हरिनूर

‘‘अरे, इस बैड नंबर8 का मरीज कहां गया? मैं तो इस लड़के से तंग आ गई हूं. जब भी मैं ड्यूटी पर आती हूं, कभी बैड पर नहीं मिलता,’’ नर्स जूली काफी गुस्से में बोलीं.

‘आंटी, मैं अभी ढूंढ़ कर लाती हूं,’’ एक प्यारी सी आवाज ने नर्स जूली का सारा गुस्सा ठंडा कर दिया. जब उन्होंने पीछे की तरफ मुड़ कर देखा, तो बैड नंबर 10 के मरीज की बेटी शबीना खड़ी थी.

शबीना ने बाहर आ कर देखा, फिर पूरा अस्पताल छान मारा, पर उसे वह कहीं दिखाई नहीं दिया और थकहार कर वापस जा ही रही थी कि उस की नजर बगल की कैंटीन पर गई, तो देखा कि वे जनाब तो वहां आराम फरमा रहे थे और गरमागरम समोसे खा रहे थे.

शबीना उस के पास गई और धीरे से बोली, ‘‘आप को नर्स बुला रही हैं.’’

उस ने पीछे घूम कर देखा. सफेद कुरतासलवार, नीला दुपट्टा लिए सांवली, मगर तीखे नैननक्श वाली लड़की खड़ी हुई थी. उस ने अपने बालों की लंबी चोटी बनाई हुई थी. माथे पर बिंदी, आंखों में भरापूरा काजल, हाथों में रंगबिरंगी चूडि़यों की खनखन.

वह बड़े ही शायराना अंदाज में बोला, ‘‘अरे छोडि़ए ये नर्सवर्स की बातें. आप को देख कर तो मेरे जेहन में बस यही खयाल आया है… माशाअल्लाह…’’

‘‘आप भी न…’’ कहते हुए शबीना वहां से शरमा कर भाग आई और सीधे बाथरूम में जा कर आईने के सामने दोनों हाथों से अपना चेहरा ढक लिया. फिर हाथों को मलते हुए अपने चेहरे को साफ किया और बालों को करीने से संवारते हुए बाहर आ गई.

तब तक वह मरीज, जिस का नाम नीरज था, भी वापस आ चुका था. शबीना घबरा कर दूसरी तरफ मुंह कर के बैठ गई.

नीरज ने देखा कि शबीना किसी भी तरह की बात करने को तैयार नहीं है, तो उस ने सोचा कि क्यों न पहले उस की मम्मी से बात की जाए.

शबीना की मां को टायफायड हुआ था, जिस से उन्हें अस्पताल में भरती होना पड़ा था. नीरज को बुखार था, पर काफी दिनों से न उतरने के चलते उस की मां ने उसे दाखिल करा दिया था.

नीरज की शबीना की अम्मी से काफी पटती थी. परसों ही दोनों को अस्पताल से छुट्टी मिलनी थी, पर तब तक नीरज और शबीना अच्छे दोस्त बन चुके थे.

शबीना 10वीं जमात की छात्रा थी और नीरज 11वीं जमात में पढ़ता था. दोनों के स्कूल भी आमनेसामने थे. वैसे भी फतेहपुर एक छोटी सी जगह है, जहां कोई भी आसानी से एकदूसरे के बारे में पता लगा सकता है. सो, नीरज ने शबीना का पता लगा ही लिया.

एक दिन स्कूल से बाहर आते समय दोनों की मुलाकात हो गई. दोनों ही एकदूसरे को देख कर खुश हुए. उन की दोस्ती और गहरी होती गई.

इसी बीच शबीना कभीकभार नीरज के घर भी जाने लगी, पर वह नीरज को अपने घर कभी नहीं ले गई.

ऐसे ही 2 साल कब बीत गए, पता ही नहीं चला. अब यह दोस्ती इश्क में बदल कर रफ्तारफ्ता परवान चढ़ने लगी.

एक दिन जब शबीना कालेज से घर में दाखिल हुई, तो उसे देखते ही अम्मी चिल्लाते हुए बोलीं, ‘‘तुम्हें बताया था न कि तुम्हें देखने के लिए कुछ लोग आ रहे हैं, पर तुम ने वही किया जो 2 साल से कर रही हो. तुम्हारी जोया आपा ठीक ही कह रही थीं कि तुम एक लड़के के साथ मुंह उठाए घूमती रहती हो.’’

‘‘अम्मी, आप मेरी बात तो सुनो… वह लड़का बहुत अच्छा है. मुझ से बहुत प्यार करता है. एक बार मिल कर तो देखो. वैसे, तुम उस से मिल भी चुकी हो,’’ शबीना एक ही सांस में सबकुछ कह गई.

‘‘वैसे अम्मी, अब्बू कौन होते हैं हमारी निजी जिंदगी का फैसला करने वाले? कभी दुखतकलीफ में तुम्हारी खैर पूछने आए, जो आज इस पर उंगली उठाएंगे? हम मरें या जीएं, उन्हें कोई फर्क पड़ता है क्या?

‘‘शायद आप भूल गई हो, पर मेरे जेहन में वह सबकुछ आज भी है, जब अब्बू नई अम्मी ले कर आए थे. तब नई अम्मी ने अब्बू के सामने ही कैसे हमें जलील किया था.

‘‘इतना ही नहीं, हम सभी को घर से बेदखल भी कर दिया था.’’

तभी जोया आपा घर में आईं.

‘‘अरे जोया, तुम ही इस को समझाओ. मैं तुम दोनों के लिए जल्दी से चाय बना कर लाती हूं,’’ ऐसा कहते हुए अम्मी रसोईघर में चली गईं.

रसोईघर क्या था… एक बड़े से कमरे को बीच से टाट का परदा लगा कर एक तरफ बना लिया गया था, तो दूसरी तरफ एक पुराना सा डबल बैड, टूटी अलमारी और अम्मी की शादी का एक पुराना बक्सा रखा था, जिस में अम्मी के कपड़े कम, यादें ज्यादा बंद थीं. मगर सबकुछ रखा बड़े करीने से था.

तभी अम्मी चाय और बिसकुट ले कर आईं और सब चाय का मजालेने लगे.

शबीना यादों की गहराइयों में खो गई… वह मुश्किल से 6-7 साल की थी, जब अब्बू नई अम्मी ले कर आए थे. वह अपनी बड़ी सी हवेली के बगीचे में खेल रही थी. तभी नई अम्मी घर में दाखिल हुईं. उसे समझ नहीं आ रहा था कि यह सब क्या हो रहा है. उस की अम्मी हर वक्त रोती क्यों रहती हैं?

जब नई अम्मी को बेटा हुआ, तो जोया आपा और अम्मी को बेदखल कर उसी हवेली में नौकरों के रहने वाली जगह पर एक कोना दे दिया गया.

अम्मी दिनभर सिलाईकढ़ाई करतीं और जोया आपा भी दूसरों के घर का काम करतीं तो भी दो वक्त की रोटी मुहैया नहीं हो पाती थी.

अम्मी 30 साल की उम्र में 50 साल की दिखने लगी थीं. ऐसा नहीं था कि अम्मी खूबसूरत नहीं थीं. वे हमेशा अब्बू की दीवानगी के किस्से बयां करती रहती थीं.

सभी ने अम्मी को दूसरा निकाह करने को कहा, पर अम्मी तैयार नहीं हुईं. पर इधर कुछ दिनों से वे काफी परेशान थीं. शायद जोया आपा के सीने पर बढ़ता मांस परेशानी का सबब था. मेरे लिए वह अचरज, पर अम्मी के लिए जिम्मेदारी.

‘‘शबीना… ओ शबीना…’’ जोया आपा की आवाज ने शबीना को यादों से वर्तमान की ओर खींच दिया.

‘‘ठीक है, उस लड़के को ले कर आना, फिर देखते हैं कि क्या करना है.’’

लड़के का फोटो देख शबीना खुशी से उछल गई और चीख पड़ी. भविष्य के सपने संजोते हुए वह सोने चली गई.

अकसर उन दोनों की मुलाकात शहर के बाहर एक गार्डन में होती थी. आज जब वह नीरज से मिली, तो उस ने कल की सारी घटना का जिक्र किया, ‘‘जनाब, आप मेरे घर चल रहे हैं. अम्मी आप से मुलाकात करना चाह रही हैं.’’

‘‘सच…’’ कहते हुए नीरज ने शबीना को अपनी बांहों में भर लिया. शबीना शरमा कर बड़े प्यार से नीरज को देखने लगी, फिर नीरज की गाड़ी से ही घर पहुंची.

नीरज तो हैरान रह गया कि इतनी बड़ी हवेली, सफेद संगमरमर सी नक्काशीदार दीवारें और एक मुगलिया संस्कृति बयां करता हरी घास का

लान, जरूर यह बड़ी हैसियत वालों की हवेली है.

नीरज काफी सकुचाते हुए अंदर गया, तभी शबीना बोली, ‘‘नीरज, उधर नहीं, यह अब्बू की हवेली है. मेरा घर उधर कोने में है.’’

हैरानी से शबीना को देखते हुए नीरज उस के पीछेपीछे चल दिया. सामने पुराने से सर्वैंट क्वार्टर में शबीना दरवाजे पर टंगी पुरानी सी चटाई हटा कर अंदर नीरज के साथ दाखिल हुई.

नीरज ने देखा कि वहां 2 औरतें बैठी थीं. उन का परिचय शबीना ने अम्मी और जोया आपा कह कर कराया.

अम्मी ने नीरज को देखा. वह उन्हें बड़ा भला लड़का लगा और बड़े प्यार से उसे बैठने के लिए कहा.

अम्मी ने कहा, ‘‘मैं तुम दोनों के लिए चाय बना कर लाती हूं. तब तक अब्बू और भाईजान भी आते होंगे.’’

‘‘अब्बू, अरे… आप ने उन्हें क्यों बुलाया? मैं ने आप से पहले ही मना किया था,’’ गुस्से से चिल्लाते हुए शबीना अम्मी पर बरस पड़ी.

अम्मी भी गुस्से में बोलीं, ‘‘चुपचाप बैठो… अब्बू का फैसला ही आखिरी फैसला होगा.’’

शबीना कातर निगाहों से नीरज को देखने लगी. नीरज की आंखों में उठे हर सवाल का जवाब वह अपनी आंखों से देने की कोशिश करती.

थोड़ी देर तक वहां सन्नाटा पसरा रहा, तभी सामने की चटाई हिली और भरीभरकम शरीर का आदमी दाखिल हुआ. वे सफेद अचकन और चूड़ीदार पाजामा पहने हुए थे. साथ ही, उन के साथ 17-18 साल का एक लड़का भी अंदर आया.

आते ही उस आदमी ने नीरज का कौलर पकड़ कर उठाया और दोनों लोग नीरज को काफी बुराभला कहने लगे.

नीरज एकदम अचकचा गया. उस ने संभलने की कोशिश की, तभी उस में से एक आदमी ने पीछे से वार कर दिया और वह फिर वहीं गिर गया.

शबीना कुछ समझ पाती, इस से पहले ही उस के अब्बू चिल्ला कर बोले, ‘‘खबरदार, जो इस लड़के से मिली. तुझे शर्म नहीं आती… वह एक हिंदू लड़का है और तू मुसलमान…’’ नीरज की तरफ मुखातिब हो कर बोले, ‘‘आज के बाद शबीना की तरफ आंख उठा कर मत देखना, वरना तुम्हारा और तुम्हारे परिवार का वह हाल करेंगे कि प्यार का सारा भूत उतर जाएगा.’’

नीरज ने समय की नजाकत को समझते हुए चुपचाप चले जाना ही उचित समझा.

अब्बू ने शबीना का हाथ झटकते हुए अम्मी की तरफ धक्का दिया और गरजते हुए बोले, ‘‘नफीसा, शबीना का ध्यान रखो और देखो अब यह लड़का कभी शबीना से न मिले. इस किस्से को यहीं खत्म करो,’’ और यह कहते हुए वे उलटे पैर वापस चले गए.

अब्बू के जाते ही जो शबीना अभी तक तकरीबन बेहोश सी पड़ी थी, तेजी से खड़ी हो गई और अम्मी से बोली, ‘‘अम्मी, यह सब क्या है? आप ने इन लोगों को क्यों बुलाया? अरे, मुझे तो समझ में नहीं आ रहा है कि ये इतने सालों में कभी तो हमारा हाल पूछने नहीं आए. हम मर रहे हैं या जी रहे हैं, पेटभर खाना खाया है कि नहीं, कैसे हम जिंदगी गुजार रहे हैं. दोदो पैसे कमाने के लिए हम ने क्याक्या काम नहीं किया.

‘‘बोलो न अम्मी, तब ये कहां थे? जब हमारी जिंदगी में चंद खुशियां आईं, तो आ गए बाप का हक जताने. मेरा बस चले, तो आज मैं उन का सिर फोड़ देती.’’

‘‘शबीना…’’ कहते हुए अम्मी ने एक जोरदार चांटा शबीना को रसीद कर दिया और बोलीं, ‘‘बहुत हुआ… अपनी हद भूल रही है तू. भूल गई कि उन से मेरा निकाह ही नहीं हुआ है, दिल का रिश्ता है. मैं उन के बारे में एक भी गलत लफ्ज सुनना पसंद नहीं करूंगी. कल से तुम्हारा और नीरज का रास्ता अलगअलग है.’’

शबीना सारी रात रोती रही. उस की आंखें सूज कर लाल हो गईं. सुबह जब अम्मी ने शबीना को इस हाल में देखा, तो उन्हें बहुत दुख हुआ. वे उस के बिखरे बालों को समेटने लगीं. मगर शबीना ने उन का हाथ झटक दिया.

बहरहाल, इसी तरह दिनहफ्ते, महीने बीतने लगे. शबीना और नीरज की कोई बातचीत तक नहीं हुई. न ही नीरज ने मिलने की कोशिश की और न ही शबीना ने.

इसी तरह एक साल बीत गया. अब तक अम्मी ने मान लिया था कि शबीना अब नीरज को भूल चुकी है.

उसी दौरान शबीना ने अपनी फैशन डिजाइन के काम में काफी तरक्की कर ली थी और घर में अब तक सब नौर्मल हो गया था. सब ने सोचा कि अब तूफान शांत हो चुका है.

वह दिन शबीना की जिंदगी का बहुत खास दिन था. आज उस के कपड़ों की प्रदर्शनी थी. वह तेजतेज कदमों से लिफ्ट की तरफ बढ़ रही थी, तभी लिफ्ट का दरवाजा खुला, तो सामने खड़े शख्स को देख कर उस के पैर ठिठक गए.

‘‘कैसी हो शबीना?’’ उस ने बोला, तो शबीना की आंखों से आंसू आ गए. बिना कुछ बोले भाग कर वह उस के गले लग गई.

‘‘तुम कैसे हो नीरज? उस दिन तुम्हारी इतनी बेइज्जती हुई कि मेरी हिम्मत ही नहीं हुई कि तुम से कैसे बात करूं, पर सच में मैं तुम्हें कभी भी नहीं भूली…’’

नीरज ने उस के मुंह पर हाथ रख दिया, ‘‘वह सब छोड़ो, यह बताओ कि तुम यहां कैसे?

‘‘आज मेरे सिले कपड़ों की प्रदर्शनी लगी है, पर तुम…’’

‘‘मैं यहां का मैनेजर हूं.’’

शबीना ने मुसकराते हुए प्यारभरी निगाहों से नीरज को देखा. नीरज को लगा कि उस ने सारे जहां की खुशियां पा ली हैं.

‘‘अच्छा सुनो, मैं यहां का सारा काम खत्म कर के रात में 8 बजे तुम से यहीं मिलूंगी.’’

आज शबीना का मन अपने काम में नहीं लग रहा था. उसे लग रहा था कि जल्दी से नीरज के पास पहुंच जाए.

शबीना को देखते ही नीरज बोला, ‘‘कुछ इस कदर हो गई मुहब्बत तनहाई से अपनी कि कभीकभी इन सांसों के शोर को भी थामने की कोशिश कर बैठते हैं जनाब…’’

शबीना मुसकराते हुए बोली, ‘‘शिकवा तो बहुत है मगर शिकायत कर नहीं सकते… क्योंकि हमारे होंठों को इजाजत नहीं है तुम्हारे खिलाफ बोलने की,’’ और वे दोनों खिलखिला कर हंस पड़े.

‘‘नीरज, तुम्हें पता नहीं है कि आज मैं मुद्दतों बाद इतनी खुल कर हंसी हूं.’’

‘‘शायद मैं भी…’’ नीरज ने कहा. रात को दोनों ने एकसाथ डिनर किया और दोनों चाहते थे कि इतने दिनों की जुदाई की बातें एक ही घंटे में खत्म कर दें, जो कि मुमकिन नहीं था. फिर वे दोनों दिनभर के काम के बाद उसी पुराने गार्डन या कैफे में मिलने लगे.

लोग अकसर उन्हें साथ देखते थे. शबीना के घर वालों को भी पता चल गया था, पर उन्हें लगता था कि वे शादी नहीं करेंगे. वे इस बारे में शबीना को समयसमय पर हिदायत भी देते रहते थे.

इसी तरह साल दर साल बीतने लगे. एक दिन रात के अंधेरे में उन दोनों ने अपना शहर छोड़ एक बड़े से महानगर में अपनी दुनिया बसा ली, जहां उस भीड़ में उन्हें कोई पहचानता तक नहीं था. वहीं पर दोनों एक एनजीओ में नौकरी करने लगे.

उन दोनों का घर छोड़ कर अचानक जाना किसी को अचरज भरा नहीं लगा, क्योंकि सालों से लोगों को उन्हें एकसाथ देखने की आदत सी पड़ गई थी. पर अम्मी को शबीना का इस तरह जाना बहुत खला. वे काफी बीमार रहने लगीं. जोया आपा का भी निकाह हो गया था.

इधर शबीना अपनी दुनिया में बहुत खुश थी. समय पंख लगा कर उड़ने लगा था. एक दिन पता चला कि उस की अम्मी को कैंसर हो गया और सब लोगों ने यह कह कर इलाज टाल दिया था कि इस उम्र में इतना पैसा इलाज में क्यों बरबाद करें.

शबीना को जब इस बात का पता चला, तो उस ने नीरज से बात की.

नीरज ने कहा, ‘‘तुम अम्मी को अपने पास ही बुला लो. हम मिल कर उन का इलाज कराएंगे.’’

शबीना अम्मी को इलाज कराने अपने घर ले आई. अम्मी जब उन के घर आईं, तो उन का प्यारा सा संसार देख कर बहुत खुश हुईं.

नीरज ने बड़ी मेहनत कर पैसा जुटाया और उन का इलाज कराया और वे धीरेधीरे ठीक होने लगीं. अब तो उन की बीमारी भी धीरेधीरे खत्म हो गई. मगर अम्मी को बड़ी शर्मिंदगी महसूस होती. नीरज उन की परेशानी को समझ गया.

एक दिन शाम को अम्मी शबीना के साथ बैठी थीं, तभी नीरज भी पास आ कर बैठ गया और बोला, ‘‘अम्मी, जिंदगी में ज्यादा रिश्ते होना जरूरी नहीं है, पर रिश्तों में ज्यादा जिंदगी होना जरूरी है. अम्मी, जब बनाने वाले ने कोई फर्क नहीं रखा, तो हम कौन होते हैं फर्क रखने वाले.

‘‘अम्मी, मेरी तो मां भी नहीं हैं, मगर आप से मिल कर वह कमी भी पूरी हो गई.’’

अम्मी ने प्यार से नीरज को गले लगा लिया, तभी नीरज बोला, ‘‘आज एक और खुशखबरी है, आप जल्दी ही नानी बनने वाली हैं.’’

अब अम्मी बहुत खुश थीं. वे अकसर शबीना के घर आती रहतीं. समय के साथ ही शबीना ने प्यारे से बेटे को जन्म दिया, जिस का नाम शबीना ने हरिनूर रखा. शबीना ने यह नाम दे कर उसे हिंदूमुसलमान के झंझावातों से बरी कर दिया था.

चीयर गर्ल: फ्रैंड रिक्वैस्ट एक्सैप्ट करने के बाद क्या हुआ उसके साथ

Romantic Story in hindi

चावल पर लिखे अक्षर: क्या हुआ था सीमा के साथ

लेखक- डा. रंजना जायसवाल

दशहरे की छुट्टियों के कारण पूरे 1 महीने के लिए वर्किंग वूमेन होस्टल खाली हो गया था. सभी लड़कियां हंसतीमुसकराती अपनेअपने घर चली गई थीं. बस सलमा, रुखसाना व नगमा ही बची थीं. मैं उदास थी. बारबार मां की याद आ रही थी. बचपन में सभी त्योहार मुझे अच्छे लगते थे. दशहरे में पिताजी मुझे स्कूटर पर आगे खड़ा कर रामलीला व दुर्गापूजा दिखाने ले जाते. दीवाली के दिन मां नाना प्रकार के पकवान बनातीं, पिताजी घर सजाते. शाम को धूमधाम से गणेशलक्ष्मी पूजन होता. फिर पापा ढेर सारे पटाखे चलाते. मैं पटाखों से डरती थी. बस, फुलझडि़यां ही घुमाती रहती. उस रात जगमगाता हुआ शहर कितना अच्छा लगता था. दीवाली के दिन यह शहर भी जगमगाएगा पर मेरे मन में तब भी अंधेरा होगा. 10 वर्ष की थी मैं जब मां का देहांत हो गया. तब से कोई भी त्योहार, त्योहार नहीं लगा. सलमा वगैरह पूछती हैं कि मैं अपने घर क्यों नहीं जाती? अब मैं उन्हें कैसे कहूं कि मेरा कोई घर ही नहीं.

मन उलझने लगा तो सोचा, कमरे की सफाई कर के ही मन बहलाऊं. सफाई के क्रम में एक पुराने संदूक को खोला तो सुनहरे डब्बे में बंद एक शीशी मिली. छोटी और पतली शीशी, जिस के अंदर एक सींक और रुई के बीच चावल का एक दाना चमक रहा था, जिस पर लिखा था, ‘नोरा, आई लव यू.’ मैं ने उस शीशी को चूम लिया और अतीत में डूबती चली गई. यह उपहार मुझे अनवर ने दिया था. दिल्ली के प्रगति मैदान में एक छोटी सी दुकान है, जहां एक लड़की छोटी से छोटी चीजों पर कलाकृतियां बनाती है. अनवर ने उसी से इस चावल पर अपने प्रेम का प्रथम संदेश लिखवाया था.

अनवर मेरे सौतेले बडे़ भाई के मित्र थे, अकसर घर आया करते थे. पिताजी की लंबी बीमारी, फिर मृत्यु के समय उन्होंने हमारी बहुत मदद की थी. भाई उन पर बहुत विश्वास करता था. वह उस के मित्र, भाई, राजदार सब थे पर भाई का व्यवहार मुझ से ठीक न था. कारण यह था कि पिताजी ने अपनी आधी संपत्ति मेरे नाम लिख दी थी. वह चाहता था कि जल्दी से जल्दी मेरी शादी कर के बाकी संपत्ति पर अधिकार कर ले. पर मैं आगे पढ़ना चाहती थी.

एक दिन इसी बात को ले कर उस ने मुझे काफी बुराभला कहा. मैं ने गुस्से में सल्फास की गोलियां खा लीं पर संयोग से अनवर आ गए. वह तत्काल मुझे अस्पताल ले गए. भाई तो पुलिस केस के डर से मेरे साथ आया तक नहीं. जहर के प्रभाव से मेरा बुरा हाल था. लगता था जैसे पूरे शरीर में आग लग गई हो. कलेजे को जैसे कोई निचोड़ रहा हो. उफ , इतनी तड़प, इतनी पीड़ा. मौत जैसे सामने खड़ी थी और जब डाक्टर ने जहर निकालने  के लिए नलियों का प्रयोग किया तो मैं लगभग बेहोश हो गई.

जब होश आया तो देखा अनवर मेरे सिरहाने उदास बैठे हुए हैं. मुझे होश में देख कर उन्होंने अपना ठंडा हाथ मेरे तपते माथे पर रख दिया. आह, ऐसा लगा किसी ने मेरी सारी पीड़ा खींच ली हो. मेरी आंखों से आंसू बहने लगे तो उन की भी आंखें नम हो आईं. बोले, ‘पगली, रोती क्यों है? उस जालिम की बात पर जान दे रही थी? इतनी सस्ती है तेरी जान? इतनी बहादुर लड़की और यह हरकत…?’

मैं ने रोतेरोेते कहा, ‘मैं अकेली पड़ गई हूं, कोई मेरे साथ नहीं है. मैं क्या करूं?’

वह बोले, ‘आज से यह बात मत कहना, मैं हूं न, तुम्हारा साथ दूंगा. बस, आज से इन प्यारी आंखों में आंसू न आने पाएं. समझीं, वरना मारूंगा.’

मैं रोतेरोते हंस पड़ी थी.

अनवर ने भाई को राजी कर मेरा एम.ए. में दाखिला करा दिया. फिर तो मेरी दुनिया  ही बदल गई. अनवर घर में मुझ से कम बातें करते पर जब बाहर मिलते तो खूब चुटकुले सुना कर हंसाते. धीरेधीरे वह मेरी जिंदगी की एक ऐसी जरूरत बनते जा रहे थे कि जिस दिन वह नहीं मिलते मुझे सूनासूना सा लगता था.

एक दिन मैं अपने घर में पड़ोसी के बच्चे के साथ खेल रही थी. जब वह बेईमानी करता तो मैं उसे चूम लेती. तभी अनवर आ गए और हमारे खेल में शामिल हो गए. जब मैं ने बच्चे को चूमा तो उन्होंने भी अपना दायां गाल मेरी तरफ बढ़ा दिया. मैं ने शरारत से उन्हें भी चूम लिया. जब उन्होंने अपने होंठ मेरी तरफ बढ़ाए तो मैं शरमा गई पर उन की आंखों का चुंबकीय आकर्षण मुझे खींचने लगा और अगले ही पल हमारे अधर एक हो चुके थे. एक अजीब सा थरथराता, कोमल, स्निग्ध, मीठा, नया एहसास, अनोखा सुख, होंठों की शिराओं से उतर कर विद्युत तरंगें बन रक्त के साथ प्रवाहित होने लगा. देह एक मद्धिम आंच में तपने लगी और सितार के कसे तारों से मानो संगीत बजने लगा. तभी भाई की चीखती आवाज से हमारा सम्मोहन टूट गया. अनवर भौचक्के से खड़े हो गए थे. भाई की लाललाल आंखों ने बता दिया कि हम कुछ गलत कर रहे थे.

‘क्या कर रही थी तू बेशर्म, मैं जान से मार डालूंगा तुम्हें,’ उस ने मुझे मारने के लिए हाथ उठाया तो अनवर ने उस का हाथ थाम लिया.

‘इस की कोई गलती नहीं. जो कुछ दंड देना हो मुझे दो.’

भाई चीखा, ‘कमीने, मैं ने तुझे अपना दोस्त समझा और तू…जा, चला जा…फिर कभी मुंह मत दिखाना. मैं गद्दारों से दोस्ती नहीं रखता.’

अनवर आहत दृष्टि से कुछ क्षण भाई को देखते रहे. कल तक वह उस के लिए आदर्श थे, मित्र थे और आज इस पल इतने बुरे हो गए. उन्होंने लंबी सांस ली और धीरेधीरे बाहर चले गए.

मेरा मन तड़पने लगा. यह क्या हो गया? अनवर अब कभी नहीं आएंगे. मैं ने क्यों चूम लिया उन्हें? वह बच्चे नहीं हैं? अब क्या होगा? उन के बिना मैं कैसे जी सकूंगी? मैं अपनेआप में इस प्रकार गुम थी कि भाई क्या कह रहा है, मुझे सुनाई ही नहीं दे रहा था.

उस घटना के कई दिन बाद अनवर मिले और मुझे बताया कि भाई उन्हें घर से ले कर आफिस तक बदनाम कर रहा है. उन के हिंदू मकान मालिक ने उन से कह दिया कि जल्द मकान खाली करो. आफिस में भी काम करना मुश्किल हो रहा है. सब उन्हें अजीब  निगाहों से घूरते हुए मुसकराते हैं, मानो वह कह रहे हों, ‘बड़ा शरीफ बनता था?’ सब से बड़ा गुनाह तो उन का मुसलमान होना बना दिया गया है. मुझे भाई पर क्रोध आने लगा.

अनवर बेहद सुलझे हुए, शरीफ, समझदार व ईमानदार इनसान के रूप में प्रसिद्ध थे. कहीं अनवर बदनामी के डर से कुछ कर  न बैठें, यही सोच कर मैं ने दुखी स्वर में कहा, ‘यह सब मेरी नासमझी के कारण हुआ, मुझे माफ कर दें.’ वह प्यार से बोले, ‘नहीं पगली, इस में तुम्हारा कोई दोष नहीं, दोष उमर का है. मैं ने ही कब सोचा था कि तुम से’…वाक्य अधूरा था पर मुझे लगा खुशबू का एक झोंका मेरे मन को छू कर गुजर गया है, मन तितली बन कर उस सुगंध की तलाश में उड़ने लगा.

अचानक उन्होंने चुप्पी तोड़ी, ‘सीमा, मुझ से शादी करोगी?’ यह क्या, मैं अपनेआप को आकाश के रंगबिरंगे बादलों के बीच दौड़तेभागते, खिल- खिलाते देख रही हूं. ‘सीमा, बोलो सीमा, क्या दोगी मेरा साथ?’ मैं सम्मोहित व्यक्ति की तरह सिर हिलाने लगी.

वह बोले, ‘मैं दिल्ली जा रहा हूं, वहीं नौकरी ढूंढ़ लूंगा…यहां तो हम चैन से जी नहीं पाएंगे.’

अनवर जब दिल्ली से लौटे थे तो मुझे चावल पर लिखा यह प्रेम संदेश देते हुए बोले थे, ‘आज से तुम नोरा हो…सिर्फ मेरी नोरा’…और सच  उस दिन से मैं नोरा बन कर जीने लगी थी.

अनवर देर कर रहे थे. उधर भाई की ज्यादतियां बढ़ती जा रही थीं. वह सब के सामने मुझे अपमानित करने लगा था. उस का प्रिय विषय ‘मुसलिम बुराई पुराण’ था. इतिहास और वर्तमान से छांटछांट उस ने मुसलमानों की गद्दारियों के किस्से एकत्र कर लिए थे और उन्हें वह रस लेले कर सुनाता. मुझे पता था कि यह सब मुझे जलाने के लिए कर रहा था. भाई जितनी उन की बुराई करता, उतनी ही मैं उन के नजदीक होती जा रही थी. हम अकसर मिलते. कभीकभी तो पूरे दिन हम टैंपो से शहर का चक्कर लगाते ताकि देर तक साथ रह सकें. अजीब दिन थे, दहशत और मोहब्बत से भरे हुए. उन की एक नजर, एक मुसकराहट, एक बोल, एक स्पर्श कितना महत्त्वपूर्ण हो उठा था मेरे लिए.

वह अपने प्रेमपत्र कभी मेरे घर के पिछवाडे़ कूडे़ की टंकी के नीचे तो कभी बिजली के खंभे के पास ईंटों के नीचे दबा जाते.

मैं कूड़ा फेंकने के बहाने जा कर उन्हें निकाल लाती. वे पत्र मेरे लिए दुनिया के सर्वश्रेष्ठ प्रेमपत्र होते थे.

उन्हें मेरा सतरंगी दुपट्टा विशेष प्रिय था, जिसे ओढ़ कर मैं शाम को छत पर टहलती और वह दूर सड़क से गुजरते हुए फोन पर विशेष संकेत दे कर अपनी बेचैनी जाहिर करते. भाई घूरघूर कर मुझे देखता और मैं मन ही मन रोमांचकारी खुशी से भर उठती.

एक दिन जब मैं विश्वविद्यालय से घर पहुंची तो ड्राइंग रूम से भाई के जोरजोर से बोलने की आवाज सुनाई दी. अंदर जा कर देखा तो धक से रह गई. अनवर सिर झुकाए खडे़ थे. अनवर को यह क्या सूझा? आखिर वही पागलपन कर बैठे न, कितना मना किया था मैं ने? पर ये मर्द अपनी ही बात चलाते हैं. इतना आसान तो नहीं है जातिधर्म का भेदभाव मिट जाना? चले आए भाई से मेरा हाथ मांगने, उफ, न जाने क्याक्या कहा होगा भाई ने उन्हें. भाई मुझे देख कर और भी शेर हो गया. उन का हाथ पकड़ कर बाहर की तरफ धकेलते हुए गालियां बकने लगा. मैं किंकर्तव्यविमूढ़ थी. बाहर कालोनी के कुछ लोग भी जमा हो गए थे. मैं तमाशा बनने के डर से कमरे में बंद हो गई. रात भर तड़पती रही.

दूसरे दिन शाम को किसी ने मेरे कमरे का दरवाजा खटखटाया. खोल कर देखा तो अनवर के एक मित्र थे. किसी भावी आशंका से मेरा मन कांप उठा. वह बोले, ‘अनवर ने काफी मात्रा में जहर खा लिया है और मेडिकल कालिज में मौत से लड़ रहा है. बारबार नोरानोरा पुकार रहा है. जल्दी चलिए.’ मैं घबरा गई. मैं ने जल्दी से पैरों में चप्पल डालीं और सीढि़यां उतरने लगी. देखा तो आखिरी सीढ़ी पर भाई खड़ा था. मैं ठिठक गई. फिर साहस कर बोली, ‘मुझे जाने दो, बस, एक बार देखना चाहती हूं उन्हें.’

‘नहीं, तुम नहीं जाओगी, मरता है तो मर जाने दो, साला अपने पाप का प्रायश्चित्त कर रहा है.’

‘प्लीज, भाई, चाहो तो तुम भी साथ चलो, बस, एक बार मिल कर आ जाऊंगी.’

‘कदापि नहीं, उस गद्दार का मुंह भी देखना पाप है.’

‘भाई, एक बार मेरी प्रार्थना सुन लो, फिर तुम जो चाहोगे वही करूंगी. अपने हिस्से की जायदाद भी तुम्हारे नाम कर दूंगी.’

‘सच? तो यह लो कागज, इस पर हस्ताक्षर कर दो.’ उस ने जेब से न जाने कब का तैयार दस्तावेज निकाल कर मेरे सामने लहरा दिया. मेरा मन घृणा से भर उठा. जी तो चाहा कागज के टुकडे़ कर के उस के मुंह पर दे मारूं पर इस समय अनवर की जिंदगी का सवाल था. समय बिलकुल नहीं था और बाहर कालोनी वाले जुटने लगे थे. मैं ने भाई के हाथ से पेन ले कर उस दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर दिए और तेजी से लोगों के बीच से रास्ता बनाती अनवर के मित्र के स्कूटर पर बैठ गई.

जातेजाते भाई के कुछ शब्द कान में पडे़, ‘देख रहे हैं न आप लोग, यह अपनी मर्जी से जा रही है. कल कोई यह न कहे, सौतेले भाई ने घर से निकाल दिया. विधर्मी की मोहब्बत ने इसे पागल कर दिया है. अब मैं इसे कभी घर में घुसने नहीं दूंगा. मेरे खानदान का नाम और धर्म सब भ्रष्ट कर दिया है इस कुलकलंकिनी ने.’

स्कूटर मेडिकल कालिज की तरफ बढ़ा जा रहा था. मेरी आंखों में आंसू छलछला आए, ‘तो यह…यह है मां के घर से मेरी विदाई.’ अनवर खतरे से बाहर आ चुके थे. उन्हें होश आ गया पर मुझे देखते ही वह थरथरा उठे, ‘तुम…तुम कैसे आ गईं? जाओ, लौट जाओ, कहीं पुलिस…’ मैं ने अनवर का हाथ दबा कर कहा, ‘आप चिंता न करें, कुछ नहीं होगा.’ पर अनवर का भय कम नहीं हो रहा था. वह उसी तरह थरथराते रहे और मुझे वापस जाने को कहते रहे. मैं उन्हें कैसे समझाती कि मैं सबकुछ छोड़ आई हूं, अब मेरी वापसी कभी नहीं होगी.

वह नीमबेहोशी में थे. जहर ने उन के दिमाग पर बुरा असर डाला था. उन को चिंतामुक्त करने के लिए मैं बाहर इमली के पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर बैठ गई. बीचबीच में जा कर उन के पास पडे़ स्टूल पर बैठ जाती और निद्रामग्न उन के चेहरे को देखती रहती और सोचती, ‘किस्मत ने मुझे किस मोड़ पर ला कर खड़ा कर दिया है?’ आगे का रास्ता सुझाई नहीं पड़ रहा था.

पक्षी चहचहाने लगे तो पता चला कि सुबह हो चुकी है. मैं अनवर के सिरहाने बैठ कर उन का सिर सहलाने लगी. उन्होंने आंखें खोल दीं और मुसकराए. उन की मुसकराहट ने मेरे रात भर के तनाव को धो दिया. मारे खुशी के मेरी आंखें नम हो आईं.

‘सच ही सुबह हो गई है क्या?’ मैं ने उन की तरफ शिकायती नजरों से देखा, ‘तुम ने ऐसा क्यों किया अनवर, क्यों…मुझे छोड़ कर पलायन करना चाहते थे. एक बार भी नहीं सोचा कि मेरा क्या होगा?’

उन्होंने शायद मेरी आंखें पढ़ ली थीं. कमजोर स्वर में बोले, ‘मैं ने बहुत सोचा और अंत में इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि ये मजहबी लोग हमें कहीं भी साथ जीने नहीं देंगे. इन के दिलों में एकदूसरे के लिए इतनी घृणा है कि हमारा प्रेम कम पड़ जाएगा. नोरा, तुम ने सुना होगा, बाबरी मसजिद गिरा दी गई है. चारों तरफ दंगेफसाद, आगजनी, उफ, इतनी जानें जा रही हैं पर इन की खून की प्यास नहीं बुझ रही है. तब सोचा, तुम्हें पाने का एक ही उपाय है, तुम्हारे भाई से तुम्हारा हाथ मांग लूं. आखिर वह मेरा पुराना मित्र है, शायद इनसानियत की कोई किरण उस में शेष हो, पर नहीं.’ अनवर की आंखों से आंसू टपक पडे़.

मेरे मन में हाहाकार मचा हुआ था. एक पहाड़ को टूटते देख रही थी मैं. मैं बोली, पर हमें हारना नहीं है अनवर. जैसे भी जीने दिया जाएगा हम जीएंगे. यह हमारा अधिकार है. तुम ठीक हो जाओ फिर सोचेंगे कि हमें क्या करना है. मैं यहां से वर्किंग वूमन होस्टल चली जाऊंगी…’ बात अधूरी रह गई. उसी समय कुछ लोग वहां आ कर खडे़ हो गए. उन की वेशभूषा ने बता दिया कि वे अनवर के रिश्तेदार हैं. वे लोग मुझे ऐसी नजरों से देख रहे थे कि मैं कट कर रह गई. अनवर ने मुझे चले जाने का संकेत किया. मैं वहां से सीधे बस अड्डे आ गई.

महीनों गुजर गए. अनवर का कोई समाचार नहीं मिला. न जाने उन के रिश्तेदार उन्हें कहां ले गए थे. मेरे पास सब्र के सिवा कोई रास्ता न था. एक दिन अचानक उन का खत मिला. मैं ने कांपते हाथों से उसे खोला. लिखा था, ‘नोरा, मुझे माफ करना. मैं तुम्हारा साथ न निभा सका. मुझे सब अपनी शर्तों पर जीने को कहते हैं. मैं कमजोर पड़ गया हूं. तुम सबल हो, समर्थ हो, अपना रास्ता खोज लोगी. मैं तुम से बहुत दूर जा रहा हूं, शायद कभी न लौटने के लिए.’

छनाक की आवाज से मेरी तंद्रा टूटी तो देखा वह पतली शीशी हाथ से छूट कर टूट गई पर चावल का वह दाना साबुत था और उस पर लिखे अक्षर उसी ताजगी से चमक रहे थे.

रेत से फिसलते रिश्ते: दीपमाया को कौनसा सदमा लगा था

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चीयर गर्ल: भाग 3- फ्रैंड रिक्वैस्ट एक्सैप्ट करने के बाद क्या हुआ उसके साथ

रूही ने विद्रूप मुसकान के साथ कहा, ‘‘देख तू उस का घर तोड़ रही है.’’

मैं संयत स्वर में बोली, ‘‘मैं नहीं उन की शादी की घुटन इस के लिए जिम्मेदार है, मेरा और उस का रिश्ता शीशे की तरह साफ है. रूही अगर वह बाहर भी सैक्स कर के आएगा तो मुझे पता होगा और न मैं इस बात पर कोई बवाल करूंगी… जब तक हम एक साथ होते हैं बिना किसी तीसरे की परछाईं के.’’

‘‘मैं और वह इस बंधन में एकदम आजाद हैं और यही इस रिश्ते की खूबसूरती है.’’

रूही बोली, ‘‘तो शादी कर ले, बंदा देखनेभालने में बुरा नहीं है.’’

मैं बोली, ‘‘शादी के बाद मैं उस की जागीर बन जाऊंगी. मैं उस के साथ ऐसे ही खुश हूं.’’

रूही को कुछ समझ नहीं आ रहा था, इसलिए उठते हुए बोली, ‘‘तुम्हें पता है समाज में तुम जैसी औरतों को क्या बोलते हैं?’’

मैं ने कहा, ‘‘रूही तुम्हारे समाज में ऐसे आदमियों को क्या बोलते हैं जो शादीशुदा होने के बाद भी मेरे जैसी औरतों में खुशी की तलाश करते हैं?’’

और फिर मैं ने संयत स्वर में कहा, ‘‘रूही मेरी जैसी औरतों को समाज में चीयर गर्ल बोलते हैं, जो समाज की सोच से डरे और थके हुए मर्दों को चीयर करती हैं.’’

वह बारबार मुझे फोन मिला रहा था. इन लमहों को वह किसी के साथ

भी नहीं बांटना चाहता था और रूही का फोन पिछले 2 घंटों में साइलैंट था.

अब जब बच्चें स्कूल जाते तो वह माह में 1 बार घर भी आने लगा था पर हम दोनों न किसी से कुछ पूछते या कहते थे. कभीकभी अगर मैं कुछ कहना चाहती, उस से पहले ही वह टोक देता, ‘‘इस के लिए एक बीवी ही काफी है मेरी जिंदगी में उस की जगह लेने की कोशिश मत करो.’’

जब कभी उसे कोई समस्या होती या वह किसी बात के कारण उदास महसूस करता, मैं अपने घर के काम को छोड़ कर घंटों उस से बात करती, उसे यह जताती कि वह मेरे लिए कितना खास है. उस के मनोबल को बढ़ाती और फिर वह चंद रोज के लिए गायब हो जाता पर अब मुझे भी कुछ फर्क नहीं पड़ता था क्योंकि मेरी यह भूमिका मेरी अपनी खुशी से है, मैं उस पर कोई एहसान नहीं कर रही हूं जिस तरह से वह जो भी मेरे लिए करता है वह उस की खुशी है.

ऐसा ही एक रोज बातचीत के दौरान मैं उस से बोली, ‘‘क्या मैं ने तुम्हारी बीवी की जगह लेने की कभी कोशिश करी है, जो तुम हर समय मुझे सुनाते रहते हो?’’

वह बोला, ‘‘सोचना भी मत, हम सिर्फ दोस्त हैं, मैं अपने परिवार से बहुत प्यार करता हूं.’’

दोस्ती का शब्द सुन कर मुझे हंसी आ गई क्योंकि यह रिश्ता दोस्ती से कहीं आगे था.

एक रोज ऐसे ही बात करते हुए वह बोला, ‘‘तुम नहीं जानती, मेरी जिंदगी में तुम कितनी मूल्यवान हो तुम्हें मैं किसी के साथ बांटने की सोच भी नहीं सकता.मैं तुम्हें कैसा लगता हूं?’’ उस ने कहा.

मैं ने हुलसते हुए कहा, ‘‘मेरे दिल में बस तुम्हीं हो, मैं आप के सिवा किसी और के बारे में सोच भी नहीं सकती. मैं बस अब पूरी जिंदगी आप की बन कर रहना चाहती हूं.’’

वह अभिमान के साथ बोला, ‘‘बांटना सीखो, तुम्हारी यही बात मुझे नापसंद है.’’

मैं ने भी शरारत के साथ कहा, ‘‘जनाब मेरी जैसी महिला मित्र की बहुत डिमांड है सफल शादीशुदा पुरुषों की दुनिया में.’’

यह बात सुन कर वह चुप हो गया.

वह महीने में 1 बार जरूर ऐसी ही परीक्षा लेता था, जिस में मैं हमेशा उसे बातों में घुमा देती थी. उसे बस मेरा शरीर चाहिए था, अपनी प्रशंसा चाहिए थी. इस में मेरा भी फायदा था, एक अकेली औरत हर किसी पर विश्वास नहीं कर सकती थी. वह चाहे थोड़ा अभिमानी था पर भरोसेमंद है.

इस रिश्ते में सबकुछ वह तय करता हैं पर मैं भी अपने हिसाब से उस का उपभोग कर रही हूं. हम दोनों चाह कर भी इस से बाहर नहीं आ पा रहे हैं या यों कहें आना नहीं चाहते हैं.

एक रोज उस का मैसेज आया कि वह काम से आ रहा है और मुझ से मिल कर जाएगा.

मैं पार्लर गई, सबकुछ कराया ताकि उस को आकर्षित कर पाऊं, वैसे भी इस बार वह पूरे 4 माह के पश्चात आ रहा था. मैं हर वह चीज करती हूं जिस से इस रिश्ते में हमेशा ताजगी बनी रहे.

सुबह से मैं प्रतीक्षा कर रही थी. उस का फोन आया कि  वह कुछ देर बाद मीटिंग के पश्चात निकलेगा. मैं ने औरेंज और बैगनी रंग का सूट पहना और तैयार हो गई. तभी उस का मैसेज आया, उसे मीटिंग में देर हो जाएगी.

मैं ने मैसेज किया, ‘‘कोई बात नहीं मिले बिना मत जाना.’’

फिर मैसेज आया, ‘‘शायद न आ पाऊं.’’

सुबह से शाम हो गई थी. मैं फट पड़ी और फोन करने लगी. वह काटता रहा फिर मैसेज आया ‘ड्राइविंग.’ रात मैं मैसेज आया, ‘‘बात करना चाहती हो तो कर लो.’’

बिना कुछ सोचे नंबर मिलाया, उधर से तलख आवाज कानों से टकराई, ‘‘क्यों परेशान कर रही हो. अगर मिल सकता तो मिल कर ही जाता था. क्या कोई और काम नहीं है मुझे? तुम मेरी प्राथमिकता नहीं हो.’’

पिघला सीसा मेरे कानों से टकराया, ‘‘तुम्हें पहले ही बताया था न मैं ने मेरी बीवी की जगह लेने की कोशिश मत करो.’’

मैं ने भी पलट कर जवाब दिया, ‘‘बीवी की जगह न लूं पर फिर बीवी वाले काम किस हक से तुम मेरे साथ करते हो? खराब शादी में फिर भी कुछ हक था पर यहां तो कुछ भी नहीं सिवा अनिश्चितता के. हां अगर दोस्त हैं तो फिर क्यों मेरी भावनाएं कोई माने नहीं रखतीं.’’

उस ने कुछ नहीं कहा और एक सन्नाटा खिंचा रहा बहुत देर तक.

उस घटना को 3 दिन गुजर गए, मैं बुरी तरह से आहत थी. चौथे दिन उस का मैसेज

आया, ‘‘जानम मेरा मूड औफ था, तुम नहीं समझोगी तो कौन समझेगा?’’

मैं फिर से 7वें आसमान पर थी कि मैं उस के लिए खास हूं. पर उस घटना के पश्चात वह बोलने से पहले सोचता जरूर है और अब उस की बीवी भी हमारे बीच में कभी नहीं आती.

फिर एक रोज प्रेमक्रीड़ा के दौरान उस ने पूछा, ‘‘तुम्हें पता है तुम मेरी जिंदगी में क्या हो?’’

मैं ने कहा, ‘‘हां मैं तुम्हारी जिंदगी की चीयर गर्ल हूं, जो तुम्हारे जीवन को विविध रंग से भरती हूं ताकि तुम जिंदगी की एकरसता से बोर न हो जाओ.’’

‘‘मैं चीयर गर्ल हूं तुम्हारा मनोबल बढ़ाने के लिए, चाहे इस में मेरा खुद का व्यक्तित्व ही क्यों लहूलुहान न हो जाए. वह चीयर गर्ल जिसे भावनायों को दूर रहना हैं, वो चीयर गर्ल जिसे बस तुम्हारी जिंदगी की बाहरी रेखा में रह कर ही तुम को चीयर करना है.’’

यह कहने की ताकत पता नहीं कहां से मुझ में आ गई. फिर एक शांति छा गई बाहर भी और भीतर भी. मुझे लगा अब शायद उस का अहम घायल हो गया है और वह कभी लौट कर नहीं आएगा. पर 2 दिन की खामोशी के बाद उस का मैसेज आया, ‘‘जानम तुम्हारा गुस्सा स्वाभाविक है पर तुम्हें नहीं पता मैं तुम को कितना मिस कर रहा हूं. हम तो इतने अच्छे दोस्त हैं, फिर यह सब क्यों कर रही हो?’’

उस की आदत या यों कहें लत पड़ गई थी कि मैं अपनेआप को रोक नहीं पा रही थी. मोबाइल हाथ में उठाया और फिर न जाने क्या सोच कर उस का नंबर मिला दिया.

उधर से उस की आवाज आई, ‘‘सुनो तुम जो भी हो और जिस भी भूमिका में मेरी जिंदगी में रहना चाहती हो, मुझे मंजूर है, मैं तुम्हें खोना नहीं चाहता हूं, तुम वास्तव में मेरी चीयर गर्ल हो.’’

और फिर से हमारी कभी न खत्म होने वाली बातें शुरू हो गई थीं, अब वह मुझे ले कर पहले से ज्यादा संजीदा और भावुक हो गया है और मैं उसी की तरह पहले से ज्यादा खिलंदड़ हो गई हूं.

वापसी एक प्यार की- भाग 3

वह बोलती जा रही थी और वंदना को दुखभरी कहानी कहीं कचोट रही थी कि क्या पता उसे भी ऐसा कुछ देखना पड़े… परिवार की अपेक्षाएं तो नहीं बदलतीं… नहीं, वह ऐसी स्थिति कभी आने ही नहीं देगी…

‘‘अब तो छोटीछोटी बातों को ले कर हमारे बीच झगड़े होने लगे. मेरी जिद थी या तो हम दोनों अलग हो जाएं या फिर परिवार को छोड़ कर अलग किराए का घर ले कर रहें. पर हुआ वह जो नहीं होना चाहिए था. मेरी स्वार्थी सोच ने हमें कानून की ड्योढ़ी पर पहुंचा दिया.’’

वंदना ने देखा, देवकी की आंखें नम हो गई थीं. वह चुप थी. गला भर आया था… जानती है भविष्य के लिए देखे सुंदर सपने जब कांच की तरह टूटते हैं तो कैसा लगता है…

‘‘क्या तुम देव से प्यार करती हो? उसे अपनाना चाहती हो? सोच लो नया

जीवन, चुनौतियों से भरा है.’’

‘‘जानती हूं. मैं उस से प्यार करती हूं… उसे अपनाना चाहती हूं,’’ वंदना के स्वर में स्वीकारोक्ति थी.

‘‘तो एक बात कहूंगी.’’

‘‘कहो,’’ वंदना ने देवकी की तरफ देखा.

‘‘मेरी मां कहती थीं ससुराल के सभी रिश्ते बाहर से बने रिश्ते होते हैं. इन्हें ओढ़ने के बाद इन्हें अपनाने के लिए न जाने कितने समझौते करने पड़ते हैं. यहां हर सदस्य को जोड़ने के लिए बहुत सी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, इस बात को गांठ बांध लो,’’ देवीकी ने दृढ़ता से कहा, ‘‘तुम एक समझदार और साहसी स्त्री हो. देव के साथ जीवन शुरू करने का सूत्र तुम्हें दे दिया है. निर्णय तुम्हें ही लेना है. वैसे देव बहुत संजीदा व्यक्ति है…’’

देवकी ने जो कुछ कहा था वह सुझाव के साथ सुलझा हुआ न्याय पक्ष था एक स्त्री का एक स्त्री के लिए.

वंदना जा चुकी थी, किंतु देवकी इस मुलाकात के बाद अपने को अस्थिर महसूस कर रही थी.

देवकी का घर जाने का मन नहीं कर रहा था. वह वहीं काफी देर तक बैठी रही. आज उसे देव बारबार याद आ रहा था. तथी अचानक सामने टेबल पर नजर पड़ी. वंदना अपना मोबाइल भूल गई थी.

जानती थी थोड़ी देर में उस का फोन जरूर आएगा. इसीलिए बैठी रही… कहीं आसपास ही होगी. शायद लेने आ जाए.

वह थोड़ी देर पहले हुई मुलाकात के बारे में सोच रही थी…

देव वंदना से कुछ दिन बाद जुड़ने वाला है. फोन कर के बता तो सकता था. इसी बहाने पूछ लेती कैसे हो? शादी करने जा रहे हो, बधाई हो.

अम्मां (देवकी की मां) को पता लगेगा तो जरूर कहेंगी कि अरे, कहां से मराठी पकड़ लाया है रे… इस से तो हमारी देवकी क्या बुरी थी? बेशक थोड़ी गुस्सैल है तो क्या हुआ? इतने झंझटों में तो मैं भी उबल पड़ती हूं… मैं भी तो तेरे पापा से झगड़ पड़ती हूं. तब तो कोई कुछ नहीं कहता. देखा नहीं घर के कामों में कितनी ऐक्सपर्ट है हमारी देवकी. मीना और लक्ष्मी प्रेमा तो उसे जरूर याद करती होंगी…

भाभी हमेशा हमारा होमवर्क कराती थीं. अम्मां प्यार में कह देती थीं कि अरी लड़कियो अब छोड़ो… सारा दिमाग खा कर दम लेंगी?

परीक्षा के समय भाभी पूरीपूरी रात चाय बना कर देती थीं. खुद भी जागती थीं हमें पढ़ाने के लिए, ये सब जरूर याद करती होंगी. बताओ भला ऐसा कोई करेगा? कहना न भूलती होंगी जो भी हो भाभी जैसा कोई नहीं. हंसतीखिलखिलाती लड़कियों के चेहरे आज भी नहीं भूली है देवकी. आज भी तीनों के लिए कितना प्यार उमड़ता है… यह बात वंदना को बताना बेकार है. वह क्या समझेगी?

इन सब से इतर घर, मायके, पड़ोस के लोगों को जब पता लगा देवकी का तलाक हो गया है, तो कइयों ने कहा 3-3 लड़कियों का बोझ… बाप रे… आसान नहीं है ऐसी ससुराल में निभाना… घबरा गई होगी… तभी तो छोड़ कर आ गई.

कइयों ने तो यह भी कहा था कि आजकल की लड़कियों को तो छोटी फैमिली चाहिए. बहुत कुछ सुना था देवकी ने. तंजों से आजिज आ गई थी वह… समझ नहीं आता था कि क्या करे, कहां जाए.

बस एक मां थीं, जिन के आंसू नहीं रुकते थे, ‘‘बेटी, रिश्ते हमेशा समझौतों की नींव पर टिकते हैं. चाहे आज हो या कल यह बात एकदम अटल है, सत्य है… वापस चली जा.’’

आज भी सब याद आता है तो कई बार मन डूबने लगता है. यही सोच सूत्र तो

वंदना को पकड़ाया है- खुश रहना है, अपने को वहां जमाना है, तो रिश्ते की मजबूती जरूरी है यानी तुम्हें झुकना पडे़गा. मगर यह बात है तो मैं क्यों न झुकी?

आज वंदना को समझा रही हूं तो खुद भी तो झुक सकती थी. सीधी सी बात, छोटी सी बात मुझे क्यों न समझ आई? मैं यहीं चूक गई.

भारी मन से घर आ गई थी, परंतु सोच ने पीछा न छोड़ा. सच यह है कि अब वंदना से मिल कर उसे पछतावा हो रहा था.

कितनी बेवकूफ थी मैं. आज मेरे पास कुछ भी नहीं है… न मन में कोई उत्साह है, न उमंग है, न कोई अपना कहने वाला है. अपना आत्मीय भी कोई नहीं है. उधर कुछ समय बाद वंदना के पास सबकुछ होगा, जो कभी उस का था. देव भी, वह घर भी. शायद लोग इसे ही सौतिया डाह कहते हैं. …तो वह क्या करे? क्या वापस उस घर में जा सकती है? मन ने फौरन कहा कि यह भी कोई पूछने वाली बात है? अरे, एक फोन ही तो करना है देव को.

याद है तलाक का निर्णय सुनने के बाद देव ने उसे रोक कर कहा था कि देवकी तलाक का निर्णय तुम्हारा है, मेरा नहीं. मेरे घर के दरवाजे हमेशा तुम्हारे लिए खुले हैं… जब चाहो, लौट आना…

तो क्या वह देव के पास लौट जाए?

दूसरे दिन सुबह देवकी देर से उठी. सुबह क्या दोपहर हो गई थी. बड़ी देर तक अलसाई सी बिस्तर पर पड़ी सोचती रही… तो देव के साथ मेरी जगह कोई और होगा? नहीं, वह आज भी देव से उतना ही प्यार करती है जितना पहले करती थी, बल्कि उस से भी ज्यादा. देव भी मुझे खासा मिस करता होगा… वंदना से जुड़ना उस के अकेलेपन को खत्म करने का बेमानी सच है, जिसे सिर्फ देव जानता है, यह मुझे पता है.

2 दिन बीत गए वंदना का फोन नहीं आया, तो देवकी ने खुद फोन किया, ‘‘वंदना, तुम्हारा फोन मेरे पास रह गया है. आ कर ले जाओ.’’

‘‘पता है… मेरे पास एक और फोन है, उस से काम चल रहा है. आज शाम को आती हूं… मैं सोच भी रही थी कि आप से मिलूं… ठीक है, शाम को 6 बजे मैक्डोनल मिलते हैं.’’

देवकी ने महसूस किया वंदना के स्वर में अतिरिक्त उल्लास था…

फोन करने के बाद देवकी हिम्मत बटोर रही थी कि कैसे बताऊंगी सब… सुन कर उस का क्या रिएक्शन होगा? छोड़ो सब देखा जाएगा… अभी से क्या सोचना… बस निर्णय पर अटल है वह.

शाम को देवकी मैक्डोनल में बैठी थी. तभी वंदना ने प्रवेश किया. उस का खिला चेहरा बता रहा था कि वह खुश है.

‘‘हैलो वंदना,’’ देवकी मुसकराई

‘‘हैलो… कुछ मंगाएं?’’ शायद इस मुलाकात को वंदना सैलिब्रेट करना चाहती थी, पर देवकी ने न कह दी. फिर पर्स से फोन निकाल कर वंदना की ओर बढ़ाया.

‘‘थैंक्स,’’ कह कर वंदना आगे बोलने ही वाली थी कि देवकी बीच में बोल उठी, ‘‘वंदना फोन देने के बहाने से मैं ने तुम्हें यहां बुलाया है, मगर मुझे कुछ और भी बताना था.’’

‘‘क्या?’’

‘‘मैं ने देव के पास वापस जाने का निश्चय कर लिया है…’’

वंदना जैसे सोते से जागी. देवकी की आंखें उस के चेहरे पर गड़ी थीं. कभीकभी शब्द भी कितने लाचार और निरीह लगते हैं, देवकी सोच रही थी. मगर कहना तो था ही. यों भी किसी को अंधेरे में रखना उस के लिए नामुमकिन है. दुनिया में दुख बांटने वाले बहुत हैं पर आपस में सुख बांटने वाले कम होते हैं. सच स्वीकार कर किसी के आगे कह देना दीर्घकाल में सुखदाई होता है.

मन की बात कहने के बाद वंदना का चेहरा देखा. अथक पीड़ा थी वहां… रुके आंसू

अब गिरे कि अब… देवकी वंदना को देख नहीं पा रही थी. मुंह घुमा लिया.

वंदना… वह तो सन्न थी. लगा जैसे किसी ने उस के हाथों से अमृत कलश छीन लिया. एक बार? दो बार? यह तो तीसरी बार भी… और कितनी बार… इस बार तो उस ने पूरी सावधानी बरती थी. फिर भी…

हाथ में फोन पकड़े मैक्डोनल से बाहर आ गई. आंखें आसमान की तरफ उठी थीं. वहां तो ढेरों बादल थे. शायद आंधी आने वाली थी. पूरे आसमान में सिर्फ एक ही परीक्षा वह भी तेज हवा के झोंकों से अपनेआप को बचाने का असफल प्रयास कर रहा था… लगा जैसे खुद वंदना है… विवश हो छटपटा रही थी.

एक हफ्ते बाद देवकी को एक ईमेल मिला-

‘देवकी, वापसी मुबारक. तुम ने सही निर्णय लिया. तुम से मिलने के बाद मैं बहुत संवेदनशील और भावुक हो गई थी, लेकिन जल्द ही मुझे विश्वास हो गया कि देव और तुम एकदूसरे से बहुत मुहब्बत करते हैं, जबकि मेरा प्यार उस के पासंग में भी नहीं था.

‘सच कहूं, देव ने मुझे कभी प्यार किया ही नहीं, वह मुझ से हमदर्दी रखता था, जिसे मैं ने अब महसूस किया है. सच में वह तुम्हें छोड़ कर किसी से भी प्यार नहीं कर पाएगा.

‘मैं खुश हूं कि तुम दोनों को अपना प्यार वापस मिल गया… मैं तुम दोनों को इस जीवन में कभी खोना नहीं चाहती… तुम ने मुझे भविष्य के लिए जो टिप्स दिए हैं वैसे तो कभी मेरी मां ने भी नहीं दिए. उत्तर जरूर देना.

-वंदना.’

पढ़ कर देवकी मुसकरा दी और फिर उसी वक्त उत्तर दे दिया:

‘वंदना,

‘घर वापसी का क्रैडिट तुम्हें देती हूं. इस वक्त मैं देव के घर पर हूं. देव मेरे हाथ की बनी चाय पी रहा है.

‘कबूल… कबूल. दोस्ती हजार बार कबूल हम जल्दी मिलेंगे.

‘तुम्हारे दोस्त

‘देवकी व देव.’

चीयर गर्ल: भाग 2- फ्रैंड रिक्वैस्ट एक्सैप्ट करने के बाद क्या हुआ उसके साथ

न जाने क्यों बहुत दिनों बाद यह प्यार की फुहार हो रही थी. क्या यह गलत हैं मन ही मन में मना कर रही थी पर शरीर की भी एक भूख होती है, यह मैं ने उसी दिन जाना और न चाहते हुए भी मेरे शरीर ने उस का साथ दिया और बहुत महीनों बाद या यों कहें वर्षों बाद शरीर रुई की तरह हलका महसूस हो रहा था.

फिर अपने मन की करने के बाद वह बहुत प्यार से बोला, ‘‘बेबी हम फोन पर रोज बात तो करते हैं, इसलिए मैं अपना समय बातों में बरबाद नहीं करना चाहता हूं.’’

मुझे थोड़ा सा बुरा लग रहा था पर फिर भी मैं सुन रही थी. जाने से पहले उस ने मेरे माथे पर चुंबन अंकित किया, ‘‘तुम मेरे लिए बहुत खास हो.’’

यह सुन कर फिर से मैं लट्टू हो गई कि मैं किसी के लिए खास हूं.

उस ने घर जाने के बाद मुझ से मेरे अनुभव के बारे में पूछा, मैं ने भी मन ही मन में सोचा क्यों न मैं भी उस की चीयर गर्ल बन जाऊं, मैं ने हंसते हुए कहा, ‘‘रुई जैसा हलका अनुभव कर रही हूं वर्षों बाद.’’

उस ने बच्चों की तरह उत्साहित होते हुए कहा, ‘‘सच में बेबी’’ और फिर फोन पर ही किस की आवाज आई और फोन रख दिया.

रोज मेरा मन उस से बात करने के लिए बेताब होने लगा. मैं रोज मैसेज कर के पूछती. कभीकभी मैसेज पढ़ता ही नहीं था और कभीकभी पढ़ कर भी इग्नोर कर देता. कभीकभी मैसेज करता ‘जरूर जानम’. वह मैसेज पढ़ने के बाद वह पूरा दिन या रात मेरे लिए खास हो जाती, मैं पागलों की तरह खुश हो जाती. वह अपनी सहूलियत के मुताबिक बातें करता, कभी बातें जीवनसाथी से संबंधित होतीं तो कभी जीवनदर्शन से संबंधित और कभीकभी वे बहुत ही बेलगाम होतीं शायद उन बेलगाम बातों को हम अश्लील की पराकाष्ठा में डाल सकते हैं.

इस बीच 2 बार और हम मिले, दोनों बार ही वही कहानी दोहराई गई. मैं न चाहते हुए

भी वह सब करती रही जो उसे अच्छा लगा था. कभीकभी थोड़ा अजीब सा लगता पर क्या करती वह मेरी जरूरत बन गया था.

अब उस ने शायद यह बात समझ ली थी. इसी बीच मेरी बिखरी हुई शादी और बिखर गई और मैं पति से अलग हो गई. इस घटना के पश्चात वह अधिक सतर्क और चौकन्ना हो गया. अब वह थोड़ा सा फासला बना कर रखना चाहता था और मैं भी उस से सहमत थी. हम एक नई तरह की डोर में बंधने जा रहे थे जो कांच की तरह पारदर्शी थी.

4 दिन से फोन पर बात नहीं हुई थी. मैं बहुत अधिक बेचैन महसूस कर रही थी. न चाहते हुए भी मैं ने फोन मिलाया. उधर से किसी ने नहीं उठाया. मैं ने फिर मिलाया उधर से काट दिया गया. न जाने क्या हुआ मुझे मैं ने फिर मिलाया.

उस ने फोन उठाया और चिड़े हुए स्वर में बोला, ‘‘समझ नहीं आता तुम्हें, मैं घर में व्यस्त हूं बच्चों के साथ. जब फ्री रहूंगा खुद कर लूंगा.’’

मेरी कोई बात सुनने से पहले फोन कट गया. मेरी आंखें फिर गीली थीं, पर मुझे इस रिश्ते के नए समीकरणों की आदत अब डालनी थी.

वह सबकुछ जान कर भी मुझे कठपुतली की तरह नचा रहा था और मैं भी उस के लिए एक लत की तरह होती जा रही थी. शादीरूपी कुएं से फिसल कर शायद मैं खाई में गिर रही थी. पर इस खाई की गहराई नहीं जान पा रही थी.

अब मैं ने एक निर्णय ले लिया था. निर्णय था जिंदगी को अपनी शर्तों पर जीने का. हां मैं उस की महिला मित्र हूं तो क्या हुआ, क्यों नहीं मैं इन भावनाओं के ज्वार में न बह कर, इस रिश्ते को एक सिंबायोसिस के रूप में परिवर्तित कर दूं, जिस में दोनों का ही फायदा हो.

2 दिन पश्चात उस का फोन आया. मैं ने पहले की तरह लपक कर फोन नहीं उठाया. कुछ देर घंटी बजने के बाद उठाया.

वह बोला, ‘‘माफ  करना जानम, मेरा मूड खराब था और तुम नहीं समझोगी तो कौन समझेगा.’’

मैं सबकुछ जानते हुए भी न चाहते हुए पिघल गई. वह बता रहा था कैसे उस की औफिस

की सहकर्मी उसे अपने जाल में फंसाने के लिए तत्पर है.

मैं थोड़ी सी असुरक्षा के साथ बोली, ‘‘मुझे अच्छा नहीं लगता तुम किसी और की तरफ देखो.’’

वह मुसकरा कर बोला, ‘‘ऐसा क्यों?’’

मैं बोली, ‘‘पता नहीं.’’

उस ने अभिमान के साथ कहा, ‘‘मैडम, मैं एक शिकारी हूं, मैं एक शिकार से संतुष्ट नहीं हो सकता हूं.’’

यह अब एक आम बात हो गई थी. शायद वह संकेतों से मुझे समझा रहा था कि उसे बस मेरी एक दोस्त की तरह जरूरत है, मैं उस के पौरुष के अहम की संतुष्टि के लिए हूं क्योंकि उस का पौरुष उसे कभी यह स्वीकार नहीं करने देगा कि मैं भी उस के लिए जरूरी हूं. पर अब इस जिंदगीरूपी खेल में मुझे चीयर गर्ल की भूमिका निभाने में मजा आने लगा था.

और अब मैं ने भी अपना थोड़ा अंदाज बदल लिया था. मैं भी उसे उन पुरुषों के बारे में बताने लगी जो मुझ में दिलचस्पी लेते थे. उस की आंखों में असुरक्षा देख कर मुझे बड़ा आनंद आता था.

अब मैं इतनी मजबूर भी नहीं थी कि उस का एक दिन फोन न आना, उस का एक मैसेज मेरा दिन के अच्छे या बुरे होने का निर्णय करता था.

एक रोज ऐसे ही बात करतेकरते वह मेरी सहेलियों की बात करने लगा. फेसबुक के कारण मेरा पूरा जीवन उस के लिए खुली किताब की तरह था. उस ने एक बहुत बेशर्मी भरा प्रस्ताव रखा और मैं फिर भी सुनती रही, जिस में वह मुझे अपनी खास सहेली के साथ उस के दोस्त के घर आने को कह रहा था.

अचानक मुझे भी गुस्सा आ गया, ‘‘पैसा लगता है सैक्स के लिए फ्री में सब नहीं होता.’’

वह ठहाके लगाते हुए बोला, ‘‘जानम तुम तो मेरी हो, तुम्हारी तो बहुत खूबसूरत सहेलियां भी हैं कुछ मेरे दोस्तों का भी भला हो जाएगा.’’

मैं ने भी नहले पर दहला मारा और कहा, ‘‘तुम से मैं अब बोर हो गई हूं, वैसे भी जैसे तुम शिकारी हो, मैं भी अब शिकारी बन गई हूं.’’

यह सुनते ही उस का चेहरा फक पड़ गया पर फिर भी बोला, ‘‘हांहां क्यों नहीं.’’

मगर उस दिन के बाद से उस के दोस्तों और मेरी सहेलियों की बातें हमारी जिंदगी में हमेशा के लिए गायब हो गईं.

आप सोच रहे होंगे मैं एक मूर्ख महिला हूं, शायद आप सही सोच रहे हैं समाज के नजरिए से. पर मैं अपने आत्मस्वाभिमान से समझौता करे बिना वह सबकुछ कर रही हूं जिस से मुझे खुशी महसूस होती है. उस से बात करना मेरी जरूरत बन गया था पर अब धीरेधीरे मैं भी उस की जरूरत बन गई हूं.

अब कभीकभी हम एकसाथ इधरउधर भी चले जाते हैं. पर यह तय है कि इन मुलाकातों का असर हमारे परिवार पर नहीं होगा. जब भी हम कहीं बार जाते हम एकदूसरे में खोए रहते, रातदिन बैठ कर बस वही बातें करते जिन्हें हम सामाजिक दायरों के कारण किसी से नहीं कर पाते.

मेरा बस यह कहना मैं उस की हूं उसे पागल करने के लिए काफी था. जब कभी वह जिंदगी की चाकरी से ऊब कर मेरे पास आता तो मैं चीयर गर्ल की भूमिका बखूबी निभा कर उसे उल्लसित कर देती और फिर उत्साह से परिपूर्ण हो कर मेरे लिए वह सबकुछ करता जिस की उपेक्षा एक महिला को पुरुष से होती है.

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ऐसे ही एक बार हम दोनों 2 दिन के लिए महाबलेश्वर गये और वहीं पर मुझे रूही

मिली. रूही और मैं कालेज की सहेलियां थीं. कभी हम एक जिस्म और जान थे, पर शादी के बाद धीरेधीरे हम दूर हो गए.

मुझे देखते ही वह आंखें गोलगोल घुमाते हुए बोली, ‘‘तेरी त्वचा से तो उम्र का पता ही

नहीं लगता.’’

फिर एकाएक उस को देख कर अचकचा गई और बोली, ‘‘आप का परिचय.’’

मैं ने कहा, ‘‘ये हैं मेरे बहुत ही करीबी दोस्त.’’

रूही आश्चर्यचकित खड़ी रही और फिर बिना कुछ कहे निकल गई.

रात को मैं यों ही टहलने निकली तो देखा रूही भी वहीं थी, पता चला वह भी इसी होटल में ठहरी हुई है. मैं और रूही होटल के रेस्तरां में कौफी पीने चले गए. मुझे मालूम था कि रूही मुझ से कुछ पूछना चाहती है.

कौफी से उड़ती हुई भाप, भीनीभीनी सर्दी और न खत्म होने वाली बातें… उस की बातों में उस के बच्चे और पति थे और मेरी बातों में थे मेरे बच्चे. रूही अपने को रोक नहीं पाई और आखिर पूछ ही लिया, ‘‘तेरे जीवनसाथी कहां हैं?’’

मैं ने भी पहेली बुझाते हुए कहा, ‘‘हैं भी और नहीं भी, पिता के रूप में मेरे बच्चों के लिए हैं पर मेरी जिंदगी में नहीं.’’

रूही दादीअम्मां की तरह बोली, ‘‘यह सब ठीक नहीं हैं, जो तुम कर रही हो… शादी कर लो.’’

मैं ने भी शांत स्वर में बोला, ‘‘रूही क्या सही और क्या गलत है यह हमारी मनोभावनाएं तय करती हैं, मैं और वह बिना किसी को ठेस पहुंचाए इस रिश्ते में बंधे हैं.’’

रेत से फिसलते रिश्ते: भाग 3- दीपमाया को कौनसा सदमा लगा था

लेखिका- शोभा बंसल

दीपमाया मानो नींद से जागी और होंठों को दबा धीरे से बोली, “नहीं, ऐसा कुछ नहीं था. असल में जीवन ने बहुत बड़ी करवट ले ली थी.

“मैं ने रोजर को हमेशा तनाव व चिंता में देखा. तो सोचा, शायद काम का तनाव होगा क्योंकि खर्चे भी बढ़ गए थे.

“फिर एक दिन मैं ने रोजर के मोबाइल पर उस के अपने एक खास दोस्त के साथ लिपलौकिंग किसिंग का बहुत ही वाहियात फोटो देखा तो मेरा माथा ठनका.

“मैं तो जैसे आकाश से गिरी. यह तो रोजर का नया रूप था. इसी कारण बच्चे होने के बाद हम दोनों के एकदो बार जो भी संबंध बने थे उन में वह प्यार व रोमांच की जगह एक एथलीट वाली फीलिंग थी.

“फिर भी, मुझे फोटो वाली बात एक झूठ ही लग रही थी. इस झूठ को ही सच में न पाने के लिए मैं ने एक डिटैक्टिव एजेंसी की मदद ली.

“पता चला कि रोजर बाय-सैक्सुअल है, गे नहीं. मेरे पैरोंतले से जमीन निकल गई.

“इस प्यार के चक्कर में न मैं घर की रही न घाट की. गोवा तो मेरे लिए परदेस था. किस के पास जाती, फरियाद करती कि मेरी खुशी को सही दिशा दिखा दो,” यह कह माया ने अपना सिर थाम लिया.

फिर पानी का घूंट ले कर लंबी सांस भरी और बताने लगी, “जब एक दिन यह तनाव मेरे लिए असहनीय हो गया तो मैं ने रोजर से सीधेसीधे कौन्फ्रौंट कर लिया. और सब तहसनहस हो गया, मानो बवंडर ही आ गया.

“रोजर की आंखों में खून उभर आया. उस ने बिना किसी लागलपेट के इस सचाई को स्वीकार कर लिया और कहा कि ‘यह तो सोसाइटी में आम बात है. अकसर शादी के कुछ वर्षों बाद जब जिंदगी में बोरियत भर जाती है और प्यार बेरंगा हो जाता है तो ज्यादातर पुरुष यही रवैया अपनाते हैं. उस के अमीर मौसा ने कभी उस के साथ बचपन में यही किया था, तब भी उस के मातापिता ने उस की शिकायत को नौर्मल लिया और चुप रहने को कहा था.’

“फिर रोजर ने दीपमाया को धमकी देते सख्त हिदायत दी कि ‘इस छोटी सी घटना को बहुत बड़ा इश्यू न बनाओ. आपसी संबंधों की बात और घर की बात घर में ही रहने दे. बाहर लोगों को पता चलेगा तो सोसाइटी में बदनामी होगी.’ इस सब से मैं बेहद टूट गई.”

“कहां तो मैं सोच रही थी कि अपनी गलती के परदाफाश होने पर रोजर मुझ से माफी मांगेगा या एक प्रैंक बोल कर मुझ को सीने से लगा लेगा, पर यहां तो सब ही उलटपुलट हो गया. कितनी ही रातें मैं ने जागते काटीं.

“जब पीड़ा असहनीय हो गई तो मैं ने एक सैक्सोलौजिस्ट दोस्त की सहायता ली. उस ने मुझे यही सलाह दी कि रोजर ने मुझे कोई धोखा नहीं दिया वह तो अपना वैवाहिक जीवन नौर्मल ही व्यतीत कर रहा है. उस की कुछ शरीरिक इच्छाएं हैं जिन को वह अपने तरीके से पूरा कर रहा है. मुझे उस की उस जिंदगी में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए. मुझे इस सब को स्वीकार कर सब्र से काम लेना चाहिए और अपने प्यार से रोजर को वापस अपनी तरफ खींचना चाहिए.

“रोजर ने भी प्रौमिस किया कि वह यह सब छोड़ अब अपनी शादी और घर गृहस्थी पर फोकस करेगा.

“पर कथनी और करनी में बहुत अंतर होता है. घर परेशानियों व तनाव के सैलाब में डूबने लगा.

मैं ने अपने रिश्ते को बेइंतहा प्यार, इसरार, इकरार से रिवाइव करने की कोशिश की. मैं हरदम इसी चिंता में रहती कि कहीं मेरे रोजर को एचआईवी या एड्स की बीमारी न पकड़ ले या वह ड्रग्स लेना न शुरू कर दे. हमारे बच्चों पर क्या असर होगा? कहीं कोई रोजर का दोस्त हमारे बच्चे को अपना शिकार न बना ले?

“इन सब बैटन का मेरी मानसिक व शारीरिक सेहत पर भी असर दिखने लगा.

“आखिर परेशान हो मैं ने एक दिन जिंदगी की लगाम थामने के लिए एक थेरैपिस्ट की सहायता लेनी शुरू कर दी. उस ने मुझे बताया कि मैं इनसिक्योरिटी की गिरफ्त में पड़ रही थी कि कहीं मेरा रोजर एक दिन मुझे अकेला छोड़ अपनी नई दुनिया में शिफ्ट कर जाएगा, फिर समाज क्या कहेगा, वह कहां जाएगी? इस के लिए अब उसे अपना आर्थिक रूप से स्वावलंबी होना बहुत जरूरी था.

“फिर आगे की मीटिंग में उसी थेरैपिस्ट ने बताया कि ऐसे मैरिटल क्राइसिस या वैवाहिक उथलपुथल में पत्नी को ही सामाजिक, आर्थिक व भावनात्मक प्रताड़ना सहनी पड़ती है. ज्यादातर ऐसे रिश्ते का अंत अलगाव या डिवोर्स होता है.

“अपना अंधा भविष्य देख मेरी आंखों के आगे अंधेरा छा गया. जिस के प्यार के लिए मैं अपनों के मुंह पर कालिख पोत कर घर छोड़ भागी थी, ऐसे में घरवाले क्या मुझे गले लगाते.

“कितनी ही बार हताशा में मैं ने गहरे समंदर के बीचोंबीच समाधि लेने का मन बनाया. मेरा कोई न था. पर बच्चों का प्यार मुझे रोक लेता. इसी तरह कई वर्ष निकल गए. बच्चे बड़े होने लगे थे. वे भी हम दोनों के बीच आई दरार को समझ रहे थे.

“रोजर के दोगले व्यवहार से मैं भारत से भाग कर ऐसी जगह मुंह छिपाना चाहती थी जहां मुझे कोई न पहचानता हो. तभी मुझे नेपाल के एक कालेज में गणित के लैक्चरर की नौकरी मिल गई. उन दिनों तो नेपाल आनाजाना आसान था और यहां की नागरिकता बिना किसी परेशानी के मिल गई.

“रोजर ने दोनों बच्चे अपने पास ही रख लिए कि वह परदेस में अकेली क्याक्या झेलेगी और फिर जब उस का मन अच्छा हो जाए तो उस के पास वापस आ जाए. पर यहां के लोगों और यहां की सभ्यता में मुझे बेहद सुकून मिला. फिर, बस, वार्डन की नौकरी पाते ही मेरा अकेलापन भी दूर भागने लगा. अब मैं यहीं पर खुश हूं.” यह सब बता कर वह मुसकरा दी.

मिली को भी अच्छा लगा कि उस की प्यारी सखी दीपमाया कम से कम अपने दुख से उबर तो पाई.

अगले दिन मौका पाते ही फिर मिली ने दीपमाया को पकड़ लिया, “अच्छा चलो, जो हुआ सो हुआ. अब यह बताओ कि तुम्हारे बच्चे क्या कर रहे हैं. उन का क्या कहना है तुम्हारे और रोजर के रिश्ते को ले कर?”

दीपमाया ने पहले तो बहुत टालमटोल किया. फिर मिली के जोर देने पर बताया कि उस का बेटा तो अब विदेश में ही सैटल हो गया है. वह अपने पापा के दोहरे जीवन के बारे में सब जानता है लेकिन इस विषय पर कुछ बात नहीं करना चाहता और चुप्पी साध कर बैठा है.

बेटी अपने पापा के साथ गोवा में होटल का व्यवसाय देखती है और वह हमेशा अपनी मम्मी यानी मुझ को ही गलत समझती आई है कि मैं ने उस के पापा को उन के मनमुताबिक जीवन जीने का अवसर नहीं दिया और बिना वजह उन को बदनाम कर रही हूं.

मिली ने फिर सवाल किया, “अच्छा, तो अब फिर रोजर से तुम्हारी मुलाकात होती है या नहीं?” यह सुन दीपमाया मुसकरा पड़ी, “मिली, अब यह सब जान कर क्या करेगी?”

फिर दीपमाया ने आगे कहा, “रोजर को मैं छोड़ कर आई थी. रोजर ने तो मुझ को कभी नहीं छोड़ा. यहां भी हर पल उस का अदृश्य साया मेरे साथ परछाई बन रहता है. उस की पलपल की खबर रखता है.”

और फिर उदास मन से मैं कहने लगी, “अब तो शायद मेरी जिंदगी का आखिरी वक्त चल रहा है क्योंकि मैं सर्विक्स कैंसर से पीड़ित हूं. जब से रोजर को इस का पता चला है तब से वह ज्यादा ही केयरिंग हो गया है. वह मुझे अपने पास गोवा बुला रहा है. मैं वहां जाना नहीं चाहती.”

यह सुन मिली ने दीपमाया को दिलासा दी कि, “कुछ बातें जो अपने वश में न हों उन्हें ऊपर वाले पर छोड़ देना चाहिए. हो सकता है तुम्हारा ऐसा ही विवाहित जीवन व्यतीत होना हो. हर दोस्ती में सैक्स तो जरूरी नहीं. जरूरी है सच्चा प्यार. तुम्हारा रोजर तुम्हें अभी भी सच्चा प्यार करता है. अब यहां अकेले घुटने से अच्छा है तुम उस से फिर दोस्ती कर गोवा आनाजाना शुरू करो, ताकि पुराने रिश्ता फिर से मजबूत हो सके. वर्तमान समय में पतिपत्नी का रिश्ता ही अटूट और सच्चा है, इस बात को अपने पल्ले गांठ बांध कर रख लो.

“फिर कभी अपने को अकेला मत महसूस करना. यह तुम्हारी सखी है न, तुम्हारे साथ जिंदगी के आखिरी पल तक तुम्हारा साथ निभाएगी.” यह कह मिली ने दीपमाया की ठंडी गीली हथेलियों को अपने गरम हाथों में थाम लिया.

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