Father’s Day 2022: अथ से इति तक- बेटी के विद्रोह ने हिला दी माता- पिता की दुनिया

‘‘चल न शांता, बड़ी अच्छी फिल्म लगी है ‘संगीत’ में. कितने दिन से घर से बाहर गए भी तो नहीं हैं…इन के पास तो कभी समय ही नहीं रहता है,’’ पति के कार्यालय तथा बच्चों के स्कूल, कालेज जाते ही शुभ्रा अपनी सहेली शांता के घर चली आई.

‘‘आज नहीं शुभ्रा, आज बहुत काम है. फिर मैं ने राजेश्वर को बताया भी नहीं है. अचानक ही बिना बताए चली गई तो न जाने क्या समझ बैठें,’’ शांता ने टालने का प्रयत्न किया.

‘‘लो सुनो, अरे, शादी को 20 वर्ष बीत गए, अब भी और कुछ समझने की गुंजाइश है? ले, फोन उठा और बता दे भाईसाहब को कि तू आज मेरे साथ फिल्म देखने जा रही है.’’

‘‘तू नहीं मानने वाली…चल, आज तेरी बात मान ही लेती हूं, तू भी क्या याद करेगी,’’ शांता निर्णयात्मक स्वर में बोली.

निर्णय लेने भर की देर थी, फिर तो शांता ने झटपट पति को फोन किया. बेटी प्रांजलि के नाम पत्र लिख कर खाने की मेज पर फूलदान के नीचे दबा दिया और आननफानन में तैयार हो कर घर की चाबी पड़ोस में देते हुए दोनों सहेलियां बाहर सड़क पर आ गईं.

‘‘अकेले घूमनेफिरने का मजा ही कुछ और है. पति व बच्चों के साथ तो सदा ही जाते हैं, पर यह सब बड़ा रूढि़वादी लगता है. अब देखो, केवल हम दोनों और यह स्वतंत्रता का एहसास, मानो हर आनेजाने वाले की निगाह हमें सहला रही हो,’’ शुभ्रा चहकते हुए बोली.

‘‘पता नहीं, मेरी तो इतनी उलटीसीधी बातें सोचने की आदत ही नहीं है,’’ शांता ने मुसकरा कर टालने का प्रयत्न किया.

‘‘अच्छा शांता, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि कुछ समय के लिए हमारी किशोरावस्था हमें वापस मिल जाए. फिर वही पंखों पर उड़ते से हलकेफुलके दिन, सपनीली पलकें लिए झुकीझुकी आंखें…’’ शुभ्रा, अपनी ही रौ में बोलती चली गई.

‘‘शुभ्रा, हम सड़क पर हैं. माना कि तुझे कविता कहने का बड़ा शौक है, पर कुछ तो शर्म किया कर…अब हम किशोरियां नहीं, अब हम किशोरियों की माताएं हैं. कोई ऐसी बातें सुनेगा तो क्या सोचेगा?’’ शांता ने उसे चुप कराने के लिए कहा.

‘‘तू बड़ी मूर्ख है शांता, तू तो किशोरा- वस्था में भी दादीअम्मां की तरह उपदेश झाड़ा करती थी, अब तो फिर भी आयु हो गई, पर एक राज की बात बताऊं?’’

‘‘क्या?’’

‘‘कोई कह नहीं सकता कि तेरी 17-18 वर्ष की बेटी है,’’ शुभ्रा मुसकराई.

‘‘शुभ्रा, तू कभी बड़ी नहीं होगी, यह हमारी आयु है, ऐसी बातें करने की?’’

‘‘लो भला, हमारी आयु को क्या हुआ है…विदेशों में तो हमारे बराबर की स्त्रियां रास रचाती घूमती हैं,’’ शुभ्रा ने शरारत भरा उत्तर दिया.

इस से पहले कि शांता कोई उत्तर दे पाती, आटोरिकशा एक झटके के साथ रुका और दोनों सहेलियां वास्तविकता की धरती पर लौट आईं.

टिकट खरीदने के लिए लंबी कतार लगी थी. शुभ्रा लपक कर वहां खड़ी हो गई और शांता कुछ दूर खड़ी हो कर उस की प्रतीक्षा करने लगी. रंगबिरंगे कपड़े पहने युवकयुवतियों और स्त्रीपुरुषों को शांता बड़े ध्यान से देख रही थी. ऐसे अवसरों पर ही तो नए फैशन, परिधानों आदि का जायजा लिया जा सकता है.

फिल्म का शो खत्म हुआ. शांता भीड़ से बचने के लिए एक ओर हटी ही थी कि तभी भीड़ में जाते एक जोड़े को देख कर मानो उसे सांप सूंघ गया. क्या 2 व्यक्तियों की शक्ल, आकार, चालढाल इतनी अधिक मेल खा सकती है? युवती बिलकुल उस की बेटी प्रांजलि जैसी लग रही थी. ‘कहीं यह प्रांजलि ही तो नहीं?’ एक क्षण को यह विचार मस्तिष्क में कौंधा, पर दूसरे ही क्षण उस ने उसे झटक दिया. प्रांजलि भला इस समय यहां क्या कर रही होगी? वह तो कालेज में होगी. वह युवती कुछ दूर चली गई थी और अपने पुरुष मित्र की किसी बात पर खिलखिला कर हंस रही थी. शांता कुछ देर के लिए उसे घूर कर देखती रही, ‘नहीं, उस की निगाहें इतना धोखा नहीं खा सकतीं, क्या वह अपनी बेटी को नहीं पहचान सकती?’

पर तभी उसे खयाल आया कि प्रांजलि आज स्कर्टब्लाउज पहन कर गई थी और यह युवती तो नीले रंग के चूड़ीदार पाजामेकुरते में थी. शांता ने राहत की सांस ली, पर दूसरे ही क्षण उसे याद आया कि ऐसा ही चूड़ीदार पाजामाकुरता प्रांजलि के पास भी है. संशय दूर करने के लिए उस ने उस युवती को पुकारने के लिए मुंह खोला ही था कि शुभ्रा के वहां होने के एहसास ने उस के मुंह पर मानो ताला जड़ दिया. शुभ्रा लाख उस की सहेली थी पर अपनी बेटी के संबंध में शांता किसी तरह का खतरा नहीं उठा सकती थी. प्रांजलि के संबंध में कोई ऐसीवैसी बात शुभ्रा को पता चले और फिर यह आम चर्चा का विषय बन जाए, यह वह कभी सहन नहीं कर सकती थी. अत: वह चुपचाप खड़ी रह गई.

‘‘क्या बात है शांता, तबीयत खराब है क्या?’’ तभी शुभ्रा टिकट ले कर आ गई.

‘‘पता नहीं शुभ्रा, कुछ अजीब सा लग रहा है. चक्कर आ रहा है. लगता है, अब मैं अधिक समय खड़ी नहीं रह सकूंगी,’’ शांता किसी प्रकार बोली. सचमुच उस का गला सूख रहा था तथा नेत्रों के सम्मुख अंधेरा छा रहा था.

‘‘गरमी भी तो कैसी पड़ रही है…चल, कुछ ठंडा पीते हैं…’’ कहती शुभ्रा उसे शीतल पेय की दुकान की ओर खींच ले गई.

शीतल पेय पी कर शांता को कुछ राहत अवश्य मिली किंतु मन अब भी ठिकाने पर नहीं था. कुछ देर पहले के हंसीठहाके उदासी में बदल गए थे. फिल्म देखते हुए भी उस की निगाह में प्रांजलि ही घूम रही थी. किसी प्रकार फिल्म समाप्त हुई तो उस ने राहत की सांस ली.

अब उसे घर पहुंचने की जल्दी थी लेकिन शुभ्रा तो बाहर ही खाने का निश्चय कर के आई थी. पर शांता की दशा देख कर शुभ्रा ने भी अपना विचार बदल दिया और दोनों सहेलियां घर पहुंच गईं.

शांता घर पहुंची तो देखा, प्रांजलि अभी घर नहीं लौटी थी. उस की घबराहट की तो कोई सीमा ही नहीं थी. सोचने लगी, ‘लगभग 3 घंटे पहले प्रांजलि को देखा था, न जाने किस आवारा के साथ घूम रही थी? लगता है, यह लड़की तो हमें कहीं का न छोड़ेगी,’ सोचते हुए शांता तो रोने को हो आई.

जब और कुछ न सूझा तो शांता पति का फोन नंबर मिलाने लगी, लेकिन तभी द्वार की घंटी बज उठी. वह लपक कर द्वार तक पहुंची. घबराहट से उस का हृदय तेजी से धड़क रहा था. दरवाजा खोला तो सामने खड़ी प्रांजलि को देख कर उस की जान में जान आई, पर इस बात पर तो वह हैरान रह गई कि प्रांजलि तो वही स्कर्टब्लाउज पहने थी जो वह सुबह पहन कर गई थी. फिर वह नीले चूड़ीदार पाजामेकुरते वाली लड़की? क्या यह संभव नहीं कि उस ने प्रांजलि जैसी शक्लसूरत की किसी अन्य लड़की को देखा हो.

‘‘क्या बात है, मां? इस तरह रास्ता रोक कर क्यों खड़ी हो? मुझे अंदर तो आने दो.’’

‘‘अंदर? हांहां, आओ, तुम्हारा ही तो घर है,’’ शांता वहां से हटते हुए बोली, पर प्रांजलि के अंदर आते ही उस ने शीघ्रता से बेटी के कंधे पर लटकता बैग उतारा और सारा सामान उलट दिया.

नीला चूड़ीदार पाजामाकुरता बैग से बाहर पड़ा शांता को मुंह चिढ़ा रहा था. प्रांजलि भी मां के इस व्यवहार पर स्तब्ध खड़ी थी.

‘‘इस तरह छिपा कर ये कपड़े ले जाने की क्या आवश्यकता थी?’’ शांता का स्वर आवश्यकता से अधिक तीखा था.

‘‘मैं क्यों छिपा कर ले जाने लगी?’’ प्रांजलि अब तक संभल चुकी थी, ‘‘पहले से ही रखा होगा.’’

‘‘तुम अब भी झूठ बोले जा रही हो, प्रांजलि. कालेज छोड़ कर किस के साथ फिल्म देख रही थीं, ‘संगीत’ में? वह तो शुभ्रा मेरे साथ थी और मैं नहीं चाहती थी कि उस के सामने कोई तमाशा खड़ा हो, नहीं तो यह प्रश्न मैं तुम से वहीं करती,’’ शांता गुस्से से चीखी.

‘‘वहीं पूछ लेना था, मां. शुभ्रा चाची तो बिलकुल घर जैसी हैं. फिर एक दिन तो सब को पता चलना ही है.’’

‘‘अपनी मां से इस तरह बेशर्मी से बातें करते तुम्हें शर्म नहीं आती?’’

‘‘मैं ने ऐसा क्या किया है, मां? सुबोध और मैं एकदूसरे को प्यार करते हैं और विवाह करना चाहते हैं…साथसाथ फिल्म देखने चले गए तो क्या हो गया?’’

‘‘शर्म नहीं आती, ऐसा कहते? तुम क्या समझती हो कि तुम मनमानी करती रहोगी और हम चुपचाप देखते रहेंगे? आज से तुम्हारा घर से निकलना बंद…बंद करो यह कालेज जाना भी, बहुत हो गई पढ़ाई,’’ शांता ने मानो अपना आज्ञापत्र जारी कर दिया.

प्रांजलि पैर पटकती अपने कमरे में चली गई और स्तंभित शांता वहीं बैठ कर फूटफूट कर रो पड़ी.

Summer Special: ऐसे बनाए टेस्टी पनीर का चीला

पनीर का चीला स्‍वादिष्‍ट होने के साथ-साथ पौष्टिक भी होता है. इसमें बेसन का भी इस्‍तेमाल होता है, इसलिए बेसन पनीर चीला भी कहते हैं. तो आज आपको पनीर चीला बनाने की विधि बताते हैं. इसे जरूर ट्राई कीजिए.

हमें चाहिए:

– बेसन (200 ग्राम)

– पनीर (75 ग्राम)

– प्याज 2 (बारीक कटा हुआ)

– लहसुन 6-7 कली (बारीक कटा हुआ)

– हरी मिर्च  04 (बारीक कटी हुई)

– हरा धनिया ( 01 छोटा चम्मच)

– लाल मिर्च (01 छोटा चम्मच)

– सौंफ ( 01 छोटा चम्मच)

– अजवायन ( 01 छोटा चम्मच)

– तेल ( सेंकने के लिये)

– नमक ( स्वादानुसार)

– अदरक ( 01 छोटा चम्मच)

बनाने का तरीका

– सबसे पहले पनीर को कद्दूकस कर लें और इसके बाद बेसन को छान लें.

– फिर उसमें पनीर के साथ सारी सामग्री मिला लें.

– अब मिश्रण में थोड़ा-थोड़ा पानी डालते हुए उसका घोल बना लें.

– यह घोल पकौड़ी के घोल जैसा होना चाहिए, न ज्यादा पतला, न ज्यादा गाढ़ा.

– घोल को अच्छी तरह से फेंट लें और फिर उसे 15 मिनट के लिए ढ़क कर रख दें.

– अब एक नौन स्टिक तवा गरम करें और तवा गरम होने पर 1/2 छोटा चम्मच तेल तवा पर डालें और उसे पूरी सतह पर फैला दें.

– ध्यान रहे तेल सिर्फ तवा को चिकना करने के लिये इस्तेमाल करना है. अगर तवा पर तेल ज्यादा लगे,   तो उसे तवा से पोंछ दें.

– तवा गरम होने पर आंच कम कर दें और 2-3 बड़े चम्मच घोल तवा पर डालें और गोलाई में बराबर से        फैला दें. चीला की नीचे की सतह सुनहरी होने पर उसे पलट दें और उसे सेंक लें.

– इसी तरह सारे चीले सेंक लें, अब  आपकी पनीर चीला बनाने की विधि कम्‍प्‍लीट हुई.

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Father’s day Special: सोशलमीडिया छोड़ दें तो हर जगह संकट में पिता और पितृत्व

यक्ष-युधिष्ठिर संवाद में यक्ष, युधिष्ठिर से पूछता है, ‘आसमान से भी ऊंचा क्या है ?’ युधिष्ठिर कहते हैं, ‘पिता’ और यक्ष खुश हो जाता है. आगामी फादर्स डे पर सोशल मीडिया में भी हम पिता नामक प्राणी को कुछ ऐसे ही अलंकरणों से सुशोभित होते देख, सुन और पढ़ सकते हैं. इस दिन पिता का गुणगान करने वाले कुछ प्रकार के शेर भी पढ़ने को मिलेंगे-

लिखके वालिद की शान कागज पर रख दिया आसमान कागज पर लेकिन इन रस्मी बुलंदियों से पिता और पितृत्व को लेकर कोई भ्रम भले हम पाल लें हकीकत यह है कि पिता और पितृत्व दोनो ही संकट में हैं. यह कोई अपने देश की बात नहीं है पूरी दुनिया में इन पर ये संकट मंडरा रहा है.  अब अगर हम इस भूमंडलीय युग में भी यह कहें कि दुनिया से हमें क्या लेना देना तब तो अलग बात है नहीं तो हकीकत हमारी नींद उड़ा देगी. भारत सहित ज्यादातर एशियाई देशों में तो फिर भी अभी गनीमत है, लेकिन अमरीका और यूरोपीय देश तेजी से अनुपस्थित पिता वाले समाज बनते जा रहे हैं. अनुपस्थित पिता यानी जिनकी पिता के तौरपर भौतिक मौजूदगी संतान को हासिल नहीं है.

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अमरीका और यूरोप में बहुत तेजी से अनाथ बच्चों का समाज बन रहा है. इसकी वजह यही है अदृश्य या अनुपस्थित पिता. हालांकि समाजशास्त्री पिता के अस्तित्व पर इस संकट को कोई बहुत ताजा संकट नहीं मान रहे. उनके मुताबिक पिता नाम की संस्था पर संकट का यह सिलसिला तो औद्योगिक क्रांति के बाद से ही शुरू हो गया था.

लेकिन अभी तक यह बात दबी छुपी थी तो इसलिए कि जिंदगी को आमूलचूल ढंग से बदल देने वाली इतनी सारी और इतनी संवेदनशील तकनीकें नहीं थीं लेकिन हाल के दशकों में रोजमर्रा के जीवन में उन्नत तकनीकों की जो  बमबारी हुई है उससे पिता नाम की अथॉरिटी पूरी तरह से छिन्न-भिन्न हो गयी है. पितृत्व पर अपनी मशहूर किताब, ‘सोसायटी विदाउट द फादररू ए कंट्रीब्यूशन टू सोशियल साईकोलोजी’ में अलेक्जेंडर मित्सर्लिच ने पिछली सदी के नब्बे के दशक में ही कह दिया था कि परिवार में पिता की शक्ति का लगातार ह्रास हो रहा है. हालांकि यह सब कुछ  किसी साजिश के तहत नहीं हो रहा. यह होना एक किस्म से स्वाभाविक है. क्योंकि पिता नाम की संस्था ने सदियों तक अपने पास बहुत सारी सत्ताओं को समेट रखा था, उन्हें कभी न कभी तो हाथ से निकलना ही था. अब वे तमाम सत्ताएं धीरे-धीरे उसके हाथ से निकल रही हैं. मसलन पितृत्व की ताकत धीरे-धीरे पुरुषत्व की मुट्ठी से बाहर निकलती जा रही है.

रटगर्स यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र के एक प्रोफेसर डेविड पॉपिनो का कहना है कि अगर वर्तमान रुझान जारी रहता है तो इस सदी के अंत तक अमरीका में पैदा होने वाले 50 प्रतिशत बच्चे जैविक पिता की संतान होंगे कहने का मतलब यह कि ये अनुपस्थित पिता या स्पर्म बैंक से खरीदे गए स्पर्म की संतानें होंगी. पिता की अथॉरिटी को यह बहुत बड़ा झटका होगा. आज भी अमरीका में पैदा होने वाले करीबन 30 प्रतिशत बच्चों के या तो पिता ज्ञात नहीं होते या जैविक होते हैं. लेकिन रुकिए पिता नाम के जीव की शान पर यह कोई अकेला संकट नहीं है और भी तमाम संकट टूट पड़े हैं, मसलन-पूरी दुनिया में यहां तक कि पारंपरिक एशिया और अफ्रीका के समाजों तक में गार्जियनशिप पर अब अकेले पिता का दबदबा नहीं रहा. बड़े पैमाने पर बच्चों के प्रथम अभिभावक के रूप में अब मांओं का नाम दर्ज हो रहा है. वह जमाना गया जब स्कूल में एडमिशन के लिए पिता का नाम जरूरी था.

परिवारों में पिता की केन्द्रीय भूमिका तेजी से छीज रही है. बहुत तेजी से परिवार का केन्द्रीय ढांचा मांओं और बच्चों पर केंद्रित हो रहा है जैसे मान लिया गया हो परिवार का स्थाई ढांचा तो उन्हीं से बनता है, पुरुष तो इस ढांचे में आता जाता रहता है. कहने का मतलब वह महत्वपूर्ण है भी और नहीं भी है. पश्चिमी देशों में स्वास्थ्य देखभाल एजेंसियों को स्पष्ट निर्देश हैं कि वे परिवार के नाम पर वो मां और बच्चों की चिंता करें. धीरे-धीरे तमाम संगठनों द्वारा पिता की चिंता करना छोड़ा जा रहा है सिवाय उन कुछ देशों के जहां जनसंख्या की वृद्धि लगातार नकारात्मक होती जा रही है. आज पश्चिमी देशों में गर्भावस्था, श्रम और प्रसव के संदर्भ में तमाम नियुक्तियां मां को ध्यान में रखकर, उनकी सहूलियत के हिसाब से होती हैं. स्कूल रिकॉर्ड और परिवार सेवा संगठनों में फाइलें अक्सर बच्चे और मां के नाम पर होती हैं, पिता के नहीं. अस्पतालों में दीवारों के रंग हल्के होते हैं क्योंकि उन्हें महिलाओं और बच्चों की पसंद को  ध्यान में रखकर रंगा जाता है. अधिकांश परिवार कल्याणकारी दफ्तरों में, जब बैठकें  होती है तो उनमें पिता को आमंत्रित करना जरूरी नहीं समझा जाता है. ये सब बातें हैं जो बताती हैं कि पिता का अस्तित्व संकट में है.

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वैसे व्यवहारिक दुनिया में पिता इसलिए भी हाल के सालों में बैकफुट हुए हैंय क्योंकि दैनिक इस्तेमाल में आने वाले तमाम उपकरणों ने अचानक उन्हें अपने बच्चों से काफी पीछे कर दिया है. मानव इतिहास के किसी भी मोड़ में पिता और उनकी संतानों के बीच तकनीकी समझ और इस्तेमाल में इतना फासला पहले कभी नहीं रहा जितना हाल के सालों में देखा गया है. रहीस से रहीस घरों में भी पिताजी स्मार्ट फोन के इस्तेमाल में अपने बच्चों से पीछे हैं. अगर उन्हें इसकी समझ है भी तो भी वे अपने बच्चों से रफ्तार के मामले में बहुत धीमें हैं.

पिता अपने बच्चों के मुकाबले  तमाम उपकरणों के बहुत कम फीचरों का इस्तेमाल करना जानते हैं. आज की दैनिक जिंदगी में जीवनशैली के रूप में जितनी भी तकनीकों का इस्तेमाल हो रहा है, उन सबमें पिता अपनी संतानों से समझ और उनके संचालन में पिछड़ गया है. इसलिए आज के पिता के पास कई दशकों पहले वाले पिता की तरह अपनी संतान के हर सवाल का जवाब नहीं है. यह बात पिता को भी मालूम है और उसकी संतानों को भी. यही कारण है कि आज के बच्चे छूटते ही कह देते हैं अरे छोड़ो आपको क्या मालूम ? पहले ऐसा नहीं था. पहले कौशल के मामले में पिता और संतान के बीच इतना बड़ा जनरेशन गैप नहीं था. इसलिए अब पिता बच्चों के लिए आसमान से भी ऊंचे नहीं रहे.

हालांकि नई पीढी की यह अग्रता बहुत दिनों तक नहीं चलने वाली. अगले 15-20 सालों में पिता और उनकी संतानों के व्यवहारिक तकनीकी ज्ञान एक स्तर के हो जायेंगे. लेकिन सवाल है कि क्या तब तक पिता नाम के शख्स की अथॉरिटी बचेगी ?

Father’s day Special: पिता की सोच अपने जीवन में उतारती हैं स्वरा भास्कर

‘निल बट्टे सन्नाटा’ फिल्म से चर्चा में आईं अभिनेत्री स्वरा भास्कर ने आज अपने अभिनय के बल पर एक अलग मुकाम हासिल कर लिया है. तेलुगु परिवार में जन्मी स्वरा का पालनपोषण दिल्ली में हुआ. वहां से स्नातकोत्तर की डिग्री प्राप्त कर अभिनय की इच्छा से मुंबई आईं और कुछ दिनों के संघर्ष के बाद फिल्मों में काम करने लगीं. उन की पहली फिल्म कुछ खास नहीं रही, पर ‘तनु वैड्स मनु’ में कंगना राणावत की सहेली पायल की भूमिका निभा कर उन्होंने दर्शकों का दिल जीत लिया.

स्वरा भास्कर के पिता उदय भास्कर नेवी में औफिसर थे. अब वे रक्षा विशेषज्ञ हैं और मां इरा भास्कर प्रोफैसर हैं. पेश हैं, स्वरा से हुई मुलाकात से कुछ अहम अंश:

सवाल- फिल्मों में कैसे आना हुआ?

मैं बॉलीवुड से बहुत प्रभावित थी. ‘चित्रहार’ और ‘सुपरहिट मुकाबला’ मेरे मनोरंजन के 2 स्रोत थे. जैसेजैसे बड़ी होती गई मेरी पसंद बदलती गई. पहले मैं सोचती थी टीचर बनूंगी, फिर वेटरनरी डाक्टर. लेकिन जेएनयू में पढ़ते समय मैं ने इफ्टा के साथ थिएटर करना शुरू किया. वहां के गुरु कहे जाने वाले पंडित एन.के. शर्मा ‘एक्ट वन’ नामक संस्था चलाते हैं. उन के साथ मैं ने एक नाटक किया. मुझे लगा कि मुझे ऐक्टिंग के क्षेत्र में कोशिश करनी चाहिए.

सवाल- मुंबई कैसे आना हुआ?

मैं और मेरी एक सहेली जिसे वकील की जौब मिली थी मुंबई आ गईं. मेरी मां यहां किसी को जानती थीं. लेकिन उन के घर पर गैस्ट आने की वजह से उन्होंने मुझे और मेरी दोस्त को अपने औफिस में ठहरा दिया जहां मैं औफिस टाइम में बाहर घूमा करती थी. 20 दिनों के बाद मुझे रहने की जगह मिली. मुझे शुरुआती दौर में असिस्टैंट डायरैक्टर रवींद्र रंधावा और राइटर अंजुम राजावली का बहुत सहयोग मिला. मुंबई आने के बाद मैं ने कई जगहों पर अपना पोर्टफोलियो भेजा. सारा अच्छा काम मुझे औडिशन के सहारे ही मिला है.

सवाल- कितना संघर्ष रहा?

आप अगर फिल्म इंडस्ट्री से नहीं हैं और कोई आप का जानकार यहां नहीं है, तो आप को संघर्ष करना ही पड़ता है. फिर भी मुझे काम जल्दी मिल गया और मिल भी रहा है.

सवाल- पिता की कौन सी बात जीवन में उतारती हैं?

मेरे पिता सैल्फ्मेड हैं. मैं उन की सोच को अपने जीवन में उतारती हूं. मैं पिता के बहुत क्लोज हूं. मुंबई आते वक्त उन्होंने कहा था कि तुम दूसरे शहर जा रही हो. वहां क्या होगा मुझे पता नहीं. आप को खुद हर निर्णय लेना होगा. इस तरह उन्होंने आजादी के साथसाथ जिम्मेदारी भी खूबसूरती से दे दी.

सवाल- आप अधिकतर लीक से हट कर फिल्में करती हैं, इस की वजह क्या है?

खुद से अलग चरित्र निभाने में ही चुनौती होती है. इस से आप सीखते हैं और परफौर्म करने का अवसर मिलता है. मैं हर तरह की फिल्म पसंद करती हूं लेकिन वह कहानी मेरे लिए अधिक माने रखती है जो मेरी जिंदगी से काफी दूर हो. ‘अनारकली आरा वाली’ के वक्त मुझे आरा जाना पड़ा. मैं वहां उन औरतों से मिली जो ऐसी परफौर्मैंस करती हैं. ‘निल बट्टे सन्नाटा’ के वक्त मैं आगरा गई थी. वहां नौकरानियों के साथ उन के काम पर जाती थी. उन के घर जा कर, उन के साथ खाना तक खाया. ये चीजें मुझे अच्छी लगती हैं.

सवाल- महिलाओं का शोषण आज भी होता है. इस के लिए किसे जिम्मेदार मानती हैं?

पुरुषों को लगता है कि महिलाओं के साथ कुछ भी करना उन का हक है. यह वैसा ही है जैसाकि किसी जमाने में जमींदार किसानों के साथ करते थे, ब्राह्मण नीची जातियों के साथ करते थे. यह एक मानसिकता है, जिस में एक सिरफिरा आशिक अपनी प्रेमी को मार देता है या उस पर तेजाब फेंकता है. नाराज पति अपनी पत्नी पर हाथ उठाता है या एक आशिक रेप करता है. यह वही पिता, भाई, पति या आशिक है, जो महिलाओं को इनसानियत और समानता नहीं दे पा रहा है. इस मानसिकता से जब तक अच्छी तरह डील नहीं किया जाएगा, ऐसा होता रहेगा. इस के लिए मैं पहला जिम्मेदार दुनिया के सभी धर्मों को मानती हूं. हालांकि मैं एक धर्मनिरपेक्ष लड़की हूं, लेकिन यह आप को मानना पड़ेगा कि धर्म कहीं न कहीं नारी विरोधी है. इस के बाद संस्कृति, समाज, परिवार और परंपराएं ऐसी मानसिकता को जन्म देती हैं.

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Father’s day Special: अपने रिश्तों को दें यादगार तोहफा

आप किसी न किसी को गिफ्ट देने के बारे में जरूर सोच रही होंगी. मगर पैसे की बात मतलब कि आपका बजट आड़े आ जाता है. अगर ऐसा है तो आपकी मुश्क‍िल हल करने का एक आसान सा तरीका है. कुछ ऐसे गिफ्ट आइडियाज जो किफायती हैं और गिफ्ट के रूप में जिन्हें पाकर आपके लोग खुश हो जाएंगे.

1. पेंटिंग्स

मौका आपकी किसी सहेली की शादी का हो. आपकी सहेली अपने नए जीवन की शुरुआत करने जा रही होती है, ऐसे मौके पर अपनी सहेली के घर को सजाने के लिए आप उसे पेंटिंग्स गिफ्ट कर सकती है. किसी की शादी की बजाय अगर फादर्स डे पर भी आप अपनी मां के घर और पापा के ऑफिस को सुंदर बनाने के लिए उन्हें पेंटिंग्स तोहफे में दे सकती हैं.

2. चांदी की चमक

अब जब मौका खास है तो आपका गिफ्ट भी कुछ खास होना चाहिए. अगर आप भी इस बात को समझती हैं, तो फिर चांदी के गहने से बेहतरीन विकल्प और कुछ हो ही नहीं सकता. चांदी के गहने न सिर्फ आपके बजट में होंगे, बल्कि आपके तोहफे को यादगार भी बना देंगे.

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3. ड्रैस भी हो सकती है खास तोहफा

शादी हो या कोई और खास मौका ड्रेस गिफ्ट कर के भी आप अपने रिश्ते की मजबूती को दिखा सकती हैं. आप पिता को भी कपड़े भी तोहफे में दे सकतीं हैं. शादी में तो बहुत सारे कार्यक्रम होते हैं ऐसे में पिता का खास दिखना बेहद जरूरी होता है, तो आप ऐसे ही किसी खास प्रोग्राम के लिए अपने पिता को कपड़े दे सकतीं हैं. आपका यह तोहफा उसे हमेशा याद रहेगा.

4. फोटो फ्रेम और फोटो कोलाज

तस्‍वीरें जिंदगी के कई खूबसूरत लम्‍हों की गवाह होती हैं और इन्हें सहेज कर रखना हर किसी को अच्छा लगता है. आपकी मां को भी यादों की इन निशानियों से बहुत लगाव होगा और उनके घर को सबारने में आपका यह तोहफा भी उनकी मदद करेगा तो उनकी जिंदगी के कुछ महत्‍वपूर्ण पलों को संजोकर उन्‍हें तोहफे में दें यादों का कोलाज.

5. खूबसूरत सफर

अगर आप अपने पिता से दूर रहते हैं तो उनके साथ समय बिताने से ज्‍यादा खुशी आप उन्‍हें कुछ नहीं दे सकती. उनकी पसंद की कोई जगह फिक्‍स करें और उन्हें मदर्स डे का तोहफा दें यकीनन यह तोहफा पिता को जरूर पसंद आएगा और सफर की यादें भी हमेशा साथ रहेंगी.

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6. सबसे खास दोस्त किताबें

अगर आपके मां-पापा को किताबे पढ़ने का शौक है तो उनकी पसंद की किताबों का सेट आप उन्हें दे सकती हैं. किताबें अच्छी दोस्त भी होती हैं और हमेशा साथ भी होती हैं.

Father’s day Special: संवेदनहीन और स्वार्थी होती संतानें, पढ़िए एक पिता की व्यथा

रेमंड शूटिंग्स के विज्ञापनों की एक खास बात जो हर किसी के जेहन में जानेअनजाने में दर्ज हो जाती है वह है रिश्तों के तानेबाने को भुनाना. रेमंड के विज्ञापनों में अपने उत्पाद की सीधी तारीफ नहीं होती, बल्कि दिखाया यह जाता है कि एक कामयाब पूर्ण पुरुष कैसा होता है. सफलता के पीछे नातेरिश्तों और उन की भावुकता के साथसाथ परिधान का संबंध एक मिनट से भी कम वक्त में दिखा कर बाजार में छा जाने और बाजार लूट ले जाने वाले रेमंड के पूर्व चेयरमैन और संस्थापक विजयपत सिंघानिया इस साल प्रमुख सुर्खियों में रहे.

वे सुर्खियों में इसलिए नहीं रहे कि उन्होंने कोई नया ब्रैंड लौंच किया था या फिर हवा में उड़ते वर्ल्ड रिकौर्ड बनाते  कोई नया कारनामा दिखाया था, बल्कि इसलिए कि जिन रिश्तेनातों की भावुकता को वे अपने विज्ञापनों में परोसा करते थे वह एक क्रूरता की शक्ल में हकीकत बन उन के सामने आ खड़ी हुई थी. इस क्रूरता को जब वे अकेले बरदाश्त नहीं कर पाए तो मीडिया के जरिए अपनी व्यथा साझा करते दिखे. 79 वर्षों की अपनी जिंदगी में वे पहली दफा इतने सार्वजनिक हुए कि रेमंड का इश्तहार और उस की ब्रैंडिंग बगैर किसी खर्च के हो गई. लेकिन जिस तरीके से हुई उस ने उद्योग जगत और समाज को हिला कर रख दिया. जिस ने भी देखासुना उस ने विजयपत सिंघानिया से हमदर्दी जताई. वे हमदर्दी के हकदार थे भी.

गुलाबी रंगत के रोबदार चेहरे वाले विजयपत की गिनती माह अगस्त तक वाकई कंपलीट मैन्स में शुमार होती थी. ऐसी उम्मीद किसी को न थी कि कल तक अरबोंखरबों की जायदाद के मालिक विजयपत सिंघानिया, जिन्हें कारोबारी दुनिया में विजयपत बाबू के नाम से ज्यादा जाना जाता है, पाईपाई की मुहताजी का अपना दुखड़ा मीडिया के जरिए रो कर हमदर्दी व इंसाफ मांगने को मजबूर होंगे.

विजयपत सिंघानिया कामयाबी का दूसरा नाम है, यह कहना अतिशयोक्ति की बात इसलिए भी नहीं होगी कि उन्होंने अपने पूर्वजों के कारोबार को आसमान की बुलंदियों तक पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. उन में समझ थी और जोखिम उठाने का माद्दा भी. लिहाजा, एक वक्त में टाटा और बिड़ला के बाद सिंघानिया का नाम तीसरे नंबर के उद्योगपतियों व रईसों में शुमार किया जाने लगा था.

80 के दशक के भारतीय पुरुष को अपने ड्रैसिंग सैंस के प्रति अगर किसी ने सजग किया था तो इस का श्रेय रेमंड को ही जाता है जिस के कंपलीट मैन के माने थे एक ऐसा भावुक पुरुष जो अपने परिवार का पूरा ध्यान रखता है, वह पत्नी और बच्चों सहित मातापिता को भी चाहता व उन का खयाल रखता है. तब हर किसी की ख्वाहिश ऐसा ही कंपलीट मैन बन जाने की हो चली थी तो बात कतई हैरत की नहीं थी. विजयपत सिंघानिया की कारोबारी समझ की इसे खूबी कहा जाएगा कि वे परिधान के जरिए भारतीय घरों में झांके और इस तरह छा गए कि एक समय ऐसा रहा कि भारतीय दूल्हों के पास कुछ और हो न हो पर उन के शरीर पर रेमंड का सूट होना एक अनिवार्यता सी हो गई थी.

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व्यथा एक पिता की

विजयपत सिंघानिया की जिंदगी अब किसी हिंदी पारिवारिक फिल्म सरीखी हो गई है जिस में पिता ने बेशुमार दौलत और नाम दोनों कमाए पर जब अशक्त हो गया और मोह के चलते सबकुछ बेटे को दे दिया तो कथित कलियुगी बेटे ने उसे पाईपाई का मुहताज बनाते घर से बेघर कर डाला.

अगस्त के दूसरे हफ्ते में देशभर में उस वक्त सनाका खिंच गया जब विजयपत सिंघानिया ने मीडिया के जरिए अपने बेटे गौतम हरि सिंघानिया, जो अब रेमंड के चेयरमैन और मैनेजिंग डायरैक्टर हैं, पर यह आरोप लगाया कि साल 2015 में उन्होंने रेमंड के अपने हिस्से के 1 हजार करोड़ रुपए मूल्य के शेयर उसे दे दिए थे लेकिन गौतम ने बेटे का फर्ज नहीं निभाया.

अपने वकील दिनयार मदान के जरिए विजयपत ने यह रोना भी रोया कि गौतम ने उन से कार और ड्राइवर भी छीन लिए हैं. सो, वे अब सड़क पर पैदल चल रहे हैं.

एक लंबेचौड़े लेकिन पेचीदे पारिवारिक व कारोबारी विवाद को संक्षेप में समेटते विजयपत ने अभिभावकों से एक आग्रह यह कर डाला कि अपने जीतेजी बेटे को सबकुछ मत दीजिए. जरूरी नहीं कि बेटा आप का खयाल रखे. बकौल विजयपत, लोग परिवार से प्यार करते हैं लेकिन बच्चों के प्रति एक कमजोरी पैदा कर लेते हैं और इसी कमजोरी के किसी क्षण में उन्होंने एक हजार करोड़ रुपए के शेयर बेटे के नाम कर दिए थे.

गौरतलब है कि वे इन दिनों दक्षिण मुंबई की एक सोसायटी ग्रांड पराडी के फ्लैट में किराए पर रह रहे हैं. जिस का किराया 7 लाख रुपए महीना रेमंड कंपनी दे रही थी. साल 2007 तक सिंघानिया  परिवार जेके हाउस में रहा करता था. रेमंड कंपनी ने इसे रिनोवेट कराने के नाम पर सभी से खाली कराया और लिखित अनुबंध किया कि इस में रह रहे सभी वारिसों को एकएक ड्यूप्लैक्स मकान 9 हजार रुपए प्रति वर्गफुट की दर पर दिया जाएगा. लेकिन साल 2015 आतेआते गौतम की नीयत बदल गई और वे मकान देने के अपने वादे से मुकर गए. इस की एक वजह जमीनों की कीमतों में हजार गुना तक की बढ़ोतरी हो जाना थी. यानी, रेमंड कंपनी अनुबंध की गई दरों पर ड्यूप्लैक्स देती तो उसे करोड़ों रुपयों का नुकसान होता.

इतना ही नहीं, बेटे ने उस फ्लैट का किराया तक देना बंद कर दिया जिस में रेमंड से हुए एक करार के मुताबिक वे रह रहे थे. जब पैसों की तंगी होने लगी तो लाचार और बेबस हो चले इस पिता ने मुंबई हाईकोर्ट में बेटे पर मुकदमा दायर कर दिया. इस में उन्होंने बेटे से जेके हाउस में अपना ड्यूप्लैक्स मकान भी मांगा, जिस के बाबत साल 2007 में सिंघानिया परिवार के सदस्यों के बीच एक अनुबंध हुआ था.

विजयपत सिंघानिया को मजाक में खानदानी मुकदमेबाज भी कहा जाता है तो इस की अपनी अलग वजहें और उदाहरण हैं जिन से समझ आता है कि सिंघानिया खानदान ने केवल कारोबार में ही रिकौर्ड तरक्की नहीं की, बल्कि जायदाद को ले कर मुकदमेबाजी में भी वे अव्वल हैं.

ये सब बातें अब उघड़ कर सामने आ रही हैं तो इस की एक बड़ी वजह गौतम सिंघानिया हैं जिन के बारे में विजयपत ने यह भी कहा कि जो मांबाप जीतेजी जायदाद बच्चों को देते हैं उन की हालत लगभग भिखारियों सरीखी हो जाती है. झल्लाए विजयपत ने बेटे गौतम को बदतमीज बताया तो सहज यह भी समझ आया कि लड़ाई व्यावसायिक ज्यादा है. बकौल विजयपत, बेटे को प्यार करिए, मगर आंख बंद कर के नहीं. वरना आप पाईपाई के लिए मुहताज हो सकते हैं.

उन्हीं दिनों विजयपत का एक फोटो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ था जिस में वे बेहद दुबलेपतले, कमजोर और थकेहारे नजर आ रहे थे. आमतौर पर जींस पर हाफ शर्ट या टीशर्ट पहनने वाले इस भूतपूर्व खरबपति की दयनीय हालत देख उन पर हर किसी को दया आई थी. पर जब कुछ और बातें उजागर हुईं तो अक्तूबर आतेआते उन के बारे में लोगों की राय बदलने लगी. कहा यह जाने लगा कि विजयपत सिंघानिया अपनी करनी की सजा भुगत रहे हैं.

अक्तूबर में ही उन का अपनी पत्नी आशा देवी सहित एक वीडियो भी वायरल हुआ था जिस में पतिपत्नी दोनों एक गाना गा रहे हैं- ‘जाने वे कैसे लोग थे जिन के प्यार से प्यार मिला, हम ने तो बस कलियां मांगीं, काटों का ताज मिला….’ लेकिन पहले के फोटो और इस वीडियो के विजयपत में काफी फर्क था. वीडियो में उन के चेहरे की रंगत पहले जैसी दिखाई दे रही थी और उन का ड्राइंगरूम भी भव्य दिख रहा था. मुमकिन है कि यह किसी फाइवस्टार होटल का कमरा रहा हो. पर, संपन्नता विजयपत और आशा दोनों के चेहरों से टपकी रही थी.

बेटे को कोसकोस कर विजयपत मीडिया और आम जनमानस की दिलचस्पी व सुर्खी बन गए. कभी प्रचार जिस शख्स का मुहताज होता था वही अगर प्रचार का मुहताज हो चला था तो जाहिर है बात बापबेटे की जायदाद की लड़ाई भर नहीं है. सिंघानिया परिवार के गौरवशाली इतिहास की झलक के साथसाथ यह भी दिख रहा है कि पारिवारिक कलह झुग्गीझोंपडि़यों से ले कर आलीशान महलों तक में है और हिंसा व क्रूरता की हद तक है. इसकी एक झलक दिखलाते किसी खास मंशा से विजयपत ने एक टीवी इंटरव्यू में कहा था कि एक बार गौतम नेउन के भाई (बड़े भाई मधुपति सिंघानिया) की हत्या कर देने की बात तक कही थी.

पीढ़ी दर पीढ़ी तरक्की

सिंघानिया परिवार एकाएक ही इतना रईस नहीं हुआ कि मुंबई के वीआईपी इलाके मालाबार हिल्स में जेके हाउस बना डाला जो आज भी देश के शीर्ष उद्योगपति मुकेश अंबानी के घर ‘एंटीलिया’ से कहीं ऊंचा है. जेके हाउस 1960 में बना था तब यह 14-मंजिला था लेकिन बाद में इसे और ऊंचा कर के 37 मंजिला कर दिया गया.

सिंघानिया घराने के संस्थापक यानी विजयपत के दादा लाला जुग्गीलाल राजस्थान के शेखावटी इलाके के गांव सिंघाना से आ कर कानपुर में बस गए थे. तब वे कपास की गांठों का कारोबार करते थे. अपने बेटे कमलापत के साथ उन्होंने इस कारोबार को और बढ़ाया और खुद के और बेटे के नाम के पहले अक्षरों को ले कर जेके समूह की स्थापना की.

कमलापत के 3 बेटे पदमपत, कैलाशपत और रमेशपत हुए. ये तीनों भी पिता और दादा की तरह मेहनती व व्यावसायिक बुद्धि के धनी थे. 40 के दशक में इस परिवार ने व्यवसाय बढ़ाए और देखते ही देखते उन की गिनती न केवल कानपुर, बल्कि देश के शीर्ष औद्योगिक घरानों में होने लगी. जेके समूह अब टायर से ले कर टैलीविजन व कागज से ले कर सीमेंट तक बनाने लगा. पर इस की शुरुआत एक कपास मिल और बर्फ की फैक्टरी से हुई थी.

तीसरी पीढ़ी में शांतिपूर्वक यानी बगैर किसी बड़े विवाद के बंटवारे हो गए थे. कैलाशपत के 2 बेटे अजय और विजयपत हुए. बंटवारे के बाद और आजादी के 3 वर्षों पहले  कैलाशपत ने मुंबई आ कर तब के मशहूर उद्योगपति वाडिया से रेमंड कंपनी खरीदी थी. रेमंड का नाम पहले ईडी ऐंड कंपनी था जिस के 2 डायरैक्टर्स अलबर्ट और अब्राहम रेमंड के नाम पर उस का यह नाम रखा गया था. कानुपर में पैदा हुए और पलेबढ़े विजयपत बाद में मुंबई आ कर बस गए और फैब्रिक कारोबार में रम गए.

भारत में क्यों व्यावसायिक घराने इतने कम वक्त में उम्मीद से ज्यादा तरक्की कर लेते हैं, इस बात पर विदेशी अर्थशास्त्री भी हैरान होते रहते हैं और काफी शोध के बाद उन्हें जवाब यही मिलता है कि दरअसल, पीढ़ीदरपीढ़ी व्यवसाय बढ़ता है और पूरी प्रतिबद्धता से हर पीढ़ी इसे करती है.

पदमपत और रमेशपत के बेटों ने बंटवारे के बाद दिल्ली और कानुपर में अपनेअपने कारोबार संभाले और उन का नाम भी उद्योग जगत में इज्जत से लिया जाता है. यह कम हैरत की बात नहीं है कि पदमपत सिंघानिया महज 30 साल की उम्र में फिक्की जैसे प्रमुख व्यावसायिक संगठन के अध्यक्ष बन गए थे.

जेके समूह से अलग हो कर विजयपत ने अपने भागीदार, सगेभाई अजयपत के साथ रेमंड को चमकाया और साल 1980 में रेमंड की विधिवत कमान संभाली. लेकिन इसी दौरान अजयपत की मृत्यु हो गई तो उन के परिवार की देखभाल का कथित जिम्मा भी विजयपत पर आ गया.

विजयपत ने अपनी यह जिम्मेदारी ईमानदारी से निभाई होती तो तय है अजयपत की पत्नी बीना देवी और भतीजों अनंत व अक्षयपत को जायदाद को ले कर उन पर मुकदमा दायर न करना पड़ता. तब विजयपत पर भाभी और भतीजों की अनदेखी व उन का वाजिब हिस्सा न देने के आरोप लगे थे. ये मुकदमे अभी भी चल रहे हैं, जिन में जेके हाउस के 2-मंजिला मकान का विवाद भी शामिल है. इस बाबत रेमंड का करार विजयपत और अजयपत के उत्तराधिकारियों से यह हुआ था कि कंपनी उन्हें एकएक 2-मंजिला मकान देगी.

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इन सब फसादों के बाद भी विजयपत हवा में उड़ते रेमंड को भी शीर्ष पर ला पाने में कामयाब हो पाए तो इस की वजह उन की तीक्ष्ण व्यावसायिक बुद्धि और धुआंधार भावनात्मक प्रचार शैली थी. साथ ही, रेमंड की गुणवत्ता भी किसी सुबूत की मुहताज नहीं थी.

विजयपत ने कपड़ों को नई पहचान देते गरम सूट बनाने के लिए आस्ट्रेलियाई भेड़ों का ऊन लाना शुरू किया था. लेकिन यह काम खर्चीला था और इस में वक्त भी ज्यादा लगता था, इसलिए उन्होंने खास किस्म की आस्ट्रेलियाई भेड़ों को भारत में ही पालना शुरू कर दिया था जिन के ऊन से बने कपड़े वाकई नरम और गरम होते थे.

साल 1986 में विजयपत ने अपना प्रीमियम ब्रैंड पार्क ऐवन्यू लौंच किया तो उस दौर के युवाओं ने इसे हाथोंहाथ लिया और विजयपत अपने चचेरे भाइयों से ज्यादा चर्चित हो उठे. एक वक्त में रेमंड का कारोबार 12 हजार करोड़ रुपए तक जा पहुंचा था जिसे गौतम ने गिरने नहीं दिया. अपनी शैली में व्यवसाय करते गौतम ने विदेशों तक में कारोबार फैलाया जबकि विजयपत सिर्फ मांग पर और शौकिया तौर पर निर्यात करते थे. जैसा कि आमतौर पर होता है, इन बापबेटों के बीच भी व्यवसाय की शैली और तौरतरीकों को ले कर विवाद होने लगे. लेकिन विजपयत ने कभी गौतम को नए प्रयोग करने से बहुत ज्यादा रोका नहीं.

गौतम से उन का लगाव इस हद तक था कि उस के लिए उन्होंने अपने बड़े बेटे मधुपति को एक तरह से घर से निकाल दिया था. मधुपति साल 1999 में पिता के कारोबार और जायदाद से अपना हिस्सा ले कर सिंगापुर चले गए और अपने पूर्वजों की तरह व्यवसाय में वहां खुद को स्थापित कर लिया था. सिंगापुर जातेजाते मधुपति ने पिता पर पक्षपात का आरोप लगाते कहा था कि वे बड़े के बजाय छोटे बेटे को रेमंड का मुखिया बनाना चाहते हैं और भेदभाव करते हैं.

तब एक सधे बिजनैसमैन की तरह विजयपत ने मधुपति से लिखवा लिया था कि जो उस ने ले लिया, उस के अलावा वह उन की जायदाद से कुछ और नहीं मांगेगा. मधुपति ने कभी ऐसा किया भी नहीं. लेकिन उन की चारों संतानों ने दादा पर मुकदमा ठोंकते हिंदू उत्तराधिकार अधिनयम के उस प्रचलित कानून का सहारा लिया जिस के तहत मातापिता को भी यह अधिकार नहीं कि वे दादापरदादा की जायदाद छोड़ दें या फिर हिस्सा न मांगें. चूंकि ये चारों 1996 के अनुबंध के वक्त नाबालिग थे, इसलिए मधुपति का किया समझौता या करार गलत साबित करते उन्होंने अदालत का दरवाजा खटखटाया. औद्योगिक घरानों में जायदाद के झगड़ों के ऐसे मुकदमे आम होते हैं और सालोंसाल चलते रहते हैं पर जब गौतम और विजयपत का विवाद सामने आया तो पता चला कि विजयपत अपनी पत्नी को छोड़ कर परिवार के हर सदस्य से मुकदमा लड़ रहे हैं.

उसी वक्त में यह सवाल भी तेजी से उठा कि जब विजयपत सिंघानिया खुद को पाईपाई का मुहताज बता रहे हैं तो उन के पास इतनी महंगी अदालती लड़ाइयां लड़ने के लिए पैसा कहां से बरस रहा है. इस पर विजयपत खामोश हैं. हालांकि वे गौतम से सुलह के लिए इस मामूली शर्त पर तैयार हैं कि वह अगर तिरुपति बालाजी के मंदिर में चल कर खुद के बेईमान न होने की कसम खा ले, तो वे अपना मुकदमा वापस ले लेंगे. गौरतलब है कि न केवल विजयपत और गौतम, बल्कि पूरा सिंघानिया परिवार तिरुपति बालाजी का अंधभक्त है. ये लोग सालभर में जितना टैक्स सरकार को देते होंगे, शायद उस से कहीं ज्यादा चढ़ावा इस मंदिर में चढ़ाते हैं.

बहरहाल, गौतम ने कसम वाली पेशकश पर ध्यान न देते पिता की ही भाषाशैली में जवाब दिए तो समझ आया कि कहीं न कहीं विजयपत सिंघानिया भी गलत हैं.

गौतम सिंघानिया-शौक बड़ी चीज है

सिंघानिया परिवार में शौक बड़ी चीज मानी जाती है. जहां विजयपत सिंघानिया को हवा में वर्ल्ड रिकौर्ड बनाने का शौक था वहीं उन के बेटे गौतम सिंघानिया, जिन्होंने कथित तौर पर अपने पिता को रोड पर छोड़ दिया है, कम शौकीन नहीं हैं. आजकल लोग भले ही गौतम सिंघानिया को अपने पिता के साथ ज्यादती करने वाले इंसान बतौर देखते हों लेकिन उन की जिंदगी के कुछ रोचक और अनछुए पहलू भी हैं. गौतम सिंघानिया का पूरा नाम गौतम हरि सिंघानिया है और उन का जन्म 9 सितंबर, 1965 में हुआ था. उन्होंने पारसी समुदाय की महिला नवाज मोदी से विवाह किया है जिन से उन की एक बेटी निहारिका है. गौतम रेमंड गु्रप के चेयरमैन और सीईओ तो हैं ही, साथ में कामसूत्र कंडोम भी रेमंड का ही प्रोडक्ट है, जिसे एक अन्य फर्म के साथ जौइंट वैंचर में रेमंड्स ही उत्पादित करता है.

स्वभाव से शौकीन गौतम ने मुंबई के बांद्रा में एक पौपुलर क्लब भी खोला है. पोइजन नाम के इस क्लब में डीजे अकील के साथ गौतम की पार्टनरशिप है. गौतम को महंगी और सुपरफास्ट कारों का भी तगड़ा शौक है, शायद इसलिए उन के कार्स कलैक्शन में दुनिया की सब से महंगी गाडि़यों का अंबार लगा है.

बहरहाल, अपने पिता के नक्शेकदम पर चलते गौतम के शौक उतने ही नवाबी हैं जितने उन के पिता के रहे हैं. यह अलग बात है कि अब उन के पिता को शौक पूरे करने के लिए गौतम के आगे हाथ फैलाने पड़ रहे हैं.

विजय माल्या की जगह गौतम सिंघानिया

जब तक विजय माल्या बैंकों का मोटा पैसा मार कर देश से भागे नहीं थे तब तक मोटर स्पोर्ट्स की दुनिया में उन का ही सिक्का चलता था. लेकिन अब वह जगह गौतम सिंघानिया लेंगे. गौरतलब है कि एफएमएससीआई भारत में मोटर स्पोर्ट्स की प्रशासक बौडी है और इसे भारत सरकार की मान्यता प्राप्त है. भारत सरकार से मान्यता पाने वाली यह देश की एकमात्र मोटर स्पोर्ट्स संस्था है. फैडरेशन औफ मोटर स्पोर्ट्स क्लब औफ इंडिया यानी एफएमएससीआई ने उद्योगपति और मोटर स्पोर्ट्स के शौकीन गौतम सिंघानिया को फैडरेशन इंटरनैशनल डि औटोमोबाइल यानी एफआईए की वर्ल्ड मोटर्स स्पोर्ट्स काउंसिल यानी डब्ल्यूएमएससीआई में भारत का प्रतिनिधि चुना है.

खेल मंत्रालय के एतराज के बाद एफएमएससीआई ने विजय माल्या से पद छोड़ने को कहा था. उस के बाद जुलाई से यह पद खाली था. इस के चुनाव में उन के पक्ष में 7, जबकि विरोध में 1 वोट पड़ा. गौतम सिंघानिया एफएमएससीआई द्वारा डब्ल्यूएमएससीआई के लिए चुने जाने पर बेहद खुश हैं और भारतीय मोटर स्पोर्ट्स के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ देने के तमाम दावे करते हैं. हालांकि, यूरोप में फेरारी चैलेंज में भाग ले चुके गौतम सिंघानिया अपनी घरेलू रेस में ट्रैक से भटकते लग रहे हैं.

विजयपत के रिकौर्ड

उड्डयन खेलों का सर्वोच्च पुरस्कार फैडरेशन एयरोनौटिक इंटरनैशनल गोल्ड मैडल, 1994 में.

भारतीय वायुसेना की एयर कमोडोर की मानद उपाधि तत्कालीन राष्ट्रपति आर वेंकटरमन द्वारा दी गई.

भारतीय वायुसेना के वेटल एक्सेज के स्क्वाड्रन नंबर-7 के इकलौते असैनिक सदस्य.

दुनिया के 100 से भी ज्यादा देशों की यात्रा खुद जहाज उड़ा कर करने वाले एकमात्र भारतीय.

हवाई खेलों के लिए साल 2008 में भारत सरकार द्वारा पद्मभूषण से सम्मानित.

उन्होंने 1994 में 24 दिनों में अपने विमान से 34 हजार किलोमीटर का चक्कर लगाया था.

2005 में सिंघानिया गुब्बारे में बैठ कर 70 हजार फुट या 21,336 मीटर की ऊंचाई तक जाने का नया रिकौर्ड बनाना चाहते थे. इस से पहले यह रिकौर्ड स्वीडन के पेर लिंडस्ट्रांड के नाम था जिन्होंने 19 हजार 811 मीटर की उड़ान भरने का रिकौर्ड 1988 में बनाया था. विजयपत सिंघानिया का गुब्बारा उस रिकौर्ड को तोड़ते हुए 2 घंटे में ही 21 हजार मीटर यानी 21 किलोमीटर की ऊंचाई पर पहुंच गया.

जवाब बेटे का

व्रिवाद जब आम हुआ तो गौतम चुप रहे. लेकिन पिता के बयानों का असर जब कंपनी और कारोबार पर पड़ने लगा तो उन्हें जवाब देना जरूरी हो गया. पहले बयान में उन्होंने पिता पर ताना कसते कहा कि जो लोग झुकते नहीं है वे टूट जाते हैं और अलगथलग पड़ जाते हैं.

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यह जवाब मुकम्मल नहीं था और न ही पिता के आरोपों का खंडन था, बल्कि एक तरह से उन की पुष्टि करता हुआ था, जिस में यह साफ दिख रहा था कि मांबाप दोनों आलीशान ही सही, पर किराए के मकान में रहते बुढ़ापा तनहाई में काट रहे हैं, किसी भी मांबाप के लिए बेहद मानसिक और भावनात्मक यंत्रणा देने जैसी बात है. इस से यह धारणा खंडित हुई कि केवल निम्न और मध्यवर्गीय ही मांबाप को बुढ़ापे में इस तरह अकेला छोड़ देते हैं.

साल 2015 से विजयपत और गौतम में बातचीत बंद थी. इधर जब हमालवर और आक्रामक होते पिता आरोपों के मामले में व्यक्तिगत स्तर पर आ गए तो गौतम का तिलमिलाना स्वभाविक था. यहां तक बात के कोई माने नहीं थे कि विजयपत यह कहें कि गौतम रेमंड को अपनी जागीर समझते चला रहे हैं. पर जब विजयपत ने गौतम की बदमिजाजियों और भाई की हत्या कर देने जैसी बातें बतानी शुरू कीं तो गौतम को शायद समझ आया कि एक पिता जो उंगली पकड़ कर चलना सिखाता है, वह धक्का देने का भी माद्दा रखता है तो वे थोड़ा झुके.

सुलह का इशारा करते हुए गौतम ने कहा कि वे अपने पिता से बात करने को तैयार हैं. इस पर विजयपत का अहं फिर जाग उठा और उन्होंने कथित तौर पर बात करने आए बेटे से मिलना भी मुनासिब न समझा. इस पर गौतम ने कहा कि उन के पिता को निहित स्वार्थों के लिए बहकाया जा रहा है. उन की इस हालत पर उन्हें दुख है.

बचाव की मुद्रा में आते गौतम ने रेमंड के हितों का हवाला देते कहा कि जेके हाउस में ड्यूप्लैक्स मकान वे इसलिए नहीं दे पा रहे क्योंकि ऐसा कंपनी के शेयर होल्डर्स नहीं चाहते और उन के लिए कंपनी और शेयर होल्डर्स के हित सर्वोपरि हैं.

इस के पहले अदालत इन्हें मिलबैठ कर अपना विवाद सुलझाने की सलाह दे चुकी थी. लेकिन पितापुत्र के बीच मध्यस्थता कराने के लिए कोई आगे नहीं आया. गौतम की मुश्किलें उस वक्त और बढ़ गईं जब अक्तूबर के दूसरे हफ्ते में उन के चचेरे भाईबहनों ने जेके हाउस में अपनी दावेदारी को ले कर एक और याचिका दायर कर दी. इन लोगों का आरोप यह है कि गौतम अपने करार और वादे से मुकरते हुए बेवजह जेके हाउस को आलीशान बनाने में कंपनी का पैसा जाया कर रहे हैं, यानी एक तरह से मामला टरकाते जा रहे हैं.

पेचीदे हिंदू उत्तराधिकार कानून के लिहाज से भी सिंघानिया परिवार के मुकदमे काफी दिलचस्प मोड़ पर हैं. वहीं विजयपत सिंघानिया की यह उजागर ख्वाहिश भी शायद ही कभी पूरी हो कि वे चाहते हैं कि एक बार फिर उन का परिवार एकसाथ रहे.

जिंदगीभर कारोबार में व्यस्त रहे और हवा में उड़ने का शौक पूरा करते बुढ़ापे की फुरसत की जलालत काट रहे विजयपत सिंघानिया को अब समझ आ रहा है कि इन्कंपलीट फेमिली की त्रासदी की मार बूढ़ों पर ज्यादा पड़ती है और गौतम को पूरी कंपनी सौंप देना उन की भारी भूल थी.

अब अंत जो भी हो लेकिन एक बात इस विवाद से आईने की तरह साफ हुई कि वाकई पैसों और जायदाद के मामलों में बेटों पर आंख बंद कर भरोसा नहीं करना चाहिए. यह बेटों के प्रति ज्यादती नहीं, बल्कि समझदारी वाली बात होगी कि पैसा अपने पास ही रखा जाए वरना विजयपत सिंघानिया जैसे खरबपति की हालत जब भिखारियों सरीखी हो सकती है तो आम आदमी की बिसात क्या और हैसियत क्या.

बापबेटे और संपत्ति का जानलेवा खेल

पुरानी कहावत है कि झगड़े की 3 प्रमुख वजहें होती हैं. जर, जोरू और जमीन. फिलहाल आज के दौर के ज्यादातर झगड़ों, हत्या और विवादों के पीछे जमीन यानी संपत्ति ही प्रमुख वजह रही है. फिर चाहे वह अमीरों, कौर्पोरेट घरानों का विवाद हो या मध्यम या निचले वर्ग का. संपत्ति विवाद के चलते ही अंबानी बंधुओं का अलगाव हुआ. सिंघानिया परिवार विवाद भी इसी कारण से हो रहा है. नवंबर 2012 में ही विवादास्पद शराब कारोबारी पौंटी चड्ढा और उन के भाई दक्षिण दिल्ली स्थित एक फार्महाउस में उस समय मारे गए जब संपत्ति विवाद को सुलझाने के लिए बुलाई गई बैठक में दोनों पक्षों ने एकदूसरे पर गोलीबारी की.

संपत्ति को ले कर पौंटी और उन के भाई हरदीप के रिश्ते तल्ख थे. पौंटी और हरदीप के बीच संपत्ति को ले कर तकरार चली और फिर गोलियां. आज भी ऐसी घटनाएं देखनेसुनने को मिल जाती हैं जहां संपत्ति के लालच में अपने ही अपनों का या तो गला काट रहे हैं या फिर उन्हें रास्ते पर दरदर की ठोकर खाने पर मजबूर कर रहे हैं.

17 अक्तूबर, 2017 : लोग खुशियों और रोशनी के पर्व दीवाली की तैयारियों में जुटे थे. लेकिन एक दंपती के जीवन में उस के बेटों ने ही अंधेरा भर दिया. राजस्थान के अनूपगढ़ तहसील के सुंदर देवी और मनीराम को उन के बेटों व पोते ने धोखे से उन की जमीन अपने नाम करवा ली, घर पर कब्जा कर लिया व मारपीट कर घर से निकाल दिया.

27 जुलाई, 2017 :  होशियारपुर में रोबिन कुमार अपनी पत्नी व अपने पिता विजय कुमार के साथ एक ही घर में रहते थे. विजय कुमार अपनी पुरानी प्रौपर्टी को बेचना चाहता था. इसी को ले कर पितापुत्र के बीच अकसर तकरार हुआ करती थी. तकरार इस कद्र बढ़ गई कि पिता विजय कुमार ने अपनी लाइसैंसी डबल बैरल गन से अपने ही पुत्र रोबिन को गोली मार दी.

22 मई, 2017  :  देश की राजधानी दिल्ली में एक बेटे ने प्रौपर्टी के लिए अपने ही पिता और सौतेली मां को गोली मार दी. मामला आउटर दिल्ली के बाबा हरिदास नगर थाना इलाके का है.

26 सिंतबर, 2017  :  संपत्ति के विवाद में बेटे की हत्या करने के आरोप में कोर्ट ने पिता सहित 4 लोगों को उम्रकैद की सजा सुनाई है. दरअसल, 28 नवंबर, 2010 को घर के लोग विवाद को सुलझाने के लिए बैठे थे. बेटे सुंदर ने उन की बात को मानने से इनकार कर दिया था. इस के बाद पिता गैंदा ने अपने दूसरे बेटे शिव कुमार और परिवार के अन्य लोगों की मदद से सुंदर की हत्या कर दी थी. हत्या के बाद साक्ष्य मिटाने के लिए उस के शव को जला दिया था.

27 सितंबर, 2017 :  उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी के थाना क्षेत्र नीमगांव के गांव पिपरी कलां के छन्नू का जमीन के एक छोटे से टुकड़े के लिए उस का अपने पिता से विवाद हो गया. विवाद कुछ इस कदर बढ़ गया कि छन्नू ने आव देखा न ताव, घर में रखी लोहे की एक रौड से अपने पिता पर वार कर दिया. इस से ओम प्रकाश की मौके पर ही मौत हो गई.

संपत्ति विवाद पर सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला

एक तरफ सिंघानिया परिवार में पितापुत्र के बीच संपत्ति को ले कर उठे विवाद के पेंच उलझते जा रहे हैं वहीं इसी परिवार की एक और कड़ी संयुक्त परिवार में अपनी संपत्ति का दावा करती हुई मुकदमा ठोक चुकी है. ऐसे में सितंबर माह में आया सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला गौरतलब है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि हिंदू अविभाजित परिवार का कोई सदस्य अगर परिवार से अलग होना चाहता है और वह संपत्ति पर दावा करना चाहता है तो उसे यह साबित करना होगा कि उस ने संपत्ति को खुद से अर्जित किया है या फिर वह संपत्ति पैतृक संपत्ति है.

Father’s day Special: फैमिली को खिलाएं टेस्टी पनीर कोल्हापुरी

पनीर से बनी चीजें हर किसी को पसंद आती है चाहे वो खीर हो या सब्जी. पनीर हेल्थ के लिए अच्छा होता है, जो बहुत फायदा पहुंचाता है. आझ हम आपको हेल्दी और टेस्टी पनीर कोल्हापुरी के बारे में बताएंगे, जिसे आप आसानी से बनाकर अपनी फैमिली और बच्चों को डिनर में खिला सकते हैं.

हमें चाहिए

– 200 ग्राम पनीर टुकड़ों में कटा

– 2 टमाटर

– 1-2 हरीमिर्चें

– थोड़ी सी धनियापत्ती कटी

– 8-10 काजू

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– 1/4 कप सूखा नारियल कद्दूकस किया

– 1 छोटा चम्मच तिल

– 1 टुकड़ा अदरक

– 1 टुकड़ा दालचीनी

– 1-2 हरी इलायची

– 4-5 कालीमिर्चें

– 1-2 लौंग

– 2 बड़े चम्मच घी

– 1/4 छोटा चम्मच हलदी पाउडर

– 1 छोटा चम्मच धनिया पाउडर

– चुटकीभर हींग

– 1/4 छोटा चम्मच लालमिर्च पाउडर

– 1 छोटा चम्मच जीरा

– 1 छोटा चम्मच सौंफ

– नमक स्वादानुसार.

बनाने का तरीका

जीरा, सौंफ, तिल, दालचीनी, लौंग, कालीमिर्चें, इलायची, सूखा नारियल ड्राई रोस्ट कर पीस लें. टमाटर, अदरक, हरीमिर्चें और काजू पीस कर पेस्ट बना लें.

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एक पैन में घी गरम कर हींग, हल्दी, मिर्चपाउडर, धनिया पाउडर व सूखे मसालों का पाउडर, टमाटर व काजू का पेस्ट डाल कर भूनें. मसाला घी छोड़ने तक धीमी आंच पर भूनें. पानी डालें व सिमर होने दें. उबाल आने पर नमक व पनीर के टुकड़े डाल धीमी आंच पर पकाएं और सर्व करें.

Father’s day Special: अपनी कामयाबी का श्रेय अपने पिता को देती हैं शक्ति मोहन

मिडिल क्लास फैमिली में यदि एक से ज्यादा लड़कियां हों तो कुछ परिवारों में मातापिता उन की परवरिश और शादी को ले कर आज भी चिंतित हो उठते हैं मगर दिल्ली के रहने वाले बृजमोहन शर्मा की सोच अलग थी. उन्होंने अपनी बेटियों को अपना मुकाम हासिल करने की पूरी आजादी दी.

शक्ति मोहन अपनी कामयाबी का सारा श्रेय अपने पिता बृजमोहन शर्मा को देती हैं. डांस रिऐलिटी शो ‘डांस इंडिया डांस सीजन 2’ की विजेता बनने के बाद 10 सालों से वे मुंबई में रह रही हैं. डांस शो जीतने के बाद राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कई शोज की जज भी बन चुकी हैं. कई फिल्मों में भी काम किया है. शक्ति को आईएएस बनने की इच्छा थी, लेकिन डांस करना बहुत पसंद था. 8 साल भरतनाट्यम और 4 साल कंटैंपरेरी डांस सीखा. शक्ति की 3 बहनें हैं- नीति मोहन, कृति मोहन और मुक्ति मोहन. सभी बहनें किसी न किसी रूप में कला से जुड़ी हैं.

जब शक्ति ने डांस के क्षेत्र में आगे बढ़ने की बात की, तो उन की बड़ी बहन ने बताया कि यह क्षेत्र तो अच्छा है,लेकिन इस में स्टैबिलिटी कम है. लेकिन शक्ति के पिता को उन पर पूरा भरोसा था और इसीलिए यहां तक पहुंचने के हर कदम पर वे शक्ति को आगे बढ़ाने में सहायता करते रहे. शक्ति से बात करना दिलचस्प रहा. पेश हैं, कुछ अंश:

सवाल- यहां तक पहुंचने में पिता का कितना सहयोग रहा?

पिता ने हम सभी बहनों को सब से अधिक आजादी दी है. उन्होंने कभी यह नहीं कहा कि सिर्फ पढ़ाई करो. मुझे जो पसंद है उसे करने में वे मुझ से भी एक कदम आगे रहते हैं. किसी भी अचीवमैंट पर वे सब से पहले तालियां बजाने वाले हैं. आज मैं जो भी हूं, उन की बदौलत हूं. मैं अपनी कामयाबी का श्रेय अपने पिता को देती हूं.

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सवाल- उन की किस बात को आप जीवन में उतारना पसंद करती हैं?

डेटूडे लाइफ के उतारचढ़ाव को वे समझाते हैं, जिस से कोई निर्णय लेना मेरे लिए आसान हो जाता है. उन्होंने कभी मेरे ऊपर कोई प्रैशर नहीं बनाया कि तुम यह क्या कर रही हो, इस से क्या मिलेगा आदि. वे हमेशा कहते हैं कि यह तुम्हारी लाइफ है, तुम्हें जो अच्छा लगे, जिसे करने में अच्छा अनुभव हो उसे करो. वे कहते हैं कि किसी भी काम को अगर आप मेहनत और लगन से करते हैं, तो सफलता अवश्य मिलती है. इस  के लिए धैर्य बनाए रखना बहुत जरूरी है.

सवाल- पिता का दिया कोई ऐसा गिफ्ट, जिसे आप हमेशा अपने पास रखना पसंद करती हैं?

जब मैं ने मुंबई यूनिवर्सिटी में स्नातक में टौप किया था, तो मेरे पिता ने मुझे एक पैन दिया था, जिसे वे बहुत सहेज कर रखते थे. मुझे इतनी खुशी हुई कि मैं बयां नहीं कर सकती. मेरे लिए वह सब से कीमती भेंट है.

सवाल- क्या लड़की होने के नाते पिता ने कभी कोई सलाह दी है?

हम 4 बहनें हैं, हम ने बोर्डिंग स्कूल में पढ़ाई की है. वहां भी हमें पूरी फ्रीडम थी. पिता ने कभी यह नहीं समझने दिया कि हम लड़कियां हैं. हालांकि कई बार रिश्तेदार और पड़ोसी कहते थे कि ये क्या कर रहे हैं? लड़की को नचा रहे हैं अथवा उन के बेटा नहीं है, उन की लाइफ के अंत में क्या होगा आदि. लेकिन पिता ने हमें कभी इस बात का एहसास नहीं करवाया. दिल्ली में रहते हुए हम रात को भी रिहर्सल के लिए जाते थे. बस में जाना, रात को लौटना आदि सब करते थे. किसी प्रकार की रोकटोक नहीं थी. इस से हमारे अंदर दायित्व की भावना और अधिक आ गई थी. दरअसल, जब कोई आप से उम्मीद रखता है, तो आप की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है कि आप उम्मीद को तोड़ें नहीं.

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Father’s day Special: बेस्ट डैड नहीं, पिता बनने की करें कोशिश 

हमेशा से महिलाओं को ही मल्टी टास्क करने वाली माना जाता रहा है, जबकि आज पुरुषों को भी ये जिम्मेदारी निभानी पड़ती है, क्योंकि बड़े शहरों में कई परिवार ऐसे है जहाँ महिलायें कैरियर की व्यस्तता की वजह से परिवार के लिए समय नहीं दे पाती है, या कम देती है, ऐसे में पिता को ही बच्चे को सम्हालना पड़ता है. धीरे-धीरे बच्चे और उनके पिता के बीच तालमेल बनता जाता है. इसमें सिंगल फादर भी कई है, जिन्हें किसी हादसे या घटना का शिकार होना पड़ा. पत्नी के गुजर जाने या डिवोर्स के बाद बच्चे को सम्हालने की जिम्मेदारी उन्होंने खुद ली और वे बच्चे को खुद पलना चाहते है.

मुश्किलें आती है, पर वे एक समय के बाद निकल भी जाती है. एक मल्टी नेशनल कंपनी में काम करने वाले तुहिन को कुछ ऐसी ही समस्याओं से गुजरना पड़ा. जब उनकी पत्नी ने ढाई साल की बेटी तिलोत्तमा को छोड़कर अपने पुराने प्रेमी के साथ चली गयी और डिवोर्स ले ली. बच्चे को साथ न ले जाने की भी इच्छा प्रकट की, ऐसे में तुहिन ने बच्चे को सम्हालने की जिम्मेदारी ली और उसमें पूरी तरह से खड़ा उतरने की कोशिश कर रहे है.

वे कहते है कि डिवोर्स के कुछ दिन पहले से मेरी पत्नी बच्चे का ध्यान नहीं रखती थी, किसी तरह उसे डे केयर में डालकर ऑफिस चली जाती थी. मैं जब शाम को उसे घर लाने जाता तो, अधिकतर वह भूखी होती थी और मैं कुछ बनाकर खिलाता था. पूछने पर कुछ न कुछ बहाने दे दिया करती थी. कुछ संमय तक ऐसा चलने के बाद जब एक दिन मैंने इस बारें में उससे बात की, तो पता चला कि वह इस विवाह से खुश नहीं और डिवोर्स चाहती है. बेटी को ले जाना भी नहीं चाहती.

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मैंने इसे स्वीकार किया और तबसे बेटी की परवरिश कर रहा हूँ. कुछ लोगों ने मुझे दुबारा शादी करने की सलाह दी, पर मैं मानसिक रूप से तैयार नहीं. अब मेरी बेटी 5 साल की हो चुकी है और समझदार भी है. किसी बात पर जिद करने पर उसे समझाना अब आसान हो गया है. अब वह काफी हद तक समझदार हो चुकी है. पहले कई बार जब छोटी थी, तो मुझे समस्या आती थी, पर उस समय मेरी माँ और पिता ने बहुत सहयोग दिया. कई बार बेटी बीमार भी पड़ी.

मैंने रात-रात भर जागकर उसकी देखभाल की, पर मैं खुशनसीब हूँ कि मेरी किसी भी परेशानी में मेरी माँ हमेशा साथ रही. मेरे माता-पिता का साथ न होने पर कैरियर के साथ बच्ची को सम्हालना शायद मुश्किल होता. सिंगल पैरेंट बनना कोई नहीं चाहता. हालात उसे बनाती है. वैसे तो माता-पिता दोनों का प्यार बच्चे के लिए चाहिए, पर परिस्थिति से निपटना कई बार पड़ता है. आज मेरी बेटी मेरे लिए सबसे बड़ी प्रायोरिटी है. उसकी सही तरीके से परवरिश करना ही मेरा लक्ष्य है.

ये सही है कि सिंगल फादर बनना आसान नहीं होता, क्योंकि बच्चे की परवरिश में उसकी मानसिक और शारीरिक दोनों अवस्थाओं का ध्यान लगातार रखना पड़ता है. माँ बच्चे के काफी नजदीक होती है, जबकि पिता नहीं. बच्चे के साथ पिता का संवाद भी अमूमन कम होता है, लेकिन आज सिंगल फादर की अवधारणा बढ़ी है और कई पिता इस निर्णय से खुश भी है, ऐसे में सही परवरिश के लिए बच्चे के साथ अच्छी संवाद होने की जरुरत होती है, ताकि एडजस्टमेंट बच्चे और पिता के बीच अच्छा हो.

इस बारें में मनोवैज्ञानिक सुनेत्रा बैनर्जी कहती है कि सिंगल फादर बनना एक चुनौती होती है, इसमें भी बेटे और बेटी की परवरिश के पैमाने अलग होते है. बचपन से ही बच्चे में क्या सही क्या गलत है इसे बताते रहना चाहिए जिसके लिए जरुरी होता है, अच्छी कम्युनीकेशन का होना, जिसके द्वारा आप बच्चे की हर उम्र में उसके शारीरिक और मानसिक बदलाव को अच्छी तरह से समझ सकते है. आप एक अच्छे पिता बनने की कोशिश करें, बेस्ट डैड बनने की नहीं. कुछ टिप्स निम्न है,

  • बच्चे को बड़ा करने में अनुशासन, वर्क और पर्सनल लाइफ के बीच सामंजस्य को मेंटेन करने की जरुरत,
  • खुद की देखभाल के साथ-साथ बच्चे की मानसिक, भावनात्मक, संज्ञानात्मक और शारीरिक विकास को समझते रहना, क्योंकि एकल पिता दो भूमिकाएं निभाते है, 
  • वैसे आजकल मात-पिता की भूमिका में काफी अंतर नहीं रहा, सिंगल फादर बनना, खुद एक बच्चे की पूरी जिम्मेदारी लेना ही बड़ी बात होती है, जो धीरे-धीरे आसान होती जाती है, 
  • डिवोर्सी पिता के अंदर अधिकतर अपराधबोध होता है, क्योंकि उन्हें लगता है कि बच्चा उनकी वजह से ऐसी परिस्थिति से गुजर रहा है, ऐसे में कई बार पिता बच्चे की अनचाहे जिद को पूरा कर माँ की कमी को पूरा करना चाहते है, जो बच्चे के साथ गलत होता है, ऐसा कभी न करें, आप खुद को बच्चे का पालनहार समझे.

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  • हमेशा उसे सही गलत के फर्क को समझाने की कोशिश करें, ये काम बच्चे के साथ बैठकर या कही बाहर जाकर खुले परिवेश में करें, उसपर ट्रस्ट रखें.
  • एक धैर्यवान लिसनर बने, बच्चे की बात को सुनकर फिर अपनी बात कहें, पिता के पास अक्सर हर बात का समाधान होता है और बच्चे ये जानते है, लेकिन कहाँ तक आप इसे पूरा करेंगे, इसका मापदंड भी उन्हें समझाए. 
  • अगर बेटी हो तो उनका ध्यान सिंगल फादर को अधिक रखना पड़ता है, मनोवैज्ञानिक शब्दों में इलेक्ट्राकाम्प्लेक्स यानि बेटी का पिता के प्रति और बेटे का माँ के प्रति आकर्षण का होना माना जाता है, बेटी के जीवन में उसका पिता पहला पुरुष होता है, जो पुरूष की मानक को सेट करता है, जिसके द्वारा उसके जीवन में पुरुष की एक छवि बनती है, जिसे वह सम्मान देती है और खुद को उसके साथ रहकर सुरक्षित महसूस करती है, जो बाद में पति या बॉयफ्रेंड का रूप लेता है, पिता को उसके जीवन का आदर्श होना जरुरी होता है.
  • प्युबर्टी स्टेज में ये काम और अधिक मुश्किल बेटी के क्षेत्र में होता है, क्योंकि तब बेटी में शारीरिक और मानसिक दोनों बदलाव होने शुरू होता है, सिंगल फादर को एक दोस्त के जैसे इन सभी समस्याओं से निपटना पड़ता है, इमोशनल सपोर्ट बच्चे और पिता का एक दूसरे से होना जरुरी, इसके लिए बच्चे के साथ क्वालिटी समय बिताएं.
  • बेस्ट डैड बनने की नहीं, पिता बनने की कोशिश करें, ओवर प्रोटेक्टिव न बने, उन्हें आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश करें, लड़के अधिक एग्रेसिव होते है, उन्हें थोड़ी अधिक अनुशासित करने की जरुरत होती है. जबकि लडकियां सेंसेटिव होती है, उन्हें धैर्य के साथ समझाना पड़ता है.
  • कई बार ऐसा देखा गया है कि सिंगल फादर बच्चे की देखभाल करते-करते पर्सनल लाइफ का त्याग करते रहते है, वे कही आना जाना या दोस्तों के साथ समय नहीं बिताते, ऐसे में उनमें फ्रस्ट्रेशन आ जाता है, ऐसा कभी न करें, अपने लिए समय अवश्य निकाले, बच्चा, काम और पर्सनल लाइफ में बैलेंस अवश्य करें.
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