Interesting Hindi Stories : पुष्पा – कहां चली गई थी वह

Interesting Hindi Stories : उस बड़ी सी कालोनी के 10 घरों में पार्टटाइम काम कर रही थी. कब से, यह बात कम ही लोग जानते थे. कितने ही घरों में नए मालिक आ चुके थे, पर हर नए मालिक ने पुष्पा को अपना लिया था. 240 सी वाली यादव मेम साहब ने नई बहू को बताया था, ‘‘जब मैं ने अपनी ससुराल में पहला कदम रखा था, तब पुष्पा ने ही सब से पहले मेरे लंबे घूंघट में अपना मुंह घुसा कर मेरी सास को कहा था, ‘अरे अम्मां, तुम बहू लाई हो या चांद का टुकड़ा… मैं वारी जाऊं, हाथ लगाते ही मैली हो जाएगी.’ 240 सी वाली मेम साहब एक बडे़ दफ्तर में काम करती थीं और उसी दिन से पुष्पा की चहेती बन गई थीं. पुष्पा यादव मेम साहब की सास को ‘अम्मां’ कह कर ही बुलाती थी. अम्मां ने उसे मां की तरह ही पाला था और उसे अपने बच्चों सा ही प्यार दिया था. किसी भी नए घर में रखने से पहले पूरी जानकारी अम्मां लेती थीं और फिर यह काम 240 सी वाली यादव मेम साहब ने करना शुरू कर दिया था. 20 सालों में पुष्पा 19 साल से 39 की हो गई,

पर अभी भी उस में फुरती भरी थी. पुष्पा का बाप अम्मां के ही गांव का चौकीदार था. पुष्पा के जन्म के फौरन बाद उस की मां चल बसी थी. लेकिन बाद में बाप ने कभी उसे मां की कमी महसूस नहीं होने दी थी. दिन बीतते देर नहीं लगती. एक के बाद एक 14 साल पार कर के बरसाती नदी सी अल्हड़ पुष्पा बचपन को पीछे छोड़ जवानी की चौखट पर आ पहुंची थी. उन्हीं दिनों बाप ने पढ़ाई छुड़वा कर 17 साल की उम्र में ब्याह करा दिया, लेकिन जिस शान से वह ससुराल पहुंची, उसी शान से 10 दिन में वापस भी आ गई. पति ने एक सौत जो बिठा रखी थी पड़ोस में. बाप के पास रह कर मजूरी करना पुष्पा को मंजूर था, लेकिन सौत की चाकरी करना उस के स्वभाव में नहीं था. उस घर में दूसरे दर्जे की पत्नी बन कर रहना उसे कतई पसंद न आया. चौकीदार बाप ने उसे इस कालोनी में नौकरी दिला दी थी.

पुष्पा ने भी खुशीखुशी सारे घरों को संभाल लिया था. सर्वैंट क्वार्टर में उस का पक्का ठिकाना हो गया था. दुख की हलकी सी छाया भी उस के चेहरे पर दिखाई न दी थी. 2 साल बाद पुष्पा का बाप भी चल बसा. फिर धीरेधीरे वह इस कालोनी के लोगों में ही शामिल होती चली गई. किसी ने भी उसे कभी कुछ कहा हो, याद नहीं. पुष्पा ने हर घर का काम मुस्तैदी से किया और शिकायत का सवाल ही नहीं था. 5-6 घरों की चाबियां उसी के पास रहती थीं. बच्चे कब स्कूल से आएंगे, कौन सी बस से आएंगे, खाने में क्या खाएंगे, उसे मालूम था. ऐसा लगता था कि वह कालोनी की कामकाजी औरतों की जान है. घर के भंडारे से ले कर बाहर तक के सारे कामकाज का जिम्मा पुष्पा के ही सिर पर था. शादीब्याह के मौकों पर रिश्ते की औरतें आतीं और कमरों का एकएक कोना थाम कर अपनाअपना सामान सजा कर बैठ जातीं. लेकिन सब को समय पर चाय मिलती और समय पर खाना. ऐसे में पुष्पा को जरा भी फुरसत नहीं मिलती थी.

हर मेमसाहब और मेहमानों के काम में हाथ बंटाती वह चकरघिन्नी की तरह घूमती हुई सारा घर संभालती थी. पुष्पा को इस कालोनी से न जाने कैसा मोह सा हो गया था कि वह कहीं और जाने को तैयार न होती. सब बच्चे उसी की गोद में पले थे. अकसर सभी की छोटीमोटी जरूरतें पुष्पा ही पूरी करती थी. न जाने कितनी बार उस ने बच्चों को अपनीअपनी मांओं से पिटने से भी बचाया था. यादव मेम साहब अकसर कहतीं, ‘‘तुम इन सब को सिर पर चढ़ा कर बिगाड़ ही दोगी पुष्पा.’’ ‘‘अरे नहीं मेम साहब, मैं क्या इन का भलाबुरा नहीं समझती,’’ कहते हुए वह बच्चों को अपनी बांहों में समेट लेती.

धीरेधीरे बच्चों के ब्याह होने लगे. घरों में नए लोग आने लगे. ऐसे में एक दिन 242 सी वाली मेम साहब ने पूछ ही लिया, ‘‘अरे पुष्पा, सब का ब्याह हुआ जा रहा है, तू कब ब्याह करेगी?’’ ‘‘मैं तो ब्याही हूं मेम साहब,’’ वह लजा गई. ‘‘अरे, वह भी कोई ब्याह था तेरा, न जाते देर, न आते देर. अब तक तो तुझे दूसरा ब्याह कर लेना चाहिए था,’’ 250 सी वाली ने भी उसे समझाते हुए कहा ही था कि पुष्पा अपने कान पकड़ते हुए बोली, ‘‘यह क्या कहती हो मेम साहब, एक मरद के रहते दूसरा कैसे कर लूं? अरे, उस ने तो मुझे भगाया नहीं, मैं खुद ही चली आई थी.’’ लेकिन एक दिन न जाने कहां से पता पूछतेपूछते पुष्पा का मर्द आ ही टपका. पुष्पा सोसाइटी की सीढि़यां धो रही थी. दरवाजा खुलने के साथ ही उस ने घूम कर देखा. दूसरे ही पल साफ पहचान गई अपने मर्द को. इतने सालों बाद भी उस में ज्यादा फर्क नहीं आया था. बालों में हलकी सफेदी जरूर आ गई थी, पर शरीर वैसा ही दुबलापतला था.

लेकिन वह पुष्पा को नहीं पहचान पाया. उस को एकटक अपनी ओर देखता पा कर उस ने थोड़ी हिम्मत से कहा, ‘‘मैं… दिनेश हूं. पुष्पा क्या यहीं…?’’ लेकिन दूसरे ही पल उसे लगा कि शायद यही तो पुष्पा है, ‘‘कहीं तुम ही तो…?’’ पुष्पा ने धीरे से सिर झुका लिया. उस की चुप्पी से उस का साहस बढ़ा, ‘‘मैं तुम्हें लेने आया हूं पुष्पा.’’ पुष्पा सिर झुकाए चुपचाप खड़ी रही. ‘‘मैं बिलकुल अकेला रह गया हूं. तुम्हारी बहुत याद आती?है. देखो, इनकार मत करना.’’ पुष्पा हैरानी से अपने मर्द को देखती रह गई. इतने सालों बाद आज किस हक से वह उसे लेने आया है. पुष्पा के चेहरे पर कई रंग आए और गए. उस ने कुछ सख्त लहजे में कहा, ‘‘क्यों…? तुम्हारी ‘वह’ कहां गई?’’ ‘‘कौन… लक्ष्मी…? वह तो बहुत समय पहले ही मुझे छोड़ कर चली गई थी. लालची थी न…

जब तक मेरे पास पैसे रहे, वह भी रही. पैसे खत्म हो गए, तो वह भी चली गई.’’ कुछ ठहर कर दिनेश ने फिर गिड़गिड़ा कर कहा, ‘‘मैं तुम्हारा गुनाहगार हूं. जो चाहे सजा दे लो, लेकिन तुम्हें मेरे साथ चलना ही होगा. देखो, इनकार मत करना,’’ उस की आंखों से आंसू बह चले थे. पुष्पा का दिल भर आया. औरत का दिल जो ठहरा. जरा सा किसी के आंसू देखे, झट पिघल गया. उस ने गौर से उसे देखा, ‘कैसा तो हो आया है इस का चेहरा. ब्याह के समय कैसी मजबूत और सुंदर देह थी इस की. बहुत कमजोर भी लग रहा है,’ आंसुओं को आंचल के कोर से पोंछ कर उस ने अपने पति दिनेश को बरामदे में रखे स्टूल पर बैठाया और खुद एक फ्लैट में चली गई. मेम साहब के पास जा कर वह धीरे से बोली, ‘‘मेम साहब, मेरा मर्द आया है.’’ ‘‘क्या…?’’ सुन कर वे चौंक गईं. पुष्पा पागल तो नहीं हो गई.

उन्होंने एक बार फिर पूछा, ‘‘कौन आया है?’’ ‘‘वह बाहर बैठा है. कह रहा है, मुझे लेने आया है,’’ पुष्पा धीरे से बाहर की ओर मुड़ गई. अब तो आगेआगे पुष्पा और पीछे से एकएक कर के सब फ्लैटों की मेम साहबें अपने सब काम छोड़ कर एक लाइन से बरामदे में आ कर खड़ी हो गईं. सब को देखते ही वह घबरा कर खड़ा हो गया. सब की घूरती निगाहों का सामना करने की हिम्मत शायद उस में नहीं थी. सिर झुका कर वह धीरे से बोला, ‘‘मैं दिनेश हूं. पुष्पा को लेने आया हूं.’’ ‘‘क्यों…?’’ अपने गुस्से को दबाते हुए एक मेम साहब बोलीं, ‘‘इतने बरस कहां था, जब पुष्पा…’’ तब तक पुष्पा ने आगे आ कर भरे गले से उन्हें वहीं रोक दिया, ‘‘कुछ न कहो मेम साहब इसे. यह अकेला है. इसे मेरी जरूरत है. देर से ही सही, मेरी सुध तो आई इसे.’’ अब इस के आगे कोई क्या बोलता. पुष्पा अंदर जा कर अपना सामान समेटने लगी. अचानक उस के हाथ रुक गए. इस कालोनी को छोड़ते हुए उसे जाने कैसा लग रहा था.

वह सोचने लगी, ‘कितनी मतलबी हूं मैं. अपने सुख के लिए आज इन लोगों का सारा स्नेह, सारा प्रेम मैं कैसे भूल गई. कितनी आसानी से मैं इन लोगों को छोड़ कर जाने को तैयार हो रही हूं,’ उस की आंखों से टपटप गिरते आंसू उस का आंचल भिगोने लगे. अभी वह कुछ सोच ही रही थी कि कई मालकिनें एकसाथ उस के कमरे में जा पहुंचीं. पुष्पा एक मेम साहब के गले लग कर जोर से रो पड़ी, ‘‘मुझे माफ करना, आज मैं सबकुछ भूल गई.’’ ‘‘नहीं पुष्पा, तुम ने उस के साथ जाने का इरादा कर के बहुत अच्छा किया है. अपना मर्द अपना ही होता है. चाहे कितना भी वह भटकता रहे, एक दिन उसे वापस लौटना ही होता?है. जब जागो तभी सवेरा समझो,’’ यादव मेम साहब ने पुष्पा की पीठ थपथपाते हुए कहा.

उस का सामान बाहर पहुंचा दिया गया था. आगे बढ़ कर उस कालोनी के सब लोगों को एकएक कर के नमस्ते करते हुए पुष्पा बोली, ‘‘आप सब खुश रहो.’’ अब तक 240 सी वाली अम्मां भी बाहर आ गई थीं, जो सब से ज्यादा बुजुर्ग थीं. पुष्पा ने सिर झुकाए आंसू भरी आंखों से उन्हें देखा, ‘‘अम्मां,’’ भरे गले से आगे कुछ न बोल सकी. उन्होंने उसे समझाया, ‘‘इतना दुखी क्यों हो रही हो पुष्पा…? तुम खुशीखुशी उस के साथ घर बसाओ, यही हम सब चाहते हैं. अरे, औरत का जीवन ही यही है. औरत मर्द के बिना और मर्द औरत के बिना अधूरा होता है. ‘‘तुम्हारे जाने का दुख हम सब को है, किंतु तुम्हारे इस फैसले से हमें बहुत खुशी हो रही है. हंसतीखेलती जाओ, मगर हमें भूल मत जाना.’’

इतने में सब ने उन दोनों को रुकने के लिए कहा. 15 मिनट में सारी मालकिनें अपनेअपने हाथों में थैले पकड़े आ गईं. हर कोई बढ़चढ़ कर पुष्पा के लिए अच्छी से अच्छी चीज लाया था. 240 सी वाली यादव मेम साहब ने अपने ड्राइवर को कहा, ‘‘गाड़ी की डिग्गी खोलो और सब सामान रखो. यह इन के साथ जाएगा.’’ 242 सी वाली मेम साहब ने 10,000 रुपए पकड़ाए और कहा, ‘‘मेरा नौकर तुम दोनों को ट्रेन में भी बैठा आएगा.’’ दिनेश ने आगे बढ़ कर पुष्पा का हाथ पकड़ा. धीरेधीरे वे दोनों सब की नजरों से दूर होते चले गए. पुष्पा का कमरा आज भी उस कालोनी में खाली है. सब ने वादा लिया?है बच्चों से कि पुष्पा कभी भी आए, कैसी भी हो, उसे कोई रहने से नहीं रोकेगा.

Latest Hindi Stories : सासुजी हों तो हमारी जैसी

Latest Hindi Stories :  पत्नीजी का खुश होना तो लाजिमी था, क्योंकि उन की मम्मीजी का फोन आया था कि वे आ रही हैं. मेरे दुख का कारण यह नहीं था कि मेरी सासुजी आ रही हैं, बल्कि दुख का कारण था कि वे अपनी सोरायसिस बीमारी के इलाज के लिए यहां आ रही हैं. यह चर्मरोग उन की हथेली में पिछले 3 वर्षों से है, जो ढेर सारे इलाज के बाद भी ठीक नहीं हो पाया.

अचानक किसी सिरफिरे ने हमारी पत्नी को बताया कि पहाड़ी क्षेत्र में एक व्यक्ति देशी दवाइयां देता है, जिस से बरसों पुराने रोग ठीक हो जाते हैं.

परिणामस्वरूप बिना हमारी जानकारी के पत्नीजी ने मम्मीजी को बुलवा लिया था. यदि किसी दवाई से फायदा नहीं होता तो भी घूमनाफिरना तो हो ही जाता. वह  तो जब उन के आने की पक्की सूचना आई तब मालूम हुआ कि वे क्यों आ रही हैं?

यही हमारे दुख का कारण था कि उन्हें ले कर हमें पहाड़ों में उस देशी दवाई वाले को खोजने के लिए जाना होगा, पहाड़ों पर भटकना होगा, जहां हम कभी गए नहीं, वहां जाना होगा. हम औफिस का काम करेंगे या उस नालायक पहाड़ी वैद्य को खोजेंगे. उन के आने की अब पक्की सूचना फैल चुकी थी, इसलिए मैं बहुत परेशान था. लेकिन पत्नी से अपनी क्या व्यथा कहता?

निश्चित दिन पत्नीजी ने बताया कि सुबह मम्मीजी आ रही हैं, जिस के चलते मुझे जल्दी उठना पड़ा और उन्हें लेने स्टेशन जाना पड़ा. कड़कती सर्दी में बाइक चलाते हुए मैं वहां पहुंचा. सासुजी से मिला, उन्होंने बत्तीसी दिखाते हुए मुझे आशीर्वाद दिया.

हम ने उन से बाइक पर बैठने को कहा तो उन्होंने कड़कती सर्दी में बैठने से मना कर दिया. वे टैक्सी से आईं और पूरे 450 रुपए का भुगतान हम ने किया. हम मन ही मन सोच रहे थे कि न जाने कब जाएंगी?

घर पहुंचे तो गरमागरम नाश्ता तैयार था. वैसे सर्दी में हम ही नाश्ता तैयार करते थे. पत्नी को ठंड से एलर्जी थी, लेकिन आज एलर्जी न जाने कहां जा चुकी थी. थोड़ी देर इधरउधर की बातें करने के बाद उन्होंने अपने चर्म रोग को मेरे सामने रखते हुए हथेलियों को आगे बढ़ाया. हाथों में से मवाद निकल रहा था, हथेलियां कटीफटी थीं.

‘‘बहुत तकलीफ है, जैसे ही इस ने बताया मैं तुरंत आ गई.’’

‘‘सच में, मम्मी 100 प्रतिशत आराम मिल जाएगा,’’ बड़े उत्साह से पत्नीजी ने कहा.

दोपहर में हमें एक परचे पर एक पहाड़ी वैद्य झुमरूलाल का पता उन्होंने दिया. मैं ने उस नामपते की खोज की. मालूम हुआ कि एक पहाड़ी गांव है, जहां पैदल यात्रा कर के पहुंचना होगा, क्योंकि सड़क न होने के कारण वहां कोई भी वाहन नहीं जाता. औफिस में औडिट चल रहा था. मैं अपनी व्यथा क्या कहता. मैं ने पत्नी से कहा, ‘‘आज तो रैस्ट कर लो, कल देखते हैं क्या कर सकते हैं.’’

वह और सासुजी आराम करने कमरे में चली गईं. थोड़ी ही देर में अचानक जोर से कुछ टूटने की आवाज आइ. हम तो घबरा गए. देखा तो एक गेंद हमारी खिड़की तोड़ कर टीवी के पास गोलगोल चक्कर लगा रही थी. घर की घंटी बजी, महल्ले के 2-3 बच्चे आ गए. ‘‘अंकलजी, गेंद दे दीजिए.’’

अब उन पर क्या गुस्सा करते. गेंद तो दे दी, लेकिन परदे के पीछे से आग्नेय नेत्रों से सासुजी को देख कर हम समझ गए थे कि वे बहुत नाराज हो गईर् हैं. खैर, पानी में रह कर मगर से क्या बैर करते.

अगले दिन हम ने पत्नीजी को चपरासी के साथ सासुजी को ले कर पहाड़ी वैद्य झुमरूलाल के पास भेज दिया. देररात वे थकी हुई लौटीं, लेकिन खुश थीं कि आखिर वह वैद्य मिल गया था. ढेर सारी जड़ीबूटी, छाल से लदी हुई वे लौटी थीं. इतनी थकी हुई थीं कि कोई भी यात्रा वृत्तांत उन्होंने मुझे नहीं बताया और गहरी नींद में सो गईं. सुबह मेरी नींद खुली तो अजीब सी बदबू घर में आ रही थी.

उठ कर देखने गया तो देखा, मांबेटी दोनों गैस पर एक पतीले में कुछ उबाल रही थीं. उसी की यह बदबू चारों ओर फैल रही थी. मैं ने नाक पर रूमाल रखा, निकल कर जा ही रहा था कि पत्नी ने कहा, ‘‘अच्छा हुआ आप आ गए.’’

‘‘क्यों, क्या बात है?’’

‘‘कुछ सूखी लकडि़यां, एक छोटी मटकी और ईंटे ले कर आ जाना.’’

‘‘क्यों?’’ मेरा दिल जोरों से धड़क उठा. ये सब सामान तो आखिरी समय मंगाया जाता है?

पत्नी ने कहा, ‘‘कुछ जड़ों का भस्म तैयार करना है.’’

औफिस जाते समय ये सब फालतू सामान खोजने में एक घंटे का समय लग गया था. अगले दिन रविवार था. हम थोड़ी देर बाद उठे. बिस्तर से उठ कर बाहर जाएं या नहीं, सोच रहे थे कि महल्ले के बच्चों की आवाज कानों में पड़ी, ‘‘भूत, भूत…’’

हम ने सुना तो हम भी घबरा गए. जहां से आवाज आ रही थी, उस दिशा में भागे तो देखा आंगन में काले रंग का भूत खड़ा था? हम ने भी डर कर भूतभूत कहा. तब अचानक उस भूतनी ने कहा, ‘‘दामादजी, ये तो मैं हूं.’’

‘‘वो…वो…भूत…’’

‘‘अरे, बच्चों की गेंद अंदर आ गईर् थी, मैं सोच रही थी क्या करूं? तभी उन्होंने दीवार पर चढ़ कर देखा, मैं भस्म लगा कर धूप ले रही थी. वे भूतभूत चिल्ला उठे, गेंद वह देखो पड़ी है.’’ हम ने गेंद देखी. हम ने गेंद ली और देने को बाहर निकले तो बच्चे दूर खड़े डरेसहमे हुए थे. उन्होंने वहीं से कान पकड़ कर कहा, ‘‘अंकलजी, आज के बाद कभी आप के घर के पास नहीं खेलेंगे,’’ वे सब काफी डरे हुए थे.

हम ने गेंद उन्हें दे दी, वे चले गए. लेकिन बच्चों ने फिर हमारे घर के पास दोबारा खेलने की हिम्मत नहीं दिखाई.

महल्ले में चोरी की वारदातें भी बढ़ गई थीं. पहाड़ी वैद्य ने हाथों पर यानी हथेलियों पर कोई लेप रात को लगाने को दिया था, जो बहुत चिकना, गोंद से भी ज्यादा चिपकने वाला था. वह सुबह गाय के दूध से धोने के बाद ही छूटता था. उस लेप को हथेलियों से निकालने के लिए मजबूरी में गाय के दूध को प्रतिदिन मुझे लेने जाना होता था.

न जाने वे कब जाएंगी? मैं यह मुंह पर तो कह नहीं सकता था, क्यों किसी तरह का विवाद खड़ा करूं?

रात में मैं सो रहा था कि अचानक पड़ोस से शोर आया, ‘चोरचोर,’ हम घबरा कर उठ बैठे. हमें लगा कि बालकनी में कोई जोर से कूदा. हम ने भी घबरा कर चोरचोर चीखना शुरू कर दिया. हमारी आवाज सासुजी के कानों में पहुंची होगी, वे भी जोरों से पत्नी के साथ समवेत स्वर में चीखने लगीं, ‘‘दामादजी, चोर…’’

महल्ले के लोग, जो चोर को पकड़ने के लिए पड़ोसी के घर में इकट्ठा हुए थे, हमारे घर की ओर आ गए, जहां सासुजी चीख रही थीं, ‘‘दामादजी, चोर…’’ हम ने दरवाजा खोला, पूरे महल्ले वालों ने घर को घेर लिया था.

हम ने उन्हें बताया, ‘‘हम जो चीखे थे उस के चलते सासुजी भी चीखचीख कर, ‘दामादजी, चोर’ का शोर बुलंद कर रही हैं.’’

हम अभी समझा ही रहे थे कि पत्नीजी दौड़ती, गिरतीपड़ती आ गईं. हमें देख कर उठीं, ‘‘चोर…चोर…’’

‘‘कहां का चोर?’’ मैं ने उसे सांत्वना देते हुए कहा.

‘‘कमरे में चोर है?’’

‘‘क्या बात कर रही हो?’’

‘‘हां, सच कह रही हूं?’’

‘‘अंदर क्या कर रहा है?’’

‘‘मम्मी ने पकड़ रखा है,’’ उस ने डरतेसहमते कहा.

हम 2-3 महल्ले वालों के साथ कमरे में दाखिल हुए. वहां का जो नजारा देखा तो हम भौचक्के रह गए. सासुजी के हाथों में चोर था, उस चोर को उस का साथी सासुजी से छुड़वा रहा था. सासुजी उसे छोड़ नहीं रही थीं और बेहोश हो गई थीं. हमें आया देख चोर को छुड़वाने की कोशिश कर रहे चोर के साथी ने अपने दोनों हाथ ऊपर उठा कर सरैंडर कर दिया. वह जोरों से रोने लगा और कहने लगा, ‘‘सरजी, मेरे साथी को अम्माजी के पंजों से बचा लें.’’

हम ने ध्यान से देखा, सासुजी के दोनों हाथ चोर की छाती से चिपके हुए थे. पहाड़ी वैद्य की दवाई हथेलियों में लगी थी, वे शायद चोर को धक्का मार रही थीं कि दोनों हथेलियां चोर की छाती से चिपक गई थीं. हथेलियां ऐसी चिपकीं कि चोर क्या, चोर के बाप से भी वे नहीं छूट रही थीं. सासुजी थक कर, डर कर बेहोश हो गई थीं. वे अनारकली की तरह फिल्म ‘मुगलेआजम’ के सलीम के गले में लटकी हुई सी लग रही थीं. वह बेचारा बेबस हो कर जोरजोर से रो रहा था.

अगले दिन अखबारों में उन के करिश्मे का वर्णन फोटो सहित आया, देख कर हम धन्य हो गए. आश्चर्य तो हमें तब हुआ जब पता चला कि हमारी सासुजी की वह लाइलाज बीमारी भी ठीक हो गई थी. पहाड़ी वैद्य झुमरूलालजी के अनुसार, हाथों के पूरे बैक्टीरिया चोर की छाती में जा पहुंचे थे.

यदि शहर में आप को कोई छाती पर खुजलाता, परेशान व्यक्ति दिखाई दे तो तुरंत समझ लीजिए कि वह हमारी सासुजी द्वारा दी गई बीमारी का मरीज है. हां, चोर गिरोह के पकड़े जाने से हमारी सासुजी के साथ हमारी साख भी पूरे शहर में बन गई थी. ऐसी सासुजी पा कर हम धन्य हो गए थे.

Famous Hindi Stories : भंवरजाल – जब भाई बहन ने लांघी रिश्तों की मर्यादा

 Famous Hindi Stories : ‘‘कैसे भागभाग कर काम कर रहा है रिंटू.’’ ‘‘हां, तो क्यों नहीं करेगा, आखिर उस की बहन सोना की सगाई जो है,’’ दूसरे शहर से आए रिश्तेदार आपस में बतिया रहे थे और घर वाले काम निबटाने में व्यस्त थे. लेकिन क्यों बारबार भाई है, बहन है कह कर जताया जा रहा था? थे तो रिंटू ओर सोनालिका बुआममेरे भाईबहन, किंतु क्या कारण था कि रिश्तेदार उन के रिश्ते को यों रेखांकित कर रहे थे?

‘‘पता नहीं मामीजी को क्या हो गया है, अंधी हो गईं हैं बेटे के मोह में. और, क्या बूआजी भी नहीं देख पा रहीं कि सोना क्या गुल खिलाती फिर रही है?’’ बड़ी भाभी सुबह नाश्ता बनाते समय रसोई में बुदबुदा रही थीं. रसोई में काम के साथ चुगलियों का छौंक काम की सारी थकान मिटा देती है. साथ में सब्जी काटती छोटी मामी भी बोलीं ‘‘हां, कल रात देखा मैं ने, कैसे एक ही रजाई में रिंटू और सोना…सब के सामने. कोई उन्हें टोकता क्यों नहीं?’’

‘‘अरे मामी, जब उन दोनों को कोई आपत्ति नहीं, उन की माताओं को कुछ दिखता नहीं तो कौन अपना सिर ओखली में दे कर मूसली से कुटवाएगा?’’ बड़ी भाभी की बात में दम था. रिश्तेदार पीठ पीछे बात करते नहीं थकते परंतु सामने बोल कर बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे? जो हो रहा है, होने दो. मजा लो, बातें बनाओ और तमाशा देखो. जब से सोनालिका किशोरावस्था की पगडंडी पर उतरी, तभी से उस के ममेरे भाई उस से 12 वर्ष बड़े रिंटू ने उस का हाथ थाम लिया. हर पारिवारिक समारोह में उसे अपने साथ लिए फिरता. अपनी गर्लफ्रैंड्स की रोचक कहानियां सुना उसे गुदगुदाता. सोनालिका भी रिंटू भैया के आते ही और किसी की ओर नहीं देखती. उसे तो बस रिंटू भैया की रसीली बातें भातीं. बातें करते हुए रिंटू कभी सोनालिका का हाथ पकड़े रहता, कभी कमर में बांह डाल देता तो कभी उस की नर्म बांहें सहलाता, देखते ही देखते, 1-2 सालों में रिंटू और सोनालिका एकदूसरे से बहुत हिलमिल गए. सोनालिका उसे अलगअलग लड़कियों के नाम ले छेड़ती तो रिंटू उस के पीछे भागता, और इसी पकड़मपकड़ाई में रिंटू उस के बदन के भिन्न हिस्सों को अपनी बाहों में भींच लेता. कच्ची उम्र का तकाजा कहें या भावनाओं का ज्वार, रिंटू की उपस्थिति सोनालिका के कपोल लाल कर देती, उस के नयन कभी शरारत में डूबे रिंटू के साथ अठखेलियां करते तो कभी मारे हया के जमीन में गड़ जाते. हर समारोह में रिंटू उसे ले एक ही रजाई में घुस जाता. ऊपर से तो कुछ ज्यादा दिखाई नहीं देता किंतु सभी अनुभव करते कि रिंटू और सोनालिका के हाथ आपस में उलझे रहते, रजाई के नीचे कुछ शारीरिक छेड़खानी भी चलती रहती.

उस रात रिंटू अपनी नवीनतम गर्लफ्रैंड का किस्सा सुना रहा था और सोनालिका पूरे चाव से रस ले रही थी, ‘रिंटू भैया, आप ने उस का हाथ पकड़ा तो उस ने मना नहीं किया?’

‘अरे, सिर्फ हाथ नहीं पकड़ा, और भी कुछ किया…’ रिंटू ने कुछ इस तरह आंख मटकाई कि उस का किस्सा सुनने हेतु सोनालिका उस के और करीब सरक आई. ‘मैं ने उस का चेहरा अपने हाथों में यों लिया और…’ कहते हुए रिंटू ने सोनालिका का मुख अपने हाथों में ले लिया और फिर डैमो सा देते हुए अपनी जबान से झट उस के होंठ चूम लिए. अकस्मात हुई इस घटना से सोनालिका अचंभित तो हुई किंतु उस के अंदर की षोडशी ने नेत्र मूंद कर उस क्षण का आनंद कुछ इस तरह लिया कि रिंटू की हिम्मत चौगुनी हो गई. उस ने उसी पल एक चुंबन अंकित कर दिया सोनालिका के अधरों पर. उस रात जब अंताक्षरी का खेल खेला गया तो सारे रिश्तेदारों के जमावड़े के बीच सोनालिका ने गाया, ‘शर्म आती है मगर आज ये कहना होगा, अब हमें आप के कदमों ही में रहना होगा…’ उस की आंखें उस के अधरों के साथ कुछ ऐसी सांठगांठ कर बैठीं कि रिंटू की तरफ उठती उस की नजर देख सभी को शक हो गया. जो लज्जा उस का मुख ढक रही थी, उसी ने सारी पोलपट्टी खोल दी.

‘अरे सोना, यह 1968 की फिल्म ‘पड़ोसन’ का गाना तुझे कैसे याद आ गया? आजकल के बच्चे तो नएनए गाने गाते हैं,’ ताईजी ने तो कह भी दिया. जब रिंटू और सोनालिका की माताएं गपशप में व्यस्त हो जातीं, अन्य औरतें उन दोनों की रंगरेलियां देख चटकारे लेतीं. रिंटू की उम्र सोनालिका से काफी अधिक थी. सो, उस की शादी पहले हुई. रिंटू की शादी में सोनालिका ने खूब धूम मचाए रखी. किंतु जहां अन्य सभी भाईबहन ‘भाभीभाभी’ कह नईनवेली दुलहन रत्ना को घेरे रहते, वहीं सोनालिका केवल रिंटू के आसपास नजर आती. सब रिश्तेदार भी हैरान थे कि यह कैसा रिश्ता था दोनों के समक्ष – क्या अपनी शारीरिक इच्छा व इश्कबाज स्वभाव के चलते दोनों अपना रिश्ता भी भुला बैठे थे? सामाजिक मर्यादा को ताक पर रख, दोनों बिना किसी झिझक वो करते जो चाहते, वहां करते, जहां चाहते. उन्हें किसी की दृष्टि नहीं चुभती थी, उन्हें किसी का भय नहीं था.

रिंटू की शादी के बाद भी हर पारिवारिक गोष्ठी में सोनालिका ही उस के निकट बनी रहती. एक बार रिंटू की पत्नी, रत्ना ने सोनालिका और रिंटू को हाथों में हाथ लिए बैठे देखा. उसे शंका इस कारण हुई कि उसे कक्ष में प्रवेश करते देख रिंटू ने अपना हाथ वापस खींच लिया. बाद में पूछने पर रिंटू ने जोर दे कर उत्तर दिया, ‘कम औन यार, मेरी बहन है यह.’ उस बात को करीब 4 वर्ष के अंतराल के बाद आज रत्ना लगभग भुला चुकी थी. अगले दिन सोनालिका की सगाई थी. लड़का मातापिता ने ढूंढ़ा था. शादी से जुड़े उस के सुनहरे स्वप्न सिर्फ प्यारमुहब्बत तक सिमटे थे. इस का अधिकतम श्रेय रिंटू को जाता था. सालों से सोनालिका को एक प्रेमावेशपूर्ण छवि दिखा, प्रेमालाप के किस्से सुना कर उस ने सोना के मानसपटल पर बेहद रूमानी कल्पनाओं के जो चित्र उकेरे थे, उन के परे देखना उस के लिए काफी कठिन था. सगाई हुई, और शादी भी हो गई. मगर अपने ससुराल पहुंच कर सोनालिका ने अपने पति का स्वभाव काफी शुष्क पाया. ऐसा नहीं कि उस ने अपने पति के साथ समायोजन की चेष्टा नहीं की. सालभर में बिटिया भी गोद में आ गई किंतु उन के रूखे व्यवहार के आगे सोनालिका भी मुरझाने लगी. डेढ़ साल बाद जब छोटी बहन की शादी में वो मायके आई तो रिंटू से मिल कर एक बार फिर खिल उठी थी. शादी में आई सारी औरतें सोनालिका और रिंटू को एक बार फिर समीप देख अचंभित थीं.

‘‘अब तो शादी भी हो गई, बच्ची भी हो गई, तब भी? हद है भाई सोना की,’’ बड़ी भाभी बुदबुदा रही थीं कि रत्ना रसोई में आ गई.

‘‘क्या हुआ भाभी?’’ रत्ना के पूछने पर बड़ी भाभी ने मौके का फायदा उठा सरलता और बेबाकी से कह डाला, ‘‘कहना तो काफी दिनों से चाहती थी, रत्ना, पर आज बात उठी है तो बताए देती हूं – जरा ध्यान रखना रिंटू का. यह सोना है न, शुरू से ही रिंटू के पीछे लगी रहती है. अब कहने को तो भाईबहन हैं पर क्या चलता है दोनों के बीच, यह किसी से छिपा नहीं है. तुम रिंटू की पत्नी हो, इसलिए तुम्हारा कर्तव्य है अपनी गृहस्थी की रक्षा करना, सो बता रही हूं.’’ बड़ी भाभी की बात सुन रत्ना का चिंतित होना स्वाभाविक था. माथे पर उभर आई पसीने की बूंदों को पोंछती वह बाहर आई तो सोनालिका और रिंटू के स्वर सुन वो किवाड़ की ओट में हो ली.

‘‘कैसी चुप सी हो गई है सोना. क्या बात है? मेरी सोना तो हमेशा हंसतीखेलती रहती थी,’’ रिंटू कह रहा था और साथ ही सोनालिका के केशों में अपनी उंगलियां फिराता जा रहा था.

‘‘रिंटू, आप जैसा कोई मिल जाता तो बात ही क्या थी. क्या यार, हम भाईबहन क्यों हैं? क्या कुछ भी नहीं हो सकता?’’ कहते हुए सोनालिका रिंटू की छाती से लगी खड़ी थी कि रत्ना कमरे में प्रविष्ट हो गई. दोनों हतप्रभ हो गए और जल्दी स्वयं को व्यवस्थित करने लगे.

‘‘भाभी, आओ न. मैं रिंटू भैया से कह रही थी कि इतना सुहावना मौसम हो रहा है और ये हैं कि कमरे में घुसे हुए हैं. चलो न छत पर चल कर कुछ अच्छी सैल्फी लेते हैं,’’ कहते हुए सोनालिका, रिंटू का हाथ पकड़ खींचने लगी.

‘‘नहीं, अभी नहीं, मुझे कुछ काम है इन से,’’ रत्ना के रुखाई से बोलने के साथ ही बाहर से बूआजी का स्वर सुनाई पड़ा. ‘‘सोना, जल्दी आ, देख जमाई राजा आए हैं.’’ सोनालिका चुपचाप बाहर चली गई. उस शाम रत्ना और रिंटू का बहुत झगड़ा हुआ. बड़ी भाभी ने भले ही सारा ठीकरा सोनालिका के सिर फोड़ा था पर रत्ना की दृष्टि में उस का अपना पति भी उतना ही जिम्मेदार था. शायद कुछ अधिक क्योंकि वह सोनालिका से कई वर्ष बड़ा था. आज रिंटू का कोई भी बहाना रत्ना के गले नहीं उतर रहा था. पर अगली दोपहर फिर रत्ना ने पाया कि सोनालिका सैल्फी ले रही थी और इसी बहाने उस का व रिंटू का चेहरा एकदम चिपका हुआ था. ये कार्यकलाप भी सभी के बीच हो रहा था. सभी की आंखों में एक मखौल था लेकिन होंठों पर चुप्पी. रत्ना के अंदर कुछ चटक गया. रिंटू की ओर उस की वेदनाभरी दृष्टि भी जब बेकार हो गई तब वह अपने कमरे में आ कर निढाल हो बिस्तर पर लेट गई. पसीने से उस का पूरा बदन भीग चुका था. आंख मूंद कर कुछ क्षण यों ही पड़ी रही.

फिर अचानक ही उठ कर रिंटू की अलमारी में कुछ टटोलने लगी. और ऐसे अचानक ही उस के हाथ एक गुलाबी लिफाफा लग गया. जैसे इसे ही ढूंढ़ रही थी वह – फौरन खोल कर पढ़ने लगी : ‘रिंटू जी, (कम से कम यहां तो आप को ‘भैया’ कहने से मुक्ति मिली.)

‘मैं कैसे समझाऊं अपने मन को? यह है कि बारबार आप की ओर लपकता है. क्या करूं, भावनाएं हैं कि मेरी सुनती नहीं, और रिश्ता ऐसा है कि इन भावनाओं को अनैतिकता की श्रेणी में रख दिया है. यह कहां फंस गई मैं? जब से आप से लौ लगी है, अन्य कहीं रोशनी दिखती ही नहीं. आप ने तो पहले ही शादी कर ली, और अब मेरी होने जा रही है. कैसे स्वीकार पाऊंगी मैं किसी और को? कहीं अंतरंग पलों में आप का नाम मुख से निकल गया तो? सोच कर ही कांप उठती हूं. कुछ तो उपाय करो.

‘हर पल आप के प्रेम में सराबोर.

‘बस आप की, सोना.’

रत्ना के हाथ कांप गए, प्रेमपत्र हाथों से छूट गया. उस का सिर घूमने लगा – भाईबहन में ऐसा रिश्ता? सोचसोच कर रत्ना थक चुकी थी. लग रहा था उस का दिमाग फट जाएगा. हालांकि कमरे में सन्नाटा बिखरा था पर रत्ना के भीतर आंसुओं ने शोर मचाया हुआ था. इस मनमस्तिष्क की ऊहापोह में उस ने एक निर्णय ले लिया. वह उसी समय अपना सामान बांध मायके लौट गई. सारे घर में हलचल मच गई. सभी रिश्तेदार गुपचुप सोनालिका को इस का दोषी ठहरा रहे थे. लेकिन सोनालिका प्रसन्न थी. उस की राह का एक रोड़ा स्वयं ही हट गया था. इसी बीच शादी में शामिल होने पहुंचे सोनालिका के पति के कानों में भी सारी बातें पड़ गईं. ऐसी बातें कहां छिपती हैं भला? जब उन्होंने अपनी पत्नी सोनालिका से बात साफ करनी चाही तो उस ने उलटा उन्हें ही चार बातें सुना दीं, ‘‘आप की मुझे कुछ भी बोलने की हैसियत नहीं है. पहले रिंटू भैया जैसा बन कर दिखाइए, फिर उन पर उंगली उठाइएगा.’’ भन्नाती हुई सोनालिका कमरे से बाहर निकल गई. हैरानपरेशान से उस के पति भी बरामदे में जा रहे थे कि रत्ना के हाथों से उड़ा सोनालिका रिंटू का प्रेमपत्र उन के कदमों में आ गया. मानो सोनालिका की सारी परतें उन के समक्ष खुल कर रह गईं. उन्हें गहरी ठेस लगी. गृहस्थी की वह गाड़ी  आगे कैसे चले, जिस में पहले से ही पंचर हो. दिल कसमसा उठा, मन उचाट हो गया. किसी को पता भी नहीं चला कि वे कब घर छोड़ कर लौट चुके थे.

एक अवैध रिश्ते के कारण आज 2 घर उजड़ चुके थे. रिश्तेदारों द्वारा बात उठाने पर रिंटू ऐसी किसी भी बात से साफ मुकर गया, ‘‘कैसी बात कर रहे हैं आप लोग? शर्म नहीं आती, सोना मेरी बहन है. लेकिन प्रेमपत्र हाथ लगने से सारी रिश्तेदारी में सोनालिका का नाम बदनाम हो चुका था. इस का भी उत्तर था रिंटू के पास, ‘‘सोना छोटी थी, उस का मन बहक गया होगा. उसे समझाइए. अब वह एक बच्ची की मां है, यह सब उसे शोभा नहीं देता.’’ पुरुषप्रधान समाज में एक आदमी ने जो कह दिया, रिश्तेनातेदार उसी को मान लेते हैं. गलती केवल औरत की निकाली जाती है. प्यार किया तो क्यों किया? उस की हिम्मत कैसे हुई कोई कदम उठाने की? और फिर यहां तो रिश्ता भी ऐसा है कि हर तरफ थूथू होने लगी.

सोनालिका एक कमरे में बंद, अपना चेहरा हाथों से ढांपे, सिर घुटनों में टिकाए जाने कब तक बैठी रही. रात कैसे बीती, पता नहीं. सुबह जब महरी साफसफाई करने गई तो देखा सोनालिका का कोई सामान घर में नहीं था. वह रात को 2 अटैचियों में सारा सामान, जेवर, पैसे ले कर चली गई थी, महीनों तक पता नहीं चला कि रिंटू और सोनालिका कहां हैं. दोनों घरों ने कोई पुलिस रिपोर्ट नहीं कराई क्योंकि दोनों घर जानते थे कि सचाई क्या है. फिर उड़तीउड़ती खबर आई कि मनाली के रिजौर्ट में दोनों ने नौकरी कर ली है और साथसाथ रह रहे हैं, पतिपत्नी की तरह या वैसे ही, कौन जानता है.

Hindi Storytelling : टूटे कांच की चमक

Hindi Storytelling : उस बिल्डिंग में वह हमारा पहला दिन था. थकान की वजह से सब का बुरा हाल था. हम लोग व्यवस्थित होने की कोशिश में थे कि घंटी बजी. दरवाजा खोल कर देखा तो सामने एक महिला खड़ी थीं.

अपना परिचय देते हुए वह बोलीं, ‘‘मेरा नाम नीलिमा है. आप के सामने वाले फ्लैट में रहती हूं्. आप नएनए आए हैं, यदि किसी चीज की जरूरत हो तो बेहिचक कहिएगा.

मैं ने नीचे से ऊपर तक उन्हें देखा. माथे पर लगी गोल बड़ी सी बिंदी, साड़ी का सीधा पल्ला, लंबा कद, भरा बदन उन के संभ्रांत होने का परिचय दे रहा था.

कुछ ही देर बाद उन की बाई आई और चाय की केतली के साथ नाश्ते की ट्रे भी रख गई. सचमुच उस समय मुझे बेहद राहत सी महसूस हुई थी.

‘‘आज रात का डिनर आप लोग हमारे साथ कीजिए.’’

मेरे मना करने पर भी नीलिमाजी आग्रहपूर्वक बोलीं, ‘‘देखिए, आप के लिए मैं कुछ विशेष तो बना नहीं रही हूं, जो दालरोटी हम खाते हैं वही आप को भी खिलाएंगे.’’

रात्रि भोज पर नीलिमाजी ने कई तरह के स्वादिष्ठ पकवानों से मेज सजा दी. राजमा, चावल, दहीबड़े, आलू, गोभी और न जाने क्याक्या.

‘‘तो इस भोजन को आप दालरोटी कहती हैं?’’ मैं ने मजाकिया स्वर में नीलिमा से पूछा तो वह हंस दी थीं.

जवाब उन के पति प्रो. रमाकांतजी ने दिया, ‘‘आप के बहाने आज मुझे भी अच्छा भोजन मिला वरना सच में, दालरोटी से ही गुजारा करना पड़ता है.’’

लौटते समय नीलिमाजी ने 2 फोल्ंिडग चारपाई और गद्दे भी भिजवा दिए. हम दोनों पतिपत्नी इस के लिए उन्हें मना ही करते रहे पर उन्होंने हमारी एक न चलने दी.

अगली सुबह, रवि दफ्तर जाते समय सोनल को भी साथ ले गए. स्कूल में दाखिले के साथ, नए गैस कनेक्शन, राशन कार्ड जैसे कई छोटेछोटे काम थे, जो वह एकसाथ निबटाना चाह रहे थे. ब्रीफकेस ले कर रवि जैसे ही बाहर निकले नीलिमाजी से भेंट हो गई. उन के हाथ में एक परची थी. रवि को हाथ में देते हुए बोलीं, ‘‘भाई साहब, कल रात मैं आप को अपना टेलीफोन नंबर देना भूल गई थी. जब तक आप को फोन कनेक्शन मिले, आप मेरा फोन इस्तेमाल कर सकते हैं.’’

नीलिमाजी ने 2 दिन में काम वाली बाई और अखबार वाले का इंतजाम भी कर दिया. जब घर सेट हो गया तब भी नीलिमा को जब भी समय मिलता आ कर बैठ जातीं. सड़क के आरपार के समाचारों का आदानप्रदान करते उन्हें देख मैं ने सहजता से अनुमान लगा लिया था कि उन्होंने महिलाओं से अच्छाखासा संपर्क बना रखा है.

उस समय मैं सामान का कार्टन खोल रही थी कि अचानक उंगली में पेचकस लगने से मेरे मुंह से चीख निकल गई तो नीलिमाजी मेरे पास सरक आई थीं. उंगली से खून निकलता देख कर वह अपने घर से कुछ दवाइयां और पट्टी ले आईं और मेरी चोट पर बांधते हुए बोलीं, ‘‘जो काम पुरुषों का है वह तुम क्यों करती हो. यह सोनल क्या करता रहता है पूरा दिन?’’

नीलिमा दीदी का तेज स्वर सुन कर सोनल कांप उठा. बेचारा, वैसे ही मेरी चोट को देख कर घबरा रहा था. जब तक मैं कुछ कहती, उन्होंने लगभग डांटते हुए सोनल को समझाया, ‘‘मां का हाथ बंटाया करो. ये कहां की अक्लमंदी है कि बच्चे आराम फरमाते रहें और मां काम करती रहे.’’

सोनल अपने आंसू दबाता हुआ घर के अंदर चला गया. मैं अपने बेटे की उदासी कैसे सहती. अत: बोली, ‘‘दीदी, सोनल मेरी बहुत मदद करता है पर आजकल इंटरव्यू की तैयारी में व्यस्त है.’’

‘‘इंटरव्यू, कैसा इंटरव्यू?’’

‘‘दरअसल, इसे दूसरे स्कूलों में ही दाखिला मिल रहा है. लेकिन हम चाहते हैं कि इसे ‘माउंट मेरी’ स्कूल में ही दाखिला मिले.’’

‘‘क्यों? माउंट मेरी स्कूल में कोई खास बात है क्या?’’ नीलिमा ने भौंहें उचका कर पूछा तो मुझे अच्छा नहीं लगा था. अपने घर किसी पड़ोसी का हस्तक्षेप उस समय मुझे बुरी तरह खल गया था.

बात को स्पष्ट करने के लिए मैं ने कहा, ‘‘यह स्कूल इस समय नंबर वन पर है. यहां आई.आई.टी. और मेडिकल की कोचिंग भी छात्रों को मिलती है.’’

‘‘अजी, स्कूल के नाम से कुछ नहीं होता,’’ नीलिमा बोलीं, ‘‘पढ़ने वाले बच्चे कहीं भी पढ़ लेते हैं.’’

‘‘यह तो है फिर भी स्कूल पर काफी कुछ निर्भर करता है. कुशाग्र बुद्धि वाले बच्चों को अच्छी प्रतिस्पर्धा मिले तो वे सफलता के सोपान चढ़ते चले जाते हैं.’’

‘‘लेकिन इतना याद रखना सविता, इन्हीं स्कूलों के बच्चे ड्रग एडिक्ट भी होते हैं. कुछ तो असामाजिक गतिविधियों में भी भाग लेते देखे गए हैं,’’ इतना कहतेकहते नीलिमा हांफने लगी थीं.

खैर, जैसेतैसे मैं ने उन्हें विदा किया.

नीलिमा की जरूरत से ज्यादा आवाजाही और मेरे घरेलू मामले में दखलंदाजी अब मुझे खलने लगी थी. कई बार सुना था कि पड़ोसिनें दूसरे के घर में घुस कर पहले तो दोस्ती करती हैं, बातें कुरेदकुरेद कर पूछती हैं फिर उन्हें झगड़े में तबदील करते देर नहीं लगती.

एक दिन मैं और पड़ोसिन ममता एक साथ कमरे में बैठे थे. तभी नीलिमा आ गईं और बोलीं, ‘‘यह तुम्हारा पंखा बहुत आवाज करता है, कैसे सो पाती हो?’’

यह कह कर वह अपने घर गईं और टेबल फैन उठा कर ले आईं.

‘‘कल ही मिस्तरी को बुलवा कर पंखा ठीक करवा लो. तब तक इस टेबल फैन से काम चला लेना.’’

पड़ोसिन ममता के सामने उन की यह बेवजह की घुसपैठ मुझे अच्छी नहीं लगी थी. रवि दफ्तर के काम में बेहद व्यस्त थे इसलिए इन छोटेछोटे कामों के लिए समय नहीं निकाल पा रहे थे. सोनल भी ‘माउंट मेरी स्कूल’ के पाठ्यक्रम के  साथ खुद को स्थापित करने में कुछ परेशानियों का सामना कर रहा था, मिस्तरी कहां से बुलाता? मैं भी इस ओर विशेष ध्यान नहीं दे पाई थी. मैं ने उन्हें धन्यवाद दिया और एक प्याली चाय बना कर ले आई.

चाय की चुस्कियों के बीच उन्होंने टटोलती सी नजर चारों ओर फेंक कर पूछा, ‘‘सोनल कहां है?’’

‘‘स्कूल में ही रुक गया है. कालिज की लाइब्रेरी में बैठ कर पढे़गा. आ जाएगा 4 बजे तक .’’

नीलिमा के चेहरे पर चिंता की आड़ीतिरछी रेखाएं उभर आईं. कभी घड़ी की तरफ  देखतीं तो कभी मेरी तरफ. लगभग सवा 4 बजे सोनल लौटा और किताबें अपने कमरे में रख कर बाथरूम में घुस गया. मैं ने तब तक दूध गरम कर के मेज पर रख दिया था.

नए कपड़ों में सोनल को देख कर नीलिमाजी ने मुझ से प्रश्न किया, ‘‘सोनल कहीं जा रहा है?’’

‘‘हां, इस के एक दोस्त का आज जन्मदिन है, उसी पार्टी में जा रहा है.’’

सोनल घर से बाहर निकला तो बुरा सा मुंह बना कर बोलीं, ‘‘सविता, जमाना बड़ा खराब है. लड़का कहां जाता है, क्या करता है, इस की संगत कैसी है आदि बातों का ध्यान रखा करो. अपना बच्चा चाहे बुरा न हो लेकिन दूसरे तो बिगाड़ने में देर नहीं करते.’’

नीलिमा की आएदिन की टीका- टिप्पणी के कारण सोनल अब उन से चिढ़ने लगा था. उन के आते ही उठ कर चला जाता. मुझे भी उन की जरूरत से ज्यादा घुसपैठ अच्छी नहीं लगती थी, किंतु उन के सहृदयी, स्नेही स्वभाव के कारण विवश हो जाती थी.

धीरेधीरे, मैं ने अपने घर का दरवाजा बंद रखना शुरू कर दिया. घर के  अंदर घंटी बंद करने का स्विच और लगवा लिया. अब जब भी दरवाजे पर घंटी बजती मैं ‘आईहोल’ में से झांकती. अगर नीलिमा होतीं तो मैं घंटी को कुछ देर के लिए अनसुनी कर देती और यह समझ कर कि घर के अंदर कोई नहीं है, वह लौट जातीं.

काफी राहत सी महसूस होने लगी थी मुझे. कई आधेअधूरे काम निबट गए. कुछ लिखनेपढ़ने का समय भी मिलने लगा. सोनल भी अब खुश रहता था. पढ़ने के बाद जो भी थोड़ाबहुत समय मिलता वह मेरे पास बैठ कर बिताता. शाम को जब रवि दफ्तर से लौटते, हम नीचे जा कर बैठ जाते. कुछ नए लोगों से जानपहचान बढ़ी, कुछ नए मित्र भी बने.

उन्हीं दिनों मैट्रो में एक नई फिल्म लगी थी. हम दोनों पतिपत्नी पिक्चर गए थे, बरसों बाद.

अचानक, रवि के मोबाइल की घंटी बजी. नीलिमाजी थीं. बदहवास, परेशान सी बोलीं, ‘‘भाई साहब, आप जहां भी हैं जल्दी घर आ जाइए. आप के घर का ताला तोड़ कर चोरी करने का प्रयास किया गया है.’’

धक्क से रह गया दिल. पिक्चर आधे में ही छोड़ कर दौड़तीभागती मैं घर की सीढि़यां चढ़ गई थी. रवि गाड़ी पार्क कर रहे थे. दरवाजे पर ही रमाकांतजी मिल गए. बोले, ‘‘घबराने की कोई बात नहीं है, भाभीजी. हम ने चोर को पकड़ कर अपने घर में बंद कर रखा है. पुलिस के आते ही उस लड़के को हम उन के हवाले कर देंगे.’’

मैं ने बदहवासी में दरवाजा खोला. अलमारी खुली हुई थी. कैमरा, वाकमैन, घड़ी के साथ और भी कई छोटीछोटी चीजें थैले में डाल दी गई थीं. लाकर को भी चोर ने हथौड़े से तोड़ने का प्रयास किया था पर सफल नहीं हो पाया था. एक दिन पहले ही रवि के एक मित्र की शादी में पहनने के लिए मैं बैंक से सारे गहने निकलवा कर लाई थी. कुछ नगदी भी घर में पड़ी थी. अगर नीलिमा ने समय पर बचाव न किया होता तो आज अनर्थ ही हो जाता.

मैंऔर रवि कुछ क्षण बाद जब नीलिमा के घर पहुंचे तो वह उस चोर लड़के को बुरी तरह मार रही थीं. रमाकांतजी ने पत्नी के चंगुल से उस लड़के को छुड़ाया, फिर बोले, ‘‘जान से ही मार डालोगी क्या इसे?’’ तब नीलिमा गुस्से में बोली थीं, ‘‘कम्बख्त, पैदा होते ही मर क्यों नहीं गया.’’

कुछ ही देर में पुलिस आ गई और उस लड़के को पकड़ कर अपने साथ ले गई. हम सब के चेहरे पर राहत के भाव उभर आए थे.

इस के बाद ही पसीने से लथपथ नीलिमा के सीने में तेज दर्द उठा तो सब उन्हें सिटी अस्पताल ले गए. डाक्टरों ने बताया कि हार्ट अटैक है. 3 दिन और 2 रातों के  बाद उन्हें होश आया. जिस दिन उन्हें अस्पताल से डिस्चार्ज होना था हम पतिपत्नी सुबह ही अस्पताल पहुंच गए थे. डाक्टरों ने हमें समझाया कि इन्हें हर प्रकार के टेंशन से दूर रहना होगा. जरा सा रक्तचाप बढ़ा तो दोबारा हार्टअटैक पड़ सकता है.

रमाकांतजी कुरसी पर बैठे एकटक पत्नी को देखे जा रहे थे. अचानक उन का गला भर आया. वे कांपते स्वर में बोले, ‘‘जिस के दिल में, ज्ंिदगी भर का नासूर पल रहा हो वह भला टेंशन से कैसे दूर रह सकता है. सविताजी, जिस लड़के ने आप के घर का ताला तोड़ कर चोरी करने का प्रयास किया वह हमारा बेटा था.’’

विश्वास नहीं हुआ था अपने कानों पर. लोगों को शिक्षित करने वाले रमाकांतजी और पूरे महल्ले की हितैषी नीलिमा का बेटा चोर, जो खुद के स्नेह से सब को स्ंिचित करती रहती थीं उन का अपना बेटा अपराधी?

रमाकांतजी ने बताया, ‘‘दरअसल, नीलिमा ने आप लोगों को कार में बिल्ंिडग से बाहर जाते हुए देख लिया था. कोई आधा घंटा भी नहीं बीता होगा, जब दूध ले कर लौट रही थीं कि आप के घर का ताला नदारद था और दरवाजा अंदर से बंद था. पहले नीलिमा ने सोचा कि शायद आप लोग लौट आए हैं लेकिन जब खटखट का स्वर सुनाई दिया तो उन्हें शक हुआ. धीरे से उन्होंने दरवाजा बाहर से बंद किया और चौकीदार को बुला लाई. थोड़ी देर में चौकीदार की सहायता से चोर को अपने घर में बंद कर दिया और फोन कर पुलिस को सूचित भी कर दिया.’’

हतप्रभ से हम पतिपत्नी एकदूसरे का चेहरा देखते तो कभी रमाकांतजी के चेहरे पर उतरतेचढ़ते हावभावों को पढ़ने का प्रयास करते.

‘‘शहर के सब से अच्छे स्कूल ‘माउंट मेरी कानवेंट’ में हम ने अपने बेटे का दाखिला करवाया था,’’ टूटतेबिखरते स्वर में रमाकांत बताने लगे, ‘‘इकलौती संतान से हमें भी ढेरों उम्मीदें थीं. यही सोचते थे कि हमारा बेटा भी होनहार निकलेगा. पर वह बुरी संगत में फंस गया. हम दोनों पतिपत्नी समझते थे कि वह स्कूल गया है पर वह स्कूल नहीं, अपने दोस्तों के पास जाता था. स्कूल से शिकायतें आईं तो डांटफटकार शुरू की, मारपीट का सिलसिला चला पर सब बेकार गया. उसे तो चरस की ऐसी लत लगी कि पहले अपने घर से पैसे चुराता, फिर पड़ोसियों के घरों में चोरी करने लगा. लोग हम से शिकायतें करने लगे तो हम ने स्पष्ट शब्दों में सब से कह दिया कि ऐसी नालायक औलाद से हमारा कोई संबंध नहीं है.’’

सहसा मुझे याद आया वह दिन जब निर्मला ने स्कूल के मुद्दे को छेड़ कर मुझ से कितनी बहस की थी. मेरे सोनल में शायद वह अपने बेटे की छवि देखती होंगी. तभी तो समयअसमय आ कर सलाहमशविरा दे जाती थीं. यह सोचते ही मेरी आंखों की कोर से टपटप आंसू टपक पड़े.

निर्मला की तांकनेझांकने की आदत से मैं कितना परेशान रहती थी. यही सोचती थी कि इन का अपने घर में मन नहीं लगता पर आज असलियत जान कर पता चला कि जब अपना ही खून अपने अस्तित्व को नकारते हुए बगावत का झंडा खड़ा कर बीच बाजार में इज्जत नीलाम कर दे तो कैसा महसूस होता होगा अभिभावकों को?

सच, व्यक्तित्व तो दर्पण की तरह होता है. जहां तक नजर देख पाती है उतना ही सत्य हम पहचानते हैं, शीशे के पीछे पारे की पालिश तक कौन देख सकता है? काश, नीलिमा की प्रतिछवि को पार कर कांच की चमक के पीछे दरकती गर्द की चुभन को मैं ने पहचाना होता पर अब भी देर नहीं हुई थी. वह मेरे लिए पड़ोसिन ही नहीं, आदरणीय बहन भी बन गई थीं.

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Famous Hindi Stories : एकाएक मुझे अपने शरीर में ढेरों कांच के पैने टुकड़ों की चुभन की पीड़ा महसूस हुई. लड़कों ने क्या पड़ोसी धर्म निभाया है. मेरे मुंह से हठात निकला, ‘‘लगता है क्रिकेटर लक्ष्मण बनने की शुरुआत ऐसे ही होती है.’’

तभी पड़ोसी ने सांत्वना दी, ‘‘अच्छा हुआ कि आप कार में नहीं बैठे थे. अब छोडि़ए, अड़ोसपड़ोस के बच्चे हैं. उन्हें हम लोग प्रोत्साहन नहीं देंगे तो कौन देगा और बच्चे खेलें भी तो कहां खेलें.’’

प्रोत्साहन? मैं खून का घूंट पी कर रह गया और सोचा, जब तक अपने पर नहीं बीतती, स्थिति की गंभीरता का अनुभव नहीं होता, दूसरे की चुभन का एहसास नहीं होता.

‘‘गाड़ी का दुर्घटना बीमा है न?’’

‘बीमा,’ यह शब्द सुनते ही मुझे अचानक डूबते को तिनके का सहारा जैसा एहसास हुआ.

‘‘हां है. 5 साल से है. अभी एक सप्ताह पहले ही पालिसी का नवीनीकरण कराया है.’’

‘‘फिर क्या चिंता है?’’

क्या चिंता है, सुन कर मैं चौंका. पैसा किसी का भी जाए, नुकसान तो नुकसान है और कोई भी नुकसान चिंता का विषय होना ही चाहिए.

देखते ही देखते अड़ोसपड़ोस के बच्चे मेरे आसपास जमा हो गए.

‘‘क्या हुआ अंकल?’’

‘‘ओह शिट.’’

बच्चे मेरे मुंह से निकले शब्दों की अनसुनी कर बोले, ‘‘आप एक किनारे हो जाइए अंकल, हम कांच साफ कर देते हैं. आप ऐसे में बैठेंगे कैसे?’’

आननफानन में बच्चों ने कांच के टुकड़े साफ कर दिए. शायद वे प्रायश्चित्त कर रहे थे या फिर अपने अच्छा नागरिक होने का परिचय दे रहे थे.

लगभग 10 बज रहा था. सोचा, बीमा कंपनी का आफिस खुल गया होगा, वहां चल कर दुर्घटना की सूचना दे दूं. उन्हें दुर्घटना हुई कार को देखने का अवसर भी मिल जाएगा. यदि बिना दिखाए ‘विंड स्क्रीन’ बदलवा लूंगा तो वह विश्वास नहीं करेंगे. फिर कुछ कागजी काररवाई भी करनी होगी.

आफिस खुल चुका था पर संबंधित अधिकारी नहीं आया था. वहां अधिकारी के इंतजार में मैं साढ़े 12 बजे तक बैठा रहा. वह आया, आते ही कुछ फाइलों में खो गया और 15-20 मिनट तक खोया ही रहा.

फिर मेरी ओर देख कर बोला, ‘‘कहिए, आप की क्या सेवा कर सकता हूं?’’

मैंने अपनी समस्या उसे बताते हुए कहा, ‘‘मैं दुर्घटनाग्रस्त कार लाया हूं. आप देख लीजिए…’’

‘‘कार देखने का काम तो सर्वेयर करता है,’’ वह अधिकारी बोला, ‘‘वह अभीअभी कहीं सर्वे करने निकल गया है. वैसे मैं भी देख सकता हूं किंतु गाड़ी को सीधे देखने का नियम नहीं है. ऐसा कीजिए, किसी गैराज से खर्चे का एस्टीमेट (अनुमान) ले कर आइए. उस के बाद ही हम कार देखेंगे.’’

मेरी समझ में नहीं आया कि एस्टीमेट जब गैराज वाला देगा तो सर्वेयर क्या देखेगा? और एस्टीमेट से पहले कार देखने व उस का फोटो लेने में क्या हर्ज है.

‘‘देखिए, टूटे हुए विंड स्क्रीन के साथ गाड़ी चलाना खासा मुश्किल होता है ऐसे में आप कह रहे हैं कि पहले गाड़ी ले कर मैं गैराज जाऊं फिर वहां से एस्टीमेट ले कर आप के पास आऊं.’’ मैं ने उस अधिकारी को समझाने का प्रयास किया.

‘‘क्या किया जाए. नियमों से हम सब बंधे हैं. ‘क्लेम’ लेना है तो कष्ट तो उठाना ही होगा. घर बैठेबैठे तो क्लेम मिलने से रहा.’’

‘‘यह तो मैं भी देख रहा हूं कि आप के नियम दौड़ाने के नियम हैं. अगले को इतना दौड़ाया जाए, इतना दौड़ाया जाए कि वह ‘क्लेम’ के विचार से ही तौबा कर ले. जो हो आप रिपोर्ट तो लिख लीजिए.’’

‘‘जी हां. आप फार्म भर दीजिए.’’

फार्म भर कर मैं गैराज गया. फिर अगले दिन एस्टीमेट बना. चूंकि उस दिन शनिवार था इसलिए बीमा कंपनी का आफिस बंद था. बात सोमवार तक टल गई.

सोमवार का दिन आया. वह महाशय भी ड्यूटी पर आए थे किंतु कैमरा खराब हो गया. मंगल को कैमरा ठीक हुआ. कार का फोटोग्राफ खींचा गया किंतु आपत्ति के साथ.

‘‘आप ने टूटा हुआ कांच तो साफ कर दिया. फोटो में अब टूटा हुआ कांच कैसे आएगा?’’ अधिकारी ने कहा.

‘‘टूटे कांच के साथ कोई कार कैसे चला सकता है?’’ मैं ने उन्हें समझाने का प्रयास किया.

‘‘आप अपनी परेशानी बता रहे हैं पर मेरी परेशानी नहीं समझ रहे?’’ अधिकारी बोला, ‘‘फोटो में टूटा हुआ विंड स्क्रीन दिखना जरूरी है अन्यथा विंड स्क्रीन निकलवा कर कोई भी डैमेज क्लेम कर सकता है.’’

‘‘देखिए, अब आप हद से बाहर जा रहे हैं. पहले दिन जब मैं कार में आया था तो विंड स्क्रीन टूटा हुआ था किंतु तब आप ने विंड स्क्रीन देखा नहीं और अब…’’

मेरी बात को बीच में काट कर अधिकारी बोला, ‘‘मेरे देखने से कुछ नहीं होगा. टूटा हुआ विंड स्क्रीन कैमरे को दिखना चाहिए. इस के बिना आप का केस थोड़ा कमजोर पड़ जाएगा. खैर चलिए, आवश्यक फार्म भर दीजिए. कार को रिपेयर करा कर बिल आफिस में जमा कर दीजिए.’’

मैं आफिस से बाहर आया और गैराज में जा कर विंड स्क्रीन लगवाया. लगभग एक सप्ताह बाद कार चलाने लायक हुई थी अन्यथा बिना विंड स्क्रीन की कार लोगों के आकर्षण का केंद्र बनी हुई थी. लोग समझ रहे थे कि मैं बिना ‘विंड स्क्रीन’ के कार चलाने का रेकार्ड बनाने की कोेशिश कर रहा हूं.

मैं किसकिस के आगे रोना रोता और किसकिस को समझाता कि जब तक बीमा कंपनी वाले फोटो नहीं खींच लेते तब तक नया विंड स्क्रीन लगवाना संभव नहीं है. यदि कोई रेकार्ड स्थापित कर रहा है तो वह है बीमा कंपनी. ‘क्लेम’ के भुगतान में अधिकतम रुकावट एवं देरी का रेकार्ड.

मैं ने समझा कि अब क्लेम मिल जाएगा. बीमा कंपनी की सभी शर्तें पूरी हो गई हैं किंतु मुझे यह पता नहीं था कि ये शर्तें तो द्रौपदी का न खत्म होने वाला चीर हैं.

‘‘एक समस्या है,’’ अधिकारी ने धीमे स्वर में कहा.

मैं चौंक गया कि अब क्या हुआ.

‘‘पालिसी के नवीनीकरण के एक सप्ताह के भीतर दुर्घटना हो गई है. पुरानी पालिसी के समाप्त होने एवं नई पालिसी जारी होने के बीच एक दिन का अंतर है.’’

‘‘किंतु आप का एजेंट तो मुझ से एक सप्ताह पहले ही चैक ले गया था. आप चैक की तारीख देख सकते हैं. फिर यह पालिसी 5 सालों से लगातार चल रही है.’’

‘‘मैं आप की बात समझ रहा हूं. यह इनसानी शरीर का मामला है. वह एजेंट बीमार पड़ गया. खैर, जो भी हो, यह भुगतान का सीधा सपाट मामला नहीं है. इस पर जांच होगी. आप को जो कुछ कहना है जांच अधिकारी से कहिएगा,’’ उस ने अपना रुख साफ किया.

झुंझलाहट का करेंट मेरे शरीर में ऊपर से नीचे तक दौड़ गया. बीमा कंपनी का यह चेहरा पालिसी देते समय के आत्मीय चेहरे से एकदम अलग था. इच्छा हो रही थी कि यह 3 हजार की धन राशि मैं इस करोड़पति बीमा कंपनी को दान में दे दूं.

मुझे लगा कि इस चेहरे को और झेल पाना मेरे लिए संभव नहीं. दोनों की भलाई इसी में है कि एकदूसरे की नजरों से दूर हो जाएं, अभी, इसी वक्त.

मैं तेजी से आफिस से बाहर आया.

सर्विस इंडस्ट्री, हुंह, नहीं चाहिए ऐसी सर्विस. सर्विस ‘फील गुड.’ एक दिन बीता, एक सप्ताह गुजरा, एक महीना बीता, 2 महीने बीते.

फोन की घंटी बजती है.

‘‘आप के क्लेम के मामले में मुझे बीमा कंपनी ने जांच अधिकारी नियुक्त किया है. मैं एडवोकेट त्रिपाठी हूं. सचाई की तह में जाना अपने जीवन का लक्ष्य है. ‘सत्यमेव जयते’ अपना धर्म है. आप मुझ से मिलें.’’

अगले दिन काले कोट में त्रिपाठीजी सामने थे.

‘‘आप जो घटना है सचसच बताएं और निसंकोच बताएं.’’

मैं ने फिर टेप रेकार्ड की तरह घटनाक्रम को दोहरा दिया.

‘‘इस में नया क्या है? यह तो आप ने रिपोर्ट में लिखा है. मुझे सचाई का पता लगाने के लिए तैनात किया गया है.’’

‘‘रिपोर्ट का एकएक शब्द सच है. आप अड़ोसपड़ोस से पूछ सकते हैं,’’ मैं ने उन्हें समझाने का प्रयास किया.

‘‘मैं ने सचाई का पता लगा लिया है. आप शायद सचाई मेरे मुंह से सुनना चाहते हैं. हजरत, मेरी निगाहों में कोने वाले मकान के हैं, मुझ से बच के जाएंगे कहां ,’’ त्रिपाठीजी के स्वर में तीखा व्यंग्य था.

मैं ने त्रिपाठीजी का चेहरा ध्यान से देखा. वह एक वकील की भूमिका बखूबी निभा रहे थे. वह सच के सिवा और कुछ कहने वाले नहीं थे.

‘‘आप सच सुनना चाहते हैं न?’’ त्रिपाठीजी तल्ख शब्दों में बोले, ‘‘सच तो यह है कि आप कार चला ही नहीं रहे थे. कार आप का लड़का चला रहा था जिस का ड्राइविंग लाइसेंस तक नहीं है. ऊपर से वह शराब पीए था. उसे आगे जाता ट्रक नहीं दिखा जो लोहे की छड़ों को ले कर जा रहा था. छड़ें बाहर झूल रही थीं. गनीमत समझिए कि दुर्घटना विंड स्क्रीन तक सीमित रह गई अन्यथा लोहे की छड़ें सीने के पार हो जातीं. कार की किसे चिंता है, चिंता करने के लिए, माथा पकड़ने के लिए बीमा कंपनी तो है ही. लेकिन आखिरी सांस तक मैं बीमा कंपनी के साथ हूं.’’

मैं ठगा सा त्रिपाठीजी का सच सुन रहा था. उन की गंभीर छानबीन का नतीजा सुन रहा था. कहने को कुछ था भी नहीं. हां, जांच अधिकारी की यह भूमिका नए तर्ज की जरूर थी.

‘‘बोलती बंद हो गई न. अच्छाई इसी में है कि आप यह मामला वापस ले लें. नहीं तो मैं सचाई को अदालत में उजागर करूंगा और ट्रक के खलासी को गवाह के रूप में पेश करूंगा.’’

मैं ने अपने गुस्से को काबू में रखने का प्रयास करते हुए कहा, ‘‘त्रिपाठीजी यह मामला वापस नहीं होगा. अब परिणाम चाहे जो हो.’’

‘‘देखिए, मैं आप को फिर समझा रहा हूं. आप शायद कोर्ट में जाने का अर्थ नहीं समझ रहे. ढाई हजार तो आप को नहीं मिलेंगे ऊपर से 4-5 हजार खर्च हो जाएंगे. आगे आप समझदार हैं. समझदार को इशारा काफी होता है,’’ त्रिपाठीजी ने उठते हुए कहा.

पत्नी भी उन की बातें सुन कर घबरा गईं.

‘‘जाने भी दीजिए, झूठ ही सही. अदालत में लड़के का नाम आएगा, उस पर शराब पी कर गाड़ी चलाने का आरोप लगेगा. छी, जाने दीजिए. ऐसे ढाई हजार मुझे नहीं चाहिए.’’

किंतु यह सब मेरे लिए एक चुनौती थी. इस से पहले कि कंपनी अदालत में जाती मैं उपभोक्ता अदालत में चला गया और कंपनी के नाम नोटिस जारी हो गया. मैं ने संघर्ष करने का मन बना लिया था. खर्च जो हो, परिणाम जो हो.

नियत तारीख पर कंपनी अदालत में उपस्थित नहीं हुई. उस ने समय मांगा.

एक सप्ताह के भीतर कंपनी से फोन आया, ‘‘आप का चैक बन कर तैयार है, इसे ले लें. कुछ देर अवश्य हो गई है, कृपया अन्यथा न लें. आप नहीं आ सकते तो हम चैक आप के घर पर पहुंचा देंगे. जांच का परिणाम कुछ भी हो, कंपनी अपने ग्राहक को सही मानती है.’’

लेखक- सत्य स्वरूप दत्त

Hindi Fiction Stories : पीला गुलाब

Hindi Fiction Stories :  ‘यार, हौट लड़कियां देखते ही मुझे कुछ होने लगता है.’

मेरे पतिदेव थे. फोन पर शायद अपने किसी दोस्त से बातें कर रहे थे. जैसे ही उन्होंने फोन रखा, मैं ने अपनी नाराजगी जताई, ‘‘अब आप शादीशुदा हैं. कुछ तो शर्म कीजए.’’

‘‘यार, यह तो मर्द के ‘जिंस’ में होता है. तुम इस को कैसे बदल दोगी? फिर मैं तो केवल खूबसूरती की तारीफ ही करता हूं. पर डार्लिंग, प्यार तो मैं तुम्हीं से करता हूं,’’ यह कहते हुए उन्होंने मुझे चूम लिया और मैं कमजोर पड़ गई.

एक महीना पहले ही हमारी शादी हुई थी, लेकिन लड़कियों के मामले में इन की ऐसी बातें मुझे बिलकुल अच्छी नहीं लगती थीं. पर ये थे कि ऐसी बातों से बाज ही नहीं आते. हर खूबसूरत लड़की के प्रति ये खिंच जाते हैं. इन की आंखों में जैसे वासना की भूख जाग जाती है.

यहां तक कि हर रोज सुबह के अखबार में छपी हीरोइनों की रंगीन, अधनंगी तसवीरों पर ये अपनी भूखी निगाहें टिका लेते और शुरू हो जाते, ‘क्या ‘हौट फिगर’ है?’, ‘क्या ‘ऐसैट्स’ हैं?’ यार, आजकल लड़कियां ऐसे बदनउघाड़ू कपड़े पहनती हैं, इतना ज्यादा ऐक्सपोज करती हैं कि आदमी बेकाबू हो जाए.’

कभी ये कहते, ‘मुझे तो हरी मिर्च जैसी लड़कियां पसंद हैं. काटो तो मुंह ‘सीसी’ करने लगे.’ कभीकभी ये बोलते, ‘जिस लड़की में सैक्स अपील नहीं, वह ‘बहनजी’ टाइप है. मुझे तो नमकीन लड़कियां पसंद हैं…’

राह चलती लड़कियां देख कर ये कहते, ‘क्या मस्त चीज है.’

कभी किसी लड़की को ‘पटाखा’ कहते, तो कभी किसी को फुलझड़ी. आंखों ही आंखों में लड़कियों को नापतेतोलते रहते. इन की इन्हीं हरकतों की वजह से मैं कई बार गुस्से से भर कर इन्हें झिड़क देती.

मैं यहां तक कह देती, ‘सुधर जाओ, नहीं तो तलाक दे दूंगी.’

इस पर इन का एक ही जवाब होता, ‘डार्लिंग, मैं तो मजाक कर रहा था. तुम भी कितना शक करती हो. थोड़ी तो मुझे खुली हवा में सांस लेने दो, नहीं तो दम घुट जाएगा मेरा.’

एक बार हम कार से डिफैंस कौलोनी के फ्लाईओवर के पास से गुजर रहे थे. वहां एक खूबसूरत लड़की को देख पतिदेव शुरू हो गए, ‘‘दिल्ली की सड़कों पर, जगहजगह मेरे मजार हैं. क्योंकि मैं जहां खूबसूरत लड़कियां देखता हूं, वहीं मर जाता हूं.’’

मेरी तनी भौंहें देखे बिना ही इन्होंने आगे कहा, ‘‘कई साल पहले भी मैं जब यहां से गुजर रहा था, तो एक कमाल की लड़की देखी थी. यह जगह इसीलिए आज तक याद है.’’

मैं ने नाराजगी जताई, तो ये कार का गियर बदल कर मुझ से प्यारमुहब्बत का इजहार करने लगे और मेरा गुस्सा एक बार फिर कमजोर पड़ गया.

लेकिन, हर लड़की पर फिदा हो जाने की इन की आदत से मुझे कोफ्त होने लगी थी. पर हद तो तब पार होने लगी, जब एक बार मैं ने इन्हें हमारी जवान पड़ोसन से फ्लर्ट करते देख लिया. जब मैं ने इन्हें डांटा, तो इन्होंने फिर वही मानमनौव्वल और प्यारमुहब्बत का इजहार कर के मुझे मनाना चाहा, पर मेरा मन इन के प्रति रोजाना खट्टा होता जा रहा था.

धीरेधीरे हालात मेरे लिए सहन नहीं हो रहे थे. हालांकि हमारी शादी को अभी डेढ़दो महीने ही हुए थे, लेकिन पिछले 10-15 दिनों से इन्होंने मेरी देह को छुआ भी नहीं था. पर मेरी शादीशुदा सहेलियां बतातीं कि शादी के शुरू के महीने तक तो मियांबीवी तकरीबन हर रोज ही… मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि आखिर बात क्या थी. इन की अनदेखी मेरा दिल तोड़ रही थी. मैं तिलमिलाती रहती थी.

एक बार आधी रात में मेरी नींद टूट गई, तो इन्हें देख कर मुझे धक्का लगा. ये आईपैड पर पौर्न साइट्स खोल कर बैठे थे और…

‘‘जब मैं यहां मौजूद हूं, तो तुम यह सब क्यों कर रहे हो? क्या मुझ में कोई कमी है? क्या मैं ने तुम्हें कभी ‘न’ कहा है?’’ मैं ने दुखी हो कर पूछा.

‘‘सौरी डार्लिंग, ऐसी बात नहीं है. क्या है कि मैं तुम्हें नींद में डिस्टर्ब नहीं करना चाहता था. एक टैलीविजन प्रोग्राम देख कर बेकाबू हो गया, तो भीतर से इच्छा होने लगी.’’

‘‘अगर मैं भी तुम्हारी तरह इंटरनैट पर पौर्न साइट्स देख कर यह सब करूं, तो तुम्हें कैसा लगेगा?’’

‘‘अरे यार, तुम तो छोटी सी बात का बतंगड़ बना रही हो,’’ ये बोले.

‘‘लेकिन, क्या यह बात इतनी छोटी सी थी?’’

कभीकभी मैं आईने के सामने खड़ी हो कर अपनी देह को हर कोण से देखती. आखिर क्या कमी थी मुझ में कि ये इधरउधर मुंह मारते फिरते थे?

क्या मैं खूबसूरत नहीं थी? मैं अपने सोने से बदन को देखती. अपने हर कटाव और उभार को निहारती. ये तीखे नैननक्श. यह छरहरी काया. ये उठे हुए उभार. केले के नए पत्ते सी यह चिकनी पीठ. डांसरों जैसी यह पतली काया. भंवर जैसी नाभि. इन सब के बावजूद मेरी यह जिंदगी किसी सूखे फव्वारे सी क्यों होती जा रही थी. एक रविवार को मैं घर का सामान खरीदने बाजार गई. तबीयत कुछ ठीक नहीं लग रही थी, इसलिए मैं जरा जल्दी घर लौट आई. घर का बाहरी दरवाजा खुला हुआ था. ड्राइंगरूम में घुसी तो सन्न रह गई. इन्होंने मेरी एक सहेली को अपनी गोद में बैठाया हुआ था.

मुझे देखते ही ये घबरा कर ‘सौरीसौरी’ करने लगे. मेरी आंखें गुस्से और बेइज्जती के आंसुओं से जलने लगीं. मैं चीखना चाहती थी, चिल्लाना चाहती थी. पति नाम के इस प्राणी का मुंह नोच लेना चाहती थी. इसे थप्पड़ मारना चाहती थी. मैं कड़कती बिजली बन कर इस पर गिर जाना चाहती थी. मैं गहराता समुद्र बन कर इसे डुबो देना चाहती थी. मैं धधकती आग बन कर इसे जला देना चाहती थी. मैं हिचकियां लेले कर रोना चाहती थी. मैं पति नाम के इस जीव से बदला लेना चाहती थी. मुझे याद आया, अमेरिका के राष्ट्रपति रह चुके बिल क्लिंटन भी अपनी पत्नी हिलेरी क्लिंटन को धोखा दे कर मोनिका लेविंस्की के साथ मौजमस्ती करते रहे थे, गुलछर्रे उड़ाते रहे थे. क्या सभी मर्द एकजैसे बेवफा होते हैं? क्या पत्नियां छले जाने के लिए ही बनी हैं. मैं सोचती.

रील से निकल आया उलझा धागा बन गई थी मेरी जिंदगी. पति की ओछी हरकतों ने मेरे मन को छलनी कर दिया था. हालांकि इन्होंने इस घटना के लिए माफी भी मांगी थी, फिर मेरे भीतर सब्र का बांध टूट चुका था. मैं इन से बदला लेना चाहती थी और ऐसे समय में राज मेरी जिंदगी में आया. राज पड़ोस में किराएदार था. 6 फुट का गोराचिट्टा नौजवान. जब वह अपनी बांहें मोड़ता था, तो उस के बाजू में मछलियां बनती थीं. नहा कर जब मैं छत पर बाल सुखाने जाती, तो वह मुझे ऐसी निगाहों से ताकता कि मेरे भीतर गुदगुदी होने लगती. धीरेधीरे हमारी बातचीत होने लगी. बातों ही बातों में पता चला कि राज प्रोफैशनल फोटोग्राफर था.

‘‘आप का चेहरा बड़ा फोटोजैनिक है. मौडलिंग क्यों नहीं करती हैं आप?’’ राज मुझे देख कर मुसकराता हुआ कहता.

शुरूशुरू में तो मुझे यह सब अटपटा लगता था, लेकिन देखते ही देखते मैं ने खुद को इस नदी की धारा में बह जाने दिया. पति जब दफ्तर चले जाते, तो मैं राज के साथ उस के स्टूडियो चली जाती. वहां राज ने मेरा पोर्टफोलियो भी बनाया. उस ने बताया कि अच्छी मौडलिंग असाइनमैंट्स लेने के लिए अच्छा पोर्टफोलियो जरूरी था. लेकिन मेरी दिलचस्पी शायद कहीं और ही थी.

‘‘बहुत अच्छे आते हैं आप के फोटोग्राफ्स,’’ उस ने कहा था और मेरे कानों में यह प्यारा सा फिल्मी गीत बजने लगा था :

‘अभी मुझ में कहीं, बाकी थोड़ी सी है जिंदगी…’

मैं कब राज को चाहने लगी, मुझे पता ही नहीं चला. मुझ में उस की बांहों में सो जाने की इच्छा जाग गई. जब मैं उस के करीब होती, तो उस की देहगंध मुझे मदहोश करने लगती. मेरा मन बेकाबू होने लगता. मेरे भीतर हसरतें मचलने लगी थीं. ऐसी हालत में जब उस ने मुझे न्यूड मौडलिंग का औफर दिया, तो मैं ने बिना झिझके हां कह दिया. उस दिन मैं नहाधो कर तैयार हुई. मैं ने खुशबूदार इत्र लगाया. फेसियल, मैनिक्योर, पैडिक्योर, ब्लीचिंग वगैरह मैं एक दिन पहले ही एक अच्छे ब्यूटीपार्लर से करवा चुकी थी. मैं ने अपने सब से सुंदर पर्ल ईयररिंग्स और डायमंड नैकलैस पहना. कलाई में महंगी घड़ी पहनी और सजधज कर मैं राज के स्टूडियो पहुंच गई.

उस दिन राज बला का हैंडसम लग रहा था. गुलाबी कमीज और काली पैंट में वह मानो कहर ढा रहा था.

‘‘हे, यू आर लुकिंग गे्रट,’’ मेरा हाथ अपने हाथों में ले कर वह बोला. यह सुन कर मेरे भीतर मानो सैकड़ों सूरजमुखी खिल उठे.

फोटो सैशन अच्छा रहा. राज के सामने टौपलेस होने में मुझे कोई संकोच नहीं हुआ. मेरी देह को वह एक कलाकार सा निहार रहा था. किंतु मुझे तो कुछ और की ही चाहत थी. फोटो सैशन खत्म होते ही मैं उस की ओर ऐसी खिंची चली गई, जैसे लोहा चुंबक से चिपकता है. मेरा दिल तेजी से धड़क रहा था. मैं ने उस का हाथ पकड़ लिया.

‘‘नहीं नेहा, यह ठीक नहीं. मैं ने तुम्हें कभी उस निगाह से देखा ही नहीं. हमारा रिलेशन प्रोफैशनल है,’’ राज का एकएक शब्द मेरे तनमन पर चाबुक सा पड़ा.

‘…पर मुझे लगा, तुम भी मुझे चाहते हो…’ मैं बुदबुदाई.

‘‘नेहा, मुझे गलत मत समझो. तुम बहुत खूबसूरत हो. पर तुम्हारा मन भी उतना ही खूबसूरत है, लेकिन मेरे लिए तुम केवल एक खूबसूरत मौडल हो. मैं किसी और रिश्ते के लिए तैयार नहीं और फिर पहले से ही मेरी एक गर्लफ्रैंड है, जिस से मैं जल्दी ही शादी करने वाला हूं,’’ राज कह रहा था.

तो क्या वह सिर्फ एकतरफा खिंचाव था या पति से बदला लेने की इच्छा का नतीजा था?

कपड़े पहन कर मैं चलने लगी, तो राज ने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे रोक लिया. उस ने स्टूडियो में रखे गुलदान में से एक पीला गुलाब निकाल लिया था. वह पीला गुलाब मेरे बालों में लगाते हुए बोला, ‘‘नेहा, पीला गुलाब दोस्ती का प्रतीक होता है. हम अच्छे दोस्त बन कर रह सकते हैं.’’

राज की यह बात सुन कर मैं सिहर उठी थी. वह पीला गुलाब बालों में लगाए मैं वापस लौट आई अपनी पुरानी दुनिया में…

उस रात कई महीनों के बाद जब पतिदेव ने मुझे प्यार से चूमा और सुधरने का वादा किया, तो मैं पिघल कर उन के आगोश में समा गई. खिड़की के बाहर रात का आकाश न जाने कैसेकैसे रंग बदल रहा था. ठंडी हवा के झोंके खिड़की में से भीतर कमरे में आ रहे थे. मेरी पूरी देह एक मीठे जोश से भरने लगी. पतिदेव प्यार से मेरा अंगअंग चूम रहे थे. मैं जैसे बहती हुई पहाड़ी नदी बन गई थी. एक मीठी गुदगुदी मुझ में सुख भर रही थी. फिर… केवल खुमारी थी. और उन की छाती के बालों में उंगलियां फेरते हुए मैं कह रही थी, ‘‘मुझे कभी धोखा मत देना.’’ कमरे के कोने में एक मकड़ी अपना टूटा हुआ जाला फिर से बुन रही थी.

इस घटना को बीते कई साल हो गए हैं. इस घटना के कुछ महीने बाद राज भी पड़ोस के किराए का मकान छोड़ कर कहीं और चला गया. मैं राज से उस दिन के बाद फिर कभी नहीं मिली. लेकिन अब भी मैं जब कहीं पीला गुलाब देखती हूं, तो सिहर उठती हूं. एक बार हिम्मत कर के पीला गुलाब अपने जूड़े में लगाना चाहा था, तो मेरे हाथ बुरी तरह कांपने लगे थे.

लेखक- सुशांत सुप्रिय

Interesting Hindi Stories : ख्वाहिश – क्या हट पाया शोभा का ‘बांझ’ होने का ठप्पा

Interesting Hindi Stories :  ट्रिंग… ट्रिंग… फोन की घंटी बज रही थी. घड़ी में देखा, तो रात के साढ़े 12 बजे थे. इतनी रात में किस का फोन हो सकता है. किसी बुरी आशंका से मन कांप उठा. रिसीवर उठाया तो दूसरी ओर से अशोक की भर्राई हुई आवाज थी, “दीदी शोभा शांत हो गई. वह हम सब को छोड़ कर दिव्यलोक को चली गई.”

कुछ पल को मैं ठगी सी बैठी रही. फोन की आवाज से मेरे पति सुनील भी जाग गए थे. मैं ने उन्हें स्थिति से अवगत कराया. हम ने आपस में सलाह की और फिर मैं ने अशोक को फोन मिलाया, “अशोक, हम जल्दी ही सुबह जयपुर पहुंच जाएंगे, हमारा इंतजार करना.”

सुबह 5 बजे हम दोनों अपनी गाड़ी से जयपुर के लिए रवाना हो गए. दिल्ली से जयपुर पहुंचने में 5 घंटे लगते हैं. वैसे भी सुबहसुबह सड़कें खाली थीं. अत: 4 घंटे में ही पहुंच जाने की आशा थी. रास्तेभर शोभा का खयाल आता रहा.

अतीत की यादें चलचित्र की भांति आंखों के आगे घूमने लगीं.

शोभा मेरे छोटे भाई अशोक की पत्नी थी. वह बहुत मृदुभाषी, कार्यकुशल और खुशमिजाज की थी. याद हो आया वह दिन, जब विवाह के बाद वरवधू का स्वागत करने के लिए मां ने पूजा का थाल मेरे हाथ में पकड़ा दिया. वैसे, बड़ी भाभी का हक बनता था वरवधू को गृहप्रवेश करवाने का. किंतु बड़ी भाभी की तबियत ठीक नहीं थी, वह पेट से थीं और डाक्टर ने उन्हें बेडरेस्ट के लिए कहा हुआ था. अत: आरती का थाल सजा कर मैं ने ही वरवधू को गृहप्रवेश कराया था. बनारसी साड़ी में लिपटी हुई सिमटी सी संकुचित सी खड़ी थी.

अशोक ने उसे मेरा परिचय देते हुए कहा, “ये मेरी बड़ी दीदी हैं, मुझ से 10 साल बड़ी हैं, मेरे लिए मां समान हैं.”

दोनों ने मेरे पैर छुए. मैं ने भी दोनों को प्यार से गले लगा लिया. विवाह के बाद की प्रथाएं संपन्न करवा कर मैं वापस दिल्ली लौट आई.
2 महीने बाद भाभी की जुड़वा बच्चियों हुईं, जिन का नाम सिया और जिया रखा गया.

प्रसव के बाद भाभी बहुत कमजोर हो गई थीं. अत: घर का सारा कार्यभार शोभा ने संभाल लिया. उसे बच्चों से बहुत प्यार था. वह बच्चों का खयाल बहुत उत्साहित हो कर रखती थी.

मां सारी रिपोर्ट विस्तार से मुझे फोन पर बतलाया करती थीं. बच्चों के प्रति शोभा का अपनत्व देख कर भाभी को बहुत अच्छा लगता था.

जब सिया और जिया का नर्सरी स्कूल में दाखिला हुआ तो शोभा उन्हें तैयार करने से ले कर उन के जूते पौलिश करती, उन्हें नाश्ता करवा के टिफिन पैक कर के उन के स्कूल बैग में रख देती और टिफिन पूरा खत्म करना है, यह भी हिदायत दे देती थी. कभीकभी उन को होमवर्क करने में भी वह मदद करती थी. घर में सब सुचारू रूप से चल रहा था.
शोभा के विवाह को 4 वर्ष हो गए थे. मां जब भी मुझे फोन करती थीं, उन की बातों में कुछ बेचैनी का आभास होता था. वे दिल की मरीज थीं. मैं ने जोर दे कर उन की बेचैनी का कारण जानना चाहा, तो उन्होंने बताया, “अब अशोक की शादी को 4 साल हो गए हैं. अगर उस को एक बेटा हो जाता तो मैं पोते का मुंह देख कर दुनिया से जाती.

“न जाने कब मुझे बुला लें,” मैं उन्हें सांत्वना देती रहती थी कि धैर्य रखो. सब ठीक हो जाएगा.

मैं ने मां की इच्छा शोभा तक पहुंचा दी तो वह हंस कर बोली, “दीदी आजकल पोता और पोती में कोई फर्क नहीं होता. सिया और जिया भी तो अपनी हैं. वही मेरे बच्चे हैं,” बच्चों के प्रति उस की आत्मीयता मुझे बहुत अच्छी लगी.

जिस बात का डर था, वही हुआ. अचानक मां को दिल का दौरा पड़ा और पोते की चाहत लिए हुए वे इस दुनिया से चल बसीं.

शोभा के विवाह को 6 वर्ष हो चुके थे. मैं ने लक्ष्य किया कि अब उस के मन में संतान की चाह प्रबल हो रही थी. अशोक ने कई डाक्टरों से संपर्क किया. कुछ डाक्टरी जांच भी हुई, किंतु नतीजा संतोषप्रद नहीं था. मेरे आग्रह पर दोनों दिल्ली भी आए. मेरी जानकार डाक्टर ने रिपोर्ट देख कर यही निष्कर्ष निकाला कि शोभा मां नहीं बन सकती.

अशोक ने सब तरह के उपचार किए, चाहे आयुर्वेदिक हो या होमियोपैथी. यहां तक कि कुछ रिश्तेदारों के कहने पर झाड़फूंक का भी सहारा लिया, किंतु निराश ही होना पड़ा. इस का असर शोभा के स्वास्थ्य पर पड़ने लगा.
शोभा प्राय: फोन कर के मुझे इधरउधर की बहुत सी खबरें देती रहती थी. उस ने एक घटना का जिक्र किया कि कुछ दिन पहले उस के किसी दूर के रिश्तेदार के यहां पुत्र जन्म का उत्सव था. वहां अशोक और शोभा के साथसाथ बड़े भैयाभाभी भी आमंत्रित थे. वहां पहुंच कर जब शोभा ने नवागत शिशु को पालने में झूलते देखा तो वह अपने को रोक ना पाई और आगे बढ़ कर बच्चे को गोद में उठा लिया. तभी पीछे से बच्चे की दादी ने उस के हाथ से बच्चे को छीन लिया और अपनी बहू को डांटते हुए कहा, “तेरा ध्यान कहां है? देख नहीं रही बच्चे को बांझ ने उठा लिया है.”

शोभा ने बताया कि बड़ी भाभी भी वहीं खड़ी थीं. यह बात बतलाते समय शोभा की आवाज में पीड़ा झलक रही थी. मेरा मन संवेदना से भर उठा.

आशोभा ने बतलाया कि अब सिया और जिया उस के पास नहीं आती हैं. या यों कहिए कि भाभी उन बच्चों को शोभा के पास नहीं आने देतीं. इस का कारण भी वह समझ गई थी.

बांझपन का एहसास शोभा को अंदर ही अंदर खोखला कर रहा था. मैं अपनी गृहस्थी में बहुत व्यस्त हो गई थी. मेरे दोनों बच्चे विवाह योग्य थे. अगले वर्ष मेरे पति रिटायर होने वाले थे. अतः हम भविष्य की योजनाओं में व्यस्त हो गए थे. कभीकभी मैं शोभा को फोन कर के उन की कुशलक्षेम जान लेती थी.
फिर एक दिन अशोक का फोन आया. बातचीत से लगा कि वह बहुत परेशान है. मैं ने 3-4 दिन के लिए जयपुर का प्रोग्राम बना लिया. फीकी मुसकराहट से शोभा ने स्वागत किया. वह बहुत कमजोर हो गई थी. अशोक उस की स्थिति से बहुत चिंतित हो गया था. मुझे लगा कि ‘बांझ’ शब्द ने उस को भीतर तक आहत कर दिया है. वह बोली, “अब तो सिया और जिया भी मेरे पास नहीं आती.”

मैं ने प्यार से शोभा को अपने पास बैठाया और कहा, “मेरी बात ध्यान से सुनो और समझने की कोशिश करो. मैं चाहती हूं कि तुम किसी नवजात शिशु को गोद ले लो या कुछ अच्छी संस्थाएं हैं, जहां से बच्चे को लिया जा सकता है. ऐसा करने से एक बच्चे का भला हो जाएगा. उसे एक प्यारी मां मिल जाएगी और तुम्हें एक प्यारा बच्चा मिल जाएगा. यह एक नेक कार्य होगा. एक बच्चे का जीवन अच्छा बन जाएगा. तुम चाहो तो इस में मैं तुम्हारी मदद कर सकती हूं.”

लेकिन शोभा ने गंभीरता से उत्तर दिया, “दीदी, मैं अपनी तकदीर तो बदल नहीं सकती. यदि मेरी तकदीर में संतान का सुख लिखा ही नहीं है तो गोद ले कर भी मैं सुखी नहीं रह पाऊंगी,” कुछ रुक कर वह फिर बोली, “दीदी, मैं अपनी कोख से जन्मा बच्चा चाहती हूं, गोद लिया हुआ नहीं.”

वह अपने फैसले पर अडिग थी और मैं उस के फैसले के आगे निरुतर हो गई.

15 दिन बाद अशोक का फोन आया, वह आवाज से बहुत परेशान लग रहा था. उस ने बताया कि शोभा अब अकसर बीमार रहती है. उसे भूख नहीं लगती है और जबरदस्ती कुछ खाती है तो हजम नहीं होता उलटी हो जाती है. मैं ने सलाह दी कि तुरंत डाक्टरी जांच करवाओ. शोभा की तरफ से मुझे चिंता हो गई. अत: अशोक को सहारा देने के मकसद से मैं ने 3-4 दिन का जयपुर जाने का कार्यक्रम बना लिया.

अशोक ने शोभा के सारे टेस्ट करवा लिए थे. मेरे पहुंचने के अगले दिन वह अस्पताल से रिपोर्ट ले आया. वह बहुत उदास था. मेरे पूछने पर उस ने बताया कि शोभा की किडनी में कैंसर है, जो बहुत फैल गया है. अगर एक महीने पहले जांच करवा लेते तो शायद आपरेशन द्वारा किडनी निकाल देते, लेकिन अब तो कैंसर किडनी के बाहर तक फैल गया है. एक और विशेष बात जो डाक्टर ने बतलाई, वह यह कि शोभा प्रेग्नेंट भी है. प्रेगनेंसी की अभी शुरुआत ही है. एक हफ्ते बाद निश्चित तौर पर पता चल पाएगा. अचरज से मेरा मुंह खुला रह गया. समझ नहीं आया कि दुखी होऊं या खुशी मनाऊं.

शोभा ने मेरी और अशोक की बातें सुन ली थीं. वह मुसकराते हुए बोली, “दीदी, अशोक तो यों ही घबरा जाते हैं. मैं सहज में इन का पीछा छोड़ने वाली नहीं हूं और अब तो मुझे जीना ही है. उस की बातें आज भी मेरे कानों में गूंज रही हैं.
बाद में अशोक ने मुझे बतला दिया था कि डाक्टरों के अनुसार गर्भ को गिरा देने में ही बेहतरी है, क्योंकि कैंसर किडनी से बाहर निकल कर फैल रहा है, अगर तुरंत आपरेशन कर के किडनी निकाल भी दें, फिर भी शोभा का जीवन एक वर्ष से अधिक नहीं होगा और अगर गर्भपात नहीं करवाया तो कैंसर के आपरेशन के बाद की थेरेपी से बच्चे पर बुरा असर पड़ सकता है. या तो वह बचेगा ही नहीं और अगर बच भी जाए तो एब्नार्मल भी हो सकता है. अत: डाक्टर की राय में गर्भपात ही उचित होगा.

शोभा ने सबकुछ सुन लिया था. वह खुश नजर आ रही थी. वह बोली, ”दीदी, मुझे यही खुशी है कि अब मुझे कोई बांझ नहीं कहेगा. डाक्टरों का निर्णय ठीक ही है. मेरे जीवन का सूर्य अस्त हो रहा है. मैं बच्चे को देख पाऊंगी या नहीं, पता नहीं. अगर बच्चा बच भी गया और विकलांग हो गया तो और भी दुःख होगा. तसल्ली यही है कि अब मेरे ऊपर से ‘बांझ’ होने का लांछन हट गया. अब मैं शांतिपूर्वक मर सकूंगी.”

सहसा कार एक झटके के साथ रुक गई. सुनील ने ब्रेक मारा था, क्योंकि सामने एक बड़ा सा गड्ढा आ गया था. मेरी विचार श्रृंखला टूट गई. अब हम जयपुर की सीमा में पहुंच गए थे. बाजार के बीच से गुजरते हुए याद आया कि यहां कई बार शोभा के साथ चाट खाने आती थी, फिर खूब शौपिंग कर के हम दोनों शाम तक घर पहुंचते थे. अब तो केवल याद ही बाकी है.

ठीक साढ़े 9 बजे हम घर पहुंच गए. गाड़ी की आवाज सुन कर अशोक बाहर आ गया. सहारा दे कर उस ने गाड़ी से उतारा और मेरे गले से लग कर जोर से रो पड़ा. अंदर पहुंच कर देखा, शोभा का शव भूमि पर रखा था, बड़ी शांत मुख मुद्रा थी जैसे कुछ कहना चाहती हो. मैं अपने को ना रोक सकी और फफक कर रो पड़ी.
वह समाप्त हो गई. 2 दिन बाद बहुत बोझिल मन से हम दोनों वापस लौट आए. रास्तेभर सोचती रही कि समाज के उलाहनों ने शोभा को बहुत चोट पहुंचाई, लेकिन मरने से पहले उसे यह खुशी थी कि वह बांझ नहीं थी, पर बच्चे की ख्वाहिश अधूरी ही रह गई.

लेखिका- पुष्पा गोयल

Hindi Moral Tales : बहिष्कार

Hindi Moral Tales : ‘‘महेश… अब उठ भी जाओ… यूनिवर्सिटी नहीं जाना है क्या?’’ दीपक ने पूछा.

‘‘उठ रहा हूं…’’ इतना कह कर महेश फिर से करवट बदल कर सो गया.

दीपक अखबार को एक तरफ फेंकते हुए तेजी से बढ़ा और महेश को तकरीबन झकझोरते हुए चीख पड़ा, ‘‘यार, तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है… रातभर क्या करते रहते हो…’’

‘‘ठीक है दीपक भाई, आप नाश्ता तैयार करो, तब तक मैं तैयार होता हूं,’’ महेश अंगड़ाई लेता हुआ बोला और जल्दी से बाथरूम की तरफ लपका.

आधा घंटे के अंदर ही दीपक ने नाश्ता तैयार कर लिया. महेश भी फ्रैश हो कर तैयार था.

‘‘यार दीपू, जल्दी से नाश्ता कर के क्लास के लिए चलो.’’

‘‘हां, मेरी वजह से ही देर हो रही है जैसे,’’ दीपक ने तंज मारा.

दीपक की झल्लाहट देख महेश को हंसी आ गई.

‘‘अच्छा ठीक है… कोई खास खबर,’’ महेश ने दीपक की तरफ सवाल उछाला.

दीपक ने कहा, ‘‘अब नेता लोग दलितों के घरों में जा कर भोजन करने लगे हैं.’’

‘‘क्या बोल रहा है यार… क्या यह सच?है…’’

‘‘जी हां, यह बिलकुल सच है,’’ कह कर दीपक लंबी सांस छोड़ते हुए खामोश हो गया, मानो यादों के झरोखों में जाने लगा हो. कमरे में एक अनजानी सी खामोशी पसर गई.

‘‘नाश्ता जल्दी खत्म करो,’’ कह कर महेश ने शांति भंग की.

अब नेताओं के बीच दलितों के घरों में भोजन करने के लिए रिकौर्ड बनाए जाने लगे हैं. वक्तवक्त की बात है. पहले दलितों के घर भोजन करना तो दूर की बात थी, उन को सुबह देखने से ही सारा दिन मनहूस हो जाता था. लेकिन राजनीति बड़ेबड़ों को घुटनों पर झुका देती है.

‘‘भाई, आप को क्या लगता है? क्या वाकई ऐसा हो रहा है या महज दिखावा है? ये सारे हथकंडे सिर्फ हम लोगों को अपनी तरफ जोड़ने के लिए हो रहे हैं, इन्हें दलितों से कोई हमदर्दी नहीं है. अगर हमदर्दी है तो बस वोट के लिए…’’

दीपक महेश को रोकते हुए बोला, ‘‘यार, हमेशा उलटी बातें ही क्यों सोचते हो? अब वक्त बदल रहा है. समाज अब पहले से ज्यादा पढ़ालिखा हो गया है, इसलिए बड़ेबड़े नेता दलितों के यहां जाते हैं, न कि सिर्फ वोट के लिए, समझे?’’

‘‘मैं तो समझ ही रहा हूं, आप क्यों ऐसे नेताओं का पक्ष ले रहे हैं. चुनाव खत्म तो दलितों के यहां खाने का रिवाज भी खत्म. फिर जब वोट की भूख होगी, खुद ही थाली में प्रकट हो जाएंगे, बुलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी.’’

दीपक बात को बीच में काटते हुए बोला, ‘‘सुन महेश, मुझे कल सुबह की ट्रेन से गांव जाना है.’’

‘‘क्यों? अचानक से… कौन सा ऐसा काम पड़ गया, जो कल जाने की बात कर रहा है? घर पर सब ठीक तो हैं न?’’ महेश ने सवाल दागे.

‘‘हां, सब ठीक हैं. बात यह है कि गांव के शर्माजी के यहां तेरहवीं है तो जाना जरूरी है.’’

महेश बोला, ‘‘दीपू, ये वही शर्माजी हैं जो नेतागीरी करते हैं.’’

‘‘सही पकड़े महेश बाबू,’’ मजाकिया अंदाज में दीपू ने हंस कर सिर हिलाया.

अगले दिन दीपक अपने गांव पहुंच गया. उसे देखते ही मां ने गले लगाने के लिए अपने दोनों हाथ बढ़ा दिए.

‘‘मां, पिताजी कहां हैं? वे घर पर दिख नहीं रहे?’’

‘‘अरे, वे तो शर्माजी के यहां काम कराने गए हैं. सुबह के ही निकले हैं. अब तक कोई अतापता नहीं है. क्या पता कुछ खाने को मिला भी है कि नहीं.’’

‘‘अरे अम्मां, क्यों परेशान हो रही हो? पिताजी कोई छोटे बच्चे थोड़ी हैं, जो अभी भूखे होंगे. फिर शर्माजी तो पिताजी को बहुत मानते हैं. अब उन की टैंशन छोड़ो और मेरी फिक्र करो. सुबह से मैं ने कुछ नहीं खाया है.’’

थोड़ी देर बाद मां ने बड़े ही प्यार से दीपक को खाना खिलाया. खाना खा कर थोड़ी देर आराम करने के बाद दीपक भी शर्माजी के यहां पिताजी का हाथ बंटाने के लिए चल पड़ा.

तकरीबन 15 मिनट चलने के बाद गांव के किनारे मैदान में बड़ा सा पंडाल दिख गया, जहां पर तेजी के साथ काम चल रहा था. पास जा कर देखा तो पिताजी मजदूरों को जल्दीजल्दी काम करने का निर्देश दे रहे थे.

तभी पिताजी की नजर दीपक पर पड़ी. दीपक ने जल्दी से पिताजी के पैर छू लिए.

पिताजी ने दीपक से हालचाल पूछा, ‘‘बेटा, पढ़ाई कैसी चल रही है? तुम्हें रहनेखाने की कोई तकलीफ तो नहीं है?’’

दीपक ने कहा, ‘‘बाबूजी, मेरी फिक्र छोडि़ए, यह बताइए कि आप की तबीयत अब कैसी है?’’

‘‘बेटा, मैं बिलकुल ठीक हूं.’’

दीपक ने इधरउधर देख कर पूछा, ‘‘सारा काम हो ही गया है, बस एकडेढ़ घंटे का काम बचा है,’’ इस पर पिता ओमप्रकाश ने हामी भरी. इस के बाद दोनों घर की तरफ चल पड़े.

रात को 8 बजे के बाद दीपक घर आया तो मां ने पूछा, ‘‘दीपू अभी तक कहां था, कब से तेरे बाबूजी इंतजार कर रहे हैं.’’

‘‘अरे मां, अब क्या बताऊं… गोलू के घर की तरफ चला गया था. वहां रमेश, जीतू, राजू भी आ गए तो बातों के आगे वक्त का पता ही नहीं चला.’’

मां बोलीं, ‘‘खैर, कोई बात नहीं. अब जल्दी से शर्माजी के यहां जा कर भोजन कर आ.’’

कुछ ही देर में गोलू के घर पहुंच कर दीपक ने उसे आवाज लगाई.

गोलू जोर से चिल्लाया, ‘‘रुकना भैया, अभी आया. बस, एक मिनट.’’

5 मिनट बाद गोलू हांफता हुआ आया तो दीपक ने कहा, ‘‘क्या यार, मेकअप कर रहा था क्या, जो इतना समय लगा दिया?’’

गोलू सांस छोड़ते हुए बोला, ‘‘दीपू भाई, वह क्या है कि छोटी कटोरी नहीं मिल रही थी. तू तो जानता है कि मुझे रायता कितना पसंद है तो…’’

‘‘पसंद है तो कटोरी का क्या काम है?’’ दीपक ने अचरज से पूछा.

गोलू थोड़ा गंभीर होते हुए बोला, ‘‘दीपक, क्या तुम्हें मालूम नहीं कि हम लोग हमेशा से ही ऊंची जाति वालों के यहां घर से ही अपने बरतन ले कर जाते हैं, तभी खाने को मिलता है.’’

‘‘हां पता है, लेकिन अब ये पुरानी बातें हो गई हैं. अब तो हर पार्टी के बड़ेबड़े नेता भी दलितों के यहां जा कर खाना खाते हैं.’’

गोलू ने बताया, ‘‘ऊंची जाति के लोगों के लिए पूजा और भोजन का इंतजाम बड़े पंडाल में है, ताकि छोटी जाति वालों को पूजापाठ की जगह से दूर बैठा कर खाना खिलाया जा सके, जिस से भगवान और ऊंची जाति वालों का धर्म खराब न हो.

‘‘दलितों को खाना अलग दूर बैठा कर खिलाया ही जाता है, इस पर यह शर्त होती है कि दलित अपने बरतन घरों से लाएं, जिस से उन के जूठे बरतन धोने का पाप ऊंची जाति वालों को न लगे,’’ इतना कहने के बाद गोलू चुप हो गया.

लेकिन दीपक की बांहें फड़कने लगीं, ‘‘आखिर इन लोगों ने हमें समझ क्या रखा है, क्या हम इनसान नहीं हैं.

‘‘सुन गोलू, मैं तो इस बेइज्जती के साथ खाना नहीं खाऊंगा, चाहे जो हो जाए,’’ दीपक की तेज आवाज सुन कर वहां कई लोग जमा होने लगे.

‘‘क्या बात है? क्यों गुस्सा कर रहे हो?’’ एक ने पूछा.

‘‘अरे चाचा, कोई छोटीमोटी बात नहीं है. आखिर हम लोग कब तक ऊंची जातियों के लोगों के जूते को सिर पर रख कर ढोते रहेंगे, क्या हम इनसान नहीं हैं? आखिर कब तक हम उन की जूठन पर जीते रहेंगे?’’

‘‘यह भीड़ यहां पर क्यों इकट्ठा है? यह सब क्या हो रहा है,’’ पिता ओमप्रकाश ने भीड़ को चीरते हुए दीपक से पूछा.

इस से पहले दीपक कुछ बोल पाता, बगल में खड़े चाचाजी बोल पड़े, ‘‘ओम भैया, तुम ने दीपू को कुछ ज्यादा ही पढ़ालिखा दिया है, जो दुनिया उलटने की बात कर रहा है. इसे जरा भी लाज नहीं आई कि जिन के बारे में यह बुराभला कह रहा है, वही हमारे भाग्य विधाता?हैं. अरे, जो कुछ हमारे वेदों और शास्त्रों में लिखा है, वही तो हम लोग कर रहे हैं.’’

‘‘चाचाजी…’’ दीपक चीखा, ‘‘यही तो सब से बड़ी समस्या है, जो आप लोग समझना नहीं चाहते. क्या आप को पता है कि ये ऊंची जाति के लोगों ने खुद ही इस तरह की बातें गढ़ ली हैं. जब कोई बच्चा पैदा होता है तो उस का कोई धर्म या मजहब नहीं होता, वह मां के पेट से कोई मजहब या काम सीख कर नहीं आता.

‘‘सुनिए चाचाजी, जब बच्चे जन्म लेते हैं तो वे सब आजाद होते हैं, लेकिन ये हमारी बदकिस्मती है कि धर्म के ठेकेदार अपने फायदे के लिए लोगों को धर्म के नाम पर, जाति के नाम पर, संप्रदाय के नाम पर, भाषा के नाम पर बांट देते हैं.

‘‘क्या आप लोगों को नहीं पता कि मेरे पिताजी ने मुझे पढ़ाया है. अगर वे भी यह सोच लेते कि दलितशूद्रों का पढ़ना मना है, तो क्या मैं यूनिवर्सिटी में पढ़ रहा होता?

‘‘इसी छुआछूत को मिटाने के लिए कई पढ़ेलिखे जागरूक दलितों ने कितने कष्ट उठाए, अगर वे पढ़ेलिखे नहीं होते तो क्यों उन्हें संविधान बनाने की जिम्मेदारी दी जाती?’’

एक आदमी ने कहा, ‘‘अरे दीपक, तू तो पढ़ालिखा है, मगर हम तो जमाने से यही देखते चले आ रहे हैं कि भोज में बरतन अपने घर से ले कर जाने पड़ते हैं. जैसा चल रहा है वैसा ही चलने दो?’’

‘‘नहीं दादा, हम से यह न होगा, जिसे खाना खिलाना होगा, वह हमें भी अपने साथ इज्जत से खिलाए, वरना हम किसी के खाने के भूखे नहीं हैं. अब बहुत हो गया जुल्म बरदाश्त करतेकरते. मैं इस तरह से खाना नहीं खाऊंगा.’’

दीपक की बातों से गोलू को जोश आ गया. उस ने भी अपने बरतन फेंक दिए. इस से हुआ यह कि गांव के ज्यादातर दलितों ने इस तरह से खाने का बहिष्कार कर दिया.

‘‘शर्माजी, गजब हो गया,’’ एक आदमी बोला.

‘‘क्या हुआ? क्या बात है? सब ठीक तो है?’’

‘‘कुछ ठीक नहीं है. बस्ती के सारे दलित बिना खाना खाए वापस अपने घरों को जा रहे हैं. लेकिन मुझे यह नहीं पता कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं.’’

शर्माजी ने जल्दी से दौड़ लगा दी. दौड़ते हुए ही वे आवाज लगाने लगे, ‘‘अरे क्या हुआ, क्या कोई बात हो गई है, आप लोग रुकिए तो…’’

भीड़ में सन्नाटा छा गया. अब शर्माजी को कोई क्या जवाब दे.

‘‘देखिए शर्माजी…’’ दीपक बोला, ‘‘हम सब आप लोगों की बड़ी इज्जत करते हैं.’’

‘‘अरे दीपक, यह भी कोई कहने की बात है,’’ शर्माजी ने बीच में ही दीपक को टोका.

‘‘बात यह है कि अब से हम लोग इस तरह आप लोगों के यहां किसी भी तरह का भोजन नहीं किया करेंगे, क्योंकि हमारी भी इज्जत है. हम भी आप की तरह इनसान हैं, तो आप हमारे लिए अलग से क्यों कायदेकानून बना रखे हैं?

‘‘जब वोट लेना होता है तो आप लोग ही दलितों के यहां खाने को ले कर होड़ मचाए रहते हैं. जब चुनाव हो जाता है तो दलित फिर से दलित हो जाता है.’’

शर्माजी को कोई जवाब नहीं सूझा. वे चुपचाप अपना सा मुंह लटकाए वहीं खड़े रहे.

Hindi Stories Online : मोको कहां ढूंढे रे बंदे – कौन थी चीकू

Hindi Stories Online : आज फिर कांता ने छुट्टी कर ली थी और वो भी बिना बताए. रसोई से ज़ोर – ज़ोर से बर्तनों का शोर आ रहा था. बेचारे गुस्से के कारण बहुत पिटाई खा रहे थे. पर इस गुस्से के कारण कुछ बर्तनों पर इतनी जम के हाथ पड़ रहा था कि मानो उनका भी  रंग रूप निखर आया हो. वही जैसे फेशियल के बाद चेहरे पर आता है. अरे, “आज मुझे पार्लर भी तो जाना है.” अचानक याद आया. सारा काम जल्दी – जल्दी निपटा  दिया. थकान भी लग रही थी. पर सोचा चलो, वही रिलैक्स हो जाऊंगी. घर का सारा काम निपटा कर मैं पार्लर पहुंच गई.

जब फेशियल हो गया तो पार्लर वाली बोली…….

“दीदी कल देखना, क्या ग्लो आता है.” उफ़….एक तो उसका “दीदी” बोलना और दूसरा अंग्रेजी का “ग्लो” ग्लो~~ वाह!! सच, मन कितना आनंद से भर जाता है. खुश होकर मैंने कुछ टिप उसके हाथ में रख दी, “थैंक यू दीदी” उसने कहा.सच में अपने आप पर बड़ा गर्व महसूस होने लगा, जैसे न जाने कितना महान काम कर दिया हो.घर वापसी के लिए पार्लर का दरवाज़ा खोलते समय सचमुच में एक सेलेब्रिटी वाली फीलिंग आने लगती है. लगता है जैसे बाहर कई सारे फोटोग्राफर और ऑटोग्राफ लेने वाले इंतजार में खड़े होंगे… मैडम, मैडम!हेल्लो.. हेल्लो.. प्लीज़ प्लीज़ एक फोटो. इधर,  इधर, मैडम. ऐसा सोचते ही एक गर्वीली मुस्कुराहट अनायास ही चेहरे पर आ गई.

पर ये क्या? पार्लर से निकलते ही सब्ज़ी वाला भईया दिख गया. उफ़…मेरे ख्यालों की दुनिया जैसे पल भर में गायब हो गई. मुझे देखते ही वो अपने चिरपरिचित अंदाज़ में बोला “हां,…. चाहिए कुछ?” मैं जैसे सपने से जागी.अरे हां,आलू तो खत्म हो ही गए है. परांठे कैसे बनेंगे कल.सन्डे को कुछ स्पेशल तो सबको चाहिए ही. फिर चाहे लंच में छोले चावल बन जाएंगे. टमाटर भी लेे ही लेती हूं. रखे रहेंगे, बिगड़ते थोड़े ही है. कुछ और सब्जियां भी ‘सेफर साइड योजना’ के तहत लेे ली जाती है.अब आती है असली जिम्मेदारी निभाने की बारी..यानी हिसाब लगवाने की बारी “क्या भईया, क्यूं इतनी मंहगी  लगा रहे हो?”
“हमेशा तो आपसे ही लेती हूं.”

“आज क्या कोई पहली बार सब्ज़ी थोड़े खरीद रही हूं आपसे?”
“उधर, बाहर मार्केट में बैठते हो तो कम भाव लगाते हो” “हमारी कॉलोनी में आते ही सबके भाव बढ़ जाते है”अन्तिम डायलॉग बोलते समय थोड़ा फक्र महसूस होता है. देखा हम कितनी पॉश कॉलोनी के वासी है. परन्तु फ्री का धनिया और हरी मिर्च मांगते वक्त मैं अपने वास्तविक रूप में लौट आती.बनावट तो अस्थाई होती है, वास्तविकता ही हमारे साथ स्थाई रूप से रहती है.पर ये हमें शायद बहुत कम या कहिए देर से समझ आता है.

खैर….सब्जी वाले के साथ मोल भाव करने और कुछ एक्स्ट्रा लेने में अपनी कला पर खुद को ही शाबाशी दे डाली, हमेशा की तरह. वरना, घर पर ये सब बताओ तो इन समझदारी की बातों को भला कौन समझता है? उल्टा प्रवचन अलग मिल जाता है पतिदेव से …”क्या तुम भी, यूं दो – चार रुपयों के लिए इन मेहनतकश लोगो से इतना तोल मोल करती हो” इतनी सुबह- सुबह दूर मंडी से तुम्हें ये सब घर बैठे ही मिल जाता है. ये भी तो फ्री होम डिलीवर ही है. हमें तो इनका शुक्रगुज़ार होना चाहिए.

उहं मैंने मन ही मन  मुंह बनाया. अरे, घर चलाना कोई खेल नहीं है. बहुत सारी बातें सोचनी पड़ती है. ये मर्दों के बस की बात नहीं है. अपने और उनके दोनों के ही हिस्से की बातें मैं मन ही मन सोच रही थी.
जब सब्ज़ियां खरीद ली तो याद आया. ओह, हां.. .’ब्रेड और मख्खन भी तो नहीं है और छोटे बेटे ने अपना शैंपू लाने के लिए भी तो कहा था.’ कुछ चिप्स और चॉकलेट भी लेे लूंगी उसके लिए. घर पहुंचते ही  बोलता है “मेरे लिए क्या लाई हो मम्मी?” दुकान पर पहुंची तो कुछ अन्य वस्तुओं पर भी नज़र गई . उन्हें देख कर सोचा..”अच्छा हुआ जो नजर पड़ गई, ये सामान भी तो लगभग खत्म ही होने लगा है.” ये तो बहुत अच्छा हुआ, जो देखकर याद आ गया. वरना फिर से आना पड़ता. सारा सामान लेे कर  थकी – हारी घर पहुंची. रिक्शे वाले से भी थोड़ी बहस हो गई किराए को लेकर. आज तो सारा मूड ही खराब हो गया.

डोरबेल बजाई तो चीकू ने दरवाज़ा खोला और चिल्ला कर बोला… पापा,  “मम्मी आ गई हैं.” “पता नहीं क्यूं ये हमेशा अपने पापा को सावधान होने का संकेत देता है.” जैसे, “मैं नहीं, कोई खतरे की घड़ी आ गई हो.”
हमेशा की तरह मैंने इस बात को नजर अंदाज़ किया.

चीकू बोला ,”मेरे लिए क्या लाई हो मम्मी?” हर बार उसकी यही जिज्ञासा होती. अरे. “हर बार क्यूं पूछते हो?” “मैं कोई विदेश यात्रा से आती हूं.” थकान अब तल्खी में बदल रही थी.

पतिदेव ने शायद इसे महसूस कर लिया था. वे कमरे से बाहर आये और माहौल की नज़ाकत को समझते हुए चिंटू को अंदर जाने का इशारा किया और सामान भीतर लेे जाने के लिए उठाने लगे. फिर अचानक जैसे उन्हें कुछ याद आया. वे  सहानुभूति जताते हुए बोले…अरे,,”तुम तो पार्लर गई थी ना?”
“क्या पार्लर बंद था?” ओह! “लगता है सारा समय घर की खरीदी में ही निकल गया.”

क्या इन्हें मेरा “ग्लो” नजर नहीं आ रहा? बाल भी तो ठीक कराए थे, क्या वो भी दिखाई नहीं पड़  रहे?
एक वो पार्लर वाली है जो बोल रही थी….”दीदी”, “आप अपने पर बिल्कुल ध्यान नहीं दे रही हो” “देखो तो कितनी ड्रायनेस आ गई है हाथों पर और बाल भी कितने हल्के होते जा रहे है” “आप थोड़ा जल्दी जल्दी विजिट किया करे” सच में मेरा कितना ख्याल करती है, और इन्हें देखो, इतना कुछ करवा कर आने के बाद भी पूछ रहे है…”क्या पार्लर नहीं गई?”

हद है. दिनभर की थकान,  सबसे हुई बहस और पति की नज़र का दोष.एक धमाके का रूप ले चुका था. मैंने जोर से पांव पटके और धड़ाम से दरवाज़ा बंद किया और कहा..

“कभी तो मुझ पर ध्यान दीजिए, कभी तो फुरसत निकालिए” “क्या आपको कहीं भी?… कुछ?.. सुंदरता नजर आती है?” मैंने एक – एक शब्द पर ज़ोर देते हुए कहा “हर समय बस, ये अख़बार और टीवी” “क्या बार बार वही न्यूज सुनते रहते हो””घर -बाहर का सारा काम कर करके मेरे चेहरे का ग्लो ही खत्म हो गया” ये देखो, बर्तन मांज – मांज कर मेरे हाथ कितने ड्राई हो गए है”

“ये नाखून तो जैसे सारे ही टूट गए है.” मैं  गुस्से में बोल रही थी. आवाज़ से लग रहा था, बस रो ही पडूंगी, पर उनके सामने रोना अपनी बात को कमज़ोर बनाना था. मैं सीधे अपने कमरे में चली गई. अचानक एक छोटे से प्रश्न पर इतना भड़क जाना? उनकी कुछ समझ नहीं आ रहा था. पतिदेव ज्यादा बहस के मूड में नहीं  थे. चुपचाप सारा सामान रसोई में रख अख़बार उठा कर पढ़ने लगे.

कुछ देर बाद मैंने अपने कमरे का दरवाज़ा खोला. देखा रसोई में कुछ खुसुर – पुसुर हो रही थी.
चीकू की आवाज़ आ रही थी….”पापा आज बाहर से कुछ मंगवा  ले?”और पतिदेव बोल रहे थे..”यार चीकू मैगी ही बना लेते है.” “अब, मम्मी से कौन पता करे कि उन्हें क्या खाना है?”

अब मुझे अपने आप पर भी गुस्सा आने. आखिर इतना बवाल करने की क्या जरूरत थी.
मैंने रसोई में जाकर बिना प्यास के पानी पिया. बस टोह लेने के लिए कि क्या चल रहा है. फिर सपाट और संयमित स्वर में पूछा..”क्या खाओगे?” दोनों एक साथ बोल उठे…”खिचड़ी”

“ये तो कमाल हो गया, यार चीकू ” पापा ने बड़ी प्रशंसा भरी नज़रों से चीकू को शाबाशी दी और चीकू ने भी अपनी आंखे झपकाकर पापा को “टू गुड” कहा.  “वाह!”

“इतनी अंडरस्टैंडिंग” सच में कमाल ही है. जो खिचड़ी के नाम से ही बिदकते हो आज खुद खिचड़ी खाने के लिए कह रहे हैं. जो मैं अपनी थकान की स्थिति के विकल्प रूप में बनाती हूं. मैं मन ही मन मुस्कुराई पर स्वयं की प्रतिष्ठा के मद्देनजर चेहरा संजीदा ही बनाए रखा.

अब वे दोनों चुपचाप रसोई से बाहर निकल कर टेबल लगाने लगे. खाने के बाद के सारे काम निपटा कर जब मैं चीकू के कमरे में गई तो वो सो चुका था. आज इसे अकारण ही डांट दिया. बहुत बुरा लग रहा था. कॉमिक्स उसके हाथ से निकाल कर हौले से उसके बालों को सहलाया. बत्ती बंद कर  मैंने अपने कमरे की ओर रुख किया.

आश्चर्य है आज उनके हाथ में न अख़बार था न मोबाइल मुझे देख कर वे थोड़ा मुस्कराए मुझे थोड़ा अटपटा लगा. पता नहीं क्या बात है? मैं उनकी ओर पीठ घुमाकर  अपने ड्राई हाथों पर क्रीम मलने लगी. आज थोड़ी ज्यादा देर तक हाथों को क्रीम मलती रही. शायद उनके बुलाने का इंतजार कर रही थी. सोचे जा रही थी…”इतना धैर्य भी भला किस काम का? जो बोलने में भी इतना समय लगे.” मन में बोले गए वाक्य के पूरा होने की देर थी कि आवाज़ आई…”आओ!” “तुम्हें कुछ दिखाना है” ये हो क्या रहा है? शाम के खाने से लेकर अभी तक आश्चर्य ही आश्चर्य इतने आश्चर्य वाली धाराएं तो पहले कभी नहीं देखी.

मैं बिना कुछ कहे बैठ गई..वे अलमारी से एक बड़ा सा लिफाफा निकाल रहे थे. मैं सोच रहीं थीं, अभी न तो मेरा जन्मदिन है, न शादी की सालगिरह. फिर तोहफे लेने देने वाली परंपरा भी तो ज़रा कम ही है हमारे बीच.उन्होंने वो बड़ा सा लिफाफा मेरे सामने रख दिया. “ये क्या?”  “लिफाफा तो पुराना सा दिख रहा है” मुझे कुछ अजीब लगा.

मैंने धीरे से पूछा… .. ….”क्या है इसमें ?”
“आज तुम पार्लर से आकर पूछ रही थी ना…. कि क्या मुझे  कहीं भी, किसी भी रूप में कुछ सुंदरता दिखाई देती है?” “ये वही सुंदरता वाला लिफाफा है.” वे एकदम शांत और संयत आवाज़ में बोले.

अब तो सच में, मैं आश्चर्य के समुद्र में गोते लगाने लगी. देखो, अनु, “सुंदरता की सबकी अपनी परिभाषा होती है.” “सुंदरता देखने का सबका अपना अलग – अलग नज़रिया होता है.”

“किसी को तन की सुंदरता मोहित करती है, तो किसी को मन की, कोई स्वभाव की सुंदरता देखता है तो कोई भाषा की.” “कोई  प्रकृति की सुंदरता में खो जाता है, तो किसी को खेत – खलिहान में काम करने वाले उन मेहनतकश मजदूर और उन पर लगी उस माटी की सुंदरता मोहित करती है.” “कोई रसोई में खाना बनाती उस गृहिणी और उसके माथे पर आने वालेे पसीने की बूंदों में सुंदरता देखता है, जिसमें परिवार के लिए स्नेह झलकता है, जो मैं तुममें भी अक्सर देखता हूं.” “मुझे तुम्हारा वो ग्लो ज्यादा अच्छा लगता है, तो इसमें मेरा क्या कसूर है?” वे बोलते जा रहे थे. मैं अपना सिर नीचे किए बस उन्हें सुन रही थी. आंखों में आंसू डबडबाने लगे थे.

तभी लिफाफे के खुलने की आवाज़ मेरे कानों में पड़ी. “ये देखो.” मैंने पनीली आंखों से देखा….”ये मां की बरसों पुरानी तस्वीर है.” मैंने देखा सासू मां की उस ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीर को … एक सादी सी सुती साड़ी पहने, माथे पर बड़ी सी बिंदी, बालों की एक लंबी ढीली सी चोटी.इतनी सादगी और कितनी सुंदर. मैं मोहित हो कर देखने लगी. सचमुच सुंदर.

फिर निकली एक बड़ी सी राखी जो बचपन में बहन ने बांधी थी. उस समय वो कलाई से भी काफी बड़ी रही होगी. मुझे अपने भाई की याद गई वो भी तो ऐसी ही बड़ी सी राखी बंधवाता था और फिर सारे मोहल्ले को दिखता था. उसे याद कर मैं धीरे से हंस पड़ी.

फिर निकली एक पुरानी सी कैसेट जिसमें मेरी नानी के गाए भजन और उनके साथ की गई बातचीत की पर्ची लगी हुई थी.

पिताजी जी के साथ देखी गई फिल्म का पोस्टर. सचमुच कमाल. हमारी पहली यात्रा के टिकिट, चीकू की पहली पेंटिंग वाला कागज़. सारी चीजे इतने जतन से संभाली हुई.

अब तो मेरी बहुत कोशिश से रोकी हुई रुलाई फूट पड़ी. “देखो अनु,” “मैं तुम्हारा दिल दुखना हरगिज़ नहीं चाहता.” “पार्लर जाना कोई बुरी बात नहीं है.” “न ही मैंने तुम्हें कभी रोका है.”

“अपने आप को अच्छा रखना और लगना कोई गुनाह नहीं है.” “दरसअल, हमें जो अच्छा लगता है, हम चाहते है सामने वाले को भी वो, उसी रूप में अच्छा लगे और वो उसकी तारीफ करे,पर ऐसा हर बार जरूरी तो नहीं.”

“उसकी अपनी सोच हमसे अलग भी तो हो सकती है.” “मुझे लगता है, जब हम सुंदरता का कोई रूप देख कर खुश होते है,तो आपकी आंतरिक खुशी  चेहरे पर अपने आप आ जाती है.”

उस खुशी से चेहरा दमकने लगता है. शायद तभी चेहरे को दर्पण कहा   जाता है. बिना बोले ही कितनी बातें कह जाता है. “मेरा अपना सुंदरता का क्या नज़रिया है, वो मैंने तुम्हें बता दिया.”

“मेरा तुम्हारा मन दुखाने का कभी भी कोई मकसद नहीं होता.”  एक गहरे निःश्वास के साथ वे चुप हो गए. उस दिन मैं एक नए संवेदनशील इंसान से मिली.अब मेरी आंखों में खुशी के आंसू झिलमिला रहे थे. सुंदरता की ऐसी परिभाषा तो शायद मैंने पहले कभी सोची ही नहीं.आज कुछ अलग सा महसूस किया था. सच,एक नया अर्थ समझ आया था.

मुझे लगा जैसे आज संवेदनाओं की कितनी उलझने सुलझ गई थी. दूर बादलों की ओट से चांद बाहर निकल रहा था. ठीक मेरे मन की तरह. शिकवे- शिकायतों के सारे काले बादल शांत, श्वेत चांदनी में बदल गए थे. खिड़की से झांकती चांदनी मुस्कुरा रही थी.

हम दोनों खामोश थे.बस आंखें बोल रही थी. मैंने उनकी ओर देखा और  झूठ – मूठ का गुस्सा दिखाते हुए कहा… चलिए, “अब सो जाइए. कल सुबह मुझे आलू के परांठे भी बनाने है.” “वाकई. तुम्हारे आलू परांठे होते बहुत सुंदर है.” पतिदेव एक शरारती मुस्कान लिए बोले. देखा नहीं? “उन्हें देखते ही मेरे और चीकू के चेहरे पर कितना “ग्लो”~~ आ जाता है.” हम दोनों खिलखिला कर हंस पड़े.

Moral Stories in Hindi : प्यार का पौधा – तीसरे देश की धरती पर

Moral Stories in Hindi :  भारत के बिहार के रहने वाले अजय और पाकिस्तान के लाहौर के रहने वाले जहीर ने अपनी 30 साल से चली आ रही दोस्ती को रिश्ते में बदलने के उपलक्ष्य में अमेरिका के न्यू जर्सी के एक बड़े होटल में दावत का आयोजन किया था.

एक ओर भव्य मुगल लिबास में सजे अजय उन की पत्नी जया व फूलों का सेहरा पहन दूल्हा बने उन के बेटे अमित पाकिस्तान की तहजीब से रुबरू हो रहे थे तो दूसरी तरफ सिल्क का कुरता, अबरक लगी पीली धोती पहने जहीर, सीधे पल्ला किए पीली बनारसी साड़ी में उन की बेगम जीनत गजब ढा रही थीं. आंखों को चौंधियाते सोने के तारों व मोतियों वाला सुर्ख लाल लहंगा, चुन्नी व नयनाभिराम आभूषणों में दिपदिपाती हुई उन की लाड़ली आसमा चांदसितारों को शरमा रही थी.

मोगरा के फूलों में लिपटे हुए उस के बाल, जड़ाऊं मांगटीका से चमकता माथा व उस की मांग में पीला सिंदूर दिपदिपा रहा था. कान के ऊपर लटकता मोतियों की लडि़योंवाले झिलमिलाते झूमर से चांदनी बिखर रही थी. दोनों परिवार एकदूसरे की इच्छाओं का मानसम्मान रखते हुए अपनेअपने देश की गंगायमुनी संस्कृति का मिलन कर के अपनी दोस्ती की मिसाल पेश कर रहे थे.

उन की प्यारभरी दोस्ती की शुरुआत बड़े अजीबोगरीब ढंग से हुई थी. अजय को भारत से आए अभी हफ्ता भी नहीं हुआ था कि रोड दुर्घटना में वे अपना हाथपैर तुड़वा बैठे थे और 2 वर्षों पहले ही लाहौर, पाकिस्तान से आए हुए जहीर, जो अजय के अपार्टमैंट में ही रहते थे, ने पलक झपकते ही उन की सारी जिम्मेदारियों को उठा कर आपसी भाईचारे का अनोखा संदेश दिया था.

भयानक घटना कुछ ऐसे घटी थी. अजय ने गाड़ी चलाना नईनई ही सीखी थी. उसी महीने तो 2 बार कोशिश करने के बाद उन्होंने जैसेतैसे ड्राइविंग टैस्ट पास किया था. ज्यादातर लोग पैरेलल पार्किंग कर नहीं पाते और टैस्ट में असफल हो जाते हैं.

अमेरिका में ड्राइविंग लाइसैंस देने की प्रक्रिया जटिल होने के साथ ईमानदारी पर आधारित रहती है. जब तक भरपूर कुशलता नहीं आती, लाइसैंस मिलने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता है. लाइसैंस मिलने के बाद उन्होंने लोन पर सैकंडहैंड गाड़ी खरीदी. हफ्ताभर भी तो नहीं हुआ था उन्हें गाड़ी चलाते हुए कि औफिस जाते समय ऐक्सिडैंट कर बैठे. वो तो आननफानन घटनास्थल पर पुलिस पहुंच गई थी और लहूलुहान व बेहोश अजय को न्यू जर्सी के रौबर्ट वुड हौस्पिटल में पहुंचाते हुए उन के औफिस और घर पर सूचित करने के लिए स्वयं पहुंच गई. पुलिस ने ही उन की पत्नी को हौस्पिटल भी पहुंचाया.

अमेरिकी पुलिस की यह बहुत बड़ी विशेषता है कि वहां पर रहते हर व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के मदद करने के लिए वह तत्पर रहती है. वहां जिस का कोई अपना नहीं होता, पुलिस उस की देखरेख किसी अपने से बढ़ कर करती है.

हौस्पिटल में अजय की पत्नी जया अकेली, असहाय सी खड़ी आंसू बहा रही थी. नया देश, नए लोग किस से अपना दुख बांटे. वह असमंजस में थी. इंडिया में मायके व ससुराल दोनों की आर्थिक अवस्था इतनी भी मजबूत नहीं कि वहां से कोई यहां आ कर उस की असहायता के इस गहन अंधेरे को साझा कर ले. चारों ओर दुख का उफनता सागर था, जिस का कहीं दूर तक किनारा जया को नजर नहीं आ रहा था.

बहते हुए आंसुओं पर काबू पाते हुए वह अपना आत्मबल संजोने की चेष्टा कर तो रही थी पर सफल नहीं हो पा रही थी. दुर्घटना की खबर पाते ही वे सब परेशान हो जाएंगे. किसी न किसी तरह इस आपत्ति को वह खुद ही झेलने का साहस प्राप्त करेगी. दृढ़ निश्चय की आभा से वह भर उठी. इंश्योरैंस वाले हौस्टिपल का खर्च उठा ही रहे हैं. आगे कोई न कोई राह निकल ही आएगी, ऐसा सोच कर जया के मन को शक्ति मिली.

औपरेशन थिएटर से अजय को केबिन में शिफ्ट कर दिया गया था. लेकिन अभी भी उन पर एनेस्थीसिया का असर था. थकान और परेशानी के कारण जया को झपकी आ गई थी. दरवाजा खुलने की आहट से अचानक उस की पलकें खुल गईं और उस के बाद उस ने जो कुछ भी देखा, अविश्वसनीय था.

जहीर दंपती घबराए हुए अंदर आए और जया से मुखातिब हुए कि उस ने उन्हें इस दुर्घटना की जानकारी क्यों नहीं दी. जवाब में जया सिर झुकाए रही. वे जया की जरूरत के सारे सामान लेते आए थे. उस दिन से दोनों पतिपत्नी अजय के घर लौटने तक जया की हर जरूरत की पूर्ति, चेहरे पर रत्तीभर शिकन लाए बिना करते रहे. इस तरह अजय के उस नाजुक वक्त में जहीर ने शारीरिक व आर्थिक रूप से, अपने किसी भी देशवासी से बढ़ कर, उन्हें सहारा दिया था.

आने वाले दिनों में दोनों की दोस्ती गाढ़ी होती गई. अमित के जन्म के समय एक बार फिर वे सारे रिश्तों के पर्याय बन गए थे. गर्भावस्था के नाजुक पलों को जीनत बेगम ने किसी अपने से बढ़ कर महीनों सांझा किया. घर से ले कर हौस्पिटल तक का भार अपने कंधे पर उठा कर अजय को बेहिसाब तसल्ली दी. अमित का बचपन दोनों परिवारों के लिए खिलौना बना रहा.

2 वर्षों बाद ही आसमा पैदा हुई. अजय और जया ने भी उन नाजुक पलों की जिम्मेदारियों को सहर्ष निभाया. अपनी ओर से कोई कमी नहीं छोड़ी. अमित और आसमा दोनों साथ खेलते हुए बड़े हुए. एक ही स्कूल में उन दोनों ने पढ़ाई की. उन दोनों की नोकझोंक पर दोनों परिवार न्योछावर होते रहे. कहीं कोई दुराव नहीं था. घर अलग थे पर अपनी बेशुमार मोहब्बत से दीवार को उन्होंने पारदर्शी बना लिया था. दोनों परिवारों की दोस्ती सभी के लिए मिसाल बन गई थी.

कहते हैं जब प्यार का सवेरा शाम के सुरमई अंधेरे को गले लगा लेता है तो समय का पंख भी गतिशील हो जाता है. ग्रीनकार्ड मिलते ही दोनों परिवार सभी तरह से सुव्यवस्थित हो गए थे. कुछ वर्षों बाद ही उन्हें वोट देने का अधिकार मिल गया और वे अब वहां के नागरिक थे.

खुशियों की चांदनी में वे भीग रहे थे कि दुनिया का सब से बड़ा प्रभुत्वशाली देश अमेरिका का कुछ हिस्सा आतंकवाद के काले धुएं में समा गया. 2001 के

11 सितंबर, मंगलवार को न्यूयौर्क के वर्ल्ड ट्रेड सैंटर और पैंटागन पर हुए आतंकी हमले ने पूरे विश्व को सहमा कर रख दिया. कितने लोगों की जानें गईं. धनसंपत्ति का बड़ा भारी नुकसान हुआ. वर्ल्ड टे्रड सैंटर की इमारत का ध्वस्त होना पूरी दुनिया की आर्थिक स्थिति को चरमरा गया. इस हमले के पीछे मुसलिम हैं, इस की जानकारी पाते ही अमेरिका में रह रहे मुसलिमों पर आफत आ गई. अमेरिकियों के निशाने पर सारे दाढ़ी रखने वाले आ गए थे.

दाढ़ी वालों पर होते जुल्मोंसितम से जहीर व उन के परिवार को अजय ने अपनी जान पर खेल कर बचाया.

समय के साथ दुख के बादल छंट तो गए पर जहीर की नौकरी जाती रही. दोनों हिस्सों की ठंड को बांटते हुए अजय ने अपने हिस्से की धूप भी उन पर बिखरा दी, जिस की ताप को जहीर ने कभी कम नहीं होने दिया. सबकुछ सामान्य होते ही जहीर की बहाली भी हो गई और एक बार फिर से खुशियां उन के दरवाजे पर दस्तक देने लगीं.

स्कूल की पढ़ाई पूरी कर के अमित और आसमा दोनों आगे की पढ़ाई करने के लिए घर से दूर चले गए. अमित ने कंप्यूटर साइंस की पढ़ाई की तो आसमा ने मैडिकल पढ़ाई की लंबी दूरियां तय कर लीं. जीवन में सुख ही सुख की लाली थी जो पलक झपकते ही दुखों की कालिमा को निगल लिया करती थी. परम संतुष्टि के भाव में विभोर थे दोनों परिवार. अमित और आसमा ने एक लंबा समय साथ बिताया था.

बचपन की चुहलबाजियों ने धीरेधीरे प्यार के नशीले रूप को धारण कर लिया था. इस का अंदाजा उन्हें उस समय हुआ जब वे आगे की पढ़ाई करने के लिए घर से दूर जा रहे थे. धर्म और जाति की दीवारों में उन का प्यार कभी दफन नहीं होगा, इस का उन्हें भरपूर अंदाजा था और वे सभी तरह से आश्वस्त हो कर अपनी मंजिल हासिल करने की होड़ में शामिल हो गए.

उन के प्यार से अनजान उन के मातापिता कुछ ऐसे ही खूबसूरत बंधन के लिए आतुर थे. उन्हें इस का जरा सा भी अंदाजा नहीं था. दोनों के पेरैंट्स को जब उन के प्यार के बारे में पता चला तो उन्हें ऐसा महसूस हुआ मानो अटलांटिक महासागर में ही अनहोनी को होनी करते हुए प्यार के हजारों कमल खिल गए हों.

इस तरह हर ओर से जीवन की हर धूपछांव को बांटते हुए उन्होंने अपनी औलादों को आज सब से खूबसूरत रेशमी रिश्तों में बांध दिया था. वर्षों से चली आ रही अपनी दोस्ती पर खूबसूरत रिश्ते की मुहर लगा दी थी. बधाइयां देने वालों का तांता लगा था. यह दिलकश नजारा था गोली, बारूद की ढेर पर बैठे, निर्दोषोें की लाशों से अपनी सीमाओं को पाट कर रख देने वाले 2 देश हिंदुस्तान व पाकिस्तान की सरहदों के नुकीले तारों से क्षतविक्षत हुए दिल के तारों के किसी तीसरे देश की धरती पर मिलन का.

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