Fictional Story: स्नान कर के दीप्ति शृंगारमेज की ओर जा ही रही थी कि अपने नकल को पलंग पर औंधे लेटे देख कर चकित सी रह गई क्योंकि इतनी जल्दी वे क्लीनिक से कभी नहीं आते थे. फिर आज तो औपरेशन का दिन था. ऐसे दिन तो वे दोपहर ढलने के बाद ही आ पाते थे. इसीलिए पलंग के पास जा कर दीप्ति ने साश्चर्य पूछा, ‘‘क्या बात है, आज इतनी जल्दी निबट गए?’’
डाक्टर नवल ने कोई उत्तर नहीं दिया. वे पूर्ववत औंधे लेटे रहे. दीप्ति ने देखा कि उन्होंने जूते भी नहीं उतार हैं, कपड़े भी नहीं बदले हैं, क्लीनिक से आते ही शायद लेट गए हैं. इसीलिए यह सोच कर उस का माथा ठनका, कोई औपरेशन बिगड़ क्या? इन का स्वास्थ्य तो नहीं बिगड़ गया?
चिंतित स्वर में दीप्ति ने फिर पूछा, ‘‘क्या बात है तबीयत खराब हो गई क्या?’’
डाक्टर नवल ने औंधे लेटेलेटे ही जैसे बड़ी कठिनाई से उत्तर दिया, ‘‘नहीं.’’
‘‘औपरेशन बिगड़ गया क्या?’’
‘‘नहीं.’’
‘‘तो फिर क्या बात है?’’
डाक्टर नवल ने कोई उत्तर नहीं दिया. दीप्ति तौलिए से बालों को सुखाती हुई पति के पास बैठ गई. उन्हें हौले से छूते हुए उस ने फिर पूछा, ‘‘बोलो न, क्या बात है? इस तरह मुंह लटकाए क्यों पड़े हो?’’
डाक्टर नवल ने दोनों हाथों से अपना मुंह ढकते हुए कहा, ‘‘दीप्ति, मु?ो कुछ देर अभी अकेला छोड़ दो. मेहरबानी कर के जाओ यहां से.’’
दीप्ति का आश्चर्य और बढ़ गया. पिछले
3 सालों के वैवाहिक जीवन में ऐसा अवसर कभी नहीं आया था. डाक्टर नवल उस की भावनाओं का हमेशा खयाल रखते थे. उस से कभी ऊंचे स्वर में नहीं बोलते थे. वह कभी गलती पर होती थी, तब भी वे उस बात की उपेक्षा सी कर जाते थे.
कभीकभी तो उदारतापूर्वक वे उसे अपनी गलती मान लेते थे. हमेशा पत्नी को प्रसन्न रखने की चेष्टा करते रहते थे. आज वे ही उसे कमरे से बाहर जाने को कह रहे थे.
और सब से बड़ी बात तो यह थी कि नवल दीप्ति को दीप्ति कह कर संबोधित
किया था. ऐसा आमतौर पर कभी नहीं होता था. उन्होंने उस का नाम पंडितजी रख छोड़ा था. संस्कृत की प्राध्यापिका होने के कारण वे प्रथम परिचय के बाद से ही उसे पंडितजी कह कर संबोधित करने लगे थे. यह संबोधन विवाह के बाद भी कायम रहा था. उठतेबैठते वे पंडितजी… पंडितजी की धूम मचाया करते थे. क्लीनिक से या और कहीं से भी घर आते ही पुकार उठते थे, ‘‘पंडितजी.’’
किंतु आज तो नवल चोरों की तरह घर में आ कर सो गए थे. पंडितजी को एक बार भी नहीं पुकारा था और अब अपराधियों की तरह दोनों हाथों से मुंह ढक कर अकेला छोड़ देने को कह रह थे. उस समय भी उन के मुंह से ‘पंडितजी’ संबोधन नहीं निकला था. दीप्ति कहा था उन्होंने.
दीप्ति को लगा, जरूर कोई न कोई गंभीर बात है. इसीलिए दीप्ति बजाय बाहर जाने के पति से सट कर बैठती हुई बोली, ‘‘पहले यह बताओ बात क्या है? मैं तभी जाऊंगी.’’
डाक्टर नवल ने दीवार की ओर मुंह करते हुए कहा, ‘‘वही बताने की स्थिति में मैं अभी नहीं हूं. मु?ो जरा संभल जाने दो. फिर सब बताऊंगा. बताना ही होगा. बताए बिना काम भी कैसे चलेगा? इसीलिए दीप्ति मेहरबानी कर के चली जाओ.’’
दीप्ति भीतर तक कांप उठी. उसे विश्वास हो गया कि जरूर कोई न कोई गंभीर बात है.डाक्टर नवल का स्वर, लहजा सभी कुछ इस क्षण असामान्य था.
असमंजस की मुद्रा में कुछ देर बैठी रहने के बाद दीप्ति जाने को उठ खड़ी हुई. किंतु वह द्वार के बाहर ही पहुंची थी कि डाक्टर नवल का भर्राया सा स्वर उसे सुनाई पड़ा, ‘‘दीप्ति.’’
दीप्ति ने ठिठकते हुए कहा, ‘‘जी.’’
‘‘चली आओ. यों नियति से अब आंख चुराने से क्या फायदा. जो हो चुका है, वह तो अब बदला नहीं जा सकता.’’
दीप्ति को जैसे काठ मार गया. उस की ऊपर की सांस जैसे ऊपर और नीचे की नीचे ही रह गई. उसे ऐसा लगा जैसे कोई भयानक विपत्ति गाज की तरह उस के सिर पर मंडरा रही है.
डाक्टर नवल ने उसे फिर पुकारा, ‘‘बुरा मान गईं क्या? इस अशोभनीय व्यवहार के लिए मु?ो माफ करो, पंडितजी.’’
दीप्ति दौड़ी सी भीतर आई और कंपित स्वर में बोली, ‘‘नहीं… नहीं, ऐसी कोई बात नहीं हुई. तुम्हारी परेशानी क्या है, तुम बस यही बताओ?’’
डाक्टर नवल आलथीपालथी मार कर बिस्तर पर बैठ गए थे. तौलिए से बाल सुखाती दीप्ति को एकटक देखने लगे. उन की इस दृष्टि से दीप्ति के तन में फुरहरी सी दौड़ गई. उस के गालों पर लाली की ?ांई सी उभर आई. उस ने नजरें चुराते हुए कहा, ‘‘ऐसे क्यों देख रहे हो?’’
डाक्टर नवल ने आह भरते हुए कहा, ‘‘नजर भर के इस रूप को देख लेने दो. यह तौलिया परे फेंक दो, पंडितजी. अपने गजगज लंबे बालों को फैला दो. सावन की छटा छा जाने दो.’’
दीप्ति ने तौलिया हैंगर पर टांग दिया और गरदन को ?ाटका दे कर बालों को फैला दिया. डाक्टर नवल आंखें फाड़फाड़ कर उसे अभी भी घूरे जा रहे थे.
डाक्टर नवल की यह मुग्ध दृष्टि दीप्ति को अच्छी लग रही थी, किंतु इस विशेष परिस्थिति के कारण उसे यह दृष्टि स्वाभाविक प्रतीत नहीं हो रही थी. इसीलिए उस ने पति के पास बैठते हुए कहा, ‘‘आज मु?ो इस तरह क्यों घूर रहे हो?’’
डाक्टर नवल ने दीप्ति को बांहों में भरते हुए कहा, ‘‘तुम्हें कैसे सम?ाऊं, पंडितजी?’’
‘‘इस में क्या कठिनाई है?’’
‘‘बड़ी भारी कठिनाई है.’’
‘‘आज तुम अजीबअजीब सी बातें कर रहे हो. पहेलियां बु?ा रहे हो. साफसाफ कहो न बात क्या है?’’
‘‘बड़ी भारी बात है, पंडितजी.’’
‘‘बड़ी भारी बात है?’’
‘‘हां.’’
‘‘आखिर पता तो लगे बात क्या है?’’
डाक्टर नवल फिर चुप हो गए. बारबार पूछे जाने पर वे भर्राए स्वर में बोले, ‘‘कैसे कहूं?’’
दीप्ति को आश्चर्य हुआ. डाक्टर नवल इतने भावुक कभी नहीं होते थे. इसीलिए उस ने किंचित ?ां?ाला कर कहा, ‘‘किसी भी तरह कहो तो सही. मैं तो आशंका में ही मरी जा रही हूं.’’
अपने विशाल सीने पर दीप्ति को सटाते हुए डाक्टर नवल बोले, ‘‘मालूम नहीं, सुनने पर तुम्हारा क्या हाल होगा.’’
‘‘जो होगा, वह देखा जाएगा, तुम कह डालो.’’
दीप्ति की आंखों में आंखें डालते हुए डाक्टर नवल ने बड़े भावुक स्वर में कहा,
‘‘पंडितजी, तुम्हारे इस रूपसौंदर्य का क्या होगा?’’
दीप्ति चौंकी. उस ने और अधिक ?ां?ालाते हुए पूछा, ‘‘क्या मतलब?’’
‘‘मतलब यह कि तुम… तुम…’’
‘‘रुक क्यों गए? कहो न?’’
‘‘तुम अब किसी और से शादी कर लो.’’
पति की बांहों की कैद से एक ?ाटके में ही अलग हो कर तीखी नजर डालते हुए दीप्ति ने कंपित स्वर में कहा, ‘‘कैसी बातें कर रहे हो आज? नशे में हो क्या?’’
डाक्टर नवल ने अविचलित स्वर में कहा, ‘‘नहीं, पूरे होशोहवास में हूं.’’
‘‘तो फिर ऐसी बहकीबहकी बातें क्यों कर रहे हो?’’
‘‘ये बहकीबहकी बातें नहीं हैं.’’
‘‘तो फिर ऐसी बेहूदा बात तुम्हारे मुंह से कैसे निकली?’’
‘‘बड़ी मजबूरी में निकली है. इसी बात को कहने के लिए ही मैं कब से अपनेआप को जैसे धकेल रहा था.’’
किसी जलते कोयले पर जैसे पैर रखा गया हो, इस तरह दीप्ति चौंक उठी. उस ने पति के दोनों कंधे पकड़ कर पूछा, ‘‘एकाएक ऐसी कौन सी मजबूरी आ गई?’’
आंखें चुराते हुए डाक्टर नवल ने कहा, ‘‘एकाएक ही आई है, मेरी पंडितजी, आसमान से जैसे बिजली सी गिरी है.’’
दीप्ति ने लगभग चीखते से स्वर में कहा, ‘‘फिर पहेलियां बु?ाने लगे. साफसाप कहो न, कौन सी बिजली गिरी है?’’
डाक्टर नवल ने 1-1 शब्द को कैसे चबाते हुए कहा, ‘‘तुम्हारी गोद हरी
करने लायक मैं अब नहीं रहा. कान खोल कर सुन लो, मैं अब किसी संतान को जन्म देने लायक नहीं रहा.’’
‘‘क्यों नहीं रहे?’’
‘‘ऐसी दुर्घटना हो गई है.’’
‘‘दुर्घटना. कैसी दुर्घटना?’’
‘‘तुम्हें कैसे सम?ाऊं, मेरी पंडित. यह बात तुम्हारी सम?ा से बाहर की है. हमारे डाक्टरी उसूलों की लीला है यह.’’
‘‘फिर भी मु?ो सम?ाओ न?’’
‘‘सम?ाने को और रहा ही क्या है. कुदरत ने मेरी लापरवाही की मु?ो कठोर सजा दी है. तुम बस इतना ही सम?ा लो.’’
‘‘नहीं, मु?ो सारी बात विस्तार से सम?ाओ.’’
‘‘मैं आज भी रोज की तरह औपरेशन में रेडियो धर्मी रेडियम का उपयोग कर रहा था…’’
‘‘फिर क्या हुआ?’’
‘‘जाने कैसे एक पिन मेरे ऐप्रन में रह गई और मेरे शरीर से स्पर्श हो गई. उसी का यह गंभीर परिणाम हुआ. मैं सैक्स की दृष्टि से बेकार हो गया हूं. बाप बनने की मु?ा में अब क्षमता ही नहीं रही है. इसीलिए मैं ने तुम्हारे सामने यह प्रस्ताव…’’
डाक्टर नवल के मुंह पर हाथ रखते हुए दीप्ति बोली, ‘‘यह अशुभ बात दोबारा मत कहो.’’
बुजुर्गाना अंदाज में मुसकराते हुए डाक्टर नवल ने कहा, ‘‘पंडितजी, यह समय थोथे आदर्शवाद का नहीं है. जीवन के क्रूर यथार्थ ने हमें जहां ला कर पटका है उस से आंखें मिलाओ. भावुकता से काम नहीं चलेगा. तुम्हारे सामने पहाड़ सी जिंदगी पड़ी है. उसे थोथी भावुकता में बरबाद मत करो. इस रूपसौंदर्य का…’’
दीप्ति ने पति का मुंह बंद करते हुए रोआंसे स्वर में कहा, ‘‘तुम इस हादसे के बाद भी जीवित तो रहोगे न? तुम्हारी जिंदगी को तो कोई खतरा नहीं है न?’’
‘‘नहीं, फिलहाल ऐसा कोईर् खतरा इस हादसे से नहीं हुआ है. इस हादसे ने तो बस मेरे पौरुष को ही ?ालसा दिया है.’’
‘‘बस तो फिर कोई चिंता की बात नहीं है. मैं तुम्हारे ?ालसे हुए पौरुष के साथ ही जीवन व्यतीत कर लूंगी.’’
‘‘नहीं, यह नहीं होगा. मैं तुम्हें थोथे आदर्शवाद की बलिवेदी पर बलिदान नहीं होने दूंगा, भावुकता में बहने नहीं दूंगा. मैं तुम्हें तलाक दे दूंगा.’’
‘‘क्यों दे दोगे?’’
‘‘क्योकि मातृत्व के बिना नारीत्व अपूर्ण होता है.’’
‘‘जिन्हें कोई संतान नहीं होती वे भी तो इस अपूर्णता के बावजूद…’’
‘‘वह उन की विवशता होती है.’’
‘‘यह भी एक विवशता ही है.’’
‘‘नहीं, खुली आंख से मक्खी निगलना विवशता नहीं है. यह तो अपने हाथों से अपने
पैरों पर कुल्हाड़ी मारना है. अपने हाथों से
अपने अरमानों का गला घोटना है. यह सरासर बेवकूफी है.’’
‘‘जरा मेरी भी तो सुनो.’’
‘‘नहीं, मैं कुछ नहीं सुनूंगा. जब कुदरत ने हमें ऐसे मोड़ पर ला खड़ा किया है जहां से आगे साथसाथ चलना मुमकिन नहीं है…’’
‘‘क्यों मुमकिन नहीं है? मुमकिन है. जरा ठंडे दिमाग से सोचो.’’
‘‘मैं ने खूब सोच लिया है. अब तो बस कुदरत का फैसला मंजूर कर लेना चाहिए. हमें हंसते हुए एकदूसरे को अलविदा कह देना चाहिए.’’
दीप्ति ने कानों में उगली देते हुए कहा, ‘‘नहीं, यह नहीं होगा. हमारा प्यार भी कोई चीज है या नहीं?’’
‘‘है तभी तो यह फैसला करने में जैसे मेरी जान पर आ रही है पर मैं अपने स्वार्थ के लिए तुम्हारे जीवन का बलिदान नहीं होने दूंगा. वैसे प्यार के लिए ही मैं यह अंतिम निर्णय ले रहा हूं. मैं नहीं तो कम से कम तुम तो सुखी रहो.’’
‘‘तुम से अलग रह कर मैं सुखी नहीं रह सकती हूं?’’
‘‘ये सब फालतू की बातें हैं. लाश के साथ रहने में क्या सुख है?’’
‘‘सैक्सुअली न्यूट्रल होने से तुम लाश कैसे हो गए? बाप बनने के अयोग्य होना और नामर्द होना अलगअलग बात है. पिता बनने की तुम में क्षमता नहीं रही. मगर यौन क्षमता तो है. मैं इसी पर संतोष कर लूंगी.’’
‘‘पर मैं संतोष नहीं कर पाऊंगा. संतान को मैं वैवाहिक जीवन की अनिवार्यता मानता हूं.’’
‘‘संतान… संतान बस एक ही बात रटे जा रहे हो. संतान की तुम्हें ऐसी ही भूख है तो हम किसी को गोद ले लेंगे. सरोगेसी से कुछ करा लेंगे.’’
‘‘पराए आखिर पराए ही होते हैं. अपने खून की बात ही दूसरी होती है.’’
‘‘तुम डाक्टर हो कर कैसी दकियानूसी बातें कर रहे हो? मैं पचासों ऐसे उदाहरण अपने आसपास से तुम्हें बतला सकती हूं जब अपने खून ने बेगानों से भी बदतर सुलूक अपने मांबाप से किया और जिन्हें तुम पराए कह रह हो, ऐसे गोद आए बच्चों ने अपने खून से भी अच्छा सुलूक किया है, कहो तो गिनवाऊं?’’
डाक्टर नवल टुकुरटुकुर देखते रहे. वे कुछ नहीं बोल पाए. उन के ठीक पड़ोस में ही गोद आए बच्चों ने खुद की संतान से अधिक सुख अपने इन गोद लेने वाले मांबाप को दिया था. नाक के सामने के इस सत्य ने उन्हें अवाक कर दिया. दीप्ति के संकेत को वे सम?ा गए थे.
तभी दीप्ति ने फैसला सा सुनाते हुए कहा, ‘‘कान खोल कर सुन लो मैं इस घर से
नहीं जाऊंगी. तुम मु?ो धक्के दे कर निकालोगे तब भी नहीं. मैं तुम्हारे साथ ही जीवन बिताऊंगी. ऐसी मूर्खतापूर्ण बात मेरे सामने अब कभी मत कहना. उठो, हाथमुंह धो लो. मैं चाय ला रही हूं.’’
छोटे बच्चे की तरह बिना कोई नानुकर
किए डाक्टर नवल उठ खड़े हुए. हाथमुंह धो कर आईने के सामने खड़े हो कर वे बाल संवारने लगे.
चाय की ट्रे ले कर दीप्ति आई तो वे उस का चेहरा देखने लगे.
दीप्ति ने लजाते हुए पूछा, ‘‘क्या देख रहे हो?’’
डाक्टर नवल ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘फरिश्ते के चेहरे की कल्पना कर रहा हूं.’’
चाय की ट्रे को मेज पर रखते हुए दीप्ति ने इठलाते हुए कहा, ‘‘ओह, तुम्हारी कल्पना भी इतनी उड़ान भरने लगी?’’
‘‘पंडितजी की संगत का असर है.’’
‘‘अच्छाजी, पर अब ये जूतेकपड़े तो उतारो.’’
‘‘नहीं, मैं चाय पी कर फिर से औपरेशन थिएटर जाऊंगा. रहे हुए औपरेशन करूंगा. मेरे आसपास का अंधेरा छंट गया. अब तो चारों तरफ मु?ो रोशनी ही रोशनी नजर आ रही है.’’
दीप्ति पुलकित हो उठी. चाय समाप्त कर के डाक्टर नवल जब जाने लगे तो उस ने इसी पुलक में कहा, ‘‘जल्दी लौटना. मैं तुम्हें संस्कृत में कामशास्त्र पढ़ाऊंगी.’’
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