Hindi Kahaniyan : दौड़ – क्या निशा के अंदर रवि बदलाव ला पाया

Hindi Kahaniyan : ‘‘नमस्ते, मम्मीजी. कल रात क्या आप सब लोग कहीं बाहर गए हुए थे?’’ अपनी आवाज में जरा सी मिठास लाते हुए निशा बोली.

‘‘हां, कविता के बेटे मोहित का जन्मदिन था इसलिए हम सब वहां गए थे. लौटने में देर हो गई थी.’’

कविता उस की बड़ी ननद थी. मोहित के जन्मदिन की पार्टी में उसे बुलाया ही नहीं गया, इस विचार ने उस के मूड को और भी ज्यादा खराब कर दिया.

‘‘मम्मी, रवि से बात करा दीजिए,’’ निशा ने जानबूझ कर रूखापन दिखाते हुए पार्टी के बारे में कुछ भी नहीं पूछा और अपने पति रवि से बात करने की इच्छा जाहिर की.

‘‘रवि तो बाजार गया है. उस से कुछ कहना हो तो बता दो.’’

‘‘मुझे आफिस में फोन करने को कहिएगा. अच्छा मम्मी, मैं फोन रखती हूं, नमस्ते.’’

‘‘सुखी रहो, बहू,’’ सुमित्रा का आशीर्वाद सुन कर निशा ने बुरा सा मुंह बनाया और फोन रख दिया.

‘बुढि़या ने यह भी नहीं पूछा कि मैं कैसी हूं…’ गुस्से में बड़बड़ाती निशा अपना पर्स उठाने के लिए बेडरूम की तरफ चल पड़ी.

कैरियर के हिसाब से आज का दिन निशा के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण व खुशी से भरा था. वह टीम लीडर बन गई है. यह समाचार उसे कल आफिस बंद होने से कुछ ही मिनट पहले मिला था. इसलिए इस खुशी को वह अपने सहकर्मियों के साथ बांट नहीं सकी थी.

आफिस में निशा के कदम रखते ही उसे मुबारकबाद देने वालों की भीड़ लग गई. अपने नए केबिन में टीम लीडर की कुरसी पर बैठते हुए निशा खुशी से फूली नहीं समाई.

रवि का फोन उस के पास 11 बजे के करीब आया. उस समय वह अपने काम में बहुत ज्यादा व्यस्त थी.

‘‘रवि, तुम्हें एक बढि़या खबर सुनाती हूं,’’ निशा ने उत्साही अंदाज में बात शुरू की.

‘‘तुम्हारा प्रमोशन हो गया है न?’’

‘‘तुम्हें कैसे पता चला?’’ निशा हैरान हो उठी.

‘‘तुम्हारी आवाज की खुशी से मैं ने अंदाजा लगाया, निशा.’’

‘‘मैं टीम लीडर बन गई हूं, रवि. अब मेरी तनख्वाह 35 हजार रुपए हो गई है.’’

‘‘गाड़ी भी मिल गई है. अब तो पार्टी हो जाए.’’

‘‘श्योर, पार्टी कहां लोगे?’’

‘‘कहीं बाहर नहीं. तुम शाम को घर आ जाओ. मम्मी और सीमा तुम्हारी मनपसंद चीजें बना कर रखेंगी.’’

रवि का प्रस्ताव सुन कर निशा का उत्साह ठंडा पड़ गया और उस ने नाराज लहजे में कहा, ‘‘घर में पार्टी का माहौल कभी नहीं बन सकता, रवि. तुम मिलो न शाम को मुझ से.’’

‘‘हमारा मिलना तो शनिवारइतवार को ही होता है, निशा.’’

‘‘मेरी खुशी की खातिर क्या तुम आज नहीं आ सकते हो?’’

‘‘नाराज हो कर निशा तुम अपना मूड खराब मत करो. शनिवार को 3 दिन बाद मिल ही रहे हैं. तब बढि़या सी पार्टी ले लूंगा.’’

‘‘तुम भी रवि, कैसे भुलक्कड़ हो, शनिवार को मैं मेरठ जाऊंगी.’’

‘‘तुम्हारे जैसी व्यस्त महिला को अपने भाई की शादी याद है, यह वाकई कमाल की बात है.’’

‘‘मुझे ताना मार रहे हो?’’ निशा चिढ़ कर बोली.

‘‘सौरी, मैं ने तो मजाक किया था.’’

‘‘अच्छा, यह बताओ कि मेरठ रविवार की सुबह तक पहुंच जाओगे न?’’

‘‘आप हुक्म करें, साले साहब के लिए जान भी हाजिर है, मैडम.’’

‘‘घर से और कौनकौन आएगा?’’

‘‘तुम जिसे कहो, ले आएंगे. जिसे कहो, छोड़ आएंगे. वैसे तुम शनिवार की रात को पहुंचोगी, इस बात से नवीन या तुम्हारे मम्मीडैडी नाराज तो नहीं होंगे?’’

‘‘मुझे अपने जूनियर्स को टे्रनिंग देनी है. मैं चाह कर भी पहले नहीं निकल सकती हूं.’’

‘‘सही कह रही हो तुम, भाई की शादी के चक्कर में इनसान को अपनी ड्यूटी को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए.’’

‘‘तुम कभी मेरी भावनाओं को नहीं समझ सके,’’ निशा फिर चिढ़ उठी, ‘‘मैं अपने कैरियर को बड़ी गंभीरता से लेती हूं, रवि.’’

‘‘निशा, मैं फोन रखता हूं. आज तुम मेरे मजाक को सहन करने के मूड में नहीं हो. ओके, बाय.’’

रवि और निशा ने एम.बी.ए. साथसाथ एक ही कालिज से किया था. दोनों के बीच प्यार का बीज भी उन्हीं दिनों में अंकुरित हुआ.

रवि ने बैंक में पी.ओ. की परीक्षा पास कर के नौकरी पा ली और निशा ने बहुराष्ट्रीय कंपनी में. करीब 2 साल पहले दोनों ने घर वालों की रजामंदी से प्रेम विवाह कर लिया.

दुलहन बन कर निशा रवि के परिवार में आ गई. वहां के अनुशासन भरे माहौल में उस का मन शुरू से नहीं लगा. टोकाटाकी के अलावा उसे एक बात और खलती थी. दोनों अच्छा कमाते हुए भी भविष्य के लिए कुछ बचा नहीं पाते थे.

उन दोनों की ज्यादा कमाई होने के कारण हर जिम्मेदारी निभाने का आर्थिक बोझ उन के ही कंधों पर था. निशा इन बातों को ले कर चिढ़ती तो रवि उसे प्यार से समझाता, ‘हम दोनों बड़े भैया व पिताजी से ज्यादा समर्थ हैं, इसलिए इन जिम्मेदारियों को हमें बोझ नहीं समझना चाहिए. अगर हम सब की खुशियों और घर की समृद्धि को बढ़ा नहीं सकते हैं तो हमारे ज्यादा कमाने का फायदा क्या हुआ? मैडम, पैसा उपयोग करने के लिए होता है, सिर्फ जोड़ने के लिए नहीं. एकसाथ मिलजुल कर हंसीखुशी से रहने में ही फायदा है, निशा. सब से अलगथलग हो कर अमीर बनने में कोई मजा नहीं है.’

निशा कभी भी रवि के इस नजरिये से सहमत नहीं हुई. ससुराल में उसे अपना दम घुटता सा लगता. किसी का व्यवहार उस के प्रति खराब नहीं था पर वह उस घर में असंतोष व शिकायत के भाव से रहती. उस का व रवि का शोषण हो रहा है, यह विचार उसे तनावग्रस्त बनाए रखता.

निशा को जब कंपनी से 2 बेडरूम वाला फ्लैट मिलने की सुविधा मिली तो उस ने ससुराल छोड़ कर वहां जाने को फौरन ‘हां’ कर दी. अपना फैसला लेने से पहले उस ने रवि से विचारविमर्श भी नहीं किया क्योंकि उसे पति के मना कर देने का डर था.

फ्लैट में अलग जा कर रहने के लिए रवि बिलकुल तैयार नहीं हुआ. वह बारबार निशा से यही सवाल पूछता कि घर से अलग होने का हमारे पास कोई खास कारण नहीं है. फिर हम ऐसा क्यों करें?

‘मुझे रोजरोज दिल्ली से गुड़गांव जाने में परेशानी होती है. इस के अलावा सीनियर होने के नाते मुझे आफिस में ज्यादा समय देना चाहिए और ज्यादा समय मैं गुड़गांव में रह कर ही दे सकती हूं.’

निशा की ऐसी दलीलों का रवि पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था.

अंतत: निशा ने अपनी जिद पूरी की और कंपनी के फ्लैट में रहने चली गई. उस के इस कदम का विरोध मायके और ससुराल दोनों जगह हुआ पर उस ने किसी की बात नहीं सुनी.

रवि की नाराजगी, उदासी को अनदेखा कर निशा गुड़गांव रहने चली गई.

रवि सप्ताह में 2 दिन उस के साथ गुजारता. निशा कभीकभार अपनी ससुराल वालों से मिलने आती. सच तो यह था कि अपना कैरियर बेहतर बनाने के चक्कर में उसे कहीं ज्यादा आनेजाने का समय ही नहीं मिलता.

अच्छा कैरियर बनाने के लिए अपने व्यक्तिगत जीवन की कठिनाइयों को निशा ने कभी ज्यादा महत्त्व नहीं दिया. अपने छोटे भाई नवीन की शादी में वह सिर्फ एक रात पहले पहुंचेगी, इस बात का भी उसे कोई खास अफसोस नहीं था. अपने मातापिता व भाई की शिकायत को उस ने फोन पर ऊंची आवाज में झगड़ कर नजरअंदाज कर दिया.

‘‘शादी में हमारे मेरठ पहुंचने की चिंता मत करो, निशा. आफिस के किसी काम में अटक कर तुम और ज्यादा देर से मत पहुंचना,’’ रवि के मोबाइल पर उस ने जब भी फोन किया, रवि से उसे ऐसा ही जवाब सुनने को मिला.

शनिवार की शाम निशा ने टैक्सी की और 8 बजे तक मेरठ अपने मायके पहुंच गई. अब तक छिपा कर रखी गई प्रमोशन की खबर सब को सुनाने के लिए वह बेताब थी. अपने साथ बढि़या मिठाई का डब्बा वह सब का मुंह मीठा कराने के लिए लाई थी. उस के पर्स में प्रमोशन का पत्र पड़ा था जिसे वह सब को दिखा कर उन की वाहवाही लूटने को उत्सुक थी.

टैक्सी का किराया चुका कर निशा ने अपनी छोटी अटैची खुद उठाई और गेट खोल कर अंदर घुस गई.

घर में बड़े आकार वाले ड्राइंगरूम को खाली कर के संगीत और नृत्य का कार्यक्रम आयोजित किया गया था. तेज गति के धमाकेदार संगीत के साथ कई लोगों के हंसनेबोलने की आवाजें भी निशा के कानों तक पहुंचीं.

निशा ने मुसकराते हुए हाल में कदम रखा और फिर हैरानी के मारे ठिठक गई. वहां का दृश्य देख कर उस का मुंह खुला का खुला रह गया.

निशा ने देखा मां बड़े जोश के साथ ढोलक बजा रही थीं. तबले पर ताल बजाने का काम उस की सास कर रही थीं.

रवि मंजीरे बजा रहा था और भाई नवीन ने चिमटा संभाल रखा था. किसी बात पर दोनों हंसी के मारे ऐसे लोटपोट हुए जा रहे थे कि उन की ताल बिलकुल बिगड़ गई थी.

उस की छोटी ननद सीमा मस्ती से नाच रही थी और महल्ले की औरतें तालियां बजा रही थीं. उन में उस की जेठानी अर्चना भी शामिल थी. अचानक ही रवि की 5 वर्षीय भतीजी नेहा उठ कर अपनी सीमा बूआ के साथ नाचने लगी. एक तरफ अपने ससुर, जेठ व पिता को एकसाथ बैठ कर गपशप करते देखा. अपनी ससुराल के हर एक सदस्य को वहां पहले से उपस्थित देख निशा हैरान रह गई.

उन के पड़ोस में रहने वाली शीला आंटी की नजर निशा पर सब से पहले पड़ी. उन्होंने ऊंची आवाज में सब को उस के पहुंचने की सूचना दी तो कुछ देर के लिए संगीत व नृत्य बंद कर दिया गया.

लगभग हर व्यक्ति से निशा को देर से आने का उलाहना सुनने को मिला.

मौका मिलते ही निशा ने रवि से धीमी आवाज में पूछा, ‘‘आप सब लोग यहां कब पहुंचे?’’

‘‘हम तो परसों सुबह ही यहां आ गए थे,’’ रवि ने मुसकराते हुए जवाब दिया.

निशा ने माथे पर बल डालते हुए पूछा, ‘‘इतनी जल्दी क्यों आए? मुझे बताया क्यों नहीं?’’

रवि ने सहज भाव से बोलना शुरू किया, ‘‘तुम्हारी मम्मी ने 3 दिन पहले मुझ से फोन पर बात की थी. उन की बातों से मुझे लगा कि वह बहुत उदास हैं. उन्हें बेटे के ब्याह के घर में कोई रौनक नजर नहीं आ रही थी. तुम्हारे जल्दी न आ सकने की शिकायत को दूर करने के लिए ही मैं ने उन से सब के साथ यहां आने का वादा कर लिया और परसों से यहीं जम कर खूब मौजमस्ती कर रहे हैं.’’

‘‘सब को यहां लाना मुझे अजीब सा लग रहा है,’’ निशा की चिढ़ अपनी जगह बनी रही.

‘‘ऐसा करने के लिए तुम्हारे मम्मीपापा व भाई ने बहुत जोर दिया था.’’

निशा ने बुरा सा मुंह बनाया और मां से अपनी शिकायत करने रसोई की तरफ चल पड़ी.

मां बेटी की शिकायत सुनते ही उत्तेजित लहजे में बोलीं, ‘‘तेरी ससुराल वालों के कारण ही यह घर शादी का घर लग रहा है. तू तो अपने काम की दीवानी बन कर रह गई है. हमें वह सभी बड़े पसंद हैं और उन्हें यहां बुलाने का तुम्हें भी कोई विरोध नहीं करना चाहिए.’’

‘‘जो लोग तुम्हारी बेटी को प्यार व मानसम्मान नहीं देते, तुम सब उन से…’’

बेटी की बात को बीच में काट कर मां बोलीं, ‘‘निशा, तुम ने जैसा बोया है वैसा ही तो काटोगी. अब बेकार के मुद्दे उठा कर घर के हंसीखुशी के माहौल को खराब मत करो. तुम से कहीं ज्यादा इस शादी में तुम्हारी ससुराल वाले हमारा हाथ बंटा रहे हैं और इस के लिए हम दिल से उन के आभारी हैं.’’

मां की इन बातों से निशा ने खुद को अपमानित महसूस किया. उस की पलकें गीली होने लगीं तो वह रसोई से निकल कर पीछे के बरामदे में आ गई.

कुछ समय बाद रवि भी वहां आ गया और पत्नी को इस तरह चुपचाप आंसू बहाते देख उस के सिर पर प्यार से हाथ फेरा तो निशा उस के सीने से लग कर फफक पड़ी.

रवि ने उसे प्यार से समझाया, ‘‘तुम अपने भाई की शादी का पूरा लुत्फ उठाओ, निशा. व्यर्थ की बातों पर ध्यान देने की क्या जरूरत है तुम्हें.’’

‘‘मेरी खुशी की फिक्र न मेरे मायके वालों को है न ससुराल वालों को. सभी मुझ से जलते हैं… मुझे अलगथलग रख कर नीचा दिखाते हैं. मैं ने किसी का क्या बिगाड़ा है,’’ निशा ने सुबकते हुए सवाल किया.

‘‘तुम क्या सचमुच अपने सवाल का जवाब सुनना चाहोगी?’’ रवि गंभीर हो गया.

निशा ने गरदन हिला कर ‘हां’ में जवाब दिया.

‘‘देखो निशा, अपने कैरियर को तुम बहुत महत्त्वपूर्ण मानती हो. तुम्हारे लक्ष्य बहुत ऊंचाइयों को छूने वाले हैं. आपसी रिश्ते तुम्हारे लिए ज्यादा माने नहीं रखते. तुम्हारी सारी ऊर्जा कैरियर की राह पर बहुत तेजी से दौड़ने में लग रही है…तुम इतना तेज दौड़ रही हो… इतनी आगे निकलती जा रही हो कि अकेली हो गई हो… दौड़ में सब से आगे, पर अकेली,’’ रवि की आवाज कुछ उदास हो गई.

‘‘अच्छा कैरियर बनाने का और कोई रास्ता नहीं है, रवि,’’ निशा ने दलील दी.

‘‘निशा, कैरियर जीवन का एक हिस्सा है और उस से मिलने वाली खुशी अन्य क्षेत्रों से मिलने वाली खुशियों के महत्त्व को कम नहीं कर सकती. हमारे जीवन का सर्वांगीण विकास न हो तो अकेलापन, तनाव, निराशा, दुख और अशांति से हम कभी छुटकारा नहीं पा सकते हैं.’’

‘‘मुझे क्या करना चाहिए? अपने अंदर क्या बदलाव लाना होगा?’’ निशा ने बेबस अंदाज में पूछा.

‘‘जो पैर कैरियर बनाने के लिए तेज दौड़ सकते हैं वे सब के साथ मिल कर नाच भी सकते हैं…किसी के हमदर्द भी बन सकते हैं. जरूरत है बस, अपना नजरिया बदलने की…अपने दिमाग के साथसाथ अपने दिल को भी सक्रिय कर लोगों का दिल जीतने की,’’ अपनी सलाह दे कर रवि ने उसे अपनी छाती से लगा लिया.

निशा ने पति की बांहों के घेरे में बड़ी शांति महसूस की. रवि का कहा उस के दिल में कहीं बड़ी गहराई तक उतर गया. अपने नजदीकी लोगों से अपने संबंध सुधारने की इच्छा उस के मन में पलपल बलवती होती जा रही थी.

‘‘मैं बहुत दिनों से मस्त हो कर नाची नहीं हूं. आज कर दूं जबरदस्त धूमधड़ाका यहां?’’ निशा की मुसकराहट रवि को बहुत ताजा व आकर्षक लगी.

रवि ने प्यार से उस का माथा चूमा और हाथ पकड़ कर हाल की तरफ चल दिया. उसे साफ लगा कि पिछले चंद मिनटों में निशा के अंदर जो जबरदस्त बदलाव आया है वह उन दोनों के सुखद भविष्य की तरफ इशारा कर रहा था.

Famous Hindi Stories : खड़ूस मकान मालकिन – क्या था आंटी का सच

Famous Hindi Stories : ‘‘साहबजी, आप अपने लिए मकान देख रहे हैं?’’ होटल वाला राहुल से पूछ रहा था. पिछले 2 हफ्ते से राहुल एक धर्मशाला में रह रहा था. दफ्तर से छुट्टी होने के बाद वह मकान ही देख रहा था. उस ने कई लोगों से कह रखा था. होटल वाला भी उन में से एक था. होटल का मालिक बता रहा था कि वेतन स्वीट्स के पास वाली गली में एक मकान है, 2 कमरे का. बस, एक ही कमी थी… उस की मकान मालकिन.

पर होटल वाले ने इस का एक हल निकाला था कि मकान ले लो और साथ में दूसरा मकान भी देखते रहो. उस मकान में कोई 2 महीने से ज्यादा नहीं रहा है.

‘‘आप मकान बता रहे हो या डरा रहे हो?’’ राहुल बोला, ‘‘मैं उस मकान को देख लूंगा. धर्मशाला से तो बेहतर ही रहेगा.’’

अगले दिन दफ्तर के बाद राहुल अपने एक दोस्त प्रशांत के साथ मकान देखने चला गया. मकान उसे पसंद था, पर मकान मालकिन ने यह कह कर उस की उम्मीदों पर पानी फेर दिया कि रात को 10 बजे के बाद गेट नहीं खुलेगा.

राहुल ने सोचा, ‘मेरा तो काम ही ऐसा है, जिस में अकसर देर रात हो जाती है…’ वह बोला, ‘‘आंटी, मेरा तो काम ही ऐसा है, जिस में अकसर रात को देर हो सकती है.’’

‘‘ठीक है बेटा,’’ आंटी बोलीं, ‘‘अगर पसंद न हो, तो कोई बात नहीं.’’

राहुल कुछ देर खड़ा रहा और बोला, ‘‘आंटी, आप उस हिस्से में एक गेट और लगवा दो. उस की चाबी मैं अपने पास रख लूंगा.’’

आंटी ने अपनी मजबूरी बता दी, ‘‘मेरे पास खर्च करने के लिए एक भी पैसा नहीं है.’’

राहुल ने गेट बनाने का सारा खर्च खुद उठाने की बात की, तो आंटी राजी हो गईं. इस के साथ ही उस ने झगड़े की जड़ पानी और बिजली के कनैक्शन भी अलग करवा लिए. दोनों जगहों के बीच दीवार खड़ी करवा दी. उस में दरवाजा भी बनवा दिया, लेकिन दरवाजा कभी बंद नहीं हुआ.

सारा काम पूरा हो जाने के बाद राहुल मकान में आ गया. उस ने मकान मालकिन द्वारा कही गई बातों का पालन किया. राहुल दिन में अपने मकान में कम ही रहता था. खाना भी वह होटल में ही खाता था. हां, रात में वह जरूर अपने कमरे पर आ जाता था. उस के हिस्से में ‘खटखट’ की आवाज से आंटी को पता चल जाता और वे आवाज लगा कर उस के आने की तसल्ली कर लेतीं.

उन आंटी का नाम प्रभा देवी था. वे अकेली रहती थीं. उन की 2 बेटियां थीं. दोनों शादीशुदा थीं. आंटी के पति की मौत कुछ साल पहले ही हुई थी. उन की मौत के बाद वे दोनों बेटियां उन को अपने साथ रखने को तैयार थीं, पर वे खुद ही नहीं रहना चाहती थीं. जब तक शरीर चल रहा है, तब तक क्यों उन के भरेपूरे परिवार को परेशान करें.

अपनी मां के एक फोन पर वे दोनों बेटियां दौड़ी चली आती थीं. आंटी और उन के पति ने मेहनतमजदूरी कर के अपने परिवार को पाला था. उन के पास अब केवल यह मकान ही बचा था, जिस को किराए पर उठा कर उस से मिले पैसे से उन का खर्च चल जाता था.

एक हिस्से में आंटी रहती थीं और दूसरे हिस्से को वे किराए पर उठा देती थीं. पर एक मजदूर के पास मजदूरी से इतना बड़ा मकान नहीं हो सकता. पतिपत्नी दोनों ने खूब मेहनत की और यहां जमीन खरीदी. धीरेधीरे इतना कर लिया कि मकान के एक हिस्से को किराए पर उठा कर आमदनी का एक जरीया तैयार कर लिया था.

राहुल अपने मांबाप का एकलौता बेटा था. अभी उस की शादी नहीं हुई थी. नौकरी पर वह यहां आ गया और आंटी का किराएदार बन गया. दोनों ही अकेले थे. धीरेधीरे मांबेटे का रिश्ता बन गया.

घर के दोनों हिस्सों के बीच का दरवाजा कभी बंद नहीं हुआ. हमेशा खुला रहा. राहुल को कभी ऐसा नहीं लगा कि आंटी गैर हैं. आंटी के बारे में जैसा सुना था, वैसा उस ने नहीं पाया. कभीकभी उसे लगता कि लोग बेवजह ही आंटी को बदनाम करते रहे हैं या राहुल का अपना स्वभाव अच्छा था, जिस ने कभी न करना नहीं सीखा था. आंटी जो भी कहतीं, उसे वह मान लेता.

आंटी हमेशा खुश रहने की कोशिश करतीं, पर राहुल को उन की खुशी खोखली लगती, जैसे वे जबरदस्ती खुश रहने की कोशिश कर रही हों. उसे लगता कि ऐसी जरूर कोई बात है, जो आंटी को परेशान करती है. उसे वे किसी से बताना भी नहीं चाहती हैं. उन की बेटियां भी अपनी मां की समस्या किसी से नहीं कहती थीं.

वैसे, दोनों बेटियों से भी राहुल का भाईबहन का रिश्ता बन गया था. उन के बच्चे उसे ‘मामामामा’ कहते नहीं थकते थे. फिर भी वह एक सीमा से ज्यादा आगे नहीं बढ़ता था. लोग हैरान थे कि राहुल अभी तक वहां कैस टिका हुआ है.

आज रात राहुल जल्दी घर आ गया था. एक बार वह जा कर आंटी से मिल आया था, जो एक नियम सा बन गया था. जब वह देर से घर आता था, तब यह नियम टूटता था. हां, तब आंटी अपने कमरे से ही आवाज लगा देती थीं.

रात के 11 बज रहे थे. राहुल ने सुना कि आंटी चीख रही थीं, ‘मेरा बच्चा… मेरा बच्चा… वह मेरे बच्चे को मुझ से छीन नहीं सकता…’ वे चीख रही थीं और रो भी रही थीं.

पहले तो राहुल ने इसे अनदेखा करने की कोशिश की, पर आंटी की चीखें बढ़ती ही जा रही थीं. इतनी रात को आंटी के पास जाने की उस की हिम्मत नहीं हो रही थी, भले ही उन के बीच मांबेटे का अनकहा रिश्ता बन गया था.

राहुल ने अपने दोस्त प्रशांत को फोन किया और कहा, ‘‘भाभी को लेता आ.’’

थोड़ी देर बाद प्रशांत अपनी बीवी को साथ ले कर आ गया. आंटी के कमरे का दरवाजा खुला हुआ था. यह उन के लिए हैरानी की बात थी. तीनों अंदर घुसे. राहुल सब से आगे था. उसे देखते ही पलंग पर लेटी आंटी चीखीं, ‘‘तू आ गया… मुझे पता था कि तू एक दिन जरूर अपनी मां की चीख सुनेगा और आएगा. उन्होंने तुझे छोड़ दिया. आ जा बेटा, आ जा, मेरी गोद में आ जा.’’

राहुल आगे बढ़ा और आंटी के सिर को अपनी गोद में ले कर सहलाने लगा. आंटी को बहुत अच्छा लग रहा था. उन को लग रहा था, जैसे उन का अपना बेटा आ गया. धीरेधीरे वे नौर्मल होने लगीं.

प्रशांत और उस की बीवी भी वहीं आ कर बैठ गए. उन्होंने आंटी से पूछने की कोशिश की, पर उन्होंने टाल दिया. वे राहुल की गोद में ही सो गईं. उन की नींद को डिस्टर्ब न करने की खातिर राहुल बैठा रहा.

थोड़ी देर बाद प्रशांत और उस की बीवी चले गए. राहुल रातभर वहीं बैठा रहा. सुबह जब आंटी ने राहुल की गोद में अपना सिर देखा, तो राहुल के लिए उन के मन में प्यार हिलोरें मारने लगा. उन्होंने उस को चायनाश्ता किए बिना जाने नहीं दिया.

राहुल ने दफ्तर पहुंच कर आंटी की बड़ी बेटी को फोन किया और रात में जोकुछ घटा, सब बता दिया. फोन सुनते ही बेटी शाम तक घर पहुंच गई. उस बेटी ने बताया, ‘‘जब मेरी छोटी बहन 5 साल की हुई थी, तब हमारा भाई लापता हो गया था. उस की उम्र तब 3 साल की थी. मांबाप दोनों काम पर चले गए थे.

‘‘हम दोनों बहनें अपने भाई के साथ खेलती रहतीं, लेकिन एक दिन वह खेलतेखेलते घर से बाहर चला गया और फिर कभी वापस नहीं आया. ‘‘उस समय बच्चों को उठा ले जाने वाले बाबाओं के बारे में हल्ला मचा हुआ था. यही डर था कि उसे कोई बाबा न उठा ले गया हो.

‘‘मां कभीकभी हमारे भाई की याद में बहक जाती हैं. तभी वे परेशानी में अपने बेटे के लिए रोने लगती हैं.’’ आंटी की बड़ी बेटी कुछ दिन वहीं रही. बड़ी बेटी के जाने के बाद छोटी बेटी आ गई. आंटी को फिर कोई दौरा नहीं पड़ा.

2 दिन हो गए आंटी को. राहुल नहीं दिखा. ‘खटखट’ की आवाज से उन को यह तो अंदाजा था कि राहुल यहीं है, लेकिन वह अपनी आंटी से मिलने क्यों नहीं आया, जबकि तकरीबन रोज एक बार जरूर वह उन से मिलने आ जाता था. उस के मिलने आने से ही आंटी को तसल्ली हो जाती थी कि उन के बेटे को उन की फिक्र है. अगर वह बाहर जाता, तो कह कर जाता, पर उस के कमरे की ‘खटखट’ बता रही थी कि वह यहीं है. तो क्या वह बीमार है? यही देखने के लिए आंटी उस के कमरे पर आ गईं.

राहुल बुखार में तप रहा था. आंटी उस से नाराज हो गईं. उन की नाराजगी जायज थी. उन्होंने उसे डांटा और बोलीं, ‘‘तू ने अपनी आंटी को पराया कर दिया…’’ वे राहुल की तीमारदारी में जुट गईं. उन्होंने कहा, ‘‘देखो बेटा, तुम्हारे मांबाप जब तक आएंगे, तब तक हम ही तेरे अपने हैं.’’

राहुल के ठीक होने तक आंटी ने उसे कोई भी काम करने से मना कर दिया. उसे बाजार का खाना नहीं खाने दिया. वे उस का खाना खुद ही बनाती थीं.

राहुल को वहां रहते तकरीबन 9 महीने हो गए थे. समय का पता ही नहीं चला. वह यह भी भूल गया कि उस का जन्मदिन नजदीक आ रहा है. उस की मम्मी सविता ने फोन पर बताया था, ‘हम दोनों तेरा जन्मदिन तेरे साथ मनाएंगे. इस बहाने तेरा मकान भी देख लेंगे.’

आज राहुल की मम्मी सविता और पापा रामलाल आ गए. उन को चिंता थी कि राहुल एक अनजान शहर में कैसे रह रहा है. वैसे, राहुल फोन पर अपने और आंटी के बारे में बताता रहता था और कहता था, ‘‘मम्मी, मुझे आप जैसी एक मां और मिल गई हैं.’’

फोन पर ही उस ने अपनी मम्मी को यह भी बताया था, ‘‘मकान किराए पर लेने से पहले लोगों ने मुझे बहुत डराया था कि मकान मालकिन बहुत खड़ूस हैं. ज्यादा दिन नहीं रह पाओगे. लेकिन मैं ने तो ऐसा कुछ नहीं देखा.’’ तब उस की मम्मी बोली थीं, ‘बेटा, जब खुद अच्छे तो जग अच्छा होता है. हमें जग से अच्छे की उम्मीद करने से पहले खुद को अच्छा करना पड़ेगा. तेरी अच्छाइयों के चलते तेरी आंटी भी बदल गई हैं,’ अपने बेटे के मुंह से आंटी की तारीफ सुन कर वे भी उन से मिलने को बेचैन थीं.

राहुल मां को आंटी के पास बैठा कर अपने दफ्तर चला गया. दोनों के बीच की बातचीत से जो नतीजा सामने आया, वह हैरान कर देने वाला था.

राहुल के लिए तो जो सच सामने आया, वह किसी बम धमाके से कम नहीं था. उस की आंटी जिस बच्चे के लिए तड़प रही थीं, वह खुद राहुल था. मां ने अपने बेटे को उस की आंटी की सचाई बता दी और बोलीं, ‘‘बेटा, ये ही तेरी मां हैं. हम ने तो तुझे एक बाबा के पास देखा था. तू रो रहा था और बारबार उस के हाथ से भागने की कोशिश कर रहा था. हम ने तुझे उस से छुड़ाया. तेरे मांबाप को खोजने की कोशिश की, पर वे नहीं मिले.

‘‘हमारा खुद का कोई बच्चा नहीं था. हम ने तुझे पाला और पढ़ाया. जिस दिन तू हमें मिला, हम ने उसी दिन को तेरा जन्मदिन मान लिया. अब तू अपने ही घर में है. हमें खुशी है कि तुझे तेरा परिवार मिल गया.’’ राहुल बोला, ‘‘आप भी मेरी मां हैं. मेरी अब 2-2 मांएं हैं.’’ इस के बाद घर के दोनों हिस्से के बीच की दीवार टूट गई.

लेखक- अभय कृष्ण गुप्ता

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घर पर रहें और सुरक्षित रहें

मीतू ने व्हाट्सऐप पर नीलिमा का भेजा यह मैसेज पढ़ा और एक ठंडी सांस भरी क्या सुरक्षित रहे. पता नहीं कैसी मुसीबत आ गई है. कितनी अच्छीखासी लाइफ चल रही थी. कहां से यह कोरोना आ गया. दुनिया भर में त्राहित्राहि मच गई है. खुद मेरी जिंदगी क्या कम उलझ कर रह गई है. सोचते हुए दोनों हाथों से सिर को पकड़ते हुए वह धप से सोफे पर बैठ गई.

मीतू का ध्यान दीवार पर लगी घड़ी पर गया. 2 बज रहे थे दोपहर के खाने का वक्त हो गया था. रिषभ को अभी भी हलका बुखार था. खांसी तो रहरह कर आ ही रही है.

रिषभ उस का पति. बहुत प्यार करती है वह उस से लव मैरिज हुई थी दोनों की. कालेज टाइम में ही दोनों का अफेयर हो गया था. रिषभ तो जैसे मर मिटा था उस पर. एकदूसरे के प्यार में डूबे कालेज के तीन साल कैसे गुजर गए थे, पता ही नहीं चला दोनों को. बीबीए करने के बाद एमबीए कर के रिषभ एक अच्छी जौब चाहता था ताकि लाइफ ऐशोआराम से गुजरे. मीतू से शादी कर के वह एक रोमांटिक मैरिड लाइफ गुजारना चाहता था.

रिषभ ने जैसा सोचा था बिलकुल वैसा ही हुआ. वह उन में से था जो, जो सोचते हैं वहीं पाते हैं. अभी उस की एमबीए कंपलीट भी नहीं हुई थी उस का सलेक्शन टौप मोस्ट कंपनी में हो गया. सीधे ही उसे अपनी काबिलियत के बूते पर बिजनेस डेवलपमेंट मैनेजर की पोस्ट मिल गई.

दिल्ली एनसीआर नोएड़ा में कंपनी थी उस की. मीतू को अच्छी तरह याद है वह दिन जब पहले दिन रिषभ ने कंपनी ज्वाइन की थी. जमीन पर पैर नहीं पड़ रहे थे उस के. लंच ब्रेक में जब उसे मोबाइल मिलाया था तब उस की आवाज में खुशी, जोश को अच्छी तरह महसूस किया था उस ने.

‘मीतू तुम सीधा मैट्रो पकड़ कर नोएडा सेक्टर 132 पहुंच जाना शाम को. मैं वहीं तुम्हारा इंतजार करूंगा. आज तुम्हें मेरी तरफ से बढ़िया सा डिनर, तुम्हारी पसंद का.’

कितना इंजौय किया था दोनों ने वह दिन. सब कितना अच्छा. भविष्य के कितने सुनहरे सपने दोनों ने एकदूसरे का हाथ थाम कर बुने थे.

रिषभ की खुशी, उस का उज्जवल भविष्य देख बहुत खुश थी वह. मन ही मन उस ने अपनेआप से वादा किया था कि रिषभ को वह हर खुशी देने की कोशिश करेंगी. बचपन में ही अपने मातापिता को एक हादसे में खो दिया था उस ने. लेकिन बूआ ने खूब प्यार लेकिन अनुशासन से पाला था रिषभ को, क्योंकि उन की खुद की कोई औलाद न थी. मीतू रिषभ की जिंदगी में प्यार की जो कमी रह गई थी, वह पूरी करना चाहती थी.

क्या हुआ उस वादे का, कहां गया वह प्यार. ‘ओफ रिषभ मैं यह सब नहीं करना चाहती तुम्हारे साथ.’ सोचते हुए मीतू को वह दिन फिर से आंखों के आगे तैर गया, जिस दिन रिषभ देर रात गए औफिस से घर वापस आया था. 4 दिन बाद होली आने वाली थी.

साहिर मीतू और रिषभ की आंखों का तारा. 5 साल का हो गया था. शाम से होली खेलने के लिए पिचकाारी और गुब्बारे लेने की जिद कर रहा था.

‘नहीं बेटा कोई पिचकारी और गुब्बारे नहीं लेने. कोई बच्चा नहीं ले रहा. देखो टीवी में यह अंकल क्या बोल रहे हैं. इस बार होली नहीं खेलनी है.’

मीतू ने साहिर को मना तो लिया लेकिन उस का दिल भीतर से कहीं डर गया. टीवी के हर चैनल पर कोरोना वायरस की खबरेें आ रही थी. मानव से मानव में फैलने वाला यह वायरस चीन से फैलता हुआ पूरे विश्व में तेजी से फैल रहा है. लोगों की हालत खराब है.

रिषभ रोज मैट्रो से आताजाता है.  कितनी भीड़ होती है. राजीव चैक मेट्रो स्टेशन पर तो कई बार इतना बुरा हाल होता है कि लोग एकदूसरे पर चढ़ रहे होते हैं. टेलीविजन पर लोगों को एतियात बरतने के लिए बोला जा रहा है.

मीतू उठी और रिमोट से टेलीविजन की वैल्यूम कम की और झट रिषभ का मोबाइल मिलाया. ‘कितने बजे घर आओगे, रिषभ.’

‘यार मीतू, बौस एक जरूरी असाइनमैंट आ गया है. रात 10 बजे से पहले तो क्या ही घर पहुंचुगा.’

‘सुनो भीड़भाड़ से जरा दूर ही रहना. इंटरनेट पर देख रहे हो न. क्या मुसीबत सब के सिर पर मंडरा रही है,‘ मीतू के जेहन में चिंता की लकीरें बढ़ती जा रही थीं.

‘डोंट वरी डियर, मुझे कुछ नहीं होने वाला. बहुत मोटी चमड़ी का हूं. तुम्हे तो पता ही है क्यों…’ रिषभ ने बात को दूसरी तरफ मोड़ना चाहा.

‘बसबस, ज्यादा मत बोलो, जल्दी घर आने की कोशिश करो, कह कर मीतू ने मोबाइल काट दिया लेकिन पता नहीं क्यों मन बैचेन सा था.

उस रात रिषभ देर से घर आया. काफी थका सा था. खाना खा कर सीधा बैडरूम में सोने चला गया.

अगले दिन मीतू ने सुबह दो कप चाय बनाई और रिषभ को नींद से जगाया.

‘मीतू इतनी देर से चाय क्यों लाई. औफिस को लेट हो जाऊंगा,‘ रिषभ जल्दीजल्दी चाय पीने लगा.

‘अरेअरे… आराम से ऐसा भी क्या है. मैं ने सोचा रात देर से आए हो तो जरा सोने दूं. कोई बात नहीं थोड़ा लेट चले जाना औफिस,‘ मीतू ने बोलते हुए रिषभ के गाल को हाथ लगाया, ‘रिषभ तुम गरम लग रहे हो. तबीयत तो ठीक है,‘ मीतू ने रिषभ का माथा छूते हुए कहा.

‘यार, बिलकुल ठीक हूं. बस थोड़ा गले में खराश सी महसूस हो रही है. चाय पी है थोड़ा बैटर लगा है,‘ और बोलता हुआ वाशरूम चला गया.

लेकिन मीतू गहरी चिंता में डूब गई. कल ही तो व्हाट्सऐप पर उस ने कोरोना वायरस से संक्रमित लोगों के लक्षण के बारे में पढ़ा है. खांसी, बुखार, गले में खराश, सांस लेने में दिक्कत…

‘ओह…नो… रिषभ को कहीं… नहींनहीं, यह मैं क्या सोच रही हूं. लेकिन अगर सच में कहीं…’

मीतू के सोचते हुए ही पसीने छूट गए.

तब तक रिषभ वौशरूम से बाहर आ गया. मीतू को बैठा देख बोला, ‘किस सोच में डूबी हो,’ फिर उस का हाथ अपने हाथ से लेता हुआ अपना चेहरा उस के चेहरे के करीब ले आया और एक प्यार भरी किस उस के होंठो पर करना ही चाहता था कि मीतू एकदम पीछे हट गई.

‘अब औफिस के लिए देर नहीं हो रही,’ और झट से चाय के कप उठा कर कमरे से चली गई.

रिषभ मीतू के इस व्यवहार से हैरान हो गया. ऐसा तो मीतू कभी नहीं करती. उलटा उसे तो इंतजार रहता है कि रिषभ पहले प्यार की शुरूआत करे फिर मीतू अपनी तरफ से कमी नहीं छोड़ती थी लेकिन आज मीतू का पीछे हटना, कुछ अजीब लगा रिषभ को.

खैर ज्यादा सोचने का टाइम नहीं था रिषभ के पास. औफिस जाना था. झटपट से तैयार हो गया. नाश्ता करने के लिए डाइनिंग टेबल पर बैठ गया.

मीतू ने नाश्ता रिषभ के आगे रखा और जाने लगी तो वह बोला, ‘अरे, तुम्हारा नाश्ता कहां है. रोज तो साथ ही कर लेती हो मेरे साथ. आज क्या हुआ?’

‘कुछ नहीं तुम कर लो. मैं बाद में करूंगी. कुछ मन नहीं कर रहा.’ मीतू दूर से ही खड़े हो कर बोली.

‘क्या बात है तुम्हारी तबीयत तो ठीक है.’

‘हां सब ठीक है.‘ मीतू साहिर के खिलौने समेटते हुए बोली.

‘साहिर के स्कूल बंद हो गए हैं कोराना वायरस के चलते. चलो अब तुम्हें उसे सुबहसुबह स्कूल के लिए तैयार नहीं करना पड़ेगा. चलो कुछ दिन का आराम हो गया,‘ रिषभ ने मीतू को हंसाने की कोशिश की.

‘खाक आराम हो गया. यह आराम भी क्या आराम है. चारों तरफ खतरा मंडरा रहा है और तुम्हे मजाक सूझ रहा है,‘ मीतू नाराज होते हुए बोली.

‘अरे…अरे, मुझ पर क्यों गुस्सा निकाल रही हो. मेरा क्या कसूर है. मैं फैला रहा हूं क्या वायरस,‘ रिषभ ने बात खत्म करने की कोशिश की, ‘देखो ज्यादा पेनिक होने की जरूरत नहीं.’

‘मैं पेनिक नहीं हो रही बल्कि तुम ज्यादा लाइटली ले रहे हो सब.’

‘ओह, तो यह बात है. कहीं तुम्हें यह तो नहीं लग रहा कि मुझे कोरोना हो गया है. तुम ही दूरदूर रह रही हो. बेबी, आए एम फिट एंड फाइन. ओके शाम को मिलते हैं. औफिस चलता हूं. बाय डियर, ‘बोलता हुआ रिषभ घर से निकल गया.

मीतू के दिमाग में अब रातदिन कोरोना का भय व्याप्त हो गया था. होली आई और चली गई, उन की सोसाइटी में पहले ही नोटिस लग गया था कि कोई इस बार होली नहीं खेलेगा.

मीतू अब जैसे ही रिषभ औफिस से आता उसे सीधे बाथरूम जाने के लिए कहती और कपड़े वही रखी बाल्टी में रख्ने को कहती. फिर शौवर ले कर, कपड़े चेज करने के बाद ही कमरे में जाने देती.

हालात दिन पर दिन बिगड़ ही रहे थे. टेलीविजन पर लगातार आ रही खबरें, व्हाट्सऐप पर एकएक बाद एक मैसेज, कोरोना पर हो रही चर्चाएं मीतू के दिमाग को गड़बड़ा रही थीं.

दूसरी तरफ रिषभ मीतू के बदलते व्यवहार से परेशान हो रहा था. न जाने कहां चला गया था उस का प्यार. बहाने बनाबना कर उस से दूर रहती. साहिर का बहाना बना कर उस के कमरे में सोने लगी थी. साहिर को भी उस से दूर रखती थी. अपने ही घर में वह अछूत बन गया था.

रिषभ का पता है और मीतू भी इस बात से अनजान नहीं थी कि बदलते मौसम में अकसर उसे सर्दीजुकाम, खांसी, बुखार हो जाता है.

लेकिन कोरोना के लक्षण भी तो कुछ इसी तरह के हैं. मीतू पता नहीं क्यों टेलीविजन, व्हाट्सऐप के मैसेज पढ़पढ़ कर उन में इतनी उलझ गई है कि रिषभ को शक की निगाहों से देखने लगी है.

आज तो हद ही हो गई. सरकार ने जनता कफ्यू का ऐलान कर दिया था. रिषभ को रह रह कर  खांसी उठ रही थी. हलका बुखार भी था. रिषभ का मन कर रहा था कि मीतू पहले ही तरह उस के सिरहाने बैठे. उस के बालों में अपनी उंगलियां फेरे. दिल से, प्यार से उस की देखभाल करे. आधी तबीयत तो उस की मीतू की प्यारी मुसकान देख कर ही दूर हो जाती थी. लेकिन अचानक जैसे सब बदल गया था.­

मीतू न तो उस का टैस्ट करवाना चाहती है. रिषभ अच्छी तरह समझ रहा था कि मीतू नहीं चाहती कि आसपड़ोस में किसी को पता चले कि वह रिषभ को कोरोना टैस्ट के लिए ले गई है और लोगों को यह बात पता चले और उन से दूर रहे. खुद को सोशली बायकोट होते वह नहीं देख सकती थी.

मीतू का अपेक्षित व्यवहार रिषभ को और बीमार बना रहा था. उधर मीतू ने आज जब रिषभ सो गया तो उस के कमरे का दरवाजा बंद कर बाहर ताला लगा दिया.

रिषभ दवाई खा कर सो गया था. दोपहर हो गई थी और खाने का वक्त हो रहा था. मीतू अपनी सोच से बाहर निकल चुकी थी.

रिषभ की नींद खुली. थोड़ी गरमी महसूस हुई. दवा खाई थी इसलिए शायद पसीना आ गया था. सोचा, थोड़ी देर बाहर लिविंग रूप में बैठा जाए. पैरों में चप्पल पहनी और चल कर दरवाजे तक पहुंच कर हैंडल घुमाया. लेकिन यह क्या दरवाजा खुला ही नहीं. दरवाजा लौक्ड था.

“मीतूमीतू, दरवाजा लौक्ड है. देखो तो जरा कैसे हो गया यह.” रिषभ दरवाजा पीटते हुए बोला.

“मैं ने लौक लगाया है,” मीतू ने सपाट सा जवाब दिया.

“दिमाग तो सही है तुम्हारा. चुपचाप दरवाजा खोला.”

‘नहीं तुम 14 दिन तक इस कमरे में ही रहोगे. खानेपीने की चिंता मत करो, वो तुम्हें टाइम से मिल जाएगा,‘ मीतू ने जवाब दिया.

‘मीतू तुम यह सब बहुत गलत कर रही हो.‘

‘कुछ गलत नहीं कर रही. मुझे अपने बच्चे की फिक्र है.‘

‘तो क्या मुझे साहिर की फिक्र नहीं है,‘ रिषभ लगभग रो पड़ा था बोलते हुए.

लेकिन मीतू तो जैसे पत्थर की बन गई थी. आज रिषभ का रोना सुन कर भी उस का दिल पिघला नहीं. कहां रिषभ की हलकी सी एक खरोंच भी उस का दिल दुखा देती थी.

रिषभ दरवाजा पीटतेपीटते थक गया तो वापस पलंग पर आ कर बैठ गया. यह क्या डाला था मीतू ने. बीमारी का भय, मौत के डर ने पतिपत्नी के रिश्ते खत्म कर दिया था.

14 दिन कैसे बीते यह रिषभ ही जानता है. मीतू की उपेक्षा को झेलना किसी दंश से कम न था उस के लिए. मीतू उस के साथ ऐसा व्यवहार करेगी, वह सोच भी नहीं सकता था. मौत का डर इंसान को क्या ऐसा बना देता है. जबकि अभी तो यह भी नहीं पूरी तौर से पता नहीं कि वह कोरोना वायरस से संक्रमित है भी या नहीं.

मीतू चाहे बेशक सब एहतियात के तौर पर कर रही हो लेकिन पतिपत्नी के बीच विश्वास, प्यार को एक तरफ रख कर उपेक्षा का जो रवैया अपनाया था, उस ने पतिपत्नी के प्यार को खत्म कर दिया था.

रिषभ कोरोना नेगेटिव निकला पर उन के रिश्ते पर जो नेगेटिविटी आ गई थी उस का क्या.

मीतू दोबारा से रिषभ के करीब आने की कोशिश करती लेकिन रिषभ उस से दूर ही रहता. कोरोना ने उन की जिंदगी को अचानक क्या से क्या बना दिया था. मीतू ने उस दिन दरवाजा लौक नहीं किया था, जिंदगीभर की दोनों की खुशियों को लौक कर दिया था.

Hindi Kahani : माटी की गंध के परे – क्या थी गीता की कहानी

Hindi Kahani : शुभा खाना खातेखाते टीवी देख रही थी, बीचबीच में नीरज से बातें भी करती जा रही थी. सहसा उसे लगा कि उस ने टीवी में गीता को देखा है. मुंह में कौर था. उंगली के इशारे से टीवी की तरफ देखती हुई शुभा बोल उठी, ‘‘देखो, देखो, गीता है वहां.’’ बच्चे चौंक कर मां को देखने लगे, फिर उस की मुद्रा पर हंस दिए. मुंह में कौर होने से शब्द अस्पष्ट से निकले. अस्पष्ट शब्दों से नीरज एकाएक समझ नहीं पाया बात को. समझ कर देखा, तब तक कोई और खबर आने लगी थी.

‘‘ए, चुप रहो तुम लोग,’’ बच्चों को डपट कर शुभा फिर नीरज से बोली, ‘‘सच नीरज, गीता ही थी, शतप्रतिशत, 2 बार क्लिप में देखा. अभी अपने अलबम में उस का फोटो दिखाऊंगी तुम्हें.’’

खाना समेटने के बाद तौलिए से हाथों को पोंछती शुभा कालेज के समय का अपना अलबम निकाल लाई. पन्ने पलटपलट कर देखने लगी, फिर एक जगह रुक कर उंगली रखती हुई नीरज को दिखाने लगी. चित्र में एक कन्या अपने होंठों के कोने पर उंगली रखे झिलमिल दांत दिखाती हंस रही थी. साधारण सी लड़की का असाधारण फोटो.

नीरज को बड़ी शोख सी लगी लड़की. ‘‘वाह, क्या पोज बनाया है तुम्हारी सहेली ने, एकदम फिल्म स्टार लग रही है.’’‘‘हां, पापा ठीक कहते हैं. हेमा मालिनी लग रही हैं, आंटी,’’ नन्ही नीता होहो कर के हंसने लगी. कुछ मजाक का पुट था उन के स्वरों में. शुभा तुनक गई.

‘‘देखो, मजाक मत करो तुम लोग. सच, इसी को टीवी पर देखा था किसी भाषण में. आई होगी भाषण सुनने.’’‘‘अरे छोड़ो, तुम्हें क्या करना है. तुम शाम के खाने की तैयारी करो. याद है न, करीब 7 लोग आएंगे खाना खाने. मैं जाता हूं औफिस.’’

नीरज चला गया था. बच्चे खेलने में व्यस्त हो गए थे. शुभा को अकेलापन मिला तो फिर गीता स्मृतियों में हलचल मचाने चली आई. अतीत की झील में वर्तमान ने कंकड़ उछाल दिया. छोटीबड़ी लहरें एकदूसरे को उलांघती उसे छूने लगीं. गीता उस की प्रिय सहेली थी. बचपन की, गुड्डेगुडि़यों की उम्र की, चुहल शरारतों की, कालेज की. बचपन तो सहज सा ही गुजरा था. कालेज के दिनों में गीता अपने में डूब गई थी. एक अलग सी दुनिया बसा ली थी उसने.

अचानक नीता के रोने की आवाज आई. नलिन, नीता के लड़ने के स्वर तो बहुत देर से सुनाई दे रहे थे, पर जैसे चेतना के दायरे में न थे. विचारों में व्यवधान पड़ने पर उसे होश आया. झपट कर बच्चों के पास पहुंची. पूरा कमरा खिलौनों से अटा पड़ा था. बस्ते इधरउधर मुंह औंधा कर पड़े थे. कपड़े अलमारी से बाहर लटक रहे थे. शुभा ने कमरा देखा तो चिल्ला पड़ी, ‘‘यह क्या हाल कर दिया कमरे का.’’

दोनों बच्चे सहम कर खड़े हो गए. नीता का रोना थम गया. डरतेडरते वह ही बोली, ‘‘मैं ने तो भैया के बाद फेंका है उन का सामान, पहले तो…’’नलिन बात काट कर खीजा, ‘‘नहींनहीं, इसी ने पहले मेरे बैग से ड्राइंग की कौपी निकाली थी.’’‘‘चुप रह कर खेलो, खबरदार जो अब आवाज सुनाई दी,’’ बच्चों को डांट कर उस का ध्यान गीता में ही उलझ गया.

कालेज के दिन, कितने ही वाकिए, बातें याद आती रहीं. इन सब में गीता कहीं न कहीं से आ टपकती. गीता एक पहेली सी लगती थी. बेबाक, शोख, शर्मलिहाज से परे, पर उद्दंड नहीं थी. कब क्या कर गुजरती, कोई जान नहीं पाता था. मध्यवर्गीय परिवार में जन्मी थी, पर सपने ऐसे कि आसमान को छू कर भी आगे निकलने का प्रयास करते, गहरा असंतोष दिखाती,  कभी बड़ेबड़े लोगों से मिलने की ललक, धनवान बन जाने की चाह. आज उस की बहुत सारी बातें समझ में आ रही थीं. वरना तब तो कैसी लगती थी वह, कभी तेजतर्रार, कभी मायूस, कभी मासूम.

शुभा ने अपना ध्यान गीता की यादों से बाहर निकालने की कोशिश की तो एकदम से उस को याद आ गया कि उसे मेहमानों के लिए शाम की तैयारी करनी है, जल्दीजल्दी सारा घर सैट किया. अलबम अलमारी में रख कर शाम की व्यवस्था में लग गई. काम करते हुए हाथ अभ्यासवश चल रहे थे पर दिलदिमाग दूर, बहुत दूर उड़े जा रहे थे गीता के संगसंग. भीतर ही भीतर खदबदा रही थी शुभा.

फिर बहुत दिन निकल गए. रोजमर्रा के काम के बीच गीता के बारे में सोचना छोड़ दिया. एक शाम नीरज ने आते ही पूछा, ‘‘तुम्हारी बिनाका के पोज वाली सहेली का क्या नाम है, शुभा?’’‘‘गीता, पर क्यों, कैसे याद आई अचानक से?’’‘‘अचानक से क्यों? आज सुबह ही देखा था, हमारे बैंक में आई थी लौकर डील करने.’’ शुभा के कान उत्सुक हो उठे.

‘‘मंत्री की बीवी है वह, साथ में क्या लावलश्कर था. अर्दली, सिक्योरिटी, 3-4 कारें थीं. पूरा दफ्तर ही व्यस्त हो गया उन्हें लौकर डील कराने में. कोई दौड़ कर कुरसी ला रहा था तो कोई पानी, कोई कोल्डडिं्रक तो कोई क्लर्क फाइल ले कर उन के पीछे चुपचाप खड़ा था. लौकर वाला क्लर्क चाबी ले कर साथ चलने के इंतजार में खड़ा था. क्या शान से आई और क्या शान से चली गई. किसी की तरफ आंख उठा कर तक न देखा.’’

‘‘तुम क्या कर रहे थे, तुम भी तो कुछ कर ही रहे होगे मंत्रीजी की पत्नी को दिखाने के लिए?’’‘‘मैं तो कुछ कर ही नहीं पाया. धड़धड़ाती आई थी तो कुछ सूझा ही नहीं. बस, बारबार किसी को यह बताने का मन कर रहा था कि इस को मैं जानता हूं. यह मेरी बीवी की सहेली है. पर बाबा, अच्छा हुआ जो किसी से नहीं कहा वरना बड़ी खिंचाई करते सब के सब. कुछ भी कहो, बड़ा ठसका था उस का.’’

‘‘कौन से मंत्री हैं?’’

‘‘राज्यमंत्री हैं.’’‘‘गीता ने शादी मंत्री से की या मंत्री बाद में बने?’’‘‘अब यह जन्मपत्री मैं कैसे जान सकता हूं. तुम्हारी सहेली है, तुम्हें ज्यादा पता होना चाहिए.’’

एक झटका ही काफी था, शुभा की स्मृतियों की मुट्ठी खुल गई. कितने ही क्षण लुढ़क पड़े, अपने, बेगाने, जेहन में कितनी ही परछाइयां सी आड़ीतिरछी हो कर घूमने लगीं. गीता का शोखभरा व्यक्तित्व. अपने साधारण से कपड़ों को संवारसंवार कर पहनती, नित नए ढंग से बाल बनाती, कभी चुन्नी से सिर ढकती, कभी गले में लहरा कर चलती, अलगथलग दिखने की चाह में कसे कपड़ों पर ढीला सा मर्दाना स्वेटर पहनती. कालेज की अमीरअमीर लड़कियों से दोस्ती करती, उन के घर चली जाती फिर आ कर उन के घर का विस्तार से वर्णन खूब रस लेले कर करती.

न जाने किस भाव से उस की आंखें चमकने लगती थीं. दृष्टि में स्वप्न से उतर आते थे. एक बार तंग आ कर शुभा ने पूछा, ‘क्या वे बुलाती हैं?’

‘नहीं बुलातीं तो क्या, मुझे उन के बारे में जान कर अच्छा लगता है. मसलन, वे कैसे रहती हैं. क्या तौरतरीके हैं उन के रहनेसहने के, उन के पास क्याक्या है?’

‘तुझे क्या करना है यह सब जान कर?’‘वाह, क्यों नहीं करना मुझे. सब पता तो होना चाहिए न. जब मैं अमीर बन जाऊंगी तब मुझे सबकुछ आता होगा उन जैसा ही.’

ओह तो यह रहस्य था, फिर भी न जाने क्यों यह सब पागलपन के अलावा कुछ नहीं लगता था तब. उस की बातें कोरी गप लगती थीं पर उस के कहने का आत्मविश्वास ऐसा होता था कि लगता था शायद सच ही कह रही हो. उस का सोचने का आलम निराला ही था. कालेज की लाइब्रेरी में मैगजीन के पन्ने पलटती रहती, किसी हीरोइन के गहने देखती. किसी व्यवसायी की जीवनी पढ़ती. उस के फोटो देखती, उस का घर, ड्राइंगरूम, लौन. कितनी हरसत होती थी उस की निगाहों में, कितनी महत्त्वाकांक्षाएं टहलती होती थीं. हम फिल्म देखने जाते तो कहानी, अभिनय के बारे में कोई बात नहीं. बस, घर के भव्य सैट्स उसे लुभाते रहते, गाडि़यों की शान में उस की जान रत्तीरत्ती बस जाती. उस की बातों के विषय हमेशा गाड़ी, बंगला, नौकरचाकर, गहने, साडि़यां होते. यह शौक पागलपन की हद तक पहुंचता, कालेज के कंपाउंड में कोई अच्छी गाड़ी दिखी कि वह पहुंच जाती ड्राइवर से गाड़ी के बारे में बातें करने, उसे छू कर देखने.

शादीब्याह में भी सजीधजी, गहनेसाड़ी पहने, मौडर्न दिखती महिलाओं के आसपास मंडराती रहती. तब अजब दीवानगी थी और अब मंत्री की पत्नी. यही तो चाहिए था उसे. चलो, ठीक ही हुआ. जो वह चाहती थी, मिल गया, पर ताज्जुब है, मंत्रीजी मिले कहां से? आखिर अमीर बन ही गई, नाम भी पा ही लिया.

समय के साथसाथ बात फिर आईगई हो गई. जबतब गीता का ध्यान आता भी पर गृहस्थी की व्यस्तता में खो जाता. एक शाम महीने के प्रारंभ में गृहस्थी के सामान से लदेफंदे शुभा और नीरज सवारी की प्रतीक्षा कर रहे थे. तभी एक चमचमाती कार नजदीक आ कर रुकी. कार के काले शीशे को नीचे करता एक चेहरा झांका. शुभा को पलभर भी न लगा उसे पहचानने में, पर वह अनजान बनी सकुचाई सी चुपचाप खड़ी रही. गीता ही लपक कर आई.

‘‘पहचाना नहीं शुभा, मैं गीता हूं. मैं ने तो दूर से ही पहचान लिया था. बहुत खुश हूं तुझे देख कर. यहां कैसे, कब से?’’‘‘यहीं पर हूं 2 साल से. पतिदेव हैं नीरज, यहीं पर पोस्टेड हैं,’’ उत्तर में बचपन की अंतरंगता का लेशमात्र भी पुट न था.‘‘नमस्कार, नीरजजी. आइए, घर छुड़वा दूंगी.’’

फिर ड्राइवर को संबोधित करती हुई वह बोली, ‘‘ड्राइवर, पहले मुझे घर छोड़ देना. शुभा, मुझे पार्टी में जाना है. तैयार होऊंगी. इसलिए घर जल्दी जाना है. ड्राइवर को घर बता देना, वह छोड़ देगा.’’

शुभा अभी तक असंयत थी. सारी शाम दालमसालों और गृहस्थी की खरीदारी में निकली थी जिस से सूती साड़ी बुरी तरह मुस गई थी…गंधा रही थी. यही हाल नीरज का भी था. पैर आगे ही नहीं बढ़े.

‘‘अरे आ न, बैठ.’’

फिर सारे रास्ते गीता ही बोलती रही थी. शुभा को अभी भी छोटेपन का एहसास था, कुछ भी बोलते नहीं बन रहा था. शब्द खो गए थे. बातचीत का विषय ढूंढ़े से भी नहीं मिल रहा था. अजीब सा उतावलापन छाया हुआ था. दोनों हथेलियों को धीरेधीरे मसलती शुभा चुप ही रह गई. नीरज तो एकाध बात कर भी रहा था. बंगले के बाहर गीता उतर गई और भीतर चली गई. अब एक नजर बंगले पर डाली शुभा ने. बहुत बड़ा आधुनिक शैली का बना हुआ था, बड़ा सा लौन, उस में पड़ी रंगबिरंगी कुरसियां, लौन की छतरी, कोने में स्विमिंगपूल. हां, कुत्तों के भूंकने की आवाज भी आई थी. 2-4 तो होंगे ही. कार चल दी थी. नीरज रास्ता बताता जा रहा था.

घर आ कर भी शुभा पर कार वगैरह का रोब इतना हावी रहा कि मूड उखड़ा ही रहा.वह चिनचिनाई, ‘‘क्या जरूरत थी तुम्हें कार में जाने की.’’‘‘मैं गया था क्या कार में? आगेआगे तो तुम ही लपकी थीं,’’ नीरज तुनका.

जूड़े का पिन निकालती हुई वह बड़बड़ाई, ‘शान दिखाने को ले गई थी साथ. यह न हुआ कि घर तक छोड़ने आ जाती. गैरों की तरह ड्राइवर के साथ भेज दिया. हम भी पागल थे जो उस के बुलाते ही तुरंत चल पड़े. होगी अपने घर की बड़ी अमीर. हम तो जैसे हैं वैसे ही अच्छे,’ शुभा अपने मन की खीज उतार रही थी. शीशे में साड़ी का मुसापन और चेहरे की थकान बुरी लग रही थी.

‘‘अब बंद करो यह बड़बड़ाना. जो हो गया सो हो गया. तब क्यों नहीं बोलीं? तब बोलतीं न?’’क्या बोलती शुभा? तब तो सबकुछ भूल गई थी. एक भी बात न पूछी गीता से. न ही अपनी कही. कैसी गूंगी सी बैठी रही पूरे समय. रात तक यही बातें घूमफिर कर सालती रहीं उसे.

अगले दिन सुबह ही सादे परिवेश में लिपटी गीता आ गई मुसकराते हुए. आ कर जोर से शुभा को गले लगाया और खुद घर तक न छोड़ने की क्षमा भी मांग ली. बातचीत की सहजता ने शुभा को प्रभावित किया. फिर भी सहज होने में थोड़ा समय लिया उस ने. गीता तो सदा से अलमस्त थी. पलंग पर आलथीपालथी मार कर बैठ गई. शुभा को पास ही बिठा लिया.

‘‘पहले यह बता, खाना तो नहीं बनाया तू ने?’’‘‘नहीं, अब बनाऊंगी. नीरज लंच पर घर आते हैं.’’गीता चहक उठी जैसे, ‘‘तब तो बड़ा मजा आएगा, मैं भी तेरे साथ मिल कर खाना बनाऊंगी.’’‘‘आज अमिया बड़ी, अरहर की दाल बनाएंगे, चावल भी. साथ में प्याज व बैगन का भरता और कुरकुरी मोटी रोटी. आम का अचार है क्या?’’

पुरानी मित्रता का भाव उभर आया. लाड़ से सिर हिलाती शुभा गीता के साथ रसोई में चली गई. खाना बनातेबनाते शुभा ने गीता के बारे में जानना चाहा.‘‘कैसी हो, गीता? कैसा लगता है?’’

‘‘छोड़ न, आज हमतुम बचपन की बातें करते हैं.’’‘‘तुझे याद है कैसे बड़ों से छिप कर अमराई जाते थे? पूरी दोपहरी अमिया और इमली बटोरते रहते थे.’’

‘‘हां, नमक लगा कर खाते समय तू कितने तरह के मुंह बनाती थी और कितना हंसते थे हम दोनों.’’‘‘सच शुभा, वैसी हंसी तो अब आती ही नहीं. बातबेबात कितनी हंसी आती थी, तेरी नानी बहुत डांटती थीं. क्या कहती थीं वे डांटते हुए?’’

‘‘ठट्ठा के नहीं हंसती लड़कियां, मुंह की शोभा चली जाती है,’’ मोटी आवाज में शुभा ने नानी की नकल की. देर तक गीता और शुभा हंसती रहीं फिर.

गुडि़यों के ब्याह में सीधे पल्ले की साडि़यां पहन कर गुड्डेगुडि़यों की मां होने का अभिनय करना, इकियादुकिया का खेल, छुपनछुपाई, गुट्टे तिकतिक और जो कुट्टी हो गई तो एकएक चिए का हिसाबकिताब, अमिया की गुठली के पीछे झगड़ा, गुडि़या के जेवर नोचनोच कर वापस करना. और भी न जाने कितने छोटेबड़े, सार्थकनिरर्थक प्रसंग, सारा बचपन ही दोहरा डाला. कालेज के समय की एक भी बात गीता ने नहीं की और न ही अपनी बात, न अपने पति की बात. पूरी चर्चा में गाड़ीबंगला, नौकरचाकर, अमीरी कहीं नहीं थे. था तो हुलसताहुमकता बचपन. उसे पूरे जोश के साथ याद करती रही गीता.

नीरज आए तो लंच में बहुत बेतकल्लुफ हो कर गीता ने खाना खाया. हाथ से चावलदाल का खाना, उंगलियां चाटना. रोटी की तारीफ, भरते के लिए बारबार पूछना शुभा को अच्छा लग रहा था, सहज सा.‘‘शुभा, ऐसा मनोहारी दिन फिर न जाने कब मिले. ला, 1 गिलास पानी पिला, फिर चलती हूं.’’

सुराही की मिट्टी की सोंधी गंध से युक्त पानी के 3-4 गिलास पी गई गीता. मुंह को हथेली से साफ करती गीता की आंखें स्वप्निल हो उठीं, ‘‘कितना बढि़या पानी है, कितनी सोंधी खुशबू है इस में. फ्रिज का पानी पीपी कर तो इस गंध को भूल ही गई थी. शुभा, मिट्टी से तो रिश्ता ही टूट गया मेरा. ऐसा फूल हो गई हूं जो गुलदस्ते में सजा है, फिर भी खिले रहने की भरपूर कामना करता है,’’ कहतेकहते हंस दी गीता, पर कैसी थी यह हंसी, उजड़ीउजड़ी, बियाबान सी हंसी, कितनी मरी हुई, दर्द की खनक से भरी.

‘‘सबकुछ मैं ने अपने हाथों आप ही तो बरबाद कर डाला. शादी के लिए न वर देखा, न उस की उम्र देखी, देखा तो पैसा, नौकरचाकर, बंगला, गाड़ी, हाई सोसाइटी. किसी से शिकायत भी तो नहीं कर सकती. खाली कोख उजाड़ लगती है. मातम मना कर भी क्या करूं? कौन है जो मुझे चाहते हुए भी देखे? मंत्री की पत्नी हूं, एक मुलम्मा चढ़ा रखा है अपने चेहरे पर, मेकअप का, हंसी का. अभी भी मन पूरी तरह मरा नहीं है शुभा, इसलिए फलनेफूलने की उसी चाह को सीने से लगाए मिट्टी तलाशती रहती हूं. धन पाने की चाह में क्याक्या खो दिया. शायद सबकुछ.’’

शुभा की दोनों हथेलियों को अपनी हथेलियों में भींच कर विदा ले कर गीता चल दी अपने सुविधायुक्त गुलदस्ते की ओर, कुछ दिन और खिले रहने की चाह से…माटी की गंध मन में समा कर.

Stories : रामलाल की घर वापसी – कौन थी कमला

Stories :  सात आठ घंटे के सफर के बाद बस ने गांव के बाहर ही उतार दिया था . कमला को भी रामलाल ने अपने साथ बस से उतार लिया था.

“देखो कमला तुम्हारा पति जब तुम्हारे साथ इतनी मारपीट करता है तो तुम उसके साथ क्यों रहना चाहती हो ”

कमला थोड़ी देर तक खामोश बनीं रही . उसने कातर भाव से रामलाल की ओर देखा

“पर …….”

“पर कुछ नहीं तुम मेरे साथ चलो”

“तुम्हारे घर के लोग मेरे बारे में पूछेंगे तो क्या कहोगे”

“कह दूंगा  कि तुम मेरी घरवाली हो, जल्द बाजी में ब्याह करना पड़ा”.

कमला कुछ नहीं बोली .दोनों के कदम गांव की ओर बढ़ गये .

रामलाल के सामने विगत एक माह में घटा एक एक घटनाक्रम चलचित्र की भांति सामने आ रहा था .

रामलाल शहर में मजदूरी करता था . ब्याह नहीं हुआ था इसलिए जो मजदूरी मिलती उसमें उसका खर्च आराम से चल जाता . थोड़े बहुत पैसे जोड़कर वह गांव में अपनी मां को भी भैज देता .गांव में एक बहिन और मां ही रहते हैं . एक बीघा जमीन है पर उससे सभी की गुज़र बसर होना संभव नहीं था .गांव में मजदूरी मिलना कठिन था इसलिए उसे शहर आना पड़ा .शहर गांव से तो बहुत दूर था “पर उसे कौन रोज-रोज गांव आना है” सोचकर यही काम करने भी लगा था . एक छोटा सा कमरा किराए पर ले लिया था . एक स्टोव और कुछ बर्तन . शाम को जब काम से लौटता तो दो रोटी बना लेता और का कर सो जाता . दिन भर का थका होता इसलिए नींद भी अच्छी आती . वह ईमानदारी से काम करता था इस कारण से सेठ भी उस पर खुश रहता . वह अपनी मजदूरी से थोड़े पैसे सेठ के पास ही जमा कर देता

” मालिक जब गांव जाऊंगा तो आप से ले लूंगा ‘ .उसे सेठ पर भरोसा था .

साल भर हो गया था उसे शहर में रहते हुए . इस एक साल में वह अपने गांव जा भी नहीं पाया था .उस दिन उसने देर तक काम किया था . वह अपने कमरे पर देर से पहुंचा था .जल्दबाजी में उसे ध्यान ही नहीं रहा कि वो सेठ से कुछ पैसे ले ले . उसने अपनी जेब टटोली दस का सिक्का उसके हाथ में आ गया “चलो आज का खर्चा तो चल जाएगा कल सेठ से पैसे मिल ही जायेंगे” .रामलाल ने गहरी सांस ली . दो रोटी बनाई और खाकर सो गया .

सुबह जब वह नहाकर काम पर जाने के लिए निकला तो पता चला कि पुलिस वाले किसी को घर से निकलने ही नहीं दे रहे हैं . सरकार ने लांकडाउन लगा दिया है . बहुत देर तक ऐ वह इसका मतलब ही नही समझ पाया .केवल यही समझ में आया कि वो आज काम पर नहीं जा पाएगा .वह उदास कदमों से अपने कमरे पर लौट आया . मकान मालिक उसके कमरे के सामने ही मिल गया था.

“देखो रामलाल लाकडाउन लग गया है महिने भर का .कोई वायरस फैल रहा है . तुम एक काम करो कि जल्दी से जल्दी कमरा खाली कर दो”

रामलाल वैसे ही लाकडाउन का मतलब नहीं समझ पाया था उस पर वायरस की बात तो उसे बिल्कुल भी समझ में नहीं आई ।

“कमरा खाली कर दो …. मुझसे कोई गल्ती हो गई क्या ?’

“नहीं पर तुम काम पर जा नहीं पाओगे तो कमरे का किराया कैसे दोगे”

“क्या महिने भर काम बंद रहेगा “?

“हां घर से निकलोगे तो पुलिस वाले डंडा मारेंगे”.

रामलाल के सामने अंधेरा छाने लगा .उसके पास तो केवल दस का सिक्का ही है . वह कुछ नहीं बोला उदास क़दमों से अपने कमरे में आ कर जमीन पर बिछी दरी पर लेट गया .

उसकी नींद जब खुली तब तक शाम का अंधेरा फैलने लगा था . उसने बाहर निकल कर देखा . बाहर सुनसान था . उसे पैसों की चिंता सता रही थी यदि वह कल ही सेठ से पैसे ले लेता तो कम से खाने की जुगाड़ तो हो जाती . यदि वह सेठ के पास चला जाए तो सेठ उसे पैसे अवश्य दे सकते हैं . उसने कमरे से फिर बाहर की ओर झांका बहुत सारे पुलिस वाले खड़े थे. उसकी हिम्मत बाहर निकलने की नहीं हुई .वह फिर से दरी पर लेट गया . उसकी नींद जब खुली उस समय रात के दो बज रहे थे . भूख के कारण उसके पेट में दर्द सा हो रहा था .वह उठा “दो रोटी बना ही लेता हूं दिन भर से कुछ खाया कहां है” .स्टोव जला लिया पर आटा रखने वाले डिब्बे को खोलने की हिम्मत नहीं हो रही थी .वह जानता था कि उसमें थोड़ा सा ही आटा शेष है .यदि अभी रोटी बना ली तो कल के लिए कुछ नहीं बचेगा .उसने निराशा के साथ डिब्बा खोला और सारे आटे को थाली में डाल लिया . दो छोटी छोटी रोटी ही बन पाई . एक रोटी खा ली और दूसरी रोटी को डिब्बे में रख दिया .

सुबह हो गई थी .उसने बाहर झांक कर देखा .पुलिस कहीं दिखाई नहीं दी  . वह कमरे से बाहर निकल आया . उसके कदम सेठ के घर की ओर बढ़ लिए . सेठ का घर बहुत दूर था छिपते छिपाते वह उनके घर के सामने पहुंच गया था .दिन पूरा निकल आया था .यह सोचकर कि सेठ जाग गये होंगे ,उसके हाथ बाहर लगी घंटी पर पहुंच गए थे .उनके नौकर ने दरवाजा खोला था

“जी मैं रामलाल हूं सेठ के ठेके पर काम करता हूं”

“हां तो…..

“मुझे कुछ पैसे चाहिए हैं”

“हां तो ठेके पर जाना वहीं मिलेंगे, सेठजी घर पर नौकरों से नहीं मिलते”

“पर वो लाकडाउन लग गया है न तो काम तो महिने भर बंद रहेगा”

“तभी आना…”

“तुम एक बार उनसे बोलो तो वो मुझे बहुत चाहते हैं ”

“अच्छा रूको मैं पूछता हूं” . नौकर को  शायद दया आ गई थी उस पर .

नौकर के साथ सेठ ही बाहर आ गए थे .उनके चेहरे पर झुंझलाहट के भाव साफ़ झलक रहे थे जिसे रामलाल नहीं पढ़ पाया . सेठ जी को देखते ही उसने झुक कर पैर पड़ने चाहे थे पर सेठ ने उसे दूर से ही झटक दिया .

“अब तुम्हारी हिम्मत इतनी हो गई कि घर पर चले आए”

“वो सेठ जी कल आपसे पैसे ले नहीं पाया था , मेरे पास बिल्कुल भी पैसे नहीं हैं, ऊपर से लाकडाउन हो गया है इसलिए आना पड़ा” . रामलाल ने सकपकाते हुए कहा .

“चल यहां से बड़ा पैसे लेने आया है, मैं घर पर लेन-देन नहीं करता”

सेठ ने उसे खूंखार निगाहों से घूरा तो रामलाल घबरा गया .उसने सेठ जी के पैर पकड़ लिए “मेरे पास बिल्कुल भी पैसे नहीं हैं थोड़े से पैसे मिल जाते हुजूर” .

सेठ ने उसे ठोकर मारते हुए अंदर चला गया .हक्का-बक्का रामलाल थोड़ी देर तक वहीं खड़ा रहा .उसे समझ में ही नहीं आ रहा था कि वह क्या करे ।.तभी पुलिस की गाड़ियों के आने की आवाज गूंजने लगी . वह भयभीत हो गया और भागने लगा .छिपते छिपाते वह अपने कमरे के नजदीक तक तो पहुंच गया पर यहीं गली में उसे पुलिस वालों ने पकड़ लिया .वह कुछ बोल पाता इसके पहले ही उसके ऊपर डंडे बरसाए जाने लगे थे . रामलाल दर्द से कराह उठा . अबकी बार पुलिस वालों ने गंदी गंदी  गालियां देनी शुरू कर दी थी . तभी एक मोटरसाइकिल पर सवार कुछ नवयुवक आकर रुक गये . उन्होंने ने पुलिस वालों से कुछ बात की . पुलिस ने उन्हें जाने दिया . रामलाल भी इसी का फायदा उठा कर वहां से खिसक लिया . वह हांफते हुए अपने कमरे की दरी पर लेट गया । उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे जिन्हें पौंछने वाला कोई नहीं था . उसे अपनी मां की याद सताने लगी.

“क्या हुआ बेटा रो क्यों रहा है”

“कुछ नहीं मां पीठ पर दर्द हो रहा है”

“अच्छा बता मैं मालिश कर देती हूं”

मां की याद आते ही उसके आंसुओं की रफ्तार बढ़ गई थी . रोते-रोते वह सो गया था . दोपहर का समय ही रहता होगा जब उसकी आंख खुली .उसका सारा बदन दुख रहा था . पुलिस वालों ने उसे बेदर्दी से मारा था  वह कराहता हुआ उठा .बहुत जोर की भूख लगी थी . वह जानता था कि डिब्बे में अभी एक रोटी रखी हुई है .

सूखी और कड़ी रोटी खाने में समय लगा .वह अब क्या करे ? उसके सामने अनेक प्रश्न थे .

मकान मालिक ने दरवाजा भी नहीं खटखटाया था सीधे अंदर घुस आया था ” तुम कमरा कब खाली कर रहे हो”

वह सकपका गया

“मैं इस समय कहां जाऊंगा, आप कुछ दिन रूक जाओ, माहौल शांत हो जाने दो ताकि मैं दूसरा कमरा ढूंढ सकूं”

रामलाल हाथ जोड़कर खड़ा हो गया था .

“नहीं माहौल तो मालूम नहीं कब ठीक होगा तुम तो कमरा कल तक खाली कर दो…. नहीं तो मुझे जबरदस्ती करनी पड़ेंगी” . कहता हुआ वह चला गया . रामलाल को समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे .वह चुपचाप बैठा रहा ।.अभी तो उसे शाम के खाने की भी फ़िक्र थी .

सूरज ढलने को था .रामलाल अभी भी वैसे ही बैठा था खामोश और वह करता भी क्या? . उसने कमरे का दरवाजा जरा सा खोलकर देखा . बाहर पुलिस नहीं थी , वह बाहर निकल आया . थोड़ी दूर पर उसे कुछ भीड़ दिखाई दी .वह लड़खड़ाते हुए वहां पहुंच गया .कुछ लोग खाने का पैकेट बांट रहे थे . वह भी लाईन में लग गया .हर पैकेट को देते हुए वो फोटो खींच रहे थे इसलिए समय लग रहा था . उसका नंबर आया एक व्यक्ति ने उसके हाथ में खाने का पैकेट रखा साथ के और लोग उसके चारों ओर खड़े हो गए .कैमरे का फ्लेश चमकने लगा .फोटो खिंचवा कर वो लोग जा चुके थे . रामलाल भी अपने कमरे कीओर लौट पड़ा “चलो ऊपर वाले ने सुन ली आज के खाने का इंतजाम तो हो गया, इसी में से कुछ बचा लेंगे तो सुबह का लेंगे” .

उसे बहुत जोरों से भूख लगी थी इसलिए कमरे में आते ही उसने पैकेट खोल लिया था . पैकेट में केवल दो मोटी सी पुड़ी थीं और जरा सी सब्जी .सब्जी बदबू मार रहीथी ,शायद वह खराब हो गई थी .हक्का-बक्का रामलाल रोटियों को कुछ देर तक यूं ही देखता रहा फिर उसने मोटी पुड़ी को चबाना शुरू कर दिया . दरी पर लेट कर वह भविष्य के बारे में सोचने लगा . वह अब क्या करें । कमरा भी खाली करना है .अपने गांव भी नहीं लौट सकता क्योंकि ट्रेने और बस बंद हो चुकी है, पैसे भी नहीं है . वह समझ ही नहीं पा रहा था कि वह करे तो क्या करें . उसने फिर से ऊपर की ओर देखा कमरे से आसमान दिखाई नहीं दिया पर उसने मन ही मन भगवान को अवश्य याद किया .

‌उसे सुबह ही पता लगा था कि सरकार की ओर से खाने की व्यवस्था की गई है इसलिए वह ढ़ूढ़ते हुए यहां आ गया था . उसके जैसे यहां बहुत सारे लोग लाईन में लगे थे . वे लोग भी मजदूरी करने दूसरी जगह से आए थे . यहीं उसकी मुलाकात मदन से हुई थी जो उसके पास वाले जिले में था .  उसे से ही उसे पता चला कि बहुत सारे मजदूर शाम को पैदल ही अपने अपने गांव लौट रहे हैं मदन भी उनके साथ जा रहा है .रामलाल को लगा कि यही अच्छा मौका है उसे भी इनके साथ गांव चले जाना चाहिए . पर क्या इतनी दूर पैदल चल पायेगा . पर अब उसके पास कोई विकल्प है भी नहीं यदि मकान मालिक ने जबरन उसे कमरे से निकाल दिया तो वह क्या करेगा .गहरी सांस लेकर उसने सभी के साथ गांव लौटने का मन बना लिया .

शाम को वह अपना सामान बोरे में भरकर निर्धारित स्थान पर पहुंच गया जहां मदन उसका इंतज़ार कर रहा था . सैंकड़ों की संख्या में उसके जैसे लोग थे जो अपना अपना सामान सिर पर रखकर पैदल चल रहे थे .इनमें बच्चे भी थे और औरतें भी .रात का अंधकार फैलता जा रहा था पर चलने वालों के कदम नहीं रूक रहे थे .कुछ अखबार वाले और कैमरा वाले सैकड़ों की इस भीड़ की फोटो खींच रहे थे . इसी कारण से पुलिस वालों ने उन्हें घेर लिया था  .वो गालियां बक रहे थे और लौट जाने का कह रहे थे .भीड़ उनकी बात सुन नहीं रही थी . पुलिस ने जबरन उन्हें रोक लिया था “आप सभी की जांच की जाएगी और रूकने की व्यवस्था की जाएगी कोई आगे नहीं बढ़ेगा” लाउडस्पीकर से बोला जा रहा था .सारे लोग रूक गये थे. एक एक कर सभी की जांच की गई .फिर सभी को इकट्ठा कर आग बुझाने वाली मशीन से दवा छिड़क दी गई . दवा की बूंदें पड़ते ही रामलाल की आंखों में जलन होने लगी थी . मदन भी आंख बंद किए कराह रहा था और भी लोगों को परेशानी हो रही थी पर कोई सुनने को तैयार ही नहीं था .दवा झिड़कने वाले कर्मचारी उल्टा सीधा बोल रहे थे . सारे लोगों को एक स्कूल में रोक दिया गया था . सैकड़ों लोग और कमरे कम . बिछाने के लिए केवल दरी थी . पानी के लिए हैंडपंप था . महिलाओं के लिए ज्यादा परेशानी थी . दो रोटी और अचार खाने को दे दिया गया था .

“साले हरामखोरों ने परेशान कर दिया” बड़बड़ाता हुआ एक कर्मचारी जैसे ही निकला एक महिला ने उसे रोक लिया “क्या बोला ….हरामखोर … अरे हम तो अच्छे भले जा रहे थे हमको जबरन रोक लिया और अब गाली दे रहे हैं” .

महिला की आवाज सुनकर और भी लोग इकट्ठा हो गए थे .

“सालों को जमाई जैसी सुविधाएं चाहिए …”

वह फिर बड़बड़या .

“रोकने की व्यवस्था नहीं थी तो काहे को रोका…दो सूखी रोटी देकर अहसान बता रहे हैं” . किसी ने जोर से बोला था ताकि सभी सुन लें . पर साहब को यह पसंद नहीं आया . उन्होंने हाथ में डंडा उठा लिया था “कौन बोला…जरा सामने तो आओ.. यहां मेरी बेटी की बारात लग रही है क्या ….जो तुम्हें छप्पन व्यंजन बनवाकर खिलवायें”.

सारे सकपका गये .वे समझ चुके थे कि उन्हें कुछ दिन ऐसे ही काटना पड़ेंगे .छोटे से कमरे में बहुत सारे लोग जैसे तैसे रात को सो लेते और दिन में बाहर बैठे रहते .बाथरूम तक की व्यवस्था नहीं थी औरतें बहुत परेशान हो रहीं थीं .कोई नेताजी आए थे उनसे मिलने .वहां के कर्मचारियों ने पहले ही बता दिया था कि कोई नेताजी से कोई शिकायत नहीं करेगा इसलिए बाकी  सारे लोग तो खामोश रहे पर एक बुजुर्ग महिला खामोश नहीं रह पाई . जैसे ही नेताजी ने मुस्कुराते हुए पूछा “कैसे हो आप लोग…. हमने आपके लिए बहुत सारी व्यवस्थाएं की है उम्मीद है आप अच्छे से होंगे”

बुजुर्ग महिला भड़क गई

“दो सूखी रोटी और सड़ी दाल देकर अहसान बता रहे हो .”

किसी को उम्मीद नहीं थी .सभी लोग सकपका गये . एक कर्मचारी उस महिला की ओर दोड़ा ,पर महिला खामोश नहीं हुई “हुजूर यहां कोई व्यवस्था नहीं है हम लोग एक कमरे में भेड़ बकरियों की तरह रह रहे हैं ”

नेताजी कुछ नहीं बोले .वे लौट चुके थे . उनके जाने के बाद सारे लोगों पर कहर टूट पड़ा था .

सरकार ने बस भिजवाई थी ताकि सभी लोग अपने अपने गांव लौट सकें . मदन और रामलाल एक ही बस में बैठ रहे थे ,तभी किसी महिला के रोने की आवाज सुनाई दी थी .उत्सुकता वश वो वहां पहुंच गया था .एक आदमी एक औरत के बाल पकड़ पीठ पर मुक्के मार रहा था . वह औरत दर्द से बिलबिला रही थी .

“इसे क्यों मार रहे हो भाई” रामलाल से सहन नहीं हो रहा था .

“ये तू बीच में मत पड़, ये मेरी घरवाली है समझ गया तू”

उसने अकड़ कर कहा

“अच्छा घरवाली है तो ऐसे मारोगे”

“तुझे क्या जा अपना काम कर”

रामलाल का खून खौलने लगा था “पर बता तो सही इसने किया क्या है”

“ये औरत मनहूस है इसके कारण ही मैं परेशान हो रहा हूं” ,कहते हुए उसने जोर से औरत के बाल खीचे .वह दर्द से रो पड़ी . रामलाल सहन नहीं कर सका . उसने औरत का हाथ पकड़ा और अपनी बस में ले आया .

“तुम  मेरे साथ बैठो देखता हूं कौन माई का लाल है जो तुम्हें हाथ लगायेगा”.

औरत बहुत देर तक सुबकती रही थी . कमला नाम बताया था उसने . उसने तो केवल यह सोचा था कि उसके आदमी का गुस्सा जब शांत हो जायेगा तो वो ही उसे ले जायेगा .पर वो उसे लेने नहीं आया “अच्छा ही हुआ उसने उसका जीवन खराब कर रखा था, पर वह यह जायेगी कहां” . प्रश्न तो रामलाल के थे पर उतर उसके पास नहीं था .बस से उतर कर उसने उसे साथ ले जाने का फैसला कर लिया था .

रामलाल के साथ कमला भी सोचती हुई कदम बढ़ा रही थी . उसे नहीं मालूम था कि उसका भविष्य क्या है पर रामलाल उसे अच्छा लगा था . वह जिन यातनाओं से होकर गुजरी है शायद उसे उनसे छुटकारा मिल जाए .

मां बाहर आंगन में बैठी ही मिल गई थी .

वह उनसे लिपट पड़ा ” मां….” उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे . रो तो मां भी रही थी , जब से लाकडाउन लगा था तब से ही मां उसके लिए बैचेन थीं . उन्होंने उसे अपनी बाहों में जकड़ लिया था .दोनों रो रहे थे , कमला चुपचाप मां बेटे को रोता हुआ देख रही थी .अपने आंसू पौंछ कर उसने कमला की ओर इशारा किया “मां आपकी बहु…..”

चौंक गईं मां ” बहु ….. तूने बगैर मुझसे पूछे ब्याह रचा लिया ….?”

“वो मां मजबूरी थी लाकडाउन के कारण…. गांव आना था इसे कहां छोड़ता…. बेसहारा है न मां”

मां ने नजर भर कर कमला को देखा

“चल अच्छा किया”

मां ने कमला का माथा चूम लिया.

Love Story : एक ताजमहल की वापसी – क्या एक हुए रचना और प्रमोद

Love Story : रचना ने प्रमोद के हाथों में ताजमहल का शोपीस वापस रखते हुए कहा, ‘‘मुझे माफ कर दो प्रमोद, मैं प्यार की कसौटी पर खरी नहीं उतरी. मैं प्यार के इस खेल में बुरी तरह हार गई हूं. मैं तुम्हारे प्यार की इस धरोहर को वापस करने को विवश हो गई हूं. मुझे उम्मीद है कि तुम मेरी इस विवशता को समझोगे और इसे वापस ले कर अपने प्यार की लाज भी रखोगे.’’ प्रमोद हैरान था. उस ने अभी कुछ दिन पहले ही अपने प्यार की मलिका रचना को प्यार का प्रतीक ताजमहल भेंट करते हुए कहा था, ‘यह हमारे प्यार की बेशकीमती निशानी है रचना, इसे संभाल कर रखना. यह तुम्हें हमारे प्यार की याद दिलाता रहेगा. जैसे ही मुझे कोई अच्छी जौब मिलेगी, मैं तुरंत शादी करने आ जाऊंगा. तब तक तुम्हें यह अपने प्यार से भटकने नहीं देगा.’

रचना रोतेरोते बोली, ‘‘मैं स्वार्थी निकली प्रमोद, मुझ से अपने प्यार की रक्षा नहीं हो सकी. मैं कमजोर पड़ गई…मुझे माफ कर दो…मुझे अब इसे अपने पास रखने का कोई अधिकार नहीं रह गया है.’’

प्रमोद असहज हो कर रचना की मजबूरी समझने की कोशिश कर रहा था कि रचना वापस भी चली गई. सबकुछ इतने कम समय में हो गया कि वह कुछ समझ ही नहीं सका. अभी कुछ दिन पहले ही तो उस की रचना से मुलाकात हुई थी. उस का प्यार धीरेधीरे पल्लवित हो रहा था. वह एक के बाद एक मंजिल तय कर रहा था कि प्यार की यह इमारत ही ढह गई. वह निराश हो कर वहीं पास के चबूतरे पर धम से बैठ गया. उस का सिर चकराने लगा मानो वह पूरी तरह कुंठित हो कर रह गया था.

कुछ महीने पहले की ही तो बात है जब उस ने रचना के साथ इसी चबूतरे के पीछे बरगद के पेड़ के सामने वाले मैदान में बैडमिंटन का मैच खेला था. रचना बहुत अच्छा खेल रही थी, जिस से वह खुद भी उस का प्रशंसक बन गया था.

हालांकि वह मैच जीत गया था लेकिन अपनी इस जीत से वह खुश नहीं था. उस के दिमाग में बारबार एक ही खयाल आ रहा था कि यह इनाम उसे नहीं बल्कि रचना को मिलना चाहिए था. बैडमिंटन का कुशल खिलाड़ी प्रमोद उस मैच में रचना को अपना गुरु मान चुका था.

अपनी पूरी ताकत लगाने के बावजूद वह रचना से केवल 1 पौइंट से ही तो जीत पाया था. इस बीच रचना मजे से खेल रही थी. उसे मैच हारने का भी कोई गम न था.

मैच जीतने के बाद भी खुद को वह उस खुशी में शामिल नहीं कर पा रहा था. सोचता, ‘काश, वह रचना के हाथों हार जाता, तो जरूर स्वयं को जीता हुआ पाता.’ यह उस के अपने दिल की बात थी और इस में किसी, क्यों और क्या का कोई भी महत्त्व नहीं था. उसे रचना अपने दिल की गहराइयों में उतरते लग रही थी. किसी खूबसूरत लड़की के हाथों हारने का आनंद भला लोग क्या जानेंगे.

दिन बीतते गए. एक दिन रचना की चचेरी बहन ने बताया कि वह बैडमिंटन मैच खेलने वाली लड़की उस से मिलना चाहती है. वह तुरंत उस से मिलने के लिए चल पड़ा. अपनी चचेरी बहन चंदा के घर पर रचना उस का इंतजार कर रही थी.

‘हैलो,’ मानो कहीं वीणा के तार झंकृत हो गए हों.

उस के सामने रचना मोहक अंदाज में खड़ी मुसकरा रही थी. उस पर नीले रंग का सलवारसूट खूब फब रहा था. वह समझ ही नहीं पाया कि रचना के मोहपाश में बंधा वह कब उस के सामने आ खड़ा हुआ था. हलके मेकअप में उस की नीलीनीली, बड़ीबड़ी आंखें, बहुत गजब लग रही थीं और उस की खूबसूरती में चारचांद लगा रही थीं. रूप के समुद्र में वह इतना खो गया था कि प्रत्युत्तर में हैलो कहना ही भूल गया. वह जरूर उस की कल्पना की दुनिया की एक खूबसूरत झलक थी.

‘कैसे हैं आप?’ फिर एक मधुर स्वर कानों में गूंजा.

वह बिना कुछ बोले उसे निहारता ही रह गया. उस के मुंह से बोल ही नहीं फूट पा रहे थे. चेहरे पर झूलती बालों की लटें उस की खूबसूरती को और अधिक बढ़ा रही थीं. वास्तव में रचना प्रकृति की सुंदरतम रचना ही लग रही थी. वह किंचित स्वप्न से जागा और बोला, ‘मैं अच्छा हूं और आप कैसी हैं?’

‘जी, अच्छी हूं. आप को जीत की बधाई देने के लिए ही मैं ने आप को यहां आने का कष्ट दिया है. माफी चाहती हूं.’

‘महिलाएं तो अब हर क्षेत्र में पुरुषों से एक कदम आगे खड़ी हैं. उन्हें तो अपनेआप ही मास्टरी हासिल है,’ प्रमोद ने हलका सा मजाक किया तो रचना की मुसकराहट दोगुनी हो गई.

‘चंदा कह रही थी कि आप ने कैमिस्ट्री से एमएससी की है. मैं भी कैमिस्ट्री से एमएससी करना चाहती हूं. आप की मदद चाहिए मुझे,’ प्रमोद को लगा, जैसे रचना नहीं कोई सिने तारिका खड़ी थी उस के सामने.

प्रमोद रचना के साथ इस छोटी सी मुलाकात के बाद चला आया, पर रास्ते भर रचना का रूपयौवन उस के दिमाग में छाया रहा. वह जिधर देखता उधर उसे रचना ही खड़ी दिखाई देती. रचना की मुखाकृति और मधुर वाणी का अद्भुत मेल उसे व्याकुल करने के लिए काफी था. यह वह समय था जब वह पूरी तरह रचनामय हो गया था.

दूसरी बार उसे फिर आलोक बिखेरती रचना द्वारा याद किया गया. इस बार रचना जींस में अपना सौंदर्य संजोए थी. चंदा ने उसे आगाह कर दिया था कि रचना शहर के एक बड़े उद्योगपति की बेटी है. इसलिए वह पूरे संयम से काम ले रहा था. उस के मित्रों ने कभी उसे बताया था कि लड़कियों के मामले में बड़े धैर्य की जरूरत होती है. पहल भी लड़कियां ही करें तो और अच्छा, लड़कों की पहल और सतही बोलचाल उन में जल्दी अनाकर्षण पैदा कर सकता है. इसलिए वह भी रचना के सामने बहुत कम बोल कर केवल हांहूं से ही काम चला रहा था. अब की बार रचना ने प्रमोद को शायराना अंदाज में ‘सलाम’ कहा तो उस ने भी हड़बड़ाहट में उसी अंदाज में ‘सलाम’ बजा दिया.

एक तेज खुशबूदार सैंट की महक उस में मादकता भरने के लिए काफी थी. चुंबक के 2 विपरीत ध्रुवों के समान रचना उसे अपनी ओर खींचती प्रतीत हो रही थी. कमरे में वे दोनों थे, जानबूझ कर चंदा उन के एकांत में बाधा नहीं बनना चाहती थी.

‘एक हारे हुए खिलाड़ी की ओर से यह एक छोटी सी भेंट स्वीकार कीजिए,’ कह कर रचना ने एक सुनहरी घड़ी प्रमोद को भेंट की तो वह इतना महंगा तोहफा देख कर हक्काबक्का रह गया.

‘जरा इसे पहन कर तो दिखाइए,’ रचना ने प्रमोद की आंखों में झांक कर उस से आग्रह किया.

‘इसे आप ही अपने करकमलों से बांधें तो…’ प्रमोद ने भी मृदु हास्य बिखेरा.

रचना ने जैसे ही वह सुंदर सी घड़ी प्रमोद की कलाई पर बांधी मानो पूरी फिजा ही सुनहरी हो गई. उसे पहली बार किसी हमउम्र युवती ने छुआ था. शरीर में एक रोमांच सा भर गया था. मन कर रहा था कि घड़ी चूमने के बहाने वह रचना की नाजुक उंगलियों को छू ले और छू कर उन्हें चूम ले. पर ऐसा हुआ नहीं और हो भी नहीं सकता था. प्यार की पहली डगर में ऐसी अधैर्यता शोभा नहीं देती. कहीं वह उसे उस की उच्छृंखलता न समझे. समय की पहचान हर किसी को होनी जरूरी है वरना वक्त का मिजाज बदलते देर नहीं लगती.

अब प्रमोद का भी रचना को कोई सुंदर सा उपहार देना लाजिमी था. प्रमोद की न जाने कितने दिन और कितनी रातें इसी उधेड़बुन में बीत गईं. एक युवती को एक युवक की तरफ से कैसा उपहार दिया जाए यह उस की समझ के परे था. सोतेजागते बस उपहार देने की धुन उस पर सवार रहती. उस के मित्रों ने सलाह दी कि कश्मीर की वादियों से कोई शानदार उपहार खरीद कर लाया जाए तो सोने पर सुहागा हो जाए.

मित्रों के उपहास का जवाब देते हुए प्रमोद बोला, ‘मुझे कुल्लूमनाली या फिर कश्मीर से शिकारे में बैठ कर किसी उपहार को खरीदने की क्या जरूरत है? मेरे लिए तो यहीं सबकुछ है जहां मेरी महबूबा है. मेरा मन कहता है कि रचना बनी ही मेरे लिए है. मैं रचना के लिए हूं और मेरा यह रचनामय संसार मेरे लिए कितना रचनात्मक है, यह मैं भलीभांति जानता हूं.’

यह सुन कर सभी दोस्त हंस पड़े. ऐसे मौके पर दोस्त मजाक बनाने का कोई अवसर नहीं छोड़ते. हासपरिहास के ऐसे क्षण मनोरंजक तो होते हैं, लेकिन ये सब उस प्रेमी किरदार को रास नहीं आते, क्योंकि जिस में उस की लगन लगी होती है. उसे वह अपने से कहीं ज्यादा मूल्यवान समझने लगता है. उसे दरख्तों, झीलों, ऋतुओं और फूलों में अपने महबूब की छवि दिखाई देने लगती है, कामदेव की उन पर महती कृपा जो होती है. कुछ तो था जो उस के मनप्राण में धीरेधीरे जगह बना रहा था. वह खुद से पूछता कि क्या इसी को प्यार कहते हैं. वह कभी घबराता कि कहीं यह मृगतृष्णा तो नहीं है. उस का यह पहलापहला प्यार था.

कहते हैं कि प्यार की पहचान मन को होती है, पर मन हिरण होता है, कभी यहां, कभी वहां उछलकूद करता रहता है. वह ज्यादातर इस मामले में अपने को अनाड़ी ही समझता है.

आजकल वह एकएक पल को जीने की कोशिश कर रहा था. वह मनप्राण को प्यार रूपी खूंटे से बांध रहा था. प्रेमरस में भीगी इस कहानी को वह आगे बढ़ाना चाह रहा था. इस कहानी को वह अपने मन के परदे पर उतार कर प्रेम की एक सजीव मूर्ति बनना चाहता था.

धीरेधीरे रचना से मुलाकातें बढ़ रही थीं. अब तो रचना उस के ख्वाबों में भी आने लगी थी. वह उस के साथ एक फिल्म भी देख आया था और अब अपने प्यार में उसे दृढ़ता दिखाई देने लगी थी. अब उसे पूरा भरोसा हो गया था कि रचना बस उस की है.

प्रमोद मन से जरूर कुछ परेशान था. वह अपने मन पर जितना काबू करता वह उसे और तड़पा जाता. वह अकसर अपने मन से पूछता कि प्यार बता दुश्मन का हाल भी क्या मेरे जैसा है? ‘हाल कैसा है जनाब का…’ इस पंक्ति को वह मन ही मन गुनगुनाता और प्रेमरस में डूबता चला जाता. प्रेम का दरिया किसी गहरे समुद्र से भी ज्यादा गहरा होता है. आजकल प्रमोद के पास केवल 2 ही काम रह गए थे. नौकरी की तलाश और रचना का रचना पाठ.

रचना…रचना…रचना…यह कैसी रचना थी जिसे वह जितनी बार भी भजता, वह उतनी ही त्वरित गति से हृदय के द्वार पर आ खड़ी होती. हृदय धड़कने लगता, खुमार छाने लगता, दीवानापन बढ़ जाता, वह लड़खड़ाने लगता, जैसे मधुशाला से चल कर आ रहा हो.

इसी तरह हरिवंश राय बच्चन की ‘मधुशाला’ उसे पूरी तरह याद हो गई थी, जरूर ऐसे दीवाने को मधुशाला ही थाम सकती है, जिस के कणकण में मधु व्याप्त हो, रसामृत हो, अधरामृत हो, प्रेमी अपने प्रेमी के साथ भावनात्मक आत्मसात हो.

आत्मसात हो कर वह दीनदुनिया में खो जाए. तनमन के बीच कोई फासला न रह जाए. प्रकृति के गूढ़ रहस्य को इतनी आसानी से पा लिया जाए कि प्यार की तलब के आगे सबकुछ खत्म हो जाए, मन भ्रमर बस एक ही पुष्प पर बैठे और उसी में बंद हो जाए. वह अपनी आंखें खोले तो उसे महबूब नजर आए.

अपनी चचेरी बहन चंदा पर प्रेम प्रसंग उजागर न हो इसलिए रचना प्रमोद से बाहर बरगद के पेड़ के नीचे मिलने लगी. वे शंकित नजरों से इधरउधर देखते हुए एकदूसरे में अपने प्यार को तलाश रहे थे. प्रेम भरी नजरों से देख कर अघा नहीं रहे थे. यह प्रेममिलन उन्हें किसी अमूल्य वस्तु से कम नहीं लग रहा था.

उस ने रचना के लिए अपना मनपसंद गिफ्ट खरीद लिया. उसे लग रहा था कि इस से अच्छा कोई और गिफ्ट हो ही नहीं सकता. रंगीन कागज में लिपटा यह गिफ्ट जैसे ही धड़कते दिल से प्रमोद ने रचना को दिया, तो उस की महबूबा भी रोमांच से भर उठी.

‘इसे खोल कर देखूं क्या?’ अपनी बड़ीबड़ी पलकें झपका कर रचना बोली.

‘जैसा आप उचित समझें. यह गिफ्ट आप का है, दिल आप का है. हम भी आप के हैं,’ प्रमोद बोला.

‘वाऊ,’ रचना के मुंह से एकाएक निकला.

उस ने रंगीन कागज के भीतर से ताजमहल की अनुकृति को झांकते पाया. उस के चेहरे पर रक्ताभा की एक परत सी छा गई. यह वह क्षण था जब वे दोनों आनंद के अतिरेक में आलिंगनबद्ध हो गए थे. एकदूसरे में समा गए थे.

न जाने कितनी देर तक वे उसी अवस्था में एकदूसरे के दिल की धड़कनों को सुन रहे थे. इस एक क्षण में उन्होंने मानो एक युग जी लिया था, प्यार का युग तो अनंतकाल से प्रेमीप्रेमिका को मिलने के लिए उकसाता रहता है.

अपने घर आ कर प्रमोद ने रचना का दिया हुआ उपन्यास खोल कर देखा. उस में एक पत्र रखा मिला. रचना ने बड़े सुंदर और सुडौल अक्षरों में लिखा था, ‘प्रमोद, मैं तुम्हें हृदय की गहराइयों में पाती हूं. यह प्यार रूपी अमृत का प्याला मैं रोज पीती हूं, पर प्यासी की प्यासी रह जाती हूं. यह तृप्तता आखिर क्या है? कैसी है? कब पूरी होगी. इस का उत्तर मैं किस से पूछूं. यदि आप को पता हो तो मुझे जरूर बताएं…रचना…’

प्रमोद को मानो दीवानगी का दौरा पड़ गया. उसे लगा कि ऐसा पत्र शायद ही किसी प्रेमिका ने अपने प्रेमी को लिखा होगा. वह संसार का सब से अच्छा प्रेमी है, जिस की प्रेमिका इतने उदात्त विचारों की है. वह एक अत्यंत सुंदरी और विदुषी प्रेमिका का प्रेमी है. इस मामले में वह संसार का सब से धनी प्रेमी है.

उसे नित्य नईनई अनुभूतियां होतीं. वह प्यार के खुमार में सदैव डूबा रहता. कभी खुद को चांद तो रचना को चांदनी कहता. कभी रचना हीर होती तो वह रांझा बन जाता. कभी वह किसी फिल्म का हीरो, तो रचना उस की हीरोइन. वह प्यार के अनंत सागर में डुबकियां लगाता लेकिन इस पर भी उस के मन को चैन न आता.

‘चैन आए मेरे दिल को दुआ कीजिए…’ अकसर वह इस फिल्मी गीत को गुनगुनाता और बेचैन रहता.

कभीकभी उसे लगता कि यह ठीक नहीं है. देवदास बन जाना कहां तक उचित है. दूसरे ही क्षण वह सोचता कि कोई बनता नहीं है, बस, अपनेआप ही देवदास बन जाने की प्रक्रिया चालू हो जाती है जो एक दिन उसे देवदास बना कर ही छोड़ती है. ‘वह भी देवदास बन गया है,’ यह सोच कर उसे अच्छा लगता. लगेहाथ ‘देवदास’ फिल्म देखने की उत्कंठा  भी उस में जागृत हो उठी.

विचारों की इसी शृंखला में सोतेजागते रहना उस की नियति बन गई, जिस दिन रचना उसे दिखाई नहीं देती तो उस के ख्वाबों में आ पहुंचती. उसे ख्वाबों से दूर करना भी उस के वश में नहीं रहता. यदि आंखें बंद करता तो वह उसे अपने एकदम करीब पाता. आंखें खोलने पर रचनाकृति गायब हो जाती और दुखद क्षणों की अनुभूति बन जाती.

इस बीच, प्रमोद को अचानक अपने मामा के यहां जाना पड़ गया. मामा कई दिन से बीमार चल रहे थे और एक दिन उन का निधन हो गया. उन की तेरहवीं तक प्रमोद का वहां रुकना जरूरी हो गया था.

एक दिन चंदा ने रचना को फोन किया तो पता चला कि रचना के उद्योगपति पिता ने उस का विवाह मुंबई के एक हीरा व्यापारी के बेटे के साथ तय कर दिया है. इस बात पर उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था. चंदा ने जब इस दुखद सामाचार को प्रमोद तक पहुंचाया तो फोन सुनते ही उसे लगा कि उस का गला सूख गया है. अमृत कलश खाली हो गया है. रचना इतनी जल्दी किसी और की अमानत हो जाएगी, उस की कल्पना से बाहर की बात थी. वह रोंआसा हो गया और तनमन दोनों से स्तब्ध हो कर रह गया था.

‘अपने को संभालो भाई, यह अनहोनी होनी थी सो हो गई, एक सप्ताह बाद ही उस का विवाह है. वह विवाह से पहले एक बार आप से मिलना चाहती है,’ चंदा ने फोन पर जो सूचना दी थी. उस से प्रमोद का सिर चकराने लगा. इस दुखद समाचार को सुन कर उस का भविष्य ही चरमरा गया था. उस ने तुरंत रचना से मिलने के लिए वापसी की ट्रेन पकड़ी.

दूसरे दिन प्रमोद उसी बरगद के पेड़ के नीचे खड़ा था जहां उस का प्रेममिलन हुआ था. रचना भी छिपतेछिपाते वहां आई और प्रमोद से लिपट कर जोरजोर से रोने लगी. वह प्रमोद को पिताजी के सामने हार कर शादी के लिए तैयार होने की दास्तान सुना रही थी. उस ने अपनी मां से भी प्रमोद के प्यार की बातें कही थीं, पर उन्होंने उस के मुंह पर अपनी उंगली रख दी.

तब से अब तक मां की उंगली मानो उस के होंठों से चिपकी हुई थी. वह न तो ठीक से रो सकती थी, न हंस सकती थी. उस ने अपने पास संभाल कर रखा ताजमहल का शोपीस प्रमोद को वापस देते हुए कहा, ‘‘मुझे माफ कर दो प्रमोद, मैं तुम्हारे प्यार की कसौटी पर खरी नहीं उतरी. मैं प्यार के इस खेल में बुरी तरह हार गई हूं. मैं तुम्हारे प्यार की इस धरोहर को वापस करने के लिए विवश भी हो गई हूं. मुझे उम्मीद है कि तुम मेरी इस विवशता को समझोगे और इसे वापस ले कर अपने प्यार की लाज भी रखोगे.’’

रचना इतना कह कर वापस चली गई और वह उसे जाते देख स्तब्ध रह गया. अब रचना पर उस का कोई अधिकार ही कहां रह गया था. एक धनवान ने फिर एक पाकसाफ मुहब्बत का मजाक उड़ाया था. प्रमोद के हाथों में ताजमहल जरूर था पर उस की मुमताज महल तो कब की जा चुकी थी. उस के प्यार का ताजमहल तो कब का धराशायी हो गया था.

वह अपने अश्रुपूरित नेत्रों से बारबार उस ताजमहल की अनुकृति को देखता और ‘हाय रचना’ कह कर दिल थाम लेता. प्रमोद को ऐसा अहसास हो रहा था कि आज मानो संसार के सारे दुखों ने मिल कर उस पर भीषण हमला कर दिया हो. उस ने ताजमहल के शोपीस को यह कहते हुए उसी चबूतरे पर रख दिया कि जिन प्रेमियों का प्यार सफल और सच्चा होगा वही इसे रखने के अधिकारी होंगे उसे अपने पास रखने की पात्रता अब उस के पास नहीं थी. उस के प्यार की झोली खाली हो गई थी और उस में उसे रखने का अवसर उस ने खो दिया था.

Family Drama : एक और अध्याय – आखिर क्या थी दादी मां की कहानी

Family Drama :  वृद्धाश्रम के गेट से सटी पक्की सड़क है, भीड़भाड़ ज्यादा नहीं है. मैं ने निकट से देखा, दादीमां सफेद पट्टेदार धोती पहने हुए वृद्धाश्रम के गेट का सहारा लिए खड़ी हैं. चेहरे पर  झुर्रियां और सिर के बाल सफेद हो गए हैं. आंखों में बेसब्री और बेबसी है. अंगप्रत्यंग ढीले हो चुके हैं किंतु तृष्णा उन की धड़कनों को कायम रखे हुए है.

तभी दूसरी तरफ से एक लड़का दौड़ता हुआ आया. कागज में लिपटी टौफियां दादीमां के कांपते हाथों में थमा कर चला गया. दादीमां टौफियों को पल्लू के छोर में बांधने लगीं. जैसे ही कोई औटोरिकशा पास से गुजरता, दादीमां उत्साह से गेट के सहारे कमर सीधी करने की चेष्टा करतीं, उस के जाते ही पहले की तरह हो जातीं.

मैं ने औटोरिकशा गेट के सामने रोक दिया. दादीमां के चेहरे से खुशी छलक पड़ी. वे गेट से हाथ हटा कर लाठी टेकती हुई आगे बढ़ चलीं.

‘‘दादीमां, दादीमां,’’ औटोरिकशा से सिर बाहर निकालते हुए बच्चे चिल्लाए.

‘‘आती हूं मेरे बच्चो,’’ दादीमां उत्साह से भर कर बोलीं, औटोरिकशा में उन के पोतापोती हैं, यही समय होता है जब दादीमां उन से मिलती हैं. दादीमां बच्चों से बारीबारी लिपटीं, सिर सहलाया और माथा चूमने लगीं. अब वे तृप्त थीं. मैं इस अनोखे मिलन को देखता रहता. बच्चों की स्कूल से छुट्टी होती और मैं औटोरिकशा लिए इसी मार्ग से ही निकलता. दादीमां इन अमूल्य पलों को खोना नहीं चाहतीं. उन की खुशी मेरी खुशी से कहीं अधिक थी और यही मुझे संतुष्टि दे जाती. दादीमां मुझे देखे बिना पूछ बैठीं, ‘‘तू ने कभी अपना नाम नहीं बताया?’’

‘‘मेरा नाम रमेश है, दादी मां,’’ मैं ने कहा.

‘‘अब तुझे नाम से पुकारूंगी मैं,’’ बिना मेरी तरफ देखे ही दादीमां ने कहा.

स्कूल जिस दिन बंद रहता, दादीमां के लिए एकएक पल कठिन हो जाता. कभीकभी तो वे गेट तक आ जातीं छुट्टी के दिन. तब गेटकीपर उन्हें समझ बुझा कर वापस भेज देता. दादीमां ने धोती की गांठ खोली. याददाश्त कमजोर हो चली थी, लेकिन रोज 10 रुपए की टौफियां खरीदना नहीं भूलतीं. जब वे गेट के पास होतीं, पास की दुकान वाला टौफियां लड़के से भेज देता और तब तक मुझे रुकना पड़ता.

‘‘आपस में बांट लेना बच्चो…आज कपड़े बहुत गंदे कर दिए हैं तुम ने. घर जा कर धुलवा लेना,’’ दादीमां के पोपले मुंह से आवाज निकली और तरलता से आंखें भीग गईं.

मैं मुसकराया, ‘‘अब चलूं, दादी मां, बच्चों को छोड़ना है.’’

‘‘हां बेटा, शायद पिछले जनम में कोईर् नेक काम किया होगा मैं ने, तभी तू इतना ध्यान रखता है,’’ कहते हुए दादीमां ने मेरे सिर पर स्नेह से हाथ फेर दिया था.

‘‘कौन सा पिछला जनम, दादी मां? सबकुछ तो यहीं है,’’ मैं मुसकराया.

दादीमां की आंखों में घुमड़ते आंसू कोरों तक आ गए. उन्होंने पल्लू से आंखें पोंछ डालीं. रास्तेभर मैं सोचता रहा कि इन बेचारी के जीवन में कौन सा तूफान आया होगा जिस ने इन्हें यहां ला दिया.

एक दिन फुरसत के पलों में मैं दादीमां के हृदय को टटोलने की चेष्टा करने लगा. मैं था, दादीमां थीं और वृद्धाश्रम. दादीमां मुझे ले कर लाठी टेकतेटेकते वृद्धाश्रम के अपने कमरे में प्रवेश कर गईं. भीतर एक लकड़ी का तख्त था जिस में मोटा सा गद्दा फैला था. ऊपर हलके रंग की भूरी चादर और एक तह किया हुआ कंबल. दूसरी तरफ बक्से के ऊपर तांबे का लोटा और कुछ पुस्तकें. पोतापोती की क्षणिक नजदीकी से तृप्त थीं दादीमां. सांसें तेजतेज चल रही थीं. और वे गहरी सांसें छोड़े जा रही थीं.

लाठी को एक ओर रख कर दादीमां बिस्तर पर बैठ गईं और मुझे भी वहीं बैठने का इशारा किया. देखते ही देखते वे अतीत की परछाइयों के साथसाथ चलने लगीं. पीड़ा की धार सी बह निकली और वे कहती चली गईं.

‘‘कभी मैं घर की बहू थी, मां बनी, फिर दादीमां. भरेपूरे, संपन्न घर की महिला थी. पति के जाते ही सभी चुकने लगा…मान, सम्मान और अतीत. बहू घर में लाई, पढ़ीलिखी और अच्छे घर की. मुझे लगा जैसे जीवन में कोई सुख का पौधा पनप गया है. पासपड़ोसी बहू को देखने आते. मैं खुश हो कर मिलाती. मैं कहती, चांदनी नाम है इस का. चांद सी बहू ढूंढ़ कर लाई हूं, बहन.

‘‘फिर एकाएक परिस्थितियां बदलीं. सोया ज्वालामुखी फटने लगा. बेटा छोटी सी बात पर ? झिड़क देता. छाती फट सी जाती. मन में उद्वेग कभी घटता तो कभी बढ़ने लगता. खुद को टटोला तो कहीं खोट नहीं मिला अपने में.

‘‘इंसान बूढ़ा हो जाता है, लेकिन लालसा बूढ़ी नहीं होती. घर की मुखिया की हैसियत से मैं चाहती थी कि सभी मेरी बातों पर अमल करें. यह किसी को मंजूर न हुआ. न ही मैं अपना अधिकार छोड़ पा रही थी. सब विरोध करते, तो लगता मेरी उपेक्षा की जा रही है. कभीकभी मुझे लगता कि इस की जड़ चांदनी है, कोई और नहीं.

‘‘एक दिन मुझे खुद पर क्रोध आया क्योंकि मैं बच्चों के बीच पड़ गई थी. रात्रि का दूसरा प्रहर बीत रहा था. हर्ष बरामदे में खड़ा चांदनी की राह देख रहा था. झुंझलाहट और बेचैनी से वह बारबार ? झल्ला रहा था. रात गहराई और घड़ी की सुइयां 11 के अंक को छूने लगीं. तभी एक कार घर के सामने आ कर रुकी. चांदनी जब बाहर निकली तब सांस में सांस आई.

‘‘‘ओह, कितनी देर कर दी. मुझे तो टैंशन हो गई थी,’ हर्ष सिर झटकते हुए बोला था. चांदनी बता रही थी देर से आने का कारण जिसे मैं समझ नहीं पाई थी.

‘‘‘यह ठीक है, लेकिन फोन कर देतीं. तुम्हारा फोन स्विचऔफ आ रहा था,’ हर्ष फीके स्वर में बोला था.

‘‘‘इतने लोगों के बीच कैसे फोन करती, अब आ गई हूं न,’ कह कर चांदनी भीतर जाने लगी थी.

‘‘मुझ से रहा नहीं गया. मैं ने इतना ही कहा कि इतनी रात बाहर रहना भले घर की बहुओं को शोभा नहीं देता और न ही मुझे पसंद है. देखतेदेखते तूफान खड़ा हो गया. चांदनी रूठ कर अपने कमरे में चली गई. हर्र्ष भी उस पर बड़बड़ाता रहा और दोनों ने कुछ नहीं खाया.

‘‘मुझे दुख हुआ, मुझे इस तरह चांदनी को नहीं डांटना चाहिए था. ? झिड़कने के बजाय समझना चाहिए था. लेकिन बहू घर की इज्जत थी, उसे इस तरह सड़क पर नहीं आने देना चाहती थी. एक मुट्ठीभर उपलब्धि के लिए अपने दायित्वों को भूलना क्या ठीक है? नारी को अपनी सुरक्षा और सम्मान के लिए हमेशा ही जूझना पड़ा है.

‘‘हर्ष मेरे व्यवहार से कई दिनों तक उखड़ाउखड़ा सा रहा. लेकिन मैं ने बेटे की परवा नहीं की. हर्ष हर बात पर चांदनी का पक्ष लेता. मां थी मैं उस की, क्या कोई मां अपने बच्चों का बुरा चाहेगी? कई बार मुझे लगता कि बेटा मेरे हाथ से निकला जा रहा है. मैं हर्ष को खोना नहीं चाहती थी.

‘‘यह मेरी कमजोरी थी. मैं हर्ष को समझने की कोशिश करती तो वह अजीब से तर्क देने लग जाता. वह नहीं चाहता कि चांदनी घर में चौकाचूल्हा करे. घर के लिए बाई रखना चाहता था वह, जो मुझे नापसंद था. मैं साफसफाई पसंद थी जबकि सभी अस्तव्यस्त रहने के आदी थे. मूर्ख ही थी मैं कि बच्चों के आगे जो जी में आता, बक देती थी. कभी धैर्य से मैं ने नहीं सोचा कि सामंजस्य किसे कहते हैं.

‘‘चांदनी भी कई दिनों तक गुमसुम रही. बहूबेटा मेरे विरोध में खड़े दिखाई देने लगे थे. एक दिन चांदनी खाना रख कर मेरे सामने बैठ गई. खाना उठाते ही मेरे मुंह से न चाह कर भी अनायास छूट गया, ‘तुम्हारे मायके वालों ने कुछ सिखाया ही नहीं. भूख ही मर जाती है खाना देख कर.’

‘‘चांदनी का मुंह उतर गया, लेकिन कुछ न बोली. आज सोचती हूं कि मैं ने क्यों बहू का दिल दुखाया हर बार. क्यों मेरे मुंह से ऐसे कड़वे बोल निकल जाते थे. अब उस का दंड भुगत रही हूं. आज पश्चात्ताप में जल रही हूं, बहुत पीड़ा होती है, बेटा.’’ दादीमां रोंआसी हो गईं.

‘‘जो हुआ, सो हुआ, दादी मां. इंसान हैं सभी. कुछ गलतियां हो जाती हैं जीवन में,’’ मैं ने अपना नजरिया पेश किया.

दादी आगे कहने लगीं, ‘‘हर्ष को भी न जाने क्या हुआ कि वह मुझ से दूरदूर होता रहा. न जाने मुझ से क्या चूक हो रही थी, वह मैं तब न समझ सकी थी. एक स्त्री होने की वेदना, उस पर वैधव्य. विकट परिस्थिति थी मेरे लिए. लगता था कि मैं दुनिया में अकेली हूं और सभी से बहुत दूर हो चुकी हूं.

‘‘कुछ सालों बाद चांदनी की गोद भर गई. बड़ा संतोष हुआ कि शायद बचीखुची जिंदगी में खुशी आई है. कुछ माह और बीते, चांदनी का समय क्लीनिकों में व्यतीत होता या फिर अपने कमरे में. चांदनी की छोटी बहन नीना आ गई थी. नीना सारा दिन कमरे में ही गुजार देती. देर तक सोना, देर रात तक बतियाते रहना. घर का काफी काम बाई के जिम्मे सौंप दिया गया था.

‘‘एक दिन हर्ष औफिस से जल्दी आया और सीधे रसोई में जा कर डिनर बनाने लगा. इतने में नीना रसोई में आ गई, ‘अरे…अरे जीजू, यह क्या हो रहा है? मुझ से कह दिया होता.’

‘‘मुझ से रहा नहीं गया, सो, बोल पड़ी कि इंसान में समझ हो तो बोलना जरूरी नहीं होता. हर्ष का पारा चढ़ गया और देर तक मुझ पर चीखताचिल्लाता रहा.

‘‘खाना पकाना, कपड़े धोना और छोटेमोटे काम बाई के जिम्मे सौंप कर सभी निश्ंचित थे. मेरे होने न होने से क्या फर्क पड़ता? बाई व्यवहार की अच्छी थी. मेरा भी खयाल रखने लगी. न जाने क्यों मैं सारी भड़ास बाई पर ही निकाल देती. तंग आ कर एक दिन बाई ने काम ही छोड़ दिया. मेरे पास संयम नाम की चीज ही नहीं थी और चांदनी व हर्ष के लिए यह मुश्किल घड़ी थी. यह अब समझ रही हूं.

‘‘समय बीता और चांदनी ने जुड़वां बच्चों को जन्म दिया. बहुत खुशी हुई, जीने की आस बलवती हो गई. चांदनी की बहन नीना कब तक रहती, वह भी चली गई. इस बीच, एक आया रख ली गई. बिस्तर गीला है तो आया, दूध की दरकार है तो आया. हर्ष जब घर में होता, बच्चों की देखभाल में सारा दिन गुजार देता. औफिस का तनाव और घर की जिम्मेदारी ने हर्ष को चिड़चिड़ा बना दिया. हर्ष मेरे सामने छोटीछोटी बात पर भड़क उठता.

‘‘नोक झोक और तकरार में 3 वर्ष बीत गए. मुझ से रहा नहीं गया. एक दिन मैं ने बहू से कह ही दिया कि वह बच्चों को खुद संभाले, दूसरे पर निर्भर होना ठीक नहीं है. हमारे जमाने में यह सब कहां था, सब खुद ही करना पड़ता था.

‘‘जब पता लगा कि चांदनी का स्वास्थ्य कई दिनों से खराब है तो मुझे दुख हुआ. वहीं, इस बात से भी दुख हुआ कि किसी ने मुझे नहीं बताया. क्या मैं सब के लिए पराई हो गई थी?

‘‘पराए होने का एहसास तब हुआ जब एक दिन हर्ष ने मुझे ऐसा आघात दिया जिसे सुन कर मैं तड़प गई थी. वह था, वृद्धाश्रम में रहने का. उस दिन हर्ष मेरे पास आ कर बैठ गया और बोला, ‘मां, तुम्हें यहां न आराम है और न ही मानसिक शांति. मैं चाहता हूं कि तुम वृद्धाश्रम में सुखशांति से रहो.’

‘‘मेरी आंखें फटी की फटी रह गई थीं. मैं जिस मुगालते में थी, वह एक फरेब निकला. संभावनाओं की घनी तहें मेरी आंखों से उतर गईं. कैसे मैं ने अपनेआप को संभाला, यह मैं ही जानती हूं. विचार ही किसी को भला और बुरा बनाते हैं. मेरे विचारव्यवहार बेटाबहू को रास नहीं आए. मुझे वृद्धाश्रम में छोड़ दिया गया. महीनों तक मैं बिन पानी की मछली सी तड़पती रही. आंसू तो कब के सूख चुके थे.

‘‘वृद्धाश्रम की महिलाएं मुझे समझती रहीं, कहतीं, ‘मोह त्याग कर भक्ति का सहारा ले लो. यही भवसागर पार कराएगा. यहां कुछ अपनों के सताए हुए हैं, कुछ अपने कर्मों से.’ मैं ने तो अपने पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी मारी थी. बुजुर्गों को आदर अपने व्यवहार से मिलता है जिस की मैं हकदार नहीं थी.’’दादीमां कुछ देर के लिए चुप हो गईं, फिर मेरी ओर कातर दृष्टि से देखती हुई बोलीं, ‘‘बस, यही है कहानी, बेटा.’’

मैं दादीमां की कहानी से कुछ समझने की कोशिश में था. समझ तो एक ही कारण, बुढ़ापा और परिस्थितियों के अनुरूप स्वयं को न ढाल पाना.

‘‘5 महीने वृद्धाश्रम में काट दिए हैं, बेटा. बेटाबहू कभीकभार मिलने आ जाते हैं. मोहमाया से कौन बच पाया है, न ऋषिमुनी, न योगी. मैं भी एक इंसान हूं. बहूबेटे की अपराधिन हूं. बच्चों की जिंदगी में दखल देना बड़ी भूल थी जिस का पश्चात्ताप कर रही हूं.’’

तभी कमरे की कुंडी किसी ने खड़खड़ाई. विचारों के साथसाथ बातों की शृंखला टूट गई. दादीमां के खाने का वक्त हो गया है, मैं उठ खड़ा हुआ. दादीमां का शाम का समय आपसी बातों में कट जाएगा जबकि लंबी रात व्यर्थ के चिंतन और करवटें बदलने में. सुबह का समय व्यायाम को समर्पित है तो दोपहर का बच्चों की प्रतीक्षा में.

3 दिन बीते, तब लगा कि दादीमां से मिलना चाहिए. मैं तैयार हो कर सीधे वृद्धाश्रम जा पहुंचा. दादीमां नहानेधोने से फ्री हो चुकी थीं. मुझे देख कर उत्साह से भर गईं और कमर सीधी करते हुए बोलीं, ‘‘बच्चों की छुट्टियां कब तक हैं, बेटा? राह देखतेदेखते मेरी आंखें पथरा गई हैं.’’

‘‘क्या कहूं दादी मां, उन बच्चों को उन के मातापिता ने बोर्डिंग स्कूल में भेज दिया, अब वहीं रह कर पढ़ेंगे,’’ मैं ने बु?ो मन से कहा. अब तो मैं वह काम ही नहीं करता. आप को बच्चों से मिलाने के लिए मैं ने यह रूट पकड़ा था.

‘‘क्या? बच्चों को मु?ा से दूर कर दिया. यह अच्छा नहीं किया उन के मातापिता ने. तू ही बता, अब मैं किस के सहारे जिऊंगी? इस से तो अच्छा है कि जीवन को त्याग दूं,’’ दादीमां फूटफूट कर रो पड़ीं.

‘‘दादी मां, मन छोटा मत करो. छुट्टी के दिन बोर्डिंग स्कूल से लाने की जिम्मेदारी मैं ने ले ली है. मैं बच्चों से मिलवा दिया करूंगा,’’ मैं दिलासा देता रहा, जब तक दादीमां शांत न हुईं.

‘‘तू ने बहुत उपकार किए हैं मुझ पर. ऋण नहीं चुका पाऊंगी मैं.’’

‘‘कौन सा?ऋण? क्या आप मेरी दादीमां नहीं हैं, बताइए?’’ मैं ने कहा.

दादीमां ने आंखें पोंछीं और आंखों पर चश्मा चढ़ाते हुए बोलीं, ‘‘हां, तेरी भी दादीमां हूं, मैं धन्य हो गई, बेटा.’’

‘‘फिर ठीक है, कल रविवार है, मैं सुबह आऊंगा आप को लेने.’’

‘‘झूठ तो नहीं कह रहा है, बेटा? अब मुझे डर लगने लगा है,’’ दादीमां ने शंकित भाव से कहा.

‘‘सच, दादी मां, होस्टल से लौट कर रमा से भी मिलवाऊंगा, चलोगी न?’’

‘‘कौन रमा,’’ दादीमां चौंकी.

‘‘मेरी पत्नी, आप की बहू. वह बोली थी कि दोपहर का खाना बना कर रखूंगी, दादीमां को लेते आना.’’

‘‘ना रे, बमुश्किल 2 रोटी खाती हूं,’’ दादीमां थोड़ी देर सोचती रहीं, फिर आंखें बंद कर बुदबुदाईं, ‘‘ठीक है, बहू को नेग देने तो जाना ही पड़ेगा.’’

‘‘कौन सा नेग?’’

‘‘यह तू नहीं समझेगा,’’ दादीमां ने अपने गले में पड़ी सोने की भारी चेन को बिना देखे टटोला, फिर निस्तेज आंखों में एक चमक आ कर ठहर गई.

तभी बाहर कुछ आहट होने लगी. दादीमां ने बिना मुड़े लाठी टटोलतेटटोलते बाहर ?ांका. हर्ष और चांदनी बच्चों के साथ खड़े थे. वे आवाक रह गईं.

‘‘मां, तुम्हें लेने आए हैं हम. बच्चे आप के बिना नहीं रह सकते,’’ हर्ष सिर ?ाकाए बोल रहा था.

घरवालों के बीच मैं क्या करता. अब मेरा क्या काम रह गया था. मैं वहां से चलने लगा, तो दादीमां ने रोक लिया.

‘‘तू कहां जा रहा है,’’ और मुझे हर्ष से मिलवाया. उस ने मुझे धन्यवाद कहा और मां से फिर चलने को कहा.

दादीमां को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था, आतुर हो कर पूछ बैठीं, ‘‘यह सच बोल रहा है न, चांदनी?’’

‘‘सच कह रहे हैं मांजी, हम से जो गलतियां हुईं उन्हें क्षमा कर दीजिए, प्लीज,’’ चांदनी गिड़गिड़ाई.

‘‘क्या गलतियां मुझ से नहीं हुईं, लेकिन अभी एक काम बाकी रह गया है…’’ दादीमां सोच में डूब गईं.

‘‘कौन सा काम, मांजी?’’ चांदनी ने पूछा.

‘‘पहले मैं अपनी छोटी बहू से मिलूंगी. तुम्हें पता है, मुझे एक बेटाबहू और मिले हैं.’’

दादीमां के कहने का मंतव्य सब की समझ में आ गया. सभी की निगाहें मेरी तरफ मुड़ गईं. उधर दादीमां खुशी के मारे बिना लाठी लिए खड़ी थीं मानो कहानी का एक और अध्याय प्रारंभ करने वाली हों. हर्ष बोला, ‘‘ठीक है, हम सब रमेश के यहां चलेंगे. मैं ड्राइवर को कह देता हूं, गाड़ी वहीं ले आए.’’ हर्ष बिना हिचक मां व अपनी पत्नी के साथ मेरी गाड़ी में बैठ गया.

  लेखक: यदु जोशी ‘गढ़देशी’

Stories : स्वीकृति – डिंपल की सोई ममता कैसे जाग उठी

 Stories : आशीष के जाते ही डिंपल दरवाजा बंद कर रसोईघर की ओर भागी. जल्दी से टिफिन अपने बैग में रख शृंगार मेज के समक्ष तैयार होते हुए वह बड़बड़ाती जा रही थी, ‘आज फिर औफिस के लिए देर होगी. एक तो घर का काम, फिर नौकरी और सब से ऊपर वही बहस का मुद्दा…’ 5 वर्ष के गृहस्थ जीवन में पतिपत्नी के बीच पहली बार इतनी गंभीरता से मनमुटाव हुआ था. हर बार कोई न कोई पक्ष हथियार डाल देता था, पर इस बार बात ही कुछ ऐसी थी जिसे यों ही छोड़ना संभव न था.

‘उफ, आशीष, तुम फिर वही बात ले बैठे. मेरा निर्णय तो तुम जानते ही हो, मैं यह नहीं कर पाऊंगी,’ डिंपल आपे से बाहर हो, हाथ मेज पर पटकते हुए बोली थी. ‘अच्छाअच्छा, ठीक है, मैं तो यों ही कह रहा था,’ आखिर आशीष ने आत्मसमर्पण कर ही दिया. फिर कंधे उचकाते हुए बोला, ‘प्रिया मेरी बहन थी और बच्चे भी उसी के हैं, तो क्या उन्हें…’

बीच में ही बात काटती डिंपल बोल पड़ी, ‘मैं यह मानती हूं, पर हमें बच्चे चाहिए ही नहीं. मैं यह झंझट पालना ही नहीं चाहती. हमारी दिनचर्या में बच्चों के लिए वक्त ही कहां है? क्या तुम अपना वादा भूल गए कि मेरे कैरियर के लिए हमेशा साथ दोगे, बच्चे जरूरी नहीं?’ आखिरी शब्दों पर उस की आवाज धीमी पड़ गई थी. डिंपल जानती थी कि आशीष को बच्चों से बहुत लगाव है. जब वह कोई संतान न दे सकी तो उन दोनों ने एक बच्चा गोद लेने का निश्चय भी किया था, पर…

‘ठीक है डिंपी?’ आशीष ने उस की विचारशृंखला भंग करते हुए अखबार को अपने ब्रीफकेस में रख कर कहा, ‘मैं और मां कुछ न कुछ कर लेंगे. तुम इस की चिंता न करना. फिलहाल तो बच्चे पड़ोसी के यहां हैं, कुछ प्रबंध तो करना ही होगा.’ ‘क्या मांजी बच्चों को अपने साथ नहीं रख सकतीं?’ जूठे प्याले उठाते हुए डिंपल ने पूछा.

‘तुम जानती तो हो कि वे कितनी कमजोर हो गई हैं. उन्हें ही सेवा की आवश्यकता है. यहां वे रहना नहीं चाहतीं, उन को अपना गांव ही भाता है. फिर 2 छोटे बच्चे पालना…खैर, मैं चलता हूं. औफिस से फोन कर तुम्हें अपना प्रोग्राम बता दूंगा.’ तैयार होते हुए डिंपल की आंखें भर आईं, ‘ओह प्रिया और रवि, यह क्या हो गया…बेचारे बच्चे…पर मैं भी अब क्या करूं, उन्हें भूल भी नहीं पाती,’ बहते आंसुओं को पोंछ, मेकअप कर वह साड़ी पहनने लगी.

2 दिनों पहले ही कार दुर्घटना में प्रिया तो घटनास्थल पर ही चल बसी थी, जबकि रवि गंभीर हालत में अस्पताल में था. दोनों बच्चे अपने मातापिता की प्रतीक्षा करते डिंपल के विचारों में घूम रहे थे. हालांकि एक लंबे अरसे से उस ने उन्हें देखा नहीं था. 3 वर्ष पूर्व जब वह उन से मिली थी, तब वे बहुत छोटे थे.

वह घर, वह माहौल याद कर डिंपल को कुछ होने लगता. हर जगह अजीब सी गंध, दूध की बोतलें, तारों पर लटकती छोटीछोटी गद्दियां, जिन से अजीब सी गंध आ रही थी. पर वे दोनों तो अपनी उसी दुनिया में डूबे थे. रवि को तो चांद सा बेटा और फूल जैसी बिटिया पा कर और किसी चीज की चाह ही नहीं थी. प्रिया हर समय, बस, उन दोनों को बांहों में लिए मगन रहती. परंतु घर के उस बिखरे वातावरण ने दोनों को हिला दिया. तभी डिंपल बच्चा गोद लेने के विचार मात्र से ही डरती थी और उन्होंने एक निर्णय ले लिया था. ‘तुम ठीक कहती हो डिंपी, मेरे लिए भी यह हड़बड़ी और उलझन असहाय होगी. फिर तुम्हारा कैरियर…’ आशीष ने उस का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा था.

दोनों अपने इस निर्णय पर प्रसन्न थे, जबकि वह जानती थी कि बच्चे पालने का अर्थ घर का बिखरापन ही हो, ऐसी बात नहीं है. यह तो व्यक्तिगत प्रक्रिया है. पर वह अपना भविष्य दांव पर लगाने के पक्ष में कतई न थी. वह अच्छी तरह समझती थी कि यह निर्णय आशीष ने उसे प्रसन्न रखने के लिए ही लिया है. लेकिन इस के विपरीत डिंपल बच्चों के नाम से ही कतराती थी. डिंपल ने भाग कर आटो पकड़ा

और दफ्तर पहुंची. आधे घंटे बाद ही फोन की घंटी घनघना उठी, ‘‘मैं अभी मुरादाबाद जा रहा हूं. मां को भी रास्ते से गांव लेता जाऊंगा,’’ उधर से आशीष की आवाज आई.

‘‘क्या वाकई, मेरा साथ चलना जरूरी न होगा?’’ ‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं, मांजी तो जाएंगी ही. और कुछ दिनों पहले ही बच्चे नानी से मिले थे. उन्हें वे पहचानते भी हैं. तुम्हें तो वे पहचानेंगे ही नहीं. वैसे तो मैं ही उन से कहां मिला हूं. खैर, तुम चिंता न करना. अच्छा, फोन रखता हूं…’’

2 दिनों बाद थकाटूटा आशीष वहां से लौटा और बोला, ‘‘रवि अभी भी बेहोश है, दोनों बच्चे पड़ोसी के यहां हैं. वे उन्हें बहुत चाहते हैं. पर वे वहां कब तक रहेंगे? बच्चे बारबार मातापिता के बारे में पूछते हैं,’’ अपना मुंह हाथों से ढकते हुए आशीष ने बताया. उस का गला भर आया था. ‘‘मां बच्चों को संभालने गई थीं, पर वे तो रवि की हालत देख अस्पताल में ही गिर पड़ीं,’’ आशीष ने एक लंबी सांस छोड़ी.

‘‘मैं ने आज किशोर साहब से बात की थी, वे एक हफ्ते के अंदर ही डबलबैड भिजवा देंगे.’’ ‘‘एक और डबलबैड क्यों?’’ आशीष की नजरों में अचरजभरे भाव तैर गए.

‘‘उन दोनों के लिए एक और डबलबैड तो चाहिए न. हम उन्हें ऐसे ही तो नहीं छोड़ सकते, उन्हें देखभाल की बहुत आवश्यकता होगी. वे पेड़ से गिरे पत्ते नहीं, जिन्हें वक्त की आंधी में उड़ने के लिए छोड़ दिया जाए,’’ डिंपल की आंखों में पहली बार ममता छलकी थी. उस की इस बात पर आशीष का रोमरोम पुलकित हो उठा और वह कूद कर उस के पास जा पहुंचा, ‘‘सच, डिंपी, क्या तुम उन्हें रखने को तैयार हो? अरे, डिंपी, तुम ने मुझे कितने बड़े मानसिक तनाव से उबारा है, शायद तुम नहीं समझोगी. मैं आजीवन तुम्हारे प्रति कृतज्ञ रहूंगा.’’ पत्नी के कंधों पर हाथ रख उस ने अपनी कृतज्ञता प्रकट की.

डिंपल चुपचाप आशीष को देख रही थी. वह स्वयं भी नहीं जानती थी कि भावावेश में लिया गया यह निर्णय कहां तक निभ पाएगा.

डिंपल सारी तैयारी कर बच्चों के आने की प्रतीक्षा कर रही थी. 10 बजे घंटी बजी. दरवाजे पर आशीष खड़ा था और नीचे सामान रखा था. उस की एक उंगली एक ने तो दूसरी दूसरे बच्चे ने पकड़ रखी थी. उन्हें सामने देख डिंपल खामोश सी हो गई. बच्चों के बारे में उसे कुछ भी तो ज्ञान और अनुभव नहीं था. एक तरफ अपना कैरियर, दूसरी तरफ बच्चे, वह कुछ असमंजस में थी. आशीष और बच्चे उस के बोलने का इंतजार कर रहे थे. ऊपरी हंसी और सूखे मुंह से डिंपल ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, ‘‘हैलो, कैसा रहा सफर?’’

‘‘बहुत अच्छा, बच्चों ने तंग भी नहीं किया. यह है प्रार्थना और यह प्रांजल. बच्चो, ये हैं, तुम्हारी मामी,’’ आशीष ने हंसते हुए कहा. परंतु चारों आंखें नए वातावरण को चुपचाप निहारती रहीं, कोई कुछ भी

न बोला. डिंपल ने बच्चों का कमरा अपनी पसंद से सजाया था. अलमारी में प्यारा सा कार्टून पिं्रट का कागज बिछा बिस्कुट और टाफियों के डब्बे सजा दिए थे. बिस्तर पर नए खिलौने रखे थे.

प्रांजल खिलौनों से खेलने में मशगूल हो, वातावरण में ढल गया, किंतु प्रार्थना बिस्तर पर तकिए को गोद में रख, मुंह में अंगूठा ले कर गुमसुम बैठी हुई थी. वह मासूम अपनी खोईखोई आंखों में इस नए माहौल को बसा नहीं पा रही थी. पहले 4-5 दिन तो इतनी कठिनाई नहीं हुई क्योंकि आशीष ने दफ्तर से छुट्टी ले रखी थी. दोनों बच्चे आपस में खेलते और खाना खा कर चुपचाप सो जाते. फिर भी डिंपल डरती रहती कि कहीं वे उखड़ न जाएं. शाम को आशीष उन्हें पार्क में घुमाने ले जाता. वहां दोनों झूले झूलते, आइसक्रीम खाते और कभीकभी अपने मामा से कहानियां भी सुनते.

आशीष, बच्चों से स्वाभाविकरूप से घुलमिल गया था और बच्चे भी सारी हिचकिचाहट व संकोच छोड़ चुके थे, जिसे वे डिंपल के समक्ष त्याग न पाते थे. शायद यह डिंपल के अपने स्वभाव की प्रतिक्रिया थी. एक हफ्ते बाद डिंपल ने औफिस से छुट्टी ले ली थी ताकि वह भी बच्चों से घुलमिल सके. यह एक परीक्षा थी, जिस में आशीष उत्तीर्ण हो चुका था. अब डिंपल को अपनी योग्यता दर्शानी थी. हमेशा की भांति आशीष तैयार हो कर 9 बजे दफ्तर चल दिया. दोनों बच्चों ने नाश्ता किया. डिंपल ने उन की पसंद का नाश्ता बनाया था.

‘‘अच्छा बच्चो, तुम जा कर खेलो, मैं कुछ साफसफाई करती हूं,’’ नाश्ते के बाद बच्चों से कहते समय हमेशा की भांति वह अपनी आवाज में प्यार न उड़ेल पाई, बल्कि उस की आवाज में सख्ती और आदेश के भाव उभर आए थे. थालियों को सिंक में रखते समय डिंपल उन मासूम चेहरों को नजरअंदाज कर गई, जो वहां खड़े उसे ही देख रहे थे. ‘‘जाओ, अपने खिलौनों से खेलो. अभी मुझे बहुत काम करना है,’’ और वह दोनों को वहीं छोड़ अपने कमरे की ओर बढ़ गई.

कमरा ठीक कर, किताबों और फाइलों के ढेर में से उस ने कुछ फाइलें निकालीं और उन में डूब गई. कुछ देर बाद उसे महसूस हुआ, जैसे कमरे में कोई आया है. बिना पीछे मुड़े ही वह बोल पड़ी, ‘‘हां, क्या बात है?’’

परंतु कोई उत्तर न पा, पीछे देखा कि प्रार्थना और प्रांजल खड़े हैं. प्रांजल धीरे से बोला, ‘‘प्रार्थना को गाना सुनना है.’’

डिंपल ने एक ठंडी सांस भर कमरे के कोने में रखे स्टीरियो को देखा, फिर अपनी फाइलों को. उसे एक हफ्ते बाद ही नए प्रोजैक्ट की फाइलें तैयार कर के देनी थीं. सोचतेसोचते उस के मुंह से शब्द फिसला, ‘‘नहीं,’’ फिर स्वयं को संभाल उन्हें समझाते हुए बोली, ‘‘अभी मुझे बहुत काम है, कुछ देर बाद सुन लेना.’’ दोनों बच्चे एकदूसरे का मुंह देखने लगे. वे सोचने लगे कि मां तो कभी मना नहीं करती थीं. किंतु यह बात वे कह न पाए और चुपचाप अपने कमरे में चले गए.

डिंपल फिर फाइल में डूब गई. बारबार पढ़ने पर भी जैसे मस्तिष्क में कुछ घुस ही न रहा था. पैन पटक कर डिंपल खड़ी हो गई. बच्चों के कमरे में झांका, वहां एकदम शांति थी. प्रार्थना तकिया गोद में लिए, मुंह में अंगूठा दबाए बैठी थी. प्रांजल अपने सूटकेस में खिलौने जमाने में व्यस्त था. ‘‘यह क्या हो रहा है?’’

‘‘अब हम यहां नहीं रहेंगे,’’ प्रांजल ने फैसला सुना दिया. उस रात डिंपल दुखी स्वर में पति से बोली, ‘‘मैं और क्या कर सकती हूं, आशीष? ये मुझे गहरी आंखों से टुकुरटुकुर देखा करते हैं. मुझ से वह दृष्टि सहन नहीं होती. मैं उन्हें प्रसन्न देखना चाहती हूं, उन्हें समझाया कि अब यही उन का घर है, पर वे नहीं मानते,’’ डिंपल का सारा गुबार आंखों से फूट कर बह गया.

प्रांजल और प्रार्थना के मौन ने उसे हिला दिया था, जिसे वह स्वयं की अस्वीकृति समझ रही थी. उस ने उन्हें अपनाना तो चाहा लेकिन उन्होंने उसे अस्वीकार कर दिया. ‘‘मैं जानता हूं, यह कठिन कार्य है, पर असंभव तो नहीं. मांजी ने भी उन्हें समझाया था कि उन की मां बहुत दूर चली गई है, अब वापस नहीं आएगी और पिता भी बहुत बीमार हैं. पर उन का नन्हा मस्तिष्क यह बात स्वीकार नहीं पाता. लेकिन धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा.’’

‘‘शायद उन्हें यहां नहीं लाना चाहिए था. कहीं अच्छाई के बदले कुछ बुरा न हो जाए.’’ ‘‘नहीं, डिंपी, हमें ऐसा नहीं सोचना चाहिए. इस समय उन्हें भरपूर लाड़प्यार और ध्यान की आवश्यकता है. हम जितना स्नेह उन्हें देंगे, वे उतने ही समीप आएंगे. वे प्यार दें या न दें, हमें उन्हें प्यार देते रहना होगा.’’

‘‘मेरे लिए शायद ऐसा कर पाना कठिन होगा. मैं उन्हें अपनाना चाहती हूं, पर फिर भी अजीब सा एहसास, अजीब सी दूरी महसूस करती हूं. इन बच्चों के कारण मैं अपना औफिस का कार्य भी नहीं कर पाती जब वे

पास होते हैं तब भी और जब दूर होते हैं तब भी. मेरा मन बड़ी दुविधा में फंसा है.’’ ‘‘मैं ने तो इतना सोचा ही नहीं. अगर तुम को इतनी परेशानी है तो कहीं होस्टल की सोचूंगा. बच्चे अभी तुम से घुलेमिले भी नहीं हैं,’’ आशीष ने डिंपल को आश्वासन देते हुए कहा.

‘‘नहींनहीं, मैं उन्हें वापस नहीं भेजना चाहती, स्वीकारना चाहती हूं, सच. मेरी इच्छा है कि वे हमारे बन जाएं, हमें उन्हें जीतना होगा, आशू, मैं फिर प्रयत्न करूंगी.’’ अगले दिन सुबह से ही डिंपल ने गाने लगा दिए थे. रसोई में काम करते हुए बच्चों को भी आवाज दी, ‘‘मेरी थोड़ी मदद करोगे, बच्चो?’’

प्रांजल उत्साह से भर मामी को सामान उठाउठा कर देने लगा, किंतु प्रार्थना, बस, जमीन पर बैठी चम्मच मारती रही. उस के भोले और उदास चेहरे पर कोई परिवर्तन नहीं था आंखों के नीचे कालापन छाया था जैसे रातभर सोई न हो. पर डिंपल ने जब भी उन के कमरे में झांका था, वे सोऐ ही नजर आए थे. ‘‘अच्छा, तो प्रार्थना, तुम यह अंडा फेंटो, तब तक प्रांजल ब्रैड के कोने काटेगा और फिर हम बनाएंगे फ्रैंच टोस्ट,’’ डिंपल ने कनखियों से उसे देखा. पहली बार प्रार्थना के चेहरे पर बिजली सी चमकी थी. दोनों तत्परता से अपनेअपने काम में लग गए थे.

उस रात जब डिंपल उन्हें कमरे में देखने गई तो भाईबहन शांत चेहरे लिए एकदूसरे से लिपटे सो रहे थे. एक मिनट चुपचाप उन्हें निहार, वह दबेपांव अपने कमरे में लौट आई थी.

अगला दिन वाकई बहुत अच्छा बीता. दोनों बच्चों को डिंपल ने एकसाथ नहलाया. बाथटब में वे पानी से खूब खेले. फिर सब ने साथ ही नाश्ता किया. खरीदारी के लिए वह उन्हें बाजार साथ ले गई और फिर उन की पसंद से नूडल्स का पैकेट ले कर आई. हालांकि डिंपल को नूडल्स कतई पसंद न थे लेकिन उस दोपहर उस ने नूडल्स ही बनाए. आशीष टूर पर गया हुआ था. बच्चों को बिस्तर पर सुलाने से पूर्व वह उन्हें गले लगा, प्यार करना चाहती थी, पर सोचने लगी, ‘मैं ऐसा क्यों नहीं कर पाती? कौन है जो मुझे पीछे धकेलता है? मैं उन्हें प्यार करूंगी, जरूर करूंगी,’ और जल्दी से एक झटके में दोनों के गालों पर प्यार कर बिस्तर पर लिटा आई.

अपने कमरे में आ कर बिस्तर देख डिंपल का मन किया कि अब चुपचाप सो जाए, पर अभी तो फाइल पूरी करनी थी. मुश्किल से खड़ी हो, पैरों को घसीटती हुई, मेज तक पहुंच वह फाइल के पन्नों में उलझ गई. बाहर वातावरण एकदम शांत था, सिर्फ चौकीदार की सीटी और उस के डंडे की ठकठक गूंज रही थी. डिंपल ने सोचा, कौफी पी जाए. लेकिन जैसे ही मुड़ी तो देखा कि दरवाजे पर एक छोटी सी काया खड़ी है.

‘‘अरे, प्रार्थना तुम? क्या बात है बेटे, सोई नहीं?’’ डिंपल ने पैन मेज पर रखते हुए पूछा. पर प्रार्थना मौन उसे देखती रही. उस की आंखों में कुछ ऐसा था कि डिंपल स्वयं को रोक न सकी और घुटनों के बल जमीन पर बैठ प्रार्थना को गले से लिपटा लिया. बच्ची ने भी स्वयं को उस की गोद में गिरा दिया और फूटफूट कर रोने लगी. डिंपल वहीं बैठ गई और प्रार्थना को सीने से लगा, प्यार करने लगी.

काफी देर तक डिंपल प्रार्थना को यों ही सीने से लगाए बैठी रही और उस के बालों में हाथ फेरती रही. प्रार्थना ने उस के कंधे से सिर लगा दिया, ‘‘क्या सचमुच मां अब नहीं आएंगी?’’ अब डिंपल की बारी थी. अत्यंत कठिनाई से अपने आंसू रोक भारी आवाज में बोली, ‘‘नहीं, बेटा, अब वे कभी नहीं आएंगी. तभी तो हम लोगों को तुम दोनों की देखभाल करने के लिए कहा गया है.

‘‘चलो, अब ऐसा करते हैं कि कुछ खाते हैं. मुझे तो भई भूख लग आई है और तुम्हें भी लग रही होगी. चलो, नूडल्स बना लें. हां, एक बात और, यह मजेदार बात हम किसी को बताएंगे नहीं, मामा को भी नहीं,’’ प्रार्थना के सिर पर हाथ फेरते हुए डिंपल बोली. ‘‘मामी, प्रांजल को भी नहीं बताना,’’ प्रार्थना ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘ठीक है, प्रांजल को भी नहीं. तुम और हम जाग रहे हैं, तो हम ही खाएंगे मजेदार नूडल्स,’’ डिंपल के उत्तर ने प्रार्थना को संतुष्ट कर दिया.

डिंपल नूडल्स खाती प्रार्थना के चेहरे को निहारे जा रही थी. अब उसे स्वीकृति मिल गई थी. उस ने इन नन्हे दिलों पर विजय पा ली थी. इतने दिनों उपरांत प्रार्थना ने उस का प्यार स्वीकार कर उस के नारीत्व को शांति दे दी थी. अब न डिंपल को थकान महसूस हो रही थी और न नींद ही आ रही थी. अचानक उस का ध्यान अपनी फाइलों की ओर गया कि अगर ये अधूरी रहीं तो उस के स्वप्न भी…परंतु डिंपल ने एक ही झटके से इस विचार को अपने दिमाग से बाहर निकाल फेंका. उसे बच्ची का लिपटना, रोना तथा प्यारभरा स्पर्श याद हो आया. वह सोचने लगी, ‘हर वस्तु का अपना स्थान होता है, अपनी आवश्यकता होती है. इस समय फाइलें इतनी आवश्यक नहीं हैं, वे अपनी बारी की प्रतीक्षा कर सकती हैं, पर बच्चे…’

डिंपल ने प्रार्थना को प्यारभरी दृष्टि से निहारते देखा तो वह पूछ बैठी, ‘‘अच्छा, यह बताओ, अब कल की रात क्या करेंगे?’’ ‘‘मामी, फिर नूडल्स खाएंगे,’’ प्रार्थना ने नींद से बोझिल आंखें झपकाते हुए कहा.

‘‘मामी नहीं बेटे, मां कहो, मां,’’ कहते हुए डिंपल ने उसे गोद में उठा लिया.

Hindi Kahani : 2 प्रोफाइल के फायदे

Hindi Kahani : 2 ही क्यों, आप चाहें तो कितनी भी प्रोफाइल बना सकते हैं, पर 2 तो जरूरी हैं. यह क्या बात हुई, बस शराफत से फेसबुक पर सीधीसादी एक प्रोफाइल बना कर बैठे हैं. इतनी शराफत का तो जमाना नहीं है भाई, थोड़ी तो बंदा ताकझांक करने की आदत रखे. अब वह जमाना तो है नहीं कि गांव में चौपाल पर बैठ कर ऐब्सैंट लोगों की थोड़ी बुराई कर ली, कुछ जानकारी ले ली, कुछ कच्चा चिट्ठा पता कर लिया. अब तो न पनघट पर कानों की ऐक्सरसाइज होती है, न कोरोना ने किसी को इतना सोशल छोड़ा कि बैठ कर आपस में कुछ निंदा रस का मजा ले ले इंसान.

अब अगर किसी को दूसरे के फटे में टांग अड़ाने की आदत हो तो बंदा क्या करेगा? जमाने के साथ चलता हुआ फेसबुक पर दूसरी फेक प्रोफाइल ही बनाएगा न. किस काम की जिंदगी जब किसी की लाइफ में ताकाझांकी ही न हो. अपनी लाइफ में तो सब मस्त हैं पर मजा तो तभी है न जब किसी और की लाइफ में सेंधमारी की जाए और वह भी किसी दुश्मन की हर हरकत पर नजर रखनी हो तो. वैसे, दूसरे नाम से प्रोफाइल बनाने के अनगिनत फायदे हैं. दुश्मन को पता भी नहीं चलता कि उन पर आप की पैनी नजर है और वे सोचते हैं कि उन्होंने आप को ब्लौक कर के अपने सब राज छिपा लिए.

मूर्ख दुश्मन, आप ब्लौक करने के बाद भी हमारे राडार में हो. नहीं यकीन हो रहा न तो बताती हूं आप को, अंजलि और आरती का किस्सा. किसी बात पर इन दोनों पुरानी सहेलियों का आपस में झगड़ा हो गया. बचपन की सहेलियां थीं पर जब बात अपने बच्चों के आपस में कंपीटिशन पर आई तो दोस्ती गई तेल लेने. दोनों के बच्चे एक ही स्कूल, एक ही क्लास में थे, आतेजाते भी साथ थे. दोनों ‘यारां नाल बहारां…’ गाया करती थीं पर हर बार आरती के बच्चे को नंबर ज्यादा मिलें तो यह तो ज्यादा दिन तक सहने वाली बात नहीं थी. मन ही मन कलपती रहती कि कुछ तो सैटिंग कर ली शायद अंजलि ने. ऐसा कैसे हो सकता है कि जब दोनों बच्चे एकसाथ खेलते हों, एकसाथ टाइम खराब करते हों, तो यह अंजलि का बच्चा कैसे हर बार आगे रह सकता है?

और उस ने एक दिन भोलेपन से पूछ ही लिया, ”क्यों अंजलि, मैडम से कुछ सैटिंग कर ली क्या? यह हर बार तुम्हारा बबलू ही ज्यादा मार्क्स ला रहा है…’’

बात अंजलि को लग गई. पक्की सहेली पूछ रही थी पर लग गई तो लग गई. हम इंडियन मांएं अपने बच्चों के बारे में एक शब्द भी हजम नहीं कर सकतीं. हम अपने बच्चों के नंबर बहुत सीरियसली लेती हैं. बात इतनी छोटी थोड़े ही है जितना आप समझ रहे हैं. यह तो चिनगारी थी, यह बहुत बड़ी बात थी. धीरेधीरे सहेलियों में दूरियां बढ़ने लगीं. सब से पहले बबलू और मोनू पर ही लगाम कसी गई, बेचारे पूछते रह गए कि हुआ क्या है? अब कौन सी मां बताती कि हुआ क्या है… सब से पहले बच्चों का आपस में खेलना बंद हुआ, धीरेधीरे स्कूल बस ही बदल दी गई. दोनों सहेलियों की बातचीत भी बंद हो गई. होनी भी चाहिए थी. यह क्या बात हुई कि हर बार बबलू के ही नंबर ज्यादा आएं?

बस जी, वही हुआ जो आजकल के रिश्तों का फैशन है. सब से पहले दोनों ने एकदूसरे की पोस्ट पर लाइक, कमैंट्स करना छोड़ा. आप को यह छोटी बात लग रही है? यह बहुत बड़ी बात है. आजकल तो यह एक मैसेज देने का तरीका है कि जाओ, हमें नहीं पसंद तुम. नहीं करेंगे तुम्हारी पोस्ट लाइक, न कमैंट करेंगे. जब 1 लाइक और कमैंट कम होगा न तब समझ आएगी तुम्हें हमारी वैल्यू. वह तो हम ही थे जो तुम्हारी हर बकवास पोस्ट को लाइक कर देते थे. हम ही बैस्ट दोस्ती निभा रहे थे, तुम्हारी पोस्ट पर तारीफ भरा सब से लंबा कमैंट कर के. अब देखते हैं कि कौन करता है इतना लंबा कमैंट…

चिनगारी धीरेधीरे ऐसी भड़की कि आरती ने अंजलि को ब्लौक कर दिया. उसे लगा कि अंजलि जानबूझ कर बबलू के अचीवमैंट्स फेसबुक पर और ज्यादा पोस्ट करने लगी है. नहीं जानना है उसे बबलू क्या कर रहा है या अंजलि क्या कर रही है? अब उस की दोस्ती का चैप्टर खत्म कर रही हूं. बस, ब्लौक करने के बाद कुछ पता ही नहीं चलेगा कि उन की लाइफ में क्या हो रहा है… चैन से रहूंगी अपने मोनू के साथ.

पर अजी कहां, इस में कैसे चैन आ सकता है कि दुश्मन के बारे में कोई खबर ही न पता चले. ऐसी दुश्मनी किस काम की… बस, अंजलि को दिखाना ही तो था कि ‘आई डोंट केयर’ पर सच थोड़े ही था यह. आरती के मन में हूक सी उठती कि और क्या पोस्ट कर रही होगी अंजलि आजकल? यह बबलू का बच्चा कहां झंडे उखाड़ रहा होगा इन दिनों? कैसे पता चले… एक और प्रोफाइल बना कर देखा जाए. अब टेक्नोलौजी का इस से बड़ा फायदा और क्या हो सकता है कि आप अपने दुश्मनों पर पूरी नजर रखें और उन्हें पता भी न चलें.

बस, कुछ मिनट ही लगे आरती को. लो, यह भी अच्छा है कि मैडम ने अपनी प्रोफाइल लौक्ड नहीं की है. यह देखो, बबलू स्विमिंग सीख रहा है. अरे, मोटू कराटे भी सीखने लगा? और यह अंजलि ने हेयर कट कहां से करवाया है? बड़ा सूट कर रहा है इस पर तो. थोड़ी स्लिम भी लग रही है. ओह, जौगिंग कर रही है आजकल. यह फोटो तो बराबर वाले पार्क की है. पिछले दिनों की अंजलि की सारी गतिविधियों पर नजर डाल कर आज आरती को चैन आया है.

फायदे देखे आप ने 2 प्रोफाइल बनाने के? दुश्मन तो आप के भी जरूर होंगे. किसी न किसी ने तो आप को ब्लौक किया ही होगा. तो देर किस बात की है, दूसरी प्रोफाइल बनाइए और उन पर नजर रखिए. बस, उन की प्रोफाइल लौक्ड न हो. वरना सारी मेहनत बेकार जाएगी. आप को फिर दुश्मन के बारे में पता भी नहीं चलेगा. यही सब से अच्छा तरीका है आजकल.

Best Hindi Story : लव ऐट ट्रैफिक सिगनल

Best Hindi Story : आज फिर वही लड़की साइबर टावर के ट्रैफिक सिगनल पर मुझे मिली. हैदराबाद में माधापुर के पास फ्लाईओवर से दाहिने मुड़ने के ठीक पहले यह सिगनल पड़ता है. एक तरफ मशहूर शिल्पा रामम कलाभवन है. इधर लगातार 3 दिनों से सुबह साढ़े 9 बजे मेरी खटारा कार सिगनल पर रुकती, ठीक उसी समय उस की चमचमाती हुई नई कार बगल में रुकती है.

मेरी कार में तो एसी नहीं है, इसलिए खिड़की खुली रखता हूं. पर उस की कार में एसी है. फिर भी रेड सिगनल पर मेरे रुकते ही बगल में उस की कार रुकती है, और वह शीशा गिरा देती है. वह अपना रंगीन चश्मा आंखों से ऊपर उठा कर अपने बालों के बीच सिर पर ले जाती है, फिर मुसकरा कर मेरी तरफ देखती है. उस के डीवीडी प्लेयर से एब्बा का फेमस गीत ‘आई हैव अ ड्रीम…’ की सुरीली आवाज सुननेको मिलती है.

सिगनल ग्रीन होते ही वह शीशा चढ़ा कर भीड़ में किधर गुम हो जाती है, मैं ने भी जानने की कोशिश नहीं की. पता नहीं इस लड़की की घड़ी, मेरी घड़ी और मेरी खटारा और उस की नई कार सभी में इतना तालमेल कैसे है कि ठीक एक ही समय पर हम दोनों यहां होते हैं.

खैर, मुझे उस लड़की की इतनी परवा नहीं है जितनी समय पर अपने दफ्तर पहुंचने की. आजकल हैदराबाद में भी ट्रैफिक जाम होने लगा है. गनीमत यही है कि इस सिगनल से दाहिने मुड़ने के बाद दफ्तर के रास्ते में कोई खास बाधा नहीं है. मैं 10 बजे के पहले अपनी आईटी कंपनी में होता हूं. अपने क्लाइंट्स से मीटिंग्स और कौल्स ज्यादातर उसी समय होते हैं.

मेरी कंपनी का अधिकतर बिजनैस दुबई, शारजाह, कुवैत, आबूधाबी, ओमान आदि मध्यपूर्व देशों से है. कंपनी नई है. स्टार्टअप शुरू किया था 2 साल पहले. सिर्फ 2 दोस्तों ने इस स्टार्टअप की शुरुआत अपनी कार के गैराज से की थी जो अब देखतेदेखते काफी अच्छी स्थिति में है. 50 से ज्यादा सौफ्टवेयर इंजीनियर हैं इस कंपनी में. बीचबीच में मुझे दुबई का टूर भी मिल जाता है.

वैसे तो आमतौर पर शाम 6 बजे तक मैं वापस अपने फ्लैट में होता हूं. इधर

2-4 दिनों से काम ज्यादा होने से लौटने में देर हो रही थी, पर सुबह जाने का टाइम वही है. आज वह लड़की मुझे सिगनल पर नहीं मिली है.

न जाने क्यों मेरा मन पूछ रहा है कि आज वह क्यों नहीं मिली. मैं ने एकदो बार बाएंदाएं देखा, फिर कार के रियर व्यू मिरर में भी देख कर तसल्ली कर ली थी कि मेरे  पीछे भी नहीं है. खैर, सिगनल ग्रीन हुआ तो फिर मैं आगे बढ़ गया. जब तक काम में व्यस्त था, मुझे उस लड़की के बारे में कुछ सोचने की फुरसत न थी, पर लंचब्रैक में उस की याद आ ही गई.

शाम को लौटते समय मैं केएफसी रैस्टोरैंट में रुका था अपना और्डर पिक करने, और्डर मैं ने औफिस से निकलने के पहले ही फोन पर दे दिया था. वहां वह लड़की मुझे फिर मिल गई. वह भी अपना और्डर पिक करने आई थी. वह अपना पैकेट ले कर जैसे ही मुड़ी, मैं उस के पीछे ही खड़ा था. वह मुसकरा कर ‘हाय’ बोली और कहा, ‘‘आप भी यहां. एक खूबसूरत संयोग. आज सिगनल पर नहीं मिली क्योंकि मुझे आज औफिस जल्दी पहुंचना था. मुंबई से डायरैक्टर आए हैं, तो थोड़ी तैयारी करनी थी.’’

वह मेरे पैकेट मिलने तक बगल में ही खड़ी रही थी. मेरी समझ में नहीं आया कि यह सब मुझे क्यों बता रही है क्योंकि मैं तो उसे ढंग से जानता भी नहीं हूं, यहां तक कि उस का नाम तक नहीं मालूम.

‘‘मैं शोभना हूं’’, बोल कर उस ने अपना नाम तो बता दिया. दरअसल, हम दोनों कार पार्किंग तक साथसाथ चल रहे थे. मैं ने  अपना नाम अमित बताया. फिर दोनों अपनीअपनी कार में गुडनाइट कह कर बैठ गए. परंतु वह चलतेचलते ‘सी यू सून’ बोल गई है. जहां एक ओर मुझे खुशी भी हो रही है तो दूसरी ओर सोच रहा था कि यह मुझे से क्यों मिलना चाहती है.

अगले 3-4 दिनों तक फिर शोभना उस सिगनल पर नहीं मिली. एक दिन शाम को मैं शिल्पा रामम में लगी एक प्रदर्शनी में गया तो मेरी नजर शोभना पर पड़ी. गेहुंआ रंग, अच्छे नैननक्श वाली शोभना स्ट्रेचेबल स्किनफिट जींस और टौप में थी. इस बार मैं ही उस के पास गया और बोला, ‘‘हाय शोभना, तुम यहां?’’

उस ने भी मुड़ कर मुझे देखा और उसी परिचित मुसकान के साथ ‘हाय’ कहा. फिर उस ने 4 फोल्ंिडग कुरसियां खरीदीं. मैं ने उस से 2 कुरसियां ले कर कार तक पहुंचा दी थी. कार के पास ही खड़खड़े बातें करने लगे थे हम दोनों. शोभना ने कहा, ‘‘मैं कोंडापुर के शिल्पा पार्क एरिया में रघु रेजीडैंसी में नई आई हूं. 2 रूम का फ्लैट एक और लड़की के साथ शेयर करती हूं और आप अमित?’’

‘‘अरे, मैं भी आप के सामने वाले शिल्पा प्राइड में एक रूम के फ्लैट में रहता हूं. वैसे तुम मुझे तुम बोलोगी तो ज्यादा अपनापन लगेगा. तुम में मैं ज्यादा कंफर्टेबल रहूंगा.’’

शोभना हंसते हुए बोली, ‘‘मुझे पता है. मैं ने अपनी खिड़की से कभीकभी तुम को देखा है. बल्कि मेरे साथ वाली लड़की तो आईने से सूर्य की किरणों को तुम्हारे चेहरे पर चमकाती थी.’’

मैं ने कहा ‘‘मैं कैसे मान लूं कि इस शरारत में तुम शामिल नहीं थीं?’’

‘‘तुम्हारी मरजी, मानो न मानो.’’

दोनों हंस पड़े और ‘बाय’ कह कर विदा हुए.

अगले दिन उसी सिगनल पर फिर हम दोनों मिले, पर सिगनल ग्रीन होने के पहले तय हुआ कि शाम को कौफी शौप में मिलते हैं. शाम को कौफी शौप में मैं ने शोभना से कहा कि एक ब्रेकिंग न्यूज है.

शोभना के पूछने पर मैं ने कहा, ‘‘कल सुबह की फ्लाइट से मैं दुबई जा रहा हूं. कंपनी ने दुबई में एक इंटरनैशनल सैमिनार रखा है. उस में कई देशों के प्रतिनिधि आ रहे हैं. उन के सामने प्रैजेंटेशन देना है.’’

‘‘ग्रेट न्यूज, कितने दिनों का प्रोग्राम है?’’ शोभना ने पूछा. मैं ने उसे बता दिया कि प्रोग्राम तो 2 दिनों का है, पर अगले दिन शाम की फ्लाइट से हैदराबाद लौटना है. तब तक कौफी खत्म कर मैं चलने लगा तो उस ने उठ कर हाथ मिलाया और ‘बाय’ कह कर चली गई.

कंपनी ने दुबई के खूबसूरत जुमेरह बीच पर स्थित पांचसितारा होटल ‘मुवेन पिक’ में प्रोग्राम रखा था. उसी होटल में 2 बैड के एक कमरे में मुझे और मेरे इवैंट मैनेजर के ठहरने का इंतजाम था. होटल तो मैं दोपहर में ही पहुंच गया था, पर शाम को मैं रिसैप्शन पर प्रोग्राम के लिए होने वाली तैयारी की जानकारी लेने आया तो देखा रिसैप्शन पर एक लड़की बहस कर रही है. निकट पहुंचा तो देखा यह शोभना थी.

मैं ने पूछा कि वह दुबई में क्या कर रही है तो उस ने कहा, ‘‘मुझे कंपनी ने भेजा है और कहा कि मेरा कमरा यहां बुक्ड है. पर यह बोल रहा है कि कोई रूम नहीं है. बोल रहा कि कंपनी ने शेयर्ड रूम की बुकिंग की है.’’

मेरे रिसैप्शन से पूछने पर उस ने यही कहा कि शेयर्ड बुकिंग है इन की. मैं ने रूम पूछा तो उस ने चैक कर जो नंबर बताया, वह मेरा था. शोभना भी यह सुन कर चौंक गई थी. मैं ने उसे चैकइन कर मेरे रूम में चलने को कहा और बोला, ‘‘तुम रूम में चलो, मैं थोड़ी देर में इन की तैयारी देख कर आता हूं.’’

थोड़ी देर में जब वापस अपने रूम के दरवाजे पर नौक किया तो आवाज आई, ‘‘खुला है, कम इन.’’ मैं ने सोफे पर बैठते हुए पूछा, ‘‘तुम अचानक दुबई कैसे आई? कल शाम तो तुम साथ में थीं. तुम ने कुछ बताया नहीं था.’’

शोभना बोली, ‘‘तब मुझे पता ही कहां था? मैं हैदराबाद के इवैंट मैनेजमैंट कंपनी में काम करती हूं. मेरी कंपनी को इस इवैंट का कौन्ट्रैक्ट मिला है. मेरा मैनेजर आने वाला था. पर अचानक उस की पत्नी का ऐक्सिडैंट हो गया तो कंपनी ने मुझे भेज दिया. वह तो संयोग से मेरा यूएई का वीजा अभी वैलिड था तो आननफानन कंपनी ने मुझे भेज दिया.’’

तब मेरी समझ में सारी बात आई और मैं ने उस से कहा, ‘‘यह कमरा मुझे तुम्हारे मैनेजर के साथ शेयर करना था. अब उस की जगह तुम आई हो, तो एडजस्ट करना ही है. वैसे, मैं कोशिश करूंगा पास के किसी होटल में रूम लेने को, अगर नहीं मिला तो मैं यहीं सोफे पर सो जाऊंगा.’’

शोभना बोली, ‘‘नहीं, नहीं. सोफे पर क्यों सोना है? दोनों बैड काफी अलगअलग हैं. काम चल जाएगा.’’

खैर, अगले दिन हमारा प्रोग्राम शुरू हुआ. सबकुछ पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार अच्छे से चल रहा था. मेरी कंपनी के प्रौडक्ट की सभी डैलीगेट्स ने प्रशंसा की थी. शोभना भी दिनभर काफी मेहनत कर रही थी. वह काले रंग के बिजनैस सूट में काफी स्मार्ट लग रही थी. सभी विदेशी डैलीगेट्स से एकएक कर मिली और पूछा कि वे संतुष्ट हैं या नहीं. दिनभर एक पैर पर खड़ी रही थी सभी मेहमानों का खयाल रखने के लिए.

पहले दिन का प्रोग्राम खत्म कर हम दोनों अपने रूम में आ गए और डिनर रूम में ही मंगवा लिया था. थोड़ी देर तक दूसरे दिन के प्रोग्राम पर कुछ बातें हुईं और हम अपनेअपने बैड पर जो गिरे तो सुबह ही आंखें खुलीं. जल्दीजल्दी तैयार हो दोनों नीचे हौल में गए जहां यह कार्यक्रम चल रहा था. डैलीगेट्स के आने से पहले पहुंचना था हमें.

इस दिन का प्रोग्राम भी संतोषजनक और उत्साहवर्धक रहा था. हमें कुछ स्पौट और्डर भी मिले, तो कुछ ने अपने देश लौट कर और्डर देने का आश्वासन दिया. शोभना आज गहरे नीले रंग के सूट में और निखर रही थी. वह सभी डैलीगेट्स को एकएक कर कंपनी की ओर से गिफ्ट पैकेट दे कर विदा कर रही थी.

प्रोग्राम समाप्त हुआ तो दोनों अपने रूम में आ गए थे. मैं ने पूछा कि विश्वविख्यात दुबई मौल घूमने का इरादा है तो वह बोली, ‘‘मुझे अकसर ज्यादा देर तक खड़े रहने से दोनों पैरों में घुटनों के नीचे भयंकर दर्द हो जाता है. मैं तो डर रही थी कि कहीं बीच में ही प्रोग्राम छोड़ कर न आना पड़े. अमित, आज का दर्द बरदाश्त नहीं हो रहा. जल्दी में दवा भी लाना भूल गई हूं. और सिर भी दर्द से फटा जा रहा है. प्लीज, मुझे यहीं आराम करने दो, तुम घूम आओ.’’

हालांकि थका तो मैं भी था, अंदर से मेरी भी इच्छा बस आराम करने की थी. मैं ने कहा, ‘‘मैं बाहर जा रहा हूं. दरवाजा बंद कर ‘डौंट डिस्टर्ब’ बोर्ड लगा दूंगा. तब तक तुम थोड़ा आराम कर लो.’’

मैं थोड़ी ही देर में होटल लौट आया था. थोड़ी दूर पर एक दवा दुकान से पेनकिलर, स्प्रे और सिरदर्द वाला बाम खरीद लाया था. धीरे से दरवाजा खोल कर अंदर गया. शोभना नींद में भी दर्द से कराह रही थी. मैं ने धीरे से उस के दोनों पैर सीधे किए. तब तक उस की नींद खुल गई थी. उस ने कहा, ‘‘क्या कर रहे हो?’’

मैं ने थोड़ा हंसते हुए कहा, ‘‘अभी तो कुछ किया ही नहीं, करने जा रहा हूं?’’

तभी उस ने सिरहाने पड़े टेबल से फोन उठा कर कहा, ‘‘मैं होटल मैनेजर को बुलाने जा रही हूं.’’

मैं ने पौकेट से दोनों दवाइयां निकाल कर उसे दिखाते हुए कहा, ‘‘पागल मत बनो. 2 रातों से तुम्हारे बगल के बैड पर सो रहा हूं. मेरे बारे में तुम्हारी यही धारणा है. लाओ अपने पैर दो. स्प्रे कर देता हूं, तुरंत आराम मिलेगा.’’

मैं ने उस के दोनों पैरों पर स्प्रे किया और एक टैबलेट भी खाने को दी.

स्प्रे से कुछ मिनटों में उसे राहत

मिली होगी, सोच कर पूछा, ‘‘कुछ आराम मिला?’’

उस के चेहरे पर कुछ शर्मिंदगी झलक रही थी. वह बोली, ‘‘सौरी अमित. मैं नींद में थी और तुम ने अचानक मेरी टांगें खींचीं तो मैं डर गई. माफ कर दो. पैरों का दर्द तो कम हो रहा है पर सिर अभी भी फटा जा रहा है.’’

मैं सिरदर्द वाला बाम ले कर उस के ललाट पर लगाने जा रहा था तो उस ने मेरे हाथ पकड़ कर रोकते हुए कहा, ‘‘अब और शर्मिंदा नहीं करो. मुझे दो, मैं खुद लगा लूंगी.’’

मैं ने लगभग आदेश देने वाले लहजे में चुपचाप लेटे रहने को कहा और बाम लगाने लगा. वह मेरी ओर विचित्र नजरों से देख रही थी और पता नहीं उसे क्या सूझा, मुझे खींच कर सीने से लगा लिया. हम कुछ पल ऐसे ही रहे थे, फिर मैं ने उस के गाल पर एक चुंबन जड़ दिया. इस पर वह मुझे दूर हटाते हुए बोली, ‘‘मैं ने इस की अनुमति नहीं दी थी.’’

मैं भी बोला ‘‘मैं ने भी तुम्हें सीने से लगने की इजाजत नहीं दी थी.’’

इस बार हम दोनों ही एकसाथ हंस पड़े थे. अगले दिन हम दुबई मौल, अटलांटिस और बुर्ज खलीफा घूमने गए. ये सभी अत्यंत सुंदर व बेमिसाल लगे थे. इसी दिन शाम की फ्लाइट से दोनों हैदराबाद लौट आए हैं. फ्लाइट में उस ने बताया कि पिछले 3 दिन उस की जिंदगी के सब से हसीं दिन रहे हैं. मेरी मां आने वाली हैं, हो सकता है मुझे कोई ब्रेकिंग न्यूज सुनाएं.

इधर 2 दिनों से शोभना नहीं दिखी पर फोन पर बातें हो रही थीं. मन बेचैन हो रहा है उस से मिलने को. शायद उस से प्यार करने लगा था. मैं ने उसे फोन कर मिलने को कहा तो वह बोली कि उस की मां आई हुई हैं. उन्होंने मुझे शाम को घर पर बुलाया है. इस के पहले हम कभी एकदूसरे के घर नहीं गए थे. शाम को शोभना के घर गया तो पहले तो मां से परिचय कराया और उन से मेरी तारीफ करने लगी.

वह चाय और स्नैक्स ले कर आई तो तीनों साथ बैठे थे. मां ने मेरा पूरा नाम और परिवार के बारे में पूछा तो मैं ने कहा कि मेरा नाम अमित रजक है और मेरे मातापिता नहीं हैं. उन्होंने अपना नाम मनोरमा पांडे बताया और कहा कि शोभना के पिता तो बचपन में ही गुजर गए थे. उन्होंने अकेले ही बेटी का पालनपोषण किया है. फिर अचानक पूछ बैठीं, ‘‘तुम्हारे पूर्वज क्या धोबी का काम करते थे?’’

उन का यह प्रश्न तो मुझे बेतुका लगा ही था, मैं ने शोभना की ओर देखा तो वह भी नाराज दिखी थी. खैर, मैं ने कहा, ‘‘आंटी, जहां तक मुझे याद है मेरे दादा तक ने तो ऐसा काम नहीं किया है. दादाजी और पिताजी दोनों ही सरकारी दफ्तर में चपरासी थे और मेरे लिए इस में शर्म की कोई बात नहीं है. और आंटी…’’

शोभना ने मेरी बात बीच में काटते हुए मां से कहा, ‘‘हम ब्राह्मण हैं तो हमारे भी दादापरदादा जजमानों के यहां सत्यानारायण पूजा बांचते होंगे न, मां?  और मैं तो ब्राह्मण हो कर भी मांसाहारी हूं?’’

मैं मां को नमस्कार कर वहां से चल पड़ा. शोभना नीचे तक छोड़ने आई थी. उस ने मुझ से मां के व्यवहार के लिए माफी मांगी. मैं अपने फ्लैट में वापस आ गया था.

दूसरे दिन शोभना ने फोन कर शाम को हुसैन सागर लेक पर मिलने को कहा. हुसैन सागर हैदराबाद की आनबानशान है. वहां शाम को अच्छी रौनक और चहलपहल रहती है. एक तरफ एक लाइन से खेलकूद, बोटिंग का इंतजाम है तो दूसरी ओर खानेपीने के स्टौल्स. और इस बड़ी लेक के बीच में गौतम बुद्घ की विशाल मूर्ति खड़ी है.

शोभना इस बार भी पहले पहुंच गई थी. हम दोनों भीड़ से थोड़ा अलग लेक के किनारे जा बैठे थे. शोभना ने कहा कि उसे मां से ऐसे व्यवहार की आशा नहीं थी.

मैं ने जब पूछा कि मां को जातपात की बात क्यों सूझी, तो उस ने कहा, ‘‘अमित, सच कहूं तो मैं तुम से बहुत प्यार करती हूं. मैं ने मां को बता दिया है कि मैं तुम से शादी करना चाहती हूं. पर दुख की बात यह है कि सिर्फ जातपात के अंधविश्वास के चलते उन्हें यह स्वीकार नहीं है. मैं तो तुम्हारा पूरा नाम तुम्हारे गले में लटके आईडी पर बारबार पढ़ चुकी हूं.’’

इतना कह उस ने मेरा हाथ पकड़ कर रोते हुए कहा, ‘‘मैं दोराहे पर खड़ी हूं, तुम्हें चुनूं या मां को. मां ने साफ कहा है कि किसी एक को चुनो. बचपन में ही पिताजी की मौत के बाद मां ने अकेले दम पर मुझे पालपोस कर बड़ा किया, पढ़ायालिखाया. अब बुढ़ापे में उन्हें अकेले भी नहीं छोड़ सकती. तुम ही कुछ सुझाव दो.’’

मैं ने कहा, ‘‘शोभना, प्यार तो मैं भी तुम से करता हूं, यह अलग बात है कि मैं पहल नहीं कर सका. तुम्हें मां का साथ देना चाहिए. हर प्यार की मंजिल शादी पर आ कर खत्म हो, यह जरूरी नहीं. जिंदगी में प्यार से भी जरूरी कई काम हैं. तुम निसंकोच मां के साथ रहो. तुम भरोसा करो मुझ पर, मुझे इस बात का कोई दुख न होगा.’’

‘‘जितना प्यार और सुकून थोड़ी देर के लिए ही सही, दुबई में मुझे तुम से मिला है उस की बराबरी आजीवन कोई न कर सकेगा.’’

इतना कह वह मेरे सीने से लग कर रोने लगी और बोली, ‘‘बस, आखिरी बार सीने से लगा रही हूं अपने पहले प्यार को.’’

मैं ने उसे समझाया और अलग करते

हुए कहा, ‘‘बस, इतना समझ लेना हमारा प्यार उसी रैड सिगनल पर रुका रहा. उसे ग्रीन सिगनल नहीं मिला.’’ और दोनों जुदा हो गए.

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