Emotional Story: परास्त

लेखक- राखी शील आढ्य

Emotional Story: डाक्टर अखिलेश ने स्टेथेस्कोप से मरीज की जांच करते हुए एक के बाद एक सवाल पूछे, ‘‘क्या हो रहा है चैंपियन, आज कुछ बताओगे मुझे? क्या तुम्हें कुछ याद आ रहा है? तुम्हारा नाम, तुम कहां रहते हो, अपने मातापिता या किसी और के बारे में? क्या तुम सुन रहे हो, मैं क्या कह रहा हूं?’’ डाक्टर अखिलेश की आवाज में उन की चिंता साफ झलक रही थी. उन्होंने मरीज की तरफ देखा, उस की आंखें हमेशा की तरह खाली थीं, उन में कोई हलचल नहीं थी. पलकें भी नहीं झपक रही थीं.

पिछले 4-5 दिनों से यही हो रहा था. ‘‘डाक्टर अखिलेश दिल्ली के जानेमाने न्यूरोसर्जन हैं. उन की चिकित्सा की ख्याति केवल यहां तक ही सीमित नहीं है बल्कि धीरेधीरे पूरे देश में फैल रही है. उन के पास आने वाले ज्यादातर मरीजों का इलाज सर्जिकल तरीकों से कम गैरसर्जिकल तरीकों से ठीक करने में उन का ज्यादा विश्वास है. अखिलेश का मानना है कि ज्यादातर तंत्रिका रोग मन की गहरी चोट से पैदा होते हैं, इसलिए अगर उस चोट को ठीक कर दिया जाए तो 90% रोग ठीक हो जाते हैं.

ऐसा नहीं है कि वे हमेशा इस तरीके से मरीजों को पूरी तरह से ठीक कर पाए हैं लेकिन वे ज्यादातर मामलों में सफल रहे हैं. उन क ी एक और खासीयत यह है कि जब वे किसी मरीज का इलाज अपने हाथ में लेते हैं तो जरूरत पड़ने पर खुद से पैसे दे कर भी मरीज को ठीक करने के लिए प्रतिबद्ध रहते हैं. यही कारण है कि चिकित्सा जगत के साथसाथ आम लोगों के बीच भी उन्होंने बहुत तेजी से नाम कमाया है. उन के मरीज उन्हें भगवान मानते हैं. बाहर गलियारे में वे कुछ देर टहलते रहे.

उन्हें महसूस हो रहा था कि वे इस लड़के के बारे में कुछ ज्यादा ही चिंतित हैं. लगभग 2 हफ्ते हो गए, जब पुलिस ने इस लड़के को उन के नर्सिंगहोम में भरती कराया था. उस की उम्र लगभग 16-17 साल होगी. ठीक 2 हफ्ते पहले पुलिस ने उसे रात के अंधेरे में सड़क के किनारे झडि़यों से उठाया था. उस के सिर और शरीर पर चोट के निशान थे. पहने हुए कपड़ों के अलावा और कुछ भी नहीं मिला था. उस की पहचान फिलहाल अज्ञात है और दुर्घटना का कारण अभी भी जांच के अधीन है. शरीर की चोटों का इलाज हो गया था लेकिन सिर की चोट गंभीर थी. सिर में चोट के कारण लड़के की याददाश्त चली गई थी, यह उन का डाक्टरी फैसला था. लड़का उन के लिए अनजान, अपरिचित था.

मगर यह साफ था कि हालात और समय ने इस लड़के के साथ न्याय नहीं किया था. कहीं किसी और मांबाप की गोद तो खाली नहीं हो जाएगी? दोपहर ढल कर शाम होने को थी. दिल्ली में शाम थोड़ी देर से होती है. घड़ी 7 बजने का इशारा कर रही थी लेकिन आसमान की रोशनी बता रही थी कि आज शाम होने में अभी काफी समय बाकी है. दिल्ली और यूपी की सीमा के बीच ही डाक्टर अखिलेश का नर्सिंगहोम है, ‘हृदयपुर.’ इस नाम में ही वे मरीजों के चेहरे पर एक अलग आनंद देखते थे.

हृदय, मन, दिल… ये ठीक हों तो सब ठीक रहता है. तब मस्तिष्क का काम भी बहुत आसान हो जाता है. डाक्टर अखिलेश चिंतित चेहरे के साथ गलियारे से धीरेधीरे चल कर अपने कैबिन में आ बैठे. उन के मन में अभी भी उस लड़के को ले कर हलचल चल रही थी. पुलिस लड़के की पहचान तो पता लगा ही लेगी लेकिन वे यह जानने के लिए ज्यादा उत्सुक थे कि उस के जीवन में ऐसी दुर्घटना क्यों हुई. वे नहीं चाहते थे कि एक और उम्मीद इस तरह से खत्म हो जाए. वे उसे जल्दी से एक स्वस्थ जीवन देना चाहते थे.

इस बीच उन्होंने उस का एक नाम भी रख दिया था- जीतू. उन का और मनीषा का पिकई (उन के बेटे का उपनाम) जैसे जीतू के रूप में 18 साल बाद टाइम मशीन से वापस आया हो. 18 साल पहलेका वह दिन फ्लैशबैक में अचानक सामने आ गया… उस दिन मैट्रिक परीक्षा का रिजल्ट आने वाला था. सुबह से अखिलेश और मनीषा बहुत उत्साहित थे. उन्हें पिकई पर बहुत भरोसा था.

पिकई के साथ आज वे भी स्कूल जाएंगे. मनीषा उसे जल्दी तैयार होने को बोलने के लिए गई तो देखा कि वह एक टिड्डे की पूंछ में छागा बांध कर खेल रहा था. मनीषा की भौंहें तन गईं. उस का बेटा इतना बड़ा हो गया है, फिर भी बचपना नहीं गया है. ‘‘पिकई,’’ मनीषा ने झल्ला कर कहा. असमंजस में पिकई ने टिड्डे को पीछे छिपाने की कोशिश की. उस के चेहरे पर हलकी सी मुसकान थी. ‘‘इसे अभी छोड़ दो. मैं ने तुम्हें कितनी बार कहा है कि ऐसे निर्दोष जीवों के साथ मत खेलो. तुम इतने बड़े हो गए हो, फिर भी यह बचपना क्यों? आज तुम्हारा रिजल्ट आना है, स्कूल जाना है. क्या तुम भूल गए हो?’’ पिकई ने मां की तरफ देखा और मुसकराते हुए कैंची से धागे को ऊपर से काट दिया और टिड्डे को छोड़ दिया. ‘‘मां, तुम ने गलत समझ. मैं ने टिड्डे को कैद नहीं किया बल्कि मैं ने उसे कैद से आजाद कर दिया.’’ बेटे की तरफ मनीषा ने कुछ देर तक हैरानी से देखा. फिर जल्दबाजी में कहने लगी, ‘‘जल्दी तैयार हो जाओ, हमें स्कूल जाने में देर हो रही है.’’ ‘‘ज्यादा जल्दी मत करो मां, इस से रिजल्ट अच्छा नहीं हो जाएगा.’’

पिकई के मुंह से इस तरह की बातें सुन कर मनीषा और अखिलेश थोड़े चौंक गए थे. मगर उस समय उन के पास इतना कुछ सोचने का समय नहीं था. उन के मन में बस एक ही चिंता थी कि अब अपने बेटे को क्या पढ़ाना है क्योंकि वे निश्चित थे कि पिकई बहुत अच्छा रिजल्ट लाएगा. लेकिन उन की उम्मीदें पूरी तरह से मिट्टी में मिल जाएंगी, इस की उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी. स्कूल में रिजल्ट देखने पर पता चला कि पिकई गणित और इतिहास में फेल हो गया था. अखिलेश और मनीषा के होश उड़ गए.

छि: छि: वे समाज को अपना चेहरा कैसे दिखाएंगे? जिस की मां गणित की प्रोफैसर हो और पिता शहर के जानेमाने न्यूरोसर्जन हों, उन का बेटा मैट्रिक पास नहीं कर सका. घर आ कर किसी ने पिकई से बात नही की. मनीषा कुछ देर उदास रही और शाम को मनोज के घर पार्टी करने चली गई.

अखिलेश चुपचाप अपने कमरे में घुस गए, लाइट बंद कर के बालकनी में जा कर बैठ गए. यह उन के बेटे पिकई की विफलता नहीं बल्कि एक मांबाप के रूप में उन की भी असफलता थी. इस हार का अपमान वे किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं कर पा रहे थे. उन्होंने फोन हाथ में लिया तो देखा कई मिस्ड कालस थीं. वे फोन स्विच्ड औफ करने ही वाले थे, तभी सामने रखी टी टेबल पर फोन वाइब्रैंट हो कर नाचने लगा. उन्होंने फोन हाथ में लिया, डिस्कनैक्ट करने के बजाय उसे ऐसे ही छोड़ दिया.

दूसरी तरफ से कोई आवाज न आने पर वह अपनेआप कट जाएगा. तब से कितने ही फोन आ रहे हैं. अखिलेश का किसी से बात करने का मन नहीं कर रहा था. स्क्रीन पर नाम देख कर वे समझ गए कि बैंगलुरु से उन की ममेरी बहन मल्लिका का फोन है. फोन उठाओ तो वही पुरानी बातें दोहराई जाएंगी. पहले कुशलक्षेम, फिर आंहें भरने के बाद यह सवाल आ जाएगा कि उन का बेटा क्यों और कैसे फेल हो गया? ये सब सोच कर थकान से उन्होंने आंखें बंद कर लीं. बालकनी की खिड़की से आ रही ठंडी हवा के कारण शायद वे सो गए थे. अचानक धप की भारी आवाज और किसी अनजाने डर से अखिलेश की तंद्रा टूट गई. वे दौड़ कर बालकनी में गए. फिर सांस रोक कर पिकई की तरफ भागे.

शुरू में अंधेरे में कुछ समझ नहीं आया. पिकई बिस्तर पर अपने घुटनों के बीच सिर रख कर बैठा था. अखिलेश ने पुकारा तो उस ने आंखें खोलीं. वही नजर, मरी हुई मछली की तरह… धुंधली, जिस में कोई हलचल नहीं थी, कोई सपना नहीं था. अखिलेश पिकई के पास जा कर उस के सिर पर हाथ फेरते हुए बोले, ‘‘पिकई, इंसान के जीवन में विफलता सफलता के दिन देखने के लिए आती है. तुम्हें पता है, जब मैं 8वीं कक्षा में था, तब मैं क्लास में फेल हो गया था. घर आ कर बहुत रोया था. तब मेरे पिताजी ने आ कर एक बात कही थी, ‘एक बार फेल हो गए, कोई बात नहीं, लेकिन खुद को ऐसा बनाओ कि जीवन में कभी पीछे मुड़ कर न देखना पड़े. उसी तरह खुद को तैयार करो. मैं आज तुम्हें वही बात कहने आया हूं. विफल हो गए हो, कोई बात नहीं. लेकिन इस के बाद तुम्हारे सामने सिर्फ सफलता होनी चाहिए.

विफलता से सबक लो और कुछ नहीं. सत्य और वास्तविकता बहुत क्रूर, कठिन है. उन का सामना करना बहुत मुश्किल है. लेकिन कभीकभी हमें कठिन वास्तविकताओं का सामना करना पड़ता है.’’ यह समझ नहीं आया कि पिकई ने अपने पिता की बात सुनी या नहीं, लेकिन जब उस ने सिर उठा कर अखिलेश की तरफ देखा तो उन आंखों में एक चमक थी जैसे बुझ हुई रोशनी अचानक जल उठी हो. पिकई खड़ा हुआ, उस ने अखिलेश के दोनों हाथ पकड़े और कहा, ‘‘पिताजी, मैं अब नहीं हारूंगा देखिएगा.’’ समय एक बहुत बड़ा मरहम है. समय इंसान को बहुत कुछ भुला देता है और बहुत कुछ नया भी बनाता है.

पिकई को वाकई उस के बाद कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखना पड़ा. एक के बाद एक परीक्षा पास कर के आज वह विदेश में एक बड़ी कंपनी का सीईओ है. मनीषा और अखिलेश वर्तमान में पिकई की सफलता का और उस के साथ अपने बुढ़ापे का आनंद ले रहे थे. उन्होंने सोचा था कि वे एकदूसरे के साथ बहुत लंबे समय तक रहेंगे लेकिन अचानक एक दिन मनीषा उन का साथ छोड़ कर इस दुनिया से चली गई. हालांकि उन का बेटा उन्हें विदेश ले जाना चाहता था लेकिन अखिलेश नहीं गए. वे देश में रहना चाहते थे और पिकई को अपने पैरों पर खड़ा करना चाहते थे. ‘‘डाक्टर साहब, जल्दी चलिए, वह लड़का कुछ अजीब सा कर रहा है…’’ नर्स रूमा की बात सुन कर डाक्टर अखिलेश अतीत से वर्तमान में लौट आए.

नर्स रूमा की बात को समझने में उन्हें थोड़ा समय लगा लेकिन आम इंसान अखिलेश से डाक्टर अखिलेश बनने में उन्हें समय नहीं लगा. उन्होंने जल्दी से कमरे का दरवाजा बंद किया और जीतू के कैबिन की तरफ रवाना हो गए. जीत बिस्तर पर तड़प रहा था. ऐसा लग रहा था जैसे एक असहनीय पीड़ा उस के पूरे शरीर में घूम रही थी, उसे चैन नहीं लेने दे रही थी. डाक्टर अखिलेश ने नब्ज देखते हुए पूछा, ‘‘क्या परेशानी हो रही है तुम्हें? मुझे बताओ.’’ जीतू के मुंह से कोई शब्द नहीं निकला, वही एकटक नजर. बस एक बार हाथ उठा कर उस ने अपने सिर की तरफ इशारा किया. डाक्टर समझ गए कि उस के सिर में दर्द हो रहा है. अखिलेश ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘जानते हो, मैं ने तुम्हारा एक नाम रखा है, जीतू.

आज से मैं तुम्हें जीतू कह कर बुलाऊंगा. तुम्हारी सारी पीड़ाएं, तुम्हारी असफलताएं उन सब को मैं दूर कर दूंगा. जानते हो मैं ने यह जीतू नाम क्यों रखा है? क्योंकि एक दिन तुम अपनी इस लाचार हालत पर विजय पाओगे, अपने सपनों को पूरा करोगे और उस के साथ अपने मातापिता के भी. तुम्हें अभी जो परीक्षा देनी है, उस परीक्षा में तुम्हें विजयी हो कर लौटना होगा और उस के लिए तुम मुझे हमेशा अपने साथ पाओगे.’’ जीतू क्या समझ, यह तो वही बता सकता था लेकिन अखिलेश को लगा कि उस की नजर में थोड़ा बदलाव आया है. आज वे डाक्टर नहीं, एक पिता के रूप में अपने पिकई को फिर से मन की अंधेरी गलियों से वापस ला रहे थे.

‘‘एक बार आओ जीतू. बाहर जो छोटा सा बगीचा है, चलो मैं तुम्हें वहां ले जाता हूं,’’ यह कह कर अखिलेश ने जीतू का हाथ पकड़ा और उसे बगीचे में ले गए. उन्होंने एक रबड़ की गेंद को पूरे शरीर की ताकत से ऊपर की तरफ फेंका. वह घूमती हुई ऊपर से नीचे आ रही थी, अब तेजी से गिर रही थी. सांस रोक कर देखते हुए उन्होंने कहा, ‘‘गेंद गिर रही है, देखो जीतू और एक दिन मैं इसी तरह गेंद फेंकूंगा. उस दिन तुम सिर्फ देखोगे नहीं बल्कि उस गेंद को पकड़ने के लिए जान लगा कर दौड़ोगे. यह जीवनशक्ति मैं तुम में एक दिन जरूर वापस लाऊंगा, यह मेरा वादा है,’’ उस गेंद की तरफ देखते हुए अखिलेश ने कहा. जीतू ने डाक्टर साहब की तरफ देखा. अखिलेश आश्चर्यचकित हो गए.

उन्होंने देखा कि उस की आंखों में अब वह मरी हुई मछली वाली नजर नहीं थी बल्कि धीरेधीरे उन आंखों में जान वापस आ रही थी. ऐसा लगा जैसे पिकई उन की तरफ देख कर मुसकरा रहा है और कह रहा है, ‘‘पिताजी, मैं आप को अब हारने नहीं दूंगा क्योंकि अगर आप हार गए तो मेरी भी हार होगी.’’ 15 दिन बाद… आसमान से गेंद घूमती हुई तेजी से नीचे आ रही थी. कुछ ही सैकंड में वह दोनों हाथों की हथेलियों में कैद हो गई. तालियों की आवाज बाकी सभी आवाजों को ढकना चाहती थी. ‘‘शानदार, जीतू, तुम पर गर्व है,’’ डाक्टर अखिलेश के चेहरे की मुसकान और जीतू के चेहरे की मुसकान यह बता रही थी कि जीतू आज सचमुच जीत गया था. ‘‘अंकल, आज मुझे लग रहा है जैसे मेरा नया जन्म हुआ है.

मैं ने कभी नहीं सोचा था कि मैं खुद को फिर से पा सकूंगा,’’ जीतू ने नम आंखों से डाक्टर अखिलेश की तरफ देखते हुए कहा. डाक्टर अखिलेश ने मुसकरा कर जीतू उर्फ जितेंद्र के सिर पर हाथ रखा. जीतू ने खुद उन्हें बताया था कि उस का नाम जितेंद्र है. आज सचमुच विश्वास और प्यार के सामने बाकी सब हार गए थे.

Emotional Story

Long Story in Hindi: जिंदगी मेरी फैसले भी मेरे होंगे

Long Story in Hindi: औफिस से निकल कर दिव्या ने जब अपना फोन चैक किया तो दंग रह गई. ‘शिखर और पापाजी के इतनी सारी मिस्ड काल्स. क्या बात हो गई. सब ठीक तो होगा?’ खुद में ही बुदबुदाते हुए उस ने झट से अपने पति शिखर को फोन लगाया. ‘‘हैलो, शिखर तुम ने फोन किया था मुझे? क्या हुआ? सब ठीक तो है?’’ ‘‘उफ. मैडमजी को टाइम मिल गया फोन करने का,’’ शिखर की बातों में तलखी थी, ‘‘जाने कितनी बार मैं ने, पापा ने काल की तुम्हें लेकिन तुम क्यों हमारा फोन उठाने लगी.

बड़ी मैनेजर जो ठहरी.’’ ‘‘क्या हो गया तुम्हें. ऐसे क्यों बात कर रहे हो मुझ से?’’ ‘‘तो कैसे बात करूं, तुम्हीं बता दो मैनेजर साहब?’’ ‘‘यह क्या मैनेजरमैनेजर लगा रखा है, हां? क्या हुआ बोलोगे?’’ दिव्या झल्ला पड़ी.’’ ‘‘तुम्हें पता भी है, मां किचन में काम करते हुए गिर पड़ी. बहुत चोट आई हैं उन्हें. तुम फोन नहीं उठा रही थी तो मजबूरी में मुझे औफिस से घर आना पड़ा. एक तो वैसे ही वे गठिया की मरीज हैं, ऊपर से ये सब.’’ ‘‘मम्मीजी गिर पड़ीं? पर वे करने क्या गई थीं किचन में? सारा काम तो मैं कर के आई थी. कुछ चाहिए था तो सविता, काम वाली लड़की, को बोल देतीं?’’ दिव्या पूछने ही जा रही थी कि पैर में कोई फ्रैक्चर तो नहीं आया उन्हें? लेकिन उस से पहले ही शिखर ने फोन कट कर दिया. ‘क्या मुसीबत है यह.

मम्मीजी को जरूरत ही क्या थी किचन में जाने की, जब मैं ने पूरे दिन के लिए एक लड़की रख रखी है तो? कुछ चाहिए था तो कह देतीं उस से. उफ, न घर में चैन है न औफिस में,’ दिव्या एकदम से चीख उठी. उस ने पार्किंग से गाड़ी निकालते हुए सविता को फोन लगा कर पूछा कि कैसे मम्मीजी किचन में गिर पड़ीं और वह कहां थी उस वक्त? उस पर सविता डरते हुए बोली कि घर का सारा काम हो चुका था तो वह जरा टीवी देखने लगी. ‘‘मैं तुम्हें टीवी देखने के पैसे देती हूं या घर में सब का ध्यान रखने के?’’ दिव्या ने डांट लगाई तो वह ‘माफ कर दो दीदी, अब से ध्यान रखूंगी’ कहने लगी. ‘‘हां ठीक है. अच्छा सुनो, बहुत ज्यादा चोट तो नहीं आई न उन्हें?’’ पूछने पर सविता बोली कि बहुत ज्यादा चोट नहीं आई है.

बस जरा मोच आ गई है. ‘‘अच्छा ठीक है, जब तक मैं नहीं आती तुम मम्मीजी के पास ही बैठी रहना,’’ दिव्या ने यह सोच कर गहरी सांस ली कि शुक्र है कोई फै्रक्चर नहीं हुआ वरना तो और मुसीबत हो जाती. दिव्या एक बड़े सरकारी बैंक में मैनेजर है. इसी साल उस की प्रमोशन हुई है. बहुत जिम्मेदारी वाली पोस्ट है. लेकिन घर की जिम्मेदारियां भी कम नहीं हैं उस के पास. सुबह 5 बजे उठ कर घर के कामों में लग जाती है क्योंकि सुबह 9 बजे तक उसे भी अपने औफिस के लिए निकलना होता है.

सब के लिए नाश्ताखाना बना कर, अपने और शिखर के लिए लंच पैक कर फटाफट घर से औफिस के लिए निकल जाती है. सोचा था उस ने किसी खाना बनाने वाली को रख लेगी तो उसे जरा आराम हो जाएगा क्योंकि वह भी औफिस से आतेआते थक कर चूर हो जाती है. लेकिन दिव्या के सासससुर को किसी नौकरनौकरानी के हाथों का बना खाना पसंद नहीं है. घर की साफसफाई और बरतन, कपड़ों के लिए तो एक बाई आती है. लेकिन घर के छोटेमोटे कामों के लिए और सासससुर की देखभाल के लिए दिव्या ने फुलटाइम के लिए एक 17-18 साल की लड़की को रख रखा है.

वह लड़की सविता इसी बिल्डिंग में काम करने वाली एक बाई की बेटी है. सुबह 8 बजे वह यहां अपनी मां के साथ आ जाती है और शाम को 8 बजे अपनी मां के साथ ही अपने घर चली जाती है. रोज का उस का यही नियम है. पहले स्कूल जाती थी वह लेकिन फिर पढ़ाई में उस का मन नहीं लगा तो उस की मां ने उसे भी काम पर लगा दिया. यह सोच कर कि कुछ ज्यादा कमाई हो जाएगी तो सविता की शादी के लिए पैसे जोड़ सकेगी. पूरे दिन घर का और उस के सासससुर का ध्यान रखने के अलावा सविता सुबहशाम दिव्या को किचन में थोड़ी बहुत मदद भी कर दिया करती है जैसे सब्जी काट देना, आटा गूंध देना या आएगए मेहमानों को चायनाश्ता सर्व कर देना आदि. इन कामों के लिए वह उसे महीने के क्व12 हजार देती है वह भी अपनी सैलरी से. खैर, पैसे की बात नहीं है. लेकिन इतने पर भी उसे यह सुनने को मिले कि वह घर की जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभा पा रही है तो दुख तो होगा ही न.

दरअसल, बात यह है कि दिव्या की सास और उस के पति शिखर को उस के नौकरी करने से दिक्कत है, तभी तो छोटीछोटी बातों को ले कर उसे सुनाने लगते हैं. उस दिन भी यही हुआ था न. दिव्या को घर पहुंचने में जरा देर क्या हो गई, शिखर और उस की मां ने उसे कितना कुछ सुना दिया कि उसे घरपरिवार की जरा भी परवाह नहीं है. उस के लिए तो बस उस की नौकरी ही प्यारी है. दिव्या ने कहा भी कि उसे घर आने में इसलिए देर हो गई क्योंकि उस की सीजीएम सर के साथ मीटिंग थी. लेकिन शिखर और उस की मां कुछ समझने को तैयार ही नहीं थे बल्कि और ताने मारते हुए कहने लगे कि हां, इस की तो रोज ही कोई न कोई मीटिंग होती है.

बहुत बड़ी कलक्टर जो है. दिव्या उन की बातों के जवाब दे सकती थी, लेकिन उसे चुप रहना ज्यादा बेहतर लगा और जबाव देने से क्या हो जाता? क्योंकि इन्हें तो यही लगता है कि जौब के बहाने ही वो अपनी जिम्मेदारी से भागना चाहती है. देखना, आज भी दिव्या को कम नहीं सुनाया जाएगा. कहेंगे कि जानबूझ कर उस ने उन का फोन नहीं उठाया. अरे, शिखर की मां किचन में गिर पड़ीं तो क्या इस में भी दिव्या की ही गलती है? कुछ चाहिए था तो कह देती सविता से. लेकिन नहीं, किसी भी तरीके से दोषी जो ठहराना है बहू को. चलो, सास पुराने जमाने की महिला है, नहीं समझती कुछ.

लेकिन शिखर तो आज के जमाने की सोच रखने वाला इंसान है. कम से कम उसे तो समझना चाहिए कि उस की तरह दिव्या भी औफिस काम करने जाती है और वह भी घर आतेआते थक जाती है. शिखर भले ही कितना ही क्यों न बजा कह कि वह बाकी पतियों की तरह नहीं है जो पत्नी की तरक्की से जलता है और उसे आगे बढ़ते नहीं देखना चाहता लेकिन उस के बातविचार और हावभाव से दिख ही जाते हैं कि उसे दिव्या का आगे बढ़ना जरा भी अच्छा नहीं लगता.

तभी तो वह अपने बुजुर्ग मातापिता की देखभाल की दुहाई दे कर उसे नौकरी न करने की सलाह देता रहता है. शिखर का सोचना है कि दिव्या घर पर रह कर उस के बूढ़े मातापिता की देखभाल करे, घर संभाले, बच्चे पैदा करे. पैसे कमाने के लिए तो वी है न. ‘‘तुम हो तो क्या? क्या मैं अपनी सारी पढ़ाई चूल्हे में झंक दूं? नौकरी छोड़कर घर बैठ जाऊं? यही चाहते हो तुम? अरे, कौन सी कमी रखी है मैं ने तुम्हारे पेरैंट्स की देखभाल में? उन की देखभाल के लिए एक लड़की रख रखी है न, फिर क्यों तुम मुझ पर चड़े रहते हो हमेशा? जब देखो तुम्हें मुझ से कोई न कोई शिकायत रहती ही है. क्यों भई?’’ उस दिन दिव्या को भी गुस्सा आ गया, ‘‘तुम्हें कुछ पता भी होता है कि उन्हें कब डाक्टर के पास ले जा कर चैकअप कराना है या उन की दवाई वगैरह का कुछ ध्यान है तुम्हें? सब मेरे जिम्मे है.

बोलो न और क्या करूं मैं? मर जाऊं?’’ बोलतेबोलते दिव्या के आंसू निकल पड़े फिर सोचने लगी कि आखिर औरतों के साथ ही ऐसा क्यों होता है? शादी के पहले भी कभी उन्हें संस्कार के नाम पर तो कभी रीतिरिवाज के नाम पर जीने नहीं दिया जाता और शादी के बाद भी उन्हें इन सब में झंक दिया जाता है.

 

आखिर कब तक महिलाएं इन बोझें के तले दबी रहेंगी? क्या उन्हें अपनी जिंदगी, अपनी मरजी से जीने का अधिकार नहीं है? ‘‘ठीक है, अगर तुम्हें लगता है कि मैं अपनी जिम्मेदारी से भाग रही हूं और मैं तुम्हारे मातापिता का ठीक से ध्यान नहीं रख पा रही हूं तो एक काम करो, तुम अपनी जौब छोड़ दो और उन की देखभाल करो. मैं तो कमा ही रही हूं, घर चल जाएगा अच्छे से.’’ दिव्या के इतना कहते ही जैसे शिखर फट पड़ा. ‘‘उफ, तुम्हें जौब छोड़ने को क्या कह दिया, तुम्हारी मर्दानगी को धक्का लग गया और मेरा क्या. क्या मैं ने पढ़ाई नहीं की? जौब पाने के लिए मैं ने मेहनत नहीं की बोलो?’’ क्या जवाब देता वह क्योंकि दिव्या के सवाल का कोई जवाब था ही नहीं उस के पास. शिखर को कहां सुहाता है दिव्या का यों आगे बढ़ना. याद नहीं पिछले साल कैसे उस की प्रमोशन पर वह जलभुन उठा था.

बधाई देना तो दूर की बात, उस से ठीक से बात तक नहीं की थी उस ने. दिव्या को बुरा लगा था पर उस ने जाहिर नहीं होने दिया था. शिखर तो यही चाहता है कि दिव्या उस के टुकड़ों पर पले, जरूरत के समय हाथ फैला कर उस से पैसे मांगे, उस से दब कर रहे. लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है, इसीलिए तो वह चिढ़ा रहता है दिव्या से. ‘‘उफ, यह रैड सिगनल भी अभी होना था. जाने अब घर पहुंचने में और कितना समय लगेगा,’’ पीछे गाडि़यों की लंबी कतार देख वह खीज उठी.

दिल में एक धुकधुकी लगी थी कि घर पहुंचने पर फिर न जाने उसे क्याक्या सुनने को मिले. शिखर को तो बहाना ही मिल जायेगा उसे सुनाने का. यही तो वह चाहता है कि दिव्या कुछ गलती करे और वद्द अपनी भड़ास निकाले. ‘लेकिन ट्रैफिक जाम में फंस गई तो इस में मेरी क्या गलती है. दिल्ली है भाई यह, ट्रैफिक तो होगा ही न,’ मन में सोच दिव्या ने एक गहरी सांस ली और अपने मोबाइल पर कुछ देखने लगी. दिव्या को घर पहुंचतेपहुंचते रात के 8 बज गए. पता था उसे सुनना पड़ेगा, इसलिए पहले से तैयार थी.

अपना बैग उस ने वहीं सोफे पर पटक किचन में जा कर तेल गरम किया और सास के पैरों की मालिश करने उन के कमरे में पहुंच गईं. लेकिन गुस्से से तमतमाती सास ने अपने पैर खींच लिए और बोली, ‘‘ज्यादा दिखावा करने की जरूरत नहीं है. इतना ही था तो अपना फोन उठाती. हां, क्यों उठाओगी. तुम्हारी मां का फोन होता तो झट से उठा लेती.’’ ‘‘सच कह रही हूं मम्मीजी, मुझे फोन की आवाज सुनाई ही नहीं पड़ी वरना तो…’’ ‘‘वरना तो क्या? हमेशा यही बहाने बनाती हो. जब भी किसी काम के लिए फोन करती हूं, उठाती ही नहीं हो. कह दो न तुम से नहीं हो पाएगा.

हम चले जाएंगे अपने गांव. जी लेंगे कैसे भी कर के,’’ हमेशा की तरह झठमूठ आंसू बहा कर बेटे को दिखाने लगी. ‘‘नहीं मम्मीजी, ऐसा मत कहिए मैं तो आज जल्दी ही आ जाती घर पर एन वक्त पर मीटिंग आ गई. अच्छा अब आप आराम कीजिए, तब तक मैं खाना बना लेती हूं,’’ कह कर उस ने जल्दी से अपने कपड़े बदले और किचन में घुस गई. वह तो अच्छा था कि सविता सब्जी बना कर और आटा गूंध कर गई थी वरना तो और देर हो जाती आज. दिव्या के सासससुर की 9 बजे तक खाना खाने की आदत है.

इसलिए उसे समय के हिसाब से खाना बनाना होता है. सब को खाना परोस कर खुद खाने बैठी तो थकावट के मारे उस से खाया ही नहीं गया. किचन की साफसफाई करतेकरते रोज की तरह बैड पर जातेजाते रात के 11 बज गए. देखा तो शिखर खर्राटे लेते हुए आराम से सो रहा था. दिव्या मन ही मन कुड़ उठी कि देखो इसे कितने आराम से सो रहा है, जबकि मैं भी औफिस से थकहार कर घर आई हूं. लेकिन मेरी नींद और आराम से किसी को क्या लेनादेना? मम्मीजी की भी यही शिकायत होती है कि मैं उन का फोन नहीं उठाती. लेकिन जब कोई औफिस में काम कर रहा हो और घर से छोटीछोटी बातों के लिए फोन आए तो क्या करे कोई? किसी क्लाइंट से बात कर रही होती हूं या बौस के साथ मीटिंग चल रही होती है और उसी वक्त घर से फोन आ जाता है तो कैसे उठाऊं और बात कुछ खास नहीं होती, यही कि धोबी का बिल कहां रखा है. टीवी का रिमोट नहीं मिल रहा है.

फोन में पैसे खत्म हो गए, रिचार्ज करा दो जल्दी. दवाइयां खत्म हो गई हैं. आज रात का खाना क्या बनेगा वगैरहवगैरह. मन तो करता है दिव्या का कि बोल ही दे कि क्या सारे कामों का ठेका उस ने ही ले रखा है? अपने बेटे को क्यों नहीं कहते ये सब? लेकिन इसलिए कुछ नहीं बोलती क्योंकि बेकार में उसे कोई क्लेश नहीं चाहिए. पता नहीं औरतों के काम की वैल्यू कब समझेंगे लोग. दिव्या सोना चाह रही थी पर शिखर के खर्राटे उसे सोने कहां दे रहे थे. दिव्या की आदत है जरा सी भी आवाज हो तो उसे नींद नहीं आती है. सो अपनी अलमारी से एक किताब निकाल कर पढ़ने बैठ गई.

बड़े प्यार से मुसकरा कर किताब पर हाथ फेरते हुए वह सोचने लगी कि यह किताब उसे उस के एक दोस्त ने कालेज के फेयर वैल पार्टी में गिफ्ट की थी. उस दोस्त का नाम सुजाय था. हां, बंगाली था वह पर हिंदी काफी अच्छी बोल लेता था क्योंकि काफी साल बिहार में रह चुका था. उस ने 10वीं तक की पढ़ाई बिहार से ही किया था. फिर अपने पापा के साथ कोलकाता आ गया रहने.

लेकिन उस की दी यह किताब दिव्या पढ़ ही नहीं पाई कभी. मौका ही कहां मिला पढ़ने का उसे. कालेज बाद जौब की तैयारी में लग गई और फिर शादी के बाद घरगृहस्थी और नौकरी में ऐसी उलझ कि उलझती चली गई. शिखर की नींद न बिगड़े, इसलिए किताब ले कर हाल में आ गई और आराम से सोफे पर पसर कर किताब पढ़ने लगी. उसे यह किताब पढ़ते हुए बहुत मजा आ रहा था. नींद आ रही थी पर, ‘दो पेज और, बस दो पेज और’ कह कर पन्ने पलटें जा रही थी. यह 2 युवा लड़कालड़की आरोही और केशव की ‘लव स्टोरी’ है, जिस में लड़का और लड़की दोनों फर्स्ट ईयर के स्टूडैंट होते हैं. एक दिन लाइब्रेरी में दोनों आपस में टकरा जाते हैं और दोनों की हंसी छूट जाती है.

बातोंबातों में ही पता चलता है कि दोनों ही किताब प्रेमी हैं. केशव आरोही से प्रेम करने लगता है. कई बार उस ने उस के सामने अपने प्रेम का इजहार करना चाह भी पर फिर यह सोच कर रुक गया कि पता नहीं वह उस से प्रेम करती भी है या नहीं. आगे की कहानी जानने की उत्सुकता दिव्या को किताब से बांधे हुए थी. सच बात तो यह थी कि लड़की भी उस से प्रेम करती थी पर कह नहीं पा रही थी. उसे भी यही लग रहा था कि पता नहीं लड़का उस से प्रेम करता भी है या नहीं? इसी तरह दोनों कालेज के अंतिम वर्ष में पहुंच जाते हैं. लेकिन आज तक दोनों एकदूसरे से अपने दिल की बात नहीं कह पाते और दोनों के रस्ते अलग हो जाते हैं. कहानी तो बड़ी दिलचस्प है पर सैड भी.

काश, दोनों मिल पाते. वैसे इस किताब का लेखक है कौन? देखे तो जरा. राइटर का नाम देखते ही दिव्या की आंखें आश्चर्य से फटी की फटी रह गईं क्योंकि इस किताब का राइटर कोई और नहीं बल्कि सुजाय ही था, जिस ने उसे यह किताब भेंट की थी. ‘तो क्या वह एक राइटर भी था?’ दिव्या ने खुद से सवाल किया. ‘लेकिन उसे देख कर लगा ही नहीं कभी की वह राइटर भी हो सकता है और उस ने कभी मुझे बताया भी नहीं कि वह लिखता भी है. कमाल है,’ अपने मन में सोच दिव्या ने जैसे ही किताब को अपने सीने से लगाया, उसे कुछ गिरने का आभास हुआ. ‘सूखे गुलाब का फूल और यह तो कोई लैटर लगता है. क्या लिखा है इस में? पढूं तो जरा: ‘‘हैलो दिव्या, तुम हैरान तो नहीं हो गईं राइटर का नाम पढ़ कर.

होना भी चाहिए क्योंकि मैं ने कभी तुम्हें बताया ही नहीं कि मैं लिखता भी हूं बल्कि मैं ने तो अपने किसी दोस्त तक को भी नहीं बताया कि मैं लिखता हूं. दरअसल, मुझे स्कूल के समय से ही लिखने का शौक रहा है और यह गुण मुझे अपनी मां से मिला है. वे भी लिखती थी पर अब वे इस दुनिया में नहीं हैं. वैसे मैं ने तुम से एक और बात छिपाई और वह यह कि मैं तुम से प्रेम करने लगा था दिव्या. हां, सच में मजाक नहीं कर रहा मैं. ‘‘लेकिन शायद तुम मुझ से प्रेम नहीं करती थी. तुम ने मुझे केवल एक दोस्त के रूप में देखा. वैसे यह जरूरी तो नहीं कि हम जिस से प्रेम करें, वह भी हम से वैसे ही प्रेम करे. प्यार, व्यापार थोड़े ही न है. यह किताब हमारे प्यार… सौरी, अपने प्यार को समर्पित और उसे मैं ने सौंप दी.

अगर इस दुनिया में रहा तो शायद फिर कभी मिलना हो सके… सुजौय…’’ लैटर पढ़ कर दिव्या की आंखों से आंसू बह निकले, ‘तो क्या सुजाय भी मुझ से प्रेम करता था और मैं उसे केवल अपना एक अच्छा दोस्त समझती रही और यह किताब क्या उस ने हमारे अधूरे प्रेम पर लिखी है. उफ, कितनी नादान थी मैं कि उस के प्रेम को समझ नहीं पाई,’ दिव्या अपने मन में सोच ही रही थी कि पीछे से किसी का स्पर्श पा कर जब वह पीछे मुड़ी तो शिखर खड़ा था. ‘‘यहां हाल में क्या कर रही हो? चलो सोने,’’ कह कर वह दिव्या का हाथ पकड़ कर कमरे में ले गया. लेकिन दिव्या की नींद उड़ चुकी थी.

वैसे दिव्या को कमरे में ले जाने का शिखर का अपना मकसद था. अपना मकसद पूरा होते ही वह करवट बदल कर सो गया और दिव्या टकटकी लगाए छत निहारती रह गई. आज भी सुजौय का चेहरा दिव्या को अच्छी तरह याद है. 6 फुट लंबा कद, काले घुंघराले बाल, सांवला रंग और पतली दाढ़ी उसे और आकर्षक बनाती थी. अकसर फ्री पीरियड में वह लाइब्रेरी में जा कर बैठ जाता था.

उस के पीछेपीछे दिव्या भी लाइब्रेरी चली जाती थी लेकिन उस का लाइब्रेरी जाने का मकसद किताबें पढ़ना नहीं होता था बल्कि सुजाय के साथ समय बिताना होता था. अच्छा लगता था उसे उस के साथ क्योंकि प्रेम जो करती थी वह उस से. सुजौय का शांत स्वभाव, धीरगंभीर चेहरा अनायास ही उसे अपनी तरफ खींचता चला गया. लेकिन उसे कभी पता ही नहीं चल पाया कि सुजौय भी उस से उतना ही प्रेम करता है. कालेज में एक दिव्या ही थी जिस से सुजौय अपनी सारी बातें शेयर करता था. उस ने ही बताया था उसे कि जब वह 10वीं में था तब उस की मां का देहांत हो गया था. फिर उस के पापा ने दूसरी शादी कर ली. सौतेली मां उसे देखना नहीं चाहती थीं, इसलिए उस के पापा ने उसे बाहर पढ़ने भेज दिया.

दिव्या अपने प्यार का इजहार करती भी तो कैसे क्योंकि उस के परिवार में प्यार जैसे शब्द के लिए कोई जगह नहीं थी. प्यार का मतलब पाप समझ जाता था उस के घर में. देखा था उस ने कैसे उस के ताऊजी ने अपनी ही बेटी की शादी एक आंख वाले लड़के से करा दी थी क्योंकि उस ने प्यार करने की जुर्रत की थी. ताऊजी को जरा भी दया नहीं आई अपनी ही बेटी के साथ ऐसा करते हुए. दिव्या के मातापिता भी कम दकियानूसी विचारधारा के नहीं थे. जानती थी वो कभी वह उस के प्यार को पनपने नहीं देंगे और क्या पता उस का भी हश्र ताऊजी की बेटी की तरह हो जाता.

इसलिए अपने प्यार को अपने अंदर ही दफन कर दिया उस ने. सुबह जल्दी उठना था इसलिए किसी तरह आंखें मूंद कर सोने की कोशिश करने लगी और उसे नींद आ भी गई. लेकिन सुबह भी उस के दिमाग में सुजौय की बातें और उस का चेहरा ही आता रहा. उस के पास उस का फोन नंबर नहीं था वरना उस से बात करती. पूछती कहां है अभी, क्या कर रहा है और उस की शादी हुई या नहीं? तभी उस के दिमाग में आया कि शायद किताब में उस का फोन नंबर हो. देखा तो किताब के एक पन्ने में उस का फोन नंबर लिखा था जो उस ने अपने हाथ से लिखा था. सुजौय से बात करने को उस का मन मचल उठा.

उस ने अभी फोन उठाया ही था कि शिखर की तेज आवाज से फोन छूट कर बिस्तर पर गिर पड़ा. ‘‘तुम यहां हो? चलो, मेरी नीले रंग की शर्ट मिल नहीं रही है ढूंढ़ कर दो, औफिस जाना है मुझे,’’ शिखर की बातों से तो यही लग रहा था जैसे वह उस की नौकरानी हो. ‘‘अरे, तुम खुद देख लो, तुम्हारी ही अलमारी में होगी,’’ दिव्या ने कहा क्योंकि उसे भी तो अपने औफिस के लिए समय से निकलना था. उसे तो कुछ करना नहीं होता, लेकिन दिव्या को औफिस जाने से पहले हजारों काम होते हैं. लेकिन शिखर ने तो जिद ही पकड़ ली कि वही उस की शर्ट ढूंढ़ कर दे. शर्ट उस की अलमारी में सामने ही पड़ी थी लेकिन इस अक्ल के अंधे को पता नहीं कैसे दिखाई नहीं पड़ी.

मन ही मन चिढ़ उठी वह पर औफिस जाने के समय किसी बहस में नहीं पड़ना चाहती थी, इसलिए चुप ही रही. दिव्या शिखर से तो क्या किसी से भी शादी नहीं करना चाहती थी. लेकिन उस के मांपापा कहने लगे कि पढ़लिख कर उस का दिमाग खराब हो गया है. नौकरी करने लगी है तो क्या अपने मन का करेगी. फिर भेदती निगाहों से कहने लगे कि कहीं उस ने अपने लिए कोई लड़का तो नहीं पसंद कर रखा है? ‘‘कैसी बातें करते हो आप लोग ठीक है आप लोगों को जो ठीक लगे करो,’’ दिव्या ने भी हथियार डाल दिए. शिखर से जब वह पहली बार मिली तो उस के व्यवहार से उसे यही लगा था कि लड़का शरीफ है. लेकिन शादी के बाद उसे पता चला कि इस के अंदर कितना बड़ा शैतान छिपा बैठा है. बातबात पर गालीगलौज, थप्पड़ मार देना बहुत मामूली बात थी उस के लिए.

पहले तो दिव्या सबकुछ चुपचाप सह लेती थी लेकिन जब से उसे पता चला कि शिखर का अपने ही औफिस में काम करने वाली एक महिला से प्रेम चल रहा है तो फिर वह भी मुखर हो गई. अरे, बातबात पर तानेउलाहने आखिर कोई कितना सहेगा? सब के लिए इतना करने पर भी कौन से उसे 2 मीठे बोल सुनने को मिल रहे हैं. शिकायत ही है सब को उस से. सौ काम करो, कोई शाबाशी देने नहीं आएगा. लेकिन एक छोटी सी गलती भी हो जाए तो सब सुनाने पहुंच जाते हैं. कभीकभी तो हम बिना कुछ गलत किए ही बुरे बन जाते हैं क्योंकि हम वह नहीं करते जैसा लोग चाहते हैं. शिखर कहता है वह उसे जौब करने दे कर उस पर एहसान कर रहा है.

‘‘हां, तो मत करो एहसान और यह जौब मुझे तुम्हारी मेहरबानी से नहीं मिली है बल्कि अपनी काबिलीयत पर मैं ने यह जौब पाई है, समझे तुम?’’ दिव्या की बात पर उसे जोर की मिर्ची लगी. जैसे उस ने उस की दुखती रग पर उंगली रख दी हो. सास भी लगीं बकबक करने कि उन की मति मारी गई थी जो वे नौकरी वाली लड़की ब्याह लाए. मगर दिव्या फिर कुछ न बोल कर अपने कमरे में आ गई और अंदर से कुंडा लगा लिया. ‘और क्या करूं मैं अब इन लोगों के लिए? आज तक मैं सब की खुशी के लिए अपनी खुशी का गला घोटती आई हूं लेकिन फिर भी इन्हें मुझ से ही शिकायत है. बच्चा कर लो… बच्चा कर लो.

अरे नहीं करना मुझे अभी कोई बच्चा क्योंकि मां बनने के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं हूं मैं,’ अपने मन में सोच वह कराह उठी कि आज तक अपने लिए क्या ही सोच उस ने? न तो वक्त पर खा पाती है न सो पाती है. आराम तो जैसे उस के हिस्से ही नहीं है. घर में अगर नल, पंखे, एसी कुछ भी बिगड़ जाए तो उस के लिए भी उसे ही कोसा जाता है कि वह कोई ध्यान नहीं रखती. कुछ कहो तो वही राग अलापने लगते हैं कि छोडृ दो न नौकरी. घरगृहस्थी संभालो अपनी. दिव्या को आज तक यह बात समझ नहीं आई कि औरतों से ही घरगृहस्थी संभालने को क्यों कहा जाता है.

क्यों शादी के बाद महिलाओं पर घरगृहस्थी संभालने की, सब के लिए खाना बनाने की, बच्चों को संभालने की, सासससुर का ध्यान रखने की जिम्मेदारी आ जाती है और अगर वे वर्किंग वूमन हैं तो वहां औफिस में भी उन्हें सुपर वूमन बन कर दिखाना होता है वरना पीछे रह जाएंगी. पति औफिस से आ कर आराम से सोफे पर पसर कर मोबाइल या टीवी खोल कर बैठ जाता है और पत्नी किचन में जा कर सब के लिए खाना पकाती है. लेकिन उस पर जब उसे यह सुनने को मिलता है कि अरे, यह कैसी सब्जी बनाई है तुम ने कोई टेस्ट ही नहीं है और दाल में नमक डालना भूल गई. क्या खाना बनाती हो.

कुछ ढंग का बनाना नहीं आता क्या तुम्हें? लेकिन कोई यह नहीं कहता कि तुम्हें भी भूख लगी होगी, आओ साथ में बैठ कर खाना खाओ. बहुत थक गई हो, थोड़ा आराम कर लो. रोज की तरह सुबह उठ कर सब को चाय देने के बाद जैसे ही दिव्या ने अपनी चाय को मुंह लगाया कि उधर से उस की सास चिल्लाईं, ‘‘अरे बहू, यह क्या अनर्थ कर रही है? आज तो निर्जला तीज का व्रत है, भूल गई क्या?’’ ‘‘हां याद है मम्मीजी पर मैं यह व्रत नहीं कर रही न? कहा तो था आप से मुझे वीकनैस होने लगाती है.’’ ‘‘अरे, तो इस व्रत में कौन सा तुम्हें कोई पहाड़ उठाना है. उपवास ही तो रखना है. सोई रहना अपने कमरे में.

पूजा तो शाम में होगी न.’’ ‘‘नहीं मम्मीजी, मुझ से भूखे नहीं रहा जाएगा. प्लीज, मुझे फोर्स मत कीजिए. वैसे भी मैं यह सब नहीं मानती. शिखर तुम ही समझओ न मम्मीजी को.’’ मगर शिखर अपनी मां का ही पक्ष लेने लगा कि वे सही तो कह रही हैं. ‘‘क्या सही कह रही हैं? किसी को जबरदस्ती भूखा रहने को कहना सही बात है तो एक काम करो, तुम भी मेरे लिए निर्जला व्रत रखो?’’ दिव्या की बात पर शिखर हैरानी से उसे देखने लगा जैसे उस ने कोई बहुत बड़ी गलत बात कह दी हो. ‘‘अरे तुम नहीं कर सकते और मुझ से यह ऐक्स्पैक्ट करते हो कि मैं तुम्हारे लिए निर्जला व्रत रखूं? ये सब फालतू की बातें हैं क्योंकि अगर सच में पत्नी के व्रत रखने से पति की आयु लंबी होती न तो आज मेरी बूआ विधवा नहीं होतीं. तुम्हें पता है वे अपने पति के लिए कौन सा व्रत नहीं रखती थीं? कभीकभी तो लगातार 2-2, 3-3 दिन सह जाती थीं.

लेकिन फिर भी फूफाजी उन का साथ छोड़ गए. किसी व्रतउपवास से नहीं बल्कि एकदूसरे के बीच प्यारविश्वास और ईमानदारी से रिश्ते की उम्र लम्बी होती है शिखर. ‘‘और रही समाज और लोगों के कहने की बात तो वह मैं देख लूंगी. एक काम करती हूं. आज औफिस से मां के घर चली जाऊंगी, तब तो लोग बातें नहीं बनाएंगे न?’’ दिव्या को लगा था उस की मां उसे जरूर समझेगी लेकिन उस की मां तो पहले से ही दकियानूसी विचारधारा की महिला हैं तो क्या समझतीं उसे. कहने लगीं कि क्या यही संस्कार दिए हैं उन्होंने उसे जो सास, पति से लड़ कर यहां आ गई. ‘‘काश, वही संस्कार और रीतिरिवाज आप ने अपने बेटे को भी सिखाए होते मां तो आज वह आप को और पापा को अकेले छोड़ कर दूसरा घर बसाता.

इसी शहर में रहते हुए कभी झंकने तक नहीं आता और मुझे संस्कार की परिभाषा दे रही हैं आप. मांबाप की इज्जत बेटी के हाथों में और संपत्ति बेटे के हाथों में?’’ दिव्या को भी गुस्सा आ गया. ‘‘चलती हूं, और फिर प्रणाम कह कर वह उलटे पांव लौट गई. पीछे से मां आवाज देती रहीं पर वह नहीं रुकी. मन बड़ा उदास हो गया उस का कि कोई उसे नहीं समझता. उस के मातापिता भी नहीं. तभी उसे सुजौय की याद आ गई कि कैसे वह महिलाओं के अधिकारों के बारे में उन के सम्मान के बारे में बातें किया करता था और उस की कहानियां भी तो महिलाप्रधान ही होती हैं. दिव्या ने उसी वक्त उसे फोन लगाया तो झट से उस ने फोन उठा लिया, जैसे वह उस के फोन का ही इंतजार कर रहा हो कब से.

दिव्या की आवाज सुन कर सुजौय इतना खुश हो गया कि पूछो मत. कहने लगा कि उसे विश्वास था कि एक दिन वह उसे जरूर फोन करेगी. अपने बारे में बताने लगा कि जौब करता था पर अब जौब छोड़ कर पूरी तरह से लेखन में अपना ध्यान लगा चुका है. यह भी बताया उस ने कि अब वह कोलकाता में नहीं रहता. हमेशा के लिए मुंबई शिफ्ट हो गया. उस की कहानियों पर कई फिल्में भी बन चुकी हैं. शादी की बात पर सुजौय चुप लगा गया. मतलब साफ था कि आज तक दिव्या को नहीं भूल पाया है. इसलिए शादी भी नहीं की. पता नहीं क्यों दिव्या का मन उस से मिलने को छटपटा उठा. अभी जा तो नहीं सकती थी उस से मिलने लेकिन रोज ही दोनों फोन पर बातें करने लगे. इसी बीच दिव्या के ट्रांसफर की बात होने लगी. उसे 2-3 जगह का औप्शन देना था कि वह अपना ट्रांसफर कहां चाहती है.

दिव्या ने झट से मुंबई डाल दिया और सुजौय को व्हाट्सऐप पर मैसेज कर दिया कि आई एम कमिंग फ्राम मुंबई. दिव्या के मुंबई आने का मैसेज पढ़ सुजौय खुशी से उछल पड़ा और फिर डांस वाली इमोजी डाली तो दिव्या को जोर की हंसी आ गई. उस ने भी इधर से ‘दिल वाली इमोजी’ भेज दी. दिव्या के मुंबई जाने की बात जब शिखर को पता चली तो वह तो तांडव ही करने लगा कि वह अपना तबादला मुंबई कैसे करा सकती है और उस ने उसे बताया क्यों नहीं.

यहां उस के मांपापा का ध्यान कौन रखेगा? ‘‘शायद तुम भूल रहे हो शिखर कि वे तुम्हारे मांपापा हैं. इसलिए उन की जिम्मेदारी तुम्हारी बनती है मेरी नहीं, समझे तुम और यह तो तुम्हें भी पता होगा कि हमारा जहां भी ट्रांसफर होता है जाना ही पड़ता है.’’ दिव्या की बात पर शिखर कुछ बोल नहीं पाया, बस देखता रह गया. दिव्या समझ चुकी थी जो हमारी जिंदगी होती है वह हमारी है. किसी और का हक नहीं होता हमारी जिंदगी पर और अगर हम अपनी जिंदगी के फैसले खुद नहीं लेंगे तो और कौन लेगा? वैसे भी शिखर के साथ उस का जबरदस्ती का रिश्ता था. कोई इमोशन, कोई प्यार नहीं था इस रिश्ते में.

Long Story in Hindi

Best Hindi Story: खुशियों की कुनकुनी धूप

Best Hindi Story: रात के 12 बजे थे लेकिन समायरा का दिन हुआ था. उस की मम्मा आखिरकार सो गई थीं. ‘उफ… मम्मा भी न कितना इरिटेट करती हैं. क्या कर रही हो… किस से चैट कर रही हो? वह बंदा है या बंदी है? उस की बैकग्राउंड क्या है? वह पढ़ाई में कैसा है/कैसी है? उस का अपने कैरियर पर फोकस है या नहीं? अगर उस का कैरियर पर ध्यान नहीं है तो उस से बात करने की कोई जरूरत नहीं.

वह तुम्हारे लिए बैड इन्फ्लुएंस साबित होगा/होगी. मम्मा और उन की एंडलैस हिदायतें. जब देखो तब उपदेश ही देती रहती हैं जैसे मैं कोई छोटी बच्ची हूं. चलो, मम्मा अब गहरी नींद में सो गईं. खर्राटे ले रही हैं. अब मैं डेटिंग ऐप सेफली खोल सकती हूं. कालेज के टर्म टैस्ट्स आज ही तो खत्म हुए हैं. उफ यह पढ़ाई. तोबा है. इतने दिन हो गए, किसी के साथ डेटिंग पर नहीं गई. पिछला मैच जो मैं ने ढूंढ़ा था वह तो अचानक मेरी जिंदगी से गायब हो गया. उसे याद कर आज तक सीने में खंजर चलने लगते हैं.

समायरा डेटिंग ऐप में स्क्रौल करती जा रही थी. ‘उफ… एक भी ढंग का प्रोफाइल नहीं है. ऐसा लग रहा है इस में दुनिया के सारे के सारे बौज्म जुट गए हैं. ‘तभी एक फोटो ने उस का ध्यान ड्रा किया, ‘ओशेन औफ इमोशंस’ यानी भावनाओं का समंदर. हां, इस में कुछ दम है. खासा अट्रैक्टिव लग रहा है बंदा. इस की बड़ीबड़ी आंखें बिलकुल डिफरैंट हैं, कुछ तिलिस्मी सी जैसे अपने भीतर भावनाओं का अथाह सागर छिपाए हुई हों. जरूर इस बंदे का इमोशनल कोशैंट हाई होगा मेरी तरह… आई बेट… पहली ही चैट में मैं इस से पूछने वाली हूं,’ सोचते हुए समायरा उस के प्रोफाइल का बायो पढ़ने लगी. खासी इंटरैस्टिंग बायो थी. ‘…मैं बीसीए के आखिरी वर्ष में हूं…’ ओह तो ये जनाब मेरी तरह बीसीए के अंतिम साल में हैं.

चलो अपने बीच कोई तो कौमन ग्राउंड हुई. ‘…मैं बेहद गहराई से फील करता हूं यानी मैं जो भी कनैक्शन बनाता हूं, वह बेहद मीनिंफुल और संजीदा होता है. मुझे लोगों के दिल का वास्तविक हाल का पता लगाने में महारथ हासिल है. मुझे हलकीफुलकी चिटचैट से ऊपर उठ कर गहरी, ईमानदार गुफ्तगू करना बेहद पसंद है. मुझे तलाश है एक ऐसे पार्टनर की जो इमोशनल गहराई पसंद करती हो. ‘…मुझे हसरत है ऐसी किसी बंदी की जिस के साथ मैं गंभीर बातों के साथसाथ स्पोंटेनिय सगूफी बातचीत का लुत्फ ले सकूं.’ ‘…मैं कोई जिंदगी को कैजुअली लेने वाला इंसान नहीं.

अगर मैं आप से पूछूं कि आप का दिन कैसे बीता और आप मुझे वह बताती हो तो मैं आप के बताई गई डिटेल्स अगले ही पल भूल नहीं जाऊंगा बल्कि उसे याद रखूंगा. मुझ में इंसानों को गहराई से पढ़ने और समझने का माद्दा है.’ ‘…मेरे दोस्त कहते हैं, मैं बहुत अच्छी सलाह देता हूं. इसलिए आप मुझ पर भरोसा कर सकती हो.’ ‘…मेरी एक ऐसे साथी की तमन्ना है जो जिंदगी की रेस में मेरे साथ कदम से कदम मिला कर दौड़ सके, लेट नाइट टौक्स कर सके, मूवी मैराथन में साथसाथ हिस्सा ले सके.’ ‘…अगर आप गंभीर फीलिंग्स और जोरदार ठहाकों में मेरा साथ दे सकती हैं, टीवी सीरियल्स के इमोशनल सीन्स में मेरे साथ बालटी भरभर आंसू बहा सकती हैं तो अभी राइट स्वाइप करें और जिंदगी की उड़ान में मेरी कोपायलट बनें.’ बायो के एंड तक आतेआते मैं ओशेन औफ इमोशंस से खासी प्रभावित हो गई थी और मैं ने फौरन राइट स्वाइप कर दिया.

मेरी नजरें फोन की स्क्रीन पर जमी हुई थीं और तभी उस ने भी राइट स्वाइप किया और हम कनैक्ट हो गए. मैं बेहद ऐक्साइटेड फील कर रही थी. चलो, अब मेरी सूनी जिंदगी में कुछ तो दोस्ती और प्यार के हसीन रंग भरेंगे. फोन के कीबोर्ड पर मेरी उंगलियां तेजी से थिरकने लगीं और उस के साथ मेरी टैक्स्टिंग शुरू हो गई. उस रात हम ने ढेर सारी चैटिंग की. इमोजीस ऐक्सचेंज कीं, हम खूब हंसे. उस के साथ यों टैक्स्टिंग कर बहुत मजा आया. रात के 3 बजने को आए थे और उस ने यह कह कर मुझ से विदा ली कि अगर हम रातभर बात करते रहे तो सुबह क्लास में सोएंगे और मैं बड़ी अनिच्छा से उस से डिस्कनैक्ट हुई.

उस रात के बाद से हम कालेज के बाद के बचेखुचे टाइम में मैसेजिंग करने लगे थे. यहां तक कि कभीकभी तो क्लास में प्रोफैसर के लैक्चर देते वक्त भी आखिरी बैंच पर बैठ कर मैं उस के साथ चैट करने लगती. उस समंदर के मेरी जिंदगी में आने के बाद जैसे मेरी जिंदगी में खुशगवार सुनामी आ गई थी. वक्त के साथ अपनी दोस्ती गाड़ी होने पर मैं उसे समंदर बुलाने लगी थी. अलबत्ता उस का असली नाम सागर था. हम अपनीअपनी जिंदगी और सपनों के बारे में बात करते. एकदूसरे के साथ मजेदार मीम्स ऐक्सचेंज करते. समय के साथ हमारी फ्रैंडशिप परवान चढ़ती गई. हमारा ग्रैजुएशन पूरा हुआ. अब मेरी आगे पढ़ने की इच्छा न थी. समंदर को भी अब आगे नहीं पढ़ना था.

हम दोनों ने नौकरी के लिए आवेदन करना शुरू कर दिया. संयोग से कोडर के तौर पर मोटी तनख्वाह पर मेरी नौकरी समंदर के शहर में लगी लेकिन उस को अभी तक कोई नौकरी नहीं मिली थी. मैं एक बहुत काबिल कोडर थी लेकिन समंदर एक बेहद कमजोर कोडर था, जिस की वजह से उसे कोडर की नौकरी नहीं मिल रही थी. वह नौकरी के लिए डैस्पेरेट था. बिना नौकरी के उस का सर्वाइवल खतरे में था. उन्हीं दिनों एक फर्म में बहुत मामूली सैलरी पर एक जूनियर असिस्टैंट की पोस्ट निकली. मरता क्या न करता, वह उस पोस्ट पर काम करने लगा. मैं ने उस के शहर में नौकरी जौइन कर ली. अब समस्या थी, रहने की जगह का इंतजाम करने की. मैं ने एक रूम का स्टूडियो फ्लैट किराए पर ले लिया. समंदर के साथ मेरी रिलेशनशिप एक अलग मुकाम पर पहुंच गई थी. पिछले कुछ समय से दूरदूर रहते हुए भी हम एकदूसरे के दिल के बेहद करीब आ गए थे. एक दिन समंदर सुबहसुबह मेरे फ्लैट पर आया.

पूरे दिन गुफ्तगू करतेकराते, डिनर करतेकराते रात के 11 बज गए. उस दिन सुबह 10 बजे से पब्लिक ट्रांसपोर्ट की हड़ताल थी सो समंदर को मेरे फ्लैट में सोना पड़ा. वह मेरे ही डबलबैड पर सो गया. रात के गहराने के साथ हम दोनों के भी जवां दिलों में अरमान मचलने लगे थे और उस रात कमजोर क्षणों में हम दोनों ने अपनी रिलेशनशिप पर जिस्मानी इंटीमेसी का ठप्पा लगा दिया. हम दोनों बेहद खुश थे. उस दिन के बाद से हम दोनों के दिनरात एक अलग ही नशीली खुमारी में बीतने लगे. उस के बाद जब भी समंदर अपने बौयज पीजी में जाने की बात करता, मैं उसे रोक लेती.

मुझे उस की एक पल की दूरी भी बरदाश्त न थी. उस का भी यही हाल था और आखिरकार हम ने लिवइन करने का फैसला ले लिया. वह मेरे ही फ्लैट में शिफ्ट हो गया. मगर इंसानी वजूद को कायम रखने के लिए बस प्यार और जिस्मानी नजदीकी ही जरूरी नहीं. उस के लिए रुपए भी चाहिए होते हैं. पिछले 2 बरसों में मैं कई नौकरियां बदल चुकी थी, कोडिंग में अपनी महारथ के चलते हर बार सैलरी में अच्छी बढ़ोतरी के साथ लेकिन कोडिंग में कमजोर होने की वजह से समंदर को कोडर के तौर पर एक भी अच्छी जौब नहीं मिल पा रही थी.

वह अभी तक उसी फर्म में जूनियर असिस्टैंट के तौर पर लगा हुआ था, जिस की वजह से वह मानसिक रूप से सतत परेशान रहता. मुझे हमेशा फील होता, अब वह मुझ से ईष्या करने लगा था. मानसिक रूप से डिस्टर्ब्ड रहने लगा था. धीरेधीरे उस की मानसिक परेशानी डिप्रैशन का रूप लेने लगी थी. वह निरंतर खोयाखोया अपनेआप में गुम रहता. किसी भी चीज में रुचि न लेता. आए दिन मुझ पर झल्ला जाता. मुझे जलीकटी सुनाता. एक रात मेरा उस से भयंकर झगड़ा हो गया.

मैं उस शाम बहुत थकी हुई थी. उस दिन औफिस में मेरी एक कलीग ऐब्सैंट हो गई थी, जिस की वजह से मुझ पर दोहरा वर्कलोड आ पड़ा था. किसी तरह काम खत्म कर के मैं रात के 9 बजे घर पहुंची. 10 मिनट सांस ले कर मैं ने समंदर से कहा, ’’ आज तो मेरी रोटीसब्जी बनाने की हिम्मत नहीं है. खिचड़ी चढ़ा देती हूं या फिर जोमैटो से कुछ और्डर कर दो.’’ मेरे इतना कहते ही समंदर ने तांडव मचा दिया. ऐसीऐसी बातें बोलीं कि मैं बेहद हर्ट हो गई. ‘‘यह कोई टाइम है घर आने का? तुम यों लेट आ कर यह जताती हो कि पूरा औफिस तुम्हारे कंधों पर चल रहा है. चली गई होगी किसी फ्रैंड के यहां. खुद तो बढि़या खाना खा कर आई होगी, मुझे खिचड़ी खिलाओगी. वास्तव में परले दर्जे की सैल्फिश इंसान हो तुम.’’ समंदर के ये बेबुनियाद इलजाम सुन कर मैं अदम्य गुस्से से भर कर चिल्ला पड़ी, ‘‘हा, हां, औफिस तो मेरे बाप का है न जो मुझे बिना काम के सैलरी थमा देता है.

अरे, खुद को कोई ढंग की नौकरी मिली होती तब जानते न कोडिंग का काम कितना टैक्सिंग होता है. इतनी मोटी तनख्वाह यों ही मुफ्त में नहीं थमाते देते ये कंपनी वाले. पूरा खून चूसते हैं महीना भर, फिर जा कर सैलरी देते हैं.’’ इस पर समंदर भी क्रोध से उबल पड़ा, ‘‘बड़ी ही खुदगर्ज बंदी हो सच में जो कभी भी यह जताना नहीं चूकती कि तुम मुझ से ज्यादा कमा रही हो. आखिर घमंड भी तो इसी बात का है तुम्हें. तुम्हारे घर में पड़ा हूं, तुम पर डिपैंडैंट हूं तो ताने मारे बिना बाज थोड़े ही न आओगी.’’ उस की की ये जहर बुझ बातें सुन मेरा फ्यूज उड़ गया था और मैं भी क्रोधावेश में सुबकते हुए अपना आपा खो कर चीख उठी, ‘‘पता नहीं किस मनहूस घड़ी में मैं ने तुम से रिश्ता जोड़ा. नहीं रहना मुझे तुम्हारे साथ अब.’’ मैं ने रोते कलपते खिचड़ी चढ़ाई. फिर पेट भर खा कर मैं अपने बेड पर पड़ गई. घोर गुस्से में मैं ने उसे एक बार भी खाने के लिए नहीं पूछा. सुबह से लैपटौप पर काम करकर के शिद्दत की थकान तो हो ही रही थी, सो मुझे बिस्तर पर पड़ते ही नींद आ गई. सुबह उठी तो मेरे हाथों के तोते उड़ गए थे. समंदर घर में नहीं था. वह मय अपने सामान के घर से जा चुका था. मैं ने झट से उसे फोन लगाया, लेकिन वह मुझे ब्लौक कर चुका था. उस ने मुझे फेसबुक, मैसेंजर और इंस्टाग्राम पर भी ब्लौक कर दिया था.

रात के गुस्से का ज्वार उतर चुका था. पीछे छोड़ गया था गहन पछतावे की सूखी रेत. समंदर को खो कर मैं हाथ मलती रह गई थी. अकेले फ्लैट में मेरा मन न लगता. हर वक्त उस के बोल कानों में गूंजते रहते. उस की सूरत मेरी आंखों के सामने रहती. मुझे अभी तक एहसास न हुआ था कि मैं समंदर की आदी हो गई थी. मुझे उस के साथ रहने की आदत पड़ गई थी. पिछले 2 बरसों में वह मेरे वजूद का हिस्सा बन गया था. लाख चाहती, उसे भुला दूं लेकिन उसे भुलाना मेरे बस में न था. मैं ने उसे ढूंढ़ने के लिए हर उस शख्स से कौंटैक्ट किया जो उसे जानता था लेकिन वह इस दुनिया के हुजूम में न जाने कहां गुम हो गया था कि लाख ढूंढ़ने पर भी उस का कोई सुराग न मिला. मेरा अकेलापन मुझे खाए जा रहा था.

एक पल भी ऐसा न बीतता जब मुझे वह याद न आता हो. समंदर को उस का फ्लैट छोड़े पूरा बरस बीत गया लेकिन एक दिन भी ऐसा नहीं बीता जब समायरा ने उस की याद में आंसू न बहाए हों. उसे सुकून मिलता तो बस अपने काम में. औफिस में वह अपने काम में डूब जाती. पिछले 1 बरस में वह एक फर्म में बहुत अच्छी तरह से ैट हो गई है. सालभर में 25 परसैंट हाइक के साथ उस की सैलरी बहुत ही अच्छी हो गई है. वक्त अपनी ही चाल से बीतता गया. समंदर के जाने के बाद का दूसरा साल भी ठहरतेठिठकते किसी तरह से लंगड़ाती चाल से बीता.

पिछले बरस वह डेटिंग ऐप के माध्यम से कुछ लड़कों से मिली लेकिन कोई भी लड़का उस की नजरों में नहीं ठहरा और वह किसी से भी किसी रिश्ते में नहीं जुड़ पाई. समंदर को गए 2 बरस होने के बावजूद समायरा के अंतस में उस की यादों की लौ हमेशा जलती रहती. समंदर अब उस के दिल में एक मीठी कसक के रूम में हर पल, हर छिन मौजूद रहता. उस दिन संडे था.

समायरा हलकीहलकी गुलाबी ठंड में क्विल्ट में दुबकी हुई अन्यमनस्क सी फोन पर मैसेंजर पर जा कर स्क्रौल कर रही थी कि एक बंदे का प्रोफाइल देख उसे वह कुछ जानापहचाना लगा. उस ने गौर से उस का फोटो जूम किया. वह हड्डियों का ढांचा लग रहा था लेकिन उस के लंबोतरे और तनिक झर्रीदार चेहरे पर गिट्टों सी चमकती बड़ीबड़ी लाली लिए, किसी नशे में डूबी हुई सी आंखें, धंसे हुए गाल और जटा से बाल देख कर उसे वितृष्णा नहीं हुई वरन वह मानो सम्मोहित सी उसे एकटक देखती रही.

धीमेधीमे उस उजाड़ बुझेबुझे असमय बुढ़ा गए चेहरे पर एक और मनभावन चेहरा आकार लेने लगा जिस में कि कभी उस की जान बसती थी. उस के मानसपटल में बिजली सी कौंधी और उस के जेहन में उस की पहचान की घंटियां बजने लगीं. वह मन ही मन में बुदबुदाई कि अरे, यह तो समंदर है, मेरा समंदर. वह बैठीबैठी मानो सकते में आ गई और फिर अस्फुट स्वरों में बोली, ‘‘हां, यह वही है. वही गहरी बड़ीबड़ी तिलिस्मी आंखें, हां यह मेरा समंदर ही है लेकिन, लेकिन यह इस ने क्या हाल बना रखा है? ये बुझबुझ लाल आंखें जैसे नशे में डूबी हुई हों.’’ उस ने आननफानन में अपने और समंदर के कुछ कौमन फ्रैंड्स को फोन लगाया लेकिन समंदर का कुछ पता न लग पाया.

सुबह से दोपहर होने आई थी, उस ने अपने और समंदर के हर दोस्त को फोन कर के देख लिया था लेकिन उस का पता नहीं लगना था सो नहीं लगा. पूरा सप्ताह वह सुबह अपने औफिस जाने से पहले और शाम को वहां से आने के बाद घर में हर संभव नंबर पर उस का पता लगाने के लिए फोन करती रही लेकिन सब बेकार रहा. उस दिन फिर से संडे था. वह बिस्तर में लेटी हुई समंदर के बारे में, उस के साथ बीते दिनों के बारे में सोच रही थी कि तभी उस का फोन बजा. कोई अनजान नंबर था.

उस ने झपट कर फोन उठाया, ‘‘हैलो, किस से बात करनी है?’’ ‘‘जी, मुझे समायरा से बात करनी है.’’ ‘‘जी, कहिए, मैं समायरा ही बोल रही हूं?’’ ‘‘मैं डाक्टर नमन बोल रहा हूं. मुझे अपने एक फ्रैंड से पता चला, आप सागर का पता लगाने की कोशिश कर रही हैं.’’ समायरा को लगा मानो उस की धड़कन तेज हो गई हो. बोली, ‘‘जी, जी, आप ने बिलकुल सही सुना, आप जानते हैं, वह कहां है इस वक्त?’’ ‘‘जी, जी, बिलकुल जानता हूं. वी इस वक्त मेरे सामने ही है. मैं दुर्गापुरा, जयपुर में लोकेटेड सरकारी डिएडिक्शन सैंटर से बोल रहा हूं. कल देर रात उन्हें कोई भला मानुष हमारे सैंटर में छोड़ गया था.

उन्होंने ही हमें आप का नंबर दिया. क्या आप उन की रिश्तेदार हैं?’’ ‘‘जी, जी, वही सम?िए. आप अपना पूरा पता और करंट लोकेशन भेजिए. मैं वहां जल्दी से जल्दी पहुंचती हूं,’’ समायरा को लगा, उस की नसों में लहू रफ्तार से बहने लगा था. वह सैंटर उस के घर के बिलकुल पास था.

आननफानन में तैयार हो कर समायरा 10 मिनट में डिएडिक्शन सैंटर पहुंच गई. वहां के सीनियर डाक्टर नमन उस से बेहद गरमजोशी से मिले. वे उसे अस्पताल के लाउंज में ले गए जहां एक आराम कुरसी पर समंदर बेहद बेचैनी की हालत में कांपते हुए अधलेटा बैठा था. पसीनापसीना हो रहा था और फटीफटी आंखों से शून्य में ताकते हुए झर्रीदार स्किन के साथ अपनी उम्र से बहुत ज्यादा लग रहा था. उस की आंखें बंद थीं और वह कराहते हुए बारबार अपने पैर पटकते हुए अपना पेट पकड़ रहा था मानो बहुत दर्द में हो. उसे यों इस हालत में देख समायरा का कलेजा छलनी हो आया था.

वह समंदर के पास गई और उस ने उस के हाथ को सहलाया. तभी उस ने अपनी आंखें खोलीं और फटीफटी आंखों से उस की ओर देखते उए उस का हाथ झटक दिया और फिर अगले ही क्षण उस ने अपनी आंखें मूंद लीं लेकिन उस की आंखों में पहचान का कोई चिह्न नहीं आया. तभी डाक्टर नमन ने उस से कहा, ‘‘परेशान न हों, इतने दिनों से रैग्युलरली ड्रग्स लेने के बाद अब जब इसे ड्रग नहीं मिल रही तो इस की बौडी और ब्रेन बहुत शिद्दत से रिएक्ट कर रहे हैं. ये इस के विदड्राल सिमटम्स हैं. जैसेजैसे हम इस का इलाज करेंगे, ये कम होने लगेंगे. मैं इस सागर को पर्सनली जानता हूं.

जब इसे ड्रग्स एडिक्शन की शुरुआत ही हुई थी, यह खुद हमारे सैंटर नियमित रूप से आया करता था अपने एक फ्रैंड के साथ अपनी ड्रग्स की लत से मुक्ति पाने के लिए. तभी फिर एक बहुत दौलतमंद परिवार के ड्रग एडिक्ट बेटे के साथ दोस्ती होने पर यह उस के खर्च पर ड्रग्स लेने लगा और हार्ड कोर ड्रग एडिक्ट बन गया. जो इसे यहां सैंटर पर छोड़ गया, उस ने ही मुझे यह सब बताया. अब पिछले पूरे साल यह हमारे सैंटर पर नहीं आया है और अब आप देख ही रही हैं, यह बहुत बदहाली में है.’’ ‘‘डाक्टर, अगर मैं इन का ट्रीटमैंट रैग्युलरली कराऊं तो इस के नौर्मल होने के कितने परसैंट चांसेज हैं?’’ ‘‘जी समायराजी, हंड्रेड परसैंट होंगे.

अब हमारे पास सक्सैसफुल ट्रीटमैंट के हंड्रेड परसैंट औप्शंस हैं.’’ ‘‘जी बहुत अच्छा, मेरी बस एक ही रिक्वैस्ट है आप से, आप इस का बढि़या से बढि़या ट्रीटमैंट करें और हां, पैसों की बिलकुल फिक्र मत करिएगा. इस का महंगा से महंगा इलाज कराएं. मुझे बस इसे एक नौर्मल लाइफ जीते हुए देखना है.’’ ‘‘समायराजी, हमारा सैंटर सरकारी संस्था है तो आप को इन के डिएडिक्शन के लिए कुछ खर्चा नहीं करना होगा.

हमारे डिएडिक्शन प्रोग्राम में मरीज को मैडिकल, साइकोलौजिकल और सोशल सपोर्ट दी जाती है जिस से एडिक्ट इस व्यसन से नजात पा कर एक सामान्य जीवन जीने लगता है.’’ ‘‘जी, आप इस का ट्रीटमैंट जल्दी से जल्दी शुरू कर दीजिए प्लीज.’’ ‘‘जी, आप इस का रजिस्ट्रेशन करा कर आइए. उस के बाद मैं सैंटर में इस को एडमिट करने की औपचारिकता शुरू कराता हूं.’’ ‘‘ओके डाक्टर नमन, मैं अभी रजिस्ट्रेशन करा कर आती हूं.’’ समायरा रजिस्ट्रेशन करा कर आ गई और फिर डाक्टर्स और साइकिएट्रिस्ट की टीम ने उस का मैडिकल और साइकिएट्रिक आकलन किया.

इस के बाद डाक्टर नमन ने कहा, ‘‘हम सागर को अभी 14 दिनों के लिए एडमिट कर रहे हैं. इस के दौरान हम दवाइयों से उन के विदड्राल सिंटम्स को मैनेज करेंगे. इस दौरान उन की साइकोलौजिकल काउंसलिंग और थेरैपी चलेगी और हमें इस में आप का भी सहयोग चाहिए होगा. ‘‘आप को इस इलाज के दौरान बहुत सब्र से इन्हें सपोर्ट करना होगा. हम अपने सैंटर पर फैमिली काउंसलिंग सैशन रखते हैं, जिन्हें अटेंड कर आप को इन्हें कैसे सपोर्ट करना है, आप को गाइडैंस मिलेगी.’’ ‘‘जी, जी, डाक्टर, मैं जरूर अटैंड करूंगी. आप जैसा कहेंगे, मैं वैसा ही करूंगी.’’ ‘‘बस, बस, हमें आप जैसे सपोर्टिव रिश्तेदार मिल जाएं तो फिर क्या कहने? आप रोजाना यहां आती रहें और पेशैंट को इस लत को छोड़ने के लिए मोटिवेट करती रहें.’’ उस दिन के बाद से समायरा रोजाना औफिस जाने से पहले और औफिस से लौट कर आने के बाद डिएडिक्शन सैंटर पर आती रही.

धीरेधीरे डाक्टर नमन और उन की टीम के ट्रीटमैंट और समायरा की मोटिवेशनल सपोर्ट के दम पर सागर सामान्य होता चला गया. उसे आज वहां से छुट्टी मिल गई है. वक्त के साथ सागर एकदम नौर्मल हो गया था. सागर के सामान्य होने से समायरा की बेरंग जिंदगी में खुशहाली के इंद्रधनुषी रंग सज गए थे. अब उन दोनों के सामने समस्या थी उस की नौकरी की. समायरा ने अपने खर्चे पर सागर को घर के पास के कंप्यूटर सैंटर में कोडिंग के लिए जरूरी लैंग्युएजेस सीखने के लिए एडमिट करा दिया. वह खुद भी उसे प्रैक्टिकल लैवल पर लगभग नियमित रूप से कोडिंग की स्किल सिखाने उस के साथ रोजाना कंप्यूटर पर बैठती. सागर बेहद लगन से उस से कोडिंग सीखने लगा था.

जिंदगी ने डिएडिक्शन के बाद जो उसे दूसरा मौका दिया था, वह उसे व्यर्थ में जाया नहीं करना चाहता. समायरा से कोडिंग सीखते हुए उसे पूरा साल होने को आया. वह खासी अच्छी कोडिंग करने लगा है. अब सागर जगहजगह कोडर की पोस्ट के लिए अप्लाई करने लगा. आज का दिन सागर और समायरा के लिए बहुत खास है. आज अभीअभी सागर के ईमेल आईडी पर एक मेल आया है. सागर को एक प्रतिष्ठित फर्म में कोडर के तौर पर बढि़या पैकेज पर नियुक्ति मिल गई है. सागर बेइंतहा खुशी से समायरा को गोद में ले कर बुदबुदाते हुए फिरकी की तरह घूम उठा, ‘‘समायरा, तुम मेरी जिंदगी में न आती तो आज मैं इस मुकाम पर न पहुंचा होता.

मैं तुम्हारा कर्जदार हूं.’’ यह सुन कर समायरा ने उस के होंठों पर अपना हाथ रखते हुए कहा, ‘‘नहीं, कर्जदार तो मैं हूं तुम्हारी, जो तुम मेरी वीरान जिंदगी में दोबारा आए. वादा करो, अब कभी मुझे छोड़ कर नहीं जाओगे?’’ सागर ने उस के थरथराते अधरों पर अपने अधर रख उस से कहा, ‘‘नहीं, अब कभी तुम से दूर नहीं जाऊंगा. वादा, पक्का वादा.’’ समायरा और सागर दोनों इस शानदार सफलता को सैलिब्रेट करने शहर के पांचसितारा होटल आए हैं. रात के 11 बज चुके हैं.

दोनों होटल से घर लौट आए हैं. सागर ने समायरा को अपनी बांहों के घेरे में कसते हुए उस से कहा, ‘‘जिंदगी में तुम जैसा सैल्फलैस लाइफ पार्टनर बहुत मुश्किल से मिलता है. मेरा डिएडिक्शन करा के और मुझे कोडिंग सिखा कर तुम ने मुझे नई जिंदगी दी है. अब मैं तुम्हें दोबारा खोने का रिस्क कतई नहीं ले सकता. चलो, अब शादी कर लेते हैं.’’ ‘‘तुम ने तो मेरे मन की बात कर दी. मैं भी कुछ समय से इस के बारे में सोच रही थी. बोलो, कब करें?’’ ‘‘जब तुम चाहो.’’ ‘‘मैं कल ही मम्मा से इस बारे में बात करती हूं. तुम भी अपनी मां से इस बाबत बात कर लो.’’ ‘‘ओके, जैसा तुम कहें. ये बंदा तो आप के हुक्म का गुलाम है.’’ ‘‘अच्छाजी, गुलाम और आप,’’ दोनों खिलखिला उठे. बेपनाह खुशियों की कुनकुनी धूप से दोनों के चेहरे रोशन हो उठे थे.

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Hindi Satire Story: मेरा मोटापा

लेखक- हनुमान मुक्त

Hindi Satire Story: लोग कहते हैं कि पतिपत्नी का रिश्ता सात जन्मों का होता है लेकिन मुझे पूरा विश्वास है कि मेरा और मेरे मोटापे का रिश्ता उस से भी ज्यादा जन्मों का है. मैं ने मोटापा कम करने कीं लाख कोशिशें की लेकिन क्या मजाल जो यह थोड़ा सा भी कम हुआ हो. पत्नी तो फिर भी कभी रूठ जाती है लेकिन मेरा मोटापा कभी नहीं रूठता. ऐसा लगता है इस का मुझ से जन्मजन्मांतरों का रिश्ता है. यह मुझ से अत्यधिक प्यार करता है. इस का मुझ से एकतरफा प्यार है. मैं चाहता हूं यह मुझ से दूर चला जाए, मुझे छोड़ जाए, मुझे छोड़ कर अन्य किसी से रिश्ता बना ले लेकिन इतना चाहने के बावजूद यह मुझ से बेवफाई नहीं करता.

कई बार मैं ने सोचा यह मुझे हमेशा के लिए छोड़ कर नहीं जाना चाहता तो कोई बात नहीं जाए लेकिन कुछ दिनों के लिए तो यह मुझे छोड़ कर जा सकता है ताकि मैं भी कुछ ही दिन सही ब्रैंडेड जींस, शर्ट पहन कर स्मार्ट बन कर अपने सपनों की रानी को रिझ सकूं. मगर यह है कि मुझे किसी भी हालत में छोड़ना ही नहीं चाहता. हमेशा मुझ से चिपका रहता है. मेरी पत्नी तो फिर भी कभी मायके चली जाती है, लेकिन मेरा मोटापा मेरे साथ बिस्तर, कुरसी और यहां तक कि मेरे सपनों तक में हमेशा विचरण करता रहता है.

बचपन में मां कहती थीं, ‘‘बेटा, खूब खाया करो खाने से ही ताकत आती है.’’ मां की इस नसीहत की अवहेलना मैं कैसे करता? मैं ने भी उस का खूब पालन किया और खूब खाया. मां के इस प्यार की कीमत मुझे आज ही नहीं बल्कि बचपन से ही चुकानी पड़ रही है. मैं ताकतवर बनने के बजाय टैंक बनता चला गया. बचपन में पड़ोस की आंटियां मेरे गदराए गालों को खींच कर कहतीं, ‘‘कितना गोलमटोल सुंदर लगता है.’’ तो मैं सोचता था आंटियां मेरी तारीफ कर रही हैं. मगर अब महसूस हो रहा है कि वे मेरी तारीफ नहीं बल्कि वह सब मेरे मोटापे की भविष्यवाणी थी.

स्कूल के दिनों में जब मैं अपने सारे दोस्तों के साथ साइकिल से स्कूल जाता था, तब ऐसा महसूस होता था मैं साइकिल पर नहीं बल्कि साइकिल मेरे ऊपर चढ़ कर स्कूल जा रही है. खेलकूद में जब बाकी लड़के 100 मीटर दौड़ते थे, मैं 10 मीटर में ही फिनिश लाइन घोषित कर देता था. क्लास में लड़कियां पतलेपतले लड़कों को देख कर वाहवाह करती थीं और मुझे देख कर कहतीं, ‘‘इस में तो हमारे पूरे टिफिन की जगह हो जाएगी.’’ यह सुन कर मेरे दिल पर सांप लोट जाया करता था.

कालेज में जब लड़के जींसटीशर्ट पहन कर आते थे, तब मेरा भी मन होता था. मैं भी इन की तरह कपड़े पहनूं लेकिन मुझे कपड़े सिलवाने दर्जी की दुकान पर ही जाना पड़ता था. दोस्त कहने को मेरे दोस्त बनते थे लेकिन जब भी मौका मिलता मेरा मजाक उड़ाने से बाज नहीं आते. वे मुझ से कहते, ‘‘तेरी हंसी बहुत अच्छी है.’’ असल में हंसते समय मेरा पेट गोलगोल हो कर जोरजोर से हिलता था. उन्हें यह देख कर मजा आता था, इसलिए वे ऐसा कहते थे. एक ओर जहां लड़कियां दूसरे लड़कों से गुलाब ले लिया करती थीं, वहीं वे लड़कियां मुझ से गुलाब न ले कर अपने खाने को समोसे मंगवाती थीं. मैं खुशीखुशी उन के लिए समोसे ले आता था ताकि मुझे स्वीकार कर लें.

एक बार मैं ने भी मौका देख कर पार्क में प्रेम प्रस्ताव रखा. लड़की ने हंसते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे साथ मैं कैसे रह सकूंगी मेरे समोसे? यदि रहूंगी तो मुझे कभी तुम्हारे साथ कुरसी पर बैठने की जगह तक नहीं मिलेगी.’’ और उस ने मेरा प्रेम प्रस्ताव ठुकरा दिया. तब समझ आया कि मोटापा सिर्फ शरीर पर ही नहीं बल्कि प्रेमजीवन पर भी बोझ डालता है. मेरे हमउम्र साथियों को रिश्ते खूब आते थे. वे लड़कियों पर लड़कियां देखदेख कर रिजेट भी किया करते थे, वहीं दूसरी ओर मुझे देख कर कुंआरियों के पिता मुझे रिजैक्ट कर के चले जाया करते थे. कुछ वर्षों तक ऐसा ही चलता रहा. मुझे मन ही मन अपने मोटापे से कुढ़न होने लगी थी. ऐसा लग रहा था कि मेरी शादी नहीं होगी, मुझे कुंआरा ही रहना पड़ेगा. मगर भला हो मेरे फूफाजी का जिन्होंने किसी तरह अपनी रिश्तेदारी में समझबुझ कर मेरी शादी करा दी. फूफाजी ने उन से कहा, ‘‘दूल्हा मोटा नहीं है बल्कि खातेपीते परिवार का है और स्वस्थ है.’’ इसीलिए शादी में सब रिश्तेदार कहते रहे, ‘‘कितना स्वस्थ दूल्हा है.’’ तब पहली बार लगा कि मोटापा भी ‘स्वास्थ्य’ नाम की चादर ओढ़ कर समाज में सम्मान पाता है.

शादी के बाद पत्नी ने कहा, ‘‘अब तुम्हें थोड़ा कमाना चाहिए.’’ चोर की दाढ़ी में तिनका, मुझे सुनाई दिया वह कह रही है, मुझे कम होना चाहिए. असल में पत्नी समझ रही थी कि मैं कमाऊंगा, जबकि मैं समझ रहा था कि मुझे कम खाना पड़ेगा. जहां लोग जीने के लिए खाते हैं, वही मैं खाने के लिए जीता हूं. लोग खाने को दवा मानते हैं और मैं खाने को धर्म मानता हूं. पानी पूरी वाले से मेरा रिश्ता आत्मीय है. जब मैं पानी पूरी खाता हूं और खाते हुए काफी देर हो जाती है तो वह कहता है, ‘‘बस?’’ उस की बस सुन कर मैं कहता हूं, ‘‘बस तो मैं ने कभी कहा नहीं और यदि तुम्हें लग रहा है कि अब बहुत हो गया तो कोई बात नहीं.’’ असल में मोटापा बढ़ने का कारण यही है. मैं ने कभी स्टौप बटन नहीं दबाया.

मैं चाहता हूं कि मैं जींस पहनूं, पर जींस का बटन मेरी सांसों के साथ राष्ट्रीय खेल खेलता है. दुकानदार मेरा साइज देख कर हंसता है. वह मेरा मजाक उड़ाता हुआ कहता है, ‘‘भाई साहब, आप के लिए तो परदे का कपड़ा ही काम आएगा.’’ कई बार मेरे मन में बहुत सारे ऊलजलूल विचार उठते हैं. मैं सोचता, काश कोई फैशन शो होता जिस में ‘सब से बड़े बटन बंद करने’ की प्रतियोगिता होती और मैं गोल्ड मैडलिस्ट बन जाता. जब किसी की शादीब्याह के अवसर पर मैं जाता हूं तो लोग मुझे देख कर बड़ी इज्जत से कहते हैं, ‘‘अरे वाह, कितना भरापूरा इंसान है.’’ यह ‘भरापूरा’ शब्द दरअसल मोटापे पर चाशनी है. यही मोटापे का सब से सुंदर पर्यायवाची है. बच्चों को मैं टैडीबियर जैसा लगता हूं. वे मुझे देख कर खुश हो जाते हैं.

कभीकभी कुछ बच्चे तो मुझ से कह देते हैं, ‘‘अंकल, आप तो टैडीबियर लगते हो.’’ और उन की बात सुन कर उन की खुशी में शामिल हो कर मैं गर्व से कहता हूं, ‘‘कम से कम खिलौने जैसा तो हूं.’’ कई बार डाक्टरों ने मुझ से कहा, ‘‘अपना वजन घटाओ.’’ उन के कहने के अनुसार मैं ने डाइटिंग करने की कोशिश की पर जब डाइट चार्ट में लिखा मिला, ‘‘सुबह 2 चपाती, दोपहर में सलाद, शाम को 2 चपाती और सलाद, तो मुझे लगा कि यह डाइट मेरे लिए नहीं किसी गिलहरी के लिए है. मेरे लिए मोटापा और डाइटिंग का रिश्ता वैसा ही है जैसे मेरा और गणित का. मुझ से कभी यह निभा ही नहीं. शायद इसीलिए मेरा प्यारा मोटापा मुझे छोड़ कर एक दिन भी कहीं नहीं गया.

अब तो जब भी डाक्टर साहब मुझे कहते हैं, ‘‘वजन घटाओ’’ तो मैं कहता हूं, ‘‘डाक्टर साहब, वजन घटाने के बजाय आप मेरा वजन बढ़ा कर नया वर्ल्ड रिकौर्ड बनवाओ?’’ औफिस में सब सहकर्मी कहते हैं, ‘‘तुम्हारी उपस्थिति मीटिंगरूम में अलग ही माहौल बना देती है.’’ असल में उन का मतलब होता है, ‘‘तुम बैठते हो तो बाकी लोगों के लिए बैंच कम पड़ जाती है.’’ ऐसा लगता है कि औफिस में भी मैं फर्नीचर टैस्टिंग मशीन हूं. मेरे दोस्त मुझ से कहते हैं, ‘‘तेरे पास बैठ कर हम बहुत सुरक्षित महसूस करते हैं. तू दीवार जैसा है.’’ सच भी है, अगर कोई उन्हें धक्का मारे तो मेरा मोटापा एअरबैग की तरह उन्हें बचा लेता है यानी उन के लिए मैं चलतीफिरती ‘सेफ्टी किट’ का काम करता हूं. मेरे बस में चढ़ते ही सवारियां मुझे देख कर 2 सीटें छोड़ देती हैं. कंडक्टर भी मेरे द्वारा 2 सीट घेरने पर डबल टिकट लेने की मांग करता है.

हालांकि उस के कहने के बावजूद मैं एक ही टिकट लेता हूं और 2 सीटें घेरता हूं. यही हाल ट्रेन में होता है, टिकट 1 का, पर जगह 2 की घेरता हूं. मेरे मोटापे के कारण मेरी पत्नी को मुझ से काफी शिकायतें रहती हैं. वे अकसर कहती है, ‘‘तुम्हें ले कर घूमना बहुत मुश्किल है.’’ मजाक में मैं उस से कहता हूं, ‘‘हां सही है. कम से कम तुम्हें सूटकेस ले जाने की जरूरत नहीं, मैं ही चलताफिरता पूरा सूटकेस हूं.’’ मेरी पत्नी का मोबाइल प्रेम और मेरा मोटापा अकसर भिड़ते रहते हैं. वह मुझ से कहती है, ‘‘तुम्हें फिट रहना चाहिए.’’ मैं कहता हूं, ‘‘तुम्हें मोबाइल से छुटकारा पाना चाहिए.’’ वह मोबाइल नहीं छोड़ सकती और मोटापा मुझे. अब तो हालत यह है कि मैं और मेरा मोटापा एकदूसरे के बिना अधूरे हैं.

रात को तकिया गिर जाए तो पत्नी उठा सकती है. लेकिन अगर मैं गिर जाऊं तो पूरे मुहल्ले को आ कर मुझे उठाना पड़ेगा. मोटापे ने मुझे पर्सनल प्रौपर्टी से पब्लिक प्रौपर्टी बना दिया है. अब मैं सिर्फ व्यक्ति नहीं बल्कि सार्वजनिक संपत्ति हूं. पहले मैं मोटापे से डरता था अब मैं मोटापे से जीता हूं. मोटापा मेरे साथ हर सुखदुख में है. यह मेरे जीवन का स्थाई साथी है. पत्नी कभी गुस्सा हो सकती है, दोस्त दूर जा सकते हैं, पर मोटापा हमेशा मेरे साथ रहेगा. इसलिए मैं ने निश्चय किया है कि अगले जन्म में भगवान से यही वरदान मांगूंगा, ‘‘हे प्रभु, अगर मुझे मोटापे से मुक्ति नहीं दे सकते तो कम से कम मुझे धरती बना देना ताकि लोग मेरे ऊपर चलें और कहें कि वाह, कितनी ठोस जमीन है.’’

Hindi Satire Story

कभी सुनते हैं ताने, कभी बटोरते हैं वाहवाही, आखिर कैसी है पैपराजी की दुनिया

Paparazzi: एक इवेंट में जाते हुए अभिनेत्री जया बच्चन ने पैपराजी से कहा,”चुप रहो, मुंह बंद रखो, फोटो लो, खत्म. आप लोग फोटो लो, लेकिन बदतमीजी मत करो,’ वे कुछ देर तक पैप्स को घूरती रहीं, इस के बाद श्वेता बच्चन आ कर अपनी मां को कार में ले गईं.

यह पहली बार नहीं है जब जया फोटोग्राफर्स पर इस तरह भड़की हों. पिछले कुछ सालों में जया ने पैपराजी की काफी निंदा की है, जिसे वे अपमानजनक या दखलंदाजी मानती हैं. एक जगह तो उन्होंने पैपराजी को चूहा तक कह डाला है, जो हाथों में मोबाइल फोन ले कर किसी की भी प्राइवेसी में घुस सकते हैं.

इतना ही नहीं, अभिनेत्री काजोल भी इस में कम नहीं. एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा है कि पैपराजी कल्चर को ले कर मैं सचेत रहती हूं. मुझे लगता है कि कुछ जगहों पर उन्हें नहीं होना चाहिए. मुझे यह बहुत अजीब लगता है, जब वे किसी अंतिम संस्कार में कलाकारों के पीछे भागते और तसवीरें खींचते हैं. उन की वजह से आप कहीं लंच पर भी नहीं जा सकते. वे कई बार बांद्रा से जुहू तक पीछा करते हैं.

खुद फोन कर बुलाते हैं उन्हें

यह सही है कि कुछ कलाकार उन की इन हरकतों से परेशान होते हैं, जबकि कई कलाकार पैपराजी को खुद बुलाने के लिए अपने एजेंटों या पीआर टीम का इस्तेमाल करते हैं. यह अकसर एक रणनीति के रूप में किया जाता है, ताकि अच्छी पब्लिसिटी मिल सके और यह उन कलाकारों के लिए आम है, जो अकसर चर्चा में रहना चाहते हैं.

उदाहरण के लिए उर्फी जावेद और राखी सावंत जैसी हस्तियां खबरों में रहने के लिए इस रणनीति का उपयोग करने के लिए जानी जाती हैं.

ये लोग पैपराजी को पहले से ही फोन कर किसी निश्चित स्थान पर मौजूद रहने के लिए कहते हैं, ताकि वे किसी विशेष घटना की तसवीरें ले सकें. ये कलाकार या उन के प्रतिनिधि पैपराजी को अपने स्थान पर बुलाते हैं. यह अकसर तब किया जाता है, जब वे किसी कार्यक्रम, फैशन शो या किसी और सार्वजनिक कार्यक्रम में भाग लेने वाले होते हैं. इस से उन्हें बगैर पैसा खर्च किए मुफ्त में पब्लिसिटी मिल जाती है.

असल में यह उन कलाकारों के लिए एक आम बात है, जो अकसर खबरों में रहना चाहते हैं और मीडिया का ध्यान अपनी ओर खींचना चाहते हैं.

कैसे मिला शब्द पैपराजी

‘पैपराजी’ शब्द को ऐसे बहुत होंगे, जिन्होंने अपनी लाइफ में कभी न कभी जरूर सुना होगा और वहीं अगर आप मनोरंजन इंडस्ट्री से जुड़ी खबरें पढ़ते या सेलेब्स के वीडियो देखते हैं, तो आप इस शब्द से जरूर वाकिफ होंगे. सैलिब्रिटी की पर्सनल और प्रोफेशनल लाइफ से जुड़ी छोटीछोटी अपडेट देने वाले फोटोग्राफर्स को पैपराजी कहा जाता है. लेकिन क्या आप जानते हैं कि उन्हें यह नाम कैसे मिला और कहां से इस कल्चर की शुरुआत हुई थी? अगर नहीं, तो चलिए हम आप को बताते हैं इस से जुड़ा एक दिलचस्प किस्सा.

साल 1960 में आई फेडेरिको फेलेनी की इतालवी फिल्म ‘ला डोलचे विता’ में सब से पहले इस शब्द का प्रयोग किया गया था, जिस में एक फोटोग्राफर का नाम ‘पापाराजो’ होता है. मूवी में उसे बिना किसी की अनुमति के मशहूर हस्तियों का पीछा करते हुए उन की पर्सनल व प्रोफेशनल लाइफ की तसवीरें क्लिक करते हुए दिखाया जाता है. बाद में इसी किरदार का नाम ऐसे फोटोग्राफरों को मिला, जो सेलेब्स की लाइफ में बिना उन की मरजी के फोटो खींच लेते हैं.

कैसी है इन की दुनिया

इस बारे में मुंबई की फोटोकौर्प में 15 साल से फोटोग्राफर का काम करने वाले जफर शकील खान कहते हैं कि इस काम में मेहनत बहुत होती है. कम से कम 12-14 घंटे काम करना पड़ता है. एक बार घर से निकला तो कब घर पहुंचेंगे पता नहीं होता. मैं बांद्रा, जुहू, अंधेरी आदि सभी जगहों को कवर करता हूं. वहां एक बार जाने पर कब कुछ स्नैप मिलेगा या नहीं, यह कहना मुश्किल होता है, हालांकि इस काम को मैं ऐंजौय करता हूं, क्योंकि इसे करते हुए हम सैलिब्रिटी से मिलते और बातचीत करते हैं.

वे आगे कहते हैं कि मुंबई में मैं बचपन से रह रहा हूं और फिल्मी दुनिया और उस से जुड़े लोगों के बारे में हमेशा मैं उत्सुक रहता था. यही वजह है कि मैं ने फोटोग्राफी को अपना पैशन बनाया, क्योंकि बचपन में मेरा मन पढ़ाई में लगता नहीं था, फोटोग्राफी तब मेरा शौक था, बाद में अब यह प्रोफेशन बन चुका है.

परिवार का सहयोग था मुश्किल 

वे आगे कहते हैं कि परिवार वालों से जब मैं ने अपनी इस इच्छा के बारे में बताया तो उन्होंने कुछ दूसरा काम करने की सलाह दी, लेकिन मैं ने कहा कि मेरा मन इसी क्षेत्र में जाने की है, फिर उन्होंने मुझे कैमरा खरीद कर दिया, जो ₹80 हजार का था. पहले मैं मोबाइल से ही शूट कर लेता था. बाद में कैमरे से पिक्चर खींचने लगा. मैं फोटोकौर्प के साथ जुड़ा हूं, उन्होंने महंगा कैमरा खरीद कर दिया है. अभी कैमरा और आईफोन दोनों से रील्स बना कर सोशल मीडिया पर डालता हूं. सैलरी ₹20 से 25 हजार तक होती है, जबकि सीनियर्स ₹50 हजार से अधिक भी कमा लेते हैं. लेकिन मैं जौब के साथसाथ पैप पेजेस पर छोटेछोटे प्रोमोशनल रील्स छोटेछोटे प्रोडक्शन हाउस के लिए बना कर सोशल मीडिया पर डालता हूं. ये सारे पोस्टिंग पेड होते हैं. मेरी कंपनी में दिन में 7 से 8 लोग और रात में भी उतने ही लोगों की ड्यूटी होती है.

पीआर और प्रोडक्शन हाउस

जफर आगे कहते हैं कि ऐसी तसवीरों के लिए पीआर और प्रोडक्शन हाउस खुद फोन कर हमें बुलाते हैं और बताते हैं कि अमुक आर्टिस्ट फलां जगह पर आ रहा है, आप पहुंच जाइए. इस में अभिनेत्री राखी सावंत, उर्फी जावेद, उर्वशी रौटेला आदि कई हैं, लेकिन ये लोग फोटो लेते समय ऐसा शो करते हैं कि उन्होंने हमें बुलाया नहीं है, हम सब खुद ही आ गए हैं, जबकि ऐसा कम होता है.

कवर करना नहीं पसंद

सब से अधिक अभद्र बातें अभिनेत्री जया बच्चन और काजोल बोलती हैं. उन्हें हम कवर करना भी पसंद नहीं करते. इस के अलावा ये खुद पोज अच्छी नहीं देतीं, बाद में डांटती हैं कि तुम लोगों ने अच्छा फोटो नहीं खींचा है. एक समय में हजारों तसवीरें लेनी पड़ती हैं, जिन में से अच्छी पिक्चर निकाल कर ही हम उसे अपलोड करते हैं.

कार का नंबर

जफर कहते हैं कि कई बार तो हम आर्टिस्ट के गाड़ी नंबर को देख कर भी फौलो कर लेते हैं. उन के कार के नंबर हमें याद रहते हैं. एक दिन मैं अपने दोस्त के साथ जुहू पर बैठा चाय पी रहा था. वहां से मैं ने कपूर खानदान की कई गाड़ियों को तेजी से जाते हुए देखा. मुझे लगा कि कुछ गड़बड़ है. मैं ने चायवाले को पैसे दे कर बाइक पर उन के पीछे भागा, तो पता चला कि बोनी कपूर की मां का देहांत हो गया है. वहां बोनी कपूर, अनिल कपूर और संजय कपूर सभी ने आ कर अपनी संवेदना व्यक्त की. कुछ कलाकारों के मना करने पर हम उन की तसवीरें नहीं लेते.

घंटों प्रयास के बाद भी होते हैं खाली हाथ

वे कहते हैं कि कई बार घंटों प्रयास करने के बाद एक भी तसवीर नहीं मिलती. अभिनेता धर्मेंद्र के देहांत के बाद किसी को भी उन के अंतिम यात्रा की एक भी तसवीर नहीं मिली. सभी बहुत मायूस हुए. सभी ने घंटों इंतजार किया था. उन का बेटा सनी देओल भी बहुत अभद्र तरीके से हम सभी से बात कर रहे थे. उस समय कोई कुछ बोल नहीं सकता, क्योंकि यह उन के लिए दुख की घड़ी थी.

जफर कहते हैं कि इंडस्ट्री में कपूर खानदान मीडिया के साथ बहुत कोआपरेटिव हैं. अभिनेत्री श्रीदेवी के देहांत के समय हम सभी ने पूरी फोटोग्राफी की थी और उन्होंने ऐसा करने भी दिया था. सब प्रोडक्शन हाउस की मार्केटिंग स्ट्रेटजी अलगअलग होती है. कुछ कलाकार काफी अच्छे होते हैं. अभिनेत्री रानी मुखर्जी को हम सब दीदी कह कर बुलाते हैं. वे हमेशा अच्छी तसवीरें देती हैं.

इस के अलावा अभिनेता रणवीर कपूर, सुनील शेट्टी, रोहित शेट्टी आदि के डाइरैक्ट नंबर हमारे पास हैं. वे घर के सदस्यों की तरह हम से व्यवहार करते हैं और उन्हें हम हमेशा कवर करते रहते हैं. इस काम में पहले 1-2 लड़कियां थीं, अब नहीं हैं, क्योंकि इस में भागदौड़ बहुत होती है. कोई टाइमटेबल नहीं होता. फोन आने पर हमें वहां तुरंत पहुंचना होता है. खान बदर्स भी बहुत अच्छे हैं, लेकिन अभी सुरक्षा की वजह को ले कर अभिनेता सलमान खान आजकल अधिकतर हमें अपने जन्मदिन पर बुलाते नहीं. उन के आगेपीछे कमांडो रहते हैं.

इस प्रकार पैपराजी फोटोग्राफरों की दुनिया आसान नहीं होती. गरमी हो, बारिश हो या ठंड हर परिस्थिति में ये अपने कैमरे के साथ सैलिब्रिटीज के आसपास चुपके से खड़े रहते हैं और उन की हरेक मूवमेंट को कैमरे में कैद कर उन के चाहने वालों तक पहुंचाते रहते हैं, जिस से लोग उन्हें और उन की फिल्मों को देखना पसंद करने लगते हैं. उन्हें हमेशा सब से तेज रहना होता है, क्योंकि कोई पिक्चर अगर सोशल मीडिया पर पहले आ गई, तो उन की खींची हुई तसवीरें और उस के पीछे की सारी मेहनत बेकार हो जाती है.

Paparazzi

Sanjay Dutt: जब 100 करोड़ की प्रॉपर्टी के लिए पुलिस स्टेशन से आया कॉल

Sanjay Dutt: बॉलीवुड एक्टर 66 वर्षीय संजय दत्त अपने अभिनय करियर के अलावा पर्सनल जिंदगी में भी कई सारे उतार-चढ़ाव देख चुके हैं, तीन शादियों से लेकर जेल जाने तक काफी सारे दुखसुख और झटके झेले हैं, जिसका इल्जाम भी उन्होंने पूरे ईमानदारी से अपने ऊपर लिया. और चाहे कितनी मुसीबत आ कर गई हो, संजय दत्त ने जिंदगी में कभी भी पीछे मुड़ कर नहीं देखा, बस सिर्फ और सिर्फ अपने काम पर ध्यान दिया. हजारों मुश्किलों के बावजूद संजय दत्त ने अभिनय करियर कभी नहीं छोड़ा और हमेशा अभिनय में सक्रिय रहे.

बतौर हीरो एक समय में फिल्मों में छाए रहने वाले संजय दत्त ने अन्य फिल्मों में छोटे बड़े रोल सभी किए, लेकिन एक्टिंग कभी नहीं छोड़ी. इसी बात का नतीजा है, कि संजय दत्त आज भी हिट हैं, फिल्मों में सक्रिय है और इतना सब कुछ होने के बावजूद नायक से खलनायक तक का सफर तय करने के बावजूद उनके लाखों फैंस है जो संजय दत्त को क्रिमिनल या गलत इंसान नहीं, बल्कि एक अच्छा एक्टर और सुलझा हुआ इंसान मानते हैं.

अपनी गलतियों को हमेशा मानने वाले और गलतियों से सीखने वाले संजय दत्त के कई फैंस में एक फैन ऐसी निकली जिसने अपनी 100 करोड़ की प्रौपर्टी मरते मरते संजय दत्त के नाम कर दी.

संजय दत्त ने अपने इस जबरदस्त फैन के बारे में हाल ही में एक इंटरव्यू में बताया, संजय दत्त के अनुसार मुझे एक बार पुलिस स्टेशन से फोन आया और मुझे मिलने आने के लिए बोला तो मैं थोड़ा डर गया कि अभी मैंने ऐसा क्या कर दिया कि पुलिस स्टेशन से फोन आया, तो पुलिस वाले ने भी मेरी चिंता देखकर कहां कोई ऐसी गलत बात नहीं है आप आ जाओ फिर बात करते हैं, जब मैं पुलिस स्टेशन पहुंचा तो वह पुलिस इंस्पेक्टर ने बताया कि मेरी एक प्रशंसक जो कि साउथ मुंबई में रहती थी जिसका नाम निशा पाटिल है वह काफी बीमार चल रही थी उसने मरने से पहले करीबन 100 करोड़ की प्रॉपर्टी मेरे नाम कर दी है.

यह सुनकर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ लेकिन मुझे ये नहीं सही लगा कि मैं उनकी प्रॉपर्टी लूं जिनको मैं जानता भी नहीं था, इसलिए मैंने उनके परिवार वालों को बुलाया और सारी प्रॉपर्टी उनको ही दे दी, इस शर्त के साथ कि वह प्रापर्टी पैसों का सही जगह इस्तेमाल करेंगे. उस दिन मुझे खुशी के साथ इस बात का एहसास हुआ कि अपने फैंस और उनके प्यार की वजह से ही आज मैं जिंदा हूं, और फिल्मों में सक्रिय हूं और हजारों तकलीफों के बाद भी इस मुकाम पर हूं.

Sanjay Dutt

Drama Story: आ बैल मुझे मार- मुसीबत को बुलावा देते शख्स की कहानी

Drama Story: मुसीबत का क्या है, आती ही रहती है. अगर हिम्मत से काम लिया जाए तो मुसीबत टल भी जाती है. लेकिन उस इनसान का क्या करें, जो मुसीबत से खुद ही अपना सिर फोड़ने को तड़प रहा हो. शायद, ऐसे ही बेवकूफ लोगों के लिए ‘आ बैल मुझे मार’ वाली कहावत बनी है.

बात शायद आप की भी समझ में नहीं आ रही है. दरअसल, हम अपनी ही बात कर रहे हैं. चलिए, आप को पूरा किस्सा सुना देते हैं.

तकरीबन 2 हफ्ते पहले हम अपनी खटारा मोटरसाइकिल पर शहर से बाहर रहने वाले एक दोस्त से मिल कर वापस लौट रहे थे. शाम हो गई थी और अंधेरा भी घिर आया था. हम जल्दी घर पहुंचने के चक्कर में खूब तेज मोटरसाइकिल चला रहे थे.

अचानक हम ने सड़क के किनारे एक आदमी को पड़े देखा. पहले तो हमें लगा कि कोई नशेड़ी है जो सरेआम नाली में पड़ा है, लेकिन नजदीक पहुंचने पर हमें उस के आसपास खून भी दिखा. लगता था कि किसी ने उस को अपनी गाड़ी से टक्कर लगने के बाद किनारे लगा दिया था.

पहले तो हम ने भी खिसकने की सोची. यह भी दिमाग में आया कि इस लफड़े में पड़ना ठीक नहीं, लेकिन ऐन वक्त पर दिमाग ने खिसकने से रोक दिया.

हम ने उस आदमी को उठा कर अच्छी तरह से किनारे कर दिया. उस के सिर में गहरी चोट लगी थी. खून रुक नहीं रहा था. शायद उस के हाथ की हड्डी भी टूट गई थी.

गनीमत यह थी कि वह आदमी जिंदा था और धीरेधीरे उस की सांसें चल रही थीं. हम ने भी उसे बचाने की ठान ली और आतीजाती गाडि़यों को रुकने के लिए हाथ देने लगे.

बहुत कोशिश की, पर कोई गाड़ी  नहीं रुकी. परेशान हो कर जैसे ही हम ने हाथ देना बंद किया, वैसे ही एक टैक्सी हमारे पास आ कर रुकी. शायद वह भी हमारी तरह अपने खालीपन से परेशान था. जो भी हो, उस ने हमें बताया कि शहर तक जाने के लिए वह दोगुना किराया लेगा और मुरदे के लिए तिगुना.

हम ने बड़े सब्र के साथ बताया कि यह मुरदा नहीं, जिंदा है और हमारी यह पूरी कोशिश होगी कि इसे बचाया जा सके. हम ने उस से यह भी कहा कि वह जख्मी को टैक्सी में ले कर चले, जबकि हम अपनी खटारा मोटरसाइकिल से पीछेपीछे आएंगे. हमारे लाख समझाने पर भी टैक्सी वाला उसे अकेले टैक्सी में ले जाने को तैयार नहीं हुआ.

अब हम ने सिर पर कफन बांध

लिया था, सो खटारा मोटरसाइकिल

को अच्छी तरह से तालों से बंद किया और टैक्सी में बैठ गए. थोड़ी देर

में जख्मी को साथ ले कर सरकारी अस्पताल पहुंच गए.

बड़ी मुश्किल से हम वहां डाक्टर ढूंढ़ पाए, पर उस ने भी जख्मी को भरती करने से साफ इनकार कर दिया. हम से कहा गया कि यह पुलिस केस है. पुलिस को बुला कर लाओ, तब देखेंगे.

हम ने फोन मांगा, तो डाक्टर ने फोन खराब होने का बहाना बना दिया. तब हम ने थाने का रास्ता पूछा.

जब हम थाने पहुंचे तो पूरा थाना खाली पड़ा था. महज एक सिपाही

कोने में खड़ा था. हम ने उसे जल्दीजल्दी पूरा हाल बताया और साथ में चलने

को कहा.

वह थोड़ी देर कुछ सोचता रहा, फिर बोला, ‘‘देखिए, थोड़ी देर रुक जाइए. अभी साहब लोग अंदर वाले कमरे में बिजी हैं, क्योंकि एक मुजरिम से पूछताछ हो रही है. वे आ जाएंगे, तभी कोई फैसला लेंगे.’’

हम अभी उसे आदमी की जान की कीमत समझाने की कोशिश कर ही रहे थे कि अंदर वाले कमरे से 3-4 पुलिस वाले पसीना पोंछते हुए बाहर आए. उन के चेहरे से लग रहा था कि वे मुजरिम से अपने तरीके से पूछताछ कर के निकले हैं.

हम वरदी पर सब से ज्यादा सितारे लगाए एक पुलिस वाले के पास फुदक कर पहुंचे और अपनी बात कहने की कोशिश की. ठीक से बात शुरू होने से पहले ही उस ने एक जोर की उबासी ली और हम से कहा कि अपनी रामकहानी जा कर हवलदार को सुनाओ और रिपोर्ट भी लिखवा दो. उस के बाद देखा जाएगा कि क्या किया जा सकता है.

हम भाग कर हवलदार साहब के पास गए और जख्मी का इलाज कराने की अपील की.

हवलदार ने पूछा, ‘‘आप का क्या लगता है वह?’’

‘‘जी, कुछ नहीं.’’

‘‘तो मरे क्यों जा रहे हैं आप? देखते नहीं, हम कितना थक कर आ रहे हैं.

2 मिनट का हमारा आराम भी आप से बरदाश्त नहीं होता क्या?’’

‘‘देखिए हवलदार साहब, आप का यह आराम उस बेचारे की जान भी ले सकता?है. आप समझते क्यों नहीं…’’

‘‘आप क्यों नहीं समझते. मरनाजीना तो लगा रहता है. जिस को जितनी सांसें मिली हैं, उतनी ही ले पाएगा.

‘‘और आप से किस ने कहा था कि मौका ए वारदात से उसे हिलाने के लिए. बड़े समझदार बने फिरते हैं, सारा सुबूत मिटा दिया. गाड़ी का नंबर भी नोट नहीं किया. अब कैसे पता चलेगा कि उसे कौन साइड मार कर गया था. पता लग जाता तो केस बनाते.’’

हम भी तैश में आ गए, ‘‘आप को सुबूतों की पड़ी है, जबकि यहां किसी भले आदमी की जान पर बनी है. आप की ड्यूटी यह है कि पहले उसे बचाएं. सारे कानून आम आदमी की सहूलियत के लिए बनाए गए हैं, न कि उसे तंग करने के लिए.’’

‘‘अच्छा, तो अब आप ही हम पर तोहमत लगा रहे हैं कि हम आप को तंग कर रहे हैं.’’

‘‘जी नहीं, हमारी ऐसी मजाल कहां कि हम आप को…’’

‘‘अच्छाअच्छा चलेंगे. जहां आप ले चलिएगा, वहां भी चलेंगे. बस, जरा यहां साहब का राउंड आने वाला है, उस को थोड़ा निबटा लें. उस के बाद चलते हैं. तब तक आप हमें कहानी सुनाइए कि क्या हुआ था और आप उसे कहां से ले कर आए हैं?’’

‘‘जी, हम उसे हाईवे पर सुलतानपुर चौक के पास से ले कर आए हैं और…’’

‘‘रुकिएरुकिए, क्या कहा आप ने? सुलतानपुर चौक. अरे, तो आप यहां हमारा टाइम क्यों खराब कर रहे हैं? वह इलाका तो सुलतानपुर थाने में आता है. आप को वहीं जाना चाहिए था.’’

‘‘लेकिन, वह यहां के अस्पताल में भरती होने जा रहा है. आप एफआईआर तो लिखिए.’’

‘‘अरे साहब, आप भी न… देखिए तो, कितनी मेहनत से आज कई एफआईआर की किताबें कवर लगा कर तैयार की हैं, राउंड के लिए. आप इसे खराब क्यों करना चाहते हैं?’’ इतना कह कर हवलदार एक सिपाही की ओर मुंह कर के फिर चिल्लाया, ‘‘अबे गोपाल, आज रमुआ नहीं आया था क्या रे? देख तो ठीक से झाड़ू तक नहीं लगी दिखती है. डीसीपी साहब देखेंगे तो क्या सोचेंगे कि हम लोग कितने गंदे रहते हैं.’’

हमें खीज तो बहुत आ रही थी, मगर क्या कर सकते थे? मन मार कर सब्र किए उन की अपनी वरदी के लिए वफादारी को देखते रहे. हम भी कुछ देर तक कोशिश करते रहे शांत रहने की, लेकिन उन के रवैए से हमारा खून खौलने लगा और हम भड़क उठे, ‘‘आप का यह राउंड किसी की जान से ज्यादा जरूरी है क्या?

‘‘अगर राउंड के समय डीसीपी साहब को सैल्यूट मारने वाले 2 आदमी कम हो जाएंगे तो क्या भूकंप आ जाएगा? आप भी कामचोर हैं. जनता के पैसे से तनख्वाह ले कर भी काम करने में लापरवाही करते हैं.’’

दारोगा बाबू को इस पर गुस्सा आ गया और वे चिल्ला कर बोले, ‘‘अबे धनीराम, बंद कर इसे हवालात के अंदर. इतनी देर से चबरचबर किए जा रहा है. डाल दे इस पर सुबूत मिटाने का इलजाम. और अगर गाड़ी ठोंकने वाला न पकड़ा जाए, तो बाद में वह इलजाम भी इसी पर डाल देना. हमें हमारा काम सिखाता है. 2 दिन अंदर रहेगा, तो सारी हेकड़ी हवा हो जाएगी.’’

सचमुच हमारी हेकड़ी इतने में ही हवा होने लगी. कहां तो किसी की जान बचाने के लिए मैडल मिलने की उम्मीद कर रहे थे और कहां हथकड़ी पहनने की नौबत आ गई.

हम ने घिघियाते हुए कहा, ‘‘हेंहेंहें… आप भी साहब, बस यों ही नाराज हो जाते हैं. हम लोग तो सेवक हैं आप के. गुस्सा थूक दीजिए और जब मरजी आए चलिए, न मरजी आए तो न चलिए. रिपोर्ट भी मत लिखिए, मरने दीजिए उस को यों ही… हम चलते हैं, नमस्ते.’’

हम जान बचा कर भागने की फिराक में थे कि अगर अपनी जान बची, तभी तो दूसरों को बचाने की कोशिश कर सकेंगे. इतने में डीसीपी साहब थाने में दाखिल हो गए.

हुआ यह कि डीसीपी साहब ने हम से आने की वजह पूछ ली. खुन्नस तो खाए हुए थे ही, सो हम ने झटपट पूरी कहानी सुना दी.

उन्होंने पूरे थाने को जम कर लताड़ा और दारोगा बाबू को हमारे साथ जाने को कहा. सुलतानपुर थाने को भी खबर कर अस्पताल पहुंचने का निर्देश देने को कहा. अभी उन का जनता और पुलिस के संबंधों पर लैक्चर चल ही रहा था कि हम चुपके से सरक गए.

हम दारोगा बाबू और हवलदारजी के साथ अस्पताल पहुंचे, जहां वह घायल बेचारा एक कोने में बेहोश पड़ा था.

हम चलने लगे तो दारोगा ने कहा, ‘‘कहां चल दिए आप? अभी तो आप ने मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डाला है. उस का डंक नहीं भुगतेंगे?

‘‘अब यह मामला कानून के लंबे हाथों में पहुंच गया है, तो सरकारी हो गया. आप का काम तो अभी शुरू ही हुआ है.

‘‘आप बैठिए इधर ही, इसे होश में आने के बाद इस का बयान लिया जाएगा. तब तक आप अपना बयान लिखवा कर टाइम पास कीजिए. उस के बाद ही हम मिल कर सोचेंगे कि आप का क्या करना है.

‘‘अगर गाड़ी वाला गलती से पकड़ा गया, तो समझिए कि आप को कोर्ट में हर पेशी पर गवाही के लिए आना होगा. आज की दुनिया में भलाई करना इतना आसान थोड़े ही रह गया है.’’

‘‘मेरे बाप की तोबा हवलदार साहब, अगर मैं ने दोबारा कभी ऐसी गलती की तो… अभी तो मुझे यहां से जाने दीजिए, बालबच्चों वाला आदमी हूं. बाद में जब बुलाइएगा, तभी मैं हाजिर हो जाऊंगा,’’ कहते हुए हमारा दिमाग चकराने लगा.

इतनी देर में ही डाक्टर साहब बाहर निकल आए और आते ही उन्होंने ऐलान किया कि मरीज को होश आ गया है. कोई एक पुलिस वाला जा कर उस का बयान ले सकता है.

दारोगा बाबू हवलदार साहब को हमारे ऊपर निगाह रखने की हिदायत दे कर अंदर चले गए.

उस आदमी का अंदर बयान चल रहा था और बाहर बैठे हम सोच रहे थे कि वह अपनी जान बचाने के लिए किस तरह से हमारा शुक्रगुजार होगा. कहीं लखपति या करोड़पति हुआ, तो अपने वारेन्यारे हो जाएंगे.

20-25 मिनट बाद दारोगा बाबू वापस आए और हमें घूरते हुए हवलदार से बोले, ‘‘धनीराम, हथकड़ी डाल इसे और घसीटते हुए थाने ले चल. वहां इस के हलक में डंडा डाल कर उगलवाएंगे कि इस जख्मी के 50,000 रुपए इस ने कहां छिपा रखे हैं.

‘‘उस ने बयान दिया है कि किसी ने उसे पीछे से गाड़ी ठोंक दी थी और उस के पैसे भी गायब हैं.

‘‘मैं ने इस का हुलिया बताया, तो उस ने कहा कि ऐसा ही कोई आदमी टक्कर के बाद सड़क पर उसे टटोल रहा था. खुद को बहुत चालाक समझता है.

‘‘यह सोचता है कि इसे बचाने की इतनी ऐक्टिंग करने से हम पुलिस वाले इस पर शक नहीं करेंगे. बेवकूफ समझता है यह हम को. ले चल इसे, करते हैं खातिरदारी इस की.’’

देखते ही देखते हमारे हाथों में हथकड़ी पड़ गई और हम अपने सदाचार का मातम मनाते हुए पुलिस वालों के पीछे चल पड़े.

Drama Story

Romantic Story: अनमोल क्षण:- क्या नीरजा को मिला प्यार

Romantic Story: शाम के 4 बजे थे, लेकिन आसमान में घिर आए गहरे काले बादलों ने कुछ अंधेरा सा कर दिया था. तेज बारिश के साथ जोरों की हवाएं और आंधी भी चल रही थी. सामने के पार्क में पेड़ घूमतेलहराते अपनी प्रसन्नता का इजहार कर रहे थे.

सुशांत का मन हुआ कि कमरे के सामने की बालकनी में कुरसी लगा कर मौसम का लुत्फ उठाया जाए, लेकिन फिर उन्हें लगा कि नीरजा का कमजोर दुर्बल शरीर तेज हवा सहन नहीं कर पाएगा.

उन्होंने नीरजा की ओर देखा. वह पलंग पर आंखें मूंद कर लेटी हुई थी.

सुशांत ने नीरजा से पूछा, ‘‘अदरक वाली चाय बनाऊं, पियोगी?’’

अदरक वाली चाय नीरजा को बहुत पसंद थी. उस ने धीरे से आंखें खोलीं और मुसकराई, ‘‘मोहन से कहिए ना वह बना देगा,’’ उखड़ती सांसों से वह इतना ही कह पाई.

‘‘अरे मोहन से क्यों कहूं, यह क्या मुझ से ज्यादा अच्छी चाय बनाएगा, तुम्हारे लिए तो चाय मैं ही बनाऊंगा,’’ कह कर सुशांत किचन में चले गए. जब वह वापिस आए तो ट्रे में 2 कप चाय के साथ कुछ बिसकुट भी रख लाए, उन्होंने सहारा दे कर नीरजा को उठाया और हाथ में चाय का कप पकड़ा कर बिसकुट आगे कर दिए.

‘‘नहीं जी… कुछ नहीं खाना,’’ कह कर नीरजा ने बिसकुट की प्लेट सरका दी.

‘‘बिसकुट चाय में डुबो कर…’’ उन की बात पूरी होने से पहल ही नीरजा ने सिर हिला कर मना कर दिया.

नीरजा की हालत देख कर सुशांत का दिल भर आया. उस का खानापीना लगभग न के बराबर हो गया था. आंखों के नीचे गहरे काले गड्ढे हो गए थे, वजन एकदम घट गया था. वह इतनी कमजोर हो गई थी कि उस की हालत देखी नहीं जाती थी. स्वयं को अत्यंत विवश महसूस कर रहे थे, अपनी किस्मत के आगे हारते चले जा रहे थे सुशांत.

कैसी विडंबना थी कि डाक्टर हो कर उन्होंने ना जाने कितने मरीजों को स्वस्थ किया था, किंतु खुद अपनी पत्नी के लिए कुछ नहींं कर पा रहे थे. बस धीरेधीरे अपने प्राणों से भी प्रिय पत्नी नीरजा को मौत की ओर जाते हुए भीगी आंखों से देख रहे थे.

सुशांत के जेहन में वह दिन उतर आया, जिस दिन वह नीरजा को ब्याह कर अपने घर ले आए थे.

अम्मां अपनी सारी जिम्मेदारियां बहू नीरजा को सौंप कर निश्चित हो गई थीं. कोमल सी दिखने वाली नीरजा ने भी खुले दिल से अपनी हर जिम्मेदारी को पूरे मन से स्वीकारा और किसी को भी शिकायत का मौका नहीं दिया.

उस के सौम्य व सरल स्वभाव ने परिवार के हर सदस्य को उस का कायल बना दिया था. सारे सदस्य नीरजा की तारीफ करते नहीं थकते थे.

सुशांत उन दिनों मैडिकल कालेज में लेक्चरार के पद पर थे, साथ ही घर के अहाते में एक छोटा सा क्लिनिक भी खोल रखा था. स्वयं को एक योग्य व नामी डाक्टर के रूप में देखने की व शोहरत पाने की उन की बड़ी दिली तमन्ना था.

घर का मोरचा अकेली नीरजा पर डाल कर वह सुबह से रात तक अपने कामों में व्यस्त रहते. नईनवेली पत्नी के साथ प्यार के मीठे पल गुजारने की फुरसत उन्हें ना थी… या फिर शायद सुशांत ने जरूरत ही नहीं समझी.

या यों कहिए कि ये अनमोल क्षण उन दोनों की ही किस्मत में नहीं थे, उन्हें लगता था कि नीरजा को तमाम सुखसुविधा व ऐशोआराम में रख कर वह पति होने का फर्ज बखूबी निभा रहे हैं, जबकि सच तो यह था कि नीरजा की भावनात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति से उन्हें कोई सरोकार नहीं था.

नीरजा का मन तो यही चाहता था कि सुशांत उस के साथ सुकून व प्यार के दो पल गुजारे. वह तो यह भी सोचती थी कि सुशांत मेरे साथ जितना भी समय बिताएंगे, उतने ही पल उस के जीवन के अनमोल पल कहलाएंगे, लेकिन अपने मन की यह बात सुशांत से कभी नहीं कह पाई, जब कहा तब सुशांत समझ नहीं पाए और जब समझे तब बहुत देर हो चुकी थी.

वक्त के साथसाथ सुशांत की महत्त्वाकांक्षा भी बढऩे लगी. अपनी पुश्तैनी जायदाद बेच कर और सारी जमापूंजी लगा कर उन्होंने एक सर्वसुविधायुक्त नर्सिंगहोम खोल लिया.

नीरजा ने तब अपने सारे गहने उन के आगे रख दिए थे. हर कदम पर वह सुशांत का मौन संबल बनी रही. उन के जीवन में एक घने वृक्ष सी शीतल छांव देती रही. सुशांत की मेहनत रंग लाई, कुछ समय बाद सफलता सुशांत के कदम चूमने लगी थी. कुछ ही समय में उन के नर्सिंगहोम का काफी नाम हो गया, वहां उन की व्यस्तता इतनी बढ़ गई कि उन्होंने नौकरी छोड़ दी और सिर्फ अपने नर्सिंगहोम पर ही ध्यान देने लगे.

इस बीच नीरजा ने भी रवि और सुनयना को जन्म दिया और वह उन की परवरिश में ही अपनी खुशी तलाशने लगी. जिंदगी एक बंधेबंधाए ढर्रे पर चल रही थी.

सुशांत के लिए उस का अपना काम था और नीरजा के लिए उस के बच्चे व सामाजिकता का निर्वाह. अम्मांबाबूजी के देहांत और ननद की शादी के बाद नीरजा और भी अकेलापन महसूस करने लगी. बच्चे भी बड़े हो कर अपनी पढ़ाई में व्यस्त हो गए थे. सुशांत के लिए पत्नी का अस्तित्व सिर्फ इतना भर था कि सुशांत समयसमय पर उसे ज्वेलरी, कपड़े गिफ्ट कर देते थे. नीरजा का मन किस बात के लिए लालायित था, यह जानने की सुशांत ने कभी कोशिश नहीं की.
जिंदगी ने सुशांत को एक मौका दिया था, कभी कोई फरमाइश न करने वाली उन की पत्नी नीरजा ने एक बार उन्हें अपने दिल की गहराइयों से वाकिफ भी कराया था, लेकिन वे ही उस के दिल का दर्द और आंखों के सूनेपन को अनदेखा कर गए थे.

उस दिन नीरजा का जन्मदिन था. उन्होंने प्यार जताते हुए उस से पूछा था, ‘बताओ, मैं तुम्हारे लिए क्या तोहफा लाया हूं?’ तब नीरजा के चेहरे पर फीकी सी मुसकान आ गई थी. उस ने धीमी आवाज में बस इतना ही कहा, ‘‘तोहफे तो आप मुझे बहुत दे चुके हो, अब तो बस आप का सान्निध्य मिल जाए… ‘‘

सुशांत बोले, “वह भी मिल जाएगा, सिर्फ कुछ साल मेहनत कर लूं और अपनी और बच्चों की लाइफ सेटल कर लूं, फिर तो तुम्हारे साथ समय ही समय गुजारना है,’’ कहते हुए सुशांत ने नीरजा को एक कीमती साड़ी का पैकेट थमा कर काम पे चला गया.

नीरजा ने फिर भी कभी सुशांत से कुछ नहीं कहा था. रवि भी सुशांत के नक्शेकदम पर चल कर डाक्टर ही बना. उस ने अपनी कलीग गीता से विवाह की इच्छा जाहिर की, जिस की उसे सहर्ष अनुमति भी मिल गई.

अब सुशांत को बेटेबहू का सहयोग भी मिलने लगा, फिर सुनयना का विवाह भी हो गया. सुशांत व नीरजा अपनी जिम्मेदारी से निवृत्त हो गए, लेकिन परिस्थिति आज भी पहले की ही तरह थी.

नीरजा अब भी सुशांत के सान्निध्य को तरस रही थी, लेकिन सुशांत कुछ वर्ष और काम करना चाहते थे, अभी और सेटल होना चाहते थे.
शायद सबकुछ इसी तरह चलता रहता, अगर नीरजा बीमार न पड़ती.

एक दिन जब सब लोग नर्सिंगहोम में थे, तब नीरजा चक्कर खा कर गिर पड़ी. घर के नौकर मोहन ने जब फोन पर बताया, तो सब घबड़ा कर घर आए, फिर शुरू हुआ टेस्ट कराने का सिलसिला, जब रिपोर्ट आई तो पता चला कि नीरजा को ओवेरियन कैंसर है.

सुशांत यह सुन कर घबरा गए, मानो उन के पैरों तले जमीन खिसकने लगी. उन्होंने अपने मित्र कैंसर स्पेशलिस्ट डा. भागवत को नीरजा की रिपोर्ट दिखाई. उन्होंने देखते ही साफ कह दिया, ‘‘सुशांत, तुम्हारी पत्नी को ओवेरियन कैंसर ही हुआ है. इस में कुछ तो बीमारी के लक्षणों का पता ही देरी से चलता है और कुछ इन्होंने अपनी तकलीफें छिपाई होंगी, अब तो इन का कैंसर चौथे स्टेज पर है, यह शरीर के दूसरे अंगों तक भी फैल चुका है, चाहो तो सर्जरी और कीमियोथेरेपी कर सकते हैं, लेकिन कुछ खास फायदा नहीं होने वाला. अब तो जो शेष समय है इन के पास, उस में ही इन को खुश रखो.’’

यह सुन कर सुशांत को लगा कि उस के हाथपैरों से दम ही निकल गया है. उन्हें यकीन ही नहीं हुआ कि नीरजा इतनी जल्दी इस तरह उन्हें दुनिया में अकेली छोड़ कर चली जाएगी. वह तो हर वक्त एक खामोश साए की तरह उन के साथ रहती थी. सुशांत की हर छोटी जरूरतों को उन के कहने के पहले ही पूरा कर देती थी. फिर यों अचानक उस के बिना…

अब जा कर सुशांत को लगा कि उन्होंने अपनी जिंदगी में कितनी बड़ी गलती कर दी थी. नीरजा के अस्तित्व की कभी कोई कद्र नहीं की, उसे कभी महत्त्व ही नहीं दिया सुशांत ने, उन के लिए तो वह बस एक मूक सहचरी ही थी, जो उन की जरूरत के लिए हर वक्त उन की नजरों के सामने मौजूद रहती थी, इस से ज्यादा कोई अहमियत नहीं दी सुशांत ने नीरजा को.

आज प्रकृति ने न्याय किया था. सुशांत को अपनी की हुई गलतियों की कड़ी सजा मिल रही थी. जिस महत्त्वाकांक्षा के पीछे भागतेभागते उन की जिंदगी गुजरी थी, जिस का उन्हें बेहद गुमान भी था, आज उन का सारा गुमान व शान तुच्छ लग रहा था.

अब जब उन्हें पता चला कि नीरजा के जीवन का बस थोड़ा ही समय बाकी रह गया था, तब उन्हें एहसास हुआ कि वह उन के जीवन का कितना बड़ा अहम हिस्सा थीं. नीरजा के बिना जीने की कल्पनामात्र से ही वे सिहर उठे.

महत्त्वाकांक्षाओं के पीछे भागने में वे हमेशा नीरजा को उपेक्षित करते रहे, लेकिन अब अपनी सारी सफलताएं उन्हें बेमानी लगने लगी थीं.

‘‘पापा, आप चिंता मत कीजिए. मैं अब नर्सिंगहोम नहीं आऊंगी. घर पर ही रह कर मम्मी का ध्यान रखूंगी,’’ उन की बहू गीता कह रही थी.

सुशांत ने एक गहरी सांस ली और उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘नहीं बेटा नर्सिंगहोम अब तुम्हीं लोग संभालो, तुम्हारी मम्मी को इस वक्त सब से ज्यादा मेरी ही जरूरत है, उस ने मेरे लिए बहुतकुछ त्याग किया है. उस का ऋण तो मैं किसी भी हालत में नहीं चुका पाऊंगा, लेकिन कम से कम अंतिम समय में उस का साथ तो निभाऊं.’’

उस के बाद से सुशांत ने नर्सिंगहोम जाना छोड़ दिया. वे घर पर ही रह कर नीरजा की देखभाल करते, उस से दुनियाजहान की बातें करते, कभी कोई बुक पढ़ कर सुनाते, तो कभी साथ बैठ कर टीवी देखते. वे किसी भी तरह नीरजा के जाने के पहले बीते वक्त की भरपाई करना चाहते थे. मगर वक्त उन के साथ नहीं था.

धीरेधीरे नीरजा की तबीयत और भी बिगड़ने लगी थी. सुशांत उस के सामने तो संयत रहते, मगर अकेले में उन के दिल की पीड़ा आंसुओं की धारा बन कर बहती थी.

नीरजा की कमजोर काया और सूनी आंखें सुशांत के हृदय में शूल की तरह चुभती रहती. वे स्वयं को नीरजा की इस हालत का दोषी मानने लगे थे व उन के मन में नीरजा को खो देने का डर भी रहता. वे जानते थे कि दुर्भाग्य तो उन की नियति में लिखा जा चुका था, लेकिन उस मर्मांतक क्षण की कल्पना करते हुए हमेशा भयभीत रहते.

‘‘अंधेरा होगा जी,’’ नीरजा की आवाज से सुशांत की तंद्रा टूटी. उन्होंने उठ कर लाइट जला दी. देखा कि नीरजा का चाय का कप आधा भरा हुआ रखा था और वह फिर से आंखें मूंदे टेक लगा कर बैठी थी. चाय ठंडी हो चुकी थी.

सुशांत ने चुपचाप चाय का कप उठाया, किचन में जा कर सिंक में चाय फेंक दी. उन्होंने खिड़की से बाहर देखा, बाहर अभी भी तेज बारिश हो रही थी. हवा का ठंडा झोंका आ कर उन्हें छू गया, लेकिन अब उन्हें कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था. उन्होंने अपनी आंखों के कोरों को पोंछा और मोहन को आवाज लगा कर खिचड़ी बनाने को कहा. खिचड़ी भी मुश्किल से दो चम्मच ही खा पाई थी नीरजा ने. आखिर में सुशांत उस की प्लेट उठा कर किचन में रख आए. तब तक रवि और गीता भी नर्सिंगहोम से लौट आए थे.’’

‘‘कैसी हो मम्मा?’’ रवि प्यार से नीरजा की गोद में लेटते हुए बोला.

‘‘ठीक ही हूं मेरे बच्चे,’’ मुसकराते हुए नीरजा उस के सिर पर हाथ फेरते हुए धीमी आवाज में बोली.

सुशांत ने देखा कि नीरजा के चेहरे पे असीम संतोष था. अपने पूरे परिवार के साथ होने की खुशी थी उसे. वह अपनी बीमारी से अनजान नहीं थी, परंतु फिर भी वह प्रसन्न ही रहती थी. जिस अनमोल सान्निध्य की आस ले कर वह वर्षों से जी रही थी, वह अब उसे बिना मांगे ही मिल रही थी. अब वह तृप्त थी, इसलिए आने वाली मौत के लिए कोई डर या अफसोस नीरजा के चेहरे पे दिखाई नहीं दे रहा था.

बच्चे काफी देर तक मां का हालचात पूछते रहे. उसे अपने दिनभर के काम के बारे में बताते रहे, फिर नीरजा का रुख देख कर सुशांत ने उन से कहा, ‘‘अब खाना खा कर आराम करो. दिनभर काम कर के थक गए होंगे.’’

‘‘पापा, आप भी खाना खा लीजिए,’’ गीता ने कहा.

‘‘मुझे अभी भूख नहीं है बेटा. मैं बाद में खा लूंगा.’’

बच्चों के जाने के बाद नीरजा फिर आंखें मूंद कर लेट गई. सुशांत ने धीमी आवाज में टीवी औन कर दिया, लेकिन थोड़ी देर में ही उन का मन ऊब गया. अब उन्हें थोड़ी भूख लग गई थी, लेकिन खाना खाने का मन नहीं किया. उन्होंने सोचा, नीरजा और अपने लिए दूध ही ले आएं. किचन में जा कर सुशांत ने 2 गिलास दूध गरम किया, तब तक रवि और गीता खाना खा कर अपने कमरे में जा कर सो चुके थे.

‘‘नीरजा, दूध लाया हूं,’’ कमरे में आ कर सुशांत ने धीरे से आवाज लगाई, लेकिन नीरजा ने कोई जवाब नहीं दिया. उन्हें लगा कि वह सो रही है. उन्होंने उस के गिलास को ढक कर रख दिया और खुद पलंग के दूसरी ओर बैठ कर दूध पीने लगे.

सुशांत ने नीरजा की तरफ देखा. उस के सोते हुए चेहरे पर कितनी शांति झलक रही थी. सुशांत का हाथ बरबस ही उस का माथा सहलाने के लिए आगे बढ़ा, फिर वह चौंक पड़े, दोबारा माथेगालों को स्पर्श किया, तब उन्हें एहसास हुआ कि नीरजा का शरीर ठंडा था. वह सो नहीं रही थी, बल्कि हमेशा के लिए चिरनिद्रा में विलीन हो चुकी थी.

सुशांत को जो डर इतने महीनों से डरा रहा था, आज वे उस के वास्तविक रूप का सामना कर रहे थे. कुछ समय के लिए वे एकदम सुन्न से हो गए. उन्हें समझ ही नहीं आया कि वे क्या करें, फिर धीरेधीरे सुशांत की चेतना जागी, पहले सोचा कि जा कर बच्चों को खबर कर दें, लेकिन कुछ सोच कर रुक गए. सारी उम्र नीरजा सुशांत के सान्निध्य के लिए तड़पी थी, लेकिन आज सुशांत एकदम तनहा हो गए थे. अब वे नीरजा के सामीप्य के लिए तरस रह थे. अश्रुधारा उन की आंखों से अविरल बहे जा रही थी. वे नीरजा की मौजूदगी को अपने दिल में महसूस करना चाह रहे थे, इस एहसास को अपने अंदर समेट लेना चाहते थे, क्योंकि बाकी की तनहा जिंदगी उन्हें अपने इसी दुखभरे एहसास के साथ व पश्चाताप के दर्द के साथ ही तो गुजारनी थी. सुशांत के पास केवल एक रात ही थी. अपने और अपनी प्राणों से भी प्रिय पत्नी के सान्निध्य के इन आखिरी पलों में वे किसी और की दखलअंदाजी नहीं चाहते थे. उन्होंने लाइट बुझा दी और निर्जीव नीरजा को अपने हृदय से लगा कर फूटफूट कर रोने लगे.

बारिश अब थम चुकी थी, लेकिन सुशांत की आंखों से अश्रुधारा बहे जा रही थी…
काश, सुशांत अपने जीवन के व्यस्त क्षणों में से कुछ पल अपनी प्रेयसी नीरजा के साथ गुजार लेते तो शायद आज नीरजा सुशांत को छोड़ कर दूर बहुत दूर नील गगन के पार नहीं जाती.

सुशांत के सान्निध्य की तड़प अपने साथ ले कर नीरजा हमेशा के लिए चली गई और सुशांत को दे गई पश्चाताप का असहनीय दर्द.

Romantic Story

Fictional Story: हमारी सौंदर्य: क्यों माताश्री की पसंद की बहू उसे नही पसंद थी

Fictional Story: शादी से पहले ही हमें पता था कि हमारी होने वाली पत्नी ने ब्यूटीशियन का कोर्स कर रखा है. फिर जब हम उन के घर उन्हें देखने गए थे तो सिर्फ हम ही नहीं बल्कि हमारा पूरा परिवार उन के सौंदर्य से प्रभावित था. हमें आज भी याद है कि वहां से लौट कर हमारी मां ने पूरे महल्ले में अपनी होने वाली बहू के सौंदर्य का जी खोल कर गुणगान किया था. उन दिनों घर आनेजाने वाले हरेक से वे अपनी होने वाली बहू की सुंदरता के विषय में बताना नहीं भूलती थीं. उन के श्रीमुख से अपनी होने वाली बहू की प्रशंसा सुन कर हमारी कई पड़ोसिनें तो उन्हें सचेत भी करती थीं कि देखिएगा बहनजी, कहीं आप के घर में बहू की सुंदरता की ऐसी आंधी न चले कि वह अपने साथसाथ सतीश को भी उड़ा कर ले जाए.

कई महिलाएं तो मां को बाकायदा सचेत भी करती थीं कि हम तो अभी से बता रहे हैं. बाद में मत कहना कि पहले नहीं चेताया था. परिचितों तथा महल्ले के कई घरों के उदाहरण दे कर वे अपने कथन को और दमदार बनाने की कोशिश करती थीं. लेकिन हमारी मां उसे महिलाओं की जलन समझ कर अपनी किस्मत पर इतराती थीं. वे उन की बातें सुनते समय अपने दोनों कानों का भरपूर उपयोग करती थीं. जहां एक कान से वे अपने उन हितैषियों की बातें सुनती थीं, वहीं दूसरे कान से अगले ही पल उन की बातें निकालने में कोई समय नहीं लगाती थीं. उन के जाने के बाद वे उन्हें जलनखोर, ईर्ष्यालु, दूसरों का अच्छा होता न देखने वाली उपाधियों से विभूषित करती थीं. हम भी मां की बातें सुन कर अपनी किस्मत पर फूले नहीं समाते थे. खैर, मां की अपनी पड़ोसिनों के साथ अपनी होने वाली बहू की प्रशंसा को ले कर खींचतान समाप्त हुई और अंत में वह दिन भी आ गया, जब मां की ब्यूटीशियन बहू का हमारी पत्नी बन कर हमारे घर में आगमन हुआ. पत्नी की सुंदरता देख कर हमें तो ऐसा लगा जैसे हमें दुनिया भर की खुशियां एकसाथ ही मिल गई हैं. पत्नी की सुंदरता से हमारी आंखें चौंधिया गई थीं.

‘‘सुनिए जी,’’ एक दिन हम दफ्तर के लिए निकल ही रहे थे कि पीछे से हमारी सौंदर्य विशेषज्ञा पत्नी की मधुर आवाज ने हमारे कानों को झंकृत किया. अपनी मोटरसाइकिल पर किक मारना छोड़ कर हम ने श्रीमतीजी की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा.

‘‘कोई विशेष बात नहीं है. ठीक है, आप से शाम को आप के दफ्तर से आने के बाद कहूंगी,’’ कह कर श्रीमतीजी ने अपनी ओर से बात समाप्त कर दी.

अब श्रीमतीजी को तो लगा कि उन्होंने अपनी ओर से बात समाप्त कर दी है, लेकिन हमारे लिए तो यह जैसे उन की ओर से किसी चर्चा की शुरुआत मात्र थी. उस दिन दफ्तर के किसी भी काम में हमारा मन नहीं लगा. हमारा पूरा दिन यही सोचने में निकल गया कि न जाने क्या बात थी? श्रीमतीजी न जाने हम से क्या कहना चाहती थीं? दिन में 2-3 बार श्रीमतीजी ने हमारे मोबाइल पर हमें फोन भी किया, लेकिन हर बार बात कुछ और ही निकली. हमारे द्वारा पूछने पर भी श्रीमतीजी ने हमारे लौट कर आने पर बताने की बात कही.

शाम होने तक हमारी उत्सुकता अपनी चरम पर थी. हम जानना चाहते थे कि

आखिर वह क्या बात है जिसे हमारी नवविवाहिता सुबह से कहना चाहती थीं. हमारे कान उस बात को सुनने के लिए बेताब थे.

शाम की चाय पर भी जब श्रीमतीजी ने अपनी ओर से उस बात को बताने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई, कोई पहल नहीं की, तो अंत में थकहार कर हम ने श्रीमतीजी से पूछा, ‘‘सुबह दफ्तर जाते समय कुछ कहना चाहती थीं, क्या बात थी?’’

‘‘कोई विशेष नहीं… मैं तो बस इतना सोच रही हूं कि यदि आप अपने चेहरे पर से इन मूंछों को हटा दें, तो आप कहीं अधिक स्मार्ट, कहीं अधिक युवा नजर आएंगे. मेरा अनुभव बताता है कि उस के बाद आप अपनी उम्र से 10 वर्ष कम के युवा नजर आएंगे,’’ श्रीमतीजी ने जब बड़े आराम से अपनी बात रखी, तो हमें लगा जैसे किसी ने हमें एक ऊंचे पहाड़ की चोटी से धक्का दे दिया है.

‘‘मूंछों में भी तो व्यक्ति स्मार्ट लगता है. कई चेहरे ऐसे होते हैं, जिन पर मूंछें अच्छी लगती हैं. उन का संपूर्ण व्यक्तित्व मूंछों के रहने से खिल उठता है. बिना मूंछों के उन के चेहरे की कल्पना भी नहीं की जा सकती. मूंछें उन के व्यक्तित्व की शान होती हैं,’’ हम ने मूंछों और मूंछ वालों के पक्ष में अपने तर्क रखे.

‘‘हो सकता है कुछ लोगों के साथ ये बातें भी हों, लेकिन मैं ने अंदाजा लगा लिया है कि बिना मूंछों के आप का चेहरा कहीं अधिक आकर्षक, कहीं अधिक युवा नजर आएगा,’’ श्रीमतीजी ने निर्णायक स्वर में कहा.

लोग अपनी नवविवाहिता को खुश करने के लिए क्याक्या नहीं करते. फिर यहां तो श्रीमतीजी ने एक छोटी सी मांग रखी है, यह सोच कर हम ने अपनी प्यारी मूंछों को, जिन का हम से वर्षों का नाता था, एक ही झटके में स्वयं से अलग कर लिया.

लेकिन यह तो जैसे एक शुरुआत मात्र थी. एक शाम जब हम घर पहुंचे तो श्रीमतीजी को सजाधजा देख कर हमारा माथा ठनका, ‘‘क्यों कहीं चलना है क्या?’’ हम ने पूछा.

‘‘जी हां, आप के लिए कुछ शौपिंग करनी है,’’ श्रीमतीजी ने हमें सकारात्मक जवाब दिया.

कुछ ही देर में हम शहर के एक व्यस्त शौपिंग मौल में थे. वहां से श्रीमतीजी ने हमारे लिए कुछ टीशर्ट्स तथा जींस यह कहते हुए खरीदीं, ‘‘एक ही तरह के कपड़े पहनने के बदले आप को कुछ नया ट्राई करना चाहिए. इन्हें पहन कर आप अधिक चुस्तदुरुस्त, अधिक युवा नजर आएंगे.’’

फिर तो हमें समझ में ही नहीं आ रहा था कि हमारी सौंदर्य विशेषज्ञा पत्नी हम में और कितने परिवर्तन लाएंगी. कभी फेशियल तो कभी बालों को रंगना तो कभी कुछ और. हम ने तो इस स्थिति से समझौता कर स्वयं को श्रीमतीजी के हवाले कर ही दिया था. हम समझ गए थे कि अब हम चाहे जो कर लें, हमारी सौंदर्य विशेषज्ञा पत्नी हमारा कायाकल्प कर के ही मानेंगी. लेकिन बात यदि हम तक ही सीमित होती तो भी ठीक था. श्रीमतीजी ने तो जैसे ठान लिया था कि पूरे घर को बदल डालूंगी. उन्होंने घर के सभी सदस्यों के व्यक्तित्व में आमूलचूल परिवर्तन करने का दृढ़ निश्चय कर लिया था.

एक दिन जब दफ्तर से हम घर लौटे तो ड्राइंगरूम में जींसटौप पहने बैठी एक

महिला, जिन्होंने चेहरे पर फेसपैक लगा रखा था तथा दोनों आंखों पर खीरे के 2 टुकड़े, हमें कुछ जानीपहचानी सी लगीं. अभी हम पहचानने की कोशिश कर ही रहे थे कि पीछे से एक आवाज आई, ‘‘क्या अपनी जन्म देने वाली मां को भी पहचान नहीं पा रहे? क्या उन्हें पहचानने के लिए भी दिमाग पर जोर डालना पड़ रहा है? देखिए मम्मीजी, मैं कहती थी न यदि आप अपने शरीर की उचित देखभाल करें, अपने सौंदर्य के प्रति सचेत रहें तथा थोड़े ढंग के फैशन के अनुसार कपड़े पहनें, तो आप के व्यक्तित्व में आश्चर्यजनक परिवर्तन आ जाएगा. आप अपनी उम्र से बहुत कम की लगेंगी तथा पड़ोस की सारी आंटी आप को देख कर ईर्ष्या करेंगी, आप से जलेंगी,’’ यह हमारी श्रीमतीजी की आवाज थी.

‘‘अच्छा तो हमारे बाद अब मम्मीजी की बारी है?’’ हमारे पास इस के अलावा श्रीमतीजी से कहने के लिए और शब्द ही नहीं थे.

फिर जैसा हमें अंदेशा था वही हुआ, मम्मीजी के बाद श्रीमतीजी के अगले शिकार हमारे परमपूज्य पिताजी थे. आप सोचेंगे कि अपने पूज्य ससुरजी के साथ हमारी श्रीमतीजी भला क्या प्रयोग कर सकती हैं, वे उन में भला क्या बदलाव ला सकती हैं? लेकिन नहीं, ‘जहां चाह वहां राह’ वाली उक्ति को चरितार्थ करते हुए श्रीमतीजी ने यहां भी अपनी विशेषज्ञता का प्रमाण दिया. हमेशा ढीलेढाले वस्त्र पहनने वाले हमारे पिताश्री अब जींस और टीशर्ट के अलावा अन्य किसी दूसरे वस्त्र की ओर देखते तक नहीं. उन की पैरों में चप्पलों का स्थान अब स्पोर्ट्स शूज ने ले लिया है. सिर के सारे बाल एकदम काले हो गए हैं. इस के अलावा भी हमारे मातापिता सौरी मम्मीपापा में बहुत से चमत्कारिक परिवर्तन हो गए हैं. दोनों ही स्वयं के सौंदर्य प्रति बहुत सचेत बेहद सजग हो गए हैं.

श्रीमतीजी के सौंदर्य विशेषज्ञा होने की प्रसिद्धि धीरेधीरे पूरे महल्ले में फैल चुकी है. अब तो ऐसा लगने लगा है कि हमारे पूरे महल्ले में सौंदर्य के प्रति सजगता अचानक बहुत तेजी से बढ़ गई है. क्या पुरुष क्या महिलाएं क्या जवान क्या बूढ़े, सभी समय के कालचक्र को रोक देना चाहते हैं. वे समय के पहिए को उलटी दिशा में घुमाना चाहते हैं तथा अपनी इस इच्छापूर्ति का उन्हें सिर्फ और सिर्फ एक ही साधन, एक ही अंतिम उपाय नजर आता है. वे हैं हमारी श्रीमतीजी.

हमारे महल्ले में प्राय: सभी का मानना है कि श्रीमीतजी के द्वारा ही उन का जीर्णोद्धार हो सकता है. उन्हें नया रूपरंग मिल सकता है. प्रकृति प्रदत्त उन के शरीर को सिर्फ हमारी श्रीमतीजी ही एक नया व आकर्षक रूप दे सकती हैं. अत: वे श्रीमतीजी के ज्ञान का लाभ लेने एवं स्वयं को आकर्षक एवं सुंदर बनाने के लिए बिना किसी ?झिाक के हमारे घर आते हैं. प्राय: उन के आते ही शुरू हो जाता है फेशियल, कटिंग, थ्रेडिंग, ब्लीचिंग, बौडी मसाज जैसे शब्दों के साथ शरीर को सुंदर बनाने का सिलसिला.

अब तो शाम को दफ्तर से लौटने पर भी हमें श्रीमतीजी के कस्टमर्स से 2-4 होना पड़ता है. कोई दिन ऐसा नहीं होता जब हम दफ्तर से थकेहारे घर लौटे हों और श्रीमतीजी के 2-3 कस्टमर्स हमारे घर पर उपस्थित न हों. हमें अपने घर में ही पराएपन का एहसास होने लगा है. सिर्फ इतना ही नहीं, ‘भाभीजी भाभीजी’ करते हुए महल्ले के नवयुवक श्रीमतीजी से सुंदरता के सुझव लेने के बहाने उन्हें घेरे रहते हैं तथा श्रीमतीजी अपने चुलबुले देवरों को उपयोगी सुझव दे कर उन्हें उपकृत करती रहती हैं. हम चुपचाप एक ओर बैठे अपनी स्थिति पर ही अफसोस करते रहते हैं.

Fictional Story

Social Story: नगर में ढिंढोरा- डंपी को किस बात का डर था

Social Story: रंजीत ने एक फाइल खोली और पत्रों पर सरसरी नजर डाली तो उसे हर पत्र की लिखावट में अपने 9 वर्षीय बेटे डंपी की भोली सूरत नजर आ रही थी. आंसुओं को रोकने का प्रयत्न करते हुए वह कुरसी से उठ खड़ा हुआ और सोचने लगा कि जब तक डंपी मिल नहीं जाता वह दफ्तर का कोई काम ठीक से नहीं कर सकेगा.

पिछले 7 दिनों से उस के घर में चूल्हा नहीं जला. अड़ोसपड़ोस के लोग और सगेसंबंधी जो भी खाने का सामान लाते उसे ही थोड़ाबहुत खिलापिला जाते थे.

रंजीत घर जाने की छुट्टी लेने के लिए अपने अफसर के कमरे में अभी पहुंचा ही था कि फोन की घंटी बज उठी थी.

‘‘रंजीत, तुम्हारा फोन है,’’ बौस ने उस से कहा था.

रंजीत ने लपक कर फोन उठाया तो दूसरी तरफ  पुलिस अधीक्षक सुमंत राय बोल रहे थे.

‘‘रंजीत, कहां हो तुम? डंपी मिल गया है. तुरंत पुलिस स्टेशन चले आओ.’’

थाने पहुंचते ही रंजीत बेटे को देख कर बोला, ‘‘डंपी, मेरे बच्चे, कहां चले गए थे तुम? सुमंत, किस ने अगवा किया था मेरे बच्चे को?’’

रंजीत डंपी को गले लगाने के लिए आगे बढ़ा तो वह छिटक कर दूर जा खड़ा हुआ.

‘‘मैं कहीं नहीं गया था, पापा. मैं तो शुभम के घर में छिपा हुआ था. मुझे किसी ने अगवा नहीं किया था.’’

‘‘पर तुम पड़ोस के घर में क्यों छिपे थे?’’ रंजीत का स्वर आश्चर्य में डूबा था.

‘‘इसलिए कि मैं जीना चाहता हूं. आप और मम्मी तो उस रात ही मुझे चाकू से मार डालना चाहते थे. वह तो मैं ने अपने स्थान पर तकिया लगा कर अपनी जान बचाई थी.’’

डंपी रोते हुए बोला तो रंजीत ने एक पल को पत्नी की तरफ देखा फिर अपना सिर पकड़ कर बैठ गया.

‘‘ऐसा नहीं कहते, बेटा, भला कोई मम्मीपापा अपने बच्चे को मार सकते हैं?’’ शैलजा डंपी को अपनी बांहों में लेने के लिए आगे बढ़ी.

‘‘पता नहीं मम्मी, पर उस दिन तो आप दोनों ने चाकू से मुझे मारने की योजना बनाई थी,’’ डंपी अब सिसक कर रोने लगा.

‘‘बहुत हो गया यह तमाशा. अब एक शब्द भी आगे बोला तो इतनी पिटाई करूंगा कि बोलती बंद हो जाएगी,’’ रंजीत बच्चे द्वारा किए गए अपमान को सह नहीं पा रहा था.

‘‘मुझे पता है, इसीलिए तो मैं आप के साथ रहना नहीं चाहता हूं,’’ डंपी सिसक रहा था.

‘‘आखिर, उस दिन ऐसा क्या हुआ था कि बच्चा इतना डरा हुआ है?’’ दादी मां के इस सवाल पर रंजीत, शैलजा और डंपी के सामने उस रात की तमाम घटनाएं सजीव हो उठीं.

अचानक जोर की चीख सुन कर नन्हा डंपी जाग गया था. जब अंधेरे की वजह से उस की कुछ समझ में नहीं आया तो वह घबरा कर उठ बैठा था. धीरेधीरे अंधेरे में जब उस की आंखें देखने की अभ्यस्त हुईं तो देखा कि पलंग के एक कोने पर बैठी मम्मी सिसक रही थीं.

‘मैं तो इस दिनरात की किचकिच से इतना दुखी हो गया हूं कि मन होता है आत्महत्या कर लूं,’ रंजीत ने तौलिए से हाथमुंह पोंछते हुए कहा था.

‘चलो अच्छा है, कम से कम एक विषय में तो हम दोनों के विचार मिलते हैं. मैं भी दिन में 10 बार यही सोचती हूं. मैं ने तो बहुत पहले ही आत्महत्या कर ली होती. बस, डंपी का मुंह देख कर चुप रह जाती हूं कि मेरे बाद उस का क्या होगा,’ शैलजा भरे गले से बोली थी.

‘यह कौन सी बड़ी समस्या है. पहले डंपी का काम तमाम कर देते हैं फिर दोनों मिल कर आत्महत्या करेंगे. कम से कम इस नरक से तो छुटकारा मिलेगा,’ रंजीत तीखे स्वर में बोला था.

‘ठीक है. अच्छे काम में देर कैसी? मैं अभी चाकू लाती हूं,’ और क्रोध से कांपती शैलजा रसोईघर की ओर लपकी थी. रंजीत उस के पीछेपीछे चला गया था.

इधर दिसंबर की ठंड में भी डंपी पसीने से नहा गया था. कुछ ही दिन पहले टेलीविजन पर देखा भयंकर दृश्य उस की आंखों में एकाएक तैर गया जिस में एक दंपती ने अपने 3 बच्चों की हत्या करने के बाद आत्महत्या का प्रयास किया था.

डंपी को लगा कि उस ने यदि शीघ्र ही कुछ नहीं किया तो कल तक वह भी टेलीविजन के परदे पर दिखाया जाने वाला एक समाचार बन कर रह जाएगा. उधर रसोईघर से शैलजा और रंजीत के झगड़े के स्वर तीखे होते जा रहे थे.

डंपी फौरन उठा और अपने स्थान पर तकिया लगा कर उसे रजाई उढ़ा दी. सामने पड़ा एक पुराना कंबल ले कर वह पलंग के नीचे लेट गया. भय और ठंड के मिलेजुले प्रभाव से डंपी अपने घुटनों को ठोड़ी से सटाए वहीं पड़ा रहा.

आधी रात तक लड़नेझगड़ने के बाद रंजीत और शैलजा थकहार कर सो गए थे पर डंपी की आंखों में नींद का नामोनिशान नहीं था. ये तो बड़े खतरनाक लोग हैं. मातापिता हैं तो क्या हुआ, उसे तो मार ही डालेंगे. इन लोगों के साथ रहना खतरे से खाली नहीं है.

कुछ ही देर में कमरे में खर्राटों के स्वर गूंजने लगे थे. डंपी को अपने ही माता- पिता से वितृष्णा होने लगी. वैसे तो बड़ा प्यार जताते हैं पर अब दोनों में से किसी को भी होश नहीं है कि मैं कहां पड़ा हूं.

सुबह उठ कर रंजीत जब ड्राइंगरूम में आया तो डंपी को तैयार बैठा देख कर चौंक गया, ‘बड़ी जल्दी तैयार हो गए तुम?’

‘जल्दी कहां, पापा, 7 बजे हैं.’

‘रोज तो कितना भी जगाओ, उठने का नाम नहीं लेते और आज अभी से सजधज कर तैयार हो गए,’ रंजीत अखबार पर नजर गड़ाए हुए बोला था.

‘शायद आप को याद नहीं है, पापा, मेरी परीक्षा चल रही है,’ डंपी ने याद दिलाया था.

‘ठीक है, जाओ पर खाने का क्या  इंतजाम करोगे? तुम्हारी मम्मी को तो सोने से ही फुरसत नहीं मिलती.’

‘कोई बात नहीं, पापा मैं ने नाश्ता कर लिया है. मैं चलता हूं नहीं तो बस छूट जाएगी,’ कहते हुए डंपी घर से बाहर निकल गया था.

‘डंपी…ओ डंपी?’ लगभग 2 घंटे बाद शैलजा की नींद खुली तो उस ने बदहवासी से बेटे को पुकारा था.

‘डंपी बाबा तो मेरे आने से पहले ही स्कूल चले गए,’ काम वाली ने शैलजा को बताया.

‘और साहब?’

‘वह भी अपने दफ्तर चले गए. मैं ने नाश्ते के लिए पूछा तो कहने लगे कि रहने दो. कैंटीन से मंगा कर खा लूंगा.’

‘उन्हें घर का खाना कब भाता है’ वह तो कैंटीन में खा लेंगे पर डंपी, वह बेचारा तो पूरे दिन भूखा ही रह जाएगा. कम्मो, तू जल्दी से कुछ बना कर टिफिन में रख दे. तब तक मैं तैयार हो लेती हूं.’

शैलजा टिफिन ले कर स्कूल पहुंची तो आया ने गेट पर ही रोक कर टिफिन ले लिया था.

‘मैं एक बार अपने बेटे डंपी से मिलना चाहती हूं,’ शैलजा ने अनुरोध भरे स्वर में कहा था.

‘उस के लिए तो आप को दोपहर की छुट्टी तक इंतजार करना पड़ेगा क्योंकि पढ़ाई के समय में अभिभावकों को अंदर जाने की इजाजत नहीं है,’ आया ने बताया था.

शैलजा आया को टिफिन पकड़ा कर लौट आई थी.

घर पहुंचते ही कम्मो ने बताया था कि डंपी बाबा के स्कूल से फोन आया था.

‘अभी वहीं से तो मैं आ रही हूं. घर पहुंचने से पहले ही फोन आ गया. ऐसा क्या काम आ पड़ा?’

उसी समय फोन की घंटी बज उठी. शैलजा ने लपक कर फोन उठाया तो उधर से आवाज आई थी, ‘आप डंपी की मम्मी बोल रही हैं न?’

‘जी हां, आप कौन?’

‘मैं स्कूल की प्रधानाचार्या बोल रही हूं. आप ही कुछ देर पहले डंपी के लिए टिफिन दे गई थीं. लेकिन आप का बेटा डंपी आज स्कूल आया ही नहीं है.’

‘क्या कह रही हैं आप? डंपी तो आज सुबह 7 बजे ही घर से स्कूल के लिए चला गया था. वहां न पहुंचने का तो प्रश्न ही नहीं उठता.’

‘देखिए, मेरा काम था आप को सूचित करना, सो कर दिया. आगे जैसा आप ठीक समझें,’ और फोन रख दिया गया था.

शैलजा की समझ में कुछ नहीं आ रहा था. डंपी गया तो कहां गया.

वह दोनों हाथों में सिर थामे जहां खड़ी थी वहीं खड़ी रह गई. उसे लगा कि टांगों में जान नहीं रही है, उस का गला भी सूख रहा था और आंखों के आगे अंधेरा छा रहा था.

शैलजा की यह दशा देख कर कम्मो दौड़ी आई और उसे सहारा दे कर सोफे पर बैठाया. एक गिलास पानी देने के बाद कम्मो ने शैलजा के सामने फोन रख दिया.

रात के झगड़े के बाद शैलजा की रंजीत से बोलचाल बंद थी पर उस की चिंता न करते हुए उस ने सिसकियों के बीच सबकुछ रंजीत को बता दिया था.

‘सुबह तो डंपी मेरे सामने ही बस्ता ले कर गया था. तो स्कूल की जगह वह और कहां जा सकता है. मैं स्कूल जा कर देखता हूं. वहीं कहीं बच्चों के साथ होगा,’ कहने को तो रंजीत कह गया था पर घबराहट के मारे उस का भी बुरा हाल था.

चौथी कक्षा में पढ़ने वाले 9 वर्षीय डंपी के गायब होने का समाचार जंगल में लगी आग की तरह फैल गया था. जितने मुंह उतनी बातें.

हर स्थान पर खोजखबर लेने के बाद रंजीत और शैलजा ने पुलिस में बेटे के गायब होने की रिपोर्ट लिखा दी थी. शुभम के मातापिता छुट्टियां मनाने दूसरे शहर गए हुए थे अत: घर वापस लौटते ही वे लपक कर डंपी के घर पहुंचे थे.

‘मुझे तो लगता है मैं ने डंपी को अपने घर के सामने खड़े देखा था,’ शुभम की मम्मी रीमा बोली थीं.

‘भ्रम हुआ होगा तुम्हें. इतने दिनों से ये लोग ढूंढ़ रहे हैं उसे. हमारे घर के सामने कहां से आ गया वह?’ शुभम के पापा रीतेश बोले थे.

रीमा को कुछ दिनों से शुभम की गतिविधियां विचित्र लगने लगी थीं. फ्रिज में रखे खाने के सामान तेजी से खत्म होने लगे. सदा चहकता रहने वाला शुभम खुद में ही डूबा रहने लगा था.

एक दिन रीमा ने शुभम को तब रंगे हाथ पकड़ लिया जब वह डंपी को खाने का सामान दे रहा था. शुभम के घर के पिछवाड़े कुछ खाली ड्रम रखे हुए थे, डंपी वहीं छिपा हुआ था.

पूरी जानकारी कर लेने के बाद पुलिस अधीक्षक सुमंत राय डंपी के मातापिता को सवालिया नजरों से देखने लगे.

काफी देर हिचकियां ले कर रोने  के बाद डंपी अपनी दादी की गोद में सो गया.

‘‘बहनजी, बच्चे के मन में डर बैठ गया है,’’ डंपी की नानी बोली थीं, ‘‘अब तो मुझे भी डर लग रहा है कि ये लोग क्रोध में बच्चे को चाकू घोंप कर मार डालते तो कोई क्या कर लेता?’’

‘‘ठीक कह रही हैं आप,’’ पुलिस अधीक्षक सुमंत राय बोले थे, ‘‘इस तरह की घटनाएं खुद पर नियंत्रण खो बैठने से ही होती हैं. इस बार तो मैं डंपी को रंजीत और शैलजा को सौंपे दे रहा हूं पर इन्हें लिखित भरोसा देना होगा कि बच्चे को ऐसी यंत्रणा से दोबारा न गुजरना पड़े.’’

‘‘भविष्य में ऐसा नहीं होगा. हम आप को वचन देते हैं,’’ रंजीत और शैलजा किसी से नजरें नहीं मिला पा रहे थे.

‘‘फिर भी मैं बच्चे की दादीदादा और नानीनाना से कहूंगा कि वे बारीबारी से यहां आ कर रहें जिस से कि बच्चे का मातापिता से खोया विश्वास लौट सके.’’

सुमंत राय बोले तो सब ने सहमति में सिर हिलाया. उधर गहरी नींद में करवट बदलते हुए डंपी फिर सिसकने लगा था.

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