मां बनने के लिए पिता की जरूरत नहीं : निरुशा निखत

टीवी धारावाहिक ‘आम्रपाली’ से ड्रैस डिजाइनिंग का काम शुरू करने वाली कौस्ट्यूम डिजाइनर निरुशा निखत ने कई फिल्मों में भी ड्रैस डिजाइनिंग का काम किया है. वे अब तक करीब 40 टीवी धारावाहिकों और फिल्मों के लिए ड्रैस डिजाइन कर चुकी हैं. अपने 16 साल के कैरियर में निरुशा 54 अवार्ड जीत चुकी हैं. उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में निम्न मध्यवर्गीय मुसलिम परिवार में जन्मीं निरुशा ने इलाहाबाद से स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल की.

यहां तक पहुंचना निरुशा के लिए आसान नहीं था. काफी संघर्ष के बाद उन्होंने अपनी मंजिल हासिल की. वे सिंगल मदर हैं. बिना शादी किए 1 बेटे की मां बनी हैं. मां बनने का फैसला लेना उन के लिए आसान नहीं था, फिर भी यह साहसी कदम अपने बल पर उठाया. वे अपनी लाइफ को अपने तरीके से जीना पसंद करती हैं. अपने बेटे मनाल और काम के बीच तालमेल बनाए रखती हैं. वे कैसे यहां तक पहुंचीं, आइए जानें उन्हीं से:

आप की नजर में सफलता क्या है?

संतुष्टि का दूसरा नाम सफलता है. अगर आप अपने काम से संतुष्ट नहीं, तो आप सफल नहीं हैं, क्योंकि संतोष से ही आप को मानसम्मान, धन यानी सबकुछ मिलता है.

यहां तक पहुंचने में पिता का कितना सहयोग रहा?

सब से अधिक मातापिता ने ही सहयोग दिया. उन्हीं के सहयोग से मैं इलाहाबाद से मुंबई आई थी. सिंगल मदर बनने का निर्णय भी मातापिता के सहयोग से ही ले सकी थी. मेरे पिता ए.आर. खान डाक्टर थे, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं. उन्होंने खुद बचपन में बहुत संघर्ष किया था. उन की कहानियों को मैं हमेशा सुनती रहती थी. मेरी मां भी अनाथ थीं और पढ़ीलिखी भी नहीं थीं. उन को सिर्फ उर्दू भाषा आती थी. पिता की कोशिश से उन्होंने 10वीं की परीक्षा शादी के बाद पास की थी. पिता मेरे लिए रियल लाइफ हीरो थे. उन से मैं बहुत प्रेरित थी.

जीवन में कितना संघर्ष रहा?

जब मैं मुंबई आई थी तो मेरी मां ने अपनी सोने की अंगूठी बेच कर मुझे पैसे दिए थे. मैं बचपन से क्रिएटिव थी. बचपन से पेंटिंग का शौक था. मां की साडि़यों को काट कर कुशन कवर बनाती थी. 3 साल तक काफी संघर्ष रहा, जिसे शब्दों में बयां करना मुश्किल है. जब जो काम मिला करती गई. मेरे लिए यह अच्छा रहा कि जिस दिन मुंबई आई उस के अगले दिन ही मुझे काम मिल गया. उस समय मैं केवल 21 वर्ष की थी. मैं ने अपने फोटो हर जगह भेजे थे. लेकिन पाया कि ऐक्टर बनने का सपना ठीक नहीं, क्योंकि उस समय चैनल कम थे. फिर अधिकतर लोग रात को चर्चा करने के लिए बुलाते थे, जो मुझे पसंद नहीं था. इस के बाद सैल्स गर्ल का काम किया. सैट पर कपड़े ले कर जाती थी. इस से लोगों से परिचय बढ़ा और मैं डिजाइनर बन गई.

पिता की किस बात को अपने जीवन में उतारती हैं?

उन में किसी भी स्थिति में आगे बढ़ते रहने की भावना थी, जिसे मैं ने अपने जीवन में उतारा है. उन्होंने हर कठिन स्थिति में कभी हार नहीं मानी. वे गांव से स्कूल 50 किलोमीटर की दूरी साइकिल से तय कर जाते थे. उन का उद्देश्य बहुत साफ था. मुसलिम परिवार में होते हुए भी उन की सोच बहुत अलग थी. उन्होंने हमें सीख दी कि हम सभी भाईबहनों को किसी भी तरह अपनी पढ़ाई पूरी करनी है.

आप ने सिंगल मदर बनने का इतना बड़ा फैसला कैसे लिया?

2005 में मैं मुंबई में लिव इन रिलेशनशिप में थी. जब शादी करना चाही तो पता चला कि वह शादीशुदा है. जब तक यह समझ पाती कि अब क्या करूं, तब तक मैं प्रैगनैंट हो चुकी थी. रिश्ता टूट गया. सब ने गर्भपात करवाने की सलाह दी, लेकिन मैं ने सोचा कि यह मेरे प्रेम संबंध का नतीजा है, इस में बच्चे का क्या कसूर है? अत: मैं ने फैसला लिया कि मैं इसे जन्म दूंगी. मेरे इस फैसले को मेरे परिवार वालों ने सहयोग दिया. गर्भावस्था के दौरान मैं पूरा समय अकेली थी. बच्चे की डिलिवरी के वक्त मैं ने खुद अपने फार्म पर हस्ताक्षर किए थे. पैसे की भी तंगी थी. लेकिन सब धीरेधीरे ठीक हो गया. अब मेरा बेटा 11 साल का है. इस दौरान मुझे कभी नहीं लगा कि मां बनने के लिए पिता की जरूरत होती है.

मैंने बहुत कुछ गिव अप किया है : सुमन अग्रवाल

3 बेटियों की मां सुमन अग्रवाल न सिर्फ न्यूट्रिशन इंडस्ट्री की जानीमानी हस्ती हैं, बल्कि एक सफल व्यवसायी, लेखिका, गायिका के साथसाथ नृत्य कला में भी महारत हासिल कर चुकी हैं. वेट लौस, वेट मैंटेन, वेट गेन, डाइट फौर बूस्टिंग इम्यूनिटी, चिल्ड्रन न्यूट्रिशन जैसी सर्विसेज अपने जरीए लोगों तक पहुंचाने के लिए 2001 में उन्होंने मुंबई और कोलकाता में सैल्फ केयर सैंटर की शुरुआत की. स्वास्थ्य के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए उन्होंने 3 किताबें- ‘द डौंट डाइट डाइट कुकबुक’, ‘अनजंक्ड हैल्दी ईटिंग फौर वेट लौस’ व ‘सुपर किड हैल्दी ईटिंग फौर किड्स ऐंड टीन’ भी लिखीं. मां बनने के बाद कैरियर की शुरुआत और सफलता पाने वाली सुमन की जिंदगी को आइए और करीब से जानें:

आप ने बतौर न्यूट्रिशनिस्ट एवं फिटनैस ट्रेनर शुरुआत कैसे की और आप का सफर कैसा रहा?

बचपन से मेरी इस क्षेत्र में रुचि रही है. 12-13 साल की उम्र से मैं हैल्थ और बीमारियों से जुड़ी किताबें पढ़ती थी, लेकिन मेरी शादी 20 साल की उम्र में ही हो गई और फिर बच्चे हो गए, इसलिए इस ओर बढ़ने का मौका नहीं मिला. अपनी तीसरी बेटी को जन्म देने के बाद मैं ने 1 साल का फूड ऐंड न्यूट्रिशन डिप्लोमा किया. मुझे हमेशा लगता था कि कुछ खाने से अगर बीमारी हो सकती है, तो खाने के जरीए ठीक भी हो सकती है. मैं सही थी. कोर्स के दौरान मुझे इन्हीं बातों की जानकारी मिली. जब मेरी छोटी बेटी 3 साल की हो गई तब मैं ने औफिस जौइन किया. धीरेधीरे मेरे पास क्लाइंट आने लगे और मेरा व्यवसाय बढ़ता गया. आम लोगों के साथसाथ आज सैलिब्रिटीज और इंडस्ट्रिलिस्ट भी मेरे क्लाइंट हैं. मैं ने शुरुआत अपने पति के औफिस के एक छोटे से कैबिन से की थी, लेकिन आज मेरा सैंटर 5000 स्क्वेयर फुट में फैला है. पहले मेरे पास सिर्फ एक कर्मचारी था और अब 50 हैं.

पुरुषप्रधान समाज में अपने लिए स्थान बनाना कितना मुश्किल रहा?

मैं खुश हूं कि इन क्षेत्रों में पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की संख्या अधिक है, इसलिए मुझे बतौर प्रतिस्पर्धी बहुत कम पुरुषों का सामना करना पड़ा. हां, लेकिन शुरुआती दौर में मेरे साथ ऐसा बहुत होता था कि जब मेरे पुरुष दोस्त किसी पुरुष से मेरी तारीफ करते और उसे मेरे पास ट्रीटमैंट के लिए जाने को कहते तो वे यह कह कर टाल देते कि एक महिला पुरुष को कैसे ठीक कर सकती है. उन की यह प्रतिक्रिया मुझे थोड़ी देर के लिए निराश कर देती थी, पर मैं सारी चीजों को नजरअंदाज कर अपना पूरा ध्यान काम पर लगाती और आज परिणाम यह है कि मेरे पास जितनी महिला क्लाइंट हैं उतने ही पुरुष भी हैं.

आप के व्यक्तित्व को निखारने में आप के पिता की क्या भूमिका रही है?

सच कहूं तो मेरे अंदर न्यूट्रिशनिस्ट का बीज बोने वाले मेरे पिता ही थे. दरअसल, वे बहुत ज्यादा हैल्थ कौंशस थे. हमारा पूरा परिवार यानी 6 लोग, 4 भाईबहन और ममीपापा एकसाथ ब्रेकफास्ट करते थे, जो 1 घंटा चलता था. उस दौरान मेरे पापा इसी विषय पर बात करते कि क्या हैल्दी है और क्या नहीं. हमें क्या खाना चाहिए क्या नहीं. हालांकि वे इस क्षेत्र से नहीं थे, लेकिन उन की रुचि बहुत थी. वे स्वास्थ्य से जुड़ी ढेरों किताबें घर ले आते थे, जिन्हें मैं पढ़ती थी और इस तरह मेरी रुचि इस क्षेत्र में बढ़ती गई. मेरे पापा बहुत ही सपोर्टिव फादर रहे हैं. उन्होंने हम चारों भाईबहनों को फ्रीडम दे रखी थी. कभी हम पर बेमतलब की पाबंदी नहीं लगाई.

आज आप किस तरह के चैलेंजेस फेस कर रही हैं?

मेरे लिए घरपरिवार और बच्चों को संभालते हुए यहां तक पहुंचाना काफी मुश्किल रहा है. मैं ने काफी स्ट्रगल किया है. बहुत कुछ गिव अप किया है. मैं ने कभी टीवी नहीं देखा, कभी कोई किट्टी पार्टी जौइन नहीं की. मेरा फोकस मेरा परिवार और काम रहा है. 2004 में मैं ने ब्रेन सर्जरी भी करवाई थी. दरअसल, मेरे चेहरे के बाईं ओर के हिस्से पर मेरा कंट्रोल नहीं था. वह लगातार हिलता रहता था, जिस की वजह से मैं स्माइल भी नहीं कर पाती थी. नतीजतन मैं बहुत टौर्चर होती थी. डिप्रैशन भी मुझ पर हावी होने लगा था. लेकिन मैं ने हिम्मत नहीं हारी. अपनी रिपोर्ट्स देशविदेश भेजीं. आखिरकार जरमनी में जा कर सर्जरी करवाई जो कामयाब रही.

कुकिंग मेरी हौबी नहीं, पैशन है : कीर्ति भौतिका

‘मास्टर शैफ सीजन-5’ की विजेता रहीं कोलकाता की कीर्ति भौतिका ने कोलकाता के जीडी बिड़ला कालेज से न्यूट्रिशन में ग्रैजुएशन किया है. कोलकाता के साल्टलेक इलाके में कीर्ति एक बेकरी शौप चलाती हैं. कीर्ति इसे बेकरी के बजाय केकरी कहना ज्यादा पसंद करती हैं. उन का केकरी सुगरप्लम केकरी के नाम से जाना जाता है और पूरे साल्टलेक में एगलैस केक व पेस्ट्री के लिए बहुत लोकप्रिय है.

कीर्ति ने महज 18 साल की उम्र में शैफ का कैरियर अपनाया और बेकरी सुगरप्लम केकरी से इस की शुरुआत की. कालेज में ग्रैजुएशन की पढ़ाई के साथ कीर्ति ने बेकरी शौप को बखूबी मैनेज किया. पिछले कई सालों से कीर्ति का वर्क शैड्यूल बड़ा व्यस्त रहा है. टाइम मैनेजमैंट से ले कर बेकरी मैनेजमैंट तक का सारा काम वे बड़ी शिद्दत से पूरा करती हैं. यही वजह है कि दिन की शुरुआत सुबह 5 बजे से होती है.

कीर्ति ने अपनी फाइनल डिश से मास्टर शैफ के जजों- विकास खन्ना, कुणाल कपूर और जोराबर कालरा का दिल जीत लिया था. पेश हैं कीर्ति से बातचीत के कुछ अंश:

मास्टर शैफ की जर्नी कैसी रही? सब से ज्यादा गर्व कब महसूस हुआ?

बहुत अच्छी रही. हर चैलेंज के दौरान मैं ने कुछ न कुछ सीखा. इस शो की सब से बड़ी उपलब्धि मेरे लिए यह रही कि हर दिन मैं ने सीखा. इस के अलावा बहुत सारे लोगों से मिली, जो दुनिया के अलगअलग हिस्सों से आए थे. शो के दौरान दुनिया के अलगअलग हिस्सों में जाना हुआ. शो में भाग लेने वाले हम सब एक बड़े परिवार की तरह थे बिलकुल फैमिली की तरह. यह पहला मौका था जब मैं अपने परिवार से इतनी दूर गई और वह भी कई महीनों के लिए. सब से अच्छी बात यह रही कि मैं ने बहुत दोस्त बनाए.

रही बात गर्व महसूस करने की तो ऐसा मौका 2 बार आया. उस क्षण को मैं जीतेजी कभी नहीं भूल पाऊंगी, जब मास्टर शैफ में मुझे मेरे नाम का ऐप्रन मिला. इस के अलावा उस समय भी मुझे बहुत गर्व महसूस हुआ जब फाइनल ऐपिसोड में मेरे मम्मीपापा शो में मौजूद थे और शो का खिताब जीतते हुए उन्होंने मुझे देखा.

इस पूरी जर्नी में माथे पर शिकन लाने वाली कोई बात थी क्या?

नौनवैज को ले कर शुरुआत में थोड़ी परेशानी हुई थी. मजेदार बात यह है कि मास्टर शैफ का सीजन-4 वैज शो था. सब के इतना कहने के बाद भी मैं ने उस सीजन में भाग नहीं लिया था. सीजन-5 सामान्य था. जाहिर है इस में नौनवैज भी शामिल था. मास्टर शैफ में मुझे कई मौकों पर नौनवैज भी बनाना पड़ा. पहले तो मेरे पापा को यह बात गंवारा नहीं थी कि मैं नौनवैज बनाऊं. उन्होंने कहा कि घरपरिवार के लोग शो में तुम्हें नौनवैज बनाते देखेंगे तो बहुत बातें बनाएंगे. हमारे परिवार की बड़ी आलोचना होगी. लेकिन मैं ने पापा को किसी तरह इस के लिए मना लिया.

मास्टर शैफ में आप को जीत दिलाने वाली डिश कौन सी थी?

वह डिश थी एर्ल ग्रे टी ऐंड फिग टार्ट विद हनी सिट्रस क्रीम फिलिंग. इस डिश ने सभी जजों का दिल जीत लिया था.

मास्टर शैफ का खिताब जीतने के बाद लाइफ में कैसा और कितना बदलाव आया?

मास्टर शैफ का खिताब जीतने के बाद मेरे जीवन में बहुत बदलाव आया. पहले मैं होम कुक थी, पर अब मास्टर शैफ हूं. इस नाते मैं अपनी जिम्मेदारी बखूबी समझती हूं. मेरा मानना है कि सिर्फ स्वाद काफी नहीं है, फूड का हैल्दी होना भी जरूरी है, इसलिए मैं ज्यादा से ज्यादा अपनी बनाई डिशेज में हैल्दी सामग्री का इस्तेमाल करती हूं. मसलन, मैदे की जगह आटा, जिस में बहुत फाइबर होता है, का प्रयोग करती हूं. इसी तरह कम से कम चीनी का प्रयोग या फिर चीनी के बदले शहद का इस्तेमाल करती हूं.

आगे की क्या योजना है?

2 साल पहले मैं ने सुगरप्लम केकरी खोली थी. अब मैं एक फूड स्टूडियो पर काम करना चाहूंगी. इस स्टूडियो से मैं बेकिंग क्लास लूंगी. यहां मैं भी बहुत कुछ सीखूंगी. मास्टर शैफ के दौरान मैं ने पाया कि हर इनसान के पास सिखाने के लिए कुछ न कुछ जरूर होता है. स्टूडियो में जितने लोगों से मैं मिलूंगी, उन को सिखाने के साथसाथ मैं खुद भी सीखूंगी.

दीपा मलिक : समाज की नकारात्मक सोच को करारा जवाब

लाचार, बेचारी जैसे शब्दों का प्रयोग करने वाले समाज की इस सोच को अपनी हिम्मत और इच्छाशक्ति के बलबूते बदलने वाली देश की पहली महिला पैरालिंपिक मैडलिस्ट दीपा मलिक का जीवन चुनौतियों से भरा रहा. उन्होंने इतिहास तब रचा जब रियो में गोला फेंक स्पर्धा में रजत पदक जीत कर पैरालिंपिक में पदक हासिल करने वाली देश की पहली महिला खिलाड़ी बनीं. दीपा ने स्पाइन ट्यूमर से जंग जीती और फिर खेलों में मैडलों का अंबार लगा डाला. कमर से नीचे का हिस्सा लकवाग्रस्त होते हुए भी उन्होंने अपनी उम्र से ज्यादा स्वर्ण पदक जीत कर जज्बे और जोश की मिसाल कायम की.

दीपा शौटपुटर के अलावा स्विमर, बाइकर, जैवलिन व डिस्कस थ्रोअर हैं. पैरालिंपिक खेलों में उन की उल्लेखनीय उपलब्धियों के कारण उन्हें भारत सरकार ने अर्जुन पुरस्कार प्रदान किया था और इस वर्ष उन्हें पद्मश्री से भी नवाजा गया.

विपरीत हालात में खुद के साथ बेटियों को संभालने और देश का नाम रोशन करने की ताकत कहां से मिली?

मुझे कुछ करने की ताकत 3 चीजों से मिली. पहली मुझे समाज की उस नकारात्मक सोच को बदलना था जिस में मेरे लिए बेचारी और लाचार जैसे शब्दों का प्रयोग लोग करने लगे थे. इस अपंगता में जब मेरा दोष नहीं था तो मैं क्यों खुद को लाचार महसूस कराऊं? मुझे समाज को दिखाना था कि हम जैसे लोग भी बहुत कुछ कर सकते हैं. हिम्मत और जज्बे के आगे शारीरिक कमी कभी बाधा नहीं बनती. दूसरी ताकत मेरी बेटियां बनीं, जिन्हें मैं संभाल रही थी. मैं नहीं चाहती थी कि बड़ी हो कर मेरी बेटियां मुझे लाचार मां के रूप में देखें. तीसरी ताकत खेलों के प्रति मेरा शौक बना, जिस ने इस स्थिति से लड़ने में मेरी बहुत सहायता की.

पेरैंट्स का कैसा सहयोग रहा?

आज उन्हीं की बदौलत में यहां हूं. मैं जब ढाई साल की थी तब पहली बार मुझे ट्यूमर हुआ था. इस का पता भी पापा ने ही लगाया. जब मैं घर में गुमसुम रहने लगी तो पापा ने मुझे चाइल्ड मनोवैज्ञानिक को दिखाया. जब मेरी बीमारी का पता चला तब पुणे आर्मी कमांड हौस्पिटल में मेरा इलाज हुआ. मैं जब तक बैड पर रही, पापा हमेशा मेरे साथ रहे. मेरे पापा बीके नागपाल आर्मी में कर्नल थे. मां भी अपने जमाने की राइफल शूटर थीं. शादी के बाद जब 1999 में दूसरी बार मेरा स्पाइनल कोर्ड के ट्यूमर का औपरेशन हुआ तब भी मुझे पापा ने ही संभाला.

आप ने परिवार को कैसे संभाला?

मेरे पति भी आर्मी में थे. पहली बेटी देविका जब डेढ़ साल की थी तो उस का एक्सीडैंट हो गया. हैड इंजरी थी जिस से उस के शरीर का एक हिस्सा पैरालाइज हो गया. यह देख कर मैं बिलकुल नहीं घबराई. मैं ने खुद उस की देखभाल की, फिजियोथेरैपी की. आज वह बिलकुल स्वस्थ है और लंदन में साइकोलौजी से पीएचडी कर रही है. दूसरी बेटी भी पैरालाइज थी. उसे भी ठीक किया. आज वह भी पूरी दुनिया घूम चुकी है. मैं तो मानती हूं कि मैं ने बेटी पढ़ा भी ली और बचा भी ली. लेकिन तीसरी सर्जरी के बाद मैं व्हीलचेयर पर आ गई, लेकिन तब भी हिम्मत नहीं हारी.

खेलों की शुरुआत कैसे हुई?

बचपन से ही खेलों से लगाव था, लेकिन 2006 के बाद मैं ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. सरकार से अपने अधिकारों के लिए लड़ी. कुछ नए नियम भी बनवाए. मैं पहले महाराष्ट्र की तरफ से खेलती थी. 2006 में एक तैराक के रूप में मुझे पहला मैडल मिला. उस समय मैं पूरे भारत में अकेली दिव्यांग तैराक थी.

आप ने यमुना नदी भी पार की है?

जब बर्लिन से मैं लौटी तब घर नहीं गई और यह तय किया कि मैं यमुना को पार करूंगी और विश्व में सब को बताऊंगी कि मैं असल तैराक हूं. किसी स्विमिंग पूल की तैराक नहीं हूं. इलाहाबाद के एक कोच से कहा कि आप कैसे भी हो मुझे यमुना

पार कराओ. पहले तो उन्होंने मना किया पर फिर मेरे जज्बे को देख कर प्रैक्टिस कराने लगे. फिर 2009 में मैं ने यमुना नदी पार कर विश्व रिकौर्ड बनाया, जो लिम्का बुक औफ वर्ल्ड रिकौर्ड्स में दर्ज हुआ. मेरे पास ‘गिनीज वर्ल्ड रिकौर्ड्स’ बुक वालों को बुलाने के लिए पैसे नहीं थे वरना यह रिकौर्ड गिनीज बुक में दर्ज होता.

बॉलीवुड के पहले किस का नहीं टूटा रिकॉर्ड

एक दौर था जब बॉलीवुड फिल्मों में लिप किस को फिल्माना बड़ी बात मानी जाती थी, लेकिन बदलते समय के साथ बॉलीवुड ने भी अपने आपको बदला और आज बॉलीवुड फिल्मों में लिप किस आम बात हो गई है. आज के समय में बॉलीवुड का सबसे अच्छा किसर इमरान हाशमी को माना जाता है तो वहीं सलमान खान ने किसी भी फिल्म में लिप किस नहीं किया है.

हिन्दी फिल्मों की पहली बड़ी अभिनेत्री देविका रानी ने 1933 में पहली बार पर्दे पर किस करके हलचल मचा दी थी. देविका रानी ने यह किस अपने पति हिमांशु रॉय के साथ फिल्म “कर्मा” में किया था. उनके पति हिमांशु रॉय भी फिल्में बनाते थे. जर्मन फिल्मकार फ्रांत्स ओस्टेन के साथ मिल कर उन्होंने बहुत सी अंतरराष्ट्रीय फिल्मों का निर्माण किया.

करीब 82 साल पहले देविका रानी पर फिल्माए गए इस किसिंग सीन की टाइमिंग 4 मिनट थी, जो आज भी हिंदी सिनेमा में एक रिकॉर्ड है.

60  के दशक में बॉलीवुड फिल्मों में रोमांस का मतलब सिर्फ दो फूलों के मिलने वाला सीन हुआ करता था या फिर पुरुष ही महिलाओं का किरदार निभाया करते थे. वहीं आजाद ख्यालों वाली देविका रानी हिंदी फिल्मों की पहली हिट हीरोइन बनी. 9 मार्च 1994 को देविका रानी दुनिया को अलविदा कह गई. लेकिन देश की अन्य महिलाओं को एक्टिंग क्षेत्र में कदम रखने के लिए प्रेरणा दे गई.

आलिया की अजीबोगरीब आदत के बारे में जानते हैं आप!

बॉलीवुड एक्टर वरुण धवन ने आलिया भट्ट की आदत के बारे में मजेदार बातें बताई हैं. अभिनेता वरुण धवन का कहना है कि ‘बद्रीनाथ की दुल्हनिया’ में उनकी सह-कलाकार आलिया भट्ट को दुनियाभर से किस्म-किस्म की चायपत्तियां इकट्ठा करने का जुनून सवार है. ‘यार मेरा सुपरस्टार सीजन 2’ में फिल्म ‘बद्रीनाथ की दुल्हनिया’ के प्रमोशन के लिए पहुंचे वरुण ने आलिया की इस आदत के बारे में बताया.

शो की होस्ट ने पूछा कि आलिया को दुनियाभर से लिपस्टिक, जूते और बैग को छोड़कर क्या खरीदना पसंद है? इस पर वरुण ने कहा, ‘चाय’. उन्होंने कहा, ‘आलिया दुनियाभर से चाय इकट्ठा करती है. वह सिर्फ ग्रीन-टी ही नहीं, बल्कि हर तरह की चाय खरीदती है. उसे और उसकी बहन को व्हाइट-टी पसंद है. यहां तक कि मैंने एक बार तोहफे में उसे व्हाइट-टी ही दी थी.’

फिल्म की शूटिंग के दौरान की घटना को याद करते हुए वरुण ने कहा, ‘जब हम सिंगापुर में थे, तो उनकी बहन शाहीन भी वहां थीं. हम सभी कुछ लोगों के साथ बाहर गए, लेकिन सिर्फ वही दोनों नहीं गईं. उन्होंने कहा कि वह चाय खरीदेंगी. मैं सोच रहा था कि आखिर सिंगापुर से ये चाय क्यों लेना चाहती हैं? इसके बाद हम चाय की दुकान पर गए, जहां अलग अलग तरह की चायपत्तियां थीं. मैं वहां टी-बार देखकर एट्रैक्ट हुआ और वो काफी मजेदार था.

..तो क्या टीवी पर वापसी करेगा शक्तिमान

‘शक्तिमान’ के रूप में कभी बच्चों को हैरत व खुशी से भर देने वाले टीवी अभिनेता मुकेश खन्ना इस धारावाहिक को एक बार फिर छोटे पर्दे पर लाना चाहते हैं. अभिनेता कहा, “पिछले सप्ताह मैं दो स्कूलों के कार्यक्रमों में शामिल हुआ था, जहां मुझे बहुत प्यार मिला और बच्चे मेरे लिए जोर-जोर से ‘शक्तिमान’ चिल्ला रहे थे. इसलिए मुझे लगता है कि सुपरहीरो ‘शक्तिमान’ श्रृंखला की फिर से छोटे पर्दे पर वापसी होनी चाहिए. दूरदर्शन इसके लिए तैयार है, लेकिन मैं चाहता हूं कि इस श्रृंखला का प्रसारण सैटेलाइट चैनलों पर हो.”

चिल्ड्रन फिल्म सोसाइटी ऑफ इंडिया (सीएफएसआई) के अध्यक्ष खन्ना ने फिल्म ‘बाहुबली’ का उदाहरण देते हुए कहा कि जहां एक ओर भारत में बड़े बजट की फिल्में बन रही हैं, वहीं बच्चों के विषयों पर आधारित फिल्में बनाने के लिए लोग तैयार नहीं हैं, क्योंकि निर्माताओं को लगता है कि वे ऐसी फिल्मों से ज्यादा कमाई नहीं कर सकेंगे.

बकौल खन्ना, इसलिए वह इस साल मनोरंजक और सिनेमाघरों में पैसा कमाने में सक्षम फिल्मों को रिलीज होने की अनुमति प्रदान कर रहे हैं.

खन्ना ने ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ के नाम पर कुछ भी बोलने का विरोध किया. उन्होंने कहा, “जो लोग स्वतंत्रता के नाम पर बच्चों को बरगलाने की कोशिश कर रहे हैं. मैं ऐसे लोगों की कड़ी निंदा करता हूं.”

घुमक्कड़ों की चहेती दिल्ली

दिल्ली पिछले कई सालों से बतौर राजधानी देश की सियासत का केंद्र तो है ही, साथ में अपने ऐतिहासिक महत्त्व के चलते देशीविदेशी पर्यटकों को भी लुभाती है. अपने 102 साल पूरे कर चुकी दिल्ली आज जितनी पुरानी है उतनी आधुनिक भी है. इन सालों में इस ने सांस्कृतिक, राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में बेहतर परिवर्तनों के साथ देसी विदेशी पर्यटकों के दिलों में खासी जगह भी बनाई है.

दिल्ली में पर्यटन का मजा ही कुछ और है. यहां की प्राचीन इमारतें, लजीज व्यंजन और फैशन पर्यटकों को विशेषतौर पर आकर्षित करते हैं. यहां घूमने के लिए जहां कुतुब मीनार, लाल किला, पुराना किला, इंडिया गेट, चिड़ियाघर, डौल्स म्युजियम, जामा मसजिद, चांदनी चौक, नई सड़क, संसद भवन, राष्ट्रपति भवन, राष्ट्रीय संग्रहालय, प्रगति मैदान, जंतरमंतर, लोटस टैंपल, बिड़ला मंदिर, अक्षरधाम मंदिर हैं वहीं पुरानी दिल्ली की परांठे वाली गली के परांठे, लाजपत नगर की चाट और शौपिंग व इंटरटेनमैंट के लिए शानदार मौल व मल्टीप्लैक्स भी हैं.

ऐतिहासिक धरोहरें

इंडिया गेट : दिल्ली में होने वाली ज्यादातर फिल्मों की शूटिंग का पहला शौट इंडिया गेट में ही संपन्न होता है. राजपथ पर स्थित इंडिया गेट को दिल्ली का सिग्नेचर मार्क भी कह सकते हैं. अन्ना के अनशन और आंदोलन के दौरान भी इस जगह ने ऐतिहासिक भूमिका निभाई थी. इस का निर्माण प्रथम विश्व युद्ध और अफगान युद्ध में मारे गए 90 हजार भारतीय सैनिकों की स्मृति में कराया गया था. 160 फुट ऊंचा इंडिया गेट दिल्ली का पहला दरवाजा माना जाता है. जिन सैनिकों की याद में यह बनाया गया था उन के नाम इस इमारत पर अंकित हैं. इस के अंदर अखंड अमर जवान ज्योति जलती रहती है. दिल्ली का पर्यटन यहां आए बिना अधूरा है.

पुराना किला : पुराना किला आज दिल्ली का लोकप्रिय पिकनिक स्पौट बन कर उभर रहा है. यहां हरी घास और पुराने खंडहर हैं तो वहीं एक बोट क्लब भी है जहां सैलानी अपने परिवार के साथ नौकायन का आनंद उठाते हैं. इस में प्रवेश करने के 3 दरवाजे हैं. हुमायूं दरवाजा, तलकी दरवाजा और बड़ा दरवाजा. हालांकि वर्तमान में सिर्फ बड़े दरवाजे को प्रयोग में लाया जाता है.

जंतरमंतर : यह इमारत प्राचीन भारत की वैज्ञानिक उन्नति का नायाब नमूना है. जंतरमंतर समरकंद की वेधशाला से प्रेरित है. ग्रहों की गति नापने के लिए यहां विभिन्न प्रकार के उपकरण लगाए गए हैं. यहां बना सम्राट यंत्र सूर्य की सहायता से समय और ग्रहों की स्थिति की सूचना देता है.

कुतुब मीनार : इस मीनार को देख कर स्मृतिपटल पर पीसा की झुकी हुई मीनार का चित्र उभर कर सामने आता है. भले ही इस मीनार के अंदर जाने के दरवाजे पर्यटकों के लिए बंद करा दिए गए हों पर यहां आने वाले सैलानियों की तादाद में कोई कमी नहीं आई है. यह मीनार मूल रूप से सातमंजिला थी पर अब यह पांचमंजिला ही रह गई है. इस मीनार की कुल ऊंचाई 75.5 मीटर है और इस में 379 सीढि़यां हैं. परिसर में और भी कई इमारतें हैं जो अपने ऐतिहासिक महत्त्व व वास्तुकला से सैलानियों का मन मोहती हैं. मीनार के करीब में चौथी शताब्दी में बना लौहस्तंभ भी दर्शनीय है.

दिल्ली के गार्डन

दिल्ली शहर ऐतिहासिक धरोहरों के लिए जितना मशहूर है उतना ही दुर्लभ किस्म के पुष्पों से भरे उद्यानों के लिए भी जाना जाता है. यहां कई बेहतरीन गार्डन हैं जहां आ कर लगता है मानो किसी हिल स्टेशन पर आ गए हों. मुगल गार्डन की बात करें तो यहां तकरीबन 125 प्रकार के गुलाबों की खुशबू आप के दिल में उतर जाएगी. राष्ट्रपति भवन में स्थित यह गार्डन प्रकृतिप्रेमी पर्यटकों का पसंदीदा ठिकाना है.

13 एकड़ में फैले इस विशाल गार्डन में मुगलकाल व ब्रिटिशकाल की शैली का अद्भुत संगम परिलक्षित होता है. पर्ल गार्डन और बटरफ्लाय गार्डन जैसे कई बगीचों से मिल कर बना मुगल गार्डन 15 फरवरी से 15 मार्च तक आमजन के लिए खुलता है.

इसी तरह लोदी गार्डन भी खूबसूरत फौआरों, तालाब व रंगबिरंगे फूलों से सजा है. गार्डन में राष्ट्रीय बोनसाई पार्क भी है. कभी लेडी विलिंगटन पार्क के नाम से मशहूर रहे लोदी गार्डन में पेड़ों की विभिन्न प्रजातियों समेत विविध किस्म के पक्षियों को देखना मजेदार अनुभव होता है. लोदी गार्डन के अलावा तालकटोरा गार्डन में रंगबिरंगे फूलों के साथसाथ स्टेडियम भी है जहां खेलों और कार्यक्रमों का समयसमय पर आयोजन होता रहता है.

संग्रहालय : शिल्प संग्रहालय यानी क्राफ्ट म्यूजियम में भारत की समृद्ध हस्तशिल्प कला को निहायत खूबसूरती से सजाया गया है. यहां अलगअलग जगहों से आए शिल्पकार प्रदर्शनियों में भाग लेते हैं. यहां आदिवासी और ग्रामीण शिल्प व कपड़ों की गैलरी हैं. अगर आप को हर राज्य के आर्टिस्टों के हाथों से बनी चीजें देखने और खरीदने का शौक है तो प्रगति मैदान के गेट नंबर 2 के पास स्थित क्राफ्ट म्यूजियम आप के लिए ही है. आम विजिटर के लिए यहां प्रवेश हेतु 10 रुपए का टिकट है जबकि स्कूल और फिजिकली डिसएबल्स के लिए कोई टिकट नहीं है. सोमवार को यह बंद रहता है.

शिल्प संग्रहालय के पास ही डौल संग्रहालय भी है. विभिन्न परिधानों में सजी गुडि़यों का यह संग्रह, विश्व के बड़े संग्रहों में से एक है. बहादुरशाह जफर मार्ग पर नेहरू हाउस की बिल्डिंग में स्थित इस संग्रहालय में 85 देशों की करीब साढ़े 6 हजार से अधिक गुडि़यों का अद्भुत संग्रह है. वहीं, 1960 में स्थापित राष्ट्रीय संग्रहालय में लघु चित्रों का संग्रह है. इस में बनी संरक्षण प्रयोगशाला में छात्रों को ट्रेनिंग दी जाती है.

साउथ दिल्ली के चाणक्यपुरी में स्थित रेल संग्रहालय भारतीय रेल के 140 साल के इतिहास की अभूतपूर्व झांकी पेश करता है. यहां रेल इंजनों के अनेक मौडल सहित देश का प्रथम रेल मौडल और इंजन भी देखा जा सकता है. यहां बच्चों के लिए एक टौय ट्रैन भी है.

चिड़ियाघर : दिल्ली का चिड़ियाघर पुराने किले के नजदीक है. इस विशाल चिड़ियाघर में जानवरों और पक्षियों की हजारों प्रजातियां और सैकड़ों प्रकार के पेड़ हैं. यहां दुनियाभर से लाए गए पशु पक्षियों को देखना रोचक लगता है. यह गर्मियों में सुबह 8 से शाम 6 बजे तक और सर्दियों में सुबह 9 से शाम 5 बजे तक खुला रहता है.

खाना, खरीदारी और मनोरंजन स्थल : दिल्ली में घुमक्कड़ों के लिए सिर्फ स्मारक और म्यूजियम ही नहीं हैं बल्कि मौजमस्ती, शौपिंग, इंटरटेनमैंट के साथ खानेपीने के भी अनेक विकल्प मौजूद हैं. बात खरीदारी की करें तो सब से पहला नाम कनाट प्लेस यानी सीपी मार्केट का आता है. दिल्ली के इस केंद्र बिंदु में सभी देशीविदेशी ब्रैंड्स के शोरूम तो हैं ही, साथ ही अंडरग्राउंड पालिका बाजार भी है, जो पूरी तरह से वातानुकूलित है. खरीदारी के साथ यहां खाने का भी पूरा इंतजाम है.

यहां के इनर सर्किल में लगभग सभी अंतर्राष्ट्रीय ब्रैंड के कपड़ों के शोरूम, रेस्टोरैंट और बार हैं. पास में ही जनपथ बाजार है जहां कई तरह का एंटीक सामान मिल जाता है.

इसी तरह पुरानी दिल्ली का चांदनी चौक इलाका, जहां विदेशी सैलानियों की भारी तादाद दिखती है, खानेपीने और खरीदारी के लिए मुफीद जगह है. दिल्ली आने वाले किसी भी व्यक्ति की यात्रा तब तक पूरी नहीं हो सकती जब तक वह चांदनी चौक न आए. यहां की परांठे वाली गली में तो जवाहर लाल नेहरू से ले कर अक्षय कुमार जैसी हस्तियां परांठों का लुत्फ उठा चुकी हैं.

सुबह जल्दी उठना है परेशानी

ये तो सभी जानते हैं कि रोज सुबह जल्दी उठने के बहुत सारे फायदे होते हैं. सुबह जल्दी उठने वाले लोग आम तौर पर ज्यादा सक्रिय और अधिक उत्पादक होते हैं. सुबह जल्दी उठने से आप स्वस्थ, धनी, और बुद्धिमान बनते है. लेकिन क्या हमेशा आप सुबह जल्दी उठ पाते हैं. सुबह बहुत जल्दी उठना तो जैसे अपने आप में एक भारी काम है.

इस बात में तो शत-प्रतिशत सच्चाई है कि सुबह जल्दी उठने से आपके शरीर को और आपके जीवन शैली को कई फायदे होते हैं. सुबह जल्दी उठने की आदत आपके शारीरिक स्वास्थ्य के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य को भी अच्छा रखती है और आपको आपके आगे के जीवन में अधित उत्पादक और सफल बनाती है.

अगर आप रोज रात को ये सोच कर सोते हैं कि सुबह जल्दी उठ ही जाएंगे, पर अक्सर या हर रोज ऐसा हो नहीं पाता तो, यहां हम आज हम आपको हर रोज सुबह जल्दी उठने के कुछ अच्छे और उपयोगी टिप्स व सुझाव बताने जा रहे हैं.

1. सबसे आसान और सर्वविदित उपाय जो सबसे सामान्य भी है कि सुबह जल्दी उठने के लिए अलार्म सेट कर लें. ये आपकी सहायता करेगा.

2. रोजाना उठने के समय से 10-15 मिनट पहले जागें और दिन ब दिन ये कोशिश जारी रखें. ये खुद को समायोजित करने में सहायता करेगी.

3. अगर अलार्म लगाने और आपकी बड़ी अलार्म क्लॉक से भी आपको जल्दी उठने में दिक्कत होती है तो आप एक उपाय ये भी कर सकते हैं कि आपके परिवार के सदस्य या जहां भी आप रहते हैं वहां जो भी व्यक्ति सुबह जल्दी उठ जाता है, उनसे उठाने के लिए बोलें.

4. सोने और सुबह जागने की आदत को नियमित रखें. सोने और उठने के लिए एक रेगुलर समय सेट करें और सप्ताहांत हो या छुट्टी का दिन, ये आदत बरकरार रखें. ये कड़ा शेड्यूल आपको सुबह जल्दी उठने में खासी मदद करेगा.

5. हर रोज एक पर्याप्त नींद लें ताकि आप हमेशा तरोताजा महसूस कर सकें, हर रोज कम से कम 7 से 8 घंटे की नींद लेना उचित माना गया है और ऐसा होगा तो आपको सुबह-सुबह जल्दी उठने में भी आलस नहीं लगेगा.

बिजनैस वर्ल्ड का नया मंत्र टेक इट ईजी

मुंबई में किसी भी टैलीविजन चैनल के दफ्तर में जिधर भी नजर जाती है, सब की पोशाकें स्मार्ट कैजुअल दिखती हैं. जींस, टीशर्ट, लैगिंग्स, टौप्स आदि विभिन्न रंगों की पोशाकें चारों तरफ दिखाई पड़ती हैं. पूछने पर पता चला कि ऐसी पोशाक वे हर दिन पहनते हैं. वजह बहुत साधारण थी. ऐसी पोशाक को न तो प्रैस की जरूरत होती है, न ही अधिक रखरखाव की. मीटिंग से ले कर आउटडोर वर्क, हर जगह कैजुअल पोशाक आसानी से चलती हैं. अधिक समय तक इसे पहने रहने पर थकान का अनुभव भी नहीं होता.

इतना ही नहीं, किसी भी ऐड एजेंसी के व्यक्ति, कितने ही टौप पोस्ट पर क्यों न हों, जींस और टीशर्ट ही पहनना पसंद करते हैं. एक मीटिंग के दौरान स्टार टीवी की वाइस प्रैसिडैंट जब कैजुअल ड्रैस के साथ मिलने आईं तो यह समझना मुश्किल था कि वे इतनी बड़ी पोस्ट पर बिना फौर्मल ड्रैस के कैसे काम कर रही हैं.

सालों से चले आ रहे ड्रैस कोड जब मौडर्न बिजनैस पैटर्न के साथसाथ बदले गए तो बहुत सारे दिग्गजों ने नाकभौं सिकोड़े. दरअसल, आज के यंग बिजनैस फाउंडर्स ने पुरुषों और महिलाओं को बिना ड्रैस कोड के औफिस में आने की इजाजत दी. वे सभी कर्मचारियों को उन के फर्स्ट नाम से बुलाने और उन के साथ टीम बना कर काम करने में विश्वास करने लगे. उन का मानना है कि ऐसा करने से वे हर कर्मचारी के नजदीक होंगे और ऐसे में उन की सोच व कंपनी का भरोसा उन्हें आगे बढ़ने में मददगार साबित होगा. यह देखा भी गया कि कैजुअल ड्रैस में उन के व्यवहार भी काफी अच्छे थे, वे किसी विषय पर खुल कर बात करने में घबराते नहीं थे.

ड्रैस कोड को हटाने में पहले कई बड़ी कंपनियों ने पहल की और पाया कि फौर्मल ड्रैस से अधिक कैजुअल ड्रैस टीम कल्चर को आगे बढ़ाती है. इस के अलावा न्यू ड्रैस कोड लोगों को काफी आकर्षित करता है. दूसरी तरफ कंपनी के बौस भी इस संस्कृति को अधिक महत्त्व देने लगे. यह सही है कि कुछ खास अवसरों पर फौर्मल ड्रैस कोड जरूरी होता है. इस से आप की अहमियत बढ़ती है. लेकिन जरूरत के बिना फौर्मल ड्रैस आज की युवा पीढ़ी पसंद नहीं करती. जिस का समर्थन कंपनी के वरिष्ठ अधिकारी भी करते हैं. उन के हिसाब से वयस्कों के अनुभव और युवा ऊर्जा से ही उन की कंपनी आगे बढ़ सकती है और ऐसा देखा भी गया है कि युवा अधिकतर हलकेफुलके परिवेश को पसंद करता है. ऐसे में उन्हें ड्रैस पहनने की आजादी है. यह परिवर्तन केवल भारत में ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व में आजकल चल रहा है. जरमनी, फ्रांस, अमेरिका आदि सभी स्थानों पर इस का प्रभाव देखा जा रहा है.

सहजता में सफलता

ड्रैस कोड केवल कौर्पोरेट सैक्टर में ही नहीं, बल्कि राजनेता से ले कर सभी इसी का अनुसरण करते हैं. राजनेता मानते हैं कि उन का खादी कुरता और चूड़ीदार पजामा, उन की सहजता, गतिशीलता और ‘डाउन टू अर्थ’ स्वभाव को दर्शाते हैं. लेकिन आज की नईर्पीढ़ी के युवा नेता इस से हट कर जींस और टीशर्ट में भी नजर आते हैं, क्योंकि वे इस पहनावे से अपनेआप को आम लोगों के करीब समझते हैं. इधर, कौर्पोरेट सैक्टर के  बौस मौडर्न ड्रैस कोड के द्वारा यह दिखाना चाहते हैं कि उन की कंपनी उबाऊ नहीं, जैसा लोग समझते हैं. इस बदलाव से व्यवसाय को बढ़ाने का भी काफी मौका मिल रहा है. आजकल यूनिवर्सिटी में स्नातकों की कमी नहीं है और वह जमाना गया जब एक नामचीन कंपनी में काम करने के लिए युवा लालायित रहते थे. आज के युवा वहां काम करना पसंद करते हैं जहां उन्हें काम करने की आजादी हो. कुछ कंपनियों के बौस भी अपनेआप को यंग और डाइनेमिक समझते हैं और अपनेआप को वे वैसा ही सिद्ध करने की कोशिश करते हैं.

जब पहली बार इनफोसिस के विशाल सिक्का टीशर्ट और जींस में अपने कर्मचारियों को संबोधित करने आए तो सभी चौंक गए. लेकिन सब को उन का यह बदलाव अच्छा लगा. क्योंकि इस से पहले कर्मचारियों को हफ्ते में केवल एक दिन कैजुअल पहनने की इजाजत थी. इस के बाद उन्होंने अपने कर्मचारियों को कैजुअल पोशाकें हर दिन पहनने की आजादी दी. इनफोसिस के इस कदम के कुछ दिनों के  बाद हिंदुस्तान यूनिलीवर ने भी अपने कर्मचारियों को कैजुअल पोशाक पहनने की आजादी दी और पाया कि कंपनी में इस का असर सकारात्मक दिखा.

इस का एक और उदाहरण यशराज फिल्म्स में दिखाई पड़ता है जहां फिल्मकार यश चोपड़ा हमेशा फौर्मल ड्रैस में ही अपने औफिस में आते थे लेकिन अब उन के बेटे आदित्य चोपड़ा जींस टीशर्ट में औफिस आते हैं. उन के सभी कर्मचारी स्मार्ट कैजुअल में औफिस आते हैं. आदित्य चोपड़ा अपने दफ्तर में कई बार ट्रैक सूट, टीशर्ट में मिलते हैं. उन के हिसाब से वे अपनेआप को नए माहौल और यूथ से ऐडजस्ट करने के लिए ऐसा करते हैं. वे मानते हैं कि जितना वे सहज होंगे उतना ही वे अपने काम में सफल हो सकेंगे. टी सीरीज के मालिक भूषण कुमार और अभिनेता अनिल कुमार भी अपने दफ्तरों में अकसर कैजुअल्स में दिखते हैं.

इस चलन की शुरुआत की बात करें तो सालों पहले जब एक मीडियाकर्मी ने अभिनेता गोविंदा को चीची कर संबोधित किया, तो वे भड़क उठे और इंटरव्यू देने से मना कर दिया था, क्योंकि उन्हें इस तरह अभद्र तरीके से बुलाया जाना पसंद नहीं था. वहीं, आज की प्रियंका चोपड़ा अपनेआप को ‘पिग्गी चोप्स’ कहलाने से नाखुश नहीं होतीं. सलमान खान को ‘सल्लू’ बुलाए जाने पर वे उत्साहित हो जाते हैं. शाहरुख खान अपने सहयोगियों के बीच हमेशा एसआरके और रवीना टंडन ‘राव्स’ नाम से जानी जाती हैं.

स्मार्ट कैजुअल अब बिजनैस वर्ल्ड का मंत्र बन गया है जो पुराने ड्रैस कोड से थोड़ा हट कर है. इस में पोशाक थोड़ी स्टाइलिश होने के साथसाथ आरामदायक भी है. यह घर पर पहने जाने वाले कपड़ों से थोड़ी मौडर्न लुक की होती है. इन कपड़ों में स्लीवलैस टौप, जींस, स्कर्ट्स, फ्रौक आदि महिलाओं के  लिए होती हैं जबकि पुरुषों के लिए टीशर्ट, जैकेट, और जींस अधिक पहनी जाती हैं. इस कैजुअलनैस से कई फर्मों की सोच में बदलाव आया है. केवल ड्रैस कोड ही नहीं, बल्कि उन की बातचीत और व्यवहार में भी परिवर्तन आया है.

विशेषज्ञ मानते हैं कि यह कैजुअलनैस कंपनी के आगे बढ़ने की दिशा में ठीक है पर समय और अवसर के अनुसार इस में बदलाव की भी आवश्यकता होती है, क्योंकि अगर किसी को उस के फर्स्ट नाम या शौर्ट नाम से किसी खास जगह पर बुलाया जाता है तो कुछ लोग, जो इस तरह के व्यवहार से परिचित नहीं होते, उस जगह पर अपनेआप को अकेला समझ सकते हैं, या उन्हें कुछ अजीब भी लग सकता है.

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