कार खरीदते वक्त जहन में होनी चाहिए.

कार की इंश्योरेंस हिस्ट्री के बारे में जानकारी जुटाएं

आपने जो सेकेंड हैंड कार पसंद की है उसका इंश्योरेंस आपको बहुत सारी जानकारियां दे सकता है. सबसे पहले ये पता करें कि जो कार आप खरीदने जा रहे हैं उसका इंश्योरेंस है या नहीं. अगर है तो क्या नियमित रूप से उसका प्रीमियम भरा गया है या नहीं. इंश्योरेंस क्लेम की हिस्ट्री से आप ये पता कर सकते हैं कि कभी कार दुर्घटनाग्रस्त हुई है या नहीं. इश्योरेंस के कागजों को अपने नाम पर ट्रांसफर करवा लें.

रजिस्ट्रेशन के पेपर्स की जांच भी है जरूरी

कार खरीदने से पहले हर कागज की अच्छे से जांच करवा लें. आप इसके लिए आरटीओ ऑफिस की मदद ले सकते हैं. यह सुनिश्चित कर लें की कार के मालिक ने हर तरह के टैक्स भरे हैं. अगर कार लोन लेकर खरीदी गई है तो मालिक से एनओसी लेना न भूलें.

यूं पता करें कार की हालत 

गाड़ी के लुक पर फिदा होकर गाड़ी के टायर के बारे में भूल मत जाना भविष्य में आपकी परेशानीयां बढ़ा सकती हैं. गाड़ी के टायर से आप बहुत कुछ पता कर सकते हैं. टायर के साइज, रिम के अलाइनमेंट के बारे में अच्छे से जांच करें. इससे कार की हालत का अंदाजा लगाया जा सकता है. अगर टायर ज्यादा घिसे हैं तो कार न खरीदें.

कार एक्सीडेंटल न हो

कार के लक्जरी लुक से ज्यादा जरूरी है ये पता करना कि कहीं कार एक्सीडेंटल तो नहीं है. लेकिन सबसे पहले हमें ये जांच लेना चाहिए कि कहीं ये कार एक्‍सीडेंटल तो नहीं है. कार के पेंट से आप यह पता कर सकते हैं. कार के बोनट, डोर और डिक्‍की को अच्छे से जांच करें. बोनेट, डोर सबको खोल कर चेक करें.

इंजन क्वालिटी चैक करवाएं

सेकेंड हैंड कार बेचने वाले कार को चमका देते हैं. पर इंजन की क्वालिटी तो आपको ही चैक करनी पड़गी. आप अनुभवी मैकेनिक की मदद से इंजन को चैक करा सकते हैं. बेहतर होगा कि आप अपने कार का चेक अप एक अनुभवी मैकेनिक से कराएं.

बौनों का संसार

संसार के सभी देशों में बौने पाए जाते हैं. बौने यानी वे लोग जो औसत से छोटे कद के होते हैं. बौने सदैव आम लोगों के लिए कुतूहल का विषय रहे हैं. इन के बारे में कई धारणाएं प्रचलित हैं. एशिया व यूरोप की लोककथाओं में बौनों को भूतप्रेत व जिन्न बताया गया है. प्राचीन काल में रोम में बौनों का बहुत महत्त्व था. इन की खरीदबिक्री भी होती थी, जिस में बहुत लाभ होता था. इसलिए कई लोग अपने बच्चों को विशेष प्रकार की दवाएं देते थे, जिन से उन का कद बढ़ना रुक जाता था.

रोम के सम्राट आगस्ट्स ने अपने राज्य में यह घोषणा कर रखी थी कि जहां भी बौने मिल जाएं उन्हें दरबार में पेश किया जाए. आगस्ट्स की भांति सम्राट डोमेट्सियन को भी बौने इकट्ठे करने का शौक था.

बौनों के प्रति उदार दृष्टिकोण रखने वालों में रूस के जार पीटर महान भी थे. उन्होंने पीटर्सबर्ग के पास एक नगर बसाया जहां सिर्फ बौने ही रहते थे. इतना ही नहीं, बौनों के लिए लिलीपुट नामक नगर बसाया गया. आइलैंड के पास बसा यह अद्भुत शहर संसार भर में प्रसिद्ध हुआ था. यहां की इमारतें कम ऊंचाई की थीं. इस में एक किला, फायर हाउस, थिएटर व 300 लोगों के रहने योग्य सभी सुविधाएं थीं. वास्तव में लिलीपुट एक पुस्तक गुलिवर्स ट्रैवल्स में वर्णित बौनों के काल्पनिक लोक (लिलीपुट) से प्रभावित हो कर बसाया गया था.

इस नगर में कई विश्वप्रसिद्ध बौनों ने अपना समय गुजारा था. इस नगर के द्वार जब भी बाहरी नागरिकों के लिए खोले जाते थे, तो लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती थी. 17 मई, 1911 को लिलीपुट आग में जल कर राख हो गया था.

16वीं व 17वीं शताब्दी में अमीरों में बौनों को अपने घर में रखने की परंपरा थी. यूरोप में बौनों का इस्तेमाल घर के प्रवेशद्वार पर मेहमानों का स्वागत करने के लिए किया जाता था. कुछ देशों में तो 19वीं शताब्दी तक यह परंपरा चलती रही.

बौनों के इतिहास में जेफरी हडसन का नाम बहुत सम्मान से लिया जाता है. जेफरी का जन्म 1619 में इंगलैंड में हुआ था. उस के मातापिता सामान्य कद के थे, परंतु जेफरी का 16 साल की आयु के बाद कद 20.32 सेंटीमीटर ही रह गया. जेफरी स्वस्थ था. उस केपिता ने उसे बकिंघम के ड्यूक की पत्नी की सेवा में पेश किया.

एक बार ड्यूक औफ बकिंघम के यहां इंगलैंड के राजा चार्ल्स प्रथम व महारानी मारिया रात के भोजन पर आमंत्रित थे. भोजन के दौरान एक बड़ा मरतबान पेश किया गया. जब मरतबान का ढक्कन उठाया गया तो मेहमान चकित रह गए, क्योंकि उस में से जेफरी जो बाहर निकला था. मारिया बौने जेफरी को देख कर बेहद प्रभावित हुई. वह जेफरी को अपने महल में ले गई.

जेफरी अपने शासक की ओर से अनेक मिशन पर गया. इंगलैंड में गृहयुद्घ के दौरान वह घुड़सवार दस्ते का कप्तान था.

ऐसे ही एक बौना कलाकार था रिचर्ड गिब्सन. गिब्सन ने कला के क्षेत्र में बहुत नाम कमाया. वह एक धनी महिला का नौकर था. इस महिला को जब रिचर्ड गिब्सन की कला प्रतिभा का पता चला तो उस ने रिचर्ड को चित्रकला की शिक्षा दिलाई. इस काम के लिए महिला ने एक शिक्षक रखा था.

आगे चल कर रिचर्ड सम्राट चार्ल्स प्रथम के दरबार का शाही पेंटर बन गया. महारानी मारिया की इच्छा पर रिचर्ड ने महल की एक बौनी लड़की से विवाह किया. विवाह का पूरा प्रबंध व खर्च सम्राट की ओर से किया गया था.

बौने जासूसी के क्षेत्र में भी कमाल दिखाते रहे हैं. फ्रांस के बौने रोशबोर्ज ने फ्रांसिस क्रांति के समय जासूसी की थी. वह बच्चों की तरह कपड़े पहनता था. उसे गोद में उठाए एक महिला पेरिस आतीजाती थी. रोशबोर्ज के कपड़ों में सम्राट के गुप्त संदेश छिपे रहते थे.

बौनों ने न केवल सम्राटों की सेवा की बल्कि शासन भी किया. लीदिया के बौने राजा आत्तिला के बारे में माना जाता है कि उस ने लगभग 5 लाख सैनिकों की विशाल सेना का प्रतिनिधित्व किया था. राजा आत्तिला की जनता उसे कुदरत का चाबुक कहती थी.

जनरल टौम थंब इतिहास के विख्यात बौनों में से एक है. उस ने अपनी बौनी पत्नी सहित दुनिया के कई देशों की सैर की थी. थंब दंपती ने 2 करोड़ से ज्यादा लोगों के सामने गीत व नृत्य की प्रस्तुति दी.

थंब के प्रशंसकों में फ्रांस के सम्राट लुई फिलिप की महारानी विक्टोरिया, ड्यूक औफ वेलिंगटन राष्ट्रपति लिंकन जैसी प्रसिद्ध हस्तियां शामिल रही हैं.

दुर्गेश्वरी शर्मा

राजनेताओं की बीमारी राज क्यों?

30 साल से भी पहले तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम जी रामचंद्रन के अस्पताल में भरती होने पर एक पत्रिका ने लिखा था, ‘‘पूरे अक्तूबर ही सैंट्रल मद्रास के अपोलो अस्पताल में रहस्य और अनिश्चितता की हवा बहती रही.’’ ये शब्द आसानी से जयललिता, राज्य की मुख्यमंत्री, के आखिरी दिनों को बयान करते हैं.

23 सितंबर, 2016 को जब जे जयललिता को बुखार व डिहाइड्रेशन के लिए भरती किया गया और 4 दिसंबर को उन्हें दिल का दौरा पड़ा,  लोगों को कम ही जानकारी हो पाई. उन के निवासस्थान  या उन की पार्टी के औफिस से कोई न्यूज बाहर नहीं आई. बस, अस्पताल के आम मैडिकल बुलेटिन आते रहे.

आखिरी बुलेटिन कुछ ऐसा था, ‘‘सम्माननीय मुख्यमंत्री का रेस्पिरेटरी सपोर्ट और पैसिव फिजियोथेरैपी का इलाज चल रहा है. धीरेधीरे उन के स्वास्थ्य में सुधार हो रहा है.’’ यह बुलेटिन इतना अस्पष्ट व अधूरा सा था कि कुछ लोगों ने कोर्ट में केस भी कर दिया कि सरकार मुख्यमंत्री की स्वास्थ्य की पूरी जानकारी दे.

लेखक वसंथी कहते हैं, ‘‘इस चुप्पी की आशा थी. 30 साल पहले एमजीआर के बहुत निकट होने के बाद भी जयललिता को उन की गंभीर बीमारी का पूरा अंदाजा नहीं था.’’

दरअसल, आज भारतीयों को अपने नेताओं की हैल्थ के राज को राज रहने की आदत डाल लेनी चाहिए, विशेषरूप से जब उन की हालत खराब हो रही हो. ऐसा आजादी से पहले से चल रहा है.

तत्कालीन मुसलिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना को भारत-पाक बंटवारे से एक साल पहले टीबी हुई थी. लैरी कौलिंस और डौमिनिक लपरी ‘फ्रीडम ऐट मिडनाइट’ में लिखते हैं, ‘‘अगर जिन्ना साधारण मरीज होते तो सारी उम्र सैनेटोरियम में रह जाते. वे आम मरीज नहीं थे, जिन्ना जानते थे कि अगर उन के हिंदू शत्रुओं को पता चल जाता कि वे मर सकते हैं, तो उन का राजनीतिक आउटलुक बदल जाता.’’

एक चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष सोनिया गांधी वाराणसी में बीमार पड़ीं. 10 दिन दिल्ली के अस्पताल में रहीं. खबर इतनी ही बाहर आई कि उन्हें फीवर और डिहाइड्रेशन था, उन की पार्टी ने पहली बार उन की बीमारी की न्यूज नहीं छिपाई. अगस्त 2011 में कांग्रेस पार्टी के मुख्य प्रवक्ता जनार्दन द्विवेदी ने कहा था कि उन का औपरेशन हुआ है जो सफल हुआ. सर्जरी किसलिए हुई, यह नहीं बताया गया था.

दिल्ली के सब से बड़े हैल्थ सीक्रेट्स में से एक है, पूर्व सूचना और प्रसारण मंत्री प्रियरंजन दासमुंशी की हैल्थ. इन्हें 2008 में हार्टअटैक के बाद कई साल लाइफ सपोर्ट पर रखा गया. प्रियरंजन दासमुंशी अभी भी अपोलो अस्पताल में हैं. उन की पत्नी दीपा, उन के स्वास्थ्य के बारे में प्रश्न पूछने पर कोई जवाब नहीं देतीं. उन का अस्पताल का बिल सरकार भरती है.

ब्रैंडिंग गुरु सुहेल सेठ कहते हैं, ‘‘दिल्ली और भारत में लोगों का मानना है कि हैल्थ और सैक्स की बात सार्वजनिक नहीं होनी चाहिए. बीमारी उन्हें आम इंसान बना देती है और उन्हें यह भी चिंता होती है कि बीमारी के  कारण कहीं उन्हें पार्टी से किनारे न कर दिया जाए.’’

इमेज कंसल्टैंट और कौलमनिस्ट दिलीप चेरियन कहते हैं, ‘‘नेताओं में ताकत होती है, बीमारी के मामलों में पार्टी सच सामने नहीं आने देती. अनिश्चितता पार्टी के लिए अच्छी नहीं होती, इसलिए पार्टी वाले कुछ नहीं बताते.’’ इस के विपरीत भाजपा आजकल अपने नेताओं के स्वास्थ्य से संबंधी हाल बता रही है. सुषमा स्वाराज ने पिछले महीने ट्वीट किया, ‘‘मैं किडनी फेलियर के कारण एम्स में हूं. इस समय मैं डायलिसिस पर हूं. किडनी ट्रांसप्लांट के लिए मेरे टैस्ट्स हो रहे हैं.’’ सुषमा अपने ट्रीटमैंट का हाल बताती रहीं.

भाजपा की सांसद मीनाक्षी लेखी कहती हैं कि हर पार्टी का काम करने का अपना तरीका होता है.

अमेरिका में ऐसे मैडिकल डेटा की कोई कानूनी जरूरत नहीं है पर हाल के प्रैसिडैंट्स ऐसा करते हैं. मार्च 2016 में बराक ओबामा ने अपनी हैल्थ की 2 पेज की रिपोर्ट दी जिस में बेसिक सूचना के साथ कोलैस्ट्रौल स्तर के डिटेल्स भी थे. जौर्ज बुश ने भी 2006 में अपनी हैल्थ की 4 पेज की रिपोर्ट रिलीज की थी. फिर भी, लास एंजेल्स टाइम्स के अनुसार, अमेरिका के इतिहास में आधे से ज्यादा प्रैसिडैंट्स को सीरियस बीमारी थी और उन्होंने उसे छिपाया था.

दिलीप चेरियन और पूर्व रेल मंत्री व टीएमसी सांसद दिनेश त्रिवेदी मानते हैं कि राजनीतिज्ञों को अपने स्वास्थ्य के बारे में साफसाफ बताना चाहिए, पब्लिक फिगर को पारदर्शी होना चाहिए. अगर आप गरमी सहन नहीं कर सकते तो किचन से बाहर चले जाना चाहिए.

डा. जलील पारकर, जिन्होंने शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे का इलाज वर्ष 2000 में किया था और नवंबर 2012 में उन की मृत्यु की घोषणा भी उन्होंने की थी, कहते हैं, ‘‘कभीकभी नर्स, टैक्नीशियंस, सिक्योरिटी स्टाफ से गलत न्यूज लीक हो जाती हैं, बाल ठाकरे के समय मुझे मुंबई पुलिस कमिश्नर, आईबी दिल्ली से फोन आए क्योंकि राजनीतिक हलचल हो रही थी पर अंत में यह परिवार के फैसले पर निर्भर करता है.’’

दरअसल, पावर खोने का खतरा रहता है. भारत जैसे देश में जहां पार्टी अकसर एक व्यक्ति से बंधी रहती है, खतरा बढ़ जाता है. सो, बीमारियां राज बनी रहती हैं. पब्लिक कुछ भी कहती रहे, कुछ भी चाहती रहे, राजनीति में जनता की भावनाओं का क्या महत्त्व. जनता एक व्यक्ति की अंधभक्त बनी रहे तो बनी रहे, क्या और किसे फर्क पड़ता है. जनता की भावनाओं से हमेशा खिलवाड़ किया जाता रहा है, आगे भी किया जाता रहेगा.

ईवनिंग स्नैक्स : वेगन मैक ऐंड चीज

पास्ता बच्चों को कितना पसंद आता है ये तो आप जानती हैं. पास्ता में अगर चीज हो तो बच्चे और भी ज्यादा चाव से खाते हैं. सिर्फ बच्चे ही क्यों पास्ता और चीज से बना कुछ भी बड़ों को भी काफी पसंद आता है.

शाम के स्नैक्स में बनाएं वेगन मैक ऐंड चीज.

सामग्री

– 2 कप मैकरोनी

– 1 कप आलू कटे

– 1 कप गाजर कटी

– 1/4 कप प्याज कटा

– 3/4 कप पानी

– 1/2 कप काजू

– 1/4 कप कोकोनट मिल्क

– 1 बड़ा चम्मच नीबू रस

– 1/4 छोटा चम्मच लहसुन पाउडर

– नमक व लालमिर्च पाउडर स्वादानुसार

विधि

मैकरोनी को पानी में आधा पका कर अलग रखें. आलू, गाजर और प्याज को पानी में अच्छी तरह उबाल कर ब्लैंड कर लें. ब्लैंडिंग में इन्हीं सब्जियों के पानी का इस्तेमाल करें.

एक पैन में तैयार मिश्रण के साथ कोकोनट मिल्क व नींबू का रस, नमक, लालमिर्च पाउडर, लहसुन पाउडर डाल कर धीमी आंच पर पकाएं. इस में मैकरोनी डाल कर अच्छी तरह मिलाएं और गरमगरम सर्व करें.

 

– व्यंजन सहयोग : शैफ रनवीर बरार

बिना सितारों के ही हिट हो गईं ये फिल्में

अपने देश में फिल्मों में ‘एक छत्र राज’ का चलन है. यह बीते जमाने में भी था, आज भी है और शायद आगे भी रहेगा. इस एक छत्र राज के कारण कई फिल्में अपने असल मकाम तक नहीं पहुंच पाती. कुछ तो सीबीएफसी के ऑफिस में ही दम तोड़ देती हैं और कुछ को दर्शकों का अभाव ले डूबता है. देश में कई फिल्मों को इतिहास में उनकी पटकथा के लिए नहीं बल्कि इसलिए जगह मिली क्योंकि उसमें सैंकड़ों दिलों पर राज करने वाले सुपरस्टार ने अभिनय किया था. भले ही स्टोरी से लेकर सिनमेटोग्राफी तक घटिया और बेकार क्यों न हो?

पर बॉलीवुड में कई ऐसी फिल्में भी बनीं जिन्हें सफल होने के लिए किसी सुपरस्टार के कंधों की जरूरत नहीं पड़ी. अपने दमदार स्टोरीलाइन और किरदारों के अभिनय से कुछ फिल्मों ने हिन्दी सिनेमा इंडस्ट्री पर गहरी छाप छोड़ी है-

1. बी.ए पास (2013)

शिल्पा शुक्ला, शादाब कमल, राजेश शर्मा जैसे कलाकारों ने इस फिल्म में काम किया था. समाज सुधारक बन चुकी सीबीएफसी ने इस फिल्म को पास कैसे कर दिया, यह समझना थोड़ा मुश्किल है. इस फिल्म की जितनी तारीफें की जाए कम है. इस फिल्म में शायद ही कोई बड़ा नाम या चेहरा था, पर इस फिल्म ने ढेर सारी कमाई की. मोहन सिक्का की लघु कथा ‘द रेलवे आंटी’ पर यह फिल्म बनाई गई थी.

2. पिपली लाइव (2010)

सखी सैंया तो खूबई कमात है… गाना तो सुना ही होगा. महंगाई के ऊपर बेहतरीन गाने वाली इस फिल्म को आमिर खान ने प्रोड्यूस किया था. भारत में किसानों की आत्महत्या और उस पर नेताओं और मीडिया की प्रतिक्रिया पर यह फिल्म कटाक्ष करती है. यह फिल्म मात्र 16 करोड़ के बजट में बनी थी. इस फिल्म को पूरी दुनिया में बहुत सारी तारीफें मिली.

3. विक्की डोनर (2012)

जॉन अब्राहम के प्रोडक्शन हाउस से निकली पिक्चर में खुद जॉन ने अभिनय नहीं किया. स्पर्म डोनेशन के ईर्द-गिर्द घूमने वाली इस फिल्म से यामी गौतम और आयुष्मान खुराना ने डेब्यू किया. अन्नु कपूर के रोल को भी खूब पसंद किया गया. स्पर्म डोनेशन जैसे इश्यू पर इतनी लाइट फिल्म को दर्शकों ने खूब सराहा. पाणी दा रंग वेख के… गाने को आज भी लोग पसंद करते हैं.

4. लव, सेक्स और धोखा (2010)

इस फिल्म को भी ‘ए’ सर्टिफिकेट के साथ सीबीएफसी ने हरी झंडी दिखा दी थी. दिबाकर बैनर्जी ने अपनी इस फिल्म के साथ कई ऐक्सपेरिमेंट किए, जिसे दर्शकों ने काफी पसंद किया. फिल्म को देखने पर ऐसा लगता है मानो इसे हैंडीकैम, मोबाईल फोन और सीसीटीवी से शूट किया गया है. फिल्म कई जिन्दगीयों को ईर्द-गिर्द घूमती है. इस फिल्म से ही राजकुमार राव ने बॉलीवुड में ऐन्ट्री की.

5. इकबाल (2005)

नागेश कुकनूर द्वारा निर्देशित इस फिल्म में श्रेयस तलपड़े ने एक मूक और बधिर क्रिकेट प्रेमी युवा का किरदार निभाया है. आंखों में बड़े सपने लिए यह युवा भारतीय क्रिकेट टीम में अपनी जगह बनाता है. फिल्म उसकी जद्दोजहद की कहानी है. नसीरुद्दीन शाह और श्रेयस के बेहतरीन अभिनय ने इस फिल्म को सफलता की नई ऊंचाईयों तक पहुंचाया.

6. कहानी (2012)

विद्या बालन अभिनित यह फिल्म 2012 में आई थी. इस फिल्म ने विद्या के अभिनय को नए आयाम दिए. इस फिल्म के बाद ही विद्या को ‘फीमेल आमिर खान’ भी कहा जाने लगा. सुजॉय घोष के डायरेक्शन को भी इस फिल्म से नई ऊंचाईयां मिली. सिर्फ 80 मीलियन के बजट में इस फिल्म को कोलकाता की सड़कों पर फिल्माया गया था. पिछले साल इस फिल्म का सिक्वल रिलीज किया गया, जिसे उतनी सफलता नहीं मिली.

इन फिल्मों के अलावा भी बहुत सी फिल्मों ने जैसे कि मसान, पान सिंह तोमर, उड़ान ने दर्शकों के दिल में जगह बनाई. मतलब साफ है कि हमारे देश में प्रतिभा की कमी नहीं, पर ऐसे लोगों को मौके ही नहीं दिया जाता. हमारे दर्शक भी तो तड़क-भड़क को ज्यादा प्राथमिकता देते हैं, पर सच्चाई से भागते हैं. भारत में ही ऐसी कई फिल्मों को सफलता नहीं मिली जिसमें भारत की ही सच्चाई दिखाई गई थी.

एकता कपूर की वेब सीरीज में जूही चावला

फीचर फिल्मों के निर्माण से तौबा करने के बाद अब एकता कपूर डिजिटल मीडिया पर काम करना चाहती हैं. इसी के चलते वे अब एक वेब सीरीज बना रही है. एकता कपूर निर्मित इस वेब सीरीज का निर्देशन फिल्म निर्देशक नागेश कुकनूर कर रहे हैं. मजेदार बात यह है कि इस वेब सीरीज में फिल्म अदाकारा जूही चावला भी कैमियो करते हुए नजर आएंगी.

इतना ही नहीं सूत्र दावा कर रहे हैं कि इस वेब सीरीज में जिस किरदार को जूही चावला निभा रही हैं, वह कहीं न कहीं विदेश मंत्री सुषमा स्वराज से प्रेरित है. जूही चावला ने उसी तरह की साड़ी पहनी है, माथे पर उसी स्टाइल की बिंदी भी लगाई है.

इस वेब सीरीज की चर्चा करते हुए जूही चावला कहती हैं- ‘‘मैंने 2003 में नागेश कुकनूर के साथ फिल्म ‘‘तीन दीवारें’’ की थी, जो कि मेरे लिए यादगार अनुभव था. इसलिए जैसे ही मुझे इस वेब सीरीज का आफर मिला, मैने तुरंत स्वीकार कर लिया. नागेश ने इसे बहुत सुंदर ढंग से लिखा है. मैंने शूटिंग करते हुए इंज्वॉय किया.’’

अपने इन बयानों से क्वीन ने बटोरी खूब सुर्खियां

बॉलीवुड अभिनेत्री कंगना रनौत बॉलीवुड की शीर्ष अभिनेत्रि‍यों में से एक हैं. वे बेबाकी भरे अंदाज के लिए जानी जाती हैं. उन्होंने अपने अभिनय से दर्शकों के बीच अपनी अलग पहचान बनाने में सफलता पाई है. राष्‍ट्रीय पुरस्‍कार से सम्‍मानित हो चुकी अभिनेत्री ने इस मुकाम तक पहुंचने के लिए कड़ी मेहनत की है.

कंगना अपने दमदार अभिनय के साथ-साथ अपने बयानों को लेकर भी अक्‍सर सुर्खियों में छाई रहती हैं. आदित्य पंचोली, शेखर सुमन, अध्ययन सुमन से जुड़े विवाद हों या फिर रितिक रोशन या करण जौहर से जुड़ा विवाद, कंगना हमेशा खुलकर सामने आईं और अपनी बातें रखी.

आइए जानते हैं, किन बयानों को लेकर सुर्खि‍यों में रहीं क्वीन कंगना.

जस्ट गुड फ्रेंड

जस्ट गुड फ्रेंड पर उनके बयान ने तो अच्छे अच्छों की हालत खराब कर दी. उन्होंने सीधे कहा था बॉलीवुड में जस्ट गुड फ्रेंड का मतलब होता है कि आप अपने दोस्त के साथ कुछ भी कर सकते हैं. फिजिकल भी हो सकते हैं.

नेपोटिज्म को लेकर बयान

कंगना अपने नेपोटिज्म के बयान को लेकर काफी सुर्खियों में हैं. करण के टॉक शो ‘कॉफी विद करण’ में पहुंची कंगना ने कहा, ‘अगर कभी मेरी बायोपिक बनी तो आप उसमें बॉलीवुड के एक स्टीरियोटिपिकल बड़े आदमी की भूमिका निभाएंगे जो बेहद घमंडी है और बाहरी लोगों के लिए पूरी तरह से असहिष्णु है, भाई-भतीजावाद का फ्लैग बियरर है. हम उसे मूवी माफिया कह सकते हैं.’

शारिरिक शोषण

कंगना ने कुछ दिनों पहले कहा था कि वो जब मात्र 17 साल की थीं तब बॉलीवुड के हीं एक शख्स ने उनका शारिरिक शोषण किया था और कंगना ने इसका करारा जबाब भी दिया. जख्मी होने के बाद भी कंगना उसकी पिटाई की और एफआईआर भी कराई थी.

मेल ऐक्टर्स को सारा क्रेडिट

एक इंटरव्यू में कंगना ने कहा था कि बॉलीवुड में सारा पैसा और क्रेडिट मेल ऐक्टर्स ले जाते हैं जबकि फीमेल ऐक्टर्स को कम कर के आंका जाता है.

करण के साथ विवाद

कंगना ने कहा, ‘अब करण जौहर एक बेटी के पिता है, ऐसे में उन्‍हें अपनी बेटी को यह सारे ‘कार्ड्स’ देने चाहिए, जैसे ‘वुमेन कार्ड’, ‘विक्टिम कार्ड’ और ‘सेल्‍फ-मेड-इंडिपेंडेंट वुमेन कार्ड’ या शायद ‘अड़ियल कार्ड’ जो मैंने उनके शो पर इस्‍तेमाल किया था.

रितिक को लेकर विवाद

कंगना से ‘आशिकी 3’ के बारे में पूछा गया कि क्या उन्होंने रितिक रोशन की वजह से फिल्म छोड़ी तो उन्होंने कहा, ‘हां, मैंने भी ऐसी अफवाह सुनी हैं. मुझे नहीं पता की सिली एक्स पार्टनर्स पब्लिसिटी पाने के लिए ऐसी हरकते क्यूं करते हैं. मेरे लिए वो चैप्टर खत्म हो चुका है और मैं पुरानी बात नहीं दोहराना चाहती.’ उनके इस बयान से रितिक से लेकर उनकी भी नींद उड़ी हुई है. ये विवाद काफी लंबा चला था.

शाहरुख के साथ काम नहीं करेंगी

हाल ही में उन्होंने शाहरुख खान को लेकर एक बयान दिया. उन्होंने कहा कि वह इस बात को लकेर काफी श्योर हैं कि वह कभी शाहरुख खान के साथ काम नहीं करेंगी.

जन्म से खुश नहीं थे माता-पिता

कंगना ने यहां तक बोलने में परहेज नहीं किया कि उनके जन्म पर उनके मम्मी-पापा बिल्कुल भी खुश नहीं थे. क्योंकि उनसे पहले घर में एक और लड़की थी. कंगना तो घर से जुड़ी बातें भी बाहर बोलने से नहीं चुकतीं.

पत्नीजी और बेलन

दुनिया में अगर हमें किसी से डर लगता है तो वे हैं हमारी आदरणीय श्रीमतीजी. आप इसे हमारी कमजोरी समझ सकते हैं. लेकिन यह सच है. हम उन से डरते हैं, इस कटु सच को स्वीकार करने में कोई संकोच या शर्म महसूस नहीं करते. सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र के वंश में ही हमारा भी जन्म हुआ है, ऐसी हमारी धारणा है.

पत्नी से भला कौन नहीं डरता है? सृष्टि में मुझे तो ऐसे दुर्लभ जीव कम ही नजर आते हैं जो अपनी पत्नी से बिलकुल नहीं डरते. मुझे तो लगता है कि पतिपत्नी का रिश्ता बना ही इसी उद्देश्य के लिए है कि दोनों साथ जीएं जरूर लेकिन एक डरता रहे और दूसरा डराता रहे.

धार्मिक दृष्टिकोण से भी हमारी धारणा पुष्ट होती है. पुरानी मान्यताओं में भी देखा गया है कि देवियों ने किस तरह से त्रिशूल, भाला या अन्य दूसरे हथियारों से अपने दुश्मनों को मारा है. बस, समझ लीजिए कि उन्हीं के आधुनिक संस्करण कमोबेश हमारे घरों में भी अवतरित होते रहते हैं.

फर्क केवल इतना रहता है कि त्रिशूल का स्थान एक अत्यंत प्रभावशाली बहु-उपयोगी हथियार ले लेता है जिसे ‘बेलन’ कहा जाता है. ‘बेलन’ को हथियार की श्रेणी में रखा जाए या नहीं, यह रक्षा विशेषज्ञों के लिए बहस का विषय हो सकता है किंतु अनुभवी और शिकार बने लोगों के लिए इस के हथियार होने में जरा भी संदेह नहीं.

इस के बहुउपयोगी रूप के विषय में भी कोई विवाद नहीं है. रोटी बिना बेलन के कैसे बेली जा सकती है? रसोईघर चाहे कितना भी मौडर्न हो जाए किंतु बेलन का स्थान कोई भी घरेलू उपकरण नहीं ले सकता. स्त्री भी इसे सहज ही छोड़ने की कल्पना नहीं कर सकती. यह सहजीवन का उत्तम उदाहरण अथवा प्रतीक है. बिना बेलन के पत्नीजी की  कल्पना असंभव ही है.

‘बेलन’ स्वयं में इतना सक्षम है कि इस के दर्शन मात्र से ही अदृश्य पत्नी का साकार रूप सहज ही दृश्यमान हो जाता है. आप भी सोचेंगे कि भला इस विषय पर लेखनी की क्या तुकबंदी हो सकती है. लेखक अवश्य ही पिटापिटाया अनुभवी और बेलन का शिकार रहा होगा. यह सत्य है. दरअसल, हम ने इस उपकरण विशेष पर ‘अघोषित शोध’ ही कर डाला है. अत: इस के अस्तित्व की अनिवार्यता और अपरिहार्यता को देख कर ही हम मजबूर हुए हैं कि इस आवश्यक बुराई पर कुछ प्रकाश डाला जाए.

 

पत्नी का आभूषण है, ‘बेलन’. हमारी ऐसी मान्यता है. प्राय: हाथ में बेलन पकड़े हुए श्रीमतीजी इठलातीबलखाती व मुसकराती हुई जब भी हम से किसी डिमांड पर चर्चा करती हैं तो न जाने क्या जादुई असर होता है कि हम उन्हें कभी मना नहीं कर पाते. चाहे साडि़यों की सेल में खरीदारी का प्रोग्राम हो या ज्वैलरी का, हम हंसतेहंसते उन्हें तुरंत इजाजत दे देते हैं. हमारी मजबूरी है, अपनी स्वीकृति न भी दें तो भी उन्हें तो जाना ही है, हमारे रोकने से तो रुकने वाली भी नहीं हैं. सो अपनी इज्जत अपने हाथों बचाए हम बिना ‘बेलन’ के संपर्क में आए तुरंत उन की हां में हां मिला कर एक आदर्श पति होने का सुबूत दे देते हैं. इसलिए हमारी गृहस्थी विवाह के 40 साल बाद भी बिना अटके राजधानी एक्सप्रैस की तरह सरपट दौड़ती जा रही है. बाद में चाहे अपनी जेब की हालत देख कर हम कितना भी रोएं लेकिन उस क्षण विशेष में ‘बेलन प्रहार’ से बचाव का हमें यही अचूक विकल्प नजर आता है.

अब इसे भी ‘बेलन’ का ही इफैक्ट समझना चाहिए कि जब भी हम श्रीमतीजी से कोई बात छिपाने, झूठ बोलने की कोशिश करते हैं, तुरंत उन के हाथ में बेलन देखते ही हम सबकुछ सचसच उगलने को विवश हो जाते हैं. यह ‘बेलन चमत्कार’ ही तो है.

किचन में अपनी बिटिया को छोटेछोटे हाथों से बेलन से रोटियां बेलते हुए देख कर हमें साक्षात अनुभव हो जाता है कि अनुभवी मम्मी के निर्देशन में भविष्य की फसल पूर्ण दक्षता से ट्रेंड हो रही है. आज बेटी छोटी है, इसलिए बेलन के भोज्य रूप से परिचित हो रही है किंतु शीघ्र ही वह भी इस की अदृश्य मूल शक्तियों से भी परिचित हो जाएगी. उस की असीम शक्तियों का रहस्य समय रहते ही पहचान लेगी.

महिलाएं अकसर शिकायत करती हैं कि उन्हें मनचलों से छेड़छाड़ की समस्या से जूझना पड़ता है. मेरी समझ में नहीं आता कि ये अपने इंपोर्टेड हथियार की काबिलीयत को क्यों भूल जाती हैं? मेरा तो सुझाव है कि घरबाहर, बाजार, पार्क अथवा स्कूलकालेज, सर्वत्र उन्हें बेलन से लैस हो कर ही यात्रा करनी चाहिए. न तो यह हथियार रखने का जुर्म अपितु सेफ्टी भी सौ परसैंट.

यों तो बाजार में विभिन्न प्रकार के बेलन आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं परंतु यदि इस क्षेत्र में कुछ नवीन ‘इंजीनियरिंग इंट्रोड्यूज’ कर दी जाए तो न केवल ‘मोर इफैक्टिव’ बल्कि डिजाइनर बेलनों का प्रोडक्शन भी किया जा सकता है. डिजाइनर बेलनों को महिलाएं अपनी साजसज्जा के रूप में भी अपना सकती हैं. कुछ आधुनिक सेल्स प्रमोशन स्कीम्स और फैशन परेड की जरूरत है. किसी जागरूक महिला को इस दिशा में कुछ करना ही पड़ेगा. समय आ गया है, कुछ नया करने का. विश्व में इस तकनीक को लोकप्रिय बना कर हम घरेलू स्तर पर आणविक हथियार जैसा खौफ पैदा कर सकते हैं.

हमारे घर का वातावरण बहुत संतुलित, नियंत्रित रहता है. इस का कारण भी स्पष्ट है. पतिपत्नी में कभी हौट टौकिंग नहीं होती. बेलन ‘चैक ऐंड बैलेंस’ की भूमिका निभाता है.

महिलाओं को बेलन हैंडिल करने की कला विरासत में मिल जाया करती है. घर की दादीनानी अथवा मम्मी उन्हें इस क्षेत्र में कुशल और पारंगत बना डालती हैं. लेकिन अब इस कला पर भी संकट मंडराने लगे हैं. आधुनिक परिवेश में पलीबढ़ी लड़कियां किचन से दूर रह कर अपने कैरियर में इतनी खोई रहती हैं कि किचन में पैर नहीं रखना, उन के लिए स्टेटस सिंबल बनता जा रहा है. इस सोच के जबरदस्त हानिकारक प्रभाव हैं. अगर भारतीय पाककला की अवहेलना होती रही तो वह दिन दूर नहीं जब ‘बेलन आर्ट’ का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा. उम्मीद है आप भी ‘बेलन माहात्म्य’ को गंभीरतापूर्वक समझेंगे और इस की महत्ता का सर्वत्र गुणगान ही नहीं बल्कि प्रचारप्रसार भी करेंगे.       

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