मुखौटा: कमला देवी से मिलना जरूरी क्यों था

सुबह के सारे काम प्रियदर्शिनी बड़ी फुरती से निबटाती जा रही थी. उस दिन उसे नगर की प्रतिष्ठित महिला एवं बहुचर्चित समाजसेविका कमला देवी से मिलने के लिए समय दिया गया था. काम के दौरान वह बराबर समय का हिसाब लगा रही थी. मन ही मन कमला देवी से होने वाली संभावित चर्चा की रूपरेखा तैयार कर रही थी.

आज तक उस का समाज के ऐसे उच्चवर्ग के लोगों से वास्ता नहीं पड़ा था लेकिन काम ही ऐसा था कि कमला देवी से मिलना जरूरी हो गया था. वह समाज कल्याण समिति की सदस्य थीं और एक प्रसिद्ध उद्योग समूह की मालकिन. उन के पास, अपार वैभव था.

कितनी ही संस्थाओं के लिए वह काम करती थीं. किसी संस्था की अध्यक्ष थीं तो किसी की सचिव. समाजसेवी संस्थाओं के आयोजनों में उन की तसवीरें अकसर अखबारों में छपा करती थीं. उन की भारी- भरकम आवाज के बिना महिला संस्थाओं की बैठकें सूनीसूनी सी लगती थीं.

ये सारी सुनीसुनाई बातें प्रियदर्शिनी को याद आ रही थीं. लगभग 3 साल पहले उस ने अपने घर पर ही बच्चों के लिए एक स्कूल और झूलाघर की शुरुआत की थी. उस का घर शहर के एक छोर पर था और आगे झोंपड़पट्टी.

उस बस्ती के अधिकांश स्त्रीपुरुष सुबह होते ही कामधंधे के सिलसिले में बाहर निकल जाते थे. हर झोंपड़ी में 4-5 बच्चे होते ही थे. घर का जिम्मा सब से बडे़ बच्चे पर सौंप कर मांबाप निकल जाते थे. 8-9 बरस का बच्चा सीधे होटल में कपप्लेट धोने या गन्ने की चरखी में गिलास भरने के काम में लग जाता था.

जीवन चक्र की इस रफ्तार में शिक्षा के लिए कोई स्थान नहीं था, न समय ही था. दो जून की रोटी का जुगाड़ जहां दिन भर की हाड़तोड़ मेहनत के बाद कई बार संभव नहीं हो पाता था वहां इस तरह के अनुत्पादक श्रम के लिए सोचा भी नहीं जा सकता था. 10 साल पढ़ाई के लिए बरबाद करने के बाद शायद कोई नौकरी मिल भी जाए लेकिन जब कल की चिंता सिर पर हो तो 10 साल बाद की कौन सोचे?

फिर भी प्रियदर्शिनी की यह निश्चित धारणा थी कि ये बच्चे बुद्धिमान हैं, उन में काम करने की शक्ति है, कुछ नया सीखने की उमंग भी है. इन्हें अगर अच्छा वातावरण और सुविधाएं मिल जाएं तो उन के जीवन का ढर्रा बदल सकता है. अभाव और उपेक्षा के वातावरण में पलतेबढ़ते ये बच्चे गुनहगार बन जाते हैं. चोरी करने, जेब कतरने जैसी बातें सीख जाते हैं. मेहनतमजदूरी करतेकरते गलत सोहबत में पड़ कर उन्हें जुआ, शराब आदि की लत पड़ जाती है और अगर बच्चे बहुत छोटे हों तो कुपोषण का शिकार हो कर उन की अकाल मृत्यु हो जाती है.

उस का खयाल था कि थोड़ी देखभाल करने से उन में काफी परिवर्तन आ सकता है. इसी उद्देश्य से उस ने अपनी एक सहेली के सहयोग से छोटे बच्चों के खेलने के लिए झूलाघर और कुछ बडे़ बच्चों के लिए दूसरी कक्षा तक की पढ़ाई के लिए बालबाड़ी की स्थापना की थी.

रात के समय वह झोंपडि़यों में जा कर उन में रहने वाली महिलाओं को परिवार नियोजन और परिवार कल्याण की बातें समझाती, घरेलू दवाइयों की जानकारी देती, साफसुथरा रहने की सीख देती.

पूरी बस्ती उस का सम्मान करती थी. अधिकाधिक संख्या में बच्चे झूलाघर और बालबाड़ी में आने लगे थे. इसी सिलसिले में वह कमला देवी से मिलना चाहती थी. अपना काम सौ फीसदी हो जाएगा ऐसा उसे विश्वास था.

किसी राजप्रासाद की याद दिलाने वाले उस विशाल बंगले के फाटक में प्रवेश करते ही दरबान सामने आया और बोला, ‘‘किस से मिलना है?’’

‘‘बाई साहब हैं? उन्होंने मुझे 11 बजे का समय दिया था.’’

‘‘अंदर बैठिए.’’

हाल में एक विशाल अल्सेशियन कुत्ता बैठा था. दरबान उसे बाहर ले गया. इतने में सफेद ऊन के गोले जैसा झबरीला छोटा सा पिल्ला हाथों में लिए कमला देवी हाल में प्रविष्ट हुईं.

भारीभरकम काया, प्रयत्नपूर्वक प्रसाधन कर के अपने को कम उम्र दिखाने की ललक, कीमती साड़ी, चमचमाते स्वर्ण आभूषण, रंगी हुई बालों की कटी कृत्रिम लटें, नाक की लौंग में कौंधता हीरा, चेहरे पर किसी हद तक लापरवाही और गर्व का मिलाजुला मिश्रण.

पल भर के निरीक्षण में ही प्रियदर्शिनी को लगा कि इस रंगेसजे चेहरे पर अहंकार के साथसाथ मूर्खता का भाव भी है जो किसी भी जानेमाने व्यक्ति के चेहरे पर आमतौर पर पाया जाता है.

उठ कर नमस्ते करते हुए उस ने सहजता से मुसकराते हुए अपना परिचय  दिया, ‘‘मेरा नाम प्रियदर्शिनी है. आप ने आज मुझे मिलने का समय दिया था.’’

‘‘अच्छा अच्छा…तो आप हैं प्रियदर्शिनी. वाह भई, जैसा नाम वैसा ही रंगरूप पाया है आप ने.’’

अपनी प्रशंसा से प्रियदर्शिनी सकुचा गई. उस ने कुछ संकोच से पूछा, ‘‘मेरे आने से आप के काम में कोई हर्ज तो नहीं हुआ?’’

‘‘अजी, छोडि़ए, कामकाज का क्या? घर के और बाहर के भी सारे काम अपने को ही करने होते हैं. और बाहर का काम? मेरा मतलब है समाजसेवा करने का मतलब घर की जिम्मेदारियों से मुकरना तो नहीं होता? गरीबों की सेवा को मैं सर्वप्रथम मानती हूं, प्रियदर्शिनीजी.’’

कमला देवी की इस सादगी और सेवाभावना से प्रियदर्शिनी अभिभूत हो उठी.

‘‘प्रियदर्शिनी, आप बालबाड़ी चलाती हैं?’’

‘‘जी.’’

‘‘कितने बच्चे हैं बालबाड़ी में?’’

‘‘जी, 25.’’

‘‘और झूलाघर में?’’

‘‘झूलाघर में 10 बच्चे हैं.’’

‘‘फीस कितनी लेती हैं?’’

‘‘जी, फीस तो नाममात्र की लेती हूं.’’

‘‘फीस तो लेनी ही चाहिए. मांबाप जितनी फीस दे सकें उतनी तो लेनी ही चाहिए. इतनी मेहनत करते हैं हम फिर पैसा तो हमें मिलना ही चाहिए.’’

‘‘जी, पैसे की बात सोच कर मैं ने यह काम शुरू नहीं किया.’’

‘‘तो फिर क्या समय नहीं कटता था, इसलिए?’’

‘‘जी, नहीं. यह कारण भी नहीं है.’’

कंधे उचका कर आंखों को मटका कर हंस दी कमला देवी, ‘‘तो फिर लगता है आप को बच्चों से बड़ा लगाव है.’’

‘‘जी, वह तो है ही लेकिन सच बात तो यह है कि उस इलाके में ऐसे काम की बहुत जरूरत है.’’

‘‘कहां रहती हैं आप?’’

‘‘सिंधी बस्ती से अगली बस्ती में.’’

‘‘वहां तो आगे सारी झोंपड़पट्टी ही है न?’’

‘‘जी. होता यह है कि झोंपड़पट्टी वाले सुबह से ही काम पर निकल जाते हैं. घर संभालने का सारा जिम्मा स्वभावत: बड़े बच्चे पर आ जाता है. मांबाप की अज्ञानता और मजबूरी का असर इन बच्चों के भविष्य पर पड़ता है. इसी विचार से मैं बच्चों की प्रारंभिक पढ़ाई के लिए बालबाड़ी और छोटे बच्चों की देखभाल के लिए झूलाघर चला रही हूं.’’

‘‘तो इन छोटे बच्चों की सफाई, उन के कपडे़ बदलने और उन्हें दूध, पानी आदि देने के लिए आया भी रखी होगी?’’

‘‘जी नहीं. ये सब काम मैं स्वयं ही करती हूं.’’

‘‘आप,’’ कमला देवी के मुख से एकाएक आश्चर्यमिश्रित चीख निकल गई.

‘‘जी, हां.’’

‘‘सच कहती हैं आप? घिन नहीं आती आप को?’’

‘‘जी, बिलकुल नहीं. क्या अपने बच्चों की टट्टीपेशाब साफ नहीं करते हम?’’

‘‘नहीं, यह बात नहीं है. लेकिन अपने बच्चे तो अपने ही होते हैं और दूसरों के दूसरे ही.’’

‘‘मेरे विचार में तो आज के बच्चे कल हमारे देश के नागरिक बनेंगे. अगर हम उन्हें जिम्मेदार नागरिक के रूप में देखना चाहें, उन से कुछ अपेक्षाएं रखें तो आज उन की जिम्मेदारी किसी को तो उठानी ही पड़ेगी न?’’

शांत और संयत स्वर में बोलतेबोलते प्रियदर्शिनी रुक गई. उस ने महसूस किया, कमला देवी का चेहरा कुछ स्याह पड़ गया है. उन्होंने पूछा, ‘‘लेकिन इन सब झंझटों से आप को लाभ क्या मिलता है?’’

‘‘लाभ?’’ प्रियदर्शिनी की उज्ज्वल हंसी से कमला देवी और भी बुझ सी गईं, ‘‘मेरा लाभ क्या होगा, कितना होगा, होगा भी या हानि ही होगी, आज मैं इस विषय में कुछ नहीं कह सकती लेकिन एक बात निश्चित है. मेरे इन प्रयत्नों से समाज के ये उपेक्षित बच्चे जरूर लाभान्वित होंगे. मेरे लिए इतना ही पर्याप्त है.’’

‘‘अद्भुत, बहुत बढि़या. आप के विचार बहुत ऊंचे हैं. आप का आचरण भी वैसा ही है. बड़ी खुशी की बात है. वाह भई वाह, अच्छा तो प्रियदर्शिनीजी, अब आप यह बताइए, आप मुझ से क्या चाहती हैं?’’

‘‘जी, बच्चों के बैठने के लिए दरियां स्लेटें, पुस्तकें और खिलौने. मदद के लिए मैं एक और महिला रखना चाहती हूं. उसे पगार देनी पड़ेगी. वर्षा और धूप से बचाव के लिए शेड बनवाना होगा. इस के साथ ही डाक्टरी सहायता और बच्चों के लिए नाश्ता.’’

‘‘तो आप अपनी बालबाड़ी को आधुनिक किंडर गार्टन स्कूल में बदल देना चाहती हैं?’’

‘‘बिलकुल आधुनिक नहीं बल्कि जरूरतों एवं सुविधाओं से परिपूर्ण स्कूल में.’’

‘‘तो साल भर के लिए आप को 10 हजार रुपए दिलवा दें?’’

‘‘जी.’’

‘‘मेरे ताऊजी मंत्रालय में हैं. आप 8 दिन के बाद आइए. तब तक आप का काम करवा दूंगी.’’

‘‘सच,’’ खुशी से खिल उठी प्रियदर्शिनी, ‘‘आप का किन शब्दों में धन्यवाद दूं? आप सचमुच महान हैं.’’

कमला देवी केवल मुसकरा भर दीं.

‘‘अच्छा, अब मैं चलती हूं. आप की बहुत आभारी हूं.’’

‘‘चाय, शरबत कुछ तो पीती जाइए.’’

‘‘जी नहीं, इन औपचारिकताओं की कतई जरूरत नहीं है. आप के आश्वासन ने मुझे इतनी तसल्ली दी है…’’

‘‘अच्छा, प्रियदर्शिनीजी, आप का घर और हमारा समाज कल्याण कार्यालय शहर की एकदम विपरीत दिशाओं में है. आप ऐसा कीजिए, अपनी गाड़ी से यहां आ जाइए.’’

‘‘जी, मेरे पास गाड़ी नहीं है.’’

‘‘तो क्या हुआ, स्कूटर तो होगा?’’

‘‘जी नहीं, स्कूटर भी नहीं है.’’

‘‘मेरे पास फोन भी नहीं है.’’

‘‘प्रियदर्शिनीजी, आप के पास गाड़ी नहीं, फोन नहीं, फिर आप समाजसेवा कैसे करेंगी?’’

उपहासमिश्रित उस हंसी से प्रियदर्शिनी कुछ  हद तक परेशान सी हो उठी. फिर भी वह अपने सहज भाव से बोली, ‘‘मेरा मन पक्का है. हर कठिनाई को सहने के लिए तत्पर हूं. तन और मन के संयुक्त प्रयास के बाद कुछ भी असंभव नहीं होता.’’

अब तो खुलेआम छद्मभाव छलक आया कमला देवी के मेकअप से सजेसंवरे चेहरे पर.

‘‘मैं तो आप को समझदार मान रही थी, प्रियदर्शिनीजी. मैं ने आप से कहीं अधिक दुनिया देखी है. आप मेरी बात मानिए, अपनी इस प्रियदर्शिनी छवि को दुनिया की रेलमपेल में मत सुलझाइए. खैर, आप का काम 8 दिन में हो जाएगा. अच्छा.’’ दोनों हाथ जोड़ कर नमस्ते कहते हुए प्रियदर्शिनी ने विदा ली.

‘‘दीदी, हमारे लिए नाश्ता आएगा?’’

‘‘दीदी, स्कूल के सब बच्चों के लिए एक से कपडे़ आएंगे?’’

‘‘दीदी, सफेद कमीज और लाल रंग की निकर ही चाहिए.’’

‘‘नए बस्ते भी मिलेंगे?’’

‘‘और नई स्लेट भी?’’

‘‘मैं तो नाचने वाला बंदर ले कर खेलूंगा.’’

‘‘दीदी, नाश्ते में केला और दूध भी मिलेगा?’’

‘‘अरे हट. दीदी, नाश्ते में मीठीमीठी जलेबियां आएंगी न?’’

बच्चों की जिज्ञासा और खुशी ने उसे और भी उत्साहित कर दिया.

8वें दिन कमला देवी की कार उसे लेने आई तो उस के मन में उन के लिए कृतज्ञता के भाव उमड़ आए. जो हो, जैसी भी हो, उन्होंने आखिर प्रियदर्शिनी का काम तो करवा दिया न.

उस की साड़ी देख कर कमला देवी ने मुंह बिचकाया और जोरजोर से हंस कर बोलीं, ‘‘अरे, प्रियदर्शिनीजी, कम से कम आज तो आप कोई सुंदर सी साड़ी पहन कर आतीं. फोटो में अच्छी लगनी चाहिए न. फोटोग्राफर का इंतजाम मैं ने करवा दिया है. कल के अखबारों में समाचार समेत फोटो आ जाएगी. अच्छा, चलिए, फोटो में आप थोड़ा मेरे पीछे हो जाइए तो फिर साड़ी की कोई समस्या नहीं रहेगी.’’

कार अपने गंतव्य की ओर बढ़ने लगी तो धीमी आवाज में कमला देवी ने कहा, ‘‘देखिए, प्रियदर्शिनीजी, आप के नाम पर 5 हजार का चेक मिलेगा. वह आप मुझे दे देना. मैं आप को ढाई हजार रुपए उसी समय दे दूंगी.’’

प्रियदर्शिनी ने कुछ असमंजस में पड़ कर पूछा, ‘‘तो बाकी ढाई हजार आप कब तक देंगी?’’

‘‘कब का क्या मतलब? प्रिय- दर्शिनीजी, हमें समाजसेवा के लिए कितना कुछ खर्च करना पड़ता है. ऊपर से ले कर नीचे तक कितनों की इच्छाएं पूरी करनी पड़ती हैं और फिर हमें अपने शौक और जेबखर्च के लिए भी तो पैसा चाहिए.’’

प्रियदर्शिनी को लगा उस की संवेदनाएं पथरा रही हैं.

कमला देवी अभी तक बोले जा रही थीं, ‘‘प्रियदर्शिनीजी, आप बुरा मत मानिए. लेकिन यह ढाई हजार रुपए क्या आप पूरा का पूरा स्कूल के लिए खर्च करेंगी? भई, एकआध हजार तो अपने लिए भी रखेंगी या नहीं, खुद के लिए?’’

समाज कल्याण कार्यालय के दरवाजे तक पहुंच चुकी थीं दोनों. तेजी के साथ प्रियदर्शिनी पलट गई. तेज चाल से चल कर वह सड़क पर आ गई. सामने खडे़ रिकशे वाले को घर का पता बता कर वह निढाल हो कर उस में बैठ गई. उस की आंखों के सामने बारबार कमला देवी का मेकअप उतर जाने के बाद दिखने वाला विद्रूप चेहरा उभर कर आने लगा. उन की छद्म हंसी सिर में हथौड़े मारती रही. उन का प्रश्न रहरह कर कानों में गूंजने लगा, ‘फिर आप समाजसेवा कैसे करेंगी?’

जाहिर था प्रियदर्शिनी के पास तथाकथित समाजसेवियों वाला कोई मुखौटा तो था ही नहीं.

देवदासी: एक प्रथा जिसने छीन लिया सिंदूर

मेरा नाम कुरंगी है और मेरी मां ही नहीं, मेरी दादी -परदादी भी देवदासी थीं. शायद लकड़दादी भी. खैर, मां ने वैसे विधिवत ब्याह कर लिया था. लेकिन जब उन के पहली संतान हुई तो उसे तीव्र ज्वर हुआ और उस ज्वर में उस बच्चे की आंखें जाती रहीं. उस के बाद एक और संतान हुई. उसे भी तीव्र ज्वर हुआ और उस तीव्र ज्वर में उस की टांगें बेकार हो गईं और वह अपाहिज हो गया.

बस, फिर क्या था. लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि यह देवताओं का प्रकोप है. अगर हम देवदासियों ने देवता की चरणवंदना छोड़ दी तो हमारा अमंगल होगा. इसलिए जब मैं होने वाली थी तब मां ने मन्नत मानी थी कि अगर मुझे कुछ नहीं हुआ तो वह फिर से देवदासी बन जाएंगी.

पैदा होने के बाद मुझे दोनों भाइयों की तरह तीव्र ज्वर नहीं हुआ. मां इसे दैव अनुकंपा समझ कर महाकाल के मंदिर में फिर से देवदासी बन गईं. मां बताती हैं, पिताजी ने उन्हें बहुत समझाया, लेकिन उन्होंने एक न सुनी और मुझे ले कर महाकाल के मंदिर में आ गईं.

मंदिर के विशाल क्षेत्र में हमें एक छोटा सा मकान मिल गया. हमारे मकान के सामने कच्चे आंगन में जूही का एक मंडप था और तुलसी का चौरा भी. रोज शाम को मां तुलसी के चौरे पर अगरबत्ती, धूप, दीप जला कर आरती करती थीं और मुंदे नयनों से ‘शुभं करोति कल्याणं’ का सस्वर पाठ करती थीं. झिलमिल जलते दीप के मंदमंद प्रकाश में मां का चेहरा देदीप्यमान हो उठता था और मुझे बड़ा भला लगता था.

जब मैं छोटी थी तब मैं मां के साथ मंदिर में जाती थी. जब मां नृत्य करने के लिए नृत्य मुद्रा में खड़ी होतीं तो मैं गर्भगृह में लटकते दीवटों को एकटक निहारती रहती थी और सोचती रहती थी कि गर्भगृह में सदा इतना अंधेरा क्यों रहता है. कहीं यह ईश्वर रूपी महती शक्ति को अंधेरे में रख कर लोगों को किन्हीं दूसरे माध्यमों से भरमाने का पाखंड मात्र तो नहीं?

ऐसा लगता जैसे देवदासियों का यह नृत्य ईश्वर की आराधना के नाम पर अपनी दमित वासनाओं को तृप्त करने का आयोजन हो. वरना देवालय जैसे पवित्र स्थान पर ऐसे नृत्यों का क्या प्रयोजन है, जिन में कामुकतापूर्ण हावभाव ही प्रदर्शित किए जाते हों.

देवस्थान के अहाते में बैठे दर्शनार्थियों की आंखें सिर्फ देवदासियों के हर अंगसंचालन और भावभंगिमाओं पर मंडराती रहतीं. पहले तो मुझे ऐसा लगता था जैसे ईश्वर आराधना के बहाने वहां आने वाले युवकों द्वारा मां का बड़ा मानसम्मान हो रहा है. हर कोई उस के नृत्य की सराहना कर रहा है.

लेकिन यह भ्रम बड़ा होने पर टूट गया और यह पता लगते देर नहीं लगी कि नृत्य  की सराहना एक बहाना मात्र है. वे तो रूप के सौदागर हैं और नृत्य की प्रशंसा के बहाने वे लोग इन नर्तकियों से शारीरिक संबंध स्थापित करना चाहते हैं. तब मुझे लगा कि इन देवदासियों के जीविकोपार्जन का अन्य कोई साधन भी तो नहीं.

मुझे लगा, कहीं मुझे भी इस वासनापूर्ण जीवन से समझौता न करना पड़े. फिर लगा, स्वयं को दूसरों को समर्पित किए बगैर उस मंदिर में रहना असंभव है. मेरी सहेलियां भी धन के लोभ में खुल्लमखुल्ला यही अनैतिक जीवन तो बिता रही हैं और मुझ पर भी ऐसा करने के लिए दबाव डाल रही हैं.

वैसे मैं बचपन से ही मंदिर में झाड़नेबुहारने, गोबर से लीपापोती करने, दीयाबाती जलाने, कालीन बिछाने, पालकी के पीछेपीछे चलने, त्योहारों, मेलों में वंदनवार सजाने और प्रसाद बनाने का काम करती थी.

दूरदूर से जो साधुसंत या दर्शनार्थी आते हैं, उन  के बरतन मांजने, कपड़े धोने, उन को मंदिर में घुमा लाने, उन के लिए बाजार से सौदा लाने का काम भी मैं ही किया करती थी. कभीकभी किसी का कामुकतापूर्ण दृष्टि से ताकना या कुछ लेनदेन के बहाने मुझे छू लेना बेहद अखरने लगता था. कभीकभी वे छोटे से काम के लिए देर तक उलझाए रखते.

मुझे अपना भविष्य अंधकारमय लगता. कोई राह सुझाई न देती. मां की राह पर चलना बड़ा ही घृणास्पद लगता था और न भी चलूं तो इस बात की आशंका घेरे रहती थी कि कहीं मुझे भी देवताओं का कोपभाजन न बनना पड़े.

दिन तो जैसेतैसे बीत जाता था पर सांझ होते ही जी घबराने लगता था और मन में तरहतरह की आशंकाएं उठने लगती थीं. मां तो मंदिर में नृत्य करने चली जाती थीं या अपने किसी कृपापात्र को प्रसन्न करने और मैं अकेली जूही के गजरे बनाया करती थी.

उस दिन भी मैं गजरा बना रही थी. मैं अपने काम में इतनी मग्न थी कि मुझे इस बात का पता ही नहीं चला कि कोई मेरे सामने आ कर मेरी इस कला को एकटक निहार रहा है.

चौड़े पुष्ट कंधों वाला, काफी लंबा, गौरवर्ण, बड़ीबड़ी आंखें, काली घनी मूंछें, गुलाबी मोटे होंठ, ठुड्डी में गड्ढे, घने काले बाल. ऐसा बांका सजीला युवक मैं ने पहली बार देखा था. मेरी तो आंखें ही चौंधिया गईं, जी चाहा बस, देखती ही रहूं उस की मनमोहक सूरत.

‘‘आप गजरा अच्छा बना लेती हैं.’’

मैं उस की ओजस्वी आवाज पर मुग्ध हो उठी. हवा को चीरती सी ऐसी मरदानी आवाज मैं ने पहले कभी नहीं सुनी थी.

‘‘आप लगाते हैं?’’

‘‘मैं,’’ वह खिलखिला कर हंस पड़ा. उस की उज्ज्वल दंतपंक्ति चमक उठी. फिर एक क्षण रुक कर वह बोला, ‘‘गजरा तो स्त्रियां लगाती हैं.’’

तभी एक युवक अपने दाएं हाथ में गजरा लपेटे घूमता हुआ आता दिखाई दिया. मैं ने कहा, ‘‘देखिए, पुरुष भी लगाते हैं.’’

‘‘लगाते होंगे लेकिन मुझे तो स्त्रियों को लगाना अच्छा लगता है.’’

‘‘आप लगाएंगे?’’ इतना कहते हुए मुझे लज्जा आ गई और मैं अपने मकान की तरफ भागने लगी.

‘‘अरे, आप गजरा नहीं लगवाएंगी?’’ वह युवक पूछता रह गया और मैं भाग आई.

मेरा हृदय तीव्र गति से धड़कने लगा. यह क्या कर दिया मैं ने? कहीं मैं अपनी औकात तो नहीं भूल गई?

अगले दिन और उस के अगले दिन भी मैं उस युवक से बचती रही. वह मुचुकुंद की छाया में खड़ा रहा. फिर अपने घोड़े पर सवार हो कर चला गया. तीसरे दिन वह नहीं आया और मैं ड्योढ़ी में खड़ी उस की प्रतीक्षा करती रही. चौथे दिन भी वह नहीं आया और मैं उदास हो उठी.

सोचने लगी, क्या मैं उस के मोहजाल में फंसी जा रही हूं? मैं क्यों उस युवक की प्रतीक्षा कर रही हूं? वह मेरा कौन लगता है? लगा, हवा के विरज झोंकों से जिस तरह वृक्ष झूमने लगते हैं और आकाश में चंद्रमा को देख कर कुमुदिनी खिलने लगती है, उसी तरह उस के मुखचंद्र को देख कर मैं प्रफुल्ल हो उठी थी और उस की निकटता पा कर झूमने लगी थी.

एक दिन मैं उसी के विचारों में खोई हुई थी कि उस ने पीछे से आ कर मेरे सिर के बालों में गजरा लगा दिया. इस विचार मात्र से कि उस युवक ने मेरे बालों में गजरा लगाया है मेरे मन में कलोल सी फूटने लगी. फिर न जाने क्यों आशंकित हो उठी. गजरा लगाने का अर्थ है विवाह. क्या मैं उस से विवाह कर सकूंगी? फिर देवताओं का कोप?

‘‘नहीं…नहीं, मैं तुम्हारी नहीं हो सकती,’’ और मैं पीपल के पत्ते की तरह कांपने लगी.

उस युवक ने मुझे झिंझोड़ कर पूछा, ‘‘क्यों? आखिर क्यों?’’

‘‘मैं देवदासी की कन्या हूं.’’

‘‘मैं जानता हूं.’’

‘‘मैं भी देवदासी ही बनूंगी.’’

‘‘सो भला क्यों?’’

‘‘यही परंपरा है.’’

‘‘मैं इन सड़ीगली परंपराओं को नहीं मानता.’’

‘‘न…न, ऐसा मत कहिए. मां ने भी ऐसा ही दुस्साहस किया था,’’ और मैं ने उसे मां और अपने अपाहिज भाइयों के बारे में सबकुछ बता दिया.

‘‘यह तुम्हारा भ्रम है. ऐसा कुछ नहीं होगा. मैं तुम से विवाह करूंगा.’’

‘‘मां नहीं मानेंगी.’’

‘‘अपनी मां के पास ले चलो मुझे.’’

‘‘मैं आप का नाम भी नहीं जानती.’’

‘‘मेरा नाम इंद्राग्निमित्र है. मैं महासेनानी पुष्यमित्र का अमात्य हूं.’’

‘‘आप तो उच्च कुलोत्पन्न ब्राह्मण हैं और मैं एक क्षुद्र दासी. नहीं…नहीं, आप ब्राह्मण तो देवता के समान हैं और मैं तो देवदासी हूं. देवताओं की दासी बन कर ही रहना है मुझे.’’

‘‘क्या फर्क पड़ता है अगर तुम उस प्रस्तर प्रतिमा की दासी न बन कर मेरी ही दासी बन जाओ.’’

उस का अकाट्य तर्क सुन कर मैं चुप हो गई. लेकिन मेरी मां कैसे चुप्पी साध लेतीं?

जब इंद्राग्निमित्र ने मां के सामने मेरे साथ विवाह का प्रस्ताव रखा तो वह बोलीं, ‘‘न…न, गाज गिरेगी हम पर अगर हम यह अधर्म करेंगे. पहले ही हम ने कम कष्ट नहीं झेले हैं. 2-2 बच्चों को अपनी आंखों के सामने अपाहिज होते देखा है मैं ने.’’

‘‘ऐसा कुछ नहीं होगा. लीक पीटना मनुष्य का नहीं पशुओं का काम है, क्योंकि उन में तार्किक बुद्धि नहीं होती,’’ इंद्राग्निमित्र ने कहा.

बहुत कहने पर भी मां न…न करती रहीं. आखिर इंद्राग्निमित्र चला गया और मैं ठगी सी खड़ी देखती रही.

अगले 2 दिनों तक इंद्राग्निमित्र का कोई संदेश नहीं आया.

तीसरे दिन एक अश्वारोही महासेनानी पुष्यमित्र का आदेश ले आया. मां को मेरे साथ महासेनानी पुष्यमित्र के सामने उपस्थित होने को कहा गया था.

इतना सुनते ही मां के हाथपांव कांपने लगे. इंद्राग्निमित्र की अवज्ञा करने पर महासेनानी उसे दंड तो नहीं देंगे? वह शुंग राज्य का अमात्य है. चाहता तो जबरन उठा ले जा सकता था. लेकिन नहीं, उस ने मां से सामाजिक प्रथा के अनुसार मेरा हाथ मांगा था और मां ने इनकार कर दिया था.

महासेनानी पुष्यमित्र का तेजस्वी चेहरा देख कर और ओजस्वी वाणी सुन कर मां गद्गद हो उठीं.

कुशलक्षेम के बाद महासेनानी ने सिर्फ इतना ही कहा, ‘‘जानती हो, मेरी बहू इरावती और अग्निमित्र की पहली पत्नी देवदासी थी?’’

तर्क अकाट्य था और मां मान गईं. इंद्राग्निमित्र के साथ मेरा विवाह हो गया. मां भी मेरे साथ मेरे महल में आ कर रहने लगीं…जब मुझे 2 माह चढ़ गए तो मां की आशंकाएं बढ़ने लगीं और वह इस विचारमात्र से कांपने लगीं कि कहीं मेरी संतान भी दैव प्रकोप से अपाहिज न हो जाए.

लेकिन मां की शंका निर्मूल सिद्ध हुई. मेरे एक स्वस्थ कन्या पैदा हुई.

हमारे प्रासाद में जाने कितने नौकरचाकर थे. उन सब के नाम मां को याद नहीं रहते थे और मां एक के बदले दूसरे को पुकार बैठती थीं. फिर कहतीं, ‘‘जब मेरी ही यह हालत है तो उस ईश्वर की क्या हालत होगी? अरबोंखरबों जीवों का वह कैसे हिसाबकिताब रखता होगा?’’

कहीं यह कोरी गप तो नहीं कि परंपरा से हट कर चलने से वह श्राप दे देता है? आखिर ये परंपराएं किस ने चलाई हैं? हम लोगों ने ही तो. ये मंदिर हम ने बनवाए. यह देवदासी प्रथा भी हम ने ही प्रचलित की.

इन्हीं दिनों बौद्ध भिक्षु आचार्य सोणगुप्त बोधगया से पधारे. इंद्राग्निमित्र उन्हें अपना अतिथि बना कर अपने प्रासाद में ले आए.

मैं अचंभे में पड़ गई. बाद में पता चला कि सोणगुप्त इंद्राग्निमित्र के सहपाठी ही नहीं अंतरंग मित्र भी रहे हैं. लेकिन इंद्राग्निमित्र को राजनीति में दिलचस्पी थी और सोणगुप्त को बौद्ध धर्म में. इसलिए इंद्राग्निमित्र अमात्य बन गए और सोणगुप्त बौद्ध भिक्षु.

वर्षों बाद मिले मित्र पहले तो अपने विगत जीवन की बातें करते रहे, फिर धर्म और राजनीति पर चर्चा

करने लगे.

इंद्राग्निमित्र बोले, ‘‘राज्य व्यवस्था धर्म के बल पर नहीं चलनी चाहिए. राजनीति सार्वजनिक है और धर्म वैयक्तिक. एक भावना से संबंध रखता है तो दूसरा कार्यकारण से. इसलिए मैं राज्य व्यवस्था में धर्म का हस्तक्षेप गलत मानता हूं.’’

‘‘तो फिर राज्य व्यवस्था को भी धर्म में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए.’’

‘‘नहीं, देवदासी प्रथा हिंदू धर्म पर कोढ़ है और मैं समझता हूं राज्य की तरफ से इस पर प्रतिबंध लगना चाहिए.’’

‘‘हिंदू धर्म के लिए तुम जो करना चाहते हो सो तो करोगे ही. अब लगेहाथ बौद्ध धर्म के लिए भी कुछ कर दो.’’

‘‘आज्ञा करो, मित्र.’’

‘‘मित्र, बोधगया में हम एक और विहार की जरूरत महसूस कर रहे हैं. प्रस्तुत विहार में इतने बौद्ध भिक्षु- भिक्षुणियां एकत्र हैं कि चौंतरे और वृक्ष तले सुलाना पड़ रहा है. अभी तो खैर वे खुले में सो लेंगे लेकिन वर्षा ऋतु में क्या होगा, इसी बात की चिंता सता रही है. अगर तुम एक और विहार बनवा दो तो बहुत सारे बौद्ध भिक्षुभिक्षुणियों के आवास की समस्या हल हो जाएगी.’’

‘‘बस, इतना ही? तुम निश्चिंत रहो. मैं थोड़े दिनों के बाद बोधगया आ कर इस का समुचित प्रबंध कर दूंगा.’’

सोणगुप्त आश्वस्त हो कर लौट गए.

इंद्राग्निमित्र देवदासी प्रथा को समाप्त करने के लिए व्यग्र हो उठे. इस प्रथा का अंत कैसे हो? क्यों न इस प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया जाए और राज्य भर में घोषणा कर दी जाए. यह निश्चय कर के वह महासेनानी पुष्यमित्र के पास गए.

‘‘महासेनानी, देवदासियों की वजह से मंदिर व्यभिचार और अनाचार के गढ़ बन गए हैं. और मैं चाहता हूं कि इस प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया जाए.’’

‘‘विचार तो बुरा नहीं, लेकिन इस पर प्रतिबंध लगाने पर काफी विरोध होने की आशंका है. अगर तुम डट कर इस विरोध का प्रतिरोध कर सको तो मुझे कोई आपत्ति नहीं.’’

इंद्राग्निमित्र ने राज्य की तरफ से देवदासी प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया. प्रतिबंध लगते ही इंद्राग्निमित्र की आलोचना होने लगी.

‘‘थू,’’ मंदिर की एक देवदासी ने पान की पीक इंद्राग्निमित्र के मुंह पर थूक दी.

इंद्राग्निमित्र अपमान की ग्लानि से भर उठे. फिर भी वह अपने विचार पर अडिग रहे. अगले दिन रथयात्रा थी और रथ के आगेआगे देवदासियां नृत्य करती हुई चलने वाली थीं. इंद्राग्निमित्र अपने दलबल के साथ वहां पहुंच गए.

लोग तरहतरह की बातें करने लगे. ‘‘बड़ा आया समाज सुधार करने वाला. देवदासी का उन्मूलन करने वाला…अरे, एक देवदासी को घर बसा लिया तो क्या हुआ? किसकिस का घर बसाएगा? धार्मिक मामलों में दखल देने वाला यह कौन होता है?’’

रथ को तरहतरह के फूलों से सजा कर सब दीयों को जला दिया गया. रथ के आगे ढोल बजाने वाले आ कर खड़े हो गए. उन्हें घेरे असंख्य नरनारी आबालवृद्ध एकत्र हो गए. पालकी के पास चोबदार खड़े थे और कौशेय में लिपटे पुजारी. पालकी के दोनों ओर सोलह शृंगार किए देवदासियां नृत्य मुद्रा में खड़ी हो गईं.

इस से पहले कि वे नृत्य आरंभ करतीं अपने घोड़े पर सवार इंद्राग्निमित्र वहां आ गए और बोले, ‘‘रोको. ये नृत्य नहीं कर सकतीं. देवदासियों पर प्रतिबंध लग चुका है.’’

हिंदू धर्म में प्रगाढ़ आस्था रखने वाले उबल पड़े. कुछेक प्रगतिशील विचारों वाले युवकों ने उन का विरोध किया. दर्शनार्थी 2 दलों में बंट गए और दोनों में मुठभेड़ हो गई. पहले तो मुंह से एकदूसरे पर वार करते रहे. जिस के हाथ में जो आया उठा कर फेंकने लगा, पत्थर, ईंट, गोबर.

जुलूस में भगदड़ मच गई. इंद्राग्निमित्र  भ्रमित. यह क्या हो गया. वह दोनों गुटों को समझाने लगे लेकिन कोई नहीं माना. तभी उन्होंने अपने वीरों को छड़ी का उपयोग कर के भीड़ को नियंत्रित करने का आदेश दिया. क्रोधोन्मत्त भीड़ भागने लगी. तभी किसी ने इंद्राग्निमित्र की तरफ भाले का वार किया और वह अपनी छाती थाम कर कराहते हुए वहीं ढेर हो गए.

मेरी मांग सूनी हो गई और मैं विधवा हो गई. अब मेरे आगे एक लंबा जीवन था और था एकाकीपन. महल के जिस कोने में जाती इंद्राग्निमित्र से जुड़ी यादें सताने लगतीं. जीवन अर्थहीन सा लगता.

संवेदना प्रकट करने वालों का तांता लगा रहता. इसी बीच सोणगुप्त आया और संवेदना प्रकट करने लगा. तभी याद आया इंद्राग्निमित्र ने सोणगुप्त से विहार बनवाने की प्रतिज्ञा की थी. मैं उस के साथ बोधगया चली गई.

देवदासी प्रथा का क्या हुआ, यह तो मैं नहीं जानती लेकिन इतना जानती हूं कि प्रथाओं और परंपराओं का इतनी जल्दी अंत नहीं होगा. मैं तो इस बात को ले कर आश्वस्त हूं कि मैं ने और मेरे पति ने अपनी तरफ से इसे मिटाने का भरसक प्रयत्न किया.

मगर हर कोई अपनीअपनी तरफ से प्रयत्न करे तो ये गलत प्रथाएं और परंपराएं अवश्य ही किसी दिन मिट कर रहेंगी.

हौबी : पति की आदतों से वह क्यों परेशान थी

मेरे पति को सदा ही किसी न किसी हौबी ने पकड़े रखा. कभी बैडमिंटन खेलना, कभी शतरंज खेलना, कभी बिजली का सामान बनाना, जो कभी काम नहीं कर सका. बागबानी में सैकड़ों लगा कर गुलाब जितनी गोभी के फूल उगाए. कभी टिकट जमा करना, कभी सिक्के जमा करना. तांबे के सिक्के सैकड़ों साल पुराने वे भी सैकड़ों रुपए में लिए जाते जो अगर तांबे के मोल भी बिक जाएं तो बड़ी बात. ये उन्हें खजाने की तरह संजोए रहते हैं. जब ये किसी हौबी में जकड़े होते हैं, तो इन को घर, बच्चे, मैं कुछ दिखाई नहीं देता. सारा समय उसी में लगे रहते हैं. खानेपीने तक की सुध नहीं रहती. औफिस जाना तो मजबूरी होती थी. अब ये रिटायर हो गए हैं तो सारा समय हौबी को ही समर्पित हैं. लगता अगर मुख्य हौबी से कुछ समय बच जाए तो ये पार्टटाइम हौबी भी शुरू कर दें.

आजकल सिक्कों की मुख्य हौबी है, जिस में सिक्कों के बारे में पढ़नालिखना और दूसरों को सिक्कों की जानकारी देना कि यह सिक्का कौन सा है, कब का है आदि. इंटरनैट पर सिक्काप्रेमियों को बताते रहते हैं. सारा दिन इंटरनैट पर लगे रहते हैं. कुछ समय बचा तो सुडोकू भरना. यहां तक कि सुडोकू टौयलेट में भी भरा जाता है और मैं टौयलेट के बाहर इंतजार करती रहती हूं कि मेरा नंबर कब आएगा. आजकल सुडोकू कुछ शांत है. अब ये एक नई हौबी की पकड़ में आ गए हैं. इन को खाना पकाने का शौक हो गया है. जीवन में पहली बार कुछ काम की हौबी ने इन को पकड़ा है. मैं ने सोचा कुछ तो लाभ होगा. बैठेबैठे पकापकाया स्वादिष्ठ भोजन मिलेगा.

इन्होंने पूरे मनोयोग से खाना पकाना शुरू किया. पहले इंटरनैट से रैसिपी पढ़ते, फिर उसे नोट करते. बाद में ढेरों कटोरियों में मसाले व अन्य सामग्री निकालते. नापतोल में कोई गड़बड़ नहीं. जैसे लिखा है सब वैसे ही होना चाहिए. हम लोगों की तरह नहीं कि यदि कोई मसाला नहीं मिला तो भी काम चला लिया. ये ठहरे परफैक्शनिस्ट अर्थात सब कुछ ठीक होना चाहिए. सो यदि डिश में इलायची डालनी है और घर में नहीं है तो तुरंत कार से इलायची लाने चले जाएंगे. 10 रुपए की इलायची और 50 रुपए का पैट्रोल.

जब सारा सामान इकट्ठा हो जाता तो बनाने की प्रक्रिया शुरू होती. शुरूशुरू में तो गरम तेल में सूखा मसाला डाल कर भूनते तो वह जल जाता. फिर उस जले मसाले की सब्जी पकती. फिर डिश सजाई जाती. फिर फोटो खींच कर फेसबुक पर डाला जाता. फेसबुक पर फोटो देख कर लोग वाहवाह करते, पर जले मसाले की सब्जी खानी तो मुझे पड़ती. मैं क्या कहूं? सोचा बुरा कहा तो इन का दिल टूट जाएगा. सो पानी से गटक कर ‘बढि़या है’ कह देती. इन का हौसला बढ़ जाता. ये और मेहनत से नएनए व्यंजन पकाते. कभी सब्जी में मिर्च इतनी कि 2 गिलास पानी से भी कम न होती. कभी साग में नमक इतना कि बराबर करने के लिए मुझे उस में चावल डाल कर सगभत्ता बनाना पड़ता. किचन ऐसा बिखेर देते कि समेटतेसमेटते मैं थक जाती. बरतन इतने गंदे करते कि कामवाली धोतेधोते थक जाती. डर लगता कहीं काम न छोड़ दे.

मेरी सहनशीलता तो देखिए, सब नुकसान सह कर भी इन की तारीफ करती रही. इस आशा में कि कभी तो ये सीख जाएंगे और मेरे अच्छे दिन आएंगे. सच ही इन की पाककला निखरने लगी और हमारी किचन भी संवरने लगी. विभिन्न प्रकार के उपयोग में आने वाले बरतन, कलछियां, प्याज काटने वाला, आलू छीलने वाला, आलू मसलने वाला सारे औजारहथियार आ गए. चाकुओं में धार कराई गई. पहले इन सब चीजों की ओर कभी ये ध्यान ही नहीं देते थे. अब ये इतने परफैक्ट हो गए कि नैट पर विभिन्न रैसिपियां देखते, फिर अपने हिसाब से उन में सब मसाले डालते और स्वादिष्ठ व्यंजन बनाते.

अब देखिए मजा. कभी कुम्हड़े का हलवा बनता तो कभी गाजर का, जिस में खूब घी, मावा और सारे महीने का मेवा झोंक दिया जाता. हम दोनों कोलैस्ट्रौल के रोगी और घर में खाने वाले भी हम दोनों ही. अब इतना मेवामसाला पड़ा हलवा कोई फेंक तो देगा नहीं. सो खूब चाटचाट कर खाया. अब उन सब्जियों को भी खाने लगे, जिन्हें पहले कभी मुंह नहीं लगाते थे. एक से एक स्वादिष्ठ व्यंजन खूब घी, तेल, मेवा, चीनी में लिपटे व्यंजन. मेरे भाग्य ही खुल गए. इन की इस हौबी से बैठेबैठे एक से एक व्यंजन खाने को मिलने लगे. इतना अच्छा खाना खाने के बाद तबीयत कुछ भारी रहने लगी. डाक्टर को दिखाया तो पता चला कोलैस्ट्रौल लैबल बहुत बढ़ गया है. डाक्टर की फीस, खून जांच, दवा सब मिला कर कई हजार की चपत बैठी. घीतेल, अच्छा खाना सब बंद हो गया. अब उबला खाना खाना पड़ रहा है. अब बताइए इन की हौबी मेरे लिए मजा है या सजा?

मंदिर नहीं अस्पताल जरूरी

अपना कोई अजीज बीमार हो और सरकारी औल इंडिया इंस्टिट्यूट औफ मैडिकल’ जैसे सरकारी अस्पताल में जा पहुंचा हो और न डाक्टर बात करने को तैयार होन लैब असिस्टैंट तो कितनी घुटन और परेशानी होती है यह भुक्तभोगी ही जानते हैं. देशभर में सरकारी अस्पतालों का जाल बिछा है पर जहां मंदिर में जाने पर तुरंत प्रवेश मिल जाता है (या कुछ घंटों में सही) अस्पताल अभी भी इतने कम हैं कि उन में बैड मिलना और इलाज का समय निकालना ऐवरेस्ट पर चढ़ने के समान होता है.

दिल्ली एम्स ने सर्कुलर जारी किया है कि वहां कौरीडोरों में मरीजोंउन के रिश्तेदारों के अलावा जो भी हो उसे यूनिफौर्म और आईडी का डिस्पले करते रहना होगा क्योंकि कौरीडोर प्राइवेट लैबोंक्लीनिकों के एजेंटों से भरे हैं. ये लोग पहले मरीज की मदद करते हैं और फिर झांसा देते हैं कि सरकारी लैब में रिजल्ट सप्ताहों में आएगासर्जरी महीनों में होगीडाक्टर के लिए नंबर कई दिनों में आएगा तो क्यों न प्राइवेट जगह चला जाए.

यह देश की बहुत बड़ी दुर्गति है कि हर नागरिक को समय पर इलाज न मिल पाए. गरीब को अनाज मिलेसही इलाज मिले और जेब में पैसे हों या न होंइलाज हो हीयह तय करना सरकार का पहला काम है न कि फलां जगह मंदिर के लिए कौरीडोर बनाना और फलां जगह दूसरे धर्मस्थल को ले कर डिस्प्यूट खड़ा करना. सरकार को 4 लेन6 लेन सड़कें बनाने से ज्यादा अस्पतालों को ठीक करना होगा.

आज जो भी मैडिकल इलाज वैज्ञानिकों की शोध से मिल रहा हैवह कुछ को फाइवस्टार के पैसे देने पर ही मिलेदेश के लिए सब से ज्यादा दर्दनाक स्थिति है.

केंद्र सरकार अपनी नाक के नीचे एम्स को दलालों से मुक्त नहीं करा सकती तो ईडी (एनफोर्समैंट डाइरैक्टोरेट) सीबीआई (केंद्रीय जांच ब्यूरो) एनआईए (नैशनल इंवैस्टिगेशन ऐजेंसी) जैसी संस्थाएं जनता के लिए बेकार हैं. जब अपना कोई मर रहा होकराह रहा होसिर पर पैसे बनाने वाले दलाल चढ़े हों क्योंकि सरकारी इलाज न जाने कब मिलेगासरकार को ईडीफीडी पर गर्व नहीं करना चाहिएसरकारी अस्पतालों में घूम रहे दलालों पर शर्म से गड़ जाना चाहिए.  

जंजाल – भाग 4 : नैना मानव को झूठे केस में क्यों फंसाना चाहती थी?

‘‘बहुत जल्दी भूल गए सपना को,’’ नैनाने कहा तो मानव को याद आया. सपना केसाथ उस के रिश्ते की बात चल रही थी. बात लगभग तय ही थी, लेकिन सगाई होने से 3 दिन पहले ही उस की प्रतियोगी परीक्षा का परिणाम आया और उस का चयन लेखाधिकारी के पदपर हो गया.

उस की नौकरी की खबर सुनते ही उस के पिता सपना के साथ रिश्ते को ले कर आनाकानी करने लगे और अंतत: वह रिश्ताटूट गया.‘‘तुम से रिश्ता टूटने के बाद सपना की सगाई कहीं नहीं हो रही थी. ऐसे में वह गहरे अवसाद में चली गई. उस ने कभी शादी न करने का फैसला तक ले लिया. उसे सामान्य करने में हमें क्या कुछ नहीं करना पड़ा. तभी मैं ने निश्चय किया था कि जिस सरकारी नौकरी का तुम दंभ पाले बैठे हो, उस से तो मैं एक दिन तुम्हें निकलवा कर रहूंगी,

नैना ने कहा तो मानव वर्तमान में आया.मगर अब तक सुहानी उस बातचीत को अपने मोबाइल में रिकौर्ड कर चुकी थी. हालांकि वह जानती थी कि यह कोई ठोस सुबूत नहीं है, लेकिन ‘न मामा से तो काना मामा ही भला’  क्या पता यही रिकौर्डिंग मानव के पक्ष को मजबूत बना दे. सुहानी ने मानव की तरफ से सचिव के नाम एक अपील लिखी.‘‘नैना ने जो आरोप मु झ पर लगाए हैं उन्हें साबित करने के लिए इन्होंने कोई भी साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया. नैना यह साबित नहीं कर पाई कि मेरा कोई भी कृत्य आईपीसी की किसी भी धारा के अंतर्गत आपराधिक श्रेणी में आता है.

पूरे प्रकरण में चश्मदीद गवाह कोई भी नहीं है.‘‘केवल संदेह के आधार पर मु झे दोषी करार दिया जाना कौन से कानून में लिखा है?बंद कमरे में 2 वयस्कों के बीच जो कुछ भीहोता है वह सहमति से हुआ है या जबरदस्ती से, इसे साबित करने के लिए किसी के पास कोई सुबूत नहीं होता. ऐसे मामलों में कोई चश्मदीद गवाह भी नहीं होता तो फिर आप मु झे किस आधार पर दोषी मान सकते हैं, माना कि मैंअपने पक्ष में सुबूत नहीं जुटा पाया तो क्या नैना ने मेरे गुनाह का कोई सुबूत पेश किया? नहीं न. सिर्फ अजय सर की गवाही को आधार बना कर मु झे दोषी साबित नहीं किया जा सकता.

वैसे भी अजय तो कमरे के बाहर ही थे न. भीतर क्या हो रहा है और किन परिस्थितियों में हो रहा है इस बात का उन्होंने केवल अंदाजा ही लगाया है, देखा तो कुछ भी नहीं. मु झे यह कहते हुए बहुत अफसोस होता है कि बहुत सी पढ़ीलिखी और जागरूक महिलाएं कानून द्वारा दिए गए अधिकारों का गलत इस्तेमाल करती हैं. नैना भी उन्हीं में से एक है.

‘‘मेरे पास इस बात के पुख्ता सुबूत हैं कि नैना ने मु झ से पुरानी खुंदस निकालने के लिए मेरे प्रति दुर्भावना रखते हुए एक सोचीसम झी चाल के तहत मु झे फंसाया है. न केवल मु झे बल्कि उस ने अजय का भी जो उस से सहानुभूति रखते थे गलत इस्तेमाल किया है.

अपनी दलील के पक्ष में मेरे पास एक औडियो रिकौर्डिंग है जिस में नैना खुद अपनी साजिश को स्वीकार रही है.’’ सुहानी ने अपनी अपील के अंत में समस्त बचाव पक्ष के साक्ष्यों को संलग्न कर के मानव को बरी करने का निवेदन सचिव महोदय से किया और मानव तथा नैना की बातचीत की रिकौर्डिंग को एक पैन ड्राइव में डाल कर मानव के साथ सचिवालय पहुंच गई.रिकौर्डिंग सुनने के बाद सचिव महोदय के सामने सारी तसवीर साफ हो गई. उन्होंने 4 दिन बाद नैना को अपने कार्यालय में उपस्थित होनेके लिए तलब किया. मानव को भी बुलाया गया था.

नैना अपना दांव उलटा पड़ते देख पहले ही घबरा गई थी. जैसे ही सचिव महोदय ने सख्त शब्दों में बात करनी शुरू की, नैना फूटफूट कर रोने लगी और उस ने अपनी गलती स्वीकारकर के उन से और मानव से लिखित में माफी मांग ली. सचिव महोदय ने दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद पाया कि मानव के खिलाफ कोई ठोस साक्ष्य नहीं है. उन्होंने परिवीक्षा अधिनियम के तहत संदेह का लाभ देते मानव का निलंबन आदेश निरस्त कर दिया तथा निलंबन काल में रोके हुए उस के वेतन एवं अन्य भत्ते भी बहाल करने का आदेश जारी कर दिया.

नैना को भविष्य में अपने आचरण में सुधार करने की चेतावनी देते हुए उस का ट्रांसफर जिला मुख्यालय से पास के कसबे में कर दिया गया. आदेश मिलते ही मानव ने सब से पहले सुहानी को फोन कर के यह खुशखबरी दी.‘‘थैंक्यू सुहानीजी. मेरी मदद करने के लिए,’’ मानव ने कृतार्थ होते हुए कहा.‘‘बधाई हो आप को. आप ने मु झे अपना वकील चुना इस नाते मैं ने जो कुछ किया वह मेरा पेशा था. लेकिन फिर भी मु झे अफसोस है मानव कि हम महिलाएं अपने उपयोग के लिए बने कानूनों का दुरुपयोग करने से नहीं हिचकतींऔर अपने स्वार्थ की पूर्ति करने के लिए पुरुषों को  झूठे केस में फंस देती हैं. मैं पूरी महिलाजाति की तरफ से आप से माफी मांगती हूं,’’

सुहानी ने कहा.एक बार फिर से सुहानी को धन्यवाद देता हुआ मानव वापसी के लिए बस स्टैंड की तरफ चल दिया.‘वैसे नैना की प्रतिक्रिया भी जायज ही थी. गलती मेरी भी कम नहीं थी. मैं भी अपने पिता की बातों में आ कर सरकारी नौकरी पर दंभ कर बैठा था. हम ने भी तो सपना के साथ अन्याय किया ही था. सजा तो मु झे भी मिलनी चाहिए,’ मानव के मन में 1-1 कर विचारों की तरंगें उठगिर रही थीं. उस ने फैसला कर लिया कि वह नैना और सपना से माफी मांगेगा. यदि नैना राजी हुई तो उसे अपना कर अपनी भूल को सुधारने का प्रयास भी करेगा.विशाखा कमेटी, वकील, जिरहबहस और जांचपड़ताल के इस जंजाल से बाहर निकल कर अब उसे अपने पांव बहुत हलके, बेहद शांत और सफर आसान लग रहा था.

जंजाल – भाग 3 : नैना मानव को झूठे केस में क्यों फंसाना चाहती थी?

उस ने एक सादे पन्ने पर मानव के खिलाफ यौन दुराचार की शिकायत लिख कर अजय को थमा दी. शिकायत में पूरी घटना का विवरण लिखा था. अजय ने पढ़ा लिखा था, ‘‘मैं और मानव अच्छे दोस्त हैं. हम कई बार आउटिंग पर जाते हैं. मानव के साथ मैं बहुत सहज महसूस करती हूं और सुरक्षित भी. आज शाम क्लास के बाद मैं ने मानव के साथ रामनिवास बाग घूमने का कार्यक्रम बनाया. मानव मेरे कमरे में आया तब मैं बाल बना रही थी.अचानक न जाने इसे क्या हुआ और यह मेरे साथ जबरदस्ती करने लगा. मैं ने इसे रोकने की बहुत कोशिश की.

हमारी हाथापाई भी हुई लेकिन इस पर तो जैसे भूत सवार था. तभी अजय सर वहां आ गए. इन्होंने दरवाजा खटखटाया तो मानव घबरा गया और इस ने मु झे छोड़ दिया. आज तो मैं बच गई लेकिन मु झे डर है कि मानव भविष्य में मु झे परेशान कर सकता है. हो सकता है कि अपनी बेइज्जती का बदला ही लेने की कोशिश करे. मु झे सुरक्षा दिलवाने की व्यवस्था करवाई जाए.’’ अजय ने नैना की शिकायत विभाग की विशाखा कमेटी को मेल कर दी.

4 दिन बाद विशाखा कमेटी की बैठक हुई. नैना, मानव और अजय. तीनों को इस बैठक में बुलाया गया. नैना ने जो बात शिकायती पत्र में लिखी थी वही कमेटी के सामने दोहरा दी. अजय ने चश्मदीद गवाह का काम किया. अब तो शक की कोई गुंजाइश ही कहां बची थी.मानव ने लाख सफाई दी. कहा भी कि नैना और उस के बीच रिश्ता दोस्ती से कहीं बढ़ कर है. जो कुछ हो रहा था, वह दोनों की सहमति से ही हो रहा था लेकिन अचानक अजय सर के आने से नैना ने यू टर्न ले लिया और चिल्लाने लगी. मगर उस की दलील किसी ने नहीं सुनी.

कमेटी ने अपने निर्णय में मानव को दोषी करार दिया और उसे निलंबित करने की अनुशंसा कर के अपनी रिपोर्ट विभाग सचिव को भेज दी.विशाखा कमेटी के इस निर्णय को स्वीकार करते हुए सचिव ने मानव को निलंबित कर दिया और उस का मुख्यालय राज्य के अंतिम छोर यानी जैसलमेर कर दिया गया. मानव कसमसा कर रह गया लेकिन उस ने हिम्मत नहीं हारी.

उस ने नैना और अजय के खिलाफ अदालत में जाना तय कर लिया.हालांकि कोर्ट और वकीलों से उस का कोई वास्ता नहीं रहा था, लेकिन जब मंजिल तय हो जाए तो फिर रास्ते तलाश करना बड़ी बात नहीं. 1-2 मित्रों से सलाह करने के बाद उस ने एडवोकेट सुहानी से मिलना तय किया. सुहानी एक कम उम्र की नई वकील है और 2 साल पहले ही उस ने अपनी प्रैक्टिस शुरू की है.

अधिक अनुभव तो उसे नहीं है, लेकिन मानव जानता था कि अपनी साख बनाने के लिए वह उस के मुकदमे पर बहुत मेहनत करेगी. मानव सुहानी से मिला और सुहानी ने उस की पूरी बात सुनने के बाद यह मुकदमा अपने हाथ लेना स्वीकार कर लिया.‘‘आप का कहना है कि नैना और आप के बीच का रिश्ता दोस्ती से कहीं ज्यादा है. क्या आप इसे साबित कर सकते हैं.

मसलन नैना की कोई स्वीकारोक्ति जैसे लव लैटर या कोई मेल या फिर व्हाट्सऐप चैट आदि?’’ सुहानी ने मानव से पूछा.‘‘लैटर तो आजकल लिखता ही कौन है. मेल उस ने कभी नहीं किया. हां, व्हाट्सऐप पर कई बार हमारी रोमांटिक चैट होती थी, लेकिन नैना अपने मैसेज डिलीट कर देती थी. मैं ने भी अपने मोबाइल में उस की कोई चैट नहीं रखी क्योंकि यह खुद मेरे लिए भी नुकसानदेह हो सकता था,’’ मानव ने कहा.‘‘यानी आप दोनों को ही एकदूसरे पर भरोसा नहीं था.

यानी प्यार भी नहीं था. भरोसा प्रेम की पहली शर्त होती है मानव,’’ कहते हुए सुहानी मुसकराई तो मानव थोड़ा शर्मिंदा हुआ.‘‘खैर. यह आप का व्यक्तिगत मामला है. फिलहाल तो हमें यह साबित करना है कि आप के खिलाफ लगाया गया नैना का आरोप बेबुनियाद है और उस ने ऐसी शिकायत या तो किसी दबाव में आ कर की है या फिर यह आप को बदनाम करने की कोई साजिश है,’’ सुहानी ने मानव को नौर्मल करने की मंशा से कहा. मानव को लग रहा था मानो सुहानी से मिल कर उस की आधी समस्या तो हल हो ही गई. शेष आधी सुहानी हल कर ही देगी.

सुहानी ने मानव से नैना द्वारा की गई शिकायत से ले कर विशाखा कमेटी के निर्णय और उस के बाद मानव के निलंबन तक के सभी आवश्यक दस्तावेज देखे.‘‘मानव, यह तो अच्छी बात हुई कि कमेटी ने आप के केस को आपराधिक नहीं माना वरना आईपीसी की धारा 354 के अंतर्गत यह मामला पुलिस में जाता और हमारी समस्याएं बढ़ जातीं. आप को जेल भी हो सकती थी और जुरमाना भी लेकिन अब यह केस सर्विस रूल के अंतर्गत आएगा और हम आप के निलंबन के खिलाफ सीधे विभाग के सचिव को अपील करेंगे,’’ सुहानी ने दस्तावेजों का अवलोकन करने केबाद कहा.

‘‘मानव, नैना के खिलाफ हमारे पास कोई ठोस सुबूत नहीं है. क्या तुम्हारे फोन में कौल्स की औटो रिकौर्डिंग होती है? मतलब उस रात की बात करें तो क्या नैना ने तुम्हें ऐसा कुछ फोन पर कहा था जिस का दावा तुम कर रहे हो? मसलन, कमरे में इनवाइट करना या कोई रोमांटिक संकेत आदि. यदि ऐसा कुछ मिले तो शायद हम अपने पक्ष में कुछ साबित कर पाएं,’’

सुहानी ने मानवसे कहा.‘‘उस ने मु झे कमरे में आने के लिए कहा तो था, लेकिन फोन पर नहीं बल्कि व्हाट्सएंप कौल पर. जब भी इस तरह की कोई बात उसे फोन पर करनी होती थी तब वह फोन काट कर व्हाट्सऐप कौल किया करती थी. जहां तक मेरी जानकारी है,

व्हाट्सऐप कौल रिकौर्ड नहीं होती,’’ मानव ने अपनी शंका जाहिर की.सुहानी ने मानव की व्हाट्सऐप कौल्सकी हिस्ट्री देखी. उस में नैना की बहुत सी इनकमिंग कौल्स थीं. उस दिन भी उस ने मानव को कौल किया था. समय भी वही था जो मानव ने बताया था. ‘‘कोई बात नहीं, हम नैना के साथ एक गेम खेलेंगे. तुम उसे कौल लगाओ,’’ सुहानी ने मुसकराते हुए कहा.सुहानी की योजना के अनुसार मानव ने नैना को कौल लगाई. जैसाकि मानव ने कहा था, नैना ने उस का फोन काट दिया और व्हाट्सऐप कौल लगाई.‘‘नैना, तुम अच्छी तरह जानती हो कि मैं निर्दोष हूं.

तुम ने खुद ही मु झे कमरे में बुलाया और खुद ही मेरे खिलाफ शिकायत भी कर दी. तुम मेरे साथ ऐसा क्यों कर रही हो?’’ मानवने कहा.‘‘तुम मेरे मामले में निर्दोष हो सकते हो लेकिन मेरी बहन के मामले में नहीं. याद करो,3 साल पहले तुमने मेरी बहन से सिर्फ इसलिए सगाई करने से इनकार कर दिया था क्योंकि तुम्हारी सरकारी नौकरी लग गई थी और शादी के बाजार में तुम्हारी कीमत बढ़ गई थी,’’ नैना ने कड़वाहट से कहा. स्पीकर पर रखे फोन पर सुहानी यह सारी बात सुन रही थी. नैना का जवाब सुन कर उस ने आश्चर्य से मानव की तरफ देखा. खुद मानव भी असमंजस में था कि नैना आखिर किस घटना का जिक्र कर रही है.

जंजाल – भाग 2 : नैना मानव को झूठे केस में क्यों फंसाना चाहती थी?

सबकुछ इसी तरह हौलेहौले चल रहा था कि कल अचानक औफिस में हलचल मच गई. सचिवालय से आई एक मेल ने स्टाफ को पंख लगा दिए. जिस ने भी इसे पढ़ा वह उड़ाउड़ा जा रहा था. दरअसल, विभाग की तरफ से अगले सप्ताह जयपुर में 5 दिन का एक ट्रेनिंग कार्यक्रम संचालित होने वाला है जिस में हरेक संभाग से3 से 4 कर्मचारियों को भाग लेने का प्रस्ताव है. स्वयं के अतिरिक्त 3 अन्य कर्मचारियों के नाम अजय को प्रस्तावित करने हैं.

अब चूंकि सारा कार्यक्रम सरकारी खर्चे पर हो रहा है तो कोई क्यों नहीं जाना चाहेगा. आम के आम और गुठलियों के दाम. 5 दिन शाही खानापीना और स्टार होटल में रहना. बचे हुए समय में जयपुर घूमना. भला ऐसे स्वर्णिम अवसर को कौन नहीं लपकना चाहेगा.मानव के लिए मंत्रीजी के यहां से फोन आ गया था, इसलिए एक नाम तो तए हो ही गया. नैना ने अपने नये होने का हवाला देते हुए काम सीखने की इच्छा जाहिर की और इमोशनल ब्लैकमेल करते हुए लिस्ट में अपना नाम जुड़वा लिया.

नैना का नाम जोड़ने में खुद अजय का भी स्वार्थ था. इस बहाने वह नैना और मानव के बीच की कैमिस्ट्री नजदीक से सम झ पाएगा. चौथे नाम के लिए अजय ने अपने चमचे मयंक का नाम चुना और लिस्ट सचिवालय मेल कर दी.चूंकि अजमेर से जयपुर की दूरी अधिक नहीं है. इसलिए चारों ने एकसाथ अजय की कार से जाना तय किया. अजय गाड़ी चला रहा था और मयंक उस के साथ आगे बैठा था. पीछे की सीट पर मानव और नैना बैठे थे. गाड़ी तेज रफ्तार से चल रही थी.

अजय का ध्यान बीचबीच में शीशे की तरफ जा रहा था जहां से वह मानव और नैना के मचलते हुए हाथ साफसाफ देख पा रहा था. उन की हरकतें उसे बेचैन कर रही थीं. उस का मन तो कर रहा था कि दोनों को वहीं हाई वे पर ही उतार दे, लेकिन वह ऐसा नहीं कर सकता था क्योंकि नौकरी तो उस की भी अभी बहुत बाकी थी और वह नदी में रह कर मगरमच्छ से बैर मोल लेना तो अफोर्ड नहीं कर सकता था. सभी कर्मचारियों के रुकने की व्यवस्था आरटीडीसी के होटल तीज में की गई थी और ट्विन शेयरिंग के आधार पर कमरे दिए गए थे.

प्रशिक्षणार्थियों में महिलाओं की संख्या अपेक्षाकृत कम थी और विषम भी.संयोग से नैना को जो कमरा अलौट हुआ उस में कोई अन्य महिला नहीं थी. वे चारों सुबह लगभग 9 बजे जयपुर पहुंचे. चैकइन करने के बाद नाश्ता और फिर 10 बजे से 1 बजे तक प्रशिक्षण. 1 बजे से 2 बजे तक लंच और फिर5 बजे तक क्लास. इस बीच 11 और 4 बजे चाय की भी व्यवस्था थी. शेष 4 दिन भी यही व्यवस्था रिपीट होनी थी.शाम को 5 बजे के बाद मानव और नैना गुलाबी नगरी घूमने निकल गए. मानव उसे राजमंदिर सिनेमा में फिल्म दिखाने ले गयाऔर उस के बाद उसे स्पैशल तिवाड़ी की चाट खिलाई.

रात 10 बजे दोनों खिलखिलाते हुएट्रेनिंग सैंटर आए. हालांकि लोगों की निगाहों से बचने के लिए वे दोनों आगेपीछे अंदर घुसे थे लेकिन अजय ने उन्हें एकसाथ कैब से उतरते देख लिया था. मानव की हठधर्मी पर उस का खून उबल रहा था, लेकिन क्या करता. इस तरह एकसाथ घूमने से कुछ भी साबित नहीं होता. वह खुद भी तो जोधपुर वाली रिया मैडम के साथ शाम को कौफी पीने जीटी गया ही था.अगले 3 दिन फिर यही हुआ. कभी कनक गार्डन तो कभी हवामहल. कभी मोती डूंगरी तो कभी अजमेरी गेट. दोनों साथसाथ घूम रहे थे. आज ट्रेनिंग का अंतिम दिन था.

क्लास के बाद मानव और नैना शहर घूमने निकल गए. अजय भी मयंक के साथ छोटी चौपड़ की तरफ निकल गया. छोटी चौपड़ के बाद वे लोग जौहरी बाजार की तरफ आ गए. अजय अपनी पत्नी के लिए साड़ी पसंद करने लगा. खानेपीने के बाद जबवे लोग वापस ट्रेनिंग सैंटर पहुंचेतो नैना के कमरे की लाइट जली हुई थी.‘‘आज ये दोनों जल्दी वापस आ गए लगते हैं,’’

अजय ने कहा.‘‘कौन जाने, गए ही नहीं हों. जब मनोरंजन का साधन घर में ही मौजूद हो तो फिर बाहर क्यों जाना?’’ मयंक ने बाईं आंख दबा कर चुटकी लेते हुए कहा तो अजय की छठी इंद्री जाग उठी. वह नैना के कमरे की तरफ चल दिया. वह यह जानने के लिए जिज्ञासु हो उठा कि बंद कमरे में मानव है या नहीं और यदि है तो उन के बीच क्या चल रहा है. बिना अधिक विचार किए उस ने दरवाजा नोक कर दिया. कुछ पल की खामोशी के बाद अंदर हलचल हुई.

शायद खिड़की का पल्ला भी थोड़ा सा खुला था और उस में से किसी ने बाहर  झांका भी था. चुप्पी के बाद अचानक भीतर से अजय को कुछ आवाजें भी सुनाई दीं.‘‘यह क्या कर रहे हो, छोड़ो मु झे,’’ नैना गुस्से में कह रही थी.‘‘नैना… क्या हुआ नैना. कौन है तुम्हारे साथ?’’

कहते हुए अजय जोरजोर से दरवाजा पीटने लगा. तभी दरवाजा खुला और मानव फुफकारता हुआ बाहर लपका.‘‘क्या हुआ? क्या किया मानव ने,’’ अजय ने पूछा. हालांकि उसे यह भी दोनों की कोई चाल ही लग रही थी, लेकिन फिर भी वह अनभिज्ञ बना रहा. नैना सिसक रही थी.‘‘हुआ तो कुछ नहीं लेकिन हो बहुत कुछ जाता. मैं तो इसे अपना अच्छा दोस्त सम झ रही थी लेकिन यह तो,’’

नैना ने शेष शब्द आंसुओं के हवाले कर दिए.‘‘तुम फिक्र मत करो. मानव के खिलाफ अपने विभाग की विशाखा कमेटी में शिकायत दर्ज करवाओ. मैं तुम्हारे पक्ष में गवाही दूंगा,’’ कहते हुए अजय ने उसे सांत्वना दी.‘‘रहने दीजिए सर, होनाजाना तो कुछ है नहीं बेकार ही मेरी बदनामी हो जाएगी,’’  नैना ने अपनेआप को संयय करते हुए कहा.‘‘अरे, यह क्या बात हुई भला.

महिलाएं शिकायत नहीं करतीं तभी तो पुरुषों के हौसले बढ़ते हैं. फिर महिलाएं ही सरकार से शिकायत भी करती हैं कि सरकार कुछ करती नहीं. सरकार को क्या सपने आते हैं कि फलांफलां के साथ कहीं कुछ गलत हुआ है. तुम शिकायत करो बल्कि अभी इसी वक्त मु झे लिख कर दो, मैं मानव के खिलाफ कार्यवाही करता हूं,’’ अजय ने नैना को शिकायत करने के लिए राजी किया. क्या करती नैना. इस समय उसे अपनी इज्जत बचानी प्राथमिकता लग रही थी.चूंकि अजय के सामने यह सारी घटना घटित हुई थी, इसलिए इसे  झुठलाया भी नहीं जा सकता था. बात नैना की इज्जत पर बन आई थी. यदि अजय की बात नहीं मानती तो सीधेसीधे दोषी करार दे दी जाती. खुद की इज्जत बचाने की खातिर उसे अजय की बात माननी ही पड़ी.

जंजाल – भाग 1 : नैना मानव को झूठे केस में क्यों फंसाना चाहती थी?

अजय को मानव फूटी आंख नहीं सुहाता. आज से नहीं तभी से जब से उस ने उस के औफिस में जौइन किया था. 5 साल पहले उस की पोस्टिंग पास के कसबे में हुई थी, लेकिन मंत्रीजी की सिफारिश लगवा कर उस ने यहां मुख्यालय में बदली करवा ली थी. मंत्रीजी के नाम का नशा आज भी उस के सिर चढ़ कर बोलता है. तभी तो औफिस में अपनी मरजी चलाता है. देर से आना और जल्दी चले जाना उस की आदत बन चुकी है. लंच तो उस का 1 घंटे का होता ही है उस के अलावा चाय के बहाने भी घंटों अपनी सीट से गायब रहता है. कभी डांटफटकार दो तो तुरंत मंत्रीजी के पीए का शिकायती फोन आ जाता है और अजय की क्लास लग जाती है.

मानव अपनी कौलर ऊंची किए मस्ती मारता रहता है और मजबूरन उस की सीट का पैंडिंग काम अजय को किसी अन्य कर्मचारी से करवाना पड़ता है और ऐसा करने से स्वाभाविक रूप से शेष कर्मचारियों में असंतोष फैलता है.कंट्रोलिंग औफिसर होने के नाते सभी कर्मचारियों को समान रखना अजय की ड्यूटी भी है और विवशता भी लेकिन मानव को कार्यालय शिष्टाचार से कोई फर्क नहीं पड़ता. उसे तो अपनी मनमानी करनी होती है और वह मंत्रीजी के दम पर ऐसा करता भी है.

यहां तक तो फिर भी सहन किया जा रहा था, लेकिन जब से नैना इस औफिस में आई है तब से मानव के लिए औफिस कंपनी गार्डन की तरह हो गया है. जितनी देर औफिस में रहता है, उसी के इर्दगिर्द मंडराता रहता है. कभी चायकौफी और लस्सी के दौर तो कभी मिठाईनमकीन और केकपेस्ट्री की दावत. स्टाफरूम को पिकनिक स्पौट बना कर रख दिया है उस ने. सामने तो कोई कुछ नहीं कहता लेकिन पीठ पीछे सभी उन दोनों को ले कर तरहतरह की अनर्गल बातें करते हैं.अजय भी अंधाबहरा नहीं है,

सब सुनता और देखता है. मन तो करता है कि अनुशासनभंग करने के नाम पर मानव को तगड़ी सजा दे लेकिन न तो उस के पास कोई पुख्ता सुबूत हैं और न ही नैना ने कभी उस की शिकायत की. ऐसे में किसी के चरित्र को निशाना बनाना खुद उसे ही भारी पड़ सकता है, इसलिए वह केवल कुढ़ कर रह जाता है.‘‘नैना, तुम अभी नई हो. अत: जितना सीख सकती हो सीख लो.

आगे तुम्हें बहुत काम आएगा. बेकार इधरउधर की बातों में समय बरबाद करना तुम्हारे भविष्य के लिए ठीक नहीं,’’ कह कर अजय नैना को इशारों ही इशारों मेंमानव से दूर रहने की सलाह देता था, लेकिननैना भी जैसे मानव के रंग में रंगी जा रही थी. वैसे भी सरकारी दफ्तरों में काम करना किसे सुहाता है. अधिकतर लोग अपनी हाजिरी पक्की करने की जुगाड़ में ही रहते हैं. नैना भी उसी राह चल रही थी.नैना और मानव का फ्लर्ट पूरे परवान पर था. नोक झोंक और छेड़छाड़ से ले कर रूठना और मनाना तक. कभी चोरीछिपे तो कभी खुलेआम हो रहा था.

‘कोई क्या कहेगा’ जैसी बंदिश तो आज की पीढ़ी मानती ही कहां है. औफिस में सब इस रासलीला को देख कर अपनी आंखें सेंक रहे थे. केवल अजय ही था जो ये सब अपनी आंखों के नीचे होते देख कर सहन नहीं कर पा रहा था.‘‘मानव और तुम्हें ले कर स्टाफ में तरहतरह की बातें हो रही हैं. मैं तुम्हें चेतावनी दे रहा हूं कि औफिस का डेकोरम बना कर रखो. मु झे यहां कोई तमाशा नहीं चाहिए जो करना है, औफिसके बाद करो,’’ कहते हुए एक दिन अजय ने नैना को चेताया.‘‘क्या करूं सर, मैं तो नई हूं और जूनियर भी. मु झे तो सब की सुननी पड़ती है. चाहे मानव हो या आप,’’ नैना ने मासूमियत से जवाब दिया.अजय हालांकि उस के सब इशारे और तंज सम झ रहा था, लेकिन फिलहाल उस के पास कोई पुख्ता सुबूत नहीं था, इसलिए वह भी कुछ न कर पाने के लिए मजबूर था.

मिशन: क्यों मंजिशी से नाखुश थे सब

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अजमेर का सूबेदार: रहीम की क्या थी कूटनीति

बात सन 1581 के शुरुआती दिनों की है. अकबर के संरक्षक बैरम खां के बेटे अब्दुर्रहीम खानखाना के पास कवि का कोमल दिल ही नहीं शाही आनबानशान और मुगल साम्राज्य के लिए मरमिटने का जज्बा भी था. उस के बाजुओं में कितनी ताकत थी यह उन्होंने गुजरात विजय, मेवाड़ के कुंभलनेर और उदयपुर के किले पर अधिकार कर के साबित कर दिया था.

बादशाह अकबर ने अब्दुर्रहीम की बहादुरी, ईमानदारी और समर्पण के भाव को देख कर ही उसे ‘मीर अर्ज’ की पदवी से नवाजा तो इस में कोई पक्षपात नहीं था, बल्कि वे जानते थे कि कलम और तलवार के धनी रहीम खानखाना कूटनीति के भी अच्छे जानकार हैं, तभी तो बादशाह ने उन्हें मेवाड़ मामले और खास कर महाराणा प्रताप की चट्टानी आन को तोड़ने के लिए अजमेर की सूबेदारी सौंपी थी. जिस काम को मानसिंह जैसा सेनापति और खुद बादशाह अकबर नहीं कर सके उस काम को करने के लिए खानखाना को अजमेर भेजना और वह भी यह कह कर कि शेर को जिंदा पकड़ कर दरबार में पेश करना है, कुछ अजीब लगता है लेकिन इस में कहीं न कहीं एक नायक की काबिलीयत के प्रति एक बादशाह का विश्वास भी झलकता है.

अजमेर आ कर रहीम ने पहले बेगमों, बांदियों, बच्चों को अस्त्रशस्त्र, रसद समेत शेरपुर के किले में सुरक्षित रखा ताकि उन की गैरमौजूदगी में वे सब सुरक्षित रह सकें. अब बेगमें क्षत्राणियां तो हैं नहीं कि पति को लड़ाई में भेज कर खुद किले में तीर, भाले, तलवार चलाने का अभ्यास करती रहें. यह तो शाही फौज के साथ सुरक्षा के साए में रहने वाली हरम की औरतें हैं जिन्हें अपनी अस्मत की रक्षा के लिए मर्दों पर ही निर्भर रहना है क्योंकि इसलाम धर्म इस से आगे की उन्हें इजाजत नहीं देता.

अब्दुर्रहीम खानखाना किले के विश्रामगृह में बैठे पसोपेश में हैं, परेशान हैं, सोच रहे हैं पर समझ नहीं पा रहे कि कैसे इस अरावली के शेर को काबू में करें. राणाप्रताप सिर्फ मेवाड़ पर नहीं, लोगों के दिलों पर राज करता है. आन का पक्का, भीलों का राजा नहीं उन का साथी है. कोई तो उस की कमजोरी पकड़ में नहीं आ रही जिस के सहारे वह आगे बढ़े. सारे सियासी दांवपेच उन की बेखौफ दिलेरी के सामने फीके पड़ जाते हैं.

तनमन में मेवाड़ प्रेम और स्वदेश सम्मान की रक्षा का संकल्प लिए यह राणा बिना समुचित सेना और हथियारों के भी शाही सेना पर भारी पड़ जाता है. भीलों का रणकौशल गजब का है. उन की पत्थरों और तीरों की मार के आगे मुगलिया सेना के पांव उखड़ जाते हैं.

आखिर क्या हुआ हल्दी घाटी में. राजा मानसिंह युद्ध जीत गए, उदयपुर छीन लिया, लेकिन क्या वाकई यह मुगलिया फौज की जीत थी? सारी रसद लुट गई, न राणा बंधे न उन का कुंवर. खाली हाथ भूखीप्यासी सेना को ले कर मानसिंह वापस आगरा लौटे थे. तो क्या राजा मानसिंह का शाही स्वागत हुआ था? नहीं, किस तरह इस बेकाबू राणा को काबू में करें यह वह समझ नहीं पा रहे.

अचानक उन की बड़ी बेगम ने विश्राम घर में प्रवेश किया और बोलीं, ‘‘क्या बात है मेरे सरताज, बडे़ सोच में हैं. कोई परेशानी?’’

‘‘परेशानी ही परेशानी है बेगम, एक हो तो बताएं. आप को याद है न हल्दी घाटी से लौटने पर मानसिंह की कितनी बेइज्जती हुई थी. बादशाह की पेशानी पर बल थे और उन्होंने कहा था कि क्या मानसिंह उम्मीद करते हैं कि उन की इस शर्मनाक जीत पर हम जश्न मनाएंगे? माबदौलत तो उन की शक्ल भी देखना नहीं चाहते.’’

‘‘हां, मुझे याद है,’’ बड़ी बेगम ने कहा, ‘‘बादशाह ने बदायूनी को तो सोने की मोहरों से नवाजा था और मिर्जा राजा से नाराज ही रहे थे.

‘‘बादशाह तो इतने नाराज थे कि उस के 3 महीने बाद वे खुद ही मुहिम पर निकले थे और 1 नहीं 3 हमले  राणा पर किए थे.’’

‘‘तो राणा कौन से बादशाह के हाथ आ गए थे,’’ चिंता से छटपटा रहे रहीम ने कहा, ‘‘अरे बेगम, उस के बाद भी तो जगहजगह थाने बनाए गए, हमले किए गए, लेकिन राणा के छापामारों ने मुजाहिदखां जैसे हैवानी थानेदार को भी मार डाला. एक साल बाद 15 अक्तूबर, 1577 को शाहबाज खां को भेजा गया. उस का खौफ तो जरूर फैला लेकिन वह भी तो बेकाबू राणा को बांधने में नाकाम ही रहा. 3 साल उन्हीं अरावली की पहाडि़यों में झख मारने के बाद खाली हाथ ही तो लौटा था. फिर अजमेर के सूबेदार बने दस्तम खान. वह मेवाड़ क्या जाते जब आमेर में ही दम तोड़ना पड़ा.’’

‘‘लेकिन मेरे हुजूर, आप यह सोचिए कि इन सब के बाद जब यह तय हुआ कि किसी खास बंदे को इस बेहद संगीन मामले से निबटने को भेजा जाए तो बादशाह सलामत को सिर्फ आप सूझे. कितना विश्वास है उन को आप पर और आप की काबिलीयत पर. आप को तो खुश होना चाहिए.’’

‘‘बेगम, आलमपनाह का यही भरोसा तो मुझे खाए जा रहा है. सोचिए, क्या होगा अगर यह भरोसा टूट गया?’’ रहीम वाकई परेशान थे.

‘‘इस तरह हिम्मत हारना आप को शोभा नहीं देता, हुजूर. पूरे हौसले के साथ टूट पडि़ए दुश्मनों पर. आप के सामने वह है क्या भला? आप भूल गए गुजरात विजय को जब आप ने बिना मदद का इंतजार किए सिर्फ 10 हजार सिपाहियों को साथ ले कर सुलतान मुजफ्फर की 1 लाख पैदल और 40 हजार घुड़सवार सेना को परास्त कर दिया था.’’ बेगम अब्दुर्रहीम खानखाना को प्रोत्साहित तो कर रही थीं पर उन के मन में भी डर था. वह भी जानती थीं कि भरोसा टूटने पर बादशाह कैसा कहर बरपा करते हैं.

‘‘बेगम, आप ख्वाहमख्वाह मेरी झूठी हौसलाअफजाई मत कीजिए. क्या आप को पता नहीं कि मेरे पीछे उधर आगरा में साजिशों का दौर चल रहा होगा, बादशाह के कान भरे जा रहे होंगे. अब्बा हुजूर ने बादशाह को इस लायक बनाया, गद्दीनशीन कराया, राजकाज संभाला, उन्हें सियासत सिखाई. जब उन्हें बेइज्जत  करने में बादशाह को मिनट नहीं लगा तो भला मेरी बिसात क्या है? आप को शायद पता नहीं है कि हुमायूं की शिकस्त के बाद शहंशाह शेरशाह ने अब्बा की मिन्नतें की थीं कि वह उन के साथ ही रहें लेकिन अब्बा हुजूर ने हिंदुस्तान के शहंशाह का साथ छोड़ कर हुमायूं का साथ दिया था.’’

अपने पति को शायद ही कभी इतने भावावेश में देखा होगा बेगम ने. अरबी, फारसी, तुर्की, संस्कृत और हिंदी भाषाओं पर समान अधिकार रखने वाले रहीम बड़े गंभीर व्यक्ति थे.

बेगम बोलीं, ‘‘हां, मेरे सरताज, मुझे तो यह भी पता है कि जब बादशाह अकबर गद्दी पर बैठे तो उन का सदर मुकाम सरहिंद था, क्योंकि दिल्ली और आगरा पर अफगानों की तलवार मंडरा रही थी. इस मुसीबतजदा बादशाह को हेमू से निजात अब्बा हुजूर ने ही दिलाई थी. यही नहीं अब्बा हुजूर ने बादशाह की हिचकिचाहट के बावजूद निहत्थे हेमू को मार कर और सिकंदर शूरी से समर्पण करवा कर इस बड़ी सल्तनत की नींव डाली थी.’’

अबुल फजल भी अकबरनामा में स्वीकारते हैं, ‘‘बैरमखां वास्तव में सज्जन था और उस में उत्कृष्ट गुण थे. वस्तुत: हुमायूं और अकबर दोनों ही सिंहासन प्राप्ति के लिए बैरमखां के ऋणी थे.’’

खानखाना के चेहरे पर फिर वही बेबस हंसी खेल गई, ‘‘क्या अब्बा उस दर्दनाक मौत के हकदार थे जो उन्हें पाटन में मुहम्मदखां के हाथों मिली? बोलिए बेगम, क्या मेरा डर नाजायज है?’’ उन्हें पिता की स्वामिभक्ति और बदले में मिला अपमान, धोखा, मौत आज बहुत विचलित कर रहा था. वह तो वैसे भी बड़े, नेक, ज्ञानी और नम्र थे. उन के बारे में मशहूर है कि वह दान करते समय अपनी नजरें नीचे रखते थे. कारण पूछने पर उत्तर देते-

‘‘देनदार कोई और है, भेजत है दिन रैन,

लोग भरम हम पर करें, ताते नीचे नैन.’’

ऐसे रहीम खानखाना आज महाराणा को कुचलने के अभियान पर हैं. अब जो भी हो, काम तो करना ही है यह सोच कर उन्होंने कहा, ‘‘बेगम, रात बहुत हो गई है. आप सो जाएं, कल सुबह मैं फौज के साथ मुहिम पर निकलूंगा. आप सब हिफाजत से रहें इस का मैं ने पक्का बंदोबस्त कर दिया है. आप किसी भी तरह की फिक्र न करें.’’

सुबह खानखाना मेवाड़ के भीतरी भाग की खाक छानने के लिए कूच कर गए. उन का मुख्य लक्ष्य था महाराणा को बांधना, विवश करना. दिन बीत चुके थे, लेकिन इस जंगली चीते का कुछ भी अतापता नहीं लग रहा था. थकेहारे तंबू  में बैठे दूसरे दिन की योजना बना रहे थे तभी एक विश्वस्त गुप्तचर भागता हुआ आया.

‘‘हुजूर, गजब हो गया. शेरपुर का किला राणा ने लूट लिया, सारी रसद, हथियार सबकुछ…’’ गुप्तचर हांफता हुआ बोला.

‘‘शेरपुर का किला? क्या? रसद, हथियार और उस में रह रहे लोग, बेगम, बांदियां बच्चे?’’ रहीम खानखाना यह कह कर बिलबिला उठे. उन की आत्मा कांप उठी, आंखों के आगे अंधेरा छा गया. उन औरतों की करुण चीत्कार से उन के कान फटने लगे जिन्हें समयसमय पर मुगल सैनिकों ने रौंदा था. उन्हें याद आई 25 फरवरी, 1568 की बादशाह की चित्तौड़ विजय, जब किले में पहुंचने पर हजारों नारियों की धधकती हुई चिताग्नि ने उन का स्वागत किया था.

एक कमजोर इनसान की तरह अब्दुर्रहीम खानखाना भी मन ही मन प्रार्थना करने लगे कि प्रताप के निवास में पहुंचने से पहले उस की बेगमों को मौत आ जाए. तभी उन्हें ध्यान आया कि  जंगलों की खाक छानने वाला राणा भला हरम क्या रखता होगा. लेकिन फिर भी औरतें बरबाद तो हो ही सकती हैं.

‘‘कैसे बचाएं उन की अस्मत, यह सवाल जेहन में आते ही रहीम के मुंह से निकला, ‘‘हम तो न दीन के रहे न दुनिया के. अब करें तो क्या?’’

और तभी खानखाना गा उठे:

‘‘सुमिरों मन दृढ़ कर कै, नंदकुमार,

जो वृषभान कुंवारि के प्रान अधार.’’

वे सिसक उठे और अपने ही हाथों से चेहरा ढक कर निढाल पड़ गए कि  तभी कानों में स्वर गूंजा, ‘हुजूर, हुजूर, उठिए, आप से मिलने कोई दूत आया है. कहता है उसे महाराणा ने भेजा है.’

‘‘क्या महाराणा ने भेजा है? उसे बाइज्जत पेश करो. उस के साथ कोई भी बदसलूकी नहीं होनी चाहिए.’’

आगंतुक आया. अब्दुर्रहीम खानखाना उसे देखते रह गए. गोराचिट्टा रंग, ऊंचा कद, मजबूत काठी. चेहरे पर ऐसा रुआब जो राजाओं के चेहरे पर होता है. वह उसे देख कर हैरान रह गए और सोचने लगे, दूत ऐसा है तो राणा खुद कैसा होगा? लेकिन प्रकट में पूछा, ‘‘कहिए, क्या खिदमत करें आप की?’’

युवक की रोबीली आवाज गूंज उठी, ‘‘सूबेदार साहब, आप मेरी खिदमत क्या करेंगे. मैं अकेले में आप से कुछ बात करना चाहता हूं, अगर आप चाहें तो.’’

रहीम ने हाथ उठाया तो सिपाही बाहर चले गए. उन्होंने कहा, ‘अब आप कहिए?’

आगंतुक का गंभीर स्वर फूटा, ‘‘मैं एकलिंग महाराज के दीवान महाराणा प्रताप का एक सेवक हूं. उन्होंने ही मुझे आप के पास भेजा है.’’

‘‘हांहां कहिए, हमें उन की सभी शर्तें मंजूर होंगी,’’ अजमेर के सूबेदार अपने धड़कते दिल पर काबू रख कर बोले, ‘‘बस, एक बार राणा बादशाह सलामत के हुजूर में चल पड़ें और दरबार में उन्हें कोर्निश कर लें फिर मेवाड़ के जो हिस्से छीन लिए गए हैं वे सभी उन्हें वापस मिल जाएंगे.’’

‘‘कोर्निश, हांड़मांस के उस मामूली इनसान को. वह है क्या? एक आक्रमणकारी की अत्याचारी औलाद. सूबेदार साहब, वह आप का बादशाह होगा. हमारे राणा का तो वह बस, एक प्रतिद्वंद्वी है.’’

अब्दुर्रहीम खानखाना का हाथ म्यान पर गया तो उस युवक का खनकदार स्वर उभरा, ‘‘सूबेदार साहब, तैश मत खाइए. पहले पूरी बात सुनिए. राजनीति से ऊपर उठिए. मैं किसी और उद्देश्य से आया हूं.’’

खानखाना बोले, ‘‘कहिए, क्या चाहते हैं आप के राणा हम से?’’

‘‘कुछ देना चाहते हैं आप को. गलती से आप के बच्चे, बेगमें बंदी बना ली गई हैं, उन्हें हमारे राणा लौटाना चाहते हैं, बस.’’

ऐसे होते हैं राजपूत. वे हैरान थे. फिर मिर्जा राजा क्या राजपूत नहीं? उन का तो ऐसा किरदार नहीं. क्या वाकई उन्हें काफिर कहा जा सकता है? सोचतेसोचते भी खानखाना प्रकट में बोले, ‘‘तो भला इस में पूछना क्या? यह तो मेहरबानी है हम पर.’’

‘‘नहीं, यह तभी संभव हो सकता है जब आप हमारा साथ दें. पालकियां आएंगी लेकिन उन्हें रास्ते में कोई रोकेगा नहीं, टोकेगा नहीं. वे सीधे आप के पास आएंगी. मंजूर है तो बोलिए.’’

खानखाना सोच में पड़ गए. उन्हें अलाउद्दीन खिलजी का किस्सा याद आया. डोलियां चित्तौड़ की ही तो थीं. कहीं यह शातिर प्रताप की कोई चाल तो नहीं. समझ में नहीं आता क्या करें. दिमाग का कहना है इस नौजवान को अभी बांध लो, मन कहता है, ‘इस की बात मानो.’ तभी वह नौजवान हंस पड़ा.

‘‘सोच में पड़ गए सूबेदार साहब? यही न कि कहीं पद्मिणी बाइसा की डोलियों की तरह इन में से भी सिपाही न निकल पड़ें? तो वह धोखे के जवाब का धोखा था. यह तो अपनी इच्छा से महाराणा आप पर मेहरबानी करना चाहते हैं. इस में भला धोखा क्यों? देख लीजिए, हमारी सचाई पर भरोसा हो तो ठीक है, वरना…निकल तो मैं जाऊंगा.’’

‘‘ठहरो, मुझे मंजूर है,’’ दिमाग पर मन हावी हो गया और इस आत्मविश्वासी युवक पर भरोसा करने का मन कर आया खानखाना का.

नियत दिन डोलियां आईं. आगेआगे घोड़े पर वही युवक सवार था. खानखाना के सिपाहियों के हाथ म्यान पर, लेकिन सब चुप. युवक उन सभी डोलियों के साथ अंदर दाखिल हुआ. पहले बांदियां निकलीं, फिर उन्होंने पालकियों के परदे हटाए और बेगमों और बच्चों को बाहर निकाला. सब से अंत में बड़ी बेगम बाहर आईं. उन्हें देख कर खानखाना की सांस में सांस आई जो अब तक जाने कहां अटकी थी. यह सोच कर कि क्या पता किस डोली में से राणा निकल कर टूट पडे़ं, किस में से कुंवर अमर सिंह छलांग लगा दें.

युवक बाहर जाने को मुड़ा. रहीम ने टोका, ‘‘रुको नौजवान, तुम ने मुझ पर इतना बड़ा एहसान किया है कि मैं उस का बदला तो नहीं चुका सकता. लेकिन फिर भी…’’ यह कहते हुए खानखाना ने अपने गले से वह नौलखा हार निकाला जो बादशाह ने उन्हें सुलतान मुजफ्फर को परास्त करने पर दिया था.

बेगम हड़बड़ाई, ‘‘हांहां, क्या गजब कर रहे हैं आप. जानते हैं ये कौन हैं?’ ये हैं राजकुंवर अमरसिंह. इन की खातिर कीजिए. ये इनाम लेंगे भला आप से?’’

रहीम को काटो तो खून नहीं. वह कुंवर को बस, देखते ही रह गए.

बड़ी बेगम ने हाथ पकड़ कर अमर को तख्त पर बिठाया और शौहर से बोलीं, ‘‘ये सच्चे राजपूत हैं. ये किसी की बहूबेटी की इज्जत से नहीं खेलते. उन्हें दरिंदों से बचाते हैं. मेरी जिंदगी का तो बेड़ा पार हो गया हुजूर. मैं ने इन के अब्बा हुजूर के भी दर्शन कर लिए.’’

फिर कुछ सोचते हुए बड़ी बेगम बोली, ‘‘उस…आप के अकबर बादशाह के दुश्मन ने कहा कि हमारी दुश्मनी बादशाह से है उस के मातहतों से नहीं.

‘‘जानते हैं, एक दिन इन के अब्बा हुजूर हमारे तंबू के बाहर खडे़ हो कर अंदर आने की इजाजत मांग रहे थे. मैं हैरान, परेशान, बदहवास सी भागी और उन के कदमों पर गिर कर गिड़गिड़ाने लगी. बेखयाली में मैं बेपरदा हो चुकी थी, लेकिन उस इनसान ने हमारे कंधे पर अपना दुशाला डाला और बोले, ‘‘मां, आप का स्थान चरणों में नहीं, सिर माथे पर है. अमर, इन सभी माताबहनों को सम्मान से खानखाना के पास पहुंचा आओ. रास्ते में कोई कष्ट न हो.’’

बड़ी बेगम उठीं, लोहबान जलाया और अमर सिंह की आरती उतारते हुए बोलीं, ‘‘बेटा, आज से तुम मेरे बेटे हो. मुझे अब फतह और शिकस्त से कोई वास्ता नहीं. जब तक जिंदा हूं तुम्हारी सलामती की दुआ मांगती रहूंगी. कोई भी तुम्हारा बाल बांका नहीं कर सकेगा, अकबर बादशाह हों या खुद मेरे ये शौहर.’’

खानखाना की आंखें भर आईं, गला रुंध गया. रोकतेरोकते भी आंसू ढुलक ही पडे़. इस क्षण वे न एक सूबेदार थे, न बादशाह के 5 हजारी मनसबदार. वह थे एक आम आदमी, एक कोमल हृदय कवि. उन्हें लगा कि प्रताप ने उन्हें ही नहीं, अकबर बादशाह को भी करारी शिकस्त दी है और यह नौजवान, जो उन की बेगम को नमस्कार कर के, खेमे से बाहर निकल रहा है, क्या कोई इनसान है? फिर खुद… उन के मुंह से निकल पड़ा,

‘‘तै रहीम मन आपनो, कीन्हों चारु चकोर,

निसि वासर लागो रहे, कृष्णचंद्र की ओर.’’

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