Famous Hindi Stories : सत्यमेव जयते – त्रिपाठी जी कैसे वकील थे

Famous Hindi Stories : एकाएक मुझे अपने शरीर में ढेरों कांच के पैने टुकड़ों की चुभन की पीड़ा महसूस हुई. लड़कों ने क्या पड़ोसी धर्म निभाया है. मेरे मुंह से हठात निकला, ‘‘लगता है क्रिकेटर लक्ष्मण बनने की शुरुआत ऐसे ही होती है.’’

तभी पड़ोसी ने सांत्वना दी, ‘‘अच्छा हुआ कि आप कार में नहीं बैठे थे. अब छोडि़ए, अड़ोसपड़ोस के बच्चे हैं. उन्हें हम लोग प्रोत्साहन नहीं देंगे तो कौन देगा और बच्चे खेलें भी तो कहां खेलें.’’

प्रोत्साहन? मैं खून का घूंट पी कर रह गया और सोचा, जब तक अपने पर नहीं बीतती, स्थिति की गंभीरता का अनुभव नहीं होता, दूसरे की चुभन का एहसास नहीं होता.

‘‘गाड़ी का दुर्घटना बीमा है न?’’

‘बीमा,’ यह शब्द सुनते ही मुझे अचानक डूबते को तिनके का सहारा जैसा एहसास हुआ.

‘‘हां है. 5 साल से है. अभी एक सप्ताह पहले ही पालिसी का नवीनीकरण कराया है.’’

‘‘फिर क्या चिंता है?’’

क्या चिंता है, सुन कर मैं चौंका. पैसा किसी का भी जाए, नुकसान तो नुकसान है और कोई भी नुकसान चिंता का विषय होना ही चाहिए.

देखते ही देखते अड़ोसपड़ोस के बच्चे मेरे आसपास जमा हो गए.

‘‘क्या हुआ अंकल?’’

‘‘ओह शिट.’’

बच्चे मेरे मुंह से निकले शब्दों की अनसुनी कर बोले, ‘‘आप एक किनारे हो जाइए अंकल, हम कांच साफ कर देते हैं. आप ऐसे में बैठेंगे कैसे?’’

आननफानन में बच्चों ने कांच के टुकड़े साफ कर दिए. शायद वे प्रायश्चित्त कर रहे थे या फिर अपने अच्छा नागरिक होने का परिचय दे रहे थे.

लगभग 10 बज रहा था. सोचा, बीमा कंपनी का आफिस खुल गया होगा, वहां चल कर दुर्घटना की सूचना दे दूं. उन्हें दुर्घटना हुई कार को देखने का अवसर भी मिल जाएगा. यदि बिना दिखाए ‘विंड स्क्रीन’ बदलवा लूंगा तो वह विश्वास नहीं करेंगे. फिर कुछ कागजी काररवाई भी करनी होगी.

आफिस खुल चुका था पर संबंधित अधिकारी नहीं आया था. वहां अधिकारी के इंतजार में मैं साढ़े 12 बजे तक बैठा रहा. वह आया, आते ही कुछ फाइलों में खो गया और 15-20 मिनट तक खोया ही रहा.

फिर मेरी ओर देख कर बोला, ‘‘कहिए, आप की क्या सेवा कर सकता हूं?’’

मैंने अपनी समस्या उसे बताते हुए कहा, ‘‘मैं दुर्घटनाग्रस्त कार लाया हूं. आप देख लीजिए…’’

‘‘कार देखने का काम तो सर्वेयर करता है,’’ वह अधिकारी बोला, ‘‘वह अभीअभी कहीं सर्वे करने निकल गया है. वैसे मैं भी देख सकता हूं किंतु गाड़ी को सीधे देखने का नियम नहीं है. ऐसा कीजिए, किसी गैराज से खर्चे का एस्टीमेट (अनुमान) ले कर आइए. उस के बाद ही हम कार देखेंगे.’’

मेरी समझ में नहीं आया कि एस्टीमेट जब गैराज वाला देगा तो सर्वेयर क्या देखेगा? और एस्टीमेट से पहले कार देखने व उस का फोटो लेने में क्या हर्ज है.

‘‘देखिए, टूटे हुए विंड स्क्रीन के साथ गाड़ी चलाना खासा मुश्किल होता है ऐसे में आप कह रहे हैं कि पहले गाड़ी ले कर मैं गैराज जाऊं फिर वहां से एस्टीमेट ले कर आप के पास आऊं.’’ मैं ने उस अधिकारी को समझाने का प्रयास किया.

‘‘क्या किया जाए. नियमों से हम सब बंधे हैं. ‘क्लेम’ लेना है तो कष्ट तो उठाना ही होगा. घर बैठेबैठे तो क्लेम मिलने से रहा.’’

‘‘यह तो मैं भी देख रहा हूं कि आप के नियम दौड़ाने के नियम हैं. अगले को इतना दौड़ाया जाए, इतना दौड़ाया जाए कि वह ‘क्लेम’ के विचार से ही तौबा कर ले. जो हो आप रिपोर्ट तो लिख लीजिए.’’

‘‘जी हां. आप फार्म भर दीजिए.’’

फार्म भर कर मैं गैराज गया. फिर अगले दिन एस्टीमेट बना. चूंकि उस दिन शनिवार था इसलिए बीमा कंपनी का आफिस बंद था. बात सोमवार तक टल गई.

सोमवार का दिन आया. वह महाशय भी ड्यूटी पर आए थे किंतु कैमरा खराब हो गया. मंगल को कैमरा ठीक हुआ. कार का फोटोग्राफ खींचा गया किंतु आपत्ति के साथ.

‘‘आप ने टूटा हुआ कांच तो साफ कर दिया. फोटो में अब टूटा हुआ कांच कैसे आएगा?’’ अधिकारी ने कहा.

‘‘टूटे कांच के साथ कोई कार कैसे चला सकता है?’’ मैं ने उन्हें समझाने का प्रयास किया.

‘‘आप अपनी परेशानी बता रहे हैं पर मेरी परेशानी नहीं समझ रहे?’’ अधिकारी बोला, ‘‘फोटो में टूटा हुआ विंड स्क्रीन दिखना जरूरी है अन्यथा विंड स्क्रीन निकलवा कर कोई भी डैमेज क्लेम कर सकता है.’’

‘‘देखिए, अब आप हद से बाहर जा रहे हैं. पहले दिन जब मैं कार में आया था तो विंड स्क्रीन टूटा हुआ था किंतु तब आप ने विंड स्क्रीन देखा नहीं और अब…’’

मेरी बात को बीच में काट कर अधिकारी बोला, ‘‘मेरे देखने से कुछ नहीं होगा. टूटा हुआ विंड स्क्रीन कैमरे को दिखना चाहिए. इस के बिना आप का केस थोड़ा कमजोर पड़ जाएगा. खैर चलिए, आवश्यक फार्म भर दीजिए. कार को रिपेयर करा कर बिल आफिस में जमा कर दीजिए.’’

मैं आफिस से बाहर आया और गैराज में जा कर विंड स्क्रीन लगवाया. लगभग एक सप्ताह बाद कार चलाने लायक हुई थी अन्यथा बिना विंड स्क्रीन की कार लोगों के आकर्षण का केंद्र बनी हुई थी. लोग समझ रहे थे कि मैं बिना ‘विंड स्क्रीन’ के कार चलाने का रेकार्ड बनाने की कोेशिश कर रहा हूं.

मैं किसकिस के आगे रोना रोता और किसकिस को समझाता कि जब तक बीमा कंपनी वाले फोटो नहीं खींच लेते तब तक नया विंड स्क्रीन लगवाना संभव नहीं है. यदि कोई रेकार्ड स्थापित कर रहा है तो वह है बीमा कंपनी. ‘क्लेम’ के भुगतान में अधिकतम रुकावट एवं देरी का रेकार्ड.

मैं ने समझा कि अब क्लेम मिल जाएगा. बीमा कंपनी की सभी शर्तें पूरी हो गई हैं किंतु मुझे यह पता नहीं था कि ये शर्तें तो द्रौपदी का न खत्म होने वाला चीर हैं.

‘‘एक समस्या है,’’ अधिकारी ने धीमे स्वर में कहा.

मैं चौंक गया कि अब क्या हुआ.

‘‘पालिसी के नवीनीकरण के एक सप्ताह के भीतर दुर्घटना हो गई है. पुरानी पालिसी के समाप्त होने एवं नई पालिसी जारी होने के बीच एक दिन का अंतर है.’’

‘‘किंतु आप का एजेंट तो मुझ से एक सप्ताह पहले ही चैक ले गया था. आप चैक की तारीख देख सकते हैं. फिर यह पालिसी 5 सालों से लगातार चल रही है.’’

‘‘मैं आप की बात समझ रहा हूं. यह इनसानी शरीर का मामला है. वह एजेंट बीमार पड़ गया. खैर, जो भी हो, यह भुगतान का सीधा सपाट मामला नहीं है. इस पर जांच होगी. आप को जो कुछ कहना है जांच अधिकारी से कहिएगा,’’ उस ने अपना रुख साफ किया.

झुंझलाहट का करेंट मेरे शरीर में ऊपर से नीचे तक दौड़ गया. बीमा कंपनी का यह चेहरा पालिसी देते समय के आत्मीय चेहरे से एकदम अलग था. इच्छा हो रही थी कि यह 3 हजार की धन राशि मैं इस करोड़पति बीमा कंपनी को दान में दे दूं.

मुझे लगा कि इस चेहरे को और झेल पाना मेरे लिए संभव नहीं. दोनों की भलाई इसी में है कि एकदूसरे की नजरों से दूर हो जाएं, अभी, इसी वक्त.

मैं तेजी से आफिस से बाहर आया.

सर्विस इंडस्ट्री, हुंह, नहीं चाहिए ऐसी सर्विस. सर्विस ‘फील गुड.’ एक दिन बीता, एक सप्ताह गुजरा, एक महीना बीता, 2 महीने बीते.

फोन की घंटी बजती है.

‘‘आप के क्लेम के मामले में मुझे बीमा कंपनी ने जांच अधिकारी नियुक्त किया है. मैं एडवोकेट त्रिपाठी हूं. सचाई की तह में जाना अपने जीवन का लक्ष्य है. ‘सत्यमेव जयते’ अपना धर्म है. आप मुझ से मिलें.’’

अगले दिन काले कोट में त्रिपाठीजी सामने थे.

‘‘आप जो घटना है सचसच बताएं और निसंकोच बताएं.’’

मैं ने फिर टेप रेकार्ड की तरह घटनाक्रम को दोहरा दिया.

‘‘इस में नया क्या है? यह तो आप ने रिपोर्ट में लिखा है. मुझे सचाई का पता लगाने के लिए तैनात किया गया है.’’

‘‘रिपोर्ट का एकएक शब्द सच है. आप अड़ोसपड़ोस से पूछ सकते हैं,’’ मैं ने उन्हें समझाने का प्रयास किया.

‘‘मैं ने सचाई का पता लगा लिया है. आप शायद सचाई मेरे मुंह से सुनना चाहते हैं. हजरत, मेरी निगाहों में कोने वाले मकान के हैं, मुझ से बच के जाएंगे कहां ,’’ त्रिपाठीजी के स्वर में तीखा व्यंग्य था.

मैं ने त्रिपाठीजी का चेहरा ध्यान से देखा. वह एक वकील की भूमिका बखूबी निभा रहे थे. वह सच के सिवा और कुछ कहने वाले नहीं थे.

‘‘आप सच सुनना चाहते हैं न?’’ त्रिपाठीजी तल्ख शब्दों में बोले, ‘‘सच तो यह है कि आप कार चला ही नहीं रहे थे. कार आप का लड़का चला रहा था जिस का ड्राइविंग लाइसेंस तक नहीं है. ऊपर से वह शराब पीए था. उसे आगे जाता ट्रक नहीं दिखा जो लोहे की छड़ों को ले कर जा रहा था. छड़ें बाहर झूल रही थीं. गनीमत समझिए कि दुर्घटना विंड स्क्रीन तक सीमित रह गई अन्यथा लोहे की छड़ें सीने के पार हो जातीं. कार की किसे चिंता है, चिंता करने के लिए, माथा पकड़ने के लिए बीमा कंपनी तो है ही. लेकिन आखिरी सांस तक मैं बीमा कंपनी के साथ हूं.’’

मैं ठगा सा त्रिपाठीजी का सच सुन रहा था. उन की गंभीर छानबीन का नतीजा सुन रहा था. कहने को कुछ था भी नहीं. हां, जांच अधिकारी की यह भूमिका नए तर्ज की जरूर थी.

‘‘बोलती बंद हो गई न. अच्छाई इसी में है कि आप यह मामला वापस ले लें. नहीं तो मैं सचाई को अदालत में उजागर करूंगा और ट्रक के खलासी को गवाह के रूप में पेश करूंगा.’’

मैं ने अपने गुस्से को काबू में रखने का प्रयास करते हुए कहा, ‘‘त्रिपाठीजी यह मामला वापस नहीं होगा. अब परिणाम चाहे जो हो.’’

‘‘देखिए, मैं आप को फिर समझा रहा हूं. आप शायद कोर्ट में जाने का अर्थ नहीं समझ रहे. ढाई हजार तो आप को नहीं मिलेंगे ऊपर से 4-5 हजार खर्च हो जाएंगे. आगे आप समझदार हैं. समझदार को इशारा काफी होता है,’’ त्रिपाठीजी ने उठते हुए कहा.

पत्नी भी उन की बातें सुन कर घबरा गईं.

‘‘जाने भी दीजिए, झूठ ही सही. अदालत में लड़के का नाम आएगा, उस पर शराब पी कर गाड़ी चलाने का आरोप लगेगा. छी, जाने दीजिए. ऐसे ढाई हजार मुझे नहीं चाहिए.’’

किंतु यह सब मेरे लिए एक चुनौती थी. इस से पहले कि कंपनी अदालत में जाती मैं उपभोक्ता अदालत में चला गया और कंपनी के नाम नोटिस जारी हो गया. मैं ने संघर्ष करने का मन बना लिया था. खर्च जो हो, परिणाम जो हो.

नियत तारीख पर कंपनी अदालत में उपस्थित नहीं हुई. उस ने समय मांगा.

एक सप्ताह के भीतर कंपनी से फोन आया, ‘‘आप का चैक बन कर तैयार है, इसे ले लें. कुछ देर अवश्य हो गई है, कृपया अन्यथा न लें. आप नहीं आ सकते तो हम चैक आप के घर पर पहुंचा देंगे. जांच का परिणाम कुछ भी हो, कंपनी अपने ग्राहक को सही मानती है.’’

लेखक- सत्य स्वरूप दत्त

Hindi Fiction Stories : पीला गुलाब

Hindi Fiction Stories :  ‘यार, हौट लड़कियां देखते ही मुझे कुछ होने लगता है.’

मेरे पतिदेव थे. फोन पर शायद अपने किसी दोस्त से बातें कर रहे थे. जैसे ही उन्होंने फोन रखा, मैं ने अपनी नाराजगी जताई, ‘‘अब आप शादीशुदा हैं. कुछ तो शर्म कीजए.’’

‘‘यार, यह तो मर्द के ‘जिंस’ में होता है. तुम इस को कैसे बदल दोगी? फिर मैं तो केवल खूबसूरती की तारीफ ही करता हूं. पर डार्लिंग, प्यार तो मैं तुम्हीं से करता हूं,’’ यह कहते हुए उन्होंने मुझे चूम लिया और मैं कमजोर पड़ गई.

एक महीना पहले ही हमारी शादी हुई थी, लेकिन लड़कियों के मामले में इन की ऐसी बातें मुझे बिलकुल अच्छी नहीं लगती थीं. पर ये थे कि ऐसी बातों से बाज ही नहीं आते. हर खूबसूरत लड़की के प्रति ये खिंच जाते हैं. इन की आंखों में जैसे वासना की भूख जाग जाती है.

यहां तक कि हर रोज सुबह के अखबार में छपी हीरोइनों की रंगीन, अधनंगी तसवीरों पर ये अपनी भूखी निगाहें टिका लेते और शुरू हो जाते, ‘क्या ‘हौट फिगर’ है?’, ‘क्या ‘ऐसैट्स’ हैं?’ यार, आजकल लड़कियां ऐसे बदनउघाड़ू कपड़े पहनती हैं, इतना ज्यादा ऐक्सपोज करती हैं कि आदमी बेकाबू हो जाए.’

कभी ये कहते, ‘मुझे तो हरी मिर्च जैसी लड़कियां पसंद हैं. काटो तो मुंह ‘सीसी’ करने लगे.’ कभीकभी ये बोलते, ‘जिस लड़की में सैक्स अपील नहीं, वह ‘बहनजी’ टाइप है. मुझे तो नमकीन लड़कियां पसंद हैं…’

राह चलती लड़कियां देख कर ये कहते, ‘क्या मस्त चीज है.’

कभी किसी लड़की को ‘पटाखा’ कहते, तो कभी किसी को फुलझड़ी. आंखों ही आंखों में लड़कियों को नापतेतोलते रहते. इन की इन्हीं हरकतों की वजह से मैं कई बार गुस्से से भर कर इन्हें झिड़क देती.

मैं यहां तक कह देती, ‘सुधर जाओ, नहीं तो तलाक दे दूंगी.’

इस पर इन का एक ही जवाब होता, ‘डार्लिंग, मैं तो मजाक कर रहा था. तुम भी कितना शक करती हो. थोड़ी तो मुझे खुली हवा में सांस लेने दो, नहीं तो दम घुट जाएगा मेरा.’

एक बार हम कार से डिफैंस कौलोनी के फ्लाईओवर के पास से गुजर रहे थे. वहां एक खूबसूरत लड़की को देख पतिदेव शुरू हो गए, ‘‘दिल्ली की सड़कों पर, जगहजगह मेरे मजार हैं. क्योंकि मैं जहां खूबसूरत लड़कियां देखता हूं, वहीं मर जाता हूं.’’

मेरी तनी भौंहें देखे बिना ही इन्होंने आगे कहा, ‘‘कई साल पहले भी मैं जब यहां से गुजर रहा था, तो एक कमाल की लड़की देखी थी. यह जगह इसीलिए आज तक याद है.’’

मैं ने नाराजगी जताई, तो ये कार का गियर बदल कर मुझ से प्यारमुहब्बत का इजहार करने लगे और मेरा गुस्सा एक बार फिर कमजोर पड़ गया.

लेकिन, हर लड़की पर फिदा हो जाने की इन की आदत से मुझे कोफ्त होने लगी थी. पर हद तो तब पार होने लगी, जब एक बार मैं ने इन्हें हमारी जवान पड़ोसन से फ्लर्ट करते देख लिया. जब मैं ने इन्हें डांटा, तो इन्होंने फिर वही मानमनौव्वल और प्यारमुहब्बत का इजहार कर के मुझे मनाना चाहा, पर मेरा मन इन के प्रति रोजाना खट्टा होता जा रहा था.

धीरेधीरे हालात मेरे लिए सहन नहीं हो रहे थे. हालांकि हमारी शादी को अभी डेढ़दो महीने ही हुए थे, लेकिन पिछले 10-15 दिनों से इन्होंने मेरी देह को छुआ भी नहीं था. पर मेरी शादीशुदा सहेलियां बतातीं कि शादी के शुरू के महीने तक तो मियांबीवी तकरीबन हर रोज ही… मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि आखिर बात क्या थी. इन की अनदेखी मेरा दिल तोड़ रही थी. मैं तिलमिलाती रहती थी.

एक बार आधी रात में मेरी नींद टूट गई, तो इन्हें देख कर मुझे धक्का लगा. ये आईपैड पर पौर्न साइट्स खोल कर बैठे थे और…

‘‘जब मैं यहां मौजूद हूं, तो तुम यह सब क्यों कर रहे हो? क्या मुझ में कोई कमी है? क्या मैं ने तुम्हें कभी ‘न’ कहा है?’’ मैं ने दुखी हो कर पूछा.

‘‘सौरी डार्लिंग, ऐसी बात नहीं है. क्या है कि मैं तुम्हें नींद में डिस्टर्ब नहीं करना चाहता था. एक टैलीविजन प्रोग्राम देख कर बेकाबू हो गया, तो भीतर से इच्छा होने लगी.’’

‘‘अगर मैं भी तुम्हारी तरह इंटरनैट पर पौर्न साइट्स देख कर यह सब करूं, तो तुम्हें कैसा लगेगा?’’

‘‘अरे यार, तुम तो छोटी सी बात का बतंगड़ बना रही हो,’’ ये बोले.

‘‘लेकिन, क्या यह बात इतनी छोटी सी थी?’’

कभीकभी मैं आईने के सामने खड़ी हो कर अपनी देह को हर कोण से देखती. आखिर क्या कमी थी मुझ में कि ये इधरउधर मुंह मारते फिरते थे?

क्या मैं खूबसूरत नहीं थी? मैं अपने सोने से बदन को देखती. अपने हर कटाव और उभार को निहारती. ये तीखे नैननक्श. यह छरहरी काया. ये उठे हुए उभार. केले के नए पत्ते सी यह चिकनी पीठ. डांसरों जैसी यह पतली काया. भंवर जैसी नाभि. इन सब के बावजूद मेरी यह जिंदगी किसी सूखे फव्वारे सी क्यों होती जा रही थी. एक रविवार को मैं घर का सामान खरीदने बाजार गई. तबीयत कुछ ठीक नहीं लग रही थी, इसलिए मैं जरा जल्दी घर लौट आई. घर का बाहरी दरवाजा खुला हुआ था. ड्राइंगरूम में घुसी तो सन्न रह गई. इन्होंने मेरी एक सहेली को अपनी गोद में बैठाया हुआ था.

मुझे देखते ही ये घबरा कर ‘सौरीसौरी’ करने लगे. मेरी आंखें गुस्से और बेइज्जती के आंसुओं से जलने लगीं. मैं चीखना चाहती थी, चिल्लाना चाहती थी. पति नाम के इस प्राणी का मुंह नोच लेना चाहती थी. इसे थप्पड़ मारना चाहती थी. मैं कड़कती बिजली बन कर इस पर गिर जाना चाहती थी. मैं गहराता समुद्र बन कर इसे डुबो देना चाहती थी. मैं धधकती आग बन कर इसे जला देना चाहती थी. मैं हिचकियां लेले कर रोना चाहती थी. मैं पति नाम के इस जीव से बदला लेना चाहती थी. मुझे याद आया, अमेरिका के राष्ट्रपति रह चुके बिल क्लिंटन भी अपनी पत्नी हिलेरी क्लिंटन को धोखा दे कर मोनिका लेविंस्की के साथ मौजमस्ती करते रहे थे, गुलछर्रे उड़ाते रहे थे. क्या सभी मर्द एकजैसे बेवफा होते हैं? क्या पत्नियां छले जाने के लिए ही बनी हैं. मैं सोचती.

रील से निकल आया उलझा धागा बन गई थी मेरी जिंदगी. पति की ओछी हरकतों ने मेरे मन को छलनी कर दिया था. हालांकि इन्होंने इस घटना के लिए माफी भी मांगी थी, फिर मेरे भीतर सब्र का बांध टूट चुका था. मैं इन से बदला लेना चाहती थी और ऐसे समय में राज मेरी जिंदगी में आया. राज पड़ोस में किराएदार था. 6 फुट का गोराचिट्टा नौजवान. जब वह अपनी बांहें मोड़ता था, तो उस के बाजू में मछलियां बनती थीं. नहा कर जब मैं छत पर बाल सुखाने जाती, तो वह मुझे ऐसी निगाहों से ताकता कि मेरे भीतर गुदगुदी होने लगती. धीरेधीरे हमारी बातचीत होने लगी. बातों ही बातों में पता चला कि राज प्रोफैशनल फोटोग्राफर था.

‘‘आप का चेहरा बड़ा फोटोजैनिक है. मौडलिंग क्यों नहीं करती हैं आप?’’ राज मुझे देख कर मुसकराता हुआ कहता.

शुरूशुरू में तो मुझे यह सब अटपटा लगता था, लेकिन देखते ही देखते मैं ने खुद को इस नदी की धारा में बह जाने दिया. पति जब दफ्तर चले जाते, तो मैं राज के साथ उस के स्टूडियो चली जाती. वहां राज ने मेरा पोर्टफोलियो भी बनाया. उस ने बताया कि अच्छी मौडलिंग असाइनमैंट्स लेने के लिए अच्छा पोर्टफोलियो जरूरी था. लेकिन मेरी दिलचस्पी शायद कहीं और ही थी.

‘‘बहुत अच्छे आते हैं आप के फोटोग्राफ्स,’’ उस ने कहा था और मेरे कानों में यह प्यारा सा फिल्मी गीत बजने लगा था :

‘अभी मुझ में कहीं, बाकी थोड़ी सी है जिंदगी…’

मैं कब राज को चाहने लगी, मुझे पता ही नहीं चला. मुझ में उस की बांहों में सो जाने की इच्छा जाग गई. जब मैं उस के करीब होती, तो उस की देहगंध मुझे मदहोश करने लगती. मेरा मन बेकाबू होने लगता. मेरे भीतर हसरतें मचलने लगी थीं. ऐसी हालत में जब उस ने मुझे न्यूड मौडलिंग का औफर दिया, तो मैं ने बिना झिझके हां कह दिया. उस दिन मैं नहाधो कर तैयार हुई. मैं ने खुशबूदार इत्र लगाया. फेसियल, मैनिक्योर, पैडिक्योर, ब्लीचिंग वगैरह मैं एक दिन पहले ही एक अच्छे ब्यूटीपार्लर से करवा चुकी थी. मैं ने अपने सब से सुंदर पर्ल ईयररिंग्स और डायमंड नैकलैस पहना. कलाई में महंगी घड़ी पहनी और सजधज कर मैं राज के स्टूडियो पहुंच गई.

उस दिन राज बला का हैंडसम लग रहा था. गुलाबी कमीज और काली पैंट में वह मानो कहर ढा रहा था.

‘‘हे, यू आर लुकिंग गे्रट,’’ मेरा हाथ अपने हाथों में ले कर वह बोला. यह सुन कर मेरे भीतर मानो सैकड़ों सूरजमुखी खिल उठे.

फोटो सैशन अच्छा रहा. राज के सामने टौपलेस होने में मुझे कोई संकोच नहीं हुआ. मेरी देह को वह एक कलाकार सा निहार रहा था. किंतु मुझे तो कुछ और की ही चाहत थी. फोटो सैशन खत्म होते ही मैं उस की ओर ऐसी खिंची चली गई, जैसे लोहा चुंबक से चिपकता है. मेरा दिल तेजी से धड़क रहा था. मैं ने उस का हाथ पकड़ लिया.

‘‘नहीं नेहा, यह ठीक नहीं. मैं ने तुम्हें कभी उस निगाह से देखा ही नहीं. हमारा रिलेशन प्रोफैशनल है,’’ राज का एकएक शब्द मेरे तनमन पर चाबुक सा पड़ा.

‘…पर मुझे लगा, तुम भी मुझे चाहते हो…’ मैं बुदबुदाई.

‘‘नेहा, मुझे गलत मत समझो. तुम बहुत खूबसूरत हो. पर तुम्हारा मन भी उतना ही खूबसूरत है, लेकिन मेरे लिए तुम केवल एक खूबसूरत मौडल हो. मैं किसी और रिश्ते के लिए तैयार नहीं और फिर पहले से ही मेरी एक गर्लफ्रैंड है, जिस से मैं जल्दी ही शादी करने वाला हूं,’’ राज कह रहा था.

तो क्या वह सिर्फ एकतरफा खिंचाव था या पति से बदला लेने की इच्छा का नतीजा था?

कपड़े पहन कर मैं चलने लगी, तो राज ने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे रोक लिया. उस ने स्टूडियो में रखे गुलदान में से एक पीला गुलाब निकाल लिया था. वह पीला गुलाब मेरे बालों में लगाते हुए बोला, ‘‘नेहा, पीला गुलाब दोस्ती का प्रतीक होता है. हम अच्छे दोस्त बन कर रह सकते हैं.’’

राज की यह बात सुन कर मैं सिहर उठी थी. वह पीला गुलाब बालों में लगाए मैं वापस लौट आई अपनी पुरानी दुनिया में…

उस रात कई महीनों के बाद जब पतिदेव ने मुझे प्यार से चूमा और सुधरने का वादा किया, तो मैं पिघल कर उन के आगोश में समा गई. खिड़की के बाहर रात का आकाश न जाने कैसेकैसे रंग बदल रहा था. ठंडी हवा के झोंके खिड़की में से भीतर कमरे में आ रहे थे. मेरी पूरी देह एक मीठे जोश से भरने लगी. पतिदेव प्यार से मेरा अंगअंग चूम रहे थे. मैं जैसे बहती हुई पहाड़ी नदी बन गई थी. एक मीठी गुदगुदी मुझ में सुख भर रही थी. फिर… केवल खुमारी थी. और उन की छाती के बालों में उंगलियां फेरते हुए मैं कह रही थी, ‘‘मुझे कभी धोखा मत देना.’’ कमरे के कोने में एक मकड़ी अपना टूटा हुआ जाला फिर से बुन रही थी.

इस घटना को बीते कई साल हो गए हैं. इस घटना के कुछ महीने बाद राज भी पड़ोस के किराए का मकान छोड़ कर कहीं और चला गया. मैं राज से उस दिन के बाद फिर कभी नहीं मिली. लेकिन अब भी मैं जब कहीं पीला गुलाब देखती हूं, तो सिहर उठती हूं. एक बार हिम्मत कर के पीला गुलाब अपने जूड़े में लगाना चाहा था, तो मेरे हाथ बुरी तरह कांपने लगे थे.

लेखक- सुशांत सुप्रिय

Interesting Hindi Stories : ख्वाहिश – क्या हट पाया शोभा का ‘बांझ’ होने का ठप्पा

Interesting Hindi Stories :  ट्रिंग… ट्रिंग… फोन की घंटी बज रही थी. घड़ी में देखा, तो रात के साढ़े 12 बजे थे. इतनी रात में किस का फोन हो सकता है. किसी बुरी आशंका से मन कांप उठा. रिसीवर उठाया तो दूसरी ओर से अशोक की भर्राई हुई आवाज थी, “दीदी शोभा शांत हो गई. वह हम सब को छोड़ कर दिव्यलोक को चली गई.”

कुछ पल को मैं ठगी सी बैठी रही. फोन की आवाज से मेरे पति सुनील भी जाग गए थे. मैं ने उन्हें स्थिति से अवगत कराया. हम ने आपस में सलाह की और फिर मैं ने अशोक को फोन मिलाया, “अशोक, हम जल्दी ही सुबह जयपुर पहुंच जाएंगे, हमारा इंतजार करना.”

सुबह 5 बजे हम दोनों अपनी गाड़ी से जयपुर के लिए रवाना हो गए. दिल्ली से जयपुर पहुंचने में 5 घंटे लगते हैं. वैसे भी सुबहसुबह सड़कें खाली थीं. अत: 4 घंटे में ही पहुंच जाने की आशा थी. रास्तेभर शोभा का खयाल आता रहा.

अतीत की यादें चलचित्र की भांति आंखों के आगे घूमने लगीं.

शोभा मेरे छोटे भाई अशोक की पत्नी थी. वह बहुत मृदुभाषी, कार्यकुशल और खुशमिजाज की थी. याद हो आया वह दिन, जब विवाह के बाद वरवधू का स्वागत करने के लिए मां ने पूजा का थाल मेरे हाथ में पकड़ा दिया. वैसे, बड़ी भाभी का हक बनता था वरवधू को गृहप्रवेश करवाने का. किंतु बड़ी भाभी की तबियत ठीक नहीं थी, वह पेट से थीं और डाक्टर ने उन्हें बेडरेस्ट के लिए कहा हुआ था. अत: आरती का थाल सजा कर मैं ने ही वरवधू को गृहप्रवेश कराया था. बनारसी साड़ी में लिपटी हुई सिमटी सी संकुचित सी खड़ी थी.

अशोक ने उसे मेरा परिचय देते हुए कहा, “ये मेरी बड़ी दीदी हैं, मुझ से 10 साल बड़ी हैं, मेरे लिए मां समान हैं.”

दोनों ने मेरे पैर छुए. मैं ने भी दोनों को प्यार से गले लगा लिया. विवाह के बाद की प्रथाएं संपन्न करवा कर मैं वापस दिल्ली लौट आई.
2 महीने बाद भाभी की जुड़वा बच्चियों हुईं, जिन का नाम सिया और जिया रखा गया.

प्रसव के बाद भाभी बहुत कमजोर हो गई थीं. अत: घर का सारा कार्यभार शोभा ने संभाल लिया. उसे बच्चों से बहुत प्यार था. वह बच्चों का खयाल बहुत उत्साहित हो कर रखती थी.

मां सारी रिपोर्ट विस्तार से मुझे फोन पर बतलाया करती थीं. बच्चों के प्रति शोभा का अपनत्व देख कर भाभी को बहुत अच्छा लगता था.

जब सिया और जिया का नर्सरी स्कूल में दाखिला हुआ तो शोभा उन्हें तैयार करने से ले कर उन के जूते पौलिश करती, उन्हें नाश्ता करवा के टिफिन पैक कर के उन के स्कूल बैग में रख देती और टिफिन पूरा खत्म करना है, यह भी हिदायत दे देती थी. कभीकभी उन को होमवर्क करने में भी वह मदद करती थी. घर में सब सुचारू रूप से चल रहा था.
शोभा के विवाह को 4 वर्ष हो गए थे. मां जब भी मुझे फोन करती थीं, उन की बातों में कुछ बेचैनी का आभास होता था. वे दिल की मरीज थीं. मैं ने जोर दे कर उन की बेचैनी का कारण जानना चाहा, तो उन्होंने बताया, “अब अशोक की शादी को 4 साल हो गए हैं. अगर उस को एक बेटा हो जाता तो मैं पोते का मुंह देख कर दुनिया से जाती.

“न जाने कब मुझे बुला लें,” मैं उन्हें सांत्वना देती रहती थी कि धैर्य रखो. सब ठीक हो जाएगा.

मैं ने मां की इच्छा शोभा तक पहुंचा दी तो वह हंस कर बोली, “दीदी आजकल पोता और पोती में कोई फर्क नहीं होता. सिया और जिया भी तो अपनी हैं. वही मेरे बच्चे हैं,” बच्चों के प्रति उस की आत्मीयता मुझे बहुत अच्छी लगी.

जिस बात का डर था, वही हुआ. अचानक मां को दिल का दौरा पड़ा और पोते की चाहत लिए हुए वे इस दुनिया से चल बसीं.

शोभा के विवाह को 6 वर्ष हो चुके थे. मैं ने लक्ष्य किया कि अब उस के मन में संतान की चाह प्रबल हो रही थी. अशोक ने कई डाक्टरों से संपर्क किया. कुछ डाक्टरी जांच भी हुई, किंतु नतीजा संतोषप्रद नहीं था. मेरे आग्रह पर दोनों दिल्ली भी आए. मेरी जानकार डाक्टर ने रिपोर्ट देख कर यही निष्कर्ष निकाला कि शोभा मां नहीं बन सकती.

अशोक ने सब तरह के उपचार किए, चाहे आयुर्वेदिक हो या होमियोपैथी. यहां तक कि कुछ रिश्तेदारों के कहने पर झाड़फूंक का भी सहारा लिया, किंतु निराश ही होना पड़ा. इस का असर शोभा के स्वास्थ्य पर पड़ने लगा.
शोभा प्राय: फोन कर के मुझे इधरउधर की बहुत सी खबरें देती रहती थी. उस ने एक घटना का जिक्र किया कि कुछ दिन पहले उस के किसी दूर के रिश्तेदार के यहां पुत्र जन्म का उत्सव था. वहां अशोक और शोभा के साथसाथ बड़े भैयाभाभी भी आमंत्रित थे. वहां पहुंच कर जब शोभा ने नवागत शिशु को पालने में झूलते देखा तो वह अपने को रोक ना पाई और आगे बढ़ कर बच्चे को गोद में उठा लिया. तभी पीछे से बच्चे की दादी ने उस के हाथ से बच्चे को छीन लिया और अपनी बहू को डांटते हुए कहा, “तेरा ध्यान कहां है? देख नहीं रही बच्चे को बांझ ने उठा लिया है.”

शोभा ने बताया कि बड़ी भाभी भी वहीं खड़ी थीं. यह बात बतलाते समय शोभा की आवाज में पीड़ा झलक रही थी. मेरा मन संवेदना से भर उठा.

आशोभा ने बतलाया कि अब सिया और जिया उस के पास नहीं आती हैं. या यों कहिए कि भाभी उन बच्चों को शोभा के पास नहीं आने देतीं. इस का कारण भी वह समझ गई थी.

बांझपन का एहसास शोभा को अंदर ही अंदर खोखला कर रहा था. मैं अपनी गृहस्थी में बहुत व्यस्त हो गई थी. मेरे दोनों बच्चे विवाह योग्य थे. अगले वर्ष मेरे पति रिटायर होने वाले थे. अतः हम भविष्य की योजनाओं में व्यस्त हो गए थे. कभीकभी मैं शोभा को फोन कर के उन की कुशलक्षेम जान लेती थी.
फिर एक दिन अशोक का फोन आया. बातचीत से लगा कि वह बहुत परेशान है. मैं ने 3-4 दिन के लिए जयपुर का प्रोग्राम बना लिया. फीकी मुसकराहट से शोभा ने स्वागत किया. वह बहुत कमजोर हो गई थी. अशोक उस की स्थिति से बहुत चिंतित हो गया था. मुझे लगा कि ‘बांझ’ शब्द ने उस को भीतर तक आहत कर दिया है. वह बोली, “अब तो सिया और जिया भी मेरे पास नहीं आती.”

मैं ने प्यार से शोभा को अपने पास बैठाया और कहा, “मेरी बात ध्यान से सुनो और समझने की कोशिश करो. मैं चाहती हूं कि तुम किसी नवजात शिशु को गोद ले लो या कुछ अच्छी संस्थाएं हैं, जहां से बच्चे को लिया जा सकता है. ऐसा करने से एक बच्चे का भला हो जाएगा. उसे एक प्यारी मां मिल जाएगी और तुम्हें एक प्यारा बच्चा मिल जाएगा. यह एक नेक कार्य होगा. एक बच्चे का जीवन अच्छा बन जाएगा. तुम चाहो तो इस में मैं तुम्हारी मदद कर सकती हूं.”

लेकिन शोभा ने गंभीरता से उत्तर दिया, “दीदी, मैं अपनी तकदीर तो बदल नहीं सकती. यदि मेरी तकदीर में संतान का सुख लिखा ही नहीं है तो गोद ले कर भी मैं सुखी नहीं रह पाऊंगी,” कुछ रुक कर वह फिर बोली, “दीदी, मैं अपनी कोख से जन्मा बच्चा चाहती हूं, गोद लिया हुआ नहीं.”

वह अपने फैसले पर अडिग थी और मैं उस के फैसले के आगे निरुतर हो गई.

15 दिन बाद अशोक का फोन आया, वह आवाज से बहुत परेशान लग रहा था. उस ने बताया कि शोभा अब अकसर बीमार रहती है. उसे भूख नहीं लगती है और जबरदस्ती कुछ खाती है तो हजम नहीं होता उलटी हो जाती है. मैं ने सलाह दी कि तुरंत डाक्टरी जांच करवाओ. शोभा की तरफ से मुझे चिंता हो गई. अत: अशोक को सहारा देने के मकसद से मैं ने 3-4 दिन का जयपुर जाने का कार्यक्रम बना लिया.

अशोक ने शोभा के सारे टेस्ट करवा लिए थे. मेरे पहुंचने के अगले दिन वह अस्पताल से रिपोर्ट ले आया. वह बहुत उदास था. मेरे पूछने पर उस ने बताया कि शोभा की किडनी में कैंसर है, जो बहुत फैल गया है. अगर एक महीने पहले जांच करवा लेते तो शायद आपरेशन द्वारा किडनी निकाल देते, लेकिन अब तो कैंसर किडनी के बाहर तक फैल गया है. एक और विशेष बात जो डाक्टर ने बतलाई, वह यह कि शोभा प्रेग्नेंट भी है. प्रेगनेंसी की अभी शुरुआत ही है. एक हफ्ते बाद निश्चित तौर पर पता चल पाएगा. अचरज से मेरा मुंह खुला रह गया. समझ नहीं आया कि दुखी होऊं या खुशी मनाऊं.

शोभा ने मेरी और अशोक की बातें सुन ली थीं. वह मुसकराते हुए बोली, “दीदी, अशोक तो यों ही घबरा जाते हैं. मैं सहज में इन का पीछा छोड़ने वाली नहीं हूं और अब तो मुझे जीना ही है. उस की बातें आज भी मेरे कानों में गूंज रही हैं.
बाद में अशोक ने मुझे बतला दिया था कि डाक्टरों के अनुसार गर्भ को गिरा देने में ही बेहतरी है, क्योंकि कैंसर किडनी से बाहर निकल कर फैल रहा है, अगर तुरंत आपरेशन कर के किडनी निकाल भी दें, फिर भी शोभा का जीवन एक वर्ष से अधिक नहीं होगा और अगर गर्भपात नहीं करवाया तो कैंसर के आपरेशन के बाद की थेरेपी से बच्चे पर बुरा असर पड़ सकता है. या तो वह बचेगा ही नहीं और अगर बच भी जाए तो एब्नार्मल भी हो सकता है. अत: डाक्टर की राय में गर्भपात ही उचित होगा.

शोभा ने सबकुछ सुन लिया था. वह खुश नजर आ रही थी. वह बोली, ”दीदी, मुझे यही खुशी है कि अब मुझे कोई बांझ नहीं कहेगा. डाक्टरों का निर्णय ठीक ही है. मेरे जीवन का सूर्य अस्त हो रहा है. मैं बच्चे को देख पाऊंगी या नहीं, पता नहीं. अगर बच्चा बच भी गया और विकलांग हो गया तो और भी दुःख होगा. तसल्ली यही है कि अब मेरे ऊपर से ‘बांझ’ होने का लांछन हट गया. अब मैं शांतिपूर्वक मर सकूंगी.”

सहसा कार एक झटके के साथ रुक गई. सुनील ने ब्रेक मारा था, क्योंकि सामने एक बड़ा सा गड्ढा आ गया था. मेरी विचार श्रृंखला टूट गई. अब हम जयपुर की सीमा में पहुंच गए थे. बाजार के बीच से गुजरते हुए याद आया कि यहां कई बार शोभा के साथ चाट खाने आती थी, फिर खूब शौपिंग कर के हम दोनों शाम तक घर पहुंचते थे. अब तो केवल याद ही बाकी है.

ठीक साढ़े 9 बजे हम घर पहुंच गए. गाड़ी की आवाज सुन कर अशोक बाहर आ गया. सहारा दे कर उस ने गाड़ी से उतारा और मेरे गले से लग कर जोर से रो पड़ा. अंदर पहुंच कर देखा, शोभा का शव भूमि पर रखा था, बड़ी शांत मुख मुद्रा थी जैसे कुछ कहना चाहती हो. मैं अपने को ना रोक सकी और फफक कर रो पड़ी.
वह समाप्त हो गई. 2 दिन बाद बहुत बोझिल मन से हम दोनों वापस लौट आए. रास्तेभर सोचती रही कि समाज के उलाहनों ने शोभा को बहुत चोट पहुंचाई, लेकिन मरने से पहले उसे यह खुशी थी कि वह बांझ नहीं थी, पर बच्चे की ख्वाहिश अधूरी ही रह गई.

लेखिका- पुष्पा गोयल

Hindi Moral Tales : बहिष्कार

Hindi Moral Tales : ‘‘महेश… अब उठ भी जाओ… यूनिवर्सिटी नहीं जाना है क्या?’’ दीपक ने पूछा.

‘‘उठ रहा हूं…’’ इतना कह कर महेश फिर से करवट बदल कर सो गया.

दीपक अखबार को एक तरफ फेंकते हुए तेजी से बढ़ा और महेश को तकरीबन झकझोरते हुए चीख पड़ा, ‘‘यार, तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है… रातभर क्या करते रहते हो…’’

‘‘ठीक है दीपक भाई, आप नाश्ता तैयार करो, तब तक मैं तैयार होता हूं,’’ महेश अंगड़ाई लेता हुआ बोला और जल्दी से बाथरूम की तरफ लपका.

आधा घंटे के अंदर ही दीपक ने नाश्ता तैयार कर लिया. महेश भी फ्रैश हो कर तैयार था.

‘‘यार दीपू, जल्दी से नाश्ता कर के क्लास के लिए चलो.’’

‘‘हां, मेरी वजह से ही देर हो रही है जैसे,’’ दीपक ने तंज मारा.

दीपक की झल्लाहट देख महेश को हंसी आ गई.

‘‘अच्छा ठीक है… कोई खास खबर,’’ महेश ने दीपक की तरफ सवाल उछाला.

दीपक ने कहा, ‘‘अब नेता लोग दलितों के घरों में जा कर भोजन करने लगे हैं.’’

‘‘क्या बोल रहा है यार… क्या यह सच?है…’’

‘‘जी हां, यह बिलकुल सच है,’’ कह कर दीपक लंबी सांस छोड़ते हुए खामोश हो गया, मानो यादों के झरोखों में जाने लगा हो. कमरे में एक अनजानी सी खामोशी पसर गई.

‘‘नाश्ता जल्दी खत्म करो,’’ कह कर महेश ने शांति भंग की.

अब नेताओं के बीच दलितों के घरों में भोजन करने के लिए रिकौर्ड बनाए जाने लगे हैं. वक्तवक्त की बात है. पहले दलितों के घर भोजन करना तो दूर की बात थी, उन को सुबह देखने से ही सारा दिन मनहूस हो जाता था. लेकिन राजनीति बड़ेबड़ों को घुटनों पर झुका देती है.

‘‘भाई, आप को क्या लगता है? क्या वाकई ऐसा हो रहा है या महज दिखावा है? ये सारे हथकंडे सिर्फ हम लोगों को अपनी तरफ जोड़ने के लिए हो रहे हैं, इन्हें दलितों से कोई हमदर्दी नहीं है. अगर हमदर्दी है तो बस वोट के लिए…’’

दीपक महेश को रोकते हुए बोला, ‘‘यार, हमेशा उलटी बातें ही क्यों सोचते हो? अब वक्त बदल रहा है. समाज अब पहले से ज्यादा पढ़ालिखा हो गया है, इसलिए बड़ेबड़े नेता दलितों के यहां जाते हैं, न कि सिर्फ वोट के लिए, समझे?’’

‘‘मैं तो समझ ही रहा हूं, आप क्यों ऐसे नेताओं का पक्ष ले रहे हैं. चुनाव खत्म तो दलितों के यहां खाने का रिवाज भी खत्म. फिर जब वोट की भूख होगी, खुद ही थाली में प्रकट हो जाएंगे, बुलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी.’’

दीपक बात को बीच में काटते हुए बोला, ‘‘सुन महेश, मुझे कल सुबह की ट्रेन से गांव जाना है.’’

‘‘क्यों? अचानक से… कौन सा ऐसा काम पड़ गया, जो कल जाने की बात कर रहा है? घर पर सब ठीक तो हैं न?’’ महेश ने सवाल दागे.

‘‘हां, सब ठीक हैं. बात यह है कि गांव के शर्माजी के यहां तेरहवीं है तो जाना जरूरी है.’’

महेश बोला, ‘‘दीपू, ये वही शर्माजी हैं जो नेतागीरी करते हैं.’’

‘‘सही पकड़े महेश बाबू,’’ मजाकिया अंदाज में दीपू ने हंस कर सिर हिलाया.

अगले दिन दीपक अपने गांव पहुंच गया. उसे देखते ही मां ने गले लगाने के लिए अपने दोनों हाथ बढ़ा दिए.

‘‘मां, पिताजी कहां हैं? वे घर पर दिख नहीं रहे?’’

‘‘अरे, वे तो शर्माजी के यहां काम कराने गए हैं. सुबह के ही निकले हैं. अब तक कोई अतापता नहीं है. क्या पता कुछ खाने को मिला भी है कि नहीं.’’

‘‘अरे अम्मां, क्यों परेशान हो रही हो? पिताजी कोई छोटे बच्चे थोड़ी हैं, जो अभी भूखे होंगे. फिर शर्माजी तो पिताजी को बहुत मानते हैं. अब उन की टैंशन छोड़ो और मेरी फिक्र करो. सुबह से मैं ने कुछ नहीं खाया है.’’

थोड़ी देर बाद मां ने बड़े ही प्यार से दीपक को खाना खिलाया. खाना खा कर थोड़ी देर आराम करने के बाद दीपक भी शर्माजी के यहां पिताजी का हाथ बंटाने के लिए चल पड़ा.

तकरीबन 15 मिनट चलने के बाद गांव के किनारे मैदान में बड़ा सा पंडाल दिख गया, जहां पर तेजी के साथ काम चल रहा था. पास जा कर देखा तो पिताजी मजदूरों को जल्दीजल्दी काम करने का निर्देश दे रहे थे.

तभी पिताजी की नजर दीपक पर पड़ी. दीपक ने जल्दी से पिताजी के पैर छू लिए.

पिताजी ने दीपक से हालचाल पूछा, ‘‘बेटा, पढ़ाई कैसी चल रही है? तुम्हें रहनेखाने की कोई तकलीफ तो नहीं है?’’

दीपक ने कहा, ‘‘बाबूजी, मेरी फिक्र छोडि़ए, यह बताइए कि आप की तबीयत अब कैसी है?’’

‘‘बेटा, मैं बिलकुल ठीक हूं.’’

दीपक ने इधरउधर देख कर पूछा, ‘‘सारा काम हो ही गया है, बस एकडेढ़ घंटे का काम बचा है,’’ इस पर पिता ओमप्रकाश ने हामी भरी. इस के बाद दोनों घर की तरफ चल पड़े.

रात को 8 बजे के बाद दीपक घर आया तो मां ने पूछा, ‘‘दीपू अभी तक कहां था, कब से तेरे बाबूजी इंतजार कर रहे हैं.’’

‘‘अरे मां, अब क्या बताऊं… गोलू के घर की तरफ चला गया था. वहां रमेश, जीतू, राजू भी आ गए तो बातों के आगे वक्त का पता ही नहीं चला.’’

मां बोलीं, ‘‘खैर, कोई बात नहीं. अब जल्दी से शर्माजी के यहां जा कर भोजन कर आ.’’

कुछ ही देर में गोलू के घर पहुंच कर दीपक ने उसे आवाज लगाई.

गोलू जोर से चिल्लाया, ‘‘रुकना भैया, अभी आया. बस, एक मिनट.’’

5 मिनट बाद गोलू हांफता हुआ आया तो दीपक ने कहा, ‘‘क्या यार, मेकअप कर रहा था क्या, जो इतना समय लगा दिया?’’

गोलू सांस छोड़ते हुए बोला, ‘‘दीपू भाई, वह क्या है कि छोटी कटोरी नहीं मिल रही थी. तू तो जानता है कि मुझे रायता कितना पसंद है तो…’’

‘‘पसंद है तो कटोरी का क्या काम है?’’ दीपक ने अचरज से पूछा.

गोलू थोड़ा गंभीर होते हुए बोला, ‘‘दीपक, क्या तुम्हें मालूम नहीं कि हम लोग हमेशा से ही ऊंची जाति वालों के यहां घर से ही अपने बरतन ले कर जाते हैं, तभी खाने को मिलता है.’’

‘‘हां पता है, लेकिन अब ये पुरानी बातें हो गई हैं. अब तो हर पार्टी के बड़ेबड़े नेता भी दलितों के यहां जा कर खाना खाते हैं.’’

गोलू ने बताया, ‘‘ऊंची जाति के लोगों के लिए पूजा और भोजन का इंतजाम बड़े पंडाल में है, ताकि छोटी जाति वालों को पूजापाठ की जगह से दूर बैठा कर खाना खिलाया जा सके, जिस से भगवान और ऊंची जाति वालों का धर्म खराब न हो.

‘‘दलितों को खाना अलग दूर बैठा कर खिलाया ही जाता है, इस पर यह शर्त होती है कि दलित अपने बरतन घरों से लाएं, जिस से उन के जूठे बरतन धोने का पाप ऊंची जाति वालों को न लगे,’’ इतना कहने के बाद गोलू चुप हो गया.

लेकिन दीपक की बांहें फड़कने लगीं, ‘‘आखिर इन लोगों ने हमें समझ क्या रखा है, क्या हम इनसान नहीं हैं.

‘‘सुन गोलू, मैं तो इस बेइज्जती के साथ खाना नहीं खाऊंगा, चाहे जो हो जाए,’’ दीपक की तेज आवाज सुन कर वहां कई लोग जमा होने लगे.

‘‘क्या बात है? क्यों गुस्सा कर रहे हो?’’ एक ने पूछा.

‘‘अरे चाचा, कोई छोटीमोटी बात नहीं है. आखिर हम लोग कब तक ऊंची जातियों के लोगों के जूते को सिर पर रख कर ढोते रहेंगे, क्या हम इनसान नहीं हैं? आखिर कब तक हम उन की जूठन पर जीते रहेंगे?’’

‘‘यह भीड़ यहां पर क्यों इकट्ठा है? यह सब क्या हो रहा है,’’ पिता ओमप्रकाश ने भीड़ को चीरते हुए दीपक से पूछा.

इस से पहले दीपक कुछ बोल पाता, बगल में खड़े चाचाजी बोल पड़े, ‘‘ओम भैया, तुम ने दीपू को कुछ ज्यादा ही पढ़ालिखा दिया है, जो दुनिया उलटने की बात कर रहा है. इसे जरा भी लाज नहीं आई कि जिन के बारे में यह बुराभला कह रहा है, वही हमारे भाग्य विधाता?हैं. अरे, जो कुछ हमारे वेदों और शास्त्रों में लिखा है, वही तो हम लोग कर रहे हैं.’’

‘‘चाचाजी…’’ दीपक चीखा, ‘‘यही तो सब से बड़ी समस्या है, जो आप लोग समझना नहीं चाहते. क्या आप को पता है कि ये ऊंची जाति के लोगों ने खुद ही इस तरह की बातें गढ़ ली हैं. जब कोई बच्चा पैदा होता है तो उस का कोई धर्म या मजहब नहीं होता, वह मां के पेट से कोई मजहब या काम सीख कर नहीं आता.

‘‘सुनिए चाचाजी, जब बच्चे जन्म लेते हैं तो वे सब आजाद होते हैं, लेकिन ये हमारी बदकिस्मती है कि धर्म के ठेकेदार अपने फायदे के लिए लोगों को धर्म के नाम पर, जाति के नाम पर, संप्रदाय के नाम पर, भाषा के नाम पर बांट देते हैं.

‘‘क्या आप लोगों को नहीं पता कि मेरे पिताजी ने मुझे पढ़ाया है. अगर वे भी यह सोच लेते कि दलितशूद्रों का पढ़ना मना है, तो क्या मैं यूनिवर्सिटी में पढ़ रहा होता?

‘‘इसी छुआछूत को मिटाने के लिए कई पढ़ेलिखे जागरूक दलितों ने कितने कष्ट उठाए, अगर वे पढ़ेलिखे नहीं होते तो क्यों उन्हें संविधान बनाने की जिम्मेदारी दी जाती?’’

एक आदमी ने कहा, ‘‘अरे दीपक, तू तो पढ़ालिखा है, मगर हम तो जमाने से यही देखते चले आ रहे हैं कि भोज में बरतन अपने घर से ले कर जाने पड़ते हैं. जैसा चल रहा है वैसा ही चलने दो?’’

‘‘नहीं दादा, हम से यह न होगा, जिसे खाना खिलाना होगा, वह हमें भी अपने साथ इज्जत से खिलाए, वरना हम किसी के खाने के भूखे नहीं हैं. अब बहुत हो गया जुल्म बरदाश्त करतेकरते. मैं इस तरह से खाना नहीं खाऊंगा.’’

दीपक की बातों से गोलू को जोश आ गया. उस ने भी अपने बरतन फेंक दिए. इस से हुआ यह कि गांव के ज्यादातर दलितों ने इस तरह से खाने का बहिष्कार कर दिया.

‘‘शर्माजी, गजब हो गया,’’ एक आदमी बोला.

‘‘क्या हुआ? क्या बात है? सब ठीक तो है?’’

‘‘कुछ ठीक नहीं है. बस्ती के सारे दलित बिना खाना खाए वापस अपने घरों को जा रहे हैं. लेकिन मुझे यह नहीं पता कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं.’’

शर्माजी ने जल्दी से दौड़ लगा दी. दौड़ते हुए ही वे आवाज लगाने लगे, ‘‘अरे क्या हुआ, क्या कोई बात हो गई है, आप लोग रुकिए तो…’’

भीड़ में सन्नाटा छा गया. अब शर्माजी को कोई क्या जवाब दे.

‘‘देखिए शर्माजी…’’ दीपक बोला, ‘‘हम सब आप लोगों की बड़ी इज्जत करते हैं.’’

‘‘अरे दीपक, यह भी कोई कहने की बात है,’’ शर्माजी ने बीच में ही दीपक को टोका.

‘‘बात यह है कि अब से हम लोग इस तरह आप लोगों के यहां किसी भी तरह का भोजन नहीं किया करेंगे, क्योंकि हमारी भी इज्जत है. हम भी आप की तरह इनसान हैं, तो आप हमारे लिए अलग से क्यों कायदेकानून बना रखे हैं?

‘‘जब वोट लेना होता है तो आप लोग ही दलितों के यहां खाने को ले कर होड़ मचाए रहते हैं. जब चुनाव हो जाता है तो दलित फिर से दलित हो जाता है.’’

शर्माजी को कोई जवाब नहीं सूझा. वे चुपचाप अपना सा मुंह लटकाए वहीं खड़े रहे.

Hindi Stories Online : मोको कहां ढूंढे रे बंदे – कौन थी चीकू

Hindi Stories Online : आज फिर कांता ने छुट्टी कर ली थी और वो भी बिना बताए. रसोई से ज़ोर – ज़ोर से बर्तनों का शोर आ रहा था. बेचारे गुस्से के कारण बहुत पिटाई खा रहे थे. पर इस गुस्से के कारण कुछ बर्तनों पर इतनी जम के हाथ पड़ रहा था कि मानो उनका भी  रंग रूप निखर आया हो. वही जैसे फेशियल के बाद चेहरे पर आता है. अरे, “आज मुझे पार्लर भी तो जाना है.” अचानक याद आया. सारा काम जल्दी – जल्दी निपटा  दिया. थकान भी लग रही थी. पर सोचा चलो, वही रिलैक्स हो जाऊंगी. घर का सारा काम निपटा कर मैं पार्लर पहुंच गई.

जब फेशियल हो गया तो पार्लर वाली बोली…….

“दीदी कल देखना, क्या ग्लो आता है.” उफ़….एक तो उसका “दीदी” बोलना और दूसरा अंग्रेजी का “ग्लो” ग्लो~~ वाह!! सच, मन कितना आनंद से भर जाता है. खुश होकर मैंने कुछ टिप उसके हाथ में रख दी, “थैंक यू दीदी” उसने कहा.सच में अपने आप पर बड़ा गर्व महसूस होने लगा, जैसे न जाने कितना महान काम कर दिया हो.घर वापसी के लिए पार्लर का दरवाज़ा खोलते समय सचमुच में एक सेलेब्रिटी वाली फीलिंग आने लगती है. लगता है जैसे बाहर कई सारे फोटोग्राफर और ऑटोग्राफ लेने वाले इंतजार में खड़े होंगे… मैडम, मैडम!हेल्लो.. हेल्लो.. प्लीज़ प्लीज़ एक फोटो. इधर,  इधर, मैडम. ऐसा सोचते ही एक गर्वीली मुस्कुराहट अनायास ही चेहरे पर आ गई.

पर ये क्या? पार्लर से निकलते ही सब्ज़ी वाला भईया दिख गया. उफ़…मेरे ख्यालों की दुनिया जैसे पल भर में गायब हो गई. मुझे देखते ही वो अपने चिरपरिचित अंदाज़ में बोला “हां,…. चाहिए कुछ?” मैं जैसे सपने से जागी.अरे हां,आलू तो खत्म हो ही गए है. परांठे कैसे बनेंगे कल.सन्डे को कुछ स्पेशल तो सबको चाहिए ही. फिर चाहे लंच में छोले चावल बन जाएंगे. टमाटर भी लेे ही लेती हूं. रखे रहेंगे, बिगड़ते थोड़े ही है. कुछ और सब्जियां भी ‘सेफर साइड योजना’ के तहत लेे ली जाती है.अब आती है असली जिम्मेदारी निभाने की बारी..यानी हिसाब लगवाने की बारी “क्या भईया, क्यूं इतनी मंहगी  लगा रहे हो?”
“हमेशा तो आपसे ही लेती हूं.”

“आज क्या कोई पहली बार सब्ज़ी थोड़े खरीद रही हूं आपसे?”
“उधर, बाहर मार्केट में बैठते हो तो कम भाव लगाते हो” “हमारी कॉलोनी में आते ही सबके भाव बढ़ जाते है”अन्तिम डायलॉग बोलते समय थोड़ा फक्र महसूस होता है. देखा हम कितनी पॉश कॉलोनी के वासी है. परन्तु फ्री का धनिया और हरी मिर्च मांगते वक्त मैं अपने वास्तविक रूप में लौट आती.बनावट तो अस्थाई होती है, वास्तविकता ही हमारे साथ स्थाई रूप से रहती है.पर ये हमें शायद बहुत कम या कहिए देर से समझ आता है.

खैर….सब्जी वाले के साथ मोल भाव करने और कुछ एक्स्ट्रा लेने में अपनी कला पर खुद को ही शाबाशी दे डाली, हमेशा की तरह. वरना, घर पर ये सब बताओ तो इन समझदारी की बातों को भला कौन समझता है? उल्टा प्रवचन अलग मिल जाता है पतिदेव से …”क्या तुम भी, यूं दो – चार रुपयों के लिए इन मेहनतकश लोगो से इतना तोल मोल करती हो” इतनी सुबह- सुबह दूर मंडी से तुम्हें ये सब घर बैठे ही मिल जाता है. ये भी तो फ्री होम डिलीवर ही है. हमें तो इनका शुक्रगुज़ार होना चाहिए.

उहं मैंने मन ही मन  मुंह बनाया. अरे, घर चलाना कोई खेल नहीं है. बहुत सारी बातें सोचनी पड़ती है. ये मर्दों के बस की बात नहीं है. अपने और उनके दोनों के ही हिस्से की बातें मैं मन ही मन सोच रही थी.
जब सब्ज़ियां खरीद ली तो याद आया. ओह, हां.. .’ब्रेड और मख्खन भी तो नहीं है और छोटे बेटे ने अपना शैंपू लाने के लिए भी तो कहा था.’ कुछ चिप्स और चॉकलेट भी लेे लूंगी उसके लिए. घर पहुंचते ही  बोलता है “मेरे लिए क्या लाई हो मम्मी?” दुकान पर पहुंची तो कुछ अन्य वस्तुओं पर भी नज़र गई . उन्हें देख कर सोचा..”अच्छा हुआ जो नजर पड़ गई, ये सामान भी तो लगभग खत्म ही होने लगा है.” ये तो बहुत अच्छा हुआ, जो देखकर याद आ गया. वरना फिर से आना पड़ता. सारा सामान लेे कर  थकी – हारी घर पहुंची. रिक्शे वाले से भी थोड़ी बहस हो गई किराए को लेकर. आज तो सारा मूड ही खराब हो गया.

डोरबेल बजाई तो चीकू ने दरवाज़ा खोला और चिल्ला कर बोला… पापा,  “मम्मी आ गई हैं.” “पता नहीं क्यूं ये हमेशा अपने पापा को सावधान होने का संकेत देता है.” जैसे, “मैं नहीं, कोई खतरे की घड़ी आ गई हो.”
हमेशा की तरह मैंने इस बात को नजर अंदाज़ किया.

चीकू बोला ,”मेरे लिए क्या लाई हो मम्मी?” हर बार उसकी यही जिज्ञासा होती. अरे. “हर बार क्यूं पूछते हो?” “मैं कोई विदेश यात्रा से आती हूं.” थकान अब तल्खी में बदल रही थी.

पतिदेव ने शायद इसे महसूस कर लिया था. वे कमरे से बाहर आये और माहौल की नज़ाकत को समझते हुए चिंटू को अंदर जाने का इशारा किया और सामान भीतर लेे जाने के लिए उठाने लगे. फिर अचानक जैसे उन्हें कुछ याद आया. वे  सहानुभूति जताते हुए बोले…अरे,,”तुम तो पार्लर गई थी ना?”
“क्या पार्लर बंद था?” ओह! “लगता है सारा समय घर की खरीदी में ही निकल गया.”

क्या इन्हें मेरा “ग्लो” नजर नहीं आ रहा? बाल भी तो ठीक कराए थे, क्या वो भी दिखाई नहीं पड़  रहे?
एक वो पार्लर वाली है जो बोल रही थी….”दीदी”, “आप अपने पर बिल्कुल ध्यान नहीं दे रही हो” “देखो तो कितनी ड्रायनेस आ गई है हाथों पर और बाल भी कितने हल्के होते जा रहे है” “आप थोड़ा जल्दी जल्दी विजिट किया करे” सच में मेरा कितना ख्याल करती है, और इन्हें देखो, इतना कुछ करवा कर आने के बाद भी पूछ रहे है…”क्या पार्लर नहीं गई?”

हद है. दिनभर की थकान,  सबसे हुई बहस और पति की नज़र का दोष.एक धमाके का रूप ले चुका था. मैंने जोर से पांव पटके और धड़ाम से दरवाज़ा बंद किया और कहा..

“कभी तो मुझ पर ध्यान दीजिए, कभी तो फुरसत निकालिए” “क्या आपको कहीं भी?… कुछ?.. सुंदरता नजर आती है?” मैंने एक – एक शब्द पर ज़ोर देते हुए कहा “हर समय बस, ये अख़बार और टीवी” “क्या बार बार वही न्यूज सुनते रहते हो””घर -बाहर का सारा काम कर करके मेरे चेहरे का ग्लो ही खत्म हो गया” ये देखो, बर्तन मांज – मांज कर मेरे हाथ कितने ड्राई हो गए है”

“ये नाखून तो जैसे सारे ही टूट गए है.” मैं  गुस्से में बोल रही थी. आवाज़ से लग रहा था, बस रो ही पडूंगी, पर उनके सामने रोना अपनी बात को कमज़ोर बनाना था. मैं सीधे अपने कमरे में चली गई. अचानक एक छोटे से प्रश्न पर इतना भड़क जाना? उनकी कुछ समझ नहीं आ रहा था. पतिदेव ज्यादा बहस के मूड में नहीं  थे. चुपचाप सारा सामान रसोई में रख अख़बार उठा कर पढ़ने लगे.

कुछ देर बाद मैंने अपने कमरे का दरवाज़ा खोला. देखा रसोई में कुछ खुसुर – पुसुर हो रही थी.
चीकू की आवाज़ आ रही थी….”पापा आज बाहर से कुछ मंगवा  ले?”और पतिदेव बोल रहे थे..”यार चीकू मैगी ही बना लेते है.” “अब, मम्मी से कौन पता करे कि उन्हें क्या खाना है?”

अब मुझे अपने आप पर भी गुस्सा आने. आखिर इतना बवाल करने की क्या जरूरत थी.
मैंने रसोई में जाकर बिना प्यास के पानी पिया. बस टोह लेने के लिए कि क्या चल रहा है. फिर सपाट और संयमित स्वर में पूछा..”क्या खाओगे?” दोनों एक साथ बोल उठे…”खिचड़ी”

“ये तो कमाल हो गया, यार चीकू ” पापा ने बड़ी प्रशंसा भरी नज़रों से चीकू को शाबाशी दी और चीकू ने भी अपनी आंखे झपकाकर पापा को “टू गुड” कहा.  “वाह!”

“इतनी अंडरस्टैंडिंग” सच में कमाल ही है. जो खिचड़ी के नाम से ही बिदकते हो आज खुद खिचड़ी खाने के लिए कह रहे हैं. जो मैं अपनी थकान की स्थिति के विकल्प रूप में बनाती हूं. मैं मन ही मन मुस्कुराई पर स्वयं की प्रतिष्ठा के मद्देनजर चेहरा संजीदा ही बनाए रखा.

अब वे दोनों चुपचाप रसोई से बाहर निकल कर टेबल लगाने लगे. खाने के बाद के सारे काम निपटा कर जब मैं चीकू के कमरे में गई तो वो सो चुका था. आज इसे अकारण ही डांट दिया. बहुत बुरा लग रहा था. कॉमिक्स उसके हाथ से निकाल कर हौले से उसके बालों को सहलाया. बत्ती बंद कर  मैंने अपने कमरे की ओर रुख किया.

आश्चर्य है आज उनके हाथ में न अख़बार था न मोबाइल मुझे देख कर वे थोड़ा मुस्कराए मुझे थोड़ा अटपटा लगा. पता नहीं क्या बात है? मैं उनकी ओर पीठ घुमाकर  अपने ड्राई हाथों पर क्रीम मलने लगी. आज थोड़ी ज्यादा देर तक हाथों को क्रीम मलती रही. शायद उनके बुलाने का इंतजार कर रही थी. सोचे जा रही थी…”इतना धैर्य भी भला किस काम का? जो बोलने में भी इतना समय लगे.” मन में बोले गए वाक्य के पूरा होने की देर थी कि आवाज़ आई…”आओ!” “तुम्हें कुछ दिखाना है” ये हो क्या रहा है? शाम के खाने से लेकर अभी तक आश्चर्य ही आश्चर्य इतने आश्चर्य वाली धाराएं तो पहले कभी नहीं देखी.

मैं बिना कुछ कहे बैठ गई..वे अलमारी से एक बड़ा सा लिफाफा निकाल रहे थे. मैं सोच रहीं थीं, अभी न तो मेरा जन्मदिन है, न शादी की सालगिरह. फिर तोहफे लेने देने वाली परंपरा भी तो ज़रा कम ही है हमारे बीच.उन्होंने वो बड़ा सा लिफाफा मेरे सामने रख दिया. “ये क्या?”  “लिफाफा तो पुराना सा दिख रहा है” मुझे कुछ अजीब लगा.

मैंने धीरे से पूछा… .. ….”क्या है इसमें ?”
“आज तुम पार्लर से आकर पूछ रही थी ना…. कि क्या मुझे  कहीं भी, किसी भी रूप में कुछ सुंदरता दिखाई देती है?” “ये वही सुंदरता वाला लिफाफा है.” वे एकदम शांत और संयत आवाज़ में बोले.

अब तो सच में, मैं आश्चर्य के समुद्र में गोते लगाने लगी. देखो, अनु, “सुंदरता की सबकी अपनी परिभाषा होती है.” “सुंदरता देखने का सबका अपना अलग – अलग नज़रिया होता है.”

“किसी को तन की सुंदरता मोहित करती है, तो किसी को मन की, कोई स्वभाव की सुंदरता देखता है तो कोई भाषा की.” “कोई  प्रकृति की सुंदरता में खो जाता है, तो किसी को खेत – खलिहान में काम करने वाले उन मेहनतकश मजदूर और उन पर लगी उस माटी की सुंदरता मोहित करती है.” “कोई रसोई में खाना बनाती उस गृहिणी और उसके माथे पर आने वालेे पसीने की बूंदों में सुंदरता देखता है, जिसमें परिवार के लिए स्नेह झलकता है, जो मैं तुममें भी अक्सर देखता हूं.” “मुझे तुम्हारा वो ग्लो ज्यादा अच्छा लगता है, तो इसमें मेरा क्या कसूर है?” वे बोलते जा रहे थे. मैं अपना सिर नीचे किए बस उन्हें सुन रही थी. आंखों में आंसू डबडबाने लगे थे.

तभी लिफाफे के खुलने की आवाज़ मेरे कानों में पड़ी. “ये देखो.” मैंने पनीली आंखों से देखा….”ये मां की बरसों पुरानी तस्वीर है.” मैंने देखा सासू मां की उस ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीर को … एक सादी सी सुती साड़ी पहने, माथे पर बड़ी सी बिंदी, बालों की एक लंबी ढीली सी चोटी.इतनी सादगी और कितनी सुंदर. मैं मोहित हो कर देखने लगी. सचमुच सुंदर.

फिर निकली एक बड़ी सी राखी जो बचपन में बहन ने बांधी थी. उस समय वो कलाई से भी काफी बड़ी रही होगी. मुझे अपने भाई की याद गई वो भी तो ऐसी ही बड़ी सी राखी बंधवाता था और फिर सारे मोहल्ले को दिखता था. उसे याद कर मैं धीरे से हंस पड़ी.

फिर निकली एक पुरानी सी कैसेट जिसमें मेरी नानी के गाए भजन और उनके साथ की गई बातचीत की पर्ची लगी हुई थी.

पिताजी जी के साथ देखी गई फिल्म का पोस्टर. सचमुच कमाल. हमारी पहली यात्रा के टिकिट, चीकू की पहली पेंटिंग वाला कागज़. सारी चीजे इतने जतन से संभाली हुई.

अब तो मेरी बहुत कोशिश से रोकी हुई रुलाई फूट पड़ी. “देखो अनु,” “मैं तुम्हारा दिल दुखना हरगिज़ नहीं चाहता.” “पार्लर जाना कोई बुरी बात नहीं है.” “न ही मैंने तुम्हें कभी रोका है.”

“अपने आप को अच्छा रखना और लगना कोई गुनाह नहीं है.” “दरसअल, हमें जो अच्छा लगता है, हम चाहते है सामने वाले को भी वो, उसी रूप में अच्छा लगे और वो उसकी तारीफ करे,पर ऐसा हर बार जरूरी तो नहीं.”

“उसकी अपनी सोच हमसे अलग भी तो हो सकती है.” “मुझे लगता है, जब हम सुंदरता का कोई रूप देख कर खुश होते है,तो आपकी आंतरिक खुशी  चेहरे पर अपने आप आ जाती है.”

उस खुशी से चेहरा दमकने लगता है. शायद तभी चेहरे को दर्पण कहा   जाता है. बिना बोले ही कितनी बातें कह जाता है. “मेरा अपना सुंदरता का क्या नज़रिया है, वो मैंने तुम्हें बता दिया.”

“मेरा तुम्हारा मन दुखाने का कभी भी कोई मकसद नहीं होता.”  एक गहरे निःश्वास के साथ वे चुप हो गए. उस दिन मैं एक नए संवेदनशील इंसान से मिली.अब मेरी आंखों में खुशी के आंसू झिलमिला रहे थे. सुंदरता की ऐसी परिभाषा तो शायद मैंने पहले कभी सोची ही नहीं.आज कुछ अलग सा महसूस किया था. सच,एक नया अर्थ समझ आया था.

मुझे लगा जैसे आज संवेदनाओं की कितनी उलझने सुलझ गई थी. दूर बादलों की ओट से चांद बाहर निकल रहा था. ठीक मेरे मन की तरह. शिकवे- शिकायतों के सारे काले बादल शांत, श्वेत चांदनी में बदल गए थे. खिड़की से झांकती चांदनी मुस्कुरा रही थी.

हम दोनों खामोश थे.बस आंखें बोल रही थी. मैंने उनकी ओर देखा और  झूठ – मूठ का गुस्सा दिखाते हुए कहा… चलिए, “अब सो जाइए. कल सुबह मुझे आलू के परांठे भी बनाने है.” “वाकई. तुम्हारे आलू परांठे होते बहुत सुंदर है.” पतिदेव एक शरारती मुस्कान लिए बोले. देखा नहीं? “उन्हें देखते ही मेरे और चीकू के चेहरे पर कितना “ग्लो”~~ आ जाता है.” हम दोनों खिलखिला कर हंस पड़े.

Moral Stories in Hindi : प्यार का पौधा – तीसरे देश की धरती पर

Moral Stories in Hindi :  भारत के बिहार के रहने वाले अजय और पाकिस्तान के लाहौर के रहने वाले जहीर ने अपनी 30 साल से चली आ रही दोस्ती को रिश्ते में बदलने के उपलक्ष्य में अमेरिका के न्यू जर्सी के एक बड़े होटल में दावत का आयोजन किया था.

एक ओर भव्य मुगल लिबास में सजे अजय उन की पत्नी जया व फूलों का सेहरा पहन दूल्हा बने उन के बेटे अमित पाकिस्तान की तहजीब से रुबरू हो रहे थे तो दूसरी तरफ सिल्क का कुरता, अबरक लगी पीली धोती पहने जहीर, सीधे पल्ला किए पीली बनारसी साड़ी में उन की बेगम जीनत गजब ढा रही थीं. आंखों को चौंधियाते सोने के तारों व मोतियों वाला सुर्ख लाल लहंगा, चुन्नी व नयनाभिराम आभूषणों में दिपदिपाती हुई उन की लाड़ली आसमा चांदसितारों को शरमा रही थी.

मोगरा के फूलों में लिपटे हुए उस के बाल, जड़ाऊं मांगटीका से चमकता माथा व उस की मांग में पीला सिंदूर दिपदिपा रहा था. कान के ऊपर लटकता मोतियों की लडि़योंवाले झिलमिलाते झूमर से चांदनी बिखर रही थी. दोनों परिवार एकदूसरे की इच्छाओं का मानसम्मान रखते हुए अपनेअपने देश की गंगायमुनी संस्कृति का मिलन कर के अपनी दोस्ती की मिसाल पेश कर रहे थे.

उन की प्यारभरी दोस्ती की शुरुआत बड़े अजीबोगरीब ढंग से हुई थी. अजय को भारत से आए अभी हफ्ता भी नहीं हुआ था कि रोड दुर्घटना में वे अपना हाथपैर तुड़वा बैठे थे और 2 वर्षों पहले ही लाहौर, पाकिस्तान से आए हुए जहीर, जो अजय के अपार्टमैंट में ही रहते थे, ने पलक झपकते ही उन की सारी जिम्मेदारियों को उठा कर आपसी भाईचारे का अनोखा संदेश दिया था.

भयानक घटना कुछ ऐसे घटी थी. अजय ने गाड़ी चलाना नईनई ही सीखी थी. उसी महीने तो 2 बार कोशिश करने के बाद उन्होंने जैसेतैसे ड्राइविंग टैस्ट पास किया था. ज्यादातर लोग पैरेलल पार्किंग कर नहीं पाते और टैस्ट में असफल हो जाते हैं.

अमेरिका में ड्राइविंग लाइसैंस देने की प्रक्रिया जटिल होने के साथ ईमानदारी पर आधारित रहती है. जब तक भरपूर कुशलता नहीं आती, लाइसैंस मिलने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता है. लाइसैंस मिलने के बाद उन्होंने लोन पर सैकंडहैंड गाड़ी खरीदी. हफ्ताभर भी तो नहीं हुआ था उन्हें गाड़ी चलाते हुए कि औफिस जाते समय ऐक्सिडैंट कर बैठे. वो तो आननफानन घटनास्थल पर पुलिस पहुंच गई थी और लहूलुहान व बेहोश अजय को न्यू जर्सी के रौबर्ट वुड हौस्पिटल में पहुंचाते हुए उन के औफिस और घर पर सूचित करने के लिए स्वयं पहुंच गई. पुलिस ने ही उन की पत्नी को हौस्पिटल भी पहुंचाया.

अमेरिकी पुलिस की यह बहुत बड़ी विशेषता है कि वहां पर रहते हर व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के मदद करने के लिए वह तत्पर रहती है. वहां जिस का कोई अपना नहीं होता, पुलिस उस की देखरेख किसी अपने से बढ़ कर करती है.

हौस्पिटल में अजय की पत्नी जया अकेली, असहाय सी खड़ी आंसू बहा रही थी. नया देश, नए लोग किस से अपना दुख बांटे. वह असमंजस में थी. इंडिया में मायके व ससुराल दोनों की आर्थिक अवस्था इतनी भी मजबूत नहीं कि वहां से कोई यहां आ कर उस की असहायता के इस गहन अंधेरे को साझा कर ले. चारों ओर दुख का उफनता सागर था, जिस का कहीं दूर तक किनारा जया को नजर नहीं आ रहा था.

बहते हुए आंसुओं पर काबू पाते हुए वह अपना आत्मबल संजोने की चेष्टा कर तो रही थी पर सफल नहीं हो पा रही थी. दुर्घटना की खबर पाते ही वे सब परेशान हो जाएंगे. किसी न किसी तरह इस आपत्ति को वह खुद ही झेलने का साहस प्राप्त करेगी. दृढ़ निश्चय की आभा से वह भर उठी. इंश्योरैंस वाले हौस्टिपल का खर्च उठा ही रहे हैं. आगे कोई न कोई राह निकल ही आएगी, ऐसा सोच कर जया के मन को शक्ति मिली.

औपरेशन थिएटर से अजय को केबिन में शिफ्ट कर दिया गया था. लेकिन अभी भी उन पर एनेस्थीसिया का असर था. थकान और परेशानी के कारण जया को झपकी आ गई थी. दरवाजा खुलने की आहट से अचानक उस की पलकें खुल गईं और उस के बाद उस ने जो कुछ भी देखा, अविश्वसनीय था.

जहीर दंपती घबराए हुए अंदर आए और जया से मुखातिब हुए कि उस ने उन्हें इस दुर्घटना की जानकारी क्यों नहीं दी. जवाब में जया सिर झुकाए रही. वे जया की जरूरत के सारे सामान लेते आए थे. उस दिन से दोनों पतिपत्नी अजय के घर लौटने तक जया की हर जरूरत की पूर्ति, चेहरे पर रत्तीभर शिकन लाए बिना करते रहे. इस तरह अजय के उस नाजुक वक्त में जहीर ने शारीरिक व आर्थिक रूप से, अपने किसी भी देशवासी से बढ़ कर, उन्हें सहारा दिया था.

आने वाले दिनों में दोनों की दोस्ती गाढ़ी होती गई. अमित के जन्म के समय एक बार फिर वे सारे रिश्तों के पर्याय बन गए थे. गर्भावस्था के नाजुक पलों को जीनत बेगम ने किसी अपने से बढ़ कर महीनों सांझा किया. घर से ले कर हौस्पिटल तक का भार अपने कंधे पर उठा कर अजय को बेहिसाब तसल्ली दी. अमित का बचपन दोनों परिवारों के लिए खिलौना बना रहा.

2 वर्षों बाद ही आसमा पैदा हुई. अजय और जया ने भी उन नाजुक पलों की जिम्मेदारियों को सहर्ष निभाया. अपनी ओर से कोई कमी नहीं छोड़ी. अमित और आसमा दोनों साथ खेलते हुए बड़े हुए. एक ही स्कूल में उन दोनों ने पढ़ाई की. उन दोनों की नोकझोंक पर दोनों परिवार न्योछावर होते रहे. कहीं कोई दुराव नहीं था. घर अलग थे पर अपनी बेशुमार मोहब्बत से दीवार को उन्होंने पारदर्शी बना लिया था. दोनों परिवारों की दोस्ती सभी के लिए मिसाल बन गई थी.

कहते हैं जब प्यार का सवेरा शाम के सुरमई अंधेरे को गले लगा लेता है तो समय का पंख भी गतिशील हो जाता है. ग्रीनकार्ड मिलते ही दोनों परिवार सभी तरह से सुव्यवस्थित हो गए थे. कुछ वर्षों बाद ही उन्हें वोट देने का अधिकार मिल गया और वे अब वहां के नागरिक थे.

खुशियों की चांदनी में वे भीग रहे थे कि दुनिया का सब से बड़ा प्रभुत्वशाली देश अमेरिका का कुछ हिस्सा आतंकवाद के काले धुएं में समा गया. 2001 के

11 सितंबर, मंगलवार को न्यूयौर्क के वर्ल्ड ट्रेड सैंटर और पैंटागन पर हुए आतंकी हमले ने पूरे विश्व को सहमा कर रख दिया. कितने लोगों की जानें गईं. धनसंपत्ति का बड़ा भारी नुकसान हुआ. वर्ल्ड टे्रड सैंटर की इमारत का ध्वस्त होना पूरी दुनिया की आर्थिक स्थिति को चरमरा गया. इस हमले के पीछे मुसलिम हैं, इस की जानकारी पाते ही अमेरिका में रह रहे मुसलिमों पर आफत आ गई. अमेरिकियों के निशाने पर सारे दाढ़ी रखने वाले आ गए थे.

दाढ़ी वालों पर होते जुल्मोंसितम से जहीर व उन के परिवार को अजय ने अपनी जान पर खेल कर बचाया.

समय के साथ दुख के बादल छंट तो गए पर जहीर की नौकरी जाती रही. दोनों हिस्सों की ठंड को बांटते हुए अजय ने अपने हिस्से की धूप भी उन पर बिखरा दी, जिस की ताप को जहीर ने कभी कम नहीं होने दिया. सबकुछ सामान्य होते ही जहीर की बहाली भी हो गई और एक बार फिर से खुशियां उन के दरवाजे पर दस्तक देने लगीं.

स्कूल की पढ़ाई पूरी कर के अमित और आसमा दोनों आगे की पढ़ाई करने के लिए घर से दूर चले गए. अमित ने कंप्यूटर साइंस की पढ़ाई की तो आसमा ने मैडिकल पढ़ाई की लंबी दूरियां तय कर लीं. जीवन में सुख ही सुख की लाली थी जो पलक झपकते ही दुखों की कालिमा को निगल लिया करती थी. परम संतुष्टि के भाव में विभोर थे दोनों परिवार. अमित और आसमा ने एक लंबा समय साथ बिताया था.

बचपन की चुहलबाजियों ने धीरेधीरे प्यार के नशीले रूप को धारण कर लिया था. इस का अंदाजा उन्हें उस समय हुआ जब वे आगे की पढ़ाई करने के लिए घर से दूर जा रहे थे. धर्म और जाति की दीवारों में उन का प्यार कभी दफन नहीं होगा, इस का उन्हें भरपूर अंदाजा था और वे सभी तरह से आश्वस्त हो कर अपनी मंजिल हासिल करने की होड़ में शामिल हो गए.

उन के प्यार से अनजान उन के मातापिता कुछ ऐसे ही खूबसूरत बंधन के लिए आतुर थे. उन्हें इस का जरा सा भी अंदाजा नहीं था. दोनों के पेरैंट्स को जब उन के प्यार के बारे में पता चला तो उन्हें ऐसा महसूस हुआ मानो अटलांटिक महासागर में ही अनहोनी को होनी करते हुए प्यार के हजारों कमल खिल गए हों.

इस तरह हर ओर से जीवन की हर धूपछांव को बांटते हुए उन्होंने अपनी औलादों को आज सब से खूबसूरत रेशमी रिश्तों में बांध दिया था. वर्षों से चली आ रही अपनी दोस्ती पर खूबसूरत रिश्ते की मुहर लगा दी थी. बधाइयां देने वालों का तांता लगा था. यह दिलकश नजारा था गोली, बारूद की ढेर पर बैठे, निर्दोषोें की लाशों से अपनी सीमाओं को पाट कर रख देने वाले 2 देश हिंदुस्तान व पाकिस्तान की सरहदों के नुकीले तारों से क्षतविक्षत हुए दिल के तारों के किसी तीसरे देश की धरती पर मिलन का.

Latest Hindi Stories : मजा या सजा

Latest Hindi Stories : वह उस रेल से पहली बार बिहार आ रहा था. इंदौर से पटना की यह रेल लाइन बिहार और मध्य प्रदेश को जोड़ती थी. वह मस्ती में दोपहर के 2 बजे चढ़ा. लेकिन 13-14 घंटे के सफर के बाद वह एक हादसे का शिकार हो गया. पूरी रेल को नुकसान पहुंचा था. वह किसी तरह जान बचा कर उतरा. उसे कम ही चोट लगी थी.

उसे पता नहीं था कि अब वह कहां है कि तभी एक बूढ़ी अम्मां ने उस का हाथ थाम कर कहा, ‘‘बेटा, अम्मां से रूठ कर तू कहां भाग गया था?’’

उस ने चौंक कर पीछे की ओर देखा. तकरीबन 64-65 साल की वे अम्मां उसे अपना बेटा समझ रही थीं. फिर तो आसपास के सारे लोगों ने उसे बुढि़या का बेटा साबित कर दिया. उसे जबरदस्ती बुढि़या के घर जाना पड़ा. उस बुढि़या के बेटे की शक्ल और उम्र पूरी तरह उस से मिलतीजुलती थी.

‘चलो, थोड़ा मजा ले लेते हैं,’ उस ने मन ही मन सोचा. रात को खाना खाने के बाद जैसे ही वह सोने के लिए कमरे में पहुंचा, तो चौंक गया. बुढि़या की बहू गरमागरम दूध ले कर उस के पास आई. वह भरेपूरे बदन की सांवले रंग की औरत थी.

‘‘अब मैं कभी आप से नहीं लड़ूंगी. आप की हर बात मानूंगी,’’ वह औरत उस से लिपटते हुए बोली.

‘‘क्यों, क्या हुआ था?’’ उस ने बड़ी हैरानी से पूछा.

‘‘आप शादी के 2 महीने बाद अचानक गायब हो गए थे. सब ने आप को बहुत ढूंढ़ा, पर आप कहीं नहीं मिले. इस गम में बाबूजी चल बसे,’’ वह रोते हुए बता रही थी.

‘‘मैं सब भूल चुका हूं. मुझे कुछ याद नहीं है. मैं किसी को नहीं पहचानता,’’ वह शांत भाव से बोला. उस औरत ने रात को उसे भरपूर देह सुख दिया. सुबह के तकरीबन 8 बजे उस की नींद खुली. उस ने ब्रश कर के चाय पी. दिन में पता चला कि वह दुकान चलाता था. वह दिनभर में अपनी इस जिंदगी के बारे में काफीकुछ जान गया. उस की 5 बहनें थीं और वह एकलौता भाई है. उस की पत्नी चौथी बहन की ननद है.

तकरीबन 6 साल पहले शादी हुई थी. उस का बेटा लापता हो गया है. शायद सड़क हादसे में या किसी दूसरे हादसे में अपनी औलाद खो चुका है. बेटा वह भी एकलौता, इसलिए यह दर्द दिखाया नहीं जा सकता. दूसरी ओर अनपढ़ और देहाती बहू है, जो 16-17 साल की उम्र में ही ब्याह कर यहां आई थी. कुछ ही दिनों में पति गुजर गया, इसलिए बड़ी मुश्किल से मिले इस पति को वह संभाल कर रखना चाह रही है.

कितना भी बड़ा हादसा हो, सरकार बस एक जांच कमीशन बिठा देगी. इस से ज्यादा करेगी, तो इस पीडि़त या उस के परिवार को 2-3 लाख रुपए का मुआवजा दे देगी. मगर उसे न तो मुआवजा मिला था, न ही लाश. वैसे भी जनरल डब्बे में सफर करने वाले लोगों की जिंदगी की कोई कीमत है क्या?

काफी दिन न मिलने के चलते उस ने मरा मान लिया था. क्या पता, कहीं जिंदा हो और लौट आया हो. उस हादसे में क्या पता याददाश्त चली गई हो, इसलिए सासबहू दोनों ही अपनेअपने तरीके से उसे याद दिलाने की कोशिश में थीं. 2 दिन बाद ही सभी बहनें, बहनोई और बच्चे आ गए.

‘‘अम्मां, यह तो अपना ही भाई है,’’ चौथी बहन उसे ढंग से देखते हुए उस के हाथपैरों को छू कर बोली.

‘‘क्या मैं अपने साले को नहीं पहचानता… पक्का वही है. मुझे तो शक की कोई गुंजाइश ही नहीं दिखती है.’’

‘‘बालकिशन, मैं तेरा तीसरे नंबर का जीजा हूं. साथ ही, तेरी पत्नी का बड़ा भाई भी,’’ जीजा उस के कंधे पर हाथ रखते हुए बोल उठा.

‘‘जी,’’ कह कर वह चुप हो गया. बस वह सब को बड़े ही ध्यान से देख रहा था, मानो उन्हें पहचानने की कोशिश कर रहा हो.

‘‘अरी अम्मां, यह हादसे में अपनी याददाश्त बिलकुल ही खो बैठा है. बाद में इसे सब याद आ जाएगा,’’ इतना कह कर उस की बहन उस का हाथ सहलाने लगी. वह इंदौर में अकेला रहता था. वहीं रह कर छोटामोटा काम करता था, जबकि यहां उसे पत्नी, भरापूरा परिवार मिल रहा था. वह बालकिशन का हूबहू था. पासपड़ोस वालों के साथसाथ सारे नातेरिश्तेदार उसे बालकिशन बता रहे थे और याददाश्त खोया हुआ भी. पत्नी एकदम साए की तरह उस के साथ रहती, ताकि वह दोबारा न भाग जाए.

एक दिन दोपहर का खाना खाने के तकरीबन डेढ़ घंटे बाद वह अपना काम समझने की कोशिश कर रहा था. यहां उस की पान की दुकान थी. कोई रजिस्टर या कागज… पता चला कि सभी अंगूठाछाप थे. बस, वही 10वीं फेल था. अब कैसे बताए कि वह बीटैक है. लेकिन छोटामोटा चोर है. मोटरसाइकिल पर मास्क लगा कर जाना, औरतों के जेवर उड़ाना और घरों में चोरी करना उस का पेशा है.

मगर, इस परिवार में सभी सीधेसादे हैं. उस की तीसरे नंबर की बहन ने पूरे 5 तोले का सोने का हार पहना हुआ था. गोरा रंग, दोहरा बदन. भारीभरकम शरीर पर वह हार जंच रहा था जब वह गौर से उस हार को देखने लगा, तो झट से बहनोई बोला, ‘‘क्यों साले साहब, पसंद है तो रख लो इस हार को.’’

‘‘ऐसी बात नहीं है,’’ वह सकपका कर बोला था.

‘‘फिर भी, तुम मेरी बहन के सुहाग हो. अगर कुछ चाहिए तो बोलो? मेरी बहन की वीरान जिंदगी में बहार आ चुकी है,’’ जीजा भावुक होते हुए बोला.

‘‘ऐसा कुछ नहीं है,’’ वह मना करते हुए बोला.  शाम को उस का साला जब जाने लगा, तो कुछ रुपए उस की पत्नी को देने लगा और बोला, ‘‘दुकान काफी दिनों से बंद पड़ी हुई है. मैं कल ही जा कर दुकान को सही कर दूंगा.’’

‘‘न भैया, मेरे पास पैसे हैं. इन के पास भी जेब में 20 हजार रुपए हैं,’’ वह भाई को पैसे देने से मना करते हुए बोली.

‘मगर, मैं तो पान की दुकान चलाना भूल गया हूं. पान लगाना तक नहीं आता मुझे. कैसे बेचूंगा?’ उस के दिमाग में तेजी से कुछ चलने लगा. ‘‘क्या सोच रहे हो साले साहब?’’ जीजा मानो उस के चेहरे को गौर से पढ़ते हुए बोला.

‘‘पान की दुकान मैं ने कभी चलाई नहीं है. मैं तो टैलीविजन, ट्रांजिस्टर, फ्रिज सुधारना जरूर जानता हूं,’’ वह जीजा को समझाते हुए बोला.

‘‘फिर तो हमारे पड़ोस में दुकान ले लेते हैं. 5-10 किलोमीटर में एक भी दुकान नहीं है. खूब चलेगी,’’ जीजा हंसते हुए बोला. अगले दिन सुबह घर से तकरीबन डेढ़ किलोमीटर दूर बंद पड़ी दुकान उसे सौंपी गई, तो दिनभर में उसे सुधार कर दुकान की शक्ल दे दी. जरूरी सामान का इंतजाम किया गया. पहले दिन वह 5 सौ रुपए कमा कर लाया, तो बहुत खुश था. जीजा भी उस के काम से खुश था. वह उसे खुद घर छोड़ने आया था.

‘‘अम्मां, यह तो कुशल कारीगर है. देखो, आज ही इस ने 5 सौ रुपए कमा लिए. अब तक यह 4 और्डर पा चुका है,’’ जीजा जोश में बोल रहा था.

‘‘अब बेटा आ गया है न, मेरी सारी गरीबी दूर हो जाएगी,’’ अम्मां तकरीबन रोते हुए कह रही थीं.

‘‘रो मत अम्मां. मैं सब ठीक कर लूंगा,’’ वह पहली बार बोला था. रात को खाना खाने के बाद जब वह बिस्तर पर सोने पहुंचा, तो पत्नी खुशी से भरी थी, ‘‘अरे, आप तो बहुत ही कुशल कारीगर निकले,’’ वह चुहल करते हुए पूछ रही थी.

‘‘कुछ नहीं. बस यों ही थोड़ाबहुत जानता हूं.’’ सोते समय वह सोचने लगा, ‘अब तक मैं चोरउचक्का था. गंदे काम से पैसे कमाने वाला. अब मैं मेहनत से पैसा कमाऊंगा और परिवार का पेट भरूंगा,’ इतना सोचतेसोचते उस ने पत्नी के सिर पर प्यार से हाथ फेरा और बोला, ‘‘मैं तुम्हें अब कभी नहीं छोड़ूंगा…कभी नहीं.’’

इतना कहते ही उसे सुख की नींद आने लगी. सच कहें, तो इस सजा में भी मजा था.

Hindi Moral Tales : उस रात का सच – क्या थी असलियत

Hindi Moral Tales : महेंद्र को यकीन था कि हरिद्वार थाने में वह ज्यादा दिनों तक थानेदार के पद पर नहीं रहेगा, इसीलिए नोएडा के थाने में तबादला होते ही उस ने अपना बोरियाबिस्तर बांधा और रेलवे स्टेशन चला आया.

रेल चलते ही हरिद्वार में गुजारे समय की यादें उस के सामने एक फिल्म की तरह गुजरने लगीं.

दरअसल, हुआ ऐसा था कि रुड़की थाने में रहते हुए वहां के एक साधु द्वारा वहीं के लोकल नेताओं को लड़कियों के साथ मौजमस्ती कराते महेंद्र ने रंगे हाथों पकड़ा था और थाने में बंद कर दिया था.

यकीन मानिए, उन नेताओं को थाने में  लाए उसे 10 मिनट भी नहीं हुए थे कि डीएसपी साहब का फोन आ गया कि फलांफलां नेता को फौरन रिहा कर दो.

महेंद्र बड़े अफसर का आदेश मानने को मजबूर था, इसलिए उसे उन नेताओं को फौरन रिहा करना पड़ा. चूंकि वे नेता सत्ताधारी दल से जुड़े थे, इसलिए उन्होंने महेंद्र का तबादला हरिद्वार थाने में करा दिया.

हरिद्वार थाने में कुछ दिन महेंद्र चुपचाप बैठा अपना काम करता रहा, लेकिन जब एक दिन थाने में बैठ कर वह पुरानी फाइलें देख रहा था, तभी एक फाइल पर जा कर उस की नजर रुक गई. उस ने फाइल में दर्ज रिपोर्ट पढ़ी. उस रिपोर्ट में लिखा था,  ‘गंगाघाट आश्रम में रहने वाली गंगाबाई आश्रम की तिजोरी में से 10 हजार रुपए चुरा कर भागी.’

उसी फाइल के अगले पेज पर उस आश्रम के महंत और उस के एक शिष्य का बयान था,  ‘उस रात हम दोनों साधना करने के लिए पास की पहाड़ी पर बने मंदिर में गए थे. चूंकि इस बात की जानकारी गंगाबाई को थी, इसी बात का फायदा उठा कर उस ने हमारे कमरे में से तिजोरी की चाबी चुराई और उस में रखे 10 हजार रुपए चुरा कर भाग गई. आश्रम से एक रजाई भी गायब है.’

महेंद्र ने जब यह रिपोर्ट पढ़ी, तो उसे इस में कुछ गोलमाल लगा. उस ने तभी सबइंस्पैक्टर राकेश को बुलाया और उस से पूछा,  ‘‘राकेश, गंगाघाट आश्रम में हुई चोरी की तहकीकात क्यों नहीं की गई?’’

उस ने जबाब दिया,  ‘‘सर, थानेदार साहब ने मुझ से कहा था कि आश्रम का महंत इस मामले की जांच की तहकीकात में मदद नहीं कर रहा है, इसलिए इसे ऐसे ही पड़ा रहने दो. सो, तब से यह फाइल ऐसे ही पड़ी है.’’

राकेश के जाने के बाद महेंद्र को लगा कि हो न हो, इस मामले में कुछ राज जरूर है, जो महंत छिपा रहा है. उस ने तय किया कि इस मामले की तहकीकात वह खुद ही करेगा.

इस के बाद महेंद्र ने आश्रम पर पैनी नजर रखनी शुरू कर दी.

एक दिन शाम को महेंद्र गंगाघाट आश्रम के सामने वाले होटल में बैठा था. उस की नजर आश्रम के गेट पर थी. उस ने देखा कि कुछ औरतें आश्रम के अंदर गई हैं और तकरीबन एक घंटे बाद निकलीं.

यह देख कर महेंद्र सोच में पड़ गया कि ये औरतें इतनी देर तक आश्रम में क्या कर रही थीं?

जैसे ही वे औरतें आश्रम से बाहर निकल कर होटल के पास आईं, तभी महेंद्र ने उन में से एक औरत से पूछा,  ‘‘बहनजी, क्या आश्रम में बहुत से मंदिर हैं, जो दर्शन करने के लिए बहुत देर लगती है?’’

वह औरत हंसी और बोली,  ‘‘भैया, आश्रम में तो एक भी मंदिर नहीं है. हम तो महंतजी के पास गई थीं. वे  लाइलाज बीमारियों का इलाज भी मुफ्त में करते हैं.’’

महेंद्र ने आगे पूछा,  ‘‘बहनजी, आप इन महंतजी के आश्रम में कब से आ रही हैं?’’

वह औरत बोली,  ‘‘आज तो मैं दूसरी ही बार आई हूं, लेकिन महंतजी कहते हैं कि तुम्हारी बीमारी गंभीर है. तुम्हें ठीक होने में 4-5 महीने तो लग ही जाएंगे,’’ इतना कह कर वह औरत चली गई.

एक दिन शाम को महेंद्र ने एक पुलिस वाले को उस आश्रम के बाहर बैठा दिया और उस से कहा, ‘‘कोई औरत अंदर से बाहर आए, तो उसे ले कर तुम मेरे पास आना.’’

उस दिन रात के 8 बजे वह पुलिस वाला एक 30-32 साला औरत को ले कर महेंद्र के घर आया. महेंद्र ने उसे बैठने के लिए कहा.

‘‘क्या आप आश्रम में नौकरी करती हैं?’’ महेंद्र ने पूछा.

‘‘नहीं सर. दरअसल, मेरी शादी हुए तकरीबन 7 साल हो गए हैं और अभी तक मेरी गोद नहीं भरी है. मेरे महल्ले की एक औरत ने मुझे बताया कि तू गंगाघाट आश्रम के महंत के पास जा. कुछ ही दिनों में तेरी गोद भर जाएगी, इसलिए आज मैं पहली बार वहां गई थी.’’

महेंद्र ने उस से यह जानकारी ली और उसे इस तसदीक के साथ जाने के लिए कहा,  ‘‘मैं ने तुम से जो जानकारी ली है, यह बात तुम किसी को मत बताना. यहां तक कि महंत को भी नहीं.’’

उन दोनों औरतों से मिली जानकारी संकेत दे रही थी कि हो न हो, उस आश्रम में कोई  ‘अपराध का अड्डा’ जरूर चल रहा है. सो, महेंद्र ने गंगाघाट आश्रम में हुई चोरी की घटना की तहकीकात जोरशोर से शुरू कर दी.

एक बार जब महेंद्र इसी सिलसिले में महंत से मिलने आश्रम गया, तो उस ने उसे इस मामले पर हाथ ही नहीं रखने दिया और बोला,  ‘‘जाने भी दीजिए. 10 हजार रुपए कोई बड़ी बात नहीं है. आप तो चाय पीजिए.’’

उस की होशियारी देख महेंद्र के मन में शक और भी गहरा गया.

एक दिन रात को जब महेंद्र गश्त के लिए निकला, तो देखा कि वह महंत अपने शिष्य के साथ पहाड़ी पर जा रहा था. उस के पहाड़ी पर जाते ही महेंद्र गंगाघाट आश्रम के अंदर पहुंचा. वहां उसे भोलाराम नाम का एक आदमी मिला.

‘‘तुम यहां क्या करते हो? ’’ महेंद्र ने पूछा.

‘‘सर, आप मुझे इस आश्रम का मैनेजर भी कह सकते हैं और चौकीदार भी. सच तो यह है कि यहां का सारा काम मैं ही संभालता हूं. अब मेरी उम्र 70 पार हो चली है, इसलिए समय काटने के लिए मैं यहां रहता हूं. मैं ईमानदार आदमी हूं, इसलिए महंत ने मुझे अपने पास रखा है,’’ उस आदमी ने बताया.

‘‘तुम ईमानदार हो और सच्चे भी लगते हो. अच्छा, यह बताओं कि तुम्हारे आश्रम में रहने वाली गंगाबाई कैसी औरती थी? क्या वाकई वह चोरी कर सकती है?’’ महेंद्र ने पूछा.

वह आदमी बोला,  ‘‘सर, मैं आप से झूठ नहीं बोलूंगा. दरअसल, गंगाबाई इस आश्रम में झाड़ूपोंछे का काम करती थी. वह  ‘सुंदर’ तो थी ही, लेकिन  ‘जवान’ होने से कामकाज में बहुत तेज भी थी.

‘‘जब मैं नयानया इस आश्रम में आया, तब गंगाबाई ने ही मुझे बताया था कि महंतजी का नित्यक्रम एकदम पक्का है. वे सुबह मुझ से एक गिलास दूध मंगवाते हैं, फिर उस में अपने पास रखे काजूबदाम और अन्य मेवे मिलाते हैं और उसी का सेवन करते हैं. फिर दोपहर में केवल 2 रोटी खाते हैं. इसी तरह शाम को भी उन का यही नित्यक्रम रहता है.’’

‘‘उस दिन उस की यह बात सुन कर मुझे हंसी आ गई थी. तब गंगाबाई ने मुझ से पूछा भी था,  ‘भोला भैया, तुम्हें हंसी क्यों आई?’

‘‘सर, मुझे हंसी इसलिए आई थी कि उस की बात सुन कर मैं सोच में पड़ गया था कि एक दिन में 2-2 गिलास  मेवे वाला दूध पी कर यह महंत उसे हजम कैसे करता होगा? क्योंकि वह अपने कमरे से कभीकभार ही बाहर जाता है.

‘‘सर, गंगाबाई का पति इसी आश्रम में रहता था. मेरे यहां आने से पहले आश्रम का सारा काम वही देखता था. कुछ दिनों से मैं ने उस में एक बरताव देखा था कि वह रोजाना रात को शराब पी कर आश्रम में आने लगा था. तब मेरे मन में सवाल भी उठा था कि उस के पास शराब पीने के लिए पैसे कहां से आते हैं?

‘‘एक दिन मुझ से रहा नहीं गया और मैं ने गंगाबाई से पूछ ही लिया,  ‘बहन, तुम रोजाना अपने पति को शराब पीने के लिए पैसे क्यों देती हो?’

‘‘तब वह बोली थी,  ‘भोला भैया, मेरे पति को शराब पीने के लिए पैसे मैं नहीं देती हूं, बल्कि खुद महंतजी ही देते हैं.’’’

उस दिन उस आदमी के मुंह से ऐसी बातें सुन कर महेंद्र भी दंग रह गया था.

उस आदमी ने आगे बताया, ‘‘एक दिन जब रात को गंगाबाई का पति शराब पी कर आया, तब महंतजी ने उस की सरेआम पिटाई की और आश्रम के गेट से उसे बाहर धकेलते हुए कहा,  ‘तू रोजाना शराब पी कर आश्रम के नियमों को तोड़ता है. अब तू इस आश्रम में नहीं रह सकेगा. आज के बाद तू मुझे कभी अपना मुंह मत दिखाना.’

‘‘सर, उस रात उस का पति जो इस आश्रम से गया, तो आज तक उस का पता नहीं चला कि वह कहां है? जिंदा भी है या नहीं?

‘‘गंगाबाई भी अपने पति के साथ यहां से जाना चाहती थी, लेकिन उसी दिन महंत का एक शिष्य आश्रम में आया और उस ने महंतजी को कह कर उसे आश्रम से नहीं जाने दिया. महंत और उस का शिष्य रोजाना मेवे वाला दूध गंगाबाई के हाथों से पीते रहे.’’

‘‘एक दिन महंतजी ने मुझ से कहा,  ‘कुछ दिन के लिए तुम अपने ऋषिकेश वाले आश्रम जा कर रहो और वहां का इंतजाम देखो.’

‘‘सर, समय कब रुका है, जो रुकता. मैं एक महीने बाद दोबारा इस आश्रम में आ गया.

‘‘एक दिन सुबहसुबह गंगाबाई दौड़ीदौड़ी अपने कमरे से बाहर निकली और बाथरूम में जा कर उलटियां करने लगी. जब उस की इस हरकत पर महंतजी और उन के शिष्य की भी नजर पड़ी, तब शिष्य बोला,  ‘गुरुजी, कुछ गड़बड़ लगती है. गंगा सुबह से कई बार उलटियां कर चुकी है. मुझे लगता है कि वह पेट से हो गई है.’

‘‘शिष्य के मुंह से ऐसी बात सुनते ही महंत के माथे पर पसीना आ गया. वे बोले, ‘जैसेजैसे इस का पेट बढ़ता जाएगा, अपने पाप का घड़ा लोगों के सामने आने लगेगा. फिर जो लोग हमें साधुसंन्यासी मान कर पूजते हैं, वे ही हमारा मुंह काला कर के हमें सरेबाजार घुमाएंगे. अगर इस मुसीबत को हम ने जल्दी से नहीं निबटाया, तो हम निबट जाएंगे.’

‘‘सर, उस रात का सच आप को बता रहा हूं. वह अमावस की काली रात थी. जब रात को गंगाबाई उन्हें दूध देने उन के कमरे में गई, तभी उन्होंने उस के मुंह में कपड़ा ठूंसा, फिर गला दबा कर उस की हत्या कर दी और आधी रात के बाद रात के अंधेरे में  महंत के शिष्य ने उस की लाश एक रजाई में लपेटी और उसे गंगा में बहा आया.

‘‘उस के बाद उन दोनों ने तिजोरी से रुपए निकाल कर उसे खुला छोड़ दिया, ताकि  लगे कि यहां चोरी की वारदात हुई है.

‘‘सर, उस रात हुई हत्या और चोरी के बहुत से सुबूत मैं ने अपने पास महफूज रखे हैं. मेरी भी यही इच्छा थी कि साधु के रूप में छिपे इन अपराधी भेडि़यों को मैं सलाखों के पीछे देखूं, लेकिन जब आप के पहले के थानेदार ने इस केस में दिलचस्पी नहीं दिखाई, इसलिए मैं उन के सामने इन सुबूतों को नहीं लाया. अब मैं इस मामले से जुड़े सारे सुबूत आप को सौंप दूंगा.’’

‘‘अच्छा भोला भैया, यह बताओ कि यहां शाम ढले रोजाना कुछ औरतें अपनी लाइलाज बीमारी के इलाज के लिए आती हैं, जो कुछ  गोद भर जाने की चाह में. इस का क्या राज है?’’ महेंद्र ने धीरे से पूछा.

भोला बोला,  ‘‘सर, यह महंत और उस का शिष्य भोलीभाली औरतों को उन की लाइलाज बीमारी को मुफ्त में ठीक करने के बहाने यहां बुलाते हैं. तकरीबन 2 महीने तक जड़ीबूटियों के नाम पर पहाड़ी पर लगे पेड़ों की डालियों को पीस कर उन्हें दूध में पिलाया जाता है और जब वे औरतें इस महंत पर पूरा विश्वास करने लगती हैं, तब बारीबारी से, एकएक को दूध में  नशे की गोलियां मिला कर बेहोश किया जाता है और फिर ये उन के जिस्म के साथ अपनी हवस पूरी करते हैं. बेचारी इज्जत खो चुकी औरतें शर्म के मारे किसी को कुछ नहीं बतातीं और चुपचाप घर में बैठ जाती हैं.’’

‘‘लेकिन, आश्रम में गोद भरने ये औरतें किस आस पर आती हैं?’’ महेंद्र ने भोला से पूछा.

‘‘सर, यह महंत ऐसी हवा अपने बारे में फैलाता है कि गंगाघाट के आश्रम के महंत को सिद्धि प्राप्त हुई है और उन के आशीर्वाद से बांझ औरतों को भी बच्चे हो जाते हैं.

‘‘हमारा यह महंत गोद भरने की चाह रखने वाली औरतों को रात को आश्रम में बुलाता है, उन को 2-4 बार पूजापाठ और हवनों में बैठाता है, फिर एक  फल हाथ में दे कर उस के कान में धीरे से कहता है कि जब हम आदेश करें, तब इसे अपने मुंह में रखना. देखना, तुम्हारी गोद जल्दी ही भर जाएगी.

‘‘फिर उस औरत को महंत के कमरे के पास वाले अंधियारे कमरे में जाने के लिए कहा जाता है. वहां पहुंचते ही महंत का शिष्य उस औरत के कान में धीरे से कहता है, ‘आज तुम्हारी गोद भरने का  शुभ दिन है. देखना, आज चमत्कार होगा और महंतजी की कृपा से तुम्हारी गोद भर जाएगी. तुम इस फल को आंख बंद कर के खाती रहो.

‘‘जब वह औरत बिना कपड़ों में चमत्कार होने की राह देख रही होती है, तभी कभी यह महंत, तो कभी उस का शिष्य उस को उस अंधियारे कमरे में शिकार बनाते हैं. आखिर  मेवे वाला दूध कभी तो अपना असर दिखाएगा ही न?

‘‘अपनी लुटी इज्जत को ढकने के चक्कर में ऐसी औरतें इन पाखंडियों की करतूत किसी को नहीं बतातीं, इसलिए इन की यह दुकानदारी चलती रहती है.’’

‘‘अगर मैं महंत के खिलाफ ऐक्शन लूं, तो क्या तुम गवाही दोगे?’’ महेंद्र ने भोलाराम से पूछा.

‘‘सर, मैं यह सब लिख कर भी देने को तैयार हूं,’’ भोलाराम ने पूरे जोश के साथ कहा.

भोलाराम के बयान और उस के द्वारा दिए सुबूतों के आधार पर महेंद्र ने अगले ही दिन महंत और उस के शिष्य को गिरफ्तार कर लिया.

महंत और उस के शिष्य को गिरफ्तार हुए 2 घंटे भी नहीं हुए थे कि महेंद्र को आईजी और डीएसपी से संदेश मिलने शुरू हो गए कि उस महंत को तत्काल रिहा करो और उस के खिलाफ जो सुबूत है, उन्हें जला कर नष्ट कर दो.

जब महेंद्र ने आईजी साहब से कहा,  ‘‘सर, उस महंत के खिलफ मेरे पास पुख्ता सुबूत हैं.’’

तब आईजी बोले,  ‘‘मिस्टर, थोड़ी मेरी बात समझने की भी कोशिश करो. उस महंत का प्रभाव इतना ज्यादा है कि हम पर भी ऊपर से लगातार दबाव आ रहा है.’’

महेंद्र ने आईजी साहब से कहा,  ‘‘सर, मैं उन्हें रिहा नहीं कर सकता.’’

तब वे बोले,  ‘‘फिर तुम मेरा यह और्डर भी सुन लो, तुम्हारा तबादला  नोएडा थाने में किया जाता है. तुम तत्काल नोएडा थाने में जा कर मुझे सूचना दो.’’

रेल एकदम से रुक गई. मालूम करने पर पता चला कि किसी ने चेन खींची थी. रेल के रुकते ही इंस्पैक्टर महेंद्र यादों के साए से बाहर निकल कर हकीकत की दुनिया में आ गया. तब भी उस के मन में यह एकदम पक्का था कि वह किसी भी थाने मे क्यों न रहे, उस के काम करने का तरीका यही रहेगा, चाहे फिर तबादले कितने ही क्यों न होते रहें.

Hindi Stories Online : फेसबुक की प्रजातियां

Hindi Stories Online :  आपने कभी गौर किया है कि फेसबुक पर पोस्ट करते रहने वाले लोगों को एक कैटेगरी में रखा जा सकता है? कई तरह के लोग हैं, उन की कई तरह की आदतें हैं. जैसे पशुपक्षियों की कई प्रजातियां होती हैं, वैसे ही फेसबुक के महान लोगों की भी कई किस्मे हैं. आज उन्हीं की उदाहरण सहित बात करते हैं:

एक होते हैं विनय जैसे लोग जो जब तक सुबह 10-15 गुड मौर्निंग की अच्छे विचार वाली पोस्ट्स पोस्ट न कर दें, इन के दिन की शुरुआत नहीं होती. इस में भी कमी रह जाती है तो ये फेसबुक के मैसेंजर में जा कर भी शुभ संदेश देते हैं खासकर महिलाओं को.

फिर आते हैं कपिल जैसे लोग जिन्होंने धर्म के हित के लिए कई पोस्ट्स डालने की जिम्मेदारी उठा रखी है. जिस दिन इन की पोस्ट न दिखे तो संदेह होने लगता है कि आज देश में सब ठीक तो है. इन का धर्म आजकल हमेशा खतरे में रहता है.

ये इस तरह की पोस्ट डाल कर समझते हैं कि इन का नाम अब महान देशभक्तों की लिस्ट में आ गया है और ये अब सम्मान के उतने ही अधिकारी हैं जितने दिनरात बौर्डर पर तैनात सिपाही.

एक होते हैं सुनीता जैसे जो नेता नहीं बन पाए तो क्या, उन्हें राजनीति का पूरा ज्ञान है, जो सारा दिन लेटैस्ट राजनीति पर अपना ज्ञान इतना बघारते हैं कि कभीकभी इन की पोस्ट के आसपास से निकलते हुए भी डर लगता है कि कोई गलत बटन न दब जाए और इन की अमानत में खयानत टाइप चीज न हो जाए. ये घर में बैठेबैठे अपने विचारों से असहमत रहने वाले लोगों की नाक में दम कर सकते हैं.

इन्हें अपनी बात काटने वाले लोगों पर इतना गुस्सा आ सकता है कि ये उन्हें फोन कर के भी उन से लड़ सकते हैं. ऐसे गुणों की स्वामिनी घर पर अपने परिवार का क्या हाल करती होगी, इस का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है या ये भी हो सकता है कि घर में उन के विचारों की कद्र न होती हो, वे एक आम सी इंसान समझ जाती हों, फिर क्या करें, कहां जा कर भड़ास निकालें. चलो, फिर फेसबुक पर ही ज्ञान बघारा जाए.

एक होते हैं रेखा जैसे एक लाइक दें, एक लाइक लें, मतलब आप हमारी पोस्ट पर लाइक नहीं करोगे तो हम भी तुम्हारी पोस्ट लाइक नहीं करेंगे. इन का पूरा दिन इस हिसाबकिताब में बीत जाता है कि उस की पोस्ट पर मुझ से ज्यादा लाइक्स कैसे? रेखा की नजर से किसी की पोस्ट बच नहीं सकती पर ये लाइक्स और कमैंट्स का इतना हिसाब रखती हैं कि इन्हें नाम तक याद रहता है कि उस ने फलां की पोस्ट लाइक की, मेरी नहीं की.

एक होती हैं मीरा की तरह प्रेम दीवानी. पता नहीं कितनी भी उम्र बीत जाए, इन का समय कहीं अटक सा गया है. ये शेरोशायरी से बाहर नहीं निकल पातीं. पूरा दिन कहांकहां से ढेरों शेर ला ला ले कर पोस्ट करती हैं. ऐसा लगता है कौन सा जख्म था जो भरने का नाम ही नहीं ले रहा. एक से एक दिलजले शेर पोस्ट करने वाली प्रजाति.

इन के बच्चे ताउम्र नहीं समझ पाते कि माताजी को हुआ क्या है, कैसे कहें कि माताजी आप के शेर अच्छे नहीं होते पर मां मां होती है, मां को प्यार किया जाता है. माताजी को लगता है कि उन्हें उन के लिखे पर तो भारत रत्न मिलना चाहिए. पर ठीक है फेसबुक है न, हम यहीं लिख रहे हैं. दिल हलका हो रहा है, पढ़ने वालों का भारी हो जाए, उन्हें क्या.

एक होती हैं सुनीति जैसी जो घर वालों को बनी हुई डिशबाद में परोसती हैं. फेसबुक  पर पहले पोस्ट करती हैं, जाने कौनसी तमन्ना पूरी नहीं हुई इन की कि जब तक लोग फेसबुक पर खाने की तारीफ न करें, इन्हे संतोष नहीं होता. अगर घर वाले किसी खाने में कोई कमी निकाल दें तो उन का यही जवाब होता है कि लोगों को तो इतनी पसंद आई है, तुम्हीं लोगों के नखरे? अब इन मुहतरमा को कौन बताए कि मैडम, फेसबुक पर किसी ने तुम्हारी ज्यादा नमक वाली डिश टेस्ट थोड़े ही की है.

इन का मन फेसबुक की तारीफों से तृप्त होता है. घर वाले कुछ भी कहते रहें, इन की बला से. शायद इन की लाइफ में विटामिन टी का अभाव होता है. नहीं समझे? विटामिन तारीफ. जब घर से उतनी तारीफ नहीं मिलती जितनी इन को चाहिए होती है तो ये फेसबुक पर मिली झठी तारीफों से खुशी और संतोष पा लेती हैं, उन्हें सच समझ कर.

एक होती हैं माया जैसी. इन्हें घूमने जाने में आनंद ही इसलिए आता है कि वहां जाते ही फेसबुक पर पिक्स पोस्ट करेंगी. इन्हें पहाड़, पेड़, नदी, सागर, फूलों से प्यार ही इसलिए हो गया है कि ये पिक्स पोस्ट कर सकें. किसी रेस्तरां में खाना मुंह में बाद में जाएगा, पहले उस डिश की पोस्ट फेसबुक पर जाएगी. ये जीवन में जो भी करती हैं, फेसबुक के लिए करती हैं.

एक होते हैं सुधीर जैसे लोग जो किसी पर भी गुस्सा आए, फेसबुक पर बिना उस का नाम लिखे लिख देते हैं, नाम भी नहीं आएगा और सामने वाला भी समझ जाएगा कि उस के लिए लिखा है. इन के लिए फेसबुक एक हथियार है जिस का प्रयोग वे लगभग रोज ही करते हैं. अब तो लोग उन से उलझने से डरने लगे हैं कि भाई को कोई बात पसंद नहीं आई तो कल पोस्ट में अपने को भिगोभिगो कर मारेगा.

देखते ही देखते फेसबुक पर एक जमात और तैयार हो गई है समीक्षकों की. ये किसी भी किताब को पढ़ कर उस की समीक्षा सिर्फ इसलिए कर रहे हैं कि किताब का जिक्र होगा तो उन के लिखे का भी जिक्र होगा और उन का भी नाम होगा. लेखक ने मेहनत की है, यह अलग बात है, पर ये सब को ऐसे बताते हैं, ‘‘तुम ने मेरी फलां समीक्षा पड़ी है? मैं ने बहुत मेहनत से लिखी है समीक्षा, जरूर पढ़ना. (किताब पढ़ो या नहीं, मेरी लिखी समीक्षा पढ़ लो, बस, समीक्षा पर लाइक और कमैंट कर दो, बस) ये किताब तो नहीं लिख पाए पर समीक्षा का ऐसा शोर मचा देते हैं कि लगता है, बस ये तो लेखक से भी अच्छा लिख देते हैं.

एक और प्रजाति है. बताती हूं, एक होते हैं जो फेसबुक पर सब देखते हैं, सब पढ़ते हैं पर शांति से जीना चाहते हैं. इन का मानना है कि एक चुप, हजार सुख. तो भाई, तुम्हें लाइक लेने हैं, ले लो, मैं दूंगी, तुम लोग खुश रहो पर कभीकभी कोई पोस्ट ऐसी भी हो जाती है कि जिस पर गलती से भी लाइक का बटन नहीं दब पाता तो उन्हें यह समझना पड़ता है कि हम ने देखी ही नहीं क्योंकि आजकल तो लोग लाइक्स कम मिलने पर फोन करने लगे हैं कि भाई, हमारी पोस्ट नहीं देखी क्या? फिलहाल फेसबुक की अन्य प्रजातियों पर रिसर्च जारी है.

मगर साथ ही मेरा एक अनुभव और सलाह यह भी है कि जितना हो सके, फेसबुक की प्रजाति में अपना नाम दर्ज करवाने से अच्छा है कि किताबें पढ़ने वालों में अपना नाम दर्ज कराएं. किताबों की दुनिया से दूर हो कर फेसबुक के झूठे संसार में अपना समय खराब करने में जरा भी समझदारी नहीं है.

वे लोग यकीनन अपना समय अच्छी चीजों में लगा रहे हैं जो किताबें पढ़ रहे हैं. फेसबुक से आप एक समय बाद बोर हो सकते हैं, किताबों का शौक कभी पुराना नहीं पड़ता, न आप को इस बात का स्ट्रैस देता है कि उस की लाइक्स मेरी लाइक्स से ज्यादा कैसे.

Online Hindi Story : मुंबई की लड़की – क्या हुआ था मीना के साथ

Online Hindi Story : ‘‘मीनादीदी, आप को लेने के लिए मैं कब तक आऊं?’’ ड्राइवर सुरेश ने पूछा.

‘‘अं… मेरे खयाल से ढाई बजे तक मेरा स्कूल खत्म हो जाएगा,’’ मीना बोली.

उस का जवाब सुन कर सुरेश अपनी हंसी दबाते हुए बोला, ‘‘ठीक है, मैं उस वक्त तक आ जाऊंगा. बस एक मिस कौल दे देना, मैं गेट के पास गाड़ी ले आऊंगा.’’

सुरेश गाड़ी ले कर चला गया पर उस का इस तरह अपनी हंसी को दबाना मीना के मन से जा ही नहीं रहा था. मराठी बोलते वक्त उस से कोई गलती तो हुई, पर क्या यह उसे सम झ नहीं आ रहा था. स्कूल जातेजाते उस का मूड बिगड़ गया और आंखें भर आईं. लेकिन स्कूल के स्मार्ट वातावरण में इस तरह की भावुकता कहीं दूसरों के लिए हंसी का विषय न बन जाए, यह सोच कर मीना ने अपनी आंखें पोंछीं और ‘हाय पैम’, ‘हाय जैकी’ कहते हुए एक टोली में घुस गई. फिर तो घर जाने तक मराठी से संबंध पूरी तरह से टूट गया.

सच पूछो तो उस स्कूल में जाने के बाद भारत के किसी क्षेत्र से कोई खास संबंध बाकी नहीं रहता था. दरअसल, यह एक अंतर्राष्ट्रीय स्कूल था. भव्य इमारत, वातानुकूलित क्लास रूम्स, अंदर का फर्नीचर भी अमेरिकन किस्म का. क्लास रूम में 20-21 बच्चे और कोई यूनिफार्म नहीं. बच्चों ने कुछ ऐसे कपड़े पहन रखे थे जैसे फैशन परेड लगी हो. सभी के पास खुद का कंप्यूटर था. टीचर्स भी ऊंचे घराने के लोग थे.

मीना की क्लास में कुछ बच्चे फिल्मी हीरोहीरोइंस के, कुछ क्रिकेटर्स के तो कुछ बड़ेबड़े उद्योगपतियों के घरानों के पढ़ रहे थे. स्कूल की कैंटीन में सभी खानेपीने की चीजें पाश्चात्य तरीके की मिलती थीं तो स्कूली पढ़ाई व बोलचाल तो अंगरेजी में थी ही, व्यवहार भी अंगरेजी स्टाइल का था. पूरे माहौल में समृद्धि की खुशबू ऐसी थी जैसे स्कूल के बाहर की मुंबई, वहां की भागदौड़, गरीबी और गंदगी का इस स्कूली दुनिया से कोई भी वास्ता ही न हो.

मुंबई के नए कलेवर से मीना पूरी तरह से अनजान थी. वैसे उस का जन्म भले ही दिल्ली में हुआ हो पर वह मुंबई में ही पलीबढ़ी थी. उस के पिताजी भी यहीं के थे. डा. श्रीनिवास के इकलौते बेटे अभय. मीना की दादादादी का दादर वाला पुराना घर बहुत प्यारा था. मध्यवर्गीय हाउसिंग सोसाइटी का 2 बैडरूम वाला यह घर दूसरी मंजिल पर था. इमारत पुरानी थी इसलिए वहां लिफ्ट नहीं थी. सीढि़यां चढ़ कर जाते वक्त दादी हमेशा बड़बड़ातीं पर इस जगह को छोड़ कर कहीं और जाना संभव नहीं था. दादाजी का क्लिनिक भी नजदीक ही था. उन के कई पेशैंट्स दादर में ही रहने वाले थे. दादी की सहेलियां भी वहीं की थीं. उन का वहां अपना ही एक ग्रुप था.

डाक्टर श्रीनिवास के पास पुरानी फिएट कार थी. ठंड के मौसम में उसे

स्टार्ट करना मुश्किल हो जाया करता था. फिर तो सोसाइटी के वाचमैन के साथ छोटी मीना भी गाड़ी को धक्का लगाने आ जाती. गरमी में तो गाड़ी पूरी तरह से तप जाती थी. डाक्टर साहब ने जब एक छोटा पंखा ला कर गाड़ी में लगवाया था, तब मीना बहुत खुश हुई थी. ‘मेरे लिए न, दादाजी?’ ऐसा पूछते वक्त, ‘हां तुम्हारे लिए ही है,’ यही जवाब मिलेगा वह जानती थी. दादी के साथ बैठ कर सब्जी साफ करना, अलमारी ठीक से लगाना, खाने की तैयारी करना आदि कामों में मीना को बड़ा मजा आता था. और चाय का वक्त होने पर दादीमां के साथ प्लेट में चाय पीने की खुशी तो वह बयान ही नहीं कर सकती.

लेकिन फिर मम्मीपापा के पास वापस जाने का समय होता. अपनी नई मारुती जेन में बैठ कर उस के मम्मीपापा अभय व नंदिनी उसे लेने दादर आते. फिर तब बेमन से मीना उस ठंडी गाड़ी में बैठ कर अपने घर विले पार्ले जाती. उस का घर काफी बड़ा था. उस का एक अलग कमरा था. ढेर सारे खिलौने थे. दिन भर घर का काम करने वाली हेमा का भी खुद का एक अलग कमरा था. उस वक्त विदेशी कंपनियों ने भारत में कदम रखा था. पुरानी पीढ़ी ने कभी कल्पना भी नहीं की होगी जितना वेतन वे अभय जैसे नई पीढ़ी के नौकरी करने वाले लोगों को दे रहे थे. जीवन भर ईमानदारी से काम करते हुए सामान्य रूप से खापी कर सुखी रहने वाले अपने पिता के लिए अभय के मन में बहुत आदर था. पर वे उन के आदर्श नहीं थे, इसलिए डाक्टर के रूप में इतना मानसम्मान देने के बावजूद भी अभय ने बीकौम और एमबीए जैसी राह चुनी थी. उन्हें नौकरी भी अपनी इच्छानुसार और मोटी तनख्वाह वाली मिली और फिर अपने साथ ही एमबीए पढ़ी नंदिनी के साथ उन्होंने शादी करने का निर्णय लिया.

नंदिनी के पिता आर्मी औफिसर थे. उन के दिल्ली के आलीशान बंगले में

अभय और नंदिनी की बड़ी धूमधाम से शादी हुई. अभय के मातापिता भी इस रिश्ते से खुश थे. शादी के बाद जब नंदिनी मुंबई आईं तो सीधे अभय के नए और बड़े फ्लैट में. दादर के घर में भी वे बीचबीच में आयाजाया करती थीं. उन के व्यवहार में उत्तरी तहजीब साफ  झलकती थी. उन्होंने सभी का मन जीत लिया था. स्वभाव से भी वे काफी उदार थीं, लेकिन दादर के छोटे घर में रहना उन के लिए संभव नहीं था. फिर भी उन्होंने उस घर का कायापलट करने की ठानी. उन्होंने सब से पहले रसोई में नया किचन प्लेटफार्म बनवाया. फिर सुंदर फर्श बनवाया और पुरानी खिड़कियां निकलवा कर नई खिड़कियां लगवाईं. अच्छा कुकिंग रेंज, नया फ्रिज, फूड प्रोसेसर. अभय की मां को तो अपना किचन पहचान में ही नहीं आ रहा था.

साल भर के अंदर मीना का जन्म हुआ. महीने भर की छोटी मीना को ले कर जब नंदिनी दिल्ली से लौटीं तब डाक्टर साहब के परिवार में तो जैसे खुशी की लहर दौड़ गई. अब उन के बैडरूम में एअरकंडीशनर लग गया था. सप्ताह में 2-3 दिन मीना दादादादी के पास ही रहने लगी थी. 3 साल की होने के बाद उस ने दादी के काम में हाथ बंटाना भी शुरू किया. उस का सब से पसंदीदा काम वाटर फिल्टर से बोतलें भर कर रखना था. उस काम में आधा पानी गिर जाता था पर दादी उस पर कभी गुस्सा नहीं करती थीं फिर नीचे गिरा पानी पोंछना भी उस का पसंदीदा काम था.

सब कुछ अच्छा चल रहा था. पर अचानक अभय का लंदन ट्रांसफर हो गया. थोड़ी कोशिशों के बाद नंदिनी को भी वहीं पर काम मिल गया. उन दोनों के लिए तो यह सुनहरा मौका था. छोटी मीना तो अपने मम्मीपापा के साथ शान से एअरपोर्ट के लिए निकली. दादादादी, नानानानी सभी लोग उन्हें विदा करने आए थे. पर उस कांच के दरवाजे से अंदर जाते वक्त केवल मीना ही नहीं, अभय और नंदिनी का भी दिल भर आया था.

और अब पूरे 10 साल बाद वे ट्रांसफर ले कर फिर से मुंबई आए थे. बीच के

समय में मुंबई पूरी तरह से बदल गई थी. बौंबे नाम होते हुए भी देशी  झलक देने वाला यह शहर मुंबई जैसा देशी नाम पड़ने के बावजूद बिलकुल विदेशी शहरों से प्रतियोगिता करता दिख रहा था. बड़ेबड़े मौल्स, उस में स्थित आधुनिक सिनेमागृह, विदेशी कंपनियों की दुकानें, रास्ते पर दौड़ने वाली नईनई गाडि़यां, दुनिया भर की डिशेज खिलाने वाले होटल्स, बिलकुल आसानी से मिलने वाले और अच्छेअच्छे मोबाइल फोंस. यह सब देख कर अभय और नंदिनी तो बहुत खुश हुए. जागरूकता का प्रत्यक्ष परिणाम उन्हें खुश कर गया. हर चीज से परिपूर्ण अपने देश को देख कर उन्हें बहुत गर्व हुआ. लेकिन फिर भी एक बहुत बड़े वर्ग की गरीबी उन्हें साफ नजर आ ही रही थी. लेकिन वह तो पहले भी थी. पर अब विकास के कई नए रास्ते खुल गए थे. गरीबी से अमीरी तक पहुंचने वालों के किस्से सुनने में आने लगे थे. साथ ही मन में अपने लोगों के बीच वापस आने का एक अलग ही संतोष भी था. मांबाप से दूर रहने की अपराधी भावना भी एक  झटके में खत्म हो गई थी.

लेकिन अब मीना काफी चिड़चिड़ी हो गई थी. बौंबे से मुंबई बना यह शहर उसे पराया लग रहा था. लंदन में रहते वक्त ‘आई एम फ्रोम बौंबे’ आसानी से कह देती थी. पर अब तो बौंबे बोलना किसी को अच्छा नहीं लगता था. मुंबई बोलना उस की अंगरेजी जीभ को भारी पड़ता था और उस से भी ज्यादा बुरा उसे इस शहर का माहौल लग रहा था. दादी के घर में जब एअरकंडीशनर लगवाया था तब वह सभी को कितना दुर्लभ लग रहा था. और अब तो घरघर में दिनरात एअरकंडीशनर चलता दिखाई पड़ रहा था. पहले फौरेन से लाई कांच की चीजें, टेबल मैट्स, यहां तक की चम्मच भी लोगों को काफी कीमती लगते थे, पर अब वे सारी चीजें यहीं पर मिलने लगी थीं. ‘लंदन से आते वक्त अब शैंपू, साबुन, परफ्यूम कुछ नहीं लाना. अब यहीं पर सब कुछ मिलता है,’ ऐसा दादी ने बड़े गर्व से कहा था.

मीना के जानपहचान की सारी निशानियां मिट रही थीं. उसे लग रहा था जैसे हमारी जड़ें ही उखड़ती जा रही हैं. उस की भरोसे की एक ही जगह थी, दादी का घर. पर वह भी पराया लगने लगा था. पहले ही दिन जब बड़े आत्मविश्वास के साथ वह दादी की मदद करने रसोईघर में गई तब नई ऐक्वागार्ड मशीन देख कर उसे रोना ही आ गया. उसे इतना दुख हुआ जैसे पहले वाला फिल्टर बदल कर जैसे दादी ने उस के साथ विश्वासघात किया हो.

फिर भी इस शहर के साथ सम झौता करने की मंशा से उस ने मराठी बोलने की कोशिश शुरू की. घर वालों ने उस की प्रशंसा भी की, लेकिन बाहर वालों ने उस का मजाक ही उड़ाया. मीना को लगता था कि वह मूल रूप से मुंबई की है पर मुंबई वालों ने तो उसे लंदन वाली बना दिया था. फिर मैं हूं कहां की? यह सवाल उसे बारबार तकलीफ दे रहा था. मांबाप का इतनी आसानी से यहां घुल जाना उसे सम झ नहीं आ रहा था. आसपास की गरीबी और असभ्यता उन्हें कैसे नजर नहीं आ रही थी? रास्ते की गंदगी,  झोंपड़पट्टियां यह सब उन्हें क्यों नजर नहीं आ रहा था? या सिर्फ अपने देश वापस आने की खुशी ही इन सभी बातों को अनदेखा कर रही थी? फिर मेरा देश कौन सा है? मु झे कहां पर यह लगेगा कि मैं अपने घर आई हूं?

झोंपड़पट्टी के बारे में उस ने जब नंदिनी से पूछा तब वे

बोलीं कि वह तो हमें दिखाई देती है बेटी, लेकिन तुम यह बात भी सोचो कि अपना गांव, शहर, प्रदेश छोड़ कर ये लोग इस शहर में रहने क्यों आते हैं? इस शहर में उन्हें रोजगार मिलता है. मेहनत कर के वे अपना भविष्य बना सकते हैं. किसी भी क्षेत्र में वे उड़ान भर सकते हैं. और यह शहर ऐसा है जो किसी को भी यहां आने से रोकता नहीं है, क्योंकि उन की मेहनत से ही यहां का काम चलता है. यानी यहां सच में उन की जरूरत है. है ना बेटी? कोई अपना घरबार छोड़ कर बेमतलब तो यहां नहीं आएगा न?’’

अब मीना के मन की उल झन कुछ कम हो गई थी, लेकिन वह मुंबई को अपना कहे या न कहे उसे सम झ में नहीं आ रहा था. उस की मराठी बोली पर हंसीमजाक बनाने वाली बातें भी अनुत्तरित थीं.

एक बार घर की नौकरानी को उस ने सीधे अंगरेजी में पूछा, ‘‘नंदा, कैन यू गैट दिस ड्रैस आयरंड?’’

सलीके से रहने वाली नंदा बोली, ‘‘श्योर मीना दीदी. ऐनी थिंग एल्स?’’

?अब मीना के मन की उल झन सुल झने लगी. दुकानदार तो थोड़ीबहुत अंगरेजी बोल ही लेते थे, पर ड्राइवर सुरेश भी उस के सामने अंगरेजी बोलने की कोशिश करता दिख रहा था. एक दिन सुबहसुबह जब वह स्कूल के लिए निकली तब एक जवान लड़का उस के पास आया और बिलकुल सहजता से उस से बोला, ‘‘गुड मौर्निंग दीदी, आय एम योर स्वीपर.’’

मीना की आंखें खुल गईं. मन में बसे पहले के बौंबे की जगह आज की वास्तविक और तेज गति से आगे बढ़ने वाली मुंबई उसे नजर आने लगी थी. आज पानीपूरी वाला प्लास्टिक के ग्लब्स पहन कर बिसलेरी के पानी में बनी पानीपूरी दे रहा था. पिज्जा हट के पिज्जा और मैकडोनाल्ड के बर्गर में भी अच्छा भारतीय टेस्ट आने लगा था. हर प्रकार के कौस्मैटिक्स आसानी से मिल रहे थे. लिंकिंग रोड में आधुनिक विदेशी फैशन वाले कपड़े भी सस्ते में मिल रहे थे. नई रिलीज हुई हौलीवुड पिक्चर्स भी अब विदेशी थिएटर्स जैसे ही भारतीय थिएटर्स में देखने को मिल रही थीं.

देखते ही देखते यह बदली हुई मुंबई मीना के भी मन में बस गई. उस ने उसे बौंबे के बंधन से मुक्त कर दिया. ‘तु झे हमारी भाषा भले ही न आती हो पर तू हमारी है. तु झ से जैसा संभव हो तू बोल. तू हमारी हंसीमजाक वाली नहीं है बल्कि प्रशंसा और प्यार वाली है. और अगर बोलने में कुछ ज्यादा ही रुकावट आ रही हो तो हम हैं न, हम तुम से अंगरेजी में बात करेंगे,’ किसी ने उस के मन में उसे ऐसा भरोसा दिलाया.

फिर एक शाम मीना दादी के पास आई और बोली, ‘‘दादी, आज थाई खाना मंगाएं क्या?’’

‘‘हांहां जरूर. हमें भी उस की ग्रीन करी बहुत पसंद है,’’ दादी बोलीं.

फिर कुछ ही देर में एक सुंदर से बरतन में खाना आया तो ठंडी हवा में टीवी सीरियल देखते हुए दादादादी और पोती खाना खाने लगे.

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