Interesting Hindi Stories : पुरवई

Interesting Hindi Stories : ‘‘सुनिए, पुरवई का फोन है. आप से बात करेगी,’’ मैं बैठक में फोन ले कर पहुंच गईथी.

‘‘हां हां, लाओ फोन दो. हां, पुरू बेटी, कैसी हो तुम्हें एक मजेदार बात बतानी थी. कल खाना बनाने वाली बाई नहीं आईथी तो मैं ने वही चक्करदार जलेबी वाली रेसिपी ट्राई की. खूब मजेदार बनी. और बताओ, दीपक कैसा है हां, तुम्हारी मम्मा अब बिलकुल ठीक हैं. अच्छा, बाय.’’

‘‘बिटिया का फोन लगता है’’ आगंतुक ने उत्सुकता जताई.

‘‘जी…वह हमारी बहू है…बापबेटी का सा रिश्ता बन गया है ससुर और बहू के बीच. पिछले सप्ताह ये लखनऊ एक सेमीनार में गएथे. मेरे लिए तो बस एक साड़ी लाए और पुरवई के लिए कुरता, टौप्स, ब्रेसलेट और न जाने क्याक्या उठा लाए थे. मुझ बेचारी ने तो मन को समझाबुझा कर पूरी जिंदगी निकाल ली थी कि इन के कोई बहनबेटी नहीं है तो ये बेचारे लड़कियों की चीजें लाना क्या जानें और अब देखिए कि बहू के लिए…’’

‘‘आप को तो बहुत ईर्ष्या होती होगी  यह सब देख कर’’ अतिथि महिला ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘अब उस नारीसुलभ ईर्ष्या वाली उम्र ही नहीं रही. फिर अपनी ही बेटी सेक्या ईर्ष्या रखना अब तो मन को यह सोच कर बहुत सुकून मिलता है कि चलो वक्त रहते इन्होंने खुद को समय के मुताबिक ढाल लिया. वरना पहले तो मैं यही सोचसोच कर चिंता से मरी जाती थी कि ‘मैं’ के फोबिया में कैद इस इंसान का मेरे बाद क्या होगा’’

आगंतुक महिला मेरा चेहरा देखती ही रह गई थीं. पर मुझे कोई हैरानी नहीं हुई. हां, मन जरूर कुछ महीने पहले की यादों मेंभटकने पर मजबूर हो गया था.  बेटा दीपक और बहू पुरवई सप्ताह भर का हनीमून मना कर लौटेथे और अगले दिन ही मुंबई अपने कार्यस्थल लौटने वाले थे. मैं बहू की विदाई की तैयारी कर रही थी कि तभी दीपक की कंपनी से फोन आ गया. उसे 4 दिनों के लिए प्रशिक्षण हेतु बेंगलुरु जाना था. ‘तो पुरवई को भी साथ ले जा’ मैं ने सुझाव रखा था.

‘मैं तो पूरे दिन प्रशिक्षण में व्यस्त रहूंगा. पुरू बोर हो जाएगी. पुरू, तुम अपने पापामम्मी के पास हो आओ. फिर सीधे मुंबई पहुंच जाना. मैं भी सीधा ही आऊंगा. अब और छुट्टी नहीं मिलेगी.’  ‘तुम रवाना हो, मैं अपना मैनेज कर लूंगी.’

दीपक चला गया. अब हम पुरवई के कार्यक्रम का इंतजार करने लगे. लेकिन यह जान कर हम दोनों ही चौंक पड़े कि पुरवई कहीं नहीं जा रहीथी. उस का 4 दिन बाद यहीं से मुंबई की फ्लाइट पकड़ने का कार्यक्रम था. ‘2 दिन तो आनेजाने में ही निकल जाएंगे. फिर इतने सालों से उन के साथ ही तो रह रही हूं. अब कुछ दिन आप के साथ रहूंगी. पूरा शहर भी देख लूंगी,’ बहू के मुंह से सुन कर मुझे अच्छा लगा था.

‘सुनिए, बहू जब तक यहां है, आप जरा शाम को जल्दी आ जाएं तो अच्छा लगेगा.’

‘इस में अच्छा लगने वाली क्या बात है मैं दोस्तों के संग मौजमस्ती करने या जुआ खेलने के लिए तो नहीं रुकता हूं. कालेज मेंढेर सारा काम होता है, इसलिए रुकता हूं.’

‘जानती हूं. पर अगर बहू शाम को शहर घूमने जाना चाहे तो’

‘कार घर पर ही है. उसे ड्राइविंग आती है. तुम दोनों जहां जाना चाहो चले जाना. चाबी पड़ोस में दे जाना.’

मनोहर भले ही मना कर गए थे लेकिन उन्हें शाम ठीक वक्त पर आया देख कर मेरा चेहरा खुशी से खिल उठा.  ‘चलिए, बहू को कहीं घुमा लाते हैं. कहां चलना चाहोगी बेटी’ मैं ने पुरवई से पूछा.

‘मुझे तो इस शहर का कोई आइडिया नहीं है मम्मा. बाहर निकलते हैं, फिर देख लेंगे.’

घर से कुछ दूर निकलते ही एक मेला सा लगा देख पुरवई उस के बारे में पूछ बैठी, ‘यहां चहलपहल कैसी है’

‘यह दीवाली मेला है,’ मैं ने बताया.

‘तो चलिए, वहीं चलते हैं. बरसों से मैं ने कोई मेला नहीं देखा.’

मेले में पहुंचते ही पुरवई बच्ची की तरह किलक उठी थी, ‘ममा, पापा, मुझे बलून पर निशाना लगाना है. उधर चलते हैं न’ हम दोनों का हाथ पकड़ कर वह हमें उधर घसीट ले गई थी. मैं तो अवाक् उसे देखती रह गईथी. उस का हमारे संग व्यवहार एकदम बेतकल्लुफ था. सरल था, मानो वह अपने मम्मीपापा के संग हो. मुझे तो अच्छा लग रहाथा. लेकिन मन ही मन मैं मनोहर से भय खा रही थी कि वे कहीं उस मासूम को झिड़क न दें. उन की सख्तमिजाज प्रोफैसर वाली छवि कालेज में ही नहीं घर पर भी बनी हुईथी.

पुरवई को देख कर लग रहा था मानो वह ऐसे किसी कठोर अनुशासन की छांव से कभी गुजरी ही न हो. या गुजरी भी हो तो अपने नाम के अनुरूप उसे एक झोंके से उड़ा देने की क्षमता रखती हो. बेहद स्वच्छंद और आधुनिक परिवेश में पलीबढ़ी खुशमिजाज उन्मुक्त पुरवई का अपने घर में आगमन मुझेठंडी हवा के झोंके सा एहसास करा रहा था. पलपल सिहरन का एहसास महसूस करते हुए भी मैं इस ठंडे उन्मुक्त एहसास कोभरपूर जी लेना चाह रही थी.

पुरवई की ‘वो लगा’ की पुकार के साथ उन्मुक्त हंसी गूंजी तो मैं एकबारगी फिर सिहर उठी थी. हड़बड़ा कर मैं ने मनोहर की ओर दृष्टि दौड़ाई तो चौंक उठी थी. वे हाथ में बंदूक थामे, एक आंख बंद कर गुब्बारों पर निशाने पर निशाना लगाए जा रहे थे और पुरवई उछलउछल कर ताली बजाते हुए उन का उत्साहवर्द्धन कर रही थी. फिर यह क्रम बदल गया. अब पुरवई निशाना साधने लगी और मनोहर ताली बजा कर उस का उत्साहवर्द्धन करने लगे. मुझे हैरत से निहारते देख वे बोल उठे, ‘अच्छा खेल रही है न पुरवई’

बस, उसीक्षण से मैं ने भी पुरवई को बहू कहना छोड़ दिया. रिश्तों की जिस मर्यादा को जबरन ढोए जा रही थी, उस बोझ को परे धकेल एकदम हलके हो जाने का एहसास हुआ. फिर तो हम ने जम कर मेले का लुत्फ उठाया. कभी चाट का दोना तो कभी फालूदा, कभी चकरी तो कभी झूला. ऐसा लग रहा था मानो एक नई ही दुनिया में आ गए हैं. बर्फ का गोला चाटते मनोहर को मैं ने टहोका मारा, ‘अभी आप को कोई स्टूडेंट या साथी प्राध्यापक देख ले तो’

मनोहर कुछ जवाब देते इस से पूर्व पुरवई बोल पड़ी, ‘तो हम कोई गलत काम थोड़े ही कर रहे हैं. वैसे भी इंसान को दूसरों के कहने की परवा कम ही करनी चाहिए. जो खुद को अच्छा लगे वही करना चाहिए. यहां तक कि मैं तो कभी अपने दिल और दिमाग में संघर्ष हो जाता है तो भी अपने दिल की बात को ज्यादा तवज्जुह देती हूं. छोटी सी तो जिंदगी मिली है हमें, उसे भी दूसरों के हिसाब से जीएंगे तो अपने मन की कब करेंगे’

हम दोनों उसे हैरानी से ताकते रह गए थे. कितनी सीधी सी फिलौसफी है एक सरस जिंदगी जीने की. और हम हैं कि अनेक दांवपेंचों में उसे उलझा कर एकदम नीरस बना डालते हैं. पहला दिन वाकई बड़ी मस्ती में गुजरा. दूसरे दिन हम ने उन की शादी की फिल्म देखने की सोची. 2 बार देख लेने के बावजूद हम दोनों का क्रेज कम नहीं हो रहा था. लेकिन पुरवई सुनते ही बिदक गई. ‘बोर हो गई मैं तो अपनी शादी की फिल्म देखतेदेखते… आज आप की शादी की फिल्म देखते हैं.’

‘हमारी शादी की पर बेटी, वह तो कैसेट में है जो इस में चलती नहीं है,’ मैं ने समस्या रखी.

‘लाइए, मुझे दीजिए,’ पुरवई कैसेट ले कर चली गई और कुछ ही देर में उस की सीडी बनवा कर ले आई. उस के बाद जितने मजे ले कर उस ने हमारी शादी की फिल्म देखी उतने मजे से तो अपनी शादी की फिल्म भी नहीं देखीथी. हर रस्म पर उस के मजेदार कमेंट हाजिर थे.

‘आप को भी ये सब पापड़ बेलने पड़े थे…ओह, हम कब बदलेंगे…वाऊ पापा, आप कितने स्लिम और हैंडसम थे… ममा, आप कितना शरमा रही थीं.’

सच कहूं तो फिल्म से ज्यादा हम ने उस की कमेंटरी को एंजौय किया, क्योंकि उस में कहीं कोई बनावटीपन नहीं था. ऐसा लग रहा था कमेंट उस की जबां से नहीं दिल से उछलउछल कर आ रहे थे. अगले दिन मूवी, फिर उस के अगले दिन बिग बाजार. वक्त कैसे गुजर रहा था, पता ही नहीं चल रहाथा.  अगले दिन पुरवई की फ्लाइट थी. दीपक मुंबई पहुंच चुका था. रात को बिस्तर पर लेटी तो आंखें बंद करने का मन नहीं हो रहा था,क्योंकि जागती आंखों से दिख रहा सपना ज्यादा हसीन लग रहा था. आंखें बंद कर लीं और यह सपना चला गया तो पास लेटे मनोहर भी शायद यही सोच रहे थे. तभी तो उन्होंने मेरी ओर करवट बदली और बोले, ‘कल पुरवई चली जाएगी. घर कितना सूना लगेगा 4 दिनों में ही उस ने घर में कैसी रौनक ला दी है मैं खुद अपने अंदर बहुत बदलाव महसूस कर रहा हूं्…जानती हो तनु, बचपन में  मैं ने घर में बाबूजी का कड़ा अनुशासन देखा है. जब वे जोर से बोलने लगते थे तो हम भाइयों के हाथपांव थरथराने  लगते थे.

‘बड़े हुए, शादी हुई, बच्चे हो जाने के बाद तक मेरे दिलोदिमाग पर उन का अनुशासन हावी रहा. जब उन का देहांत हुआ तो मुझे लगा अब मैं कैसे जीऊंगा क्योंकि मुझे हर काम उन से पूछ कर करने की आदत हो गईथी. मुझे पता ही नहीं चला इस दरम्यान कब उन का गुस्सा, उन की सख्ती मेरे अंदर समाविष्ट होते चले गए थे. मैं धीरेधीरे दूसरा बाबूजी बनता चला गया. जिस तरह मेरे बचपन के शौक निशानेबाजी, मूवी देखना आदि दम तोड़ते चले गए थे ठीक वैसे ही मैं ने दीपक के, तुम्हारे सब के शौक कुचलने का प्रयास किया. मुझे इस से एक अजीब आत्म- संतुष्टि सी मिलती थी. तुम चाहो तो इसे एक मानसिक बीमारी कह सकती हो. पर समस्या बीमारी की नहीं उस के समाधान की है.

‘पुरवई ने जितनी नरमाई से मेरे अंदर के सोए हुए शौक जगाए हैं और जितने प्यार से मेरे अंदर के तानाशाह को घुटने टेकने पर मजबूर किया है, मैं उस का एहसानमंद हो गया हूं. मैं ‘मैं’ के फोबिया से बाहर निकल कर खुली हवा में सांस ले पा रहा हूं. सच तो यह है तनु, बंदिशें मैं ने सिर्फ दीपक और तुम पर ही नहीं लगाईथीं, खुद को भी वर्जनाओं की जंजीरों में जकड़ रखा था. पुरवई से भले ही यह सब अनजाने में हुआ हैक्योंकि उस ने मेरा पुराना रूप तो देखा ही नहीं है, लेकिन मैं अपने इस नए रूप से बेहद प्यार करने लगा हूं और तुम्हारी आंखों मेंभी यह प्यार स्पष्ट देख सकता हूं.’

‘मैं तो आप से हमेशा से ही प्यार करती आ रही हूं,’ मैं ने टोका.

‘वह रिश्तों की मर्यादा में बंधा प्यार था जो अकसर हर पतिपत्नी में देखने को मिल जाता है. लेकिन इन दिनों मैं तुम्हारी आंखों में जो प्यार देख रहा हूं, वह प्रेमीप्रेमिका वाला प्यार है, जिस का नशा अलग ही है.’

‘अच्छा, अब सो जाइए. सवेरे पुरवई को रवाना करना है.’

मैं ने मनोहर को तो सुला दिया लेकिन खुद सोने सेडरने लगी. जागती आंखों से देख रही इस सपने को तो मेरी आंखें कभी नजरों से ओझल नहीं होने देना चाहेंगी. शायद मेरी आंखों में अभी कुछ और सपने सजने बाकी थे.  पुरवई को विदा करने के चक्कर में मैं  हर काम जल्दीजल्दी निबटा रही थी. भागतेदौड़ते नहाने घुसी तो पांव फिसल गया और मैं चारोंखाने चित जमीन पर गिर गई. पांव में फ्रैक्चर हो गया था. मनोहर और पुरवई मुझे ले कर अस्पताल दौड़े. पांव में पक्का प्लास्टर चढ़ गया. पुरवई कीफ्लाइट का वक्त हो गया था. मगर  वह मुझे इस हाल में छोड़ कर जाने को तैयार नहीं हो रही थी. उस ने दीपक को फोन कर के सब स्थिति बता दी. साथ ही अपनी टिकट भी कैंसल करवा दी. मुझे बहुत दुख हो रहा था.

‘मेरी वजह से सब चौपट हो गया. अब दोबारा टिकट बुक करानी होगी. दीपक अलग परेशान होगा. डाक्टर, दवा आदि पर भी कितना खर्च हो गया. सब मेरी जरा सी लापरवाही की वजह से…घर बैठे मुसीबत बुला ली मैं ने…’

‘आप अपनेआप को क्यों कोस रही हैं ममा यह तो शुक्र है जरा से प्लास्टर से ही आप ठीक हो जाएंगी. और कुछ हो जाता तो रही बात खर्चे की तो यदि ऐसे वक्त पर भी पैसा खर्च नहीं किया गया तो फिर वह किस काम का यदि आप के इलाज में कोई कमी रह जाती, जिस का फल आप को जिंदगी भर भुगतना पड़ता तो यह पैसा क्या काम आता हाथपांव सलामत हैं तो इतना पैसा तो हम चुटकियों में कमा लेंगे.’

उस की बातों से मेरा मन वाकई बहुत हल्का हो गया. पीढि़यों की सोच का टकराव मैं कदमकदम पर महसूस कर रही थी. नई पीढ़ी लोगों के कहने की परवा नहीं करती. अपने दिल की आवाज सुनना पसंद करती है. पैसा खर्च करते वक्त वह हम जैसा आगापीछा नहीं सोचती क्योंकि वह इतना कमाती है कि खर्च करना अपना हक समझती है.  घर की बागडोर दो जोड़ी अनाड़ी हाथों में आ गईथी. मनोहर कोघर के कामों का कोई खास अनुभव नहीं था. इमरजेंसी में परांठा, खिचड़ी आदि बना लेतेथे. उधर पुरवई भी पहले पढ़ाई और फिर नौकरी में लग जाने के कारण ज्यादा कुछ नहीं जानती थी. पर इधर 4 दिन मेरे साथ रसोई में लगने से दाल, शक्कर के डब्बे तो पता चले ही थे साथ ही सब्जी, पुलाव आदि में भी थोड़ेथोड़े हाथ चलने लग गए थे. वरना रसोई की उस की दुनिया भी मैगी, पास्ता और कौफी तक ही सीमित थी. मुझ से पूछपूछ कर दोनों ने 2 दिन पेट भरने लायक पका ही लिया था. तीसरे दिन खाना बनाने वाली बाई का इंतजाम हो गया तो सब ने राहत की सांस ली. लेकिन इन 2 दिनों में ही दोनों ने रसोई को अच्छीखासी प्रयोगशाला बना डालाथा. अब जबतब फोन पर उन प्रयोगों को याद कर हंसी से दोहरे होते रहते हैं.

तीसरे दिन दीपक भी आ गया था. 2 दिन और रुक कर वे दोनों चले गए थे. उन की विदाई का दृश्य याद कर के आंखें अब भी छलक उठती हैं. दीपक तो पहले पढ़ाई करते हुए और फिर नौकरी लग जाने पर अकसर आताजाता रहता है पर विदाई के दर्द की जो तीव्र लहर हम उस वक्त महसूस कर रहे थे, वह पिछले सब अनुभवों से जुदा थी. ऐसा लग रहा था बेटी विदा हो कर, बाबुल की दहलीज लांघ कर दूर देश जा रही है. पुरवई की जबां पर यह बात आ भी गई थी, ‘जुदाई के ऐसे मीठे से दर्द की कसक एक बार तब उठी थी जब कुछ दिन पूर्व मायके से विदा हुई थी. तब एहसास भी नहीं था कि इतने कम अंतराल में ऐसा मीठा दर्द दोबारा सहना पड़ जाएगा.’

पहली बार मुझे पीढि़यों की सोच टकराती नहीं, हाथ मिलाती महसूस हो रही थी. भावनाओं के धरातल पर आज भी युवा प्यार के बदले प्यार देना जानते हैं और विरह के क्षणों में उन का भी दिल भर आता है.पुरवई चली गई. अब ठंडी हवा का हर झोंका घर में उस की उपस्थिति का आभास करा जाता है.

Hindi Fiction Stories : बस तुम्हारी हां की देर है

Hindi Fiction Stories : अपनी शादी की बात सुन कर दिव्या फट पड़ी. कहने लगी, ‘‘क्या एक बार मेरी जिंदगी बरबाद कर के आप सब को तसल्ली नहीं हुई जो फिर से… अरे छोड़ दो न मुझे मेरे हाल पर. जाओ, निकलो मेरे कमरे से,’’ कह कर उस ने अपने पास पड़े कुशन को दीवार पर दे मारा. नूतन आंखों में आंसू लिए कुछ न बोल कर कमरे से बाहर आ गई.

आखिर उस की इस हालत की जिम्मेदार भी तो वे ही थे. बिना जांचतड़ताल किए सिर्फ लड़के वालों की हैसियत देख कर उन्होंने अपनी इकलौती बेटी को उस हैवान के संग बांध दिया. यह भी न सोचा कि आखिर क्यों इतने पैसे वाले लोग एक साधारण परिवार की लड़की से अपने बेटे की शादी करना चाहते हैं? जरा सोचते कि कहीं दिव्या के दिल में कोई और तो नहीं बसा है… वैसे दबे मुंह ही, पर कितनी बार दिव्या ने बताना चाहा कि वह अक्षत से प्यार करती है, लेकिन शायद उस के मातापिता यह बात जानना ही नहीं चाहते थे. अक्षत और दिव्या एक ही कालेज में पढ़ते थे. दोनों अंतिम वर्ष के छात्र थे. जब कभी अक्षत दिव्या के संग दिख जाता, नूतन उसे ऐसे घूर कर देखती कि बेचारा सहम उठता. कभी उस की हिम्मत ही नहीं हुई यह बताने की कि वह दिव्या से प्यार करता है पर मन ही मन दिव्या की ही माला जपता रहता था और दिव्या भी उसी के सपने देखती रहती थी.

‘‘नीलेश अच्छा लड़का तो है ही, उस की हैसियत भी हम से ऊपर है. अरे, तुम्हें तो खुश होना चाहिए जो उन्होंने अपने बेटे के लिए तुम्हारा हाथ मांगा, वरना क्या उन के बेटे के लिए लड़कियों की कमी है इस दुनिया में?’’ दिव्या के पिता मनोहर ने उसे समझाते हुए कहा था, पर एक बार भी यह जानने की कोशिश नहीं की कि दिव्या मन से इस शादी के लिए तैयार है भी या नहीं.

मांबाप की मरजी और समाज में उन की नाक ऊंची रहे, यह सोच कर भारी मन से ही सही पर दिव्या ने इस रिश्ते के लिए हामी भर दी. वह कभी नहीं चाहेगी कि उस के कारण उस के मातापिता दुखी हों. कहने को तो लड़के वाले बहुत पैसे वाले थे लेकिन फिर भी उन्होंने मुंहमांगा दहेज पाया. ‘अब हमारी एक ही तो बेटी है. हमारे बाद जो भी है सब उस का ही है. तो फिर क्या हरज है अभी दें या बाद में’ यह सोच कर मनोहर और नूतन उन की हर डिमांड पूरी करते रहे, पर उन में तो संतोष नाम की चीज ही नहीं थी. अपने नातेरिश्तेदार को वे यह कहते अघाते नहीं थे कि उन की बेटी इतने बड़े घर में ब्याह रही है. लोग भी सुन कर कहते कि भई मनोहर ने तो इतने बड़े घर में अपनी बेटी का ब्याह कर गंगा नहा ली. दिल पर पत्थर रख दिव्या भी अपने प्यार को भुला कर ससुराल चल पड़ी. विदाई के वक्त उस ने देखा एक कोने में खड़ा अक्षत अपने आंसू पोंछ रहा था.

ससुराल पहुंचने पर नववधू का बहुत स्वागत हुआ. छुईमुई सी घूंघट काढ़े हर दुलहन की तरह वह भी अपने पति का इंतजार कर रही थी. वह आया तो दिव्या का दिल धड़का और फिर संभला भी़ लेकिन सोचिए जरा, क्या बीती होगी उस लड़की पर जिस की सुहागरात पर उस का पति यह बोले कि वह उस के साथ सबंध बनाने में सक्षम नहीं है और वह इस बात के लिए उसे माफ कर दे. सुन कर धक्क रह गया दिव्या का कलेजा. आखिर क्या बीती होगी उस के दिल पर जब उसे यह पता चला कि उस का पति नामर्द है और धोखे में रख कर उस ने उसे ब्याह लिया?

पर क्यों, क्यों जानबूझ कर उस के साथ ऐसा किया गया? क्यों उसे और उस के परिवार को धोखे में रखा गया? ये सवाल जब उस ने अपने पति से पूछे तो कोई जवाब न दे कर वह कमरे से बाहर चला गया. दिव्या की पूरी रात सिसकतेसिसकते ही बीती. उस की सुहागरात एक काली रात बन कर रह गई. सुबह नहाधो कर उस ने अपने बड़ों को प्रमाण किया और जो भी बाकी बची रस्में थीं, उन्हें निभाया. उस ने सोचा कि रात वाली बात वह अपनी सास को बताए और पूछे कि क्यों उस के जीवन के साथ खिलवाड़ किया गया?

लेकिन उस की जबान ही नहीं खुली यह कहने को. कुछ समझ नहीं आ रहा था उसे कि करे तो करे क्या, क्योंकि रिसैप्शन पर भी सब लोगों के सामने नीलेश उस के साथ ऐसे बिहेव कर रहा था जैसे उन की सुहागरात बहुत मजेदार रही. हंसहंस कर वह अपने दोस्तों को कुछ बता रहा था और वे चटकारे लेले कर सुन रहे थे. दिव्या समझ गई कि शायद उस के घर वालों को नीलेश के बारे में कुछ पता न हो. उन सब को भी उस ने धोखे में रखा हुआ होगा.

पगफेर पर जब मनोहर उसे लिवाने आए और पूछने पर कि वह अपनी ससुराल में खुश है, दिव्या खून का घूंट पी कर रह गई. फिर उस ने वही जवाब दिया जिस से मनोहर और नूतन को तसल्ली हो. एक अच्छे पति की तरह नीलेश उसे उस के मायके से लिवाने भी आ गया. पूरे सम्मान के साथ उस ने अपने साससुसर के पांव छूए और कहा कि वे दिव्या की बिलकुल चिंता न करें, क्योंकि अब वह उन की जिम्मेदारी है. धन्य हो गए थे मनोहर और नूतन संस्कारी दामाद पा कर. लेकिन उन्हें क्या पता कि सचाई क्या है? वह तो बस दिव्या ही जानती थी और अंदर ही अंदर जल रही थी.

दिव्या को अपनी ससुराल आए हफ्ते से ऊपर का समय हो चुका था पर इतने दिनों में एक बार भी नीलेश न तो उस के करीब आया और न ही प्यार के दो बोल बोले, हैरान थी वह कि आखिर उस के साथ हो क्या रहा है और वह चुप क्यों है. बता क्यों नहीं देती सब को कि नीलेश ने उस के साथ धोखा किया है? लेकिन किस से कहे और क्या कहे, सोच कर वह चुप हो जाती.

एक रात नींद में ही दिव्या को लगा कि कोई उस के पीछे सोया है. शायद नीलेश है, उसे लगा लेकिन जिस तरह से वह इंसान उस के शरीर पर अपना हाथ फिरा रहा था उसे शंका हुई. जब उस ने लाइट जला कर देखा तो स्तब्ध रह गई, क्योंकि वहां नीलेश नहीं बल्कि उस का पिता था जो आधे कपड़ों में उस के बैड पर पड़ा उसे गंदी नजरों से घूर रहा था.

‘‘आ…आप, आप यहां मेरे कमरे में… क… क्या, क्या कर रहे हैं पिताजी?’’ कह कर वह अपने कपड़े ठीक करने लगी. लेकिन जरा उस का ढीठपन तो देखो, उस ने तो दिव्या को खींच कर अपनी बांहों में भर लिया और उस के साथ जबरदस्ती करने की कोशिश करने लगा. दिव्या को अपनी ही आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था कि उस का ससुर ही उस के साथ… ‘‘मैं, मैं आप की बहू हूं. फिर कैसे आप मेरे साथ…’’ वह डर के मारे हकलाते हुए बोली.

‘‘ बहू,’’ ठहाके मार कर हंसते हुए वह बोला, ‘‘क्या तुम्हें पता नहीं है कि तुम्हें मुझ से ही वारिस पैदा करना है और इसीलिए ही तो हम तुम्हें इस घर में बहू बना कर लाए हैं.’’ सुन कर दिव्या को लगा जैसे किसी ने उस के कानों में पिघला शीशा डाल दिया हो. वह कहने लगी, ‘‘यह कैसी पागलों सी बातें कर रहे हैं आप? क्या शर्मोहया बेच खाई है?’’

पर वह कहां कुछ सुननेसमझने वाला था. फिर उस ने दिव्या के ऊपर झपट्टा मारा. लेकिन उस ने अपनेआप को उस दरिंदे से बचाने के लिए जैसे ही दरवाजा खोला, सामने ही नीलेश और उस की मां खड़े मिले. घबरा कर वह अपनी सास से लिपट गई और रोते हुए कहने लगी कि कैसे उस के ससुर उस के साथ जबरदस्ती करना चाह रहे हैं… उसे बचा ले. ‘‘बहुत हो चुका यह चूहेबिल्ली का खेल… कान खोल कर सुन लो तुम कि ये सब जो हो रहा है न वह सब हमारी मरजी से ही हो रहा है और हम तुम्हें इसी वास्ते इस घर में बहू बना कर लाए हैं. ज्यादा फड़फड़ाओ मत और जो हो रहा है होने दो.’’ अपनी सास के मुंह से भी ऐसी बात सुन कर दिव्या का दिमाग घूम गया. उसे लगा वह बेहोश हो कर गिर पड़ेगी. फिर अपनेआप को संभालते हुए उस ने कहा, ‘‘तो क्या आप को भी पता है कि आप का बेटा…’’

‘‘हां और इसीलिए तो तुम जैसी साधारण लड़की को हम ने इस घर में स्थान दिया वरना लड़कियों की कमी थी क्या हमारे बेटे के लिए.’’ ‘‘पर मैं ही क्यों… यह बात हमें बताई

क्यों नहीं गईं. ये सारी बातें शादी के पहले… क्यों धोखे में रखा आप सब ने हमें? बताइए, बताइए न?’’ चीखते हुए दिव्या कहने लगी, ‘‘आप लोगों को क्या लगता है मैं यह सब चुपचाप सहती रहूंगी? नहीं, बताऊंगी सब को तुम सब की असलियत?’’

‘‘क्या कहा, असलियत बताएगी? किसे? अपने बाप को, जो दिल का मरीज है…सोच अगर तेरे बाप को कुछ हो गया तो फिर तेरी मां का क्या होगा? कहां जाएगी वह तुझे ले कर? दुनिया को तो हम बताएंगे कि कैसे आते ही तुम ने घर के मर्दों पर डोरे डलने शुरू कर दिए और जब चोरी पकड़ी गई तो उलटे हम पर ही दोष मढ़ रही है,’’ दिव्या के बाल खींचते हुए नीलेश कहने लगा, ‘‘तुम ने क्या सोचा कि तू मुझे पसंद आ गई थी, इसलिए हम ने तुम्हारे घर रिश्ता भिजवाया था? देख, करना तो तुम्हें वही पड़ेगा जो हम चाहेंगे, वरना…’’ बात अधूरी छोड़ कर उस ने उसे उस के कमरे से बाहर निकाल दिया. पूरी रात दिव्या ने बालकनी में रोते हुए बिताई. सुबह फिर उस की सास कहने लगी, ‘‘देखो बहू, जो हो रहा है होने दो… क्या फर्क पड़ता है कि तुम किस से रिश्ता बना रही हो और किस से नहीं. आखिर हम तो तुम्हें वारिस जनने के लिए इस घर में बहू बना कर लाए हैं न.’’

इस घर और घर के लोगों से घृणा होने लगी थी दिव्या को और अब एक ही सहारा था उस के पास. उस के ननद और ननदोई. अब वे ही थे जो उसे इस नर्क से आजाद करा सकते थे. लेकिन जब उन के मुंह से भी उस ने वही बातें सुनीं तो उस के होश उड़ गए. वह समझ गई कि उस की शादी एक साजिश के तहत हुई है. 3 महीने हो चुके थे उस की शादी को. इन 3 महीनों में एक दिन भी ऐसा नहीं गया जब दिव्या ने आंसू न बहाए हों. उस का ससुर जिस तरह से उसे गिद्ध दृष्टि से देखता था वह सिहर उठती थी. किसी तरह अब तक वह अपनेआप को उस दरिंदे से बचाए थी. इस बीच जब भी मनोहर अपनी बेटी को लिवाने आते तो वे लोग यह कह कर उसे जाने से रोक देते कि अब उस के बिना यह घर नहीं चल सकता. उन के कहने का मतलब था कि वे लोग दिव्या को बहुत प्यार करते हैं. इसीलिए उसे कहीं जाने नहीं देना चाहते हैं.

मन ही मन खुशी से झूम उठते मनोहर यह सोच कर कि उन की बेटी का उस घर में कितना सम्मान हो रहा है. लेकिन असलियत से वे वाकिफ नहीं थे कि उन की बेटी के साथ इस घर में क्याक्या हो रहा है…दिव्या भी अपने पिता के स्वास्थ्य के साथ कोई समझौता नहीं करना चाहती थी, इसलिए चुप थी. लेकिन उस रात तो हद हो गई जब उसे उस के ससुर के साथ एक कमरे में बंद कर दिया गया. वह चिल्लाती रही पर किसी ने दरवाजा नहीं खोला. क्या करती बेचारी? उठा कर फूलदान उस दरिंदे के सिर पर दे मारा और जब उस के चिल्लाने की आवाजों से वे सब कमरे में आए तो वह सब की नजरें बचा कर घर से भाग निकली. अपनी बेटी को यों अचानक अकेले और बदहवास अवस्था में देख कर मनोहर और नूतन हैरान रह गए, फिर जब उन्हें पूरी बात का पता चली तो जैसे उन के पैरों तले की जमीन ही खिसक गई. आननफानन में वे अपनी बेटी की ससुराल पहुंच गए और जब उन्होंने उन से अपनी बेटी के जुल्मों का हिसाब मांगा और कहा कि क्यों उन्होंने उन्हें धोखे में रखा तो वे उलटे कहने लगे कि ऐसी कोई बात नहीं. उन्होंने ही अपनी पागल बेटी को उन के बेटे के पल्ले बांध दिया. धोखा तो उन के साथ हुआ है.

‘‘अच्छा तो फिर ठीक है, आप अपने बेटे की जांच करवाएं कि वह नपुंसक है या नहीं और मैं भी अपनी बेटी की दिमागी जांच करवाता हूं. फिर तो दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा न? तुम लोग क्या समझे कि हम चुप बैठ जाएंगे? नहीं, इस भ्रम में मत रहना. तुम सब ने अब तक मेरी शालीनता देखी है पर अब मैं तुम्हें दिखाऊंगा कि मैं क्या कर सकता हूं. चाहे दुनिया की सब से बड़ी से बड़ी अदालत तक ही क्यों न जाना पड़े हमें, पर छोड़ूंगा नहीं…तुम सब को तो जेल होगी ही और तुम्हारा बाप, उसे तो फांसी न दिलवाई मैं ने तो मेरा भी नाम मनोहर नहीं,’’ बोलतेबोलते मनोहर का चेहरा क्रोध से लाल हो गया. मनोहर की बातें सुन कर सब के होश उड़ गए, क्योंकि झूठे और गुनहगार तो वे लोग थे ही अत: दिन में ही तारे नजर आने लगे उन्हें.

‘‘क्या सोच रहे हो रोको उसे. अगर वह पुलिस में चला गया तो हम में से कोई नहीं बचेगा और मुझे फांसी पर नहीं झूलना.’’ अपना पसीना पोछते हुए नीलेश के पिता ने कहा. उन लोगों को लगने लगा कि अगर यह बात पुलिस तक गई तो इज्जत तो जाएगी ही, उन का जीवन भी नहीं बचेगा. बहुत गिड़गिड़ाने पर कि वे जो चाहें उन से ले लें, जितने मरजी थप्पड़ मार लें, पर पुलिस में न जाएं.

‘कहीं पुलिसकानून के चक्कर में उन की बेटी का भविष्य और न बिगड़ जाए,’ यह सोच कर मनोहर को भी यही सही लगा, लेकिन उन्होंने उन के सामने यह शर्त रखी कि नीलेश दिव्या को जल्द से जल्द तलाक दे कर उसे आजाद कर दे. मरता क्या न करता. बगैर किसी शर्त के नीलेश ने तलाक के पेपर साइन कर दिए, पहली सुनवाई में ही फैसला हो गया.

वहां से तो दिव्या आजाद हो गई, लेकिन एक अवसाद से घिर गई. जिंदगी पर से उस का विश्वास उठ गया. पूरा दिन बस अंधेरे कमरे में पड़ी रहती. न ठीक से कुछ खाती न पीती और न ही किसी से मिलतीजुलती. ‘कहीं बेटी को कुछ हो न जाए, कहीं वह कुछ कर न ले,’ यह सोचसोच कर मनोहर और नूतन की जान सूखती रहती. बेटी की इस हालत का दोषी वे खुद को ही मानने लगे थे. कुछ समझ नहीं आ रहा था उन्हें कि क्या करें जो फिर से दिव्या पहले की तरह हंसनेखिलखिलाने लगे. अपनी जिंदगी से उसे प्यार हो जाए. ‘‘दिव्या बेटा, देखो तो कौन आया है,’’ उस की मां ने लाइट औन करते हुए कहा तो उस ने नजरें उठा कर देखा पर उस की आंखें चौंधिया गईं. हमेशा अंधेरे में रहने और एकाएक लाइट आंखों पर पड़ने के कारण उसे सही से कुछ नहीं दिख रहा था, पर जब उस ने गौर से देखा तो देखती रह गई, ‘‘अक्षत,’’ हौले से उस के मुंह से निकला. नूतन और मनोहर जानते थे कि कभी दिव्या और अक्षत एकदूसरे से प्यार करते थे पर कह नहीं पाए. शायद उन्हें बोलने का मौका ही नहीं दिया और खुद ही वे उस की जिंदगी का फैसला कर बैठे. ‘लेकिन अब अक्षत ही उन की बेटी के होंठों पर मुसकान बिखेर सकता था. वही है जो जिंदगी भर दिव्या का साथ निभा सकता है,’ यह सोच कर उन्होंने अक्षत को उस के सामने ला कर खड़ा कर दिया.

बहुत सकुचाहट के बाद अक्षत ने पूछा, ‘‘कैसी हो दिव्या?’’ मगर उस ने कोई जवाब नहीं दिया. ‘‘लगता है मुझे भूल गई? अरे मैं अक्षत हूं अक्षत…अब याद आया?’’ उस ने उसे हंसाने के इरादे से कहा पर फिर भी उस ने कोई जवाब नहीं दिया.

धीरेधीरे अक्षत उसे पुरानी बातें, कालेज के दिनों की याद दिलाने लगा. कहने लगा कि कैसे वे दोनों सब की नजरें बचा कर रोज मिलते थे. कैसे कैंटीन में बैठ कर कौफी पीते थे. अक्षत उसे उस के दुख भरे अतीत से बाहर लाने की कोशिश कर रहा था, पर दिव्या थी कि बस शून्य में ही देखे जा रही थी.

दिव्या की ऐसी हालत देख कर अक्षत की आंखों में भी आंसू आ गए. कहने लगा, ‘‘आखिर तुम्हारी क्या गलती है दिव्या जो तुम ने अपनेआप को इस कालकोठरी में बंद कर रखा है? ऐसा कर के क्यों तुम खुद को सजा दे रही हो? क्या अंधेरे में बैठने से तुम्हारी समस्या हल हो जाएगी या जिस ने तुम्हारे साथ गलत किया उसे सजा मिल जाएगी, बोलो?’’

‘‘तो मैं क्या करूं अक्षत, क्या कंरू मैं? मैं ने तो वही किया न जो मेरे मम्मीपापा ने चाहा, फिर क्या मिला मुझे?’’ अपने आंसू पोंछते हुए दिव्या कहने लगी. उस की बातें सुन कर नूतन भी फफकफफक कर रोने लगीं. दिव्या का हाथ अपनी दोनों हथेलियों में दबा कर अक्षत कहने लगा, ‘‘ठीक है, कभीकभी हम से गलतियां हो जाती हैं. लेकिन इस का यह मतलब तो नहीं है कि हम उन्हीं गलतियों को ले कर अपने जीवन को नर्क बनाते रहें… जिंदगी हम से यही चाहती है कि हम अपने उजाले खुद तय करें और उन पर यकीन रखें. जस्ट बिलीव ऐंड विन. अवसाद और तनाव के अंधेरे को हटा कर जीवन को खुशियों के उजास से भरना कोई कठिन काम नहीं है, बशर्ते हम में बीती बातों को भूलने की क्षमता हो.

‘‘दिव्या, एक डर आ गया है तुम्हारे अंदर… उस डर को तुम्हें बाहर निकालना होगा. क्या तुम्हें अपने मातापिता की फिक्र नहीं है कि उन पर क्या बीतती होगी, तुम्हारी ऐसी हालत देख कर. अरे, उन्होंने तो तुम्हारा भला ही चाहा था न… अपने लिए, अपने मातापिता के लिए, तुम्हें इस गंधाते अंधेरे से निकलना ही होगा दिव्या…’’

अक्षत की बातों का कुछकुछ असर होने लगा था दिव्या पर. कहने लगी, ‘‘हम अपनी खुशियां, अपनी पहचान, अपना सम्मान दूसरों से मांगने लगते हैं. ऐसा क्यों होता है अक्षत?’’ ‘‘क्योंकि हमें अपनी शक्ति का एहसास नहीं होता. अपनी आंखें खोल कर देखो गौर से…तुम्हारे सामने तुम्हारी मंजिल है,’’ अक्षत की बातों ने उसे नजर उठा कर देखने पर मजबूर कर दिया. जैसे वह कह रहा हो कि दिव्या, आज भी मैं उसी राह पर खड़ा तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं, जहां तुम मुझे छोड़ कर चली गई थी. बस तुम्हारी हां की देर है दिव्या. फिर देखो कैसे मैं तुम्हारी जिंदगी खुशियों से भर दूंगा.

अक्षत के सीने से लग दिव्या बिलखबिलख कर रो पड़ी जैसे सालों का गुबार निकल रहा हो उस की आंखों से बह कर. अक्षत ने भी उसे रोने दिया ताकि उस के सारे दुखदर्द उन आंसुओं के सहारे बाहर निकल जाएं और वह अपने डरावने अतीत से बाहर निकल सके. बाहर खड़े मनोहर और नूतन की आंखों से भी अविरल आंसू बहे जा रहे थे पर आज ये खुशी के आंसू थे.

Hindi Kahaniyan : दर्प – जब एक झूठ बना कविता की जिंदगी का कड़वा सच

Hindi Kahaniyan :  आज पूरे दफ्तर में अजीब सी खामोशी पसरी हुई थी. कई हफ्तों से चल रही चटपटी गपशप को अचानक विराम लग गया था. सुबह दफ्तर में आते ही एकदूसरे से मिलने पर हाय, हैलो,  नमस्ते की जगह हर किसी की जबान पर निदेशक, महेश पुरी का ही नाम था. हर एक के हाथ में अखबार था जिस में महेश पुरी की आत्महत्या की खबर छपी थी. महेश पुरी अचानक ऐसा कदम उठा लेंगे, ऐसा न उन के घर वालों ने सोचा था न ही दफ्तर वालों ने.  वैसे तो इस दुनिया से जाने वालोें की कभी कोई बुराई नहीं करता, लेकिन महेश पुरी तो वास्तव में एक सज्जन व्यक्ति थे. उन के साथ काम करने वालों के दिल में उन के लिए इज्जत और सम्मान था. 30 वर्षों के कार्यकाल में उन से कभी किसी को कोई शिकायत नहीं रही. महेश पुरी बहुत ही सुलझे हुए, सभ्य तथा सुसंस्कृत व्यक्ति थे. कम बोलना, अपने मातहत काम करने वालों की मदद करना, सब के सुखदुख में शामिल होना तथा दफ्तर में सौहार्दपूर्ण वातावरण बनाए रखना उन के व्यक्तित्व के विशेष गुण थे.

लगभग 6 महीने पहले उन की ब्रांच में कविता तबादला हो कर आई थी. कविता ज्यादा दिनों तक एक जगह टिक कर काम कर ही नहीं सकती थी. वह अपने आसपास किस्से, कहानियों, दोस्तों और संबंधों का इतना मजबूत जाल बुन लेती कि साथ काम करने वाले कर्मचारी दफ्तर और घर को भूल कर उसी में उलझ जाते. लेकिन जब विभाग के काम और अनुशासन की स्थिति नियंत्रण से बाहर हो जाती तो कविता का वहां से तबादला कर दिया जाता.  कविता जिस भी विभाग में जाती, वहां काम करने वाले पुरुष मानो हवा में उड़ने लगते. हंसहंस कर सब से बातें करना, चायपार्टियां करते रहना, अपनी कुरसी छोड़ कर किसी भी सीट पर जा बैठना कविता के स्वभाव में शामिल था. ऐसे में दिन का पता ही नहीं लगता कब पंख लगा कर उड़ जाता. कविता चीज ही ऐसी थी, खूबसूरत, जवान, पढ़ीलिखी तथा आधुनिक विचारधारा  वाली फैशनेबल लड़की.

नित नए फैशन के कपड़े पहन कर आना, भड़कीला मेकअप, ऊंची हील के सैंडिल, कंधों तक झूलते घने काले केश, गोराचिट्टा रंग, गठा शरीर और 5 फुट 3 इंच का कद, ऐसी मोहक छवि और ऐसा व्यवहार भला किसे आकर्षित नहीं करेगा?  सहकर्मी भी दिनभर उस से रस लेले कर बातें करते. कोई कितना भी कम बोलने वाला हो, कविता उसे कुछ ही दिनों में रास्ते पर ले आती और वह भी दिनभर बतियाने लगता. वह जिस की भी सीट पर जाती, उस सहकर्मी की गरदन तन जाती लेकिन शेष सहकर्मियों की गरदनें भले ही फाइलों पर झुकी हों परंतु उन के कान उन दोनों की बातों पर ही लगे रहते.

इतना ही नहीं, कविता जिस सैक्शन में होती वहां के काम की रिपोर्ट खराब होने लगती क्योंकि उस के रहते दफ्तर में काम करने का माहौल ही नहीं बन पाता. बस पुरुष कर्मचारियों में एक होड़ सी लगी रहती कि कौन कविता को पहले चाय क औफर करता है और कौन लंच का. किस का निमंत्रण वह स्वीकार करती है और किस का ठुकरा देती है.  हालांकि कविता को उस के इस खुले व्यवहार के बारे में समझाने की कोशिश बेकार ही साबित होती फिर भी उस की खास सहेली, रमा उसे अकसर समझाने की कोशिश करती रहती. लेकिन कविता ने कभी उस की एक नहीं सुनी. कविता का मानना था कि यह 21वीं सदी है, औरत और मर्द दोनों के बराबर अधिकार हैं. ऐसे में मर्दों से बात करना, उन के साथ चाय पीने, कहीं आनेजाने में क्या हर्ज है? आदमी कोई खा थोड़े ही जाते हैं? वह उन से बात ही तो करती है, प्यार या शादी के वादे थोड़े करती है जो मुश्किल हो जाएगी.  रमा का कहना था कि यदि ऐसी बात है तो फिर वह आएदिन किसी न किसी की शिकायत कर के अपना तबादला क्यों करवाती रहती है? कविता सफाई देते हुए कहती कि इस में उस का क्या कुसूर, पुरुषों की सोच ही इतनी संकुचित है, कोई सुंदर लड़की हंस कर बात कर ले या उस के साथ चाय पी ले तो उन की कल्पना को पंख लग जाते हैं फिर न उन्हें अपनी उम्र का खयाल रहता है न समाज का.

कविता को अपनी खूबसूरती का, उसे देख कर मर्दों के आहें भरने का, कुछ पल उस के साथ बिताने की चाहत का अंदाजा था तभी तो उस ने जब जो चाहा, वह पाया. आउट औफ टर्न प्रोमोशन, आउट आफ टर्न मकान और स्वच्छंद जीवन.  अगर कभी कोई उपहासपरिहास में मर्यादा की सीमाएं लांघ भी जाए तो भी कविता ने बुरा नहीं माना लेकिन कौन सी बात कविता को बुरी लग जाए और पुरुष सहकर्मी की शिकायत ऊपर तक पहुंच जाए, अनुमान लगाना कठिन था. परिणामस्वरूप कविता का तबादला दूसरी जगह कर दिया जाता. दफ्तर भी कविता की शिकायतें सुनसुन कर और तबादले करकर के परेशान हो गया था.

महेश पुरी के विभाग में कविता का तबादला शायद दफ्तर की सोचीसमझी नीति के तहत हुआ था. इधर पिछले कुछ वर्षों से कविता की शिकायतें बढ़ती जा रही थीं. दफ्तर के उच्च अधिकारियों के लिए वह एक सिरदर्द बनती जा रही थी. उधर, पूरे दफ्तर में महेश पुरी की सज्जनता और शराफत से सभी परिचित थे. कविता को उन के विभाग में भेज कर दफ्तर ने सोचा होगा कि कुछ दिन बिना किसी झंझट के बीत जाएंगे.  कविता भी इस विभाग में पहले से कहीं अधिक खुश थी. कविता की दृष्टि से देखा जाए तो इस के कई कारण थे. पहला, यहां कोई दूसरी महिला कर्मचारी नहीं थी. महिला सहकर्मी कविता को अच्छी नहीं लगती क्योंकि उस का रोकनाटोकना, समझाना या उस के व्यवहार को देख कर हैरान होना या बातें बनाना कविता को बिलकुल पसंद नहीं आता था. दूसरा मुख्य कारण था, इस ब्रांच के अधिकांश पुरुष कर्मचारी कुंआरे थे. उन के साथ उठनेबैठने, घूमनेफिरने, कैंटीन में जाने में उसे कोई परेशानी नहीं होती क्योंकि उन्हें न अपनी बीवियों का डर होता और न ही शाम को घर भागने की जल्दी. अत: दोनों ओर से स्वच्छंदतापूर्ण व्यवहार का आदानप्रदान होता. यही कारण था कि कुछ ही दिनों में कविता जानपहचान की इतनी मंजिलें तय कर गई जो दूसरे विभागों में वह आज तक नहीं कर पाई थी.

एक दोपहर कविता महेश पुरी के कैबिन से बाहर निकली तो उस का चेहरा गुस्से से तमतमाया हुआ था. अपना आंचल ठीक करती, गुस्से से पैर पटकती, अंगरेजी में 2-4 मोटीमोटी गालियां देती वह कमरे से बाहर चली गई. पूरा स्टाफ यह दृश्य देख कर हतप्रभ रह गया. कोई कुछ भी न समझ पाया.  सब ने इतना अनुमान जरूर लगाया कि कविता ने दफ्तर के काम में कोई भारी भूल की है या फिर उस के खिलंदड़े व्यवहार और काम में ध्यान न देने के लिए डांट पड़ी है. दूसरी तरफ सब लोग इस बात पर भी हैरान थे कि साहब ने कविता को बुलाया तो था ही नहीं फिर उसे साहब के पास जाने की जरूरत ही क्या थी. फाइल तो चपरासी के हाथ भी भिजवाई जा सकती थी.

ब्रांच में अभी अटकलें ही लग रही थीं कि तभी कविता विजिलैंस के 3-4 उच्च अधिकारियों को साथ ले कर दनदनाती हुई अंदर आ गई. वे सभी महेश पुरी के कैबिन में दाखिल हो गए. मामला गंभीर हो चला था. कर्मचारियों की समझ में कुछ नहीं आ रहा था. अधिकारियों का समूह अंदर क्या कर रहा था, किसी को कुछ पता नहीं लग रहा था? जैसेजैसे समय बीत रहा था, बाहर बैठे कर्मचारियों की बेचैनी बढ़ने लगी थी. वैसे तो वे सब फाइलों में सिर झुकाए बैठे थे, लेकिन ध्यान और कान दीवार के उस पार लगे थे.  कुछ देर बाद विजिलैंस अधिकारी बाहर, बिना किसी से कुछ बात किए, चले गए थे. उन के पीछेपीछे कविता भी बाहर आ गई. परेशान, गुस्से में लालपीली, बड़बड़ाती हुई अपनी सीट पर आ कर बैठ गई और कुछ लिखने लगी. किसी की भी हिम्मत नहीं हुई कि पूछे, आखिर हुआ क्या? पुरी साहब आखिर किस बात पर नाराज हैं? उन्होंने ऐसा क्या कह दिया?

कविता भी इस चुप्पी को सह नहीं पा रही थी. वह गुस्से से बोली, ‘समझता क्या है अपनेआप को? इस के अपने घर में कोई औरत नहीं है क्या?’

सुनते ही सब अवाक् रह गए. सब की नजरों में एक ही प्रश्न अटका था, ‘क्या महेश पुरी भी…?’ किसी को यकीन ही नहीं हो रहा था. कविता फिर फुफकार उठी, ‘बहुत शरीफ दिखता है न? इस बुड्ढे को भी वही बीमारी है, जरा सुंदर लड़की देखी नहीं कि लार टपकने लगती है.’  इतना सुनते ही पूरी ब्रांच में फुसफुसाहट शुरू हो गई. कोई भी कविता की बात से सहमत नहीं लग रहा था. पुरी साहब किसी लड़की पर बुरी नजर रखें, यकीन नहीं हो रहा था, लेकिन कुछ लोग यह भी कह रहे थे कि कविता अकारण तो गुस्सा न करती.  कोई कारण तो होगा ही. पुरी के मामले में लोगों का यकीन डगमगाने लगा.  थोड़ी देर बाद मुंह नीचा किए महेश पुरी तेज कदमों से बाहर निकल गए और उस के बाद फिर कभी दफ्तर नहीं आए. उस दिन से प्रतिदिन दफ्तर में घंटों उस घटना की चर्चा होती. पुरी साहब और कविता के बारे में बातें होने लगीं. कविता के चाहने वाले भी दबी जबान में उस पर छींटाकशी करने से नहीं चूक रहे थे तो दूसरी तरफ वर्षों से दिल ही दिल में पुरी साहब को सज्जन मानने वाले भी उन पर कटाक्ष करने से नहीं चूक रहे थे. वास्तव में यह आग और घी का, लोहे और चुंबक का रिश्ता है, किसे दोष दें?

पुरी साहब तो उस दिन के बाद से कभी दफ्तर ही नहीं आए, लेकिन कविता शान से रोज दफ्तर आती, यहांवहां बैठती, जगहजगह पुरी साहब के विरुद्ध प्रचार करती रहती. दिन में कईकई बार वह इसी किस्से को सुनाती कि कैसे पुरी ने उस के साथ दुर्व्यवहार करने की कोशिश की. नाराज होते हुए सब से पूछती, ‘खूबसूरत होना क्या कोई गुनाह है?’ ‘क्या हर खूबसूरत लड़की बिकाऊ होती है?’ ‘नौकरी करती हूं तो क्या मेरी कोई इज्जत नहीं है?’ …वगैरह.   कविता की बातें मजमा इकट्ठा कर लेतीं. लोग पूरी हमदर्दी से सुनते फिर कुछ नमकमिर्च अपनी तरफ से लगाते और किस्सा आगे परोस देते. बात आग की तरह इस दफ्तर तक ही नहीं, दूर की ब्रांचों तक फैल गई. कविता के सामने हमदर्दी रखने वाले भी उस की पीठ पीछे छींटाकशी से बाज न आते.

दफ्तर में इस घटना के लिए एक जांच कमेटी नियुक्त कर दी गई थी. जांच कमेटी अपना काम कर रही थी. 1-2 बार पुरी साहब को भी दफ्तर में तलब किया गया. शर्मिंदगी से वे जांच कमेटी के आगे पेश होते और चुपचाप लौट जाते. वर्षों साथ रहे पुरी के पुराने दोस्तों की भी उन से बात करने की हिम्मत नहीं हो रही थी. किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि पुरी साहब से क्या कहें, क्या पूछें?  आज का अखबार पढ़ते ही रमा स्वयं को रोक न सकी और कविता के घर पहुंच गई. वह कुछ साल पहले महेश पुरी के साथ काम कर चुकी थी. कविता का चेहरा कुछ उतरा हुआ था. रमा को देख कर वह कुछ घबरा गई. गुस्साई रमा ने बिना किसी भूमिका के अखबार कविता के सामने पटकते हुए पूछा, ‘‘यह क्या है?’’

‘‘शर्म से मर गया और क्या?’’

‘‘कविता, तू कुछ भी कहती फिर, लेकिन मुझे लगता है उस दिन उस ने तेरी नहीं बल्कि तू ने उस की इज्जत पर हाथ डाला था. उस दिन से वह शर्मिंदा हुआ मुंह छिपाए बैठा था और तू है कि जगहजगह अपनी इज्जत आप उछालती फिर रही है.’’

‘‘मुंह क्यों नहीं छिपाता वह? उस ने काम ही ऐसा किया था?’’

‘‘क्या किया था उस ने?’’ पूछते हुए रमा ने अपनी आंखें कविता की आंखों में गड़ा दीं.

‘‘तुझे क्या लगता है, मैं झूठ बोल रही हूं?’’

‘‘नहींनहीं, इसीलिए तो पूछ रही हूं. आखिर क्या किया था उस ने?’’

‘‘उस ने…उस ने…क्या इतना काफी नहीं कि उस ने मेरी इज्जत पर हाथ डाला था. इस पर भी तू चाहती है कि मुझे चुप रहना चाहिए था? वह इज्जतदार था तो क्या मेरी कोई इज्जत नहीं है?’’

‘‘इसीलिए तो पूछ रही हूं कि आखिर उस ने किया क्या था?’’

‘‘अच्छी जिद है, तू नहीं जानती कि एक औरत की इज्जत क्या होती है?’’

‘‘इतना ही अपनी इज्जत का खयाल है तो उस दिन से जगहजगह…’’

‘‘फिर वही बात, अरे भई 21वीं सदी है. आज मर्द अपनी मनमानी करता रहे और औरत आवाज भी न उठाए?’’

‘‘21वीं सदी में ही क्यों अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने का हक तो औरतों को हमेशा से है लेकिन कोई…’’

‘‘लेकिन क्या?’’

‘‘लेकिन यह कि आवाज उठाने के लिए कोई बात तो हो? हवा देने के लिए चिंगारी तो हो.’’

‘‘रमा, तुझे तो हमेशा से मैं गलत ही लगती हूं. तू ही बता, एक औरत हो कर क्या मैं इतनी बड़ी बात कर सकती हूं?’’

‘‘यही तो मैं जानना चाहती हूं कि एक औरत हो कर तू कैसे…?’’

‘‘चल छोड़ रमा, अब तो वैसे भी किस्सा खत्म हो गया है.’’

‘‘एक भला आदमी अपने माथे पर कलंक ले कर जान देने पर मजबूर हो गया, उस का परिवार बेसहारा हो गया और तू कह रही है किस्सा खत्म हो गया?’’

‘‘बस कर रमा, मेरी दोस्त हो कर तुझे उस से हमदर्दी है? बस कर, मैं वैसे ही बहुत परेशान हूं.’’

‘‘तू क्यों परेशान होने लगी? उस दिन से आज तक दिन में बीसियों बार तू यही किस्सा तो सुना रही है. लोगों ने सुनसुन कर तिल का ताड़ बना दिया है. आज मैं पूछ रही हूं तो टाल रही है. बता तो सही, आखिर उस ने तेरे साथ क्या किया था?’’

‘‘उस ने वह किया था जो उसे नहीं करना चाहिए था,’’ कविता गुस्से से कांपने लगी.  ‘‘फिर भी क्या…?’’ रमा को जैसे जिद हो गई थी कि वह कविता के मुंह से सुन कर ही मानेगी.

कविता गुस्साई नागिन की भांति फुफकारने लगी.   रमा अभी भी निडर हो उस की आंखों में आंखें गड़ाए बैठी थी.

‘‘तू जानना चाहती है न उस ने मेरे साथ क्या किया था?’’

‘‘हां.’’

‘‘उस ने मेरा ऐसा अपमान किया था जो आज तक किसी मर्द ने नहीं किया. 6 महीने हो गए थे मुझे उस के सैक्शन में काम करते हुए, उस ने कभी आंख उठा कर मेरी तरफ नहीं देखा, इतनी उपेक्षा मेरे रंगरूप की, इतनी बेजारी मेरे बनावसिंगार से? जब से मैं ने होश संभाला है, मैं ने मर्दों को अपने पर मरते, फिदा होते पाया है. मैं जिस रास्ते से भी निकल जाऊं, मर्द मुझे मुड़ कर देखे बिना नहीं रहते. वह किस मिट्टी का बना हुआ था, मैं नहीं समझ पाई. अपना यह अपमान मैं नहीं सह पाई,’’ कविता एक सांस में कह गई.

‘‘क्या…?’’ रमा अवाक् रह गई.

‘‘जानती है उस दिन मैं ने नई डिजाइन की साड़ी पहनी हुई थी. सुबह से हर कोई मेरी तारीफ करता नहीं थक रहा था. मैं ने लंच तक 2 बार उस को बहाने से गुडमार्निंग की और वह बिना मेरी तरफ देखे जवाब में फुसफुसा कर चल दिया. लंच के बाद मैं एक जरूरी फाइल के बहाने से उस के कमरे में गई लेकिन उस ने आंख उठा कर नहीं देखा. अपने काम में व्यस्त बोला, रख दो.’’

‘‘कविता, तू पागल तो नहीं हो गई?’’ रमा लगभग चीख उठी.

‘‘तू नहीं समझेगी. पता है आज तक किसी ने मेरे साथ ऐसा नहीं किया.’’  चेतनाशून्य रमा वहां और खड़ी न रह सकी. काश कोई ऐसा आईना होता जो चेहरे के पीछे छिपी बदसूरती को दिखा पाता. आज कविता को उसी आईने की सख्त जरूरत है. कविता का यह कैसा प्रतिशोध था? रमा का जी चाह रहा था कि दफ्तर में जा कर जोरजोर से चिल्लाए और सब को बताए कि आखिर मरने वाले ने उस दिन कविता के साथ क्या किया था.  लेकिन कविता के झूठे आरोपों को महेश पुरी ने आत्महत्या कर के पुख्ता कर दिया था. कविता के झूठ को पुरी की आत्महत्या ने सच बना दिया था. झूठ इतना काला हो गया था कि अब उस पर सचाई का कोई भी रंग नहीं चढ़ सकता था. कहते हैं न, बारबार बोला गया झूठ भी सच लगने लगता है, कविता ने यह साबित कर दिया था.  देखना तो यह है कि झूठ के जिस बोझ को महेश पुरी नहीं उठा पाए, क्या कविता उसे उठा कर जी पाएगी?

Famous Hindi Stories : दूरियां – क्यों हर औलाद को बुरा मानता था सतीश?

Famous Hindi Stories : ‘‘सुरेखा, सुरेखा…’’ किचन में कुकर की सीटी की आवाज के आगे सतीश की आवाज दब गई. जब पत्नी ने पुकार का कोई जवाब नहीं दिया तो अखबार हाथ में उठा कर सतीश खुद अंदर चले आए.

हाथ का अखबार पास पड़ी कुरसी पर पटक कुछ जोर से बोले सतीश, ‘‘क्या हो रहा है? मैं ने कल की खबर तुम्हें सुनाई थी कि पिता के पैसों के लिए बेटे ने उस की हत्या की सुपारी अपने ही एक दोस्त को दे दी. देखा, कलियुगी बच्चों को…बेटाबेटी ने मिल कर अपने बूढ़े मातापिता को मौत के घाट उतार दिया, ताकि उन के पैसों से मौजमस्ती कर सकें. हद है, आज की पीढ़ी का कोई ईमान ही नहीं रहा.’’  सुरेखा ने उन्हें शांत करने की कोशिश की, ‘‘आप इन खबरों को पढ़ कर इतने परेशान क्यों होते हैं? यह भी देखिए कि ये बच्चे किस वर्ग के हैं और कितने पढ़ेलिखे हैं?’’

‘‘क्या कह रही हो तुम? ये बच्चे बाहर से एमबीए आदि पढ़लिख कर आए थे. जरा सोचो सुरेखा, इन की पढ़ाईलिखाई पर मांबाप ने कितना पैसा खर्च किया होगा. आजकल के बच्चे इतने नकारा हैं कि…’’

कहतेकहते हांफने लगे सतीश. सुरेखा पानी का गिलास ले कर उन के पास चली आईं, ‘‘आप रोजरोज इस तरह की खबरें पढ़ कर अपने को क्यों दुखी करते हैं? छोडि़ए न, हम तो अच्छेभले हैं. बस, 2 महीने रह गए हैं आप के रिटायरमैंट को. अपना घर है. पैंशन आती रहेगी. और क्या चाहिए हमें? जितना है वह अपने बच्चों का ही तो है.’’

सतीश पानी का एक घूंट ले कर कुछ रुक कर बोले, ‘‘बच्चों का क्यों? तीनों को पढ़ालिखा दिया. अब जो करना है, उन्हें खुद करना है. मैं एक पैसा किसी पर खर्च नहीं करने वाला.’’

सुरेखा चौंकीं, ‘‘अरे, यह क्या कह   रहे हैं? सिर्फ अमन की ही तो   शादी हुई है. अभी तो आभा की होनी है. आरुष भी आगे पढ़ाई करना चाहता है. फिर…’’

इस ‘फिर’ से बचते हुए सतीश बाहर निकल गए. दरअसल, जब से उन्होंने अपनी ही कालोनी में रहने वाले जगत को सुबहसुबह पार्क में फूटफूट कर रोते देखा तो उन की सोच ही बदल गई. जगत उम्र में उन से 10 साल बड़े थे. एक बेटा धनंजय और एक बेटी छवि. धनंजय को पढ़ालिखा कर इंजीनियर बनाया. रिटायरमैंट में मिले फंड के पैसों से छवि की शादी कर दी. बचाखुचा पत्नी की बीमारी में निकल गया. बेटे की शादी के बाद वे साथ ही रहते थे. महीना भर पहले बेटे ने उन्हें घर से निकाल दिया. जगत की समझ में नहीं आ रहा था कि वे इस उम्र में जाएं तो कहां जाएं. अपनी पूरी कमाई बच्चों पर लगा दी. उन की पढ़ाई और शादी की वजह से अपना घर नहीं बना पाए. पैंशन नहीं, देखरेख करने वाला भी कोई नहीं.

सतीश, जगत का हाल सुन कर हिल गए. धनंजय को बचपन में देखा था उन्होंने. वह ऐसा निकलेगा, क्या कभी सोचा था?  सुरेखा को पता था कि सतीश एक बार जो ठान लेते हैं उस से पलटते नहीं हैं. कल रात ही आरुष ने उन से कहा था, ‘‘पापा, मैं आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका जाना चाहता हूं. छात्रवृत्ति के लिए कोशिश तो कर रहा हूं, फिर भी 3 लाख तक का खर्च आ ही जाएगा.

पापा, क्या आप इतने पैसे उधार दे सकेंगे?’’

आरुष ने बिलकुल एक बच्चे की तरह कहा, ‘‘ममा, 2 साल बाद मेरा एमबीए हो जाएगा. इस के बाद मुझे कहीं अच्छी नौकरी मिल जाएगी. मैं पापा के सारे पैसे चुका दूंगा. आप बात कीजिए न उन से,’’ उस समय तो सुरेखा ने हां कह दिया था, पर अपने पति का रुख देख कर उसे शंका हो रही थी कि पता नहीं वे क्या जवाब देंगे.

घर का काम निबटा कर सुरेखा सतीश के कमरे में आईं, तो वे कंप्यूटर के सामने चिंता में बैठे थे. सुरेखा धीरे से उन के पीछे आ खड़ी हुईं. कुछ क्षण रुकने के बाद बोलीं, ‘‘यह क्या चिंता ले कर बैठ गए? बच्चे भी पूछने लगे हैं अब तो. खाना भी सब के साथ नहीं खाते और…’’  सतीश ने पलट कर सुरेखा की तरफ देखा, ‘‘मेरे पास उन से बात करने के लिए कुछ नहीं है. वे अपनी अलग दुनिया में जीते हैं सुरेखा. मैं साथ बैठता हूं तो सब असहज महसूस करते हैं.’’  ‘‘ऐसा नहीं है, सब आप की इज्जत करते हैं. अच्छा, कल बहू मायके जाने को कह रही है, भेज दें?’’

सतीश झल्ला गए, ‘‘तुम ये सब बातें मुझ से क्यों  पूछ रही हो, उन्हें तय करने दो. अमन जिम्मेदार शादीशुदा आदमी  है. उसे अपनी जिंदगी खुद जीनी चाहिए.’’ सुरेखा चुप हो गईं. ऐसे मूड में आरुष के विदेश जाने की बात करतीं भी कैसे?

अगले दिन नाश्ते के समय आरुष ने खुद बात छेड़ दी, ‘‘पापा, मैं ने आप को बताया था न कि एमबीए के लिए मेरा अमेरिका में एक यूनिवर्सिटी में चयन हो गया है. बस, पहले साल मुझे 40 प्रतिशत स्कौलरशिप मिलेगी. मैं सोच रहा था कि अगर आप…’’  सतीश एकदम से भड़क गए, ‘‘सोचना भी मत. तुम्हें इंजीनियर बना दिया, बस, अब इस से आगे मैं कुछ नहीं कर सकता. यही तो दिक्कत है तुम जैसी नई पीढ़ी की, बस अपनी सोचते हो. यह नहीं सोचते कि कल तुम्हारे मातापिता का क्या होगा? हम अपनी बाकी जिंदगी कैसे जिएंगे?’’

आरुष सकपका गया. अमन भी वहीं बैठा था. उस ने जल्दी से कहा, ‘‘पापा, आप ऐसा क्यों कहते हैं? हम लोग हैं न.’’  सतीश के होंठों पर व्यंग्य तिर आया, ‘‘तुम लोग क्या करोगे, यह मुझे अच्छी तरह पता है. मुझे तुम लोगों से कोई उम्मीद नहीं, तुम लोग भी मुझ से कोई उम्मीद मत रखना…’’ प्लेट छोड़ उठ खड़े हुए सतीश. सुरेखा को झटका सा लगा. अपने बच्चों के साथ ऐसा क्यों कर रहे हैं सतीश? आज तक बच्चों की परवरिश में कहीं कोई कमी नहीं रखी, अच्छे स्कूलकालेजों में पढ़ाया. अब अचानक उन के सोचने की दिशा क्यों बदल गई है?

अमन उठ कर सुरेखा के पास चला आया, ‘‘मां, पापा को आजकल क्या हो गया है? आजकल इतने गुस्से में क्यों रहते हैं?’’ अचानक सुरेखा की आंखों से आंसू निकल आए, ‘‘पता नहीं क्याक्या पढ़ते रहते हैं. सोचते हैं कि उन के बच्चे भी उन के साथ…’’

‘‘क्या मां, क्या लगता है उन्हें? हम उन के पैसों के पीछे हैं?’’ अमन ने सीधे पूछ लिया.

सुरेखा की हिचकी बंध गई, ‘‘पता नहीं बेटा, ऐसा ही कुछ भर गया है उन के दिमाग में. मैं तो समझासमझा कर हार गई कि सब घर एक से नहीं होते.’’

अमन ने सुरेखा के हाथ थाम लिए और धीरे से बोला, ‘‘इस में पापा की गलती नहीं है. आजकल रोज इस तरह की खबरें आ रही हैं. पहले भी आती होंगी, पर आजकल मीडिया कुछ ज्यादा ही सक्रिय है. आप जाने दीजिए मां, सब ठीक हो जाएगा. पापा से कह दीजिए कि हमें उन के पैसे नहीं चाहिए. बस, हमें चाहिए कि वे सुकून से रहें.’’

अमन और आरुष अपनेअपने रास्ते पर चले गए. आभा अब तक कालेज से नहीं आई थी. इस साल उस की पढ़ाई भी पूरी हो जाएगी. आभा चाहती थी कि वह नौकरी करे. सुरेखा को लगता था कि समय पर उस की शादी हो जानी चाहिए. पर उन की सुनने वाला घर में कोई नहीं था.  आरुष ने अमन की मदद से बैंक से लोन लिया और महीने भर बाद वह अमेरिका चला गया. आभा को भी कैंपस इंटरव्यू में नौकरी मिल गई. जब उस ने अपनी पहली तनख्वाह सतीश के हाथ में रखी तो वे निर्लिप्त भाव से बोले, ‘‘अपनी कमाई तुम अपने पास रखो, जमा करो. कल तुम्हारे काम आएगी.’’

सुरेखा ने समझ लिया था कि सतीश को समझाना बहुत मुश्किल है, लेकिन उन्हें इस बात का संतोष था कि कम से कम बच्चे समझदार हैं. 6 महीने बाद अमन को भी मुंबई में अच्छी नौकरी मिल गई. अमन अपनी पत्नी के साथ मुंबई चला गया.  सुरेखा को घर का अकेलापन काटने लगा. आभा का काम कुछ ऐसा था कि दफ्तर से लौटने में देर हो जाती. सुरेखा टोकतीं तो आभा कहती, ‘‘मां, आजकल हर प्राइवेट नौकरी में यही हाल है. देर तक काम करना पड़ता है. कोई जल्दी घर जाने की बात नहीं करता तो मैं कैसे आऊं.’’  आभा इतनी व्यस्त रहती कि उसे खानेपीने की सुध ही नहीं रहती. सुरेखा चाहती थीं कि उन की युवा बेटी शादी कर के सुख से रहे. दूसरी लड़कियों की तरह सजेसंवरे, अपनी दुनिया बसाए. एक दिन वह सतीश के सामने फट पड़ीं, ‘‘आप को पता भी है कि आभा कितने साल की हो गई है? उस की शादी की बात आप चलाएंगे या मैं चलाऊं? मैं अपनी बेटी को खुश देखना चाहती हूं.’’

सतीश अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में इतने रमे हुए थे कि बेटी का रिश्ता खोजना उन्हें भारी लग रहा था. पर सुरेखा के कहने पर वे कुछ चौकन्ने हुए. अखबार में देख कर एक सही सा लड़का ढूंढ़ा. आभा को यह बिलकुल पसंद नहीं था कि वह किसी के देखने की खातिर सजेसंवरे. बड़ी मुश्किल से वह लड़के वालों के सामने आने को तैयार हुई. सुरेखा उत्साह से तैयारी में जुट गईं. बेटी की शादी का सपना हर मां अपनी आंखों में संजोए रहती है.  आभा 2-3 बार उस से कह चुकी थी कि मां, अभी रिश्ता हुआ नहीं है. आप को ज्यादा कुछ करने की जरूरत नहीं  है. बस, चाय और बिस्कुट रखिए मेज पर.  सुरेखा हंसने लगीं, ‘‘ऐसा कहीं होता है भला? जिस घर में तेरी शादी होनी है उस घर के लोगों की कुछ तो खातिरदारी करनी पड़ेगी.’’

आभा चुप हो गई. सुरेखा ने घर पर ही गुलाबजामुन बनाए, नारियल की बरफी बनाई, नमकीन में समोसे, कटलेट और पनीर मंचूरियन बनाया. साथ ही जलजीरा आदि तो था ही. चुपके से जा कर वे अपने होने वाले दामाद के लिए सोने की चेन भी ले आई थीं. रिश्ता पक्का होने के बाद कुछ तो देना पड़ेगा.

सतीश को जिस बात का अंदेशा था, आखिरकार वही हुआ. प्रमोद चार्टर्ड अकाउंटैंट था और आते ही उस की मां ने बढ़चढ़ कर बताया कि प्रमोद को सीए बनाने में उन्होंने कितने पापड़ बेले हैं.

सतीश ने कुछ देर तक उन का त्याग- मंडित भाषण सुना, फिर पूछ लिया, ‘‘देखिए मैडम, हर मातापिता अपने बच्चे को शिक्षा दिलाने के लिए कुछ न कुछ त्याग तो करते ही हैं. मैं ने भी अपने बच्चों की शिक्षा पर बहुत खर्च किया है. आप कहना क्या चाहती हैं, यह स्पष्ट बताइए.’’

प्रमोद की मां सकपका गईं. बात प्रमोद के मामा ने संभाली, ‘‘आप तो दुनियादार हैं सतीशजी. बेटे की शादी भी कर रखी है. आप को क्या बताना.’’

सतीश गंभीर हो गए, ‘‘अगर बात लेनदेन की कर रहे हैं तो मैं आप से कोई संबंध नहीं रखना चाहूंगा.’’

सतीश की आवाज इतनी तल्ख थी कि किसी की कुछ बोलने की हिम्मत ही नहीं पड़ी. इस के बाद बात बस, औपचारिक बन कर रह गई. उन के जाने के बाद सुरेखा अपने पति पर बरस पड़ीं, ‘‘लगता है, आप अपनी बेटी की शादी करना ही नहीं चाहते. आप का ऐसा रुख रहेगा, तो कौन आप से संबंध रखना चाहेगा भला?’’

सतीश ने अपनी पत्नी की तरफ निगाह डाली और शांत आवाज में कहा, ‘‘मैं ने अपनी बेटी को इसलिए नहीं पढ़ाया कि उस का रिश्ता ऐसे घर में करूं.’’

सुरेखा रोने लगीं, ‘‘आप पैसे के पीछे पागल हो गए हैं. अपनी बेटी की शादी में कौन पैसा खर्च नहीं करता.’’

सुरेखा के रोने का उन पर कोई असर नहीं पड़ा. वे वहां से चले गए. अचानक सुरेखा ने कंधे पर एक कोमल स्पर्श महसूस किया, आभा खड़ी थी. आभा धीरे से बोली, ‘‘मां, रोओ मत. पापा ने सही किया. मुझे खुद दहेज दे कर शादी नहीं करनी. मैं अपने लिए राह खुद बना लूंगी, तुम चिंता मत करो.’’

बेटी का आश्वासन भी सुरेखा को शांत न कर पाया.

6 महीने बाद आभा ने एक दिन सुरेखा से कहा, ‘‘मां, मैं किसी को आप से मिलवाना चाहती हूं.’’

सुरेखा को खटका लगा. पहली बार आभा उस से किसी को मिलवाने को कह रही है. कौन है?

शाम को आभा अपने से उम्र में काफी बड़े एक आदमी को घर ले कर आई, ‘‘मां, मेरे साथ काम करते हैं हरिहरण. बहुत बड़े साइंटिस्ट हैं और हम दोनों…’’

आभा की बात पूरी होने से पहले सुरेखा उसे खींच कर कमरे में ले गईं और बोलीं, ‘‘आभा, उम्र में इतने बड़े आदमी से…ऐसा क्यों कर रही है बेटी? ऊपर से साउथ इंडियन?’’

‘‘मां,’’ आभा ने सुरेखा का हाथ कस कर पकड़ लिया, ‘‘हरी बेहद सुलझे हुए और इंटेलिजैंट व्यक्ति हैं. आजकल नार्थसाउथ में क्या रखा है मां? तुम्हें भी तो इडलीसांभर पसंद है. क्या तुम होटल जा कर रसम और चावल नहीं खातीं? हरि को तो अपनी तरफ का राजमा, अरहर की दाल और आलू के परांठे बहुत पसंद हैं. हम दोनों एकदूसरे को अच्छे से जाननेसमझने लगे हैं. मैं उन के साथ बहुत खुश रहूंगी मां,’’ कहतेकहते आभा की आंखों में पानी भर आया. सुरेखा ने उसे गले से लगा लिया, ‘‘आभा, मेरे लिए तेरी खुशी से बढ़ कर और कुछ नहीं है बेटी. पर एक मां हूं न, क्या करूं, दिल नहीं मानता.’’

आभा की पसंद के बारे में सतीश ने कुछ कहा नहीं. उन्हें हरिहरण अच्छे लगे. आभा ने कोर्ट में जा कर शादी की. सुरेखा कहती रह गईं कि पार्टी होनी चाहिए, पर हरि ने हंस कर कहा, ‘‘मिसेज सतीश, आप पैसा क्यों खर्च करना चाहती हैं? वह भी दूसरों को खिलापिला कर. सेव इट फौर टुमारो.’’

तीनों बच्चे अपनी जिंदगी में रम गए. गाहेबगाहे आते तो कुछ लेने के बजाय बहुत कुछ दे जाते. सतीश अब पहले से कम बोलने लगे. अब उन्हें भी बच्चों की कमी खलने लगी थी.

ऐसे ही चुपचाप एक दिन रात को जो वे सोए तो सुबह उठे ही नहीं. पहला दिल का दौरा इतना तेज था कि उन के प्राण निकल गए. सुरेखा अकेली रह गईं. आभा महीना भर आ कर उन के पास रह गई, पर उस की भी नौकरी थी, जाना तो था ही. अमन भी आरुष का साथ देने अमेरिका पहुंच गया और वहीं जा कर बस गया.

इतने बड़े घर में सुरेखा अब अकेली पड़ गईं, सतीश की पैंशन, उन के कमाए पैसों और अपने गहनों के साथ. रहरह कर उस के मन में टीस उठती कि समय पर अगर बच्चों की मदद कर दी होती तो आज यह पैसा बोझ बन कर उन के दिल को ठेस न पहुंचाता.

अमन से जब भी वे अपने दिल की बात करतीं, वह तुरंत जवाब देता, ‘‘मां, तुम सब छोड़छाड़ कर यहां आ जाओ हमारे पास. सब साथ रहेंगे. मेरी बेटी बड़ी हो रही है. उसे तुम्हारा साथ चाहिए.’’

बहुत सोचसमझ कर सुरेखा ने अपनी जायदाद के 3 हिस्से किए और कागजात साइन करवाने अमन, आभा और आरुष के पास भेज दिए. सप्ताह भर बाद अमन की लंबी चिट्ठी आई. चिट्ठी में लिखा था, ‘‘मां, हमें वहां से कुछ नहीं चाहिए. हम तीनों बच्चों को आप ने बहुत कुछ दिया है. आप अपना पैसा जरूरतमंदों में बांट दीजिए, किसी अनाथालय के नाम कर दीजिए. शायद इस से पापा की आत्मा को भी शांति मिलेगी. और हां, देर मत कीजिए, जल्दी आइए. अब तो कम से कम हम सब को साथ वक्त बिताना चाहिए.’’

सुरेखा फूटफूट कर रोने लगीं. काश, आज यह दिन देखने के लिए सतीश जिंदा होते. जिस पैसे की खातिर सतीश अपने बच्चों से दूर हो गए, वह पैसा आज उन के किसी काम का रहा नहीं.

Best Hindi Stories : छोटा सा घर

Best Hindi Stories :  ट्रेन तेज गति से दौड़ी चली जा रही थी. सहसा गोमती बूआ ने वृद्ध सोमनाथ को कंधे से झकझोरा, ‘‘बाबूजी, सुषमा पता नहीं कहां चली गई. कहीं नजर नहीं आ रही.’’

सोमनाथ ने हाथ ऊंचा कर के स्विच दबाया तो चारों ओर प्रकाश फैल गया. फिर वे आंखें मिचमिचाते हुए बोले, ‘‘आधी रात को नींद क्यों खराब कर दी… क्या मुसीबत आन पड़ी है?’’

‘‘अरे, सुषमा न जाने कहां चली गई.’’

‘‘टायलेट की ओर जा कर देखो, यहीं कहीं होगी…चलती ट्रेन से कूद थोड़े ही जाएगी.’’

‘‘अरे, बाबा, डब्बे के दोनों तरफ के शौचालयों में जा कर देख आई हूं. वह कहीं भी नहीं है.’’

बूआ की ऊंची आवाज सुन कर अन्य महिलाएं भी उठ बैठीं. पुष्पा आंचल संभालते हुए खांसने लगी. देवकी ने आंखें मलते हुए बूआ की ओर देखा और बोली, ‘‘लाइट क्यों जला दी? अरे, तुम्हें नींद नहीं आती लेकिन दूसरों को तो चैन से सोने दिया करो.’’

‘‘मूर्ख औरत, सुषमा का कोई अतापता नहीं है…’’

‘‘क्या सचमुच सुषमा गायब हो गई है?’’ चप्पल ढूंढ़ते हुए कैलाशो बोली, ‘‘कहीं उस ने ट्रेन से कूद कर आत्महत्या तो नहीं कर ली?’’

बूआ ने उसे जोर से डांटा, ‘‘खामोश रह, जो मुंह में आता है, बके चली जा रही है,’’ फिर वे सोमनाथ की ओर मुड़ीं, ‘‘बाबूजी, अब क्या किया जाए. छोटे महाराज को क्या जवाब देंगे?’’

‘‘जवाब क्या देना है. वे इसी ट्रेन के  फर्स्ट क्लास में सफर कर रहे हैं. अभी मोबाइल से बात करता हूं.’’

सोमनाथ ने छोटे महाराज का नंबर मिलाया तो उन की आवाज सुनाई दी, ‘‘अरे, बाबा, काहे नींद में खलल डालते हो?’’

‘‘महाराज, बहुत बुरी खबर है. सुषमा कहीं दिखाई नहीं दे रही. बूआ हर तरफ उसे देख आई हैं.’’

‘‘रात को आखिरी बार तुम ने उसे कब देखा था?’’

‘‘जी, रात 9 बजे के लगभग ग्वालियर स्टेशन आने पर सभी ने खाना खाया और फिर अपनीअपनी बर्थ पर लेट गए. आप को मालूम ही है, नींद की गोली लिए बिना मुझे नीद नहीं आती. सो गोली गटकते ही आंखें मुंदने लगीं. अभी बूआ ने जगाया तो आंख खुली.’’

छोटे महाराज बरस पड़े, ‘‘लापरवाही की भी हद होती है. बूआ के साथसाथ तुम्हें भी कई बार समझाया था कि सुषमा पर कड़ी नजर रखा करो. लेकिन तुम सब…कहीं हरिद्वार में किसी के संग उस का इश्क का कोई लफड़ा तो नहीं चल रहा था? मुझे तो शक हो रहा है.’’

‘‘मुझे तो कुछ मालूम नहीं. लीजिए, बूआ से बात कीजिए.’’

बूआ फोन पकड़ते ही खुशामदी लहजे में बोलीं, ‘‘पाय लागूं महाराज.’’

‘‘मंथरा की नानी, यह तो कमाल हो गया. आखिर वह चिडि़या उड़ ही गई. मुझे पहले ही शक था. उस की खामोशी हमें कभीकभी दुविधा में डाल देती थी. खैर, अब उज्जैन पहुंच कर ही कुछ सोचेंगे.’’

बूआ ने मोबाइल सोमनाथ की ओर बढ़ाया तो वे पूछे बिना न रह सके, ‘‘क्या बोले?’’

‘‘अरे, कुछ नहीं, अपने मन की भड़ास निकाल रहे थे. हम हमेशा सुषमा की जासूसी करते रहे. कभी उसे अकेला नहीं छोड़ा. अब क्या चलती ट्रेन से हम भी उस के साथ बाहर कूद जाते. न जाने उस बेचारी के मन में क्या समाया होगा?’’

थोड़ी देर में सोमनाथ ने बत्ती बुझा दी पर नींद उन की आंखों से कोसों दूर थी. बीते दिनों की कई स्याहसफेद घटनाएं रहरह कर उन्हें उद्वेलित कर रही थीं :

लगभग 5-6 साल पहले पारिवारिक कलह से तंग आ कर सोमनाथ हरिद्वार के एक आश्रम में आए थे. उस के 3-4 माह बाद ही दिल्ली के किसी अनाथाश्रम से 11-12 साल के 4 लड़के और 1 लड़की को ले कर एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति आश्रम में आया था. तब सोमनाथ के सुनने में आया था कि बदले में उस व्यक्ति को अच्छीखासी रकम दी गई थी. आश्रम की व्यवस्था के लिए जो भी कर्मचारी रखे जाते थे वे कम वेतन और घटिया भोजन के कारण शीघ्र ही भाग खड़े होते थे, इसीलिए दिल्ली से इन 5 मासूम बच्चों को बुलाया गया था.

शुरूशुरू में इस आश्रम में बच्चों का मन लग गया, पर शीघ्र ही हाड़तोड़ मेहनत करने के कारण वे कमजोर और बीमार से होते गए. आश्रम के पुराने खुशामदी लोग जहां मक्खनमलाई खाते थे, वहीं इन बच्चों को रूखासूखा, बासी भोजन ही खाने को मिलता. कुछ माह बाद ही चारों लड़के तो आसपास के आश्रमों में चले गए पर बेचारी सुषमा उन के साथ जाने की हिम्मत न संजो सकी. बड़े महाराज ने तब बूआ को सख्त हिदायत दी थी कि इस बच्ची का खास खयाल रखा जाए.

बूआ, सुषमा का खास ध्यान तो रखती थीं, पर वे बेहद चतुर, स्वार्थी और छोटे महाराज, जोकि बड़े महाराज के भतीजे थे और भविष्य में आश्रम की गद्दी संभालने वाले थे, की खासमखास थीं. बूआ पूरे आश्रम की जासूसी करती थीं, इसीलिए सभी उन्हें ‘मंथरा’ कह कर पुकारते थे.

18 वर्षीय सुषमा का यौवन अब पूरे निखार पर था. हर कोई उसे ललचाई नजरों से घूरता रहता. पर कुछ कहने की हिम्मत किसी में न थी क्योंकि सभी जानते थे कि छोटे महाराज सुषमा पर फिदा हैं और किसी भी तरह उसे अपना बनाना चाहते हैं. बूआ, सुषमा को किसी न किसी बहाने से छोटे महाराज के कक्ष में भेजती रहती थीं.

पिछले साल दिल्ली से बड़े महाराज के किसी शिष्य का पत्र ले कर नवीन नामक नौजवान हरिद्वार घूमने आया था. प्रात: जब दोनों महाराज 3-4 शिष्यों के साथ सैर करने निकल जाते तो सोमनाथ और सुषमा बगीचे में जा कर फूल तोड़ने लगते. 2-3 दिनों में ही नवीन ने सोमनाथ से घनिष्ठता कायम कर ली थी. वह भी अब फूल तोड़ने में उन दोनों की सहायता करने लगा.

28-30 साल का सौम्य, शिष्ट व सुदर्शन नौजवान नवीन पहले दिन से ही सुषमा के प्रति आकर्षण महसूस करने लगा था. सुषमा भी उसे चाहने लगी थी. उन दोनों को करीब लाने में सोमनाथ महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे. उन की हार्दिक इच्छा थी कि वे दोनों विवाह बंधन में बंध जाएं.

सोमनाथ ने सुषमा को नवीन की पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में सबकुछ बता दिया था कि कानपुर में उस का अपना मकान है. उस की शादी हुई थी, लेकिन डेढ़ वर्ष बाद बेटे को जन्म देने के बाद उस की पत्नी की मृत्यु हो गई थी. घर में मां और छोटा भाई हैं. एक बड़ी बहन शादीशुदा है. नवीन कानपुर की एक फैक्टरी के मार्केटिंग विभाग में ऊंचे पद पर कार्यरत है. उसे 15 हजार रुपए मासिक वेतन मिलता है. इन दिनों वह फैक्टरी के काम से ज्यादातर दिल्ली में ही अपने शाखा कार्यालय की ऊपरी मंजिल पर रहता है.

1 सप्ताह गुजरने के बाद जब नवीन ने वापस दिल्ली जाने का कार्यक्रम बनाया तो ऐसा संयोग बना कि छोटे महाराज को कुछ दिनों के लिए वृंदावन के आश्रम में जाना पड़ा. उन के जाने के बाद सोमनाथ ने नवीन को 3-4 दिन और रुकने के लिए कहा तो वह सहर्ष उन की बात मान गया.

एक दिन बाग में फूल तोड़ते समय सोमनाथ ने विस्तार से सारी बातें सुषमा को कह डालीं, ‘बेटी, तुम हमेशा से कहती हो न कि घर का जीवन कैसा होता है, यह मैं ने कभी नहीं जाना है. क्या इस जन्म में किसी जानेअनजाने शहर में कोई एक घर मेरे लिए भी बना होगा? क्या मैं सारा जीवन आश्रम, मंदिर या मठ में व्यतीत करने को विवश होती रहूंगी?

‘बेटी, मैं तुम्हें बहुत स्नेह करता हूं लेकिन हालात के हाथों विवश हूं कि तुम्हारे लिए मैं कुछ कर नहीं सकता. अब कुदरत ने शायद नवीन के रूप में तुम्हारे लिए एक उमंग भरा पैगाम भेजा है. तुम्हें वह मनप्राण से चाहने लगा है. वह विधुर है. एक छोटा सा बेटा है उस का…छोटा परिवार है…वेतन भी ठीक है…अगर साहस से काम लो तो तुम उस घर, उस परिवार की मालकिन बन सकती हो. बचपन से अपने मन में पल रहे स्वप्न को साकार कर सकती हो.

‘लेकिन मैं नवीन की कही बातों की सचाई जब तक खुद अपनी आंखों से नहीं देख लूंगा तब तक इस बारे में आगे बात नहीं करूंगा. वह कल दिल्ली लौट जाएगा. फिर वहां से अगले सप्ताह कानपुर जाएगा. इस बारे में मेरी उस से बातचीत हो चुकी है. 3-4 दिन बाद मैं भी दिल्ली चला जाऊंगा और फिर उस के साथ कानपुर जा कर उस का घर देख कर ही कुछ निर्णय लूंगा.

‘यहां आश्रम में तो तुम्हें छोटे महाराज की रखैल बन कर ही जीवन व्यतीत करना पड़ेगा. हालांकि यहां सुखसुविधाओं की कोई कमी न होगी, परंतु अपने घर, रिश्तों की गरिमा और मातृत्व सुख से तुम हमेशा वंचित ही रहोगी.’

‘नहीं बाबा, मैं इन आश्रमों के उदास, सूने और पाखंडी जीवन से अब तंग आ चुकी हूं.’

अगले दिन नवीन दिल्ली लौट गया. उस के 3-4 दिन बाद सोमनाथ भी चले गए क्योंकि कानपुर जाने का कार्यक्रम पहले ही नवीन से तय हो चुका था.

एक सप्ताह बाद सोमनाथ लौट आए. अगले दिन बगीचे में फूल तोड़ते समय उन्होंने मुसकराते हुए सुषमा से कहा, ‘बिटिया, बधाई हो. जैसे मैं ने अनुमान लगाया था, उस से कहीं बढ़ कर देखासुना. सचमुच प्रकृति ने धरती के किसी कोने में एक सुखद, सुंदर, छोटा सा घर तुम्हारे लिए सुरक्षित रख छोड़ा है.’

‘बाबा, अब जैसा आप उचित समझें… मुझे सब स्वीकार है. आप ही मेरे हितैषी, संरक्षक और मातापिता हैं.’

‘तब तो ठीक है. लगभग 2 माह बाद ही छोटे महाराज, बूआ और इस आश्रम की 5-6 महिलाओं के साथ हम दोनों को भी हर वर्ष की भांति उज्जैन के अपने आश्रम में वार्षिक भंडारे पर जाना है. इस बारे में नवीन से मेरी बात हो चुकी है. इस बारे में नवीन ने खुद ही सारी योजना तैयार की है.

‘यहां से उज्जैन जाते समय रात्रि 10 बजे के लगभग ट्रेन झांसी पहुंचेगी. छोटे महाराज अपने 3 शिष्यों के साथ प्रथम श्रेणी के ए.सी. डब्बे में यात्रा कर रहे होंगे, शेष हम लोग दूसरे दर्जे के शयनयान में सफर करेंगे. तुम्हें झांसी स्टेशन पर उतरना होगा…वहां नवीन अपने 3-4 मित्रों के संग तुम्हारा इंतजार कर रहा होगा. वैसे घबराने की कोई जरूरत नहीं क्योंकि नवीन की बूआ का बेटा वहीं झांसी में पुलिस सबइंस्पैक्टर के पद पर तैनात है. अगर कोई अड़चन आ गई तो वह सब संभाल लेगा.’

‘क्या आप मेरे साथ झांसी स्टेशन पर नहीं उतरेंगे?’ सुषमा ने शंकित नजरों से उन की ओर देखा.

‘नहीं, ऐसा करने पर छोटे महाराज को पूरा शक हो जाएगा कि मैं भी तुम्हारे साथ मिला हुआ हूं. वे दुष्ट ही नहीं चालाक भी हैं. वैसे तुम जातनी ही हो कि बूआ, छोटे महाराज की जासूस है. अगर कहीं उस ने हम दोनों को ट्रेन से उतरते देख लिया तो हंगामा खड़ा हो जाएगा. तुम घबराओ मत. चंदन आश्रम में रह रहा राजू तुम्हारा मुंहबोला भाई है…उस पर तो तुम्हें पूरा विश्वास है न?’

‘हांहां, क्यों नहीं. वह तो मुझ से बहुत स्नेह करता है.’

‘कल शाम मैं राजू से मिला था. मैं ने उसे पूरी योजना के बारे में विस्तार से समझा दिया है. तुम्हारी शादी की बात सुन कर वह बहुत प्रसन्न था. वह हर प्रकार से सहयोग करने को तैयार है. वह भी हमारे साथ उसी ट्रेन के किसी अन्य डब्बे में यात्रा करेगा.

‘झांसी स्टेशन पर तुम अकेली नहीं, राजू भी तुम्हारे साथ ट्रेन से उतर जाएगा. मैं तुम दोनों को कुछ धनराशि भी दे दूंगा. यात्रा के दौरान मोबाइल पर नवीन से मेरा लगातार संपर्क बना रहेगा. राजू 3-4 दिन तक तुम्हारे ससुराल में ही रहेगा, तब तक मैं भी किसी बहाने से उज्जैन से कानपुर पहुंच जाऊंगा. बस, अब सिर्फ 2 माह और इंतजार करना होगा. चलो, अब काफी फूल तोड़ लिए हैं. बस, एक होशियारी करना कि इस दौरान भूल कर भी बूआ अथवा छोटे महाराज को नाराज मत करना.’

फिर तो 2 माह मानो पंख लगा कर उड़ते नजर आने लगे. सुषमा अब हर समय बूआ और छोटे महाराज की सेवा में जुटी रहती, हमेशा उन दोनों की जीहुजूरी करती रहती. छोटे महाराज अब दिलोजान से सुषमा पर न्योछावर होते चले जा रहे थे. उस की छोटी से छोटी इच्छा भी फौरन पूरी की जाती.

निश्चित तिथि को जब 8-10 लोग उज्जैन जाने के लिए स्टेशन पर पहुंचे तो छोटे महाराज को तनिक भी भनक न लगी कि सुषमा और सोमनाथ के दिलोदिमाग में कौन सी खिचड़ी पक रही है.

आधी रात को लगभग साढ़े 12 बजे बीना जंक्शन पर सोमनाथ ने जब छोटे महाराज को सुषमा के गायब होने की सूचना दी तो उन्होंने उसे और बूआ को फटकारने के बाद अपने शिष्य दीपक से खिन्न स्वर में कहा, ‘‘यार, सुषमा तो बहुत चतुर निकली…हम तो समझ रहे थे कि चिडि़या खुदबखुद हमारे बिछाए जाल में फंसती चली जा रही है, लेकिन वह तो जाल काट कर ऊंची उड़ान भरती हुई किसी अदृश्य आकाश में खो गई.’’

‘‘लेकिन इस योजना में उस का कोई न कोई साथी तो अवश्य ही रहा होगा?’’ दीपक ने कुरेदा तो महाराज खिड़की से बाहर अंधेरे में देखते हुए बोले, ‘‘मुझे तो सोमनाथ और बूआ, दोनों पर ही शक हो रहा है. पर एक बार आश्रम की गद्दी मिलने दो, हसीनाओं की तो कतार लग जाएगी.’’

 

उज्जैन पहुंचने पर शाम के समय बाजार के चक्कर लगाते हुए सोमनाथ ने जब नवीन के मोबाइल का नंबर मिलाया तो उस ने बताया कि रात को वे लोग झांसी में अपनी बूआ के घर पर ही रुक गए थे और सुबह 5 बजे टैक्सी से कानपुर के लिए चल दिए. नवीन ने राजू और सुषमा से भी सोमनाथ की बात करवाई. सोमनाथ को अब धीरज बंधा.

निर्धारित योजना के अनुसार तीसरे दिन छोटे महाराज के पास सोमनाथ के बड़े बेटे का फोन आया कि कोर्ट में जमीन संबंधी केस में गवाही देने के लिए सोमनाथ का उपस्थित होना बहुत जरूरी है. अत: अगले दिन प्रात: ही सोमनाथ आश्रम से निकल पड़े, परंतु वे दिल्ली नहीं, बल्कि कानपुर की यात्रा के लिए स्टेशन से रवाना हुए.

कानपुर में नवीन के घर पहुंचने पर जब सोमनाथ ने चहकती हुई सुषमा को दुलहन के रूप में देखा तो बस देखते ही रह गए. फिर सुषमा की पीठ थपथपाते हुए हौले से मुसकराए और बोले, ‘‘मेरी बिटिया दुलहन के रूप में इतनी सुंदर दिखाई देगी, ऐसा तो कभी मैं ने सोचा भी न था. सदा सुखी रहो. बेटा नवीन, मेरी बेटी की झोली खुशियों से भर देना.’’

‘‘बाबा, आप निश्ंिचत रहें. यह मेरी बहू ही नहीं, बेटी भी है,’’ सुषमा की सास यानी नवीन की मां ने कहा.

‘‘बाबा, अब 5-6 माह तक मैं दिल्ली कार्यालय में ही ड्यूटी बजाऊंगा.’’

नवीन की बात सुनते ही सोमनाथ बहुत प्रसन्न हुए, ‘‘वाह, फिर तो हमारी बिटिया हमारी ही मेहमान बन कर रहेगी.’’

फिर वे राजू की तरफ देखते हुए बोले, ‘‘बेटे, अपनी बहन को मंजिल तक पहुंचाने में तुम ने जो सहयोग दिया, उसे मैं और सुषमा सदैव याद रखेंगे. चलो, अब कल ही अपनी आगे की यात्रा आरंभ करते हैं.’’

लेखक- अनिल मिश्रा

Hindi Fiction Stories : तहखाने – क्या अंशी इस दोहरे तहखाने से आजाद हो पाई?

Hindi Fiction Stories :  रंगों को मुट्ठी में भर कर झुके हुए आसमान को पाना मुश्किल है क्या? या बदरंग चित्रों की कहानी दोहराव के लिए परिपक्व है? इन चित्रों की दहशत अब उस के मन की मेड़ों से फिसलने लगी है.

दौड़ते विचारों के कालखंड अपनी जगह पाने को अधीर हो डरा रहे हैं कि अंशी ने आईने को अपनी तरफ मोड़
लिया है. पूरी ताकत से वह उस कालखंड़ के टुकड़े करना चाहती है. अब चेहरा साफ दिखाई दे रहा है.
साहस और आत्मविश्वास से ओतप्रोत. खुद को भरपूर निहार कर जीन्स को ठीक किया है. नैट के टौप के अंदर पहनी स्पैगिटी को चैक किया. ठुड्डी को गले से लगा कर भीतर की तरफ झांका. सधे हुए उभारों और कसाब में रत्तीभर ढील की गुंजाइश नहीं है. संतुष्टि के पांव पसारते ही होंठों को सीटीनुमा आकृति में मोड़ कर सीधा किया.

लिपिस्टिक का रंग कपड़ों से मेल खा रहा है. ‘ वो ‘ के आकार में आईब्रो फैलाने और सिकोड़ने की कोई खास वजह नहीं है, फिर भी बेवजह किए गए कामों की भी वजह हुआ करती है.

कलाई पर गोल्डन स्टोन की घड़ी को कसते हुए अंशी ने पैर से ड्रायर खोल कर सैंडिल निकाले, उन्हें पहनने का असफल प्रयास जानबूझ कर किया गया. पहनने तक ये प्रयास जारी रहा. इस के पीछे जो भी वजह रही हो, मगर पुख्ता वजह तो व्यस्तता प्रदर्शित करना ही है.

सुरररर… सुररररर कर बौडी
स्प्रे कंधों के नीचे, बांहों पर छिड़का और फिर उस के धुएं से ऊपर से नीचे तक नहा ली है.

इस बार आईने ने खुद उसे निहारा, “गजब, क्या लग रही हो यार?”

सामने लगा ड्रेसिंग टेबल का आईना बुदबुदा उठा… जो भी हो, ऐसा तो होना ही था.

अंशी एक मौडर्न गर्ल है. मौडर्निटी का हर गुण उस के भीतर समाया हुआ है, यही जरूरी है. छोटे कपड़े, परंपरावादी सोच से इतर खुले विचार, मनपसंद कामों की सक्रियता, दबाव के बगैर जिंदगी को जीना और सब से महत्वपूर्ण खुद को पसंद करना, हर बौल पर छक्का जड़ने की काबिलीयत. बौस तो क्या, पूरा स्टाफ चारों खाने चित्त. खुद की आइडियल खुद,
दफ्तर का आकर्षण और दूसरा खिताब झांसी की रानी का. किसी की हिम्मत नहीं कि अंशी को उस की मरजी के बगैर उसे शाब्दिक या अस्वीकारिए नजरिए से छू भी ले. हां, जब मन करे तो वह छू सकती है, खरौंच सकती है सदियों से पड़ी दिमाग में धूल की परतों को.

बोलने की नजाकत और चाल की अदायगी में माहिर हो कर आधुनिकता की सीढ़ियों पर चढ़ना बेहद
आसान है. हालात मुट्ठी में करना कौन सा बड़ा काम है? अपनी औकात का फंदा गले में लगा कर क्यों
मरती हैं औरतें? ढील देती हुई बेचारगी को चौतरफा से घेरे रहती हैं, ताकि ये उन के हाथ में रहे और वह
जूझती रहें ताउम्र अपने ही बुने फंदों में. औरत बेचारी, अबला सब कोरी बकवास. सब छलावा है जंग में उतरने की पीड़ा से बचने का. और फिर कौन सा बच पाती हैं? एक पूरा तानेबानों का दरिया उन के इर्दगिर्द फैला होता है, जिस में फंसी निकलने की झटपटाहट ताउम्र जीने देती है उन्हें. वाह री औरत… कौन
सी मिट्टी की बनी है रे तू? शिकायत है तुझे उस समाज से, जिस की सृजनकर्ता है तू और उस की डोर को तू ने ही ढीली छोड़ कर अपनी ऊंचाइयों में उड़ने दिया और बैठीबैठी देखती रही हवाओं का रुख.

अब जितना जी चाहे रोपीट ले, कोई मसीहा नहीं आने वाला, बेचारगी को कौन पसंद करता है भला, एक जोरदार ठहाका लगा कर बैड पर पड़ा सफेद फैंसी पर्स उठा कर उस ने कंधे पर टांग लिया और लैपटौप बैग
हाथ में ले कर चल दी.

ड्राइविंग सीट पर बैठते ही अंशी ने अपने लहराते बालों को हाथों से संवारा और बालों में फंसेबड़े फ्रेम के ब्रांडेड गौगल्स को आंखों पर चढ़ा लिया. कार स्टार्ट करते ही पहले म्यूजिक औन किया है… नौटी… नौटी.. नौटी.. नौटी… ऐ जी नौटी सिरमौर बालिए… हिमाचली लोकसंगीत की धुन पर झूमते, गुनगुनाते हुए उस ने क्लिच दबा कर गाड़ी का एक्सीलेटर दे दिया है. गाड़ी अपनी स्पीड से दौड़ रही है.

दफ्तर की सीढ़ियां चढ़ते समय 6 गज की साड़ी में लिपटी दिव्या से उस का आमनासामना हो गया है. सादगी को ओढ़े, दायरों का बौर्डर जिस्म से चिपका, उपस्थित हो कर भी सब से अलग, मुंह में जबान न के
बराबर. हमेशा डरीसहमी सी जैसे दफ्तर न हो कर कोई कब्रगाह हो. इशारों पर नाचती दिव्या से बौस ने
कहा, “ओवर टाइम.”

“यस सर,” उस ने कहा. किसी और की टेबल का काम करने को तो न चाहते हुए भी उसे कहना पड़ा, “यस सर,” फिर भी नौकरी जाने और बौस की नजरों से उतरने का डर.

अंशी ने गर्मजोशी से “हाय” कह कर पहल की और बोली, °बहुत सुंदर साड़ी है आप की, मगर रोजरोज कैसे संभालती हो आप इसे?”

“आदत हो गई है अब तो…”

“दिव्याजी, आप को देख कर मुझे अपनी मम्मा याद आ जाती हैं। बिलकुल आप की हूबहू तसवीर, सेम
पहनावा, सेम व्यक्तित्व और…”

“और… और क्या?”
जवाब में हंस दी वह.

“आदर्शवादी, संस्कारी महिला,” दिव्या अब उत्साहित हो मुसकराई, “हम ने साड़ी को जीवित रखा है आज भी और संस्कारों को भी…” नाक सिकोड़ते हुए अंशी ने लापरवाही से उस की भावनाओं को सहमति दी है.

“चलिए, आ गया हमारा
स्थायी पड़ाव.”

“स्थायी…?”

“हां, कम से कम दफ्तर तो स्थायी ही रहना है रिटायरमेंट तक, बाकी का मुझे भरोसा नहीं.”

“भरोसा तो जिंदगी का भी नहीं है, बस सब जिए जा रहे हैं. या यों कहो, लाठी से हांके जा रहे हैं,” ठहाका लगाते हुए अंशी ने दिव्या को कंधे से पकड़ लिया, “टूटी हुई बातें, बुझा हुआ निराश चेहरा… सब के सब गहने हैं आप जैसी औरतों के, जो एक दिन सांप बन कर न डसे तो कहना.”

“तो और क्या करें? समाज में रहना है, मर्यादा में न रहें तो कौन इज्जत देगा.”

“कौन सी इज्जत दिव्याजी, बताओ तो जरा… बुरा न मानना… कौन इज्जत देता है आप को? या परवाह
करता है घर में या दफ्तर में? आप के बच्चे? आप के पति? या दफ्तर में बौस? क्या कमी छोड़ी है आप ने? फिर भी…”

अंशी की बातों से उस के होंठों ने खामोशी को अख्तयार कर लिया और वह सकपका कर अपनी टेबल की ओर बढ़ गई है. अंशी का बिंदास नजरिया दिव्या को कभी न भाया. उस का पहनावा, देह भाषा और निडरता कुछ भी नहीं, भला शोभा देती है क्या भले घर की औरतों को मर्दों जैसी हरकतें? मन ही मन
बुदबुदा कर दिव्या ने अपना काम संभाला, मगर कहीं न कहीं उस की बातें आज उसे झकझोर रही हैं. सही तो कह रही है वह, क्या गलत कहा अंशी ने? क्या पाया आज तक उस ने? दिनभर पिलने के बाद घर
में सब की जीहुजूरी, बच्चों को लाड़दुलार करते और दूसरों की पसंद पूछतेपूछते भूल ही गई है कि उसे
क्या पसंद है? और किसी ने पूछा भी कहां कभी? न किसी ने उस की इच्छाएं पूछीं, न सपने. सपने तो
होते ही कहां हैं औरतों के, वह तो परिवार के सपनों पर जीती हैं. सुबह से खटतेखटते आई हूं और
जा कर भी आराम कहां? न बनाव, न श्रंगार, जरा सा हंस लूं तो जवाब देही… रो लूं तो उपेक्षा झेलूं… उफ्फ…
जरा भी सलीका न सीखा हम ने, हाथों के नाखूनों से जमे आटे को चोरी से साफ करने लगी है.

अखिल की निगाहें बराबर अंशी पर लगी हैं. वह कई बार उठ कर खुद उस के पास आयागया और इन 4-5 घंटों में 6 बार उसे अपने केबिन में बुला चुका है. शायद उसे आज के ड्रेसप के लिए कोई
काम्पलीमैंट भी दिया है.

अंशी ने इतरा कर अपनी अदा से उसे कोई खास महत्व नहीं दिया है. वह ऐसी गंभीरता का अभिनय कर रही है, जैसे इस दफ्तर की सिलेब्रिटी है और अखिल उस का बौस न हो कर कोई कुलीग है.

दफ्तर के उस हाल में एक धुंध सी है, जिस में सब साफ दिखाई नहीं दे रहा है, मगर ये तय है कि अंशी
अपनी जिंदगी को जी रही है अपनी शर्तों पर, अपनी सुविधा से अपने बनाए नियमों से अपने रास्ते खुद तय कर रही है. वह खुश है, किसी से शिकायत भी नहीं. कभी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में मजबूरियों का
दुखड़ा रोते भी नहीं सुना है. जिंदगी इसी का नाम तो नहीं? नहीं… नहीं… ये सभ्यता नहीं, हमारी परंपराएं इसे आदर से नहीं देखतीं, मर्दों के कंधे पर हाथ रख कर बात करना, बातबात पर ठहाके लगा कर हंस देना… छोटेछोटे कपड़ों से झांकते आमंत्रित करते अंग… लाज का नामोनिशान नहीं… उफ्फ… बेशर्मी को आधुनिकता नहीं कहा जा सकता. अगर यही है परिवर्तन तो नहीं चाहिए ऐसा बदलाव… अपनों की नजर में न सही, पर अपनी नजर में तो सम्माननीय हूं न, नहीं मिला जीने का सुख तो क्या? आत्मसम्मान से तो धनी हूं मैं… नहीं चाहिए मुझे अंशी जैसी जिंदगी… क्या सचमुच अंशी की जिंदगीखराब है? क्या वह खुश नहीं? या लोग उस से खुश नहीं? सब तो बैलेंस कर के चलती है वह… फिर
क्यों आपत्ति है मुझे या किसी को…? विचारों के झूले पर झूलते मन को दिव्या ने अपने तर्कवितर्क से रोक दिया है और अपने काम में लग गई है.

शाम को अंशी अखिल की गाड़ी में सवार हो कर निकली है. अपनी गाड़ी को उस ने पोर्च में लगा दिया है.
बहुत स्टाइल से वह अखिल के बराबर वाली सीट पर बैठी है और पर्स पीछे वाली सीट पर फेंक दिया है.

दिनभर की थकान से अनमनी सी अंशी जैसे अखिल की गोद में लुढ़क ही जाएगी. अखिल ने उस के हाथ को कस कर पकड़ लिया है और गाड़ी में ही एक जबरदस्त किस अंकित कर दिया. उस की इस हरकत से अंशी बनावटी नाराजगी जाहिर करते हुए कहने लगी है, “इतने बेसब्र मर्द मुझे बिलकुल पसंद नहीं अखिल.”

“ये तो रोमांस का टेलर है मेरी…” बात को अधूरा ही छोड़ दिया है.”

“यही तो कमी है तुम मर्दों में, कि मिल जाए तो औरत को समूचा ही खा लेना चाहते हो तुम लोग?”

“अंशी, नाराज क्यों होती हो जान…”

“माइंड योर लैंग्वेज, मैं कोई जानवान नहीं हूं अखिल… ये सब छलावा है… मैं इसे नहीं मानती.”

“मेरे साथ मेरा रूम शेयर कर सकती हो? ये छलावा नहीं है?”

“मैं अपनी इच्छाओं की मालिक हूं अखिल, जो चाहूं कर सकती हूं. न तुम मुझे रोक सकते हो और न ये
जमाना.”

“मैं तुम्हे चाहने लगा हूं अंशी… बाई गौड…”

“हा… हा… हा… चाहत… किसी से भी… इतनी सस्ती होती है क्या?”

“तुम सस्ती कहां हो अंशी? मेरे दिल से पूछो, कितनी कीमती हो तुम मेरे लिए?”

“अच्छा… कितनी कीमत लगाई है तुम ने मेरी?”

“ओह्ह, बस कर दी न दिल तोड़ने वाली बात…”

“सचाई हकीकत से बहुत अलग होती है.”

“तुम मेरी बगल वाली सीट पर बैठी हो, ये सचाई नहीं है क्या?”

“हां, यह सचाई है, मगर ये पूरी सचाई है कि मैं तुम्हें या तुम मुझे नहीं चाहते हो.”

“अब कैसे दिखाऊं तुम्हें? अंशी, मैं सोतेजागते बस तुम्हारे ही बारे में ही सोचता रहता हूं, यकीन करो
मुझ पर…”

“हा… हा… हा… दूसरा छलावा… कोई शादीशुदा मर्द अपनी खूबसूरत बीवी की गैरहाजिरी में किसी लड़की को घर में लाता है. उस के साथ अय्याशी करता है. बीवी के आते ही चूहे की तरह दुबक जाता है और कहता है कि वह चाहने लगा है… हा… हा… हा.”

“तुम भी तो अपने पति को धोखा दे रही हो अंशी… तुम भी तो शादीशुदा हो… बताओ… मैं झूठ बोल रहा हूं क्या?”

“तुम बेवकूफ हो अखिल… जरूरत को चाहत समझ बैठे हो… तुम्हारा साथ, तुम्हारी कंपनी. मेरी जरूरत है बस और कुछ नहीं… मैं सतीसावित्री नहीं बनना चाहती… न ही बिना अपराध रोज सूली पर चढ़ना चाहती हूं…”

“ये झूठ है, मैं ने तो कभी अपनी पत्नी को सूली पर नहीं चढ़ाया… न ही कोई इलजाम लगाया उस पर.”

“हा… हा… हा… एक संस्कारी औरत का खिताब उस के माथे पर लगा कर बिंदास जिंदगी जी रहे हो और क्या चाहते हो… वो बेचारी अबला तो तुम्हें पति परमेश्वर ही समझती होगी न?”

“यार, तुम भी ये क्या बातें ले कर बैठ गईं?” हारे हुए अखिल को इस गरमाहट के खत्म होने का डर सताने
लगा, तो वह झुंझला उठा.

“अच्छा नहीं करती… बस… सुनो अखिल, रास्ते से बियर की बोतल ले लेना प्लीज…”

“यस डार्लिंग… मुझे याद है…”

“ठंडी बियर…”

“हां.”

शौप से 2 बोतल गाड़ी की पिछली सीट पर डाल कर अखिल ने ड्राइविंग सीट को संभाल लिया है.

घर आने तक बहस की गहमागहमी फिर से रोमांस में तबदील हो चुकी है. चुप्पी ने माहौल को रोमांटिक कर दिया है.

अंशी के स्टैपकट बाल उस के टौप पर पड़े अखिल को अधीर कर रहे हैं. इस बात
से बेखबर अंशी गाड़ी के बाहर लगातार चलती गाड़ियों को देख रही है, जो रुकेंगी नहीं… दौड़ती
रहेंगी… लगातार… यही जिंदगी है… अपनी धुन में दौड़ना… संतुष्टि तक दौड़ते रहना…

14वें माले पर लिफ्ट से पहुंच कर अखिल ने जेब से चाबी निकाल कर दरवाजे का लौक खोला. अंदर आ कर उसी तरह वापस से लौक भी कर दिया.

“तुम्हें शावर लेना है अंशी? चाहो तो फ्रेश हो जाओ… प्रिया की नाइटी ले लेना.”

“तुम जाओ अखिल… मैं देखती हूं,” अंशी ने मोबाइल को स्विच औफ मोड पर डाल दिया है और बैड पर
पर्स फेंक कर पसर गई है.

6 इंची मोटे डनलप के गद्दों ने उस की थकान को छूमंतर कर दिया है.
अखिल ने बाशरूम से आ कर म्यूजिक औन कर दिया. उस का मूड एकदम अलग सा दिख रहा है. अब
अंशी भी शावर लेने के बाद ब्लैक कलर की औफ शोल्डर नाइटी में है. अखिल ने सारी लाइट औफ कर
दी है और रूम स्प्रे से कमरे को महका दिया है. बैडरूम में हलकीहलकी सी रोशनी है, जो रोमांस में डूबने
को मचल रही है. एक रंगीन मोमबत्ती डिजाइनर वाल की सीध में जल रही है, जो हजारों सितारों की तरह
रोशनी दे रही है.

अखिल कांच के गिलास में पैग बना रहा है. अंशी उस के करीब आ कर बैठ गई है, बिलकुल करीब. उस की सांसों की गरमाहट अखिल महसूस कर रहा है. चीयर्स कर पहला पैग खत्म किया
है… फिर दूसरा… तीसरा… और चौथा… नशा गहराने लगा है… उस ने अंशी को बांहों में भर लिया. उस की आंखें बंद हैं. उस ने उस की दोनों बंद आंखों पर एकएक चुम्बन अंकित कर दिया है.

अंशी ने अपनी बांहों को उस के गले में डाल कर उस का चेहरा अपने करीब कर लिया है. अखिल के हाथ उस की पीठ पर रेंग रहे हैं.
इसी मुद्रा में लिपटे दोनों बैठे हैं, जरूरत के साधनमात्र… न प्रेम, न चाहत, न कसक, न भावनाएं…

डुबोने के बाद पूरा समंदर एकदम शांत है. अंशी ने हौले से अपने सीने पर रखा अखिल का हाथ हटाया. नाईटी पहन कर वह ड्राइंगरूम में आ गई है. पर्स से सिगरेट निकाल कर सुलगाई है और सोफे पर
बैठ कर पैर टेबल पर फैला लिए हैं. एक गहरा कश लिया है… “लक्ष्य, मेरे पति.. हा… हा… हा… तुम्हारे हाथों की कठपुतली नहीं हूं मैं, अपनी मरजी से जीना आता है मुझे… और तुम्हारी औकात ही क्या है? मुझ
जैसी लड़की को शिकंजे में जकड़ने की? नहीं… लक्ष्य ये कभी नहीं होगा… जाओ, चले जाओ… देखती हूं… कौन तुम्हें अपने दिल में जगह देगी? यहां से वहां चाटते रहना सब की जूतियां… एक दिन सब की
सब छोड़ के चली जाएंगी… फिर मैं भी थूक दूंगी तुम्हारे मुंह पर… देखो, मैं ने थूक ही दिया है तुम्हारे पूरे मुंह पर… तुम्हारी औकात यही है लक्ष्य… तुम ने मेरा जीना दुश्वार किया है न… अब मेरी भी इच्छाओं के तहखाने खुल गए हैं, जो कब के बंद पड़े थे. मेरे भी सपने हैं, जो उन तहखानों से झांक रहे हैं, खुली हवा में सांस लेने को मचल रहे हैं. अब ये तहखाने कभी बंद नहीं होंगे. मेरे हौसले की किरणें इस की सीलन को खत्म कर देंगी. घुटघुट कर जीना मेरे हिस्से में नहीं, अब तुम्हारे हिस्से में होगा… अब तुम मेरा इंतजार करोगे… मेरे लिए अपनी सारी सांसें न्योछावर करोगे और बदले में कुछ नहीं मिलेगा. राहत,
हमदर्दी का एक लफ्ज भी नहीं… तुम मेरी मौजूदगी को घर के कोनेकोने में तलाशोगे और मैं अपनी
रंगीन दुनिया में ऐश करूंगी… मैं परंपरावादी, संस्कारी, आश्रित और बेचारी नही हूं… सुना तुम ने…? ऐश के रास्ते जितना तुम्हारे लिए खुले हैं, उतना मेरे लिए भी… मैं… मैं हूं… अब मैं नहीं, तुम मुझ से डरोगे… दहशत खाओगे… जैसे मैं खाती हूं… लक्ष्य, मैं नहीं हूं अब… तुम ने मुझे खो दिया है.

लेखिका- छाया अग्रवाल

Hindi Stories Online : फरेब – जिस्म के लिए मालिक और पति ने दिया धोख़ा?

Hindi Stories Online :  जब प्रोग्राम खत्म होने को होता, तो उसे फूलों का एक खूबसूरत गुलदस्ता भेंट कर चुपचाप लौट जाता.

शुरूशुरू में तो मुसकान ने उस की ओर ध्यान नहीं दिया, पर जब वह उस के हर प्रोग्राम में आने लगा, तो उस के मन में उस नौजवान के लिए एक जिज्ञासा जाग उठी कि आखिर वह कौन है? वह उस के हर प्रोग्राम में क्यों होता है? उसे उस के हर अगले प्रोग्राम की तारीख और जगह की जानकारी कैसे हो जाती है? वगैरह.

नट जाति से ताल्लुक रखने वाली मुसकान एक कुशल नाचने वाली थी. अपने बौस के आरकैस्ट्रा ग्रुप के साथ वह आएदिन नएनए शहरों में अपना प्रोग्राम देने जाती रहती थी.

लंबा कद, गोरा रंग और खूबसूरत चेहरे वाली मुसकान जब स्टेज पर नाचती थी, तो लोग दिल थाम लेते थे. उस के बदन की लोच, कातिल अदाएं और होंठों पर छाई रहने वाली मुसकान ने हजारों लोगों को अपना दीवाना बना रखा था, पर उस की दीवानगी में आहें भरने वालों में शायद ही कोई यह जानता था कि उस की मुसकान के पीछे उस के दिल में कितना दर्द छिपा हुआ है.

मुसकान महज 15 साल की थी, तब उस के मांबाप ने उसे इसी आरकैस्ट्रा ग्रुप के मालिक के हाथों बेच दिया था. तब उस का नाच में माहिर होना ही उस का शाप बन गया था. वैसे भी उन दलित परिवारों में बेटियों का बिकना आम था. बहुत सी तो खुद ही भाग जाती थीं.

मुसकान से कहा गया था कि गु्रप का मालिक उस के नाच से प्रभावित हो कर उसे अपने ग्रुप में शामिल कर रहा है और इस के लिए उस ने उस के मांबाप को एक मोटी रकम दी है. तब उसे उस की यह शर्त थोड़ी अटपटी जरूर लगी थी कि उसे उस के साथ ही रहना होगा.

जब मुसकान ने इस बात पर एतराज जताया था, तो ग्रुप के मालिक महेश ने उसे यह कह कर भरोसा दिलाया था कि वह जब चाहे अपने मांबाप से मिलने जा सकती है.

मुसकान को आरकैस्ट्रा ग्रुप में शामिल हुए सालभर बीतने को आया था. इस बीच वह कई जगह अपने प्रोग्राम दे चुकी थी. उसे इज्जत के साथ पैसे भी मिलते थे.

इस के बाद तो मुसकान को बारबार बेचा गया. कभी उस की भावनाओं का सौदा हुआ, तो कभी उस के जिस्म का. बीतते दिनों के साथ यह हकीकत उस के सामने आई कि महेश न सिर्फ अपने ग्रुप में शामिल लड़कियों की देह बेचता है, बल्कि उन के जिस्म का भी सौदा करता है. अगर कोई लड़की उस की इस बात की खिलाफत करती है, तो उसे बुरी तरह सताया जाता है. पर मुसकान इस की शिकायत किस से करती. वह भी उन हालात में, जब उस के मांबाप ने ही उसे इस जलालतभरी जिंदगी में धकेल दिया था. उसे कुछ दिनों में ग्राहकों से भी शिकायत नहीं रही.

मुसकान दलदल में फंसी एक बेबस और बेजान जिंदगी जी रही थी कि वह नौजवान उस की जिंदगी में आया. उस ने मुसकान की जिंदगी में एक हलचल सी मचा दी थी.

मुसकान ने तय किया था कि वह उस से अकेले में मिलेगी. वह पूछेगी कि आखिर वह उस के पीछे क्यों पड़ा है?

कल फिर मुसकान का प्रोग्राम था. उसे इस बात का पक्का यकीन था कि वह नौजवान कल भी आएगा.

देखा जाए, तो मुसकान अकसर लोगों से मिलती रहती थी. इन में अच्छे लोग भी होते थे और बुरे लोग भी. पर सच कहा जाए, तो बुरे लोगों की तादाद ज्यादा होती थी. वे लोग उस के रंगरूप और जवानी के दीवाने होते थे. उन के लिए वह एक खूबसूरत जिस्म थी, जिस वे भोगना चाहते थे.

मुसकान ने एक आदमी भेज कर उसे बुला लिया था. वह उस के सामने चुपचाप बैठा था.

मुसकान कुछ देर तक उस के बोलने का इंतजार करती रही, फिर बोली, ‘‘मैं देख रही हूं कि पिछले तकरीबन एक साल से तुम मेरे हर प्रोग्राम में रहते हो, मुझे गुलदस्ता भेंट करते हो और लौट जाते हो. मैं जान सकती हूं कि क्यों?’’

‘‘क्योंकि मुझे आप पसंद हैं…’’ वह गंभीर आवाज में बोला, ‘‘मैं आप को चाहने लगा हूं.’’

‘‘ऐसा ही होता है. कई बार लोग हमारी जैसी नाचने वाली किसी लड़की की किसी खास अदा पर फिदा हो कर उसे चाहने लगते हैं. पर उन की यह चाहत थोड़ी देर की होती है, जो बीतते समय के साथ खत्म हो जाती है.’’

‘‘परंतु, मेरी चाहत ऐसी नहीं है. सच तो यह है कि आप को अपनी जिंदगी में शामिल करना चाहता हूं.’’

‘‘यह मुमकिन नहीं है.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘क्योंकि जिन लोगों के साथ मैं काम करती हूं, वे यह हरगिज पसंद नहीं करेंगे कि मैं उन का साथ छोड़ कर जाऊं.’’

‘‘सवाल यह नहीं कि लोग क्या चाहते हैं. सवाल यह है कि आप क्या चाहती हैं?’’

‘‘मतलब?’’

‘‘बतलाऊंगा, पर इस के पहले आप यह बताइए कि क्या आप अपनी इस मौजूदा जिंदगी से खुश हैं?’’

मुसकान उस के इस सवाल का जवाब न दे सकी. वह कुछ देर तक चुपचाप उसे देखती रही, फिर बोली, ‘‘अगर मैं कहूं कि नहीं तो…?’’

‘‘तो मैं कहूंगा कि आप इस जिंदगी को ठोकर मार दीजिए.’’

‘‘और…?’’

‘‘और मेरी चाहत को कबूल कर मेरी जिंदगी में शामिल हो जाइए.’’

‘‘मैं फिर कहूंगी कि तुम्हारा यह प्रस्ताव भावुकता में दिया गया प्रस्ताव है, जिसे मैं स्वीकार नहीं कर सकती.’’

‘‘ऐसा नहीं है…’’ वह बोला, ‘‘और मैं समीर इसे आप के सामने साबित कर के रहूंगा,’’ कहने के बाद वह उठ खड़ा हुआ और चला गया.

इस के बाद भी समीर मुसकान से मिलता रहा. वह जब भी उस से मिलता, अपना प्रस्ताव उस के सामने जरूर दोहराता.

सच तो यह था कि मुसकान भी उस के प्रस्ताव को स्वीकार कर अपनी इस जलालत भरी जिंदगी से आजाद होना चाहती थी, पर यह बात भी वह अच्छी तरह जानती थी कि महेश इतनी आसानी से उसे अपने चंगुल से आजाद नहीं होने देगा. वह उस के लिए सोने का अंडा देने वाली मुरगी जो थी. पर समीर की चाहत और लगाव देख कर मुसकान ने फैसला कर लिया कि वह समीर का प्रस्ताव स्वीकार करेगी.

जब मुसकान ने अपने इस फैसले की जानकारी समीर को दी, तो खुशी से उस की आंखें चमक उठीं. मुसकान पलभर तक खुशी से चमकते उस के चेहरे को देखती रही, फिर गंभीर आवाज में बोली, ‘‘पर समीर, महेश इतनी आसानी से मुझे छोड़ने वाला नहीं.’’

‘‘मैं उसे मुंहमांगी कीमत दूंगा और तुम्हें उस से खरीद लूंगा.’’

‘‘ठीक है, बात कर के देखो. शायद वह तुम्हारी बात मान जाए.’’

समीर ने मुसकान को साथ ले कर महेश से बात की और उसे बताया कि वह हर कीमत पर मुसकान को हासिल करना चाहता है.

‘‘हर कीमत पर…’’ महेश ‘कीमत’ शब्द पर जोर देता हुआ बोला.

‘‘हां…’’ समीर बोला, ‘‘तुम कीमत बोलो?’’

‘‘10 लाख…’’ महेश ने उस की आंखों में झांकते हुए कहा.

‘‘मंजूर है,’’ समीर बिना एक पल गंवाए बोला.

समीर महेश को मुंहमांगी कीमत दे कर मुसकान को अपने आलीशान घर में ले आया. घर की सजावट देख मुसकान हैरान हो कर बोली, ‘‘यह घर तुम्हारा है?’’

‘‘हां…’’ समीर उस के खूबसूरत चेहरे को प्यार से देखता हुआ बोला, ‘‘और अब तुम्हारा भी.’’

‘‘मेरा कैसे?’’

‘‘वह ऐसे कि तुम मेरी पत्नी बनने वाली हो.’’

‘‘सच?’’

‘‘बिलकुल सच…’’ समीर उसे अपनी बांहों में भरता हुआ बोला, ‘‘हम कल ही शादी कर लेंगे.’’

समीर ने मुसकान से शादी कर ली. मुसकान को लगा था कि समीर को पा कर उस ने दुनियाजहान की खुशियां पा ली हों. वह दिलोजान से उस पर न्योछावर हो गई थी. समीर भी उसे दिल की गहराइयों से चाहता था.

कुछ दिनों तक तो मुसकान को अपनी यह दुनिया बेहद भली और खुशगवार लगी थी, परंतु फिर वह इस से ऊबने लगी थी. उसे ऐसा लगने लगा था, जैसे उस की जिंदगी एक ढर्रे में बंध गई हो. ऐसे में उसे अपनी स्टेज की दुनिया याद आने लगी थी. उस की उस दुनिया में कितना रोमांच, कितना ग्लैमर था.

एक दिन अचानक मुसकान के आरकैस्ट्रा ग्रुप के मालिक महेश ने उस के सामने अपने ग्रुप की ओर से एक जगह प्रोग्राम देने का प्रस्ताव रखा और उस के बदले उसे एक मोटी रकम देने का वादा किया, तो वह इनकार न कर सकी.

‘‘प्रोग्राम कब है?’’ मुसकान ने पूछा.

‘‘कल.’’

‘‘कल…?’’ मुसकान के चेहरे पर निराशा के भाव फैले, ‘‘पर, समीर तो यहां नहीं हैं. वे कारोबार के सिलसिले में 4 दिनों के लिए शहर से बाहर गए हुए हैं. मुझे इस प्रोग्राम के लिए उन से इजाजत लेनी होगी.’’

‘‘अरे, डांस का प्रोग्राम ही तो देना है…’’ महेश बोला, ‘‘किसी अमीरजादे का बिस्तर तो नहीं गरम करना. भला इस में समीर को क्या एतराज हो सकता है?’’

‘‘फिर भी…’’

‘‘मान भी जाओ मुसकान.’’

‘‘ठीक है,’’ मुसकान ने हामी भर दी.

मुसकान ने डरे हुए मन से यह प्रोग्राम कर लिया. उसे उम्मीद थी कि वह समीर को इस के लिए मना लेगी, परंतु उस का ऐसा सोचना, उस की कितनी बड़ी भूल थी. इस का अहसास उसे समीर के लौटने पर छुआ.

‘‘यह मैं क्या सुन रहा हूं,’’ समीर मुसकान को गुस्से से घूरता हुआ बोला.

‘‘क्या…?’’

‘‘तुम ने फिर से डांस का प्रोग्राम किया.’’

‘‘आप को किस ने बताया?’’

‘‘मेरे एक दोस्त ने, जो तुम्हें अच्छी तरह से जानता है.’’

मुसकान को जिस बात का डर था, वही हुआ.

‘‘इस में खराबी क्या है…’’ मुसकान समीर का गुस्सा कम करने की कोशिश करते हुए बोली, ‘‘आजकल तो अच्छे घरानों की लड़कियां भी ऐसे प्रोग्राम करती हैं. फिर महेश ने इस के लिए मुझे एक मोटी रकम भी दी है.’’

‘‘मतलब, तुम ने पैसों के लिए प्रोग्राम किया है?’’

‘‘हां समीर…’’

‘‘आखिर तुम ने अपनी औकात दिखा ही दी और तुम ने यह भी साबित कर दिया कि तुम निचली जाति से ताल्लुक रखती हो.’’

‘‘समीर, अब तुम मेरी बेइज्जती कर रहे हो…’’ मुसकान तल्ख आवाज में बोली, ‘‘मैं नहीं समझती कि मैं ने यह प्रोग्राम दे कर कोई गलती की है. सच तो यह है कि डांस मेरा जुनून है और इस जुनून से मैं अपनेआप को ज्यादा दिनों तक दूर नहीं रख सकती.’’

समीर पलभर तक उसे गुस्से में घूरता रहा, फिर पैर पटकता हुआ कमरे से बाहर चला गया.

‘‘समीर, आखिर तुम मेरी इस छोटी सी गलती के लिए मुझ से कब तक नाराज रहोगे?’’ तीसरे दिन रात की तनहाई में मुसकान समीर की ओर करवट लेते हुए बोली.

‘‘तुम्हारे लिए यह छोटी सी गलती है, पर तुम्हारी यही छोटी सी गलती मेरी बदनामी का सबब बन गई है. लोग

यह कह कर मेरा मजाक उड़ाते हैं कि देखो समीर की पत्नी स्टेज पर नाचती फिरती है.’’

‘‘लोगों का क्या है, उन का तो काम ही कुछ न कुछ कहना है. अगर हम उन के कहे मुताबिक चलने लगे, तो हमारी जिंदगी मुश्किल हो जाएगी.’’

‘‘इस का मतलब यह कि तुम दिल से चाहती हो कि तुम डांस प्रोग्राम करती रहो.’’

‘‘हां, बशर्ते तुम इस की इजाजत दो,’’ मुसकान बोली.

समीर कुछ देर तक चुपचाप मुसकान के खूबसूरत चेहरे और भरेभरे बदन को देखता रहा, फिर बोला, ‘‘ठीक है, मैं तुम्हें इस की इजाजत दूंगा, पर इस के लिए मेरे काम भी कर देना.’’

‘‘कैसे काम?’’

‘‘तुम कभीकभी मेरे कारोबार से संबंधित अमीर लोगों से मिल लेना.’’

‘‘क्या कह रहे हो तुम?’’ यह सुन कर मुसकान हैरान रह गई.

‘‘तुम मेरी पत्नी हो, तभी तो मैं तुम से ऐसी बातें कह रहा हूं…’’ समीर अपनी आवाज में मिठास घोलता हुआ बोला, ‘‘देखो मुसकान, अगर तुम ऐसा करती हो, तो हमें उन लोगों से अपनी कंपनी के लिए बड़े और्डर मिलेंगे, जिस से हमारा लाखों का मुनाफा होगा.

‘‘एक पत्नी होने के नाते क्या तुम्हारा यह फर्ज नहीं कि तुम अपने पति का कारोबार बढ़ाने में उस की मदद करो और फिर तुम ऐसा पहली बार तो नहीं कर रही हो?

‘‘तुम्हारी जाति में तो ऐसा होता ही रहता है. तुम ही तो कह रही थीं कि कितनी ही लड़कियों को ऊंची जाति वाले उठा कर ले जाते थे और सुबह पटक जाते थे.’’

समीर ने मुसकान की दुखती नस पर हाथ रख दिया था और ऐसे में वह चाह भी इस से इनकार नहीं कर सकी.

‘‘ठीक है,’’ मुसकान बुझे मन से बोली.

समीर एक दबदबे वाले शख्स को अपने घर लाया और न चाहते हुए भी मुसकान को उस की बात माननी पड़ी. फिर तो यह सिलसिला चल पड़ा. समीर हर दिन किसी अमीर शख्स को अपने साथ लाता और मुसकान को उसे खुश करना पड़ता.

यह बात तो मुसकान को बाद में मालूम हुई कि असल में समीर, जिन्हें अपने कारोबार से संबंधित लोग बतलाता था, वे उस के हुस्न और जवानी के खरीदार थे और समीर उन को अपनी पत्नी का खूबसूरत जिस्म सौंपने के लिए उन से एक मोटी रकम वसूलता था.

मुसकान ने जिसे भी अपना समझा, उसी ने उसे बेचा. पहले उस के मांबाप ने उसे बेचा और अब उस का पति उसे बेच रहा था. लेकिन दोनों अब पैसे में जो खेल रहे थे.

Hindi Story Collection : किशमिश

Hindi Story Collection : ‘‘अरे, जरा धीरे चलो भई. कितना तेज चल रहे हो. मुझ में इतनी ताकत थोड़े ही है कि मैं तुम्हारे बराबर चल सकूं,’’ दिवाकर ने कहा और हांफते हुए सड़क के किनारे चट्टान पर निढाल हो कर बैठ गए. फिर पीछे पलट कर देखा तो मंजरी उन से थोड़ी दूर ऐसी ही एक चट्टान पर बैठी अपने दुपट्टे से पसीना पोंछती हलाकान हो रही थी. साथ चल रहे हम्माल ने भी बेमन से सामान सिर से उतारा, बैठ गया और बोला, ‘‘टैक्सी ही कर लेते साहब, ऐसा कर के कितना पैसा बचा लेंगे?’’

‘‘हम पैसा नहीं बचा रहे हैं. रहने दो, तुम नहीं समझोगे,’’ दिवाकर ने कहा. थोड़ी देर में मंजरी ने फिर चलना शुरू किया और उन से आधी दूर तक आतेआते थक कर फिर बैठ गई.

‘‘अरे, थोड़ा जल्दी चलो मैडम, चल कर होटल में आराम ही करना है,’’ दिवाकर ने जोर से कहा. जैसेतैसे वह उन तक पहुंची और थोड़ा प्यार से नाराज होती हुई बोली, ‘‘अरे, कहां ले आए हो, अब इतनी ताकत नहीं बची है इन बूढ़ी होती हड्डियों में.’’

‘‘तुम्हारी ही फरमाइश पर आए हैं यहां,’’ दिवाकर ने भी मंजरी से मजे लेते हुए कहा. आखिरकार वे होटल पहुंच ही गए. वास्तव में मंजरी और दिवाकर अपनी शादी की 40वीं सालगिरह मनाने गंगटोक-जो कि सिक्किम की जीवनरेखा तीस्ता नदी की सहायक नदी रानीखोला के किनारे बसा है और जिस ने साफसफाई के अपने अनुकरणीय प्रतिमान गढ़े हैं-आए हैं. इस से पहले वे अपने हनीमून पर यहां आए थे. और उस समय भी वे इसी होटल तक ऐसे पैदल चल कर ही आए थे. और तब से ही गंगटोक उन्हें रहरह कर याद आता था. यहां उसी होटल के उसी कमरे में रुके हैं, जहां हनीमून के समय रुके थे. यह सब वे काफी प्रयासों के बाद कर पाए थे.

40 साल के लंबे अंतराल के बाद भी उन्हें होटल का नाम याद था. इसी आधार पर गूगल के सहारे वे इस होटल तक पहुंच ही गए. होटल का मालिक भी इस सब से सुखद आश्चर्य से भर उठा था. उस ने भी उन की मेहमाननवाजी में कोई कसर नहीं उठा रखी थी. यहां तक कि उस ने उन के कमरे को वैसे ही संवारा था जैसा वह नवविवाहितों के लिए सजाता है. यह देख कर दिवाकर और मंजरी भी पुलकित हो उठे. उन के चेहरों से टपकती खुशी उन की अंदरूनी खुशी को प्रकट कर रही थी.

फ्रैश हो कर उन दोनों ने परस्पर आलिंगन किया, बधाइयां दीं. फिर डिनर के बाद रेशमी बिस्तरों से अठखेलियां करने लगे. सुबह जब वे उठे तो बारिश की बूंदों ने उन का तहेदिल से स्वागत किया. बड़ीबड़ी बूंदें ऐसे बरस रही थीं मानो इतने सालों से इन्हीं का इंतजार कर रही थीं. नहाधो कर वे बालकनी में बैठे और बारिश का पूरी तरह आनंद लेने लगे.

‘‘चलो, थोड़ा घूम आते हैं,’’ दिवाकर ने मंजरी की ओर कनखियों से देखते हुए कहा.

‘‘इतनी बारिश में, बीमार होना है क्या?’’ मंजरी बनावटी नाराजगी से बोली.

‘‘पिछली बार जब आए थे तब तो खूब घूमे थे ऐसी बारिश में.’’

‘‘तब की बात और थी. तब खून गरम था और पसीना गुलाब,’’ मंजरी भी दिवाकर की बातों में आनंद लेने लगी.

‘‘अच्छा, जब मैं कहता हूं कि बूढ़ी हो गई हो तो फिर चिढ़ती क्यों हो?’’ दिवाकर भी कहां पीछे रहने वाले थे.

‘‘बूढ़े हो चले हैं आप. इतना काफी है या आगे भी कुछ कहूं,’’ मंजरी ने रहस्यमयी चितवन से कहा तो दिवाकर रक्षात्मक मुद्रा में आ गए और अखबार में आंखें गड़ा कर बैठ गए. हालांकि अंदर ही अंदर वे बेचैन हो उठे थे. ‘आखिर इस ने इतना गलत भी तो नहीं कहा,’ उन्होंने मन ही मन सोचा. इतने में कौलबैल बजी. मंजरी ने रूमसर्विस को अटैंड किया. गरमागरम मनपसंद नाश्ता आ चुका था.

‘‘सौरी, मैं आप का दिल नहीं दुखाना चाहती थी. चलिए, नाश्ता कर लीजिए,’’ मंजरी ने पीछे से उन के गले में बांहें डाल कर और उन का चश्मा उतारते हुए कहा. फिर खिलखिला कर हंस दी. दिवाकर की यह सब से बड़ी कमजोरी है. वे शुरू से मंजरी की निश्छल और उन्मुक्त हंसी के कायल हैं. जब वह उन्मुक्त हो कर हंसती है तो उस का चेहरा और भी प्रफुल्लित, और भी गुलाबी हो उठता है. वे उस से कहते भी हैं, ‘तुम्हारी जैसी खिलखिलाहट सब को मिले.’

‘‘आज कहां घूमने चलना है नाथूला या खाचोट पलरी झील? बारिश बंद होने को है,’’ दिवाकर ने नाश्ता खत्म होतेहोते पूछा. मंजरी ने बाहर देखा तो बारिश लगभग रुक चुकी थी. बादलों और सूरज के बीच लुकाछिपी का खेल चल रहा था.

‘‘नाथूला ही चलते हैं. पिछली बार जब गए थे तो कितना मजा आया था. रियली, इट वाज एडवैंचरस वन,’’ कहतेकहते मंजरी एकदम रोमांचित हो गई.

‘‘जैसा तुम कहो,’’ दिवाकर ने कहा. हालांकि उन को मालूम था कि उन के ट्रैवल एजेंट ने उन के आज ही नाथूला जाने के लिए आवश्यक खानापूर्ति कर रखी है.

‘‘अब तक नाराज हो, लो अपनी नाराजगी पानी के साथ गटक जाओ,’’ मंजरी ने पानी का गिलास उन की ओर बढ़ाते हुए कहा और फिर हंस दी. उन दोनों के बीच यह अच्छी बात है कि कोई जब किसी से रूठता है तो दूसरा उस को अपनी नाराजगी पानी के साथ इसी तरह गटक जाने के लिए कहता है और वातावरण फिर सामान्य हो जाता है.

टैक्सी में बैठते ही दोनों हनीमून पर आए अपनी पिछली नाथूला यात्रा की स्मृतियों को ताजा करने लगे.

वास्तव में हुआ यह था कि नाथूला जा कर वापस लौटने में जोरदार बारिश शुरू हो गई थी और रास्ता बुरी तरह जाम. जो जहां था वहीं ठहर गया था. फिर जो हुआ वह रहस्य, रोमांच व खौफ की अवस्मरणीय कहानी है जो उन्हें आज भी न केवल डराती है बल्कि आनंद भी देती है.

उस वक्त जैसे ही जाम लगा और अंधेरा होना शुरू हुआ तो उन की बेचैनी बढ़ने लगी. वे दोनों और ड्राइवर बस, अपना समय होने पर और दिवाकर के बहुत मना करने के बावजूद ड्राइवर ने साथ लाई शराब पी और खाना खा कर सो गया. गाड़ी के अंदर की लाइट भी लूज होने से बंद हो गई.

दोनों अंधेरे में परस्पर गूंथ कर बैठ गए. जो अंधेरा नवविवाहितों को आनंद देता है, वह कितना खौफनाक हो सकता है, यह वे ही जानते हैं. रात के सन्नाटे में हर आहट आतंक का नया अध्याय लिख देती. दिवाकर ने हिम्मत कर के गाड़ी से बाहर निकल कर देखा तो होने को वहां बहुत सी गाडि़यां थीं लेकिन इन के आसपास जितनी भी थीं उन में सारे लोग ऐसे ही दुबके हुए थे. वह तो यह अच्छा था कि बारिश बंद हो चुकी थी. और आसमान में इक्केदुक्के तारे अपने होने का सुबूत देने लगे थे. मंजरी सिर नीचा और आंखें बंद किए बैठी थी.

ड्राइवर बेसुध सो रहा था. उस के खर्राटों से मंजरी के बदन में झुरझुरी सी हो रही थी. इतने में खिड़की के शीशे पर ठकठक हुई तो मंजरी की तो चीख ही निकल गई. लेकिन दिवाकर की आवाज सुन कर जान में जान आई. दिवाकर ने बताया था कि वहां से कुछ दूरी पर सेना का कैंप है, उन में से किसी का जन्मदिन है, इसलिए वे कैंपफायर कर रहे हैं. और इसी बहाने लोगों की सहायता भी.

मंजरी थोड़े नानुकुर के बाद जाने को राजी हुई थी. जब दिवाकर ने वहां पहुंच कर सैनिकों को बताया कि उन के पिताजी भी सेना में थे और 1967 का नाथूला का युद्घ लड़ा था तो दिवाकर उन के लिए आदर के पात्र हो गए. फिर वह रात गातेबजाते कब निकल गई थी, पता ही नहीं चला. उस दिन दिवाकर ने मंजरी को पहली बार गाते हुए सुना था. मंजरी ने गाया था- ‘ये दिल और उन की निगाहों के साए…’ उस दिन से आज तक दोनों को वह घटना ऐसे याद है मानो कल ही घटी हो.

‘‘अरे, कहां खो गई,’’ दिवाकर ने कहा तो स्मृतियों को विराम लग गया.

इधर, ड्राइवर ने चायनाश्ते के लिए गाड़ी रोक दी. दोनों ने साथ लाया नाश्ता किया और बिना चीनी की चाय पी. दिवाकर अपने जमाने में बहुत तेज मीठी चाय के शौकीन रहे हैं, और इसी कारण मंजरी की पसंद भी धीरेधीरे वैसी ही होती चली गई. लेकिन दिवाकर को डायबिटीज ने अनुशासित कर दिया. नतीजतन, मंजरी भी वैसी ही चाय पीने लगी. दिवाकर उस से कहते भी हैं कि तुम अपनी पसंद का ही खायापिया करो. पर वह हर बार बात को हंस कर टाल देती है. मीठे के नाम पर अब दोनों केवल मीठी बातें ही करते हैं, बस.

नाथूला में वे सब से पहले वार मैमोरियल गए और शहीदों को श्रद्धासुमन अर्पित किए. चीनी सीमा दिखते ही दिवाकर को बाबूजी की याद आ गई. नाथूला पास भारत और चीन (तिब्बत) को जोड़ने वाले हिमालय की वादियों में एक बेहद खूबसूरत किंतु उतना ही खतरनाक रास्ता है. यह प्राचीनकाल से दोनों देशों को सिल्क रोड (रेशम मार्ग) के माध्यम से जोड़ता है और यह सांस्कृतिक, व्यापारिक एवं ऐतिहासिक यात्राओं का गवाह रहा है. जो इन दोनों देशों के 1962 के युद्ध के बाद बंद कर दिया गया था. जिसे 2006 में आंशिक रूप से खोला गया.

बाबूजी ने 1967 का वह युद्ध लड़ा था जो इसी नाथूला पास पर लड़ा गया. बाबूजी ने इसी युद्ध में अपनी जांबाजी के चलते एक पैर खो कर अनिवार्यतया सेवानिवृत्ति ली थी जिसे भारत की चीन पर विजय के बाद लगभग बिसार दिया गया. जबकि 1962 का वह युद्ध सभी को याद है जिस में देश ने मुंह की खाई थी. इस की पीड़ा बाबूजी को ताउम्र रही.

दिवाकर ने जब बाबूजी को अपने हनीमून पर गंगटोक जाने का इरादा बताया था, तो बाबूजी की युद्घ की सारी स्मृतियां ताजी हो गई थीं. चीनी सैनिकों की क्रूरता और उन का युद्धकौशल सभी कुछ उन की आंखों के आगे घूम गया था. साथ ही, अपने पैर को खोने की पीड़ा भी आंखों के रास्ते बह उठी थी. बाबूजी नहीं चाहते थे कि उन के बच्चे उस देश की सीमा को दूर से भी देखें, जिस ने एक बार न सिर्फ अपने देश को हराया था, बल्कि उन का पैर, नौकरी एवं सुखचैन हमेशा के लिए छीन लिया था. इसीलिए उन्होंने दिवाकर से कहा था कि पहाड़ों पर ही जाना है तो बद्रीनाथ, केदारनाथ हो आओ. लेकिन दिवाकर के गरम खून ने यह कहा कि ‘हम हनीमून के लिए जा रहे हैं, धार्मिक यात्रा पर नहीं.’ तब बाबूजी ने हथियार डालते हुए मां को इस बात के लिए डांट भी लगाई थी कि उन के लाड़प्यार ने ही बच्चों को बिगाड़ा है.

इतने लंबे वैवाहिक जीवन में मंजरी ने दिवाकर को जितना जाना, उस के आधार पर ही उन्होंने दिवाकर को अकेला रहने दिया. जब काफी समय दिवाकर ने अतीत में विचरण कर लिया तब, दिवाकर जहां खड़े थे, उन के सामने वाली एक ऊंची चट्टान के पास खड़े हो कर, मंजरी ने जोर से आवाज लगाई, ‘‘क्यों जी, कैसी लग रही हूं मैं यहां?’’ इस पर दिवाकर ने वर्तमान में लौटते हुए कहा, ‘‘अरे रे, उस पर क्यों चढ़ रही हो, तुम से न हो सकेगा अब यह सब.’’

‘‘ओके बाबा, अब मैं भी कौनसी चढ़ी ही जा रही हूं इस पर. लेकिन इस के साथ फोटो तो खिंचवा सकती हूं न,’’ मंजरी ने फोटो के लिए पोज देते हुए कहा. दिवाकर ने भी कहां देर की, अपने कैमरे से फटाफट कई फोटो खींच लिए. दोनों को याद आया कि पिछली बार रोल वाले कैमरे से कैसे वे एकएक फोटो गिनगिन कर खींचते थे. और यह भी कि कैसे दोनों में प्रतियोगिता होती थी कि कौन ऐसी ही चट्टानों और कठिन चढ़ाइयों पर पहले पहुंचता है. मंजरी की शारीरिक क्षमता काफी अच्छी थी क्योंकि वह अपनी शिक्षा के दौरान ऐथलीट रही थी. मगर फिर भी दिवाकर कभी जानबूझ कर हार जाते तो मंजरी का चेहरा जीत की प्रसन्नता से और भी खिल जाता था. इस पर दिवाकर उस की सुंदरता पर कुरबान हो जाते. सो, हनीमून और भी गरमजोशी से भर उठता.

गंगटोक से नाथूला जाते और आते समय सारे रास्ते जंगलों को देख कर दिवाकर को बड़ा दुख हुआ. क्योंकि अब जंगल उतना सघन नहीं रहा. पेड़ों की निर्मम कटाई ने हिमालय की हसीन पर्वतशृंखलाओं का जैसे चीरहरण कर लिया हो. जब यह बात उन्होंने मंजरी से शेयर की तो मंजरी ने विकास को जरूरी बताया. उन का यह भी कहना था कि लोग बढ़ेंगे तो पानी, बिजली, आवास, सड़कें सभी चाहिए. इन के लिए पेड़ तो काटने ही पड़ेंगे.

दिवाकर ने उन को संतुलित विकास की अवधारणा बताई कि विकास जितना जरूरी है उतने ही वन प्रदेश भी आवश्यक हैं. इस में जब आदमी की लालची प्रवृत्ति घर कर जाती है तभी सारी गड़बड़ होती है. केदारनाथ और कश्मीर में आई विनाशकारी बाढ़ ने भी शायद आदमी के लिए सबक का काम नहीं किया है.

‘‘मैं आप से शैक्षिक बातचीत में नहीं जीत सकती. यह मुझे भी पता है और आप भी जानते हैं,’’ मंजरी ने दिवाकर से कहा और उन की तरफ पानी की बोतल बढ़ा दी. दिवाकर ने पानी पिया. मंजरी को ऐसा लगा कि उन का सारा आक्रोश जैसे उन्होंने ठंडा कर दिया हो. इस पूरी चर्चा का आनंद ड्राइवर ने भी खूब उठाया. होटल पहुंचे तब तक दोनों थक कर चूर हो चुके थे. कुछ खाया न पीया और जो बिस्तर पर पड़े तो दिवाकर की नींद सुबह तब खुली जब मंजरी ने चाय तैयार कर के उन को जगाया.

‘‘ऐसे मनाने आए हैं शादी की सालगिरह इतनी दूर,’’ मंजरी ने अर्थपूर्ण तरीके से कहा तो दिवाकर ने बहुत थके होने का स्पष्टीकरण दिया. मंजरी भी मन ही मन इस बात को मान रही थी लेकिन प्रकट रूप में उन से असहमत बनी हुई थी. फिर आगे बोली, ‘‘चलिए, जल्दी से चाय खत्म कर के तैयार हो जाइए. अभी तो हमें खाचोट पलरी झील के साथसाथ रूमटेक, नामग्याल और टीशिलिंग मौंटेसरी भी चलना है.’’

‘‘अरे यार, आज तो बिलकुल भी हिम्मत नहीं हो रही,’’ दिवाकर ने कहा. फिर करवट बदल कर सोने लगे. इस पर जब मंजरी ने बनावटी गुस्से से उन का कंबल खींच कर उन को उठाने की कोशिश की तो उन्होंने उसे भी अपने साथ कंबल में लपेट लिया. फिर वे कहीं नहीं गए.

लंबे आराम के बाद नींद खुली तो बादल बिलकुल खिड़की पर आ कर दस्तक सी दे रहे थे. दोनों बालकनी में बैठ कर गरमागरम चायपकौड़ों के साथ ठंडे मौसम का आनंद लेने लगे. तब तक भी दिवाकर की थकान पूरी तरह उतरी नहीं थी. बल्कि उन को हरारत हो आई. मंजरी उन को ले कर परेशान हो उठी. साथ लाई दवा वह दे ही रही थी कि कौलबैल बजी. दरवाजा खोला तो होटल का मालिक खड़ा था. उस ने नमस्कार किया. मंजरी ने उसे प्रश्नवाचक नजरों से देखा तो वह बोला, ‘‘क्या मैं अंदर आ सकता हूं?’’

‘‘हां, हां, जरूर,’’ यह दिवाकर की आवाज थी. वे बिस्तर पर ही उठ बैठे थे. जब उन्होंने सेठ के आने का कारण पूछा तो वह बोला, ‘‘आप हमारे खास मेहमान हैं. मैं ने जब घर पर आप के बारे में बताया तो पत्नीबच्चे सब आप से मिलना चाहते हैं. आज का डिनर आप हमारे साथ करेंगे तो अच्छा लगेगा. हमारे यहां का मोमोज खाएंगे तो हमेशा याद रखेंगे. जब मंजरी ने दिवाकर के स्वास्थ्य के बारे में बताया तो उस ने डाक्टर की व्यवस्था की. और दिवाकर के आग्रह पर डिनर में केवल दूधदलिया का ही इंतजाम करवाया.’’

सेठ को हलका सा याद आया कि पिछली बार जब ये लोग आए थे तो होटल में कोल्डडिं्रक खत्म हो जाने पर इन्हीं दिवाकर ने काफी हंगामा मचाया था. सेठ ने बातचीत के दौरान जब इस बात का जिक्र किया तो दिवाकर ने माना कि सच में ऐसा ही हुआ था. उन्होंने यह भी कहा कि जब आदमी जवान होता है और नईनई बीवी साथ होती है तब अकसर ही ऐसी बेवकूफियां कर बैठता है.

‘‘सब वक्त, वक्त की बात है. अब यह गरम पानी ही दुनियाभर में सारे कोल्डडिं्रक का और दूधदलिया ही सारे भोजन का मजा देते हैं,’’ दिवाकर ने गरम पानी पीते हुए कहा. तो सभी लोग जोर से हंस पड़े. होटल आ कर मंजरी ने अगली सुबह ही वापस लौट जाने को कहा तो दिवाकर ने यह कह कर मना कर दिया कि अभी बहुत घूमना बाकी है और वे जल्दी ही ठीक हो जाएंगे.

अगले दिन सुबह वे खेचेओपलरी झील गए. यह गंगटोक से लगभग 150 किलोमीटर पश्चिम में है और पेलिंग शहर के नजदीक. यहां कंचनजंगा, जो कि दुनिया की तीसरी सर्वोच्च चोटी है, इतनी करीब दिखाई देती है मानो पूरे क्षेत्र को वह अपना आशीष सिर पर हाथ रख कर दे रही हो. गंगटोक से ले कर झील तक के रास्ते में उन को अनेक तरह के लोग कई प्रकार की वेशभूषा में दिखाई दिए. जब गाइड ने बताया कि इस झील को स्थानीय भाषा में ‘शो जो शो’ कहते हैं जिस का अर्थ होता है ‘ओ लेडी सिट हियर’ इस पर वे दोनों खूब हंसे और मंजरी ने जगहजगह बैठ कर खूब फोटो खिंचवाए. हर फोटो पर दिवाकर कहते, ‘ओ लेडी सिट हियर.’

फिर अगले कुछ दिन और रुक कर वे दूसरी कई झीलों, रूमटेक, नामग्याल और टीशिलिंग जैसे प्राचीन बौद्ध मठों और गंगटोक शहर में कई स्थानों पर घूमे व अपनी इस यात्रा को भी जीवंत बनाते रहे.

आज वे वापस लौट रहे हैं. इस पूरे विहार ने उन के जीवन में उत्साह, उमंग, आनंद और अनेक आशाओं का संचरण कर दिया. दिवाकर ने मंजरी से कहा, ‘‘अंगूर जब सूख जाता है तब भी उस में मिठास कम नहीं होती, बल्कि स्थायी हो जाती है. अंगूर का रसभरा जीवन कुछ ही दिनों का होता है, लेकिन किशमिश हमेशा के लिए होती है और अधिक गुणकारी भी. आदमी का जीवन भी ऐसा ही होता है. समझ रही हो ना, क्या कह रहा हूं मैं?’’ दिवाकर ने मंजरी से पूछा.

‘‘जी,’’ मंजरी ने भी उसी उत्साह से कहा और उन के कंधे पर सिर रख दिया. दिवाकर उस के बालों को सहलाने लगे और दोनों किशमिश सी मिठास महसूस करने लगे.

Famous Hindi Stories : आस्था का व्यापार

Famous Hindi Stories :  रमेश बाबू ने दफ्तर में घुसते ही सब को ताजा खबर यों सुनाई, ‘‘नरेंद्र को उस के बीवी-बच्चों ने घर से निकाल दिया.’’

‘‘3 दिन से दफ्तर भी नहीं आया,’’ राजेश ने बात आगे बढ़ाई.

‘‘यह तो होना ही  था. गलत काम का परिणाम भी गलत ही होता है,’’ सुनील ने अपना ज्ञान प्रदर्शित किया.

‘‘आजकल नरेंद्र कहां रह रहा है?’’ सब ने एक स्वर में जिज्ञासा प्रकट की.

‘‘रहेगा कहां? सुनने में आया है कि वह आजकल एक ब्राह्मणी के चक्कर में था. उसी के यहां रह रहा है.  त्रिपाठी का पड़ोसी बता रहा था कि उसी विधवा ब्राह्मणी के कारण घर में झगड़ा हुआ.’’

‘‘यार, नरेंद्र ने तो हद ही कर दी, घर में जवान बेटेबहू होते हुए यह सब क्या अच्छा लगता है?’’ जितने मुंह उतनी बातें.

मैं अपनी फाइलों में सिर गड़ाए सब की बातें सुन रहा था. मुझे उन की बातों से जरा भी आश्चर्य नहीं हुआ. मैं तो बहुत पहले से उस की करतूतों से परिचित था. शर्मा, ये लोग तो दफ्तर में बहुत बाद में आए. मैं ने और नरेंद्र ने बहुत लंबा समय साथसाथ बिताया है.

उन सब की बातें सुन कर मैं अतीत में खो गया.

तब मैं दफ्तर में नयानया आया था. कम उम्र, अनुभव शून्य. मैं बड़ा घबराया सा रहता था. काम में गलतियां होना आम बात थी. उस समय दफ्तर में 4-5 लोग ही थे. 3 बाबू, 1 बड़े बाबू तथा 1 चपरासी. तब नरेंद्र ने मुझे काम करना सिखाया. मुझ में आत्मविश्वास जगाया. तभी से मैं उन का सम्मान करने लगा.

कई बार वे मुझे अपने घर भी ले गए. बहुत ही साधारण रहनसहन था उन का. बिलकुल एक दफ्तर के बाबू की तरह. पूरे महीने काम करने पर जो तनख्वाह मिलती थी, वह सैकड़े में ही होती थी. आजकल की तरह उस समय वेतन हजारों में कहां मिलता था? खींचतान कर महीना पूरा होता था. उस समय दफ्तरों के बाबुओं की स्थिति बड़ी दयनीय थी. नरेंद्रजी का बड़ा परिवार था. सब बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाना तो दूर रोजमर्रा की जरूरतें पूरी करना भी कठिन था. उन के 2 लड़के 10वीं पास कर के दुकानों में नौकरी करने लगे थे. जवान लड़की दहेज के अभाव के कारण घर में कुंआरी बैठी थी. उन्हीं दिनों नरेंद्रजी के रहनसहन में एक बदलाव दिखा. वे पैंटशर्ट के स्थान पर धोतीकुरता पहन कर दफ्तर आने लगे. माथे पर बड़ा सा चंदन का टीका लगाए रखते. पूछने पर कहने लगे, ‘हमारे घर के पास ही एक पुजारीजी का?घर है. वे वृद्ध हैं, अत: सुबह उठ कर उन की मदद कर देता हूं तो वे मुझे प्रेम से यह टीका लगा देते हैं. इस में मेरा भी लाभ है, उन का भी लाभ है.’ इतना बता कर वे मुसकराने लगे.

इस के बाद से ही धीरेधीरे उन के विषय में कई समाचार छनछन कर दफ्तर में आने लगे. वे अधिकतर अवकाश पर रहने लगे. कोई आ कर बताता कि नरेंद्रजी पुजारी के घर के मालिक बन गए हैं. कभी सुनने में आता कि बूढ़ा पुजारी लापता हो गया है. जितने मुंह उतनी बातें.

कई दिन बाद नरेंद्रजी दफ्तर आए. बड़े थकेथके से लग रहे थे. पूछने पर कहने लगे, ‘पुजारीजी बीमार हो गए. उन्हीं की सेवाटहल में लगा हुआ था. पिछले सप्ताह उन की मृत्यु हो गई. मृत्यु से पूर्व उन्होंने मंदिर की सारी जिम्मेदारी मेरे कंधों पर डाल दी.

‘अब तो जैसे भी होगा मुझे ही यह कार्य संभालना है. इसी कारण दफ्तर नहीं आ पाया. कुछ भी समझ में नहीं आ पा रहा है कि दफ्तर एवं मंदिर दोनों का काम कैसे संभाल पाऊंगा.’

‘सब संभल जाएगा आप परेशान न हो,’ मैं ने उन्हें सांत्वना दी. ऐसे ही कई माह बीत गए. एक दिन सुनील ने आ कर बताया, ‘यार, यह नरेंद्र बड़ा चमत्कारी निकला. मंदिर में तो रौनक लगी ही रहती है. मंदिर के आसपास ‘मंगल बाजार’ लगने लगा है. बाजार का सारा नियंत्रण नरेंद्र के हाथ में है. वे दुकानदारों से कमीशन वसूलते हैं. पैसा बरस रहा है.’

कोई समाचार लाता, ‘अरे, पुजारी अपनी मौत थोड़े ही मरा है. उसे तो नरेंद्र ने कागजों पर अंगूठा लगवा कर मार डाला.’

क्या सच है, क्या झूठ, कुछ समझ में नहीं आ रहा था. जितने मुंह उतनी बातें.

एक दिन रास्ते से पकड़ कर नरेंद्रजी मुझे मंदिर ले गए और पूरा मंदिर दिखाया. मंदिर परिसर में पुजारी का आवास देख कर मैं चकित रह गया. पांचसितारा होटलों वाली सभी सुविधाएं वहां मौजूद थीं. वहां का वैभव देख कर मुझे जरा भी संशय नहीं रहा कि दफ्तर के लोग झूठी अफवाएं फैला रहे हैं. ‘करोड़ों की संपत्ति क्या कभी सही रास्ते से प्राप्त होती है?’ मैं भी सोचने लगा.

सोने की मोटी चेन, सिल्क का कुरतापाजामा, पशमीना शाल और माथे पर लाल चंदन का तिलक. इसी वेशभूषा में अब नरेंद्रजी नजर आते थे. पत्नी भी सोने के भारीभारी गहने पहन कर सुबहशाम 108 दीपकों की आरती करती. साथ में प्रसाद का थाल लिए बच्चे, भक्तों की भीड़ को संभाल रहे होते. हनुमान की असीम कृपा चढ़ावे के रूप में नरेंद्रजी के आंगन में बरस रही थी.

उन के दोनों बेटों की पत्नियां संपन्न परिवारों से आई थीं. 8वीं पास पुत्री का विवाह बनारस के संपन्न कर्मकांडी ब्राह्मण के इंजीनियर लड़के से हो गया था. बड़ा सुखमय जीवन व्यतीत कर रहा था उन का परिवार.

एक दिन दफ्तर आ कर नरेंद्रजी कहने लगे, अंगरेजी में एक विज्ञापन का मसौदा बना दो. जैसा प्राय: दक्षिण भारत के मंदिरों का इधर के अखबारों में छपता है : भगवान के चरणों में दक्षिणा भेजिए, दुखों से मुक्ति पाइए. बदले में मनीआर्डर प्राप्त होने पर कष्टों से मुक्ति के लिए भगवान के श्रीचरणों का प्रसाद एवं भभूति पार्सल द्वारा भेजी जाएगी. इस प्रकार का विज्ञापन लिखने को उन्होंने मुझ से कहा. मैं ने उन के निर्देशानुसार विज्ञापन का प्रारूप तैयार कर के उन्हें दे दिया.

जल्द ही उन का विज्ञापन दक्षिण भारत के अखबारों में छपने लगा. परिणामस्वरूप 100, 200 एवं 500 रुपए के मनीआर्डर प्राप्त होने लगे. आशीर्वाद स्वरूप नरेंद्रजी बजरंगबली का लाल चोला, सिंदूर, भक्तों को प्रसाद भिजवाने लगे. पूरी रात बैठ कर परिवार के लोग प्रसाद के पैकेट बनाते. हजारों की संख्या में मनीआर्डर आ रहे थे, उसी अनुपात में प्रसाद भेजा जा रहा था. जैसी दक्षिणा वैसा प्रसाद.

वे प्राय: मुझ से कहते कि इनसान को धोखा देना कितना सरल है. दुनिया में दुखी इनसान भरे पड़े हैं. हर दुखी व्यक्ति बस, एक बार मेरे झांसे में आ जाए, इस से ज्यादा की आवश्यकता नहीं है मुझे.

कई वर्ष तक उन का यह धंधा निर्बाध चलता रहा. आखिर में उन्होंने जब मनीआर्डर के बदले प्रसाद भेजना बंद कर दिया तब यह सिलसिला स्वत: ही बंद हो गया. उस समय तक वे अंधभक्तों को काफी लूट चुके थे.

नरेंद्रजी की बातें कभीकभी मुझे वितृष्णा से भर देतीं. मैं सोचता, ‘धर्म की आड़ में यह कैसा खेल खेला जा रहा है? आस्था के नाम पर लूटखसोट का व्यापार सदियों से चला आ रहा है. पाखंडी पंडेपुजारी बड़ी सफाई से इस खेल को खेल रहे हैं. दुखों में डूबा इनसान शांति पाने के लिए अपना सब कुछ लुटाने को तैयार रहता है. इसी का फायदा नरेंद्रजी जैसे अवसरवादी ब्राह्मण उठा रहे हैं.

नरेंद्रजी का रिटायरमैंट करीब आ रहा था. वे आजकल बहुत कम दफ्तर आते. उन्होंने अपने और भी काम फैला लिए थे. जैसे उन्होंने ब्राह्मणों की एक टीम बना ली थी जो घरघर जा कर पाठहवन आदि करवाते थे. तेरहवीं एवं बरसी पर जो दक्षिणा मिलती थी उस का बड़ा हिस्सा कमीशन के रूप में त्रिपाठीजी को मिलता था.

एक दिन दफ्तर में आ कर उन्होंने बताया कि उन्होंने जन्मपत्री बनाने का काम भी शुरू कर दिया है. कोई बनवाना चाहे तो बताना.

‘आप न तो संस्कृत जानते हैं न ज्योतिषशास्त्र, तब आप जन्मपत्री कैसे बना लेते हैं?’ मैं ने उत्सुकता से पूछा.

‘मैं एक ज्योतिषी से कमीशन पर जन्मपत्रियां बनवाता हूं. एक जन्मपत्री का 100 रुपए मुझे मिलता है. 25 रुपए पंडित को दे देता हूं. 4-5 जन्मपत्रियां हर रोज बनने के लिए आ जाती हैं. पूजापाठ के अन्य काम भी मंदिर के द्वारा ही आते हैं जो मैं अन्य ब्राह्मणों में बांट देता हूं. मेरा भी फायदा, उन का भी फायदा. है न फायदा ही फायदा,’ वे मुसकराने लगे.

उन की बातों से मैं स्तब्ध रह गया. इधर दफ्तर के लोग उन के निर्वासन को ले कर चर्चा करने में व्यस्त थे. मैं वर्तमान में लौट आया.

‘‘जिस विधवा ब्राह्मणी के कारण नरेंद्रजी घर से निकाले गए उस किस्से का ज्ञान मुझे बहुत पहले से था. वह विधवा और कोई नहीं, उन के परम मित्र की पत्नी है. यह बात भी नरेंद्रजी ने बहुत पहले मुझे बताई थी.

रघुवर दयाल मिश्र नाम था उन का. वे बहुत ही संपन्न परिवार से थे. संतानहीनता का दुख उन्हें चैन से न बैठने देता था. संतान के लिए क्या कुछ नहीं किया उन्होंने. पूजापाठ, तीर्थ, दानव्रत सभी कुछ कर चुके थे. संतान नहीं होनी थी, सो नहीं हुई. इसी दुख के कारण उन्होंने चारपाई पकड़ ली. बीमारी शारीरिक से अधिक मानसिक थी. कोई भी दवा कारगर नहीं हुई. रोग असाध्य हो गया जो उन की जान ले कर गया. उस समय नरेंद्रजी को मित्र की विधवा से बहुत सहानुभूति हुई. उन्हें सांत्वना देने वे प्राय: उन के घर जाते. सांत्वना कब आकर्षण में बदल गई, यह दोनों को ही बहुत बाद में पता चला.

दोस्त की पत्नी उन पर इतना विश्वास करने लगी कि उस ने अपना आलीशान मकान एवं जमाजमाया व्यवसाय नरेंद्रजी के नाम कर दिया. लोगों का क्या है वे तो यह भी कहने से नहीं चूके कि प्यार की आड़ में नरेंद्र ने विधवा को लूट लिया.

लोगों की बात गलत भी नहीं थी क्योंकि आजकल वे ज्यादातर उसी के घर पर रहते थे. पत्नी एवं बच्चों को उन का आचरण नागवार लगता था. आएदिन घर में कलह होती थी. उसी कलह का परिणाम था कि नरेंद्रजी को घर से निकाला गया. दरअसल, कोई भी स्त्री पति के सौ अपराध माफ कर सकती है पर अपने प्रति की गई उस की बेवफाई नहीं सह सकती.

‘अब क्या होगा नरेंद्र का?’ यह प्रश्न दफ्तर में सभी की जबान पर था. मैं चूंकि उन के काफी करीब था इसलिए इस का आभास मुझे पहले से ही था. परिणति तो अब जा कर हुई है.

Hindi Kahaniyan : ओढ़ी हुई दीवार

Hindi Kahaniyan : नजर बारबार उस फोटो फ्रेम से जा कर उलझ जाती है जिस के आधे हिस्से में कभी एक सुंदर सी तसवीर दिखाई देती थी, मगर अब वह जगह खाली पड़ी है. उस ने कई बार चाहा कि वह उस फोटो फ्रेम में कोई दूसरी तसवीर लगा कर वह रिक्तता दूर कर दे. मगर चाह कर भी वह कभी ऐसा नहीं कर सकी, क्योंकि वह जानती थी कि ऐसा करने से वह खालीपन दूर होने वाला नहीं. वह खालीपन उस नई तसवीर के पीछे से भी झांकेगा, कहकहे लगाएगा और कहेगा, ‘तुम कायर हो, तुम में इतनी हिम्मत नहीं कि इस खालीपन को दूर कर सको.’

आज भी स्टील का वह फोटो फ्रेम ममता की मेज पर उसी तरह पड़ा है. उस में एक तरफ ममता की फोटो लगी हुई है कुछ लजाते हुए, कुछ मुसकराते हुए, आंखें बिछाए जैसे किसी की प्रतीक्षा कर रही हो. और आज भी वह वैसे ही प्रतीक्षा में आंखें बिछाए बैठी है, ठीक उस फोटो फ्रेम वाली तसवीर की तरह. अभी 3, साढ़े 3 साल ही तो बीते हैं, जब फोटो फ्रेम के उस खाली हिस्से में प्रभात की भी तसवीर दिखाई देती थी. आज तो यह नाम भी जैसे अंदर तक चीर जाता है. यही नाम तो है जो इतने सालों से उसे सालता रहता है. एकाएक कार के हौर्न से उस का ध्यान टूट गया. यह हौर्न बगल वाले कमरे की चंचल और शोख किम्मी के लिए था. इसी तरह होस्टल की हर लड़की का कोई न कोई चाहने वाला था.

कभीकभी ममता को भी लगता, काश, इन में से एक हौर्न उस के लिए भी होता. उसे इस होस्टल में रहते हुए पूरे 2 साल होने को आए थे. आज से 2 साल पहले जब वह इस नए शहर के एक स्कूल में अध्यापिका हो कर आई थी तो उस की अकेली रहने की समस्या इस होस्टल ने पूरी कर दी थी, जहां उस के समान कितनी ही लड़कियां, शायद लड़कियां नहीं, औरतें, रहा करती थीं. यहां किसी का भी भूतकाल पूछने की पद्धति नहीं थी. सभी वर्तमान में जीती थीं. वह भी किसी तरह अपने दिन गुजार रही थी. खैर, दिन तो किसी तरह गुजर जाते थे, मगर रातें, न जाने कहां से ढेर सारा सूनापन किसी भयानक स्वप्न की तरह आ घेरता. ऐसे क्षणों में उसे किसी ऐसे साथी की आवश्यकता महसूस होने लगती जो उस के दिनभर के सुखदुख को बांट सके. ऐसे नाजुक क्षणों में उसे महसूस होता कि नारी सचमुच पुरुष के बिना कितनी अधूरी है. उसे किसी साथी की आवश्यकता है क्योंकि यह उस के मन की, उस के शरीर की आवश्यकता है. सब आवश्यकताओं की पूर्ति तो वह कर सकती है, मगर यह आवश्यकता? और तब उसे प्रभात की आवश्यकता महसूस होने लगती.

उसे लगता जैसे अभी दरवाजे को लात से ठेलता हुआ प्रभात उस कमरे में आ जाएगा और बड़े प्यार से कहेगा, ‘अरे, मुन्मु, तू यहां बैठी है. चल, उठ, देख मैं ने तेरे लिए अपने दोस्त से कह कर लोनावला की चिक्की मंगाई है. चल, अब बहुत हो चुका रूठना, अच्छे बच्चे ज्यादा जिद नहीं किया करते.’ और इतने अवसाद के क्षणों में भी उस के मुंह में चिक्की का स्वाद उभर आता. वह तो ससुराल में भी सारी लाज छोड़ कर घर के सामने से गुजरते हुए चिक्की वाले को रोक लेती थी. कभीकभी उसे लगता जैसे प्रभात उसी के पलंग पर बाजू में लेटा है और उस का हाथ अपने हाथों में ले कर अपने नाखूनों से उस के पौलिश लगे बड़ेबड़े नाखून रगड़ रहा है. यह उस की हमेशा की आदत थी. कभीकभी तो वह नाखून पकड़ कर तोड़ने की कोशिश करने लगता और वह दर्द से चीख उठती. इस पर भी वह हाथ न छोड़ता और अधिक चीखने पर कहता, ‘तुम्हारे पिताजी ने ये हाथ अब मुझे सौंप दिए हैं. अब ये मेरी चीज हैं, मैं जो चाहूं करूं.’

इस पर वह झूठमूठ रूठते हुए हाथों से उस के सीने को पीटने लगती, अंत में सीने से चिपट जाती. अब ये बातें सोचतेसोचते उस की आंखें भर आतीं और उस की उंगलियों में एक कसक उठने लगती है. उस का गला रुंध जाता और मन करता कि वह किसी के सीने से लग कर बहुतबहुत रोए. मगर इस समय उसे सीने से लगाने के लिए केवल तकिया ही मिलता और सचमुच उस का तकिया आंसुओं से भीग जाता. से अभी तक याद है, यह तसवीर फोटो फ्रेम में प्रभात ने स्वयं ही लगाई थी. शादी के कुछ ही दिनों बाद दोनों ने अलगअलग तसवीरें खिंचवाई थीं. न जाने क्यों वह उस के साथ तसवीर उतरवाने को तैयार नहीं हुआ था. वह भी नईनवेली होने के कारण ज्यादा कुछ बोल नहीं पाई थी. यह तो खुद फोटोग्राफर ने ही कहा था कि साहब, तसवीर तो इकट्ठी ही अच्छी लगती है. मगर न जाने क्यों उस ने साफ इनकार कर दिया था. वह उस के इनकार का कारण नहीं समझ सकी थी, न ही उसे कुछ पूछने की हिम्मत ही हुई थी.

मगर यह फोटो फ्रेम वह स्वयं ही खरीद कर लाया था और अपने ही हाथों से वे दोनों तसवीरें लगा कर मेज पर रखते हुए बोला था, ‘लो, अब तो हो गए न दोनों साथसाथ. अरे, लोगों को यह दिखाने की क्या आवश्यकता है कि हम में कितना प्रेम है? प्रेम भी भला कोई बताने की चीज है?’ इस घटना से ममता को प्रभात रूखे स्वभाव का अरसिक व्यक्ति ही लगा था. पर उस ने सोचा था कि वह उस का वह रूखापन कुछ ही दिनों में अपने प्रेम द्वारा दूर कर देगी जो उस में संभवतया अकेलेपन के कारण आ गया हो. मगर ममता ने कभी यह नहीं सोचा था कि उस का यही रूखापन उस के लिए दुख का कारण भी बन सकता है. वह हर शाम उस का बेकरारी से इंतजार करते हुए अपने कमरे की खिड़की पर खड़ी रहती, जो सीधे सामने की सड़क पर खुलती थी. मगर प्रभात उस की ओर ध्यान दिए बिना ही मां को आवाज देता हुआ दवाई, फल आदि देने सीधे उन के कमरे में चला जाता. वहीं से वह रसोईघर में जा कर भाभी के पास बैठ कर चाय पीता और तब कहीं जा कर कपड़े बदलने के लिए अपने कमरे में आता.

ममता दिनभर सोचा करती थी कि आज वह उस से खूब बातें करेगी या फिर कहीं बाहर घूमने के लिए चलने की फरमाइश करेगी. मगर वह केवल दोचार बातें पूछ कर और कपड़े बदल कर दोस्तों की चौकड़ी में बैठने निकल जाता. एकदो बार उस ने हिम्मत कर के कहा भी, मगर वह हमेशा कोई न कोई बहाना बना कर टाल जाता. रात को भी वह देर से घर आता और खाना खा कर सो जाता. मगर जब कभी मौज में होता तो उसे रात दोदो बजे तक सोने ही न देता. कुल मिला कर वह उस के लिए एक उपेक्षित खिलौना बन कर रह गई थी, जिस से बच्चा कभी दिल बहला लिया करता है. अपने प्रति प्रभात की इस उपेक्षा का कारण ढूंढ़ने पर ममता इस परिणाम पर पहुंची कि यह सब उस के मांबाप और भाभी के कारण ही है, जिन के अत्यधिक लाड़प्यार में वह बचपन से डूबा रहा है और अभी तक उबर नहीं पाया है. उसे प्रभात को अपनी ओर आकृष्ट करने और उस का प्यार पाने का उपाय यही सूझा कि उसे उस के मांबाप से अलग कर दिया जाए.

दिमाग में इन विचारों के घर करते ही उस ने त्रियाचरित्र के सारे फार्मूले आजमाने शुरू कर दिए. कभी वह मां पर बिगड़ पड़ती तो कभी भाभी पर. और उस के इस तांडव ने घर में कलह मचा कर रख दी. मगर प्रभात पर इन सब बातों का विपरीत ही प्रभाव पड़ा. वह ममता से और अधिक दूर रहने लगा. आखिर हार कर उस ने स्त्रियों का आखिरी अस्त्र इस्तेमाल किया और तुनक कर अपने मायके जा बैठी. मायके से लौटने की उस ने यही शर्त रखी कि प्रभात को मांबाप से अलग घर ले कर रहना होगा, जिसे प्रभात ने कभी स्वीकार नहीं किया. इस से ममता को और ठेस लगी. फिर भी वह अपनी जिद पर अड़ी रही. उस की यही जिद उसे ले डूबी. यहां तक कि वकील के नोटिस का जवाब भी प्रभात ने नहीं दिया और मामला कोर्ट तक जा पहुंचा. वह अपने ही रचे गए चक्रव्यूह में खुद फंस गई. इधर इस मामले को ममता के भाइयों ने अपनी इज्जत का सवाल बना लिया और वे कचहरी की दीवारों से सिर मारने लगे. इस कांड ने उस के जीवन में इतना बड़ा परिवर्तन ला दिया जिस की उसे कल्पना भी नहीं थी. जिंदगी इतनी जटिल है, यह उस ने पहली ही बार जाना. किसी तरह उस के भाइयों ने उसे अध्यापिका की यह नौकरी दिला दी थी. मगर वह अपने घर से बाहर नहीं जाना चाहती थी. उसे अपने इस निष्कासन का अर्थ तभी मालूम हुआ जब उस के बड़े भाई ने उसे प्यार से समझाते हुए कहा था, ‘ममता, शादी के बाद बेटी के लिए पिता का घर पराया हो जाता है. तुम ने सुना ही होगा कि बेटी की डोली और अरथी में कोई फर्क नहीं होता.’

उस दिन के बाद उसे अपना वह घर, जिस में उस ने सारा बचपन बिताया था, पराया लगने लगा था. उसे अपने भाई के इन उपदेशों में अपने सिर का बोझ उतारने का भाव ही नजर आया था और इसीलिए उस ने यह नौकरी सहर्ष स्वीकार कर ली थी. परिवर्तन का दूसरा झटका उसे तब लगा था जब उसे आवेदनपत्र में अपना नाम लिखना पड़ा था. आखिर वह क्या लिखे : श्रीमती ममता अथवा कुमारी ममता? समाज के कानून बनाने वालों ने विवाहित अथवा अविवाहित और विधवा के लिए तो नियम बनाए थे, मगर इस बीच की स्थिति पर शायद किसी ने भी विचार नहीं किया था. पिछले 2 सालों से उस के कानों में कोर्ट में ऊंचे स्वर में पुकारा जाने वाला नाम ही गूंजता रहा था- ममता देवी विरुद्ध प्रभात कुमार. किसी ने भी उस के नाम के आगेपीछे कुछ नहीं लगाया. वहां तो सारा उपक्रम इन दोनों नामों को अलग करने के लिए ही किया जाता रहा. अखबार में छपने वाली तलाक की खबरें, जिन्हें पढ़ कर वह पहले कभी हंसा करती थी, अब खुद उसे एक बिगड़ती हुई जिंदगी का एहसास दिलाने लगीं. अब किसी भी दशा में वह उन पर हंस नहीं पाती थी. उसे अब महसूस होने लगा था कि अपनेआप को प्रगतिशील कहने वाली, नारी मुक्ति आंदोलन की बड़ीबड़ी बातें बघारने वाली नारियां भी किसी पुरुष की छाया पाने के लिए कितनी लालायित रहती हैं.

उस रोज बसस्टौप वाली घटना से तो उस का यह विश्वास और भी दृढ़ हो गया था. उस रोज वह सीताबड़ी मेन बसस्टौप पर शंकरनगर से आने वाली बस के लिए लाइन में खड़ी थी. बस आने में अभी देर थी और बसस्टौप पर भीड़ ज्यादा थी. वह लाइन में खड़ी बोरियत दूर करने के लिए अपने बैग में रखी पत्रिका के पन्ने पलटने लगी थी कि तभी एक मनचला युवक उसे धक्का देता हुआ आगे बढ़ गया. इस पर बिफरते हुए वह बोली थी, ‘आंखें नहीं हैं या तमीज नहीं है? बिना धक्का दिए चला ही नहीं जाता, शोहदा कहीं का.’ इस पर वह युवक भी उद्दंडता से बोल उठा था, ‘मेमसाहब, यह आप का घर नहीं है, बसस्टैंड है. यहां भीड़ होती ही है, और भीड़ में धक्के भी लगते ही हैं. यदि इतनी ही रईसी है तो टैक्सी में सफर किया कीजिए, बस आम जनता के लिए है, समझीं?’

उसे ऐसे उत्तर की अपेक्षा नहीं थी. इस बात पर आसपास खड़े कुछ युवक हंस पड़े थे. उसे कुछ जवाब देते नहीं बना तो वह लाइन से निकल कर बसस्टैंड छोड़ कर सड़क पर आ गई. उस अपमान को वह बड़ी मुश्किल से पी सकी थी. उस रोज उसे प्रभात की याद हो आई थी जब उस ने एक युवक को उस के पर्स में हाथ डालने के शक में भरी भीड़ में पीट दिया था. उस दिन उसे लगा कि एक अकेली स्त्री किसी पुरुष के बिना उस बेल की तरह है जो बिना सहारे के जमीन पर पड़ी लोगों के पैरों तले कुचल दी जाती है. बेल को यदि पैरों तले रौंदे जाने से बचाना है तो उसे कोई न कोई सहारा चाहिए ही, चाहे उसे गुलाब के कांटेदार पौधे का सहारा ही क्यों न मिले. फिर भले ही उस का बदन छिलता रहे, मगर वह कुचले जाने से तो बची रहेगी. साथ ही, कभीकभी ही सही, गुलाब की खुशबू भी तो मिलेगी.

इन्हीं विचारों की ऊहापोह में उस ने निश्चित कर लिया कि वह प्रभात के बिना नहीं रह सकती. इस तरह तिरस्कृत जिंदगी जीने से तो बेहतर वही जिंदगी थी. कम से कम सिर पर रक्षा का छत्र तो था. भले ही थोड़ी उपेक्षा सहनी पड़े और अब तो शायद थोड़ा अपमान भी, मगर कभीकभी प्यार भी तो मिलेगा. जगहजगह अपमानित हो कर भटकने से तो यही बेहतर है कि थोड़ी उपेक्षा सह ली जाए और उस ने प्रभात के आगे आत्मसमर्पण करने का निर्णय ले लिया. वह उसे पत्र लिखेगी कि वह आ रही है, वह उसे स्टेशन पर लेने आ जाए.

सुबह की व्यस्तता ने उस के पत्र लिखने के निर्णय को शाम पर टाल दिया. दिनभर वह अनमने भाव से ढीलेढीले हाथों से ब्लैकबोर्ड पर चाक चलाती रही. शाम को थक कर चूर हो जब वह होस्टल की सीढि़यां चढ़ रही थी तभी मोबाइल पर आया मैसेज देखा. भाई ने भेजा था, लिखा था :

‘‘प्रिय बहन,

‘‘बधाई हो, हम लोग कोर्ट में केस जीत गए हैं. अब तुम सदासदा के लिए प्रभात से मुक्त हो गई हो. अब तुम्हें कभी उस का अपमान सहने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी. तुम्हारा तलाक मंजूर हो गया है.’’ मोबाइल उस के कांपते हाथों से फिसल कर नीचे गिर गया. उस का सिर चकराने लगा और वह पलंग पर औंधी गिर पड़ी. उस के धक्के से पास ही मेज पर रखा फोटो फ्रेम गिर पड़ा और उस का शीशा चूरचूर हो गया और फोटो फ्रेम में एक ओर लगी उस की तसवीर बाहर निकल आई. वह फफकफफक कर रो पड़ी. उस का जीवन भी तो अब उस खाली फोट फ्रेम के समान ही रह गया था- रिक्त, केवल एक शून्य. वह अपनी ही ओढ़ी हुई दीवार के नीच दब कर रह गई थी.

अनिल कुमार ‘मनमौजी’

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